अंतर्राष्ट्रीय कर सहयोग की विफलता न्यूयॉर्क – दुनिया की अधिकतर सरकारें कराधान के मामलों में सहयोग करने में रुचि रखती हैं क्योंकि वे विकास के वित्तपोषण के लिए अधिक कर राजस्व जुटाने और ऐसी व्यापक कर-वंचन योजनाओं पर अंकुश लगाने के लिए उत्सुक हैं जिनका पिछले वर्ष तथाकथित लक्ज़मबर्ग लीक कांड में खुलासा हुआ था। फिर भी पिछले महीने अदीस अबाबा में आयोजित विकास के लिए वित्तपोषण पर तीसरे अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन में, अंतर्राष्ट्रीय कर सहयोग ��ो मजबूत करने की गति में अचानक अवरोध आ गया था। विकसित देशों ने इस सम्मेलन में संयुक्त राष्ट्र की विशेषज्ञों की मौजूदा समिति के स्थान पर संयुक्त राष्ट्र के भीतर एक अंतर-सरकारी कर निकाय की स्थापना करने के एक प्रस्ताव को रोक दिया। ये देश इस बात पर जोर देते हैं कि कर सहयोग के मामले पर अनन्य रूप से ओईसीडी के नेतृत्व में विचार किया जाना चाहिए, जो एक ऐसा निकाय है जिसका नियंत्रण उनके हाथ में है। दुनिया के बाकी देशों को यह आशा करनी चाहिए कि 13 साल पहले मॉन्टेरी, मेक्सिको में विकास के लिए वित्तपोषण पर पहले अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन में जिस अंतर्राष्ट्रीय कर सहयोग की शुरूआत हुई थी, इससे उसकी प्रगति का अंत नहीं होगा बल्कि इसमें एक ठहराव आएगा। दो वर्ष बाद, 2004 में, संयुक्त राष्ट्र आर्थिक और सामाजिक परिषद (ECOSOC) ने कर विशेषज्ञों के अपने "तदर्थ समूह" को एक नियमित समिति के रूप में उन्नत किया। इसका अर्थ यह था कि विशेषज्ञ नियमित रूप से मिलेंगे और वे एक विस्तारित अधिदेश के अंतर्गत कार्य करेंगे जिसका कार्यक्षेत्र मॉडल दोहरे-कराधान की संधि को अद्यतन करने मात्र से बहुत अधिक बढ़ गया था। चार वर्ष बाद, दोहा, कतर में विकास के लिए वित्तपोषण पर दूसरे सम्मेलन में, नीति निर्माताओं ने यह स्वीकार किया कि कर संबंधी मामलों में अभी और अधिक किया जाना जरूरी है, और उन्होंने ECOSOC से अनुरोध किया कि वह संस्थागत व्यवस्थाओं को मजबूत करने पर विचार करे। और उसके बाद, अदीस अबाबा सम्मेलन के वर्ष में, संयुक्त राष्ट्र के महासचिव ने "संयुक्त राष्ट्र के तत्वावधान में, कर सहयोग पर एक अंतर-सरकारी समिति" की आवश्यकता का समर्थन किया। उनके समर्थन, गैर-सरकारी संगठनों और अंतर्राष्ट्रीय कॉर्पोरेट कराधान के सुधार के लिए स्वतंत्र आयोग का भारी समर्थन मिलने से 77 देशों के समूह और चीन के इर्द-गिर्द संगठित विकासशील देशों की इस मांग को और अधिक बल मिला कि वैश्विक कर मानदंड स्थापित करने के मामले में उन्हें भी अपनी राय प्रकट करने का समान अधिकार मिलना चाहिए। अदीस अबाबा में वार्ता के अंतिम क्षणों तक वे एक ऐसे अंतर-सरकारी निकाय की मांग पर डटे रहे जिसके पास अंतर्राष्ट्रीय कर सहयोग के लिए सुसंगत वैश्विक ढांचा बनाने के लिए अधिदेश और संसाधन हों। लेकिन इसका कोई लाभ नहीं हुआ: संयुक्त राज्य अमेरिका और यूनाइटेड किंगडम - जो "लक्स लीक" में फंसे कई बहुराष्ट्रीय निगमों का मूल-स्थान है - के नेतृत्व में विकसित देश वैश्विक शासन में इस बहुप्रतीक्षित कदम को रोकने में सफल रहे। अंत में, अदीस अबाबा की कार्रवाई के एजेंडा के अनुसार विशेषज्ञों की वर्तमान समिति अपने 2004 के अधिदेश के अनुसार कार्य करती रहेगी, प्रति वर्ष तीन अतिरिक्त बैठक दिवस होंगे, ये सभी स्वैच्छिक योगदान के माध्यम से वित्तपोषित होंगे। यह अत्यधिक निराशाजनक परिणाम है। विकसित देशों के पास तर्क तो है - लेकिन कोई ठोस तर्क नहीं है। ओईसीडी, जिसके सदस्य मुख्य रूप से दुनिया के 34 सबसे अमीर देश हैं, के पास निश्चित रूप से कराधान पर अंतर्राष्ट्रीय मानक स्थापित करने की क्षमता है। फिर भी कर मानदंडों के मामले में कुछ देशों के एक चयनित समूह का वर्चस्व होने का मतलब यह रहा है कि वास्तव में, कराधान के लिए वैश्विक शासन का ढाँचा भूमंडलीकरण के साथ तालमेल नहीं रख पाया है। 2002 में हुई मॉन्टेरी आम सहमति में अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक निर्णय लेने और मानदंड स्थापित करने में विकासशील देशों की राय सुने जाने और उनकी भागीदारी को बढ़ाने की मांग को शामिल किया गया था। हालांकि ओईसीडी मानदंडों को स्थापित करने के लिए अपने विचार-विमर्शों में भाग लेने के लिए कुछ विकासशील देशों को आमंत्रित तो करता है लेकिन यह उन्हें निर्णय लेने की कोई शक्ति प्रदान नहीं करता है। इस प्रकार ओईसीडी वैश्विक स्तर पर प्रतिनिधित्व करनेवाले एक अंतर-सरकारी मंच के लिए किराए की एक कमजोर कोख के रूप में है। इस तरह के निकाय का संचालन संयुक्त राष्ट्र के तत्वावधान में किया जाना चाहिए जिसके पास वैश्वीकरण की चुनौतियों के लिए सुसंगत वैश्विक मानकों के साथ प्रभावी ढंग से प्रतिक्रिया करने के लिए आवश्यक संस्थागत औचित्य उपलब्ध हो, ताकि अपमानजनक कर प्रथाओं का विरोध किया जा सके और विश्व भर में कंपनियों के लाभों पर उचित कराधान सुनिश्चित किया जा सके। अदीस अबाबा में हुई निराशा के बावजूद, अंतर्राष्ट्रीय कर प्रणाली में सुधार के लिए मांग को दबा पाने की संभावना नहीं है। इसके बजाय, यह मांग चहुँ ओर अधिक जोर से बढ़ेगी, क्योंकि अंतर्राष्ट्रीय सहयोग के मामले में किसी प्रकार के समझौते के बारे में विकसित देशों के प्रतिकूल प्रतिरोध का परिणाम ऐसे एकतरफा कर उपायों की सुनामी के रूप में होगा जो ओईसीडी के नियंत्रण से बाहर होंगे। समलैंगिक होने की विकास लागत लंदन – नाइजीरिया में रहने वाले समलैंगिक व्यक्ति के रूप में, मेरी सबसे बड़ी चुनौती थी, अपनी लिंगीयता और अपने कार्य में से किसी एक का चयन करना। 2004 में, मैंने अपने अभिनय कैरियर की शुरूआत की थी। मैंने अभी-अभी विश्वविद्यालय छोड़ा था, और मुझे नाइजीरिया के एक सबसे अधिक लोकप्रिय टीवी स्टेशन, गैलेक्सी टेलीविज़न पर प्राइम टाइम धारावाहिक "रोज़ेज़ एंड थॉर्न्स" में मुख्य पात्र के रूप में प्रस्तुत किया गया था। मैं एक अमीर परिवार के इकलौते बेटे "रिचर्ड" की भूमिका निभा रहा था, जिसका घर की नौकरानी के साथ प्रेम-प्रसंग चल रहा था। तभी मेरे निजी जीवन के बारे में कानाफूसी होनी शुरू हो गई, और मैंने फ़ैसला कर लिया कि अब इससे बाहर आने का समय आ गया है। इसलिए अपनी लिंगीयता के बारे में चर्चा करने के लिए मैं नाइजीरिया के सबसे ज़्यादा देखे जाने वाले टीवी वार्ता शो पर जाने के लिए राजी हो गया। लगभग तुरंत ही, धारावाहिक से मेरे पात्र को हटा दिया गया। और मेरा कार्य ख़त्म होते ही, मेरी वित्तीय सुरक्षा भी ख़त्म हो गई। अफ़्रीका में अनेक समलैंगिक पुरुषों और महिलाओं की तरह, मुझे आर्थिक स्वतंत्रता और मानसिक कारावास में से किसी एक को चुनना था। इस साल, नाइजीरिया और युगांडा ने समलैंगिकता-विरोधी कठोर क़ानून बनाया है, जिससे दुनिया भर में मानव अधिकारों के बारे में बहस छिड़ गई है। यह बहस विश्व बैंक में भी शुरू हो गई है, जिसके अध्यक्ष, जिम योंग किम ने हाल ही में घोषित किया कि "सुनियोजित भेदभाव लोगों और समाज के लिए ख़राब है।" किम के इस वक्तव्य की आलोचना हुई है और इससे विवाद पैदा हुआ है। अकसर, जैसा कि युगांडा और नाइजीरिया में होता है, हम इस दावे के बारे में सुनते हैं कि समलिंगी, उभयलिंगी, और विपरीत लिंगी (LGBT) लोगों के ख़िलाफ़ सरकारी स्तर पर भेदभाव का विरोध बस अफ़्रीका पर "पश्चिमी" मूल्य थोपने का तरीका मात्र है। लेकिन इसमें यह मान लिया जाता है कि समलैंगिकता "गैर-अफ़्रीकी" है। और, इस बात का सबूत न होने के बावजूद कि किसी देश विशेष या महाद्वीप में LGBT लोग नहीं हैं (और इसके विपरीत पर्याप्त सबूत होते हैं), यह एक ऐसी धारणा है जिसे अधिकाधिक अफ़्रीकी नेताओं ने मान्यता दी है। 2006 में, राष्ट्रपति ओलुसेगुन ओबासैंजो, जो उस समय नाइजीरिया के राष्ट्रपति थे, ऐसा करने वाले व्यक्तियों में पहले व्यक्ति थे। 2014 में समलैंगिकता-विरोधी विधेयक को क़ानून बनाने के लिए हस्ताक्षर करते समय, युगांडा के राष्ट्रपति योवेरी मुसेवेनी ने भी यही किया। गाम्बिया के राष्ट्रपति याह्या जमेह से लेकर जिम्बाब्वे के रॉबर्ट मुगाबे तक, अन्य नेताओं ने भी उसी सुर में बात की। इस तरह के सरकारी नज़रिए ने अफ़्रीका के समलैंगिक पुरुषों और स्त्रियों के लिए बहुत अधिक पीड़ादायक स्थिति पैदा की है। निश्चित रूप से, अनेक अफ़्रीकी देशों में समलैंगिक लोगों के लिए होमोफोबिया की क़ीमत दर्दनाक रूप से स्पष्ट है: क़ानूनी दंड, सामाजिक बहिष्कार, और भीड़ का न्याय। लेकिन अफ़्रीका के समलैंगिकता-विरोधी नेता एक बात भूल जाते हैं: क़ानूनी सुरक्षाएँ देना केवल मानवाधिकारों का मुद्दा ही नहीं है, बल्कि यह आर्थिक मुद्दा भी है। किम की बात बिल्कुल सही है, और शोध ने उन देशों में जहाँ क़ानून और सामाजिक व्यवहार समान सेक्स संबंधों का बहिष्कार किया जाता है, समलैंगिकता-विरोधी भावना और ग़रीबी के बीच संबंधों की खोज के द्वारा, होमोफोबिया की आर्थिक लागत का मूल्यांकन करना शुरू कर दिया है। मैसाचुसेट्स-एमहर्स्ट विश्वविद्यालय के एक अर्थशास्त्री, एम.वी. ली बागेट ने मार्च 2014 में विश्व बैंक की एक बैठक में भारत में होमोफोबिया के आर्थिक प्रभाव पर एक अध्ययन के प्रारंभिक निष्कर्ष प्रस्तुत किए हैं। बागेट का अनुमान है कि भारतीय अर्थव्यवस्था को समलैंगिकता-विरोधी कलंक और भेदभाव से पैदा हुए अवसाद, आत्महत्या, और HIV उपचार असमानताओं के कारण 2012 में केवल प्रत्यक्ष स्वास्थ्य लागतों में $23.1 अरब तक की हानि हुई होगी। ऐसी ठोस लागतों के अलावा, समलैंगिक होने से हिंसा, कार्य की हानि, परिवार की अस्वीकृति, स्कूलों में उत्पीड़न, और शादी करने के लिए दबाव भी आ सकता है। इसके परिणामस्वरूप, अनेक समलैंगिक लोगों की शिक्षा कम होती है, उत्पादकता कम होती है, आय कम होती है, स्वास्थ्य ख़राब होता है, और जीवन-काल कम होता है। नाइजीरिया में, 2005 में अपनी लिंगीयता के बारे में संदेह होने के कारण अपना कार्य खोने वाले लोगों की बढ़ती संख्या के निदान के रूप में मैंने समान अधिकारों के लिए स्वतंत्र परियोजना (TIERS) शुरू की थी। अपने पहले साल के दौरान, हमने दर्जनों लोगों को सहायता प्रदान की। एक युवक "ओलुमाइड" को तब अस्थायी आवास दिया गया जब उसके परिवार ने समलैंगिक होने के कारण उसे घर से बाहर निकाल दिया था। एक अन्य व्यक्ति "उछे" को उसकी लिंगीयता का राज़ खुलने के बाद उसे बावर्ची की नौकरी से निकाल दिया गया था। TIERS ने उसे आवास दिया और केटरिंग व्यवसाय स्थापित करने के लिए पूँजी की मदद की। हालाँकि लगभग 10 साल बीत चुके हैं, लेकिन उनके असली नाम का उपयोग करना अभी भी सुरक्षित नहीं है। पूरे अफ़्रीका में, नियोक्ताओं, मकान-मालिकों, स्वास्थ्य-सेवा प्रदाताओं, शैक्षिक संस्थानों, और अन्य लोगों पर LGBT लोगों को बाहर करने के लिए बढ़ते दबाव के कारण भेदभाव की आर्थिक लागत बढ़ रही है। आज, विश्व बैंक और अन्य विकास एजेंसियाँ उन वैश्विक विकास प्राथमिकताओं का निर्धारण कर रही हैं जिन्हें सहस्राब्दि विकास लक्ष्यों (MDGs) की समाप्ति के बाद लिया जाएगा, जो आधिकारिक तौर पर 2015 में समाप्त हो जाएँगे और लैंगिक समानता को बढ़ावा देने और आर्थिक विकास के लिए रणनीति के रूप में महिलाओं को सशक्त बनाने के लिए विशिष्ट लक्ष्यों को शामिल किया है। भविष्य पर नज़र रखते हुए, विश्व बैंक को LGBT अधिकारों के लिए भी वही दृष्टिकोण अपनाना चाहिए और ऋण प्राप्त करने वाले देशों के लिए लिंगीयता और लैंगिक पहचान के लिए क़ानूनी सुरक्षाओं की शर्त रखनी चाहिए। MDG में महिलाओं के अधिकारों को मान्यता प्रदान किए जाने के फलस्वरूप "पश्चिमी" मूल्यों को लागू करने से अफ़्रीकी संस्कृतियाँ दूषित नहीं हुईं; वास्तव में, इसने अनेक अफ़्रीकी देशों को मज़बूत बनाया है, जो अब सरकार में महिलाओं के प्रतिनिधित्व में दुनिया का नेतृत्व करते हैं। LGBT लोगों के लिए इसी तरह की सुरक्षा प्रदान करके, अंतर्राष्ट्रीय निवेश और सहायता से आर्थिक निष्पादन में सुधार हो सकता है और बुनियादी मानव अधिकारों के लिए सम्मान को मज़बूत किया जा सकता है। विश्व बैंक ने, जो हमेशा "राजनीतिक" सवालों में उलझने से बचने के प्रति सावधान रहता है, इस बात पर ज़ोर दिया है कि वह वैश्विक मानवाधिकार प्रवर्तक नहीं है। लेकिन विश्व बैंक अपने सदस्यों को उनके मानव अधिकारों के दायित्वों को साकार करने में मदद करके अपनी मददगार की भूमिका को भी अधिकाधिक पहचान रहा है। LGBT अधिकारों का मामला एक कसौटी के रूप में होना चाहिए। ऐसी सरकारों को सहायता देने के फलस्वरूप, जो विशिष्ट सामाजिक समूहों का बहिष्कार करने की अनुमति देती हैं, वास्तविक आर्थिक लागत बहुत अधिक हो सकती है। नए ऋणों पर विचार करते समय यह सुनिश्चित करने के लिए क़दम उठाए जाने चाहिए कि लाभ यथासंभव समावेशी हों। अगर विश्व बैंक - जो वर्तमान में नाइजीरिया को लगभग $5.5 अरब का ऋण दे रहा है और यह उम्मीद है कि यह अगले चार सालों में हर साल अतिरिक्त $2 अरब के लिए वचन देगा - इस दिशा में कार्रवाई करता है, तो हो सकता है कि अन्य वित्तदाता भी उसका अनुसरण करें। अफ़्रीका के LGBT लोगों को अपने मानव और आर्थिक अधिकारों के लिए संघर्ष में ऐसे शक्तिशाली सहयोगियों की सख़्त ज़रूरत है। यूरोप के वायुप्रदूषण की कयामत सिंगापुर – यूरोप के नीति-निर्माता वायु प्रदूषण पर बाकी की दुनिया को व्याख्यान देना पसंद करते हैं। आलोचना के लिए एशिया और विशेष रूप से चीन, उनका पसंदीदा लक्ष्य होता है। वास्तव में, कभी-कभी ऐसा लगता है कि मानो यूरोप के नीति निर्माताओं द्वारा अपने महाद्वीप की उन "सर्व��त्तम प्रथाओं" पर प्रस्तुति के बिना पर्यावरण का कोई भी प्रमुख सम्मेलन पूरा नहीं हो सकता है जिनका दुनिया के बाकी देशों को अनुकरण करना चाहिए। तथापि, जब वायु प्रदूषण की बात हो रही हो तो यूरोप को चाहिए कि वह बोलने पर कम और सुनने पर अधिक ध्यान दे। वायु प्रदूषण यूरोप भर में बढ़ती हुई चिंता का विषय है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इसे महाद्वीप का "एकमात्र सबसे बड़ा पर्यावरणीय स्वास्थ्य जोखिम" बताया है और यह अनुमान लगाया है कि यूरोप के 90% नागरिक बाहर के प्रदूषण के संपर्क में हैं जो डब्ल्यूएचओ के वायु-गुणवत्ता के दिशानिर्देशों से अधिक हैं। 2010 में, लगभग 6,00,000 यूरोपीय नागरिकों की बाहरी और घर के अंदर के वायु प्रदूषण के कारण अकाल मृत्यु हुई थी, और इसकी आर्थिक लागत, $1.6 ट्रिलियन होने का अनुमान लगाया गया है जो यूरोपीय संघ के सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 9% है। लंदन और पेरिस विशेष रूप से गंभीर वायु गुणवत्ता की समस्याओं से ग्रस्त हैं। लंदन के कुछ भागों में नाइट्रोजन डाइऑक्साइड का स्तर नियमित रूप से अनुशंसित सीमा के 2-3 गुना तक पहुंच जाता है। यूनाइटेड किंगडम में, वायु प्रदूषण से हर साल लगभग 29,000 लोगों की मृत्यु होती है, समय पूर्व मृत्यु के कारणों में धूम्रपान के बाद इसका दूसरा स्थान है । पेरिस की स्थिति शायद इससे भी बदतर है; मार्च में, जब वायु प्रदूषण के स्तर शंघाई के स्तरों से भी अधिक हो गए थे, तो इस शहर ने वाहनों के चलाने पर आंशिक रूप से प्रतिबंध लगा दिया था और मुफ्त सार्वजनिक परिवहन सेवा शुरू कर दी थी। अफसोस की बात है कि यूरोप के नीति-निर्माता इस चुनौती के लिए तैयार नहीं लगते। ब्रिटेन के राजकोष के चांसलर जॉर्ज ओसबोर्न ने जलवायु परिवर्तन के खिलाफ लड़ाई में ब्रिटिश नेतृत्व के खिलाफ तर्क दिया है। उन्होंने 2011 में घोषणा की थी कि “हम अपनी स्टील मिलों, एल्यूमीनियम अयस्क, और कागज निर्माताओं को बंद करके भी इस धरती को नहीं बचा पाएंगे। ओसबोर्न अकेले नहीं हैं। यूरोपीय नेता जब यह तर्क देते हैं कि पर्यावरण सुरक्षा उपायों को शुरू करने से यूरोपीय संघ की पहले से ही कमजोर अर्थव्यवस्था को हानि पहुँचेगी, तब इसमें थोड़ा भी आश्चर्य नहीं होता है कि वायु प्रदूषण को सीमित करने के उनके उपाय निर्धारित सीमा से काफी कम हैं। कोयला संयंत्रों के विषाक्त उत्सर्जनों को विनियमित करने के लिए यूरोपीय संघ के प्रस्तावित मानक चीन की कोयला संयंत्रों के विषाक्त उत्सर्जनों को नियंत्रित करने के लिए यूरोपीय संघ के प्रस्तावित मानक चीन की ग्रीनपीस रिपोर्टों की तुलना में बहुत कम कठोर हैं। इसके बावजूद, विभिन्न यूरोपीय राजनेताओं ने इन्हें और भी कम कठोर करने के लिए कहा है, हंगरी ने तो यहां तक सुझाव दिया है कि इन्हें बिल्कुल समाप्त कर देना चाहिए। इसमें कोई संदेह नहीं है कि एशिया में वायु प्रदूषण के स्तर सचमुच चिंता का विषय हैं। येल विश्वविद्यालय की 2014 की वायु गुणवत्ता रैंकिंग के अनुसार, यह महाद्वीप दुनिया के दस सबसे प्रदूषित देशों में से एक है। नई दिल्ली को पृथ्वी पर सबसे प्रदूषित शहर का दर्जा दिया गया है जिसमें वायु प्रदूषण सुरक्षित स्तरों से 60 के गुणजों में अधिक है। बीजिंग की अस्वस्थ हवा के कारण, विदेशी कंपनियां वहां काम करनेवाले कर्मचारियों को 30% तक के “असुविधा बोनस” का भुगतान करती हैं। लेकिन एशिया में नीति-निर्माताओं ने कम-से-कम इस समस्या को मान लिया है और इसका समाधान करने के लिए कदम उठा रहे हैं। उदाहरण के लिए, चीन ने “प्रदूषण के खिलाफ युद्ध” घोषित किया है। 2017 तक, बीजिंग – जिसे अंतर्राष्ट्रीय मीडिया द्वारा कभी "ग्रेजिंग" नाम दिया गया था – वायु प्रदूषण से निपटने के लिए लगभग CN¥760 बिलियन ($121बिलियन) खर्च करेगा। चीन के उपायों के मूल में बेहतर सार्वजनिक परिवहन, हरित व्यापार, और मिश्रित ऊर्जा का संशोधन हैं। सरकार ने शहरी केंद्रों में हर 500 मीटर की दूरी पर बस स्टॉप बनाने, पर्यावरण की 54 वस्तुओं की सूची के लिए, शुल्कों को 5% या उससे कम तक कम करने, और कई पुराने और अक्षम कोयला संयंत्रों को बंद करने का निर्णय किया है। प्राथमिक ऊर्जा खपत में गैर-जीवाश्म ईंधन की हिस्सेदारी 2030 तक बढ़कर 20% होने की संभावना है। शीर्ष तंत्र से मजबूत राजनीतिक समर्थन मिलने पर इन लक्ष्यों को कड़ाई से लागू किए जाने की संभावना है। इस बीच, भारत में, गुजरात, महाराष्ट्र और तमिलनाडु में राज्य सरकारें दुनिया की पहली कणीय पदार्थों के लिए सीमा-निर्धारण और व्यापार की योजनाएं आरंभ करने वाली हैं। भारत के उच्चतम न्यायालय ने तो नई दिल्ली में निजी स्वामित्व वाले डीज़ल वाहनों पर अतिरिक्त शुल्क लगाने तक का भी सुझाव दिया है। एशिया के अन्य भागों में भी वायु गुणवत्ता में सुधार करने के लिए कदम उठाए जा रहे हैं। वियतनाम आने वाले वर्षों में आठ शहरी रेल लाइनों का निर्माण करने पर विचार कर रहा है। बैंकाक ने, जो 1990 के दशक के बाद से वायु प्रदूषण से निपटने का प्रयास करता आ रहा है, 400,000 पेड़ लगाए हैं। और जापान हाइड्रोजन कारों के लिए सब्सिडी दे रहा है और ऐसे नए क्षेत्र बना रहा है जो केवल पैदल चलनेवालों के लिए हैं। यूरोप को, जो दुनिया के सबसे धनी क्षेत्रों में से एक है, पर्यावरणीय स्थिरता को बढ़ावा देने के प्रयास के मामले में सबसे आगे होना चाहिए। तथापि, जब वायु प्रदूषण की बात हो तो यूरोप के नीति-निर्माताओं को चाहिए कि वे दूसरों को उपदेश देना बंद करके स्वयं अपनी समस्याओं के समाधान पर ध्यान केंद्रित करें। रोगाणुरोधी प्रतिरोध के ख़िलाफ़ निष्पक्ष लड़ाई ब्राइटन - मौजूदा रोगाणु-रोधी दवाएँ अप्रभावी होती जा रही हैं। अगर मौजूदा रुझान जारी रहते हैं, तो हम एंटीबायोटिक की खोज से पहले की स्थितियों में दोबारा जी रहे होंगे, जब संक्रामक रोग प्रमुख प्राणघातक थे। दवा-रोधी रोगाणुओं की चुनौती का सामना करना कठिन होगा। इसके लिए न केवल नई रोगाणु-रोधी दवाओं के अनुसंधान और विकास में प्रमुख निवेश की ज़रूरत होगी, बल्कि नए इलाजों को नियंत्रित और सीमित करने की ज़रूरत भी होगी, ताकि उनकी प्रभावकारिता संरक्षित रखी जा सके। जैसा कि जलवायु परिवर्तन पर प्रतिक्रिया के साथ है, प्रभावी रणनीति के लिए अंतर्राष्ट्रीय समन्वय की ज़रूरत होगी। ख़ास तौर से, सरकारी भुगतानकर्ताओं और वैश्विक ग़रीबों के साथ फ़ार्मास्यूटिकल कंपनियों की ज़रूरतों का समाधान किया जाना चाहिए। दरअसल, किसी भी प्रयास के लिए ग़रीबों को जोड़ना महत्वपूर्ण होगा। निम्न और मध्यम आय वाले देश दवा-रोधी जीवों के महत्वपूर्ण स्रोत हैं। भीड़-भाड़ वाले आवास, ख़राब स्वच्छता, और प्रतिरक्षा प्रणाली को ख़तरे में डालना, चाहे वह कुपोषण या HIV जैसे जीर्ण संक्रमण के कारण हो, संक्रमण के लिए उपजाऊ ज़मीन प्रदान करते हैं। एंटीबायोटिक का अक्सर दुरुपयोग किया जाता है या उनकी गुणवत्ता कम होती है, जिससे बैक्टीरिया को प्रतिरोध विकसित करने का अवसर मिलता है। एंटीबायोटिक की बड़ी मात्रा का इस्तेमाल पशुपालन में भी किया जाता है। इस बीच, परिवहन की बुनियादी सुविधाओं में अत्यधिक सुधार - ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों के बीच और देशों के बीच - का मतलब है कि प्रतिरोधी जीन शीघ्र वैश्विक पूल का हिस्सा बन जाते हैं। कई असुरक्षित देशों में, सरकारी स्वास्थ्य-देखभाल प्रणाली माँग पूरा नहीं कर पाती, और विविध प्रदाता इस खाई को पाटने की कोशिश कर रहे हैं। इनमें चिकित्सा विशेषज्ञों से लेकर अनौपचारिक प्रदाता तक शामिल हैं, जो मुख्यतः विनियामक ढाँचे के बाहर काम करते हैं। पैबंद वाली इन प्रणालियों के लाभ भी हैं। उदाहरण के लिए, बांग्लादेश में एक ताज़ा अध्ययन में निष्कर्ष निकाला गया है कि अक्सर बाज़ार के स्टालों से संचालन करने वाले तथाकथित "गाँव के डॉक्टरों" द्वारा प्रदान की जाने वाली एंटीबायोटिक दवाओं ने प्रसवोत्तर रोगाणुता और बचपन के निमोनिया से मृत्यु दर में गिरावट लाने में योगदान किया है। लेकिन इसके भी काफ़ी सबूत हैं कि प्रदान की जा रही दवाएँ विविध गुणवत्ता की होती हैं और अक्सर उन्हें बिना आवश्यकता के ले लिया जाता है। बहुत बार, रोगी इलाज का पूरा कोर्स नहीं ख़रीदते। इस पर एक प्रतिक्रिया यह हो सकती है कि ऐसे क़ानून तैयार और लागू किए जाएँ जिनसे एंटीबायोटिक दवाएँ केवल डॉक्टर के पर्चे पर उपलब्ध हो सकें। बहरहाल, इसके परिणामस्वरूप एंटीबायोटिक दवाओं तक ग़रीब लोगों की पहुँच गंभीर रूप से सीमित हो सकती है, जिससे संक्रमण से मृत्यु दर उच्च हो सकती है, जो इसे राजनीतिक रूप से अस्वीकार्य और इसलिए लागू करने में मुश्किल बना देगा। इसका बेहतर विकल्प यह होगा कि एंटीबायोटिक इलाजों को बेहतर बनाने के लिए ऐसी नई रणनीतियाँ विकसित की जाएँ जिनसे इन्हें अनौपचारिक स्रोतों के माध्यम से प्रदान किया जाए। शुरूआत करनेवालों के लिए, उन दवाओं पर भरोसेमंद निगरानी डेटा उत्पन्न करने के लिए निवेश करने की ज़रूरत है जो आम संक्रमण के ख़िलाफ़ प्रभावी हैं। इलाज के दिशा-निर्देशों में यह जानकारी शामिल की जानी चाहिए और एंटीबायोटिक दवाओं के सभी प्रदाताओं की दी जानी चाहिए। इस बीच, उच्च गुणवत्ता वाली एंटीबायोटिक दवाएँ किफ़ायती क़ीमतों पर उपलब्ध कराई जानी चाहिए। नकली उत्पादों की पहचान की जानी चाहिए और उन्हें बाज़ार से निकाल दिया जाना चाहिए, और गुणवत्ता नियंत्रित करने के लिए सरकारों, फ़ार्मास्यूटिकल क्षेत्र, और नागरिक समूहों के बीच नियामक साझेदारी विकसित की जानी चाहिए। क़ीमतों को थोक ख़रीद के माध्यम से कम रखा जाना चाहिए; कुछ मामलों में, सार्वजनिक आर्थिक सहायता भी ज़रूरी हो सकती है। क़ीमतों को कम करने के उपायों के पूरक के रूप में बहुत ज़्यादा इस्तेमाल को हतोत्साहित करने की ज़रूरत होगी। पैकेजिंग में नवाचार, शायद दवाओं के उचित संयोजन का पूरा कोर्स उपलब्ध कराना, इलाज के फ़ैसले को आसान बना सकेगा। इसी तरह, कम-लागत की नैदानिक प्रौद्योगिकियों का विकास केवल लक्षणों के आधार पर इलाज प्रदान करने की ज़रूरत कम करने में मदद कर सकता है। सबसे बड़ी चुनौती एंटीबायोटिक दवाओं के प्रदाताओं को अपना व्यवहार बदलने के लिए प्रोत्साहित करना होगी। इसके लिए, तकनीकी सहायता देने और कार्य-निष्पादन की निगरानी के लिए मान्यता, भुगतान तंत्र के संशोधन, और मध्यस्थ संगठनों की भागीदारी जैसे उपायों की ज़रूरत होगी। इन संगठनों में गैर-सरकारी संगठन, धार्मिक संगठन, सामाजिक उद्यमी, और दवाएँ वितरित करने वाली कंपनियाँ शामिल हो सकती हैं। इसकी संभावना नहीं है कि ये गतिविधियाँ वाणिज्यिक रूप से स्थायी हो सकेंगी, और इसलिए इनके लिए सरकारों, परोपकारी संस्थाओं, और शायद दवा उत्पादकों से समर्थन की ज़रूरत होगी। इस बीच, लोगों को एंटीबायोटिक दवाओं के समुचित इस्तेमाल पर भरोसेमंद जानकारी और सलाह मिलनी चाहिए। यह ख़ास तौर से वहाँ महत्वपूर्ण है जहाँ नागरिक स्वास्थ्य की समस्याओं से निपटने के लिए काफ़ी हद तक अपने खुद के संसाधनों पर निर्भर करते हैं। एंटीबायोटिक दवाओं के इस्तेमाल में प्रणाली में व्यापक बदलाव लागू करने के लिए राष्ट्रीय और वैश्विक गठबंधनों की ज़रूरत होगी। एक मुख्य लक्ष्य स्वास्थ्य कर्मियों और दवा कंपनियों के आचरण के बुनियादी मानक स्थापित करना होगा जिसमें रोगियों और समुदायों की ज़रूरतें प्रतिबिंबित हों। सरकारों को इस प्रक्रिया में प्रभावी भूमिका निभाने के लिए अपनी क्षमता का निर्माण करने की ज़रूरत होगी, और दवाओं और नैदानिक प्रौद्योगिकियों का विकास, उत्पादन, और वितरण करने वाली कंपनियों को सहयोगी समाधानों की खोज के लिए सक्रिय रूप से योगदान करना होगा। हम एंटीबायोटिक दवाओं से सही रूप में लाभ तभी उठा सकेंगे जब हम उनका निष्पक्ष और स्थायी तरीके से प्रबंधन कर सकेंगे। दवा का सामाजिक विज्ञान डावोस – 1980 के दशक के मध्य में जब मैं एक मेडिकल छात्र था, मुझे पापुआ न्यू गिनी में मलेरिया हुआ था। यह एक कष्टकारी अनुभव था। मेरे सिर में दर्द होता था। मेरा तापमान बढ़ गया था। मुझमें खून की कमी हो गई थी। लेकिन मैंने दवा लेना जारी रखा, और मैं ठीक हो गया। यह अनुभव सुखद नहीं था, लेकिन सस्ती, प्रभावशाली मलेरिया की दवाओं की बदौलत मैं बहुत ज्यादा खतरे में कभी नहीं था। क्लोरोक्विन की जिन गोलियों से मैं ठीक हुआ था वे गोलियां अब बिल्कुल काम नहीं करती हैं। यहां तक कि जब मैं उन्हें ले रहा था तब भी, जिस परजीवी के कारण मलेरिया होता है वह पहले ही दुनिया के कई हिस्सों में क्लोरोक्विन का प्रतिरोधी बन चुका था; पापुआ न्यू गिनी उन कुछ स्थानों में से एक था जहां गोलियाँ प्रभावशाली बनी हुई थीं, और इसके बावजूद वहां भी उनकी शक्ति कम होती जा रही थी। आज, क्लोरोक्विन मूल रूप से हमारे चिकित्सा शस्त्रागार से गायब हो गई है। एंटीबायोटिक दवाओं और अन्य रोगाणुरोधी दवाओं का प्रतिरोध करनेवाले रोगाणुओं की बढ़ती क्षमता आजकल के स्वास्थ्य देखभाल के क्षेत्र में सबसे बड़े उभरते संकट में तब्दील हो रही है - और यह एक ऐसा संकट है जिसे अकेले विज्ञान द्वारा हल नहीं किया जा सकता है। अब क्लोरोक्विन की जगह अन्य दवाएं आने लगी हैं। तपेदिक की बहु-दवा-प्रतिरोधी प्रजातियां, ई.कोली, और साल्मोनेला अब आम हो चुकी हैं। अधिकांश सूजाक संक्रमण लाइलाज हैं। मेथिसिलिन-प्रतिरोधी स्टैफ़िलोकॉकस ऑरियस (एसआरएसए) और क्लोस्ट्रीडियम डिफ़िसाइल जैसे सुपरबग, तेजी से फैल रहे हैं। भारत में एंटीबायोटिक-प्रतिरोधी संक्रमणों से 2013 में 58,000 से अधिक नवजात शिशुओं की मृत्यु हो गई थी। आज, मलेरिया का इलाज अक्सर चीनी जड़ी-बूटी से निकाली गई एक दवा - आर्टीमिसिनिन - और अन्य मलेरिया-रोधी दवाओं के संयोजन से किया जाता है। लेकिन इन क्रांतिकारी दवाओं के क्लोरोक्विन की ही तरह अप्रचलन में होने का खतरा है; दक्षिण पूर्व एशिया में मलेरिया की प्रतिरोधी-प्रजातियां होने का पता चला है। यह मात्र चिकित्सा समस्या नहीं है; यह एक संभावित आर्थिक आपदा है। अर्थशास्त्री जिम ओ नील की अध्यक्षता में की गई रोगाणुरोधी प्रतिरोध पर समीक्षा द्वारा की गई शोध में यह अनुमान लगाया गया है कि यदि मौजूदा प्रवृत्तियां जारी रहती हैं तो दवा प्रतिरोधी संक्रमणों से 2050 तक प्रति वर्ष दस लाख लोगों की मृत्यु होगी और अगले 35 वर्षों में वैश्विक अर्थव्यवस्था को लगभग $100 ट्रिलियन खर्च करना पड़ेगा। हो सकता है कि यह नाटकीय भविष्यवाणी भी बहुत कम हो क्योंकि इसमें संक्रमण के कारण जीवन और स्वास्थ्य की होने वाली हानि की दृष्टि से केवल प्रत्यक्ष लागतें ही शामिल हैं। आधुनिक चिकित्सा के कई अन्य पहलू भी एंटीबायोटिक दवाओं पर भरोसा करते हैं। कीमोथेरेपी प्राप्त करनेवाले कैंसर रोगी इन्हें बैक्टीरिया को दबाने के लिए लेते हैं जो अन्यथा उनकी कमजोर प्रतिरक्षा प्रणाली पर हमला कर देगा। आजकल जोड़ों के प्रतिस्थापन और सीजेरियन वर्गों सहित जिन शल्यक्रियाओं को नेमी मान लिया जाता है, उन्हें केवल तभी सुरक्षित रूप से किया जा सकता है जब एंटीबायोटिक दवाओं से संभावित संक्रमणों को रोका जाता है। दवा प्रतिरोध के मूल विकास के अच्छी तरह से समझे-बूझे मामले हैं। यदि रोगजनकों पर विषाक्त दवाओं का चयनात्मक दबाव पड़ता है, तो अंततः वे उसके अनुकूल हो जाएंगे। मैं जिस वैलकम ट्रस्ट का नेतृत्व करता हूं, उसने इन तंत्रों के बारे में शोध, निदान में सुधार, और नई दवाएं तैयार करने में करोड़ों डॉलर का निवेश किया है। समस्या का प्रभावी ढंग से समाधान करने के लिए, इस प्रयास को जैविक विज्ञान के दायरे से आगे बढ़ाकर दवा के साथ पारंपरिक रूप से न जुड़े क्षेत्रों तक ले जाना चाहिए। अमीर और गरीब देशों दोनों में ही समान रूप से, हम एंटीबायोटिक दवाओं के नियमित नशेड़ी बन गए हैं। प्रतिरोध का मुकाबला करने की कुंजी यह है कि रोगजनक जिस गति से अनुकूलन कर सकते हैं उस गति को कम किया जाए। लेकिन, एंटीबायोटिक दवाओं के अधिक उपयोग और उपचार के लिए आवश्यक कोर्स को पूरा न करने के फलस्वरूप, हम रोगाणुओं का उपयोग अभी पर्याप्त दवा प्रतिरोध को प्रोत्साहित करने के लिए कर रहे हैं। वास्तव में, हम रोगाणुओं का टीका लगाकर हम उनके खिलाफ जो प्रयोग करना चाहते हैं उसे दवाओं के खिलाफ कर रहे हैं। यह इसलिए है कि हम एंटीबायोटिक दवाओं को लगभग उपभोक्ता वस्तुओं के रूप में मानने लग गए हैं, क्योंकि हम डॉक्टरों से इसकी मांग करते हैं, और हम इसे अपनी मर्ज़ी से लेते हैं या जब हमें ठीक लगता है हम इसे लेना बंद कर देते हैं। यहां तक कि सबसे अधिक सूचनाप्राप्त रोगियों द्वारा इन चमत्कारी दवाओं का दुरुपयोग किया जाता है। यूनाइटेड किंगडम में की गई शोध से पता चला है कि यहां तक कि जो लोग यह समझते हैं कि प्रतिरोध कैसे विकसित होता है वे अक्सर समस्या को इस रूप में बढ़ा देते हैं कि वे डॉक्टर के पर्चे के बिना एंटीबायोटिक लेने लगते हैं या अपनी दवाएं अपने परिवार के सदस्यों को दे देते हैं। ऐसे विनाशकारी व्यवहार को बदलने के लिए यह आवश्यक होगा कि हम इसके सामाजिक और सांस्कृतिक कारणों को बेहतर रूप से समझें। इतिहास, मनोविज्ञान, समाजशास्त्र, नृविज्ञान, अर्थशास्त्र, बाजार अनुसंधान, और सामाजिक विपणन जैसे विषय इसमें मदद कर सकते हैं। यह केवल रोगाणुरोधी प्रतिरोध के लिए ही सत्य नहीं है। यह इबोला जैसी महामारी के फैलने पर भी लागू होता है। वायरस का मुकाबला करने के लिए उसके जीव विज्ञान, इसके संचारण के महामारी विज्ञान, और उन दवाओं और टीकों के बारे में ज्ञान की आवश्यकता है जिनका संभवतः इसके खिलाफ उपयोग किया जा सकता है। लेकिन इसके लिए उन व्यवहारों को भी समझने की आवश्यकता है जिनके कारण यह संक्रमण लाइबेरिया, सिएरा लियोन, और गिनी में फैल सका। यह समझाने के लिए कि ये समाज किन कारणों से इतने कमजोर बने हैं, इसके लिए इन क्षेत्रों के हाल के इतिहास के बारे में जानने और यह समझने की आवश्यकता है कि वहां के लोगों में सरकारी अधिकारियों के प्रति इतना अधिक अविश्वास क्यों है। इबोला को नियंत्रण में रखने के लिए रोगियों को अलग रखना और मृतकों को सुरक्षित रूप से दफन करना महत्वपूर्ण हैं, लेकिन दोनों को सांस्कृतिक संवेदनशीलता के साथ लागू किए जाने की जरूरत है – केवल उनके पीछे मौजूद विज्ञान संबंधी कारणों के स्पष्टीकरण की नहीं। आज के सार्वजनिक स्वास्थ्य के बड़े खतरों के आर्थिक परिणाम बहुत गंभीर होते हैं। उनके कारण होनेवाले जोखिमों को न्यूनतम रखने के लिए यह जानना बहुत जरूरी है कि वे सामाजिक, व्यवहार संबंधी और सांस्कृतिक परिदृश्य के साथ परस्पर गुंथे हुए हैं। विज्ञान शक्तिशाली उपकरण उपलब्ध करता है। लेकिन इन उपकरणों का प्रभावी रूप से उपयोग करने के लिए हमें केवल विज्ञान की ही जरूरत नहीं है। अशांत समय में एशिया की प्रगति नई दिल्‍ली — एशिया में एक नई सच्‍चाई उभरकर सामने आ रही है। हाल के दशक में एशिया की कई अर्थव्यवस्‍थाओं में तेज़ी आई है। आज विश्व के जी.डी.पी. में इस क्षेत्र का योगदान लगभग 40% है — 1990 की 25% से बढ़कर है — तथा यह क्षेत्र वैश्विक आर्थिक विकास में लगभग दो तिहाई का योगदान करता है। बात कुछ और भी है। एशिया ने गरीबी को कम करने तथा व्यापक विकास संकेतकों को बेहतर बनाने में अभूतपूर्व प्रगति की है। गरीबी दर वर्ष 1990 में 55% से वर्ष 2010 में 21% कम हुई, वहीं शिक्षा एवं स्वास्थ्य परिणामों में भी महत्वपूर्ण सुधार आए हैं। इस प्रक्रिया में करोड़ों लोगों का जीवन बेहतर हुआ है। और भविष्य की ओर देखते हुए एशिया से अपेक्षा की जाती है कि यह औसतन 5% की वार्षिक दर से विकास करना जारी रखेगा तथा वैश्विक आर्थिक विस्तार का नेतृत्व करेगा। लेकिन आज यह क्षेत्र नई आक स्थितियों की चुनौतियों का सामना कर रहा है। उन्नत अर्थव्यवस्‍थाओं में उत्‍साहहीन विकास के साथ, वैश्विक वित्तीय बाज़ारों में जोखिम विमुखता बढ़ रही है और कमोडिटी अधोचक्र (सुपर-साइकिल) अंत की ओर बढ़ रहा है जिसमें विश्‍व अर्थव्यवस्‍था एशियाई विकास को बहुत कम शक्ति प्रदान कर रही है। इसके साथ ही, एशिया अधिक संवहनीय विकास मॉडल की ओर अग्रसर है जिसमें धीमा विस्‍तार अंतनिर्हित है। चीन और शेष विश्‍व खासतौर पर एशिया के बीच बढ़ते संपर्कों को देखते हुए, स्पिल-ओवर इफेक्ट (प्लवन प्रभाव) महत्वपूर्ण हो जाता है। वास्तव में, चीन अब अधिकांश प्रमुख क्षेत्रीय अर्थव्‍यवस्‍थाओं, खास तौर पर पूर्वी एशिया और आसियान देशों का शीर्ष व्‍यापारिक सहयोगी बन गया है। एशिया व प्रशांत क्षेत्र के लिए अप्रैल 2016 के रीज़नल इकोनॉमिक आउटलुक में प्रकाशित होने वाले अंतर्राष्‍ट्रीय मुद्रा कोष के नये शोध से ज्ञात होता है कि चीन की जीडीपी के प्रति मध्‍य एशियाई देशों की आर्थिक संवेदनशीलता पिछले कुछ दशकों में दो गुनी हो गई है। इसलिए चीन में मंदी आने का मतलब है कि पूरे एशिया के विकास की गति धीमी होती है। हाल के दशकों में एशिया की उपलब्धियां इस क्षेत्र के लोगों के कठोर परिश्रम के साथ ही साथ 1990 के उत्तरार्ध के समय से कई एशियाई सरकारों द्वारा अपनायी गई नीतियों की सुदृढ़ता को भी सत्‍यापित करती हैं, जिसमें बेहतर मौद्रिक नीतियां एवं विनिमय दर ढांचे, और अधिक अन्तरराष्‍ट्रीय रिजर्व बफर, तथा सशक्त वित्तीय क्षेत्र विनियमन एवं पर्यवेक्षण शामिल हैं। इस परिदृश्य को ध्यान में रखते हुए इस क्षेत्र ने बहुत विशाल मात्रा में विदेशी प्रत्यक्ष निवेश आकर्षित किया है। व्यापार सम्बन्धों में विस्तार होने के साथ ही साथ, समेकित आपूर्ति श्रंखलाओं के एक परिष्कृत नेटवर्क का उद्भव हुआ है, जिसने एशिया को एक प्रमुख विनिर्माण स्तंभ के साथ ही साथ सेवाओं का निर्यातक बनाने वाली स्थितियों का निर्माण किया है। अभी हाल ही में यह क्षेत्र वैश्विक वित्तीय संकट से बहुत शीघ्रता से उबरा है, जिसका श्रेय इसकी सुदृढ़ नीतियों एवं प्रचुर रिजर्व को जाता है। इन वर्षों के दौरान एशिया को सशक्त वैश्विक अनुकूल स्थ्िातियों से भी लाभ मिला है जिसमें अनुकूल बाह्य वित्तीयन स्थितियां तथा चीनी अर्थव्यवस्‍था का द्रुत विस्तार शामिल है। एशिया में दिखाई देती इस नई परीक्षणकारी सच्चाई के साथ, हमें इस क्षेत्र के समक्ष गहन और दीर्घकालिक ढांचागत चुनौतियों को अनदेखा नहीं करना चाहिए। जनसंख्या की आयु में तीव्र गति से वृद्धि हो रही है, तथा यहां तक कि जापान, कोरिया, सिंगापुर एवं थाईलैंड जैसे देशों में जनसंख्या कम भी हो रही हे, जिसके कारण संभावित विकास में कमी आ रही है तथा वित्तीय संतुलन पर दबाव पड़ रहा है। आय असमानता भी एक प्रमुख चुनौती है। वैसे तो मलेशिया, थाईलैंड एवं फिलीपींस में आय असमानता में स्थिरता रही है या कमी आई है, परन्‍तु क्षेत्र के बहुत से हिस्सों में - विशेष तौर पर भारत एवं चीन (इसके साथ-साथ पूर्वी एशिया के अन्य भागों में - आय असमानता में वृद्धि हो रही है। बहुत से उभरते हुए बाजारों एवं विकासशील देशों में व्यापक इन्फ्रास्ट्रक्चर कमियां बनी हुई हैं, विशेष तौर पर विद्युत एवं परिवहन के क्षेत्र में। तथा क्षेत्र में अन्य स्थानों — विशेष तौर पर लघु पैसिफिक द्वीपों — पर जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के प्रति संवेदनशीलता में वृद्धि हो रही है। तेजी से परिवर्तित होते हुए इस परिदृश्य को ध्यान में रखते हुए बहुत से पहलुओं पर त्वरित एवं निर्णायक कार्रवाई की आवश्यकता है। वैसे तो प्रत्येक देश की विशिष्ट परिस्थितियों के अनुसार प्रतिक्रिया तैयार करने की आवश्यकता है, परन्तु कुछ अनुशंसाएं लगभग सभी देशों के लिए सहायक हो सकती हैं: • लगभग समग्र क्षेत्र में मुद्रास्फीति कम होने के कारण विकास सहायक मौद्रिक नीति होनी चहिए, ताकि गिरावट आने की स्थिति में उसका सामना किया जा सके। • विनिमय दर लचीलापन तथा लक्षित व्यापक स्तर वाली विवेकपूर्ण नीतियां (माइक्रोप्रुडेंशियल पॉलिसी) जोखिक-प्रबंधन टूलकिट का अंग होना होनी चाहिए। • देशों को अपनी स्थानीय एवं क्षेत्रीय बचत के एक बड़े भाग को अपनी विकास आवश्यकताओं के वित्तीयन की दिशा में प्रयोग करने के लिए अपनी वित्तीय प्रणालियों को और अधिक सुदृढ़ करने की आवश्यकता है; उदाहरण के लिए इस क्षेत्र की ढांचागत कमियों को दूर करना अभी भी महत्वपूर्ण बना हुआ है। • वित्तीय नीति की सहायता के साथ ढांचागत सुधारों से आर्थिक संक्रमण एवं पुनर्संतुलन में सहायता मिलनी चाहिए जबकि संभावित विकास एवं निर्धन समाप्त करने को बढ़ावा मिलना चाहिए। शुभ समाचार यह है कि एशिया जैसा कि हाल के वर्षों में सशक्त प्रदर्शन दर्शाया गया है, के अनुरूप ही इन चुनौतियों पर विजय प्राप्त कर सकता है तथा पिछले दो दशकों की महत्‍वपूर्ण उपलब्धियों की नींव पर भविष्य का निर्माण करना जारी रख सकता है। इसके पास संसाधन एवं श्रमशक्ति है, इसके पास बफर्स तथा लचीलापन है; तथा इसके पास और अधिक व्यापार एवं वित्तीय समेकताओं के लिए प्रचुर अवसर हैं। इन चुनौतियों के बारे में चर्चा करने के लिए, भारत सरकार एवं आई.एम.एफ. 11 से 13 मार्च के दौरान नई दिल्‍ली में क्षेत्रीय नीतिनिर्माताओं एवं विचारकों की एक बैठक - प्रगतिशील एशिया सम्मेलन - आयोजित कर रहे हैं। भारत इस कठिन स्थिति में से उभरते हुए बाजारों में एक उज्जवल बिन्दु है — वास्तव में विश्व की सबसे तीव्र गति से विकास करती हुई प्रमुख अर्थव्यवस्‍था है - तथा इस कार्यक्रम को आयोजित करने एक शुभ स्थान है। एशियाई नीतिनिर्माताओं के साथ सम्‍मेलन करने का हमारा परस्पर लक्ष्य सुस्पष्ट है व एशिया तथा वैश्विक अर्थव्यवस्‍था के लिए महत्‍वपूर्ण है: एशिया में सुदृढ़, संवहनीय एवं समावेशी विकास जारी रखना सुनिश्चित करना, ताकि यह क्षेत्र वैश्विक विकास का एक प्रमुख नेतृत्वकर्ता बना रहे। पानी का मूल्य क्या है सिंगापुर/अटलांटा - उन्नीसवीं सदी के शुरू में, लॉर्ड बायरन ने डॉन जुआन में लिखा था कि "जब तक दर्द नहीं सिखाता तब तक आदमी को वास्तव में पता नहीं चलता कि अच्छे पानी का मूल्य क्या है।" लगभग 200 साल बाद भी, ऐसा लगता है कि मानवता अभी भी पानी का मूल्य नहीं समझती, जिसके उदाहरण लगभग हर जगह दशकों से ख़राब जल प्रबंधन और प्रशासन में मिलते हैं। लेकिन आसन्न जल संकट की अनदेखी करना अधिकाधिक कठिन होता जा रहा है - ख़ास तौर से उनके लिए जो पहले ही इसका प्रभाव महसूस कर रहे हैं। इससे सुनिश्चित होने के लिए, हाल के सालों में जल प्रबंधन में कुछ सुधार किए गए हैं। लेकिन वे लगातार ऐसी धीमी गति से आए हैं कि समस्या का प्रभावी ढंग से समाधान नहीं कर सकते। इसकी प्रगति को गति देने में मदद करने के लिए, नेस्ले, कोका कोला, एसएबीमिलर, और यूनिलीवर जैसी बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ - जो लंबे समय से अपने निवेशकों के सामने पानी की कमी से उनके कारोबार, और निश्चित रूप से उन समुदायों के लिए ख़तरे पर ज़ोर दे रही हैं, जिनमें वे काम कर रही हैं - पानी की उपलब्धता, गुणवत्ता और स्थिरता में सुधार करने के लिए काम कर रही हैं। उनकी सफलता के लिए अभिनव रणनीति की ज़रूरत होगी जो पानी से संबंधित समस्याओं के बारे में आरोपित धारणाओं - और दृष्टिकोण - को रोकेगी। उदाहरण के लिए, यह प्रचलित दृष्टिकोण, सटीक होने के बावजूद, बहुत संकीर्ण है कि दुनिया को अच्छे जल प्रबंधन की ज़रूरत है। जल प्रबंधन को अपने आप में लक्ष्य - एकल संस्करण-समस्या के लिए एकल-संस्करण समाधान - के रूप में नहीं माना जाना चाहिए, बल्कि इसे अनेक लक्ष्यों के लिए साधन के रूप में माना जाना चाहिए, जिसमें पर्यावरण संरक्षण और सामाजिक और आर्थिक विकास शामिल है। इस व्यापक संदर्भ में देखने पर, उनमें से अनेक मानदंडों, प्रथाओं, और प्रक्रियाओं को बदलने की ज़रूरत है जिनका इस्तेमाल फ़िलहाल समुदायों के जल संसाधनों के लिए किया जा रहा है। इस बात पर विचार करते हुए कि जल संसाधनों को, उदाहरण के लिए, खाद्य और ऊर्जा से प्रतिस्पर्धा से अलग नहीं किया जा सकता, इस पर स्वतंत्र रूप से कार्रवाई नहीं की जा सकती। बहुमुखी समस्याएँ बहुमुखी समाधानों की माँग करती हैं। मामलों को और ज़्यादा उलझाते हुए, जनसांख्यिकीय परिवर्तन, जनसंख्या वृद्धि, शहरीकरण, देशों के भीतर और देशों में प्रवास, भूमंडलीकरण, व्यापार उदारीकरण, और विकासशील देशों में मध्य वर्ग के तेज़ी से विस्तार के कारण, अगले कुछ दशकों में इन समस्याओं की पृष्ठभूमि काफ़ी ज़्यादा बदलने की संभावना है। इन बदलावों के साथ तीव्र औद्योगिकीकरण और विज्ञान और प्रौद्योगिकी (ख़ास तौर से सूचना और संचार प्रौद्योगिकी) के क्षेत्र में प्रगति होगी, और इनसे आहार की आदतों और खपत के पैटर्न में बदलाव आएगा। नतीजतन, पानी की खपत के पैटर्न काफ़ी हद तक बदल जाएँगे, जिनमें परोक्ष रूप से कृषि, और ऊर्जा के माध्यम से, और भूमि के इस्तेमाल में बदलाव शामिल है। निश्चित रूप से, ये संबंध दुनिया के अनेक हिस्सों में पहले ही स्पष्ट हो गए हैं। उदाहरण के लिए, अनेक एशियाई देशों में - जिनमें भारत, चीन और पाकिस्तान शामिल हैं - अधिक निकासी और ऊर्जा में सहायता राशि के कारण भूजल स्तर में ख़तरनाक दर से गिरावट आ रही है। भारत के लिए, समस्या 1970 के बाद के दशक में शुरू हुई, जब प्रमुख दाताओं ने सरकार को, किसानों को सिंचाई के लिए मुफ़्त बिजली उपलब्ध कराने के लिए प्रोत्साहित किया। शुरू में सहायता राशि प्रबंध के योग्य थी, और इससे पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, गुजरात और महाराष्ट्र जैसे राज्यों में खाद्य उत्पादन बढ़ाने के उनके लक्ष्य हासिल किए गए। लेकिन इस नीति ने किसानों द्वारा पंप पानी की मात्रा को सीमित करने के लिए प्रोत्साहन राशि हटा दी। उन्हें केवल वास्तविक पंप स्थापित करने में निवेश करना था - और उन्होंने यह स्वेच्छा से किया, जिसके परिणामस्वरूप आज 23 मिलियन पानी के पंप मौजूद हैं। इस फ़िज़ूलख़र्ची का भूजल स्तर पर बहुत ख़राब असर हुआ, और इसके कारण उन नलकूपों को और ज़्यादा गहरे स्तर पर लगाने के लिए बाध्य होना पड़ा जिनसे पानी पंप किया जाता था। जल प्रबंधन के लिए तीसरी दुनिया का केंद्र के अनुसार भारत में केवल पिछले दशक में ही पानी पंप करने के लिए ज़रूरी बिजली की मात्रा दोगुनी - और, कुछ मामलों में, तिगुनी तक - हो गई है, क्योंकि नलकूपों का पानी 10-15 मीटर (32-50 फ़ुट) से खिसककर 200-400 मीटर (650-1300 फ़ुट) गहरे तक चला गया है। बढ़ती हुई गहराई के कारण हर पंप के लिए 3-4 गुना ज़्यादा अश्वशक्ति की ज़रूरत होती है। इन स्थितियों में, राज्यों के जल मंत्रालयों के पास भूजल सिंचाई को स्थायी बनाने के लिए बहुत कम विकल्प बचते हैं। बिजली की सहायता राशि में निरंतर बढ़ोतरी के साथ, जो ऊर्जा क्षेत्र को निचोड़ रही है, ज़्यादा-पम्पिंग को काबू में करने के लिए प्रभावी नीतियाँ बनाना मुश्किल है। जल क्षेत्र को ऊर्जा और अन्य क्षेत्रों में विकास पर प्रतिक्रिया करनी होगी, जिस पर, घनिष्ठ संबंध होने के बावजूद, इसका बहुत सीमित नियंत्रण है। अगर ज़्यादा न कहा जाए, तो विभिन्न क्षेत्रों की नीतियों का प्रभावी ढंग से समन्वय करना मुश्किल होगा। यह चुनौतीपूर्ण लग सकता है, लेकिन वास्तविकता यह है कि इन चुनौतियों पर काबू पाया जा सकता है - अगर, हमारे नेता उनसे निपटने के लिए प्रतिबद्ध हो जाएँ। हमारे पास पहले ही ज़रूरी प्रौद्योगिकी, जानकारी, अनुभव, और यहाँ तक कि वित्त-पोषण भी है। मज़बूत राजनीतिक इच्छाशक्ति, जानकारी-युक्त जनता से निरंतर दबाव, और अंतःक्षेत्रीय सहयोग करने वाले जल पेशेवरों और संस्थानों से "कर सकते हैं" दृष्टिकोण के साथ, दुनिया की जल प्रबंधन की समस्याओं से प्रभावी ढंग से निपटा जा सकता है। लेकिन हमें अभी कार्रवाई करनी होगी। समय - और पानी - चला जा रहा है। भारत का स्वदेशी खाद्य संकट सिंगापुर – वर्तमान अनुमानों के अनुसार, 2028 तक भारत की कुल जनसंख्या 1.45 बिलियन तक पहुँच जाएगी, जो चीन की जनसंख्या के बराबर होगी, और 2050 तक यह 1.7 बिलियन हो जाएगी, जो चीन और अमेरिका दोनों की आज की जनसंख्या को मिलाकर उसके लगभग बराबर होगी। यह देखते हुए कि भारत पहले से ही अपनी आबादी को खिलाने के लिए संघर्ष कर रहा है, इसका वर्तमान खाद्य संकट आने वाले दशकों में और भी बदतर हो सकता है। 2013 ग्लोबल हंगर इंडेक्स (जीएचआई) के अनुसार, 78 सबसे अधिक भूखे देशों में भारत का स्थान 63वाँ है, यह स्थिति उसके पड़ोसी देश श्रीलंका (43वाँ), नेपाल (49वाँ), पाकिस्तान (57वाँ) और बांग्लादेश (58वाँ) की तुलना में बहुत अधिक खराब है। पिछली चौथाई सदी में भारत में काफी सुधार होने के बावजूद – इसकी जीएचआई रेटिंग 1990 के 32.6 से बढ़कर 2013 में 21.3 हो गई है – संयुक्त राष्ट्र खाद्य और कृषि संगठन का मानना है कि 17% भारतीय अभी भी इतने अधिक कुपोषित हैं कि वे उत्पादक जीवन नहीं जी सकते। वास्तव में, दुनिया के एक-तिहाई कुपोषित लोग भारत में रहते हैं, इनकी संख्या पूरे उप-सहारा अफ्रीका से अधिक है। अधिक चिंताजनक बात यह है कि दुनिया के एक-तिहाई कुपोषित बच्चे भारत में रहते हैं। यूनिसेफ के अनुसार, 47% भारतीय बच्चों का वज़न कम है और तीन वर्ष से कम उम्र के 46% बच्चे अपनी उम्र के हिसाब से बहुत ही छोटे हैं। वास्तव में, यह कहा जा सकता है कि बचपन में होनेवाली सभी मौतों में से लगभग आधी मौतें कुपोषण के कारण होती हैं - यह एक ऐसी स्थिति है जिसे पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने “राष्ट्रीय शर्म” की बात कहा था। भारत की पुरानी खाद्य असुरक्षा का कारण क्या है? कृषि उत्पादन ने हाल के वर्षों में नए रिकॉर्ड स्थापित किए हैं, इसका उत्पादन 2005-2006 के 208 मिलियन टन से बढ़कर 2013-2014 में 263 मिलियन टन होने का अनुमान है। भारत को प्रति वर्ष 225-230 मिलियन टन खाद्यान्न की जरूरत होती है; इसलिए, हाल ही में जनसंख्या में हुई वृद्धि को हिसाब में लेने पर भी, खाद्य उत्पादन स्पष्ट रूप से मुख्य मुद्दा नहीं है। सबसे अधिक महत्वपूर्ण कारक – जिसे नीतिनिर्धारक लंबे समय से नजरअंदाज करते आ रहे हैं – यह है कि भारत जो खाद्य पैदा करता है उसका एक बड़ा अंश उपभोक्ताओं तक कभी नहीं पहुँचता है। एक पूर्व कृषि मंत्री, शरद पवार ने कहा है कि $8.3 बिलियन मूल्य का, या वार्षिक उत्पादन के कुल मूल्य का लगभग 40% अनाज बर्बाद हो जाता है। इससे पूरी तस्वीर सामने नहीं आती: उदाहरण के लिए,माँस के मामले में बर्बाद होनेवाले खाद्य का अंश लगभग 4% है लेकिन यह खाद्य की लागत का 20% होता है, जबकि फल और सब्जी के उत्पादन का 70% अंश बर्बाद होता है, जो कुल लागत का 40% होता है। भले ही भारत दुनिया का सबसे बड़ा दूध उत्पादक है और फल और सब्जियों को उगाने की मात्रा की दृष्टि से (चीन के बाद) दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक है, लेकिन यह दुनिया में सबसे अधिक खाद्य बर्बादी करने वाला देश भी है। नतीजतन, फल और सब्जियों की कीमतें जितनी अन्यथा होनी चाहिए उनसे दुगुनी हैं, और दूध की कीमत जितनी होनी चाहिए, वह उससे 50% अधिक है। यह बात नहीं है कि केवल खराब होने वाला खाद्य ही बर्बाद किया जाता है। अनुमानतः 21 मिलियन टन गेहूँ – ऑस्ट्रेलिया के पूरे वर्ष की फसल के बराबर – सड़ जाता है या उसे कीड़े खा जाते हैं, जिसका कारण भारत सरकार द्वारा संचालित भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) में अपर्याप्त भंडारण और खराब प्रबंधन का होना है। 2008-2009 के बाद से खाद्य मूल्य मुद्रास्फीति लगातार 10% से ऊपर रही है (सिवाय 2010-2011 के, जब यह "केवल" 6.2% थी); इससे गरीब लोगों को, जिनका किराने का बिल आम तौर पर घर के बजट का 31% होता है, सबसे अधिक भुगतना पड़ा है। इतना अधिक नश्वर खाद्य क्यों नष्ट हो जाता है इसके कई कारण हैं, जिनमें आधुनिक खाद्य वितरण चेन का न होना, कोल्ड-स्टोरेज केंद्रों और प्रशीतित ट्रकों का बहुत कम होना, परिवहन सुविधाओं का खराब होना, विद्युत आपूर्ति अनियमित होना, और इस क्षेत्र में निवेश करने के लिए प्रोत्साहनों की कमी होना शामिल हैं। कोलकाता स्थित भारतीय प्रबंधन संस्थान का अनुमान है कि कोल्ड-स्टोरेज सुविधाएँ केवल 10% नश्वर खाद्य उत्पादों के लिए उपलब्ध हैं, और लगभग 370 मिलियन टन नश्वर उत्पादों पर खतरा बना रहता है। भारतीय खाद्य निगम की स्थापना1964 में मुख्य रूप से इसलिए की गई थी कि मूल्य समर्थन प्रणालियाँ लागू की जाएँ, राष्ट्रव्यापी वितरण की सुविधा उपलब्ध की जाए, और गेहूँ और चावल जैसे खाद्य पदार्थों के बफर स्टॉक बनाए रखे जाएँ। लेकिन कुप्रबंधन, खराब निरीक्षण, और बड़े पैमाने पर फैले भ्रष्टाचार का अर्थ है कि भारतीय खाद्य निगम, जो सकल घरेलू उत्पाद का 1% हड़प जाता है, अब इस समस्या का एक हिस्सा है। पूर्व खाद्य मंत्री के.वी. थॉमस ने इसे एक ऐसा "सफेद हाथी" कहा था जिसकी "ऊपर से नीचे तक" मरम्मत किए जाने की जरूरत है। लेकिन इसके बजाय सरकार ने खाद्य में कमियों को उत्पादन में वृद्धि करके समाप्त करने की कोशिश की है, इस बात पर विचार किए बिना कि लगभग आधे खाद्य उत्पाद नष्ट हो जाएँगे। यदि खाद्य उत्पादन के 35-40% को सड़ने के लिए छोड़ दिया जाता है तो भारत के पास भारत के भावी 1.7 बिलियन लोगों को पर्याप्त पौष्टिक भोजन उपलब्ध कराने के लिए पर्याप्त कृषि योग्य भूमि, सिंचाई, या ऊर्जा नहीं होगी। इसलिए नई मोदी सरकार को भारत के खाद्य संकट को हल करने के लिए वैकल्पिक उपायों पर विचार करना चाहिए। जलवायु के हिमायतियों से शंकालु दूर रहें सिडनी - लॉस एंजेलिस से सिडनी के लिए हाल ही में 14.5 घंटे की एक उड़ान में, मेरे पास स्तंभ लेखक चार्ल्स क्राउथैमर के निबंधों का संग्रह, थिंग्स दैट मैटर (जो चीज़ें महत्वपूर्ण हैं) पढ़ने के लिए समय था। इससे यह उड़ान परेशानी भरी हो गई। मैंने सालों से क्राउथैमर के लेखन का आनंद लिया है, लेकिन उनकी इस किताब में कुछ ऐसा था जो मुझे बहुत अधिक परेशान करने वाला लगा: यह जलवायु परिवर्तन पर उनका खुद का एक "शंकालु" के रूप में वर्णन करना था। वे "सहज रूप से मानते हैं कि वातावरण में बहुत सारी कार्बन डाइऑक्साइड भर देना बहुत अच्छा नहीं हो सकता" और फिर भी वे "इस बात को उतनी ही शिद्दत से मानते हैं कि जो लोग यह मान बैठे हैं कि उन्हें वास्तव में पता है कि इसका हश्र क्या होगा, वे हवा में बात कर रहे हैं।" जो शब्द मुझे सबसे ज़्यादा खराब लगा, वह "शंकालु" था - केवल इसलिए नहीं कि क्राउथैमर प्रशिक्षित वैज्ञानिक है���, बल्कि इसलिए भी कि ऑस्ट्रेलिया के पूर्व प्रधानमंत्री जॉन हावर्ड ने 2013 के अंत में लंदन में जब जलवायु परिवर्तन को न माननेवाले एक समूह को संबोधित किया तो उन्होंने इस शब्द का बार-बार इस्तेमाल किया था। हावर्ड ने वहाँ इकट्ठा हुए शंकालुओं से कहा था कि "इस बहस में एक आंशिक समस्या यह भी है कि इसमें शामिल कुछ उग्रपंथियों के लिए उनका उद्देश्य एक स्थानापन्न धर्म बन गया है।" हावर्ड और क्राउथैमर को यह पता होना चाहिए कि जलवायु परिवर्तन का मामला धर्म का नहीं, बल्कि विज्ञान का विषय है। इस विषय पर समकक्षीय-समीक्षा के प्रकाशनों के 2013 के सर्वेक्षण के अनुसार, लगभग 97% वैज्ञानिक इस स्थिति का समर्थन करते हैं कि ग्लोबल वार्मिंग मनुष्यों के कारण हो रही है। वैज्ञानिक प्रक्रिया से परिचित कोई भी व्यक्ति यह जानता है कि शोधकर्ता असहमत होने, एक दूसरे की प्रकल्पनाओं और निष्कर्षों का विरोध करने के लिए प्रशिक्षित होते हैं। इस तरह की भारी सहमति प्राप्त करना उतना ही कठिन होता है जितना कभी किसी मान्यता प्राप्त वैज्ञानिक तथ्य को प्राप्त करना। यह देखते हुए कि क्राउथैमर भी यह मानते हैं कि वातावरण को कार्बन डाइऑक्साइड से पूरी तरह भर देना "बहुत अच्छा नहीं हो सकता", बहस में अगला तार्किक चरण समस्या का समाधान करने के लिए सबसे अच्छा तरीका निर्धारित करना है। अर्थशास्त्री के रूप में, मैं कार्बन पर शुल्क लगाने के लिए नीलामी-आधारित कैप-एंड-ट्रेड यानी उत्सर्जन कम करते हुए व्यापार करने की प्रणाली के पक्ष में हूँ। लेकिन मैं अक्षय ऊर्जा के लिए लक्ष्य निर्धारित करने, बिजली के इनकैंडेसेंट बल्बों पर रोक लगाने, और जैव ईंधनों के उपयोग को अनिवार्य बनाने जैसे विनियामक उपायों की संभावित उपयोगिता भी समझता हूँ। मैं ऐसे व्यक्ति का यह दावा स्वीकार नहीं कर सकता जो खुद तो कोई समाधान पेश नहीं करता और हम जैसे जो लोग समाधान पेश करते हैं उनके बारे में कहता है कि "हम हवा में बात कर रहे हैं।" सौभाग्य से, क्राउथैमर जैसे लोगों की आवाज़ें अधिकाधिक विरल होती जा रही हैं। इसमें संदेह नहीं है कि अभी भी ऑस्ट्रेलियाई प्रधानमंत्री टोनी एबट जैसे अड़ियल लोग हैं जिन्होंने कार्बन के कर को ऐसी योजना से प्रतिस्थापित किया है जो उत्सर्जनों में कटौती करने के लिए प्रदूषणकर्ताओं को भुगतान करने हेतु देश के नागरिकों पर कर लगाती है। नीति के रूप में, यह असमान है, अकुशल है, और इससे उत्सर्जनों के उस गति से कम होने की संभावना नहीं है जो इस साल दिसंबर में पेरिस में स्वीकार किए जानेवाले वैश्विक जलवायु परिवर्तन समझौते की शर्तों को पूरा करने के लिए काफ़ी हो। मानसिकता में बदलाव का निश्चित संकेत इस बात से मिलता है कि वित्तीय संस्थानों द्वारा इस बात को अधिकाधिक मान्यता दी जाने लगी है कि ऋणों और निवेशों पर जलवायु परिवर्तन के जोखिम अधिक मात्रा में हो सकते हैं। इन जोखिमों में प्राकृतिक आपदाएँ, अधिक चरम मौसम, ग्रीनहाउस-गैस उत्सर्जनों को कम करने के लिए सरकारों के प्रयास, और नवीकरणीय ऊर्जा, ऊर्जा दक्षताओं, और वैकल्पिक प्रौद्योगिकियों के महत्वपूर्ण प्रभाव शामिल हैं। असेट ओनर्स डिस्क्लोज़र प्रोजेक्ट (परिसंपत्ति मालिकों की प्रकटीकरण परियोजना) के अनुसार, जिसका मैं अध्यक्ष हूँ, शीर्ष 500 वैश्विक परिसंपत्ति के मालिकों के जलवायु परिवर्तन के ख़तरों से चिंताजनक रूप से प्रभावित होने की संभावना है। उनके आधे से ज़्यादा निवेश उन उद्योगों में हैं जिन पर जलवायु परिवर्तन के ख़तरों की संभावना है; 2% से कम निवेश कम-कार्बन गहन उद्योगों में हैं। परिणामस्वरूप, उनके लिए यह जोखिम है कि नीतियों और बाज़ार की स्थितियों में बदलाव होने पर बुनियादी सुविधाओं, अन्य संपत्ति, और जीवाश्म ईंधन के भंडारों के मूल्य में कमी होने पर उनके निवेश और धारिताएँ "अटक जाएँगी"। जैसा कि यूएस ख़जाना मंत्री, हैंक पॉलसन, ने 2008 में वैश्विक वित्तीय संकट की स्थिति उत्पन्न होने पर एक बार यह चेतावनी दी थी कि जलवायु प्रेरित वित्तीय संकटों के जोखिमों के सामने सामान्य संकट तुच्छ दिखाई देंगे। उदाहरण के लिए, कोयले की क़ीमत, इसके सर्वोच्च स्तर से लगभग आधे तक गिर गई है, और इसके और कम होने की अभी भी बहुत गुंजाइश है। नतीजतन, कोयला कंपनियों के शेयरों के मूल्य 90% तक गिर गए हैं, जिससे परिसंपत्तियों के मालिकों को विनिवेश करने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है। इसके विपरीत, टेस्ला मोटर्स जैसी कंपनी - जिसने अब घरों में इस्तेमाल के लिए रिचार्जेबल बैटरी विकसित कर ली है, जिसके फलस्वरूप बहुत से घरों में बिजली के बदले सौर ऊर्जा का इस्तेमाल करना शुरू किया जा सकता है - में निवेश करना कहीं ज़्यादा आकर्षक लग रहा है। जैसे-जैसे बाजार में यह यह भावना विकसित हो रही है, वैसे-वैसे परिसंपत्ति मालिक कम-कार्बन वाले उद्योगों और टेस्ला जैसी कंपनियों में अपने निवेशों को बढ़ाकर अपने दांव आज़मा रहे हैं। समय बीतने के साथ, इसका वैश्विक निवेश निधि के आबंटन पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ेगा। क्राउथैमर सोच सकते हैं कि मैं हवा में बात कर रहा हूँ, लेकिन मुझे विश्वास है कि जल्दी ही उन्हें - और उनकी बात मानने वाले लोगों को - अपनी राय बदलनी पड़ेगी। हैती के लिए नई आशा न्यू यॉर्क – हाल ही में लॉस पल्मास, हैती के ग्रामीण समुदाय के भ्रमण के दौरान मुझे उन परिवारों से बातचीत करने का अवसर प्राप्त हुआ जो 2010 के भूकंप के बाद वहां फैली हैजे की महामारी से सीधे-सीधे प्रभावित हैं. एक आदमी ने मुझे बताया कि इस महामारी ने न केवल उसकी बहन की जान ले ली बल्कि उसकी सास भी नजदीकी अस्पताल तक ले जाते वक्त मर गई. इस अस्पताल तक पैदल जाने में घंटों लग जाते हैं. अब वह और उसकी पत्नी अपने पांच अनाथ भतीजे-भतीजियों को पाल रहे हैं. हैती में आज इस तरह की कहानियां आम हैं. ���चमुच पूरे देश में हजारों लोग इस महामारी का कहर झेल रहे हैं. बुरे वक्त और त्रासदी को सहना उनकी नियती बन गई है. लेकिन आशा की कुछ किरणें भी हैं. समुदाय के बीच बढ़े समन्वय और स्वच्छता प्रथाओं में परिवर्तन से लॉस पल्मास तथा पड़ोसी गांव जैकब के स्त्री, पुरुष और बच्चों को हैजा से मुक्ति मिली है. पिछले कुछ सालों से महामारी का प्रकोप कम हुआ है तथा आबादी को अन्य जल-जनित बीमारियों के संक्रमण का खतरा कम हुआ है. मिसाल के तौर पर एक परिवार जिससे मैं मिला उसने गर्व के साथ मुझे अपना नया वाटर फिल्टर दिखाया. संपूर्ण स्वच्छता अभियान की सफलता में समुदाय-नीत रवैया अहम भूमिका निभाएगा. मेरी यात्रा के दौरान हैती के प्रधानमंत्री लॉरेंट लामोथे और मेरे द्वारा लॉस पल्मास में इस अभियान की शुरूआत की गई थी. उम्मीद है कि टिकाऊ स्वच्छ पैखानों के निर्माण में परिवारों के निवेश को प्रोत्साहन देने, वहनीय मूल्यों पर उन्नत स्वच्छता उत्पादों व सेवाओं को उपलब्ध कराने तथा विद्यालयों और स्वास्थ्य केंद्रों में पर्याप्त जल तथा स्वच्छता अवसंरचना सुनिश्चित कराने से अगले पांच साल में ऊंचे खतरों वाले इलाकों में बसे तीस लाख लोगों की स्वास्थ्य परिस्थितियों में सुधार आएगा. गांव से चलने से पूर्व हमने वहां नए सुरक्षित जल संसाधन की प्रतीकात्मक प्रथम आधार शिला भी रखी. यह अभियान हैती से हैजा के उन्मूलन के लिए संयुक्त राष्ट्र द्वारा समर्थित व्यापक कार्यवाई में नवीनतम कदम है. हाल ही में संयुक्त राष्ट्र तथा हैती सरकार ने एक उच्च-स्तरीय समिति का गठन किया. इस समिति को एक व्यापक रणनीति के क्रियांन्वयन का कार्य सौंपा गया है जिसमें हैजा की रोकथाम व प्रतिक्रिया के सभी पहलु तथा परिवारों व समुदायों को वृहत सहायता उपलब्ध कराना शामिल है. इसके अलावा हैती के स्वास्थ्य मंत्रालय तथा पैन-अमेरिकन हेल्थ ऑर्गनाइजेशन/विश्व स्वास्थ्य संगठन मिलकर एक व्यापक टीकाकरण अभियान के द्वितीय चरण की शुरूआत कर रहे हैं. संयुक्त राष्ट्र द्वारा वित्तपोषित इस अभियान में उन इलाकों के छह लाख लोगों को हैजा के टीके लगाए जाएंगे जहां इस बीमारी का सर्वाधिक प्रकोप है. दो लाख लोगों को अगले कुछ महिनों में तथा तीन लाख लोगों को इस साल के अंत तक टीके लगाए जाएंगे. पिछले साल प्रथम चरण के दौरान एक लाख लोगों को प्रतिरोधात्मक टीके लगाए गए थे. इन प्रयासों की बदौलत इस महामारी से मरने वालों की संख्या में काफी हद तक कमी आई है. इस साल के पहले कुछ महिनों के दौरान हैजा से ग्रस्त लोगों तथा इसके कारण होने वाली मौतों की संख्या 2013 की इसी अवधि की तुलना में लगभग 75% घटी है और महामारी फैलने की शुरूआत से लेकर अब तक सबसे निचले स्तर पर पहुंच गई है. यह निश्चित है कि पश्चिमी गोलार्द्ध में हैजा के सर्वाधिक संभावित मामले अकेले हैती में पाए जाते हैं. ज्ञान व संपदा से संपन्न दुनिया में यह अस्वीकार्य है. लेकिन यह देश सफलता के मार्ग पर अग्रसर है. जिस तरह दुनियाभर में अन्य अत्यंत कठिन परिवेशों में हैजा का सफाया हुआ है उसी तरह यह हैती से भी मिटाया जा सकता है. लेकिन अंशतः इस देश के प्रति संयुक्त राष्ट्र की प्रतिबद्धता की बदौलत हैती तथा अन्य क्षेत्रों में भी स्थिति में सुधार आ रहा है. सन् 2004 से संयुक्त राष्ट्र का स्थिरता मिशन (मिनस्टाह) हैती में सुरक्षा परिवेश को सुधारने, राजनीतिक प्रक्रिया को समर्थन देने, सरकारी संस्थानों को सुदृढ़ करने तथा मानव अधिकारों की रक्षा के लिए कार्य कर रहा है. इसने 2010 के भूकंप के बाद से देश को स्थिर करने तथा पुनर्निर्माण में बड़ी भूमिका निभाई है. मिनस्टाह के प्रयासों की बदौलत - तथा संयुक्त राष्ट्र की अन्य एजेंसियों के सहयोग से सुरक्षा हालात में भारी सुधार आया है. इसमें सशक्त न्यायिक व्यवस्था और अधिक प्रभावी राष्ट्रीय पुलिस बल का बड़ा योगदान है. इसी दौरान प्राथमिक विद्यालयों में नामांकन की दरें बहुत अधिक बढ़ी हैं. ये 1993 में 47% से बढ़ कर आज 90% के करीब आ गई हैं. लेकिन नाजुक राजनीतिक व सामाजिक स्थिति, कमजोर अर्थव्यवस्था तथा गहन वित्तीय तंगी के चलते हैती की निरंतर प्रगति निश्चितता से कोसों दूर है. अपने विकास के लक्ष्यों को हासिल करने के लिए अवसरों में सुधार लाने हेतु हैती को इस साल के अंत तक अपने यहां विधायिका तथा स्थानीय चुनावों को संपन्न कराना चाहिए. ये चुनाव लंबे समय से लंबित हैं. हैती के नेताओं को अपने दलगत राजनीतिक मसलों से ऊपर उठ कर अपने मतभेदों को दूर करना चाहिए ताकि निष्पक्ष चुनाव कराए जा सकें, कानून का शासन स्थापित हो सके, मानव अधिकारों की रक्षा हो सके और देश में लोकतंत्र की बुनियाद मजबूत हो सके. अंतर्राष्ट्रीय समुदाय का निरंतर समर्थन भी आगे अनिवार्य बना रहेगा. सबसे जरूरी है कि अपनी 10 साल की 2.2 अरब डॉलर की राष्ट्रीय हैजा उन्मूलन योजना के लिए हैती को आर्थिक सहायता चाहिए. अभी तक 44.8 करोड़ डॉलर का मात्र 40% ही हैती को मिल पाया है. यह रकम अग्रिम चेतावनी, त्वरित प्रतिक्रिया, जल, स्वच्छता तथा टीकाकरण में पहले दो साल के दौरान निवेश के लिए जरूरी है. यह रकम कुल प्रस्तावित सहायता की मात्र 10% है. हैजा महामारी से पार पाने तथा समावेशी आर्थिक विकास के लक्ष्यों को हासिल करने के लिए जरूरी गुण लगाव तथा संकल्प हैती के लोगों में कूट-कूट कर भरे हैं. लेकिन इसके लिए अंतर्राष्ट्रीय समुदाय - विशेषकर इस क्षेत्र में कार्यरत अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों को उनका साथ देने के लिए कमर कसनी पड़ेगी. लॉस पल्मास में मैंने जो मेजबानी और प्रेम पाया उससे मैं अत्यंत प्रभावित हुआ. लेकिन मैं यह भी समझता हूं कि हैती के लोग आशा करते हैं कि उनकी सरकार और संयुक्त राष्ट्र उस दिन किए गए वादों को जरूर पूरा करेंगे. यदि हर कोई अपनी भूमिका को बखूबी निभाए तो हम हैती वासियों को ज्यादा स्वस्थ व अधिक संपन्न भविष्य दे पाएंगे जिसके वे हकदार हैं. चीन के शहरी भविष्य की तस्वीर बीजिंग. लगभग 10 करोड़ चीनी घोर गरीबी में जीवन यापन करते हैं और मोटे तौर पर साढ़े 27 करोड़ आबादी रोजाना 2 डालर से कम खर्च कर पाती है. चीन में गरीब लोगों की ज्यादातर आबादी देहाती इलाकों में रहती है. इस उम्मीद में कि शहरों में अच्छे वेतन वाले काम पाना आसान है. गरीबों का शहरों की ओर पलायन जारी है कि शहरों में उनका जीवन बेहतर हो जाएगा. वस्तुतः पिछले करीब साढ़े तीन दशक से लगभग 50 करोड़ चीनी आबादी शहरों में आकर बस गई है. इससे जहां 1980 के दशक चीन की कुल आबादी में शहरी आबादी की तादाद 20 प्रतिशत से भी कम थी वहीं अब यह लगभग आधी, यानी 50 फीसद हो गई है. 2030 तक चीन की 70 फीसद आबादी शहरों में रह रही होगी. निसंदेह चीन के शहरीकरण ने उस देश की शानदार प्रगति और तीव्र रूपांतरण में अतुलनीय योगदान दिया है. इसके शहरों ने सस्ती जमीन और सस्ता श्रम उपलब्ध कराया जिसका फायदा उठाकर स्थानीय सरकारों ने भारी मात्रा में पूंजी निवेश को आकर्षित किया और नए-नए रोजगारों का निर्माण किया. लेकिन अब इस व्यवस्था के चरमराने के संकेत दिखने लगे हैं. पूंजी-निवेश और निर्यात के बल पर पनपा चीनी विकास मॉडल अब अपनी ऊर्जा खोने लगा है. घिचपिच बसे शहरों की हदें अपने पांव पसार रही हैं. उनकी जमीनें छिनती जा रही हैं और बदले में उन्हें पर्याप्त मुआवजा भी नहीं मिल रहा है. दरअसल ये जमीनें स्थानीय सरकारों के लिए गिरवी रखकर कर्ज लेने में बहुमूल्य संसाधन हैं (जो अब जीडीपी के 30% के बराबर है). इसके अलावा शहरी व देहाती इलाकों के बीच चौड़ी होती खाई ने चीन की आमदनी व संपदा संबंधी विषमता को और बढ़ा दिया है. खासकर हुकाऊ (चीन की आधिकारिक घरेलु पंजीकरण प्रणाली में प्रयुक्त दस्तावेज) रखने वाले शहरियों और प्रवासियों के बीच जिनके पास हुकोऊ नहीं है. हालांकि प्रवासियों के वेतन भत्तों में काफी तेजी आई है, लेकिन सार्वजनिक सेवाओं (जिन्हें पाने के लिए शहरी हुकोऊ जरूरी है) में विषमता के कारण यही असंतुलन कायम है. इससे प्रवासियों की संतानों का भविष्य खतरे में पड़ गया है और भविष्य में प्रवास पर इसका प्रतिगामी असर पड़ सकता है. शहरों के पर्यावरण पर भारी दबाव पड़ रहा है. हालांकि शहरी प्रदूषण को कम करने के उपाय किए जा रहे हैं लेकिन फिर बढ़ते शहरीकरण लोगों को सांस लेने के लिए शुद्ध हवा नहीं मिल पाती. इसका मानव जीवन पर और अर्थव्यवस्था पर गहरा असर पड़ने लगा है. मानव जीवन महंगा हो रहा है जबकि उनकी उत्पादकता घट रही है. चीन के प्राधिकारियों को इस समस्या का आभास है. इसलिए उन्होंने नए ‘जनोन्मुखि’ शहरीकरण मॉडल की शुरूआत की है जो ज्यादा कारगर, समावर्ती और प्रर्यावरण की दृष्टि से ज्यादा निर्वहनीय होगा. हाल ही में विश्व बैंक और चीन की राज्य परिषद् के विकास अनुसंधान केंद्र द्वारा जारी संयुक्त रिपोर्ट में बताया गया है कि इस योजना को अमली जामा कैसे पहनाया जाएगा. इसके सफलतापूर्वक किर्यान्वयन से चीन के शहरीकरण के अगले दौर में निश्चित ही गरीबों की जिंदगी में काफी सुधार आएगा. सबसे पहले तो प्राथमिकता के आधार पर योजना में भूमि नीतियों को सुधारा जाएगा. चीनी संविधान के तहत शहरी जमीन सरकार की मिल्कियत होती है और ग्रामीण जमीन कलेक्टिव्स (सहकारी समीतियों) के अधीन होती है. हांलाकि पिछले तीन दशकों में जमीन सुधारों के द्वारा जमीन पर व्यक्तियों और उद्योगों के स्वामित्व को मान्यता दी गई है, लेकिन गांवों में भूस्वामित्व अधिकार शहरों के मुकाबले कमजोर ही रहे हैं. नई योजना में माना गया है कि किसानों के भूस्वामित्व अधिकारों को मजबूती प्रदान कर और शहरी विकास के लिए भूमि अधिग्रहण करने की स्थानीय सरकारों की शक्तियों को नियंत्रित कर, शहरों को कहीं अधिक सुडौल और कार्यक्षम बनाया जा सकता है, खासकर ऊर्जा उपयोग के मामले में. इस सुधार से खेती योग्य जमीन को एकजुट करने में मदद मिलेगी जिससे बेहतर कृषि तकनीकों का इस्तेमाल हो सकेगा. भूमि सुधार से संपदा के वितरण में भी मदद मिलेगी क्योंकि सशक्त भूस्वामित्व अधिकारों से देहाती जमीन के भाव बढ़ेंगे. एक अनुमान के मुताबिक, पिछले बीस साल में किसानों को उनकी जमीन के बदले में जो मुआवजा मिला वह बाजार भाव से 2 खरब दुआन (322 अरब डालर) कम था. यह 2013 में चीन के सकल घरेलु उत्पादन का मात्र 4 प्रतिशत था. यदि चीन के सकल घरेलु उत्पादन के अनुरूप दरों में निवेश किया जाए तो यह बिना भुगतान किया मुआवजा 5 खरब दुआन या सकल घरेलु उत्पादन के लगभग 10 प्रतिशत के बराबर होगा. दूसरे, हुकोऊ प्रणाली में सुधार से श्रमिकों की उत्पादकता बढ़ सकती है, आमदनी में विषमता घट सकती है और शहरीकरण की गति तेज हो सकती है. ग्रामीण क्षेत्रों से शहरों की ओर भारी पलायन के बावजूद यह अब भी उस स्तर से कम है जिसकी चीन के आकार और आमदनी स्तर से उम्मीद की जाती है. दो-तिहाई शहरी आबादी जिसके पास शहरी हुकोऊ नहीं है सार्वजनिक सेवाओं से वंचित रखने का एक मतलब यह भी है कि करीब इतनी ही आबादी अभी भी गांवों से बंधी है. अन्यथा वे कब का गांव छोड़ चुके होते. इस प्रणाली से जहां लोगों को शहरों में ज्यादा आमदनी तलाशने से हतोत्साहित किया गया वहीं ग्रामीण श्रमिकों की उत्पादकता और भत्ते भी कम रहे. तेजी से फैल रहे किसी भी शहर को सार्वजनिक सेवा के अवरोधों का सामना करना पड़ता है, पर इनसे पार पाया जा सकता है. मसलन, जापान और दक्षिण कोरिया अपने तेजी से फैल रहे शहरी इलाकों में सार्वजनिक सेवाओं का विस्तार किया वह भी प्रवास को नियंत्रित किए बगैर. जैसा कि विश्व बैंक चीन सरकार की रिपोर्ट में कहा गया है. चीन भी सार्वजनिक सेवाओं को निवास स्थल से जोड़ कर, बजाए उन्हें मूल निवास से जोड़ने के, ऐसा कर सकता है. और फिर जब प्रवासियों की संतानें शहरों में अपने माता-पिता के पास आ सकें और अच्छी शिक्षा पा सके तो अगली पीढ़ी के पास गरीबी से बचने के लिए बेहतर अवसर होंगे. प्रवास के नियमों को आसान बनाने से न केवल शहरों में नये अवसर पैदा होंगे बल्कि इससे कृषि के कायांतरण को भी गति मिलेगी क्योंकि कृषि कार्यों के लिए जो श्रमिक बचेंगे उन्हें उत्पादकता और भत्ते बढ़ाने के लिए नई तकनीकें अपनानी पड़ेंगी. लेकिन भूमि व हुकोऊ सुधारों को लागू करने के लिए चीन की वित्तीय प्रणाली में आमूल-चूल बदलाव लाने होंगे. किसानों के लिए मजबूत भूस्वामित्व अधिकारों से शहरी प्राधिकरणों को भूमि-परिवर्तन से होने वाली आमदनी बंद हो जाएगी जिसका वे शहरों में नए प्रवासियों को सार्वजनिक सेवाएं देने में उपयोग करते हैं और अधिक आप्रवास का अर्थ होगा इन सेवाओं के लिए अधिक मांग. इसलिए शहरों को आमदनी के नए स्त्रोतों की तलाश करनी होगी. संपत्तीकर या व्यक्तिगत आयकर पर स्थानीय अधिकार उन लोगों को निशाना बनाएंगे जिन्होंने शहरी जीवन से सबसे ज्यादा लाभ कमाया है. पर्यावरणकर तथा अन्य लेतियों यथा गाडि़यों के पंजीकरण की ऊंची फीस, प्रदूषणकर तथा सेवाओं की बेहतर लागत वसूली -- से भी मदद मिल सकती है और साथ ही शहरी पर्यावरण संबंधी समस्याओं से निपटा भी जा सकता है. इसके अलावा कई बड़ी बचतें भी संभव हैं. अगले 15 साल में चीन के शहरों ने ढांचागत संरचना पर $5.3 खरब खर्च करने पड़ेंगे. लेकिन ज्यादा घने व सुगठित शहरों में इन खर्चों में से $1.4 खरब (2015 के जीडीपी का 15%) तक बचाए जा सकते हैं. इस धन का उपयोग बेहतर स्वास्थ्य सेवाएं, शिक्षा तथा नए प्रवासियों के लिए सस्ते मकान बनाने में उपयोग किया जा सकता है. इस तरह सरकारी नीति में शहरों के भौतिक फैलाव व अवसंरचना पर ध्यान देने की बजाए सार्वजनिक सेवाओं के बेहतर व सुसंगत वितरण की ओर बदलाव से चीन के नागरिकों खासकर गरीबों को भारी लाभ मिलेगा. इस लक्ष्य को हासिल करने से ही सच्चे अर्थों में जनोन्मुखि शहरीकरण का सपना साकार होगा. आखिर चीन के जिम्मेदार नेताओं-अधिकारियों का भी तो यही सपना है. बर्ट हॉफमैन विश्व बैंक में पूर्वी एशिया व प्रशांत क्षेत्र के लिए चीफ इकोनॉमिस्ट हैं. निर्बाध आधारिक संरचना वाशिंगटन, डीसी – एक सामान्य आँकड़े पर विचार करें। विकासशील विश्व में हर महीने, पाँच मिलियन से भी अधिक लोग शहरी इलाकों में स्थानांतरण कर जाते हैं, जहाँ पर नौकरियाँ, स्कूल, और सभी तरह के अवसर अक्सर आसानी से उपलब्ध होते हैं। परंतु जब लोग स्थानांतरण करते हैं, तो बुनियादी सेवाओं - पानी, बिजली, और परिवहन - की ज़रूरतें उनके साथ चलती हैं, जिससे आधारिक संरचना की माँग में तेज़ी से वृद्धि होती है। यह वास्तविकता केन्या से लेकर किरिबाती तक - उस हर स्थान पर साफ दिखाई देती है ज��ाँ तीव्र गति से हो रहे शहरीकरण, व्यापार और उद्यमशीलता को समर्थन देने की आवश्यकता, और जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों का सामना करने के प्रयासों के फलस्वरूप आधारिक संरचना में भारी कमी दिखाई दी है। और यह वह कमी है जो उन्नत अर्थव्यवस्थाओं के सामने भी आती है। सरल शब्दों में कहा जाए तो यह ज़रूरी है कि विश्व भर में आधारिक संरचना का निर्माण और आधुनिकीकरण दीर्घ-कालीन वैश्विक विकास की रणनीति का हिस्सा हो। इसी कारण जी-20 वित्त मंत्रियों की इस वर्ष हाल ही में सिडनी, ऑस्ट्रेलिया में पहली बार हुई बैठक में एकमात्र रूप से आधारिक संरचना में निवेश को एक ऐसे तत्व के रूप में स्वीकार किया गया जो सुदृढ़, धारणीय, और संतुलित सुधार के लिए महत्वपूर्ण है। चूंकि जी-20 वित्त मंत्रियों की बैठक अगले महीने वाशिंगटन डीसी में किए जाने की तैयारी हो रही है, इसलिए एक सावधानी टिप्पणी करना उचित होगा: विकास को बढ़ावा देने और नौकरियों का सृजन करने के लिए मात्र आधारिक संरचना के निवेश में वृद्धि करना पर्याप्त नहीं है। वित्तीय संकट के आरंभ में, उन्नत और उभरते-बाज़ार की अर्थव्यवस्थाओं ने "लगभग-तैयार" आधारिक संरचना परियोजनाओं में पैसा लगाया ताकि अल्पावधि आर्थिक विकास और नौकरियों के सृजन को बढ़ावा दिया जा सके। अब संकट को देखते हुए आधारिक संरचना चुनौती के संबंध में कार्रवाई करना और कठिन हो गया है। उभरती और विकासशील अर्थव्यवस्थाओं में सरकारी बजट सीमित होते हैं, जबकि निजी क्षेत्र का योगदान औसत रूप से कुल आधारिक संरचना निवेश के 15% से कम होता है। वास्तव में, उभरती अर्थव्यवस्थाओं में आधारिक संरचना निवेश के वित्तपोषण में मुख्य चुनौती यह है कि बहुत से वाणिज्य बैंक (मुख्यतः यूरोपीय) जिनकी पहले उल्लेखनीय उपस्थिति थी अब पीछे हट गए हैं – और जब तक वे अपने संकटग्रस्त तुलन-पत्रों को दुरुस्त करके कठोर विनियामक मानकों को पूरा न कर लें, उनके वापस आने की संभावना नहीं है। अतः वित्तपोषण की अपूर्ण आवश्यकताएँ बहुत अधिक हैं। उभरती और विकासशील अर्थव्यवस्थाओं के मामले में, अनुमान है कि विकास के लक्ष्यों को पूरा करने के लिए 2020 तक वार्षिक निवेश के रूप में 1-1.5 ट्रिलियन डॉलर की अतिरक्त राशि की आवश्यकता होगी। ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जनों को कम करने या जलवायु परिवर्तन के अनुकूल होने के लिए किए जानेवाले व्यय से इन देशों की आधारिक संरचनाओं की आवश्यकताओं की लागतों में प्रत्येक वर्ष 170-220 बिलियन डॉलर का इज़ाफा होगा। स्पष्ट रूप से जी-20 का इस बात पर बल देना उचित है कि इन आवश्यकताओं की पूर्ति किया जाना कितने लोगों के लिए कितना महत्वपूर्ण है। उदाहरण के लिए, उप-मरुस्थलीय अफ़्रीका की 69% से अधिक जनसंख्या को बिजली उपलब्ध नहीं है; दक्षिण एशिया में 65% लोगों को गड्ढे वाले शौचालय उपलब्ध नहीं हैं; और लैटिन अमेरिका और कैरिबियन में 40% ग्रामीण लोगों को बारह-मासी सड़कें उपलब्ध नहीं हैं। लेकिन हम यह भी जानते हैं कि आधारिक संरचना में निवेश को प्रोत्साहित करने के लिए धन के अतिरिक्त और भी बहुत कुछ चाहिए होता है। कुछ देशों को आधारिक संरचना पर किए गए अपने खर्च से भारी लाभ प्राप्त होते हैं जबकि कुछ को मुश्किल से कोई लाभ मिलता है। जी-20 के लिए विश्व बैंक समूह द्वारा तैयार की गई पृष्ठभूमि टिप्पणी में बताया गया है कि सरकारों को आधारिक संरचना परियोजनाओं के चयन, गुणवत्ता और प्रबंधन, और साथ ही अंतर्निहित निवेश वातावरण की गुणवत्ता पर अधिक ध्यान देना चाहिए। निवेशों को प्राथमिकता देना, अच्छी आयोजना, और सुदृढ़ परियोजना प्रारूप से विकास और नौकरियों के सृजन पर नए और आधुनिकीकृत आधारिक संरचना के प्रभाव में उल्लेखनीय वृद्धि हो सकती है और साथ ही दुर्लभ संसाधनों से मिलनेवाले लाभों में वृद्धि हो सकती है। बेहतर निवेश आयोजना से आधारिक संरचना को अनुपयोगी और कम 'हरित' प्रौद्योगिकियों में फँसाने से बचने में भी मदद मिल सकती है। हाँ, यह सब कहना आसान है पर करना मुश्किल है। जैसा कि मैंने सिडनी में सुना था, बहुत से विकासशील देशों को परियोजनाओं की पहचान करने, उन्हें तैयार करने, और उनका कार्यान्वयन करने में वास्तविक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। तकनीकी, वित्तीय, आर्थिक, और पर्यावरणीय संभावना अध्ययनों और दीर्घ-कालीन योजनाओं की लागत कई मिलियन डॉलर जितनी अधिक हो सकती है। विश्व बैंक समूह विकासशील देशों को इन क्षेत्रों में उनकी क्षमता का निर्माण करने में मदद करता आ रहा है। लेकिन और भी बहुत कुछ किया जाना चाहिए ताकि देश अधिक मज़बूत सार्वजनिक-निवेश कार्यक्रम को समर्थन देनेवाली एक ऐसी सुदृढ़ परियोजना पाइपलाइन विकसित कर सकें जो निजी क्षेत्र से भारी संसाधनों को जुटाने की किसी रणनीति के लिए महत्वपूर्ण होती है। और आज के आर्थिक वातावरण में निजी वित्त को आकर्षित करना अनिवार्य है क्योंकि ऐसा कोई और आसान तरीका नहीं है जिससे सार्वजनिक निधियों से आधारिक संरचना के अंतराल को भरा जा सके। ऐसा करने के लिए उचित नियंत्रण, पूर्वानुमेय मूल्य संरचनाओं और एक विश्वसनीय विनियामक वातावरण को सुनिश्चित करना भी आवश्यक होगा। देशों के पास समय नहीं है कि वे उसे बर्बाद करें। गरीब लोगों के लिए मूलभूत सेवाएँ उपलब्ध करने, नौकरियों और अवसरों का सृजन करने, बाज़ारों तक पहुँच को सक्षम करने और हमारे सतत विकासशील शहरों में धारणीय विकास सुनिश्चित करने में मदद करने में आधारिक संरचना की अनूठी भूमिका के फलस्वरूप नीति निर्माताओं के लिए शीघ्रतापूर्वक और निर्णायक रूप से कार्रवाई करना आवश्यक होता है। जैव ईंधन के युग में खाद्य पदार्थ रोम - पिछले कई सालों से, जैव ईंधन विवाद की जड़ बन गए हैं। कुछ लोगों के लिए, कार्बनिक पदार्थों से उत्पादित ऊर्जा का अक्षय स्रोत जलवायु परिवर्तन का मुकाबला करने के लिए जादू की छड़ी के समान है। लेकिन दूसरे लोग जैव ईंधन को अस्तित्व के खतरे के रूप में देखते हैं, क्योंकि उन्हें बनाने के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले पौधे कृषि भूमि और पानी का बड़ा हिस्सा ले लेते हैं जिनका इस्तेमाल अन्यथा खाद्य पदार्थ उगाने के लिए किया जा सकता है। लेकिन यह झूठा विरोधाभास है। यह चयन खाद्य और ईंधन के बीच नहीं हो सकता। हम दोनों का अच्छा इस्तेमाल कर सकते हैं। सही परिस्थितियाँ होने पर, जैव ईंधन गरीब किसानों को ऊर्जा के स्थायी और किफ़ायती स्रोत उपलब्ध करवाकर खाद्य सुरक्षा बढ़ाने के लिए प्रभावी साधन हो सकते हैं। भूमि की सीमा वाले कुछ अफ्रीकी देशों में, पेट्रोल की क़ीमत वैश्विक औसत से तीन गुना है, जिससे ईंधन की कीमतें कृषि विकास की मुख्य बाधाओं में से एक हो जाती हैं। इन क्षेत्रों में जैव ईंधन के इस्तेमाल का विस्तार करने से उत्पादकता को बढ़ावा मिल सकता है, और ख़ास तौर से ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार के नए अवसर पैदा हो सकते हैं। अगर जैव ईंधन के द्वारा पैदा की गई चारे की अतिरिक्त मांग को छोटे किसान और छोटे पैमाने के उत्पादक पूरा करने लगें, तो इस प्रभाव को और भी मजबूत बनाया जा सकता है। जैव ईंधन जीवन की सच्चाई बन चुके हैं, और उम्मीद की जाती है कि उनके इस्तेमाल में लगातार बढ़ोतरी होगी। खाद्य और कृषि संगठन और ओईसीडी की रिपोर्ट के अनुसार 2013 में, जैव ईंधन दुनिया भर में इस्तेमाल किए गए कुल परिवहन ईंधन का 3% था। हालाँकि यह प्रतिशत स्थिर बने रहने की उम्मीद है, लेकिन फिर भी हम उम्मीद कर सकते हैं कि सकल रूप से जैव ईंधनों के उत्पादन में बढ़ोतरी होगी क्योंकि परिवहन ईंधन के लिए वैश्विक बाजार में भी विस्तार होगा। निश्चित रूप से, वैश्विक जैव ईंधन का उत्पादन इसके 2007 के स्तर की तुलना में बढ़कर 2023 में दोगुना होने का अनुमान है। अगर यह भविष्यवाणी सही होती है, तो जैव ईंधन दुनिया के मोटे अनाज के 12%, इसके गन्ने के 28%, और इसके वनस्पति तेल के 14% की खपत करेगा। जैसे-जैसे इन ईंधनों के उत्पादन में बढ़ोतरी होगी, हमें ऐसी नीतियों, कार्यक्रमों, और क्षमताओं की ज़रूरत होगी जो यह सुनिश्चित करें कि इनका इस्तेमाल खाद्य बाजारों को विकृत किए बिना या खाद्य सुरक्षा से समझौता किए बिना होगा, जो हमेशा पहली प्राथमिकता बनी रहेगी। जैव ईंधन के अग्रणियों को शायद इस बात से आश्चर्य होगा कि वे आज दुनिया के कुल ईंधन की आपूर्ति में कितना कम योगदान करते हैं। 1800 के आखिर के दशक के अंत में तैयार किया गया रूडोल्फ डीज़ल का पहला इंजन, मूंगफली के तेल से प्राप्त ईंधन पर चला था। हेनरी फोर्ड ने एक बार गन्ने की खेती करने के लिए काफ़ी ज़मीन ख़रीदने की उम्मीद से फ्लोरिडा की छानबीन की थी, क्योंकि उन्हें विश्वास था कि संयुक्त राज्य अमेरिका जीवाश्म ईंधन के जलने से होने वाले प्रदूषण या पेट्रोल के उत्पादन के लिए तेल के आयात में निहित निर्भरता को बर्दाश्त नहीं करेगा। केवल हाल के दशकों में ही, जैव ईंधन ने अपने मूल आकर्षण को वापस पा लिया है, जिसका श्रेय किफ़ायती ऊर्जा प्राप्त करने, आय उत्पन्न करने, और उस निर्भरता को कम करने की कोशिशों को जाता है जिसकी चेतावनी फ़ोर्ड ने दी थी। अभी हाल ही में, प्रदूषण, जलवायु परिवर्तन, और जीवाश्म ईंधन की सीमित प्रकृति के बारे में चिंताओं ने इस मांग को फिर से तेज़ किया है - जिसका अब प्रबंधन किया जाना चाहिए। कृषि उत्पादकता को बढ़ावा देने, ग्रामीण विकास में तेजी लाने, और खाद्य सुरक्षा बढ़ाने के लिए जैव ईंधन पर दुनिया की बढ़ती निर्भरता का लाभ उठाने के प्रयासों के लिए लचीलापन महत्वपूर्ण है। उदाहरण के लिए, नीति निर्माताओं को बुनियादी खाद्य पदार्थों की कीमतों में अस्थिरता का मुकाबला करने के लिए योजनाएँ तैयार करनी चाहिए ताकि भोजन और ईंधन के बीच प्रतिस्पर्धा का दबाव ख़त्म हो सके। अधिकारियों को इसकी ज़रूरत हो सकती है कि खाद्य पदार्थों की कीमतें गिरने पर पारंपरिक ईंधन में मिश्रित किए जाने वाले जैव ईंधनों का प्रतिशत बढ़ाया जाए और उनके बढ़ने पर इसे घटाया जाए। यह स्वतः स्थिरता प्राप्त करने के प्रकार के रूप में काम करेगा। खाद्य पदार्थों की कीमतें गिरने पर भी गरीब किसान अपने उत्पादों के लिए मजबूत मांग का आनंद लेना जारी रखेंगे, और उपभोक्ताओं को कीमतों में तेजी से या अत्यधिक बढ़ोतरी से संरक्षित किया जाएगा। राष्ट्रीय लक्ष्य भी ज़्यादा लचीले बनाए जा सकते हैं। अगर जैव ईंधन के इस्तेमाल के लिए जनादेश केवल एक साल के बजाय, कई वर्षों में लागू किए जाते हैं, तो खाद्य पदार्थों की कीमतों पर दबाव कम करने के लिए नीति निर्माता मांग को प्रभावित कर सकते हैं। अंत में, व्यक्तिगत स्तर पर, पेट्रोल पंप पर भी फ्लेक्स-ईंधन प्रकार के वाहनों को बढ़ावा देकर अधिकाधिक लचीलापन लाया जा सकता है, जो ब्राज़ील में पहले ही इस्तेमाल किए जा रहे हैं। अगर कारों में ऐसे इंजन लगाए जाते हैं जो पारंपरिक जीवाश्म ईंधन या जैव ईंधन के उच्च प्रतिशत वाले मिश्रणों पर चल सकते हैं, तो उपभोक्ता एक या दूसरे के बीच अदल-बदल करके कीमतों में होनेवाले बदलाव का लाभ उठा सकते हैं। सही संतुलन ढूँढ़ना आसान नहीं होगा। लेकिन अगर हम अपने सामूहिक ज्ञान का लाभ उठाते हैं, विकासशील देशों के छोटे किसानों को इस कोशिश में शामिल करते हैं, और अपना ध्यान गरीबी कम करने और कमजोर लोगों की रक्षा करने पर बनाए रखते हैं, तो हमारे पास सभी के लिए ज़्यादा ईंधन, ज़्यादा भोजन, और ज़्यादा समृद्धि हो सकती है। जैवऔषधिकरण की क्रांति और प्रतिक्रिया स्‍टैनफ़ोर्ड – पौधों से औषधियाँ प्राप्त करना कोई नई बात नहीं है। एस्पिरिन को पहली बार अठारहवीं सदी में विलो वृक्ष की छाल से अलग किया गया था। और मॉरफीन, कोडीन और रेशा संपूरक मेटाम्‍यूसिल जैसी कई अन्य साधारण औषधियाँ दुनिया भर की वनस्पतियों से परिशोधित करके बनाई जाती हैं। अभी हाल ही में, वैज्ञानिकों ने ऐसी तकनीकें ईजाद की हैं जो इस प्रक्रिया को एक कदम आगे ले जाती हैं। इनमें आनुवंशिक अभियांत्रिकी के उपयोग द्वारा कृषि फसलों को उच्च गुणवत्तायुक्त औषधियों का संश्‍लेषण करने के लिए उत्प्रेरित जाता है। “जैवऔषधिकरण” नामक इस प्रौद्योगिकी की भारी संभावना लगभग 15 वर्ष पहले देखी गई थी जब केले, टमाटर और तंबाकू में पैदा किए गए टीकों और दवाओं के क्‍लीनिकल परीक्षण किए गए थे। दुर्भाग्‍यवश क़ानून बनानेवालों में जोखिम से बचने की भारी प्रवृत्ति के कारण इस मामले में कोई प्रगति नहीं हुई। जैवऔषधिकरण का एक शुरूआती उदाहरण बायोटेक कंपनी वेंट्रिया बायोसाइंस द्वारा ऐसे धान का उत्‍पादन करना था, जिसमें दो मानव प्रोटीन, लैक्‍टोफेरिन और लाइसोज़ाइम शामिल थे। उगाई गई फसल की कटाई के बाद इसके दाने का प्रसंस्करण करके प्रोटीन का निष्‍कर्षण और परिशोधन किया जाता है और इसका उपयोग दस्तों के उपचार के लिए मौखिक खुराक के रूप में पुनर्जलीकरण घोल के तौर पर किया जाता है। यह विकासशील देशों में पाँच वर्ष से कम आयु के बच्‍चों के लिए दूसरे नंबर की संक्रमणकारी जानलेवा बीमारी है, इससे अधिक जानलेवा केवल श्‍वसन संबंधी रोग हैं। इस प्रोटीन की संरचना और क्रियात्‍मक गुण वही होते हैं जो कुदरती तौर पर स्‍तन के दूध में पाए जाते हैं, और इनका निष्‍कर्षण ठीक वैसे ही किया जाता है जैसे सामान्‍य तौर पर बैक्‍टीरिया और खमीर जैसे जीवों से औषधिवाले प्रोटीनों का निष्‍कर्षण करने के लिए किया जाता है। पेरू में किए गए एक अनुसंधान से पता चला है कि वेंट्रिया के धान निष्‍कर्षित प्रोटीनों से युक्त पुनर्जलीकरण घोल की मौखिक खुराक दस्तों की अवधि को घटाती है और इनकी पुनरावृत्ति की दर को कम करती है - यह लाभ विकासशील देशों के लोगों के लिए चमत्‍कार के समान है। परंतु क़ानून बनानेवाले चमत्‍कारों को रोक सकते हैं, और रोजाना रोकते ही रहते हैं। सन 2010 में जब वेंट्रिया ने यू्.एस. खाद्य एवं औषधि प्रशासन से यह स्वीकार करने के लिए अनुरोध किया था कि इन प्रोटीनों को “सामान्‍यत: सुरक्षित माना जाता है” (यह एक कानूनी जुमला है), तो उसे इसका कोई जवाब नहीं मिला। कंपनी एफ.डी.ए. की स्वीकृति के बिना इस उत्‍पाद का विपणन करने की इच्‍छुक नहीं थी, अत: यह औषधि अनुपलब्‍ध रही, और यह बहुत दुःख की बात थी कि विकासशील देशों के बच्चों को एक जीवन-रक्षक उपचार से वंचित रहना पड़ा। यहाँ तक कि जैवऔषधिकृत पौधों के क्षेत्र परीक्षण को भी समस्‍याजनक पाया गया है। सन 2003 में यू.एस. कृषि विभाग ने औषधियाँ बनाने के लिए निर्मित फसलों का परीक्षण करने के लिए भारी भरकम नए नियमों की घोषणा कर दी। इन क़ानूनों का तथाकथित उद्देश्‍य खाद्य की आपूर्तियों को औषधियों के संदूषण से बचाना था, विशेष रूप से उस स्थिति में जब उन्हें तैयार करने के लिए खाद्य फसलों का उपयोग किया जाता है। लेकिन खाद्य उद्योग की ये चिंताएं अतिरंजित हैं कि जैवऔषधिकृत पौधे उनके उत्‍पादों को दूषित कर सकते हैं। और वैसे भी जोखिम को कई तरीकों से कम किया जा सकता है, जाहिर तौर पर इसके लिए तंबाकू जैसे अ-खाद्य पौधों का उपयोग किया जा सकता है। वस्‍तुत: यदि जैवऔषधिकृत पौधे खाद्य फसलों को संदूषित कर सकते हैं, तो भी उपभोक्‍ता जिस मात्रा में कॉर्न फ़्लैक्‍स, पास्‍ता या टोफू का इस्‍तेमाल करते हैं, उसमें संस्‍तुत औषधियों की हानिकारक मात्राएँ अत्‍यंत कम होंगी। जीन प्रवाह एक दीर्घकालिक प्रक्रिया है, जिसे किसान भली-भांति समझते हैं। वे सैकड़ों फसलें उगाते हैं, जिनमें सभी वस्‍तुत: भिन्न-भिन्न तकनीकों द्वारा आनुवंशिक रूप से उन्नत की गई होती हैं। इनका नतीजा यह है कि उन्‍होंने अपने व्‍यावसायिक कारणों से आवश्‍यकता पड़ने पर खेत में विरोधी परागण संबंधी संदूषण से बचने की सूक्ष्‍म रणनीतियाँ भी विकसित की हैं। यदि कुछ फसलें संदूषित हो भी जाती हैं, तो भी अंतिम खाद्य उत्‍पाद में मानव स्‍वास्‍थ्‍य पर बुरा असर डालने के लिए पर्याप्त मात्रा में सक्रिय औषधि तत्‍वों के मौजूदगी की संभावना बहुत ही कम होगी। जैवऔषधिकृत पौधों को कटाई के बाद बड़े ढेर में मिलाने के बाद उस ढेर में औषधियाँ की सांद्रता अत्‍यंत कम हो जाएगी। उसके बाद इनके सक्रिय तत्‍व को पिसाई और अन्‍य प्रसंस्‍करणों, और फिर पकाए जाने के दौरान सलामत रहना होगा, और उसे मौखिक खुराक में भी सक्रिय रहना होगा, जबकि प्रोटीन औषधियाँ अकसर सक्रिय नहीं रह पाती हैं, क्‍योंकि वे पेट में जाकर पच जाती हैं। यह सब घटित होने की संभावना बेशक शून्‍य नहीं है। लेकिन अनेक कारकों का संयोजन, जिसमें प्राकृतिक चयन, किसानों का अपने व्‍यावसायिक हितों को ध्यान में रखना, और जवाबदेही संबंधी सरोकार इस संभावना के प्रतिकूल हैं। इसमें कठिनाइयों की सूची बहुत लंबी है, और इसका असर लगभग यकीनी तौर पर अत्‍यंत कम होगा। जब आप इसकी तुलना औषधि उद्योग की भावी विशाल सफलता, या कम-से-कम उच्‍च मूल्‍य के यौगिकों का उत्‍पादन कम लागत की किसी नई विधि से करेंगे, तो कानून बनानेवालों का असंभावित घटनाओं के घटने संबंधी पूर्वाग्रह गलत सिद्ध होता दिखाई देगा। जैवऔषधिकरण हमें बहुत कुछ दे सकता है। परंतु यदि हम जैसा बोएंगे वैसा ही काटना पड़ेगा, तो हमें दुनियाभर के क़ानून बनानेवालों से तर्कसंगत और विज्ञान-आधारित नीतियों की अपेक्षा करनी होगी। अफसोस की बात है कि नोबल पुरस्‍कार प्राप्त अर्थशास्‍त्री स्‍वर्गीय मिल्‍टन फ्राइडमैन की एक उक्ति उद्धृत करनी पड़ रही है कि यह वैसा ही है जैसे हम अपनी बिल्लियों से भौंकने की उम्‍मीद करें। विश्वसनीय गरीब? वाशिंगटन, डीसी – पिछले पाँच वर्षों में, रवांडा और होंडुरास जैसे कई कम आय वाले देशों ने पहली बार, लंदन और न्यूयॉर्क में निजी विदेशी निवेशकों को अपने बांड जारी किए हैं। अभी हाल ही तक ऐसा किया जाना नामुमकिन लग सकता था, इसलिए नए उधारकर्ताओं के प्रारंभिक बांड जारी किए जाने को भारी निवेशक विश्वास के संकेत के रूप में देखा जाना चाहिए। लेकिन इससे कुछ सुपरिचित खतरे की घंटियाँ भी बजनी चाहिए। लगभग 20 "प्रारंभिक निर्गमों" से तकरीबन 12 बिलियन डॉलर की राशि जुटाई गई है और इसकी ब्याज दर उस दर से औसत रूप से मात्र 4.5 प्रतिशत अंक अधिक है जो संयुक्त राज्य अमेरिका की सरकार पाँच या अधिक वर्षों की परिपक्वता अवधियों पर भुगतान करती है। यह वैश्विक वित्त की विशाल योजना में एक छोटा-सा परिवर्तन है; लेकिन यह देखते हुए कि इनमें से कई उधारकर्ता केवल एक दशक पहले तक संकट या चूककर्ता की स्थिति में थे, और उन्हें ऋण माफी की जरूरत थी, उनकी यह स्थिति विशेष रूप से एक प्रभावशाली बदलाव है। लेकिन कम आय वाले देशों की निजी उधारदाताओं तक पहुँच के साथ जोखिम जुड़े होते हैं जिनके बारे में उनके आसन्न खतरों के रूप में बढ़ने से पहले, शुरू में ही विशेष रूप से उल्लेख किया जाना चाहिए। आरंभ करनेवालों के लिए, इनके पुनर्निर्धारण का जोखिम होता है। इन बांडों की चुकौती, विदेशी मुद्रा में, आमतौर पर अमेरिकी डॉलर में, "एकबारगी" भुगतान के रूप में की जानी होती है। इन एकबारगी भुगतानों की राशि बड़ी हो सकती है, विशेष रूप से जब उनकी तुलना पिछले ऋण दायित्वों या भावी निर्यात आयों से की जाए। 1970 के दशक से विकासशील देश के ऋण को ट्रैक करनेवाला विश्व बैंक डेटा यह दर्शाता है कि यदि किसी देश की चुकौतियों की राशि उसके निर्यातों के दसवें हिस्से से अधिक हो तो उस देश के ऋण संकट में पड़ने की संभावना नौ-गुना तक बढ़ जाती है (जो पाँच-में-से-एक मामले में हो सकती है) – यह वह स्थिति है जिसका सामना आज के लगभग एक-तिहाई नए जारीकर्ताओं को उनके बांड देय होने पर करना पड़ सकता है। गरीब उधारकर्ता इस तरह के वित्तीय दबाव से बच सकते हैं या नहीं, यह कई कारकों पर निर्भर करेगा। एक तो यह कि क्या वे देय होनेवाले बांडों का भुगतान करने के लिए और अधिक बांड जारी कर पाएँगे। दूसरा यह कि क्या वे धन का निवेश बुद्धिमत्तापूर्वक करेंगे ताकि वे तुरंत चुकौती कर सकें। और यह इस पर भी निर्भर करेगा कि क्या अस्थिर आयों वाले देश, विशेष रूप से प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर करनेवाले देश, आयों के अधिक होने पर धन को अलग रख पाएँगे। एक दूसरे, मध्यम-अवधि के जोखिम में पूंजी प्रवाह की स्थिति को पलटना शामिल है। कम आय वाले देश के बांडों के लिए ऋणदाताओं की रुचि 2008-2009 के वैश्विक वित्तीय संकट के बाद से विकसित अर्थव्यवस्थाओं में भारी मात्रा में नकदी और लगभग-शून्य ब्याज दरों के संयोजन के द्वारा काफी हद तक बढ़ गई है। अपने देश में निवेश करने पर केवल मामूली सा लाभ मिलने के कारण, निवेशकों ने ज्यादा लाभों के लिए जोखिमवाले, "सीमावर्ती" बाजारों की तरफ रुख करना शुरू कर दिया है। हालाँकि, अभी या बाद में, विकसित अर्थव्यवस्थाएँ कठोर मौद्रिक नीति पर वापस लौट आएँगी, जिससे विकासशील देशों के बांड कम आकर्षक हो जाएँगे। सुदृढ़ समष्टिगत आर्थिक नीतियों वाले उधारकर्ता शायद वैश्विक वित्तीय बाजारों के लिए कुछ आकर्षण रख सकेंगे; लेकिन कम विवेकपूर्ण सरकारें खुद को अचानक अलग-थलग पा सकती हैं। दुर्भाग्य से, नए बांड जारीकर्ताओं के बीच ऋण प्रबंधन की प्रथाओं की गुणवत्ता में समानता नहीं है। सार्वजनिक उधारों के लिए विवेकपूर्ण ऋण रणनीतियाँ, पेशेवर और स्वतंत्र ऋण कार्यालय, और स्पष्ट कानूनी ढाँचा होना पहले से कहीं अधिक महत्वपूर्ण हो गया है। निश्चित रूप से, पिछले एक दशक में इस मोर्चे पर महत्वपूर्ण प्रगति हुई है, इसमें से बहुत-सा धन अमीर देशों की सहायता से मिला है। लेकिन इससे पहले कि उधार की यह नई लहर इतनी बड़ी हो जाए कि वह नियंत्रण से बाहर हो जाए, या उसका प्रसार ऐसी राज्य और नगरपालिका सरकारों तक हो जाए जिनकी प्रशासनिक क्षमता कमजोर है, बहुत-कुछ किया जा सकता है और किया जाना चाहिए। यह बात ध्यान देने योग्य है कि किसी देश की ऋण-प्रबंधन की प्रथाओं की गुणवत्ता और उसके ऋण संकट के जोखिम के बीच भारी नकारात्मक सह-संबंध है, क्योंकि कम-जोखिम वाले 90% देशों में अच्छी प्रथाएँ पाई गईं हैं। एक तीसरा जोखिम यह है कि भावी ऋण परिणामों के बारे में सहमत होना और भी कठिन हो जाएगा। परंपरागत रूप से, कम आय वाले देशों के लेनदार अमीर-दुनिया की सरकारें और बहु-पक्षीय संगठन थे जिनके लिए उस स्थिति में राजनीतिक दृष्टि से उधार देना संभव नहीं होता जब इसका अर्थ यह हो कि उधारकर्ताओं को शिक्षा या स्वास्थ्य जैसी महत्वपूर्ण सार्वजनिक सेवाओं में कटौती करनी पड़ेगी। जिस प्रक्रिया में पहले ही 15 साल लग चुके हैं – और जो अभी भी अधूरी है – 35 सर्वाधिक ऋणग्रस्त गरीब देशों (HIPC) के ऋणों को माफ कर दिया गया है, जिसकी लागत $100 बिलियन से अधिक है। अलबत्ता, अब कई पूर्व सर्वाधिक ऋणग्रस्त गरीब देश (HIPC) वैश्विक बाजार में निजी निवेशकों को बांड बेच रहे हैं, जो हाल के महीनों में संयुक्त राज्य अमेरिका में न्यायालय के निर्णयों को देखते हुए बहुत अधिक जोखिमपूर्ण हो गया है, जिनके अनुसार बांडधारक ऋण के परिणामों को अस्वीकार करके पूरे भुगतान के लिए दावा कर सकते हैं। यह आशा की जानी चाहिए कि जुटाई गई निधियों का उपयोग अच्छे कार्यों के लिए किया जाएगा, और चुकौतियों के लिए भारी त्याग नहीं करने पड़ेंगे, क्योंकि वर्तमान में नए ऋणों को न केवल रद्द करने के लिए, बल्कि पुनर्व्यवस्थित करने के लिए भी, कोई सहमत क्रियाविधि नहीं है। यह पूछा जा सकता है कि किसी और के बजाय जोखिम लेनेवाले निजी वैश्विक निवेशकों को आवर्ती जोखिमों, स्थिति पलटने, ऋण प्रबंधन, और परिणामों के बारे में ध्यान क्यों नहीं देना चाहिए। इसका कारण यह है कि सार्वजनिक ऋण के संकट से सबसे अधिक हानि देश के सबसे गरीब लोगों को पहुँचती है जिन्हें बांड जारी करने के बारे में बिल्कुल ज्ञान नहीं होता है, और उनके पास इसका कोई विकल्प भी नहीं होता है। जब कोई देश चूक करता है, तो आर्थिक क्षति से गरीब लोगों की संख्या बहुत अधिक बढ़ जाती है और उनके रहन-सहन की स्थिति बहुत अधिक बिगड़ जाती है। जब अर्जेंटीना ने 2001 में चूक की थी, तो हर पांच नागरिकों में से एक नागरिक गरीबी रेखा के नीचे आ गया था। वास्तव में, सुदृढ़ ऋण प्रबंधन सुदृढ़ सामाजिक नीति होती है - यह एक ऐसा सबक है जिस पर उधारकर्ताओं और उधारदाताओं दोनों को उधारों का अनुबंध करते समय समान रूप से ध्यान देना चाहिए, उन्हें यह सोचना चाहिए कि अगर इसका ठीक से प्रबंध नहीं किया गया तो यह पहले की गई कल्पना से कहीं अधिक जटिल हो सकता है और इतना अधिक कष्टकर हो सकता है जिसकी किसी ने कभी उम्मीद भी न की हो। बोतल-बंद जोखिम बर्लिन - पिछले 15 वर्षों में, बोतल-बंद पानी के उद्योग ने विस्फोटक प्रगति की है जिसके धीमा पड़ने के कोई लक्षण नहीं दिखाई देते। दरअसल, बोतल-बंद पानी - “झरने के परिष्कृत पानी” से लेकर खुशबूदार पानी और विटामिनों, खनिजों या विद्युत अपघट्यों (इलेक्ट्रोलाइट्स) तक हर चीज़ सहित - पेय उद्योग में विकास का सबसे बड़ा क्षेत्र है, यहां तक कि उन शहरों में भी जहां नल का पानी सुरक्षित और बहुत अधिक नियंत्रित है। यह पर्यावरण और दुनिया के ग़रीबों के लिए तबाही ला रहा है। पर्यावरणीय समस्याएं सबसे पहले पानी लेने के तरीक़े से शुरू होती हैं। दुनिया भर में बिकने वाला अधिकांश बोतल-बंद पानी जलीय चट्टानी परतों के भूमिगत जल भंडारों और झरनों से लिया गया पानी होता है, जो अधिकतर नदियों और झीलों को जल आपूर्ति करते हैं। इस तरह के जल भंडारों का दोहन करना सूखे की स्थितियों को बढ़ावा दे सकता है। लेकिन आल्प्स, एंडीज़, आर्कटिक, कैसकेड्स, हिमालय, पेटागोनिया, रॉकी पर्वत शृंखलाओं और दूसरी जगहों के हिमनदों के बहते पानी को बोतलों में बंद करना भी ख़ास अच्छा नहीं है क्योंकि इससे यह पानी दलदली ज़मीनों के पुनर्भराव और जैव विविधता के संपोषण जैसी पारिस्थितिक तंत्र की सेवाओं के लिए उपलब्ध नहीं हो पाता है। यह बोतल-बंद पानी के बड़े व्यापारियों और दूसरे निवेशकों को आक्रामक ढंग से हिमनद के पानी के अधिकार ख़रीदने से नहीं रोक पाया है। उदाहरण के लिए चीन का बढ़ता खनिज जल उद्योग हिमालय के हिमनदों के पानी का दोहन करता है और इस प्रक्रिया में तिब्बत के पारिस्थितिक तंत्र को नुकसान पहुंचा रहा है। तथापि, आज का अधिकांश बोतल-बंद पानी हिमनद या प्राकृतिक झीलों का नहीं है, बल्कि संसाधित पानी है जो महानगरपालिकाओं या बहुधा सीधे ज़मीन से खींचा गया पानी होता है जिसका शोधन रिवर्स ओस्मोसिस या अन्य शोधन उपचारों से किया जाता है। इसमें कोई आश्चर्य नहीं है कि बोतल-बंद पानी के कारोबारी पानी के अपक्षय और प्रदूषण तक में अपनी भूमिका को लेकर बहुत-सी जगहों पर स्थानीय प्राधिकारियों और नागरिक समूहों के साथ विवादों में घिरे हुए हैं। सूखे से झुलसे कैलिफ़ोर्निया में बोतल-बंद पानी के कुछ कारोबारियों को विरोधों और जांचों का सामना करना पड़ा है; एक कंपनी पर तो झरने के पानी के दोहन पर पाबंदी भी लगा दी गई थी। कोढ़ में खाज यह कि पानी का संसाधन करना, उसे बोतलों में भरना और उसकी शिपिंग करना बहुत ही संसाधन गहन काम है। एक लीटर बोतल-बंद पानी की पैकिंग में औसतन 1.6 लीटर पानी लगता है, यह इस उद्योग को बड़ा जल उपभोक्ता और अपशिष्ट जल उत्पादक बना देता है। और संसाधन और परिवहन से कार्बन का भारी मात्रा में निर्माण होता है। पानी के उपभोक्ता तक पहुंचने जाने पर भी समस्या ख़त्म नहीं हो जाती। यह उद्योग मुख्य रूप से पोलिएथिलीन टेरेफ़्थलेट (PET) से बनी एक बार इस्तेमाल होने वाली बोतलों पर निर्भर है, जिसका कच्चा माल कच्चे तेल और प्राकृतिक गैस से प्राप्त होता है। यह PET ही था, जिसने 1990 के दशक में पानी को हल्के सुविधाजनक वहनीय उत्पाद में बदल दिया था। लेकिन PET सड़ता-गलता नहीं है; और हालांकि इसका पुनर्चक्रण हो सकता है, लेकिन आम तौर पर होता नहीं है। परिणामस्वरूप, बोतल-बंद पानी आज प्लास्टिक के कचरे का अकेला सबसे बड़ा स्रोत बन गया है, जिसमें प्रतिवर्ष दसियों अरब बोतलें कचरे में तब्दील होती हैं। संयुक्त राज्य अमरीका में, जहां पिछले साल बिके बोतल-बंद पानी की मात्रा में 2013 की तुलना में 7% की वृद्धि हुई, प्लास्टिक की बनी 80% बोतलें कचरा बन गईं जो भूभराव का दम घोंट रही हैं। सचमुच, पुनर्चक्रण की ऊंची दरें इस स्थिति में काफ़ी हद तक सुधार ला सकती है। उदाहरण के लिए, जर्मनी ने चतुर विनियमनों और सुपर मार्केट्स में ऐसी मशीनें लगाने जैसे प्रोत्साहनों के ज़रिये पुनर्चक्रण को सफलतापूर्वक बढ़ावा दिया है जो बोतलों के बदले पैसे देती हैं (जिन्हें प्रायः ग़रीब लोग ले आते हैं)। लेकिन पुनर्चक्रण के लिए और भी अधिक संसाधनों की ज़रूरत होती है। कुछ लोग तर्क दे सकते हैं कि बोतल-बंद पानी की सुरक्षा और उसके स्वास्थ्य-संबंधी लाभ इन पर्यावरणी परिणामों को संतुलित कर देते हैं। लेकिन ये लाभ विपणन रणनीति से थोड़ा-सा ही अधिक हैं। हालांकि पश्चिमी देशों के नल के पानी में कभी-कभार ही गुणवत्ता की समस्या होती है और बोतल-बंद पानी का भी वही हाल है। इस उद्योग की अपनी उत्पादन प्रक्रिया खुद ही कभी-कभी संदूषण पैदा करती है और बड़े पैमाने पर माल-वापसी के लिए विवश कर देती है। दरअसल, नल का पानी बोतल-बंद पानी से ज्यादा स्वास्थ्यकर होता है। रासायनिक शोधन का मतलब यह होता है कि संसाधित बोतल-बंद पानी में संभवतः फ़्लोराइड नहीं होगा, जो भूगर्भ के अधिकतर पानी में प्राकृतिक रूप से मौजूद होता है या दांतों के स्वास्थ्य को बढ़ावा देने के लिए महानगरपालिका आपूरित पानी में जिसकी अत्यल्प मात्रा मिलाई जाती है। इसके अलावा PET की बोतलों के साथ-साथ पोलिकार्बोनेट की पुनः उपयोग में लाई जानेवाली बड़ी बोतलों से रसायनों का संभावित रिसाव होने से भी स्वास्थ्य संबंधी चिंताएं पैदा होती हैं, जिनमें बोतल-बंद पानी के कारोबारी पानी को घरों और दफ़्तरों में पहुंचाते हैं। भंडारण की अभीष्टतम से कम स्थितियां - जिनमें उदाहरण के लिए, बोतलों को लंबे समय तक धूप और गरमी में रखा जाना शामिल है - बोतल-बंद पानी में ऐसी शक्तिशाली एस्ट्रोजनीय गतिविधि उत्पन्न कर सकती हैं, जिससे उपभोक्ता के लिए ऐसे रसायनों का जोखिम पैदा हो सकता है जो शरीर के प्राकृतिक हारमोनों की भूमिका का स्वांग करके अंतःस्रावी तंत्र के कार्य को बदल देते हैं। यह तो तय है कि ये नतीज़े अलक्षित रहने वाले नहीं हैं। यूएस में पर्यावरण-संबंधी चिंताओं के कारण कुछ विश्वविद्यालयों और कम-से-कम 18 राष्ट्रीय पार्कों में बोतल-बंद पानी की बिक्री पर रोक लगा दी गई है। बोतलबंद पानी के उद्योग ने भी ख़तरे को भांप लिया है - और जनता की राय अपने पक्ष में रखने के लिए हरसंभव काम कर रहा है। इस उद्देश्य से, नेस्ले, पेप्सिको और कोकाकोला कंपनी जैसी बोतल-बंद पानी का कारोबार वाली बड़ी कंपनियों ने “हरित” मुहिम चला कर ExxonMobil, BP, और शेल जैसी ऊर्जा क्षेत्र की दैत्याकार कंपनियों की प्लेबुक से सबक लिया है। लेकिन कोई ग़लती न करें: बोतल-बंद पानी दुनिया के संसाधनों और पर्यावरणी चुनौतियों को और बढ़ा रहा है। यह दुनिया भर के ग़रीबों तक पेयजल की पहुँच को और अधिक कठिन बना रहा है। यह नल के साफ़-सुथरे पानी से अधिक स्वास्थ्यवर्धक नहीं है। और यह अधिक स्वादिष्ट भी नहीं है, दरअसल, गुप्त स्वाद परीक्षणों से पता चला है कि लोग बोतल-बंद पानी और नल के पानी के बीच फ़र्क़ नहीं बता सकते। स्पष्ट है कि नल के पानी की छवि सुधारने की ज़रूरत है। दुर्भाग्य से, उसके पास उस मार्केटिंग बाहुबल और विज्ञापन बजटों का अभाव है जिसके बल पर बोतल-बंद पानी का नाटकीय रूप से विकास हुआ है। यदि कोई सस्ता और बेहतर उत्पाद नहीं चल पाता है तो उपभोक्ताओं के लिए यह बुरी ख़बर होता है। जब वह उत्पाद पानी होता है तो यह हम सब की हार होती है। भारत के शिन्ज़ो अबे नई दिल्ली – राजनीतिक दिशाहीनता और गतिहीनता की एक लंबी अवधि के बाद, भारत की नई सरकार का नेतृत्व एक ऐसे व्यक्ति द्वारा किया जाएगा जो अपनी संकल्पशीलता लिए जाना जाता है। जिस तरह जापान में राजनीतिक अस्थिरता के छह वर्षों के बाद 2012 के अंत में जापान के प्रधानमंत्री शिंज़ो अबे की सत्ता में वापसी से जापान का खुद को अधिक प्रतिस्पर्धात्मक और आत्मविश्वासयुक्त देश के रूप बदलने के लिए दृढ़ संकल्प परिलक्षित हुआ था, उसी तरह नरेंद्र मोदी की चुनाव में जीत भारतीयों की अपने देश की अर्थव्यवस्था और सुरक्षा को पुनर्जीवित करने में मदद करने के लिए एक गतिशील, मुखर नेता के लिए इच्छा को दर्शाता है। अबे की तरह, मोदी से उम्मीद की जाती है कि वे भारत के आर्थिक भाग्य को पुनर्जीवित करने और साथ ही इसकी रक्षा को सशक्त करते हुए समान विचारों वाले राज्यों के साथ अ��नी रणनीतिक साझेदारियों को मज़बूत करने पर ध्यान केंद्रित करेंगे, जिससे क्षेत्रीय स्थिरता को बढ़ावा मिलेगा और चीन-केंद्रित एशिया के उदय होने का मार्ग अवरुद्ध होगा। देश और विदेश में व्यापार जगत के नेताओं के चहेते – करिश्माई मोदी – ने यह कहकर तीव्र आर्थिक विकास को बहाल करने का वादा किया है कि यहाँ निवेशकों के लिए “लाल फ़ीता शाही नहीं, बल्कि केवल लाल कालीन” होना चाहिए। 63-वर्षीय मोदी में अबे के उदार राष्ट्रवाद, बाज़ार-उन्मुख अर्थशास्त्र, और नए एशियावाद की झलक मिलती है, जिसमें परस्पर संबद्ध रणनीतिक साझेदारियों का समूह बनाने के लिए एशियाई लोकतंत्रों के साथ घनिष्ठ संबंध स्थापित करने की इच्छा है। एक ऐसे देश में, जहाँ राजनीतिक नेताओं और नागरिकों की औसत उम्र के बीच अंतर दुनिया में सबसे अधिक है, मोदी ऐसे पहले प्रधानमंत्री होंगे जिनका जन्म भारत के 1947 में स्वतंत्रता प्राप्त करने के बाद हुआ था। यह अबे के साथ उनकी एक और समानता है, जो जापान के ऐसे पहले प्रधानमंत्री हैं जिनका जन्म द्वितीय विश्व युद्ध के बाद हुआ था। तथापि, दोनों नेताओं के पालन-पोषण के मामले में एक महत्वपूर्ण अंतर है: दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का नेतृत्व करनेवाले मोदी साधारण- सी शुरूआत करके आगे बढ़े, जबकि अबे को एक प्रतिष्ठित राजनीतिक वंश से - दो पूर्व जापानी प्रधानमंत्रियों का पोता और भतीजे का बेटा और एक पूर्व विदेश मंत्री का बेटा - होने का गौरव प्राप्त है। वास्तव में, मोदी ने राहुल गांधी की वंशवादी आकांक्षाओं को कुचलकर जीत हासिल की, राहुल का विचारों को स्पष्ट रूप से प्रकट न कर पाना या नेतृत्वयोग्यता प्रदर्शित न कर पाना भारतीय मतदाताओं की निर्णायक सरकार का युग लाने की आकांक्षा के प्रतिकूल सिद्ध हुआ। अबे की तरह, मोदी को विदेश नीति की भारी चुनौतियों का सामना करना होगा। भारत में दुनिया की एक-छठे से अधिक आबादी रहती है, फिर भी यह अपनी क्षमताओं का उपयोग करने में बहुत पीछे है। फ़ॉरेन अफ़ेयर्स पत्रिका में 2013 में “भारत की कमज़ोर विदेश नीति,” (इंडियाज़ फ़ीबल फ़ॉरेन पॉलिसी) नामक लेख में इस बात पर ध्यान केंद्रित किया गया है कि देश किस प्रकार स्वयं अपने विकास को रोक रहा है, मानो नई दिल्ली में राजनीतिक सड़ाँध ने देश को अपना सबसे बड़ा दुश्मन बना दिया हो। बहुत से भारतीय चाहते हैं कि मोदी ऐसे समय में विदेशी संबंधों को एक नई दिशा दें जब अंतरराष्ट्रीय महत्व की दृष्टि से भारत और चीन के बीच खाई काफी बड़ी हो चुकी है। भारत का अपने खुद के पिछवाड़े - नेपाल, श्रीलंका और मालदीव सहित - में प्रभाव बहुत कम हो गया है। वास्तव में, भूटान दक्षिण एशिया में भारत की सामरिक ताकत का एकमात्र क्षेत्र बना हुआ है। भारत को अपने परमाणु हथियारों से लैस दो क्षेत्रीय प्रतिद्वंद्वियों, चीन और पाकिस्तान के बीच मजबूत हो रहे गठबंधन का भी सामना करना पड़ रहा है, और इन दोनों ने भारतीय क्षेत्र के बहुत-से हिस्सों पर दावा कर रखा है और इनका सामूहिक विनाश के हथियारों पर सहयोग करने का सिलसिला जारी है। इन देशों से निपटने के लिए, मोदी को भी उसी दुविधा का सामना करना पड़ेगा जिससे पिछली भारतीय सरकारें त्रस्त रही हैं: चीनी और पाकिस्तानी विदेश मंत्रालय इसकी कमज़ोर कड़ियाँ हैं। चीन की विदेश नीति के नियामक कम्युनिस्ट पार्टी और सेना हैं, जबकि पाकिस्तान अपनी सेना और खुफ़िया सेवाओं पर निर्भर करता है और ये अभी भी प्रतिनिधियों के रूप में आतंकवादी समूहों का उपयोग करते हैं। मोदी सरकार से यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि वह पाकिस्तान से मुंबई शैली का आतंकवादी हमला दुबारा होने पर बदला लिए बिना छोड़ देगी, कम-से-कम गैर-सैन्य प्रतिकार विकल्पों का उपयोग तो करेगी ही। संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ संबंधों - जो हाल ही में भारी राजनयिक तनावों और व्यापार विवादों के कारण बिगड़ गए थे - की गति को बहाल करना एक और अहम चुनौती है। लेकिन बाजार-समर्थक आर्थिक नीतियों और रक्षा आधुनिकीकरण के लिए मोदी की प्रतिबद्धता के कारण अमेरिकी कारोबार के लिए नए अवसरों के पैदा होने और द्विपक्षीय संबंधों के कार्यकलाप के नए स्तर तक पहुँचने की संभावना है। अमेरिका के सामरिक हितों में संभावित नए रक्षा सहयोग और ऐसे व्यापार के फलस्वरूप इज़ाफा होगा जिससे अमेरिकी हथियारों की बिक्री को बढ़ावा मिलता है और संयुक्त सैन्य समन्वय के लिए अवसर पैदा होते हैं। अमेरिका पहले ही किसी अन्य देश के मुकाबले भारत के साथ अधिक सैन्य अभ्यास करता है। मोदी एक ऐसे नेता हैं जो अमेरिका-भारत संबंधों को वापस पटरी पर लाने और सहयोग बढ़ाने में मदद कर सकते हैं। फिर भी इस बात का ख़तरा है कि अमेरिका के साथ उनके संबंध, अमेरिका द्वारा किए गए उनके उस अपमान के कारण जिसे कम-से-कम शुरू में तो भूल पाना उनके लिए मुश्किल होगा, गर्मजोशी वाले न होकर व्यावसायिक ही होंगे। 2005 में, अमेरिकी सरकार ने इस अप्रमाणित आरोप के आधार पर उनका वीज़ा रद्द कर दिया था कि 2002 में हुए मुस्लिम दंगों में उनकी रज़ामंदी थी जब वे गुजरात के मुख्य मंत्री थे। भारत के उच्चतम न्यायालय को इस हिंसा में मोदी की संबद्धता के बारे में कोई सबूत न मिलने के बाद भी, अमेरिका ने उनका बहिष्कार करना जारी रखा और केवल हाल ही में चुनाव के अवसर पर उन तक पहुँचने की कोशिश की। चूँकि अमेरिका ने उनके वीज़ा को नामंज़ूर करने के लिए कोई खेद व्यक्त नहीं किया है, इस बात की कोई संभावना नहीं है कि मोदी व्हाइट हाउस जाकर अमेरिका से दोस्ती करने के लिए हाथ आगे बढ़ाएँगे। इसके बजाय, यह आशा की जाती है कि वे इस बात की प्रतीक्षा करेंगे कि अमेरिकी अधिकारी ख़ुद आकर उन्हें न्यौता दें। इसके विपरीत, यह संभावना है कि मोदी जापान और इज़राइल जैसे उन देशों को याद रखेंगे जिन्होंने उस समय उनका सत्कार किया था जब अमेरिका उन्हें अपमानित कर रहा था। जापान के लिए मोदी की 2007 और 2012 की यात्राओं ने व्यापार-अनुकूल गुजरात में जापानी निवेश के लिए नए रास्ते खोल दिए। इसके अलावा, मोदी ने जापान के साथ विशेष संबंध विकसित किए हैं और अबे के साथ व्यक्तिगत संबंध बनाए हैं। जब अबे ने सत्ता में वापसी की तो, मोदी ने टेलीफ़ोन करके उन्हें बधाई दी। मोदी की जीत भारत-जापान संबंधों - एशिया के सबसे तेजी से विकसित हो रहे द्विपक्षीय संबंधों - के फलस्वरूप भारत की "पूर्व की ओर देखो" की रणनीतिके मुख्य चालक के रूप में बदल जाने की संभावना है, जिसका उद्देश्य अमेरिका के आशीर्वाद से, पूर्व और दक्षिण-पूर्व एशिया में अमेरिकी सहयोगियों और भागीदारों के साथ आर्थिक और सामरिक सहयोग को मजबूत करना है। अबे,जो जापान के लिए सुरक्षा विकल्प का निर्माण वर्तमान अमेरिका-केंद्रित ढाँचे से परे चाहते हैं, ने यह तर्क दिया है कि भारत के साथ उनके देश के संबंधों में "दुनिया में कहीं भी किसी भी द्विपक्षीय संबंध की सर्वाधिक संभावना" है। अबे और मोदी के नेतृत्व में जापान-भारत के बीच गहरी समझबूझ के फलस्वरूप इस बात की पूरी संभावना है कि एशियाई सामरिक परिदृश्य को नया रूप मिल सकेगा। इसमें कोई आश्चर्य नहीं है कि अबे ने मोदी की जीत के बीज बोए थे। जीवाश्म ईंधनों से मुक्त होना बर्लिन - जीवाश्म ईंधनों से मुक्ति पाने का इससे बेहतर समय पहले कभी नहीं था। रिकार्ड तोड़ वैश्विक तापमान, जीवाश्म ईंधनों की कम होती कीमतों, अक्षय ऊर्जा, ऐतिहासिक निवेश, और जलवायु संबंधी वादों का सम्मान करने के लिए वैश्विक दबाव सभी इस दुनिया को बदल देनेवाले इस बदलाव के लिए आदर्श स्थिति का निर्माण करने के लिए एक साथ घटित हो रहे हैं। यह बदलाव इससे अधिक जरूरी नहीं हो सकता था। पिछले साल दिसंबर में पेरिस में किए गए संयुक्त राष्ट्र जलवायु समझौते में ग्लोबल वार्मिंग के लिए कठोर उच्चतम सीमा के रूप में पूर्व औद्योगिक स्तरों से 2 डिग्री सेल्सियस अधिक के स्तर की फिर से पुष्टि की गई जिससे ऊपर इस धरती के लिए परिणाम भयावह होंगे। लेकिन इसमें वार्मिंग को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखने के "प्रयासों को जारी रखने" की प्रतिबद्धताएं भी शामिल थीं। नासा द्वारा प्रकाशित ताजा आंकड़ों के आधार पर, उस निम्न सीमा को प्राप्त करने को अनिवार्यता के रूप में देखा जाना चाहिए। नए आंकड़ों से यह पुष्टि होती है कि अब त��� के रिकार्ड के अनुसार 2015 सबसे गर्म वर्ष था, और यह पता चलता है कि इस वर्ष के पहले दो महीनों के दौरान विश्व भर में रिकार्ड तोड़ तापमानों का होना जारी रहा है। नासा के अनुसार, फरवरी में वैश्विक तापमान 1951-1980 की आधार रेखा के आधार पर औसत से 1.35 डिग्री सेल्सियस अधिक थे। सौभाग्यवश, जीवाश्म ईंधनों की मजबूत स्थिति पहले ही कमजोर पड़ती दिखाई दे रही है। वास्तव में, अंतर्राष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी (आईईए) के अनुसार, वैश्विक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन और आर्थिक विकास पहले से ही अलग-थलग हो गए हैं, क्योंकि वैश्विक ऊर्जा से संबंधित कार्बन डाइऑक्साइड (मानव ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जनों का सबसे बड़ा स्रोत) लगातर दूसरे वर्ष उसी स्तर पर बनी हुई है। इसका अर्थ यह है कि जीवाश्म ईंधन अब हमारी अर्थव्यवस्था का जीवनाधार नहीं रह गए हैं। ऐसा लगता है कि तेल के मूल्यों में लगातार हो रही गिरावटों - पिछले 18 महीनों में ये दो-तिहाई तक कम हो गए हैं - के फलस्वरूप इसके उपभोग में वृद्धि को प्रोत्साहन नहीं मिला है जिसकी बहुत से लोगों को आशंका थी। इसके फलस्वरूप हुआ तो यह है कि शेल, बीपी, और स्टैटऑयल जैसे जीवाश्म ईंधन के महरथियों के लाभों को भारी झटका लगा है। कोयले की स्थिति में भी कोई अधिक सुधार नहीं हुआ है। पिछले वर्ष के अंत में नए कोयला-आधारित बिजली संयंत्रों पर स्थगन की चीन की घोषणा के बाद दुनिया की सबसे बड़ी कोयला कंपनी पीबॉडी ने हाल ही में अमेरिका में दिवालियापन संरक्षण के लिए आवेदन किया क्योंकि वह अब अपने ऋण का भुगतान नहीं कर पा रही थी, इसका आंशिक रूप से कारण कोयले की मांग में गिरावट होना था। इस बीच, नवीकरणीय ऊर्जा के स्रोतों में रिकॉर्ड निवेश किया जा रहा है, ब्लूमबर्ग न्यू एनर्जी फिनान्स के अनुसंधान के अनुसार पिछले वर्ष लगभग $329.3 बिलियन का निवेश हुआ था। परिणामस्वरूप, नवीकरणीय ऊर्जा से पूरी तरह से संचालित, एक स्वच्छ, न्यायोचित, और अधिक टिकाऊ भविष्य, असली विकल्प बनने की ओर उन्मुख है। फिर भी अभी बहुत लंबा रास्ता तय करना बाकी है। अधिकांश सरकारें अभी भी कमोबेश विनाशकारी जीवाश्म ईंधन से चिपकी हुई हैं, भले ही उनकी अस्थिर कीमतों और विनाशकारी पर्यावरणीय प्रभाव के कारण, इस निर्भरता से उनकी अर्थव्यवस्थाएं अस्थिर हो रही हैं। अंतर्राष्ट्रीय संगठनों से लेकर स्थानीय समुदायों और अलग-अलग नागरिकों तक जो भी जलवायु परिवर्तन के समाधान के लिए प्रतिबद्ध हैं, उन सबको चाहिए कि वे जीवाश्म ईंधनों से मुक्त होने की प्रक्रिया को पूरा करने के लिए आवश्यक नीतियों और निवेशों के संबंध में कार्रवाई करने के लिए सरकारों और कंपनियों पर भारी दबाव बनाए रख कर पिछले वर्ष बने माहौल का तुरंत लाभ उठाएं। जिस तरह गर्म हो रहा यह ग्रह हम सभी को खतरे में डाल रहा है, कार्रवाई को शीघ्र तेज करने का लाभ सभी को मिलेगा। और यह सभी का कर्तव्य है कि वे नेताओं को उनके वादों और विज्ञान के प्रति जवाबदेह ठहराएं। मुक्त करो जैसे वैश्विक आंदोलन इस संबंध में अनुकरणीय रहे हैं। दुनिया की सबसे खतरनाक जीवाश्म ईंधन परियोजनाओं - तुर्की और फिलीपींस में कोयला संयंत्रों से लेकर, जर्मनी और ऑस्ट्रेलिया में खानों, ब्राज़ील में हाइड्रोलिक फ्रेक्चरिंग, और नाइजीरिया में तेल कूपों - को रोकने के उद्देश्य से चलाए जा रहे अभियानों और व्यापक कार्रवाइयों का समर्थन करके मुक्त करो आंदोलन को जीवाश्म ईंधन उद्योग की शक्ति और प्रदूषण को समाप्त करने, और दुनिया को टिकाऊ भविष्य की ओर प्रेरित करने की उम्मीद है। प्रस्तुत चुनौती की व्यापकता और तात्कालिकता को देखते हुए मुक्त करो आंदोलन नई और मौजूदा जीवाश्म ईंधन परियोजनाओं के खिलाफ अपने शांतिपूर्ण प्रतिरोध को तेज करने के लिए तैयार है। इसमें प्रमुख बात यह मांग करनेवाले समुदायों की शक्ति और बहादुरी होगी कि हम जीवाश्म ईंधन को जमीन में रखें और उसके बदले ऐसी स्वस्थ और अधिक न्यायोचित दुनिया का निर्माण करें, जिसमें हर किसी को टिकाऊ ऊर्जा तक पहुँच प्राप्त हो। दुनिया हमारी ऊर्जा प्रणाली में एक ऐतिहासिक बदलाव लाने की ओर अग्रसर है। प्रगति में तेजी लाने के लिए, हमें उन लोगों का सामना करना चाहिए जो जलवायु परिवर्तन से मुनाफा कमा रहे हैं और आम लोगों के हितों की रक्षा करना चाहिए। जीवाश्म ईंधन परियोजनाओं के खिलाफ अगले महीने होने वाली लामबंदियां सही दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम हैं। अंततः जीवाश्म ईंधनों से मुक्त करो संघर्ष एक वैश्विक संघर्ष है। कोई भी इसे नजरअंदाज करना बर्दाश्त नहीं कर सकता। विकासशील दुनिया के लिए कैंसर की देखभाल बोस्टन – चार से अधिक दशक पहले, अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन ने इस बात के शीघ्र और उत्साहजनक परिणामों से प्रेरित होकर कि कीमोथेरेपी, तीव्र लिम्फोब्लासटिक ल्यूकेमिया और Hodgkin लिंफोमा जैसे रोगों का इलाज हो सकता है, “कैंसर के खिलाफ युद्ध” छेड़ दिया। उसके बाद से अधिकाधिक कैंसर रोगियों का उपचार करने और उन्हें ठीक करने के लिए कीमोथेरेपी, शल्य चिकित्सा, और विकिरण का उपयोग करने में लगातार प्रगति हो रही है। लेकिन निम्न और मध्यम आय वाले देशों में, जहाँ कैंसर के रोगी आज सबसे अधिक संख्या में रहते हैं, इन जीवन-रक्षक अनुसंधानों तक पहुँच दूर की कौड़ी बनी हुई है। संयुक्त राज्य अमेरिका में, स्तन कैंसर के 80% से अधिक रोगी लंबे समय तक जीवित रहते हैं, और कैंसर से पीड़ित 80% से अधिक बच्चे जीवित रहते हैं। हार्वर्ड विश्वविद्यालय में कर्करोग विज्ञानी के रूप में अपने लगभग 40 वर्षों में, मैंने ऐसे हजारों रोगियों का इलाज किया जिन्हें अगर कीमोथेरेपी उपलब्ध नहीं होती तो उनके बचने की उम्मीद बहुत कम होती। जिन रोगियों ने 1970 के दशक में उपचार प्राप्त किया, उनमें से बहुत से आज जीवित हैं और ठीक-ठाक हैं; उनके बच्चे अब प्रजननक्षम वयस्क हैं। 2011 में मैंने जब रवांडा में काम करना शुरू किया तभी मैं इस बात को पूरी तरह से समझ पाई कि मुझे जो उपकरण मिले हुए हैं वे कितने शक्तिशाली हैं और उनके न होने का क्या असर होता है। किगाली में केंद्रीय सार्वजनिक रेफरल अस्पताल में बाल-चिकित्सा कैंसर वार्ड में जाना समय से पीछे चले जाने जैसा था। विल्म्स ट्यूमर, जो एक तरह का गुर्दे का कैंसर होता है और वयस्कों को विरले ही कभी होता है, से ग्रसित रवांडा के बच्चों में पाए गए परिणाम हू-बहू अमेरिका में 80 साल पहले के समान थे, ये उन दवाओं की उपलब्धता से पहले के थे जिनसे आज इस रोगनिदान वाले 90% से अधिक अमेरिकी बच्चे जीवित रहने में सक्षम होते हैं। रवांडा की स्वास्थ्य मंत्री, एग्नेस बिनागवाहो के अनुसार, उन्हें किगाली का कैंसर वार्ड एक दशक पहले के एचआईवी/एड्स यूनिट जैसा लग रहा था जब वह अस्पताल में शिशु रोग विशेषज्ञ थी। जब एंटीरेट्रोवाइरल थेरेपी नहीं थी, तो डॉक्टर एचआईवी/एड्स के लिए भोजन और आराम करने की सलाह देते थे - जिसका अर्थ संक्रमण का अनिवार्य रूप से मौत की सजा बन जाना होता था। उस समय, कुछ लोग, चाहे थोड़ी देर के लिए ही सही, ऐतिहासिक भूल का शिकार हो जाते थे। 2001 में एक वरिष्ठ अमेरिकी अधिकारी ने यह दावा किया था कि एचआईवी/एड्स की "जटिलता" और उच्च लागत के कारण, अफ्रीका में इसका इलाज करना असंभव होगा। लेकिन उनकी - और उनके जैसे विचार रखनेवाले कई अन्य लोगों की भी - यह धारणा गलत सिद्ध हुई। आज, अफ्रीका में दवाओं के उपयोग के साथ उपचार करानेवालों एचआईवी पॉजिटिव रोगियों की संख्या अमेरिका में इस तरह के लोगों की तुलना में बहुत अधिक हो चुकी है। दरअसल, रवांडा एड्स के इलाज के लिए सार्वभौमिक पहुँच प्राप्त करने वाले देशों में पहला देश था। इस अनुभव के बावजूद, अफ्रीका में कैंसर के प्रभावी उपचार की संभावना के बारे में इसी तरह का संदेह व्यक्त किया जा रहा है। यह सच है कि कैंसर का उपचार जटिल है। इसके लिए जहाँ पैथोलॉजी, शल्य चिकित्सा, विकिरण, कीमोथेरेपी, और लक्षित दवाओं जैसी विभिन्न प्रकार की नैदानिक और चिकित्सीय क्षमताओं की आवश्यकता होती है, वहीं इन जीवन-रक्षक उपचारों को सुरक्षित रूप से करने के लिए ज्ञान और कौशल का होना भी आवश्यक होता है। लेकिन बुटारो कैंसर सेंटर ऑफ़ एक्सेलेंस और इसके जैसी अन्य सुविधाओं ने यह साबित कर दिया है कि गरीब, ग्रामीण परिवेश में भी कैंसर रोगियों का सुरक्षित और प्रभावी ढंग से इलाज किया जाना संभव है। रवांडा स्वास्थ्य मंत्रालय, पार्टनर्स इन हैल्थ, और बोस्टन स्थित दाना- फ़ार्बर कैंसर इन्स्टीट्यूट की बदौलत, बुटारो सेंटर द्वारा 3,000 से अधिक कैंसर रोगियों का इलाज किया जा चुका है, जिनमें से ज्यादातर पूर्व राष्ट्रपति बिल क्लिंटन और बिनागवाहो द्वारा जुलाई 2012 में इसे समर्पित किए जाने के बाद से, इस क्षेत्र के बाहर से संदर्भित किए गए हैं। जेफ गोर्डन चिल्ड्रन्स फाउंडेशन, स्तन कैंसर रिसर्च फाउंडेशन, लिवस्ट्रोंग, और निजी दानदाताओं से प्राप्त सहायता भी इस उपलब्धि के लिए महत्वपूर्ण रही है। सौभाग्य से, कुछ प्रमुख संस्थाओं ने इस प्रयास में तेज़ी लाने के लिए आगे आना शुरू कर दिया है। विश्व स्वास्थ्य संगठन, कैंसर नियंत्रण के लिए अंतर्राष्ट्रीय संघ के साथ मिलकर कैंसर के इलाज के लिए जरूरी दवाओं की विश्व स्वास्थ्य संगठन की मॉडल सूची की दुबारा जांच कर रहा है ताकि इसकी अधिक ठीक तरह से पहचान की जा सके कि कौन से कैंसरों पर इलाज का अधिक असर होता है, और कौन से आबादियों पर भारी बोझ के रूप में हैं। कैंसर की वैश्विक मृत्यु दरों को कम करने के लिए सबसे कुशल दृष्टिकोण यह होगा कि विकासशील देशों में कैंसर के रोगियों को मौजूदा उपचार मुहैया कराए जाएँ। इसमें कैंसर के इलाज के लिए उस तरह के अंतर्राष्ट्रीय वित्तपोषण को भी जोड़ें, जिसे एड्स राहत के लिए अमेरिकी राष्ट्रपति की आपातकालीन योजना और ग्लोबल फंड के माध्यम से एचआईवी/एड्स के लिए जुटाया गया था, इससे विकासशील देशों में कैंसर से होनेवाली मृत्यु दरों में भारी कमी हो सकती है, और जल्दी भी। एक दशक से अधिक पहले, अंतर्राष्ट्रीय समुदाय ने यह फैसला किया था कि वे अब आगे से एचआईवी रोगियों के लिए निश्चित मौत को स्वीकार नहीं करेंगे। हमें आज वही प्रतिबद्धता करनी चाहिए कि हर जगह रोगियों को जीवन-रक्षक कैंसर का इलाज उपलब्ध कराएँगे। कार्बन कीमत-और-छूट योजना पेरिस – अभी तक अंतरराष्ट्रीय जलवायु वार्ताओं में ऐसा कोई तरीका नहीं खोजा जा सका है जिससे दुनिया के ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जनों को सफलतापूर्वक कम किया जा सके। 1997 के क्योटो प्रोटोकॉल में कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जनों के लिए कोई कीमत निर्धारित करने के लिए व्यापार योग्य कोटा की प्रणाली का उपयो�� करने का प्रयास किया गया था, लेकिन संयुक्त राज्य अमेरिका और कई उभरते देशों द्वारा इसमें शामिल होने से इनकार कर देने पर यह प्रयास लड़खड़ा गया। 2009 के कोपेनहेगन जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में प्रतिज्ञा और पुनरीक्षण प्रक्रिया शुरू की गई जिसमें देशों ने एकपक्षीय रूप से फैसला किया कि वे कितनी कटौती करेंगे। परिणामस्वरूप, अमेरिका और कई उभरती अर्थव्यवस्थाओं ने पहली बार उत्सर्जनों को कम करने के लिए प्रतिबद्धताएँ की। लेकिन इस प्रणाली में भी भारी खामियाँ हैं। इसमें विकासशील देशों में कटौतियों की गारंटी या पारंपरिक मुफ्त लाभ प्राप्तकर्ता की समस्या का हल नहीं मिलता है। दरअसल, कुछ देशों को इस बात के लिए प्रोत्साहन मिला होगा कि वे उससे कम करें जितना वे अन्यथा कर सकते हैं ताकि उनकी मोलभाव करने की स्थिति मजबूत हो सके। दुनिया के नेता जब 30 नवंबर से 11 दिसंबर के बीच जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन के लिए पेरिस में मिलेंगे, तो उन्हें एक प्रभावी समझौते को तय करने के लिए एक नया अवसर प्राप्त होगा। सरकारों को सामंजस्य से काम करने के लिए प्रोत्साहित करने के लिए, यह आवश्यक है कि कार्बन की कीमत के निर्धारण की किसी ऐसी प्रणाली के लिए काम किया जाए जो सरल हो और पारदर्शी भी। हम एक ऐसे कार्बन "कीमत-और-छूट" तंत्र का प्रस्ताव कर रहे हैं जिसमें एक निश्चित सीमा से ऊपर के उत्सर्जनों पर कोई कीमत तय की जाए और यह परिभाषित किया जाए कि प्राप्त आय का उपयोग किस तरह किया जाना चाहिए। पेरिस सम्मेलन से पहले किए गए अध्ययनों में यह सुझाया गया है कि अंतरराष्ट्रीय सहयोग से ग्रीन हाउस गैसों को तेजी से कम किया जा सकता है। इनमें स्थानीय प्रदूषण की कमी, ऊर्जा और खाद्य की अधिक से अधिक सुरक्षा, और तेजी से नवाचार सहित, जलवायु परिवर्तन पर त्वरित कार्रवाई करने से परोक्ष रूप से मिल सकनेवाले लाभों पर भी प्रकाश डाला गया है। कम कार्बनवाली अर्थव्यवस्था की दिशा में कार्रवाई में तेजी लाने के लिए एक अंतरराष्ट्रीय समझौता सभी देशों पर लागू होना चाहिए; इसकी निगरानी, रिपोर्टिंग, और जाँच करने के लिए एक सामान्य और सतत प्रणाली सम्मिलित की जानी चाहिए; और वैश्विक स्तर पर भारी आर्थिक प्रोत्साहन प्रदान किए जाने चाहिए। हमारा कीमत-और-छूट तंत्र फ्रांस की उस "बोनस/मैलस" योजना से प्रेरित है, जिसमें वाहन के कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जनों के आधार पर नई कारों के खरीदारों पर कर लगाया जाता है या उन्हें बोनस दिया जाता है। हमारी प्रणाली में, जिस देश की दुनिया भर में प्रति व्यक्ति औसत उत्सर्जनों की मात्रा एक निर्धारित सीमा से ऊपर होगी वह कार्बन डाइऑक्साइड के प्रत्येक टन (या इसके समतुल्य) पर एक निर्धारित राशि का भुगतान करेगा। औसत से कम उत्सर्जनों वाले देशों को कम प्रदूषण फैलाने के लिए मुआवजा दिया जाएगा। इस प्रणाली से शुरू में प्रति व्यक्ति सबसे कम उत्सर्जनों वाले देशों को लाभ होगा जिसका अर्थ यह है कि अधिकतर निधियों का प्रवाह सबसे कम विकसित देशों की ओर होगा। इसके पूरी तरह से चालू हो जाने के बाद, कीमत-और-छूट तंत्र से सभी देशों को अपने प्रति व्यक्ति उत्सर्जनों को कम करने, और उसके फलस्वरूप भुगतानों और छूटों के बीच के अंतर को कम करने के लिए प्रोत्साहन मिलेगा। आदर्श कार्बन कीमत समझौते के उद्देश्यों पर निर्भर करेगी। प्रति टन $1-2 की कीमत से $14-28 बिलियन की राशि प्राप्त होगी, जो विकासशील देशों में निगरानी, पुनरीक्षण, और जाँच की प्रक्रिया को लागू करने के लिए पर्याप्त होगी। कोपेनहेगन समझौते में अमीर देशों द्वारा अविकसित देशों को जलवायु परिवर्तन को कम करने और अनुकूलन में मदद करने के लिए 2020 के बाद प्रति वर्ष $100 बिलियन खर्च करने की प्रतिबद्धता शामिल थी। प्रति टन $7-$8 की दर से इस वादे को पूरा करने के लिए पर्याप्त आय प्राप्त होगी जिससे प्रति व्यक्ति कम उत्सर्जन वाले देशों को धन उपलब्ध किया जा सकेगा। $100 बिलियन की इस राशि में से $60 बिलियन पश्चिमी देशों और जापान से प्राप्त होंगे, और $20 बिलियन से कुछ कम हाइड्रोकार्बन का निर्यात करने वाले देशों (विशेष रूप से रूस और सऊदी अरब) और उच्च विकास वाली एशियाई व्यवस्थाओं (चीन और कोरिया सहित) से प्राप्त होंगे। इस प्रकार, कीमत-और-छूट प्रणाली की शुरूआत होने से "सामान्य, लेकिन अलग-अलग जिम्मेदारियों और संबंधित क्षमताओं" के सिद्धांत के अनुरूप निधियों को देशों के बीच पुनः वितरित किया जा सकेगा। कीमत-और-छूट प्रणाली कारगर होगी और निष्पक्ष भी। दुनिया के हर नागरिक को ग्रीन हाउस गैस के उत्सर्जन का समान अधिकार होगा, और हर देश को उत्सर्जनों को कम करने के लिए मार्जिन पर समान प्रोत्साहन प्राप्त होंगे। ऐसी प्रणाली स्थापित करने में आनेवाली मुख्य बाधा दाता देशों की सरकारों को यह समझाने की होगी कि वे अपने कार्बन उत्सर्जनों की कीमत अदा करें। यह लागत उनकी अर्थव्यवस्थाओं के आकार की दृष्टि से मामूली होगी, और किसी भी सफल जलवायु परिवर्तन समझौते के लिए इसी तरह की प्रतिबद्धताओं की आवश्यकता होगी। यदि अमीर देश कार्बन के लिए इतनी मामूली कीमत का भुगतान करने के लिए सहमत नहीं हो पाएँगे, तो पेरिस की वार्ताओं को निश्चित रूप से विफल माना जाएगा। महिलाओं के सबसे बड़े दूसरे जानलेवा ख़तरे को रोकना जेनेवा – महिलाओं के लिए, इस दुनिया में जीवन को लाने के कार्य का ऐतिहासिक दृष्टि से अर्थ उनके अपने जीवन को खतरे में डालना रहा है क्योंकि प्रसव के दौरान मौत होने की संभावना वास्तविक होती है। लेकिन यद्यपि, गरीब देशों में मातृ मृत्यु को कम करने के मामले में उल्लेखनीय प्रगति हो रही है, परंतु ये लाभ महिलाओं के स्वास्थ्य के खतरों में बढ़ोतरी होने के कारण बेअसर हो सकते हैं। पहली बार, हर वर्ष गर्भाशय ग्रीवा के कैंसर की वजह से होने वाली मौतों की संख्या प्रसव के कारण होनेवाली मौतों से अधिक होने की संभावना है। यह प्रवृत्ति आंशिक रूप से मातृ मौतों को कम करने के प्रयासों की सफलता को दर्शाती है। 1990 से, महिलाओं की प्रसव के कारण होनेवाली म��तों की संख्या लगभग आधी होकर 2,89,000 प्रति वर्ष हो गई है। तथापि, उसी अवधि के दौरान, गर्भाशय ग्रीवा के कैंसर से होने वाली वार्षिक मौतों में लगभग 40% की वृद्धि होने से इनकी संख्या 2,66,000 हो गई है। हालाँकि देखभाल के बेहतर स्तरों के कारण मातृ मृत्यु दरों में कमी होती जा रही है, गर्भाशय ग्रीवा के कैंसर से होने वाली मौतों में और बढ़ोतरी होने की संभावना है। 2035 तक, इस बीमारी के फलस्वरूप हर वर्ष 4,16,000 महिलाओं के धीरे-धीरे और दर्द से मरने की संभावना है - लगभग ये सभी मौतें विकासशील देशों (ज्यादातर उप सहारा अफ्रीका और दक्षिण एशिया) में होंगी। त्रासदी यह है कि इन सभी मौतों को लगभग पूरी तरह से रोका जा सकता है। स्क्रीनिंग और इलाज के साथ, ह्यूमन पेपिलोमा वायरस (एचपीवी) के टीकों से गर्भाशय ग्रीवा के कैंसर के अधिकतर मामलों को रोका जा सकता है। लेकिन गर्भाशय ग्रीवा के कैंसर से मरनेवाली महिलाओं में से लगभग 90% विकासशील देशों में हैं, जहाँ उनमें से बहुत अधिक महिलाओं के लिए स्क्रीनिंग सेवाएँ उपलब्ध नहीं हैं, और इलाज तो उससे भी बहुत कम उपलब्ध है। दुनिया में गर्भाशय के कैंसर से सर्वाधिक संख्या में मौतें होनेवाले देश भारत में, स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय में पूर्व अतिरिक्त सचिव के रूप में, मैंने खुद अपनी आँखों से इस बीमारी के प्रभाव को देखा है। विशेष रूप से खौफ़नाक बात यह है, यह उम्मीद को भी पूरी तरह से ख़त्म कर देती है। उदाहरण के लिए, एचआईवी से ग्रस्त महिलाओं के विशेष रूप से इस रोग से ग्रस्त होने की संभावना होती है। फिर भी, एचआईवी के लिए बेहतर उपचार उपलब्ध होने के कारण, महिलाएँ अब केवल गर्भाशय ग्रीवा के कैंसर से मरने के लिए ही एचआईवी से जीवित बच जाती हैं। 2010 में, गर्भाशय ग्रीवा के कैंसर की कुल वैश्विक लागत लगभग $2.7 बिलियन प्रति वर्ष होने का अनुमान लगाया गया था। यदि हम इसके बारे में अभी से कुछ नहीं करते हैं, तो 2030 तक इसके बढ़कर $4.7 बिलियन होने की संभावना है। सौभाग्य से, टीकों की उपलब्धता अब बढ़ती जा रही है। सुरक्षित और प्रभावी एचपीवी टीके बाज़ार में 2006 से मिल रहे हैं जो एचपीवी टाइप 16 और 18 से रक्षा प्रदान करते हैं, गर्भाशय ग्रीवा के कैंसर के सभी मामलों में से 70% मामले इनके कारण होते हैं। नए स्वीकृत टीके और भी अधिक सुरक्षा प्रदान करते हैं। अमीर देशों में, एचपीवी टीकों की कीमत अक्सर प्रति खुराक 100 डॉलर से भी अधिक रखी जाती है। लेकिन वैक्सीन एलायंस, गावी ने निर्माताओं को विकासशील देशों में इसकी कीमतों को कम रखने के लिए राज़ी किया है। हाल ही में, हमने एचपीवी के टीकों के लिए अब तक की सबसे कम कीमत $4.50 प्रति ख़ुराक हासिल की है, जिससे 27 देशों में उन सबसे गरीब लाखों लड़कियों के लिए अवसर खुल गए हैं जिन्हें यह टीका लगाया जाना है। हमारा अनुमान है कि 2020 तक, गावी द्वारा 40 से अधिक विकासशील देशों में 30 मिलियन से अधिक लड़कियों की एचपीवी से रक्षा के लिए टीका लगवाने में मदद की जा चुकी होगी। टीके के आर्थिक लाभ बहुत अधिक हैं। प्रभावी स्क्रीनिंग और उपचार सेवाओं को स्थापित करने के लिए समय और भारी निवेश की ज़रूरत पड़ती है। और, यह देखते हुए कि उच्च आय वाले देशों को भी कैंसर के उपचारों की लागत को पूरा करने के लिए संघर्ष करना पड़ता है, रोकथाम करना स्पष्ट रूप से कहीं अधिक कारगर विकल्प है। इसके अलावा, गर्भाशय ग्रीवा का कैंसर महिलाओं को आर्थिक दृष्टि से उनके सबसे अधिक उत्पादक वर्षों के दौरान हमला करता है, जब समाज और अर्थव्यवस्था में उनका योगदान सबसे अधिक होता है। रोग सिर्फ जीवनों को नष्ट नहीं करता है; यह परिवारों को भी गरीब बना देता है और आर्थिक विकास को भी हानि पहुँचाता है। टीकाकरण पर विश्व स्वास्थ्य संगठन के विशेषज्ञों के रणनीतिक सलाहकार समूह द्वारा पिछले वर्ष की गई सिफारिश के फलस्वरूप टीके की वास्तविक लागत और अधिक कम हो जाने की आशा है क्योंकि अब एचपीवी टीके की सिर्फ दो खुराकें ही काफ़ी होंगी जबकि इससे पहले यह माना जाता था कि इसकी तीन खुराकें लेना आवश्यक है। इससे न केवल टीके की खरीद और वितरण की कुल लागत कम हो जाएगी; बल्कि इससे स्वास्थ्य देखभाल कर्मियों और स्वयं लड़कियों को भी आसानी होगी। डब्ल्यूएचओ और लंदन स्कूल ऑफ़ हाइजीन एंड ट्रॉपिकल मेडिसिन द्वारा जून में प्रकाशित एक अध्ययन में यह अनुमान लगाया गया है कि 179 देशों में 58 मिलियन लड़कियों को टीके लगाए जाने से गर्भाशय ग्रीवा के कैंसर के 6,90,000 मामलों और इस रोग से होनेवाली 4,20,000 मौतों को रोका जा सकेगा। दुर्भाग्यवश, इस अध्ययन से यह भी पता चला है कि जिन 33 देशों में कैंसर को रोकने में एचपीवी टीकों का सबसे अधिक प्रभाव होने की संभावना है, उनमें से 26 देशों ने अभी तक इस टीके को शुरू ही नहीं किया है। अभी बहुत काम किया जाना बाकी है। हमें स्वयं को सौभाग्यशाली मानना चाहिए कि हम 1990 से अब तक मातृ मृत्यु दर को लगभग आधा कर सके हैं। लेकिन हमें गर्भाशय ग्रीवा के कैंसर के खतरे पर पूरी नज़र रखनी चाहिए। यह आवश्यक है कि हम अभी से कार्रवाई करें ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि प्रत्येक लड़की को एचपीवी टीकों की सुविधा मिलती है और गर्भाशय ग्रीवा के कैंसर से मुक्त एक स्वस्थ भविष्य मिलता है, चाहे वह कहीं भी रहती हो। गरीबी रेखा की रणनीति वाशिंगटन, डीसी - एक लंबे समय तक, पहले कॉलेज के प्रोफेसर के रूप में और उसके बाद भारत सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार के रूप में, मैं वैश्विक गरीबी पर विश्व बैंक के आंकड़ों की प्रवृत्तियों पर नज़र रखने और विभिन्न देशों में उनके स्वरूपों का विश्लेषण करनेवाला एक संतुष्ट उपयोगकर्ता था। मैं शायद ही कभी यह सोचने के लिए रुका हूँगा कि उन संख्याओं की गणना किस तरह की जाती है। फिर, तीन साल पहले, मैंने विश्व बैंक में इसके मुख्य अर्थशास्त्री के रूप में पदभार ग्रहण किया। यह मानो उस ग्राहक की तरह था जो अपने पसंदीदा रेस्तरां में मस्ती से रात के खाने के लिए ऑर्डर दे रहा हो और उसे अचानक रसोई में जाकर भोजन तैयार करने के लिए कहा जाए। गरीबी मापने के व्यवसाय में होना विश्व बैंक के लिए एक चुनौती है। यदि गरीबी कम हो जाती है, तो आलोचक हम पर आरोप लगाते हैं कि हम अपनी सफलता का प्रदर्शन करने की कोशिश कर रहे हैं। यदि यह बढ़ जाती है, तो वे कहते हैं कि हम यह सुनिश्चित कर रहे हैं कि हमारा कारोबार चलता रहे। और यदि यह वहीं बनी रहती है, तो वे हम पर आरोप लगाते हैं कि हम इन दोनों आरोपों से बचने की कोशिश कर रहे हैं। सौभाग्य से, यह जानकर कुछ राहत मिलती है कि परिणाम चाहे कुछ भी हो, उसके लिए आपकी आलोचना अवश्य की जाएगी। फिर भी, हमारी टीम ने जब इस वर्ष वैश्विक गरीबी रेखा (और इस प्रकार गरीबी के प्रभाव) को परिभाषित करने की शुरूआत की तो मैं इस वर्ष के अर्थशास्त्र के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित एंगस डीटन की इस चेतावनी टिप्पणी के प्रति पूरी तरह से जागरूक था: "मुझे नहीं लगता कि विश्व बैंक के लिए इस परियोजना के प्रति खुद को इतना प्रतिबद्ध करना बुद्धिमानी का काम है।" मैं उनके दृष्टिकोण को समझ पाया हूँ: इस वर्ष की गरीबी की गणना विशेष रूप से महत्वपूर्ण थी। वर्ष 2011 में, नई क्रय शक्ति समानताओं (या पीपीपी, जिनसे अनिवार्य रूप से यह अनुमान लगाया जाता है कि $1 से भिन्न-भिन्न देशों में कितनी खरीद की जा सकती है) की गणना की गई थी, और 2014 में इसके आँकड़े उपलब्ध हो गए थे। यह भी एक कारण था कि इस बात का जायज़ा लिया जाए कि हम किस तरह वैश्विक गरीबी रेखा को समायोजित करेंगे, गरीबी की नई संख्याओं का अनुमान लगाएँगे, और उन्हें अक्तूबर में जारी अपनी वैश्विक निगरानी रिपोर्ट में प्रकाशित करेंगे। दूसरा कारण यह है कि संयुक्त राष्ट्र ने अपने नए सतत विकास लक्ष्यों में चिर गरीबी के उन्मूलन को शामिल किया है। इसका मतलब यह है कि गरीबी रेखा का निर्धारण किस तरह किया जाए इस बारे में हमारा निर्णय शायद न केवल विश्व बैंक के उद्देश्य को बल्कि संयुक्त राष्ट्र और दुनिया भर के सभी देशों के विकास एजेंडा को भी प्रभावित करेगा। स्पष्ट रूप से, चूँकि हमने संख्याओं की गणना की थी, इसलिए इसे पूरा करने की हमारी विशेष, और चुनौतीपूर्ण जिम्मेदारी थी। हमारा पहला काम यह देखना था कि वैश्विक गरीबी रेखा इससे पहले कैसे निर्धारित की गई थी। 2005 में, जब क्रय शक्ति की समानताओं के पिछले चरण का अनुमान लगाया गया था, उसमें इस पद्धति का उपयोग किया गया था कि सबसे गरीब 15 देशों की राष्ट्रीय गरीबी रेखाओं को लिया जाए, उनके औसत की गणना की जाए, और उसे वैश्विक रेखा के रूप में माना जाए। इससे $1.25 की वैश्विक गरीबी रेखा प्राप्त हुई। इसके मूल में विचार यह था कि हर वह व्यक्ति गरीब है जिसका पीपीपी-समायोजित दैनिक उपभोग $1.25 से कम है। इस पद्धति की मान्यता पर सवाल उठाया गया है - और इस बारे में मेरे अपने संदेह हैं। लेकिन प्रारंभिक वर्ष में रेखा कहाँ खींची गई है, यह बात कुछ अर्थों में उतनी महत्वपूर्ण नहीं है। चूंकि गरीबी की कोई विशिष्ट परिभाषा नहीं है, इसलिए यह महत्वपूर्ण है कि किसी उचित स्थान तक कोई रेखा निर्धारित की जाए और उसके बाद वास्तविक (मुद्रास्फीति- समायोजित) आधार पर उस रेखा को स्थिर बनाए रखा जाए ताकि समय-समय पर हम दुनिया और अलग-अलग देशों के प्रदर्शन पर नज़र रख सकें। कुछ आलोचकों का यह तर्क है कि 2005 की $1.25 की गरीबी रेखा बहुत कम थी। लेकिन उन्हें जिस बात पर चिंता करनी चाहिए वह यह है कि वर्ष 2011 में दुनिया की लगभग 14.5% आबादी - हर सात लोगों में से एक - इसके नीचे रह रही थी। यह देखते हुए कि हम पहले से ही 2030 तक चरम, चिर गरीबी को समाप्त करने के लक्ष्य के लिए प्रतिबद्ध हैं, हमारा पहला निर्णय गरीबी स्थिरांक को मापने के लिए मापदंड को बनाए रखना था। चूंकि पीपीपी गणना के दो चरणों के बीच, 2005 और 2011 में, मुद्रास्फीति हुई थी, हमें स्पष्ट रूप से वास्तविक रेखा स्थिरांक को बनाए रखने के लिए सांकेतिक गरीबी रेखा को बढ़ाना होगा। तथापि, पूरी दुनिया के लिए यह कर पाना इतना आसान नहीं है। हमें किन देशों की मुद्रास्फीति का उपयोग करना चाहिए? हमने दो प्रयोग किए: पहला प्रयोग था 2005 में प्रयुक्त 15 देशों की गरीबी रेखाओं को उन देशों की मुद्रास्फीति दरों का उपयोग करके उन्हें बढ़ाया जाए और फिर उनकी औसत निकाली जाए; दूसरा प्रयोग था कि यही प्रक्रिया उन 101 देशों के लिए अपनाई जाए जिनके लिए हमारे पास आवश्यक आँकड़े उपलब्ध थे। इन दोनों तरीकों से यह रेखा क्रमशः $1.88 और $1.90 तक बढ़ गई। तथापि, एक तीसरा दृष्टिकोण भी संभव था: गरीबी रेखा को नए पीपीपी आँकड़ों के अनुसार बढ़ाया जाए ताकि वैश्विक गरीबी रेखा का भार अपरिवर्तित बना रहे (क्योंकि पीपीपी से हमें यकीनन विभिन्न देशों में समानता के बारे में पता चलता है और इससे वैश्विक गरीबी के संपूर्ण स्तर में परिवर्तन नहीं होना चाहिए)। इस अभ्यास से - जो सितारों के एक अजीब मिलन की तरह दिखाई देना शुरू हुआ था - $1.90 से थोड़ी अधिक गरीबी रेखा प्राप्त हुई। संक्षेप में, इसे एक दशमलव स्थान तक रखने पर, इन तीनों तरीकों से $1.9 का आँकड़ा प्राप्त हुआ। और हमने इसी रेखा को अपनाया। हम हमेशा इतने भाग्यशाली नहीं होंगे कि विभिन्न तरीकों का उपयोग करें और फिर भी लगभग एक ही रेखा पर पहुँचने में कामयाब हों। इसके अलावा, गरीबी को मुद्रा के अतिरिक्त अन्य कई मापदंडों से मापा जा सकता है और मापा जाना चाहिए: जीवन प्रत्याशा, शैक्षिक उपलब्धि, स्वास्थ्य, और मानव "कार्यपद्धतियों और क्षमताओं" के कई अन्य मापदंड (जैसा कि अमर्त्य सेन ने उल्लेख किया है) सभी महत्वपूर्ण हैं। भविष्य में इन समस्याओं से निपटने और विश्व बैंक के गरीबी अनुसंधान को व्यापक बनाने के लिए, हमने 24-सदस्यीय वैश्विक गरीबी आयोग की स्थापना की है, जिसकी अध्यक्षता लंदन स्कूल ऑफ इकॉनॉमिक्स और नफ़ील्ड कॉलेज, ऑक्सफोर्ड के सर टोनी एटकिंसन कर रहे हैं – यह आयोग अगले वसंत में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करेगा। गरीबी को मापने पर नेताओं और अकादमिक शोधकर्ताओं दोनों द्वारा ध्यान दिया जाता है - और हमें इन दोनों से पर्याप्त ध्यान मिला। हम गरीबी की राजनीति के प्रति सतर्क थे, लेकिन हमने राजनीतिक प्रचार का विरोध किया। हमने शोधकर्ताओं के सुझावों पर ध्यान दिया, लेकिन हमने अपने विवेक का प्रयोग किया। एक शोधकर्ता इस बात पर अडिग थे कि गरीबी रेखा $1.9149 होनी चाहिए। मैंने निर्णय किया कि अंत के वे तीन अंक हद से कुछ अधिक ही थे। चेन्नई चेतावनी तिरुवनंतपुरम, भारत – दुनिया के नेता जब जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए पेरिस में बैठक कर रहे थे, उस समय दक्षिण भारतीय राज्य तमिलनाडु की राजधानी का चेन्नई शहर (पहले का मद्रास), 104 साल में सबसे भारी वर्षा की चपेट में आकर पानी-पानी हो गया। पाँच लाख की आबादी वाला यह शहर पूरी तरह ठप हो गया है, इसकी सड़कों पर पानी भर गया है और लगभग 5,000 घर पानी में डूब गए हैं। 450 से अधिक लोग मर चुके हैं। हवाई और रेल सेवाएँ निलंबित कर दी गई हैं, बिजली और फोन की लाइनें बंद हो गई हैं, और जीवन रक्षक उपकरणों के काम नहीं कर पाने के कारण अस्पतालों के मरीज़ दम तोड़ रहे हैं। पीड़ितों को बचाने के लिए भारत की सेना और वायु सेना उन्हें नावों में ले जा रही है। यह कल्पना करना मुश्किल है कि भारत के चौथे सबसे बड़े शहर के स्कूल, कॉलेज, आईटी कंपनियाँ, कारखाने, और व्यावसायिक प्रतिष्ठान ठप पड़ गए हैं। और यहाँ तक कि फ़ोर्ड, डेमलर, बीएमडब्ल्यू, और रेनॉल्ट जैसी वैश्विक कंपनियों ने अपने स्थानीय कारखानों में उत्पादन ठप करने का अभूतपूर्व निर्णय ले लिया है। चेन्नई का प्रतिष्ठित समाचार पत्र द हिन्दू, 178 साल में पहली बार इसका मुद्रित संस्करण इसलिए नहीं निकाल पाया क्योंकि इसके कर्मचारी काम पर नहीं आ पाए थे (हालांकि इसने साहसपूर्वक इसका ऑनलाइन संस्करण तैयार कर लिया)। अनिवार्य रूप से, विनाशकारी बारिश को दुनिया के मौसम पर मानव की कार्रवाई के भयावह परिणामों के सबूत के रूप में देखते हुए, बहुत से लोगों ने चेन्नई की बाढ़ को पेरिस में हो रही वार्ता से जोड़ा। उन्होंने सुझाव दिया कि जब तक पेरिस में विश्व के नेता वैश्विक जलवायु परिवर्तन को सीमित करने के लिए निर्णायक कार्रवाई नहीं करते तब तक ऐसी और अधिक आपदाओं से बचा नहीं जा सकता। भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चेन्नई की ओर इशारा करते हुए कहा कि "अब हम जलवायु परिवर्तन के तेजी से बढ़ते प्रभाव को महसूस कर रहे हैं" और उन्होंने औद्योगिक देशों से कहा कि वे ग्लोबल वार्मिंग को कम करने के लिए और अधिक कार्रवाई ��रें। दरअसल, वैज्ञानिकों की भविष्यवाणी के अनुसार अगले कुछ दशकों में भारत बहुत अधिक गर्म हो जाएगा, और इसलिए उस पर सूखे पड़ने, बाढ़ आने, फसलें नष्ट होने, और चक्रवातों जैसी मौसम संबंधी विभिन्न आपदाओं का खतरा बढ़ जाएगा। उनका कहना है कि चेन्नई तो बस एक चेतावनी है। लेकिन एक और कारण तर्कसंगत रूप से इस बात का अधिक सही अनुमान वाला स्पष्टीकरण प्रदान करता है कि गलती कहाँ हुई। चेन्नई के आसपास के भारत के पूर्वी तट के लिए वर्ष के इस समय पर भारी मानसून की वर्षा से प्रभावित होना सामान्य बात है। और यद्यपि 1911 के बाद से यह इस क्षेत्र में होनेवाली सबसे अधिक भयंकर वर्षा है, जो बाढ़ आई वह भी मानवीय त्रुटि: उस गैर जिम्मेदार और अनियोजित शहरीकरण का परिणाम थी जिसने हाल के दशकों में भारत का कायाकल्प किया है। लगभग हर प्रभावित क्षेत्र में, बाढ़ को गलत योजना से किए गए निर्माण से जोड़ा जा सकता है जो जल-विज्ञान या चेन्नई के प्राकृतिक पारिस्थितिक तंत्र को ध्यान में रखे बिना किया गया है। तमिलनाडु के पर्यावरण विभाग द्वारा निर्धारित मानदंडों को काफी हद तक नजरअंदाज कर दिया गया है क्योंकि राजनेता विकास के नाम पर बिल्डरों के हित के साथ अपना हित साध लेते हैं। परिणामस्वरूप, हवाई अड्डों और बस टर्मिनलों को बाढ़ के मैदानों पर बनाया गया है; गोदामों और कारखानों को झीलों और दलदली भूमि पर बनाया गया है; और आवास परियोजनाओं को पहले की झीलों पर बनाया गया है। डेवलपर जलनिकासी मार्गों और जलग्रहण क्षेत्रों पर अपना हक समझते हैं। नगर में जलप्रवाह के डेटा पर ध्यान दिए बिना जगह-जगह बाईपास सड़कें और एक्सप्रेसवे बन गए हैं। परिणामस्वरूप जल स्रोतों में तेजी से कमी होती जा रही है। क्योंकि निर्माण करते समय पर्याप्त अपशिष्ट निपटान और सीवेज सिस्टम का प्रावधान करने पर बिल्कुल ध्यान नहीं दिया गया है, नगर की नदियाँ और नहरें कचरे के मैदान बनकर रह गए हैं, वे इतने अधिक भर गए हैं कि अब उनका उपयोग वर्षा जल को समुद्र में भेजने के लिए कारगर सरणियों के रूप में नहीं किया जा सकता है। इसी तरह, महत्वपूर्ण झीलों का विनाश होने और बाढ़ को रोकने के लिए अपर्याप्त बुनियादी ढांचा होने का अर्थ यह है कि वर्षा जल अपवाह के लिए आगे जाने की कोई जगह नहीं बची है। यही स्थिति दर्जनों भारतीय शहरों में देखी जा सकती है। शहरीकरण अपरिहार्य है: 1.2 अरब लोगों की अर्थव्यवस्था उनमें से दो-तिहाई लोगों को कृषि में रोजगार नहीं दे सकती है और यह इसके बढ़ने की उम्मीद नहीं कर सकती है; ग्रामीण लोग अनिवार्य रूप से काम और बेहतर जीवन की तलाश करने के लिए शहरों में जाएँगे ही। भारत की शहरी आबादी जो सात दशक से भी कम समय पहले, स्वतंत्रता प्राप्ति के समय 10% थी, आज बढ़कर लगभग 40% हो गई है। वह समय दूर नहीं होगा जब अधिकतर भारतीय लोग शहरों में रहने लग जाएँगे। लेकिन उन सभी शहरों का विकास उसी तरह नहीं हो सकता जिस तरह चेन्नई का हुआ है। बहुत से भारतीय शहरों का जनसंख्या घनत्व चेन्नई की तुलना में बहुत अधिक है, और कोच्चि या तिरुवनंतपुरम में ऐसी ही किसी तबाही से बहुत अधिक लोगों की मृत्यु हो सकती है। हमें अपने शहर की जल निकासी प्रणालियों पर पुनर्विचार करना होगा, अपनी आपदा-प्रबंधन संस्थाओं को दुरुस्त करना होगा, और यह सुनिश्चित करना होगा कि मानसून की वर्षा का पानी कम-से-कम संभव समय में हमारे शहरों से बाहर निकल जाता है। चेन्नई त्रासदी भारत के लिए एक चेतावनी संकेत है। यदि जल स्रोतों का संरक्षण और पर्यावरण अनिवार्यताओं का पालन करने के लिए कठोर उपाय किए गए होते तो इस आपदा से बचा जा सकता था। यदि हम अपनी प्राथमिकताओं का उचित ध्यान रखते हैं, तो हम इस विभीषिका से मिले सबक को ध्यान में रखते हुए केवल पर्यावरण की दृष्टि से टिकाऊ तरीकों से शहरी स्थान तैयार करेंगे। यदि हम चेन्नई की घटना को एक बार हो गई घटना के रूप में देखते हैं, इसे मनुष्य की त्रुटि न मानकर "भगवान का कार्य" मानते हैं, तो आगे आनेवाली आपदाओं को टाला नहीं जा सकेगा। मोदी सरकार के "भारत में बनाओ” के नारे के अनुरूप देश शहरी केंद्रों में उच्च-तकनीक का विकास लाने के लिए एक सौ "स्मार्ट शहरों" का निर्माण करने की योजना बना रहा है। लेकिन भारत के शहरों को निम्न-तकनीक के अर्थ में भी स्मार्ट होना चाहिए। चेन्नई से हमें यह सबक मिला है कि हम और अधिक निर्माण, शहरीकरण, और विनिर्माण करके परिचित मानसून मौसम की घटनाओं से अपने प्राकृतिक लचीलेपन को नष्ट नहीं कर सकते हैं। "भारत में बनाओ" भारत को बिगाड़ो नहीं बन जाना चाहिए। चीन का भंगुर विकास मॉडल नई दिल्ली – 1947 में ब्रिटेन से आजादी पाने के बाद, भारत लोकतंत्र के गुणों की दृष्टि से बहुत-कुछ एक उदाहरण की तरह था - यह चीन के बिल्कुल विपरीत था जो 1949 में कम्युनिस्ट तानाशाह बन गया था। 1970 के दशक तक, अक्सर यह तर्क दिया जाता था कि हालांकि दोनों देश चरम गरीबी, अल्प विकास, और रोग से पीड़ित हैं, भारत का मॉडल इसलिए बेहतर था क्योंकि इसके लोग अपने स्वयं के शासकों को चुनने के लिए स्वतंत्र थे। तथापि, चीन की आर्थिक तेज़ी को देखते हुए, यह वितर्क मान्य होने लग गया है कि दमनकारी राजनीतिक प्रणाली विकास के लिए अधिक अनुकूल होती है। हालांकि चीन का हाल ही का प्रदर्शन शानदार रहा है, लेकिन भारत का मॉडल दीर्घावधि में बेहतर सिद्ध होगा। इस पर बातचीत का रुख 1978 के बाद तब बदल गया जब चीन आर्थिक रूप से भारत से आगे बढ़ गया जिसके कारण बहुत से लोगों ने यह निष्कर्ष निकालना शुरू कर दिया कि भारत का अराजक लोकतंत्र इसके लोगों को आगे बढ़ने से रोक रहा है। इसके बावजूद, यदि चीन के नेता किसी नए छह लेन वाले एक्सप्रेस-वे का निर्माण करना चाहते हैं, तो वे कितने भी गांवों पर बुलडोज़र चला सकते हैं। भारत में, किसी दो लेन की सड़क को चौड़ा करने के मामले में जनता विरोध प्रदर्शनों के लिए उतारू हो सकती है और मामला कई साल तक अदालत में लटका रह सकता है। बीजिंग के सिंघुआ विश्वविद्यालय के प्रोफेसर डेनियल ए. बेल की नई पुस्तक के प्रकाशित होने पर इस पुरानी बहस ने अब नया मोड़ ले लिया है। बेल का तर्क है कि चीनी सत्तावाद, विशेष रूप से इसका "राजनीतिक योग्यतावाद" शासन का एक व्यावहारिक मॉडल है जो भारत और पश्चिम के लोकतंत्र से संभवतः अधिक बेहतर है। अर्थशास्त्री और दार्शनिक अमर्त्य सेन ने इस बात को भली-भाँति प्रदर्शित किया है कि प्रेस की स्वतंत्रता के कारण लोकतंत्रों में अकाल नहीं पड़ते हैं क्योंकि उनकी सरकारें पीड़ा की अनदेखी नहीं कर सकती हैं। बेल बताते हैं कि चीन ने भी, कम-से-कम आर्थिक और तकनीकी विकास (ग्रेट लीप फॉरवर्ड) के बाद से, अकाल को रोका है और उसने कुपोषण के मामले में भारत की तुलना में बेहतर किया है। वे इस बात पर बल देते हैं कि इससे यह सिद्ध होता है कि अपने लोगों की प्रभावी ढंग से सेवा करने के लिए सरकार का लोकतांत्रिक होना जरूरी नहीं है। वास्तव में, बेल का तर्क है कि अधिकारियों का चयन और उनका मूल्यांकन करने के लिए चीन की योग्यता-आधारित प्रणाली में लोकतांत्रिक चुनावों की तुलना में बेहतर नेतृत्व की गारंटी होती है, जिनमें अक्सर अज्ञानता और पूर्वाग्रह के कारण जीत होती है। कुछ कमजोरियों (विशेष रूप से आत्मसंतोष और भ्रष्टाचार) के बावजूद, चीन की प्रणाली से व्यवस्थित शासन और विकास का होना सुनिश्चित होता है। बेल कहते हैं कि लोकतंत्र में आवश्यक रूप से ऐसा नहीं होता है, इसलिए "राजनीतिक दृष्टि से प्रासंगिक प्रश्न यह है कि क्या लोकतांत्रिक चुनावों के परिणाम अच्छे होते हैं।" भारत में इस प्रश्न पर 40 साल पहले बहस हुई थी जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने आपातकाल की घोषणा की थी। उन्होंने नागरिक स्वतंत्रताओं को समाप्त कर दिया, विपक्षी नेताओं को जेलों में बंद कर दिया, और प्रेस को सेंसर कर दिया, यह सब इस विश्वास पर आधारित था कि लोकतंत्र ने भारत के विकास को अवरुद्ध कर दिया है। यह मामला 1977 में उस चुनाव के होने पर सुलझ गया जिसमें इंदिरा गांधी सत्ता से बाहर हो गईं और लोकतंत्र बहाल हो गया। लेकिन "रोटी बनाम स्वतंत्रता" की दुविधा बनी हुई है: क्या सरकारें अपने नागरिकों के अधिकारों और स्वतंत्रताओं का सम्मान करते हुए आर्थिक विकास और समृद्धि प्रदान कर सकती हैं? हाल के वर्षों में अपने झगड़ालू गठबंधनों और बाधित संसद सत्रों के कारण भारतीय राजनीति के सुचारू रूप से कार्य न कर पाने के फलस्वरूप यह प्रश्न पहले से कहीं अधिक प्रासंगिक प्रतीत होता है। मैं इससे आश्वस्त नहीं हूँ कि बेल का उत्तर सही उत्तर है। तीव्र औद्योगिकीकरण और विकास ने लाखों चीनी लोगों को गरीबी से बाहर निकाला है, लेकिन यह अक्सर घोर मानवीय पीड़ा की कीमत पर हुआ है। चीन भले ही ख़तरनाक गति से आगे बढ़ा है, लेकिन इस प्रक्रिया में उसने अनेक लोगों की जान भी ख़तरे में डाली है। कोई भारत की सुस्त नौकरशाही की तुलना चीन की कुशल नौकरशाही से, विदेशी निवेशकों के लिए भारत की लालफीताशाही की तुलना चीन के लाल कालीन से, और भारत की दलगत राजनीति की तुलना चीन के पार्टी के पदानुक्रम से करना पसंद कर सकता है। लेकिन इसमें कोई शक नहीं है कि भारत के बहुलवादी लोकतंत्र ने इसकी विविधता को बहुत बढ़िया तरीके से बनाए रखने में सक्षम बनाया है, सभी नागरिकों में यह भावना भरी है कि उनकी अपने देश में मजबूत हिस्सेदारी है - और उनका इस पर वास्तविक प्रभाव होता है कि इसे किस रूप में चलाया जाता है। वास्तव में, यह भारत की गरीब और वंचित नागरिकों की बड़ी आबादी है, न कि अभिजात वर्ग, जो भारत के लोकतंत्र को इसका औचित्य प्रदान करती है। गरीब लोग वोट देने के लिए इसलिए निकलते हैं क्योंकि उन्हें पता होता है कि चुनावों में भाग लेना सरकार को अपनी मांगों के बारे में बताने का सबसे कारगर साधन है। जब वे अपनी सरकार से निराश हो जाते हैं, तो किसी प्रकार के विद्रोह या कोई बगावत शुरू करने के बजाय वे अगले चुनाव में अपने नेताओं के खिलाफ वोट देते हैं। जब हिंसक आंदोलन होते भी हैं, तो लोकतांत्रिक प्रक्रिया अक्सर समझौते के ज़रिए उन्हें शांत कर देती है: कल के आतंकवादी आज के मुख्यमंत्री - और आनेवाले कल के विपक्षी नेता - बन जाते हैं। इसके विपरीत, अगर चीन की प्रणाली को किसी मौलिक चुनौती का सामना करना पड़ता है तो उसकी एकमात्र प्रतिक्रिया दमन होती है। भले ही अब तक यह कारगर रहा हो, लेकिन इतिहास में हर निरंकुश राज्य उस बिंदु पर पहुंचा है जहां व्यवस्था और प्रगति सुनिश्चित करने के लिए दमन का होना पर्याप्त नहीं था। अगर चीन को व्यापक भारी अशांति का सामना करना पड़े, तो उसके सभी दांव असफल हो जाएंगे। हाथी की ठोकर से अजगर धड़ाम से लुड़क सकता है। इसके अलावा, बेल की चीन के योग्यतावाद की धारणा शायद बहुत अधिक आशावादी है। यह देखते हुए कि चीन की प्रणाली पूरी तरह से नौकरशाही है जिसमें कैरियर की सीढ़ी पर केवल क्रमिक रूप से ऊपर चढ़ने की अनुमति होती है, अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा जैसे युवा और अपेक्षाकृत अनुभवहीन लेकिन गतिशील और प्रेरणादायक नेता के लिए ऊपर ऊठना असंभव होता है। चीन ऐसे प्रतिभाशाली नेताओं का चयन नहीं करेगा जो अमेरिका के राष्ट्रपति फ्रैंकलिन डी. रूजवेल्ट या अब्राहम लिंकन की तरह अपनी युवावस्था में असफल रहे थे। भारतीय राजनीति में जिन विद्रोहियों और गैर-परंपरावादियों ने अपर सफलता हासिल की – उदाहरण के लिए, महात्मा गांधी या जवाहर लाल नेहरू जैसे नेता - वे चीन की प्रणाली में कभी भी शुरूआत नहीं कर पाते। चीन के अलावा, बेल सिंगापुर और ताइवान जैसी सत्तावादी प्रणालियों की सफलता का उदाहरण देते हैं। लेकिन ये देश शायद अधिनायकवाद के बिना भी उतने ही सफल होते। उन्होंने वृद्धि और विकास को बढ़ावा देने के लिए जो तरीके इस्तेमाल किए वे इस सीमा तक लोकतांत्रिक सिद्धांतों के अनुरूप हैं कि पूर्व एशिया में पहले के कई सत्तावादी राज्य अपने विकास को रोके बिना, लोकतंत्र में सफल संक्रमण करने में कामयाब रहे। अंत में, बेल के दृष्टिकोण को इस सामान्य से दृष्टांत से नकारा जा सकता है: ऐसी कोई आबादी नहीं हैं जिसने लोकतांत्रिक अधिकारों को हासिल कर लेने के बाद तानाशाही में वापस लौटने की मांग की हो। अकेला यह तथ्य इसे साबित करने के लिए पर्याप्त होना चाहिए कि लोकतंत्र ताकत है, कमजोरी नहीं। संभव है कि चीन की प्रणाली इसके तीव्र आर्थिक में सहायक रही हो, लेकिन उसकी ऊपर से नीचे तक की आम सहमति पर निर्भरता का मतलब है कि यह केवल प्रत्याशित वातावरण में ठीक तरह से कार्य करती है। इसके विपरीत, भारत की प्रणाली में केवल एक ही मुद्दे पर आम सहमति की आवश्यकता होती है: यह जरूरी नहीं है कि हर कोई हमेशा सहमत हो जब तक वे इस पर सहमत हों किस रूप में असहमत हुआ जा सकता है। और अप्रत्याशित दुनिया में यह बात भारत को एक निर्विवाद - और अमूल्य - लाभ की स्थिति प्रदान करती है। चीन की हरित-ऊर्जा क्रांति सिडनी – चीन अपनी अधिकतर बिजली जीवाश्म ईंधन को जलाकर उत्पन्न करता है जैसा कि औद्योगिक क्रांति के बाद से हर बढ़ती हुई आर्थिक शक्ति द्वारा किया गया है। लेकिन इसी एक तथ्य पर ध्यान केंद्रित करने में एक उल्लेखनीय प्रवृत्ति को नज़रअंदाज़ करने का जोखिम है। विद्युत उत्पादन की चीनी प्रणाली जिस गति से हरित में बदलती जा रही है - वह इस धरती पर तुलनात्मक दृष्टि से समान आकार की किसी भी अन्य प्रणाली की अपेक्षा कहीं अधिक तेज़ है। यह प्रवृत्ति तीन क्षेत्रों में दिखाई देती है। पहला क्षेत्र बिजली उत्पादन का है। चीन विद्युत परिषद द्वारा जारी आंकड़ों के अनुसार, चीन ने 2014 में जीवाश्म ईंधनों से जितनी मात्रा में बिजली का उत्पादन किया उसमें वर्षों बाद 0.7% की जो कमी हुई, वह हाल ही के समय में हु��� पहली कमी है। इस बीच, गैर-जीवाश्म ईंधन स्रोतों से किए गए विद्युत उत्पादन में 19% की वृद्धि हुई। यह उल्लेखनीय है कि इस बदलाव में परमाणु ऊर्जा की भूमिका बहुत कम रही है। जल, वायु, और सौर जैसे बिल्कुल हरित स्रोतों से उत्पन्न बिजली में 20% की जो वृद्धि हुई, उसमें सबसे नाटकीय वृद्धि सौर विद्युत उत्पादन में हुई जिसमें 175% जितनी भारी वृद्धि हुई। सौर विद्युत नई उत्पादित ऊर्जा की दृष्टि से परमाणु बिजली से भी आगे निकल गई, और पिछले वर्ष परमाणु स्रोतों से प्राप्त प्राप्त 14.70 टेरावाट घंटे की तुलना में इससे 17.43 टेरावाट घंटे अतिरिक्त बिजली प्राप्त की गई। और, लगातार तीसरे वर्ष, चीन ने परमाणु ऊर्जा की तुलना में वायु से अधिक बिजली उत्पन्न की। इसे देखते हुए, इस तर्क में कोई दम नज़र नहीं आता कि चीन को बिजली के गैर-कार्बन स्रोतों के लिए परमाणु ऊर्जा संयंत्रों पर निर्भर रहना पड़ेगा। जिस दूसरे क्षेत्र में हरित प्रवृत्ति स्पष्ट दिखाई दे रही है, वह चीन की कुल बिजली उत्पादन क्षमता है। इस देश की विद्युत प्रणाली अब दुनिया की सबसे बड़ी प्रणाली है जो संयुक्त राज्य अमेरिका के एक टेरावाट की तुलना में 1.36 टेरावाट उत्पादन करने में सक्षम है। विभिन्न ऊर्जा स्रोतों की प्रत्यक्ष तुलनाएँ करना मुश्किल है क्योंकि पवन, सौर, परमाणु, और जीवाश्म ईंधन संयंत्रों के उपयोग में दिन के समय के अनुसार भिन्नता रहती है। लेकिन वार्षिक आँकड़ों पर एक नज़र डालने से यह साफ पता चलता है कि पूरी प्रणाली किस तरह से बदल रही है। पिछला वर्ष लगातार दूसरा वर्ष था जिसमें चीन ने जीवाश्म ईंधन स्रोतों की तुलना में गैर-जीवाश्म ईंधन स्रोतों से अधिक उत्पादन क्षमता का योगदान किया। चीन ने जीवाश्म ईंधनों से बिजली उत्पन्न करने की अपनी क्षमता में 45 गीगावाट की वृद्धि की जिससे उसकी कुल क्षमता बढ़कर 916 गीगावाट हो गई। इसके साथ ही, इसने गैर-जीवाश्म ईंधन स्रोतों से बिजली का उत्पादन करने की अपनी क्षमता में 56 गीगावाट की वृद्धि की, और कुल 444 गीगावाट की क्षमता प्राप्त कर ली। पवन, जल, और सौर ऊर्जा संयंत्रों से इसकी उत्पादन क्षमता में 51 गीगावाट की और वृद्धि हुई। परिणामस्वरूप, चीन की कुल बिजली उत्पादन क्षमता में वायु, जल, और सौर ऊर्जा का अंश 2007 के 21% से बढ़कर 31% हो गया, जबकि इसके अतिरिक्त परमाणु ऊर्जा का अंश भी 2% है। ये परिणाम चीन की 12वीं पंचवर्षीय योजना में निर्धारित लक्ष्य से अधिक हैं जिसमें यह अनुमान लगाया गया था कि गैर-जीवाश्म ईंधन स्रोतों पर आधारित विद्युत उत्पादन की क्षमता 2015 तक देश की बिजली प्रणाली का लगभग 30% होगी। अंत में, हरित ऊर्जा की ओर प्रवृत्ति को चीन के निवेश के स्वरूपों में देखा जा सकता है। सबूत सामने हैं: देश जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता वाले स्रोतों की तुलना में विद्युत ऊर्जा के हरित स्रोतों पर अधिक धन लगा रहा है। वास्तव में, चीन किसी भी दूसरे देश की तुलना में हरित ऊर्जा पर अधिक खर्च कर रहा है। जीवाश्म ईंधन से ऊर्जा का उत्पादन करनेवाली स्थापनाओं में निवेश में लगातार कमी हुई है, यह 2008 के CN¥167 बिलियन (लगभग $24 बिलियन) से घटकर 2014 में CN¥95 बिलियन ($15.3 बिलियन) रह गया है, जबकि गैर-जीवाश्म ईंधन स्रोतों में निवेश में वृद्धि हुई है, यह 2008 के CN¥118 बिलियन से बढ़कर 2014 में कम-से-कम CN¥252 बिलियन तक हो गया है। नवीकरणीय बिजली उत्पादन में ऊर्जा निवेश के अंश में लगातार बढ़ोतरी हुई है और यह मात्र चार वर्ष पहले के 32% से बढ़कर 2011 में 50% तक पहुँच गया। 2013 में, नवीकरणीय ऊर्जा में निवेश का अंश बढ़कर कम-से-कम 59% तक पहुँच गया। बहुत कुछ चीन के ऊर्जा सुधारों, और विशेष रूप से दुनिया की सबसे बड़ी नवीकरणीय ऊर्जा प्रणाली का निर्माण करने के प्रयासों की सफलता पर निर्भर करता है - यह एक ऐसी महत्वाकांक्षा है जो पश्चिम में की गई किसी भी कल्पना की तुलना में कहीं अधिक बड़ी है, और किए गए किसी भी प्रयास से बहुत कम है। इसलिए यह और भी अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है कि जैसे-जैसे प्रणाली का विकास होता है, इसके बारे में सही रूप में सूचना दी जाए ताकि परिवर्तन की समग्र दिशा को समझा जा सके। चीन की विद्युत प्रणाली कोयले पर बहुत अधिक आधारित बनी हुई है, और जब तक प्रणाली का वर्णन सही मायने में काले की तुलना में अधिक हरित के रूप में किया जा सकेगा, तब तक और बहुत अधिक कोयला जल चुका होगा। लेकिन परिवर्तन की दिशा स्पष्ट है। इसे स्वीकार किया जाना चाहिए, और वैश्विक ऊर्जा और ऊर्जा नीति की चर्चाओं में सम्मिलित किया जाना चाहिए। चीन की प्यास से खतरा हांगकांग - हिमालय की पारिस्थितिकी प्रणालियों के लिए जब ख़तरों की पहचान की जाती है, तो चीन सबसे अलग दिखाई देता है। वर्षों से, पीपुल्स रिपब्लिक संसाधन संपन्न तिब्बती पठार पर नदियों को बेहताशा नियंत्रित करने और खनिज संपदा का निरंकुश दोहन करने में लगा हुआ है। अब वह दुनिया सबसे बड़े और बहुत तेजी से पनप रहे इस क्षेत्र में ग्लेशियर के पानी को अनापशनाप निकालने वाले बोतलबंद पानी के अपने उद्योग को प्रोत्साहित करने के प्रयासों में भारी बढ़ोतरी कर रहा है। ग्रेट हिमालय में 18,000 की ऊंचाई वाले ग्लेशियरों में से लगभग तीन-चौथाई ग्लेशियर तिब्बत में हैं, जबकि बाकी भारत और इसके आस-पड़ोस में हैं। असंख्य पर्वतीय झरनों और झीलों के साथ तिब्बती ग्लेशियर, मेकांग और चांग से लेकर सिंधु और द यैलो सहित, एशिया की बड़ी नदियों को पानी की आपूर्ति करते हैं। वास्तव में, तिब्बती पठार एशिया की लगभग सभी प्रमुख नदी प्रणालियों का उद्गम स्थल हैं। तिब्बत को अपने अधिकार में करके, चीन ने एक तरह से एशिया के पानी का नक्शा ही बदल दिया है। और इसका इसे और अधिक बदलने का इरादा है, क्योंकि यह सीमा-पार नदी तटों के प्रवाहों की दिशा को बदल देनेवाले बाँधों का निर्माण कर रहा है जिनके फलस्वरूप उसे नदी के मुहाने वाले देशों पर महत्वपूर्ण लाभ की स्थिति प्राप्त हो रही है। लेकिन चीन विशुद्ध रूप से सामरिक हितों से प्रेरित नहीं है। चूँकि इसकी नदियों, झीलों, और जलाशयों में मौजूद अधिकतर पानी मानव के उपयोग लिए योग्य नहीं है, स्वच्छ पानी चीन के लिए नए तेल के समान हो गया है, यह एक ऐसा अनमोल और महत्वपूर्ण संसाधन बन गया है जिसके अत्यधिक दोहन से प्राकृतिक वातावरण के नष्ट होने का जोखिम पैदा हो गया है। नल के पानी के सुरक्षित होने के बारे में संदेह रखनेवाली जनता को संतुष्ट कर सकनेवाले प्रमुख पेय जल को हिमालय के ग्लेशियरों से प्राप्त करने के लिए अपनी कंपनियों को प्रोत्साहित करके, चीन एशिया भर में पर्यावरण के ख़तरों को बढ़ा रहा है। हालांकि चीन में वर्तमान में बेचा जा रहा अधिकतर बोतलबंद पानी वर्तमान में अन्य स्रोतों - रासायनिक रूप से शोधित नल के पानी या अन्य प्रांतों से प्राप्त खनिज पानी - से आता है, चीन को लगता है कि हिमालय के ग्लेशियर के पानी को बोतलबंद करना विकास का एक नया साधन सिद्ध हो सकता है, जिसमें सरकार द्वारा दी जानेवाली सब्सिडी शामिल होती है। सरकार के "तिब्बत का अच्छा पानी दुनिया के साथ साझा करें" अभियान के भाग के रूप में, चीन पानी बोतलबंद करनेवालों को कर अवकाश, कम ब्याज पर ऋण, और प्रति क्यूबिक मीटर (या 1,000 लीटर) के लिए CN¥ 3 ($0.45) के मामूली से निकासी शुल्क जैसे प्रोत्साहन दे रहा है। चीनी अधिकारियों द्वारा तिब्बत में पिछले शिशिर में घोषित दस-वर्षीय योजना के अनुसार, मात्र अगले चार वर्षों में ग्लेशियर के पानी की निकासी में 50 गुना से अधिक की वृद्धि होगी, जिसमें निर्यात के लिए पानी भी शामिल है। लगभग 30 कंपनियों को पहले ही तिब्बत की बर्फ से ढकी चोटियों के पानी को बोतलबंद करने के लिए लाइसेंस प्रदान किए जा चुके हैं। चीन में दो लोकप्रिय ब्रांड हैं कोमोलंगमा ग्लेशियर, जिसका स्रोत नेपाल की सीमा पर माउंट एवरेस्ट से जुड़ा हुआ संरक्षित भंडार माना जाता है, और 9000 इयर्स, जिसका यह नाम इसके हिमनदों के स्रोत की संभावित आयु के आधार पर रखा गया है। एक तीसरा ब्रांड, तिब्बत 5100 है, जिसका यह नाम इसलिए रखा गया है क्योंकि इसके पानी की बोतलबंदी नेनचेन तंगलाह पर्वत श्रेणी में 5,100 मीटर ऊंचे उस ग्लेशियर के झरने पर की जाती है जो यार्लंग त्संग्पो (या ब्रह्मपुत्र नदी) को पानी की आपूर्ति करता है - जो पूर्वोत्तर भारत और बांग्लादेश के लिए अति महत्वपूर्ण है। दुर्भाग्य की बात यह है कि चीनी बोतलबंद पानी उद्योग ग्लेशियर के पानी को मुख्य रूप से पूर्वी हिमालय क्षेत्र से प्राप्त कर रहा है, जहां पर हिम और बर्फ के क्षेत्रों के तेजी से पिघलने के कारण अंतर्राष्ट्रीय वैज्ञानिक समुदाय में पहले से ही चिंताएँ व्यक्त की जा रही हैं। इसके विपरीत, पश्चिमी हिमालय में ग्लेशियर अधिक स्थिर हैं और संभवतः उनमें बढ़ोतरी भी हो रही है। चीन की विज्ञान अकादमी ने भी एक दस्तावेज़ में उल्लेख किया है कि इस क्षेत्र में और पूर्वी हिमालय के ग्लेशियरों के क्षेत्र में भारी कमी हो रही है। तिब्बती पठार, जो दुनिया का सबसे अधिक जैव विविध लेकिन पारिस्थितिकी रूप से नाजुक क्षेत्रों में से एक है, अब औसत वैश्विक दर की तुलना में दुगुनी से अधिक दर पर गर्म हो रहा है। तिब्बत एशियाई जल विज्ञान और जलवायु में जिस महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करता है, उसे कम करने के अलावा, यह प्रवृत्ति तिब्बती पठार के अद्वितीय पक्षी, स्तनपायी, उभयचर, सरीसृप, मछली, और औषधीय पौधों की प्रजातियों को भी खतरे में डालती है। इतना ही नहीं, चीन तिब्बत के संसाधनों की निरंकुश निकासी पर पुनर्विचार भी नहीं कर रहा है। इसके विपरीत, तिब्बत तक रेलवे का निर्माण करने के बाद से - पहला निर्माण 2006 में पूरा किया गया था, जिसके विस्तार को 2014 में खोला गया था - चीन के प्रयास लगातार बढ़ते जा रहे हैं। पानी के अलावा, तिब्बत दुनिया का शीर्ष लिथियम उत्पादक है; यह चीन के तांबा और क्रोमाइट (इस्पात के उत्पादन में प्रयुक्त) सहित कई धातुओं के सबसे बड़े भंडारों का प्रमुख स्थान है; और हीरे, सोने और यूरेनियम का महत्वपूर्ण स्रोत है। हाल के वर्षों में, चीन-नियंत्रित कंपनियों ने इस पठार पर अनाप-शनाप खनन करना आरंभ कर दिया है जिससे न केवल तिब्बतियों के लिए पवित्र स्थलों को क्षति पहुँच रही है बल्कि इससे तिब्बत की पारिस्थितिकी का और अधिक क्षरण हो रहा है - इसमें इसके कीमती पानी को प्रदूषित किए जाने से होनेवाली क्षति भी शामिल है। वस्तुतः इसी प्रकार की कार्रवाइयों के कारण सर्वप्रथम चीन में पानी का संकट पैदा हुआ था। अपनी पिछली गलतियों से सबक सीखने के बजाय, चीन उनमें और अधिक इजाफा कर रहा है, आर्थिक विकास के प्रति इसके अविवेकपूर्ण दृष्टिकोण के फलस्वरूप मजबूर होकर अधिकाधिक लोगों और पारिस्थितिक तंत्रों को इसकी कीमत चुकानी पड़ रही है। दरअसल, चीन ने गहन जल खनन के प्रतिकूल प्रभावों के खिलाफ कोई प्रभावी सुरक्षा उपाय लागू नहीं किए हैं। बोतलबंद पानी उन संरक्षित भंडारों से भी प्राप्त किया जा रहा है जहां ग्लेशियर पहले से घटने शुरू हो गए हैं। इस बीच, ग्लेशियर से पानी निकालने में आई तेज़ी अत्यधिक प्रदूषणकर्ता सहायक उद्योगों को आकर्षित करने लग गई है जिनमें प्लास्टिक की पानी की बोतलों के निर्माता भी शामिल हैं। यह न भूलें: ग्लेशियर-जल के खनन से जैव विविधता की हानि, पानी का अपवाह अपर्याप्त मात्रा में होने के कारण कतिपय पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं में अवरोध, और ग्लेशियर के झरनों में पानी के कम या खराब होने की संभावना की दृष्टि से पर्यावरण संबंधी भारी लागतें आती हैं। इसके अलावा, हिमालय से ग्लेशियर-जल को प्राप्त करने, संसाधित करने, बोतलबंद करने, और हज़ारों मील दूर बसे चीन के शहरों तक परिवहन करने में बहुत अधिक मात्रा में कार्बन भी पैदा होता है। ग्लेशियर-जल को बोतलबंद करना चीन की प्यास बुझाने के लिए सही तरीका नहीं है। पर्यावरण और आर्थिक दोनों ही दृष्टियों से, बेहतर विकल्प यह होगा कि शहरों में नल के पानी को सुरक्षित बनाने के लिए जल-शोधन सुविधाओं में निवेश को बढ़ाया जाए। दुर्भाग्यवश, चीन अपनी वर्तमान राह पर चलते रहने की हठ पर अड़ा हुआ दिखाई देता है - यह एक ऐसा दृष्टिकोण है जिससे एशिया के पर्यावरण, अर्थव्यवस्था, और राजनीतिक स्थिरता को अपूरणीय और गंभीर नुकसान हो सकता है। चीन के फौलादी मुक्के के लिए रेशम का दस्ताना नई दिल्ली – सालों से, चीन चाह रहा है कि वह दक्षिण एशिया को "मोतियों की माला" से घेर ले: यानी वह इसके पूर्वी तट को इसके मध्य पूर्व से जोड़ने वाले बंदरगाहों का नेटवर्क बना ले जिससे इसकी रणनीतिक ताकत और समुद्री पहुँच बढ़ जाए। इसमें आश्चर्य नहीं है कि भारत और अन्य देशों ने इस प्रक्रिया पर गंभीर चिंता व्यक्त की है। तथापि, चीन अब अपनी इस रणनीति को यह दावा करके छिपाने की कोशिश कर रहा है कि व्यापार और सांस्कृतिक आदान-प्रदान को बेहतर बनाने के लिए यह इक्कीसवीं-सदी का समुद्री रेशम मार्ग बनाना चाहता है। लेकिन यह दोस्ताना लफ्फाजी एशिया की चिंता को बहुत कम दूर कर पा रही है और उसके परे चीन का रणनीतिक लक्ष्य इस क्षेत्र पर प्रभुत्व जमाना है। और इस चिंता का ठोस आधार भी है। सीधे शब्दों में कहें, तो रेशम मार्ग की पहल के पीछे चीन का इरादा एशिया और हिंद महासागर के क्षेत्र में एक नए प्रकार का हब बनाने का है। वास्तव में, अनेक पड़ोसियों के साथ क्षेत्रीय और समुद्री विवाद भड़काकर, प्रमुख व्यापार मार्गों के साथ-साथ अपना प्रभुत्व स्थापित करने के लिए काम करके, चीन एशिया के भू-राजनीतिक नक्शे को फिर से बनाने की कोशिश कर रहा है। समुद्री रेशम मार्ग के रणनीतिक आयाम इस तथ्य से रेखांकित होते हैं कि इस विषय पर बहस का नेतृत्व पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (PLA) ने किया है। PLA राष्ट्रीय रक्षा विश्वविद्यालय के मेजर जनरल जी मिंग कुई का तर्क है कि यह पहल चीन की "नई छवि" बनाने और "प्रभाव जीतने" में मदद कर सकती है, ख़ास तौर से जब एशिया में यूएस की "धुरी" अपनी "गति खो रही है।" फिर भी PLA के विशेषज्ञ रेशम मार्ग पहल के "मोतियों की माला" से किसी संबंध को नकारने के लिए उत्सुकता दिखा रहे हैं। इसके बजाय, वे इसकी तुलना चीनी किन्नर एडमिरल झेंग हे के पंद्रहवीं-सदी के अभियानों से करते हैं जिसने अफ़्रीका को जाने वाले खजाने के जहाजों के बेड़े का नेतृत्व किया था। केंद्रीय सैन्य आयोग के सदस्य सुन सिजिंग के अनुसार, झेंग ने "एक इंच भूमि पर" अधिकार किए बिना या "समुद्री आधिपत्य" की इच्छा के बिना प्राचीन रेशम मार्ग का इस्तेमाल किया था (हालाँकि इतिहास साक्षी है कि उसने समुद्री चोक प्वाइंट नियंत्रित करने के लिए सैन्य बल का इस्तेमाल किया था - उदाहरण के लिए, स्थानीय शासकों की हत्या की थी)। वास्तव में, "मोतियों की माला" समुद्री रेशम मार्ग से बहुत कम अलग है। हालाँकि चीन इस पहल को आगे बढ़ाने के लिए प्रकट रूप से शांतिपूर्ण रणनीति अपना रहा है, लेकिन इसका प्रमुख लक्ष्य परस्पर लाभकारी सहयोग नहीं है; बल्कि यह रणनीतिक वर्चस्व है। दरअसल, रेशम मार्ग राष्ट्रपति झी जिनपिंग के "चीनी स्वप्न" की महत्वाकांक्षाओं का अभिन्न अंग है, जिसका लक्ष्य चीन के अतीत के गौरव और स्थिति को बहाल करना है। चीन ने, ख़ास तौर से झी के शासन में, अपने पड़ोसियों को पीपुल्स रिपब्लिक पर अपनी आर्थिक निर्भरता को बढ़ाने और उसके साथ अपने सुरक्षा सहयोग का विस्तार करने पर मजबूर करने के लिए अक्सर सहायता, निवेश, और अन्य आर्थिक लाभों का इस्तेमाल किया है। झी द्वारा समुद्री रेशम मार्ग विकसित करने के लिए $40 बिलियन की रेशम मार्ग निधि और चीन द्वारा प्रायोजित नए एशियाई बुनियादी सुविधा निवेश बैंक का इस्तेमाल करना इस दृष्टिकोण को दर्शाता है। पहले ही, न केवल खनिज-संसाधन आयातों और चीनी विनिर्मित वस्तुओं के निर्यात में सुविधा देने के लिए, बल्कि अपने रणनीतिक सैन्य लक्ष्यों को आगे बढ़ाने के लिए चीन इस क्षेत्र के तट पर बसे देशों में बंदरगाहों, रेलमार्गों, राजमार्गों, और पाइपलाइनों का निर्माण कर रहा है। उदाहरण के लिए, चीन ने ग्वादर में बंदरगाह विकसित करने के लिए पाकिस्तान के साथ कई अरब डॉलर का सौदा किया है, और इस बंदरगाह का रणनीतिक स्थान होर्मुज़ जलसंधि के मुहाने पर होने के कारण इसका उद्देश्य सीमित वाणिज्यिक क्षमता से अलग हो जाता है। पिछली शरद ऋतु में दो बार, चीन की हमलावर पनडुब्बियाँ श्रीलंका के हाल ही में खोले गए कोलंबो बंदरगाह पर, $500 मिलियन के कंटेनर टर्मिनल पर पहुँच गईं – जिसका निर्माण और बहुमत का स्वामित्व चीनी राज्य कंपनियों के पास है। चीन ने अब कोलंबो की रिक्लेम की गई भूमि - जो ऐसा "बंदरगाह शहर" है जो चीन के समुद्री "मार्ग" पर प्रमुख स्टॉप बन जाएगा - पर मोटे तौर पर मोनाको के आकार का विशाल परिसर बनाने के लिए $1.4 बिलियन की परियोजना पर काम करना शुरू किया है। PLA सैन्य विज्ञान अकादमी के मानद फ़ेलो, झोउ बो मानते हैं कि चीन की ये विशाल परियोजनाएँ चीन को "मज़बूत लेकिन सौम्य" शक्ति के रूप में पेश करते हुए "हिंद महासागर के राजनीतिक और आर्थिक परिदृश्य को मौलिक रूप से बदल देंगी"। यह इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि नई एशियाई व्यवस्था पूर्वी एशिया के विकास से कम निर्धारित होगी, जहाँ जापान चीन के उदय को अवरुद्ध करने के लिए कटिबद्ध है, और हिंद महासागर की घटनाओं से ज़्यादा निर्धारित होगी जहाँ चीन भारत के दीर्घकालीन प्रभुत्व में सेंध लगा रहा है। भारत निश्चित रूप से चीन के व्यवहार के प्रति आशंकित है। लेकिन चीन काफी सावधानी से चल रहा है ताकि यह अपने खौफ़नाक मंसूबों को प्रकट किए बिना, अपने लक्ष्य पर आगे बढ़ाना जारी रख सके। अमेरिकी शिक्षाविद जॉन गरवेर ने चीनी नीतिकथा का इस्तेमाल करके इस बात को बहुत अच्छे रूप में पेश किया है: "गुनगुने पानी के पात्र में मेंढक बेहद आरामदायक और सुरक्षित महसूस करता है। लेकिन पानी का तापमान धीरे-धीरे बढ़ने की ओर मेंढक का ध्यान तब तक नहीं जाता, जब तक वह आखिरकार मर कर पूरी तरह पक नहीं जाता है।" इस रोशनी में देखने पर, यह आश्चर्य की बात नहीं है कि चीन ने भारत को समुद्री रेशम मार्ग पहल में शामिल होने के लिए आमंत्रित किया है । इसका लक्ष्य केवल एक आशंकित पड़ोसी को शांत करने में मदद करना ही नहीं है, बल्कि यूएस और जापान के साथ भारत के रणनीतिक संबंधों के बढ़ने की गति को धीमा करना भी है। चीन की योजनाओं में रेशम मार्ग आर्थिक, राजनयिक, ऊर्जा, और सुरक्षा के उद्देश्यों का संयोजन है जिससे व्यापार को बढ़ावा देने, रणनीतिक पैठ को मज़बूत करने, और अधिकाधिक शक्तिशाली और सक्रिय पनडुब्बी बल की विस्तृत भूमिका का निर्वाह करने के लिए अनुमति देने से जुड़ी हुई सुविधाओं का व्यापक नेटवर्क तैयार करने की कोशिश हो रही है। इस प्रक्रिया में, चीन का लक्ष्य ऐसी एशियाई व्यवस्था तैयार करना है जिसका आधार यूएस के साथ शक्ति संतुलन न हो, बल्कि उसका अपना नायकत्व हो। केवल लोकतांत्रिक देशों का संयोजन इस रणनीति को रोक सकता है। चीनी विशेषताओं वाला विकास वित्त? जेनेवा – एशियाई इंफ्रास्ट्रक्चर निवेश बैंक (एआईआईबी) की संस्थापक सदस्यता में बाद में हड़बड़ी में और अधिक सदस्यों को सम्मिलित करने के बाद, अब चीन के नेतृत्व वाले एआईआईबी के नियम और विनियम निर्धारित करने पर ध्यान ��िया जा रहा है। लेकिन इसके बारे में महत्वपूर्ण सवाल अभी भी बाकी हैं - सबसे महत्वपूर्ण तो यह है कि क्या एआईआईबी विश्व बैंक जैसी मौजूदा बहुपक्षीय वित्तीय संस्थाओं की संभावित प्रतिद्वंद्वी संस्था है या यह एक स्वागतयोग्य पूरक संस्था है। चीन और 20 अधिकतर एशियाई देशों द्वारा पिछले अक्तूबर में एआईआईबी के प्रारंभिक सहमति के ज्ञापन पर हस्ताक्षर करने के बाद, 36 अन्य देश - ऑस्ट्रेलिया, ब्राज़ील, मिस्र, फिनलैंड, फ्रांस, जर्मनी, इंडोनेशिया, ईरान, इज़राइल, इटली, नार्वे, रूस, सऊदी अरब, दक्षिण अफ्रीका, दक्षिण कोरिया, स्वीडन, स्विट्ज़रलैंड, तुर्की, और यूनाइटेड किंगडम सहित - संस्थापक सदस्यों के रूप में शामिल हो गए हैं। चीन के वित्त मंत्रालय के अनुसार, एआईआईबी के संस्थापक सदस्यों को जुलाई से पहले समझौते के नियमों को पूरा करना है क्योंकि इसके प्रचालन वर्ष के अंत तक शुरू हो जाने हैं। चीन वार्ताकारों की बैठकों के स्थायी अध्यक्ष के रूप में कार्य करेगा, जिनकी सह-अध्यक्षता वार्ताओं की मेज़बानी करनेवाला सदस्य देश करेगा। प्रमुख वार्ताकारों की चौथी बैठक अप्रैल के अंत में बीजिंग में संपन्न हुई थी, और पाँचवीं बैठक सिंगापुर में मई के अंत में होगी। चीनी अर्थशास्त्री जिन लिकुन को एआईआईबी के बहुपक्षीय अंतरिम सचिवालय का नेतृत्व करने के लिए चुना गया है, वे बैंक की स्थापना की देखरेख का कार्य करेंगे। हालाँकि, संस्थापक सदस्यों के बीच शेयर आवंटन के लिए सकल घरेलू उत्पाद बुनियादी कसौटी होगा, वित्त मंत्रालय ने अक्तूबर में यह सुझाव दिया था कि चीन के सकल घरेलू उत्पाद के अनुसार उसकी जो 50% हिस्सेदारी बनती है उसकी उसे वास्तव में आवश्यकता नहीं है। इसके अलावा, हालाँकि एआईआईबी बीजिंग में आधारित होगा, मंत्रालय ने कहा है कि इसके क्षेत्रीय कार्यालयों और वरिष्ठ प्रबंधन की नियुक्तियों को आगे परामर्श और बातचीत करके तय किया जाएगा। पिछली गर्मियों में ब्रिक्स देशों (ब्राज़ील, रूस, भारत, चीन, और दक्षिण अफ्रीका) द्वारा घोषित $50 बिलियन के नवीन विकास बैंक की तरह, एआईआईबी को भी इसलिए भारी जाँच का सामना करना पड़ा है क्योंकि कुछ पश्चिमी नेताओं ने इसके प्रशासन, पारदर्शिता, और इरादों के बारे में सवाल खड़े किए हैं। वास्तव में, पश्चिम में बहुतों ने उनकी स्थापना को मौजूदा बहुपक्षीय उधारदाताओं को विस्थापित करने के प्रयास के एक हिस्से के रूप में चित्रित किया है। लेकिन ऐसा लगता है कि नए विकास बैंकों की मौजूदा संस्थाओं में सुधार लाने की अपेक्षा उनका स्थान लेने में कम रुचि है - यह एक ऐसा उद्देश्य है जिसे स्वयं उन संस्थाओं ने भी माना है। उप वित्त मंत्री के रूप में शी याओबिन ने हाल ही में अपने प्रशासन में सुधार की जरूरत को पहचान कर यह कहा कि विद्यमान बहुपक्षीय उधारदाताओं ने यह दर्शाया है कि वास्तव में कोई "सर्वोत्तम प्रथाएँ" नहीं होती हैं बल्कि केवल "बेहतर प्रथाएँ" ही होती हैं। ऐसा कोई कारण नहीं है कि सुधार कहीं और शुरू नहीं हो सकते। वास्तव में, विकास के बारे में चीन के प्रयोगात्मक दृष्टिकोण को देखते हुए, चीन इसके लिए पूरी तरह अनुकूल है - और जैसा कि कुछ शीर्ष अधिकारियों ने संकेत दिया है, वह इस प्रक्रिया में योगदान करने के लिए बहुत अधिक इच्छा भी रखता है। यदि चीन परियोजना उधारों के मामले में ऋणों के शीघ्रतापूर्वक वितरण की अनिवार्यता को देखते हुए उच्च मानकों और सुरक्षा उपायों की आवश्यकता में संतुलन लाने का कोई रास्ता खोजने में मदद कर सकता है, तो वैश्विक आर्थिक प्रशासन को काफी अधिक लाभ होगा। विकास वित्त के बारे में अधिक व्यावहारिक दृष्टिकोण को आगे बढ़ाने के लिए, $40 बिलियन की रेशम पथ निधि चीन का संस्थागत मॉडल बन सकती है जिसकी पिछले नवंबर में राष्ट्रपति ज़ी जिनपिंग ने घोषणा की थी। एसआरएफ और एआईआईबी चीन की " एक प्रदेश, एक पथ" की रणनीति के प्रमुख वित्तीय साधनों के रूप में काम करेंगे, जो आधुनिक समय के दो रेशम पथों - (थल पर) "रेशम पथ आर्थिक बेल्ट" और "इक्कीसवीं शताब्दी के मेरीटाइम रेशम पथ" के निर्माण पर केंद्रित होंगे - जिनका विस्तार पूरे एशिया से लेकर यूरोप तक होगा। इस पहल का उद्देश्य एशिया-प्रशांत क्षेत्र में आर्थिक सहयोग और एकता को बढ़ावा देना होगा, जो मुख्य रूप से सड़कों, रेल, हवाई अड्डों, बंदरगाहों, और बिजली संयंत्रों जैसी बुनियादी सुविधाओं के लिए वित्तपोषण उपलब्ध कराने के रूप में होगा। फिर भी एसआरएफ पर पश्चिमी मीडिया ने बहुत कम ध्यान दिया है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है, कयोंकि इसके बारे में जो भी थोड़ी-बहुत जानकारी उपलब्ध है उससे पता चलता है कि विकास वित्त के स्वरूप को बदलने में यह महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। चीनी मीडिया के अनुसार, एसआरएफ के लिए पूंजी चार राज्य एजेंसियों द्वारा प्रदान की जाएगी। इसमें विदेशी मुद्रा के राज्य प्रशासन की 65% हिस्सेदारी होगी; चीनी निवेश निगम (सीआईसी, देश के संप्रभु-धन कोष) और चीनी निर्यात आयात बैंक (चाइना एक्ज़िम) प्रत्येक की 15% हिस्सेदारी होगी; और चीन विकास बैंक (सीडीबी) शेष 5% की हिस्सेदारी करेगा। इस निधि का दिसंबर 2014 में आधिकारिक तौर पर पंजीकरण किया गया था, और उसके अगले महीने इसके निदेशकों की पहली बोर्ड बैठक आयोजित की गई थी। एक अर्थ में, एसआरएफ को चीन की नवीनतम संप्रभु-धन-निधि पहल माना जा सकता है, और कुछ मीडिया ने तो इसे "दूसरे सीआईसी" के नाम से संबोधित किया है। लेकिन, सीआईसी जहाँ वित्त मंत्रालय के प्रबंधकीय नियंत्रण में है, एसआरएफ के प्रचालनों पर पीपुल्स बैंक ऑफ़ चाइना का प्रभाव पड़ता दिखाई देता है। हाल ही के एक साक्षात्कार में, PBOC के गवर्नर झोउ ज़िआओचुआन ने संकेत दिया कि एसआरएफ "सहयोग परियोजनाओं" पर अधिक ध्यान केंद्रित करेगा, विशेष रूप से प्रत्यक्ष ईक्विटी निवेश में, उससे पहले उन्होंने निधि के वित्तपोषण की "एकदम सही" सुविधाओं की ओर इशारा किया। उदाहरण के लिए, झोउ ने यह संकेत दिया कि विकासशील देशों में बुनियादी ढाँचे के निवेश पर कम लाभ मिलने को ध्यान में रखते हुए एसआरएफ निवेशों के लिए कई निजी ईक्विटी फर्मों द्वारा अपनाई जा रही 7-10 वर्ष की समय-सीमा के बजाय कम-से-कम 15 वर्ष की समय-सीमा अपनाएगा। इसके अतिरिक्त, एसआरएफ अन्य राज्य वित्तीय संस्थाओं के लिए उत्प्रेरक के रूप में कार्य कर सकता है ताकि किसी चयनित परियोजना की ईक्विटी और ऋण वित्तपोषण में योगदान किया जा सके। इस निधि और अन्य निजी और सार्वजनिक निवेशकों द्वारा परियोजना में पहले संयुक्त ईक्विटी निवेश किए जाएँगे। चीनी एक्ज़िम और सीडीबी उसके बाद ऋण वित्तपोषण के लिए ऋण वितरित कर सकते हैं, जबकि सीआईसी द्वारा उसके बाद ईक्विटी वित्तपोषण प्रदान किया जाएगा। जब एआईआईबी काम करना शुरू कर देगा तो यह भी इस प्रक्रिया में सहयोग कर सकता है और एसआरएफ के प्रारंभिक ईक्विटी निवेश के साथ-साथ ऋण वित्तपोषण की व्यवस्था कर सकता है। तथापि, इन नए वित्तपोषण की पहल को समझने-बूझने के लिए अभी भी बहुत कुछ बाकी है। लेकिन दक्षिण-दक्षिण विकास वित्त के परिदृश्य की भावी रूपरेखा साफ नज़र आ रही है - इसमें बहुपक्षीय ऋण को अधिक व्यापक रूप से रूपांतरित करने की संभावना है। सस्ते मांस की ऊंची कीमत बर्लिन – फैक्टरी-शैली में पशुधन उत्पादन कृषि औद्योगिकीकरण को आगे बढ़ाने में अहम कारक है. इसका निरंतर विस्तार जलवायु परिवर्तन, जंगलों की कटाई, जैव विविधता ह्रास तथा मानव अधिकारों के हनन में अपना योगदान दे रहा है – केवल पश्चिम समाजों की सस्ते मांस के लिए अस्वास्थ्यकर भूख को शांत करने के लिए. यूरोप और संयुक्त राज्य अमेरिका 20वीं सदी में सबसे बड़े मांस उपभोक्ता थे. वहां हर साल एक औसत व्यक्ति 60-90 किलोग्राम (132-198 पौंड) मांस खा जाया करता था. यह मात्रा मनुष्यों की पोषण आवश्यकताओं से कहीं अधिक थी. हालांकि आज पश्चिमी खपत दरें स्थिर हो गई हैं और कई क्षेत्रों में कम भी हो रही हैं लेकिन कुल मिला कर अभी भी वे संसार के अधिकांश अन्य इलाकों से कहीं ऊंची बनी हुई हैं. इसी दौरान उदयीमान अर्थव्यवस्थाओं – खासकर ब्रिक्स (ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका) कहे जाने वाले देशों में तेजी से बढ़ती मध्यम वर्गीय आबादी अपनी खान-पान की आदतों में बदलाव ला रही है और इस मामले में अमीर देशों के लोगों के साथ होड़ कर रही है. आने वाले दशकों में, जैसे-जैसे आमदनी बढ़ रही है वैसे-वैसे मांस व डेरी उत्पादों की मांग भी बढ़ेगी. इस मांग को पूरा करने के लिए कृषि व्यवसाय में लगी दुनिया की फर्में अपने मांस उत्पादन को वर्तमान 30 करोड़ टन से सन् 2050 तक 48 करोड़ टन तक बढ़ाने का प्रयास करेंगी. इससे अनेक गंभीर सामाजिक चुनौतियां उत्पन्न होंगी और मूल्यवर्धन श्रृंखला की प्रत्येक अवस्था (पशु आहार आपूर्ति, उत्पादन, प्रसंस्करण और खुदरा बिक्री) में पारिस्थितिकीय दबाव भी पड़ेगा. उद्योग-शैली के पशुधन उत्पादन में एक बड़ी समस्या यह है कि इससे ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन बढ़ता है. और ऐसा केवल इसलिए नहीं कि जुगाली करने वाले पशुओं की पाचन प्रक्रिया मीथेन उत्पन्न करती है. इन पशुओं के गोबर व मूत्र तथा उनके चारे के उत्पादन में प्रयुक्त रसायनिक खाद व कीटनाशक भारी मात्रा में नाइट्रोजन आक्साइड उत्पन्न करते हैं. इसके अलावा, उद्योग मॉडल अपनाने का अर्थ है भूमि उपयोग में व्यापक परिवर्तन तथा जंगलों की कटाई जो चारा उत्पादन से आरंभ होती है. वर्तमान आंकडों के मुताबिक, कुल कृषि भूमि का लगभग एक-तिहाई चारा या पशु आहार उत्पादन में उपयोग होता है. इसमें यदि चराई समेत पशुधन उत्पादन के संपूर्ण भाग को शामिल कर किया जाए तो यह उपयोग करीब 70% तक हो जाता है. मांस खपत में विस्तार के साथ अकेले सोयाबीन का उत्पादन तकरीबन दुगुना हो जाएगा. इसका अर्थ है कि उसी अनुपात में अन्य लागतों, यथा जमीन, खाद, पीड़कनाशी तथा पानी का उपयोग भी बढ़ेगा. पशुओं को खिलाने के लिए खाद्य फसलों को छोड़कर चारे की खेती की जाएगी. इससे भोजन व जमीन की कीमतें बढ़ेंगी और लोगों पर अतिरिक्त दबाव पड़ेगा और संसार भर के गरीबों के लिए अपनी बुनियादी न्यूनतम पोषण आवश्यकताओं को पूरा करना भी अधिकाधिक कठिन होता जाएगा. इससे भी बुरी बात ये है कि मिश्रित-भू उपयोग अथवा पशुपालन की देसी प्रणालियों को छोड़कर बड़े पैमाने पर उद्योग की तरह पशुपालन करने से विशेषकर विकासशील देशों में ग्रामीण आजीविकाएं नष्ट होती हैं. घुमंतू पशुपालक, छोटे उत्पादक और स्वतंत्र किसान कम खुदरा कीमतों से प्रतियोगिता नहीं कर सकते हैं. हालांकि ये कम कीमतें उद्योग की पर्यावरणीय और स्वास्थ्य की ऊंची कीमतों को न्यायोचित नहीं ठहराती हैं. और औद्योगिक पशुपालन प्रणाली अपने कम भत्तों तथा खराब स्वास्थ्य व सुरक्षा मानकों के साथ रोजगार का बेहतर विकल्प भी नहीं उपलब्ध कराती हैं. इसके अलावा औद्योगिक पशुपालन व उत्पादन का सार्वजनिक स्वास्थ्य पर भी असर पड़ता है. मांस व डेरी उत्पादों की अत्याधिक ऊंची खपत पोषण-संबंधी स्वास्थ्य समस्याएं भी पैदा करती है – जैसे मोटापा और दिल व धमनियों की बीमारियां. और फिर सीमित स्थानों पर ढेर सारे पशुओं को रखने से छूत की अनेक बीमारियों का खतरा रहता है. बर्ड फ्लू जैसी कुछ बीमारियां इनसानों को भी अपना शिकार बना लेती हैं. इस खतरे को कम करने के लिए जो उपाय अपनाए जाते हैं, जैसे कि पशु आहार में रोगाणुओं को खत्म करने तथा पशुओं की वृद्धि के लिए एंटिबायोटिक की कम मात्रा मिलाई जाती है. इससे रोगाणुओं में इन एंटिबायोटिक दवाओं के लिए प्रतिरोधक क्षमता विकसित होती है जिससे सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिए नया संकट पैदा हो रहा है. स्वयं पशुओं को भी भयानक परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है. इसके लिए उद्योग द्वारा उचित पशु-कल्याण मानक अपनाने का विरोध करना ही जिम्मेदार है. आश्चर्य की बात है कि किस प्रकार इस उद्योग को इतने बड़े आकार में बढ़ने दिया गया. इसका उत्तर सामाजिक-राजनीतिक शक्ति में छिपा है जिससे औद्योगिक पशु-पालकों व उत्पादकों को अपनी सही सामाजिक व पर्यावरणीय लागतें दूसरों के मत्थे मढ़ने की छूट मिल गई. फिर ये लागतें मजदूरों और करदाताओं से वसूली जाती हैं. जबकि सच्चाई यह है कि मांस व डेरी उत्पादों की वैश्विक मांग को पूरा करने के अन्य तरीके भी हैं. यूरोपीय संघ में कॉमन एग्रीकल्चर पॉलिसी (कैप) के केवल दो प्रमुख प्रावधानों को परिवर्तित करने की जरूरत है जिससे उत्पादन प्रणाली की विकृतियां बहुत कम हो जाएंगी. इन परिवर्तनों को लागू करने से यह साफ संकेत जाएगा कि यूरोपीय नीति निर्माता उपभोक्ताओं की इच्छाओं को गंभीरता से लेते हैं. पहला परिवर्तन है जीनेटिक रूप से परिवर्तित पशु आहार के आयात पर प्रतिबंध लगाना और यह शर्त लगाना कि किसान अपने पशुओं के लिए कम से कम आधा पशु आहार अपने निजि खेतों में पैदा करें. पशु आहार प्राप्त करने के बारे में स्पष्ट नियम लागू करने से पोषण के क्षेत्र में व्याप्त अंतरराष्ट्रीय असंतुलन दूर होगा और मॉन्सेन्टो जैसी बहुराष्ट्रीय कृषि जैव प्रौद्योगिकी कंपनियों की ताकत कम होगी. और फिर, पशुशालाओं से निकले मल और गोबर की खाद को लंबी दूरियों तक ढोने की जरूरत नहीं रहेगी. इन्हें किसानों द्वारा अपने खेतों में ही पशु आहार उगाने के लिए इस्तेमाल कर लिया जाएगा. दूसरे, पशु आहार व सिंचाई प्रणालियों में अनावश्यक रूप से एंटिबायोटिक मिलाने को भी रोका जाए. इससे किसान अपने बीमार पशुओं का पशु चिकित्सकों से इलाज कराने को बाध्य होंगे. संयुक्त राज्य अमेरिका में फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन (एफडीए) एंटिबायोटिकों के गैर-चिकित्सकीय उपयोग पर प्रतिबंध लगा सकता है. और यूएस डिपार्टमेंट ऑफ एग्रिकल्चर का फार्म बिल प्रोग्राम मुक्त-परिसर वाले पशुपालन कार्यों को और अधिक सहायता प्रदान कर सकता है. इससे मांस उत्पादन के अधिक निर्वहनीय तरीकों को बढ़ावा मिलेगा. बेशक, ये कार्य मात्र कुछ महत्त्वपूर्ण उपाय हैं. जैसे-जैसे उभरती अर्थव्यवस्थाओं में मध्यम वर्ग बढ़ रहा है, यह जानना महत्त्वपूर्ण है कि मांस उत्पादन के वर्तमान पश्चिमी मॉडल भविष्य के लिए कोई बेहतर खाका नहीं पेश करते हैं. अब वक्त आ गया है कि ऐसी प्रणाली बनाई जाए जो हमारी पारिस्थितिकीय, सामाजिक व नैतिक सीमाओं से बंधी हो. स्वच्छ प्रौद्योगिकी के लिए सुनहरा भविष्य म्यूनिख - समीक्षकों को यह सोचने के लिए माफ़ किया जा सकता है कि तथाकथित स्वच्छ प्रौद्योगिकी का बुलंदियों को छूने का समय बीत चुका है। पिछले दो वर्षों के दौरान बहुत से स्वच्छ-प्रौद्योगिकी ईक्विटी सूचकांकों का निष्पादन खराब रहा है। यूरोप में सौर विद्युत को धक्का तब लगा जब यूरोपीय आयोग ने 2017 तक नवीकरणीय ऊर्जा के लिए दी जाने वाली आर्थिक सहायताओं को क्रमशः समाप्त करने का निर्णय लिया। 2013 से सौर पैनलों में जर्मनी में लगभग 60% और इटली में 70% की कमी आई। इस बीच, यूनाइटेड किंगडम में प्रारंभिक अवस्था वाले उद्यमी-पूंजी-निधिप्राप्त स्वच्छ-प्रौद्योगिकी वाले 30% से कम सौदों का वित्त-पोषण हुआ। सच तो यह है कि हम यह स्थिति पहले भी देख चुके हैं। स्वच्छ प्र���द्योगिकी के क्षेत्र में उतार-चढ़ाव उस चक्र के लक्षण मात्र हैं जो उभरती प्रौद्योगिकियों की विशेषता के लक्षण हैं: उत्साह, बहुत अधिक अपेक्षाएँ, और एकीकरण - जिसके बाद अंततः स्थिरता आती है और दुबारा विकास शुरू होता है। वास्तव में, हाल ही की गतिविधियों में कही अधिक महत्वपूर्ण कायाकल्प के लक्षण हैं: स्वच्छ प्रौद्योगिकी वाणिज्यिक रूप से व्यावहारिक होती जा रही है। स्वच्छ-प्रौद्योगिकी क्षेत्र के भविष्य में भरोसे के मूल में इस धरती के लिए टिकाऊ समाधानों की आवश्यकता छिपी है जो पहले से कहीं अधिक संपन्न होती जा रही जनसंख्या का भरण-पोषण कर रही है। अगले 20 वर्षों में, मध्यवर्गीय उपभोक्ताओं का संख्या आज के 1.8 बिलियन से बढ़कर लगभग तीन बिलियन हो जाने की संभावना है। उनकी नई जीवन-शैलियों के लिए साधनों की ज़रूरत होगी, जिसमें ऊर्जा भी शामिल है। मांग में उछाल एक ऐसे समय पर आएगा जब ऊर्जा के नए स्रोतोंऔर संसाधनों को ढूँढ़ना, उनका विकास करना और उन्हें प्राप्त करना अधिकाधिक चुनौतीपूर्ण और महँगा होगा। उदाहरण के लिए, पिछले 12 वर्षों में तेल के एक कुएँ के निर्माण की औसत वास्तविक लागत दुगुनी हो गई है, और हाल ही के वर्षों में उद्योग के सर्वोत्तम (और अक्सर महँगे) प्रयासों के बावजूद हुई, खनन की नई खोजें न के बराबर हुई हैं। लेकिन स्वच्छ प्रौद्योगिकी की लागतों की प्रवृत्तियाँ विपरीत दिशा में चल रही हैं, इन समाधानों को एक ऐसे समय पर परिपक्व करना जब इनकी आवश्यकता तीव्र होती जा रही है - विशेष रूप से विश्व के सबसे बड़े विकासशील नगरों में। स्वच्छ प्रौद्योगिकी के भविष्य के बारे में एक महत्वपूर्ण प्रश्न यह रहा है कि क्या इसे पनपने के लिए विनियामक सहायता की ज़रूरत है। यह सच है कि यूरोप में आर्थिक सहायताओं को हटा देने से इस क्षेत्र को भारी धक्का लगा है। हालाँकि जर्मनी और इटली ने नई सौर-विद्युत स्थापनाओं की दृष्टि से अपना पहला और दूसरा स्थान खो दिया, परंतु उनका स्थान चीन और जापान ने ले लिया। वैश्विक रूप से, 2006 से अब तक सौर-विद्युत उद्योग का विकास 57%की औसत वार्षिक दर से हुआ है। विनियामक सहायता नवीकरणीय आपूर्ति के स्रोतों के लिए मांग तैयार करने और मानक प्राप्त करने में प्रभावशाली रही है। लेकिन ऐसी सहायता हमेशा आर्थिक रूप से प्रभावशाली नहीं रही है। जर्मनी के अनुभव से सीखा गया एक सबक यह है कि विनियम में किए जाने वाले अचानक परिवर्तन मांग में भारी उतार-चढ़ाव ला सकते हैं जो एक ऐसे उद्योग के लिए मददगार नहीं होते हैं जो अभी उभर रहा हो। बहुत से बाज़ारों में सबसे बड़ा खतरा यह नहीं है कि आर्थिक सहायता और अन्य सहायताओं को हटा दिया जाएगा, बल्कि यह है कि इस क्षेत्र का विकास होने के साथ-साथ विनियामक ढाँचा उसके अनुकूल नहीं बन पाएगा। उद्योग ज्यों-ज्यों परिपक्व होते जाते हैं, उनके नीतिगत समर्थन का मामला उतना कमज़ोर होता जाता है। और, वास्तव में सौर ऊर्जा विनियामक मदद के बिना जीवित रहने में अधिकाधिक सक्षम प्रतीत होती है। संपन्न वैश्विक बाजार का सभी संसाधन विकल्पों के लिए अनुकूल परिस्थितियों का निर्माण करने में महत्वपूर्ण योगदान होता है। पिछले पांच वर्षों के दौरान, दर्जनों सौर विनिर्माण कंपनियाँ असफल हुई हैं, और उनका स्थान अधिक मज़बूत, अधिक नवोन्मेषी, और अधिक कुशल कंपनियों ने ले लिया है। वैश्विक सौर फोटोवोल्टिक की चौथाई से अधिक संचयी क्षमता को केवल पिछले एक साल में स्थापित किया गया था। अंतर्राष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी, जिसके सौर ऊर्जा की संभावनाओं के बारे में विचार दकियानूसी रहे हैं, वह अब यह उम्मीद कर रही है कि यह 2050 तक दुनिया का सबसे बड़ा विद्युत स्रोत बन जाएगा। इतना ही नहीं, स्वच्छ प्रौद्योगिकी के भविष्य के बारे में चिंताओं के कारण नई परियोजनाओं के लिए वित्तपोषण को अधिक कठिन बना दिया है। लेकिन स्वच्छ प्रौद्योगिकी बांड और तृतीय-पक्ष के वित्तपोषण जैसी नवोन्मेषी नई योजनाओं के फलस्वरूप दृश्य बदल रहा है। तृतीय पक्ष स्वामित्व, जिसमें कोई कंपनी निर्धारित मासिक दर पर या बिजली की प्रति यूनिट के लिए निश्चित मूल्य के बदले में, सौर पैनल स्थापित करती है और उनका रखरखाव करती है, के फलस्वरूप कैलिफोर्निया में स्वीकरण दरें बढ़ गई हैं जहाँ 2012 और 2013 में दो-तिहाई से अधिक नए प्रतिष्ठानों का वित्तपोषण किया गया। इसी तरह, डेमलर और टेस्ला के साथ नई साझेदारी होने, टोटल द्वारा सनपॉवर में हित नियंत्रण रखने के रूप में उद्योग की बड़ी कंपनियों के साथ नई भागीदारियों के फलस्वरूप छोटी कंपनियों के लिए वित्त की लागत कम हो रही है। इस बीच, स्वच्छ प्रौद्योगिकी कंपनियाँ और अधिक परिष्कृत और रचनात्मक होती जा रही हैं। ऊर्जा की खपत को कम करने के लिए सूचना प्रौद्योगिकी के उपयोग को लेकर एक बिल्कुल नया उद्योग बनाया गया है। सी 3 एनर्जी जैसी कुछ कंपनियाँ, ऐसी विद्युत उपयोगिताओं वाले सॉफ्टवेयर प्रस्तुत कर रही हैं जिनका उपयोग वे अपने ग्रिड प्रचालनों को बेहतर बनाने और परिसंपत्तियों के उपयोग में सुधार लाने के लिए उपने बिजली के नेटवर्कों का विश्लेषण करने के लिए कर सकते हैं। पिछले दशक में स्मार्ट ग्रिड हार्डवेयर का विकास और बहुत अधिक उपयोग किया गया, और कंपनियों को जैसे-जैसे यह समझ में आ जाएगा कि बड़े डेटा और विश्लेषणात्मक उपकरणों का उपयोग कैसे किया जाना है, यह और भी अधिक महत्वपूर्ण हो जाएगा। गूगल द्वारा नेस्ट लैब्स का $3.2 बिलियन में अधिग्रहण करना इसका एक अच्छा उदाहरण है कि कंपनियाँ इस प्रकार के डेटा का मूल्य किस तरह आँक रही हैं। यह सब मिलाकर उस उद्योग को बनाते हैं जिसमें ब्लूमबर्ग की गणना के अनुसार पिछले वर्ष तक निवेश $310 बिलियन तक पहुँच चुका था। यह कोई "अनूठा" क्षेत्र नहीं है, बल्कि परिसंपत्ति-प्रधान उद्योग है जिसका धीरे-धीरे वस्तुकरण हो रहा है। स्वच्छ प्रौद्योगिकी परिपक्व होती जा रही है और इसके प्रचालन, विपणन, बिक्री और वितरण में विश्वसनीय प्रबंधन के तरीकों को अपनाया जा रहा है। यह उद्योग अधिकाधिक उन दृष्टिकोणों को लागू कर रहा है जिनके फलस्वरूप अन्य क्षेत्रों में सफलता सुनिश्चित हुई है जैसा कि खरीद की लागतों को कम करना और विनिर्माण में अल्प सिद्धांतों को लागू करना। स्वच्छ प्रौद्योगिकी कारोबार जैसे-जैसे आगे बढ़ेंगे, उनमें सुधार के अतिरिक्त अवसर उपलब्ध होंगे। स्वच्छ-प्रौद्योगिकी उद्योग में शुरूआत कठिन रही है; लेकिन उभरती प्रौद्योगिकियों में ऐसा होना सामान्य बात होती है, और कमज़ोर कंपनियों को निकालकर इसने इस क्षेत्र को अधिक मज़बूत बना दिया है। यह एक ऐसा वैश्विक क्षेत्र है जो बढ़ती हुई वैश्विक ज़रूरतों को पूरा करता है। इसमें शक की कोई गुंजाइश नहीं है कि स्वच्छ-प्रौद्योगिकी उद्योग आनेवाले दिनों के बहुत अच्छे होने की उम्मीद कर सकता है। जलवायु को लेकर दुविधा के पचास वर्ष सिडनी – नवंबर 1965 में अमरीकी राष्ट्रपति लिंडन बी. जॉनसन को सबसे पहली सरकारी रिपोर्ट सौंपी गई थी जिसमें बड़ी मात्रा में जीवाश्म ईंधनों को जलाने से हो सकने वाले ख़तरों की चेतावनी दी गई थी। राजनीति में पचास वर्ष का समय लंबा अरसा होता है, इसलिए यह उल्लेखनीय है कि उसके बाद से कामकाज को यथावत चलाते रहने के संभावित ख़तरों से निपटने के लिए कितना कम काम किया गया है। जॉनसन की वैज्ञानिक सलाहकार समिति ने आश्चर्यजनक रूप से भविष्यवाणी वाली भाषा में यह चेतावनी दी थी कि पर्यावरण में कार्बन डाइऑक्साइड छोड़ते रहने से दुनिया का तापमान बढ़ेगा जिससे हिम शिखर पिघल जाएँगे और सागर स्तर तेज़ी से बढ़ जाएँगे। वैज्ञानिकों ने आगाह किया था कि “इनसान अनजाने में व्यापक भूभौतिकीय प्रयोग कर रहा है, वह उन जीवाश्म ईंधनों को कुछ ही पीढ़ियों में जला रहा है जो पिछले 50 करोड़ वर्षों में धरती में धीरे-धीरे संचित हुए थे...कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा बढ़ने से जलवायु में जो बदलाव आएँगे वे मानव जाति की दृष्टि से घातक होंगे।” समिति की दूरदर्शिता आश्चर्यजनक नहीं हैः ग्रीन हाउस प्रभाव के अस्तित्व की जानकारी विज्ञान को तब से है जब 1824 में फ्रांसीसी भौतिकीविद् जोसेफ़ फ़ोरियर ने सुझाया था कि धरती का वातावरण ऊष्मा को रोक कर तापरोधक की तरह काम कर रहा है, जो अन्यथा वातावरण से बाहर निकल जाती। और 1859 में आयरिश भौतिकीविद् जॉन टिंडॉल ने प्रयोगशाला में प्रयोग किए जिनसे कार्बन डाइऑक्साइड के तापक प्रभाव का निदर्शन किया था, जिससे प्ररेणा लेकर स्वीडिश भौतिकीविद् और नोबल पुरस्कार विजेता स्वेंटी अर्हेनियस ने भविष्यवाणी की कि कोयला जलाने से धरती गरम होगी – जिसे उन्होंने संभावित सकारात्मक घटनाक्रम के रूप में देखा था। जॉनसन के सलाहकार उतने आशावादी नहीं थे। उनकी रिपोर्ट में सटीक ढंग से यह भविष्यवाणी की गई थी कि बीसवीं शताब्दी तक वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा लगभग 25% जितनी बढ़ जाएगी (वास्तव में यह 26% बढ़ गई)। आज कार्बन डाइऑक्साइड की वातावरणीय सांद्रता औद्योगिक क्रांति की शुरुआत की तुलना में 40% अधिक है – जो पिछले 10 लाख वर्षों के दौरान सबसे अधिक है, जैसा कि हमें अंटार्कटिक की बर्फ़ की खुदाई करने से पता चला है। इसके अलावा, जॉनसन की वैज्ञानिक समिति ने इस दावे सहित कि कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा के बढ़ने के पीछे प्राकृतिक प्रक्रियाएँ हो सकती हैं, जलवायु परिवर्तन के ख़तरे से इनकार करनेवालों की इन आपत्तियों को झूठा साबित कर दिया था जिनका उपयोग आज भी किया जाता है। यह दर्शाकर कि जीवाश्म ईंधनों के कारण उत्पन्न कार्बन डाइऑक्साइड का केवल आधा हिस्सा ही वातावरण में रहता है, समिति ने साबित किया था कि धरती ग्रीन हाउस गैसों के स्रोत के रूप में नहीं बल्कि गर्त की तरह काम करती है जो हमारे लगभग आधे उत्सर्जनों को सोख लेता है। जॉनसन के सलाहकार जो नहीं कर सके थे – वह यह था कि वे इसके बारे में विशिष्ट भविष्यवाणी नहीं कर पाए थे कि कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा में कितनी बढ़ोतरी दुनिया के तापमान को प्रभावित कर सकेगी; उन्होंने कहा था कि इसके लिए उन्हें पहले बेहतर मॉडल और अधिक शक्तिशाली कंप्यूटरों की ज़रूरत होगी। ये गणनाएँ अमरीकी राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी द्वारा तैयार की गई 1979 की अगली उल्लेखनीय रिपोर्ट, “कार्बन डाइऑक्साइड और जलवायु: वैज्ञानिक मूल्यांकन” का आधार बनीं। इसे अधिकतर रिपोर्ट के अग्रणी लेखक MIT के जूल चार्नी के नाम पर चार्नी रिपोर्ट के नाम से जाना जाता है - यह सतर्क वैज्ञानिक विवेचना का प्रतिमान है। चार्नी की रिपोर्ट में यह अनुमान लगाया गया कि वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा दुगुनी होने से धरती लगभग 3° सेल्शियस तक अधिक गरम हो जाएगी – यह ऐसी संख्या है जिसकी आज पूरी तरह से पुष्टि हो चुकी है। इसमें यह भविष्यवाणी भी की गई थी कि समुद्रों की ऊष्मा क्षमता के फलस्वरूप गरमाहट कई दशकों की देरी से आएगी। ये दोनों निष्कर्ष इन रिपोर्टों के प्रकाशन के बाद से पाई जा रही वैश्विक गरमाहट के अनुरूप हैं। इस रिपोर्ट का निष्कर्ष यह था कि “हमने प्रयास किए हैं लेकिन कोई भी उपेक्षित या कम करके आंका गया भौतिक प्रभाव नहीं ढूँढ़ पाए हैं जो वर्तमान में अनुमानित वैश्विक गरमाहट को.... नगण्य अनुपातों में कम कर सकें।” तब से, वैज्ञानिक प्रमाण और अधिक मज़बूत ही हुए हैं; इन दो आरंभिक रिपोर्टों में जो मूलभूत नतीजे निकाले गए थे, उनका 97% से अधिक जलवायुविज्ञानी समर्थन करते हैं। और फिर भी, 50 वर्ष की बढ़ती वैज्ञानिक आम सहमति के बावजूद धरती लगातार गरम होती जा रही है। अच्छी तरह से वित्तपोषित लॉबी समूहों ने जनता के बीच संदेह के बीज बोए हैं और सफलतापूर्वक इस ख़तरे की आवश्यकता को कम करके आंका है। इसी बीच, भूराजनीति ने प्रभावी वैश्विक प्रतिक्रिया के विकास को बाधित किया है। जिन अंतर्राष्ट्रीय जलवायु वार्ताओं का समापन नवंबर और दिसंबर में पेरिस में संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में एक समझौते के रूप में होने की संभावना है, उनमें इसमें भाग ले रहे 195 देशों के बीच आम सहमति की आवश्यकता होने के कारण अवरोध आ गया है। यदि कार्रवाई नहीं की गई तो अरबों लोग सूखे, फसलों के मारे जाने और चरम मौसम के दुष्परिणामों से प्रभावित होंगे। अंततः सागरों के बढ़ते जल स्तर तटीय शहरों को डुबो देंगे और सभी द्वीप राज्यों को नेस्तनाबूद कर देंगे। उन्नीसवीं सदी में जब से अभिलेख रखना शुरू हुआ है, 2005, 2010 और 2014 के वर्ष सबसे गरम वर्ष रहे हैं और निश्चित रूप से पिछले वर्ष का रिकार्ड इस वर्ष फिर टूट जाएगा। अब समय आ गया है कि दुनिया भर के नेता 50 वर्ष की दुविधा को छोड़ दें। उन्हें पेरिस के अवसर का लाभ अवश्य उठाना चाहिए, अपने अल्पकालिक हितों को परे रख देना चाहिए, और हमारे ग्रह पर मंडराती तबाही के ख़तरे को टालने के लिए अंततः निर्णायक ढंग से काम करना चाहिए। जलवायु परिवर्तन की रोकथाम के स्वास्थ्य संबंधी लाभ लीमा – सरकारों को जलवायु परिवर्तन के संबंध में कार्रवाई करना आम तौर पर बहुत खर्चीला कार्य लगता है। वास्तव में, इसकी उपेक्षा करना कहीं अधिक खर्चीला पड़ता है। उदाहरण के लिए, विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने इसी वजह से विनाशकारी जलवायु परिवर्तन की रोकथाम को वायु प्रदूषण में कमी होने से "तुरंत मिलनेवाले स्वास्थ्य लाभों एवं स्वास्थ्य पर किए जानेवाले व्यय में होनेवाली बचतों" से संबद्ध किया है। इसके आँकड़े बहुत भयावह हैं। 2012 में सात मिलियन से अधिक – वैश्विक रूप से आठ में से एक – असामयिक मौतें वायु प्रदूषण के कारण हुईं, जबकि इसकी तुलना में तंबाकू से लगभग छह मिलियन असामयिक मौतें हुईं। सबसे अधिक नुकसान PM2.5 नामक महीन कणों से पहुँचता है जिनका व्यास 2.5 माइक्रोमीटर से कम होता है। ये फेफड़ों के भीतर गहरे पैठ कर भारी नुकसान पहुँचाते हैं जिसके कारण फेफड़ों में सूजन, कैंसर और श्वास संक्रमण रोग हो जाते हैं, या रक्तप्रवाह में मिलकर ये रक्त-शिराओं में बदलाव ला सकते हैं जिनसे दिल के दौरे पड़ सकते हैं और आघात हो सकते हैं। डीज़ल और कोयले का दहन, वायु प्रदूषण के प्रमुख कारणों में हैं, जिससे 3.7 मिलियन मौतें बाहरी धुएँ के कारण हुईं और 4.3 मिलियन मौतें घरों के कम हवादार होने के कारण हुईं। 34 ओईसीडी देशों में होने वाली असामयिक मौतों में से अब आधी मौतें, ईंधनचालित परिवहन से परिवेश में व्याप्त कणीय पदार्थों के कारण होती हैं। कोयले से प्राप्त ऊर्जा कार्बन डाइऑक्साइड का भी मुख्य स्रोत है, जो जलवायु परिवर्तन के लिए उत्तरदायी मुख्य पर्यावरण तापन गैस है, जिसके कारण प्रति वर्ष 1,50,000 असामयिक मौतें होती हैं और इससे इस सदी में और उसके बाद भी कई ख़तरे हो सकते हैं। इसमें कोई संदेह नहीं है कि कोयला उद्योग ने अरबों लोगों को गरीबी से छुटकारा पाने में मदद की है, कम-से-कम चीन में तो ऐसा हुआ है, जहाँ कोयले से प्राप्त ऊर्जा के कारण 1990 से प्रति व्यक्ति आय में लगभग 700% की वृद्धि संभव हो सकी है। परंतु जिन देशों में कोयला अधिक जलाया जाता है वहाँ लोगों के स्वास्थ्य पर उसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ने का खतरा अधिक होता है। अर्थव्यवस्था और जलवायु पर वैश्विक आयोग के लिए पिछले वर्ष किए गए शोध में यह आकलन किया गया कि वर्ष 2010 में केवल कणीय पदार्थों के कारण चीन में 1.23 मिलियन असामयिक मौतें हुईं – जो विश्व में कोयले की सर्वोच्च खपत वाली अर्थव्यवस्था है। वर्ष 2012 के आकलनों से यह पता चलता है कि वायु-प्रदूषण से संबंधित कुल मौतों में से 88% मौतें निम्न से मध्य आय वाले देशों में होती हैं, जिनमें विश्व की 82% आबादी आती है। पश्चिमी प्रशांत और दक्षिण-पूर्व एशियाई क्षेत्रों में होनेवाली मौतों की संख्या क्रमशः 1.67 मिलियन और 9,36,000 है। परंतु उच्च आय वाले देशों में भी प्रदूषण की स्थिति खराब होती जा रही है और इससे मौतें हो रही हैं। उदाहरण के लिए, PM2.5 के कारण यूरोपीय संघ में आयु संभाविता आठ महीने कम हो गई है, और इसमें ओज़ोन को भी अगर शामिल कर लिया जाए तो 2011 में यूरोपीय संघ के 28 सदस्य देशों में इनके कारण 4,30,000 मौतें हुईं। ब्रिटेन में, 1952 के महा कोहरे के छह दशकों से भी अधिक समय के बाद, PM2.5 प्रदूषण स्तर अभी तक डब्ल्यूएचओ के दिशानिर्देशों में निर्धारित सीमा से अधिक बने हुए हैं। यूरोपीय संघ में वायु प्रदूषण के कारण स्वास्थ्य पर होनेवाले व्ययों की राशि €940 बिलियन प्रतिवर्ष तक होती है। हाल ही में डब्ल्यूएचओ ने स्वास्थ्य पर वायु प्रदूषण के प्रभावों के साक्ष्य का पुनरीक्षण किया और उसमें यह पाया गया कि हमारी पूर्व धारणा के विपरीत कम आबादी वाले क्षेत्रों में भी ऐसे प्रभावों का क्षेत्र पहले से अधिक विस्तृत हो गया है। वायु प्रदूषण के फेफड़ों और हृदय पर पड़ने वाले सुपरिचित प्रभावों के अलावा, नए साक्ष्य से गर्भाशय में पल रहे बच्चों सहित, बच्चों के विकास पर इसके हानिकारक प्रभाव पड़ने के बारे में पता चला है। कुछ अध्ययन वायु प्रदूषण को मधुमेह से भी संबद्ध करते हैं, जो इंडोनेशिया, चीन और पश्चिमी देशों में एक प्रमुख पुरानी बीमारी और स्वास्थ्य चुनौती है। स्वास्थ्य संबंधी ख़तरों के बारे में भारी साक्ष्य होने के बावजूद, बहुत से देश वायु-गुणवत्ता के मानकों - और साथ ही उत्सर्जनों की निगरानी के लिए आवश्यक प्रभावशाली क्षेत्रीय सहयोग - की नेमी तौर पर मुख्य रूप से इसलिए अनदेखी करते हैं कि उनकी सरकारों को इनके आर्थिक प्रभाव की आशंका होती है। विकास हेतु रणनीति तैयार करने के लिए सलाहकारों द्वारा जिन आर्थिक मॉडलों का उपयोग किया जाता है - और प्रमुख आधारिक संरचनाओं पर निर्णय को प्रभावित करने के लिए पैरोकारों द्वारा उनका मिथ्या प्रचार किया जाता है, उनमें वायु प्रदूषण के कारण मानवीय रोगों पर होने वाले खर्च और और इसे कम करने हेतु किए जाने वाले उपायों से होने वाले दीर्घकालिक लाभों को शामिल नहीं किया जाता है। वायु प्रदूषण के कारण होने वाली समस्याओं के किसी भी समाधान के लिए न केवल नए आर्थिक मॉडलों की आवश्यकता होगी, अपितु स्थानीय, राष्ट्रीय, और अंतर्राष्ट्रीय सरकारों द्वारा संघटित उपाय करने की भी आवश्यकता होगी। उदाहरण के लिए शहरी यातायात से होनेवाले उत्सर्जनों में कमी करने हेतु सुसंबद्ध विकास को बढ़ावा देने के लिए नगर महापौरों, स्थानीय योजनाकारों, और राष्ट्रीय नीति-निर्माताओं को मिलकर काम करने की आवश्यकता होगी। सौभाग्यवश, कारगर कार्रवाई करने के लिए अब सरकारी सहयोग बढ़ रहा है। चीन में जनवरी, 2013 में इसके प्रमुख शहरों पर ‘एअरपोकैलिप्स’ नामक दमघोंटू धूम कोहरा छा जाने तथा वायु प्रदूषण के स्वास्थ्य पर पड़नेवाले विनाशकारी प्रभावों को उजागर करनेवाले चाइ जिंग के हालिया वृत्त-चित्र (और सामाजिक-मीडिया का अजूबा) ‘अंडर द डोम’ दिखाए जाने के बाद, वायु प्रदूषण चीन के घरेलू एजेंडा में सर्वोपरि स्थान पर है। वास्तव में, चीन की सरकार ने देश के कुछ अत्यधिक प्रदूषित विद्युत संयंत्रों को बंद कर दिया है जिसके परिणामस्वरूप 1998 के बाद, पिछले वर्ष पहली बार कोयले की खपत में कमी हुई है। वायु प्रदूषण और स्वास्थ्य पर विश्व स्वास्थ्य सभा (डब्ल्यूएचओ के शासी निकाय) के लिए हाल ही में तैयार किए गए संकल्प के प्रारूप में यह सुझाव दिया गया है कि देशों को वायु प्रदूषण और जलवायु परिवर्तन में संबद्धता पर बल देना चाहिए। देशों को डब्ल्यूएचओ के वायु-गुणवत्ता के दिशानिर्देशों को अपनाना चाहिए तथा अधिक हरित शहरी योजना, अधिक स्वच्छ ऊर्जा, अधिक हवादार भवनों, अधिक सुरक्षित पदयात्रा एवं साइकिल चालन के अतिरिक्त अवसरों पर विशेष ध्यान देना चाहिए। कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जनों में कमी करने के फलस्वरूप होनेवाले स्वास्थ्य संबंधी लाभों को सरकारों द्वारा औपचारिक रूप से स्वीकार कर लेने से जलवायु परिवर्तन, वायु प्रदूषण और मानव-स्वास्थ्य के क्षेत्र में एक साथ अधिक प्रगति करने का लाभ मिल सकता है। सभी नीति निर्माताओं को उन आर्थिक अवसरों - और राजनीतिक लाभों - को स्वीकार करना चाहिए जिनकी ऐसे किसी परिणाम से प्राप्त होने की संभावना हो। जलवायु परिवर्तन और कैथोलिक चर्च रोम – पोप फ़्रांसिस दुनिया से ग्लोबल वार्मिंग के खिलाफ़ कार्रवाई करने के लिए आह्वान कर रहे हैं, और संयुक्त राज्य अमेरिका में कई अनुदार राजनेताओं ने उनके विरुद्ध लड़ाई छेड़ दी है। उनका कहना है कि पोप को नैतिकता के क्षेत्र तक ही सीमित रहना चाहिए, और उन्हें विज्ञान के क्षेत्र में दख़ल नहीं देना चाहिए। लेकिन, जैसे-जैसे इस वर्ष जलवायु वाद-विवाद आगे बढ़ेगा, अधिकांश मानवता फ्रांसिस के संदेश पर विचार करने के लिए मजबूर हो जाएगी: हमें अपनी धरती के जोखिम को कम करने के लिए विज्ञान और नैतिकता दोनों की ज़रूरत है। ध्यान देने योग्य पहली बात यह है कि अमेरिकियों का भारी बहुमत फ्रांसिस की जो बड़े कोयला उद्योगपतियों और बड़े तेल उद्योगपतियों के हितों की रक्षा करती है, अमेरिकी लोगों की नहीं। जीवाश्म-ईंधन उद्योग मिच मैककॉनेल और जेम्स इनहोफ जैसे कांग्रेस विधायकों की लॉबी तैयार करने और उनके पक्ष में प्रचार करने पर भारी-भरकम राशि ख़र्च करता है। दुनिया के जलवायु संकट में अमेरिका के लोकतांत्रिक संकट के कारण बढ़ोतरी हुई है। जनवरी 2015 में किए गए अमेरिकियों के सर्वेक्षण में, बहुत अधिक उत्तरदाताओं (78%) ने कहा कि "अगर ग्लोबल वार्मिंग को कम करने के लिए कुछ नहीं किया जाता है," तो अमेरिका के लिए भविष्य के परिणाम "कुछ हद तक गंभीर" या "बहुत गंभीर" हो सकते हैं। लगभग उसी अनुपात में (74%) उत्तरदाताओं ने कहा कि अगर ग्लोबल वार्मिंग को कम करने के लिए कुछ नहीं किया जाता है, तो भावी पीढ़ियों को "सामान्य मात्रा में", "काफी" या "बहुत अधिक" नुकसान पहुँचेगा। शायद सबसे प्रभावशाली रूप से, 66% ने कहा कि इस बात की "अधिक संभावना" होगी कि वे उस उम्मीदवार का समर्थन करेंगे जो यह कहेगा कि जलवायु परिवर्तन हो रहा है और जो अक्षय ऊर्जा में बदलाव के लिए कहेगा, जबकि 12% ने कहा कि इस तरह के उम्मीदवार का समर्थन करने की "कम संभावना" होगी। मार्च 2015 में, एक अन्य सर्वेक्षण में संयुक्त राज्य अमेरिका के ईसाइयों की प्रवृत्तियों की जाँच की गई जिनमें 71% अमेरिकी शामिल हैं। उत्तर तीन समूहों के लिए सूचित किए गए: कैथोलिक, गैर-इंजील प्रोटेस्टेंट, और ईसाई मत को माननेवाले। इन समूहों के लोगों की प्रवृत्तियाँ आम तौर पर अधिकतर अमेरिकियों से इस रूप में मिलती-जुलती थीं: 69% कैथोलिक और 62% मुख्य धारा के प्रोटेस्टेंटों ने यह उत्तर दिया कि जलवायु परिवर्तन हो रहा है, जबकि ईसाई मत को माननेवालों के अल्प बहुमत (51%) ने इससे सहमति व्यक्त की। प्रत्येक समूह में बहुमत ने यह सहमति भी व्यक्त की कि ग्लोबल वार्मिंग से प्राकृतिक वातावरण और भविष्य की पीढ़ियों को नुकसान होगा, और यह कि ग्लोबल वार्मिंग को कम करने से पर्यावरण और भावी पीढ़ियों को मदद मिलेगी। तो फिर अमेरिका के कौन-से अल्पसंख्यक जलवायु संबंधी कार्रवाई का विरोध करते हैं? ऐसे तीन मुख्य समूह हैं। पहला समूह मुक्त बाजार परंपरावादियों का है, जिन्हें जलवायु परिवर्तन की तुलना में शायद सरकारी हस्तक्षेप से अधिक डर लगता है। कुछ लोगों ने अपनी विचारधारा का पालन इस हद तक किया है कि उन्होंने सुस्थापित विज्ञान का भी खंडन किया है: क्योंकि सरकार का हस्तक्षेप ख़राब होता है, वे खुद को इस बात से बहला लेते हैं कि विज्ञान पूरी तरह से सच नहीं हो सकता है। दूसरा समूह धार्मिक कट्टरपंथियों का है। वे जलवायु परिवर्तन से इसलिए इनकार करते हैं क्योंकि वे भौतिक विज्ञान, रसायन विज्ञान, और भूविज्ञान के भारी सबूतों के बावजूद, पृथ्वी विज्ञान को पूरी तरह से अस्वीकार करते हैं, और नई बनाई जाने वाली दुनिया में विश्वास करते हैं। लेकिन यह तीसरा समूह है जो राजनीतिक रूप से सबसे अधिक शक्तिशाली समूह है: तेल और कोयले के हितों की रक्षा करनेवाला समूह, जिसने 2014 के अभियान के लिए करोड़ों डॉलर का योगदान किया था। अमेरिका के अभियान के सबसे बड़े वित्तपोषक, डेविड और चार्ल्स कोच ऐसे तेलपुरुष हैं, जो शेष मानवता को इससे होनेवाले नुकसान के बावजूद, अपनी विशाल धन-संपदा को दिन दुगुना रात चौगुना करने में लगे हुए हैं। शायद वे सचमुच ही जलवायु को न माननेवाले भी हैं। पर सच बात अपटन सिंक्लेयर की इस मशहूर चुटकी में झलकती है, "जब किसी व्यक्ति का वेतन किसी बात को न समझने पर निर्भर करता हो, तो उसे उस बात को समझाना मुश्किल है।" फ्रांसिस के दक्षिणपंथी आलोचक शायद इन तीनों ही समूहों से संबंधित हैं, लेकिन वे कम-से-कम आंशिक रूप से तीसरे समूह द्वारा वित्तपोषित हैं। विज्ञानों और सामाजिक विज्ञानों की बिशप अकादमियाँ और दुनिया के कई शीर्ष भू-वैज्ञानिक और समाज विज्ञानी जब अप्रैल में वेटिकन में मिले थे, तो कोच बंधुओं द्वारा अनेक वर्षों से समर्थन प्रदान की जा रही मुक्तिवादी हार्टलैंड इंस्टीट्यूट ने सेंट पीटर स्क्वेयर के बाहर एक असफल विरोध-प्रदर्शन किया था। वेटिकन की बैठक में वैज्ञानिकों ने इस बात पर बल देने का विशेष ध्यान रखा कि जलवायु विज्ञान और नीति में भौतिक विज्ञान, रसायन विज्ञान, भूविज्ञान, खगोल विज्ञान, इंजीनियरिंग, अर्थशास्त्र, और समाजशास्त्र के मौलिक सिद्धांत प्रतिबिंबित होते हैं, जिनके मुख्य अंशों को 100 से अधिक वर्षों से भली-भाँति समझा जाता रहा है। फिर भी पोप के दक्षिणपंथी आलोचकों को अपने धर्मशास्त्र के बारे में जितनी गलतफहमी है उतनी ही उन्हें अपने विज्ञान के बारे में भी है। जब यह कहा जाता है कि पोप को नैतिकता तक सीमित रहना चाहिए, तब रोमन कैथोलिक मत की बुनियादी गलतफहमी को नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है। चर्च विश्वास और कारण में समझौते का समर्थन करता है। कम-से-कम थामस एक्विनास की सुम्मा थियोलॉजिका (1265-1274) के प्रकाशन के बाद से, प्राकृतिक कानून और स्वर्णिम नियम को चर्च के उपदेशों के मूल स्तंभ के रूप में देखा गया है। अधिकांश लोगों को पता है कि चर्च ने गैलीलियो की कोपर्निकस सूर्य केन्द्रीयता के समर्थन का विरोध किया था, जिसके लिए पोप जॉन पॉल द्वितीय ने 1992 में माफी मांगी थी। लेकिन बहुत से लोग दुनिया के अग्रणी कैथोलिक पादरियों द्वारा जीव विज्ञान, रसायन विज्ञान और भौतिकी में किए गए कई महत्वपूर्ण योगदानों सहित, आधुनिक विज्ञान के लिए चर्च द्वारा किए गए समर्थन से अनजान हैं। वास्तव में, विज्ञान की बिशप अकादमी की स्थापना 400 से अधिक साल पहले लिंक्सेस अकादमी (Accademia dei Lincei) से हुई थी, जिसने 1611 में गैलीलियो को शामिल किया था। फ्रांसिस का उद्देश्य, निश्चित रूप से, आधुनिक विज्ञान, प्राकृतिक और सामाजिक दोनों, का विश्वास और नैतिकता के साथ मेल करना है। कठोर मेहनत से प्राप्त किए गए हमारे वैज्ञानिक ज्ञान का उपयोग, मानव कल्याण को बढ़ावा देने, कमजोर और गरीब लोगों की रक्षा करने, पृथ्वी की नाजुक पारिस्थितिकी प्रणालियों का संरक्षण करने, और भावी पीढ़ियों में विश्वास रखने के लिए किया जाना चाहिए। विज्ञान मानवता की वजह से होनेवाले पर्यावरण के खतरों को प्रकट कर सकता है; इंजीनियरिंग धरती की रक्षा करने के लिए उपकरण बना सकती है; और आस्था और नैतिक तर्क व्यावहारिक ज्ञान प्रदान कर सकते हैं (जैसा कि शायद अरस्तू और एक्विनास कहते) ताकि सर्वहित के लिए नैतिकतापूर्व चुनाव किया जा सके। अप्रैल में हुई वेटिकन सभा में न केवल दुनिया के अग्रणी जलवायु वैज्ञानिक और नोबेल पुरस्कार विजेता शामिल थे, बल्कि प्रोटेस्टेंट, हिंदू, यहूदी, बौद्ध, और मुस्लिम धर्मों के वरिष्ठ प्रतिनिधि भी शामिल थे। फ्रांसिस की तरह, विश्व के सभी प्रमुख धर्मों के धार्मिक नेता हमें मानवता के प्रति और पृथ्वी के भविष्य के प्रति हमारी नैतिक जिम्मेदारियों को पूरा करने के लिए धर्म और जलवायु विज्ञान से ज्ञान प्राप्त करने के लिए आग्रह कर रहे हैं। हमें उनकी बात पर ध��यान देना चाहिए। जलवायु की निर्विवाद अनिवार्यता केप टाउन – आजकल, लोगों को वह काम करना जो नैतिक रूप से सही है और वह काम करना जो आर्थिक रूप से लाभकारी है, इन दोनों में से किसी एक का चयन करने के लिए अक्सर मजबूर होना पड़ता है। वास्तव में, उनके विकल्प कभी-कभी परस्पर असंबद्ध लगते हैं, जिससे यह निर्णय करना बेहद चुनौतीपूर्ण हो जाता है कि कौन सा रास्ता चुना जाए। तथापि, कभी-कभी, नैतिक औचित्य और आर्थिक हित दोनों इतने घुलेमिले होते हैं कि उनसे ऐसा अवसर प्रस्तुत होता है जिसे खोना नहीं चाहिए। इस आर्चबिशप और पूर्व वित्त मंत्री के दृष्टिकोण से जलवायु परिवर्तन के बारे में दुनिया की प्रतिक्रिया के साथ यही हो रहा है। नैतिक अनिवार्यता निर्विवाद है क्योंकि जलवायु के प्रभाव - चरम मौसम, तापमान में परिवर्तन, और समुद्र के बढ़ते जल स्तरों सहित – दुनिया भर के उन गरीबों को सबसे अधिक तीव्रता से महसूस होते हैं, जो उन आर्थिक गतिविधियों से सबसे कम लाभान्वित होते हैं जिनके कारण ये जलवायु परिवर्तन होते हैं। इसके अलावा, जलवायु परिवर्तन के कारण भविष्य में गरीबी और असमानता में वृद्धि हो सकती है, जिसका अर्थ यह है कि यदि हम इसके बारे में ठीक समय पर कार्रवाई नहीं करते हैं तो हो सकता है कि इससे भावी पीढ़ियों के लिए अपने विकास लक्ष्यों को प्राप्त करने के अवसर कम हो जाएँ - या समाप्त भी हो जाएँ। जलवायु परिवर्तन को आज न्यूनतम करने के लिए प्रत्येक प्रयास करना ही सचमुच बिल्कुल सही काम है। सौभाग्य से, जलवायु परिवर्तन के बारे में कार्रवाई करने के आर्थिक लाभ भी स्पष्ट हैं। आखिरकार, जलवायु परिवर्तन के साथ भारी आर्थिक लागतें - उदाहरण के लिए, अधिक बारंबारता और चरम मौसम की घटनाओं से संबंधित लागतें - जुड़ी हैं। इसके अलावा, सतत प्रौद्योगिकीय नवाचार पर आधारित “हरित” अर्थव्यवस्था का निर्माण करना, अगली पीढ़ी के लिए स्थायी विकास और रोज़गार सृजन के अवसर पैदा करने के नए साधन उपलब्ध करने का सबसे कुशल और कारगर तरीका है। व्यक्ति, कंपनी, नगर निगम, और राष्ट्रीय स्तरों पर कार्रवाई किया जाना अत्यंत महत्वपूर्ण है। लेकिन वास्तविकता यह है कि जलवायु परिवर्तन वैश्विक समस्या है - और इस दृष्टि से इसके लिए वैश्विक समाधान की आवश्यकता है। सही काम को करने - और व्यापक आर्थिक लाभों को प्राप्त करने - के लिए दुनिया के पास सबसे महत्वपूर्ण साधन सार्वभौमिक जलवायु परिवर्तन समझौता है। यही कारण है कि दुनिया भर के नेताओं को इस साल दिसंबर में पेरिस में होनेवाले संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन के रूप में कार्रवाई के लिए एकल वैश्विक ढाँचे का विकास करने के लिए मिलनेवाले अवसर का लाभ उठाना आवश्यक है। वास्तव में, दुनिया भर के नेता पहले ही ऐसा करने का वचन दे चुके हैं। 2011 में दक्षिण अफ्रीका द्वारा शुरू और मेज़बानी किए गए संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन के फलस्वरूप यह समझौता किया गया कि जितना शीघ्र हो सके, इस वर्ष के समाप्त होने से पहले जलवायु परिवर्तन पर सार्वभौमिक कानूनी समझौता स्वीकार किया जाना चाहिए। डरबन सम्मेलन के बाद से महत्वपूर्ण प्रगति की जा चुकी है। पिछले महीने, यूरोपीय संघ के सदस्यों, गैबॉन, मैक्सिको, नॉर्वे, रूस, स्विट्ज़रलैंड, और संयुक्त राज्य अमेरिका सहित - 30 से अधिक देशों ने ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जनों को कम करने के लिए अपनी 2020 के बाद की योजनाएँ प्रस्तुत कीं। आने वाले सप्ताहों और महीनों में, इस प्रवृत्ति का बढ़ना जारी रहेगा क्योंकि आशा है कि ब्राज़ील, चीन और भारत जैसी प्रमुख उभरती अर्थव्यवस्थाओं सहित अन्य देश भी अपनी प्रतिबद्धताएँ प्रस्तुत करेंगे। लेकिन अगर पेरिस की बैठक को नैतिक अनिवार्यता को पूरा करने और साथ ही जलवायु परिवर्तन का मुकाबला करने के आर्थिक लाभों को प्राप्त करने की दृष्टि से सफल होना है, तो इसमें भाग लेने वाले प्रत्येक देश को 2020 में आरंभ होनेवाली अवधि के लिए अपना राष्ट्रीय अंशदान यथाशीघ्र दे देना चाहिए। इसके अलावा, अंतिम समझौते में अगले 50 वर्षों की अवधि में अकार्बनीकरण के लिए एक प्रभावी और महत्वाकांक्षी योजना को शामिल किया जाना चाहिए। वास्तविकता यह है कि दुनिया की सरकारों द्वारा 2009 में की गई और 2010 में दुहराई गई इस वचनबद्धता को पूरा करने के लिए केवल अल्पावधि और दीर्घावधि प्रतिबद्धताएँ बिल्कुल अपर्याप्त हैं कि वैश्विक तापमानों को पूर्व-औद्योगिक युग के 2° सेल्सियस तक सीमित रखा जाएगा यह महत्वपूर्ण है कि उत्सर्जन कम करने की एक ऐसी क्रमिक दीर्घावधि रणनीति बनाई जाए और उसका पालन किया जाए जिससे पूंजी बाज़ारों को इस बात का स्पष्ट संकेत मिल सके कि सरकारें जलवायु परिवर्तन का मुकाबला करने के बारे में गंभीर हैं। उदाहरण के लिए, ऐसी रणनीति में कम कार्बन वाले समाधानों में निवेश करने के लिए प्रोत्साहन शामिल हो सकते हैं। चूंकि अगले 15 वर्षों में बुनियादी ढाँचे में वैश्विक रूप से लगभग $90 ट्रिलियन का निवेश किए जाने का अनुमान है, ऐसे किसी दृष्टिकोण का प्रभाव काफी अधिक हो सकता है – चाहे वह निर्णायक न भी हो। जलवायु परिवर्तन के संबंध में कार्रवाई करने के लिए नैतिक और आर्थिक अनिवार्यताएँ इससे अधिक प्रबल नहीं हो सकती हैं। हालाँकि आगे का मार्ग कठिन होगा क्योंकि राह में कई नई और अप्रत्याशित चुनौतियाँ आएँगी, परंतु हम नेल्सन मंडेला की इस प्रसिद्ध उक्ति से प्रेरणा ले सकते हैं: "जब तक कार्य को कर नहीं लिया जाता वह हमेशा असंभव लगता है।" अधिक स्थायी, समृद्ध और सामाजिक दृष्टि से न्यायोचित भविष्य को प्राप्त करने के लिए हमारे सामने अभूतपूर्व अवसर उपलब्ध है। उस भविष्य को बनाने का कार्य अभी प्रारंभ किया जाना चाहिए। जलवायु में भरोसा रखना वाशिंगटन, डीसी – 80 दिनों से कम समय में, दुनिया के नेताओं को जलवायु परिवर्तन के खिलाफ लड़ाई में एक पीढ़ी में एक बार किए जा सकने वाले समझौते पर हस्ताक्षर करने का अवसर प्राप्त होगा। ग्लोबल वार्मिंग के सर्वाधिक हानिकारक परिणामों को रोकने के लिए कार्य करने की आवश्यकता को सर्वसम्मति से मान्यता देने के लिए दिसंबर में पेरिस में होनेवाला संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन दुनिया के इतिहास में एक निर्णायक अवसर सिद्ध हो सकता है। लेकिन यदि कोई समझौता किया जाना है, तो सम्मेलन में भाग लेने वालों को उस अविश्वास को दूर करना होगा जिसके फलस्वरूप पिछली वार्ताओं में ध्रुवीकरण और निष्क्रियता की स्थिति बनी थी। ग्रीन हाउस गैस के उत्सर्जनों पर भारी-भरकम सीमाओं वाले किसी समझौते को लागू करने के लिए पहले उन प्रतिबद्धताओं का सम्मान करना होगा जो पहले ही की जा चुकी हैं, जिनमें विकासशील दुनिया को जलवायु परिवर्तन में उसके योगदान को कम करने और वार्मिंग दुनिया के अनुकूल बनने में मदद करने के लिए विकसित देशों द्वारा 2020 तक प्रतिवर्ष $100 बिलियन खर्च करने के वादे सम्मिलित हैं। चुनौती की व्यापकता और निष्क्रियता के फलस्वरूप दुनिया के सबसे कमजोर लोगों पर आनेवाली लागतों को देखते हुए, विकास संबंधी वित्तीय संस्थाओं और अन्य इच्छुक पक्षों को जलवायु परिवर्तन के सर्वाधिक हानिकारक प्रभावों को रोकने के लिए अपनी प्रतिबद्धता प्रदर्शित करनी चाहिए। ऐसा करने के लिए इस प्रयास में फिर से - और पारदर्शी - निष्ठा की आवश्यकता है। यही कारण है कि विश्व बैंक समूह यह जांच कर रहा है कि अर्थव्यवस्थाओं को सतत विकास की राह पर लाने में मदद करने के लिए और भी क्या किया जा सकता है। पेरिस शिखर सम्मेलन से पहले प्रस्तुत की जा रही राष्ट्रीय योजनाओं पर पैनी नजर रखते हुए, हम अपने कार्य के पूरे परिवेश का सर्वेक्षण कर रहे हैं ताकि हम ऊर्जा, परिवहन, कृषि, वन, शहरी प्रबंधन तथा और बहुत से क्षेत्रों में देशों की मदद करने के अवसरों की खोज कर सकें। दरअसल, जलवायु परिवर्तन के खिलाफ लड़ाई विभिन्न प्रकार के मोर्चों पर की जानी चाहिए। बढ़ते वैश्विक तापमान और अधिकाधिक अस्थिर होती जा रही जलवायु विकास के सभी पहलुओं को प्रभावित करेगी और विद्यमान निवेशों को संकट में डाल देगी, जब तक कि शमन और अनुकूलन की पर्याप्त रणनीतियाँ निर्धारित नहीं की जाती हैं जो उन नए सतत विकास लक्ष्यों के लिए प्रमुख हैं जिन्हें संयुक्त राष्ट्र इस महीने के अंत में अपनाएगा। जलवायु परिवर्तन से लड़ने के इस प्रयास के एक हिस्से के रूप में जीवाश्म-ईंधन सब्सिडी और प्रदूषण की लागत के अपर्याप्त लेखांकन जैसे आर्थिक अक्षमता के स्रोतों पर कार्रवाई करने को शामिल करना चाहिए। और इस बात को अधिकाधिक मान्यता मिलती जा रही है कि विकास निधियों और जलवायु वित्त का उपयोग सार्वजनिक और निजी स्रोतों से निवेश को बढ़ाने और उत्प्रेरित करने के लिए किया जा सकता है। लेकिन, सबसे बड़ी बात यह है कि सफल जलवायु समझौते में कम कार्बन वाले बुनियादी ढांचों और बढ़ते वैश्विक तापमानों के हानिकारक प्रभावों को और अधिक कम करने के लिए जिन अरबों डॉलरों का निवेश करने की आवश्यकता होगी उनके प्रबंध के लिए उचित उपायों को शामिल करना होगा। जितना अधिक संभव हो सके इसे सार्वजनिक और पारदर्शी रूप में किया जाना चाहिए। यह महत्वपूर्ण है कि हम यह सुनिश्चित करें कि जलवायु परिवर्तन के खिलाफ लड़ाई में जिन वित्तीय प्रवाहों का निवेश किया जा रहा है उन पर निगरानी रखी जा सके ताकि नागरिक अपनी सरकारों और संस्थाओं को जवाबदेह ठहरा सकें। इसे पूरा करने के लिए, छह बड़े बहुपक्षीय विकास बैंक और अंतर्राष्ट्रीय विकास वित्त क्लब - जो राष्ट्रीय, क्षेत्रीय, और अंतर्राष्ट्रीय विकास संस्थाओं का नेटवर्क है - जलवायु वित्त पर निगरानी रखने के लिए सामान्य सिद्धांत तैयार करने के लिए पूरी मेहनत से काम कर रहे हैं। ये सिद्धांत उन सभी परियोजनाओं पर लागू किए जाने चाहिए जिनका उद्देश्य जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को कम या अनुकूलित करने में देशों की मदद करना हो। जून में जारी की गई एक रिपोर्ट में इन छह बैंकों ने यह बताया है कि उन्होंने संयुक्त रिपोर्टिंग शुरू होने के बाद किस तरह चार वर्षों में जलवायु वित्त के लिए $100 बिलियन से अधिक की राशि प्रदान की है। इसकी जानकारी तक पहुँच की नीति के तहत विश्व बैंक समूह के वित्त पर भी निगरानी रखी जा सकती है। पेरिस में होनेवाला सम्मेलन जलवायु परिवर्तन के सबसे अधिक हानिकारक प्रभावों को दूर करने के लिए एक स्पष्ट राह निर्धारित करने का अवसर प्रदान करता है; बैठक में भाग लेनेवाले दुनिया के नेताओं को इस अवसर को अपने हाथ से निकलने नहीं देना चाहिए। अपने वादों का विश्वसनीय और पारदर्शी रूप से निर्वाह करके, अमीर देश इस प्रयास में अपनी प्रतिबद्धता प्रदर्शित कर सकते हैं और एक प्रभावी समझौते की संभावना को बढ़ा सकते हैं। जलवायु परिवर्तन के खिलाफ लड़ाई में निवेश करने का समय अब है। हमारे उत्सर्जनों के दुनिया भर में पहले से ही विनाशकारी प्रभाव पड़ रहे हैं। जलवायु संबंधी अस्थिरता और अनिश्चितता जैसे-जैसे बढ़ेगी, निष्क्रियता की लागत में वृद्धि होना जारी रहेगा। जलवायु जोखिम के लिए प्रकृति का समाधान लंदन - विश्व की लगभग आधी आबादी - करीब 3.5 बिलियन लोग- तटों के पास रहती है। जब जलवायु परिवर्तन के कारण तूफान, बाढ़ और कटाव के प्रभावों की स्थिति बदतर हो जाएगी, तो उन लाखों लोगों के जीवन और उनकी आजीविकाओं पर संकट आ जाएगा। वास्तव में, विश्व आर्थिक मंच की विश्व जोखिम आकलन रिपोर्ट के नवीनतम संस्करण में जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के अनुकूल रह पाने में विफलता को प्रभाव की दृष्टि से समाजों और दुनिया भर की अर्थव्यवस्थाओं के लिए एकमात्र सबसे बड़ा जोखिम बताया गया है। बहुत अधिक बार-बार और अधिक तेज़ आनेवाले तूफानों से जीवनों के खतरे में पड़ने के अलावा, बुनियादी सुविधाओं को पहुंचने वाले नुकसान, और खेती, मत्स्यपालन, और पर्यटन से होनेवाली राजस्व की हानि के फलस्वरूप कई अरब डॉलर की लागत आ सकती है। और, जैसा कि हार्वर्ड बिज़नेस रिव्यू ने हाल ही में कहा है, प्रत्येक नए अध्ययन के साथ अनुमानित लागत बढ़ जाती है। फिर भी अंतरराष्ट्रीय समुदाय वर्तमान में प्राकृतिक आपदा से निपटने पर जो खर्च करता है, जोखिम कम करने पर उसके पांचवें हिस्से से भी कम राशि खर्च होगी। जलवायु जोखिम के मामले में, इसका इलाज करने से रोकथाम करना कहीं अधिक लाभप्रद है। जैसा कि रेड क्रॉस वैश्विक आपदा तैयारी केंद्र की निदेशक रेबेका श्यूरर ने कहा है, "हम प्रतिक्रिया पर लाखों डॉलर खर्च करते हैं, और यदि हम उनमें से अधिकतर संसाधनों का निवेश आरंभिक स्थिति में करें तो हम अधिक लोगों को बचा सकते हैं। यह इतनी आसान सी बात है। चूंकि अब जलवायु परिवर्तन की मानव और वित्तीय लागतों पर पहले से कहीं अधिक ध्यान दिया जाने लगा है, अब संसाधनों को जोखिम में कमी करने पर लगाने का समय आ गया है। ऐसा करने के लिए राष्ट्रीय सरकारों, उद्योग, सहायता संगठनों, और अन्य गैर सरकारी संगठनों को अपने निवेशों से अधिक लाभ प्राप्त करने की आवश्यकता होगी। और कुछ सबसे अधिक प्रभावी और किफायती समाधान पहले से ही प्रकृति में उपलब्ध हैं। तटीय और समुद्री पारिस्थितिक तंत्रों में तूफानों और अन्य जोखिमों के प्रभावों को कम करने की काफी क्षमता है, विशेष रूप से जब इन्हें पारंपरिक रूप से बनाए गए बुनियादी ढांचे के साथ जोड़ा जाए। उदाहरण के लिए, मैनग्रोव की 100-मीटर की पट्टी, लहरों की ऊंचाई को 66% तक कम कर सकती है और बाढ़ के दौरान जल के चरम स्तरों को कम कर सकती है। एक मज़बूत कोरल रीफ, लहरों की ताकत को 97% तक कम कर सकती है, जिससे तूफानों का प्रभाव कम हो सकता है और कटाव को रोका जा सकता है। ये और अन्य तटीय पारिस्थितिक तंत्र मियामी से मनीला तक दुनिया के कई शहरों के लिए रक्षा की पहली पंक्ति बने हुए हैं। अभी हाल ही तक, इस तरह के प्रकृति-आधारित समाधानों की अक्सर अनदेखी की जाती थी। लेकिन नेता अधिकाधिक इनके महत्व को समझने लगे हैं, और अंतरराष्ट्रीय स्तर सहित, इस पर कार्रवाई करने लग गए हैं। जिस पेरिस जलवायु समझौते पर पिछले साल दिसंबर में सहमति हुई थी, और पिछले महीने हस्ताक्षर किए गए थे, उससे न केवल जलवायु परिवर्तन के समाधान के महत्व पर आम सहमति बनी है, बल्कि यह भी स्पष्ट रूप से पुष्टि हुई है कि पारिस्थितिक तंत्र ग्रीन हाउस गैसों को पकड़ने और समुदायों को जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के अनुकूल बनने में मदद करने में भी भूमिका निभाते हैं। राष्ट्रीय स्तर पर, सबसे अधिक जोखिम वाले कुछ द्वीप देश महत्वपूर्ण कदम उठा रहे हैं। उदाहरण के लिए, पिछले साल सेशल्स ने अपने पेरिस क्लब के लेनदारों और द नेचर कन्ज़र्वेन्सी के साथ अपने किस्म के पहले "प्रकृति के लिए कर्ज" की अदला-बदली की घोषणा की। इस अदला-बदली से यह देश अपने $21.6 मिलियन के कर्ज की राशि को सागर संरक्षण के लिए एक व्यापक दृष्टिकोण में निवेश कर पाएगा जिससे जलवायु परिवर्तन के प्रति इसका लचीलापन अधिक मजबूत होगा। निजी क्षेत्र के नेताओं ने भी प्राकृतिक साधनों की ओर देखना शुरू कर दिया है। CH2M जैसी इंजीनियरिंग कंपनियां मैक्सिको की खाड़ी में और उससे आगे तटीय समुदायों के साथ ऐसे संकर समाधानों की खोज करने के लिए मिलकर काम कर रही हैं जिनमें पारंपरिक और प्रकृति आधारित दृष्टिकोणों का मेल हो। यहां तक कि बीमा उद्योग - जिसमें दुनिया में सबसे अधिक जोखिम से बचने वाली कंपनियां शामिल हैं - को भी प्राकृतिक समाधानों में संभावना दिखाई देती है। पिछले दशक के दौरान, बीमा कंपनियों ने जलवायु संबंधी क्षति के लिए करीब $300 बिलियन का भुगतान किया है, जो उन्होंने अक्सर उन्हीं कमजोर संरचनाओं के पुनर्निर्माण के लिए किया। तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं है कि पुनर्बीमाकर्ता स्विस रे ने तटीय समुदायों को तूफान के महंगे जोखिम को कम करने पर अध्ययन किए हैं। एक स्विस रे अध्ययन के अनुसार, बारबाडोस को हर साल तूफान से संबंधित लागतों के लिए अपने सकल घरेलू उत्पाद के 4% जितना नुकसान होता है। लेकिन मैनग्रोव और प्रवाल भित्तियों की रक्षा पर खर्च किए गए हर डॉलर से भविष्य में तूफान से होनेवाले घाटों में $20 की बचत हुई। इस तरह के निष्कर्षों को देखते हुए, अब यह बात समझ से बाहर नहीं रह गई है कि हो सकता है कि बीमा कंपनियां झीलों और अन्य प्राकृतिक बुनियादी सुविधाओं के लिए एक दिन बीमा सुरक्षा प्रदान करना शुरू करने लग जाएं जिससे तटीय समुदायों और अर्थव्यवस्थाओं के लिए संरक्षण प्राप्त हो। प्रकृति भी आजीविकाओं की रक्षा करने में मदद कर सकती है। वियतनाम में रेड क्रॉस के नेतृत्व में मैनग्रोव बहाली परियोजना से न केवल डाइक और अन्य निर्मित बुनियादी सुविधाओं की क्षति में कमी हुई बल्कि इसके परिणामस्वरूप अधिक जल वाली कृषि पैदावार में भी वृद्धि हुई और इस प्रकार स्थानीय समुदायों को अधिक आय प्राप्त हुई। ग्रेनाडा में मैनग्रोव और मूंगा बहाली परियोजना - जो रेड क्रॉस, द नेचर कंज़र्वेन्सी, और ग्रेनाडा के ग्रेन्विले समुदाय के मछुआरों का एक संयुक्त प्रयास है - ने भी लचीलापन बढ़ाने के लिए भारी क्षमता प्रदर्शित की है। सिर्फ 30 मीटर रीफ और प्रवाल से झींगा, शंख, ऑक्टोपस, और अर्चिन की आबादी के काफी अधिक बढ़ने का पता चला है। जलवायु और आपदा का लचीलापन एक ऐसी चुनौती है जो सभी क्षेत्रों में व्याप्त है। तो इसलिए हमारे समाधान भी ऐसे होने चाहिए। इस तरह के सामूहिक प्रयास अधिक प्रभावी निवारक रणनीतियों के विकास और कार्यान्वयन के लिए महत्वपूर्ण हैं। विश्व बैंक, द नेचर कन्ज़र्वेन्सी, और साझेदार शोधकर्ताओं (पारिस्थितिकीविदों, अर्थशास्त्रियों, और इंजीनियरों सहित) ने हाल ही में एक रिपोर्ट प्रकाशित की है जिसमें इस तरह के सहयोग के लिए दिशानिर्देश प्रस्तुत किए हैं। विशेष रूप से, इस रिपोर्ट में यह सिफारिश की गई है कि संरक्षित पूंजी और बुनियादी सुविधाओं के दृष्टिकोण से तटीय पारिस्थितिक तंत्रों के मूल्य की गणना, आमतौर पर बीमा और इंजीनियरिंग उद्योगों द्वारा उपयोग में लाए जानेवाले दृष्टिकोणों के आधार पर की जानी चाहिए। बढ़ते जलवायु और आपदा जोखिमों को देखते हुए, प्रकृति आधारित समाधानों में निवेश करने से जीवनों की रक्षा और समृद्धि की सुरक्षा किफायती ढंग से हो सकती है - यह सब दुनिया भर के जोखिमग्रस्त प्राकृतिक पारिस्थितिक तंत्रों को संरक्षित करते हुए किया जा सकता है। सरकारों, व्यापार, और गैर सरकारी संगठनों, सभी के लिए यह मान लेने का समय है कि जब जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से लड़ने और तटीय समुदायों की रक्षा करने की बात हो, तो प्रकृति का संरक्षण और बहाली करना सबसे अधिक चतुरतापूर्ण निवेश है जो हम कर सकते हैं। संघर्ष-क्षेत्र के खनिज पदार्थों के बारे में सामान्य बुद्धिमत्ता लंदन – "तुम्हारी उंगली पर जो हीरा है, बताओ कि वह तुम्हारा कैसे हो गया?" शेक्सपियर का सिंबेलीन पूछता है। “तुम मुझे यातना दोगे,” शरारती याकिमो जवाब देता है, “उस अनकही बात को अनकही रहने देने के लिए, जिसके कह देने पर, तुम्हें यातना मिले।” प्राकृतिक संसाधनों के वैश्विक व्यापार के कुछ भागों के पीछे भी आज यही कहानी है, चाहे वह कही गई हो या न कही गई हो, वह पीड़ा के किसी स्रोत से कम नहीं है। प्राकृतिक संसाधनों को उन कुछ देशों में विकास में प्रमुख योगदानकर्ता होना चाहिए जिन्हें इनकी सबसे ज्यादा जरूरत है। और इसके बावजूद, दुनिया के सबसे गरीब और सबसे कमजोर देशों में वे इसका बिल्कुल उलट करते हैं। इनमें से बहुत से देशों में, प्राकृतिक सं��ाधनों के व्यापार से, संघर्ष और मानव अधिकारों के घोर दुरुपयोग को प्रोत्साहन मिलता है, धन मिलता है, और बढ़ावा मिलता है। हीरे, सोने, टंगस्टन, टैंटलम, और टिन जैसे संसाधनों का सशस्त्र समूहों द्वारा खनन किया जाता है, उनकी तस्करी की जाती है, और अवैध रूप से उनपर कर लगाए जाते हैं, और इनसे अत्याचारी सेनाओं और सुरक्षा सेवाओं को बजटेतर आर्थिक सहायता प्रदान की जाती है। केवल इन चार अफ्रीकी देशों पर विचार करें: सूडान, दक्षिण सूडान, मध्य अफ्रीकी गणराज्य, और कांगो लोकतांत्रिक गणराज्य। कुल मिलाकर, इन संसाधन संपन्न देशों में उप सहारा अफ्रीका की जनसंख्या का केवल 13% से कुछ अधिक हिस्सा है, लेकिन संघर्ष के कारण इस क्षेत्र में आंतरिक रूप से विस्थापित व्यक्तियों का हिस्सा लगभग 55% (और पूरे विश्व में पाँच में से एक) है। लेकिन यह समस्या वैश्विक है, और कोलम्बिया, म्यांमार और अफगानिस्तान जैसे देशों के कुछ हिस्सों में इसी तरह के तरीके मौजूद हैं। संघर्ष क्षेत्र के संसाधनों में घातक व्यापार उन आपूर्ति शृंखलाओं की मदद से किया जाता है जो यूरोपीय संघ और संयुक्त राज्य अमेरिका जैसे प्रमुख उपभोक्ता बाजारों का पोषण करती हैं, जिनमें नकदी वापस विपरीत दिशा में प्रवाहित होती है। टिन, टैंटलम, टंगस्टन, और सोने जैसे प्राकृतिक संसाधन - सभी ऐसे खनिज पदार्थ हैं जिन्हें दुनिया के कुछ भागों में संघर्ष और मानव अधिकारों के दुरुपयोग से संबद्ध किया जाता है - हमारे आभूषणों, कारों, मोबाइल फोनों, गेम कंसोल, चिकित्सा उपकरणों, और रोजमर्रा के कई अन्य उत्पादों में पाए जाते हैं। ऐसी जानकारी के लिए स्पष्ट उपभोक्ता माँग मौजूद है जिससे खरीदारों को यह सुनिश्चित करने में मदद मिलेगी कि उनकी खरीदों के फलस्वरूप उन्हें घोर दुरुपयोग में नहीं फँसना पड़ेगा। लेकिन वैश्विक वाणिज्य को बुनियादी मानव अधिकारों से संयोजित करने की जिम्मेदारी सबसे पहले और सबसे अधिक उपभोक्ताओं पर नहीं आती है। संघर्ष की रोकथाम और मानव अधिकारों का संरक्षण करना मुख्य रूप से देशों की जिम्मेदारी है, और इस बात को अधिकाधिक मान्यता मिल रही है कि व्यवसायों को भी अपनी भूमिका का निर्वाह करना चाहिए। वास्तव में, अब हम एक ऐसे महत्वपूर्ण बिंदु पर हैं जो गैर जिम्मेदाराना कॉर्पोरेट प्रथाओं को सामान्य रूप से व्यवसाय के रूप में देखे जाने को रोकने का एक वैश्विक आंदोलन बन गया है। 2010 के बाद से, संघर्ष के क्षेत्रों में काम करनेवाली कंपनियों को निपटान का एक वैश्विक मानक उपलब्ध रहा है। ओईसीडी इस बारे में मार्गदर्शन प्रदान करता है कि खनिजों को जिम्मेदारीपूर्वक किस तरह प्राप्त किया जाए। उद्योग के साथ निकट सहयोग से विकसित, इसमें ऐसी "विस्तृत सिफारिशें प्रस्तुत की गई हैं जिनसे कंपनियाँ मानव अधिकारों का सम्मान कर सकें और अपने खनिज खरीद के निर्णयों और प्रथाओं के माध्यम से संघर्ष में योगदान करने से बचें।" संयुक्त राष्ट्र ने भी इसी तरह की आवश्यकताओं का समर्थन किया है। 2011 में, संयुक्त राष्ट्र ने व्यवसाय और मानव अधिकारों संबंधी मार्गदर्शी सिद्धांतों का एक सेट प्रकाशित किया था, जिसके अनुसार जिन कंपनियों के "प्रचालन संदर्भों से मानव अधिकारों के गंभीर प्रभावों के जोखिमों की संभावना हो, उन्हें औपचारिक रूप से यह सूचित किया जाना चाहिए कि वे उनपर किस तरह कार्रवाई करते हैं।" और फिर भी, उद्योग के कुछ प्रगतिशील अग्रणियों को छोड़कर, मात्र कुछ कंपनियों ने ही इस स्वैच्छिक मार्गदर्शन के लिए प्रतिक्रिया व्यक्त की है। 2013 में, डच शोधकर्ताओं ने यूरोपीय शेयर बाजारों में सूचीबद्ध उन 186 कंपनियों का सर्वेक्षण किया जो संघर्ष क्षेत्र वाले खनिजों का इस्तेमाल करती हैं। 80% से अधिक ने अपनी वेब साइटों पर इसका कोई जिक्र नहीं किया कि उन्होंने संघर्ष के लिए धन देने या मानवाधिकार के दुरुपयोगों से बचने के लिए क्या किया था। इसी प्रकार, व्यापार के लिए यूरोपीय आयोग के महानिदेशक ने यह पाया कि 153 यूरोपीय संघ कंपनियों में से केवल 7% कंपनियाँ ही अपनी वार्षिक रिपोर्टों में या अपनी वेब साइटों पर संघर्ष क्षेत्र के खनिज पदार्थों के बारे में उचित जाँच-पड़ताल करने की नीति का उल्लेख करती हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका ने पहले से ही अगला तार्किक कदम उठाया है। प्रतिभूति और विनिमय आयोग अपेक्षा करता है कि जो कंपनियाँ अपने उत्पादों में टैंटलम, टिन, सोने या टंगस्टन का उपयोग करती हैं वे इन कच्चे मालों के उद्गम की जाँच करें, और यदि यह पाया जाता है कि उनका उद्गम किन्हीं संघर्ष-प्रभावित या उच्च जोखिम वाले क्षेत्रों में हुआ है तो ओईसीडी के दिशानिर्देशों के अनुसार अपनी आपूर्ति शृंखलाओं में जोखिम को कम करें। अफ्रीका के ग्रेट लेक्स क्षेत्र पर अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन के 12 सदस्य देशों ने इसी प्रकार की उचित जाँच-पड़ताल करने की अनिवार्य अपेक्षाओं को पूरा करने के लिए प्रतिबद्धता की है। यह वैसा ही है जैसा कि होना चाहिए। जिम्मेदारीपूर्ण सोर्सिंग एक कर्तव्य है, विकल्प नहीं। और यहाँ पर, यूरोपीय संघ पिछड़ रहा है। मार्च में, यूरोपीय आयोग ने एक योजना का प्रस्ताव रखा जिसके तहत प्रकटीकरण स्वैच्छिक होना जारी रहेगा, जिसका अर्थ है कि यूरोपीय संघ में प्रवेश करनेवाले खनिजों पर अनिवार्य जाँचों की शर्त लागू नहीं होगी। इसके अलावा, प्रस्ताव कच्चे लौह अयस्क और धातुओं पर विशेष रूप से केंद्रित है, और इसमें मोबाइल फोन, वाहन, और चिकित्सा उपकरणों जैसे वे उत्पाद शामिल नहीं है जिनमें संबंधित खनिज होते हैं। अब यूरोपीय संसद और यूरोपीय परिषद द्वारा प्रस्ताव की समीक्षा की जा रही है। यह महत्वपूर्ण है कि दोनों संस्थाएँ प्रकटीकरण और अनुपालन को अनिवार्य बनाकर और इसमें तैयार और अर्द्ध-तैयार उत्पादों को शामिल करके व्याप्ति में विस्तार करके यूरोपीय संघ की प्रतिक्रिया को मजबूत करने के लिए इस अवसर का लाभ उठाएँ। इन संसाधनों में व्यापार को बेहतर रूप से नियंत्रित करने मात्र से संघर्ष-प्रभावित क्षेत्रों में शांति नहीं आ पाएगी। लेकिन संघर्ष और मानव अधिकारों के दुरुपयोगों के लिए धन देना व्यवसाय करने की स्वीकार्य लागत नहीं है। नई स्वास्थ्य देखभाल निरंतरता डावोस - पिछले कुछ दशकों में स्वास्थ्य देखभाल उद्योग में नाटकीय रूप से बदलाव आया है। अनुसंधान और विकास ने हमें आश्चर्यजनक नए उपचार, शक्तिशाली निदान, और तेजी से बढ़ रहा अपार ज्ञान दिया है। मेडिकल विशेषज्ञताओं और प्रदाताओं में भारी वृद्धि हुई है। सरकारें और बीमा कंपनियां शक्तिशाली खिलाड़ी बन गई हैं। और रोगी मुखर और सक्रिय उपभोक्ता बन गया है, वह बेहतर विकल्पों की खोज करने के लिए तैयार है, भले ही इसका मतलब विदेश जाना ही क्यों न हो। लेकिन, स्वास्थ्य देखभाल अधिक प्रभावी तो बन गई है, पर यह अधिक जटिल और महंगी भी हो गई है। आबादियों के बढ़ने और उनकी उम्र बढ़ने से स्वास्थ्य देखभाल प्रणालियों पर बहुत दबाव पड़ रहा है, जो पहले से ही कैंसर और मधुमेह जैसी पुरानी बीमारियों के बोझ से दबी हुई हैं। चिकित्सा संस्थान का अनुमान है कि अकेले संयुक्त राज्य अमेरिका में, प्रति वर्ष लगभग $750 बिलियन – कुल स्वास्थ्य देखभाल के खर्च का लगभग 30% – “अनावश्यक सेवाओं, अत्यधिक प्रशासनिक लागतों, धोखाधड़ी और अन्य समस्याओं पर बर्बाद हो जाता है।” यदि हम यह सुनिश्चित करना चाहते हैं कि भविष्य की पीढ़ियों के लिए स्वास्थ्य देखभाल सस्ती और व्यापक रूप से उपलब्ध हो, तो हमें इस बारे में मौलिक रूप से पुनर्विचार करना होगा कि हम किस तरह इसे प्रदान करें और इसका प्रबंधन करें। यह महत्वपूर्ण है कि स्वास्थ्य देखभाल को संबद्धता की जरूरत है। चिकित्सा पेशेवरों के लिए दुनिया भर के सहयोगियों के साथ प्रासंगिक डेटा साझा करना सहज हो जाना चाहिए। अस्पतालों में चिकित्सा उपकरणों और प्रणालियों को जानकारी के विभिन्न स्रोतों को आपस में जोड़ने में सक्षम होना चाहिए। उपभोक्ता प्रौद्योगिकी के नए उत्पाद,जैसे शरीर पर पहनने योग्य स्वास्थ्य सेंसर, संभावित चिकित्सा समस्याओं के गंभीर रूप धारण करने से पहले ही चिकित्सकों को उनके बारे में स्वचालित रूप से सतर्क कर सकते हैं। यद्यपि ऐसे नवोन्मेषों के सामने प्रणाली अंतरसंक्रियता और रोगियों की गोपनीयता की रक्षा करने की जरूरत जैसी चुनौतियां होंगी, परंतु यात्रा और बैंकिंग उद्योगों में इंटरनेट के एकीकरण से यह पता चलता है कि क्या कुछ संभव है। दरअसल, संबद्ध स्वास्थ्य देखभाल पहले से ही हकीकत बनती जा रही है। उदाहरण के लिए, फिलिप्स ने एक ऐसी प्रौद्योगिकी विकसित की है जिससे चिकित्सक प्रोस्टेट कैंसर बायोप्सी से प्राप्त चिकित्सा डेटा को दुनिया भर के सहयोगियों के साथ साझा कर सकते हैं। इससे पहले, बायोप्सी को केवल भौतिक रूप से साझा किया जा सकता था, जिससे प्रोस्टेट कैंसर के सही प्रकार का निदान कर पाना मुश्किल होता था। परिणामस्वरूप, अधिक सुरक्षित रहने के लिए संभवतः सर्जनों और रोगियों ने इनवेसिव सर्जरी का चुनाव किया होगा। अब, दुनिया भर में डॉक्टरों की टीमों के पास एक अतिरिक्त साधन है जिससे वे अलग-अलग रोगियों के लिए अधिक सटीक निदान और उपचार योजनाओं पर एक साथ काम करने में सक्षम होते हैं। अब पूरा रोगी अनुभव बदल जाएगा क्योंकि बेहतर रोकथाम, शीघ्र निदान, अस्पताल में कम समय के लिए रहना, और लंबे समय तक आत्मनिर्भर बने रहना सामान्य बात हो जाएगी। यदि रोगी अस्पताल में वापस आते हैं, तो वे अपने महत्वपूर्ण लक्षणों के विकास के बारे में, पहनने योग्य उपकरणों द्वारा प्राप्त किए गए उपयोगी डेटा अपने साथ लाएंगे। वे अपने उपचार के बारे में हो रही प्रगति को खुद ही ट्रैक करते रह सकते हैं, और उनके डेटा को मेडिकल रिकॉर्ड के साथ एकीकृत किया जा सकता है ताकि उनके स्वास्थ्य के बारे में दीर्घकालीन दृष्टिकोण की जानकारी मिल सके, न कि चिकित्सक के पास विज़िट करने के दिन सरसरी तौर पर प्रदान की जानेवाली प्रासंगिक जानकारी। चौबीसों घंटे पेशेवर प्रशिक्षण और सहायता तक पहुंच मिलने के कारण, रोगी अपनी स्वयं की शारीरिक स्वस्थता का प्रबंध करने के लिए और अधिक सशक्त महसूस करेंगे। संबद्ध स्वास्थ्य देखभाल से भी, विशेष रूप से विकासशील देशों और ग्रामीण क्षेत्रों में, और अधिक लोगों को जीवन-रक्षक उपचार तक पहुंच उपलब्ध हो सकती है। दुनिया में सबसे अधिक शिशु मृत्यु दर वाले देश इंडोनेशिया में, मेडन के ग्रामीण क्षेत्र में दाइयां एक मोबाइल अनुप्रयोग का उपयोग करके गर्भवती महिलाओं से चिकित्सा डेटा इकट्ठा करती हैं। डेटा का विश्लेषण प्रसूति और स्त्रीरोग विशेषज्ञों द्वारा कहीं और किया जाता है, जिससे बीमारी के उच्च जोखिम वाली महिलाओं की पहचान करके उनका इलाज जल्दी किया जा सकता है। युगांडा में, ग्राम स्वास्थ्य केंद्रों में दाइयां दूरदराज के विशेषज्ञों को संपीडित अल्ट्रासाउंड स्कैन भेजती हैं, जिनकी संख्या किसी कुशल स्वास्थ्य कार्यकर्ता द्वारा डिलीवर किए जा सकने वाले नवजात शिशुओं की संख्या से लगभग दोगुनी होती है। अधिक मोटे तौर पर, संबद्ध स्वास्थ्य प्रौद्योगिकी के फलस्वरूप पेशेवर स्वास्थ्य देखभाल और उपभोक्ता बाजार को एकीकृत किया जा सकेगा। यह एक निरंतरता पैदा करेगा जो स्वस्थ रहने और रोकथाम पर ध्यान केंद्रित करने के साथ शुरू होती है, उपभोक्ताओं को अपने स्वयं के स्वास्थ्य पर अपना नियंत्रण रखने के लिए सशक्त बनाती है, और देशों को अपने नागरिकों के समग्र स्वास्थ्य को बेहतर बनाने के लिए सक्षम बनाती है। यह निरंतरता फिर आगे बढ़कर ऐसे निश्चित निदानों और न्यूनतम इनवेसिव उपचारों की ओर जाएगी, जो गुणवत्ता और लागत के लिए अनुकूलित होंगे, और अंततः यह स्वास्थ्यलाभ और घरेलू देखभाल की ओर जाएगी, इस प्रकार चिकित्सा देखभाल जितना जल्दी संभव हो सकेगा अधिक सुविधाजनक और किफायती अस्पताल से इतर सेटिंग्स के रूप में स्थानांतरित हो जाएगी। सरकारों, बीमा कंपनियों, चिकित्सा पेशेवरों, रोगियों, और देखभालकर्ताओं को मिलकर काम करने की जरूरत है ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि स्वास्थ्य निरंतरता में इस बदलाव को अच्छी तरह से प्रबंधित किया जाता है, ताकि पहुँच का विस्तार किया जा सके, परिणामों में सुधार किया जा सके, और उत्पादकता को बढ़ाया जा सके। साथ में मिलकर, हमारे पास अरबों लोगों के जीवन में सुधार लाने, अधिक स्वस्थ समाज तैयार करने, लागतों में बचत करने, और आर्थिक विकास को बढ़ावा देने के लिए अवसर है। BRICS को गंभीरता से लेना बीजिंग - इस महीने के शुरू में एक शांत शाम को मॉस्को नदी में नौकायन करते हुए, मैंने खुद को चीनी नेशनल पीपुल्स कांग्रेस (NPC) के विदेश मामलों की समिति के अध्यक्ष के साथ गहन बातचीत में पाया। इस बीच, दक्षिण अफ़्रीकी और ब्राज़ील के सांसद रूसी संगीत में झूम रहे थे और गाइड ने उस स्थल की ओर संकेत किया। BRICS देशों - ब्राज़ील, रूस, भारत, चीन और, दक्षिण अफ़्रीका - के पहले संसदीय फ़ोरम का ख़ुशनुमा समापन हो चुका था। बैठक शुरू होने से पहले, बहुत-से लोगों को आश्चर्य हो रहा था कि क्या पाँच संसदों को समान आधार मिल पाना संभव हो सकता है। इस परिदृश्य में भारत की झगड़ालू और गड़गड़ाने वाली लोकसभा, जिसमें भावपूर्ण बहसें और अवरोध होते हैं, की चीन की शिष्ट NPC से क्या समानता हो सकती है, जो कम्युनिस्ट पार्टी के फ़ैसलों के लिए सख़्ती से नियंत्रित गूंज कक्ष है? अनेक लोगों का मानना था कि नए BRICS समूहीकरण में सदस्यता, सहयोग के लिए पर्याप्त मज़बूत आधार प्रदान नहीं करती। इस तरह के संदेह स्वयं BRICS के समूहीकरण पर आरंभ से ही किए जा रहे थे, जिनमें से कुछ इसे निवेश बैंक द्वारा आविष्कृत एकमात्र अंतर्राष्ट्रीय संगठन के रूप में नकार रहे थे। विशेष रूप से, BRIC शब्द तत्कालीन-गोल्डमैन सैश के विश्लेषक जिम ओ'नील ने एक दशक से ज़्यादा पहले गढ़ा था, जिन्होंने शुरू में प्रमुख उभरती अर्थव्यवस्थाओं की श्रेणियों में दक्षिण अफ़्रीका की गिनती नहीं की थी। लेकिन रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन को यह विचार शुरू से ही पसंद आया था, और उन्होंने 2006 में सुझाव दिया था कि चार देशों को नियमित रूप से मिलना चाहिए। समूहीकरण को शीघ्र ही औपचारिक रूप दे दिया गया, और वार्षिक शिखर सम्मेलनों की योजना बनाई गई। दक्षिण अफ़्रीका इसमें 2011 में शामिल हो गया, जिससे समूचे दक्षिणी क्षेत्र में BRICS की उपस्थिति मज़बूत हो गई, और उत्तर से इसमें केवल रूस ही था। वास्तव में, यही कारण है कि इस उद्यम में रूस की केंद्रीयता इतनी अधिक पेचीदा है। यह देखते हुए कि रूस हाल के समय तक - उत्तरी गोलार्द्ध के सबसे महत्वपूर्ण आर्थिक समूहीकरण - जी-8 का सदस्य था, ऐसा लग सकता है कि इसकी BRICS के अन्य चार सदस्यों के साथ कम आत्मीयता है, जिसे वैश्विक फ़ोरमों में परंपरागत रूप से प्रमुख विकासशील-देश की आवाज़ के रूप में देखा जाता है। लेकिन, BRICS के विचार का लाभ उठाकर, पुतिन ने वैकल्पिक वैश्विक प्लेटफ़ॉर्म का निर्माण करने - और वैकल्पिक वैश्विक नज़रिये को आगे बढ़ाने - की अपनी इच्छा प्रकट की। BRICS के उद्यम के लगातार मज़बूत होने से अनेक अंतर्राष्ट्रीय पर्यवेक्षकों को आश्चर्य हुआ। अपने वार्षिक शिखर सम्मेलनों के साथ-साथ - जिनमें शांति और सुरक्षा से लेकर संयुक्त राष्ट्र में सुधार तक हर प्रमुख वैश्विक मुद्दे को सम्मिलित करने वाली संयुक्त घोषणाएँ सामने आईं - BRICS ने विदेश मंत्रियों की बैठकों का आयोजन किया है और विचार-मंथन परामर्श में संलग्न हुआ है। इसके अलावा, BRICS ने नए विकास बैंक की रचना की है, जिसका मुख्यालय शंघाई में है और जिसका नेतृत्व भारत के सर्वाधिक सम्मानित निजी क्षेत्र के एक बैंकर द्वारा किया जा रहा है। इस पृष्ठभूमि में देखते हुए, हाल का संसदीय फ़ोरम ऐसी संस्थाओं और तंत्रों की विस्तृत सरणी में एकदम नया है जो BRICS को ऐसे अंतर्राष्ट्रीय समूहीकरण के रूप में स्थापित कर रहे हैं जिसे नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। BRICS ऐसे समय में उभर रहा है जब द्वितीय विश्व युद्ध के तत्काल बाद उभरने वाली अंतर्राष्ट्रीय प्रणाली के भविष्य पर अधिकाधिक प्रश्नचिह्न लगने लगे हैं। दो विश्व युद्धों, अनेक नागरिक युद्धों, औपनिवेशिक दमन, और होलोकास्ट और हिरोशिमा की भयावहता के बाद, उस समय के दूरदर्शी राजनेताओं ने तय किया कि और अधिक नरसंहार को रोकने के लिए, संयुक्त राष्ट्र और संबद्ध संस्थाओं के चार्टर पर आधारित, उदार अंतर्राष्ट्रीयता ही एकमात्र रास्ता है। और, वास्तव में, सात दशकों तक उस प्रणाली ने काफ़ी हद तक अपने लक्ष्य हासिल किए हैं। इसने मोटे तौर पर वैश्विक शांति सुनिश्चित की है, हालाँकि इसकी क़ीमत अनेक संघर्षों को किनारे करके चुकानी पड़ी है। और इससे न केवल विकसित देशों को फायदा हुआ; बल्कि इसने उपनिवेशों को समाप्त करना सुनिश्चित किया, विकास को बढ़ावा दिया, और नए उभरते देशों की आवाज़ को सम्मिलित करने के तरीके ढूँढ़े। लेकिन ऐसा लगता है कि मौजूदा व्यवस्थाएँ अब काफ़ी नहीं रही हैं। चीन और भारत अपने आर्थिक वज़न के अनुरूप वैश्विक प्रभाव की माँग कर रहे हैं; ब्राज़ील और दक्षिण अफ़्रीका महाद्वीपीय ताकतों के रूप में उभर रहे हैं, और हाइड्रोकार्बन से संचालित रूस पश्चिमी प्रणाली के हाशियों पर अपनी स्थिति को दुरुस्त कर रहा है। इसमें कोई आश्चर्य नहीं है कि अनेक लोग सोचते हैं कि मौजूदा प्रणाली बदलाव के लिए तैयार है। तथापि, मौजूदा विश्व शक्तियाँ इतनी आसानी से अपने प्रभाव का त्याग नहीं करेंगी। यह असंगत लगता है कि विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष में चीन के वोट की शक्ति उतनी ही है जितनी बेल्जियम की है। लेकिन उन्नत अर्थव्यवस्थाओं और उभरते और संक्रमणशील देशों के बीच इन संस्थाओं में समता बनाने के लिए जी-20 की कोशिश अब ठप्प हो गई है। वास्तव में, हालाँकि यूएस के नेता तकनीकी रूप से IMF के मतदान में सुधार के लिए सहमत हो गए थे, लेकिन अब तक यूएस कांग्रेस ने उन सुधारों को स्वीकृति देने से इनकार करता आ रहा है। इस बात पर ध्यान देना महत्वपूर्ण है कि भारत और ब्राज़ील जैसे देश, उदाहरण के लिए, एक सदी पहले के जर्मनी और जापान के विपरीत - विश्व व्यवस्था को पलटने की माँग नहीं कर रहे हैं। वे तो बस ऊँची मेज़ पर अपनी जगह चाहते हैं। उसे छोड़कर, उनके पास अपनी खुद की मेज़ बनाने के अलावा कोई विकल्प नहीं है, हालाँकि भारत, ब्राज़ील और दक्षिण अफ़्रीका के पास इस चिंता का कारण है कि क्या चीन के नेतृत्व वाली विश्व व्यवस्था मौजूदा व्यवस्था से बेहतर होगी। BRICS की प्रतिक्रिया समझने वाली भी है और बेचैन करने वाली भी। जैसे-जैसे देश आर्थिक और सैन्य शक्ति हासिल करते हैं, वैसे-वैसे वे अपनी भू-राजनीतिक शक्ति भी दिखाना शुरू कर देते हैं। विश्व व्यवस्था की हिमायत करने वालों के लिए चुनौती यह है कि सार्वभौमिक, अनुमान-योग्य नियमों और वैश्विक संरचनाओं के ढाँचे के भीतर उभरती शक्तियों को शामिल किया जाए जो हर किसी के लिए उसके आकार, क्षमताओं, और अंतर्राष्ट्रीय प्रणाली में योगदान के अनुरूप उपयुक्त स्थान सुनिश्चित कर सके। ऐसा लगता है कि आज के विश्व नेताओं में उस राजनयिक क्षमता, दृष्टि की व्यापकता, और भावना की उदारता की कमी है जो 1945 के बाद की विश्व व्यवस्था बनाने वालों में थी। उस प्रणाली से हठपूर्वक चिपके रहकर जिस पर वे हावी हैं और नए प्रवेश करने वालों के लिए दरवाज़े बंद करके, उन्होंने बाहर रह गए लोगों के लिए बहुत कम विकल्प छोड़े हैं। BRICS देशों में समान बात मौजूदा विश्व व्यवस्था में उन स्थानों से बहिष्करण है जिसके बारे में उनका मानना है कि वे ही वहाँ रहने के योग्य हैं। हो सकता है कि यह नई भरोसेमंद अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था के लिए पर्याप्त आधार न लगे। लेकिन यह देखते हए कि जब 2050 से पहले उनकी अर्थव्यवस्थाएँ जी-7 के देशों की अर्थव्यवस्थाओं को पार कर लेंगी, तो फिर जो दिखाई दे रहा है वह छलावा भी हो सकता है। सच्चाई यह है कि अगर BRICS देशों को मौजूदा वैश्विक प्रणाली के भीतर नेतृत्व करने में मदद करने की अनुमति नहीं दी जाती, तो वे अनिवार्य रूप से अपनी प्रणाली की रचना कर लेंगे। 1945 में स्थापित विश्व व्यवस्था के लिए उसका क्या मतलब हो सकता है, इसका अनुमान कोई भी लगा सकता है। स्थानीय समस्याओं के लिए स्थानीय नवाचार बोस्टन – ज्यों-ज्यों हम घटिया और नकली दवाओं के खतरे के बारे में और अधिक जानने लगे हैं, यह स्पष्ट होता जा रहा है कि यह उससे कहीं अधिक बड़ी समस्या है जितना कि पहले इसके बारे में सोचा गया था। यह एक ऐसा संकट भी है जिसे विकासशील देशों में अधिक तीव्रता से महसूस किया जा रहा है जिसमें नकली और घटिया दवाइयाँ हर साल 5,00,000 से अधिक लोगों की मृत्यु का कारण बनती हैं और ऐसे रोगों के उत्पन्न होने में योगदान करती हैं जो मौजूदा उपचारों के लिए प्रतिरोधी हैं और इसका लाखों लोगों पर दुष्प्रभाव पड़ता है। विकासशील देशों में नीति-निर्माताओं द्वारा अपनाए जानेवाले दृष्टिकोण से यह समस्या और भी जटिल हो जाती है जिनकी इसके समाधान अपने देश में खोजने के बजाय विदेशों में खोजने की संभावना अधिक होती है। यह अदूरदर्शिता एक ऐसी भयंकर भूल है जिससे नवाचार और प्रगति बाधित होती है। जब नकली या घटिया दवाओं के फलने-फूलने जैसी अधिक प्रभावित करनेवाली स्वास्थ्य की चुनौतियों की बात होती है, तो स्थानीय समाधानों और स्थानीय नवाचारों के न केवल किसी भी सफल प्रयास में प्रमुख होने की संभावना होती है बल्कि उनमें ऐसे लाभ प्रदान करने की क्षमता होती है जो मूल समस्या से कहीं अधिक बढ़कर होते हैं। पूरी विकासशील दुनिया में, लेकिन अफ्रीका में अधिक जाहिर तौर पर, दो ऐसे समूह हैं जो घटिया दवाओं के खतरे से निपटने के लिए उपकरणों की खोज करने में रुचि रखते हैं। एक समूह, छात्रों, उद्यमियों, और शोधकर्ताओं का है जो ऐसे समाधान खोजने का प्रयास करता है जो स्थानीय हों, मौलिक हों, और उनके समाज की जरूरतों के अनुरूप हों। इसके सदस्य विचारों को साझा करने के लिए तत्पर और सहयोग करने के लिए उत्सुक होते हैं। हालाँकि इस समूह ने कुछ नवोन्मेषी समाधान दिए हैं, उदाहरण के लिए, घाना के उद्यमी ब्राइट सिमन्स द्वारा नकली दवा की समस्या के समाधान के लिए मोबाइल प्रौद्योगिकी का उपयोग किया जा रहा है तथा इसमें और बहुत से उत्साही स्थानीय आविष्कारकों और उद्यमियों को शामिल होना चाहिए। दूसरा समूह सरकारी अधिकारियों का है जिसमें नियामक भी शामिल हैं। वे भी घटिया और नकली दवाओं की इस बीमारी के बारे में बहुत अधिक चिंतित हैं, लेकिन वे स्थानीय नवाचार पर भरोसा नहीं करना चाहते हैं। उनके दिमाग में यह होता है कि उच्चस्तरीय प्रौद्योगिकी के रूप में दुनिया के सबसे अमीर देशों में तैयार और विकसित समाधान पहले से ही मौजूद हैं। इस समूह के लिए चुनौती यह होती है कि इन प्रौद्योगिकियों का आयात करने के लिए वित्तीय संसाधन कैसे प्राप्त किए जाएँ। विकासशील देशों के नेताओं की दृष्टि में, नवाचार का समर्थन करनेवाले पारिस्थितिकी तंत्र को तैयार करने के लिए आवश्यक प्रयास करने की बात करना तो बहुत अच्छा लगता है, परंतु निवेश पर लाभ बहुत कम मिलता है। अनगिनत सम्मेलनों और संगोष्ठियों में मंत्रालय के अधिकारी और सरकारी कार्मिक इस बात पर जोर देते हैं कि समाधानों का आयात करने के लिए अलग-से धन उपलब्ध होना चाहिए। दुर्भाग्यवश, अनुसंधान और नवाचार, या स्थानीय उद्यमियों और आविष्कारकों से संपर्क करना उनकी कार्यसूची में कभी शामिल नहीं होता है। देश में उपलब्ध बुद्धि, उत्साह, और ऊर्जा के भारी भंडार का उपयोग करने में उनकी कतई रुचि नहीं होती है। अधिकारियों के लिए यह बुद्धिमानी की बात होगी कि वे इस पर पुनर्विचार करें। इस बारे में भारी मात्रा में सबूत मौजूद हैं कि स्थायी समाधानों के लिए स्थानीय समर्थन और स्थानीय भागीदारों का होना आवश्यक है। विदेशों से समाधान आयात करने के लिए धन जुटाने से चुनौती के सिर्फ एक हिस्से मात्र पर कार्रवाई होती है। बहुत से देशों के पास ऐसे उपकरण स्थापित करने, उन्हें चलाने, और उनका रखरखाव करने के लिए संसाधन नहीं होते हैं जिन्हें स्थानीय रूप से तैयार न किया गया हो। चूंकि दुरुपयोग और असावधानी बरतने से उपकरण काम करना बंद कर देते हैं, इसलिए और अधिक धनराशि की आवश्यकता पड़ जाती है या कार्यक्रम ठप्प होकर रह जाता है। यह दृष्टिकोण नवाचार के पारिस्थितिकी तंत्रों का विकास करने में तो विफल रहता ही है, जो बहुत ही निराशाजनक होता है; यह संबंधित समस्या को हल करने में भी बार-बार विफल रहता है। यद्यपि दवा-गुणवत्ता के परीक्षण के क्षेत्र में सिमन्स जैसे अफ्रीकी उद्यमियों से कुछ समाधान मिले हैं, परंतु ऐसे उदाहरण बहुत विरल हैं, और उनमें से कई क्षेत्र के बाहर के संगठनों की सहायता से विदेशों में विकसित किए गए हैं। अधिकतर मामलों में, इस तरह की किसी पहल में स्थानीय छात्रों को कभी शामिल नहीं किया जाता है। स्थानीय पाठ्यक्रमों में स्थानीय चुनौतियों पर ध्यान केंद्रित नहीं किया जाता है या स्थानीय नवाचार को बढ़ावा नहीं दिया जाता है। और फिर भी मौलिक और टिकाऊ समाधानों के लिए स्थानीय प्रतिभा महत्वपूर्ण होती है। दरअसल, अनुसंधान की समावेशी संस्कृति का विकास करने पर, स्थानीय नवाचार में ऐसे लाभ प्रदान करने की क्षमता होती है जो हल की जानेवाली विशिष्ट समस्या से कहीं अधिक होते हैं। कम प्रतिनिधित्व वाले समूहों की भागीदारी को प्रोत्साहित करने तथा शिक्षा और ज्ञान के लिए अवसर पैदा करने से न केवल सद्भावना पैदा होती है बल्कि पारदर्शिता और जवाबदेही को प्रोत्साहन मिलता है। भावी अनुसंधान के लिए सुदृढ़ नींव तैयार करने से अधिक फलदायक सार्वजनिक-निजी भागीदारियों का निर्माण होता है तथा शिक्षाविदों और घरेलू उद्योग के बीच मजबूत संबंध बनते हैं, और इस प्रकार आर्थिक विकास को प्रोत्साहन मिलता है। सहायता एजेंसियों या दवा कंपनियों जैसे विदेशी संगठनों की स्थानीय नवाचार को बढ़ाने में एक भूमिका होती है। वे इसे आर्थिक रूप से सहायता प्रदान कर सकते हैं, नई साझेदारियाँ कर सकते हैं, और नीति निर्माताओं को इसे अधिक विश्वसनीय बनाने के लिए प्रोत्साहित कर सकते हैं। इसमें अंतर्राष्ट्रीय समुदाय की भी भूमिका होती है। इस वर्ष संयुक्त राष्ट्र संघ गरीबी उन्मूलन और स्वास्थ्य में सुधार के लिए वैश्विक प्रयासों के अगले चरण की शुरूआत करने के रूप में सतत विकास लक्ष्यों को स्वीकार करेगा। जैसा कि विकासशील देशों में नकली और घटिया दवाओं के खिलाफ लगातार चल रही लड़ाई के उदाहरण से पता चलता है, इसमें सफलता अधिकतर स्थानीय नवाचार से ही मिल सकती है, अन्यथा नहीं। जीवनरक्षक धारणाएं जेनेवा. उत्तरी नाइजीरिया में 200 से अधिक लड़कियों की दुर्दशा इस बात की निर्मम याद दिलाती है कि अफ्रीका में बच्चे-खासकर लड़कियां कितनी असुरक्षित हो सकती हैं. लेकिन यह जानना भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है कि यह स्थिति आधुनिक अफ्रीका की सही झलक नहीं दिखलाती है. अफ्रीका के नेतागण अपने देश के बच्चों की सुरक्षा ��ो लेकर अत्यंत प्रतिबद्घ हैं. अमीर देशों में बच्चों को जैसी सुरक्षा उपलब्ध है वैसी सुरक्षा उपलब्ध कराने के लिए दो महत्त्वपूर्ण घटकों की जरूरत हैः साझेदारी और विश्वास या धारणा. ऐसा इसलिए है कि हालांकि आतंकवाद एक भीतरी खतरा तो है, पर अफ्रीका के बच्चों को सब से बड़ा खतरा है बीमारी का जिसे नियमित टीकाकरण के जरिये सामान्यतः टाला जा सकता है. सचमुच, आज जहां सारी दुनिया लापता बच्चियों को छुड़ाने के लिए सर्वश्रेष्ठ उपायों पर चर्चा कर रही है, वहीं एक दूसरी मुसीबत सिर उठा रही है. विश्व स्वास्थ्य संगठन ने हाल ही में पोलियो के फैलाव को अंतर्राष्ट्रीय जन-स्वास्थ्य आपातकाल घोषित किया है. अनेक अफ्रीकी देशों से इस भयावह बीमारी का दूसरे देशों में फैलने का खतरा है. सौभाग्य से आज पोलियो व कई अन्य बीमारियां जो टीकों से रोकी जा सकती हैं से लड़ने के तत्कालिक एवं ठोस उपाय मौजूद हैं. वर्तमान में ये बीमारियां अफ्रीका व अन्य जगहों पर अनगिनत मासूम जिंदगियां छीन लेती हैं. इसके अलावा अफ्रीकी नेतागण मानते हैं कि नियमित टीकाकरण ही बच्चों को लंबे समय तक और स्थायी रूप से बीमारियों से बचाने का सर्वोत्तम उपाय है. इस महीने के आरंभ में नाइजीरिया की राजधानी आबुजा में अफ्रीकी नेताओं की बैठक में ‘इम्युनाइज अफ्रीका 2020 डिक्लेरेशन’ का प्रस्ताव पास किया गया. इसमें इन नेताओं ने अपने देशों के बच्चों के स्वस्थ व सुनहरे भविष्य में निवेश करने की अपनी प्रतिबद्धता दोहराई. ऐसी घोषणाएं महत्त्वपूर्ण हैं क्योंकि केवल अपने विश्वास के बल पर ही हम सच्चे अर्थों में सकारात्मक परिवर्तन ला सकते हैं. और सचमुच परिवर्तन हो रहा है. सन् 2001 से अफ्रीका में 140 से अधिक टीकाकरण अभियान चलाए गए. इसका श्रेय स्थानीय नेतृत्व को और मेरे संगठन गावी (GAVI) अलाइंस द्वारा दिए गए समर्थन को जाता है. इसके सहयोगी यूनिसेफ, विश्व स्वास्थ्य संगठन व बिल एंड मोलिंडा गेट्स फाउंडेशन भी धन्यवाद के पात्र हैं. इस तरह के कार्य के फलस्वरूप अफ्रीका में टीकाकरण का दायरा बढ़ा है. 1980 में यह 10% था और 2012 में 72% हो गया. और अब, 2016 से 2020 तक अफ्रीका के 50 से ज्यादा देश गावी व इसके सहयोगियों के माध्यम से बच्चों के टीकाकरण की लागत में 70 करोड़ डॉलर का योगदान देंगे. इससे अफ्रीका गावी में यूनाइटेड किंगडम, बिल एंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन तथा नार्वे के बाद चौथा सबसे बड़ा निवेशक बन जाएगा. इस तरह की वचनबद्धता विकास सहायता में बदलाव की सूचक है जो साझेदारी पर निर्मित परोपकार के पारंपरिक मॉडल से हटकर है. लेकिन इस तथ्य की रोशनी में कि अफ्रीकी देश स्वास्थ्य सेवाओं में पहले ही अरबों डॉलर खर्च कर चुके हैं और इस महाद्वीप की अन्य भी अनेक जरूरतें हैं, टीकाकरण में निवेश करना हमेशा ही स्पष्ट चुनाव नहीं हो सकता है. सन् 2003 में नार्वे में ऐसी ही स्थिति थी जब स्वास्थ्य व सामाजिक मामलों के मंत्री के तौर पर मैंने सार्वजनिक स्थलों पर धूम्रपान पर पाबंदी लगाने का अभियान चलाया था. उस वक्त इस पाबंदी का घोर विरोध हुआ था और संसार के सबसे घटिया तानाशाहों से मेरी तुलना की जाने लगी थी. पर मैं जानता था कि इस कदम से आने वाले वर्षों में कई जिंदगियां बच जाएंगी. मुझे पूरा विश्वास था कि अगर मैंने कार्यवाई नहीं की तो मतलब था कि मैं अपना काम सही तरीके से नहीं कर रहा था. और इसमें मैं अकेला नहीं था. आयरलैंड के स्वास्थ्य मंत्री मुझसे सहमत थे. और जैसे-जैसे व्यक्तियों व समाज को मिलने वाले लाभ स्पष्ट होने लगे, 100 से ज्यादा अन्य देशों ने नार्वे और आयरलैंड की इस पहल को अपनाया. आज नार्वे में धूम्रपान करने वालों की तादाद आधी हो गई है. दस में से नौ लोग इस पाबंदी का समर्थन करते हैं. पूर्वदृष्टि का लाभ यही है कि कुछ समाधान स्पष्ट दिख सकते हैं, पर उस समाधान को जमीन पर उतारने के लिए विश्वास का बल चाहिए. अफ्रीका व दुनियाभर के गरीब देशों में टीकाकरण अभियान के साथ भी आज ऐसी ही स्थिति है. इन देशों के नेतागण यह देख चुके हैं कि रोग-प्रतिरोधक टीकों से क्या हासिल किया जा सकता है. उन्हें आने वाले वर्षों में टीकाकरण से और लाभ भी दिखाई दे रहे हैं. वास्तव में सन् 2000 में अपनी शुरूआत से ही गावी 44 करोड़ लोगों के टीकाकरण में अपना सहयोग दे चुका है. इससे 60 लाख जाने बचाने में मदद मिली है. अब गावी अलाइंस के साझेदार और दानदाता अगले पांच साल के लिए गावी को धन उपलब्ध कराने की योजना पर विचार करने के लिए इस हफ्ते ब्रूसेल्स में बैठक कर रहे हैं. यहां और अधिक करने का सच्चा अवसर है. गावी के समर्थन से अपनी पहुंच के भीतर हमारे पास 2020 तक आज से दुगुनी तादाद में बच्चों के टीकाकरण का अवसर है. यह संख्या एक अरब तक पहुंच सकती है और आज से 2020 तक 50 लाख से अधिक मौतों को टाला जा सकता है. अफ्रीकी नेताओं ने अपने संकल्प को दर्शा दिया है. पर ऐसे वक्त में जब अनेक दानदाता देश अपनी छिन्न-भिन्न अर्थव्यवस्था को मजबूत करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं, उनके नेताओं को वचनबद्धता और विश्वास दोहराने के लिए समय चाहिए. कोई भी इस कार्य को अकेला नहीं कर सकता है. पर भागीदारी के जरिये हम सचमुच में संसार के सबसे असुरक्षित बच्चों को सुरक्षा प्रदान करने में मदद कर सकते हैं. अफ्रीकी अभ्युदय में विपुलता की समस्या न्यूयार्क - अफ्रीका नाटकीय रूप से बदल रहा है - और इसके साथ बाहरी लोगों का इसके प्रति रवैया भी बदल रहा है. आखिरकार संयुक्त राज्य अमेरिका भी अब इस महाद्वीप में चीन, यूरोप और भारत के बराबर दिलचस्पी लेने को तत्पर दीख रहा है. हाल ही में आयोजित अमेरिकी राष्ट्��पति बराक ओबामा की अफ्रीका के 40 राष्ट्राध्यक्षों और 200 से अधिक अमेरिकी व अफ्रीकी शीर्ष व्यापारियों के साथ शिखर वार्ता एक नए, अधिक आत्मविश्वासी मिजाज का संकेत देती है. यह अपने-आप में उत्साहवर्द्धक है. लेकिन जब तक उप-सहारा अफ्रीका के अनेक देश हिंसक झड़पों, गरीबी और भ्रष्टाचार में पिसते रहेंगे तब तक महाद्वीप की आर्थिक क्षमता को पूरी तरह प्राप्त नहीं किया जा सकेगा. अफ्रीका की आर्थिक वृद्धि और व्यवसायिक अवसर उत्साहवर्द्धक और मन को लुभाने वाले हैं. इस क्षेत्र की 30 करोड़ मध्यमवर्गीय आबादी सालाना 5% से अधिक की दर से बढ़ रही है. महाद्वीप मोबाइल (चल) बैंकिंग में सबसे आगे है. प्रति व्यक्ति उपभोक्ता व्यय भारत व चीन के स्तर के बराबर है. यदि महाद्वीप के सशक्त निजि क्षेत्र की भागीदारी में विदेशी पूंजी निवेश वहां के प्रमुख क्षेत्रों - खासकर शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा और अवसंरचना - को लाभ पहुंचा सके तो अफ्रीका में व्यापक पैमाने पर विकास को बढ़ावा मिल सकता है जिसकी लोगों को जरूरत है. लेकिन निवेश और वृद्धि - ‘‘अफ्रीका उदय’’ - इस कहानी के केवल एक भाग हैं. एक अफ्रीका और भी है जो संघर्ष कर रहा है उन लड़ाइयों और संकट से जो महाद्वीप के बड़े भाग को प्रभावित करते हैं. खासकर, माली से सोमालिया तक फैली पट्टी में रहने वाले करोड़ों लोग इन संघर्षों से अधिक प्रभावित हैं. लाइबेरिया और सिएरा लियोन में इबोला महामारी फैलने से पूर्व तक दक्षिण सूडान, सेंट्रल अफ्रीकन रिपब्लिक (कार) और माली पर नाजुक या विफल राष्ट्रों की लंबी फेहरिस्त में शामिल होने का खतरा मंडरा रहा था. सोमालिया और डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ कांगो (कांगो गणराज्य) पहले ही इस फेहरिस्त में हैं. इन देशों में जारी नस्लीय, धार्मिक, आर्थिक और अन्य किस्मों के संघर्षों के कारण प्रभावी प्रशासन के लक्ष्य नेपथ्य में चले जाते हैं और बुनियादी सेवाओं को प्रदान करना भी मुश्किल हो जाता है. भारी जनसंहार या शरणार्थी संकट के कारण दुनिया का ध्यान इन देशों की ओर जाता है लेकिन केवल थोड़े समय के लिए. फिर यह ध्यान कहीं और चला जाता है. नतीजतन समस्याएं बढ़ती जाती हैं और जीवन की परिस्थितियां बद से बदतर होती जाती हैं. दुनिया के सबसे नए देश दक्षिण सूडान में स्वतंत्रता संग्राम के दौरान नस्लीय सोच से इतर राजनीतिक एकता बनी रही थी. लेकिन इस साल हिंसक संघर्ष में यह तहस-नहस हो गई. करीब 15 लाख लोग बेघर-बार हो गए और 4 लाख लोगों को भागकर पड़ोसी देशों में शरण लेनी पड़ी. इस व्यापक आतंक के बीच कोई भी सुरक्षित नहीं है. इसी साल अप्रैल में मेरे संगठन के स्टाफ के दो सदस्य मारे गए जो संयुक्त राष्ट्र के अधीन विस्थापित लोगों के बीच काम कर रहे थे. और अगस्त के शुरुआत में स्थानीय तौर पर तैनात सात सहायता कर्मियों को निशाना बना कर मौत के घाट उतार दिया गया. मध्य अफ्रीकी गणराज्य में ईसाइयों पर मुसलिम पूर्व सेलेका लड़ाकों द्वारा जितने हमले हो रहे हैं उससे कहीं ज्यादा हिंसक हमले ईसाई और बलाका-विरोधी आतंकवादियों द्वारा जान बचा कर भाग रहे मुसलमानों पर हो रहे हैं. नतीजतन वहां मुसलिम आबादी अनुमानित 15% से गिर कर 5% से भी कम रह गई है. हमेशा की तरह औरतों और बच्चों पर सर्वाधिक अत्याचार हो रहे हैं. केवल गत तीन महीनों में ही मध्य अफ्रीकी गणराज्य की राजधानी बानगुई में अंतर्राष्ट्रीय बचाव कमेटी के केंद्रों में हिंसा व बलात्कार से बचने के लिए शरण लेने वाली औरतों की तादाद में भारी इजाफा हुआ है. मदद की निहायत जरूरत है पर यह धीमे-धीमे आती है. मध्य अफ्रीकी गणराज्य के लिए 56.5 करोड़ डॉलर की मदद जुटाने वास्ते संयुक्त राष्ट्र की अपील से अभी तक केवल 39% धन ही जुट पाता है. इसी तरह दक्षिण सूडान, जो युद्ध के बाद अकाल झेल रहा है और जहां किसान फसल नहीं बो पा रहे हैं, के लिए संयुक्त द्वारा की गई अपील से लक्ष्य की मात्र आधी धन राशि ही जुट पाई है. दानदाताओं के निरुत्साह - और नीति-निर्माताओं के सामने मौजूद अनगिनत वैश्विक संकटों - के चलते पीडि़तों का नुकसान बढ़ता जा रहा है. आसन्न संकटों का सामना करने के लिए बेशक मानवीय कार्यवाई अनिवार्य है. लेकिन यह पहचानना महत्त्वपूर्ण है कि जैसे राजनीतिक संकट अकसर मानवीय संकटों को जन्म देते हैं, वैसे ही मानवीय आवश्यकता राजनीतिक अस्थिरता का कारण बन सकती है जिसमें संकटग्रस्त पड़ोसी देशों से लोगों का बड़े पैमाने पर पलायन पूरे क्षेत्र में अस्थिरता पैदा करता है. सचमुच गृह युद्धों का केवल उन देशों में सीमित रहना दुर्लभ है जहां वे शुरू होते हैं. शरणार्थी समस्याओं की गहरी जड़ें हैं. उदाहरण के लिए, दुनिया के आधे गरीब, नाजुक और संघर्षग्रस्त देशों में रहते हैं. दस साल पहले से यह तादाद 20% ज्यादा है. और 75% शरणार्थी शहरी क्षेत्रों में स्थानीय आबादी के बीच रहते हैं. संकट और अल्प-विकास गहराई से एक-दूसरे से जुड़े हैं. हमें ज्यादा से ज्यादा आभास है कि किस तरह की मानवीय कार्यवाई से काम चलेगा. विश्वास कायम करने वाली समुदाय-आधारित पहलकदमियां केंद्रीय और बाहरी रूप से चलाई जाने वाली परियोजनाओं से बेहतर हैं. महिलाओं के सशक्तिकरण से ताकि वे खुद को हिंसा से बचा सकें या विस्थापित बच्चों को यह सिखा कर कि वे स्वयं को सदमे से कैसे उबारें, संकट से उबरने के सर्वाधिक प्रभावी उपाय हो सकते हैं. हम यह भी जानते हैं कि सुरक्षा के बगैर कोई विकास नहीं हो सकता है. आज 1 लाख से ज्यादा संयुक्त राष्ट्र व अफ्रीकी संघ के शांति रक्षक संघर्षरत अफ्रीकी देशों में फैले हुए हैं. ऐसे और अधिक शांति रक्षकों की आवश्यकता है, खासकर मध्य अफ्रीकी गणराज्य और दक्षिण सूडान में. अफ्रीका में आर्थिक निवेश महत्त्वपूर्ण है और दीर्घकालीन नियोजन में इस पर गंभीरता के साथ गौर किया जाना चाहिए. ओबामा प्रशासन का महाद्वीप में व्यवसायिक अवसरों को बढ़ाने का प्रयास सही है. लेकिन केवल इसी से हिंसक संघर्ष की जड़ों को नहीं काटा जा सकता है जिससे आज भी लाखों जानें जा रही हैं. आर्थिक विकास व सुशासन के साथ-साथ मानवीय राहत सुदृढ़ स्तंभ की भांति आनी चाहिए ताकि अफ्रीका की वास्तविक क्षमता को हासिल किया जा सके. मू़ढ़मतियों का पक्षसमर्थन कॉनकॉर्ड, मैसाचुसैट्स - कल्पना कीजिए कि पक्षसमर्थकों के किसी समूह ने जनता को ��िसी ऐसे ख़तरे के बारे में सतर्क करने की कोशिश की जिसे वे महसूस करते थे, पर केवल साक्ष्यों से पता चला कि ख़तरा वास्तविक नहीं था, और अपने डर को फैलाकर, यह समूह लोगों को इस तरह व्यवहार करने के लिए प्रेरित कर रहा था जो आम जनता - और आपको - जोखिम में डाल रहा था। आप क्या करेंगे? सरकार को क्या करना चाहिए? ऑस्ट्रेलिया की सरकार ने इस प्रश्न का उत्तर नाटकीय रूप से दिया है। उसने एक टीकाकरण-विरोधी पक्षसमर्थन समूह की कर-मुक्त धर्मादा हैसियत को इस आधार पर वापस ले लिया है कि टीकों के ख़तरे के बारे में उनकी डर फैलाने वाली गलत जानकारी से लोक स्वास्थ्य, विशेष रूप से बच्चों के स्वास्थ्य को ख़तरा है। सरकार ने समूह से यह भी अपेक्षा की है कि वह अपना नाम ऑस्ट्रेलियन वैक्सीनेशन नेटवर्क से बदलकर ऑस्ट्रेलियन वैक्सीनेशन-स्कैप्टिक्स नेटवर्क कर ले ताकि पक्षसमर्थक का दृष्टिकोण साफ हो सके। “हम यह सुनिश्चित करना जारी रखेंगे कि वे स्वयं को टीकाकरण-विरोधी पक्षसमर्थन के रूप पेश करते हैं,” यह न्यू साउथ वेल्स के उचित व्यापार मंत्री स्टुअर्ट आइरेस ने कहा। “हम यह सुनिश्चित करना चाहते हैं कि वे कभी भी भ्रामक जानकारी प्रचारित न करें।” यह वास्तव में ख़तरनाक क्षेत्र है। हालाँकि साक्ष्य से साफ पता चलता है कि टीकाकरण से ऐसे कोई नुकसान नहीं पहुँचते हैं जिनका इसके विरोधी हठपूर्वक दावा करते हैं कि इससे नुकसान होते हैं; किसी सरकार द्वारा बोलने पर प्रतिबंध लगाना चिंताजनक है। किसी भी मुक्त समाज को अपनी सरकार को यह निर्णय करने की अनुमति नहीं देनी चाहिए कि पक्षसमर्थक जिस किसी बात पर विश्वास करते हैं उसके आधार पर कौन-से पक्षसमर्थन समूह क्या कह सकते हैं। लेकिन इस मामले में ऑस्ट्रेलियाई अधिकारियों की कार्रवाई पूर्णतः उचित, और अनिवार्य, लोक सेवा थी: यह ठोस और सुसंगत चिकित्सीय साक्ष्य पर आधारित लोक स्वास्थ्य और सुरक्षा की रक्षा करने के लिए थी। साक्ष्य निर्णायक रूप से टीकाकरण-विरोधी पक्षसमर्थकों के इन दावों को खारिज करता है कि बाल्यावस्था में टीकाकरण से स्वलीनता और अन्य दीर्घ-कालीन स्नायुतंत्र विकास संबंधी क्षति पहुँचती है। फिर भी डर फैलानेवालों और लोभी मुनाफाखोरों का एक छोटा लेकिन मुखर समूह गलत बयानी और सफेद झूठ बोलकर यह प्रचार करता आ रहा है कि टीकाकरण से फायदा कम होता है और नुकसान ज्यादा। फलस्वरूप, कुछ समुदायों में टीकाकरण की दरों में कमी हो रही है, विशेष रूप से जिनमें सरकार-विरोधी इच्छास्वातंत्रयवादियों या सादगीपूर्ण जीवन बिताने वाले पर्यावरणवादियों की संख्या बहुत अधिक है। फलस्वरूप, कुछ क्षेत्रों में खसरा और काली खाँसी (कुक्कुर खाँसी) जैसे रोगों के समुदाय-व्यापी "झुंड" प्रतिरक्षा स्तर उन स्तरों से कम हो गए हैं जो उन्हें सामान्य जनता में फैलने से रोकने के लिए आवश्यक हैं। जिन वयस्कों में टीके का असर क्षीण हो चुका है या 100% प्रभावशील नहीं है, वे अधिक संख्या में बीमार पड़ने लग गए हैं। जो शिशु काली खाँसी का टीका लगाए जाने के लिए बहुत छोटे हैं वे भी, बीमार पड़ते जा रहे हैं, उनमें से कुछ तो वास्तव में खाँसी और दम घुटने के कारण मरते जा रहे हैं। इसलिए ऑस्ट्रेलिया की सरकार का निर्णय साफ तौर पर उचित है। यह सब होते हुए, उन ख़तरों से हमारी रक्षा करना जिनसे हम व्यक्तिगत रूप से स्वयं अपनी रक्षा नहीं कर सकते, हम सरकार को जो कुछ करने का अधिकार देते हैं, उसका प्रमुख हिस्सा है। जब साक्ष्य साफ हो जैसा कि टीकों के मामले में है - और परिणाम उतने गंभीर हों - तो सरकार का यह सुस्थापित प्राधिकार - वास्तव में दायित्व - है कि वह सार्वजनिक सुरक्षा के नाम पर कार्रवाई करे। लेकिन टीकाकरण तो इस बात का केवल एक उदाहरण है कि पक्षसमर्थक वैज्ञानिक साक्ष्य को नकार कर जनता को किस प्रकार जोखिम में डाल रहे हैं। विचारधारा-आधारित मानव-प्रेरित ग्लोबल वार्मिंग को अस्वीकार करने से जलवायु-परिवर्तक उत्सर्जनों को कम करने या इस भारी संकट के बहुत अधिक स्पष्ट - और ख़तरनाक - परिणामों के लिए तैयारी करने के प्रयासों में बाधा आ रही है। बंदूक स्वामित्व के किसी भी विनियमन के निरंकुश विरोध के फलवरूप, विशेष रूप से संयुक्त राज्य अमेरिका में, घातक हथियारों को उन लोगों के हाथों से दूर रखना मुश्किल होता जा रहा है जो समाज के लिए खतरा पैदा करते हैं। जैव-प्रौद्योगिकी, विशेष रूप से अनुवांशिकी संशोधित (जीएम) खाद्यों का प्रतिरोध करना एक अन्य उदाहरण है। कुछ अनुप्रयोग मानव स्वास्थ्य को भारी लाभ पहुँचा सकते हैं, लेकिन समाज को उनसे मिलनेवाले लाभ नहीं मिल पा रहे हैं - और परिणामस्वरूप लोगों को को तकलीफ हो रही है और वे मर रहे हैं - क्योंकि बड़ी कंपनियों, वाणिज्यिक कृषि, या आम तौर पर आधुनिक प्रौद्योगिकियों को मूल रूप से नापसंद करने के कारण विरोधी सभी जीएम अनुप्रयोगों को अस्वीकार कर देते हैं। “सुनहरी चावल” के बारे में सोचें जो एक जीएम संकर किस्म है जिसमें उन गाजरों के जीन्स होते हैं जिनसे विटामिन ए बनता है। एक हालिया अध्ययन से यह पता चला है कि केवल भारत में सुनहरी चावल को यदि 2002 में तब स्वीकार कर लिया जाता जब वह तकनीकी रूप से तैयार था, तो इससे उन लोगों के 1.4 मिलियन विकलांगता-समायोजित जीवन वर्ष बचाए जा सकते थे जो इसके बिना विटामिन ए की कमी के कारण अंधेपन या मौत के शिकार हुए। अब पक्षसमर्थकों पर हल्ला बोलने का समय है क्योंकि उनके मूल्य-आधारित विचार स्पष्ट वैज्ञानिक साक्ष्य का खंडन करते हैं और आपको और मुझे जोखिम में डालते हैं। वैज्ञानिकों को चाहिए कि वे खुलकर बोलें, जैसा कि उन्होंने हाल ही में इंग्लैंड में किया था, जहाँ पर गेहूँ की एक नई नस्ल का परीक्षण करनेवाले शोधकर्ताओं ने जीएम-विरोधी पक्षसमर्थकों को सार्वजनिक बहस के लिए चुनौती दी थी। पक्षसमर्थकों ने मना कर दिया, परंतु सुनियोजित रूप से क्षेत्र परीक्षणों पर हमले करना जारी रखा जिससे उन कार्यकर्ताओं के प्रति जनता के समर्थन में कमी आई। आपको और मुझे तथा हमारे साथी नागरिकों को चाहिए कि किस समूह में शामिल होना है या उसकी वित्तीय रूप से सहायता करनी है यह चुनकर उन्हें पीछे धकेल दें। हमें लंबित विधेयक के बारे में सार्वजनिक सुनवाइयों और साक्ष्य में उन्हें खदेड़ने की ज़रूरत है, और बहुत अधिक जोशीली आवाज़ों को हमारे राजनीतिज्ञों और नीति-निर्माताओं पर ऐसे चुनावों के रूप में हावी नहीं होने देना चाहिए जिनमें सबसे अधिक मुखर थोड़ी-सी आवाज़ों को मान लिया जाए, लेकिन समाज उससे होनेवाले लाभ से पूरी तरह वंचित रह जाता है। और, जब साक्ष्य साफ हो और ख़तरा सामने हो, तो सरकारों को चा���िए कि वे उन्हें पीछे धकेल दें, जैसा कि ऑस्ट्रेलिया ने किया है। किसी भी लोकतंत्र में हमेशा भावनाओं और मूल्यों को अभिव्यक्त करने का अधिकार होना चाहिए। हमें समाज को आगे बढ़ाने के लिए पक्षसमर्थकों के अपार जुनून की ज़रूरत है। लेकिन जब इन जुनूनों के कारण तथ्यों की अनदेखी की जाती है और ये हमें जोखिम में डालते हैं, तो यह पूर्णतः उचित है कि लोक स्वास्थ्य और सुरक्षा के नाम पर आप और मैं और हमारी सरकारें सभी यह कहें कि, “बस, अब बहुत हो चुका।” पेरिस में आरईडीडी+ बेनकाब बर्लिन – संयुक्त राष्ट्र के खाद्य और कृषि संगठन को उष्णकटिबंधीय वानिकी कार्य योजना आरंभ किए हुए 30 साल हो गए हैं, जो वनों के नुकसान को रोकने के लिए पहली वैश्विक अंतर-सरकारी पहल थी। तब से, वनों की कटाई बेरोकटोक जारी है, और इसे रोकने के लिए नवीनतम अंतरराष्ट्रीय प्रयास - एक पहल जिसे वनों की कटाई और वनों के निम्नीकरण से उत्सर्जन कम करना (आरईडीडी+) के नाम से जाना जाता है –के और अधिक प्रभावी होने की कोई संभावना दिखाई नहीं दे रही है। विडंबना यह है कि दुनिया के वनों की रक्षा करने के बजाय, इन दोनों समझौतों का सबसे उल्लेखनीय परिणाम महंगी परामर्शी रिपोर्टों के पुलिंदे तैयार करने के रूप में दिखाई देता है। आरईडीडी+ जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन के एक हिस्से के रूप में तैयार किया गया था, और इसके कार्यान्वयन को नियंत्रित करनेवाले समझौते को पेरिस में जलवायु परिवर्तन पर होनेवाले संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन के दौरान अंतिम रूप दिए जाने की संभावना है। लेकिन अगर दुनिया के नेता वनों के नुकसान को रोकने के बारे में गंभीर हैं, तो इसके बजाय उन्हें आरईडीडी+ को त्याग देना चाहिए और इसके स्थान पर किसी ऐसे तंत्र को लाना चाहिए जिससे बड़े पैमाने पर वनों की कटाई के अंतर्निहित कारकों पर कार्रवाई की जा सके। आरईडीडी+ में खामियाँ इस रूप में स्पष्ट हैं कि इससे जिस समस्या को हल करने की अपेक्षा की जाती है वह उसके लिए कौन-सा दृष्टिकोण अपनाता है। इसकी अधिकतर परियोजनाओं में वनों के लोगों और खेतिहर किसानों को वनों की कटाई के मुख्य कारकों के रूप में माना जाता है। ऐसा लगता है कि आरईडीडी परियोजना के विकासकर्ताओं की रुचि विशेष रूप से उन परियोजनाओं में होती है जिनमें पारंपरिक खेती के तरीकों को सीमित करने पर ध्यान केंद्रित किया जाता है, यहाँ तक कि वे वनों की कटाई के असली कारणों: औद्योगिक कृषि के विस्तार, बुनियादी ढाँचे की विशाल परियोजनाओं, बड़े पैमाने पर लकड़ी काटने, और अनियंत्रित खपत से निपटने के प्रयासों से दूर भागते हैं। इन कमियों के उदाहरणों का उल्लेख सामाजिक बोस्क कार्यक्रम में किया गया है, जो इक्वाडोर में आरईडीडी+ पहल है, जिसमें वन समुदायों और किसानों की खेतीबाड़ी को नियंत्रित करने के प्रयासों में औद्योगिक गतिविधियों की वजह से होनेवाले अधिक बड़े संभावित नुकसान को नजरअंदाज कर दिया जाता है। इस कार्यक्रम के अंतर्गत वन पर निर्भर समुदाय थोड़ी-सी नकद राशियों के बदले में वन उपयोग को सीमित करने के लिए सहमति के रूप में पर्यावरण मंत्रालय के साथ पाँच साल के समझौते पर हस्ताक्षर कर देते हैं। इसके साथ ही, इस कार्यक्रम के दस्तावेजों से यह समझौता उस स्थिति में साफ तौर पर समाप्त हो जाता है जब इसके अधिकारक्षेत्र के अंतर्गत आनेवाला क्षेत्र तेल निकालने या खनन के लिए निर्धारित कर दिया जाता है। आज खेतिहर किसानों को जलवायु परिवर्तन के खिलाफ लड़ाई के हिस्से के रूप वनों से वर्जित किया जा रहा है; और कल कंपनियों को जीवाश्म ईंधन निकालने की अनुमति देने के लिए उन्हीं वनों को उखाड़ा जा सकता है, जो समस्या का मूल कारण हैं। किसानों और वनों के लोगों पर इस प्रकार अदूरदर्शितापूर्वक ध्यान देने और अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों और जलवायु वार्ताकारों के एजेंडा में इस दृष्टिकोण की प्रमुखता का होना परेशानी के सबब वाला औचित्य है। इससे यह पता चलता है कि आरईडीडी+ की रुचि वनों की हानि को रोकने में इतनी नहीं है जितनी कि औद्योगीकृत देशों को प्रदूषण जारी रखने की अनुमति देने में है। इस पहल में अंतर्निहित दृष्टिकोण उत्सर्जन क्रेडिटों के लिए बाजार तैयार करने के एक व्यापक प्रयास का हिस्सा है, जिसमें प्रदूषणकर्ताओं को ग्रीन हाउस गैसों को छोड़ते रहने की अनुमति दी जाएगी, यदि वे यह प्रमाणित करने का प्रमाण-पत्र प्रस्तुत कर सकते हैं कि उन्होंने कहीं अन्यत्र उतनी ही मात्रा में उत्सर्जनों को रोकने के लिए योगदान किया है। आरईडीडी+ द्वारा संरक्षित किए जा रहे वन प्रदूषण फैलाने के लिए इन बिक्रीयोग्य प्रमाणपत्रों के महत्वपूर्ण उत्पादक हैं, जिन्हें कार्बन क्रेडिट के रूप में जाना जाता है। और प्रायोगिक परियोजनाओं के माध्यम से आरईडीडी का कार्यान्वयन इस दृष्टिकोण के पैरोकारों को एजेंडा को आगे बढ़ाने के लिए ठोस नींव प्रदान करता है। औद्योगीकृत देशों के लिए, क्योटो प्रोटोकॉल जैसे समझौतों के तहत अपनी अंतरराष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं को पूरा करने के लिए कार्बन क्रेडिट एक आसान तरीका सिद्ध हुए हैं। यदि आरईडीडी क्रेडिट पेरिस में अनुमोदित होते हैं, तो देशों और कंपनियों द्वारा इक्वाडोर या अन्य स्थानों के खेतिहर किसानों को उन पेड़ों की रक्षा करने के लिए भुगतान किया जा सकता है जिनके बारे में आरईडीडी+ जैसे कार्यक्रमों द्वारा दावा किया जाता है कि अन्यथा वे काट दिए गए होते - और इस प्रकार वे अपने यहाँ उत्सर्जनों में कटौती करने के लिए कठिन संरचनात्मक परिवर्तन करने की जरूरत से बच जाते हैं। इन लेन-देनों पर लागू नियमों के तहत, यह तथ्य कोई मायने नहीं रखता है कि वास्तव में उत्सर्जनों में कोई कटौती नहीं की गई है; महत्वपूर्ण बात तो यह है कि प्रदूषण फैलाने के लिए बिक्रीयोग्य अनुमति प्राप्त कर ली गई है। दुर्भाग्यवश, पेरिस में होनेवाली ऐसी कुछ बैठकों में इस दृष्टिकोण पर प्रश्न उठाने के लिए प्रोत्साहन दिए जाते हैं। सरकारों के लिए, आरईडीडी+ जैसे कार्यक्रम राजनीतिक रूप से महंगे परिवर्तनों से बचने का अवसर प्रदान करते हैं। और नेचर कन्ज़र्वेन्सी, कन्ज़र्वेशन इंटरनेशनल, विश्व वन्यजीव कोष, और वन्यजीव संरक्षण सोसाइटी जैसे अंतरराष्ट्रीय संरक्षण समूहों के लिए, यह कार्यक्रम अंतरराष्ट्रीय विकास और परोपकारी निधियों तक पहुँच प्रदान करता है। तथापि, इसका सबसे अधिक लाभ उन कंपनियों को होता है जिनकी भूमि के लिए भूख बड़े पैमाने पर वनों की कटाई को प्रेरित कर रही है। जब तक वे आवश्यक कार्बन क्रेडिट प्रस्तुत कर सकते हैं तब तक उन्हें वनों की कटाई जारी रखने की अनुमति देने के अतिरिक्त, आरईडीडी+ प्रभावी रूप से वनों की हानि का दोष उनकी कार्रवाइयों के बजाय उन समुदायों के मत्थे मड़ देता है जिन पर वनों के दीर्घावधि स्वास्थ्य का सबसे अधिक प्रभाव पड़ता है। यदि पेरिस में बैठक करनेवाले जलवायु के वार्ताकार वनों की हानि को रोकने और जलवायु परिवर्तन को नियंत्रण में लाने में वास्तव में रुचि रखते हैं, तो उन्हें आरईडीडी+ को बंद कर देना चाहिए और इन समस्याओं के मूल कारणों के संबंध में कार्रवाई करनी चाहिए। वनों के लोगों और खेतिहर किसानों की जिंदगियों और कार्रवाइयों को नियंत्रित करने का प्रयास करने के बजाय, पेरिस में किेए जानेवाले प्रयास में बड़े पैमाने पर वनों की कटाई को समाप्त करने और जीवाश्म ईंधनों को भूमि में पड़े रहने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। अफ़्रीका के चिकित्सीय प्रतिभा पलायन को रोकना ऑक्सफ़ोर्ड – लगभग 300 स्वास्थ्य कर्मियों को त्रिनिदाद और टोबैगो भेजने की युगांडा की योजना के बारे में सचमुच असमंजस की स्थिति बनी हुई है। इस योजना में कथित तौर पर युगांडा के 11 पंजीकृत मनोचिकित्सकों में से चार मनोचिकित्सक, 28 रेडियोलॉजिस्टों में से 20 रेडियोलॉजिस्ट, और 92 बाल-रोग विशेषज्ञों में से 15 बाल-रोग विशेषज्ञ शामिल हैं। इसके बदले में, कैरेबियन देश (जिसमें चिकित्सक-रोगी अनुपात युगांडा की तुलना में 12 गुना अधिक है) युगांडा को हाल ही में पता लगाए गए अपने तेल क्षेत्रों का दोहन करने में मदद करेगा। युगांडा के विदेश मंत्रालय का कहना है कि यह समझौता कौशल और प्रौद्योगिकी के हस्तांतरण के माध्यम से विदेशों में देश के हितों को बढ़ावा देने के इसके जनादेश का हिस्सा है, और साथ ही अपने नागरिकों के लिए रोज़गार प्राप्त करके विदेशी मुद्रा अर्जित करने का एक अवसर भी है। लेकिन युगांडा के अंतर्राष्ट्रीय दाता इससे आश्वस्त नहीं हैं; संयुक्त राज्य अमेरिका ने इस पर घोर चिंता व्यक्त की है, और बेल्जियम ने युगांडा के स्वास्थ्य देखभाल क्षेत्र को विकास सहायता देना बंद कर दिया है। मेरे दो दोस्तों ने विदेश जाने के लिए आवेदन किया है, इनमें से एक स्त्री रोग विशेषज्ञ है और दूसरा बाल रोग विशेषज्ञ। अगर मैं अभी भी युगांडा में उनके साथ काम कर रहा होता, तो मैं भी इस पलायन में शामिल होने के लिए लालायित होता। युगांडा के स्वास्थ्य देखभाल पेशेवर प्रतिभाशाली और उच्च योग्यताप्राप्त हैं। लेकिन उन्हें अक्सर भारी व्यक्तिगत त्याग करके भयावह स्थितियों में काम करना पड़ता है। तो इसलिए इसमें कोई आश्चर्य नहीं है कि वे हतोत्साहित हो जाते हैं और कहीं और व्यावसायिक अवसरों की तलाश में रहते हैं। वे जानते हैं कि यथास्थिति अब खत्म होती जा रही है, और कोई बदलाव होना ज़रूरी है। मुझे भी यह मालूम था। 2009 में, जब मैं युगांडा में मुलागो नेशनल रेफरल अस्पताल में काम कर रहा था, तो मैं देश की इस मुख्य तृतीयक संस्था का मात्र छठा न्यूरोसर्जन बनने वाला था। हमें कभी-कभी उस हालत में बड़े आपरेशनों को रद्द करना पड़ जाता था जब हमारे थियेटर में खराब सीवेज सिस्टम के कारण गंदगी फैल जाती थी जबकि यहाँ के वातावरण का स्वच्छ बने रहना ज़रूरी था। हमारे यहाँ स्टाफ़ की बहुत अधिक कमी थी। एक बार, लगातार कई रात पालियाँ करने के दौरान मैं इतना थक गया था कि किसी एचआईवी पॉज़िटिव रोगी का रक्त लेते समय, मैंने गलती से अपने आप को सुई चुभो ली थी। एक महीने के लिए मेरा पोस्ट-एक्सपोज़र (पीईपी) नामक एंटीरेट्रोवायरल उपचार किया गया और दवा के दुष्प्रभावों के कारण मुझे काम से अवकाश लेना पड़ गया था। इस बीच, मेरी पीड़ा को और बढ़ाते हुए, सरकार ने हमारे वेतन के भुगतान में देरी कर दी थी - और यह पहली बार नहीं हुआ था। युगांडा और त्रिनिदाद और टोबैगो के बीच हुए समझौते से विश्व स्वास्थ्य संगठन के स्वास्थ्य कार्मिकों की अंतर्राष्ट्रीय भर्ती के वैश्विक कोड का उल्लंघन होता है, जिसका उद्देश्य उन देशों से कर्मियों की भर्ती करने को हतोत्साहित करना है जिनमें स्वास्थ्य देखभाल कर्मियों की भारी कमी है। युगांडा के थिंक टैंक, सार्वजनिक नीति अनुसंधान संस्थान, ने इस योजना को "राज्य स्वीकृत प्रतिभा पलायन" कहा है। यह सरकार को अपने निर्णय को वापस लेने के लिए मजबूर करने के प्रयास में अदालत में ले गई है। लेकिन सच्चाई यह है कि शायद युगांडा अनजाने में एक नवोन्मेषी नीति पर पहुँच गया है। यदि इस योजना पर ठीक से अमल किया जाता है, तो इससे स्वास्थ्य देखभाल क्षेत्र और देश दोनों को इस रूप में लाभ हो सकता है कि अतिरिक्त धन जुटाया जा सकेगा, चिकित्सा कर्मियों के कौशल और प्रेरणा को बल मिलेगा, और प्रवासियों के साथ आदान-प्रदान के लिए एक मॉडल तैयार होगा। जिन अन्य विकासशील देशों को स्वास्थ्य देखभाल कर्मियों को बनाए रखने के संबंध में इसी तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है, वे युगांडा के अनुभव से सीख सकते हैं। बेशक, इस प्रकार की बड़े पैमाने पर भर्ती से विकासशील देशों की स्वास्थ्य देखभाल प्रणालियों पर भारी प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है। लेकिन इस बात को भी स्वीकार किया जाना चाहिए कि स्वास्थ्य देखभाल कर्मियों को बिगड़ती हुई प्रणाली में जकड़े रखने में समझदारी नहीं है। कोई ऐसा तरीका होना चाहिए जिससे चिकित्सकों को इस बात के लिए प्रोत्साहित किया जा सके कि वे अपने देश की स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली में योगदान करें जिसमें उन्हें अपने निजी और पेशेवर लक्ष्यों को प्राप्त करने का अवसर भी प्रदान किया जाए। इसे कारगर बनाने के लिए, प्राप्तकर्ता देश को स्वास्थ्य देखभाल पेशेवरों की भर्ती को पूरी तरह से सरकार के माध्यम से करने के लिए सहमत होना पड़ेगा। फिर वह देश अपने कर्मियों की विदेशी आय पर कर लगा सकेगा और प्राप्त होनेवाले राजस्व का उपयोग अपनी स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली को विकसित करने के लिए कर सकेगा। इसके अलावा, किसी भी समझौते में भर्ती किए गए स्वास्थ्य देखभाल कर्मियों के लिए शिक्षा और व्यावसायिक विकास के अवसर उपलब्ध करने के बारे में स्पष्ट रूप से प्रावधान होना चाहिए। प्राप्तकर्ता देश अपने मेडिकल स्कूल खोल सकते हैं और नए भर्ती होनेवालों को स्वास्थ्य देखभाल प्रशिक्षण दे सकते हैं, या वे वापस अपने देश में स्वास्थ्य देखभाल शिक्षा और छात्रवृत्ति कोष में भुगतान करने में मदद कर सकते हैं। इस तरह, युगांडा जैसे विकासशील देश न केवल अधिक स्वास्थ्य देखभाल पेशेवरों को प्रशिक्षित किया कर सकेंगे, बल्कि उनके पास इतनी निधियाँ भी उपलब्ध होंगी कि वे कर्मियों को प्रशिक्षण के लिए विदेशों में भेज सकेंगे। इस तरह के कार्यक्रमों का प्रभाव दूरगामी हो सकता है, क्योंकि चिकित्सा पेशेवरों की कमी केवल उप-सहारा अफ्रीका तक ही सीमित नहीं है। इतने सारे योग्य डॉक्टरों के यूनाइटेड किंगडम और अमेरिका में प्रवास करने के फलस्वरूप, विकसित देशों सहित, शेष विश्व को भी जबरदस्त चिकित्सा प्रतिभा पलायन का सामना करना पड़ रहा है। लगभग 35,000 यूनानी चिकित्सक जर्मनी में प्रवास कर गए हैं, जबकि बुल्गारिया से “चिकित्सकों का पलायन जारी है,” और इसे हर वर्ष 600 चिकित्सकों से हाथ धोना पड़ रहा है (यह संख्या देश के मेडिकल स्कूल के स्नातकों की वार्षिक संख्या के बराबर है)। लेकिन विकासशील देशों को सबसे बड़ी चुनौती का सामना करना पड़ता है। अस्सी प्रतिशत देश जिनमें कुशल स्वास्थ्य कर्मियों का घनत्व प्रति 10,000 व्यक्ति 22.8 से कम है, अफ्रीका में हैं, और अन्य 13% दक्षिण-पूर्व एशिया में हैं। इस तरह की कमियों के प्रभाव हाल ही में पश्चिम अफ्रीका में आए ईबोला संकट के दौरान स्पष्ट हो गए थे। समस्या यह है कि युगांडा और अन्य देशों में तथाकथित प्रतिभा पलायन स्वास्थ्य देखभाल कर्मियों की इस कमी का कारण नहीं है। यह उन स्वास्थ्य देखभाल प्रणालियों का लक्षण मात्र है जो पहले से ही संकट में हैं। अंतिम समाधान पेशेवरों को विदेशों में काम करने से हतोत्साहित करना नहीं है; बल्कि यह सुनिश्चित करना है कि उन्हें बेहतर प्रशिक्षण मिलता है और काम करने की अधिक अनुकूल परिस्थि��ियाँ उपलब्ध होती हैं। इस तरीके से, हम स्वास्थ्य देखभाल पेशेवर हाथ में लिए गए काम, अपने लोगों को स्वास्थ्य देखभाल प्रदान करने, पर ध्यान केंद्रित कर सकते हैं। वैश्विक स्वास्थ्य के लिए एक नई दिशा न्यूयार्क – यद्यपि आज अंतर्राष्ट्रीय सहयोग की स्थिति के बारे में सहज ही हतोत्साहित हुआ जा सकता है, लेकिन वैश्विक स्वास्थ्य एक ऐसा क्षेत्र बना हुआ है जिसमें विश्व उल्लेखनीय रूप से महत्वपूर्ण अच्छा काम करने के लिए एक साथ आ गया है। पिछले दर्जन वर्षों में, अंतर्राष्ट्रीय पहल के फलस्वरूप, लाखों लोगों को एचआईवी/एड्स का उपचार उपलब्ध हुआ है, बाल्यवस्था के टीकाकरण का विस्तार हुआ है, और मलेरिया से लेकर मातृ स्वास्थ्य जैसी अन्य स्वास्थ्य चुनौतियों के समाधान के लिए वैश्विक समर्थन में नाटकीय वृद्धि हुई है। वैश्विक स्वास्थ्य के लिए अंतर्राष्ट्रीय समर्थन विकसित हो रहे देशों की भावी समृद्धि और उनके लोगों की भलाई के लिए एक निवेश है। यह एक ऐसा निवेश है जिसके लिए दुनिया के सबसे अमीर देश आसानी से खर्च कर सकते हैं। उदाहरण के लिए, संयुक्त राज्य अमेरिका वैश्विक स्वास्थ्य सहायता का प्रमुख योगदानकर्ता है, इसका योगदान 2013 में अमेरिका के खर्च का सिर्फ 0.23% था। इस निवेश पर मिलनेवाले लाभ उल्लेखनीय रहे हैं। बाल मृत्यु दर में भारी कमी हो रही है। ऐसे लाखों लोग जो अन्यथा एचआईवी/एड्स के शिकार हो जाते, वे अभी भी जीवित हैं। जो देश सहायता प्राप्तकर्ता थे वे बहुत अधिक आत्मनिर्भर हैं - और परिणामस्वरूप वे बेहतर व्यापार और रणनीतिक भागीदार बन गए हैं। लेकिन निम्न और मध्यम आय वाले देशों की स्वास्थ्य संबंधी जरूरतों में अब परिवर्तन हो रहे हैं। अमीर देशों में दशकों के दौरान शहरीकरण, वैश्विक व्यापार, और उपभोक्ता बाजारों में होनेवाले नाटकीय परिवर्तन उन देशों में अब पहले से बहुत अधिक तेज दर से और बहुत बड़े पैमाने पर हो रहे हैं जो अभी भी गरीब हैं। इन प्रवृत्तियों के फलस्वरूप बेहतर स्वच्छता और अधिक खाद्य उत्पादन जैसे भारी स्वास्थ्य लाभ प्राप्त हुए हैं, लेकिन साथ ही इनसे महत्वपूर्ण चुनौतियाँ भी पैदा हुई हैं। इबोला इसका एक उत्तम उदाहरण है। 1976 में पहली बार इबोला की पहचान होने के बाद से इस वर्ष से पहले तक, इबोला से 2,000 से कुछ कम लोगों की मृत्यु हुई थी, ये सभी मध्य अफ्रीका में हुई थीं। इस वायरस से 2014 में इससे तीन गुना अधिक लोगों की मृत्यु हुई है, अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इसके प्रसार के मामले काफी अधिक होने के कारण रात्रि समाचार प्रसारणों में और हाल ही में अमेरिका के राज्य और स्थानीय चुनावों में अश्वेत मतदाताओं में इन्हें प्रमुखता मिली। इसका एक प्रमुख कारण छोटे और मध्यम आकार के शहरों का विकास होना है। पश्चिम अफ्रीका में शहरीकरण में 3% वार्षिक की दर से बढ़ोतरी हो रही है (जबकि इसकी तुलना में उत्तरी अमेरिका और यूरोप में इसकी दर क्रमश: 0.2% और 0.3% है)। इसका परिणाम यह हुआ है कि सार्वजनिक स्वास्थ्य के सीमित बुनियादी ढाँचे के साथ रहनेवाले एक लाख या उससे कम लोगों की बस्तियाँ बढ़ती जा रही हैं। ये तंग शहर इबोला जैसे उभरते संक्रामक रोगों के फैलने के लिए आदर्श प्रजनन स्थल हैं। इस क्षेत्र में व्यापार और यात्रा अधिक होने के कारण, इससे पहले कि अंतर्राष्ट्रीय रोकथाम को एकीकृत किया जा सके, इनका प्रसार होने की संभावना होती है। बदलती वैश्विक स्वास्थ्य जरूरतों का एक और उदाहरण निम्न और मध्यम आय वाले देशों में हृदय रोग, कैंसर, और अन्य गैर-संक्रामक रोगों में आश्चर्यजनक रूप से तेज वृद्धि होना है। पहले जहाँ इन रोगों को केवल समृद्ध देशों के लिए चुनौतियाँ माना जाता था, ये विकासशील क्षेत्रों में तेजी से मृत्यु और अक्षमता का प्रमुख कारण बन गए हैं, 2013 में अपने 60 वें जन्मदिन से पहले इन रोगों ने लगभग आठ मिलियन लोगों को मौत के घाट उतार दिया। विदेश संबंध परिषद द्वारा प्रायोजित हाल ही की एक रिपोर्ट में, हमने विकासशील देशों में हृदय रोग, कैंसर, मधुमेह, और अन्य गैर-संक्रामक रोगों की बढ़ती दरों और एचआईवी/एड्स और अन्य संक्रामक रोगों के अंतर्राष्ट्रीय प्रयासों की सफलता में विषमता को दर्शाया है। 1990 से 2010 तक, निम्न आय वाले देशों में गैर-संक्रामक रोगों से मृत्यु और अक्षमता संक्रामक रोगों में कमी की दर की तुलना में 300% तेजी से बढ़ी है। हाल ही में इबोला के प्रकोप के लिए जो कारक जिम्मेदार थे उनमें से कुछ कारक वही हैं जिनके कारण गैर-संक्रामक रोगों की दरें उच्च हैं। उभरती अर्थव्यवस्थाओं में घनी आबादी वाले शहरी इलाकों के निवासियों को अक्सर आंतरिक और बाह्य दोनों तरह के प्रदूषण का सामना करना पड़ता है, और पर्याप्त पोषण तक उनकी पहुँच की संभावना कम होती है। इन देशों में अधिकतर स्वास्थ्य प्रणालियाँ दीर्घकालिक या निवारक देखभाल के लिए नहीं बनी हैं और उनमें बुनियादी उपभोक्ता संरक्षणों की कमी होती है। 1970 से 2000 तक, विकासशील देशों में सिगरेट की खपत तीन गुना हो गई। उच्च आय वाले देशों में ग्रीवा के कैंसर जैसे रोकथाम किए जा सकने वाले या मधुमेह जैसे उपचार किए जा सकने वाले रोग, विकासशील देशों में अक्सर मृत्यु दंड के रूप में होते हैं। अंतर्राष्ट्रीय निवेशों को अभी तक विशेष रूप से गैर-संक्रामक रोगों के लिए, वैश्विक स्वास्थ्य संबंधी बदलती जरूरतों के अनुरूप नहीं ढाला गया है। 2010 में, अंतर्राष्ट्रीय सहायता की $ 69.38 की राशि एचआईवी/एड्स से मृत्यु या अक्षमता के कारण खो दिए गए प्रत्येक वर्ष के लिए खर्च की गई थी (जिसे असमर्थता-समायोजित जीवन-वर्षों में, या DALYs के रूप में मापा जाता है), $ 16.27 की राशि मलेरिया के कारण खो दिए गए प्रत्येक वर्ष के लिए खर्च की गई थी, और $ 5.42 की राशि मातृ, नवजात शिशु, और बाल स्वास्थ्य के कारण खो दिए गए प्रत्येक वर्ष के लिए खर्च की गई थी। लेकिन हृदय रोग, कैंसर, और अन्य गैर-संक्रामक रोगों के कारण खो दिए गए प्रत्येक वर्ष के लिए केवल 0.09 $ की राशि खर्च की गई थी। इस बीच, उभरती गैर-संक्रामक महामारी और भयानक होती जा रही है। वास्तव में, विश्व आर्थिक मंच ने 2030 तक विकासशील देशों में इन रोगों से $21.3 ट्रिलियन की हानियाँ होने का पूर्वानुमान लगाया है। फिर भी गैर-संक्रामक रोगों के मामले में प्रगति होना संभव है। उच्च आय वाले देशों में मोटापे की दरें बहुत उच्च होने के बावजूद, हृदय रोग, कैंसर, और अन्य गैर-संक्रामक रोगों से अकाल मृत्यु और अक्षमता में भारी कमी हुई है। इस सफलता के मूल में अंतर्निहित साधन और नीतियाँ सस्ती हैं, लेकिन विकासशील देशों में इन्हें व्या���क रूप से लागू नहीं किया जाता है। इनमें दिल के दौरे कम करने के लिए कम लागत वाली दवाएँ, ग्रीवा कैंसर को रोकने के लिए टीके, और तंबाकू पर कर लगाने और उसके विज्ञापन के वही नियम शामिल हैं जिनसे यूरोप और अमेरिका भर में धूम्रपान की दर में नाटकीय रूप से कमी हुई है। पायलट कार्यक्रमों में इन उपायों और नीतियों को निम्न और मध्यम आय वाले देशों में एचआईवी/एड्स और अन्य संक्रामक रोगों के दाता-वित्तपोषित कार्यक्रमों में सफलतापूर्वक एकीकृत किया गया है। यदि अगले दशक में, निम्न और मध्यम आय वाले देश गैर-संक्रामक रोगों की रोकथाम और उपचार में उसी दर पर सुधार ला सकते हैं जो 2000-2013 के दौरान औसत अमीर देश में थी, तो उनसे पाँच मिलियन से अधिक लोगों की मृत्यु को रोका जा सकता है। यह लाभ एचआईवी और बाल टीकाकरण में सबसे सफल वैश्विक स्वास्थ्य निवेशों के समतुल्य है, और इसी कारण यह एक किए जाने योग्य निवेश है: शांतिपूर्ण, समावेशी वैश्विक अर्थव्यवस्था में अधिक स्वस्थ, अधिक उत्पादक जीवन की पूर्वधारणा होती है। अर्थशास्त्री स्वास्थ्य को तरजीह क्यों देते हैं पालो आल्टो - एक आदर्श दुनिया में, लोगों को जिन स्वास्थ्य सेवाओं की जरूरत होगी उन तक पहुँच हर जगह, हर किसी को, जितनी राशि वे दे सकते हैं उससे अधिक भुगतान किए बिना प्राप्त होगी। लेकिन क्या "सभी के लिए स्वास्थ्य", जिसे सार्वभौमिक स्वास्थ्य कवरेज के रूप में भी जाना जाता है - केवल अमीर देशों में ही नहीं, बल्कि सबसे गरीब देशों में भी वास्तव में संभव है? संक्षेप में कहें तो, हाँ। यही कारण है कि हमने लगभग 50 देशों में सैकड़ों साथी अर्थशास्त्रियों के साथ मिलकर नेताओं से सार्वभौमिक स्वास्थ्य कवरेज में निवेशों को प्राथमिकता देने के लिए आग्रह किया है। और रॉकफेलर फाउंडेशन द्वारा आयोजित अर्थशास्त्रियों की इस घोषणा के पीछे जो व्यापक प्रोत्साहन है, और अब जिसके 300 से अधिक हस्ताक्षरकर्ता हैं, उसने वैश्विक स्वास्थ्य और विकास को एक ऐतिहासिक मोड़ पर ला खड़ा किया है। सितंबर में संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 2030 तक गरीबी समाप्त करने, समावेशी समृद्धि लाने, स्वस्थ भूमंडल प्राप्त करने के लिए दुनिया के प्रयासों का मार्गदर्शन करने के लिए 15-वर्षीय वैश्विक लक्ष्यों के एक नए सेट को अपनाया। अब जिस समय दुनिया भर के नेता सबसे अधिक महत्वाकांक्षी सार्वभौमिक किए-जानेवाले-कार्यों की सूची को लागू करने के लिए तैयारी कर रहे हैं - सतत विकास लक्ष्य 1 जनवरी को आरंभ किए जाएँगे - यह निर्णय करना एक चुनौतीपूर्ण काम लग सकता है कि शुरूआत कहाँ से की जाए। हालाँकि, अर्थशास्त्रियों के लिए इसका जवाब साफ है: विकास की रणनीति के अगले अध्याय में बेहतर स्वास्थ्य को उच्च प्राथमिकता प्रदान की जानी चाहिए - और किसी को भी पीछे नहीं छोड़ देना चाहिए। पहली और सबसे महत्वपूर्ण की जानेवाली सही चीज़ यह है कि धन की बर्बादी के खतरे के बिना उच्च गुणवत्तावाली, आवश्यक स्वास्थ्य सेवाओं के साथ हर किसी तक पहुँचा जाए। स्वास्थ्य और जीवित रहना लगभग हर व्यक्ति के लिए बुनियादी मूल्य हैं। इसके अलावा, भोजन जैसी अन्य कीमती चीज़ों के विपरीत, उनकी आपूर्ति सुविचारित सामाजिक नीति के बिना नहीं की जा सकती। यह तथ्य कि "रोकी जा सकनेवाली मौतें" कम और मध्यम आय वाले देशों में आम बनी हुई हैं, स्वास्थ्य देखभाल वितरण प्रणालियों के टूटे हुए या अल्पसंसाधन वाले होने का लक्षण है, न कि चिकित्सा जानकारी की कमी का। यदि हम स्वास्थ्य के क्षेत्र में निवेश में अभी वृद्धि करते हैं, तो 2030 तक हम उस दुनिया के बहुत करीब हो सकते हैं जिसमें रोकथाम किए जा सकनेवाले कारणों से कोई भी माता-पिता अपने बच्चे को नहीं खो देते हैं - और कोई भी बच्चा अपने माता पिता को नहीं खो देता है। सार्वभौमिक स्वास्थ्य कवरेज भी स्मार्ट है। जब लोग स्वस्थ और आर्थिक रूप से स्थिर होते हैं, तो उनकी अर्थव्यवस्थाएँ अधिक सुदृढ़ और अधिक समृद्ध होती हैं। और, प्रारंभिक लागतों की तुलना में लाभों के दस गुना होने पर स्वास्थ्य में पहले निवेश करना शेष नए वैश्विक विकास के एजेंडा के लिए अंततः लाभकारी सिद्ध होगा। तो इसलिए सवाल यह नहीं है कि क्या सार्वभौमिक स्वास्थ्य कवरेज महत्वपूर्ण है या नहीं, बल्कि यह है कि इसे वास्तविक कैसे बनाया जाए। सौ से अधिक देशों ने इस रास्ते पर चलने के लिए कदम उठाए हैं; इस प्रक्रिया में उन्हें सभी के लिए स्वास्थ्य के लक्ष्य की दिशा में प्रगति में तेजी लाने के लिए महत्वपूर्ण अवसरों और रणनीतियों का पता चला है। विशेष रूप से, हमारा मानना है कि तीन क्षेत्रों - प्रौद्योगिकी, प्रोत्साहन, और प्रत्यक्ष रूप से "गैर-स्वास्थ्य" निवेशों - में सार्वभौमिक स्वास्थ्य कवरेज को नाटकीय रूप से प्रगति की ओर ले जाने की क्षमता है। सबसे पहले, प्रौद्योगिकी तेजी से खेल परिवर्तक होती जा रही है, विशेष रूप से विकासशील देशों में, जहाँ स्वास्थ्य देखभाल के लिए पहुँच में अंतर सबसे अधिक है। केन्या में, जो पहले से ही "एम-पेसा" के माध्यम से मोबाइल मनी में दुनिया में अग्रणी बना हुआ है, टेलीमेडिसिन में हुई प्रगति से ग्रामीण रोगी और स्वास्थ्य चिकित्सक वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के ज़रिये केन्या के मुख्य अस्पतालों में कर्मचारियों के साथ बातचीत कर पा रहे हैं - जिससे देखभाल की गुणवत्ता में वृद्धि बहुत कम लागत पर हो रही है। एम-पेसा फाउंडेशन ने अफ्रीकी मेडिकल रिसर्च फाउंडेशन के साथ साझेदारी करके, सामुदायिक स्वास्थ्य स्वयंसेवकों के ऑनलाइन प्रशिक्षण को लागू करना भी आरंभ कर दिया है और समूह को जोड़े रखने और महत्वपूर्ण अद्यतनों को साझा करने के लिए इन प्रशिक्षणों को थोक एसएमएस/WhatsApp समूह संदेशों के साथ जोड़ना शुरू कर दिया है। उच्च मूल्य, कम लागत वाली प्रौद्योगिकियों में निवेशों से हमें हर डॉलर से और अधिक हासिल करने में मदद मिलेगी। प्रोत्साहनों की शक्ति का उपयोग करना स्वास्थ्य सुधारों में तेजी लाने का एक और तरीका है। इसे गरीब लोगों को स्वास्थ्य देखभाल सेवाएँ प्रदान किए जाने के स्थान पर इनके लिए भुगतान करने के लिए मजबूर किए बिना किया जा सकता है और किया जाना चाहिए। उदाहरण के लिए, जब राज्य निजी क्षेत्र के परिणामों (उदाहरण के लिए, टीकाकरण किए गए बच्चों की संख्या या हिस्सेदारी) के आधार पर भुगतान करता है तो यह देखा गया है कि जवाबदेही और परिणाम दोनों में सुधार होता है। युगांडा और केन्या में प्रजनन स्वास्थ्य की देखभाल के लिए वाउचर प्रोग्राम से अब निजी क्षेत्र से उच्च गुणवत्ता की सेवाओं तक पहुँच प्रदान की जा रही है। अंत में, ऐसी लचीली स्वास्थ्य देखभाल प्रणालियों - जो झटके लगने पर पर्याप्त रूप से मुड़ तो सकें, पर टूटें नहीं - के निर्माण का मतलब उन अन्य सार्वजनिक वस्तुओं में सुधार करना है जो मानव स्वास्थ्य से निकट रूप से जुड़ी हों। इनमें साफ पानी और स्वच्छता, और सड़कें और बुनियादी ढाँचा शामिल हैं जिनसे आपातकालीन देखभाल और सेवाएँ प्रदान करना संभव होता है। स्वास्थ्य प्रणालियाँ शून्य में मौजूद नहीं होती हैं, और यदि हम सतत विकास के बारे में गंभीर हैं, तो यह समझने का समय आ गया है कि पूरक प्रणालियों में किए गए निवेश "लाभ गँवाने के लिए" नहीं बल्कि "लाभ कमाने के लिए" हैं। हमें दवा को बेहतर स्वास्थ्य के लिए केवल मात्र उपाय के रूप में देखने से बचना चाहिए। दुनिया के विकास के लक्ष्यों की सफलता सबसे गरीब और सबसे वंचित आबादी तक पहुँचने की हमारी क्षमता पर निर्भर करती है जिन्हें दुनिया भर में मौत और अक्षमता का खामियाजा उठाना पड़ता है। यथास्थिति को स्वाभाविक रूप से आगे बढ़ाते रहना उन तक पहुँचने के लिए पर्याप्त नहीं होगा। इसके बजाय, हमें नई प्रौद्योगिकियों में निवेश करके और उनको बढ़ावा देकर, प्रोत्साहनों को बेहतर बनाकर, और यह स्वीकार करके कि स्वास्थ्य प्रणालियाँ शून्य में मौजूद नहीं होती हैं, स्वास्थ्य प्रणालियों को उनकी सामान्य सीमाओं से आगे ले जाना होगा। सार्वभौमिक स्वास्थ्य कवरेज, सही है, स्मार्ट है, और इसे बहुत समय पहले हो जाना चाहिए था। एक ऐसी दुनिया को प्राप्त करने के लिए, जिसमें हर किसी की स्वास्थ्य जरूरतें पूरी हों और कोई भी गरीबी में फंसा न रहे, ह���ारे नेताओं को इस संदेश पर ध्यान देना चाहिए और उस पर काम करना चाहिए। अधिक सहायता का अधिकतम लाभ उठाना पेरिस – वैश्विक गरीबी उन्मूलन के लिए प्रयास पहले कभी इतना अधिक तीव्र नहीं हुआ था। ओईसीडी के नए आंकड़ों के अनुसार 2014 में, लगातार दूसरे वर्ष, आधिकारिक विकास सहायता (ओडीए) की कुल राशि $135 बिलियन के ऐतिहासिक उच्च स्तर पर पहुँच गई। इससे यह पता चलता है कि उन्नत अर्थव्यवस्थाएँ स्वयं अपनी हाल ही की समस्याओं के बावजूद, वैश्विक विकास को बढ़ावा देने के लिए प्रतिबद्ध हैं। इस कुल राशि में चीन, अरब देशों, और लैटिन अमेरिकी देशों द्वारा निवेशों और ऋणों के रूप में किए गए भारी व्यय की राशि को जोड़ें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि विकासशील दुनिया की ओर ओडीए के प्रवाह अभूतपूर्व स्तरों तक पहुँच गए हैं। और फिर भी सुर्खियोंवाली इन संख्याओं के बारे में खुशी के कारण इन निधियों का अधिक प्रभावी ढंग से उपयोग करने के अवसरों को नज़रअंदाज़ नहीं होने देना चाहिए। दाता देशों द्वारा आधिकारिक सहायता के फलस्वरूप चरम गरीबी और बाल मृत्यु दर को आधा करने में मदद मिली है, और इसके कारण कई अन्य मोर्चों पर भी प्रगति के लिए प्रोत्साहन मिला है। लेकिन यह स्पष्ट होता जा रहा है कि विकास सहायता के सतत प्रवाह 2030 तक चरम गरीबी का उन्मूलन करने और संयुक्त राष्ट्र के नए सतत विकास लक्ष्यों को लागू करने के लिए पर्याप्त नहीं होंगे, जिन पर इस वर्ष बाद में सहमति होनी है। यदि हम सहायता पर निर्भर देशों में घरेलू कर प्रवाहों और निजी निवेशों को जुटाने के आदी होते तो आज सहायता पर जो खर्च किया जा रहा है उसका काफी अधिक भारी प्रभाव हो सकता था। ओडीए के इस उपयोग को ओईसीडी द्वारा 8 अप्रैल को आरंभ किए गए नए निर्देशक: विकास के लिए समग्र आधिकारिक सहायता के परिप्रेक्ष्य में अधिक बेहतर रूप से समझा जा सकता है। औसत रूप से, विकासशील देश अपने 17% सकल घरेलू उत्पाद को करों के रूप में जुटाते हैं जबकि इसकी तुलना मेंओईसीडी देशों में यह 34% है। कुछ तो 10% जितना कम इकट्ठा करते हैं। चोरी किया जानेवाला अधिकतर कर राजस्व अवैध प्रवाहों के रूप में निकल जाता है और यह आखिरकार विदेशों में पहुँच जाता है। उदाहरण के लिए, अफ्रीका को अवैध प्रवाहों के रूप में लगभग $50 बिलियन प्रति वर्ष की हानि होती है, यह राशि उसे विकास सहायता के रूप में प्राप्त होनेवाली राशि से बहुत अधिक है। विकासशील देशों को करों के रूप में सकल घरेलू उत्पाद का मात्र 1% अधिक जुटाने में सक्षम बनाने से ओडीए की कुल राशि से लगभग दुगुनी राशि जुटाई जा सकेगी - और इस पूरी राशि का उपयोग शिक्षा, स्वास्थ्य, सुरक्षा, या नकद भुगतान योजनाओं के लिए किया जा सकता है। कर प्रणालियों को मजबूत बनाने पर खर्च किए गए धन से प्राप्त लाभ चौंका देने वाले हो सकते हैं। केन्या में, ओईसीडी के नेतृत्व में चलाई गई एक परियोजना, सीमा रहित कर निरीक्षक में पाया गया कि कर चोरी के मामलों में छापे मारने के लिए अधिकारियों के साथ काम करने पर खर्च हुए प्रत्येक डॉलर से अधिक राजस्व के रूप में $1,290 प्राप्त हुए। इसी तरह, फिलीपीन्स में, कर सुधारों में सहायता के लिए उपलब्ध कराई गई आधा मिलियन डॉलर की राशि से अतिरिक्त कर प्राप्तियों के रूप में $1 बिलियन से भी बहुत अधिक की राशि प्राप्त हुई। फिर भी आज, पूरी विकास सहायता का केवल 0.1%, जो $120 मिलियन से भी कम है, विकासशील देशों में कर प्रणालियों में सहायता प्रदान करने में चला जाता है। विकास सहायता को सही दिशा में लगाए जाने पर उससे निजी निवेश को जुटाने की भी संभावना होती है बशर्ते इसे जोखिम को कम करने के लिए खर्च किया जाए। विकास सहायता के द्वारा समर्थित गारंटियों, सुलभ ऋणों, और ईक्विटी निवेशों से निवेशकों को आकर्षित करने में मदद मिल सकती है, जैसा कि माली में सौर ऊर्जा परियोजनाओं और इथियोपिया में विनिर्माण संयंत्रों के मामले में हुआ है। 2014 में, यूरोपीय संघ के तत्कालीन विकास आयुक्त एंड्रीस पीबैलग्स ने सूचित किया था कि €2.1 बिलियन ($2.2 बिलियन) के अनुदान की राशि से "2007 से अब तक 226 परियोजनाओं में €40.7 बिलियन का अनुमानित लाभ प्राप्त हुआ" है। यह भी महत्वपूर्ण है कि सहायता में उन क्षेत्रों को लक्ष्य बनाया जाए जहाँ इसकी सबसे ज्यादा जरूरत है। हालाँकि पिछले वर्ष सहायता रिकॉर्ड स्तरों पर बनी रही, दुनिया के सबसे कम विकसित देशों को उपलब्ध कराई गई निधियों की राशि में वास्तव में कमी हुई। बेहतर हालत वाले देशों में पुराने चल रहे कार्यक्रमों को अधिक मात्रा में धन प्राप्त हुआ, जबकि बहुत से अपेक्षाकृत गरीब देशों की एक बार फिर अनदेखी हुई। विश्व के नेता जुलाई में अदीस अबाबा में जब सतत विकास के लिए वित्तपोषण पर शिखर सम्मेलन में मिलेंगे, तो उन्हें उन देशों के लिए सहायता प्रदान करने के लिए सहमत होना चाहिए जिन्हें वित्त के अन्य स्रोतों तक सबसे कम पहुँच प्राप्त है, निवेशकों को आकर्षित करने में सबसे अधिक कठिनाई है, और जिनकी कर प्रणालियाँ सबसे कमजोर हैं। जातीय और धार्मिक अल्पसंख्यकों और स्वदेशी ग्रामीण आबादियों जैसे कमजोर समूहों पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए, जो गरीबी से बाहर निकलने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। ओईसीडी की विकास सहायता समिति के 29 सदस्य देशों ने दुनिया के सबसे गरीब देशों में सहायता में कमी होने की प्रवृत्तियों को बदलने के लिए प्रतिबद्धता दर्शाई है। इन दाता देशों ने अपनी सकल राष्ट्रीय आय में से कम-से-कम 0.15% राशि को सबसे कम विकसित देशों के लिए विकास सहायता पर खर्च करने के संयुक्त राष्ट्र के लक्ष्य को पूरा करने का भी वादा किया है। इसके अलावा, वे नए नियमों पर सहमत हो गए हैं जिनके अनुसार सबसे गरीब देशों को सुलभ शर्तों पर और अधिक संसाधन प्रदान किए जाने चाहिए, और यह कि ऋण की सततता को सुनिश्चित करने के लिए नए सुरक्षा उपायों को लागू किया जाना चाहिए। मानव इतिहास में हम ऐसी पहली पीढ़ी हैं जिसके पास इस धरती पर हर व्यक्ति को घोर गरीबी से बाहर निकालने के लिए साधन उपलब्ध हैं। दुनिया में पर्याप्त पैसा है। यह महत्वपूर्ण है कि हम इसका उपयोग और अधिक बुद्धिमत्तापूर्वक करें। विकास के लिए ड्रोन जेनेवा - हाल ही के वर्षों में मानवरहित हवाई वाहनों ने दुनिया भर के लोगों की कल्पनाओं और दुःस्वप्नों दोनों में पंख लगा दिए हैं। अप्रैल में, संयुक्त राज्य अमेरिका की नौसेना ने LOCUST (कम लागत वाली यूएवी समूह प्रौद्योगिकी) नामक एक प्रायोगिक कार्यक्रम की घोषणा की, अधिकारियों का यह दावा है कि इससे यह "स्वायत्त रूप से शत्रु को पराजित कर देगा" और इस तरह यह "नाविकों और नौसैनिकों को एक निर्णायक रणनीतिक लाभ प्रदान करेगा।" इस प्रकार के नाम और मिशन से - और ड्रोन युद्ध के असमान नैतिक ट्रैक रिकॉर्ड को देखते हुए, इसमें कतई आश्चर्य नहीं है कि उड़ान करनेवाले रोबोटों के निरंतर बढ़ते जाने से कई लोग चिंतित हैं। लेकिन नीचे के आकाश का औद्योगिक उपयोग अब होता रहने वाला है। तीन मिलियन से अधिक मनुष्य प्रतिदिन हवा में होते हैं। हमारी धरती पर हर बड़ी मानव बस्ती हवाई परिवहन से दूसरी बस्ती से जुड़ी हुई है। एक चीनी यूएवी निर्माता, DJI, $10 बिलियन का मूल्यांकन करने का अनुरोध कर रहा है। आने वाले वर्षों में कार्गो ड्रोन इससे भी बड़े उद्योग का रूप धारण कर लेंगे क्योंकि मनुष्य के वज़न और उनकी जीवन-रक्षक प्रणालियों के भार से रहित, वे न केवल और अधिक किफायती रूप से बल्कि अधिक तेज़ी से और सुरक्षित रूप से उड़ेंगे। अमीर देशों में, कार्गो ड्रोनों में आरंभिक रुचि तथाकथित आखिरी पड़ाव - किसी उपनगरीय लॉन पर शर्बत का टब पहुँचाने - पर केंद्रित रही है। लेकिन बड़े अवसर गरीब देशों में बीच के पड़ाव तक उड़ान भरने में हैं। दुनिया भर में करीब 800 मिलियन लोगों को आपातकालीन सेवाओं तक सीमित पहुँच उपलब्ध है, और निकट भविष्य में इस स्थिति में कोई बदलाव नहीं होगा क्योंकि उनसे जोड़ने के लिए सड़कों का निर्माण करने के लिए पर्याप्त धन नहीं होगा। ऐसे कई अलग-थलग रहनेवाले समुदायों तक मध्यम दूरियों तक मध्यम आकार के भार को उड़ान से पहुँचाकर, कार्गो ड्रोन ज़िंदगियाँ बचा सकते हैं और रोजगार के अवसर पैदा कर सकते हैं। विश्व बैंक के अध्यक्ष, जिम योंग किम ने कार्गो ड्रोन की समग्र गतिविधि को “सुपुर्दगी का विज्ञान” कहा है। हमें मालूम है कि हमें क्या सुपुर्द करना है: हमारी बहुत सी विकट समस्याओं के कई समाधान पहले से ही मौजूद हैं। सवाल यह है कि इसे कैसे किया जाए। इस सवाल का उत्तर इसमें छिपा है कि आपात कार्गो ड्रोन के विकास में तेजी लाने और अफ़्रीका में दुनिया के पहले ड्रोनपोर्ट का निर्माण करने के लिए - मानवतावादी, रोबोट विज्ञानी, आर्किटेक्ट, रणनीतिकार, और अन्य सभी मिलकर रेड लाइन नामक एक नई पहल, स्विस-स्थित सहायता संघ में क्यों शामिल हो गए हैं। यह तकनीकी-कल्पना - या कम से कम संसाधनों का भारी मात्रा में दुरुपयोग करने जैसा लगता है। इसके बावजूद, सबसे अधिक सफल विकास संगठनों के अनुभव से यह पता चलता है हमें गरीबों के लिए कोई सार्थक परिवर्तन लाने के लिए उन्नत प्रौद्योगिकी की शक्ति के बारे में शंकालु होना चाहिए। हाँ, प्रसंस्करण शक्ति की कम होती लागत से नई क्षमताओं का निर्माण होता है, विशेष रूप से स्मार्टफोन्स और उनसे संबंधित स्काई-फाई कनेक्टिविटी के मामले में। लेकिन गैजेट ज्यादातर तड़क-भड़क वाली कीमती चीज़ों जैसे होते हैं। ये कम कीमत वाले प्रशिक्षक-प्रशिक्षण, सामुदायिक स्वास्थ्य देखभाल, और प्रशिक्षुताओं के समान उबाऊ चीज़ें होती हैं जो गरीबों के लिए लाभकारी परिणाम देनेवाली होती हैं। यही कारण है कि कई विकास विशेषज्ञ प्रौद्योगिकी की तुलना में "मितव्ययी नवाचार" को तरजीह देते हैं। बांग्लादेश-स्थित BRAC, दुनिया का सबसे बड़ा विकासशील गैर-सरकारी संगठन (एनजीओ) है, जिसके एक कमरे वाले स्कूलों में 1.3 मिलियन बच्चों ने दाखिला लिया हुआ है, और वहाँ शायद ही कोई लैपटॉप दिखाई दे। तो हमें कार्गो ड्रोनों के बारे में आशावादी क्यों होना चाहिए? सिलिकन वैली "विघटन" की बुलडोज़र वाली भाषा में बात करती है लेकिन कार्गो ड्रोनों के पक्ष में होने का एक कारण यह है कि वे बिल्कुल भी विघटनकारी नहीं हैं। इसके बजाय, वे अफ्रीका, एशिया और लैटिन अमेरिका के दूरदराज के क्षेत्रों में मौजूदा वितरण नेटवर्कों को बढ़ाने में योगदान कर सकते हैं जहाँ गरीबी और रोग बेशुमार हैं, दूरियाँ बहुत अधिक हैं, और सड़कों का निर्माण कभी नहीं होगा। कार्गो ड्रोन विशेष रूप से तथाकथित स्थानीय एजेंट डिलीवरी मॉडल के लिए बहुत अधिक अनुकूल हैं। कंपनियों और संगठनों ने यह दिखाया है कि अफ्रीका और दक्षिण एशिया में दुर्गम स्थलों में सूक्ष्म उद्यमियों के रूप में प्रशिक्षित महिलाएँ अक्सर अपने गांवों में आवश्यक वस्तुओं और सेवाओं की सुपुर्दगी करने के लिए बहुत अधिक उपयुक्त होती हैं, भले ही उनमें साक्षरता और औपचारिक शिक्षा सीमित होती है। उदाहरण के लिए, BRAC के सामुदायिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता पूरी तरह से माइक्रो फ्रेंचाइजिंग के आधार पर काम करते हैं, वे कृमिनाशक दवाओं, मलेरिया-रोधी दवाओं, और गर्भ-निरोधकों जैसी बुनियादी वस्तुओं की बिक्री से मिलनेवाले मार्जिन से पैसा कमा रहे हैं। हालाँकि कार्गो ड्रोन भू-परिवहन की जगह कभी नहीं लेंगे, वे यह सुनिश्चित कर सकते हैं कि महत्वपूर्ण वस्तुएँ और सेवाएँ वहाँ पहुँचती हैं जहाँ उनकी जरूरत हो। अफ्रीका में मोबाइल फोन इसलिए लोकप्रिय हो गए क्योंकि इनकी प्रौद्योगिकी लैंडलाइन के बुनियादी ढांचे में निवेश करने की तुलना में बहुत अधिक सस्ती थी। यही बात आज अफ्रीका की सड़कों के बारे में कही जा सकती है। मोबाइल फोन की तरह, कार्गो ड्रोन एक नायाब चीज़ बन सकता है: यह एक ऐसा गैजेट सिद्ध हो सकता है जो उन लोगों के लिए कारगर हो जिन्हें उसकी सबसे ज़्यादा ज़रूरत है। पृथ्वी वर्ष सटॉकहोम– 22 अप्रैल को, दुनिया पृथ्वी दिवस की 45 वीं वर्षगाँठ मनाएगी जिसकी स्थापना 1970 में पर्यावरणीय चुनौतियों की ओर ध्यान आकर्षित करने के लिए की गई थी। ये चुनौतियाँ पहले कभी इतनी अधिक और इतनी अधिक महत्वपूर्ण नहीं रही थीं। जलवायु परिवर्तन, जैव विविधता का क्षरण, और प्राकृतिक संसाधनों की कमी का संयोजन धरती को एक ऐसे मोड़ की ओर ले जा रहा है जिसके बाद सतत विकास और गरीबी उन्मूलन जैसे उद्देश्यों को प्राप्त करना पहले की तुलना में कहीं अधिक कठिन हो जाएगा। 1970 के बाद से, वैज्ञानिकों ने न केवल यह सीखा है कि मानव गतिविधि पृथ्वी पर पर्यावरण परिवर्तन की प्रमुख चालक है, बल्कि यह भी सीखा है कि यह धरती को इसकी प्राकृतिक सीमाओं से आगे धकेल रही है। यदि हम शीघ्र ही बड़े बदलाव नहीं करते हैं, तो परिणाम विनाशकारी हो सकते हैं। वैश्विक नेताओं ने पाँच वर्ष पहले जब इस सदी के दौरान ग्लोबल वार्मिंग को पूर्व-औद्योगिक स्तरों से 2º सेल्सियस अधिक तक सीमित करने के लिए सहमति दर्शाई थी तो संभवतः उन्होंने यह मान लिया था कि यह वह उच्चतम सीमा थी जिससे ऊपर हम जलवायु परिवर्तन के अधिक विनाशकारी परिणामों को न्योता देने का जोखिम उठाते हैं। लेकिन ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जनों को कम क��ने के लिए कठोर कार्रवाई नहीं की गई। इसके विपरीत, उत्सर्जनों में बहुत अधिक वृद्धि हुई है; जिसके परिणामस्वरूप, पिछला वर्ष अब तक का सबसे गर्म वर्ष रहा था। दुनिया अब कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जनों की शेष क्षमता को समाप्त करने की राह पर है, जो अब सिर्फ 25 वर्ष में एक लाख करोड़ टन से भी कम रह गई है। इसका परिणाम अनियंत्रणीय रूप से समुद्र स्तर का बढ़ना, विनाशकारी गर्म हवाओं का चलना, और लगातार सूखा पड़ना, जैसे भयावह परिवर्तनों के रूप में होगा, जिनके फलस्वरूप खाद्य सुरक्षा, पारिस्थितिक तंत्रों, स्वास्थ्य, और बुनियादी सुविधाओं की दृष्टि से अभूतपूर्व चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा। इसमें कोई आश्चर्य नहीं है कि सबसे गरीब और सबसे अधिक कमज़ोर लोग इससे सबसे अधिक प्रभावित होंगे। हमें राह बदल लेनी चाहिए। यह पृथ्वी दिवस एक चेतावनी के रूप में होना चाहिए - वास्तव में यह इसका उत्प्रेरक होना चाहिए कि दुनिया को सचमुच किस चीज़ की ज़रूरत है: मज़बूत और सतत कार्रवाई। सौभाग्य से, 2015 इस तरह के बदलाव की शुरूआत के लिए एक अच्छा अवसर हो सकता है। इस वर्ष, दुनिया के नेता हमारी धरती के लिए एक नया रास्ता तैयार करने के लिए तीन बार मुलाकात करेंगे। जुलाई में, वे विकास के लिए वित्त पोषण पर सम्मेलन के लिए अदीस अबाबा, इथियोपिया में मिलेंगे। सितंबर में, वे सतत विकास लक्ष्यों का अनुमोदन करने के लिए एक बैठक आयोजित करेंगे, जिससे 2030 तक के विकास के प्रयासों का मार्गदर्शन होगा। और दिसंबर में, वे एक नए वैश्विक जलवायु समझौते पर हस्ताक्षर करने के लिए पेरिस जाएँगे। इन बैठकों के परिणामों से प्राकृतिक पर्यावरण और आर्थिक वृद्धि और विकास दोनों के लिए इस पीढ़ी की विरासत का स्वरूप तय हो जाएगा। वैश्विक अर्थव्यवस्था का अकार्बनीकरण करके और जलवायु परिवर्तन को सीमित करके, दुनिया के नेता नवोन्मेष की एक लहर ला सकते हैं, नए उद्योगों और रोज़गारों के सृजन का समर्थन कर सकते हैं, और व्यापक आर्थिक अवसर पैदा कर सकते हैं। हम सभी का कर्तव्य है कि ऐसे परिणाम को प्राप्त करने के लिए जो कुछ भी किए जाने की ज़रूरत हो उसे करने के लिए राजनीतिक नेताओं को प्रोत्साहित करें। जिस तरह हम अपनी सरकारों से यह माँग करते हैं कि हमारी सरकारें आतंकवाद या महामारियों से जुड़े जोखिमों के संबंध में कार्रवाई करें, उसी तरह हमें चाहिए कि हम उनपर ठोस दबाव डालें कि वे हमारे प्राकृतिक पर्यावरण के संरक्षण और जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए अभी से कार्रवाई करना आरंभ करें। यहाँ, वैज्ञानिक समुदाय की यह विशेष जिम्मेदारी है कि वे अपने अनुसंधान और इसके संभावित प्रभावों को साझा करें। यही कारण है कि मैंने और जलवायु प्रभाव अनुसंधान पर पॉट्सडैम संस्थान, पृथ्वी संस्थान, सिंघुआ विश्वविद्यालय, और स्टॉकहोम अनुकूलनशीलता केंद्र जैसे दुनिया के अग्रणी शैक्षिक संस्थानों का प्रतिनिधित्व करनेवाली पृथ्वी लीग के 16 अन्य वैज्ञानिकों ने मिलकर "पृथ्वी वक्तव्य" जारी किया है जिसमें उस सफल वैश्विक जलवायु समझौते के आठ आवश्यक तत्व निर्धारित किए गए हैं, जिन पर दिसंबर में पेरिस में सहमति होनी है। - सर्वप्रथम, इस समझौते में ग्लोबल वार्मिंग को 2° सेल्सियस से कम तक सीमित करने के लिए देशों की प्रतिबद्धता पर बल दिया जाना चाहिए। - दूसरे, यह आवश्यक है कि इस समझौते में कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जनों के लिए शेष वैश्विक सीमा की पहचान की जाए। - तीसरे, इस समझौते में अर्थव्यवस्था में मौलिक परिवर्तन करने की नींव रखी जानी चाहिए जिसमें गहन अकार्बनीकरण की शुरूआत तुरंत कर दी जानी चाहिए ताकि 2050 तक समाज को कार्बन-रहित बनाया जा सके। - चौथे, संयुक्त राष्ट्र जलवायु सम्मेलन में सभी 196 देशों को एक ऐसा उत्सर्जन मार्ग तैयार करना चाहिए जो गहन अकार्बनीकरण से संगत हो, और जिसमें अमीर देश इसका नेतृत्व करें। - पाँचवें, देशों को स्वच्छ प्रौद्योगिकियों में नवोन्मेष को बढ़ावा देना चाहिए और यह सुनिश्चित करना चाहिए कि मौजूदा प्रौद्योगिकी संबंधी समाधानों तक सभी को पहुँच प्राप्त हो। - छठे, सरकारों को जलवायु परिवर्तन के अनुकूलन का समर्थन करने, और इससे जुड़े नुकसान और क्षति के संबंध में कार्रवाई करने के लिए सहमत होना चाहिए। - सातवें, समझौते में कार्बन भंडारों और महत्वपूर्ण पारिस्थितिक तंत्र की रक्षा के लिए प्रावधानों को शामिल किया जाना चाहिए। - आठवें, विकासशील देशों को जलवायु परिवर्तन से लड़ने में मदद करने के लिए दाताओं को चाहिए कि वे अतिरिक्त सहायता उस स्तर पर प्रदान करें जो कम-से-कम मौजूदा वैश्विक विकास से तुलनीय हो। अच्छी खबर यह है कि ये आठों उद्देश्य वास्तविक हैं और प्राप्त किए जा सकने योग्य हैं; दरअसल, कुछ प्रगति पहले से हो भी रही है। पिछले वर्ष, ऊर्जा क्षेत्र से कुल कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन (आर्थिक मंदी के अभाव में) पहली बार वर्ष-दर-वर्ष अपरिवर्तित बने रहे। और हाल ही की रिपोर्टों से पता चलता है कि ग्रीन हाउस गैसों के दुनिया के सबसे बड़े उत्सर्जक देश चीन में भी उत्सर्जनों में 2013-2014 में वृद्धि नहीं हुई थी। अब समय बदल रहा है। अकार्बनीकरण की शुरूआत हो चुकी है, और जीवाश्म ईंधन से मुक्त दुनिया के प्रति आकर्षण बढ़ रहा है - केवल इसलिए नहीं कि इससे जलवायु परिवर्तन कम होगा, बल्कि इसलिए भी कि यह अधिक उन्नत प्रौद्योगिकी वाली, लोकतांत्रिक, लचीली, स्वस्थ, और आर्थिक रूप से गतिशील होगी। यह सही समय है कि पूरी तरह से अधिक टिकाऊ, कार्बन-रहित मार्ग को अपनाया जाए। सही वैश्विक समझौता होने पर, दुनिया को अंततः यही करना होगा। इस धरती की खातिर, और उन लोगों के लिए जो इस पर निर्भर करते हैं, आइए हम 2015 को पृथ्वी वर्ष बनाएँ। जीने के लिए मरना फ्रीटाउन, सिएरा लियोन – तब मैं सिएरा लियोन में ओला ड्यूरिंग चिल्ड्रन्स हॉस्पिटल की आपातकालीन इकाई में कार्यरत एक युवा चिकित्सा अधिकारी था जब मैंने मलेरिया से गंभीर रूप से पीड़ित एक बच्चे की माँ को ज़बर्दस्त झूठ बोलने की सलाह दी थी। उसकी बेटी मरियम्मा को जीवन-रक्षक रक्त चढ़ाने की जरूरत थी। लेकिन उसकी माँ के पास स्क्रीनिंग टेस्ट करवाने के लिए भुगतान करने और रक्तदाता को मुआवज़े की रकम देने के लिए पैसे नहीं थे। मैंने कई बच्चों को उस स्थिति में मरते हुए देखा था जब उनके माता पिता बेचैनी से आवश्यक धनराशि इकट्ठा करने की कोशिश में लगे होते थे। मरियम्मा की जिंदगी बचाने का दृढ़ संकल्प कर, मैंने उसकी माँ से कहा कि वह घर जाकर अपनी बेटी की मौत हो जाने की घोषणा कर दे। मैं जानती थी कि इससे उसके रिश्तेदारों के मन में सहानुभूति जाग उठेगी, और वे अंतिम संस्कार को ठीक तरह से करने के लिए अपने थोड़े-बहुत साधनों से जैसे-तैसे जुगाड़ कर लेंगे। उसकी माँ इसके लिए मान गई, और जब वह छह घंटे बाद लौटी, तो उसने मेज पर काफी पैसे डाल दिए जो मरियम्मा की पूरी देखभाल करने, खून चढ़ाने और मलेरिया और कीड़ों के संक्रमण के इलाज के सभी खर्चों को पूरा करने के लिए काफी थे। कुछ दिनों बाद, मैंने चार साल की उस बच्ची को अस्पताल से छुट्टी दे दी जो अभी भी कमजोर थी पर उसके स्वास्थ्य में सुधार हो रहा था। हालाँकि मरियम्मा के रिश्तेदार उसकी बीमारी से बिल्कुल नहीं पसीजे थे, परंतु वे उसकी मौत पर पसीज कर हरकत में आ गए थे। पश्चिम अफ्रीका में इबोला की महामारी के दौरान भी यही चीज़ बहुत बड़े पैमाने पर हुई थी। यह माना जाता है कि इस महामारी ने पहले तो दिसंबर 2013 में गिनी के वन क्षेत्रों में अपने पैर पसारे, और फिर धीरे-धीरे सिएरा लियोन और लाइबेरिया में फैल गई। अंतर्राष्ट्रीय समुदाय इस बीमारी को इन तीन देशों में फैलते हुए देखता रहा जिसमें गांवों के गांव नष्ट हो गए, पूरे के पूरे परिवारों का सफाया हो गया, और उनकी अर्थव्यवस्थाएँ ठप हो गई थीं। लेकिन, शुरू में इस पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया गया। अंतर्राष्ट्रीय समुदाय इस सच्चाई की ओर से तब तक आँखें मूँदे बैठा रहा जब तक यह महामारी इतनी अधिक नहीं फैल गई कि अब उसकी और अधिक अनदेखी कर पाना संभव नहीं रह गया था। तथापि, तब तक एक बड़ी त्रासदी को दूर करने के लिए बहुत देर हो चुकी थी। हम अभी भी पश्चिम अफ्रीका में इबोला आपदा की पूरी व्यापकता को जानने की कोशिश कर रहे हैं। बीमारी की चपेट में आने के डर से, स्कूलों को बंद कर दिया गया था, विद्यार्थी और शिक्षक घर पर रहने लग गए थे। दरअसल, बहुत से कामगार भी घरों पर रहने लग गए थे जिससे रेस्तरां, बार, और होटलों ने काम करना बंद कर दिया था और अर्थव्यवस्था ठप पड़ गई थी। निजी क्षेत्र की लगभग आधी नौकरियाँ खत्म हो गई थीं। किसानों के स्वयं-अलगाव के कारण कृषि उत्पादन में 30% की कमी हो गई थी। लोगों का सामाजिक जीवन भी ठप हो गया था। कई जिलों में कर्फ्यू लगा दिया गया था, और लंबी दूरी की यात्रा को हतोत्साहित किया गया था। कई शहरों में, अपने घर में किसी आगंतुक को स्वीकार करने का मतलब भारी जुर्माने का जोखिम उठाना हो गया था। बहरहाल, यह बीमारी शहरी क्षेत्रों में भी जंगल की आग की तरह फैलने लग गई थी और इसने इन तीनों देशों को अपनी चपेट में ले लिया था और यह दूसरे देशों में भी फैलने लग गई थी। अब तक, अकेले सिएरा लियोन में ही 8,500 से अधिक संक्रमणों और 3,500 लोगों की मृत्यु होने की सूचना प्राप्त हुई है। स्वास्थ्य क्षेत्र संभवतः इससे सबसे अधिक प्रभावित हुआ है। 220 से अधिक स्वास्थ्य देखभाल कर्मियों की मृत्यु हो जाने पर प्रत्येक 10,000 नागरिकों के लिए केवल 3.4 कुशल स्वास्थ्य कार्मिक बच गए हैं। इबोला का डर बढ़ जाने के फलस्वरूप बहुत से नागरिकों ने स्वास्थ्य सेवाओं का उपयोग करना बंद कर दिया, यह इससे पता चलता है कि अस्पतालों या क्लीनिकों में जन्म लेनेवाले बच्चों की संख्या में 23% की कमी हुई, बुनियादी टीके लगवानेवाले बच्चों की संख्या में 21% की कमी हुई, और मलेरिया का इलाज करवाने वाले बच्चों की संख्या में 39% की कमी हुई। परिणामस्वरूप, इन देशों में टीकों से रोकी जा सकनेवाली बीमारियों, मलेरिया, मातृ एवं शिशु मौतों, और तीव्र कुपोषण की स्थिति फिर से उत्पन्न हो गई है। यह देखते हुए, स्थिति अभी और भी खराब हो सकती है। लेकिन सिएरा लियोन ने स्थिति को संभालना शुरू कर दिया है, और उसने द्वि-वर्षीय पुनरुत्थान योजना आरंभ की है। उसकी पहली प्राथमिकता इबोला के मामलों की संख्या को शून्य तक लाना और उसे वहीं स्थिर रखना है। इसका मतलब उन स्थितियों को बदलना है जिनके कारण यह शुरू में इतनी तेजी से फैल गया था। पहला उपाय स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली का पुनर्निर्माण करना है। योजना में यह अपेक्षा की गई है कि देश भर के 40 अस्पतालों और 1,300 प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल सुविधाओं में स्वास्थ्य देखभाल सेवाओं को बहाल किया जाए ताकि बच्चों और माताओं को आवश्यक देखभाल, टीकाकरण, और टीबी, एचआईवी/एड्स, और मलेरिया जैसी बीमारियों के लिए उपचार नि: शुल्क प्राप्त हो सके। इसके अलावा, स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली को और अधिक सुरक्षित बनाने और उसमें विश्वास को बहाल करने की दृष्टि से इस योजना में बेहतर संक्रमण नियंत्रण पद्धतियों को अपनाने और कुशल कार्यकर्ताओं के एक नए संवर्ग को प्रशिक्षण दिए जाने की आवश्यकता पर बल दिया गया है। और इसमें सामुदायिक समूहों के साथ घनिष्ठ सहयोग भी शामिल है जिन्हें रोग निगरानी और प्रतिक्रिया के कार्य में लगाया जाना चाहिए। इबोला की स्थिति के बाद का सुधार, इतना शीघ्र, आसान, या सस्ता नहीं होगा। अकेले सिएरा लियोन में ही इसकी लागत $1.3 बिलियन आने का अनुमान है जिसमें से $896.2 मिलियन अभी तक प्राप्त किए जाने बाकी हैं। इस अंतराल को पाटने के लिए, हमें अपने अफ्रीकी भागीदारों और व्यापक अंतर्राष्ट्रीय समुदाय से मदद की जरूरत है। कई साल पहले, झूठ की मदद के बिना, मरियम्मा की मृत्यु हो गई होती। आज हमें झूठ की जरूरत नहीं है। हमें स्थानीय, राष्ट्रीय, क्षेत्रीय और वैश्विक स्तर पर, वास्तविक कार्य, खुले संप्रेषण, और आपसी जवाबदेही की जरूरत है। हम पहले ही यह देख चुके हैं कि आवश्यक स्वास्थ्य देखभाल सेवाओं की कमी किस तरह किसी देश को बर्बाद कर सकती है, हजारों लोगों के जीवन को लील सकती है, और अनेक लोगों की जिंदगी को तबाह कर सकती है। हम इबोला का मुकाबला करने के लिए एक देश के रूप में इकट्ठे हुए थे, और हम भविष्य में होनेवाली महामारियों को रोकने के लिए प्रतिबद्ध हैं। लगातार मिल रहे अंतर्राष्ट्रीय सहयोग से, हम इसे करके रहेंगे। इबोला से सभी मोर्चों पर लड़ाई पेरिस – पश्चिम अफ्रीका में इबोला के प्रकोप के बारे में संयुक्त राज्य अमेरिका और यूरोप में मीडिया कवरेज को देखते हुए, यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि प्रभावित देशों में स्थितियों में धीरे-धीरे सुधार हो रहा है। यद्यपि यह महामारी अब सुर्खियों की खबर नहीं रह गई है लेकिन इसका वायरस अभी तक समाप्त नहीं हो पाया है। इसके विपरीत, यह एक गंभीर वैश्विक स्वास्थ्य खतरा बना हुआ है। मैंने हाल ही में फ्रांस के राष्ट्रपति फ्रेंकोइस हॉलैंडे के साथ, गिनी की राजधानी कोनाक्री की यात्रा की, और फिर इस देश के वन क्षेत्र के एक ग्रामीण जिले मसेंटा का दौरा किया जो उस स्थान के नजदीक है जहाँ से महामारी शुरू हुई थी। दोनों ही स्थानों पर, मैंने अपनी आँखों से वायरस के विनाशकारी प्रभाव: दुख, भय, निराशा, और, अंतत: मौत को देखा। यहाँ तक कि मामूली लक्षण भी भारी हो गए हैं और इसका परिणाम यह हुआ: किसी ने भी हाथ नहीं मिलाए। सच तो यह है कि इबोला वायरस फैल रहा है - और तेज़ी से फैल रहा है। यह ठीक है कि ला��बेरिया में इस पर काबू पा लिया गया है, लेकिन यह केवल लाइबेरिया में ही हुआ है, और वहाँ भी यह सुनिश्चित करने के लिए कोई उपाय नहीं है कि यह दुबारा नहीं फैलेगा। इबोला ऐसे तरीकों से फैल रहा है जो उन सबसे अलग हैं जिन्हें हम पहले देख चुके हैं। यह वायरस इन्फ्लूएंजा जैसे दूसरे कई वायरसों जितना तेजी से नहीं फैलता है जिन्होंने इससे पहले महामारियों के फैलने की मात्रा को सीमित किया था, विशेष रूप से इसलिए कि इनका फैलाव ग्रामीण क्षेत्रों तक सीमित था। लेकिन इस बार, वायरस शहरों और कस्बों में प्रवेश कर गया है, जिससे यह विशेष रूप से खतरनाक हो गया है। उच्च जनसंख्या घनत्व न केवल इबोला बल्कि किसी भी वायरस के पनपने के लिए अनुकूल वातावरण का निर्माण करता है। पश्चिम अफ्रीका में बड़े पैमाने पर गरीबी, दुर्लभ चिकित्सा संसाधनों, और भीड़ भरे शहरी क्षेत्रों का खतरनाक संयोजन अत्यंत घातक हो सकता है। इस वर्ष इबोला से लगभग 7,500 लोगों के मरने की सूचना मिली है। 16,000 से अधिक लोगों के संक्रमित होने की सूचना मिली है। ये अनुमानित आँकड़े हैं, और हालाँकि वे महामारी की गति और प्रतिक्रिया के प्रयासों के प्रभाव के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी प्रदान करते हैं, परंतु अधिकारियों ने आगाह किया है कि वास्तविक आँकड़े संभवतः इससे बहुत अधिक हैं। स्वास्थ्य एक वैश्विक सार्वजनिक कल्याण का विषय है। अधिकतर देशों में, स्वास्थ्य के अधिकार को संविधान या कानून में समाहित किया गया है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के अनुसार, इस अधिकार में “उचित गुणवत्ता की स्वास्थ्य देखभाल, समय पर, स्वीकार्य रूप से, और किफायती दर पर उपलब्ध होना” शामिल है। लेकिन, इबोला जैसे वायरसों के मामले में कुछ देश ही, यदि कोई हों तो, ऐसी गारंटियाँ जारी कर सकते हैं। नैतिकता की दृष्टि से, अंतर्राष्ट्रीय समुदाय के लिए यह अनिवार्य है कि वह अपनी संस्थाओं, प्राधिकारियों, साधनसंपन्न व्यवसायों, और व्यक्तियों - और साथ ही अपने ज्ञान और धन - के साथ, इबोला के प्रसार को रोकने के लिए आवश्यक साधनों का उपयोग करे। इस अनिवार्यता की विशुद्ध रूप से स्वयं अपने हित की दृष्टि से भी उतनी ही आवश्यकता है। यदि वायरस पर जल्दी काबू नहीं पाया जाता है, तो हर किसी को - हर देश को - जोखिम होगा। अच्छी खबर यह है कि इबोला पर काबू पाया जा सकता है। आखिरकार, इसका नाश किया जा सकता है। अगर हमें किसी तरह इस लक्ष्य को हासिल करना है, तो वायरस को समझना चाहिए और उसका निदान किया जाना चाहिए। इसके प्रसार को रोका जाना चाहिए, और इलाज प्रस्तुत किया जाना चाहिए। हालाँकि इबोला के लिए चिकित्सीय रूप से कामयाब कोई टीका नहीं है, पर यह स्थिति शीघ्र ही बदल सकती है। मार्च में वायरस के फैलने के बाद से, एक स्वतंत्र, गैर-लाभ अनुसंधान संगठन इंस्टीट्यूट पेस्टेयर ने यह समझने के लिए काम किया है कि वायरस को किस तरह रोका जा सकता है और कौन सा इलाज प्रस्तुत किया जा सकता है। हमारे शोधकर्ता यह समझने के लिए कि महामारियाँ कैसे विकसित होती हैं, वायरस के प्रसार पर नज़र रख रहे हैं, और हम स्थानीय वैज्ञानिक और चिकित्सा कर्मियों को सशक्त करने के लिए काम कर रहे हैं। हमें उम्मीद है कि 2015 में चिकित्सीय परीक्षणों के लिए दो वैक्सीन प्रतिरक्षाजन तैयार हो जाएँगे। इंस्टीट्यूट पेस्टेयर का इबोला कार्य बल पश्चिम अफ्रीका में ज़मीन पर और फ्रांस में प्रयोगशाला में वायरस से लड़ाई कर रहा है, यह वायरस का अध्ययन इस बात का पता लगाने के लिए कर रहा है कि यह कैसे फैलता है, और यह इस प्रकोप को रोक और नए प्रकोपों को न होने देने के लिए चिकित्सा समाधान खोजने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ रहा है । मेडिसिन्स सैन्स फ्रंटियर्स और रेड क्रॉस और रेड क्रीसेंट सहित डब्ल्यूएचओ और गैर सरकारी संगठनों के साथ मिलकर, इंस्टीट्यूट पेस्टेयर वायरस और उसके कारणों से लड़ने के लिए प्रतिबद्ध है। दुनिया भर के देशों ने एकदम तत्काल स्वरूप की चिंताओं से निपटने के लिए वित्तीय और अन्य प्रकार की सहायता देने: प्रभावित लोगों और समुदायों की मदद करने का वायदा किया है। कई देश पहले से ही इबोला वायरस के कारणों, प्रसार, और उपचार के अनुसंधान के लिए योगदान कर रहे हैं। एक अंतर्राष्ट्रीय "इच्छुकों का गठबंधन" स्थापित किया गया है, और हम सभी देशों, संबंधित संगठनों, रुचि रखनेवाले व्यवसायों, और योग्य व्यक्तियों से इसमें शामिल होने के लिए अनुरोध कर रहे हैं। हम सब मिलकर, इबोला का अंत कर सकते हैं और हम इसका अंत देखेंगे। इबोला और उसके बाद वाशिंगटन, डीसी - संयुक्त राज्य अमेरिका और यूरोप ने अपनी सरहदों के भीतर इबोला वायरस के कुछ छिटपुट मामलों के प्रति बहुत ही अधिक प्रतिक्रिया दिखाई है। घबराहट भरी ये प्रतिक्रियाएँ निरर्थक नहीं हैं। बुनियादी वैज्ञानिक सिद्धांतों का उल्लंघन करके, वे जन-स्वास्थ्य पर अनिवार्य कार्रवाई के लिए मौलिक नैतिक मानदंडों की अवहेलना करती हैं। और जब नागरिकों की इबोला से रक्षा करने की बात हो - भले ही भविष्य में इस तरह के स्वास्थ्य के वैश्विक संकटों के उभरने को रोकने की बात न भी की जाए - तो इन प्रतिक्रियाओं के परिणाम प्रतिकूल भी हो सकते हैं। बहुत ज़्यादा प्रतिक्रिया करने के कारण असफलता के बेहद खराब उदाहरण यूएस में सामने आए हैं, जहाँ प्रारंभिक प्रतिक्रिया गिनी, लाइबेरिया तथा सिएरा लियोन से आनेवाले यात्रियों की ज़्यादा स्क्रीनिंग करने के रूप में सामने आई। ज़्यादा समस्या की बात यह थी कि अनेक राज्यों ने इबोला से त्रस्त देशों से यूएस लौटने वाले स्वयंसेवक स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं के लिए 21 दिन तक अनिवार्य रूप से सबसे अलग रहना या संगरोध निर्धारित किया। सौभाग्य से, संगरोध के आदेशों के ख़िलाफ़ राजनीतिक प्रतिक्रिया के फलस्वरूप कुछ राज्यों ��े राज्यपालों ने उनमें ढील दे दी। अब विकसित देशों के लिए यह समझने का समय आ गया है कि इबोला से अपने नागरिकों की रक्षा करने का सबसे अच्छा तरीका यह है कि पश्चिम अफ़्रीका में वायरस को फैलने से रोकने में मदद की जाए। इसके लिए सबसे पहली और सबसे प्रमुख बात यह है कि सबसे ज़्यादा प्रभावित तीन देशों में इबोला के प्रति निरंतर "अत्यधिक प्रतिक्रिया" हो। ऐसी प्रतिक्रिया को पर्याप्त (और महत्वपूर्ण) वित्तपोषण; सुप्रशिक्षित डॉक्टरों, नर्सों, और सामुदायिक स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं; और निदान, उपचार, संपर्क की पहचान करने, और संक्रमित व्यक्तियों के अलगाव के लिए बेहतर स्थानीय क्षमता का सहारा मिलना चाहिए। अब और समय बर्बाद नहीं किया जाना चाहिए। निश्चित रूप से, साहसिक नेतृत्व की कमी के कारण पहले ही वर्तमान इबोला प्रकोप के लिए प्रभावी अंतर्राष्ट्रीय प्रतिक्रिया में बहुत ज़्यादा देरी हो चुकी है, जिससे इस संकट की लागत में बहुत अधिक बढ़ोतरी हुई है। इबोला के प्रसार को रोकने के अतिरिक्त, अंतर्राष्ट्रीय समुदाय को मौजूदा संकट के सबक को भविष्य के स्वास्थ्य के संभावित ख़तरों के बारे में शीघ्र, सुदृढ़, और साक्ष्य-आधारित कार्रवाई पर बल देने वाली विश्वसनीय प्रतिक्रिया के विकास पर लागू करना चाहिए। इस लक्ष्य के लिए, तीन महत्वपूर्ण पहल शुरू की जानी चाहिए। सर्वप्रथम, विश्व स्वास्थ्य संगठन को आपातकालीन आकस्मिकता निधि निर्धारित करनी चाहिए जिसे "अंतर्राष्ट्रीय चिंता की सार्वजनिक स्वास्थ्य आपात स्थिति" की घोषणा करते ही उसे अतिरिक्त क्षमता के लिए नियोजित करना चाहिए। अगर इबोला के उभरने पर उसके प्रति भारी आरंभिक प्रतिक्रिया शुरू करने के लिए ऐसा वित्त-पोषण उपलब्ध होता, तो डब्ल्यूएचओ के पास समय पर अंतर्राष्ट्रीय आपात स्थिति की घोषणा करने के लिए भारी प्रोत्साहन होता। वास्तव में, डब्ल्यूएचओ की समीक्षा समिति ने 2011 में ठीक इसी तरह की निधि के लिए कम-से-कम $100 मिलियन राशि की सिफ़ारिश की थी। हालाँकि यह आसानी से जुटाई जा सकनेवाली राशि थी और अंतर्राष्ट्रीय स्वास्थ्य सहायता के 0.5% से भी कम थी लेकिन डब्ल्यूएचओ इसे स्थापित करने में विफल रहा। इस फ़ैसले की गलती अब पीड़ादायक रूप से स्पष्ट हो गई है, क्योंकि सच तो यह है कि आकस्मिक निधि काफ़ी अधिक अर्थात $500 मिलियन तक होनी चाहिए। संकट पर प्रतिक्रिया की प्रभावी रणनीति का दूसरा स्तंभ आपातकालीन आरक्षित कार्यबल है - जिसे डब्ल्यूएचओ ने राष्ट्रीय सरकारों के सहयोग से स्थापित किया था – जिसमें सुप्रशिक्षित स्वास्थ्य पेशेवर होते हैं जो कम-संसाधन की स्थितियों में तुरंत नियोजन के लिए तैयार रहते हैं। इससे कमज़ोर स्वास्थ्य-देखभाल प्रणालियों वाले देशों को – जो रोग फैलने की दृष्टि से ख़ास तौर से अतिसंवेदनशील होते हैं - स्वास्थ्य के संकटों को जल्दी से नियंत्रण में लाने के लिए ज़रूरी मानव संसाधन उपलब्ध हो जाएँगे। निश्चित रूप से, ऐसे उपायों से अपनी स्वास्थ्य-देखभाल प्रणालियों को मज़बूत बनाने और अपनी आबादियों की सुरक्षा करने के लिए देशों की ज़िम्मेदारी कम नहीं हो जाती। यही कारण है कि भविष्य में वैश्विक स्वास्थ्य संकट को रोकने की दिशा में अंतिम और सबसे महत्वपूर्ण क़दम अंतर्राष्ट्रीय स्वास्थ्य प्रणाली कोष का निर्माण करना है ताकि आपात स्थितियों में प्रभावी ढंग से प्रतिक्रिया करने और सामान्य समय में व्यापक स्वास्थ्य सेवाएँ प्रदान करने, दोनों के लिए क्षमता हासिल करने के राष्ट्रीय प्रयासों का समर्थन किया जा सके। ऐसी निधि अंतर्राष्ट्रीय स्वास्थ्य विनियमों की रूपरेखा में ठीक बैठेगी जिस पर 2005 में सहमति हुई थी, और यह सभी लोगों के पास स्वास्थ्य का अधिकार होना चाहिए के सिद्धांत पर आधारित सार्वभौमिक स्वास्थ्य-देखभाल के कार्य को आगे बढ़ाएगी। सरकारों से भी अपेक्षा होगी कि वे इन लक्ष्यों को हासिल करने के लिए पर्याप्त घरेलू निधियाँ आबंटित करें, उदाहरण के लिए, अफ़्रीक़ी देशों के राष्ट्र-प्रमुख राष्ट्रीय बजट के कम-से-कम 15% को स्वास्थ्य क्षेत्र के लिए आबंटित करने की 2001 आबुजा घोषणा की प्रतिज्ञा को पूरा करें। लेकिन, कम आय वाले देशों के लिए, सतत अंतर्राष्ट्रीय कोष की सहायता मिले बिना मज़बूत स्वास्थ्य-देखभाल प्रणालियाँ स्थापित करने की दिशा में महत्वपूर्ण प्रगति करना लगभग असंभव होगा। इस बात पर विचार करते हुए कि इस तरह की निधि का निर्माण करने के लिए कम आय वाले देशों में बड़े पैमाने पर अरबों डॉलर का निवेश करना होगा, ज़रूरी राजनीतिक समर्थन पैदा करने के लिए इसमें सामाजिक जुड़ाव महत्वपूर्ण है। इस अर्थ में, एड्स के प्रति वैश्विक प्रतिक्रिया - जो अमेरिकी राष्ट्रपति की एड्स राहत के लिए आपातकालीन योजना द्वारा प्रेरित हुई थी और एड्स, क्षय रोग, और मलेरिया से लड़ने के लिए वैश्विक कोष उपयोगी मॉडल के रूप में काम कर सकती है। स्वास्थ्य-देखभाल के मज़बूत बुनियादी ढाँचे की स्थापना करने के अतिरिक्त, राष्ट्रीय सरकारों को अपनी आबादी को स्वास्थ्य सेवाएँ प्रदान करने के लिए जवाबदेही वाली प्रणालियाँ विकसित करने की ज़रूरत होगी। इसमें संसाधनों का निष्पक्ष और पारदर्शी नेतृत्व, भ्रष्टाचार-रोधी सुरक्षा उपायों, प्रगति की निगरानी के लिए साधन, सभ्य-समाज की भागीदारी, और विफलताओं के लिए जवाबदेही शामिल हैं। इन उद्देश्यों को आगे बढ़ाने के लिए, एक अंतर्राष्ट्रीय गठबंधन वैश्विक स्वास्थ्य की रूपरेखा के सम्मेलन के लिए ज़ोर दे रहा है, जिसका लक्ष्य स्थानीय, राष्ट्रीय और वैश्विक स्तरों पर स्वास्थ्य के लिए सुशासन को बढ़ावा देना है। स्वास्थ्य का अधिकार के सिद्धांत पर आधारित संधि, निधियों के आबंटन और अन्य ज़िम्मेदारियों के लिए स्पष्ट दिशा-निर्देश प्रदान करेगी। पश्चिम अफ़्रीका की इबोला महामारी से अंतर्राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति में कार्रवाई संबंधी सुधार करने की प्रेरणा मिलनी चाहिए, जिससे त्वरित प्रतिक्रिया के उपायों और स्वास्थ्य-देखभाल के मज़बूत बुनियादी ढाँचे की आवश्यकता पर बल दिया जा सके। इन लक्ष्यों को हासिल करने के लिए मापनीय, स्थायी निधि प्रदान करने के लिए रूपरेखाएँ तैयार करना विवेकपूर्ण और किफ़ायती निवेश है – ऐसा निवेश जो सभी के हित में है। यह एक ऐसी मानवीय प्रतिक्रिया है जो दुनिया भर में बहुत अधिक लाभ देगी, अब भी और भविष्य में भी। लोगों के लिए विकास न्यूयार्क – पश्चिम अफ्रीका में इबोला महामारी ज़िंदगियों को तबाह कर रही है, समुदायों को नष्ट कर रही है, और बच्चों को अनाथ बना रही है, और इसकी दर इस क्षेत्र में एक दशक से अधिक पहले समाप्त हुए क्रूर नागरिक युद्धों की तुलना में कहीं अधिक है। लाइबेरिया में, अब 60% बाजार बंद हो चुके हैं; सिएरा लियोन में, 10,000 एचआईवी मरीजों में से केवल पाँच में से एक का अभी भी एंटी-रेट्रोवायरल उपचार चल रहा है; और गिनी की सरकार ने बताया है कि इस संकट की वजह से उन्हें $220 मिलियन के वित्तीय घाटे का सामना करना पड़ रहा है। अगर इसके प्रकोप को शीघ्र रोका नहीं जाता है, तो लाइबेरिया और सिएरा लियोन में शांति बहाल होने के बाद, और गिनी का लोकतांत्रिक संक्रमणकाल शुरू होने के बाद जो बहुत-से आर्थिक और सामाजिक लाभ हासिल किए गए थे, वे मिलने बंद हो सकते हैं। ये तीनों देश कमजोर, विभाजित बने हुए हैं, और जैसा कि वर्तमान संकट से उजागर हुआ है, इन्हें खास तौर से नुकसान पहुँचने की संभावना हो सकती है। अधिक व्यापक तौर पर, इस क्षेत्र के मौजूदा संकट से यह सोचने की प्रेरणा मिलनी चाहिए कि दुनिया किस तरह विकास का समर्थन करती है और उसे आगे बढ़ाती है। इन देशों के कमजोर होने का एक महत्वपूर्ण कारण उनकी आबादियों में निवेश का लगातार न होना है, जिसके फलस्वरूप आम नागरिक आर्थिक विकास के लाभों का फायदा नहीं उठा पाए हैं। दरअसल, हालाँकि गिनी, लाइबेरिया, और सिएरा लियोन की अर्थव्यवस्थाओं का इबोला के फैलने से दस साल पहले - क्रमशः 2.8%, 10%, और 8% की औसत वार्षिक दरों पर - तेजी से विकास हुआ था - परंतु उनकी आबादियों को अपने दैनिक जीवन में कोई सुधार दिखाई नहीं दिया। विदेशी प्रत्यक्ष निवेश का 65% से अधिक अंश खनन और वन-कटाई में लगाया गया है जो कम रोजगार पैदा करने और धन को चंद लोगों के हाथ में केंद्रित करने के लिए बदनाम हैं। इसी तरह, हालाँकि लाइबेरिया और सिएरा लियोन में उनके गृह युद्धों के समाप्त होने के बाद उनकी स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार हुआ है, गुणवत्ता और व्याप्ति पश्चिम अफ्रीकी मानकों से बहुत कम रही है। जब इबोला ने धावा बोला, तब लाइबेरिया के पास अपने चार मिलियन नागरिकों के लिए केवल 120 डॉक्टर थे। इनमें लगातार फैलती जा रही शहरी मलिन बस्तियों - जो अर्द्ध-नियंत्रित, भीड़-बहुल, और स्वच्छता रहित हैं - को भी शामिल करना चाहिए, और इसमें कोई आश्चर्य नहीं है कि इन देशों ने महामारी को रोकने के लिए संघर्ष किया है। इन तीनों देशों में इबोला से होनेवाला खतरा स्वास्थ्य देखभाल से कहीं अधिक है। इस पूरे क्षेत्र में, संघर्ष के इतिहास और खराब शासन की विरासत के फलस्वरूप, सरकारों और राज्य संस्थाओं के प्रति भारी अविश्वास फैल चुका है, जैसा कि 2012 एफ़्रोबैरोमीटर सर्वे में उल्लेख किया गया है। दरअसल, इन देशों में किसी स्थापित सामाजिक अनुबंध का न होना राजनीतिक सत्ता और प्रभावी शासन को स्थापित करने में मुख्य बाधा रही है। इसके अतिरिक्त, इस माहौल से इस प्रकार की बेबुनियाद धारणाओं के प्रसार के लिए अनुकूल स्थितियाँ पैदा हुई हैं कि सरकार और सहायता कार्यकर्ता नागरिकों को संक्रमित करने की साजिश रच रहे हैं। बहुत से लोग इस बात से इनकार करते हैं कि इबोला वायरस का कोई अस्तित्व है, वे दावा करते हैं कि उनकी सरकारों ने अंतर्राष्ट्रीय समुदाय से अतिरिक्त धन जुटाने के लिए इसका आविष्कार किया है जो उन्हें कभी नहीं मिल पाएगा। इस तरह के शक और भय के कारण परिवार अपने मृत लोगों को छिपा देते हैं और रात को उनकी अंत्येष्टि कर देते हैं, यहाँ तक कि कुछ समुदाय तो इससे भी आगे बढ़कर स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं पर हमला भी कर देते हैं। इन सबके कारण इस रोग के प्रसार को रोकना बहुत ही कठिन होता जा रहा है। जहाँ बेहद संक्रामक और घातक वायरस, अपने नेताओं पर अविश्वास करनेवाले गरीब और अलग-थलग पड़े लोगों का विनाश कर रहा हो, वहाँ व्यवसाय का सामान्य रूप से चलते रहना काफी नहीं है। इबोला के वर्तमान प्रकोप को रोकने और इस तरह की महामारियों को रोकने का एक मात्र तरीका यही है कि उन मूलभूत सामाजिक और राजनीतिक कमजोरियों को दूर किया जाए जिन्होंने वायरस को पनपने दिया है। इसका समाधान यह है कि स्वास्थ्य देखभाल, शिक्षा, और अन्य सार्वजनिक सेवाओं में निवेश को बढ़ाकर, लोगों को विकास के प्रयासों के केंद्र में रखा जाए। इसके साथ ही, रोजगार सृजन में तेजी लाने के लिए कठोर प्रयास किए जाने चाहिए। सहायता का विश्वसनीय ढाँचा और पर्याप्त आर्थिक अवसर मिलने पर, परिवारों - और उसके फलस्वरूप देशों - में अधिक लचीलापन आता है। संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम सहित, जो संस्थाएँ इबोला के खिलाफ लड़ाई में सबसे आगे हैं, वे समुदायों को इस रोग के खिलाफ एकजुट कर रही हैं, चिकित्सा टीमों का समर्थन कर रही हैं, और जीवित बचे लोगों और संक्रमित लोगों के परिवारों को त्रासदी से निपटने के लिए सहायता प्रदान कर रही हैं। हालाँकि ये प्रयास अधिक महत्वपूर्ण नहीं हो सकते, इन कमजोर देशों के रक्षा तंत्रों को मजबूत करने के लिए उन्हें अधिक दीर्घकालीन रणनीति के द्वारा समर्थित किया जाना चाहिए। इबोला को पराजित कर दिया जाएगा, लेकिन इसके प्रकोप ने जिन कमजोरियों को उजागर किया है उनसे नीति निर्माताओं द्वारा ध्यान दिए जानेवाले मुद्दों में बुनियादी बदलाव को प्रेरित किया जाना चाहिए। आज वैश्विक सोच में जिस विकास दृष्टिकोण को प्रमुखता दी जा रही है उसमें सामाजिक प्रगति की तुलना में आर्थिक विकास और राज्य निर्माण पर अधिक जोर दिया जाता है। लेकिन किसी समाज के लचीलेपन को प्रोत्साहित करने और अवैयक्तिक संस्थाओं पर विश्वास करने की योग्यता को बढ़ावा देने का एकमात्र तरीका यही है कि इनमें जो लोग सम्मिलित हैं उन्हें साधन - और आत्मविश्वास - दिया जाए जो उन्हें समृद्ध होने के लिए चाहिए। वैश्विक स्वास्थ्य के तीन ख़तरे सैन फ्रांसिस्को – पश्चिमी अफ़्रीका में इबोला के गंभीर प्रकोप ने राष्ट्रीय और वैश्विक दोनों स्तरों पर स्वास्थ्य प्रणाली को मज़बूत बनाने की अनिवार्यता को उजागर किया है। हालाँकि इबोला ने दुनिया का ध्यान प्रणालीगत कमियों पर केंद्रित किया है, लेकिन यहाँ लक्ष्य उन स्थायी महामारियों का मुकाबला करने पर होना चाहिए जो दुनिया भर में लोगों को चुपचाप मृत्यु और दुख के आगोश में ले रही हैं। इबोला निस्संदेह बहुत भारी व्यथा का कारण बना है। लेकिन यह पहली – या सबसे अधिक विनाशकारी महामारी नहीं है - जिसका दुनिया ने सामना किया है। वास्तव में, चेचक को मानवता के लिए सबसे भयंकर रोग के रूप में जाना जाता रहा है; जब तक एडवर्ड जेनर ने 1796 में इसके लिए टीका विकसित नहीं कर लिया, तब तक यह यूरोप में मृत्यु का प्रमुख कारण बना रहा। एक अनुमान के अनुसार 1980 में इसके उन्मूलन से पहले, इसने 300-500 मिलियन लोगों की जान ले ली थी। चौदहवीं सदी के ब्यूबोनिक प्लेग ने 75-100 मिलियन लोगों की जान ली थी - यह सं��्या यूरोप की जनसंख्या के आधे से ज़्यादा थी। 1918 की इन्फ़्लूएंजा महामारी के दौरान लगभग 75 मिलियन लोगों, या दुनिया की आबादी के 3-5%, की मृत्यु बस कुछ ही महीनों में हो गई थी - जो प्रथम विश्व युद्ध में मारे गए लोगों की संख्या से दुगुनी थी। दुनिया लगातार एचआईवी/एड्स से संघर्ष कर रही है, जिसके कारण अब तक 40 मिलियन से ज़्यादा लोगों की मृत्यु हो चुकी है और आज इसने इतने ही लोगों को संक्रमित किया हुआ है, और इस महामारी के शिकार 95% लोग विकासशील देशों के रहनेवाले हैं। एचआईवी/एड्स के लिए अत्यधिक प्रभावी रेट्रोवायरल-रोधी उपचार केवल तभी विकसित किए गए जब ये रोग उन्नत देशों में लोगों को प्रभावित करने लगे - ये ऐसे उपचार हैं जिन तक रोग से पीड़ित ज़्यादातर ग़रीब लोगों की पहुँच नहीं है या जो उसका ख़र्च बर्दाश्त नहीं कर सकते। इसी प्रकार, इबोला के प्रकोप के प्रति सरकारों, बहुपक्षीय संगठनों और गैर-सरकारी संगठनों की काफ़ी तत्परता से प्रतिक्रिया करने में विफलता इस तथ्य को दर्शाती है कि इस रोग ने ग़रीब देशों को ही तबाह किया है। लेकिन, दुनिया के अभूतपूर्व ढंग से जुड़े होने के समय में, यह सुनिश्चित करने में हर किसी की हिस्सेदारी है कि ऐसी महामारी पर कार्रवाई करने के लिए पर्याप्त स्वास्थ्य देखभाल प्रणालियाँ और संरचनाएँ मौजूद हों। इसे प्राप्त करने के लिए अपेक्षित निवेश उपलब्ध करने की ज़रूरत है; आखिरकार, रोग के प्रकोपों के ख़िलाफ़ रक्षा की पहली पंक्ति प्रभावी राष्ट्रीय स्वास्थ्य प्रणालियाँ और निगरानी की चुस्त व्यवस्था है। वर्तमान में, इबोला केवल स्वास्थ्य का संकट ही नहीं है, बल्कि यह मानवीय, आर्थिक और राजनीतिक संकट भी है। निश्चित तौर पर, कुछ प्रगति तो हुई है। इबोला आपातकालीन प्रतिक्रिया के लिए संयुक्त राष्ट्र के मिशन की “70/70/60” योजना – 70% इबोला रोगियों को अलग-थलग करना और यह सुनिश्चित करना कि 70% अंत्येष्टियाँ 60 दिन के भीतर सुरक्षित रूप से कर दी जाती हैं – को अधिकांशतः लागू कर दिया गया है, जिससे नए मामलों की संख्या में काफी हद तक कमी हुई है। लेकिन लोग अभी भी इससे पीड़ित हैं और मर रहे हैं – यह अकसर विश्वसनीय जानकारी तक पहुँच या पर्याप्त उपचार न होने के कारण होता है। बेशक, जब लोगों के स्वास्थ्य की सुरक्षा की बात आती है, तो जनता की रक्षा करने और व्यक्तिगत अधिकारों के अतिक्रमण के बीच महीन अंतर होता है। यही कारण है कि जन-स्वास्थ्य के सभी उपायों को सर्वप्रमुख रूप से वैज्ञानिक तथ्यों पर फ़ोकस करना चाहिए, और भावनात्मक या घबराहट की प्रतिक्रियाओं से बचना चाहिए। इस संदर्भ में, इबोला प्रभावित देशों से यात्रियों को अनिवार्य रूप से अलग-थलग करना स्पष्ट रूप से नीति की विफलता थी - ठीक वैसे ही जैसे तब हुआ था जब अधिकारियों ने 1350 में यूरोप की ब्लैक डेथ को या 1665 में लंदन के प्लेग को सीमित करने की कोशिश की थी। भय-आधारित रणनीतियों पर समय बर्बाद करने के बजाय, अंतर्राष्ट्रीय समुदाय को तथ्य-आधारित, ठोस, और सामूहिक कार्रवाई सुनिश्चित करने के लिए मानव और वित्तीय संसाधनों का लाभ उठाना चाहिए। ऐसा संयुक्त उपाय संभव है; वास्तव में, यह पहले भी हुआ है। सदी बदलने पर, एड्स, क्षय रोग, और मलेरिया से लड़ने के लिए वैश्विक कोष, बिल और मेलिंडा गेट्स फ़ाउंडेशन, और GAVI, वैक्सीन एलायंस जैसी संस्थाओं की स्थापना, वैश्विक स्वास्थ्य में नए सिरे से सुधार के लिए प्रयासों के साथ हुई। संयुक्त राष्ट्र की सहस्राब्दि विकास लक्ष्यों के प्रति प्रतिबद्धता – जिनमें पोषण, मातृ और शिशु स्वास्थ्य, और संक्रामक रोगों को शामिल करने वाले, स्वास्थ्य संबंधी चार लक्ष्य शामिल हैं - दुनिया भर के स्वास्थ्य में सुधार करने के लिए राजनीतिक सहमति परिलक्षित करती है। इस संस्थागत संरचना ने इनमें से अनेक क्षेत्रों में काफ़ी प्रगति करने में सुविधा दी है; उदाहरण के लिए, 1990 के बाद से पाँच साल से कम उम्र में मृत्यु दर 49% तक कम हो गई है। लेकिन अभी भी बहुत कुछ किया जाना बाकी है। दक्षिण पूर्व एशिया और उप सहारा अफ्रीका जैसे क्षेत्रों में, मातृ एवं शिशु स्वास्थ्य और संक्रामक रोग प्राथमिकताएँ बने हुए हैं। वास्तव में, उच्चतम बाल मृत्यु दर वाले जो दस देश हैं वे सभी उप-सहारा अफ्रीका में स्थित हैं; पश्चिम अफ्रीका में पैदा हुए किसी बच्चे के पश्चिमी यूरोप में पैदा हुए बच्चे की तुलना में एक से पाँच साल की उम्र से पहले मरने की 30 गुना अधिक संभावना होती है। यहां तक कि देशों के भीतर, भारी असमानता बनी हुई है। उदाहरण के लिए, ग्युरेरो और नुएवो लिओन के मैक्सिकन राज्यों में नगरपालिकाओं के बीच शिशु मृत्यु दर में दस गुना अंतर है। इसके अलावा, विशेष रूप से कम आय वाले देशों में, शहरीकरण, लोगों की उम्र बढ़ने, मोटापे, आलस्यपूर्ण जीवन शैली, धूम्रपान करने और शराब पीने जैसी शहरी प्रवृत्तियों के फलस्वरूप अनिर्दिष्ट महामारियों के आक्रमण ने पुराने गैर-संचारी रोगों (एनसीडी) की वृद्धि को बढ़ावा दिया है। अधिकांश देशों में वयस्कों के लिए, कैंसर, मधुमेह और हृदय रोग विकलांगता और मौत के प्रमुख कारण बन गए हैं। इबोला जैसे उभरते संक्रामक रोग अधिक प्रतिरोधक हो सकते हैं, लेकिन पुराने गैर-संचारी रोगों (एनसीडी) का स्वास्थ्य पर पड़नेवाला प्रभाव, उनकी उच्च और बढ़ती सामाजिक और आर्थिक लागतों के अलावा है, काफी अधिक है। और अधिक समय बर्बाद नहीं किया जा सकता। नीति निर्माताओं को तंबाकू, शराब, और मोटापा बढ़ानेवाले खाद्य पदार्थों की खपत जैसे जोखिम वाले कारकों के प्रसार को रोकने के लिए कार्रवाई करनी चाहिए। दुनिया को तीन तरह की स्वास्थ्य चुनौती का सामना करना पड़ रहा है: हमें ऐसी धारणीय राष्ट्रीय और वैश्विक स्वास्थ्य प्रणालियों का निर्माण करना चाहिए जो इबोला जैसे संकटों के बारे में जल्दी और प्रभावी ढंग से प्रतिक्रिया कर सकते हैं; संक्रामक रोगों को समाप्त करना चाहिए या उन पर नियंत्रण करना चाहिए; और पुराने गैर-संचारी रोगों (एनसीडी) की चुपचाप बढ़ती महामारी से निपटने के लिए कार्रवाई करनी चाहिए। इन तीनों मोर्चों पर सफल होने के लिए, हमें स्वास्थ्य के बुनियादी ढांचे, प्रबंधन, और कार्मिकों में निरंतर निवेश करने की जरूरत है। इसका हल समानता है। इसका मतलब यह है कि स्वास्थ्य देखभाल और शिक्षा तक पहुँच में सुधार किया जाए। लेकिन इसका मतलब यह भी है कि उन गंभीर सामाजिक विषमताओं के संबंध में कार्रवाई की जाए जिनका विस्तार सार्वजनिक स्वास्थ्य की कार्य-सूची से बाहर है। 2015 के बाद के विकास लक्ष्यों को तैयार करते समय, दुनिया के नेताओं को यह याद रखना चाहिए कि स्वास्थ्य एक बुनियादी मानव अधिकार है। ईबोला से आगे की कार्रवाई वाशिंगटन, डीसी – ईबोला का प्रकोप पिछले साल मनो नदी संघ के चार देशों में से तीन, अर्थात गिनी, सिएरा लियोन, और लाइबेरिया में शुरू हुआ था, इस रोग का 1976 में मध्य अफ्रीका में निदान किए जाने के बाद से यह अब तक का सबसे गंभीर रोग है। इस महामारी का प्रभाव विनाशकारी रहा है जिसने दशकों के संघर्ष और अस्थिरता के बाद हमारे इन तीन देशों की महत्वपूर्ण सामाजिक आर्थिक प्रगति पर सवाल खड़ा कर दिया है। इस क्षेत्र में अब तक इसके कुल 25,791 मामले पाए गए हैं और इससे 10,689 मौतें हुई हैं –ईबोला की अन्य सभी महामारियों से कुल मिलाकर हुई मौतों के मुकाबले इससे होनेवाली मौतों की संख्या लगभग दस गुना है। 2014 के लिए, हमारे इन तीनों देशों के लिए अनुमानित विकास दरें 4.5%-11.3% थीं। इन अनुमानों को अब कम करके अधिक से अधिक 2.2% तक रखा गया है। शमन उपायों के अभाव में, मंदी की स्थिति की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता। इस रोग के अनियंत्रित प्रसार ने हमारी राष्ट्रीय स्वास्थ्य देखभाल प्रणालियों की कमियों, और साथ ही क्षेत्रीय और वैश्विक संस्थाओं की समन्वयन और प्रभावी प्रतिक्रिया की कमजोर क्षमता को उजागर कर दिया है। सीधे शब्दों में कहें, तो इतने बड़े स्तर की महामारी से निपटने के लिए, और यहाँ तक कि इसे रोकने के लिए हम ठीक तरह से तैयार नहीं थे। ईबोला के कारण जो हजारों जिंदगियाँ समाप्त हो गई हैं और जो लाखों जिंदगियाँ इस रोग से प्रभावित हुई हैं उनके लिए हम सबकी सामूहिक जिम्मेदारी है। और, आज संस्थागत सुधार और अनुकूलन की बदौलत, हम ईबोला के खिलाफ लड़ाई जीतने के बहुत करीब पहुँच चुके हैं। हालाँकि, अभी तक पूरे क्षेत्र में बीमारी को नियंत्रित और दूर नहीं किया जा सका है, इसके प्रसार की गति मंद हो गई है; अब हमें अपनी स्थिति को सुधारने की योजना शुरू करने की आवश्यकता है जिसमें उन राष्ट्रीय, क्षेत्रीय और अंतर्राष्ट्रीय प्रणालियों को मजबूत करने को शामिल किया जाना चाहिए जो हमारे लोगों की जिंदगियों और भविष्य की रक्षा कर सकें। हम तीन प्रभावित देशों के राष्ट्रपतियों ने, फरवरी में कोनाक्री, गिनी में मुलाकात की, जिसमें कोटे डी आइवर भी शामिल हुआ, जिसका उद्देश्य महामारी का अंत करने और ईबोला-उपरांत सामाजिक-आर्थिक सुधार के संबंध में मार्गदर्शन करने के लिए एक सामान्य रणनीति अपनाना था। इस बैठक के बाद मार्च की शुरूआत में ब्रसेल्स में दानदाताओं की एक बैठक हुई, और उसके दो हफ्ते बाद हमारी तकनीकी समितियों में समन्वय स्थापित करने के लिए फ़्रीटाउन, सिएरा लियोन में एक बैठक हुई। हम अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व बैंक की वसंत बैठकों में, वाशिंगटन, डीसी में इन प्रयासों पर आगे काम करना जारी रखेंगे। हम सूचना का आदान प्रदान करके, तकनीकी विशेषज्ञता को साझा करके, नई और सुलभ सामुदायिक स्वास्थ्य प्रणालियों का निर्माण करके, और सार्वजनिक शिक्षा रणनीतियों को तेज करके, पानी, सफाई, और स्वच्छता (वाश) के मानकों को लागू करने जैसे उपायों सहित, जिन्हें परिवारों में साझा किया जा सकता है, ईबोला का उन्मूलन करने के लिए दृढ़ संकल्प हैं। निजी क्षेत्र द्वारा निवेश में - जो रोजगार और स्थिर आजीविकाओं का साधन है - केवल तभी सुधार होना शुरू हो सकता है। ईबोला वायरस का प्रसार हमारे देशों के साझा इतिहास और संस्कृति के कारण हुआ है, जिसके फलस्वरूप यह रोग आसानी से सीमाओं के पार जा सका है और दूरदराज के ग्रामीण क्षेत्रों से शहरी केंद्रों में ज्यादा तेजी से फैलने में सक्षम हो सका है। दुर्भाग्य से, इस महामारी ने हमें अपनी कुछ सीमाओं को बंद करने के लिए मजबूर कर दिया, जिससे रिश्तेदारों और देखभाल तक पहुँच को रोकना पड़ा। हम चाहते हैं कि हमारे बुनियादी ढांचे, स्वास्थ्य नीतियों और आर्थिक ताकतों से सीमाओं के पार लोगों को ऐसी संबद्धताओं - समुदाय समर्थन की प्रणालियों और विकास के गलियारों - के माध्यम से लाभ मिले जिनसे सहभागिता और रोजगार सृजन को प्रोत्साहन मिलता है। और हम अपने अंतर्राष्ट्रीय साझेदारों से अनुरोध करते हैं कि वे साझा आर्थिक प्रोत्साहन योजना का समर्थन करें जिसमें ऐसे व्यावहारिक समाधानों पर जोर दिया जाए जिनसे अधिक विकास हो और रोजगार में वृद्धि हो। हमारे सुधार के प्रयास के लिए चार तत्व आवश्यक हैं। पहला घटक लचीली सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणालियाँ तैयार करना है, जिसके लिए ग्रामीण क्षेत्रों में व्याप्ति बढ़ाने के लिए प्रशिक्षित सामुदायिक स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं की आवश्यकता होती है। इसके लिए प्रत्येक देश में संक्रामक रोगों के नियंत्रण के लिए पूरे राष्ट्र में पानी और स्वच्छता कार्यक्रमों और उपकरणों से लैस केंद्रों की भी आवश्यकता होती है। दूसरे, हमें बुनियादी ढांचे, विशेष रूप से सड़कों और बिजली और दूरसंचार के नेटवर्कों पर ध्यान केंद्रित करने की जरूरत है। अफ्रीकी विकास बैंक से हमारा अनुरोध है कि क्षेत्रीय एकीकरण को आगे बढ़ाने के उद्देश्य से, वह 2013 में शुरू की गई मनो नदी पहल, के विस्तार के रूप में इंफ्रास्ट्रक्चर फंड बनाने के लिए पहल करे। और अपने साझेदारों से हमारा अनुरोध है कि वे इस बात की आवश्यकता को समझें कि मूल रूप से दस साल की अवधि के लिए बनाए गए कार्यक्रमों को तत्काल लागू किया जाना चाहिए। तीसरे, हमें इस क्षेत्र में बढ़ती लागतों से प्रभावित निजी क्षेत्र के भीतर आत्मविश्वास को बढ़ावा देकर आर्थिक सुधार का समर्थन करने की जरूरत है। विशेष रूप से, इस क्षेत्र को स्थानीय उद्यमियों को मिलनेवाले अनुदानों, विदेशी निवेशकों को मिलनेवाले रियायती वित्तपोषण और ऋणों, और सरकार से मिलनेवाली बजटीय सहायता से लाभ होगा। अंत में, अफ्रीका के लिए आयोग, संयुक्त राष्ट्र, और अफ्रीकी संघ की सिफारिश के अनुरूप, हम अनुरोध करते हैं कि हमारे विदेशी ऋण की राशि को पूर्ण रूप से रद्द कर दिया जाए। इससे हम वह राजकोषीय लचीलापन हासिल कर पाएँगे जिसकी हमें अपनी स्वास्थ्य प्रणालियों के पुनर्निर्माण के लिए सह-वित्त प्रदान करने के लिए आवश्यकता है। हम अपने अंतर्राष्ट्रीय सहयोगियों से आग्रह करते हैं कि वे हमारे आर्थिक सुधार का समर्थन सहयोग की उसी भावना से, और तात्कालिकता की उसी भावना से करें जिससे हमें ईबोला वायरस से लड़ने में मदद मिली थी। मिलकर, हम ऐसी स्वास्थ्य देखभाल प्रणालियों, बुनियादी सुविधाओं, और क्षेत्रीय संस्थाओं का निर्माण कर सकते हैं जो महामारी के शुरू होने से पहले की तुलना में अधिक मजबूत होंगी। मिलकर, हम अपने लोगों के लिए स्वास्थ्य और प्रगति की स्थायी विरासत का निर्माण कर सकते हैं। भविष्य वृद्धावस्था का है म्यूनिख – हमारे समाजों की उम्र का बढ़ना बीसवीं सदी की सबसे बड़ी सफलता की कहानियों में से एक है। पिछले सौ सालों में लाखों-करोड़ों लोगों के जीवन में तीन से अधिक दशक जोड़े जा चुके हैं। यह एक ऐसी उपलब्धि है जो भारी जश्न मनाने लायक है; लेकिन हमें इस बात को भी ध्यान में रखना चाहिए कि दीर्घायु होने के महत्वपूर्ण दीर्घकालिक आर्थिक परिणाम भी होते हैं - और कई समाजों में उम्र रिकार्ड गति से बढ़ रही है। पिछले साल, ओईसीडी ने चेतावनी दी थी कि विश्व में उम्र अभूतपूर्व दर से बढ़ रही है और इसके फलस्वरूप वैश्विक वार्षिक आर्थिक विकास दर इस दशक के 3.6% के औसत से कम होकर 2050 से 2060 में लगभग 2.4% तक हो सकती है। विशेष रूप से ओईसीडी देशों को दोहरा जनसांख्यिकीय आघात झेलना पड़ेगा। न केवल उनके समाजों की उम्र तेजी से बढ़ती जाएगी; अमीर देशों और उभरती अर्थव्यवस्थाओं के बीच आय के अंतरों के कम होने से आप्रवास प्रवाहों में कमी होने की संभावना है, जिससे कर्मचारियों की संख्या में यूरोजोन में 20% और संयुक्त राज्य अमेरिका में 15% तक की कमी होगी। जनसांख्यिकीय शोधकर्ताओं ने 65 से अधिक उम्र की आबादी में हिस्सेदारी के अनुसार देशों को चार श्रेणियों में विभाजित किया है: युवा (65 वर्ष या उससे अधिक वाले 7% से कम), प्रौढ़ (7-13%), वृद्ध (14-20%), और अत्यधिक वृद्ध (21% से अधिक)। आज सिर्फ तीन देश - जर्मनी (21%), इटली (22%), और जापान (26%) अत्यधिक वृद्ध उम्र वर्ग के समाजों की शर्तों को पूरा करते हैं। अगले पांच वर्षों में उनमें बुल्गारिया, फिनलैंड, ग्रीस और पुर्तगाल के जुड़ जाने की संभावना है। अगले दशक में, यूरोप ऑस्ट्रिया, फ्रांस, स्वीडन और ब्रिटेन सहित अन्य 17 देशों के साथ उम्रदराज होना जारी रखेगा, जिनके कनाडा, क्यूबा, और दक्षिण कोरिया के साथ अत्यधिक उम्र वर्ग में आने की संभावना है। इस अवधि के दौरान, समाजों में तेजी से उम्र बढ़ने की चुनौतियाँ का सामना मुख्य रूप से विकसित दुनिया को करना पड़ेगा। लेकिन, 2040 तक लगभग 55 देश अधिक उम्र वाली आबादी का प्रबंध करने के लिए संघर्ष कर रहे होंगे, जबकि अमेरिका, चीन, सिंगापुर, थाईलैंड और प्यूर्टो रिको अत्यधिक उम्र वर्ग की श्रेणियों में शामिल हो चुके होंगे। ये बदलाव जिस गति से हो रहे हैं, उससे यह घटना और भी अधिक उल्लेखनीय होती जा रही है। 1850 में फ्रांस जब युवा देश से एक वृद्ध देश बना था तब अमेरिका में गुलामी कानूनी बनी हुई थी, रोशनी के बल्ब का आविष्कार नहीं हुआ था, और जर्मनी एकीकृत देश नहीं बना था। इस देश को 1980 में एक प्रौढ़ समाज बनने के लिए और 130 साल लग गए। फ्रांस के 2023 में अत्यधिक उम्र वर्ग में आने की संभावना है। कई सालों तक, यह माना जाता था कि जापान में पृथ्वी पर सबसे तेजी से प्रौढ़ हो रही आबादी है। 1960 के दशक के आरंभ में जी-7 देशों में सबसे कम उम्र की आबादी वाले देश की स्थिति से यह 2008 में दुनिया का सबसे अधिक उम्र वाला देश बन गया। लेकिन यदि वर्तमान अनुमान सही सिद्ध होते हैं, तो कई देश इस तरह के परिवर्तन की प्रक्रिया एक दशक पहले पूरी कर लेंगे। वास्तव में, आज दुनिया में सबसे तेजी से प्रौढ़ होता देश दक्षिण कोरिया है, जो 1999 में प्रौढ़ होता जा रहा समाज बन गया था, 2017 में इसके प्रौढ़ समाज बन जाने की संभावना है, और 2027 में यह अत्यधिक वृद्ध देश बन जाएगा। दूसरे शब्दों में, दक्षिण कोरिया में यह परिवर्तन तीन दशकों से कम अवधि में पूरा हो जाएगा जबकि इसके लिए फ्रांस को लगभग 175 साल का समय लगा होगा। और हालाँकि दक्षिण कोरिया सबसे तेजी से वृद्ध होता जा रहा है, यह निकट रूप से समूहित देशों के समूह में सबसे आगे है जिसमें बांग्लादेश, सिंगापुर, थाईलैंड, और वियतनाम शामिल हैं। ईरान, जो अभी तक युवा के रूप में वर्गीकृत है, सबसे तेजी से प्रौढ़ होते देश का खिताब पाने के लिए एक और दावेदार है। उम्र का बढ़ना जीवन प्रत्याशाओं के बढ़ने और प्रजनन दरों के कम होने का परिणाम होता है। प्रजनन दरों में गिरावट की गति दुनिया भर में नाटकीय रही है; ईरान में यह दर 1984 में प्रति महिला सात बच्चों से कम होकर 2006 में 1.9 हो गई जो किसी भी रूप में आश्चर्यजनक से कम नहीं थी। जब कामकाजी उम्र वाली आबादी कम होने लग जाएगी और बुजुर्ग आबादी बढ़ने लग जाएगी तो इसके निश्चित रूप से दीर्घकालिक परिणाम होंगे। ईरान के 2020 के बाद तक युवा बने रहने की उम्मीद है, लेकिन उसके बाद 30 साल से कम समय में वह अत्यधिक उम्र वर्ग में आ सकता है। और फिर भी, चाहे उम्र बढ़ने के कैसे भी प्रतिकूल आर्थिक प्रभाव हों, विकल्प पर विचार करना महत्वपूर्ण है। सिएरा लियोन, लेसोथो, मध्य अफ्रीकी गणराज्य, और जिम्बाब्वे जैसे देश इस धरती पर सबसे कम जीवन प्रत्याशा वाले देशों में हैं। उन्हें अकाल, भ्रष्टाचार, संघर्ष, साफ पानी तक पहुँच न मिल पाना और शिक्षा, एड्स, और इबोला जैसी कई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है, लेकिन तेजी से सामाजिक उम्र का बढ़ना उन चुनौतियों में शामिल नहीं है। तेजी से प्रौढ़ होती आबादी एक समस्या हो सकती है, लेकिन कुल मिलाकर, यह एक बहुत अच्छी समस्या है। विकास नामक मछली जिनेवा - अभी-अभी अपनाए गए सतत विकास लक्ष्यों (एसडीजी) से वैश्विक विकास में एक नए युग के आरंभ होने की संभावना है, जो लोगों, धरती, समृद्धि, शांति, और भागीदारी के नाम पर दुनिया को बदलने का वादा करता है। लेकिन वादा करने और उसे करके दिखाने में ज़मीन आसमान का अंतर होता है। और यद्यपि वैश्विक घोषणाएँ महत्वपूर्ण होती हैं, वे वित्तपोषण को प्राथमिकता देती हैं और राजनीतिक इच्छाशक्ति का मार्ग प्रशस्त करती हैं - आज की गई प्रतिज्ञाओं में से बहुत-सी प्रतिज्ञाएँ पहले भी की जा चुकी हैं। वास्तव में, एसडीजी सफल होंगे या नहीं, यह बहुत हद तक इस पर निर्भर करेगा कि वे अन्य अंतर्राष्ट्रीय समझौतों, विशेष रूप से सबसे अधिक जटिल और विवादास्पद समझौतों को किस प्रकार प्रभावित करते हैं। ��र एक प्रारंभिक परीक्षण एक ऐसे लक्ष्य से संबंधित है जिसके लिए वैश्विक महासागर आयोग ने सक्रिय रूप से अभियान चलाया था: “सतत विकास के लिए महासागरों, समुद्रों, और समुद्री संसाधनों का संरक्षण और सतत उपयोग करना।” राजनीतिक नेता जब दिसंबर में नैरोबी में होनेवाले दसवें विश्व व्यापार संगठन के मंत्रिस्तरीय सम्मेलन में मिलेंगे, तो उन्हें उस लक्ष्य के सबसे महत्वपूर्ण लक्ष्यों में से एक को पूरा करने की दिशा में आगे बढ़ने का अवसर प्राप्त होगा: मछली बहुत अधिक मात्रा में पकड़ने और अवैध रूप से, बिना सूचित किए और अनियंत्रित रूप से पकड़ने में योगदान करनेवाली सब्सिडियों को अधिकतम 2020 तक बंद करना। यह कोई नई महत्वाकांक्षा नहीं है; यह विश्व व्यापार संगठन के एजेंडा पर कई वर्षों तक रही है, और इसे अन्य अंतर्राष्ट्रीय सतत विकास की घोषणाओं में शामिल किया गया है। लेकिन, आज भी देश मत्स्यपालन के लिए सब्सिडी पर प्रतिवर्ष $30 बिलियन खर्च करते हैं जिसका 60% प्रत्यक्ष रूप से, अरक्षणीय, विनाशकारी, और यहां तक कि अवैध प्रथाओं को प्रोत्साहित करता है। इसके परिणामस्वरूप जो बाजार विरूपण होता है वह दुनिया के मत्स्यपालन के पुराने कुप्रबंधन का एक प्रमुख कारण है, और विश्व बैंक के अनुमान के अनुसार वैश्विक अर्थव्यवस्था को इस पर 2012 में $83 बिलियन खर्च करने पड़े। वित्त और स्थिरता के बारे में चिंताओं के अलावा, इस मुद्दे से समानता और न्याय के बारे में महत्वपूर्ण प्रश्न उठते हैं। वैश्विक मत्स्यपालन सब्सिडियों में चीन और दक्षिण कोरिया के साथ समृद्ध अर्थव्यवस्थाओं (विशेष रूप से जापान, अमेरिका, फ्रांस और स्पेन) का अंश 70% रहता है। इन परिवर्तनों के फलस्वरूप मछली पकड़ने पर निर्भर हजारों-लाखों समुदायों को सब्सिडी प्राप्त प्रतिद्वंद्वियों के साथ प्रतिस्पर्धा करनी पड़ती है और इससे लाखों लोगों की खाद्य सुरक्षा के लिए खतरा पैदा हो जाता है क्योंकि दूरदराज से आनेवाले औद्योगिक बेड़े उनके महासागरीय भंडारों को कम कर देते हैं। पश्चिम अफ्रीका को विशेष रूप से अधिक नुकसान हो रहा है जहाँ मछली पकड़ना जीवन और मरण का मामला हो सकता है। 1990 के दशक से, जब विदेशी जहाज़ों ने, मुख्य रूप से यूरोपीय संघ और चीन से अपने तटों से दूर औद्योगिक पैमाने पर मछली पकड़ना शुरू कर दिया था, बहुत से स्थानीय मछुआरों के लिए अब जीवन निर्वाह करना या अपने परिवारों का भरण पोषण करना असंभव हो गया है। सरकार के अनुमान के अनुसार,1994 से 2005 तक, सेनेगल में पकड़ी जानेवाली मछली की मात्रा 95,000 टन से कम होकर 45,000 टन तक हो गई, और इस देश ने अपनी परंपरागत लकड़ी की बड़ी नौकाओं के अपने आधे बेड़े को खो दिया है। 2005 में मछली के भंडारों में भारी कमी हो जाने के कारण 5,000 लोगों ने अपनी बेकार पड़ी मछली पकड़ने की नौकाओं का अलग तरीके से उपयोग करने का फैसला किया, वे पलायन करके स्पेनिश कैनरी द्वीप चले गए। एक साल बाद, 30,000 से अधिक और लोगों ने वैसी ही खतरनाक यात्रा की, और लगभग 6000 लोग डूब गए। सेनेगल और मॉरीतानियाई मछुआरे और उनके परिवार उन हजारों लोगों में से हैं जो आज यूरोप जाने के लिए अपनी जान खतरे में डाल रहे हैं। गहरे समुद्र में भ्रम और भी अधिक होता है। मत्स्यपालन के अर्थशास्त्रियों के अनुसार, दुनिया के सबसे अमीर देशों में से कुछ द्वारा दी जानेवाली सब्सिडियाँ ही केवल ऐसा कारण हैं जिसके फलस्वरूप तटीय देशों के 200 मील के विशेष आर्थिक क्षेत्रों से बाहर बड़े पैमाने पर औद्योगिक मछली पकड़ना लाभदायक होता है। लेकिन मछलियाँ अंतर्राष्ट्रीय सीमाओं का पालन नहीं करती हैं, और अनुमान है कि पकड़ी जानेवाली वाणिज्यिक मछलियों में से 42% देशों के विशेष क्षेत्रों और गहरे समुद्र के बीच यात्रा करती रहती हैं। परिणामस्वरूप, तट से दूर किए जानेवाले औद्योगिक मत्स्यपालन से विकासशील देशों के तटीय मत्स्यपालन, अधिकतर कुशल मछुआरों द्वारा किए जानेवाले मत्स्यपालन पर दुष्प्रभाव पड़ता है। 2020 तक हानिकारक मत्स्यपालन को समाप्त करना न केवल सागर के संरक्षण के लिए महत्वपूर्ण है; यह अन्य लक्ष्यों को पूरा करने की हमारी क्षमता को भी प्रभावित करेगा, जैसे भूख को समाप्त करने और खाद्य सुरक्षा को प्राप्त करने और देशों में और देशों के बीच असमानता को कम करने के हमारे वादे। विश्व व्यापार संगठन और नए अपनाए गए एसडीजी दोनों की विश्वसनीयता नैरोबी में परखी जाएगी। हानिकारक मत्स्यपालन सब्सिडी को खत्म करने के लिए वैश्विक महासागर आयोग ने एक स्पष्ट तीन चरणों का कार्यक्रम प्रस्तुत किया है। अब तो बस यही चाहिए कि सरकारें अंततः इनके कारण होनेवाले अन्याय और बर्बादी को समाप्त करने के लिए सहमत हो जाएँ। सौभाग्य से, उत्साहजनक संकेत मिल रहे हैं। विश्व व्यापार संगठन के लगभग 60% सदस्य मत्स्यपालन सब्सिडी को नियंत्रित करने का समर्थन करते हैं जिनमें अफ्रीकी, कैरिबियाई और विकासशील देशों के प्रशांत समूह का समर्थन शामिल है और पारदर्शिता और रिपोर्टिंग में सुधार करने के लिए यूरोपीय संघ के योगदान से इस प्रयास को नई गति मिल रही है। नैरोबी बैठक से पहले जो पहल की जा रही हैं उनमें तथाकथित "न्यूजीलैंड + 5 प्रस्ताव है।" न्यूजीलैंड, अर्जेंटीना, आइसलैंड, नॉर्वे, पेरू, और उरुग्वे द्वारा सह-प्रायोजित, इस योजना के तहत उन मत्स्यपालन सब्सिडियों को समाप्त किया जाएगा जो अधिक मात्रा में किए गए मत्स्यपालन के भंडारों को प्रभावित करती हैं और अवैध, सूचित न किए गए, और अनियंत्रित मत्स्यपालन में योगदान करती है। वैश्विक वैश्विक महासागर आयोग विश्व व्यापार संगठन के बाकी 40% सदस्यों, और विशेष रूप से वर्तमान में इस प्रक्रिया को अवरुद्ध कर रहे सबसे बड़े खिलाड़ियों से आग्रह कर रहा है कि वे प्रस्तावित किए जानेवाला अपेक्षाकृत सामान्य प्रस्तावों को स्वीकार कर लें । हमारी धरती और उसके महासागरों के लिए टिकाऊ भविष्य इस पर निर्भर करता है। क्या सचमुच बिजली की कमी है? मार्टिगनी, स्विट्ज़रलैंड – यदि हम पृथ्वी पर पड़नेवाले सिर्फ दो मिनट के सूर्य के प्रकाश की ऊर्जा को पकड़कर उसका उपयोग करने में सक्षम हो पाते, तो यह पूरे एक वर्ष के लिए हमारी कारों में ईंधन भरने, हमारी इमारतों को रोशनी और ताप देने, और बिजली की हमारी अन्य सभी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए पर्याप्त होती। सीधे शब्दों में कहा जाए तो हम मानव बिजली की कमी का सामना नहीं कर रहे हैं। हम इसे पकड़ने और उपभोक्ताओं तक पहुँचाने में तकनीकी चुनौती का सामना कर रहे हैं; और इस चुनौती का मुकाबला करने का सबसे कारगर तरीका इसका भंडारण करने के बेहतर तरीकों में निवेश करना है। आज दुनिया की बहुत सी समस्याओं, तेल की आपूर्तियों के बारे में विवादों और ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जनों के बारे में चिंताओं से लेकर बिजली की कमी और बिजली बंद होने के फलस्वरूप उत्पादकता और उत्पादन की हानि, के मूल में बिजली के उपयोग को देखा जा सकता है। दुनिया के बहुत-से अत्यधिक गरीब भागों में, ऊर्जा की कमी के कारण आर्थिक विकास पिछड़ जाता है। वैश्विक स्तर पर 1.3 बिलियन से अधिक लोगों को बिजली तक पहुँच प्राप्त नहीं है; और लगभग 2.6 बिलियन लोगों को खाना पकाने की आधुनिक सुविधाओं तक पहुँच नहीं है। इनमें से 95% से अधिक लोग उप-सहारा अफ्रीका या ���िकासशील एशिया में हैं, और 84% ग्रामीण क्षेत्रों में रहते हैं। उदाहरण के लिए, नाइजीरिया में हाल ही में राष्ट्रपति पद के चुनाव की प्रक्रिया के दौरान एक महिला से पूछा गया कि वह उम्मीदवारों से कौन सी चीज़ उपलब्ध किए जाने की उम्मीद करना चाहेगी। उसने एक शब्द में जवाब दिया: "बिजली।" बिजली एक ऐसी बुनियादी चीज़ है, जिससे वह अपना काम करना जारी रख सकती है और उसके बच्चे पढ़ाई करना जारी रख सकते हैं। अविश्वसनीय या अनुपलब्ध ऊर्जा अफ्रीका और भारतीय उप-महाद्वीप के अधिकांश भागों में, साथ ही एशिया के कुछ अन्य भागों में भी एक समस्या है। अंतर्राष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी की एक रिपोर्ट के अनुसार, ऊर्जा क्षेत्र में सुधार होने से दुनिया के कुछ अत्यधिक गरीब भागों में एक दशक के विकास जितनी प्रगति हो सकती है। हमारा वैश्विक ऊर्जा संकट नवाचार की कमी से बढ़ गया है। संयुक्त राज्य अमेरिका की सरकार की लॉरेंस लिवरमोर राष्ट्रीय प्रयोगशाला द्वारा किए गए एक अध्ययन के अनुसार, हम जो ऊर्जा इस्तेमाल करते हैं उसका 60% से अधिक भाग उसके उत्पन्न होने के समय से लेकर उसकी खपत किए जाने के बीच नष्ट हो जाता है। इसमें जीवाश्म ईंधनों को बिजली में परिवर्तित करने में अकुशलता, संचार के दौरान हानियाँ, उपभोक्ता द्वारा फिज़ूलखर्च करने की आदत, और बिजली बंद होने को रोकने के लिए एक सुरक्षित भंडार बनाए रखने की जरूरत भी शामिल है। नवाचार की एक ऐसी नई लहर की आवश्यकता है जो बर्बादी को समाप्त कर सके, प्रदूषण को कम कर सके, और दुनिया भर में ऊर्जा की उपलब्धता तक पहुँच को व्यापक बना सके। इसका अर्थ यह है कि बेतार संचार, मशीन-से-मशीन संचार, स्मार्ट मीटर बनाने, और बेहतर उत्पादन प्रबंधन जैसी दक्षता बढ़ानेवाली प्रौद्योगिकियों पर ध्यान केंद्रित किया जाना चाहिए। सौर और पवन ऊर्जा सहित अक्षय ऊर्जा के स्रोत, परिपक्व और उभरती अर्थव्यवस्थाओं दोनों में ही ऊर्जा की ज़रूरतों के लिए योगदान करने की अच्छी स्थिति में हैं। लेकिन, क्योंकि सूरज हमेशा चमकता नहीं रहता है, और हवा हमेशा बहती नहीं रहती है, इसलिए इन स्रोतों से ऊर्जा अस्थिर रूप से और रुक-रुक कर प्राप्त होती है। और, जब तक हम अक्षय स्रोतों से प्राप्त बिजली को कुशलतापूर्वक संरक्षित करने में सक्षम नहीं हो पाते हैं तब तक यह एक समस्या बनी रहेगी। अमेरिकी पश्चिमी विद्युत समन्वय परिषद द्वारा किए गए अध्ययनों से पता चला है कि ऊर्जा को संरक्षित करने के बेहतर तरीके खोजने पर बिजली के कुल अपव्यय में 18% की कटौती की जा सकती है और बिजली उपयोग की कुशलता को 11% तक बढ़ाया जा सकता है। ऊर्जा भंडारण के बेहतर तरीकों से कम पहुँच वाले उन दुर्गम क्षेत्रों में भी बिजली उपलब्ध करना आसान हो जाएगा जिनमें अभी तक बिजली पूरी तरह उपलब्ध नहीं है, और साथ ही इससे बिजली के प्रायः दुर्लभ स्रोतों का सर्वोत्तम उपयोग करने में मदद मिलेगी। ऊर्जा के भंडारण के लिए एक सुपरीक्षित विधि इसकी अतिरिक्त क्षमता का उपयोग पानी को जलाशयों में भेजने के लिए करना है ताकि बाद में मांग अधिक होने पर इसका उपयोग टर्बाइनों को ऊर्जा प्रदान करने के लिए किया जा सके। लेकिन यह विधि केवल पहाड़ी क्षेत्रों में ही व्यावहारिक है, और यह बड़े पैमाने पर व्यावसायिक समाधान के रूप में उपयुक्त नहीं है। अनुसंधान के आशाजनक क्षेत्रों में ग्रिड-स्तर की बैटरियाँ शामिल हैं जिनमें हज़ारों-लाखों बार चार्ज और डिस्चार्ज किए जाने और डेटा विश्लेषण की क्षमता होती है जिससे बैटरियों का इष्टतम उपयोग किया जा सकता है और ग्रिड को यथासंभव अधिक कुशल बनाया जा सकता है। ऊर्जा उत्पन्न करने के लिए इतना ही पर्याप्त नहीं है। हमें इसका उपयोग भी कुशलता से करना चाहिए, और अत्याधुनिक भंडारण प्रौद्योगिकी का व्यापक पैमाने पर उपयोग किया जाना समाधान का एक अनिवार्य हिस्सा होगा। दुनिया की ऊर्जा आपूर्तियाँ स्थिर कुशल, सुलभ, और सस्ती हों, इसे सुनिश्चित करने में समय लगेगा। लेकिन सफलताओं की संभावनाएँ साफ दिखाई दे रही हैं। हमारा काम है कि हम उन पर अपनी नज़रें टिकाए रखें। आप्रवास: यूरोप के लिए सुअवसर लंदन – पिछले वर्ष 4,000 से अधिक पुरुषों, महिलाओं एवं बच्चों को भू-मध्यसागर पार कर अफ्रीका से यूरोप जाने के प्रयास में अपनी जान गँवानी पड़ी। उनकी दर्दनाक मौतों के के बाद भी उमड़ती भीड़ में कोई कमी नहीं हुई है बल्कि यह हर सप्ताह बढ़ती जा रही है, और तट पर तस्करों की निर्लज्जता और क्रूरता भी निरंतर बढ़ रही है। केवल इसी वर्ष के आरंभ से लेकर अब तक बर्फीले पानी से हजारों प्रवासियों की जान बचाई जा चुकी है। इस पृष्ठभूमि में - और पेरिस एवं कोपेनहेगन में आतंकी हमलों से उत्प‍न्न भय को देखते हुए - यूरोपीय संघ, आप्रवास के मुद्दे पर एक नई और अत्यंत महत्वपूर्ण योजना तैयार करने के लिए कमर कस चुका है। इस मुद्दे पर आगे की कार्रवाई हेतु विचार-विमर्श करने के लिए जब यूरोपीय संघ के आयुक्तों की बैठक होगी, तो उन्हें तात्कालिक एवं भावनात्मक समाधानों के प्रलोभन से बचना होगा, और इसके बजाय अपने देश और विदेश दोनों के लिए सचमुच रचनात्मक और व्यापक योजना तैयार करनी होगी। पिछली बार 2011 में यूरोप में आप्रवास को लेकर कुछ ऐसी ही निर्णायक स्थिति तब आई थी जब अरब स्प्रिंग के फलस्वरूप उत्तरी अफ़्रीका में हिंसा और अव्यवस्था के कारण लोगों का सैलाब वहाँ से कूच करके नए आगंतुकों के रूप में आने लग गया था। वह समय शरणार्थियों के भरण-पोषण हेतु निवेश के लिए भू-मध्यसागर मार्शल योजना तैयार करने का साहसिक कदम उठाने का था जिसमें निवेश को आप्रवास से जोड़ा जा सकता था परंतु यह अवसर यूँ ही हाथ से निकल जाने दिया गया। इसके बजाय, यूरोपीय संघ ने अपनी शरणार्थी व्यवस्था में दिखावटी सुधार किए और प्रवासी “कल्याण में धोखाधड़ी” जैसे व्यर्थ के मुद्दों पर बहस करके संतोष कर लिया। वर्ष 2014 में आप्रवास और शरण-स्थल के लिए यूरोपीय संघ की कुल आकस्मिक निधि मात्र €25 मिलियन ($28 मिलियन) थी – जिसमें सदस्य देशों से प्राप्त राशि भी शामिल है और सामूहिक रूप से जुटाए जाने की दृष्टि से यह राशि शर्मनाक रूप से कम थी। पिछले वसंत में, सैकड़ों लोगों की जान बचाने में इटली के मेयर नॉस्ट्रम सी-रेस्क्यू ऑपरेशन के साहसिक प्रयासों की तुलना में यूरोपीय संघ की पहल अत्यंत कमज़ोर है जो अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए जूझ रही है। यूरोपीय संघ के भीतर प्रतिबद्धता और दयालुता के असंतुलन ने इस समस्या को और भी जटिल बना दिया है। स्वीडन और जर्मनी ने अपने यहाँ सीरिया और अन्य स्थानों से आए अधिकांश शरणार्थियों को जगह दी है, जबकि यूरोपीय संघ के अधिकतर अन्य सदस्य देशों ने बहुत थोड़े शरणार्थियों को ही स्वीकार किया है या किसी को भी स्वीकार नहीं किया है। उदाहरण के लिए यूके ने पिछले वर्ष सीरियाई शरणार्थियों के लिए महज 90 पुनर्वास केंद्रों की पेशकश की थी। (इसके विपरीत तुर्की, लेबनान, और जॉर्डन लगभग चार मिलियन शरणार्थियों के पुनर्वास पर कई बिलियन डॉलर खर्च कर रहे हैं)। ग्रीस, इटली, और माल्टा को नए आनेवाले शरणार्थियों को बसाने के लिए जो खामियाजा भुगतना पड़ा है, उसमें उससे जुड़ी वित्तीय, सामाजिक, और राजनीतिक लागतों को वहन करने का प्रभाव शामिल है। परिणामस्वरूप, भू-मध्यसागर में लगातार चल रही इस त्रासदी का यूरोपीय संघ की अखंडता पर गंभीर खतरा मंडराने लगा है। लगातार अकर्मण्यता से न तो इस समस्या का समाधान होगा और न ही इससे यूरोपीय संघ के नेताओं को उनके देश के आगामी चुनावों में कोई लाभ होगा। उत्तरी अफ्रीका के कई देशों की सरकारों की अस्थिरता को देखते हुए यूरोपीय संघ के अनेक देशों के लिए "तस्करों पर नकेल कसना" ही इस समस्या का सही समाधान हो सकता है जिसका प्रभाव दिखाई देने में कई वर्ष लगेंगे। इस बीच, मध्य-पूर्व में और अधिक अस्थिरता की संभावना सचमुच बहुत अधिक है जिससे अंतर्राष्ट्रीय कानून के अंतर्गत सुरक्षा समाधान के कारण उन करोड़ों लोगों की सुरक्षा खतरे में पड़ जाएगी जिनके पास शरण पाने का दावा करने का कानूनी अधिकार होगा। इसके लिए अधिक बेहतर और सक्रिय नज़रिए की जरूरत है।,इसका तात्कालिक आवश्यक उपाय तो संसाधनों में वृद्धि करना है लेकिन कार्रवाई की दृष्टि से व्यावहारिक यही होगा कि लोगों की जान बचाने के स्पष्ट दिशा-निर्देशों सहित यूरोपीय संघ की ओर से संयुक्त रूप से गहन समुद्री निगरानी प्रक्रिया शुरू की जाए। जब शरणार्थी यूरोप के समुद्र तटों पर पहुँचें, तो यूरोपीय संघ को उनकी व्यवस्था करने और शरण देने की वित्तीय और प्रशासनिक दोनों तरह की सामूहिक जिम्मेदारी लेनी चाहिए, चाहे वे कहीं पर भी उतरें। और जब बात सीरियाई नागरिकों की हो, तो सभी सदस्य देशों को एकजुट होकर एक कदम आगे बढ़कर उनके पुनर्वास हेतु मिल-बाँट कर ज़िम्मेदारी लेनी चाहिए। इस बीच, 30,000 से भी अधिक सीरियाई शरणार्थियों के पुनर्वास हेतु यूरोपीय संघ ने अब तक जो प्रतिबद्धता दिखाई है, उसे उससे कहीं अधिक संख्या में शरणार्थी स्वीकार करने चाहिए, ताकि तस्करों की नावों का बोझ हल्का किया जा सके। यह देखते हुए कि लेबनान, तुर्की, और जॉर्डन द्वारा लाखों लोगों को शरण दी जा रही है, उनके लिए यह संख्या कम-से-कम 2,50,000 के आस-पास रखना उचित होगा। इस बीच, यूरोपीय संघ के विदेश मंत्रियों को भू-मध्यसागर पार करने का जोखिम उठाने वालों के लिए नई, कानूनी, और सुरक्षित राह तैयार करने के लिए अफ्रीकी देशों के साथ वार्ता में तेज़ी लानी चाहिए। इसमें मानवीय आधार पर वीज़ा, श्रम वीज़ा और पारिवारिक पुनर्मिलन वीज़ा देना शामिल किया सकता है और इनके आवेदनों के संबंध में कार्रवाई विदेशों में की जा सकती है। यूरोपीय संघ के देशों को उत्तरी अफ्रीका की अर्थव्यवस्थाओं को विकसित होने देने के लिए साझा भूमध्य सागरीय बाज़ार तैयार करने देने जैसे अधिक दीर्घकालिक लक्ष्यों पर विचार करना चाहिए ताकि उन क्षेत्रों को अंततः पारगमन क्षेत्र के बजाय प्रवासियों हेतु गंतव्य के रूप में परिवर्तित किया जा सके। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि यूरोप को स्वयं को भीतर से बाहर तक सशक्त बनाने की ज़रूरत है। यूरोपीय महाद्वीप को विविधता के प्रति बिल्कुल अलग दृष्टिकोण की बेहद ज़रूरत है। यूरोपीय संघ के देशों के पास दो विकल्प हैं: वे या तो अपने देश की घिसी-पिटी एकल-‍नृजातीय संस्कृति के स्वरूप की ओर लौटने का निष्फल प्रयास करें, अथवा अपनी राष्ट्रीय संस्कृति के प्रति जागरूक बने रहने के साथ-साथ विविधता का ताना-बाना स्वीकार कर लें जिससे उनकी संस्कृति का न सिर्फ अस्तित्व बचा रहेगा, बल्कि उसे और भी फलने-फूलने का अवसर मिलेगा। ऐसा करने से‍यूरोप के मूलभूत मूल्यों से किसी भी तरह समझौता नहीं करना पड़ेगा। बल्कि इसके लिए उनकी जाति या उनके धर्म पर विचार किए बिना उन मूल्यों को अपनाने वाले सभी लोगों के प्रति सम्मान की भावना रखने की प्रति‍बद्धता होगी। कुछ लोग भूमध्य को यूरोप का कमज़ोर और ख़तरनाक क्षेत्र मानते हैं। परंतु इस महाद्वीप को स्थिर, विविधतापूर्ण समाज के रूप में विकसित न कर पाना ही यूरोपीय संघ की वास्तव में सबसे कमजोर कड़ी है। एक्सऑनमोबिल की ख़तरनाक कारोबारी रणनीति न्यूयॉर्क – एक्सऑनमोबिल की वर्तमान कारोबारी रणनीति इसके शेयरधारकों और दुनिया के लिए एक ख़तरा है। एक्सऑनमोबिल के सीईओ रेक्स टिलरसन की अध्यक्षता वाली नैशनल पेट्रोलियम काउंसिल की आर्कटिक समिति की एक रिपोर्ट ने, हमें एक बार फिर इसकी चेतावनी दी है। इस रिपोर्ट में जलवायु परिवर्तन के परिणामों का उल्लेख किए बिना, अमेरिकी सरकार से आर्कटिक में तेल और गैस के लिए खुदाई का कार्य शुरू करने के लिए कहा गया है। यद्यपि अन्य तेल कंपनियों ने जलवायु परिवर्तन के बारे में ईमानदारी से बात करना शुरू कर दिया है, एक्सऑनमोबिल के कारोबारी मॉडल में इस वास्तविकता की अनदेखी करना जारी रखा गया है। यह दृष्टिकोण न केवल नैतिक रूप से गलत है; बल्कि यह वित्तीय रूप से भी विनाशकारी है। वर्ष 2014 मौसमविज्ञान के दस्तावेज़ों के अनुसार सबसे गर्म रहा, जो इस साल दिसंबर में पेरिस में संपन्न होनेवाले वैश्विक जलवायु समझौतों के लिए इस धरती के ख़तरों के बारे में एक ख़ौफनाक चेतावनी है। दुनिया की सरकारें मानव प्रेरित वार्मिंग को 2º सेल्सियस (3.6º फारेनहाइट) से नीचे रखने के लिए सहमत हो गई हैं। फिर भी वर्तमान अनुमान इस बात के सूचक हैं कि इस सदी के अंत तक वार्मिंग इस सीमा से बहुत अधिक, संभवतः 4-6º सेल्सियस होगी। तथापि, इसका समाधान यह है कि जीवाश्म ईंधनों के स्थान पर पवन और सौर बिजली ऊर्जा जैसी कम कार्बन वाली ऊर्जा, और कम कार्बन वाली बिजली से चलाए जानेवाले विद्युत वाहनों का उपयोग किया जाए। दुनिया की कई सबसे बड़ी तेल कंपनियाँ इस सच्चाई को स्वीकार करने लग गई हैं। टोटल, ईएनआई, स्टैटऑयल, और शेल जैसी कंपनियाँ कम कार्बन वाली ऊर्जा में बदलाव की गति को तेज़ करने के लिए कार्बन की कीमत (जैसे कोई कर या परमिट प्रणाली) निर्धारित करने की वकालत कर रही हैं और उन्होंने इसके लिए आंतरिक रूप से तैयारी करनी शुरू कर दी है। शेल ने कार्बन डाइऑक्साइड को पकड़कर अलग करने (सीसीएस) की प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में अपने निवेशों में वृद्धि की है ताकि यह परीक्षण किया जा सके कि क्या उस कार्बन डाइऑक्साइड को पकड़ने से जीवाश्म ईंधन के उपयोग को सुरक्षित बनाया जा सकता है जो अन्यथा वातावरण में विलीन हो जाएगी। यह नहीं कहा जा सकता कि इन कंपनियों ने सभी बातों को मान लिया है; उन्होंने वादा किया है कि वे इस साल के जलवायु शिखर सम्मेलन से पहले ही जलवायु संबंधी अपनी स्थितियों और नीतियों के बारे में बताएँगे। फिर भी वे कम-से-कम जलवायु परिवर्तन के बारे में बात तो कर रहे हैं और बाजार की नई दीर्घ-कालीन स्थितियों का सामना करने के लिए शुरूआत कर रहे हैं। परंतु खेद है कि एक्सऑनमोबिल इन सबसे अलग है। कंपनी का प्रबंधन, अपनी स्वयं की विशाल राजनीतिक सत्ता के गुरूर में बदलती वैश्विक वास्तविकताओं के प्रति जानबूझकर उपेक्षा का व्यवहार करता है। यह वाशिंगटन के पैरोकारों और राजनीतिक सलाहकारों के एक ऐसे खोल में रहती है, जिन्होंने कंपनी के नेताओं को आश्वस्त किया हुआ है कि चूँकि वर्तमान में अमेरिकी सीनेट रिपब्लिकनों के हाथों में है, जलवायु परिवर्तन के व्यावसायिक जोखिम किसी भी तरह निरस्त कर दिए गए हैं, और दुनिया उनके बिना या उनके बावजूद बदल नहीं जाएगी। साथ ही, एक्सऑनमोबिल धरती के इस नाटक में कोई छोटा-मोटा किरदार नहीं है। यह प्रमुख पात्रों में से एक है। 2013 के एक अध्ययन के अनुसार, कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जनों के कुल योगदान की दृष्टि से, एक्सऑनमोबिल का दुनिया की कंपनियों के बीच दूसरा स्थान है और यह शेवरॉन से थोड़ा ही पीछे है। वास्तव में, इस अध्ययन से यह पता चलता है कि अकेले इस एक कंपनी ने जीवाश्म ईंधन का युग शुरू होने के बाद से अब तक दुनिया के कुल उत्सर्जनों में 3% से अधिक का योगदान किया है! तो एक्सऑनमोबिल का जलवायु की नई वास्तविकताओं के बारे में क्या कहना है? यह अपनी कंपनी की नीतियों का धरती की जरूरतों के साथ किस प्रकार सामंजस्य बैठाएगी? दुर्भाग्यवश, कंपनी मूल रूप से इस मुद्दे को गोल कर जाती है। जब कार्बन ट्रैकर जैसे स्वतंत्र विश्लेषकों द्वारा उनसे पूछा गया कि अपनी लगातार तेल की खुदाई के बारे में यह देखते हुए कंपनी क्या योजना बना रही है कि जीवाश्म ईंधन के उपयोग के लिए धरती की सीमाएँ आवश्यक रूप से जलवायु परिवर्तन की 2º की सीमा से नीचे रखी जानी चाहिए, पर वह इन सीमाओं की परवाह नहीं करती है। यह बेफ़िक्री से यह मानती है कि दुनिया की सरकारें अपनी प्रतिबद्धताओं का कतई पालन नहीं करेंगी (या यह कि वह उन्हें पूरा न करने के लिए अपनी राजनीतिक पहुँच से कोई रास्ता निकाल सकती है)। और इसलिए हम हाल ही की आर्कटिक रिपोर्ट पर आते हैं। ऊर्जा विभाग ने उद्योग के समूह, नैशनल पेट्रोलियम काउंसिल से आर्कटिक की खुदाई पर उसकी सलाह माँगी। उसे टिलरसन की समिति से जो कुछ प्राप्त हुआ वह गलत दिशा में किया गया कार्य है। आर्कटिक के तेल और गैस संसाधनों के विकास से वार्मिंग में 2º की सीमा से कहीं अधिक योगदान होगा। स्वयं आर्कटिक में वार्मिंग धरती के औसत से बहुत अधिक तेज़ी से हो रही है, जिससे संभावित रूप से, वैश्विक पैमाने पर भारी जलवायु विघटन हो रहे हैं - जिसमें हाल ही में अमेरिका के मध्य-अक्षांशों में पाए गए चरम मौसम के स्वरूप शामिल हो सकते हैं। इन कारणों से, इस वर्ष हाल ही में विज्ञान की सर्वोत्तम खोज, नेचर में प्रकाशित एक महत्वपूर्ण अध्ययन सहित, से एक स्पष्ट और सीधा संदेश मिलता है: आर्कटिक तेल को ज़मीन में और गहरे समुद्रों के नीचे ही रखा रहने दें; इसके लिए जलवायु प्रणाली में कोई सुरक्षित जगह नहीं है। दुनिया के पास पहले से ही तेल और गैस के ज़रूरत से ज़्यादा भंडार हैं; अब हमें कम कार्बन वाली ऊर्जा को अपनाने की ज़रूरत है, उपयोगिता-सिद्ध बहुत से भंडारों का स्थानीय रूप से उपयोग किया जाना चाहिए, न कि उन्हें विकसित करके धरती को और अधिक ख़तरे में डालना चाहिए। नेचर के अध्ययन में बताया गया है कि: "आर्कटिक में संसाधनों का विकास करना और अपरंपरागत तेल उत्पादन में कोई भी वृद्धि करना औसत ग्लोबल वार्मिंग को 2º सें. तक सीमित रखने के प्रयासों के अनुरूप नहीं है।" यह नैशनल पेट्रोलियम काउंसिल के आर्कटिक अध्ययन के लिए एक उपयुक्त विषय हो सकता था। लेकिन इसकी रिपोर्ट में कभी भी इस मुद्दे को नहीं लिया गया है कि आर्कटिक तेल और गैस संसाधन जलवायु सुरक्षा के साथ संगत हैं या नहीं। एक्सऑनमोबिल की निर्लज्जता उसके शेयरधारकों के लिए बहुत अधिक परेशानी का कारण बन सकती है। कंपनी का प्रबंधन आर्कटिक में तेल और गैस के भंडार विकसित करने के लिए भारी राशियाँ - शायद अरबों डॉलर - खर्च करने की योजना बना रहा है जिनका सुरक्षित रूप से इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है। जैसे नवीकरणीय ऊर्जा की ओर वैश्विक बदलाव ने पहले ही तेल की कीमतों में भारी गिरावट में योगदान किया है, उसी तरह भविष्य के वर्षों में जिन जलवायु नीतियों को अपनाया जाएगा उनके कारण नई आर्कटिक खुदाई संसाधनों की भारी बर्बादी सिद्ध होगी। दुनिया भर में पेंशन फंड, विश्वविद्यालय, बीमा पूल, और सरकारी धन निधियाँ तेल, गैस, और कोयले की कंपनियों के शेयरों के मालिक होने के फलस्वरूप बढ़ते जोखिमों, नैतिक और वित्तीय दोनों, से जूझ रहे हैं। जैसा कि लीज़ा सैश और मैंने हाल ही में बताया है, जिम्मेदार निवेशकों को चाहिए कि वे इन कंपनियों से तत्काल यह पूछें कि वार्मिंग के बारे में 2º की सीमा का अनुपालन करने के लिए उनकी कारोबारी योजनाएँ क्या हैं। जलवायु-सुरक्षित दुनिया में ऐसी कारोबारी योजनाओं के लिए कोई जगह नहीं है जिनमें आर्कटिक, अत्यधिक-गहरे समुद्र, और कनाडा के तेल मरुस्थल में निवेश शामिल हों। एक्सऑनमोबिल के निवेशकों को चाहिए कि वे कंपनी के प्रबंधतंत्र से उस व्यावसायिक रणनीति के बारे में तत्काल प्रश्न करें जो वैश्विक जरूरतों और नीति संबंधी समझौतों के विपरीत है। यदि एक्सऑनमोबिल अपनी खतरनाक व्यापार रणनीति को चालू रखती है, तो कंपनी के निवेशकों को जल्दी ही इस निष्कर्ष पर पहुँच जाना चाहिए कि अब समय आ गया है कि इस कंपनी को अलविदा कहकर आगे चलते बनें। अधिक तेल, अधिक तंबाकू, अधिक झूठ बोस्टन- पिछलेकुछवर्षोंसे, अधिकाधिकलोगइसबारेमेंगंभीरतासेसोचनेलगेहैंकिहमारेग्रहकीक्यादशाहोरहीहै- ऐतिहासिकसूखेपड़रहेहैं, समुद्रोंकाजलस्तरबढ़रहाहै, भारीबाढ़ेंआरहीहैं, औरअंतमेंलोगयहस्वीकारकरनेलगगएहैंकिमानवगतिविधियाँतीव्रजलवायुपरिवर्तनकाकारणबनरहीहैं।लेकिनक्याआपअंदाज़ालगासकतेहैं? एक्सॉन(अबएक्सॉनमोबिल) कोइसकाअंदाज़ाबहुतपहले1978 मेंहीहोगयाथा। 1980 केदशककेशुरूमें, एक्सॉनकेवैज्ञानिकोंकोइसकीभनकहीनहींबल्किबहुतअधिकजानकारीथी।उन्होंनेनकेवलजलवायुपरिवर्तनकेपीछेछिपेविज्ञानकोसमझलियाथा, बल्कियहभीसमझलियाथाकिइसघटनाकोअंजामदेनेमेंकंपनीकीअपनीबहुतबड़ीभूमिकाहै।यहजानलेनेपरकिआबादीकेएकबहुतबड़ेहिस्सेकेलिएइसकेसंभावितप्रभाव "विनाशकारी"होंगे, उन्होंनेएक्सॉनकेशीर्षकार्यपालकोंसेकार्रवाईकरनेकेलिएआग्रहकिया। इसकेबजाय, कार्यपालकोंनेसच्चाईकोदफनकरदिया। क्रोधितकर देनेवालीइसकहानीमेंआशाकीकिरणभीदिखाईदेतीहै: अभीहालहीमेंकीगईजिसजाँचनेएक्सॉनकेछलकोउजागरकियाहैउसकीपरिणतिमंडरातेजलवायुसंकटसेनिपटनेकेलिएकीजानेवालीआवश्यककार्रवाईकोउत्प्रेरितकरनेकेरूपमेंहोसकतीहै।आखिरकार, तंबाकूउद्योगकेबारेमेंइसीतरहकेखुलासेहोनेसे- प्रमुखसिगरेटकंपनियोंकोकौन-सीजानकारीथीऔरकबथी- सार्वजनिकस्वास्थ्यकापरिदृश्यहीबदलगया। 1996 में, तंबाकूकंपनियोंपरकईमुकदमेदायरकिएजानेकेफलस्वरूपउन्हेंमजबूरहोकरऐसेलाखोंआंतरिकदस्तावेज़जारीकरनेपड़गएथेजिनसेउसबातकीपुष्टिहोगईजिसकेबारेमेंसार्वजनिकस्वास्थ्यकेपैरोकारोंऔरनीतिनिर्माताओंकोबहुतपहलेसेहीसंदेहथा: 1950 केदशककेप्रारंभमेंही, इसउद्योगकोयहपताचलगयाथाकिनिकोटीनसेनशेकीलतपड़जातीहैऔरसिगरेटोंसेकैंसरहोताहै।लेकिन, अपनेस्वयंकेहितोंकीरक्षाकरनेकेलिए, बड़ेतंबाकूउद्योगनेजानबूझकरजनताकोगुमराहकिया, उनवैज्ञानिकनिष्कर्षोंकोसंदेहास्पदसिद्धकरनेकेलिएहरसंभवप्रयासकिएजिनकेबारेमेंउसेपताथाकिवेसहीहैं। इसतरहकीरणनीतिसेयहउद्योगउनविनियमोंको50 सालसेअधिकसमयतकरुकवाकररखसकाजिनसेहरसाललाखोंलोगोंकेजीवनकोबचायाजासकताथा। तथापि, इनखुलासोंकेबादयहस्पष्टहोगयाथाकितंबाकूउद्योगएकऐसीअहितकारीताकतहैजिसेनीतिनिर्माणकीप्रक्रियासेसंबंधितनहींहोनाचाहिएथा। बड़ेतंबाकूउद्योगकेदृश्यसेहटजानेपर, औरतंबाकूकेउपयोग के वास्तविकप्रभावोंकेसबूतसेलैसहोनेपर,स्वास्थ्यकेपैरोकारअंततःअपनीसरकारोंकोकार्रवाईकरनेकेलिएमजबूरकरनेमेंसफलहुए। 2003 में, दुनियाकेनेताविश्वस्वास्थ्यसंगठनकेतत्वावधानमेंकिएगएसमझौतेकेजरिएतंबाकूकेनियंत्रणपरफ्रेमवर्ककन्वेंशन(FCTC) परसहमतहुए।आज, इससंधिमेंदुनियाकी 90% आबादीशामिलहैऔरइसकेफलस्वरूपवैश्विकतंबाकूकंपनियोंकीबिक्रीमेंभारीकमीहुईहै।समयबीतनेकेसाथ, इससेलाखोंलोगोंकाजीवनबचसकेगा(औरसरकारोंकोस्वास्थ्यदेखभालकेबजटोंमेंभारीधनराशियोंकीबचतहोगी)। अबयहस्पष्टहोगयाहैकिबड़ेतेलउद्योगद्वाराबड़ेतंबाकूउद्योग की नीतियोंकाअनुसरणकियाजारहाहै। जलवायुपरिवर्तनकाअध्ययनशुरूकरनेकेलगभगदोदशकोंकेबाद1997 में, इसनेअपनेअनुसंधानकोयहकहकरखारिजकरदियाकिजलवायुविज्ञान "बहुतअधिकअस्पष्ट"हैऔरइसलिएवह"ऊर्जाकेउपयोगमेंअनिवार्यकटौतियोंकासमर्थन" नहींकरताहै। एक्सॉनमोबिल(औरउसकेसहयोगियों) नेअपनेस्वयंकेनिष्कर्षोंकोदबानेकेअतिरिक्त, अप्रचलितविज्ञानकेलिएधनदियाऔरउसकाप्रचारकियाऔरसन्निकटजलवायुआपदाकीचेतावनीदेनेवालेवैज्ञानिकोंपरहमलाकिया। जीवाश्मईंधनकंपनियोंकादृष्टिकोणइतनाअधिक प्रभावीथाकिपूरेताने-बानेमेंसेतथाकथित "जलवायुवादविवाद"कोतैयारकरनेमेंइस उद्योगनेजोअग्रणीभूमिकानिभाईथीउसकेबारेमेंमीडियाकोअबपताचलनाशुरूहुआहै। लेकिनशायदबड़ेतेलउद्योगकीसबसेबड़ीसफलतायहथीकिउसनेउचितविनियमनकोलागूकरनेकेलिएराजनीतिकइच्छाशक्तिकोमंदकरदियाथा।1992 मेंअंतर्राष्ट्रीयसमुदायद्वाराजलवायुपरिवर्तनपरसंयुक्तराष्ट्रफ्रेमवर्ककन्वेंशन(यूएनएफसीसीसी) कोस्वीकारकरलिएजानेकेबादभी, जीवाश्मईंधनउद्योगसार्थकप्रगतिकोइसहदतकअवरुद्धकरनेमेंकामयाबरहाहैकियदिशीघ्रहीगंभीरकार्रवाईनहींकीजातीहैतोपूरीप्रक्रियाचौपटहोसकतीहै। यूरोपमें, रॉयल डच शेल के पैरोकारों नेयूरोपीयसंघकेप्रयासोंकोइतनाअधिककमज़ोरकरदियाथाकिअबअलग-अलगदेशोंकेलिएनवीकरणीयऊर्जायाऊर्जादक्षताके लिएकोईबाध्यकारीलक्ष्यनहींहैं।इसकंपनीनेयूरोपीयआयोगकेअध्यक्षकोएकपत्रभीभेजा था जिसमेंयहदावाकियागया थाकि "यूरोपकेलिएगैसअच्छीहै।" शेलऔरअन्यतेलकंपनियाँअबयहवादाकररहीहैंकिवेजलवायुपरिवर्तनसेनिपटनेकेलिएराष्ट्रीयसरकारोंकेलिए "सलाहकारों" केरूपमेंकामकरेंगी। जिसतरहतंबाकूकीफ़ाइलोंनेतंबाकूउद्योगकोनीतिनिर्माणकीप्रक्रियाओंसेअलगकरदियाथा, एक्सॉनकीजाँचकोदुनियाभरकेनेताओंको जलवायुसंकटकोहलकरनेकेप्रयासोंसेजीवाश्मईंधनउद्योगकोदूररखने के लिएमजबूरकरदेनाचाहिए। सचतोयहहै कि यदिनीतिकोबनानेवालेलोगहीउसकीविफलतापरदाँवलगारहेहोंतोकोईभीनीतिसफलनहींहोसकतीहै। तंबाकूसेसंबंधितसार्वजनिकस्वास्थ्यनीतिमेंमहत्वपूर्णमोड़तबआयाथाजबइसउद्योगकोअलगरखनानिर्विवादरूपसेतयहोगयाथा। अब, वहीक्षणजलवायुआंदोलनकेलिएआगयाहै। हमकिसीभीतरहयहउम्मीदनहींकरसकतेकिजीवाश्मईंधनउद्योगअपनेतौर-तरीकेबदललेगा।जैसाकिमानवअधिकारसमूहों, पर्यावरणकार्यकर्ताओं, औरकॉर्पोरेटजवाबदेहीकेपैरोकारोंकाएकगठबंधनपहलेसेहीमांगकरताआरहाहै, हमेंइसउद्योगकोनीतिनिर्माणकीप्रक्रियासेपूरीतरहसे बाहरकरदेनाचाहिए। एक्सॉनकेवैज्ञानिकोंनेसहीकहाथा: कईसमुदायोंपरजलवायुपरिवर्तनकेप्रभावविनाशकारीहोतेहैं। इतनेसारेलोगोंकाजीवनदाँवपरलगेहोने- औरखतरेकेइसतरहकेस्पष्टसबूतउपलब्धहोनेपर- जैसाकिपहलेबड़ेतंबाकूउद्योगकेमामलेमेंकियागयाथा- बड़ेतेलउद्योगकाभी बड़ेसंकटकेलिएइलाजकियाजानाचाहिए क्योंकि यह एक बड़ा संकट है। जलवायु परिवर्तन से सबसे अधिक नुकसान किसे होगा? सिएटल– कुछ साल पहले, मेलिंडा और मैंने भारत के बिहार में चावल उगानेवाले किसानों के एक समूह के साथ दौरा किया था जो सबसे अधिक बाढ़ की आशंका वाला क्षेत्र है। वे सभी बेहद गरीब थे और उस चावल पर निर्भर करते थे जिसे वे अपने परिवार को खिलाने और उसका भरण-पोषण करने के लिए उगाते थे। हर साल मानसून की बारिशें शुरू होने पर नदियों में उफान आ जाता था, और उनके खेतों में बाढ़ आ जाने से उनकी फसलों के बर्बाद होने का ख़तरा पैदा हो जाता था। फिर भी, वे इस उम्मीद पर सब कुछ दाँव पर लगाने के लिए तैयार रहते थे कि इस बार उनके खेत को बख्श दिया जाएगा। यह ऐसी बाजी होती थी जिसमें वे अक्सर हार जाते थे। जब उनकी फसलें बर्बाद हो जाती थीं तो वे अपने परिवारों का पेट भरने के लिए छोटे-मोटे काम की तलाश में शहरों की ओर पलायन कर जाते थे। अगले साल वे फिर लौट आते थे - और फिर से फसल बोने के लिए तैयार हो जाते थे - हालाँकि अक्सर वे छोड़कर जाने के समय की तुलना में अधिक गरीब हो चुके होते थे। हमारा दौरा इस बात की भारी चेतावनी थी कि दुनिया के सबसे गरीब किसानों के लिए उनका जीवन नट के रस्सी पर चलने जैसा है जिसमें कोई सुरक्षा नहीं होती है। उन्हें अमीर देशों में किसानों को मिलनेवाले बेहतर बीजों, खाद, सिंचाई प्रणालियों, और अन्य लाभकारी प्रौद्योगिकियों जैसी कोई सुविधाएँ नहीं मिलती हैं - और उन्हें हानियों से रक्षा के लिए फसल बीमा की सुविधा भी नहीं मिलती है। सूखा, बाढ़, या बीमारी जैसा दुर्भाग्य का बस एक झटका उन्हें गरीबी और भुखमरी में गहरे धकेलने के लिए पर्याप्त होता है। अब, जलवायु परिवर्तन उनके जीवन में जोखिम की एक नई परत जोड़ने के लिए मुँह बाये बैठा है। आगामी दशकों में विशेष रूप से उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में बढ़ते तापमानों के कारण कृषि के क्षेत्र में भारी रुकावटें आएंगी। बहुत कम बारिश होने या बहुत ज्यादा बारिश होने से फसलें नहीं उगेंगी। गर्म जलवायु में कीट पनपेंगे और फसलों को नष्ट कर देंगे। अमीर देशों में भी किसानों को परिवर्तनों का अनुभव होगा। लेकिन इन जोखिमों का प्रबंध करने के लिए उन्हें उपकरण और समर्थन उपलब्ध हैं। दुनिया के सबसे गरीब किसान हर दिन काम के लिए हाज़िर होते हैं और ज्यादातर उन्हें खाली हाथ लौटना पड़ता है। यही कारण है कि जलवायु परिवर्तन से जो भी लोग पीड़ित होंगे उनमें से इन लोगों के सबसे अधिक पीड़ित होने की संभावना है। गरीब किसानों को इन परिवर्तनों की मार तो झेलनी पड़ेगी लेकिन साथ ही बढ़ती हुई जनसंख्या को खिलाने के लिए दुनिया को उनकी मदद की जरूरत भी होगी। 2050 तक वैश्विक खाद्य मांग में 60% की वृद्धि होने की उम्मीद है। फसलों में कमी होने से वैश्विक खाद्य प्रणाली पर दबाव पड़ेगा, भुखमरी बढ़ेगी और पिछली आधी सदी के दौरान दुनिया ने गरीबी के खिलाफ जो भारी प्रगति की है वह मटियामेट हो जाएगी। मुझे पूरा भरोसा है कि हम जलवायु परिवर्तन के सबसे खराब प्रभावों से बच सकते हैं और दुनिया को अनाज दे सकते हैं - बशर्ते हम अभी से काम करना शुरू कर दें। सरकारों के लिए इस बात की तत्काल आवश्यकता है कि वे ऐसे नए स्वच्छ-ऊर्जा नवाचारों में निवेश करें जिनसे ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जनों में नाटकीय रूप से कमी होगी और बढ़ते तापमानों को रोका जा सकेगा। साथ ही, हमें यह समझ लेने की ज़रूरत है कि अधिक गर्म तापमानों के सभी प्रभावों को रोकने के मामले में पहले ही बहुत देर हो चुकी है। भले ही दुनिया अगले सप्ताह किसी सस्ते, स्वच्छ ऊर्जा के स्रोत की खोज कर भी ले, तो भी उसे अपनी जीवाश्म ईंधन-चालित आदतों को दूर करने और कार्बन-मुक्त भविष्य की ओर जाने में समय लगेगा। इसीलिए दुनिया के लिए यह महत्वपूर्ण है कि वह सबसे गरीब लोगों की अनुकूलन में मदद करने के प्रयासों में निवेश करे। उन्हें जिन साधनों की आवश्यकता होगी उनमें से अधिकतर बहुत बुनियादी हैं - खाद्य उत्पादन बढ़ाने और अधिक आय अर्जित करने के लिए उन्हें इन चीज़ों की जरूरत है: वित्तपोषण, बेहतर बीज, उर्वरक, प्रशिक्षण, और ऐसे बाजार जिनमें वे अपनी उगाई हुई चीज़ों को बेच सकें। अन्य साधन नए हैं और बदलते हुए मौसम की मांग के अनुरूप हैं। गेट्स फाउंडेशन और उसके सहयोगियों ने सूखे या बाढ़ के समय के दौरान भी बीज की नई किस्मों को विकसित करने के लिए मिलकर काम किया है। उदाहरण के लिए, बिहार में मैं जिन चावल किसानों से मिला, वे अब बाढ़-सहिष्णु चावल की एक नई किस्म पैदा कर रहे हैं – जिसका नाम "स्कूबा" चावल रखा गया है - जो दो सप्ताह तक पानी के भीतर बना रह सकता है। यदि मौसम के स्वरूप में बदलाव से उनके क्षेत्र में अधिक बाढ़ आती है तो वे इसके लिए पहले से ही तैयार हैं। चावल की ऐसी अन्य किस्में विकसित की जा रही हैं जो सूखे, गर्मी, सर्दी, और नमक के भारी संदूषण जैसी मिट्टी की समस्याओं का सामना कर सकें। इन सभी प्रयासों में जीवन को बदलने की शक्ति है। आम तौर पर यह देखा जाता है कि किसान अपनी फसलों और आयों को तब दुगुना या तिगुना कर लेते हैं जब उन्हें अमीर दुनिया के किसानों को बिना मांगे मिलनेवाली प्रगति तक पहुँच मिलने लगती है। इस नई समृद्धि से उन्हें अपने आहारों में सुधार करने, अपने खेतों में निवेश करने, और अपने बच्चों को स्कूल भेजने में मदद मिलती है। इससे उन्हें अपने तलवार की धार जैसे जीवन से हटकर जिंदगी जीने का मौका मिलता है, और उनमें सुरक्षा की भावना आती है चाहे उनकी फसल खराब भी क्यों न हो जाए। जलवायु परिवर्तन से ऐसे खतरे भी होंगे जिनका हम पूर्वानुमान नहीं लगा सकते। इसके लिए तैयार रहने के लिए, दुनिया को बीजों के अनुसंधान में तेजी लाने और छोटे किसानों के लिए समर्थन देने की जरूरत है। किसानों की मदद करने के लिए सबसे उत्साहजनक नवाचार उपग्रह प्रौद्योगिकी है। अफ्रीका में, शोधकर्ता मिट्टी के विस्तृत नक्शे बनाने के लिए उपग्रह चित्रों का उपयोग कर रहे हैं जो किसानों को यह जानकारी दे सकते हैं कि उनकी धरती पर कौन सी किस्में पनपेंगी। फिर भी, किसी बेहतर बीज या किसी नई तकनीक से कृषक परिवारों के जीवन को नहीं बदला जा सकता जब तक यह उनके हाथ में न हो। एक गैर-लाभकारी समूह, एक एकड़ फंड सहित कई संगठन यह सुनिश्चित करने के तरीके खोज रहे हैं कि किसान इन समाधानों का लाभ उठाते हैं। एक एकड़ फंड 200,000 से अधिक अफ्रीकी किसानों के साथ मिलकर काम करता है और उन्हें वित्तपोषण, उपकरणों, और प्रशिक्षण तक पहुँच प्रदान करता है। 2020 तक, उनका लक्ष्य एक लाख किसानों तक पहुँचने का है। इस वर्ष के वार्षिक पत्र में, मेलिंडा और मैंने यह शर्त लगाई कि अफ्रीका अगले 15 वर्षों में खुद को खिलाने में सक्षम हो जाएगा। जलवायु परिवर्तन के जोखिमों के बावजूद, मैं इस शर्त पर अडिग हूँ। हाँ, गरीब किसानों के लिए यह मुश्किल बात है। उनके जीवन ऐसी पहेलियाँ हैं जिनके सही बीज बोने और सही उर्वरक का उपयोग करने से लेकर प्रशिक्षण प्राप्त करने और अपनी फसल को बेचने के लिए कोई जगह होने जैसे बहुत से टुकड़े अभी जोड़े जाने हैं। अगर सिर्फ एक टुकड़ा अपनी जगह से अलग हो जाता है, तो उन सबके जीवन बर्बाद हो सकते हैं। मैं जानता हूँ कि दुनिया के पास वह सब है जिससे आज उनके सम्मुख आनेवाली इन दोनों चुनौतियों और कल आनेवाली चुनौतियों का सामना करने के लिए उन टुकड़ों को सही जगह पर लगाने में मदद की जा सकती है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि मैं यह जानता हूँ कि किसानों को भी यह बात पता है। बैंकर क्रांति कुआला लुम्पुर - वित्तीय नियामकों को आम तौर पर परिवर्तन के प्रति एक नपा-तुला और सतर्क दृष्टिकोण अपनाने के लिए जाना जाता है। लेकिन विकासशील दुनिया में, इस ख्याति को उल्टा-पुल्टा किया जा रहा है। दुनिया के सबसे गरीब देशों में से कुछ में, केंद्रीय बैंकरों ने यह साबित कर दिया है कि वे साहसिक निर्णय लेने - औपचारिक वित्तीय प्रणाली में सहभागिता को व्यापक बनाने की खोज में नवीन दृष्टिकोण को अपनाने, वित्तीय स्थिरता को बढ़ाने, और अपने देशों को समावेशी, टिकाऊ आर्थिक विकास के मार्ग पर लाने के लिए तत्पर हैं। वित्तीय समावेशन को बढ़ाने के लिए इस बात पर मौलिक रूप से पुनर्विचार करने की आवश्यकता होती है कि किसी देश की वित्तीय प्रणाली को किस प्रकार संरचित और संचालित किया जाता है। इसके लिए अक्सर केंद्रीय बैंकरों के पारंपरिक साधनों से इतर लिखतों का उपयोग करने की आवश्यकता पड़ती है। उदाहरण के लिए, केन्या में अधिकारियों ने विनियामक ढाँचे को इस बात के प्रति सचेत किया कि वे मोबाइल मुद्रा के विकास के लिए अनुमति दें। मलेशिया में, केंद्रीय बैंक ने जनता की वित्तीय साक्षरता के स्तर को ऊपर उठाने में प्रमुख भूमिका अदा की। और फिलीपीन्स में, बैंको सेन्ट्रल एनजी पिलिपिनास ने उन पहुँच स्थलों की संख्या दुगुनी करने में मदद की जहाँ उपभोक्ता वित्तीय सेवाएँ प्राप्त कर सकते हैं, 517 माइक्रो बैंकिंग कार्यालय खोलने में सहायता की, इनमें से कई कार्यालय ऐसी नगरपालिकाओं में खोले गए जहाँ कोई पारंपरिक बैंक शाखाएँ नहीं थीं। इसी तरह, 2011 में बैंक ऑफ़ तंजानिया ने वित्तीय समावेशन के लिए सहयोग की माया घोषणा के तहत वित्तीय समावेशन को बढ़ाने के लिए विशिष्ट प्रतिबद्धता की, जो विकासशील देशों में गरीबों की सामाजिक और आर्थिक क्षमता का उपयोग करने हेतु नीति निर्माताओं की प्रतिबद्धता है। इसका परिणाम नाटकीय और अपेक्षाओं से बेहद अधिक था। तंजानिया ने अपने 50% वयस्क नागरिकों को बैंकिंग तक पहुँच प्रदान करने के लिए जो लक्ष्य रखा था उसे इसने निर्धारित समय से एक वर्ष पहले ही प्राप्त कर लिया जिससे यह देश डिजिटल वित्तीय सेवाओं में वैश्विक अग्रणी बन गया। पड़ोसी देश केन्या की तरह, मोबाइल मुद्रा को बड़े पैमाने पर अपनाना खेल परिवर्तक सिद्ध हुआ। बैंक के गवर्नर बेन्नो नदुलु ने कहा कि "यह अपरंपरागत लग सकता है। लेकिन हमें विनियमन की अपेक्षा नवाचार को बढ़ावा देना चाहिए।" इलेक्ट्रॉनिक मुद्रा के मामले में पूर्वी अफ्रीका जहाँ पथ प्रदर्शक बना हुआ है, वहीं दुनिया के अन्य भाग विभिन्न नवोन्मेषी दृष्टिकोण अपना रहे हैं। कोलंबिया में पिछले वर्ष कांग्रेस ने विशेषीकृत इलेक्ट्रॉनिक जमा और भुगतान संस्था नामक एक नई तरह की वित्तीय संस्था बनाने के लिए कानून पारित किया। यद्यपि ये संस्थाएँ तकनीकी तौर पर बैंक नहीं हैं, ये मोबाइल फोन के माध्यम से या किसी डाक घर जैसे लाइसेंसशुदा स्थानों पर ग्राहकों से इलेक्ट्रॉनिक रूप से जमा और भुगतान स्वीकार करने के लिए सक्षम होती हैं। यह प्रयास 2014 में शुरू की गई एक व्यापक राष्ट्रीय रणनीति का हिस्सा है जिसमें 2016 के अंत तक 76% वयस्कों को वित्तीय पहुँच और 56% वयस्कों को सक्रिय बचत खाते उपलब्ध किए जाएँगे। और प्रशांत क्षेत्र में, फिजी, पापुआ न्यू गिनी, समोआ, सोलोमन द्वीपसमूह, तिमोर-लेस्ते, टोंगा, और वानुअतु प्रशांत द्वीप क्षेत्रीय पहल (पीआईआरआई) को बनाने के लिए एकजुट हुए हैं जिससे प्रत्येक प्रशांत द्वीप देश, चाहे इनमें से किसी का केंद्रीय बैंक न भी हो, भौगोलिक रूप से चुनौतीपूर्ण वातावरण में वित्तीय सेवाओं की पहुँच, गुणवत्ता, और उनके उपयोग को बेहतर बनाने के लिए जानकारी को साझा कर सकेगा। इनमें से प्रत्येक प्रयास देश के नेतृत्व वाली पहल के रूप में शुरू हुआ था, जो विशेष चुनौतियों से उद्भूत हुआ था और स्थानीय आबादी की विशिष्ट जरूरतों को पूरा करने के लिए बनाया गया था। लेकिन अनुभव का इकट्ठा होना अमूल्य साबित हो रहा है। ज्यों-ज्यों सबक साझा किए जा रहे हैं और सफलताओं से दूसरों को प्रेरणा मिल रही है, इसका प्रभाव भी कई गुना बढ़ता जा रहा है, यहाँ तक कि सबसे छोटे देश भी यह प्रदर्शित करने लग गए हैं कि वे महत्वपूर्ण योगदान कर सकते हैं। इस बीच, जब केंद्रीय बैंक अपने परिचालन के तरीके बदलने लग गए हैं, प्रतिक्रिया के रूप में खुदरा बैंकों ने व्यापार करने के नए तरीके अपनाना शुरू कर दिया है। केन्या के ईक्विटी बैंक ने प्रत्यक्षतः वित्तीय रूप से अपवर्जित वर्गों को लक्षित करके काफी विशाल आकार धारण कर लिया है; सिर्फ छह वर्षों में, इसके ग्राहकों की संख्या आधे मिलियन से बढ़कर लगभग छह मिलियन हो गई है। दूरसंचार कंपनियाँ भी नई सेवाओं का मार्ग प्रशस्त कर रही हैं। उदाहरण के लिए, टिगो अब सीमा पार के मोबाइल भुगतानों और बिक्री एजेंटों के लिए नकदी रहित सेवाओं जैसे उत्पादों के साथ लैटिन अमेरिका और अफ्रीका में 14 से अधिक देशों में 56 मिलियन ग्राहकों को सेवा प्रदान कर रहा है। जैसा कि महान परिवर्तन के किसी भी युग में होता है, यह देख पाना आसान नहीं होता है कि आगे क्या होनेवाला है। वीज़ा में वैश्विक वित्तीय समावेशन के प्रमुख स्टीफन केहो ने हाल ही में यह कहा कि "पिछले सात वर्षों से इस बात के बिल्कुल कोई संकेत नहीं मिलते हैं कि अगले सात वर्षों में क्या होगा।" तथापि, यह तो स्पष्ट है कि अभी भी बहुत कुछ किया जाना बाकी है - और यह भी कि अवसर लगभग असीम हैं। दुनिया के दो बिलियन बैंक रहित लोगों को अंधकार से बाहर निकालने और मुख्य धारा की वित्तीय प्रणाली में लाने के लिए नियामकों, निजी क्षेत्र, गैर-लाभ संस्थाओं, क्षेत्रीय निकायों, और अंतर्राष्ट्रीय संगठनों के बीच नई साझेदारियों की आवश्यकता होगी। यह काम किसी कठिन काम की तरह लग सकता है, लेकिन इसे पूरा कर लेने पर हर किसी के लिए उज्ज्वल भविष्य का निर्माण करने में मदद मिलेगी। जीवाश्म ईंधन की मूर्खताएँ बर्लिन – यदि दुनिया जलवायु की तबाही से बचना चाहती है, तो इसे प्रमाणित कोयला भंडारों के लगभग 90% को जलाने का मोह छोड़ना होगा, और साथ ही प्राकृतिक गैस के एक-तिहाई और तेल के आधे भंडारों को भी छोड़ना होगा। लेकिन इस लक्ष्य को साकार करने के उद्देश्य से बनाई गई नीतियों को लागू करने के बजाय सरकारों ने न केवल जीवाश्म ईंधन उद्योग को सब्सिडी देना, बल्कि नए भंडारों को खोजने के लिए दुर्लभ सार्वजनिक संसाधनों का उपयोग करना भी जारी रखा है। इसे बदलना होगा - और जल्दी ही। इस परिवर्तन को प्रोत्साहित करने के लिए मदद करने के प्रयास में, हेनरिक बॉल फाउंडेशन और अर्थ इंटरनेशनल के दोस्तों ने अभी हाल ही में जारी कोयला एटलस में कोयला उद्योग के बारे में महत्वपूर्ण डेटा एकत्रित किया है। ये आंकड़े आश्चर्यजनक हैं। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के अनुसार, कोयले के लिए कर-पश्चात सब्सिडियों की राशि (पर्यावरणीय क्षति सहित) इस वर्ष वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद के 3.9% तक पहुँच गई। अनुमान है कि जी-20 की सरकारें नए जीवाश्म ईंधनों के लिए अन्वेषणों की सब्सिडियों पर प्रति वर्ष $88 बिलियन खर्च करेंगी। और प्राकृतिक संसाधन सुरक्षा परिषद, ऑयल चेंज इंटरनेशनल, और वर्ल्ड वाइड फंड फॉर नेचर की एक हाल ही की रिपोर्ट से पता चला है कि 2007 से 2014 तक, सरकारों ने कोयला परियोजनाओं में $73 बिलियन – या प्रतिवर्ष $9 बिलियन से अधिक का सार्वजनिक धन लगाया। इनमें जापान ($20 बिलियन), चीन (लगभग $15 बिलियन), दक्षिण कोरिया ($7 बिलियन), और जर्मनी ($6.8 बिलियन) अग्रणी थे। इस सार्वजनिक निवेश से कोयला क्षेत्र के लिए पहले से ही किए जा रहे पर्याप्त वाणिज्यिक वित्तपोषण में और अधिक वृद्धि हो गई। 2013 में, 92 प्रमुख बैंकों ने कम-से-कम €66 बिलियन ($71 बिलियन) की राशि प्रदान की – यह 2005 की तुलना में चौगुनी से अधिक थी। यह सब एक ऐसे उद्योग को मज़बूत करने के लिए किया गया जो वैश्विक उत्सर्जनों में भारी मात्रा में योगदान करता है - और वह इसे जारी रखने के लिए दृढ़ संकल्प दिखाई देता है। 1988 के बाद से केवल 35 कोयला उत्पादकों, निजी और राज्य के स्वामित्व वाले, दोनों ही ने कुल कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जनों में एक-तिहाई का योगदान किया है। उनके उत्पाद जो क्षति कर रहे हैं वह किसी से छिपा नहीं है। और फिर भी कोयला और अन्य जीवाश्म ईंधन कंपनियों ने अपने व्यापार मॉडलों को बदलने से मना कर दिया है। इसके बजाय, उन्होंने जलवायु परिवर्तन को नकारनेवालों का वित्तपोषण करने और नवीकरणीय ऊर्जा के लक्ष्यों और फ़ीड-इन टैरिफ जैसे सफल साधनों के खिलाफ पैरवी करने सहित, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जलवायु परिवर्तन को कम करने के प्रयासों को रोकने के लिए सक्रिय रूप से काम किया है। इस बीच, कोयला उद्योग का तर्क है कि यह "ऊर्जा की गरीबी” - अर्थात विद्युत के आधुनिक गैर-प्रदूषणकारी रूपों, मुख्य रूप से बिजली तक पहुँच की कमी - से निपटने के लिए अपरिहार्य भूमिका का निर्वाह करता है। यह सच है कि ऊर्जा की गरीबी एक बड़ी समस्या है, जो दुनिया भर में लगभग 1.2 बिलियन लोगों को प्रभावित करती है। किसानों को अपनी फसलों की सिंचाई के लिए पंप किए गए पानी पर निर्भर रहना ज़रूरी है, उनके लिए इसका मतलब कम कार्यक्षमता और कम उत्पादकता है। परिवारों के लिए खाना पकाने के लिए लकड़ी, उपले और मिट्टी का तेल जलाना ज़रूरी है, उनके लिए इसका मतलब घर के अंदर वायु प्रदूषण का होना है जिससे सांस की बीमारी हो सकती है। स्कूली बच्चों के लिए, अंधेरा होने के बाद खराब रोशनी होने का मतलब सीखने के अवसरों को खोना है। लेकिन कोयला समाधान नहीं है। कोयला उत्पादन और दहन के स्वास्थ्य पर पड़नेवाले प्रभाव चौंकानेवाले हैं। 2013 में, कोयला श्रमिकों में क्लोमगोलाणुरुग्णता ("काले फेफड़ों के रोग") के कारण विश्व स्तर पर 25,000 से अधिक लोगों की मृत्यु हुई। यूरोपीय संघ में, कोयला दहन के कारण प्रतिवर्ष 18,200 समयपूर्व मौतें और क्रोनिक ब्रोंकाइटिस के 8,500 नए मामले होते हैं। चीन में, कोयला दहन के कारण लगभग 250,000 लोगों की समयपूर्व मृत्यु हो जाती है। शारीरिक दुर्घटनाओं के कारण काम के दिनों की हानि से लेकर स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली पर पड़नेवाले दबाव के रूप में भारी आर्थिक लागतें भी वहन करनी पड़ती हैं। जलवायु परिवर्तन के कारण भी भारी लागतें आएँगी, भले ही शमन और अनुकूलन के मजबूत उपाय भी क्यों न किए जाएँ। 48 सबसे कम विकसित देशों के लिए, कोयले की लागतें शीघ्र ही अनुमानित तौर पर $50 बिलियन प्रतिवर्ष हो जाएँगी। सब्सिडियाँ प्राप्त करने के बजाय, जीवाश्म-ईंधन उद्योग को तो जलवायु परिवर्तन के लिए भुगतान करना चाहिए। सच तो यह है कि अभी पिछले साल, दो शीर्ष जीवाश्म ईंधन कंपनियों - शेवरॉन और एक्सॉनमोबिल कंपनियों - ने मिलकर $50 बिलियन से अधिक का लाभ कमाया। यदि दुनिया को कार्बन डाइऑक्साइड कैप्चर और स्टोरेज या भू इंजीनियरिंग जैसी खतरनाक और जोखिमपूर्ण प्रौद्योगिकियाँ अपनाने के लिए मजबूर किए बिना, वैश्विक सतह के तापमान में वृद्धि को पूर्व-औद्योगिक स्तरों से 2 डिग्री सेल्सियस अधिक तक सीमित रखने का कोई मौका हासिल करना है, तो इसकी ऊर्जा प्रणाली को बदलाना होगा। और सबसे पहले, दुनिया के नेताओं को जीवाश्म ईंधनों को चरणबद्ध रूप से समाप्त करने के लिए प्रतिबद्ध होना चाहिए, जिसमें 90% प्रमाणित कोयला भंडारों, एक-तिहाई तेल भंडारों, और आधे गैस भंडारों को ज़मीन में रहने देने का लक्ष्य स्पष्ट होना चाहिए। उन्हें अगले कुछ वर्षों के भीतर जितनी जल्दी हो सके कोयले के लिए सार्वजनिक सब्सिडी भी समाप्त कर देनी चाहिए, और यह सुनिश्चित करना चाहिए कि गरीब और कमजोर समुदायों पर ऊर्जा की कीमतों में वृद्धि का बोझ नहीं पड़ता है। इसके अलावा, दुनिया भर की सरकारों को कोयला और अन्य जीवाश्म-ईंधन उत्पादकों के उत्पादों ने जो क्षति पहुँचाई है, उसके लिए जीवाश्म ईंधन उत्कर्षण पर लेवी लगाने सहित, जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन के तहत नुकसान और क्षति पर वारसॉ तंत्र को निधि प्रदान करने के लिए उन्हें जवाबदेह ठहराना चाहिए। मौजूदा अंतरराष्ट्रीय कानून - विशेष रूप से, "प्रदूषणकर्ता भुगतान करे" का सिद्धांत, "कोई नुकसान न करें” का नियम, और क्षतिपूर्ति का अधिकार - ऐसी प्रणाली का समर्थन करता है। अंत में, ऊर्जा गरीबी से निपटने के लिए दुनिया भर के नेताओं को चाहिए कि वे विकासशील देशों में नवीकरणीय ऊर्जा के मिनी ग्रिडों के लिए विश्व स्तर पर वित्तपोषित फ़ीड-इन टैरिफ के माध्यम से किए जानेवाले वित्तपोषण सहित, विकेन्द्रीकृत नवीकरणीय ऊर्जा परियोजनाओं के वित्तपोषण में वृद्धि करें। जीवाश्म ईंधन उद्योग को अपने स्वयं के हितों की रक्षा करने में सफलता हमारे भूमंडल और उसके लोगों के स्वास्थ्य की कीमत पर मिली है। अब हमारी विकृत वैश्विक ऊर्जा प्रणाली में सुधार करने का समय आ गया है - इसकी शुरूआत यह संकल्प करके की जा सकती है कि कोयला और अन्य जीवाश्म ईंधनों को वहीं छोड़ दें जहाँ पर वे हैं। अच्छी फसल, बुरी फसल नैरोबी – आनुवांशिक रूप से परिवर्तित (जीएम) फसलों के आयात पर केन्या की पाबंदी एक ऐसे देश में परेशान करने वाली प्रवृत्ति को दर्शाती है जिसे कृषि क्षेत्र में नवाचारी की तरह देखा जाता है. यह कदम एक महाद्वीप के लिए उलटी दिशा में एक बड़ी छलांग है जिसे अपने यहां खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए अकसर जूझना पड़ता है. कायदे से पूर्वाग्रह, भय और अटकलबाजी की जगह तर्कसंगत वैज्ञानिक सोच को अपनाना चाहिए. और इसमें केन्या अन्य देशों का नेतृत्व कर सकता है. जीएम फसलें (जिन्हें आनुवांशिक र���प से इंजिनीयर्ड या बायोटेक्नोलॉजी फसलें भी कहा जाता है) बार-बार सुरक्षित साबित हुई हैं और सारी दुनिया में कृषि उत्पादकता बढ़ाने में उनका सफलतापूर्वक इस्तेमाल किया जाता है. पर नौकरशाही, दुष्प्रचार और गुमराह करने वाली सूचना लाखों अफ्रीकी किसानों को, जिनमें केन्या के किसान भी शामिल हैं, उस तकनीकी तक पहुंच बनाने से रोकती है जो उनके जीवन स्तर को सुधार सकती है और भोजन की कमी को दूर करने में मददगार है. देश में अनाज की कमी के कारण दस लाख से ज्यादा केन्या वासियों को आज खाद्य सहायता पर निर्भर होना पड़ता है. देश में अकाल की अग्रिम चेतावनी देने वाली प्रणालियों के नेटवर्क ने भविष्यवाणी की है कि इस साल के अंत तक मक्का के पहले से ऊंचे दाम और बढ़ते रह सकते हैं. इससे खाद्य सुरक्षा और आर्थिक निष्पादन पर और जोर पड़ेगा. जहां केन्या अपने लोगों को भोजन उपलब्ध कराने और अपनी अर्थव्यवस्था को स्थिर करने के लिए जूझ रहा है, वहां जीएम तकनीकी का स्वागत किया जाना चाहिए. यह ऐसा साधन है जो कृषि उपज और आमदनी बढ़ा सकता है और किसानों, उपभोक्ताओं तथा पर्यावरण को लाभ पहुंचा सकता है. मुट्ठी भर देशों ने, जो जीएम फसलें उगाते हैं, महत्त्वपूर्ण लाभ अर्जित किए हैं. उदाहरण के लिए, दक्षिण अफ्रीका में लाई गई मक्का, सोयबीन और कपास की जीएम किस्मों से 1998 से 2012 तक किसानों की आमदनी एक अरब डालर से अधिक बढ़ाने में मदद मिली है. यह वृहत् तौर पर मक्का की जीएम किस्मों का नतीजा है कि सालाना उपज 32% तक बढ़ी है. और आज देश में मक्का के कुल रकबे में 90% जीएम मक्का का हिस्सा है. अवश्य ही ऊंचे उत्पादन के बावजूद दक्षिण अफ्रीका मक्का का पर्याप्त निर्यात नहीं कर पाता है कि दुनिया की मांग को पूरा किया जा सके. इसी तरह बुरकीना फासो के किसान अब कपास की जीएम किस्म उगाते हैं जो प्राकृतिक रूप से विनाशकारी कीटों का प्रतिरोध करती है और उसे महंगे कीटनाशकों की कम जरूरत पड़ती है. पारंपरिक कपास छोड़ कर जीएम किस्म अपनाने से उपज 18% से अधिक बढ़ी है और किसानों को प्रति हेक्टेयर 61 डॉलर अधिक आमदनी होने लगी है. इससे वर्ष 2013 में ही कृषि आमदनी 1.2 अरब डॉलर बढ़ गई है. कृषि तकनीकी अपनाने में अगुआ बन कर केन्या के किसान भी समान लाभ ले सकेंगे इसमें कोई संदेह नहीं. केन्या में एक-तिहाई खाद्य उत्पादन छोटे किसानों द्वारा किया जाता है. ये वही किसान हैं जो दुनिया में 90% जीएम फसलें उपजाते हैं. केन्या वासी उम्मीद है कि कीट-प्रतिरोधी मक्का जैसी नई जीएम किस्मों को उगा कर भारी लाभ ले सकते हैं जिनका स्थानीय वैज्ञानिकों द्वारा विकास किया जा रहा है. इसके अलावा केन्या उन गिने-चुने अफ्रीकी देशों में से एक है जिनके यहां मजबूत नियामक तंत्र सक्रिय है जो फसलों की नई किस्मों की समीक्षा कर सकता है और उन्हें मंजूरी दे सकता है. केन्या के बायोसेफ्टी एक्ट, 2009 के अधीन नैशनल बायोसेफ्टी ऑथोरिटी (एनबीए) की स्थापना की गई, जो इस महाद्वीप में इस प्रकार का पहला निकाय है. परंतु, इस क्षेत्र में पहले पदार्पण करने के बावजूद केन्या में जीएम फसलों के खिलाफ अनावश्यक रूप से राजनीतिक लड़ाई लड़ी जा रही है. सन् 2012 में वहां की कैबिनेट ने एनबीए से परामर्श किये बगैर जीएम फसल के आयात पर पाबंदी लगा दी. यह निर्णय एक ऐसे अध्ययन पर आधारित था जिसकी व्यापक आलोचना हुई और बाद में जिसे बंद कर दिया गया. इस अध्ययन में जीएम फसलों को कैंसर पैदा करने वाला बताया गया था. यह दावा झूठा साबित हुआ. हाल ही में केन्या सरकार ने जैव प्रौद्योगिकी की जांच करने के लिए कार्यबल की नियुक्ति की थी. इसके निष्कर्ष अभी सार्वजनिक नहीं किये गए हैं. पर कार्यबल के अध्यक्ष द्वारा जीएम फसलों के विरोध में की गई टिप्पणियों से इस मुद्दे पर और भ्रम पैदा हो गया है. इससे किसानों, वैज्ञानिकों और आम जनता के उस वक्त असमंजस में पड़ने का खतरा है जब जीएम फसलों की सबसे ज्यादा जरूरत है. राजनीति और नौकरशाही के चलते आबादी का पेट भरने का एक अच्छा मौका यूं ही जाया हो रहा है. और दुर्भाग्यवश केन्या अफ्रीका में एकमात्र ऐसा देश नहीं है. उदाहरण के लिए युगांडा और नाइजीरिया में भी बेहद जरूरी जैव सुरक्षा विधेयक अधर में लटक गया है. दरअसल समस्या जीएम विरोधी कार्यकर्ताओं के उस छोटे से समूह के साथ है जो ‘नैतिक’ आधार पर इस तकनीकी पर एतराज जताते हैं. वे आमतौर पर दावा करते हैं कि जीएम फसलें असुरक्षित हैं. पिछले दो दशकों के दौरान वैज्ञानिक समुदाय द्वारा उनके इस दावे को मयसबूत खारिज भी किया जा चुका है. विश्व स्वास्थ्य संगठन भी यह साबित कर चुका है कि ‘ऐसे (जीएम) खाद्य पदार्थों के सेवन से मानव स्वास्थ्य पर कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं दिखाई देता है.’ अवश्य ही प्रत्येक नई जीएम फसल को स्वास्थ्य, पर्यावरणीय और कारगरता के कठोर मानदंडों पर खरा उतरना चाहिए. अच्छा प्रयोजन होने के बावजूद ये कार्यकर्ता कुछ नीति-निर्माताओं के साथ मिलकर गलत सूचनाओं के आधार पर पूरे अफ्रीका में कृषि प्रौद्योगिकी और उत्पादकता को पीछे ले जा रहे हैं. निश्चित तौर पर जीएम फसलें रामबाण नहीं हैं. पर वे खाद्य सुरक्षा और आर्थिक सम्पन्नता हासिल करने में महत्त्वपूर्ण उपकरण जरूर हैं. यही कारण है कि फसल की नई किस्मों के स्वास्थ्य व सुरक्षा के बारे में निर्णय वैज्ञानिक प्रमाणों पर आधारित होने चाहिए ना कि उनके बारे में राजनीतिक पूर्वाग्रहों और निराधार ‘नैतिक’ तर्कों से फैसला लिया जाए. नीति निर्धारण में प्रमाण-आधारित रवैया अपना कर केन्या के अधिकारीगण अपने देश में लाखों जीवन सुधार सकते हैं और समूचे महाद्वीप के लिए एक अमूल्य मिसाल भी कायम कर सकते हैं. वैश्विक पूँजी का रुख फ़्रंटियर की ओर प्रिंसटन - तथाकथित "फ़्रंटियर बाज़ार की अर्थव्यवस्थाएँ" निवेश के हलकों में नवीनतम सनक हो गई हैं। हालाँकि, इन कम आय वाले देशों – एशिया में बांग्लादेश और वियतनाम, लातिन अमेरिका में होंडुरास और बोलीविया, और अफ़्रीका में केन्या और घाना सहित – में छोटे, अविकसित वित्तीय बाज़ार हैं, लेकिन वे तेज़ी से बढ़ रहे हैं और उम्मीद की जाती है कि वे भविष्य में उभरती अर्थव्यवस्थाएँ बन जाएँगे। पिछले चार सालों में, फ़्रंटियर अर्थव्यवस्थाओं में आने वाले निजी पूँजी के प्रवाह उभरते बाज़ारों की अर्थव्यवस्थाओं में आनेवाले प्रवाहों की तुलना में लगभग 50% ज़्यादा (सकल घरेलू उत्पाद के सापेक्ष) रहे हैं। इस पर ख़ुश होना चाहिए या खेद करना चाहिए, यह ऐसा सवाल है जो आर्थिक विश्लेषकों और नीति निर्माताओं के लिए रॉर्सचाक परीक्षण की तरह हो गया है। अब हम जान चुके हैं कि मुक्त पूँजी की गतिशीलता का वायदा पूरा नहीं किया गया है। कुल मिलाकर, प्राप्तकर्ता देशों में आने वाले पूँजी प्रवाह में बढ़ोतरी ने निवेश के बजाय खपत को बढ़ावा दिया है, जिससे आर्थिक अस्थिरता बढ़ी है और कष्टकारी वित्तीय संकट की बारंबारता और ज़्यादा हुई है। अनुशासन लागू करने के बजाय, वैश्विक वित्तीय बाज़ारों ने कर्ज़ की उपलब्धता बढ़ा दी है, जिसने अपव्ययी सरकारों की बजट बाध्यताओं को क्षीण कर दिया है और बैंकों की बैलेंस शीट अत्यधिक विस्तारित कर दी है। मुक्त पूँजी गतिशीलता के लिए सबसे अच्छा तर्क अभी तक स्टेनली फ़िशर का बना हुआ है जो उन्होंने लगभग दो दशक पहले दिया था जब वे अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के नंबर दो अधिकारी थे और अब वे यूएस संघीय रिज़र्व के उपाध्यक्ष हैं। हालाँकि फ़िशर ने मुक्त प्रवाह वाली पूँजी के ख़तरों की पहचान की थी, लेकिन उन्होंने तर्क दिया था कि इसका समाधान पूँजीगत नियंत्रण बनाए रखना नहीं है, बल्कि ख़तरों को कम करने के लिए ज़रूरी सुधार शुरू करना है। फ़िशर ने यह तर्क उस समय दिया था जब अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष सक्रिय रूप से अपने चार्टर में पूँजी-खाते के उदारीकरण को बनाए रखना चाह रहा था। लेकिन फिर दुनिया ने एशिया, ब्राज़ील, अर्जेंटीना, रूस, तुर्की, और अंततः यूरोप और अमेरिका में वित्तीय संकट देखे। अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के लिए यह श्रेय की बात है कि उसने पूँजीगत नियंत्रण पर अपना रुख नरम कर लिया है। 2010 में, इसने एक नोट जारी किया जिसमें वित्तीय अस्थिरता से निपटने के लिए इस्तेमाल किए जानेवाले नीति संबंधी उपायों के शस्त्रों के भाग के रूप में पूँजी नियंत्रण को मान्यता दी गई। इसके बावजूद, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष में और उन्नत देशों में, प्रचलित दृष्टिकोण यही बना हुआ है कि पूँजीगत नियंत्रण अंतिम उपाय हैं - जिनका इस्तेमाल केवल तभी करना चाहिए जब पारंपरिक समष्टि अर्थशास्त्र (मैक्रो इकोनॉमिक्स) और वित्तीय नीतियों का उपयोग कर लिया गया हो । मुक्त पूँजी, गतिशीलता का परम लक्ष्य बनी हुई है, चाहे कुछ देशों को उस तक पहुँचने में समय लगे। इस दृष्टिकोण के साथ दो समस्याएँ हैं। पहली, जैसा कि पूँजी गतिशीलता के पैरोकार लगातार उल्लेख करते हैं, वित्तीय भूमंडलीकरण से लाभ प्राप्त कर सकने से पहले, देशों को पूर्व-अपेक्षाओं की लंबी सूची पूरी करनी चाहिए। इनमें संपत्ति के अधिकार, प्रभावी अनुबंध प्रवर्तन, भ्रष्टाचार उन्मूलन, प्रवर्धित पारदर्शिता और वित्तीय जानकारी, ठोस कॉर्पोरेट अभिशासन, मौद्रिक और राजकोषीय स्थिरता, ऋण स्थिरता, बाज़ार-निर्धारित विनिमय दर, उच्च-गुणवत्ता का वित्तीय विनियमन और विवेकपूर्ण पर्यवेक्षण शामिल हैं। दूसरे शब्दों में, विकासशील देशों में विकास को सक्षम करने के लक्ष्य वाली नीति के सफल होने से पूर्व पहली दुनिया की संस्थाओं की ज़रूरत होती है। इससे भी बदतर स्थिति यह है कि यह सूची न केवल लंबी है; बल्कि यह समाप्त न होने वाली भी है। जैसा कि उन्नत देशों के वैश्विक वित्तीय संकट के अनुभव ने प्रदर्शित किया है, सर्वाधिक परिष्कृत विनियामक और पर्यवेक्षी प्रणालियाँ भी विफलता-से-सुरक्षित नहीं हैं। इसलिए, यह माँग किया जाना कि विकासशील देशों को इस तरह की संस्थाओं का निर्माण करना चाहिए जो पूँजी प्रवाह को सुरक्षित कर सकें, यह न केवल गाड़ी को घोड़े से पहले रखना होगा; बल्कि यह मूर्खतापूर्ण काम भी होगा। सावधानी एक ज़्यादा व्यावहारिक दृष्टिकोण की अपेक्षा करती है, एक ऐसा दृष्टिकोण जिसमें अन्य विनियामक और विवेकपूर्ण उपायों के साथ-साथ पूँजी नियंत्रणों की स्थायी भूमिका को भी स्वीकार किया जाता है। दूसरी समस्या का संबंध इस संभावना से है कि पूँजी के अंतर्प्रवाह विकास के लिए हानिकारक हो सकते हैं, चाहे हम वित्तीय कमज़ोरी के बारे में चिंताओं पर विचार न भी करें। पूँजी गतिशीलता के पैरोकार मानते हैं कि ग़रीब अर्थव्यवस्थाओं में निवेश के बहुत-से लाभदायक अवसर होते हैं जिनका निवेश-योग्य निधियों के कम होने के कारण दोहन नहीं किया जा रहा है। उनका तर्क है कि पूँजी को आने दें, और निवेश और विकास शुरू हो जाएँगे। लेकिन अनेक विकासशील देश घरेलू बचत की कमी के कारण नहीं, बल्कि निवेश की माँग की कमी के कारण विवश हैं। सामाजिक निवेश पर लाभ ऊँचे हो सकते हैं, लेकिन निजी लाभ कम होते हैं, जिसका कारण बाहरी कारक, उच्च कर, ख़राब संस्थाएँ, या अन्य अनेक कारकों में से कोई भी हो सकता है। कम निवेश से ग्रस्त होने वाली अर्थव्यवस्थाओं में पूँजी के अंतर्प्रवाह खपत को बढ़ाते हैं, पूँजी के संचय को नहीं। उनसे विनिमय-दर में तेज़ी आती है, जिससे निवेश की कमी और भी भयंकर हो जाती है। इससे व्यापार-योग्य उद्योगों की लाभप्रदता प्रभावित होती है - वे जिनके उपयुक्तता की समस्याओं से सबसे ज़्यादा ग्रस्त होने की संभावना होती है - उन्हें धक्का लगता है और निवेश की माँग और भी गिर जाती है। इन अर्थव्यवस्थाओं में, पूँजी के अंतर्प्रवाह विकास को प्रेरित करने के बजाय, उसे बहुत ज़्यादा धीमा कर देते हैं। ऐसी चिंताओं के कारण उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं ने विविध पूँजीगत नियंत्रणों के साथ प्रयोग किए हैं। सिद्धांत रूप में, फ़्रंटियर बाज़ार अर्थव्यवस्थाएँ इस अनुभव से बहुत कुछ सीख सकती हैं। जैसा कि जॉन्स हॉपकिंस विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्री ऑलिवियर जीन ने हाल ही में, इस तरह के अनुभव को प्रोत्साहित करने के लिए आयोजित किए गए अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष सम्मेलन में उल्लेख किया था कि ऐसे पूँजी प्रवाह उपाय जो अब फ़ैशन बन चुके हैं, बहुत अच्छी तरह काम नहीं करते हैं। यह इसलिए नहीं है कि वे प्रवाह की मात्रा या संरचना को प्रभावित करने में विफल रहते हैं, बल्कि इसलिए है कि ऐसे प्रभाव बहुत मामूली होते हैं। जैसा कि ब्राज़ील, कोलम्बिया, दक्षिण कोरिया, और दूसरों ने सीखा है, बांड या अल्पकालिक बैंक ऋण जैसे विशिष्ट बाज़ारों को लक्षित करने वाले सीमित नियंत्रणों का प्रमुख परिणामों - विनिमय दर, मौद्रिक स्वतंत्रता या घरेलू वित्तीय स्थिरता - पर महत्वपूर्ण प्रभाव नहीं होता। इसका निहितार्थ यह है कि सही मायने में प्रभावी होने के लिए पूँजी नियंत्रण को सामान्य और व्यापक होने की ज़रूरत होती है, न कि विशिष्ट और लक्षित। पूँजी नियंत्रण अपने आपमें कोई रामबाण नहीं हैं, और वे अक्सर समस्याओं का समाधान करने के बजाय भ्रष्टाचार या ज़रूरी सुधारों में विलंब जैसी बदतर समस्याएँ पैदा करते हैं। लेकिन यह सरकारी कार्रवाई के किसी अन्य क्षेत्र से बिल्कुल अलग नहीं है। हम दूसरी सबसे अच्छी दुनिया में रहते हैं जहाँ नीतिगत कार्रवाई लगभग हमेशा आंशिक (और आंशिक रूप से कारगर) होती है, और किसी एक क्षेत्र में नेक इरादों से किए जानेवाले सुधारों का विकृतियों के कारण अन्यत्र उलटा प्रभाव हो सकता है। ऐसी दुनिया में, पूँजीगत नियंत्रणों को, हमेशा और हर जगह, अंतिम उपाय मानने का औचित्य बहुत कम है; वास्तव में, यह वित्तीय भूमंडलीकरण को केवल अधिक आकर्षक बनाता है। यह मानते हुए कि पूँजी नियंत्रण को कभी-कभी प्रमुख स्थान दिए जाने की ज़रूरत होती है, दुनिया को अलग-अलग मामले में, अत्यधिक व्यवहारकुशल होने की ज़रूरत है । मेगा परियोजनाओं का युग वाशिंगटन, डीसी –ज्यों-ज्यों देश, विशेष रूप से जी-20 के देश, पाइपलाइनों, बांधों, पानी और बिजली की व्यवस्थाओं, और सड़क नेटवर्कों जैसे कई लाख (चाहे कई अरब या कई खरब न भी सही) डॉलरों के बुनियादी ढांचों की पहल में भारी निवेश करने के लिए निजी क्षेत्र को जुटाने की पहल कर रहे हैं, लगता है कि हम मेगा परियोजनाओं के एक नए युग में प्रवेश कर रहे हैं। पहले से ही, मेगा परियोजनाओं पर खर्च की राशि लगभग $6-9 ट्रिलियन प्रति वर्ष है, जो वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 8% है, इस रूप में यह “मानव इतिहास में निवेश में सबसे बड़ी तेजी” बन गई है। और भू-राजनीति, आर्थिक विकास की खोज, नए बाजारों की खोज और प्राकृतिक संसाधनों की खोज के कारण बड़े पैमाने की बुनियादी ढांचा परियोजनाओं में और भी अधिक धन लगाने के लिए प्रोत्साहन मिल रहा है। लगता है कि ऐसी परियोजनाओं में इस संभावित अभूतपूर्व विस्फोट के दोराहे पर, दुनिया भर के नेता और उधारदाता अतीत में सीखे गए महंगे सबकों से काफी हद तक अनजान बने हुए हैं। इसमें कोई संदेह नहीं है कि बुनियादी ढांचे में निवेशों से वास्तविक आवश्यकताओं की पूर्ति हो सकती है, भोजन, पानी, और ऊर्जा की मांग में प्रत्याशित भारी बढ़ोतरी को पूरा करने में मदद मिल सकती है। लेकिन जब तक मेगा परियोजनाओं में विस्फोट को सावधानीपूर्वक पुनः निर्देशित और प्रबंधित नहीं किया जाता है, इस प्रयास के गैर-उत्पादक और असतत होने की संभावना हो सकती है। लोकतांत्रिक नियंत्रणों के बिना, निवेशक लाभों का निजीकरण और हानियों का समाजीकरण कर सकते हैं, और साथ ही वे कार्बन-प्रधान और अन्य पर्यावरण और सामाजिक रूप से हानिकारक गतिविधियों में संलग्न हो सकते हैं। शुरू में, लागत प्रभावशीलता का मुद्दा है। "छोटा सुंदर होता है" या "बड़ा अच्छा होता है" की विचारधारा को अपनाने के बजाय, देशों को "उचित स्तर" के ऐसे बुनियादी ढांचे का निर्माण करना चाहिए जो उसके उद्देश्यों के अनुकूल हो। ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में प्रोफेसर, बेंट फ़्लाइव्बजर्ग ने कार्यक्रम प्रबंधन और आयोजना में विशेषज्ञता प्राप्त की, 70 वर्षों के डेटा का अध्ययन करने के बाद वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि "मेगा परियोजनाओं का कठोर नियम" है: वे लगभग हमेशा "बजट से अधिक, समय से अधिक, और हर बार अधिक होती हैं।" उन्होंने यह भी कहा है कि सर्वश्रेष्ठ परियोजनाओं के बजाय सबसे खराब परियोजनाओं का निर्माण होने के कारण, उन पर "सबसे अयोग्य के अस्तित्व में रहने" का नियम लागू होता है। इस तथ्य के कारण यह जोखिम और भी बढ़ जाता है कि ये मेगा परियोजनाएं अधिकतर भू-राजनीति से संचालित होती हैं – न कि सावधानीयुक्त अर्थशास्त्र से। 2000 से 2014 तक, जब सकल घरेलू उत्पाद दुगुने से भी अधिक बढ़कर $75 ट्रिलियन हो गया, वैश्विक अर्थव्यवस्था में जी-7 देशों का अंश 65% से घटकर 45% हो गया। जब अंतर्राष्ट्रीय मंच इस पुनर्संतुलन के लिए स्वयं को ढालने लग गया है, तो संयुक्त राज्य अमेरिका को यह चिंता सताने लगी है कि उसके वर्चस्व को चीन के नेतृत्व वाले एशियाई आधारिक संरचना निवेश बैंक जैसे नए खिलाड़ियों और संस्थाओं द्वारा चुनौती दी जाएगी। इसकी प्रतिक्रिया में, विश्व बैंक और एशियाई विकास बैंक जैसी पश्चिमी नेतृत्व वाली संस्थाओं ने अपने बुनियादी ढांचे के निवेश प्रचालनों का तेज़ी से विस्तार करना शुरू कर दिया है, और वे खुले तौर पर एक आदर्श बदलाव के लिए अनुरोध कर रहे हैं। जी -20 भी, इस आशा में मेगा परियोजनाओं के शुभारंभ में तेजी ला रहा है कि वैश्विक विकास दरों को 2018 तक कम-से-कम 2% तक बढ़ाया जा सकेगा। ओईसीडी का अनुमान है कि 2030 तक बुनियादी ढांचे में $70 ट्रिलियन का अतिरिक्त निवेश करने की आवश्यकता होगी - यह औसत व्यय की दृष्टि से $4.5 ट्रिलियन प्रति वर्ष से थोड़ा अधिक होगा। तुलनात्मक रूप से, सतत विकास लक्ष्यों को पूरा करने के लिए इसके लिए अनुमानतः $2-3 ट्रिलियन प्रति वर्ष की आवश्यकता होगी। जाहिर है कि मेगा परियोजनाओं के मामले में अपव्यय, भ्रष्टाचार, और असतत सरकारी ऋणों की मात्रा बढ़ने की संभावना बहुत अधिक होती है। जिस दूसरे मुद्दे पर विचार किया जाना चाहिए वह धरती की सीमाओं का है। जी-20 को लिखे गए मार्च 2015 के पत्र में वैज्ञानिकों, पर्यावरणविदों, और विचारक अग्रणियों के एक समूह ने चेतावनी दी है कि मेगा परियोजनाओं में अनियंत्रित रूप से निवेश करने से पर्यावरण को अपरिवर्तनीय और घातक नुकसान होने का जोखिम है। लेखकों ने यह स्पष्ट किया है कि "हम हर वर्ष, पहले से ही धरती के संसाधनों के लगभग डेढ़ गुना संसाधनों का उपभोग कर रहे हैं।" "बुनियादी ढांचे के विकल्पों का उपयोग इस स्थिति को ठीक करने के लिए किया जाना चाहिए, न कि बिगाड़ने के लिए।" इसी तरह, जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी पैनल ने यह चेतावनी दी है कि "ऐसे बुनियादी ढांचे के विकास और टिकाऊ उत्पादों को बदलना मुश्किल या बहुत महंगा हो सकता है जो समाजों को ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जनों की राहों में फंसा देते हैं।" और वास्तव में, जी-20 ने कुछ सामाजिक, पर्यावरणीय, या जलवायु संबंधी मानदंडों को मेगा परियोजनाओं की "इच्छा सूची" में शामिल किया है जिसे प्रत्येक सदस्य देश तुर्की में नवंबर में इसके शिखर सम्मेलन में प्रस्तुत करेगा। मेगा परियोजनाओं के मामले में तीसरी संभावित समस्या उनकी सरकारी-निजी भागीदारियों पर निर्भरता है। निवेशों पर बड़े पैमाने पर नए सिरे से ध्यान केंद्रित करने के अंश के रूप में, विश्व बैंक, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष, और अन्य बहुपक्षीय उधारदाताओं ने, अन्य बातों के अलावा, निजी निवेश को आकर्षित करने के लिए सामाजिक और आर्थिक बुनियादी ढांचे के नए परिसंपत्ति वर्गों को बनाकर, विकास वित्त को नया स्वरूप प्रदान करने का प्रयास शुरू किया है। विश्व बैंक समूह के अध्यक्ष जिम योंग किम ने कहा है कि "हमें संस्थागत निवेशकों द्वारा धारित कई मिलियन डॉलरों का लाभ उठाने और उन परिसंपत्तियों को परियोजनाओं में लगाने की जरूरत है।" इन संस्थाओं को उम्मीद है कि वे जोखिम की भरपाई करने के लिए जनता के पैसे का उपयोग करके, लंबी अवधि के संस्थागत निवेशकों - म्यूचुअल फंड, बीमा कंपनियों, पेंशन निधियों, और सरकारी धन निधियों सहित - को आकर्षित कर पाएंगी - इन सभी के पास कुल मिलाकर अनुमानतः $93 ट्रिलियन की परिसंपत्तियों पर नियंत्रण है। उन्हें उम्मीद है कि इस विशाल पूंजी समूह का उपयोग करके वे बुनियादी ढांचे का विस्तार कर पाएंगी और विकास वित्त को ऐसे तरीकों से परिवर्तित कर पाएंगी जिनकी पहले कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। समस्या यह है कि सरकारी-निजी भागीदारियों के लिए यह आवश्यक होता है कि वे निवेश पर प्रतिस्पर्धात्मक लाभ प्रदान करें। परिणामस्वरूप, लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स के शोधकर्ताओं के अनुसार, उन्हें [सूचना प्रौद्योगिकी] परियोजनाओं के लिए उपयुक्त साधन नहीं माना जाता, या जहां "सामाजिक सरोकारों के कारण उपयोगकर्ता प्रभारों पर प्रतिबंध लगाया जाता है जिसके कारण कोई परियोजना निजी क्षेत्र के लिए रुचिकर बन सकती है।" निजी निवेशक आय के प्रवाह की गारंटी के जरिए अपने निवेशों पर लाभ की दर को बनाए रखना चाहते हैं और यह सुनिश्चित करते हैं कि कानूनों और विनियमों (पर्यावरण और सामाजिक आवश्यकताओं सहित) के कारण उनके मुनाफे में कोई कटौती नहीं होती है। इसमें जोखिम यह है कि लाभ के लिए खोज से जनहित को नुकसान पहुँचेगा। अंततः, दीर्घकालिक निवेशों पर लागू होनेवाले नियमों में पर्यावरण संबंधी और सामाजिक गतिविधियों से संबंधित दीर्घाकालीन जोखिमों को प्रभावी रूप से शामिल नहीं किया जा सकता है जिसके लिए ट्रेड यूनियनों और संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम द्वारा बल दिया जाता है। बुनियादी ढांचे में निवेशों को संविभागों में समूहित करने या विकास क्षेत्रों को परिसंपत्ति वर्गों में परिवर्तित करने से लाभों का निजीकरण और हानियों का भारी पैमाने पर समाजीकरण हो सकता है। इस प्रोत्साहन से असमानता के स्तरों में वृद्धि हो सकती है और लोकतंत्र कमजोर हो सकता है क्योंकि सरकारें संस्थागत निवेशकों से लाभ उठाने की स्थिति में नहीं होती हैं - नागरिक तो बिल्कुल नहीं। सामान्य रूप से, व्यापार नियमों और समझौतों के कारण ये समस्याएं और भी बढ़ जाती हैं क्योंकि इनमें निवेशकों के हितों को आम नागरिकों के हितों से ऊपर रखा जाता है। जी-20 को लिखे गए इन लेखकों के पत्र के शब्दों में, बिना कोई जांच-पड़ताल किए, मेगा परियोजनाओं में आगे बढ़ने में “एक ख़तरनाक योजना पर सरपट दौड़ने का जोखिम है।” यह महत्वपूर्ण है कि हम सुनिश्चित करें कि विकास वित्त में कोई भी परिवर्तन इस तरह से किया जाना चाहिए कि उसमें मानव अधिकारों का समर्थन हो और पृथ्वी की रक्षा हो। भव्य वैश्विक स्वास्थ्य सम्मिलन सैन फ़्रैंसिस्को - दुनिया एक अनूठे ऐतिहासिक मोड़ पर खड़ी है। आज की दवाइयाँ, टीके, और अन्य स्वास्थ्य साधन वैश्विक रूप से उपलब्ध करके - और कल के स्वास्थ्य साधनों को विकसित करने के लिए अनुसंधान के प्रयासों को बढ़ाकर - हम एक पीढ़ी के भीतर अमीर और ग़रीब देशों के बीच स्वास्थ्य का अंतराल ख़त्म कर सकते हैं। 2035 तक, हम संक्रामक रोगों की वजह से होने वाली मौतों सहित, रोकी जा सकने वाली जच्चा और बच्चा मौतों को दुनिया भर में अभूतपूर्व रूप से न्यून स्तरों तक कम करके, वैश्विक स्वास्थ्य में "शानदार सम्मिलन" हासिल कर सकते हैं। इसके लिए समन्वित, भविष्य-उन्मुख निवेश रणनीति की ज़रूरत होगी। वैश्विक स्वास्थ्य और अर्थशास्त्र के 25 विशेषज्ञों के समूह (हमारे सहित) ने मिलकर हाल ही में ऐसी रणनीति विकसित करने का निर्णय किया। एक साल की लंबी प्रक्रिया में, इस समूह ने वैश्विक स्वास्थ्य सम्मिलन हासिल करने के लिए ज़रूरी साधनों, प्रणालियों, और वित्त-पोषण की पहचान की, और वैश्विक स्वास्थ्य 2035 – तैयार किया - जो महत्वाकांक्षी निवेश का ऐसा खाका है जो लाखों लोगों का जीवन बचाएगा और मानव कल्याण, उत्पादकता, और आर्थिक विकास का आधार बनेगा। स्वास्थ्य निवेशों में भारी वृद्धि किए जाने पर, हर साल दस मिलियन लोगों का जीवन बचाया जा सकेगा, जो 2035 में शुरू होगा। और इसके आर्थिक लाभ भी बहुत अधिक होंगे: इस भव्य सम्मिलन को हासिल करने के लिए कम और मध्यम आय वाले देशों (LMICs) में निवेश किए गए हर डॉलर से 9-20 डॉलर का लाभ प्राप्त होगा। इसकी सफलता के लिए यह सुनिश्चित करने के लिए इस वैश्विक प्रतिबद्धता की ज़रूरत होगी कि आज की शक्तिशाली स्वास्थ्य प्रौद्योगिकियों और सेवाओं तक हर किसी की पहुँच हो, जैसे बच्चों के टीके, एचआईवी/एड्स और तपेदिक का इलाज, और गर्भवती महिलाओं के लिए प्रसव-पूर्व देखभाल। इसके लिए नए स्वास्थ्य साधनों के विकास और वितरण के लिए ज़्यादा वित्त-पोषण की भी ज़रूरत होगी ताकि उन स्थितियों को दूर किया जा सके जिनकी वजह से LMICs में महिलाओं और बच्चों की मृत्यु दर अपेक्षाकृत अधिक होती है। इस उद्देश्य से, सम्मिलन रणनीति की प्रमुख विशेषताओं में से एक परिवार नियोजन है। आज की स्थिति के अनुसार, दुनिया भर में 220 मिलियन से ज़्यादा महिलाओं की आधुनिक गर्भनिरोध तक पहुँच नहीं है – यह अक्षम्य स्थिति है क्योंकि परिवार नियोजन को बढ़ावा देना उल्लेखनीय रूप से सरल और सस्ता होगा। और इसके लाभ बहुत ज़्यादा होंगे। शुरूआत करनेवालों के लिए, गर्भनिरोधों तक बेहतर पहुँच से अनुमानित रूप से कुल जच्चा मौतों में से एक-तिहाई को रोका जा सकेगा, और इसका उन लोगों पर ख़ास तौर से बड़ा असर होगा जो सबसे ज़्यादा जोखिम का सामना कर रहे हैं। इनमें ग़रीब देशों में 15-19 साल की महिलाएँ जिनकी फ़िलहाल गर्भनिरोधों तक बहुत कम पहुँच है, और ऐसी महिलाएँ शामिल हैं जो जल्दी-जल्दी एकाधिक गर्भ धारण करती है, जिन्हें इससे अपनी गर्भावस्थाओं में अंतर रखने में मदद मिलेगी। परिवार नियोजन से अनचाहे गर्भधारणों की दर कम होने के फलस्वरूप, असुरक्षित गर्भपातों से होने वाली मौतों की संख्या भी कम हो जाती है। यह केवल माताओं के लिए ही लाभकारी नहीं है। उच्च जोखिम वाले गर्भधारणों को कम करने, अनचाहे गर्भधारणों को रोकने, और प्रसवों के बीच अंतर रखने से नवजात और बाल मृत्यु दरों में कमी होने का पता चलता है। गुटमाकर इंस्टीट्यूट का अनुमान है कि गर्भनिरोध के लिए महिलाओं की ज़रूरत पूरे तौर से पूरी करने से हर साल 600,000 नवजात शिशुओं की मौतें और 500,000 बच्चों की मौतें रोकी जा सकती हैं। इसके अलावा, जन्म दरों को कम करके, जो अनेक LMICs में बहुत ज़्यादा हैं, जच्चा और बच्चा देखभाल और टीकाकरण की लागत कम होने से इन देशों की स्वास्थ्य-देखभाल प्रणालियों पर दबाव कम करने में मदद मिलेगी। इसके साथ ही, इससे सामाजिक बदलाव लाने में भी मदद मिलेगी जिससे उत्पादकता और उत्पादन में बढ़ोतरी होती है। विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा समन्वित किए गए एक अध्ययन के अनुसार अफ़गानिस्तान और चाड जैसे बहुत उच्च जन्म दरों वाले 27 देशों में गर्भनिरोधों में वृद्धि करने से अब से लेकर 2035 तक मिलनेवाले आर्थिक लाभ सकल घरेलू उत्पाद के 8% से अधिक होंगे। तो, आधुनिक औषध और स्वास्थ्य सेवाओं तक सार्वभौमिक पहुँच सुनिश्चित करने पर कितना ख़र्च होगा? वैश्विक स्वास्थ्य 2035 के अनुसार इस पर प्रति वर्ष कुल 70 बिलियन डॉलर का अतिरिक्त ख़र्च होगा, और इस बढ़ोतरी में से 1 बिलियन डॉलर केवल परिवार नियोजन के लिए आबंटित किए जाएँगे। लेकिन इनमें से अधिकतर लागतों की भरपाई अंततः LMICs द्वारा स्वयं की जा सकती है। वास्तव में, वैश्विक स्वास्थ्य सम्मिलन पर होनेवाला कुल व्यय उस अतिरिक्त सकल घरेलू उत्पाद के 1% से कम होगा जो इन देशों द्वारा अगले दो दशकों में प्राप्त किए जाने की उम्मीद है। दूसरे शब्दों में, सकल घरेलू उत्पाद के 1% से कम के सार्वजनिक निवेश से हर साल दस मिलियन जितनी अधिक मौतों को टाला जा सकता है। लागतें कम करने के उद्देश्य से की गई नवोन्मेषी साझेदारियाँ इस बोझ को और भी कम कर सकती हैं। दाता सरकारों, न्यासों, संयुक्त राष्ट्र, और निजी-क्षेत्र के भागीदारों के एक समूह ने मिलकर हाल ही में 50 से ज़्यादा LMICs में अधिक समय तक चलनेवाले गर्भनिरोधक प्रत्यारोपण (लेवोनोर्जेस्ट्रल) की क़ीमत को प्रति यूनिट 18 डॉलर से 8.50 डॉलर तक कम करने का निर्णय किया। सम्मिलन हासिल करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय समुदाय को प्रमुख भूमिका निभानी होगी। ख़ास तौर से, इसे ग़रीबों को प्रभावित करने वाले रोगों के अनुसंधान और विकास में निवेश में बढ़ोतरी करनी होगी, जैसे बचपन में होनेवाले निमोनिया और दस्त जिनके कारण हर साल क़रीब दो मिलियन बच्चों की मौत हो जाती है। और आने वाले कई सालों तक LMICs को सीधी वित्तीय सहायता - उदाहरण के लिए, परिवार-नियोजन कार्यक्रमों और मलेरिया और एचआईवी/एड्स पर काबू पाने के लिए वित्त-पोषण करने - की ज़रूरत होगी। वैश्विक स्वास्थ्य के परिणामों में भव्य सम्मिलन प्राप्त करने का अवसर पहुँच के भीतर है। हमें बस इसका लाभ उठाने के लिए खुद को आश्वस्त करने की ज़रूरत है। लैंगिक समानता और धरती का भविष्य न्यू यॉर्क – बीस साल पहले, 189 सरकारों द्वारा बीजिंग घोषणा और कार्रवाई के लिए मंच को अपनाया जाना महिलाओं के अधिकारों के इतिहास में एक निर्णायक अवसर था। यह सुधारवादी दस्तावेज़ महिलाओं और लड़कियों के लिए समान अवसरों को प्राप्त करने के प्रयास में प्रेरणा का एक शक्तिशाली स्रोत बना हुआ है। लेकिन यद्यपि इस बीच के दशकों में काफी प्रगति हुई है, यह सुनिश्चित करने के लिए अभी भी और बहुत कुछ किया जाना बाकी है कि स्त्रियों और बच्चों को स्वस्थ जीवन, शिक्षा, और पूर्ण सामाजिक समावेशन की गारंटी दी जाती है। केवल 42 देशों में ही महिलाओं को राष्ट्रीय विधायिका में 30% से अधिक सीटें मिली हुई हैं, और उप सहारा अफ्रीका, ओशिनिया, और पश्चिमी एशिया में लड़कियों को अभी भी शिक्षा के उतने अवसर उपलब्ध नहीं हैं जितने कि लड़कों को उपलब्ध हैं। लैंगिक समानता दुनिया की केवल आधी आबादी का ही चिंता का विषय नहीं है; यह एक मानव अधिकार है, हम सब के लिए एक चिंता का विषय है, क्योंकि कोई भी समाज आर्थिक राजनीतिक, या सामाजिक रूप से विकास नहीं कर सकता है यदि उसकी आधी आबादी हाशिए पर हो। हमें किसी को भी पीछे नहीं छोड़ देना चाहिए। यह वर्ष वैश्विक कार्रवाई का वर्ष है। सरकारें सतत विकास के नए लक्ष्यों को अपनाएँगी, एक सार्थक जलवायु समझौता तैयार करने के लिए मिलकर काम करेंगी, और वैश्विक सतत विकास के कार्यक्रम को प्रदान करने के लिए आवश्यक वित्तीय संसाधन उपलब्ध करने हेतु एक ढाँचा तैयार करेंगी। इनमें भाग लेनेवाले लोग इतने बुद्धिमान तो अवश्य होंगे कि वे यह याद रखे सकें कि समावेशी सतत विकास केवल तभी प्राप्त किया जा सकता है जब लैंगिक समानता सहित सभी मानव अधिकारों की रक्षा की जा सके, उनका सम्मान किया जा सके, और उन्हें पूरा किया जा सके। हम तीनों में से प्रत्येक विभिन्न महाद्वीपों से हैं और हम तीनों इन अंतर्राष्ट्रीय प्रक्रियाओं का समर्थन करते हैं। हम अपने काम के लिए आम प्रेरणा को साझा करते हैं: अपने बच्चों और नातियों के लिए अपनी धरती की रक्षा करने, और ऐसी दुनिया के विकास को सुनिश्चित करने के लि़ए जिसमें सभी लोगों को - उनकी लैंगिक स्थिति, जाति, धर्म, आयु, अक्षमता, या यौन अभिविन्यास चाहे कुछ भी हो - अपनी आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए समान अवसर उपलब्ध होते हैं। यह महत्वपूर्ण है कि हम लिंग-आधारित भेदभाव और हिंसा के विरुद्ध लड़ाई में पुरुषों और लड़कों को सक्रिय रूप से लगाना जारी रखें। हमें यह अवसर मिला है कि हम बेहतर भविष्य सुनिश्चित करने के लिए लड़कियों और लड़कों की एक ऐसी नई पीड़ी तैयार करें जो एक दूसरे का सम्मान करें और सभी लोगों के अधिकारों की रक्षा करने के लिए मिलकर काम करें। लड़कियों को आवाज़ उठाने, चुनने, और अवसरों की समानता न देने से न केवल उनके जीवनों पर असर पड़ेगा, बल्कि इससे इस धरती का भविष्य भी प्रभावित होगा। समावेशी सतत विकास को प्रोत्साहित करने और जलवायु परिवर्तन का मुकाबला करने के प्रयास परस्पर अभिन्न रूप से जुड़े हुए हैं। यदि हमें विकास की चिंता है, तो हमें दुनिया भर में हो रहे ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जनों के परिणामों की चिंता करनी चाहिए। और यदि हम तुरंत कार्रवाई नहीं करते हैं, तो हम उन प्राकृतिक प्रणालियों को अपूरणीय क्षति पहुँचाएँगे जिन पर जीवन निर्भर करता है। यह कोई ऐसा ख़तरा नहीं है जिसे हम तब तक के लिए छोड़ सकते हैं जब तक हम दुनिया भर से ग़रीबी समाप्त न कर दें। और न ही यह कोई ऐसी समस्या है जिसे हम भावी पीढ़ियों द्वारा कार्रवाई किए जाने के लिए छोड़ सकते हैं। यदि इस पर ध्यान नहीं दिया गया, तो जलवायु परिवर्तन - विकास के अन्य अरक्षणीय स्वरूपों के साथ - हाल के दशकों में प्राप्त लाभों को पूरी तरह समाप्त कर सकता है। हमारे बच्चों के लिए स्थिर दुनिया सुनिश्चित करने में सभी देशों - विकसित और विकासशील - की भूमिका है। गैर-धारणीय प्रथाओं और जलवायु परिवर्तन के प्रभावों की दृष्टि से महिलाएँ सबसे अधिक कमज़ोर हैं क्योंकि उनके पास अक्सर कोई स्वतंत्र आय या भूमि के अधिकार नहीं होते हैं। कई देशों में, महिलाएँ अपने परिवारों के लिए पानी और भोजन की व्यवस्था करने के लिए ज़िम्मेदार हैं। और जब इन संसाधनों के सामान्य स्रोतों में बाधा आती है तो महिलाओं को और अधिक दूर तक चलकर जाने और कम लाभों के लिए अधिक समय लगाने के लिए मजबूर होना पड़ता है। अभाव के कारण उन्हें बच्चों को स्कूल से निकाल लेने या यह निर्णय लेने जैसे कठोर विकल्प चुनने पड़ते हैं कि परिवार का कौन सा सदस्य एक समय के भोजन के बिना रह सकता है । दुनिया भर के कई घरों में, पानी, भोजन, और ऊर्जा के घरेलू कार्यकलापों की कड़ी के मूल में महिलाएँ हैं - और इसलिए उन्हें अक्सर इन क्षेत्रों की चुनौतियों और संभावित समाधानों के बारे में सीधे रूप में जानकारी होती है। दुनिया भर में महिलाओं के साथ होनेवाली हमारी बातचीत में हमें न केवल उनके संघर्षों बल्कि उनके विचारों के बारे में भी पता चलता है, और उनमें से बहुत से विचारों को अगर लागू कर दिया जाए तो उनसे परिवर्तन लाया जा सकता है। महिलाओं को जिन समाधानों की ज़रूरत होती है वे उनकी सबसे अधिक संतोषजनक पैरोकार होती हैं, इसलिए सतत विकास के लिए और जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को कम करने के बारे में निर्णय लेने के मामले में उन्हें सबसे आगे होना चाहिए। आगामी सप्ताहों में, महिलाओं की स्थिति पर आयोग के न्यूयॉर्क में होनेवाले 59वें सत्र के दौरान, अंतर्राष्ट्रीय समुदाय बीजिंग में 20 साल पहले दिए गए वचन को पूरा करने के मामले में हुई प्रगति का जायज़ा लेगा और यह आकलन करेगा कि कहाँ और अधिक प्रयासों की ज़रूरत है। यह वर्ष महत्वपूर्ण होगा। जुलाई में होनेवाले विकास के लिए वित्त सम्मेलन, सितंबर में होनेवाले सतत विकास के लक्ष्यों पर विशेष शिखर सम्मेलन, और दिसंबर में होनेवाले संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में हमें सतत विकास को बढ़ावा देने और जलवायु परिवर्तन से लड़ने के प्रयास में लैंगिक समानता और महिला सशक्तीकरण को पूरी तरह से एकीकृत करने का अवसर मिलेगा। हम तीनों हर सुबह जब जागती हैं तो यही सोचती हैं कि यह कैसे किया जा सकता है। हर किसी को सोचना चाहिए। हम सभी महिलाओं और पुरुषों से अनुरोध कर सकते हैं कि वे हमारे साथ जुड़ें ताकि उनकी आवाज़ बुलंदी से सुनी जा सके और इस अवसर का सभी के लिए न्यायसंगत और अच्छे भविष्य के लिए लाभ उठाया जा सके। यूरोप की यूक्रेनी जीवनरेखा न्यूयार्क. पिछले सप्ताहांत में सम्पन्न हुए यूरोपीय संसद एवं यूक्रेन के राष्ट्रपति चुनावों में बेहद विरोधाभासी नतीजे मिले हैं. यूरोप के मतदाताओं ने जहां यूरोपीय संघ के कामकाज के तौरतरीकों पर अपना असंतोष जाहिर किया है वहीं यूक्रेन की जनता ने यूरोपीय संघ से जुड़े रहने की अपनी इच्छा पर मोहर लगाई है. यूरोप के नेताओं को और नागरिकों को इस अवसर का उपयोग यह जानने के लिए करना चाहिए कि इसके क्या निहितार्थ है और यह भी कि यूक्रेन की मदद कर कैसे ��े खुद यूरोप की मदद कर सकते हैं. यूरोपीय संघ की स्थापना के पीछे मूलरूप से यह विचार था कि संप्रभु राष्ट्रों के एकजुट होने से वे आपसी हितों को बेहतर ढंग से साध सकेंगे. अंतर्राष्ट्रीय प्रशासन तथा कानून के शासन में यह एक निडर प्रयोग था जिसका उद्देश्य था राष्ट्रीयतावाद का प्रतिस्थापन और बल का समुचित उपयोग. दुर्भाग्यवश यूरो संकट से यूरोपीय संघ बिलकुल ही अलग निकाय में बदल गया. आपसी सहयोग की भावना की जगह कर्जदाता और कर्जदार का संबंध पनपने लगा जिसमें कर्जदाता देश अपनी शर्तें थोपने लगे और अपना दबदबा कायम करने लगे. यूरोपीय संसद के चुनाव में कम मतदान के मद्देनजर अगर इटली के प्रधानमंत्री मैट्टियो रेन्जी को मिले समर्थन के साथ यूरोपीय संघ के विरोधी दक्षिण व वामपंथी मतों को भी मिला दिया जाए तो कहा जा सकता है कि अधिकांश नागरिक वर्तमान परिस्थितियों के विरोध में हैं. एक ओर जहां अंतर्राष्ट्रीय सरकार बनाने की दिशा में किया गया यूरोप का उदार प्रयोग लड़खड़ा रहा है वहीं रूस यूरोपीय संघ के खतरनाक प्रतिद्वंदी के तौर पर उभर रहा है. उसकी विश्व स्तर पर भौगोलिक और राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं हैं और उन्हें पूरा करने के लिए वह बल प्रयोग करने का भी इच्छुक है. पुतिन अपने शासन को मजबूत बनाने के लिए नस्लीय राष्ट्रीय विचारधारा का इस्तेमाल कर रहे हैं. पिछले महीने रूसी रेडियो कार्यक्रम डायरेक्ट लाइन में बोलते हुए उन्होंने रूसी लोगों के अनुवांशिक गुणों का गुणगान किया था. क्रीमिया को यूक्रेन से हथिया लेने के बाद वे अपने देश में लोकप्रिय हो गए हैं और विश्व में अमेरिका की धमक को कम करने के अपने प्रयास में वे चीन से हाथ मिला रहे हैं. उनके इन कदमों पर बाकी दुनिया में सकारात्मक प्रतिक्रिया हुई है. लेकिन पुतिन सरकार के निहित स्वार्थ रूस के सामरिक हितों से मेल नहीं खाते हैं. रूस कहीं अधिक लाभ ले सकता है बशर्ते कि वह यूरोपीय संघ और अमेरिका के साथ ज्यादा-से-ज्यादा सहयोग करे. रूस और यूक्रेन में दमनकारी नीतियों को अपनाने से उलटा नुकसान हो सकता है. तेल के ऊंचे भाव के बावजूद रूस की अर्थव्यवस्था कमजोर पड़ती जा रही है क्योंकि वहां से पूंजी और प्रतिभा का पलायन हो रहा है. कीयेव के मैदान में हिंसा के प्रयोग से नये यूक्रेन का जन्म हुआ जो नये रूसी साम्राज्य का अंग बनने को कतई राजी नहीं है. नये यूक्रेन की सफलता से रूस में पुतिन के शासन को खतरा पैदा होगा. यही कारण है कि पुतिन पूर्वी यूक्रेन में स्वघोषित अलगाववादी गणतंत्रों को हवा देकर यूक्रेन को अस्थिर करने पर तुले हैं. डोनबास क्षेत्र के सबसे बड़े नियोक्ता द्वारा अलगाववादियों के विरुद्ध विरोध को चलाये जाने से पुतिन की योजना खटाई में पड़ सकती है और अब वह राष्ट्रपति चुनाव के नतीजों को स्वीकार कर सकते हैं. इस तरह वह अतिरिक्त प्रतिबंधों से भी बच सकते हैं. लेकिन रूस नये यूक्रेन को अस्थिर करने के लिए अन्य रास्तों को तलाश सकता है और इन रास्तों को तलाशना कठिन नहीं है. यूक्रेन के पूर्व राष्ट्रपति विक्टर यानुकोविच के भ्रष्ट शासन के प्रति वफादार रहे सुरक्षाबलों को आसानी से बरगलाया जा सकता है क्योंकि वे नये शासन के प्रति वफादार नहीं है. यह सभी घटनाएं हाल ही में बड़ी तेजी से घटी हैं. यूरोपीय संघ और अमेरिका दोनों ही अपनी आंतरिक समस्याओं में उलझे हैं. इस तरह वे उस भू-राजनीतिक तथा विचारधारा से जुड़े खतरे से अनभिज्ञ हैं जो पुतिन के रूस से उत्पन्न हो रहा है. सवाल है कि उन्हें किस प्रकार इसका सामना करना चाहिए? सबसे पहले तो उन्हें यूक्रेन को अस्थिर करने वाले रूस के प्रयासों को निरस्त करना होगा. यूरोपीय संघ की वित्तीय सीमाओं और सरकारी सहायता को सीमित करने वाले अन्य नियमों के मद्देनजर नवाचारी सोच जरूरी है. एकमात्र सर्वाधिक प्रभावकारी उपाय यह हो सकता है कि यूक्रेन में निवेश या व्यापार करने वालों को निशुल्क (मुफ्त) राजनीतिक जोखिम बीमा दिया जाए. इससे राजनीतिक उथलपुथल के बावजूद अर्थव्यवस्था को चलाए रखने में मदद मिलेगी और यूक्रेनियों को यह संकेत भी जाएगा कि यूरोपीय संघ तथा अमेरिकी सरकार व निजि निवेशक दोनों उनके प्रति वचनबद्घ हैं. नये खुले और संभावनाओं से भरे बाजार में व्यापार आएगा और बढ़ेगा बशर्तें कि उन राजनीतिक घटनाओं से होने वाले नुकसान का पूरा हर्जाना दिया जाए जिनपर उनका वश नहीं है. राजनीतिक जोखिम बीमा इतना जटिल है कि इसे तुरंत लागू नहीं किया जा सकता है. लेकिन हकीकत में इस प्रकार का बीमा होता है. जर्मनी के यूलर हरमिस जैसे अनेक निजि बीमा व पुनर्बीमाकर्ता इसे वर्षों से देते आ रहे हैं. विश्व बैंक की मल्टिलेटरल इन्वेस्टमेंट गारंटी एजेंसी और अमेरिकी सरकार की ओवरसीज प्राइवेट इन्वेस्टमेंट कार्पोरेशन जैसी सरकारी संस्थाएं भी इस प्रकार का बीमा प्रदान करती हैं. लेकिन उन्हें पुनर्बीमा की लागत वसूलने के लिए भारी किश्तें वसूलनी पड़ती हैं. भारी किश्त की शर्त के कारण ज्यादातर व्यापारी तूफान के गुजर जाने का इंतजार करते रहते हैं. यही कारण है कि संबंधित सरकारों को पुनर्बीमा के कार्य को अपने हाथ में ले लेना चाहिए और बीमा पॉलिसियों के प्रशासन के लिए ही अपनी एजेंसियों का उपयोग करना चाहिए. जिस तरह वे विश्व बैंक को गारंटी देती हैं उसी तरह नुकसान को पूरा करने की गारंटी दे सकती हैं. अर्थात् हरेक सरकार वास्तव में प्रयुक्त पूंजी को आंशिक तौर पर प्रदान कर बाकी रकम को कॉलेबल (जरूरत पड़ने पर मांगी गई) पूंजी के रूप में उपलब्ध करा सकती हैं जो नुकसान के एवज में भुगतान हो जाने के पश्चात् उपलब्ध होगी. यूरोपीय संघ को अपने वित्तीय कोष को भी परिवर्तित करना होगा ताकि जरूरत के वक्त मांगी गई पूंजी को छूट दे सकें और वास्तविक नुकसान को अनेक वर्षों में पूरा कर सकें. इस प्रकार की गारंटियों का एक विशेष गुण होता हैः जितनी ज्यादा भरोसेमंद वे होती हैं, उतनी ही कम उन्हें लागू करने की संभावना होती है. इस तरह पुनर्बीमा काफी हद तक लागतरहित साबित होता है. विश्व बैंक इसका जीवंत उदाहरण है. त्वरित और विश्वास जगाने लायक ढंग से कार्यवाई करते हुए यूरोपीय संघ यूक्रेन और स्वयं की भी रक्षा कर सकता है. जो प्रस्ताव मैं यूक्रेन के लिए करता हूं उसे घर (यूरोपीय संघ) में भी लागू किया जा सकता है. जब तक इतने सारे उत्पादकीय संसाधन नकारा पड़े हुए हैं, यह समझदारीपूर्ण कदम होगा कि वित्तीय कोष से होने वाले निवेश को छूट दी जाए. अंततः वे खुद अपना भुगतान कर लेंगे. रेन्जी इसी तरह की कार्यवाई की वकालत कर रहे हैं. पुतिन क्रीमिया में अगले कुछ साल के दौरान 50 अरब यूरो का निवेश कर एक मिसाल पेश करने के मनसूबे बना रहे हैं. यूरोप के समर्थन से यूक्रेन भी एक अनुकूल मिसाल बन सकता है और अगर ऐसी किसी पहल से ऐसी किसी विकास नीति की शुरूआत हो सकती है जिसकी यूरोप को निहायत जरूरत है, तो यूक्रेन को बचाकर यूरोप स्वयं को भी बचा ��हा होगा. भारत के लिए आर्थिक पथप्रदर्शक नई दिल्ली – भारत के नवनिर्वाचित प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वचन दिया है कि वह देश की सुस्त पड़ी अर्थव्यवस्था में नयी जान फूंकेंगे. जब उनसे उनकी सुधार योजनाओं के बारे में पूछा गया तो मोदी ने जवाब दिया कि उनका एक ही आर्थिक दृष्टिकोण है कि ‘हमारी जीडीपी को बढ़ाना चाहिए’. बेशक यह एक स्पष्ट लक्ष्य है लेकिन हाल के वर्षों में देखें तो लगता है कि यह लक्ष्य देश की दृष्टि से ओझल हो गया है. भ���रतीय अर्थव्यवस्था को दोबारा पटरी पर लाने के लिए क्या करना होगा ताकि यह लगातार वृद्घि कर सके? हमारा मानना है कि आगे वर्णित पांच साधारण तथ्यों में भारतीय अर्थव्यवस्था की कुंजी छिपी है. पहला, भारत एक ‘युवा’ और उभरता हुआ बाजार है. इसका अर्थ है कि अगले पांच साल में भारत के संस्थानों में मौलिक परिवर्तन लाए बगैर देश की आर्थिक वृद्घि में ऊंची दर नहीं प्राप्त की जा सकती है. किसी देश का उत्पादन उसके श्रम बल और पूंजी के रूप में निवेशित लागत पर और उनके उपयोग की कुशलता पर निर्भर करता है. जब पूंजीगत लागत, जिसमें आधारभूत ढांचा भी शामिल है, में कमी होती है तो इसमें निवेश करना वृद्घि हासिल करने का सबसे तेज तरीका हो सकता है (बशर्ते कि कोष उपलब्ध हो). साधारण शब्दों में कहें तो यह ‘नीचे लटकता फल’ है जिसे मोदी को तुरंत लपक लेना चाहिए. संसाधनों के दक्षतापूर्ण उपयोग और श्रम बल के कौशल के स्तर को ऊंचा उठाना कहीं अधिक कठिन और धीमी गति से चलने वाला कार्य है. दूसरा, पिछले कई दशकों से सेवाक्षेत्र आर्थिक वृद्घि को गति देने वाला प्राथमिक कारक बन गया है. मूल्य संवर्द्घन में इस उद्योग की भागीदारी 25% पर अटकी पड़ी है. जबकि भारत में रोजगार निर्माण में सूक्ष्म व लघु उपक्रमों का 84% योगदान है. जबकि चीन में इनका मात्र 25% योगदान है. भारत जैसे विकास का स्तर हासिल कर चुके किसी देश के लिए यह अराजकतापूर्ण स्थिति है. भारत बेशक कृषि आधारित अर्थव्यवस्था से हट कर सेवा-आधारित अर्थव्यवस्था बन गया हो लेकिन यह कोई सकारात्मक विकास नहीं है क्योंकि उद्योगों की वृद्घि थम-सी गई है. यह उन नीतियों का नतीजा है जिन्होंने निर्माण व उत्खनन उद्योग को नुकसान पहुंचाया है. चीन में उत्पादन लागतें बढ़ने से आज अंतर्राष्ट्रीय खरीदार तैयार वस्तुओं के लिए वैकल्पिक स्रोतों की तलाश कर रहे हैं. अगर भारत में जहां सस्ता श्रम बल प्रचुरता में उपलब्ध है, इस अवसर को पकड़ लेता है तो निसंदेह यहां के औद्योगिक क्षेत्र को मजबूत बनाना होगा. तीसरे, विश्व बैंक के ‘ईज ऑफ डूइंग बिजिनेस इन्डेक्स’ में भारत 2006 में जहां 116वें स्थान पर था, सन् 2013 में गिर कर 134वें स्थान पर आ गया है. यह स्पष्ट संकेत है कि सुधारों को टाला गया है. नयी सरकार को इस स्थिति में परिवर्तन लाना होगा और व्यापार करने के लिए माहौल में सुधार लाना होगा. घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय निवेशकों की बड़ी तादाद भारत के संस्थागत परिवेश में त्वरित और सतत् सुधार के प्रति सकारात्मक प्रतिक्रिया देने को तैयार है. ये सुधार निरंतर चलते रहना चाहिए. यहां ऐसा नहीं है कि केवल बड़े और व्यापक सुधार ही जरूरी हैं. व्यापारिक अनुमति, पर्यावरणीय मंजूरी देने, श्रम नियम को सरल बनाने और न्यायिक रिक्तियों को भरने की प्रक्रिया को गति प्रदान कर महत्वपूर्ण सुधार लाया जा सकता है. ये सभी चीजें सभी को अच्छी तरह मालूम हैं. जिस चीज की जरूरत है वह है ऐसे सुधारों को लागू करने और ऐसी व्यवस्था बनाने की दृढ़ इच्छा शक्ति की जिससे जवाबदेही तय हो सके और नौकरशाही इन सुधारों को तेजी से व प्रभावी तरीके से लागू करे. चौथा, हाल के वर्षों में भारतीय अर्थव्यवस्था को वित्तीय अनुशासनहीनता की भारी कीमत चुकानी पड़ी है. भारी वित्तीय घाटों से उपजी मुद्रा की अत्याधिक मांग से मुद्रास्फीति नई ऊंचाई छूने लगी और उसके कारण चालू खाते में भारी घाटा होने लगा. वित्तीय अनुशासन प्राथमिकता होनी चाहिए ना कि महज मन बहलाने का एक विचार. किसी भी उभरते हुए बाजार की प्रतिबद्घता होनी चाहिए कि वित्तीय घाटों को काबू में रखा जाए. इसके लिए वित्तीय उत्तरदायित्व अधिनियम, 2003 के प्रावधानों के अनुरूप नया बजटीय कानून बनना चाहिए जिसमें और कड़े उपाय किए गए हों. अंत में अगले पांच साल के बाद भी वृद्घि की गतिशीलता बनाए रखने के लिए जरूरी है कि शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा की गुणात्मकता और गुणवत्ता में सुधार लाया जाए. इसके लिए निजि व गैर-लाभकारी क्षेत्र व शोधकर्ताओं के साथ भागीदारी करनी चाहिए. नयी सरकार को शोधकर्ताओं व नीति-निर्माताओं के बीच भागीदारी को बढ़ावा देना चाहिए ताकि नीतियों में मौजूद गंभीर चुनौतियों का सामना करने के लिए नवाचारी कार्यक्रमों को तैयार किया जा सके और उनका मूल्यांकन हो सके यथा निरोधात्मक स्वास्थ्य सेवा के परिणामों को जानना और उसे बढ़ावा देना. सौभाग्य से भारत के हरेक क्षेत्र में विचारशील नेतृत्व मौजूद है जो इस तरह के नवाचार को नागरिक सेवा के सहयोग से नयी गति प्रदान कर सकता है. जिस तरह वित्त मंत्रालय में मुख्य आर्थिक सलाहकार होता है उस तरह से शिक्षा व स्वास्थ्य मंत्रालय में मुख्य शिक्षा सलाहकार या मुख्य स्वास्थ्य सलाहकार क्यों नहीं हो सकता है? क्या मोदी सरकार इन सभी मोर्चों पर अच्छे परिणाम दे सकेगी? निश्चित ही मोदी आर्थिक वृद्घि के पक्षधर हैं और वह अपने गृह राज्य गुजरात में मुख्यमंत्री के तौर पर सड़क निर्माण व बिजली आपूर्ति में अपनी सफलता का हवाला देते रहते हैं. भाजपा के चुनावी घोषणापत्र में भी ‘न्यूनतम सरकार व अधिकतम शासन’ पर अमल करने का प्रस्ताव है. यह देखना सुखद है कि सरकार भी मानती है कि कभी-कभी खुद सरकार समस्या बन जाती है. गुजरात में मोदी की सफलता को राष्ट्रीय स्तर पर दोहराने और विकास संबंधी अन्य चुनौतियों का सामना करने में राज्य सरकारों के सहयोग की जरूरत होगी. यह अत्यंत अनिश्चित है. आखिरकार श्रम कानून जैसे नियम व कानूनों को किसी स्थापित हित समूहों के लाभ में बदलने का विरोध तो होना ही है. भारत की अर्थव्यवस्था को जो चाहिए वह वर्षों से स्पष्ट है. नयी सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती यही है कि इसे किया कैसे जाए. सार्वजनिक स्वास्थ्य को मानचित्र पर लाना सिएटल – पच्चीस वर्ष पहले, बड़ी आबादियों के लिए सार्वजनिक स्वास्थ्य की स्थिति एक ऐसे डॉक्टर जैसी थी जो उचित निदान के बिना किसी रोगी का इलाज करने की कोशिश कर रहा हो। जिन रोगों और चोटों के कारण जीवन का असमय अंत हो जाता था और अपार कष्ट सहन करना पड़ता था उन पर पूरी तरह से नज़र नहीं रखी जाती थी। उस समय, विभिन्न रोगों के लिए सदाशयपूर्वक सरोकार रखनेवाले पैरोकारों ने मृत्यु के जो आँकड़े प्रकाशित किए उनसे उन्हें धन जुटाने और ध्यान आकर्षित करने के मुद्दे को उठाने में मदद मिली। लेकिन जब सभी दावों को जोड़ा गया, तो संबंधित वर्ष में मरनेवाले लोगों की संख्या वास्तव में मरनेवाले लोगों की कुल संख्या की तुलना में कई गुना अधिक थी। और जब नीति निर्माताओं के पास सही आंकड़े होते भी थे, तो उनमें आमतौर पर केवल लोगों की मौत का कारण शामिल होता था, उन बीमारियों का नहीं जिनसे उनका जीवन पीड़ा से भर जाता था। इस समस्या का समाधान करने के लिए, एलेन लोपेज़ और मैंने 1990 में ग्लोबल बर्डन ऑफ़ डिसीज़ (जीबीडी) परियोजना शुरू की। निर्णयकर्ताओं को दुनिया के सबसे बड़े स्वास्थ्य खतरों के बारे में जानकारी चाहिए होती है, और यह भी कि समय बीतने के साथ उनमें विभिन्न आयु समूहों में, लैंगिकता के अनुसार किस तरह का बदलाव आया है, ताकि वे यह सुनिश्चित कर सकें कि हर किसी को यथासंभव सबसे लंबे समय तक, अधिक स्वस्थ जीवन जीने का अवसर प्राप्त होता है। यह सुनिश्चित करके कि हर मृत्यु को केवल एक बार गिना जाता है, और खराब स्वास्थ्य के कारणों के विस्तृत आँकड़े उपलब्ध करके, जीबीडी द्वारा कैंसर के प्रभाव की पीठ के निचले हिस्से में दर्द या अवसाद से तुलना की जा सकती है। इससे विभिन्न देशों के बीच स्वास्थ्य देखभाल के निष्पादन की तुलना भी की जा सकती है। जीबीडी के 1990 के अध्ययन और बाद के संशोधनों के फलस्वरूप आबादी के स्वास्थ्य का मापदंड बढ़ गया जिससे निर्णयकर्ताओं को अधिक विश्वसनीय और उपयोगी जानकारी उपलब्ध हो सकी। इसने मानसिक बीमारियों और सड़क पर लगनेवाली चोटों जैसी ध्यान न दी गई पीड़ाओं के महत्व के प्रति अंतर्राष्ट्रीय विकास समुदाय की आँखें भी खोल दीं। विश्व बैंक और बिल एंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन जैसे दाता अपने निवेशों के मार्गदर्शन के लिए जीबीडी डेटा का उपयोग करते हैं, और 30 से अधिक देशों ने स्वयं अपने रोग-का-कारण के अध्ययन किए हैं। ऑस्ट्रेलिया, बोत्सवाना, चीन, मैक्सिको, नॉर्वे, रवांडा, सऊदी अरब और ब्रिटेन जैसे देश जीबीडी के निष्कर्षों का उपयोग स्वास्थ्य नीतियों को सूचित करने के लिए कर रहे हैं। चीन में, 2013 में नीति शिखर सम्मेलन में शुरू की गई जीबीडी परियोजना के परिणामों से, देश की आबादी पर वायु प्रदूषण के घातक प्रभाव के बारे में जागरूकता पैदा हुई। उन निष्कर्षों से स्वास्थ्य पर प्रदूषण के नकारात्मक प्रभावों पर अंकुश लगाने के लिए चीनी सरकार के प्रयासों को मूर्त रूप देने में मदद मिली, और चीनी शोधकर्ता अब वैश्विक सहयोगात्मक प्रयास के प्रमुख सदस्य हैं। रवांडा में जब जीबीडी अध्ययन से यह पता चला कि ठोस ईंधन से खाना पकाने से घर के अंदर होनेवाला वायु प्रदूषण मौत का एक प्रमुख कारण है तो सरकार ने सबसे अधिक कमजोर परिवारों को एक लाख प्रदूषण रहित स्टोव वितरित करने का एक कार्यक्रम आरंभ किया। रवांडा के वैज्ञानिक और स्वास्थ्य मंत्रालय के अधिकारी – स्वयं मंत्री सहित – जीबीडी के लिए महत्वपूर्ण योगदानकर्ता हैं। आज जीबीडी में लगातार सुधार हो रहा है जिसका श्रेय 114 देशों के 1300 से अधिक सहयोगियों के प्रयासों को जाता है। ये सहयोगी उन मॉडलों में सुधार करते हैं जिन पर परियोजना का निर्माण किया जाता है, अध्ययन के परिणामों की जाँच करते हैं, नए डेटा सेटों का योगदान करते हैं, और परिणामों को मीडिया के आउटलेटों, शैक्षिक संस्थानों, और निर्णयकर्ताओं को संप्रेषित करते हैं। नवीनतम जीबीडी अध्ययन से पता चला है कि एक और रोग, जिसकी अंतर्राष्ट्रीय विकास हलकों में शायद ही कभी चर्चा हुई हो वह पीठ के निचले हिस्से और गर्दन में होनेवाला दर्द है, यह विश्व स्तर पर होनेवाली स्वास्थ्य हानि का चौथा सबसे बड़ा कारण है। इसने मध्यम आय वाले देशों में महामारी विज्ञान के संक्रमण की तीव्र गति और उप-सहारा अफ्रीका में संचारी, मातृ, नवजात शिशु, और पोषण संबंधी विकारों को भी उजागर किया है। लेकिन अगर जीबीडी डेटा के अधिक विस्तृत विवरण उपलब्ध कर पाता तो वह नीति संबंधी वादविवादों को सूचना देने के लिए और अधिक कार्य कर सकता था और स्वास्थ्य में सुधार के लिए अधिक कार्रवाई करने के लिए प्रेरित कर सकता था। नीति निर्माता जवाबदेह हैं, सबसे पहले उन ग्राहकों के प्रति जिनकी अनूठी ज़रूरतों को पूरा करना उनके लिए आवश्यक है। स्थानीय रोग के कारणों के अनुमान इबोला जैसी व्याधियों का मुकाबला करने, मध्यम आय वाले देशों में गैर संचारी रोगों से ज्यादा मौतें होने को रोकने, और उप सहारा अफ्रीका में मातृ एवं शिशु स्वास्थ्य से संबंधित सतत विकास लक्ष्यों को पूरा करने के लिए आवश्यक हैं। निर्णयकर्ताओं को अपने डेटा का बेहतर उपयोग करने में मदद करने के लिए, इन्स्टीट्यूट फॉर हैल्थ मीट्रिक्स एंड इवैल्यूएशन, जिसका मैं प्रधान हूँ, विश्लेषण के नवोन्मेषी स्तर पर रोग के कारणों के भू-स्थानिक मानचित्र तैयार कर रहा है। इन मानचित्रों को तैयार करना मलेरिया एटलस परियोजना द्वारा विकसित पद्धतियों की बदौलत संभव हो सका है, जिसने किसी भी रोगजनक के बारे में हमारी समझ की तुलना में मलेरिया की एक बेहतर स्थानिक समझ उत्पन्न की है। भू-स्थानिक मानचित्र उन क्षेत्रों की ठीक-ठीक पहचान कर सकते हैं जिनमें उल्लेखनीय प्रगति हो रही है, इससे हम उन समुदायों की पहचान कर सकते हैं जिन्होंने अपने पड़ोसियों की तुलना में कुछ अलग किया है। इन अध्ययन मामलों से समुदाय एक-दूसरे की सफलताओं को दोहराने में मदद कर सकते हैं। इसका एक उदाहरण कैली, कोलम्बिया है जिसमें 1990 के दशक में हत्या दरों में तब कमी हो गई जब शहर के महापौर, रोड्रिगो ग्युरेरो ने शराब पर लगे प्रतिबंधों को कठोर बना दिया, बहुत अधिक गरीब इलाकों में सामुदायिक विकास कार्यक्रम आरंभ किए, और सार्वजनिक स्थानों में अस्थायी रूप से बंदूकों पर प्रतिबंध लगा दिया। कोलंबिया की राजधानी बोगोटा के मेयर को जब कैली के इस कार्यक्रम के बारे में पता चला तो उन्होंने अपने यहाँ इसी तरह के उपायों को लागू किया जिससे नगर में धीरे-धीरे हत्याओं को कम करने में मदद मिली। तब से, ग्युरेरो ने अंतर अमेरिकी विकास बैंक के साथ मिलकर ऐसे कार्यक्रम विकसित करना शुरू कर दिया है जिनसे अन्य लैटिन अमेरिकी देशों को अपने समुदायों में हिंसा को कम करने में मदद मिलती है। 2014 में, ग्युरेरो को स्वास्थ्य में सुधार के लिए अपने डेटा का उपयोग करने के लिए रॉक्स पुरस्कार प्राप्त हुआ, जिससे उनके कार्य को और अधिक प्रोत्साहन मिला। भू-स्थानिक मानचित्रण से हमें और कई रोड्रिगो ग्युरेरोज़ों की पहचान करने और उनकी उपलब्धियों का समर्थन करने में मदद मिलेगी। अंतर्राष्ट्रीय समुदाय जब एमडीजी के उत्तरवर्ती ढांचे, सतत विकास लक्ष्यों, के वित्तपोषण और प्रगति पर नज़र रखने के लिए आवश्यक साधनों पर सहमति के लिए एकत्र होगा, तो प्रगति पर नज़र रखने और यह दर्शाने के लिए भू-स्थानिक मानचित्रण महत्वपूर्ण होगा कि इस दिशा में किन सुधारों की जरूरत हो सकती है। स्वास्थ्य मापदंड की दृष्टि से हम 1990 में जहाँ थे, वहाँ से अब काफी आगे पहुँच चुके हैं। ध्यान केंद्रित प्रयासों और अधिक नवोन्मेष से, अगले 25 वर्षों में हम और भी अधिक प्रगति कर सकते हैं जिससे दुनिया को हमारे सामूहिक स्वास्थ्य निवेशों का अधिकाधिक लाभ प्राप्त करने में मदद मिलेगी। वैश्विक वित्त और ग्लोबल वार्मिंग नई दिल्ली/लंदन – 2008 में जब वैश्विक वित्तीय संकट ने विश्व की अर्थव्यवस्था को लगभग तबाह कर दिया था, उसके बाद से वित्तीय सुधार नीति निर्माताओं के एजेंडा की शीर्षस्थ मदों में रहा है। लेकिन, नेताओं द्वारा अतीत की समस्याओं को सुलझाने से लेकर, भविष्य के लिए वित्तीय प्रणाली को तैयार करने के लिए उन्हें इसकी स्थिरता, विशेष रूप से जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न नई चुनौतियों से भी निपटना होगा। यही कारण है कि बहुत अधिक संख्या में सरकारों, नियामकों, मानक-निर्धारकों, और बाजार संचालनकर्ताओं ने वि��्तीय प्रणाली में स्थिरता से संबंधित नियमों को शामिल करना शुरू कर दिया है। ब्राज़ील में, केंद्रीय बैंक जोखिम प्रबंधन में पर्यावरण और सामाजिक कारकों को समेकित करने को लचीलेपन को मजबूत करने के एक उपाय के रूप में देखता है। और सिंगापुर और दक्षिण अफ्रीका जैसे देशों में, शेयर बाजार में सूचीबद्ध कंपनियों के लिए अपने पर्यावरणीय और सामाजिक निष्पादन को प्रकट करना अनिवार्य है, यह एक ऐसी आवश्यकता है जिसे निवेशक और नियामक वित्तीय बाजारों के कुशल संचालन के लिए आवश्यक मानते हैं। इस तरह की पहल को पहले कभी एक परिधीय "हरित" स्थान के हिस्से के रूप में माना जाता होगा। आज, इन्हें वित्तीय प्रणाली के संचालन के लिए मूल माना जाता है। बांग्लादेश में आर्थिक विकास का समर्थन करने के लिए केंद्रीय बैंक के प्रयासों में नवीकरणीय ऊर्जा, ऊर्जा दक्षता, या अपशिष्ट प्रबंधन के लक्ष्यों का अनुपालन करने वाली परियोजनाओं के लिए ऋण देने वाले बैंकों के लिए कम लागत वाला पुनर्वित्त प्रदान करना शामिल है। यूनाइटेड किंगडम में, बैंक ऑफ इंग्लैंड वर्तमान में वित्तीय संस्थाओं की सुरक्षा और सुदृढ़ता की निगरानी करने के लिए अपने मूल निदेश के हिस्से के रूप में बीमा क्षेत्र के लिए जलवायु परिवर्तन के प्रभाव का मूल्यांकन करता है। चीन में, अगले पाँच वर्षों में हरित उद्योग में वार्षिक निवेश $320 बिलियन तक पहुँच सकता है जबकि सरकार कुल राशि का केवल 10-15% प्रदान करने में सक्षम होगी। निधियाँ प्रदान करने में कमी को रोकने की दृष्टि से, पीपुल्स बैंक ऑफ़ चाइना ने हाल ही में संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) के साथ मिलकर एक रिपोर्ट तैयार की है जिसमें चीन की “हरित वित्तीय प्रणाली” स्थापित करने के लिए व्यापक सिफारिशें की गई हैं। भारत में, भारतीय वाणिज्य और उद्योग महासंघ ने एक नया "हरित बॉन्ड" कार्यदल स्थापित किया है ताकि यह पता लगाया जा सके कि देश के ऋण बाजार स्मार्ट बुनियादी ढाँचे के वित्तपोषण की चुनौती का सामना किस प्रकार कर सकते हैं। और हाल ही में किए गए विनियामक परिवर्तनों से सूचीबद्ध निवेश न्यासों द्वारा पूंजी का उपयोग स्वच्छ ऊर्जा के लिए किए जाने की काफी अधिक संभावना दिखाई देती है। फिलहाल, इस तरह के उपायों से वैश्विक वित्तीय प्रणाली में बैंकों, निवेशकों, वित्तीय संस्थाओं, और व्यक्तियों द्वारा धारित $305 ट्रिलियन की परिसंपत्तियों का केवल थोड़ा-सा अंश प्रभावित होता है। लेकिन यह निश्चित है कि इन्हें अधिक व्यापक रूप से लागू किया जाएगा क्योंकि वित्तपोषक और नियामक दोनों ही पर्यावरणीय अव्यवस्था के परिणामों को अच्छी तरह से जानते हैं। ये परिणाम पहले से ही गंभीर हैं। यूएनईपी द्वारा मूल्यांकन किए गए 140 देशों में से 116 देशों में, मूल्य सृजन के मूल में व्याप्त प्राकृतिक पूंजी के शेयरों में कमी हो रही है। कार्बन में निरंतर भारी वृद्धि की मानवीय और आर्थिक लागतों में गंभीर स्वास्थ्य प्रभाव, बुनियादी सुविधाओं में बढ़ रहा विघटन, और जल और खाद्य सुरक्षा, और साथ ही विशेष रूप से विकासशील देशों में बाजार में बढ़ती अस्थिरता शामिल हैं। यदि 2055 और 2070 के बीच ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जनों को निवल शून्य स्तरों तक कम नहीं कर दिया जाता है तो जोखिम अनियंत्रणीय हो जाने के फलस्वरूप यह क्षति और भी बढ़ जाएगी। जलवायु परिवर्तन से खतरा जितना अधिक स्पष्ट दिखाई देगा, इसके प्रभाव की प्रतिक्रिया का वित्तपोषण करना और भी महत्वपूर्ण हो जाएगा। विकसित देशों ने 2020 तक विकासशील देशों के लिए $100 बिलियन के वार्षिक वित्तीय प्रवाहों को जुटाने की प्रतिबद्धता की है, लेकिन इससे बहुत अधिक की आवश्यकता है। इससे भी अधिक इस बात की आवश्यकता है कि जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न वित्तपोषण की चुनौती को हरित अर्थव्यवस्था और सतत विकास के व्यापक संदर्भ में देखा जाए। जिन लोगों की वित्तीय प्रणाली को नियंत्रित करने की जिम्मेदारी है उनके सामने चुनौती है कि अधिक कार्बन से कम कार्बन वाले निवेशों और कमजोर से लचीली परिसंपत्तियों में निवेश में क्रमिक रूप से परिवर्तन हो। नई जलवायु अर्थव्यवस्था पहल के अनुसार, 2030 तक वैश्विक बुनियादी ढाँचे के निवेश पर $89 ट्रिलियन खर्च किए जाएँगे - इसे कम कार्बन वाला और लचीला बनाने के लिए अतिरिक्त $4.1 ट्रिलियन की आवश्यकता होगी। आवश्यक पूंजी जुटाने के लिए, नीति निर्माताओं को वित्तीय प्रणाली की शक्ति का उपयोग करना होगा। जोखिम प्रबंधन की व्याप्ति का विस्तार करना होगा ताकि बैंकिंग, बीमा, और निवेश के लिए विवेकपूर्ण नियमों में जलवायु परिवर्तन से दीर्घकालीन स्थिरता और जोखिम को सम्मिलित किया जा सके। नए "हरित बैंक" ऋण और ईक्विटी बाजारों से निधियाँ प्राप्त करने में मदद कर सकते हैं। बेहतर कॉर्पोरेट रिपोर्टिंग और वित्तीय संस्थाओं से अधिक प्रकटीकरण के माध्यम से पारदर्शिता को बढ़ाया जाना आवश्यक होगा। और इन नई प्राथमिकताओं को प्रतिबिंबित करने के लिए वित्तीय पेशेवरों के कौशल और प्रोत्साहनों को पुनर्निर्धारित और संशोधित करना होगा। अंतर्राष्ट्रीय सहयोग के लिए अब नए रास्ते खुल रहे हैं। उदाहरण के लिए, जी-20 के वित्त मंत्रियों और केंद्रीय बैंकों के गवर्नरों ने वित्तीय स्थिरता बोर्ड से यह पता लगाने के लिए कहा है कि वित्तीय क्षेत्र जलवायु संबंधी मुद्दों पर किस प्रकार कार्रवाई कर सकता है। इस प्रकार की जानेवाली कार्रवाइयों से न केवल जलवायु सुरक्षा सुदृढ़ होगी; बल्कि ये अधिक कुशल, प्रभावी, और लचीली वित्तीय प्रणाली में भी योगदान करेंगी। रॉबिन हुड को फिर से याद करना मैड्रिड - अंतर्राष्ट्रीय विकास सहायता रॉबिन हुड के सिद्धांत पर आधारित है: अमीरों से लो और गरीबों को दो। राष्ट्रीय विकास एजेंसियां, बहुपक्षीय संगठन, और गैर सरकारी संगठन इसी विचार को मन में रखकर वर्तमान में प्रतिवर्ष $135 बिलियन से अधिक राशि अमीर देशों से लेकर गरीब देशों को स्थानांतरित करते हैं। रॉबिन हुड के सिद्धांत के लिए एक और अधिक औपचारिक शब्द "सर्वदेशीय सर्वहित" है, यह एक ऐसा नैतिक नियम है जिसके अनुसार हमें दुनिया में हर किसी के बारे में एक ही तरह से सोचना चाहिए, चाहे वे कहीं भी रहते हों, और फिर मदद को वहां देना चाहिए, जहां यह सबसे ज्यादा मददगार हो। जिन लोगों के पास कम है उनकी उन लोगों पर प्राथमिकता होती है जिनके पास अधिक है। यह दर्शन परोक्ष या प्रत्यक्ष रूप से आर्थिक विकास के लिए सहायता, स्वास्थ्य के लिए सहायता, और मानवीय आपात स्थितियों के लिए सहायता का मार्गदर्शन करता है। पहली नज़र में, सर्वदेशीय सर्वहित उचित लगता है। गरीब देशों में लोगों की जरूरतें बहुत अधिक जरूरी होती हैं, और गरीब देशों में कीमत के स्तर बहुत कम होते हैं, इसलिए एक डॉलर या यूरो का मूल्य स्वदेश की तुलना में वहां दुगुने या तिगुने जितना बढ़ जाता है। स्वदेश में खर्च करना न केवल अधिक महंगा होता है, बल्कि इससे उन लोगों को भी लाभ मिलता है जो पहले से ही समृद्ध हैं (वैश्विक मानकों की दृष्टि से देखने पर, कम-से-कम अपेक्षाकृत रूप से), और इस प्रकार इससे कम हित होता है। मैं वैश्विक गरीबी के बारे में कई वर्षों से इस सोचता आ रहा हूं और मैंने इसे मापने की कोशिश की है, और मुझे यह मार्गदर्शी सिद्धांत हमेशा मोटे तौर पर सही लगा है। लेकिन वर्तमान में मैं इसके बारे में बहुत अधिक अनिश्चित सा महसूस कर रहा हूं। तथ्य और नैतिकता दोनों ही समस्याएं पैदा करते हैं। वैश्विक गरीबी को कम करने में निस्संदेह भारी प्रगति हुई है, यह प्रगति विदेश से सहायता के माध्यम से उतनी अधिक नहीं हुई है, जितनी कि विकास और वैश्वीकरण के माध्यम से। पिछले 40 वर्षों में गरीब लोगों की संख्या दो अरब से अधिक से कम होकर सिर्फ एक अरब से कम रह गई है - दुनिया की आबादी में वृद्धि और विशेष रूप से 2008 के बाद से, वैश्विक आर्थिक विकास में दीर्घावधि मंदी को देखते हुए यह एक उल्लेखनीय उपलब्धि है। हालांकि गरीबी में कमी प्रभावशाली और पूरी तरह स्वागतयोग्य है, पर यह कीमत चुकाए बिना नहीं आई है। जिस भूमंडलीकरण ने गरीब देशों में कई लोगों का उद्धार किया है, उसने अमीर देशों में कुछ लोगों को नुकसान भी पहुंचाया है क्योंकि कारखानों और नौकरियों का स्थानांतरण वहां हो गया जहां श्रम सस्ता है। यह नैतिकता की दृष्टि से अदा की जानेवाली स्वीकार्य कीमत लगती थी, क्योंकि जिन लोगों को नुकसान हो रहा था वे उन लोगों की तुलना में पहले से ही बहुत अमीर (और अधिक स्वस्थ) थे जिन्हें लाभ हो रहा था। इस बेचैनी का लंबे समय से चला आ रहा कारण यह है कि हम में से जो लोग ये धारणाएं बनाते हैं वे वास्तव में लागतों का आकलन करने के लिए अच्छी स्थिति में नहीं होते हैं। शिक्षा के क्षेत्र और विकास उद्योग में लगे बहुत से लोगों के समान मैं वैश्वीकरण के सबसे बड़े लाभार्थियों में से हूं - जो अपनी सेवाओं को इतने अधिक बड़े और समृद्ध बाजारों में बेचने में सक्षम हैं जिनके बारे में हमारे माता-पिता सपने में भी नहीं सोच सकते थे। वैश्वीकरण उन लोगों के लिए कम अच्छा है जो न केवल इसके लाभ नहीं उठा पाते हैं, बल्कि इसके प्रभाव से दुखी रहते हैं। उदाहरण के लिए, हमें बहुत पहले से पता है कि कम शिक्षित और कम आय वाले अमेरिकियों को चार दशकों में नगण्य आर्थिक लाभ मिला है, और यह भी कि अमेरिका के श्रम बाजार के निचले हिस्से में क्रूर माहौल बन सकता है। लेकिन ये अमेरिकी लोग वैश्वीकरण से कितनी अधिक बुरी तरह से पीड़ित हैं? क्या वे उन एशियाइयों से ज्यादा बेहतर हैं जो अब उन कारखानों में काम कर रहे हैं जो पहले उनके गृहनगर में हुआ करते थे? निस्संदेह वे बेहतर हैं। लेकिन कई लाख अमेरिकी - श्वेत, अश्वेत, और गैर लातिनी - अब ऐसे परिवारों में रहते हैं जिनकी प्रति व्यक्ति आय $2-प्रतिदिन से कम है, अनिवार्य रूप से यह वही स्तर है जिसका उपयोग विश्व बैंक भारत या अफ्रीका में अत्यंत गरीबी के स्तर को परिभाषित करने के लिए करता है। इस आय से संयुक्त राज्य अमेरिका में आश्रय ढूँढ़ना इतना मुश्किल है कि भारत या अफ्रीका में $2-प्रतिदिन की गरीबी की तुलना में अमेरिका में $2-प्रतिदिन की गरीबी लगभग निश्चित रूप से बदतर है। इतना ही नहीं, अमेरिका की बहु-प्रशंसित अवसर की समानता खतरे में है। जिन कस्बों और शहरों ने भूमंडलीकरण के फलस्वरूप अपने कारखानों को खो दिया है उन्होंने अपने कर आधार को भी खो दिया है और उनके लिए गुणवत्ता वाले स्कूलों को बनाए रखना भी मुश्किल हो गया है - जो अगली पीढ़ी के लिए बच निकलने का मार्ग है। कुलीन स्कूल अपने बिलों का भुगतान करने के लिए अमीरों को भर्ती करते हैं, और अल्पसंख्यकों के साथ सदियों से चले आ रहे भेदभाव को दूर करने के लिए उन्हें रिझाते हैं; लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं है कि इससे श्वेत श्रमिक वर्ग में असंतोष को बढ़ावा मिलता है, जिनके बच्चों को इस चुनौतीपूर्ण नई दुनिया में कोई जगह नहीं मिलती है। ऐनी केस के साथ लिखे गए मेरे एक लेख में संकट के और अधिक लक्षणों के बारे में बताया गया है। हमने अपने लेख में श्वेत गैर लातियों में "निराशा से हुई मौतों" की बढ़ती संख्या का उल्लेख किया है - इनमें आत्महत्या करना, शराब का अधिक सेवन करना, और पर्चे की दवाओं और अवैध ड्रग्स की आकस्मिक ओवरडोज़ लेना शामिल हैं। अमेरिका में कुल मिलाकर मृत्यु दरें 2014 की तुलना में 2015 में अधिक थीं, और जीवन प्रत्याशा कम हो गई है। हम भौतिक जीवन स्तरों के मापदंड के बारे में बहस कर सकते हैं, क्या मुद्रास्फीति को बढ़ा-चढ़ा कर दिखाया गया है और जीवन स्तरों में वृद्धि को कम करके दिखाया गया है, या क्या स्कूल हर जगह वास्तव में इतने अधिक खराब हैं। लेकिन लोगों की मृत्यु को समझाना बहुत कठिन है। शायद यह इतना स्पष्ट नहीं है कि सबसे बड़ी जरूरतें दुनिया के दूसरे सिरे पर हैं। नागरिकता ऐसे अधिकारों और जिम्मेदारियों के साथ मिलती है जिन्हें हम अन्य देशों के लोगों के साथ साझा नहीं करते हैं। फिर भी नैतिक दिशानिर्देशों का "सर्वदेशीय" वाला अंश हमारे सह नागरिकों के प्रति हमारे किन्हीं विशेष दायित्वों पर ध्यान नहीं देता है। हम इन अधिकारों और दायित्वों के बारे में एक प्रकार के परस्पर बीमा अनुबंध के रूप में सोच सकते हैं: हम अपने सह नागरिकों के लिए कुछ प्रकार की असमानताओं को सहन नहीं कर सकते हैं, और - सामूहिक खतरों को देखते हुए हम में से हर किसी का मदद करने का दायित्व है - और मदद की उम्मीद करने का अधिकार है। इन जिम्मेदारियों से उन लोगों के प्रति हमारी जिम्मेदारियां अनुचित या कम महत्वपूर्ण नहीं हो जाती हैं जो दुनिया में कहीं और पीड़ित हैं, लेकिन इनका मतलब यह है कि अगर हम केवल भौतिक आवश्यकताओं के आधार पर ही निर्णय लेते हैं, तो हम महत्वपूर्ण विचारणीय मुद्दों की अनदेखी करने का जोखिम उठाते हैं। जब नागरिक यह मानने लगते हैं कि अभिजात वर्ग उन लोगों का अधिक ध्यान रखता है जो समुद्र के उस पार हैं बजाय उन लोगों के जो रेल की पटरियों के उस पार हैं, तब बीमा व्यर्थ हो जाता है, हम गुटों में विभाजित हो जाते हैं, और जो लोग पिछड़ जाते हैं वे क्रोध से भर जाते हैं और उनका उस राजनीति से मोहभंग हो जाता है जो अब उनके हित को नहीं देखती है। हो सकता है कि वे जो सुधार चाहते हैं हम उनसे सहमत न भी हों, लेकिन हम उनके और अपने दोनों के जोखिम पर उनकी वास्तविक शिकायतों को नजरअंदाज कर देते हैं। वैश्विक मार्शल योजना रोम – वैश्विक विकास में सहयोग को उत्प्रेरित करने के लिए लगातार चल रहे प्रयासों के बावजूद, हाल के वर्षों में इसकी प्रगति में भारी बाधाएँ आई हैं। सौभाग्यवश, 2015 की दूसरी छमाही में आयोजित की जानेवाली प्रमुख अंतर्राष्ट्रीय बैठकों में, दुनिया के नेताओं के लिए उन पर काबू पाने का यह महत्वपूर्ण अवसर होगा। इस तरह का अवसर पहले भी आया था। पिछली सदी के अंत में, आर्थिक विकास पर अंतर्राष्ट्रीय वार्ताओं में भी भारी अवरोध आ गया था। विश्व व्यापार संगठन की सिएटल मंत्रिस्तरीय वार्ता किसी निर्णय के बिना समाप्त हो गई थी, और वाशिंगटन सहमति के दो दशकों के बाद, विकासशील देशों को अमेरिका के नेतृत्व वाली अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं से निराशा हुई थी। मॉन्टेरी, मेक्सिको में संयुक्त राष्ट्र के विकास के लिए वित्तपोषण (एफएफडी) प्रारंभिक सम्मेलन में हुई वार्ताओं में किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँचा जा सका। फिर, 11 सितंबर, 2001 को, संयुक्त राज्य अमेरिका में भारी आतंकवादी हमले हुए - यह एक ऐसी दुखद घटना थी जिसके फलस्वरूप जैसे-तैसे प्रगति हो पाई। विश्व के नेता दोहा विकास का दौर शुरू करने के लिए राजी हो गए ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि व्यापार वार्ताओं से विकासशील देशों की विकास संबंधी आकांक्षाओं की पूर्ति होती है। और 2002 मॉन्टेरी एफएफडी सम्मेलन में विदेशी और घरेलू निवेश, विदेशी ऋण, अंतर्राष्ट्रीय सहयोग, व्यापार, और सर्वांगी शासन के मुद्दों पर बड़ी सफलताएँ हासिल की गईं। बेशक, प्रगति को तेज़ करने के लिए त्रासदी की जरूरत नहीं होती है। इस वर्ष की प्रमुख वैश्विक बैठकें - जुलाई में विकास के लिए वित्त पोषण पर सम्मेलन, सितंबर में संयुक्त राष्ट्र में सतत विकास लक्ष्यों को स्वीकार करने के लिए बैठक, और दिसंबर में पेरिस में संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन – पर्याप्त होनी चाहिए। और इन बैठकों की तैयारी के लिए किए गए प्रयासों से लगता है कि इनमें आगे बढ़ने के लिए इच्छा है। लेकिन सही कार्यक्रम का होना मुख्य बात है। औद्योगीकरण को प्रोत्साहित करने के लिए दुनिया को एक ऐसी सुविचारित और दूरगामी रणनीति की जरूरत है जो यूरोपीय सुधार कार्यक्रम के मॉडल अर्थात उस अमेरिकी पहल के अनुरूप हो जिसके फलस्वरूप द्वितीय विश्व युद्ध के बाद यूरोप पुनर्निर्माण कर पाया था। इस योजना के अंतर्गत, जिसे मार्शल योजना के रूप में अधिक जाना जाता है, यूरोप में राष्ट्रीय विकास के प्रयासों का समर्थन करने के लिए अमेरिकी सहायता भारी मात्रा में दी गई थी, और इसे अभी भी बहुत-से यूरोपीय लोगों द्वारा अमेरिका के सबसे अच्छे समय के रूप में देखा जाता है। मार्शल योजना का प्रभाव यूरोप की सीमाओं के बहुत बाहर तक महसूस किया गया था, अगले दशक में इसका विकास इस रूप में हुआ जो संभवतः मानव इतिहास में सबसे अधिक सफल आर्थिक विकास सहायता परियोजना है। पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना की स्थापना और कोरियाई युद्ध के बाद पूर्वोत्तर एशिया में इसी तरह की नीतियाँ शुरू की गईं। बेशक, मार्शल योजना के विस्तार के पीछे एक राजनीतिक प्रेरणा थी। पश्चिमी यूरोप से लेकर पूर्वोत्तर एशिया तक के अमीर देशों का एक स्वच्छता घेरा बनाकर, अमेरिका को यह उम्मीद थी कि वह शीत युद्ध के शुरू होने पर साम्यवाद के प्रसार को रोक पाएगा। इसमें उन विकासशील देशों को छोड़ दिया गया जो इस तरह के राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति नहीं करते थे। हालाँकि, मूल रूप से, मार्शल योजना एक आर्थिक रणनीति थी - और यह एक सुदृढ़ रणनीति भी थी। महत्वपूर्ण बात यह है कि यह योजना अपनी पूर्ववर्ती मोर्गेनथाऊ योजना से बिल्कुल उलट थी जिसमें गैर-औद्योगीकरण पर ध्यान केंद्रित किया गया था, और इसके परिणाम खराब रहे थे। जैसा कि वित्त सचिव हेनरी मोर्गेनथाऊ, जूनियर, ने अपनी 1945 की पुस्तक जर्मनी हमारी समस्या है में स्पष्ट रूप से व्यक्त किया था कि इस योजना का उद्देश्य जर्मनी को "मुख्य रूप से कृषि और चरागाहों वाले" देश में बदलना था ताकि किसी भी नए युद्ध में उसकी भागीदारी को रोका जा सके। तथापि, 1946 के अंत तक, जर्मनी में आर्थिक संकट और बेरोज़गारी ने अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति हर्बर्ट हूवर को तथ्य खोजने के उद्देश्य से उस देश की यात्रा करने के लिए प्रेरित किया। हूवर की 18 मार्च 1947 की तीसरी रिपोर्ट में यह कहा गया कि जर्मनी को चरागाहों के देश के रूप में सीमित करने की धारणा एक "भ्रम" है जिसे 25,000,000 लोगों को ख़त्म करने या देश से बाहर निकालने के बिना हासिल नहीं किया जा सकता है। केवल मात्र विकल्प पुनः औद्योगीकरण था। तीन महीने से भी कम समय के बाद, विदेश मंत्री जॉर्ज मार्शल ने हार्वर्ड विश्वविद्यालय में अपना ऐतिहासिक भाषण दिया जिसमें उन्होंने इस नीति को पलटने की घोषणा की। उन्होंने कहा कि उच्च शुल्कों, कोटा, और आयात प्रतिबंधों जैसे उपायों सहित राज्य के भारी हस्तक्षेपों के माध्यम से जर्मनी और शेष यूरोप का पुनः औद्योगीकरण किया जाना होगा। मुक्त व्यापार केवल पुनर्निर्माण के बाद ही संभव हो पाएगा, जब यूरोपीय देश अंतर्राष्ट्रीय बाजारों में प्रतिस्पर्धा करने योग्य हो जाएँगे। मार्शल ने अपने संक्षिप्त भाषण में तीन अन्य महत्वपूर्ण मुद्दे उठाए। सबसे पहले, जर्मनी की आर्थिक मंदी में शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों के बीच व्यापार के टूटने ने जो भूमिका निभाई थी, उसका उल्लेख करते हुए उन्होंने सदियों पुरानी यूरोपीय आर्थिक अंतर्दृष्टि की ओर ध्यान दिलाया: सभी धनी देशों में विनिर्माण क्षेत्र वाले नगर होते हैं। मार्शल ने स्पष्ट किया कि इसका उपाय "यूरोपीय लोगों का विश्वास बहाल करने में निहित है", ताकि निर्माता और किसान "अपने उत्पादों का आदान-प्रदान उन मुद्राओं में करने के लिए सक्षम और तैयार हों जिनके सतत मूल्य पर कोई सवाल न किए जा सकते हों।" दूसरे, मार्शल का यह तर्क था कि भागीदारी संस्थाएँ आर्थिक प्रगति से उत्पन्न होती हैं, न कि आर्थिक प्रगति भागीदारी संस्थाओं से, जो तर्क आज के पारंपरिक ज्ञान के विपरीत है। जैसा कि उन्होंने बताया, नीति का उद्देश्य दुनिया में कार्यशील अर्थव्यवस्था का पुनरुद्धार करना होना चाहिए, ताकि ऐसी राजनीतिक और सामाजिक स्थितियाँ बन सकें जिनमें मुक्त संस्थाओं का अस्तित्व बना रह सके।" तीसरे, मार्शल ने इस बात पर बल दिया कि वास्तविक प्रगति और विकास को बढ़ावा देने के लिए सहायता व्यापक और रणनीतिक होनी चाहिए। उन्होंने घोषणा की कि "इस तरह की सहायता, विभिन्न संकटों के उत्पन्न होने पर टुकड़ों में नहीं दी जानी चाहिए। यह सरकार भविष्य में जो भी सहायता प्रदान करे, वह उपचार की दृष्टि से होनी चाहिए, मात्र उपशामक के रूप में नहीं।" मार्शल की कल्पना दुनिया के उन नेताओं के लिए महत्वपूर्ण सबक देती है जो आज विकास में तेजी लाना चाहते हैं, विकासशील और संक्रमणशील अर्थव्यवस्थाओं पर वाशिंगटन सहमति के प्रभावों को पलटने की आवश्यकता के साथ शुरूआत करना चाहते हैं - ऐसे प्रभाव जो मोर्गेनथाऊ योजना के प्रभावों जैसे हैं। कुछ देश - चीन और भारत जैसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं सहित - जिन्होंने लंबे समय तक घरेलू उद्योग की रक्षा की है, आर्थिक वैश्वीकरण का लाभ उठाने के लिए बेहतर स्थिति में हैं। अन्य देशों में आर्थिक विकास और वास्तविक प्रति व्यक्ति आय में गिरावट आई है क्योंकि उनके उद्योग और कृषि क्षमता में, विशेष रूप से पिछली सदी के अंतिम दो दशकों में कमी हुई है। अब समय आ गया है कि गरीब अर्थव्यवस्थाओं की उत्पादक क्षमता और क्रय शक्ति को बढ़ाया जाए, जैसा कि यूरोप में मार्शल के भाषण के एक दशक बाद हुआ था। मार्शल की यह अंतर्दृष्टि कि इस तरह का साझा आर्थिक विकास स्थायी शांति को बनाने के लिए एकमात्र रास्ता है हमेशा की तरह आज भी सच बना हुआ है। जीएमओ और बेकार विज्ञान स्टैनफ़ोर्ड - आज के मीडिया परिदृश्य में, जहां निराधार धारणाएँ, प्रचार, और अफवाहें व्याप्त हैं, वैज्ञानिक विधि वास्तविकता की कसौटी के रूप में काम कर सकती है, यह एक ऐसा साधन है जिसके द्वारा हम अनुभवजन्य और प्रामाणिक साक्ष्य के आधार पर यह निर्धारित करते हैं कि सच क्या है। विज्ञान हमें सक्षम बनाता है कि हम उस चीज़ का मूल्यांकन कर सकें जिसे हम जानते हैं और उस चीज़ की पहचान कर सकें जिसे हम नहीं जानते हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात है कि यह व्यक्तिगत या राजनीतिक कारणों से किए गए झूठे दावों का खंडन करता है – जो इसे कम-से-कम करना ही चाहिए। लेकिन वैज्ञानिक कभी-कभी वैज्ञानिक पद्धति को छोड़कर - प्रायः कुख्याति या आर्थिक लाभ के लिए - मिथ्या प्रचार करने और विशेषज्ञता रहित परंतु जानकारी की भूखी जनता में भय पैदा करने के लिए “धूर्तता” पर उतर आते ह���ं। वैज्ञानिक अधिकार का ऐसा दुरुपयोग विशेष रूप से “जैविक” और “प्राकृतिक” खाद्य उद्योगों में व्यापक रूप से हो रहा है जो लोगों के कृत्रिम या “अप्राकृतिक” उत्पादों के भय का लाभ उठाते हैं। इसका एक ताजा उदाहरण भारतीय मूल के अमेरिकी वैज्ञानिक वी. ए. शिव अय्यादुरै का है जिन्होंने प्रभाकर देवनीकर के साथ मिलकर, अत्यंत हास्यास्पद लेख “क्या जीएमओ फ़ॉर्मेलडीहाइड संचित करते हैं और आण्विक प्रणालियों की समतुल्यताओं को बाधित करते हैं?” प्रकाशित किया है। इनके उत्तर सिस्टम्स बायोलॉजी से मिल सकते हैं।" (“जीएमओ” “आनुवंशिक रूप से संशोधित जीव” होते हैं, जो स्वयं एक भ्रामक और अक्सर अनुचित रूप से लांछित गैर-श्रेणी है, जिसमें जेनेटिक इंजीनियरिंग की सर्वाधिक अत्याधुनिक और सटीक तकनीकों से संशोधित जीवों की सृष्टि को सम्मिलित किया जाता है।) हालाँकि यह लेख कथित तौर पर उस सहकर्मी-समीक्षा प्रक्रिया पर खरा उतरा है, जो विधि-सम्मत विज्ञान की प्रमुख घटक है, परंतु यह लेख कम प्रभाव वाली “पैसा देकर खेलो” पत्रिका, कृषि विज्ञान में प्रकाशित हुआ है जो एक “शिकारी” प्रकाशक द्वारा निकाली जाती है। इसके प्रकाशित होने के कुछ दिनों के भीतर, कार्बनिक उपभोक्ता संघ” और जीएमओ इनसाइड जैसे जैव प्रौद्योगिकी विरोधी संगठनों ने अय्यादुरै के “निष्कर्षों” पर डरावनी सुर्खियों के साथ रिपोर्टिंग करना आरंभ कर दिया - “जीएमओ सोया में फ़ॉर्मेलडीहाइड?” और “नए अध्ययन से पता चला है कि जीएमओ सोया कैंसरकारी रसायन फ़ॉर्मेलडीहाइड को संचित करता है” – इसके साथ डरावने चित्र भी दिए गए। लेकिन अय्यादुरै के लेख के साथ समस्याएँ ज़्यादती की हैं। यह दिखाने के लिए अकेले इसका शीर्षक ही पर्याप्त है कि इसमें कुछ गलत है। यदि आपको लगता है कि जीएमओ “फ़ॉर्मेलडीहाइड का संचय” कर सकते हैं – ऐसा रसायन जो उच्च स्तरों पर संभवतः कैंसरकारी हो सकता है, लेकिन यह अधिकतर जीवित कोशिकाओं में होता है और यह हमारे पर्यावरण में व्यापक रूप से पाया जाता है – इसकी स्पष्ट प्रतिक्रिया यह होगी कि जीवों में इसके स्तरों को मापा जाना चाहिए। तथापि, अय्यादुरै ने “सिस्टम बायोलॉजी” के माध्यम से मॉडलिंग पर आधारित अनुमान लगाने का चुनाव किया। “सिस्टम्स बायोलॉजी” से केवल पूर्वानुमान लगाया जा सकता है, इससे कोई प्रयोगात्मक निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता। अय्यादुरै ने फ़ॉर्मेलडीहाइड और ग्लूटाथियोन नामक दो रसायनों के स्तरों का पूर्वानुमान लगाने के लिए पौधों में किन्हीं रसायनों के स्तरों का वास्तविक परीक्षण करने के बजाय, डेटा को कंप्यूटर की कलन-विधि में डाल दिया। यह तो मानो ऐसा हुआ कि जैसे कोई मौसम विज्ञानी खिड़की से बाहर झाँक कर यह देखने के बजाय कि बारिश हो रही है या नहीं, अपने मॉडलों से यह पूर्वानुमान लगाने लगे कि पूरे दिन धूप रहेगी। यह सुनिश्चित करने के लिए कि, जैसा कि फ़्लोरिडा विश्वविद्यालय में बागवानी विज्ञान विभाग के अध्यक्ष, केविन फ़ोल्टा ने स्पष्ट किया है, सिस्टम्स बायोलॉजी तभी एक उपयोगी दृष्टिकोण हो सकता है जब इसका उपयोग सही तरीके से किया जाए। जैसा कि उन्होंने बताया है, सिस्टम्स बायोलॉजी “एक ऐसा तरीका है जिसमें विद्यमान डेटा को समेकित करने पर आधारित पूर्वानुमान लगाए जाते हैं, और फिर उससे सांख्यिकीय रूप से इस संभावना का पता लगाया जाता है कि क्या पूर्वानुमान सही हो सकते हैं।" लेकिन, वे इस बात पर जोर देते हैं कि उसके बाद पूर्वानुमानों का परीक्षण किया जाना चाहिए, “और सिस्टम्स के दृष्टिकोण की पुष्टि की जानी चाहिए।" जैसा कि कंप्यूटर मॉडलिंग पर आधारित पूर्वानुमान के सभी अध्ययनों में होता है, परिणामों की वैधता डेटा और कलन-विधि की सत्यता पर निर्भर करती है। यदि डेटा को मॉडल तैयार करनेवाले के वांछित निष्कर्षों का समर्थन करने के लिए फलों की तरह चुना जाता है, या कलन-विधि दोषपूर्ण हो, तो परिणाम गलत होंगे। लेकिन अय्यादुरै के लेख से यह स्पष्ट नहीं है कि कौन से डेटा उपयोग में लाए गए थे, और मॉडल की भी कोई पुष्टि नहीं की गई है। फ़ोल्टा ने अय्यादुरै के काम की बहुत बढ़िया तरीके से खिल्ली उड़ाई है। “यदि आपने कोई ऐसा कंप्यूटर प्रोग्राम तैयार किया है, जो म्यूनिख के स्थान का पूर्वानुमान लगाने के लिए इंटरनेट के डेटा को एकीकृत करता है और इस प्रोग्राम ने आपको बताया कि यह वास्तव में फ़्लोरिडा के निकट, मैक्सिको की खाड़ी में है, तो इसका मतलब यह नहीं है कि म्यूनिख फ़्लोरिडा के निकट, मैक्सिको की खाड़ी में है।” इसके बजाय, इसका मतलब यह है कि आपने अपने प्रोग्राम, अनुमानों, या इनपुट डेटा में कोई गलती की है - इन सभी का परीक्षण किया जा सकता है। फ़ोल्टा अपनी बात जारी रखते हुए कहते हैं कि इन आंकड़ों को चुनौती न देने का निर्णय करना, और इसके बजाय एक ऐसा नक्शा प्रकाशित करना जिसमें यह दिखाया गया हो कि म्यूनिख वास्तव में मैक्सिको की खाड़ी में है, और अन्य सभी डेटा और जर्मनी के लाखों लगभग उदासीन लोगों के दावों का विरोध करने का मतलब यह नहीं है कि आप मेधावी हैं। इसका मतलब यह है कि आपको बिल्कुल कुछ भी जानकारी नहीं है, या इस बात की अधिक संभावना हो सकती है कि आप किसी मंशा से एक प्रमुख जर्मन महानगर को टाम्पा से दो घंटे की नाव की यात्रा दिखाना चाहते हैं।” फ़ोल्टा ने अय्यादुरै के प्रकाशक के बारे में भी कुछ कहा है। यदि आप म्यूनिख के स्थान को दिखानेवाला भ्रामक नक्शा छापते हैं, तो उससे “विश्वसनीय जानकारी के स्रोत के रूप में आपकी ईमानदारी के बारे में क्या पता चलता है?” वैज्ञानिक सहयोग की भावना से, फ़ोल्टा ने आनुवांशिकी इंजीनियरी से तैयार मकई और सोया के नमूनों के विश्वविद्यालय आधारित परीक्षण (उचित नियंत्रणों के साथ) करवाने के लिए अय्यादुरै के साथ सहयोग करने की पेशकश की है जिसमें एक स्वतंत्र प्रयोगशाला द्वारा विश्लेषण किए जाएँगे। अय्यादुरै ने इसके लिए मना कर दिया, इसलिए फ़ोल्टा इसे स्वयं आगे बढ़ाएँगे। प्रयोगात्मक डेटा आनेवाला है। इस बीच, यदि आपको सिरके वाले मीट और पास्ता के व्यंजनों की तलब हो तो मध्य यूरोप जाएँ, मेक्सिको की खाड़ी नहीं। सभी को शिक्षित करना एडिनबर्ग – मिलेनियम डेवलपमेंट गोल्स (एमडीजी) द्वारा निर्धारित इस लक्ष्य को प्राप्त करने में भारी रुकावटें सामने आ रही हैं कि यह सुनिश्चित किया जाए कि दिसंबर 2015 तक स्कूल जाने की आयु वाला हर बच्चा स्क���ल में हो। चूंकि हाल के महीनों में गाज़ा, सीरिया, इराक और नाइजीरिया में बच्चे वास्तव में युद्ध की पहली पंक्ति में लगे हुए हैं, इसलिए चुनौती की व्यापकता उतनी अधिक स्पष्ट नहीं दिखाई दे पा रही है। यह सब होते हुए भी, सार्वभौमिक शिक्षा के वायदे को पूरा करने के लिए यह ज़रूरी है कि बाल शरणार्थी और युद्ध क्षेत्रों में रहनेवाले बच्चे जो सबसे अधिक कठिन परिस्थितियों में रहते हैं, सुरक्षित रूप से बुनियादी शिक्षा प्राप्त कर सकें। शैक्षिक अनुसंधान से यह पता चलता है कि कोई भी देश निरंतर समृद्धि का लाभ नहीं उठा सकता – और कोई भी देश मध्यम आय के जाल से नहीं बच सकता – जब तक कि वह उच्च गुणवत्ता की शिक्षा में भारी मात्रा में निवेश नहीं करता है। यह बात आज की ज्ञान आधारित अर्थव्यवस्था के लिए विशेष रूप से सच है जिसमें कंपनियाँ अपना स्वयं का मूल्यांकन केवल भौतिक संपत्तियों के अनुसार नहीं बल्कि अपनी मानव संपत्तियों के अनुसार करती हैं, और शेयर बाजार भौतिक पूंजी के अतिरिक्त बौद्धिक पूंजी का भी मूल्यांकन करते हैं। शिक्षा को एक अरसे से आय, धन, हैसियत, और सुरक्षा की गारंटी की दृष्टि से सर्वोपरि माना गया है। इसके बावजूद, लाखों लोग लगातार इससे वंचित रहे हैं या इसमें पिछड़ गए हैं, और दुनिया के लगभग आधे बच्चों को अभी भी बुनियादी शिक्षा तक पहुँच उपलब्ध नहीं है। यह सुनिश्चित करने के लिए, मिलेनियम डेवलपमेंट गोल्स (एमडीजी) शुरू किए जाने के बाद पहले पाँच वर्षों में भारी प्रगति हुई थी, प्राथमिक और निम्न माध्यमिक विद्यालयों में नामांकनों में 1.5% वार्षिक की बढ़ोतरी हुई। इस राह पर चलते हुए, 2022 तक नामांकन दर दुनिया भर में 97% तक पहुँच जाएगी, और उप सहारा अफ्रीका इस स्तर को 2026 तक प्राप्त कर लेगा। लेकिन 2005 के बाद, प्रगति ठप हो गई। परिणामस्वरूप, दुनिया के सबसे गरीब देशों में केवल 36% बच्चे ही निम्न-माध्यमिक विद्यालय तक की शिक्षा पूर्ण कर पाते हैं। 2030 तक, यह दर बढ़ तो चुकी होगी, लेकिन केवल 54% तक ही। इसमें कोई आश्चर्य नहीं है कि ग्रामीण समुदायों में लड़कियों को सबसे अधिक बाधाओं का सामना करना पड़ता है। आज, लगभग तीन-चौथाई लड़कियों को बुनियादी प्राथमिक शिक्षा नहीं मिल पाती है; 2030 में, इनमें से आधी फिर भी वंचित रह जाएँगी। इसी तरह, लगभग 90% लड़कियाँ आज माध्यमिक शिक्षा को पूरा करने में असमर्थ रहती हैं; 2030 तक, इस संख्या में केवल 20% तक की ही कमी होगी। और, उप-सहारा अफ़्रीका में प्राथमिक शिक्षा तक पहुँच प्राप्त करने के लिए लड़कों को जहाँ 2069 तक प्रतीक्षा करनी पड़ेगी, वहीं लड़कियों को 2086 तक प्रतीक्षा करनी पड़ेगी। जहाँ तक निम्न-माध्यमिक शिक्षा का प्रश्न है, इसमें लगभग एक शताब्दी लग जाएगी, यदि मौजूदा प्रवृत्तियाँ बनी रहती हैं, तो उप सहारा अफ्रीका में सभी लड़कियों के लिए शिक्षा तक पहुँच को सुनिश्चित करने में लगभग एक शताब्दी लग जाएगी। इनमें ऐसा कुछ भी नहीं है जो 'वैश्विक नेताओं' के इस वादे से मेल खाता हो कि वे दुनिया भर के सभी बच्चों की प्रतिभाओं को विकसित करेंगे। हाल ही के एक अध्ययन से पता चलता है कि अफ्रीका शिक्षा के अवसरों के मामले में अब तक इतना अधिक पीछे है कि 2025 में रवांडा, चाड, लाइबेरिया, और मलावी में तीस वर्ष से अधिक आयु वाले केवल 2% युवा वयस्कों को - और तंजानिया और बेनिन में केवल 3% को किसी कॉलेज या विश्वविद्यालय की शिक्षा प्राप्त होगी। तृतीयक शिक्षा के ऐसे निम्न स्तरों के कारण, अगली पीढ़ी के लिए योग्य शिक्षकों को नियुक्त कर पाना न केवल असंभव हो जाएगा, बल्कि चिकित्सा केन्द्रों और क्लीनिकों के लिए पूरी तरह से प्रशिक्षित स्वास्थ्य पेशेवरों को नियुक्त कर पाना भी असंभव हो जाएगा - ये ऐसी असफलताएँ हैं जो प्रत्यक्ष रूप से खराब शिक्षा, खराब स्वास्थ्य, बेरोजगारी और गरीबी के अंतहीन चक्र को निरंतर जारी रखती हैं। इसमें कोई शक नहीं है कि कुछ अफ्रीकी देश - जैसे अल्जीरिया, नाइजीरिया और मिस्र - इस प्रवृत्ति को रोकने में सफल हो सकते हैं। लेकिन दक्षिण अफ्रीका में भी - जो वर्तमान में अफ्रीका का सबसे अधिक विकसित देश है - 2045 तक अधिक से अधिक 10% युवा वयस्कों के पास ही कॉलेज या विश्वविद्यालय की डिग्री होगी। इस बीच, पाकिस्तान में, मलाला युसुफ़ज़ई के नेतृत्व में चलाए जा रहे एक साहसपूर्ण अभियान से तृतीयक शिक्षा के साथ युवा वयस्कों के हिस्से को बढ़ाने में मदद मिल रही है, जो 2010 में मात्र 7% था। लेकिन ये लाभ मामूली हैं; 2045 तक भी, इनका अंश 15% से अधिक होने की संभावना नहीं है। नेपाल के मामले में उम्मीद की जाती है कि वह तृतीयक शिक्षा के क्षेत्र में अधिक तेज़ी से वृद्धि कर पाएगा, लेकिन इसके न्यून आधार के फलस्वरूप इसका 2045 का स्तर लगभग 16% होने की संभावना है। यहाँ तक कि भारत जैसी प्रमुख उभरती अर्थव्यवस्था में 2010-2045 तक केवल 11% की प्रगति होगी जिससे वह केवल 23% तक पहुँच पाएगी - यह स्तर उच्च शिक्षा के उसके संस्थानों की वैश्विक प्रतिष्ठा द्वारा सुझाए गए स्तर से बहुत ही कम है। इस बीच, सिंगापुर, दक्षिण कोरिया और जापान में, कॉलेज या विश्वविद्यालय की डिग्री वाले युवा वयस्कों की हिस्सेदारी 80-90% तक पहुँच जाएगी। आर्थिक विकास और प्रौद्योगिकी प्रगति से अनिवार्य रूप से सभी के लिए अधिक अवसर उपलब्ध होंगे यह धारणा बहुत हद तक ख़्याली पुलाव ही है। वास्तव में, जब तक कोई ठोस प्रयास नहीं किया जाता है तब तक शिक्षा - और इस तरह आर्थिक - अवसर आने वाले वर्षों में तेजी से असमान होता जाएगा। लेकिन असली विभाजन शिक्षित और अशिक्षित के बीच नहीं है; यह उन लोगों के बीच है जिनकी शिक्षा तक पहुँच है और जो लोग इसे चाहते हैं। लंबे समय से उपेक्षित ये लोग सरकारों और अंतरराष्ट्रीय संगठनों पर तब तक दबाव बनाना जारी रखेंगे जब तक शिक्षा के लिए हर व्यक्ति के मौलिक अधिकार का सम्मान नहीं किया जाता है। और उनके अभियान में अगला पड़ाव न्यूयॉर्क में संयुक्त राष्ट्र महासभा है जिसमें सभी देशों का प्रतिनिधित्व करने वाले सैकड़ों युवा लोग दुनिया के नेताओं से परिवर्तन की मांग करने के लिए एकत्र होंगे। दुनिया भर में जब विद्यालयों के द्वार फिर से खुलेंगे, तो अंतरराष्ट्रीय समुदाय को यह सुनिश्चित करने के लिए अपनी प्रतिबद्धता को फिर से दुहराना चाहिए कि हर बच्चे को, हर जगह, इन द्वारों में प्रवेश करने का एक मौका अवश्य मिले। सुशासन का जाल रोम – विकास और बेहतर शासन, इन दोनों में कंधे से कंधा मिलाकर चलने की प्रवृत्ति पाई जाती है। लेकिन आम धारणा के विपरीत, इसकी सत्यता कहीं दिखाई नहीं देती कि शासन संबंधी सुधारों को सफलतापूर्वक लागू करने के कारण आर्थिक और सामाजिक विकास अधिक तीव्र और समावेशी होता है। वास्तव में, स्थिति इससे ब���लकुल उलट हो सकती है। सुशासन पर ध्यान दिया जाना उस समय शुरू हुआ, जब 1980 के दशक में विकासशील देश ऋणग्रस्तता के संकट से उबरकर स्थायी विकास की जद्दोजहद में लगे हुए थे। अंतर्राष्ट्रीय विकास संस्थाओं ने मौजूदा आर्थिक-नीति के दृष्टिकोण का पुनर्मूल्यांकन करने के बजाय, आसान लक्ष्यों अर्थात विकासशील देशों की सरकारों को लक्ष्य बनाया। उन सरकारों को यह परामर्श देना कि उन्हें अपने कार्य कैसे करने चाहिए, इन संस्थाओं का नया धंधा बन गया, और उन सरकारों ने शीघ्र ही शासन सुधार के नए “तकनीकी” तरीके विकसित करने शुरू कर दिए। विश्व बैंक ने 100 से भी अधिक सूचकांकों का उपयोग करते हुए सुशासन का एक समग्र सूचकांक शुरू किया, जो अभिव्यक्ति और जवाबदेही, राजनीतिक स्थिरता और हिंसा हीनता के बोध, सरकार की प्रभावशीलता, नियामक संस्थाओं की गुणवत्ता, क़ानून और भ्रष्टाचार के स्तरों पर आधारित था। विश्व बैंक ने यह दावा करते हुए कि उसने अपने शासन सूचकांकों और आर्थिक निष्पादन के बीच गहरा सहसंबंध ढूँढ़ लिया है, इस आशा को जागृत किया कि उसके हाथ आर्थिक प्रगति की कुंजी लग गई है। यह मामला शुरूआत से ही दोषपूर्ण था। प्रयुक्त सूचकांक गैर-पारंपरिक थे और उनमें देश-विशिष्ट चुनौतियों और परिस्थितियों को ध्यान में नहीं रखा गया था, साथ ही देशभर के सांख्यिकीय विश्लेषणों का चयन पूर्वग्रहपूर्ण रहा और भारी मात्रा में चरों के पारस्परिक अंतरर्संबंधों को अनदेखा किया गया था। परिणामस्वरूप, विश्व बैंक ने आर्थिक वृद्धि पर शासन सुधार के प्रभाव का भारी अतिरेकपूर्ण अनुमान लगाया। निश्चित रूप से, जो शासन प्रभावशाली, न्यायसंगत और जवाबदेह होता है, उससे अनायास लाभ दिखाई पड़ने लगते हैं, विशेषकर उस समय, जब उसकी तुलना ऐसे वैकल्पिक शासन से की जाती है, जिसमें शासन की अक्षमता, भाई-भतीजावाद और भ्रष्टाचार का बोलबाला हो। लेकिन, विकास लाने के लिए शासन सुधार पर ध्यान केंद्रित करने का तरीका कहीं भी उतना अधिक प्रभावशाली सिद्ध नहीं हुआ है जितना वायदा किया गया था। वस्तुत: इस शासन केंद्रित तरीके ने विकास के प्रयासों को शायद नुकसान ही पहुँचाया है। शुरूआत करनेवालों के लिए, इसके फलवरूप अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं को बीसवीं सदी के अंतिम दो दशकों के दौरान किए गए नए विकास के उस स्वरूप की कमियों को स्वीकार न करने का मौका मिल गया, जब लेटिन अमेरिका एक दशक की और उप-सहारा अफ़्रीका चौथाई सदी की आर्थिक और सामाजिक प्रगति के मामले में पिछड़ गए थे। इसने सरकारों के कार्य को भी अनावश्यक रूप से जटिल बना दिया है। अब सुशासन संबंधी सुधार विकासशील देशों की सरकारों के लिए अंतर्राष्ट्रीय मदद हासिल करने की शर्त बन गए हैं, इसलिए सरकारें अपनी जनता की ज्वलंत समस्याओं के समाधान ढूँढ़ने के बजाय अक्सर दानदाताओं की अपेक्षाओं पर खरा उतरने का ढोंग करने के लिए मजबूर हो जाती हैं। वास्तव में, ये सुधार उन परंपरागत अधिकारों और प्रचलित दायित्वों को भी कमज़ोर कर सकते हैं, जिन्हें बनाने में समाज की कई पीढ़ियाँ खप गई हैं। साथ ही, आवश्यक सुधारों का दायरा इतना अधिक व्यापक है कि उन्हें लागू करना अधिकांश विकासशील देशों के बूते से बाहर की बात है। परिणामस्वरूप, सुशासन संबंधी समाधानों के अधिक असरदार विकासात्मक प्रयासों से दूर रहने की प्रवृत्ति बनती जा रही है। शासन संबंधी सुधारों की एक और समस्या यह है कि वे भले ही औपचारिक रूप से तटस्थ होते हैं, परंतु वे अकसर विशेष लोगों के हितों के पक्षधर होते हैं, जिसके परिणाम हमेशा बहुत अधिक पक्षपातपूर्ण होते हैं। जिन सुधारों का लक्ष्य विकेंद्रीकरण और हस्तांतरण होता है, उनसे कई बार स्थानीय स्तर पर राजनीति के बाहुबली संरक्षकों का उदय होता है। निष्कर्ष बिलकुल साफ है: विकास के मुद्दे में शासन के सुधार को नहीं थोपा जाना चाहिए। जैसा कि हार्वर्ड की मेरिली ग्रिंडल ने कहा है, हमारा उद्देश्य “ठीक-ठाक” शासन होना चाहिए, और संभावनाओं की लंबी सूची से कुछ बेहद ज़रूरी चीज़ों को चुन लेना चाहिए। लेकिन सर्वाधिक महत्वपूर्ण उपायों को चुनना आसान नहीं होगा। वस्तुत: शासन सुधारों के हिमायती इनके सबसे असरदार तरीकों को शायद ही कभी ठीक तरह से समझ पाए हों। संपत्ति के अधिकारों को सशक्त करने के प्रयासों के बारे में जोर-शोर से किए जाने वाले प्रचार पर गौर करें। यह दावा किया गया है कि उत्पादक संसाधनों के हस्तांतरणीय व्यक्तिगत स्वामित्व को हटा देने पर, विकास पहलों को आगे बढ़ाने के लिए साधन और प्रोत्साहन अपर्याप्त हो जाएँगे, और साझा संसाधनों ("सामुदायिक") का बहुत अधिक दोहन किया जाएगा और उनका अकुशल रूप से उपयोग किया जाएगा। यथार्थ में, यह तथाकथित “सामुदायिकता की त्रासदी” न तो सर्वव्यापी है और न ही अपरिहार्य, और निजी-संपत्ति अधिकार हमेशा सर्वोत्तम नहीं होते हैं – और न ही ये सामाजिक दुविधाओं से निपटने के लिए एकमात्र संस्थागत समाधान होते हैं। अर्थशास्त्र के नोबल पुरस्कार विजेता स्वर्गीय एलिनॉर ऑस्ट्रोम ने यह दिखाया कि मानव समाजों ने सार्वजनिक संसाधनों के उपयोग से संबंधित विभिन्न प्रकार की दुविधाओं के समाधान के लिए बेशुमार रचनात्मक और टिकाऊ समाधान बनाए हैं। वैश्विक सुशासन का विषय बहुपक्षीय विकास बैंकों और संयुक्त राष्ट्र एजेंसियों जैसे बड़े नौकरशाही संगठनों के लिए विशेष आकर्षण रखता है, जो वास्तविक रूप से राजनीतिक समस्याओं के गैर-राजनीतिक समाधान ढूँढ़ने के पक्ष में होते हैं। दूसरे शब्दों में, सुशासन स्पष्ट रूप से एक ऐसा तकनीकी जवाब है, जिसे दानदाता और अन्य संभ्रांत अंतर्राष्ट्रीय समूह घटिया नीतियाँ और विशेष रूप से घटिया राजनीति मानते हैं। इसी में सुशासन के मुद्दे की असली समस्या निहित है: इसमें यह मान लिया जाता है कि अधिकांश नीतियों और राजनीतिक दुविधाओं का समाधान औपचारिक प्रक्रिया-उन्मुख सूचकांकों के अनुपालन में छुपा हुआ है। परंतु दो दशकों से अधिक समय का अनुभव यह बताता है कि ऐसे निर्देश इस यथार्थ दुनिया के आर्थिक विकास से जुड़ी तकनीकी, सामाजिक और राजनीतिक रूप से जटिल समस्याओं का व्यावहारिक मार्गदर्शन बहुत कम देते हैं। यह देखते हुए कि विकास होने के साथ शासन में सुधार होता है, अंतर्राष्ट्रीय समुदाय के लिए यह उपयोगी होगा कि वह सीधे विकास को बढ़ाने वाले सुधारों को अपनाए, न कि ऐसे व्यापक कार्यक्रम को जिसका थोड़ा-सा परोक्ष प्रभाव हो। शासन सुधारने का यह व्यावहारिक तरीका न तो हठधर्मितापूर्ण है और न ही सार्वभौमिक होने का दिखावा करता है। बल्कि इससे मुख्य बाधाओं की संभवत: एक-एक कर पहचान की जा सकेगी, उनका विश्लेषण किया जा सकेगा और उन्हें सुलझाया जा सकेगा। सुशासन संबंधी मुद्दों के म��त्वपूर्ण लक्ष्यों – सशक्तीकरण, समावेशन, सहभागिता, सत्यनिष्ठा, पारदर्शिता और जवाबदेही – में से कई लक्ष्यों को कामचलाऊ समाधान बनाया जा सकता है, इसलिए नहीं कि यह बाह्य लोगों की मांग है, बल्कि इसलिए कि प्रभावी समाधानों के लिए इनकी ज़रूरत है। ऐसे समाधान संबंधित अनुभवों से निकाले जाने चाहिए, इसमें यह समझ लेना चाहिए कि ये वास्तव में “सर्वश्रेष्ठ तरीके” नहीं हैं। सुशासन के अंधानुकरण ने विकासात्मक प्रयासों का बहुत लंबे अरसे तक मार्गदर्शन किया है। अब समय आ गया है कि जो कारगर है उसे स्वीकार करें, और जो कारगर नहीं है उसे त्याग दें। राज्य-प्रेरित हरित क्रांति लंदन – हरित भविष्य के निर्माण के बारे में होनेवाली चर्चाओं मे नवीकरणीय स्रोतों से ऊर्जा के उत्पादन में सुधार की जरूरत पर ध्यान केंद्रित करने की प्रवृत्ति पाई जाती है। लेकिन यह तो मात्र पहला कदम है। जब सूरज नहीं चमक रहा होता है, हवा नहीं चल रही होती है, या जब बिजलीचालित कारें चल रही होती हैं, तब उस ऊर्जा का भंडारण करना और उसे मुक्त करने के लिए बेहतर तंत्रों का होना भी महत्वपूर्ण होता है। और, आम धारणा के विपरीत, यह सार्वजनिक क्षेत्र ही है जो इसके प्रभावी समाधानों की दिशा में अग्रणी बना हुआ है। 1990 के दशक के आरंभ में, उपभोक्ता इलेक्ट्रॉनिक्स में प्रचलित रिचार्जेबल बैटरियों - लिथियम आयन बैटरियों - के वाणिज्यिक विकास के बाद से जीवाश्म ईंधनों के लिए टिकाऊ ऊर्जा स्रोतों को व्यवहार्य विकल्प बनाने के लिए विद्युत का भंडारण करने और उसे पर्याप्त प्रभावी ढंग से मुक्त करने की चुनौती एक कठिन समस्या रही है। और इस चुनौती पर काबू पाने के लिए बिल गेट्स और एलोन मस्क जैसे उद्यमी अरबपतियों द्वारा किए गए प्रयासों पर अति उत्साहित मीडिया की अटकलों का ध्यान गया है। एक बैटरी को बदलने के लिए कितने अरबपतियों की ज़रूरत हो सकती है? यह साफ पता चलता है कि इसका जवाब शून्य ही है। इस हफ्ते, अमेरिका के ऊर्जा विभाग की एक शाखा एडवांस्ड रिसर्च प्रोजेक्ट्स एजेंसी-एनर्जी की निदेशक, एलेन विलियम्स ने घोषणा की कि उनकी एजेंसी ने इस मामले में अरबपतियों को पछाड़ दिया है। उन्होंने यह घोषणा की कि एआरपीए-ई ने बैटरियों के मामले में “कुछ चिर इच्छित चीज़ें हासिल कर ली हैं”, जिससे हम "बैटरी प्रौद्योगिकी में एकदम नया दृष्टिकोण तैयार करने, इसे कारगर बनाने, वाणिज्यिक रूप से व्यवहार्य बनाने में सक्षम हो सकेंगे।” मस्क की उपलब्धियों की प्रशंसा करते हुए, विलियम्स ने उनके दृष्टिकोणों में भारी भेद की ओर ध्यान आकर्षित किया। मस्क "एक विद्यमान, अत्यंत शक्तिशाली बैटरी प्रौद्योगिकी” के बड़े पैमाने पर उत्पादन में लगे हुए हैं। इसके विपरीत, एआरपीए-ई, शुद्ध अर्थों में प्रौद्योगिकीय नवोन्मेष का अनुसरण कर रही है: चीज़ों को "करने के नए तरीके तैयार करना।" और "इस बात का पूरा भरोसा है" कि उनकी कुछ प्रौद्योगिकियों में "काफी बेहतर होने की क्षमता विद्यमान है।" कई लोगों को यह विकास आश्चर्यजनक लग सकता है। आखिरकार, निजी क्षेत्र को एक अरसे से अर्थव्यवस्था के नवोन्मेष का सबसे महत्वपूर्ण स्रोत माना जाता रहा है। लेकिन यह धारणा पूरी तरह से सही नहीं है। वास्तव में, इतिहास की महान उद्यमी हस्तियाँ अक्सर उद्यमी राज्य के कंधों पर खड़ी रही हैं। एप्पल के पूर्व संस्थापक और मुख्य कार्यकारी अधिकारी स्टीव जॉब्स एक चतुर व्यापारी थे, लेकिन वह हर प्रौद्योगिकी जो आईफ़ोन को 'स्मार्ट' बनाती है, राज्य की निधियों की सहायता से विकसित की गई थी। यही कारण है कि गेट्स ने यह घोषणा की है कि केवल राज्य ही, एआरपीए-ई जैसी सार्वजनिक संस्थाओं के रूप में, किसी ऊर्जा संबंधी सफलता का नेतृत्व कर सकता है। यहां यह ध्यान देना अत्यंत महत्वपूर्ण है कि इस भूमिका का निर्वाह करने के लिए राज्य व्यवस्थापक के रूप में नहीं होता है; बल्कि यह कार्य करनेवाला उद्यमी राज्य होता है, जो बाज़ारों को केवल दुरुस्त करने के बजाय उन्हें तैयार करता है। मिशन उन्मुख दृष्टिकोण और प्रयोग करने की स्वतंत्रता के कारण - जिसमें विफलता को अपरिहार्य और स्वागतयोग्य भी माना जाता है - और यहाँ तक कि उसे सीखने की प्रक्रिया की विशेषता समझा जाता है - राज्य शीर्ष प्रतिभा को आकर्षित करने और क्रांतिकारी नवोन्मेष को आगे बढ़ाने के लिए बेहतर स्थिति में होता है। लेकिन फिर भी हरित क्रांति का नेतृत्व करना कोई आसान कार्य नहीं होगा। सफल होने के लिए, सरकारी एजेंसियों को महत्वपूर्ण चुनौतियों से निपटना होगा। एआरपीए-ई पर विचार करें, जिसे अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के आर्थिक प्रोत्साहन पैकेज के भाग के रूप में 2009 में स्थापित किया गया था। हालांकि बहुत पहले से स्थापित डिफेंस एडवांस्ड रिसर्च प्रोजेक्ट्स एजेंसी (डीएआरपीए) के मॉडल पर आधारित यह एजेंसी अभी भी अपनी प्रारंभिक अवस्था में है, इसने अभी से ही भारी आशावादिता दर्शाई है। और, पिछले साल दिसंबर में, पेरिस में जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में हरित ऊर्जा अनुसंधान के क्षेत्र में सार्वजनिक निवेश को दुगुना करने के लिए ओबामा और 19 अन्य विश्व नेताओं द्वारा की गई प्रतिबद्धता के फलस्वरूप, एआरपीए-ई को अनुदान के रूप में अच्छा बढ़ावा मिलने की उम्मीद लगती है। लेकिन एआरपीए-ई के पास नए बाजारों को तैयार करने और आकार देने की वैसी क्षमता का अभी तक अभाव है, उदाहरण के लिए, जैसी क्षमता डीएआरपीए को प्राप्त है। यह एक बड़ी चुनौती प्रस्तुत करता है, क्योंकि यह एजेंसी एक ऐसे उद्योग में काम कर रही है जो अभी भी अपनी प्रारंभिक अवस्था में बनी हुई है। हालांकि पवन और सौर विद्युत प्रौद्योगिकियों के विकास को 1970 के दशक में बहुत भारी प्रोत्साहन मिला था, लेकिन इन दोनों में अभी भी बाजार और प्रौद्योगिकी संबंधी अनिश्चितता परिलक्षित होती है। सन्निहित ऊर्जा के बुनियादी ढांचे को शासन के पुख्ता लाभ प्राप्त हैं, और बाजार स्थिरता का मूल्यांकन पर्याप्त रूप से नहीं करते हैं या कीमत क्षय और प्रदूषण का मूल्यांकन उचित रूप से नहीं करते हैं। ऐसी अनिश्चितता के माहौल में, कारोबार का क्षेत्र तब तक बाजार में प्रवेश नहीं करेगा जब तक सर्वाधिक जोखिमपूर्ण और सर्वाधिक पूंजी प्रधान निवेश नहीं किए जाते हैं या जब तक सुसंगत और व्यवस्थित राजनीतिक संकेत प्राप्त नहीं होते हैं। इसलिए सरकारों को आवश्यक निवेश करने और सही संकेत प्रदान करने के लिए निर्णायक रूप से कार्रवाई करनी चाहिए। यह महत्वपूर्ण है कि सरकारों को सुरक्षा उपाय स्थापित करने चाहिए ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि उद्यमी राज्य को अपने प्रयासों के लिए पुरस्कारों में उचित हिस्सेदारी मिलती है। अतीत में, यह कर के अतिरिक्त लाभों के माध्यम से हो सकता था। लेकिन शीर्ष सीमांत दर उस स्तर के आसपास बिल्कुल नहीं है जिस पर यह 1950 के दशक में उस समय थी जब संयुक्त राज्य अमेरिका में नासा को स्थापित किया गया था, जो राज्य प्रायोजित नवोन्मेष का सबसे बड़ा उदाहरण है। (उस समय, उच्चतम सीमांत कर दर 91% थी।) दरअसल, सिलिकन वैली के वेंचर कैपिटलिस्ट की पैरवी करने के फलस्वरूप, पूंजीगत लाभ कर पांच वर्षों में 1970 के दशक के अंत तक 50% कम हो गया। यह दावा किया जाता है कि 'रणनीतिक' कारणों से विपरीत स्थितियों में पेटेंट के उपयोग में वृद्धि से अतिरिक्त लाभों में कमी हो सकती है। बेशक, गेट्स और मस्क जैसे निजी क्षेत्र के खिलाड़ी हरित क्रांति को आगे बढ़ाने में आवश्यक भागीदार हैं। वे जब बैटरी भंडारण प्रौद्योगिकी के व्यावसायीकरण और उपयोग में बड़ी भूमिका का निर्वाह करेंगे, तो वे अपने पुरस्कारों का उचित हिस्सा भी अर्जित करेंगे। लेकिन क्या एपीआरपीए-ई (या उसके दूत निवेशकों – अमेरिकी करदाताओं) को भी कुछ प्रतिलाभ इसलिए नहीं मिलना चाहिए कि उन्होंने पहले - और जोखिमपूर्ण - निवेश किया था? इसराइल (जिसमें योज़मा कार्यक्रम चलाया जा रहा है) और फिनलैंड (जिसमें सिट्रा कोष चलाया जा रहा है) जैसे कुछ देशों में, सरकार ने राज्य वित्तपोषित नवोन्मेष में अपनी हिस्सेदारी को बरकरार रखा है। यह उद्यमी राज्य को निवेश करने में सक्षम बनाता है, जिससे नवोन्मेषों की अगली लहर को उत्प्रेरित करने में मदद मिलती है। पश्चिमी देश इस बुद्धिमत्तापूर्ण विचार का इतना प्रतिरोध क्यों करते हैं? बुढ़ापे में नया जीवन ज़्यूरिख – हममें से कई लोगों ने देखा है कि हमारे माता-पिता या दादा-दादी बुढ़ापे में आत्मनिर्भर नहीं रह पाते हैं। 2012 में, 65 साल से अधिक की आयु के 2.4 मिलियन से अधिक अमेरिकियों का गिरने से लगी चोटों के लिए आपातकालीन कक्षों में इलाज किया गया। दुनिया भर में लोगों की उम्र तेजी से बढ़ने के कारण ऐसी चुनौतियाँ बहुत अधिक बढ़ती जा रही हैं, जिनका प्रभाव न केवल स्वास्थ्य देखभाल प्रणालियों, बल्कि अर्थव्यवस्थाओं, सरकार की नीतियों, और यहाँ तक कि परिवारों पर भी पड़ रहा है। संयुक्त राष्ट्र का अनुमान है कि इस सदी के मध्य तक, 60 से अधिक आयु वाले लोगों की संख्या दुगुनी हो जाएगी, और 65 से अधिक आयु वाले लोगों की संख्या, इतिहास में पहली बार पांच साल से कम उम्र के बच्चों से अधिक हो जाएगी। इस जनसांख्यिकीय रुझान की व्याख्या सीधे-सीधे इस तरह की जा सकती है: वैश्विक प्रजनन दरें घट गई हैं, 1950-1955 में प्रति महिला पांच बच्चों की औसत दर से कम होकर यह 2010-2015 में प्रति महिला 2.5 बच्चों तक पहुँच गई है। फिर भी, उम्र बढ़ने के कारण नागरिकों को केवल आर्थिक बोझ के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए। वास्तव में, वे सक्रिय उपभोक्ताओं के रूप में एक सकारात्मक भूमिका निभा सकते हैं - यह एक ऐसी संभावना है जिसे कई उद्योगों ने पहले से ही पहचान लिया है और उन्होंने इसका दोहन करना शुरू कर दिया है। बैंक ऑफ़ अमेरिका मेरिल लिंच के अनुसार, संयुक्त राज्य अमेरिका में उपभोक्ता वस्तुओं पर किए जानेवाले खर्च में से लगभग 60% खर्च 50 से अधिक आयु वाले लोगों द्वारा किया जाता है। लेकिन इससे दुःसाध्य लगनेवाली यह अंतर्निहित चुनौती कुछ कम नहीं हो जाती है: सेवानिवृत्त लोगों की बढ़ती संख्या का भरण-पोषण करनेवाले करदाताओं की संख्या में लगातार कमी हो रही है। इस असंतुलन ने कुछ सरकारों को पहले ही सेवानिवृत्ति की उम्र को बढ़ाने और पेंशन नीतियों को बदलने के लिए प्रेरित किया है ताकि लाभ देरी से दिए जाएँ या उनमें कमी की जाए और लोगों को कार्यबल में बनाए रखा जाए। लोगों को लंबे समय तक काम पर लगाए रखने के लिए यह महत्वपूर्ण है कि उन्हें स्वस्थ रखा जाए। यही कारण है कि स्वास्थ्य देखभाल उद्योग को लोगों की उम्र बढ़ने की चुनौतियों से निपटने के प्रयासों में महत्वपूर्ण भूमिका निभानी चाहिए। बुढ़ापे को केवल जीवन के एक अनिवार्य चरण के रूप में ही नहीं देखा जाना चाहिए, बल्कि इसे लोगों को अच्छा जीवन जीने में मदद करने के लिए स्वास्थ्य देखभाल कंपनियों और प्रणालियों के लिए एक अवसर के रूप में देखा जाना चाहिए। इस उद्देश्य से, स्वास्थ्य देखभाल कंपनियों को अपने अनुसंधान और विकास के प्रयासों को उन बीमारियों पर केंद्रित करना चाहिए जो बूढ़े रोगियों में अधिक पाई जाती हैं, जिनमें मधुमेह, हृदय रोग, मोतियाबिंद, संधिशोथ, और कैंसर जैसी पुरानी बीमारियाँ शामिल हैं। इस तरह के प्रयास इसलिए भी महत्वपूर्ण हैं कि लोगों की शारीरिक शक्ति, मानसिक क्षमता, और श्रवण और दृष्टि जैसी इंद्रियों को ठीक बनाए रखकर उनकी उत्पादकता और आत्मनिर्भरता में होनेवाली कमी को और अधिक प्रभावी ढंग से रोका जा सके। यह न केवल स्वयं अधिक उम्र के रोगियों के लिए, बल्कि उनके परिवारों और देखभाल करने वालों के लिए भी महत्वपूर्ण है। विशेष रूप से एक आशाजनक क्षेत्र स्वास्थ्यसुधार संबंधी दवाओं का है जिसके कई संभावित उपयोग हैं -इसमें बहरेपन को रोकना या ठीक करना भी शामिल है। आज जो स्थिति है, उसमें 65-70 साल की उम्र के लोगों में से एक-तिहाई (और 75 से अधिक उम्र के लोगों में से आधों) में बहुत अधिक बहरेपन की शिकायत है, ऐसा अक्सर भीतरी कान के बालों की उन कोशिकाओं को क्षति पहुँचने या उनके नष्ट हो जाने के कारण होता है जो मस्तिष्क में अंकित होनेवाली ध्वनि तरंगों को पहचान कर संकेतों के रूप में बदल देती हैं। इस समस्या के समाधान के लिए, मेरी कंपनी नोवार्टिस CGF166 नामक यौगिक का परीक्षण कर रही है जो बालों की कोशिकाओं के विकास को उत्तेजित करनेवाली एक विशिष्ट जीन को "सक्रिय करने" के लिए भीतरी कान में कुछ स्वस्थ कोशिकाओं पर काम करती है। हम पहले ही अपनी शोध के नैदानिक-परीक्षण चरण में प्रवेश कर चुके हैं, जिसके दौरान हम गंभीर बहरेपन के शिकार रोगियों के उपचार में CGF166 की सहनशीलता और प्रभावकारिता का मूल्यांकन करेंगे। लेकिन अगर ऐसे उपचार सस्ते या आम लोगों के लिए सुलभ नहीं होंगे तो इनका कोई मतलब नहीं होगा। और स्वास्थ्य देखभाल की बढ़ती लागतों का बोझ अधिकाधिक रोगियों पर डालते रहने की वर्तमान स्थिति उत्साहजनक नहीं है। इस प्रवृत्ति को पलटने के लिए, स्वास्थ्य देखभाल उद्योग को चाहिए कि वह स्वास्थ्य देखभाल प्रणालियों की वित्तीय स्थिरता का समर्थन करने के लिए सभी हितधारकों के साथ मिलकर काम करे ताकि वे देखभाल के लिए बढ़ती मांग के संबंध में बेहतर रूप से कार्रवाई कर सकें। इसमें सफलता के लिए आर्थिक दृष्टि से धारणीय रूप से रोगी परिणामों में सुधार लाने के लिए नवोन्मेषी रणनीतियाँ अपनाने की जरूरत होगी। उदाहरण के लिए, स्वास्थ्य देखभाल उद्योग स्वास्थ्य को सुधारने वाली सेवाओं की पेशकश करने के लिए सरकारों के साथ काम कर सकता है - जैसे कि दवाओं के अलावा दूरस्थ रोगी निगरानी, स्वास्थ्य एप्स, और रोगी-परिचर्चा टूल्स के रूप में। रोगियों को उनके इलाज या बीमा जैसे संबंधित मुद्दों के बारे में जवाब देने के लिए प्रशिक्षित स्वास्थ्य कर्मियों या सलाहकारों की उपलब्धता सुनिश्चित करना भी इसमें मददगार हो सकता है। भुगतान करनेवालों - सरकारों और निजी बीमा कंपनियों दोनों को ही चाहिए कि वे अपनी ओर से स्वास्थ्य देखभाल कंपनियों को उनके उत्पादों और सेवाओं के वास्तविक लाभों के आधार पर पुरस्कृत करने के लिए एक तंत्र बनाएं। प्रति रोगी वार्षिक भुगतान के अलावा, स्वास्थ्य देखभाल कंपनी को प्राप्त किए गए परिणामों के आधार पर बोनस या दंड दिया जा सकता है। बढ़ती उम्र वाले लोगों की जरूरतों के बारे में कार्रवाई करना स्वास्थ्य देखभाल कंपनियों और भुगतान करनेवालों के लिए सबसे बड़ी चुनौती है। इसके सफल मॉडल से स्वास्थ्य देखभाल की लागतों में कमी होगी, आयु-संभाविता में वृद्धि होगी, और बुजुर्ग लोगों के जीवन की गुणवत्ता में सुधार होगा। और, उम्र बढ़ने की प्रक्रिया के बारे में अधिक व्यापक समझ प्रदान करके, युवा लोगों को प्रभावित करनेवाले रोगों सहित - अन्य रोगों के उपचार और इलाज के लिए यह हमारा मार्गदर्शन भी कर सकता है। यह सुनिश्चित करना सभी के हित में है कि हर व्यक्ति यथासंभव अधिक से अधिक स्वस्थ जीवन जिए, और जहां तक संभव हो अधिक से अधिक लंबे समय तक जिए। इसलिए अब इसी बात में समझदारी है कि हम अपने बीच सबसे वरिष्ठ व्यक्ति पर ध्यान केंद्रित करें। जल की हर बूँद से अधिक फसल स्टैनफोर्ड – संयुक्त राष्ट्र ने सूखे को “दुनिया की सबसे महँगी प्राकृतिक आपदा” कहा है, आर्थिक दृष्टि से इसकी वार्षिक लागत 6-8 बिलियन डॉलर है, और मानवीय दृष्टि से इसने सन् 1900 से लेकर अब तक दो बिलियन लोगों को प्रभावित किया है, जिसके फलस्वरूप 11 मिलियन से अधिक लोगों की मृत्यु हुई है। ऐसा इसलिए है क्योंकि दुनिया का बहुत बड़ा हिस्सा असुरक्षित है; वर्तमान में प्रभावित क्षेत्रों में ऑस्ट्रेलिया, उप सहारा अफ्रीका, दक्षिण एशिया, उत्तरी और दक्षिणी अमेरिका और मध्य पूर्व शामिल हैं। यह देखते हुए कि दुनिया भर में औसत रूप से पानी की 70% खपत कृषि में होती है, यह तर्कसंगत लगता है कि इस क्षेत्र को संरक्षण के उपायों का केंद्रबिंदु होना चाहिए। और, वास्तव में, एक सिद्ध प्रौद्योगिकी मौजूद है जो सूखे के प्रभाव को कम करने की दिशा में बहुत कारगर हो सकती है: जेनेटिक इंजीनियरिंग (जीई)। जेनेटिक इंजीनियरिंग (जीई), जिसे कभी-कभी "आनुवंशिक सुधार" कहा जाता है, पौधा प्रजनकों को मौजूदा फसल के पौधों को कुछ नई चीजें करने के लिए सक्षम बनाते हैं – जैसे कि जल का संरक्षण करना। अनुसंधान और विकास कार्य में कार्यकर्ताओं के प्रतिरोध और सरकार के अत्यधिक विनियमन के फलस्वरूप बाधा उत्पन्न होने के बावजूद, दुनिया के कई हिस्सों में सूखा-प्रतिरोधी जीई फसल की किस्में विकास प्रक्रिया में से उभर कर आ रही हैं। पिछले दो दशकों में ऐसी फसल किस्मों की खेती लगभग 30 देशों में 17 मिलियन से अधिक किसानों द्वारा 1.5 बिलियन हेक्टेयर से अधिक भूमि पर की गई है – और इससे किसी भी पारिस्थितिकी तंत्र में कोई खलल नहीं पड़ा या किसी तरह का कोई पेट दर्द जैसा भी कुछ नहीं हुआ। लैंडेस बायोसाइंस की एक हालिया रिपोर्ट के अनुसार दुनिया भर में, इन नई किस्मों से “खेत स्तर पर बहुत महत्वपूर्ण शुद्ध आर्थिक लाभ प्राप्त हुए हैं, 2012 में इनकी राशि 18.8 बिलियन डॉलर थी और 1996 से लेकर 2012 तक 116.6 बिलियन डॉलर थी। इन नई फसल किस्मों में से अधिकांश, शस्यनाशकों को रोकने के लिए तैयार की गई हैं ताकि किसान अधिक पर्यावरण अनुकूल, जुताई-रहित खेती प्रथाओं को अपना सकें, और इनमें से बहुत-सी किस्मों को फसलों को तबाह करनेवाले कीटों और बीमारियों को रोकने के लिए डिज़ाइन किया गया है। दूसरी किस्मों में उच्च पोषण मान होता है, जो किसी विकासशील देश की उन आबादियों के लिए आदर्श रूप से अनुकूल होता है जो स्वस्थ, उत्पादक जीवन जीने के लिए आवश्यक पोषक तत्वों को प्राप्त करने के लिए संघर्षरत होती हैं। लेकिन, लंबी अवधि में, सबसे बड़ा वरदान, खाद्य सुरक्षा और पर्यावरण दोनों के लिए, संभवतः नई फसल किस्मों की सूखे की अवधियों और अन्य जल-संबंधी तनावों को सहन करने की क्षमता होगा। सिंचाई के लिए उपयोग किए जानेवाले पानी की मात्रा में थोड़ी-सी कमी से भी, विशेष रूप से सूखे की स्थितियों में, भारी लाभ हो सकते हैं। ऐसी किस्मों को विकसित करने के लिए, पादप जीवविज्ञानियों ने पानी के उपयोग को नियंत्रित करने वाले जीन की पहचान की और उन्हें महत्वपूर्ण फसल पौधों में स्थानांतरित कर दिया, जिससे वे कम या कम गुणवत्ता वाले पानी के साथ विकसित हो सकें, उदाहरण के लिए ऐसा पानी जिसका पुनर्चक्रण किया गया हो या जिसमें प्राकृतिक खनिज लवण अधिक मात्रा में हों। मिस्र के शोधकर्ताओं ने यह दर्शाया है कि केवल एक जीन को जौ से गेहूं में स्थानांतरित करने पर, पौधे कम पानी मिलने की स्थिति को लंबे समय तक सहन कर सकते हैं। इस नई, सूखा-प्रतिरोधी किस्म के लिए परंपरागत गेहूं की तुलना में केवल उसके आठवें हिस्से जितनी सिंचाई की ही आवश्यकता होती है; कुछ रेगिस्तानों में इसकी खेती अकेले वर्षा के साथ की जा सकती है। जेनेटिक इंजीनियरिंग (जीई) फसल की अन्य किस्मों, उदाहरण के लिए जो रोग-प्रतिरोधी और कीट-प्रतिरोधी होती हैं, से परोक्ष रूप से पानी के उपयोग की कुशलता में सुधार होता है। क्योंकि रोगों और कीटों के कारण होनेवाला नुकसान ज्यादातर पौधों के पूरी तरह से बड़े हो जाने के बाद – अर्थात उनके विकास के लिए आवश्यक पानी की अधिकतर आपूर्ति कर दिए जाने के बाद होता है – इसलिए उनके प्रतिरोध का अर्थ प्रति इकाई निवेश किए गए पानी की दृष्टि से अधिक कृषि उत्पादन है। संक्षेप में, किसान हर बूंद से अधिक फसल प्राप्त कर सकते हैं। आण्विक जेनेटिक इंजीनियरिंग प्रौद्योगिकी से अन्य तरीकों से भी जल संरक्षण किया जा सकता है। दुनिया भर में सिंचित भूमि का एक-तिहाई भाग नमक की उपस्थिति के कारण फसलों को उगाने के लिए उपयुक्त नहीं होता है – यह बारंबार उर्वरकों का उपयोग करने का परिणाम है। प्रतिवर्ष खेती के लिए अयोग्य हो जानेवाली 2,00,000 हेक्टेयर से अधिक सिंचित भूमि को फिर से हासिल करने के लिए, वैज्ञानिकों ने टमाटर और कनोला जैसी विविध प्रकार की फसलों में नमक की सहिष्णुता में वृद्धि की है। आनुवांशिक रूप से रूपांतरित पौधे खारी मिट्टी में विकसित हो सकते हैं और उनकी खारे पानी से सिंचाई की जा सकती है, जिससे ताज़े जल का अन्य उपयोगों के लिए संरक्षण किया जा सकता है। इसके लाभों को देखते हुए, यह उम्मीद की जा सकती है कि ऐसी घटनाओं की सर्वत्र सराहना की जाएगी और उन्हें प्रोत्साहित किया जाएगा। लेकिन इन्हें भारी विनियामक बाधाओं का सामना करना पड़ता है। उदाहरण के लिए, यूरोप काफी हद तक जेनेटिक इंजीनियरिंग (जीई) की फसलों पर प्रतिबंध लगाता है; भारत ने कीट-प्रतिरोधी कपास को तो मंजूरी दी है, लेकिन उसने किसी प्रकार की खाद्य फसलों के लिए मंजूरी नहीं दी है। जहाँ जीई फसलों की खेती की भी जा रही है, वहाँ अवैज्ञानिक और जरूरत से ज्यादा भारी विनियमन के फलस्वरूप फसलों की नई किस्मों के उत्पादन की लागत में भारी वृद्धि हुई है, जिससे कई संभावित महत्वपूर्ण फसलें बाजार से बाहर हैं। ये उपाय अविवेकपूर्ण हैं क्योंकि वे जोखिम से विपरीत रूप से संबंधित हैं। वे काफी हद तक पौधों और सूक्ष्मजीवों की उन नई किस्मों का अनियमित उपयोग करने की अनुमति देते हैं जो कम सही और कम विश्वसनीय तकनीकों से तैयार की गई होती हैं, जिसमें उनका बहाना यह होता है कि वे किसी रूप में अधिक "प्राकृतिक" हैं जबकि वे अत्यधिक उन्नत ज्ञान और तरीकों पर आधारित किस्मों को कठोरतापूर्वक विनियमित – या वर्जित भी – कर देते हैं। जैसे-जैसे जल की कमी बढ़ेगी, सूखे से प्रभावित फसलें सूखने लग जाएँगी, और खाद्य पदार्थों की कीमतों में वृद्धि होगी, जिसके फलस्वरूप लोचदार कृषि की आवश्यकता और अधिक स्पष्ट – तथा और अधिक आवश्यक हो जाएगी। अधिक तर्कसंगत सार्वजनिक नीति के साथ, हम उस जरूरत को अब पूरा कर सकते हैं। सवाल यह है कि इससे पहले कि हमारे नीति निर्माता इसका औचित्य देख पाएँ, रोकी जा सकनेवाली विपदा और मृत्यु कितने और समय तक होती रहनी चाहिए? सुरक्षित पदार्थ कैसे ख़तरनाक बन जाते हैं पैलो आल्टो – सोलहवीं सदी में आविष विज्ञान के विकास के बाद से, इसका मार्गदर्शी सिद्धांत यह रहा है कि "खुराक विष बना देती है।" यह एक ऐसा नियम है जो दुनिया भर में रोगियों द्वारा एक दिन में अरबों बार इस्तेमाल की जानेवाली दवाओं पर लागू होता है। एस्पिरिन की सही खुराक एक चिकित्सकीय वरदान हो सकती है, लेकिन इसकी बहुत ज्यादा मात्रा लेने पर यह घातक हो सकती है। यह सिद्धांत खाद्य पदार्थों पर भी लागू होता है: भारी मात्रा में जायफल या मुलहठी का सेवन गंभीर रूप से विषकारक होता है। किसी पदार्थ से कितना जोखिम हो सकता है यह मोटे तौर पर दो कारकों पर निर्भर करता है: नुकसान पहुँचाने की इसकी निहित क्षमता और किसी व्यक्ति द्वारा उसके उपयोग की आदत। यह एक सामान्य सी बात है, लेकिन फिर भी कुछ अड़ियल पेशेवरों को यह बात समझ में नहीं आती है - जैसा कि विश्व स���वास्थ्य संगठन के एक घटक, कैंसर पर अनुसंधान के लिए अंतर्राष्ट्रीय एजेंसी (आईएआरसी) द्वारा आमतौर पर इस्तेमाल किए जानेवाले वनस्पति नाशक 2,4-डी को "मनुष्य के लिए संभवतः कैंसरकारी" के रूप में वर्गीकृत करने के लिए किए गए निर्णय से पता चलता है। जब वनस्पति नाशकों की बात उठती है, तो आईएआरसी हमेशा पिछड़ जाता है। इस संगठन ने हाल ही में एक और लोकप्रिय वनस्पति नाशक ग्लाइफोसेट को "संभवतः" कैंसरकारी के रूप में वर्गीकृत किया है, यह एक ऐसा निष्कर्ष है जो दुनिया भर की नियामक एजेंसियों के निष्कर्षों से उलट है। इसी तरह, एक भी सरकारी एजेंसी ने 2,4-डी को कैंसरकारी नहीं माना है। इस साल के आरंभ में, संयुक्त राज्य अमेरिका पर्यावरण संरक्षण एजेंसी (ईपीए) इस निष्कर्ष पर पहुँची थी कि "उपलब्ध आंकड़ों के साक्ष्य पर विचार करने के आधार पर, 2,4-डी को 'मनुष्यों के लिए कैंसरकारक होने की संभावना नहीं है' के रूप में वर्गीकृत किया जाएगा।" यूरोपीय खाद्य सुरक्षा प्राधिकरण ने भी हाल ही में यह निष्कर्ष निकाला है कि "2,4-डी, जिस रूप में वर्तमान में निर्मित हो रहा है, उसमें जेनोटोक्सिक क्षमता होने या मनुष्यों के लिए कैंसरकारी होने का खतरा पैदा करने की संभावना नहीं है।" आईएआरसी द्वारा 2,4-डी और ग्लाइफोसेट जैसे पदार्थों को संभावित रूप से हानिकारक के रूप में वर्गीकृत करने का निर्णय लेने के फलस्वरूप किसानों और उपभोक्ताओं के बीच चिंता पैदा होने की संभावना है जो वाणिज्यिक कृषि या बागवानी में इसके निरंतर उपयोग के औचित्य के बारे में आश्चर्य करेंगे। यह एक शर्म की बात होगी, क्योंकि ये बेहद प्रभावी और बहुत अधिक इस्तेमाल किए जानेवाले वनस्पति नाशक हैं, और आईएआरसी अपने निर्णय लेते समय यह विचार नहीं करता है कि वास्तविक दुनिया में संबंधित पदार्थ से वास्तव में कैंसर के पैदा होने की संभावना है या नहीं। इसके पैनल यह आकलन नहीं करते हैं कि क्या अमुक रसायन से कैंसर होगा - यह केवल तभी होगा यदि वह कैंसर पैदा करने में सक्षम हो। परिणामस्वरूप, आईएआरसी ने बहुत पहले एलो वेरा, एक्रिलामाइड ( फ्रेंच फ्राइज़ और आलू के चिप्स जैसे खाद्य पदार्थों को तलने से बननेवाले पदार्थ), सेल फोन, रात की पालियों में काम करने, एशियाई मसालेदार सब्जियों, और कॉफी को "संभावित" या "संभव" कैंसरकारक के रूप में वर्गीकृत किया था। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि यह खुराक पर ध्यान नहीं देता है, इस पर विचार करने में विफल रहता है कि वास्तविक नुकसान पहुँचाने के लिए पदार्थ की पर्याप्त मात्रा के संपर्क में आने की कितनी संभावना है। उदाहरण के लिए, कॉफी के मामले में, किसी भी हानिकारक प्रभाव की संभावना बनने से पहले व्यक्ति को लगातार लंबी अवधि तक, एक दिन में 50 से अधिक कप पीने की आवश्यकता होगी। 2,4-डी को मनुष्यों के लिए कैंसर के खतरे के रूप में वर्गीकृत करते समय, कीटनाशक अवशेष पर संयुक्त राष्ट्र डब्ल्यूएचओ/एफएओ की संयुक्त बैठक (JMPR) सहित, दुनिया भर में स्वास्थ्य अधिकारियों द्वारा किए गए व्यापक अनुसंधान और विश्लेषण पर ध्यान नहीं दिया गया है। यह संस्था मिट्टी और आसपास के पानी, उपचार किए गए खेतों मे से गुजरने वाले जानवरों के लिए जोखिम की मात्राओं, और प्रत्यक्ष मानवीय संपर्क की संभावना जैसे वास्तविक दुनिया के परिवर्तनशील तत्वों पर विचार करते हुए 2,4-डी जैसे पदार्थों के जोखिमों का मूल्यांकन करती है। 1970 में आरंभ की गई समीक्षाओं में, JMPR ने हमेशा यह पाया है कि जब 2,4-डी का सही ढंग से इस्तेमाल किया जाता है तो यह जमीन या पानी पर किसी के लिए या किसी भी चीज़ के लिए स्वास्थ्य का कोई खतरा पैदा नहीं करता है। इस निष्कर्ष की यूरोपीय खाद्य सुरक्षा प्राधिकरण, ईपीए, अमेरिका के कृषि विभाग, और स्वास्थ्य कनाडा सहित कई सरकारी एजेंसियों द्वारा पुष्टि की गई है। आईएआरसी जब अपने पैनलों को केवल सीमित रूप से चयनित प्रकाशनों पर विचार करने के लिए प्रतिबंधित करता है, तो वह एक गलत निर्णय करता है, जिसके प्रभाव हानिकारक होते हैं। इसके फैसले सुर्खियाँ बटोरनेवाले रसायनभीरू कार्यकर्ताओं को विश्वसनीयता प्रदान करते हैं और यह संभावना होती है कि जिन पदार्थों को गलत तरीके से हानिकारक के रूप में चिह्नित किया गया है उनका स्थान दूसरे उत्पाद ले लेंगे जो बहुत अधिक जोखिम पैदा कर सकते हैं या बहुत कम लाभ प्रदान कर सकते हैं। यदि ग्लाइफोसेट और 2,4-डी जैसे उत्पादों का उपलब्ध होना बंद हो जाए, तो किसानों को मजबूर होकर खरपतवार को नियंत्रित करने के अन्य तरीकों का सहारा लेना पड़ जाएगा – जिनमें से कोई भी उतना कारगर नहीं होगा। वास्तव में, अन्य कई विकल्प और अधिक विषाक्त हो सकते हैं या उनके कारण अधिक जुताई की आवश्यकता हो सकती है, जिसके परिणामस्वरूप मिट्टी के कटाव को क्षति पहुँच सकती है, कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जनों में वृद्धि हो सकती है, फसल की पैदावार में कमी हो सकती है, उत्पादन लागतें अधिक हो सकती हैं, और उपभोक्ता मूल्य उच्च हो सकते हैं। और यह समस्या किसानों तक ही सीमित नहीं रहेगी। वानिकी में घास के मैदानों पर कैंसरकारी खरपतवार के नियंत्रण, और राजमार्गों, बिजली लाइन के गलियारों, और रेल लाइनों पर सुरक्षा बढ़ाने सहित 2,4-डी के 100 से अधिक निर्धारित उपयोग हैं। आईएआरसी निष्कर्षों पर पहुँचने में जिस प्रक्रिया का उपयोग करता है वह न केवल वैज्ञानिक रूप से गलत है; बल्कि हानिकारक है। इसके निर्णय, जिनका व्यापक प्रभाव पड़ता है, मानव जीवन और अन्य पशुओं के जीवन के लिए सबसे अधिक खतरा उत्पन्न करते हैं - चाहे खुराक कितनी भी क्यों न हो। हांगकांग में अगला कदम लंदन – यह कहना पूरी तरह से सच नहीं है कि पूरी दुनिया की नज़रें हांगकांग पर लगी हुई हैं। परंतु, यह तब हो सकता है जब मुख्यभूमि चीन के लोगों को यह जानने दिया जाए कि उनके देश के सर्वाधिक सफल शहर में क्या हो रहा है। लेकिन चीन की सरकार ने हांगकांग लोकतंत्र के प्रदर्शनों के बारे में किसी भी खबर को देश के बाकी हिस्सों में पहुँचने से रोकने की कोशिश की है – यह वास्तव में चीन के शासकों की सत्तावादी शासन प्रणाली में चीनी शासकों के आत्मविश्वास का संकेत नहीं है। हांगकांग के फूहड़ प्राधिकारियों के लिए आगे के किसी रास्ते को सुझाने से पहले, तीन बातें स्पष्ट करना बहुत ज़रूरी है। सबसे पहले, हांगकांग के नागरिकों की निष्ठा और उनके सिद्धांतों पर यह एक मिथ्या आरोप लगाया जा रहा है कि बाहरी बलों द्वारा उनके साथ चालाकी की जा रही है जैसा कि चीनी सरकार का प्रचार तंत्र कर रहा है। हांगकांग के हजारों लाखों प्रदर्शनकारियों को जो चीज़ प्रेरित करती है वह उनका यह प्रबल विश्वास है कि स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव में वे उन लोगों को चुन सकेंगे जो उन पर शासन करेंगे, उन्हें अपने मामलों को चलाने दिया जाना चाहिए, जैसा कि उनसे वादा किया गया था। दूसरे, हांगकांग के बाहर के अन्य लोगों की इसमें जायज़ रुचि है कि शहर में क्या होता है। हांगकांग एक महान अंतर्राष्ट्रीय केंद्र है जिसकी स्वतंत्रता और स्वायत्तता को संयुक्त राष्ट्र में पंजीकृत एक संधि में गारंटी दी गई थी। विशेष रूप से, यूनाइटेड किंगडम ने, जो इस चीनी-ब्रिटिश संयुक्त घोषणा की दूसरी पार्टी है, इस बात की गारंटी माँगी थी और यह उसे मिली भी थी कि हांगकांग की स्वायत्तता और स्वतंत्रता की 50 वर्षों के लिए गारंटी होगी। इसलिए यह सुझाव देना हास्यास्पद है कि ब्रिटिश मंत्रियों और सांसदों को हांगकांग के मामलों में अपनी टाँग नहीं अड़ानी चाहिए। वास्तव में, उन्हें यह जाँच करते रहने का अधिकार और नैतिक दायित्व है कि चीन समझौते के अपने पक्ष पर टिका हुआ है या नहीं - जबकि सच तो यह है कि यह ज्यादातर अब तक ऐसा करता रहा है। लेकिन, तीसरे, सबसे बड़ी समस्याएँ इस बारे में विवाद के कारण पैदा हुई हैं कि हांगकांग के लिए लोकतंत्र के मार्ग पर ले जाने के लिए किए गए वादे को उसे कहाँ, और कब ले जाना चाहिए । हांगकांग के लोगों को जब सार्वभौमिक मताधिकार का आश्वासन दिया गया था तब उन्हें किसी ने यह नहीं बताया था कि इसका मतलब यह नहीं होगा कि वे यह चयन कर सकेंगे कि उन्हें किसके लिए वोट देना है। किसी ने भी यह नहीं कहा था कि चीन की कम्युनिस्ट ब्यूरोक्रेसी के मन में ईरान लोकतांत्रिक मॉडल था जिसमें चीनी सरकार को उम्मीदवारों पर प्रभावी वीटो लागू करने का अधिकार होगा। वास्तव में, चीन के मन में यह बात नहीं थी। बहुत पहले 1993 में, हांगकांग पर चीन के मुख्य मध्यस्थ, लू पिंग ने समाचार पत्र पीपल्स डेली को बताया था कि "[सार्वभौमिक मताधिकार की विधि] रिकार्ड के लिए [चीन की संसद को] सूचित की जानी चाहिए, जबकि केन्द्र सरकार की सहमति आवश्यक नहीं है। हांगकांग भविष्य में अपने लोकतंत्र को कैसे विकसित करेगा यह पूरी तरह से हांगकांग की स्वायत्तता के क्षेत्र के भीतर है। केंद्र सरकार इसमें हस्तक्षेप नहीं करेगी।" अगले वर्ष, चीन के विदेश मंत्रालय ने इस बात की पुष्टि की। जो कहा गया था और जिसका वादा किया गया था उसका संक्षेप ब्रिटिश संसद ने 2000 में हांगकांग पर एक रिपोर्ट में प्रस्तुत किया। "इसलिए चीनी सरकार ने औपचारिक रूप से यह स्वीकार कर लिया है कि यह हांगकांग सरकार को तय करना होगा कि हांगकांग में लोकतंत्र किस सीमा तक और किस स्वरूप का हो।" तो, आगे क्या होगा? हांगकांग में अपने छातों और कचरा इकट्ठा करने के बैगों के साथ शांतिपूर्ण प्रदर्शन करनेवाले लोग, खुद को कचरे की तरह सड़कों पर बिखरने नहीं देंगे या आँसू गैस और मिर्च के स्प्रे के दबाव के आगे झुक नहीं जाएँगे। ऐसा करने के किसी भी प्रयास से दुनिया के सामने हांगकांग और चीन की एक भयानक और विकृत तस्वीर पेश होगी, और यह चीन के लिए अपमान की बात होगी जिसे चीन कभी नहीं चाहेगा। हांगकांग के अधिकारियों ने अपने नागरिकों के विचारों का आकलन अत्यंत गलत तरीके से किया है। कन्फ्यूशियस ने जिन बुरे दरबारियों के बारे में चेतावनी दी थी, वे उन्हीं की तरह बीजिंग में गए और सम्राट को वह बताया जो उनके विचार से वह सुनना चाहता था, न कि उस स्थिति के बारे में बताया जो वास्तव में शहर में थी। उन्हें फिर से सोचना चाहिए। चूँकि इस प्रक्रिया में यह एक छद्म प्रारंभ सिद्ध हुआ, मौजूदा योजनाओं के तहत, संभवतः इसके बाद की जानेवाली कार्रवाई के रूप में लोकतांत्रिक विकास पर विचार-विमर्श का एक दूसरा चरण भी है। हांगकांग की सरकार को अब अपने लोगों को परामर्श के एक वाजिब दूसरे दौर की पेशकश करनी चाहिए जो खुला और ईमानदारीपूर्ण हो। वार्तालाप ही आगे बढ़ने का एकमात्र विवेकपूर्ण तरीका है। हांगकांग के नागरिक गैर-जिम्मेदार या अविवेकपूर्ण नहीं हैं। निश्चित रूप से एक अच्छा समझौता उपलब्ध है जिसमें ऐसे चुनाव करवाए जा सकते हैं जो लोगों को उचित लगें, न कि पहले से तय किए हुए। हांगकांग में प्रदर्शनकारी, जवान और बूढ़े, शहर के भविष्य का प्रतिनिधित्व करते हैं। वे ऐसे शांतिपूर्ण और समृद्ध जीवन की उम्मीद करते हैं जिसमें वे उन स्वतंत्रताओं और कानून के शासन का आनंद ले पाएँ जिसका उनसे वादा किया गया था। यह केवल उनके शहर के हित में ही नहीं है; यह चीन के हित में भी है। हांगकांग का भविष्य मुख्य मुद्दा है; लेकिन साथ ही यह चीन के सम्मान और दुनिया में इसकी प्रतिष्ठा का मुद्दा भी है। भारत की आंतरिक बाधाओं को दूर करना नई दिल्ली – भारत में जिन बहुत से आर्थिक सुधारों को तत्काल लागू करने की आवश्यकता है उनमें से सबसे अधिक स्पष्ट सुधार बहुत लंबे समय से अनिर्णीत वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) है। तो भारत के राजनीतिज्ञ इसे अधिनियमित करने में असफल क्यों रहे हैं? जीएसटी की जरूरत लगभग निर्विवाद है। जैसा कि अरबपति स्टीव फोर्ब्स ने अपने नाम की अपनी पत्रिका में हाल ही में लिखा था "बाहरी लोगों को इस बात पर आश्चर्य है कि भारत काफी हद तक क्रांति से पूर्व के फ्रांस जैसा है जिसमें कई आंतरिक बाधाएँ उसकी आर्थिक क्षमता और विकास के रास्ते में खड़ी हैं।" फिर उन्होंने यह उल्लेख किया कि संयुक्त राज्य अमेरिका की तरह, भारत को सक्षम बनाने के लिए इसके महाद्वीप के आकार के घरेलू बाजार का लाभ लेने के लिए जीएसटी महत्वपूर्ण है क्योंकि यह "स्थानीय करों के दमघोंटू गोलमाल" का स्थान ले लेगा जो "माल की आवाजाही पर आंतरिक शुल्कों" के रूप में हैं। वास्तव में, भारत में हक्का-बक्का कर देनेवाले उप-राष्ट्रीय करों की भारी-भरकम व्यवस्था है। उदाहरण के लिए, भारत के राज्यों के बीच वाणिज्य पर करों के लिए उनकी सीमाओं पर चुंगियों की आवश्यकता पड़ती है जहाँ ट्रकों की लंबी कतारें मंजूरी का इंतजार करती रहती हैं। परिणामस्वरूप, देश भर में माल भाड़े का परिवहन करना एक भयावह अनुभव है। बिक्री करों में भिन्नता है, और स्थानीय खपत के लिए प्रेषित किए जानेवाले माल के सीमा पार के लदानों पर "चुंगी" कर और जुड़ जाते हैं। यूरोपीय संघ में 28 संप्रभु देश हैं जिनका एक साझा बाज़ार है, जबकि, भारतीय संघ एक संप्रभु देश है जिसमें 29 अलग-अलग बाज़ार हैं। स्थितियाँ तब और भी बदतर हो जाती हैं, जब भारत के विभिन्न करों और कर अधिकारियों द्वारा भ्रष्टाचार और कर-वंचन के लिए अधिक अवसर पैदा किए जाते हैं। एक राष्ट्रीय जीएसटी से इन समस्याओं का अंत हो जाएगा। व्य���सायों के लिए, विशेष रूप से उन व्यवसायों के लिए जिन्हें देश भर में माल का परिवहन करना पड़ता है, जीएसटी एक वरदान सिद्ध होगा। यह अनुमान है कि जीएसटी के पारित होने पर भारत के जीडीपी में तुरंत 1-2% की वृद्धि हो जाएगी। तो जीएसटी के कार्यान्वयन को कौन-सी शक्ति रोक रही है? संक्षेप में कहा जाए, तो राजनीति। जीएसटी को पहली बार सात साल पहले तब शुरू किया गया था जब कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार सत्ता में थी। लेकिन इसमें नरेंद्र मोदी,जो पश्चिमी गुजरात राज्य के तत्कालीन मुख्यमंत्री थे, के उग्र विरोध के कारण देरी हुई। पिछले वर्ष जब मोदी प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने और उनकी भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को अचानक जीएसटी के गुणों का पता चला, और उन्होंने इस विधेयक को बड़ी धूमधाम के साथ अपनाया, लेकिन इसमें कुछ महत्वपूर्ण संशोधन करके। गुजरात और महाराष्ट्र में भाजपा सरकारों को खुश करने के लिए, जिन्होंने यह दुहाई दी कि "उत्पादक" राज्यों के रूप में उन्हें जीएसटी से नुकसान होगा, मोदी ने इस विधेयक को संशोधित किया जिससे इन राज्यों को बाहर जानेवाले माल पर अतिरिक्त 1% कर लगाने का अधिकार दिया गया। और जबकि इस विधेयक में पहले से ही राज्यों को जीएसटी के लागू होने से राजस्व के किसी भी नुकसान के लिए पांच साल के लिए मुआवज़ा देने का प्रावधान है। यह परिवर्तन – जो क्षुद्र राजनीति का एक हैरतअंगेज़ कारनामा है - जीएसटी की मूलभूत भावना और मंशा का खंडन करता है। यदि राज्यों द्वारा जीएसटी के ऊपर अलग-अलग कर लगाए जाएँगे, तो राष्ट्रीय बाजार फिर से विभाजित और विकृत हो जाएगा और राज्यों की सीमाओं पर बाहर जानेवाले माल के मूल्य का आकलन करने के लिए चुंगियाँ वापस लौट आएँगी। संक्षेप में, भारत जहाँ का तहाँ रह जाएगा। स्थिति और भी खराब हो जाएगी। राजनीतिक तुष्टिकरण के एक और कार्य के रूप में भाजपा सरकार ने कई छूटें शुरू की हैं। शराब, तंबाकू, पेट्रोलियम उत्पादों, और बिजली को अलग करके – जो कुल मिलाकर सभी कर प्राप्तियों का एक-चौथाई से अधिक हिस्सा बनता है – सरकार राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था पर जीएसटी के संभावित प्रभाव को भारी मात्रा में कम कर रही है। इसके अलावा, भाजपा सरकार ने ऐसे कई अन्य करों में वृद्धि की है (जिन्हें इसे समाप्त ही कर देना चाहिए था) जिनके बारे में राष्ट्रीय लोक वित्त एवं नीति संस्थान का अनुमान है कि राजस्व हानि को रोकने के लिए जीएसटी को 27% जितना अधिक होना चाहिए। अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित करने के बजाय, इस तरह की कोई दर इसे पंगु बना देगी। कुल मिलाकर, जीएसटी के वर्तमान सरकार के निराशाजनक संस्करण का, कुछ अनुमानों के अनुसार, सकल घरेलू उत्पाद पर औसत दर्जे का प्रभाव ही पड़ेगा। कांग्रेस पार्टी ने, जो अब विपक्ष में है, जीएसटी विधेयक को स्वीकार करने के लिए तब तक समर्थन देने से मना कर दिया है जब तक इसका और अधिक प्रभावी संस्करण बहाल नहीं किया जाता है। यह राज्यों द्वारा लगाए गए अतिरिक्त 1% कर को खत्म करना चाहती है और सभी प्रकार की वस्तुओं को जीएसटी के दायरे में लाना चाहती है। कर वंचनों के लिए प्रोत्साहनों को कम करने के लिए और इस प्रकार राजस्व में वृद्धि करने के लिए कांग्रेस जीएसटी की उच्चतम सीमा को भी 18% पर रखना चाहती है। और इसमें निष्पक्षता सुनिश्चित करने के लिए, यह उस जीएसटी विवाद निपटान प्राधिकरण की बहाली करना चाहती है जिसका मूल विधेयक में प्रावधान किया गया था ताकि कर की व्यवस्था करनेवाली जीएसटी परिषद को अपने स्वयं के निर्णयों पर फैसला न देना पड़े। कुछ अन्य मामूली आपत्तियाँ भी हैं, लेकिन जीएसटी को स्वीकार करने में आड़े आनेवाले मूल मुद्दे यही हैं। इन जायज़ समस्याओं पर कार्रवाई करने के बजाय, मोदी उन सुधारों को धता बताकर जिनका पहले कभी उन्होंने समर्थन किया था, कांग्रेस पर नकारात्मक विपक्ष होने का आरोप लगा रहे हैं। लेकिन कांग्रेस पीछे नहीं हटेगी, और जब तक सरकार प्रमुख संशोधनों को स्वीकार नहीं कर लेती है, वह अडिग रहकर इस विधेयक को संसद के उच्च सदन में पारित नहीं होने देगी, जहाँ भाजपा के पास बहुमत नहीं है। इसके परिणामस्वरूप जो गतिरोध बना हुआ है उसका मतलब है कि अगले राजकोषीय वर्ष के आरंभ में, 1 अप्रैल, 2016 को, नए कर लाने की मोदी की योजना शायद पानी में डूबकर मर चुकी है। कुछ लोग इस अनिष्टकारी स्थिति को इस बहुत पुराने तर्क के सबूत के रूप में देखेंगे कि भारत का लोकतंत्र विकास के लिए एक बाधा है। आखिरकार, यह लोकतंत्र था – विशेष रूप से, पर्याप्त समर्थन बनाए रखने के लिए दबाव – जिसके फलस्वरूप मोदी सरकार को जीएसटी की अवधारणा को खोखला करना पड़ा। और यह लोकतंत्र है – अर्थात संसद में विधेयक के लिए पर्याप्त समर्थन हासिल करने की आवश्यकता – जिसके कारण जब तक मोदी नरम नहीं पड़ जाते तब तक कांग्रेस को आगे की किसी प्रगति को रोकने की क्षमता प्राप्त है। चीन और सिंगापुर जैसी ऊपर से नीचे तक तानाशाहियों में इस तरह की समस्याएँ नहीं होती हैं। बहरहाल, भारत के लिए स्वयं को इस तरह से व्यवस्थित करना सही है। इसकी शासन प्रणाली इस विश्वास पर टिकी हुई है कि सौदेबाजी, असहमति, चिंतन, और समझौते की एकीकृत प्रक्रिया – न कि ऊपर से नीचे तक चुनौती रहित निर्णय लेने की प्रक्रिया – बुद्धिमत्तापर्ण, निष्पक्ष, और सफल नीति-निर्माण के लिए सबसे प्रभावी मार्ग है। इस गतिरोध से उभर कर अंततः जो जीएसटी विधेयक आएगा, वह इसलिए बेहतर होगा कि उसे इन विस्तृत, चाहे अधिक समय लेने वाले, वाद-विवादों से निकलना पड़ा होगा। जब अंततः इसे स्वीकार कर लिया जाएगा, तो इस बात की बहुत अधिक संभावना होगी कि इससे भारतीय अर्थव्यवस्था में जो बदलाव आएगा वह उसकी बेहतरी के लिए होगा। मोदी सरकार का एक साल नई दिल्ली – प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली, भारत की भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) सरकार इस महीने अपने कार्यकाल की पहली वर्षगाँठ मनाएगी। हालाँकि इसके समग्र प्रदर्शन का अभी आकलन करना बहुत जल्दी होगा, भारत भर में अभी तक अधिकतर लोगों में जो भावना है वह निराशापूर्ण ही है। एक दशक तक कांग्रेस पार्टी के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार (यूपीए) की विरोधी पार्टी के रूप में बने रहने के बाद भाजपा उम्मीदों की लहर पर सवार होकर सत्ता में आई। (पूर्ण प्रकटीकरण: मैं यूपीए सरकार का एक सदस्य था।) वास्तव में, भाजपा के लिए समर्थन इतना अधिक मज़बूत था कि यह लोकसभा (भारत की संसद के निचले सदन) में बहुमत से जीतने वाली 30 वर्षों में पहली पार्टी बन गई। भाजपा सरकार के लिए शुरूआती उत्साह इसके पूर्ववर्ती के साथ तथाकथित विपरीत अनुभव पर आधारित था। यहाँ, आखिरकार अब एक ऐसी मजबूत एक-दलीय सरकार थी जिसका नेतृत्व एक निर्णायक "कार्रवाई करनेवाले व्यक्ति" द्वारा किया जा रहा था, न कि किसी झगड़ालू गठबंधन द्वारा जिसका नेतृत्व एक अस्सी साल के मितभाषी बूढ़े द्वारा जिसे अक्सर गलत तरीके से अनिश्चितता और असमंजस में पड़े हुए व्यक्ति के रूप में हास्यात्मक तरीके से चित्रित किया जाता था। मोदी को मतदाताओं के सामने एक कूटनीतिपूर्ण (और उदारतापूर्वक वित्तपोषित) चुनाव अभियान के ज़रिए पेश किया गया जिसमें उन्हें व्यापार की समझ रखने वाले एक ऐसे नेता के रूप में चित्रित किया गया जिसने गुजरात राज्य को विकास के मॉडल में बदल दिया था और जो पूरे देश के लिए भी यही करेगा। युवा लोगों को नौकरियों के वादे के साथ, और पुराने मतदाताओं को सुधार और विकास की संभावना के साथ आकर्षित करके, मोदी ने एक ऐसा जनादेश हासिल किया जिसे देखकर देश के जनमत सर्वेक्षक दंग रह गए। इस बीच, कांग्रेस ने अब तक का सबसे खराब प्रदर्शन किया। चुनाव के बाद से, मोदी प्रभावशाली ढंग से वैश्विक मंच पर छा गए, उन्होंने अपनी सरकार को निवेशकों के लिए और अधिक मेहमाननवाज़ के रूप में पेश किया है और विदेशी निर्माताओं से "भारत मे�� बनाएँ" के लिए आग्रह किया है। फिर भी, उनकी विदेश यात्राओं से उनकी उस व्यक्तिगत प्रतिष्ठा में सुधार होने के अलावा, कुछ खास हासिल नहीं हुआ है जो गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में उन पर लगे इन आरोपों के फलस्वरूप काफी खराब हो गई थी कि जब 2002 में हुए मुस्लिम-विरोधी नरसंहार में एक हजार से अधिक लोग मारे गए थे तो उन्होंने कम-से-कम लापरवाही अवश्य बरती थी। मोदी का घरेलू कार्य-निष्पादन भी कम असरदार रहा है। यद्यपि उनके भाषणों और जुमलों ने उनकी हिंदी भाषण कला के प्रशंसकों को अभी तक प्रभावित करना जारी रखा है, लेकिन लफ्फाजी और हकीकत के बीच अंतर दिन दूना रात चौगुना बढ़ता जा रहा है। वास्तव में, सहिष्णुता और भाईचारे के बारे में वाक्पटुता से बोलने के बावजूद, मोदी भाजपा मंत्रियों और सांसदों के नफरतभरे भाषणों पर ज्यादातर चुप्पी साध गए हैं जिससे भारत के गैर-हिंदू अल्पसंख्यकों में अलगाव की भावना पैदा हो रही है। भाजपा भले ही विकास का प्रचार करे, लेकिन यह कट्टरता को बढ़ावा दे रही है – यह एक ऐसा विरोधाभास है जिसे मोदी केवल उन ताकतों को नकार कर ही हल कर सकते हैं जिन्होंने उनकी चुनावी जीत को सुनिश्चित करने में मदद की थी। इसी तरह, मोदी ने "मिनिमम गवर्नमेंट, मैक्सिमम गवर्नेंस" के अपने वादे को भी नहीं निभाया है; इसके विपरीत, उन्होंने 1970 के मध्य में इंदिरा गांधी के आपातकालीन शासन के बाद से सबसे अधिक केंद्रीकृत, ऊपर-से-नीचे, नौकरशाही चालित, व्यक्ति के प्रभुत्व को प्रमुखता देनेवाली केंद्रीय सरकार बनाई है। जिन लोगों ने मोदी के अत्यधिक लोकतांत्रिक, परामर्शदात्री और आम सहमति वाले पूर्ववर्ती के तथाकथित "निर्णय लेने में अक्षमता" की निंदा की थी, अब वही लोग मोदी के कार्यालय में, जो ऐसा एकमात्र स्थान है जहाँ निर्णय लिए जाते हैं, फ़ाइलों का अंबार लगने के कारण एक अलग तरह की अक्षमता का सामना कर रहे हैं। वरिष्ठ पद खाली पड़े हैं जिनके कारण महत्वपूर्ण संस्थाएँ प्रभावी ढंग से कार्य करने में असमर्थ हैं - इनमें तीन-सदस्यीय स्वतंत्र चुनाव आयोग के दो पद शामिल हैं। पारदर्शिता और जवाबदेही के बारे में अपनी चर्चा के बावजूद, मोदी केंद्रीय सूचना आयुक्त, सतर्कता आयुक्त या लोकपाल (ओम्बुड्समैन जिसके अधिकार-क्षेत्र में सांसदों और केंद्रीय सरकार के कर्मचारियों से संबंधित भ्रष्टाचार के सभी मामले आते हैं) नियुक्त नहीं कर पाए हैं। चूँकि मोदी अपनी अत्यधिक व्यस्तता के कारण वे सभी निर्णय नहीं ले पा रहे हैं जो वे - और केवल वे ही - ले सकते हैं, इसलिए सरकार दिशाहीन है। कुछ मामलों में, यह नितांत विरोधाभासी रुख अपना रही है। आर्थिक नीति पर ग़ौर करें। हालाँकि मोदी यह घोषित कर चुके हैं कि "व्यवसाय करना सरकार का व्यवसाय नहीं है", परंतु वे एयरलाइनों और होटलों पर अपनी सरकार के स्वामित्व और नियंत्रण पर आपत्ति नहीं कर पाए हैं। वास्तव में, सार्वजनिक क्षेत्र के प्रमुख भीमकाय उपक्रमों के निजीकरण के बारे में अब कोई उल्लेख नहीं किया जाता है। इसके अलावा, निवेशकों को आकर्षित करने और औद्योगिक विकास को बढ़ावा देने के लिए श्रम बाज़ार के उदारीकरण को अब भुला दिया गया है, जबकि पहले कभी इसे अपरिहार्य माना जाता था। सुधार के बारे में आशावादी बातों का स्थान अब आधिकारिक तौर पर "क्रमिक रूप से वृद्धि" के प्रति सम्मान ने ले लिया है। इसी तरह, वित्त मंत्री अरुण जेटली जो पहले कभी "टैक्स आतंकवाद" का मज़ाक उड़ाया करते थे, अब उन्होंने कर अधिकारियों के सामने शिकारों की बिल्कुल नई श्रेणियाँ लाकर खड़ी कर दी हैं, इनमें विदेशी संस्थागत निवेशक भी शामिल हैं जिन्हें मोदी आकर्षित करने की कोशिश कर रहे हैं। इसमें कोई आश्चर्य नहीं है कि मोदी के चुनाव अभियान के दौरान निवेशक भावना जितनी बढ़ गई थी, अब वह काफी कम हो गई है। मोदी की सरकार ने आलीशान योजनाओं की घोषणा करने और उन्हें वित्त प्रदान करने में नाकाम रहने की भी अच्छी प्रतिभा का प्रदर्शन किया है। इससे भी खराब बात यह है कि स्वास्थ्य, शिक्षा, स्वच्छता, और महिलाओं की सुरक्षा – जो भाजपा के चुनाव अभियान के प्रमुख मुद्दे थे – के लिए भी बजट में कटौती की गई है। जनता इनमें से किसी भी मुद्दे को भूली नहीं है। उदाहरण के लिए, भारत के किसान इसलिए संघर्ष के लिए उद्यत हैं क्योंकि पिछली सरकार द्वारा पारित भूमि-अधिग्रहण कानून में अनेक संशोधन करके उसकी जगह पर अध्यादेश लाया जा रहा है (तथापि अब इन संशोधनों पर विधायी प्रतिरोध चल रहा है)। सामान्य तौर पर, मतदाता मोदी के चुनाव अभियान के उस चाय-वाला (चाय-बेचनेवाला) के कायाकल्प से प्रभावित नहीं हुए हैं, जो राष्ट्र की सेवा के लिए गृहस्थी के सुख का त्याग करके, सर्वत्र विराजमान, चमचमाते सूटबूट वाला सेलिब्रिटी बनकर दूसरी बहुचर्चित हस्तियों का हमजोली बन गया हो। अधोपतन की पराकाष्ठा जनवरी में तब हुई जब मोदी ने अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा का "यार बराक" कहकर स्वागत किया – तब उन्होंने महीन धारियों वाला सूट पहना हुआ था जिसकी प्रत्येक धारी पर उनका नाम सोने में उकेरा गया था। जनता ने उनके इस प्रदर्शन से अचंभित होकर, तुरंत ही दिल्ली विधानसभा के चुनावों में भाजपा की किरकिरी कर दी, जबकि पिछले साल इसी पार्टी ने यह चुनाव लगभग जीत लिया था। यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि विपक्ष ने इन चुनावों में एक साल पहले बुरी तरह से मात खाई थी, पर अब वह वापस अपने पैरों पर खड़ा हो गया है। एक मायने में, मोदी भाग्यशाली हैं कि उनकी सरकार की असफलताएँ उनके कार्यकाल में ही इतनी जल्दी इतनी साफ दिखाई देने लग गई हैं कि उन्हें सुधारने के लिए उनके पास अभी समय है। उन्होंने उस धारीदार सूट को जल्दी से चैरिटी के लिए नीलाम करके यह दिखा दिया है कि वे सही सबक सीखने में सक्षम हैं। दुर्भाग्यवश, उनकी बाकी की गलतियाँ इतनी आसानी से नहीं सुधारी जा सकतीं। भारत के घातक शहर सिंगापुर – चीन और भारत एशिया की जनसंख्या और शहरीकरण के रुझानों का संचालन कर रहे हैं। 2010 मैकेन्ज़ी अध्ययन के अनुसार, 2005 और 2025 के बीच इस महाद्वीप की शहरी आबादी में होनेवाली वृद्धि में इन दोनों देशों का हिस्सा 62%, और दुनिया भर में होनेवाली ऐसी वृद्धि में 40% जितना अधिक होने की संभावना है। इस तरह के आँकड़े शहरी आयोजना और विकास के प्रबंध की आवश्यकता को रेखांकित करते हैं। लेकिन इन दोनों देशों के बीच महत्वपूर्ण अंतरों को समझना भी उतना ही महत्वपूर्ण है। उनके शहरी विकास के तरीकों में अंतर के साथ-साथ पर्यावरण नीति के संबंध में उनके दृष्टिकोणों में अंतरों के कारण भारत की जनसंख्या की चुनौतियों के संबंध में कार्रवाई करना और भी अधिक कठिन होने की संभावना है। भले ही चीन में 20% मानव आबादी वास करती है, लेकिन दो दशकों से अधिक समय के भीतर इसकी प्रजनन दर "प्रतिस्थापन" दर (जो वर्तमान जनसंख्या को बनाए रखने के लिए आवश्यक होती है) के स्तर की तुलना में कम रही है और इसके फलस्वरूप अगले दो दशकों के भीतर इसकी जनसंख्या वृद्धि दर ऋणात्मक हो जाने की संभावना है। परिणामस्वरूप, भारत दुनिया का सबसे अधिक आबादी वाला देश बनने की ओर अग्रसर है, जहाँ जनसंख्या वृद्धि दर निकट भविष्य में धनात्मक बने रहने की संभावना है। अधिकतर अनुमानों के अनुसार 2022 तक भारत की जनसंख्या चीन की जनसंख्या से भी अधिक हो जाएगी। वास्तव में, उम्मीद है कि अगले 35 वर्षों में भारत 400 मिलियन से अधिक शहरी निवासी जोड़ेगा (यह संख्या संयुक्त राज्य अमेरिका की पूरी आबादी से भी अधिक है), जबकि चीन केवल 292 मिलियन ही जोड़ेगा। पहली बार, बहुसंख्य भारतीय शहरों में रह रहे होंगे - यह ऐसे देश के लिए एक महत्वपूर्ण परिवर्तन है जिसकी ग्रामीण आबादी वर्तमान में कुल आबादी की दो-तिहाई है। भारत के दो सबसे बड़े शहरी केंद्रों - दिल्ली और मुंबई - का वर्णन अक्सर उभरते वैश्विक महानगरों के रूप में किया जाता है। दिल्ली तो पहले से ही दुनिया का दूसरा सबसे अधिक आबादी वाला शहर है, और दुनिया के सबसे बड़े शहर टोक्यो और इसके बीच अंतर 2030 तक लगभग पूरी तरह से समाप्त हो जाने की संभावना है। जब इस स्तर पर होनेवाली जनसंख्या वृद्धि को तीव्र शहरीकरण के साथ जोड़ दिया जाता है, तो इससे जुड़े पर्यावरणीय और सामाजिक प्रभाव नीति संबंधी भयंकर चुनौतियों का रूप धारण कर लेते हैं। 2014 में, विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने यह निर्धारित किया कि दिल्ली में दुनिया की सबसे खराब वायु गुणवत्ता (महीन कणों के संकेद्रण के आधार पर) है, जबकि शीर्ष चार स्थानों में भारतीय शहरों का स्थान है और शीर्ष 18 स्थानों में 13 में भारतीय शहरों का स्थान है। चीन की लगातार - और अक्सर सही तौर पर - खराब पर्यावरण नीतियों के लिए आलोचना की जाती है। लेकिन, मैकेंज़ी के अनुसार, चीन तीव्र शहरीकरण के लिए योजना बनाने में भारत की तुलना में अधिक सक्रिय रहा है और उसने यह दर्शाया है कि पर्यावरण संबंधी चुनौतियों का सामना करने के लिए उसके पास अधिक क्षमता और संसाधन हैं। देश भर के नए शहरों की शहरी योजनाओं में ऐसे मुद्दों पर आरंभ में ही ध्यान दिया जाता है, और नदी तटों के हरित पट्टी क्षेत्रों और शहरी प्राकृतिक भंडारों को ऐसी बुनियादी ढांचा परियोजनाओं के साथ जोड़ा जाता है जिनके पर्यावरणीय लाभ होते हैं (उदाहरण के लिए, व्यापक जन-पारगमन नेटवर्क)। इसके विपरीत, भारत के शहरों का बेतरतीब विकास हुआ है जिसमें कुल मिलाकर शहरी प्रणालियों के सुचारू रूप से कार्य करने पर लगभग बिल्कुल ध्यान नहीं दिया गया है। उदाहरण के लिए, देश के शहरी क्षेत्रों में अक्सर पर्याप्त क्षेत्रीय परिवहन नेटवर्क की कमी रहती है। खाली पड़े शहर के भीतर के जिलों और उपनगरीय परिधियों में अनौपचारिक बस्तियों के बड़े-बड़े निर्माण हो रहे हैं जिनसे पर्यावरण की स्थितियों, सार्वजनिक स्वास्थ्य, और निजी सुरक्षा पर बुरा असर पड़ता है। भूमि उपयोग के स्वरूपों में औद्योगिक और आवासीय जिले मिले-जुले रूप में होते हैं, जिससे असुरक्षित (और बढ़ती हुई) आबादियों पर अनेक दुष्प्रभाव पड़ते हैं। चीन और भारत में शहरी विकास में अंतर न केवल नीति की दृष्टि से, बल्कि दोनों देशों की शासन शैलियों में भी साफ दिखाई देता है। चीन के नेता प्रदूषण नियंत्रण पर भारी जोर दे रहे हैं। बीजिंग में आयोजित होनेवाले 2022 के शीतकालीन ओलंपिक से पहले ही, अधिकारीगण आर्थिक विकास का पर्यावरण प्रबंध के साथ तालमेल बैठाने के लिए क्षेत्रीय रूप से एकीकृत योजना तैयार कर रहे हैं जिसमें विनिर्माण प्रक्रियाओं को हरित बनाना और ऊर्जा उत्पादन में "अतिरिक्त क्षमता" को हटाना शामिल है। इस तरह के बहु क्षेत्राधिकार संबंधी प्रयासों के लिए भारी समन्वयन और स्थिर दृष्टि की आवश्यकता होती है जो चीन की व्यवस्थित शासन प्रणाली प्रदान करती है। इसके विपरीत, भारत में वायु प्रदूषण के प्रबंध में केंद्र सरकार की कोई भूमिका नहीं होती है क्योंकि इसकी जिम्मेदारी राज्य स्तर पर होती है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का प्रशासन जो कुछ भी करने का निर्णय लेता है, विभिन्न दलों के नियंत्रण वाली राज्य सरकारों द्वारा उनकी नीतियों का विरोध करने की संभावना हो सकती है, या यह संभावना हो सकती है कि वे उन पर पर्याप्त रूप से ध्यान न दें और संसाधन न लगाएँ। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के अनुसार, "घर के अंदर के वायु प्रदूषण" (ठोस ईंधन के जलने) के परिणामस्वरूप प्रति वर्ष होने वाली 4.3 मिलियन मौतों में से लगभग एक-तिहाई (1.3 मिलियन) भारत में होती हैं। हाल ही की एक रिपोर्ट में यह बताया गया है कि अधिक कठोर पर्यावरण विनियमों से भारतीयों की जीवन प्रत्याशा में 3.2 वर्ष जुड़ जाएँगे। इस कल्याण संबंधी वास्तविक लाभ में आर्थिक लाभ भी शामिल होंगे। इसके परिणामस्वरूप दो बिलियन से अधिक "जीवन वर्ष" जुड़ जाने का अर्थ है बहुत अधिक मात्रा में मानव उत्पादकता, रचनात्मकता, और परिवारों और समाज के लिए अमूल्य योगदान। तीव्र शहरीकरण के प्रभावों पर पर्याप्त रूप से कार्रवाई न कर पाने के फलस्वरूप भारत इन लाभों से वंचित हो रहा है। इस संबंध में एक सदाशयपूर्ण, अच्छी तरह से प्रचारित आधिकारिक घोषणा से भारत के नागरिकों और दुनिया को यह संकेत मिलेगा कि देश अपनी बढ़ती हुई आबादी को शहरी पर्यावरणीय क्षरण के जीवन को कम करने के प्रभावों से बचाना चाहता है। इससे भारत के शहरों में जीवन की गुणवत्ता में सुधार लाने के लिए एक रूपरेखा भी उपलब्ध होगी जिससे स्थानीय निवासियों को प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों ही रूप से (विदेशी निवेश को प्रोत्साहित करके) लाभ मिलेगा। नई वैश्विक अर्थव्यवस्था में भारत के प्रतिस्पर्धात्मक लाभ सर्वविदित हैं। लेकिन परिवर्तनकारी सामाजिक प्रगति केवल तभी संभव होगी जब देश उन उपायों के बारे में कार्रवाई करने हेतु अधिक व्यापक प्रयास आरंभ करेगा जिन्हें काफी समय से आर्थिक विकास की अपरिहार्य संपार्श्विक क्षति के रूप में नकारा जाता रहा है। भारतीय रेल को पटरी पर लाना नई दिल्ली – हर साल फरवरी में, भारतीय संसद एक अद्भुत और अनूठा अनुष्ठान करती है। लोकसभा में रेल मंत्री (यह मंत्री-पद आजकल बहुत कम लोकतंत्रों में मौजूद है) लोकसभा द्वारा अनुमोदन किए जाने के लिए "रेल बजट" पेश करते हैं। भरे संसद भवन में सब लोग मंत्री महोदय के हर शब्द को पूरे ध्यान से सुनते हैं। यह प्रथा ब्रिटिश राज के दिनों में शुरू हुई थी, जब रेल बजट भारत सरकार के बाकी के बजट से होड़ किया करता था। फिर भी, आज $23 बिलियन के रेलवे राजस्व की तुलना में, देश का $268 बिलियन का बजट किसी भी रूप में बौना नहीं रह गया है। लेकिन भारत की रेलवे अभी भी कई अन्य चमत्कारिक आँकड़े पेश करती है: हर रोज़ 65,000 किलोमीटर (40,000 मील) के नेटवर्क पर 7,172 स्टेशनों को जोड़ने वाली 12,617 रेलगाड़ियों पर 23 लाख यात्रियों को (प्रति वर्ष आठ बिलियन से अधिक, जो दुनिया की पूरी आबादी से भी ज्यादा है) ढोया जाता है। और, 1.31 मिलियन कर्मचारियों वाली यह रेलवे देश का सबसे बड़ा उद्यम है। संक्षेप में, रेलवे भारत की अर्थव्यवस्था की रक्तवाहिनी है, जो समाज के हर वर्ग के जीवन से जुड़ी है और भीड़भाड़ वाले परिवेश में लोगों, माल-भाड़े और सपनों को आगे ले जाने में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह कर रही है। फिर भी बहुत कुछ ठीक करने की ज़रूरत है। भारत की रेलगाड़ियाँ चीन की तुलना में चार गुना यात्रियों को ढोती हैं, जबकि वे किलोमीटरों की दृष्टि से केवल आधी दूरी तय करती हैं, लेकिन फिर भी ये हर साल लगभग $7 बिलियन का नुकसान उठाती हैं। समस्या यह है कि एक के बाद एक रेल मंत्री, रेलगाड़ियों को गरीब लोगों के लिए एकमात्र सस्ते परिवहन साधन के रूप में मानते हुए, यात्री किरायों में वृद्धि करने से परहेज़ करते रहे हैं, इसके बजाय माल-भाड़े में वृद्धि करते रहे हैं। यह मतदाताओं में तो लोकप्रिय हुआ है लेकिन देश के लिए विनाशकारी सिद्ध हुआ है। हालाँकि, माल परिवहन से अभी भी रेलवे राजस्व का 67% प्राप्त होता है, और हर दिन 2.65 मिलियन टन माल ढोया जाता है, लेकिन यात्रियों को राहत देने के लिए भाड़ा अधिक रखे जाने की मजबूरी के कारण माल प्रेषक इससे कन्नी काटते हैं। फलस्वरूप, पूरे भारत में रेल द्वारा की जानेवाली माल-ढुलाई का अंश 1950-1951 के 89% से घटकर आज 31% रह गया है। इसके बजाय, अधिकाधिक माल सड़क मार्ग से भेजा जाता है जिससे भारत के संकीर्ण राजमार्गों पर गाड़ियों के जमघटों से देश में बढ़ती दमघोटू हवा में उगले जानेवाले ज़हरीले प्रदूषकों की मात्रा और भी बढ़ती जा रही है। इसके विपरीत, चीन की रेलगाड़ियाँ भारत के माल-भाड़े की तुलना में पांच गुना ज्यादा माल-भाड़ा ढोती हैं, जबकि चीन का सड़क नेटवर्क बहुत ही अच्छा है। नेताओं ने विभिन्न निर्वाचन क्षेत्रों को खुश करने के लिए और अधिक रेलगाड़ियाँ चलाने का सिलसिला जारी हुआ रखा है - लेकिन ट्रैक नहीं बढ़ाए गए हैं - इससे स्थिति और भी बदतर होती जा रही है। दरअसल, भारत से जाते समय अंग्रेज़ 53,000 किलोमीटर का जो रेल ट्रैक छोड़कर थे गए, 1947 में आजादी के बाद से अब तक, ज़मीन की कमी के कारण, केवल 12,000 किलोमीटर रेल ट्रैक और जोड़ा गया है। (चीन ने इसी अवधि में अपने रेल नेटवर्क के लिए लगभग 80,000 किलोमीटर का ट्रैक जोड़ा है)। परिणामस्वरूप, कई लाइनें अपनी क्षमता से अधिक काम कर रही हैं, जिससे रेलगाड़ियों में बहुत अधिक विलंब होता है। अक्षमता की यह स्थिति धीमी गति वाली ट्रेनों के कारण और भी बदतर हो जाती है, और यह 50 किलोमीटर प्रति घंटे (और माल-ढुलाई के लिए 30 किलोमीटर प्रति घंटे) से शायद ही कभी अधिक होती है, आंशिक रूप से इसके लिए राजनीतिक हितों की संतुष्टि के लिए स्टेशनों की हमेशा बढ़ती जा रही संख्या को रोकने की ज़रूरत है। लेकिन शायद सबसे बड़ी समस्या रेलवे का बहुत अधिक खतरनाक होना है। पुरानी पड़ चुकी रेलगाड़ियाँ, पुराने ज़माने के सिग्नल, और लेवल क्रॉसिंग, जो उन्नीसवीं सदी के ज़माने की हैं, और इनसे जुड़ी मानव त्रुटियाँ जो हर साल दर्जनों ज़िंदगियों को लील जाती हैं । फिर भी रेल मंत्री अपने लोकलुभावन दृष्टिकोण को जारी रखते हैं। सरकार को यात्री किरायों में सब्सिडी देने से हर साल $4.5 बिलियन का नुकसान होता है, इसके पास बुनियादी सुविधाओं को बेहतर बनाने, सुरक्षा मानकों में सुधार करने, या ट्रेनों की गति को तेज़ करने पर खर्च करने के लिए धन बहुत कम होता है। परिणामस्वरूप, रेलवे की योजनाएँ समाप्त होने से पहले उनका पैसा समाप्त हो जाता है। पिछले 30 वर्षों में, संसद द्वारा मंजूर की गई 676 परियोजनाओं में से केवल 317 को ही पूरा किया गया है, और यह अनुमान लगाना मुश्किल है कि शेष 359 परियोजनाओं को पूरा करने के लिए रेलवे आवश्यक अनुमानित $30 बिलियन की राशि कहाँ से प्राप्त करेगी। और शायद इतना सब खराब होना ही काफी नहीं है, उस पर तुर्रा यह है कि भारत का नेतृत्व रेलवे द्वारा प्रस्तुत चुनौतियों के प्रति बेख़बर रहना चाहता है। जिस देश में, रेलगाड़ियों के समय पर पहुँचने की बात तो छोड़ ही दें, रेल यात्री स्वच्छ शौचालय तक की उम्मीद नहीं कर सकते, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बुलेट ट्रेनों को शुरू करने की बात की है –बेतुकी महत्वाकांक्षाओं की कड़ी में यह नवीनतम है। एक तकनीकीविद् नए रेल मंत्री सुरेश प्रभु ने एक बार फिर से यात्री किरायों को अछूता छोड़ दिया है और माल-भाड़ा दरों को बढ़ा दिया है। हालाँकि, अपने पूर्ववर्तियों के विपरीत, वे किन्हीं नई ट्रेनों की घोषणा करने के प्रलोभन से तो बचे हैं, परंतु भारत की रेलवे के लिए उनकी योजनाएँ अपर्याप्त हैं। प्रभु के वादों में रेल लाइनों का सुधार और विस्तार करना, रेलवे स्टेशनों पर वायरलेस इंटरनेट शुरू करना, मानव-रहित लेवल क्रॉसिंग समाप्त करना, फोन पर शिकायत करने के लिए उपयोगकर्ताओं के लिए 24-घंटे टोल-फ्री नंबर तैयार करना, और महिला यात्रियों की रक्षा के लिए सुरक्षा कैमरे स्थापित करना शामिल हैं। उनके आलोचकों को ये सुधार काफी हद तक मामूली लगते हैं, और इनसे उनके अपने साथी सांसद बिल्कुल भी प्रभावित नहीं हुए हैं। प्रभु का सबसे प्रभावशाली वादा - $140 बिलियन की राशि बाजार उधारदाताओं से जुटाना - सबसे अधिक समस्या वाला भी है, क्योंकि वे इस बात को स्पष्ट करने में बिल्कुल असफल रहे हैं कि रेलवे वास्तव में इन ऋणों को किस तरह चुकाएगी। यह देखते हुए कि निवेशकों को आकर्षित करने के लिए ब्याज दरों को कितना ऊँचा रखना पड़ सकता है, यह कोई आसान काम नहीं होगा, विशेष रूप से इसलिए कि रेलवे का प्रचालन अधिशेष वर्तमान में सिर्फ 6%, या लगभग $100 मिलियन वार्षिक का है, जो नेटवर्क को अपग्रेड करने और उसके आधुनिकीकरण के लिए आवश्यक राशि का मात्र 1% है। यह बात बिल्कुल भी साफ नहीं है कि प्रभु की सुरक्षित, स्वच्छ, और अधिक तेज़ गतिवाली भारतीय रेलवे प्रणाली की भव्य कल्पना को व्यवहार में कैसे हासिल किया जाएगा। रेल मंत्री ने सपनों का बजट बनाया है - हालाँकि इसे "दिवास्वप्न" कहना इसका अधिक सटीक वर्णन होगा। वास्तव में, यह अभी तक मोदी सरकार के दृष्टिकोण के अनुरूप है: इसमें बुलंद आकांक्षाएँ हैं, धाँसू लफ्फाज़ी है, और भाषण के कुछ उद्धरण योग्य अंश हैं जिनमें कुछ विशेष उल्लेखनीय बातें हैं, परंतु इसमें कोई कार्यान्वयन योजना नहीं है, और निष्पादन क्षमता में कोई सुधार नहीं किया गया है। भारत की बोझ से दबी रेलगाड़ियों को बंदर घुड़की से नहीं चलाया जा सकता है, लेकिन अभी तक उनके लिए जो पेशकश की जा रही है उससे तो यही लगता है। विकास वित्त में नए युद्ध-क्षेत्र प्रिटोरिया - उभरते देशों में बुनियादी ढाँचे के विकास का समर्थन करने के लिए सार्वजनिक-निजी भागीदारी (PPP) की लोकप्रियता दुनिया भर में बढ़ रही है। वैश्विक विकास को बढ़ावा देने और रोज़गार के अवसर पैदा करने के लिए जी-20 PPP का समर्थन करते हैं। BRICS अर्थव्यवस्थाएँ (ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ़्रीका) उन्हें ज़रूरी बुनियादी ढाँचे का निर्माण शीघ्रता से और सस्ते में करने के एक उपाय के रूप में देखती हैं। संयुक्त राष्ट्र को उम्मीद है कि बुनियादी ढाँचे की PPP इसकी 2015 के बाद की वैश्विक विकास कार्यसूची को पूरा करने के लिए साधन प्रदान करेगी। PPP का नया आकर्षण न केवल विकास अर्थशास्त्र को, बल्कि अमीर और ग़रीब देशों के बीच समग्र रिश्ते को भी फिर से परिभाषित कर सकता है - हालाँकि जरूरी नहीं है कि यह बेहतरी के लिए ही हो। PPP की गाड़ी में तीन ज़रूरी घटक हैं: बुनियादी ढाँचा वित्त में विस्फोट (पेंशन और अन्य बड़ी निधियों द्वारा समर्थित); देशों के कच्चे माल का फ़ायदा लेने के लिए आकर्षक विशाल-PPP परियोजनाओं की "पाइपलाइनें" तैयार करना; और पर्यावरण और सामाजिक सुरक्षा उपायों की समाप्ति। PPP के उपयोग का विस्तार होने के साथ इनमें से प्रत्येक की ध्यानपूर्वक निगरानी की जानी चाहिए। विश्व बैंक पहले ही एक दशक के भीतर बुनियादी ढाँचा परियोजनाओं का विस्तार करके अपने ऋण को दोगुना करना चाह रहा है। इसकी नई वैश्विक बुनियादी ढाँचा सुविधा (GIF) विशिष्ट परिसंपत्ति वर्ग के रूप में बुनियादी ढाँचे में निवेश करने के लिए वैश्विक पेंशन और श्रेष्ठ संपदा निधियों को जुटाएगा। उभरती दुनिया भी सक्रिय रही है। BRICS ने हाल ही में बुनियादी ढाँचे और सतत विकास के लिए नए विकास बैंक (NDB) की योजनाओं की घोषणा की है। अफ़्रीका के लिए इसका पहला क्षेत्रीय केंद्र दक्षिण अफ़्रीका में स्थित होगा। चीन नया एशियाई बुनियादी ढाँचा निवेश बैंक आरंभ करेगा। इन दोनों बैंकों का लक्ष्य क्रमशः, अमेरिका के नेतृत्व वाले विश्व बैंक और जापान के नेतृत्व वाले एशियाई विकास बैंक के लिए विकल्पों की पेशकश करना है। निश्चित रूप से, इन नई विकास-वित्त संस्थाओं को ब्रेटन वुड्स संस्थाओं के ख़िलाफ़ प्रतिक्रिया के रूप में देखा जा रहा है, जिनकी नव-उदार मितव्ययिता नीतियों और उभरती अर्थव्यवस्थाओं के साथ सत्ता साझा करने के लिए उनकी अभिशासन संरचनाओं में सुधार की विफलता को सार्वजनिक ख़र्च के निरोध, अन-औद्योगीकरण, और राष्ट्रीय विकास बैंकों की समाप्ति का दोषी ठहराया गया है। अनेक उभरते देश विश्व बैंक के पर्यावरण और सामाजिक सुरक्षा उपायों से भी नाखुश दिखाई देते हैं, जिन्हें वे अपनी राष्ट्रीय संप्रभुता से समझौते के रूप में देखते हैं। इस आलोचना की प्रतिक्रिया में, बैंक अपने सुरक्षा उपायों और प्रवर्तन तंत्रों में संशोधन कर रहा है। लेकिन विश्व बैंक द्वारा कमज़ोर निरीक्षण के परिणामस्वरूप पर्यावरण और सामाजिक मानकों की निगरानी का काम खुद ऋण प्राप्तकर्ता पर आ जाएगा - भले ही उनके संसाधन या उनकी इसे करने की राजनीतिक इच्छाशक्ति कुछ भी हो - और इससे स्वदेशी लोगों के अधिकारों की रक्षा करने के प्रयास, विस्थापित लोगों को फिर से बसाने के काम, पर्यावरणीय क्षति को कम करने, या जंगलों और जैव-विविधता की रक्षा करने का काम ख़तरे में पड़ जाएगा। विश्व बैंक के सुरक्षा उपाय कमजोर होने से "अधिकाधिक शोषण" की स्थिति प्रारंभ हो सकती है, जिसमें निजी या राज्य निवेशक, नई वित्तीय संस्थाएँ, और अविनियमित विश्व बैंक लोकप्रिय प्रतिक्रिया को उकसाते हुए एक दूसरे के ख़िलाफ़ खड़े हो सकते हैं। यही कारण है कि नागरिकों के समूहों का होना महत्वपूर्ण है जो यह सुनिश्चित करने के लिए इसमें शामिल हो सकते हैं कि निवेश निष्पक्ष रूप से संचालित किए जाते हैं। हालाँकि नागरिक-समाज के समूह लंबे समय से "आपूर्ति पक्ष" - परियोजना वित्त-पोषण - पर नज़र रखते आ रहे हैं लेकिन वे अकसर "माँग पक्ष" अर्थात, कार्यान्वित की जा रही परियोजनाओं के मूल्य और प्रभावों की उपेक्षा कर देते हैं। यह ख़ास तौर से ऊर्जा, जल, परिवहन, और सूचना और संचार प्रौद्योगिकी (ICT) में बुनियादी ढाँचे में निवेश के मामले में होता है। उदाहरण के लिए, अफ़्रीका में बुनियादी ढाँचा विकास के लिए कार्यक्रम में 2040 तक इन क्षेत्रों में $360 बिलियन मूल्य की "विश्वसनीय विशाल-परियोजनाओं" की योजना बनाई गई है। खनन कार्य और तेल और गैस पाइपलाइनों के समर्थन के लिए PIDA सौर, पवन, और भूतापीय जैसी अक्षय ऊर्जा प्रौद्योगिकियों को दरकिनार करते हुए, ऊर्जा (ख़ास तौर से जल-विद्युत) परियोजनाओं को प्राथमिकता देता है। इसी तरह की चिंताएँ एशिया में दक्षिण अमेरिका में क्षेत्रीय बुनियादी ढाँचे के एकीकरण की पहल और आसियान बुनियादी ढाँचा निधि की परियोजना "पाइपलाइन" के मामले में भी हैं। हालाँकि कुछ PPP परियोजनाएँ उच्च प्रतिलाभ देनेवाली होती हैं, लेकिन वे मेज़बान सरकार से अतिरिक्त भारी गारंटियों की भी माँग करती हैं ताकि निजी क्षेत्र के जोखिम की भरपाई हो सके। इस तरह, जिस तरीके से ये सौदे किए जाते हैं और उत्तर-दक्षिण और दक्षिण-दक्षिण एकीकरण के समग्र व्यवहार दोनों में मौलिक तनाव पैदा होते हैं। उदाहरण के लिए, जी-20, जी-7 और BRICS के भीतर शक्तिशाली समूह और बहुराष्ट्रीय कॉर्पोरेशनों (जैसे विश्व आर्थिक मंच, जनरल इलेक्ट्रिक, और रियो टिंटो) प्रभावी होते जा रहे हैं, जिनके सदस्य संसाधनों और बाज़ारों तक पहुँच के लिए आपस में प्रतिस्पर्धा करते हैं। इस प्रतिस्पर्धा में अब बड़े बाँधों और जीवाश्म ईंधन के बुनियादी ढाँचे पर चिंताजनक भरोसे के साथ PPP को गति देने और दोहराने के लिए नया बुनियादी ढाँचा परियोजना निर्माण की सुविधाएँ (IPPFs) हैं, जैसे यूरोपीय संघ के लिए नाइजीरिया की गैस-आपूर्ति पाइपलाइन - जो PIDA की शीर्ष प्राथमिकता है जिसका तात्पर्य है न्यून-कार्बन भविष्य की दिशा में प्रगति का धीमा होना । दरअसल, स्थिरता के लिए संघर्ष नया युद्ध-क्षेत्र बन रहा है, ख़ास तौर से अफ़्रीका में, जिसमें BRICS, जी-20, एशिया प्रशांत आर्थिक सहयोग (APEC), मर्कोसुर, और अन्य अंतर्राष्ट्रीय समूहों और स्थानीय निहित स्वार्थों द्वारा नियोजन किए जा रहे हैं। इस खेल को समझने के लिए नए कठोर विकास प्रतिमान की ज़रूर��� है। यह कठिन चुनौती है, क्योंकि नए दबावों को झेलने के तरीके सीखने में सबसे अधिक रुचि रखनेवाले नागरिक समाज संगठनों में, इसकी व्यापक दृष्टि होने के बजाय कि विकास वित्त संस्थाएँ और उनके बड़े शेयरधारक कैसे काम करते हैं, विशिष्ट विकास क्षेत्रों में विशेषज्ञता की प्रवृत्ति होती है, जैसे सहस्राब्दि विकास लक्ष्य, या क्षेत्रीय मुद्दे। WEF का संतुलनकारी होने के अपने मूल अभिप्रेत पर लौटकर, पुनर्जीवित विश्व सामाजिक मंच इस काम में लग सकता है। अफ़्रीका में, जिन अखिल-अफ़्रीकी निकायों को समन्वित निरीक्षण और कार्यसूची-निर्धारण के अधिकार दिए गए हैं उनका मूल्यांकन इस आधार पर होना चाहिए कि क्या बुनियादी ढाँचे में विशाल-PPP औपनिवेशिक-शैली के दोहन और उपभोग अर्थव्यवस्था का समर्थन करते हैं, या आने वाली पीढ़ियों के लिए स्वस्थ और सतत अर्थव्यवस्था का निर्माण करते हैं। पश्चिम-विरोधी आतंक की पश्चिमी जड़ें बर्लिन – पेरिस में इस्लामी राज्य के भीषण हमले इस बात की बखूबी याद दिलाते हैं कि पश्चिमी शक्तियाँ मध्य पूर्व में अपने हस्तक्षेप के अनचाहे परिणामों को रोक नहीं सकती हैं - उनसे स्वयं को सुरक्षित तो बिल्कुल नहीं रख सकती हैं। सीरिया, इराक और लीबिया की स्थिति को सुलझाने, और साथ ही गृह युद्ध के कारण यमन की दोफाड़ स्थिति के फलस्वरूप जो हत्या के बड़े क्षेत्र तैयार हो गए हैं, शरणार्थियों की भारी फ़ौज तैयार हो गई है, और इस्लामी उग्रवादी पैदा हो गए हैं, वे आने वाले वर्षों में अंतर्राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा बने रहेंगे। और पश्चिम का इससे कोई खास लेना-देना नहीं है। जाहिर तौर पर, मध्य पूर्व में पश्चिमी हस्तक्षेप कोई नई घटना नहीं है। ईरान, मिस्र और तुर्की के अपवादों को छोड़कर, मध्य पूर्व में हर प्रमुख शक्ति मुख्य रूप से ब्रिटिश और फ्रेंच द्वारा बनाया गया एक आधुनिक निर्माण है। 2001 के बाद से अफगानिस्तान और इराक में संयुक्त राज्य अमेरिका के नेतृत्व वाले हस्तक्षेप पश्चिमी शक्तियों द्वारा क्षेत्र की भू-राजनीति को ठीक करने के लिए किए गए अभी हाल के प्रयास को दर्शाते हैं। लेकिन इन शक्तियों ने हमेशा परोक्ष रूप से हस्तक्षेप करने को प्राथमिकता दी है, और यही रणनीति - उन जिहादियों को प्रशिक्षण, निधियाँ और शस्त्र देना जिन्हें "उग्रवादियों" के खिलाफ लड़ने के लिए "नरमपंथी" समझा जाता है - आज पलटवार कर रही है। बार-बार इसके विपरीत सबूत मिलने के बावजूद, पश्चिमी शक्तियाँ एक ऐसे दृष्टिकोण के प्रति पूरी तरह से समर्पित हैं जिससे उनकी स्वयं की आंतरिक सुरक्षा को खतरा है। यह तो स्पष्ट रूप से पता होना चाहिए कि हिंसक जिहाद को छेड़नेवाले कभी भी नरमपंथी नहीं हो सकते हैं। फिर भी, यह स्वीकार कर लेने के बाद भी कि अधिकतर फ्री सीरियन आर्मी के सीआईए-प्रशिक्षित सदस्य भाग कर इस्लामी राज्य में चले गए हैं, अमेरिका ने हाल ही में सीरिया के विद्रोहियों के लिए नई सहायता के रूप में लगभग $100 मिलियन देने का वचन दिया है। फ्रांस ने भी सीरिया के विद्रोहियों को सहायता दी है, और इसने हाल ही में इस्लामी राज्य के खिलाफ हवाई हमले करना शुरू कर दिया है। और वास्तव में फ्रांस को निशाना बनाए जाने का यही कारण है। प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार, पेरिस के बाटाक्लान कॉन्सर्ट हॉल - जहां रात को शिकार बनाए गए बहुत से लोगों की हत्या की गई थी - में हमलावरों ने यह घोषणा की थी कि उनकी ये कार्रवाइयाँ राष्ट्रपति फ्रेंकोइस होलांदे के दोष के कारण हैं। उन्होंने चिल्ला कर कहा था कि "उनका सीरिया में हस्तक्षेप करने का कोई मतलब नहीं था।" इसमें कोई संदेह नहीं है कि फ्रांस में स्वतंत्र विचारों वाली और व्यावहारिक विदेश नीति की परंपरा रही है, जो 2003 में अमेरिका के नेतृत्व में किए गए इराक पर आक्रमण और कब्जे के इसके विरोध में परिलक्षित होती है। लेकिन निकोलस सरकोजी के 2007 में राष्ट्रपति बनने के बाद, फ्रांस ने अपनी नीतियों को पूरी तरह से अमेरिका और नाटो के अनुरूप ढाल लिया, और 2011 में लीबिया के नेता मुअम्मर अल-गद्दाफी को पदच्युत करने में सक्रिय रूप से भाग लिया। और 2012 में ओलांद के सरकोजी का उत्तराधिकारी बनने के बाद, फ्रांस दुनिया का सबसे अधिक हस्तक्षेप करनेवाला देश बनकर उभरा, उसने सीरिया में अपने हवाई हमले शुरू करने से पहले मध्य अफ्रीकी गणराज्य, आइवरी कोस्ट, माली, साहेल, और सोमालिया में सैन्य अभियान चलाए। इस तरह के हस्तक्षेपों में इतिहास के सबकों की उपेक्षा की जाती है। सीधे रूप में कहा जाए तो इस सदी में पश्चिमी हस्तक्षेप के अप्रत्याशित परिणाम रहे हैं, जिनका प्रभाव सीमाओं तक पड़ा है और अंतत: उसके कारण एक और हस्तक्षेप करना पड़ गया। यह बीसवीं सदी के अंतिम चरण से कुछ अलग नहीं था। 1980 के दशक में राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन के समय में, अमेरिका ने (सऊदी अरब से प्राप्त धन के साथ) अफगानिस्तान में सोवियत संघ के खिलाफ लड़ने के लिए हजारों इस्लामी चरमपंथियों को प्रशिक्षित किया। इसकी परिणति अल कायदा के रूप में हुई जिसके कार्यों के फलस्वरूप अंततः राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश को अफगानिस्तान पर आक्रमण करना पड़ा और इससे उसे इराक पर हमला करने का बहाना मिल गया। जैसा कि तत्कालीन विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन ने 2010 में स्वीकार किया था, "हमने उन्हें प्रशिक्षित किया, हमने उन्हें हथियारों से लैस किया, हमने उन्हें वित्तपोषित किया, उस व्यक्ति सहित जिसका नाम ओसामा बिन लादेन था....और यह हमारे लिए कुछ ठीक नहीं रहा।" और फिर भी, इस सबक की अनदेखी करते हुए, पश्चिमी शक्तियों ने गद्दाफी का तख्ता पलट करने के लिए लीबिया में हस्तक्षेप किया जिससे यूरोप की दक्षिणी दहलीज प्रभावी रूप से जिहादियों का गढ़ बन गई, और इससे दूसरे देशों में हथियारों और आतंकवादियों के जाने का रास्ता खुल गया। इसका नतीजा यह हुआ कि माली और साहेल में फ्रेंच आतंकवादी-विरोधी हस्तक्षेपों का सिलसिला शुरू हो गया। अभी वे पूरी तरह से साँस ले भी नहीं पाए थे कि अमेरिका, फ्रांस, और ब्रिटेन ने सऊदी अरब और कतर जैसे वहाबी राज्यों के समर्थन से सीरिया के राष्ट्रपति बशर अल-असद को गिराने के लिए कार्रवाई शुरू कर दी जिससे गृह युद्ध जैसी स्थिति बन गई जिससे इस्लामी राज्य को क्षेत्र पर कब्ज़ा करने और पनपने का अवसर मिल गया। इस समूह द्वारा तेजी से इराक में विशाल क्षेत्रों पर नियंत्रण कर लेने के फलस्वरूप, अमेरिका ने बहरीन, जॉर्डन, कतर, सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात के साथ मिलकर पिछले वर्ष सीरिया के अंदर हवाई हमले करने शुरू कर दिए। रूस की तरह फ्रांस भी अभी हाल ही में इस प्रयास में शामिल हो गया है। हालाँकि रूस अपने सैन्य अभियान को पश्चिमी शक्तियों से अलग रूप से चला रहा है (जिससे असद के लिए उसके समर्थन का पता चलता है), प्रत्यक्ष रूप से यह भी निशाने पर आ गया है, क्योंकि अमेरिकी और यूरोपीय अधिकारियों को इस बात पूरा विश्वास है कि सिनाई प्रायद्वीप में अक्तूबर में हुई रूसी विमान दुर्घटना के पीछे इस्लामी राज्य का हाथ था। इस घटना और पेरिस के हमलों के फलस्वरूप, सीरिया और इराक में बाह्य सैन्य कार्रवाई में इजाफा हो सकता है जिससे हस्तक्षेपों का विनाशकारी चक्र और भी अधिक तेज़ हो सकता है। पहले से ही, इस बात का खतरा साफ दिखाई दे रहा है कि फ्रांस, अमेरिका, और अन्य देशों में नीति तर्क के बजाय भावना द्वारा निर्देशित होगी। यह बहुत ज्यादा जरूरी है कि एक ऐसा संतुलित दृष्टिकोण अपनाया जाए जिसमें यह दिखाई दे कि हाल ही में की गई गलतियों से सबक सीखा गया है। आरंभ करनेवालों के लिए, पश्चिमी नेताओं को आतंकवादियों के हाथों में कठपुतलियाँ बनने से बचना चाहिए, जैसा कि होलांदे पेरिस के हमलों को "युद्ध की कार्रवाई" बताकर और देश के अंदर अभूतपूर्व उपायों को लागू करके कर रहे हैं। इसके बजाय, उन्हें मार्गरेट थैचर की सलाह पर ध्यान देना चाहिए और आतंकवादी "प्रचार की जिस ऑक्सीजन पर निर्भर रहते हैं" उन्हें उससे वंचित रखना चाहिए। इससे भी अधिक महत्वपूर्ण है कि उन्हें यह समझ लेना चाहिए कि आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई को इस्लामवादी लड़ाकुओं या कट्टरपंथियों का वित्तपोषण करनेवाले शेखों के राज्यों जैसे अविश्वसनीय सहयोगियों के साथ नहीं लड़ा जा सकता है। अनपेक्षित प्रतिकूल परिणामों का खतरा अनावश्यक रूप से बहुत अधिक होता है - चाहे वह आतंकवादियों की बदले की कार्रवाई के रूप में हो, जैसा कि पेरिस में हुआ है, या सैन्य पलटवार के रूप में हो, जैसा कि सीरिया में हुआ है। अभी भी बहुत देर नहीं हुई है कि पश्चिमी शक्तियाँ पिछली गलतियों से मिले सबक पर विचार करें और आतंकवाद का मुकाबला करने की अपनी नीतियों को उसके अनुसार फिर से दुरुस्त करें। दुर्भाग्यवश, इस्लामी राज्य के हाल के हमलों के प्रति यह सबसे कम संभावित प्रतिक्रिया प्रतीत होती है। उग्रवादी इस्लामवाद और टीकाकरण संशयवाद लंदन - हम जानते हैं कि पोलियो का उन्मूलन कैसे किया जा सकता है। 1980 के बाद से विश्व स्वास्थ्य संगठन के नेतृत्व में जो अंतर्राष्ट्रीय टीकाकरण प्रयास किया गया उसके फलस्वरूप यह वायरस समाप्ति के कगार पर पहुँच गया है। जिस रोग से हर वर्ष आधे मिलियन लोगों की मृत्यु हो जाती थी या वे अपंग हो जाते थे ��ब वह केवल कुछ सौ लोगों को संक्रमित करता है। इस वायरस के उन्मूलन के रास्ते में जो रुकावटें आ रही हैं व चिकित्सीय या तकनीकी मजबूरियाँ नहीं हैं, बल्कि टीकाकरण के प्रयास में राजनीतिक प्रतिरोध है। वास्तव में, जिन थोड़े से क्षेत्रों में यह वायरस अभी तक बना हुआ है उनमें चिंताजनक समानताएँ पाई जाती हैं। 2012 के बाद से, पोलियो के 95% मामले पाँच देशों में हुए हैं - अफगानिस्तान, पाकिस्तान, नाइजीरिया, सोमालिया, और सीरिया - जो सभी इस्लामवादी विद्रोहों से प्रभावित हैं। पोलियो का उन्मूलन करने के लिए, हमें इस संबद्धता को समझना चाहिए। टीकाकरण कार्यक्रमों के बारे में इस्लामवादी विरोध का कारण अक्सर यह विश्वास बताया जाता है कि टीके मुसलमानों को नुकसान पहुँचाने के लिए पश्चिमी देशों की साजिश है, और यह कि टीकों से बच्चे बाँझ हो जाते हैं, वे एचआईवी से संक्रमित हो जाते हैं, या टीकों में सूअर का माँस होता है। लेकिन यह जान लेना महत्वपूर्ण है कि सीरिया और अफगानिस्तान में जिहादी पोलियो टीकाकरण अभियान का काफी हद तक समर्थन करते आ रहे हैं। यदि इस वायरस को हराना है, तो हमें इस्लामवादियों की छवि को पश्चिमी विज्ञान का विरोध करनेवाले हिंसक कट्टरपंथियों से अलग करना होगा और उन विशिष्ट राजनीतिक संदर्भों पर गंभीरता से विचार करना होगा जिनमें उन्मूलन का प्रयास अब तक असफल रहा है। उदाहरण के लिए, नाइजीरिया में टीकाकरण अभियानों के प्रति उग्रवादी समूह बोको हराम की शत्रुता औपनिवेशिक युग में में बोए गए अंतर-मुस्लिम संघर्ष से उपजी है जब यूनाइटेड किंगडम ब्रिटिश समर्थक स्वदेशी अभिजात वर्ग के ज़रिये उत्तरी नाइजीरिया पर परोक्ष रूप से शासन करता था। औपनिवेशिक अभिजात वर्ग के वंशज इस क्षेत्र की राज्य सरकारों पर अभी तक हावी बने हुए हैं, जो टीकाकरण कार्यक्रमों को लागू करने के लिए जिम्मेदार हैं। इस प्रयास के प्रति बोको हराम का विरोध इसकी उस वर्ग के प्रति व्यापक घृणा को दर्शाता है जिसे यह एक भ्रष्ट और पाश्चात्यीकृत राजनीतिक वर्ग के रूप में मानता है। इसी तरह, दक्षिणी सोमालिया में बाहरी लोगों द्वारा एक स्थिर केंद्रीकृत सरकार थोपने के प्रयासों ने पोलियो टीकाकरण कार्यक्रमों के प्रति असंतोष उत्पन्न किया है। 1990 के दशक के आरंभ से, सोमालिया में संयुक्त राष्ट्र और अफ्रीकी संघ द्वारा किए गए हस्तक्षेपों के फलस्वरूप संयुक्त राज्य अमेरिका और इस देश के मुख्य रूप से ईसाई पड़ोसियों, केन्या और इथियोपिया से सैनिकों को शामिल किया गया है। इसके फलस्वरूप व्यापक असंतोष फैला है और इस्लामी उग्रवादियों के लिए समर्थन बढ़ गया है, जिन्हें बहुत से सोमाली विदेशी हस्तक्षेप के विरुद्ध मुख्य सुरक्षा कवच के रूप में देखते हैं। हाल के वर्षों में, अल-शबाब उग्रवादियों ने एड्स कार्यकर्ताओं पर हमले किए हैं, जिससे उपद्रव नियंत्रित क्षेत्रों में सार्वजनिक स्वास्थ्य के कार्यक्रम चलाना बहुत मुश्किल हो गया है। उदाहरण के लिए, मेडिसिन्स सैन्स फ्रंटियर्स को 2013 में अपने सोमाली कार्यक्रमों को बंद करना पड़ गया था। पाकिस्तान में टीकाकरण के प्रयास के विरोध का मूल कारण पश्तून समुदायों द्वारा राष्ट्रीय सरकार का प्रतिरोध करना है। मोटे तौर पर, पाकिस्तानी तालिबान एक पश्तून आंदोलन है जो देश के उत्तर-पश्चिम में अर्द्ध-स्वायत्त संघीय रूप से प्रशासित जनजातीय क्षेत्रों में केंद्रित है। यह पहाड़ी क्षेत्र कभी भी अंग्रेजों द्वारा सीधे रूप से शासित नहीं था, और पश्तूनों ने राज्य द्वारा अपनी शक्ति का विस्तार करने के लिए पाकिस्तानी सरकार के प्रयासों का जमकर विरोध किया है। इस प्रकार, टीकाकरण कार्यक्रम जैसे बाहरी हस्तक्षेप को पश्तूनी इलाकों में सरकार द्वारा भारी अतिक्रमण करने के एक छलावे के रूप में देखा जाता है। देश में अमेरिकी हस्तक्षेप के कारण पाकिस्तानी तालिबान की दुश्मनी में और अधिक कट्टरता आई है, जिसमें ओसामा बिन लादेन की हत्या करने से पहले उसके रिश्तेदारों से डीएनए इकट्ठा करने के लिए एक नकली हेपेटाइटिस टीकाकरण अभियान का उपयोग करना भी शामिल है। इस्लामी उग्रवादियों की दृष्टि से, इससे यह सिद्ध हो गया कि पोलियो प्रतिरक्षण प्रयासों के बहाने ड्रोन हमलों के लिए लक्ष्यों की पहचान करने के लिए खुफिया जानकारी जुटाई जाती है। स्थानीय राजनीति - न कि धार्मिक विचारधारा - के महत्व को डूरंड रेखा के दूसरी ओर पोलियो टीकाकरण कार्यक्रमों की प्रतिक्रिया में देखा जा सकता है। अफगानिस्तान में तालिबान मुख्य रूप से पश्तून आंदोलन भी है, लेकिन पोलियो उन्मूलन के प्रयास के प्रति इसका रवैया ज्यादा अलग नहीं हो सकता है। तालिबान ने जब 1996 से 2001 तक अफगानिस्तान पर शासन किया था, तो इसने टीकाकरण प्रयास का समर्थन किया था, और वास्तव में यह अभी भी ऐसा कर रहा है; हाल ही में तालिबान द्वारा एक वक्तव्य में अपने मुजाहिदीन से पोलियो कार्यकर्ताओं को "सभी आवश्यक समर्थन" प्रदान करने के लिए आग्रह किया गया है। यह अंतर दोनों देशों में पश्तूनों की राजनीतिक स्थिति को दर्शाता है। अफगानिस्तान में पश्तूनों का बहुमत है; और परिणामस्वरूप, राष्ट्रीय राजनीति में पाकिस्तान में अपने समकक्षों की तुलना में उनका बहुत अधिक प्रभाव है - और इसलिए वे इस देश को कम संदेह की नजर से देखते हैं। सीरिया में टीकाकरण के प्रयास में सबसे बड़ी बाधा केंद्र सरकार रही है। राष्ट्रपति बशर अल-असद के शासन द्वारा विश्व स्वास्थ्य संगठन को विद्रोहियों द्वारा नियंत्रित क्षेत्रों में टीकाकरण कार्यक्रमों को चलाने से मना करने का सीधा प्रभाव यह हुआ कि 2013 में पोलियो का प्रकोप हो गया। मुक्त सीरियाई सेना जैसे उदारवादी विपक्षी समूहों ने तुर्की के प्राधिकारियों और स्थानीय गैर-सरकारी संगठनों की मदद से सीरियाई सरकार के नियंत्रण के बाहर के क्षेत्रों में अपने स्वयं के टीकाकरण कार्यक्रम का आयोजन किया है। इस्लामी राज्य और अल-नुसरा फ्रंट सहित, इस्लामी उग्रवादियों ने अपने नियंत्रण के अधीन क्षेत्रों में भी इन टीकाकरण कार्यक्रमों को चलाने की अनुमति दी है क्योंकि वे असद शासन से संबंधित नहीं हैं। इस्लामवादी विद्रोही पोलियो टीकाकरण के अभियानों के प्रति जो रुख अपनाते हैं उसका संबंध उस संघर्ष की विशिष्ट तीव्रता से अधिक होता है जिसमें वे शामिल होते हैं, पश्चिम-विरोधी कट्टरता से उसका संबंध अपेक्षाकृत कम होता है। सार्वजनिक स्वास्थ्य नीति के लिए इसके महत्वपूर्ण निहितार्थ हैं। पोलियो का उन्मूलन करने के लिए प्रतिबद्ध लोग जब यह समझ लेंगे कि टीकाकरण कार्यक्रम किस राजनीतिक संदर्भ में चलते हैं तभी वे सफल होंगे। जलवायु परिवर्तन का समाधान उआगादूगु - बुर्किना फासो सहेल के केंद्र में स्थित है, जिसका मतलब है कि जलवायु परिवर्तन की दृष्टि से यह दुनिया के सबसे कमजोर देशों में से एक है। इसके किसान शायद ग्लोबल वार्मिंग के भौतिक कारणों के बारे में बहुत कम जानते हैं, लेकिन उन्हें इसके प्रभावों के बारे में पता है - कम-से-कम बारिश के पैटर्न में भारी परिवर्तनशीलता, सूखा पड़ने से लेकर बाढ़ आने तक की स्थिति जिसके फलस्वरूप फसलें नष्ट हो जाती हैं, चराई के मैदानों का भूक्षरण, और खाद्यान्न संकट के बारे में पता है। परिणामस्वरूप, अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर और बुर्किना फासो में, धारणीय कृषि की अवधारणा कई वर्षों से मज़बूत होती जा रही है। इस शब्द का राजनीतिक भाषणों में उल्लेख होता है और यह वैश्विक कृषि विकास के लिए एक महत्वपूर्ण दृष्टिकोण बन गया है। वास्तव में, धारणीयता अब कृषि में एक प्रेरक बल है - और यह उतना ही महत्वपूर्ण है जितना कि पिछले दशकों में उत्पादकता थी। धारणीय कृषि की अवधारणा अभिन्न रूप से धारणीय विकास से जुड़ी हुई है, 1987 में पहली बार इसकी परिभाषा आर्थिक विकास के उस मॉडल के रूप में की गई थी “जो भावी पीढ़ियों की अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने की योग्यता से समझौता किए बिना वर्तमान की आवश्यकताओं को पूरा करता है।” धारणीय कृषि की परिभाषा उस प्रकार की खेती के रूप में की गई है जिसमें यह सुनिश्चित होता है कि आंतरिक और बाह्य संसाधनों का इस्तेमाल और उनका संरक्षण यथासंभव अधिक से अधिक कुशलता से किया जाता है; यह पारिस्थितिकी रूप से सुदृढ़ हो (यह प्राकृतिक वातावरण को बेहतर बनाता हो, न कि उसे नुकसान पहुँचाता हो); और आर्थिक रूप से व्यवहार्य हो, और कृषि निवेशों पर उचित प्रतिलाभ देनेवाला हो। इन दोनों परिभाषाओं की बारीकी से जाँच करने पर हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि धारणीय कृषि के बिना धारणीय विकास नहीं हो सकता। दरअसल, बुर्किना फासो में धारणीय कृषि का देश की विकास नीतियों और रणनीतियों में प्रमुख स्थान है - और यह होना भी चाहिए। 2012 में, बुर्किना फासो ने धारणीय विकास की राष्ट्रीय नीति को अपनाया जो त्वरित विकास और धारणीय विकास की रणनीति में निर्धारित कल्पना को साकार करने का मुख्य साधन बन गई है। इस कल्पना में उस "उत्पादक अर्थव्यवस्था का वर्णन किया गया है, जो विवेकपूर्ण और कुशल प्रशासन के ज़रिए विकास को तीव्र करती है, जीवन स्तरों को बढ़ाती है, जीवन के वातावरण और जीवन की स्थितियों को बेहतर बनाती है और बरकरार रखती है।" बुर्किना फासो में खेती के सभी हितधारक मोटे तौर पर धारणीय कृषि के प्रति प्रतिबद्धता को साझा करते हैं। नवंबर 2011 में आयोजित कृषि और खाद्य सुरक्षा के लिए महासभा के राष्ट्रीय सम्मेलन में निम्नलिखित उद्देश्य को सम्मिलित किया गया: "2025 तक, बुर्किना फासो में खेती आधुनिक, प्रतिस्पर्धात्मक, टिकाऊ, और विकासपरक होगी। यह परिवार के स्वामित्व वाले खेतों और कुशल कृषि व्यवसायों पर आधारित होगी, और इसमें इस बात की गारंटी होगी कि सभी नागरिकों की पहुँच उस भोजन तक होगी जिसकी उन्हें स्वस्थ, सक्रिय जीवन व्यतीत करने के लिए जरूरत है।" इसी तरह बुर्किना फासो के ग्रामीण क्षेत्रों के लिए राष्ट्रीय कार्यक्रम का उद्देश्य "खाद्य और पोषण सुरक्षा, मजबूत आर्थिक विकास, और गरीबी कम करने के लिए धारणीय रूप से योगदान करना है।" बुर्किना फासो में कृषि संबंधी एक और परीक्षित और स्वीकृत प्रथा उत्पादन का एकीकृत प्रबंधन करना है। इसका लक्ष्य छोटे भूधारकों की उत्पादकता को धारणीय रूप से बेहतर बनाना है, उन्हें उस ज्ञान और समझबूझ से लैस करना है जिसकी मानव स्वास्थ्य और पर्यावरण का सम्मान करते हुए कुशलतापूर्वक संचालित करने के लिए जरूरत होती है। इस नीति ने प्राकृतिक संसाधनों के प्रबंधन और कीटनाशकों जैसी कृषि निविष्टियों के उपयोग के संबंध में व्यावहारिक बदलावों के लिए प्रेरित किया है। धारणीय कृषि ने बुर्किना फासो में खेती में बेहतरी के लिए बदलाव किया है। यहाँ और अन्यत्र भी, यह हमारी उस योग्यता का मूलमंत्र है जिससे हम जलवायु परिवर्तन का सामना कर सकते हैं और खाद्य और पोषण संबंधी असुरक्षा के प्रति प्रतिरोधन क्षमता तैयार कर सकते हैं क्योंकि यह भूमि का सम्मान करती है और यह औद्योगिक खेती की तुलना में कहीं अधिक प्रभावशाली है। इसके अलावा, धारणीय प्रथाएँ उन छोटी, परिवार संचालित भूधारिताओं के महत्व को सिद्ध करती हैं जिनसे बुर्किना फासो जैसे देशों में, लगभग पूरी घरेलू खाद्य आपूर्ति का उत्पादन होता है। लेकिन बुर्किना फासो जैसे देश अकेले ही जलवायु परिवर्तन का समाधान नहीं कर सकते। उन्हें करना भी नहीं चाहिए: यहाँ और अन्य स्थानों पर सूखे और बाढ़ की स्थिति अधिकतर ग्रीन हाउस गैसें उत्पन्न करनेवाले औद्योगिक कार्यकलापों के कारण होनेवाले जलवायु असंतुलनों के कारण होती है। हम मुख्य रूप से विकसित देशों द्वारा उत्पन्न की गई स्थिति के शिकार हैं - यह वह स्थिति है जो हमारे स्वयं के विकास में रुकावट पैदा कर रही है। यदि हम धारणीय विकास की परिभाषा को गंभीरता से लेते हैं, तो इस परिणाम के लिए उन लोगों को भी मदद करनी होगी जो इसके लिए जिम्मेदार हैं, विशेष रूप से उन अनुकूलन लागतों के लिए योगदान करके जिसका सामना अब बुर्किना फासो जैसे देशों को करना पड़ रहा है। पूर्वी एशिया में सांत्वना व संकल्प वाशिंगटन, डीसी - आज जहां पूर्वी व दक्षिणी चीन सागर में चीन और इसके अनेक पड़ोसी देशों के बीच वर्चस्व को लेकर तनातनी चल रही है, वहीं संयुक्त राज्य अमेरिका को एक अधिक स्पष्ट क्षेत्रीय रणनीति की आवश्यकता है. साथ ही अमेरिका को अपने हितों तथा सहयोगियों से की गई प्रतिबद्धताओं की रक्षा भी करनी होगी ताकि अनावश्यक विवादों अथवा टकराव से भी बचा जा सके. ऐसा करना अत्यंत कठिन होगा, खासकर इसलिए कि यह स्पष्ट नहीं है कि इस इलाके में विवादित द्वीपों और समुद्र से उभरी पर्वतशृंखलाओं पर किसके दावों को माना जाए. और अमेरिका का कतई इरादा नहीं है कि कोई समाधान थोपने की कोशिश की जाए. साथ ही अमेरिका को अपने सशस्त्र बलों का आधुनिकीकरण भी करना चाहिए ताकि नई चुनौतियों से निबटा जा सके - खासकर चीन के अभ्युदय से. आज जहां चीन सटीक मिसाइल प्रणालियां विकसित कर रहा है जिससे उसकी दूर-दूर तक मारक क्षमता बढ़ जाएगी, अमेरिका को इस बात पर विचार करना चाहिए कि इस क्षेत्र में स्थित अपने नौसैनिक अड्डों को बढ़ते खतरों से कैसे निबटा जाए. इन चुनौतियों का कोई आसान जवाब नहीं है. जरूरत है अपने रवैये में थोड़ा बदलाव लाने की. अपनी नई पुस्तक स्ट्रैटजिक रीएश्योरेंस एंड रिजॉल्व में हमने इसी रणनीति का प्रतिपादन किया है. हमारा मानना है कि अमेरिका की लंबे समय से चली आ रही ‘इंगेज बट हेज’ (उलझाओ और किनारे करो) की रणनीति को अपनाया जाए. इसके माध्यम से अमेरिका व इसके सहयोगी देश आर्थिक, कूटनीतिक और कभी-कभार सैन्य उपकरणों के माध्यम से चीन को शांतिपूर्वक ऊपर उठने के लिए प्रोत्साहन देते रहे हैं और साथ ही ताकतवर सैन्य क्षमताएं भी बनाए रखते हैं ताकि उलझाने की नीति के विफल रहने से उत्पन्न स्थिति से निबटा जा सके. समस्या यह है कि किनारे करने की नीति को आमतौर पर अमेरिका की अपार और उत्कृष्ट सैन्य क्षमता को बनाए रखने के साधन की तरह देखा जाता है. लेकिन चीन द्वारा उन्नत हथियारों, जिनमें एंटी-शिप (जहाज ध्वस्त करने वाली) मिसाइलें भी शामिल हैं, के विकास व उन्हें हासिल करने से यह अव्यवहारिक हो जाता है कि अमेरिका इस क्षेत्र में दशकों तक अपने बलों को इनसे उत्पन्न खतरों को झेलता रहे और चीन के तटों के निकट सुरक्षित सैन्य कार्यवाई की क्षमता खो दे. अतीत में चीन स्वयं विदेशी अतिक्रमणकारियों के लिए कमजोर निशाना बना रहा है. इसके मद्देनजर अपार आक्रामक श्रेष्ठता कायम रखने के अमेरिका के एकतरफा प्रयास केवल अधिकाधिक अस्थिरताकारक हथियारों की होड़ को ही बढ़ावा देंगे. कुछ अमेरिकी रणनीतिकार इस दुविधा के लिए बड़े तकनीकी समाधान की वकालत करते हैं. उनकी सोच, ‘एयर-सी बैटल’ (हवाई-समुद्री जंग) नामक अवधारणा आक्रामकता व रक्षात्मकता के मिलेजुले प्रयासों की हिमायती है जो सटीक प्रहार करने वाले हथियारों के प्रसार से उत्पन्न नई चुनौतियों से निबटने में सक्षम है. आधिकारिक तौर पर पेंटागन किसी खास देश के खिलाफ ‘एयर-सी बैटल’ की अवधारणा का निर्देश नहीं देता है. मिसाल के तौर पर, ईरान के पास सटीक प्रहार करने वाली क्षमताएं होने और अमेरिका के साथ उसके कहीं अधिक कटु संबंध होने से अमेरिका के लिए जरूरी हो जाता है कि वह अपनी सुरक्षा को बढ़ते खतरों से निबटने के लिए जरूरी कदम उठाए. लेकिन स्पष्टतः यह चीन ही है जिसके पास विश्वसनीय पहुंच-रोधी/क्षेत्र-निषिद्ध रणनीति विकसित करने के संसाधन हैं. यही बात अमेरिकी सैन्य नियोजकों को चिंतित करती है. सी-बैटल के कुछ हिमायती मिसाइल लॉन्चरों, राडारों, कमांड केंद्रों और शायद हवाई अड्डों तथा पनडुब्बी पत्तनों पर भारी रणनीतिक आक्रमणों का सुझाव देते हैं. इसके अलावा उनका सुझाव है कि इनमें से अनेक आक्रमण अमेरिकी क्षेत्र में तैनात लंबी-दूरी के अस्त्रों द्वारा किए जाएं नाकि इसके क्षेत्रीय सहयोगियों के इलाकों या समुद्र से. इसका कारण है कि इन हथियारों को स्वयं भारी हमलों से कम खतरा होगा. दुर्भाग्यवश, एयर-सी बैटल के पीछे छिपा तर्क गलत गणना के गंभीर खतरे पेश करता है - जिनकी शुरूआत ही इसके नाम से होती है. स्पष्टतया एयर-सी बैटल युद्ध की अवधारणा है. हालांकि अमेरिका को साफतौर पर युद्ध योजनाओं की दरकार है. लेकिन उसे सावधान रहने की जरूरत भी है कि कहीं चीन व क्षेत्रीय सहयोगियों को यह संदेश ना जाए कि इसके नए विचार प्रतिरोधात्मकता को उसकी इस क्षमता पर आधारित करते हैं कि किसी लड़ाई की शुरूआत में ही विस्तृत पैमाने पर इसे फैला कर जल्दी और निर्णायक रूप से जीत लिया जाए. एयर-सी बैटल उस एयर-लैंड बैटल विचार की याद दिलाता है जिसे 1970 दशक के उत्तरार्द्ध में और 1980 दशक के आरंभ में नैटो ने यूरोप को सोवियत संघ के बढ़ते खतरे का सामना करने के लिए अपनाया था. लेकिन चीन सोवियत संघ नहीं है और अमेरिका को इसके साथ अपने संबंधों में शीतयुद्ध की अनुगूंज से बचने की जरूरत है. ज्यादा प्रभावी नीति के लिए ‘एयर-सी आपरेशन्स’ कहीं अधिक उचित नाम होगा. ऐसे किसी सिद्धांत में वर्गीकृत युद्ध योजनाएं शामिल हो सकती हैं; लेकिन इसे इक्कीसवीं सदी की व्यापक पैमाने वाली नौवहन गतिविधियों के गिर्द केंद्रित होना चाहिए जिनमें से कुछ चीन को भी लक्षित कर सकती हैं (यथा अदन की खाड़ी में समुद्री डाकुओं के खिलाफ चल रही गश्त तथा प्रशांत महासागर में कुछ सैन्य अभ्यास). इसके अलावा, युद्ध योजनाओं को शुरूआत में ही विस्फोटक प्रसार पर निर्भर होने से बचना चाहिए, खास कर चीन की मुख्य भूमि पर और अन्य कहीं स्थित सैन्य साजोसामान के खिलाफ. अगर किसी विवादित द्वीप पर या जलमार्ग पर लड़ाई फूट भी पड़ती है तो अमेरिका के पास ऐसी रणनीति होनी चाहिए जिससे बिना लड़ाई के सभी पक्षों को मान्य अनुकूल समाधान निकल सके. सचमुच, चीन-अमेरिकी रिश्तों के व्यापक संदर्भ में ऐसी किसी भी मुठभेड़ में ‘जीत’ भी काफी महंगी पड़ेगी क्योंकि इससे चीनी सामरिक जमावड़े की शुरूआत हो सकती है जो इस तरह डिजाइन होगा कि भविष्य में किसी झड़प में एकदम अलग नतीजे निकाले जा सकें. इसकी बजाए अमेरिका और उसके सहयोगियों को व्यापक परिसर वाली जवाबी नीति चाहिए जो उन्हें ऐसे उपाय अपनाने में समर्थ बना सके जो सामरिक हितों के अनुरूप हों. ऐसे उपाय जो ऐसी इच्छाशक्ति दर्शाते हों कि आत्मघाती प्रसार के बगैर सार्थक आर्थिक दंड थोपे जाएंगे. इसी तरह अमेरिकी सेना के आधुनिकीकरण के एजेंडा में संतुलन की जरूरत है. चीन द्वारा अत्याधुनिक हथियारों के जखीरे जमा करने से अमेरिकी हितों को उत्पन्न खतरे का जवाब अमेरिका के लंबी दूरी तक मार करने वाले प्लैटफार्मों के विस्तार में नहीं है. दरअसल, ऐसा करने से अमेरिका के युद्ध नियोजकों को अपनी आपातकालीन योजनाओं में पहले वार करने के विकल्पों को शामिल करने का मौका मिलेगा और चीन के निकट अग्रिम मोर्चों पर अमेरिकी सेनाओं की दैनिक उपस्थिति पर जोर कम रहेगा जहां वे न्यूनतम प्रतिरोध बनाए रखने में अह��� योगदान देते हैं. और फिर इससे चीन को भी बहाना मिल जाएगा कि वे अपनी पहुंच-रोधी/क्षेत्र-निषिद्ध क्षमताओं का और विकास करें. इस क्षेत्र में अमेरिका की निरंतर उपस्थिति को शीत युद्ध के अनुभवों से सबक सीखने की जरूरत है कि किसी भी तरह का तकनीकी जुगाड़ संपूर्ण सुरक्षा नहीं उपलब्ध कराएगा. आर्थिक व राजनीतिक उपाय तथा अमेरिकी सेना की सतत उपस्थिति कहीं अधिक प्रभावी होगी बजाए इसके कि जब कभी अमेरिका को चीनी कार्यवाइयों से अपने महत्त्वपूर्ण हितों को खतरा दिखाई दे तो वह केवल आक्रामक रूप से व्यापक युद्ध छेड़ने पर ही निर्भर हो. निसंदेह, पूर्वी एशिया में नौवहन की स्वतंत्रता और साथी देशों के लिए प्रतिबद्धता की रक्षा के लिए चीन की मुख्य भूमि पर आक्रमण करने की क्षमता पर निर्भरता से चीन के नेताओं को यह परखने का मौका मिल सकता है कि क्या सेन्काकू द्वीपों की रक्षा के लिए अमेरिका लॉस एंजिलेस के नष्ट होने का खतरा उठा सकता है. क्षेत्रीय स्थिरता बढ़ाने के लिए अधिक संतुलित अमेरिकी रणनीति के लिए संकल्प व आश्वस्ती का न्यायोचित मेल चाहिए और इसे दर्शाने के लिए सैन्य भंगिमा भी जरूरी है. इस नीति से अमेरिका को नायाब मौका मिलेगा कि वह चीनी नेताओं को इस क्षेत्र में इलाकाई विवादों के लिए अधिक सहयोगपूर्ण रवैया अपनाने को मना सके. जापान को पुनः सशस्त्र क्यों होना चाहिए टोक्यो - जापान का राजनीतिक पुनरुत्थान एशिया में इस सदी की सबसे महत्वपूर्ण घटनाओं में से एक है। लेकिन इस पर अपेक्षाकृत कम ध्यान दिया गया है क्योंकि प्रेक्षकों ने इस देश के लंबे समय से चले आ रहे आर्थिक संकटों पर ध्यान केंद्रित करना पसंद किया है। ये संकट वास्तविक हैं, लेकिन जापान में लगातार चल रहे राष्ट्रीय सुरक्षा सुधारों और 12 देशों की नई ट्रांस पैसिफिक भागीदारी में सहभागिता ने इसे अधिक सुरक्षित, प्रतिस्पर्धात्मक, और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर संलग्न देश के रूप में स्वयं को बदलने की राह पर मजबूती से ला खड़ा किया है। जापान ऐतिहासिक दृष्टि से दुनिया के मामलों में अपनी क्षमता से अधिक ऊँचे मुकाम पर पहुँचा है। उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में, जापान एशिया की पहली आधुनिक आर्थिक सफलता की कहानी बन गया है। मांचू-शासित चीन और तानाशाही वाले रूस को दो अलग-अलग युद्धों में हरा देने के बाद यह एशिया की पहली आधुनिक वैश्विक सैन्य शक्ति बन गया है। द्वितीय विश्व युद्ध में करारी हार होने और संयुक्त राज्य अमेरिका द्वारा कब्ज़ा कर लिए जाने के बाद भी, जापान भारी आर्थिक सफलताएँ हासिल करने में कामयाब रहा, और 1980 के दशक तक यह वैश्विक औद्योगिक शक्ति का केंद्र बन गया था, एशिया ने इससे पहले ऐसा कभी कुछ नहीं देखा था। मीडिया की प्रवृत्ति जापान की वर्तमान आर्थिक परेशानियों को मातमी ढंग से पेश करने की रही है। लेकिन, हालाँकि यह सच है कि इसकी अर्थव्यवस्था दो दशकों से अधिक समय तक स्थिर रही है, परंतु इसकी वास्तविक प्रति व्यक्ति आय इस सदी में अब तक अमेरिका और ब्रिटेन की तुलना में अधिक तेजी से बढ़ी है। इसके अलावा, बेरोज़गारी की दर काफी समय से संपन्न अर्थव्यवस्थाओं की तुलना में सबसे कम रही है, आय में असमानता एशिया में सबसे कम है, और जीवन प्रत्याशा दुनिया में सबसे अधिक है। वास्तव में, जापान की सुरक्षा, न कि इसकी अर्थव्यवस्था, पर आज सबसे अधिक ध्यान दिए जाने की ज़रूरत है - और जापान यह जानता है। कई दशकों तक, संरक्षण के लिए अमेरिका पर संतुष्टिपरक रूप से भरोसा करने ��े बाद, एशिया में तेजी से बदल रही सुरक्षा और शक्ति की चलायमानता, विशेष रूप से क्षेत्रीय वर्चस्व के लिए होड़ में अधिकाधिक शक्तिशाली और संशोधनवादी होते जा रहे चीन के उत्थान, के फलस्वरूप जापान अपनी निश्चिंतता से बाहर निकल रहा है। चीन का सैन्य खर्च अब फ्रांस, जापान और ब्रिटेन के संयुक्त रक्षा खर्च के बराबर हो गया है; मात्र एक दशक पहले, शांतिवादी जापान रक्षा पर चीन से अधिक खर्च कर रहा था। और चीन अपनी बढ़ती हुई शक्ति को प्रदर्शित करने में झिझक नहीं रहा है। रणनीतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण दक्षिण चीन सागर में, पीपुल्स रिपब्लिक ने कृत्रिम द्वीपों और सैन्य चौकियों का निर्माण किया है, और इसने फिलीपींस से विवादित स्कारबरो शोल पर कब्जा कर लिया है। पूर्वी चीन सागर में, इसने एकपक्षीय रूप से हवाई रक्षा पहचान क्षेत्र की घोषणा कर दी है, जिसमें उन क्षेत्रों को शामिल किया गया है जिनके लिए वह दावा तो करता है लेकिन उन पर उसका नियंत्रण नहीं है। चूँकि अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा इन आक्रामक गतिविधियों के लिए चीन पर कोई दंड लगाने में झिझक रहे हैं, इसलिए जापान के नेताओं ने इन मामलों को अपने हाथ में लेना शुरू कर दिया है। इस नए संदर्भ में देश की रक्षा के लिए जापान की मौजूदा राष्ट्रीय सुरक्षा नीतियों और कानूनों की अपर्याप्तता को देखते हुए, सरकार ने राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद की स्थापना की है और अपनी सुरक्षा स्थिति को "सामान्य" करने के लिए कार्रवाई की है। हथियारों के निर्यातों पर जापान के लंबे समय से चले आ रहे स्वयं लगाए गए प्रतिबंधों में ढील देकर, रक्षा व्यय में वृद्धि करके, और "सामूहिक आत्मरक्षा" के अपने अधिकार को जतला कर, सरकार ने मित्र देशों के साथ और अधिक सक्रिय रूप से सहयोग करने और समुद्रपारीय शांति स्थापना के व्यापक उद्देश्यों को जारी रखने हेतु, जापान के लिए रास्ता खोल दिया है। यह सच है कि जापान के सुरक्षा बढ़ाने के प्रयासों के दायरे को अभी तक सीमित रखा गया है, और इनसे देश के लिए सैन्यवादी शक्ति बनने का रास्ता नहीं खुला है। उदाहरण के लिए, आक्रामक हथियारों के उपयोग पर प्रतिबंध जस के तस बने हुए हैं। बहरहाल, सरकार के प्रयास एक ऐसे देश में विभाजनकारी सिद्ध हुए हैं जिसमें शांतिवाद संविधान में सन्निहित है और जनता द्वारा व्यापक रूप से समर्थित है। प्यू रिसर्च सेंटर द्वारा हाल ही में किए गए एक सर्वेक्षण से पता चला है कि केवल 23% जापानी चाहते हैं कि उनका देश एशियाई सुरक्षा में अधिक सक्रिय भूमिका का निर्वाह करे। पिछले वर्ष किए गए एक अन्य सर्वेक्षण से पता चला है कि केवल 15.3% जापानी ही अपने देश की रक्षा के लिए इच्छुक हैं - जो दुनिया में सबसे कम अनुपात है - जबकि इसकी तुलना में चीनियों के मामले में यह अनुपात 75% है। लेकिन वास्तविकता यह है कि एशिया में दीर्घकालिक शांति सुनिश्चित करने के लिए जापान के लिए अधिक सुदृढ़ रक्षा स्थिति का होना आवश्यक है। वास्तव में, पारस्परिक रूप से लाभप्रद क्षेत्रीय भागीदारियाँ स्थापित करने सहित, ऐसे सुधारों से जो जापान की स्वयं की अधिक बेहतर रूप से सुरक्षा करने में सक्षम हों, पूर्व एशिया में अस्थिरताकारी शक्ति असंतुलन की स्थिति उत्पन्न होने से पहले ही उसे रोक पाने की उसकी क्षमता बढ़ जाएगी। यह अब जापान की सरकार पर निर्भर करता है कि वह शांतिवाद और निष्क्रियता के बीच के अंतर को उजागर करके, अपने स्वयं के नागरिकों का भरोसा जीते। जापान आक्रामकता को प्रोत्साहन या समर्थन नहीं देगा; यह केवल क्षेत्रीय और वैश्विक स्तरों पर शांति स्थापित करने के लिए अधिक सक्रिय भूमिका का निर्वाह करेगा। अधिक आत्मविश्वासी और सुरक्षित जापान से निश्चित रूप से अमेरिका के हित ही परवान चढ़ेंगे जो स्वयं अपनी सुरक्षा और क्षेत्रीय शांति दोनों के लिए और अधिक जिम्मेदारी ले सकेगा। प्यू सर्वेक्षण में 47% उत्तरदाताओं ने एशियाई सुरक्षा में जापान की अधिक सक्रिय भूमिका का समर्थन किया है जिससे पता चलता है कि अमेरिकी लोग इस बात को अच्छी तरह से समझने लग गए हैं। लेकिन इस बारे में इस तरह के सवाल बाकी रह जाते हैं कि प्रधानमंत्री शिंजो अबे द्वारा लोकप्रिय किए गए "सक्रिय शांतिवाद" का लगातार और प्रभावी ढंग से निर्वाह करने के लिए जापान को सचमुच कितना आत्मनिर्भर होना होगा। क्या जापान को वास्तव में एक स्वतंत्र सैन्य शक्ति बनने की आवश्यकता होगी, जिसमें ब्रिटेन या फ्रांस जैसी दुर्जेय भयभीत करनेवाली क्षमताएँ हों? इसका संक्षेप में उत्तर है हाँ। हालाँकि जापान को अमेरिका के साथ अपनी सुरक्षा संधि का त्याग नहीं करना चाहिए, परंतु यह सुरक्षा पर विशेष रूप से ध्यान देते हुए फिर से सशस्त्र हो सकता है, और इसे होना भी चाहिए। बेशक, ब्रिटेन और फ्रांस के विपरीत, जापान के पास परमाणु हथियारों को रखने का विकल्प नहीं है। लेकिन यह साइबर युद्ध के जोखिम का सामना करने के लिए सूचना प्रणालियों सहित सुदृढ़ पारंपरिक क्षमताओं का निर्माण कर सकता है। जापान की सुरक्षा और क्षेत्रीय स्थिरता को सहारा देने के अलावा, इस तरह के किसी प्रयास से जापान के सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि होने और अमेरिकी रक्षा कंपनियों को भारी लाभ होने की संभावना है। यथास्थिति शक्ति के रूप में, जापान को चीनी सैन्य शक्ति का मुकाबला करने की आवश्यकता नहीं है। आखिरकार, आक्रमण करने की तुलना में रक्षा करना आसान होता है। फिर भी, सैन्य दृष्टि से स्वतंत्र जापान का उदय होने से एशिया और शेष विश्व के विकास के लिए खेल में बदलाव की स्थिति आ जाएगी, और यह अत्यंत लाभकारी होगी। बिल गेट्स ने इसे ग़लत क्यों समझा नीना मुंक की त्रुटियों से भरी और पुरानी पड़ चुकी पुस्तक की अपनी समीक्षा में, बिल गेट्स ने अजीब तरह से आकलन और मूल्यांकन करके अपने उस पारखी दृष्टिकोण को त्याग दिया है जो उनकी फ़ाउंडेशन के अमूल्य कार्य को परिभाषित करता है। वे बस मुंक के इस दावे को स्वीकार कर लेते हैं कि 20 से ज़्यादा अफ़्रीकी देशों में चल रही विकास परियोजना - मिलेनियम ग्राम परियोजना - विफल रही है। जबकि यह वास्तव में फल-फूल रही है। यह भोलापन भ्रम पैदा करने वाला है। मुंक की किताब में दस साल की परियोजना के केवल पहले आधे भाग के एक हिस्से, और 12 में से केवल दो गाँवों को शामिल किया गया है। और वे कभी भी "मिलेनियम गाँवों में लंबी अवधि के लिए नहीं रहीं।" मुंक ने वास्तव में गाँव में विज़िट करने में औसतन प्रति वर्ष लगभग छह दिन - छह साल में लगभग 36 दिन - बिताए हैं, और ये आम तौर से 2-3 दिन के लिए होते थे। इसके अलावा, वे वैनिटी फ़ेयर पत्रिका के लिए पत्रकार के रूप में कहानी तैयार करने के लिए आई थीं, और उनके पास सार्वजनिक स्वास्थ्य, कृषि विज्ञान, अर्थशास्त्र, या अफ़्रीकी विकास के बारे में कोई प्रशिक्षण या अनुभव नहीं था। इससे भी बदतर बात यह है कि मुंक की टिप्पणियाँ अकसर, कम नहीं बल्कि बहुत ज़्यादा, वर्णनात्मक प्रभाव पैदा करने के लिए बहुत बढ़ा-चढ़ाकर की गई हैं। क्या बिल गेट्स वास्तव में मानते हैं कि मैंने इस बात की चिंता किए बिना विशिष्ट फसलों की वकालत की थी कि उनके लिए बाज़ार है या नहीं, या यह कि मैं सरकार के नेताओं को दी जाने वाली अपनी लगातार सलाहों में राष्ट्रीय कराधान पर विचार करने में विफल रहा? इसके अलावा, MVP में कृषि संबंधी रणनीतियों और विकल्पों का नेतृत्व अफ़्रीकी कृषिशास्त्री कर रहे हैं, जिनमें से कुछ अफ़्रीका में सर्वोत्तम हैं - जो अकसर अफ़्रीका में हरित क्रांति के लिए गठबंधन (AGRA) में बिल के खुद के कृषि कर्मचारियों के साथ मिलकर काम करते हैं। बिल को यह जानकर ख़ुशी होगी कि MVP का अगले साल – ठीक समय पर इसके समापन के अवसर पर (और 2015 में मिलेनियम विकास लक्ष्यों की अवधि समाप्त होने पर) - उचित और पेशेवर ढंग से मूल्यांकन किया जाएगा। यह आकलन पिछले दशक में इकट्ठा किए गए अत्यंत महत्वपूर्ण डेटा, और 2015 में इकट्ठा किए जाने वाले व्यापक नए सर्वेक्षण डेटा के आधार पर किया जाएगा। इसके अलावा, इस मूल्यांकन में मिलेनियम गाँवों के आसपास के क्षेत्रों के साथ तुलना शामिल होगी। वास्तव में, मुझे आशा है कि बिल एंड मेलिंडा गेट्स फ़ाउंडेशन इस जटिल परियोजना के पूर्ण मूल्यांकन के लिए ज़रूरी विस्तृत, स्वतंत्र रूप से पर्यवेक्षित सर्वेक्षण कार्य करने में मदद करेगी। मैं MVP द्वारा हर महीने सामुदायिक स्वास्थ्य की उपलब्धता, रुग्णता (रोग), और मृत्यु दर के संबंध में इकट्ठा किए जानेवाले विस्तृत डेटा के आधार पर कुछ और अच्छी ख़बर देना चाहता हूँ । मिलेनियम गाँवों में मृत्यु दर तेज़ी से गिरी है। वास्तव में, मौजूदा सबूतों, जिनकी अगले साल ज़्यादा विस्तार से जाँच की जाएगी, संकेत करते हैं कि पाँच साल से कम उम्र में मृत्यु दर को प्रति 1,000 जन्म में 30 मृत्यु से कम करने का साहसिक लक्ष्य हासिल कर लिया गया है या यह 2015 तक पहुँच के भीतर होगा, और स्वास्थ्य प्रणाली को इस पर उल्लेखनीय रूप से कम लागत आई है। हाल ही में, गेट्स फ़ाउंडेशन के एक वरिष्ठ स्टाफ़ सदस्य ने उत्तरी नाइजीरिया में मिलेनियम गाँव का दौरा किया। बाद में, उन्होंने मुझे इस बात की व्यक्तिगत रूप से पुष्टि की कि उन्होंने मिलेनियम गाँव में स्वास्थ्य प्रणाली के संचालन में जो कुछ देखा उससे वे और उनकी टीम बहुत अधिक प्रभावित हुए हैं। तो मैं इस अवसर का लाभ उठाकर उस चुनौती को दुहराना चाहता हूँ जो मैंने बिल के सामने रखी है। वे ग्रामीण अफ़्रीका में कोई भी ज़िला चुन सकते हैं, और हमारी टीम स्वास्थ्य-क्षेत्र को वार्षिक सिर्फ़ 60 डॉलर प्रति व्यक्ति की लागत पर पाँच साल से कम उम्र में मृत्यु दर को 30/1,000 से कम पर - जो अनेक मध्यम आय वाले देशों विद्यमान विशिष्ट दर है - लाने के लिए मिलेनियम ग्राम स्वास्थ्य दृष्टिकोण का इस्तेमाल करके स्थानीय समुदायों के साथ काम करेगी। और इसे हम पाँच या उससे कम साल के समय में करेंगे। मेरा मानना है कि इस सफलता से बिल और दूसरे लोगों को कम लागत की ग्रामीण स्वास्थ्य प्रणालियों में निवेश करने के उल्लेखनीय मूल्य को पहचानने में मदद मिलेगी जो मिलेनियम ग्राम परियोजना के डिज़ाइन के सिद्धांतों का पालन करती हैं। अंत में, MVP की स्थिरता और स्केलेबिलिटी के बारे में बिल के द्वारा व्यक्त की गई चिंताओं को देखते हुए, यह कोई छोटी बात नहीं है कि मेज़बान सरकारें इस दृष्टिकोण की घोर समर्थक हैं। इन सरकारों के नेताओं ने लगभग एक दशक तक मिलेनियम गाँवों को रात-दिन देखा है। वे MVP की मार्गदर्शी अवधारणाओं के विस्तृत कार्यान्वयन के लिए अपना ख़ुद का पैसा और नीतियाँ लगा रहे हैं। उदाहरण के लिए, नाइजीरिया ने देश के स्थानीय सरकार के सभी 774 क्षेत्रों में स्वास्थ्य और शिक्षा सेवाओं को राष्ट्रीय स्तर पर उपलब्ध करने के लिए MVP की अवधारणाओं का इस्तेमाल किया है। समूचे क्षेत्र की सरकारों ने MVP की अवधारणाओं को खुद आगे बढ़ाने के लिए इस्लामी विकास बैंक से 100 मिलियन डॉलर से अधिक की वित्तीय सहायता ली है। अब लगभग एक दर्जन देशों ने या तो अपने खुद के मिलेनियम गाँव शुरू कर दिए हैं या उन्हें शुरू करने में मदद के लिए मिलेनियम ग्राम परियोजना से संपर्क किया है। और अफ़्रीका के खुद के युवा लोगों, पैन अफ़्रीकी युवा नेतृत्व नेटवर्क, ने हाल ही में सेनेगल में मिलेनियम गाँव का दौरा किया, और अपने गृह देशों और क्षेत्रों में मिलेनियम ग्राम परियोजना की तकनीकों और रणनीतियों का विस्तार करने के लिए MVP की सहायता का अनुरोध किया है। समूचे अफ़्रीका में मिलेनियम ग्राम दृष्टिकोण का प्रसार यह दिखाता है कि अफ़्रीकी राजनीतिक और समुदाय के नेता MVP के तरीकों, रणनीतियों, और प्रणालियों को ग्रामीण अफ़्रीका में ग़रीबी का मुकाबला करने के लिए अत्यधिक उपयोगी मानते हैं। नीना मुंक की पुस्तक पुरानी पड़ चुकी है और वह अपने लक्ष्य को हासिल नहीं कर पाई है। मैं बिल गेट्स को उनकी अफ़्रीका के लिए आगामी यात्रा पर एक या ज़्यादा मिलेनियम ग्राम स्थलों का दौरा करने के लिए आमंत्रित करता हूँ ताकि वे खुद अपनी आँखों से देख सकें कि इस दृष्टिकोण के बारे में समूचे महाद्वीप में इतनी वास्तविक रुचि क्यों ली जा रही है। ईबोला पर कैसे कार्रवाई करें ईबोला कम से ��म चार पश्चिमी अफ्रीकी देशों (गिनी, लाइबेरिया, सिएरा लियोन, और नाइजीरिया) में एक भयानक महामारी बन गया है जिसे फैलने से रोकने के लिए न केवल आपातकालीन कार्रवाई किया जाना जरूरी है; बल्कि वैश्विक जन स्‍वास्‍थ्‍य के बारे में कुछ मूल धारणाओं पर पुनर्विचार किया जाना भी जरूरी है। हम एक ऐसे युग में रह रहे हैं जहाँ ऐसे संक्रामक रोग उभरते हैं और बारंबार उभरते हैं, जो वैश्विक नेटवर्कों के ज़रिए तुरंत फैल सकते हैं। अत: इस वास्तविकता को देखते हुए हमें इसी के अनुरूप वैश्विक रोग-नियंत्रण प्रणाली की आवश्‍यकता है। सौभाग्‍य से एक प्रणाली मौजूद है, बशर्ते हम उसमें उपयुक्त तरीके से निवेश कर सकें। एड्स, सार्स, एच1एन1 फ़्लू, एच7एन9 फ़्लू और अन्य कई महामारियों में ईबोला सबसे नई महामारी है। इनमें एड्स सबसे अधिक जानलेवा है, जिसने सन 1981 से लेकर अब तक 36 मिलियन जानें ली हैं। इसमें कोई शक नहीं कि इससे भी बड़ी और आकस्मिक महामारियाँ भी संभव हैं, जैसे प्रथम विश्‍वयुद्ध के दौरान 1918 में होने वाली एन्‍फ़्लुएंजा, जिसने 50-100 मिलियन जानें ली थीं (यह संख्या इस युद्ध में मरने वालों की तुलना में बहुत अधिक है)। हालांकि 2003 में सार्स पर काबू पा लिया गया था, जिसमें कमोबेश 1,000 जानें चली गई थीं, तब इस रोग के कारण चीन सहित अनेक पूर्वी एशियाई अर्थव्‍यवस्‍थाएँ पूरी तरह चरमराने के कगार पर पहुँच गई थीं। ईबोला और अन्‍य महामारियों को समझने के लिए चार अत्‍यंत महत्‍वपूर्ण तथ्‍य जानना आवश्‍यक है। पहला, ज्‍यादातर उत्‍पन्‍न होने वाले संक्रामक रोग ज़ूनोसेस होते हैं, अर्थात वे पशुओं की आबादी से शुरू होते हैं, और उनमें कभी-कभी आनुवंशिक परिवर्तन की वजह से वे मनुष्‍यों में प्रकट हो जाते हैं। ईबोला संभवत: चमगादड़ों से संचारित हुई है; एच.आई.वी./एड्स चिंपाजियों से उत्‍पन्‍न हुई थी; सार्स संभवत: दक्षिणी चीन के पशु बाजारों में बेचे जाने वाले सीविटों से होकर आई थी; और एच1एन1 और एच7एन9 जैसी इन्फ़्लुएन्ज़ा प्रजातियाँ जंगली और पालतू पशुओं के बीच विषाणुओं के आनुवंशिक पुनर्संयोजनों से उत्‍पन्‍न हुई थीं। मानव समाज ज्यों-ज्यों नए पारिस्थितिकी तंत्रों (जैसे अतीत के दूरस्‍थ वन्‍य क्षेत्रों) में प्रवेश कर रहा है; खाद्य उद्योग आनुवंशिक पुनर्संयोजनों के लिए अधिक अनुकूल माहौल तैयार कर रहे हैं; और जलवायु परिवर्तन ने प्राकृतिक आवासों और प्रजातीय अंत:क्रियाओं को गड्ड-मड्ड कर दिया है, अत: नए-नए पशुजनित रोगों का उत्‍पन्‍न होना अवश्‍यंभावी है। दूसरा, जैसे ही कोई संक्रामक बीमारी प्रकट होती है, वैसे ही वायुयानों, जहाजों, महानगरों और पशु उत्‍पाद व्‍यापारों के जरिए उसके अत्‍यंत तीव्रता से फैलने की गुंजाइश भी मौजूद रहती है। ये महामारी रोग वैश्वीकरण की नई पहचान हैं, जो मौतों की शृंखला के जरिए यह जतलाते हैं कि मनुष्‍यों और वस्‍तुओं की व्‍यापक आवाजाही की वजह से यह दुनिया कितनी असुरक्षित हो गई है। तीसरा, नुकसान उठाने वालों में गरीब सबसे अव्‍वल और सबसे ज्‍यादा प्रभावित होते हैं। गांवों में रहने वाले गरीब लोग संक्रमित पशुओं के सबसे ज्‍यादा निकट होते हैं और रोग सबसे पहले उन्‍हें ही संक्रमित करता है। वे अकसर शिकार करते हैं और जंगली पशुओं का मांस खाते हैं, जिनसे उनमें संक्रमण होने की संभावना बढ़ जाती है। गरीब लोग जो अकसर अनपढ़ होते हैं, आमतौर पर यह नहीं जानते कि ये रोग - विशेषकर अनजान रोग कितने संक्रामक हैं। इससे स्‍वयं के संक्रमित होने और साथ ही अन्‍य लोगों को भी संक्रमित करने की संभावना बहुत अधिक बढ़ जाती है। इसके अलावा, कुपोषण और मूल स्‍वास्‍थ्‍य सेवाओं का अभाव होने की स्थिति को देखते हुए, उनकी प्रतिरोधक क्षमता, जो पहले से ही कमज़ोर होती है, संक्रमण के आगे बड़ी आसानी से घुटने टेक देती है, जबकि अधिक स्वस्थ और उपचारित व्‍यक्ति इनसे बच निकलते हैं। और "चिकित्‍सा-रहित" स्थितियों में - जहाँ किसी महामारी से निपटने के लिए उचित जन-स्‍वास्‍थ्‍य (जैसे संक्रमित व्‍यक्तियों का पृथक्‍करण करना, छूत के स्रोतों का पता लगाना, निगरानी रखना, आदि) सुनिश्चित करनेवाले पेशेवर स्वास्‍थ्‍य कार्यकर्ता मौजूद न हों या बहुत कम हों, वहाँ आरंभिक प्रकोप ज्‍यादा गंभीर बन जाते हैं। अंत में, इन उभरते रोगों की तुलना में नैदानिक उपकरणों और असरदार दवाओं, टीकों सहित, सभी जरूरी चिकित्‍सा कार्रवाइयाँ अपरिहार्य रूप से पिछड़ जाती हैं। किसी भी स्थिति में इन उपकरणों को लगातार बनाए रखना आवश्‍यक है। इसके लिए आधुनिकतम जैवप्रौद्योगिकी, प्रतिरक्षा विज्ञान और अंतत: जैवअभियांत्रिकी की आवश्‍यकता होती है ताकि बड़े पैमाने पर औद्योगिक कार्रवाइयाँ की जा सकें (जैसे बड़ी महामारियों की स्थिति में टीकों या दवाओं की लाखों खुराकें बनाई जा सकें)। उदाहरण के लिए, एड्स संक्रमण के दौरान अरबों डॉलरों का निवेश अनुसंधान और विकास में करने की ज़रूरत पड़ी – और इसी प्रकार औषध उद्योग को भी अपनी प्रतिबद्धताएँ दर्शाने की ज़रूरत पड़ी - ताकि जीवनरक्षक एंटीरेट्रोवायरल दवाइयाँ वैश्विक स्‍तर पर बनाई जा सकें। फिर भी हर प्रकोप के बाद रोगजनक का परिवर्तन होना अपरिहार्य है, जिससे पिछले उपचार कम असरदार रह जाते हैं। इसमें कोई अंतिम जीत नहीं होती, केवल मानव जाति और रोग-उत्‍पन्‍न करने वाले कारकों के बीच कभी न खत्म होने वाली होड़ चलती रहती है। तो क्‍या विश्‍व इस ईबोला, नए घातक इन्फ़्लुएन्ज़ा, एच.आई.वी. के किसी ऐसे परिवर्तन, जो रोग फैलने की गति बढ़ा सकता है, या मलेरिया की नई बहु-दवा-प्रतिरोधी प्रजातियों या अन्‍य रोगजनकों के लिए तैयार है? उत्तर है नहीं। हालांकि जन स्‍वास्‍थ्‍य में किया जाने वाला निवेश सन 2000 के बाद उल्‍लेखनीय रूप से बढ़ा है, जिससे एड्स, क्षयरोग, और मलेरिया के खिलाफ लड़ाई में उल्‍लेखनीय सफलता मिली है, फिर भी जरूरत की तुलना में जन स्‍वास्‍थ्‍य पर किए जाने वाले वैश्विक खर्चों में काफी कमी आई है। नई व मौजूदा चुनौतियों का अनुमान लगाने और उपयुक्त कार्रवाई करने में विफल रहे दानदाता देशों ने विश्‍व स्‍वास्‍थ्‍य संगठन के बजट में आंशिक कटौती करवाई है, जबकि एड्स, क्षयरोग और मलेरिया का मुकाबला करने वाले वैश्विक कोष में भी कुल मिलाकर भारी कटौती हुई है, जिससे इन रोगों के खिलाफ जीत हासिल करना मुश्किल हो गया है। कुछ तुरंत किए जाने वाले कार्यों की सूची इस प्रकार है। पहला, यूनाइटेड स्‍टेट्स, यूरोपीय संघ, खाड़ी देश, और पूर्वी एशियाई देशों को वर्तमान ईबोला महामारी से निपटने के लिए, आगे और घटनाएँ होने तक, डब्‍ल्‍यू.एच.ओ. के नेतृत्‍व में प्रारंभिक स्‍तर पर 50-100 मिलियन डॉलर तक की राशि का एक लचीला कोष बनाना चाहिए। इससे तात्‍कालिक चुनौती के अनुरूप एक त्‍वरित जन-स्‍वास्‍थ्‍य संबंधी कार्रवाई करने में मदद मिलेगी। दूसरा, दानदाता देशों को अपने वैश्विक कोष के बजट और अधिदेश, दोनों में शीघ्रतापूर्वक विस्‍तार करना चाहिए ताकि कम आय वाले देशों के लिए यह एक वैश्विक स्‍वास्‍थ्‍य कोष बन सके। इसका मुख्‍य लक्ष्‍य सबसे गरीब देशों को प्रत्‍येक स्‍लम और ग्रामीण समुदाय में मूलभूत स्‍वास्‍थ्‍य प्रणालियाँ स्‍थापित करने में मदद करना होगा, इस संकल्पना को यूनिवर्सल हेल्‍थ कवरेज (यू्.एच.सी.) कहा जाता है। इसकी तत्‍काल जरूरत उप-सहारा अफ्रीका और दक्षिणी एशिया को है, जहाँ स्‍वास्‍थ्‍य की स्थितियाँ अत्‍यंत खराब हैं और गरीबी चरम पर है, और ऐसी संक्रामक बीमारियाँ धावा बोलती रहती हैं जिनका उपचार और नियंत्रण करना संभव है। विशेष रूप से, इन क्षेत्रों को सामुदायिक स्‍वास्‍थ्‍य कार्यकर्ताओं के नए कैडर को नियु‍क्त करना चाहिए, जो रोगों के लक्षण पहचानने, निगरानी रखने, और निदान करने और उचित उपचार प्रदान करने के लिए प्रशिक्षित हो। प्रति वर्ष केवल 5 बिलियन डॉलर की लागत पर, यह सुनिश्चित करना संभव है कि प्रत्‍येक अफ्रीकी समुदाय में भली-भांति प्रशिक्षित स्‍वास्‍थ्य कार्यकर्ता मौजूद हों, जो जीवनरक्षक उपचार कर सकें और ईबोला जैसी स्‍वास्‍थ्‍य आपात स्थितियों से असरदार तरीके से निपट सकें। अंत में, उच्‍च-आय वाले देशों को वैश्विक रोग निगरानी, डब्‍ल्‍यू.एच.ओ. की दूरगामी क्षमताओं, और जीवन-रक्षक जैवचिकित्‍सा अनुसंधान में पर्याप्‍त मात्रा में निवेश करते रहना चाहिए, जिससे पिछली शताब्‍दी में मानव जाति को काफी लाभ हुए थे। सीमित राष्ट्रीय बजटों के बावजूद, हमें अपनी जान को राजकोषीय मामलों की भेंट चढ़ाना एक बहुत बड़ी भूल होगी। युद्ध से रोजगार तक ऑक्सफ़ोर्ड - इस बात को नकारा नहीं जा सकता है कि संघर्ष के दूरगामी नकारात्मक प्रभाव होते हैं, इसका प्रभाव रोजगार पर भी पड़ता है। लेकिन संघर्ष और रोजगार में परस्पर संबंध की जो प्रचलित धारणा है उसमें इस संबंध की जटिलता को पूरी तरह से मान्यता नहीं दी जाती है - यह एक ऐसी कमी है जो कमजोर देशों में रोजगार की प्रभावी नीतियों को नजरअंदाज करती है। पारंपरिक ज्ञान की बात यह है कि संघर्ष से रोजगार नष्ट होते हैं। इसके अलावा, चूंकि बेरोजगारी से अधिक संघर्ष को इसलिए प्रोत्साहन मिल सकता है कि बेरोजगार युवा लोगों को हिंसक आंदोलनों में औचित्य और आर्थिक लाभ नजर आते हैं, रोजगार सृजन करना संघर्षोपरांत नीति का केंद्रीय हिस्सा होना चाहिए। लेकिन, यद्यपि यह निश्चित रूप से तर्कसंगत लगता है, परंतु जैसा कि मैंने 2015 के एक लेख में उल्लेख किया था, यह जरूरी नहीं है कि ये धारणाएं पूरी तरह से सही हों। पहली धारणा - कि हिंसक संघर्षों से रोजगार नष्ट होते हैं - में इस तथ्य पर ध्यान नहीं दिया जाता है कि हर संघर्ष अनूठा होता है। 2008-2009 के श्रीलंकाई गृह युद्ध जैसे कुछ संघर्ष अपेक्षाकृत छोटे से क्षेत्र में केंद्रित होते हैं जिससे देश के अधिकतर भाग - और इस तरह अर्थव्यवस्था - अप्रभावित रहते हैं। यहाँ तक कि कांगो में बार-बार हो���ेवाले स्थानिक संघर्षों की तरह के संघर्षों का शुद्ध रोजगार पर भारी असर नहीं भी पड़ सकता है। फिर भी, उदाहरण के लिए सार्वजनिक क्षेत्र में या वस्तुओं के निर्यातकों के यहां नष्ट होनेवाले रोजगारों की काफी हद तक भरपाई सरकार और विद्रोही सशस्त्र बलों में होनेवाले नए रोजगारों से हो सकती है, आयातों, और नशीली दवाओं के उत्पादन और तस्करी जैसे अवैध कार्यकलापों का स्थान अनौपचारिक उत्पादन ले सकता है। इसी तरह, दूसरी धारणा - कि बेरोजगारी हिंसक संघर्ष का एक प्रमुख कारण है - में महत्वपूर्ण सूक्ष्म अंतरों की अनदेखी की जाती है। शुरूआत के लिए, अधिकतर संघर्ष-प्रभावित देशों में कुल रोजगार में औपचारिक क्षेत्र का अंश बहुत मामूली होता है। काम करनेवाले अधिकतर लोग अनौपचारिक क्षेत्र में होते हैं जो अक्सर कम महत्वपूर्ण, कम उत्पादकता, और कम आय वाले कार्यकलापों में लगे होते हैं जो बेरोजगारी की ही तरह, असंतोष पैदा कर सकते हैं और संभावित रूप से युवा लोगों को हिंसक आंदोलनों में शामिल होने के लिए प्रेरित कर सकते हैं। इसे देखते हुए, औपचारिक क्षेत्र में मात्र रोजगार का विस्तार करना पर्याप्त नहीं है, जब तक कि इससे कम आय वाले और अनौपचारिक क्षेत्र की नौकरियों में युवा लोगों की स्थिति में भी सुधार न हो। फिर भी संघर्षोपरांत रोजगार नीतियों में लगभग हमेशा अनौपचारिक क्षेत्र की उपेक्षा की जाती है। इससे भी बदतर, नए नियमों के कारण - जैसे फ्रीटाउन, सिएरा लियोन में वाणिज्यिक बाइकिंग पर प्रतिबंध लगाना - कभी-कभी युवाओं द्वारा की जा रही उत्पादक अनौपचारिक गतिविधियों पर रोक लग जाती है। लेकिन अनौपचारिक क्षेत्र पर ध्यान केंद्रित करना भी अपर्याप्त है, क्योंकि अनुसंधान से यह पता चलता है कि गरीबी और उपेक्षा अपने आप में, संघर्ष पैदा करने के लिए पर्याप्त नहीं होते हैं। अगर वे होते, तो सबसे गरीब देशों में अधिकतर समय संघर्ष होता रहता। और किसी भी तरह से ऐसी स्थिति नहीं है। हिंसक संघर्ष तब होता है जब नेता इसके लिए अपने अनुयायियों को संगठित करने के लिए प्रेरित होते हैं। यह प्रेरणा विविध स्रोतों से उत्पन्न हो सकती है, जिसमें सबसे सामान्य स्रोत सत्ता से अलग होना है। ऐसे मामले में, नेता लोग अनुयायियों को संगठित करने के लिए किसी सामान्य पहचान के लिए अपील करेंगे, उदाहरण के लिए, मध्य पूर्व में समकालीन संघर्षों में यह धर्म, या कई अफ्रीकी संघर्षों में जातीयता था। बेशक, संगठित होने के लिए मात्र साझा पहचान से कुछ अधिक की जरूरत होती है। लोग आम तौर पर केवल तभी प्रतिक्रिया दिखाएंगे अगर उन्हें पहले से ही शिकायतें होंगी - विशेष रूप से, अगर उन्हें लगता है कि उनके समूह को संसाधनों और रोजगार के अवसर हासिल करने में भेदभाव का सामना करना पड़ता है। इस अर्थ में, रोजगार प्रासंगिक तो होता है, लेकिन इसमें रोजगार का समग्र स्तर इतना महत्वपूर्ण नहीं होता है जितना कि धार्मिक या जातीय समूहों के बीच अच्छी नौकरियों का वितरण। दूसरे शब्दों में, नौकरियों के आवंटन पर ध्यान दिए बिना मात्र अधिक नौकरियों के अवसरों का सृजन करने से तनाव कम नहीं हो सकते हैं; यदि असंतुलन जारी रहता है तो नौकरियों के सृजन से हालात और भी बदतर हो सकते हैं। फिर भी संघर्षोपरांत रोजगार नीतियों में लगभग हमेशा तथाकथित "क्षैतिज असमानताओं" की उपेक्षा की जाती है। उदाहरण के लिए, बोस्निया और हर्जेगोविना में 1990 के दशक में वहाँ हुए युद्ध के बाद जो भारी क्षेत्रीय असंतुलन और क्षेत्रों में भेदभाव बने हुए थे उन्हें कम करने के लिए रोजगार नीतियां कुछ नहीं कर पाईं। इन असफलताओं को देखते हुए इसमें कोई आश्चर्य नहीं है कि समस्या के आकार की तुलना में रोजगार नीतियों के शुद्ध प्रभाव अक्सर बहुत कम होते हैं। कोसोवो और बोस्निया और हर्जेगोविना दोनों में, संघर्षोपरांत शांति बनाए रखने के प्रयासों में रोजगार सृजन को प्रमुख माना गया था। फिर भी, कोसोवो में युद्ध के समाप्त होने के छह साल बाद भी वहां बेरोजगारी 45% थी। बोस्निया में, नए कार्यक्रमों से सिर्फ 8,300 नौकरियों का सृजन हुआ, जबकि 4,50,000 लोगों की नौकरियां चली गई थीं; संघर्ष समाप्त होने के 20 साल बाद बेरोजगारी की दर 44% थी। संकट के बाद सफल रोजगार नीति का एक उदाहरण भी है। नेपाल की सरकार ने देश के गृह युद्ध के बाद, सबसे अधिक वंचित क्षेत्रों और जातियों को लक्षित करके बुनियादी सुविधाओं का निर्माण करने, लघु ऋण जारी करने, और प्रौद्योगिकी सहायता प्रदान करने पर ध्यान केंद्रित करनेवाले कार्यक्रमों को लागू करके अनौपचारिक क्षेत्र में अवसरों का विस्तार करने का प्रयास किया। संघर्ष को भड़काने में जाति और जातीय तनावों और भेदभाव की जो भूमिका रही थी, उसे देखते हुए सरकार ने विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों के लिए रोजगार योजनाएं बनाईं, ये भारत की उस रोजगार योजना पर आधारित थीं जिसमें प्रति परिवार को 100 दिनों के काम की गारंटी दी जाती है। ये कार्यक्रम नेपाली सरकार और बाहरी दाताओं द्वारा समर्थित थे, और इनमें अधिक गरीब क्षेत्रों और गांवों (और, उनमें से भी, सबसे गरीब जातियों) पर ध्यान केंद्रित किया गया था। संघर्ष के तुरंत बाद की अवधि बहुत नाजुक होती है। नेताओं को इस अवसर का अधिकतम लाभ उठाना चाहिए, यह सुनिश्चित करना चाहिए कि वे जिस भी नीति का अनुसरण करें वह यथासंभव प्रभावी हो। जब बात रोजगार की होती है, तो इसका अर्थ होता है कि ऐसे कार्यक्रम तैयार किए जाएं जिनसे यह प्रतिबिंबित हो कि लोग वास्तव में अपने काम के जीवन को कैसे बसर करते हैं, साथ ही तनावों को पैदा करनेवाली वास्तविक शिकायतों के समाधान के संबंध में कार्रवाई की जानी चाहिए। अन्यथा, वे संगठित हिंसा को चाहे प्रोत्साहित न भी करें, पर उसे होने देने का जोखिम तो उठाते ही हैं। छोटे से मच्छर का बड़ा आतंक स्टैनफोर्ड – मच्छर-जनित बीमारियां हर साल लाखों इनसानों की जान ले लेती हैं और इससे भी कहीं अधिक लोगों के लिए परेशानी का कारण बनती हैं. सन् 2012 में मलेरिया के अनुमानित 20.7 करोड़ मामले सामने आये थे जिनमें करीब 6,27,000 मौतें हुई थीं. ऊष्ण और उपोष्ण कटिबंधों (भूमध्य रेखा से उत्तर व दक्षिण में कर्क व मकर रेखा तक का इलाका) में डेंगू बीमारी व अकाल मौत का सबसे बड़ा कारण है. हर साल यह बीमारी लगभग 10 करोड़ लोगों को अपनी गिरफ्त में ले लेती है. इसके अलावा सारी दुनिया में हर साल 2 लाख लोग पीत ज्वर (येलो फीवर) से ग्रस्त होते हैं जिनमें से 30 हजार मौत के मुंह में समा जाते हैं. किसी जानलेवा या विकलांगताकारी बीमारी को फैलाने के लिए मच्छर द्वारा केवल एक बार काटा जाना ही काफी है. यह भी एक भयानक सच्चाई है कि मच्छर आश्चर्यजनक तेज गति से जनन करते हैं और अपनी तादाद बढ़ाते हैं. डेंगू और वेस्ट नील वायरस जैसी जानलेवा बीमारियों के लिए कोई कारगर वैक्सीन या दवाई नहीं है. साथ ही मलेरिया जैसी बीमारी का उनके सर्वाधिक प्रकोप वाले क्षेत्रों में उपचार अत्यंत कठिन है. इसलिए मच्छरों की आबादी के नियंत्रण के लिए अधिक प्रभावी तरीकों की बेहद जरूरत है. अच्छी खबर यह है कि इसके लिए एक प्रभावशाली नई तकनीक इन इलाकों में परीक्षण के लिए तैयार है. अब यह सरकारी एजेंसियों की जिम्मेदारी है कि वे इसके विकास के लिए सुविधाएं उपलब्ध कराएं. आज मच्छरों की आबादी रोकने के लिए जो प्रचलित तरीका है - कीटों का बंध्याकरण का - वह रेडिएशन द्वारा नर कीटों के बंध्याकरण पर निर्भर है. बंध्याकरण के बाद इन नर कीटों को ग्रस्त इलाकों में छोड़ दिया जाता है लेकिन वे प्रजनन करने में असमर्थ होते हैं. मगर पिछली सदी के मध्य से इस्तेमाल की जा रही यह तकनीक मच्छरों के मामले में प्रभावकारी नहीं रही है. कारण है मच्छरों की नाजुकता. मॉलेकुलर बायोलॉजी में हुई तरक्की मिलता-जुलता समाधान पेश करती है जो कहीं अधिक प्रभावकारी है. मॉलेकुलर जीनेटिक इंजीनियरिंग तकनीकों का इस्तेमाल कर ब्रिटिश कंपनी ऑक्सीटेक ने डेंगू फैलाने वाले मच्छरों के नियंत्रक का नया तरीका ईजाद किया है. इसमें विशिष्ट जीनेटिन उत्परिवर्तन वाले नर मच्छरों को प्रयोगशाला में पनपाया जाता है. इस उत्परिवर्तन के कारण उनके बच्चे प्रोटीन की अधिक मात्रा के साथ पैदा होते हैं जो उनकी कोशिकाओं को सामान्य तरीके से कार्य नहीं करने देता है. इस प्रकार बड़े होने से पहले ही वे मर जाते हैं. चूंकि नर मच्छर काटते नहीं हैं इसलिए वातावरण में उन्हें छोड़ने से स्वास्थ्य संबंधी कोई खतरा नहीं होता है और क्योंकि उनके बच्चे मर जाते हैं अतः जीनेटिक रूप से परिवर्तित मच्छर पर्यावरण में स्थायी तौर पर बने भी नहीं रहते हैं. अगर इन नर मच्छरों को कई महीनों की अवधि में नियमित रूप से छोड़ा जाए तो सिद्धांत रूप से मच्छरों की आबादी उल्लेखनीय रूप से घट जाएगी. अब केवल यह पता लगाने की जरूरत है कि व्यावहारिक तौर पर यह तरीका काम करता है या नहीं. रेडिएशन युक्त बांझ कीटों या ऑक्सीटेक मच्छरों जैसे उपाय विकसित करने के वैज्ञानिक शोध क्रमवत विकसित होते हैं - प्रयोगशाला की नियंत्रित अवस्था से सीमित परीक्षणों तक. अब क्योंकि ऑक्सीटेक ने मलेशिया के केमैन आइलैंड और ब्राजील में उम्मीद जगाने वाले परीक्षण किये हैं, यह कंपनी अब अमेरिका समेत कई अन्य देशों में अपने परीक्षणों को दोहराने जा रही है. ऐसे परीक्षणों को हमेशा समुचित रूप से नियंत्रित किया जाता है और उनकी निगरानी की जाती है कि वे सुरक्षित व कारगर रहें. इनमें सरकारी नियमन अतिरिक्त सुरक्षा मुहैया कराते हैं. निगरानी के उचित स्तर का पता लगाने के लिए सरकारी निकाय इन तरीकों का वैज्ञानिक विधियों से जोखिम विश्लेषण करा सकती हैं. लेकिन जब जीनेटिक इंजीनियरिंग की बात आती है तो गेंद विज्ञान के पाले से निकल कर राजनीति के पाले में चली जाती है. यह सच है कि मोलेकुलर जीनेटिक इंजीनियरिंग रेडिएशन जैसी पुरानी अधकचरी तकनीकों से कहीं अधिक सटीक है और अचूक है. लेकिन जहां रेडिएशन द्वारा कीटों के बंध्याकरण की तकनीक ज्यादातर जगहों पर नियम-कानून से बाहर है, वहीं जीवित प्राणियों की जीनेटिक इंजीनियरिंग को सारी दुनिया में लंबी कानूनी जद्दोजहद झेलनी पड़ती है. राजनीतिक कारणों से उन्हें या तो देर से मंजूरी मिलती है या फिर उन्हें सिरे से नकार दिया जाता है. नतीजतन जीनेटिक इंजिनियरिंग में अनुसंधान व विकास खर्चीला होता जाता है, उसमें निवेश को बढ़ावा नहीं मिलता और नई तकनीकें विकसित करने में रूकावट आती है. मच्छरों के नियंत्रण के मामले में यह समस्या और अधिक बढ़ जाती है. हालांकि इसे रोकना बेहद जरूरी है. इसीलिए विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा गर्म इलाकों की बीमारियों के बारे में अनुसंधान व प्रशिक्षण हेतु विशेष कार्यक्रम में नियामन एजेंसियों से आह्वान किया गया है कि ‘‘विज्ञान-आधारित, मामला-दर-मामला लक्षित आवश्यकताओं’’ पर जोर दें. दूसरे शब्दों मेें इन नियामकों को इन ईजादों पर जन स्वास्थ्य लागतों व लाभों के आलोक में विचार करना चाहिए और अपनी समीक्षा को तेज करना चाहिए. मच्छर-जनित बीमारियों से लोगों द्वारा सहे जा रहे कष्टों के संदर्भ में सरकारों में नेताओं को जीनेटिक-इंजीनियरिंग से उपजे समाधानों को उस तरह से नियंत्रित नहीं करना चाहिए जिस तरह से जीनेटिक इंजीनियरिंग से बने उत्पादों को किया गया था. उनमें राजनेताओं ने अपने राजनीतिक हितों और लोकप्रियतावादी राजनीति को सर्वोपरि रखा था. केवल समझदारीपूर्ण और तथ्यों पर आधारित नियमन द्वारा ही दुनिया को जीनेटिक इंजीनियरिंग की बीमारियों से लड़ने की पूरी क्षमता का लाभ पहुंचाया जा सकता है. हाथीदाँत को जलाने के पक्ष में जोहान्सबर्ग - केन्या हाथीदाँत के अपने पूरे ज़खीरों को नष्ट करने जा रहा है। अवैध रूप से एकत्र किया गया (शिकारियों या व्यापारियों से ज़ब्त किया गया) और प्राकृतिक रूप से (प्राकृतिक मृत्यु से) प्राप्त होनेवाला, दोनों ही प्रकार का 100 मीट्रिक टन से अधिक का “व्हाइट गोल्ड” इस सप्ताह के अंत में धुएँ में विलीन हो जाएगा। चीन में – जहाँ दुनिया के हाथीदाँत की सबसे अधिक मात्रा में खपत होती है या उसके ज़खीरे हैं – हाल ही में बताई गई कीमत $1,100 प्रति किलोग्राम है, जिससे जलाई जानेवाली सामग्री का कुल मूल्य मोटे तौर पर $110 मिलियन बैठता है। अधिकतर अर्थशास्त्रियों के अनुसार, इतने अधिक मूल्य वाली किसी चीज़ को नष्ट करने का विचार अभिशाप है। लेकिन केन्या जैसे किसी भी गरीब देश के लिए अपने हाथीदाँत की दौलत को आग की लपटों के हवाले करने के लिए ठोस कारण हैं। आरंभकर्ताओं के लिए, ज़खीरों को नष्ट करने के फलस्वरूप पूर्व एशिया में माँग में कमी के अभियानों की विश्वसनीयता को बल मिलता है, जिसके बिना अवैध शिकार की समस्या को कभी भी हल नहीं किया जा सकेगा। माँग में कमी करने का उद्देश्य उपभोक्ता की रुचियों को बदल कर इस उत्पाद के लिए बाजार को कमजोर करना है। जब कीमतों में कमी होगी, तो शिकारियों के लिए हाथियों को मारने के लिए प्रोत्साहन कम होगा। जब देश अपने ज़खीरों को बनाए रखते हैं, तो वे इस बात का संकेत देते हैं कि उन्हें आशा है कि वे भविष्य में हाथीदाँत बेचने में सक्षम होंगे। इससे माँग में कमी के प्रयासों की विश्वसनीयता को बट्टा लगता है; यदि व्यापार के किसी दिन वैध होने की संभावना है, तो हाथीदाँत की खपत के साथ जुड़ा कोई भी कलंक धुल जाएगा। विनियमित, अंतर्राष्ट्रीय हाथीदाँत के कानूनी व्यापार के समर्थक यह तर्क देते हैं कि माँग में कमी के प्रयास सीमित वैध आपूर्ति के साथ-साथ रह सकते हैं। लेकिन इस तरह के तर्क में एक खतरनाक कमजोरी है: इसमें यह मान लिया जाता है कि कानूनी कार्टल – जो आपूर्ति के विनियमन के लिए प्रस्तावित मॉडल है - बाजार में कम कीमत पर हाथीदाँत उपलब्ध करके अवैध आपूर्तिकर्ताओं को बाहर कर देगा। यह धारणा पूर्णतः संदिग्ध है। किसी कानूनी व्यवस्था के ज़रिए बेची जानेवाली मात्राएँ बाजार को पाटने और कीमत को कम करने के लिए अपर्याप्त होंगी। दरअसल, चूंकि वैध व्यापार से माँग में कमी के प्रयासों को क्षति पहुँचेगी, इसलिए हाथीदाँत की कीमत अधिक रहने की संभावना है, जिससे यह सुनिश्चित होगा कि अवैध शिकार बदस्तूर जारी रहता है। कुछ दक्षिणी अफ्रीकी देशों का तर्क है कि हाथियों की आबादी को स्वस्थ बनाए रखने के उद्देश्य से संरक्षण प्रयासों को निधि प्रदान करने के लिए उन्हें अपने हाथीदाँतों को सीआईटीईएस-अनुमति वाली एकबारगी बिक्री के रूप में बेचने की अनुमति दी जानी चाहिए। लेकिन, कुछ देशों में इस बात की कम संभावना को देखते हुए कि राजस्व का उपयोग इस उद्देश्य को पूरा करने के लिए किया जाएगा, यह स्पष्ट नहीं है कि इससे अधिक धन प्राप्त होगा। सीआईटीईएस के विनियमों के तहत , सरकारों को केवल अन्य सरकारों को ही बिक्री करने की अनुमति होती है। लेकिन दूसरी सरकारें जितना पैसा देने के लिए तैयार होंगी वह अवैध मूल्य के दसवें हिस्से जितना कम हो सकता है। और फिर भी, सरकारें केवल प्राकृतिक रूप से प्राप्त किए गए हाथीदाँत को ही बेच सकती हैं, शिकारियों या अवैध डीलरों से ज़ब्त किए गए माल को नहीं। चीन और संयुक्त राज्य अमेरिका घरेलू हाथीदाँत के व्यापार पर प्रतिबंध लगाने की प्रक्रिया में हैं, इसलिए यह स्पष्ट नहीं है कि अफ्रीका के ज़खीरों को खरीदने में किन सरकारों की दिलचस्पी होगी। वियतनाम और लाओस संभावित उम्मीदवार हैं, लेकिन वे भी बदनाम "स्वर्ण त्रिभुज" का हिस्सा हैं जहाँ वन्य जीवन और वन्य जीवन के उत्पादों का अवैध व्यापार फलफूल रहा है। हाथीदाँत के कानूनी व्यापार के असंतोषजनक तरीके से विनियमित बाजारों में स्थानांतरित हो जाने की संभावना को देखते हुए ठोस अंतर्राष्ट्रीय प्रतिक्रिया की आवश्यकता प्रतीत होती है, जिसका नेतृत्व अफ्रीकी सरकारों को चीन जैसे देशों के साथ मिलकर हाथी संरक्षण पहल जैसे गठबंधनों के जरिए करना चाहिए। ज़खीरों का संरक्षण करना - न कि उन्हें जलाना - निकृष्ट विकल्प है। किसी ज़खीरे को बनाए रखना प्रशासकीय और प्रचालन की दृष्टि से महँगा - और अक्सर बेकार होता है। इन्वेंटरी प्रबंधन श्रम-प्रधान और प्रौद्योगिकी दृष्टि से महँगा होता है। हाथीदाँत को भी वातानुकूलित रखना चाहिए ताकि हाथी के नुकीले दाँतों में दरार न पड़े या वे भुरभुरे न हो जाएँ (उच्च मूल्यों को आकर्षित करने के लिए ये महत्वपूर्ण कारक हैं)। भविष्य में हाथीदाँत को बेच पाने की संभावना कम होने को देखते हुए, इसके भंडारण और संरक्षण की लागत वसूल होने की संभावना नहीं है। इस बीच, आपराधिक गिरोहों को सामान चोरी-छिपे ले जाने के लिए केवल मुट्ठी भर स्थानीय अधिकारियों को रिश्वत देने की ज़रूरत होती है। इतना ही नहीं, इसके ज़खीरों को बनाए रखने के लिए निवेश की अवसर लागतें उच्च होती हैं। ज़खीरों के प्रबंधन के लिए आवंटित दुर्लभ मानव और वित्तीय संसाधनों को लैंडस्केप संरक्षण के प्रयासों (जो पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं के लिए भुगतान के जरिए समय के साथ आत्मनिर्भर बन सकते हैं) की ओर अधिक कुशलता से निर्देशित किया जा सकता है। अंत में, लाखों डॉलर के हाथीदाँत को जलाने का निर्विवाद रूप से प्रतीकात्मक प्रभाव पड़ता है। इससे यह स्पष्ट संदेश जाता है: हाथीदाँत हाथियों का होता है और किसी और का नहीं। और इससे यह स्पष्ट होता है कि मरे हुए हाथियों की बजाय जीवित हाथियों का मूल्य अधिक होता है। दरअसल, हाथियों का मूल्य मात्र प्रतीकात्मक होता है। हाथी महत्वपूर्ण पारिस्थितिकी तंत्रों के संरक्षण के लिए महत्वपूर्ण प्रजातियाँ हैं। और फिर भी अफ्रीका में बड़े पैमाने पर अवैध शिकार से हाथियों की आबादियाँ नष्ट हो रही हैं, हर वर्ष औसतन 30,000 हाथी मारे जाते हैं। अवैध शिकार का समुदायों पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ता है, कई लोगों की कीमत पर कुछ लोग इसका लाभ उठाते हैं। हाल की शोध से पता चला है कि उत्तरी केन्या में सामुदायिक संरक्षण क्षेत्र (वन्य जीव संरक्षण क्षेत्रों के लिए अलग निर्धारित क्षेत्र), लैंडस्केप (और इसलिए हाथी) के संरक्षण के लिए अत्यधिक प्रभावी रूप हैं, बशर्ते उचित प्रोत्साहनों की व्यवस्था हो। यह इसलिए महत्वपूर्ण है कि केन्या और तंजानिया जैसे देशों में अधिकतर वन्य जीवन औपचारिक रूप से संरक्षित क्षेत्रों के बाहर मौजूद है। बुद्धिमत्तापूर्ण और कुशल निर्णय लेने के लिए केन्या की सराहना की जानी चाहिए। इसके पड़ोसियों, और साथ ही सुदूर दक्षिण के देशों को भी इसके उदाहरण का अनुसरण करना चाहिए। आदर्श रूप में, क्षेत्रीय रूप से सामूहिक कार्रवाई करने की समस्या को दूर करने के लिए श्रेणी-राज्य वाले सभी देशों को अपने ज़खीरे नष्ट कर देने चाहिए। ऐसा करने से वैश्विक बाजार को एक स्पष्ट संकेत जाएगा: हाथीदाँत बिक्री के लिए नहीं है, अब भी नहीं और भविष्य में भी नहीं। अच्छी बाड़ से सभी जीव-जंतुओं की सुरक्षा होती है नैरोबी - अफ्रीकी देशों की अक्सर आलोचना की जाती है कि वे पर्यावरण की चुनौतियों का सामना नहीं कर पाते. प्रेक्षक अक्सर इस बात की चर्चा करते हैं कि जनसंख्या में वृद्धि, भूमि के क्षरण और औद्योगिकीकरण की वजह से वन्यजीवन की हानि होती है। इनका सबसे बड़ा आरोप यही होता है कि अवैध शिकार की वारदातें बढ़ते जाने से हाथी और गैंडे जैसी प्रजातियाँ दुर्लभ होती जा रही हैं। तथापि, केन्या में एक नवोन्मेषी और व्यापक संरक्षण परियोजना चल रही है। इसकी शुरूआत मध्यवर्ती केन्या के एबेरडेयर पर्वतों से हुई। “राइनो आर्क” नाम से शुरू की गई इस परियोजना का लक्ष्य मूलतः अवैध शिकारियों के कहर से अत्यंत दुर्लभ काले गैंडों को संरक्षण प्रदान करना था। इस परियोजना के समर्थन में वे सब लोग खड़े हो गए, जिनसे आशंका थी कि वे इसका विरोध करेंगे। ��समें खास तौर पर देश के कुछ सर्वाधिक ऊपजाऊ कृषि क्षेत्रों के स्थानीय लोग थे। सन् 1988 में संरक्षणकर्ताओं ने छोटी-छोटी जोत वाले खेतों से घिरे एबेरडेयर राष्ट्रीय पार्क को बचाने के लिए बिजली के करंट वाली बाड़ के लिए धन जुटाने और उसका निर्माण करने का निश्चय किया। ऐसी बाड़ के निर्माण का मकसद इस पार्क में लोगों की घुसपैठ और पार्क के वन्यजीवन के क्षरण को रोकना था। लेकिन इससे उन किसानों को भी संरक्षण मिला जिनकी फसल आवारा हाथी और दूसरे वन्यजीव हमेशा बर्बाद कर देते थे। स्थानीय किसानों ने इस पहल का स्वागत किया, जिससे प्रेरित होकर पूरी एबेरडेयर पर्वत शृंखला की परिधि को बाड़ से घेरने के निर्णय को बल मिला। 2,000 वर्ग किलोमीटर में फैली हुई एबेरडेयर पर्वतमालाएँ, स्थानीय वनक्षेत्र, महत्वपूर्ण जलागम क्षेत्र और राष्ट्रीय पार्क केन्या के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं। इस देश की चार बड़ी नदियों का उद्गम स्थल यहाँ पर है जो उत्तर, पश्चिम, पूर्व और दक्षिण की ओर बहती हैं, ये नदियाँ राजधानी नैरोबी सहित देश के सात बड़े शहरों को जल और बिजली प्रदान करती हैं। पर्वतमाला की तलहटी में चालीस लाख किसानों को उर्वर भूमि और अच्छी वर्षा का लाभ मिलता है। तलहटियों और ऊँची ढलानों पर केन्या की 30 प्रतिशत चाय और 70 प्रतिशत कॉफी का उत्पादन होता है। लगातार 21 सालों तक एबेरडेयर पर्वत शृंखला के चारों ओर बहुत मेहनत से जो बाड़ लगाई गई है उसे बनाने में खास तौर पर केन्या के कॉर्पोरेट क्षेत्र, निजी दानकर्ताओं और नए-नए ढंग से धनराशि जुटाने वालों का बहुत सहयोग मिला है। गैंडा-शुल्क और ऑफ़ रोड मोटर ईवेंट जैसे कार्यक्रमों की अनूठी कल्पनाओं से आम लोग बहुत प्रभावित हुए। इनसे सालाना $1 मिलियन से अधिक की आय प्राप्त होती है। सन् 2009 में जब तक बिजली के करंट वाली तार की बाड़ बनाने का काम पूरा हुआ था तब तक उस समय की सरकार के तत्कालीन राष्ट्रपति मवाई किबाकी इस परियोजना के मूल भागीदार बन चुके थे और केन्या वन्यजीव सेवा (केडब्ल्यूएस) और केन्या वन्य सेवा (केएफएस) भी इस परियोजना से पूरी तरह से जुड़ चुके थे। केन्या की सरकार के सहयोग से राइनो आर्क ने उन दूसरे वन्य क्षेत्रों की ओर भी ध्यान देना शुरू किया है जो निम्न श्रेणी के हैं - जैसे माउ वनांचल में नायवाशा झील से दिखने वाले माउंट एबुरु और विश्व धरोहर स्थल के रूप में मान्यताप्राप्त माउंट केन्या, जो मानव और वन्य जीव-जंतुओं के संघर्षों से बुरी तरह प्रभावित है। एबुरु पर्वत की 45 किलोमीटर की बाड़ का काम गत वर्ष ही पूरा हुआ है। माउंट केन्या की 450 किलोमीटर लंबी बाड़ एबेरडेयर परियोजना से भी लंबी होगी, और यह कार्य तेज़ गति से हो रहा है जिसमें अब तक 80 किलोमीटर बाड़ लगाने का काम पूरा हो चुका है। निश्चय ही, बाड़ लगाना तो बस इस काम की शुरूआत है। बाड़ों का प्रबंध और रखरखाव (उदाहरण के तौर पर एबेरडेयर की मूल बाड़ के कुछ खंभों को बदलना पड़ा था) करना होता है तथा वन्य जीवों के गलियारों का विकास करना होता है, और स्थानीय लोगों को सहयोग की आवश्यकता होती है। बाड़ के सभी क्षेत्रों पर हवाई तथा पैदल निगरानी की जाती है, यह लगातार निगरानी की प्रक्रिया है जिस पर बहुत अधिक लागत आती है। तथापि, इससे होने वाले लाभ काफी महत्वपूर्ण हैं। ये बाड़ें खास तौर पर अधिकारियों को हाथी, गैंडा और बोंगो ऐंटीलोप जैसी उन तमाम दुर्लभ प्रजातियों के अवैध शिकार की वारदातों से भी पूरी तरह सतर्क रखती हैं, जो अब केवल एबेरडेयर, माउंट केन्या, और माउंट एबुरु सहित माउ वनांचल में ही पाई जाती हैं। स्थानीय समुदायों को बाड़ और वनों के रख-रखाव के सभी कामों में शामिल किया जाता है। वस्तुतः वे ही इन बाड़ों के संरक्षक हैं, वे उनके आसपास खर-पतवार की सफाई करते हैं और वन्य जीवों या अन्य कारणों से होने वाली क्षति की मरम्मत के काम को देखते हैं - इस प्रक्रिया में वे नए-नए कौशल भी सीखने लगे हैं। दीर्घगामी लक्ष्य इन विकट वनों की निरंतर सुरक्षा करना है। इसके लिए निजी-सार्वजनिक भागीदारी के अंतर्गत राइनो आर्क, केडब्ल्यूएस और केएफएस, और स्थानीय समुदायों के प्रतिनिधियों के संयुक्त तत्वावधान में धर्मादा निधियाँ स्थापित की जा रही हैं। इन निधियों का प्रबंध स्थानीय तौर पर स्थापित तथाकथित न्यास निधियों के ज़रिए होगा, जो बाड़ के रखरखाव पर खर्च किया जाएगा। एबेरडेयर न्यास निधि पिछले वर्ष अक्तूबर में लागू हुई। इस क्षेत्र के परिश्रमी किसानों को अब बाड़ के साथ जीवन बिताने के कारण उससे मिलनेवाले लाभ भी दिखाई देने लगे हैं। एबेरडेयर बाड़ का काम पूरा हो जाने के बाद स्थानीय किसानों की ज़मीन की कीमत चार गुना बढ़ गई है। पिछली एक सदी में पहली बार वे अपने खेतों पर शांति से काम कर पा रहे हैं, उनके बच्चे अब वन्य जीवों के हमलों के डर के बिना स्कूल जा-आ सकते हैं, और संरक्षण अब उनके पाठ्यक्रम का हिस्सा बन गया है। इससे मिली सीख एकदम साफ़ है - अच्छी बाड़ों से सभी का भला होता है। मादक औषधियों के विरुद्घ पश्चिम अफ्रीका का दिशाहीन युद्घ अक्रा – यूनाइटेड किंगडम के ऑफिस फॉर नैशनल स्टैटिस्टिक्स के अद्यातन् अनुमान के अनुसार अवैध औषधियों के कारोबार से वहां की अर्थव्यवस्था में हर साल 4.4 अरब पौंड (7.6 अरब डॉलर) जुड़ते हैं. इससे अवैध मादक पदार्थों के कारोबार के सिर चकराने वाले विशाल पैमाने का आभास होता है. पश्चिम अफ्रीका जैसे क्षेत्रों के लिए जिनकी अर्थव्यवस्था ना तो यूके जैसी विशाल है और ना ही विकसित इस गतिविधि का प्रभाव कहीं अधिक घातक हो सकता है. आज पश्चिम अफ्रीका अधिकाधिक वैश्विक मादक पदार्थों के व्यापार में उलझता जा रहा है. इसकी अवस्थिति इसे लैटिन अमेरिकी व एशियाई उत्पादन केंद्रों और यूरोप तथा संयुक्त राज्य अमेरिका के उपभोक्ता बाजारों के बीच बड़े पारगमन बिंदु के रूप में दुरुपयोग होने के नाते और कमजोर बना रही है. परंतु मध्य अमेरिका का अनुभव दर्शाता है कि पारगमन वाले देशों का केवल मादक पदार्थों की तस्करी के लिए गलियारे के तौर पर ही उपयोग नहीं होता है. अवैध औषधियों और उनसे जुड़े धन के कारण उनके समाज में अस्थिरता भी फैलती है. यह उद्विग्नकारी घटनाक्रम - जो ‘‘मादक औषधियों के खिलाफ विफल वैश्विक लड़ाई’’ का दुष्परिणाम है - हमारे क्षेत्र में जो कुछ आर्थिक व सामाजिक लाभ मिलने लगे हैं उन्हें उलटा कर देने का खतरा उत्पन्न कर रहा है. अभी तक पश्चिम अफ्रीका सबसे बुरी सीमित किंतु नियमित हिंसा से बचा रहा है जिनसे मध्य अमेरिका औषधियों के पारगमन के दौरान ग्रस्त रहा है. लेकिन क्योंकि इस धंधे में भारी रकम दांव पर रहती है, अतः सुस्ती की कोई गुंजाइश नहीं है. पश्चिम अफ्रीका में कोकीन व्यापार का पैमाना तो उस क्षेत्र के अनेक देशों के मिले-जुले सरकारी बजट से भी कहीं अधिक है. हम जानते हैं कि मादक पदार्थों के व्यापार ने गिनी-बिसाऊ और माली जैसे देशों में राजनीतिक उथल-पुथल में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष भूमिका निभाई है. इसलिए मादक पदार्थों के तस्करों के खिलाफ राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय प्रयास तेज करने होंगे. इसमें उन लोगों को निशाना बनाना चाहिए जो नेटवर्कों को चलाते हैं बजाय इसके कि उनके प्यादों को पकड़ने में विरल कानून प्रवर्तन संसाधनों को जाया किया जाए. हमें उन लोगों को पकड़ना होगा जो इस धंधे में सबसे ज्यादा लाभ कमाते हैं भले ही वे कोई भी हों और उनकी कैसी भी हैसियत हो. लेकिन इस क्षेत्र के देशों में केवल मादक पदार्थों के अवैध कारोबार के कारण ही अस्थिरता नहीं आ रही हैः इन पदार्थों की खपत/सेवन भी बड़ी समस्या बनती जा रही है. मेरे द्वारा गठित और नाइजीरिया के पूर्व राष्ट्रपति ओलुसेगुन ओबासांजो की अध्यक्षता वाले वेस्ट अफ्रीका कमीशन ऑन ड्रग्स की ताजा रिपोर्ट बताती है कि कोकीन, हैरोइन और स्थानीय स्तर पर निर्मित मेथएम्फीटामीन जैसी नशीली दवाएं इस पूरे क्षेत्र में खुलेआम बिक रही हैं. इससे इस इलाके के खासकर युवा लोगों में इन दवाओं का उपयोग और उन पर निर्भरता बढ़ रही है. लेकिन यह पूरा क्षेत्र दवाओं के उपयोग और उन पर निर्भरता से निपटने के लिए ना तो तैयार है और ना ही उनके पास इतने साधन हैं. कुल मिला कर ये किया जा रहा है कि दवाओं का उपयोग करने वालों को प्रताडि़त और दंडित किया जाता है. पर उन्हें समाज के हाशिये पर ढकेलने या जेल में डालने मात्र से ही समस्या का समाधान नहीं होगा. इसके विपरीत इससे स्वास्थ्य समस्याएं और विकराल होंगी जिससे पश्चिम अफ्रीका की पहले से काम के बोझ से दबी न्यायिक व्यवस्था पर और भारी दबाव पड़ेगा. इसकी बजाए कमीशन की रिपोर्ट में नशीली दवाओं के दुरुपयोग से निपटने के लिए अलग तरीका सुझाया गया है. इसमें इसे अपराध-न्याय मुद्दे के रूप में नहीं बल्कि जन-स्वास्थ्य समस्या के तौर पर देखा गया है. इसका अर्थ है कि नशीली दवाओं की लत के उपचार की सुविधाओं व कार्यक्रमों के लगभग पूर्ण अभाव को दूर किया जाए और दवाओं के दुरुपयोग के नियंत्रण व निगरानी के लिए प्रशिक्षित कर्मियों की नियुक्ति की जाए. कमीशन को ज्ञात है कि पहले से खस्ताहाल स्वास्थ्य-सेवा बजटों पर और भी अन्य जरूरी मांगों का दबाव है. लेकिन इस चुनौती का इतना अधिक महत्त्व है - और इससे पार पाने में विफलता के गंभीर परिणाम होंगे - कि कमीशन का सुझाव है कि इस पूरे क्षेत्र में न्यूनतम मानक वाली किसी दवा-उपचार नीति को तुरंत अपनाया जाए. इसमें दवाओं की लत के उपचार व संबंधित स्वास्थ्य सेवाओं की स्थापना शामिल हैं. नुकसान को कम करने वाले उपाय भी लागू करने होंगे, यथा सुइयों की अदला-बदली के कार्यक्रम जो एचआईवी व दवाओं से जुड़ी मौतों को कम करने में अपनी उपयोगिता साबित कर चुके हैं. आज तक पूरे पश्चिम अफ्रीका में सेनेगल ही एकमात्र देश है जिसने अपने यहां सरकार द्वारा संचालित हानि-न्यूनीकरण कार्यक्रम को कुछ हद तक लागू किया है. नशीली दवाओं के प्रभाव से निपटने के लिए जानकारीपूर्ण, मानवीय तथा सुसंगठित नीति अपनाने के लिए नेतृत्व की जरूरत है जिसके लिए इस क्षेत्र के सभी देशों को मिल-जुल कर प्रयास करने होंगे. इसके लिए कमीशन सरकारों, नागरिक-सामाजिक समूहों तथा क्षेत्रीय संगठनों से साझी-प्रतिबद्घता का आवाह्न करता है. हम इस मुद्दे को और अधिक दरी के नीचे नहीं छिपा सकते हैं और ना ही ये कह सकते हैं कि यह हमारी समस्या नहीं है. रिपोर्ट इन प्रयासों के लिए अंतर्राष्ट्रीय समुदाय से और अधिक समर्थन का आग्रह करती है. पश्चिमी अफ्रीकी देश अवैध नशीली दवाओं के उत्पादन व सेवन के प्रमुख केंद्र हैं. इन देशों को नशीली दवाओं की रोकथाम, उपचार तथा नुकसान को कम करने के उपायों पर धन खर्च करना चाहिए बजाए इसके कि वे धरपकड़ और कानून लागू करने में निवेश करें. दिशा परिवर्तन के बगैर पश्चिमी अफ्रीका में दवाओं की तस्करी, उत्पादन व दुरुपयोग संस्थाओं की अहमियत कम करते रहेंगे, जन स्वास्थ्य को खतरा उत्पन्न करेंगे तथा विकास व तरक्की को नष्ट करते रहेंगे. लेकिन दवाओं संबंधी कानूनों में सुधार, पुराने नशेडि़यों को उपचार की सुविधाएं प्रदान करने तथा ऊंची हैसियत वाले तस्करों को पकड़ने से समुदायों, परिवारों व व्यक्तियों पर नशीली दवाओं के विनाशकारी प्रभाव कम होंगे. राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय प्रयासों पर पुनः दृष्टि केंद्रित करने का साहस होना चाहिए. इससे हम यह सुनिश्चित कर सकेंगे कि हमारे युवा स्वस्थ व सुरक्षित रूप से पनप सकें. भारत की घातक प्रवेश परीक्षाएँ नई दिल्ली – अप्रैल के अंतिम दिनों में कीर्ति त्रिपाठी नाम की एक 17 साल की लड़की ने प्रतिष्ठित भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) में प्रवेश के लिए देश की परीक्षा उत्तीर्ण कर लेने के शीघ्र बाद कोटा, भारत में कूद कर अपनी जान दे दी। एक सप्ताह बाद, कोटा की एक और छात्रा, प्रीति सिंह ने खुद को फांसी पर लटका दिया, और कुछ दिनों के बाद चोटों के चलते उसकी मृत्यु हो गई। सिंह का कोटा में अकेले इस वर्ष के दौरान किसी छात्र द्वारा आत्महत्या करने का नौवां मामला था, और पिछले पांच साल में यह 56वां मामला था। इन सभी ने कोटा की "कोचिंग संस्थाओं" में अध्ययन किया था, जिनका एकमात्र उद्देश्य हाई स्कूल के छात्रों को आईआईटी की संयुक्त प्रवेश परीक्षा (जेईई) के लिए तैयार करना है। पांच पृष्ठ के सुसाइड नोट में त्रिपाठी ने इस बात पर निराशा व्यक्त की कि उसे इंजीनियरिंग का अध्ययन करने के लिए मजबूर किया गया था, जबकि उसकी वास्तविक महत्वाकांक्षा नासा वैज्ञानिक बनने की थी। उसने उस दबाव का भी वर्णन किया जिसका उसे कोचिंग संस्था में सामना करना पड़ा था। त्रिपाठी ने मानव संसाधन विकास मंत्रालय से विनती की कि ऐसी संस्थाओं को बंद कर दिया जाना चाहिए जो अपने छात्रों को असहनीय तनाव और अवसाद सहने के लिए मजबूर करती हैं। यह कहानी बिल्कुल आम है, लेकिन क्या दोष वास्तव में कोचिंग संस्थाओं पर मढ़ा जाना चाहिए? वास्तव में, कोटा की कोचिंग संस्थाएं किसी बड़ी समस्या का लक्षण हैं, जिसका संकेत शहर के वरिष्ठ प्रशासक, जिला कलेक्टर रवि कुमार सुरपुर ने हाल ही में हुई इन मौतों की प्रतिक्रिया में लिखे एक भावनात्मक पत्र में किया है। बच्चों के माता-पिता को सीधे संबोधित करते हुए, सुरपुर ने उनसे अनुरोध किया है क��� वे अपने बच्चों के ज़रिए परोक्ष रूप से अपनी इच्छाओं को फलीभूत करने के प्रयास में उनको अत्यधिक तनाव में न रखें। भारतीय माता-पिता अपने बच्चों से अकादमिक उत्कृष्टता की मांग करने के लिए मशहूर हैं। वे जानते हैं कि सही क्षेत्र में किसी पेशेवर डिग्री का होना सामाजिक और आर्थिक उन्नति का महामंत्र है, इसलिए वे यह सुनिश्चित करने के लिए पूरा जोर लगाते हैं कि उनके बच्चों के पास ऐसी कोई डिग्री हो - पर यह एक ऐसी चीज़ है जिसे भारत की उच्च शिक्षा प्रणाली में हासिल करना आसान नहीं है। शैक्षणिक महत्वाकांक्षा की गहरी जड़ें जमा चुकी इस संस्कृति को देखते हुए, कोटा की कोचिंग संस्थाओं की स्थितियों की प्रशासनिक जांच करने की जो योजना बनाई गई है उसके फलस्वरूप किसी सुधारात्मक कार्रवाई होने की संभावना नहीं है। इस संस्कृति का युवा लोगों पर पड़नेवाला दुष्प्रभाव स्पष्ट है। छात्रों को क्रूर कठिन परीक्षाएं पास करने के लिए मजबूर किया जाता है - हर साल आईआईटी-जेईई की परीक्षा देने वाले 5,00,000 छात्रों में से केवल लगभग 10,000 ही उन विषयों में प्रवेश पाने के लिए पर्याप्त ऊंचे अंक प्राप्त कर पाते हैं जिन विषयों से वे अक्सर घृणा करते हैं। और भारतीय छात्रों में इस बात की संभावना बहुत अधिक होती है कि वे ड्रॉप करने के बजाय तब तक जोर लगाते रहेंगे जब तक वे टूट नहीं जाएंगे। मध्यवर्गीय भारतीय माता-पिता के लिए इंजीनियरिंग और चिकित्सा पसंद के विषय बने हुए हैं। देश में हर साल आधा लाख इंजीनियर स्नातक तैयार होते हैं, जिनमें से लगभग 80% ऐसी नौकरियों में लग जाते हैं जिनके लिए इंजीनियरिंग की डिग्री की आवश्यकता नहीं होती है। लेकिन, बीसवीं सदी के मध्य की पुरानी चाल वाले भारतीय माता-पिता अभी भी इंजीनियरिंग को आधुनिकता के प्रवेश द्वार के रूप में देखते हैं, और वे इसका अध्ययन करने के लिए अपने बच्चों पर दबाव डालते रहते हैं। जो छात्र किसी आईआईटी में प्रवेश नहीं ले पाते हैं वे अलग-अलग गुणवत्ता वाली संस्थाओं में पहुंच जाते हैं, जिनमें से कई संस्थाएं अपने स्नातकों को आज के श्रम बाजार के लिए तैयार नहीं करती हैं। लेकिन कम से कम भारत में पर्याप्त इंजीनियरिंग कॉलेज हैं जिनसे मांग को पूरा किया जा सकता है। इसके विपरीत, चिकित्सा निराशाजनक रूप से भीड़ भरा क्षेत्र है - और इसका कोई पुख्ता कारण नहीं है। भारत का चिकित्सा पेशा एक अपारदर्शी और स्वयं सेवा की साज़िश वाली भारतीय चिकित्सा परिषद द्वारा नियंत्रित किया जाता है, जिसने जानबूझकर मेडिकल कॉलेजों की उपलब्ध सीटों की आपूर्ति को सीमित किया हुआ है। मेडिकल कॉलेजों को भारतीय चिकित्सा परिषद (एमसीआई) द्वारा मान्यताप्राप्त होना चाहिए, जिसने केवल 381 कॉलेजों को अस्तित्व में रहने के लिए अनुमति देना उचित समझा है। इससे 1.2 अरब लोगों के इस देश में हर साल केवल 63,800 सीटें ही उपलब्ध हो पाती हैं जिससे मेडिकल विषय में प्रवेश लेने के इच्छुक भारतीय छात्रों में से 1% से भी कम के लिए जगह होती है। मानो यह स्थिति इतनी खराब नहीं भी है, तिस पर इनमें से कुछ सीटें इन्हें खरीदने की क्षमता रखनेवाले धनाढ्य लोगों को "दान" के एवज में दी जाती हैं जो उनके अंकों के अनुसार योग्यता की श्रेणी में नहीं आती हैं। इस बीच, उच्च अंक प्राप्त करनेवाले छात्रों को - जो बहुत कम अंकों के अंतर से कटऑफ सूची से बाहर रह गए थे - अन्य विकल्प खोजने पड़ते हैं, या कोई अन्य बिल्कुल अलग विषय लेना पड़ जाता है। जिन बच्चों के परिवार खर्च बर्दाश्त कर सकते हैं वे अक्सर विदेशों में चिकित्सा का अध्ययन पूरा कर लेते हैं। इनमें से कई भारत नहीं लौटते हैं, जिससे देश उनकी अत्यावश्यक विशेषज्ञता से वंचित रह जाता है। जो छात्र जॉर्जिया या चीन जैसे देशों में अविख्यात कॉलेजों में अध्ययन पूरा कर लेने के बाद वापस लौटते हैं, एमसीआई द्वारा उनकी डिग्री को मान्यता नहीं दी जाती है और उन्हें प्रैक्टिस करने से मना कर दिया जाता है। जो छात्र विदेशों में जाने का खर्च वहन नहीं कर सकते हैं - ऐसे मेधावी छात्र जो किसी भारतीय विश्वविद्यालय में स्थान पाने के लिए बहुत कम अंकों के अंतर से कटऑफ सूची से बाहर रह गए थे - उनके लिए चिकित्सा का अध्ययन करने का विकल्प नहीं बच रहता है। फिर भी भारत को डॉक्टरों की सख्त जरूरत है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, इस देश में प्रति 1,000 व्यक्ति 0.7 डॉक्टर हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका और यूनाइटेड किंगडम में - जिन दोनों देशों में भारतीय डॉक्टर अक्सर प्रवास करते हैं - यह दर क्रमशः प्रति 1000 व्यक्ति 2.5 डॉक्टर और प्रति 1,000 व्यक्ति 2.8 डॉक्टर है। क्षमता की गंभीर कमी का अर्थ है कि चिकित्सा सुविधा के अभाव में हर दिन जीवन नष्ट हो रहे हैं - विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में। भारत में हर साल जितने डॉक्टर स्नातक बनते हैं उससे चार या पांच गुना सक्षम डॉक्टर स्नातक बनाए जा सकते हैं। फिर भी एमसीआई को अपने प्रतिबंधात्मक दृष्टिकोण को जारी रखने की अनुमति दी गई है, जिससे गरीब भारतीय पर्याप्त स्वास्थ्य देखभाल से वंचित रहते हैं, जबकि किसी मेडिकल कॉलेज में एक सीट हासिल करने के लिए छात्रों पर पहले से ही पड़ रहा भारी दबाव और अधिक बढ़ जाता है। यही वह संदर्भ है जिसके कारण कोटा में इस तरह की कोचिंग संस्थाएं पनप रही हैं - एक विशाल जनसंख्या व्यावसायिक कॉलेजों में उपलब्ध बहुत थोड़ी-सी सीटों के लिए प्रतिस्पर्धा कर रही है। जब अपने शैक्षिक लक्ष्यों को पूरा करने के लिए कठिन प्रवेश परीक्षाओं में सफल होना ही एकमात्र रास्ता हो, तो परीक्षा की तैयारी करना ही स्कूली शिक्षा का परम लक्ष्य बन जाता है। महत्वाकांक्षी माता-पिता को संतुष्ट करने के लिए उत्सुक, युवा लोग झूठी मर्यादा की वेदी पर अपने स्वयं के हितों का बलिदान कर देते हैं। पिछले पांच वर्षों में कोटा में जलाई गई 56 चिताएं इसका दुःखद साक्ष्य हैं कि अकादमिक श्रेष्ठता का यह विचार कितना घातक हो सकता है। समावेशी विकास का आकलन वाशिंगटन, डीसी – अगले वर्ष जब मिलेनियम डेवलपमेंट गोल्स (एमडीजी) की अवधि समाप्त हो जाएगी, तो विश्व इनके आरंभ किए जाने से लेकर अब तक की कई महत्वपूर्ण उपलब्धियों के बारे में बता सकेगा। इस अवधि के दौरान चरम गरीबी आधी हो गई है; एक अनुमान के अनुसार म���िन बस्तियों में रहने वाले 100 मिलियन लोगों को सुरक्षित पेय जल तक पहुँच प्राप्त हो गई है, और लाखों लोगों को स्वास्थ्य देखभाल उपलब्ध हो गई है; और लड़कियाँ अब बड़ी संख्या में शिक्षा प्राप्त कर रही हैं। लेकिन अभी काफी काम अधूरा बचा है और निष्पादन संबंधी महत्वपूर्ण विसंगतियाँ भी बनी हुई हैं। 2015 के बाद का विकास कार्यक्रम कार्यकलापों को वहाँ से जारी रखेगा जहाँ पर एमडीजी ने छोड़ा है, और साथ ही समावेशन, धारणीयता, रोज़गार, विकास, और नियंत्रण से संबंधित अतिरिक्त लक्ष्यों को भी इसमें सम्मिलित करेगा। आगामी धारणीय विकास के लक्ष्यों (एसडीजी) की सफलता इस बात पर निर्भर करेगी कि नए कार्यक्रमों का विकास, कार्यान्वयन और मूल्यांकन किस तरह किया जाता है। सुदृढ़ आर्थिक विकास लोगों को अपने जीवन को सुधारने के लिए सक्षम बनाता है और नए विचारों को फलने-फूलने के लिए जगह देता है। लेकिन इस तरह का विकास अक्सर पर्यावरण क्षरण को अपने साथ लेकर आता है जिससे मानव स्वास्थ्य और जीवन की गुणवत्ता में ह्रास होता है, जल आपूर्तियों के लिए जोखिम पैदा होता है, और पारिस्थितिकी तंत्र के साथ समझौता करना पड़ता है, जिससे भविष्य की पीढ़ियों के लिए विकास में बाधा आती है। इसके अलावा, अल्पकालिक विकास जिससे प्राकृतिक पूंजी का ह्रास होता है, विस्तार और संकुचन चक्रों के लिए संवेदनशील होता है, और जो लोग गरीबी रेखा के निकट रहते हैं, उनका स्तर और नीचे गिर जाता है। विकास पर दीर्घकालीन दृष्टि से विचार करना और सामाजिक, आर्थिक और पर्यावरणीय औचित्य के लिए उत्तरदायी होना 2015 के बाद के विकास कार्यक्रम के लिए सर्वोच्च प्राथमिकता होनी चाहिए। एसडीजी की चर्चा में अब शहरी आयोजना और जैव विविधता के साथ, भोजन, पानी, और ऊर्जा सुरक्षा को शामिल करने की आवश्यकता पर भी विचार किया जा रहा है। लेकिन देश के स्तर पर संभावित लक्ष्यों के बारे में कार्रवाई करना नीति संबंधी मार्गदर्शन और प्रगति को मापने के लिए आकलन योग्य और सार्थक संकेतकों के बिना संभव नहीं होगा। इसके आकलन का एक तरीका "प्राकृतिक पूंजी लेखाकरण" है जिसमें विकास योजना और राष्ट्रीय खातों में प्राकृतिक संसाधनों के मूल्य का आकलन ठीक उसी तरह किया जाता है जिस तरह कोई परिवार अपनी नियमित आय में से कितनी आय का उपभोग किया जाए इसका निर्णय करने के लिए अपने घर की कीमत - और उसके रखरखाव की लागत - का हिसाब लगाता है। विश्व आर्थिक मंच की हाल ही की एक रिपोर्ट में समावेशी और धारणीय विकास के लिए एक “डैशबोर्ड” का प्रस्ताव किया गया है। इस मॉडल में प्राकृतिक पूंजी लेखाकरण, मानव अवसर सूचकांक, लिंग अंतराल सूचकांक, सकल घरेलू उत्पाद के प्रतिशत के रूप में सार्वजनिक निवेश के उपायों, प्रतिस्पर्धात्मक क्षमता सूचकांक, साझा समृद्धि के संकेतकों, समग्र न किए गए बेरोज़गारी के आँकड़ों को एक जगह लाया गया है। विश्व बैंक के नेतृत्व वाली साझेदारी, संपत्ति लेखाकरण और पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं का मूल्यांकन (WAVES) ने सरकारों को यह दिखाया है कि किस तरह कुछ व्यवहार प्राकृतिक परिसंपत्तियों को कम करते हैं, और किस तरह प्राकृतिक पूंजी लेखाकरण अधिक टिकाऊ विकास नीतियाँ स्थापित करने में मदद कर सकता है। 2012 रियो + 20 शिखर सम्मेलन में एक अभियान के बाद, 70 सरकारों ने, 40 मध्यम और कम आय वाले देशों का प्रतिनिधित्व करने वाली सरकारों सहित, प्राकृतिक पूंजी लेखाकरण का समर्थन किया। इस पद्धति का दुनिया भर में पहले से ही अच्छा उपयोग किया जा रहा है। उदाहरण के लिए, “वन खातों” से यह पता चला है कि मध्य और दक्षिण अमेरिका में ग्वाटेमाला में वनों की कटाई की सबसे तेज़ दर है जहाँ परिवारों द्वारा अपनी खाना पकाने की जरूरतों को पूरा करने के लिए सबसे अधिक अनियंत्रित कटाई की जाती है। इस जानकारी ने ग्वाटेमाला सरकार को देश के वानिकी कानून की समीक्षा करने, और, जलाऊ लकड़ी के उपयोग को नियंत्रित करने, नई रणनीतियों के लिए निधियाँ मुहैया करने, वनों की अनधिकृत कटाई को रोकने, और परिवारों को वैकल्पिक ऊर्जा स्रोतों का उपयोग करने के लिए प्रोत्साहित करने के लिए प्रेरित किया है। अपनी अर्थव्यवस्था में विविधता लाने के लिए बोत्सवाना द्वारा किए गए प्रयासों में पानी की कमी के कारण बाधा आ रही है; लेकिन "पानी के खातों" से सरकार को - कृषि, खनन, और पर्यटन सहित - उन क्षेत्रों की पहचान करने में मदद मिल रही है जो पानी की कम-से-कम खपत के साथ विकास कर सकते हैं। फिलीपींस में, जहाँ मेट्रो मनीला के लगुना झील क्षेत्र में सकल घरेलू उत्पाद का 60% उद्योगों और संबद्ध सेवाओं द्वारा उत्पन्न होता है, प्रदूषण और गाद ने झील की गहराई को कम करके पहले ही एक तिहाई तक कर दिया है। "पारिस्थितिकी तंत्र खातों" ने यह निर्धारित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है कि इस संसाधन का प्रबंधन किस तरह बेहतर तरीके से किया जा सकता है। इन खातों का उपयोग भारत के हिमाचल प्रदेश राज्य में वन प्रबंधन में सुधार करने के लिए पहले से ही किया जा रहा है जहाँ वन दो प्रमुख विकास क्षेत्रों, पर्यटन और जल विद्युत उत्पादन के लिए एक महत्वपूर्ण संसाधन हैं। ये अनुभव 2015 के बाद के विकास कार्यक्रम का स्वरूप निर्धारित करने के लिए महत्वपूर्ण हैं। धारणीयता को सम्मिलित करने से सरकारें और व्यवसाय अपने निर्णयों के पर्यावरणीय प्रभाव पर विचार करने के लिए मजबूर हो जाते हैं। संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट में सभी सरकारों से आह्वान किया गया है कि वे प्राकृतिक पूंजी लेखाकरण को अपनाएँ जिसके फलस्वरूप उनके धारणीयता के प्रयास संगत, सटीक, और दीर्घकाल में तुलनीय हो सकते हैं। धारणीयता को इस रूप में संस्थागत बनाने से यह रोज़मर्रा के शासन का एक अभिन्न अंग बन जाएगी। केवल वृद्धि और विकास की व्यापक समझ को अपनाने से दुनिया असमानता और धारणीयता की गंभीर समस्याओं का समाधान कर सकती है। इस समझ को एसडीजी के मूल में रखने से भविष्य में लंबे समय तक सभी समाजों के स्वास्थ्य और भलाई को सुधारने में मदद मिलेगी। डेटा और विकास वाशिंगटन, डीसी – शताब्दी के अंत के बाद से, अंतर्राष्ट्रीय विकास समुदाय मिलेनियम डेवलपमेंट गोल्स (एमडीजी) की दृष्टि से पिछड़ गया है, जिसमें गरीबी, बाल मृत्यु-दर, और रोग सहित आठ प्रमुख क्षेत्रों में विशिष्ट लक्ष्य निर्धारित किए गए थे, जिन्हें 2015 तक प्राप्त किया जाना है। 2015 के पश्चात के विकास कार्यक्रम को तैयार करने में, एमडीजी की सफलता का लेखा-जोखा करना - और यह पहचान करना कि प्रगति में कहाँ कमी रह गई है - अत्यंत महत्वपूर्ण है। और इसके लिए यह आवश्यक है कि डेटा अधिक और बेहतर हो। इसे सुनिश्चित करने के लिए, अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं और कई विकासशील देशों ने एमडीजी के लक्ष्यों की तुलना में अपने कार्य-निष्पादन पर अधिक बेहतर निगरानी रखने के लिए अपने डेटा संग्रहण में सुधार लाने के लिए भारी मात्रा में निवेश किए हैं। वर्ष 2003 में, एमडीजी के 22 प्रमुख सूचकों में से 16 या उससे अधिक सूचकों के लिए केवल चार देशों के दो डेटा प्वाइंट थे; पिछले वर्ष तक इन देशों की संख्या बढ़कर 118 तक पहुँच गई थी। लेकिन विकासशील विश्व में विकास डेटा एक दुर्लभ संसाधन बना हुआ है। सामाजिक और आर्थिक प्रगति का आकलन करने - और उसे प्रोत्साहित करने - की दृष्टि से इनका जो महत्व है उसे देखते हुए इस कमी पर तुरंत ध्यान दिया जाना चाहिए। विकास डेटा तैयार करने और उसके उपयोग को बढ़ावा देने के लिए किसी उत्प्रेरक का होना आवश्यक है। इसे ध्यान में रखते हुए, 2015 के पश्चात के विकास कार्यक्रम के उच्च-स्तरीय पैनल ने वैश्विक “डेटा क्रांति” का जो आह्वान किया है वह उचित है। डिजिटल प्रौद्योगिकियों में हुई ज़बर्दस्त वृद्धि ने 2000 में एमडीजी आरंभ किए जाने के बाद से वैश्विक परिदृश्य को बदल दिया है। रिमोट सेंसिंग, ऑनलाइन गतिविधियों से एकत्र जानकारी, और मोबाइल फोनों से प्राप्त क्राउड-सोर्स डेटा आँकड़े एकत्र करने के पारंपरिक तरीकों के पूरक के रूप में हो सकते हैं। लोग जिस तरह डेटा तैयार करते हैं, संग्रह करते हैं, साझा करते हैं, और उनका उपयोग करते हैं उसमें प्रौद्योगिकी-संचालित जो बदलाव आया है, वह दो कारणों से विकास के प्रयासों में परिलक्षित होना चाहिए। पहला यह कि नीति-निर्माता अधिक अद्यतन डेटा प्राप्त करने के लिए उत्सुक हैं ताकि उन्हें उनके प्रयासों में मार्गदर्शन मिल सके। दूसरा, ये डेटा नई और अधिक कारगर वस्तुओं और सेवाओं के विकास को सक्षम करके नवोन्मेषिता लाने और नागरिक संलग्नकता में भी मदद कर सकते हैं। परंतु इसमें सावधानी बरतना ज़रूरी है। इन डेटासेटों के आकार और जटिलता के कारण विशेषज्ञतायुक्त विश्लेषणात्मक दक्षताओं (जो कम मात्रा में मिलती है), और साथ ही अधिक अनुसंधान और प्रयोगात्मकता की आवश्यकता होती है। विकास के लिए डेटा की मात्रा, गुणवत्ता, उपलब्धता, और प्रयोज्यता बढ़ाने के लिए बाज़ार की विफलताओं पर विचार करने की आवश्यकता होती है जिनके फलस्वरूप विकासशील देशों में डेटा के उपयोग और व्याप्ति में अंतराल उत्पन्न होते हैं। इसका अर्थ यह है कि जैसे-जैसे प्रौद्योगिकी, डेटा, और डेटा उपयोगकर्ताओं और प्रदाताओं के मामले में तीव्र गति से प्रगति होती है, विभिन्न पक्षों - सरकारों, राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालयों, दाता एजेंसियों, वैश्विक और स्थानीय गैर सरकारी संगठनों, शैक्षणिक और शोध संस्थानों, निजी क्षेत्र और अन्यों - के बीच सहयोग की आवश्यकता होगी। सहयोग की इस भावना में प्रमुख बहुपक्षीय विकास संस्थाओं - अफ्रीकी विकास बैंक, एशियाई विकास बैंक, अंतर-अमेरिकी विकास बैंक, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष, इस्लामी विकास बैंक, संयुक्त राष्ट्र और विश्व बैंक - ने पहले से ही विकास डेटा तैयार और साझा करने के अपने संयुक्त प्रयासों को मजबूत करना शुरू कर दिया है। और इस प्रयास के फल अभी से मिलने शुरू हो चुके हैं। लेकिन अभी और बहुत कुछ किया जाना बाकी है। सहयोग के नए प्रकारों के ज़रिए, विकासशील देशों की सांख्यिकीय एजेंसियों का लक्ष्य होना चाहिए कि वे डेटा व्याप्ति और गुणवत्ता में सुधार लाएँ, और साथ ही डेटा के प्रबंधन, उपयोग, और पहुँच को आसान बनाने के लिए प्रौद्योगिकी का लाभ उठाएँ। डेटा अधिक (और अधिक विश्वसनीय) होने से नीति-निर्माताओं को विशिष्ट सामाजिक, आर्थिक, और पर्यावरण संबंधी मुद्दों को समझने में मदद मिल सकती है जिससे उनके निर्णय लेने की प्रक्रिया में भी सुधार हो सकता है। बेहतर लैंगिक आंकड़ों के फलस्वरूप महिलाओं की न्याय, शिक्षा, और वित्त तक पहुँच को अधिक व्यापक रूप से समझा जा सकता है; गरीबी और असमानता के बेहतर आकलनों से यह पता चल सकता है कि आर्थिक विकास के लाभों का वितरण किस प्रकार हो रहा है; और नैसर्गिक पूंजी के लेखांकन से संसाधनों के मूल्य को उजागर किया जा सकता है जिससे यह सुनिश्चित करने में मदद मिल सकती है कि उनका उपयोग उचित और धारणीय तरीके से किया जाता है। जाहिर है कि प्रभावी नीति बनाने के लिए सीधे रूप से लोगों और दुनिया की भलाई को प्रभावित करने वाले मुद्दों से संबंधित डेटा का होना आवश्यक है। ऐसे डेटा को खुला और पहुँच योग्य बनाने को यह सुनिश्चित करने के लिए एक बुनियादी शर्त के रूप में देखा जाना चाहिए कि लोगों में यह क्षमता हो कि वे सरकारों को जवाबदेह बनाने में सक्षम हो सकें और फलस्वरूप वे उन निर्णयों में भाग ले सकें जो उनके जीवन को प्रभावित करते हैं। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए जितने अधिक संसाधनों का उपयोग किया जाएगा, 2015 के पश्चात का विकास कार्यक्रम उतना ही अधिक कारगर होगा। बुनियादी सुविधा समाधान टोरंटो - पूर्व अमेरिकी विदेश मंत्री मेडेलीन अलब्राइट ने फ़रवरी 2013 में कहा था कि, "बुनियादी सुविधाएँ, शब्द की प्रकृति के अनुरूप समाजों के कामकाज के लिए बुनियादी ज़रूरत है।" और फिर भी बुनियादी सुविधाएँ यकीनन इक्कीसवीं सदी का भूला हुआ आर्थिक मुद्दा रहा है। दरअसल, बुनियादी सुविधाओं में सही निवेश करने में विफलता से कई देशों के आर्थिक विकास और रोज़गार को बढ़ावा देने की संभावना बाधित हुई है। हालाँकि बुनियादी सुविधाओं पर बहस में अधिक धन और अधिक रचनात्मक वित्तपोषण की ज़रूरत पर ध्यान केंद्रित करने की प्रवृत्ति होती है, लेकिन वास्तविक समस्या अपर्याप्त निवेश नहीं है। बल्कि, बुनियादी सुविधाओं की योजना, वित्त, वितरण, और प्रचालन पर खंडित दृष्टिकोण के परिणामस्वरूप निर्माण परिवेश बिगड़ता जा रहा है, जिसमें लागत, परिसंपत्ति वर्ग, और भौगोलिक स्थिति पर बल दिया जाता है। व्यापक, प्रणालीगत परिदृश्य पर आधारित - नए दृष्टिकोण का विकास करना उन लोगों की सर्वोच्च प्राथमिकता बन जानी चाहिए जिनके पास बदलाव पेश करने की क्षमता है, इनमें सीईओ और वरिष्ठ सरकारी अधिकारी शामिल हैं। बुनियादी सुविधाओं के हर पहलू की उत्पादकता और कार्यकुशलता बढ़ाने के लक्ष्य के लिए व्यावहारिक वैश्विक समाधान को बढ़ावा देकर,मैककिन्सेज़ ग्लोबल इंफ़्रास्ट्रक्चर पहल का लक्ष्य ठीक यही करना है जिसकी दूसरी बैठक पिछले महीने रियो डी जनेरियो में आयोजित की गई थी। इस तरह के समाधानों के बिना, बस जीडीपी की बढ़ोतरी के साथ तालमेल बनाए रखने के लिए, 2013-2030 में बुनियादी सुविधाओं पर अनुमानित रूप से $57 खरब के निवेश की ज़रूरत होगी। यह बुनियादी सुविधाओं के समूचे मौजूदा स्टॉक के मूल्य से अधिक है। अधिक उत्पादक बुनियादी सुविधाएँ दुनिया के बुनियादी सुविधाओं पर होनेवाले व्यय को 40%, या $1 खरब सालाना तक कम कर सकती हैं - यह ऐसी बचत है जिससे 2030 तक, आर्थिक विकास में 3%, या $3 खरब से अधिक की वृद्धि हो सकती है। इससे जीडीपी में 1% जितनी वृद्धि के साथ, बुनियादी सुविधाओं में उच्च निवेश की सुविधा मिलेगी जिससे भारत में अतिरिक्त 3.4 मिलियन, संयुक्त राज्य अमेरिका में 1.5 मिलियन, ब्राज़िल में 1.3 मिलियन, और इंडोनेशिया में 700,000 रोज़गार पैदा किए जा सकेंगे। बुनियादी सुविधाओं की उत्पादकता बढ़ाने की शुरुआत योजना बनाने के चरण में शुरू होती है। निवेश के लिए बुनियादी सुविधा परियोजनाएँ चुनने के लिए अधिक व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाने से - जिसमें सटीक मापदंड के आधार पर लागत और लाभ का व्यवस्थित मूल्यांकन शामिल है, जिसमें व्यापक आर्थिक और सामाजिक उद्देश्य शामिल होते हैं - दुनिया के लिए हर साल $200 अरब की बचत हो सकती है। कुछ देश पहले ही इस तरह के दृष्टिकोण का लाभ उठा रहे हैं। दक्षिण कोरिया के सार्वजनिक और निजी बुनियादी सुविधा निवेश प्रबंधन केंद्र ने बुनियादी सुविधाओं के ख़र्च को 35% तक कम कर दिया है; आज, अधिकारी समीक्षा किए जाने वाली प्रस्तावित परियोजनाओं में से 46% को अस्वीकार कर देते हैं, इसकी तुलना में पहले यह 3% ही था। इसी तरह, यूनाइटेड किंगडम ने लागत समीक्षा कार्यक्रम की स्थापना की जिसमें प्राथमिकता देने के लिए 40 बड़ी परियोजनाओं की पहचान की गई, समग्र योजना प्रक्रियाओं में सुधार किया गया, और फिर परियोजनाओं की तेज़ी से सुपुर्दगी सुनिश्चित करने के लिए कैबिनेट उप समिति बनाई गई, और इस तरह बुनियादी सुविधाओं के ख़र्च में 15% कटौती की गई। और चिली की राष्ट्रीय सार्वजनिक निवेश प्रणाली मानक रूपों, प्रक्रियाओं, और मैट्रिक्स का उपयोग करके सभी प्रस्तावित सार्वजनिक परियोजनाओं का मूल्यांकन करती है - और 35% तक को अस्वीकार कर देती है। बचत के लिए अतिरिक्त अवसर - जो सालाना $400 अरब तक हो सकते हैं - बुनियादी सुविधा परियोजनाओं के अधिक सुव्यवस्थित वितरण पर निर्भर करते हैं। स्वीकृतियों और भूमि अधिग्रहण में तेज़ी लाने, अनुबंधों को नवाचार और बचतों को प्रोत्साहित करने के लिए संरचित करने, और ठेकेदारों के साथ सहयोग को बेहतर बनाने की संभावनाएँ बहुत अधिक हैं। ऑस्ट्रेलिया में, न्यू साउथ वेल्स राज्य सिर्फ़ एक साल में स्वीकृति के समय में 11% तक की कटौती करता है। और एक स्कैंडिनेवियाई सड़क प्राधिकरण ने डिज़ाइन मानकों को अद्यतित करके, विरल निर्माण तकनीकें अपनाकर, और समाविष्ट और अंतर्राष्ट्रीय सोर्सिंग का लाभ उठाकर समग्र ख़र्च में 15% तक की कमी की है। बचत करने के अवसर केवल नई क्षमता तक सीमित नहीं हैं। सरकारें केवल मौजूदा बुनियादी सुविधाओं की दक्षता और उत्पादकता में बढ़ोतरी करके सालाना $400 अरब बचा सकती हैं। उदाहरण के लिए, यूएस में स्मार्ट ग्रिड, महँगी बिजली की कटौतियों को कम करके, विद्युत की बुनियादी सुविधाओं की लागतों में सालाना $2-6 अरब की कमी कर सकते हैं। इसी तरह, सड़कों के लिए विवेकशील परिवहन प्रणालियों से परिसंपत्ति का उपयोग दोगुना या तिगुना हो सकता है - जो सामान्य रूप से भौतिक क्षमता में बहुत कम समान लागत का अंश जोड़ने से संभव होता है। M42 मोटरमार्ग पर यूके की विवेकशील परिवहन प्रणाली ने यात्रा समय में 25%, दुर्घटनाओं में 50%, प्रदूषण में 10%, और ईंधन की खपत में 4% की कमी की है। भीड़भाड़ वाले इलाकों के लिए लिया जानेवाला शुल्क नई क्षमता की आवश्यकता को भी कम कर सकता है, और इससे ईंधन की लागतों और समय के मामले में भारी बचतें होती हैं। ऐसे शुल्क से लंदन शहर में भीड़भाड़ में 30% की कटौती की जा सकी है। इनमें से कोई भी समाधान ख़ास तौर से ज़मीन-आसमान एक करने की माँग नहीं करता। इसके लिए बस सरकार के भीतर कम खंडित दृष्टिकोण, और सार्वजनिक और निजी क्षेत्रों के बीच अधिक सहयोग की आवश्यकता होती है। यह लक्ष्य अमीर और ग़रीब दोनों प्रकार के देशों में समान रूप से हासिल किया जा सकता है। उदाहरण के लिए, स्विट्ज़रलैंड का पर्यावरण, परिवहन, ऊर्जा, और संचार विभाग संघीय परिषद द्वारा निर्धारित राष्ट्रीय लक्ष्यों को ऐसी एकीकृत बुनियादी रणनीति में शामिल करता है, जिसमें विशिष्ट क्षेत्रों की ज़रूरतों को ध्यान में रखा जाता है। इसी तरह, रवांडा का बुनियादी सुविधा मंत्रालय अन्य मंत्रालयों और सरकारी एजेंसियों की गतिविधियों का समन्वयन करता है और स्रोतेतर वितरण और संचालनों की निगरानी करता है - और सुनिश्चित करता है कि बुनियादी सुविधा रणनीतियाँ पूर्वी अफ़्रीकी समुदाय की क्षेत्रीय एकीकरण की योजनाओं के अनुरूप हों। सरकारों को समझना चाहिए कि निजी क्षेत्र बुनियादी सुविधाओं के वित्तपोषण से कहीं अधिक प्रदान कर ���कता है; यह योजना बनाने, निर्माण और संचालन के चरणों में तकनीकी जानकारी भी पेश कर सकता हैं। चिली, फिलीपींस, दक्षिण अफ़्रीका, दक्षिण कोरिया और ताइवान ये सभी देश ऐसी सुविधाएँ विकसित कर रहे हैं जिनसे आयोजना संबंधी परियोजनाओं में निजी कंपनियों की भूमिका का विस्तार होता है। बुनियादी सुविधाएँ अर्थव्यवस्थाओं की प्रतिस्पर्धात्मकता बढ़ाती हैं, और साथ ही लोगों के जीवन के लिए भौतिक ढाँचा-संरचना पेश करती हैं। नीति निर्माताओं का लक्ष्य यह सुनिश्चित करना होना चाहिए कि बुनियादी सुविधाएँ अपनी पूरी क्षमता हासिल करें, ताकि जो लोग इन पर निर्भर करते हैं वे अपनी क्षमताएँ साकार कर सकें। अरब दुनिया के विकल्प अम्मान - जब 2011 में अरब जागरण शुरू हुआ, तो इसका प्रमुख लक्ष्य बहुलवाद और लोकतंत्र को आगे बढ़ाना होना चाहिए था - वे कारण जिनकी बीसवीं सदी में अरब दुनिया के पहले, औपनिवेशिक-विरोधी जागरण में उपेक्षा की गई थी। लेकिन, संघर्ष के तीन साल बाद, यह प्रक्रिया केवल अभी शुरू ही हुई है। क्या दूसरा अरब जागरण अंततः अपने लक्ष्य प्राप्त कर सकेगा? इसका जवाब इस बात पर निर्भर करता है कि अरब देश अपने संक्रमण के मार्गदर्शन के लिए तीन मॉडलों में से कौन-सा मॉडल इस्तेमाल करेंगे: समावेशी, दूरदर्शी मॉडल जिसका लक्ष्य आम सहमति बनाना है; ‘सब कुछ विजेता का’ वाला दृष्टिकोण जो आबादी के बड़े हिस्सों को अलग कर देता है; या शासन के अस्तित्व पर फ़ोकस करने वाला ‘कहीं न थमने वाला’ दृष्टिकोण। ये मॉडल अरब देशों की वर्तमान परिस्थितियों और भविष्य की संभावनाओं के बीच भारी अंतर को दर्शाते हैं। समावेशी मॉडल का सबसे मज़बूत उदाहरण ट्यूनीशिया है, जहाँ पूर्व विरोधियों ने, सेना के हस्तक्षेप के बिना, गठबंधन सरकार का गठन किया है। बेशक, यह प्रक्रिया आसान नहीं थी। लेकिन, तनावपूर्ण संघर्ष के बाद, ट्यूनीशियाई लोगों ने समझ लिया कि आगे बढ़ने के लिए सहयोग ही एकमात्र रास्ता है। फ़रवरी में, ट्यूनीशिया ने अरब दुनिया का सबसे प्रगतिशील संविधान को अपनाया, जो पुरुषों और महिलाओं के बीच समानता स्थापित करता है, सरकार में शांतिपूर्ण फेरबदल की सुविधा प्रदान करता है, और नागरिकों के धार्मिक विश्वास के बिना होने के अधिकार को मान्यता देता है - जो इस क्षेत्र में इस्लामवादी और धर्मनिरपेक्ष दोनों ताक़तों द्वारा समर्थित अभूतपूर्व क़दम है। ट्यूनीशिया के अनुभव में बहुलवाद और लोकतंत्र के लिए प्रतिबद्धता का प्रतीक है जिसका दूसरा अरब जागरण समर्थन करता है। सौभाग्य से, ट्यूनीशिया इस मार्ग का अनुसरण करने वाला अकेला देश नहीं है। यमन और मोरक्को दोनों ने अपेक्षाकृत समावेशी राजनीतिक प्रक्रिया शुरू की है, जिसमें यमन राष्ट्रीय संवाद का पालन कर रहा है और मोरक्को गठबंधन सरकार का गठन कर रहा है। लेकिन यह मॉडल कई अन्य देशों में कामयाब नहीं हो पाया था। मिस्र को लीजिए, जिसने दूसरा, अपवर्जनात्मक दृष्टिकोण अपनाया है, जिसमें सभी दल मानते हैं कि उनका सत्य पर एकाधिकार है और इसलिए वे अपने विरोधियों की उपेक्षा कर सकते हैं या उन्हें दबा सकते हैं। मुस्लिम ब्रदरहुड के नेतृत्व में, मिस्र के इस्लामवादियों ने सत्ता में रहते हुए इस दर्शन को अपनाया था; पिछली जुलाई में हुए सैन्य तख्तापलट के द्वारा उन्हें सत्ता से बाहर करने वाली धर्मनिरपेक्ष ताक़तें भी अब इसी दृष्टिकोण को अपना रही हैं। संक्षेप में, मिस्र की राजनीति लाभ-हानि-योग शून्य का खेल बन गई है – और लाभ-हानि योग वास्तव में शून्य रहा है। देश सुरक्षा के ख़तरों, आर्थिक अराजकता, और राजनीतिक अस्थिरता से ग्रस्त बना हुआ है - जो इतनी व्यापक समस्याएँ हैं जिन्हें कोई भी पक्ष अकेले हल नहीं कर सकता। अगर दोनों पक्षों के नेता साथ मिलकर काम करना शुरू नहीं करते, तो मिस्र का जागरण दूर का सपना बना रहेगा, जिसके सामाजिक और आर्थिक परिणाम आम नागरिकों को भुगतने पड़ेंगे। लेकिन तीसरा दृष्टिकोण सबसे अधिक विनाशकारी है - जिसका उदाहरण सीरिया ने पेश किया है। राष्ट्रपति बशर अल-असद का शासन जीतने के लिए कहीं नहीं थमता जो अब अस्तित्व का खेल बन गया है। इस बीच, विपक्ष खंडित बना हुआ है, जिसने सुरक्षा का ख़तरा बना दिया है - जो काफ़ी हद तक विदेशी लड़ाकुओं से बना है - जिसका शोषण कट्टरपंथी समूह कर रहे हैं। इसका परिणाम भीषण गृह युद्ध के रूप में हुआ है, जिसके कारण पहले ही कम-से-कम 150,000 मौतें हो चुकी हैं और लाखों लोगों को अपने घरों से पलायन करने पर मजबूर होना पड़ा है, और जिसका कोई अंत नज़र नहीं आ रहा है। इन तीन मॉडलों और इनके परिणामों के बीच भारी अंतर साफ़ सबक पेश करता है: स्थिरता के लिए समावेशन ही एकमात्र मार्ग है। सही दृष्टिकोण के साथ, कोई भी देश बेहतर भविष्य के निर्माण में सफल हो सकता है। बेशक, दूसरे अरब जागरण का मार्ग पूरी तरह से राष्ट्रीय सीमाओं द्वारा परिभाषित नहीं हुआ है। समूची अरब दुनिया में लंबे समय से चली आ रही वर्जनाएँ ढीली पड़ गई हैं। विशेष रूप से, लंबे समय तक राजनीतिक परिदृश्य पर हावी रहने वाली दो शक्तियों - धर्मनिरपेक्ष, जो अकसर सेना या सेना-समर्थित शासक थे, और धार्मिक विपक्ष - ने अपनी अभेद्य स्थिति खो दी है; आज, वे अधिकाधिक रूप से आलोचना का विषय बन रहे हैं जो लोकतांत्रिक प्रणालियों की विशेषताएँ हैं। अनेक अरब देशों में, उदार होना भी स्वीकार्य है। लेकिन, जबकि पिछले तीन सालों में लंबे समय तक प्रगति को अवरुद्ध करने वाली कड़ी सामाजिक प्रणालियाँ अनेक अरब देशों में कमज़ोर पड़ गई हैं, और उदारवाद ज़्यादा स्वीकार्य वैश्विक नज़रिया बनता जा रहा है, मिस्र और सीरिया के अनुभवों से पता चलता है कि दूसरे अरब जागरण के लक्ष्य सार्वभौमिक रूप से साझा नहीं किए गए। पुरानी प्रतिद्वंद्विताएँ, पुरानी वैचारिक मान्यताएँ, और अनुत्पादक आदतें सामाजिक-आर्थिक समस्याओं के वास्तविक समाधान खोजने के प्रयासों को निरंतर अवरुद्ध करती आ रही हैं। अरब समाज इससे बेहतर स्थिति के योग्य हैं। जैसा कि ट्यूनीशिया ने दिखाया है, अगर वे बहुलवाद और समावेशिता की राजनीति अपना लेते हैं, तो वे इसे हासिल कर लेंगे। अफ़्रीका के कृषि संबंधी लैंगिक अंतर को समाप्त करना सिएटल – किसी भी अन्य महाद्वीप की तुलना में अफ़्रीका के सकल घरेलू उत्पाद में अब तेज़ी से वृद्धि हो रही है। बहुत से लोग जब इस विकास को सफल बनानेवाले कारणों पर विचार ���रते हैं तो वे तेल, सोना, और कोको जैसी वस्तुओं, या शायद बैंकिंग और दूरसंचार जैसे उद्योगों के बारे में सोचते हैं। मेरे मन में जॉयस सैंडिर नाम की महिला का नाम आता है। जॉयस एक किसान है जो ग्रामीण तंज़ानिया में भूमि के एक छोटे से टुकड़े पर केले, सब्ज़ियाँ, और मक्का उगाती है। जब मैं 2012 में उससे पहली बार मिली थी तो उसने विशेष रूप से तंज़ानिया की जलवायु के लिए अनुकूलित एक बीज से उगाई गई मक्का की अपनी पहली फसल की खेती की थी। ख़राब फसल वाले वर्ष के दौरान जॉयस की बहुत-सी सब्ज़ियाँ ख़राब होकर नष्ट हो गई थीं, पर उसकी मक्का की फसल लहलहा रही थी। उसके बिना, उसके परिवार के लिए शायद भूखे रहने का ख़तरा हो सकता था। इसके बजाय, मक्का की फसल से यह सुनिश्चित हो सका कि जॉयस के परिवार के पास खाने के लिए पर्याप्त अन्न हो - और साथ ही जॉयस को इतनी पर्याप्त अतिरिक्त आय भी हो कि उसके बच्चों की स्कूल की फ़ीस भरी जा सके। जैसा कि जॉयस की इस कहानी से पता चलता है, कृषि अफ़्रीका के भविष्य के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। अफ़्रीका की श्रमिक जनसंख्या में 70% किसान हैं। वे इसकी अर्थव्यवस्था की नींव हैं, और व्यापक विकास को गति देने में इनकी प्रमुख भूमिका है। अनुसंधान से पता चलता है कि कृषि उत्पादकता में वृद्धि करना उप-मरुस्थलीय अफ़्रीका में ग़रीबी को दूर करने का सबसे अधिक कारगर उपाय है। वास्तव में, इस महाद्वीप में कृषि ग़रीबी के कुचक्र को विकास के सुचक्र में बदलने का एक सुनहरा मौका उपलब्ध करती है। यही कारण है कि इस पूरे महाद्वीप के नेताओं और नीति-निर्माताओं ने वर्ष 2014 को अफ़्रीका का कृषि और खाद्य सुरक्षा वर्ष घोषित किया है। जॉयस की कहानी एक अन्य कारण से भी प्रासंगिक है। वह अफ़्रीका के भविष्य के लिए न केवल इसलिए महत्वपूर्ण है कि वह एक किसान है बल्कि इसलिए भी कि वह एक महिला है। गेट्स फ़ाउंडेशन में मैं अपना काफी समय उन बहुत-से तरीकों को समझने में लगाती हूँ जिनसे महिलाएँ और बालिकाएँ विकास कार्य को आगे बढ़ाती हैं: अपने बच्चों के पोषण, बुनियादी स्वास्थ्य और शिक्षा में निवेश करके - तथा कृषि श्रम उपलब्ध करके भी। अब मैं जो समझ पा रही हूँ वह यह है कि अगर अफ़्रीका किसी कृषि क्रांति की उम्मीद करता है तो इसके देशों को पहले एक मुख्य रुकावट, अर्थात व्यापक लैंगिक अंतर को दूर करना होगा जिसके कारण यह क्षेत्र पिछड़ा हुआ है। यह अंतर महिला किसानों की संख्या का नहीं है। वास्तव में, अफ़्रीका के किसानों में लगभग आधी संख्या महिलाओं की है। यह अंतर उत्पादकता का है। पूरे महाद्वीप में, महिलाओं द्वारा नियंत्रित खेतों में पुरुषों द्वारा नियंत्रित खेतों की तुलना में प्रति हेक्टेयर कम उपज होती है। इस लैंगिक अंतर के प्रमाण दुनिया को 2011 से ही मिलने शुरू हो गए थे, लेकिन इसकी व्याप्ति, स्वरूप, और कारणों के बारे में आँकड़े केवल सीमित रूप से उपलब्ध थे। हम इस समस्या को ठीक तरह से समझ सकें, इसके लिए विश्व बैंक और ONE अभियान ने हाल ही में महिला किसानों के सामने आनेवाली चुनौतियों का एक अभूतपूर्व विश्लेषण किया। उनकी रिपोर्ट में आरंभ से ही एक कठोर तथ्य की ओर ध्यान आकर्षित किया गया है: लैंगिक अंतर वास्तविक है, और कुछ मामलों में यह बहुत अधिक है। जब हम समान परिस्थितियों में समान भूमि आकारों वाले पुरुष और महिला किसानों की तुलना करते हैं तो उत्पादकता अंतराल 66% जितना अधिक पाते हैं, जैसा कि नाइजर के मामले में है। इससे पूर्व, विशेषज्ञों का यह मानना था कि महिलाओं के खेतों में उपज इसलिए कम होती है कि महिलाओं की उर्वरकों, जल और यहाँ तक कि सूचना जैसी निविष्टियों तक पहुँच कम होती है। लेकिन अब हम यह जानते हैं कि यह मामला इससे कहीं अधिक पेचीदा है। अब चूँकि नए डेटा उपलब्ध हो गए हैं, हम देख सकते हैं कि आश्चर्यजनक बात यह है कि महिलाओं की निविष्टियों तक पहुँच समान होने पर भी उत्पादकता का अंतर बना हुआ है। इसके वास्तविक कारण अलग-अलग देशों में अलग-अलग हो सकते हैं - परंतु अधिकतर कारणों के मूल में कठोर सांस्कृतिक मानदंड हैं जो महिलाओं को उनकी पूर्ण अंतर्निहित शक्ति तक नहीं पहुँचने देते। उदाहरण के लिए, रिपोर्ट से यह पता चलता है कि महिलाओं को अपने खेतों में अधिक उपज पैदा करने के लिए जिस श्रम की ज़रूरत होती है उसे जुटाने में उन्हें कई अड़चनों का सामना करना पड़ता है। महिलाओं पर पुरुषों की तुलना में आम तौर पर बच्चों की देखभाल और परिवार की जिम्मेदारियाँ अधिक होती हैं जिसके फलस्वरूप उनके लिए खेती के काम के लिए उतना समय दे पाना, या भाड़े पर लिए गए मज़दूरों की देखरेख करना भी कठिन होता है। यह समस्या इस कारण और भी जटिल हो जाती है क्योंकि सबसे पहली बात तो यह है कि संभवतः महिलाओं के पास मज़दूर भाड़े पर लेने के लिए आय भी कम होती है। सौभाग्यवश, नए डेटा में न केवल इस समस्या की जटिलता और गहनता का आकलन किया गया है; बल्कि उनमें ऐसी लैंगिक-प्रतिक्रियात्मक नीतियाँ बनाने के लिए ठोस अवसरों के बारे में भी बताया गया है जिनसे अफ़्रीका के सभी किसानों की उम्मीदों को फलीभूत करने में मदद मिलेगी। कुछ स्थानों पर इसका अर्थ यह होगा कि कृषि विस्तार कार्यकर्ताओं को इस बारे में शिक्षित किया जाए कि वे अपने संदेशों को महिला सहभागियों के लिए किस प्रकार अधिक प्रासंगिक बना सकते हैं या उन्हें प्रोत्साहित किया जाए कि वे ऐसे समय पर जाएँ जब महिलाओं के घर पर होने की अधिक संभावना हो। अन्य स्थानों पर इसका अर्थ यह होगा कि महिलाओं की बाज़ारों तक पहुँच को बढ़ाया जाए, अथवा उन्हें अपनी भूमि से अधिकतम उपज प्राप्त करने में मदद करने के लिए श्रम की बचत करनेवाले उपकरण उपलब्ध किए जाएँ। इसके लिए सामुदायिक शिशु देखभाल केंद्र स्थापित करने की भी आवश्यकता हो सकती है ताकि महिला किसानों को खेती करने में अधिक समय लगाने का विकल्प मिल सके। हर मामले में, इसके लिए यह ज़रूरी होगा कि अफ़्रीकी नीति-निर्माता महिला किसानों को आवश्यक आर्थिक भागीदार के रूप में मानना शुरू कर दें जो कि वे हैं। इस वर्ष जून में, अगले दशक के लिए कृषि नीति का कार्यक्रम निर्धारित करने के लिए पूरे अफ़्रीका के नेताओं की मालाबो, इक्वेटोरियल गिनी में एक बैठक होगी। यदि अफ़्रीका के कृषि क्षेत्र को अपना वायदा पूरा करना है - और यदि अफ़्रीका के आर्थिक विकास को जारी रखना है - तो नीति-निर्माताओं को जॉयस जैसे किसानों की आवश्यकताओं को ध्यान में रखना होगा। उसकी कहानी सफलता की एक ऐसी कहानी है जिसे पूरे महाद्वीप में दुहराया जा सकता है - और अवश्य दुहराया जाना चाहिए। कोनज़ो का मुकाबला करना ईस्ट लैंसिंग, मिशिगन – ऐड्स से लेकर पीत-ज्वर तक रोकथाम किए जा सकनेवाले अनेक रोगों ने उप मरूस्थलीय अफ़्रीका को काफी समय से अपनी चपेट में लिया हुआ है। लेकिन उन्हें दूर करने के लिए संबंधित रोग के बारे में जानकारी, धन, शिक्षा, सरकारी सहायता, योजना और सबसे अधिक समस्या का समाधान करने के लिए समुदाय और विश्व की रुचि का होना ज़रूरी है। आइए एक ऐसे रोकथाम किए जा सकनेवाले रोग पर विचार करें जिसके बारे में अधिकतर लोगों ने कभी सुना भी नहीं है: कोनज़ो, ऊर्ध्व प्रेरक तंत्रिका कोशिका का एक स्थायी लाइलाज विकार है जो उप मरूस्थलीय अफ़्रीका के उन ग्रामीण क्षेत्रों में आम तौर से होता है जो मुख्य फसल के तौर पर कसावा के पौधे की कड़वी किस्मों पर निर्भर करते हैं। कोनज़ो तब होता है जब कसावा कंद को खाने से पहले ठीक तरह से पकाया नहीं जाता है, जिसमें आम तौर पर उन्हें ख़मीर उठने तक भिगोना पड़ता है और फिर उन्हें धूप में सुखाना होता है ताकि उनमें मौजूद विषैले यौगिक निकल जाएँ। हर बार इसका प्रकोप होने पर ग्रामीण क्षेत्र के सैकड़ों या हज़ारों लोग इससे प्रभावित हो सकते हैं। कोनज़ो विशेष रूप से कांगो लोकतांत्रिक गणराज्य, मध्य अफ्रीकी गणराज्य, मोजाम्बिक, और तंजानिया में होता है और यह अक्सर सूखा पड़ने या संघर्ष के बाद तब होता है जब खाद्यान्न की कमी होती है। महिलाओं और बच्चों पर इसका सबसे बुरा असर पड़ता है, विशेष रूप से आर्थिक संकट के दौरान, जब उन्हें शरीर में विषाक्त तत्वों को विषरहित करने के लिए यकृत के लिए आवश्यक माँस, लोबिया, और सल्फर अमीनो अम्लों के अन्य स्रोत सबसे कम उपलब्ध होते हैं। इसके प्रभावों को सहज ही अनदेखा नहीं किया जा सकता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कोंज़ो की परिभाषा चलते या दौड़ते समय चाल में दिखाई देनेवाली जकड़न की असामान्यता के रूप में की है; जिसमें पहले से स्वस्थ किसी व्यक्ति में एक सप्ताह के भीतर इसके प्रारंभ होने का इतिहास होता है और उसके बाद यह रोग तेज़ी से नहीं बढ़ता है; और मेरुदंडीय रोग के लक्षणों के बिना घुटनों या टखनों में भारी झटके लगते हैं। कोनज़ो की गंभीरता अलग-अलग होती है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के 1996 के वर्गीकरण के अनुसार, रोग को पीड़ित व्यक्ति को चलने-फिरने के लिए नियमित रूप से किसी सहारे की ज़रूरत नहीं पड़ने पर मामूली; एक या दो छड़ियों या बैसाखियों का उपयोग करने पर मध्यम; और उसके शय्याग्रस्त हो जाने या बिना सहारे के नहीं चल पाने पर गंभीर माना जाता है। क्योंकि कोनज़ो को प्रारंभ में केंद्रीय तंत्रिका तंत्र में प्रेरक तंत्रकोशिका मार्ग तक सीमित रहनेवाले ऊर्ध्व प्रेरक तंत्रिका कोशिका रोग के रूप में ही माना जाता था, यह सुझाया गया था कि बोध संबंधी प्रभाव न्यूनतम होते हैं। लेकिन बाद में उभर कर आए विद्युत शरीरक्रिया विज्ञान साक्ष्य में यह सुझाया गया कि उच्च-स्तरीय मस्तिष्क कार्यप्रणाली भी प्रभावित हो सकती है। कोनज़ो से प्रभावित बच्चों में तंत्रिका-बोध संबंधी विकृतियों के प्रमाण प्रस्तुत करते समय मेरे सहकर्मी और मैंने कोनज़ो-प्रभावित परिवारों में रहनेवाले कोनज़ो-मुक्त बच्चों के उप-नैदानिक लक्षणों को भी सम्मिलित किया, यह निष्कर्ष स्मरणशक्ति और सीखने के अधिक विशेषीकृत तंत्रिकाबोध संबंधी परीक्षणों के अनुसार उनके कार्य-निष्पादन पर आधारित था। ये जटिल लक्षण कोनज़ो-पूर्व स्थिति के रूप में हो सकते हैं, जिनसे यह चेतावनी मिल सकती है कि कोई बच्चा इस रोग की प्रारंभिक अवस्था में पहुँच रहा है। इस प्रकार, कोनज़ो-प्रभावित परिवारों और समुदायों में रहनेवाले कोनज़ो-मुक्त बच्चों के तंत्रिका-बोध संबंधी प्रभावों के जो प्रमाण प्रस्तुत किए गए उनके फलस्वरूप यह और भी महत्वपूर्ण हो जाता है कि विषैले यौगिकों के उच्च स्तरों वाली कसावा की कड़वी किस्मों पर निर्भर क्षेत्रों में खाद्य सुरक्षा को सुनिश्चित किया जाए। इस उद्देश्य से, बिल एंड मेलिंडा गेट्स फ़ाउंडेशन ने कसावा की गैर-विषाक्त, अधिक-उपज वाली किस्मों के विकास के लिए किए जानेवाले अनुसंधान का समर्थन किया है। आनुवंशिक अभियांत्रिकी से विकसित ये प्रजातियाँ कम-स्तरीय मिट्टी में भी फल-फूल सकती हैं, इसलिए अब लोगों को अधिक विषाक्त किस्मों की ओर जाने की ज़रूरत नहीं है। लेकिन इन अधिक सुरक्षित प्रजातियों का प्रचार-प्रसार करना मुश्किल हो रहा है। कोनज़ो-प्रभावित क्षेत्रों में आवश्यक परिवर्तनों को लागू करने के लिए ज़रूरी कृषि, शिक्षा, और सार्वजनिक-स्वास्थ्य संबंधी क्षमता और आधारिक संरचना की कमी है। इन्हीं कारणों से, ये क्षेत्र अपनी खाद्य फसलों में बाजरा, मक्का या सेम जैसी सुरक्षित फसलों को शामिल नहीं कर पाते हैं। चूंकि कोनज़ो से होनेवाली तंत्रिका-संबंधी क्षति का कोई इलाज नहीं है, इसलिए इस रोग के खिलाफ़ लड़ाई में रोकथाम पर ध्यान केंद्रित किया जाना चाहिए। यद्यपि इसका अर्थ यह है कि कसावा और अन्य फसलों की नई प्रजातियों के लाभों के बारे में बताया जाना जारी रखा जाए, परंतु पहली प्राथमिकता लोगों को, विशेष रूप से ग्रामीण महिलाओं को अनपका कसावा खाने के ख़तरों के बारे में शिक्षित करने और उहें यह सिखाने की होनी चाहिए कि इसे किस प्रकार सुरक्षित रूप से तैयार किया जाए। सांस्कृतिक रूप से उपयुक्त किसी ऐसे सामाजिक प्रचार का उपयोग करके, जिस प्रकार के प्रचार का उपयोग ऐड्स-रोधी शिक्षा में किया गया था, इस संदेश को सोशल नेटवर्क, मोबाइल फ़ोन, रेडियो, और टेलीविज़न के माध्यम से प्रसारित किया जा सकता है। यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि प्रभावित क्षेत्रों के समुदाय लंबे समय तक सुरक्षित पारंपरिक प्रथाओं का पालन करते हैं। लेकिन हो सकता है कि उन्हें यह पता न हो कि ये प्रथाएँ इतनी महत्वपूर्ण क्यों हैं, और इसलिए उनका पालन न करने के परिणामों के बारे में भी पता न हो। विशेष रूप से उथल-पुथल के समय और खाद्य की बहुत अधिक कमी होने के दौरान,छिले हुए कंद को तीन दिन तक पानी में तब तक भिगोकर रखना जब तक उनमें ख़मीर न बन जाए, फिर एक दिन तक उन्हें धूप में सुखाना, उनके लिए उनके बस के बाहर एक महँगी विलासिता होगी। ऐसा नहीं है। लाखों लोगों को कोनज़ो होने का ख़तरा है, और यह किसी भी समय फैल सकता है। तंत्रिका-संबंधी क्षति बलनाशक हो सकती है, और यह स्थायी होती है। क्योंकि हम जानते हैं कि इसे कैसे रोका जा सकता है, हमारे लिए यह ज़रूरी है कि हम कार्रवाई करें। मोदी का जनादेश वाशिंगटन, डीसी – लोकतंत्र की एक प्रभावशाली प्रक्रिया में, 800 मिलियन पात्र मतदाताओं ने भारत के 16वें आम चुनाव में भाग लिया। अनुदार भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के नए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी होंगे जिन्होंने भारत के उत्तर-पश्चिमी तट पर स्थित गुजरात राज्य के मुख्यमंत्री के रूप में अपने 13 वर्षों के कार्यकाल में तीव्र आर्थिक विकास का संचालन किया। मोदी इसलिए जीते कि ज़्यादातर भारतीयों का मानना है कि वे देश में समग्र रूप से अधिक तीव्र विकास ला सकते हैं। चुनाव ने एक बार फिर यह दिखा दिया कि राजनीतिक दृष्टि से भारत अपने विशाल पड़ोसी, निरंकुश चीन से कितना अलग है। तथापि, अब नई सरकार को यह कोशिश करनी चाहिए कि चीन ने पिछले तीन दशकों में जो बेहतर आर्थिक प्रगति हासिल की है, वह उसके मुकाबले की प्रगति करे। ऐसा करने के लिए, इसे एक भिन्न राजनीतिक संदर्भ में, चीन की आर्थिक सफलता के दो प्रमुख तत्वों को प्रोत्साहन देना होगा। पहला तत्व वह मजबूत औद्योगिक क्षेत्र है जो अकुशल श्रम का उपयोग करने वाले विनिर्माण उद्योगों से बना है और जो भारत के लाखों करोड़ों ग्रामीण मज़दूरों और उनके परिवारों को गरीबी से बाहर निकलने का एक रास्ता उपलब्ध करेगा। यह वह रास्ता है जिसे चीन ने, और उससे पहले अन्य देशों ने अपनाया है। इसके विपरीत, भारत में औद्योगिक क्षेत्र के अल्प-विकास ने देश को अपनी पूरी आर्थिक क्षमता को प्राप्त नहीं करने दिया है। दूसरा तत्व बुनियादी सुविधाएँ है जिसकी सभी प्रकार के आर्थिक विकास के लिए ज़रूरत होती है: सड़कें, पुल, बंदरगाह, और विद्यालय, और साथ ही बिजली और साफ पानी की विश्वसनीय आपूर्ति। भारत में अपर्याप्त बुनियादी सुविधाएँ होने के कारण उद्योग मजबूर हैं। कारखानों को सुचारू रूप से प्रचालन करने के लिए बिजली की विश्वसनीय आपूर्ति, निविष्टियाँ प्राप्त करने और उत्पादों का वितरण करने के लिए अच्छी सड़कें और रेलवे, और अगर उन्हें उन उत्पादों का निर्यात करना हो तो मालवाहक जहाज़ों के लिए बंदरगाहों और उच्च मूल्य की वस्तुओं और कारोबारी यात्रा के लिए विमानपत्तनों की ज़रूरत होती है। चीन के पास ये चीज़ें भारी मात्रा में हैं। भारत के पास नहीं हैं। भारत में बिजली की कटौती होना सामान्य बात है, देश के लगभग आधे घरों में बिजली कतई नहीं है, और आधुनिक राजमार्ग दुर्लभ हैं। अमेरिका में ट्रकचालक किसी माल को 20 घंटे में हज़ारों मील तक ढो सकता है, जबकि भारत में उतनी ही ढुलाई में 4-5 दिन लग जाते हैं। इन दोनों कमियों का मूल कारण भारतीय लोकतंत्र की, और वास्तव में सभी लोकतंत्रों की, मूलभूत विशेषता है: अल्पसंख्यकों की शक्ति। लोकतांत्रिक देशों में, लोग खुद को संगठित करने के लिए स्वतंत्र हैं, और अक्सर वे ऐसा सामान्य आर्थिक हितों के आधार पर करते हैं। इस तरह के समूह अपने सदस्यों को लाभ पहुँचाने के लिए राजनीतिक रूप से काम करते हैं, लेकिन ये लाभ सामान्य कल्याण की कीमत पर मिल सकते हैं – और भारत में इन्होंने कम कुशल उद्योगों और उच्च गुणवत्ता वाली बुनियादी सुविधाओं के विकास को अवरुद्ध किया हुआ है। हालाँकि भारत में कम (या बिना) कुशलताओं वाले कामगारों की भरमार है, रोज़गार को नियंत्रित करनेवाले कानूनों के कारण बड़ी कंपनियों के लिए कामगारों को नौकरी से निकालना लगभग असंभव होता है, और पहले तो वे उन्हें काम पर रखने के लिए ही हतोत्साहित हो जाते हैं। सर्वाधिक कुशल कंपनियाँ ऐसे उद्योगों को लगाने से ही बचती हैं, जिन्हें बड़े पैमाने पर लगाए जाने पर लाखों भारतीयों की गरीबी को दूर किया जा सकता है। इसी तरह, भूमि के उपयोग को प्रतिबंधित करनेवाले कानूनों के कारण कारखानों और होटल जैसी सुविधाओं का निर्माण करना मुश्किल हो जाता है जिनसे लोगों को बड़ी संख्या में रोज़गार मिल सकता है। ट्रेड यूनियनों का समूह एक विशेष प्रकार का समूह है जो ऐसे कानूनों को बढ़ावा देता है और उनका समर्थन करता है जो बड़ी कंपनियों को ऐसे उद्योगों में प्रवेश करने से हतोत्साहित करते हैं जिनमें अकुशल श्रमिकों को रोज़गार दिया जाता है। हालाँकि ये कानून यूनियन के सदस्यों को लाभ पहुँचाते हैं जो कुल कर्मचारियों की संख्या का एक बहुत छोटा सा हिस्सा होते हैं, लेकिन वे समग्र रूप में भारत को दंडित करते हैं। हित वाले अन्य समूह रोज़गार सृजन करनेवाले व्यवसायों के विकास में बाधा डालते हैं। उदाहरण के लिए, स्थानीय प्रदर्शनकारी कभी-कभार औद्योगिक और अन्य वाणिज्यिक प्रयोजनों के लिए भूमि का उपयोग करने में रुकावट पैदा करते हैं। राजनीतिक अल्पसंख्यक भी लोकतांत्रिक प्रक्रिया का उपयोग करके ऐसी बुनियादी सुविधाओं के निर्माण और शिक्षा प्रणाली के विकास में अड़चन डालते हैं जिनकी भारत को ज़रूरत है ताकि ये संसाधन स्वयं उनको मिल जाएँ, जिससे इनका उपयोग सड़कों के निर्माण या शिक्षकों को वेतन का भुगतान करने के लिए नहीं किया जा सकता। सभी हित समूहों की कानूनी उपलब्धियों के रूप में विभिन्न प्रकार की आर्थिक सहायता की राशियों का देश के सकल घरेलू उत्पाद में पूरा 2.4% जितना हिस्सा होता है। भारतीय नौकरशाही स्वयं एक विशाल, शक्तिशाली, और महापेटू हित समूह है। इसके वेतन उन संसाधनों को हड़प लेते हैं जिनका उपयोग अधिक उत्पादक कार्यों के लिए बेहतर रूप में किया जा सकता है। विशेष हित पर होनेवाले खर्च के फलस्वरूप बजट घाटे होते हैं, जबकि इन घाटों के वित्तपोषण के लिए आवश्यक उधारों के कारण बुनियादी सुविधाओं और शिक्षा की मद में से और अधिक राशि निकल जाती है। मोदी की नई सरकार अल्पसंख्यकों को पनपने देनेवाले ऐसे लोकतांत्रिक नियमों को समाप्त नहीं कर सकती है - वास्तव में ऐसा करना भी नहीं चाहिए। इसके अपने विभिन्न जातीय समूहों, धर्मों, जातियों, एक लाख से अधिक भाषाओं को मूल रूप से बोलनेवाले लोगों में से प्रत्येक द्वारा प्रयुक्त 30 भाषाओं (और कम-से-कम 10,000 लोगों द्वारा बोली जानेवाली अन्य 105 भाषाओं) के साथ, भारत पूरे यूरोपीय संघ की तुलना में सांस्कृतिक दृष्टि से अधिक विविधता वाला देश है - लेकिन इसके लोगों की संख्या उससे दुगुनी है। समझौता, विवादों का शांतिपूर्ण समाधान, और लोकतंत्र के मूल में विद्यमान अल्पसंख्यकों के अधिकारों पर ज़ोर दिए बिना, संगठित भारत का अस्तित्व नहीं हो सकता। इसलिए मोदी के सामने चुनौती यह है कि वे विकास को बढ़ावा देने वाली नीतियों की राह में आनेवाली बाधाओं को लोकतांत्रिक तरीकों का उपयोग करके दूर करें। यहाँ, चुनाव अच्छी खबर लेकर आया है: भारत के बढ़ते मध्यम वर्ग की बढ़ती हुई ताकत, आवश्यक आर्थिक सुधारों को लागू करने की दृष्टि से एक शक्तिशाली संबल है। इस मध्यम वर्ग में संपत्तिधारी, वेतनभोगी लोग शामिल हैं, इनमें से बहुत से लोग युवा हैं जो सरकार को निर्वैयक्तिक प्रवर्तक और विवादों के एक तटस्थ मध्यस्थ के रूप में देखते हैं, न कि निधियों के स्रोत और अनुदानों के रूप में। ऐसे लोगों के वोटों ने मोदी को चुनाव जीतने में मदद की। पद पर उनकी सफलता इस पर निर्भर करेगी कि वे आर्थिक विकास की राह में आनेवाली राजनीतिक बाधाओं को दूर करने के लिए मध्यम वर्ग की शक्ति का कितनी अच्छी तरह से उपयोग कर पाते हैं जो इसके सदस्यों की माँग है। जल की एकता मॉस्को. इस साल मई माह में विएतनाम संयुक्तराष्ट्र के कन्वेंशन ऑन द लॉ ऑफ द नॉन-नैविगेशनल यूजेज ऑफ इंटरनैशनल वाटर कोर्सेज (अंतर्राष्ट्रीय जल मार्गों के गैर-नौपरिवहनीय उपयोगों के कानून पर कन्वेंशन) पर हस्ताक्षर बरने वाला 35वां निर्णायक देश बन गया. यह कन्वेंशन 1997 में अस्तित्व में आया था और विएतनाम द्वारा इस पर हस्ताक्षर करने के 90 दिन बाद 17 अगस्त को यह कन्वेंशन प्रभाव में आ जाएगा. इस तथ्य के आलोक में कि कन्वेंशन के प्रारूप को तैयार करने और अंततः स्वीकार कराने के लिए न्यूनतम सदस्यों का समर्थन जुटाने में लगभग 50 साल लगे ऐसा प्रतीत होता है कि आधुनिक बहुपक्षीय व्यवस्था में बहुत बड़ी खामी है. देशों की सीमाओं के आर-पार फैले ताजे पानी के स्रोतों पर लंबे समय से असहमति रही है और सरकारों तथा पानी से जुड़े पेशेवरों की वरीयता को समझा जा सकता है कि कैसे इन स्रोतों का आवंटन और प्रबंधन किया जाए. निसंदेह ये सभी पक्ष अंतर्राष्ट्रीय न्यायिक व्यवस्थाओं की बजाय जल स्रोत के थाले पर सहमति पर ज्यादा भरोसा करते हैं. लेकिन आधी सदी तक इंतजार करना दर्शाता है कि राजनीतिक नेतृत्व का अभाव है. इसलिए दुनिया भले ही इस कन्वेंशन के लागू होने का जश्न मनाए, मगर हम इतने से ही संतुष्ट नहीं हो सकते हैं. मोटे तौर पर ताजे पानी के 60% स्रोत सीमापार थालों में फैले हुए हैं. इनमें से केवल 40% थाले ही किसी किस्म के समझौतों के अधीन आते हैं. आज अधिकाधिक पानी की तंगी झेल रही दुनिया में साझे के जल संसाधन ताकत दिखाने के हथियार बनते जा रहे हैं और देशों के बीच प्रतियोगिता को बढ़ावा दे रहे हैं. पानी के लिए संघर्ष राजनीतिक तनावों को बढ़ा रहा है और परिस्थिति तंत्र पर दुष्प्रभाव डाल रहा है. लेकिन सचमुच में बुरी खबर यह है कि पानी की खपत जनसंख्या के मुकाबले ज्यादा तेजी से बढ़ रही है. 20वीं सदी में तो यह दुगुनी रफ्तार से बढ़ी है. परिणामस्वरूप संयुक्तराष्ट्र की अनेक एजेंसियां भविष्यवाणी करती हैं कि सन् 2025 तक 1.8 अरब आबादी ऐसे इलाकों में रह रही होगी जहां पानी की घोर किल्लत होगी. इसका अर्थ है कि इनसानों और पर्यावरणीय उपयोग के लिए पानी तक पहुंच नहीं होगी. इसके अलावा, दुनिया की दो-तिहाई आबादी को पानी की कमी का सामना करना होगा यानी उनके पास दुबारा उपयोग करने लायक ताजा पानी नहीं होगा. इस स्थिति का सामना करने के लिए दृढ़ संकल्प के साथ उपाय करने होंगे. इनके बगैर पानी की मांग अनेक समाजों की खुद को परिस्थिति में ढालने की क्षमताओं को पार कर जाएगी. नतीजतन बड़े पैमाने पर आबादी का विस्थापन होगा, अर्थव्यवस्था ठप पड़ जाएगी, अस्थिरता व हिंसा फैलेगी तथा राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय सुरक्षा को नया खतरा पैदा हो जाएगा. संयुक्तराष्ट्र वाटर कोर्सेज कन्वेंशन मात्र एक और अंतर्राष्ट्रीय सहमति बन कर ही नहीं रह जाना चाहिए जिसे अनदेखा कर दराज में डाल दिया जाए. इस बार दॉव बहुत ऊंचे हैं. आज जलवायु परिवर्तन, बढ़ती मांग, बढ़ती आबादी, बढ़ते प्रदूषण और जल संसाधनों के अति-दोहन के संदर्भ में विश्व के जल स्रोतों के प्रबंधन के लिए कानूनी ढांचे को मजबूत बनाने के लिए सब कुछ किया जाना चाहिए. हमारी पर्यावरणीय सुरक्षा, आर्थिक विकास तथा राजनीतिक स्थिरता इस पर सीधे-सीधे निर्भर होगी. शीघ्र ही यह कन्वेंशन केवल सबसे बड़े नदी थालों पर ही नहीं बल्कि इस में शामिल सभी देशों की सीमाओं के आर-पार बहने वाली नदियों पर लागू हो जाएगा. यह संधि वर्तमान समझौतों में मौजूद छिद्रों और कमियों को पूरा करेगी तथा उन अनेकों सीमा-पार नदियों को कानूनी संरक्षण प्रदान करेगी जो अधिकाधिक दबाव में आती जा रही हैं. आज दुनिया में ताजे पानी के 276 थाले हैं जो सीमा के आर-पार विस्तारित हैं और लगभग इतने ही जलस्रोत हैं. पर्याप्त वित्तप्रबंधन, राजनीतिक इच्छाशक्ति और सभी दावेदारों के प्रयासों की बदौलत यह कन्वेंशन पानी से जुड़ी उन चुनौतियों को संबोधित कर सकता है जिनका हम सामना कर रहे हैं. लेकिन क्या सचमुच ऐसा ही होगा? आज महत्त्वाकांक्षी कार्य योजना को अपनाने की जरूरत है खासकर तब जबकि अंतर्राष्ट्रीय समुदाय सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल्स (SDGs या निर्वहनीय विकास लक्ष्यों) के प्रावधानों पर मोलभाव कर रहा है और संयुक्तराष्ट्र सहस्त्राब्दि विकास लक्ष्यों के कारगर विकल्प की तलाश कर रहा है. इन लक्ष्यों की मियाद 2015 में समाप्त हो जाएगी. ग्रीन क्रॉस में हम उम्मीद करते हैं कि नए लक्ष्य, जिन्हें 2030 तक हासिल किया जाना है, में पहले छोड़ दिए गए लक्ष्य को शामिल किया जाएगा जो जल संसाधन प्रबंधन को संबोधित करता है. और फिर अंतर्राष्ट्रीय समुदाय को क्योटो प्रोटोकॉल के विकल्प के तौर पर जलवायु परिवर्तन के ढांचे पर जल्द ही सहमति बनानी पड़ेगी. जलवायु परिवर्तन जल चक्र को सीधे प्रभावित करता है. इसका अर्थ है कि ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को नियंत्रित करने के लिए किए सभी उपाय वर्षा प्रारूपों को स्थिर करने और बाढ़-सूखे आदि की घटनाओं के असर को कम करने में सहायता कर सकते हैं. ढेर सारे इलाके इन जल आपदाओं के असर को झेल रहे हैं. लेकिन संयुक्तराष्ट्र वाटर कोर्सेज कन्वेंशन को लागू करने में उतने ही नए प्रश्न उठ रहे हैं जितने इसे स्वीकार करने से पहले थे. व्यवहार में इसे लागू करने का जरिया क्या होगा? इसमें शामिल देश किस प्रकार अपनी सीमाओं के भीतर तथा अपने नदीय पड़ोसी के संबंध में इसकी शर्तों को लागू करेंगे? अमेरिकी और एशियाई देश, जो कन्वेंशन की अनदेखी करते रहे हैं इसके प्रति क्या रवैया अपनाएंगे? इसके अलावा यह संधि पहले से लागू संधि कन्वेंशन ऑन द प्रोटेक्शन एंड यूज ऑफ ट्रांसबाउंडरी वाटरकोर्सेज एंड इंटरनैशनल लेक्स से किस प्रकार संबंधित होगी? फरवरी 2013 से इस कन्वेंशन की सदस्यता बाकी दुनिया के लिए खुली है. इसी तरह इस कन्वेंशन को लागू करने का क्षेत्रीय व स्थानीय सीमापार ताजे जल के मौजूदा समझौतों पर क्या असर पड़ेगा? संयुक्तराष्ट्र वाटर कोर्सेज कन्वेंशन को स्वीकार करने वाले देशों से आशा की जाती है कि वे इसके प्रावधानों को अपने यहां लागू करेंगे तथा अपने सीमापार जल संसाधनों के संरक्षण व निर्वहनीय उपयोग के अपने प्रयासों को आगे बढ़ाएंगे. वित्तीय सहायता सहित कन्वेंशन उन्हें और क्या सहायता उपलब्ध कराएगा? अनेक कानूनी प्रावधान संयुक्त रूप से तथा मिलजुल कर लागू किए जा सकते हैं: रामसर कन्वेंशन ऑन वेटलैंड्स, यूएन कन्वेंशन टू कम्बैट डेजर्टिफिकेशन तथा यूएन फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज कुछ ऐसे ही समझौते हैं. संयुक्तराष्ट्र वाटरकोर्सेज कन्वेंशन के विलंबित अमल को इसमें शामिल देशों के लिए अवसर के रूप में देखा जाना चाहिए. इससे उन देशों को प्रोत्साहन मिलना चाहिए जो अभी सहकारिता समझौतों से बाहर हैं कि वे इन मुद्दों पर गंभीरतापूर्वक कार्य करें. स्पष्टतया, राजनीतिज्ञ और कूटनीतिज्ञ अकेले ही कारगर रूप से उन चुनौतियों का सामना नहीं कर सकते हैं जो दुनिया के सामने मौजूद हैं. आज दुनिया को जिस चीज की जरूरत है वह है राजनीतिक, व्यापारिक व नागरिक-सामाजिक नेताओं को एकजुट करना क्योंकि इसके बगैर संयुक्तराष्ट्र वाटर कोर्सेज कन्वेंशन को लागू करना असंभव होगा. इस तथ्य को अकसर अनदेखा किया जाता रहा है पर सहयोग की सफलता की कुंजी इसी में छिपी है जिससे सभी को लाभ पहुंच सकता है. प्रभावित समुदायों सहित सभी दावेदारों की समन्वित भागीदारी तथा सीमापार जल संसाधनों के लाभों को पहचानने, उनके मूल्यांकन व साझेदारी की क्षमता के विकास को किसी भी रणनीति का अभिन्न अंग बनाना होगा ताकि प्रभावी बहुपक्षीय सहयोग हासिल किया जा सके. ISIS के ख़िलाफ़ बौद्धिक लड़ाई दुबई - वैश्विक वित्तीय संकट ने दुनिया को सिखाया है कि हमारी अर्थव्यवस्थाएँ कितनी गहराई से अन्योन्याश्रित बन गई हैं। उग्रवाद के आज के संकट में, हमें इस बात को समझना चाहिए कि हम अपनी सुरक्षा के लिए उतने ही अन्योन्याश्रित हैं, जितना ISIS को हराने के लिए वर्तमान संघर्ष में स्पष्ट है। अगर हमें ISIS को यह पाठ हमें कठोर तरीके से सिखाने से रोकना है, तो हमें यह स्वीकार करना होगा कि हम कट्टरता की आग को केवल बल के द्वारा नहीं बुझा सकते। दुनिया को ऐसी विचारधारा की साख को ख़त्म करने के लिए एकजुट होकर समग्र संचालन करना होगा जो चरमपंथियों को उनकी शक्ति देती है, और उन लोगों के लिए आशा और गरिमा बहाल करनी होगी जिन्हें वे भरती करेंगे। ISIS निश्चित रूप से अंतर्राष्ट्रीय गठबंधन द्वारा सेना से पराजित की जा सकती है - और की जाएगी - जो अब इकट्ठा हो रहा है और जिसका संयुक्त अरब अमीरात सक्रिय रूप से समर्थन कर रहा है। लेकिन सेना द्वारा काबू किया जाना केवल आंशिक समाधान है। स्थायी शांति के लिए तीन अन्य घटकों की ज़रूरत है: विचारों की लड़ाई जीतना; कमज़ोर शासन का उन्नयन करना; और ज़मीनी स्तर पर मानव विकास का समर्थन करना। इस तरह का समाधान ठोस अंतर्राष्ट्रीय राजनीतिक इच्छाशक्ति के साथ शुरू होना चाहिए। उत्तरी अमेरिका, यूरोप, अफ़्रीका, या एशिया में एक भी राजनेता मध्य पूर्व में घटनाओं की अनदेखी नहीं कर सकता। वैश्विक ख़तरे के लिए वैश्विक प्रतिक्रिया की ज़रूरत है। हर किसी को आँच महसूस होगी, क्योंकि ऐसी लपटें किसी सीमा को नहीं जानतीं; दरअसल, ISIS ने कम-से-कम 80 राष्ट्रिकताओं के सदस्यों को भरती किया है। ISIS बर्बर और क्रूर संगठन है। यह न तो इस्लाम का प्रतिनिधित्व करता है और न ही मानवता के सबसे बुनियादी मूल्यों का। बहरहाल, यह उभरा है, फैला है, और इसने उनका विरोध किया है जो इसका विरोध करते हैं। हम जिससे लड़ रहे हैं वह केवल आतंकवादी संगठन नहीं है, बल्कि दुर्भावनापूर्ण विचारधारा का अवतार है जिसे बौद्धिक रूप से पराजित किया जाना चाहिए। मैं इस विचारधारा को ऐसे सबसे बड़े ख़तरे के रूप में देखता हूँ जिसका दुनिया अगले दशक में सामना करेगी। इसके बीज यूरोप, अमेरिका, एशिया और अन्य जगहों पर विकसित हो रहे हैं। अपने विकृत धार्मिक मकसद के साथ, नफ़रत की यह पूर्व-पैकेज की गई फ़्रेंचाइज़ किसी भी आतंकवादी समूह द्वारा अपनाने के लिए उपलब्ध है। यह हज़ारों हताश, तामसिक, या क्रोधित युवाओं को जुटाने और सभ्यता की नींव पर हमला करने के लिए उनका इस्तेमाल करने की शक्ति रखती है। ISIS को बल देने वाली यह विचारधारा अल कायदा और नाइजीरिया, पाकिस्तान, अफ़गानिस्तान, सोमालिया, यमन, उत्तरी अफ़्रीका, और अरब प्रायद्वीप में इसके सहयोगियों की विचारधारा के बहुत कुछ समान है। मेरे लिए सबसे चिंता की बात यह है कि एक दशक पहले, अल कायदा को, अफ़गानिस्तान की गुफाओं में आदिम आधार से भी, दुनिया को अस्थिर करने के लिए केवल ऐसी ही विचारधारा की ज़रूरत थी। आज, ISIS के अंतर्गत, अनुयायियों के पास प्रौद्योगिकी, वित्त, विशाल भूमि का आधार, और अंतर्राष्ट्रीय जिहादी नेटवर्क तक पहुँच है। पराजित होने की बात तो दूर है, क्रोध और नफरत की उनकी विचारधारा, ज़्यादा कठोर, ज़्यादा हानिकारक है, और ज़्यादा व्यापक बन गई है। आतंकवादी समूहों का विनाश स्थायी शांति लाने के लिए काफ़ी नहीं है। हमें उनकी जड़ पर भी हमला करना चाहिए ताकि उनकी ख़तरनाक विचारधारा उस शक्ति से वंचित हो जाए जिससे वह निराशा और हताशा के माहौल से कमज़ोर लोगों के बीच फिर से पनप सके। और, इस बात पर, आइए हम सकारात्मक हो जाएँ। समाधान के तीन घटक हैं। पहला है, घातक विचारों का मुकाबला प्रबुद्ध सोच, खुले दिमाग़, और सहिष्णुता और स्वीकृति के दृष्टिकोण से किया जाए। यह दृष्टिकोण हमारे इस्लामी धर्म से उत्पन्न होता है, जो शांति का आह्वान करता है, जीवन का सम्मान करता है, गरिमा का आदर करता है, मानव विकास को बढ़ावा देता है, और हमें दूसरों के लिए अच्छा करने का निर्देश देता है। केवल एक बात उन आत्मघाती युवाओं को रोक सकती है जो ISIS के लिए मरने के लिए तैयार हैं: मज़बूत विचारधारा जो उनका सही रास्ते पर मार्गदर्शन करे और उनमें यह बोध पैदा करे कि भगवान ने हमें इस दुनिया को बेहतर बनाने के लिए बनाया है न कि इसे नष्ट करने के लिए। हम सऊदी अरब में अपने पड़ोसियों को देख सकते हैं जिन्होंने परामर्श केन्द्रों और कार्यक्रमों के माध्यम से अनेक युवाओं को कट्टरपंथ से दूर करने में शानदार सफलता हासिल की है। विचारधाराओं की इस लड़ाई में, मुसलमानों के बीच आध्यात्मिक और बौद्धिक दृष्टि से महत्वपूर्ण विचारक और वैज्ञानिक इस कार्य का नेतृत्व करने के लिए सबसे बेहतर स्थिति में हैं। दूसरा घटक ऐसी स्थिर संस्थाएँ बनाने के लिए सरकारों के प्रयासों का समर्थन करना है जो अपने लोगों को असली सेवाएँ प्रदान कर सकती हैं। यह बात हर किसी को स्पष्ट होनी चाहिए कि ISIS के तीव्र विकास को सीरियाई और इराकी सरकार की असफलताओं ने गति दी थी: सीरिया ने अपने ही लोगों से युद्ध किया, और इराक ने सांप्रदायिक विभाजन को बढ़ावा दिया। जब सरकारें अस्थिरता, उचित शिकायतों, और लगातार गंभीर चुनौतियों के संबंध में कार्रवाई करने में विफल रहती हैं, तो वे घृणित विचारधारा के पनपने - और आतंकवादी संगठनों द्वारा उचितता के शून्य को भरने के लिए - आदर्श वातावरण तैयार करती हैं। अंतिम घटक मानव विकास में व्याप्त उस कालिमा को तत्काल दूर करना है जिससे मध्य पूर्व के अनेक क्षेत्र पीड़ित हैं। यह केवल अरब देशों की ज़िम्मेदारी ही नहीं है, बल्कि अंतर्राष्ट्रीय ज़िम्मेदारी भी है, क्योंकि इस क्षेत्र के लोगों के लिए ज़मीनी स्तर पर अवसर और जीवन की बेहतर गुणवत्ता प्रदान करना अस्थिरता और संघर्ष की हमारी साझा समस्याओं के हल की गारंटी है। हमें ग़रीबी ख़त्म करने, शिक्षा और स्वास्थ्य में सुधार करने, बुनियादी ढाँचे का निर्माण करने, और आर्थिक अवसर पैदा करने के लिए लंबी अवधि की परियोजनाओं और पहल किए जाने की महत्वपूर्ण ज़रूरत है। सतत विकास आतंकवाद को दूर करने का सबसे टिकाऊ इलाज है। हमारा क्षेत्र 200 मिलियन से ज़्यादा युवाओं का घर है। हमारे पास उन्हें आशा के साथ प्रेरित करने और उनकी ऊर्जा को उनके जीवन और उनके आसपास के लोगों के जीवन में सुधार लाने की ओर निर्देशित करने का अवसर है। अगर हम विफल होते हैं, तो हम उन्हें खालीपन, बेरोज़गारी और आतंकवाद की दुर्भावनापूर्ण विचारधाराओं के लिए छोड़ देंगे । हर रोज़ जब हम आर्थिक विकास उपलब्ध करने, नौकरियों का सृजन करने और जीवन स्तर को ऊपर उठाने की ओर क़दम उठाते हैं, तो हम निराशा का पोषण करने वाली भय और नफ़रत की विचारधारा को कमज़ोर करते हैं। हम आतंकवादी संगठनों के अ��्तित्व में बने रहने के कारण को हटाते हैं। मैं आशापूर्ण हूँ, क्योंकि मैं जानता हूँ कि मध्य पूर्व के लोगों के पास आशा की शक्ति और स्थिरता और समृद्धि के लिए इच्छा है जो अवसरवादी और विनाशकारी विचारों से ज़्यादा मज़बूत और ज़्यादा टिकाऊ हैं। बेहतर जीवन के लिए आशा से ज़्यादा मज़बूत कोई शक्ति नहीं होती। प्रतिभा पुनआर्गमन दुबई. सन् 1968 में जब मैं युनाइटेड किंगडम के मॉन्स ऑफिसर कैडेट स्कूल में पढ़ रहा था तब मुझे अस्पताल जाने की जरूरत पड़ी. वहां पर मुझे एक डॉक्टर मिला जो धाराप्रवाह अरबी बोल रहा था. मुझे घोर आश्चर्य हुआ. बातचीत में मुझे पता चला कि वह यूके में नया था. इसलिए मैंने उससे जानना चाहा कि उसका वहां लंबे समय तक रुकने का इरादा था या वह जल्द ही घर लौट जाएगा. उसने अरबी की एक कहावत में जवाब दिया जिसका अर्थ हैः ‘मेरा घर वहीं है जहां मैं खाना खा सकता हूं’. डॉक्टर के शब्द वर्षों तक मेरे जहन में गूंजते रहे. दरअसल वे उस विरोधाभास को रेखांकित करते हैं जो ‘घर’ के बारे में हमारी आदर्शवादी कल्पना और जीवन की कठोर सच्चाइयों के बीच विद्यमान है जिनके कारण प्रतिभाशाली लोग घर छोड़ देते हैं. डॉक्टर ‘प्रतिभा पलायन’ का ठेठ उदाहरण था जिससे विकासशील देश दशकों से ग्रस्त हैं. ये देश अपने दुर्लभ संसाधनों का उपयोग कर डॉक्टर, इंजिनियर और वैज्ञानिक पैदा करते हैं इस उम्मीद में कि वे अपने देश को संपन्न बनाएंगे. लेकिन फिर वे निराश देखते रहते हैं कि वही डॉक्टर, इंजिनियर और वैज्ञानिक पश्चिम में जा बसते हैं और अपने साथ अपनी संभावनाओं से भरी प्रतिभा भी ले जाते हैं. अवश्य ही हर व्यक्ति का अधिकार है कि वह दुनिया में कहीं भी बेहतर जिंदगी जी सके. हम समझते हैं कि वे क्यों जाते हैं. चुम्बक की तरह अवसर प्रतिभा को अपनी ओर खींचता है. लेकिन जो देश वे छोड़ते हैं उनमें यह दुष्चक्र के समान हैः अवसर के निर्माण के लिए उन्हें प्रतिभा चाहिए; लेकिन अवसर के अभाव में यही प्रतिभा पश्चिम की चमकदार जीवनशैली की ओर आकर्षित होती है. संयुक्त राष्ट्र और ओईसीडी की रिपोर्ट कहती है कि सन् 2000 से काम की तलाश में प्रतिभा पलायन एक-तिहाई बढ़ा है. अफ्रीका के नौ में से एक स्नातक छात्र आज पश्चिम में रहता है और काम करता है. इनमें से अनेक कभी वापस नहीं आएंगे. कुशल कर्मिकों के तो बाहर बसने की संभावना छह गुना ज्यादा है. पर अब कुछ उल्लेखनीय हो रहा है. कुछ देशों में प्रतिभा पलायन की दिशा उलटी हो गई है. इसके कारण अद्भुत हैं और आशावादी होने का कारण भी है कि अब इस दुष्चक्र को तोड़ा जा सकता है, और विकासशील व विकसित देशों के बीच उम्मीद और अवसर के बीच संतुलन कायम किया जा सकता है. विश्व के सबसे बड़े पेशेवर नेटवर्क और नियुक्ति प्लैटफॉर्म लिंक्डइन के नए अध्ययन में इसके सदस्यों के बीच अंतर्राष्ट्रीय आवागमन को मापा गया. गंतव्य स्थलों की सूची में मेरा अपना देश संयुक्त अरब अमीरात सबसे ऊपर है. 2013 में यहां काम के लिए आने वाले कुशल कर्मिकों की तादाद में 1.3% का इजाफा हुआ. अन्य देश जिन्हें ‘प्रतिभा का चुम्बक’ कह सकते हैं उनमें साउदी अरब, नाइजीरिया, दक्षिण अफ्रीका, भारत और ब्राजील शामिल हैं. सबसे दिलचस्प बात यह है कि इस प्रतिभा आगमन में एक-तिहाई से कुछ कम विकसित देशों से है. दरअसल, इस अध्ययन में जिन देशों से प्रतिभा का आगमन हुआ वे हैं स्पेन, फ्रांस, अमेरिका, इटली और आयरलैंड. अभी तक अमीर देश हमारे सबसे प्रखर मस्तिष्कों को अपने यहां खींचते थे. अब वही अपनी प्रतिभाओं को हमारे यहां भेज रहे हैं. किन्तु यह मात्र एक अध्ययन है. अनेक गरीब देश अभी भी प्रतिभा पलायन की पुरानी बीमारी से पीडि़त हैं. ओईसीडी के आंकड़े दर्शाते हैं कि अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के अनेक देशों से स्नातक लोगों के पलायन की दर आज भी 50% से ऊपर है. हम जानते हैं कि सुरक्षा, संरक्षा और आर्थिक अवसरों के कारण प्रतिभा पलायन होता है. आपसी झगड़ों और अस्थिरता में उलझे मध्यपूर्वी देशों में त्रासदी ये है कि अगर उनके सर्वाधिक प्रतिभावान् बेटे-बेटियां अपने हुनर का अपने देश में ही उपयोग करें तभी वे समाधान का हिस्सा बन पाएंगे. यानी विकास के जरिये शांति को ला पाएंगे. इससे यह और भी महत्वपूर्ण बन जाता है कि इस बात की जांच की जाए कि कैसे कुछ विकासशील देश प्रतिभा पलायन के रुख को अपनी ओर मोड़ने में कामयाब रहे हैं. इसमें बुनियादी अवयव है अवसर. प्रतिभा सहज ही उन देशों की ओर जाती है जो आर्थिक वृद्धि के अवसर निर्मित करते हैं; जो उद्यमी के जीवन को आसान बनाते हैं; जो निवेश को आकर्षित करते हैं, उसका स्वागत करते हैं और जो उपलब्धि हासिल करने के माहौल का पोषण करते हैं. हुनर चुनौती और संभावना की ओर आकर्षित होता है. इस पैमाने पर पश्चिम के अनेक भागों में अवसर एक दुर्लभ वस्तु बन रहा है. लेकिन विकासशील देशों में ऐसा नहीं है - कम से कम उन देशों में जहां सशक्त शासन देने और प्रतिस्पर्धा निरंतर बढ़ाने की क्षुधा और दृढ़ता है. दूसरे, जीवन की गुणवत्ता का बड़ा महत्त्व है. एक पीढ़ी पहले तक अनेक प्रतिभावान् लोग पश्चिम में काम करने को ‘मजबूरी भरा कदम’ मानते थे. आज मसलन संयुक्त अरब अमीरात में जीवन स्तर सारी दुनिया के मुकाबले सबसे ऊंचा है. हमने दिखा दिया है कि प्रतिभा पलायन को उलटने का व्यवसाय नागरिकों व रहवासियों के लिए बेहतर जिंदगी बनाने का व्यवसाय भी है. आखिर सभी जगह अच्छी सरकार का यही तो काम है - खुशियों का निर्माण. खासकर मध्यपूर्व में हमारी कामयाबी की कहानी बड़ी उम्मीद की गाथा है. यहां पीढि़यों तक चले संघर्ष और निराशा के कारण ऊंचे स्तर पर प्रतिभा पलायन हुआ है. मैंने हमेशा कहा है कि अच्छे शासन के अलावा, अरब देशों में विभाजन और संघर्ष के सबसे अच्छे हल बुनियादी स्तर पर और आर्थिक अवसरों में छिपे हैं. अब हमने दिखा दिया है कि उन कारकों को उलटा जा सकता है जिनसे हमारे सर्वाधिक प्रतिभावान् युवा हमसे दूर चले गए थे. एक और आशाजनक बात ये है कि यह बदलाव उल्लेखनीय रूप से जल्दी लाया जा सकता है. शोध दर्शाते हैं कि छोटे देश आनुपातिक तौर पर प्रतिभा पलायन से ज्यादा पीडि़त हैं. पर हमने दर्शाया है कि यूएई जैसे छोटे देश के लिए और संघर्ष के कारण विभाजित क्षेत्रों में भी अवसरों के निर्माण से वांछित परिणाम मिलते हैं. एक बात साफ करना चाहूंगा कि प्रतिभा पलायन को उलटना मात्र एक छिद्र को भरने से कहीं अधिक है. इसका अर्थ है किसी दुष्चक्र को गुणात्मक रूप से बदलना. दुनियाभर से सर्वश्रेष्ठ प्रतिभाओं को आकर्षित कर हम एक जीवंत और विविधतापूर्ण समाज का निर्माण कर सकते हैं जो नवाचार और सम्पन्नता को गति प्रदान करे - जिससे और अधिक प्रतिभाओं को आकर्षित कर सकें. इसे कारगर बनाने के लिए हमें लोगों में विश्वास करना होगा. मनुष्य, उनके विचार, अविष्कार, सपने और संपर्क भविष्य की पूंजी हैं. इस अर्थ में ‘प्रतिभा पुनआर्गमन’ अपने आप में कोई बड़ी उपलब्धि नहीं है. बल्कि यह विकास का अग्रणि संकेतक है. क्योंकि आज जहां महान मस्तिष्क जाते हैं वहां कल महान चीजें होती हैं. जनता की जलवायु बर्लिन – 21 सितंबर को जनता की जलवायु पदयात्रा उभरते वैश्विक जलवायु आंदोलन के लिए एक ऐतिहासिक घटना थी जिसमें 400,000 से अधिक लोग न्यूयॉर्क शहर की सड़कों पर उतर आए थे। लेकिन न्यूयॉर्क इसका केवल एक आरंभ मात्र था। अर्जेंटीना से ऑस्ट्रेलिया तक, 166 देशों में लोगों ने 2,800 से अधिक कार्यक्रमों और रैलियों में भाग लिया। दो लाख कार्यकर्ताओं ने एक ऑनलाइन याचिका के माध्यम से मांग की कि सरकारों को 100% स्वच्छ ऊर्जा को अपनाना चाहिए। 2009 में संयोगवश हुए कोपेनहेगन जलवायु परिवर्तन सम्मेलन के बाद पहली बार, आभासी जलवायु सक्रियता वास्तविक दुनिया में प्रकट हुई। क्यों? नागरिकों को जलवायु परिवर्तन के प्रभाव के बारे में चिंता है, और वे जानते हैं कि समस्या जीवाश्म ईंधन हैं। वे अब जान चुके हैं कि स्वार्थी शक्तियाँ आवश्यक स्वच्छ ऊर्जा में बदलाव को अवरुद्ध कर रही हैं, और अब वे इस बात पर बिल्कुल विश्वास नहीं करते हैं कि उनकी सरकारें इस भूमंडल के भविष्य को सुधारने के लिए पर्याप्त कोशिश कर रही हैं। यह केवल इसमें भाग लेने वाले लोगों की रिकार्ड संख्या से ही नहीं बल्कि पदयात्रा में भाग लेनेवालों की विविधता - शहरी कार्यकर्ता, स्वदेशी समूह, विभिन्न धर्मों और राजनीतिक विचारों के अनुयायियों, और उससे भी अधिक स्पष्ट रूप से बूढ़े और जवान सभी के सम्मिलित होने - से भी परिलक्षित हुई। लोग आज जलवायु परिवर्तन और दैनिक जीवन के बीच प्राकृतिक संबंधों को देख पा रहे हैं। शिक्षक अक्षय ऊर्जा पर चलने वाले स्कूलों के पक्षधर थे, महिलाओं ने अधिक स्वस्थ कृषि का समर्थन किया, दादियों-नानियों ने अपने पोते-पोतियों नाती-नातियों के लिए स्वच्छ हवा की मांग की, यूनियनें नौकरी में हरित रूपांतरण चाहती हैं, और शहर महापौर ऊर्जा-कुशल इमारतों में निवेश चाहते हैं। कोपेनहेगन सम्मेलन विफल होने के पांच साल बाद, आखिरकार सरकारों को चाहिए कि वे अब जिम्मेदारी से कार्य करें। संयुक्त राष्ट्र महासचिव बान की-मून की मेजबानी में इस सप्ताह जलवायु शिखर सम्मेलन का आयोजन सरकार, व्यवसाय, और नागरिक समाज के नेताओं को इकट्ठा करके कार्रवाई की गति में तेजी लाने के उद्देश्य से किया गया था। इसका उद्देश्य 2015 में पेरिस में जलवायु समझौता-वार्ता के लिए सरकारों के लिए अनुकूल परिस्थितियों का निर्माण करना था। और, हालांकि संयुक्त राष्ट्र द्वारा उन वायदों को लागू नहीं किया जा सकता जो नेताओं ने किए हैं, शिखर सम्मेलन ने एक लोकप्रिय प्रदर्शन को उत्प्रेरित किया है जिसने राजनीतिक सुर्खियों को वापस जलवायु परिवर्तन की चुनौती की ओर मोड़ दिया है, जब तक सरकारें विश्वसनीय कार्रवाई नहीं करती हैं तब तक इसके वहीं बने रहने की संभावना है। 2009 के बाद से जो बदला है वह जलवायु परिवर्तन के प्रभाव के बारे में चिंता की तीव्रता है। इस बीच, न्यूयॉर्क-वासियों को तूफ़ान सैंडी का सामना करना पड़ा, जबकि तूफान हैयान ने फिलीपींस को तबाह कर दिया। जलवायु के रिकॉर्ड दुनिया भर में लगातार टूटते जा रहे हैं। केवल 2014 में ही, आम लोगों को ऑस्ट्रेलिया में लू, पाकिस्तान में बाढ़, और मध्य अमेरिका में सूखे का प्रकोप सहना पड़ा, जबकि यह दिखाया गया है कि पश्चिम अंटार्कटिक की बर्फ की परत का पिघलना एक अपरिवर्तनीय घटना है। परिणामस्वरूप, वैश्विक बहस का मुद्दा कार्रवाई की लागत से हटकर कार्रवाई न करने की लागत पर आ गया है। और हालांकि, जलवायु क्षति की लागतें चौंका देनेवाली हैं, वैज्ञानिक अनुसंधान से यह पता चलता है कि इसे कम करने की लागतों को बर्दाश्त किया जा सकता है। अक्षय ऊर्जा के उत्पादन में वृद्धि से यह स्पष्ट हो गया है। लोग स्वच्छ ऊर्जा चाहते हैं, प्रौद्योगिकी उपलब्ध है और लाभदायक हैं, और, लाखों लोगों को विश्वसनीय बिजली प्राप्त न हो सकने के कारण, ऊर्जा के अक्षय स्रोतों का उद्भव एक संजीवनी के रूप में है। पवन और सौर ऊर्जा की वैश्विक क्षमता 2009 के स्तर से बढ़कर तीन गुना हो गई है, और नवीकरणीय ऊर्जा अब विश्व की विद्युत आपूर्ति के पांचवें हिस्से से अधिक उपलब्ध करती है। वास्तव में, विश्व भर में जोड़ी जानेवाली नई बिजली का हर दूसरा मेगावाट हरित होता है, जिसका अर्थ है कि 2030 में अक्षय ऊर्जा का अंश 50% तक पहुंच सकता है। स्वच्छ ऊर्जा एक खेल परिवर्तक है, क्योंकि यह अधिकाधिक विद्युत को वापस नागरिकों के हाथों में दे देता है, जिससे जीवाश्म ईंधन उद्योग को सीधी चुनौती मिलती है। जलवायु परिवर्तन के खिलाफ लड़ाई में स्पष्ट रूप से अगला कदम यही है कि इस उद्योग के लिए सभी प्रकार की आर्थिक सहायता को बंद कर दिया जाए। इस सप्ताह के संयुक्त राष्ट्र जलवायु शिखर सम्मेलन से अंतर्राष्ट्रीय जलवायु समझौते के लिए वार्ता की दिशा को तो प्रभावित नहीं किया जा सकता। लेकिन इसने ध्यान को वहां वापस केंद्रित कर दिया है जहां यह होना चाहिए: वास्तविक लोगों का अपनी सरकारों से वास्तविक परिवर्तन की मांग करना। नागरिकों ने यह दिखा दिया है कि वे प्रतिबद्ध हैं और वे अपनी बात कहेंगे। जनता की जलवायु पदयात्रा केवल एक शुरूआत थी। मलेरिया का अंत? वाशिंगटन, डीसी – मलेरिया के ख़िलाफ़ लड़ाई में जो लोग अगली कतार में हैं उनके लिए इस परजीवी के ख़िलाफ़ टीके के विकास की ख़बर रोमांचक घटना है। 2013 में इस रोग से 584,000 मौतें हुई थीं, जिनमें से लगभग 90% उप-सहारा अफ्रीका में हुई थीं; मरने वालों में 78 प्रतिशत पांच वर्ष से कम उम्र के बच्चे थे। जिन 97 देशों में मलेरिया महामारी है, उनमें यह इलाज और देखभाल तक सीमित पहुंच वाले उन ग़रीब लोगों की आर्थिक उत्पादकता को तहस-नहस कर देता है जो उसे सबसे कम बर्दाश्त कर सकते हैं। जुलाई में यूरोपियन यूनियन ह्यूमन मेडिसिन रेगुलेटरी एजेंसी ने छह सप्ताह से 17 माह तक की आयु के बच्चों को लगाए जानेवाले आरटीएस, एस (RTS,S) नामक टीके के उपयोग की स्वीकृति दी थी, जिसे इसके व्यापारिक नाम, मॉस्क़िवरिक्स के रूप में भी जाना जाता है। दुनिया भर के स्वास्थ्य समुदाय ने अरसे पहले इस र���ग का बोझ कम करने में टीके के महत्व की सराहना की थी, और दवा निर्माता कंपनी ग्लैक्सो स्मिथ क्लाइन (GSK) के शोधकर्ताओं के इस टीके पर काम शुरू करने के 30 कष्टदायक वर्षों के बाद विश्व स्वास्थ्य संगठन इस वर्ष नवंबर में उन देशों में मॉस्क़्विरिक्स का उपयोग करने की घोषणा करेगा जहां मलेरिया महामारी है। यह स्वीकृति मलेरिया की रोकथाम और नियंत्रण की सही दिशा में उठाया गया महत्वपूर्ण कदम है। यह सामाजिक लोकोपकार, साझेदारियों और अंतर्राष्ट्रीय सहभागिताओं की चिरस्थायी शक्ति का भी सबूत है। बहरहाल, इस टीके के विकास और दुनिया के कुछ सबसे ग़रीब देशों की स्वास्थ्य प्रणालियों में इसके एकीकरण की बाबत बहुत से सवाल अभी अनुत्तरित बने हुए हैं। कीमत शायद सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा है। जिन लोगों को इस नए टीके की ज़रूरत सबसे अधिक है, उनमें से अधिकतर लोग ग़रीब हैं। शोध और विकास पर हुए लाखों डालर के ख़र्च के मद्देनज़र देखना यह है कि क्या “समान मूल्य निर्धारण” संभव है। जीएसके ने कहा है कि मॉस्क़्विरिक्स को "मुनाफ़े के लिए नहीं" के आधार पर बेचा जाएगा; लेकिन फिर भी दवा निर्माता कंपनी की लागत तो निकलनी ही चाहिए। और वास्तव में इसकी कीमत कौन देगा? बहुत-सी अफ्रीकी सरकारों ने अतीत में सार्वजनिक स्वास्थ्य के बुनियादी ढाँचे में निवेश की तत्परता दिखाई है; लेकिन इस टीके के प्रति राजनीतिक प्रतिबद्धता का अर्थ यह हो सकता है कि वे अपने संसाधनों का उपयोग रैपिड टेस्ट किटों, सस्ती दवाओं, सुरक्षित कीटनाशकों, और टिकाऊ कीटनाशक मच्छरदानियों सहित अन्य महत्वपूर्ण उपायों की बजाय इस पर करें। अंतर्राष्ट्रीय ग़ैर सरकारी संगठनों और निजी प्रतिष्ठानों ने निधियाँ प्रदान करके और इस मुद्दे पर ध्यान आकर्षित करके मलेरिया के ख़िलाफ़ लड़ाई में सरकारी क्षेत्र को सहयोग दिया है। उनसे टीके की कीमत चुकाने की उम्मीद करना ज़रूरत से ज़्यादा की मांग करना होगा। टीके के वितरण की कुछ देशों की क्षमता को लेकर भी सवाल उठ रहे हैं, और साथ ही इसे लेकर भी सवाल उठ रहे हैं कि इस समय दुनिया की जो वस्तुस्थिति है उसमें यह सब कैसे हो पाएगा। उदाहरण के लिए, मॉस्क़्विरिक्स के लिए परीक्षण ने इस संभावना पर विचार नहीं किया था कि माता-पिता टीके द्वारा प्रदान की जाने वाली रक्षा और सुरक्षा के झूठे एहसास के कारण अपने बच्चों के लिए कीटनाशक शोधित मच्छरदानियों के उपयोग की उपेक्षा कर सकते हैं। इसके अलावा किसी टीके की प्रभावकारिता बनाए रखने के लिए तीन शुरूआती खुराक़ों के बाद एक बूस्टर देने की ज़रूरत होती है। इसके बिना कारगरता घट कर असुरक्षित स्तरों तक चली जाती है। क्या सरकारें सचमुच इस पर लाखों डालर ख़र्च करना चाहेंगी? आख़िरी बात यह है कि उप-सहारा अफ्रीका के बहुत से माता-पिता वर्तमान में स्वास्थ्य अधिकारियों के प्रति अविश्वास और अज्ञान सहित बहुत से कारणों से अपने बच्चों को टीके नहीं लगवाते हैं। पोलियो के टीके को नाइजीरिया में कठिन संघर्ष करना पड़ा, और मलेरिया के इस नए टीके की भी वही नियति हो सकती है। सरकारों को यह तय करना होगा कि इसका उपयोग अनिवार्य किया जाए या अपने बच्चों को टीका लगवाने वालों को प्रोत्साहन राशि प्रदान की जाए। मॉस्क़्विरिक्स की स्वीकृति से मलेरिया के खिलाफ लड़ाई में नए आशावादी चरण की शुरूआत हुई है। लेकिन उसमें अनेक गंभीर चुनौतियां भी हैं। उनका सामना करने के लिए अफ्रीकी देशों को देखभाल प्रदान करने के लिए भरोसेमंद स्थानीय अनुसंधान क्षमता और कारगर मॉडल प्रारंभ करने चाहिए, और उनका विकास और समर्थन करना चाहिए। साथ ही, भौतिक और सामाजिक बुनियादी ढाँचे में अनुसंधान और निवेश को उच्च प्राथमिकता दी जानी चाहिए। इस लेख को पढ़ने में जितना समय लगा है उतने समय में मलेरिया से पांच बच्चे मर चुके होंगे। अब से दस साल बाद मॉस्क़्विरिक्स की बदौलत यह आंकड़ा एक बुरी याद से अधिक कुछ भी नहीं होगा। कम-से-कम आज दुनिया के पास इस रोग से होने वाली मौतों को कम करने की लड़ाई के लिए एक नया हथियार तो है। प्रमुख कार्बन उत्सर्जनकर्ता और जलवायु न्याय बॉन – पिछले महीने नवंबर में प्रकाशित एक क्रांतिकारी अध्ययन से यह पता चला है कि कोयला, तेल और गैस, और सीमेंट के केवल 90 उत्पादकों – जिन्हें "प्रमुख कार्बन उत्सर्जनकर्ता" का नाम दिया गया है – के कार्यकलापों के फलस्वरूप औद्योगिक क्रांति के बाद से कार्बन डाईऑक्साइड के सभी उत्सर्जनों में उनका अंश 63% रहा है। यह रिपोर्ट फिलीपींस में टैक्लोबैन क्षेत्र में तूफ़ान हैयान (या जिसे स्थानीय रूप से योलान्डा कहा जाता था) की विनाशलीला के कुछ सप्ताह बाद ही जारी की गई थी। प्रति घंटे 315 किलोमीटर (196 मील) की अभूतपूर्व हवा की गति वाले इस तूफान से 6,300 लोग मारे गए, चार लाख बेघर हो गए, और इससे 2 बिलियन डॉलर से अधिक की क्षति हुई। इसके बाद वारसा में आयोजित संयुक्त राष्ट्र जलवायु-परिवर्तन सम्मेलन में प्रतिनिधियों ने हैयान और इससे हुई तबाही पर जमकर हो-हल्ला किया। इसकी प्रतिक्रिया के रूप में, वे जलवायु-परिवर्तन से संबंधित "नुकसान और क्षति" का समाधान करने के लिए एक अंतरराष्ट्रीय तंत्र स्थापित करने पर सहमत हुए, जिसे उन देशों में लागू किया जाएगा जो स्वयं को ग्लोबल वार्मिंग के बुरे प्रभावों के अनुकूल बनाने या उनसे रक्षा करने में असमर्थ हैं। जो जलवायु-परिवर्तन के प्रति सबसे अधिक संवेदनशील होते हैं वही अक्सर उसके कारणों के लिए सबसे कम जिम्मेदार होते हैं, और उसके परिणामों से निपटने के लिए उनके पास सबसे कम संसाधन होते हैं। इसके विपरीत उन प्रमुख कार्बन उत्सर्जनकर्ताओं को लें जिन्होंने उन जीवाश्म ईंधनों से अपार दौलत हासिल की है जो जलवायु-परिवर्तन के लिए काफी हद तक जिम्मेदार हैं। 2013 में, केवल चार बड़ी कंपनियों – शेवरॉन, एक्सॉनमोबिल, बीपी, और शेल – के संयुक्त लाभ $94 बिलियन से अधिक रहे। यह भारी-भरकम लाभ इसलिए संभव हुआ क्योंकि ये कंपनियाँ अपने उत्पादों की उच्चतम लागत - गरीब और कमजोर द्वारा वहन की जानेवाली जलवायु की तबाही - को अमल में लाती हैं। इसलिए यह बिल्कुल उचित और तर्कसंगत लगता है कि जीवाश्म-ईंधन वाली सभी संस्थाएँ, परंतु विशेष रूप से प्रमुख कार्बन उत्सर्जनकर्ता, हानि और क्षति के लिए एक नए अंतर्राष्ट्रीय तंत्र को उत्पादित किए जानेवाले कोयले के प्रति टन, तेल के प्रति बैरल, या गैस के प्रति घन मीटर पर एक लेवी का भुगतान करें, जिससे जलवायु परिवर्तन के सबसे खराब प्रभावों को दूर करने के संबंध में की जानेवाली कार्रवाई के प्रयासों के लिए निधि प्रदान करने में मदद मिलेगी। इसके अलावा, यह देखते हुए कि जलवायु परिवर्तन के आज के प्रभाव अतीत के उत्सर्जनों का परिणाम हैं, प्रमुख कार्बन उत्सर्जनकर्ताओं को ऐतिहासिक लेवी का भुगतान भी करना चाहिए। यदि इन लेवियों को प्रारंभ में प्रति टन कार्बन के लिए $2 की अपेक्षाकृत कम दर पर निर्धारित किया जाता है, तो इनसे $50 बिलियन प्रति वर्ष की दर से राशि जुटाई जा सकती है, हालाँकि इस दर को हर वर्ष बढ़ाया जाना चाहिए। इन राजस्वों से कमज़ोर देशों के जलवायु परिवर्तन से निपटने, दीर्घकालिक योजनाएँ विकसित करने, और साथ ही, नुकसान और क्षति को न्यूनतम करने, जानकारी साझा करने, और सर्वोत्तम प्रथाओं को दोहराने के उद्देश्य से पायलट परियोजनाओं को वित्त प्रदान करने के लिए मदद मिल सकती है। वे मौसम देरी से शुरू होने और चरम मौसम की घटनाओं पर निगरानी रखने और उनका पूर्वानुमान लगाने के लिए निधि प्रदान कर सकते हैं, जिससे अधिकारी और जनता किसी आसन्न आपदा के लिए अधिक प्रभावी ढंग से तैयारी कर सकें। और इस राशि से, व्यक्तिगत स्थानीय, राष्ट्रीय, क्षेत्रीय, या अंतर्राष्ट्रीय बीमा पॉलिसियों पर हानि-और-क्षति का जोखिम प्रीमियम कवर हो सकता है। सरकारें प्रमुख कार्बन उत्सर्जनकर्ताओं से लेवी संभवतः उसी समय वसूल करेंगी जब वे रॉयल्टी और अन्य निष्कर्षण संबंधी शुल्क प्राप्त करेंगी, और इस राशि को अंतर्राष्ट्रीय तंत्र के पास जमा कर देंगी। यदि नई लेवी को मौजूदा शुल्कों के साथ जोड़ा जाता है, तो इससे मूल्य संकेतक सुदृढ़ होकर जीवाश्म ईंधन से हटकर नवीकरणीय स्रोतों की ओर उन्मुख होगा। यह जीवाश्म ईंधन लेवी जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन के द्वारा स्थापित मानदंडों और अंतर्राष्ट्रीय कानून के "प्रदूषणकर्ता भरपाई करे" और "कोई क्षति न पहुँचाए" के सिद्धांतों के साथ पूरी तरह से संगत होगी, जिनके अनुसार संगठनों को उस क्षति के लिए भरपाई करनी होगी जो उन्होंने की हो। वास्तव में, यह व्यवस्था मौजूदा व्यवस्थाओं के समान होगी, जिनके अंतर्गत तेल फैलने या परमाणु क्षति के कारण दिया जानेवाला मुआवज़ा आता है। लेकिन किसी की क्षति की लागत का भुगतान करना हालाँकि आवश्यक है, पर यह पर्याप्त से बहुत कम होता है। इसके बावजूद, क्षतिपूर्ति लेवी का अर्थ यह नहीं लगाया जाना चाहिए कि प्रमुख कार्बन उत्सर्जनकर्ताओं ने वास्तव में प्रदूषित करने का अधिकार खरीद लिया है। हमें सबसे कमजोर लोगों को (और अपने आप को) नुकसान पहुँचाने से रोकने के लिए भी काम करना चाहिए। जब विश्व की सरकारें 2015 में पेरिस में संयुक्त राष्ट्र जलवायु-परिवर्तन सम्मेलन में मिलेंगी, तो उन्हें, शुद्ध ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जनों को समाप्त करने और सदी के मध्य तक जीवाश्म ईंधन जलाने को रोकने के तरीकों पर सहमत होना होगा। कार्बन ट्रैकर के अनुसार, यदि हमें भयावह जलवायु परिवर्तन से बचना है तो जीवाश्म ईंधन के भंडार का 80% जमीन में ही रहना चाहिए। यहाँ तक कि जलवायु परिवर्तन के आज के "कम" के स्तर पर, तबाही पहले से ही बहुत अधिक वास्तविक है। यह रिश्तेदारों का शोक मना रहे और घरों और जीवन के पुनर्निर्माण की कोशिश कर रहे फिलीपींस के नागरिकों के लिए; कंटेनरों में फसलें उगानेवाले, पीने के पानी का आयात करनेवाले, और अतिक्रमण करनेवाले सागर से अपने द्वीपों की रक्षा करने के लिए समुद्री दीवारों का निर्माण करनेवाले प्रशांत द्वीपों के वासियों के लिए; और साहेल में भूखे किसानों के लिए वास्तविक है। और यह दुनिया भर में अन्य लाखों कमजोर लोगों के लिए एक बढ़ती हुई वास्तविकता है। ये लोग दुनिया से सहायता पाने के पात्र हैं - इन्हें सिर्फ नैतिक सहायता मात्र ��हीं, बल्कि अतीत और वर्तमान के औद्योगीकरण द्वारा उन पर थोपी गई जलवायु-संबंधी कठिनाइयों को दूर करने या कम-से-कम कम करने के लिए बनाए गए प्रभावी, ठीक से वित्तपोषित तंत्रों के रूप में वास्तविक मदद चाहिए। प्रमुख कार्बन उत्सर्जनकर्ताओं के लिए, अब भरपाई करने का समय आ गया है। भारत का राजकोषीय सौभाग्य कैम्ब्रिज – भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार सौभाग्यशाली महसूस कर रही होगी। कच्चे तेल के कारण विश्व में वस्तुओं की कीमतों में गिरावट आने के फलस्वरूप, राष्ट्रीय बजट का प्रबंध करना अधिक आसान हो गया है। और अब, केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय (सीएसओ) द्वारा जीडीपी डेटा की गणना के लिए अपनी कार्यप्रणाली को संशोधित करने के बाद यह कार्य और भी आसान हो गया है। सीएसओ के अनुसार, पद्धति में किए गए इस परिवर्तन के परिणामस्वरूप 2014 की दूसरी तिमाही में वार्षिक उत्पादन में वृद्धि 5.3% के मूल अनुमान से बहुत अधिक बढ़कर 8.2% पर पहुँच गई। जीडीपी के संशोधित आंकड़ों के आधार पर, मार्च 2015 को समाप्त होनेवाले राजकोषीय वर्ष में भारत की औसत विकास दर 7.4% होने की आशा है। इसके अलावा, अगले राजकोषीय वर्ष में देश में 8-8.5% की दर से विकास होने का अनुमान है। बजट में किसी प्रकार के भी परिवर्तनों से विकास में ऐसी उल्लेखनीय, लागत-रहित तेज़ी नहीं लाई जा सकती थी। यह कहना उचित होगा कि आमतौर पर गंभीर रहनेवाले सांख्यिकी विभाग ने इस साल के बजट में वाहवाही लूट ली। फिर भी, वित्त मंत्री अरुण जेटली के बजट को कई मोर्चों पर सफलता मिली है – कम-से-कम इसकी कल्पना और कार्यान्वयन के सामंजस्य में तो मिली ही है। विशेष रूप से, यह बजट सरकार के विकास समर्थक एजेंडा की कल्पना को आगे बढ़ानेवाला है जिसमें कल्याणकारी योजनाओं के लिए बेहतर सुपुर्दगी तंत्र को ल���्षित करते हुए यह भारत में कारोबार करने में आसानी को और बढ़ाता है। व्यय पक्ष को देखा जाए तो बजट में विस्तार है, इसमें निवेश व्यय में भारी वृद्धि की गई है, नए कल्याणकारी कार्यक्रम शुरू किए गए हैं, और विभिन्न क्षेत्रों के लिए ऋण में वृद्धि की गई है। हालाँकि राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (जो ग्रामीण परिवारों को 100 दिनों के लिए मजदूरी की गारंटी देता है) या उर्वरक सब्सिडी जैसे कुछ सबसे बड़े राजकोषीय कार्यक्रमों पर किए जानेवाले ख़र्च के लिए उच्चतम सीमा निर्धारित करने के लिए कोई महत्वपूर्ण प्रयास नहीं किया गया है, कार्यान्वयन में सुधार करने और अपव्यय कम करने के उपाय निर्धारित किए गए हैं। हालाँकि, बजट में घाटे में चल रही सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों में विनिवेश का उल्लेख तो किया गया है, पर बजट में इस मोर्चे पर शीघ्र कार्रवाई किए जाने के बारे में कुछ नहीं कहा गया है। कॉर्पोरेट क्षेत्र के ऋण के भारी बोझ और बैंकों की भारी मात्रा में ख़राब आस्तियों के कारण निजी निवेश के कमजोर बने रहने के कारण, सरकार ने स्पष्ट रूप से यह निर्णय किया है कि बुनियादी सुविधाओं पर खर्च के ज़रिए इस प्रक्रिया को तुरंत आरंभ कर दिया जाए। लेकिन भारत के बुनियादी ढांचे की जरूरतें जितना सरकार खर्च कर सकती है उससे कहीं अधिक हैं। इस अर्थ में, सार्वजनिक-निजी भागीदारियों के लिए "प्लग करो और खेलो" की नई योजना पिछले पीपीपी मॉडल की तुलना में एक बहुत बड़ा सुधार है, जिसके द्वारा "किसी परियोजना को कार्यान्वयन के लिए दिए जाने से पहले सभी तरह की मंजूरियाँ और संबद्ध सुविधाएँ उपलब्ध होंगी।" बजट की सफलता इस बात पर निर्भर करेगी कि सार्वजनिक क्षेत्र के ये निवेश कितने सफल रहते हैं, और यह अन्य नीतियों, विशेष रूप से भूमि अधिग्रहण विधेयक (जो ग्रामीण क्षेत्रों में औद्योगिक विकास के लिए बनाया गया है) पर निर्भर करेगा, जो अभी से मुश्किलों में पड़ गया है। इसके अलावा, सरकारी निवेश और संसाधनों का आवंटन एक अरसे से भ्रष्टाचार में लिप्त रहा है, और मोदी की सरकार को अभी यह दिखाना बाकी है कि यह बजट के वादों को पारदर्शी और टिकाऊ तरीके से लागू कर सकती है। कर के मोर्चे पर, एक प्रमुख घोषणा की गई है: अगले चार वर्षों में कॉर्पोरेट टैक्स की दर 30% से कम करके 25% की जाएगी, जिससे निजी क्षेत्र के निवेश को प्रोत्साहन मिला है। वस्तु और सेवा कर - जो एक तरह का मूल्य वर्धित कर है जिसके बारे में सरकार ने सराहनीय प्रगति की है - का कार्यान्वयन एक बड़ी उपलब्धि होगी और इससे अर्थव्यवस्था को बहुत अधिक प्रोत्साहन मिलेगा। तथापि, व्यय में भारी वृद्धि किए जाने के बावजूद, बजट देश के राजकोषीय घाटे को उचित सीमा के भीतर रखने के लिए मुख्य रूप से विकास और अधिक कर संग्रह पर निर्भर करता है। बजट में विदेशी निवेश के अंतर्वाहों को प्रोत्साहन देने के लिए किए गए कई प्रस्तावित उपायों में से एक उपाय मैक्रो-प्रूडेंशियल की दृष्टि से जोखिमपूर्ण दिखाई देता है। सरकार "विभिन्न प्रकार के विदेशी निवेशों, विशेष रूप से विदेशी पोर्टफोलियो निवेशों और विदेशी प्रत्यक्ष निवेशों के बीच के अंतर को समाप्त कर देगी, और उनके स्थान पर समग्र उच्चतम सीमाएँ लाएगी।" निवेश के इन दोनों प्रकारों को अलग मानने के कई कारण हैं। पोर्टफोलियो निवेश, जिसे इसकी अस्थिर प्रकृति के कारण अक्सर अतिशीघ्र चलायमान मुद्रा (हॉट मनी) कहा जाता है, अंतर्राष्ट्रीय वित्त की अनिश्चितताओं के कारण अर्थव्यवस्था के जोखिमों को बढ़ा सकता है। दूसरी ओर, विदेशी प्रत्यक्ष निवेश कहीं अधिक स्थिर और घरेलू बुनियादी सिद्धांतों से प्रेरित होता है। इस वर्ष संयुक्त राज्य अमेरिका में ब्याज दरों में वृद्धि होने की संभावना को देखते हुए, अंतर्राष्ट्रीय पूंजी बाज़ारों में अधिक उतार-चढ़ावों के होने की उम्मीद की जा सकती है। इस संदर्भ में, पोर्टफोलियो और प्रत्यक्ष विदेशी निवेश में अंतर को बनाए रखना विवेकपूर्ण होगा। सामान्य तौर पर, बजट की योजना में उन प्रमुख मुद्दों पर ध्यान दिया गया है जिनका भारत की अर्थव्यवस्था को सामना करना पड़ रहा है। लेकिन अच्छे इरादों से वांछित परिणाम हासिल कर पाना मुख्य रूप से इस बात पर निर्भर करेगा कि सरकार भूमि, श्रम, और पर्यावरण जैसे अति तात्कालिक विनियामक मुद्दों पर अनुपूरक और तत्काल आवश्यक सुधारों को लागू करने में सरकार कितनी सफल रहती है। किसी भी स्थिति में, बजट में मोदी सरकार के इरादों के बारे में स्पष्ट संकेत मिलता है। कम-से-कम निकट भविष्य में, यह अपनी "न्यूनतम सरकार और अधिकतम शासन" की कार्यप्रणाली के स्थान पर "साधारण सरकार और अधिकतम शासन" को ला रही है। दीनहीन लोगों की उपेक्षित बीमारियाँ वाशिंगटन, डीसी – पोप फ्रांसिस ने जब सितंबर में संयुक्त राज्य अमेरिका का दौरा किया, तो उन्होंने अमेरिकी कांग्रे��� और संयुक्त राष्ट्र महासभा को संबोधित करते हुए ऐतिहासिक भाषण दिए। फ्रांसिस ने अपने गश्ती पत्र, लाउडैटो सी की भावनाओं की विशेष बातों का उल्लेख करते हुए, ऐसी मानवीय पीड़ा के प्रति कार्रवाई करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय समुदाय की जिम्मेदारी पर प्रकाश डाला, जो शरणार्थियों और चरम गरीबी में रहने वाले लोगों के प्रति होनी चाहिए, और सामाजिक बहिष्कार और असमानता पर काबू पाने के लिए वैश्विक एकजुटता के लिए आह्वान किया। पोप के निवेदन के फलस्वरूप हमारा ध्यान मानवीय पीड़ा के हर पहलू की ओर जाना चाहिए, विशेष रूप से उन पहलुओं पर जो सबसे दीनहीन लोगों को प्रभावित करते हैं। इनमें से एक पहलू उपेक्षित उष्णकटिबंधीय रोगों (एनटीडी) का है। परजीवी और संबंधित संक्रमणों का यह समूह – लसीका फाइलेरिया (या फ़ीलपाँव), पेट के कीड़े, और रक्त पर्णकृमि द्वारा उत्पन्न परजीवी रोग (शिस्टोसोमिएसिस) सहित, गरीबी का अभिशाप है। इन बीमारियों से प्रति वर्ष लगभग 1.4 अरब लोग ग्रस्त होते हैं, जिनमें 500 मिलियन से अधिक संख्या बच्चों की होती है, जिनसे उन्हें बहुत अधिक पीड़ा और कष्ट सहन करना पड़ता है, और इससे उनकी उत्पादकता में कमी होने से उनकी गरीबी और बढ़ जाती है। पिछले दशक के दौरान, अंतर्राष्ट्रीय समुदाय ने उपेक्षित उष्णकटिबंधीय रोगों के विरुद्ध महत्वपूर्ण प्रगति की है। उदाहरण के लिए, निःशुल्क दवाएं उपलब्ध कराने वाली प्रमुख दवा कंपनियों की उदारता के फलस्वरूप इलाज के कार्यक्रमों को आगे बढ़ाने में मदद मिली है। लेकिन, दुर्भाग्यवश, प्रगति के उत्साहजनक संकेतों के बावजूद, इन निवारणीय रोगों के जोखिम वाले लोगों में से मुश्किल से 40% लोग वह दवा प्राप्त कर पाते हैं जिसकी उन्हें आवश्यकता होती है। एक अरब से अधिक लोगों को अभी भी संभावित दुर्बलता वाली दशाओं के लिए उन उपचारों तक पहुँच नहीं मिल पाती है जिन्हें उपलब्ध करने की प्रति व्यक्ति लागत $0.50 से कम होती है। यह केवल चिकित्सा संबंधी गंभीर मुद्दा ही नहीं है; बल्कि यह एक गंभीर नैतिक समस्या भी है, यह एक ऐसी समस्या है जिसका सामना हम में से उन लोगों को हर रोज़ करना पड़ता है जो गरीब लोगों के साथ काम करते हैं। इस समस्या को हल करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय समुदाय की विफलता का कारण जितना सरल है उतना ही घिनौना भी है: अधिकांशतः, उपेक्षित उष्णकटिबंधीय रोग केवल सबसे गरीब और सबसे ज्यादा उपेक्षित लोगों को सताते हैं। जैसा कि फ्रांसिस ने लाउडैटो सी में बताया है "जो समस्याएँ विशेष रूप से वर्जित लोगों को सताती हैं उनके बारे में स्पष्ट रूप से जागरूकता के मामले में लगभग कोई बाधा नहीं है।" वास्तव में, "उनका अंतर्राष्ट्रीय राजनीतिक और आर्थिक चर्चाओं में उल्लेख होता है, लेकिन लोगों की अक्सर यह धारणा होती है कि उन लोगों की समस्याओं को बाद में आए विचार के रूप में उठाया जाता है।" पोप की अमेरिका की ऐतिहासिक यात्रा एक महत्वपूर्ण समय पर हुई है। कांग्रेस राजकोषीय वर्ष 2016 के लिए व्यय के विधेयकों को अंतिम रूप दे रही थी, और संयुक्त राष्ट्र सतत विकास लक्ष्यों (एसडीजी) पर अपने काम को पूरा कर रहा था, उन लक्ष्यों को निर्धारित कर रहा था जो अगले 15 वर्षों के लिए विकास नीति का मार्गदर्शन करेंगे। दोनों संगठन पोप के शब्दों पर अमल करने का पूरा प्रयास करेंगे। यह महत्वपूर्ण है कि अमेरिका इस वर्ष और आने वाले वर्षों में, संघीय बजट में इलाज के कार्यक्रमों के लिए निधियाँ देना जारी रखकर उपेक्षित उष्णकटिबंधीय रोगों के मामले में अपने प्रभावशाली नेतृत्व को जारी रखे। जैसा कि फ्रांसिस ने कांग्रेस के सदस्यों को याद दिलाया था, "तीसरी सहस्राब्दी के इन पहले के वर्षों में लोगों को चरम गरीबी से बाहर निकालने के लिए कितना काम किया गया है! मैं जानता हूँ कि आप मेरी इस धारणा से सहमत हैं कि अभी भी बहुत अधिक काम किया जाना बाकी है, और यह कि संकट और आर्थिक कठिनाई के समय में वैश्विक एकजुटता की भावना को भूलना नहीं चाहिए।" अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर, हमें इससे प्रोत्साहन मिलता है कि संयुक्त राष्ट्र के सदस्यों को 2015 के बाद विकास के एजेंडा में उपेक्षित उष्णकटिबंधीय रोगों के खिलाफ लड़ाई को उच्च प्राथमिकता देने के लिए प्रेरित किया गया है। विशेष रूप से, उपेक्षित उष्णकटिबंधीय रोगों के लिए वैश्विक सूचक - "उन लोगों की संख्या जिन्हें उपेक्षित उष्णकटिबंधीय रोगों से लड़ने के लिए हस्तक्षेप की आवश्यकता है" - को एसडीजी निगरानी ढांचे में शामिल किया गया था। इससे यह सुनिश्चित करने में मदद मिलेगी कि अगले 15 वर्षों में उपेक्षित उष्णकटिबंधीय रोगों पर अंततः उतना ध्यान दिया जाता है जितना दिया जाना चाहिए। फ्रांसिस जिसे "अनिच्छा का वैश्वीकरण" कहते हैं उसे दूर करने के लिए हम सबसे बुनियादी कदम यह उठा सकते हैं कि हम उपेक्षित उष्णकटिबंधीय रोगों के खिलाफ निर्णायक, मापनीय कार्रवाई करने का समर्थन करने के लिए एकजुट हो जाएँ। इन रोगों को नियंत्रित करने और हमेशा के लिए समाप्त करने के मार्ग में हमारी प्रगति को चिह्नित करने के लिए एक वैश्विक मापदंड शुरू करना गरीबों के साथ हमारी एकजुटता का सच्चा प्रदर्शन है। फ्रांसिस ने अपने संयुक्त राष्ट्र के भाषण में हमारा ध्यान एक महत्वपूर्ण बिंदु की ओर दिलाया है: "अपनी योजनाओं और कार्यक्रमों से थोड़ा हटकर, हम उन वास्तविक पुरुषों और महिलाओं के संपर्क में आते हैं जो जीते हैं, संघर्ष करते हैं और दुःख भोगते हैं, और अक्सर उन्हें सभी अधिकारों से वंचित रहकर घोर गरीबी में जीने के लिए मजबूर होना पड़ता है।" यदि अपनी सभी प्रौद्योगिकीय प्रगतियों और निजी क्षेत्र की कल्पनातीत दान राशियों के साथ, हम प्रति व्यक्ति मात्र कुछ पैसों से सबसे गरीब लोगों की दुर्दशा को नहीं बदल सकते, तो हम जिन अधिक चुनौतीपूर्ण, स्वास्थ्य और विकास की महंगी चुनौतियों का सामना कर रहे हैं, उन पर हम सही मायने में काबू पाने की उम्मीद कैसे कर सकते हैं? शुद्ध-शून्य उत्सर्जनों का मिथक बर्लिन – कोयला, तेल, और गैस जलाने से होनेवाले उत्सर्जन हमारे भूमंडल को इतनी तीव्र दर से गर्म कर रहे हैं कि जलवायु स्थितियों का अधिकाधिक अस्थिर और खतरनाक होना लगभग अपरिहार्य लगता है। जाहिर है कि हमें उत्सर्जनों को तेजी से कम करना होगा, और साथ ही ऐसे वैकल्पिक ऊर्जा स्रोतों का विकास करना होगा जिनसे हम जीवाश्म ईंधनों को जमीन में छोड़ सकें। यह अनिवार्यता नितांत रूप से स्पष्ट है। फिर भी पिछले कुछ दशकों से जलवायु परिवर्तन इतनी अधिक राजनीतिक निष्क्रियता, गलत जानकारी, और कोरी कल्पना पर आधारित रहा है कि हम इसके मूल कारणों का पता लगाने का प्रयास करने के बजाय, निष्फल या असंभव समाधानों को देखने के आदी हो गए हैं। अक्सर ये "समाधान" अस्तित्वहीन या जोखिमपूर्ण नई प्रौद्योगिकियों पर आधारित होते हैं। यह दृष्टिकोण बहुत फायदे वाला है क्योंकि इससे न तो सामान्य रूप से व्यवसाय और न ही सामाजिक-आर्थिक विचारधाराओं के लिए कोई खतरा होता है। लेकिन जो जलवायु मॉडल भ्रामक प्रौद्योगिकियों पर निर्भर करते हैं वे उन भारी संरचनात्मक परिवर्तनों को लागू करने की उस अनिवार्यता को कमज़ोर करते हैं जो जलवायु को तबाही से बचाने के लिए आवश्यक हैं। "शुद्ध-शून्य उत्सर्जन" एक ऐसा नवीनतम "समाधान" उभरकर सामने आया है जो तथाकथित "कार्बन अभिग्रहण और भंडारण" पर निर्भर करता है। हालाँकि प्रौद्योगिकी को अभी भी थोड़ी-बहुत कमियों का सामना करना पड़ रहा है, जलवायु परिवर्तन के अंतर-सरकारी पैनल (IPCC) के अध्यक्ष राजेन्द्र पचौरी ने पिछले महीने एक अत्यंत समस्यात्मक वक्तव्य जारी किया, जिसमें उन्होंने कहा कि “कार्बन अभिग्रहण और भंडारण (CCS) के साथ यह पूरी तरह संभव है कि जीवाश्म ईंधनों का उपयोग बड़े पैमाने पर किया जाना जारी रहे।” सच तो यह है कि आईपीसीसी की नवीनतम मूल्यांकन रिपोर्ट में दुनिया के छोटे – लेकिन फिर भी जोखिमपूर्ण – कार्बन बजट से अधिक सीमा तक जाने से बचने के लिए कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जनों में भारी कटौती की अनिवार्यता को उजागर किया गया है। लेकिन "शून्य उत्सर्जन," "पूर्ण अकार्बनिकरण," और "100% अक्षय ऊर्जा" जैसे स्पष्ट लक्ष्यों को छोड़कर “शुद्ध-शून्य उत्सर्जन” जैसे कहीं अधिक अस्पष्ट लक्ष्य की ओर जाना एक खतरनाक लक्ष्य अपनाने जैसा है। दरअसल, शुद्ध-शून्य के विचार का अर्थ यह है कि दुनिया उत्सर्जनों को तब तक पैदा करना जारी रख सकती है जब तक उनका "प्रति-संतुलन" करने का कोई तरीका हो। इस प्रकार, उत्सर्जन में कमी करने के किसी क्रांतिकारी उपाय को तुरंत शुरू करने के बजाय, हम कार्बन डाइऑक्साइड के भारी मात्रा में उत्सर्जन करना जारी रख सकते हैं - और नए कोयला संयंत्रों की स्थापना भी कर सकते हैं - और साथ ही यह दावा कर सकते हैं कि हम कार्बन अभिग्रहण और भंडारण (CCS) प्रौद्योगिकी के विकास का "समर्थन" करके जलवायु संबंधी कार्रवाई कर रहे हैं। यह कहना साफ तौर पर बेतुकी बात है कि संभवतः इस तरह की प्रौद्योगिकी काम न करे, यह व्यावहारिक चुनौतियों से भरी है, और इसमें भावी रिसाव का खतरा मौजूद है, जिसके सामाजिक और पर्यावरण संबंधी गंभीर परिणाम होंगे। कार्बन अभिग्रहण और भंडारण के साथ जैव-ऊर्जा (BECCS) शुद्ध-शून्य उत्सर्जनों के नए "लक्ष्योपरि दृष्टिकोण" के लिए प्रचार का साधन है। कार्बन अभिग्रहण और भंडारण के साथ जैव-ऊर्जा (BECCS) में भारी मात्रा में घास और पेड़ों का रोपण, बिजली उत्पन्न करने के लिए बायोमास जलाना, उत्सर्जित होनेवाली कार्बन डाइऑक्साइड का अभिग्रहण करना, और उसे भूमिगत भूगर्भीय जलाशयों में छोड़ना सम्मिलित है। कार्बन अभिग्रहण और भंडारण के साथ जैव-ऊर्जा (BECCS) के विकास संबंधी भारी निहितार्थ होंगे, इसके कारण बड़े पैमाने पर भूमि अधिग्रहण करना आवश्यक होगा, जो संभवतः अपेक्षाकृत गरीब लोगों से ली जाएगी। यह कोई दूर की कौड़ी लाने जैसा मामला नहीं है; जैव-ईंधनों के लिए बढ़ती मांग के कारण विकासशील देशों में कई वर्षों तक खौफ़नाक भूमि अधिग्रहणों को बढ़ावा मिला है। कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जनों के एक बड़े अंश को प्रति-संतुलित करने के लिए बहुत अधिक मात्रा में भूमि की आवश्यकता होगी। वास्तव में, कार्बन अभिग्रहण और भंडारण के साथ जैव-ऊर्जा (BECCS) का उपयोग करके एक बिलियन टन कार्बन को पृथक करने के लिए अनुमानतः 218-990 मिलियन हेक्टेयर भूमि को चारा-घास के लिए परिवर्तित करना होगा। अर्थात संयुक्त राज्य अमेरिका इथेनॉल के लिए मक्का उगाने के लिए जितनी भूमि इस्तेमाल करता है उससे 14-65 गुना भूमि की ज़रूरत होगी। चारा-घास उगाने के लिए भारी मात्रा में प्रयुक्त होनेवाले उर्वरकों से नाइट्रोजन-ऑक्साइड के उत्सर्जन जलवायु परिवर्तन को बदतर बनाने के लिए पर्याप्त होंगे। फिर कृत्रिम उर्वरकों का उत्पादन करने; लाखों-करोड़ों हेक्टेयर भूमि से पेड़ों, झाड़ियों, और घास को निकालने; मिट्टी में मौजूद कार्बन के बड़े संग्रहों को नष्ट करने; और चारा-घास के परिवहन और प्रसंस्करण से उत्पन्न कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जन भी हैं। यह रहस्योद्घाटन इससे भी अधिक समस्या वाला है कि इस बात की बहुत अधिक संभावना है कि कार्बन अभिग्रहण और भंडारण (CCS) और कार्बन अभिग्रहण और भंडारण के साथ जैव-ऊर्जा (BECCS) का उपयोग "अधिक तेल निष्कर्षण" के लिए किया जाएगा, और भंडारण के लिए कार्बन डाइऑक्साइड को पुराने तेल कूपों में डाला जाएगा जिससे अधिक तेल निष्कर्षण के लिए वित्तीय प्रोत्साहन उपलब्ध होगा। अमेरिका के ऊर्जा विभाग का अनुमान है कि इस तरह के तरीकों से किफायती रूप से 67 अरब बैरल तेल प्राप्त किया जा सकता है - यह मात्रा अमेरिका के प्रमाणित तेल भंडारों का तीन गुना है। दरअसल, दाँव पर लगे धन को देखते हुए, अधिक तेल निष्कर्षण वास्तव में कार्बन अभिग्रहण और भंडारण (CCS) को आगे बढ़ाने के पीछे छिपे इरादों में से एक हो सकता है। किसी भी स्थिति में, कार्बन अभिग्रहण और भंडारण (CCS) का कोई भी रूप पूर्ण अकार्बनिकरण की ओर संरचनात्मक बदलाव के लक्ष्य को आगे नहीं बढ़ाता है, जिसके लिए सामाजिक आंदोलनों, शिक्षाविदों, आम नागरिकों, और यहाँ तक कि कुछ नेताओं द्वारा अधिकाधिक माँग की जा रही है। वे संक्रमण के दौरान होनेवाली असुविधाओं और त्यागों को स्वीकार करने के लिए तैयार हैं; वास्तव में, वे शून्य-कार्बन अर्थव्यवस्था तैयार करने की चुनौती को नवीनीकरण और अपने समाजों और समुदायों में सुधार लाने के एक अवसर के रूप में देखते हैं। इस तरह के किसी प्रयास में खतरनाक, गुमराह करनेवाली, और दिवा-स्वप्नों वाली प्रौद्योगिकियों का कोई स्थान नहीं है। जलवायु संकट की स्पष्ट समझ से संभावित समाधानों की सीमा बहुत बढ़ जाती है। उदाहरण के लिए, नए कोयला संयंत्रों पर रोक लगाकर और फीड-इन टैरिफ के ज़रिए जीवाश्म-ईंधन की आर्थिक सहायताओं को अक्षय ऊर्जा के वित्तपोषण में स्थानांतरित करके, जीवाश्म-ईंधन पर निर्भरता को कम करते हुए टिकाऊ ऊर्जा दुनिया भर में करोड़ों लोगों को उपलब्ध की जा सकती है। जहाँ ऐसे नवोन्मेषी और व्यावहारिक समाधानों को बढ़ावा देने से रोका जा रहा है, वहीं अरबों डॉलर की राशि आर्थिक सहायता के रूप में दी जा रही है जिससे यथास्थिति मज़बूत होती है। प्रणाली में सुधार लाने और जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को कम करने की दिशा में वास्तविक प्रगति करने का एकमात्र रास्ता जीवाश्म ईंधन को पूरी तरह से खत्म करने के लिए काम करना है। अनिश्चित प्रौद्योगिकियों पर आधारित अस्पष्ट लक्ष्यों से कतई काम नहीं चलेगा। चिंता दूर करना न्यू यॉर्क - शोधकर्ता जब चिंता के नए उपचारों की प्रभावकारिता का मूल्यांकन करना चाहते हैं तो परंपरागत दृष्टिकोण यह अध्ययन करने का होता है कि चूहे या मूषक असुविधाजनक या तनावपूर्ण स्थितियों में किस तरह का बर्ताव करते हैं। कृंतक तेज़ रोशनी वाली खुली जगहों से इसलिए बचते हैं कि निर्जन स्थानों पर वे आसानी से शिकार बन सकते हैं। इसलिए परीक्षण उपकरण में उनकी स्वाभाविक प्रवृत्ति कम रोशनी वाली या दीवार के पास की जगहों को तलाशने की होती है। कोई उपचारित जीव किन्हीं असुरक्षित क्षेत्रों में जितना अधिक समय गुज़ारता है चिंता के इलाज में दवा की कारगरता उतनी ही अधिक प्रभावी मानी जाती है। लेकिन इस दृष्टिकोण के फलस्वरूप बनी दवाएँ वस्तुतः लोगों की चिंता को कम करने में बहुत अधिक प्रभावी नहीं होती हैं। न तो रोगी और न ही उसके चिकित्सक चिंता के यथेष्ट उपचारों के रूप में वेलियम जैसे बेंज़ोडायाज़ेपिन्स और प्रोज़ैक या ज़ोलोफ़्ट जैसे पसंदीदा सेरोटोनिन रिअपटेक मंदकों सहित उपलब्ध विकल्पों पर विचार नहीं करते हैं। दशकों के अनुसंधान के बाद कुछ बड़ी दवा निर्माता कंपनियाँ ने हार मानना शुरू कर दिया है और नई चिंता निवारक दवाओं को विक��ित करने के प्रयासों में कटौती करने लग गई हैं। लेकिन हम तथाकथित चिंता संबंधी विकारों का उपचार करना नहीं छोड़ सकते, जिसमें भय और चिंता दोनों से संबंधित समस्याएँ शामिल होती हैं। जब आस-पास अनिष्ट का कोई स्रोत होता है या वह प्रकट होने वाला होता है तो भय उत्पन्न होता है जबकि चिंता की अनुभूतियों में आम तौर पर भविष्य में होने वाली हानि की आशंका समाहित होती है। दुनिया भर में चिंता संबंधी विकारों की व्यापकता लगभग 15% है और इसकी सामाजिक लागत बहुत अधिक है। 1990 के दशक के अंतिम वर्षों में अनुमान लगाया गया था कि चिंता के आर्थिक बोझ की कुल लागत $40 बिलियन से अधिक है। कुल लागत संभवतः और भी अधिक होगी क्योंकि चिंता संबंधी कई विकारों का निदान कभी भी नहीं हो पाता है। सहज ज्ञान के विपरीत, चिंता के लिए सबसे अधिक किए जाने वाले उपचारों में अंतर्निहित समस्या का समाधान इसलिए नहीं होता है कि वे ठीक वैसे ही काम करते हैं जैसा उन्हें बनाने के लिए इस्तेमाल की जाने वाली कसौटी के अनुसार काम करना चाहिए। चूहों या मूषकों का इस्तेमाल करके किए गए अध्ययनों पर आधारित अधिकतर उपचार चिंता संबंधी विकारों को इतना आसान बना देते हैं कि उनके साथ जिया जा सकता है। वे जो काम नहीं कर पाते हैं वह यह है कि वे लोगों में भय की भावना या चिंता को कम नहीं करते हैं। इसका कारण स्पष्ट है। आशंका उत्पन्न करने वाली स्थितियों में व्यवहार संबंधी प्रतिक्रियाओं को नियंत्रित करने वाली मस्तिष्क की प्रणालियाँ कृंतकों और इंसानों में एक तरह से काम करती हैं, और मस्तिष्क की गहराई में स्थित अपेक्षाकृत पुराने हिस्से इससे जुड़े होते हैं जो अवचेतन में काम करते हैं (उदाहरण के लिए, ऐमिग्डाल)। दूसरी ओर, भय और चिंता की अनुभूति सहित, चेतन अनुभूतियाँ उत्पन्न करने वाली प्रणालियों से अनैच्छिक रूप से निओकार्टेक्स के अपेक्षाकृत नए हिस्से जुड़े होते हैं जो मानव जाति में विशेष रूप से सुविकसित होते हैं और कृंतकों में बहुत कम विकसित होते हैं। सचेतन अनुभूतियाँ भी हमारी अनूठी भाषाई क्षमताओं - धारणा बनाने और अपनी आंतरिक अनुभूतियों को नाम देने की हमारी क्षमता - पर निर्भर होती हैं। यह बहुत ही महत्वपूर्ण बात है कि अंग्रेज़ी भाषा में भय और चिंता के वर्गीकरण के लिए तीन दर्जन से अधिक शब्द मौजूद हैं: वरी (चिंता) कंसर्न (उद्वेग), ऐप्रिहेंशन (आशंका), डिसक्वाइट्यूड (व्याकुलता), इनक्वाइट्यूड (बेचैनी) ऐंग्स्ट (क्रोध), मिसगिविंग (संशय), नवर्सनेस (उद्विग्नता), टेंशन (तनाव), और ऐसे ही अन्य बहुत से शब्द। परिणामस्वरूप, हालांकि जीवों पर किए जाने वाले अध्ययन इसका पूर्वानुमान लगाने के लिए उपयोगी होते हैं कि आशंका उत्पन्न करने वाले उद्दीपनों से उत्पन्न होने वाले अनैच्छिक रूप से नियंत्रित लक्षणों को कोई दवा कैसे प्रभावित करेगी लेकिन वे भय या चिंता की चेतन अनुभूति के मामले में कम प्रभावी होते हैं। हमारे पास जो दवाएँ हैं, वे उन रोगियों के लिए मददगार हो सकती हैं जिन्होंने भीड़भाड़ वाले भूमिगत रास्तों, या अपने समकक्षों या पर्यवेक्षकों द्वारा परखे जाने जैसी भय या चिंता उत्पन्न करनेवाली स्थितियों से बचने के लिए काम पर जाना बंद कर दिया है। जिस तरह उपचार किए गए चूहे आचरण की दृष्टि से कम संकोचशील (तेज़ रोशनी वाली, खुली जगहों को सहने में अधिक सक्षम) होते हैं, उसी तरह उपचार किए गए चिंताग्रस्त व्यक्तियों के अपने काम पर जाने में सक्षम होने की अधिक संभावना हो सकती है। लेकिन चूंकि उपचार चेतन मस्तिष्क की प्रक्रियाओं को सीधे प्रभावित नहीं करते, इसलिए चिंता हमेशा दूर नहीं हो पाती है। यदि उपचारों को अधिक प्रभावी होना है तो हमारे दृष्टिकोणों को और अधिक व्यावहारिक होना होगा। हमें उन प्रणालियों का उपचार करने की ज़रूरत होगी जो अवचेतन रूप से उन प्रणालियों से अलग ढंग से काम करती हैं जिनका परिणाम सचेतन अनुभूतियों के रूप में होता है। इसका आशय आवश्यक रूप से बेहतर दवाओं का होना नहीं है। विगोपन चिकित्सा से अनैच्छिक अनुक्रियाओं का भी उपचार किया जा सकता है जिसमें आशंका उत्पन्न करने वाले उद्दीपनों के मनोवैज्ञानिक प्रभावों को कम करने के लिए उनके ज़रिये आवर्ती अनुक्रियाएँ उत्पन्न की जाती हैं। मस्तिष्क की सचेतन और अवचेतन प्रणालियाँ कैसे काम करती हैं इससे संबंधित निष्कर्ष हमें विगोपन चिकित्सा को अधिक कारगर बनाने में समक्ष बना सकते हैं। मूल धारणा यह है कि अवचेतन प्रक्रियाओं से जुड़े लक्षणों को चेतन प्रक्रियाओं से जुड़े लक्षणों से अलग लक्षित किया जाए। मैं निम्नलिखित क्रम का सुझाव देता हूँ। ऐमिग्डाल जैसे क्षेत्रों की अनुक्रियाओं को मंद करने के लिए अवचेतन विगोपनों (विगोपन प्रक्रिया के साथ हस्तक्षेप कर सकने वाले अचेतन विचारों और अनुभूतियों को पीछे छोड़कर आगे निकल जाने यानी बाइपास करने के लिए अप्रभावी उद्दीपनों का इस्तेमाल करने) से प्रारंभ करें। अवचेतन प्रणालियों के एक बार नियंत्रित हो जाने के बाद चेतन लक्षणों के उपचार के लिए चेतन विगोपनों का इस्तेमाल करें। अंत में, अधिक परंपरागत मनोचिकित्साओं का इस्तेमाल करें: रोगी की बदली आस्थाओं, स्मृतियों के पुनर्मूल्यांकन, अपनी परिस्थितियों को स्वीकार करने के लिए प्रोत्साहित करने, सामना करने की रणनीतियाँ अपनाने आदि जैसी चीज़ों पर काम करने के लिए मनोचिकित्सक के साथ मौखिक वार्तालाप करना। इस दृष्टिकोण में दवाओं का भी उपयोग किया जा सकता है, लेकिन दीर्घकालिक समाधान के रूप में नहीं। इसके बजाय दवाओं का इस्तेमाल विगोपन चिकित्सा को अधिक प्रभावी बनाने के लिए किया जा सकता है (फ़ार्मास्यूटिकल डीसाइक्लोसेरीन ने इस मामले में कुछ आशा जगाई है)। ऐसे दृष्टिकोण की प्रभावकारिता की अभी ठीक तरह से जाँच किया जाना बाकी है, जो यह मानता है कि मस्तिष्क की अलग-अलग प्रणालियाँ अलग-अलग लक्षणों को नियंत्रित करती हैं, लेकिन शोधों से पता चलता है कि यह दृष्टिकोण कारगर हो सकता है। यह अनाक्रामक भी होगा और इसके लिए केवल प्रायः इस्तेमाल की जाने वाली प्रक्रियाओं के उद्देश्य को फिर से निर्धारित करना होगा। इस समस्या की विशालता को देखते हुए, जिस लक्ष्य तक इतनी आसानी से पहुंचा जा सका है उसे बीच मझधार में नहीं छोड़ देना चाहिए। यूरोप को एकीकृत और सुरक्षित करने की रणनीति ब्रसेल्स– यूरोपीय संघ के उद्देश्य - और यहाँ तक कि उसके अस्तित्व पर भी - पहले से कहीं अधिक सवाल किए जा रहे हैं। वास्तव में, यूरोप के नागरिकों और दुनिया को एक मज़बूत यूरोपीय संघ की अब पहले से कहीं अधिक ज़रूरत है। यूरोप का व्यापक क्षेत्र हाल के वर्षों में कम स्थिर और अधिक असुरक्षित हो गया है। इसके अलावा, यूरोपीय संघ की सीमाओं के भीतर और उसके पार के संकट सभी यूरोपीय नागरिकों के जीवन को सीधे प्रभावित कर रहे हैं। ऐसे चुनौतीपूर्ण समय में, एक मज़बूत यूरोपीय संघ वह होगा जो रणनीतिक रूप से सोचे, कल्पना को साझा करे, और मिलकर कार्य करे। यूनाइटेड किंगडम के यूरोपीय संघ से "ब्रेक्सिट" के लिए मतदान के मद्देनजर, हम यूरोपियों को वास्तव में इस पर पुनर्विचार करना होगा कि हमारा संघ किस तरह काम करता है; लेकिन हम बहुत अच्छी तरह से जानते हैं कि हमें किसके लिए काम करने की जरूरत है। हम जानते हैं कि हमारे सिद्धांत, हित, और प्राथमिकताएँ क्या हैं। यह राजनीतिक अनिश्चितता के लिए समय नहीं है। यूरोपीय संघ को एक ऐसी रणनीति की ज़रूरत है जो सामूहिक कार्रवाई करने के लिए एक साझा दृष्टिकोण को अपनाए। यूरोपीय संघ के सदस्य राज्यों में से किसी में भी इतना दमखम नहीं है कि वह अकेले कार्रवाई करके, उन खतरों का सामना कर सके जिनका यूरोप को सामना करना पड़ रहा है। न ही वे अकेले आज की वैश्विक अर्थव्यवस्था द्वारा प्रस्तुत अवसरों का लाभ उठा सकते हैं। लेकिन आधा अरब नागरिकों से अधिक के एक संघ के रूप में, यूरोप का सामर्थ्य अद्वितीय है। दुनिया के हर कोने में छाया, हमारा राजनयिक ताना-बाना व्यापक और गहरा है। आर्थिक रूप से, हम चीन और संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ दुनिया के जी3 में हैं। हम दुनिया में लगभग हर देश के लिए शीर्ष व्यापारिक साझेदार है और विदेशी निवेशक हैं। साथ में मिलकर, शेष दुनिया के मिलाकर किए गए निवेश की तुलना में यूरोपीय संघ के सदस्य देश विकास सहयोग में अधिक निवेश करते हैं। हालांकि, यह भी स्पष्ट है कि यूरोप में हम इस क्षमता का पूरा उपयोग नहीं कर रहे हैं, कम से कम अभी तो नहीं। हमारे नागरिकों का एक विशाल बहुमत समझता है कि हमें दुनिया में हमारी भूमिका के लिए सामूहिक जिम्मेदारी लेने की ज़रूरत है। हमारे भागीदार भी यह उम्मीद करते हैं कि यूरोपीय संघ वैश्विक सुरक्षा प्रदाता के रूप में भी प्रमुख भूमिका का निर्वाह करे। यूरोपीय संघ केवल तभी अपने नागरिकों की ज़रूरतों को पूरा कर सकता है और अपनी भागीदारियों को सफल बना सकता है, जब हम सब - यूरोपीय संघ के संस्थान और राष्ट्रीय सरकारें - सभी स्तरों पर, एक साथ मिलकर, एकजुट होकर काम करें। वास्तव में यूरोपीय विदेश और सुरक्षा नीति के लिए वैश्विक रणनीति का ठीक यही उद्देश्य है, जिसे मैंने हाल ही में सदस्य देशों के नेताओं और यूरोपीय आयोग और यूरोपीय परिषद के समक्ष प्रस्तुत किया है। एक दशक से अधिक समय के बाद यूरोपीय संघ की यह ऐसी पहली रणनीति है जिसमें रोज़गार के अवसरों, सामाजिक समावेशन, और मानव अधिकारों पर जितना ध्यान केंद्रित किया गया है उतना ही रक्षा क्षमताओं और आतंकवाद-विरोधी नीतियों पर भी। इसमें यूरोप और उसके आसपास के राज्यों में शांति स्थापित करने और उनके लचीलेपन पर विचार किया गया है। यूरोपीय संघ को हमेशा अपनी प्रेरक शक्ति पर गर्व रहा है - और यह ऐसा करना जारी रखेगा क्योंकि हम इस क्षेत्र में सबसे बेहतर हैं। लेकिन यह विचार कि यूरोप विशेष रूप से एक "नागरिक शक्ति" है, एक उभरती हुई वास्तविकता के साथ न्याय नहीं करता है। उदाहरण के लिए, वर्तमान में यूरोपीय संघ दुनिया भर में 17 सैन्य और नागरिक संचालन आयोजित करता है। अफगानिस्तान और कांगो, जॉर्जिया और साहेल, माल्डोवा, सोमालिया, और भूमध्य सागर तक के दूर दराज के स्थानों में, हजारों पुरुष और महिलाएँ यूरोपीय ध्वज के नीचे काम करते हैं। आज के यूरोप के लिए, प्रेरक और प्रतिरोधी शक्ति साथ साथ चल रही है। इस रणनीति में यूरोपीय संघ के लिए रणनीतिक स्वायत्तता की महत्वाकांक्षा की कल्पना की गई है, जो हमारे नागरिकों के साझा हितों के साथ-साथ हमारे सिद्धांतों और मूल्यों को बढ़ावा देने के लिए ज़रूरी है। फिर भी हम जानते हैं कि इस तरह की प्राथमिकताएँ तभी बेहतर काम करती हैं जब हम अकेले न हों, और एक ऐसी अंतर्राष्ट्रीय प्रणाली में हों जो बहुपक्षवाद और नियमों पर आधारित हो, न कि वैश्विक पुलिसकर्मियों और अकेले योद्धाओं पर। यही कारण है कि यूरोपीय संघ, अटलांटिक पार के बंधन और नाटो के साथ हमारी साझेदारी को गहरा करना जारी रखेगा, और साथ ही हमारी रणनीति को आगे बढ़ाने के लिए नए खिलाड़ियों को जोड़ना और नए स्वरूपों की खोज करना भी जारी रखेगा। यूरोपीय संघ क्षेत्रीय संस्थाओं में, और क्षेत्रों के भीतर और उनमें परस्पर सहयोग में निवेश करेगा। और हम ऐसे वैश्विक शासन सुधारों को बढ़ावा देंगे जो इस सदी की चुनौतियों को पूरा कर सकते हों। जब हम यह करेंगे, तो हम व्यावहारिक और सैद्धांतिक रूप से कार्य करेंगे, अपने सहयोगियों के साथ वैश्विक जिम्मेदारियों को बांटेंगे और उनकी ताकतों को बढ़ाएँगे। वैश्विक अनिश्चितताओं के प्रसार के दो दशकों ने हमें एक स्पष्ट सबक सिखाया है: मेरे पड़ोसी की कमजोरियाँ और मेरे साथी की कमजोरियाँ मेरी खुद की कमजोरियाँ हैं। इसलिए हमारा यह भ्रम दूर हो जाएगा कि अंतर्राष्ट्रीय राजनीति एक शून्य-जोड़ का खेल हो सकता है। इस तरह से संकल्प के साथ काम करने से यूरोपीय संघ के सभी सदस्य राज्यों - और हमारे संघ के प्रत्येक नागरिक - की स्थिति बेहतर होगी। लेकिन यहाँ दिए गए सभी लक्ष्यों को वास्तव में संगठित और प्रतिबद्ध यूरोप से प्राप्त किया जा सकता है। हमारे साझे लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए और हमारे साझे हितों की रक्षा करने के लिए हमारी सभी संस्कृतियों को एक साथ लाना दिन प्रतिदिन की चुनौती है, लेकिन यह हमारी सबसे बड़ी ताकत भी है: विविधता वह चीज़ है जो हमें मजबूत बनाती है। हमारे हित वास्तव में साझा यूरोपीय हित हैं, और उन्हें हासिल करने का एकमात्र उपाय साझा साधन हैं। यही कारण है कि सभी यूरोपियों, और यूरोपीय संघ के सभी सदस्य राज्यों की यह सामूहिक जिम्मेदारी है कि वे हमारे संघ को मज़बूत बनाएँ। यूरोप के लोगों के लिए हमारे सदस्य राज्यों के बीच उद्देश्य और कार्रवाई में समरूपता की ज़रूरत है। इस नाजुक दुनिया को एक ऐसे अधिक आत्मविश्वासयुक्त और जिम्मेदार यूरोपीय संघ की ज़रूरत है, जिसकी विदेश और सुरक्षा नीति बहिर्मुखी और दूरंदेशी वाली हो। नई वैश्विक रणनीति हमारा मार्गदर्शन करेगी जब हम एक ऐसे संघ के लिए काम करेंगे जो वास्तव में अपने नागरिकों की जरूरतों, उम्मीदों, और आकांक्षाओं को पूरा करता है, एक ऐसा संघ जिसकी बुनियाद 70 साल की शांति की सफलता पर बनी है; और एक ऐसा संघ जो इतना ज़्यादा मज़बूत है कि वह हमारे क्षेत्र और दुनिया भर में शांति और सुरक्षा में योगदान कर सकता है। तपेदिक के विरुद्ध लड़ाई सोलना, स्वीडन - तपेदिक विश्व की सबसे घातक बीमारियों में से है। केवल 2013 में, इसके कारण 1.5 मिलियन मौतें हुई थीं जिनमें से वयस्क मौतों का पाँचवाँ हिस्सा कम-आय वाले देशों में हुई मौतों का था। हालांकि हर वर्ष टीबी की चपेट में आने वाले लोगों की अनुमानित संख्या में कमी हो रही है, लेकिन कमी की रफ्तार बहुत धीमी रही है। और, बहु-औषधि-प्रतिरोधी टीबी के बढ़ते फैलाव को देखते हुए, इस प्रवृत्ति को उलटा जा सकता है। फिर भी, विश्व के पास अब टीबी का उन्मूलन करने के लिए बहुत कम अवसर उपलब्ध हैं। इसका लाभ उठाने के लिए यह जरूरी होगा कि बीमारी का पता लगाने के प्रभावी साधनों, नवीन औषधि उपचारों और नवोन्मेषी टीकों का त्वरित विकास और प्रसार हो, और इसके साथ ही यह भी सुनिश्चित करने के प्रयास किए जाएँ कि स्वास्थ्य-देखभाल की प्रणालियां सही देखभाल प्रदान करने में सक्षम हों। यह आसान काम नहीं होगा। अच्छी खबर यह है कि अंतर्राष्ट्रीय समुदाय कार्रवाई करने के लिए उत्सुक जान पड़ता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की 2015 के बाद की वैश्विक टीबी रणनीति का लक्ष्य 2035 तक टीबी का उन्मूलन करना है, जिसका विश्व स्वास्थ्य सभा ने मई 2014 में अनुमोदन किया था। संयुक्त राष्ट्र के 193 सदस्य देशों द्वारा औपचारिक रूप से सितंबर में स्वीकार किए जानेवाले टिकाऊ विकास लक्ष्यों में इस लक्ष्य को पांच वर्ष पहले प्राप्त कर लेने का पूर्वानुमान लगाया गया है। औषधि-प्रतिरोधी टीबी के विकास और फैलाव को रोकने के लिए दो स्तरों पर वैश्विक प्रयास की जरूरत है: रोग का शुरूआत में ही पता लगाना और टीबी वाले औषधि-संवेदनशील रोगियों का पर्याप्त उपचार सुनिश्चित करना, और औषधि-प्रतिरोधी जीवाणुओं से संक्रमित रोगियों का उपचार करने के लिए नए तरीकों की तलाश करना। समस्या यह है कि टीबी के निदान, उपचार और रोकथाम के लिए मौजूद साधनों की गंभीर सीमाएं हैं। जिन लोगों में टीबी की शुरूआत हो रही होती है उनके लिए त्वरित नैदानिक परीक्षण सुलभ नहीं होता। कम आय वाले देशों में, निदान की प्रभावी पद्धति बलगम की सूक्ष्मदर्शी यंत्र से जाँच करना है, जो ऐसी पुरानी पड़ चुकी पद्धति है जो सभी संक्रमित रोगियों में से तकरीबन आधे में टीबी का पता लगाने में विफल रहती है, छोटे बच्चों और HIV से संक्रमित रोगियों में तो इसकी सफलता की दर और भी कम है। वास्तव में, बलगम की सूक्ष्मदर्शी यंत्र से जाँच के द्वारा टीबी से ग्रस्त दस में से एक बच्चे से अधिक का निदान नहीं हो पाता। इसके अलावा, बहु-औषधि प्रतिरोधी टीबी से संक्रमित रोगियों के लिए वर्तमान में मौजूद औषधि उपचार केवल आधे अवसरों पर ही सफल रहता है, यहां तक कि सर्वश्रेष्ठ दशाओं में भी। और इसकी उपचारात्मक प्रक्रिया कठिन है, जो कम से कम 2 वर्ष चलती है तथा इसमें 14,600 गोलियों का सेवन और सैकड़ों इंजेक्शन लगवाना शामिल होता है - जिसके दुष्प्रभाव भी तीव्र होते हैं। कार्रवाई करने के अनूठे तरीकों के साथ टीबी की नई दवाओं की अत्यधिक जरूरत है, न केवल बहु-औषधि प्रतिरोधी टीबी के लिए, बल्कि औषधि-संवेदनशील टीबी के लिए उपचार के समय को कम करने के लिए भी। यहां कुछ आशाजनक समाचार भी है: हाल ही में बीडाक्विलीन 40 वर्षों में अमेरिकी खाद्य और औषधि प्रशासन द्वारा मंजूर की जाने वाली टीबी की पहली नई दवा बन गई है। लेकिन बीडाक्विलीन को औषधि-प्रतिरोधी टीबी का प्रभावी ढंग से उपचार करने की अपनी क्षमता अभी साबित करनी है, और आनेवाली दूसरी दवाओं में अभी तक बहुत थोड़ी दवाएं ही हैं। रोकथाम में भी इसी तरह की समस्याएं आती हैं। इस बीमारी के लिए उपलब्ध एकमात्र टीका, और टीबी की रोकथाम का मुख्य आधार बीसीजी का टीका केवल आंशिक रूप से प्रभावी है। निश्चित रूप से, जहां यह बच्चों की बीमारी के सबसे खराब रूपों से रक्षा करता है, वहीं यह सबसे आम प्रकार, फेफड़े की टीबी से किसी की रक्षा नहीं करता है। इसके परिणामस्वरूप, इसने टीबी के मामलों की संख्या में कमी लाने में बहुत कम भूमिका निभाई है। और, हालाँकि टीके के अनेक नए रूप प्रारंभिक नैदानिक परीक्षण में सफल हो चुके हैं, पर आने वाले कई वर्षों तक बीसीजी का टीका एकमात्र उपलब्ध टीका बना रहेगा। चुनौतियां स्पष्ट रूप से भयानक हैं। लेकिन, चूंकि लाखों-करोड़ों लोगों का जीवन दाँव पर लगा है, इसलिए पीछे हटना कोई विकल्प नहीं है। इसके लिए अनुसंधान की जरूरत है – यह एक ऐसा तथ्य है जिसे डब्ल्यूएचओ की वैश्विक रणनीति स्वीकार करती है। लेकिन टीबी के लिए नैदानिक टूल और उपचारों में निवेश बढ़ाने पर उससे कहीं अधिक खर्च आ रहा है, जितना आबंटित किया गया है। अनुसंधान और विकास के लिए हर वर्ष जरूरी अनुमानित €1.73 बिलियन ($2 बिलियन) में से 2013 में केवल €589 मिलियन का निवेश किया गया। स्थिति तब और भी खराब हो गई जब अति महत्वपूर्ण दाता वित्तपोषण - जो बहुत सीमित संख्या में कर्ताओं द्वारा मुहैया कराया जाता है, और इनमें अधिकतर सरकारी एजेंसियाँ और ओईसीडी देशों के परोपकारी समूह हैं - पिछले वर्ष लगभग 10% कम हो गया। वर्तमान समय में, एकमात्र परोपकारी दाता बिल एंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन द्वारा टीबी से लड़ने के लिए नए साधनों पर अनुसंधान के 25 प्रतिशत से अधिक के लिए सहायता प्रदान की जा रही है। जहां तक निजी क्षेत्र की बात है, दवा कंपनियां, चिरकालिक बीमारियों हेतु नई दवाओं के विकास की दिशा में रोगजनक-रोधी दवाओं से दूरी बनाने की आम प्रवृत्ति के रूप में टीबी अनुसंधान से पीछे हट रही हैं। फाइज़र 2012 में, उसके बाद 2013 में एस्ट्राज़ेनेका और गत वर्ष नोवार्टिस टीबी अनुसंधान से बाहर हो गईं। वित्तपोषण के अंतराल को खत्म करने और टीबी के अभिशाप को समाप्त करने के लिए ज्यादा से ज्यादा विविध दाताओं के शामिल होने की जरूरत पड़ेगी। अगर निजी क्षेत्र अपने हिस्से की भूमिका निभाने का इच्छुक नहीं है तो सरकारों का दायित्व बनता है कि वे जिस एसडीजी लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए सहमत हुए हैं, टिकाऊ वचनबद्धता के साथ इसमें शामिल हों - जो प्रत्यक्ष अंशदानों, और साथ ही सही प्रोत्साहन देने के लिए किए गए प्रयासों से प्रकट होनी चाहिए। संक्षेप में, टीबी की महामारी का उन्मूलन यह सुनिश्चित करने के प्रयासों की पहले से अपेक्षा करता है कि स्वास्थ्य की देखभाल करने वाली प्रणालियां सही देखभाल प्रदान करने में सक्षम हैं। और सही देखभाल के लिए समय पर नैदानिक परीक्षणों के लिए आसानी से सुलभ केंद्रों, सुरक्षित और तेजी से असर करने वाली दवाओं, और टीबी के प्रभावी टीके सहित नए साधनों के त्वरित विकास और फैलाव की जरूरत है। पोलियो का अंतिम मामला जेनेवा – नाइजीरिया के यह एक कठिन वर्ष रहा है। पिछले 12 महीनों में, इस देश को बाल आत्मघाती हमलावरों के हमलों और बोको हराम के बर्बर नरसंहारों का सामना करना पड़ा है। पिछले साल चिबोक में अपहरण की गई 276 स्कूली छात्राओं में से बहुत अधिक छात्राएँ अभी भी लापता हैं। और फिर भी, ऐसे समय के दौरान, इस तरह की भयावह स्थितियों के बावजूद, नाइजीरिया चुपचाप सचमुच उल्लेखनीय उपलब्धि हासिल करने में कामयाब रहा है: वहाँ पूरे वर्ष में वाइल्ड पोलियो का एक भी नया मामला नहीं हुआ है। यह नाइजीरिया और इस रोग के उन्मूलन के प्रयास में लगे उसके सभी सहयोगियों के लिए एक महान उपलब्धि है। 30 साल से कम समय पहले तक, 125 देश पोलियो से ग्रस्त थे, जिससे हर दिन 1,000 बच्चे लकवाग्रस्त हो जाते थे। अब तक, केवल तीन देश ही ऐसे थे जहाँ वायरस को अभी भी स्थानिक माना जाता है: अफ़गानिस्तान, पाकिस्तान और नाइजीरिया। स्वास्थ्य अधिकारी किसी देश को पोलियो-मुक्त घोषित करने से पहले तीन साल इंतजार करते हैं, लेकिन नाइजीरिया में एक साल की उपलब्धि से इस बात की उम्मीद बलवती हो गई है कि शायद हमने पहले ही इस देश में - और पूरे अफ्रीका में - वाइल्ड पोलियो का अंतिम मामला देख लिया है। अफ्रीका के सबसे अधिक आबादी वाले देश में हर बच्चे तक पहुँचने की प्रचालनात्मक चुनौती के अलावा, नाइजीरिया के पोलियो उन्मूलन अभियान को सुरक्षा के मुद्दों, धार्मिक कट्टरपंथियों के विरोध, और व्यापक भ्रष्टाचार पर काबू पाना पडा है। नाइजीरिया जैसा अत्यधिक अशांत देश इस तरह की महत्वपूर्ण उपलब्धि हासिल कर सकता है, यह तथ्य जश्न मनाने का कारण है और यह न केवल पोलियो के खिलाफ लड़ाई में बल्कि सामान्य रूप में वैश्विक स्वास्थ्य के प्रयासों के लिए आशावादिता के लिए आधार प्रदान करता है। नाइजीरिया की सफलता से यह पता चलता है कि दुनिया के सबसे अधिक वंचित और पहुँच से बाहर वाले बच्चों तक आधुनिक चिकित्सा के चमत्कारों को पहुँचा पाना संभव है। बच्चों की मृत्यु दर में कमी लाने की दृष्टि से इसके बहुत अधिक निहितार्थ हैं। पहले जिन बच्चों तक पोलियो के टीके नहीं पहुँच पाते थे वे उन समुदायों में रहते हैं जिनमें नेमी टीकाकरण, मातृ स्वास्थ्य देखभाल, पोषक तत्वों, स्वच्छता, या मलेरिया की रोकथाम की सुविधाएँ बहुत कम या बिल्कुल उपलब्ध नहीं होती थीं। वे ऐसे बच्चे हैं जिन्हें अपने पाँचवें जन्मदिन तक पहुँचने से पहले मृत्यु हो जाने का खतरा सबसे अधिक होता है। नाइजीरिया की इन बच्चों तक पहुँचने में सफलता उन हज़ारों समर्पित स्थानीय स्वयंसेवकों के प्रयासों का परिणाम है जिनमें से कुछ ने इस प्रक्रिया में अपने प्राण तक गँवा दिए। 2012 के बाद से, प्रतिरक्षण अभियानों के दौरान समुदायों को जुटाने में शामिल स्वयंसेवकों की संख्या में लगभग पाँच गुना वृद्धि हुई है। इस बीच, सरकार, विश्व स्वास्थ्य संगठन और यूनिसेफ जैसे वैश्विक स्वास्थ्य संगठन, नागरिक समाज संगठन, और समुदाय के नेतागण, सभी साथ मिलकर काम करते हुए उन अंतरालों की पहचान करने और उन्हें पाटने में सफल रहे जो पोलियो टीके के उपयोग में ऐतिहासिक दृष्टि से बाधक थे। उदाहरण के लिए, 2012 के आरंभ में, नाइजीरिया की सरकार ने, डाटा प्रवाह को समन्वित करने, निर्णय लेने की प्रक्रिया को सुकर बनाने, और कार्यक्रम के भीतर जवाबदेही में सुधार लाने के लिए समर्पित आपातकालीन परिचालन केंद्रों की स्थापना की। वैक्सीन एलायंस, गावी की सहायता से, नाइजीरिया ने 1600 से अधिक सौर-ऊर्जा चालित रेफ्रिजरेटर भी स्थापित किए जो यह सुनिश्चित करने के लिए महत्वपूर्ण हैं कि टीके वितरण शृंखला में अपनी लंबी यात्रा के दौरान सुरक्षित और प्रभावी रहते हैं। भौतिक और सामाजिक बुनियादी ढाँचे में किए गए ये निवेश बच्चों की विभिन्न रोगों से रक्षा करने का साधन प्रदान करते हैं। पहले से ही, नाइजीरिया में पोलियो कार्यकर्ता अपना आधे से ज्यादा समय असंबंधित लेकिन महत्वपूर्ण स्वास्थ्य सेवाएँ प्रदान करने पर खर्च कर रहे हैं। इस बुनियादी सुविधा से नए टीके शुरू करने - जैसे न्यूमोकोकल संयुक्त टीके जो पाँच साल से कम उम्र के बच्चों के सबसे बड़े जानलेवा, निमोनिया के खिलाफ रक्षा करते हैं - और खसरा और रूबेला के खिलाफ नेमी टीकाकरण के प्रसार में वृद्धि करने में मदद मिली है। आपातकालीन परिचालन केंद्रों की बदौलत, इस बुनियादी सुविधा से संपर्क का पता लगाने और निगरानी रख पाने से, 2014 में नाइजीरिया में इबोला के प्रकोप को रोकने में भी मदद मिली। इन प्रयासों का अतिरिक्त लाभ यह है कि इनसे सुनिश्चित किया जा सकता है कि नाइजीरिया अपनी पोलियो-मुक्त स्थिति को सुदृढ़ कर सकता है। उन्मूलन अभियान के दौरान निर्मित स्वास्थ्य संबंधी बुनियादी सुविधाओं के फलस्वरूप इंजेक्शन वाले पोलियो टीकों का उपयोग करना संभव हुआ है जो मौखिक टीकों के पूरक होंगे और इससे यह सुनिश्चित किया जा सकेगा कि वायरस वापस नहीं आता है। अभी हाल ही में आधिकारिक तौर पर पोलियो-मुक्त घोषित किए गए देश भारत में भी यही पैटर्न था, जहाँ 2010 के बाद से इसका कोई भी मामला नहीं पाया गया है। वहाँ पोलियो टीके लगाने के लिए उपलब्ध बुनियादी सुविधा का उपयोग अब 1-में-5 पेंटावेलंट टीके जैसे नेमी टीकाकरण की व्याप्ति को बढ़ाने के लिए किया जा रहा है। भारत अब अपने पोलियो-उन्मूलन अभियानों को कम कर सकता है, और फिर भी अपनी पोलियो-मुक्त स्थिति को बनाए रख सकता है। 2015 में, दुनिया भर में अब तक पोलियो के केवल 34 मामले दर्ज हुए हैं – इनमें से अधिकतर मामले पाकिस्तान में हुए हैं। अब इस बात की सचमुच बहुत अधिक संभावना है कि हम 2016 के अंत से पहले वाइल्ड पोलियो का बिल्कुल अंतिम मामला देख सकेंगे - यह एक ऐसा रोग है जिससे कभी लाखों लोग त्रस्त थे। तथापि, इस रोग के उन्मूलन के लिए हमें नाइजीरिया जैसी सफलताओं से सीखना होगा और टीकाकरण के नेमी प्रयासों को और मजबूत करना होगा। पोलियो के अंत को न केवल एक भयानक रोग की पराजय, बल्कि बचपन की पीड़ा और मृत्यु को कम करने के प्रयास में एक नए चरण की शुरूआत के रूप में भी देखा जाना चाहिए जिसके लाभ भावी पीढ़ियों द्वारा महसूस किए जाएँगे। परमाणु संरक्षा से परमाणु सुरक्षा तक वाशिंगटन, डीसी/मास्को– चार साल पहले, जापान के तट पर विनाशकारी सूनामी ने कहर बरपा दिया था। पचास फुट ऊँची लहरों ने फुकुशिमा डायची परमाणु विद्युत संयंत्र के तटबंध को तोड़ दिया था जिससे इसकी आपातकालीन विद्युत आपूर्ति बंद हो गई थी और इसकी शीतन प्रणालियाँ अक्षम हो गई थीं। 1986 में चेर्नोबिल विद्युत संयंत्र के नष्ट होने के बाद यह परमाणु दुर्घटना सबसे भयंकर थी। अन्वेषक इस निष्कर्ष पर पहुँचे थे कि इसके मूल कारणों में से एक कारण असावधानी था: सुविधा के प्रभारियों को यह लगा था कि उनकी संरक्षा प्रणालियाँ मज़बूत थीं, और उसमें कोई कारगर निगरानी प्रणाली मौजूद नहीं थी। जापान में इस आपदा के फलस्वरूप परमाणु संरक्षा के क्षेत्र में सुधारों में तेज़ी आई है। लेकिन जब मुद्दा परमाणु सुरक्षा का होता है तो असावधानी मुख्य समस्या होती है। हमें इस बारे में कुछ करने के लिए विपदा की विनाशलीला की प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिए। आज, 1.5 मिलियन किलोग्राम से भी अधिक संवर्धित यूरेनियम और प्लूटोनियम – जो परमाणु हथियारों में प्रयुक्त मुख्य सामग्री होती है – 25 देशों में मौजूद सैकड़ों सुविधाओं में छितरे पड़े हैं। इनमें से कुछ बहुत कम सुरक्षित हैं। फिर भी, लाखों लोगों को मौत के घाट उतारने और अरबों डॉलर की क्षति पहुँचाने के लिए बनाए जानेवाले किसी डिवाइस के लिए चीनी के एक छोटे से बैग में समा जानेवाली परमाणु सामग्री ही काफी होती है। परमाणु सुविधाओं में सुरक्षा को बेहतर बनाने के लिए हाल ही के वर्षों में बहुत कुछ किया गया है, लेकिन सरकारों को परमाणु आतंकवाद के विनाशकारी जोखिम से अपने नागरिकों की रक्षा करने के लिए और अधिक उपाय करने चाहिए। फुकुशिमा संकट से सीखे गए सबक सुधार के लिए एक उपयोगी मार्गदर्शिका के रूप में काम आ सकते हैं। शुरुआत करनेवालों के लिए, सरकारों और उद्योग को परमाणु सुरक्षा को निरंतर सुधार की प्रक्रिया के रूप में मानना चाहिए और नए विकसित हो रहे ख़तरों और चुनौतियों का सामना करने के लिए काम करना चाहिए। 20 साल पहले सुरक्षित मानी जानेवाली सुविधा अब किसी ऐसे साइबर हमले की चपेट में आ सकती है जो इसकी सुरक्षा व्यवस्थाओं को बाईपास कर देता है या इसकी परमाणु सामग्री का ट्रैक रखने के प्रयासों को गड़बड़ा देता है। सुसंगठित और भली-भाँति वित्तपोषित इस्लामी राज्य जैसे गैर-राज्य समूह, परमाणु सामग्रियों की चोरी करने के लिए नई रणनीतियाँ, प्रौद्योगिकियाँ, और क्षमताएँ इस्तेमाल कर सकते हैं। इसलिए सरकारों को नई विकसित हो रही प्रौद्योगिकियों और ख़तरों का लगातार मूल्यांकन करते रहना चाहिए ताकि परमाणु सामग्रियों के संरक्षण के लिए बनाई गई सुरक्षा व्यवस्थाएँ उन्हें चुराने की कोशिश करनेवालों की क्षमताओं से अधिक बनी रहें। दूसरे, सरकारों और उद्योग को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि संरक्षा संस्कृति की तरह सुरक्षा संस्कृति भी हर परमाणु सुविधा के प्रचालनों का एक अभिन्न अंग बन जाती है। संयुक्त राज्य अमेरिका की सामरिक कमान के पूर्व कमांडर-इन-चीफ जनरल यूजीन हैबिजर, जो अमेरिका के ऊर्जा विभाग के “सुरक्षा प्रमुख” थे, ने एक बार कहा था: “अच्छी सुरक्षा में 20% उपस्कर और 80% लोगों का योगदान होता है।” सुरक्षा की एक मजबूत संस्कृति का पोषण करने के लिए सरकारों और उद्योग को मिलकर काम करना चाहिए। परमाणु सुविधा में प्रत्येक कर्मचारी - गार्डों से लेकर वरिष्ठ कर्मचारियों और वैज्ञानिकों तक - को परमाणु सामग्रियों की सुरक्षा को अपने कार्यों के एक अनिवार्य अंग के रूप में देखना चाहिए। तीसरे, सरकारों को परमाणु सुविधाओं में सुरक्षा व्यवस्थाओं की नियमित रूप से समीक्षा करनी चाहिए। परमाणु प्रचालकों के लिए इतना कह देना भर काफी नहीं है कि उनकी सुविधाओं में सुरक्षा की स्थिति "पर्याप्त है।" प्रभावी निरीक्षण असावधानी को पूरी तरह से दूर कर सकता है। फुकुशिमा ने इस बात की आवश्यकता को उजागर किया है कि नियामकों द्वारा नियमित रूप से संकट संबंधी परीक्षण किए जाने चाहिए, जिनमें परमाणु सुविधाओं की क्षमता का इस दृष्टि से मूल्यांकन किया जाना चाहिए कि वे अपनी सुरक्षा को प्रभावित करने वाली विभिन्न आकस्मिकताओं का सामना कर सकते हैं। नियामकों को विशेष रूप से इसी तरह के मूल्यांकन, सुविधाओं की सुरक्षा संबंधी ख़तरों का सामना करने की क्षमता का आकलन करने के उद्देश्य से भी करने चाहिए, जिसमें अंदर के जानकार लोगों द्वारा चोरी किया जाना शामिल है। अंत में, दुनिया के नेताओं को चाहिए कि वे परमाणु सुरक्षा पर गुप्त प्रकार के अंतर्राष्ट्रीय सहयोग करने के प्रयास करें। जैसा कि चेर्नोबिल और फुकुशिमा की घटनाओं ने दर्शाया था, किसी एक देश में परमाणु सुरक्षा कमजोरियों के बाकी दुनिया के लिए गंभीर परिणाम हो सकते हैं। परमाणु सुरक्षा जोखिमों के बारे में भी यही बात कही जा सकती है। यह हमारी साझा राजनीतिक - और नैतिक - जिम्मेदारी है कि हम सुनिश्चित करें कि आतंकवादियों के हाथ दुनिया की सबसे ख़तरनाक सामग्रियों तक कभी भी न पहुँच पाएँ। देशों को नुन-लुगर कोआपरेटिव थ्रेट रिडक्शन कार्यक्रम के उदाहरण से सबक सीखना चाहिए, जो परमाणु सुरक्षा पर संयुक्त राज्य अमेरिका, रूस और पूर्व सोवियत राज्यों के बीच सहयोग का एक सफल कार्यक्रम है। परमाणु सामग्रियों वाले देशों को इस बारे में जानकारी का आदान-प्रदान करना चाहिए कि सुरक्षा को किस तरह मज़बूत किया जा सकता है, एक जैसी परमाणु सुरक्षा चुनौतियों के बारे में खुफिया जानकारी का आदान-प्रदान किस तरह किया जा सकता है, और समकक्षों की समीक्षाएँ आयोजित करने की संभावना का पता लगाया जाना चाहिए। हमारे मित्र और सहयोगी सैम नुन, जो परमाणु ख़तरा पहल के सह-अध्यक्ष हैं, अक्सर चेताते रहते हैं कि हम सहयोग और विनाश के बीच एक दौड़ में हैं। यह महत्वपूर्ण है कि हम फुकुशिमा से सबक सीखें और उन्हें परमाणु आतंकवाद का मुकाबला करने के लिए अपनी रणनीति में शामिल करें। यह एक ऐसी दौड़ है जिसमें हम पिछड़ना बर्दाश्त नहीं कर सकते। ओबामा बनाम ओबामाकेयर न्यूयार्क – राष्ट्रपति बराक ओबामा का सिग्नेचर 2010 स्वास्थ्य-देखभाल सुधार, यूएस रोगी संरक्षण और किफ़ायती देखभाल अधिनियम (पेशेंट प्रोटेक्शन एंड अफ़ोर्डेबल केयर एक्ट), उन लाखों अमेरिकियों के लिए बीमा कवरेज का विस्तार करने में सफल रहा है जिन्हें यह अन्यथा उपलब्ध न हो पाता। और, आलोचकों की चेतावनियों के विपरीत, इससे स्वास्थ्य-देखभाल की लागतें बढ़ी नहीं हैं; वास्तव में, इस बात की कुछ आशा है कि लागत की वक्र रेखा अंततः नीचे की ओर झुक सकती है। लेकिन इस बात का कोई आश्वासन नहीं है कि "ओबामाकेयर" से स्वास्थ्य-देखभाल की अत्यधिक ऊँची लागतों को कम करने में सफलता मिलेगी या नहीं। यह ओबामा के प्रशासन की अन्य नीतियों पर निर्भर करेगा, ख़ास तौर से ऐसे क्षेत्र में जो असंबंधित प्रतीत हो सकता है: बौद्धिक संपदा पर संयुक्त राज्य अमेरिका की भारत के साथ चल रही चर्चाएँ। और यहाँ, ओबामा शक्तिशाली यूएस फ़ार्मास्यूटिकल लॉबी के दबाव के कारण, अपने खुद के सिग्नेचर सुधार को कमज़ोर करने के लिए कटिबद्ध प्रतीत हो रहे हैं। फ़ार्मास्यूटिकल की लागतें अमेरिकी स्वास्थ्य-देखभाल ख़र्च का अधिकाधिक बड़ा हो रहा घटक बन रहा है। वास्तव में, सकल घरेलू उत्पाद के हिस्से के रूप में, सिर्फ़ 20 साल में नुस्ख़े की दवाओं के परिव्यय लगभग तीन गुना हो गए हैं। इसलिए स्वास्थ्य-देखभाल की लागतें कम करने के लिए फ़ार्मास्यूटिकल उद्योग में और ज़्यादा प्रतिस्पर्धा की ज़रूरत है - और इसका मतलब है, सामान्य दवाओं के निर्माण और वितरण की अनुमति देना। इसके बजाय, ओबामा प्रशासन भारत के साथ एक ऐसा व्यापार समझौता करने की कोशिश कर रहा है जो सामान्य दवाओं से प्रतिस्पर्धा को कमज़ोर करेगा, और इस तरह - भारत और दूसरे देशों में - अरबों लोगों के लिए जीवन-रक्षक दवाओं को महँगा बना देगा। यह इस अन्यथा नेक इरादे वाली नीति का अनपेक्षित परिणाम नहीं है; यह यूएस व्यापार नीति का स्पष्ट लक्ष्य है। प्रमुख बहुराष्ट्रीय फ़ार्मास्यूटिकल कंपनियाँ लंबे समय से सामान्य दवाओं में प्रतिस्पर्धा अवरुद्ध करने का काम कर रही हैं। लेकिन विश्व व्यापार संगठन का उपयोग करके, बहुपक्षीय दृष्टिकोण उससे कम प्रभावी साबित हुआ है जिसकी उन्होंने उम्मीद की थी, इसलिए अब वे द्विपक्षीय और क्षेत्रीय समझौतों के माध्यम से इस लक्ष्य को प्राप्त करने की कोशिश कर रहे हैं। भारत - जो विकासशील देशों के लिए सामान्य दवाओं का प्रमुख स्रोत है – के साथ नवीनतम समझौते इस रणनीति का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। 1970 के दशक में, भारत ने फ़ार्मास्यूटिकल पेटेंटों को समाप्त कर दिया, जिससे एक ऐसा उन्नत और कुशल सामान्य दवा उद्योग तैयार हुआ जो पूरी विकासशील दुनिया में लोगों को सस्ती दवाएँ उपलब्ध कराने में सक्षम है। 2005 में यह स्थिति उस समय बदल गई जब विश्व व्यापार संगठन के बौद्धिक संपदा अधिकारों के व्यापार संबंधी पहलुओं पर समझौते (TRIPS) ने भारत को दवाओं के पेटेंटों की अनुमति देने के लिए मजबूर कर दिया। लेकिन, अमेरिका के फ़ार्मास्यूटिकल उद्योग की दृष्टि से TRIPS ने बहुत ज़्यादा काम नहीं किया। इस प्रकार, अमेरिका के साथ अपने व्यापार संबंध बढ़ाने की भारत सरकार की इच्छा इस उद्योग को, भारत को पेटेंट प्राप्त करना आसान बनाकर और कम-लागत वाली सामान्य दवाओं की उपलब्धता कम करने के लिए मजबूर करके वहाँ से काम आगे बढ़ाने का आदर्श अवसर देती है, जहाँ पर TRIPS ने इसे छोड़ दिया था। अब तक, ऐसा लगता है कि यह योजना काम कर रही है। पिछले पतझड़ में, अमेरिका की यात्रा के दौरान, भारत के प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी देश की पेटेंट नीति का पुनः मूल्यांकन करने के लिए कार्यदल की स्थापना करने पर सहमत हो गए। इस समूह में अमेरिकी प्रतिभागियों का नेतृत्व यूएस का व्यापार प्रतिनिधि कार्यालय करेगा, जो राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी, राष्ट्रीय विज्ञान फ़ाउंडेशन, या राष्ट्रीय स्वास्थ्य संस्थान के बजाय फ़ार्मास्यूटिकल कंपनियों के हितों के लिए काम करता है। भारत अपनी पेटेंट प्रणाली को कैसे कठोर बना सकता है? शुरुआत करनेवालों के लिए, यह उनके उन उत्पादों के लिए मानकों को कम कर सकता है जिन्हें "नवीन" उत्पाद माना जाता है, यानी उन उत्पादों के लिए जिनका बौद्धिक-संपदा संरक्षण किए जाने की आवश्यकता है। अभी तक की स्थिति के अनुसार, भारत मानदंड बहुत ऊँचे रखता है, जिसके परिणामस्वरूप यह मौजूदा दवाओं के नए संयोजन के लिए पेटेंट की अनुमति देने के लिए मना करता है। भारत निश्चित शुल्क देने के आधार पर, अन्य कंपनियों को पेटेंट-धारक की दवा की अनुमति देने के लिए अनिवार्य लाइसेंस जारी करना बंद सकता है – यह एक ऐसी व्यवस्था है जिसकी TRIPS के अंतर्गत अनुमति है, लेकिन यह फ़ार्मास्यूटिकल उद्योग के लिए अभिशाप होगा। भारत की वर्तमान नीतियाँ दवाओं के पेटेंट धारकों द्वारा निर्धारित एकाधिकार क़ीमतों से बहुत ही कम कीमत पर दवाएँ बेचने की अनुमति देती हैं। उदाहरण के लिए, हेपेटाइटिस-सी दवा सोवाल्डी यूएस में प्रति इलाज $84,000 पर बेची जाती है; जबकि भारतीय निर्माता इसका सामान्य संस्करण प्रति इलाज $1,000 से कम पर लाभप्रद ढंग से बेच लेते हैं। सामान्य दवा की क़ीमत उन लोगों के लिए अभी भी बहुत भारी ख़र्च है जो प्रतिदिन कुछ डॉलर पर जीवन-यापन कर रहे हैं; लेकिन अमेरिकी मूल्य के विपरीत, यह अनेक सरकारों और सहायता संगठनों के लिए प्रबंधनीय है। यह कतई अलग-थलग उदाहरण नहीं है। कम-लागत वाली सामान्य दवाओं के कारण विकासशील दुनिया में एचआईवी/एड्स के लाखों रोगियों का इलाज करना संभव हो गया है। वास्तव में, आंशिक रूप से भारतीय सामान्य दवाओं से प्रतिस्पर्धा का ख़तरा होने के कारण ही प्रमुख फ़ार्मास्यूटिकल कंपनियों ने अपनी कुछ दवाएँ दुनिया के ग़रीबों के लिए कम क़ीमतों पर उपलब्ध कराने का फ़ैसला किया है। अगर अमेरिका भारत को अपने पेटेंट नियमों को बहुत अधिक कठोर बनाने के लिए मजबूर कर देता है ताकि वे यूएस नियमों के बहुत अधिक समान हो जाएँ, तो यह परिणाम जोखिम वाला हो सकता है। निश्चित रूप से, अगर अमेरिका की मजबूत पेटेंट व्यवस्था फ़ार्मास्यूटिकल उद्योग में नवाचार को मज़बूत करने का सर्वोत्तम तरीका है, जैसा कि इसके समर्थकों का दावा है, तो भारत के प्रति ओबामा प्रशासन की नीति शायद उचित हो सकती है। लेकिन स्थिति ऐसी नहीं है। चूँकि पेटेंट अनिवार्य रूप से सरकार द्वारा दिए जाने वाले एकाधिकार हैं, इसलिए वे उन्हीं अक्षमताओं और किराया वसूली के तरीके की ओर ले जाते हैं जैसा कि ऐसे किसी अन्य बाज़ार विरूपण में होता है। जो पेटेंट किसी दवा के मूल्य को सौ-गुना बढ़ा देता है, उसका बाज़ार पर 10,000% टैरिफ़ जितना असर होता है। ऐसे मामलों में, दवा कंपनियों को डॉक्टरों और जनता को अपने उत्पादों की सुरक्षा और प्रभावशीलता के बारे में गुमराह करने, और यहाँ तक कि अपनी दवाओं के अनुचित इस्तेमाल को बढ़ावा देने के लिए भारी प्रोत्साहन मिल जाता है, जिसके लिए वे अकसर डॉक्टरों को उन दवाइयों का नुस्ख़ा लिखने के लिए राजी करने के लिए नवाचारी प्रलोभनकारी भुगतान की विधि का इस्तेमा��� करते हैं। इसके अलावा, पेटेंट-समर्थित शोध में गोपनीयता को बढ़ावा मिलता है, क्योंकि कंपनियाँ केवल उसी जानकारी का खुलासा करती हैं जो पेटेंट हासिल करने के लिए ज़रूरी होती है। फिर भी कुशल वैज्ञानिक प्रगति के लिए खुलापन होना महत्वपूर्ण है। इस आलेख के लेखकों सहित अनेक अर्थशास्त्रियों ने इन समस्याओं से बचने के लिए पेटेंट-समर्थित अनुसंधान और विकास के लिए विभिन्न प्रकार के विकल्पसुझाए हैं। अगर ओबामा प्रशासन भारत को अपने पेटेंट क़ानूनों को कठोर बनाने के लिए मजबूर करने में सफल हो जाता है, तो इस बदलाव से न केवल भारत और अन्य विकासशील देशों को नुक़सान होगा; बल्कि यह यूएस की निहायत भ्रष्ट और अक्षम पेटेंट प्रणाली को भी प्रतिष्ठापित कर देगा, जिसमें कंपनियाँ – अपने देश में और विदेशों में - प्रतिस्पर्धा को दूर करके मुनाफा कमाती हैं। आखिरकार, पेटेंट की अवधियाँ समाप्त हो जाने पर, भारत की सामान्य दवाएँ अकसर अमेरिकी बाज़ार में सबसे कम लागत का विकल्प प्रदान करती हैं। ओबामा ने एक ऐसे स्वास्थ्य-देखभाल सुधार का प्रस्ताव रखकर ठीक ही किया है जिससे इस क्षेत्र की कुशलता और पहुँच बढ़ेगी। भारत के साथ किए जानेवाले समझौते में ओबामा प्रशासन एक ऐसी नीति का अनुसरण कर रहा है जो इन लक्ष्यों की अवहेलना करती है जिसका प्रभाव न केवल भारत और यूएस बल्कि पूरी दुनिया पर पड़ेगा। स्वास्थ्य-देखभाल में नवोन्मेष लागोस- हालहीमेंनाइजीरियाकीराजधानी, अबुजामेंरेस्तरांमें, रातकेखानेकेसमयमैंनेएकबेमेलजोड़ीदेखी।आदमीकीउम्रकम-से-कम60 साल की लगरहीथी, लेकिनउसने तंगजीन्सऔर बिना बाजू वालीतंगटॉपपहनी हुई थी, उसकेगलेमेंसोनेकीलंबीचेनथीऔरआँखोंपरकालाचश्माथा, हालाँकिवहशामकाआठबजे के बादकासमयथा।उसकीसंगिनी, जो22 सालसेबड़ीनहींलगरहीथी, अपनेतीनदोस्तोंकेसाथफुदक कर उसके पीछे जाखड़ी हुईथी।वहउसे उनकीबातचीतमेंशामिलकरनेकीकोशिशकररहीथी, यहाँतककिवहकभी-कभीउसकाचुंबनलेनेकेलिएझुकभीजातीथी, लेकिनबुझी-सीमुस्कानउसकेअमीरअधेड़प्रेमीकीबढ़तीबेचैनीकोछिपानहींपारहीथी। बेशक, इसतरहकेरिश्तेनाइजीरियाकेलिएनतोनएहैंऔरनही येनाइजीरिया तक सीमितहैं।बहुतकमलोगअधेड़उम्रकेअमीरआदमीकोयुवा, औरग़रीबमहिलाकेसाथदेखकरहैरानहोतेहैं, जोउसकेसाथ रहनेकेबदलेमेंउसेशिक्षा, यात्रा, याख़रीदारीकेलिएपैसादेनेकावायदाकरताहै।आश्चर्यकीबात तोतबहोतीहैजबइनमेंसेकोईरिश्तागहराऔरस्थायीहोनेलगताहै। अफ़्रीकाऔरपश्चिमीदेशोंकेबीचसंबंधकाफ़ीहदतकइसअमीरअधेड़प्रेमीकीसक्रियताजैसादिखताहै, ख़ासकरजबबातस्वास्थ्य-देखभालकीहोतीहै।दशकोंतक, स्वास्थ्य-देखभालकेनवोन्मेषोंकीथोड़ी-बहुतविविधताकेसाथविकसितदेशोंसेनकलकीजातीरहीहै, जिसकेपीछेशायदयहधारणाहोतीथीकिपिताबेहतरजानताहै।लेकिनइसकेपरिणामकष्टकर औरमहँगेरहेहैं, औरलगभगकभीभीटिकाऊनहींरहे हैं। वास्तविकस्थितियहहैकिअफ़्रीकीदेशोंकीज़रूरतें, हित, औरसंसाधनअपनेपश्चिमीसमकक्षदेशोंसेकाफ़़ीअलगहैं।उदाहरणकेलिए, ज़्यादातरयूरोपीयदेशोंमें, हर 1,000 रोगियों के लिए लगभग 30 डॉक्टर हैं; लेकिननाइजीरियामेंयहअनुपात लगभग 4:100,000 है।इसतरहकेअंतरकोदेखतेहुए, इसबातमेंकोईआश्चर्यनहींहैकिचिकित्साकेपश्चिमीप्रोटोकॉलविकासशीलदेशोंमेंकामनहींकरते। समस्यायहहैकिइसधारणाकोबदलनामुश्किलरहाहैकिनवीनताकामार्गकेवलएकहै: उत्तरसेदक्षिणका।लेकिनविकासशीलदेशपश्चिमीदेशोंकीस्वास्थ्य-देखभालप्रणालीमेंसुधारकरनेमेंमददकरसकतेहैं, जोपरिपूर्णता सेबहुतदूरहैं(अपने घरमें भी)। वास्तव में, विकसित-देशोंकेलोगोंकीउम्र में ज्यों-ज्यों बढ़ोतरी होती जा रही है, स्वास्थ्य-देखभालकीलागतें उत्तरोत्तरनियंत्रणसेबाहरहोतीजारहीहैं।संयुक्तराज्यअमेरिकामें2021 मेंकुलस्वास्थ्य-देखभालख़र्च4.8 ट्रिलियन डॉलर तक पहुँचने की उम्मीद है- जोसकलघरेलूउत्पादकालगभगपाँचवाँहिस्साहै– यह 2010 में2.6 ट्रिलियनडॉलरथाऔर1970 में75 अरब डॉलर।इसीतरह, यूरोपमें, स्वास्थ्य-देखभाल पर सरकारी ख़र्च 2000 मेंसकलघरेलूउत्पादके8% सेबढ़कर2030 में14% होसकताहै। रॉबर्ट वुड जॉनसन फ़ाउंडेशन केअनुसार- चिकित्साप्रौद्योगिकीकेक्षेत्रमेंप्रगतिभीस्वास्थ्य-देखभालके इसख़र्चमें होनेवालीवृद्धिमेंकाफ़ी, यानी38-65%, योगदानकरतीहै।ऐसीप्रौद्योगिकियाँरोगियोंकेलिएउपलब्धइलाजकीरेंजकाविस्तारकरतीहैं, लेकिनअकसरकमलागतकेविकल्पोंकीजगहउच्चलागतवालीसेवाएँलेलेतीहैं।यहसुनिश्चितकरनेकेलिएज़्यादाकिफ़ायतीसमाधानमहत्वपूर्णहैंकिज़्यादा-से-ज़्यादालोगजीवन-रक्षकचिकित्साप्रौद्योगिकियोंतकपहुँच प्राप्तकरसकें। विकासशीलदेशोंकेनवोन्मेषयहींमहत्वपूर्णहोजातेहैं।लगातारबढ़रहीवैश्विकसंबद्धतानेनवोन्मेषकेपरिदृश्यकोनयारूपदेदियाहै, जिससेमोबाइलफ़ोनयाइंटरनेटकनेक्शनकेसाथकोईभीव्यक्तिखेलकारुखबदलनेवालीप्रणालियाँपेशकरनेकेलिएज़रूरीविचारोंऔरसंसाधनोंतकपहुँचकरसकताहै।अगरइसमेंज़रूरतकेउसस्तरकोजोड़लियाजाएजिसेविकसितदेशसाझानहींकरते हैं, तोविकासशीलदेशनकेवलअपनीखुदकीस्वास्थ्य-देखभालप्रणालियोंमेंक्रांतिकारीबदलावलासकतेहैं; बल्किवेविकसितदुनियाकीस्वास्थ्य-देखभालकीदुर्दशाकेलिएसमाधानखोजनेमेंभीमददकरसकतेहैं। अच्छीख़बरयहहैकिविकासशीलदेशोंकीयहनवोन्मेषीसंभावनाअधिकाधिकस्पष्टहोतीजारहीहै।उनके अपनेदेशोंकीआधुनिकबुनियादीसुविधाओंकीकमीसेपैदाहुईबाधाओंको दूर करनेकेलिए, अफ़्रीकीलोगमोबाइलप्रौद्योगिकीऔरसौर ऊर्जाजैसेअक्षयऊर्जास्रोतोंकाअधिकाधिकलाभउठारहेहैं स्वास्थ्य-देखभालकेमामलेमें, घानाकीmPedigree नेटवर्क- नकलीदवाओंकापतालगानेकेलिएमोबाइलशॉर्टकोडप्रणालीलागूकरनेवालीपहलीकंपनीहै, जिनके कारणदुनियाभरमेंहररोज़औसतन2,000 लोगोंकीमृत्युहोतीहै।बुनियादीमोबाइलफोनकाइस्तेमालकरके, लोगतुरंत- औरबिनाकिसीख़र्चके- जाँच करसकतेहैंकिकोईदवाअसलीहैयानहीं।इसीतरह, भारतमेंविकसितएंब्रेस शिशु वार्मर कीलागत- अमेरिकामें2,000 डॉलर में मिलनेवाले पारंपरिकइन्क्यूबेटरकी कीतुलनामें -लगभग200 डॉलरहै- जिससेजन्मकेसमयकमवज़नवालेऔरसमयसेपूर्वजन्मलेनेवालेलाखोंबच्चोंकीइसजीवन-रक्षकसंसाधनतकपहुँचहोजातीहै। इसीतरहकेसैकड़ोंनवोन्मेष, अमेरिका, यूरोप, याजापानमेंलागतकी तुलना मेंकेवल1% जितनी कम लागत परउनलोगोंकोउच्च-गुणवत्ताकीस्वास्थ्य-देखभालप्रदानकररहेहैंजिन्हेंउनकीसबसेज़्यादाज़रूरतहै।इसतरहकेनवोन्मेषपश्चिममेंस्वास्थ्य-देखभालकीभारीलागतोंकोकमकरनेमेंमददकरनेकेसाथ-साथ, विकासशीलदेशोंमेंलाखोंलोगोंकेजीवनमेंसुधारलासकतेहैं। अधेड़उम्रकेप्रेमियोंऔरउनकेसाथियोंकेबीचरिश्तेशायदहीकभीचलतेहों।लेकिनबराबरीकीसाझेदारीमेंमुकाबला करनेकामौक़ाहोताहै।दुनियाकेनेताओंऔरबहुपक्षीयसंगठनोंकेलिएअब समय आ गया है कि वे- हरकिसीकीख़ातिर- अफ़्रीकाकी नवोन्मेषक्षमताकोपहचानेंऔरउसकासमर्थनकरें। प्रगति के लिए ज्ञान लंदन - लगभग 236 साल पहले, अमेरिका के वर्जीनिया राज्य से एक युवा राज्यपाल ने शिक्षा सुधार को एक नई दिशा दी थी। अपने ज्ञान के अधिक सामान्य प्रसार के लिए विधेयक में, थॉमस जेफ़रसन ने ऐसी "सामान्य शिक्षा प्रणाली" का आह्वान किया था जो "सबसे अमीर से लेकर सबसे ग़रीब तक" सभी नागरिकों तक पहुँचे। यह अमेरिकी सार्वजनिक शिक्षा प्रणाली अर्थात ऐसी संस्था तैयार करने की दिशा में पहला क़दम था जिसकी मदद से देश वैश्विक प्रमुखता तक पहुँच सका। बीसवीं सदी के आरंभ तक, संयुक्त राज्य अमेरिका सार्वजनिक स्कूली शिक्षा में वैश्विक नेता बन गया था। शिक्षा के क्षेत्र में निवेश ने आर्थिक विकास, रोज़गार सृजन, और अधिक सामाजिक गतिशीलता के लिए प्रेरणा प्रदान की। जैसा कि क्लाउडिया गोल्डिन और लॉरेंस काट्ज़ ने दिखाया है, यह शिक्षा के क्षेत्र में अमेरिकी "अनूठापन" था जिसने इस देश को यूरोपीय देशों पर बढ़त दिलाई जिन्होंने मानव पूँजी में कम निवेश किया था। जब दुनिया के नेता इस हफ़्ते विकास के लिए शिक्षा पर ओस्लो शिखर सम्मेलन में इकट्ठे होंगे, तो इस अनुभव से मिलनेवाला सबक और अधिक प्रासंगिक नहीं हो सकता है। वास्तव में, जैसे-जैसे वैश्विक अर्थव्यवस्था अधिकाधिक ज्ञान-आधारित बनती जा रही है, वैसे-वैसे देश के लोगों की शिक्षा और कौशल इसका भविष्य सुरक्षित करने के लिए पहले से कहीं अधिक महत्वपूर्ण होते जा रहे हैं। जो देश समावेशी शिक्षा प्रणाली तैयार करने में विफल रहते हैं, वे धीमे विकास, बढ़ती असमानता, और विश्व व्यापार में अवसरों के खोने की संभावना का सामना करते हैं। इस संदर्भ में, शिक्षा पर आज के कुछ विचार-विमर्श आश्चर्यजनक रूप से कालातीत प्रतीत होते हैं। हार्वर्ड अर्थशास्त्री रिकार्डो हॉउसमैनने हाल ही में उसकी भर्त्सना की है जिसका उन्होंने विकास के लिए "केवल-शिक्षा" की रणनीति की वकालत के लिए "शिक्षा, शिक्षा, शिक्षा भीड़" के रूप में वर्णन किया है। यह एक ऐसे दृष्टिकोण पर प्रभावशाली हमला था, जो मेरी पूरी जानकारी के अनुसार, किसी का भी नहीं है। बेशक शिक्षा विकास के लिए स्वचालित मार्ग नहीं है। ऐसे देशों में शिक्षा का विस्तार करना कम उत्पादकता और अधिक बेरोज़गारी के लिए नुस्खा होगा, जिनमें संस्थागत विफलता, ख़राब प्रशासन, और समष्टि-आर्थिक कुप्रबंधन निवेश में गतिरोध का काम करते हैं। उत्तरी अफ्रीका में, शिक्षा प्रणाली और रोज़गार बाज़ार के बीच तालमेल न होने से, युवा, शिक्षित लोग अच्छे अवसरों से वंचित रहे - इस स्थिति ने अरब स्प्रिंग की क्रांतियों में योगदान किया। इसमें से कुछ भी विकास के अनिवार्य घटक के रूप में शिक्षा की महत्वपूर्ण भूमिका - न केवल स्कूली शिक्षा के कई सालों, बल्कि वास्तविक रूप से सीखने - की राह में बाधक नहीं है। एडम स्मिथ से लेकर रॉबर्ट सोलो और गैरी बेकर और, सबसे हाल में, एरिक हनुशेक द्वारा किए गए व्यापक अनुसंधान से उत्पादक मानव पूँजी के निर्माण में शिक्षा के महत्व की पुष्टि होती है। OECD के अंतर्राष्ट्रीय विद्यार्थी मूल्यांकन के लिए कार्यक्रम के मानक विचलन स्कोर से एक चरण ऊपर का संबंध देश की दीर्घावधि प्रति व्यक्ति विकास दर में 2% की वृद्धि से है। शिक्षा धीमी गति से विकास का तुरत-फुरत का इलाज नहीं हो सकती। लेकिन क्या आप किसी ऐसे देश का नाम बता सकते हैं जो शिक्षा के क्षेत्र में प्रगति के बिना आर्थिक बदलाव ला सका है। विश्व बैंक में अर्थशास्त्रियों ने शिक्षा की बहस के लिए अपने कुछ बिजूखे खड़े करने के रूप में योगदान किया है। एक योगदान में, शांता देवराजन ने इस दृष्टिकोण की आलोचना की है कि शिक्षा ऐसी अनिवार्य सार्वजनिक वस्तु है जिसके वित्तपोषण और प्रदान करने का कार्य सरकारों को करना चाहिए, और उन्होंने यह तर्क दिया है कि इसके बजाय इसे ऐसी निजी वस्तु माना जाना चाहिए, जो ग्राहकों अर्थात माता-पिता और बच्चों के लिए बाज़ारों के माध्यम से प्रदान की जाए ताकि निजी लाभ प्राप्त हों। समस्या यह है कि वास्तविक दुनिया में शिक्षा स्वतः स्पष्ट रूप से सार्वजनिक वस्तु नहीं है, जबकि कुछ चीज़ें हैं। तथापि, यह "योग्यता" की ऐसी वस्तु है जिसे सरकारों द्वारा निःशुल्क प्रदान किया जाना चाहिए, क्योंकि अगर माता-पिता कम निवेश करते हैं, या ग़रीबों को बाहर रखा जाता है, तो विभिन्न प्रकार के निजी और सामाजिक लाभ नहीं मिल पाएँगे। उदाहरण के लिए, शिक्षा - विशेष रूप से लड़कियों की शिक्षा - के क्षेत्र में प्रगति बच्चे के जीवित रहने और पोषण में सुधारों, और मातृ स्वास्थ्य, साथ ही उच्च मजदूरी के साथ निकटता से जुड़ी है। अब समय आ गया है कि शिक्षा के क्षेत्र में वास्तविक चुनौतियों पर ध्यान केंद्रित करने के लिए दोषपूर्ण तर्कों पर आधारित व्यर्थ के विचार-विमर्श से आगे बढ़ा जाए - अगर हमें 2030 तक सभी के लिए उच्च गुणवत्ता की प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा प्रदान करने के सतत विकास का लक्ष्य हासिल करना है तो ऐसी चुनौतियों पर कार्रवाई की जानी चाहिए। ओस्लो शिखर सम्मेलन सफलता की आधारशिला रखने के लिए महत्वपूर्ण अवसर प्रस्तुत कर रहा है। यह देखते हुए कि 59 मिलियन प्राथमिक स्कूल की उम्र के बच्चे और 65 मिलियन किशोर स्कूल से बाहर हैं, इस अवसर को दोनों हाथों से लपक लेना चाहिए। सफल शिखर सम्मेलन में चार प्रमुख अनिवार्यताओं पर बल दिया जाना चाहिए। सबसे पहले, सरकारों को शिक्षा के लिए ज़्यादा घरेलू कोष प्रतिबद्ध करने चाहिए। शिखर सम्मेलन के लिए एक लेख में पाकिस्तान में एक के बाद एक सरकारों की शिक्षा के क्षेत्र में निवेश करने में विफलता पर प्रकाश डाला गया है, जिसमें अब स्कूल से बाहर रहनेवाली दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी आबादी है। इस समस्या के मूल में राजनीतिज्ञ हैं, जिनकी रुचि ग़रीबों के लिए सीखने के अवसरों में सुधार करने के बजाय अमीरों द्वारा कर चोरी को सुविधाजनक बनाने में अधिक है। दूसरे, अंतर्राष्ट्रीय दाताओं को शिक्षा के लिए सहायता में गिरावट की प्रवृत्ति को उलट देना चाहिए। यहाँ तक ​​कि संसाधन जुटाने के लिए अधिक प्रयास किए जाने के बावजूद, सार्वभौमिक निम्न-माध्यमिक शिक्षा प्राप्त करने के लिए, सहायता के रूप में सालाना लगभग $22 बिलियन की ज़रूरत होगी। यह मौजूदा स्तरों से लगभग पाँच गुना है। सहायता की इस खाई को पाटने के अलावा, संयुक्त राष्ट्र के शिक्षा के विशेष दूत गोर्डन ब्राउन ने ठीक ही संघर्ष और मानवीय आपातस्थितियों से प्रभावित बच्चों को शिक्षा देने के लिए वित्त-पोषण तंत्रों का आह्वान किया है। तीसरे, दुनिया के नेताओं को असमानता के बारे में गंभीर हो जाना चाहिए। हर सरकार को स्पष्ट रूप से शिक्षा में असमानताओं - लिंग, धन, और ग्रामीण-शहरी विभाजन - को सीमित करने के लक्ष्य निर्धारित करने चाहिए और अपने बजटों को उन लक्ष्यों के अनुरूप बनाना चाहिए। आज की स्थिति के अनुसार, असमानताएँ बहुत ज़्यादा हैं। उदाहरण के लिए, नाइजीरिया में, सबसे धनी 20% परिवारों से शहरी लड़कों का स्कूली शिक्षा का औसत दस साल का है, जबकि उत्तरी क्षेत्रों में ग़रीब ग्रामीण लड़कियाँ दो साल से कम की उम्मीद कर सकती हैं। फिर भी, जैसा कि ओस्लो शिखर सम्मेलन के एक और पृष्ठभूमि लेख से पता चलता है, ज़्यादातर देशों में शिक्षा के वित्तपोषण का झुकाव अमीरों की ओर है। अंत में, सरकारों और सहायता एजेंसियों को बाज़ार-आधारित प्रयोगों को छोड़ देना चाहिए, और वास्तविक प्रणाली-आधारित सुधार के लिए प्रतिबद्ध होना चाहिए। शिक्षक प्राथमिकता का एक प्रमुख क्षेत्र हैं, जिन्हें वास्तविक ज्ञान देने के लिए भारी प्रोत्साहन, प्रभावी प्रशिक्षण, और भरोसेमंद समर्थन प्रणाली की ज़रूरत है। आखिरकार, शिक्षा प्रणाली उतनी ही अच्छी होगी जितने अच्छे उसके शिक्षक होंगे। दुनिया के नेता जब ओस्लो में इकट्ठे हो रहे होंगे, तो लाखों माता-पिता यह सुनिश्चित करने के लिए संघर्ष कर रहे होंगे क�� उनके बच्चे वह शिक्षा प्राप्त कर सकें जिसके वे हकदार हैं – ऐसी शिक्षा जो उन्हें खुद के और अपने परिवारों के लिए बेहतर जीवन का निर्माण करने में सक्षम करे। इन माता-पिता के लिए, स्कूली शिक्षा आशा का स्रोत है। हमारी उनके और उनके बच्चों के प्रति ज़िम्मेदारी है कि हम सर्वोत्तम प्रयास करें। भारत की आधिकारिक समलिंगीभीति पर काबू पाना नई दिल्ली - दुनिया के सबसे उदार संविधानों में से एक को अंगीकार करने के छियासठ साल बाद भारत अपनी दंड संहिता के औपनिवेशिक युग के एक प्रावधान, धारा 377 को लेकर ज्वलंत बहस में डूबा हुआ है जो "किसी पुरुष, स्त्री या जानवर के साथ स्वैच्छिक रूप से ऐंद्रिक संभोग करने वाले व्यक्ति का आपराधीकरण करती है।" हालांकि इसका व्यापक स्तर पर उपयोग नहीं किया गया है – पिछले साल धारा 377 के अंतर्गत 578 गिरफ़्तारियां हुई थीं – फिर भी यह कानून भारत में यौन अल्पसंख्यकों के उत्पीड़न, परेशानी और भय दोहन का साधन बना हुआ है। इसे अवश्य बदला जाना चाहिए। लाखों समलिंगी स्त्री-पुरुषों को भय और गोपनीयता में जीने के लिए विवश करने के अलावा, धारा 377 ने एचआईवी-निरोधक प्रयासों की जड़ें खोद दी हैं और अवसाद और आत्महत्याओं में योगदान किया है। विश्व बैंक के 2014 में कराए गए एक अध्ययन से पता चला है कि भारत को समलिंगीभीति के कारण सकल घरेलू उत्पाद में 0.1% से लेकर 1.7% तक की हानि हुई है। मुद्दा कामुकता का नहीं बल्कि स्वतंत्रता का है। भारतीय वयस्क परस्पर सहमति से अपने शयनकक्षों में जो करते हैं राज्य को उसे नियंत्रित करने का अधिकार देकर धारा 377 क्रमशः अनुच्छेद 14, 15 और 21 में दिए गए गरिमा, निजता, और समानता के संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन करती है। नोबल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन ने कहा था, “समलैंगिक आचरण का आपराधीकरण न सिर्फ़ मूलभूत मानवाधिकारों के प्रतिकूल है बल्कि उन मानव स्वतंत्रताओं में वृद्धि करने का भी कठोर विरोधी है जिसके अनुसार मानवीय सभ्यता की प्रगति मापी जा सकती है।” उदार दिल्ली उच्च न्याय���लय के 2009 में धारा 377 को रद्द करने के बाद की अवधि में, न तो आसमान टूटा; और न ही भारतीय समाज ध्वस्त हुआ। फिर भी, धर्मांधों ने उस फ़ैसले को पलटवाने के लिए याचिका दायर की और अंततः 2013 में उस समय समलिंगियों के अधिकारों की घड़ी की सुइयों को पीछे घुमाने में कामयाब हो गए जब उच्चतम न्यायालय ने दिल्ली उच्च न्यायालय के फ़ैसले को पलट दिया। बहुत से भारतीयों की तरह मुझे भी उच्चतम न्यायालय का 2013 का फ़ैसला सामासिकता, और लोकतंत्र के प्रति भारत की प्रतिबद्धता की दृष्टि से नैतिकता विरोधी लगा था, जिसमें यौन रुझान आधारित पहचान सहित, अनेक पहचानों को अपनाने का प्रावधान है। इसलिए, पिछले दिसंबर में मैंने ऐसा विधेयक लाने का प्रयास किया था जो धारा 377 में संशोधन कर देता और वयस्कों के बीच उनके लिंग और योनिकता से परे होने वाले परस्पर सहमति वाले सभी यौन संसर्गों का अनापराधीकरण कर देता। समलिंगीभीति से ग्रस्त सत्ताधारी भाजपा के वाचाल तबके ने इस विधेयक को लाने के विरोध में जमकर मतदान किया ताकि विधेयक के लाभों के बारे में व्यावहारिक चर्चा न हो सके। मार्च में जब मैंने दुबारा प्रयास किया तब भी वही हुआ। विधेयक में मेरी कथित व्यक्तिगत रुचि को लेकर मेरे बारे में उपहासजनक टिप्पणियां की गईं, जिसके जवाब में मैंने कहा कि पशुओं के अधिकारों की रक्षा के लिए व्यक्ति का गाय होना ज़रूरी नहीं है। भाजपा का मतदान कई स्तरों पर असंगत है, लेकिन सबसे अधिक स्पष्ट रूप से ब्रितानवी औपनिवेशिक कानून (ब्रितानवी खुद भी जिससे आगे निकल गए है) के पक्ष में भारतीय लोकाचार के हज़ारों साल पुराने आचरणों को नकारना सबसे अधिक बेतुका था। यौन विभेद के मामले में भारतीय लोकाचार ऐतिहासिक रूप से उदार रहा है, न तो पौराणिक कथाओं में और न ही इतिहास में यौनविपंथिता के उत्पीड़न या अभियोजन के कोई प्रमाण मिलते हैं। दरअसल, हिंदू महाकाव्य महाभारत के शिखंडी जैसे चरित्रों से भरे पड़े हैं जो स्त्री के रूप में पैदा हुआ था लेकिन बाद में पुरुष बना; बहुत से हिंदू अर्द्ध नर अर्द्धनारीश्वर की पूजा करते हैं; और भारत भर के मंदिरों में उत्कीर्ण मूर्तियों में समलिंगी कामक्रीड़ा का चित्रण हुआ हैं। इसके बावजूद, हिंदू राष्ट्रवादी पार्टी, भाजपा इस हिंदू परंपरा की अनदेखी करना पसंद करती है। 2013 के अपने फ़ैसले में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि धारा 377 के भाग्य का निर्णय जजों को नहीं, विधायकों को ही करना चाहिए। दुर्भाग्यवश, भाजपा के कुछ दर्जन वाचाल और अभिप्रेरित सदस्यों के पूर्वाग्रह के कारण संसद इस काम को पूरा करने में सक्षम नहीं है। दरअसल, जब तक भाजपा सत्ता में है धारा 377 के अन्याय का विधायी प्रतिकार उपलब्ध नहीं हो सकता। लेकिन अब भी भारत की न्याय प्रक्रिया के माध्यम से राहत की उम्मीद बाक़ी है। उच्चतम न्यायालय अब अपने 2013 के फ़ैसले की “रोगहर समीक्षा” करने के लिए सहमत हो गया है। इस तरह की समीक्षा के फलस्वरूप भारतीय दंड संहिता से धारा 377 निरस्त हो सकती है। हालाँकि मैं विधायी प्रक्रिया द्वारा धारा 377 में संशोधन कराने के अपने प्रयासों में असफल रहा, फिर भी मैं मानवाधिकारों, सरकार को हमारे शयनकक्षों से बाहर रखने और भारत की सामासिकता की रक्षा के प्रति कृतसंकल्प हूं। उच्चतम न्यायालय की समीक्षा की प्रतीक्षा के दौरान हम जनमत की अदालत में भारत के अल्पसंख्यकों के लिए न्याय की मांग करते रह सकते हैं और हमें करना भी चाहिए। इस काम के लिए मैंने प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी पार्टी को यह बताने के लिए एक ज्ञापन प्रसारित किया है कि जन भावनाएं उन्नीसवीं सदी से आगे बढ़ चुकी हैं। अब तक इस पर 65,000 लोग हस्ताक्षर कर चुके हैं जिससे बिलकुल स्पष्ट संदेश मिलता है। लेकिन, इस क्षेत्र में वास्तविक बदलाव की दृष्टि से मेरी उम्मीदें विधायिका की बजाय न्यायपालिका पर टिकी हैं। आख़िरकार जबकि विधायिका के ज़रिए बदलाव के लिए जिस राजनीतिक साहस की ज़रूरत है उसका भारत की मौजूदा सरकार में दुखद रूप से अभाव है – लेकिन न्यायपालिका इस तरह के मुद्दों से बाधित नहीं है। खुशख़बरी यह है कि भारत के उच्चतम न्यायालय का कानूनों की व्याख्या इस तरह से करने का रिकार्ड अनुकरणीय रहा है जिससे देश में मानवाधिकार का प्रसार होता है। रोगहर समीक्षा यह उम्मीद जगाती है कि वह एक बार फिर वैसा ही करेगा और ऐसे भारत का निर्माण करेगा जिसमें कानून सभी नागरिकों के लिए निजता, समानता, गरिमा, और भेदभाव हीनता के संवैधानिक मूल्यों को साकार करता है। अन्यथा – भारतीय कानून को हमारे कुछ लोगों के लिए लोहे का पिंजरा बनने देना प्रत्यक्ष रूप से पहचान और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की जड़ें खोद देगा जो भारतीय लोकतंत्र की रीढ़ है। इसके अलावा, यह भारत को शेष अंतर्राष्ट्रीय समुदाय के बड़े हिस्से से अलग कर देगा जो इसे दुनिया के दूसरे लोकतंत्रों के सामने शर्मिंदा देश के रूप में खड़ा कर देगा। यदि हमें अपने कानून निर्माताओं से नहीं, तो अपने उच्चतम न्यायालय से यह माँग अवश्य करनी चाहिए कि वह भारत की उस सामासिकता की पुष्टि करे जो हमारे देश के भीतर सभी पहचानों को समाहित करती है। बदलाव का समय तो कई बरस पहले ही आ गया था। लेकिन सही काम करने के लिए कभी भी बहुत विलंब नहीं होता। मैं उम्मीद करता हूँ कि उच्चतम न्यायालय सुन रहा है। व्यावहारिक जलवायु लक्ष्य की ओर बर्लिन - पिछले वर्ष दिसंबर में पेरिस में 195 सरकारों की इस बात पर आम सहमति बनी थी कि आने वाले दशकों में जलवायु परिवर्तन को किस प्रकार रोका जाए। लेकिन हमेशा की तरह अगर इसे संयुक्त राष्ट्र के नज़रिए से देखा जाए तो किया गया यह समझौता घोषित महत्वाकांक्षाओं की दृष्टि से बड़ा था, लेकिन अगर इसे प्रतिबद्धताओं पर ठोस कार्रवाई करने के नज़रिए से देखा जाए तो यह बहुत ही मामूली था। पेरिस जलवायु समझौते में यह प्रतिज्ञा शामिल है कि वार्मिंग को "पूर्व-औद्योगिक स्तरों से दो डिग्री सेल्सियस अधिक से काफी कम तक" रखा जाएगा। इसके अलावा, दुनिया के सबसे कमज़ोर देशों के अनुरोध पर, इसमें "तापमान वृद्धि को 1.5º तक सीमित रखने के लिए प्रयास करते रहने" की प्रतिज्ञा करने के शब्दों को जोड़ा गया। दिक्कत यह है कि ये आकांक्षाए��� समझौते में अपेक्षित प्रतिबद्धताओं के अनुरूप नहीं हैं। इसके बजाय, समझौते की उत्सर्जनों को स्वैच्छिक रूप से कम करने के प्रतिज्ञाओं की प्रणाली से वैश्विक उत्सर्जनों में 2030 तक वृद्धि होती रहेगी, जिसके फलस्वरूप 2100 तक वार्मिंग का स्तर 3-3.5º होने की संभावना है। यह नीति निर्माण में विसंगति के एक प्रमुख उदाहरण की तरह लगता है। सर्वप्रथम और सर्वोपरि समस्या समझौते में निर्धारित लक्ष्यों में दिखाई देती है। वार्मिंग को 1.5º या 2º तक सीमित रखने जैसे लक्ष्य नीति निर्माताओं और जनता का प्रभावी रूप से मार्गदर्शन नहीं कर सकते। ये लक्ष्य पूरी पृथ्वी की प्रणाली पर लागू होते हैं, न कि अलग-अलग संस्थाओं या सरकारों पर। स्पष्ट रूप से यह बताने में असफल रहकर कि अलग-अलग देशों को कौन से परिणाम देने हैं, इस प्रणाली से नेताओं को उत्सर्जनों को कम करने के लिए ऐसे लक्ष्यों का समर्थन करने का मौका मिलता है जो महत्वाकांक्षी लगते हैं, जबकि वे इन्हें कम करने के जो उपाय करते हैं वे वास्तव में नगण्य होते हैं। कोई भी वैज्ञानिक सूत्र यह नहीं बता सकता कि उत्सर्जनों को वैश्विक रूप से कम करने के भार को देशों के बीच किस तरह समान रूप से बाँटा जाए, जिससे प्रत्येक सरकार विश्वासपूर्वक यह घोषित करने में समर्थ हो सके कि उसकी नीतियाँ किसी निर्धारित तापमान लक्ष्य के अनुरूप हैं। इसका मूल्यांकन केवल वैश्विक स्तर पर ही किया जा सकता है कि इन लक्ष्यों को प्राप्त किया जा रहा है या नहीं, और इस तरह यदि कोई लक्ष्य प्राप्त नहीं हो पाता है तो किसी भी देश को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है। परिणामस्वरूप, संयुक्त राष्ट्र का प्रत्येक जलवायु शिखर सम्मेलन गंभीर चिंता के इन भावों के साथ संपन्न होता है कि कुल मिलाकर किए जा रहे प्रयास अपर्याप्त हैं। इसे बदलना होगा। परंपरागत दृष्टिकोण में बातचीत, निर्णयों, और कार्रवाइयों में और अधिक संगतता की अपेक्षा की जाती है। लेकिन नीति निर्माण में विसंगति अंतर्निहित होती है। राजनयिक और राजनेता बातचीत, निर्णयों और कार्रवाइयों को अलग-अलग मानते हैं, जिससे विविध हितधारकों की मांगों को पूरा किया जा सके और अपने संगठनों के लिए बाहरी समर्थन को अधिकतम किया जा सके। जलवायु नीति में, बातचीत और निर्णय करते समय अधिकतर सरकारें प्रगतिशील रुख को चुनती हैं, लेकिन जब कार्रवाई करने का समय आता है तो वे अधिक सतर्कतापूर्ण रुख अपनाती हैं। संयुक्त राष्ट्र के महत्वाकांक्षी जलवायु लक्ष्य पूर्व शर्त के रूप में नहीं, बल्कि कार्रवाई के लिए विकल्प के रूप में सिद्ध हुए हैं। यह जलवायु लक्ष्यों को पूरी तरह से छोड़ देने का कोई कारण नहीं है। जटिल दीर्घकालिक नीति निर्माण को केवल तभी सफलता मिलती है जब महत्वाकांक्षी लक्ष्य निर्धारित किए गए हों। लेकिन लक्ष्य अस्पष्ट महत्वाकांक्षी लक्ष्यों के रूप में नहीं हो सकते हैं; वे सटीक, मूल्यांकन किए जाने योग्य, प्राप्त किए जाने योग्य, और प्रेरित करने वाले होने चाहिए। स्वयं पेरिस समझौता भी एक संभव दृष्टिकोण पेश करता है। अस्पष्ट रूप से परिभाषित एक सूत्र में प्रच्छन्न रूप से उत्सर्जन कम करने का एक तीसरा लक्ष्य पेश किया गया है: इस सदी की दूसरी छमाही में शून्य उत्सर्जनों तक पहुँचना। शून्य उत्सर्जनों का लक्ष्य नीति निर्माताओं और जनता को सटीक रूप से यह बताता है कि क्या किया जाना चाहिए, और यह सीधे मानव गतिविधि पर ध्यान केंद्रित करता है। यह ज़रूरी है कि हर देश के उत्सर्जन शीर्ष तक पहुँचें, उनमें कमी हो, और अंत में वे शून्य तक पहुँचें। इससे न केवल राष्ट्रीय सरकारों, बल्कि शहरों, आर्थिक क्षेत्रों, कंपनियों, और यहाँ तक कि व्यक्तियों की कार्रवाइयों का मूल्यांकन करने के लिए भी एक पारदर्शी प्रणाली उपलब्ध होती है। इससे कर्तव्यविमुखता हतोत्साहित होगी क्योंकि इससे यह देखना - और उससे भी अधिक महत्वपूर्ण, जनता को यह समझाना - आसान होता है कि उत्सर्जनों में वृद्धि हो रही है या कमी। ऐसे लक्ष्य से जीवाश्म ईंधन आधारित सभी नए बुनियादी ढाँचे गहन जाँच के अंतर्गत आ जाएँगे; यदि हमें उत्सर्जनों को कम करने की जरूरत है, तो किसी नए कोयला संयंत्र या अत्यंत अनअवरोधी भवन का निर्माण क्यों किया जाए? शून्य उत्सर्जनों की साझी कल्पना होने पर लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए प्रतिस्पर्धा में सबसे पहले आगे निकलने की होड़ भी लग सकती है। स्वीडन वहाँ 2045 तक पहुँचना चाहता है। यूनाइटेड किंगडम ने घोषणा की है कि वह शून्य उत्सर्जनों के लक्ष्य तक शीघ्र ही पहुँचने का विचार कर रहा है। जर्मनी अपने अगले चुनावों के बाद इसका पालन कर सकता है। जलवायु स्थिरीकरण के लिए वैज्ञानिक सटीक सीमाओं, और नीति निर्माता शक्तिशाली प्रतीकों को पसंद करते हैं। यही कारण है कि वैश्विक जलवायु की बातचीत में तापमान लक्ष्य हावी रहते हैं। लेकिन इतिहास गवाह है कि इसके फलस्वरूप स्वतः कार्रवाई नहीं होने लगती है । उत्सर्जनों को शून्य तक कम करने के प्रयास की दृष्टि से तापमान की सीमाओं को बदल देने से जवाबदेही सुनिश्चित होगी और राजनीतिक विसंगति कम होगी। इस तरह के दृष्टिकोण का एक पूर्वोदाहरण उपलब्ध है। ओज़ोन परत की रक्षा करने के लिए मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल में मुख्य रूप से हानिकारक तत्वों पर विचार किया गया है, इसमें उन्हें क्रमशः समाप्त किए जाने के कार्य में तेजी लाने के कोशिश है, न कि ओज़ोन परत के स्थिरीकरण के किसी लक्ष्य को परिभाषोत करने की। वास्तविक दुनिया के उत्सर्जनों और वार्मिंग को स्वीकृत सीमाओं से कम रखने के लिए आवश्यक उत्सर्जनों के बीच का अंतराल तेजी से बढ़ता जा रहा है। संयुक्त राष्ट्र ने जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी पैनल को इस बारे में विस्तृत जाँच करने का कार्य सौंपा है कि पहले से ही निर्धारित की जा चुकी 1.5 डिग्री सेल्सियस की अव्यावहारिक सीमा को कैसे प्राप्त किया जाए। इसमें यह जोखिम निहित है कि दुनिया बढ़े-चढ़े लक्ष्यों के बारे में एक और बहस पर बहुमूल्य समय बर्बाद करेगी। हमारा तापमान लक्ष्य चाहे कुछ भी हो, वैश्विक उत्सर्जन शीघ्र ही शीर्ष तक पहुँचेंगे और उसके बाद वे कम होने लगेंगे और अंततः शून्य तक पहुँच जाएँगे। पेरिस जलवायु समझौते को केवल तभी सफल समझौते के रूप में याद किया जाएगा यदि हम अपना ध्यान बातचीत के बजाय प्रभावी कार्रवाई पर केंद्रित कर पाएँगे। अफ्रीकी स्वप्न किगाली - यह स्वप्न कि इक्कीसवीं सदी ‘अफ्रीकी सदी’ होगी अपने आप में शक्ति���ाली और मदहोशकारी कल्पना है. 4-6 अगस्त को जब अफ्रीकी अधिकारीगण पहले यूएस- अफ्रीका शिखर सम्मेलन में शिरकत करने के लिए वाशिंगटन, डीसी में एकत्र हो रहे हैं यह विचार करने योग्य है कि इस महाद्वीप की प्रगति का आधार और सीमाएं क्या हैं? अनेक अफ्रीकी क्षेत्रों में आपसी टकराव व गरीबी गंभीर समस्याएं हैं. लेकिन हमारा महाद्वीप आज पहले से कहीं अधिक न केवल स्थिर है बल्कि पूरी दुनिया में किसी भी क्षेत्र के मुकाबले सबसे ऊंची आर्थिक विकास दर दर्ज कर रहा है. पिछले एक दशक में पूरे अफ्रीका में लाखों लोग मध्यवर्ग में शामिल हुए हैं, हमारे शहर तेजी से फैल रहे हैं और हमारी आबादी समूची दुनिया में सबसे अधिक युवा है. लेकिन अफ्रीकी लोगों को यह नहीं मान लेना चाहिए कि उनका समय आ चुका है. शब्दों का कोई मोल नहीं होता और महाद्वीप के सकारात्मक संवेग के बावजूद हम इस बात से वाकिफ हैं कि इतिहास छिन्न-भिन्न हुए सपनों से भरा है, और ऐसा किसी और जगह के मुकाबले अफ्रीका में ज्यादा है. इसलिए अफ्रीका में हमारे पास करने के लिए बहुत कुछ है ताकि इस अवसर को पकड़ सकें. ज्यादा बड़े और ज्यादा एकीकृत उप-क्षेत्रीय बाजारों का निर्माण उन सर्वाधिक अनिवार्य कार्यों में से एक है जो हमारे सामने है. ये बाजार वैश्विक अर्थव्यवस्था के साथ गहराई से जुड़े होने चाहिए. आखिरकार, यूरोपीय संघ से लेकर दक्षिण एशियाई राष्ट्रों की एसोसिएशन (एसियान) और उत्तर अमेरिकी मुक्त व्यापार सहमति तक हमने देखा है कि किस प्रकार भौगोलिक क्षेत्रों ने व्यापार में बाधाओं को दूर करने, नियामक नियम-कानूनों को बदलने, श्रम बाजारों को मुक्त करने तथा सामान्य अवसंरचना के विकास जैसे उपायों के माध्यम से साझी वृद्धि और समृद्धि के लिए अनुकूल परिस्थितियों का निर्माण किया. अफ्रीका के अपने इस भाग में हम ठीक इसी दृष्टि को प्राप्त करने के लिए कार्य कर रहे हैं. यह कार्य नार्दर्न कॉरिडोर इंटिग्रेशन प्रोजेक्ट्स के बैनर तले किया जा रहा है. गत् 18 महीनों के दौरान केन्या, रवांडा, और युगांडा, दक्षिण सूडान और हाल ही में इथियोपिया ने मिलकर 14 संयुक्त परियोजनाएं आरंभ की हैं. ये परियोजनाएं पूर्वी अफ्रीका को एकीकृत करेंगी और हमारे क्षेत्र को बेहतर जगह बनाएंगी जहां व्यापार करना आसान होगा. इन प्रयासों के ठोस नतीजे मिलने लगे हैं. हमने एकल पर्यटन वीसा प्रणाली शुरू की है जो इन तीनों देशों में मान्य होगी. हमने एकल कस्टम्स क्षेत्र को भी स्थापित किया है, रेड-टेप का खात्मा किया है और गैर-शुल्कीय व्यापार बाधाओं को भी हटा दिया है. मोम्बासा से बरास्ता कम्पाला किगाली और जूबा तक स्टैंडर्ड गेज रेल लाइन को डिजाइन किया जा रहा है. इस रेल के पहले चरण का वित्तपोषण चीनी भागीदारों से प्राप्त किया गया है. इन कदमों को उठाने के लिए जरूरी था कि दशकों से चली आ रही अनुत्पादकीय प्रथाओं के विपरीत चला जाए. दुर्भाग्यवश, समूचे अफ्रीका में राष्ट्रीय सीमा रेखाएं दमघोटू बनी हुई हैं बजाए इसके कि वे महाद्वीप के भीतर व्यापार, सुरक्षा, तथा पर्यावरण-संबंधी मुद्दों पर आपसी सहयोग का रास्ता साफ करें. अकसर अफ्रीकी देश आपस में वस्तुओं का आदान-प्रदान और नीतिगत सहयोग कम करते हैं और महाद्वीप के बाहर के देशों के साथ ज्यादा. इसको बदलने के लिए हम दृढ़ संकल्प हैं. उदाहरणार्थ, नॉर्दर्न कॉरिडोर पहल के अंतर्गत हममें से हरेक सरकार ने प्रमुख परियोजनाओं को मिलकर आगे बढ़ाने का जिम्मा लिया है. युगांडा अपने नए तेल शोधन कारखाने के लिए निवेशकों की तलाश कर रहा है और सूचना व संचार प्रौद्योगिकी के लिए क्षेत्रीय ढांचे के विकास कार्य को आगे बढ़ा रहा है. इससे हमारे देशों में मोबाइल फोनों पर रोमिंग शुल्कों को खत्म किया जा सकेगा. केन्या को क्षेत्रीय वस्तु एक्सचेंज के विकास का, शिक्षा व सलाह सेवाओं के जरिए मानव संसाधन में सुधार तथा कच्चे व शोधित दोनों तरह की तेल पाइप लाइनों को बिछाने का कार्य सौंपा गया है. केन्या इस क्षेत्र पर केंद्रित ऊर्जा उत्पादन व पारेषण के विस्तार के उपायों की भी तलाश कर रहा है. रवांडा आप्रवासन कानूनों को सरल बनाने का कार्य कर रहा है जिससे नागरिकों व पर्यटकों दोनों के आवागमन की आजादी को बढ़ावा मिल सकेगा. सहयोग के इसके अन्य कर्तव्यों में क्षेत्रीय सुरक्षा (ईस्ट अफ्रीका स्टैंडबाई फोर्स के माध्यम से), समन्वित वायुक्षेत्र प्रबंधन तथा संयुक्त रूप से पर्यटन का विपणन शामिल हैं. हमें ज्ञात है कि हमारे क्षेत्र के नागरिकों को यह सफलता कैसी लगेगी. और हम यह भी जानते हैं कि क्या करना जरूरी है. राजनेताओं के लिए स्मारक बनाने अथवा शिखर वार्ताएं आयोजित करने मात्र से सफलता नहीं मिलने वाली. बल्कि व्यापार करने की लागतों को घटाने और हमारे नागरिकों की आय बढ़ाने से सफलता मिलेगी. नौकरशाही धीमी गति से कार्य करती है, क्योंकि संस्थागत रूप से इसकी मानसिकता ऐसी होती जो परिवर्तन को टाल दे. नार्दर्न कॉरिडोर इंटिग्रेशन प्रोजेक्ट्स का ढांचा इस तरह डिजाइन किया गया है कि यह उस राजनीतिक इच्छाशक्ति को पैदा करे और उसे चलाए रखे जो इस परियोजना को पूरा करने के लिए जरूरी है. संयुक्त राज्य अमेरिका सदा से हमारे देशों का महत्त्वपूर्ण भागीदार रहा है. लेकिन हमारी समस्याओं के समाधान का रास्ता अमेरिकी कर-दाताओं से मिले दान से नहीं निकलता है. अपने व्यापार क्षेत्र के साथ मिलकर केवल हम ही इस कार्य को कर सकते हैं. और जब हम ऐसा करते हैं तो हम अमेरिका के साथ कहीं अधिक गहरे व अधिक ‘सामान्य’ रिश्ते की ओर देखते हैं. हमारा ध्यान इस बात पर केंद्रित है कि हम अमरीकियों के साथ मिलकर क्या कर सकते हैं बजाए इसके कि अमेरिकी हमारे लिए क्या कर सकते हैं. ऊपर उठने के लिए जो कुछ जरूरी है वह सदा से अफ्रीका के पास है. साथ मिलकर हम इसे हकीकत में बदल सकते हैं. दवा अनुसंधान के लिए मेगाफ़ंड सिएटल – जिस समय कुछ चुनिंदा दवा कंपनियों की कीमत-वसूल करनेवाली प्रथाएँ सुर्खियों में छा रही हैं, इस कहानी के परेशान करने वाले एक पहलू पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है। जेनरिक दवाओं सहित मौजूदा दवाओं की कीमतों में होनेवाली अत्यधिक बढ़ोतरियाँ, बेहताशा मुनाफाखोरी से प्रेरित नहीं हैं, बल्कि नई दवाओं को विकसित करने की आर्थिक व्यवहार्यता के बारे में गहरे संदेह से भी प्रेरित हैं। यह संदेह जायज़ है। दवा के विकास के लिए वित्तपोषण के पारंपरिक मॉडल डगमगा रहे हैं। अमेरिका और कई अन्य विकसित देशों में, किसी नई दवा को बाजार में लाने की औसत लागत आसमान छू रही है, हालाँकि उद्योग की सबसे अधिक लाभदायक दवाओं में से कुछ के पेटेंट की अवधि समाप्त हो चुकी है। वेंचर कैपिटल ने प्रारंभिक चरण की जीवन विज्ञान कंपनियों से हाथ खींच लिए हैं, और बड़ी दवा कंपनियों ने देखा है कि अनुसंधान और विकास पर खर्च किए गए प्रति डॉलर की तुलना में बाज़ार में बहुत कम दवाएँ पहुँचती हैं। वास्तव में, औसत रूप से, प्रारंभिक चरण के अनुसंधान में संभावित रूप से उपयोगी के रूप में पहचान किए गए प्रत्येक 10,000 यौगिकों में से केवल एक को ही अंततः नियामकों से मंजूरी प्राप्त होगी। अनुमोदन प्रक्रिया में 15 वर्ष जितना लंबा समय लग सकता है और इसमें सावधानी को वरीयता दी जाती है। यहाँ तक कि जो दवाएँ मानव चिकित्सीय परीक्षणों के लिए अनुमोदित होती हैं, उनमें से पाँच में से केवल एक दवा ही अंतिम बाधा को पार कर पाती है। "धीमी गति की इन विफलताओं” की कीमत बहुत भारी हो सकती है। उदाहरण के लिए, फाइज़र ने कोलेस्ट्रॉल कम करने की अपनी दवा, टॉर्सेट्रापिब पर कथित तौर पर $800 मिलियन की राशि, 2006 में तृतीय चरण के चिकित्सीय परीक्षण से इसे वापस लेने से पहले खर्च की थी। अधिकतर निवेशकों के लिए यह एक अनाकर्षक संभावना है। चूँकि किसी एक यौगिक का, या यहाँ तक कि किसी कंपनी विशेष का समर्थन करने का खतरा इतना अधिक होता है कि निवेश पूंजी के विशाल भंडार, दवा के विकासकर्ताओं के लिए पहुँच से बाहर रहते हैं। इन दबावों से प्रेरित होकर, वित्त विशेषज्ञों ने वित्तपोषण के लिए ऐसे कई विकल्प प्रस्तावित किए हैं जो बायोफार्मा निवेशों के जोखिम को कम करने के साथ किए जाने वाले अनुसंधान एवं विकास की कार्यकुशलता और उत्पादकता में सुधार भी करते हैं। हालाँकि उद्योग में लगे लोग, इस पर कार्रवाई करने में ढीलापन दिखा सकते हैं, अगली पीढ़ी के बायोफार्मा केंद्रों का निर्माण करनेवाले विकासशील देशों के पास वैकल्पिक मॉडलों को अपनाकर उनका लाभ उठाने का अनूठा अवसर है। इनमें से अधिकतर मॉडल निवेशों को जोखिमरहित बनाने की सामान्य रणनीति: विशाखीकृत पोर्टफोलियो तैयार करने पर बने हैं। दो दशक पहले, रॉयल्टी फार्मा नामक एक कंपनी ने बहुविध दवा रॉयल्टी प्रवाहों में स्वामित्व के हितों वाली एक निधि का निर्माण करके, विशाखीकृत मॉडल आरंभ किया था। रॉयल्टी फार्मा ने भारी संभावनाओं वाली अनुमोदित दवाओं पर ध्यान केंद्रित किया जिनसे शेयर बाजार में बहुत अधिक उतार-चढ़ाव की अवधियों के दौरान भी स्थिर आय प्रवाह और प्रभावशाली इक्विटी लाभ प्राप्त होते हैं। लेकिन रॉयल्टी फार्मा का मॉडल सरकारी अनुदानों द्वारा समर्थित बुनियादी अनुसंधान और नैदानिक परीक्षणों में दवाओं के अंतिम चरण के विकास के बीच धन की खाई को नहीं पाट सकेंगे। चूँकि इस अनुसंधान एवं विकास की "मौत की घाटी" में संबंधित दवाएँ उन चीज़ों की अपेक्षा अधिक जोखिमपूर्ण हैं जिनमें रॉयल्टी फार्मा निवेश करती है, सामान्य निवेशकों को जोखिम के जो स्तर और लाभ की दरें स्वीकार्य होती हैं उन्हें प्राप्त करने के लिए यौगिकों के उससे भी बड़े पोर्टफोलियो की जरूरत होगी। इस पोर्टफोलियो को कितना अधिक बड़ा होना होगा? हम में से एक व्यक्ति (लो) ने प्रारंभिक और बीच के चरण वाली कैंसर की दवाओं के लिए विशाखीकृत निधियों के आभासी अनुमान लगाए हैं, जिनसे यह पता चलता है कि $5-30 बिलियन के तथाकथित मेगाफ़ंड से, जिसमें 100-200 यौगिकों का समावेश हो, निवेश को पर्याप्त रूप से जोखिमरहित किया जा सकता है और उससे 9-11% के बीच लाभ भी अर्जित किए जा सकते हैं। यह उद्यम पूंजीपतियों और निजी इक्विटी निवेशकों के लिए कोई आकर्षक क्षेत्र नहीं है, लेकिन यह पेंशन फंड, धर्मादा निधियों, और सरकारी धन निधियों जैसे संस्थागत निवेशकों की उम्मीदों के अनुरूप है। इसके अलावा, विविधीकरण से जोखिम में कमी होने से मेगाफ़ंड ऋण और इक्विटी भी बड़ी मात्राओं में जारी कर सकते हैं जिससे संभावित निवेशकों का समूह और भी अधिक व्यापक हो जाएगा। इन आँकड़ों को संदर्भ से जोड़ने के लिए, इस पर विचार करें कि यूएस नैशनल इंस्टीट्यूट ऑफ़ हैल्थ बुनियादी चिकित्सा अनुसंधान के क्षेत्र में प्रतिवर्ष $30 बिलियन से कुछ अधिक की निधि लगाती है, और फ़ार्मास्युटिकल रिसर्च एंड मैन्युफ़ैक्चरर्स ऑफ़ अमेरिका के सदस्यों ने अनुसंधान एवं विकास पर पिछले वर्ष लगभग $51 बिलियन की राशि खर्च की थी। मेगाफ़ंड दृष्टिकोण से इन दोनों निवेशों के बीच धन की खाई को पाट देने पर दोनों निवेशों को और अधिक उत्पादक बनाने में मदद मिलेगी। इसके अलावा, यह मॉडल छोटे पैमाने पर काम कर सकता है। और अधिक किए गए आभासी अनुमान यह दर्शाते हैं कि ऐसे रोगों के लिए चिकित्सा जैसे कुछ दवा वर्गों में विशेषज्ञता वाली निधियों के मामले में पोर्टफोलियो में सिर्फ $250-500 मिलियन डॉलर और अपेक्षाकृत कम यौगिकों के होने पर लाभ की दर दो अंकों में प्राप्त की जा सकती है। बेशक, इस दृष्टिकोण में चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। संबंधित यौगिकों के बड़े समूह और साथ ही किए जानेवाले दर्जनों दवा परीक्षणों का प्रबंध करना आसान नहीं होगा। सिमुलेशन से पता चलता है कि मेगाफ़ंड सभी चिकित्सीय क्षेत्रों में, सभी वर्गों की दवाओं के लिए काम नहीं करेंगे। उदाहरण के लिए, अल्ज़ाइमरों के उपचारों के विकास में मेगाफ़ंड मॉडल से लाभ होने की संभावना नहीं है। लेकिन मेगाफ़ंड जहां काम करते हैं, वे दवा के विकास को काफी अधिक कुशल, और इसलिए कम महंगा भी बना सकते हैं। जीनोमिक्स क्रांति के बाद से कोई भी कंपनी पैमाने या वित्त की दृष्टि से, विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में हुई सभी प्रगतियों का अकेले उपयोग करने में सक्षम नहीं है, लेकिन किसी मेगाफ़ंड-समर्थित प्रयास से यह हो सकता है। इस निधि द्वारा नियोजित शोधकर्ताओं द्वारा अलग-अलग परियोजनाओं में व्याप्त ज्ञान, सुविधाओं, और अत्याधुनिक उपस्कर, डेटा, और कंप्यूटिंग संसाधनों को साझा किया जा सकता है। विफलताएँ तेजी से और बहुत सस्ती होंगी क्योंकि हितधारक किसी एक परियोजना पर कम निर्भर होंगे। उभरते बाजार वाले देशों को यह ध्यान रखना चाहिए। अधिकांश दवा और जैव प्रौद्योगिकी उद्योगों का पीछा कर रहे हैं। चीन ने सैकड़ों जीवन-विज्ञान अनुसंधान पार्कों की स्थापना की है और दवाओं के विकास के लिए राष्ट्रीय निधि में अरबों डॉलर के लिए प्रतिबद्धता की है; इसी तरह के कार्यक्रम भारत, सिंगापुर और दक्षिण कोरिया में शुरू हो रहे हैं। इन देशों के लिए, जैव-प्रौद्योगिकी शुरू करने या बड़ी दवा कंपनियों को प्रोत्साहन देने की पेशकश करने की तुलना में, सैकड़ों की संख्या में यौगिकों का परीक्षण करने के लिए किसी मेगाफ़ंड की स्थापना करना कहीं अधिक बेहतर होगा। बायोफार्मा मेगाफ़ंड से उद्योग में प्रतिस्पर्धात्मक लाभ मिलेगा, जिससे विकास की लागतें कम होंगी, सफलता दर अधिक होगी, और बाजार तक शीघ्र पहुँच होगी। क्षेत्रीय अर्थव्यवस्थाओं को अधिक वेतन वाली अनुसंधान नौकरियों, उद्यमियों, निवेशकों, और सेवा प्रदाताओं के उन्हीं नेटवर्कों से लाभ प्राप्त होगा जो परंपरागत जीवन विज्ञान के नवाचार केंद्रों द्वारा तैयार किए जाएँगे। लंदन के महापौर ने हाल ही में दवा के विकास में अग्रणी की भूमिका को बनाए रखने के लिए यूनाइटेड किंगडम की मदद करने के लिए $15 बिलियन के मेगाफ़ंड का प्रस्ताव करके इसी दृष्टिकोण को अपनाया। प्रत्यक्ष निवेश के अलावा, सरकारें इस प्रकार की निधियों का निर्माण करने के लिए प्रोत्साहन भी दे सकती हैं - उदाहरण के लिए, बायोफार्मा अनुसंधान के लिए जारी बांडों के लिए गारंटी देकर। किसी दवा को प्रयोगशाला से रोगी के बिस्तर तक पहुँचाने के लिए लंबे समय तक धनराशियों के भारी निवेश की आवश्यकता होती है। इस निधि निवेश का लाभ समाज और निवेशकों दोनों को मिलना चाहिए। उभरते देश दवा के विकास का वित्तपोषण करने के नए तरीके शुरू करके अग्रणी बनकर दुनिया के लिए बेहतर स्वास्थ्य और अधिक धन-दौलत का मार्ग प्रशस्त कर सकते हैं। महासंक्रमणों का दमन करना लंदन - वर्तमान एंटीबायोटिक दवाएँ, न केवल निमोनिया और मूत्र पथ संक्रमणों जैसी आम बीमारियों से लड़ने में, बल्कि तपेदिक और मलेरिया जैसे कई प्रकार के संक्रमणों का इलाज करने में भी अधिकाधिक निष्प्रभावी होती जा रही हैं, जो अब फिर से लाइलाज होने का जोखिम पैदा कर रहे हैं। जी-7 के नेताओं द्वारा "रोगाणुरोधी प्रतिरोध" (AMR) से निपटने के लिए प्रतिबद्ध होने के हाल ही के संयुक्त प्रस्ताव के साथ, अब अधिक समावेशी जी-20 - और चीन के लिए, जो पहली बार इस समूह की अध्यक्षता कर रहा है - इस लड़ाई को अगले स्तर तक ले जाने की बारी है। AMR पर कार्रवाई करने में विफलता का असर सब पर पड़ेगा, चाहे उनकी राष्ट्रीयता या उनके देश के विकास का स्तर कुछ भी हो। निश्चित रूप से, 2050 तक AMR के फलस्वरूप दस मिलियन लोगों की मृत्यु होने की संभावना है, जबकि आज यह संख्या लगभग 7,00,000 है, जिनमें से चीन और भारत प्रत्येक में लगभग एक मिलियन पीड़ित लोग होंगे। उस बिंदु पर, वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद में हम पहले ही अनुमानित रूप से $100 ट्रिलियन डॉलर खो चुके होंगे। तथापि, शेष अंतर्राष्ट्रीय समुदाय की भागीदारी के बिना जी-7 की कोई भी रणनीति सफल नहीं हो सकती, चाहे वह कितनी भी अच्छी तरह क्यों न तैयार की जाए। आखिरकार, अगर संक्रमण उन लोगों के साथ यात्रा करते हैं जिनमें वह होता है, तो प्रतिरोध भी ऐसा ही करता है, जिसका मतलब यह है कि AMR का एकमात्र समाधान साझेदारी है। यही कारण है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन के सदस्य "AMR पर वैश्विक कार्रवाई योजना" को लागू करने के लिए सहमत हो गए हैं, और उन्होंने संयुक्त राष्ट्र से 2016 में राजनीतिक नेताओं की उच्च-स्तरीय बैठक बुलाने का आह्वान किया है। इस प्रयास में, अपनी बढ़ती आबादियों, बढ़ती हुई दौलत, और बढ़ते हुए अंतर्राष्ट्रीय प्रभाव के साथ – उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं को ख़ास तौर से महत्वपूर्ण भूमिका निभानी होगी, और चीन को इसका नेतृत्व करना होगा। हमने रोगाणुरोधी प्रतिरोध की समीक्षा में (जिसका मैं अध्यक्ष हूँ) पहले ही चीन के लिए ऐसी भूमिका की सिफारिश की है, जिसमें में कुछ चीनी नीति-निर्माताओं के साथ विचार-विमर्श करने की बात कही गई है। अब और 2016 के बीच, चीन के लिए कार्रवाई करने के लिए मंच बन जाना चाहिए। जी-7 के देशों द्वारा अपनी संयुक्त घोषणा में किए गए वायदे को पूरा करने के लिए ठोस कदम उठाने के लिए इस प्रयास को आगे बढ़ाना चाहिए। इस तरह की एक प्रतिबद्धता पशु-पालन में एंटीबायोटिक दवाओं का इस्तेमाल कम करना है। कुछ यूरोपीय सरकारों ने पहले ही इस प्रथा को विनियमित करने में महत्वपूर्ण प्रगति कर ली है। संयुक्त राज्य अमेरिका ने धीमी कार्रवाई की है, लेकिन हाल ही में उसने कुछ महत्वपूर्ण नीतिगत कदम उठाए हैं। लेकिन पशुओं के पालन-पोषण करने के तरीके को बदलने का सबसे अच्छा रास्ता शायद प्रमुख खाद्य कंपनियों पर दबाव डालना होगा – यह एक ऐसा काम है जिसे उपभोक्ता सबसे अधिक प्रभावी ढंग से कर सकते हैं। निश्चित रूप से, एंटीबायोटिक-रहित मांस सहित, स्वस्थ खाद्य पदार्थों के लिए बढ़ती हुई मांग ने पहले ही मैकडॉनल्ड्स, कॉस्टको, और केएफ़सी जैसी खाद्य उद्योग की प्रमुख कंपनियों को एंटीबायोटिक से लदे मांस को क्रमशः समाप्त करने के अपने इरादे की घोषणा करने के लिए मजबूर कर दिया है। सरकारों को प्रमुख सामाजिक मीडिया अभियान लागू करके इस प्रवृत्ति का लाभ उठाना चाहिए, जिसमें ऐसी चुस्त, निरोगी आदतों को उजागर किया जाए जिन्हें सभी लोगों को अपनाना चाहिए - इन आदतें से परोक्ष रूप से एंटीमाइक्रोबियल्स के लिए मांग कम होगी। ऐसे अभियान की कम लागत और संभावित रूप से मिलनेवाला उच्च लाभ इसे और भी ज़्यादा आकर्षक बना देता है। संयुक्त घोषणा में शामिल दूसरी प्रतिबद्धता - यह सुनिश्चित करने में मदद करना कि दवाओं का इस्तेमाल केवल तभी किया जाए जब उनकी ज़रूरत हो – स्वाभाविक लग सकती है, लेकिन वास्तव में यह AMR को संचालित करने वाली प्रमुख समस्या का प्रतिनिधित्व करती है। जैसी कि प्रस्ताव में माना गया है, इस समस्या पर कार्रवाई करने के लिए त्वरित देखभाल बिंदु नैदानिक उपायों का विकास करना और उस तक पहुँच में सुधार करना महत्वपूर्ण है। बेहतर नैदानिक प्रौद्योगिकियाँ निस्संदेह विश्व की शीर्ष प्रौद्योगिकी फर्मों की पहुँच में हैं। लेकिन वे केवल तभी निवेश करेंगी जब उन्हें विश्वास होगा कि स्वास्थ्य प्रणालियाँ उनके नवाचारों का इस्तेमाल करेंगी। उदाहरण के लिए, अगर सरकारें इस बात को अनिवार्य बना देती हैं कि एंटीबायोटिक दवाएँ निर्धारित करने से पहले, ख़ास नैदानिक परीक्षण किए जाने चाहिए, तो कंपनियों को आवश्यक प्रोत्साहन मिलेगा। ऐसी आवश्यकता को आलोचना का सामना करना पड़ेगा, और कुछ लोग दावा करेंगे कि परीक्षण में लंबा समय लगता है, और इसलिए यह इलाज शुरू करने से पहले हमेशा संभव नहीं होगा। हालाँकि विरल मामलों में यह सच हो सकता है, लेकिन ऐसे कई क्षेत्र हैं जहाँ तीव्र और प्रभावी परीक्षण मौजूद हैं, लेकिन अभी तक – विकासशील देशों या विकसित देशों में - उनका व्यापक रूप से इस्तेमाल नहीं होता है। सबसे आम संक्रमणों में से एक पर विचार करें: गले में ख़राश। हालांकि वे अकसर जीवाणु के बजाय, वायरल होते हैं, लेकिन उनका इलाज अकसर एंटीबायोटिक दवाओं से किया जाता है - यह ऐसा उपाय है जो न केवल निष्प्रभावी है, बल्कि यह AMR को भी बढ़ावा देता है। फाहे का त्वरित और आसान परीक्षण इस समस्या को हल कर सकता है और वास्तव में ऐसा एक परीक्षण पहले ही मौजूद है। ब्रिटिश फ़ार्मेसी शृंखला द्वारा किए गए एक परीक्षण में (उसने खुद स्वीकार किया कि इसमें छोटे नमूने का इस्तेमाल किया गया था), परीक्षण के कारण एंटीबायोटिक्स की खपत में लगभग 60% की कमी हुई। इस प्रौद्योगिकी के विकास और नियोजन में निवेश करके गले में खराश के लिए गैर-ज़रूरी एंटीबायोटिक इलाज में काफ़ी कमी लाई जा सकती है, और साथ ही इससे स्वास्थ्य प्रणालियों पर दबाव कम होगा और डॉक्टरों का समय बचेगा। समीक्षा द्वारा अनुशंसित और जी-7 द्वारा मान्यता प्राप्त तीसरी अनिवार्य बात है, दवा प्रतिरोधी संक्रमण के प्रसार की बेहतर निगरानी, ख़ास तौर से विकासशील देशों में, जहाँ इस तरह के आंकड़े सबसे विरल हैं। इस मोर्चे पर, हमारी खुद की सरकार रास्ता दिखा रही है, जहाँ चांसलर जॉर्ज ओसबोर्न ने मार्च में AMR के खिलाफ लड़ाई के लिए उभरते हुए देशों की मदद करने के लिए £195 मिलियन ($307 मिलियन) आबंटित करने का वचन दिया है। ऐसी संभावना है कि फ़ाउंडेशनों द्वारा इस पहल के लिए अपना खुद का धन लगाने की वचनबद्धता की जाएगी। इस बीच, यूएस सरकार बायोमेडिकल उन्नत अनुसंधान और विकास प्राधिकरण के जरिए नई दवाओं के विकास के समर्थन पर ध्यान केंद्रित कर रही है। दुनिया कई चुनौतियों और संकटों का सामना कर रही है, और वस्तुतः इन सब समाधानों के लिए ठोस राजनीतिक प्रतिबद्धता और महत्वपूर्ण निवेश की आवश्यकता होगी। लेकिन तथ्य यह है कि जब AMR की बात आती है, तो सरकारों के पास इस प्रमुख संकट का हल उसके बढ़ जाने के समय आनेवाली लागत की तुलना में एक छोटे से अंश के द्वारा करने का दुर्लभ अवसर उपलब्ध होता है। उदाहरण के लिए, पश्चिम अफ़्रीक़ा में हाल ही में इबोला के प्रकोप पर कार्रवाई करने की जद्दोजहद में, अकेले यूएस को सार्वजनिक धन में $5.4 बिलियन का योगदान करना पड़ा। अगर इसमें स्वास्थ्य प्रणालियों की और यहाँ तक कि नियोक्ताओं की बचतों को जोड़ लिया जाए, तो AMR का मुकाबला कर���े के लिए ठोस कार्रवाई करना और भी किफ़ायती हो जाता है। यही कारण है कि जी-7 सरकारों को AMR पर कार्रवाई करने की अपनी कोशिशें तेज़ करनी चाहिए। और इसी कारण चीन और अन्य उभरती अर्थव्यवस्थाओं को इस लड़ाई में शामिल होना चाहिए। साथ मिलकर, हम अपनी दवाओं की उपचारात्मक शक्तियों की रक्षा कर सकते हैं। वनों का फ्रांसिस वाशिंगटन, डीसी – पोप फ्रांसिस ने जब जुलाई में लैटिन अमेरिका का दौरा किया, तो उन्होंने अमेज़न वर्षा वन और वहां रहनेवाले लोगों की सुरक्षा के लिए एक जोशपूर्ण दलील दी। उन्होंने बोलीविया में लोकप्रिय आंदोलनों पर वैश्विक बैठक में शामिल कार्यकर्ताओं से कहा कि “हमारी साझा आवास लूटा जा रहा है, उसमें गंदगी फैलाई जा रही है और बेखौफ़ होकर इसे क्षति पहुंचाई जा रही है। इसकी रक्षा करने में कायरता एक गंभीर पाप है।” फ्रांसिस द्वारा कार्रवाई के लिए किए गए आह्वान पर ध्यान देना केवल नैतिक मुद्दा ही नहीं है; बल्कि यह एक व्यावहारिक मुद्दा भी है। इस वर्ष के अंत में जब दुनिया के नेता ग्लोबल वार्मिंग की चुनौतियों पर प्रतिक्रिया तैयार करने के लिए पेरिस में संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में मिलेंगे, तो उन्हें उष्णकटिबंधीय वनों और वनों को अपना घर बनाने वाले लोगों की रक्षा करने के लिए नीतियां निर्धारित करनी चाहिए। फ्रांसिस शायद अमेज़न का दौरा करने वाले पहले मिशनरी नहीं हैं। सेंट फ्रांसिस, जेसुइट, और डोमिनिकन पादरी सदियों से इस क्षेत्र में इसका प्रचार-प्रसार करते आ रहे हैं। फ्रांसिस की अपील इस दृष्टि से अलग है कि उनके कथन स्थानीय आबादी पर इतने अधिक लक्षित नहीं थे, जितने कि वे उत्तरी अमेरिका और यूरोप के निवासियों पर लक्षित थे जिनमें लकड़ी, जैव ईंधनों, और कृषि उत्पादों के लिए मांग के फलस्वरूप वर्षावनों का विनाश होता है और स्वदेशी आबादियों के जीवन संकट में पड़ जाते हैं। अमेज़न के समुदायों को वर्षावनों की कटाई करने के लिए दिए गए आर्थिक प्रोत्साहनों से गंभीर रूप से नुकसान उठाना पड़ा है। दुनिया भर में, स्वदेशी लोगों को धमकियां दी जा रही हैं, उनकी हत्या की जा रही है, और उन्हें उनके अपने निवास स्थानों से हटाया जा रहा है। 2014 में मारे गए 116 पर्यावरणीय कार्यकर्ताओं में से 40% स्वदेशी नेता थे। उदाहरण के लिए, सितंबर 2014 में पेरू में एडविन छोटा और अशानिंका समुदायों के तीन अन्य नेताओं की बेरहमी से हत्या कर दी गई थी, जो संभवतः अवैध रूप से वन कटाई करने वालों द्वारा की गई थी। दो महीने बाद, इक्वाडोर में शुआर लोगों के नेता जोस इसिदरो टेंडेटज़ा अंटून की तब निर्मम रूप से हत्या कर दी गई थी जब वे एक ऐसी खनन परियोजना के खिलाफ विरोध प्रदर्शन करने के लिए जा रहे थे जिसके कारण उनके लोगों की मातृभूमि को खतरा था। वनों की कटाई मानव अधिकारों पर हमला होने के अलावा स्वदेशी संस्कृतियों पर आक्रमण भी है जो जलवायु परिवर्तन के खिलाफ लड़ाई के लिए एक गंभीर खतरा है। वन आच्छादन और ग्लोबल वार्मिंग के नुकसान के बीच संबंधों को अच्छी तरह से प्रलेखित किया गया है। 1111/gcb.12865/abstract"वैश्विक उत्सर्जनों में वनों की कटाई और उनके जलने के फलस्वरूप होनेवाले कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जनों का अंश लगभग 10% है। इस बीच, वनों में रहनेवाले लोगों ने यह दिखा दिया है कि वे अक्सर पेड़ों के सबसे अच्छे रक्षक होते हैं क्योंकि उन पर उनकी आजीविका निर्भर होती है। जिन वनों में स्वदेशी लोग रहते हैं उनमें अक्सर अधिक कार्बन धारित होता है बजाय उन वनों के जिनका प्रबंध सार्वजनिक या निजी रूप से किन्हीं अन्य मालिकों द्वारा किया जाता है। दरअसल, ब्राजील के अमेज़न में स्वदेशी भंडारों ने 134956.full"वनों की कटाई की दरों को कम करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है - परंतु बहुत अधिक कीमत पर। पिछले 12 वर्षों में, किसी भी अन्य देश की तुलना में ब्राजील में बहुत अधिक कार्यकर्ता और स्वदेशी नेता मारे गए हैं। इस वर्ष बाद में, पेरिस में होनेवाली कार्यवाहियों के दौरान, देशों से यह अपेक्षा की जाएगी कि वे राष्ट्रीय योजनाएँ पेश करें - जिन्हें आशयित राष्ट्रीय निर्धारित योगदानों (INDC) के रूप में जाना जाता है - जिनमें वे कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जनों को कम करने के लिए किए जानेवाले विशेष उपायों की रूपरेखा प्रस्तुत करेंगे। यदि फ्रांसिस की अपील का सम्मान किया जाना है, तो इन उपायों में स्वदेशी लोगों को अपनी भूमि पर अधिकार प्राप्त करने और उनके वनों की विनाश से रक्षा करने के लिए उन्हें सशक्त करने में मदद करने की प्रतिबद्धताओं को शामिल किया जाना चाहिए। अब तक, दुनिया के केवल एक-चौथाई से थोड़े से अधिक देशों ने समीक्षा के लिए प्रारंभिक आशयित राष्ट्रीय निर्धारित योगदान (INDC) प्रस्तुत किए हैं। दुर्भाग्य से, उष्णकटिबंधीय वनों वाले केवल कुछ देशों ने ही अपनी योजनाएं प्रस्तुत की हैं, और अमेज़न देशों में से तो किसी ने भी ऐसा नहीं किया है। इसके विपरीत, मेक्सिको, एक अच्छा उदाहरण स्थापित कर रहा है। सरकार ने वर्ष 2030 तक वनों की कटाई को शून्य करने की प्रतिबद्धताओं और देश के जलनिस्तारण क्षेत्रों में वन पारिस्थितिकी प्रणालियों को बहाल करने सहित कई महत्वाकांक्षी लक्ष्य निर्धारित करने के लिए अपने आशयित राष्ट्रीय निर्धारित योगदानों (INDC) का उपयोग किया है। और फिर भी, हालांकि मेक्सिको में स्वदेशी लोगों और स्थानीय समुदायों के लिए भूमि और संपत्ति के अपेक्षाकृत अधिक मजबूत औपचारिक अधिकार हैं, उन अधिकारों को अभी तक अन्य नियमों के साथ एकीकृत किया जाना बाकी है जो किसी भी तरह के आर्थिक विकास में रुकावट डालनेवाले हों। संयुक्त राज्य अमेरिका और यूरोपीय संघ के सदस्यों जैसे औद्योगीकृत देशों पर वनों की कटाई की समस्या का समाधान उपलब्ध कराने की विशेष जिम्मेदारी है। वन समुदायों को अपने संसाधनों का प्रबंध करने और अपनी आजीविकाओं का निर्वाह करने के लिए सहायता अवश्य प्रदान की जानी चाहिए। विकासशील देशों को कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जनों को कम करने और जलवायु परिवर्तन के अनुकूल ढालने के लिए, संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा स्थापित हरित जलवायु निधि में विशेष रूप से स्वदेशी लोगों के लिए इस प्रकार के प्रावधानों को शामिल किया जाना चाहिए जिस प्रकार के प्रावधान जलवायु निवेश निधि के समर्पित अनुदान तंत्र में शामिल हैं। फ्रांसिस की आगामी यात्राओं में वाशिंगटन, डीसी और पेरिस के दौरे शामिल होंगे जहाँ संभवतः वे पर्यावरण के पक्ष में अपना पक्षसमर्थन जारी रखेंगे। हमारे नेताओं का यह कर्तव्य है कि वे उनके आह्वान को स्वीकार करें और प्रार्थनाओं को नीति का रूप दें। समावेशी अनिवार्यता वाशिंगटन, डी सी – सन् 2000 में शुरू किए गए सहस्त्राब्दि विकास लक्ष्यों को हासिल करने की दिशा में अत्यधिक प्रगति हुई है. किन्तु, दुर्भाग्यवश अनेक देश इन लक्ष्यों को पूरा करने से कोसों दूर हैं. और उन देशों में भी जहां काफी प्रगति की गई है, कुछ समूह, यथा मूल निवासी, झुग्गी बस्तियों या दूर-दराज इलाकों के निवासी, धार्मिक व लैंगिक अल्पसंख्यक समुदाय तथा विकलांगता से ग्रस्त लोग, निरंतर इस प्रगति के दायरे से बाहर ही रहे हैं. जैसाकि विश्‍व बैंक की हालिया रिपोर्ट में बल दिया गया है, यह समझना कि क्यों ऐसा हुआ, भविष्य के विकास प्रयासों को अधिक प्रभावी और समावेशी बनाने के लिए अहम है. सामाजिक व आर्थिक कटाव केवल नैतिक समस्या नहीं है; यह अत्यंत महंगा साबित होता है. 2010 की विश्‍व बैंक रिपोर्ट बताती है कि यूरोप में शै‌क्षणिक एवं आर्थिक प्रणालियों में से रोमा को बाहर रखने से सर्बिया में कम से कम 1720 लाख डॉलर का, चेक गणराज्य में 2730 लाख डॉलर का और रोमानिया में 6600 लाख डॉलर (अप्रैल 2010 की विनिमय दरों के आधार पर) की उत्पादकता का अनुमानित सालाना नुकसान हुआ. ये नुकसान विलगाव के दूरगामी परिणामों को प्रतिबिंबित करते हैं. विश्‍व स्वास्‍थ्य संगठन और विश्‍व बैंक ने पता लगाया है कि विकलांगता से पीड़ित बच्‍चों की विद्यालयों में दाखिला लेने की संभावना सामान्य बच्‍चों के मुकाबले कम होती है और विद्यालय में उनके रुकने की दर भी कम होती है. इंडोनेशिया में विकलांग और सामान्य बच्‍चों के बीच प्राथमिक विद्यालय में दाखिला लेने की दर में 60% का बड़ा अंतर है. उच्‍चतर माध्यमिक विद्यालय में यह अंतर मामुली रूप से कम हो कर 58% रह जाता है. इस तरह कटे रहने और अलग-थलग पड़ने की भावना अकसर सामाजिक तानेबाने को कमजोर करती है और अशांति व टकराव का कारण भी बन सकती है. अतः जिस विकास एजेंडा पर काम हो रहा है और जो सहस्त्राब्दि विकास लक्ष्यों की जगह लेगा, समावेशीकरण के अनिवार्य महत्त्व के बारे में अधिक जागरूकता को प्रतिबिंबित करता है. 2015 के बाद अपनाए जाने वाले एजेंडा पर अपनी रिपोर्ट में प्रमुख हस्तियों के उच्‍चस्तरीय पैनल ने समावेशीकरण पर जोर दिया है और कहा है कि, “कोई भी व्यक्‍ति – भले ही वह किसी नस्ल, लिंग का हो, किसी भी भौगोलिक क्षेत्र का हो, अपंग हो, किसी भी जाति-धर्म का हो या उसका जो भी दर्जा हो – सार्वभौमिक मानव अधिकारों और बुनियादी आर्थिक अवसरों से वंचित नहीं किया जाएगा.” यह रिपोर्ट आगे कहती है कि अगामी विकास एजेंडा द्वारा “भेदभाव खत्म” किया जाना चाहिए तथा “गरीबी, विलगाव और असमानता के कारणों से निबटा जाना चाहिए.” इस तथ्य की रोशनी में यह आश्‍चर्यजनक नहीं है कि सहस्त्राब्दि विकास लक्ष्यों का स्‍थान लेने वाले महत्त्वाकांक्षी नए प्रस्ताव में समावेशीकरण एक बड़ा मील का पत्‍थर है. निर्वहनीय विकास लक्ष्य नामक यह प्रस्ताव लक्ष्य-चयन प्रक्रिया से आरंभ होता है जिसमें विकासशील देश अग्रणी भूमिका निभा रहे हैं. अवश्य ही सामाजिक व आर्थिक समावेश के लिए लक्ष्यों को हासिल करना आसान नहीं होगा. इनके लक्ष्य साफ तौर पर परिभाषित किए जाने, मापे जाने और कार्यवाई किए जाने लायक होने चाहिए और उन्हें प्रभावी निगरानी, मूल्यांकन और उत्तरदायित्वता के साझे ढांचे का समर्थन भी मिलना चाहिए. इसके अलावा ऐसी प्रणाली की रचना भी करनी चाहिए जिससे संयुक्‍त राष्‍ट्र में सहमति प्राप्‍त वै‌श्‍विक लक्ष्यों को अपने यहां विशेष आर्थिक परिस्थितियों व सामाजिक कायदों के अनुरूप ठोस उपायों के रूप में लागू करने के लिए देशों को मदद मिल सके. इस दिशा में मेक्सिको की सरकार ने इस साल अनेक कार्यशालाओं का आयोजन किया जिसमें सरकारों, संयुक्‍त राष्‍ट्र की एजेंसियों, बहुपक्षीय विकास बैंकों और शिक्षाविदों के प्रतिनिधि शरीक हुए थे. इन्होंने इन कार्यशालाओं में अपनी दृष्‍टियों, सर्वश्रेष्‍ठ प्रथाओं और कार्यान्‍वयन के तरीकों पर अपने विचार साझा किए जिससे इन समावेशी व निर्वहनीय लक्ष्यों को लागू किया जा सके, मापा जा सके और उनकी निगरानी की जा सके. इन चर्चाओं को अंतर्राष्‍ट्रीय समुदाय की गरीबी, असमानता और पर्यावरणीय क्षय के ढांचागत कारणों से निबटने के लिए की गई प्रतिबद्धता द्वारा सूचित किया गया. विश्‍व बैंक समूह के घोर गरीबी को दूर करने और साझा सम्पन्‍नता को बढ़ावा देने वाले लक्ष्यों के अंतर में सामाजिक व आर्थिक समावेश बसा है. आखिरकार, इन उद्देश्यों को तब तक हासिल नहीं किया जा सकता है जब तक कि विकास में किए गए निवेश से सभी को लाभ न मिले. यह सुनिश्‍चित करने के लिए जरूरी है कि ऐसे समूहों पर ध्यान केंद्रित किया जाए जो लगातार हाशिये पर रहे हैं. यही कारण है कि विश्‍व बैंक ने इस साल विश्‍व बैंक व अंतर्राष्‍ट्रीय मुद्रा कोष की सालाना बैठकों के लिए समानता को प्रमुख विषय के रूप में स्‍थापित किया है. सामाजिक समावेश को सुनिश्‍चित करने वाली नीतियां व कार्यक्रम जरूरी नहीं है कि और अधिक कुछ करें; बल्कि वे चीजों को अलग ढंग से करती हैं. इस भावना के साथ दक्षिण अफ्रीका ने मात्र दो दशक में संस्‍थागत अलगाव से हट कर आदर्श “इंद्रधनुषी राष्‍ट्र” की दिशा में सराहनीय प्रगति की है. इसी तरह बांग्लादेश अपने यहां विलगाव पर आधारित स्‍थानीय अनौपचारिक न्याय प्रणाली, शालिश में वंचित तबकों की भागीदारी बढ़ा कर समावेश की दिशा में भारी प्रगति की है. विएतनाम का नार्थर्न माउन्टेन्स पावर्टी रिडक्‍शन प्रोजेक्ट भी इस इलाके के गरीब ग्रामीणों को उन्नत सामाजिक सेवाएं और निर्वहनीय अवसंरचना प्रदान करने के उद्देश्य से बनाया गया था. इस परियोजना ने दर्शाया है कि विकास कार्यों में जातिगत अल्पसंख्यक समुदाय के सदस्य अहम भूमिका निभा सकते हैं. मेक्सिको का इनक्लूसिव अर्ली चाइल्डहुड डेवल्पमेंट कम्पेन्सेटरी एजूकेशन प्रोजेक्ट बहुत छोटे बच्‍चों के विकास हेतु सेवाओं तक पहुंच के प्रसार और सबसे अधिक हाशिये पर पड़ी नगरपालिकाओं में सीखने के नतीजों को सुधारने पर केंद्रित है. इसमें अलग-थलग पड़े समूहों को शामिल किया गया है ताकि उनकी विशेष जरूरतों को पहचाना जा सके. मसलन, इसमें देसी अभिभावकों के आग्रह पर द्विभाषी शिक्षा दी जाती है. अवश्य ही, 2015 के बाद का समावेशी विकास एजेंडा तय करना केवल पहला कदम है. इसके सफलतापूर्वक कार्यान्वयन के लिए साहसी नीतियों और वै‌श्‍विक सहयोग को मजबूत करने की जरूरत होगी जिससे समावेशीकरण के असर को जानने और इसके भीतर छिपे कारणों को संबोधित करने में मदद मिलेगी. इस के अलावा, विश्‍व के नेताओं को सहस्त्राब्दि विकास लक्ष्यों से सीखे गए सबकों को अमल में लाना होगाः स्पष्‍ट लक्ष्य, पर्याप्‍त वित्तपोषण, तथा बेहतर आंकड़े साक्ष्य-आधारित नीति व इसकी कारगरता की निगरानी के लिए अनिवार्य हैं. इस दृष्‍टिकोण के साथ, आगामी विकास एजेंडा अंततः यह सुनिश्‍चित करेगा कि आर्थिक अवसर तथा सामाजिक प्रगति के लिहाज से सभी समूहों को लाभ मिले. इबोला के काल में स्वास्थ्य न्यूयॉर्क - उप-सहारा अफ्रीका में यदि किसी बच्चे को बुखार हो तो उसे तुरंत चिकित्सा मिलनी चाहिए ताकि उसे मलेरिया या निमोनिया से मरने से बचाया जा सके. लेकिन आज जब लाइबेरिया, सिएरा लियोन, गिनी और नाइजीरिया जैसे देशों में इबोला मह���मारी की तरह फैल रहा है, इससे घबराए लोग ज्यादा से ज्यादा स्वास्थ्यकर्मियों और स्वास्थ्य-सेवा सुविधाओं को बीमारी फैलाने के लिए दोषी ठहरा रहे हैं. यह सुनिश्चित करने के लिए कि जरूरत के वक्त लोगों को इलाज की सुविधा मिल सके यह आवश्यक है कि अग्रिम क्षेत्रों में कार्यरत क्लिनिकों को सुधारा जाए और स्थानीय स्तर पर नियुक्त सामुदायिक स्वास्थ्यकर्मियों में निवेश किया जाए ताकि रोगग्रस्त लोगों तक उनके घर में ही पहुंचा जा सके. लाइबेरिया में इबोला के फैलने में वहां की स्वास्थ्य सेवा प्रणालियों में मौजूद कमियों का बड़ा हाथ है. आज भी वहां की 40 लाख आबादी में से करीब 28% तक पर्याप्त चिकित्सा सुविधा की पहुंच नहीं है. 2003 की अक्रा व्यापक शांति संधि से वर्षों तक चला गृह युद्ध खत्म हो सकता है, लेकिन इस युद्ध के परिणामस्वरूप वहां केवल 51 डॉक्टर और छिन्न-भिन्न स्वास्थ्य संरचना बची है. केवल कुछ गिने-चुने सुयोग्य स्वास्थ्य-सेवा पेशेवरों के साथ स्वास्थ्य सेवा प्रणाली के पुनर्निर्माण के लिए समूचे लाइबेरिया के घने वर्षा वनों से आच्छादित ग्रामीण अंचलों में अस्पताल और क्लिनिक बनाने से भी अधिक कुछ करने की जरूरत है. सौभाग्यवश उप-सहारा अफ्रीका की अन्य सरकारों की तरह लाइबेरिया की सरकार भी जानती है कि ग्रामीण क्षेत्रों में हैजा, निमोनिया और मलेरिया के इलाज के लिए सामुदायिक स्वास्थ्यकर्मियों के प्रशिक्षण में निवेश की जरूरत है. पांच साल से कम उम्र के बच्चों की मौत का सबसे बड़ा कारण हैं ये तीन बीमारियां. स्वाभाविक तौर पर सामुदायिक स्वास्थ्यकर्मियों का अपने समुदायों से गहरा नाता होता है. इनमें पारंपारिक उपचार करने वाले भी शामिल हैं जिससे स्वास्थ्यकर्मियों को औपचारिक स्वास्थ्य-सेवा प्रणाली की पहुंच बढ़ाने में मदद मिलती है. साथ ही, मोबाइल तकनीकें गुणवत्ता नियंत्रण तथा निगरानी में सहायक हैं और सामुदायिक स्वास्थ्यकर्मियों को विशेषज्ञ चिकित्सा सहायता उपलब्ध कराती हैं. इस साल मार्च में लाइबेरिया के स्वास्थ्य मंत्रालय ने संयुक्त राष्ट्र की एजेंसियों, यूएसऐड तथा स्थानीय व अंतर्राष्ट्रीय गैर सरकारी संगठनों और निजि कंपनियों के सहयोग से अपने सामुदायिक स्वास्थ्य प्रणाली कार्यक्रम के लिए व्यापक उन्नयन योजना बनाई है. लेकिन उसके तुरंत बाद इबोला अपना कहर बरपाने लगा जिससे क्लिनिकों व निरोधक संस्थाओं तथा बीमारों के उपचार के समाचारों पर सबका ध्यान केंद्रित हो गया. विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने इस महामारी से निबटने में अंतर्राष्ट्रीय मदद जुटाने में केंद्रीय भूमिका निभाई है. इसमें राष्ट्रीय सरकारों तथा डॉक्टर्स विदआउट बॉर्डर्स और अमेरिकी रोग नियंत्रण एवं रोकथाम केंद्रों ने भी अहम योगदान दिया. महामारी अभी भी फैल रही है. जन-स्वास्थ्य समुदाय इससे निपटने के लिए गंभीर प्रयास कर रहा है. क्लिनिक कर्मियों, महामारी विशेषज्ञों तथा अन्य विशेषज्ञों की तैनाती के लिए 10 करोड़ डॉलर कोष का इस्तेमाल किया जा रहा है. इस संदर्भ में देखा जाए तो मार्च में लाइबेरिया द्वारा पेश की गई योजना में अनुमान लगाया गया है कि राष्ट्रीय स्तर पर सामुदायिक स्वास्थ्यकर्मियों का नेटवर्क बनाने में हर साल 2 करोड़ डॉलर खर्च होंगे. निश्चित तौर पर सामुदायिक स्वास्थ्यकर्मियों पर अन्य अनिवार्य सार्वजनिक-स्वास्थ्य उपायों की कीमत पर निवेश नहीं होना चाहिए सिर्फ इसलिए कि इबोला का प्रसार थम जाए या अग्रिम मोर्चे पर सक्रिय क्लिनिकों को सहायता मिल सके. लेकिन सामुदायिक स्वास्थ्यकर्मियों पर निरंतर निवेश के बगैर अंतर्राष्ट्रीय समुदाय तथा राष्ट्रीय सरकारों के लिए इबोला तथा अन्य महामारियों के प्रसार को रोकना तथा उनके दुबारा फूटने की रोकथाम करना अत्यंत कठिन होगा. याद रखना चाहिए कि पारंपरिक स्वास्थ्य-सेवा प्रणालियों के मुकाबले इन कर्मियों की लागतें बेहद मामुली हैं. स्वास्थ्य-सेवा प्रणाली के गठन के दो बुनियादी रास्ते हैं. एक में बीच में अस्पताल होता है और चारों ओर क्लिनिक होते हैं. दूसरा रास्ता सामाजिक नेटवर्कों पर आधारित है और इसे समुदाय स्वास्थ्यकर्मियों से गति मिलती है. यदि पहला रास्ता अत्यधिक अनम्य है तो बीमारियां और उनका समाज पर प्रभाव इसके साधनों से भी परे जाता है. यदि दूसरा रास्ता अत्यधिक नम्य (लचीला) है तो तकनीकी रूप से जटिल कार्य करने की क्षमता पर समझौता करना पड़ता है. उन क्षेत्रों में जहां पहुंच सीमित है और आपसी भरोसे का अभाव है वहां पर संतुलन कायम करना खासतौर पर चुनौतीपूर्ण है. किसी महामारी के बीच में तो ऐसा करना और भी जटिल है क्योंकि इसमें महामारियों के सामाजिक प्रभाव आड़े आते हैं. दूसरे शब्दों में, जब कोई बच्चा या परिवार का सदस्य बीमार पड़ता है तो लोगों की क्या प्रतिक्रिया होगी यह उनके मित्रों और पड़ोसियों के अनुभवों, स्वास्थ्य-सेवा की उपलब्धता तथा इन सेवाओं के प्रति समुदाय के नजरिए पर निर्भर करता है. तदनंतर, यह प्रतिक्रिया तय करती है कि बीमारी किस स्तर तक फैलेगी. जैसाकि अमेरिकी स्वास्थ्य केंद्रों के विशेषज्ञ बताते हैं, इबोला की रोकथाम में समुदाय स्वास्थ्यकर्मियों की अहम भूमिका है, क्योंकि जिस किसी में भी इसके लक्षण दिखते हैं वह संदिग्ध मरीज बन जाता है. उसके संपर्क में आने वाले सभी लोगों पर तीन सपताह तक नजर रखी जाती है. और रविवार को छोड़कर स्वास्थ्यकर्मी हर दिन सुपरवाइजर को अपने काम की रिपोर्ट देते हैं. एक संगठन लास्ट माइल हेल्थ ने 300 समुदाय स्वास्थ्यकर्मियों का नेटवर्क खड़ा किया है जो 30 हजार मरीजों की देखभाल करते हैं, तथा लाइबेरिया में कोनोबो जैसी दुर्गभ जगहों पर बुनियादी चिकित्सा सुविधा उपलब्ध करते हैं. संगठन की संकर संरचना नियमित चुनौतियों से निबटने में सक्षम है तथा इसमें अचानक आए किसी बललाव का सामना करने के लिए पर्याप्त लचीलापन भी है. बरसात का मौसम निकट आ रहा है. इस मौसम में तरह-तरह की महामारियों के फैलने का खतरा बढ़ जाता है. इससे स्वास्थ्य-सेवा प्रणालियों की क्षमताओं पर जोर पड़ता है. तब इस बात की जरूरत बढ़ जाती है कि नागरिकों को इन महामारियों से निबटने के लिए प्रेरित किया जाए, प्रशिक्षित और न्यूनतम् सुविधाओं से सुसज्जित किया जाए. इस कार्य के लिए लक्षित विकास सहायता, घरेलू निवेश, विशेषज्ञ सहायता जैसे मिलेजुले प्रयासों के अलावा उप-सहारा देशों से जमीनी-स्तर का परिप्रेक्ष्य भी चाहिए जिन्होंने अपने समुदाय स्वास्थ्यकर्मियों के नेटवर्कों को सफलतापूर्वक ऊपर उठाया है. यह बात उन देशों पर भी लागू होती है जहां इबोला के सक्रिय मामले सामने आ रहे हैं. सचमुच, वन मिलियन (दस लाख) समुदाय स्वास्थ्यकर्मी अभियान के पीछे सक्रिय संगठनों के सहयोग की बदौलत ये देश अपने समुदाय स्वास्थ्यकर्मी नेटवर्क को बढ़ाने के लिए कार्य कर रहे हैं. लेकिन उन्हें और ज्यादा सहायता की जरूरत है. पर अंतर्राष्ट्रीय एजेंसियों और विकास बैंकों का ध्यान इबोला महामारी पर केंद्रित है बजाए इसके कि वे इन नेटवर्कों को सुदृढ़ बनाने में सहयोग दें. अंतर्राष्ट्रीय संगठनों को जानना चाहिए कि उन्हें पारंपरिक स्वास्थ्य-सेवा में निवेश और आपातकालीन-प्रतिक्रिया प्रयासों के बीच चुनाव नहीं करना है. विश्वसनीय स्वास्थ्य-सेवा प्रणालियों में दीर्घकालीन निवेश ही एकमात्र रास्ता है जिससे भविष्य में महामारियों से निबटा जा सकता है. अन्यथा, उप-सहारा अफ्रीका के लोग हमेशा ऐसे स्वास्थ्य संबंधी संकटों से जूझते रहेंगे जिनसे बचा जा सकता है. स्वास्थ्य सेवा की नई दुनिया न्यूयॉर्क - पारंपरिक स्वास्थ्य सेवा प्रणालियां संकट में हैं. ओईसीडी में मंहगे अस्पताल व क्लिनिकों का स्वास्थ्य सेवाओं में दबदबा है. इन पर अमेरिका में कुल स्वास्थ्य सेवा व्यय का 97% खर्च होता है. इसके चलते पारंपरिक प्रणालियां लागत संबंधी तंगियों, उच्च गुणवत्ता के लिए जनता की मांग और अत्याधिक प्रत्याशाओं के कारण संघर्ष कर रही हैं. लेकिन एक बिलकुल अलग प्रणाली है जो गरीब देशों में प्रचलित हैं जो पश्चिमी शैली के अस्पतालों के महंगे खर्च को वहन नहीं कर सकते हैं. यह समुदाय-केंद्रित स्वास्थ्य सेवा है. हमें दोनों तरह की पहुंच की जरूरत हैं, और जरूरत है कि दोनों मिलकर काम करें. अवश्य ही, स्वास्थ्य सेवा के वायदे और वास्तविकता के बीच बढ़ते अंतर ने विकसित व विकासशील देशों में समान रूप से यह गुंजाइश पैदा की है कि नए खिलाड़ी इस क्षेत्र में उतरें जिनका मात्र जीव विज्ञान से ज्यादा सामाजिक व्यवहार से सरोकार हो. 1996 में हार्वर्ड बिजिनेस रिव्यू में अपने सशक्त व प्रभावशाली लेख में डब्ल्यू. ब्रायन आर्थर ने योजना, वर्ग तथा नियंत्रण द्वारा परिभाषित स्वास्थ्य सेवा प्रणाली तथा प्रेक्षण, अवस्थिति और वर्ग रहित संगठन द्वारा परिलाक्षित स्वास्थ्य सेवा प्रणाली के बीच मौजूद महत्त्वपूर्ण भेदों की पहचान की थी. उनके अनुसार, पहली किस्म की प्रणाली का सामग्रियों (पदार्थों), प्रक्रियाओं तथा अनुकूलीकरण से ज्यादा सरोकार है. यह मुख्यतः स्वास्थ्य सेवा तक पहुंच पर केद्रित है और आमतौर पर इससे घटते हुए लाभ मिलते हैं. इसके विपरीत दूसरी किस्म की प्रणाली मनोविज्ञान, संज्ञान और अपनाने की आपस में जुड़ी दुनिया है. अपनी लचीली संरचना तथा विविध, स्थानीय जरूरतों को पूरा करने की क्षमता की बदौलत यह अपने लाभों को बढ़ा सकती है. यह किसी विशिष्ट उद्योग के हितों द्वारा हांकी नहीं जाती है. यह महंगी स्वास्थ्य सेवा प्रणालियों से होड़ करने की बजाए उन्हें सम्पूरित करती है. आम जन का स्वास्थ्य, स्वस्थ व्यवहार और स्वास्थ्य संबंधी चुनाव कैसे किए जाए ये सब इसकी प्राथमिकताएं हैं. यह पहुंच हृदय रोग, उच्च रक्तचाप और मधुमेह जैसी अवस्थाओं के लिए विशेष तौर पर प्रासंगिक है जो व्यक्तिगत व्यवहार, शारीरिक संदर्भ और सामाजिक-आर्थिक कारकों को सबसे निकट से परिलाक्षित करते हैं. मधुमेह का उदाहरण लें. मधुमेह से पीडि़त व्यक्तियों के छोटे से समूह के लिए कुछ बड़ी दवा कंपनियां आपस में होड़ करती हैं. वे उन्हें रक्त-शर्करा नियंत्रण में मामुली सुधार के लिए प्रतियोगी दरों पर नई-नई दवाइयां (नुस्खे) पेश करती हैं. और उनका स्वास्थ्य बीमा कर्ताओं से और स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं से रणनीतिक गठजोड़ होता है. ये कंपनियां मूल रूप से बाजार में अपनी पकड़ बनाए रखने से सरोकार रखती हैं. उनकी गतिविधियों से उन हजारों-लाखों मोटापे के शिकार लोगों को कोई लाभ नहीं मिलता जिन्हें मधुमेह का खतरा है. उन्हें भी कोई लाभ नहीं मिलता जिनपर इस रोग के प्रचलित उपचार का असर नहीं पड़ता. परंतु मधुमेह के साथ सुखपूर्वक जीवन बिताने की कुंजी पौष्टिक आहार, सक्रिय जीवनशैली, सामाजिक सहायता और हरेक व्यक्ति की परिस्थितियों के अनुरूप प्रशिक्षण में छिपी है. यह बुनियादी सूत्र मधुमेह व अन्य अधिकांश पुराने रोगों की रोकथाम के प्रयासों का आधार भी बनता है. इतना ही नहीं इससे स्वस्थ लोगों को भी लाभ मिलता है. सचमुच, हमारे जीवन की गुणवत्ता और प्रत्याशा में पारंपरिक चिकित्सा सेवाओं की बहुत कम (शायद 20%) भागीदारी है. बाकी 80% हमारे स्वस्थ व्यवहार, सामाजिक व आर्थिक कारकों तथा भौतिक पर्यावरण द्वारा निर्धारित होता है. पुरानी बीमारियों की वैश्विक महामारी से निबटने के लिए इस 80% भाग को जानना जरूरी है. और इस कार्य को पारंपरिक स्वास्थ्य सेवा संगठनों के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता है. अवश्य ही पहले से मौजूद सामाजिक ढांचे पर निर्मित अनेक सफल उद्यम ज्ञात स्वास्थ्य समस्याओं को हल करते हैं और नए मसलों को अनावृत भी करते हैं. इस नई पहुंच की उदाहरण हैं वे तकनीकी कंपनियां, यथा ओमाडा हेल्थ, जो मधुमेह का खतरा झेल रहे लोगों तक उनके घर पर उनकी जरूरत के मुताबिक ऑनलाइन स्वास्थ्य प्रशिक्षण पहुंचाती हैं. ग्रामीण बैंक जैसे सामाजिक उपक्रम भी इसी श्रेणी में आते हैं जो अपने माइक्रोलेंडिंग नेटवर्कों के आधार पर कम खर्चीली प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा प्रणालियों का निर्माण कर रहा है. एक और उदाहरण है वन मिलियन कम्युनिटी हेल्थ वर्कर कैम्पेन (दस लाख सामुदायिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता अभियान) जो सामान्य जनों को अपने समुदायों में स्वास्थ्य सेवा उपलब्ध कराने का प्रशिक्षण देता है. ये अभियान इथियोपिया, रवांडा तथा अन्य उप-सहारा अफ्रीका में समान माडलों के अनुभवों पर आधारित है. ऐसी स्वास्थ्य सेवा पहलकदमियों को व्यवहारिक तरीकों से गति प्रदान की जा सकती है. शुरूआत के लिए पूरे ओईसीडी में स्वास्थ्य सेवा पर राष्ट्रीय खर्च को चिकित्सा सेवा पर दिए जा रहे लगभग विशेष ध्यान को हटा कर उन नए खिलाडि़यों को अपनाना चाहिए जो स्वास्थ्य में सुधार लाते हों. इसके अलावा इन नए खिलाडि़यों की महंगे आंकड़ों और पारंपरिक स्वास्थ्य सेवा प्रणालियों की वित्तीय संरचना तक पहुंच होनी चाहिए. चिकित्सकों और नर्सों को नए स्वास्थ्य कर्मियों के साथ काम करने का प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए ताकि इस क्षेत्र में बाहरी दावेदारों, यथा विद्यालयों, खाद्य कंपनियों, वित्तीय फर्मों और सामाजिक सेवाओं को भी इस अभियान में शामिल किया जा सके. अंत में सामुदायिक समूहों और पारिवारिक सेवा प्रदाताओं को अधिक समर्थन की जरूरत है जो बेहतर स्वास्थ्य पाने की कोशिश कर रहे लोगों की मदद करते हैं. पश्चिमी स्वास्थ्य सेवा प्राधिकरण इस बात पर गौर कर रहे हैं. मसलन, वेल्स में ब्रिटेन की नैशनल हेल्थ सर्विस उन सामुदायिक प्रथाओं के साथ परीक्षण कर रही है जो ब्राजील में प्रयुक्त प्रथाओं के समान हैं. अफ्रीकी स्वास्थ्य नेटवर्कों से प्रेरित हो कर न्यूयॉर्क अपने सामुदायिक स्वास्थ्य नेटवर्कों का विस्तार कर रहा है जिससे शहर की अव्यवस्थित सेवाएं आपस में जुड़ सकें. निश्चित है कि जब तक स्वास्थ्य ढांचे तथा सेवा वितरण के ढांचे को बढ़ाने के लिए तकनीकी प्रगति होती रहेगी तब तक पारंपरिक स्वास्थ्य सेवा का वादा हमेशा ही प्रतिबद्धताकारी रहेगा. तिस पर भी स्वास्थ्य विशेषज्ञों की नई पीढ़ी से सीखने के लिए बहुत कुछ जो समझते हैं कि लोग कैसे फैसले लेते हैं, किस प्रकार सामुहिक प्रयास अधिक स्वस्थ परिवेश का निर्माण करते हैं और किस प्रकार अच्छा स्वास्थ्य बेहतर जिंदगी का साधन है. अंत में, स्वास्थ्य सेवा की नई दुनिया में असीमित संभावना है क्योंकि इसकी सरहद उस स्थान को छूती है जहां हम रहते हैं और खेलते हैं. यह हम सभी को स्वास्थ्य सेवा विशेषज्ञ और अविष्कारक बनाती है. आखिरकार, किसी चिर रोग के खिलाफ लड़ाई घर में ही जीती या हारी जाएगी. विकास वित्त में नए पड़ाव वाशिंगटन, डीसी - इस साल के अंत में जब सहस्राब्दी विकास लक्ष्यों (एमडीजी) की अवधि समाप्त हो जाएगी, तो दुनिया ने ग़रीबी को कम करने, सुरक्षित पेय जल और स्वच्छता उपलब्ध करने, और अन्य महत्वपूर्ण उद्देश्यों में महत्वपूर्ण प्रगति कर ली होगी। यह सुनिश्चित करने के लिए कि स्थायी विकास लक्ष्यों (एसडीजी) की नींव पर तैयार किए जाने���ाले अगले विकास कार्यक्रम से और भी ज़्यादा प्रगति की जाती है, दुनिया के नेताओं को सहस्राब्दी विकास लक्ष्यों (एमडीजी) के ढाँचे को - ख़ास तौर से वित्तपोषण के संदर्भ में - परिष्कृत और इष्टतम करना होगा। प्रमुख कार्यक्रमों और नीतियों के कार्यान्वयन का समर्थन करने के लिए सहस्राब्दी विकास लक्ष्यों (एमडीजी) ने सरकारों, बहुपक्षीय संगठनों, और गैर-सरकारी संगठनों को अपने साथ लिया है, जिसमें वैश्विक भागीदारियाँ संसाधनों का समर्थन करती हैं। कुशलता को अधिकतम करने के लिए, सहस्राब्दी विकास लक्ष्यों (एमडीजी) का यूनिट के बजाय, अलग-अलग रूप से अनुसरण और वित्त-पोषण किया गया, जिसमें लक्ष्यों के पूरा न होने की स्थिति में नई पहल लागू की गईं। लेकिन इस दृष्टिकोण ने कुछ असंतुलन पैदा किए हैं, जिसमें दूसरे प्रयासों की तुलना में वैश्विक स्वास्थ्य और शिक्षा की पहल के लिए कहीं ज़्यादा वित्तपोषण हुआ। इस क्षेत्रीय मॉडल का विकास का अगला कार्यक्रम शुरू किए जाने से पहले पुनः मूल्यांकन किया जाना चाहिए ताकि सुनिश्चित हो सके कि इस तरह के असंतुलन न रहें। ऐसा करना ख़ास तौर से इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि प्रस्तावित स्थायी विकास लक्ष्यों (एसडीजी) में टिकाऊ विकास के सामाजिक, आर्थिक, और पर्यावरण संबंधी आयामों को शामिल करने का प्रयास किया जा रहा है, जिससे वे और ज़्यादा व्यापक और सहस्राब्दी विकास लक्ष्यों (एमडीजी) की तुलना में ज़्यादा अन्योन्याश्रित हो जाते हैं। एकीकृत दृष्टिकोण का विकास करने के लिए दुनिया के नेताओं के पास तीन महत्वपूर्ण अवसर होंगे। जुलाई में, संयुक्त राष्ट्र अदीस अबाबा, इथियोपिया में विकास के लिए वित्त-पोषण पर सम्मेलन आयोजित करेगा। सितंबर में, संयुक्त राष्ट्र महासभा स्थायी विकास लक्ष्यों (एसडीजी) को प्रारंभ करने के लिए कार्यक्रम आयोजित करेगी। और दिसंबर में, दुनिया भर के नेता जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ़्रेमवर्क समझौते के पक्षों के 21वें सम्मेलन (सीओपी 21) में भाग लेंगे, जहाँ उनके ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जनों की दीर्घावधि कमी पर बाध्यकारी वैश्विक समझौते को स्वीकार करने की आशा है। विकास की पहल के समर्थन में वित्त के ठोस महत्व को देखते हुए, इसे कार्रवाई किए जानेवाले पहले मुद्दों में होना चाहिए। दुनिया के नेताओं को - सबसे पहले मिलनेवाले अवसर: अदीस अबाबा में सम्मेलन, पर प्रभावी और पहचान-योग्य वित्त-पोषण कार्यक्रम को तैयार करके, उस ग़लती को करने से बचना चाहिए जो उन्होंने सहस्राब्दी विकास लक्ष्यों (एमडीजी) में की थी - जिसके कार्यान्वयन में 2002 मॉन्टेरी कॉन्सेंसस द्वारा वित्त-पोषण के लिए सहमति दिए जाने तक दो वर्षों की देरी हुई थी। तात्कालिकता में आंशिक रूप से स्थायी विकास लक्ष्यों (एसडीजी) के लिए आवश्यक वित्त-पोषण शामिल है – इसकी राशि सहस्राब्दी विकास लक्ष्यों (एमडीजी) को लागू करने के लिए आवश्यक संसाधनों से कहीं ज़्यादा होगी। ग़रीबी और भूख को समाप्त करने, स्वास्थ्य और शिक्षा में सुधार करने, अभिशासन मज़बूत करने, और लैंगिक समानता को बढ़ावा देने की पहल के लिए वित्त-पोषण से अधिक, बुनियादी ढाँचे, ऊर्जा और कृषि में निवेश किए जाने चाहिए। स्थायी विकास लक्ष्य (एसडीजी) वैश्विक सार्वजनिक वस्तुओं के वित्त-पोषण का आह्वान भी करेंगे, जिनमें पर्यावरण संरक्षण और जलवायु परिवर्तन को काबू में रखना और इसके प्रभाव कम करना शामिल है। चूँकि सरकारें और अंतर्राष्ट्रीय दानकर्ता अकेले खर्च को वहन करने में असमर्थ हैं, इसलिए उन्हें ऐसे कार्यक्रम और नीतियाँ तैयार करनी होंगी जिनमें वैश्विक बचतों के बड़े हिस्से को स्थायी विकास लक्ष्यों (एसडीजी) की ओर उन्मुख किया जा सके, जिनकी राशि लगभग $22 खरब वार्षिक है। ख़ास तौर से, राष्ट्रीय और स्थानीय सरकारों और अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं को चाहिए कि वे अपने स्वयं के लिए तैयार किए गए वित्त-पोषण उपायों का नियोजन करके अपने संसाधनों का लाभ उठाएँ, जिसमें सार्वजनिक-निजी भागीदारी, निष्पादन-आधारित लिखतें, और विभिन्न प्रकार की ऋण और राजनीतिक जोखिम गारंटियाँ शामिल हैं। हर देश की ज़रूरतों और हैसियत के अनुसार समायोजित वित्त-पोषण के उपायों की यह श्रेणी, जोखिम कम करने और सहयोग में सुधार लाने में मदद कर सकती है। यह ख़ास तौर से उभरती हुई मध्यम-आय वाली अर्थव्यवस्थाओं के लिए प्रासंगिक होगा। जब ये देश अपनी साख योग्यता को सुदृढ़ कर लेंगे और ऋण और इक्विटी लिखतों का प्रबंध करने की अपनी क्षमता को बेहतर बना लेंगे, तो उनके पास वित्त-पोषण लिखतों का बड़ा अंबार होगा जिसकी मदद से वे निजी क्षेत्र के संसाधनों को आकर्षित करने में कामयाब होंगे। निजी संसाधनों का दोहन करके, उभरती हुए अर्थव्यवस्थाएँ उस आधिकारिक विकास सहायता (ओडीए) को मुक्त कर सकती हैं जिसकी बहुत अधिक आवश्यकता होती है, और उसका उपयोग ग़रीबी कम करने के प्रयासों के लिए और उन देशों को उपलब्ध करने के लिए किया जा सकता है जिन्हें अंतर्राष्ट्रीय निजी वित्तीय प्रवाह काफ़ी हद तक उपलब्ध नहीं हो पाता है (और इस कारण उनकी घरेलू रूप से संसाधन जुटाने की क्षमता कम हो जाती है)। सभी देशों और क्षेत्रों में व्यवहार्य वित्त-पोषण समाधानों पर हर मामले पर अलग-अलग रूप से विचार किया जाना चाहिए। यह सुनिश्चित करने के लिए कि अदीस अबाबा सम्मेलन में अपेक्षित कार्रवाई होती है, विश्व बैंक, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष, और अनेक क्षेत्रीय बहुपक्षीय विकास बैंक (एमडीबी) संयुक्त दृष्टिकोण पर काम कर रहे हैं जिसमें 2015 के बाद के कार्यक्रम के वित्त-पोषण के लिए आवश्यक ख़रबों की राशि में अनुदान और आधिकारिक विकास सहायता (ओडीए) के रूप में अरबों डॉलर की निधियों का लाभ मिल सकेगा। विकास परियोजनाओं का वित्त-पोषण करने के लिए पर्याप्त पूँजी आकर्षित करने के लिए दुर्लभ आधिकारिक सहायता का लाभ उठाने के लिए, बहुपक्षीय विकास बैंक (एमडीबी) पहले ही अलग-अलग और सामूहिक रूप से मदद कर रहे हैं। वास्तव में, उनका वित्तीय लाभ उनके ढाँचे में निर्मित है: वे मौलिक रूप से वित्तीय संस्थाएँ हैं, जिन्हें कुशलता से प्रदत्त पूँजी की छोटी राशियों से वित्त-पोषित किया गया है जो शेयरधारकों द्वारा प्रतिदेय पूँजी से समर्थित हैं। बहुपक्षीय विकास बैंकों (एमडीबी) को भारी परिचालनगत लाभ भी प्राप्त हैं, जो - नवोन्मेष, मध्यस्थता, और बाज़ार निर्माण के माध्यम से - ऐसी स्थितियाँ निर्मित करने की क्षमता से निकलते हैं, जो निजी क्षेत्र के लिए आकर्षक होते हैं, और इस तरह वे टिकाऊ समाधान और निवेश के अवसर पैदा करते हैं। और वे ऐसी प्रणालियों, संस्थाओं और क्षमताओं में निवेश करके एकीकृत, विभिन्न क्षेत्रों के लिए निविष्टियाँ प्रदान करते हैं जो विकास के लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए आवश्यक होती हैं। इस संयुक्त दृ���्टिकोण के समर्थन के लिए, 11 प्रकरण अध्ययनों के आधार पर विश्व बैंक इसका विश्लेषण प्रदान कर रहा है कि विविध परिस्थितियों वाले देश स्थायी विकास लक्ष्यों (एसडीजी) के कार्यान्वयन के लिए वित्त-पोषण के लिए सार्वजनिक, निजी, घरेलू, और अंतर्राष्ट्रीय वित्त-पोषण स्रोतों के संयोजन का उपयोग किस प्रकार कर सकते हैं। यह विश्लेषण देश के स्तर पर स्थायी विकास लक्ष्यों (एसडीजी) की वित्त-पोषण की ज़रूरतों का आकलन करने के लिए व्यावहारिक दृष्टिकोण की भी सिफ़ारिश करेगा। बहुपक्षीय विकास बैंक (एमडीबी) अप्रैल में होनेवाली अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष-विश्व बैंक समूह की वसंत बैठकों में अपने सामूहिक दृष्टिकोण पर चर्चा करेंगे। मूर्त वित्त-पोषण समाधान की पहचान करने की उनकी क्षमता जुलाई में अदीस अबाबा सम्मेलन के लिए मंच तैयार करने के लिए - और, निश्चित रूप से, स्थायी विकास लक्ष्यों (एसडीजी) और 2015 के बाद के विकास कार्यक्रम के सफल कार्यान्वयन के लिए महत्वपूर्ण होगी। खुले समुद्रों में मौत का तांडव और आशा की किरण हैलिफ़ैक्स, कनाडा– शार्क और उनकी जाति की हाँगुर मछलियाँ, डायनासोरों का शिकार करती हैं। वे उस भयावह सामूहिक विलुप्तीकरण में बच गई थीं जिसमें टायरानोसोरस रेक्स और बाकी सभी खत्म हो गए थे, और साथ ही, वे पर्मियन- ट्राएसिक के विलुप्त होने के दौरान भी बच गई थीं जिसमें लगभग 96% समुद्री प्रजातियों का सफाया हो गया था। यहाँ तक कि अभी हाल ही में विकसित शार्क वंश की हैमरहैड जैसी मछलियों का अस्तित्व 30 मिलियन से अधिक वर्षों से बना हुआ है। फिर भी, अभी कुछ ही दशकों में, सभी शार्क और हाँगुर मछलियों में से चौथाई के विलुप्त होने का ख़तरा पैदा हो गया है। यह हमारी गलती है - और इसे ठीक करने की जिम्मेदारी भी हमारी है। केवल शार्क और हाँगुर की आबादी को ही ख़तरा नहीं है। समुद्री जैव विविधता के कई अन्य घटक - विशेष रूप से कोरल, समुद्री स्तनधारी, समुद्री पक्षी, और कछुए - भी मानवीय दबावों का सामना करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। परिणामस्वरूप, समुद्री पारिस्थितिकी प्रणालियों पर उलझनों और क��� स्थिर और कम उत्पादक होने का ख़तरा मंडरा रहा है। अत्यधिक मत्स्यपालन, जलवायु परिवर्तन, प्रदूषण, और तटीय विकास सहित, समुद्री जीवन के सामने आनेवाले खतरों की व्यापक शृंखला को देखते हुए निराशावादी होना आसान है, और शायद तर्कसंगत भी है। फिर भी, इस वर्ष में समुद्री पारिस्थितिकी प्रणालियों की सुरक्षा के मामले में एक और अधिक सुदृढ़ दृष्टिकोण की शुरूआत हो सकती है, विशेष रूप से अत्यधिक मत्स्यपालन के संबंध में, जो कई प्रजातियों में तेज़ गिरावट के लिए जिम्मेदार है। आगे आनेवाली चुनौती को कम करके नहीं आंका जाना चाहिए। इसका सामना करने के लिए समुद्री संरक्षण में आनेवाली अनेक बाधाओं में से सबसे अधिक दुःसाध्य बाधा पर काबू पाना आवश्यक होगा: दुनिया के उन लगभग 60% महासागरों में जैव विविधता की स्थिरता सुनिश्चित करना जो अलग-अलग देशों के अधिकार-क्षेत्र के बाहर पड़ते हैं। कुछ देशों ने 200-समुद्री-मील की अपनी सीमा के भीतर, जिसमें उनके अनन्य आर्थिक क्षेत्र (EEZ) आते हैं, मछलियों के भंडारों और पारिस्थितिक प्रणालियों को संरक्षित करने के लिए कठोर कानूनों, अच्छे प्रबंधन, और प्रभावी प्रवर्तन के मिले-जुले रूप को लागू किया है। (इसके बहुत अधिक विपरीत उदाहरण भी मौजूद हैं।) तथापि, EEZ के अतिरिक्त, एक घातक समस्या पैदा होती है: अधिकतर जीवित संसाधन, वास्तव में खुली पहुँच वाले हैं, जिससे वे अत्यधिक दोहन के शिकार होते हैं। हालाँकि इन संसाधनों के प्रबंधन में सुधार करने के लिए कई सदाशयपूर्ण प्रयास किए गए हैं, लेकिन इन सभी में कार्रवाई करनेवाले अलग-अलग देशों की दीर्घ-कालीन सर्वहित की ख़ातिर संसाधन के गहन उपयोग के अल्पकालिक आर्थिक लाभों को स्वीकार करने की इच्छा पर भरोसा किया जाता है। जब भी किसी अंतर्राष्ट्रीय प्रक्रिया का पालन करने में कोई लागत आती है, तो हमेशा यह प्रोत्साहन होता है कि नियमों के अनुसार न चला जाए, उन्हें ढिलाई से लागू किया जाए, या उनमें बिल्कुल भाग न लिया जाए। यह पर्यावरण संबंधी मुद्दों के बारे में विशेष रूप से सही होता है, जहाँ राजनीतिक पूंजी अधिक चाहिए होती है; लगभग सर्वसम्मति से समर्थन महत्वपूर्ण होता है; मुद्दे विवादास्पद हो सकते हैं; और लाभों का वितरण अनुपातहीन रूप से होता है और वे एक लंबे समय के उपरांत मिलते हैं। जलवायु परिवर्तन की मामूली-सी राजनीतिज्ञ समझ यह दर्शाती है कि यह भयावह चुनौती का काम है - चाहे यह अनियंत्रणीय न भी हो - जिसमें बहुत अधिक राजनीतिक और सामाजिक ख़तरों के संकट होते हैं: जैसे कैदी समस्या, अप्रत्याशित लाभों की समस्या, और आम जनता की दुविधा। वर्तमान में, संयुक्त राष्ट्र का समुद्री कानून पर समझौता, खाद्य और कृषि संगठन के दिशानिर्देश, और मछली स्टॉक समझौता, और साथ ही वन्य जंतुओं की प्रवासी प्रजातियों पर समझौता सहित अनेक कानून हैं, जो खुले समु्द्र में जैवविविधता को प्रभावित करनेवाली गतिविधियों को नियंत्रित करते हैं। फिर भी, अभी तक के संसाधनों के लिए प्रदान किया गया संरक्षण सीमित बना हुआ है - और इसमें कई खामियाँ हैं। उदाहरण के लिए, क्योंकि सभी देशों ने इन समझौतों पर हस्ताक्षर नहीं किए हैं, इसलिए नियमों से बाध्य होने से बचने के लिए जहाज़ यह चुन सकते हैं कि वे कौन-से देश का ध्वज ("सुविधा का ध्वज") फहराएँगे। कुछ मत्स्य-पालन ऐसे क्षेत्रीय निकायों के अधिकार क्षेत्र के बाहर रहते हैं जो संसाधन प्रबंधन में किसी भूमिका का निर्वाह करते हैं। परिणामस्वरूप, प्रति वर्ष अरबों डॉलर का अवैध, असूचित, और अनियमित मत्स्यपालन किया जाता है। जनवरी में, संयुक्त राष्ट्र के कार्यदल ने एक आशाजनक उपाय की सिफारिश की थी, जिसका उद्देश्य खुले समुद्रों की जैवविविधता पर नए, कानूनी रूप से बाध्यकारी समझौता तैयार करना है, जिसे संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा समीक्षा करने के लिए सितंबर तक तैयार किया जाना है। इस तरह का समन्वित और सुसंगत ढांचा क्षेत्रीय अंतराल दूर करने में मदद कर सकता है; मौजूदा मत्स्य पालन निकायों को परिणामों में सुधार लाने के लिए काम करने के लिए मजबूर कर सकता है; और अंततः ऐसे नए निकायों का विकास किया जा सकता है जिनका ध्यान पारिस्थितिक प्रणालियों के प्रबंधन और संरक्षण पर केंद्रित हो, न कि केवल मछलियों के भंडारों पर। और इसके फलस्वरूप, खुले समुद्र में समुद्री संरक्षित क्षेत्रों को तैयार करने के लिए आवश्यक सहयोग को उत्प्रेरित किया जा सकता है, जिनसे क्षतिग्रस्त या नष्ट पारिस्थितिकी प्रणालियों की बहाली की जा सकेगी। तथापि, प्रभावी होने के लिए, ऐसे क्षेत्रों पर निगरानी रखी जानी चाहिए। इस संबंध में एक आशाजनक विकास अलग-अलग जहाजों द्वारा मत्स्य पालन के उल्लंघनों का पता लगाने और उनके संबंध में कार्रवाई करने के लिए उपग्रह प्रौद्योगिकी का उपयोग किया जाना है। यह सागर प्रबंधन के क्षेत्र में स्थिति को बेहतर बनाने के लिए भारी परिवर्तन ला सकता है, विशेष रूप से उन देशों के लिए, जिनके EEZ क्षेत्र बड़े हैं और समुद्री प्रवर्तन क्षमता सीमित है। उल्लंघनों के संबंध में कार्रवाई करने के लिए एक समन्वित प्रणाली का होना भी महत्वपूर्ण है। नियमों का उल्लंघन करनेवाले जहाज़ों के लिए बंदरगाहों को बंद करना बंदरगाह देश के उपायों का समझौता के ज़रिए हासिल किया जा सकता है, वर्तमान में जिसके अनुसमर्थन की प्रतीक्षा की जा रही है। महासागर प्रशासन और संरक्षण एक महत्वपूर्ण मोड़ पर है। समुद्री संसाधनों का अनिश्चित काल तक दोहन नहीं किया जा सकता। आगामी "राष्ट्रीय अधिकार क्षेत्र से परे जैव विविधता" समझौता, जिसमें अनुपालन पर निगरानी रखने के नए तरीके शामिल किए गए हैं, महासागरीय प्रबंधन में भारी सुधार ला सकता है। कठिनाई यह है कि किसी भी परिदृश्य में, बेहतर प्रबंधन में यह मान लिया जाता है कि हम अल्पकालिक लाभों की अपेक्षा दीर्घकालिक स्थिरता का चयन करेंगे। यह देखना होगा कि हम अन्यथा चयन करने की अपनी पसंद पर काबू रख पाते हैं या नहीं। सार्वजनिक वित्त-पोषित असमानता वाशिंग्टन, डी सी - वैश्विक असमानता में भारी वृद्धि और आय वितरण के एकदम शीर्ष पर धन के संकेंद्रण को संचालित करने वाले कारकों में से एक कारक नवाचार और वैश्विक बाज़ारों के बीच पारस्परिक प्रभाव है। सक्षम उद्यमी के हाथों में प्रौद्योगिकी सफलता अरबों डॉलर के बराबर हो सकती है, जिसका कारण विनियामक संरक्षण और वैश्विक बाज़ारों की, विजेता-सब-कुछ-ले-जाए की प्रकृति होना है। तथापि, जिस बात की अकसर अनदेखी की जाती है, वह जनता के पैसे द्वारा निजी धन के इस आधुनिक संकेंद्रण में निभाई जाने वाली भूमिका है। जैसा कि विकास अर्थशास्त्री डानी रोड्रिक ने हाल ही में उल्लेख किया है, संयुक्त राज्य अमेरिका में नई प्रौद्योगिकियों में ज़्यादातर बुनियादी निवेश का वित्त-पोषण जनता के पैसे से किया गया है। यह वित्त-पोषण रक्षा विभाग या राष्ट्रीय स्वास्थ्य संस्थान (NIH) जैसे संस्थानों के माध्यम से प्रत्यक्ष रूप से हो सकता है, या कर अवकाश, सरकारी ख़रीद की प्रथाओं, और शैक्षिक प्रयोगशालाओं या शोध केंद्रों को दी जानेवाली आर्थिक सहायता के द्वारा अप्रत्यक्ष रूप से हो सकता है। जब किसी शोध का मा���्ग अवरुद्ध हो जाता है - जैसा कि कई मामलों में अनिवार्य रूप से होता है - तो इसकी लागत सार्वजनिक क्षेत्र को वहन करनी पड़ती है। तथापि, उन लोगों के लिए स्थिति अक्सर बहुत अलग होती है, जो इसका फल प्राप्त करते हैं। जब कोई नई प्रौद्योगिकी स्थापित हो जाती है, तो निजी उद्यमी उद्यम पूँजी की मदद से, इसे वैश्विक बाज़ार की माँग के लिए अनुकूलित करते हैं, अस्थायी या दीर्घकालीन एकाधिकार की स्थितियाँ बनाते हैं, और इस तरह भारी मुनाफ़े कमाने लगते हैं। जिस सरकार ने इसके विकास के बड़े हिस्से का बोझ वहन किया होता है, उसे बहुत कम लाभ मिलता है या बिल्कुल नहीं मिलता है। अर्थशास्त्री जेफ़री सैश द्वारा दिया गया एक उदाहरण, हेपेटाइटिस सी के इलाज में इस्तेमाल की जाने वाली दवा, सोवाल्डी है। जैसा कि सैश ने बताया है, जो कंपनी इसकी बिक्री करती है, यानी गिलीड साइंसेज़, उसके पास इसके इलाज का पेटेंट है जो 2028 तक समाप्त नहीं होगा। नतीजतन, गिलीड एकाधिकार क़ीमतें वसूल कर सकती है: 12-हफ़्ते के इलाज के कोर्स के लिए $84,000, जो इस दवा का उत्पादन करने में लगनेवाली क़ीमत यानी कुछ सौ डॉलर की तुलना में बहुत ही ज़्यादा है। पिछले साल, सोवाल्डी और हार्वोनी - जो कंपनी द्वारा $94,000 पर बेची जाने वाली एक और दवा है - की बिक्री की राशि $12.4 बिलियन थी। सैश का अनुमान है कि निजी क्षेत्र ने सोवाल्डी विकसित करने के लिए शोध और विकास पर $500 मिलियन से कम ख़र्च किया था - इस राशि को गिलीड ने बिक्री के कुछ हफ़्तों में वसूल कर लिया था। तथापि, NIH और यूएस के वयोवृद्ध मामलों के विभाग ने उस स्टार्ट-अप का भारी मात्रा में वित्त-पोषण किया था जिसने दवा विकसित की थी जिसका बाद में गिलीड ने अधिग्रहण कर लिया। इसमें कोई संदेह नहीं है कि निजी उद्यमियों की कल्पना, मार्केटिंग की जानकारी, और प्रबंधन कौशल नई प्रौद्योगिकी को सफल रूप में लागू किए जाने के लिए महत्वपूर्ण हैं। और अनेक नवाचारों के वाणिज्यीकरण द्वारा पेश की जाने वाली कम क़ीमतें, बेहतर उत्पाद, और उपभोक्ता की बचत स्पष्ट रूप से बड़े सामाजिक लाभ प्रदान करते हैं। लेकिन हमें इन सफलताओं में सरकार की भूमिका को नज़रअंदाज़ नहीं करना चाहिए। संयुक्त OECD-यूरोस्टेट डेटा से पता चलता है कि 2012 में यूएस में अनुसंधान व विकास में प्रत्यक्ष सरकारी व्यय 31% था। कर अवकाश जैसे अप्रत्यक्ष ख़र्च को जोड़ने पर, यह आँकड़ा 35% तक हो जाएगा। इस तरह के सार्वजनिक परिव्यय की बदौलत कुछ निजी कंपनियाँ अक्सर भारी लाभ कमाती हैं, जो अत्यधिक आय संकेंद्रण का प्रमुख कारण है। ऐसी प्रणाली को बदलने के अनेक तरीके हैं। रोड्रिक ने इसके लिए सार्वजनिक उद्यम पूँजी फ़र्मों - सरकारी धन निधियों - के सृजन का प्रस्ताव किया है जो सार्वजनिक वित्त-पोषण के ज़रिए हासिल की गई बौद्धिक प्रगति के बदले में इक्विटी पोज़िशन लेती है। एक अन्य समाधान यह हो सकता है कि कर कोड में सुधार किया जाए ताकि जब किसी व्यक्ति या फ़र्म द्वारा सार्वजनिक रूप से वित्त-पोषित शोध का नाजायज़ लाभ उठाया जा रहा हो तो उसके लाभों को कम किया जा सके। दोनों समाधानों में ही कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा। सरकारी धन निधियों को शायद उन्हें केवल गैर-वोटिंग शेयर देकर, दलगत राजनीति से रक्षित करना होगा। यह देखते हुए कि मूल सफलता और इसके द्वारा पैदा किए गए धन के बीच की कड़ी स्थापित करना मुश्किल हो सकता है, सार्वजनिक रूप से वित्त-पोषित शोध के लाभार्थियों पर करों में बढ़ोतरी करना चुनौतीपूर्ण होगा। इसमें वैश्विक पूँजी गतिशीलता और कर परिहार की जटिलता भी है, जिस पर G-20 ने अभी कार्रवाई करना शुरू ही किया है। अन्य उपाय भी संभव हैं: पेटेंट क़ानूनों को सख़्त बनाना या फ़ार्मास्यूटिकल जैसे एकाधिकार उद्योगों पर मूल्य नियंत्रण लागू करना , जैसा कि अनेक बाज़ार अर्थव्यवस्थाओं ने किया है। तथापि, जो समाधान नहीं होगा, वह है शोध और नवाचार में कम सार्वजनिक संसाधन लगाना- जो आर्थिक विकास के मुख्य संचालक हैं। बहुत अधिक प्रतिभा को जुटाने के लिए भारी मात्रा में प्रतिलाभ की ज़रूरत नहीं होती; ख़ास तौर से अच्छी उद्यमशीलता के लिए कुछ सालों तक 50% लाभ जैसा मार्जिन स्वीकार्य लाभ होगा। तथापि, उस राशि का कई गुना बस कुछ व्यक्तियों को जनता द्वारा दिए गए तोहफ़े जैसा बनकर रह जाता है। ऐसे उपायों और अंतर्राष्ट्रीय समझौतों के संयोजन जैसा कोई उपाय ढूँढ़ा जा सकता है जिससे करदाताओं को, जानकार उद्यमियों के लिए अभिनव उत्पादों को वाणिज्यिक बनाने के प्रोत्साहनों को हटाए बिना, अपने निवेश पर अच्छे प्रतिलाभ मिल सकते हों। इस समस्या की गंभीरता के महत्व को कम करके नहीं आँका जाना चाहिए। इसमें शामिल धनराशियाँ नए अभिजात वर्ग के निर्माण में योगदान करती हैं जो अपने धन को उत्तराधिकार के ज़रिए आगे बढ़ा सकता है। अगर चुनाव अभियानों के वित्त-पोषण के द्वारा विशेषाधिकार की रक्षा के लिए भारी धन ख़र्च किया जा सकता है (जो अब यूएस में होता है), तो लोकतंत्र और दीर्घकालीन आर्थिक दक्षता दोनों के लिए, इस समस्या के निहितार्थ व्यवस्थित हो सकते हैं। संभावित समाधान साधारण इतने आसान नहीं हैं, लेकिन वे तलाश करने लायक हैं। सतत विकास के लिए क्रांतिकारी लक्ष्य बर्लिन – आइए हम एक पल के लिए कल्पना करें कि हम दुनिया को अपनी इच्छा के अनुसार बदल सकते हैं। भारी आर्थिक असमानता का स्थान सामाजिक और राजनीतिक समावेशन ले लेता है। वैश्विक मानव अधिकार वास्तविकता बन जाते हैं। हम वनों की कटाई और कृषि योग्य भूमि के विनाश को समाप्त कर देते हैं। मछलियों के भंडारों में वृद्धि होने लगती है। दो अरब लोग गरीबी, भूख, और हिंसा से रहित जीवन की आशा करने लगते हैं। जलवायु परिवर्तन और संसाधन की कमी का ढोंग करने के बजाय, हम अपने भूमंडल और उसके वातावरण की सीमाओं का सम्मान और समर्थन करना शुरू कर देते हैं। 2001 में जब संयुक्त राष्ट्र ने मिलेनियम डेवलपमेंट गोल्स (एमडीजी) को अपनाया था तब यही उद्देश्य था। अगले साल जब एमडीजी की समय-सीमा समाप्त हो जाएगी और संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण और विकास की नीति के लिए अनुवर���ती ढाँचे को अपनाएगा तब यही उद्देश्य होगा। आनेवाले सतत विकास के लक्ष्यों (एसडीजी) का उद्देश्य, पारिस्थितिक तंत्र की रक्षा करना, संसाधनों का संरक्षण करना, और एमडीजी की ही तरह लाखों लोगों को गरीबी से बाहर निकालना होगा। पर्यावरण और विकास संबंधी ढाँचों को परस्पर मिलाना एक अच्छा विचार है - यह जलवायु की रक्षा, जैव-विविधता के संरक्षण, मानव अधिकारों को बनाए रखने, और गरीबी को कम करने के लिए संयुक्त राष्ट्र के तत्वावधान में तैयार किए गए कानूनी तौर पर बाध्यकारी अनेक अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों और समझौतों की सफलता पर आधारित होता है। हालाँकि वे संभवतः परिपूर्ण नहीं होते हैं - और, दुर्भाग्यवश, जो देश उनकी पुष्टि करते हैं वे हमेशा लक्ष्य हासिल नहीं करते है - उनसे ऐसी संस्थागत प्रक्रियाओं के निर्माण का मार्ग प्रशस्त हुआ है जिनसे देश अपने वादों को पूरा करने के लिए प्रोत्साहित होते हैं और नागरिक सरकारों को जवाबदेह ठहराने के लिए प्रोत्साहित होते हैं। लेकिन, हालाँकि इस प्रकार एसडीजी को ठोस कानूनी आधार मिलेगा, परंतु उस आधार को आगे विकसित किया जाना चाहिए। शुरूआत करनेवालों के लिए, वैश्विक समझौते और लक्ष्य अभी तक प्रमुख पर्यावरणीय चुनौतियों के लिए निर्धारित नहीं किए गए हैं, इनमें उपजाऊ ऊपरी मिट्टी का विनाश और वैश्विक प्लास्टिक उत्पादन शामिल हैं। इस तरह के समझौतों का होना इसलिए आवश्यक होगा ताकि एसडीजी मानव अधिकारों, पर्यावरण और विकास पर समग्र रूप से विचार कर सके। शोधकर्ता और नागरिक-समाज संगठन 2020 तक मिट्टी के क्षरण की स्थिति को पलटने के लिए आह्वान कर रहे हैं, और वैश्विक खाद्य सुरक्षा के इस मूलभूत पहलू पर विचार करने के लिए संयुक्त राष्ट्र में विशेषज्ञों के कम-से-कम एक अंतर्राष्ट्रीय पैनल के उपस्थित होने के लिए दबाव डाल रहे हैं। हर साल, 12 मिलियन हेक्टेयर भूमि - जो आकार में ऑस्ट्रिया और स्विट्जरलैंड के क्षेत्र के बराबर है - अति उपयोग और उर्वरकों का अत्यधिक उपयोग करने के कारण नष्ट हो जाती है। बड़े पैमाने पर खेती किेए जाने के कारण इसका पर्यावरणीय प्रभाव कई गुना अधिक बढ़ जाता है। इसके सामाजिक परिणाम, बेदखली, आजीविकाएँ समाप्त होना, और हिंसक संघर्ष भी बहुत अधिक गंभीर हो सकते हैं। प्लास्टिक के उपयोग पर भी अंकुश लगाया जाना चाहिए। 1950 के दशक से दुनिया भर में इसका उत्पादन सौ गुना बढ़ गया है। हर साल, 280 लाख टन से अधिक प्लास्टिक का उत्पादन होता है, यह भारी मात्रा में भूजल, नदियों, और महासागरों में समा जाता है, और यह क्रम इसी तरह आगे चलता रहता है। हालाँकि प्लास्टिक जैवविघटनीय नहीं है, परंतु किसी भी देश ने इसे हमारे वातावरण में प्रवेश करने से रोकने का वादा नहीं किया है। एक अन्य अत्यधिक अपुष्ट संभावना यह होगी कि पर्यावरण की दृष्टि से हानिकारक और सामाजिक दृष्टि से अहितकर सब्सिडियों को चरणबद्ध रूप से समाप्त करने के लिए लक्ष्य निर्धारित किए जाएँ। वैश्विक स्तर पर, यूरोपीय संघ की सामान्य कृषि नीति के ज़रिए दी जानेवाली सब्सिडियों जैसी इन सब्सिडियों की राशि अरबों डॉलरों में होती है, जिनसे बजट खाली हो जाते हैं और अक्सर गरीबों के लिए कुछ नहीं हो पाता है। इनमें कटौती करने से न केवल अलाभकारी प्रोत्साहनों को समाप्त किया जा सकेगा; बल्कि इससे ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षा, सार्वभौमिक स्वास्थ्य देखभाल, और बुनियादी सुविधाओं के लिए धन उपलब्ध हो सकेगा जहाँ पर आय के अवसर पैदा करने के लिए इसकी ज़रूरत है। दुर्भाग्यवश, हमें हमारी इच्छाओं की दुनिया मिलने की संभावना नहीं है। एसडीजी समझौते यह दर्शाते हैं कि बहुपक्षीय ढाँचे में वर्तमान में क्या संभव है: अपेक्षाकृत कुछ नहीं। कोई भी सरकार असमानता और भूख के कारणों से निपटने के लिए सही मायनों में तैयार नहीं है, जिसके लिए उचित कराधान और व्यापक कल्याण को सर्वोच्च प्राथमिकता देने की आवश्यकता होगी। इस तरह के सुधार किसी भी विकास सहायता की तुलना में अधिक प्रभावी होंगे, लेकिन फिलहाल वे निषिद्ध हैं। वैश्विक अर्थव्यवस्था के नियम भी पहुँच के बाहर बने हुए हैं, जिससे यह लगभग असंभव है कि वित्तीय और व्यापार नीतियों का पुनर्गठन यह सुनिश्चित करने के लिए किया जा सके कि उनके कारण अधिक गरीबी, अनियंत्रित जलवायु परिवर्तन, और अपरिवर्तनीय संसाधन विनाश नहीं होते हैं। अब तक की सहमति की भाषा यह भरोसा नहीं दिलाती है। हर कीमत पर आर्थिक विकास के लिए घिसी-पिटी प्रतिबद्धता से इस प्रश्न का कोई उत्तर नहीं मिलता कि हमारे भूमंडल की सीमाओं और इस तथ्य को देखते हुए कि अरबों लोग गरीबी में रहते हैं, विकास को कैसे संतुलित किया जा सकता है। सीमित दुनिया में, असीमित विकास असंभव है, और यदि विकास के लाभों का उचित रूप से वितरण नहीं किया जाता है तो उत्पादन के बढ़ने से हर किसी को भोजन उपलब्ध नहीं हो जाएगा। विकास का साहसिक एजेंडा तैयार करने में केवल उन्नत देश ही रुकावट नहीं डाल रहे हैं। उभरते और विकासशील देशों में से संपन्न देश एसडीजी समझौतों का उपयोग मुख्य रूप से अंतर्राष्ट्रीय सहायता के हस्तांतरणों के लिए माँग करने के एक मंच के रूप में कर रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र की स्थिति अपने सदस्यों जैसी ही है। वे कितने अच्छे हैं इसका पता हमें इस बात से चल पाएगा कि वे एसडीजी को इक्कीसवीं सदी में पर्यावरण और विकास नीति के लिए सही मायने में नई प्राथमिकताओं और सही मायने में सार्वभौमिक लक्ष्यों को स्थापित करने के लिए किस सीमा तक एक अवसर के रूप देखते हैं। अफ़्रीका में अदृश्य भुखमरी दार अस सलाम – यह 20 साल से कुछ अधिक पहले की बात है, जब दक्षिण अफ्रीका के फोटोग्राफर केविन कार्टर ने उस विवादास्पद तस्वीर से दुनिया को अचंभे में डाल दिया जिसमें अकाल के दौरान भूख से बेहाल एक नन्हे सूडानी बच्चे पर गिद्ध अपनी नज़र गढ़ाए बैठा है। आलोचकों ने इस चित्र की आलोचना "आपदा के अश्लील चित्रण" के रूप में की और इसे इस बात के एक और उदाहरण के रूप में पेश किया कि अंतरराष्ट्रीय मीडिया अफ्रीकी समस्याओं को किस तरह सनसनीख़ेज तरीके से पेश करता है। मुझे जो चीज़ विचलित करती है वह यह चित्र नहीं है। बल्कि वह यह बात है कि चित्र में जो स्थितियाँ दर्शाई गई हैं वे दो शताब्दियों के बाद भी मूलतः वैसी ही बनी हुई हैं। हर साल, दुनिया भर में 3.1 मिलियन बच्चे अभी भी भूख से मरते हैं। एक अफ़्रीकी डॉक्टर होने के नाते, मैं यह जानता हूँ कि गंभीर कुपोषण और भुखमरी के विनाशकारी परिणाम हमेशा दिखाई नहीं देते हैं। ये हमेशा उतने अधिक साफ दिखाई नहीं देते हैं जितने कि वे भोजन की नलियों से लैस कंकालनुमा बच्चों की बाहर निकलती पसलियों में दिखाई देते हैं, जिन्हें मैं तंज़ानिया के अस्पताल के वार्डों में देखा करता था। दीर्घकालिक कुपोषण, या “अदृश्य भुखमरी” कई अन्य रूपों में दिखाई देती है – लेकिन यह विनाशकारी और घातक हो सकती है। और हालाँकि घोर कुपोषण सहित कई अन्य बीमारियों से होनेवाली मौतों में कमी हुई है, पर अदृश्य भुखमरी फैलती जा रही है। पिछले दो दशकों में, एचआईवी, तपेदिक और मलेरिया का मुकाबला करने में आश्चर्यजनक सफलता मिली है। अफ़्रीका में कुछ देशों में नए एचआईवी संक्रमणों में 50% जितनी अधिक तक की कमी हुई है, एड्स-संबंधी रोगों के मामले में मौतों की संख्या में 30-48% तक की कमी हुई है; तपेदिक के मामलों में 40% तक की कमी हुई है, और मलेरिया के मामलों में 30% तक की कमी हुई है। लेकिन कुपोषण के कारण शैशवावस्था में विकास में रुकावट अभी भी उच्च स्तर पर बनी हुई है, इसमें इसी अवधि के दौरान केवल 1% की ही कमी हुई है। अफ़्रीका में, भुखमरी बच्चों की मृत्यु का प्रमुख कारण बना हुआ है, पाँच साल से कम के बच्चों में होनेवाली सभी मौतों में से आधी मौतें इसके कारण होती हैं और एड्स, तपेदिक, और मलेरिया को मिलाकर होनेवाली मौतों की तुलना में इससे होनेवाली मौतें अधिक होती हैं। वास्तव में, बहुत से वैज्ञानिक अध्ययनों से पता चला है कि कुपोषित बच्चे में संक्रमण के संपर्क में आनेवाली अन्य बीमारियों से पीड़ित होने और उनसे अधिक समय तक पीड़ित रहने की कहीं अधिक संभावना होती है। उदाहरण के लिए, अतिसार बहुत अधिक कम वज़न वाले बच्चों के लिए एक घातक रोग है जिनकी आसानी से उपचार की जा सकनेवाली किसी बीमारी से उनके मरने की संभावना 12 गुना अधिक होती है। और बहुत अधिक कम वज़न वाले बच्चों में मलेरिया से मरने की संभावना भी 9.5 गुना से अधिक होती है। वास्तव में, अब इस बात की पुष्टि हो चुकी है कि बाल कुपोषण वैश्विक रोगों का प्रमुख कारण है और विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार 2011 में पाँच साल से कम आयु की सभी मौतों में से 45% इसके कारण हुई थीं। युद्ध आक्रांत मध्य अफ़्रीकी गणराज्य से हाल ही में प्राप्त रिपोर्टों से यह पता चलता है कि वहाँ गोलियों के बजाय भूख से अधिक बच्चे मर रहे हैं। इन आँकड़ों से लगता है कि कुपोषण की समस्या से पार नहीं पाया जा सकता है। लेकिन इसके जग ज़ाहिर उपाय हैं: विटामिन ए, आयोडाइज़्ड नमक और पोषक खाद्य पदार्थ। केवल विटामिन ए की कमी के कारण ही हर साल आधा-मिलियन बच्चे अंधेपन के शिकार होते हैं, और उनमें से आधे अंधे होने के 12 महीनों के भीतर मर जाते हैं। इसी तरह, विकासशील देशों में बच्चे पैदा करने की उम्रवाली सभी महिलाओं में से आधी महिलाएँ लौह तत्व की कमी के कारण होनेवाली खून की कमी के कारण कमज़ोर रोगक्षम प्रणालियों का शिकार होती हैं। कुपोषण के कारण होनेवाली दीर्घ-कालीन क्षति का डोमिनो प्रभाव होता है, शैक्षिक उपलब्धि बाधित होती है, और अंततः राष्ट्रीय अर्थव्यवस्थाएँ डगमगा जाती हैं। इस सतत संकट से निपटने के लिए धन – अनुमानतः $10 बिलियन प्रति वर्ष – और माताओं और बच्चों को जीवन-रक्षक समाधान उपलब्ध करने के लिए नई और बेहतर रणनीतियों की आवश्यकता होती है जिन्हें इन समाधानों की सबसे अधिक ज़रूरत होती है। लेकिन यदि भुखमरी की लगात पर विचार किया जाए तो यह लागत उतनी अधिक चुनौतीपूर्ण नहीं लगती है। यूनिसेफ के अनुमान के अनुसार अफ़्रीका के बाल कुपोषण की लागत $25 बिलियन प्रति वर्ष है। और यह पूरी कहानी नहीं है। कुपोषण के कारण उत्पादकता की हानि और स्वास्थ्य देखभाल की उच्च लागतों के फलस्वरूप वैश्विक अर्थव्यवस्था पर अनुमानतः $3.5 ट्रिलियन प्रति वर्ष की लागत आती है। इस चुनौती का मुकाबला करने, ज़िंदगियों को बचाने, और अर्थव्यवस्थाओं में सुधार लाने के लिए अफ़्रीका को कृषि क्षेत्र में व्यापक रणनीति और अधिक निवेश करने की आवश्यकता है। अफ़्रीकी संघ ने वर्ष 2014 को कृषि और खाद्य सुरक्षा का वर्ष घोषित किया है, और इससे महाद्वीप के कृषि क्षेत्र का महत्वपूर्ण विकास होने की संभावना है। सिद्धांत रूप से, इसके फलस्वरूप पोषण में समग्र सुधार होना चाहिए; लेकिन कृषि में अधिक निवेश करना कोई रामबाण उपाय नहीं है। हमें पोषण-संवेदी कृषि कार्यक्रमों को तैयार करने की आवश्यकता है जिनमें लघु कृषक, परिवार, और बच्चे सम्मिलित हों। भूमि के स्वामित्व और खेती संबंधी निर्णय लेने में महिलाओं के नियंत्रण में वृद्धि करने, और साथ ही घरेलू बागबानी तथा पशु और कुक्कुटपालन के ज़रिए घरेलू खाद्य उत्पादन को प्रोत्साहित करने की दृष्टि से दिए जानेवाले कृषि ऋणों और सहायताओं तक पहुँच उपलब्ध करना इस दिशा में एक बड़ा कदम होगा। अध्ययनों से पता चलता है कि पुरुषों की तुलना में महिलाओं में इसकी संभावना अधिक होती है कि वे अतिरिक्त आय को खाद्य और स्वास्थ्य पर खर्च करेंगी। उनकी कृषि आय और निर्णय लेने की क्षमता को बढ़ाने से अंततः बच्चों के स्वास्थ्य और पोषण पर बहुत अधिक प्रभाव पड़ता है। इसके अतिरिक्त, कृषि संबंधी नीतियों, सहायताओं, और निवेशों से परंपरागत रूप से अनाजवाले कृषकों को लाभ पहुँचता रहा है। लेकिन नीति-निर्माताओं को माँस, फल और सब्ज़ियों जैसे अधिक पोषक खाद्यों तक पहुँच को बढ़ाने पर विचार करने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए जो गरीबों के लिए बहुत महँगे होते हैं। कुपोषण जीवन के पहले पाँच हज़ार दिनों के दौरान सबसे अधिक क्षति पहुँचाता है जिसके फलस्वरूप शिशुओं के स्वास्थ्य पर गंभीर और अपरिवर्तनीय परिवर्तन होते हैं। अदृश्य भुखमरी के मामले में सचमुच सफलता पाने के लिए अफ़्रीका की सरकारों को वैश्विक विकास के साझेदारों की मदद से शीघ्रतापूर्वक कार्रवाई करनी चाहिए। अफ़्रीका में बाल भुखमरी के जानलेवा होने के लिए उसका उतना अधिक प्रभावशाली होना ज़रूरी नहीं है जितना कि कार्टर के 1993 के चित्र में दर्शाया गया है। भूख पर पुनर्विचार रोम – संसार के सामने पोषण की विकट समस्या है. हालांकि सहस्‍त्राब्दि विकास लक्ष्य की दिशा में बड़े कदम उठाए गए हैं जिसके तहत विकासशील देशों में अल्पपोषित लोगों के अनुपात को आधा करना है. लेकिन पोषण की समस्या अपने सर्वव्यापी और जटिल रूप में बनी हुई है. आखिरकार यह मसला महज अधिक भोजन उपलब्‍ध कराने से कहीं आगे जाता है. अल्पपोषण को कम करने के प्रयासों को यह सुनिश्‍चित करना चाहिए कि लोगों की सही प्रकार के पर्याप्‍त भोजन तक पहुंच हो – ऐसा भोजन जो उन्हें पोषण दे जो स्वस्‍थ, उत्पादकीय जीने के लिए जरूरी है. सन् 1945 से खाद्य उत्पादन तीन गुना बढ़ा है. प्रति व्यक्‍ति खाद्य उपलब्‍धता भी औसतन 40% बढ़ी है. केवल पिछले एक दशक में एशिया-प्रशांत क्षेत्र में सब्जियों का उत्पादन एक-चौथाई बढ़ा है. इस क्षेत्र में दुनिया की तीन-चौथाई सब्जियां उगाई जाती हैं. परंतु इन सब लाभों के बावजूद आज भी कम से कम 80.5 करोड़ लोग रोजाना भूखे पेट रह जाते हैं. इनमें से करीब 79.1 करोड़ लोग विकासशील देशों में रहते हैं. इससे कहीं अधिक लोग मौसमी रूप से या परिस्थितिवश भूखे रह जाते हैं. और दो अरब से ज्यादा लोग “छिपी हुई भूख” से पीड़ित हैं – यानी एक या अधिक सूक्ष्म पोषक तत्त्वों की कमी से. भूख और अल्पपोषण वयस्कों के स्वास्‍थ्य और उत्पादकता को नष्‍ट करता है तथा उनके सीखने व काम करने की क्षमता को कम करता है. इसके अलावा इससे बच्चों का शारीरिक तथा मानसिक विकास अवरुद्ध हो जाता है तथा वे बीमारी और अकाल मृत्यु के शिकार होने लगते हैं. पांच साल से कम उम्र के चार में से एक बच्चे की वृद्धि कुपोषण के कारण रुक जाती है. जीवन के प्रथम 1000 दिनों (गर्भधारण से लेकर बच्चे की दूसरी वर्षगांठ तक) पर्याप्‍त पोषण अत्यंत जरूरी है. लेकिन उसके बाद भी भूख और अल्पपोषण बच्चों के वयस्क उम्र तक बढ़ने की संभावनाओं को कम करता है. अगर वे वयस्क हो भी जाएं तो भी वे अपनी पूरी क्षमता को प्राप्‍त नहीं कर पाते हैं. विडंबना है कि दुनिया के अनेक भागों में व्यापक भूख मोटापे के लगातार बढ़ते स्तरों के साथ-साथ मौजूद है. 1.5 अरब से अधिक लोग सामान्य से ज्यादा वजन के हैं और उनमें से एक-तिहाई घोषित तौर पर मोटे हैं. ये लोग खासतौर पर असंचारी रोगों, यथा हृदय रोग, हृदयाघात और मधुमेह के ज्यादा शिकार होते हैं. लोकप्रिय धारणा के विपरीत, मोटापा का जुड़ाव भोजन की बहुतायत से कम और किफायती, विविध तथा संतुलित आहारों तक अपर्याप्‍त पहुंच से ज्यादा है. इस प्रकार अंतर्राष्‍ट्रीय समुदाय के सामने जो चुनौती है वह है सही किस्मों के भोजन के पर्याप्‍त सेवन को सुनि‌‌श्‍चित करना. इसका अर्थ है ऐसी भोजन प्रणालियां विकसित करना जो लोगों की जरूरतों के सापेक्ष ज्यादा अनुकूल हो, विशेषकर उन लोगों की जरूरतों के जो समाज से कटे हुए हैं और आर्थिक रूप से हाशिये पर हों. माताएं, छोटे बच्चे, वृद्ध तथा विकलांग जनों के अल्पपोषण के मकड़जाल में फंसने की ज्यादा आशंका रहती है. खाद्य असुरक्षा और अल्पपोषण के खातमे के प्रयासों में इन समूहों पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए. यह सुनि‌श्‍चित करने के लिए कि आज के प्रयासों से भावी पीढ़ियां भी लाभांवित हों वैश्‍विक खाद्य प्रणालियों को सुधारने वाली नीतियों में पर्यावरणीय निर्वहनीयता पर जोर दिया जाना चाहिए. विश्‍व नेतृत्वों को खासतौर पर प्रचलित खाद्य उत्पादन प्रक्रियाओं का पुर्नमूल्यांकन करना चाहिए, जो प्राकृतिक संसाधनों पर अनावश्यक दबाव डालती हैं, ताजे पानी के स्त्रोतों को खत्म करती हैं, जंगलों का अतिक्रमण करती हैं, मिट्टी की उर्वरता नष्‍ट करती हैं, प्राकृतिक मत्‍स्य भंडारों को नष्‍ट करती हैं और जैव-विविधता को कम करती हैं. इससे भी बुरी बात यह है कि भोजन के भंडारण और उपभोक्‍ताओं तक उसे पहुंचाने के पर्याप्‍त ढांचागत संरचना के अभाव में भोजन का भारी पैमाने पर नुकसान हो जाता है. अवश्य ही पर्याप्‍त मात्रा में पोषण से भरपूर भोजन उत्पादन और पर्यावरण संरक्षण के बीच सही संतुलन कायम करना अनिवार्य है. पशुधन उत्पादन पर विचार करें जो अनेक प्रकार के भोजनों का स्त्रोत है यथा दूध, अंडे और मांस. इससे विकासशील देशों में पोषण से भरपूर आहार मिलने लगा है और लाखों लोगों को आजीविका मिली है. लेकिन अनिर्वहनीय उत्पादन प्रणालियों तथा दुनिया के कई भागों में अनाप-शनाप व अत्यधिक उपभोग से जलवायु परिवर्तन, रोगों के प्रसार और पोषण असंतुलन जैसे गंभीर नतीजे भी मिले हैं. लेकिन सशक्‍त राजनैतिक प्रतिबद्धता के साथ वैश्‍विक खाद्य-उत्पादन प्रणालियों को बदला जा सकता है. इस दिशा में एक स्‍पष्‍ट कदम यह हो सकता है कि यह सुनिश्‍चित किया जाए कि सभी खाद्य-संबंधी कार्यक्रम, नीतियां और पहल पोषण और निर्वहनीयता तय करने वाली हों. इसी तरह भोजन-संबंधी शोध व विकास पोषण से भरपूर भोजन के उत्पादन और कृषि प्रणालियों के विविधीकरण को सुगम बनाने पर केंद्रित हों. पानी, जमीन, खाद तथा श्रम के और अधिक कुशल उपयोग के तरीके खोजना भी अनिवार्य है जिससे पर्यावरण पर कम से कम विपरीत प्रभाव पड़े और पारिस्‍थितिकीय निर्वहनीयता सुनिश्‍चित हो सके. ऐसे उपाय खोजना भी उतना ही महत्वपूर्ण जो स्‍थानीय समुदायों को अपने आहार सुधारने में सक्षम बनाते हों. इसके लिए व्यापक जन-स्वास्‍थ्य एवं शिक्षा अभियान चलाना जरूरी है और सुनम्यता बढ़ाने के लिए सामाजिक संरक्षण तथा रोजगार व आमदनी सृजन के कदम भी जरूरी हैं. अंत में, उत्पादकों व वितरकों को समर्थन और प्रोत्साहन दिए जाने चाहिए ताकि वे अपनी विद्यमान प्रणालियों में बदलाव ला सकें. आखिरकार, निर्वहनीयता की ओर कोई भी बदलाव किसानों की आजीविका की कीमत पर नहीं आ सकता है. बेहतर पोषण की आर्थिक मंशा भी है. अपने सभी स्वरूपों में कुपोषण कम उत्पादन व अतिरिक्‍त खर्चों के कारण हर साल वैश्‍विक आर्थिक कल्याण में लगभग 5% की कमी लाता है. अनुमान है कि सूक्ष्मपोषण कमियों को दूर करने से मिले आर्थिक लाभों से लागत/लाभ अनुपात लगभग 1:13 तक बढ़ जाता है. यानी लागत से 13 गुना ज्यादा लाभ मिलता है. रोम में आयोजित होने वाली पोषण पर द्वितीय अंतर्राष्‍ट्रीय कॉन्फेरेंस एक ऐतिहासिक अवसर प्रदान करेगी जिससे बेहतर नीतियों और अंतर्राष्‍ट्रीय एकजुटता के माध्यम से सभी के लिए पोषण बढ़ाने हेतु राजनीतिक प्रतिबद्धता को बल मिलेगा. भोजन तक पहुंच, पोषण और निर्वहनीयता में जरूरी निवेश करने में विफलता का नैतिक – और आर्थिक रूप से – कोई औचित्य नहीं है. भारत की पुरानी पड़ चुकी दंड संहिता नई दिल्ली – भारत में प्रत्यक्ष रूप से असंबंधित दिखाई देनेवाले अनेक विवादों में वास्तव में एक महत्वपूर्ण तत्व समान है: वे सभी उन दंडनीय अपराधों से संबंधित हैं जिन्हें उन्नीसवीं सदी के मध्य में भारत के ब्रिटिश साम्राज्य के शासकों द्वारा संहिताबद्ध किया गया था और जिनके बारे में भारत ने सिद्ध कर दिया है कि वह इन्हें निकाल फेंकने में असमर्थ या अनिच्छुक है। ब्रिटिश सरकार द्वारा तैयार की गई भारतीय दंड संहिता की समस्यापरक विशेषताओं में "राजद्रोह" का निषेध, जिसे अस्पष्ट रूप से "कानून द्वारा स्थापित सरकार के खिलाफ असंतोष" का प्रचार करनेवाली अभिव्यक्ति या कार्यों के रूप में परिभाषित किया गया है; समलैंगिक कृत्यों का अपराधीकरण; और व्यभिचार के लिए असमान अभियोजन शामिल हैं। विशेष रूप से, इनमें से पहले दो, पिछले कुछ समय से जनता के भारी आक्रोश का स्रोत रहे हैं - और यह ठीक भी है। जैसा कि मैंने संसद की लोकसभा (जिसका मैं सदस्य हूँ) में इन प्रावधानों में संशोधन पेश करते समय तर्क दिया था कि अधिकारियों द्वारा इन प्रावधानों का ऐसे रूपों में आसानी से दुरुपयोग किया जा सकता है कि उनसे भारतीयों के संवैधानिक अधिकारों का हनन हो। राजद्रोह पर विचार करें, जिसके खिलाफ ब्रिटिश नीतियों की किसी भी आलोचना को दबाने के लिए 1870 में जो निर्मम कानून बनाया गया था, उसके बारे में एक अंग्रेज़ ने साफ-साफ कहा था कि चाहे यह ऐसी आलोचना हो जिससे शांति का पूर्ण उल्लंघन न भी होता हो। परिणामस्वरूप, दंड संहिता की धारा 124A बनाई गई जिसके तहत ऐसे किसी भी व्यक्ति पर राजद्रोह का आरोप लगाया जा सकता है और उसे संभावित रूप से आजीवन कारावास की सज़ा दी जा सकती है जिसने सरकार के खिलाफ असंतोष को भड़काने के लिए "शब्दों, संकेतों, या हावभावों" का इस्तेमाल किया हो। दूसरे शब्दों में, भारतीयों के लिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नहीं है। लेकिन ब्रिटेन के नेताओं के लिए यह भी पर्याप्त नहीं था, जिन्होंने 1898 में इस कानून को और भी अधिक कड़ा करने के लिए इसे इंग्लैंड के राजद्रोह कानून से भी अधिक कठोर बना दिया। बंगाल के ब्रिटिश लेफ्टिनेंट गवर्नर के शब्दों में, ब्रितानवी सरकार इस निष्कर्ष पर पहुँची कि "राजद्रोह का कोई कानून जो लोगों की स्वयं अपनी राष्ट्रीयता और अपने धर्म की सरकार द्वारा शासित व्यक्ति के लिए पर्याप्त हो, वह विदेशी शासन के अधीन किसी देश के लिए अपर्याप्त, या कुछ मामलों में अनुपयुक्त हो सकता है।" इस प्रकार राजद्रोह का उद्देश्य स्पष्ट रूप से भारतीय राष्ट्रवादियों को आतंकित करने के साधन के रूप में था; दरअसल, महात्मा गांधी इसके प्रमुख पीड़ितों में से थे, हालांकि वे उसके अंतिम पीड़ित नहीं थे। वास्तव में, अभी पिछले महीने नई दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में छात्रों को राजद्रोह के आरोप में इसलिए गिरफ्तार किया गया था कि उन्होंने दोषी करार किए गए आतंकवादी अफज़ल गुरु की फांसी के खिलाफ अपना विरोध प्रकट करने के लिए "भारत विरोधी" नारों का प्रयोग किया था। इन गिरफ्तारियों ने कई भारतीयों को हैरान कर दिया, कानून के अस्पष्ट शब्दों के बिना ऐसा करना संभव नहीं हो सकता था। मेरे संशोधन से राजद्रोह के आरोपों को उन परिस्थितियों तक सीमित किया जाएगा जिनमें किसी व्यक्ति के शब्दों या कार्यों से प्रत्यक्ष रूप से हिंसा की जाती है या हिंसा के लिए उकसाया जाता है, या जहां वे हत्या या बलात्कार जैसे किसी अपराध के रूप में हों जिसके लिए भारतीय दंड संहिता के तहत आजीवन कारावास की सज़ा है। यह स्पष्ट करने पर कि मात्र सरकार की कार्रवाई की आलोचना करने का अर्थ राजद्रोह नहीं है, इस तरह के संशोधन से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता अधिक सुदृढ़ होगी - जो किसी भी लोकतंत्र के लिए मौलिक है - साथ ही इससे ऐसी किसी अभिव्यक्ति के विरुद्ध सुरक्षा मिल सकेगी जो वास्तव में हिंसा को उकसानेवाली हो। फिर दंड संहिता की धारा 377 भी है, जिसे 1860 में अधिनियमित किया गया था और यह "प्रकृति के आदेश के खिलाफ शारीरिक संभोग" को गैर-कानूनी मानती है – इसका शाब्दिक वर्णन इतने पुराने ढंग से किया गया है कि यह अधिकतर आधुनिक समाजों में उपहास का विषय बनेगा। इससे पहले भी, भारतीय संस्कृति और सामाजिक व्यवहार में समलैंगिकता के खिलाफ कोई वर्जना नहीं थी; इसे ब्रिटिश विक्टोरियाई लोगों ने आरंभ किया था। सहमति देनेवाले वयस्कों के बीच अकेले में किए गए यौन कृत्यों को अपराध मानकर, इसकी धारा 377 भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 (जीवन और स्वतंत्रता, गोपनीयता और गरिमा सहित), अनुच्छेद 14 (कानून के सम्मुख समानता) और अनुच्छेद 15 (भेदभाव का निषेध) के तहत गारंटी किए गए मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करती है। इसके वास्तविक दुनिया के परिणाम विक्षुब्ध कर देनेवाले हैं: पिछले दो वर्षों में, धारा 377 के तहत 58 भारतीयों को अपने घरों में एकांत में किए गए कृत्यों के लिए गिरफ्तार किया गया है। धारा 377 में मेरे संशोधन के फलस्वरूप सहमति से किसी भी लिंग या अभिमुखतावाले वयस्कों के बीच यौन-संबंधों का गैर-अपराधीकरण हो जाता। दुर्भाग्यवश, सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के रूढ़िवादी सदस्यों ने इस कानून को बनाए रखने के 2013 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले का हवाला देते हुए संसद में इस बिल को पेश किए जाने के खिलाफ मतदान किया। लेकिन अभी भी उम्मीद बाँधे रखने के लिए एक कारण बाकी है: सुप्रीम कोर्ट ने अपने पहले के फैसले के खिलाफ एक उपचारात्मक पुनरीक्षा याचिका पर सुनवाई करने के लिए सहमति दे दी है। भारतीय दंड संहिता विषमलैंगिक महिलाओं के मामले में उतनी उदार नहीं है जितनी यह समलैंगिकों के मामले में है। इसकी धारा 497 के अनुसार, कोई पति अपनी व्यभिचारिणी पत्नी, और उस पुरुष पर मुकदमा चला सकता है जिसके साथ उसने यौन संबंध बनाए थे, लेकिन कोई महिला अपने व्यभिचारी पति पर तब तक मुकदमा नहीं कर सकती, जब तक उसकी संगिनी कम उम्र की या शादीशुदा न हो। यह एक भयावह और पुराना दोहरा मानक है। अब भारत की सरकार के लिए समय आ गया है कि वह अपने नागरिकों के शयनकक्षों से बाहर निकल जाए, और यह भी स्वीकार करे कि किसी अहितकर राजद्रोह कानून के लिए जीवंत और विवादित लोकतंत्र में कोई जगह नहीं है। दरअसल, जिन ब्रिटिश लोगों ने इन समस्याग्रस्त अपराधों को बनाया था, स्वयं उन्होंने अपने देश में अब उन सभी कानूनों को समाप्त कर दिया है, जिससे बदलते समय की ज़रूरत परिलक्षित होती है। (उपनिवेशवाद की एक सबसे खराब विरासत यह रही है कि इसके बुरे प्रभाव भारत में, अधिकृत फिलिस्तीन, कैरिबियन, और दूसरी जगहों पर, इसके साम्राज्य की समाप्ति के बाद भी जारी रहे हैं।) स्वयं राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी को भी यह लगता है कि अब समय आ गया है कि भारत की दंड संहिता को इक्कीसवीं सदी में ले जाया जाए, उन्होंने पिछले महीने, संहिता की 155वीं वर्षगांठ पर, इस बात पर बल दिया कि इसे पूरी तरह से संशोधित करने की जरूरत है। उन्होंने घोषणा की कि भारत का आपराधिक कानून, बड़े पैमाने पर "अंग्रेजों द्वारा अपनी औपनिवेशिक जरूरतों को पूरा करने के लिए अधिनियमित किया गया था," और इसे इस रूप में संशोधित किया जाना चाहिए कि इसमें हमारी "समकालीन सामाजिक चेतना प्रतिबिंबित हो सके।" केवल उसके बाद ही यह जिन "मौलिक मूल्यों पर टिका हुआ है, उनके महत्व को उजागर करते हुए सभ्यता का वास्तविक दर्पण बन सकता है।" इस भाषण के साथ, मुखर्जी ने इस चुनौतीपूर्ण मुद्दे को दक्षिणपंथी भाजपा सरकार के पाले में डाल दिया। हम उम्मीद कर सकते हैं कि इसके नेता इस पर कार्रवाई करेंगे, हालांकि निरंकुश उपायों के प्रति उनकी रुचि और उनके समर्थकों द्वारा दिए जा रहे अनुदार और असहिष्णु बयानों में लिप्त होने के कारण – यह एक ऐसा व्यवहार है जो सभी राजनीतिक दलों के लिए गंभीर चिंता का विषय बन गया है - इसमें भारी शंकाएँ हैं कि वे ऐसा करेंगे। जब तक ये कानून मौजूद हैं, जिन कानूनों का दुरुपयोग किया जा सकता है उनका दुरुपयोग किया जाएगा। इसे रोकने के लिए, और एक आधुनिक लोकतांत्रिक देश के लिए अनुकूल उदार कानूनी ढांचा तैयार करने के लिए, समलैंगिकता और व्यभिचार का गैर-अपराधीकरण किया जाना चाहिए, और राजद्रोह को और अधिक उदार दृष्टिकोण से देखा जाना चाहिए। जैसा कि देश भर में बार-बार हो रही बहसों से पता चलता है, यह साफ तौर पर बदलाव के लिए समय है। संपन्नता का असली कच्चा माल तिराना. गरीब देश कच्चे माल यथा कोको, लौह अयस्क और कच्चे हीरों का निर्यात करते हैं. अमीर देश अकस�� उन्हीं गरीब देशों को अधिक जटिल उत्पादों जैसे कि चॉकलेट, कार और आभूषणों का निर्यात करते हैं. यदि गरीब देशों को अमीर बनना है तो उन्हें अपने संसाधनों का कच्चे माल के रूप में निर्यात रोकना होगा और उनके मूल्य संवर्द्घन पर ध्यान केंद्रित करना होगा. अन्यथा अमीर देश मूल्य और सभी अच्छी नौकरियों के बड़े भाग को यूं ही हड़पते रहेंगे. गरीब देश इस बाबत दक्षिण अफ्रीका और बोत्सवाना का अनुसरण कर सकते हैं तथा अपनी प्राकृतिक संपदा का कच्ची अवस्था में निर्यात को सीमित कर उसका अपने यहां औद्योगिकीकरण को बढ़ावा देने में इस्तेमाल कर सकते हैं. इस नीति को स्थानीय स्तर पर ‘‘लाभीकरण’’ के नाम से जाना जाता है. पर क्या वे ऐसा कर पाएंगे? कुछ विचार गलत होने से ज्यादा बुरे होते हैंः वे वंध्याकारी होते हैं क्योंकि वे दुनिया को उस नजरिये से देखते हैं जिसमें कम अहम मसलों पर जोर होता हैं - बोलें तो कच्चे माल की उपलब्धता - और समाज को उन संभावित अवसरों की चकाचौंध में अंधा कर देते हैं जो दरअसल कहीं और मौजूद हैं. फिनलैंड की बात करते हैं. इस नॉर्डिक देश की आबादी बहुत कम है लेकिन वहां पेड़ बहुत अधिक हैं. कोई भी किताबी अर्थशास्त्री कहेगा कि इस बात के मद्देनजर फिनलैंड को लकड़ी का निर्यात करना चाहिए. फिनलैंड ने ऐसा किया भी है. इसके विपरीत पारंपरिक विकास का पक्षधर अर्थशास्त्री कहेगा कि इसे लकड़ी का निर्यात नहीं करना चाहिए. इसकी बजाए उसे लकड़ी का मूल्य संवर्द्धन कर इसे कागज व फर्नीचर में बदल देना चाहिए. फिनलैंड ने ऐसा भी किया है, लेकिन फिनलैंड के निर्यात में काष्ठ-उत्पादों का मात्र 20% हिस्सा है. इसका कारण है कि लकड़ी ने विकास के एकदम अलग और कहीं अधिक समृद्ध मार्ग को खोल दिया है. जब फिनलैंड के लोग लकड़ी काटते थे तो उनकी कुल्हाडि़यां और आरियां टूट जाती थीं और उन्हें बार-बार बदलना पड़ता था तथा सुधारना पड़ता था. इससे उन्हें लकड़ी काटने व छीलने वाली मशीनें बनाने में महारत हासिल करनी पड़ी. जल्द ही फिनलैंड के व्यापारियों ने महसूस किया कि वे अन्य सामग्रियों को काटने वाली मशीनें भी बना सकते हैं क्योंकि काटने वाली हर चीज लकड़ी की नहीं बनी होती. उसके बाद उन्होंने अपनी मशीनों को स्वचालित बनाया क्योंकि सभी चीजों को हाथ से काटना उबाऊ कम हो सकता है. उसके बाद उन्होंने अन्य स्वाचालित मशीनें बनानी शुरू कर दी क्योंकि जीवन में केवल काटने से भी अधिक बहुत कुछ है. और स्वचालित मशीनों से अंततः अब वे नोकिया तक आ गए हैं. आज विभिन्न प्रकार की मशीनों का फिनलैंड से निर्यात होने वाली वस्तुओं में 40% से भी ज्यादा हिस्सा है. इस उदाहरण का सबक यह है कि कच्चे माल का मूल्य संवर्द्धन विविधीकरण का एक मार्ग है, पर जरूरी नहीं कि यह लंबा हो या हमेशा फलदायी रहे. देश अपने यहां उपलब्ध कच्चे माल तक ही सीमित नहीं है. आखिर स्विट्जरलैंड के पास कोको नहीं है और चीन उन्नत मेमोरी चिप नहीं बनाता है. लेकिन इससे इन देशों को क्रमशः चाकलेट और कंप्यूटर के बाजार में अपना दबदबा कायम करने में कोई बाधा नहीं उत्पन्न हुई. अपने आसपास कच्चा माल उपलब्ध होना केवल एक लाभ है बशर्ते कि यह इतना कीमती हो कि इसका अच्छे दाम पर निर्यात किया जा सके. यह बात हीरों और लौह अयस्क से ज्यादा लकड़ी पर लागू होती है. अपनी अलग-थलग अवस्थिति के बावजूद ऑस्ट्रेलिया लौह अयस्क का बड़ा निर्यातक है ना कि स्टील का. जबकि दक्षिण कोरिया जिसे लौह अयस्क आयात करना पड़ता है, स्टील का प्रमुख निर्यातक है. फिनलैंड का उदाहरण बताता है कि विकास के और अधिक संभावना भरे मार्ग केवल अपने कच्चे माल के मूल्य संवर्द्धन तक ही सीमित नहीं है - बल्कि इसका क्षमताओं में और क्षमताएं जोड़ने से नाता है. अर्थात् नई क्षमताएं जोड़ कर (मसलन स्वाचालीकरण) आप अपनी वर्तमान क्षमता (काटने वाली मशीनों) को पूरी तरह नए बाजारों में उतार सकते हैं. इसके विपरित कच्चा माल प्राप्त करने के लिए आपके केवल नजदीकी बंदरगाह तक ही जाना होता है. इस तरह एक कच्चे माल के परिवहन-लागत लाभ के आधार पर भविष्य के बारे में सोचने से देश उन्हीं उत्पादों तक सीमित हो जाते हैं जिनमें केवल स्थानीय स्तर पर उपलब्ध कच्चे माल का इस्तेमाल होता है. यह प्रवृत्ति अत्यंत सीमितकारी साबित होती है. किस विशेष कच्चे माल की निकटता किसी देश को कार, प्रिंटर, एंटिबायोटिक या फिल्मों के उत्पादन में प्रतियोगी बनाती है? इनमें से ज्यादातर उत्पादों में एक से अधिक प्रकार के कच्चे माल की जरूरत होती है और ज्यादातर मामलों में केवल एक कच्चे से कोई बहुत अधिक फर्क पड़ने वाला नहीं है. लाभ कमाने की प्रवृति कच्चे माल खीचनें वाले उद्योगों को स्थानीय बाजार में अपना सामान अपने निर्यात मूल्य से कम दाम पर बेचने के लिए मजबूर करती है. इस प्रकार वे अव्यक्त कर के रूप में कार्य करते हैं जिससे उनके नीचे के कार्यों को सबसिडी मिलती है. सिद्धांत रूप से ऐसे उद्योगों के कुशल कराधान से समाजों को प्रकृति की उदारता का भरपूर लाभ लेने में सक्षम बनाना चाहिए. लेकिन कराधान क्षमता का निचले पायदान के उद्योगों का लाभ पहुंचाने में इस्तेमाल करने का कोई कारण नहीं है. जैसा मेरे सहयोगियों और मैंने दर्शाया है कि ये गतिविधियां ना तो क्षमताओं की परिभाषा के निकट हैं और ना ही भावी विकास के सोपान के रूप में मूल्यवान हैं. अवश्य ही सत्रहवीं सदी के उत्तरार्द्ध में ब्रिटेन के कोयला उद्योग का जो सबसे बड़ा आर्थिक असर था वह था भाप के इंजिन का विकास जो कोयला खादनों से पानी बाहर निकालते थे. लेकिन बात यहीं नहीं थम गई. भाप इंजन का निर्माण व परिवहन के क्षेत्र में इस्तेमाल होने लगा जिससे क्रांतिकारी परिवर्तन आए, दुनिया का इतिहास बदल गया और ब्रिटेन की हैसियत बढ़ गई. कोयले के भंडार होने से सारी दुनिया में ब्रिटेन की उपयोगिता सर्वोपरी हो गई. इसके विपरीत पेट्रोकेमिकल या इस्पात संयंत्रों का विकास अथवा कम वेतन वाले हीरा-काटने के कार्यों को भारत या विएतनाम से बोत्सवाना - एक ऐसा देश जो चार गुना से ज्यादा अमीर है - ले जाना जितना अकल्पनाशील है उतना ही सीमितकारी भी है. यूएई में कहीं अधिक रचनाशीलता पाई जा सकती है जिसने तेल से होने वाली आमदनी का अब संरचना तथा सुविधाओं में निवेश किया है. इसके परिणामस्वरूप दुबई आज सफल पर्यटन व व्यापारिक केंद्र में तब्दील हो चुका है. यहां पर अमेरिका के लिए सबक है जिसने 1973 के तेल संकट (अवरोध) के बाद से बड़ी लाभकरण नीति को अपना लिया है. उस वक्त अमेरिका ने कच्चे तेल और प्राकृतिक गैस के निर्यात पर नियंत्रण लगा दिया था. जैसे-जैसे अमेरिका अधिकाधिक ऊर्जा आयातक बनता गया, इसके नेताओं को इस नीति का परित्याग करने का कोई कारण कभी नहीं मिला. लेकिन हाल ही में घटित शेल ऊर्जा क्रांति ने पिछले पांच साल में तेल और गैस का उत्पादन नाटकीय रूप से बढ़ा दिया है. नतीजतन, प्राकृतिक गैस के घरेलु दाम इ��के निर्यात मूल्य से कहीं नीचे हैं. यह उन उद्योगों के लिए छिपी हुई सबसिडी है जो सघन रूप से तेल व गैस का इस्तेमाल करते हैं और इससे अंतरवाही विदेशी निवेश आकर्षित हो सकता है. लेकिन क्या यह सरकार की कराधान अथवा व्यापार को नियंत्रित करने की क्षमता का सबसे अच्छा उपयोग है? क्या आज अमेरिका बेहतर स्थिति में नहीं होता यदि वह प्राकृतिक गैस पर कर लगाने की क्षमता का क्रांतिकारी इंजन के समतुल्य समीचीन तकनीकी के विकास को बढ़ाने में उपयोग करता? पिकेटी का नदारद तकनीकी ज्ञान कैम्ब्रिज – सैद्धांतिक ढाँचे बहुत शानदार होते हैं क्योंकि उनकी मदद से हम जटिल दुनिया के बुनियादी पहल��ओं को बहुत आसानी से समझ पाते हैं, ठीक वैसे ही जैसे नक़्शों के मामले में होता है। लेकिन, नक़्शों की तरह ही, वे केवल एक सीमा तक ही उपयोगी होते हैं। उदाहरण के लिए, सड़क के नक़्शे आपको यातायात की मौजूदा स्थिति नहीं बताते या राजमार्ग पर मरम्मत के बारे में अद्यतन जानकारी नहीं देते। विश्व की अर्थव्यवस्था को समझने का एक उपयोगी तरीका वह सुरुचिपूर्ण ढाँचा है जो थॉमस पिकेटी ने अपनी प्रख्यात पुस्तक कैपिटल इन द ट्वेंटी-फ़र्स्ट सेंचुरी में पेश किया है। पिकेटी ने दुनिया को दो मूलभूत तत्वों में विभाजित किया है – पूँजी और श्रम। दोनों का उत्पादन में इस्तेमाल होता है और वे आय साझा करते हैं। दोनों के बीच मुख्य अंतर यह है कि पूँजी ऐसी चीज़़ है जिसे आप ख़रीद सकते हैं, स्वामित्व में ले सकते हैं, बेच सकते हैं, और, सिद्धांत रूप में, असीम रूप से संचित कर सकते हैं, जैसा कि अति-समृद्ध लोगों ने किया है। श्रम में व्यक्तिगत क्षमता का उपयोग होता है जिसका मानदेय दिया जा सकता है, पर उसे दूसरे लोग स्वामित्व में नहीं ले सकते, क्योंकि ग़ुलामी समाप्त हो चुकी है। पूँजी की दो रोचक विशेषताएँ है। पहली, इसकी कीमत इसके द्वारा निर्धारित होती है कि यह भविष्य में कितनी आय लेकर आएगी। अगर भूमि का एक टुकड़ा गेहूँ के ढेर या वाणिज्यिक किराये के रूप में दुगुनी आउटपुट देता है, तो यह स्वाभाविक रूप से दुगुने के योग्य होना चाहिए। अन्यथा, एक ढेर का स्वामी दूसरा ढेर ख़रीदने के लिए इसे बेच देगा। इस कोई-अंतरपणन-नहीं की स्थिति का तात्पर्य यह है कि, संतुलन के रूप में, सभी पूँजी समान जोखिम-समायोजित प्रतिलाभ देती हैं, जिसके बारे में पिकेटी का ऐतिहासिक रूप में अनुमान हर साल 4-5% का है। पूँजी की दूसरी रोचक विशेषता यह है कि यह बचतों के ज़रिए जमा होती है। कोई व्यक्ति या देश जो आय की 100 इकाई बचाता है, उसे शाश्वत रूप से लगभग 4-5 इकाई वार्षिक आय प्राप्त करने में सक्षम होना चाहिए। यहाँ से, यह देखना आसान है कि अगर पूँजी का पूरी तरह पुनः निवेश किया जाता है और अर्थव्यवस्था में 4-5% से कम की वृद्धि होती है, तो पूँजी और इसका आय का अंश अर्थव्यवस्था में तुलनात्मक रूप से बड़ा हो जाएगा। पिकेटी का तर्क है कि क्योंकि दुनिया के अमीर देश 4-5% से कम दर पर बढ़ रहे हैं, इसलिए वे अधिक असमान बन रहे हैं। इसे डेटा में देखा जा सकता है, हालाँकि संयुक्त राज्य अमेरिका में असमानता में वृद्धि का बड़ा हिस्सा इस तर्क के कारण नहीं है बल्कि उन लोगों के उदय के कारण है जिसे पिकेटी "सुपर-प्रबंधक" कहते हैं जो बहुत उच्च वेतन अर्जित करते हैं (हालाँकि पिकेटी ने इसका कारण नहीं बताया है)। इसलिए आइए हम यह देखने के लिए दुनिया पर यह सिद्धांत लागू करें कि यह कितनी अच्छी तरह से उपयुक्त बैठता है। 1983 से 2013 तक के 30 सालों में, यूएस ने शेष दुनिया से निवल रूप से $13.3 ट्रिलियन, या एक साल के सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 80% उधार लिया। 1982 में वापस लौटें तो इस अवधि के शुरू होने से पहले, यह शेष दुनिया से शुद्ध वित्तीय आय में लगभग $36 बिलियन अर्जित कर रहा था, जो उस पूँजी का गुणन फल है जिसका इसने पहले विदेशों में निवेश किया था। अगर हम मान लें कि इस पूँजी पर प्रतिलाभ 4% था, तो यह विदेशी पूँजी में $900 बिलियन का स्वामी होने के बराबर होगा। तो, अगर हम हिसाब-किताब करें, तो यूएस आज शेष दुनिया का लगभग $12.4 ट्रिलियन (13.3 घटा 0.9) का कर्ज़दार है। 4% की दर पर, यह $480 बिलियन के वार्षिक भुगतान का प्रतिनिधित्व करेगा। ठीक? ग़लत – और यह बहुत जोखिम भरा है। यूएस निवल रूप में अपने ऋण के लिए शेष दुनिया को कुछ भुगतान नहीं करता। इसके बजाय, इसने 2013 में लगभग $230 बिलियन अर्जित किए। 4% की आय का अनुमान करते हुए, यह विदेशी पूँजी में $5.7 ट्रिलियन के स्वामित्व के बराबर होगा। वास्तव में, अगर पिकेटी की गणना सही है तो यूएस को जो भुगतान करना चाहिए उसके बीच अंतर वार्षिक आय में लगभग $710 बिलियन, या पूँजी में $17.7 ट्रिलियन है - जो इसके वार्षिक सकल घरेलू उत्पाद के बराबर है। इस ग़लत गणना में यूएस एकमात्र अपवाद नहीं है, और अंतराल व्यवस्थित और बड़े हैं, जैसा कि फ़ेडरिको स्टुर्ज़ेनेगर और मैंने दिखाया है। इसके विपरीत चरम स्थिति पर चिली और चीन जैसे देश हैं। चिली ने पिछले 30 सालों में निवल रूप से बहुत कम उधार लिया है, लेकिन शेष दुनिया को इस तरह भुगतान करता है कि मानो इसने अपने सकल घरेलू उत्पाद का 100% उधार लिया था। चीन ने, पिछले दशक के दौरान, शेष दुनिया को निवल रूप में अपने वार्षिक सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 30% उधार दिया है, लेकिन उसे इसके लिए लगभग कुछ नहीं मिलता। धन की दृष्टि से, यह ऐसा है कि मानो वे बचतें मौजूद ही नहीं थीं। यह क्या चल रहा है? आसान सा जवाब यह है कि चीज़़ें सिर्फ़ पूँजी और श्रम से नहीं बनाई जातीं, जैसा कि पिकेटी का तर्क है। उनमें तकनीकी ज्ञान भी शामिल होता है। इस चूक का प्रभाव देखने के लिए, इस पर विचार करें कि अमेरिका का $13 ट्रिलियन का निवल उधार नाटकीय रूप से सकल उधार की मात्रा को कम करके बताया गया है, जो सकल रूप में लगभग $25 ट्रिलियन था। यूएस ने अपने घाटे को पूरा करने के लिए $13 ट्रिलियन का इस्तेमाल किया और शेष का इस्तेमाल विदेशों में निवेश करने के लिए किया। यह पैसा प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के रूप में तकनीकी ज्ञान के साथ मिश्रित किया गया है, और दोनों का प्रतिलाभ ऋणदाताओं को भुगतान किए गए 4% या उससे कम की तुलना में लगभग 9% है। वास्तव में, $12 ट्रिलियन पर 9% की प्राप्ति $25 ट्रिलियन पर 4% से ज़्यादा है, और इस तरह प्रकट रूप से इस पहेली का हल मिल जाता है। चिली और चीन ने अपनी बचतें विदेशों में उन्हें तकनीकी ज्ञान के साथ मिश्रित किए बिना लगा दीं - उन्होंने स्टॉक और बांड ख़रीदे - और परिणामस्वरूप वे लगभग सिर्फ़ 4-5% या कम प्राप्त करते हैं जैसा कि पिकेटी का मानना है। इसके विपरीत, चिली और चीन में विदेशी निवेशक मूल्यवान तकनीकी ज्ञान लेकर आते हैं; इसलिए प्रवाहित होने वाली सकल पूँजी विदेशों में सकल बचत से ज़्यादा आय प्रदान करती है। प्रतिलाभ में इस अंतर का अंतरपणन नहीं किया जा सकता, क्योंकि उच्चतर प्रतिलाभ प्राप्त करने के लिए हमें तकनीकी ज्ञान की ज़रूरत होती है। मुद्दा यह है कि तकनीकी ज्ञान का सृजन और नियोजन धन के सृजन का महत्वपूर्ण स्रोत होता है। आखिरकार, Apple, Google, और Facebook का मूल्य संयुक्त रूप से $1 ट्रिलियन से ज़्यादा है, हालाँकि उनमें शुरू में निवेश की गई पूँजी उसका मामूली-सा अंश ही है। यह अंतर किसकी जेब में जाएगा, यह लेने वाले की कला पर निर्भर है। तकनीकी ज्ञान सुसंगत टीम में निहित रहता है, व्यक्तियों में नहीं। टीम में हर कोई महत्वपूर्ण होता है, लेकिन टीम के बाहर हर व्यक्ति का मूल्य बहुत कम होता है। शेयरधारक अंतर को मुनाफ़े के रूप में लेना चाह सकते हैं, लेकिन वे टीम के बिना ऐसा नहीं कर सकते। यह��ं सुपर-प्रबंधकों की भूमिका होती है: वे टीम द्वारा सृजित मूल्य का एक हिस्सा अपने पास रखने का प्रयास करते हैं। धन और असमानता में वृद्धि के पीछे केवल पूँजी ही नहीं है, बल्कि तकनीकी ज्ञान भी है। बीमार पर कर लगाना बंद करें वाशिंगटन, डीसी – उभरते और विकासशील देशों में किफ़ायती दवाओं तक पहुँच के बारे में होनेवाली चर्चा में अक्सर एक महत्वपूर्ण मुद्दे को अनदेखा कर दिया जाता है: इन देशों में सरकारें नेमी तौर पर जीवन के लिए महत्वपूर्ण दवाओं पर शुल्क और अन्य कर थोप देती हैं। हालाँकि इन उपायों से सामान्य राजस्व की प्राप्ति तो होती है, परंतु इनसे प्रभावित दवाएँ अधिक महँगी हो जात�� हैं, जिससे ये दवाएँ उन बहुत-से लोगों के लिए पहुँच के बाहर हो जाती हैं जिन्हें उनकी सबसे ज्यादा जरूरत होती है। विकसित देशों की तरह, उभरते और विकासशील देश अपनी कुछ दवाएँ - अगर सभी नहीं तो - आयात करते हैं, जिनकी लागत मुख्य रूप से मरीजों द्वारा स्वयं वहन की जाती है क्योंकि इन देशों में स्वास्थ्य बीमा का अभाव है। उदाहरण के लिए, भारतीय अपने स्वास्थ्य देखभाल के व्ययों का 70% भुगतान अपनी जेब से करते हैं। कुछ क्षेत्रों में शुल्कों और अन्य करों के कारण दवाओं की लागतों में दो तिहाई जितनी अधिक की वृद्धि हो जाती है जिससे सर्वाधिक बुनियादी जेनेरिक दवाएँ भी सबसे गरीब लोगों के लिए उनकी सामर्थ्य से बाहर हो जाती हैं। दिल्ली के दवा बाजार पर एक शोध रिपोर्ट ने यह निष्कर्ष निकाला है कि ऐसी लेवी अनिवार्य रूप से "बीमार पर कर" के रूप में होती हैं जिन्हें सरकार आसानी से हटा सकती है। बहुत-से उभरते बाजारों में यह कहानी इसी तरह की है। विश्व व्यापार संगठन द्वारा किए गए 2012 के अध्ययन के अनुसार अर्जेंटीना, ब्राज़ील, भारत, और रूस, आयातित दवाओं पर 10% के आसपास का शुल्क लगाते हैं, जबकि उदाहरण के लिए, अल्जीरिया और रवांडा ने 15% की दर बनाए रखी है। जिबूती में शुल्क 26% है। जैसा कि रिपोर्ट में उल्लेख किया गया है, यह समझना मुश्किल है कि छोटे देशों में स्वास्थ्य उत्पादों पर उच्च शुल्क क्यों रखे जाते हैं जबकि इस उपाय से केवल घरेलू कीमतों में वृद्धि होती है। लेकिन शुल्क समस्या का एक हिस्सा मात्र हैं। कई देश भारी बिक्री कर भी लगाते हैं। ब्राज़ील पर्चे की दवाओं पर 28% की दर पर कर लगाता है, जबकि भारत में दवाओं पर 5% से लेकर 16% तक के राज्य कर लगाए जाते हैं और उन पर 5% का मूल्य वर्धित कर और 3% का शिक्षा कर भी लगाया जाता है। विकासशील देश इन करों का औचित्य इस आधार पर सिद्ध करते हैं कि वे सामाजिक व्ययों के लिए निधि प्रदान करते हैं। लेकिन, 2011 में, भारत ने सरकार द्वारा जनता के लिए दवाओं पर खर्च की गई राशि की तुलना में दवाओं पर करों के रूप में अधिक राशि जुटाई। यदि सरकार लोगों की ज़रूरत वाली दवाओं की कीमतें कृत्रिम रूप से बढ़ाना बंद कर दे तो भारत के स्वास्थ्य देखभाल संकट को कम किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त, राजकोषीय दबावों के बावजूद, यह भले ही प्रतिकूल न लगे, पर अत्यधिक प्रतिगामी लगता है कि सबसे अधिक वित्तीय बोझ उन पर डाला जाए जिनका स्वास्थ्य सबसे ख़राब है (और जो संभवतः इस तरह के सामाजिक कार्यक्रमों का लक्ष्य हैं)। यह आर्थिक दृष्टि से भी अनुत्पादक है। दवाओं की कीमतें बढ़ाने से उनका उपयोग कम होता है, जिससे बीमारी अधिक होती है, उत्पादकता कम होती है, और जीडीपी विकास दर धीमी होती है। इससे बेहतर एक और तरीका है। कोलम्बिया, इथियोपिया, मलेशिया, निकारागुआ, पाकिस्तान, तंज़ानिया और युगांडा समेत कई देशों ने दवाओं पर शुल्कों और करों को काफी हद तक कम कर दिया है या हटा दिया है। इसके परिणाम आश्चर्यजनक रहे हैं। उदाहरण के लिए, केन्या द्वारा मलेरिया रोधी उत्पादों पर शुल्क और करों को हटा देने के बाद, उसने सूचित किया कि 2002 और 2009 के बीच शिशु मृत्यु दर और बीमारी में 44% की कमी हुई। भारत और चीन, स्वयं प्रमुख दवा निर्यातक हैं और इस कारण उनकी साफ़ तौर पर यह देखने में रुचि है कि दुनिया भर में दवाओं के शुल्क कम हों। भारत, जिसे "विकासशील देशों की फ़ार्मेसी" के रूप में जाना जाता है, तैयार दवाओं के सबसे बड़े निर्यातकों में से एक है, जबकि चीन इन दवाओं की सक्रिय सामग्रियों के 70-80% का उत्पादन करता है। दवाओं पर शुल्कों को खत्म करके विकसित देशों के उस उदाहरण का अनुसरण किया जा सकेगा जो उनके द्वारा दो दशक पहले विश्व व्यापार संगठन बनाए जाने के अवसर पर प्रस्तुत किया गया था। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने यह घोषणा की थी: "सरकारों को उन चीज़ों पर कर लगाना चाहिए जो लोगों को बीमार करती हैं, न कि उन चीज़ों पर जो लोगों को अच्छा करती हैं।" यह तो निश्चित है कि करों में कटौती करने से उभरते और विकासशील देशों में अस्पतालों, क्लीनिकों, डॉक्टरों, तथा सार्वजनिक और निजी बीमा की कमी जैसी स्वास्थ्य देखभाल तक पहुँच से संबंधित अनेक चुनौतियों में से सभी का समाधान नहीं होगा। लेकिन शुल्क हटाना एक ऐसी चीज़ है जिसे जल्दी से लागू किया जा सकता है और इससे सबसे अधिक ज़रूरतमंद लोगों को तुरंत लाभ होगा। प्रमुख दवा निर्माताओं - और इन करों से सबसे अधिक प्रभावित कई लोगों - के लिए प्रमुख स्थान होने के कारण - भारत और चीन को एक अंतर्राष्ट्रीय उदारीकरण के प्रयास का नेतृत्व करना चाहिए। फ़ोर्टालेज़ा, ब्राज़ील में 15-17 जुलाई को आयोजित होने वाला ब्रिक्स (BRICS) शिखर सम्मेलन इसे शुरू करने के लिए एक अच्छी जगह हो सकती है। इन देशों ने निश्चित रूप से एक साथ मिलकर कार्य करने की क्षमता प्रदर्शित की है। इस वर्ष इससे पहले, चीन पर्यावरण की वस्तुओं से शुल्क हटाए जाने के लिए माँग करनेवाले विश्व व्यापार संगठन के 13 अन्य सदस्यों में शामिल हो गया। चीन, भारत, और अन्य ब्रिक्स देशों को दवाओं पर शुल्कों के उन्मूलन की माँग करने के लिए इसी तरह का एक गठबंधन बनाना चाहिए जिससे विश्व के सभी विकासशील देशों में स्वास्थ्य देखभाल तक पहुँच को व्यापक बनाया जा सके। दुनिया के बीमार और कमज़ोर लोगों को बेवजह कष्ट नहीं सहना चाहिए। बांग्लादेश की कट्टरपंथी चुनौती नई दिल्ली – फ़रवरी में, ढाका विश्वविद्यालय में आयोजित पुस्तक मेले से लौटते हुए, अपनी नास्तिकता के लिए प्रसिद्ध बांग्लादेशी-अमेरिकी ब्लॉगर अविजित रॉय और उनकी पत्नी को उनके रिक्शे से घसीट लिया गया और उन पर धारदार हथियारों से कातिलाना हमला किया गया। यह पुस्तक मेला हिंसा के प्रति सामान्य बंगाली प्रतिक्रिया है, जो 1952 के उस विरोध प्रदर्शन की याद में हर साल आयोजित किया जाता है, जिसकी परिणति पाकिस्तानी सेना द्वारा विश्वविद्यालय में विद्यार्थियों पर गोलीबारी करने के रूप में हुई थी। नाज़ी नेता हरमन गौरिंग की कुख्यात उक्ति को पलट दिया जाए, तो कह सकते हैं कि जब बंगाली "गन" शब्द सुनते हैं, तो वे अपनी संस्कृति तक पहुँच जाते हैं। लेकिन रॉय की क्रूर हत्या (उनकी पत्नी अपंग हो गईं, लेकिन बच गईं) - के मुश्किल से एक महीने बाद दूसरे नास्तिक ब्लॉगर, वशीकुर रहमान को घातक ढंग से छुरा घोंपा जाना - बांग्लादेश में एक और शक्ति के काम करने का खुलासा करती है, वह जो देश की धर्मनिरपेक्षता और बौद्धिक बहस की परंपरा को नष्ट कर देना चाहती है। यह शक्ति है, सलाफ़िस्ट इस्लामी कट्टरवाद। बांग्लादेश में बदलाव बहुत कठोर है। रॉय और वशीकुर के काम में परिलक्षित होने वाली अप्रासंगिक धर्मनिरपेक्षता और विचारशील पड़ताल लंबे समय तक बंगाली लेखन की विशेषता रही है। एक पीढ़ी पहले, उनके विचारों को बंगाल (जिसका पश्चिमी भाग भारतीय राज्य पश्चिम बंगाल है) की अगर मुख्यधारा नहीं, तो जीवंत बौद्धिक संस्कृति में, पूरी तरह स्वीकार्य माना गया होता। लेकिन अब यह सच नहीं रह गया है। विदेश से भारी वित्त-पोषण द्वारा समर्थित, सलाफ़िस���ट कट्टरवाद – इस्लाम का असहिष्णु संस्करण जो शताब्दियों से भारत में चले आ रहे ज़्यादा उदार सूफी-प्रभावित रूप से भिन्न है - हाल के सालों में समूचे बांग्लादेश में फैल रहा है। हालाँकि बंगाल की लंबी धर्मनिरपेक्ष परंपरा अभी तक जीवित और सलामत है, जिसने पाकिस्तान से अलग होने के इसके प्रयासों को संचालित किया था, लेकिन कट्टरपंथी इस्लामवादियों – जो उन लोगों को मौन करने के लिए बल का इस्तेमाल करते हैं जिनसे वे असहमत होते हैं – के विनाशकारी प्रभाव को नकारा नहीं जा सकता। रॉय और वशीकुर इस्लामवादियों के सेंसरशिप के इस विशिष्ट स्वरूप का सामना करने वाले पहले बंगाली बुद्धिजीवी नहीं हैं। 2004 में सालाना पुस्तक मेले में लेखक हुमायूँ आज़ाद एक हमले में गंभीर रूप से घायल हो गए थे। (वे तब तो बच गए थे, लेकिन बाद में उसी साल जर्मनी में उनकी मृत्यु हो गई थी।) पिछले साल, नास्तिक ब्लॉगर अहमद रजीब हैदर को, रॉय की तरह, ढाका में मौत के घाट उतार दिया गया था। इस्लामवादी कह रहे हैं कि जब आप अपने वैचारिक विरोधियों को हमेशा के लिए चुप कर सकते हैं, तो उनके साथ सैद्धांतिक बहस में पड़ने की क्या ज़रूरत है? अनेक बांग्लादेशी बुद्धिजीवियों ने इस ख़तरे को स्पष्ट रूप से भाँप लिया है और वे देश से पलायन कर गए हैं, और इस तरह उन्होंने आत्मरक्षा की ख़ातिर अपनी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत के साथ रोज़मर्रा के संपर्क को त्याग दिया है। उपन्यासकार तस्लीमा नसरीन इस्लामी कट्टरपंथियों से मिली मौत की धमकियों से बचने के लिए 1994 में निर्वासन में चली गईं; वे अब दिल्ली में रहती हैं। पत्रकार और कवि, दाऊद हैदर, अब बर्लिन में दिन काट रहे हैं। केवल सार्वजनिक बुद्धिजीवी ही ख़तरे में नहीं हैं। साधारण धर्मनिरपेक्ष मुसलमान जो नास्तिक हो जाते हैं, वे स्वधर्म त्याग, और इससे भी बदतर, निंदा के आरोपों के प्रति ज़्यादा असुरक्षित हो जाते हैं। पुराने दिनों में, इस तरह के आरोपों के कारण एक या दो फतवे जारी किए जा सकते थे, औरसबसे बदतर स्थिति में, उनका सामाजिक बहिष्कार हो सकता था। आज, धमकियाँ – जैसे, भीड़ भरी सड़क पर क्रूरता से हत्या कर दिया जाना – ज़्यादा असंगत रूप से बाध्यकारी हो गई हैं। मुस्लिम-बहुल बांग्लादेश के लिए, इस्लाम के भीतर यह संघर्ष देश की आत्मा के लिए लड़ाई बनता जा रहा है। लेकिन यह पूरी तरह से नई लड़ाई भी नहीं है। बांग्लादेश ने लंबे समय से इस दावे का सामना किया है कि1947 के भारत विभाजन के तर्क के अनुसार, जिसकी वज़ह से तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान अस्तित्व में आया था, इस देश को ज्यादा इस्लामिक होना चाहिए। इस दावे का विरोध करने वाले दूसरे लोग, इस बात पर ज़ोर देते हैं कि इस देश को 1971 में पाकिस्तान से अपने अलगाव की विरासत को अमल में लाना चाहिए, जो ऐसी क्रांति थी जिसने इस्लाम को राष्ट्रवाद के लिए अपर्याप्त आधार घोषित किया था और इस्लामाबाद से अपनी निष्ठा के बजाय बांग्लादेश की धर्मनिरपेक्ष संस्कृति और बंगाली भाषा की प्रधानता पर ज़ोर दिया था। यह विरोध देश की अक्सर तिक्ततापूर्ण विभाजनकारी राजनीति में भी परिलक्षित होता है। हर खेमे ने दो दुर्जेय महिला नेताओं के नेतृत्व में, बारी-बारी से सरकार को नियंत्रित करने को कोशिश की है: वर्तमान प्रधानमंत्री, अवामी लीग की शेख हसीना वाज़ेद, और उनकी दो-अवधियों की पूर्ववर्ती, बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी की बेगम ख़ालिदा ज़िया। हालाँकि फ़िलहाल धर्मनिरपेक्षतावादी सत्ता में हैं, लेकिन ज़िया के पास व्यापक समर्थन बरकरार है, जिसमें इस्लामवादियों का समर्थन शामिल है। उनकी पार्टी ने पिछले चुनाव का बहिष्कार किया था, और राजनीतिक हिंसा भड़काई थी जिसकी वज़ह से इस साल 100 से ज़्यादा जानें चली गईंऔर इसके अलावा सैकड़ों लोग घायल हो गए। हाल ही में हुई हत्याओं ने सार्वजनिक राय को भड़का दिया है, जिससे पीड़ितों के लिए न्याय और धर्मनिरपेक्षतावादी लेखकों के लिए ज़्यादा प्रभावी सरकारी संरक्षण की माँग के लिए जन प्रदर्शन हो रहे हैं। हसीना के वरिष्ठ सलाहकार, एचटी इमाम ने रॉय की हत्या पर पुलिस की निष्क्रियता के लिए उन्हें सीधे-सीधे चुनौती दी है, और शीर्ष पुलिस अधिकारियों से कहा है कि वे "अपनी छवि बनाए रखने के लिए, पुलिस बल के बीच छिपे गद्दारों की पहचान करें और उन्हें क़ानून और न्याय की प्रक्रिया में लाएँ।" बांग्लादेश ऐसा लोकतंत्र है जो अभिव्यक्ति की आज़ादी का समर्थन करता है, लेकिन सीमाओं के भीतर। हालाँकि यह माना जाता है कि सरकार उदार बुद्धिजीवियों के प्रति सहानुभूति रखती है, लेकिन यह क़ानून और व्यवस्था बनाए रखने और चरमपंथियों को उत्तेजित करने से बचने के लिए भी उत्सुक रहती है। इसके परिणामस्वरूप, सरकार ने नास्तिकों और उदारपंथियों को परेशान और गिरफ्तार करने के लिए ऐसे क़ानून का इस्तेमाल करके इस्लामवादियों का पक्ष लेने की कोशिश करने में संकोच नहीं किया है जो "धार्मिक भावनाओं को आहत करने" पर प्रतिबंध लगाता है। तथापि, इस्लामवादी चाहते हैं कि सरकार पाकिस्तान की तरह निंदा क़ानून पास करे, जिसमें धार्मिक विरोध के लिए मृत्यु दंड दिया जाता है। हालाँकि सरकार ने अभी तक इसका ज़ोरदार विरोध किया है, लेकिन धर्मनिरपेक्षता की इसकी कमज़ोर रक्षा से यह डर पैदा हो गया है कि निरंतर दबाव से धर्माधिकारियों के दबाव के प्रति इसका विरोध पस्त हो सकता है। इसे ऐसा करना जारी रखना चाहिए। आज़ाद बांग्लादेश के "राष्ट्रपिता", शेख मुजिबुर रहमान जिनकी 1975 में हत्या कर दी गई थी, की बेटी - हसीना - जानती हैं कि इस्लामवादियों के साथ समझौता करने से वे कहीं की नहीं रहेंगी; वे उन्हें कभी भी स्वीकार्य नहीं होंगी। उनकी सरकार को सुशासन के नाम पर (या राजनीतिक अस्तित्व की ख़ातिर) चरमपंथियों को संतुष्ट करने के प्रलोभन का शिकार नहीं होना चाहिए। उन सिद्धांतों के साथ समझौता नहीं किया जाना चाहिए, जिनके लिए बांग्लादेश ने तब ख़ून बहाया था जब इसने पाकिस्तान से अपनी आज़ादी हासिल की थी। अगर हसीना हथियार-चलाने वाले इस्लामवादियों से हार मान लेती हैं, तो वे उस बांग्लादेश का बलिदान कर देंगी जिसे मुक्त कराने के लिए उनके पिता लड़े थे। हमारी मृदा की रक्षा करें बर्लिन – संयुक्त राष्ट्र ने वर्ष 2015 को अंतर्राष्ट्रीय मृदा वर्ष घोषित किया है, और 19-23 अप्रैल को इस वर्ष का वैश्विक मृदा सप्ताह मनाया जाएगा। हालाँकि इस तरह की घटनाएँ वास्तव में इतनी आकर्षक नहीं होती हैं, फिर भी उन पर उतना ध्यान नहीं दिया जाता है जितना कि दिया जाना चाहिए। अक्षत मृदा एक अमूल्य और अपूरणीय संसाधन है, इससे अंतर्राष्ट्रीय समुदाय के विकास और पर्यावरण के मुख्य लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए विविध कार्य संपन्न होते हैं। और अब उसकी सुरक्षा किया जाना अत्यंत आवश्यक है। स्वस्थ मृदा मानव पोषण और भूख के खिलाफ लड़ाई के लिए महत्वपूर्ण है। हम न केवल खाद्य उत्पादन के लिए, बल्कि पीने का नया पानी तैयार करने के लिए भी इस पर निर्भर करते हैं। यह पृथ्वी की जलवायु को नियंत्रित करने में मदद करती है, दुनिया के सभी वनों को मिलाकर उनकी तुलना में कार्बन का अधिक भंडारण करती है, (केवल महासागर ही कार्बन के अधिक बड़े भंडार हैं), और यह जैव विविधता को ब��ाए रखने के लिए आवश्यक हैं: इस धरती पर जितने मानव हैं उनकी तुलना में थोड़ी-सी उपजाऊ मृदा में कहीं अधिक मात्रा में सूक्ष्म जीवाणु होते हैं। पृथ्वी की दो-तिहाई प्रजातियाँ इसकी सतह के नीचे बसती हैं। लेकिन भू-क्षरण और प्रदूषण के कारण मृदा पर भारी दबाव पड़ रहा है। दुनिया भर में, प्रतिवर्ष 24 बिलियन टन उपजाऊ मृदा नष्ट हो जाती है, जिसका आंशिक रूप से कारण शहरों और बुनियादी ढाँचे का विकास है। अकेले जर्मनी में, निर्माण परियोजनाओं में प्रतिदिन औसतन 75 हेक्टेयर से अधिक मृदा खप जाती है। इसके लिए अनुपयुक्त कृषि पद्धतियाँ भी जिम्मेदार हैं: उदाहरण के लिए, कृत्रिम उर्वरक का उपयोग अधिक मात्रा में किए जाने के कारण, मृदा में बसनेवाले जीव नष्ट हो जाते हैं और इसकी संरचना में परिवर्तन हो जाता है। मृदा की उपजाऊ ऊपरी परत बनने में कई सदियों का समय लग जाता है; कई स्थानों पर, अब मूसलधार बारिश होने भर से यह नष्ट हो जाती है। इसके साथ ही, भोजन, चारा, और ईंधन के लिए जैवमात्रा की वैश्विक मांग के फलस्वरूप भूमि के मूल्य बढ़ रहे हैं - यह एक ऐसा तथ्य है जिसकी ओर अंतर्राष्ट्रीय निवेशकों का ध्यान अवश्य गया होगा। विश्व बैंक के अनुमान के अनुसार, दुनिया भर में कृषि योग्य भूमि में से 10-30% भूमि, जिसका उपयोग लाखों छोटे भूमिधारकों चरवाहों, और स्थानीय लोगों द्वारा किया जाएगा बड़े पैमाने पर निवेश किए जाने से प्रभावित हुई है। इस प्रकार, दुनिया के अधिकतर हिस्से में व्यक्तियों और समुदायों के लिए भूमि अधिकारों को हासिल करने के लिए संघर्ष करना अस्तित्व का मुद्दा बन गया है। भूमि तक पहुँच भूख के प्रमुख निर्धारकों में से एक है, और यह आय की तुलना में और भी अधिक असमान रूप से वितरित होती है। भूख से प्रभावित लगभग 20% परिवार भूमिहीन हैं, और भूख से पीड़ित परिवारों में से 50% छोटे भूमिधारक परिवार हैं। यूरोप में, हम एक अरसे से अपनी घरेलू कृषि भूमि से सीमा से अधिक उपज प्राप्त कर रहे हैं, इसलिए अब हम वैश्विक दक्षिण से बहुत बड़े पैमाने पर इसका "आयात" कर रहे हैं। यूरोपीय संघ की माँस की खपत को पूरा करने के लिए आवश्यक चारे का उत्पादन करने के लिए ब्राज़ील में यूनाइटेड किंगडम के आकार जितने बड़े कृषि भूमि के क्षेत्र की आवश्यकता होती है। यदि हर मनुष्य उतना माँस खाना शुरू कर दे जितना कि औसतन यूरोपीय संघ का नागरिक खाता है, तो इसका उत्पादन करने के लिए दुनिया की 80% कृषि योग्य भूमि को इसमें लगाना होगा जबकि वर्तमान में यह 33% है। और हमें स्पष्ट रूप से पता होना चाहिए: यह देखते हुए कि चारे की 100 कैलोरी से माँस की अधिकतम 30 कैलोरी तक का उत्पादन किया जा सकता है, इस उद्देश्य के लिए उपजाऊ भूमि का उपयोग करना सरासर बर्बादी है। कई सरकारें जिस "हरित विकास" का वादा कर रही हैं उससे इस प्रवृत्ति में इस रूप में तेज़ी आएगी कि यह तेल और कोयला जैसे जीवाश्म ईंधन को बदलने के लिए जैव ईंधन पर निर्भर करता है। जैव ईंधनों से जलवायु को उस हद तक लाभ नहीं मिलता है जितना कि हवा या सौर ऊर्जा प्रणालियों से, क्योंकि इनसे प्रति वर्ग मीटर ऊर्जा का केवल दसवाँ हिस्सा ही प्राप्त होता है। परिणामस्वरूप, यूरोपीय संघ के जलवायु और ऊर्जा के लिए 2030 के फ्रेमवर्क में में निहित जैव ईंधन की आवश्यकताओं के लिए अतिरिक्त 70 मिलियन हेक्टेयर भूमि - फ्रांस से भी बड़े क्षेत्र - की आवश्यकता होगी। ऐसा नहीं है कि मृदा की रक्षा करने से समृद्धि में कमी आएगी। इसके विपरीत, वास्तव में स्थायी मृदा संरक्षण प्रथाओं से कृषि पैदावारों में वृद्धि हो सकती है, विशेष रूप से छोटे भूमिधारकों की। फसल विविधीकरण, पुनर्चक्रण, और मृदा की परत ये सभी ऐसी उपयोगी, उपजाऊ, और सक्रिय मृदा में योगदान कर सकते हैं जो इष्टतम जल प्रबंधन करने में सक्षम हो। कृषि-पारिस्थितिकी नामक तथाकथित दृष्टिकोण, छोटे किसानों के पारंपरिक ज्ञान और अनुभव पर आधारित है जिससे इसे स्थानीय परिस्थितियों के लिए आसानी से अनुकूल बनाया जा सकता है। 2006 में जूल्स प्रेटी द्वारा किए गए कृषि-पारिस्थितिकी खेती के तरीकों के एक अध्ययन में 57 देशों में 286 स्थायी कृषि परियोजनाओं की जाँच की गई और यह निष्कर्ष निकला कि पैदावारों में औसतन 79% की वृद्धि हुई थी। इस तरह के तरीकों की प्रमाणित सफलता के बावजूद, कृत्रिम उर्वरकों के उपयोग में पिछले 50 वर्षों में पाँच से अधिक गुणक की दर से वृद्धि हुई है, और कई अफ्रीकी सरकारें उन्हें सहायता देने के लिए अपने कृषि बजटों का 60% तक खर्च करती हैं। विशेष रूप से उष्णकटिबंधीय वातावरणों में, इस तरह के उत्पादों के फलस्वरूप मृदा की ऊपरी परत को नुकसान पहुँचता है और जैव विविधता का भी नुकसान होता है (और अपवाह, महासागरों में चला जाता है जहाँ यह समुद्री पारिस्थितिकी प्रणालियों को क्षति पहुँचाता है)। और, यद्यपि उनके मुख्य घटक, नाइट्रोजन को जैविक रूप से और सतत रूप से तैयार किया जा सकता है, परंतु यह कदम मुट्ठी भर शक्तिशाली उर्वरक निर्माताओं और वितरकों के हितों के ख़िलाफ चला जाएगा। नीति निर्माताओं को चाहिए कि वे निम्नलिखित प्रश्नों पर विचार करें: गरीब लोग भूख और निर्धनता से बचने के लिए पर्याप्त खाद्य का उत्पादन इस प्रकार कैसे कर सकते हैं कि उससे मृदा की रक्षा हो, जलवायु परिवर्तन में कमी हो, और जैव विविधता की रक्षा हो? इस मुद्दे की तात्कालिकता के बावजूद, कहीं भी कृषि-पारिस्थितिकी उत्पादन जैसे दृष्टिकोणों को किसी भी गंभीर सीमा तक प्रोत्साहित नहीं किया जा रहा है। अंतर्राष्ट्रीय मृदा वर्ष और वैश्विक मृदा सप्ताह जैसी घटनाएँ इसे नए सिरे से पूरी तरह बदलने का अवसर प्रदान करती हैं। सतत विकास के लिए डेटा क्रांति न्यूयॉर्क - इस बात को अधिकाधिक मान्यता मिल रही है कि विशेष संयुक्त राष्ट्र शिखर सम्मेलन में 25 सितंबर को जो सतत विकास लक्ष्य (एसडीजी) अपनाए जाएँगे उनकी सफलता सरकारों, कारोबारों, और नागरिक समाज की निर्णय लेने के लिए डेटा का उपयोग करने की क्षमता पर निर्भर करेगी। जैसा कि मैं पहले भी उल्लेख कर चुका हूँ, इसमें मुख्य बात ऐसी नवोन्मेषी डेटा प्रणालियों के निर्माण में निवेश करने की है, जिनमें सतत विकास के लिए वास्तविक समय डेटा के नए स्रोतों से जानकारी प्राप्त की जाती है। हम डेटा संचालित दुनिया में रहते हैं। विज्ञापनदाताओं, बीमा कंपनियों, राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसियों, और राजनीतिक सलाहकारों ने पहले ही विशाल डेटा का उपयोग करना सीख लिया है जिस पर हमें कभी-कभी हैरानी होती है; इसी तरह अनगिनत वैज्ञानिकों और शोधकर्ताओं ने भी इसे सीख लिया है, जिससे वे नई खोजों पर तेजी से प्रगति कर रहे हैं। लेकिन वैश्विक विकास समुदाय को इसका लाभ धीमी गति से मिल रहा है, इसका एक कारण यह भी है कि बहुत अधिक विकास डेटा का संग्रहण अभी भी ऐसे दुरूह तरीकों से किया जा रहा है जो आज की प्रौद्योगिकी क्षमताओं की दृष्टि से पिछड़े हुए हैं। डेटा संग्रह में सुधार लाने और उसका उपयोग सतत विकास के लिए करने का एक तरीका यह है कि सेवाएँ प्रदान करने और निर्णय लेने के लिए डेटा के संग्रह और प्रसंस्करण के बीच एक सक्रिय संबद्धता स्थापित की जाए। स्वास्थ्य देखभाल सेवाओं को लें। विकासशील देशों के दूरदराज के गांवों में, सामुदायिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता हर दिन, रोगियों को रोगों (जैसे मलेरिया) से लड़ने, जाँच के लिए क्लीनिकों में जाने, महत्वपूर्ण टीकों को लगवाने, (टेलीमेडिसिन के माध्यम से) निदान प्राप्त करने, और उनके शिशुओं और छोटे बच्चों के लिए आपातकालीन सहायता (जैसे जीर्ण अल्प-पोषण के लिए) प्राप्त करने में मदद करते हैं। लेकिन इस तरह के विज़िटों के संबंध में जानकारी आम तौर पर एकत्र नहीं की जाती है, और भले ही इसका लिखित रिकॉर्ड रख भी लिया जाता हो, तो भी इसका कभी दुबारा उपयोग नहीं किया जाता है। अब हमारे पास आगे बढ़ने के लिए एक बहुत ही स्मार्ट रास्ता है। सामुदायिक स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं को अधिकाधिक स्मार्ट फोन अनुप्रयोग उपलब्ध होने लगे हैं जिनका उपयोग वे प्रत्येक विज़िट पर रोगी की जानकारी को दर्ज करने के लिए कर सकते हैं। यह जानकारी सीधे सार्वजनिक स्वास्थ्य डैशबोर्ड पर जा सकती है, जिसका उपयोग स्वास्थ्य प्रबंधक आपूर्ति शृंखला में बीमारियों के फैलने, सप्लाई चेनों की विफलताओं, या तकनीकी स्टाफ को बढ़ाने की जरूरत पर नज़र रखने के लिए कर सकते हैं। इस तरह की प्रणालियाँ जन्म और मृत्यु सहित महत्वपूर्ण घटनाओं का एक वास्तविक समय लॉग उपलब्ध करती हैं, और यहाँ तक कि मौत के कारणों की पहचान करने में मदद करने के लिए तथाकथित मौखिक पोस्टमार्टम का भी उपयोग करती हैं। और, इलेक्ट्रॉनिक चिकित्सीय रिकॉर्ड के अंश के रूप में, जानकारी को डॉक्टर के पास भविष्य में विज़िट करने पर या अनुवर्ती विज़िट या चिकित्सा हस्तक्षेप की जरूरत के बारे में रोगियों को याद दिलाने के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है। शिक्षा इसी तरह का विशाल अवसर प्रदान करती है। वर्तमान में, स्कूल नामांकन दरों की गणना स्कूल वर्ष की शुरूआत में छात्र पंजीकरणों के आधार पर की जाती है, चाहे वह वास्तविक उपस्थिति पंजीकरण दर से बहुत कम भी क्यों न हो। इसके अलावा, जो अधिकारी उच्च नामांकन दरें सूचित करना चाहते हैं वे कभी-कभी पंजीकरण आंकड़ों में हेरफेर करते हैं, इसलिए हमें इसकी सही-सही सूचना कभी भी नहीं मिल पाती है कि स्कूल में वास्तव में कितने विद्यार्थी हैं। मोबाइल एप्लिकेशनों के साथ, स्कूल और सामुदायिक शिक्षा कार्यकर्ता छात्र और शिक्षक की उपस्थिति को पारदर्शी, वास्तविक समय के आधार पर लॉग कर सकते हैं, और स्कूल छोड़कर जानेवाले छात्रों के बारे में और अधिक आसानी से अनुवर्ती कार्रवाई कर सकते हैं, विशेष रूप से जिन्होंने ऐसे कारणों से स्कूल छोड़ा हो जिन्हें सामुदायिक शिक्षा कार्यकर्ताओं द्वारा सूचित हस्तक्षेप के माध्यम से दूर किया जा सकता है। यह जानकारी डैशबोर्डों में स्वचालित रूप से दर्ज की जा सकती है जिसका उपयोग शिक्षा व्यवस्थापक प्रमुख क्षेत्रों में हुई प्रगति पर नज़र रखने के लिए कर सकते हैं। इस तरह के डेटा संग्रह निर्णय लेने में सुधार के द्वारा सतत विकास में तेजी लाने में मदद कर सकते हैं। लेकिन यह केवल पहला कदम है। ऐसी ही तकनीकों का उपयोग एसडीजी के बारे में हुई प्रगति को मापने वाले कुछ प्रमुख संकेतकों को इकट्ठा करने के लिए भी किया जाना चाहिए। वास्तव में, लगातार अंतरालों पर प्रगति को मापना, और सफलताओं और खामियों का प्रचार करना दुनिया को अपने महत्वाकांक्षी दीर्घकालिक लक्ष्यों को पूरा करने के लिए उसे सही राह पर रखने के लिए महत्वपूर्ण है। ऐसा करने से हम न केवल प्रगति को बढ़ावा देने वाली सरकारों को पुरस्कृत करने में सक्षम हो पाएंगे; बल्कि इससे सुस्त सरकारों को उनके कमजोर प्रदर्शन के लिए जवाबदेह भी ठहराया जा सकेगा और उम्मीद की जा सकती है कि उन्हें उनके प्रयासों को दुगुना-चौगुना करने के लिए प्रेरित किया जा सकेगा। इस तरह के वास्तविक समय माप की जरूरत पिछले 15 वर्षों के दौरान तब स्पष्ट हो गई थी जब दुनिया सहस्राब्दि विकास लक्ष्यों का पालन कर रही थी। यह देखते हुए कि कई महत्वपूर्ण संकेतक अभी तक वास्तविक समय में एकत्र नहीं किए जा रहे हैं, बल्कि केवल श्रमसाध्य पूर्वव्यापी घरेलू सर्वेक्षणों के माध्यम से किए जा रहे हैं, गरीबी में कमी के लक्ष्य के लिए संकेतक कई देशों के लिए पांच साल जितने अधिक पुराने हैं। दुनिया गरीबी, स्वास्थ्य और शिक्षा के लिए 2015 के लक्ष्यों का लक्ष्य लेकर चल रही है, कुछ मामलों में तो प्रमुख डेटा केवल 2010 तक के ही हैं। सौभाग्य से, सूचना और संचार प्रौद्योगिकी की क्रांति और ब्रॉडबैंड का लगभग हर जगह प्रसार होने से इस तरह के समय अंतराल शीघ्र ही अतीत की बात हो सकते हैं। जैसा कि दुनिया जो मायने रखती है:सतत विकास के लिए डेटा क्रांति को जुटाना रिपोर्ट में बताया गया है, हमें सांख्यिकीय कार्यालयों और अन्य सरकारी एजेंसियों द्वारा प्रयुक्त प्रथाओं का आधुनिकीकरण करना चाहिए, और डेटा के नए स्रोतों का उपयोग ऐसे विचारशील और रचनात्मक तरीके से करना चाहिए जो पारंपरिक तरीकों का पूरक हो। सेवा प्रदान करने, आर्थिक लेन-देनों, और रिमोट सेंसिंग के दौरान एकत्र किए गए स्मार्ट डेटा का अधिक प्रभावी उपयोग करके चरम गरीबी के खिलाफ लड़ाई को तेज़ किया जा सकेगा; वैश्विक ऊर्जा प्रणाली को बहुत अधिक कुशल और कम प्रदूषण फैलानेवाला बनाया जाएगा; और स्वास्थ्य और शिक्षा जैसी महत्वपूर्ण सेवाओं को बहुत अधिक प्रभावी और सुलभ बनाया जाएगा। इस सफलता को देखते हुए, संयुक्त राज्य अमेरिका सहित कई सरकारों, और साथ ही कारोबारों और अन्य सहयोगियों ने इस महीने संयुक्त राष्ट्र में एक नई 'सतत विकास डेटा के लिए वैश्विक भागीदारी' शुरू करने की योजना की घोषणा की है। इस नई भागीदारी का उद्देश्य, अधिक धन जुटाकर, ज्ञान के आदान-प्रदान को प्रोत्साहित करके, डेटा तक पहुंच और उसके उपयोग से संबंधित महत्वपूर्ण बाधाओं के बारे में कार्रवाई करके, और दुनिया की सांख्यिकीय प्रणालियों के उन्नयन के लिए विशाल डेटा की नई रणनीतियों की पहचान करके डेटा संग्रहण और उसकी निगरानी के प्रयासों को मजबूत करना है। संयुक्त राष्ट्र सतत विकास के लिए समाधान नेटवर्क एक नया सतत विकास के लिए डेटा पर विषय-क्षेत्र संबंधी नेटवर्क तैयार करके एक नई वैश्विक भागीदारी का समर्थन करेगा, जो डेटा उत्कृष्टता का एक केंद्र स्थापित करने के लिए विविध क्षेत्रों और विषयों से जुड़े प्रमुख डेटा वैज्ञानिकों, विचारकों, और शिक्षाविदों को एक मंच पर लाएगा। हमें प्रसन्नता है कि हम इस नेटवर्क की अध्यक्षता कर रहे है जिसके मूल में यह प्रतिबद्धता है कि तथ्यों और आंकड़ों को वास्तविक विकास की प्रगति में रूपांतरित किया जाए। हमारा यह दृढ़ विश्वास है कि डेटा क्रांति सतत विकास के लिए एक क्रांति सिद्ध हो सकती है, और हम दुनिया भर से भागीदारों का स्वागत करते हैं कि वे हमारे साथ शामिल हों। रक्तपिपासु को पछाड़ना न्यू हेवन – मानव अफ़्रीकी ट्रिपैनोसोमियासिस (HAT) – जिसे निद्रा रोग भी कहते हैं – से ग्रामीण उप-सहारा अफ़्रीकी आबादी लंबे समय से त्रस्त है। इस परजीवी संक्रामक रोग का अगर इलाज न किया जाए तो यह अक्सर जानलेवा होता है। और इसका इलाज करना जटिल होता है, जिसमें अत्यधिक कुशलता वाले चिकित्सीय स्टाफ़ की ज़रूरत होती है जो प्रभावित इलाकों में बहुत मुश्किल से मिलता है। इस संक्रामक रोग को फैलानेवाले परजीवी – मध्यवर्ती और पश्चिमी अफ़्रीका में ट्रिपैनोसोमा ब्रूसी गैम्बिएन्स और पूर्वी अफ़्रीका में टी.बी. रह���ड्सिएन्स – संक्रमित सीसी मक्खी (ग्लोसिना मॉर्सिटन्स मॉर्सिटन) के काटने से संचारित होते हैं। बीसवीं सदी के आरंभ में HAT महामारी के प्रकोप से अफ्रीका के कई हिस्सों में आबादियाँ तबाह हो गई थीं। हालाँकि लाखों लोगों की व्यवस्थित जाँच और इलाज करने से 1930 के दशक में रोग के संक्रमण में प्रभावशाली रूप से कमी हुई थी, परंतु इन प्रयासों में ढिलाई बरतने के कारण 1950 और 1960 के दशकों में HAT को दुबारा उभरने का मौका मिल गया जिसके फलस्वरूप 1990 के दशक के आरंभ में इसने महामारी का रूप ले लिया। विश्व स्वास्थ्य संगठन के एक अभियान से आख़िरकार 2008 तक इस रोग पर नियंत्रण पा लिया गया और प्रति वर्ष इससे प्रभावित होनेवाले लोगों की संख्या घटकर मात्र लगभग 10,000 हो गई। लेकिन लाखों लोगों के लिए जोखिम बना हुआ है। साफ तौर पर, सीसी मक्खियाँ उन इलाकों में गंभीर ख़तरा पैदा करती है जहाँ इसका इलाज करवाना उनकी बर्दाश्त या पहुँच के बाहर होता है। और यह ख़तरा मनुष्यों तक सीमित नहीं है। अफ़्रीकी पशु ट्रिपैनोसोमियासिस रोग, या नगाना, परजीवियों ट्रिपैनोसोमा कॉन्गोलेन्स, टी. विवाक्स और टी. ब्रूसी के कारण होता है – और ये सभी सीसी मक्खी द्वारा संक्रमित किए जाते हैं। अगर इलाज न किया जाए तो नगाना भी जानलेवा होता है, और इससे पशुओं की भारी हानि होती है। अकेले पशु उत्पादन में, आर्थिक हानियों की राशि अनुमानतः 1-1.2 बिलियन डॉलर वार्षिक थी, जिससे कुल कृषि संबंधी हानियों की राशि लगभग 4.75 बिलियन डॉलर हो गई। इसके अतिरिक्त, नगाना के कारण पशुपालन को अफ़्रीका के दस मिलियन वर्ग किलोमीटर क्षेत्र तक सीमित रखना पड़ता है। असरदार टीकों और आसानी से उपलब्ध सस्ती दवाओं की कमी को देखते हुए, इस तरह के रोगों को नियंत्रित करने के लिए सीसी मक्खियों की संख्या को कम करना सबसे कारगर तरीका है। यह काम ट्रैप और टार्गेट यंत्रों (कीटनाशक-सिक्त स्क्रीनों) की मदद से किया जा सकता है जो मक्खियों को ऐसे डिवाइस की ओर आकर्षित करते हैं जो उन्हें एकत्र करता है और/या मारता है। लेकिन इन डिवाइसों में सुधार करके या विभिन्न पारिस्थितिक सेटिंग में नियंत्रण कार्यक्रमों को लागू करके इन विधियों की कारगरता को बढ़ाने के लिए बहुत कुछ किया जा सकता है। दोनों ही मामलों में, सीसी के जैविक स्वरूप की बेहतर जानकारी होना बहुत उपयोगी होता है। हाल ही में पूरी की गई ग्लोसिना मोर्सिटन्स मोर्सिटन की जीनोम अनुक्रमणिका से ऐसी कई बातों का पता चलता है जिनसे सीसी मक्खी अनुसंधान और रोग नियंत्रण के व्यवहारों में परिवर्तन हो सकता है। सर्वप्रथम, अनुसंधानकर्ताओं ने यह पता लगाने की कोशिश की कि एकमात्र कशेरुकी के खून पर पलनेवाली सीसी मक्खी अपने शिकार की पहचान कैसे करती है। इस उद्देश्य से, अनुसंधानकर्ताओं ने घ्राण (गंध), स्वाद, और दृष्टि जैसी विभिन्न महत्वपूर्ण प्रक्रियाओं को समझने के लिए जीन्स का 12,300 से अधिक प्रोटीनों के लिए विश्लेषण किया। उन्होंने पता लगाया कि सीसी मक्खियों में गंध और स्वाद का पता लगाने के लिए जीन्स बहुत कम होते हैं और शिकार ढूँढ़ने में मदद करने के लिए प्रमुख चीज़ कार्बन डाइऑक्साइड के लिए बहुत अधिक जीन्स होते हैं। अनुसंधानकर्ताओं ने रंगों का बोध करानेवाले जीन्स को गहराई से समझने की भी कोशिश की ताकि यह निर्धारित करने में मदद मिल सके कि जिस नीले रंग के बारे में काफी पहले से पता है कि वह सीसी मक्खियों को आकर्षित करता है, उसका कौन-सा शेड उन्हें फँसाने के लिए सबसे अधिक कारगर होगा। गंध और दृष्टि के आणविक पहलुओं के बारे में भावी अनुसंधान से इस बारे में मार्गदर्शन मिल सकता है कि मक्खियों को ट्रैप में फँसाने के लिए ललचाने वाली कौन-सी अधिक कारगर युक्तियों का विकास किया जाए या पशुओं की सीसी मक्खियों के काटने से रक्षा करने के लिए कौन-से विकर्षकों का लेप किया जाए। इसी तरह, सहजीवों और सीसी मक्खियों के प्रजनन संबंधी ज्ञान का उपयोग सीसी मक्खियों की संख्या को नियंत्रित करने की नई विधियाँ विकसित करने के लिए किया जा सकता है। तथापि, सीसी मक्खियाँ अनिवार्य भोजन तत्वों का समन्वय नहीं कर सकतीं, उदाहरण के लिए, वे विभिन्न प्रकार के सहजीवी बैक्टीरिया पेश करती हैं जो उनके लिए काम कर जाते हैं। विशेष रूप से रोचक चीज़ है सीसी मक्खी की असामान्य प्रजनन विधि: यह अपनी संतान का प्रजनन सजीव रूप में करती है। मादा केवल एक ही भ्रूण का विकास करती है जो लार्वा बन जाता है, अपनी माँ के गर्भाशय में विकसित यह लार्वा विशेष ग्रंथियों द्वारा स्रावित दूध से पोषित होता है। मादा एक पूर्ण विकसित लार्वा को जन्म देती है, यह प्यूपा बनता है और वयस्क होने तक भूमिगत होकर निष्क्रिय बना रहता है। जीनोम अध्ययन से इस विशेषता के आण्विक आधार – दूध ग्रंथि में उत्पादित नए प्रोटीनों – का पता चला है। जीन-अभिव्यक्ति अध्ययनों से पता चला है कि मादा के गर्भवती होने पर उसकी दूध ग्रंथि में जीन कार्यकलाप में 40% की जो वृद्धि होती है वह गर्भावस्था के दौरान कुल जीन कार्यकलाप की लगभग आधी होती है। दूसरे शब्दों में, सीसी मक्खी के जीवित रहने के लिए दुग्ध स्रवण महत्वपूर्ण है। अनुसंधानकर्ताओं को यह भी पता चला है कि एकमात्र आनुवांशिक जानकारी स्थानांतरण (ट्रांस्क्रिपशन) कारक, सोनपंखी (गुबरैला की तरह का पतंगा - लेडीबर्ड लेट) सभी दुग्ध प्रोटीनों के संश्लेषण को विनियमित करता है; इसके बिना मक्खियाँ अपनी उर्वरता खो देती हैं। यह सुझाव दिया गया है कि इस कारक के लिए रासायनिक निरोधकों से मक्खी के लिए जन्म देना असंभव हो जाएगा, जिससे सीसी मक्खियों की संख्या कम हो जाएगी। परंतु यह सीसी मक्खी की एकमात्र अनोखी विशेषता नहीं है। अन्य बहुत-से जानवरों के विपरीत, मादा सीसी मक्खियाँ अपने पूरे जीवनकाल में जननक्षम रहती हैं। अनुसंधानकर्ताओं को गर्भधारण चक्रों के बीच तीव्र एंटीऑक्सीडेंट प्रतिक्रिया उत्पन्न होने का पता चला है, जिनसे मादा को ऑक्सीडेटिव तनाव से होने वाली क्षति से बचने में मदद मिलती है। इस एंटीऑक्सीडेंट प्रतिक्रिया को रोकने का कोई रास्ता ढूँढ़ लेने से मादाओं की प्रजनन प्रणालियों के समाधान में मदद मिल सकती है। सीसी मक्खी का आनुवंशिक खाका होना सीसी मक्खियों की संख्या को कम करने के लिए तंत्र विकसित करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण पहला कदम है। ग्रामीण अफ़्रीका के लोगों के लिए, ऐसे विकास बहुत जल्दी नहीं हो सकते। पाकिस्तान का गृह युद्ध सिंगापुर – पाकिस्तान की सेना ने कई सालों के अनिर्णय के बाद, पिछले महीने उत्तरी वज़ीरिस्तान कबायली एजेंसी में पूरे स्तर पर सैन्य अभियान शुरू किया जिसका लक्ष्य आतंकी अड्डों को नष्ट करना और इस क्षेत्र की अराजकता को समाप्त करना है। सेना ख़ास तौर से विदेशी लड़ाकों को खदेड़ना चाहती है जो इस क्षेत्र का इस्तेमाल मुस्लिम दुनिया में विभिन्न जिहादों के लिए अड्डे के रूप में कर रहे हैं। लेकिन, इस बात का जोखिम है कि यह अभियान एक और शरणार्थी संकट पैदा करके आतंकी ख़तरे को पाकिस्तान के दूसरे भागों में फैला देगा, जिनमें उसका सबसे बड़ा शहर और वाणिज्यिक केंद्र, कराची शामिल है। आदिवासी एजेंसी में स्थापित अभयारण्यों से संचालन करके विभिन्न आतंकवादी गुटों ने देश में दूसरे स्थानों पर स्थित संगठनों के सहयोग से पहले से ही पाकिस्तान के चार पड़ोसियों - अफ़गानिस्तान, चीन, भारत, और ईरान - पर हमले कर दिए हैं। क्षेत्र के विदेशी लड़ाकों में से, उज़्बेकिस्तान इस्लामिक आंदोलन से संबंधित उज़्बेकी हाल ही में सबसे ज़्यादा स्पष्ट ख़तरा बन गए हैं, जिन���होंने कराची के जिन्ना अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे पर 8-9 जून के हमले की ज़िम्मेदारी ली है, जिसमें सभी दस उग्रवादियों सहित 30 लोग मारे गए थे। उत्तरी वज़ीरिस्तान अभियान को शुरू करते हुए, पाकिस्तान के नए सेना प्रमुख, जनरल राहील शरीफ़ ने कहा है कि उनकी सेना तथाकथित रूप से "अच्छे" और "बुरे" तालिबानियों के बीच कोई भेद नहीं करेगी। इनमें से पहले को, जिनमें हक्कानी शामिल हैं - जिनका नाम जलालुद्दीन हक्कानी के नाम पर रखा गया है और जिन्होंने अफ़गानिस्तान में सोवियत सेनाओं के खिलाफ़ इस्लामी प्रतिरोध का नेतृत्व किया था - पाकिस्तान की मुख्य सुरक्षा एजेंसी इंटर सर्विसेज इंटेलिजेंस (आईएसआई) ने प्रशिक्षण दिया और हथियारों से लैस किया। 2001 में संयुक्त राज्य अमेरिका द्वारा अफ़गानिस्तान पर आक्रमण के बाद, हक्कानियों ने उत्तरी वज़ीरिस्तान कबायली एजेंसी में अभयारण्य बनाया था। आईएसआई ने यह कार्य इस उम्मीद से किया था कि 2014 के अंत में अमेरिकी लड़ाकू सैनिकों के चले जाने के बाद पश्तून समूह अफ़गानिस्तान में पाकिस्तान के लिए परदे के पीछे से काम करेगा। लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि हक्कानियों ने ऐसे किसी सौदे का सम्मान नहीं किया, और उत्तरी वज़ीरिस्तान में अपने उज़्बेकी मेहमानों को कराची हवाई अड्डे पर हमला करने की अनुमति दे दी। तथापि, इस संघर्ष को रोकना या इसका प्रबंध करना आसान नहीं होगा। अफ़गानिस्तान-पाकिस्तान सीमा के दोनों तरफ मुख्य जातीय समूह, पश्तून, अपने उन राजनीतिक और आर्थिक अधिकारों पर ज़ोर देने के लिए दोनों देशों में कठोर संघर्ष में लगे हुए हैं जिन्हें वे न्यायसंगत मानते हैं। दक्षिण में सैकड़ों मील दूर कराची, उत्तरी वज़ीरिस्तान की सामरिक गतिविधि के नतीजों से अछूता नहीं रहेगा। सेना ने निवासियों को पहले से क्षेत्र छोड़ने के निर्देश दिए हैं, और उसकी योजना हवाई हमलों से मुख्य आतंकी ठिकाने साफ़ करने, और फिर थल सेना भेजने की है। लगभग 3,50,000 लोग पहले ही भाग गए हैं, जिससे उस स्तर का मानवीय संकट पैदा गया है जो 2009 में तब हुआ था जब सेना ने स्वाट घाटी पर तालिबान की पकड़ ख़त्म की थी। इतने सारे लोगों की आवाजाही का पाकिस्तान पर गहरा प्रभाव पड़ने की संभावना है। हमले के सिर्फ़ पाँच दिन बाद जारी की गई संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी उच्चायुक्त की रिपोर्ट के अनुसार, 2013 के अंत में, दुनिया में 51.2 मिलियन जबरन विस्थापित लोग थे, यह संख्या पिछले साल की तुलना में छह मिलियन ज़्यादा है, और द्वितीय विश्व युद्ध के बाद से सबसे बड़ी संख्या है। किसी अन्य देश की तुलना में पाकिस्तान ज़्यादा शरणार्थियों की मेज़बानी करता है, जहाँ देश में 1.5 मिलियन पंजीकृत शरणार्थी हैं, यह संख्या आंतरिक रूप से विस्थापित 3.5 मिलियन लोगों के अलावा हैं। जैसा कि पिछले अवसरों पर हुआ है, इस बात की संभावना नहीं है कि उत्तरी वज़ीरिस्तान से आंतरिक रूप से विस्थापित लोग उनके लिए आसपास के ज़िलों में स्थापित किए गए शिविरों में बने रहेंगे। इनमें से कई पाकिस्तान के बड़े शहरों, ख़ास तौर से कराची की ओर जाएँगे। शहर की 20 मिलियन की आबादी में पहले ही लगभग छह मिलियन पश्तून शामिल हैं, यह संख्या काबुल और पेशावर की संयुक्त जनसंख्या से ज़्यादा है। वास्तव में, कराची को "त्वरित शहर" कहा जाता है, जो 1947 में पाकिस्तान द्वारा आज़ादी हासिल करने के बाद से लोगों के प्रवास की कई लहरों के परिणामस्वरूप 50 गुना बड़ा हो गया है। लगभग दो मिलियन लोगों की पहली लहर कराची में तब आई थी जब आठ मिलियन मुसलमान भारत छोड़कर पाकिस्तान चले आए थे। दूसरी लहर में पश्तून निर्माण श्रमिक शामिल थे जिन्होंने नई वाणिज्यिक राजधानी का निर्माण करने में मदद की थी। तीसरी लहर में सोवियत कब्ज़े के खिलाफ़ अफ़गानिस्तान के युद्ध के दौरान विस्थापित शरणार्थी शामिल थे। और चौथी लहर 2000 के बाद के दशक के शुरू में अफ़गानिस्तान पर अमेरिकी आक्रमण के बाद शुरू हुई, जिसने सीमा के दोनों तरफ पश्तून प्रतिरोध को जन्म दिया, और कबायली इलाकों में इस्लामी अतिवाद पनपने में भी योगदान किया। इसलिए, उत्तरी वज़ीरिस्तान से मौजूदा विस्थापन को इस चौथी लहर के हिस्से के रूप में देखा जा सकता है। चाहे सेना आतंकियों को खदेड़ने में सफल भी हो जाती है, आंतरिक रूप से विस्थापित लोगों में से कुछ लोग, लड़ाई के दंश लिए कराची तक पहुँच जाएँगे। अगर नगर निगम के अधिकारी ऐसे समावेशी राजनीतिक संस्थान विकसित करने में विफल रहते हैं जो अल्पसंख्यक जातीय समूहों को निष्पक्ष राजनीतिक आवाज़ दे सकें तो इन लोगों का हथियार डालने का कोई इरादा नहीं लगता। ऐसी स्थिति में, सेना के उत्तरी वज़ीरिस्तान में अभियान के दीर्घकालिक परिणाम ज़्यादा हिंसक हो सकते हैं जिससे बहुत ज़्यादा नुक़सान हो सकता है। इज़रायल के अंतिम संस्थापक पिता तेल अवीव – शिमोन पेरेज़़ के इज़रायल के राष्ट्रपति के रूप में निर्वाचित होने से एक साल पहले, 2006 में, माइकल बर-ज़ोहर ने अपनी पेरेज़़ की जीवनी का हिब्रू संस्करण प्रकाशित किया था। इसका शीर्षक फीनिक्स की तरह बिल्कुल सही रखा गया था: तब तक पेरेज़़ इज़रायल की राजनीति और सार्वजनिक जीवन में 60 साल से अधिक समय तक सक्रिय रह चुके थे। पेरेज़ के कैरियर में उतार-चढ़ाव भी आते रहे थे। वे बुलंद ऊंचाइयों तक पहुंचे थे और उन्हें अपमानजनक विफलताओं का सामना करना पड़ा था - और उन्होंने कई अवतार धारण किए थे। वे इज़रायल की राष्ट्रीय सुरक्षा के नेतृत्व के स्तंभ थे, और बाद में वे ज़ोरदार शांतिदूत बन गए, इज़रायली जनता के साथ उनका संबंध हमेशा प्रेम और घृणा का बना रहा जिसने लगातार उन्हें प्रधानमंत्री निर्वाचित नहीं होने दिया लेकिन जब ��नके पास वास्तविक सत्ता नहीं थी या उन्हें इसकी ज़रूरत नहीं थी तो उन्होंने उनकी प्रशंसा की। विपरीत परिस्थितियों में विचलित हुए बिना, महत्वाकांक्षा और मिशन की भावना से प्रेरित, और अपनी प्रतिभाओं और रचनात्मकता की मदद से पेरेज़़ ने आगे बढ़ना जारी रखा। उन्होंने शिक्षा स्वयं प्राप्त की थी, वे एक जिज्ञासु पाठक, प्रबुद्ध लेखक थे, उनका व्यक्तित्व ऐसा था कि वे हर कुछ वर्षों में किसी नए विचार: नैनोविज्ञान, मानव मस्तिष्क, मध्य पूर्वी आर्थिक विकास से अग्रसर और प्रेरित होते रहे थे। वे एक दूरदृष्टा और चतुर राजनीतिज्ञ भी थे, जिन्होंने स्वयं को कभी भी अपने पूर्वी यूरोपीय मूल से पूरी तरह से अलग नहीं किया। 2007 में जब उनकी सत्ता की खोज और नीति निर्माण में भागीदारी समाप्त हो गई, तो 2014 तक राष्ट्रपति के रूप में कार्य करते हुए वे अपने सार्वजनिक कैरियर के शिखर पर पहुंच गए थे। एक अयोग्य पूर्ववर्ती का उत्तराधिकारी बनने के बाद उन्होंने संस्था को पुनर्स्थापित किया और देश में लोकप्रिय हो गए और अनौपचारिक वैश्विक वरिष्ठ के रूप में विदेशों में उनकी प्रशंसा होने लगी, और अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर वे एक अत्यंत लोकप्रिय वक्ता बन गए, और देश के झगड़ालू प्रधानमंत्री बिन्यामिन नेतन्याहू के बिल्कुल विपरीत वे शांति की अपेक्षा करनेवाले इज़रायल का प्रतीक बन गए। पेरेज़ का समृद्ध और जटिल राजनीतिक कैरियर पांच मुख्य चरणों से गुज़रा। उन्होंने 1940 के दशक के आरंभ में लेबर पार्टी और इसके युवा आंदोलन में सक्रिय कार्यकर्ता के रूप में शुरूआत की। 1946 तक उन्हें इतना अधिक वरिष्ठ समझा जाने लगा था कि पहले युद्ध के बाद यहूदी कांग्रेस के पूर्व राज्य प्रतिनिधिमंडल के हिस्से के रूप में उन्हें यूरोप भेजा गया। उसके बाद उन्होंने इज़रायल के स्वतंत्रता युद्ध के दौरान इज़रायल के प्रमुख संस्थापक, डेविड बेन गुरियन के साथ रक्षा मंत्रालय में, ज्यादातर खरीद के मामले में, उनके साथ मिलकर काम करना शुरू किया और अंततः वे मंत्रालय के महानिदेशक के पद तक पहुंच गए। उस हैसियत में, पेरेज़ युवा राज्य के रक्षा सिद्धांत के प्रणेता बन गए। एक तरह से समानांतर विदेश मंत्रालय चलाते हुए, फ्रांस के साथ मजबूत गठबंधन और सुदृढ़ सुरक्षा सहयोग स्थापित करना उनकी मुख्य उपलब्धि थी - जिसमें परमाणु प्रौद्योगिकी के संबंध में सहयोग भी शामिल है। 1959 में, पेरेज़ पूर्णकालिक रूप से राजनीति में आ गए, और उन्होंने बेन गुरियन का लेबर पार्टी के पुराने दिग्गजों के साथ संघर्ष में समर्थन किया। बाद में, वे क्नेसेट, इज़रायल की संसद के लिए निर्वाचित हुए, और उप रक्षा मंत्री बने और बाद में कैबिनेट के पूर्ण सदस्य बन गए। 1974 में उनके कैरियर में तब एक नया पड़ाव आया, जब प्रधानमंत्री गोल्डा मीर को अक्तूबर 1973 में पराजय का सामना करने के बाद इस्तीफा देने के लिए मजबूर होना पड़ा था जिसमें अनवर सादात की मिस्र की सेनाओं ने स्वेज नहर को सफलतापूर्वक पार कर लिया था। पेरेज़ ने अपनी उम्मीदवारी के लिए दावा किया, लेकिन वे यित्ज़ाक राबिन से बहुत कम अंतर से हार गए। मुआवजे के रूप में, राबिन ने पेरेज़ को अपनी सरकार में रक्षा मंत्री का पद दिया। बहरहाल, 1974 में उनके चुनाव लड़ने के कारण उन दोनों के बीच 21 साल तक चली कठोर प्रतिद्वंद्विता की शुरूआत हो गई थी, जो सहयोग के फलस्वरूप कम होती चली गई। 1977 में दो बार, जब राबिन को इस्तीफा देने के लिए मजबूर होना पड़ा था, उसके बाद और राबिन की हत्या कर दिए जाने के बाद 1995-1996 में, पेरेज़ अपने प्रतिद्वंद्वी के उत्तराधिकारी बने। 1984-1986 में वे राष्ट्रीय एकता सरकार में प्रधानमंत्री (एक बहुत अच्छे प्रधानमंत्री) भी रहे; लेकिन लगभग 30 वर्षों तक कोशिश करते रहने के बावजूद वे उस पद के लिए इज़रायल के मतदाताओं से कभी भी अपने पक्ष में जनादेश हासिल नहीं कर पाए जिसकी उन्हें सबसे अधिक ख्वाहिश थी। 1979 में पेरेज़ ने खुद को इज़रायल के शांति शिविर के नेता के रूप में स्थापित कर लिया, और 1980 के दशक में अपने प्रयासों को जॉर्डन पर केंद्रित किया। लेकिन, हालांकि वे 1987 में तब एक शांति समझौते के बहुत करीब पहुंच गए थे, जब उन्होंने राजा हुसैन के साथ लंदन समझौते पर हस्ताक्षर किए, लेकिन यह समझौता आरंभ हुए बिना ही विफल हो गया। 1992 में, लेबर पार्टी के सदस्य इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि पेरेज़ कोई चुनाव नहीं जीत सकते हैं, और संभवतः केवल राबिन जैसा कोई मध्यमार्गी ही जीत सकता है। राबिन जीत गए और वे 15 साल बाद प्रधानमंत्री के पद पर दुबारा आसीन हो गए। इस बार उन्होंने रक्षा मंत्रालय खुद अपने पास रखा और पेरेज़ को विदेश मंत्रालय दिया। राबिन शांति प्रक्रिया को सफल बनाने के लिए कटिबद्ध थे और उन्होंने पेरेज़ को इसमें मामूली भूमिका सौंपी। लेकिन राबिन के डिप्टी ने पेरेज़ को इस बात का अवसर दिया कि वे ओस्लो में पीएलओ के साथ दूसरे स्तर पर बातचीत को आगे बढ़ाएं, और राबिन की सहमति से उन्होंने वार्ताओं का प्रभार अपने हाथ में ले लिया, और अगस्त 1993 में इन्हें सफलतापूर्वक संपन्न किया। यह प्रतिस्पर्धा और सहयोग का प्रमुख उदाहरण था जिस पर राबिन-पेरेज़ के संबंध बने थे। ओस्लो समझौतों को संपन्न कराने में पेरेज़ के साहस और उनकी रचनात्मकता की महत्वपूर्ण भूमिका रही; लेकिन राबिन की फौजी व्यक्ति के रूप में पहचान और सुरक्षा के प्रति सजग व्यक्ति के रूप में विश्वसनीयता के बिना, इज़रायल की जनता और राजनीतिक स्थापना इसे स्वीकार नहीं करती। राबिन और पेरेज़ के बीच ईर्ष्यापूर्ण सहयोग 4 नवंबर 1995 तक तब तक चलता रहा जब राबिन की एक दक्षिणपंथी उग्रवादी द्वारा हत्या कर दी गई। हत्यारा पेरेज़ की हत्या कर सकता था, लेकिन उसने यह सोचा कि शांति प्रक्रिया को पटरी से उतारने के लिए राबिन को लक्ष्य बनाना अधिक प्रभावी तरीका होगा। राबिन का उत्तराधिकारी बनने पर, पेरेज़ ने ओस्लो के शीघ्र बाद सीरिया के साथ एक शांति समझौता संपन्न करने की कोशिश की। वे इसमें विफल रहे, समय से पहले चुनाव कराने की घोषणा की, एक खराब अभियान चलाया, और मई 1996 में नेतन्याहू से बहुत कम अंतर से हार गए। अगले दस साल का समय पेरेज़ के लिए खुशगवार नहीं रहा। वे एहुद बराक से मुकाबले में लेबर पार्टी का नेतृत्व खो बैठे, एरियल शेरोन की नई कदीमा पार्टी और उनकी सरकार में शामिल हो गए, और उन्हें इज़रायल के दक्षिणपंथ की आलोचना और हमलों का शिकार होना पड़ा जिन्होंने उन्हें ओस्लो समझौतों के लिए दोषी ठहराया। पेरेज़ ने उस नोबेल शांति पुरस्कार को कम महत्व देना शुरू कर दिया जिसे उन्होंने ओस्लो के बाद यासर अराफात और राबिन के साथ साझा किया था। इन वर्षों के दौरान अंतर्राष्ट्रीय मंच पर उनके कद और इज़रायल की राजनीति में उनकी स्थिति के बीच विसंगति तब साफ तौर से स्पष्ट होने लग गई थी, हालांकि 2007 में उनके राष्ट्रपति बनने पर यह दूर होने लग गई थी। पेरेज़ एक अनुभवी, प्रतिभाशाली नेता, अच्छे वक्ता, और वि���ारों का स्रोत थे। लेकिन शायद सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी कि वे एक ऐसे इज़रायली नेता थे जिनके पास दृष्टि और संदेश था। यह उनके अंतर्राष्ट्रीय कद का राज़ था: लोग इज़रायल के नेता, यरूशलेम के व्यक्ति से यह उम्मीद करते हैं कि वह ठीक इसी तरह का दूरदर्शी व्यक्ति हो। जब देश का राजनीतिक नेतृत्व इस उम्मीद पर खरा नहीं उतरता है, तो पेरेज़ जैसा नेता इस भूमिका का निर्वाह करता है और ख्याति प्राप्त करता है। समुद्र में क़ानून-व्यवस्था हासिल करना टोक्यो – एशिया और दुनिया में शांति सुनिश्चित करने में जापान बड़ी और ज़्यादा सक्रिय भूमिका निभाने के लिए आज पहले से कहीं बेहतर स्थिति में है। ह��ें अपने सहयोगी दलों और अन्य अनुकूल देशों का स्पष्ट और उत्साहपूर्ण समर्थन प्राप्त है, जिनमें हर आसियान सदस्य देश और संयुक्त राज्य अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, भारत, यूनाइटेड किंगडम, और फ़्रांस, और अन्य शामिल हैं। उन सभी को पता है कि जापान - एशिया और सभी लोगों के लिए - क़ानून-व्यवस्था का समर्थक है। हम अकेले नहीं हैं। ज़्यादातर एशिया-प्रशांत देशों में, आर्थिक विकास ने विचार और धर्म की आज़ादी, और साथ ही और ज़्यादा जवाबदेह और संवेदनशील राजनीतिक प्रणाली का पोषण किया है। हालाँकि ऐसे बदलावों की गति हर देश में अलग-अलग है, लेकिन क़ानून-व्यवस्था के विचार ने जड़ पकड़ ली है। और इसका मतलब है कि क्षेत्र के राजनीतिक नेताओं को अंतर्राष्ट्रीय क़ानून के प्रति सम्मान सुनिश्चित करना होगा। यह ज़रूरत अंतर्राष्ट्रीय समुद्री क़ानून के क्षेत्र में जितनी स्पष्ट है, उतनी दूसरे क्षेत्रों में नहीं है। एशिया-प्रशांत क्षेत्र में एक ही पीढ़ी के अंतराल में ज़बरदस्त विकास हुआ है। अफसोस की बात है कि उस विकास के फल का बड़ा और सापेक्षिक रूप से अनुपयुक्त हिस्सा सेना के विस्तार में लगाया जा रहा है। अस्थिरता के स्रोतों में न केवल सामूहिक विनाश के हथियारों का ख़तरा शामिल है, बल्कि साथ ही - और ज़्यादा तात्कालिक रूप से – इसमें बल या अतिचार के माध्यम से क्षेत्र-संबंधी यथास्थिति को बदलने के प्रयास भी शामिल हैं। और ये प्रयास प्रमुख रूप से समुद्र में हो रहे हैं। हाल ही में, अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा और मैंने पारस्परिक रूप से क्षेत्रीय शांति और सुरक्षा की आधारशिला के रूप में हमारे देशों के सहयोग की पुष्टि की है। इसके अलावा, संयुक्त राज्य अमेरिका और जापान क्षेत्रीय और वैश्विक शांति और आर्थिक समृद्धि को बढ़ावा देने के लिए समान विचारधारा वाले भागीदारों के साथ त्रिपक्षीय सहयोग को मज़बूत कर रहे हैं। पहले ही, ऑस्ट्रेलियाई प्रधानमंत्री टोनी एबट और मैं सहमत हो चुके हैं कि हमें ठीक ऐसा ही करना चाहिए। अंतर्राष्ट्रीय समुद्री क़ानून का इतिहास लंबा है, जो प्राचीन ग्रीस तक पीछे जाता है। रोमन समय तक, समुद्र सभी के लिए खुले थे और निजी अधिकार और विभाजन करना निषिद्ध था। अन्वेषण के युग की शुरुआत से, बड़ी संख्या में लोगों ने असंख्य कारणों से समुद्रों को पार किया है, और समुद्र-आधारित वाणिज्य ने दुनिया के क्षेत्रों को एक-दूसरे से जोड़ा है। गहरे समुद्र पर आज़ादी मानव समृद्धि के लिए मूलभूत सिद्धांत बन गया है। किसी विशेष देश या समूह ने ऐसा अंतर्राष्ट्रीय समुद्री क़ानून नहीं बनाया जैसा यह अब मौजूद है। यह मानव जाति की सामूहिक मेधा का उत्पाद है, जो सबकी भलाई के लिए अनेक सालों से ज़्यादा समय में तैयार किया गया है। आज, मानवता के लिए बहुत से लाभ इस बात पर निर्भर करते हैं कि प्रशांत से लेकर हिंद महासागर तक समुद्र पूरी तरह खुले रहें। लेकिन इसका, वास्तव में, क्या मतलब है? अगर हम उस चेतना का सार करें जो हमने अंतर्राष्ट्रीय क़ानून में सदियों से समाहित की है और इसकी तीन सिद्धांतों के रूप में पुनः रचना करें, तो समुद्र में क़ानून-व्यवस्था सामान्य ज्ञान की बात हो जाती है। सबसे पहले, देशों को अंतर्राष्ट्रीय क़ानून के आधार पर अपने दावे पेश और स्पष्ट करने चाहिए। दूसरे, देशों को अपने दावे साकार करने की कोशिश में बल या अतिचार का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए। और, तीसरे, देशों को विवाद शांतिपूर्ण ढंग से निपटाने चाहिए। इन तीनों अत्यंत सरल - जो लगभग स्वयं स्पष्ट हैं - सिद्धांतों पर ज़ोर दिया जाना चाहिए, क्योंकि एशिया और प्रशांत में सभी सरकारों को इन्हें कड़ाई से बनाए रखने चाहिए। इंडोनेशिया और फिलीपींस पर विचार करें, ये वे देश हैं जिनके नेता अपने अनन्य आर्थिक क्षेत्रों की अतिव्याप्ति के परिसीमन के लिए शांतिपूर्ण समझौते पर पहुँच गए हैं। इसी तरह, मेरी सरकार दृढ़ता से फिलीपींस के दक्षिण चीन सागर में क्षेत्र-संबंधी विवाद के समाधान के लिए आह्वान का पूरा समर्थन करती है जो सही मायने में अंतर्राष्ट्रीय समुद्री क़ानून के तीन सिद्धांतों के साथ सुसंगत है, ठीक वैसे ही जैसे हम वियतनाम के क्षेत्र-संबंधी विरोधी दावों के समाधान के लिए बातचीत के माध्यम से प्रयासों का समर्थन करते हैं। एक निष्पन्न कार्य को दूसरे पर जमा करके यथास्थिति में बदलावों को म़जबूत करने के प्रयासों के बजाय, इस क्षेत्र की सरकारों को 2002 के दक्षिण चीन समुद्र में पक्षों के व्यवहार पर समझौते की चेतना और प्रावधानों पर लौटने के लिए दृढ़ प्रतिज्ञा करनी चाहिए, जिन पर पहले सभी संबंधित पक्षों ने सहमति व्यक्त की थी। आज की दुनिया में, देशों को इस बात का डर नहीं होना चाहिए कि अतिचार और धमकियाँ नियमों और क़ानूनों की जगह ले लेंगी। मैं दृढ़ता से आशा करता हूँ कि आसियान सदस्य देश और चीन दक्षिण चीन सागर के लिए शीघ्रता से सही मायने में प्रभावी आचार संहिता स्थापित कर लेंगे। जापान और चीन के बीच एक समझौता है जिसे तत्कालीन प्रधानमंत्री वेन जियाबाओ और मैंने, प्रधानमंत्री के रूप में अपने पहले कार्यकाल के दौरान 2007 में संपन्न किया था। हमने अपने देशों के बीच अप्रत्याशित घटनाओं को तनाव और ग़लत गणना करने से रोकने के लिए समुद्री और हवाई संचार तंत्र तैयार करने के लिए प्रतिबद्धता की थी। दुर्भाग्य से, यह प्रतिबद्धता ऐसे तंत्र के क्रियान्वयन में तब्दील नहीं हुई है। हम लड़ाकू विमानों और समुद्र में जहाजों द्वारा ख़तरनाक मुठभेड़ों का स्वागत नहीं करते। जापान और चीन को जिस चीज़ का आदान-प्रदान करना चाहिए, वे शब्द हैं। क्या हमें वार्ता की मेज़ पर नहीं मिलना चाहिए, एक दूसरे से मुस्कराकर हाथ नहीं मिलाने चाहिए, और आपस में बात नहीं करनी चाहिए? मेरा मानना कि 2007 के समझौते के माध्यम से अनुसरण करने से पूरे क्षेत्र में शांति और स्थिरता को बढ़ावा मिलेगा। लेकिन मैं यह भी जानता हूँ कि दीर्घकालिक सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए और अनेक समझौतों की ज़रूरत होगी, जिनमें से प्रत्येक क्षेत्र आज़ादी और समृद्धि के क्षेत्र-व्यापी जाल का एक महत्वपूर्ण तंतु बनेगा। जापान की दूसरी पारी टोक्यो – अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा मेरे देश के इतिहास में एक ऐसे अनूठे समय पर टोक्यो का दौरा कर रहे हैं जब जापान की अर्थव्यवस्था ऐसे सुदृढ़ विकास के मार्ग पर चल रही है जिसमें इसकी भौगोलिक स्थिति का पूरा लाभ उठाया जाएगा। जापान अब अपने आपको “सुदूर” पूर्व नहीं मानता है; बल्कि हम प्रशांत परिधि के बिल्कुल केंद्र में हैं, और दक्षिणपूर्व एशिया से लेकर भारत तक फैले वि���्व के विकास केंद्र के पड़ोस में हैं। इस बारे में लेशमात्र भी संदेह नहीं है कि यह विकास केंद्र निकट भविष्य में जापान की अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ाना जारी रखेगा। उदाहरण के लिए, वियतनाम और भारत में जापान के प्रत्यक्ष निवेश में वृद्धि हो रही है जिससे जापानी मशीन-उपकरणों और पूंजीगत वस्तुओं की मांग को बढ़ावा मिलेगा। लेकिन अपने अवसरों को अधिकतम करने के लिए जापान को अपनी अर्थव्यवस्था को और अधिक मुक्त करना चाहिए और एक ऐसा देश बनना चाहिए जो विदेशों से पूंजी, मानव संसाधन, और ज्ञान को सक्रिय रूप से समाविष्ट करनेवाला हो। जापान को एक ऐसा देश होना चाहिए जो विकसित हो रहे एशिया की प्राणशक्ति को दिशा देकर विकास करने में समर्थ हो। इस उद्देश्य से, हमने विश्व भर के विभिन्न भागीदारों के साथ आर्थिक भागीदारी अनुबंधों, या ईपीए, के संबंध में बातचीत की गति को बहुत अधिक तेज़ किया है। इससे पहले इस महीने, ऑस्ट्रेलियाई प्रधानमंत्री टोनी एबट और मैं जापान-ऑस्ट्रेलिया ईपीए पर सिद्धांत रूप से सहमत हुए। इसके बाद बारी आती है प्रशांत-पार भागीदारी (टीपीपी) की, जो विश्व के सबसे बड़े व्यापारिक क्षेत्र के 12 देशों को संगठित करेगी। जापान और अमेरिका दोनों ही नियमों को बहुत अधिक महत्व देते हैं, स्वतंत्रता और लोकतंत्र के सिद्धांतों का समर्थन करते हैं, और उनके पास सर्वाधिक उन्नत प्रौद्योगिकियाँ और उद्योग हैं। हमारा इरादा है कि हम अपने मतभेदों को दूर करके और मिलजुल कर टीपीपी के रूप में एशिया और प्रशांत के लिए इक्कीसवीं सदी की एक ऐसी आर्थिक व्यवस्था स्थापित करें जो विकास के लिए सुदृढ़ नींव के रूप में कार्य करेगी। मेरी सरकार यूरोपीय संघ के साथ ईपीए करने के लिए भी भरपूर प्रयास कर रही है। यह देखते हुए कि अमेरिका और यूरोपीय संघ के बीच पहले से ही व्यापारिक बातचीत चल रही है, जापान और यूरोपीय संघ के बीच ईपीए, और साथ ही टीपीपी, वास्तव में एक विशाल बाजार को जन्म देगा – जो विकास का एक ऐसा भारी साधन होगा जिससे पूरी वैश्विक अर्थव्यवस्था को फायदा होगा। लेकिन जापान की आर्थिक सरहदें एशिया और प्रशांत से कहीं आगे, लैटिन अमेरिका और अफ़्रीका तक फैली हुई हैं - इस कारण यह अधिक उचित होगा कि हम अपने पुराने चले आ रहे अंतर्मुखी दृष्टिकोण को त्याग दें। अत्यधिक प्रेरित और महत्वाकांक्षी युवा लोग अध्ययन और कार्य के लिए बहुत बड़ी संख्या में पहले से ही दुनिया भर से, विशेष रूप से पड़ोस के एशियाई देशों से, जापान में आ चुके हैं। जापान को उनकी उम्मीदों पर खरा उतरना चाहिए। हमें उनके साथ अशिष्टता नहीं करनी चाहिए, और हमेशा खुले दिल से उनका स्वागत करना चाहिए। मेरा विश्वास है कि जापान ऐसा ही देश है। निकट भविष्य में, हम छह राष्ट्रीय महत्वपूर्ण आर्थिक विकास क्षेत्रों – टोक्यो, कनसाई, ओकिनावा प्रांत, और नीगाटा, याबू, और फुकुओका के शहरों – को नामित करेंगे ताकि वे शेष देश के लिए मॉडल के रूप में कार्य कर सकें। स्वास्थ्य देखभाल, शिक्षा, कृषि, और रोज़गार प्रथाओं में, हम उन नीतियों और प्रथाओं की पहचान कर रहे हैं जो आज की आवश्यकताओं के हिसाब से अनुकूल नहीं रह गई हैं, और हम उनमें सुधार लाने के लिए शीघ्र कार्रवाई करेंगे। राष्ट्रीय महत्वपूर्ण आर्थिक विकास क्षेत्र सुधार की जाँच को अपनी विनियामक प्रणाली में शामिल करेंगे जो इसके मूल में दृढ़ हो चुकी है। एक और आदत जो जापानियों को अवश्य बदल लेनी चाहिए वह है हमारी व्यापक पुरुष केंद्रित सोच। हमने पहले से ही यह सुनिश्चित करने का संकल्प लिया है कि राष्ट्रीय सरकार द्वारा नियुक्त किए जानेवाले कार्मिकों में से कम-से-कम 30% महिलाएँ हों। अब मैं सार्वजनिक रूप से कारोबार करनेवाली कंपनियों से भी अनुरोध कर रहा हूँ कि वे कम-से-कम एक महिला को बोर्ड सदस्य के रूप में शामिल करें। जिस समय हम उस मुकाम पर पहुँच जाएँगे जब किसी महिला या किसी गैर-जापानी का सीईओ के रूप में कार्य करना ख़बर नहीं रह जाएगा, तो जापान का हुलिया बदल चुका होगा और उसने जोखिम लेने और नवाचार की अपनी सच्ची भावना को वापस पा लिया होगा। “महिलाशास्त्र” हमें बताता है कि जिस समाज में महिलाएँ सक्रिय रूप से कार्यरत होंगी उसमें जन्म दर भी अधिक होगी। मेरी सरकार का इरादा शिशु-देखभाल केंद्र सुविधाओं और समाज के लिए संस्था के निर्माण जैसी अन्य बुनियादी सुविधाओं के विस्तार पर तुरंत ध्यान देने का है जिसे उसके सभी सदस्यों के कौशलों और प्रतिभाओं का लाभ मिले। हम परिवर्तन के लिए पूरी तरह से सक्षम हैं; वास्तव में हमें यह पसंद है, जैसा कि आनेवाले महीनों और वर्षों में दुनिया देखेगी। परंतु जापान के बारे में में कुछ चीज़ें ऐसी हैं जिन्हें बदला नहीं जा सकता, और कुछ चीज़ों को बदला नहीं जाना चाहिए। इनमें से एक है हमारा ट्रैक रिकॉर्ड, जो "शांति के लिए सक्रिय योगदानकर्ता" होने की हमारी महत्वाकांक्षाओं का समर्थन करता है। जापान ने संयुक्त राष्ट्र और उसके संगठनों को वित्तीय योगदान अपने उचित हिस्से से कहीं अधिक किया है, ऐतिहासिक और वर्तमान दोनों दृष्टियों से। और हमारा वैश्विक उत्तरदायित्वों का विस्तार जापान की आत्म-रक्षा सेनाओं तक व्याप्त है। आत्म-रक्षा सेनाओं के सदस्यों ने 2011 में पूर्व जापान में आए भारी भूकंप के समय, अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया की सशस्त्र सेनाओं के साथ अनुकरणीय सहयोग प्रदर्शित किया, और उन्हें हैती, इंडोनेशिया, और हाल ही में फ़िलीपीन्स में, जहाँ कहीं भी तैनात किया गया उन्होंने भारी प्रशंसा और सम्मान अर्जित किया है। शांति के लिए सक्रिय रूप से योगदान करने का अर्थ है कि उस सुरक्षा को सुनिश्चित करने के लिए जापान को स्वयं अपना हिस्से के उत्तरदायित्व का जिम्मा लेना होगा जो वैश्विक समृद्धि और स्थिरता का समर्थन करती है। जिन देशों के साथ हम साझे मूल्यों और हितों को साझा करते हैं, उनके साथ काम करके हम अंतर्राष्ट्रीय सार्वजनिक वस्तुओं, अंतरिक्ष और साइबर स्पेस से लेकर आकाश और समुद्र तक की रक्षा और विकास करेंगे। जैसा कि ओबामा के दौरे के दौरान दुनिया देखेगी, जापान ने वापसी की है और फलफूल रहा है। और वैश्विक स्थिरता और समृद्धि के लिए इसकी वापसी अपरिहार्य है। सौर मूल्य क्रांति पॉट्सडैम – चुपचाप एक क्रांति हो रही है। नवंबर में, दुबई ने घोषणा की कि एक ऐसे सौर ऊर्जा पार्क का निर्माण किया जा रहा है जो $0.06 प्रति-किलोवाट-घंटे से भी कम की दर पर विद्युत का उत्पादन करेगा – यह गैस या कोयला आधारित बिजली संयंत्र के वैकल्पिक निवेश के विकल्प की लागत से बहुत कम है। यह संयंत्र - जिसके 2017 में चालू हो जाने की आशा है – एक और ऐसे भविष्य का सूचक है जिसमें नवीकरणीय ऊर्जा हमारे पारंपरिक जीवाश्म ईंधनों को बाहर कर देगी। वास्तव में, मुश्किल से कोई सप्ताह ऐसा होता होगा जिसमें सौर ऊर्जा संयंत्र के निर्माण के लिए कोई बड़ा सौदा किए जाने की खबर न होती हो। अकेले फरवरी में, नाइजीरिया (1,000 मेगावाट), ऑस्ट्रेलिया (2,000 मेगावाट), और भारत (10,000 मेगावाट) में नई सौर विद्युत परियोजनाओं की घोषणाएँ की गईं। इसमें कतई संदेह नहीं किया जा सकता कि ये घटनाएँ जलवायु परिवर्तन के खिलाफ लड़ाई के लिए अच्छी हैं। लेकिन उन्हें प्रोत्साहित करनेवाली प्रमुख सोच पर्यावरण न होकर लाभ है क्योंकि ऊर्जा वितरण में बढ़ी हुई दक्षता और, जहाँ आवश्यक हो, भंडारण के फलस्वरूप, नवीकरणीय ऊर्जा के उत्पादन की लागत कम हो जाती है। जैसे-जैसे उतार-चढ़ाव वाले स्रोतों से बिजली के प्रबंधन में सुधार के प्रयासों के फलस्वरूप और अधिक प्रगति होगी, सौर विद्युत की लागत में गिरावट होना जारी रहेगा। फ़्रॉनहोफ़र इन्स्टीट्यूट फ़ॉर सोलर एनर्जी सिस्टम्स (थिंक टैंक अगोरा एनर्जीविंड द्वारा संचालित) द्वारा हाल ही में किए गए अध्ययन के अनुसार, दस वर्षों के भीतर, दुनिया भर में बहुत से क्षेत्रों में इसका उत्पादन 4-6 सेंट प्रति किलोवाट-घंटे की दर पर होगा। 2050 तक, उत्पादन लागतें कम होकर 2-4 सेंट प्रति किलोवाट-घंटे तक हो जाएँगी। जैसा कि अगोरा के कार्यपालक निदेशक पैट्रिक ग्राइचेन बताते हैं, दुनिया में भविष्य की ऊर्जा आपूर्ति के बारे में लगाए गए अधिकतर पूर्वानुमानों में सौर विद्युत को अपने जीवाश्म ईंधन के प्रतिस्पर्धियों पर दर्ज की जा रही भारी जीत को ध्यान में नहीं रखा जा रहा है। उन्हें अद्यतन करने पर, उनकी लागतों और हमारे ऊर्जा उत्पादन और खपत का दुनिया की जलवायु पर प्रभाव का वास्तविक चित्र हमारे सामने आएगा जिससे आर्थिक विकास में नवीकरणीय ऊर्जा के महत्व का पता चलेगा, और ऊर्जा के बुनियादी ढाँचे की बेहतर रूप से आयोजना करने में मदद मिलेगी। धूप और हवा में वैश्विक संपत्ति के निर्माण और गरीबी से लड़ने की जो जबर्दस्त क्षमता है हमें उसे नजरअंदाज नहीं करना चाहिए। सौर ऊर्जा ज्यों-ज्यों और अधिक किफ़ायती होती जाएगी, इस ग्रह की सौर परिधि के भीतर स्थित देश एकदम नए व्यापार मॉडल विकसित कर सकते हैं क्योंकि सस्ती, स्वच्छ ऊर्जा से वे अपने कच्चे माल को स्थानीय रूप से संसाधित कर सकते हैं, और निर्यात करने से पहले उनमें मूल्य - और लाभ - जोड़ सकते हैं। बड़े पैमाने के पारंपरिक बिजली संयंत्रों के विपरीत, सौर संस्थापनाएँ महीनों में तैयार की जा सकती हैं; किफ़ायती होने के अलावा, वे बढ़ती वैश्विक मांग को शीघ्र पूरा करने के लिए एक साधन उपलब्ध करती हैं। और, क्योंकि सौर ऊर्जा संयंत्रों को आम तौर पर जटिल अंतर-क्षेत्रीय बिजली ग्रिडों के बिना स्वतंत्र रूप से प्रचालित किया जा सकता है, वे कम विकसित देशों को महंगे नए बुनियादी ढाँचे के निर्माण के बिना अपनी अर्थव्यवस्थाओं को ऊर्जित करने के लिए एक ज़रिया प्रदान करते हैं। इस प्रकार, सौर विद्युत संयंत्र ऊर्जा के लिए वही भूमिका निभा सकते हैं जो मोबाइल फोनों ने दूरसंचार के लिए निभाई थी: केबलों और उनसे संबद्ध बुनियादी ढाँचे में निवेश की जरूरत के बिना, कम आबादी वाले क्षेत्रों में बड़े, कम सुविधावाले समुदायों तक पहुँचना जो पहले कभी आवश्यक हुआ करता था। अफ्रीका में, 66% आबादी को 2000 से इलेक्ट्रॉनिक संचार तक पहुँच मिली हुई है। इसका कोई कारण नहीं है बिजली तक पहुँच के लिए उसी तरह सौर ऊर्जा भी क्यों न काम करे। बड़े पैमाने पर सौर ऊर्जा उत्पादन में निवेश करने के लिए समय अब है। शुरूआत करनेवालों के लिए, सौर बिजली संयंत्रों के निर्माण की लागतें अंततः इतनी अधिक कम हैं कि उनसे बिजली का उत्पादन प्रतिस्पर्धात्मक रूप से 25 साल से अधिक समय तक के लिए स्थिर मूल्य पर किया जा सकता है। तेल की कीमत फिलहाल कम ज़रूर हो गई है, लेकिन यह फिर बढ़ जाएगी। सौर ऊर्जा संयंत्र जीवाश्म ईंधनों में अंतर्निहित मूल्य अस्थिरता के खिलाफ रक्षा प्रदान करते हैं। इससे भी अधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि वर्तमान में कई देशों में पूंजी की लागत बहुत कम है। सौर ऊर्जा संयंत्रों की आर्थिक व्यवहार्यता के लिए यह एक निर्णायक कारक है क्योंकि उनके लिए बहुत कम रखरखाव की जरूरत होती है, लेकिन अपेक्षाकृत अधिक मात्रा में अग्रिम निवेश करने की आवश्यकता होती है। फ़्रॉनहोफ़र के अध्ययन से पता चलता है कि पूंजीगत व्यय में अंतर प्रति-किलोवाट-घंटे की लागतों के लिए उतने ही महत्वपूर्ण हैं जितने कि सूर्य के प्रकाश में अंतरों के लिए। बादलों वाले देश जर्मनी में वर्तमान में सौर ऊर्जा धूप वाले उन क्षेत्रों की तुलना में सस्ती है जिनमें उधार लेने की लागत अधिक है। किसी देश में उपलब्ध सूर्य के प्रकाश की मात्रा को बदलना असंभव है। लेकिन पूंजी की लागत एक ऐसी चीज़ है जिस पर कोई देश कुछ हद तक नियंत्रण कर सकता है। एक स्थिर कानूनी ढाँचा तैयार करके, अंतर्राष्ट्रीय समझौतों के संदर्भ में ऋण गारंटियाँ प्रदान करके, और केंद्रीय बैंकों को बड़े पैमाने पर निवेश में शामिल करके, सरकारें सौर ऊर्जा को और अधिक सुलभ बनाने में मदद कर सकती हैं। ऐसे कारक यह स्पष्ट करते हैं कि ऐसा क्यों है कि अंतर्राष्ट्रीय जलवायु नीतियाँ न केवल अधिकाधिक सौर विद्युत पर बल्कि नवीकरणीय ऊर्जा के अन्य रूपों पर भी ध्यान केंद्रित करती हैं। प्रौद्योगिकी सफलताओं के फलस्वरूप जीवाश्म ईंधनों की तुलना में इन ऊर्जा स्रोतों की प्रतिस्पर्धात्मकता को बढ़ावा मिला है। परिणामस्वरूप, जो साधन उन्हें अपनाए जाने को अधिक किफायती बनाते हैं, वे जलवायु परिवर्तन के खिलाफ लड़ाई में हमें उपलब्ध हथियारों में से सबसे महत्वपूर्ण हथियार बनते जा रहे हैं। किफायती आवास में नई उपलब्धियाँ शंघाई - अच्छे, किफायती आवास उपलब्ध करान��� विकासशील और विकसित अर्थव्यवस्थाओं दोनों में ही बहुत भारी चुनौती है। मांग आपूर्ति से बहुत अधिक होने के कारण गतिशीलता, उत्पादकता, और विकास पर पड़ने वाले प्रतिकूल प्रभाव अधिकाधिक स्पष्ट हो रहे हैं (या हो जाएँगे)। सौभाग्य से, नगर निगम के स्तर पर ज्यादातर बाजार आधारित दृष्टिकोणों का उपयोग करके किफायती आवास की खाई को कम करने के कई तरीके हैं। दुनिया भर में, 330 मिलियन निम्न और मध्यम आय वाले शहरी परिवार निम्नस्तरीय आवासों में रहते हैं या वे आवास के भुगतानों के कारण आर्थिक रूप से इतने अधिक तंगहाल होते हैं कि स्वास्थ्य देखभाल और शिक्षा जैसी अनिवार्य मदों पर खर्च नहीं कर पाना उनकी मजबूरी होती है। 2025 तक यह आँकड़ा 440 मिलियन परिवारों, या लगभग 1.6 मिलियन लोगों (विश्व की शहरी आबादी के एक तिहाई) तक पहुँच सकता है - और इसमें दुनिया के कुछ ऐसे सबसे गरीब लोग शामिल नहीं हैं जो अक्सर नगरों के बाहर, शहरी सड़कों पर रहते हैं, या खानाबदोशों की तरह रहते हैं, और इन्हें जनगणना के अनुमानों में हिसाब में नहीं लिया जाता है। आज के निम्नस्तरीय आवासों की जगह नए आवास बनाने और 2025 तक आवश्यक अतिरिक्त इकाइयों के निर्माण के लिए एक अनुमान के अनुसार $ 16 ट्रिलियन के निवेश की आवश्यकता होगी – और कुछ नहीं तो यह एक चुनौतीपूर्ण आँकड़ा तो अवश्य है। लेकिन चार प्रमुख "उत्तोलक" उपलब्ध हैं जो अधिकतर नगरों में मध्यम आय का 50-80% कमानेवाले परिवारों के लिए आवास उपलब्ध करने की लागत को 20-50% तक कम कर सकते हैं और इस प्रकार आवास को किफायती बना सकते हैं (इसकी राशि कुल आय के 30% से अधिक नहीं होगी)। पहला उत्तोलक भूमि का अधिक कुशल उपयोग करना है। विकास के लिए भूमि का अधिग्रहण सही स्थान में और उचित मूल्य पर करने से आवास की लागतों को कम करने की सबसे अधिक संभावना होती है। विकासशील देशों में स्थान विशेष रूप से महत्वपूर्ण होता है जहाँ कई क्षेत्रों में पर्याप्त परिवहन, पानी, बिजली, और स्वच्छता के बुनियादी ढाँचे की कमी होती है। इन क्षेत्रों में निवेश करने से भूमि के उपयोग में सुधार और विस्तार होगा – चाहे यह अप्रयुक्त भूमि का उपयोग करके या अधिक निवासियों को बसाने के लिए क्षेत्रों में सुविधाएँ प्रदान करके किया जाए - इससे आवास की लागतों को कम करने में मदद मिलेगी। इसी तरह, नगरों द्वारा यूनिट के आकार की अपेक्षाओं जैसे भूमि के उपयोग संबंधी प्रतिबंधों में ढील दी जा सकती है, ताकि उच्च-घनत्व वाली, और इस प्रकार अधिक मूल्यवान, परियोजनाओं के लिए अनुमति दी जा सके। अचल संपत्ति के डेवलपरों को अधिक मूल्य प्रदान करने की एवज में, नगर निगम के अधिकारियों द्वारा यह शर्त लगाई जा सकती है कि भूमि के एक अंश या एक निश्चित संख्या में इकाइयों को किफायती आवास के लिए निर्धारित किया जाए। इस तरह की क्रॉस-सब्सिडी से विभिन्न आय वर्गों के लिए आवास की आपूर्ति में वृद्धि होगी और इससे जनता पर कोई सीधी लागत भी नहीं आएगी। भूमि के उपयोग में सुधार के लिए अंतिम चरण भूमि की जमाखोरी को हतोत्साहित करने के उपायों को कार्यान्वित करना है। उदाहरण के लिए, चीन पहले की सार्वजनिक भूमि पर निष्क्रिय-भूमि कर लगाता है यदि उसके मालिक एक वर्ष के भीतर विकास की प्रक्रिया आरंभ करने में असमर्थ रहते हैं। यह हमें किफायती आवास का विस्तार करने के लिए दूसरे प्रमुख उत्तोलक अर्थात अधिक संगत और कुशल निर्माण उद्योग पर लाता है। वर्तमान स्थिति के अनुसार, आवास-निर्माण उद्योग अत्यधिक बिखरा हुआ है, जिससे बड़े पैमाने की अर्थव्यवस्थाओं का लाभ लेने की इसकी क्षमता बाधित होती है, और बिल्डर अक्सर अधिकतर उन्हीं तरीकों पर भरोसा करते हैं जो 50 साल पहले इस्तेमाल किए जाते थे। छतों की ऊँचाई, जुड़नारों, और फर्शों जैसे डिज़ाइन के तत्वों का मानकीकरण किए जाने पर, निर्माण कंपनियाँ, श्रमिकों को दोहराए जानेवाले कार्यों का अनुभव हासिल होने पर लागतों में कटौती कर सकती हैं और उत्पादकता बढ़ा सकती हैं। ऑफसाइट बनाए गए घटकों, उदाहरण के लिए, दीवारों और फर्शों के स्लैबों के उपयोग के रूप में औद्योगिक दृष्टिकोणों को अपनाने से और अधिक बचतें कर पाना संभव है। और अधिकतर बिल्डर खरीद और अन्य प्रक्रियाओं की दक्षता की दृष्टि से अन्य उद्योगों की तुलना में पीछे हैं। इन सभी सुधारों से आवास निर्माण की लागतों में 30% तक और सुपुर्दगी के समय में 40-50% तक की कमी हो सकती है। आवास को और अधिक किफायती बनाने के लिए तीसरा प्रमुख उत्तोलक प्रचालनों और रखरखाव से संबंधित है – इसमें इमारत की हीटिंग से लेकर टूटी टाइलों की मरम्मत करना सब कुछ शामिल है - कुल आवास लागतों में इसका अंश 20-30% होता है। यहाँ, सबसे बड़ा अवसर ऊर्जा दक्षता में सुधार करने के प्रयासों के रूप में होता है, इन्सुलेशन, खिड़कियों, और अन्य नए साज-सामान से ऊर्जा की 20-30% की कटौती होती है। यदि रखरखाव और मरम्मत कंपनियाँ अधिक पारदर्शी और प्रतिस्पर्धात्मक हों, और बड़े पैमाने पर प्रचालन करें, तो अतिरिक्त बचतें संभव हो सकती हैं। इस उद्देश्य से, सार्वजनिक संस्थान गुणवत्ता मानकों को पूरा करनेवाले आपूर्तिकर्ताओं को प्रमाणित और सूचीबद्ध कर सकते हैं, या भागीदारी खरीदने के लिए मालिकों को एक साथ ला सकते हैं – यह एक ऐसा दृष्टिकोण है जिससे यूनाइटेड किंगडम की सामाजिक-आवास एजेंसियों को कुछ वस्तुओं की लागतों में 20% से अधिक कटौती करने में मदद मिली है। अंतिम किफायती आवास उत्तोलक वित्त तक अधिक व्यापक पहुँच के बारे में है, विशेष रूप से कम आय वाले परिवारों के लिए, जिन्हें वित्त तक पहुँच प्राप्त हो जाने की स्थिति में अक्सर उच्चतम उधार लागतों का सामना करना पड़ता है। दुनिया के कई "बैंक-रहित" लोगों के लिए,जो बचतें जमा नहीं कर सकते या क्रेडिट रिकॉर्ड नहीं बना सकते, उनके लिए एकमात्र विकल्प होता है कि वे उच्च मूल्य-अनुरूप ऋण बंधकों के लिए अत्यधिक उच्च जोखिम प्रीमियमों का भुगतान करें। वित्त तक पहुँच का विस्तार करने के लिए, देश क्रेडिट ब्यूरो की स्थापना करके हामीदारी में सुधार कर सकते हैं, जो विकासशील अर्थव्यवस्थाओं में असामान्य हैं, और वे संपत्ति मूल्यांककों को प्रशिक्षित और प्रमाणित कर सकते हैं। कुछ देशों में, सामूहिक बचत कार्यक्रमों – अर्थात भविष्य निधियों और निर्माण समितियों – से कम आय वाले परिवारों की पूरी भुगतान राशियों को जमा करने और सामूहिक बचतों से कम ब्याज वाले बंधकनामों की राशियों के लिए पूंजी उपलब्ध कराने में भी मदद की है। साथ ही, नगर निगम डेवलपरों के लिए वित्तपोषण की लागतों को कम करने के लिए किफायती इकाइयों की खरीद को प्रतिबद्ध करके या योग्य किरायेदारों की गारंटी देकर परियोजनाओं को "जोखिम-रहित" बना सकते हैं। नगर निर्माण कार्यों को तेज़ी से पूरा करने के लिए अनुमोदन प्रक्रियाओं को भी सरल बना सकते हैं। यदि इन चारों उत्तोलकों का व्यवस्थित र��प से इस्तेमाल किया जाए, तो इनसे उन लोगों के लिए आवास की लागतों को कम किया जा सकता है जिन्हें इनकी सबसे ज्यादा जरूरत है, साथ ही इनसे बेहतर कार्य करनेवाले ऐसे बाजार का निर्माण किया जा सकता है जो विभिन्न आय स्तरों वाले परिवारों के लिए अधिक विकल्प उपलब्ध करे। वास्तव में, नगर निगमों और राष्ट्रीय सरकारों को अपने सबसे गरीब नागरिकों की जरूरतों पर ध्यान देने के लिए अतिरिक्त उपाय करने होंगे, नगरों को अपने किफायती आवास के अंतरालों को पाटने के लिए प्रभावशाली साधन उपलब्ध हैं। हालाँकि कोई भी एक समाधान हर जगह काम नहीं कर सकता, परंतु आवास निर्माण और प्रबंधन के आधुनिकीकरण के प्रयासों के फलस्वरूप भूमि नीति और अधिक सुलभ वित्त को एकीकृत करनेवाली पहल से हर जगह प्रगति हो सकती है। सोमालिया के नए समुद्री डाकू मोगादिशू – महाद्वीपीय अफ्रीका में सोमालिया को सौभाग्यवश सबसे बड़ा समुद्र तट प्राप्त है। हमारे समृद्ध जल क्षेत्र दुनिया में सबसे अधिक उत्पादक समुद्री जल हैं जो पीले पंखों वाली ट्यूना, ब्लू मार्लिन, डॉल्फिन मछली, और सारडाइनों के झुंडों से लबालब भरे हुए हैं। तथापि, 30 वर्षों से अधिक समय से यह अथाह समुद्री संपदा संघर्ष का स्रोत और स्थल भी बनी हुई है क्योंकि विदेशी, अवैध, असूचित, और अनियंत्रित (आईयूयू) मछली पकड़ने की नौकाएँ हमारे जल क्षेत्र को लूट रही हैं – वे हमारी मछलियों को चोरी करके दूर बंदरगाहों पर ले जाकर बेच देती हैं। अभी कुछ साल पहले, अवैध, असूचित, और अनियंत्रित मछली पकड़ने की नौकाओं के अतिक्रमण से समुद्री डकैती की एक लहर चल पड़ी थी जिससे सोमालिया में वैश्विक समुद्री नौवहन उद्योग को अरबों डॉलर के राजस्व की हानि हुई। जैसे ही अवैध विदेशी मछली पकड़ने की नौकाओं ने हमारे जल क्षेत्र से पलायन करना शुरू कर दिया, सोमाली समुद्री डाकुओं ने शीघ्र ही अपना ध्यान मालवाहक जहाजों और तेल टैंकरों जैसे अधिक आकर्षक पोतों पर केंद्रित करना शुरू कर दिया। और, चूँकि उस समुद्री डकैती को अब लगभग समाप्त किया जा चुका है, विदेशी मछली पकड़ने की नौकाएँ फिर से हमारे जल क्षेत्र को लूटने के लिए लौट आई हैं। सुरक्षित मत्स्य पालन समूह, जिसे सोमाली मत्स्य पालन को सुरक्षित करना कहा जाता है, की एक नई रिपोर्ट से नए सैटेलाइट डेटा का खुलासा हुआ है जिसमें यह दर्शाया गया है कि विदेशी आईयूयू मछली पकड़ने की नौकाएँ अब सोमालिया के लोगों की तुलना में तीन गुना अधिक मछलियाँ पकड़ रही हैं। वे हमारे समुद्रों में सबसे अधिक मूल्य वाली मछलियों को पकड़ रही हैं, इससे सोमाली के मछुआरों को कम मूल्य वाली मछलियों को लेकर उनसे प्रतिस्पर्धा करनी पड़ती है। इस रिपोर्ट से यह पता चलता है कि इन विदेशी बेड़ों के द्वारा हमारी मछलियों, स्वोर्डफ़िश, स्नैपर, मार्लिन, और शार्क को बहुत अधिक मात्रा में पकड़ा जा रहा है जिससे स्थिति और भी बदतर हो गई है। विदेशी बॉटम ट्रॉलर बेतहाशा मछलियाँ पकड़ रहे हैं और उन्होंने बेख़ौफ़ होकर, भारी जाल डालकर हमारे समुद्र तल की सतह को नष्ट कर दिया है, और 12,0,000 वर्ग किलोमीटर (46,000 वर्ग मील) जितने अधिक क्षेत्र में फैले महत्वपूर्ण समुद्री जीव-जंतुओं को भारी नुकसान पहुँचाया है। यह क्षति इतनी अधिक है कि चाहे मछली पकड़ने वाली नौकाओं का आज बंद भी कर दिया जाए, तो भी इस क्षेत्र को ठीक करने में कई वर्ष लग जाएँगे। सोमालिया द्वारा पिछले 18 महीनों में अपने समुद्रों के बेहतर प्रबंधन की दिशा में उल्लेखनीय प्रगति कर लेने के बावजूद हमारे समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र की लूट-खसोट अभी भी जारी है। जून 2014 में, संयुक्त राष्ट्र के समुद्र के कानून पर सम्मेलन के अनुरूप मेरी सरकार ने सोमालिया के 200 नॉटिकल मील के विशेष आर्थिक क्षेत्र (ईईज़ेड) के लिए दावा किया था। पिछले वर्ष दिसंबर में, हमने सोमाली मत्स्य कानून भी पारित किया जिसमें बॉटम ट्रॉलिंग को स्पष्ट रूप से वर्जित किया गया है। इस नवोन्मेषी कानून में मछली उतारने पर बेहतर निगरानी करने की व्यवस्था की गई है, यह मत्स्य पालन के प्रबंधन के लिए एक पारिस्थितिकी तंत्र-आधारित दृष्टिकोण है जिसके द्वारा इस क्षेत्र को समग्र रूप से प्रबंधित किया जाएगा और संकटग्रस्त और लुप्तप्राय मछली प्रजातियों का संरक्षण किया जाएगा। लेकिन, घरेलू स्तर पर मत्स्य पालन के प्रबंधन को मजबूत करने के मामले में हमारी चहुँमुखी प्रगति के बावजूद, हमारे पास अपने विशाल समुद्रों पर निगरानी रखने की क्षमता का अभाव है। अंतर्राष्ट्रीय समुदाय सोमालिया के ईईज़ेड की निगरानी और उसके नियंत्रण में मेरी सरकार की मदद करके, और साथ ही अंतर्राष्ट्रीय नौसैनिक गश्ती दल द्वारा प्राप्त की गई महत्वपूर्ण खुफिया सूचनाओं को बेहतर रूप से साझा करके इस क्षेत्र में भारी अंतर ला सकता है। सुरक्षित मत्स्य पालन की रिपोर्ट के अनुसार, आज आईयूयू के मछली पकड़ने को बंद कर देने पर सोमालिया व्यावसायिक रूप से मूल्यवान ट्यूना का लाइसेंस देकर उसकी बिक्री करना शुरू कर सकता है और प्रति वर्ष $17 मिलियन तक की आय अर्जित कर सकता है। इन निधियों का विनिवेश हमारे कारीगरों और औद्योगिक मछली पकड़ने के बेड़ों की सहायता हेतु बंदरगाह निर्माण, बेहतर कोल्ड स्टोरेज, और आधुनिक प्रसंस्करण सुविधाओं जैसे बेहतर बुनियादी ढांचे में किया जा सकता है। आईयूयू मछली पकड़ने को बंद कर देने से जहाँ हमारे आवश्यकता से अधिक मछली के भंडारों की बहाली की जा सकेगी और एक समृद्ध सोमाली घरेलू मत्स्य उद्योग का निर्माण करने में मदद मिलेगी, वहीं डेटा संग्रहण और संसाधन प्रबंधन के लिए सरकार के समर्थन और निधियों की उपलब्धता में भी वृद्धि होगी। रिपोर्ट में यह दर्शाया गया है कि वर्तमान में उपलब्ध संसाधनों की तुलना में स्वस्थ मछली भंडारों से संसाधन बहुत अधिक मात्रा में उपलब्ध हो सकेंगे। वास्तव में, वर्तमान में हमारे प्रबंधित मत्स्य पालन के लगभग आधे का धारणीय स्तरों पर उपयोग किया जा रहा है। लेकिन हमें अपने उद्योग की पूरी क्षमता को हासिल करने के लिए बेहतर बुनियादी ढाँचे में और अधिक निवेश करने की ज़रूरत है। सोमाली के जल क्षेत्र में मछली पकड़ने के लिए सबको खुली छूट नहीं मिलनी चाहिए जिसमें दूर-दराज के विदेशी बेड़े पारिस्थितिकी तंत्र का गैर-टिकाऊ रूप से उपयोग करते हैं। मैं अंतर्राष्ट्रीय समुदाय से अनुरोध करता हूँ कि वे यह सुनिश्चित करने के लिए मेरी सरकार के साथ सहयोग करें कि सोमाली जल क्षेत्र में आईयूयू मछली पकड़ने को हमेशा के लिए बंद कर दिया जाता है। ऐसा करने से समुद्री सुरक्षा को बेहतर बनाया जा सकेगा और एक ऐसे आकर्षक घरेलू मछली उद्योग को प्रोत्साहन मिलेगा जिससे सभी सोमालियाई लोगों को लाभ होगा और उन्हें आजीविका चलाने में मदद मिलेगी। एक धारणीय, गतिशील मछली उद्योग से हमें अधिक स्थिर और समृद्ध सोमालिया का निर्माण करने में मदद मिलेगी। हमारे देश की भारी संभावना और इसकी रणनीतिक स्थिति को देखते हुए, यह एक ऐसा परिणाम होगा जिसका समर्थन करने के लिए हर कोई तैयार होगा। संरक्षणवाद के युग में व्यापार कोलंबो - जब चीन की अर्थव्यवस्था धीमी पड़ रही है और विकसित देशों में विकास कुंद हो रहा है, ऐसे समय में एशिया भर की सरकारें अपनी अर्थव्यवस्थाओं को विकास के पथ पर अग्रसर करने के लिए काम कर रही हैं। श्रीलंका में, जहाँ मैं प्रधानमंत्री हूँ, वहाँ पहले से ही हमारे स्थिर आर्थिक विकास में तेजी लाने के लिए कोई रास्ता खोजना एक चुनौती है। एक बात साफ है: हम शेष दुनिया से यह उम्मीद नहीं कर सकते कि वह हमारी आर्थिक महत्वाकांक्षाओं का उस तरह से स्वागत करे जिस तरह से उसने एक बार चीन के आर्थिक शक्ति के रूप में तेजी से विकास करने पर मुक्त रूप से स्वागत किया था या - पिछले दशकों में - जापान और दक्षिण कोरिया सहित तथाकथित एशियाई टाइगर्स के विकास पर खुशी प्रकट की थी। आज, हम एशियाई लोग, लगभग हर रोज़, उन साधनों और नीतियों पर भयंकर राजनीतिक हमले होते देख रहे हैं जिनसे हमारे लाखों नागरिकों को गरीबी से बाहर निकालने में मदद मिली है। वास्तव में, इस वर्ष दुनिया के विभिन्न लोकलुभावनवादी और लोकनेताओं के बीच दोषारोपण के लिए मुक्त व्यापार बलि का बकरा बनता जा रहा है। उदाहरण के लिए, संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव अभियान में, रिपब्लिकन और डेमोक्रेटिक प्राइमरी में दोनों ही के प्रमुख उम्मीदवारों ने विश्व व्यापार में और अधिक खुलेपन की मांग के औचित्य पर सवाल उठाए हैं। यूनाइटेड किंगडम में, यूरोपीय संघ को छोड़ने के लिए प्रचार करनेवाले यूरोविरोधी एकल यूरोपीय बाजार के लाभों की आलोचना कर रहे हैं। यूरोप में अन्यत्र, लोकलुभावनवादी यह मांग कर रहे हैं कि व्यापार के अवरोधों को बढ़ाया जाए। मुक्त व्यापार पर एशिया के कुछ हिस्सों में भी हमले हो रहे हैं। जापान के प्र���ानमंत्री शिंजो आबे को अपने देश के विशेष हित वाले कुछ समूहों को अनिच्छुकतापूर्वक ट्रांस पैसिफिक साझेदारी में खींच कर लाना पड़ा। इसी तरह, भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी देश के भीतर व्यापार अवरोधों को कम करने के लिए राज्यों के राज्यपालों को राजी करने में असमर्थ रहे हैं। और श्रीलंका में, मेरी सरकार ने और अधिक आर्थिक एकीकरण लाने के लिए भारत के साथ जिस "आर्थिक और प्रौद्योगिकी समझौते" पर हस्ताक्षर करने की हाल ही में योजना बनाई थी उस पर क्रूर राजनीतिक हमला किया गया है। तथापि, अधिकतर मामलों में, एशिया के राजनीतिक नेता मुक्त व्यापार के लाभों के बारे में बहुत ही सकारात्मक दृष्टिकोण रखते हैं। इस सब के बाद, पिछले चार दशकों में हुए भारी विकास का श्रेय इस बात को दिया जा सकता है कि दुनिया के बाज़ार एशियाई माल को सहर्ष स्वीकार करते रहे हैं। यह लग रहा था कि अपनी अर्थव्यवस्थाओं का विकास करते रहने के लिए हमें जरूरत इस चीज़ की थी कि हम तुलनात्मक लाभ की पहचान करें, प्रतिस्पर्धात्मक कीमतों पर गुणवत्ता वाले माल का उत्पादन करें, और फिर जितना अधिक संभव हो सके उतना अधिक निर्यात करें। दशकों तक, इस मॉडल ने असाधारण रूप से अच्छी तरह से काम किया है, और चीन, जापान, दक्षिण कोरिया और दक्षिण पूर्व एशिया के देशों को इससे बहुत अधिक लाभ हुआ है। आज भी, जब विश्व व्यापार में मंदी आई हुई है, क्षेत्रीय व्यापार इन देशों के विकास की रणनीतियों का प्रमुख घटक बना हुआ है। तथापि, दक्षिण एशिया में हम अधिक मुक्त व्यापार से मिल सकनेवाले अवसरों का लाभ उठाने में बहुत अधिक धीमे रहे हैं, जिसके परिणाम खेदजनक रहे हैं: इस क्षेत्र में दुनिया के सबसे गरीब लोगों की 44% आबादी रहती है। हमारा यह दायित्व है कि हम अपने लोगों की गरीबी को दूर करने के लिए व्यापार का उपयोग करने की कोशिश करें। लेकिन चूंकि मुक्त व्यापार तेजी से एक वैश्विक बिजूखा बनता जा रहा है, ऐसा लगता है कि दुनिया के बाजारों का दोहन करके विकास करने वाली खिड़की तेज़ी से बंद होती जा रही है। यदि व्यापार को श्रीलंका या इस क्षेत्र में अन्यत्र विकास का प्रमुख साधन बनना है, तो इसकी बहुत अधिक संभावना है कि हमें शायद इसे स्वयं तैयार करना होगा - दक्षिण एशिया को आर्थिक रूप से सबसे कम एकीकृत क्षेत्रों से बदलकर इसका सबसे अधिक एकीकृत क्षेत्र बनाना होगा। आज अंतर-क्षेत्रीय व्यापार दक्षिण पूर्व एशियाई देशों के संगठन के 25% की तुलना में दक्षिण एशिया के कुल व्यापार का केवल 5% है। यह विशाल अप्रयुक्त क्षमता इस क्षेत्र को ऐसे विकास का अवसर प्रस्तुत करती है जो विश्व की अर्थव्यवस्था की ताकत पर भरोसा नहीं करती है। पिछले वर्ष विश्व बैंक ने यह अनुमान लगाया था कि यदि टैरिफ और अन्य अवरोध विश्व व्यापार संगठन द्वारा सिफारिश किए गए स्तरों तक कम कर दिए जाते हैं तो भारत और पाकिस्तान के बीच वार्षिक व्यापार आज के $1 बिलियन से कई गुना बढ़कर $10 बिलियन तक पहुँच सकता है। टैरिफ और अन्य अनावश्यक प्रतिबंधों के कारण सभी दक्षिण एशियाई देशों के बीच व्यापार लड़खड़ा रहा है। दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन (सार्क) की स्थापना हो जाने के बाद इन अवरोधों के दूर हो जाने की आशा थी, यह संगठन विश्व के सभी क्षेत्रीय व्यापार ब्लॉकों में सबसे बड़ा है जिसमें लगभग दो अरब लोग हैं। लेकिन सार्क की द्विपक्षीय वार्ताओं पर निर्भरता ने इस प्रक्रिया को बहुत धीमा कर दिया है, जिससे यह क्षेत्र जितना गरीब होना चाहिए था उसकी तुलना में बहुत अधिक गरीब हो गया है। यदि सार्क को सफल होना है तो सहयोग के लिए एक नए बहुपक्षीय तंत्र की जरूरत होगी। जलवायु परिवर्तन जिस तरह घातक सिद्ध हो रहा है, खतरे और भी अधिक बढ़ जाएँगे। हमारे अभी तक काफी हद तक कृषि प्रधान देशों के अधिकतर इलाके निचले तटीय क्षेत्रों में हैं, उन पर बढ़ते समुद्र स्तरों और तूफानी मौसम का खतरा भयंकर रूप से छाया हुआ है। हिमालय के घटते ग्लेशियरों से पाकिस्तान, नेपाल, और उत्तरी भारत के लगभग 600 मिलियन लोगों के जीवन - और उनकी आजीविकाएँ - तहस-नहस हो जाएँगी। प्रभावी कार्रवाई करने में राजनीतिक बाधाएँ बहुत कठोर होंगी। वास्तव में, हर सार्क देश में अधिक क्षेत्रीय आर्थिक एकीकरण के लिए राजनीतिक विरोध है। लेकिन इस क्षेत्र के सम्मुख पेश आ रही चुनौतियों की भरमार को देखते हुए सार्क के सभी सदस्यों को अधिक सहयोग के लिए प्रेरित करना चाहिए। यह सार्क की सदस्य सरकारों के लिए चुनौती का सामना करने का समय है। मिलजुल कर काम करके, हम एक ऐसी क्षेत्रीय अर्थव्यवस्था की नींव रख सकते हैं जो पूर्व स्थित हमारे पड़ोसियों की अर्थव्यवस्था जितनी गतिशील हो। श्रीलंका का चीनी चुनाव नई दिल्ली - इस महीने होनेवाले श्रीलंका के संसदीय चुनाव से न केवल देश के राजनीतिक भविष्य पर, बल्कि विस्तृत हिंद महासागर क्षेत्र की भू-राजनीति पर भी असर पड़ेगा, जो व्यापार और ऊर्जा प्रवाह का वैश्विक केंद्र है और दुनिया के आधे कंटेनर यातायात और इसके 70% पेट्रोलियम का लदान यहाँ से होता है। इस देश का रणनीतिक महत्व चीन को बखूबी पता है, और वह भारत और संयुक्त राज्य अमेरिका की हताशा के बावजूद, हिंद महासागर में अपनी उपस्थिति को मजबूत बनाने के लिए कड़ी मेहनत कर रहा है। श्रीलंका के आगामी चुनाव में एक प्रमुख दावेदार पूर्व राष्ट्रपति महिंदा राजपक्षे हैं जिनका बढ़ते अधिनायकवाद, भाई-भतीजावाद और भ्रष्टाचार की विशेषताओं वाला नौ साल का कार्यकाल जनवरी में हुए राष्ट्रपति चुनाव में करारी हार के साथ समाप्त हो गया था। सच तो यह है कि राजपक्षे ने 2009 में 26 साल से चले आ रहे तमिल उग्रवाद को समाप्त कर दिया था जिसके फलस्वरूप देश के प्रमुख सिंहली समुदाय के बहुत से लोग उन्हें एक नायक के रूप में देखने लग गए थे। लेकिन यह एक क्रूर प्रयास था जिसके दौरान राजपक्षे ने तमिल विद्रोहियों के खिलाफ अंतिम आक्रमण में लगभग 40,000 नागरिकों की हत्या करने सहित युद्ध अपराधों का कथित तौर पर नेतृत्व किया था। राजपक्षे के राष्ट्रपति काल के दौरान, श्रीलंका के साथ भारत के संबंध खराब हो गए थे जिसका आंशिक रूप से कारण तमिल अल्पसंख्यकों के साथ फैसला करने में उनकी सरकार की विफलता था। (भारत में तमिल आबादी बहुत अधिक है।) लेकिन चीन के साथ इस देश के संबंधों में तब बहुत अधिक सुधार हुआ जब चीनी कंपनियों ने निर्माण के कई ऐसे आकर्षक ठेके हासिल किए, जिनसे एशिया को अफ्रीका और मध्य पूर्व से जोड़नेवाले चीन के "समुद्री रेशम मार्ग'' पर श्रीलंका की स्थिति एक महत्वपूर्ण पड़ाव के रूप में सुनिश्चित होगी। समुद्री रेशम मार्ग सिर्फ एक व्यापार की पहल नहीं है; बल्कि यह ईंधन भरने, पुनः पूर्ति, चालक दल के विश्राम, और रखरखाव के समझौतों के माध्यम से, हिंद महासागर क्षेत्र में ���ीन की नौसेना के लिए पहुँच के कई स्थान भी उपलब्ध करेगा। आर्थिक और सैन्य हितों का संयोजन, पिछले पतझड़ के दौरान तब स्पष्ट हो गया था जब चीनियों ने हिंद महासागर में अपनी पहली ज्ञात यात्राओं में श्रीलंका की राजधानी कोलंबो में चीनी स्वामित्व वाले नए कंटेनर टर्मिनल में खड़ी पनडुब्बियों पर हमला कर दिया था। इस तरह की गतिविधियों से श्रीलंका के भारत का क्यूबा बनने का जोखिम हो सकता है। राजपक्षे के उत्तराधिकारियों, राष्ट्रपति मैत्रीपाल श्रीसेना और प्रधानमंत्री रानिल विक्रमसिंघे, चीन के साथ इस तरह के सहयोग के फलस्वरूप होनेवाले जोखिमों को जानते हैं। दरअसल, राष्ट्रपति के चुनाव प्रचार के दौरान, राजपक्षे के मंत्रिमंडल में स्वास्थ्य मंत्री के पद पर रह चुके श्रीसेना ने अपने पूर्व मालिक के विरुद्ध चुनाव में खड़े होने के लिए पद छोड़ने से पहले कहा था कि राजपक्षे द्वारा चीन को दिए गए ठेके श्रीलंका को कर्ज के जाल में फँसा रहे हैं। इसी तरह, श्रीसेना ने अपने चुनाव घोषणा-पत्र में चेतावनी दी है कि "जिस भूमि को गोरे लोगों ने सैन्य शक्ति के के ज़रिए हासिल किया था उसे अब विदेशियों द्वारा मुट्ठी भर लोगों को फिरौती देकर प्राप्त किया जा रहा है... यदि यह प्रवृत्ति अगले छह वर्षों तक जारी रहती है तो हमारा देश एक कॉलोनी बन जाएगा और हम गुलाम बन जाएँगे।" हालाँकि घोषणापत्र में चीन के नाम का उल्लेख नहीं किया गया है, परंतु इसका निहितार्थ स्पष्ट है। एक बार सत्ता में आ जाने पर, श्रीसेना की सरकार ने चीनी कंपनियों द्वारा रीक्लेम की गई भूमि पर $1.4 बिलियन के शहर पर किए जा रहे निर्माण को रोक दिया, और उसने चीनी सरकार द्वारा संचालित फर्म द्वारा राजपक्षे के राष्ट्रपति पद पर पुनः सत्तारूढ़ होने के एक असफल अभियान के लिए कथित तौर पर दी गई $1.1 मिलियन की रिश्वत सहित, पर्यावरण संबंधी उल्लंघनों और भ्रष्टाचार के मामलों में जांच के आदेश दिए। इसके अलावा, एक संवैधानिक संशोधन पारित करके, श्रीसेना ने राष्ट्रपति की शक्तियों में से उन कुछ शक्तियों को रद्द कर दिया जो राजपक्षे द्वारा जोड़ी गई थीं, और साथ ही दो कार्यकालों की सीमा को बहाल कर दिया। (यह विडंबना ही है कि इससे प्रधानमंत्री के पद की स्थिति मज़बूत हुई है, जिसके लिए राजपक्षे अब होड़ में हैं।) परंतु पिछले महीने श्रीसेना ने अचानक राजपक्षे को उस श्रीलंका फ्रीडम पार्टी के टिकट पर संसदीय चुनाव लड़ने की अनुमति देने का निर्णय लिया जिसका नियंत्रण श्रीसेना ने राष्ट्रपति पद पर विजय प्राप्त कर लेने के बाद राजपक्षे से हासिल कर लिया था। लगता है कि श्रीसेना के विक्रमसिंघे के साथ संबंध बहुत अधिक बिगड़ जाने के कारण, जिनकी लोकतंत्र समर्थक यूनाइटेड नेशनल पार्टी आगामी चुनाव में SLFP की मुख्य प्रतिद्वंद्वी है और SLFP के भीतर गुटबाजी बढ़ जाने के कारण राष्ट्रपति के पास इसके सिवाय कोई विकल्प नहीं बचा है कि वे राजपक्षे को शामिल करें। यदि SLFP संसद में बहुमत जीतने में कामयाब होती है, तो यह ज़रूरी नहीं है कि राजपक्षे नई सरकार का नेतृत्व करेंगे; इसका निर्णय तो श्रीसेना द्वारा ही लिया जाएगा। तो फिर सवाल यह है कि श्रीसेना अपने पूर्ववर्ती को जगह देने के लिए कहाँ तक आगे बढ़ेंगे, और संसदीय बहुमत जीतने के लिए उन्होंने कौन सा आत्मघाती सौदा किया हुआ है। ध्यान देने की बात यह है कि भले ही राजपक्षे प्रधानमंत्री न भी बनें, उनकी संसद में एक सीट जीतने की संभावना है, जिससे उन्हें वह प्रभाव और राजनीतिक हैसियत प्राप्त होगी जिसकी उन्हें SLFP गुट का नेतृत्व अधिक खुले तौर पर करने की आवश्यकता है। लेकिन फिर भी प्रधानमंत्री के रूप में राष्ट्रीय नीति पर उनका प्रभाव कहीं अधिक ज़्यादा होगा। उदारवादियों और धार्मिक अल्पसंख्यकों को इसी परिणाम का सबसे ज्यादा डर है। राजपक्षे की सत्तावादी लालसाएँ तुर्की के रिसेप तईप एरडोगन से बहुत अधिक मिलती हैं जो एक दशक से अधिक समय तक प्रधानमंत्री के रूप में कार्य करने के बाद पिछले साल अपने देश के सबसे पहले सीधे निर्वाचित राष्ट्रपति बन गए थे। तुर्की में जिस तरह एरडोगन इस्लामवाद को भड़का रहे है, उसी तरह श्रीलंका में राजपक्षे सिंहली राष्ट्रवाद को बढ़ावा दे रहे हैं। परंतु चीन निस्संदेह राजपक्षे की सत्ता में वापसी का जश्न मनाएगा जिन्होंने श्रीलंका की मौजूदा सरकार पर आरोप लगाया गया है कि वह “चीन को एक अपराधी की तरह मान रही है।” इस तरह के परिणाम से यह सुनिश्चित करने में मदद मिलेगी कि चीन की हिंद महासागर की रणनीति में श्रीलंका एक महत्वपूर्ण घटक बन जाता है। आगामी चुनाव में, श्रीलंका के मतदाता प्रभावी ढंग से यह फैसला करेंगे कि क्या उनके देश को चीन की क्षेत्रीय महत्वाकांक्षाओं के आगे झुक जाना चाहिए या एक स्वतंत्र विदेश नीति और खुली अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देकर अपने स्वयं के भाग्य का निर्माण करना चाहिए। उम्मीद करनी चाहिए कि वे दूसरा विकल्प चुनेंगे। आखिरकार, चीन, भारत, और अमेरिका के बीच समुद्री वर्चस्व की प्रतिस्पर्धा में श्रीलंका की स्थिति "स्विंग राज्य" से कहीं अधिक है। श्रीलंका की शांति को बहाल करना कोलंबो - ऐसे युद्ध या क्रांति को जीतना, जिसका परिणाम केवल बाद की शांति खोना हो, हमारे समय की गंभीर राजनीतिक सच्चाइयों में से एक है। इराक में, सद्दाम हुसैन के शासन पर तुरंत सैन्य विजय ने जल्दी ही विद्रोह, गृह युद्ध, और हिंसक इस्लामी राज्य के उभरने का मार्ग प्रशस्त किया। लीबिया, सीरिया, यमन, और दूसरी जगहों पर, अरब स्प्रिंग द्वारा पैदा की गई उम्मीदें इसी तरह अक्सर-हिंसक बनने वाली निराशा में बदल गईं। आज, अपने 36-साल के गृह युद्ध के अंत के आधा-दशक बाद, श्रीलंका के लिए यह एक महत्वपूर्ण अवसर है कि वह अपने खुद के प्रयासों से शांति स्थापित करे और इसके दीर्घकालिक लाभों को प्राप्त करे । नव-निर्वाचित राष्ट्रपति मैत्रीपाल सिरिसेना, और प्रधानमंत्री के रूप में, मैं उस शांति को हासिल करने, और अपने देश को वैसा बनने में मदद करने के लिए कटिबद्ध हैं जैसा उसे हमेशा होना चाहिए था: लोकतंत्र, सभ्यता, और मुक्त समाज का समृद्ध एशियाई द्वीप। असफल शांति के जोखिम अब प्रकट हो रहे हैं, क्योंकि, 2009 से, जब तमिल टाइगर्स के साथ युद्ध, हिंसा के बड़े सैलाब में समाप्त हुआ था, तो राष्ट्रपति महिंदा राजपक्षे के नेतृत्व वाली पूर्व सरकार ने हमारे तमिल नागरिकों के साथ सुलह के बारे में केवल अधूरे मन से ही कोशिशें की थीं। युद्ध से तबाह हुए तमिल ज़िलों, और साथ ही सालों की लड़ाई और आतंकवाद से क्षतिग्रस्त हमारे समाज के अन्य भागों का पुनर्निर्माण, मुश्किल से शुरू ही हुआ है। यह उपेक्षा राजपक्षे की जानीबूझी रणनीति का हिस्सा थी, जिन्हें श्रीलंका को लगभग युद्ध की स्थिति में, और हमारे तमिल नागरिकों को व्यथित और अलग-थलग रखने में, अपना कठोर शासन बनाए रखने का सबसे प्रभावी तरीका दिखाई देता था। हालाँकि उनकी फूट डालो राज करो की रणनीति कुछ समय तक तो सफल हुई, जिसमें उन्हें अभूतपूर्व मात्रा में सत्ता को अपने हाथों में केंद्रित करने का मौका मिला, लेकिन उससे हमारे सामाजिक विभाजनों और सतत दरिद्रता की सच्चाई नहीं छिप सकी। इसलिए, पिछली जनवरी में हुए राष्ट्रपति के चुनाव में, सिरिसेना ने सभी धर्मों और जातियों के श्रीलंकाइयों के गठबंधन की विजय के साथ दुनिया को दंग कर दिया जो अपने लोकतंत्र का पुनर्निर्माण करना चाहते हैं, दमनशील शासन की राह पर नहीं चलना चाहते। सिरिसेना की जीत के बाद के महीनों में, श्रीलंका का लोकतंत्र पुनर्जीवित हो गया है, और स्थायी घरेलू शांति की स्थापना के लिए कठोर प्रयास शुरू हो गए हैं। हम जल्दी ही संसदीय चुनाव आयोजित करने की योजना बना रहे हैं, जो निर्धारित समय से एक साल पहले होगा, ताकि राजपक्षे की गूंज वाले चैम्बर को पूरी तरह कार्य करनेवाली विधानसभा में बदल दिया जाए, ऐसी विधानसभा जो सरकार को उत्तरदायी बनाए। इसके अलावा, राष्ट्रपति की सत्ता का इस्तेमाल अब क़ानून द्वारा स्थापित सीमाओं के भीतर किया जाता है, न कि किसी एक व्यक्ति की सनक के अनुसार। हमारे न्यायाधीशों को अब भय नहीं लगता। हमारे व्यापार जगत के अग्रणियों को अब राष्ट्रपति के लालची परिवार के सदस्यों और उनके संगी-साथियों द्वारा तलाशी और अधिग्रहण का डर नहीं सताता है। अपने सभी नागरिकों को डर से आज़ाद कर लेने पर, हम श्रीलंका का मुक्त समाज के रूप में पुनर्निर्माण कर लेंगे। राजपक्षे ने हमारे देश में जिस तरह के दमनशील पूँजीवाद का मॉडल पेश किया था, उसे ज़्यादातर दुनिया आजकल अपनाती हुई प्रतीत हो रही है, पर वह हमारे लिए नहीं है। बेशक, हमारे कुछ पड़ोसी हमारी अर्थव्यवस्था में सुधार के लिए अलग तरह का रास्ता अपनाने, और राजनीतिक स्वतंत्रता को फिर से स्थापित करने के बारे में बहुत ज़्यादा चिंता न करने की सलाह दे रहे हैं। तथापि, दमनशील शासन के साथ हमारा अनुभव यह रहा है कि यह समाज को कृत्रिम रूप से विभाजित किए रखने की अपनी ज़रूरतों के कारण संघर्ष के बाद सुलह और पुनर्निर्माण के लक्ष्य को नज़रअंदाज़ करता है। फिर से संघर्ष और मनमाने शासन में जाने से बचने के लिए सबसे अच्छा तरीका यह सुनिश्चित करना है कि श्रीलंका के नेताओं के प्रतिनिधियों को संस्थाओं के माध्यम से उत्तरदायी बनाया जाए। लेकिन हम दमनशील शासन के पृष्ठ को पूरी तरह नहीं उलट सकते, लोकतांत्रिक स्वतंत्रता की पूरी श्रेणी को बहाल नहीं कर सकते, और अपने दम पर समावेशी तरीके से अपनी अर्थव्यवस्था का पुनर्निर्माण नहीं कर सकते। हमारे देश की बहुत ज़्यादा संपदा युद्ध से नष्ट हो गई है, विदेशों में चली गई है, या भ्रष्टाचार के माध्यम से निकाल ली गई है। हमारे पास बस सहायता के बिना पुनर्निर्माण का महान कार्य शुरू करने के लिए संसाधनों की कमी है। इसलिए हमारी ज़रूरत है कि दुनिया के लोकतंत्र हमारे साथ खड़े हों और हमारा समर्थन करें, ताकि हमारे लोग हतोत्साहित न हो जाएँ और उन निरंकुश ताकतों के भुलावे में न आ जाएँ जो आने वाले संसदीय चुनाव में सत्ता में वापस आने के लिए मैदान में डटकर इंतजार कर रही हैं। हम अपने लोगों के सामने यह प्रदर्शित करना चाहते हैं कि दीर्घकालीन शांति और साझा समृद्धि के लिए सुलह, लोकतंत्र, सहिष्णुता, और क़ानून का शासन ही अकेला रास्ता है। अफ़सोस की बात है कि अब तक हमें जो मदद मिली है वह मेरी सरकार को हमारे देश के पुनर्निर्माण और दुनिया में हमारी रणनीतिक स्थिति पुनः स्थापित करने में सक्षम हो सकने की दृष्टि से बहुत कम है। फिर भी, आशा के लिए कारण मौजूद है। हालाँकि हमारी राजनीतिक संस्थाओं में आमूलचूल परिवर्तन की ज़रूरत है, लेकिन मुझे यह कहते हुए गर्व है कि उन्हें भ्रष्ट और खोखला करने के लिए राजपक्षे के भरपूर प्रयासों के बावजूद, हमारी जीत इसलिए संभव हुई कि चुनाव आयोग और अदालत के कर्मियों ने क़ानून का पालन किया। यह बात भी उतनी ही महत्वपूर्ण है कि जब वोटों की गिनती हुई, तो श्रीलंका के सैन्य नेताओं ने अपनी शपथ का पालन किया और राजपक्षे के चुनाव रद्द करने और उसे सत्ता में बनाए रखने के असंवैधानिक आदेश को बहादुरी से अस्वीकार कर किया। नागरिक वीरता के ये कार्य वह मज़बूत आधार देते हैं जिस पर श्रीलंका के राज्य और समाज का पुनर्निर्माण हो सकेगा। दुनिया की मदद से, हम बिल्कुल ऐसा ही करेंगे। युद्ध और शांति के लिए एक अर्थशास्त्री का मार्गदर्शन न्यू यॉर्क – आज की सुर्खियाँ संघर्ष के समाचारों से भरी होती हैं: चाहे यह सीरिया का गृहयुद्ध हो, यूक्रेन में सड़क पर लड़ाइयाँ हों, नाइजीरिया में आतंकवाद हो, ब्राज़ील में पुलिस की कार्रवाइयाँ हो, हिंसा की भीषण तात्कालिकता बहुत साफ़ नज़र आती है। लेकिन, हालाँकि टिप्पणीकार भू-रणनीतिक सावधानियों, निवारण, जातीय संघर्ष, और इनमें फँसने वाले आम लोगों की दुर्दशा पर चर्चा करते हैं, लेकिन संघर्ष के एक अन्य महत्वपूर्ण पहलू अर्थात इसकी आर्थिक लागत पर निष्पक्ष चर्चा शायद ही कभी होती है। हिंसा की मोटी क़ीमत होती है। 2012 में हिंसा पर काबू पाने या उसके परिणामों से निपटने की वैश्विक लागत चौंका देने वाले स्तर $9.5 खरब पर पहुँच गई थी (जो वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद का 11% है)। यह वैश्विक कृषि क्षेत्र की लागत के दुगुने से ज़्यादा है और विदेशी सहायता पर कुल ख़र्च इसकी तुलना में बहुत ही कम है। इन भारी राशियों को देखते हुए, नीति निर्धारकों के लिए यह अनिवार्य है कि वे इसका विश्लेषण करें कि इस पैसे का ख़र्च कहाँ और कैसे किया जाता है, और इसकी कुल राशि को कम करने के तरीकों पर विचार करें। दुर्भाग्य से, इन सवालों पर शायद ही कभी गंभीरता से विचार किया गया हो। काफ़ी हद तक, इसका कारण यह है कि सैन्य अभियान आम तौर से भू-रणनीतिक सरोकारों से अभिप्रेरित होते हैं, वित्तीय तर्कों से नहीं। यद्यपि इराक युद्ध के विरोधी संयुक्त राज्य अमेरिका पर आरोप लगा सकते हैं कि उसकी नज़र देश के तेल-क्षेत्रों पर थी, पर इतना तो कहा ही जा सकता है कि यह अभियान ख़र्चीला था। वियतनाम युद्ध और अन्य संघर्ष भी वित्तीय विनाश ही थे। इसी तरह के संदेह शांतिकाल के दौरान हथियारों पर किए जानेवाले ख़र्च पर किए जा सकते हैं। उदाहरण के लिए, हम शायद ऑस्ट्रेलिया द्वारा समस्या-ग्रस्त संयुक्त स्ट्राइक लड़ाकू विमानों की ख़रीद पर $24 अरब ख़र्च करने के हाल के फ़ैसले के वित्तीय तर्क पर सवाल उठा सकते हैं जबकि वह इसी के साथ देश को दशकों के सबसे कठोर बजट के लिए तैयार कर रहा था। व्यर्थ, हिंसा से संबंधित ख़र्च सिर्फ़ युद्ध या निवारण की बात ही नहीं है। उदाहरण के लिए, क़ानून-और-व्यवस्था के कठोर और महँगे अभियान चाहे मतदाताओं को लुभाते हैं, लेकिन उनका असर अंतर्निहित अपराध दरों पर आम तौर से बहुत कम होता है। यह चाहे विश्व युद्ध हो या स्थानीय पुलिस का काम, संघर्ष में हमेशा सरकार के ख़र्च में भारी बढ़ोतरी होती है; सवाल यह है कि क्या इन पर इतना ख़र्च किया जाना उचित है। जाहिर है, हिंसा रोकने के लिए पैसा ख़र्च करना हमेशा ख़राब बात नहीं होती। सेना, पुलिस, या व्यक्तिगत सुरक्षा व्यवस्था अकसर स्वागत योग्य और ज़रूरी चीज़ें होती हैं, और, अगर उन्हें उचित रूप से नियोजित किया जाए, तो उनसे दीर्घावधि में करदाताओं का पैसा भी बचता है। प्रासंगिक मुद्दा यह है कि क्या प्रत्येक स्थिति में ख़र्च की गई राशि उपयुक्त है। निश्चित रूप से, कुछ देशों ने अपेक्षाकृत कम परिव्यय से हिंसा पर कार्रवाई करके उचित संतुलन बनाया है; जिसका मतलब यह है कि अनावश्यक ख़र्च को कम करने के तरीके मौजूद हैं। संभावित या लगातार चल रहे संघर्ष के लिए प्रभावी बजट सबसे अच्छे ढंग से तभी हासिल किया जा सकता है जब रोकथाम पर बल दिया जाए। हम जानते हैं कि शांतिपूर्ण समाज के मूल में क्या होता है: आय का समान वितरण, अल्पसंख्यकों के अधिकारों के प्रति सम्मान, शिक्षा के उच्च मानक, भ्रष्टाचार के न्यून स्तर, और व्यवसाय के लिए आकर्षक परिवेश। इसके अलावा, जब सरकारें हिंसा को रोकने के लिए ज़्यादा ख़र्च करती हैं, तो वे वह पैसा बर्बाद करती हैं जिसका अन्यथा ज़्यादा उत्पादक क्षेत्रों में निवेश किया जा सकता है, जैसे बुनियादी सुविधाएँ, व्यवसाय का विकास, या शिक्षा। इसके परिणामस्वरूप होने वाली उच्च उत्पादकता से, जैसे, जेल के बजाय स्कूल के निर्माण से, नागरिकों की खुशहाली में सुधार होगा, जिससे हिंसा की रोकथाम में निवेश करने की ज़रूरत कम होगी। मैं इसे "शांति का पुण्य चक्र" कहता हूँ। उदाहरण के लिए, 2012 में हिंसा की रोकथाम के लिए दुनिया भर में ख़र्च किए लगभग $10 खरब की तुलना हाल ही में वैश्विक वित्तीय संकट की वैश्विक लागत से करें। स्टैंडर्ड एंड पूअर के पूर्व मुख्य क्रेडिट अधिकारी मार्क एडलसन का अनुमान है कि संकट के कारण कुल वैश्विक हानियों की राशि 2007-2011 में $15 खरब जितनी अधिक थी, जो इसी अवधि के दौरान हिंसा पर ख़र्च की गई राशि की सिर्फ़ आधी है। अगर नीति निर्माताओं ने उतना ही समय और धन संघर्ष की रोकथाम करने और उसे रोकने में लगाया होता, तो हिंसा कम होने और आर्थिक विकास तेज़ होने की दृष्टि से, इससे मिलनेवाले लाभ बहुत अधिक हो सकते थे। सरकारें शायद अपने सहायता ख़र्च का फिर से मूल्यांकन करके शुरुआत कर सकती हैं। वैश्विक स्तर पर, देश पहले ही अपनी कुल संयुक्त विदेश विकास सहायता की तुलना में हिंसा की रोकथाम पर 75 गुना ज़्यादा ख़र्च करते हैं। और यह भी कोई संयोग नहीं है कि सकल घरेलू उत्पाद के प्रतिशत के रूप में हिंसा पर उच्चतम ख़र्च करने वाले देश दुनिया में सबसे ग़रीब देश हैं – जिनमें से कुछ हैं, उत्तर कोरिया, सीरिया, लाइबेरिया, अफ़गानिस्तान, और लीबिया। शायद इस पैसे को उन निवेशों में लगाना बेहतर होगा जो संघर्ष को कम करें या रोकें? शांति में निवेश के लिए स्पष्ट मानवीय कारणों के अलावा, ख़ास तौर से जब इसे अंतर्राष्ट्रीय विकास के स्थापित ढाँचे के भीतर किया जाता है, ऐसा निवेश अर्थव्यवस्था के विकास और बजट संतुलन के लिए भी सबसे किफ़ायती तरीकों में से एक होता है। यह सचमुच एक चर्चा योग्य विषय है। कृत्रिम जीव-विज्ञान पर गलत दाँव लास वेगास - लास वेगास एक ऐसा जोखिमपूर्ण कॉर्पोरेट जुआ शुरू करने की सही जगह लगता है जिससे लाखों छोटे किसानों की आजीविकाएँ नष्ट हो सकती हैं। इस महीने के आरंभ में, अंतरराष्ट्रीय खाद्य कंपनी-समूह कारगिल ने इस शहर के मशहूर भूभाग को एक ऐसा उत्पाद पेश करने के लिए चुना जिसके बारे में उसे उम्मीद है कि यह उसका अगला धाँसू उत्पाद होगा: एवरस्वीट एक ऐसा स्वीटनर है जो "बिल्कुल वैसे मीठे घटकों से बना है जो स्टेविया पौधे में होते हैं।" और फिर भी, कारगिल द्वारा अपनी प्रचार सामग्री में स्टेविया पर भारी निर्भरता दर्शाने के बावजूद, एवरस्वीट में इस पौधे का एक भी पत्ता शामिल नहीं है। कारगिल का नया उत्पाद सिंथेटिक जीव-विज्ञान का एक उदाहरण है, यह जेनेटिक इंजीनियरिंग का एक रूप है जिसमें उन यौगिकों का निर्माण करने के लिए संशोधित जीवों का उपयोग किया जाता है जिनका उत्पादन कभी भी स्वाभाविक रूप से नहीं होगा। एवरस्वीट में जो मीठा स्वाद है वह स्टेविया का नहीं है; यह जैव-इंजीनियरीकृत खमीर से बनाया गया एक यौगिक है। सिंथेटिक जीव-विज्ञान उच्च-तकनीक वाला है, और यह उच्च-जोखिम की संभावना वाला भी है। भले ही यह अरबों डॉलर के निवेश को आकर्षित कर रहा है, फिर भी यह बढ़ती अंतरराष्ट्रीय चिंता का विषय है। कारगिल इस विवादास्पद तकनीक का उपयोग करने के बारे में साफ तौर पर कोई प्रचार नहीं करती है; इसके बजाय, यह कंपनी एवरस्वीट का वर्णन "विशेष रूप से तैयार किए गए बेकर के खमीर" के उत्पाद के रूप में करती है, मानो यह खमीर तैयार करने की कोई विधि है जो बवेरियन गांवों में सदियों से चली आ रही है। इस तरह की जेनेटिक इंजीनियरिंग से बनी खाद्य सामग्रियों से उत्पन्न हो सकनेवाले जोखिमों - जो अन्य प्रकार के ट्रांसजेनिक खाद्य पदार्थों से होनेवाले ज्ञात जोखिमों से भिन्न हैं - के बारे में सही जानकारी अभी भी प्रारंभिक चरण में है। यूरोपीय संघ की वैज्ञानिक समितियों ने हाल ही की एक राय में यह निष्कर्ष निकाला कि हालांकि आनुवंशिक रूप से संशोधित जीवों का मूल्यांकन करने के लिए प्रयुक्त जोखिम मूल्यांकन को कृत्रिम जीव-विज्ञान के पहलुओं पर लागू किया जाना चाहिए, प्रौद्योगिकी की सुरक्षा का मूल्यांकन करने के लिए विशिष्ट मामलों में नए दृष्टिकोणों की आवश्यकता हो सकती है। और फिर भी एक ऐसा क्षेत्र है जिसमें खतरे पहले से ही साफ हैं: देसी स्टेविया का स्थान प्रयोगशाला में विकसित यौगिकों द्वारा ले लिए जाने से होनेवाली आर्थिक क्षति। पराग्वे के गुआरानी स्वदेशी लोग सदियों से इस जड़ी-बूटी को उगाते और इसका इस्तेमाल करते आ रहे हैं। अभी हाल ही में, यह खाद्य उद्योग में एक जुनून बन गया है, जो आंशिक रूप से मोटापे संबंधी मुकदमों के डर से प्रेरित है। चूंकि कोक और पेप्सी जैसे प्रमुख ब्रांड इस बात का आक्रामक तरीके से प्रचार करके स्टेविया से मीठे किए गए कोला पेय बाजार में बेच रहे हैं कि वे प्राकृतिक और स्वास्थ्य के लिए हितकारी हैं, इस पौधे के कृषि क्षेत्रफल में बेहताशा वृद्धि हुई है। विश्लेषकों का अनुमान है कि स्टेविया का बाजार 2017 तक $275 मिलियन तक पहुंच जाएगा। स्टेविया के उत्पादन में विश्व के अग्रणी पैराग्वे, चीन, और संयुक्त राज्य अमेरिका हैं, और केन्या उनसे थोड़ा ही पीछे है। 2015 के आरंभ में, मैरिएन बैसे ने (ईटीसी समूह का प्रतिनिधित्व करते हुए) केन्या में स्टेविया के किसानों से यह जानने के लिए मुलाकात की कि कृत्रिम जीव-विज्ञान से प्रतिस्पर्धा का उनके लिए क्या मतलब हो सकता है। वे बहुत चिंतित थे। ऐन नदूता कानिनी, जो आठ बच्चों की विधवा मां हैं, स्टेविया बेचने के कारण अपने बच्चों को स्कूल भेज पा रही है और उन्हें भोजन दे पा रही है। जब हमने एक दूसरे छोटे किसान पॉल म्वांगी किगा से पूछा कि कारगिल द्वारा कृत्रिम जीव-विज्ञान का उपयोग किए जाने का उसके और उसके पड़ोसियों के लिए क्या मतलब होगा, तो उसने उत्तर दिया कि "उनके कारखानों में स्टेविया पैदा करने से हमारे जीवन बुरी तरह प्रभावित होंगे!" इसके अलावा, गरीब किसानों को स्टेविया में निवेश करने के लिए सक्रिय रूप से प्रोत्साहित किया जाता है क्योंकि इसकी खेती से नाज़ुक और अनूठे पारिस्थितिक तंत्र की रक्षा करने में मदद मिल सकती है। वैश्विक आर्थिक फोरम ने प्रमुख वैश्विक जोखिमों के अपने वार्षिक सर्वेक्षण में यह टिप्पणी की कि "उच्च-मूल्य के कृषि निर्यातों के स्थान पर सस्ते, कृत्रिम विकल्पों का आविष्कार ... किसान आय के जिस स्रोत पर निर्भर रहते हैं उस स्रोत को हटा देने से कमजोर अर्थव्यवस्थाओं को अचानक अस्थिर कर सकता है।" और इसके लिए केवल स्टेविया के किसानों को ही चिंतित नहीं होना चाहिए। जो सामग्रियाँ प्रतिस्थापित की जा रही हैं या जिन्हें कृत्रिम जीव-विज्ञान के माध्यम से बने उत्पादों से बदले जाने की संभावना है उनमें वेनिला, केसर, नारियल का तेल, पचौली, जैतून स्क्वैलिन और गुलाब का तेल शामिल हैं। दरअसल, दुनिया की सबसे बड़ी सौंदर्य प्रसाधन, स्वाद, और खुशबू कंपनियाँ यह उम्मीद कर रही हैं कि कृत्रिम जीव-विज्ञान से उन्हें 200 से अधिक प्राकृतिक वनस्पतियों के अर्कों को बदलने में मदद मिलेगी। सुगंधित तेल और सुगंधित पदार्थ व्यापार के अंतर्राष्ट्रीय महासंघ (आईएफईएटी) के अनुसार, इन वनस्पति उत्पादों में से लगभग 95% का उत्पादन छोटे किसानों द्वारा किया जाता है, जिससे दुनिया के कुछ सबसे गरीब समुदायों को अति-आवश्यक नकद आय प्राप्त होती है। सौभाग्य से, उपभोक्ता कृत्रिम जीव-विज्ञान से उत्पन्न होनेवाले खतरों के बारे में अधिकाधिक जागरूक होते जा रहे हैं, और कंपनियाँ प्रतिक्रिया दिखा रही हैं। इस वर्ष कुछ समय पहले, प्रतिष्ठित आइसक्रीम ब्रांड वाली कंपनी बेन एंड जैरीज़ ने यह वचन दिया कि वह ऐसी किसी भी सामग्री का उपयोग नहीं करेगी जिसका उत्पादन कृत्रिम जीव-विज्ञान के माध्यम से किया गया हो। इसी तरह, हैगन-डाज़्स ने यह पुष्टि की कि वह अपनी आइसक्रीम में कृत्रिम जीव-विज्ञान से तैयार किए गए वेनिला स्वाद का उपयोग नहीं करेगी। और, प्राकृतिक सफाई उत्पादों के ब्रांड ई-कवर पर हजारों-लाखों गुस्साए उपभोक्ताओं ने जब याचिका दायर की, तो उसके बाद कंपनी ने उस प्रयोग को शीघ्र ही वापस ले लिया जिसमें उसने किसी कपड़े धोने के साबुन में कृत्रिम जीव-विज्ञान के माध्यम से निर्मित शैवालयुक्त तेल का उपयोग किया था। इन उदाहरणों के इक्का-दुक्का बने रहने की संभावना नहीं है। एक अत्यंत प्रभावशाली लेबलिंग संगठन, गैर-जीएमओ प्रोजेक्ट, ने यह नियम बनाया है कि इसकी मुहर वाले 33,000 उत्पादों में कृत्रिम जीव-विज्ञान का उपयोग नहीं किया जाना चाहिए। इस बीच, यूरोपीय स्टेविया एसोसिएशन (ईयूएसटीएएस) ने यह चिंता जताई है कि एवरस्वीट स्टेविया के सुरक्षित और प्राकृतिक होने की लोकप्रियता को ठेस पहुंचाएगी। कृत्रिम जीव-विज्ञान पर मंडराते काले बादल शायद कारगिल के चमचमाते उत्पाद के शुरू किए जाने पर दिखाई नहीं भी देते। लेकिन, गरीब किसानों के साथ प्रतिस्पर्धा करके और उपभोक्ताओं को अपनी सामग्री की उत्पत्ति के बारे में गुमराह करके, एवरस्वीट और कृत्रिम जीव-विज्ञान के अन्य उदाहरणों से उत्पाद शृंखला के दोनों सिरों पर कड़वाहट पैदा हो रही है। इसीलिए वेगास में जो हुआ उसे वेगास में ही रहने देना चाहिए। अफ़्रीका के भविष्य के खेत हरारे - व्यवसाय शुरू करना मुश्किल काम हो सकता है, ख़ास तौर से अफ़्रीका में, जहाँ कमज़ोर शासन प्रणालियाँ और महत्वपूर्ण संसाधनों तक अपर्याप्त पहुँच सफलता में बाधा बन सकती है। अफ़्रीका के किसानों के लिए, चुनौतियाँ विशेष रूप से स्पष्ट हैं। गतिशील और आधुनिक कृषि क्षेत्र के व्यापक आर्थिक और सामाजिक लाभों को देखते हुए, किसानों को ऐसे प्रोत्साहन, निवेश, और विनियम उपलब्ध करना सर्वोच्च प्राथमिकता होनी चाहिए जिनकी उन्हें सफल होने के लिए ज़रूरत है। अफ़्रीका के दूरसंचार क्षेत्र में हाल में आई तेज़ी - जिसने न केवल लोगों की जीवन-शैलियों में बल्कि सभी उद्योगों में क्रांति ला दी है - से यह पता चलता है कि इस तरह का दृष्टिकोण कितना असरदार हो सकता है। आज इस महाद्वीप पर आधे अरब से ज़्यादा मोबाइल कनेक्शन हैं; वास्तव में, कई मामलों में, अफ़्रीका मोबाइल विकास और नवाचार में दुनिया में अग्रणी है। अफ़्रीका इस विकास को कृषि क्षेत्र में लागू करने में असमर्थ क्यों रहा है? भरपूर फसलों के बावजूद, अफ़्रीका का वार्षिक खाद्य आयात बिल $35 अरब क्यों है? अफ़्रीका प्रगति पैनल की नवीनतम वार्षिक रिपोर्ट, अनाज, मछली, पैसा - अफ़्रीका की हरित और नीली क्रांतियों का वित्त-पोषण (Grain, Fish, Money – Financing Africa’s Green and Blue Revolutions), के अनुसार समस्या बिल्कुल साफ है: अफ़्रीका के किसानों के सामने बाधाओं का अंबार लगा है। यह ख़ास तौर से छोटे किसानों के मामले में सच है, जिनमें से अधिकांश महिलाएँ हैं। लगभग एक या दो फ़ुटबॉल मैदानों के आकार के भूखंडों पर खेती करनेवाले इन किसानों के पास आम तौर से विश्वसनीय सिंचाई प्रणालियों और गुणवत्ता वाली निविष्टियों की कमी होती है, जैसे बीज और मिट्टी के अनुपूरक। इसके अलावा, वे शायद ही कभी इतना कमा पाते हैं कि ज़रूरत की मशीनरी में निवेश कर सकें, और वे ऋण तक पहुँच प्राप्त नहीं कर पाते। और मानो इतना ही काफ़ी न हो, इन किसानों को अधिकाधिक रूप से अस्थिर जलवायु स्थितियों का सामना करना पड़ता है जिससे उनकी फसलें ख़राब हो जाने की संभावना बढ़ जाती है। उदाहरण के लिए, इक्कीसवीं सदी में मक्का की पैदावार में एक-चौथाई तक गिरावट आना निश्चित है। और, जब फसलें तैयार हो जाती हैं तो किसानों को उन्हें बाज़ार तक ले जाने में भारी बाधाओं का सामना करना पड़ता है - जिनमें अपर्याप्त ग्रामीण सड़क प्रणालियाँ और कोल्ड स्टोरेज सुविधाओं की कमी शामिल हैं। इन जोखिमों के बावजूद, जो टेलीकॉम उद्योग द्वारा सामना किए गए जोखिमों के मुकाबले बहुत कम हैं, अफ़्रीका के छोटे किसान अपने से बड़े किसानों की तुलना में उनके बराबर ही कुशल बने रहते हैं - जो उनकी दृढ़ता और लचीलेपन का प्रमाण है। फिर भी, किसानों का समर्थन करने के बजाय, अफ़्रीकी सरकारों ने उनके विकास में और अधिक बाधाएँ खड़ी कर दी हैं, जिनमें अत्यधिक कराधान, अपर्याप्त निवेश और निरोधक नीतियाँ शामिल हैं। अफ़्रीका के किसानों को उन्हें सक्षम बनाने वाले परिवेश की ज़रूरत है जो उन्हें उनके सामने आने वाली चुनौतियों का सामना कर सकने में सक्षम बना सके। ऐसी स्थिति में, महाद्वीप के कृषि क्षेत्र में वैसी वैसी जबर्दस्त क्रांति आ सकती है जैसी संचार उद्योग में आई थी। अच्छी ख़बर यह है कि निजी और सार्वजनिक दोनों क्षेत्र इस बदलाव को लाने के लिए तैयार लग रहे हैं – जो खाद्य की अत्यधिक माँग, ख़ास तौर से अफ़्रीका के तेजी से बढ़ते शहरों में, और बढ़ती वैश्विक खाद्य क़ीमतों से प्रेरित हैं। निजी फ़र्मों ने अफ़्रीका के कृषि क्षेत्र में निवेश करना शुरू कर दिया है, जिसमें ग्रो अफ़्रीका (जिसका मैं सह-अध्यक्ष हूँ) जैसी पहलों के फलस्वरूप किए गए निवेश शामिल हैं जो कृषि विकास के लिए लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए राष्ट्रीय सरकारों और सौ से अधिक स्थानीय, क्षेत्रीय और अंतर्राष्ट्रीय कंपनियों के बीच सहयोग में मदद करती है। पिछले दो वर्षों से, इन फ़र्मों ने कृषि निवेश में $7.2 अरब से अधिक की वचनबद्धता की है। अफ़्रीकी सरकारों और विकास साझेदारों ने अपनी ओर से, अपनी आर्थिक विकास कार्यसूची में कृषि द्वारा जिस केंद्रीय भूमिका का निर्वाह किया जा सकता है, उसे पहचानकर, कृषि में सार्वजनिक निवेश में तीन-दशक से चली आ रही गिरावट की स्थिति को पलटना शुरू कर दिया है। वास्तव में, किसी अन्य क्षेत्र की तुलना में कृषि क्षेत्र में ग़रीबी को दुगुनी गति से कम करने की क्षमता है। महाद्वीप के कई भागों में इस तरह के प्रयासों का प्रभाव स्पष्ट दिखाई देने लगा है। घाना से रवांडा तक, कृषि निवेश के उच्च स्तरों के कारण ग्रामीण क्षेत्रों में प्रभावशाली आर्थिक विकास होने लग गया है, जिससे रोज़गार सृजन को बढ़ावा मिल रहा है और ग़रीबी और भूख में कमी हो रही है। लेकिन इन लाभों में अस्थिरता बनी हुई है। उन्हें स्थायी बनाने के लिए अफ़्रीकी सरकारों को अफ़्रीकी संघ के कृषि और खाद्य सुरक्षा पर मापुटो घोषणा के प्रति पुनः प्रतिबद्ध होना होगा, जिसमें उनके बजट के कम-से-कम 10% को कृषि निवेश में लगाने की वचनबद्धता शामिल है। और, उन्हें किसानों को बुनियादी सुविधाएँ, ऊर्जा आपूर्ति, और आवश्यक सहायक नीतियाँ उपलब्ध करानी होंगी जिनकी उन्हें अपने उत्पाद बाज़ार में ले जाने के लिए ज़रूरत होती है। संचार क्षेत्र को भी इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभानी होगी। किसानों को बहुमूल्य जानकारी प्रदान करके मोबाइल प्रौद्योगिकी ने पहले ही अफ़्रीका के कृषि उद्योग को बदलना शुरू कर दिया है, जैसे बाज़ार की क़ीमतें, ई-वाउचरों के माध्यम से निविष्टि संबंधी सहायता, और यहाँ तक कि ऋण तक पहुँच। इन अभिनव सेवाओं में से अनेक सेवाएँ अमेरिकी या यूरोपीय किसानों की तुलना में अफ़्रीका के छोटे किसानों के लिए ज़्यादा सुलभ हैं। अंत में, कृषि विकास को आगे बढ़ाने के लिए निजी क्षेत्र के संचालकों, कृषक संगठनों और नागरिक- समाज के समूहों का सहयोग करना ज़रूरी है। उदाहरण के लिए, अफ़्रीका में हरित क्रांति के लिए एलायंस (Alliance for a Green Revolution in Africa), समूचे महाद्वीप में लाखों छोटे किसानों को उच्च गुणवत्ता के बीजों की आपूर्ति करती है जिनमें से अनेक सूखा-प्रतिरोधी होते हैं। अफ़्रीकी संघ ने 2014 को अफ़्रीका में कृषि और खाद्य सुरक्षा का वर्ष घोषित किया है। नीति, निवेश, और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में व्यापक कार्रवाई के साथ, अफ़्रीका के किसान पाँच वर्षों के भीतर अपनी उत्पादकता दुगुनी कर सकते हैं। अब कृषि क्षेत्र को वह सुअवसर देने का समय आ गया है जिसकी साझा समृद्धि के युग में जाने के लिए सभीअफ़्रीकियों को ज़रूरत है। गरीबी से सशक्तीकरण तक मुंबई – अगले महीने भारत जब आम चुनावों की तैयारी में जुटने लगेगा, तो उसके लिए इस अवसर पर खुश होने का मौका है: बेहद गरीबी आखिरकार कम होने लगी है। वर्ष 2012 में – अर्थव्यवस्था को बेहतर बनाने की दृष्टि से सरकार द्वारा विभिन्न आर्थिक सुधारों को शुरू किए जाने के दो दशक बाद – आधिकारिक गरीबी दर घटकर 22% हो गई थी, जो 1994 की दर की तुलना में आधी से भी कम थी। लेकिन अब भारत के लिए अपनी उम्मीदों को बढ़ाने का समय आ गया है। यद्यपि घोर गरीबी से बचना एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर है, पर यह जीवनयापन का अच्छा स्तर और आर्थिक सुरक्षा की भावना प्राप्त करने जैसा नहीं है। इस उद्देश्य से, अभी बहुत कुछ करना बाकी है। वास्तव में, इस कार्य की सीमा मैकिन्सी ग्लोबल इन्स्टीट्यूट की एक नई रिपोर्ट, “गरीबी से सशक्तीकरण तक,” में परिलक्षित होती है जिसमें आठ मौलिक आवश्यकताओं: भोजन, ऊर्जा, आवास, पेय जल, स्वच्छता, स्वास्थ्य देखभाल, शिक्षा और सामाजिक सुरक्षा को पूरा करने के लिए औसत नागरिक पर पड़ने वाली लागत का अनुमान लगाने के लिए “सशक्तीकरण रेखा” नामक एक नवोन्मेषी विश्लेषणात्मक ढाँचे का उपयोग किया गया है। इस मीट्रिक के अनुसार, वर्ष 2012 में 56% भारतीयों के पास “मूलभूत आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए साधन नहीं थे।” महत्वपूर्ण बात यह है कि यह संख्या भारत में अभी तक गरीबी रेखा से नीचे रहनेवाले लोगों की संख्या से 2.5 गुना से भी अधिक है। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि “सशक्तीकरण अंतराल” – अर्थात, इन 680 मिलियन लोगों को सशक्तीकरण रेखा तक लाने के लिए आवश्यक अतिरिक्त खपत – अत्यधिक गरीबी को दूर करने की लागत से सात गुना अधिक है। इसके अतिरिक्त, यद्यपि सशक्तीकरण रेखा व्यक्तिगत खपत का माप है, पर किसी परिवार की खर्च करने की क्षमता या इच्छा एक अच्छे जीवन के वादे के लिए काफी नहीं है। लोगों को स्वास्थ्य क्लीनिकों, विद्यालयों, पॉवर ग्रिडों, और स्वच्छता प्रणालियों जैसी सामुदायिक स्तर की आधारिक संरचना तक पहुँच भी चाहिए होती है। लेकिन औसत भारतीय परिवार को 46% मूलभूत सेवाओं तक पहुँच प्राप्त नहीं होती है, और अलग-अलग ज़िलों में इनके अंतरालों की गहनता में बहुत अधिक अंतर है। भारत की सरकार अपने नागरिकों को ऐसी गरिमा, सुविधा, और सुरक्षा प्रदान करने के लिए क्या कर सकती है जिसके वे हकदार हैं? यह देखते हुए कि सामाजिक कार्यक्रमों पर किए जा रहे लगभग आधे वर्तमान सार्वजनिक व्यय से गरीबों के लिए बेहतर परिणाम नहीं मिल पा रहे हैं, विद्यमान माध्यमों से और अधिक निधियाँ उपलब्ध कर देने भर से कोई अधिक प्रभाव पड़ने की संभावना नहीं हो सकती। इसके बजाय, नीतिनिर्माताओं को रोज़गार और उत्पादकता के लाभों का समर्थन करने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए – जो ऐतिहासिक रूप से गरीबी के खिलाफ़ सर्वाधिक शक्तिशाली हथियार हैं। फिर भी, यह काम आसान नहीं होगा। हाल ही के वर्षों में भारतीय अर्थव्यवस्था धीमी हुई है। यदि आर्थिक विकास में कोई प्रमुख सुधार नहीं होते हैं और यह वर्तमान ढर्रे पर बना रहता है, तो 2022 में एक-तिहाई से अधिक आबादी सशक्तीकरण रेखा से नीचे रहेगी और 12% आबादी बेहद गरीबी में फँसी रहेगी। ऐसे किसी परिणाम से बचने के लिए, भारत की सरकार को व्यवसाय को निवेश करने, बढ़ाने और रोज़गार देने के लिए प्रोत्साहित करने वाले भारी सुधार लागू करने चाहिए जिनसे विकास में वृद्धि हो। सुधारात्मक कार्रवाई इन चार प्रमुख प्राथमिकताओं पर आधारित होनी चाहिए: • कामगारों के बढ़ते समूह को काम देने के लिए अगले दशक में 115 मिलियन कृष्येतर नौकरियों के अवसर तैयार करना और अधिक आधुनिक उद्योगों की ओर उन्मुखता को तेज़ करना। • कृषि उत्पादकता में वृद्धि को दुगुना करना ताकि भारत की कृषि उपजों को अन्य उभरते एशियाई देशों में प्राप्त स्तरों तक बढ़ाया जा सके। • दस वर्षों में सामाजिक सेवाओं पर होनेवाले वास्तविक (मुद्रास्फीति-समायोजित) सार्वजनिक व्यय को दुगुना करना, जिसमें अधिकतर वृद्धि का आवंटन स्वास्थ्य देखभाल, स्वच्छ पेय जल उपलब्ध करने, और स्वच्छता में कमियों को दूर करने के लिए किया जाए। • सामाजिक-सेवा उपलब्धता में आमूलचूल सुधार करना। सही उपाय किए जाने पर, आधे बिलियन से अधिक लोग आर्थिक रूप से सशक्त जीवन के लिए अपेक्षित खपत की दहलीज को पार कर पाएँगे, और 2022 तक भारतीयों को जो मूलभूत सेवाएँ चाहिए वे उनमें से 80% से अधिक को प्राप्त कर पाएँगे। नौकरियों और उत्पादकता में वृद्धि के फलस्वरूप संभावित लाभों में से 75% प्राप्त हो सकेंगे, जबकि सार्वजनिक व्यय में वृद्धि से 10% से कम का योगदान होगा। इस संभाव्यता को हासिल करने के लिए, नीतिनिर्माताओं को उन घिसे-पिटे विनियमों को हटा देना चाहिए जिन्होंने व्यवसायों को जकड़ा हुआ है; आधारिक संरचना की परियोजनाओं में तेज़ी लानी चाहिए; श्रम बाज़ार को अधिक लोचदार बनाना चाहिए; बाज़ार की विसंगतियों को दूर करना चाहिए और गरीब और अशिक्षित लोगों के लिए व्यावसायिक प्रशिक्षण में विस्तार करना चाहिए। साथ ही, उन्हें चाहिए कि वे सभी सार्वजनिक व्ययों की कारगरता को भारत के सर्वोत्तम-निष्पादन वाले राज्यों के समान बनाने के लिए कार्य करें। इन सभी के लिए बेहतर सुशासन के लिए प्रतिबद्धता और परिणामों पर निरंतर ध्यान केंद्रित करने की ज़रूरत होती है। सामान्य बुद्धि वाली रणनीतियाँ - जैसे ब्यूरोक्रेसी में सम्मिलित अनेक मंत्रालयों और विभागों के बीच समन्वय को बेहतर बनाना, और ऐसी जवाबदेह और सशक्तीकरण वाली एजेंसियाँ स्थापित करना जो उच्च प्राथमिकता वाले क्षेत्रों में परिणाम दे सकें - इस माँग को पूरा करने की दिशा में बहुत कुछ मदद कर सकती हैं। इसके अतिरिक्त, सरकारी सेवाओं को सुव्यवस्थित एवं अधिक पारदर्शी बनाने के लिए प्रौद्योगिकी का उपयोग किया जा सकता है। अंततः, निजी और सामाजिक क्षेत्र के कर्ताओं और स्थानीय समुदायों के साथ निकट संबंध स्थापित किए जाने से जहाँ कार्यकुशलता बढ़ेगी वहीं सार्वजनिक क्षेत्र पर भार भी कम पड़ेगा। भारत की युवा और गतिशील आबादी जीवन की बेहतर गुणवत्ता की मांग कर रही है। मजबूत और निरंतर राजनीतिक इच्छाशक्ति और परिणाम-उन्मुख नीतियों के रहते भारत की सरकार इसे पूरा कर सकती है। जलवायु परिवर्तन का क्षेत्रवार मुकाबला करना LONDON – संयुक्त राज्य अमेरिका के यूरोपीय संघ के साथ मिलकर जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन (यूएनएफसीसीसी) को ग्रीन हाउस गैस (जीएचजी) के उत्सर्जनों को कम करने की अपनी योजना औपचारिक रूप से प्रस्तुत किए जाने के फलस्वरूप जलवायु परिवर्तन के बारे में कार्रवाई करने के लिए एक नया वैश्विक समझौता आकार ले रहा है। अमेरिका ने जलवायु के बारे में कार्रवाई को ठोस रूप देने के लिए इस तरह की प्रतिबद्धता करनेवाले देशों में आगे आनेवाले सबसे पहले देशों में शामिल होकर एक मजबूत संकेत भेजा है। आने वाले दिनों में, चीन और भारत सहित कई अन्य देशों के इन योजनाओं में अपनी योजनाएँ जोड़ने की उम्मीद की जा रही है। ये योजनाएँ, (जिन्हें "इच्छित राष्ट्रीय रूप से निर्धारित योगदान," या "INDC" के रूप में जाना जाता है) एक समृद्ध, कम कार्बन वाले भविष्य में निवेश करने के लिए एक सामूहिक वैश्विक प्रयास का प्रतिनिधित्व करेंगी। और आज, हम जलवायु समूह के राज्यों और क्षेत्र एलायंस के सह-अध्यक्षों के रूप में, राष्ट्रीय सरकार अग्रणियों को इस प्रयास में महत्वाकांक्षी जलवायु योजनाओं में शामिल होने के लिए आह्वान कर रहे हैं। हम अपने राष्ट्रीय अग्रणियों से यह अनुरोध इसलिए कर रहे हैं क्योंकि हम मानते हैं कि यह सही है, और क्योंकि हम जानते हैं कि यह संभव है। हमारा यह विश्वास है कि यह सही है क्योंकि स्वयं अपनी जलवायु योजनाओं को लागू करने के लिए जिम्मेदार बड़े देशों और क्षेत्रीय सरकारों के अग्रणियों के रूप में, हमने यह सीखा है कि जलवायु परिवर्तन के लिए कार्रवाई करना एक कर्तव्य भी है और एक अवसर भी है। यह एक कर्तव्य है क्योंकि जलवायु परिवर्तन अब हमारे रोजमर्रा के जीवन को प्रभावित करता है। और यह एक अवसर है क्योंकि सतत विकास को बढ़ावा देने से नए स्वच्छ प्रौद्योगिकी के व्यवसायों का सृजन होता है और अधिक विविधतापूर्ण, हरित, और लचीली अर्थव्यवस्थाओं का निर्माण होता है। हम जानते हैं कि यह संभव है क्योंकि हम इसे कर रहे हैं। हमारे क्षेत्रों में से प्रत्येक में ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जनों को 1990 के स्तरों तक या उससे कम कर दिया गया है, और जबसे हमने यह शुरू किया है, हमारी अर्थव्यवस्थाओं का आकार पहले से दुगुने से भी अधिक हो गया है। इसे आंशिक रूप से हमारी संबंधित सरकारों द्वारा अपनाई गई नवोन्मेषी नीतियों के माध्यम से हासिल किया जा सका है। जलवायु परिवर्तन का मुकाबला करने के लिए क्यूबेक सरकार की रणनीति के केंद्र में एक ऐसा कार्बन बाज़ार है जिसमें 85% ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जनों का समावेश है। 1 जनवरी 2014 को, क्यूबेक ने अपने कार्बन बाज़ार को कैलिफोर्निया के बाज़ार के साथ जोड़ दिया जिससे उत्तरी अमेरिका में सबसे बड़ा क्षेत्रीय कार्बन बाज़ार बन गया। क्यूबेक उत्सर्जन इकाइयों की बिक्री से प्राप्त सभी राजस्व प्रांत की हरित निधि में जाते हैं, और उनका पुनर्निवेश उन पहलों के लिए किया जाता है जिनका उद्देश्य जीएचजी उत्सर्जनों को और कम करने तथा क्यूबेक के निवासियों को स्वयं को जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के अनुकूल ढालने में मदद करने के लिए किया जाता है। 2020 तक क्यूबेक अपनी अर्थव्यवस्था के विकास में योगदान करने के लिए, इस उद्देश्य के लिए $3.3 बिलियन से अधिक का निवेश करेगा। बास्क देश ने पूरे क्षेत्र में स्थानीय स्थिरता योजनाएँ तैयार करने में सहायता प्रदान करने के लिए स्थानीय एजेंडा 21 नामक एक कार्यक्रम की स्थापना की। इस कार्यक्रम के परिणामस्वरूप, लगभग सभी बास्क नगरपालिकाओं ने ऐसी योजनाओं को अपनाया है जिनमें गतिशीलता, अपशिष्ट प्रबंधन, और आर्थिक विकास जैसे क्षेत्रों में 25,000 से अधिक परियोजनाएँ सम्मिलित हैं। ये स्थानीय योजनाएँ अब इस क्षेत्र में सतत विकास को आगे बढ़ा रही हैं जिसमें नगरपालिकाओं के बीच ज्ञान साझा करने के फलस्वरूप, और अधिक प्रगति के लिए नींव रखी जा रही है। इस बीच, दक्षिण ऑस्ट्रेलिया ने, ऑस्ट्रेलिया में नवीकरणीय ऊर्जा में निवेश के लिए सबसे अधिक सहायक नियामक ढांचा विकसित किया है जिससे बिजली उत्पादन में नवीकरणीय ऊर्जा का अंश 2003 के लगभग शून्य से बढ़कर आज लगभग 40% हो गया है। इस बदलाव से बिजली की थोक कीमतों को कम करने का दबाव पड़ रहा है जिससे दक्षिण ऑस्ट्रेलिया की नवीकरणीय ऊर्जा के अल्पावधि लक्ष्य की लागत की भरपाई हो रही है, और यह सब उपभोक्ताओं के लाभ के लिए है। इससे नए ऊर्जा उद्योगों में दक्षिण ऑस्ट्रेलिया की स्थिति एक अग्रणी की बन गई है। देश की पवन-ऊर्जा विद्युत की प्रचालन क्षमता का 40% से अधिक अंश अब इस राज्य का है, और सौर ऊर्जा के मामले में इसकी खपत दर दुनिया की सर्वोच्च दरों में से एक है (चार घरों में से एक के पास फोटोवोल्टिक प्रणाली है)। अब हम भविष्य की ओर देख रहे हैं। हमने राह दिखा दी है, बास्क देश और क्यूबेक में 2020 तक उत्सर्जनों में 20% तक की, और दक्षिण ऑस्ट्रेलिया में 2050 तक 60% तक की कमी करने के लिए काम कर रहे हैं - लेकिन हमें राष्ट्रीय स्तर पर भागीदारों की जरूरत है। हमारे क्षेत्रों में, व्यवसायों को संगत, दीर्घकालिक नीति संकेतों की जरूरत है ताकि वे कम कार्बन वाली अर्थव्यवस्था में और अधिक निवेश कर सकें। उप-राष्ट्रीय और राष्ट्रीय सरकारें अलग-अलग कार्य करने की तुलना में मिलकर कार्य करके बहुत अधिक हासिल कर सकती हैं। इसलिए जब हम दिसंबर में पेरिस में होनेवाले संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन के लिए तैयारी कर रहे हैं तो हम अपने राष्ट्रीय अग्रणियों को प्रोत्साहित करते हैं कि वे डगमगाएँ नहीं। इसके विपरीत, उन्हें चाहिए कि वे आवश्यक जीएचजी उत्सर्जनों में कटौती हासिल करने के लिए उप-राष्ट्रीय सरकारों के नेतृत्व का लाभ देनेवाली महत्वाकांक्षी राष्ट्रीय योजनाएँ प्रस्तुत करें और जलवायु परिवर्तन के खिलाफ लड़ाई के मोर्चे पर हमारे साथ सबसे आगे आएँ। विकास के लिए डेटा न्यूयॉर्क – डेटा क्रांति समाज के हर हिस्से में तेजी से बदलाव ला रही है। चुनावों का प्रबंध बायोमीट्रिक्स से किया जा रहा है, वनों की निगरानी उपग्रह इमेजरी से की जा रही है, बैंकिंग शाखा कार्यालयों से हटकर अब स्मार्टफोन्स में आ गई है, और चिकित्सीय एक्स-रे की जाँच का काम दुनिया भर में आधा रह गया है। संयुक्त राष्ट्र सतत विकास समाधान नेटवर्क (एसडीएसएन) द्वारा तैयार की गई विकास के लिए डेटा पर एक नई रिपोर्ट में यह बताया गया है कि थोड़े-से निवेश, और दूरदर्शिता से डेटा क्रांति सतत विकास की क्रांति ला सकती है, और गरीबी को समाप्त करने, सामाजिक समावेशन को बढ़ावा देने, और पर्यावरण की रक्षा करने की दिशा में प्रगति को तेज़ कर सकती है। दुनिया की सरकारें 25 सितंबर को संयुक्त राष्ट्र के विशेष शिखर सम्मेलन में नए सतत विकास लक्ष्यों (एसडीजी) को अपनाएँगी। यह अवसर संभवतः इतिहास में दुनिया के नेताओं का सबसे बड़ा जमावड़ा होगा जिसमें देशों और सरकारों के लगभग 170 अध्यक्ष उन साझा लक्ष्यों को अपनाएँगे जो 2030 तक वैश्विक विकास के प्रयासों का मार्गदर्शन करेंगे। सच तो यह है कि लक्ष्यों को अपनाना जितना आसान है उन्हें प्राप्त करना उतना आसान नहीं है। इसलिए हमें नई डेटा प्रणालियों सहित नए साधनों की आवश्यकता होगी जिससे 2030 तक सतत विकास लक्ष्यों को हकीकत में बदला जा सके। इन नई डेटा प्रणालियों को विकसित करने के लिए, सरकारों, व्यवसायों, और नागरिक समाज के समूहों को चार स्पष्ट उद्देश्यों को बढ़ावा देना चाहिए। पहला और सबसे महत्वपूर्ण है, सेवा प्रदान करने के लिए डेटा। डेटा क्रांति सरकारों और व्यवसायों को सेवाएँ प्रदान करने, भ्रष्टाचार को दूर करने, लालफीताशाही को कम करने, और अब तक के पहुँच के बाहर के स्थानों तक पहुँच की गारंटी देने के लिए नए और अत्यधिक बेहतर तरीके उपलब्ध करती है। सूचना प्रौद्योगिकी स्वास्थ्य देखभाल, शिक्षा, प्रशासन, बुनियादी ढाँचे (उदाहरण के लिए, प्रीपेड बिजली), बैंकिंग, आपातकालीन प्रतिक्रिया की सुविधाएँ प्रदान करने, और अन्य कई क्षेत्रों में पहले से ही क्रांति ला रही है। दूसरा उद्देश्य है सार्वजनिक प्रबंधन के लिए डेटा। अधिकारी अब सरकारी सुविधाओं, परिवहन नेटवर्कों, आपात राहत कार्यों, सार्वजनिक स्वास्थ्य निगरानी, हिंसक अपराधों, और अन्य कई चीज़ों के बारे में उन्हें वर्तमान स्थिति के बारे में सूचित किए जाने के लिए रीयल-टाइम डैशबोर्ड रख सकते हैं। नागरिक प्रतिक्रिया से भी कामकाज में सुधार किए जा सकते हैं, जैसे चालकों से यातायात की जानकारी को क्राउडसोर्स करके। भौगोलिक सूचना प्रणालियों (जीआईएस) से स्थानीय सरकारों और दूर-दराज के क्षेत्रों में स्थित जिलों में रीयल-टाइम निगरानी की जा सकती है। तीसरा उद्देश्य है सरकारों और व्यवसायों की जवाबदेही के लिए डेटा। यह एक सामान्य सत्य है कि सरकारी अधिकारी गलत तरीके अपनाते हैं, सेवा प्रदान करने में कमियों को छिपाते हैं, निष्पादन को बढ़ा-चढ़ाकर दर्शाते हैं, या सबसे खराब मामलों में, जब उनका बस चलता है तो वे चोरी करने से भी बाज़ नहीं आते हैं। अधिकतर व्यवसायों की हालत भी इससे कुछ बेहतर नहीं हैं। डेटा क्रांति यह सुनिश्चित करने में मदद कर सकती है कि जाँचयोग्य डेटा तक आम जनता और सार्वजनिक और निजी सेवाओं के इच्छित प्राप्तकर्ताओं को पहुँच मिलती है। जब सेवाएँ समय पर नहीं पहुँचती हैं (उदाहरण के लिए, निर्माण में किसी व्यवधान या आपूर्ति श्रृंखला में भ्रष्टाचार के कारण), तो जनता डेटा प्रणाली के माध्यम से समस्याओं के बारे में ठीक से पता लगा सकती है और सरकारों और व्यवसायों को जिम्मेदार ठहरा सकती है। अंत में, डेटा क्रांति की मदद से जनता यह जानने में सक्षम हो सकेगी कि कोई वैश्विक लक्ष्य या उद्देश्य वास्तव में हासिल किया गया है या नहीं। वर्ष 2000 में निर्धारित किए गए सहस्राब्दी विकास लक्ष्यों में, वर्ष 2015 के लिए मात्रात्मक लक्ष्य निर्धारित किए गए थे। लेकिन, हालाँकि अब हम सहस्राब्दी विकास लक्ष्यों के अंतिम वर्ष में हैं, उच्च गुणवत्ता वाले, समयोचित आंकड़ों के अभाव में, हमें अभी तक इस बारे में ठीक-ठीक जानकारी नहीं है कि सहस्राब्दी विकास लक्ष्यों के कतिपय लक्ष्यों को हासिल किया गया है या नहीं। कुछ अत्यंत महत्वपूर्ण सहस्राब्दी विकास लक्ष्यों के बारे में सूचनाएँ कई वर्षों के अंतराल से दी जाती हैं। उदाहरण के लिए, विश्व बैंक ने विस्तृत गरीबी डेटा 2010 के बाद से प्रकाशित नहीं किया है। डेटा क्रांति से भारी विलंबों को दूर किया जा सकता है और डेटा की गुणवत्ता में भारी सुधार किए जा सकते हैं। उदाहरण के लिए, मृत्यु दर की गणना करने के लिए हर कुछ वर्षों के बाद किए जानेवाले परिवार सर्वेक्षणों पर निर्भर करने के बजाय, नागरिक पंजीकरण और महत्वपूर्ण आँकड़ों की प्रणालियाँ रीयल-टाइम में मृत्यु दर के आँकड़े एकत्र कर सकती हैं, जिसमें मृत्यु के कारण के बारे में अतिरिक्त जानकारी का लाभ भी मिल सकता है। इसी तरह, कागज आधारित सर्वेक्षणों के स्थान पर स्मार्ट फोनों का उपयोग करके, गरीबी के आँकड़ों को अपेक्षाकृत कम लागत पर और आज की तुलना में बहुत अधिक बारंबारता के साथ एकत्र किया जा सकता है। कुछ विश्लेषकों ने सुझाव दिया है कि मोबाइल फोन के इस्तेमाल से कुछ पूर्वी अफ्रीकी देशों में सर्वेक्षणों की लागत में दस साल की अवधि में 60% तक की कमी की जा सकती है। गैलप इंटरनेशनल जैसी निजी कंपनियाँ, डेटा संग्रह में तेजी लाने के लिए अधिक परंपरागत सार्वजनिक क्षेत्र के सांख्यिकीय कार्यालयों के साथ मिलकर काम कर सकती हैं। डेटा क्रांति प्रौद्योगिकियों के गहन पारिस्थितिकी तंत्र की बदौलत सेवा वितरण, प्रबंधन, जवाबदेही, और जाँच के लिए सफल अवसर प्रदान करती है, जिसमें कई विविध तरीकों से जानकारी एकत्र की जाती है: रिमोट सेंसिंग और उपग्रह इमेजरी, बायोमीट्रिक डेटा, जीआईएस ट्रैकिंग, सुविधाओं-आधारित डेटा, परिवार सर्वेक्षण, सामाजिक मीडिया, क्राउड सोर्सिंग, और अन्य माध्यमों से। सतत विकास लक्ष्यों का समर्थन करने के लिए, इस तरह का डेटा सार्वजनिक रूप से अधिक बारंबारता से सभी देशों के लिए उपलब्ध होना चाहिए - प्रमुख लक्ष्यों के लिए कम-से-कम एक वर्ष के भीतर, और उन क्षेत्रों में रीयल-टाइम में उपलब्ध होना चाहिए जिनमें सेवा प्रदान करना महत्वपूर्ण होता है (स्वास्थ्य, शिक्षा, और ऐसे अन्य क्षेत्र)। टेलीकॉम, सामाजिक विपणन कंपनियों, सिस्टम डिजाइनरों, सर्वेक्षण कंपनियों, और अन्य सूचना प्रदाताओं सहित सभी निजी कंपनियों को डेटा "पारिस्थितिकी तंत्र" में एकीकृत किया जाना चाहिए। नई रिपोर्ट को तैयार करने में, एसडीएसएन ने सतत विकास लक्ष्यों के लिए डेटा क्रांति को कैसे शुरू किया जाए के लिए "आवश्यकता मूल्यांकन" तैयार करने के लिए कई भागीदार एजेंसियों के साथ सहयोग किया। इस रिपोर्ट में एक कार्य योजना प्रस्तुत की गई है जिसे राष्ट्रीय सांख्यिकी प्रणालियों और निजी सूचना फर्मों और अन्य गैर-सरकारी डेटा प्रदाताओं के साथ मिलकर तैयार किया गया है। जैसा कि इस रिपोर्ट में जोर दिया गया है, निम्न आय और निम्न-मध्यम आय वाले देशों को इन नई डेटा प्रणालियों को तैयार करने के लिए वित्तीय मदद की आवश्यकता होगी। हालाँकि लागत संबंधी अनुमान बिल्कुल अनंतिम हैं, विशेष रूप से विघटनकारी प्रौद्योगिकीय परिवर्तन के इस युग में, नए अध्ययन में यह सुझाव दिया गया है कि सतत विकास लक्ष्यों के लिए उचित डेटा प्रणालियों के लिए निम्न आय वाले सभी 77 देशों को शामिल करने के लिए प्रति वर्ष कम-से-कम $1 बिलियन की आवश्यकता होगी। ���स राशि में से लगभग आधी राशि को आधिकारिक विकास सहायता के माध्यम से वित्तपोषित किया जाना चाहिए, जिसका अर्थ यह है कि वर्तमान दाता प्रवाहों की तुलना में प्रति वर्ष कम-से-कम $200 मिलियन की वृद्धि की जानी चाहिए। अब धन की ऐसी वृद्धि की प्रतिबद्धता के लिए सही समय है। जुलाई में, विश्व के प्रतिनिधि विकास के लिए अंतर्राष्ट्रीय वित्त सम्मेलन के लिए अदीस अबाबा में मिलेंगे,और फिर उसके कुछ ही हफ्तों के बाद सतत विकास लक्ष्यों को अपनाने के लिए, सितंबर के अंत में संयुक्त राष्ट्र मुख्यालय में मिलेंगे। इन दोनों शिखर बैठकों से पहले त्वरित कार्रवाई करके, विश्व उन डेटा प्रणालियों के साथ सतत विकास लक्ष्यों को आरंभ करने के लिए तैयार हो जाएगा जिनकी उसे सफल होने के लिए जरूरत है। टिकाऊ भविष्य के अवसर का लाभ उठाएँ बीजिंग – कई वर्षों में पहली बार, बहुत अधिक आशावादी होना सही लग रहा है। वैश्विक अर्थव्यवस्था - कुछ एक अड़चनों को छोड़कर - अंततः वित्तीय संकट से उबर रही है। प्रौद्योगिकीय सफलताओं ने नवीकरणीय ऊर्जा को जीवाश्म ईंधनों के साथ प्रतिस्पर्धा करने योग्य बना दिया है। और अंतर्राष्ट्रीय समुदाय सतत विकास और जलवायु परिवर्तन के खिलाफ लड़ाई पर महत्वपूर्ण समझौते करने की ओर अग्रसर लग रहा है। और फिर भी यह खतरा बना हुआ है कि ये लाभ व्यर्थ चले जाएँगे क्योंकि नीतिनिर्माता, व्यवसाय अग्रणी और निवेशक वैश्विक अर्थव्यवस्था पर मंडरा रहे खतरों को दरकिनार करके अल्पकालिक चिंताओं पर ध्यान केंद्रित करने लगे हैं। यदि हमें अपनी प्रगति को बरकरार रखना है तो हमें अपनी वित्तीय प्रणाली की विफलताओं के मूल तक जाकर विचार करना होगा, ऐसे मानकों, विनियमों, और प्रथाओं को अप��ाना होगा जो इसे अधिक समावेशी, टिकाऊ अर्थव्यवस्था की दीर्घकालिक आवश्यकताओं के अनुरूप बनाएँ। इस साल, दुनिया में इसे कर पाने की क्षमता है। चूँकि बढ़ती सार्वजनिक स्वीकार्यता और प्रौद्योगिकीय प्रगति के फलस्वरूप स्वच्छ ऊर्जा के क्षेत्र में निवेश अधिकाधिक व्यावहारिक होते जा रहे हैं, हरित अर्थव्यवस्था में संक्रमण अब एक निश्चित बात लग रही है, न की आशापूर्ण महत्वाकांक्षा। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) की हाल ही की एक रिपोर्ट के अनुसार 2014 में, नवीकरणीय ऊर्जा के क्षेत्र में वैश्विक निवेश में 17% की वृद्धि हुई, हालाँकि तेल की कीमतों में काफी कमी हुई। इस प्रवृत्ति के मूल में चीन और जापान में सौर ऊर्जा में आई तेजी और अपतटीय पवन ऊर्जा में यूरोपीय निवेश में हुई वृद्धि होना था। शंघाई से साओ पाओलो के स्टॉक एक्सचेंजों ने निवेशकों को इस बारे में सूचित करने के लिए रिपोर्टिंग आवश्यकताएँ निर्धारित की हैं कि कंपनियाँ अपनी रणनीतियों में स्थिरता को किस तरह सम्मिलित कर रही हैं। ग्रीन बांडों की लोकप्रियता बढ़ती जा रही है, 2014 में $40 बिलियन से अधिक के बांड जारी किए गए, तथा और अधिक स्पष्ट मानकों और विनियमों के निर्धारित हो जाने पर उनके और भी अधिक लोकप्रिय होने की संभावना है। केंद्रीय बैंक भी अब पर्यावरण पर ध्यान देने लग गए हैं। पीपुल्स बैंक ऑफ़ चाइना व्यावहारिक उपायों की पहचान करने के लिए “हरित” वित्तीय-बाजार सुधार सुनिश्चित करने के लिए यूएनईपी के साथ मिलकर कार्य कर रहा है, और बैंक ऑफ़ इंग्लैंड ने यूनाइटेड किंगडम के बीमा क्षेत्र को जलवायु परिवर्तन के फलस्वरूप होनेवाले क्रमिक जोखिमों की विवेकपूर्ण समीक्षा करना आरंभ कर दिया है। सितंबर में संयुक्त राष्ट्र के सतत विकास लक्ष्यों (एसडीजी) का आरंभ होगा, जो पर्यावरण और इस धरती के प्राकृतिक संसाधनों के आधार की रक्षा करते हुए गरीबी और भुखमरी को समाप्त करने के लिए विश्व के सबसे पहले सार्वभौमिक रूप से स्वीकार किए गए निर्धारणीय लक्ष्य हैं। और, इस वर्ष बाद में, अंतर्राष्ट्रीय समुदाय के उत्सर्जनों में कटौती करने और जलवायु परिवर्तन के खिलाफ लड़ाई के वित्तपोषण के लिए बाध्यकारी प्रतिबद्धताओं पर सहमत होने की आशा है। हालाँकि सभी संकेत सही दिशा में इशारा कर रहे हैं, इसमें सफलता की गारंटी बिल्कुल नहीं है। यदि इस क्षण का उपयोग नहीं किया जाता है, तो लाभ हाथ से निकल सकते हैं। असली सवाल सही समय का है, और उस अपूरणीय क्षति का है जो विलंबों के कारण हो सकती है। यूएनईपी की “समावेशी संपत्ति” रिपोर्ट में सर्वेक्षण किए गए 140 देशों के 80% से अधिक के मामले में उनकी प्राकृतिक पूंजी के स्टॉक में गिरावट दर्ज की गई। पर्यावरण क्षरण से होनेवाली आर्थिक क्षति, प्रति वर्ष लगभग $7 ट्रिलियन होने का अनुमान है जिसमें से अधिकतर की भरपाई नहीं की जा सकती। हम जितने अधिक समय तक प्रतीक्षा करेंगे, हमारी समस्याएँ ही अधिक गंभीर हो जाएँगी। ज़रूरत इस बात की है कि वित्तीय और पूंजी बाजारों को ऐसे तरीकों से पुनर्व्यवस्थित करने के लिए कोई ऐसा महत्वपूर्ण अंतर्राष्ट्रीय प्रयास किया जाए कि वे सतत विकास का समर्थन करें। हमारी वित्तीय प्रणाली के वर्तमान स्वरूप से जो गारंटी मिलती है उसे बैंक ऑफ़ इंगलैंड के गवर्नर मार्क कार्नी ने "दूरदृष्टिता की त्रासदी" कहा है - यह निवेशकों, कंपनियों, और सरकारों की जलवायु परिवर्तन जैसी समस्याओं के बारे में कार्रवाई करने में असमर्थता के फलस्वरूप होनेवाली बाज़ार विफलता है, और इसके परिणाम केवल दूर भविष्य में महसूस होंगे। नीतिनिर्माता और व्यवसाय अग्रणी तात्कालिक चिंताओं पर ध्यान केंद्रित करने के लिए कई कारणों का हवाला देते हैं। वास्तव में, किसी दूसरे वित्तीय संकट के उत्पन्न होने के जोखिमों को कम करने के लिए की जानेवाली नीति संबंधी कार्रवाइयाँ बैंकों और संपत्ति प्रबंधकों को अल्पावधि के लिए उधार देने और निवेश करने के लिए मजबूर कर देती हैं जो अक्सर अधिक लाभदायक सिद्ध होता है, लेकिन दीर्घावधि अवसरों की दृष्टि से इनमें कम तरलता होती है। अल्पावधि दबाव हमेशा मौजूद रहेंगे, लेकिन उचित साधनों: पर्यावरणीय जोखिमों के बेहतर मूल्यन, जलवायु संवेदनशील क्रेडिट रेटिंग, पर्यावरण उधारदाता दायित्व, और पर्यावरण संबंधी जोखिमों के वित्तीय स्थिरता पर पड़नेवाले प्रभाव को कम करने के प्रयासों से उन पर काबू पाया जा सकता है। टिकाऊ भविष्य पहुँच के भीतर है, लेकिन यह तभी हो सकता है जब हम इसे संभव बनाने वाली नीतियाँ निर्धारित करें। अपने बच्चों के लिए कुछ भी नहीं छोड़ना स्टॉकहोम - हमारी पीढ़ी के लिए यह एक अनूठा अवसर है। यदि हम अपना ध्यान इस पर केंद्रित करते हैं, तो मानव इतिहास में हम ऐसे पहले लोग होंगे जो अपने बच्चों के लिए कुछ भी नहीं छोड़ेंगे: कोई ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन नहीं, कोई गरीबी नहीं, और कोई जैव विविधता की हानि नहीं। दुनिया भर के नेता सतत विकास के लक्ष्यों (एसडीजी) को अपनाने के लिए जब 25 सितंबर को न्यूयॉर्क में संयुक्त राष्ट्र में मिलेंगे तो वे यही तय करेंगे। इसके 17 लक्ष्य गरीबी समाप्त करने और स्वास्थ्य में सुधार करने से लेकर इस ग्रह के जैव मंडल की रक्षा करने और सभी के लिए ऊर्जा प्रदान करने से संबंधित हैं। ये संयुक्त राष्ट्र के इतिहास में सबसे बड़े शिखर सम्मेलन 2012 में “रियो+20” सम्मेलन से उभरे हैं, जिसके बाद संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा किया गया अब तक का सब���े बड़ा परामर्श हुआ है। अपने पूर्ववर्ती एमडीजी के विपरीत, जिनमें लगभग विशेष रूप से विकासशील देशों पर ही ध्यान केंद्रित किया गया था, नए वैश्विक लक्ष्य सार्वभौमिक हैं और वे सभी देशों पर समान रूप से लागू होते हैं। उन्हें स्वीकार किया जाना इस बात की व्यापक स्वीकृति की ओर संकेत करता है कि पृथ्वी के प्राकृतिक चक्रों की दीर्घकालिक स्थिरता के लिए सभी देशों को मिलकर जिम्मेदारी लेनी चाहिए जिन पर धरती की हमारा भरण-पोषण करने की क्षमता निर्भर करती है। वास्तव में, एसडीजी ऐसे पहले विकास ढांचे के रूप में हैं जिसमें धरती के साथ हमारे संबंधों में एक बुनियादी बदलाव को माना गया है। पृथ्वी के 4.5 बिलियन वर्ष के इतिहास में पहली बार इसकी प्रणालियों को निर्धारित करनेवाले प्रमुख कारक, अब इस ग्रह से सूर्य की दूरी या इसके ज्वालामुखी विस्फोटों की शक्ति या आवृत्ति नहीं रह गए हैं; उनका स्थान अर्थशास्त्र, राजनीति और प्रौद्योगिकी ने ले लिया है। पिछले 12,000 वर्षों के दौरान अधिकतर समय तक पृथ्वी की जलवायु अपेक्षाकृत स्थिर थी और जैव-मंडल लचीला और स्वस्थ था। भूवैज्ञानिक इस अवधि को नवयुग कहते हैं। अभी हाल ही में, हम उस युग में पहुँच गए हैं जिसे कई लोग अधुनातन युग कहते हैं, यह एक ऐसा युग है जिसमें मानव-प्रेरित पर्यावरण परिवर्तन का बहुत ही कम पूर्वानुमान लगाया जा सकता है। इस बुनियादी बदलाव के फलस्वरूप एक नया आर्थिक मॉडल आवश्यक हो गया है। अब हम यह नहीं मान सकते हैं कि संसाधन अनंत हैं, जैसा कि प्रचलित आर्थिक विचारधारा मानती है। कभी हम एक बड़े ग्रह पर एक छोटा सा समाज थे। आज, हम एक छोटे से ग्रह पर एक बड़ा समाज हैं। और इसके बावजूद, एसडीजी किसी भी तरह से काल्पनिक नहीं हैं, और इन्हें 2030 तक प्राप्त किया जा सकता है। डेनमार्क, फिनलैंड, नार्वे और स्वीडन सहित कुछ देश, इनमें से बहुत-से लक्ष्यों को प्राप्त करने की दिशा में अग्रसर हैं, और दुनिया भर में अन्यत्र भी बहुत अधिक प्रगति हो रही है। पिछले कुछ दशकों में, गरीबी आधी हो चुकी है। सुर्खियों में होने के बावजूद हिंसक संघर्ष कम हो रहा है। रोगों का उन्मूलन किया जा रहा है। विश्व की जनसंख्या में स्थिरता आनी शुरू हो गई है। ओज़ोन परत में सुधार के लक्षण दिखाई देने लगे हैं। और डिजिटल क्रांति समूचे उद्योगों को ऐसे तरीकों से अस्त-व्यस्त कर रही है जिनसे इस ग्रह को लाभ हो सकता है। चरम गरीबी का उन्मूलन हमारी पहुँच के भीतर हो गया है। आज लगभग 800 मिलियन लोग $1.25 प्रतिदिन से कम पर रह रहे हैं। हाल ही की विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के अनुसार, उनमें से लगभग 30% लोग भारत में रहते हैं, जिसमें सही प्रोत्साहन मिलने पर औद्योगीकृत होने की विशाल क्षमता मौजूद है। नाइजीरिया (जहाँ सबसे गरीब 10% लोग रहते हैं), चीन (जहाँ 8% गरीब रहते हैं) और बांग्लादेश (जहाँ 6% गरीब हैं) सहित, अन्य देशों में भी गरीबी घट रही है। संदेह का मुख्य स्रोत अमीर देशों की इस प्रतिबद्धता से संबंधित है कि वे ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जनों में कटौती करने में विकासशील देशों की मदद तब करेंगे जब वे गरीबी को दूर कर लेंगे। उचित सहायता के बिना, गरीब देशों के सामने कम-से-कम एक और पीढ़ी के लिए कोयला और तेल पर निर्भरता में फंस जाने का जोखिम है जिसके फलस्वरूप पूरे ग्रह पर नियंत्रण-रहित जलवायु परिवर्तन का खतरा मंडरा सकता है। दुनिया के नेताओं के लिए यह समझ लेना आवश्यक है कि वैश्विक ऊर्जा प्रणाली को बदलने की लागत इस ग्रह के शेष बचे जीवाश्म ईंधनों को जलाने के परिणामों को भुगतने की लागत की तुलना में बहुत ही कम होगी। इस महीने प्रकाशित अनुसंधान में यह निष्कर्ष निकाला गया है कि शेष बचे सभी हाइड्रोकार्बनों का उपयोग करने का परिणाम यह होगा कि अंटार्कटिक की बर्फ की संपूर्ण परत पिघल जाएगी, जिससे समुद्र के जल स्तर संभावित रूप से 58 मीटर तक बढ़ जाएँगे। और समुद्र के उच्च जल स्तर तो केवल एक संभावित खतरा हैं। उदाहरण के लिए, जलवायु परिवर्तन के फलस्वरूप सूखा पड़ने और फसलों के नष्ट होने से, हिंसक संघर्षों के भड़कने की संभावना हो सकती है। सौभाग्य से, इस बात का प्रचुर मात्रा में सबूत है कि देश और उद्योग जलवायु परिवर्तन में योगदान किए बिना फल-फूल सकते हैं। यह संभावना है कि 2030 तक कई देश जीवाश्म ईंधन से स्वयं को मुक्त कर लेंगे जिनमें संभवतः स्वीडन, फ्रांस, और जर्मनी सबसे आगे होंगे। इन देशों में कम वायु प्रदूषण, बेहतर स्वास्थ्य और अच्छा जीवन, और फलती-फूलती अर्थव्यवस्थाएँ होंगी। वे जैव-मंडल पर भी कम दबाव डालेंगे। कुछ अनुमानों के अनुसार, इस धरती पर जीवन पहले कभी इतना विविधतापूर्ण नहीं रहा है। जैव विविधता का महत्व इस रूप में है कि यह हमारे पारिस्थितिक तंत्रों को और अधिक लचीला बनाती है, जो स्थिर समाजों के लिए एक पूर्व शर्त है, इसका अकारण विनाश करना मानो अपनी जीवनरक्षक नौका में आग लगाने के समान है। भूमि का प्रभावी ढंग से उपयोग करने और वनों की कटाई को रोकने सहित, गरीबी को समाप्त करने और उत्सर्जनों को कम करने से, इस प्रवृत्ति को रोकने और क्षति को कम करने में बहुत अधिक मदद मिलेगी। आइकिया और यूनिलीवर जैसी कंपनियाँ इस ग्रह की जलवायु, इसके संसाधनों, और पारिस्थितिकी तंत्रों की जिम्मेदारी लेने के लिए वास्तविक प्रयास करके अग्रणी बनी हुई हैं। इसका एक कारण यह है कि उपभोक्ता जागरूकता के बढ़ने से पारिस्थितिकी तंत्र में क्षरण, कारोबार के लिए हानिकारक होता है। साथ ही, सूचना प्रौद्योगिकी से लेकर कृषि तक सभी उद्योग, प्रकृति द्वारा उपलब्ध की गई सेवाओं पर निर्भर करते हैं। वनों, नदियों, घास के मैदानों, और प्रवाल भित्तियों का टिकाऊ तरीके से प्रबंध करने पर वे अधिक लचीले हो जाते हैं और उनकी ग्रीनहाउस गैसों को अवशोषित करने की क्षमता बढ़ जाती है, जो कारोबार के लिए अच्छा होता है। हम ऐसी पहली पीढ़ी हैं जो इस बारे में एक जानकारी-युक्त पसंद का चयन कर सकती है कि हमारी धरती किस दिशा में जाएगी। हम अपने वंशजों के लिए गरीबी रहित, जीवाश्म ईंधन के उपयोग रहित, और जैव-विविधता हानि रहित संसाधन छोड़ सकते हैं, या हम उनके लिए धरती को लौटाया जाने वाला एक ऐसा कर्ज़ छोड़ सकते हैं जिसे चुकाने में उनका मटियामेट हो सकता है। महासागरों के पुनर्निर्माण का एक साल ऑक्सफ़ोर्ड - दुनिया भर के महासागर अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। हम साँस के साथ जो ऑक्सीजन लेते हैं उसका 50% वही देते हैं, अरबों लोगों को भोजन देते हैं, और लाखों लोगों को आजीविका प्रदान करते हैं। वे पूरी दुनिया के वात��वरण और तापमान के नियंत्रण के विराट जैविक पंप हैं, और पानी और पोषक पदार्थों के चक्र के वाहक हैं। और वे जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम करने वाले सबसे शक्तिशाली साधन हैं। संक्षेप में महासागर महत्वपूर्ण मित्र हैं और हमें इनकी रक्षा करने के लिए वह सब कुछ करना चाहिए जो हमारी सामर्थ्य में है। आज हम जिन अभूतपूर्व और अप्रत्याशित चुनौतियों से जूझ रहे हैं, उन्हें देखते हुए यह और भी महत्वपूर्ण है। हालाँकि औद्योगिक क्रांति के समय से ग्रीनहाउस-गैसों के उत्सर्जनों का 30%, और कुल उत्पन्न अतिरिक्त ऊष्मा का 90% अवशोषित करके जलवायु परिवर्तन को धीमा रखने में महासागरों की भूमिका अभिन्न रही है, लेकिन इसकी बहुत भारी कीमत चुकानी पड़ी है। महासागरों के अम्लीकरण और उनके तापमान का बढ़ना जिस गति से हो रहा है वह चिंताजनक है, और उसका हमारे कुछ सबसे कीमती समुद्री पारिस्थितिक तंत्रों पर बहुत गंभीर प्रभाव पड़ रहा है – यह ऐसा प्रभाव है जो बढ़ता ही जाएगा। आज दुनिया के विशाल घास के मैदानों में जिस चीज़ का अनुभव किया जा रहा है वह संभवतः अब तक का सबसे बड़ा अल नीनो प्रभाव होगा। समझा जाता है कि इस घटना से उत्पन्न होने वाला प्रतिकूल मौसमी प्रभाव – जो प्रशांत महासागर से शुरू होता है लेकिन दुनिया भर के सभी महासागरों को प्रभावित करता है – इस साल 60 मिलियन से अधिक लोगों को प्रतिकूल रूप से प्रभावित करेगा, जिससे पिछले साल हुई तबाही से कहीं अधिक तबाही होगी। यह इस बात की धीर-गंभीर चेतावनी है कि हमारी पृथ्वी की प्रणालियों को लगने वाले प्राकृतिक और मानव-निर्मित आघातों के प्रति हम कितने असुरक्षित हैं। इस सबके बावजूद, हम प्राकृतिक वासों और जैवविविधता के अनवरत विनाश से अपने महासागरों का लगातार अपक्षय कर रहे हैं, जिसमें बहुत अधिक मात्रा में मछलियां पकड़ना और प्रदूषण का होना शामिल है। चिंताजनक रूप से हाल ही की रिपोर्टें यह संकेत करती हैं कि 2025 तक महासागरों में प्रति तीन किलोग्राम मछली पर एक किलोग्राम प्लास्टिक हो सकता है। इन कार्यों को वैश्विक शासन की पुरानी नाकामियों ने सुगम बनाया है; मसलन, महासागरों से पकड़ी जाने वाली कुल मछलियों का पांचवां हिस्सा गैर-कानूनी ढंग से पकड़ा जाता है। व्यापक स्तर पर ग्रीनहाउस-गैसों के उत्सर्जनों को कम करके न केवल जलवायु परिवर्तन की समस्या को सुलझाने के लिए बल्कि हमारे महासागरों के स्वास्थ्य और लचीलेपन को बढ़ाने के लिए तुरंत कार्रवाई की जानी चाहिए। सौभाग्य से, 2015 में – जो वैश्विक प्रतिबद्धताओं के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण साल था – विश्व के नेताओं ने संयुक्त राष्ट्र की नई विकास कार्य-सूची में दुनिया भर के महासागरों के संरक्षण को महत्वपूर्ण घटक के रूप में निर्धारित किया जिनके साथ 17 तथाकथित सतत विकास लक्ष्य (एसडीजी) जुड़े हैं। विशेष रूप से, एसडीजी14 विश्व के नेताओं को अत्यधिक मछली पकड़ने को समाप्त करने, गैर-कानूनी ढंग से मछलियां पकड़ने को समाप्त करने, अधिक संरक्षित समुद्री क्षेत्रों की स्थापना करने, प्लास्टिक के कचरे और समुद्री प्रदूषण के अन्य स्रोतों को कम करने, और अम्लीकरण का मुकाबला करने के लिए सागर के लचीलेपन को बढ़ाने के लिए प्रतिबद्ध करता है। वैश्विक महासागर आयोग ने महासागरों की सुरक्षा करने के लिए तत्काल कार्रवाई किए जाने के लिए मिले भारी समर्थन का जश्न मनाया जिसमें ग्लोबल ओशन कमीशन की 2014 की रिपोर्ट अपक्षय से स्वास्थ्य लाभ तकः दुनिया भर के महासागरों के लिए बचाव पैकेज में दिए गए प्रस्ताव स्पष्ट रूप से परिलक्षित होते हैं। इस तरह अब दुनिया के पास सागरों के स्वास्थ्य-लाभ के लिए एक स्वीकृत रोडमैप है। लेकिन अभी यह तय होना बाकी है कि हमें कितनी दूर तक और कितनी तेजी से आगे बढ़ना है। और आगे का काम – प्रशंसनीय और महत्वाकांक्षी प्रतिबद्धताओं को स्थानीय, राष्ट्रीय, और अंतर्राष्ट्रीय स्तरों पर प्रभावी सहयोगात्मक कार्रवाई में रूपांतरित करना - बहुत बड़ा काम है। वैश्विक महासागरीय शासन के कमजोर और विखंडित होने से यह चुनौती और भी बढ़ जाती है। अन्य सतत विकास लक्ष्यों के विपरीत - जैसे स्वास्थ्य, शिक्षा, या भूख से जुड़े - कोई ऐसी अकेली अंतर्राष्ट्रीय संस्था नहीं है जिसे ओशन एसडीजी को लागू करने के काम को आगे बढ़ाने की ज़िम्मेदारी सौंपी गई हो। नतीजतन, यह स्पष्ट नहीं है कि प्रगति पर निगरानी रखने और उसे मापने, और जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिए कौन ज़िम्मेदार होगा। यह सुनिश्चित करने के लिए कि एसडीजी 14 बीच रास्ते मुंह के बल न गिर पड़े, फिज़ी और स्वीडन की सरकारों ने स्वीडन की सहायता से जून 2017 में फिजी में महासागरों और समुद्रों पर संयुक्त राष्ट्र का उच्च-स्तरीय सम्मेलन आयोजित करने का सुझाव दिया है। बाद में उनके सुझाव को 95 देशों ने सह-प्रायोजित किया और संयुक्त राष्ट्र महासभा के एक प्रस्ताव में इसे निर्विरोध रूप से स्वीकार किया गया। एसडीजी 14 के लक्ष्यों को पूरा करने की दिशा में हो रही प्रगति की ओर ध्यान आकर्षित करके और कौन-कौन से परिणाम प्राप्त नहीं किए जा सके हैं उन पर प्रकाश डालकर, यह सम्मेलन अति-आवश्यक “जवाबदेही आंदोलन” की शुरूआत करेगा। साथ ही, प्रासंगिक जोखिम धारकों को साथ जोड़कर यह सरकारों, नागरिक समाज और निजी क्षेत्र के बीच गहरे सहयोग को प्रेरित करेगा। यह आगे के दिशा में आशाजनक पहल है जो उस जोरदार गति को प्रतिबिंबित करती है जो हाल के वर्षों में महासागरों की सुरक्षा के प्रयासों से प्राप्त हुई है। अब जबकि वैश्विक महासागर आयोग का काम स्वाभाविक निष्कर्ष पर आ पहुँचा है, तो इसके बहुत से भागीदार और समर्थक यह सुनिश्चित करते हुए इस गति को बनाए रखने के लिए कठिन परिश्रम से काम करेंगे कि स्वस्थ और लचीले महासागरों का निर्माण तब तक दुनिया भर की प्राथमिकता बना रहता है जब तक यह वैश्विक वास्तविकता नहीं बन जाता है। वैश्विक महासागर आयोग की अंतिम रिपोर्ट के अनुसार एसडीजी 14 के लक्ष्यों को पूरा करने के लिए आवश्यक कार्यों पर निगरानी रखने, उनका मूल्यांकन करने और रिपोर्ट करने के लिए स्वतंत्र, पारदर्शी क्रियाविधि तैयार करने के साथ-साथ अब से लेकर 2030 तक संयुक्त राष्ट्र के अतिरिक्त सम्मेलनों की सफलता की कुंजी होंगे। वर्तमान और भावी पीढ़ियों दोनों को ही समान रूप से स्वस्थ, और लोचदार महासागरों की जरूरत है और वे इसके हकदार हैं। हमारे महासागर जिन चुनौतियों का सामना कर रहे हैं, उनके बारे में जागरूकता और उन्हें हल करने की कटिबद्धता उत्साहजनक है। लेकिन यह तो शुरुआत मात्र है। हम उम्मीद करते हैं कि 2016 का साल ऐसा साल साबित होगा जिसमें दुनिया सागरों के पुनर्निर्माण के नए युग में प्रवेश करेगी। सतत विकास के लक्ष्यों का महत्व क्यों है रोम – 2000-2015 में वैश्विक विकास के प्रयासों को दिशानिर्देशित करनेवाले सहस्राब्दी विकास लक्ष्यों (एमडीजी) के तहत हुई प्रगति के बाद, दुनिया की सरकारें वर्तमान में 2016-2030 की अवधि के लिए सतत विकास लक्ष्यों (एसडीजी) पर बातचीत कर रही हैं। एमडीजी में अत्यधिक गरीबी, भूख, और रोकथाम योग्य रोग समाप्त करने पर ध्यान केंद्रित किया गया था, और वे संयुक्त राष्ट्र के इतिहास में सबसे महत्वपूर्ण वैश्विक विकास लक्ष्य थे। एसडीजी में चरम गरीबी के खिलाफ लड़ाई को जारी रखा जाएगा, लेकिन इसमें और अधिक समान विकास और पर्यावरण स्थि���ता को सुनिश्चित करने की चुनौतियों को, विशेष रूप से मानव-प्रेरित जलवायु परिवर्तन के खतरों को रोकने के मुख्य लक्ष्य को जोड़ा जाएगा। लेकिन क्या नए लक्ष्यों के निर्धारण से दुनिया को हमेशा की तरह एक ख़तरनाक सामान्य-रूप-से-व्यवसाय के रास्ते से हटकर वास्तविक सतत विकास के रास्ते पर आने में मदद मिलेगी? क्या संयुक्त राष्ट्र के लक्ष्य वास्तव में अंतर ला सकते हैं? एमडीजी से मिला साक्ष्य शक्तिशाली और उत्साहजनक है। सितंबर 2000 में, संयुक्त राष्ट्र महासभा ने “सहस्राब्दी घोषणा” को अपनाया था, जिसमें एमडीजी शामिल थे। वे आठ लक्ष्य दुनिया भर के गरीब देशों के लिए विकास के प्रयास के केंद्र बन गए थे। क्या उनसे वास्तव में कोई अंतर पड़ा था? लगता है कि इसका उत्तर हाँ है। एमडीजी के परिणामस्वरूप, दुनिया के सबसे गरीब देशों में, विशेष रूप से अफ्रीका में, गरीबी को कम करने, रोग नियंत्रण, और स्कूली शिक्षा और बुनियादी सुविधाओं तक अधिक पहुँच मिलने की दृष्टि से उल्लेखनीय प्रगति हुई है। वैश्विक लक्ष्यों से वैश्विक प्रयास को सुदृढ़ करने में मदद मिली है। उन्होंने यह कैसे किया? लक्ष्यों का महत्व क्यों है? लक्ष्य आधारित सफलता के मामले में जॉन एफ. कैनेडी ने 50 साल पहले जो किया था उससे बेहतर अभी तक किसी ने नहीं किया है। अमेरिका के आधुनिक राष्ट्रपतियों द्वारा दिए गए सबसे महान भाषणों में से जून 1963 में दिए गए एक भाषण में, कैनेडी ने कहा था: “अपने लक्ष्य को और अधिक स्पष्ट रूप से परिभाषित करके, इसे और अधिक प्रबंधनीय बनाकर और पहुँच से कम दूर दिखाकर, हम सब लोगों को इसे देखने, इससे उम्मीद करने और इसकी ओर बरबस खिंचे चले जाने में मदद कर सकते हैं।” लक्ष्यों का निर्धारण करना कई कारणों से महत्वपूर्ण है। सबसे पहले, वे सामाजिक जुटाव के लिए आवश्यक होते हैं। गरीबी से लड़ने के लिए या सतत विकास हासिल करने में मदद करने के लिए दुनिया को एक दिशा में उन्मुख होने की जरूरत है, लेकिन हमारी कोलाहलपूर्ण, असमान, विभाजित, भीड़भाड़युक्त, दिग्भ्रमित, और अक्सर अभिभूत दुनिया में हमारे साझा उद्देश्यों में से किसी को भी प्राप्त करने के लिए लगातार प्रयास करते रहना बहुत कठिन है। वैश्विक लक्ष्यों को अपनाने से दुनिया भर में व्यक्तियों, संगठनों, और सरकारों को दिशा के बारे में सहमत होने के लिए, अनिवार्य रूप से, इस बात पर ध्यान केंद्रित करने में मदद मिलती है कि हमारे भविष्य के लिए वास्तव में क्या महत्वपूर्ण है। लक्ष्यों का एक दूसरा कार्य सहयोगियों पर दबाव बनाना है। एमडीजी को अपनाने से, राजनीतिक नेताओं से सार्वजनिक तौर पर और निजी तौर पर प्रश्न किए गए कि वे अत्यधिक गरीबी को समाप्त करने के लिए क्या कदम उठा रहे हैं। तीसरे रूप में लक्ष्यों का महत्व इसलिए होता है कि वे ज्ञान समुदायों - विशेषज्ञता, ज्ञान, और अभ्यास के नेटवर्कों - को सतत विकास की चुनौतियों के संबंध में कार्रवाई करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। जब बड़े लक्ष्य निर्धारित किए जाते हैं, तो ज्ञान और व्यवहार के समुदाय, परिणाम प्राप्त करने के लिए व्यावहारिक रास्तों की सिफारिश करने के लिए एक साथ आगे आते हैं। अंत में, लक्ष्यों से हितधारकों के नेटवर्क एकजुट हो जाते हैं। समुदाय के नेता, राजनीतिज्ञ, सरकार के मंत्रालय, वैज्ञानिक समुदाय, प्रमुख गैर-सरकारी संगठन, धार्मिक समूह, अंतर्राष्ट्रीय संगठन, दाता संगठन, और फाउंडेशन सभी एक सामान्य उद्देश्य के लिए एक साथ आने के लिए प्रेरित होते हैं। सतत विकास की जटिल चुनौतियों से निपटने और गरीबी, भूख, और बीमारी के खिलाफ लड़ाई के लिए इस प्रकार की बहु-हितधारक प्रक्रिया का होना आवश्यक है। जब सोवियत संघ शीत युद्ध के चरम पर था, उस समय कैनेडी ने स्वयं उसके साथ शांति स्थापित करने की अपनी तलाश में आधी सदी पहले लक्ष्य निर्धारित करके नेतृत्व का प्रदर्शन किया। वाशिंगटन, डीसी में अमेरिकी विश्वविद्यालय में दिए गए अपने प्रसिद्ध आरंभिक भाषण के साथ शुरू की गई अपने भाषणों की शृंखला में, कैनेडी ने परमाणु परीक्षणों को समाप्त करने के लिए एक संधि करने पर ध्यान केंद्रित करते हुए कल्पना और व्यावहारिक कार्रवाई के मिले-जुले आधार पर शांति के लिए एक अभियान तैयार किया। शांति के इस भाषण के सिर्फ सात हफ्तों बाद, अमेरिका और सोवियत संघ ने शीत युद्ध की हथियारों की दौड़ को धीमा करने के लिए सीमित परीक्षण प्रतिबंध संधि (एलटीबीटी) पर हस्ताक्षर किए,जो एक ऐसा ऐतिहासिक समझौता था जिसके बारे में केवल कुछ महीने पहले तक कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। हालाँकि, एलटीबीटी से निश्चित रूप से शीत युद्ध तो खत्म नहीं हुआ, पर इसने यह सिद्ध कर दिया कि बातचीत और समझौता संभव है, और इसने भविष्य के समझौतों के लिए नींव रखी। लेकिन किसी लक्ष्य या किन्हीं लक्ष्यों को निर्धारित कर लेने के बाद भारी मात्रा में परिणाम प्राप्त करने के बारे में कुछ भी अपरिहार्य नहीं होता है। लक्ष्यों को तय करना महज कार्रवाई की किसी योजना को लागू करने का पहला कदम होता है। लक्ष्य निर्धारित कर लेने के बाद अच्छी नीति तैयार करने, पर्याप्त वित्तपोषण, और कार्य-निष्पादन पर निगरानी के लिए नई संस्थाएँ तैयार करने का कार्य भी होना चाहिए। और, जैसे-जैसे परिणाम मिलते जाएँ, उनका आकलन किया जाना चाहिए, और रणनीतियों पर पुनर्विचार किया जाना चाहिए और उन्हें सतत रूप से नीति संबंधी प्रतिक्रिया में अपनाया जाना चाहिए, और यह सब स्पष्ट लक्ष्यों और समय-सीमाओं के दबावों और अभिप्रेरणाओं के अंतर्गत किया जाना चाहिए। दुनिया ने जिस तरह एमडीजी के मामले में भारी प्रगति की है, उसी तरह हम एसडीजी को प्राप्त करने के लिए अपना रास्ता खोज सकते हैं। गरीबी, असमानता, और पर्यावरण क्षरण से लड़ने के प्रयासों के चहुँ ओर सनक, भ्रम, और अवरोधकारी राजनीति व्याप्त होने के बावजूद, सफलता मिलना संभव है। हो सकता है कि विश्व की प्रमुख शक्तियों का रुख उपेक्षापूर्ण दिखाई दे, लेकिन यह बदल सकता है। विचारों का महत्व होता है। वे सार्वजनिक नीति को इतनी अधिक गहराई से और तेजी से प्रभावित कर सकते हैं कि विरोधी उसकी कल्पना भी नहीं कर सकते। सितंबर 1963 में संयुक्त राष्ट्र में दिए गए अपने अंतिम भाषण में कैनेडी ने शांति स्थापित करने के समकालीन प्रयासों का वर्णन करते हुए आर्किमिडीज़ का हवाला दिया, जिनके बारे में कहा जाता है कि उन्होंने "लीवर के सिद्धांतों को समझाने के संदर्भ में, अपने दोस्तों के सामने यह घोषित किया था कि: 'मुझे कोई ऐसी जगह दो जहाँ मैं खड़ा हो सकूँ - और मैं दुनिया को हिलाकर रख दूँगा।" पचास साल बाद, दुनिया को सतत विकास की दिशा में आगे बढ़ाने के लिए अब हमारी पीढ़ी की बारी है। अब सतत ऊर्जा वाशिंगटन, डीसी – दुनिया अधिक सतत और सुरक्षित ऊर्जा भविष्य के सपने को साकार करने के इतने करीब पहले कभी नहीं पहुँच पाई है। हवा और सूर्य से प्राप्त होनेवाली नवीकरणीय ऊर्जा जीवाश्म ईंधन आधारित बिजली उत्पादन के साथ, प्रतिस्पर्धात्मक होती जा रही है और तेल की कीमतें इतनी अधिक कम होती जा रही हैं जितनी पिछले कई सालों में नहीं देखी गई हैं। इन गतिविधियों के फलस्वरूप, जब तक हम अपने अगले कदम सही रखते हैं, तब तक हम वैश्विक ऊर्जा परिवर्तन का लाभ उठाने की स्थिति में हैं। देशों ने इस क्षण का लाभ उठाना शुरू कर दिया है। 2014 के मध्य में तेल की कीमतों में गिरावट आनी शुरू होने पर पहली प्राथमिकता स्पष्ट हो गई: कीमतों में वापस वृद्धि शुरू होने से पहले, जीवाश्म ईंधन सब्सिडियों में सुधार कर लेना चाहिए। इन सब्सिडियों ने सरकारी बजटों को खोखला कर दिया है, ऊर्जा के व्यर्थ के उपयोग को प्रोत्साहित किया है, और प्रदूषण और कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जनों में वृद्धि की है। भारत ने डीज़ल की कीमत पर नियंत्रण हटा लिए हैं। इंडोनेशिया ने पेट्रोल सब्सिडियों को समाप्त कर दिया है। दूसरे देश भी यह करने जा रहे हैं। सब्सिडियों को समाप्त करने से बचनेवाले धन का उपयोग ऊर्जा की कीमतों में वृद्धि होने की स्थिति में गरीबों की रक्षा के लिए सुरक्षा जाल बनाने के लिए बेहतर इस्तेमाल किया जा सकता है। लेकिन जीवाश्म ईंधन की सब्सिडियों को चरणबद्ध रूप से समाप्त करना महत्वपूर्ण है, और केवल यही सही दिशा में पहला कदम है। अब सस्ती कीमतों पर व्यापक रूप से उपलब्ध नई प्रौद्योगिकियों का लाभ उठाने से, देश अंततः दीर्घकालिक ऊर्जा सुरक्षा की ओर कदम बढ़ा सकते हैं और तेल बाजारों में निहित अस्थिरता से बच सकते हैं। निम्न आय वाले देशों के लिए, इसका मतलब है बिजली के उत्पादन के लिए आयातित तेल के उपयोग को कम करना। उदाहरण के लिए, केन्या अपने बिजली के 21% उत्पादन के लिए भारी ईंधन तेल और डीज़ल पर निर्भर करता है; सेनेगल में तुलनीय आँकड़ा 85% जितना अधिक है; और कुछ द्वीप राज्य अपनी बिजली की सभी जरूरतों के लिए आयातित डीज़ल का उपयोग करते हैं। कुछ देशों के लिए, यह वर्तमान में एकमात्र व्यवहार्य विकल्प है, लेकिन दीर्घकाल में इस निर्भरता का मतलब ऊर्जा की ऊँची लागतें और कीमतों में अस्थिरता और आपूर्ति के झटके हो सकता है। सही नीतियों और अंतर्राष्ट्रीय समर्थन के साथ, ये देश अधिक विविधतायुक्त मिली-जुली ऊर्जा को प्राप्त करने के लिए आवश्यक बुनियादी ढांचे में निवेश कर सकते हैं। कई देशों के लिए, अगला कदम होगा सौर और पवन ऊर्जा जैसे परिवर्तनीय नवीकरणीय ऊर्जा के उच्च स्तरों को एकीकृत करने के लिए बिजली ग्रिड तैयार करना। सौर पैनलों और पवन टर्बाइनों की लागत में कमी होने के फलस्वरूप, इन दोनों का इतनी अधिक तेज़ गति से विस्तार हो रहा है जिसकी कभी उम्मीद नहीं की गई थी। विश्व बैंक की एक नई रिपोर्ट के अनुसार, 2014 की स्थिति के अनुसार, 144 देशों ने नवीकरणीय ऊर्जा का विस्तार करने के लिए राष्ट्रीय योजनाओं की स्थापना की थी, और लगभग 100 देशों ने विशिष्ट लक्ष्य और प्रोत्साहन निर्धारित किए थे। 2006 से 2013 तक, मात्र सात वर्षों में, दुनिया की पवन ऊर्जा की स्थापित क्षमता चार गुना हो गई, जबकि फोटोवोल्टिक प्रणालियों के उपयोग में लगभग 20 गुना वृद्धि हुई। और यह सभी इस बात के सूचक हैं कि इसे अपनाने की गति में तेज़ी आ रही है। पवन और सौर ऊर्जा को परंपरागत विद्युत प्रणालियों में एकीकृत करने के बारे में पुरानी चिंताओं पर अब ध्यान नहीं दिया जा रहा है। मेक्सिको में, महत्वाकांक्षी और अक्सर दूरदराज की नवीकरणीय ऊर्जा की परियोजनाओं - पनबिजली, सौर, और पवन - को ग्रिड से जोड़ा जा रहा है। चीन, जो नवीकरणीय ऊर्जा के लिए दुनिया की सबसे बड़ी संस्थापित क्षमता है, वितरित सौर ऊर्जा को उच्च स्तरों में ग्रिड में लाने के लिए ग्रिड को उन्नत करने की आवश्यकताओं और लागतों का अध्ययन कर रहा है। जैसा कि विश्व बैंक की रिपोर्ट में दर्शाया गया है, सही निवेशों और नीतियों से, देश अब ग्रिड की विश्वसनीयता या बिजली खरीदने की क्षमता से कोई समझौता किए बिना परिवर्तनीय नवीकरणीय ऊर्जा से अपनी बिजली की जरूरतों के एक बड़े अंश को पूरा कर सकते हैं। इन निवेशों में ऊर्जा भंडारण, बेहतर पूर्वानुमान प्रणालियाँ, और स्मार्ट ग्रिड शामिल हैं - इन सभी को प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में मिली सफलताओं और गिरती कीमतों से लाभ हुआ है। शायद सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि ऊर्जा के बाज़ार नए खिलाड़ियों के लिए खोल दिए जाने चाहिए। गरीब ग्रामीण क्षेत्रों के लिए, इसका अर्थ मिनी ग्रिड विकसित करने के लिए उद्यमियों और छोटे बिजली उत्पादकों के लिए एक लाभकारी माहौल तैयार करना होगा - जिनके लिए बिजली आम तौर पर सौर, छोटी पनबिजली, या सौर-डीज़ल के मिले-जुले रूप में प्राप्त होती है - जो उन समुदायों के लिए बिजली ला सकते हैं जिन्हें अन्यथा ग्रिड कनेक्शनों के लिए सालों साल इंतजार करनी पड़ेगी। तंजानिया में, छोटे बिजली उत्पादक अब लाइसेंस की लंबी प्रक्रिया से गुज़रे बिना ग्राहकों को बिजली बेचने के लिए सक्षम हैं। भारत में, दूरदराज़ के सेलुलर टावर अब नए मिनी ग्रिडों के लिए "एंकर" ग्राहकों के रूप में सेवा प्रदान कर रहे हैं, जिन्हें अन्यथा डीज़ल जेनरेटरों से बिजली की आपूर्ति करनी पड़ेगी । राष्ट्रीय बिजली कंपनियों को अब चुस्त हो जाना चाहिए और उन्हें स्वतंत्र और अलग-अलग बिजली उत्पादकों के साथ काम करने के लिए तैयार हो जाना चाहिए - और स्मार्ट ग्रिडों को सक्षम करना चाहिए जिनसे मांग और आपूर्ति की व्यवस्था बेहतर रूप से की जा सकती है। यह जर्मनी और संयुक्त राज्य अमेरिका जैसे उच्च आय वाले देशों के लिए भी एक चुनौती है जहाँ कुछ कंपनियाँ अपने व्यवसाय को समाप्त होता देख रही हैं क्योंकि उपभोक्ता वापस ग्रिड में बिजली बेच रहे हैं। यहाँ, ऐसे विकासशील देश जिन्होंने पारंपरिक व्यवसाय मॉडलों में कम निवेश किया हुआ है और बिजली की आपूर्तियों के लिए तत्काल आवश्यकता अनुभव कर रहे हैं, उन्नत देशों से भी आगे छलाँग लगाने में समर्थ हो सकते हैं जैसा कि उन्होंने मोबाइल फोन के मामले में किया है। "नवीकरणीय ऊर्जा" और "टिकाऊ ऊर्जा" जैसे शब्दों का प्रयोग अक्सर अदल-बदल कर किया जाता है। लेकिन शायद इसकी व्यापक परिभाषा करने की जरूरत है। सही मायने में स्थायी ऊर्जा न केवल स्वच्छ होती है बल्कि प्रदूषण और कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जनों पर इसका प्रभाव बहुत कम होता है। यह सरकारों और नागरिकों दोनों के लिए ही समान रूप से किफायती होती है; यह विश्वसनीय होती है क्योंकि यह ऐसे स्रोतों से प्राप्त की जाती है जिन पर हम आने वाले कई दशकों तक निर्भर कर सकते हैं; और यह समाज के सभी सदस्यों के लिए सेवाओं और लाभों को प्रदान करके साझा समृद्धि के लिए योगदान करती है। तेल की कम कीमतों, नवाचार, और नवीकरणीय ऊर्जा के क्षेत्र में बड़े पैमाने की अर्थव्यवस्थाओं से मिलनेवाले लाभों की बदौलत, अब हम उस कल्पना को हकीकत में बदल सकते हैं। गैर-संचारी रोगों को लक्ष्य बनाना इंडियानापोलिस - दुनिया भर में, ज़िंदगियों को तबाह करनेवाला और आर्थिक विकास को अवरुद्ध करनेवाला जो सबसे प्रमुख कारक है उसी के बारे में कार्रवाई करना सबसे मुश्किल कामों में से एक है। दुनिया भर में होनेवाली सभी मौतों में से अब दो-तिहाई मौतें हृदय रोग, मधुमेह और कैंसर जैसे गैर-संचारी रोगों (एनसीडी) के कारण होती हैं। गैर-संचारी रोग लोगों की ज़िंदगियों को समय से पहले खत्म करने के अलावा अपने शिकारों, उनके परिवारों, और उनके समुदायों को भारी आर्थिक नुकसान पहुँचाते हैं, आर्थिक उत्पादकता को कम कर देते हैं और चिकित्सा लागतों को बढ़ा देते हैं। अगले दो दशकों में, गैर-संचारी रोगों होनेवाले कुल आर्थिक नुकसान $30 ट्रिलियन से अधिक हो सकते हैं। गैर-संचारी रोगों से उत्पन्न जटिल चुनौती के संबंध में कार्रवाई करने के लिए एक समन्वित अंतर्राष्ट्रीय प्रयास की आवश्यकता होगी। सौभाग्य से, इस दिशा में हाल ही में कुछ महत्वपूर्ण कदम उठाए गए हैं। सितंबर में, संयुक्त राष्ट्र ने सतत विकास लक्ष्यों को अपनाया, इसमें निर्धारित किए गए 17 उद्देश्य अगले 15 वर्ष के लिए वैश्विक विकास के एजेंडा का मार्गदर्शन करेंगे। इनमें गरीबी उन्मूलन और पर्यावरण की रक्षा के उपायों जैसे लक्ष्यों के साथ-साथ गैर-संचारी रोगों की वजह से होनेवाली मृत्यु दर को कम करने की प्रतिबद्धता भी है - संयुक्त राष्ट्र के आधिकारिक विकास के एजेंडा में इस समस्या पर पहली बार सीधे लक्ष्य किया गया है। यह एक स्वागत योग्य मील का पत्थर है, लेकिन यह एक लंबी सड़क के कई मील के पत्थरों में से केवल पहला पत्थर है। गैर-संचारी रोगों से जुड़े भौतिक और आर्थिक बोझ वहाँ सबसे ज्यादा भार डालते हैं जहाँ उन्हें वहन करना सबसे कम आसान होता है: कम और मध्यम आय वाले देश जिनमें गैर-संचारी रोगों से संबंधित 80% मौतें होती हैं। हाल ही में जिन लाखों लोगों ने गरीबी से मुक्ति पाई है, इसके परिणामस्वरूप वे वापस गरीबी में धकेले जा सकते हैं। सतत विकास लक्ष्यों के फलस्वरूप दिए गए ध्यान और सहयोगियों के दबाव से इसमें प्रगति करने में मदद मिल सकती है। लेकिन लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए निरंतर ध्यान देने, और सरकारों, अंतर्राष्ट्रीय गैर-लाभ संगठनों, और महत्वपूर्ण रूप से निजी क्षेत्र के संसाधनों और विशेषज्ञता का लाभ उठाने की आवश्यकता होगी। स्वास्थ्य के क्षेत्र में अपने अनुभव के आधार पर मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि गैर-संचारी रोगों से उत्पन्न चुनौतियों के संबंध में कार्रवाई करने में दो महत्वपूर्ण कारक उपयोगी सिद्ध होंगे। पहली और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि प्रगति ऐसे कारगर और स्थानीय दृष्टिकोणों को तैयार करने पर निर्भर करेगी जिन्हें अपनाया जा सके, दोहराया जा सके, और बढ़ाया जा सके। मधुमेह या हृदय रोग जैसी समस्याओं के लिए सभी के लिए एक ही समाधान जैसी कोई स्थिति नहीं हो सकती। लेकिन यह देखते हुए कि गैर-संचारी रोग दुनिया भर के सभी भागों के समुदायों को प्रभावित करते हैं, ऐसा बहुत अधिक समान धरातल मौजूद है जिसकी लगातार दुबारा खोज करने की आवश्यकता नहीं है। उदाहरण के लिए, 2013 में कार्लोस स्लिम फाउंडेशन ने मधुमेह की रोकथाम और उसके उपचार की स्थिति को समझने के लिए आठ प्राथमिक देखभाल क्लीनिकों में एक कठोर आधारभूत मूल्यांकन किया था। इस अध्ययन के दौरान एकत्र आंकड़ों के आधार पर, इस फाउंडेशन ने स्क्रीनिंग, उपचार और रोकथाम में सुधार लाने के लिए कम लागत वाले, उपयोगकर्ता-अनुकूल उपकरणों का उपयोग करके CASALUD नामक मॉडल प्रायोगिक रूप से जारी किया जिससे रक्त शर्करा के स्तरों सहित विभिन्न प्रकार के महत्वपूर्ण लक्षणों को मापा जा सकता है। इसमें भाग लेने वाले क्लीनिकों को दवाओं की माल-सूचियों पर नज़र रखने और कमियों से बचने के लिए एक ऑनलाइन प्रणाली से लैस किया गया है। यह दृष्टिकोण इतना अधिक प्रभावी था कि मेक्सिको के स्वास्थ्य कार्यालय में मधुमेह और अन्य गैर-संचारी रोगों को बढ़ावा देनेवाले मोटापे को दूर करने के अपने राष्ट्रीय अभियान के लिए आधार के रूप में CASALUD मॉडल का उपयोग किया जा रहा है जो स्थानीय अनुभव के आधार पर कार्य को आगे बढ़ाने का एक बढ़िया उदाहरण है। गैर-संचारी रोगों के खिलाफ लड़ाई में सफलता के लिए दूसरी प्रमुख बात निजी क्षेत्र के संसाधनों का उपयोग करने की प्रतिबद्धता है। इसमें न केवल निजी निवेश को जुटाना, बल्कि भारी मात्रा में उस तकनीकी, प्रचालनात्मक, और स्थानीय रूप से तैयार की गई विशेषज्ञता को भारी मात्रा में नियोजित करना भी शामिल है जिसे निजी कंपनियों ने दुनिया भर में कारोबार करने के दौरान हासिल किया है। सरकारों और अंतर्राष्ट्रीय और स्थानीय संगठनों के साथ भागीदारियाँ स्थापित करके, कंपनियाँ विनाशकारी और महंगे रोगों के प्रभाव को कम करने में मदद कर सकती हैं। मैं यह इसलिए जानता हूँ क्योंकि मेरी कंपनी इसी तरह के एक प्रयास, द लिली एनसीडी पार्टनरशिप में शामिल है जिसमें हम गैर-संचारी रोगों से निपटने के लिए अपने भागीदारों और भारत, मेक्सिको, दक्षिण अफ्रीका और ब्राज़ील की सरकारों के साथ सहयोग कर रहे हैं। उदाहरण के लिए, ब्राज़ील में बीमारी की रोकथाम में सुधार लाने के लिए हम रियो ग्रांडे डो सुल के संघीय विश्वविद्यालय, सहित प्रमुख स्थानीय संगठनों के साथ मिलजुल कर काम कर रहे हैं जिनमें उन माताओं की सहायता करने पर ध्यान केंद्रित किया जा रहा है जिनका रोग निदान उनके गर्भवती होने के दौरान गर्भावस्था के मधुमेह के रूप में किया गया था और अब उनमें टाइप 2 मधुमेह होने का जोखिम है। हमारे जैसे कार्यक्रम यह दर्शाते हैं कि दुनिया भर में मूलभूत, स्थानीय स्तर पर संचालित सार्वजनिक-निजी भागीदारियों के माध्यम से क्या कुछ हासिल किया जा सकता है। सतत विकास लक्ष्यों की सफलता को सुनिश्चित करने के लिए गैर-संचारी रोगों से होनेवाली मौतों में कमी करने सहित, कंपनियों के लिए यह आवश्यक होगा कि वे पारंपरिक परोपकार से आगे बढ़ें और सामाजिक-आर्थिक समस्याओं के लिए रचनात्मक समाधान तैयार करें। यदि हम यह स्वीकार कर लेते हैं कि नवोन्मेष स्थानीय परिस्थितियों को समझने और निजी क्षेत्र के विशाल संसाधनों का अधिकतम उपयोग करने से होता है, तो हम सुदूर भविष्य में बेहतर स्वास्थ्य तथा अधिक तीव्र आर्थिक विकास सुनिश्चित कर सकते हैं। बड़े प्रदूषणकर्ता, भुगतान करें जकार्ता - इस साल की शुरूआत में म्यांमार में मूसलाधार बारिश के कारण हुए भूस्खलनों से सैकड़ों घर पूरी तरह से नष्ट हो गए और भारी मात्रा में फसलें नष्ट हो गईं। इससे 1.3 मिलियन से अधिक लोग प्रभावित हुए, और 100 से अधिक लोगों की मृत्यु हो गई। वियतनाम में, ऐसी ही अतिवृष्टियों से कोयला खानों के ज़हरीले गारे के गड्ढों का कीचड़ बहकर गाँवों से होता हुआ विश्व की विरासत सूची में शामिल हा लांग खाड़ी में पहुँच गया; जहाँ मरने वालों की संख्या 17 थी। इस तरह की मौसम की घटनाएँ अधिक बार-बार और तीव्र होने के फलस्वरूप, जलवायु परिवर्तन को कम करने और अनुकूल करने की जरूरत पहले से कहीं अधिक जरूरी होती जा रही है। और यह न भूलें: ये घटनाएँ, कम-से-कम आंशिक रूप से, जलवायु परिवर्तन का परिणाम हैं। जैसा कि वायुमंडलीय अनुसंधान के लिए अमेरिका के नेशनल सेंटर के जलवायु वैज्ञानिक केविन ट्रेनबर्थ बताते हैं, आजकल, "मौसम की सभी घटनाएँ जलवायु परिवर्तन से प्रभावित होती हैं क्योंकि जिस वातावरण में वे घटित होती हैं वह पहले की अपेक्षा अधिक गर्म और नमीवाला होता है।" अंतर्राष्ट्रीय जलवायु वार्ताकार इस बात को कुछ हद तक समझते हैं। म्यांमार और वियतनाम के लोगों को जिन प्रभावों का सामना करना पड़ा, उन्हें जलवायु परिवर्तन के लिए अनुकूल करने में नाकाम रहने की अपरिहार्य लागतें माना जाता है, जिन्हें अधिकारियों द्वारा "नुकसान और क्षति" के रूप में वर्गीकृत किया जाता है। लेकिन इस तरह की भाषा इन परिणामों - विशेष रूप से लोगों की ज़िंदगियों पर उनके प्रभाव - को पूरी शिद्दत से चित्रित करने में विफल रहती है। म्यांमार और वियतनाम में जो लोग मारे गए वे मात्र "अपरिहार्य लागतें" नहीं हैं, और उनके प्रियजन बस उन्हें खोने के लिए "अनुकूलन" नहीं कर सकते। इस तरह की थोथी बयानबाजी से जलवायु परिवर्तन की अंतर्राष्ट्रीय वार्ताओं से अब तक उत्पन्न प्रतिक्रियाओं की अपर्याप्तता का पता चलता है। वास्तव में, औद्योगिक दुनिया ने एक पीढ़ी पहले किए गए वादे के अनुसार अगर वह सब कुछ किया होता जिसकी जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए जरूरत थी, तो संभवतः म्यांमार और वियतनाम अपने हाल ही के "नुकसान और क्षति" से बच गए होते। तथाकथित उन्नत अर्थव्यवस्थाओं का अपनी प्रतिबद्धताओं को पूरा न कर पाने का मतलब यह हुआ कि म्यांमार और वियतनाम आज शायद सबसे कमजोर विकासशील देश हैं। उदाहरण के लिए, प्रशांत के छोटे-छोटे द्वीप राज्य, उन "प्रचंड ज्वारों" के विरुद्ध पर्याप्त सुरक्षा साधन खड़ा करने में असमर्थ रहे हैं जो उनकी भूमि पर अतिक्रमण कर रहे हैं और उनके प्रवाल द्वीपों के नीचे मीठे पानी के "चश्मों" को खारा कर रहे हैं। उनकी आबादियाँ - जो दुनिया के सबसे गरीब लोगों में से हैं - अपने जीवन और आजीविकाएँ देकर जलवायु परिवर्तन के लिए भुगतान कर रही हैं। अनुकूलन के लिए संसाधनों के अभाव में वे कष्ट सहते रहेंगे। लेकिन स्थिति और भी प्रतिकूल होती जा रही है। इस समस्या के पीछे मौजूद लोग – दुनिया के सबसे बड़े प्रदूषणकर्ता – अरबों का लाभ कमाते चले जा रहे हैं, उन्हें सरकारों से भारी ऊर्जा सब्सिडी प्राप्त हो रही है (अनुमान है कि इसकी राशि 2015 तक $5.3 ट्रिलियन, या लगभग $10 मिलियन प्रति मिनट हो जाएगी)। तो ये प्रदूषणकर्ता कौन हैं? वैज्ञानिक रिक हीडे द्वारा 2013 में किए गए एक अध्ययन के अनुसार, यह देखा जा सकता है कि 1750 से लेकर अब तक उत्सर्जित कार्बन डाइऑक्साइड की लगभग दो-तिहाई मात्रा सबसे बड़ी जीवाश्म ईंधन और सीमेंट उत्पादक सिर्फ 90 कंपनियों से संबंधित है जिनमें से ज्यादातर अभी भी काम कर रही हैं। इनमें से पचास निवेशक-स्वामित्व वाली कंपनियाँ हैं, जिनमें शेवरॉन टेक्साको, एक्सॉनमोबिल, शेल, बीपी, और पीबॉडी एनर्जी शामिल हैं; 31 राज्य-स्वामित्व वाली कंपनियाँ हैं, जैसे सऊदी अरामको और नॉर्वे की स्टैटऑयल; और नौ सऊदी अरब और चीन जैसे देश हैं। इस स्थिति के ज़बरदस्त अन्याय - और उसकी विनाशकारिता - को देखकर कार्बन लेवी परियोजना द्वारा एक नई पहल शुरू की गई, जिसे बहुत अधिक संख्या में व्यक्तियों और संगठनों का समर्थन प्राप्त है, यह बड़े प्रदूषणकर्ताओं से कमजोर विकासशील देशों के लिए मुआवजे की मांग करने के लिए आगे बढ़ी है। विशेष रूप से, कार्बन लेवी परियोजना का जीवाश्म ईंधनों के लिए निकासी के स्थान पर कर लगाने का प्रस्ताव है। ऐसा करना "प्रदूषणकर्ता भुगतान करे" के सिद्धांत सहित, अंतर्राष्ट्रीय कानून के अनुरूप है, और यह उन समुदायों के लिए वित्त का एक नया और अरबों डॉलर की राशि का पूर्वानुमानयोग्य स्रोत उपलब्ध करेगा जिन्हें इसकी सबसे ज्यादा जरूरत है, इसमें सरकारों को वित्त के सार्वजनिक स्रोत प्रदान करने से बच निकलने का रास्ता नहीं मिल सकेगा। और, जीवाश्म ईंधनों को निकालने की लागत में बढ़ोतरी करने से, एक ऐसे क्षेत्र को अंततः समाप्त करने में मदद मिलेगी जिसका जलवायु-सुरक्षित दुनिया में कोई स्थान नहीं है। सौभाग्यवश, इसमें सफलता हासिल करने के लिए दुनिया को नैतिक प्रेरणा की प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ेगी। जीवाश्म ईंधन कंपनियाँ और सरकारें पहले ही भारी कानूनी दबाव का सामना कर रही हैं। फिलीपींस में प्रचंड तूफान से जीवित बचे लोगों ने देश के मानव अधिकार आयोग को एक शिकायत भेजी है जिसमें जलवायु परिवर्तन करनेवाली बड़ी जीवाश्म ईंधन कंपनियों की जिम्मेदारी की जाँच करने के लिए अनुरोध किया गया है। डच समूह अर्गेंडा और लगभग 900 सह-आरोपकर्ताओं ने सफलतापूर्वक डच सरकार पर मुकदमा दायर किया है, और उसे अधिक कठोर जलवायु नीतियों को अपनाने के लिए मजबूर किया है। अब पेरू का एक किसान जर्मनी की कोयला कंपनी आरडब्ल्यूई पर हिमनद झील की बाढ़ के रास्ते में स्थित अपने घर की रक्षा करने की लागत की भरपाई करने के लिए मुकदमा करने का विचार कर रहा है। और प्रशांत द्वीप देशों से जलवायु न्याय के लिए लोगों की घोषणा पर हस्ताक्षर करने वाले लोग बड़े प्रदूषणकर्ताओं के विरुद्ध उन गतिविधियों के खिलाफ मुकदमा करने के लिए प्रतिबद्ध हैं जिनके कारण उनके घर नष्ट हो जाते हैं। यदि कोई कार्रवाई नहीं की जाती है, तो इस तरह के मुकदमों की संख्या लगातार बढ़ती चली जाएगी और उन्हें हराना कठिन हो जाएगा। बड़े तेल उद्योग, बड़े गैस उद्योग, और बड़े कोयला उद्योग को जलवायु परिवर्तन के लिए जिम्मेदारी स्वीकार करनी चाहिए और अनुकूलन के लिए वास्तविक योगदान करने शुरू कर देने चाहिए, या उन्हें अपने स्वयं के अस्तित्व की लड़ाई के लिए तैयार हो जाना चाहिए - जो एक ऐसी लड़ाई होगी जिसे वे दीर्घावधि में कभी जीत नहीं सकते। संपोषणीय भविष्य सुनिश्चित करना लंदन - जब कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक एंजिल्स ने लिखा था कि “जो कुछ भी ठोस है, वह हवा में विलीन हो जाता है,” उस समय उनकी मंशा औद्योगिक क्रांति के फलस्वरूप स्थापित सामाजिक मूल्यों के ध्वंसात्मक रूपांतरणों को लेकर रूपक बांधने की ��ी। आज, उनके शब्दों को शाब्दिक अर्थों में लिया जा सकता है: कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जन और पर्यावरण में छोड़े जाने वाले अन्य औद्योगिक प्रदूषण इस ग्रह को बदल रहे हैं – जिसके पर्यावरण, स्वास्थ्य, जनसंख्या के आवागमन और सामाजिक न्याय संबंधी बड़े निहितार्थ हैं। दुनिया एक चौराहे पर खड़ी है और हमने इन क्षेत्रों में जो भारी प्रगति की है वह हवा में तिरोहित हो सकती है। 2007 में नेल्सन मंडेला ने भूतपूर्व नेताओं के इस स्वतंत्र समूह को “सत्ता में सच बोलने” के अधिदेश के साथ इसी तरह के जोखिमों से निपटने के लिए दि एल्डर्स की स्थापना की थी। इस महीने बाद में संयुक्त राष्ट्र महासभा में संपोषणीय विकास के नए लक्ष्यों के समारंभ पर हम यही करेंगे। एसडीजी मिलेनियम डेवलपमेंट गोल्स (एमडीजी) की जगह लेंगे जिन्होंने 2000-2015 तक अंतर्राष्ट्रीय विकास के प्रयासों का मार्गदर्शन किया था। एमडीजी ने अशिक्षा, रोग और भूख से बचने में लाखों लोगों की मदद की और विकास को वैश्विक राजनीतिक कार्यसूची के मूल में रखा। बहरहाल, उनका समग्र प्रभाव प्रायः अपर्याप्त था, विशेष रूप से भंगुर, संघर्ष ग्रस्त राष्ट्रों में – और वे संपोषणीयता को अपने लक्ष्यों में शामिल करने में असफल रहे हैं। एसडीजी आगे की दिशा में लंबी छलांग के रूप में हैं, क्योंकि वे चुनौतियों के बीच की महत्त्वपूर्ण कड़ियों को पहचानते हैं जिनका – ग़रीबी को उसके सभी रूपों, लिंगी असमानता, जलवायु परिवर्तन, और लचर शासन सहित – क्रमबद्ध ढंग से समाधान किया जाना चाहिए। हो सकता है कि अगल-अलग सत्रह लक्ष्य दुसाध्य जान पड़ें लेकिन उनके संचित प्रभाव का अर्थ यह होना चाहिए कि कोई भी विषय या कोई भी क्षेत्र दरारों में न गिर न जाए। अंततः संपोषणीयता को उसी तर्ज पर वैश्विक विकास के साथ एकीकृत किया जा रहा है, जिस तरह कि आंदोलनकारी दशकों से मांग करते आ रहे थे। क्रमशः वैश्विक उत्तर और दक्षिण के भूतपूर्व नेताओं के रूप में हमें इस बात की विशेष रूप से प्रसन्नता है कि एसडीजी न केवल विकासशील दुनिया के बल्कि संयुक्त राष्ट्र के सभी देशों पर लागू होंगे। इस तरह, हम उम्मीद करते हैं कि वे अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार घोषणा जितने "सार्वभौम" हो जाएंगे - जो निष्पक्षता की लड़ाई में नागरिक अस्त्रागार का एक महत्त्वपूर्ण अस्त्र है। क्रियान्वयन और उत्तरदायिता कुंजी हैं। अच्छे शब्द ही पर्याप्त नहीं हैं; नेताओं को उनको कार्य में परिणत करने के लिए कृतसंकल्प होना चाहिए और नागरिक समुदाय को उनकी प्रगति पर सतर्कतापूर्ण नज़र अवश्य रखनी चाहिए और जब पर्याप्त काम न हो रहा हो तो सचेत करना चाहिए। अक्सर, प्रतिनिधियों के घर लौटने और अल्पकालिक राजनीतिक गणित के हावी हो जाने के बाद शिखर सम्मेलनों की घोषणाएं हवा में विलीन हो जाती हैं। इस बार बहुत कुछ दांव पर लगा है। इस साल एसडीजी शिखर सम्मेलन और दिसंबर में पेरिस में जलवायु सम्मेलन में लिए जाने वाले फ़ैसले हमारे इस ग्रह के भविष्य पर चिरस्थायी प्रभाव डालेंगे। स्थिर जलवायु, समृद्धि, ग़रीबी घटाने और कानून के शासन के लिए महत्वपूर्ण होती है। यदि विश्व के नेतागण पेरिस में तापमानों में वृद्धि को दो अंश सेल्सियस से कम रखने के लिए विश्वसनीय उपाय अपनाने पर सहमत नहीं होते हैं तो एसडीजी साकार नहीं होंगे। हमारे पास ग़रीबी कम करने और जलवायु परिवर्तन पर ध्यान देने के बीच चुनाव करने का विकल्प नहीं है, जैसा कि जीवाश्म ईंधन कंपनियां कहती हैं। दरअसल, जलवायु परिवर्तन के खतरनाक प्रभाव विकास के उन लाभों को निष्क्रिय करने का संकेत कर रहे हैं जिन्हें एमडीजी ने हासिल करने में मदद की थी। हम दुनिया को दम घोटू लू, गंभीर सूखों, विनाशकारी बाढ़ों और विध्वंसक दावानलों के जोखिम में डाल रहे हैं। पूरे-पूरे संभागों को खाद्यान्न उत्पादन में भयंकर कमी का सामना करना पड़ सकता है। सागरों का जल स्तर बढ़ सकता है जिससे बड़े शहर और छोटे द्वीप राज्य डूब सकते हैं। बड़ी आबादियां विस्थापित होंगी, जिससे वर्तमान आर्थिक दबाव और सामाजिक तनाव और तीव्र होंगे। साथ ही साथ, तृणमूल संगठनों और केंद्रीय बैंकों के बीच समान रूप से आम सहमति उभर कर सामने आ रही है कि असमानता दुनिया भर में लोगों की आजीविका और समृद्धि के लिए गंभीर चुनौती खड़ी कर रही है। वैश्वीकरण ने राष्ट्रों, क्षेत्रीय भूखंडों और यहां तक कि महाद्वीपों के भीतर के सामाजिक अनुबंधों को कमज़ोर किया है। दीवारों का निर्माण, संपत्ति का संचय, और ग़रीब और कमज़ोर लोगों को कलंकित करना असमानता का जवाब नहीं हो सकता। संपोषणीय समृद्धि मांग करती है कि किसी समाज के सभी समूह आर्थिक प्रगति के लाभों की समान रूप से भागीदारी करें – विशेष रूप से इसलिए कि हमारे समाज उत्तरोत्तर अन्योन्याश्रित होते जा रहे हैं। यही कारण है कि हम एसडीजी के लक्ष्य 10 से विशेष रूप से उत्साहित हैं – देशों के भीतर और उनके बीच की असमानता कम करने और लिंगी समानता पर ध्यान केंद्रित करने की इसकी प्रतिबद्धता को लेकर। हम जानते हैं कि किसी भी ढांचे या प्रक्रिया की अपनी सीमाएं होंगी। अंतर्राष्ट्रीय शिखर सम्मेलन बहुधा इस तरह आयोजित होते हैं कि उनके आयोजन के तरीक़े गूढ़ और समागार से बाहर के लोगों के लिए अलगावकारी होते हैं। 1980 के दशक में संयुक्त राष्ट्र ने क्षतिकारी पर्यावरणी, सामाजिक और आर्थिक रुझानों को लेकर बढ़ती वैश्विक चिंता के समाधान के लिए आज्ञप्ति दी थी जिसे ब्रंटलैंड रिपोर्ट के रूप में जाना जाता है। उस रिपोर्ट में “संपोषणीय विकास” की संकल्पना को परिभाषित किया गया था और आमूल-चूल बदलाव की मांग की गई थी। उसने चेताया था कि जब तक हम “अपने शब्दों को ऐसी भाषा में रूपांतरित नहीं करते हैं जो जवानों से लेकर बूढ़ों तक के दिलो-दिमाग़ तक पहुंच सके तब तक हम विकास की दिशा को सही करने के लिए आवश्यक व्यापक सामाजिक बदलावों का दायित्व संभालने में सक्षम नहीं होंगे। संपोषणीय प्रगति और विकास की नीतियों को आदेशों के ज़रिए थोपा नहीं जा सकता; उन्हें इस तरह तैयार करने और लागू करने की आवश्यकता है कि सामान्य नागरिकों के दृष्टिकोण और अनुभव सुने जा सकें। एसडीजी के क्रियान्वयन और जलवायु परिवर्तन को कम-से-कम करने के लिए हमें अपने जीवाश्म ईंधन चालित आर्थिक मॉडल में भारी बदलाव लाने होंगे और उनसे विमुख होना होगा। सार्वजनिक समझ और सहमति महत्वपूर्ण होगी। दुनिया के नेताओं के पास साहसिक फ़ैसले लेने, उनकी ज़रूरत समझाने और उन्हें न्यायसंगत और प्रभावकारी ढंग से लागू करने का साहस होना ही चाहिए। उन्हें हमारे पड़पोतों-पड़पोतियों को अच्छे भविष्य से वंचित करने का कोई अधिकार नहीं है। अब यह विकल्पों का प्रश्न नहीं रह गया है, बल्कि तबाही को रोकने की मजबूरी बन गया है। अब कार्रवाई का वक्त आ गया है। हमें इस अवसर को काफूर नहीं होने देना चाहिए। रिग्रेक्सिट से आशा की किरण लंदन - जब तक यूनाइटेड किंगडम के लोगों ने यूरोपीय संघ को छोड़ने के पक्ष में मतदान नहीं किया था, तब तक यूरोप के सामने सबसे बड़ी समस्या शरणार्थी संकट की थी। वास्तव में ब्रेक्सिट की अधिक विकट आपदा के पैदा होने में उस संकट की बहुत बड़ी भूमिका रही थी। ब्रेक्सिट के पक्ष में हुआ मतदान हैरतअंगेज़ रहा; मतदान वाले दिन की अगली सुबह, यूरोपीय संघ का विघटन होना व्यावहारिक रूप से अपरिहार्य लग रहा था। यूरोपीय संघ के अन्य देशों, विशेष रूप से इटली में बढ़ रहे संकटों के कारण यूरोपीय संघ के अस्तित्व पर छाए काले बादल और गहरे हो गए। लेकिन ब्रिटेन के जनमत संग्रह के शुरूआती झटके का असर कम होने के बाद, कुछ अप्रत्याशित घट रहा है: यह त्रासदी अब निर्विवादित तथ्य नहीं लग रही है। कल्पना के सच हो जाने के बाद अनेक ब्रिटिश मतदाता अपनी गलती पर पछता रहे हैं। स्टर्लिंग की कीमत घट गई है। स्कॉटलैंड में भी दूसरे जनमत संग्रह की संभावना बहुत अधिक बढ़ गई है। इस “अलगाव” अभियान के पूर्व नेता एक अजीब-सी परस्पर आत्मघाती विनाशकारी लड़ाई में लग गए हैं, और उनके कुछ अनुयायिओं को अपना और अपने देश का भविष्य डूबता नज़र आने लग रहा है। अब तक चार मिलियन से अधिक लोगों द्वारा समर्थित दूसरा जनमत संग्रह आयोजित करने के लिए संसद से अनुरोध करने के अभियान से जनमत में हुए बदलाव का संकेत मिलता है। जहाँ ब्रेक्सिट एक नकारात्मक आश्चर्य था, इसके प्रति सहज प्रतिक्रिया सकारात्मक है। इस मुद्दे के दोनों पक्षों के लोग – खास तौर से जिन लोगों ने मतदान में हिस्सा तक नहीं लिया था (विशेषकर 35 वर्ष से कम उम्र के युवा लोग) – अब सक्रिय हो गए हैं। ये ज़मीनी स्तर पर एक ऐसी भागीदारी है, जिसे यूरोपीय संघ पहले कभी नहीं कर पाया था। जनमत संग्रह के बाद की उथल-पुथल से ब्रिटेन के लोगों को यह एहसास हुआ है कि यूरोपीय संघ को छोड़ देने पर उन्हें कौन-से नुकसान होंगे। अगर यही भावना यूरोप के अन्य देशों में भी फैल जाती है, तो जो स्थिति यूरोपीय संघ के अनिवार्य विघटन के रूप में दिखाई दे रही थी, उसके बजाय यह अब एक शक्तिशाली और बेहतर यूरोप के निर्माण के लिए सकारात्मक सक्रियता बन सकती है। यह प्रक्रिया ब्रिटेन में शुरू हो सकती है। लोकप्रिय जनमत संग्रह के परिणाम को पलटा नहीं जा सकता, लेकिन हस्ताक्षर अभियान यूरोपीय संघ की सदस्यता के प्रति एक नया जोश पैदा करके स्थानीय राजनीतिक परिदृश्य में परिवर्तन तो ला सकता है। फिर इस दृष्टिकोण को यूरोपीय संघ के शेष देशों में दुहराया जा सकता है, और यूरोपीय संघ को गंभीरतापूर्वक पुनर्गठित करके इसे बचाने के लिए एक आंदोलन तैयार किया जा सकता है। मुझे विश्वास है कि जैसे जैसे ब्रेक्सिट के परिणाम आगामी महीनों में सामने आते जाएंगे, अधिक से अधिक लोग इस आंदोलन से जुड़ने के लिए उत्सुक होंगे। यूरोपीय संघ को ब्रिटिश मतदाताओं को सज़ा बिल्कुल नहीं देनी चाहिए, उनके द्वारा संघ की कमियों के बारे में उठाई गई वैध चिंताओं को नज़रअंदाज़ कर देना चाहिए। यूरोपीय नेताओं को स्वयं अपनी गलतियों को पहचानना चाहिए और वर्तमान संस्थागत व्यवस्थाओं में मौजूद लोकतांत्रिक कमियों को स्वीकार करना चाहिए। ब्रेक्सिट को किसी तलाक में होने वाली बहस के रूप में लेने के बजाय, उन्हें इस अवसर का उपयोग यूरोपीय संघ के पुनर्गठन के लिए करना चाहिए – इसे एक ऐसे समूह के रूप में बनाया जाना चाहिए जिससे ब्रिटेन और संघ से अलग होने के जोखिम वाले अन्य देश जुड़ना चाहें। यदि फ्रांस, जर्मनी, स्वीडन, इटली, पोलैंड और अन्य सभी देशों के अप्रभावित मतदाताओं को यूरोपीय संघ में होने की वजह से अपने निजी जीवन में लाभ होता दिखाई देगा, तो इससे यूरोपीय संघ और मज़बूत होगा। यदि ऐसा नहीं होता है, तो यह इतनी तेज़ी से टूटकर बिखर जाएगा जिसकी नेताओं और नागरिकों ने अभी तक कल्पना भी नहीं की है। समस्या वाला अगला देश इटली है, जहां बैंकों का संकट चल रहा है और अक्तूबर में वहां जनमत संग्रह होना है। प्रधानमंत्री मैटियो रेंज़ी जटिल चक्रव्यूह में फंसे हुए हैं: यदि वे बैंकों के इस संकट को समय रहते नहीं सुलझा पाते हैं, तो वे इस जनमत संग्रह में हार जाएंगे इससे यूरोपीय संसद में ब्रेक्सिट-समर्थक यूके इंडिपेंडेंस पार्टी की साझेदार, फ़ाइव स्टार मूवमेंट सत्ता हासिल कर सकती है। इसका समाधान ढूंढने के लिए रेंज़ी को यूरोपीय अधिकारियों की मदद चाहिए, लेकिन वे बहुत सुस्त और अड़ियल हैं। यूरोप के नेताओं को यह मानना होगा कि यूरोपीय संघ टूट के कगार पर है। एक दूसरे पर आरोप मढ़ने की बजाय, उन्हें मिलजुल कर काम करना चाहिए और विशेष उपाय करने चाहिए। सबसे पहले, यूरोपीय संघ की सदस्यता और यूरोज़ोन के बीच के अंतर को स्पष्ट रूप से रेखांकित किया जाना चाहिए। जो भाग्यशाली देश यूरोज़ोन के सदस्य नहीं हैं, उनके साथ कोई भेदभाव नहीं होना चाहिए। यदि यूरोज़ोन और अधिक सहयोगात्मक रूप से एकीकृत होना चाहता है, जो कि उसे होना भी चाहिए, तो उसके पास स्वयं अपना कोष और बजट होना ज़रूरी है, ताकि वह मौद्रिक प्राधिकारी, यूरोपीय सेंट्रल बैंक के रूप में काम करने के साथ-साथ वित्तीय प्राधिकारी के रूप में भी काम कर सके। दूसरी बात, यूरोपीय संघ को अपने बहुमूल्य और और ज़्यादातर अनप्रयुक्त क्रेडिट को इस्तेमाल करना चाहिए। अगर नेता यूरोपीय संघ की उधार क्षमता का उपयोग ऐसे समय में करने में विफल रहते हैं जब यूरोपीय संघ का अस्तित्व ही दांव पर लगा हुआ है, तो यह उनका गैर-जिम्मेदाराना रवैया होगा। तीसरी बात, यूरोपीय संघ को अपनी सुरक्षा मज़बूत करनी चाहिए ताकि वह अपने उन बाहरी शत्रुओं से अपनी रक्षा कर सके, जो इसकी वर्तमान कमज़ोरी का फ़ायदा उठा सकते हैं। यूरोपीय संघ की सबसे बड़ी संपत्ति यूक्रेन है, जिसके नागरिक अपने देश की सुरक्षा के लिए मर मिटने को तैयार हैं। स्वयं की रक्षा करके, वे यूरोपीय संघ की भी सुरक्षा कर रहे हैं – जो यूरोप में इन दिनों बहुत कम देखने को मिलता है। ‍यह यूक्रेन का सौभाग्य है कि उसके पास एक ऐसी नई सरकार है, जो ऐसे सुधारों के क्रियान्वयन को लेकर अधिक दृढ़ प्रतिज्ञ है, जिनकी मांग उसके अपने नागरिक और बाहरी समर्थक दोनों पुरज़ोर तरीके से करते आ रहे हैं और इसके इन सुधारों को क्रियान्वित करने की संभावना भी अधिक है। लेकिन यूरोपीय संघ और उसके सदस्य देश यूक्रेन की उतनी मदद नहीं कर रहे हैं, जितनी मदद का वह हक़दार है (अमेरिका कहीं अधिक सहायता कर रहा है)। चौथी बात, यूरोपीय संघ की शरणार्थी समस्या से निपटने की योजनाओं को पूरी तरह से संशोधित करने की ज़रूरत है। ये योजनाएं गलत धारणाओं और विसंगतियों से भरी हुई हैं जिससे ये बेअसर हो गई हैं। उन योजनाओं के लिए बहुत कम पैसों का इंतज़ाम किया गया है। और उनमें ऐसे कठोर उपायों का इस्तेमाल किया जाता है जिनसे विरोध पैदा होता है। मैंने इन समस्याओं के बारे में एक विस्तृत उपाय एक अन्य स्थान पर प्रस्तावित किया है। यदि यूरोपीय संघ इन उपायों के अनुसार प्रगति करता है, तो वह एक ऐसा संगठन बन जाएगा जिससे लोग जुड़ना चाहेंगे। उस समय, संधि में परिवर्तन – और अधिक एकीकरण – एक बार फिर से संभव हो सकेगा। यदि यूरोप के नेता कार्रवाई करने में विफल रहते हैं, तो जो लोग यूरोपीय संघ का पुनर्निर्माण करने के लिए इसे बचाने की इच्छा रखते हैं उन्हें ब्रिटेन के युवा कार्यकर्ताओं के पदचिह्नों पर चलना चाहिए। अब पहले से कहीं अधिक ज़रूरत है कि यूरोपीय संघ के समर्थक ऐसे तरीके ढूंढ़ें, जिनसे उनके प्रभाव को महसूस किया जा सके। दलाई लामा के बाद तिब्बत नई दिल्ली - 1959 से भारत में निर्वासन में रह रहे 14 वें दलाई लामा के 80 वें जन्मदिन पर, तिब्बत का भविष्य पहले से कहीं अधिक अनिश्चित लग रहा है। अपने शासनकाल के दौरान, मौजूदा दलाई लामा ने अपनी मातृभूमि को – जो दुनिया का सबसे बड़ा और सबसे ऊँचा पठार है - चीन के हाथों अपनी आज़ादी को खोते हुए देखा है। उनकी मृत्यु के बाद, इस बात की संभावना है कि चीन उनके उत्तराधिकारी के रूप में किसी कठपुतली को बिठा देगा, जिससे संभवतः यह संस्था धीरे-धीरे समाप्त हो जाएगी। चीन ने पहले से ही, 1995 में तिब्बतियों के नियुक्त किए गए छह वर्षीय बालक का, जिसकी दलाई लामा ने कुछ ही समय पहले पुष्टि की थी, अपहरण करके अपने मोहरे पंचेन लामा को तिब्बती बौद्ध धर्म में दूसरे सबसे ऊँचे स्थान के लिए नियुक्त किया था। बीस साल बाद, वास्तविक पंचेन लामा अब दुनिया के सबसे लंबे समय तक सज़ा काटने वाले राजनीतिक कैदियों में शुमार है। चीन ने तिब्बतियों के तीसरे सर्वोच्च धार्मिक व्यक्ति, करमापा को भी नियुक्त किया था; लेकिन 1999 में, 14 साल की उम्र में वह भागकर भारत आ गया था। यह वर्ष तिब्बत के लिए एक और सार्थक सालगिरह अर्थात चीन के तथाकथित "तिब्बत स्वायत्त क्षेत्र" की स्थापना की 50वीं वर्षगाँठ का अवसर है। यह नाम अत्यधिक भ्रामक है। वास्तव में, तिब्बत का शासन चीन करता है, और इसके ऐतिहासिक क्षेत्र में से आधे क्षेत्र को अन्य चीनी प्रांतों में शामिल कर लिया गया है। 1950-1951 में तिब्बत पर अपनी विजय के साथ, चीन ने अपने भूभाग में एक तिहाई से ज़्यादा की बढ़ोतरी कर ली थी और एशिया के भू-रणनीतिक परिदृश्य को मूल रूप से बदल दिया था। चीन भारत, नेपाल, और भूटान का पड़ोसी बन गया, और इसने इस क्षेत्र की प्रमुख नदी प्रणालियों पर नियंत्रण कर लिया। पानी से समृद्ध तिब्बत में उत्पन्न होने वाली नदियाँ दुनिया के दो सबसे अधिक जनसंख्या वाले देशों, चीन और भारत, साथ ही अफ़गानिस्तान से वियतनाम तक जाने वाली देशों की चाप की मदद करने के लिए महत्वपूर्ण हैं। चीन के लिए, दलाई लामा की 437-साल-पुरानी संस्था पर कब्ज़ा करना तिब्बत पर अपनी पकड़ हासिल करने के लिए अंतिम क़दम प्रतीत होता है। आखिरकार, भारत भाग आने के बाद दलाई लामा - तिब्बत के वास्तविक राजनीतिक और आध्यात्मिक नेता (हालाँकि 2011 में उन्होंने अपनी राजनीतिक भूमिका निर्वासन में लोकतांत्रिक ढंग से निर्वाचित सरकार को सौंप दी थी) - तिब्बत पर चीनी नियंत्रण के प्रतिरोध का सार्वजनिक चेहरा रहे हैं। तथापि, हाल के सालों में, चीन ने अधिकाधिक देशों को दलाई लामा को स्वीकार न करने पर मजबूर करने के लिए अपने बढ़ते प्रभाव का इस्तेमाल करके - जो राजनयिक और आर्थिक मुसीबत के ख़तरे पर टिका है - उनकी अंतर्राष्ट्रीय दृश्यता को कम किया है। चीन की सरकार 2007 में वरिष्ठ लामाओं पर सरकारी अनुमति के बिना अवतार निर्धारित करने पर प्रतिबंध लगानेवाला फ़रमान जारी करने के बाद, वास्तव में वर्तमान दलाई लामा की मृत्यु का इंतज़ार कर रही है ताकि वह उनका उत्तराधिकारी चुनने के लिए अपने स्वयंभू अनन्य अधिकार का इस्तेमाल कर सके। लगता है कि चीन के नेताओं को नास्तिक सरकार द्वारा आध्यात्मिक नेता चुनने की असंगतता से कोई फ़र्क नहीं पड़ रहा है। यह वैसा ही है जैसे मुसोलिनी ने दावा किया था कि कार्डिनल्स का कॉलेज नहीं, बल्कि केवल वह ही पोप की नियुक्ति कर सकता है। वृद्ध होते दलाई लामा ने अपनी आत्मा के भविष्य के नियोजन के लिए विभिन्न अपरंपरागत संभावनाओं - महिला के रूप में अवतार की स्थापना से लेकर अपने जीवन-काल में ही अपने उत्तराधिकारी का नामकरण करने तक - पर सार्वजनिक रूप से चर्चा की है। इसके अलावा, उन्होंने सुझाव दिया है कि अगला दलाई लामा "मुक्त दुनिया" में मिलेगा, और इस तरह संकेत किया है कि वे तिब्बती निर्वासित के रूप में या भारत के तवांग जिले में अवतार लेंगे जहाँ सत्रहवीं सदी में छठे दलाई लामा का जन्म हुआ था। ऐसी घोषणाओं ने 2006 के बाद से चीन को भारत के पूरे अरुणाचल प्रदेश राज्य पर "दक्षिण तिब्बत" के रूप में दावा करने, और भारत पर लंबे समय से विवादित हिमालय सीमा पर वार्ताओं में उस राज्य में स्थित तवांग ज़िले के कम-से-कम एक हिस्से को त्यागने के लिए दबाव डालने के लिए अभिप्रेरित किया है। लेकिन जिस घोषणा ने चीन को सबसे ज़्यादा क्रोधित किया है, वह दलाई लामा द्वारा पिछले वर्ष दिसंबर में की गई यह घोषणा थी कि वे आखिरी दलाई लामा होंगे। चीन जानता है कि इस बात की पूरी उम्मीद है कि अशांत तिब्बत, जिसने काफ़ी हद तक चीन की ओर से नियुक्त किए गए पंचेन लामा को धोखा कहकर उसकी निंदा की है, उसके द्वारा चुने गए दलाई लामा को स्वीकार नहीं करेगा। अगर दलाई लामा स्वयं अपने पुनर्जन्म के बारे में स्पष्ट दिशा-निर्देश जारी कर देते हैं, तो इसकी और भी कम संभावना होगी कि तिब्बती लोग चीन की नियुक्ति को स्वीकार करेंगे। सवाल यह है कि दलाई लामा ऐसा करने में संकोच क्यों कर रहे हैं। दलाई लामा की मृत्यु हो जाने पर सबसे बड़ा जोखिम तिब्बत में चीन के दमन का हिंसक प्रतिरोध है। आज की स्थिति के अनुसार, अहिंसा और समझौते के प्रति दलाई लामा की प्रतिबद्धता का उदाहरण उनके "बीच के रास्ते" के दृष्टिकोण में देखा जा सकता है, जिसका लक्ष्य तिब्बत की स्वायत्तता हासिल करना है, आज़ादी नहीं – इस प्रतिबद्धता से यह सुनिश्चित करने में मदद मिल रही है कि चीन के शासन के प्रति तिब्बती प्रतिरोध शांतिपूर्ण बना रहे और उसमें प्रकट रूप से अलगाववाद न हो। दरअसल, पिछले 60 सालों में, तिब्बतियों ने प्रतिरोध के आंदोलन का ऐसा मॉडल अपनाया है, जिस पर आतंकवाद के साथ किन्हीं संबद्धताओं का दाग नहीं है। यहाँ तक कि तिब्बत की धार्मिक, सांस्कृतिक, और भाषायी विरासत के प्रति चीन का दमन अधिकाधिक कठोर होने पर भी, तिब्बतियों ने हथियार नहीं उठाए हैं। इसके बजाय, उन्होंने आत्मदाह के माध्यम से विरोध किया है, जो 2009 के बाद से 140 तिब्बतियों ने किया है। लेकिन, जब मौजूदा दलाई लामा नहीं रहेंगे, तो हो सकता है कि यह दृष्टिकोण जारी न रहे। युवा तिब्बती पहले से ही चीन के क्रूर तरीकों से हताश महसूस कर रहे हैं जिनमें दलाई लामा की संबंधों को सुधारने की पहल के बारे में हाल के श्वेत पत्र में चीन की तीक्ष्ण प्रतिक्रिया भी शामिल है । इस पृष्ठभूमि में, चीन द्वारा "फर्ज़ी" दलाई लामा नियुक्त किए जाने के परिणामस्वरूप स्वायत्तता की माँग करने वाला शांतिपूर्ण आंदोलन आज़ादी के लिए हिंसक भूमिगत संघर्ष में बदल सकता है। यह देखते हुए कि वास्तविक दलाई लामा छोटा बच्चा होगा, और इसलिए वह प्रतिरोध के आंदोलन के लिए मज़बूत नेतृत्व प्रदान करने के काबिल नहीं होगा, इस तरह के परिणाम की और भी ज़्यादा संभावना होगी। चीन ने तिब्बत पर आक्रमण और कब्जा करने के लिए ऐसी ही स्थिति का फ़ायदा तब उठाया था जब मौजूदा दलाई लामा केवल 15 साल के थे। 1933 में 13वें दलाई लामा के निधन के बाद, नेता-विहीन तिब्बत राजनीतिक साज़िश से तब तक ग्रस्त रहा था, जब तक 1950 में मौजूदा दलाई लामा को औपचारिक रूप से गद्दी पर नहीं बिठा दिया गया था। तिब्बती पदानुक्रम में सत्ता का अगला शून्य दलाई लामा के वंश की समाप्ति कर सकता है और तिब्बत को हिंसक भविष्य की ओर धकेल सकता है, जिसके परिणामों का विस्तार इस विशाल पठार से बहुत आगे तक जा सकता है। क्या संयुक्त राष्ट्र के लिए 70 साल बहुत हैं? न्यूयॉर्क - जहां दुनिया भर के नेता अगले सप्ताह सतत विकास के नए लक्ष्यों का अनुमोदन करने और संयुक्त राष्ट्र की सत्तरवीं वर्षगांठ मनाने के लिए न्यूयार्क स्थित संयुक्त राष्ट्र में जमा होने वाले हैं, वहीं बहुत से लोगों के मन में एक ऐसा मौलिक सवाल है जिससे बचा नहीं जा सकता। बढ़ती वैश्विक अव्यवस्था - मध्यपूर्व में उपद्रव, यूरोप में लहरों पर सवार होकर आनेवाले प्रवासियों की भीड़, और अपने भौगोलिक दावों को लागू करने की चीन की एकतरफ़ा मुहिम सहित - के मद्देनज़र क्या संयुक्त राष्ट्र का कोई भविष्य है? निराशावाद के आधारों से इनकार नहीं किया जा सकता। ऐसा लगता है कि विश्व व्यवस्था के समर्थकों से अप्रभावित रहकर टकराव उग्र रूप धारण कर रहे हैं। दो दशक से भी अधिक की बातचीत के बावजूद सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता (चीन, फ्रांस, रूस, यूनाइटेड किंगडम और संयुक्त राज्य) आज भी 2015 के नहीं, बल्कि1945 के भौगोलिक-राजनीतिक यथार्थ को प्रतिबिंबित करती है। ब्रेटन वुड्स की संस्थाओं (विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष) में जगह दिए जाने से इनकार कर दिए जाने के बाद चीन ने अपनी आर्थिक पकड़ के अनुरूप अपने खुद के विकल्प तैयार कर लिए हैं जिससे जुड़ने के लिए दूसरे देशों की भरमार लगी है। जी-20 सुरक्षा परिषद से कहीं अधिक प्रतिनिधित्व करनेवाला दिखाई पड़ता है और उसमें साझा उद्देश्य कहीं अधिक समाविष्ट हैं। इसके बावजूद संयुक्त राष्ट्र को बट्टे खाते में नहीं डाला जाना चाहिए। यह एक महत्त्वपूर्ण उद्देश्य पूरा करता आ रहा है और इसका इतिहास बताता है कि इक्कीसवीं सदी की ज़रूरतें पूरी करने के लिए उसमें नई जान डाली जा सकती है। संयुक्त राष्ट्र का गठन 1945 में विजेता मित्र राष्ट्रों के नेताओं के साझा दृष्टिकोण के अनुरूप किया गया था, जो इस बात को लेकर कृतसंकल्प थे कि बीसवीं सदी का उत्तरार्द्ध पूर्वार्द्ध की तरह का खेल न खेले। दो विश्व युद्धों, असंख्य गृह युद्धों, नृशंस तानाशाहियों, आबादियों के व्यापक निष्कासनों, और जनसंहार और हिरोशिमा के आतंकों के बाद “फिर कभी नहीं” मात्र एक नारा नहीं था: यह विकल्प इतना अधिक संहारक था कि उसके बारे में सोचा भी नहीं जा सकता था। इस उद्देश्य से मित्र राष्ट्रों ने सत्ता संतुलन की उस राजनीति का एक विकल्प तलाशा जिसने पिछले पांच दशकों के दौरान इस तरह की तबाही मचाई थी। उनका विचार एक ऐसा सांस्थानिक ढाँचा -जिसे आज “वैश्विक शासन” कहा जाता है - तैयार करने का था जो अंतर्राष्ट्रीय सहयोग को बढ़ावा दे सके, आम सहमति के वैश्विक मूल्यों को स्थापित कर सके, और भविष्य को ध्यान में रखते हुए सबके हित के लिए सार्वभौम रूप से लागू किए जानेवाले नियम बनाए। बहुतों ने यूएन चार्टर से जो उम्मीद लगा रखी थी, वह शीत युद्ध की शुरूआत होने के साथ ही टूट गयी थी। इसके बावजूद दुनिया भर के राजनीति विशारदों ने महाशक्तियों के तनाव पर अंकुश रखने के मंच के रूप में इस नई संस्था का अच्छा उपयोग किया। शांति बहाली अभियान जिनका चार्टर में ज़िक्र भी नहीं था, दुनिया भर में टकरावों पर अंकुश लगाने, और उनको महाशक्ति के प्रज्वलन की चिनगारी बनने से रोकने के लिए तैयार किए गए थे। संयुक्त राष्ट्र की बदौलत तीसरा विश्वयुद्ध कभी नहीं हुआ। यही नहीं, शीत युद्ध के दिनों में संयुक्त राष्ट्र का योगदान मात्र एक कहानी नहीं है। उसके वि-उपनिवेशीकरण प्रयासों ने लाखों लोगों को साम्राज्यवादी दमन के जुए से मुक्त कराया। आर्थिक और सामाजिक विकास उसकी कार्यसूची में सबसे ऊपर आ गए। एक वैश्विक शासन अस्तित्व में आ चुका है, संयुक्त राष्ट्र की प्रणाली “बिना पासपोर्ट वाली असंख्य समस्याओं”: व्यापक संहार के हथियारों के प्रसार, हमारे साझा पर्यावरण के विघटन, महामारियों, युद्ध अपराध, और बड़े पैमाने पर पलायन के लिए पहला पड़ाव बन गई है। इस तरह की समस्याएँ बिना पासपोर्टों के समाधान की मांग करती हैं क्योंकि कोई भी देश या देश समूह इन्हें अकेले हल नहीं कर सकता। सार्वभौमिकता के साथ औचित्य आता है। चूंकि सभी देश इसके सदस्य हैं इसलिए संयुक्त राष्ट्र की वैश्विक साख है जो इसके फ़ैसलों और कार्यों को एक सीमा तक अधिकार प्रदान करती है, एक ऐसा अधिकार जो किसी भी सरकार को उसकी सीमाओं से बाहर हासिल नहीं है। शीतयुद्ध के दिनों की द्विपक्षीय अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था अरसे पहले जा चुकी है। इसकी जगह आज के वैश्विक जगत का रूपक वर्ल्ड वाइड वेब का है जिसमें हम सभी अनेक चैनलों के माध्यम से उत्तरोत्तर अधिक से अधिक काम करते हैं। कभी-कभी ये नेटवर्क सामान्य भागीदारों के साथ अतिच्छादित हो जाते हैं और कभी-कभी वे पृथक बने रहते हैं: वे सभी अलग-अलग तरीकों से और अलग-अलग उद्देश्यों से हमारे हितों को साधते हैं। कभी अधिकतर देश बाहरी ख़तरों से – संपत्ति, शक्ति या दूरी द्वारा – सुरक्षित महसूस करते थे। लेकिन अब उन्हें समझ में आ गया है कि उनके नागरिकों की रक्षा के लिए स्थानीय सुरक्षा बल पर्याप्त नहीं हैं, और यह भी कि हर जगह लोगों की सुरक्षा आतंकवाद, प्रदूषण, संक्रामक रोगों, ग़ैर-कानूनी नशीली दवाओं, और व्यापक नरसंहार के हथियारों के ख़िलाफ संघर्ष करने, और मानवाधिकारों, लोकतंत्र और विकास को प्रोत्साहन देने के लिए अंतर्राष्ट्रीय समन्वित प्रयासों पर निर्भर करती है। संयुक्त राष्ट्र इस पहचान को यथार्थ में बदलने में पूरी तरह कामयाब नहीं रहा है। लेकिन अपने निकृष्टतम और उत्कृष्टतम रूप में संयुक्त राष्ट्र दुनिया का आईना है। जैसा कि मिथकीय महासचिव डेग हैमरशोल्ड ने अपनी प्रसिद्ध उक्ति में कहा था, “संयुक्त राष्ट्र का गठन मानव जाति को स्वर्ग में ले जाने के लिए नहीं, बल्कि नरक से मानवता की रक्षा करने के लिए किया गया था।” मेरा दृढ़ विश्वास है कि संयुक्त राष्ट्र को सुधार की ज़रूरत है, इसलिए नहीं कि वह नाकाम हो गया है, बल्कि इसलिए कि वह इतना अधिक कामयाब रहा है कि यह एक फ़ायदे का सौदा है। जैसा कि एसडीजी के बार में किए गए समझौते से पता चलता है, संयुक्त राष्ट्र को हमारे वैश्विक शासन का महत्वपूर्ण अंग बनाकर उसके ज़रिये बहुत कुछ किया जा सकता है। इसके अलावा, संयुक्त राष्ट्र ने साबित किया है कि वह उल्लेखनीय रूप से अनुकूलनशील संगठन है; यदि वह ऐसा न होता तो इतने समय तक जीवित न रह पाता। जहां एक ओर इसे आज की दुनिया के अनुकूल बनाने के लिए इसमें सुधार किए जाने चाहिए, वहीं जिस एक और चीज़ की ज़रूरत है, वह है सात दशक पहले दर्शाया गया थोड़ा सा राजनीतिक कौशल, जब दुनिया भर के नेताओं ने अपने फ़ौरी अल्पावधि निहित स्वार्थों को उस तरह की दुनिया के दीर्घकालिक हितों के सामने त्याग दिया था जिसमें वे अपने बच्चों को बसाना चाहते थे। संयुक्त राष्ट्र आज भी उन कानूनों और मूल्यों का स्रोत है जिन पर देश आपस में मिल कर बातचीत करते हैं और “सड़क के नियमों” के रूप में उन्हें स्वीकार करने पर सहमत होते हैं। और यह एक ऐसा सर्वोत्कृष्ट मंच बना हुआ है जहां संप्रभु देश अपने बोझ बांटने, साझा समस्याएं सुलझाने, और साझा अवसरों का लाभ उठाने के लिए एकजुट होते हैं। दूसरे शब्दों में, 1945 में रखी गई संयुक्त राष्ट्र की नींव आज भी मज़बूत बनी हुई है। लेकिन यदि देशों के बदलते रणनीतिक वज़न के बीच उसे टिके रहना है, तो उसे सहारा देना होगा। अब चूंकि संयुक्त राष्ट्र 70 साल का हो गया है, अब समय आ गया है कि इसके संस्थापकों की मार्गदर्शी कल्पना की फिर से पुष्टि की जाए – विध्वंस से उपजी ऐसी कल्पना की जो एक बेहतर दुनिया के लिए सार्वभौमिक आशा का स्रोत बनी हुई है। पेरिस में जलवायु-परिवर्तन का तमाशा ओटावा – दिसंबर में पेरिस में संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में हॉलीवुड की किसी सुपरहिट फिल्म की तरह सभी नाटकीय तत्व मौजूद होंगे। इसमें ढेरों कलाकार होंगे: सभी राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री मुख्य मंच पर विराजमान होंगे, और उनका साथ देने के लिए सहयोगी कलाकारों के रूप में हजारों प्रदर्शनकारियों, दंगा पुलिस और मीडिया की बसों का भारी हुजूम होगा। इसकी पटकथा भले ही अभी तक गुप्त हो, लेकिन इसका कथानक पहले से ही जगज़ाहिर हो चुका है: 2009 में कोपेनहेगन में विफल रही वार्ताओं के बिल्कुल विपरीत, इस बार इस धरती को अवश्य सफलता मिलेगी। यह कथानक आकर्षक तो है, लेकिन इसका निर्वाह करना मुश्किल है। दुनिया को यह बताया जाएगा कि सद्भावना और कठोर सौदेबाज़ी रंग लाई है। सरकारें ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जनों में स्वैच्छिक कटौतियाँ करने के लिए सहमत हो गई हैं जिससे धरती को 2 डिग्री सेल्सियस से अधिक गर्म होने से रोका जा सकेगा। फिर विलक्षण यांत्रिक रूप से प्रकट दैवी शक्ति से यह रहस्योद्धाटन होगा कि दुनिया की जीवाश्म ईंधन की सबसे बड़ी कंपनियाँ अर्थात तथाकथित महाशक्तियाँ इस पर सहमत हो गई हैं कि वे कार्बन को स्रोत पर पकड़कर, इसे वायुमंडल से बाहर निकालकर, और इसका भूमिगत भंडारण करके शुद्ध उत्सर्जनों को 2100 तक शून्य पर ले आएँगी। इस प्रकार धरती को बचा लिया जाएगा, और अर्थव्यवस्था फलने-फूलने के लिए मुक्त होगी। संगीत आरंभ होने के साथ पटाक्षेप हो जाएगा। समस्या यह है कि यह कहानी वास्तविक नहीं, बल्कि काल्पनिक है। इसके लिए अपेक्षित प्रौद्योगिकी का आविष्कार अभी किया जाना बाकी है, और शुद्ध उत्सर्जनों को शून्य तक लाना कदापि संभव नहीं है। और, हॉलीवुड की फ़िल्म की तरह, पेरिस सम्मेलन का संदेश उन लोगों के द्वारा अत्यधिक प्रभावित किया हुआ होगा जिनके पास सबसे अधिक धन है। इसका हिसाब-किताब लगाना मुश्किल नहीं है। पूरी तरह से जीवाश्म ईंधनों के उपयोग के लिए निर्मित विश्व की ऊर्जा के बुनियादी ढाँचे का मूल्य $55 ट्रिलियन है। जीवाश्म ईंधन के भंडारों – जिनमें से अधिकतर का स्वामित्व महाशक्तियों के पास है – का मौद्रिक मूल्य लगभग $28 ट्रिलियन है। जीवाश्म ईंधन के उद्योग का प्रभाव इससे स्पष्ट है कि दुनिया भर में सरकारों द्वारा इस साल इस पर सब्सिडी देने के लिए लगभग $5.3 ट्रिलियन खर्च किए जाने की संभावना है, जिसमें इसके स्वास्थ्य और पर्यावरण संबंधी प्रतिकूल प्रभावों को दूर करने के लिए किए जानेवाले आवश्यक भारी परिव्यय शामिल हैं। दूसरे शब्दों में, पेरिस में सरकारों की बैठक में जलवायु परिवर्तन के कारणों के लिए सब्सिडी देने पर अधिक खर्च किया जाएगा, बजाय उस खर्च के जो वैश्विक स्वास्थ्य देखभाल पर या इस रूप में जलवायु परिवर्तन के शमन और अनुकूलन पर किया जाता है। लेकिन यह पेरिस में बयान की जानेवाली कहानी का हिस्सा नहीं होगा। वहाँ, दुनिया की जनता को "भू-तकनीकी इंजीनियरिंग" के दो अप्रमाणित रूपों पर आधारित कथा को प्रस्तुत किया जाएगा जिसके समर्थक धरती की प्रणाली में हेरफेर करना चाहते हैं। जिस प्रयास पर सबसे अधिक मात्रा में ध्यान दिया जाएगा वह कार्बन को पकड़ने और भंडारण से प्राप्त जैव-ऊर्जा (BECCS) है। मई में, संयुक्त राज्य अमेरिका के ऊर्जा विभाग ने इस प्रौद्योगिकी पर चर्चा करने के लिए एक निजी बैठक आयोजित की, जो महाशक्तियों द्वारा अपनी परिसंपत्तियों की रक्षा करने के लिए इस्तेमाल किया जानेवाला अपनी आबरू बचाने का साधन होगा। हालाँकि, BECCS को लागू करने के लिए दुनिया को भारत के आकार से 1.5 गुना क्षेत्र बनाए रखने की आवश्यकता होगी जो ऐसे खेतों या जंगलों से भरा होगा जिनमें कार्बन डाइऑक्साइड की विशाल मात्राओं को अवशोषित करने की क्षमता होगी, साथ ही दुनिया की उस आबादी के लिए पर्याप्त भोजन उपलब्ध कराने की भी आवश्यकता होगी जिसके 2050 तक नौ बिलियन से अधिक हो जाने की उम्मीद है। प्रौद्योगिकी के पैरोकार यह वादा करते हैं कि तब तक जैविक विलगीकरण में ऐसे कार्यक्रम जुड़ जाएँगे जो उत्सर्जनों के निकलने पर उन्हें पकड़ लेंगे या उन्हें हवा से बाहर खींच लेंगे ताकि उन्हें गहरे भूमिगत शाफ्टों में डाला जा सके - जिससे वे नज़रों से दूर और मन से दूर हो जाएँगे। जीवाश्म ईंधन के उत्पादक कार्बन पकड़ने को इसलिए बढ़ावा देते हैं ताकि वे अपनी खानों को खुला रख सकें और पंपों को चालू रख सकें। यह धरती के लिए दुर्भाग्य की बात है कि बहुत से वैज्ञानिकों को यह तकनीकी रूप से असंभव और आर्थिक रूप से विनाशकारी लगता है - विशेष रूप से यदि ऐसी प्रौद्योगिकी को तब लागू किया जाता है जब अराजक जलवायु परिवर्तन से बचने की आवश्यकता हो। तापमानों को नियंत्रण से बाहर तक बढ़ने से रोकने के लिए सौर विकिरण प्रबंधन नामक एक दूसरे भू-तकनीकी इंजीनियरिंग उपाय की आवश्यकता होगी। इसके मूल में विचार सूरज की रोशनी को रोकने के लिए वायुमंडल में 30 किलोमीटर की दूरी तक सल्फेट को पंप करने के लिए पाइपों का उपयोग करने जैसी तकनीकों का उपयोग करके ज्वालामुखी विस्फोट के प्राकृतिक रूप से ठंडा होने की प्रक्रिया की नकल करना है। ब्रिटेन की रॉयल सोसाइटी का मानना है कि इस तरह की प्रौद्योगिकी का उपयोग करना अपरिहार्य हो सकता है, और यह अन्य देशों में अपने समकक्षों के साथ काम कर रही है ताकि यह पता लगाया जा सके कि इसके उपयोग को किन तरीकों से नियंत्रित किया जाना चाहिए। इससे पहले इस वर्ष, अमेरिका की विज्ञान की राष्ट्रीय अकादमियों ने इस तकनीक को अनमना समर्थन दिया, और चीन की सरकार ने मौसम संशोधन में भारी निवेश करने की घोषणा की जिसमें सौर विकिरण प्रबंधन शामिल हो सकता है। रूस इस प्रौद्योगिकी के विकास के लिए पहले से ही काम कर रहा है। कार्बन को पकड़ने के विपरीत, सूर्य की रोशनी को रोकने में वास्तव में वैश्विक तापमानों को कम करने की क्षमता है। सिद्धांत रूप में, यह प्रौद्योगिकी सरल, सस्ती, और किसी एक देश या सहयोगियों के एक छोटे समूह द्वारा लागू किए जाने में सक्षम है; इसके लिए संयुक्त राष्ट्र की सहमति की आवश्यकता नहीं है। लेकिन सौर विकिरण प्रबंधन वातावरण से ग्रीन हाउस गैसों को दूर नहीं करता है। यह केवल उनके प्रभावों को छिपा देता है। पाइपों के बंद हो जाने पर, धरती का तापमान बढ़ने लग जाएगा। प्रौद्योगिकी से इसे कुछ समय के लिए रोका जा सकता है, लेकिन इससे धरती के थर्मोस्टेट का नियंत्रण उन लोगों के हाथ में आ जाता है जिनके हाथ में पाइप हों। यहाँ तक कि प्रौद्योगिकी के पैरोकार भी यह मानते हैं कि उनके कंप्यूटर मॉडलों के पूर्वानुमानों के अनुसार उष्णकटिबंधीय और उप-उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों पर इसका भारी नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। जलवायु परिवर्तन बुरा है, लेकिन भू-तकनीकी इंजीनियरिंग में इसे बदतर बनाने की क्षमता है। पेरिस सम्मेलन के निर्माता अपने दर्शकों से ऐसी प्रौद्योगिकियों पर भरोसा करनेवाली कहानी पर विश्वास करने के लिए कहेंगे जो धुएँ और दर्पणों से अधिक प्रभावी नहीं है। यह ज़रूरी है कि हम उनसे आगे देखना सीखें। पर्दा उठने पर झूठे वादे किए जाएँगे और यदि दर्शक कोई कार्रवाई नहीं करेंगे तो यह ऐसी नीतियों के साथ बंद हो जाएगा जो केवल तबाही का कारण ही बन सकती हैं। अनुकूलनशीलता का वर्ष न्यूयॉर्क – दस साल पहले इसी महीने में, जापान के ह्योगो प्रान्त की राजधानी कोबे में संयुक्त राष्ट्र के सदस्य राज्यों के 168 प्रतिनिधि यह तय करने के लिए मिले कि हिंद महासागर की विनाशकारी सूनामी का बेहतर जोखिम प्रबंधन कैसे किया जाए जिसमें 227,000 से अधिक लोगों की जान गई थी। पाँच दिनों के दौरान, जिसमें 1995 में कोबे में आए भूकंप की सालगिरह शामिल थी, उन्होंने कार्रवाई के लिए ह्योगो फ्रेमवर्क (HFA) तैयार किया, जिसमें "जीवनों और समुदायों और देशों की सामाजिक, आर्थिक और पर्यावरणीय परिसंपत्तियों की क्षति को कम करने के लिए" अनेक उपाय शामिल किए गए। दो महीनों में, संयुक्त राष्ट्र के सदस्य देश आपदा जोखिम न्यूनीकरण के लिए तीसरे विश्व सम्मेलन के लिए एक और ���ापानी शहर में मिलेंगे जो आपदा जोखिम का पर्याय बन चुका है: सेंडाइ - यह तोहोकू क्षेत्र का केंद्र है, जिसे 2011 में आए भूकंप और सूनामी का आघात सहना पड़ा जिसके फलस्वरूप फुकुशिमा परमाणु संयंत्र में रिसाव की स्थिति उत्पन्न हुई। बैठक में हर किसी के दिमाग में एक सवाल होगा: क्या दुनिया HFA के महत्वाकांक्षी लक्ष्य पर खरी उतरी है? पिछले एक दशक में जो कुछ भी घटा वह बिलकुल अनुकूल नहीं रहा है - इस अवधि में अत्यधिक भयंकर प्राकृतिक आपदाओं का सामना करना पड़ा। पोर्ट-ओ-प्रिंस एक भूकंप में ध्वस्त हो गया। तूफान कैटरीना ने न्यू ऑरलियन्स को उजाड़ दिया। सूखे से अफ्रीका के हॉर्न में असंख्य लोग मारे गए। बाढ़ और भूकंप से पाकिस्तान और चीन में लाखों लोग प्रभावित हुए। गर्म हवाओं और जंगल की आग ने दुनिया भर के देशों में तबाही मचा दी। इन आपदाओं से हमें HFA जैसे साधनों की आवश्यकता के बारे में भारी चेतावनी मिलती है, विशेष रूप से इसलिए कि आपदा जोखिम के कारकों - भूमि का अनुचित उपयोग, अस्तित्वहीन या ठीक तरह से लागू न किए गए भवन-निर्माण कोड, पर्यावरण क्षरण, गरीबी, जलवायु परिवर्तन, और, सबसे महत्वपूर्ण, अनुपयुक्त और अपर्याप्त संस्थाओं द्वारा कमजोर नियंत्रण – की अभी भी भरमार है। यही कारण है कि दुनिया के नेताओं को सेंडाइ सम्मेलन में HFA के अद्यतित संस्करण पर सहमत होने की जरूरत है। निश्चित रूप से, पिछले दस वर्षों में कुछ महत्वपूर्ण सफलताएँ मिली हैं, जिनकी ओर अपेक्षाकृत कम ध्यान गया है। दुनिया की आपदाओं का 80% एशिया में केंद्रित है, जहाँ सीधे प्रभावित होनेवाले लोगों की संख्या में दशक-दर-दशक लगभग एक अरब तक की कमी हुई है, यह हिंद महासागर में सुनामी जैसी प्रारंभिक चेतावनी प्रणाली जैसे उपायों के कारण हुआ है। वास्तव में, भारी तूफ़ान के बारे में ठीक-ठीक भविष्यवाणी करने की प्रणालियों के फलस्वरूप लोगों को समय पर निकाल लेने के कारण फिलीपींस और भारत अभी पिछले वर्ष ही हजारों जीवन बचाने में सफल हुए हैं। और, पिछले तीन वर्षों में, चीन ने आर्थिक हानियों को अपने जीडीपी लक्ष्य के 1.5% के भीतर रखने के लिए जी-तोड़ मेहनत की है। इस बीच, टर्की वर्ष 2017 तक देश के हर स्कूल और अस्पताल को भूकंप-रोधी बना चुका होगा। इथियोपिया न केवल सूखे बल्कि अन्य प्राकृतिक खतरों का भी पता लगाने के अपने प्रयासों में मदद प्राप्त करने के लिए परिष्कृत डेटा प्रबंधन प्रणाली विकसित कर चुका है। दोनों देश - और कई अन्य देश भी - अपने विद्यालय पाठ्यक्रमों में आपदा जोखिम अध्ययन को शामिल कर चुके हैं। लैटिन अमेरिका में, इक्वाडोर में किए गए एक लागत लाभ विश्लेषण से यह निष्कर्ष निकला है कि बाढ़ और तूफानों से बार-बार होनेवाली हानियों को दूर करने के लिए, आपदा जोखिम में कमी करने हेतु निवेश किए गए प्रत्येक डॉलर से अंततः $9.50 की बचत होती है। इसी तरह, यूरोपीय संघ का अनुमान है कि बाढ़ सुरक्षा पर खर्च किए गए प्रत्येक 1€ ($1.18) से 6€ की बचत होती है। उदाहरण के लिए, यूनाइटेड किंगडम में, बाढ़ सुरक्षा में निवेश करने से पिछली सर्दियों के तूफानों के दौरान 8,00,000 परिसंपत्तियों को बचाया जा सका जिसके फलस्वरूप आवश्यक कार्रवाई करने और स्थिति बहाल करने के खर्च में भारी कमी की जा सकी। लेकिन और बहुत कुछ किया जाना चाहिए। पिछले 44 वर्षों में, मौसम, जलवायु, और जल-संबंधी खतरों के कारण हुई आपदाओं के फलस्वरूप 3.5 मिलियन लोगों की मृत्यु हुई। हालाँकि आपदा-संबंधी मृत्यु दर को कम करने के मामले में प्रगति हुई है - आपदाओं के महामारी विज्ञान संबंधी अनुसंधान केंद्र के अनुसार, आपदाओं में वृद्धि होने के बावजूद, पिछले दशक में आपदा से संबंधित मौतों की संख्या में बहुत अधिक वृद्धि नहीं हुई है - फिर भी यह संख्या बहुत अधिक बनी हुई है। इसके अलावा, जहाँ लोगों के जीवन बचाए भी जा रहे हैं, वहाँ भी अक्सर उनकी आजीविकाएँ नष्ट हो रही हैं। 1960 के बाद से, आपदाओं से दुनिया को $3.5 ट्रिलियन से अधिक की हानि हुई है, इसमें विकसित और विकासशील देशों दोनों को ही उत्पादकता में हानि और बुनियादी ढाँचे के क्षतिग्रस्त होने कारण बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ी है। यही वजह है कि सेंडाइ में आगामी संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन में दुनिया के नेताओं को संशोधित HFA के माध्यम से, इस बात के लिए सहमत होना चाहिए कि वे समुद्र के बढ़ते स्तर, ग्लोबल वार्मिंग, अनियंत्रित शहरीकरण, और तीव्र जनसंख्या वृद्धि से उत्पन्न खतरों से निपटने के लिए अपने प्रयासों को बढ़ाएँगे। उच्चतम स्तर पर दृढ़ राजनीतिक प्रतिबद्धता होने पर ही सुरक्षित, अधिक टिकाऊ भविष्य की दिशा में वास्तविक प्रगति की जा सकती है। संशोधित HFA के लिए समर्थन हासिल करना मुश्किल नहीं होना चाहिए। फिर भी, इस बात के लिए कोई दमदार, या तर्कसंगत, कारण नज़र नहीं आता है कि कोई वित्त मंत्री या मुख्य कार्यपालक अधिकारी स्थिति को बहाल करने पर तो खर्च करना पसंद करेगा परंतु रोकथाम में निवेश करने के लिए नहीं। दुनिया के लिए यह सही समय है कि आपदाओं से बचाव को औद्योगीकरण की प्रक्रिया और कस्बों और शहरों के विकास से जोड़ा जाए जिसमें भूकंप के खतरों, बाढ़ संभावित मैदानी इलाकों, तटीय कटाव, और पर्यावरण क्षरण जैसे कारकों को समाहित किया जाए। यदि संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन में उचित समझौते को तैयार कर लिया जाता है, तो अनुकूलनशीलता 2015 की पहचान बन सकती है, और यह इस वर्ष बाद में जलवायु परिवर्तन और सतत विकास पर होनेवाले समझौतों के स्वरूप को तय करेगा - आपदा जोखिम के लिए इन दोनों के ही महत्वपूर्ण निहितार्थ हैं। महिलाओं के अधिकार और प्रथागत अन्याय सिएटल – महिलाओं को दुनिया के अधिकतर हिस्सों में जिस सबसे बड़ी चुनौती का सामना करना पड़ता है वह उनके कानूनी अधिकारों और व्यक्तियों के रूप में उनके बारे में दावा करने की उनकी क्षमता के बीच अंतराल है। राष्ट्रीय संविधानों में लैंगिक समानता की गारंटी देने की संभावना बहुत अधिक बढ़ती जा रही है, लेकिन बहुत से संविधान प्रथा, धर्म, या जातीय संबद्धता पर आधारित समानांतर कानूनी प्रणालियों के अधिकार को भी स्वीकार करते हैं। और, दुर्भाग्यवश, दुनिया के कई हिस्सों में कानून बदलते समय के साथ नहीं बदला है। सौभाग्य से, अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार संस्थाएं इस अंतराल पर नज़र रख रही हैं। 1999 और 2000 में, दो युवा तंज़ानियाई दर्जिनों को, जिनकी शादी तेरह से उन्नीस वर्ष की आयु में हो गई थी और उनके चार बच्चे होने के बाद वे बीस से उनतीस वर्ष की आयु में विधवा हो गई थीं, उनके जातीय समूह के विरासत के प्रथागत कानून के तहत उनको अपने घरों से बेदखल कर दिया गया था। उन प्रथागत कानूनों के तहत मृतक की संपत्ति में से उसके परिवार की महिला सदस्यों की तुलना में पुरुष रिश्तेदारों के दावे का हिस्सा अधिक होता ��ै, और आम तौर पर पत्नियों को पूरी तरह वंचित रखा जाता है और बेटियों को बहुत कम हिस्सा दिया जाता है। तंज़ानिया के इन दोनों मामलों में, स्थानीय अदालतों ने यह निर्णय दिया कि उस महिला की मेहनत से प्राप्त आय से खरीदी गई वस्तुओं सहित जिस संपत्ति को महिला ने अपने पति के साथ साझा किया था, वह उसके देवर के पास जानी चाहिए। युवा विधवा दर्जिनें अपने बच्चों के साथ बेघर हो गईं, लेकिन उन्होंने अपनी बेदखली को स्वीकार करने से इनकार कर दिया। तंज़ानिया के महिला कानूनी सहायता केंद्र और जॉर्ज टाउन विश्वविद्यालय के अंतर्राष्ट्रीय महिला मानवाधिकार क्लीनिक - जिसका मैं पहले निर्देशन करती थी - की मदद से उन्होंने तंज़ानिया के उच्च न्यायालय में फैसले को चुनौती दी। 2006 में, उच्च न्यायालय इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि विरासत संबंधी प्रथागत कानून "कई तरह से भेदभावपूर्ण" थे, लेकिन उसने इनमें बदलाव करने से इनकार कर दिया। न्यायालय ने कहा कि ऐसा करने का मतलब "हमारे 120 कबीलों के विवेकशील दिखाई देने वाले रिवाजों के भानुमती के पिटारे को खोलना होगा" जिसे कानूनी चुनौती दिए जाने का खतरा है। ये महिलाएं अपने मामले को अंततः संयुक्त राष्ट्र संघ में ले गईं, जहां उहोंने अब दुनिया भर की लाखों महिलाओं की समानता के लिए एक ऐतिहासिक जीत हासिल की है। तंज़ानिया महिलाओं के खिलाफ सभी प्रकार के भेदभाव के उन्मूलन पर कन्वेंशन (सीईडीएडब्ल्यू) और उसके प्रोटोकॉल का समर्थक देश है। इसी कारण ये दोनों महिलाएं अपनी शिकायत उस समिति के पास ले जा पाईं जो इस संधि के कार्यान्वयन के लिए राज्यों के अनुपालन की स्थिति को देखती है। 15 मार्च को, संयुक्त राष्ट्र समिति ने घोषित किया कि तंज़ानिया ने अपने अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार दायित्वों का उल्लंघन किया है। समिति ने फैसला सुनाया कि "महिलाओं के लिए संपत्ति का स्वामित्व हासिल करने, उसका प्रबंध करने, उपयोग करने, और निपटान करने का अधिकार उनकी वित्तीय स्वतंत्रता के लिए केंद्रीय है और यह उनकी आजीविका कमाने और खुद के लिए और अपने बच्चों के लिए पर्याप्त आवास और पोषण प्रदान करने की क्षमता के लिए महत्वपूर्ण हो सकता है।" समिति ने दावा किया कि संधि के मानवाधिकार जनादेश का अनुपालन करने के लिए, तंज़ानिया को उन प्रथागत उत्तराधिकार कानूनों को निरस्त और संशोधित करना होगा जो महिलाओं के खिलाफ भेदभाव करते हैं। उसने यह भी सिफारिश की है कि इस देश को महिलाओं को सीईडीएडब्ल्यू के तहत अपने अधिकारों के बारे में शिक्षित करना चाहिए और प्रथागत कानून से भेदभावपूर्ण व्यवहार को दूर करने के लिए समर्थन जुटाने के लिए न्यायाधीशों, वकीलों, स्थानीय अधिकारियों, और पारंपरिक नेताओं को प्रशिक्षित करना चाहिए। तंज़ानिया की सरकार को सितंबर तक इस फैसले पर प्रतिक्रिया देनी है। इस फैसले का भारी प्रभाव हो सकता है क्योंकि तंज़ानिया के इस मामले में जो समस्या सामने आई है वह अफ्रीका और एशिया के कई हिस्सों में भी बहुत आम है। उदाहरण के लिए, भारत ने ज्यादातर स्थितियों में परिवार की भूमि के वारिस के रूप में बेटों और बेटियों को बराबर का दावा उपलब्ध कराने के लिए दस साल पहले कानून बनाया था। इसके बावजूद, अंतर्राष्ट्रीय भूमि-अधिकारों के गैर-सरकारी संगठन लैंडेसा द्वारा तीन ग्रामीण भारतीय राज्यों में किए गए महिलाओं के एक सर्वेक्षण में यह पाया गया कि दो-तिहाई महिलाओं को ऐसी किसी भी महिला का पता नहीं था जिसे अपने माता-पिता से भूमि विरासत में मिली हो। चार में से एक महिला को यह पता नहीं था कि उन्हें परिवार की भूमि की विरासत का अधिकार प्राप्त है। उत्तराधिकार के अधिकार में घर, कार, और सिलाई की मशीन किसे मिलनी चाहिए, इसके अलावा और भी बहुत कुछ दांव पर होता है। अनुसंधान से पता चलता है कि भूमि सहित, संपत्ति का स्वामित्व प्राप्त करने और संपत्ति का वारिस होने के महिलाओं के अधिकार गरीबी के चक्र को तोड़ने के लिए महत्वपूर्ण हैं। उदाहरण के लिए, तंज़ानिया में किए गए एक अध्ययन में यह पाया गया कि जिन क्षेत्रों में महिलाओं को भूमि के अधिक मजबूत अधिकार प्राप्त हैं उनमें महिलाएं चार गुना अधिक आय अर्जित कर रही हैं। और नेपाल में किए गए एक अध्ययन में पाया गया कि जिन बच्चों की माताओं के पास भूमि का स्वामित्व था उनके कुपोषित होने की संभावना 33% कम थी। ये लाभ आर्थिक लाभों से बहुत अधिक हैं: भारत में, यह पाया गया कि जिन महिलाओं को भूमि के सुरक्षित अधिकार प्राप्त थे उन महिलाओं के घरेलू उत्पीड़न से पीड़ित होने की संभावना आठ गुना कम थी। संयुक्त राष्ट्र के फैसले ने दुनिया भर में महिलाओं की इस उम्मीद को बढ़ा दिया है कि उनके देश उन अन्यायों को दूर करने के लिए मजबूर हो जाएंगे जो किसी प्रथागत कानून में पाए जाएं और जहां पूर्वाग्रह प्रगतिशील कानून के क्रियान्वयन में बाधक बनता है। दक्षिण अफ्रीका और केन्या में कानून निर्माता इस मुद्दे से जूझ रहे हैं। तंज़ानिया और इसी तरह की परिस्थितियों वाले देशों को सुनियोजित भेदभाव को समाप्त करके महिलाओं के अधिकारों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता प्रदर्शित करनी चाहिए। जब वे ऐसा करेंगे, तो दो विधवाओं की कहानी न सिर्फ उनके लिए बल्कि हर जगह की महिलाओं और समुदायों के लिए, सशक्तीकरण के मुद्दे पर समाप्त होगी। प्रतिजैविकों का समझदारी से उपयोग करना लंदन – प्रतिसूक्ष्मजीवों (एंटीमाइक्रोबियल) के प्रतिरोध की समस्या के समाधान के लिए, दुनिया को न केवल नई दवाओं की आवश्यकता है बल्कि इसके लिए हम सभी सात अरब लोगों का व्यवहार भी नया होना चाहिए। प्रतिजैविकों के गलत और आवश्यकता से अधिक इस्तेमाल की वजह से, निमोनिया और तपेदिक जैसी आम संक्रामक बीमारियों के वर्तमान इलाजों में भी प्रतिरोध बढ़ता जा रहा है, कुछ मामलों में तो वे पूरी तरह से रोगक्षम हो गए हैं। यह खतरा वैश्विक स्तर पर है। रिव्यूऑन एंटीमाइक्रोबियल रेज़िस्टेंस (एंटीमाइक्रोबियल प्रतिरोध की समीक्षा) के अनुसार, जिसका मैं अध्यक्ष हूँ, दवा-प्रतिरोधी संक्रमण रोगों से हर साल कम-से-कम 7,00,000 लोग मारे जाते हैं। 2050 तक यदि इस समस्या के समाधान के लिए कुछ नहीं किया गया तो संभवतः हर साल लगभग एक करोड़ लोग इन व्याधियों से मर जाएँगे, जबकि कभी इनका इलाज संभव था। एंटीमाइक्रोबियल प्रतिरोध से लड़ने के लिए समन्वित प्रतिक्रिया के रूप में नई दवाओं को विकसित करना एक महत्वपूर्ण दृष्टिकोण है। लेकिन यह पर्याप्त नहीं होगा। हमें प्रतिजैविकों की अपनी माँग को भी कम करना होगा और यह समझना होगा कि उनसे कुछ अच्छा होने की बजाय नुकसान ही अधिक हो सकता है। एक अनुमान के अनुसार, अमेरिका में प्रतिजैविकों के लिए दी जा रही डॉक्टरी पर्चियों में से लगभग आधी अनुचित और गैर-ज़रूरी होती हैं। इसलिए प्रतिजैविकीय प्रतिरोध में भारी वृद्धि होने पर कोई हैरत नहीं होनी चाहिए। इस ढर्रे को बदलने के लिए महत्वपूर्ण है कि समस्या को समझने की लोगों की सोच में सुधार लाया जाए। अधिकतर लोग या तो एंटीमाइक्रोबियल प्रतिरोध के प्रति पूरी तरह असावधान हो गए हैं या उनकी यह गलत धारणा है कि व्यक्ति विशेष का शरीर ही उस दवा का प्रतिरोध करता है न कि खुद जीवाणु। प्रतिजैविकों का प्रयोग कब और कैसे प्रभावी रूप में किया जाए, इसकी बेहतर समझ होने पर ही लोग ज़िम्मेदारी से इसका इस्तेमाल कर पाएँगे। हमें ऐसे अभियानों की ज़रूरत है जैसा ऑस्ट्रेलियाई धर्मार्थ संस्था एनपीएस मेडिसिनवाइज़ ने आरंभ किया था, जिसमें उन्होंने प्रतिजैविकों के इस्तेमाल के बारे में लोगों में जागरूकता लाने के लिए वीडियो बनाने की प्रतियोगिता का आयोजन किया था। इसके परिणामस्वरूप लघु व्यंग्यात्मक फिल्मों की शृंखलाएँ बनने लग गईं, जिनमें बहुत ही आम लेकिन मज़ाकिया तरीके से बताया जाता था कि प्रतिजैविकों का किस तरह गलत इस्तेमाल किया जा सकता है। इस तरह के प्रयास विश्वभर में होने चाहिए, खासकर विशाल और तेज़ी से विकसित होने वाले देशों में। ब्रिक देशों - ब्राज़ील, रूस, भारत और चीन - में अमेरिका की तुलना में प्रतिजैविकों की प्रति व्यक्ति खपत काफी कम होती है। लेकिन जैसे-जैसे इन देशों के आर्थिक विकास में तेज़ी आ रही है, उनमें प्रतिजैविकों की खपत दर में भी तेज़ी से वृद्धि हो रही है। निराशावादी तो मानकर चलेंगे ही कि व्यवहार को बदलना बहुत कठिन होता है, खास तौर पर तब जब जीवाणु-विज्ञान के बारे में अशिक्षित श्रोताओं को सिखाने की बात हो। इस सोच के कारण निम्न आय वाले देशों के मरीज़ों को एचआईवी की दवा किफ़ायती दरों पर उपलब्ध कराने के बारे में सबसे घृणित यही तर्क दिमाग में आता है: अफ्रीका के लोगों के पास घड़ी तो होती नहीं, इसलिए वे एंटीरेट्रोवायरल दवा दिन में तीन बार नहीं ले सकेंगे। जैसा कि शोधकर्ताओं ने बताया है, सच तो यह है कि अफ्रीकी लोग एंटीरेट्रोवायरल चिकित्सा का पालन बहुत ईमानदारी से करने में पूरी तरह सक्षम हैं - कई बार तो उत्तरी अमेरिका के लोगों से भी ज़्यादा। वास्तव में, जुलाई में यूएनएआईडीएस ने घोषणा की थी कि 2015 के अंत तक डेढ़ करोड़ लोगों को जीवन रक्षक एचआईवी चिकित्सा सेवा देने का लक्ष्य निश्चित समयावधि से बहुत पहले ही पूरा कर लिया गया है। हर साल 1 दिसंबर को, विश्व एड्स दिवस पर इस मुद्दे को प्रमुखता दी जाती है और वैश्विक जागरूकता को बढ़ावा दिया जाता है। हमें इसी तरह की कोशिशें एंटीमाइक्रोबियल प्रतिरोध की शंकाओं को दूर करने की दिशा में भी करनी होंगी। यूँ तो, 18 नवंबर को आयोजित किए जानेवाले यूरोपीय एंटीबायोटिक जागरूकता दिवस से एक अच्छी शुरूआत हुई है, लेकिन इस संदेश को फैलाने के लिए हमें और नए, रचनात्मक तरीके खोजने होंगे। प्रौद्योगिकी के नवोन्मेष के कारण लोगों तक सीधे पहुँचने के लिए अभूतपूर्व अवसर मिलने लगे हैं। लगभग 95% चीनी और 75% भारतीय नियमित तौर पर मोबाइल फ़़ोन का इस्तेमाल करते हैं। जिन क्षेत्रों में साक्षरता दर ऊँची है, वहाँ संदेश के प्रचार-प्रसार के लिए लिखित संदेशों को भेजना त्वरित और प्रभावी तरीका हो सकता है। यूरोप और अमेरिका में की गई शोध से पता चलता है कि 90% लिखित संदेश पहुँचने के तीन मिनट के भीतर ही पढ़ लिये जाते हैं। सोशल मीडिया लाखों लोगों तक पहुँचने का एक और ताकतवर और अपेक्षाकृत सस्ता साधन है। विश्व के सबसे बड़े इंटरनेट आधारवाले देश चीन में, 6410 लाख लोग इंटरनेट का उपयोग करते हैं - 80% डॉक्टर व्यावसायिक प्रयोजनों के लिए स्मार्ट फ़ोन का उपयोग करते हैं, जिसमें सोशल मीडिया के ज़रिए चिकित्सीय सलाह देना भी शामिल है, कुछ चिकित्सकों के तो लाखों अनुगामी भी हैं। आम लोगों को एंटीमाइक्रोबियल प्रतिरोध की आवश्यकता के बारे में प्रशिक्षित करने के लिए इन मेडिकल सोशल-मीडिया सुपरस्टारों को सूचीबद्ध करने का काम एक जबर्दस्त अवसर सिद्ध हो सकता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा धूम्रपान के विरोध में चलाए गए सोशल मीडिया अभियान को भी एक अनुकरणीय आदर्श माना जा सकता है। चीनी सेलीब्रेटीज़ की पोस्टों का उपयोग इनडोर सार्वजनिक स्थानों पर धूम्रपान विरोधी कानून के प्रति जागरूकता उत्पन्न करने के लिए किया गया। दुनिया के कुछ हिस्सों में, दवा प्रतिरोध का मुकाबला करने का सबसे बढ़िया तरीका यही होगा कि व्यवहार में इस तरह से बदलावों को बढ़ावा दिया जाए जिनसे संक्रामक रोगों को बढ़ने से रोका जा सके और उपचार की आवश्यकता को कम किया जा सके। सही तरीके से हाथों को धोना एकदम सही शुरूआत है। भारत में, सुपर अम्मा नामक एक सूझबूझपूर्ण अभियान चलाया गया था - जिसमें लोगों को हाथ धोने के लिए प्रोत्साहित करने के लिए गंदगीवाले स्थानों पर काम करनेवाले लोगों की तस्वीरों का उपयोग किया गया था। यह अभियान इतना सफल हुआ कि संबंधित समूहों में नियमित रूप से हाथ धोनेवाले लोगों की संख्या 1% से बढ़कर लगभग 30% हो गई। वैश्विक स्तर पर एंटीमाइक्रोबियल प्रतिरोध के खतरे के प्रति जागरूकता पैदा करने की लागत, नई दवाओं और प्रौद्योगिकियों को विकसित करने के लिए खर्च की जानेवाली लागत की तुलना में नगण्य होगी, जबकि किसी भी सूरत में उनके उपलब्ध होने में अभी सालों लग जाएँगे। देशों को चाहिए कि वे शैक्षणिक अभियानों के ज़रिये लोगों के व्यवहार में बदलाव लाने पर ज़ोर दें। हम सब मिलकर, अपनी खराब प्रतिजैविक आदतों को बदल सकते हैं। युद्ध और शांति और जल वाशिंगटन, डीसी - वर्तमान में भारत को पिछले कई वर्षों में पहली बार सबसे खराब जल के संकट का सामना करना पड़ रहा है -अनुमान है कि लगभग 330 मिलियन लोग - इसकी चौथाई आबादी - गंभीर सूखे से प्रभावित हैं। इथियोपिया को भी कई दशकों में पहली बार सबसे गंभीर सूखे से निपटना पड़ रहा है, जिसके फलस्वरूप पहले ही कई फसलें नष्ट हो चुकी हैं, खाद्य पदार्थों की कमी हो गई है जिससे अब आबादी का लगभग दसवाँ हिस्सा प्रभावित है। ऐसी परिस्थितियों में, संसाधनों की वजह से होनेवाले तनाव का बहुत अधिक जोखिम होता है। अतीत में, ऐसी गंभीरता के सूखों के फलस्वरूप पड़ोसी समुदायों और राज्यों के बीच संघर्ष और युद्ध तक भी हुए हैं। इतिहास में पहली ऐसी स्थिति लगभग 4,500 साल पहले उत्पन्न हुई थी, जब लगाश के शहर-राज्य - जो आधुनिक समय में इराक में दजला और फरात नदियों के बीच बसे हैं - अपने पड़ोसी देश उम्मा से पानी प्राप्त करते थे। जल के लिए प्रतिस्पर्धा के कारण प्राचीन चीन में हिंसक घटनाएँ हुईं और मिस्र साम्राज्य में राजनीतिक अस्थिरता की स्थिति बन गई। आज बेहतर संवाद और सीमा पार से सहयोग के फलस्वरूप जल संसाधनों के कारण देशों के बीच वास्तविक युद्ध सामान्यतः नहीं होते हैं। लेकिन, देशों के भीतर दुर्लभ जल के ल��ए प्रतिस्पर्धा अस्थिरता और संघर्ष का अधिक सामान्य स्रोत बनती जा रही है, विशेष रूप से इसलिए कि जलवायु परिवर्तन के फलस्वरूप चरम मौसम की घटनाओं की गंभीरता और आवृत्ति बढ़ती जा रही है। जैसा कि हमने अपनी नई रिपोर्ट “असहाय स्थिति: जलवायु परिवर्तन, जल और अर्थव्यवस्था” में विस्तार से बताया है, सीमित और अनियमित जल उपलब्धता से आर्थिक विकास में कमी होती है, पलायन में वृद्धि होती है, और नागरिक संघर्ष भड़कते हैं, जिससे संभावित रूप से अस्थिरता लाने वाले पलायन में और तेज़ी आती है। कुछ क्षेत्रों में यह चक्र कई दशकों से स्पष्ट दिखाई दे रहा है। उदाहरण के लिए, उप-सहारा अफ्रीका में पिछले 20 वर्षों में कम वर्षा की अवधियों के बाद अक्सर हिंसा, गृह युद्ध, और शासन में परिवर्तन की घटनाएं हुई हैं। और ग्रामीण अफ्रीका और भारत के कई हिस्सों में, वर्षा में कमी ने और अधिक जल-प्रचुर स्थानों, अक्सर शहरों की ओर आंतरिक या सीमा पार स्थानांतरण के लिए "उकसाने" का काम किया है, जिससे विस्थापित लोगों की संख्या बढ़ने के कारण नए सामाजिक दबाव पैदा हुए हैं। हमारी रिपोर्ट में, हमने यह पूर्वानुमान लगाया है कि जल का अभाव संघर्ष-जोखिम गुणक के रूप में कार्य कर सकता है, जिससे संसाधन-संचालित संघर्ष, हिंसा, और विस्थापन के चक्रों में तेज़ी आ सकती है, विशेष रूप से मध्य पूर्व और अफ्रीका में साहेल जैसे पहले से ही जल के अभाव वाले क्षेत्रों में, जहां कृषि अभी भी रोजगार का महत्वपूर्ण स्रोत है। सौभाग्य से, गरीबी, अभाव और संघर्ष के चक्र से बचने का एक उपाय है। यदि देश अच्छे प्रोत्साहनों से भरपूर प्रभावी जल प्रबंधन की नीतियों और प्रथाओं को कार्यान्वित करने के लिए अब कार्रवाई करते हैं, तो वे न केवल जल के अभाव की स्थिति को पूरी तरह पलट सकते हैं, बल्कि अपने आर्थिक विकास की दरों में प्रति वर्ष छह प्रतिशत अंक तक की वृद्धि भी कर सकते हैं। जल के अभाव वाला एक देश मोरक्को है जिसने जलवायु परिवर्तन के लिए अपने लचीलेपन में सुधार करने के लिए कार्रवाई की है। कम वर्षा के वर्षों में, मोरक्को के नदी-घाटी के अधिकारी फसलों की सिंचाई को सबसे कम प्राथमिकता देते हैं, जो देश के जल का सबसे बड़ा उपभोक्ता है। लेकिन जाहिर तौर पर, आबादी को खिलाने के लिए कृषि का क्षेत्र महत्वपूर्ण बना हुआ है। इसलिए सरकार किसानों को अधिक कुशल जल सेवाएं प्रदान करने के लिए सिंचाई के बुनियादी ढांचे के आधुनिकीकरण में निवेश करती आ रही है ताकि उन्हें जल की ऐसी अधिक कुशल सेवाएँ प्रदान की जा सकें जिनसे वे जल की उपलब्धता में घट-बढ़ से अधिक आसानी से निपट सकें। मोरक्को के अधिकारी भूजल की अधिक निकासी से बचने के लिए उसके नियंत्रण में सुधार लाने के लिए भी काम कर रहे हैं। वर्षा सिंचित कृषि के क्षेत्र में लगे किसानों को जो सहायता मिलती है उससे सीधी बुवाई जैसी जलवायु-लचीली प्रथाओं की शुरूआत करने के रूप में उन्हें वर्षा का बेहतर उपयोग करने में मदद मिलती है, परिणामस्वरूप सूखे के वर्षों के दौरान पारंपरिक प्रथाओं से प्राप्त पैदावार की तुलना में अधिक पैदावार मिलती है। मोरक्को से - और हमारी रिपोर्ट से - यह संदेश मिलता है कि स्मार्ट जल नीतियों और हस्तक्षेपों से, देश जलवायु-लचीले, जल-सुरक्षित भविष्य को सुनिश्चित कर सकते हैं। प्रभावी जल प्रबंधन रणनीतियों के मूल में जल-संसाधनों के आवंटन के लिए बेहतर योजना बनाना, कार्यकुशलता बढ़ाने के लिए प्रोत्साहनों को अपनाना, जल सुरक्षा में सुधार के लिए बुनियादी ढांचे में निवेश करना, और बेहतर शहरी योजना, जोखिम प्रबंधन, और नागरिक योगदान बढ़ाना शामिल होगा। हाल ही में जल पर बनाया गया अंतर्राष्ट्रीय उच्च-स्तरीय पैनल, जिसमें दस राज्याध्यक्ष शामिल हैं, विश्व स्तर पर बेहतर जल प्रबंधन को बढ़ावा देने के लिए ठीक इस एजेंडे को प्रोत्साहित करेगा। तथापि, जल-सुरक्षित भविष्य को सुरक्षित करने के लिए हर देश उसी मार्ग का अनुसरण नहीं करेगा। लेकिन, जैसे-जैसे देश अपनी रणनीतियाँ विकसित करेंगे, वे यह जानने के लिए एक-दूसरे के विचारों और अंतर्दृष्टियों पर गौर कर सकते हैं कि कौन-सी चीज़ कारगर हो सकती है और कौन-सी नहीं। दुनिया भर की सरकारें ठोस और विवेकपूर्ण कार्रवाई करके, जल संसाधनों को प्रभावित करनेवाली प्राकृतिक सीमाओं और अनिश्चितताओं का प्रभावी ढंग से सामना कर सकती हैं, जिससे यह सुनिश्चित किया जा सकेगा कि आगे जो कुछ होने की संभावना है उसके लिए उनके लोग और अर्थव्यवस्थाएँ तैयार हैं। समलैंगिक पुरुषों को जोखिम-पूर्व रोग-निवारण (PrEP) के लिए तैयार करना लंदन – अक्तूबर में, एचआईवी के खिलाफ लड़ाई में एक संभावित महत्वपूर्ण खोजवाली दवा के प्रभाव पर शोध करनेवाले दो समूहों ने कुछ असामान्य किया। उन्होंने घोषणा की वे चिकित्सा के लिए जिस ट्रूवाडा (Truvada) नामक एंटीरेट्रोवाइरल दवा का परीक्षण कर रहे थे, वह परीक्षण के यादृच्छिक चरणों को समाप्त करने के लिए काफी प्रभावी सिद्ध हुई है, और वे यह गोली अध्ययन के सभी प्रतिभागियों को दे रहे थे। शोधकर्ताओं ने यह पाया कि जो समलैंगिक पुरुष पुरुषों से यौन संबंध बनाते समय कंडोम का उपयोग करने के अलावा ट्रूवाडा लेते हैं, उनमें एचआईवी होने की संभावना काफी कम होती है। इस जोखिम-पूर्व रोग-निवारण (PrEP) से इसकी कारगरता और भी अधिक सिद्ध होती है, यह एक ऐसी तकनीक है जिसके द्वारा एचआईवी नेगेटिव वाले लोग खुद को संक्रमण से बचाने के लिए एंटीरेट्रोवाइरल दवाओं का उपयोग करते हैं। 2011 में, गेट्स फाउंडेशन द्वारा वित्तपोषित एक परीक्षण में यह पाया गया कि ट्रूवाडा का उपयोग करनेवाले विषमलिंगी युगलों में एचआईवी संचारण का जोखिम 73% कम हो जाता है। इस प्रकार एचआईवी/एड्स के प्रसार को रोकने के लिए लड़ रहे लोगों के शस्त्रागार में यह एक नया उपकरण आ गया है। अब प्रश्न यह है कि इसे उन लोगों, अर्थात विकासशील देशों में समलैंगिक पुरुषों को आसानी से कैसे उपलब्ध किया जाए, जिन्हें इसकी सबसे ज्यादा ज़रूरत है। इस साल की गर्मियों में, विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इस उद्देश्य से एक महत्वपूर्ण कदम उठाया, उसने सभी समलैंगिक पुरुषों और पुरुषों के साथ यौन संबंध रखने वाले पुरुषों के लिए जोखिम-पूर्व रोग-निवारण (PrEP) की सिफारिश की है, जिससे यह ऐसा करने वाला पहला प्रमुख अंतर्राष्ट्रीय स्वास्थ्य संगठन बन गया। डब्ल्यूएचओ का अनुमान है कि जोखिम-पूर्व रोग-निवारण (PrEP) का अधिक उपयोग करने से पुरुषों के साथ यौन संबंध रखने वाले पुरुषों में अगले दशक तक एचआईवी संक्रमणों में 25% तक की कमी हो सकती है (इस श्रेणी में अधिक जोखिम वाला कोई भी व्यक्ति शामिल है, न केवल वे व्यक्ति जिनकी पहचान समलैंगिक के रूप में की गई हो)। लेकिन इसमें आनेवाली एक महत्वपूर्ण बाधा: विकासशील दुनिया के अधिकतर भाग में समलैंगिक पुरुषों की कानूनी स्थिति है। नाइजीरिया जैसे देशों में, जहाँ समलैंगिकता-विरोधी कानून को हाल ही में मंजूरी दी गई है, डब्ल्यूएचओ के नए जोखिम-पूर्व रोग-निवारण (PrEP) के दिशानिर्देशों का पालन करनेवाले कारावास के दंड के भागी हो सकते हैं। नाइजीरिया में आधिकारिक रूप से स्वीकृत समलैंगिकता के विरोध के वातावरण ने एड्स के खिलाफ लड़ाई में पहले ही अड़चन डाल दी है। 2006 में, एक अध्ययन से पता चला था कि नाइजीरिया में पुरुषों के साथ यौन संबंध रखने वाले पुरुषों में 13% एचआईवी पॉज़िटिव हैं, जबकि इसकी तुलना में कुल नाइजीरियाई व्यक्तियों में से 4.5% एचआईवी पॉज़िटिव हैं। 2012 तक, पुरुषों के साथ यौन संबंध रखने वाले पुरुषों के बीच एचआईवी की दर बढ़कर 17% हो गई। इस बीच, स्वास्थ्य केन्द्रों पर अधिक संख्या में पुरुषों ने बताया कि उन्हें समलैंगिकता के विरोध के वातावरण का सामना करना पड़ रहा है, जिसके कारण इसकी संभावना कम है कि वे मदद प्राप्त करने के लिए आगे आएँगे। परिणाम इससे अधिक गंभीर नहीं हो सकते थे। दो साल पहले, एक युवा एचआईवी पॉज़िटिव नाइजीरियाई पुरुष ने मुझे क्लीनिक में हर महीने होनेवाले अपने कटु अनुभव के बारे में बताने के लिए मुझसे फेसबुक पर संपर्क किया था। अस्पताल में नर्स, वह जो दवाइयाँ ले रहा था उन दवाइयों और उनके संभावित दुष्प्रभावों के बारे में बताने के बजाय, उसे समलैंगिकता की बुराइयों के बारे में व्याख्यान देने पर अधिक समय लगाती थी। उस आदमी ने, जो तीसरे वर्ष का मेडिकल छात्र था, मुझे बताया कि उसने क्लीनिक न जाने का फैसला कर लिया है। जब मैंने उससे पूछा कि वह इलाज कैसे जारी रखेगा, तो उसने कहा कि विदेश में उसका एक दोस्त है जो उसे दवाएँ दिलवा सकता है। दो साल से कुछ कम समय के बाद, मैंने फेसबुक पर एक अपडेट देखा जिसमें उसकी मृत्यु की घोषणा की गई थी। मेरा फेसबुक का दोस्त ही ऐसा अकेला व्यक्ति नहीं है जिसे नाइजीरिया के समलैंगिकता के विरोध की कीमत चुकानी पड़ी हो। सॉलिडेरिटी एलायंस नाइजीरिया, समलैंगिक, समलिंगी, उभयलिंगी, और विपरीतलिंगी (एलजीबीटी) संगठनों के गठबंधन की एक प्रारंभिक रिपोर्ट में बताया गया है कि समलैंगिकता-विरोधी कानून बनने के बाद छह महीनों में पुरुषों के साथ यौन संबंध रखने वाले पुरुषों द्वारा एचआईवी सेवाओं के उपयोग में भारी कमी हुई है। यह कमी नाइजीरिया के सबसे अधिक महानगरीय शहर लागोस में 40% से लेकर मुस्लिम-बहुल राज्य कानो में 70% तक थी। एचआईवी के साथ जीनेवाले नाइजीरियाइयों को केवल संक्रमण से लड़ने के बजाय कुछ और भी करना चाहिए, उन्हें सामाजिक कलंक का बहादुरी से सामना करना चाहिए, धर्मनिरपेक्ष और धार्मिक संस्थाओं द्वारा किए जानेवाले भेदभाव का मुकाबला करना चाहिए, और अब, संभावित रूप से, कानूनी व्यवस्था से खतरों का सामना करना चाहिए। इस माहौल में, जोखिम-पूर्व रोग-निवारण (PrEP) का वायदा मंद पड़ना शुरू हो जाता है, क्योंकि संभावित रूप से जीवन को बचाने के लाभों की तुलना में उपचार कराने के जोखिम अधिक हो जाते हैं। युगांडा में भी यही कहानी है। पिछले वसंत में वहाँ समलैंगिकों पर किए जानेवाले कानूनी उत्पीड़न में बढ़ोतरी हो गई, सरकार ने एक एचआईवी क्लीनिक पर छापा मारा और उसके प्रचालन लाइसेंस पर इसलिए रोक लगा दी कि उसमें पुरुषों के साथ यौन संबंध रखने वाले एचआईवी पॉज़िटिव पुरुषों के लिए देखभाल और सहायता प्रदान की जाती है। एचआईवी के खिलाफ लड़ाई का दस वर्ष से अधिक का अनुभव रखनेवाला एक अफ्रीकी कार्यकर्ता होने के कारण, मुझे उम्मीद है कि डब्ल्यूएचओ जोखिम-पूर्व रोग-निवारण (PrEP) के उपयोग की सलाह देने के अपने पहले महत्वपूर्ण कदम से आगे बढ़ेगा। इसका मतलब है नाइजीरिया, युगांडा, गाम्बिया, और रूस जैसे देशों के साथ एचआईवी के खिलाफ लड़ाई में शामिल किए जाने के महत्व पर एक सार्वजनिक वार्तालाप की शुरुआत की जानी चाहिए। डब्ल्यूएचओ को यह बात स्पष्ट कर देनी चाहिए कि हालाँकि वह एलजीबीटी के राजनीतिक अधिकारों का पक्षधर नहीं है लेकिन वह यह सुनिश्चित करने के लिए दृढ़-निश्चयी है कि जिस किसी को भी जोखिम-पूर्व रोग-निवारण (PrEP) से फायदा हो सकता है, उन सभी को कानूनी परिणामों के डर के बिना, आवश्यक दवाओं तक पहुँच प्राप्त करने में सक्षम होना चाहिए। शोधकर्ताओं, दवा कंपनियों, और मानव-अधिकारों के प्रचारकों को यह सुनिश्चित करने के लिए लड़ाई शुरू करनी चाहिए कि उन लोगों को जोखिम-पूर्व रोग-निवारण (PrEP) जोखिम के बिना उपलब्ध कराया जाता है, जिन्हें इसकी सबसे ज्यादा ज़रूरत है। महिलाओं के विकास के लक्ष्य न्यू यॉर्क - संयुक्त राष्ट्र के मिलेनियम विकास लक्ष्यों (MDGs) की 2015 की समय सीमा नज़दीक आने पर, दुनिया के नेताओं के सामने एक विकल्प होगा: निर्धारित लक्ष्यों को एक या दो दशक आगे ले जाएँ, या उन लोगों को जवाबदेह ठहराएँ जो अपने वायदे पूरे करने में विफल रहे हैं। महिलाओं के लिए तो विकल्प स्पष्ट है। हम यहाँ पहले मिल चुके हैं। 1978 में, अल्मा-आटा में प्राथमिक स्वास्थ्य-सेवा पर अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन में, 134 राज्यों ने घोषणा पर हस्ताक्षर किए जिसमें वर्ष 2000 तक सभी के लिए पर्याप्त स्वास्थ्य-सेवा का आह्वान किया गया था। सोलह साल बाद, 1994 में, काहिरा में, 179 सरकारों ने प्रजनन अधिकारों को बुनियादी मानव अधिकार के रूप में अपनाया और परिवार नियोजन सहित, जनन स्वास्थ्य सेवाओं की पूरी श्रेणी तक सार्वभौमिक पहुँच का प्रावधान सुनिश्चित करने के लिए प्रस्ताव पारित किए गए। लेकिन ये समय सीमाएँ आईं और चली गईं जब सितंबर 2000 में, 55वीं संयुक्त राष्ट्र महासभा के दौरान, 189 देशों के नेताओं ने मिलेनियम विकास लक्ष्यों (MDGs) को अपनाया। और मिलेनियम विकास लक्ष्यों (MDG) की घोषणा से पहले और बाद में दुनिया के नेताओं ने अनेक अन्य प्रतिबद्धताएँ और संकल्प किए। तो, अब हम कहाँ हैं? हम जानते हैं कि कई मिलेनियम विकास लक्ष्य (MDG) पहले ही पूरे किए जा चुके हैं। 2000 के बाद से चरम ग़रीबी आधे से ज़्यादा कम कर ली गई है, 2010 में यह लगभग 22% थी - जिसमें लगभग 700 मिलियन लोगों को दुनिया के सबसे ग़रीब की श्रेणी से बाहर निकाल लिया गया। हमने HIV/AIDS, मलेरिया और तपेदिक के ख़िलाफ़ लड़ाई में सकारात्मक परिणाम देखे हैं। अरबों लोगों की बेहतर पीने के पानी तक पहुँच है; और अनेक लोगों को स्वच्छता तक पहुँच प्राप्त हो गई है (हालाँकि एक अरबों लोगों को अभी भी खुले में शौच करना होता है - जो भारी स्वास्थ्य जोखिम है)। लैंगिक समानता में भी प्रगति हुई है। लड़कियाँ और लड़के बराबर संख्या में स्कूल जाते हैं, और महिलाएँ राजनीतिक क्षेत्र में अपनी आवाज़ अधिकाधिक रूप से उठा रही हैं। लेकिन यह तस्वीर जल्दी ही धुँधली हो जाती है। हालाँकि छोटे बच्चों में दीर्घकालिक अल्प-पोषण में कमी आई है, लेकिन विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार हर चार में से एक बच्चा - 162 मिलियन बच्चे - अभी भी विकास में रुकावट होने से प्रभावित होता है। बेशक, मातृक और बाल मृत्यु दर में कई लाख की कमी हुई है, लेकिन रोकी जा सकने वाली ये मौतें अभी भी हर साल हज़ारों-लाखों महिलाओं और बच्चों का जीवन हर रही हैं। इसके अलावा, संयुक्त राष्ट्र फ़ाउंडेशन ने रिपोर्ट किया है कि 222 मिलियन महिलाएँ अभी भी सबसे बुनियादी जानकारी, उत्पादों, और सेवाओं तक पहुँच प्राप्त नहीं कर पाती हैं जिनसे उन्हें यह तय करने में मदद मिले कि उन्हें कितने बच्चे पैदा करने चाहिए और अपने गर्भधारण के समय को इस तरीके व्यवस्थित करें जिससे उनके स्वास्थ्य की रक्षा हो सके, वे शिक्षा प्राप्त कर सकें, और अपने जीवन को बेहतर बना सकें। इसी रिपोर्ट में उल्लेख किया गया है कि हर साल 15-19 आयु वर्ग की 300,000 से ज़्यादा लड़कियों और महिलाओं की गर्भावस्था से संबंधित जटिलताओं की वजह से मृत्यु हो जाती है, जबकि अनेक अशक्तता संबंधी असमर्थताओं से जूझने के लिए बच जाती हैं। संयुक्त राष्ट्र महासचिव की 2013 की रिपोर्ट "सभी के लिए गरिमा का जीवन" में यह सुनिश्चित करने के लिए सार्वभौमिक कार्यक्रम के लिए आह्वान किया गया है कि कोई भी छूट न जाए। लेकिन लाखों लोग - और ख़ास तौर से महिलाएँ – पहले ही पीछे छूट चुकी हैं। और, क्योंकि दुनिया के नेता और उनके विकास साझेदार एक बार फिर से महिलाओं की बुनियादी प्रजनन-स्वास्थ्य की ज़रूरतें पूरा करने में विफल रहे हैं, इसलिए स्थायी विकास के लिए कार्यक्रम को साकार करने की दिशा में ठोस प्रगति हासिल करना और भी मुश्किल हो जाएगा। मिलेनियम विकास लक्ष्यों (MDGs) की समाप्ति के लिए 500 दिन की उलटी गिनती शुरू होने पर गति में तेज़ी लाने के लिए संयुक्त राष्ट्र का अपना आह्वान इस तथ्य को उजागर करता है कि असमानता, प्रसव से मातृक मृत्यु दर, सार्वभौमिक शिक्षा की कमी, और पर्यावरण ह्रास संबंधी गंभीर चुनौतियाँ बनी हुई हैं। सही मायने में बदलाव लाने के लिए – और केवल महिलाओं के लिए ही नहीं - हमें परिवार नियोजन, महिलाओं और बच्चों की स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुँच के लिए वैश्विक समर्थन, और सशक्तीकरण की पहल के लिए समर्थन की ज़रूरत है। शिक्षित महिला खुद का बेहतर ढंग से ख्याल रख सकती है, जानकारी-युक्त विकल्प चुन सकती है, और अपने समुदाय के लिए अपने योगदान को व्यापक बना सकती है। जब हम महिलाओं को पीछे छोड़ देते हैं, तो हम उनके समुदायों को भी पीछे छोड़ देते हैं। इस पर कोई विवाद नहीं है कि विकास समावेशी और न्यायोचित होना चाहिए। कूटनीतिक प्रस्तावों में जो चीज़ नदारद है, वह है सरकारों और विकास साझेदारों को मानव अधिकारों जैसे उदात्त आदर्शों - ख़ास तौर से स्वास्थ्य और सामाजिक सेवाओं तक पहुँच के अधिकार - को व्यावहारिक समाधानों का रूप देने के लिए जवाबदेह ठहराने के लिए मजबूत बुनियादी ढाँचा होना। जब 2015 के बाद के सतत विकास कार्यक्रम का प्रारूप तैयार किया जा रहा है, तो दुनिया के नेताओं और उनके विकास साझेदारों को नए लक्ष्य निर्धारित करने से परे सोचने की ज़रूरत है जो समय के साथ धुँधले हो जाते हैं, और यह सुनिश्चित करने के लिए जवाबदेही तंत्र, प्रक्रियाओं और प्रणालियों की स्थापना की ओर बढ़ने की ज़रूरत है कि हम वे लक्ष्य पूरे करें जो हमने पहले ही निर्धारित किए हुए हैं। हमें उन नेताओं के लिए वर्तमान अलिखित "शून्य जवाबदेही" की संहिता को छोड़ना होगा जो अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सहमति के लक्ष्यों को अपनी खुद की प्रतिबद्धताओं का पालन करने में विफल रहते हैं। संक्षेप में, हमारी सरकारों को वह करना शुरू करना चाहिए जिसका उन्होंने वायदा किया है। जब हम अधिकाधिक ख़तरनाक समय की ओर अग्रसर हो रहे हैं, जवाबदेही के मजबूत तंत्र के बिना, रोकी जा सकने वाली मातृक-मृत्यु को समाप्त करना और सतत और उचित विकास को बढ़ावा देना हमसे दूर रहेगा।