S.No.
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Title
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Chapter
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Verse
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Sanskrit Anuvad
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Hindi Anuvad
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Enlgish Translation
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649
101
Sankhya Yoga
Chapter 2
Verse 2.55
श्रीभगवानुवाच । प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान् आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्...
 श्री भगवान्‌ बोले– हे अर्जुन! जिस काल में यह पुरुष मन में स्थित सम्पूर्ण कामनाओं को भलीभाँति त्याग देता है और आत्मा से आत्मा में ही संतुष्ट रहता है, उस काल में वह स्थितप्रज्ञ कहा जाता है|
The Divine Lord Krishna replied: O ARJUNA, one is said to have steady wisdom if he completely frees himself from desires of the mind and heart and is realistically satisfied within himself, no more having the longing for material pleasures.
102
Sankhya Yoga
Chapter 2
Verse 2.56
दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः । वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते ॥ २.५६ ॥
 दुःखों की प्राप्ति होने पर जिसके मन में उद्वेग नहीं होता, सुखों की प्राप्ति में सर्वथा निःस्पृह है तथा जिसके राग, भय और क्रोध नष्ट हो गए हैं, ऐसा मुनि स्थिरबुद्धि कहा जाता है|
He whose mind is unaffected by misery or pleasure and is free from all bonds and attachments, fear and anger, is man, of steady wisdom and decisive intellect.
103
Sankhya Yoga
Chapter 2
Verse 2.57
यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम् । नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥ २.५...
जो पुरुष सर्वत्र स्नेहरहित हुआ उस-उस शुभ या अशुभ वस्तु को प्राप्त होकर न प्रसन्न होता है और न द्वेष करता है, उसकी बुद्धि स्थिर है
A man has a decisive intellect, who is no longer attached to anything, shoeing pleasure if something pleasan happens and displeasure if something unpleasant occurs.|
104
Sankhya Yoga
Chapter 2
Verse 2.58
यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः । इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥ २.५८...
और कछुवा सब ओर से अपने अंगों को जैसे समेट लेता है, वैसे ही जब यह पुरुष इन्द्रियों के विषयों से इन्द्रियों को सब प्रकार से हटा लेता है, तब उसकी बुद्धि स्थिर है (ऐसा समझना चाहिए)
Just as a tortoise withdraws or retreats its limbs into its shell, a person with a firm mind and decisive intellect can withdraw his senses from sensual objects.
105
Sankhya Yoga
Chapter 2
Verse 2.59
विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः । रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते ॥ २.५९ ॥
इन्द्रियों द्वारा विषयों को ग्रहण न करने वाले पुरुष के भी केवल विषय तो निवृत्त हो जाते हैं, परन्तु उनमें रहने वाली आसक्ति निवृत्त नहीं होती। इस स्थितप्रज्ञ पुरुष की तो आसक्ति भी परमात्मा का साक्षात्कार करके निवृत्त हो जाती है|
One who does not use his senses for the enjoyment of sensual objects can overcome and rise above sensual objects. However, he is not able to leave off the attachment to his senses. One who realizes God or the Supreme, gers rid of attachments to the senses as well.
106
Sankhya Yoga
Chapter 2
Verse 2.60
यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः । इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः ॥ २.६० ॥
हे अर्जुन! आसक्ति का नाश न होने के कारण ये प्रमथन स्वभाव वाली इन्द्रियाँ यत्न करते हुए बुद्धिमान पुरुष के मन को भी बलात्‌ हर लेती हैं|
The Blessed Lord said: Even those who are wise and are striving to achieve spiritual happiness and freedom are carried away violently or with great force by their excited senses.
107
Sankhya Yoga
Chapter 2
Verse 2.61
तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः । वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥ २.६१ ॥
इसलिये साधकको चाहिये कि वह उन सम्पूर्ण इन्द्रियोंको वशमें करके समाहितचित्त हुआ मेरे परायण होकर ध्यानमें बैठे, क्योंकि जिस पुरुषकी इन्द्रियाँ वशमें होती हैं, उसीकी बुद्धि स्थिर हो जाती है|
The yogis or My divine devotees have gained or achieved self control; they have complete control of their senses and therefore they have also earned the power of constant wisdom. Their minds are constantly focussed and concentrated on ME, the Supreme Goal.
108
Sankhya Yoga
Chapter 2
Verse 2.62
ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते । सङ्गात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते ॥ २.६२ ॥
विषयोंका चिन्तन करनेवाले पुरुषकी उन विषयों में आसक्ति हो जाती है, आसक्तिसे उन विषयोंकी कामना उत्पन्न होती है और कामनामें विघ्न पड़नेसे क्रोध उत्पन्न होता है|
Those who always think about sensual objects get attached to those objects. Attachment arouses desires and when one does not get what one desires, irritation is aroused, and from irritation stems anger and frustration.
109
Sankhya Yoga
Chapter 2
Verse 2.63
क्रोधाद्भवति संमोहः संमोहात्स्मृतिविभ्रमः । स्मृतिभ्रंशाद्बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ॥ २.६३ ॥
क्रोधसे अत्यन्त मूढ़भाव उत्पन्न हो जाता है, मूढ़भावसे स्मृतिमें भ्रम हो जाता है, स्मृतिमें भ्रम हो जानेसे बुद्धि अर्थात् ज्ञानशक्तिका नाश हो जाता है और बुद्धिका नाश हो जानेसे यह पुरुष अपनी स्थितिसे गिर जाता है|
The Blessed Lord spoke: From anger, stems delusion (false beliefs or assumptions); delusion causes loss of one’s confused mind; the confused mind makes a person lose his/her ability to reason and lose their power to solve his/her problems. When one loses his/her power to reason, the person will suffer ultimate death and destruction.
110
Sankhya Yoga
Chapter 2
Verse 2.64
रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन् । आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति ॥ २.६४ ॥
परंतु अपने अधीन किये हुए अन्तःकरणवाला साधक अपने वशमें की हुई, राग-द्वेषसे रहित इन्द्रियोंद्वारा विषयों में विचरण करता हुआ अन्तःकरणकी प्रसन्नताको प्राप्त होता है |
But the disciplined wise man who has control over his senses and is free from attraction and emotional distractions, gains peace and purity of the self.
111
Sankhya Yoga
Chapter 2
Verse 2.65
प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते । प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते ॥ २.६५ ॥
अन्तःकरणकी प्रसन्नता होनेपर इसके सम्पूर्ण दुःखोंका अभाव हो जाता है और उस प्रसन्नचित्तवाले कर्मयोगीकी बुद्धि शीघ्र ही सब ओरसे हटकर एक परमात्मामें ही भलीभाँति स्थिर हो जाती है|
Purity of self gets rid of all miseries and grief. A person with internal purity soon develops steady wisdom and a clear, unclouded intelligence.
112
Sankhya Yoga
Chapter 2
Verse 2.66
नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना । न चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम् ॥ २.६६ ॥
न जीते हुए मन और इन्द्रियोंवाले पुरुषमें निश्चयात्मिका बुद्धि नहीं होती और उस अयुक्त मनुष्यके अन्तःकरणमें भावना भी नहीं होती तथा भावनाहीन मनुष्यको शान्ति नहीं मिलती और शान्तिरहित मनुष्यको सुख कैसे मिल सकता है?
One who cannot control his senses is one who is lacking in steady wisdom and intelligence, and also lacks proper feelings or sentiments (thoughts). A person who cannot think properly and make decisions with a clear mind, cannot have peace of mind, and without peace of mind there can be no happiness.
113
Sankhya Yoga
Chapter 2
Verse 2.67
इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनु विधीयते । तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि ॥ २.६७ ॥
क्योंकि जैसे जलमें चलनेवाली नावको वायु हर लेती है, वैसे ही विषयोंमें विचरती हुई इन्द्रियोंमेंसे मन जिस इन्द्रियके साथ रहता है वह एक ही इन्द्रिय इस अयुक्त पुरुषकी बुद्धिको हर लेती है|
The mind of those who run after or pursue material pleasures and sensual objects, is often clouded and let on the wrong path, just as the wind blows away the ship on the waters.
114
Sankhya Yoga
Chapter 2
Verse 2.68
तस्माद्यस्य महाबाहो निगृहीतानि सर्वशः । इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥ २.६८...
इसलिये हे महाबाहो ! जिस पुरुषकी इन्द्रियाँ इन्द्रियोंके विषयोंसे सब प्रकार निग्रह की हुई हैं, उसीकी बुद्धि स्थिर है|
O ARJUNA, therefore with senses under control, protected from sensual objects, not only does one have the ability to reason things out properly, but also gains peace of mind leading to eternal bliss and happiness.
115
Sankhya Yoga
Chapter 2
Verse 2.69
या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी । यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः ॥ २.६९ ॥
सम्पूर्ण प्राणियोंके लिये जो रात्रिके समान है, उस नित्य ज्ञानस्वरूप परमानन्दकी प्राप्तिमें स्थितप्रज्ञ योगी जागता है और जिस नाशवान् सांसारिक सुखकी प्राप्तिमें सब प्राणी जागते हैं, परमात्मा तत्त्वको जाननेवाले मुनिके लिये वह रात्रिके समान है|
When it is night for all others, the wise man is always awake. When others are aware and deceived (deluded) by sensual objects, the wise man who knows the truth and has realized God, shuts his eyes to daylight and the misleading material objects that attract people, and considers it night. He is not easily deceived.
116
Sankhya Yoga
Chapter 2
Verse 2.70
आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत् । तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्नोत...
जैसे नाना नदियोंके जल सब ओरसे परिपूर्ण, अचल प्रतिष्ठावाले समुद्रमें उसको विचलित न करते हुए ही समा जाते हैं वैसे ही सब भोग जिस स्थितप्रज्ञ पुरुषमें किसी प्रकारका विकार उत्पन्न किये बिना ही समा जाते हैं, वही पुरुष परमशान्तिको प्राप्त होता है, भोगोंको चाहनेवाला नहीं|
As the river enters the ocean without affecting the ocean or disturbing it, so the desires enter the person who has obtained Supreme peace, but not the person who is already filled with desires and wants more and more.
117
Sankhya Yoga
Chapter 2
Verse 2.71
विहाय कामान्यः सर्वान् पुमांश्चरति निःस्पृहः । निर्ममो निरहंकारः स शान्तिमधिगच्छति ॥ २.७१ ॥
जो पुरुष सम्पूर्ण कामनाओं को त्याग कर ममतारहित, अहंकाररहित और स्पृहारहित हुआ विचरता है, वही शांति को प्राप्त होता है अर्थात वह शान्ति को प्राप्त है|
The Blessed Lord said: By giving up all desires, freeing oneself of all attachments and without constantly thinking of oneself or of one’s possessions, only then, one may live in realistic peace.
118
Sankhya Yoga
Chapter 2
Verse 2.72
एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति । स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति ॥...
हे अर्जुन! यह ब्रह्मको प्राप्त हुए पुरुषकी स्थिति है, इसको प्राप्त होकर योगी कभी मोहित नहीं होता और अन्तकालमें भी इस ब्राह्मी स्थिति में स्थित होकर ब्रह्मानन्दको प्राप्त हो जाता है|
The Blessed Lord spoke: O ARJUNA, this is the state of a person who has truly realized God. After obtaining Supreme Bliss by realizing God, this person cannot be deceived by any of life’s evils. Until the time of death one remains firm in this state and ultimately achieves Supremr Peace and tranquility.
119
Karma Yoga
Chapter 3
Verse 3.1
अर्जुन उवाच । ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन तत्किं कर्मणि घोरे मां नियोजयसि केशव ॥ ३.१...
अर्जुन बोले– हे जनार्दन ! यदि आपको कर्मकी अपेक्षा ज्ञान श्रेष्ठ मान्य है तो फिर हे केशव ! मुझे भयंकर कर्ममें क्यों लगाते हैं ?
Arjuna asked the Good Lord : O Lord KRISHNA, if you claim that Gyan or Knowledge is better than one’s Karma or responsibility, the why do you ask me to fight this battle?
120
Karma Yoga
Chapter 3
Verse 3.2
व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे । तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम् ॥ ३.२ ॥
आप मिले हुए-से वचनोंसे मेरी बुद्धिको मानो मोहित कर रहे हैं इसलिये उस एक बातको निश्चित करके कहिये जिससे मैं कल्याणको प्राप्त हो जाऊँ|
I am confused dear Lord, by the advice you have given to me. You have told me to take two opposite and different courses of action at once. Please, O KRISHNA, tell me of just one wise solution and course of action that would lead out of this problem safely.
121
Karma Yoga
Chapter 3
Verse 3.3
श्रीभगवानुवाच । लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ ज्ञानयोगेन सांख्यानां कर्मयोगेन योग...
श्रीभगवान् बोले– हे निष्पाप ! इस लोकमें दो प्रकारकी निष्ठा’ मेरेद्वारा पहले कही गयी है । उनमेंसे सांख्ययोगियोंकी निष्ठा तो ज्ञानयोगसे और योगियोंकी निष्ठा कर्मयोगसे होती है|
The Blessed Lord replied : O Arjuna, always remember in life that there are only two definite paths of action as I have described before. One of these is known as Sankhyayoga or the path of knowledge, and the other is Karmayoga, or the path of performing duty and action without expecting any result.
122
Karma Yoga
Chapter 3
Verse 3.4
न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते । न च संन्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति ॥ ३.४ ॥
मनुष्य न तो कर्मोंका आरम्भ किये बिना निष्कर्मताको यानी योगनिष्ठाको प्राप्त होता है और न कर्मोंके केवल त्यागमात्र सिद्धि यानी सांख्यनिष्ठाको ही प्राप्त होता है|
O Arjuna, it is not only important to understand the meanings of Sankhyayoga and Karmayoga, but it is also important to understand the aims or goals behind each of these courses of action.The aim of Karmayoga is to achieve freedom from action. One cannot achieve the goal by total inaction or by not performing any action at all. The goal of Sankhyayoga is the realization of God. When one has fully realized God, he has reached a state of perfection. Once simply cannot attain this state of perfection by giving up or retreating from the performance of one’s actions.
123
Karma Yoga
Chapter 3
Verse 3.5
न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत् । कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः ॥ ३.५ ॥
निःसन्देह कोई भी मनुष्य किसी भी कालमें क्षणमात्र भी बिना कर्म किये नहीं रहता; क्योंकि सारा मनुष्यसमुदाय प्रकृतिजनित गुणोंद्वारा परवश हुआ कर्म करनेके लिये बाध्य किया जाता है|
Lord Krishna continued:There is nobody who is living that does not perform an action of some sort even for a moment. Everyone is forced to perform actions by natural tendencies (human nature).
124
Karma Yoga
Chapter 3
Verse 3.6
कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन् । इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते ॥ ३.६ ॥
जो मूढ़बुद्धि मनुष्य समस्त इन्द्रियोंको हठपूर्वक ऊपरसे रोककर मनसे उन इन्द्रियोंके विषयोंका चिन्तन करता रहता है, वह मिथ्याचारी अर्थात् दम्भी कहा जाता है|
O Arjuna, those who have learned to control the organs of action, yet still think in their minds of the pleasures that they can get from those organs, are fooling only themselves by pretending to have certain qualities that do not really exist within them.
125
Karma Yoga
Chapter 3
Verse 3.7
यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन । कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते ॥ ३.७ ॥
किन्तु हे अर्जुन ! जो पुरुष मनसे इन्द्रियोंको वशमें करके अनासक्त हुआ समस्त इन्द्रियों द्वारा कर्मयोगका आचरण करता है, वही श्रेष्ठ है|
The Blessed Lord spoke: O Arjuna, one who has fully learned to control his senses with his mind and practises selfless Karmayoga keeping his senses controlled and not allowing them to interfere and disrupt his action, is truly a great person.
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Karma Yoga
Chapter 3
Verse 3.8
नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः । शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्ध्येदकर्मणः ॥ ३.८ ॥
तू शास्त्रविहित कर्तव्यकर्म कर; क्योंकि कर्म न करनेकी अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है तथा कर्म न करनेसे तेरा शरीर- निर्वाह भी नहीं सिद्ध होगा|
Perform the actions that you have been obliged to perform, or that have been prescribed for you. Action is always better than inaction, If one is inactive, he cannot live, simply because he is not performing the action of maintaining his body.
127
Karma Yoga
Chapter 3
Verse 3.9
यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः । तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसङ्गः समाचर ॥ ३.९ ॥
यज्ञके निमित्त किये जानेवाले कर्मोंसे अतिरिक्त दूसरे कर्मोंमें लगा हुआ ही यह मनुष्यसमुदाय कर्मोंसे बँधता है। इसलिये हे अर्जुन! तू आसक्तिसे रहित होकर उस यज्ञके निमित्त ही भलीभाँति कर्तव्यकर्म कर|
The Lord continued: O Arjuna, all the actions that a person performs in this world, except of course those associated with sacrifice or Yagya, tie that person to the world. Therefore, O Arjuna to break free from this link, perform all your actions well without being attached to them.
128
Karma Yoga
Chapter 3
Verse 3.10
सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः । अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक् ॥ ३.१० ॥
प्रजापति ब्रह्माने कल्पके आदिमें यज्ञसहित प्रजाओंको रचकर उनसे कहा कि तुमलोग इस यज्ञके द्वारा वृद्धिको प्राप्त होओ और यह यज्ञ तुमलोगोंको इच्छित भोग प्रदान करनेवाला हो|
Brahma has created the universe with the spirit of sacrifice. Brahma, the Creator, said unto mankind, “You shall grow and prosper. Yagya (sacrifice) will bring you all that you wish.”
129
Karma Yoga
Chapter 3
Verse 3.11
देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः । परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ ॥ ३.११ ॥
तुमलोग इस यज्ञके द्वारा देवताओंको उन्नत करो और वे देवता तुमलोगोंको उन्नत करें। इस प्रकार निःस्वार्थभावसे एक-दूसरेको उन्नत करते हुए तुमलोग परम कल्याणको प्राप्त हो जाओगे|
The Lord said unto Arjuna: The Gods or Deities grow with Yagya or sacrifice. When the Deities grow, they will help you to grow. Thus, both Deity and mankind grow continually. they will both achieve their supreme goal.
130
Karma Yoga
Chapter 3
Verse 3.12
इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः । तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुङ्क्ते स्तेन एव सः ॥ ३.१...
यज्ञके द्वारा बढ़ाये हुए देवता तुमलोगोंको बिना माँगे ही इच्छित भोग निश्चय ही देते रहेंगे । इस प्रकार उन देवताओंके द्वारा दिये हुए भोगोंको जो पुरुष उनको बिना दिये स्वयं भोगता है, वह चोर ही है|
Through the spirit of sacrifice of Yagya, the Deities grow and progress. As they grow, they will provide you with all the pleasures you desire. You should offer part of these pleasures to the Deities.If one is granted pleasures by another person, the one who receives the pleasures should share some of those pleasures with the provider of those pleasures, or else he is as bad as a thief.
131
Karma Yoga
Chapter 3
Verse 3.13
यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः । भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात् ॥ ३.१३ ॥
यज्ञसे बचे हुए अन्नको खानेवाले श्रेष्ठ पुरुष सब पापोंसे मुक्त हो जाते हैं और जो पापीलोग अपना शरीर पोषण करनेके लिये ही अन्न पकाते – हैं, वे तो पापको ही खाते हैं|
The Blessed Lord Krishna said:People who eat food after offering it for sacrifice are considered pious, pure, and are freed from all sins. People who prepare food only for themselves commit sins and are impure.
132
Karma Yoga
Chapter 3
Verse 3.14
अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः । यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः ॥ ३.१४ ॥
सम्पूर्ण प्राणी अन्नसे उत्पन्न होते हैं, अन्नकी उत्पत्ति वृष्टिसे होती है, वृष्टि यज्ञसे होती है और यज्ञ विहित कर्मोंसे उत्पन्न होनेवाला है। कर्मसमुदायको तू वेदसे उत्पन्न और वेदको अविनाशी परमात्मासे उत्पन्न हुआ जान। इससे सिद्ध होता है कि सर्वव्यापी परम अक्षर परमात्मा सदा ही यज्ञमें प्रतिष्ठित है|
Food allows people to live. Food is produced from rain. Rain arises from sacrifice. Actions produce sacrifice or Yagna. God produces knowledge. Knowledge produces actions. Actions produce sacrifice or Yagya. Where there is sacrifice, the omnipresent God is there also.
133
Karma Yoga
Chapter 3
Verse 3.15
कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम् । तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम् ॥ ३...
सम्पूर्ण प्राणी अन्नसे उत्पन्न होते हैं, अन्नकी उत्पत्ति वृष्टिसे होती है, वृष्टि यज्ञसे होती है और यज्ञ विहित कर्मोंसे उत्पन्न होनेवाला है। कर्मसमुदायको तू वेदसे उत्पन्न और वेदको अविनाशी परमात्मासे उत्पन्न हुआ जान। इससे सिद्ध होता है कि सर्वव्यापी परम अक्षर परमात्मा सदा ही यज्ञमें प्रतिष्ठित है|
Food allows people to live. Food is produced from rain. Rain arises from sacrifice. Actions produce sacrifice or Yagna.God produces knowledge. Knowledge produces actions. Actions produce sacrifice or Yagya.Where there is sacrifice, the omnipresent God is there also.
134
Karma Yoga
Chapter 3
Verse 3.16
एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः । अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति ॥ ३.१६ ॥
हे पार्थ! जो पुरुष इस लोकमें इस प्रकार परम्परासे प्रचलित सृष्टिचक्रके अनुकूल नहीं बरतता अर्थात् अपने कर्तव्यका पालन नहीं करता, वह इन्द्रियों के द्वारा भोगोंमें रमण करनेवाला पापायु पुरुष व्यर्थ ही जीता है|
The Blessed Lord said: O Arjuna, he who does not follow the proper course of creation such as that I have just described, but centres his life around the enjoyment of luxuries, this sinful person, in my eyes, leads a useless life. He shall never fully understand and realize me.
135
Karma Yoga
Chapter 3
Verse 3.17
यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः । आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते ॥ ३.१७ ॥
परन्तु जो मनुष्य आत्मामें ही रमण करनेवाला और आत्मामें ही तृप्त तथा आत्मामें ही सन्तुष्ट हो, उसके लिये कोई कर्तव्य नहीं है|
He, O Arjuna, who is satisfied and content in himself, and he who is absorbed in himself, actions and duties do not exist (for him).
136
Karma Yoga
Chapter 3
Verse 3.18
नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन । न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः ॥ ३.१८ ॥
उस महापुरुषका इस विश्वमें न तो कर्म करनेसे कोई प्रयोजन रहता है और न कर्मोंके न करनेसे ही कोई प्रयोजन रहता है तथा सम्पूर्ण प्राणियोंमें । भी इसका किञ्चिन्मात्र भी स्वार्थका सम्बन्ध नहीं रहता|
This type of person has no use for actions (duties performed for the attainment of a certain goal), or inactions (duties performed without the expectation of any results).This type of person has reached a very high stage in the attainment of peace and detachment from all beings and things. He no longer selfishly depends on anybody or anything.
137
Karma Yoga
Chapter 3
Verse 3.19
तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर । असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पूरुषः ॥ ३.१९ ॥
इसलिये तू निरन्तर आसक्तिसे रहित होकर सदा कर्तव्यकर्मको भलीभाँति करता रह क्योंकि आसक्तिसे रहित होकर कर्म करता हुआ मनुष्य परमात्माको प्राप्त हो जाता है|
Therefore, Arjuna always perform your given duties without feelings of attachment towards any being or anything. A person doing unattached actions, or in other words, “inction” attains the Lord, the key to perfection.
138
Karma Yoga
Chapter 3
Verse 3.20
कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः । लोकसंग्रहमेवापि संपश्यन्कर्तुमर्हसि ॥ ३.२० ॥
जनकादि ज्ञानीजन भी आसक्तिरहित कर्मद्वारा ही परम सिद्धिको प्राप्त हुए थे। इसलिये तथा लोकसंग्रहको देखते हुए भी तू कर्म करनेको ही योग्य है अर्थात् तुझे कर्म करना ही उचित है|
Wise men, such as King Janak, all attained the state of perfection by doing their duties and actions without any feelings of attachment to anyone or anything. Therefore, Arjuna, keeping in mind the goodwill and welfare of others in the world, do your duties and perform your actions selflessly.
139
Karma Yoga
Chapter 3
Verse 3.21
यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः । स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते ॥ ३.२१ ॥
श्रेष्ठ पुरुष जो जो आचरण करता है, अन्य पुरुष भी वैसा – वैसा ही आचरण करते हैं । वह जो कुछ प्रमाण कर देता है, समस्त मनुष्यसमुदाय उसीके अनुसार बरतने लग जाता है|
If a great man sets an example for the world, the world will follow him. Whatever standards or values he sets, people generally will follow the same set of standards and values.
140
Karma Yoga
Chapter 3
Verse 3.22
न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किंचन । नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि ॥ ३.२२ ॥
हे अर्जुन ! मुझे इन तीनों लोकोंमें न तो कुछ कर्तव्य है और न कोई भी प्राप्त करनेयोग्य वस्तु अप्राप्त है, तो भी मैं कर्ममें ही बरतता हूँ|
The Blessed Lord spoke: O Arjuna, take Me for example. There is nothing that is not available for me in this universe, nor is there any specific function or duty for me to perform, still, however, I perform Karma.
141
Karma Yoga
Chapter 3
Verse 3.23
यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रितः । मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ॥ ३.२३ ॥
क्योंकि हे पार्थ! यदि कदाचित् मैं सावधान होकर कर्मोंमें न बरतँ तो बड़ी हानि हो जाय; क्योंकि मनुष्य सब प्रकारसे मेरे ही मार्गका अनुसरण करते हैं|
O Arjuna, if I do not perform my duties, the destruction of all regions of the universe will come about. Mixed castes will develop and all the beings on the face of this earth will be destroyed.
142
Karma Yoga
Chapter 3
Verse 3.24
उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम् । संकरस्य च कर्ता स्यामुपहन्यामिमाः प्रजाः ॥ ३.२४ ॥
इसलिये यदि मैं कर्म न करूँ तो ये सब मनुष्य न नष्ट-भ्रष्ट हो जायँ और मैं संकरताका करनेवाला होऊँ तथा इस समस्त प्रजाको नष्ट करनेवाला बनूँ|
These worlds would if I did no do action, I would be the cause of confusion of castes and I would destroy these beings.
143
Karma Yoga
Chapter 3
Verse 3.25
सक्ताः कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत । कुर्याद्विद्वांस्तथासक्तश्चिकीर्षुर्लोकसंग्रहम् ॥ ३.२५...
हे भारत ! कर्ममें आसक्त हुए अज्ञानीजन जिस प्रकार कर्म करते हैं, आसक्तिरहित विद्वान् भी लोकसंग्रह करना चाहता हुआ उसी प्रकार कर्म करे|
The Blessed Lord said: Just as the ignorant perform actions with attachment to things and/or beings, so should the wise men take action for the preservation of world order, without developing any attachments whatsoever, O Arjuna.
144
Karma Yoga
Chapter 3
Verse 3.26
न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसङ्गिनाम् । जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान्युक्तः समाचरन् ॥ ३.२६ ॥
परमात्माके स्वरूपमें अटल स्थित हुए ज्ञानी पुरुषको चाहिये कि वह शास्त्रविहित कर्मोंमें आसक्तिवाले अज्ञानियोंकी बुद्धिमें भ्रम अर्थात् कर्मोंमें अश्रद्धा उत्पन्न न करे । किन्तु स्वयं शास्त्रविहित समस्त कर्म भलीभाँति करता हुआ उनसे भी वैसे ही करवावे|
It is not a wise man’s concern or responsibility to fill the ignorant person’s mind with doubts, even if the latter is attached to his actions and constantly awaits results.However, he should encourafe these ignorant people just as any great man, by performing his own duties and actions unattached to them, as well as possible.
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Karma Yoga
Chapter 3
Verse 3.27
प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः । अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते ॥ ३.२७ ॥
वास्तवमें सम्पूर्ण कर्म सब प्रकारसे प्रकृतिके गुणोंद्वारा किये जाते हैं तो भी जिसका अन्तःकरण अहंकारसे मोहित हो रहा है, ऐसा अज्ञानी मैं कर्ता हूँ’ ऐसा मानता है|
The Blessed Lord Krishna spoke: O Arjuna, all actions that are performed by beings, are done so by three modes of Prakrithi or three aspects of nature. However, ignorant people claim themselves as the performer of their actions.
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Karma Yoga
Chapter 3
Verse 3.28
तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः । गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते ॥ ३.२८ ॥
परन्तु हे महाबाहो ! गुणविभाग और कर्मविभाग के तत्त्व को जाननेवाला ज्ञानयोगी सम्पूर्ण गुण ही गुणोंमें बरत रहे हैं, ऐसा समझकर उनमें आसक्त नहीं होता|
He who understands fully, O Arjuna, the objects of perception (senses, mind, etc.), divisions of Prakrithi (nature), and selfless action, has the ability to understand the relationship of senses and sensual objects and never gets attached to any beings or objects.
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Karma Yoga
Chapter 3
Verse 3.29
प्रकृतेर्गुणसंमूढाः सज्जन्ते गुणकर्मसु । तानकृत्स्नविदो मन्दान्कृत्स्नविन्न विचालयेत् ॥ ३.२९ ॥
प्रकृतिके गुणोंसे अत्यन्त मोहित हुए मनुष्य गुणोंमें और कर्मोंमें आसक्त रहते हैं, उन पूर्णतया न समझनेवाले मन्दबुद्धि अज्ञानियोंको पूर्णतया जाननेवाला ज्ञानी विचलित न करे|
The Lord spoke: Those who are deceived by the Gunas of nature or Prakrithi and are deceived by karma, develop an attachment to the Gunas and to their actions.A wise person would not disturb, or have anything to do with these ignorant beings, O Arjuna.
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Karma Yoga
Chapter 3
Verse 3.30
मयि सर्वाणि कर्माणि संन्यस्याध्यात्मचेतसा । निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः ॥ ३.३० ॥
मुझ अन्तर्यामी परमात्मामें लगे हुए चित्तद्वारा सम्पूर्ण कर्मोंको मुझमें अर्पण करके आशारहित, ममतारहित और सन्तापरहित होकर युद्ध कर|
Dedicate and surrender all your actions unto me Oh Arjuna. Fix your mind on me, leaving behind you all feelings of hope, attachments and anguish.
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Karma Yoga
Chapter 3
Verse 3.31
ये मे मतमिदं नित्यमनुतिष्ठन्ति मानवाः । श्रद्धावन्तोऽनसूयन्तो मुच्यन्ते तेऽपि कर्मभिः ॥ ३.३१ ॥
जो कोई मनुष्य दोषदृष्टिसे रहित और श्रद्धायुक्त होकर मेरे इस मतका सदा अनुसरण करते हैं, वे भी सम्पूर्ण कर्मोंसे छूट जाते हैं|
Those wise people, with faith in Me, and those who follow my teaching, are always given freedom from their actions (Karma).
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Karma Yoga
Chapter 3
Verse 3.32
ये त्वेतदभ्यसूयन्तो नानुतिष्ठन्ति मे मतम् । सर्वज्ञानविमूढांस्तान्विद्धि नष्टानचेतसः ॥ ३.३२ ॥
परन्तु जो मनुष्य मुझमें दोषारोपण करते हुए मेरे इस मतके अनुसार नहीं चलते हैं, उन मूर्खोको तू सम्पूर्ण ज्ञानोंमें मोहित और नष्ट हुए ही समझ|
On the other hand, O Arjuna, those of poor intelligence that do not follow my teaching are ignorant; regard them as mere fools.
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Karma Yoga
Chapter 3
Verse 3.33
सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेर्ज्ञानवानपि । प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति ॥ ३.३३ ॥
सभी प्राणी प्रकृतिको प्राप्त होते हैं अर्थात् अपने स्वभावके परवश हुए कर्म करते हैं। ज्ञानवान् भी अपनी प्रकृतिके अनुसार चेष्टा करता है। फिर इसमें किसीका हठ क्या करेगा ?
All beings, wise or unwise, are forced to act by nature. What can restraint possibly do, O Arjuna?
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Karma Yoga
Chapter 3
Verse 3.34
इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ । तयोर्न वशमागच्छेत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ ॥ ३.३४ ॥
इन्द्रिय इन्द्रियके अर्थमें अर्थात् प्रत्येक इन्द्रियके विषयमें राग और द्वेष छिपे हुए स्थित हैं। मनुष्यको उन दोनोंके वशमें नहीं होना चाहिये, क्योंकि वे दोनों ही इसके कल्याणमार्गमें विघ्न करनेवाले हैं महान् शत्रु है|
The Divine Lord stated:The enjoyment of sensual objects by their senses (an example of human nature) creates barriers to the path of Bliss and peace if one becomes a victim of attachment to his sesses.
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Karma Yoga
Chapter 3
Verse 3.35
श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् । स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ॥ ३.३५ ॥
अच्छी प्रकार आचरणमें लाये हुए दूसरेके धर्मसे गुणरहित भी अपना धर्म अति उत्तम है। अपने धर्ममें तो मरना भी कल्याणकारक है और दूसरेका धर्म भयको देनेवाला है|
One’s own duty (Dharma) is more favourable than the well-established duty of others. To even encounter death, while performing one’s own duties (Dharma), is truly divine. However another person’s duty is filles with menace and fear.
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Karma Yoga
Chapter 3
Verse 3.36
अर्जुन उवाच । अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पूरुषः अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः ॥ ३.३६ ॥
अर्जुन बोले – हे कृष्ण ! तो फिर यह मनुष्य स्वयं – न चाहता हुआ भी बलात् लगाये हुएकी भाँति किससे प्रेरित होकर पापका आचरण करता है ?
Arjuna asked the Lord: O Lord Krishna, what motivates a person to commit sins that were committed involuntarily or by the force of others?
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Karma Yoga
Chapter 3
Verse 3.37
श्रीभगवानुवाच । काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः महाशनो महापाप्मा विद्ध्येनमिह वैरिणम् ॥ ३.३७ ॥
श्रीभगवान् बोले– रजोगुणसे उत्पन्न हुआ यह काम ही क्रोध है, यह बहुत खानेवाला अर्थात् भोगोंसे कभी न अघानेवाला और बड़ा पापी है, इसको ही तू इस विषयमें वैरी जान|
The Divine Lord replied: It is desire and wrath or anger arising from the evil (Rajasik) Guna in the form of the great fire of attachment. In this case, consider this fire the enemy and the sinner.
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Karma Yoga
Chapter 3
Verse 3.38
धूमेनाव्रियते वह्निर्यथादर्शो मलेन च । यथोल्बेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम् ॥ ३.३८ ॥
जिस प्रकार धूऍसे अग्नि और मैलसे दर्पण ढका जाता है तथा जिस प्रकार जेरसे गर्भ ढका रहता है, वैसे ही उस कामके द्वारा यह ज्ञान ढका रहता है|
Just as the smoke surrounds and covers a fire, just as dust surrounds and covers a mirror, and just as the amnion covers the embryo, similarly. Gyan or knowledge is covered and surrounded by one’s desires. O Arjuna.
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Karma Yoga
Chapter 3
Verse 3.39
आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा । कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च ॥ ३.३९ ॥
और हे अर्जुन! इस अग्निके समान कभी न पूर्ण होनेवाले कामरूप ज्ञानियोंके नित्य वैरीके द्वारा मनुष्यका ज्ञान ढका हुआ है|
The wise men, O Arjuna, have one constant enemy, namely, the unending fire of desire which covers the Gyan or Knowledge of the wise.
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Karma Yoga
Chapter 3
Verse 3.40
इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते । एतैर्विमोहयत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनम् ॥ ३.४० ॥
इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि – ये सब इसके वासस्थान कहे जाते हैं। यह काम इन मन, बुद्धि और इन्द्रियोंके द्वारा ही ज्ञानको आच्छादित करके जीवात्माको मोहित करता है|
The senses, mind, and one’s intellect are the home of desire O Arjuna. This covers Gyan and confuses the soul.
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Karma Yoga
Chapter 3
Verse 3.41
तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ । पाप्मानं प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम् ॥ ३.४१ ॥
इसलिये हे अर्जुन! तू पहले इन्द्रियों को वशमें करके इस ज्ञान और विज्ञानका नाश करनेवाले महान् पापी कामको अवश्य ही बलपूर्वक मार डाल|
The Blessed Lord advised: Therefore, O Arjuna, restrain the senses first and control your sinful desires, the enemy of Gyan or knowledge.
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Karma Yoga
Chapter 3
Verse 3.42
इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः । मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः ॥ ३.४२ ॥
इन्द्रियोंको स्थूल शरीरसे पर यानी श्रेष्ठ, बलवान् और सूक्ष्म कहते हैं; इन इन्द्रियोंसे पर मन है, मनसे भी पर बुद्धि है और जो बुद्धिसे भी अत्यन्त पर है वह आत्मा है|
O Arjuna, never understimate the senses for they are very powerful. The mind is stronger than the senses however, O Arjuna. The intellect is even stronger than one’s mind and the soul is still stronger than one’s intellect.
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Karma Yoga
Chapter 3
Verse 3.43
एवं बुद्धेः परं बुद्ध्वा संस्तभ्यात्मानमात्मना । जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम् ॥ ३.४३ ॥
इस प्रकार बुद्धिसे पर अर्थात् सूक्ष्म, बलवान् और अत्यन्त श्रेष्ठ आत्माको जानकर और बुद्धि के द्वारा मनको वशमें करके हे महाबाहो ! तू इस कामरूप दुर्जय शत्रुको मार डाल|
Therefore, Oh Arjuna, knowing that your soul is stronger than your intellect, and being aware that the intellect controls the mind, destroy that invincible and dominating enemy known as desire.
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Jnana-Karma-Sanyasa Yoga
Chapter 4
Verse 4.1
श्रीभगवानुवाच । इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम् विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत् ॥ ...
श्रीभगवान् बोले– मैंने इस अविनाशी योगको सूर्यसे कहा थ; सूर्यने अपने पुत्र वैवस्वत मनुसे कहा और मनुने अपने पुत्र राजा इक्ष्वाकुसे कहा|
Lord Krishna continued: I taught this immortal, everlasting “Yoga faction” (Karmayoga) to the Sun God Vivaswan.Vivaswan taught this knowledge to his son Manu and Manu taught this knowledge to his son Ikswaku.
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Jnana-Karma-Sanyasa Yoga
Chapter 4
Verse 4.2
एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः । स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप ॥ ४.२ ॥
हे परंतप अर्जुन ! इस प्रकार परम्परासे प्राप्त इस योगको राजर्षियोंने जाना; किन्तु उसके बाद वह योग बहुत कालसे इस पृथ्वीलोकमें लुप्तप्राय हो गया|
By handing down this knowledge of Yoga from generation to generation this knowledge slowly deteriorated, and finally disappeared.
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Jnana-Karma-Sanyasa Yoga
Chapter 4
Verse 4.3
स एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः । भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम् ॥ ४.३ ॥
तू मेरा भक्त और प्रिय सखा है, इसलिये वही यह पुरातन योग आज मैंने तुझको कहा है; क्योंकि यह बड़ा ही उत्तम रहस्य है अर्थात् गुप्त रखनेयोग्य विषय है|
O Arjuna, I reveal this ancient and most important secret of Yoga unto you because you are My dear devotee and friend.
165
Jnana-Karma-Sanyasa Yoga
Chapter 4
Verse 4.4
अर्जुन उवाच । अपरं भवतो जन्म परं जन्म विवस्वतः कथमेतद्विजानीयां त्वमादौ प्रोक्तवानिति ॥ ४.४ ॥
अर्जुन बोले—आपका जन्म तो अर्वाचीन अभी हालका है और सूर्यका जन्म बहुत पुराना है अर्थात् कल्पके आदिमें हो चुका था । तब मैं इस बातको कैसे समझँ कि आपहीने कल्पके आदिमें सूर्यसे यह योग कहा था?
Arjuna asked Lord Krishna: Dear Lord, your birth on earth is very recent. The Sun however, took birth an extremely long time ago. I find it difficult then to understand how you could have told this ancient secret to Vivaswan the Sun God.
166
Jnana-Karma-Sanyasa Yoga
Chapter 4
Verse 4.5
श्रीभगवानुवाच । बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप ॥ ४....
श्रीभगवान् बोले-हे परंतप अर्जुन ! मेरे और तेरे बहुत-से जन्म हो चुके हैं। उन सबको तू नहीं जानता, किन्तु मैं जानता हूँ|
The Lord looked upon Arjuna and replied: Arjuna, the answer to your question is simple. You are forgetting, O Son of Kunti, the both you and I have taken many births in this world together. However, only I, Lord, can remember this; you cannot.
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Jnana-Karma-Sanyasa Yoga
Chapter 4
Verse 4.6
अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन् । प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय संभवाम्यात्ममायया ॥ ४.६ ॥
मैं अजन्मा और अविनाशीस्वरूप होते हुए भी तथा समस्त प्राणियोंका ईश्वर होते हुए भी अपनी प्रकृतिको अधीन करके अपनी योगमायासे प्रकट होता हूँ|
O Arjuna, although birth and death do not exist for Me, since I am the immortal Lord, I appear on earth, by my Divine powers and ability, keeping My nature (Maya) under control.
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Jnana-Karma-Sanyasa Yoga
Chapter 4
Verse 4.7
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत । अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥ ४.७ ॥
हे भारत ! जब-जब धर्मकी हानि और अधर्मकी वृद्धि होती है, तब-तब ही मैं अपने रूपको रचता हूँ अर्थात् साकाररूपसे लोगोंके सम्मुख प्रकट होता हूँ|
The Lord declared solemnly unto Arjuna: O Arjuna, whenever good is overcome by evil, or whenever evil manifests itself throughout the world in such a way that good no longer exists. I will always appear on earth.
169
Jnana-Karma-Sanyasa Yoga
Chapter 4
Verse 4.8
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् । धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥ ४.८ ॥
साधु पुरुषोंका उद्धार करनेके लिये, पापकर्म करनेवालोंका विनाश करनेके लिये और धर्मकी अच्छी तरहसे स्थापना करनेके लिये मैं युग-युगमें प्रकट हुआ करता हूँ|
O Arjuna, I appear on earth from time to time for three main purposes. The first is for the protection and preservation of all that represents good, and of all those pure and saintly people on earth. The second purpose for which I appear on earth is for the destruction and removed and wrong-doers. The third purpose is, of course, for the establishment and creation (or recreation) of Dharma (Righteousness or reinstating moral values among people on earth.)
170
Jnana-Karma-Sanyasa Yoga
Chapter 4
Verse 4.9
जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः । त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन ॥ ४.९ ॥
हे अर्जुन ! मेरे जन्म और कर्म दिव्य अर्थात् निर्मल और अलौकिक हैं – इस प्रकार जो मनुष्य तत्त्वसे – जान लेता है, वह शरीरको त्यागकर फिर जन्मको प्राप्त नहीं होता, किन्तु मुझे ही प्राप्त होता है|
O Arjuna, I was born divinely, all my action (Karma) are divine. The one who knows and understands this fully in reality, is not born again after leaving the body. He comes to me in Heaven for eternity.
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Jnana-Karma-Sanyasa Yoga
Chapter 4
Verse 4.10
वीतरागभयक्रोधा मन्मया मामुपाश्रिताः । बहवो ज्ञानतपसा पूता मद्भावमागताः ॥ ४.१० ॥
पहले भी, जिनके राग, भय और क्रोध सर्वथा नष्ट हो गये थे और जो मुझमें अनन्यप्रेमपूर्वक स्थित रहते थे, ऐसे मेरे आश्रित रहनेवाले बहुत-से भक्त उपर्युक्त ज्ञानरूप तपसे पवित्र होकर मेरे स्वरूपको प्राप्त हो चुके हैं|
O Arjuna, if one really to seek refuge and be one with Me, he must totally free himself from passion, fear and anger, seek my protection only, and purify himself with the fire of Gyan (knowledge). If one manages to accomplish these thing, he will be able to become one with Me in mind and body.
172
Jnana-Karma-Sanyasa Yoga
Chapter 4
Verse 4.11
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् । मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ॥ ४.११ ॥
हे अर्जुन ! जो भक्त मुझे जिस प्रकार भजते हैं, मैं भी उनको उसी प्रकार भजता हूँ; क्योंकि सभी मनुष्य सब प्रकारसे मेरे ही मार्गका अनुसरण करते हैं|
O Arjuna, those people who love, trust and worship Me receive the same love, trust and worship from Me. All wise men follow Me in all respects. They follow my every path.
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Jnana-Karma-Sanyasa Yoga
Chapter 4
Verse 4.12
काङ्क्षन्तः कर्मणां सिद्धिं यजन्त इह देवताः । क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा ॥ ४.१२ ॥
इस मनुष्यलोकमें कर्मोंके फलको चाहनेवाले लोग देवताओंका पूजन किया करते हैं; क्योंकि उनको कर्मोंसे उत्पन्न होनेवाली सिद्धि शीघ्र मिल जाती है|
O Arjuna, those who do actions or Karma for the fulfillment of their desires and goals and those who worship deities (gods and god desses) for their prosperity, they will undobtedly achieve success quickly.
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Jnana-Karma-Sanyasa Yoga
Chapter 4
Verse 4.13
चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः । तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम् ॥ ४.१३ ॥
चार गुना-जाति मेरे द्वारा गुना और डी कर्मा के भेदभाव के अनुसार बनाई गई है; यद्यपि मैं इसके लेखक हूँ, मुझे गैर-कर्ता और अपरिवर्तनीय के रूप में जानते हैं।
The fourfold-caste has been created by Me according to the differentiation of GUNA an d KARMA; though I am the author thereof know Me as non-doer and immutable.
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Jnana-Karma-Sanyasa Yoga
Chapter 4
Verse 4.14
न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा । इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते ॥ ४.१४ ॥
कर्मोंके फलमें मेरी स्पृहा नहीं है, इसलिये मुझे कर्म लिप्त नहीं करते – इस प्रकार जो मुझे तत्त्वसे जान लेता है, वह भी कर्मोंसे नहीं बँधता|
The Lord continued: O Arjuna, since I, the immortal Lord, have no cravings for the fruits of action, I do not desire the reward of Karma. Therefore those who know me well are not affected or bound by Karma (action).
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Jnana-Karma-Sanyasa Yoga
Chapter 4
Verse 4.15
एवं ज्ञात्वा कृतं कर्म पूर्वैरपि मुमुक्षुभिः । कुरु कर्मैव तस्मात्त्वं पूर्वैः पूर्वतरं कृतम् ॥ ४.१...
पूर्वकालमें मुमुक्षुओं ने भी इस प्रकार जानकर ही कर्म किये हैं। इसलिये तू भी पूर्वजोंद्वारा सदासे किये जानेवाले कर्मोंको ही कर|
The Lord continued:O Arjuna, ancient wise men who were searching for salvation in me, knew the facts well. However they even performed actions. Therefore O Arjuna, continue performing your actions doing your Karma as your ancestors once did in the past.
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Jnana-Karma-Sanyasa Yoga
Chapter 4
Verse 4.16
किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिताः । तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात् ॥ ४....
कर्म क्या है ? और अकर्म क्या है ? – इस प्रकार इसका निर्णय करनेमें बुद्धिमान् पुरुष भी मोहित हो जाते हैं। इसलिये वह कर्मतत्त्व मैं तुझे भलीभाँति समझाकर कहूँगा, जिसे जानकर तू अशुभसे अर्थात् कर्मबन्धनसे मुक्त हो जायगा|
Even the wise men are confused about Karma (action) and Akarma (inaction). I shall now explain to you the truth about Karma. Knowing the truth, O Arjuna, you will be released from the bondage of Karma.
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Jnana-Karma-Sanyasa Yoga
Chapter 4
Verse 4.17
कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः । अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः ॥ ४.१७ ॥
कर्मका स्वरूप भी जानना चाहिये और अकर्मका स्वरूप भी जानना चाहिये तथा विकर्मका स्वरूप भी जानना चाहिये; क्योंकि कर्मकी गति गहन है|
One should know the principle of Karma (action) Akarma (inaction) and forbidden Karma, (forbidden action). The philosophy behind Karma is very deep and mysterious. So listen closely.
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Jnana-Karma-Sanyasa Yoga
Chapter 4
Verse 4.18
कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः । स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्नकर्मकृत् ॥ ४.१८ ॥
जो मनुष्य कर्ममें अकर्म देखता है और जो अकर्ममें कर्म देखता है, वह मनुष्योंमें बुद्धिमान् है और वह योगी समस्त कर्मोंको करनेवाला है|
One who sees action (Karma) in inaction (Akarma), and inaction in action, is a wise man and a great sage. That man who has accomplished all actions is a Yogi.
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Jnana-Karma-Sanyasa Yoga
Chapter 4
Verse 4.19
यस्य सर्वे समारम्भाः कामसंकल्पवर्जिताः । ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पण्डितं बुधाः ॥ ४.१९ ॥
जिसके सम्पूर्ण शास्त्रसम्मत कर्म बिना कामना और संकल्पके होते हैं तथा जिसके समस्त कर्म ज्ञानरूप अग्निके द्वारा भस्म हो गये हैं, उस महापुरुषको ज्ञानीजन भी पण्डित कहते हैं|
One who does all Karma without desire or attachment for the fruits of his Karma and one whose actions are burnt up in the of Gyan or wisdom, is regarded by even the wise men as a sage.
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Jnana-Karma-Sanyasa Yoga
Chapter 4
Verse 4.20
त्यक्त्वा कर्मफलासङ्गं नित्यतृप्तो निराश्रयः । कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किंचित्करोति सः ॥ ४.२० ॥
जो पुरुष समस्त कर्मोंमें और उनके फलमें आसक्तिका सर्वथा त्याग करके संसारके आश्रय रहित हो गया है और परमात्मामें नित्य तृप्त है, वह कर्मोंमें भलीभाँति बर्तता हुआ भी वास्तवमें कुछ भी नहीं करता|
The Lord proclaimed: He who is totally unattached to the rewards of action, is forever happy and satisfied, who depends on nobody in this world, and is constantly involved in action, is really performing no action at all.
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Jnana-Karma-Sanyasa Yoga
Chapter 4
Verse 4.21
निराशीर्यतचित्तात्मा त्यक्तसर्वपरिग्रहः । शारीरं केवलं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम् ॥ ४.२१ ॥
जिसका अन्तःकरण और इन्द्रियोंके सहित शरीर जीता हुआ है और जिसने समस्त भोगोंकी सामग्रीका परित्याग कर दिया है, ऐसा आशारहित पुरुष केवल शरीर-सम्बन्धी कर्म करता हुआ भी पापोंको नहीं प्राप्त होता|
That person, O Arjuna, who has conquered his body and mind, who has given up all enjoyments and pleasures of the world, and who performs action only for the sake of maintaining his body, does not encounter or subiect himself to sin.
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Jnana-Karma-Sanyasa Yoga
Chapter 4
Verse 4.22
यदृच्छालाभसंतुष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सरः । समः सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते ॥ ४.२२ ॥
जो बिना इच्छाके अपने-आप प्राप्त हुए पदार्थमें सदा सन्तुष्ट रहता है, जिसमें ईर्ष्याका सर्वथा अभाव हो गया है, जो हर्ष-शोक आदि द्वन्द्वों से सर्वथा अतीत हो गया है- ऐसा सिद्धि और असिद्धिमें सम रहनेवाला कर्मयोगी कर्म करता हुआ भी उनसे नहीं बँधता|
A person who is content with what he has who has no feeling of desire for other things, or uncertainty of any type, who has shed his envious feelings and who is above all even-minded in success and failure, such a person is no longer bound by Karma even if he still performs Karma.
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Jnana-Karma-Sanyasa Yoga
Chapter 4
Verse 4.23
गतसङ्गस्य मुक्तस्य ज्ञानावस्थितचेतसः । यज्ञायाचरतः कर्म समग्रं प्रविलीयते ॥ ४.२३ ॥
जिसकी आसक्ति सर्वथा नष्ट हो गयी है, जो देहाभिमान और ममतासे रहित हो गया है, जिसका चित्त निरन्तर परमात्माके ज्ञानमें स्थित रहता है – ऐसा केवल यज्ञसम्पादनके लिये कर्म करनेवाले मनुष्यके सम्पूर्ण कर्म भलीभाँति विलीन हो जाते हैं|
Lord Krishna continued: A person who has no attachment to anything whatsoever in this world, whose heart is set on acquiring Gyan (wisdom), who works for the sake of sacrifice, and is a totally liberated person from the world, all actions for this person melt away and are meaningless.
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Jnana-Karma-Sanyasa Yoga
Chapter 4
Verse 4.24
ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम् । ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना ॥ ४.२...
जिस यज्ञमें अर्पण अर्थात् स्रुवा आदि भी ब्रह्म है और हवन किये जानेयोग्य द्रव्य भी ब्रह्म है तथा ब्रह्मरूप कर्ताके द्वारा ब्रह्मरूप अग्निमें आहुति देनारूप क्रिया भी ब्रह्म है – उस ब्रह्मकर्ममें स्थित – रहनेवाले योगीद्वारा प्राप्त किये जानेयोग्य फल भी ब्रह्म ही है|
The offerings in a sacrifice are Brahma (God), the sacrificial fire is Brahma (God), the one who performs the sacrifice is Brahma, the sacrifice itself is Brahma, the person performing the action of sacrifice is placed in Brahma and will reach Brahma, the ultimate goal of sacrifice.
186
Jnana-Karma-Sanyasa Yoga
Chapter 4
Verse 4.25
दैवमेवापरे यज्ञं योगिनः पर्युपासते । ब्रह्माग्नावपरे यज्ञं यज्ञेनैवोपजुह्वति ॥ ४.२५ ॥
दूसरे योगीजन देवताओंके पूजनरूप यज्ञका ही भलीभाँति अनुष्ठान किया करते हैं और अन्य योगीजन परब्रह्म परमात्मारूप अग्निमें अभेददर्शनरूप यज्ञके द्वारा ही आत्मरूप यज्ञका हवन किया करते हैं|
The Lord continued: Some Yogis prefer to perform sacrifice through the worship of deities (gods and god esses): other Yogis perform sacrifice to Brahma in the form of fire.
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Jnana-Karma-Sanyasa Yoga
Chapter 4
Verse 4.26
श्रोत्रादीनीन्द्रियाण्यन्ये संयमाग्निषु जुह्वति । शब्दादीन्विषयानन्य इन्द्रियाग्निषु जुह्वति ॥ ४.२६...
अन्य योगीजन श्रोत्र आदि समस्त इन्द्रियोंको संयमरूप अग्नियोंमें हवन किया करते हैं और दूसरे योगीलोग शब्दादि समस्त विषयोंको इन्द्रियरूप अग्नियोंमें हवन किया करते हैं|
Some offer, in the fire of self-control, one of their senses such as their hearing. (This signifies that the signifies has no attachment to any of his senses.)Others offer sensual objects (objects of perception), such as sound, in the fire of controlled senses.Signifying that the sacrificer has the will-power and restraint not to let his senses be influenced by evil, sin, or sensual objects of destruction.
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Jnana-Karma-Sanyasa Yoga
Chapter 4
Verse 4.27
सर्वाणीन्द्रियकर्माणि प्राणकर्माणि चापरे । आत्मसंयमयोगाग्नौ जुह्वति ज्ञानदीपिते ॥ ४.२७ ॥
दूसरे योगीजन इन्द्रियोंकी सम्पूर्ण क्रियाओंको और प्राणों की समस्त क्रियाओंको ज्ञानसे प्रकाशित आत्मसंयमयोगरूप अग्निमें हवन किया करते हैं|
Some Yogis sacrifice all the functions of their senses ans all their vital functions of life, into the fire of Yoga, in the shape of self control, which is kindled by Gyan (wisdom). (This signifies the sacrificer’s one-mindedness with the Lord, the Supreme Goal).
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Chapter 4
Verse 4.28
द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञा योगयज्ञास्तथापरे । स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च यतयः संशितव्रताः ॥ ४.२८ ॥
कई पुरुष द्रव्यसम्बन्धी यज्ञ करनेवाले हैं, कितने ही तपस्यारूप यज्ञ करनेवाले हैं तथा दूसरे कितने ही योगरूप यज्ञ करनेवाले हैं, कितने ही अहिंसादि तीक्ष्ण व्रतोंसे युक्त यत्नशील पुरुष स्वाध्यायरूप ज्ञानयज्ञ करनेवाले हैं|
Sacrifices come in many forms. Giving away material wealth for charity is a sacrifice. Austerity is a sacrifice. Yoga is a sacrifice. Making vows and promises involve sacrifice. Even self-study is a sacrifice.
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Chapter 4
Verse 4.29
अपाने जुह्वति प्राणं प्राणेऽपानं तथापरे प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायामपरायणाः अपरे नियताहाराः प्र...
दूसरे कितने ही योगीजन अपानवायुमें प्राणवायुको हवन करते हैं, वैसे ही अन्य योगीजन प्राणवायुमें अपानवायुको हवन करते हैं तथा अन्य कितने ही नियमित आहार करनेवाले प्राणायामपरायण पुरुष प्राण और अपानकी गतिको रोककर प्राणोंको प्राणोंमें ही हवन किया करते हैं। ये सभी साधक यज्ञोंद्वारा पापोंका नाश कर देनेवाले और यज्ञोंको जाननेवाले हैं|
Other Yogis (wise men) perform sacrifice by controlling the amount of breaths they take. By holding in their breath for a long periond of time whilepronouncing My name, they increase their life’s longevity. This act is known as PRANAYAM.Others perform sacrifice by controlling what they eat,(fasting). Those whose sins have been destroyed by sacrifice, understand the power and importance of sacrifice.
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Chapter 4
Verse 4.30
सर्वेऽप्येते यज्ञविदो यज्ञक्षपितकल्मषाः । यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्म सनातनम् ॥ ४.३० ॥
दूसरे कितने ही योगीजन अपानवायुमें प्राणवायुको हवन करते हैं, वैसे ही अन्य योगीजन प्राणवायुमें अपानवायुको हवन करते हैं तथा अन्य कितने ही नियमित आहार करनेवाले प्राणायामपरायण पुरुष प्राण और अपानकी गतिको रोककर प्राणोंको प्राणोंमें ही हवन किया करते हैं। ये सभी साधक यज्ञोंद्वारा पापोंका नाश कर देनेवाले और यज्ञोंको जाननेवाले हैं|
Other Yogis (wise men) perform sacrifice by controlling the amount of breaths they take. By holding in their breath for a long periond of time whilepronouncing My name, they increase their life’s longevity. This act is known as PRANAYAM.Others perform sacrifice by controlling what they eat,(fasting). Those whose sins have been destroyed by sacrifice, understand the power and importance of sacrifice.
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Chapter 4
Verse 4.31
नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतोऽन्यः कुरुसत्तम ॥ ४.३१ ॥
हे कुरुश्रेष्ठ अर्जुन! यज्ञसे बचे हुए अमृतका अनुभव करनेवाले योगीजन सनातन परब्रह्म परमात्माको प्राप्त होते हैं। और यज्ञ न करनेवाले पुरुषके लिये तो यह मनुष्यलोक भी सुखदायक नहीं है, फिर परलोक है कैसे सुखदायक हो सकता है ?
O Arjuna, only those people who have sacrificed to achieve wisdom and knowledge of Gyan, go to Brahma, (the creator of all beings and God of Wisdom in the World). Without performing some sort of sacrifice in life, one cannot possibly remain happy in this world, not to mention the afterworl
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Jnana-Karma-Sanyasa Yoga
Chapter 4
Verse 4.32
एवं बहुविधा यज्ञा वितता ब्रह्मणो मुखे । कर्मजान्विद्धि तान्सर्वानेवं ज्ञात्वा विमोक्ष्यसे ॥ ४.३२ ॥
इसी प्रकार और भी बहुत तरहके यज्ञ वेदकी वाणीमें विस्तारसे कहे गये हैं। उन सबको तू मन, इन्द्रिय और शरीरकी क्रियाद्वारा सम्पन्न होनेवाले जान, इस प्रकार तत्त्वसे जानकर उनके अनुष्ठानद्वारा तू कर्मबन्धनसे सर्वथा मुक्त हो जायगा|
The Lord continued:O Arjuna, many sacrifices are mentioned extensively throughout the Vedas. All of these sacrifices involve some sort of action or Karma to be performed. With this knowledge in mind, you will achieve the state of unattached Karma, or action done without the expectation of any results.
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Chapter 4
Verse 4.33
श्रेयान्द्रव्यमयाद्यज्ञाज्ज्ञानयज्ञः परन्तप । सर्वं कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते ॥ ४.३३ ॥
हे परंतप अर्जुन ! द्रव्यमय यज्ञकी अपेक्षा ज्ञानयज्ञ अत्यन्त श्रेष्ठ है, तथा यावन्मात्र सम्पूर्ण कर्म ज्ञानमें समाप्त हो जाते हैं|
O Arjuna, sacrifice of wisdom (Gyan) is always better than sacrifice of material objects because all actions end with Gyan.
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Chapter 4
Verse 4.34
तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया । उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः ॥ ४.३४ ॥
उस ज्ञानको तू तत्त्वदर्शी ज्ञानियोंके पास जाकर समझ, उनको भलीभाँति दण्डवत् प्रणाम करनेसे, उनकी सेवा करनेसे और कपट छोड़कर सरलतापूर्वक प्रश्न करनेसे वे परमात्मतत्त्वको भलीभाँति जाननेवाले ज्ञानी महात्मा तुझे उस तत्त्वज्ञानका उपदेश करेंगे|
The Lord advised:O Arjuna, learn the principles of Gyan and ask questions about Gyan respectfully and with determination, from those who fully understand the principles of Gyan. Thay will explain “Gyan” to you. Knowing Gyan, you will never be in the confused state as you are in now.
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Chapter 4
Verse 4.35
यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहमेवं यास्यसि पाण्डव । येन भूतान्यशेषेण द्रक्ष्यस्यात्मन्यथो मयि ॥ ४.३५ ॥
जिसको जानकर फिर तू इस प्रकार मोहको नहीं प्राप्त होगा तथा हे अर्जुन ! जिस ज्ञानके द्वारा तू सम्पूर्ण भूतोंको नि:शेषभावसे पहले अपनेमें’ और पीछे मुझ सच्चिदानन्दघन परमात्मामें देखेगा|
The Lord continued:O Arjuna, through Gyan, you will see all beings within yourself, and thereafter, all beings in Me.
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Chapter 4
Verse 4.36
अपि चेदसि पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमः । सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं सन्तरिष्यसि ॥ ४.३६ ॥
यदि तू अन्य सब पापियोंसे भी अधिक पाप करनेवाला है; तो भी तू ज्ञानरूप नौकाद्वारा नि:संदेह तू सम्पूर्ण पाप-समुद्रसे भलीभाँति तर जायगा|
O Arjuna, even if you are the greatest sinner in the world, this river of sins can be crossed with the boat of Gyan.
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Chapter 4
Verse 4.37
यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन । ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा ॥ ४.३७ ॥
क्योंकि हे अर्जुन ! जैसे प्रज्वलित अग्नि ईंधनोंको भस्ममय कर देता है, वैसे ही ज्ञानरूप अग्नि सम्पूर्ण कर्मोंको भस्ममय कर देता है|
O Arjuna, as the burnig fire reduces fuel to ashes, in this same way, Karma (attached Karma binding a person to the material world), is burnt down with the fire of Gyan.
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Chapter 4
Verse 4.38
न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते । तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति ॥ ४.३८ ॥
इस संसारमें ज्ञानके समान पवित्र करनेवाला निःसंदेह कुछ भी नहीं है । उस ज्ञानको कितने ही कालसे कर्मयोगके द्वारा शुद्धान्तःकरण हुआ मनुष्य अपने आप ही आत्मामें पा लेता है|
In this world, O Arjuna, there is no greater purifier than Gyan or wisdom itself. The person who has mastered Yoga to perfection feels wisdom in his soul at the proper time.
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Chapter 4
Verse 4.39
श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः । ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति ॥ ४.३९ ॥
जितेन्द्रिय, साधनपरायण और श्रद्धावान् मनुष्य ज्ञानको प्राप्त होता है तथा ज्ञानको प्राप्त होकर वह बिना विलम्बके – तत्काल ही भगवत्प्राप्तिरूप परम – शान्तिको प्राप्त हो जाता है|
To abtain Gyan, one must conquer the senses, and develop a real devotion and faith towards the Lord. When one obtains Gyan, he has discovered the key to Supreme peace.