S.No.
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Chapter
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Verse
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Sanskrit Anuvad
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Hindi Anuvad
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Enlgish Translation
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501
Ksetra-Ksetrajna-Vibhaga Yoga
Chapter 13
Verse 13.13
ज्ञेयं यत्तत्प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वामृतमश्नुते । अनादि मत्परं ब्रह्म न सत्तन्नासदुच्यते ॥ १३.१३ ॥
जो जाननेयोग्य है तथा जिसको जानकर मनुष्य परमानन्दको प्राप्त होता है, उसको भलीभाँति कहूँगा। वह अनादिवाला परमब्रह्म न सत् ही कहा जाता है, न असत् ही|
I shall now state that which has to be known, knowing which one attains to immortality; the Supreme Brahman is beginningless and he is called neither ‘Sat’ (being) nor ‘Asat’ (non-being).
502
Ksetra-Ksetrajna-Vibhaga Yoga
Chapter 13
Verse 13.14
सर्वतः पाणिपादं तत्सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम् । सर्वतः श्रुतिमल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति ॥ १३.१४ ॥
वह सब ओर हाथ-पैरवाला, सब ओर नेत्र, सिर और मुखवाला तथा सब ओर कानवाला है। क्योंकि वह संसारमें सबको व्याप्त करके स्थित है ?
With hands and feet everywhere, with eyes, heads and mouths everywhere, with ears everywhere, He (the knower of the field) exists enveloping all.
503
Ksetra-Ksetrajna-Vibhaga Yoga
Chapter 13
Verse 13.15
सर्वेन्द्रियगुणाभासं सर्वेन्द्रियविवर्जितम् । असक्तं सर्वभृच्चैव निर्गुणं गुणभोक्तृ च ॥ १३.१५ ॥
वह सम्पूर्ण इन्द्रियोंके विषयोंको जाननेवाला है, परन्तु वास्तवमें सब इन्द्रियोंसे रहित है तथा आसक्ति रहित होनेपर भी सबका धारण-पोषण करनेवाला और निर्गुण होनेपर भी गुणोंको भोगनेवाला है|
Shining by the functions of all the senses (see previous verses for the names of the senses), yet without the senses (i.e. organs), unattached, yet supporting all. devoid of Gunas (qualities), yet He experiences them.
504
Ksetra-Ksetrajna-Vibhaga Yoga
Chapter 13
Verse 13.16
बहिरन्तश्च भूतानामचरं चरमेव च । सूक्ष्मत्वात्तदविज्ञेयं दूरस्थं चान्तिके च तत् ॥ १३.१६ ॥
वह चराचर सब भूतोंके बाहर भीतर परिपूर्ण – है और चर-अचर भी वही है । और वह सूक्ष्म होनेसे अविज्ञेय’ है तथा अति समीपमें और दूरमें भी स्थित वही है|
He is outside and inside all beings; the unmoving and also the moving ; because of His subtlety (like ether), he is unknowable. He is far and near.
505
Ksetra-Ksetrajna-Vibhaga Yoga
Chapter 13
Verse 13.17
अविभक्तं च भूतेषु विभक्तमिव च स्थितम् । भूतभर्तृ च तज्ज्ञेयं ग्रसिष्णु प्रभविष्णु च ॥ १३.१७ ॥
वह परमात्मा विभागरहित एक रूपसे आकाशके सदृश परिपूर्ण होनेपर भी चराचर सम्पूर्ण भूतोंमें विभक्त-सा स्थित प्रतीत होता है तथा वह जाननेयोग्य परमात्मा विष्णुरूपसे भूतोंको धारण पोषण करनेवाला और रुद्ररूपसे संहार करनेवाला तथा ब्रह्मारूपसे सबको उत्पन्न करनेवाला है|
He is undivided and yet he appears to be divided in beings. He supports, swallows up and also creates all beings.
506
Ksetra-Ksetrajna-Vibhaga Yoga
Chapter 13
Verse 13.18
ज्योतिषामपि तज्ज्योतिस्तमसः परमुच्यते । ज्ञानं ज्ञेयं ज्ञानगम्यं हृदि सर्वस्य विष्ठितम् ॥ १३.१८ ॥
वह परब्रह्म ज्योतियोंका भी ज्योति एवं मायासे अत्यन्त परे कहा जाता है । वह परमात्मा बोधस्वरूप, जाननेके योग्य एवं तत्त्वज्ञानसे प्राप्त करनेयोग्य है और सबके हृदयमें विशेषरूपसे स्थित है|
He is light of all lights and is said to be beyond darkness. He is Knowledge, the Knowable (that which has to be known) and the goal of Knowledge, and He is seated in the hearts of all.
507
Ksetra-Ksetrajna-Vibhaga Yoga
Chapter 13
Verse 13.19
इति क्षेत्रं तथा ज्ञानं ज्ञेयं चोक्तं समासतः । मद्भक्त एतद्विज्ञाय मद्भावायोपपद्यते ॥ १३.१९ ॥
इस प्रकार क्षेत्र’ तथा ज्ञान और जाननेयोग्य परमात्माका स्वरूप संक्षेपसे कहा गया। मेरा ३ भक्त इसको तत्त्वसे जानकर मेरे स्वरूपको प्राप्त होता है|
Thus the field, knowledge and the knowable have been briefly stated (by Me). My devotee, on knowing this, becomes one with Me.
508
Ksetra-Ksetrajna-Vibhaga Yoga
Chapter 13
Verse 13.20
प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्ध्यनादी उभावपि । विकारांश्च गुणांश्चैव विद्धि प्रकृतिसंभवान् ॥ १३.२० ॥
प्रकृति और पुरुष – इन दोनों को ही तू अनादि तू जान और राग-द्वेषादि विकारोंको तथा त्रिगुणात्मक सम्पूर्ण पदार्थोंको भी प्रकृतिसे ही उत्पन्न जान|
You must know that nature and spirit are both without being, and know also that all modifications and qualities are born of nature.
509
Ksetra-Ksetrajna-Vibhaga Yoga
Chapter 13
Verse 13.21
कार्यकरणकर्तृत्वे हेतुः प्रकृतिरुच्यते । पुरुषः सुखदुःखानां भोक्तृत्वे हेतुरुच्यते ॥ १३.२१ ॥
कार्य और करण को उत्पन्न करनेमें हेतु प्रकृति कही जाती है और जीवात्मा सुख-दुःखोंके भोक्तापनमें अर्थात् भोगनेमें हेतु कहा जाता है|
Both the effect and the cause are generated from nature, and the spirit (soul) is the cause in the experience of pain and pleasure.
510
Ksetra-Ksetrajna-Vibhaga Yoga
Chapter 13
Verse 13.22
पुरुष: प्रकृतिस्थो हि भुङक्ते प्रकृतिजान्गुणान् । कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु ॥ १३.२२...
भावार्थ : कार्य (आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी तथा शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध -इनका नाम ‘कार्य’ है) और करण (बुद्धि, अहंकार और मन तथा श्रोत्र, त्वचा, रसना, नेत्र और घ्राण एवं वाक्‌, हस्त, पाद, उपस्थ और गुदा- इन 13 का नाम ‘करण’ है) को उत्पन्न करने में हेतु प्रकृति कही जाती है और जीवात्मा सुख-दुःखों के भोक्तपन में अर्थात भोगने में हेतु कहा जाता है|
The spirit (soul) residing in nature experiences the qualities born of nature; this attachment to the qualities is the cause of his birth in pure (good) and impure (evil) wombs.
511
Ksetra-Ksetrajna-Vibhaga Yoga
Chapter 13
Verse 13.23
उपद्रष्टानुमन्ता च भर्ता भोक्ता महेश्वरः । परमात्मेति चाप्युक्तो देहेऽस्मिन्पुरुषः परः ॥ १३.२३ ॥
इस देह में स्थित यह आत्मा वास्तव में परमात्मा ही है । वही साक्षी होने से उपद्रष्टा और यथार्थ सम्मति देने वाला होने से अनुमन्ता, सबका धारण-पोषण करने वाला होने से भर्ता, जीव रूप से भोक्त्ता, ब्रह्मा आदि का भी स्वामी होने से महेश्वर और शुद्ध सच्चिदानन्दधन होने से परमात्मा —-ऐसा कहा गया है |
The Supreme Soul in this body is also called the spectator, the permitter, the supporter, the enjoyer, the Great Lord and the Supreme Self (Parmatma).
512
Ksetra-Ksetrajna-Vibhaga Yoga
Chapter 13
Verse 13.24
य एवं वेत्ति पुरुषं प्रकृतिं च गुणैः सह । सर्वथा वर्तमानोऽपि न स भूयोऽभिजायते ॥ १३.२४ ॥
इस प्रकार पुरुषों को और गुणों के सहित प्रकृति को जो मनुष्य तत्व से जानता है, वह सब प्रकार से कर्तव्य कर्म करता हुआ भी फिर नहीं जन्मता|
He who thus knows the Soul and Nature with the qualities, he is never born again regardless of the conditions he lives in.
513
Ksetra-Ksetrajna-Vibhaga Yoga
Chapter 13
Verse 13.25
ध्यानेनात्मनि पश्यन्ति केचिदात्मानमात्मना । अन्ये सांख्येन योगेन कर्मयोगेन चापरे ॥ १३.२५ ॥
उस परमात्मा को तो कितने ही मनुष्य तो शुद्ध हुई सूक्ष्म बुद्भि से ध्यान के द्वारा ह्रदय में देखते है, अन्य कितने ही ज्ञान योग के द्वारा और दूसरे कितने ही कर्मयोग के द्वारा देखते हैं अर्थात् प्राप्त करते हैं|
Some by Yoga of meditation, behold the Self (supreme) in the self (intellect) by the self (purified mind); others by the Yoga of knowledge, and yet others by the Yoga of action.
514
Ksetra-Ksetrajna-Vibhaga Yoga
Chapter 13
Verse 13.26
अन्ये त्वेवमजानन्तः श्रुत्वान्येभ्य उपासते । तेऽपि चातितरन्त्येव मृत्युं श्रुतिपरायणाः ॥ १३.२६ ॥
परन्तु इनसे दूसरे, अर्थात् जो मन्द बुद्भि वाले पुरुष हैं ; वे इस प्रकार न जानते हुए दूसरों से अर्थात् तत्व के जानने वाले पुरुषों से सुनकर ही तदनुसार उपासना करते है और वे श्रवण परायण पुरुष भी मृत्यु रूप संसार सागर को नि:संदेह तर जाते हैं |
Those who may not know Me by other means, if worshipping Me as they have heard from others, they too go beyond death by their devotion to what they have heard.
515
Ksetra-Ksetrajna-Vibhaga Yoga
Chapter 13
Verse 13.27
यावत्संजायते किंचित्सत्त्वं स्थावरजङ्गमम् । क्षेत्रक्षेत्रज्ञसंयोगात्तद्विद्धि भरतर्षभ ॥ १३.२७ ॥
हे अर्जुन ! यावन्मात्र जितने भी स्थावर-जंगम प्राणी उत्पन्न होते हैं, उन सबको तू क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के संयोग से ही उत्पन्न जान|
Whatever is born, unmoving or moving, O Arjuna, know it to be from the union of the field and its knower.
516
Ksetra-Ksetrajna-Vibhaga Yoga
Chapter 13
Verse 13.28
समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम् । विनश्यत्स्वविनश्यन्तं यः पश्यति स पश्यति ॥ १३.२८ ॥
जो पुरुष नष्ट होते हुए इस चराचर भूतों में परमेश्वर को नाशरहित और समभाव से स्थित देखता हैं, वही यथार्थ देखता हैं |
He who beholds the imperishable Supreme Lord, existing equally in all perishable beings, realizes the truth.
517
Ksetra-Ksetrajna-Vibhaga Yoga
Chapter 13
Verse 13.29
समं पश्यन्हि सर्वत्र समवस्थितमीश्वरम् । न हिनस्त्यात्मनात्मानं ततो याति परां गतिम् ॥ १३.२९ ॥
क्योंकि जो पुरुष सब में समभाव से स्थित परमेश्वर को समान देखता हुआ अपने द्वारा अपने को नष्ट नहीं करता, इससे वह परम गति को प्राप्त होता है |
Because he who sees the same Lord existing everywhere does not destroy the Self by the self (intellect); therefore, he goes to the highest goal (is released from the round of birth and death).
518
Ksetra-Ksetrajna-Vibhaga Yoga
Chapter 13
Verse 13.30
प्रकृत्यैव च कर्माणि क्रियमाणानि सर्वशः । यः पश्यति तथात्मानमकर्तारं स पश्यति ॥ १३.३० ॥
और जो पुरुष सम्पूर्ण कर्मों को सब प्रकार से प्रकृति के द्वारा ही किये जाते हुए देखता है आत्मा को अकर्ता देखता है, वही यथार्थ देखता है |
He is the real seer (or sage) who sees that all actions are performed by nature alone, and that the Self (Atman) is actionless.
519
Ksetra-Ksetrajna-Vibhaga Yoga
Chapter 13
Verse 13.31
यदा भूतपृथग्भावमेकस्थमनुपश्यति । तत एव च विस्तारं ब्रह्म संपद्यते तदा ॥ १३.३१ ॥
जिस क्षण यह पुरुष भूतों के पृथक-पृथक भाव को एक परमात्मा में ही स्थित तथा उस परमात्मा से ही सम्पूर्ण भूतों का विस्तार देखता है, उसी क्षण वह सच्चिदानन्दधन ब्रह्म को प्राप्त हो जाता हैं |
When a man realizes that the whole variety of beings are residing in the One, and are an evolution from that One alone, then he becomes Brahman (united with the Supreme).
520
Ksetra-Ksetrajna-Vibhaga Yoga
Chapter 13
Verse 13.32
अनादित्वान्निर्गुणत्वात्परमात्मायमव्ययः । शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते ॥ १३.३२ ॥
हे अर्जुन ! अनादि होने से और निर्गुण होने से यह अविनाशी परमात्मा शरीर में स्थित होने पर भी वास्तव में न तो कुछ करता है और न लिप्त ही होता है |
The Supreme Self without beginning, without qualities, imperishable, though dwelling in the body, O Arjuna, neither acts nor is attached to any action.
521
Ksetra-Ksetrajna-Vibhaga Yoga
Chapter 13
Verse 13.33
यथा सर्वगतं सौक्ष्म्यादाकाशं नोपलिप्यते । सर्वत्रावस्थितो देहे तथात्मा नोपलिप्यते ॥ १३.३३ ॥
जिस प्रकार सर्वत्र व्याप्त आकाश सूक्ष्म होने के कारण लिप्त नहीं होता, वैसे ही देह में सर्वत्र स्थित आत्मा निर्गुण होने के कारण देह के गुणों से लिप्त नहीं होता|
As the all pervading ether (sky) is not affected, by reasons of subtlety, so the Self (soul) seated in the body is not affected.
522
Ksetra-Ksetrajna-Vibhaga Yoga
Chapter 13
Verse 13.34
यथा प्रकाशयत्येकः कृत्स्नं लोकमिमं रविः । क्षेत्रं क्षेत्री तथा कृत्स्नं प्रकाशयति भारत ॥ १३.३४ ॥
हे अर्जुन ! जिस प्रकार एक ही सूर्य इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को प्रकाशित करता है, उसी प्रकार एक ही आत्मा सम्पूर्ण क्षेत्र को प्रकाशित करता है|
Just as the one sun illuminates the whole world, so also the Lord of the field (Supreme Self) illuminates the whole field, O Arjuna.
523
Ksetra-Ksetrajna-Vibhaga Yoga
Chapter 13
Verse 13.35
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोरेवमन्तरं ज्ञानचक्षुषा । भूतप्रकृतिमोक्षं च ये विदुर्यान्ति ते परम् ॥ १३.३५ ॥
इस प्रकार क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के भेद को कार्य सहित तथा प्रकृति से मुक्त्त होने को जो पुरुष ज्ञान नेत्रों द्वारा तत्व से जानते हैं, वे महात्मा जन परम ब्रह्म परमात्मा को प्राप्त होते हैं |
They who know through the eye of intuition, this distinction between the field and its knower and also perceive the liberation from the Nature of being, go to the Supreme.
524
Gunatraya-Vibhaga Yoga
Chapter 14
Verse 14.1
श्रीभगवानुवाच । परं भूयः प्रवक्ष्यामि ज्ञानानां ज्ञानमुत्तमम् यज्ज्ञात्वा मुनयः सर्वे परां सिद्धिम...
श्रीभगवान् बोले —-ज्ञानों में भी अति उत्तम उस परम ज्ञान को मैं फिर कहूँगा, जिसको जानकर सब मुनि जन इस संसार से मुक्त्त होकर परम सिद्भि को प्राप्त हो गये हैं |
The blessed Lord spoke: Now Arjuna, I shall expose to you the most supreme and highest of all the wisdom in this universe by which all the great sages in this universe have achieved the highest perfection.
525
Gunatraya-Vibhaga Yoga
Chapter 14
Verse 14.2
इदं ज्ञानमुपाश्रित्य मम साधर्म्यमागताः । सर्गेऽपि नोपजायन्ते प्रलये न व्यथन्ति च ॥ १४.२ ॥
इस ज्ञान को आश्रय करके अर्थात धारण करके मेरे स्वरूप को प्राप्त हुए पुरुष सृष्टि के आदि में पुन: उत्पन्न नहीं होते और प्रलय काल में भी व्याकुल नहीं होते|
By fully learning, understanding and practising this wisdom, these sages have become a part of Me. As a result, they are not born at the time of creation nor do they pass away at the time of destruction of the universe.
526
Gunatraya-Vibhaga Yoga
Chapter 14
Verse 14.3
मम योनिर्महद्ब्रह्म तस्मिन्गर्भं दधाम्यहम् । संभवः सर्वभूतानां ततो भवति भारत ॥ १४.३ ॥
हे अर्जुन ! मेरी महत्-ब्रह्म रूप मूल प्रकृति सम्पूर्ण भूतों की योनि है अर्थात् गर्भाधान का स्थान है और मैं उस योनि में चेतन समुदाय रूप गर्भ को स्थापन करता हूँ । उस जड़ चेतन के संयोग से सब भूतों की उत्पत्ति होती है |
O Arjuna, you must realize that it is from Me that all creation steam. The great Brahma, The Lord of all creation acts as My womb when I plant the seed of creation from which all beings evolve.
527
Gunatraya-Vibhaga Yoga
Chapter 14
Verse 14.4
सर्वयोनिषु कौन्तेय मूर्तयः संभवन्ति याः । तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रदः पिता ॥ १४.४ ॥
हे अर्जुन ! नाना प्रकार की सब योनियों में जितनी मूर्तियां अर्थात् शरीर धारी प्राणी उत्पन्न होते हैं, प्रकृति तो उन सब की गर्भ धारण करने वाली माता है और मै बीज को स्थापन करने वाला पिता हूँ |
The blessed Lord said:Dear Arjuna, know that whenever and wherever a being is born, I am his parents, that is, both his mother and father, who gave him life in this world.
528
Gunatraya-Vibhaga Yoga
Chapter 14
Verse 14.5
सत्त्वं रजस्तम इति गुणाः प्रकृतिसंभवाः । निबध्नन्ति महाबाहो देहे देहिनमव्ययम् ॥ १४.५ ॥
हे अर्जुन ! सत्वगुण, रजोगुण, और तमोगुण —-ये प्रकृति से उत्पन्न तीनों गुण अविनाशी जीवात्मा को शरीर में बांधते हैं|
Arjuna, that NATURE is made of three parts, namely: SATTVA (the light representing goodness); RAJAS (fire representing passion), and TAMAS (darkness representing evil). These bind down and limit the human mortal bodies from reaching true perfection and achieving the state of infinite Spirit and immortality.
529
Gunatraya-Vibhaga Yoga
Chapter 14
Verse 14.6
तत्र सत्त्वं निर्मलत्वात्प्रकाशकमनामयम् । सुखसङ्गेन बध्नाति ज्ञानसङ्गेन चानघ ॥ १४.६ ॥
हे निष्पाप ! उन तीनों गुणों में सत्वगुण तो निर्मल होने के कारण प्रकाश करने वाला और विकार रहित है, वह सुख के सम्बन्ध से और ज्ञान के सम्बन्ध से अर्थात् उसके अभिमान से बांधता है |
Arjuna, understand these three natural elements: SATTVA, because it represents light and purity is a sign of good health, but binds the various beings in this world to worldly material happiness. This attachment also leads to lower knowledge, my friend.
530
Gunatraya-Vibhaga Yoga
Chapter 14
Verse 14.7
रजो रागात्मकं विद्धि तृष्णासङ्गसमुद्भवम् । तन्निबध्नाति कौन्तेय कर्मसङ्गेन देहिनम् ॥ १४.७ ॥
हे अर्जुन ! राग रूप रजोगुण को कामना और आसक्ति से उत्पन्न जान । वह इस जीवात्मा को कर्मो के और उनके फल के सम्बन्ध से बांधता है |
RAJAS, dear Arjuna, is that natural element representing passion which leads to material and worldly attachment. Rajas is known to bind the Soul of mortal men to action.
531
Gunatraya-Vibhaga Yoga
Chapter 14
Verse 14.8
तमस्त्वज्ञानजं विद्धि मोहनं सर्वदेहिनाम् । प्रमादालस्यनिद्राभिस्तन्निबध्नाति भारत ॥ १४.८ ॥
हे अर्जुन सब देहाभिमानियों को मोहित करने वाले तमोगुण को तो अज्ञान से उत्पन्न जान । वह इस जीवात्मा को प्रमाद, आलस्य और निद्रा के द्वारा बांधता है|
But you should also know O Arjuna, that darkness and evil born out of the TAMAS GUNA, exists mainly because of the ignorance of man in this world. TAMAS creates laziness and dullness. One loses the value of time and no longer desires to work or to take part in constuctive action.
532
Gunatraya-Vibhaga Yoga
Chapter 14
Verse 14.9
सत्त्वं सुखे संजयति रजः कर्मणि भारत । ज्ञानमावृत्य तु तमः प्रमादे संजयत्युत ॥ १४.९ ॥
हे अर्जुन ! सत्वगुण सुख में लगाता है और रजोगुण कर्म में तथा तमोगुण तो ज्ञान को ढककर प्रमाद में भी लगाता है |
In reality O son of Kunti, SATTVA (or Goodness) binds one to happiness; RAJAS leads to attachment to action; and TAMAS (evil) leads one to be lazy, dull, unproductive and cause negligence due to one’s ignorance.
533
Gunatraya-Vibhaga Yoga
Chapter 14
Verse 14.10
रजस्तमश्चाभिभूय सत्त्वं भवति भारत । रजः सत्त्वं तमश्चैव तमः सत्त्वं रजस्तथा ॥ १४.१० ॥
हे अर्जुन ! रजोगुण और तमोगुण को दबा कर सत्वगुण, तत्वगुण और तमोगुण को दबा कर रजोगुण, वैसे ही सत्वगुण और रजोगुण को दबा कर तमोगुण होता है अर्थात् बढ़ता है |
At times O Arjuna, the first element of nature, SATTVA, rules over the other two GUNAS (powers of nature) known as RAJAS and TAMAS. However, at times the RAJAS part of human nature takes over and rules the SATTVA and TAMAS elements and similarly the TAMAS mode of nature may overpower the SATTVA and RAJAS modes of nature.
534
Gunatraya-Vibhaga Yoga
Chapter 14
Verse 14.11
सर्वद्वारेषु देहेऽस्मिन्प्रकाश उपजायते । ज्ञानं यदा तदा विद्याद्विवृद्धं सत्त्वमित्युत ॥ १४.११ ॥
जिस समय इस देह में तथा अन्त:करण और इन्द्रियों में चेतनता और विवेक शक्त्ति उत्पन्न होती है, उस समय ऐसा जानना चाहिये कि सत्वगुण बढ़ा है|
When the light of true knowledge and wisdom sorrounds and comes forth from one’s body, it is a sign that the SATTVA state of nature has occupied the body and taken over the person’s body, evidenced by his good actions (therefore he is known as a SATTVIC person).
535
Gunatraya-Vibhaga Yoga
Chapter 14
Verse 14.12
लोभः प्रवृत्तिरारम्भः कर्मणामशमः स्पृहा । रजस्येतानि जायन्ते विवृद्धे भरतर्षभ ॥ १४.१२ ॥
हे अर्जुन ! रजोगुण के बढ़ने पर लोभ, प्रवृत्ति, स्वार्थ बुद्भि से कर्मों का सकाम भाव से आरम्भ, अशान्ति और विषय भोगों की लालसा ——ये सब उत्पन्न होते हैं |
When the RAJAS GUNA has taken over a being, then it can be seen through a person’s excessive greed, lust, unrest, activity and other similar action (therefore the person is known to be RAJAS).
536
Gunatraya-Vibhaga Yoga
Chapter 14
Verse 14.13
अप्रकाशोऽप्रवृत्तिश्च प्रमादो मोह एव च । तमस्येतानि जायन्ते विवृद्धे कुरुनन्दन ॥ १४.१३ ॥
हे अर्जुन ! तमोगुण के बढ़ने पर अन्त:करण और इन्द्रियों में अप्रकाश, कर्तव्य कर्मों में अप्रवृति और प्रमाद अर्थात् व्यर्थ चेष्टा और निद्रादि, अन्त:करण की मोहिनी वृतियाँ — ये सब ही उत्पन्न होते हैं |
Dullness, inactivity, laziness, negligence, ignorance, and sheer delusion about the world are all signs that the TAMAS elements have taken control of the person’s actions, behaviour, and thinking.
537
Gunatraya-Vibhaga Yoga
Chapter 14
Verse 14.14
यदा सत्त्वे प्रवृद्धे तु प्रलयं याति देहभृत् । तदोत्तमविदां लोकानमलान्प्रतिपद्यते ॥ १४.१४ ॥
जब यह गुण सत्वगुण की वृद्भि में मृत्यु को प्राप्त होता है, तब तो उत्तम कार्य करने वालों के निर्मल दिव्य स्वर्गादि लोकों को प्राप्त होता है|
If a being is SATTVIC at the time that his soul departs from his body, his soul goes to the purest regions of the universe where truth and goodness prevail. He is therefore reborn at these same, pure regions of the earth O Arjuna.
538
Gunatraya-Vibhaga Yoga
Chapter 14
Verse 14.15
रजसि प्रलयं गत्वा कर्मसङ्गिषु जायते । तथा प्रलीनस्तमसि मूढयोनिषु जायते ॥ १४.१५ ॥
रजोगुण के बढ़ने पर मृत्यु को प्राप्त होकर कर्मों की आसक्ति वाले मनुष्यों में उत्पन्न होता है ; तथा तमोगुण के बढ़ने पर मरा हुआ मनुष्य कीट, पशु आदि मूढ़ योनियों में उत्पन्न होता है ।
Should a person be in the RAJAS state at the time of death, he is reborn in the places of the world where he is restless and constantly active. Similarly if a person is TAMASIC at the time of his death, he is reborn into a family of irrational behaviour, laziness and dullness.
539
Gunatraya-Vibhaga Yoga
Chapter 14
Verse 14.16
कर्मणः सुकृतस्याहुः सात्त्विकं निर्मलं फलम् । रजसस्तु फलं दुःखमज्ञानं तमसः फलम् ॥ १४.१६ ॥
श्रेष्ठ कर्म का तो सात्विक अर्थात् सुख, ज्ञान और वैराग्यादि निर्मल फल कहा है ; राजस कर्म का फल दुःख एवं तामस कर्म का फल अज्ञान कहा है ।
The purity of SATTVA is characterized by the rewards that come out of good actions. However, the fruits of work that is done in the RAJAS state brings nothing but pain to a person; and work that is done in the TAMAS state, bears fruits of dullness and ignorance.
540
Gunatraya-Vibhaga Yoga
Chapter 14
Verse 14.17
सत्त्वात्संजायते ज्ञानं रजसो लोभ एव च । प्रमादमोहौ तमसो भवतोऽज्ञानमेव च ॥ १४.१७ ॥
सत्वगुण से ज्ञान उत्पन्न होता है और रजोगुण से निस्संदेह लोभ तथा तमोगुण से प्रमाद और मोह उत्पन्न होते है और अज्ञान भी होता है ।
From the SATTVIC state of human nature one receives wisdom, from the RAJAS state arises greed, and form TAMAS evolves dullness and ignorance.
541
Gunatraya-Vibhaga Yoga
Chapter 14
Verse 14.18
ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्त्वस्था मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः । जघन्यगुणवृत्तिस्था अधो गच्छन्ति तामसाः ॥ १४.१८...
सत्वगुण में स्थित पुरुष स्वर्गादि उच्च लोकों को जाते हैं ; रजोगुण में स्थित राजस पुरुष मध्य में अर्थात् मनुष्य लोक में ही रहते हैं और तमोगुण के कार्य रूप निद्रा, प्रमाद और आलस्यादि में स्थित तामस पुरुष अधोगति अर्थात् कीट, पशु आदि नीच योनियों को तथा नरकों को प्राप्त होते हैं ।
Those who are in the SATTVA state always follow the highest path or level of wisdom and intelligence; those who are in the RAJAS state always follow the middle level of intelligence and wisdom; and those who are under the influence of TAMAS from of human nature, always stoop to the lowest level of wisdom and knowledge and continually sink downwards along this path of ignorance.
542
Gunatraya-Vibhaga Yoga
Chapter 14
Verse 14.19
नान्यं गुणेभ्यः कर्तारं यदा द्रष्टानुपश्यति । गुणेभ्यश्च परं वेत्ति मद्भावं सोऽधिगच्छति ॥ १४.१९ ॥
जिस समय द्रष्टा तीनों गुणों के अतिरिक्त अन्य किसी को कर्ता नहीं देखता और तीनो गुणों से अत्यन्त परे सच्चिदानन्धन स्वरूप मुझ परमात्मा को तत्व से जानता है, उस समय वह मेरे स्वरूप को प्राप्त होता है ।
When a true wiseman and seer fully understands that these three parts of nature are virtually the three main stages of life in this vast universe, he begins to also realize that which lies beyond these three conditions of nature, that is Myself. Thus once this is realized by any being they become an eternal part of Me the SUPREME LORD.
543
Gunatraya-Vibhaga Yoga
Chapter 14
Verse 14.20
गुणानेतानतीत्य त्रीन्देही देहसमुद्भवान् । जन्ममृत्युजरादुःखैर्विमुक्तोऽमृतमश्नुते ॥ १४.२० ॥
यह पुरुष शरीर की, उत्पत्ति के कारण इन तीनो गुणों को उल्लघन करके जन्म, मृत्यु, वृद्बावस्था और सब प्रकार के दु:खों से मुक्त्त हुआ परमानन्द को प्राप्त होता है ।
A person whose soul has risen above these three conditions of nature that actually lie within the mortal body, he becomes free from the cycle of birth and death as well as from sorrow and temporary happiness. He then enters into Me and thus becomes immortal.
544
Gunatraya-Vibhaga Yoga
Chapter 14
Verse 14.21
अर्जुन उवाच । कैर्लिङ्गैस्त्रीन्गुणानेतानतीतो भवति प्रभो किमाचारः कथं चैतांस्त्रीन्गुणानतिवर्तते ॥...
अर्जुन बोले ! इन तीनों गुणों से अतीत पुरुष किन-किन लक्षणों से युक्त्त होता है और किस प्रकार के आचरणों वाला होता है ; तथा हे प्रभो ! मनुष्य किस उपाय से इन तीनों गुणों से अतीत होता है ।
Arjuna then asked the Almighty Lord: How can one know if a particular being has gone beyond or has transcended the three powers of nature O Krishna? What is his way of life and how does he manage to reach beyond the SATTVA, RAJAS, and TAMAS modes of nature?
545
Gunatraya-Vibhaga Yoga
Chapter 14
Verse 14.22
श्रीभगवानुवाच । प्रकाशं च प्रवृत्तिं च मोहमेव च पाण्डव न द्वेष्टि संप्रवृत्तानि न निवृत्तानि काङ्क...
श्रीभगवान् बोले —–हे अर्जुन ! जो पुरुष सत्वगुण के कार्य रूप प्रकाश को, और रजोगुण के कार्य रूप प्रवृति को तथा तमोगुण के कार्य रूप मोह को भी न तो प्रवृत्त होने पर न तो उनसे करता है और न निवृत्त होने पर उनकी आकांक्षा करता है ।
My dear Pandava (Arjuna), he who does not hate nor has any desire for light, (representing results which are born out of SATTVIC deeds), busy activity, and all that represents darkness whether they are near to him or far from him…
546
Gunatraya-Vibhaga Yoga
Chapter 14
Verse 14.23
उदासीनवदासीनो गुणैर्यो न विचाल्यते । गुणा वर्तन्त इत्येव योऽवतिष्ठति नेङ्गते ॥ १४.२३ ॥
जो साक्षी के सदृश स्थित हुआ गुणों के द्वारा विचलित नहीं किया जा सकता और गुण ही गुणों में बरतते है —-ऐसा समझता हुआ जो सच्चिदानन्दधन परमात्मा में एकीभाव से स्थिर रहता है एवं उस स्थिति से कभी विचलित नहीं होता ।
The Lord further explained:…He who sits apart undisturbed and unaffected by varying conditions of the environment and observes the world around him knowing and fully understanding that it is the power of nature that acts on all beings in this world…
547
Gunatraya-Vibhaga Yoga
Chapter 14
Verse 14.24
समदुःखसुखः स्वस्थः समलोष्टाश्मकाञ्चनः । तुल्यप्रियाप्रियो धीरस्तुल्यनिन्दात्मसंस्तुतिः ॥ १४.२४ ॥
जो निरन्तर आत्म भाव में स्थित, दुःख-सुख को समान समझने वाला, मिट्टी, पत्थर और स्वर्ण में समान भाव वाला, ज्ञानी, प्रिय तथा अप्रिय को एक सा मानने वाला और अपनी निन्दा स्तुति में भी समान भाव वाला है ।
जो निरन्तर आत्म भाव में स्थित, दुःख-सुख को समान समझने वाला, मिट्टी, पत्थर और स्वर्ण में समान भाव वाला, ज्ञानी, प्रिय तथा अप्रिय को एक सा मानने वाला और अपनी निन्दा स्तुति में भी समान भाव वाला है ।
548
Gunatraya-Vibhaga Yoga
Chapter 14
Verse 14.25
मानापमानयोस्तुल्यस्तुल्यो मित्रारिपक्षयोः । सर्वारम्भपरित्यागी गुणातीतः स उच्यते ॥ १४.२५ ॥
जो मान और अपमान में सम है, मित्र और बैरी के पक्ष में भी सम है एवं सम्पूर्ण आरम्भों में कर्तापन के अभिमान से रहित है, वह पुरुष गुणातीत कहा जाता है ।
He who behaves the same in times of honour or in times of disgrace; who behaves the same with enemies and friends; and who has surrendered all desires for action as well as lust for rewards resulting from those actions.
549
Gunatraya-Vibhaga Yoga
Chapter 14
Verse 14.26
मां च योऽव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते । स गुणान्समतीत्यैतान्ब्रह्मभूयाय कल्पते ॥ १४.२६ ॥
और जो पुरुष अव्यभिचारी भक्त्ति योग के द्वारा मुझको निरन्तर भजता है, वह भी इन तीनों गुणों को भली भाँति लाँघकर सच्चिदानन्दधन ब्रह्म को प्राप्त होने के लिये योग्य बन जाता है ।
And he who serves Me with an unfailing devotion, he is fit for becoming Brahman because he is gone beyond all the qualities (Gunas).
550
Gunatraya-Vibhaga Yoga
Chapter 14
Verse 14.27
ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहममृतस्याव्ययस्य च । शाश्वतस्य च धर्मस्य सुखस्यैकान्तिकस्य च ॥ १४.२७ ॥
क्योंकि उस अविनाशी परब्रह्म का और अमृत का तथा नित्य धर्म का और अखण्ड एक रस आनन्द का आश्रय मैं हूँ ।
I am the abode of Brahman, the immortal, the immutable, the eternal (ever-lasting) dharma and absolute bliss.
551
Purushottama Yoga
Chapter 15
Verse 15.1
श्रीभगवानुवाच । ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम् छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित् ॥ ...
श्री भगवान् बोले —–आदिपुरुषपरमेश्वर रूप मूल वाले और ब्रह्मा रूप मुख्य शाखा वाले जिस संसार रूप पीपल के वृक्ष को अविनाशी कहते हैं, तथा वेद जिसक पत्ते कहे गये हैं —-उस संसार रूप वृक्ष को जो पुरुष मूल सहित तत्व से जानता है, वह वेद के तात्पर्य को जानने वाला है ।
The Dear Lord explained to Arjuna:O Arjuna, there exists an enormous, everlasting, and divinely pure tree known as the indestructable ASVAATTHAM (COSMIC TREE OF LIFE). The extraordinary things about this tree, is that it has its roots above at its peak and its branches are located at the lowest part of the tree. It’s pure, green leaves are the VEDAS (Holy Scriptures and Sacred Songs). He who believes and realizes this truth, also knows and understands the VEDAS.
552
Purushottama Yoga
Chapter 15
Verse 15.2
अधश्चोर्ध्वं प्रसृतास्तस्य शाखा गुणप्रवृद्धा विषयप्रवालाः । अधश्च मूलान्यनुसंततानि कर्मानुबन्धीनि...
उस संसार वृक्ष की तीनों गुणों रूप जल के द्वारा बढ़ी हुई एवं विषय भोग रूप कोपलों वाली देव, मनुष्य और तिर्यक् आदि योनि रूप शाखाएँ नीचे ऊपर सर्वत्र फैली हुई हैं तथा मनुष्य लोक में क़र्मो के अनुसार बाँधने वाली अहंता ममता और वासना रूप जड़ें भी नीचे और ऊपर सभी लोकों में व्याप्त हो रही हैं ।
Its branches extend both below and above, form the earth to heaven (and vice-versa). It is the great powers of nature that nourish the tree and give it life. Its ouds represent the sensual objects that inspire pleasure in all beings. The roots that stretch a far distance downward (from the heavens) into the world of man are bounded as firmly to the earth as man is bound to the mortal world because of his selfish actions and lust for material rewards.
553
Purushottama Yoga
Chapter 15
Verse 15.3
न रूपमस्येह तथोपलभ्यते नान्तो न चादिर्न च संप्रतिष्ठा । अश्वत्थमेनं सुविरूढमूल- मसङ्गशस्त्रेण दृढ...
इस संसार वृक्ष का स्वरूप जैसा कहा है ; वैसा यहाँ विचार काल में नहीं पाया जाता ; क्योंकि न तो इसका आदि है और न अन्त है तथा न इसकी अच्छी प्रकार से स्थिति ही है इस लिये इस अहंता, ममता और वासना रूप अति दृढ.मूलों वाले संसार रूप पीपल के वृक्ष को दृढ. वैराग्य स्वरूप शस्त्र द्वारा काट कर —– ।
Man cannot see this celestial tree nor even perceive its greatness. Man cannot see its changing forms nor its beginning, its end, nor its foundations. The only way one may be able to free oneself from the roots of this tree (which have spread and created this world of material attachment), is to cut free from these roots with the mighty sword of non-attachment.
554
Purushottama Yoga
Chapter 15
Verse 15.4
ततः पदं तत्परिमार्गितव्यं यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूयः । तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्ये यतः प्रवृत्त...
उसके पश्चात् उस परम पद रूप परमेश्वर को भली भाँति खोजना चाहिये, जिसमें गये हुए पुरुष फिर लौट कर संसार में नहीं आते और जिस परमेश्वर से इस पुरातन संसार वृक्ष की प्रवृति विस्तार को प्राप्त हुई है, उसी आदि पुरुष नारायण के मैं शरण हूँ —-इस प्रकार द्ढ़ निश्चय करके उस परमेश्वर का मनन और निदिध्यासन करना चाहिये ।
If a man finds and proceeds along this path of non-attachment, he can say that he has truly discovered the way by which he can attain peaceful refuge and shelter in the Eternal Spirit (the Great beginning of all things is form whom all creation has evolved (namely, LORD KRISHNA Himself).
555
Purushottama Yoga
Chapter 15
Verse 15.5
निर्मानमोहा जितसङ्गदोषा अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः । द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदुःखसंज्ञै- र्गच्...
जिसका मान और मोह नष्ट हो गया है, जिन्होंने आसक्ति रूप दोष को जीत लिया है, जिनकी परमात्मा के स्वरूप में नित्य स्थिति है और जिनकी कामनाएँ पुर्ण रूप से नष्ट हो गयी है —–वे सुख-दुःख नामक द्बन्द्बों से विमुक्त्त ज्ञानी जन उस अविनाशी परम पद को प्राप्त होते हैं ।
A man whose thinking is pure and consists of no evil; a man who has totally freed himself from the bondages of pride and delusion; who has broken free from the chains of attachment and all material desires; who has surrendered all selfish desires; who has learned to direct full concentration of the mind on the Supreme Spirit; and who has liberated himself from the opposing feelings of pleasure and pain, always achieves a place in the divine and Eternal Abode (shelter) that is within Me, the Almighty.
556
Purushottama Yoga
Chapter 15
Verse 15.6
न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः । यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ॥ १५.६ ॥
जिस परम पद को प्राप्त होकर मनुष्य लौट कर संसार में नहीं आते, उस स्वयं प्रकाश परम पद को न सूर्य प्रकाशित कर सकता है, न चन्द्रमा और न अग्नि ही ; वही मेरा परम धाम है ।
That place upon which the sun cannot cast its glorious radiance, where the moon can shed no light, and where no fire, burns is what is known as My Supreme Abode. Here only the radiant light of My Eternal Glory shines. Those who reach this sacred destination, never return to suffer in this world again O Arjuna.
557
Purushottama Yoga
Chapter 15
Verse 15.7
ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः । मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति ॥ १५.७ ॥
इस देह में यह सनातन जीवात्मा मेरा ही अंश है और वही इन प्रकृति में स्थित मन और पाँचों इन्द्रियों को आकर्षण करता है ।
The Blessed Lord confided:O Arjuna, in this world, a certain fraction of My Eternal Spirit taken birth. This fragment of My Supreme Soul attracts the five senses plus an additional sixth one known as the mind and resides within the human body, in the realm of nature, on earth.
558
Purushottama Yoga
Chapter 15
Verse 15.8
शरीरं यदवाप्नोति यच्चाप्युत्क्रामतीश्वरः । गृहित्वैतानि संयाति वायुर्गन्धानिवाशयात् ॥ १५.८ ॥
वायु गन्ध के स्थान से गन्ध को जैसे ग्रहण करके ले जाता है, वैसे ही देहादि का स्वामी जीवात्मा भी जिस शरीर का त्याग करता है, उससे इन मन सहित इन्द्रियों को ग्रहण करके फिर जिस शरीर को प्राप्त होता है ——उसमें जाता है ।
When I, the Lord of all the bodies that walk on this earth, enter a particular body. (and give it life and soul), and later when I leave this body (in the form of the body’s soul), I take the senses and the mind with Me and drift away like the wind that carries away sweet fragrances from their hidden sources within nature.
559
Purushottama Yoga
Chapter 15
Verse 15.9
श्रोत्रं चक्षुः स्पर्शनं च रसनं घ्राणमेव च । अधिष्ठाय मनश्चायं विषयानुपसेवते ॥ १५.९ ॥
यह जीवात्मा श्रोत्र, चक्षु और त्वचा को तथा रसना, घ्राण और मन को आश्रय करके ——अर्थात् इन सब के सहारे से ही विषयों का सेवन करता है ।
Therefore, O Arjuna, after I enter the body of a particular being in this world, as its soul, I bestow upon this being its five senses namely, its eyesight, hearing, touch, taste, and smell, as well as its mind and furthermore it is because of Me that these senses function and stay operable. Thus, a being is able to experience the various objects in this world through his senses.
560
Purushottama Yoga
Chapter 15
Verse 15.10
उत्क्रामन्तं स्थितं वापि भुञ्जानं वा गुणान्वितम् । विमूढा नानुपश्यन्ति पश्यन्ति ज्ञानचक्षुषः ॥ १५.१...
शरीर को छोड़ कर जाते हुए को अथवा शरीर में स्थित हुए को अथवा विषयों को भोगते हुए को इस प्रकार तीनों गुणों से युक्त्त हुए को भी अज्ञानी जन नहीं जानते, केवल ज्ञान रूप नेत्रों वाले विवेक शील ज्ञानी ही तत्व से जानते हैं ।
O Arjuna, only those people whose vision is clouded and whose mind is deluded are unable to see and realize Me as actually existing within them as their inner-selves and they do not realize that I am a part of human nature itself, whether or not I stay or depart from within them.
561
Purushottama Yoga
Chapter 15
Verse 15.11
यतन्तो योगिनश्चैनं पश्यन्त्यात्मन्यवस्थितम् । यतन्तोऽप्यकृतात्मानो नैनं पश्यन्त्यचेतसः ॥ १५.११ ॥
यत्न करने वाले योगी जन भी अपने ह्रदय में स्थित इस आत्मा को तत्व से जानते हैं ; किंतु जिन्होंने अपने अन्त:करण को शुद्ध नहीं किया है, ऐसे अज्ञानी जन तो यत्न करते रहने पर भी इस आत्मा को नहीं जानते ।
Those people who are pure at heart and are constantly striving to see Me, inevitably see Me, the Lord who dwells in their own heart. However those people who are impure at heart and in their minds never perceive Me, the Supreme Spirit, no matter how much they strive.
562
Purushottama Yoga
Chapter 15
Verse 15.12
यदादित्यगतं तेजो जगद्भासयतेऽखिलम् । यच्चन्द्रमसि यच्चाग्नौ तत्तेजो विद्धि मामकम् ॥ १५.१२ ॥
सूर्य में स्थित जो तेज सम्पूर्ण जगत् को प्रकाशित करता है तथा जो तेज चन्द्रमा में है और जो अग्नि में है —उसको तू मेरा ही तेज जान ।
The Blessed Lord spoken in His Divine Voice: Arjuna, you should realize and always remember that the beautiful and overwhelming light that comes from the sun and illuminates the whole universe, the soft and splendrous light that is emitted by the moon, and the radiant glow of a fire, all come from within Me and exist because of me alone.
563
Purushottama Yoga
Chapter 15
Verse 15.13
गामाविश्य च भूतानि धारयाम्यहमोजसा । पुष्णामि चौषधीः सर्वाः सोमो भूत्वा रसात्मकः ॥ १५.१३ ॥
और मैं ही पृथ्वी में प्रवेश करके अपनी शक्त्ति से सब भूतों को धारण करता हूँ और रस स्वरूप अर्थात् अमृत मय चन्द्रमा होकर सम्पूर्ण ओषधियों को अर्थात् वनस्पतियों को पुष्ट करता हूँ ।
Upon entering into this world from the Heavens, O Arjuna, it is My Divine Energy that gives life and support to all things on this earth. As such, My Glory is so Divine and Beautiful that I become the Sacred Some plant that nourishes all the other plants and herbs on this earth. (The Soma or Moon plant, as it is literally translated, contains syrup that is considered to be very nourishing and healthy.)
564
Purushottama Yoga
Chapter 15
Verse 15.14
अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः । प्राणापानसमायुक्तः पचाम्यन्नं चतुर्विधम् ॥ १५.१४ ॥
मैं ही सब प्राणियों के शरीर के स्थित रहने वाला प्राण और अपान से संयुक्त्त वैश्वानर अग्निरूप होकर चार प्रकार के अन्न को पचाता हूँ ।
O Arjuna, at the same time, I also become the fire of life that exists in all things that breathe on this earth. Together, with the fiery breaths of life that flow in and flow out of body, I burn and digest the four kinds of pure foods on this earth, while residing in a being’s body.
565
Purushottama Yoga
Chapter 15
Verse 15.15
सर्वस्य चाहं हृदि संनिविष्टो मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च । वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो वेदान्तकृद्व...
मैं ही सब प्राणियों के शरीर के स्थित रहने वाला प्राण और अपान से संयुक्त्त वैश्वानर अग्निरूप होकर चार प्रकार के अन्न को पचाता हूँ ।
O Arjuna, at the same time, I also become the fire of life that exists in all things that breathe on this earth. Together, with the fiery breaths of life that flow in and flow out of body, I burn and digest the four kinds of pure foods on this earth, while residing in a being’s body.
566
Purushottama Yoga
Chapter 15
Verse 15.16
द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च । क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते ॥ १५.१६ ॥
इस संसार में नाशवान् और अविनाशी भी ये दो प्रकार के पुरुष हैं । इनमे सम्पूर्ण भूत प्राणियों के शरीर तो नाशवान् और जीवात्मा अविनाशी कहा जाता है ।
There are two souls or spirits in this universe O Arjuna, namely, the destructible and indestructible. The destructible are all the those souls that are living in this universe and the indestructible are those souls that can never be subjected to change and are steady in their devotion to Me (therefore achieving immortality).
567
Purushottama Yoga
Chapter 15
Verse 15.17
उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः । यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः ॥ १५.१७ ॥
इन दोनों से उत्तम पुरुष तो अन्य ही है, जो तीनों लोकों में प्रवेश करके सबका धारण-पोषण करता है एवं अविनाशी परमेश्वर और परमात्मा इस प्रकार गया है ।
However dear Arjuna, there is another spirit that is the highest of all spirits and it is called the Supreme Spirit. The Supreme Spirit is none other than Me, the Eternal and Omniscient (existing everywhere) Lord who supports this entire universe.
568
Purushottama Yoga
Chapter 15
Verse 15.18
यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तमः । अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः ॥ १५.१८ ॥
क्योंकि मैं नाशवान् जड. वर्ग क्षेत्र से तो सर्वथा अतीत हूँ और अविनाशी जीवात्मा से भी उत्तम हूँ, इसलिये लोक में और वेद में भी पुरुषोत्तम नाम से प्रसिद्ध हूँ ।
Lord Krishna explained:Because I am beyond all perishable objects on earth and because I even surpass all that is imperishable, I am known throughout the world and in all the Holy Scriptures (Vedas), as the Supreme and Divine Spirit.
569
Purushottama Yoga
Chapter 15
Verse 15.19
यो मामेवमसंमूढो जानाति पुरुषोत्तमम् । स सर्वविद्भजति मां सर्वभावेन भारत ॥ १५.१९ ॥
भारत ! जो ज्ञानी पुरुष मुझको इस प्रकार तत्व से पुरुषोतम जानता है, वह सर्वज्ञ पुरुष सब प्रकार से निरन्तर मुझ वासुदेव परमेश्वर को ही भजता है ।
He who has a clear vision and is constantly occupied with only divine and pure thoughts, comes to immediately realize that I am the Highest and most Superior Being in this universe. He who truly realize this fact knows all that is to be known in this world and thus he worships Me, with all his might and soul.
570
Purushottama Yoga
Chapter 15
Verse 15.20
इति गुह्यतमं शास्त्रमिदमुक्तं मयानघ । एतद्\u200cबुद्ध्वा बुद्धिमान्स्यात्कृतकृत्यश्च भारत ॥ १५.२० ॥
हे निष्पाप अर्जुन ! इस प्रकार यह अति रहस्ययुक्त्त गोपनीय शास्त्र मेरे द्वारा कहा गया, इसको तत्व से जान कर मनुष्य ज्ञानवान् और कृतार्थ हो जाता है ।
Dear Arjuna, I have thus revealed to you, the most secret and most sacred of all teachings in this world. By fully knowing and understanding this secret My Dear Devotee, any man can truly see the Divine Light of wisdom and he, thus, will have fulfilled all his tasks and duties in this world.
571
Daivasura-Sampad-Vibhaga Yoga
Chapter 16
Verse 16.1
श्रीभगवानुवाच । अभयं सत्त्वसंशुद्धिर्ज्ञानयोगव्यवस्थितिः दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाध्यायस्तप आर्जवम् ...
श्रीभगवान् बोले —–भय का सर्वथा अभाव, अन्त:करण की पूर्ण निर्मलता, तत्व ज्ञान के लिये ध्यान योग में निरन्तर दृढ. स्थिति और सात्विक दान, इन्द्रियों का दमन, भगवान्, देवता और गुरुजनों की पूजा तथा अग्निहोत्र आदि उत्तम कर्मों का आचरण एवं वेद शास्त्रों का पठन-पाठन तथा भगवान् के नाम और गुणों का कीर्तन, स्वधर्म पालन के लिये कष्ट सहन और शरीर तथा इन्द्रियों के सहित अन्त:करण की सरलता ।
All of the significant qualities in all beings such as: freedom from fear, purity of mind and heart, stability in knowledge and concentration, generosity in charity, self-control, sacrifice, constant study of the holy Scriptures, piousness and straightforwardness.
572
Daivasura-Sampad-Vibhaga Yoga
Chapter 16
Verse 16.2
अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्यागः शान्तिरपैशुनम् । दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं ह्रीरचापलम् ॥ १६.२ ॥
मन, वाणी और शरीर किसी प्रकार भी किसी को कष्ट न देना, यथार्थ और प्रिय भाषण, अपना अपकार करने वाले पर भी क्रोध का न होना, कर्मों में कर्तापन के अभिमान का त्याग, अन्त:करण की उपरति अर्थात् चित्त की चञ्चलता का अभाव, किसी की भी निन्दादि न करना, सब भूत प्राणियों में हेतुरहित दमा, इन्द्रियों का विषयों के साथ संयोग होने पर भी उनमें आसक्ति का न होना कोमलता, लोक और शास्त्र से विरुद्भ आचरण में लज्जा और व्यर्थ चेष्टाओं का अभाव ।
…Non-violence, truth, freedom from anger, detachment from all things, peacefulness (with mind and self), restraint from finding faults with others, compassion towards all living beings, detachment from greedy craving, gentleness, modesty, and stability of the mind and emotions.
573
Daivasura-Sampad-Vibhaga Yoga
Chapter 16
Verse 16.3
तेजः क्षमा धृतिः शौचमद्रोहो नातिमानिता । भवन्ति संपदं दैवीमभिजातस्य भारत ॥ १६.३ ॥
तेज, क्षमा, धैर्य, बाहर की शुद्भि एवं किसी में भी शत्रु भाव का न होना और अपने में पूज्यता के अभिमान का अभाव —–ये सब तो हे अर्जुन ! दैवी सम्पदा को लेकर उत्पन्न हुए पुरुष के लक्षण हैं ।
Vigour, an attitude of forgiveness towards others, courage, purity, goodwill, towards others, and freedom from pride. All of these, dear Arjuna, are considered by Me to be the great characteristics of a man who possesses a divine nature and has come into this world from heaven.
574
Daivasura-Sampad-Vibhaga Yoga
Chapter 16
Verse 16.4
दम्भो दर्पोऽभिमानश्च क्रोधः पारुष्यमेव च । अज्ञानं चाभिजातस्य पार्थ संपदमासुरीम् ॥ १६.४ ॥
हे पार्थ ! दम्भ, घमण्ड और अभिमान तथा क्रोध, कठोरता और अज्ञान भी —-ये सब आसुरी सम्पदा को लेकर उत्पन्न हुए पुरुष के लक्षण हैं ।
Characteristics such as deceitfulness, arrogance, excessive pride, anger, harshness, rudeness and ignorance are the makings of a man who has been born on to this earth from fiery hell.
575
Daivasura-Sampad-Vibhaga Yoga
Chapter 16
Verse 16.5
दैवी संपद्विमोक्षाय निबन्धायासुरी मता । मा शुचः संपदं दैवीमभिजातोऽसि पाण्डव ॥ १६.५ ॥
दैवी-सम्पदा मुक्त्ति के लिये और आसुरी-सम्पदा बाँधने के लिये मानी गयी है । इसलिये हे अर्जुन ! तू शोक मत कर ; क्योंकि तू दैवी-सम्पदा को लेकर उत्पन्न हुआ है ।
The qualities that exist within a person with a divine nature, leads that person to a blissful freedom and liberation from this world and all its material objects. However the evil traits that are found in a person with a demonic nature, blinds that person to this world and to the sensual objects it contains. But grieve not, beloved Devotee of Mine, you have been born with a divine personality and your final and ultimate destination is heaven.
576
Daivasura-Sampad-Vibhaga Yoga
Chapter 16
Verse 16.6
द्वौ भूतसर्गौ लोकेऽस्मिन्दैव आसुर एव च । दैवो विस्तरशः प्रोक्त आसुरं पार्थ मे शृणु ॥ १६.६ ॥
हे अर्जुन ! इस लोक में भूतों की सृष्टि यानी मनुष्य समुदाय दो ही प्रकार का है, एक तो दैवी प्रकृति वाला, दूसरा आसुरी प्रकृति वाला । उनमे से दैवी प्रकृति वाला तो विस्तार पूर्वक कहा गया, अब तू आसुरी प्रकृति वाले मनुष्य समुदाय को भी विस्तार पूर्वक मुझ से सुन ।
There are basically two types of beings in this world O Arjuna. The first type is known to have a pure, pious and divine nature. The second however, has a demonic and evil nature. I have explained the divine nature to you in great length, O Arjuna. Now listen dear friend . as I describe the nature of the corrupt and evil and evil-doers in this world.
577
Daivasura-Sampad-Vibhaga Yoga
Chapter 16
Verse 16.7
प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च जना न विदुरासुराः । न शौचं नापि चाचारो न सत्यं तेषु विद्यते ॥ १६.७ ॥
आसुर स्वभाव वाले मनुष्य प्रवृत्ति और निवृत्ति —इन दोनों को ही नहीं जानते । इसलिये उनमें न तो बाहर-भीतर की शुद्भि है, न श्रेष्ट आचरण है और न सत्य भाषण ही है ।
Evil men O Partha. do not know the difference between what should and should not be done. Neither purity nor good conduct, nor even a single sign of truth exists in their hearts.
578
Daivasura-Sampad-Vibhaga Yoga
Chapter 16
Verse 16.8
असत्यमप्रतिष्ठं ते जगदाहुरनीश्वरम् । अपरस्परसंभूतं किमन्यत्कामहैतुकम् ॥ १६.८ ॥
वे आसुरी प्रकृति वाले मनुष्य कहा करते हैं कि जगत् आश्रयरहित, सर्वथा असत्य और बिना ईश्वर के, अपने आप केवल स्त्री-पुरुष के संयोग से उत्पन्न है, अतएव केवल काम ही इसका कारण है । इसके सिवा और क्या है ? ।
Men of this evil nature generally say that this world has no truth; is without a basis for morality and good-will; that no Lord exists and that nobody should show any love or devotion to Him; that there is no regular sequence (or law) of creation; and that birth is only the result of a natural union (of man and woman) and comes about due to pure lust and nothing else.
579
Daivasura-Sampad-Vibhaga Yoga
Chapter 16
Verse 16.9
एतां दृष्टिमवष्टभ्य नष्टात्मानोऽल्पबुद्धयः । प्रभवन्त्युग्रकर्माणः क्षयाय जगतोऽहिताः ॥ १६.९ ॥
इस मिथ्या ज्ञान को अवलम्बन करके — जिनका स्वभाव नष्ट हो गया है तथा जिनकी बुद्भि मन्द है, वे सबका अपकार करने वाले कूरकर्मी मनुष्य केवल जगत् के नाश के लिये ही समर्थ होते हैं ।
Standing firmly by these and other wrong beliefs throughout their lives, these evil men (whose souls have become corrupt and lost), show very little intelligence and are constantly absorbed in performing their evil tasks and wrong-doings. These demonic people are the enemies of this world and its people, and are leading it to total destruction.
580
Daivasura-Sampad-Vibhaga Yoga
Chapter 16
Verse 16.10
काममाश्रित्य दुष्पूरं दम्भमानमदान्विताः । मोहाद्\u200cगृहीत्वासद्ग्राहान्प्रवर्तन्तेऽशुचिव्रताः ॥ १...
वे दम्भ, मान और मद से युक्त्त मनुष्य किसी प्रकार भी पूर्ण न होने वाली कामनाओं का आश्रय लेकर अज्ञान से मिथ्या सिद्भान्तों को ग्रहण करके और भ्रष्ट आचरणों को धारण करके संसार में विचरते हैं ।
These corrupt beings darken their souls by surrendering to obsessive and unending evil desires. They are full of deceit, false pride and stubborness. They strongly support and encourage their evil views and continue to execute their corrupt and impure tasks.
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Daivasura-Sampad-Vibhaga Yoga
Chapter 16
Verse 16.11
चिन्तामपरिमेयां च प्रलयान्तामुपाश्रिताः । कामोपभोगपरमा एतावदिति निश्चिताः ॥ १६.११ ॥
तथा वे मृत्यु पर्यन्त रहने वाली असंख्य चिन्ताओं का आश्रय लेने वाले, विषय भोगों के भोगने में तत्पर रहने वाले और ‘इतना ही सुख है’ इस प्रकार मानने वाले होते हैं |
These evil-doers become obsessed with their several evil concerns and corrupt desires which remain with them all of their lives until their death. The highest goal in their lives (that is constantly on their minds), is the attainment of sensual enjoyment and material happiness in life and nothing else matters to them.
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Daivasura-Sampad-Vibhaga Yoga
Chapter 16
Verse 16.12
आशापाशशतैर्बद्धाः कामक्रोधपरायणाः । ईहन्ते कामभोगार्थमन्यायेनार्थसञ्चयान् ॥ १६.१२ ॥
वे आशा की सैकड़ों फांसियों से बँधे हुए मनुष्य काम क्रोध के परायण होकर विषय भोगों के लिये अन्याय पूर्वक धनादि पदार्थो का संग्रह करने की चेष्टा करते हैं |
The Blessed Lord described: They are bound to this world by hundreds of vain desires and hopes. They are obsessed with anger and lust. They also use unfair and often criminal means to gain enormous natural wealth in order to satisfy their neverending cravings to possess material items.
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Chapter 16
Verse 16.13
इदमद्य मया लब्धमिमं प्राप्स्ये मनोरथम् । इदमस्तीदमपि मे भविष्यति पुनर्धनम् ॥ १६.१३ ॥
वे सोचा करते हैं कि मैंने आज यह प्राप्त कर लिया है और अब इस मनोरथ को प्राप्त कर लूंगा । मेरे पास यह इतना धन है और फिर भी यह हो जायगा |
It is common to hear people utter such things in their conversations as: ‘I have gained this today, and I shall attain this desires later. This wealth belongs to me and more wealth shall also soon be mine.’
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Chapter 16
Verse 16.14
असौ मया हतः शत्रुर्हनिष्ये चापरानपि । ईश्वरोऽहमहं भोगी सिद्धोऽहं बलवान्सुखी ॥ १६.१४ ॥
वह शत्रु मेरे द्वारा मारा गया और उन दूसरे शत्रुओं को भी मैं मार डालूंगा । मैं ईश्वर हूँ, ऐश्वर्य को भोगने वाला हूँ । मैं सब सिद्धियों से युक्त्त हूँ और बलवान् तथा सुखी हूँ |
The Great Lord continued to describe the thinking of the Rakshasas (demons): It is also common to hear them say:’I have destroyed this enemy to mine and in a short time, my other enemies shall also be removed from my path of enjoyment in life. I am a Lord and the only Lord. Life is mine to enjoy as I wish. I am successful, powerful and content in life.’
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Chapter 16
Verse 16.15
आढ्योऽभिजनवानस्मि कोऽन्योऽस्ति सदृशो मया । यक्ष्ये दास्यामि मोदिष्य इत्यज्ञानविमोहिताः ॥ १६.१५ ॥
मै बड़ा धनी और बड़े कुटुम्ब वाला हूँ । मेरे समान दूसरा कौन है ? मैं यज्ञ करूँगा, दान दूंगा और आमोद प्रमोद करूँगा । इस प्रकार अज्ञान से मोहित रहने वाले तथा अनेक प्रकार से भ्रमित चित्त वाले मोह रूप जाल से समावृत और विषय भोगों में अत्यन्त आसक्त आसुर लोग महान् अपवित्र नरक में गिरते हैं |
‘I am wealthy and come from a very well-to-do and quite noble family. Who else in the world can compare to my greatness? I shall sacrifice during religious rituals (whether I believe in them or not).I shall give to various charities (to be celebrated as a great supporter of these charities) I shall thoroughly enjoy life as I please.’This, O Arjuna, is what people who are in a deluded,confused and corrupted state say.These peole who are confused by many foul thoughts and evil influences, entangled in the net of unending darkness and obsessive desires for material gains, they are blackened souls who fall down into a foul hell in the end.
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Chapter 16
Verse 16.16
अनेकचित्तविभ्रान्ता मोहजालसमावृताः । प्रसक्ताः कामभोगेषु पतन्ति नरकेऽशुचौ ॥ १६.१६ ॥
मै बड़ा धनी और बड़े कुटुम्ब वाला हूँ । मेरे समान दूसरा कौन है ? मैं यज्ञ करूँगा, दान दूंगा और आमोद प्रमोद करूँगा । इस प्रकार अज्ञान से मोहित रहने वाले तथा अनेक प्रकार से भ्रमित चित्त वाले मोह रूप जाल से समावृत और विषय भोगों में अत्यन्त आसक्त आसुर लोग महान् अपवित्र नरक में गिरते हैं |
‘I am wealthy and come from a very well-to-do and quite noble family. Who else in the world can compare to my greatness? I shall sacrifice during religious rituals (whether I believe in them or not).
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Chapter 16
Verse 16.17
आत्मसंभाविताः स्तब्धा धनमानमदान्विताः । यजन्ते नामयज्ञैस्ते दम्भेनाविधिपूर्वकम् ॥ १६.१७ ॥
वे अपने आपको ही श्रेष्ट मानने वाले घमण्डी पुरुष धन और मान के मद से युक्त्त होकर केवल नाम मात्र के यज्ञों द्वारा पाखण्ड से शास्त्र विधि रहित भजन करते हैं |
In their moments of extreme pride and glory, when their minds are clouded up by the intoxication of their (temporary) material possessions, and while having wrong intentions, they perform their sacrifices. They perform the sacrificial rituals for the sake of show disregarding all the divine laws of sacrifice.
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Daivasura-Sampad-Vibhaga Yoga
Chapter 16
Verse 16.18
अहंकारं बलं दर्पं कामं क्रोधं च संश्रिताः । मामात्मपरदेहेषु प्रद्विषन्तोऽभ्यसूयकाः ॥ १६.१८ ॥
वे अहंकार, बल, घमण्ड, कामना और क्रोधादि के परायण और दूसरों की निन्दा करने वाले पुरुष अपने और दूसरे के शरीर में स्थित मुझ अन्तर्यामी से द्बेष करने वाले होते हैं |
These evil beings are bound forever to their chains of selfishness, pride, arrogance, violence, anger and lust, These malicious men even despise Me, the true Lord of the Universe, who dwells even in their bodies and in those also with whom they associate.
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Chapter 16
Verse 16.19
तानहं द्विषतः क्रुरान्संसारेषु नराधमान् । क्षिपाम्यजस्रमशुभानासुरीष्वेव योनिषु ॥ १६.१९ ॥
मैं द्बेष करने वाले  पापाचारी और कूरकर्मी नराधमों को मैं संसार में बार-बार आसुरी योनियों में ही डालता हूँ|
hese devilish people who are cruel, whose soul is filled with hate, and who are among the worst men on earth, are ultimately thrown into destruction by Me the Supporter of all that is pure and who represents goodness in this world. O Arjuna, these people constantly remain in this vast cycle of constant birth and rebirth.
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Chapter 16
Verse 16.20
आसुरीं योनिमापन्ना मूढा जन्मनि जन्मनि । मामप्राप्यैव कौन्तेय ततो यान्त्यधमां गतिम् ॥ १६.२० ॥
हे अर्जुन ! वे मूढ़ मुझको न प्राप्त होकर ही जन्म-जन्म में आसुरी योनियों को प्राप्त होते हैं, फिर उससे भी अति नीच गति को प्राप्त होते हैं अर्थात् घोर नरकों में पड़ते हैं |
Furthermore, they are reborn into lower life forms and into currupt and evil families. They do not attain the highest state which is refuge in Me, O Arjuna, Instead, they choose to take the darker, lower path which leads to hell.
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Chapter 16
Verse 16.21
त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः । कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत् ॥ १६.२१ ॥
काम, क्रोध तथा लोभ — ये तीन प्रकार के नरक के द्वार आत्मा का नाश करने वाले अर्थात् उसको अधोगति में ले जाने वाले हैं । अतएव इन तीनों को त्याग देना चाहिये 
O Arjuna, there are three entrances or gateways to hell, all leading to the death of the self. These particular gates are known as the gateways of lust, anger, and greed. Man should avoid these gateways all his life or he shall inevitably suffer in hell after his death.
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Chapter 16
Verse 16.22
एतैर्विमुक्तः कौन्तेय तमोद्वारैस्त्रिभिर्नरः । आचरत्यात्मनः श्रेयस्ततो याति परां गतिम् ॥ १६.२२ ॥
हे अर्जुन ! इन तीनों नरक के द्वार से मुक्त्त पुरुष अपने कल्याण का आचरण करता है, इससे वह परम गति को जाता है अर्थात् मुझको प्राप्त हो जाता है |
O son of Kunti, should a man free himself from these three doors, to hell, darkness and destruction, he discovers what is best for his inner spirit (or soul). He then ultimately reaches the highest goal by following the Supreme Path which leads to union with Me, the Supreme Spirit.
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Daivasura-Sampad-Vibhaga Yoga
Chapter 16
Verse 16.23
यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः । न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम् ॥ १६.२३ ॥
जो पुरुष शास्त्र विधि को त्याग कर अपनी इच्छा से मनमाना आचरण करता है, वह न सिद्भि को प्राप्त होता है, न परम गति को और न सुख को ही| 
But, he who rejects and chooses not to follow the words of the Holy Scriptures (Vedas), and surrenders to his impulses and obsessive material desires, never attains perfection. Nor does he realize everlasting joy or peace, and most of all never discovers the Supreme Pathway which leads to My heart.
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Daivasura-Sampad-Vibhaga Yoga
Chapter 16
Verse 16.24
तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ । ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्म कर्तुमिहार्हसि ॥...
इससे तेरे लिये इस कर्तव्य और अकर्तव्य की व्यवस्था में शास्त्र ही प्रमाण है । ऐसा जानकर तू शास्त्र विधि से नियत कर्म ही करने योग्य है|
Therefore, O Pandava, regard the Holy Vedas as a guide to what is right and what is incorrect. Fully understand the words in these sacred writings, and most of all in this life, dutifully perform your responsibilities and work in their entirety.
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Shraddhatraya-Vibhaga Yoga
Chapter 17
Verse 17.1
अर्जुन उवाच । ये शास्त्रविधिमुत्सृज्य यजन्ते श्रद्धयान्विताः तेषां निष्ठा तु का कृष्ण सत्त्वमाहो र...
अर्जुन बोले —–हे कृष्ण ! जो मनुष्य शास्त्र विधि को त्याग कर श्रद्बा से युक्त्त हुए देवादि का पूजन करते हैं, उनकी स्थिति फिर कौन से है ? सात्विकी है ; अथवा राजसी किंवा तामसी|
Arjuna asked the Lord: What becomes of those people who do not obey the rules outlined by the Holy Scriptures yet perform ritual sacrifices with great faith and devotion? Are these people considered Saatvic (representing good), Rajas (representing passionate activity) or Tamas (immersed in total darkness and evil)?
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Shraddhatraya-Vibhaga Yoga
Chapter 17
Verse 17.2
श्रीभगवानुवाच । त्रिविधा भवति श्रद्धा देहिनां सा स्वभावजा सात्त्विकी राजसी चैव तामसी चेति तां शृणु...
श्री भगवान् बोले —– मनुष्यों की वह शास्त्रीय संस्कारों से रहित केवल स्वभाव से उत्पन्न श्रद्बा सात्विको और राजसी तथा तामसी —–ऐसे तीनों प्रकार की होती है । उसको तू मुझ से सुन| 
The Blessed Lord said: O Arjuna, man possesses three kinds of faith that are born from his nature and these are: faith born out of light and goodness; faith born out of fire, or passion; faith that is born out of darkness or dullness. Now my dear devotee and friend, I shall describe all of the faiths.
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Shraddhatraya-Vibhaga Yoga
Chapter 17
Verse 17.3
सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत । श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छ्रद्धः स एव सः ॥ १७.३ ॥
हे भारत ! सभी मनुष्यों की श्रद्बा उनके अन्त:करण के अनुरूप होती है, यह पुरुष श्रद्बामय है, इसलिये जो पुरुष जैसी श्रद्बा वाला है, वह स्वयं भी वही है|
The faith of every individual on earth O Arjuna is determined by their own nature. Man is made up of his own faith. Whatever a man’s faith is, in reality, that is what he is.
598
Shraddhatraya-Vibhaga Yoga
Chapter 17
Verse 17.4
यजन्ते सात्त्विका देवान्यक्षरक्षांसि राजसाः । प्रेतान्भूतगणांश्चान्ये यजन्ते तामसा जनाः ॥ १७.४ ॥
सात्विक पुरुष देवों को पूजते हैं, राजस पुरुष यक्ष और राक्षसों को तथा अन्य जो तामस मनुष्य हैं, वे प्रेत और भूत गणों को पूजते हैं |
Beings who are pure in heart and mind, who are good- natured and believe in following the path of light, these people worship the Gods of light. Individuals who are constantly active in earning material wealth and power and those people who constantly indulge in sin and corruption while living in evil darkness, worship the evil spirits.
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Shraddhatraya-Vibhaga Yoga
Chapter 17
Verse 17.5
अशास्त्रविहितं घोरं तप्यन्ते ये तपो जनाः । दम्भाहंकारसंयुक्ताः कामरागबलान्विताः ॥ १७.५ ॥
जो मनुष्य शास्त्र विधि से रहित केवल मन:कल्पित घोर तप को तपते हैं तथा दम्भ और अहंकार से युक्त्त एवं कामना, आसक्ति और बल के अभिमान से भी युक्त्त हैं|
Those men who are selfish, corrupt, conceited, and false; whose actions are totally controlled by lust and passion; who perform terrible rituals that are forbidden by the Holy Scriptures.
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Shraddhatraya-Vibhaga Yoga
Chapter 17
Verse 17.6
कर्षयन्तः शरीरस्थं भूतग्राममचेतसः । मां चैवान्तःशरीरस्थं तान्विद्ध्यासुरनिश्चयान् ॥ १७.६ ॥
जो शरीर रूप से स्थित भूत समुदाय को और अन्त:करण में स्थित मुझ परमात्मा को भी कृश करने वाले हैं, उन अज्ञानियों को तू असुर स्वभाव वाले जान |
and those who foolishly suppress the pure and natural life-giving powers within their bodies, as well as, at the same time, torture Me, who lives within their bodies; Arjuna, understand that the minds of these particular beings are filled with nothing but darkness and evil.