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कोशिका (Cell) सजीवों के शरीर की रचनात्मक और क्रियात्मक इकाई है और प्राय: स्वत: जनन की सामर्थ्य रखती है। यह विभिन्न पदार्थों का वह छोटे-से-छोटा संगठित रूप है जिसमें वे सभी क्रियाएँ होती हैं जिन्हें सामूहिक रूप से हम जीवन कहतें हैं। 'कोशिका' का अंग्रेजी शब्द सेल (Cell) लैटिन भाषा के 'शेलुला' शब्द से लिया गया है जिसका अर्थ 'एक छोटा कमरा' है। कुछ सजीव जैसे जीवाणुओं के शरीर एक ही कोशिका से बने होते हैं, उन्हें एककोशकीय जीव कहते हैं जबकि कुछ सजीव जैसे मनुष्य का शरीर अनेक कोशिकाओं से मिलकर बना होता है उन्हें बहुकोशकीय सजीव कहते हैं। कोशिका की खोज रॉबर्ट हूक ने १६६५ ई० में किया।[1] १८३९ ई० में श्लाइडेन तथा श्वान ने कोशिका सिद्धान्त प्रस्तुत किया जिसके अनुसार सभी सजीवों का शरीर एक या एकाधिक कोशिकाओं से मिलकर बना होता है तथा सभी कोशिकाओं की उत्पत्ति पहले से उपस्थित किसी कोशिका से ही होती है। सजीवों की सभी जैविक क्रियाएँ कोशिकाओं के भीतर होती हैं। कोशिकाओं के भीतर ही आवश्यक आनुवांशिक सूचनाएँ होती हैं जिनसे कोशिका के कार्यों का नियंत्रण होता है तथा सूचनाएँ अगली पीढ़ी की कोशिकाओं में स्थानान्तरित होती हैं।[2] कोशिकाओं का विधिवत अध्ययन कोशिका विज्ञान (Cytology) या 'कोशिका जैविकी' (Cell Biology) कहलाता है। आविष्कार एवं अनुसंधान का इतिहास रॉबर्ट हुक ने 1665 में बोतल की कार्क की एक पतली परत के अध्ययन के आधार पर मधुमक्खी के छत्ते जैसे कोष्ठ देखे और इन्हें कोशा नाम दिया। यह तथ्य उनकी पुस्तक माइक्रोग्राफिया में छपा। राबर्ट हुक ने कोशा-भित्तियों के आधार पर कोशा शब्द प्रयोग किया। 1674 एंटोनी वॉन ल्यूवेन्हॉक ने जीवित कोशा का सर्वप्रथम अध्ययन किया। उन्होंने जीवित कोशिका को दाँत की खुरचनी में देखा था । 1831 में रॉबर्ट ब्राउन ने कोशिका में 'ककेंद्रक एवं केंद्रिका' का पता लगाया। तदरोचित नामक वैज्ञानिक ने 1824 में कोशावाद (cell theory) का विचार प्रस्तुत किया, परन्तु इसका श्रेय वनस्पति-विज्ञान-शास्त्री श्लाइडेन (Matthias Jakob Schleiden) और जन्तु-विज्ञान-शास्त्री श्वान (Theodor Schwann) को दिया जाता है जिन्होंने ठीक प्रकार से कोशावाद को (1839 में) प्रस्तुत किया और बतलाया कि 'कोशाएँ पौधों तथा जन्तुओं की रचनात्मक इकाई हैं।' 1855: रुडॉल्फ विर्चो ने विचार रखा कि कोशिकाएँ सदा कोशिकाओं के विभाजन से ही पैदा होती हैं। 1953: वाट्सन और क्रिक (Watson and Crick) ने डीएनए के 'डबल-हेलिक्स संरचना' की पहली बार घोषणा की। 1981: लिन मार्गुलिस (Lynn Margulis) ने कोशिका क्रम विकास में 'सिबियोस' (Symbiosis in Cell Evolution) पर शोधपत्र प्रस्तुत किया। 1888: में वाल्डेयर (Waldeyer) ने गुणसूत्र (Chromosome) का नामकरण किया । 1883: ईमें स्विम्पर (ने पर्णहरित (Chloroplast) Schimper) का नामकरण किया । 1892: में वीजमैन (Weissman) ने सोमेटोप्लाज्म (Somatoplasm) एवं जर्मप्लाज्म (Germplasm) के बीच अंतर स्पष्ट किया। 1955: में जी.इ पैलेड (G.E. Palade) ने राइबोसोम (Ribosome) की खोज की। [3] प्रकार कोशिकाएँ दो प्रकार की होती हैं, प्रोकैरियोटिक कोशिका (prokaryotic cells) तथा यूकैरियोटिक कोशिका (eukaryotic cell) प्रोकैरियोटिक कोशिकाएँ प्रायः स्वतंत्र होती हैं जबकि यूकैरियोटिक कोशिकाएँ, बहुकोशीय प्राणियों में पायी जाती हैं। प्रोकैरियोटिक कोशिका में कोई स्पष्ट केन्द्रक नहीं होता है। केन्द्रकीय पदार्थ कोशिका द्रव में बिखरे होते हैं। इस प्रकार की कोशिका जीवाणु तथा नीली हरी शैवाल में पायी जाती है। सभी उच्च श्रेणी के पौधों और जन्तुओं में यूकैरियोटिक प्रकार की कोशिका पाई जाती है। सभी यूकैरियोटिक कोशिकाओ में संगठित केन्द्रक पाया जाता है जो एक आवरण से ढका होता है। कोशिका संरचना कोशिकाएँ सजीव होती हैं तथा वे सभी कार्य करती हैं, जिन्हें सजीव प्राणी करते हैं। इनका आकार अतिसूक्ष्म तथा आकृति गोलाकार, अंडाकार, स्तंभाकार, रोमकयुक्त, कशाभिकायुक्त, बहुभुजीय आदि प्रकार की होती है। ये जेली जैसी एक वस्तु द्वारा घिरी होती हैं। इस आवरण को कोशिकावरण (cell membrane) या कोशिका-झिल्ली कहते हैं यह झिल्ली अवकलीय पारगम्य (selectively permeable) होती है जिसका अर्थ है कि यह झिल्ली किसी पदार्थ (अणु या ऑयन) को मुक्त रूप से पार होने देती है, सीमित मात्रा में पार होने देती है या बिल्कुल रोक देती है। इसे कभी-कभी 'जीवद्रव्य कला' (plasma membrane) भी कहा जाता है। इसके भीतर निम्नलिखित संरचनाएँ पाई जाती हैं:- (1) केंद्रक एवं केंद्रिका (2) जीवद्रव्य (3) गोल्गी सम्मिश्र या गोल्गी यंत्र (4) कणाभ सूत्र (5) अंतर्प्रद्रव्य डालिका (6) गुणसूत्र (पितृसूत्र) एवं जीन (7) राइबोसोम तथा सेन्ट्रोसोम (8) लवक कुछ खास भिन्नताओं को छोड़ सभी प्रकार की कोशिकाओं, पादप एवं जन्तु कोशिका की संरचना लगभग एक जैसी होती है। ये सजीव और निर्जीव दोनों तरह की इकाईयों से मिलकर बनी होती हैं। एक सामान्य कोशिका या प्रारूपिक कोशिका के मुख्य तीन भाग हैं, कोशिकावरण, कोशिका द्रव्य एवं केन्द्रक। कोशिकावरण कोशिका का सबसे बाहर का आवरण या घेरा है। पादप कोशिका में कोशिका भित्ति और कोशिका झिल्ली मिलकर कोशिकावरण का निर्माण करते हैं। जन्तु कोशिका में कोशिका भित्ति नहीं पाई जाती अतः कोशिका झिल्ली ही सबसे बाहरी आवरण है। कोशिका झिल्ली एवं केन्द्रक के बीच के भाग को कोशिका द्रव्य कहा जाता है, इसमें विभिन्न कोशिकांग होते हैं। केन्द्रक कोशिका के अन्दर पाये जाने वाली एक गोल एवं सघन रचना है। केन्द्रक को कोशिका का 'मस्तिष्क' कहा जाता है। जिस प्रकार शरीर के सारे क्रियायों का नियंत्रण मस्तिष्क करता है ठीक उसी प्रकार कोशिका के सारे कार्यों का नियंत्रण केन्द्रक द्वारा होता है। केंद्रक एक कोशिका में सामान्यतः एक ही केंद्रक (nucleus) होता है, किंतु कभी-कभी एक से अधिक केंद्रक भी पाए जाते हैं। कोशिका के समस्त कार्यों का यह संचालन केंद्र होता है। जब कोशिका विभाजित होती है तो इसका भी विभाजन हो जाता है। केंद्रक कोशिका के भीतर एक तरल पदार्थ कोशिकाद्रव्य (cytoplasm) में प्राय: तैरता रहता है। इसका यद्यपि कोई निश्चित स्थान नहीं होता, तथापि यह अधिकतर लगभग मध्यभाग में ही स्थित होता है। कुछ कोशिकाओं में इसकी स्थिति आधारीय (basal) और कुछ में सीमांतीय (peripheral) भी होती है। केंद्रक की आकृति गोलाकार, वर्तुलाकार या अंडाकार होती है। तथापि, कभी-कभी यह बेलनाकार, दीर्घवृत्ताकार, सपात, शाखान्वित, नाशपाती जैसा, भालाकार आदि स्वरूपों का भी हो सकता है। इसके भीतर केंद्रकरस (nuclear sap) केंद्रिका (nucleolus) तथा पितृसूत्र (chromosomes) पाए जाते हैं। केंद्रक के आवरण को केंद्रककला (nuclear membrance or nucleolemma) कहते हैं। केंद्रिका (Nucleolus) प्रत्येक केंद्रक में एक या अधिक केंद्रिकाएँ पाई जाती हैं। कोशिका विभाजन की कुछ विशेष अवस्था में केंद्रिका लुप्त हो जाती, किंतु बाद में पुन: प्रकट हो जाती है। केंद्रिका के भीतर रिबोन्यूक्लीइक अम्ल (ritioncleric acid or RNA) तथा कुछ विशेष प्रकार के एंज़ाइम अधिक मात्रा में पाए जाते हैं। केंद्रिका सूत्रण (mitosis) या सूत्री विभाजन में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। जीवद्रव्य (protoplasm) यह एक गाढ़ा तरल पदार्थ होता है जो स्थानविशेष पर विशेष नामों द्वारा जाना जाता है; जैसे, द्रव्यकला (plasma membrane) तथा केंद्रक के मध्यवर्ती स्थान में पाए जाने वाले जीवद्रव्य को कोशिकाद्रव्य (cyt plasm) और केंद्रक झिल्ली (nuclear membrane) के भीतर पाए जाने वाले जीवद्रव्य को केंद्रक द्रव्य (nucleoplasm) कहते हैं। कोशिका का यह भाग अत्यंत चैतन्य और कोशिका की समस्त जैवीय प्रक्रियाओं का केंद्र होता है। इसे इसीलिए 'सजीव' (living) कहा जाता है। जीव वैज्ञानिक इसे 'जीवन का भौतिक आधार' (physcial basis of life) नाम से संबोधित करते हैं। आधुनिक जीव वैज्ञानिकों ने जीवद्रव्य का रासायनिक विश्लेषण करके यह तो पता लगा लिया है कि उसका निर्माण किन-किन घटकों द्वारा हुआ है, किंतु आज तक किसी भी वैज्ञानिक को उसमें (जीवद्रव्य) प्राण का संचार करने में सफलता हाथ नहीं लगी है। ऐसा है यह प्रकृति का रहस्यमय पदार्थ। जीवद्रव्य का निर्माण कार्बन, हाइड्रोजन, ऑक्सीजन तथा अनेक कार्बनिक (organic) तथा अकार्बनिक (inorganic) पदार्थो द्वारा हुआ होता है। इसमें जल की मात्रा लगभग 80% प्रोटीन 15%, वसाएँ 3% तथा कार्बोहाइड्रेट 1% और अकार्बनिक लवण की 1 होती है। जीवद्रव्यों के कई प्रकार होते हैं, जैसे कोलाइड (colloid), कणाभ (granular), तंतुमय (fibrillar), जालीदार (reticular), कूपिकाकार (alveolar), आदि। गोल्गी सम्मिश्र या यंत्र (Golgi complex or apparatus) इस अंग का यह नाम इसके खोजकर्ता कैमिलो गोल्गी, के नाम पर पड़ा है, जिन्होंने 1898 में सर्वप्रथम इसकी खोज की। यह अंग साधारणतः केंद्रक के समीप, अकेले या समूहों में पाया जाता है। इसकी रचना तीन तत्वों (elements) या घटकों (components) द्वारा हुई होती है: सपाट कोश (flattened sacs), बड़ी बड़ी रिक्तिकाएँ (large vacueles) तथा आशय (vesicles)। यह एक प्रकार के जाल (network) जैसा दिखलाई देता है। इनका मुख्य कार्य कोशिकीय स्रवण (cellular secretion) और प्रोटीनों, वसाओं तथा कतिपय किण्वों (enzymes) का भडारण करना (storage) है। कणाभसूत्र (Mitochondria) ये कणिकाओं (granules) या शलाकाओं (rods) की आकृतिवाले होते हैं। ये अंगक (organelle) कोशिकाद्रव्य (cytoplasm) में स्थित होते हैं। इनकी संख्या विभिन्न जंतुओं में पाँच लाख तक हो सकती है। इनका आकार 1/2 माइक्रॉन से लेकर 2 माइक्रॉन के बीच होता है। विरल उदाहरणों (rare cases) में इनकी लंबाई 40 माइक्रॉन तक हो सकती है। इनके अनेक कार्य बतलाए गए हैं, जो इनकी आकृति पर निर्भर करते हैं। तथापि इनका मुख्य कार्य कोशिकीय श्वसन (cellular respiration) बतलाया जाता है। इन्हें कोशिका का 'पावर प्लांट' (power plant) कहा जाता है, क्योंकि इनसे आवश्यक ऊर्जा (energy) की आपूर्ति होती रहती है। अंतर्प्रद्रव्य जालिका (fndoplasmic reticulum) यह जालिका कोशिकाद्रव्य (cytoplasm) में आशयों (vesicles) और नलिकाओं (tubules) के रूप में फैली रहती है। इसकी स्थिति सामान्यतः केंद्रकीय झिल्ली (nuclear membrane) तथा द्रव्यकला (plasma membrane) के बीच होती है, किंतु यह अक्सर संपूर्ण कोशिका में फैली रहती है। यह जालिका दो प्रकार की होती है: चिकनी सतहवाली (smooth surfaced) और खुरदुरी सतहवाली (rough surfaced)। इसकी सतह खुरदुरी इसलिए होती है कि इस पर राइबोसोम (ribosomes) के कण बिखरे रहते हैं। इसके अनके कार्य बतलाए गए हैं, जैसे यांत्रिक आधारण (mechanical support), द्रव्यों का प्रत्यावर्तन (exchange of materials), अंत: कोशिकीय अभिगमन (intracellular transport), प्रोटोन संश्लेषण (protein synthesis) इत्यादि। गुणसूत्र या पितृसूत्र (chromosomes) यह शब्द क्रोम (chrom) तथा सोमा (soma) शब्दों से मिलकर बना है, जिसका अर्थ होता है: रंगीन पिंड (colour bodies)। गुणसूत्र केंद्रकों के भीतर जोड़ों (pairs) में पाए जाते हैं और कोशिका विभाजन के साथ केंद्रक सहित बाँट जाया करते हैं। इनमें स्थित जीवों की पूर्वजों के पैत्रिक गुणों का वाहक कहा जाता है। इनकी संख्या जीवों में निश्चित होती है, जो एक दो जोड़ों से लेकर कई सौ जोड़ों तक हो सकती है। इनका आकार 1 माइक्रॉन से 30 माइक्रॉन तक (लंबा) होता है। इनकी आकृति साधारणतः अंग्रेजी भाषा के अक्षर S जैसी होती हैं। इनमें न्यूक्लिओ-प्रोटीन (nucleoprotein) मुख्य रूप से पाए जाते हैं। पितृसूत्रों के कुछ विशेष प्रकार भी पाए जाते हैं, जिन्हें लैंपब्रश पितृसूत्र (lampbrush chromosomes) और पोलोटीन क्रोमोसोम (polytene chromosomes) की संज्ञा दी गई है। इन्हें W, X, Y, Z, आदि नामों से संबोधित किया जाता है। जीन (gene) जीनों को पैत्रिक गुणों का वाहक (carriers of hereditary characters) माना जाता है। क्रोमोसोम या पितृसूत्रों का निर्माण हिस्टोन प्रोटीन तथा डिऑक्सीराइबोन्यूक्लिक ऐसिड (DNA) तथा राइबोन्यूक्लिक ऐसिड (RNA) से मिलकर हुआ होता है। जीन का निर्माण इन्हीं में से एक, डी॰ एन॰ ए॰ द्वारा होता है। कोशिका विभाजनों के फलस्वरूप जब नए जीव के जीवन का सूत्रपात होता है, तो यही जीन पैतृक एवं शरीरिक गुणों के साथ माता पिता से निकलकर संततियों में चले जाते हैं। यह आदान प्रदान माता के डिंब (ovum) तथा पिता के शुक्राणु (sperms) में स्थित जीनों के द्वारा संपन्न होता है। सन्‌ 1970 के जून मास में अमरीका स्थित भारतीय वैज्ञानिक श्री हरगोविंद खुराना को कृत्रिम जीन उत्पन्न करने में अभूतपूर्व सफलता मिली थी। इन्हें सन्‌ 1978 में नोबेल पुरस्कार मिला था। रिबोसोम (ribosomes) सेंट्रोसोम (centrosomes) सूक्ष्म गुलिकाओं के रूप में प्राप्त इन संरचनाओं को केवल इलेक्ट्रॉन माइक्रॉस्कोप के द्वारा ही देखा जा सकता है। इनकी रचना 50% प्रोटीन तथा 50% आर॰ एन॰ ए॰ द्वारा हुई होती है। ये विशेषकर अंतर्प्रद्रव्य जालिका के ऊपर पाए जाते हैं। इनमें प्रोटीनों का संश्लेषण होता है। सेंट्रोसोम (centrosomes)– ये केंद्रक के समीप पाए जाते हैं। इनके एक विशेष भाग को सेंट्रोस्फीयर (centrosphere) कहते हैं, जिसके भीतर सेंट्रिओलों (centrioles) का एक जोड़ा पाया जाता है। कोशिका विभाजन के समय ये विभाजक कोशिका के ध्रुव (pole) का निर्धारण और कुछ कोशिकाओं में कशाभिका (flagella) जैसी संरचनाओं को उत्पन्न करते हैं। लवक (plastids) लवक अधिकतर पौधों में ही पाए जाते हैं। ये एक प्रकार के रंजक कण (pigment granules) हैं, जो जीवद्रव्य (protoplasm) में यत्र तत्र बिखरे रहते हैं। क्लोरोफिल (chlorophyll) धारक वर्ण के लवक को हरित्‌ लवक (chloroplas) कहा जाता है। इसी के कारण वृक्षों में हरापन दिखलाई देता है। क्लोरोफिल के ही कारण पेड़ पौधे प्रकाश संश्लेषण (photosynthesis) करते हैं। कुछ वैज्ञानिकों के मतानुसार लवक कोशिकाद्रव्यीय वंशानुगति (cytoplasmic inheritance) के रूप में कोशिका विभाजन के समय संतति कोशिकाओं में सीधे सीधे स्थानांतरित हो जाते हैं। कार्य वृद्धि तथा चयापचय सृजन प्रोटीन संश्लेषण सन्दर्भ इन्हें भी देखें कोशिका विज्ञान (Cytology) ऊतक विज्ञान (Histology) कोशिकांग (organelle) बाहरी कड़ियाँ (राजस्थान लोकसेवा आयोग पोर्टल) श्रेणी:कोशिकाविज्ञान श्रेणी:कोशिका श्रेणी:हिन्दी विकि डीवीडी परियोजना
किस वैज्ञानिक ने यह विचार रखा कि कोशिकाएँ सदा कोशिकाओं के विभाजन से ही पैदा होती हैं?
रुडॉल्फ विर्चो
1,942
hindi
a8144032c
कार्बन मोनोऑक्साइड (CO) (अंग्रेजी:Carbon monoxide) एक रंगहीन गैस है। यह गैस हवा से थोड़ी हल्की होती है। ऊँची सांद्रता में यह मनुष्यों और जानवरों के लिए विषाक्त होती है, हालाँकि कम मात्रा में यह कुछ सामान्य जैविक कार्यों के लिए उपयोगी साबित होती है। ढांचा कार्बन मोनोऑक्साइड एक कार्बन परमाणु और एक ऑक्सीजन परमाणु के त्रि-आबंध से बनता है। इसका अणु सूत्र CO है। क्योंकि इसमें जैव बल (Vital Force) नहीं होता, इसके गुण अजैविक यौगिकों से ज्यादा समानता रखते है। शरीर पर असर इसकी अधिक मात्रा शरीर के अंदर जाने पर पहले दम घुटता है, बाद में बेहोशी आती है और म्रत्यु तक हो सकती है। श्रेणी:अकार्बनिक यौगिक
कार्बन मोनोऑक्साइड का सूत्र क्या है?
CO
20
hindi
d6c9beda1
दियाह प्रेमाता मेगावती सेतियावती सुकर्णोपुत्री, (Indonesian pronunciation:[meɡawati sukarnɔputri](listen) जन्म 23 जनवरी 1947), जिन्हें मेगावती सुकर्णोपुत्री के नाम से जाना जाता है, इंडोनेशियाई राजनीतिज्ञ और विपक्षी दल पीडीआई-पी की नेता है। इन्होंने 23 जुलाई 2001 से लेकर 20 अक्टूबर 2004 तक इंडोनेशिया के राष्ट्रपति के रूप में कार्यभार संभाला था और देश की पहली महिला राष्ट्रपति होने का गौरव हासिल किया था। इसके अलावा वे ऐसी पहली राजनीतिज्ञ हैं, जो इंडोनेशिया के स्वतंत्र होने के बाद पैदा हुईं। मेगावती इंडोनेशिया के पहले राष्ट्रपति सुकर्णो की पुत्री हैं। प्रारम्भिक जीवन मेगावती का जन्म योग्यकार्ता में सुकर्णो तथा फतमावती के घर में हुआ था। फतमावती उनकी नौ पत्नियों में से एक थी। उनका लालन पालन उनके पिता के ही मेरदेका महल में हुआ था। वह अपने पिता के मेहमानों के सामने नृत्य करती थी तथा बागवानी को उन्होंने अपना शौक बना लिया था।[1] जब मेगावती 19 साल की थी तब उनके पिता को देश की सत्ता छोड़नी पड़ी तथा उसके बाद सुहार्तो के नेतृत्व में सरकार बनी। सुहार्तो ने सुकर्णो तथा उनके परिवार को राजनीति के नेपथ्य में भेज दिया। मेगावती ने प्रदजदजरन विश्विद्यालय, बानदुंग में कृषि के अध्ययन के लिये प्रवेश लिया परन्तु उनके पिता के राजनैतिक पतन के कारण उन्हें यहाँ से निकाल दिया गया। 1970 में पिता की मृत्यु के बाद उन्होंने इण्डोनेशिया विश्विद्यालय में मनोविज्ञान पढ़ने के लिये प्रवेश लिया मगर दो साल बाद 1972 में उन्हें यहाँ से भी निकाल दिया गया।[2] वह इस्लाम धर्म की अनुयायी हैं परन्तु पारम्परिक जावा धर्म को भी मानती हैं। नाम सुकर्णोपुत्री (जिसका अर्थ सुकर्णो की पुत्री है) उनका गोत्र हैं, न कि पारिवारिक नाम; क्योंकि जावा के निवासी के प्रायः पारिवारिक नाम नहीं होते। उनके नाम प्रायः मेगा या मेगावती कहा जाता है, जो कि संस्कृत भाषा के एक शब्द है जिसका अर्थ "बादलों की देवी" है। श्री सत्य साईं प्राइमरी स्कूल में अपने व्याख्यान के दौरान उन्होंने कहा कि उनके पिता के आग्रह पर ओडिशा के मुख्यमंत्री बीजू पटनायक ने उनका यह नाम रखा है।[3][4] राजनैतिक यात्रा 1986 में एक समारोह के दौरान सुहार्तो ने सुकर्णो को घोषित नायक का दर्जा दिया। इस समारोह में मेगावती भी उपस्थित थीं। इस समय तक मेगावती स्वयं को गृहणी के रूप में पेश करती थीं मगर 1987 में उन्होंने इण्डोनेशियन डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीआई) की सदस्यता ली तथा देवान पेरवाकिलन रक्यात (इण्डोनेशियाई संसद) की सदस्यता पाने में लग गयीं। पीडीआई ने भी मेगावती को अपनी जनता के मध्य अपनी छवि बनाने के उद्देश्य से पार्टी में स्वीकार कर लिया। अपने भाषण देने की कला में निपुण न होने के बावजूद भी सुकर्णो की बेटी होने के कारण उनकी लोकप्रियता बढ़ने लगी। पार्टी की करारी हार के बावजूद भी वह इण्डोनेशियाई संसद के लिये चुनी गयीं। दिसम्बर 1993 में वह अपनी पार्टी पीडीआई की अध्यक्ष भी बनी।[5] उनकी अध्यक्षता में पार्टी की लोकप्रियता में भारी उछाल हुआ। इण्डोनेशिया की राष्ट्रपति 23 जुलाई 2001 को मेगावती इण्डोनेशिया के राष्ट्रपति पद पर विराजमान हुई। इस प्रकार से वह किसी मुस्लिम बहुल देश की सत्ता के शीर्ष पद पर पहुँचने वाली छठीं महिला बनी।[6] उनसे पहले पाकिस्तान में बेनज़ीर भुट्टो, बांग्लादेश में खालिदा ज़िया, तुर्की की तान्सु सिलर, बांग्लादेश में ही शेख हसीना तथा सेनेगल में मामे मादियोर बोये मुस्लिम बहुल देश की सत्ता के शीर्ष पद तक पहुँची थी। उनके राष्ट्रपति काल को जनता ने प्रारम्भ में तो हाथों हाथ लिया मगर जल्द ही उनकी नीतियों में अनिश्चितता, स्पष्ट विचारधारा में कमी तथा महत्वपूर्ण नीतिगत निर्णयों में निष्क्रियता जैसी कमियाँ उजागर होने लगी।[7][8][9] 2004 में देश में राष्ट्रपति पद के लिये पहली बार प्रत्यक्ष चुनाव हुए। उन्हें उम्मीद थी की वह एक मुस्लिम बहुल देश में एक बार फिर से सत्ता संभालेंगी परन्तु उन्हें सुसीलो बाम्बांग युद्धोयोनो के विरुद्ध धोखे से द्वितीय चरण में 61 के मुकाबले 39 प्रतिशत मत मिले,[6] और वह हार गयीं। इसके बाद उन्होंने नये राष्ट्रपति का स्वागत भी नहीं किया, न ही उन्हें कभी बधाई दी।[10] परिवार मेगावती की पहली शादी 1 जून 1968 में सेना में प्रथम लेफ्टिनेन्ट सुरिन्दो सुपजारसो से हुई। वह 22 जनवरी 1970 को पापुआ में एक विमान दुर्घटना में मारे गये। 27 जून 1972 को उन्होंने मिस्र के कूटनीतिज्ञ हसन गमाल अहमद हसन से शादी की। 3 महीनें बाद ही उनकी यह शादी धार्मिक न्यायालय से अमान्य घोषित हो गयी।[2] इसके बाद 25 मार्च 1973 को उन्होंने तैफिक किमास से शादी की जिनकी मृत्यु 8 जून 2013 में हुई।[11] उनके तीन बच्चे मोहम्मद रिजकी प्रामाता, मोहम्मद प्रानांदा तथा पुआन महारानी हैं। सन्दर्भ और अधिक पढ़ें Check date values in: |date= (help)CS1 maint: postscript (link) CS1 maint: ref=harv (link) विच्लेन, सोंजा वान (एम्सटर्डम विश्वविद्यालय), "." () Westminster Papers in Communication and Culture. 2006 (वेस्टमिंस्टर विश्विद्यालय, लंदन), भाग 3(2): 41-59. ISSN 1744-6708 (प्रिंट); 1744-6716 (ऑनलाइन)। पृ॰41-59. गेर्लाक, रिकार्दा (2013): 'Mega' Expectations: Indonesia's Democratic Transition and First Female President. In: Derichs, Claudia/Mark R. Thompson (eds.): Dynasties and Female Political Leaders in Asia. Berlin et al.: LIT, पृ॰247-290. स्कार्ड, टोर्लिड (2014) "Megawati" in Women of power - half a century of female presidents and prime ministers worldwide। ब्रिस्टल पाॅलिसी प्रेस, . बाहरी कड़ियाँ Unknown parameter |deadurl= ignored (|url-status= suggested) (help); Check date values in: |archivedate= (help)CS1 maint: discouraged parameter (link). फ़ोर्ब्स. करोन, टोनी "." टाइम पत्रिका शुक्रवार 27 जुलाई 2001. श्रेणी:व्यक्तिगत जीवन श्रेणी:1947 में जन्मे लोग श्रेणी:जीवित लोग श्रेणी:इण्डोनेशिया के राष्ट्रपति श्रेणी:महिला राष्ट्रपति
इंडोनेशिया की पहली महिला राष्ट्रपति कौन थी?
दियाह प्रेमाता मेगावती सेतियावती सुकर्णोपुत्री
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hindi
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भारती एयरटेल, जिसे पहले भारती टेलीवंचर उद्यम लिमिटेड (BTVL) के नाम से जाना जाता था, अब भारत की दूरसंचार व्यवसाय आॅपरेटरों की सबसे दूसरी बड़ी कंपनी है जिसके जुलाई २०१८ तक ३४.४५ करोड़ उपभोक्ता थे।[3] यह फिक्स्ड लाइन सेवा तथा ब्रॉडबैंड सेवाएँ भी प्रदान करती हैं। यह अपनी दूरसंचार सेवाएँ एयरटेल के ब्रांड तले प्रदान करती है और इसका नेतृत्व सुनील मित्तल (Sunil Mittal) करते हैं। यह कंपनी १४ सर्किलों में डीएसएल पर टेलीफोन सेवा तथा इंटरनेट की पहुंच भी उपलब्ध कराती है। यह कंपनी लंबी दूरी वाली राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय सेवाओं के साथ अपने मोबाइल, ब्रॉडबैंड तथा टेलीफोन सेवाओं की पूरक सेवाएँ का कार्य करती है। कंपनी के पास चैन्नई में पनडुब्बी केबल लैंडिंग स्टेशन भी है जो चेन्नई और सिंगापुर को जोड़ने वाली पनडुब्बी केबल को जोड़ता है। कंपनी अपने कॉरपोरेट ग्राहकों को देश में फाइबर आप्टिक बैकबोन द्वारा अंत:दर अंत: आंकड़े तथा उद्यम सेवाएं प्रदान कराती है, इसके अलावा फिक्स्ड लाइन एवं मोबाइल सर्किलों, वीसेट, आईएसपी तथा गेटवे एवं लैंडिंग स्टेशनों के माध्यम से अंतरराष्ट्रीय बैंडविड्थ की पहुँच हेतु अंतिम मील तक संबंध जोड़ने का कार्य करती है। एयरटेल' भारत में भारती एयरटेल ]द्वारा संचालित दूरसंचार सेवाओं की एक ब्रांड है। भारत में ग्राहकों की संख्या की दृष्टि से एयरटेल सेल्यूलर सेवा की सबसे बड़ी कंपनी है। भारती एयरटेल के पास एयरटेल ब्रांड का स्वामित्व है और अपने ब्रांड नाम एयरटेल मोबाइल सर्विसेज के नाम से जीएसएम (GSM) प्रौद्योगिकी का उपयोग करते हुए निम्नलिखित सेवाएं उपलब्ध कराती है: ब्राडबैंड तथा दूरसंचार सेवाएं, स्थिर लाइन इंटरनेट कनेक्टीविटी (डीएसएल तथा बंधक लाइन), लंबी दूरी की सेवाएं एवं उद्यम सेवाएं (कॉरपोरेट के दूरसंचार परामर्श). देश के २२ सर्किल में यह अपना कार्य कर रही है और वित्तीय वर्ष २०१८ तक वर्तमान आबादी की ९६% आबादी को अपनी सेवाएं प्रदान कर रही है। प्रमुख अंतर्राष्ट्रीय दूरसंचार कंपनियां जैसे वोडाफ़ोन और [सिंग टेल|सिंग टेल] की भारती एयरटेल में आंशिक भागीदारी है। अप्रैल २००६ में जर्सी में चैनल द्वीप में स्थानीय दूरसंचार नियंत्रक द्वारा भारती ग्लोबल लिमिटेड को दूरसंचार लाईसेंस प्रदान किया गया था। सिंतबर २००६ में गोर्नजी उपयोगिता नियंत्रण कार्यालय ने गोर्नजी एयरटेल को मोबाइल दूरसंचार लाईसेंस प्रदान किया। मई २००७ में जर्सी एयरटेल और गोर्नज एयरटेल ने द्वीप में रहने वाले मोबाइल उपभोक्ताओं के लिए वोडाफोन के साथ संबधों की शुरूआत की घोषणा की है। जुलाई २००७ में, भारती एयरटेल ने नोकिया-सीमेन्स के साथ अपने मोबाइल और फिक्स्ड नेटवर्क के विस्तार हेतु ९०० मिलियन राशि वाले एक सहमति पत्र पर हस्ताक्षर किए "भारती और नोकिया ने मिलकर ९०० मिलियन डॉलर के विस्तार समझौता ज्ञापन पर हस्ताक्षर किए "],Yahoo! समाचार (Yahoo! News), ३ जुलाई २००७</ref> अगस्त २००७ में कंपनी ने घोषणा की कि वह गूगल सर्च इंजन का कस्टमाइज्ड रूपांतर प्रस्तुत करेगा जो इसके ब्रॉडबैंड उपभोक्ताओं को विभिन्न प्रकार की सेवाएं उपलब्ध कराएगा। मार्च २००८ में, भारती एयरटेल सिंगटेल] (Singtel) के साथ मिलकर श्रीलंका में ३जी सेवाएं शुरू करेगी। ऐसा इसलिए हैं कि सिंगापुर स्थित एशियाई दूरसंचार की प्रमुख कंपनी सिंगटेल जिसका भारती एयरटेल में ३० प्रतिशत हिस्सा है ३जी स्पेस में प्रमुख भूमिका निभाने वाली एक कंपनी है क्योंकि इसके पास पहले से ही संपूर्ण एशिया में विभिन्न नेटवर्क बाजार हैं।[4] टचटेल सितम्बर १८ (September 18) २००४ तक भारती ने फिक्स्ड लाइन टेलीफोनी और ब्रॉडबैंड सेवाएं टचटेल ब्रांड के नाम से उपलब्ध कराई थीं। अब भारती फिक्स्ड लाइन सेवा सहित एक सामान्य ब्रांड एयरटेल के नाम से दूरसंचार की सभी सेवाएं उपलब्ध कराता है। एप्पल के ३ जी आईफोन एप्पल ने अमेरीका तथा अन्य २५ देशों में ११ जुलाई २००८ को अपने नए आईफोन का आगाज़ करने की घोषणा की है जिसे भारती के साथ भारत में भी शीघ्र ही शुरू किया जाना है। ब्लैकबेरी १९ अक्टूबर २००४ को रिलायंस ने भारत में एक कालाचकैते वायरलेस सोल्यूसन आरंभ करने की घोषणा की है। यह लौंच भारती दूरसंचार-उद्यम लिमिटेड एवं रिसर्च इन मोशन (Research In Motion) (आरआईएम) के बीच गठबंधन का ही परिणाम है। पुरस्कार एवं पहचान २००६ वर्ष २००५ में वायरलेस सेवा प्रदाता का फ्रॉस्ट एवं सुलिवन एशिया-पेशेफिक आईसीटी अवार्ड[5] प्रतियोगी सेवा प्रदाता हेतु वर्ष २००५ में फ्रॉस्ट एवं सुलिवन एशिया-पेशेफिक आईसीटी अवार्ड{0/} समाचारों में १२ फ़रवरी २००७ को वोडाफोन ने एयरटेल में अपने ५.६ प्रतिशत हिस्से को वापस एयरटेल को १.६ बिलियन अमरीकी डॉलर के लिए बेच दिया और उसके प्रतिद्वंद्वी हचसन एस्सार (Hutchison Essar) में एक नियंत्रित भागीदारी खरीद ली। इसकी मासिक प्रैस विज्ञप्ति में अप्रेल २००७ के अंत तक निम्नलिखित आंकड़े प्रकाशित किए गए थे: भारती एयरटेल ने कहा कि किसी एक तिमाही में (Q४ - FY०६०७) सबसे ज्यादा शुद्ध ५,३ लाख ग्राहकों के अलावा वर्ष २००६ -०७ में कुल ग्राहकों की तादाद में १८ मिलियन ग्राहक और जुड़ना हमारी अब तक की एक बहुत बड़ी उपलब्धि है। इस वित्तीय वर्ष (०७-०८) में कंपनी नेटवर्क विस्तार हेतु ३,५ अरब डॉलर तक निवेश करेगी। इसके पास ४०,००० सैल वेबसाइटों का एक बेस है और यह ५९% जनसंख्या को अपनी सेवा प्रदान करता है। प्रस्तावित नेटवर्क विस्तार के बाद ३०,००० अतिरिक्त टावरों की स्थापना से ७० प्रतिशत आबादी को सेवा दिलाने वाला कंपनी का लक्ष्य पूरा होगा। ३१ मार्च २००७ को भारती के ३९ मिलियन से अधिक उपयोगकर्ता हो गए थे। इसने वर्ष २०१० तक १२५ मिलियन उपभोक्ता बनाने का लक्ष्य निर्धारित किया है। भारती के कुल ग्राहकों में ८८.५ प्रतिशत प्रीपेड ग्राहक हैं जो पिछले वर्ष से ८२.७ प्रतिशत की वृद्धि है। एआरपीयू घटकर ४०६ रू हो गया है। नान-व्हाइस राजस्व (एसएमएस, व) व्हाइस मेल, कॉल प्रबंधन, हैलो ट्यून एवं एयरटेल लाइव) ने वर्ष २००४ के दौरान कुल राजस्व का १० प्रतिशत प्राप्त किया जो पिछले साल की तुलना में १०.७ प्रतिशत कम था। Q4 में प्रति ग्राहक उपयोग की मिश्रित मासिक ग्राहक मिनट ४७५ थी। कंपनी ने अपने ग्राहकों का १०० प्रतिशत सत्यापन पूरा कर लिया है ओर इस प्रक्रिया में इसने ३ लाख उपभोक्ताओं को अपनी सेवाएं देना बंद कर दिया है। भारती एयरटेल उद्यम सेवा के अध्यक्ष - डेविड यूरोप को भारत से जोड़ने में व्यस्त हैं। डेविड ने यूरोप (लंदन) को बरास्ता मध्य पूर्व होते हुए भारत से जोड़ने वाली १५,००० किलोमीटर लंबी ३.८४ टेराबिट ओएफसी सब-मेरीन केबल प्रणाली के निर्माण की घोषणा की। इस परियोजना को यूरोप-भारत द्वार (ईआईजी) के नाम से जाना जाता है और इसकी लागत लगभग ७०० मिलियन डालर बताई गई है जिसे Q२-२०१० तक पूरा किया जाना है। अल्काटेल ल्यूसेंट और टाइको इस परियोजना के दूसरंचार विक्रेता हैं। ईआईजी संघ में शामिल सदस्यों के नाम - एटी एंड टी, सीएंडडबल्यू, डिबूती टेलीकॉम, ड्यू जिबटेलीकोम, आईएएम लिबयान टेलीकॉम, एमटीएन ग्रुप लिमिटेड, ओमानटेल, पीटी कम्यूनीकेकोज़-एसए, सऊदी दूरसंचार कंपनी, दूरसंचार मिस्र, टेलकम एसए लिमिटेड एवं वेरीजोन बिज़नेस हैं। मई २००८ में भारती एयरटेल एमटीएन ग्रुप (MTN Group) जो एक दक्षिणी अफ्रीकी दूरसंचार कंपनी है और सेवाएं अफ्रीका तथा मध्य पूर्व, के देशों को अपनी सेवा दे रही है को खरीदने की आशा व्यक्त की है। द फाइनेन्शयल टाइम्स (The Financial Times) ने सूचित किया है कि भारती एमटीएन में १०० प्रतिशत भागीदारी के लिए ४५ बिलियन अमरीकी डालर दे रही है और यदि ऐसा हो जाता है तब किसी भारतीय फर्म द्वारा विदेश में अब तक का यह सबसे बड़ा अधिग्रहण होगा। इसके बावजूद दोनों पक्षों ने वार्ता की अस्थायी प्रक़ति पर बल दिया है जबकि द इकोनोमिस्ट (The Economist) पत्रिका ने टिप्पणी लिखी है कि यदि भारती ऐसा कोई भी सौदा (marrying up) करती है, चूंकि एमटीएन के पास अधिक ग्राहक हैं, अधिक पैसा है और भोगोलिक दृष्टि से भी उसके पास अधिक क्षेत्र है।[6] हालांकि, यह वार्ता विफल हो गई क्योंकि एमटीएन समूह ने भारती को एक नई कंपनी की सहायक इकाई बनाते हुए वार्ता को बदलने का प्रयास किया। [7] सदस्य बेस सीओएआई -भारतीय सेल्यूलर आप्रेटर संघ के अनुसार एयरटेल के ग्राहकों का मई २००८[8] तक बेस था: दिल्ली—४,०५५,७०४ मुंबई—२,४६८,०१६ चेन्नई—१,८२३,५३२ कोलकाता—१,८५२,८३८ महाराष्ट्र & गोवा—४.३४५.९४५ गुजरात—३,००४,८२४ आंध्र प्रदेश—६,५१६,३३२ कर्नाटक—७,३१६,५०० तमिलनाडु—४,२१८,७०५ केरल—१,७०३,२९८ पंजाब—३,२३९,२०० हरियाणा—१,०६७,९९० उत्तर प्रदेश (पश्चिम) -- १,६२४,००१ उत्तर प्रदेश (पूर्व) -- ३,८९७,२७८ राजस्थान—४.२४२.००६ मध्य प्रदेश—३,०८४,७७६ पश्चिम बंगाल & अंडमान और निकोबार—२,१०६,१६३ हिमाचल प्रदेश—८०९.८२९ बिहार—४,९१२,९०० उड़ीसा—१,९११,०७० असम—९३९,७४६ उत्तर पूर्वी राज्यों -- ५८५.२१३ जम्मू और कश्मीर (Jammu & Kashmir) -- १,१००,०६९ मई २००८ तक भारत में जीएसएम वाले कुल मोबाइल कनेक्शनों की कुल २०५,४६०,७६२ संख्या का ६७,४२५. सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ श्रेणी:बीएसई सेंसेक्स श्रेणी:Telecommunication companies of India श्रेणी:Internet service providers of India
२०२१ में टेलीकॉम कंपनी ''एयरटेल'' के चेयरमैन कौन है?
सुनील मित्तल
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किसी व्यक्ति की बुद्धि या समझ की परीक्षा लेने वाले एक प्रकार के प्रश्न, वाक्य अथवा वर्णन को पहेली (Puzzle) कहते हैं जिसमें किसी वस्तु का लक्षण या गुण घुमा फिराकर भ्रामक रूप में प्रस्तुत किया गया हो और उसे बूझने अथवा उस विशेष वस्तु का ना बताने का प्रस्ताव किया गया हो। इसे 'बुझौवल' भी कहा जाता है। पहेली व्यक्ति के चतुरता को चुनौती देने वाले प्रश्न होते है। जिस तरह से गणित के महत्व को नकारा नहीं जा सकता, उसी तरह से पहेलियों को भी नज़रअन्दाज नहीं किया जा सकता। पहेलियां आदि काल से व्यक्तित्व का हिस्सा रहीं हैं और रहेंगी। वे न केवल मनोरंजन करती हैं पर दिमाग को चुस्त एवं तरो-ताजा भी रखती हैं। परिचय एवं इतिहास पहेलियों की रचना में प्राय: ऐसा पाया जाता है कि जिस विषय की पहेली बनानी होती है उसके रूप, गुण एवं कार्य का इस प्रकार वर्णन किया जाता है जो दूसरी वस्तु या विषय का वर्णन जान पड़े और बहुत सोच विचार के बाद उस वास्तविक वस्तु पर घटाया जा सके। इसे बहुधा कवित्वपूर्ण शैली में लिखा जाता है ताकि सुनने में मधुर लगे। इसी परंपरा हमारे देश में प्राचीन काल से प्रचलित है। ऋग्वेद के कतिपय मंत्रों का इस दृष्टि से उल्लेख किया जा सकता है। यथा एक मंत्र 'चत्वारि श्रंगा त्रयो अस्य पादा, द्वे शीर्षे सप्त हस्तासोऽस्य। त्रिधा बद्धो वृषभो रौरवीति, महादेवो मर्त्या या विवेश:।।' अर्थात् जिसके चार सींग हैं, तीन पैर हैं, दो सिर हैं, सात हाथ हैं, जो तीन जगहों से बँधा हुआ है, वह मनुष्यों में प्रविष्ट हुआ वृषभ यज्ञ है, शब्द करता हुआ महादेव है। इसका गूढ़ार्थ यह है कि यह वृषभ जिसके चार सींग चारों वेद है, प्रात:काल, मध्यान्ह और सांयकाल तीन पैर हैं, उदय और अस्त दो शिर हैं, सात प्रकार के छंद सात हाथ हैं। यह मंत्र ब्राह्मण और कल्परूपी तीन बंधनों से बँधा हुआ मनुष्य में प्रविष्ट है। महाभाष्यकार पतंजलि ने इसे शब्द तथा अन्य ने सूर्य भी बताया है। ऋग्वेद में प्रयुक्त 'बलोदयों' से यह बताया जाता है कि पहेलियाँ जनता की विकासोन्मुख् अवस्था के साथ ही विकसित हुई थीं। महाभारत के अनवरत लेखन के समय वेदव्यास जी बीच बीच में कुछ सोचने के लिए कूट वाक्यों का उच्चारण किया करते हैं। उन्हें बिना भली भाँति समझे गणेश जी को भी लिपिबद्ध करने की आज्ञा न थी। इस तरह एक प्रकार से किंवदंती के अनुसार पहेलियों की आड़ कें ही दोनों को यथासमय यथासाध्य विश्राम व अवकाश सोचने समझने के निमित्त मिलता जाता था। अतएव बृहद महाभारत में पहेलियों के प्रतीक वाक्यांश अनेक स्थलों पर जिज्ञासुओं को दिखाई देते हैं। संस्कृत में पहेली को 'प्रहेलिका' या 'प्रहेलि' कहते हैं- 'प्रहिलति अभिप्रायं सूचयतीति प्रहिल अभिप्राय सूचने क्वुन्दापि अत-इत्वं।' इसके पर्याय प्रवल्हिका, प्रवह्लि, प्रहेली, प्रह्लीका, प्रश्नदूती, तथा प्रवह्ली है। यह चित्र जाति का शब्दालंकार है जो च्युताक्षर, दत्ताक्षर तथा च्युत दत्ताक्षर भेदवाली अनेकार्थ धातुओं से युक्त यमकरंजित उक्ति हैं। प्रहेलिका का स्वरूप 'नानाधात्व गंभीरा यमक व्यपदेशिनी' है। भामह ने इसका खंडन किया है और कहा है कि यह शास्त्र के समान व्याख्यागम्य है (काव्यालंकार २/२०)। इनके अनुसार इसके आदि व्यख्याता रामशर्माच्युत हैं (काव्यालंकार २.१९)। 'साहियदर्पण' के प्रणेता विश्वनाथ ने इसे उक्तिवैचित्र्य माना है, अलंकार नहीं, क्योंकि इससे अलंकार के मुख्य कार्य रस की परिपुष्टि नहीं होती प्रत्युत इसमें विघ्न पड़ता है (साहित्यदर्पण १०.१७)। किंतु विश्वनाथ ने प्रहेलिका के वैचित्र्य को स्वीकार करते हुए उसके च्यताक्षरा, दत्ताक्षरा तथा च्युतादत्ताक्षरा तीन भेदों की चर्चा की है। आचार्य दंडी ने साहित्यदर्पणकार के इस मत को स्वीकार करते हुए प्रहेलिका को क्रीड़ागोष्ठी तथा अन्य पुरुषों ने व्यामोहन के लिए उपयोगी बताया है। दंडी व प्रहेलिका के १६ भेदों का उल्लेख किया है यथा- समायता, वंचिता, व्युत्क्रांता, प्रमुदिता, पुरुषा, संख्याता, प्रकल्पिता, नामांतिरिता, निभृता, संमूढा, परिहारिका, एकच्छन्ना, उभयच्छन्ना, समान शब्दासंमृढ़ा, समानरूपा तथा संकीर्णासरस्वतीकंठाभरण (काव्या. ३.१०६)। जैन साहित्य में भी पहेलियों की यह परंपरा कायम रही। इसमें हीयाली जैसी रचनाएँ पहेलियों की अनुरूपता की सूचक हैं। इनके १२वीं तथा १३वीं शताब्दी में मौजूद होन के प्रमाण मिले हैं। १४वीं से लेकर १९वीं शताब्दी तक जैन कवियों द्वारा लिखी गई पर्याप्त हीयालियाँ उपलब्ध हैं। राजस्थान की हीयालियाँ आड़ियाँ कहलाती हैं। संस्कृत की एक पहेली का नमूना इस प्रकार है- 'श्यामामुखी न मार्जारी द्विजिह्वा न सर्पिणी। पंचभर्ता न पांचाली यो जानाति स पंडित:।।' अर्थात् काले मुखवाली होते हुए बिल्ली नहीं, दो जीभवाली होते हुए सर्पिणी नहीं तथा पाँच पतिवाली होते हुए द्रौपदी नहीं है। उस वस्तु को जो जानता है वही पंडित है। (उत्तर-कलम)। कलम काले मुख की ही बहुधा होती है, जीभ बीच में विभाजित रहती है और पाँच उँगलियों से पकड़कर उससे लिखते हैं। अंग्रेजी तथा अन्य यूरोपीय भाषाओं में भी पहेलियों की परंपरा प्राचीन काल से चली आ रही है। 'बाइबिल' की पहेलियाँ बहुधा सृष्टि के रहस्यों के उद्घाटन की ओर संकेत करने के हेतु प्रसिद्ध हैं। अंग्रेजी में पहेली को 'रिडिल' अथवा 'एनिग्मा' कहते हैं जिसकी रचना विशेष रूप से छंदों में की गई है। इनमें अलंकारों के माध्यम से वास्तविक का अर्थ छिपाया गया रहता है। 'स्फिनिक्स' की पहेलियों का इस सबंध में उल्लेख किया जा सकता है। उसकी एक पहेली का उदाहरण इस प्रकार है- 'वह कौन सी वस्तु है जो प्रात: चार पैरों से, दो पहर दो पैरों से तथा संध्या समय तीन पैरों से टहलती हैं?' इस पहेली में स्फिनिक्स ने 'दिन' को आलंकारिक भाषा में 'मनुष्य जीवन' से संबोधित किया है। पहेलियाँ बनाना यूनानियों का प्रिय विषय था और इसकी प्रतियोगिता में पुरस्कार भी दिए जाते थे। ११वीं शताब्दी के सेलस, वासिलस मेगालामितिस तथा औनिकालामस नामक प्रसिद्ध यूनानी कवियों ने केवल पहेलियाँ ही लिखी थीं। भारत के समान यूनान में भी पौराणिक कथाएँ प्रचलित हैं जिनमें पहेलियाँ बूझने पर ही लड़कियों का सफल व्यक्तियों के वरण के लिए प्रस्तुत किया जाता था। थीबन स्फीनिक्स पौराणिक कथा के अनुसार रानी जोकास्टा से विवाह करने के लिए पहेली प्रतियोगिता आयोजित की गई थी। यूनानी भाषा में ऐसी कथाएँ भी मिलती हैं जिनमें पहेली न बुझनेवाले को मौत के घाट उतारा जाता था। मध्यकाल के आम लैटिन कवियों ने छंदबद्ध पहेलियाँ बनाई थीं। पहेली तैयार करना प्राचीन हिब्रू कविता की भी एक विशेषता थी। मध्यकाल के अनेक यहूदी कवियों ने भी छंदबद्ध पहेलियाँ लिखी थीं। १३वीं शताब्दी के यहूदी कवि अल हरीजी ने अनक पहेलियाँ लिखी हैं। इसने चीनी को समझाने के लिए ४६ पंक्तियों की एक पहेली तैयार की है। इंग्लैड में स्विफ़्ट ने स्याही, कलम, पंखे जैसे विषयों पर कई पहेलियाँ रची हैं। बाद को शिलेर तथा अंग्रेजी के परवर्ती कवियों ने पहेलियों के निर्माण में कलात्मक एवं साहित्यिक सौंदर्य लाकर इन्हें मनोहर रूप प्रदान किया। फ्रांस में १७वीं शताब्दी में पहेली बनाना साहित्यिकों का प्रिय विषय बन गया था। अफ्रीका तथा एशिया के अन्य देशों में भी पहेलियाँ का तैयार करने का प्रयत्न प्राचीन काल से चला आ रहा है। एक यूनानी पौराणिक कथा के अनुसार मिस्त्र के राजा ऐमेसिस तथा इथोपिया के राजा में पहेली प्रतियोगिता का उल्लेख है। पहेली को फारसी में 'चीस्तां' कहते हैं और पुरातन समय में ईरान में इसका प्रचलन था। चीनी भाषा में पहेली के दो रूप हैं, यथा- 'में-यू' (वस्तुओं की पहेली) और 'जू-मे' (शब्दों की पहेली)। हिंदी में भी पहेलियों का व्यापक प्रचलन रहा है। इस संबंध में अमीर खुसरो की पहेलियों का विशेष रूप से उल्लेख किया जा सता है। खुसरों की पहेलियाँ दो प्रकार की हैं। कुछ पहेलियाँ ऐसी हैं जिनमें उनकी वर्णित वस्तु को छिपाकर रखा गया है जो तत्काल स्पष्ट नहीं हाता। कुछ ऐसी हैं जिनकी बूझ-वस्तु उनमें नहीं दी गई होती। बूझ तथा बिन बूझ पहेली का उदाहरण क्रमश: इस प्रकार है- बाला था जब सबको भाया, बढ़ा हुआ कुछ काम न आया। खुसरो कह वीया उसका नाँव अर्थ करो नहिं छोड़ो गाँव।। (उत्तर- वीया) एक थाल मोती से भरा, सबके सिर पर औंधा धरा। चारों ओर वह थाली फिरे, मोती उससे एक न गिरे।। (उत्तर- आकाश, मोती से संकेत तारों की ओर है) मुकरी भी एक पकार की पहेली (अपन्हुति) है पर उसमें उसका बूझ प्रश्नोत्तर के रूप में दिया गया रहता है यथा- 'ऐ सखि साजन ना सखि...।' इस प्रकार का एक बार का उत्तर देने के कारण इस तरह की अपन्हुति का नाम कह-मुकरी पड़ गया। हिंदी पहेलियों के संबंध में अब तक जो भी खोज कार्य हुए हैं उनमें पहेलियों का कई प्रकार से वर्गीकरण किया गया है। इन वर्गीकरणों से स्पष्ट है कि हिंदी में इतने प्रकार की पहेलियों का प्रचलन है। विषयों के अनुसार पहेलियों को सात प्रमुख वर्गों में बाँटा जा सकता है, यथा: खेती-संबंधी (कुआँ, मक्के का भुट्टा), भोजन संबंधी (तरबूज, लाल मिर्च), घरेलू वस्तु संबंधी (दीया, हुक्का, सुई, खाट), प्राणि संबंधी (खरगोश, ऊँट,) अंग, प्रत्यंग सबंधी (उस्तरा, बंदूक)। हिंदी की अन्य क्षेत्रीय बोलियों यथा भोजपुरी, अवधी, बुंदेलखंडी, मैथिली आदि में भी पर्याप्त मात्रा में पहेलियाँ पाई जाती हैं। नवीन युग में गणित को लोकप्रिय बनाने में जितना काम मार्टिन गार्डनरने किया शायद उतना किसी और ने नहीं किया। इन्होने साईंटिफिक अमेरिकन में बहुत सारे लेख पहेलियों के बारे में लिखे। यह बहुत ज्ञानवर्धक और मनोरंजक थे। मार्टिन गार्डनर ने आगे चल कर कई पुस्तकें भी लिखीं जिसमें कई पहेलियों के बारे में थीं। मार्टिन गार्डनर की पुस्तकों के अलावा पहेलियों की अन्य अच्छी पुस्तकें निम्न हैं, Vicious circle and infinity: an anthology of paradoxes by Patrick Hughes & George Brecht; The lady orthe tiger? and other logical puzzles by Raymond Smullyan; What is the name of the book? The riddle of Dracula and other logical puzzles by Raymond Smullyan; The Moscow Puzzles by Boris A. Kordemsky; Which way did the bicycle go? ... and other intriguing mathmatical mystries by Joseph De Konhauser, Dan Velleman, Stan Wagon; और हिन्दी में गणित की पहेलियां लेखक गुणाकर मुले। यह सब बहुत अच्छी हैं। इसमे से पहली चार पेंग्विन ने तथा पांचवीं Mathematical Association of America Dolciani Mathematical Exposition no. 18 ने छापी है। इसमे से पांचवीं पुस्तक का स्तर ऊंचा है, थोड़ी गणित ज्यादा है। स्रोत्र श्रेणी:गणित * श्रेणी:मनोरंजन
अंग्रेजी भाषा में 'पहेली' को क्या कहते हैं?
रिडिल' अथवा 'एनिग्मा'
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महाभारत हिन्दुओं का एक प्रमुख काव्य ग्रंथ है, जो स्मृति के इतिहास वर्ग में आता है। कभी कभी इसे केवल ."भारत" कहा जाता है। यह काव्यग्रंथ भारत का अनुपम 022470धार्मिक, पौराणिक, ऐतिहासिक और दार्शनिक ग्रंथ हैं।[1] विश्व का सबसे लंबा यह साहित्यिक ग्रंथ और महाकाव्य, हिन्दू धर्म के मुख्यतम ग्रंथों में से एक है। इस ग्रन्थ को हिन्दू धर्म में पंचम वेद माना जाता है।[2] यद्यपि इसे साहित्य की सबसे अनुपम कृतियों में से एक माना जाता है, किन्तु आज भी यह ग्रंथ प्रत्येक भारतीय के लिये एक अनुकरणीय स्रोत है। यह कृति प्राचीन भारत के इतिहास की एक गाथा है। इसी में हिन्दू धर्म का पवित्रतम ग्रंथ भगवद्गीता सन्निहित है। पूरे महाभारत में लगभग १,१०,००० श्लोक हैं[3], जो यूनानी काव्यों इलियड और ओडिसी से परिमाण में दस गुणा अधिक हैं।[4][5] हिन्दू मान्यताओं, पौराणिक संदर्भो एवं स्वयं महाभारत के अनुसार इस काव्य का रचनाकार वेदव्यास जी को माना जाता है। इस काव्य के रचयिता वेदव्यास जी ने अपने इस अनुपम काव्य में वेदों, वेदांगों और उपनिषदों के गुह्यतम रहस्यों का निरुपण किया हैं। इसके अतिरिक्त इस काव्य में न्याय, शिक्षा, चिकित्सा, ज्योतिष, युद्धनीति, योगशास्त्र, अर्थशास्त्र, वास्तुशास्त्र, शिल्पशास्त्र, कामशास्त्र, खगोलविद्या तथा धर्मशास्त्र का भी विस्तार से वर्णन किया गया हैं।[6] मूल काव्य रचना इतिहास वेदव्यास जी को महाभारत पूरा रचने में ३ वर्ष लग गये थे, इसका कारण यह हो सकता है कि उस समय लेखन लिपि कला का इतना विकास नही हुआ था, उस काल में ऋषियों द्वारा वैदिक ग्रन्थों को पीढ़ी दर पीढ़ी परम्परागत मौखिक रूप से याद करके सुरक्षित रखा जाता था।[7] उस समय संस्कृत ऋषियों की भाषा थी और ब्राह्मी आम बोलचाल की भाषा हुआ करती थी।[8] इस प्रकार ऋषियों द्वारा सम्पूर्ण वैदिक साहित्य मौखिक रूप से याद कर पीढ़ी दर पीढ़ी सहस्त्रों वर्षों तक याद रखा गया। फिर धीरे धीरे जब समय के प्रभाव से वैदिक युग के पतन के साथ ही ऋषियों की वैदिक साहित्यों को याद रखने की शैली लुप्त हो गयी तब से वैदिक साहित्य को पाण्डुलिपियों पर लिखकर सुरक्षित रखने का प्रचलन हो गया। यह सर्वमान्य है कि महाभारत का आधुनिक रूप कई अवस्थाओं से गुजर कर बना है।[9] विद्वानों द्वारा इसकी रचना की चार प्रारम्भिक अवस्थाएं पहचानी गयी हैं। ये अवस्थाएं संभावित रचना काल क्रम में निम्न लिखित हैं: प्रारम्भिक चार अवस्थाएं ३१०० ईसा पूर्व[10][11] १) सर्वप्रथम वेदव्यास द्वारा १०० पर्वों के रूप में एक लाख श्लोकों का रचित भारत महाकाव्य, जो बाद में महाभारत के नाम से प्रसिद्ध हुआ।[10][12][13] २) दूसरी बार व्यास जी के कहने पर उनके शिष्य वैशम्पायन जी द्वारा पुनः इसी "भारत" महाकाव्य को जनमेजय के यज्ञ समारोह में ऋषि-मुनियों को सुनाना।[10][12][12][13] २००० ईसा पूर्व ३) तीसरी बार फिर से ‍वैशम्पायन और ऋषि-मुनियो की इस वार्ता के रूप में कही गयी "महाभारत" को सूत जी द्वारा पुनः १८ पर्वों के रूप में सुव्यवस्थित करके समस्त ऋषि-मुनियों को सुनाना।[12][14] १२००-६०० ईसा पूर्व ४) सूत जी और ऋषि-मुनियों की इस वार्ता के रूप में कही गयी "महाभारत" का लेखन कला के विकसित होने पर सर्वप्रथम् ब्राह्मी या संस्कृत में हस्तलिखित पाण्डुलिपियों के रूप में लिपी बद्ध किया जाना। भंडारकर संस्थान द्वारा इसके बाद भी कई विद्वानो द्वारा इसमें बदलती हुई रीतियो के अनुसार बदलाव किया गया, जिसके कारण उपलब्ध प्राचीन हस्तलिखित पाण्डुलिपियो में कई भिन्न भिन्न श्लोक मिलते हैं, इस समस्या के निदान के लिये पुणे में स्थित ने पूरे दक्षिण एशिया में उपलब्ध महाभारत की सभी पाण्डुलिपियों (लगभग १०, ०००) का शोध और अनुसंधान करके उन सभी में एक ही समान पाये जाने वाले लगभग ७५,००० श्लोकों को खोजकर उनका सटिप्पण एवं समीक्षात्मक संस्करण प्रकाशित किया, कई खण्डों वाले १३,००० पृष्ठों के इस ग्रंथ का सारे संसार के सुयोग्य विद्वानों ने स्वागत किया।[15][16] ऐतिहासिक एवं भाषाई प्रमाण १००० ईसा पूर्व महाभारत में गुप्त और मौर्य कालीन राजाओं तथा जैन(१०००-७०० ईसा पूर्व) और बौद्ध धर्म(७००-२०० ईसा पूर्व) का भी वर्णन नहीं आता।[17] साथ ही शतपथ ब्राह्मण[18](११०० ईसा पूर्व) एवं छांदोग्य-उपनिषद(१००० ईसा पूर्व) में भी महाभारत के पात्रों का वर्णन मिलता है। अतएव यह निश्चित तौर पर १००० ईसा पूर्व से पहले रची गयी होगी।[19] ६००-४०० ईसा पूर्व पाणिनि द्वारा रचित अष्टाध्यायी(६००-४०० ईसा पूर्व) में महाभारत और भारत दोनों का उल्लेख हैं तथा इसके साथ साथ श्रीकृष्ण एवं अर्जुन का भी संदर्भ आता है अतएव यह निश्चित है कि महाभारत और भारत पाणिनि के काल के बहुत पहले से ही अस्तित्व में रहे थे।[10][12][19][20][21] प्रथम शताब्दी यूनान के पहली शताब्दी के राजदूत डियो क्ररायसोसटम (Dio Chrysostom) यह बताते है की दक्षिण-भारतीयों के पास एक लाख श्लोकों का एक ग्रंथ है[12][22][23], जिससे यह पता चलता है कि महाभारत पहली शताब्दी में भी एक लाख श्लोकों का था। महाभारत की कहानी को ही बाद के मुख्य यूनानी ग्रंथों इलियड और ओडिसी में बार-बार अन्य रूप से दोहराया गया, जैसे धृतराष्ट्र का पुत्र मोह, कर्ण-अर्जुन प्रतिस्पर्धा आदि।[24] संस्कृत की सबसे प्राचीन पहली शताब्दी की एमएस स्पित्ज़र पाण्डुलिपि में भी महाभारत के १८ पर्वों की अनुक्रमणिका दी गयी है[25], जिससे यह पता चलता है कि इस काल तक महाभारत १८ पर्वों के रूप में प्रसिद्ध थी, यद्यपि १०० पर्वों की अनुक्रमणिका बहुत प्राचीन काल में प्रसिद्ध रही होगी, क्योंकि वेदव्यास जी ने महाभारत की रचना सर्वप्रथम १०० पर्वों में की थी, जिसे बाद में सूत जी ने १८ पर्वों के रूप में व्यवस्थित कर ऋषियों को सुनाया था।[26] ५वीं शताब्दी महाराजा शरवन्थ के ५वीं शताब्दी के तांबे की स्लेट पर पाये गये अभिलेख में महाभारत को एक लाख श्लोकों की संहिता बताया गया है।[27] वह अभिलेख निम्नलिखित है: “ उक्तञच महाभारते शतसाहस्त्रयां संहितायां पराशरसुतेन वेदव्यासेन व्यासेन। „ पुरातत्त्व प्रमाण (१९०० ई.पू से पहले) सरस्वती नदी प्राचीन वैदिक सरस्वती नदी का महाभारत में कई बार वर्णन आता हैं, बलराम जी द्वारा इसके तट के समान्तर प्लक्ष पेड़ (प्लक्षप्रस्त्रवण, यमुनोत्री के पास) से प्रभास क्षेत्र (वर्तमान कच्छ का रण) तक तीर्थयात्रा का वर्णन भी महाभारत में आता है।[28] कई भू-विज्ञानी मानते हैं कि वर्तमान सूखी हुई घग्गर-हकरा नदी ही प्राचीन वैदिक सरस्वती नदी थी, जो ५०००-३००० ईसा पूर्व पूरे प्रवाह से बहती थी और लगभग १९०० ईसा पूर्व में भूगर्भी परिवर्तनों के कारण सूख गयी थी। ऋग्वेद में वर्णित प्राचीन वैदिक काल में सरस्वती नदी को नदीतमा की उपाधि दी गई थी। उनकी सभ्यता में सरस्वती नदी ही सबसे बड़ी और मुख्य नदी थी, गंगा नहीं। भूगर्भी परिवर्तनों के कारण सरस्वती नदी का पानी यमुना में चला गया, गंगा-यमुना संगम स्थान को 'त्रिवेणी' (गंगा-यमुना-सरस्वती) संगम मानते है।[29] इस घटना को बाद के वैदिक साहित्यों में वर्णित हस्तिनापुर के गंगा द्वारा बहाकर ले जाने से भी जोड़ा जाता है क्योंकि पुराणों में आता है कि परीक्षित की २८ पीढियों के बाद गंगा में बाढ़ आ जाने के कारण सम्पूर्ण हस्तिनापुर पानी में बह गया और बाद की पीढियों ने कौशाम्बी को अपनी राजधानी बनाया। महाभारत में सरस्वती नदी के विनाश्न नामक तीर्थ पर सूखने का सन्दर्भ आता है जिसके अनुसार मलेच्छों से द्वेष होने के कारण सरस्वती नदी ने मलेच्छ (सिंध के पास के) प्रदेशो में जाना बंद कर दिया। द्वारका भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग ने गुजरात के पश्चिमी तट पर समुद्र में डूबे ४०००-३५०० वर्ष पुराने शहर खोज निकाले हैं। इनको महाभारत में वर्णित द्वारका के सन्दर्भों से जोड़ा गया है। प्रो॰एस.आर राव ने कई तर्क देकर इस नगरी को द्वारका सिद्ध किया है। यद्यपि अभी मतभेद जारी है क्योंकि गुजरात के पश्चिमी तट पर कई अन्य ७५०० वर्ष पुराने शहर भी मिल चुके हैं। निष्कर्ष इन सम्पूर्ण तथ्यों से यह माना जा सकता है कि महाभारत निश्चित तौर पर 95०-8०० ईसा पूर्व रची गयी होगीं,[17] जो महाभारत में वर्णित ज्योतिषीय तिथियों, भाषाई विश्लेषण, विदेशी सूत्रों एवं पुरातत्व प्रमाणों से मेल खाती है। परन्तु आधुनिक संस्करण की रचना ६००-२०० ईसा पूर्व हुई होगी। अधिकतर अन्य वैदिक साहित्यों के समान ही यह महाकाव्य भी पहले वाचिक परंपरा द्वारा हम तक पीढी दर पीढी पहुँचा और बाद में छपाई की कला के विकसित होने से पहले ही इसके बहुत से अन्य भौगोलिक संस्करण भी हो गये, जिनमें बहुत सी ऐसी घटनायें हैं जो मूल कथा में नहीं दिखती या फिर किसी अन्य रूप में दिखती है। परिचय आरम्भ महाभारत ग्रंथ का आरम्भ निम्न श्लोक के साथ होता है: “ नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम्।देवीं सरस्वतीं चैव ततो जयमुदीरयेत्।। „ परन्तु महाभारत के आदिपर्व में दिये वर्णन के अनुसार कई विद्वान इस ग्रंथ का आरम्भ "नारायणं नमस्कृत्य" से, तो कोई आस्तिक पर्व से और दूसरे विद्वान ब्राह्मण उपचिर वसु की कथा से इसका आरम्भ मानते हैं।[30] विभिन्न नाम यह महाकाव्य 'जय संहिता', 'भारत' और 'महभारत' इन तीन नामों से प्रसिद्ध हैं। वास्तव में वेद व्यास जी ने सबसे पहले १,००,००० श्लोकों के परिमाण के 'भारत' नामक ग्रंथ की रचना की थी, इसमें उन्होने भारतवंशियों के चरित्रों के साथ-साथ अन्य कई महान ऋषियों, चन्द्रवंशी-सूर्यवंशी राजाओं के उपाख्यानों सहित कई अन्य धार्मिक उपाख्यान भी डाले। इसके बाद व्यास जी ने २४,००० श्लोकों का बिना किसी अन्य ऋषियों, चन्द्रवंशी-सूर्यवंशी राजाओं के उपाख्यानों का केवल भारतवंशियों को केन्द्रित करके 'भारत' काव्य बनाया। इन दोनों रचनाओं में धर्म की अधर्म पर विजय होने के कारण इन्हें 'जय' भी कहा जाने लगा। महाभारत में एक कथा आती है कि जब देवताओं ने तराजू के एक पासे में चारों "वेदों" को रखा और दूसरे पर 'भारत ग्रंथ' को रखा, तो 'भारत ग्रंथ' सभी वेदों की तुलना में सबसे अधिक भारी सिद्ध हुआ। अतः 'भारत' ग्रंथ की इस महत्ता (महानता) को देखकर देवताओं और ऋषियों ने इसे 'महाभारत' नाम दिया और इस कथा के कारण मनुष्यों में भी यह काव्य 'महाभारत' के नाम से सबसे अधिक प्रसिद्ध हुआ।[31] ग्रन्थ लेखन की कथा महाभारत में ऐसा वर्णन आता है कि वेदव्यास जी ने हिमालय की तलहटी की एक पवित्र गुफा में तपस्या में संलग्न तथा ध्यान योग में स्थित होकर महाभारत की घटनाओं का आदि से अन्त तक स्मरण कर मन ही मन में महाभारत की रचना कर ली।[32] परन्तु इसके पश्चात उनके सामने एक गंभीर समस्या आ खड़ी हुई कि इस काव्य के ज्ञान को सामान्य जन साधारण तक कैसे पहुँचाया जाये क्योंकि इसकी जटिलता और लम्बाई के कारण यह बहुत कठिन था कि कोई इसे बिना कोई गलती किए वैसा ही लिख दे जैसा कि वे बोलते जाएँ। इसलिए ब्रह्मा जी के कहने पर व्यास गणेश जी के पास पहुँचे। गणेश जी लिखने को तैयार हो गये, किंतु उन्होंने एक शर्त रखी कि कलम एक बार उठा लेने के बाद काव्य समाप्त होने तक वे बीच नहीं रुकेंगे।[33] व्यासजी जानते थे कि यह शर्त बहुत कठनाईयाँ उत्पन्न कर सकती हैं अतः उन्होंने भी अपनी चतुरता से एक शर्त रखी कि कोई भी श्लोक लिखने से पहले गणेश जी को उसका अर्थ समझना होगा। गणेश जी ने यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। इस तरह व्यास जी बीच-बीच में कुछ कठिन श्लोकों को रच देते थे, तो जब गणेश उनके अर्थ पर विचार कर रहे होते उतने समय में ही व्यास जी कुछ और नये श्लोक रच देते। इस प्रकार सम्पूर्ण महाभारत ३ वर्षों के अन्तराल में लिखी गयी।[33][34] वेदव्यास जी ने सर्वप्रथम पुण्यकर्मा मानवों के उपाख्यानों सहित एक लाख श्लोकों का आद्य भारत ग्रंथ बनाया। तदन्तर उपाख्यानों को छोड़कर चौबीस हजार श्लोकों की भारत संहिता बनायी। तत्पश्चात व्यास जी ने साठ लाख श्लोकों की एक दूसरी संहिता बनायी, जिसके तीस लाख श्लोकों देवलोक में, पंद्रह लाख पितृलोक में तथा चौदह लाख श्लोक गन्धर्वलोक में समादृत हुए। मनुष्यलोक में एक लाख श्लोकों का आद्य भारत प्रतिष्ठित हुआ। महाभारत ग्रंथ की रचना पूर्ण करने के बाद वेदव्यास जी ने सर्वप्रथम अपने पुत्र शुकदेव को इस ग्रंथ का अध्ययन कराया तदन्तर अन्य शिष्यों वैशम्पायन, पैल, जैमिनि, असित-देवल आदि को इसका अध्ययन कराया।[35] शुकदेव जी ने गन्धर्वों, यक्षों और राक्षसों को इसका अध्ययन कराया। देवर्षि नारद ने देवताओं को, असित-देवल ने पितरों को और वैशम्पायन जी ने मनुष्यों को इसका प्रवचन दिया।[36] वैशम्पायन जी द्वारा महाभारत काव्य जनमेजय के यज्ञ समारोह में सूत सहित कई ऋषि-मुनियों को सुनाया गया था। विशालता महाभारत की विशालता और दार्शनिक गूढता न केवल भारतीय मूल्यों का संकलन है बल्कि हिन्दू धर्म और वैदिक परम्परा का भी सार है। महाभारत की विशालता का अनुमान उसके प्रथमपर्व में उल्लेखित एक श्लोक से लगाया जा सकता है: “ "जो यहाँ (महाभारत में) है वह आपको संसार में कहीं न कहीं अवश्य मिल जायेगा, जो यहाँ नहीं है वो संसार में आपको अन्यत्र कहीं नहीं मिलेगा"[37] „ महाभारत का १८ पर्वो और १०० उपपर्वो में विभाग[38] पृष्ठभूमि और इतिहास महाभारत चंद्रवंशियों के दो परिवारों कौरव और पाण्डव के बीच हुए युद्ध का वृत्तांत है। १०० कौरव भाइयों और पाँच पाण्डव भाइयों के बीच भूमि के लिए जो संघर्ष चला उससे अंतत: महाभारत युद्ध का सृजन हुआ। इस युद्ध की भारतीय और पश्चिमी विद्वानों द्वारा कई भिन्न भिन्न निर्धारित की गयी तिथियाँ निम्नलिखित हैं- विश्व विख्यात भारतीय गणितज्ञ एवं खगोलज्ञ वराहमिहिर के अनुसार महाभारत युद्ध २४४९ ईसा पूर्व हुआ था।[39] विश्व विख्यात भारतीय गणितज्ञ एवं खगोलज्ञ आर्यभट के अनुसार महाभारत युद्ध १८ फ़रवरी ३१०२ ईसा पूर्व में हुआ था।[40] चालुक्य राजवंश के सबसे महान सम्राट पुलकेसि २ के ५वीं शताब्दी के ऐहोल अभिलेख में यह बताया गया है कि भारत युद्ध को हुए ३, ७३५ वर्ष बीत गए है, इस दृष्टिकोण से महाभारत का युद्ध ३१०० ईसा पूर्व लड़ा गया होगा।[41] पुराणों की माने तो यह युद्ध १९०० ईसा पूर्व हुआ था, पुराणों में दी गई विभिन्न राज वंशावली को यदि चन्द्रगुप्त मौर्य से मिला कर देखा जाये तो १९०० ईसा पूर्व की तिथि निकलती है, परन्तु कुछ विद्वानों के अनुसार चन्द्रगुप्त मौर्य १५०० ईसा पूर्व में हुआ था, यदि यह माना जाये तो ३१०० ईसा पूर्व की तिथि निकलती है क्योंकि यूनान के राजदूत मेगस्थनीज ने अपनी पुस्तक "इंडिका" में जिस चन्द्रगुप्त का उल्लेख किया था वो गुप्त वंश का राजा चन्द्रगुप्त भी हो सकता है।[42] अधिकतर पश्चिमी विद्वान जैसे मायकल विटजल के अनुसार भारत युद्ध १२०० ईसा पूर्व में हुआ था, जो इसे भारत में लौह युग (१२००-८०० ईसा पूर्व) से जोड़कर देखते हैं।[43] अधिकतर भारतीय विद्वान जैसे बी ऐन अचर, एन एस राजाराम, के सदानन्द, सुभाष काक ग्रह-नक्षत्रों की आकाशीय गणनाओं के आधार पर इसे ३०६७ ईसा पूर्व और कुछ यूरोपीय विद्वान जैसे पी वी होले इसे १३ नवंबर ३१४३ ईसा पूर्व में आरम्भ हुआ मानते हैं।[44][45] भारतीय विद्वान पी वी वारटक महाभारत में वर्णित ग्रह-नक्षत्रों की आकाशीय गणनाओं के आधार पर इसे १६ अक्टूबर ५५६१ ईसा पूर्व में आरम्भ हुआ मानते हैं। उनके अनुसार यूनान के राजदूत मेगस्थनीज ने अपनी पुस्तक "इंडिका" में अपनी भारत यात्रा के समय जमुना (यमुना) के तट पर बसे मेथोरा (मथुरा) राज्य में शूरसेनियों से भेंट का वर्णन किया था, मेगस्थनीज ने यह बताया था कि ये शूरसेनी किसी हेराकल्स नामक देवता की पूजा करते थे और ये हेराकल्स काफी चमत्कारी पुरुष होता था तथा चन्द्रगुप्त से १३८ पीढ़ी पहले था। हेराकल्स ने कई विवाह किए और कई पुत्र उत्पन्न किए। परन्तु उसके सभी पुत्र आपस में युद्ध करके मारे गये। यहाँ ये स्पष्ट है कि ये हेराकल्स श्रीकृष्ण ही थे, विद्वान इन्हें हरिकृष्ण कह कर श्रीकृष्ण से जोड़ते है क्योंकि श्रीकृष्ण चन्द्रगुप्त से १३८ पीढ़ी पहले थे तो यदि एक पीढी को २०-३० वर्ष दे तो ३१००-५६०० ईसा पूर्व श्रीकृष्ण का जन्म समय निकलता है अतः इस आधार पर महाभारत का युद्ध ५६००-३१०० ईसा पूर्व के समय हुआ होगा।[45][46] महाभारत की संक्षिप्त कथा मुख्य उल्लेख:महाभारत की विस्तृत कथा कुरुवंश की उत्पत्ति और पाण्डु का राज्य अभिषेक पुराणों के अनुसार ब्रह्मा जी से अत्रि, अत्रि से चन्द्रमा, चन्द्रमा से बुध और बुध से इला-नन्दन पुरूरवा का जन्म हुआ। उनसे आयु, आयु से राजा नहुष और नहुष से ययाति उत्पन्न हुए। ययाति से पुरू हुए। पूरू के वंश में भरत और भरत के कुल में राजा कुरु हुए। कुरु के वंश में शान्तनु हुए। शान्तनु से गंगानन्दन भीष्म उत्पन्न हुए। शान्तनु से सत्यवती के गर्भ से चित्रांगद और विचित्रवीर्य उत्पन्न हुए थे। चित्रांगद नाम वाले गन्धर्व के द्वारा मारे गये और राजा विचित्रवीर्य राजयक्ष्मा से ग्रस्त हो स्वर्गवासी हो गये। तब सत्यवती की आज्ञा से व्यासजी ने नियोग के द्वारा अम्बिका के गर्भ से धृतराष्ट्र और अम्बालिका के गर्भ से पाण्डु को उत्पन्न किया। धृतराष्ट्र ने गांधारी द्वारा सौ पुत्रों को जन्म दिया, जिनमें दुर्योधन सबसे बड़ा था और पाण्डु के युधिष्टर, भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव आदि पांच पुत्र हुए। धृतराष्ट्र जन्म से ही नेत्रहीन थे, अतः उनकी जगह पर पाण्डु को राजा बनाया गया। एक बार वन में आखेट खेलते हुए पाण्डु के बाण से एक मैथुनरत मृगरुपधारी ऋषि की मृत्यु हो गयी। उस ऋषि से शापित हो कि "अब जब कभी भी तू मैथुनरत होगा तो तेरी मृत्यु हो जायेगी", पाण्डु अत्यन्त दुःखी होकर अपनी रानियों सहित समस्त वासनाओं का त्याग करके तथा हस्तिनापुर में धृतराष्ट्र को अपना का प्रतिनिधि बनाकर वन में रहने लगें। पाण्डवों का जन्म तथा लाक्षागृह षडयंत्र राजा पाण्डु के कहने पर कुन्ती ने दुर्वासा ऋषि के दिये मन्त्र से धर्म को आमन्त्रित कर उनसे युधिष्ठिर और कालान्तर में वायुदेव से भीम तथा इन्द्र से अर्जुन को उत्पन्न किया। कुन्ती से ही उस मन्त्र की दीक्षा ले माद्री ने अश्वनीकुमारों से नकुल तथा सहदेव को जन्म दिया। एक दिन राजा पाण्डु माद्री के साथ वन में सरिता के तट पर भ्रमण करते हुए पाण्डु के मन चंचल हो जाने से मैथुन में प्रवृत हुये जिससे शापवश उनकी मृत्यु हो गई। माद्री उनके साथ सती हो गई किन्तु पुत्रों के पालन-पोषण के लिये कुन्ती हस्तिनापुर लौट आई। कुन्ती ने विवाह से पहले सूर्य के अंश से कर्ण को जन्म दिया और लोकलाज के भय से कर्ण को गंगा नदी में बहा दिया। धृतराष्ट्र के सारथी अधिरथ ने उसे बचाकर उसका पालन किया। कर्ण की रुचि युद्धकला में थी अतः द्रोणाचार्य के मना करने पर उसने परशुराम से शिक्षा प्राप्त की। शकुनि के छलकपट से दुर्योधन ने पाण्डवों को बचपन में कई बार मारने का प्रयत्न किया तथा युवावस्था में भी जब युधिष्ठिर को युवराज बना दिया गया तो लाक्ष के बने हुए घर लाक्षाग्रह में पाण्डवों को भेजकर उन्हें आग से जलाने का प्रयत्न किया, किन्तु विदुर की सहायता के कारण से वे उस जलते हुए गृह से बाहर निकल गये। द्रौपदी स्वयंवर पाण्डव वहाँ से एकचक्रा नगरी गये और मुनि का वेष बनाकर एक ब्राह्मण के घर में निवास करने लगे। फिर व्यास जी के कहने पर वे पांचाल राज्य में गये जहाँ द्रौपदी का स्वयंवर होनेवाला था। वहाँ एक के बाद एक सभी राजाओं एवं राजकुमारों ने मछली पर निशाना साधने का प्रयास किया किन्तु सफलता हाथ न लगी। तत्पश्चात् अर्जुन ने तैलपात्र में प्रतिबिम्ब को देखते हुये एक ही बाण से मत्स्य को भेद डाला और द्रौपदी ने आगे बढ़ कर अर्जुन के गले में वरमाला डाल दीं। माता कुन्ती के वचनानुसार पाँचों पाण्डवों ने द्रौपदी को पत्नीरूप में प्राप्त किया। द्रौपदी के स्वयंवर के समय दुर्योधन के साथ ही साथ द्रुपद,धृष्टद्युम्न एवं अनेक अन्य लोगों को संदेह हो गया था कि वे पाँच ब्राह्मण पाण्डव ही हैं। अतः उनकी परीक्षा करने के लिये द्रुपद ने उन्हें अपने राजप्रासाद में बुलाया। राजप्रासाद में द्रुपद एवं धृष्टद्युम्न ने पहले राजकोष को दिखाया किन्तु पाण्डवों ने वहाँ रखे रत्नाभूषणों तथा रत्न-माणिक्य आदि में किसी प्रकार की रुचि नहीं दिखाई। किन्तु जब वे शस्त्रागार में गये तो वहाँ रखे अस्त्र-शस्त्रों में उन सभी ने बहुत अधिक रुचि दिखायी और अपनी पसंद के शस्त्रों को अपने पास रख लिया। उनके क्रिया-कलाप से द्रुपद को विश्वास हो गया कि ये ब्राह्मणों के रूप में पाण्डव ही हैं। इन्द्रप्रस्थ की स्थापना द्रौपदी स्वयंवर से पूर्व विदुर को छोड़कर सभी पाण्डवों को मृत समझने लगे और इस कारण धृतराष्ट्र ने दुर्योधन को युवराज बना दिया। गृहयुद्ध के संकट से बचने के लिए युधिष्ठिर ने धृतराष्ट्र द्वारा दिए खण्डहर स्वरुप खाण्डव वन को आधे राज्य के रूप में स्वीकार कर लिया। वहाँ अर्जुन ने श्रीकृष्ण के साथ मिलकर समस्त देवताओं को युद्ध में परास्त करते हुए खाण्डववन को जला दिया और इन्द्र के द्वारा की हुई वृष्टि का अपने बाणों के छत्राकार बाँध से निवारण करके अग्नि देव को तृप्त किया। इसके फलस्वरुप अर्जुन ने अग्निदेव से दिव्य गाण्डीव धनुष और उत्तम रथ तथा श्रीकृष्ण ने सुदर्शन चक्र प्राप्त किया। इन्द्र अपने पुत्र अर्जुन की वीरता देखकर अतिप्रसन्न हुए। उन्होंने खांडवप्रस्थ के वनों को हटा दिया। उसके उपरांत पाण्डवों ने श्रीकृष्ण के साथ मय दानव की सहायता से उस शहर का सौन्दर्यीकरण किया। वह शहर एक द्वितीय स्वर्ग के समान हो गया। इन्द्र के कहने पर देव शिल्पी विश्वकर्मा और मय दानव ने मिलकर खाण्डव वन को इन्द्रपुरी जितने भव्य नगर में निर्मित कर दिया, जिसे इन्द्रप्रस्थ नाम दिया गया। द्रौपदी का अपमान और पाण्डवों का वनवास पाण्डवों ने सम्पूर्ण दिशाओं पर विजय पाते हुए प्रचुर सुवर्णराशि से परिपूर्ण राजसूय यज्ञ का अनुष्ठान किया। उनका वैभव दुर्योधन के लिये असह्य हो गया अतः शकुनि, कर्ण और दुर्योधन आदि ने युधिष्ठिर के साथ जूए में प्रवृत्त होकर उसके भाइयो, द्रौपदी और उनके राज्य को कपट द्यूत के द्वारा हँसते-हँसते जीत लिया और कुरु राज्य सभा में द्रौपदी को निर्वस्त्र करने का प्रयास किया। परन्तु गांधारी ने आकर ऐसा होने से रोक दिया। धृतराष्ट्र ने एक बार फिर दुर्योधन की प्रेरणा से उन्हें से जुआ खेलने की आज्ञा दी। यह तय हुआ कि एक ही दांव में जो भी पक्ष हार जाएगा, वे मृगचर्म धारण कर बारह वर्ष वनवास करेंगे और एक वर्ष अज्ञातवास में रहेंगे। उस एक वर्ष में भी यदि उन्हें पहचान लिया गया तो फिर से बारह वर्ष का वनवास भोगना होगा। इस प्रकार पुन जूए में परास्त होकर युधिष्ठिर अपने भाइयों सहित वन में चले गये। वहाँ बारहवाँ वर्ष बीतने पर एक वर्ष के अज्ञातवास के लिए वे विराट नगर में गये[47]। जब कौरव विराट की गौओं को हरकर ले जाने लगे, तब उन्हें अर्जुन ने परास्त किया। उस समय कौरवों ने पाण्डवों को पहचान लिया था परन्तु उनका का अज्ञातवास तब तक पूरा हो चुका था। परन्तु १२ वर्षो के ज्ञात और एक वर्ष के अज्ञातवास पूरा करने के बाद भी कौरवों ने पाण्डवों को उनका राज्य देने से मना कर दिया। शांतिदूत श्रीकृष्ण, युद्ध आरंभ तथा गीता-उपदेश धर्मराज युधिष्ठिर सात अक्षौहिणी सेना के स्वामी होकर कौरवों के साथ युद्ध करने को तैयार हुए। पहले भगवान श्रीकृष्ण दुर्योधन के पास दूत बनकर गये। उन्होंने ग्यारह अक्षौहिणी सेना के स्वामी राजा दुर्योधन से कहा कि तुम युधिष्ठिर को आधा राज्य दे दो या केवल पाँच ही गाँव अर्पित कर युद्ध टाल दों। श्रीकृष्ण की बात सुनकर दुर्योधन ने पाण्डवों को सुई की नोक के बराबर भूमि भी देने से मना कर युद्ध करने का निशचय किया। ऐसा कहकर वह भगवान श्रीकृष्ण को बंदी बनाने के लिये उद्यत हो गया। उस समय राजसभा में भगवान श्रीकृष्ण ने माया से अपने परम दुर्धर्ष विश्वरूप का दर्शन कराकर सबको भयभीत कर दिया। तदनन्तर वे युधिष्ठिर के पास लौट गये और बोले कि दुर्योधन के साथ युद्ध करो। युधिष्ठिर और दुर्योधन की सेनाएँ कुरुक्षेत्र के मैदान में जा डटीं। अपने विपक्ष में पितामह भीष्म तथा आचार्य द्रोण आदि गुरुजनों को देखकर अर्जुन युद्ध से विरत हो गये। तब भगवान श्रीकृष्ण ने उनसे कहा-"पार्थ! भीष्म आदि गुरुजन शोक के योग्य नहीं हैं। मनुष्य का शरीर विनाशशील है, किंतु आत्मा का कभी नाश नहीं होता। यह आत्मा ही परब्रह्म है। 'मैं ब्रह्म हूँ'- इस प्रकार तुम उस आत्मा का अस्तित्व समझो। कार्य की सिद्धि और असिद्धि में समानभाव से रहकर कर्मयोग का आश्रय ले क्षात्रधर्म का पालन करो। इस प्रकार श्रीकृष्ण के ज्ञानयोग, भक्तियोग एवं कर्मयोग के बारे में विस्तार से कहने पर अर्जुन ने फिर से रथारूढ़ हो युद्ध के लिये शंखध्वनि की। दुर्योधन की सेना में सबसे पहले पितामह भीष्म सेनापति हुए। पाण्डवों के सेनापति [धृष्टद्युम्न] थे। इन दोनों में भारी युद्ध छिड़ गया। भीष्मसहित कौरव पक्ष के योद्धा उस युद्ध में पाण्डव-पक्ष के सैनिकों पर प्रहार करने लगे और शिखण्डी आदि पाण्डव- पक्ष के वीर कौरव-सैनिकों को अपने बाणों का निशाना बनाने लगे। कौरव और पाण्डव-सेना का वह युद्ध, देवासुर-संग्राम के समान जान पड़ता था। आकाश में खड़े होकर देखने वाले देवताओं को वह युद्ध बड़ा आनन्ददायक प्रतीत हो रहा था। भीष्म ने दस दिनों तक युद्ध करके पाण्डवों की अधिकांश सेना को अपने बाणों से मार गिराया। भीष्म और द्रोण वध भीष्म ने दस दिनों तक युद्ध करके पाण्डवों की अधिकांश सेना को अपने बाणों से मार गिराया। भीष्म की मृत्यु उनकी इच्छा के अधीन थी। श्रीकृष्ण के सुझाव पर पाण्डवों ने भीष्म से ही उनकी मृत्यु का उपाय पूछा। भीष्म ने कहा कि पांडव शिखंडी को सामने करके युद्ध लड़े। भीष्म उसे कन्या ही मानते थे और उसे सामने पाकर वो शस्त्र नहीं चलाने वाले थे। और शिखंडी को अपने पूर्व जन्म के अपमान का बदला भी लेना था उसके लिये शिवजी से वरदान भी लिया कि भीष्म कि मृत्यु का कारण बनेगी। १०वे दिन के युद्ध में अर्जुन ने शिखंडी को आगे अपने रथ पर बिठाया और शिखंडी को सामने देख कर भीष्म ने अपना धनुष त्याग दिया और अर्जुन ने अपनी बाणवृष्टि से उन्हें बाणों कि शय्या पर सुला दिया। तब आचार्य द्रोण ने सेनापतित्व का भार ग्रहण किया। फिर से दोनों पक्षो में बड़ा भयंकर युद्ध हुआ। विराट और द्रुपद आदि राजा द्रोणरूपी समुद्र में डूब गये थे। लेकिन जब पाण्डवो ने छ्ल से द्रोण को यह विश्वास दिला दिया कि अश्वत्थामा मारा गया। तो आचार्य द्रोण ने निराश हों अस्त्र शस्त्र त्यागकर उसके बाद योग समाधि ले कर अपना शरीर त्याग दिया। ऐसे समय में धृष्टद्युम्न ने योग समाधि लिए द्रोण का मस्तक तलवार से काट कर भूमि पर गिरा दिया। कर्ण और शल्य वध द्रोण वध के पश्चात कर्ण कौरव सेना का कर्णधार हुआ। कर्ण और अर्जुन में भाँति-भाँति के अस्त्र-शस्त्रों से युक्त महाभयानक युद्ध हुआ, जो देवासुर-संग्राम को भी मात करने वाला था। कर्ण और अर्जुन के संग्राम में कर्ण ने अपने बाणों से शत्रु-पक्ष के बहुत-से वीरों का संहार कर डाला। यद्यपि युद्ध गतिरोधपूर्ण हो रहा था लेकिन कर्ण तब उलझ गया जब उसके रथ का एक पहिया धरती में धँस गया। गुरु परशुराम के शाप के कारण वह अपने को दैवीय अस्त्रों के प्रयोग में भी असमर्थ पाकर रथ के पहिए को निकालने के लिए नीचे उतरता है। तब श्रीकृष्ण, अर्जुन को उसके द्वारा किये अभिमन्यु वध, कुरु सभा में द्रोपदी को वेश्या और उसकी कर्ण वध करने की प्रतिज्ञा याद दिलाकर उसे मारने को कहते है, तब अर्जुन ने एक दैवीय अस्त्र से कर्ण का सिर धड़ से अलग कर दिया। तदनन्तर राजा शल्य कौरव-सेना के सेनापति हुए, किंतु वे युद्ध में आधे दिन तक ही टिक सके। दोपहर होते-होते राजा युधिष्ठिर ने उन्हें मार दिया। दुर्योधन वध और महाभारत युद्ध की समाप्ति दुर्योधन की सारी सेना के मारे जाने पर अन्त में उसका भीमसेन के साथ गदा युद्ध हुआ। भीम ने छ्ल से उसकी जांघ पर प्रहार करके उसे मार डाला। इसका प्रतिशोध लेने के लिये अश्वत्थामा ने रात्रि में पाण्डवों की एक अक्षौहिणी सेना, द्रौपदी के पाँचों पुत्रों, उसके पांचालदेशीय बन्धुओं तथा धृष्टद्युम्न को सदा के लिये सुला दिया। तब अर्जुन ने अश्वत्थामा को परास्त करके उसके मस्तक की मणि निकाल ली। फिर अश्वत्थामा ने उत्तरा के गर्भ पर ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया। उसका गर्भ उसके अस्त्र से प्राय दग्ध हो गया था, किंतु भगवान श्रीकृष्ण ने उसको पुन: जीवन-दान दिया। उत्तरा का वही गर्भस्थ शिशु आगे चलकर राजा परीक्षित के नाम से विख्यात हुआ। इस युद्ध के अंत में कृतवर्मा, कृपाचार्य तथा अश्वत्थामा तीन कौरवपक्षिय और पाँच पाण्डव, सात्यकि तथा श्रीकृष्ण ये सात पाण्डवपक्षिय वीर जीवित बचे। तत्पश्चात् युधिष्ठिर राजसिंहासन पर आसीन हुए। यदुकुल का संहार और पाण्डवों का महाप्रस्थान ब्राह्मणों और गांधारी के शाप के कारण यादवकुल का संहार हो गया। बलभद्रजी योग से अपना शरीर त्याग कर शेषनाग स्वरुप होकर समुद्र में चले गये। भगवान कृष्ण के सभी प्रपौत्र एक दिन महामुनियों की शक्ति देखने के लिये एक को स्त्री बनाकर मुनियों के पास गए और पूछा कि हे मुनिश्रेष्ठ! यह महिला गर्भ से है, हमें बताएं कि इसके गर्भ से किसका जन्म होगा? मुनियों को ज्ञात हुआ कि यह बालक उनसे क्रिडा करते हुए एक पुरुष को महिला बना उनके पास लाए हैं। मुनियों ने कृष्ण के प्रपौत्रों को श्रापा कि इस मानव के गर्भ से एक मूसल लिकलेगा जिससे तुम्हारे वंश का अंत होगा। कृष्ण के प्रपौत्रों नें उस मूसल को पत्थर पर रगड़ कर चूरा बना नदी में बहा दिया तथा उसके नोक को फेंक दिया। उस चूर्ण से उत्पन्न वृक्ष की पत्तियों से सभी कृष्ण के प्रपौत्र मृत्यु को प्राप्त किये। यह देख श्रीकृष्ण भी एक पेड़ के नीचे ध्यान लगाकर बेठ गये। 'ज़रा' नाम के एक व्याध (शिकारी) ने अपने बाण की नोक पर मूसल का नोक लगा दिया तथा भगवान कृष्ण के चरणकमल को मृग समझकर उस बाण से प्रहार किया। उस बाण द्वारा कृष्ण के पैर का चुम्बन उनके परमधाम गमन का कारण बना। प्रभु अपने संपूर्ण शरीर के साथ गोलोक प्रस्थान किये।[48] इसके बाद समुद्र ने द्वारकापुरी को अपने जल में डुबा दिया। तदनन्तर द्वारका से लौटे हुए अर्जुन के मुख से यादवों के संहार का समाचार सुनकर युधिष्ठिर ने संसार की अनित्यता का विचार करके परीक्षित को राजासन पर बिठाया और द्रौपदी तथा भाइयों को साथ ले हिमालय की तरफ महाप्रस्थान के पथ पर अग्रसर हुए। उस महापथ में युधिष्ठिर को छोड़ सभी एक-एक करके गिर पड़े। अन्त में युधिष्ठिर इन्द्र के रथ पर आरूढ़ हो (दिव्य रूप धारी) भाइयों सहित स्वर्ग को चले गये। और अधिक यहाँ महाभारत के पात्र मुख्य उल्लेख:महाभारत के पात्र अभिमन्यु: अर्जुन के वीर पुत्र जो कुरुक्षेत्र युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुये। अम्बा: शिखन्डी पूर्व जन्म में अम्बा नामक राजकुमारी था। अम्बिका: विचित्रवीर्य की पत्नी, अम्बा और अम्बालिका की बहिन। अम्बालिका: विचित्रवीर्य की पत्नी, अम्बा और अम्बिका की बहिन। अर्जुन: देवराज इन्द्र द्वारा कुन्ती एवं पान्डु का पुत्र। एक अतुल्निय धनुर्धर जिसको श्री कृष्ण ने श्रीमद् भगवद् गीता का उपदेश दिया था। बभ्रुवाहन: अर्जुन एवं चित्रांग्दा का पुत्र। बकासुर: महाभारत काव्य में एक असुर जिसको भीम ने मार कर एक गांव के वासियों की रक्षा की थी। भीष्म: भीष्म का नामकरण देवव्रत के नाम से हुआ था। वे शान्तनु एवं गंगा के पुत्र थे। जब देवव्रत ने अपने पिता की प्रसन्नता के लिये आजीवन ब्रह्मचारी रहने का प्रण लिया, तब से उनका नाम भीष्म हो गया। द्रौपदी: द्रुपद की पुत्री जो अग्नि से प्रकट हुई थी। द्रौपदी पांचों पांड्वों की अर्धांगिनी थी और उसे आज प्राचीनतम् नारीवादिनियों में एक माना जाता है। द्रोण: हस्तिनापुर के राजकुमारों को शस्त्र विद्या देने वाले ब्राह्मण गुरु। अश्व्थामा के पिता। यह विश्व के प्रथम "टेस्ट-टयूब बेबी" थे। द्रोण एक प्रकार का पात्र होता है। द्रुपद: पांचाल के राजा और द्रौपदी एवमं धृष्टद्युम्न के पिता। द्रुपद और द्रोण बाल्यकाल के मित्र थे! दुर्योधन: कौरवों में ज्येष्ठ। धृतराष्ट्र एवं गांधारी के १०० पुत्रों में सबसे बड़े। दुःशासन: दुर्योधन से छोटा भाई जो द्रौपदी को हस्तिनपुर राज्यसभा में बालों से पकड़ कर लाया था। कुरुक्षेत्र युद्ध में भीम ने दुःशासन की छाती का रक्त पिया था। एकलव्य: द्रोण का एक महान शिष्य जिससे गुरुदक्षिणा में द्रोण ने उसका अंगूठा मांगा था। गांडीव: अर्जुन का धनुष। [जो, कई मान्यताओं के अनुसार, भगवान शिव से इंद्र और उसके बाद अग्नि देव अंत में अग्नि-देव ने अर्जुन को दिया था।] गांधारी: गंधार के राजा की पुत्री और धृतराष्ट्र की पत्नी। जयद्रथ: सिन्धु के राजा और धृतराष्ट्र के दामाद। कुरुक्षेत्र युद्ध में अर्जुन ने जयद्रथ का शीश काट कर वध किया था। कर्ण: सूर्यदेव एवमं कुन्ती के पुत्र और पाण्डवों के सबसे बड़े भाई। कर्ण को दानवीर-कर्ण के नाम से भी जाना जाता है। कर्ण कवच एवं कुंडल पहने हुए पैदा हुये थे और उनका दान इंद्र को किया था। कृपाचार्य: हस्तिनापुर के ब्राह्मण गुरु। इनकी बहिन 'कृपि' का विवाह द्रोण से हुआ था। कृष्ण: देवकी की आठवीं सन्तान जिसने अपने मामा कंस का वध किया था। भगवान कृष्ण ने अर्जुन को कुरुक्षेत्र युध के प्रारम्भ में गीता उपदेश दिया था। श्री कृष्ण, भगवान विष्णु के आठवें अवतार थे। कुरुक्षेत्र: वह क्षेत्र जहाँ महाभारत का महान युद्ध हुआ था। यह क्षेत्र आज के भारत में हरियाणा में स्थित है। पाण्डव: पाण्डु की कुन्ती और माद्री से सन्ताने। यह पांच भाई थे: युद्धिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव। परशुराम: अर्थात् परशु वाले राम। वे द्रोण, भीष्म और कर्ण जैसे महारथियों के गुरु थे। वे भगवान विष्णु का षष्ठम अवतार थे। शल्य: नकुल और सहदेव की माता माद्री के भाई। उत्तरा: राजा विराट की पुत्री। अभिमन्यु कि धर्म्पत्नी। महर्षि व्यास: महाभारत महाकाव्य के लेखक। पाराशर और सत्यवती के पुत्र। इन्हें कृष्ण द्वैपायन के नाम से भी जाना जाता है क्योंकि वे कृष्णवर्ण के थे तथा उनका जन्म एक द्वीप में हुआ था। बलराम: देवकी की सातवीं संतान और शेषनाग के अवतार थे। मान्यता है कि इन्हें नंद की दूसरी पत्नी रोहिणी ने कंस से बचने के लिए देवकी गर्भ से बलराम को धारण किया था। सुभद्रा: यह महारथी अर्जुन की पत्नी एवं भगवान कृष्ण तथा बलराम की बहन थी। रुक्मिणी: कृष्णा की पत्नी महाभारत: अनुपम काव्य विभिन्न भाग एवं रूपान्तर महाभारत के कई भाग हैं जो आमतौर पर अपने आप में एक अलग और पूर्ण पुस्तकें मानी जाती हैं। मुख्य रूप से इन भागों को अलग से महत्व दिया जाता है:- भगवद गीता श्री कृष्ण द्वारा भीष्मपर्व में अर्जुन को दिया गया उपदेश। दमयन्ती अथवा नल दमयन्ती, अरण्यकपर्व में एक प्रेम कथा। कृष्णवार्ता: भगवान श्री कृष्ण की कहानी। राम रामायण का अरण्यकपर्व में एक संक्षिप्त रूप। ॠष्य ॠंग एक ॠषि की प्रेम कथा। विष्णुसहस्रनाम विष्णु के १००० नामों की महिमा शान्तिपर्व में। महाभारत के दक्षिण एशिया मे कई रूपान्तर मिलते हैं, इण्डोनेशिया, श्रीलंका, जावा द्वीप, जकार्ता, थाइलैंड, तिब्बत, बर्मा (म्यान्मार) में महाभारत के भिन्न-भिन्न रूपान्तर मिलते हैं। दक्षिण भारतीय महाभारत मे अधिकतम १,४०,००० श्लोक मिलते हैं, जबकि उत्तर भारतीय महाभारत के रूपान्तर मे १,१०,००० श्लोक मिलते हैं। अठारह की संख्या महाभारत की मूल अभिकल्पना में अठारह की संख्या का विशिष्ट योग हैं। कौरव और पाण्डव पक्षों के मध्य हुए युद्ध की अवधि अठारह दिन थी। दोनों पक्षों की सेनाओं का सम्मिलित संख्याबल भी अठारह अक्षौहिणी था। इस युद्ध के प्रमुख सूत्रधार भी अठारह हैं।[49] महाभारत की प्रबन्ध योजना में सम्पूर्ण ग्रंथ को अठारह पर्वों में विभक्त किया गया हैं और महाभारत में भीष्म पर्व के अन्तर्गत वर्णित श्रीमद्भगवद्गीता में भी अठारह अध्याय हैं। सम्पूर्ण महाभारत अठारह पर्वों में विभक्त हैं।[50] आद्य भारत महाभारत के आदिपर्व के अनुसार वेदव्यास जी ने सर्वप्रथम पुण्यकर्मा मानवों के उपाख्यानों सहित एक लाख श्लोकों का आद्य भारत ग्रंथ बनाया। तदन्तर उपाख्यानों को छोड़कर चौबीस हजार श्लोकों की भारत संहिता बनायी। तत्पश्चात व्यास जी ने साठ लाख श्लोकों की एक दूसरी संहिता बनायी, जिसके तीस लाख श्लोक देवलोक में, पन्द्रह लाख पितृलोक में तथा चौदह लाख श्लोक गन्धर्वलोक में समादृत हुए। मनुष्यलोक में एक लाख श्लोकों का आद्य भारत प्रतिष्ठित हुआ।[36] पृथ्वी के भौगोलिक सन्दर्भ महाभारत में भारत के अतिरिक्त विश्व के कई अन्य भौगोलिक स्थानों का सन्दर्भ भी आता है जैसे चीन का गोबी मरुस्थल[51], मिस्र की नील नदी[52], लाल सागर[53] तथा इसके अतिरिक्त महाभारत के भीष्म पर्व के जम्बूखण्ड-विनिर्माण पर्व में सम्पूर्ण पृथ्वी का मानचित्र भी बताया गया है, जो निम्नलिखित है-: सुदर्शनं प्रवक्ष्यामि द्वीपं तु कुरुनन्दन। परिमण्डलो महाराज द्वीपोऽसौ चक्रसंस्थितः॥ यथा हि पुरुषः पश्येदादर्शे मुखमात्मनः। एवं सुदर्शनद्वीपो दृश्यते चन्द्रमण्डले॥ द्विरंशे पिप्पलस्तत्र द्विरंशे च शशो महान्। -- वेद व्यास, भीष्म पर्व, महाभारत अर्थात: हे कुरुनन्दन ! सुदर्शन नामक यह द्वीप चक्र की भाँति गोलाकार स्थित है, जैसे पुरुष दर्पण में अपना मुख देखता है, उसी प्रकार यह द्वीप चन्द्रमण्डल में दिखायी देता है। इसके दो अंशो मे पिप्पल और दो अंशो मे महान शश (खरगोश) दिखायी देता है। अब यदि उपरोक्त संरचना को कागज पर बनाकर व्यवस्थित करे तो हमारी पृथ्वी का मानचित्र बन जाता है, जो हमारी पृथ्वी के वास्तविक मानचित्र से बहुत समानता दिखाता है: चित्र दीर्घा एक खरगोश और दो पत्तो का चित्र चित्र को उल्टा करने पर बना पृथ्वी का मानचित्र उपरोक्त मानचित्र ग्लोब में प्रचलित मीडिया में १९८८ के लगभग बी आर चोपड़ा निर्मित महाभारत, भारत में दूरदर्शन पर पहली बार धारावाहिक रूप में प्रसारित हुआ। १९८९ में पीटर ब्रुक द्वारा पहली बार यह फिल्म अंग्रेजी में बनी। महाभारत नाम से सूर्यकांत त्रिपाठी निराला ने भी साहित्यिक कृति है। कहानियाँ हमारे महाभारत की नाम से एकता कपूर ने भी एक दूरदर्शन धारावाहिक बनाया था, जिसका प्रसारण २००७ में ९एक्स चैनल पर किया जाता था।[54] एक और महाभारत: भारतीय रेल के अधिकारियों तथा विभिन्न कर्मचारियों द्वारा कहानी संग्रह। कुरुक्षेत्र में एक महाभारत दीर्घा का निर्माण हो रहा है, जिसमें तब के कुछ दृश्यों को जीवंत हुआ देखा जा सकेगा।[55] १००० महाभारत प्रश्नोत्तरी नामक पुस्तक, में महाभारत के गहन ज्ञान पर गुप्त १००० प्रश्न हैं।[2] कुरु वंशवृक्ष संज्ञासूचीपुरुष: नीला किनारा स्त्री: लाल किनारा पांडव: नीला पृष्ठ कौरव: पीला पृष्ठ टिप्पणीक: शांतनु कुरु वंशके राजा थे। उनका प्रथम विवाह गंगा के साथ और दूसरा विवाह सत्यवती के साथ हुआ था। ख: पांडु और धृतराष्ट्र का जन्म विचित्रवीर्य की मृत्यु के बाद व्यास द्वारा नियोग पद्धति से किया गया था। धृतराष्ट्र, पांडु और विदुर को क्रमशः अंबिका, अंबालिका और एक दासी ने जन्मा था। ग: कर्ण को कुंती ने जन्मा था। पांडु के साथ विवाह के पूर्व उसने सूर्य देव का आवाहन किया था जिससे कर्ण उत्पन्न हुए थे। घ: युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव पांडु के पुत्र थे किन्तु उनको कुन्ती एवं माद्री ने विभिन्न देवताओं का आवाहन करके जन्मा था। पाँचों पाण्डवों का विवाह, द्रौपदी से हुआ था, जिसको इस सारणी में नहीं दिखाया गया है। च : दुर्योधन और उसके सभी भाई-बहन एक ही समय में जन्मे थे। वे पाण्डवों के समवयस्क थे। संदर्भ और टीका इन्हें भी देखें महाभारत के विभिन्न संस्करण महाभारत (निराला की रचना) रामायण महाभारत की संक्षिप्त कथा महाभारत के पात्र महाभारत (टीवी धारावाहिक) महाभारत के पर्व कहानियाँ हमारे महाभारत की (टीवी धारावाहिक) हरिवंश पर्व बाहरी कड़ियाँ कुरुकगंगाशांतनुकसत्यवतीपराशरभीष्मचित्रांगदअंबिकाविचित्रवीर्यअंबालिकाव्यासधृतराष्ट्रखगांधारीशकुनिकुंतीपांडुखमाद्रीकर्णगयुधिष्ठिरघभीमघअर्जुनघसुभद्रानकुलघसहदेवघदुर्योधनचदुशलादुशासन(अन्य ९८ पुत्रो) (केवल संस्कृत पाठ) (हिन्दी में सम्पूर्ण कथा) (गूगल पुस्तक) (गूगल पुस्तक) (गूगल पुस्तक ; चन्द्रकान्त वांदिवडेकर) - यहाँ महाभारत का खोजने योग्य डेटाबेस तथा अन्य सुविधाएँ हैं। - यहाँ देवनागरी और रोमन में महाभारत का पाठ उपलब्ध है; अंग्रेजी अनुवाद उपलब्ध है; और एक जिप संचिका के रूप में सम्पूर्ण महाभारत डाउनलोड करने की सुविधा भी है। - यहाँ देवनागरी विपुल संस्कृत साहित्य उपलब्ध है। सम्पूर्ण महाभारत डाउनलोड करने की सुविधा भी है। (published between 1883 and 1896) चलचित्र at IMDb १९८९ मूवी पीटर ब्रुक द्वारा निर्देशित at IMDb १९८० मूवी श्याम बेनेगल द्वारा निर्देशित। यह चलचित्र महाभारत की कहानी पर आधारित है और आधुनिक युग के संदर्भ में कहानी की पुनः वुयाख्या करता है, जिसमें दो परिवार एक औद्योगिक संकाय पर नियन्त्रन के लिए लड़ रहे हैं। श्रेणी:महाभारत श्रेणी:महाभारत कथा श्रेणी:महाभारत श्रेणी:पौराणिक कथाएँ श्रेणी:ऐतिहासिक वीर गाथाएँ श्रेणी:काव्य ग्रन्थ
महाभारत ग्रंथ में लगभग कितने श्लोक हैं?
१,१०,०००
621
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वॉनाक्राय रैनसमवेयर (अंग्रेज़ी: WannaCry या WanaCrypt0r 2.0) एक रैनसमवेयर मैलवेयर टूल है जिसका प्रयोग करते हुए मई 2017 में एक वैश्विक रैनसमवेयर हमला हुआ। रैनसम अंग्रेजी शब्द है जिसका अर्थ है- फिरौती। इस साइबर हमले के बाद संक्रमित कंप्यूटरों ने काम करना बंद कर दिया, उन्हें फिर से खोलने के लिए बिटकॉइन के रूप में 300-600 डॉलर तक की फिरौती की मांग की गई।[3] प्रभावित संगठनों ने कंप्यूटर्स के लॉक होने और बिटकॉइन की मांग करने वाले स्क्रीनशॉट्स साझा किए हैं। ब्रिटेन, अमेरिका, चीन, रूस, स्पेन, इटली, वियतनाम समेत कई अन्य देशों में रेनसमवेयर साइबर हमलों के समाचार प्राप्त हुए हैं। ब्रिटेन की नेशनल हेल्थ सर्विस भी इस हमले से प्रभावित हुई है। साइबर सुरक्षा शोधकर्ता के मुताबिक़ बिटकॉइन मांगने के 36 हज़ार मामलों का पता चला है।[3] हैकर्स ने अमेरिका की नैशनल सिक्यॉरिटी ऐजेंसी जैसी तकनीक का इस्तेमाल कर इतने बड़े पैमाने पर साइबर अटैक किया। माना जा रहा है कि अमेरिका की नैशनल सिक्यॉरिटी एजेंसी जिस तकनीक का इस्तेमाल करती थी वह इंटरनेट पर लीक हो गई थी और हैकर्स ने उसी तकनीक का इस्तेमाल किया है।[4] सुरक्षा शोध से जुड़ी एक संस्था ने रविवार को चेतावनी दी कि शुक्रवार को हुए वैश्विक हमले के बाद दूसरा बड़ा साइबर हमला 15 मई 2017 सोमवार को हो सकता है। ब्रिटेन के सुरक्षा शोधकर्ता 'मैलवेयर टेक' ने भविष्यवाणी की है कि दूसरा हमला सोमवार को होने की संभावना है। मैलवेयर टेक ने ही रैनसमवेयर हमले को सीमित करने में मदद की थी।[5] पृष्ठभूमि फरवरी 2016 में कैलिफोर्निया के हॉलिवुड प्रेसबिटेरियन मेडिकल सेंटर ने बताया कि उसने अपने कम्प्यूटरों का डेटा फिर से पाने के लिए हैकर्स को 17,000 अमेरिकी डॉलर की फिरौती देनी पड़ी थी। साइबर सिक्यॉरिटी विशेषज्ञ और ब्रिटेन के नैशनल हॉस्पिटल फॉर न्यूरोलॉजी ऐंड न्यूरो सर्जरी में डॉक्टर कृष्णा चिंतापल्ली के मुताबिक ब्रिटेन के अस्पतालों में पुराने ऑपरेटिंग सिस्टम का इस्तेमाल हो रहा है। इस वजह से साइबर हमले का खतरा ज्यादा है। उन्होंने कहा कि ब्रिटेन के कई अस्पताल विंडोज XP सॉफ्टवेयर का इस्तेमाल कर रहे हैं जिसे 2001 में लॉन्च किया गया था। हेल्थ सर्विस बजट में कमी की वजह से ऑपरेटिंग सिस्टम अपडेट नहीं हुए हैं।[4] वॉनाक्राय रैनसमवेयर कंप्यूटर पर फ़ाइलों को लॉक करता है और उनको इस तरह से एन्क्रिप्ट करता है कि यूजर द्वारा उन तक नहीं पहुंचा जा सकता। यह माइक्रोसॉफ्ट के व्यापक रूप से इस्तेमाल किये जाने वाले विंडोज ऑपरेटिंग सिस्टम को लक्ष्य बनाता है। जब कोई सिस्टम संक्रमित होता है, तो पॉप-अप विंडो $ 300 की फिरौती राशि का भुगतान करने के निर्देशों के साथ दिखाई देती है। पॉप-अप विंडो में दो उलटी गिनती वाली घड़ियाँ दिखाई देती हैं; एक व्यक्ति को तीन दिन की समयसीमा दिखती हैं जिसके बाद राशि दुगुनी हो कर $600 हो जाती है; दूसरा एक समय सीमा दिखाती है जिसके बाद यूजर हमेशा के लिए अपना डेटा खो देगा। भुगतान को केवल बिटकॉइन में ही स्वीकार किया जाता है।[6] प्रभाव ब्रिटेन की नेशनल हेल्थ सर्विस (एनएचएस) इससे बुरी तरह प्रभावित हुई है और मरीजों के ऑनलाइन रिकॉर्ड पहुंच के बाहर हो गए हैं। इन हमलों के बाद हज़ारों जगहों के कंप्यूटर्स लॉक हो गए और पेमेंट नेटवर्क 'बिटकॉइन' के ज़रिये 230 पाउंड (करीब 19 हज़ार रुपये) की फ़िरौती मांगी।[7] ब्रिटेन की तरह ही स्पेन, पुर्तगाल और रूस में भी साइबर हमले हुए। 90 से ज्यादा देश इस साइबर हमले की चपेट में आए हैं।[4] भारत में आंध्र प्रदेश के पुलिस थानों के आंकड़े हैक किए गए, भारत में आंध्र प्रदेश में पुलिस विभाग के कंप्यूटरों के एक हिस्से वैश्विक साइबर हमले का निशाना बने। चित्तूर, कृष्णा, गुंटूर, विशाखापत्तनम और श्रीकुलम जिले के 18 पुलिस इकाइयों के कंप्यूटर साइबर हमले से प्रभावित हुए, हालांकि अधिकारियों ने कहा कि रोजमर्रा के कामों में कोई बाधा नहीं हुई है।[5] जापान में 600 स्थानों पर 2000 कंप्यूटरों के प्रभावित होने की सूचना प्राप्त हुई है। निसान मोटर कोर्प ने इस बात की पुष्टि की कि कुछ इकाइयों को निशाना बनाया गया लेकिन हमारे कारोबार पर कोई बड़ा असर नहीं पड़ा। हिताची की प्रवक्ता यूको तैनूची ने कहा कि ईमेल के साथ समस्या आ रही थी, फाइलें खुल नहीं पा रही थीं।कंपनी का कहना था कि हालांकि कोई फिरौती मांगी नहीं गई लेकिन ये समस्याऐं रैनसमवेयर हमले से जुड़ी हैं। समस्याओं को सुलझाने के लिए वे सॉफ्टवेयर डाल रहे हैं।[8] कंप्यूटर हमलों से निपटने के लिए सहयोग करने वाली गैर सरकारी संस्था द जापान कंप्यूटर इमरजेंसी रिस्पॉन्स टीम कॉर्डिनेशन सेंटर इस मामले को देख रही है।[8] जर्मनी की राष्ट्रीय रेलवे भी इससे प्रभावित हुई है।[8] किल स्विच हमले को रोकनेवाला 22 साल का एक व्यक्ति है जो मैलवेयरटेक उपनाम से जाना जाता है। इस शोधकर्ता ने पहले नोटिस किया कि मैलवेयर एक ख़ास वेब ऐड्रेस से लगातार कनेक्ट होने की कोशिश कर रहा है जिससे नए कंप्यूटर समस्याग्रस्त हो जाते, लेकिन वेब ऐड्रेस के जुड़ने की कोशिश के दौरान- अक्षरों में घालमेल था और ये रजिस्टर्ड नहीं थे। मैलवेयर टेक ने इसे रजिस्टर करने का फ़ैसला किया और उसने 10.69 डॉलर में ख़रीद लिया। इसे ख़रीदने के बाद उन्होंने देखा कि और किन कंप्यूटरों तक उसकी पहुंच बन रही है। इसी मैलवेयर टेक को आइडिया मिला कि रैनसमवेयर कैसे फैल रहा था। इस मामले में उन्हें अप्रत्याशित रूप से रैनसमवेयर को रोकने में सफलता मिली।[9] प्रतिक्रिया ब्रिटेन की प्रधानमंत्री थेरेसा मे ने कहा, "यह नेशनल हेल्थ सर्विस पर ही निशाना नहीं है। यह एक अंतर्राष्ट्रीय हमला है और कई देश और संस्थाएं इससे प्रभावित हुई हैं।"[7] इन्हें भी देखें साइबर युद्ध साइबर-आतंकवाद सन्दर्भ श्रेणी:सूचना प्रौद्योगिकी श्रेणी: रैनसमवेयर श्रेणी: मई 2017 की घटनाएं श्रेणी: 2017 के अपराध श्रेणी:कंप्यूटर सुरक्षा
हॉलिवुड प्रेसबिटेरियन मेडिकल सेंटर को कम्प्यूटरों का डेटा फिर से पाने के लिए हैकर्स को कितने डॉलर की फिरौती देनी पड़ी थी?
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थाईलैण्ड जिसका प्राचीन भारतीय नाम श्यामदेश (या स्याम) है दक्षिण पूर्वी एशिया में एक देश है। इसकी पूर्वी सीमा पर लाओस और कम्बोडिया, दक्षिणी सीमा पर मलेशिया और पश्चिमी सीमा पर म्यानमार है। 'स्याम' ही ११ मई, १९४९ तक थाईलैण्ड का अधिकृत नाम था। थाई शब्द का अर्थ थाई भाषा में 'स्वतन्त्र' होता है। यह शब्द थाई के सन्दर्भ में भी इस्तेमाल किया जाता है। इस कारण कुछ लोग विशेष रूप से यहाँ बसने वाले चीनी लोग, थाईलैंड को आज भी स्याम नाम से पुकारना पसन्द करते हैं। थाईलैण्ड की राजधानी बैंकाक है। थाईलैंड और उसके पड़ोसी लाओस, दक्षिणपश्चिम ताई परिवार की भाषाओं का प्रभुत्व रखते हैं। बर्मा के साथ सीमा के साथ करेन भाषाएं बोली जाती हैं, खमेर को कंबोडिया के पास बोली जाती है और मलेशिया के पास दक्षिण में मलय बोली जाती है। निम्नलिखित तालिका में रॉयल थाई सरकार द्वारा रॉयल थाई सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त सभी 62 जातीय समूहों को संयुक्त राष्ट्र समिति को नस्लीय भेदभाव के सभी रूपों के उन्मूलन के लिए अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन के लिए जिम्मेदार संयुक्त राष्ट्र समिति को मान्यता दी गई है, जो अधिकार और लिबरटीज विभाग से उपलब्ध थाई के प्रचार न्याय मंत्रालय है|[1] अल्पसंख्यक भाषाएं दूर दक्षिण में, मलय की बोली, यावी, मलय मुसलमानों की प्राथमिक भाषा है। बड़े उत्तरी खमेर द्वारा खमेर बोली जाती है। चीनी थाई चीनी आबादी द्वारा चीनी की किस्में भी बोली जाती हैं, जिसमें टीओकेई बोली का सबसे अच्छा प्रतिनिधित्व किया जाता है। हालांकि, मध्य थाई बोलने के लिए उत्तरी उत्तरी खमेर प्रवृत्ति, छोटे थाई चीनी केंद्रीय थाई बोलते हैं, और परानाकान केवल दक्षिणी थाई भाषा बोलते हैं। थाई लोग थाईलैंड में थाई की चार प्रमुख बोलीभाषाएं हैं: सेंट्रल थाई, लाओ का थाई संस्करण जिसे इसान, दक्षिणी थाई और उत्तरी थाई भाषा कहा जाता है। थाईलैंड की एकमात्र आधिकारिक भाषा सेंट्रल थाई, लाओ से निकटता से संबंधित एक क्रा-दाई भाषा, बर्मा में शान, और दक्षिणी चीन और उत्तरी वियतनाम की कई छोटी भाषाएं हैं। यह शिक्षा और सरकार की प्रमुख भाषा है और पूरे देश में बोली जाती है। सबसे व्यापक बोली जाने वाली भाषा रॉयल थाई सरकार की 2011 देश की रिपोर्ट के मुताबिक थाईलैंड में आधिकारिक पहली भाषा थाईलैंड में थाई थी|[2][3][4] संदर्भ श्रेणी:थाईलैण्ड की भाषाएँ
थाईलैंड की आधिकारिक भाषा क्या है?
थाई
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भगत सिंह (जन्म: २८ सितम्बर १९०७[lower-alpha 1], मृत्यु: २३ मार्च १९३१) भारत के एक प्रमुख स्वतंत्रता सेनानी क्रांतिकारी थे। चन्द्रशेखर आजाद व पार्टी के अन्य सदस्यों के साथ मिलकर इन्होंने देश की आज़ादी के लिए अभूतपूर्व साहस के साथ शक्तिशाली ब्रिटिश सरकार का मुक़ाबला किया। पहले लाहौर में साण्डर्स की हत्या और उसके बाद दिल्ली की केन्द्रीय संसद (सेण्ट्रल असेम्बली) में बम-विस्फोट करके ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध खुले विद्रोह को बुलन्दी प्रदान की। इन्होंने असेम्बली में बम फेंककर भी भागने से मना कर दिया। जिसके फलस्वरूप इन्हें २३ मार्च १९३१ को इनके दो अन्य साथियों, राजगुरु तथा सुखदेव के साथ फाँसी पर लटका दिया गया। सारे देश ने उनके बलिदान को बड़ी गम्भीरता से याद किया। जन्म और परिवेश भगत सिंह संधु का जन्म २८ सितंबर १९०७ को प्रचलित है परन्तु तत्कालीन अनेक साक्ष्यों के अनुसार उनका जन्म १९ अक्टूबर १९०७ ई० को हुआ था।[lower-alpha 1] उनके पिता का नाम सरदार किशन सिंह और माता का नाम विद्यावती कौर था। यह एक जाट सिक्ख परिवार था। उनका परिवार पूर्णतः आर्य समाजी था।अमृतसर में १३ अप्रैल १९१९ को हुए जलियाँवाला बाग हत्याकाण्ड ने भगत सिंह की सोच पर गहरा प्रभाव डाला था। लाहौर के नेशनल कॉलेज़ की पढ़ाई छोड़कर भगत सिंह ने भारत की आज़ादी के लिये नौजवान भारत सभा की स्थापना की थी। काकोरी काण्ड में राम प्रसाद 'बिस्मिल' सहित ४ क्रान्तिकारियों को फाँसी व १६ अन्य को कारावास की सजाओं से भगत सिंह इतने अधिक उद्विग्न हुए कि पण्डित चन्द्रशेखर आजाद के साथ उनकी पार्टी हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसिएशन से जुड गये और उसे एक नया नाम दिया हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन। इस संगठन का उद्देश्य सेवा, त्याग और पीड़ा झेल सकने वाले नवयुवक तैयार करना था। भगत सिंह ने राजगुरु के साथ मिलकर १७ दिसम्बर १९२८ को लाहौर में सहायक पुलिस अधीक्षक रहे अंग्रेज़ अधिकारी जे० पी० सांडर्स को मारा था। इस कार्रवाई में क्रान्तिकारी चन्द्रशेखर आज़ाद ने उनकी पूरी सहायता की थी। क्रान्तिकारी साथी बटुकेश्वर दत्त के साथ मिलकर भगत सिंह ने वर्तमान नई दिल्ली स्थित ब्रिटिश भारत की तत्कालीन सेण्ट्रल एसेम्बली के सभागार संसद भवन में ८ अप्रैल १९२९ को अंग्रेज़ सरकार को जगाने के लिये बम और पर्चे फेंके थे। बम फेंकने के बाद वहीं पर दोनों ने अपनी गिरफ्तारी भी दी। क्रान्तिकारी गतिविधियाँ उस समय भगत सिंह करीब बारह वर्ष के थे जब जलियाँवाला बाग हत्याकाण्ड हुआ था। इसकी सूचना मिलते ही भगत सिंह अपने स्कूल से १२ मील पैदल चलकर जलियाँवाला बाग पहुँच गये। इस उम्र में भगत सिंह अपने चाचाओं की क्रान्तिकारी किताबें पढ़ कर सोचते थे कि इनका रास्ता सही है कि नहीं ? गांधी जी का असहयोग आन्दोलन छिड़ने के बाद वे गान्धी जी के अहिंसात्मक तरीकों और क्रान्तिकारियों के हिंसक आन्दोलन में से अपने लिये रास्ता चुनने लगे। गान्धी जी के असहयोग आन्दोलन को रद्द कर देने के कारण उनमें थोड़ा रोष उत्पन्न हुआ, पर पूरे राष्ट्र की तरह वो भी महात्मा गांधी का सम्मान करते थे। पर उन्होंने गांधी जी के अहिंसात्मक आन्दोलन की जगह देश की स्वतन्त्रता के लिये हिंसात्मक क्रांति का मार्ग अपनाना अनुचित नहीं समझा। उन्होंने जुलूसों में भाग लेना प्रारम्भ किया तथा कई क्रान्तिकारी दलों के सदस्य बने। उनके दल के प्रमुख क्रान्तिकारियों में चन्द्रशेखर आजाद, सुखदेव, राजगुरु इत्यादि थे। काकोरी काण्ड में ४ क्रान्तिकारियों को फाँसी व १६ अन्य को कारावास की सजाओं से भगत सिंह इतने अधिक उद्विग्न हुए कि उन्होंने १९२८ में अपनी पार्टी नौजवान भारत सभा का हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसिएशन में विलय कर दिया और उसे एक नया नाम दिया हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन। लाला जी की मृत्यु का प्रतिशोध १९२८ में साइमन कमीशन के बहिष्कार के लिये भयानक प्रदर्शन हुए। इन प्रदर्शनों में भाग लेने वालों पर अंग्रेजी शासन ने लाठी चार्ज भी किया। इसी लाठी चार्ज से आहत होकर लाला लाजपत राय की मृत्यु हो गयी। अब इनसे रहा न गया। एक गुप्त योजना के तहत इन्होंने पुलिस सुपरिण्टेण्डेण्ट स्काट को मारने की योजना सोची। सोची गयी योजना के अनुसार भगत सिंह और राजगुरु लाहौर कोतवाली के सामने व्यस्त मुद्रा में टहलने लगे। उधर जयगोपाल अपनी साइकिल को लेकर ऐसे बैठ गये जैसे कि वो ख़राब हो गयी हो। गोपाल के इशारे पर दोनों सचेत हो गये। उधर चन्द्रशेखर आज़ाद पास के डी० ए० lवी० स्कूल की चहारदीवारी के पास छिपकर घटना को अंजाम देने में रक्षक का काम कर रहे थे। १७ दिसंबर १९२८ को करीब सवा चार बजे, ए० एस० पी० सॉण्डर्स के आते ही राजगुरु ने एक गोली सीधी उसके सर में मारी जिसके तुरन्त बाद वह होश खो बैठे। इसके बाद भगत सिंह ने ३-४ गोली दाग कर उसके मरने का पूरा इन्तज़ाम कर दिया। ये दोनों जैसे ही भाग रहे थे कि एक सिपाही चनन सिंह ने इनका पीछा करना शुरू कर दिया। चन्द्रशेखर आज़ाद ने उसे सावधान किया - "आगे बढ़े तो गोली मार दूँगा।" नहीं मानने पर आज़ाद ने उसे गोली मार दी। इस तरह इन लोगों ने लाला लाजपत राय की मौत का बदला ले लिया। एसेम्बली में बम फेंकना भगत सिंह यद्यपि रक्तपात के पक्षधर नहीं थे परन्तु वे वामपंथी विचारधारा को मानते थे, तथा कार्ल मार्क्स के सिद्धान्तों से उनका ताल्लुक था और उन्हीं विचारधारा को वे आगे बढ़ा रहे थे। यद्यपि, वे समाजवाद के पक्के पोषक भी थे। कलान्तर में उनके विरोधी द्वारा उनको अपने विचारधारा बता कर युवाओ को भगत सिंह के नाम पर बरगलाने के आरोप लगते रहे है। कॉंग्रेस के सत्ता में रहने के बावजूद भगत सिंह को कांग्रेस शहीद का दर्जा नही दिलवा पाए,क्योंकि वे केवल भगत सिंह के नाम का इस्तेमाल युवाओं को अपनी पार्टी से जोड़ने के लिए करते थे। उन्हें पूँजीपतियों की मजदूरों के प्रति शोषण की नीति पसन्द नहीं आती थी। उस समय चूँकि अँग्रेज ही सर्वेसर्वा थे तथा बहुत कम भारतीय उद्योगपति उन्नति कर पाये थे, अतः अँग्रेजों के मजदूरों के प्रति अत्याचार से उनका विरोध स्वाभाविक था। मजदूर विरोधी ऐसी नीतियों को ब्रिटिश संसद में पारित न होने देना उनके दल का निर्णय था। सभी चाहते थे कि अँग्रेजों को पता चलना चाहिये कि हिन्दुस्तानी जाग चुके हैं और उनके हृदय में ऐसी नीतियों के प्रति आक्रोश है। ऐसा करने के लिये ही उन्होंने दिल्ली की केन्द्रीय एसेम्बली में बम फेंकने की योजना बनायी थी। भगत सिंह चाहते थे कि इसमें कोई खून खराबा न हो और अँग्रेजों तक उनकी 'आवाज़' भी पहुँचे। हालाँकि प्रारम्भ में उनके दल के सब लोग ऐसा नहीं सोचते थे पर अन्त में सर्वसम्मति से भगत सिंह तथा बटुकेश्वर दत्त का नाम चुना गया। निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार ८ अप्रैल १९२९ को केन्द्रीय असेम्बली में इन दोनों ने एक ऐसे स्थान पर बम फेंका जहाँ कोई मौजूद न था, अन्यथा उसे चोट लग सकती थी। पूरा हाल धुएँ से भर गया। भगत सिंह चाहते तो भाग भी सकते थे पर उन्होंने पहले ही सोच रखा था कि उन्हें दण्ड स्वीकार है चाहें वह फाँसी ही क्यों न हो; अतः उन्होंने भागने से मना कर दिया। उस समय वे दोनों खाकी कमीज़ तथा निकर पहने हुए थे। बम फटने के बाद उन्होंने "इंकलाब-जिन्दाबाद, साम्राज्यवाद-मुर्दाबाद!" का नारा[9] लगाया और अपने साथ लाये हुए पर्चे हवा में उछाल दिये। इसके कुछ ही देर बाद पुलिस आ गयी और दोनों को ग़िरफ़्तार कर लिया गया। जेल के दिन जेल में भगत सिंह ने करीब २ साल रहे। इस दौरान वे लेख लिखकर अपने क्रान्तिकारी विचार व्यक्त करते रहे। जेल में रहते हुए उनका अध्ययन बराबर जारी रहा। उनके उस दौरान लिखे गये लेख व सगे सम्बन्धियों को लिखे गये पत्र आज भी उनके विचारों के दर्पण हैं। अपने लेखों में उन्होंने कई तरह से पूँजीपतियों को अपना शत्रु बताया है। उन्होंने लिखा कि मजदूरों का शोषण करने वाला चाहें एक भारतीय ही क्यों न हो, वह उनका शत्रु है। उन्होंने जेल में अंग्रेज़ी में एक लेख भी लिखा जिसका शीर्षक था मैं नास्तिक क्यों हूँ?[10][11] जेल में भगत सिंह व उनके साथियों ने ६४ दिनों तक भूख हडताल की। उनके एक साथी यतीन्द्रनाथ दास ने तो भूख हड़ताल में अपने प्राण ही त्याग दिये थे। फांसी 26 अगस्त, 1930 को अदालत ने भगत सिंह को भारतीय दंड संहिता की धारा 129, 302 तथा विस्फोटक पदार्थ अधिनियम की धारा 4 और 6एफ तथा आईपीसी की धारा 120 के अंतर्गत अपराधी सिद्ध किया। 7 अक्तूबर, 1930 को अदालत के द्वारा 68 पृष्ठों का निर्णय दिया, जिसमें भगत सिंह, सुखदेव तथा राजगुरु को फांसी की सजा सुनाई गई। फांसी की सजा सुनाए जाने के साथ ही लाहौर में धारा 144 लगा दी गई। इसके बाद भगत सिंह की फांसी की माफी के लिए प्रिवी परिषद में अपील दायर की गई परन्तु यह अपील 10 जनवरी, 1931 को रद्द कर दी गई। इसके बाद तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष पं. मदन मोहन मालवीय ने वायसराय के सामने सजा माफी के लिए 14 फरवरी, 1931 को अपील दायर की कि वह अपने विशेषाधिकार का प्रयोग करते हुए मानवता के आधार पर फांसी की सजा माफ कर दें। भगत सिंह की फांसी की सज़ा माफ़ करवाने हेतु महात्मा गांधी ने 17 फरवरी 1931 को वायसराय से बात की फिर 18 फरवरी, 1931 को आम जनता की ओर से भी वायसराय के सामने विभिन्न तर्को के साथ सजा माफी के लिए अपील दायर की। यह सब कुछ भगत सिंह की इच्छा के खिलाफ हो रहा था क्यों कि भगत सिंह नहीं चाहते थे कि उनकी सजा माफ की जाए। 23 मार्च 1931 को शाम में करीब 7 बजकर 33 मिनट पर भगत सिंह तथा इनके दो साथियों सुखदेव व राजगुरु को फाँसी दे दी गई।[12] फाँसी पर जाने से पहले वे लेनिन की जीवनी पढ़ रहे थे और जब उनसे उनकी आखरी इच्छा पूछी गई तो उन्होंने कहा कि वह लेनिन की जीवनी पढ़ रहे थे और उन्हें वह पूरी करने का समय दिया जाए।[13] कहा जाता है कि जेल के अधिकारियों ने जब उन्हें यह सूचना दी कि उनके फाँसी का वक्त आ गया है तो उन्होंने कहा था- "ठहरिये! पहले एक क्रान्तिकारी दूसरे से मिल तो ले।" फिर एक मिनट बाद किताब छत की ओर उछाल कर बोले - "ठीक है अब चलो।" फाँसी पर जाते समय वे तीनों मस्ती से गा रहे थे - मेरा रँग दे बसन्ती चोला, मेरा रँग दे। मेरा रँग दे बसन्ती चोला। माय रँग दे बसन्ती चोला॥ फाँसी के बाद कहीं कोई आन्दोलन न भड़क जाये इसके डर से अंग्रेजों ने पहले इनके मृत शरीर के टुकड़े किये फिर इसे बोरियों में भरकर फिरोजपुर की ओर ले गये जहाँ घी के बदले मिट्टी का तेल डालकर ही इनको जलाया जाने लगा। गाँव के लोगों ने आग जलती देखी तो करीब आये। इससे डरकर अंग्रेजों ने इनकी लाश के अधजले टुकड़ों को सतलुज नदी में फेंका और भाग गये। जब गाँव वाले पास आये तब उन्होंने इनके मृत शरीर के टुकड़ो कों एकत्रित कर विधिवत दाह संस्कार किया। और भगत सिंह हमेशा के लिये अमर हो गये। इसके बाद लोग अंग्रेजों के साथ-साथ गान्धी को भी इनकी मौत का जिम्मेवार समझने लगे। इस कारण जब गान्धी कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन में हिस्सा लेने जा रहे थे तो लोगों ने काले झण्डों के साथ गान्धीजी का स्वागत किया। एकाध जग़ह पर गान्धी पर हमला भी हुआ, किन्तु सादी वर्दी में उनके साथ चल रही पुलिस ने बचा लिया। व्यक्तित्व जेल के दिनों में उनके लिखे खतों व लेखों से उनके विचारों का अन्दाजा लगता है। उन्होंने भारतीय समाज में लिपि (पंजाबी की गुरुमुखी व शाहमुखी तथा हिन्दी और अरबी एवं उर्दू के सन्दर्भ में विशेष रूप से), जाति और धर्म के कारण आयी दूरियों पर दुःख व्यक्त किया था। उन्होंने समाज के कमजोर वर्ग पर किसी भारतीय के प्रहार को भी उसी सख्ती से सोचा जितना कि किसी अंग्रेज के द्वारा किये गये अत्याचार को। भगत सिंह को हिन्दी, उर्दू, पंजाबी तथा अंग्रेजी के अलावा बांग्ला भी आती थी जो उन्होंने बटुकेश्वर दत्त से सीखी थी। उनका विश्वास था कि उनकी शहादत से भारतीय जनता और उद्विग्न हो जायेगी और ऐसा उनके जिन्दा रहने से शायद ही हो पाये। इसी कारण उन्होंने मौत की सजा सुनाने के बाद भी माफ़ीनामा लिखने से साफ मना कर दिया था। पं० राम प्रसाद 'बिस्मिल' ने अपनी आत्मकथा में जो-जो दिशा-निर्देश दिये थे, भगत सिंह ने उनका अक्षरश: पालन किया[14]। उन्होंने अंग्रेज सरकार को एक पत्र भी लिखा, जिसमें कहा गया था कि उन्हें अंग्रेज़ी सरकार के ख़िलाफ़ भारतीयों के युद्ध का प्रतीक एक युद्धबन्दी समझा जाये तथा फाँसी देने के बजाय गोली से उड़ा दिया जाये।[15] फाँसी के पहले ३ मार्च को अपने भाई कुलतार को भेजे एक पत्र में भगत सिंह ने लिखा था - उन्हें यह फ़िक्र है हरदम, नयी तर्ज़-ए-ज़फ़ा क्या है? हमें यह शौक है देखें, सितम की इन्तहा क्या है? दहर से क्यों ख़फ़ा रहें, चर्ख का क्या ग़िला करें। सारा जहाँ अदू सही, आओ! मुक़ाबला करें।। इन जोशीली पंक्तियों से उनके शौर्य का अनुमान लगाया जा सकता है। चन्द्रशेखर आजाद से पहली मुलाकात के समय जलती हुई मोमबती पर हाथ रखकर उन्होंने कसम खायी थी कि उनकी जिन्दगी देश पर ही कुर्बान होगी और उन्होंने अपनी वह कसम पूरी कर दिखायी। “किसी ने सच ही कहा है, सुधार बूढ़े आदमी नहीं कर सकते । वे तो बहुत ही बुद्धिमान और समझदार होते हैं । सुधार तो होते हैं युवकों के परिश्रम, साहस, बलिदान और निष्ठा से, जिनको भयभीत होना आता ही नहीं और जो विचार कम और अनुभव अधिक करते हैं ।”~ भगत सिंह ख्याति और सम्मान उनकी मृत्यु की ख़बर को लाहौर के दैनिक ट्रिब्यून तथा न्यूयॉर्क के एक पत्र डेली वर्कर ने छापा। इसके बाद भी कई मार्क्सवादी पत्रों में उन पर लेख छपे, पर चूँकि भारत में उन दिनों मार्क्सवादी पत्रों के आने पर प्रतिबन्ध लगा था इसलिए भारतीय बुद्धिजीवियों को इसकी ख़बर नहीं थी। देशभर में उनकी शहादत को याद किया गया। दक्षिण भारत में पेरियार ने उनके लेख "मैं नास्तिक क्यों हूँ?" पर अपने साप्ताहिक पत्र कुडई आरसू के २२-२९ मार्च १९३१ के अंक में तमिल में सम्पादकीय लिखा। इसमें भगतसिंह की प्रशंसा की गई थी तथा उनकी शहादत को ब्रिटिश साम्राज्यवाद के ऊपर जीत के रूप में देखा गया था। आज भी भारत और पाकिस्तान की जनता भगत सिंह को आज़ादी के दीवाने के रूप में देखती है जिसने अपनी जवानी सहित सारी जिन्दगी देश के लिये समर्पित कर दी। उनके जीवन ने कई हिन्दी फ़िल्मों के चरित्रों को प्रेरित किया। टिप्पणियाँ सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ श्रेणी:व्यक्तिगत जीवन श्रेणी:भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम श्रेणी:भारतीय स्वतंत्रता सेनानी श्रेणी:नास्तिक श्रेणी:१९३१ में निधन श्रेणी:1907 में जन्मे लोग श्रेणी:भारतीय क्रांतिकारी श्रेणी:पंजाबी लोग
भगत सिंह का जन्म कब हुआ था?
२८ सितम्बर १९०७
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रोबोटिक सर्जरी, कंप्यूटर-समर्थित सर्जरी और रोबोट-समर्थित सर्जरी, उन विभिन्न तकनीकी विकासों के लिए शब्दावली है जिन्हें वर्तमान में विभिन्न प्रकार की शल्य चिकित्सा प्रक्रियाओं की सहायता के लिए विकसित किया गया है। रोबोट-समर्थित सर्जरी को न्यूनतम आक्रमणशील सर्जरी की कमियों पर काबू पाने के लिए विकसित किया गया था। उपकरणों को प्रत्यक्ष चलाने के बजाय शल्य चिकित्सक, बहु रोबोट बाजुओं से जुड़े हुए उपकरणों में गतिविधि करने के लिए एक कंप्यूटर कंसोल का उपयोग करते हैं। वह कंप्यूटर चिकित्सक की गतिविधियों को संपादित करता है, जिसे फिर रोगी के ऊपर रोबोट द्वारा किया जाता है। उदाहरण के लिए, रोबोटिक प्रणाली की अन्य विशेषताओं में शामिल है, एक एकीकृत कंपन फिल्टर और हरकत के मापन की क्षमता (मास्टर कंसोल की गतिविधियों और रोबोट से जुड़े उपकरणों की आंतरिक गतिविधियों के बीच की सीमा के अनुपात को बदलना) वह कंसोल उसी संचालन कमरे में स्थित होता है जिसमें रोगी होता है, लेकिन चिकित्सीय कार्यस्थान से भौतिक रूप से पृथक होता है। चूंकि ऑपरेशन होते समय सर्जन को रोगी के बिलकुल पास होने की आवश्यकता नहीं होती है, विशेषज्ञों के लिए रोगियों की दूरस्थ शल्य-चिकित्सा करना संभव हो जाता है। रोबोट, बिना किसी मानव सर्जन के शल्य चिकित्सा कर सकते हैं। इतिहास दुनिया का पहला शल्य चिकित्सा रोबोट "अर्थ्रोबोट" था, जिसे 1983 में वैंकूवर, बीसी, कनाडा में विकसित और पहली बार इस्तेमाल किया गया था। रोबोट का विकास आर्थोपेडिक सर्जन, डॉ॰ ब्रायन डे के सहयोग से डॉ॰ जेम्स मैकएवेन और जिओफ़ औशिन्लेक ने किया था। नेशनल ज्योग्राफिक ने रोबोटिक्स पर एक फिल्म का निर्माण किया जिसमें अर्थ्रोबोट शामिल था। उस समय संबंधित परियोजनाओं में, अन्य चिकित्सा रोबोट का विकास किया गया, जिसमें शामिल थी एक रोबोटिक भुजा जो नेत्र शल्य चिकित्सा करता था और एक अन्य जो एक ऑपरेटिंग सहायक के रूप में काम करता था और ध्वनी आज्ञाओं की प्रतिक्रिया में सर्जन को उपकरण पकड़ाता था। 1985 में एक रोबोट, PUMA 560 का इस्तेमाल सिटी मार्गदर्शन का उपयोग करते हुए मस्तिष्क बायोप्सी के लिए एक सुई लगाने के लिये किया गया। 1988 में, इंपीरियल कॉलेज लंदन में विकसित PROBOT, का इस्तेमाल पुर:स्‍थ ग्रंथीय सर्जरी के लिए किया गया था। इंटीग्रेटेड सर्जिकल सिस्टम द्वारा ROBODOC को 1992 में पेश किया गया था, जिसका इस्तेमाल कूल्हे के प्रतिस्थापन में फीमर की सटीक फिटिंग के लिए किया गया। इन्ट्युइटिव सर्जिकल द्वारा रोबोटिक प्रणाली का आगे विकास किया गया और डा विन्ची सर्जिकल सिस्टम और AESOP और ZEUS रोबोटिक सर्जिकल सिस्टम के साथ कम्प्यूटर मोशन की शुरुआत की गई। (इन्ट्युइटिव सर्जिकल ने 2003 में कम्प्यूटर मोशन को खरीदा; ZEUS का अब सक्रिय रूप से विपणन नहीं किया जाता है।[1]) डा विंची सर्जिकल सिस्टम में तीन घटक शामिल हैं: सर्जन का एक कंसोल, मरीज के लिए रोबोटिक गाड़ी जिसमें सर्जन द्वारा चालित चार भुजा होती है (एक कैमरा के नियंत्रण के लिए और तीन उपकरणों में हेरफेर करने के लिए) और एक हाई-डेफिनिशन 3D दृष्टि प्रणाली. सन्धियुक्त शल्य चिकित्सा उपकरणों को रोबोट की भुजा के ऊपर रखा जाता है जिन्हें प्रवेशनी के माध्यम से शरीर में डाला जाता है। यह उपकरण सर्जन के हाथों की गतिविधि को महसूस करता है और छोटे मालिकाना उपकरणों में हेरफेर करने के लिए उन्हें इलेक्ट्रॉनिक रूप से मापन आधारित सूक्ष्म-गतिविधियों में परिवर्तित करता है। यह सर्जन के हाथों में किसी भी कम्पन का पता लगाता है और उसे दरकिनार करता है, ताकि उन्हें रोबोट द्वारा दोहराया नहीं जाये. प्रणाली में प्रयुक्त कैमरा, एक सटीक त्रिविम चित्र प्रदान करता है, जो सर्जन के कंसोल पर प्रेषित किया जाता है। डा विंची प्रणाली, विभिन्न शल्य चिकित्सा प्रक्रियाओं के लिए एफडीए द्वारा अनुमति प्राप्त है, जिसमें शामिल है प्रोस्टेट कैंसर, गर्भाशय-उच्छेदन और मिट्राल वाल्व सुधार और अमेरिका और यूरोप में 800 से अधिक अस्पतालों में प्रयोग किया जाता है। डा विंची सिस्टम का इस्तेमाल 2006 में 48,000 प्रक्रियाओं में किया गया था और यह करीब $1.2 मीलियन में बिकता है। नया डा विंसी एच.डी. एसआई अप्रैल, 2009 में जारी किया गया और वर्तमान में यह $1.75 मीलियन में बिकता है। पहली रोबोटिक सर्जरी, कोलंबस, ओहियो में द ओहियो स्टेट यूनीवर्सिटी मेडिकल सेंटर में कार्डियोथोरेसिक सर्जरी के प्रोफ़ेसर और प्रमुख, डॉ॰ रॉबर्ट ई. मिश्लर के दिशानिर्देश में हुई। <मैकोनेल पीआई, श्नीबर्गर ईडब्लू, मिश्लर आरई. रोबोटिक हृदय शल्य चिकित्सा का इतिहास और विकास. जनरल सर्जरी में समस्याएं 2003; 20:62-72.> सितम्बर 2010 में, आइंटहॉवन प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय ने सोफी सर्जिकल सिस्टम के विकास की घोषणा की, प्रथम शल्य रोबोट जो फ़ोर्स फीडबैक का इस्तेमाल करेगा। [2] 1997 में फैलोपियन ट्यूब आपरेशन के एक पुनर्संयोजन को ZEUS का उपयोग करते हुए क्लीवलैंड में सफलतापूर्वक संपादित किया गया।[3] मई 1998 में, डॉ॰ फ्रेडरिक-विल्हेम मोहर ने डा वीसी सर्जिकल रोबोट का उपयोग करते हुए जर्मनी के लाइपजिश हार्ट सेंटर में रोबोट-समर्थित प्रथम हार्ट बाईपास संपादित किया। 2 सितम्बर 1999 को डॉ॰ रान्डेल वुल्फ और डॉ॰ रॉबर्ट मिश्लर ने अमेरिका में ओहिओ स्टेट विश्वविद्यालय में रोबोट-समर्थित प्रथम हार्ट बाईपास संपन्न किया। अक्टूबर 1999 में दुनिया का पहला शल्य चिकित्सकीय रोबोटिकिक्स धड़कता हृदय कोरोनरी धमनी बाइपास ग्राफ़्ट (CABG) ZEUS सर्जिकल रोबोट का उपयोग करते हुए कनाडा में डॉ॰ डगलस बोयड और डॉ॰ रिज़ा रेमन द्वारा प्रदर्शित किया गया।[4] 22 नवम्बर 1999 को प्रथम बंद छाती में धड़कते हृदय के संकर रीवैस्कुलराइजेशन प्रक्रिया को लंदन स्वास्थ्य विज्ञान केंद्र (लंदन, ओंटारियो) में किया गया। दो चरण की इस प्रक्रिया के प्रथम चरण में डगलस बोयड ने एक 55 वर्षीय पुरुष रोगी पर बाईं पूर्वकाल अवरोही धमनी पर एक इंडोस्कोपी, एकल पोत हृदय बायपास सर्जरी के लिए ज़ीउस का इस्तेमाल किया। इस प्रक्रिया के अगले चरण में एमडी, वेस्टर्न ओंटारियो विश्वविद्यालय के कार्डियोलोजी के प्रोफेसर, विलियम कोस्तुक ने मरीज की दूसरी कोरोनरी रुद्ध नाड़ी पर एक एंजियोप्लास्टी रीवैस्कुलराइजेशन पूरा किया। इस बहु-चरणीय प्रक्रिया के साथ ही कोरोनरी रोग के इलाज के लिए पहला एकीकृत दृष्टिकोण देखा गया।[5] 2001 में, प्रो मारेसकौक्स ने न्यूयॉर्क में रहते हुए, "ज़ीउस" रोबोट का इस्तेमाल करते हुए दूरस्थ रूप से एक ऐसे रोगी की पित्ताशय सर्जरी की जो स्ट्रासबर्ग, फ्रांस में था।[6] सितंबर 2001 में, डॉ॰ मिशेल गैग्नर ने न्यूयॉर्क में रहते हुए, ज़ीउस रोबोटिक प्रणाली का इस्तेमाल करते हुए स्ट्रासबर्ग, फ्रांस की एक महिला का दूरस्थ रूप से पित्ताशय काट कर निकाल दिया। मई 2006 में 34 साल के एक पुरुष में हृदय अतालता को सही करने के लिए प्रथम एआई चिकित्सक-संपादित असमर्थित रोबोटिक सर्जरी आयोजित की गई। परिणाम मानव सर्जन की तुलना में औसत से ऊपर के रूप में बेहतर दर्ज किये गए। मशीन में समान ऑपरेशन के 10000 डेटाबेस थे और इसलिए, इसके डिजाइनरों के शब्दों में, यह "किसी भी रोगी पर क्रिया करने के लिए योग्य से अधिक कुशल था।" डिजाइनरों का मानना था कि रोबोट 15 वर्षों के अन्दर सभी शल्य चिकित्सकों की संख्या को प्रतिस्थापित कर सकते हैं। [7][8] फरवरी 2008 में, शिकागो विश्वविद्यालय कोमर बाल अस्पताल के डॉ॰ मोहन एस. गुन्देटी ने प्रथम रोबोटिक बाल तंत्रिकाजन्य मूत्राशय पुनर्निर्माण संपन्न किया। इस आपरेशन को 10 साल की लड़की पर किया गया।[9] जनवरी 2009 में, डॉ॰ टोड टिलमन ने प्रसूतिशास्त्र और अर्बुदविद्या में डा विंची-रोबोटिक शल्य चिकित्सा प्रणाली के उपयोग पर बहु-संस्थागत अध्ययन के परिणामों की सूचना दी और इस उपकरण का उपयोग करते हुए उनके कौशल अधिग्रहण का आकलन करने के लिए वर्तमान और नए उपयोगकर्ताओं के लिए अध्ययन कोण को शामिल किया। जनवरी, 2009 में प्रथम कुल रोबोटिक समर्थित गुर्दा प्रत्यारोपण संपन्न किया गया। इसे डॉ॰ स्टुअर्ट गेफ्नर द्वारा सेंट बार्नबास मेडिकल सेंटर, न्यू जर्सी में किया गया। इसी दल ने अगले छः महीनों में आठ पूर्ण रोबोट-समर्थित गुर्दा प्रत्यारोपण किया।[10] लाभ तथा हानियां सर्जिकल रोबोट की सहायता से होने वाले प्रमुख विकास हैं दूरस्थ सर्जरी, न्यूनतम आक्रामक सर्जरी और मानव रहित सर्जरी. रोबोटिक सर्जरी के कुछ प्रमुख लाभ हैं सटीकता, लघुकरण, छोटे चीरे, कम रक्त हानि, कम दर्द और तीव्र रोग सुधार. अन्य फायदे हैं सामान्य जोड़-तोड़ के परे अभिव्यक्ति और और तीन आयामी आवर्धन, जिससे बेहतर श्रम-दक्षता फलित होती है। रोबोटिक तकनीक के कारण अस्पताल में भी कम रहना पड़ता है, रक्त की कम हानि, आधान और दर्द उपचार का कम उपयोग होता है।[11] $1,200,000 डॉलर में एक रोबोट की लागत और प्रति प्रक्रिया डिस्पोजेबल आपूर्ति लागत $1,500 के साथ, प्रक्रिया की लागत अधिक है। इस प्रणाली को संचालित करने के लिए अतिरिक्त शल्य चिकित्सा प्रशिक्षण की जरूरत है।[12] रोगी सर्वेक्षणों से संकेत मिलता है कि वे कम रुग्णता, बेहतर परिणाम, कम रक्त हानि और कम दर्द की अपेक्षाओं के आधार पर इस प्रक्रिया का चुनाव करते हैं।[11] अधिक उम्मीदें, अफसोस और असंतोष की उच्च दर को समझा सकती हैं।[12] इस तकनीक का मुख्य लाभ यह है कि चीरे बहुत छोटे होते हैं और इसके परिणामस्वरूप, रोगी जल्दी से स्वस्थ होता है। पारंपरिक ओपन हार्ट सर्जरी में, चिकित्सक दस से बारह इंच तक का चीरा लगता है, फिर उरोस्थि (छाती की हड्डी) को अलग करते हुए हृदय तक पहुंचता है और पसलियों के पिंजरे को खोलता है। रोगी को फिर एक हृदय-फेफड़े की मशीन पर रखा जाता है और हृदय को शल्य चिकित्सा की अवधि के दौरान बंद कर दिया जाता है। इस तरीके से न केवल बैक्टीरिया रोगी के शरीर में प्रवेश करने के लिए संक्रमण पैदा कर सकता है, बल्कि इससे एक दर्दनाक घाव बनता है, जिसे ठीक होने में समय लगता है। चूंकि रोबोट-समर्थित हृदय शल्य चिकित्सा के बाद रोगी तेज़ी से स्वस्थ होता है, अस्पताल में रहने की अवधि कम होती है। औसत रूप से रोगी पारंपरिक ओपन हार्ट सर्जरी वाले रोगियों की तुलना में अस्पताल से दो से पांच दिन पहले छूट जाता है और अपने कार्य और सामान्य गतिविधियों में 50% शीघ्र लग जाता है। घटित स्वास्थ्य लाभ अवधि रोगी के लिए ना केवल बेहतर होती है, बल्कि वे सर्जरी के दौरान आवश्यक कर्मचारियों की संख्या को, सर्जरी के बाद आवश्यक नर्स देखभाल को और इसलिए, अस्पताल में रहने की कुल लागत को भी कम करते है। अन्य न्यूनतम इनवेसिव सर्जरी दृष्टिकोण के साथ तुलना में, रोबोट-समर्थित सर्जरी चिकित्सक को चिकित्सा उपकरणों पर बेहतर नियंत्रण और चिकित्सा स्थान का एक बेहतर दृश्य प्रदान करते हैं। इसके अलावा, सर्जनों को अब पूरी सर्जरी भर में खड़ा नहीं रहना होता है और जल्दी थकना भी नहीं होता है। स्वाभाविक रूप से होने वाले हाथ के कंपन को रोबोट का कंप्यूटर सॉफ्टवेयर समाप्त कर देता है। अंत में, सर्जिकल रोबोट को आवर्ती चिकित्सा दलों द्वारा लगातार प्रयोग किया जा सकता है (गेरहार्डस 2003). गेरहार्डस डी (2003). रोबोट-समर्थित सर्जरी: भविष्य यहां है। स्वास्थ्य प्रबंधन पत्रिका, जुलाई/अगस्त, 242-251 की। जबकि रोबोटिक सर्जरी का प्रयोग, चिकित्सा सेवाओं के विज्ञापन में एक घटक बन गया है, आलोचकों का कहना है कि ऐसे अध्ययनों की कमी है जो यह दर्शा सकें कि लेप्रोस्कोपिक सर्जरी के बाद के परिणामों की तुलना में दीर्घकालीन परिणाम बेहतर हैं।[13] रोबोटिक प्रणाली सस्ते में नहीं मिलती और इसमें अध्ययन उतार-चढ़ाव होता है। यह दर्शाने के लिए आंकड़े अनुपलब्ध हैं कि लागत की वृद्धि उचित है। चिकित्सा साहित्य के क्षेत्र में, बहुत अनुभवी सर्जन अपने परिणामों को प्रकाशित करते हैं, लेकिन इससे बहरहाल, कमतर अनुभव वाले सर्जनों का प्रतिनिधित्व नहीं किया जा सकता है।[13] रोबोटिक शल्य चिकित्सा प्रणाली की लागत $750.000 और $1.2 मिलियन के बीच है (यथा 2005). कई वित्तीय व्यवहार्यता अध्ययन को यह जांचने के लिए आयोजित किया गया कि क्या एक अस्पताल के लिए एक ऐसी प्रणाली खरीदना सार्थक है और राय में नाटकीय रूप से भिन्नता पाई गई। सर्जनों की रिपोर्ट है कि, हालांकि इस प्रणाली के निर्माता इस नई तकनीक पर प्रशिक्षण प्रदान करते हैं, प्रशिक्षण चरण गहन होता है और सर्जनों को 12 से 18 मरीजों का ऑपरेशन करना जरुरी है ताकि वे इस प्रणाली के साथ सहज महसूस कर सकें. प्रशिक्षण चरण के दौरान, कम आक्रामक ऑपरेशनों में पारंपरिक शल्य चिकित्सा की तुलना में दुगुना समय लग सकता है, क्योंकि पारंपरिक तरीके में शल्य कक्ष और चिकित्सा कर्मियों का मिलान होता है और रोगी को संज्ञाहरण के अंतर्गत लंबे समय तक रखा जा सकता है। अनुप्रयोग सामान्य शल्य चिकित्सा 2007 में, शिकागो में इलिनोइस विश्वविद्यालय के चिकित्सा दल ने प्रो॰ पिअर क्रिस्टोफोरो गिउलिआनोटी के नेतृत्व में विश्व का पहला रोबोटिक अग्न्याशय निष्कासन संपन्न किया और साथ ही मिडवेस्ट का पूर्ण रोबोटिक व्हिपल सर्जरी भी. अप्रैल 2008 में, चिकित्सकों के उसी दल ने जीवित दाता ट्रांसप्लांटेशन के लिए विश्व के पहले पूर्ण न्यूनतम आक्रामक जिगर उच्छेदन किया और मरीज के जिगर का 60% निकाल दिया और रोगी को इस प्रक्रिया के कुछ ही दिनों के बाद बिलकुल अच्छी हालत में छुट्टी दे दी। इसके अलावा चार पंचर छेद और सर्जन द्वारा बिना किसी निशान के लिए कारण रोगी अस्पताल से कम दर्द के साथ निकलता है।[14] हृदय तथा वक्ष-गह्वर संबंधी सर्जरी रोबोट समर्थित MIDCAB और इंडोस्कोपिक कोरोनरी धमनी बाईपास (TECAB) सर्जरी को डा विंची प्रणाली द्वारा किया जा रहा है। मिट्राल वाल्व की मरम्मत और प्रतिस्थापन भी किया गया है। ईस्ट कैरोलिना विश्वविद्यालय, ग्रीनविले (डॉ॰ डब्ल्यू. रेंडोल्फ चिटवुड), सेंट जोसेफ अस्पताल, अटलांटा (डॉ॰ डगलस ए मर्फी) और गुड समेरिटन अस्पताल, सिनसिनाटी (डॉ॰ जे माइकल स्मिथ) ने इस प्रक्रिया को लोकप्रिय बनाया है और कई प्रकाशनों के साथ इसके स्थायित्व को साबित किया है। 1999 में अमेरिका में पहला रोबोटिक हृदय प्रक्रिया के बाद, द ओहियो स्टेट विश्वविद्यालय, कोलंबस (डॉ॰ रॉबर्ट ई. मिश्लर, डॉ॰ जुआन क्रेस्टनेलो, डॉ॰ पॉल वेस्को) ने रोबोटिक समर्थित क्रियाओं के अंतर्गत CABG, मिट्राल वाल्व, एसोफैगेकटमी, फेफड़ों का उच्छेदन, ट्यूमर उच्छेदन किया है और अन्य सर्जनों के लिए एक प्रशिक्षण स्थान के रूप में कार्य करते हैं। 2002 में, फ्लोरिडा के क्लीवलैंड क्लिनिक में सर्जनों ने (डॉ॰ डगलस बोयड और केनेथ स्टाल) न्यूनतम आक्रामक "संकर" प्रक्रिया के साथ अपने प्रारंभिक अनुभवों को प्रकाशित किया है। इन प्रक्रियाओं में रोबोटिक पुनःवाहिकावर्धन और कोरोनरी स्टेंटिंग को संयोजित किया जाता है और आगे बहु वाहिकाओं के रोगियों के लिए कोरोनरी बाईपास में रोबोट की भूमिका को विस्तारित किया गया। हृदयरोगविज्ञान और इलेक्ट्रोफिजियोलॉजी स्टीरियोटैक्सीस चुंबकीय नेविगेशन प्रणाली (MNS) को अतालता और अलिंद विकम्‍पन के लिए अंग-उच्छेदन में सटीकता और सुरक्षा को बढ़ाने के लिए विकसित किया गया है जबकि रोगियों और चिकित्सकों को विकिरण से कम संपर्क होता है और यह प्रणाली दूरस्थ वहनीय कैथेटर के लिए दो चुंबक का इस्तेमाल करती है। यह प्रणाली, रक्तवाहिकी और हृदय की स्वचालित 3-डी मैपिंग की अनुमति देती है और PCI और CTO प्रक्रियाओं में स्टेंट के मार्गदर्शन के लिए अंतःक्षेपी कार्डियोलॉजी में MNS का भी इस्तेमाल किया जाता है और इसने कंट्रास्ट उपयोग को कम किया है और हस्तचालित रूप से अगम्य स्थानों तक पहुंच को दर्शाया है। डॉ॰ एंड्रिया नताले ने चुंबकीय सिंचित कैथेटर वाली नई स्टीरियो टैक्सीस प्रक्रियाओं को "क्रांतिकारी" संदर्भित किया है।[15] हानसेन मेडिकल सेनसेई रोबोटिक कैथेटर प्रणाली, कैथेटर मार्गदर्शन के लिए वहनीय म्यान के नेविगेशन के लिए दूरस्थ संचालित चरखी प्रणाली का उपयोग करती है। रक्तवाहिकी और हृदय के 3-डी मानचित्रण के लिए प्रयुक्त कैथेटर के सटीक और अधिक सशक्त स्थिति की अनुमति देता है। यह प्रणाली डॉक्टरों को हृदय के बाएं अलिंद के भीतर अनुमानित बल प्रतिक्रिया जानकारी और व्यावहारिक हेरफेर प्रदान करती है। सेनसेई को, हस्तचालित की तुलना में मिश्रित सफलता मिली है, जिसमें आनुपातिक उच्च प्रक्रियात्मक जटिलताएं भी देखी गई, इसमें प्रक्रिया की अवधि लम्बी है और रोगी के लिए प्रतिदीप्तिदर्शन खुराक निम्न है।[16][17][18] यह अनुमान लगाया गया था कि अमेरिका में 70-90 अस्पतालों में अब हृदय शल्य चिकित्सा के लिए न्यूनतम आक्रामक सर्जिकल रोबोट का उपयोग किया जाता है और 2006 के मध्य तक इस संख्या के दुगुना हो जाने की संभावना है (आल्ट और वोरेल 2004). वर्तमान में, हृदय शल्य चिकित्सा के तीन प्रकार को रोबोटिक सर्जरी सिस्टम का उपयोग करते हुए नियमित आधार पर किया जा रहा है प्रदर्शन कर रहे हैं (किप्सन और चिटवुड 2004). सर्जरी के ये तीन प्रकार हैं: अलिंद वंशीय दोष मरम्मत - हृदय के दो ऊपरी कक्षों के बीच एक छेद की मरम्मत, हृदय के एक वाल्व की मरम्मत - उस वाल्व की मरम्मत जो हृदय के संकुचन के दौरान हृदय के ऊपरी कक्षों में रक्त को वापस फेंकने से रोकता है कोरोनरी धमनी बाईपास - हृदय को रक्त उपलब्ध कराने वाली अवरुद्ध धमनियों को दरकिनार करते हुए रक्त की आपूर्ति को तय करना सर्जनों के अनुभव और रोबोटिक तकनीक में विकास के साथ, यह उम्मीद की जाती है कि रोबोट समर्थित प्रक्रियाओं को हृदय शल्य चिकित्सा के अन्य प्रकार के लिए लागू किया जाएगा. आल्ट एसजे और वोर्रेल बी (2004). अधिक सर्जन न्यूनतम इनवेसिव हृदय शल्य चिकित्सा करते हैं। स्वास्थ्य देखभाल सामरिक प्रबंधन, अप्रैल, 1 और 11-19. किप्सन एपी और चिटवुड डब्लूआर जूनियर (2004). हृदय शल्य चिकित्सा में रोबोटिक अनुप्रयोग. उन्नत रोबोटिक प्रणाली का अंतर्राष्ट्रीय जर्नल 1(2), 87-92. जठरांत्रिय शल्य-चिकित्सा विभिन्न प्रकार की प्रक्रियाओं को किया गया है, या तो ज़िउस द्वारा या फिर डा विंची रोबोट प्रणाली द्वारा, जिसमें शामिल है बेरिएट्रिक सर्जरी. स्त्रीरोग विज्ञान प्रसूतिशास्र में रोबोटिक सर्जरी सबसे तेजी से बढ़ते क्षेत्रों में से एक है। इसमें शामिल है सौम्य प्रसूतिशास्र और अर्बुदविद्या में डा विंची सर्जिकल प्रणाली का उपयोग. रोबोटिक सर्जरी का उपयोग फाइब्रॉएड, असामान्य माहवारी, अन्तर्गर्भाशय-अस्थानता, डिम्बग्रंथि ट्यूमर, श्रोणि बढ़ाव और स्त्री कैंसर के उपचार के लिए किया जा सकता है। रोबोटिक प्रणाली का प्रयोग करते हुए स्त्रीरोग विशेषज्ञ गर्भाशय-उच्छेदन, मिओमेक्टोमी और लसीका नोड बायोप्सी संपादित कर सकते हैं। पेट के बड़े चीरे की जरूरत को लगभग समाप्त कर दिया गया है। रोबोट-समर्थित गर्भाशय-उच्छेदन और कैंसर स्टेजिंग को डा विंची रोबोटिक प्रणाली का उपयोग करते हुए किया जाता है। टेनेसी विश्वविद्यालय, मेम्फिस (डॉ॰ टोड टिलमन, डॉ॰ सौरभ कुमार), नॉर्थवेस्टर्न विश्वविद्यालय (डॉ॰ पैट्रिक लोव) औरोरा हेल्थ सेंटर (डॉ॰ स्कॉट कमेले), वेस्ट वर्जीनिया विश्वविद्यालय (डॉ॰ जे ब्रिंगमन) और टेनेसी विश्वविद्यालय, चट्टानूगा (डॉ॰ डोनाल्ड चेम्बरलेन) ने रोबोटिक सर्जरी के उपयोग का गहन अध्ययन किया है और पाया है कि इससे स्त्री-रोग कैंसर वाले रोगियों की मृत्यु दर और रुग्णता में सुधार आता है। उन्होंने वर्तमान और नए उपयोगकर्ताओं के लिए इस उपकरण का उपयोग करते हुए कौशल के अधिग्रहण का आकलन करने की विधि के रूप में पहली बार रोबोटिक सर्जरी के अध्ययन वक्र की सूचना दी। तंत्रिका शल्य-चिकित्सा स्टीरियोटेक्टिक हस्तक्षेप के लिए कई प्रणालियां बाजार में मौजूद हैं। एमडी रोबोटिक न्यूरोआर्म, दुनिया का पहला एमआरआई-संगत सर्जिकल रोबोट है। विकलांगोपचार ROBODOC प्रणाली को इंटीग्रेटेड सर्जिकल सिस्टम इंक द्वारा 1992 में जारी किया गया था, जो बाद में CUREXO टेक्नोलोजी कॉर्पोरेशन में विलय हो गई।[19] इसके अलावा, द एक्रोबोट कंपनी लिमिटेड, "एक्रोबोट स्कल्पचर" बेचती है, एक रोबोट जो एक पूर्व-परिभाषित आकर में एक हड्डी काटने के उपकरण को बाध्य करता है[20]. एक अन्य उदाहरण है CASPAR रोबोट जिसे U.R.S.-Ortho GmbH & Co. KG द्वारा उत्पादित किया गया है, जिसका इस्तेमाल पूर्ण कूल्हा प्रतिस्थापन, पूर्ण घुटना प्रतिस्थापन और अग्रगामी सलीब बंध के लिए किया जाता है[21]. बाल चिकित्सा सर्जिकल रोबोटिक्स का इस्तेमाल कई प्रकार की बाल शल्य चिकित्सा प्रक्रियाओं में किया गया है जिसमें शामिल है: ट्रेकियोइसोफेगल नालव्रण मरम्मत, पित्ताशय उच्छेदन, निस्सेन फुन्डोप्लिकेशन, मोर्गाग्नी हार्निया मरम्मत, कसाई पोर्टोआंत्रछेदन, जन्मजात मध्यपटीय हर्निया मरम्मत व अन्य. 17 जनवरी 2002 को, डेट्रोइट में चिल्ड्रेन हॉस्पिटल ऑफ़ मिशिगन के शल्य चिकित्सकों ने देश के पहले उन्नत कंप्यूटर-समर्थित रोबोट-वर्धित शल्य चिकित्सा प्रक्रिया को अंजाम दिया। चिल्ड्रेन हॉस्पिटल बोस्टन का रोबोटिक सर्जरी केंद्र बाल चिकित्सा में विशेषज्ञता स्तर की रोबोटिक सर्जरी प्रदान करता है। विशेष रूप से प्रशिक्षित सर्जन एक उच्च तकनीक रोबोटिक का इस्तेमाल करते हैं और बहुत छोटे शल्य छेद के माध्यम से जटिल और नाजुक आपरेशन संपादित करते हैं। परिणामस्वरूप कम दर्द, तेजी से स्वास्थ्य लाभ, अस्पताल में अल्पावधि निवास, छोटे निशान और रोगी और उनके परिवारों की ख़ुशी फलित होती है। 2001 में, चिल्ड्रेन हॉस्पिटल बोस्टन सर्जिकल रोबोट को हासिल करने वाला पहला बाल चिकित्सा अस्पताल था। आज सर्जन, इस तकनीक का प्रयोग कई प्रक्रियाओं के लिए करते हैं और दुनिया में किसी अन्य अस्पताल की तुलना में अधिक बाल चिकित्सकीय रोबोटिक सर्जरी संपादित करते हैं। इस अस्पताल के चिकित्सकों ने रोबोट के उपयोग को विस्तारित करने के लिए कई नए अनुप्रयोग विकसित किये हैं और दुनिया भर के सर्जनों को प्रशिक्षण दिया है।[22] रेडियोसर्जरी साइबरनाइफ रोबोटिकिक रेडियोसर्जरी प्रणाली छवि मार्गदर्शन और कंप्यूटर नियंत्रित रोबोटिक्स का उपयोग करते हुए पूरे शरीर में ट्यूमर का इलाज करती है, इसके लिए वह वस्तुतः किसी भी दिशा से ट्यूमर पर उच्च-ऊर्जा के विकिरण डालती है। मूत्रविज्ञान कैंसर के लिए पौरुष ग्रंथि ग्रंथि हटाना, रुद्ध गुर्दे की मरम्मत, मूत्राशय की खराबी को ठीक करना और रोगग्रस्त गुर्दे निकालना. प्रोस्टेट ब्रैकीथेरेपी में इस्तेमाल के लिए वहनीय लचीली सुइयों का उपयोग करते हुए नए न्यूनतम आक्रामक रोबोटिक उपकरण वर्तमान में विकसित किये जा रहे हैं।[23][24] मूत्र संबंधी रोबोटिक शल्य चिकित्सा के क्षेत्र में कुछ प्रमुख मूत्र-विशेषज्ञों में शामिल हैं डेविड समादी, आशुतोष तिवारी, मनि मेनन, पीटर श्लेगेल, महमूद अख्तर, डगलस शेर, मोहम्मद डब्ल्यू सल्किनी, स्टीवन सुकिन और विपुल पटेल.[25][26][27][28][29][30][31] 2000 में, पहला रोबोट-समर्थित लेप्रोस्कोपिक आमूल पौरुष ग्रंथि निष्कासन संपन्न किया गया।[12] लघु रोबोटिक्स वैज्ञानिकों द्वारा सर्जरी में रोबोटिक्स की बहु-उपयोगिता में सुधार करने की कोशिश के अंतर्गत, कुछ वैज्ञानिक रोबोट को छोटा करने का प्रयास कर रहे हैं। उदाहरण के लिए, नेब्रास्का विश्वविद्यालय मेडिकल सेंटर ने कंप्यूटर वैज्ञानिकों, इंजीनियरों, सर्जनों के बीच मिनी-रोबोटिक्स पर सहयोगात्मक अनुसंधान प्रदान करने के लिए एक बहु-परिसर प्रयास का नेतृत्व किया है।[32] कभी ऐसा भी समय आ सकता है जब लोगों की रक्त धारा में नैनोरोबोट डाला जा सकेगा जो सामान्य चिकित्सकों या GPs के रूप में काम करेंगे; और समस्या का विश्लेषण करेंगे और जानकारी को वापस अस्पताल भेजेंगे. इससे हो सकता है एक दिन सामान्य चिकित्सकों की आवश्यकता समाप्त हो जाए. इन्हें भी देखें अस्थि खंड नेविगेशन कम्प्यूटर समर्थित शल्य-चिकित्सा रोगी पंजीकरण स्टीरियोलिथोग्राफी (दवा) शल्य चिकित्सा अनुभाग नेविगेटर टेलीमेडिसिन सन्दर्भ स्रोत मोंकमन. जी.जे., एस हेस, आर स्टाइनमन एवं एच शुंक - रोबोटिक ग्रिपर्स - विले, बर्लिन 2007. फुख्टमाइयर. बी, एस एगर्सदोएर्फ़र, आर. माई, आर हेंटे, डी. द्रगोई, जी.जे. मोंकमन और एम. नर्लिश - रिडक्शन ऑफ़ फेमोरल शाफ्ट फ्रैक्चर इन विट्रो बाई अ न्यू डेवलप्ड रिडक्शन रोबोट सिस्टम "रेपोरोबो" - इंजुरी - 35 ppSA113-119, एल्सेविअर, 2004. डैनियल इश्बिआह रोबोट: विज्ञान कल्पना से प्रौद्योगिकी क्रांति तक. धारिया एसपी, फाल्कन, प्रजनन चिकित्सा में टी. रोबोटिक. फ़र्टिल स्टेरिल 84:1-11,2005. पोट पीपी, शार्फ़ एच-पी, श्वार्ज़ एमएलआर, सर्जिकल रोबोटिकिक्स की आज की कला, जर्नल ऑफ़ कंप्यूटर एडेड सर्जरी, 10,2, 101-132, 2005. लोरिंस ए, लान्गेंबुर्ग एस, क्लेन एमडी. रोबोटिकिक्स और बाल चिकित्सा सर्जन. कुर ओपीन पेदिआत्र. 2003 जून; 15(3):262-6. कैंपबेल ए, लारेंजो xR3Nz0x जून. 14 1994 बाहरी कड़ियाँ श्रेणी:सर्जरी श्रेणी:कम्प्यूटर समर्थित सर्जरी श्रेणी:सर्जिकल रोबोट श्रेणी:टेलीहेल्थ श्रेणी:चिकित्सा सूचना विज्ञान
दुनिया का पहला सर्जिकल रोबोट कौनसा था?
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तानसेन या मियां तानसेन या रामतनु पाण्डेय हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत के एक महान ज्ञाता थे। उन्हे सम्राट अकबर के नवरत्नों में भी गिना जाता है। संगीत सम्राट तानसेन की नगरी ग्वालियर के लिए कहावत प्रसिद्ध है कि यहाँ बच्चे रोते हैं, तो सुर में और पत्थर लुढ़कते हैं तो ताल में। इस नगरी ने पुरातन काल से आज तक एक से बढ़कर एक संगीत प्रतिभायें संगीत संसार को दी हैं और संगीत सूर्य तानसेन इनमें सर्वोपारि हैं। तानसेन को संगीत का ज्ञान कैसे प्राप्त हुआ? प्रारम्भ से ही तानसेन मे दूसरों की नकल करने की अपूर्व क्षमता थी। बालक तानसेन पशु-पक्षियों की तरह- तरह की बोलियों की सच्ची नकल करता था और हिंसक पशुओं की बोली से लोगों को डरवाया करता था। इसी बीच स्वामी हरिदास से उनकी भेंट हो गयी । मिलने की भी एक मनोरंजक घटना है। उनकी अलग-अलग बोलियों को बोलने की प्रतिभा को देखकर वो काफी प्रभावित हुए। स्वामी जी ने उन्हें उनके पिता से संगीत सिखाने के लिए माँग लिया। इस तरह तानसेन को संगीत का ज्ञान हुआ। वैवाहिक जीवन तानसेन की पत्नी का नाम हुसेनी था,वह रानी मृगनयनी की दासी थी। तानसेन के चार पुत्र हुए- सुरतसेन, शरतसेन, तरंगसेन और विलास ख़ान तथा सरस्वती नाम की एक पूत्री । घटना एक बार अकबर ने तानसेन को दीपक राग गाने को कहा, तानसेन ने उन्हें बताया की दीपक राग गाने का परिणाम काफी बुरा हो सकता है। लेकिन अकबर ने उनकी एक न सुनी। अतः उन्हें यह राग गन पड़ा । उनके गाते ही गर्मी बढ़ने लगी और चारों ओर से मानो अग्नि की लपटें निकलने लगीं। श्रोतागण तो मारे गर्मी के भाग निकले , किन्तु तानसेन का शरीर प्रचंड गर्मी से जलने लगा । उसकी गर्मी केवल मेघ राग से समाप्त हो सकती थी । कहा जाता है कि तानसेन की पुत्री सरस्वती ने मेघ राग गाकर अपने पिता की जीवन-रक्षा की। बाद में अकबर को अपने किये पर काफी शर्मिंदा होना पड़ा। जगह तानसेन के संगीत से प्रसन्न होकर अकबर ने इन्हें अपने नवरत्नों मे शामिल कर लिया। शिक्षा दीक्षा ग्वालियर से लगभग 45 कि॰मी॰ दूर ग्राम बेहट में श्री मकरंद पांडे के यहाँ तानसेन का जन्म ग्वालियर के तत्कालीन प्रसिद्ध फ़क़ीर हजरत मुहम्मद गौस के वरदान स्वरूप हुआ था। कहते है कि श्री मकरंद पांडे के कई संताने हुई, लेकिन एक पर एक अकाल ही काल कवलित होती चली गई। इससे निराश और व्यथित श्री मकरंद पांडे सूफी संत मुहम्मद गौस की शरण में गये और उनकी दुआ से सन् 1486 में तन्ना उर्फ तनसुख उर्फ त्रिलोचन का जन्म हुआ, जो आगे चलकर तानसेन के नाम से विख्यात हुआ। तानसेन के आरंभिक काल में ग्वालियर पर कलाप्रिय राजा मानसिंह तोमर का शासन था। उनके प्रोत्साहन से ग्वालियर संगीत कला का विख्यात केन्द्र था, जहां पर बैजूबावरा, कर्ण और महमूद जैसे महान संगीताचार्य और गायक गण एकत्र थे और इन्हीं के सहयोग से राजा मानसिंह तोमर ने संगीत की ध्रुपद गायकी का आविष्कार और प्रचार किया था। तानसेन की संगीत शिक्षा भी इसी वातावरण में हुई। राजा मानसिंह तोमर की मृत्यु होने और विक्रमाजीत से ग्वालियर का राज्याधिकार छिन जाने के कारण यहाँ के संगीतज्ञों की मंडली बिखरने लगी। तब तानसेन भी वृन्दावन चले गये और वहां उन्होनें स्वामी हरिदास जी से संगीत की उच्च शिक्षा प्राप्त की। संगीत शिक्षा में पारंगत होने के उपरांत तानसेन शेरशाह सूरी के पुत्र दौलत ख़ाँ के आश्रय में रहे और फिर बांधवगढ़ (रीवा) के राजा रामचन्द्र के दरबारी गायक नियुक्त हुए। मुग़ल सम्राट अकबर ने उनके गायन की प्रशंसा सुनकर उन्हें अपने दरबार में बुला लिया और अपने नवरत्नों में स्थान दिया। अकबर के नवरत्नों तथा मुग़लकालीन संगीतकारों में तानसेन का नाम परम-प्रसिद्ध है। यद्धपि काव्य-रचना की दृष्टि से तानसेन का योगदान विशेष महत्त्वपूर्ण नहीं कहा जा सकता, परन्तु संगीत और काव्य के संयोग की दृष्टि से, जो भक्तिकालीन काव्य की एक बहुत बड़ी विशेषता थी, तानसेन साहित्य के इतिहास में अवश्य उल्लेखनीय हैं। तानसेन अकबर के नवरत्नों में से एक थे। एक बार अकबर ने उनसे कहा कि वो उनके गुरु का संगीत सुनना चाहते हैं। गुरु हरिदास तो अकबर के दरबार में आ नहीं सकते थे। लिहाजा इसी निधि वन में अकबर हरिदास का संगीत सुनने आए। हरिदास ने उन्हें कृष्ण भक्ति के कुछ भजन सुनाए थे। अकबर हरिदास से इतने प्रभावित हुए कि वापस जाकर उन्होंने तानसेन से अकेले में कहा कि आप तो अपने गुरु की तुलना में कहीं आस-पास भी नहीं है। फिर तानसेन ने जवाब दिया कि जहांपनाह हम इस ज़मीन के बादशाह के लिए गाते हैं और हमारे गुरु इस ब्रह्मांड के बादशाह के लिए गाते हैं तो फर्क तो होगा न। रचनायें तानसेन के नाम के संबंध में मतैक्य नहीं है। कुछ का कहना है कि 'तानसेन' उनका नाम नहीं, उनकों मिली उपाधि थी। तानसेन मौलिक कलाकार थे। वे स्वर-ताल में गीतों की रचना भी करते थे। तानसेन के तीन ग्रन्थों का उल्लेख मिलता है- 1. 'संगीतसार', 2. 'रागमाला' और 3. 'श्रीगणेश स्तोत्र'। भारतीय संगीत के इतिहास में ध्रुपदकार के रूप में तानसेन का नाम सदैव अमर रहेगा। इसके साथ ही ब्रजभाषा के पद साहित्य का संगीत के साथ जो अटूट सम्बन्ध रहा है, उसके सन्दर्भ में भी तानसेन चिरस्मरणीय रहेंगे। संगीत सम्राट तानसेन अकबर के अनमोल नवरत्नों में से एक थे। अपनी संगीत कला के रत्न थे। इस कारण उनका बड़ा सम्मान था। संगीत गायन के बिना ‍अकबर का दरबार सूना रहता था। तानसेन के ताऊ बाबा रामदास उच्च कोटि के संगीतकार थे। वह वृंदावन के स्वामी हरिदास के शिष्य थे। उन्हीं की प्रेरणा से बालक तानसेन ने बचपन से ही संगीत की शिक्षा पाई। स्वामी हरिदास के पास तानसेन ने बारह वर्ष की आयु तक संगीत की शिक्षा पाई। वहीं उन्होंने साहित्य एवं संगीत शास्त्र की शिक्षा प्राप्त की। संगीत की शिक्षा प्राप्त करके तानसेन देश यात्रा पर निकल पड़े। उन्होंने अनेक स्थानों की यात्रा की और वहाँ उन्हें संगीत-कला की प्रस्तुति पर बहुत प्रसिद्धि तो मिली, लेकिन गुजारे लायक धन की उपलब्धि नहीं हुई। एक बार वह रीवा (मध्यप्रदेश) के राजा रामचंद्र के दरबार में गाने आए। उन्होंने तानसेन का नाम तो सुना था पर गायन नहीं सुना था। उस दिन तानसेन का गायन सुनकर राजा रामचंद्र मुग्ध हो गए। उसी दिन से तानसेन रीवा में ही रहने लगे और उन्हें राज गायक के रूप में हर तरह की आर्थिक सुविधा के साथ सामाजिक और राजनीतिक सम्मान दिया गया। तानसेन पचास वर्ष की आयु तक रीवा में रहे। इस अवधि में उन्होंने अपनी संगीत-साधना को मोहक और लालित्यपूर्ण बना लिया। हर ओर उनकी गायकी की प्रशंसा होने लगी। अकबर के ही सलाहकार और नवरत्नों में से एक अब्दुल फजल ने तानसेन की संगीत की प्रशंसा में अकबर को चिट्ठीु लिखी और सुझाव दिया कि तानसेन को अकबरी-दरबार का नवरत्न होना चाहिए। अकबर तो कला-पारखी थे ही। ऐसे महान संगीतकार को रखकर अपने दरबार की शोभा बढ़ाने के लिए बेचैन हो उठे। उन्होंने तानसेन को बुलावा भेजा और राजा रामचंद्र को पत्र लिखा। किंतु राजा रामचंद्र अपने दरबार के ऐसे कलारत्न को भेजने के लिए तैयार न हुए। बात बढ़ी और युद्ध तक पहुँच गई। और बहुत मान मनब्बल के बाद भी राजा रामचंद्र नहीं माने तो अकबर ने मुगलिया सल्तनत की एक छोटी से टुकड़ी तानसेन को जबरजस्ती लाने के लिए भेज दिया पर राजा राम चंद्र जूदेव और अकबर के सैनिको के बीच युद्ध हुआ और अकबर के सभी सैनिक मारे गए, इसमें रीवा राजा के भी कई सैनिक मारे गए  ! इससे अकबर क्रुद्ध होकर एक बड़ी सैनिक टुकड़ी भेजी  और रीवा के राजा फिर से युद्ध के लिए तैयार हुए तब तानसेन रीवा के राजा के पास पहुंचे और युद्ध न करने की अपील किया , पर राजा बहुत जिद्दी थे नहीं माने ! और अकबर के दरबार में संदेस भेज दिया की ''यदि बादशाह याचना पात्र भेजे तो मैं तानसेन को भेज दूंगा'' अकबर भी छोटी छोटी  सी बात पर राजपूतो से युद्ध नहीं करना चाहते थे ! तब अकबर ने याचना पात्र भेज दिया तब राजा रामचंद्र जूदेव ने सहर्ष, ससम्मान  तानसेन को दिल्ली भेज दिया और एक बड़ा युद्ध टल गया ! अकबर के दरबार में आकर तानसेन पहले तो खुश न थे लेकिन धीरे-धीरे अकबर के प्रेम ने तानसेन को अपने निकट ला दिया। चाँद खाँ और सूरज खाँ स्वयं न गा सकें। आखिर मुकाबला शुरू हुआ। उसे सुनने वालों ने कहा 'यह गलत राग है।' तब तानसेन ने शास्त्रीय आधार पर उस राग की शुद्धता सिद्ध कर दी। शत्रु वर्ग शांत हो गया। संगीत सम्राट तानसेन अकबर के अनमोल नवरत्नों में से एक थे। तानसेन को अपने दरबार में लाने के लिए अकबर की सेना और रीवा के बाघेला राजपूतो के बीच में भयानक युद्ध हुआ था ! अकबर के दरबार में तानसेन को नवरत्न की ख्यायति मिलने लगी थी। इस कारण उनके शत्रुओं की संख्यार भी बढ़ रही थी। कुछ दिनों बाद तानसेन का ठाकुर सन्मुख सिंह बीनकार से मुकाबला हुआ। वे बहुत ही मधुर बीन बजाते थे। दोनों में मुकाबला हुआ, किंतु सन्मुख सिंह बाजी हार गए। तानसेन ने भारतीय संगीत को बड़ा आदर दिलाया। उन्होंने कई राग-रागिनियों की भी रचना की। 'मियाँ की मल्हार' 'दरबारी कान्हड़ा' 'गूजरी टोड़ी' या 'मियाँ की टोड़ी' तानसेन की ही देन है। तानसेन कवि भी थे। उनकी काव्य कृतियों के नाम थे - 'रागमाला', 'संगीतसार' और 'गणेश स्रोत्र'। 'रागमाला' के आरंभ में दोहे दिए गए हैं। सुर मुनि को परनायकरि, सुगम करौ संगीत। तानसेन वाणी सरस जान गान की प्रीत। तानसेन के पुराने चित्रों से उनके रूप-रंग की जानकारी मिलती है। तानसेन का रंग सांवला था। मूँछें पतली थीं। वह सफेद पगड़ी बाँधते थे। सफेद चोला पहनते थे। कमर में फेंटा बाँधते थे। ध्रुपद गाने में तानसेन की कोई बराबरी नहीं कर सकता था। तानसेन का देहावसान अस्सी वर्ष की आयु में हुआ। उनकी इच्छा धी कि उन्हें उनके गुरु मुहम्मद गौस खाँ की समाधि के पास दफनाया जाए। वहाँ आज उनकी समाधि पर हर साल तानसेन संगीत समारोह आयोजित होता है। सन्दर्भ ashsj देखें हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत कर्नाटक शास्त्रीय संगीत स्वामी हरिदास सहायक ग्रन्थ १ संगीतसम्राट तानसेन (जीवनी और रचनाएँ): प्रभुदयाल मीतल, साहित्य संस्थान, मथुरा; २ हिन्दी साहित्य का इतिहास: पं॰ रामचन्द्र शुक्ल: ३ अकबरी दरबार के हिन्दी कबि: डा॰ सरयू प्रसाद अग्रवाल।) श्रेणी:अकबर के नवरत्न श्रेणी:१४९० जन्म श्रेणी:१५८० मृत्यु श्रेणी:मुग़ल साम्राज्य श्रेणी:भारतीय संगीतज्ञ श्रेणी:ग्वालियर के लोग श्रेणी:रीवां के लोग श्रेणी:इस्लाम ग्रहण करने वाले लोग श्रेणी:भारतीय मुस्लिम श्रेणी:आगरा के लोग
तानसेन का जन्म कहाँ हुआ?
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भगत सिंह (जन्म: २८ सितम्बर १९०७[lower-alpha 1], मृत्यु: २३ मार्च १९३१) भारत के एक प्रमुख स्वतंत्रता सेनानी क्रांतिकारी थे। चन्द्रशेखर आजाद व पार्टी के अन्य सदस्यों के साथ मिलकर इन्होंने देश की आज़ादी के लिए अभूतपूर्व साहस के साथ शक्तिशाली ब्रिटिश सरकार का मुक़ाबला किया। पहले लाहौर में साण्डर्स की हत्या और उसके बाद दिल्ली की केन्द्रीय संसद (सेण्ट्रल असेम्बली) में बम-विस्फोट करके ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध खुले विद्रोह को बुलन्दी प्रदान की। इन्होंने असेम्बली में बम फेंककर भी भागने से मना कर दिया। जिसके फलस्वरूप इन्हें २३ मार्च १९३१ को इनके दो अन्य साथियों, राजगुरु तथा सुखदेव के साथ फाँसी पर लटका दिया गया। सारे देश ने उनके बलिदान को बड़ी गम्भीरता से याद किया। जन्म और परिवेश भगत सिंह संधु का जन्म २८ सितंबर १९०७ को प्रचलित है परन्तु तत्कालीन अनेक साक्ष्यों के अनुसार उनका जन्म १९ अक्टूबर १९०७ ई० को हुआ था।[lower-alpha 1] उनके पिता का नाम सरदार किशन सिंह और माता का नाम विद्यावती कौर था। यह एक जाट सिक्ख परिवार था। उनका परिवार पूर्णतः आर्य समाजी था।अमृतसर में १३ अप्रैल १९१९ को हुए जलियाँवाला बाग हत्याकाण्ड ने भगत सिंह की सोच पर गहरा प्रभाव डाला था। लाहौर के नेशनल कॉलेज़ की पढ़ाई छोड़कर भगत सिंह ने भारत की आज़ादी के लिये नौजवान भारत सभा की स्थापना की थी। काकोरी काण्ड में राम प्रसाद 'बिस्मिल' सहित ४ क्रान्तिकारियों को फाँसी व १६ अन्य को कारावास की सजाओं से भगत सिंह इतने अधिक उद्विग्न हुए कि पण्डित चन्द्रशेखर आजाद के साथ उनकी पार्टी हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसिएशन से जुड गये और उसे एक नया नाम दिया हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन। इस संगठन का उद्देश्य सेवा, त्याग और पीड़ा झेल सकने वाले नवयुवक तैयार करना था। भगत सिंह ने राजगुरु के साथ मिलकर १७ दिसम्बर १९२८ को लाहौर में सहायक पुलिस अधीक्षक रहे अंग्रेज़ अधिकारी जे० पी० सांडर्स को मारा था। इस कार्रवाई में क्रान्तिकारी चन्द्रशेखर आज़ाद ने उनकी पूरी सहायता की थी। क्रान्तिकारी साथी बटुकेश्वर दत्त के साथ मिलकर भगत सिंह ने वर्तमान नई दिल्ली स्थित ब्रिटिश भारत की तत्कालीन सेण्ट्रल एसेम्बली के सभागार संसद भवन में ८ अप्रैल १९२९ को अंग्रेज़ सरकार को जगाने के लिये बम और पर्चे फेंके थे। बम फेंकने के बाद वहीं पर दोनों ने अपनी गिरफ्तारी भी दी। क्रान्तिकारी गतिविधियाँ उस समय भगत सिंह करीब बारह वर्ष के थे जब जलियाँवाला बाग हत्याकाण्ड हुआ था। इसकी सूचना मिलते ही भगत सिंह अपने स्कूल से १२ मील पैदल चलकर जलियाँवाला बाग पहुँच गये। इस उम्र में भगत सिंह अपने चाचाओं की क्रान्तिकारी किताबें पढ़ कर सोचते थे कि इनका रास्ता सही है कि नहीं ? गांधी जी का असहयोग आन्दोलन छिड़ने के बाद वे गान्धी जी के अहिंसात्मक तरीकों और क्रान्तिकारियों के हिंसक आन्दोलन में से अपने लिये रास्ता चुनने लगे। गान्धी जी के असहयोग आन्दोलन को रद्द कर देने के कारण उनमें थोड़ा रोष उत्पन्न हुआ, पर पूरे राष्ट्र की तरह वो भी महात्मा गांधी का सम्मान करते थे। पर उन्होंने गांधी जी के अहिंसात्मक आन्दोलन की जगह देश की स्वतन्त्रता के लिये हिंसात्मक क्रांति का मार्ग अपनाना अनुचित नहीं समझा। उन्होंने जुलूसों में भाग लेना प्रारम्भ किया तथा कई क्रान्तिकारी दलों के सदस्य बने। उनके दल के प्रमुख क्रान्तिकारियों में चन्द्रशेखर आजाद, सुखदेव, राजगुरु इत्यादि थे। काकोरी काण्ड में ४ क्रान्तिकारियों को फाँसी व १६ अन्य को कारावास की सजाओं से भगत सिंह इतने अधिक उद्विग्न हुए कि उन्होंने १९२८ में अपनी पार्टी नौजवान भारत सभा का हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसिएशन में विलय कर दिया और उसे एक नया नाम दिया हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन। लाला जी की मृत्यु का प्रतिशोध १९२८ में साइमन कमीशन के बहिष्कार के लिये भयानक प्रदर्शन हुए। इन प्रदर्शनों में भाग लेने वालों पर अंग्रेजी शासन ने लाठी चार्ज भी किया। इसी लाठी चार्ज से आहत होकर लाला लाजपत राय की मृत्यु हो गयी। अब इनसे रहा न गया। एक गुप्त योजना के तहत इन्होंने पुलिस सुपरिण्टेण्डेण्ट स्काट को मारने की योजना सोची। सोची गयी योजना के अनुसार भगत सिंह और राजगुरु लाहौर कोतवाली के सामने व्यस्त मुद्रा में टहलने लगे। उधर जयगोपाल अपनी साइकिल को लेकर ऐसे बैठ गये जैसे कि वो ख़राब हो गयी हो। गोपाल के इशारे पर दोनों सचेत हो गये। उधर चन्द्रशेखर आज़ाद पास के डी० ए० lवी० स्कूल की चहारदीवारी के पास छिपकर घटना को अंजाम देने में रक्षक का काम कर रहे थे। १७ दिसंबर १९२८ को करीब सवा चार बजे, ए० एस० पी० सॉण्डर्स के आते ही राजगुरु ने एक गोली सीधी उसके सर में मारी जिसके तुरन्त बाद वह होश खो बैठे। इसके बाद भगत सिंह ने ३-४ गोली दाग कर उसके मरने का पूरा इन्तज़ाम कर दिया। ये दोनों जैसे ही भाग रहे थे कि एक सिपाही चनन सिंह ने इनका पीछा करना शुरू कर दिया। चन्द्रशेखर आज़ाद ने उसे सावधान किया - "आगे बढ़े तो गोली मार दूँगा।" नहीं मानने पर आज़ाद ने उसे गोली मार दी। इस तरह इन लोगों ने लाला लाजपत राय की मौत का बदला ले लिया। एसेम्बली में बम फेंकना भगत सिंह यद्यपि रक्तपात के पक्षधर नहीं थे परन्तु वे वामपंथी विचारधारा को मानते थे, तथा कार्ल मार्क्स के सिद्धान्तों से उनका ताल्लुक था और उन्हीं विचारधारा को वे आगे बढ़ा रहे थे। यद्यपि, वे समाजवाद के पक्के पोषक भी थे। कलान्तर में उनके विरोधी द्वारा उनको अपने विचारधारा बता कर युवाओ को भगत सिंह के नाम पर बरगलाने के आरोप लगते रहे है। कॉंग्रेस के सत्ता में रहने के बावजूद भगत सिंह को कांग्रेस शहीद का दर्जा नही दिलवा पाए,क्योंकि वे केवल भगत सिंह के नाम का इस्तेमाल युवाओं को अपनी पार्टी से जोड़ने के लिए करते थे। उन्हें पूँजीपतियों की मजदूरों के प्रति शोषण की नीति पसन्द नहीं आती थी। उस समय चूँकि अँग्रेज ही सर्वेसर्वा थे तथा बहुत कम भारतीय उद्योगपति उन्नति कर पाये थे, अतः अँग्रेजों के मजदूरों के प्रति अत्याचार से उनका विरोध स्वाभाविक था। मजदूर विरोधी ऐसी नीतियों को ब्रिटिश संसद में पारित न होने देना उनके दल का निर्णय था। सभी चाहते थे कि अँग्रेजों को पता चलना चाहिये कि हिन्दुस्तानी जाग चुके हैं और उनके हृदय में ऐसी नीतियों के प्रति आक्रोश है। ऐसा करने के लिये ही उन्होंने दिल्ली की केन्द्रीय एसेम्बली में बम फेंकने की योजना बनायी थी। भगत सिंह चाहते थे कि इसमें कोई खून खराबा न हो और अँग्रेजों तक उनकी 'आवाज़' भी पहुँचे। हालाँकि प्रारम्भ में उनके दल के सब लोग ऐसा नहीं सोचते थे पर अन्त में सर्वसम्मति से भगत सिंह तथा बटुकेश्वर दत्त का नाम चुना गया। निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार ८ अप्रैल १९२९ को केन्द्रीय असेम्बली में इन दोनों ने एक ऐसे स्थान पर बम फेंका जहाँ कोई मौजूद न था, अन्यथा उसे चोट लग सकती थी। पूरा हाल धुएँ से भर गया। भगत सिंह चाहते तो भाग भी सकते थे पर उन्होंने पहले ही सोच रखा था कि उन्हें दण्ड स्वीकार है चाहें वह फाँसी ही क्यों न हो; अतः उन्होंने भागने से मना कर दिया। उस समय वे दोनों खाकी कमीज़ तथा निकर पहने हुए थे। बम फटने के बाद उन्होंने "इंकलाब-जिन्दाबाद, साम्राज्यवाद-मुर्दाबाद!" का नारा[9] लगाया और अपने साथ लाये हुए पर्चे हवा में उछाल दिये। इसके कुछ ही देर बाद पुलिस आ गयी और दोनों को ग़िरफ़्तार कर लिया गया। जेल के दिन जेल में भगत सिंह ने करीब २ साल रहे। इस दौरान वे लेख लिखकर अपने क्रान्तिकारी विचार व्यक्त करते रहे। जेल में रहते हुए उनका अध्ययन बराबर जारी रहा। उनके उस दौरान लिखे गये लेख व सगे सम्बन्धियों को लिखे गये पत्र आज भी उनके विचारों के दर्पण हैं। अपने लेखों में उन्होंने कई तरह से पूँजीपतियों को अपना शत्रु बताया है। उन्होंने लिखा कि मजदूरों का शोषण करने वाला चाहें एक भारतीय ही क्यों न हो, वह उनका शत्रु है। उन्होंने जेल में अंग्रेज़ी में एक लेख भी लिखा जिसका शीर्षक था मैं नास्तिक क्यों हूँ?[10][11] जेल में भगत सिंह व उनके साथियों ने ६४ दिनों तक भूख हडताल की। उनके एक साथी यतीन्द्रनाथ दास ने तो भूख हड़ताल में अपने प्राण ही त्याग दिये थे। फांसी 26 अगस्त, 1930 को अदालत ने भगत सिंह को भारतीय दंड संहिता की धारा 129, 302 तथा विस्फोटक पदार्थ अधिनियम की धारा 4 और 6एफ तथा आईपीसी की धारा 120 के अंतर्गत अपराधी सिद्ध किया। 7 अक्तूबर, 1930 को अदालत के द्वारा 68 पृष्ठों का निर्णय दिया, जिसमें भगत सिंह, सुखदेव तथा राजगुरु को फांसी की सजा सुनाई गई। फांसी की सजा सुनाए जाने के साथ ही लाहौर में धारा 144 लगा दी गई। इसके बाद भगत सिंह की फांसी की माफी के लिए प्रिवी परिषद में अपील दायर की गई परन्तु यह अपील 10 जनवरी, 1931 को रद्द कर दी गई। इसके बाद तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष पं. मदन मोहन मालवीय ने वायसराय के सामने सजा माफी के लिए 14 फरवरी, 1931 को अपील दायर की कि वह अपने विशेषाधिकार का प्रयोग करते हुए मानवता के आधार पर फांसी की सजा माफ कर दें। भगत सिंह की फांसी की सज़ा माफ़ करवाने हेतु महात्मा गांधी ने 17 फरवरी 1931 को वायसराय से बात की फिर 18 फरवरी, 1931 को आम जनता की ओर से भी वायसराय के सामने विभिन्न तर्को के साथ सजा माफी के लिए अपील दायर की। यह सब कुछ भगत सिंह की इच्छा के खिलाफ हो रहा था क्यों कि भगत सिंह नहीं चाहते थे कि उनकी सजा माफ की जाए। 23 मार्च 1931 को शाम में करीब 7 बजकर 33 मिनट पर भगत सिंह तथा इनके दो साथियों सुखदेव व राजगुरु को फाँसी दे दी गई।[12] फाँसी पर जाने से पहले वे लेनिन की जीवनी पढ़ रहे थे और जब उनसे उनकी आखरी इच्छा पूछी गई तो उन्होंने कहा कि वह लेनिन की जीवनी पढ़ रहे थे और उन्हें वह पूरी करने का समय दिया जाए।[13] कहा जाता है कि जेल के अधिकारियों ने जब उन्हें यह सूचना दी कि उनके फाँसी का वक्त आ गया है तो उन्होंने कहा था- "ठहरिये! पहले एक क्रान्तिकारी दूसरे से मिल तो ले।" फिर एक मिनट बाद किताब छत की ओर उछाल कर बोले - "ठीक है अब चलो।" फाँसी पर जाते समय वे तीनों मस्ती से गा रहे थे - मेरा रँग दे बसन्ती चोला, मेरा रँग दे। मेरा रँग दे बसन्ती चोला। माय रँग दे बसन्ती चोला॥ फाँसी के बाद कहीं कोई आन्दोलन न भड़क जाये इसके डर से अंग्रेजों ने पहले इनके मृत शरीर के टुकड़े किये फिर इसे बोरियों में भरकर फिरोजपुर की ओर ले गये जहाँ घी के बदले मिट्टी का तेल डालकर ही इनको जलाया जाने लगा। गाँव के लोगों ने आग जलती देखी तो करीब आये। इससे डरकर अंग्रेजों ने इनकी लाश के अधजले टुकड़ों को सतलुज नदी में फेंका और भाग गये। जब गाँव वाले पास आये तब उन्होंने इनके मृत शरीर के टुकड़ो कों एकत्रित कर विधिवत दाह संस्कार किया। और भगत सिंह हमेशा के लिये अमर हो गये। इसके बाद लोग अंग्रेजों के साथ-साथ गान्धी को भी इनकी मौत का जिम्मेवार समझने लगे। इस कारण जब गान्धी कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन में हिस्सा लेने जा रहे थे तो लोगों ने काले झण्डों के साथ गान्धीजी का स्वागत किया। एकाध जग़ह पर गान्धी पर हमला भी हुआ, किन्तु सादी वर्दी में उनके साथ चल रही पुलिस ने बचा लिया। व्यक्तित्व जेल के दिनों में उनके लिखे खतों व लेखों से उनके विचारों का अन्दाजा लगता है। उन्होंने भारतीय समाज में लिपि (पंजाबी की गुरुमुखी व शाहमुखी तथा हिन्दी और अरबी एवं उर्दू के सन्दर्भ में विशेष रूप से), जाति और धर्म के कारण आयी दूरियों पर दुःख व्यक्त किया था। उन्होंने समाज के कमजोर वर्ग पर किसी भारतीय के प्रहार को भी उसी सख्ती से सोचा जितना कि किसी अंग्रेज के द्वारा किये गये अत्याचार को। भगत सिंह को हिन्दी, उर्दू, पंजाबी तथा अंग्रेजी के अलावा बांग्ला भी आती थी जो उन्होंने बटुकेश्वर दत्त से सीखी थी। उनका विश्वास था कि उनकी शहादत से भारतीय जनता और उद्विग्न हो जायेगी और ऐसा उनके जिन्दा रहने से शायद ही हो पाये। इसी कारण उन्होंने मौत की सजा सुनाने के बाद भी माफ़ीनामा लिखने से साफ मना कर दिया था। पं० राम प्रसाद 'बिस्मिल' ने अपनी आत्मकथा में जो-जो दिशा-निर्देश दिये थे, भगत सिंह ने उनका अक्षरश: पालन किया[14]। उन्होंने अंग्रेज सरकार को एक पत्र भी लिखा, जिसमें कहा गया था कि उन्हें अंग्रेज़ी सरकार के ख़िलाफ़ भारतीयों के युद्ध का प्रतीक एक युद्धबन्दी समझा जाये तथा फाँसी देने के बजाय गोली से उड़ा दिया जाये।[15] फाँसी के पहले ३ मार्च को अपने भाई कुलतार को भेजे एक पत्र में भगत सिंह ने लिखा था - उन्हें यह फ़िक्र है हरदम, नयी तर्ज़-ए-ज़फ़ा क्या है? हमें यह शौक है देखें, सितम की इन्तहा क्या है? दहर से क्यों ख़फ़ा रहें, चर्ख का क्या ग़िला करें। सारा जहाँ अदू सही, आओ! मुक़ाबला करें।। इन जोशीली पंक्तियों से उनके शौर्य का अनुमान लगाया जा सकता है। चन्द्रशेखर आजाद से पहली मुलाकात के समय जलती हुई मोमबती पर हाथ रखकर उन्होंने कसम खायी थी कि उनकी जिन्दगी देश पर ही कुर्बान होगी और उन्होंने अपनी वह कसम पूरी कर दिखायी। “किसी ने सच ही कहा है, सुधार बूढ़े आदमी नहीं कर सकते । वे तो बहुत ही बुद्धिमान और समझदार होते हैं । सुधार तो होते हैं युवकों के परिश्रम, साहस, बलिदान और निष्ठा से, जिनको भयभीत होना आता ही नहीं और जो विचार कम और अनुभव अधिक करते हैं ।”~ भगत सिंह ख्याति और सम्मान उनकी मृत्यु की ख़बर को लाहौर के दैनिक ट्रिब्यून तथा न्यूयॉर्क के एक पत्र डेली वर्कर ने छापा। इसके बाद भी कई मार्क्सवादी पत्रों में उन पर लेख छपे, पर चूँकि भारत में उन दिनों मार्क्सवादी पत्रों के आने पर प्रतिबन्ध लगा था इसलिए भारतीय बुद्धिजीवियों को इसकी ख़बर नहीं थी। देशभर में उनकी शहादत को याद किया गया। दक्षिण भारत में पेरियार ने उनके लेख "मैं नास्तिक क्यों हूँ?" पर अपने साप्ताहिक पत्र कुडई आरसू के २२-२९ मार्च १९३१ के अंक में तमिल में सम्पादकीय लिखा। इसमें भगतसिंह की प्रशंसा की गई थी तथा उनकी शहादत को ब्रिटिश साम्राज्यवाद के ऊपर जीत के रूप में देखा गया था। आज भी भारत और पाकिस्तान की जनता भगत सिंह को आज़ादी के दीवाने के रूप में देखती है जिसने अपनी जवानी सहित सारी जिन्दगी देश के लिये समर्पित कर दी। उनके जीवन ने कई हिन्दी फ़िल्मों के चरित्रों को प्रेरित किया। टिप्पणियाँ सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ श्रेणी:व्यक्तिगत जीवन श्रेणी:भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम श्रेणी:भारतीय स्वतंत्रता सेनानी श्रेणी:नास्तिक श्रेणी:१९३१ में निधन श्रेणी:1907 में जन्मे लोग श्रेणी:भारतीय क्रांतिकारी श्रेणी:पंजाबी लोग
भगत सिंह के पिता का नाम क्या था?
सरदार किशन सिंह
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ऑस्कर वाइल्ड उस शख्स का नाम है, जिसने सारी दुनिया में अपने लेखन से हलचल मचा दी थी। शेक्सपीयर के उपरांत सर्वाधिक चर्चित ऑस्कर वाइल्ड सिर्फ उपन्यासकार, कवि और नाटककार ही नहीं थे, अपितु वे एक संवेदनशील मानव थे। उनके लेखन में जीवन की गहरी अनुभूतियाँ हैं, रिश्तों के रहस्य हैं, पवित्र सौन्दर्य की व्याख्या है, मानवीय धड़कनों की कहानी है। उनके जीवन का मूल्यांकन एक व्यापक फैलाव से गुजरकर ही किया जा सकता है। अपने धूपछाँही जीवन में उथल-पुथल और संघर्ष को समेटे 'ऑस्कर फिंगाल ओं फ्लाहर्टी विल्स वाइल्ड' मात्र 46 वर्ष पूरे कर अनंत आकाश में विलीन हो गए। ऑस्कर वाइल्ड 'कीरो' के समकालीन थे। एक बार भविष्यवक्ता कीरो किसी संभ्रांत महिला के यहांं भोज पर आमंत्रित थे। काफी संख्या में यहाँ प्रतिष्ठित लोग मौजूद थे। कीरो उपस्थित हों और भविष्य न पूछा जाए, भला यह कैसे संभव होता। एक दिलचस्प अंदाज में भविष्य दर्शन का कार्यक्रम आरंभ हुआ। एक लाल मखमली पर्दा लगाया गया। उसके पीछे से कई हाथ पेश किए गए। यह सब इसलिए ताकि कीरो को पता न चल सके कि कौन सा हाथ किसका है? दो सुस्पष्ट, सुंदर हाथ उनके सामने आए। उन हाथों को कीरो देखकर हैरान रह गए। दोनों में बड़ा अंतर था। जहाँ बाएँ हाथ की रेखाएँ कह रही थीं कि व्यक्ति असाधारण बुद्धि और अपार ख्याति का मालिक है। वहीं दायाँ हाथ..? कीरो ने कहा 'दायाँ हाथ ऐसे शख्स का है जो अपने को स्वयं देश निकाला देगा और किसी अनजान जगह एकाकी और मित्रविहीन मरेगा। कीरो ने यह भी कहा कि 41 से 42वें वर्ष के बीच यह निष्कासन होगा और उसके कुछ वर्षों बाद मृत्यु हो जाएगी। यह दोनों हाथ लंदन के सर्वाधिक चर्चित व्यक्ति ऑस्कर वाइल्ड के थे। संयोग की बात कि उसी रात एक महान नाटक 'ए वुमन ऑफ नो इम्पोर्टेंस' मंचित किया गया। उसके रचयिता भी और कोई नहीं ऑस्कर वाइल्ड ही थे। बहरहाल, 15 अक्टूबर 1854 को ऑस्कर वाइल्ड जन्मे थे। कीरो की भविष्यवाणी पर दृष्टिपात करें तो 1895 में ऑस्कर वाइल्ड ने समाज के नैतिक नियमों का उल्लंघन कर दिया। फलस्वरूप समाज में उनकी अब तक अर्जित प्रतिष्ठा, मान-सम्मान और सारी उपलब्धियाँ ध्वस्त हो गईं। यहाँ तक कि उन्हें दो वर्ष का कठोर कारावास भी भुगतना पड़ा। जब ऑस्कर वाइल्ड ने अपने सौभाग्य के चमकते सितारे को डूबते हुए और अपनी कीर्ति पताका को झुकते हुए देखा तो उनके धैर्य ने जवाब दे दिया। अब वे अपने उसी गौरव और प्रभुता के साथ समाज के बीच खड़े नहीं हो सकते थे। हताशा की हालत में उन्होंने स्वयं को देश निकाला दे दिया। वे पेरिस चले गए और अकेले गुमनामी की जिंदगी गुजारने लगे। कुछ वर्षों बाद 30 नवम्बर 1900 को पेरिस में ही उनकी मृत्यु हो गई। उस समय उनके पास कोई मित्र नहीं था। यदि कुछ था तो सिर्फ सघन अकेलापन और पिछले सम्मानित जीवन की स्मृतियों के बचे टुकड़े। ऑस्कर वाइल्ड का पूरा नाम बहुत लंबा था, लेकिन वे सारी दुनिया में केवल ऑस्कर वाइल्ड के नाम से ही जाने गए। उनके पिता सर्जन थे और माँ कवयित्री। कविता के संस्कार उन्हें अपनी माँ से ही मिले। क्लासिक्स और कविता में उनकी विशेष गति थी। 19वीं शताब्दी के अंतिम दशक में उन्होंने सौंदर्यवादी आंदोलन का नेतृत्व किया। इससे उनकी कीर्ति चारों ओर फैली। ऑस्कर वाइल्ड विलक्षण बुद्धि, विराट कल्पनाशीलता और प्रखर विचारों के स्वामी थे। परस्पर बातचीत से लेकर उद्भट वक्ता के रूप में भी उनका कोई जवाब नहीं था। उन्होंने कविता, उपन्यास और नाटक लिखे। अँग्रेजी साहित्य में शेक्सपीयर के बाद उन्हीं का नाम प्राथमिकता से लिया जाता है। 'द पिक्चर ऑफ डोरियन ग्रे' उनका प्रथम और अंतिम उपन्यास था, जो 1890 में पहली बार प्रकाशित हुआ। विश्व की कई भाषाओं में उनकी कृतियाँ अनुवादित हो चुकी हैं। 'द बैलेड ऑफ रीडिंग गोल' और 'डी प्रोफनडिस', उनकी सुप्रसिद्ध कृतियाँ हैं। लेडी विंडरम'र्स फेन और द इम्पोर्टेंस ऑफ बीइंग अर्नेस्ट जैसे नाटकों ने भी खासी लोकप्रियता अर्जित की। उनकी लिखी परिकथाएँ भी विशेष रूप से पसंद की गईं। उनके एक नाटक 'सलोमी' को प्रदर्शन के लिए इंग्लैंड में लाइसेंस नहीं मिला। बाद में उसे सारा बरनार्ड ने पेरिस में प्रदर्शित किया। ऑस्कर वाइल्ड ने जीवन मूल्यों, पुस्तकों, कला इत्यादि के विषय में अनेक सारगर्भित रोचक टिप्पणियाँ की हैं। उन्होंने कहा- 'पुस्तकें नैतिक या अनैतिक नहीं होतीं। वे या तो अच्छी लिखी गई होती हैं या बुरी।' अपने अनंत अनुभवों के आधार पर एक जगह उन्होंने लिखा- 'विपदाएँ झेली जा सकती हैं, क्योंकि वे बाहर से आती हैं, किंतु अपनी गलतियों का दंड भोगना हाय, वही तो है जीवन का दंश। कला के विषय में उनके विचार थे- 'कला, जीवन को नहीं, बल्कि देखने वाले को व्यक्त करती है अर्थात तब किसी कलात्मक कृति पर लोग विभिन्ना मत प्रकट करते हैं तब ही कृति की पहचान निर्धारित होती है कि वास्तव में वह कैसी है, आकर्षक या उलझी हुई।' ऑस्कर वाइल्ड ने अपने साहित्य में कहीं न कहीं अपनी पीड़ा, अवसाद और अपमान को ही अभिव्यक्त किया है। बावजूद इसके उनकी रचनाएँ एक विशेष प्रकार का कोमलपन लिए एक विशेष दिशा में चलती हैं। कई बड़े साहित्यकारों की तरह उन्होंने भी विषपान किया, नीलकंठ बने और खामोश रहे। विश्व साहित्य का यह तेजस्वी हस्ताक्षर आज भी पूरी दुनिया में स्नेह के साथ पढ़ा और सराहा जाता है। बाहरी कड़ियाँ (वेबदुनिया साहित्य) श्रेणी:अंग्रेजी साहित्यकार‎
महान नाटक 'ए वुमन ऑफ नो इम्पोर्टेंस' के रचयिता कौन थे?
ऑस्कर वाइल्ड
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अदरक (वानस्पतिक नाम: जिंजिबर ऑफ़िसिनेल / Zingiber officinale), एक भूमिगत रूपान्तरित तना है। यह मिट्टी के अन्दर क्षैतिज बढ़ता है। इसमें काफी मात्रा में भोज्य पदार्थ संचित रहता है जिसके कारण यह फूलकर मोटा हो जाता है। अदरक जिंजीबरेसी कुल का पौधा है। अधिकतर उष्णकटिबंधीय (ट्रापिकल्स) और शीतोष्ण कटिबंध (सबट्रापिकल) भागों में पाया जाता है। अदरक दक्षिण एशिया का देशज है किन्तु अब यह पूर्वी अफ्रीका और कैरेबियन में भी पैदा होता है। अदरक का पौधा चीन, जापान, मसकराइन और प्रशांत महासागर के द्वीपों में भी मिलता है। इसके पौधे में सिमपोडियल राइजोम पाया जाता है। सूखे हुए अदरक को सौंठ (शुष्ठी) कहते हैं। भारत में यह बंगाल, बिहार, चेन्नई,मध्य प्रदेश कोचीन, पंजाब और उत्तर प्रदेश में अधिक उत्पन्न होती है। अदरक का कोई बीज नहीं होता, इसके कंद के ही छोटे-छोटे टुकड़े जमीन में गाड़ दिए जाते हैं। यह एक पौधे की जड़ है। यह भारत में एक मसाले के रूप में प्रमुख है। अदरक का अन्य उपयोग अदरक का इस्तेमाल अधिकतर भोजन के बनाने के दौरान किया जाता है। अक्सर सर्दियों में लोगों को खांसी-जुकाम की परेशानी हो जाती है जिसमें अदरक प्रयोग बेहद ही कारगर माना जाता है। यह अरूची और हृदय रोगों में भी फायदेमंद है। इसके अलावा भी अदरक कई और बीमारियों के लिए भी फ़ायदेमंद मानी गई है। [1] [2] बाहरी कड़ियाँ (विकासपीडिया) (किसान हेल्प लाइन) (हिमाचल प्रदेश, कृषि विभाग) (रांची एक्सप्रेस) श्रेणी:मसाले
अदरक का वैज्ञानिक नाम क्या है?
जिंजिबर ऑफ़िसिनेल
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Main Page फ़ैन एक भारतीय बॉलीवुड फ़िल्म है जिसका निर्देशन मनीष शर्मा कर रहे है। इसमें मुख्य किरदार में शाहरुख खान और वाणी कपूर हैं। इसका निर्माण आदित्य चोपड़ा कर रहे हैं।[1][2] फ़िल्म हैप्पी न्यू ईयर में शाहरुख खान को चोट लगने के कारण इसे 2015 तक के लिए लंबित कर दिया गया था। यह फ़िल्म 15 अप्रैल 2016 को प्रदर्शित होगी।[3][4] कहानी गौरव (शाहरुख खान) दिल्ली में रहता है और वह आर्यन खन्ना (शाहरुख खान) का बहुत बड़ा फैन रहता है। गौरव वहाँ पर एक प्रतियोगिता जीत जाता है और वह आर्यन को अपना आदर्श मानते रहता है। इसके बाद वह उसके जन्म दिन के दिन उसे अपना जीता हुआ ट्रॉफी दिखाने जाता है। वह दिल्ली से मुंबई बिना रेल टिकट के सफर करता है। आर्यन के जन्मदिन के दिन गौरव उसके घर जाने की कोशिश करता है, लेकिन उसके गार्ड उसे अन्दर जाने नहीं देते हैं। उसके साथ में काम करने वाला सिड कपूर अपने साथी अभिनेता आर्यन का आलोचना करते रहता है। इससे गौरव को क्रोध आ जाता है। वह सिड को धमकी दे देता है। सिड उस घटना का वीडियो इंटरनेट पर डाल देता है। इसके बाद आर्यन भी उस वीडियो को देखता है। आर्यन अपना कार गौरव को लाने के लिए भेजता है। लेकिन वहाँ सिड के सुरक्षा गार्ड आ जाते हैं और गौरव वहाँ से भाग जाता है। पर वे लोग उसे पकड़ कर पुलिस थाने में ले जाते हैं। आर्यन वहाँ आता है और कहता है कि गौरव उसका फैन नहीं है। इसके साथ ही वह गौरव से कहता है कि अब वह ऐसा कभी न करे और अपने घर लौट जाए। गौरव अपने घर चला जाता है उसके बाद वह आर्यन के सारे तस्वीरों को जला देता है। इसके बाद वह उससे बदला लेने के बारे में सोचता है। एक साल बाद लंदन में गौरव एक संग्रहालय में आर्यन के नाम को खराब करने के लिए उसे तबाह कर देता है। पुलिस असली आर्यन को गिरफ्तार कर लेती है लेकिन उसे जमानत भी मिल जाता है। आर्यन डबरोवनिक रवाना हो जाता है। उसे नहीं पता रहता है कि गौरव भी डबरोवनिक में ही है। गौरव अपने आप को एक कलाकार के रूप में दिखाता है और वहाँ एक कार्यक्रम में चले जाता है। यहाँ आर्यन अपने कर्मियों को बाहर देखने के लिए बोलता है और बाद में उसे पता चलता है कि गौरव उसके उत्पादन दल का हिस्सा बना है। वह पूरी इमारत तलाश लेता है, लेकिन तब तक गौरव वहाँ से भाग निकलता है। बाद में जब आर्यन दर्पण में देखता है तो उसमें लिखा रहता है कि गौरव ने ही आर्यन को बनाया है। आर्यन अपने अगले कार्यक्रम के लिए एक अरबपति के शादी में जाता है। वहाँ भी गौरव अपना रूप आर्यन की तरह कर लेता है और वहाँ उस अरबपति की बेटी के साथ नाचने लगता है। उसी दौरान वह मारने लगता है। इससे अरबपति क्रोध में असली आर्यन को बाहर निकाल देता है। इसका वीडियो पूरे जगह फैल जाता है और उसके सभी प्रशंसक उससे दूरी बनाने लगते हैं। आर्यन को तब तक पता चल जाता है कि गौरव उसका पीछा कर रहा है। वह सभी को बता देता है कि कोई उसके जैसा दिख कर लोगों को नुकसान पहुँचा रहा है। भारत में वापस लौटने के बाद गौरव वापस आर्यन बन जाता है और आर्यन के घर में जा कर उसके जीते हुए पुरस्कारों के कमरे को तबाह कर देता है। कुछ ही समय बाद आर्यन वहाँ आ जाता है और गौरव वहाँ से भाग जाता है। आर्यन को गौरव के रिश्तेदारों से पता चलता है कि वह एक प्रतियोगिता में शामिल हो सकता है। आर्यन एक योजना बनाता है और गौरव जिस लड़की से प्यार करते रहता है, उससे आर्यन अपने आप को गौरव बता कर अपने प्यार का इजहार कर देता है। इस घटना से गौरव भड़क जाता है और आर्यन उसे देख लेता है। गौरव वहाँ से भागने लगता है और आर्यन उसका पीछा करने लगता है। उसके बाद दोनों के मध्य लड़ाई शुरू हो जाती है। आर्यन उसे कहता है कि वह आर्यन बनने के जगह गौरव बने। इसके बाद गौरव बोलता है कि उसने सबकुछ कहा लेकिन अभी तक माफी नहीं मांगी। इसके बाद वह पहाड़ से गिरते रहता है कि आर्यन उसे पकड़ लेता है। इसके बाद गौरव जवाब देता है कि वह उसे कभी समझ नहीं पाएगा। इसके साथ ही वह अपना हाथ छुड़ा लेता है। वह मुस्कुराते हुए नीचे गिर जाता है और उसकी मौत हो जाती है। वह मरने के बाद भी मुस्कुराते रहता है। इसके बाद आर्यन का नाम सभी विवादों से हट जाता है। लेकिन हर बार उसके अगले जन्मदिन में जब भी वह भीड़ को देखता है तो उसे गौरव दिखाई देता है। कलाकार शाहरुख खान - आर्यन / गौरव वलुष्का डि सोजा निर्माण इस फ़िल्म का निर्माण 2014 से शुरू हुआ। लेकिन उसके बाद हैप्पी न्यू ईयर के निर्माण के कारण से टाल दिया गया। लेकिन इसी दौरान शाहरुख खान को चोट लगने के कारण 2015 तक टाल दिया गया। इस फ़िल्म में विशेष प्रभाव को दिखाने के लिए जो समूह कार्य कर रहा था, उसे कार्य को पूरा करने में समय लगने के कारण इसकी प्रदर्शन तिथि को 2015 के स्थान पर 2016 कर दिया गया। प्रदर्शन इस फिल्म के झलक का प्रदर्शन 29 फरवरी 2016 को किया गया था। यह फिल्म पहले 2015 को प्रदर्शित होने वाला था। इसके बाद देरी होते होते यह फिल्म 15 अप्रैल 2016 को 3500 सिनेमाघरों में प्रदर्शित हुआ था। इसके अलावा यह विदेशों में 1100 सिनेमाघरों में भी प्रदर्शित हुआ। इस फिल्म को बनाने में कुल ₹85 करोड़ रुपये लगे थे और इसके प्रचार में ₹20 करोड़ का खर्च आया। सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ श्रेणी:2016 में बनी हिन्दी फ़िल्म
2016 की फ़ैन बॉलीवुड फ़िल्म का बजट कितना था?
₹85 करोड़
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ऐसे कम्प्यूटर प्रोग्राम खोजी इंजन (search engine) कहलाते हैं जो किसी कम्प्यूटर सिस्टम पर भण्डारित सूचना में से वांछित सूचना को ढूढ निकालते हैं। ये इंजन प्राप्त परिणामों को प्रायः एक सूची के रूप में प्रस्तुत करते हैं जिससे वांछित सूचना की प्रकृति और उसकी स्थिति का पता चलता है। खोजी इंजन किसी सूचना तक अपेक्षाकृत बहुत कम समय में पहुँचने में हमारी सहायता करते हैं। वे 'सूचना ओवरलोड' से भी हमे बचाते हैं। खोजी इंजन का सबसे प्रचलित रूप 'वेब खोजी इंजन' है जो वर्ल्ड वाइड वेब पर सूचना खोजने के लिये प्रयुक्त होता है। इतिहास खोज इंजन से पहले वेब सर्वर्स की पुरी सूची थी। टीम बेर्नेर्स ली द्वारा इन सूचियों का संपादन हुआ और सीइआरएन वेबसर्वर पर होस्ट किया गया। १९९२ से एक ऐतिहासिक आशुचित्र बनी हुई है[1]. जिस प्रकार अधिक से अधिक वेब्सेर्वेर्स ऑनलाइन हो जाने के कारण केन्द्रिये सूचि नही रख सकतें. एनसीएसऐ साईट पर नए सर्वर्स की घोषणा "नया क्या है" शीर्षक से किया गया है, लेकिन कोई भी पूर्ण सूचि अब मौजूद नही है[2] आर्ची (Archie).[3] उपकरण का इन्टरनेट (पूर्व वेब) पर खोज के लिए सबसे पहले इस्तेमाल किया गया था। बिना "वि" के "अर्चिव" का नाम बना है यह अलन एम्टेज (Alan Emtage) के द्वारा १९९० में बनाया गया, जो मांट्रियाल के मेकगिल विश्वविद्यालय (McGill University) का एक छात्र था। इस प्रोग्राम में निर्देशिका जिसमें सभी संचिकाओं की सूची सार्वजनिक अनामक ऍफ़ टी पी साईट में स्थित है, डाउनलोड है (संचिका स्थानान्तरण नवाचार खोजी डाटाबेस संचिकाओं के नाम बनाता है लेकिन आर्ची इन साइटों की विषय वस्तु की सूची नही बनाता है। गोफेर (Gopher) का उदय (१९९१ में मार्क मेककाहिल (Mark McCahill) के द्वारा मेंनेसोता विश्वविद्यालय (University of Minnesota) में बनाया गया) दो नए खोज प्रोग्राम, वेरोनिका (Veronica) और जगहेड (Jughead) का नेतृत्व करने के लिए हुआ। आर्ची की तरह वे संचिका का नाम और शीर्षक का खोज करते हैं जो गोफेर सूचकांक सारणी/सिस्टम में संगृहीत होता है। विरोनिका (बहुत आसान गिलहरी की तरह व्यापक नेट I</b>कंप्यूटरीकृतसूचकांकसंग्रह) पुरे गोफर सूची के लगभग गोफर मेनू/सूची शीर्षक में मूल शब्द खोज प्रदान करता है। जग हेड (जोंजिस सार्वलौकिक गोफर अनुक्रम एक्स्कवेसन और प्रदर्शन) विशेष गोफर सर्वर से मेनू/सूची से सुचना प्राप्त करने का उपकरण था हालाँकि "आर्ची (Archie)" नाम का खोज इंजन आर्ची हास्य पुस्तक (Archie comic book) श्रृंखला का उल्लेख नही करती, "वेरोनिका (Veronica)" और "जगहेड (Jughead)" इस श्रृंखला के प्रतिक हैं इस प्रकार वे अपने पुर्वधिकारी को संदर्भित करती हैं। पहला वेब खोज इंजन वान्देक्स था, एक निष्क्रिये/मृत सूचकांक जो विश्वव्यापी वेब घुम्मकड़ (World Wide Web Wanderer) के द्वारा समाहरित किया गया था, इस वेब क्रॉलर (web crawler) का विकास मैथ्यू ग्रे के द्वारा एम्आईटी में १९९३ में हुआ था। एक अन्य शीघ्र खोज इंजन अलिवेब (Aliweb) भी १९९३ में दिखाई दिया। जम्पस्टेशन (JumpStation) ने (१९९४ के शुरुआत में जारी) खोज के लिए वेब पन्नों को ढूढ़ने के लिए क्रेव्लर का इस्तेमाल किया था, परन्तु वेब पन्नों के शीर्षक तक ही खोज सीमित था सबसे पहले "पुरा पाठ" क्रॉलर पर आधारित खोज इंजन वेब क्रॉलर (WebCrawler) था जो की १९९४ में आया। अपने पूर्वग की तरह, यह अपने उपयोगकर्ता को किसी भी शब्द को वेब पेज पर खोजने में मदद करता है, जो सभी वेब सर्च इंजन के लिए एक मानदंड बन गया है। यह भी एक पहला था जो जनता के द्वारा व्यापक रूप से जाता है। १९९४ में भी लाइकोस (Lycos) (जिसकी शुरुआत कार्नेगी मेलोन विश्वविद्यालय (Carnegie Mellon University) में हुई थी) का आरम्भ हुई थी और वह प्रमुख वाणिज्यिक प्रयास बन गई। इसके तुंरत बाद, कई खोज इंजन दिखाई देने लगे और लोकप्रियता की और अग्रसर हुए.इसमें मैगलन (Magellan), एक्साईट (Excite), इन्फोसीक (Infoseek), इन्क्तोमी (Inktomi), उत्तरी लाइट (Northern Light) और अल्ताविस्ता (AltaVista) शामिल हैं। लोगों के लिए Yahoo! रुचिपूर्ण वेब पन्नों को ढूढने का सबसे अधिक लोकप्रिय रास्ता था लेकिन इसका खोज कार्य के लिए वेब के पुरा पाठ की अपेक्षा वेब निर्देशिका (web directory) का ही संचालन करती थी सूचना चाहने वाले खोज शब्द पर आधारित खोज के बजाय खोज के लिए निर्देशिका का भी संचालन कर सकतें हैं १९९६ में, नेट्स्केप (Netscape) को एक विशेष समझौते के लिए अपने चुनिन्दा खोज मशीन के लिए एक विशेष खोज मशीन की तलाश थी। अत्यधिक रूचि के बजाये पॉँच प्रमुख मशीनों के द्वारा नेट्स्केप के साथ वह समझौता रूक गई, जहाँ ५० लाख प्रति वर्ष नेट्स्केप के खोज इंजन पन्नो पर एक खोज इंजन के रोटेशन के लिए होता.ये पॉँच इंजन थे: Yahoo!, मैगलन (Magellan), लाइकोस (Lycos), इन्फोसीक (Infoseek) और एक्साईट (Excite). इन्टरनेट निवेश के कुछ चमकते सितारों में भी खोज इंजन को जाना जाता है, जो १९९० के अंत में आया था।[4] अनेक कम्पनियाँ ने बाज़ार में प्रवेश किया और प्रारंभिक सार्वजानिक प्रस्ताव (initial public offering) के दौरान उन्हें अत्यधिक लाभ प्राप्त हुआ। कुछ ने अपने सार्वजनिक खोज मशीन वापस ले लिया और विपणन उद्योग के एकमात्र संस्करण को भी, जैसे उत्तरी लाइट कई खोज इंजन कम्पनियाँ dot-com बुलबुला (dot-com bubble) के तहत आ गई थी, एक व्यावसायिक बाज़ार जो १९९९ में उछाल पर थी और २००१ में समाप्त हुई लगभग २००० में गूगल खोज इंजन (Google search engine) ने प्रमुखता पाई.अनेक खोजों तथा पृष्ठ श्रेणी (PageRank) जैसे नवीन प्रयास के आह्वान से कंपनी ने बेहतर परिणाम पाया। पुनरावृतिये एल्गोरिथम वेब पन्नों का श्रेणी अन्य वेब साइट्स के संख्या और पृष्ठ श्रेणी तथा जोड़ने वाले पन्नों पर इस तथ्य पर आधारित है की अच्छा या वाँछित पन्ने दूसरों से अधिक वेब साइटों से जुड़े हों.खोज इंजन के लिए गूगल ने भी अल्पतम अन्तरफलक को बनाये रखा इसके विपरीत इसके कई प्रतियोगियों ने वेब पोर्टल (web portal) में खोज इंजन सन्निहित किया २००० तक याहू ने इन्क्तोमी (Inktomi) खोज इंजन पर आधारित खोज सेवाओं को प्रदान करने लगा था। याहू! ने २००० में इन्क्तोमी (Inktomi) को प्राप्त किया और (जिसने ओलदवेब (AlltheWeb) और अल्ताविस्ता (AltaVista) को ख़रीदा) २००३ में प्रस्तावित (Overture) किया। २००४ तक Yahoo! गूगल खोज इंजन के साथ रहा, जब तक उसने सयुंक्त तकनीक पर आधारित अपना ख़ुद का खोज इंजन लॉन्च नही किया था। १९९८ द्वारा व्यवहृत इन्क्तोमी (Inktomi) का खोज परिणामों के पतन के बाद माइक्रोसॉफ्ट ने सबसे पहले एम्एसएन खोज आरम्भ किया (जब तक कोई दुसरे प्रकार का जीवित खोज (Live Search) न आए) १९९९ में साईट ने लूक्स्मार्ट (Looksmart) और इन्क्तोमी (Inktomi) के परिणामों के साथ सूचीबद्ध शेयर को प्रर्दशित करने लगा था, इसके अलावा १९९९ में कुछ समय के लिए इनके बजाये अल्ताविस्ता (AltaVista) के परिणामों का प्रयोग हुआ था। २००४ में, माइक्रोसॉफ्ट ने अपने ख़ुद के खोज तकनीक में अपने ख़ुद के वेब क्रोलर (web crawler) के आधार पर परिवर्तन करना आरम्भ किया। (एम्एसएनबोट (msnbot) कहलाता है) २००७ के अंत तक, गूगल सभी लोकप्रिय वेब खोज इंजनों से काफी आगे निकल गया था।[5] [6] देश के कई विशिष्ट खोज इंजन कंपनी प्रमुख बन गए उदहारण के तौर पर जनवादी गणराज्य चीन में सबसे लोकप्रिय खोज इंजन बैदु (Baidu) और भारत[7] में guruji.com (guruji.com) वेब खोज इंजन कैसे काम करता है एक खोज इंजन, निम्नलिखित आदेश से संचालित होता है वेब crawling (Web crawling) अनुक्रमण (Indexing) खोज रहा है (Searching) वेब खोज इंजन कई वेब पन्नों में संग्रहित सूचनाओं के आधार पर कार्य करतें हैं जो अपने डब्लू डब्लू डब्लू से पुनः प्राप्त करतें हैं। ये पन्नें वेब क्रोलर (Web crawler) और के द्वारा प्राप्त हैं (कभी कभी मकड़ी के नाम से जाना जाता है) ; एक स्वचालित वेब ब्राउज़र जो हर कड़ी को देखता है।robots.txt (robots.txt) के प्रयोग से निवारण किया जा सकता है प्रत्येक पन्नों के सामग्री का विश्लेषण से निर्धारित किया जा सकता है कैसे इसे अनुक्रमित (indexed) किया जाए (उदहारणस्वरुप, शीर्षकों, विषयवाचक, या विशेष क्षेत्र जिसे मेटा टैग (meta tags) कहते हैं, से शब्द जुडा होता है) बाद के पूछ ताछ के लिए वेब पन्नों के बारें में आधार सामग्री आंकडासंचय सूचकांक में संगृहीत है कुछ खोज मशीने जैसे गूगल स्रोत पन्नों के कुछ अंश या पुरा भाग (केच (cache) के रूप में) और साथ ही साथ वेब पन्नों के बारे में जानकारी स्टोर कर लेता है जबकि अन्य जैसे अल्ताविस्ता (AltaVista) प्रत्येक पन्नों के प्रत्येक शब्द जो भी पातें हैं उसे संगृहीत कर लेते हैं। यह संचित पन्ना वास्तविक खोज पाठ को हमेशा पकड़े हुए है जबसे इसको वास्तविक रूप में सूचीबद्ध किया गया है इसलिए जब वर्तमान पन्ने का अंतर्वस्तु को अद्यतन करने के बाद और खोज की स्थिति ज्यादा देर तक न होने के बाद यह अत्यन्त उपयोगी हो सकता है लिंक रूट (linkrot) के इस समस्या को हलके रूप में समझना चाहिए और गूगल के संचालन में इसका इस्तमाल (usability) बढ़ा क्योंकि उसने खोज शब्दों को लौटे हुए वेब पृष्ठों के द्वारा उपयोगकर्ताओं के उम्मीदों (user expectations) को पुरा किया यह विस्मय के कम से कम सिधांत (principle of least astonishment) को संतुष्ट करती है आमतौर पर उपयोगकर्ता लौटे हुए पन्नों पर खोज के परिणामों की उम्मीद करता है प्रासंगिक खोज के बढने से संचित पन्ने बहुत उपयोगी हो जाते हैं, यहाँ तक की वें तथ्यों से बाहर के डाटा हो सकते हैं जो कही भी उपलब्ध नहीं है। जब कोई उपयोगकर्ता खोज इंजन में पूछताछ (query) के लिए प्रवेश करता है (आमतौर पर मुख्य शब्दों (key word) का प्रयोग करके) खोज मशीन इसके विषय सूचि (index) की परीक्षा करता है और इसके मानदंडों के अनुसार उपयुक्त वेब पन्नों को सूचीबद्ध करता है, सामान्यतः एक छोटी सारांश के साथ जो प्रलेख के शीर्षकों और पाठ के भागों पर आधारित होती है अधिकतर सर्च इंजन बुलियन संचालक (boolean operators) AND, OR and NOT को खोज जिज्ञाशा (search query) शांत करने के लिए समर्थन करतें हैं। कुछ सर्च इंजन उन्नत किस्म के संचालक उपलब्ध कराते हैं जिसे प्रोक्सिमिटी खोज (proximity search) कहा जाता है जो उपभोक्ता को किवर्ड्स कि दूरियां को परिभाषित करने में सहायता करता है। इस खोज इंजन की उपयोगिता (relevance) उसकी परिणामों की उपयुक्तता पर आधारित है। हालाँकि लाखों वेब पन्नें हैं जिसमें खास शब्द या वाक्यांश हो सकते हैं पर कुछ पन्नें अधिक प्रासंगिक, लोकप्रिय, या अन्य की तुलना में अधिक प्रमाणिक हो सकते हैं। अधिकांश खोज इंजनें ऐसे पद्धितियों (rank) को अपनाते हैं कि उनका परिणाम "सर्ब्श्रेष्ठ" और पहला हो कैसे एक खोज इंजन निर्णय करता है, कौन सा पन्ना सबसे ज्यादा उपयुक्त हो और अनेक व्यापक इंजन से दुसरे इंजनों में से कौन से क्रम में परिणामों को दिखाना चाहिए। समय के साथ पद्धतियों में भी बदलाव हो रहा है जैसे इन्टरनेट का उपयोग बदल रहा है और नई तकनीक का विकास हो रहा है अधिकांश वेब खोज इंजन व्यावसायिक उद्यमी विज्ञापनों (advertising) की आमदानी से समर्थित होते हैं। जिसके फलस्वरूप कुछ विवादास्पद कार्यप्रणाली, विज्ञापनदाताओं को खोज परिणामों में उंच स्थान/श्रेणी पाने के लिए पैसों के भुगतान के आधार पर अनुमति देती है। वे खोज इंजन जो उनके खोज के परिणामो के लिए धन स्वीकार नही करते वे खोज इंजन परिणामो के साथ चल रहे खोज सम्बन्धी विज्ञापनों द्वारा धन बनातें हैं। कोई भी इनके किसी भी विज्ञापन में क्लिक करता है तो खोज इंजन हर बार धन बनाता है। अधिकतर खोज मशीनें निजी कंपनियों द्वारा चलाये जाते हैं और वे अल्गोरिथ्म्स और बंद आंकडा संचयों का प्रयोग करते हैं। हालाँकि कुछ (some) सार्वजानिक स्रोत होते हैं। नवीनतम मेटा खोज इंजन अनूठा मेटा खोज प्रणाली का प्रयोग कर रहा है। वेब खोज पोर्टल्स उद्योग की आमदनी अनुमानित २००८ में १३.४ प्रतिशत बढेगी, तथा ब्रॉडबैंड कनेक्शन के साथ १५.१ प्रतिशत बदने की उम्मीद है। २००८ से २०१२ के बीच उद्दोग आय अनुमानित ५६ प्रतिशत बढ़ा है क्योंकि इन्टरनेट के रूप में अमेरिका के घरों में पूर्ण परिपूर्णता के लिए अभी भी कुछ रास्ता तय करना है इसके आलावा, बढती हुई घरेलु इन्टरनेट उपयोगकर्ताओं के लिए ब्रॉडबैंड सेवाएँ दी जा रही है, फैबर ऑप्टिक और उच्च गति वाले केबल लाइनों के योग से २०१२ तक ११८.७ मिलियन बढ़ जायेगी.[8] इसे भी देखिये सूचकांक (खोज इंजन) (Index (search engine)) खोज इंजन की सूची (List of search engines) स्थानीय खोज (इन्टरनेट) (Local search (Internet)) मेटाखोज इंजन (Metasearch engine) सार्वजनिक खोज (OpenSearch) खोज इंजन विपणन (Search engine marketing) खोज इंजन इष्टतमीकरण (Search engine optimization) खोज उन्मुख संरचना (Search oriented architecture) अर्थ वेब (Semantic Web) सामाजिक खोज (Social search) वर्तनी जांचकर्ता (Spell checker) वेब अनुक्रमण (Web indexing) वेब खोज जिज्ञासा (Web search query) वेबसाइट पद व्याख्या फर्मा (Website Parse Template) सन्दर्भ नोट्स ऊपर के विवरण के समर्थन के 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विश्व का सबसे पहला वेब सर्च इंजन कौनसा था?
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अलाउद्दीन खिलजी (वास्तविक नाम अलीगुर्शप 1296-1316) दिल्ली सल्तनत के खिलजी वंश का दूसरा शासक था।[1] उसका साम्राज्य अफगानिस्तान से लेकर उत्तर-मध्य भारत तक फैला था। इसके बाद इतना बड़ा भारतीय साम्राज्य अगले तीन सौ सालों तक कोई भी शासक स्थापित नहीं कर पाया था। मेवाड़ चित्तौड़ का युद्धक अभियान इतिहास की एक महत्वपूर्ण घटना है।[2] ऐसा माना जाता है कि वो चित्तौड़ की रानी पद्मिनी की सुन्दरता पर मोहित था।[3] इसका वर्णन मलिक मुहम्मद जायसी ने अपनी रचना पद्मावत में किया है।[4] उसके समय में उत्तर पूर्व से मंगोल आक्रमण भी हुए। उसने उसका भी डटकर सामना किया।[5] अलाउद्दीन ख़िलजी के बचपन का नाम अली 'गुरशास्प' था। जलालुद्दीन खिलजी के तख्त पर बैठने के बाद उसे 'अमीर-ए-तुजुक' का पद मिला। मलिक छज्जू के विद्रोह को दबाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने के कारण जलालुद्दीन ने उसे कड़ा-मनिकपुर की सूबेदारी सौंप दी। भिलसा, चंदेरी एवं देवगिरि के सफल अभियानों से प्राप्त अपार धन ने उसकी स्थिति और मज़बूत कर दी। इस प्रकार उत्कर्ष पर पहुँचे अलाउद्दीन खिलजी ने अपने चाचा जलालुद्दीन की हत्या धोखे से 22 अक्टूबर 1296 को खुद से गले मिलते समय अपने दो सैनिकों (मुहम्मद सलीम तथा इख़्तियारुद्दीन हूद) द्वारा करवा दी। इस प्रकार उसने अपने सगे चाचा जो उसे अपने औलाद की भांति प्रेम करता था के साथ विश्वासघात कर खुद को सुल्तान घोषित कर दिया और दिल्ली में स्थित बलबन के लालमहल में अपना राज्याभिषेक 22 अक्टूबर 1296 को सम्पन्न करवाया। निर्माण कार्य अलाउद्दीन के दरबार में अमीर खुसरों तथा हसन निजामी जैसे उच्च कोटि के विद्धानों को संरक्षण प्राप्त था। स्थापत्य कला के क्षेत्र में अलाउद्दीन खिलजी ने वृत्ताकार 'अलाई दरवाजा' अथवा 'कुश्क-ए-शिकार' का निर्माण करवाया। उसके द्वारा बनाया गया 'अलाई दरवाजा' प्रारम्भिक तुर्की कला का एक श्रेष्ठ नमूना माना जाता है। इसने सीरी के किले, हजार खम्भा महल का निर्माण किया। शासन व्यवस्था राज्याभिषेक के बाद उत्पन्न कठिनाईयों का सफलता पूर्वक सामना करते हुए अलाउद्दीन ने कठोर शासन व्यवस्था के अन्तर्गत अपने राज्य की सीमाओं का विस्तार करना प्रारम्भ किया। अपनी प्रारम्भिक सफलताओं से प्रोत्साहित होकर अलाउद्दीन ने 'सिकन्दर द्वितीय' (सानी) की उपाधि ग्रहण कर इसका उल्लेख अपने सिक्कों पर करवाया। उसने विश्व-विजय एवं एक नवीन धर्म को स्थापित करने के अपने विचार को अपने मित्र एवं दिल्ली के कोतवाल 'अलाउल मुल्क' के समझाने पर त्याग दिया। यद्यपि अलाउद्दीन ने ख़लीफ़ा की सत्ता को मान्यता प्रदान करते हुए ‘यामिन-उल-ख़िलाफ़त-नासिरी-अमीर-उल-मोमिनीन’ की उपाधि ग्रहण की, किन्तु उसने ख़लीफ़ा से अपने पद की स्वीकृत लेनी आवश्यक नहीं समझी। उलेमा वर्ग को भी अपने शासन कार्य में हस्तक्षेप नहीं करने दिया। उसने शासन में इस्लाम धर्म के सिद्धान्तों को प्रमुखता न देकर राज्यहित को सर्वोपरि माना। अलाउद्दीन ख़िलजी के समय निरंकुशता अपने चरम सीमा पर पहुँच गयी। अलाउद्दीन ख़िलजी ने शासन में न तो इस्लाम के सिद्धान्तों का सहारा लिया और न ही उलेमा वर्ग की सलाह ली। विद्रोहों का दमन अलाउद्दीन ख़िलजी के राज्य में कुछ विद्रोह हुए, जिनमें 1299 ई. में गुजरात के सफल अभियान में प्राप्त धन के बंटवारे को लेकर ‘नवी मुसलमानों’ द्वारा किये गये विद्रोह का दमन नुसरत ख़ाँ ने किया। दूसरा विद्रोह अलाउद्दीन के भतीजे अकत ख़ाँ द्वारा किया गया। अपने मंगोल मुसलमानों के सहयोग से उसने अलाउद्दीन पर प्राण घातक हमला किया, जिसके बदलें में उसे पकड़ कर मार दिया गया। तीसरा विद्रोह अलाउद्दीन की बहन के लड़के मलिक उमर एवं मंगू ख़ाँ ने किया, पर इन दोनों को हराकर उनकी हत्या कर दी गई। चौथा विद्रोह दिल्ली के हाजी मौला द्वारा किया गया, जिसका दमन सरकार हमीद्दीन ने किया। इस प्रकार इन सभी विद्रोहों को सफलता पूर्वक दबा दिया गया। अलाउद्दीन ने तुर्क अमीरों द्वारा किये जाने वाले विद्रोह के कारणों का अध्ययन कर उन कारणों को समाप्त करने के लिए 4 अध्यादेश जारी किये। प्रथम अध्यादेश के अन्तर्गत अलाउद्दीन ने दान, उपहार एवं पेंशन के रूप में अमीरों को दी गयी भूमि को जब्त कर उस पर अधिकार कर लगा दिया, जिससे उनके पास धन का अभाव हो गया। द्वितीय अध्याधेश के अन्तर्गत अलाउद्दीन ने गुप्तचर विभाग को संगठित कर ‘बरीद’ (गुप्तचर अधिकारी) एवं ‘मुनहिन’ (गुप्तचर) की नियुक्ति की। तृतीय अध्याधेश के अन्तर्गत अलाउद्दीन ख़िलजी ने मद्यनिषेद, भाँग खाने एवं जुआ खेलने पर पूर्ण प्रतिबन्ध लगा दिया। चौथे अध्यादेश के अन्तर्गत अलाउद्दीन ने अमीरों के आपस में मेल-जोल, सार्वजनिक समारोहों एवं वैवाहिक सम्बन्धों पर प्रतिबन्ध लगा दिया। सुल्तान द्वारा लाये गये ये चारों अध्यादेश पूर्णतः सफल रहे। अलाउद्दीन ने खूतों, मुक़दमों आदि हिन्दू लगान अधिकारियों के विशेषाधिकार को समाप्त कर दिया। साम्राज्य विस्तार अलाउद्दीन ख़िलजी साम्राज्यवादी प्रवृति का व्यक्ति था। उसने उत्तर भारत के राज्यों को जीत कर उन पर प्रत्यक्ष शासन किया। दक्षिण भारत के राज्यों को अलाउद्दीन ने अपने अधीन कर उनसे वार्षिक कर वसूला। गुजरात विजय 1298 ई. में अलाउद्दीन ने उलूग ख़ाँ एवं नुसरत ख़ाँ को गुजरात विजय के लिए भेजा। अहमदाबाद के निकट कर्णदेव वाघेला और अलाउद्दीन की सेना में संघर्ष हुआ। राजा कर्ण ने पराजित होकर अपनी कर देवगिरि के शासक रामचन्द्र देव के यहाँ शरण ली। अलाउद्दीन ख़िलजी कर्ण की सम्पत्ति एवं उसकी पत्नी कमला देवी को साथ लेकर वापस दिल्ली आ गया। कालान्तर में अलाउद्दीन ख़िलजी ने कमला देवी से विवाह कर उसे अपनी सबसे प्रिय रानी बनाया। युद्ध में विजय के पश्चात् सैनिकों ने सूरत, सोमनाथ और कैम्बे तक आक्रमण किया। जैसलमेर विजय अलाउद्दीन ख़िलजी की सेना के कुछ घोड़े छीन लेने के कारण सुल्तान ख़िलजी ने जैसलमेर के शासक दूदा एवं उसके सहयोगी तिलक सिंह को 1299 ई. में पराजित किया और जेसलमेर की विजय की। रणथम्भौर विजय रणथम्भौर के शासक हम्मीरदेव अपनी योग्यता एवं साहस के लिए प्रसिद्ध थे। अलाउद्दीन के लिए रणथम्भौर को जीतना इसलिए भी आवश्यक था, क्योंकि हम्मीरदेव ने विद्रोही मंगोल नेता मुहम्मद शाह एवं केहब को अपने यहाँ शरण दे रखी थी, इसलिए भी अलाउद्दीन रणथम्भौर को जीतना चाहता था। अतः जुलाई, 1301 ई. में अलाउद्दीन ने रणथम्भौर के क़िले को अपने क़ब्ज़े में कर लिया। हम्मीरदेव वीरगति को प्राप्त हुए। अलाउद्दीन ने रनमल और उसके साथियों का वध करवा दिया, जो हम्मीरदेव से विश्वासघात करके उससे आ मिले थे। ‘तारीख़-ए-अलाई’ एवं ‘हम्मीर महाकाव्य’ में हम्मीरदेव और उनके परिवार के लोगों का जौहर द्वारा मृत्यु प्राप्त होने का वर्णन है। रणथम्भौर युद्ध के दौरान ही नुसरत ख़ाँ की मृत्यु हुई। हम्मीर रासो के अनुसार हम्मीर की रानी रंगदे के नेतृत्व में राजपूत महिलाओ ने जौहर (आग में कूदकर आत्महत्या) किया तथा राजकुमारी देवल दे ने पद्मला तालाब में कूदकर जल जौहर किया था। चित्तौड़ आक्रमण एवं मेवाड़ विजय मेवाड़ के शासक राणा रतन सिंह थे , जिनकी राजधानी चित्तौड़ थी। चित्तौड़ का क़िला सामरिक दृष्टिकोण से बहुत सुरक्षित स्थान पर बना हुआ था। इसलिए यह क़िला अलाउद्दीन की निगाह में चढ़ा हुआ था। कुछ इतिहासकारों ने अमीर खुसरव के रानी शैबा और सुलेमान के प्रेम प्रसंग के उल्लेख आधार पर और 'पद्मावत की कथा' के आधार पर चित्तौड़ पर न के आक्रमण का कारण रानी पद्मिनी के अनुपन सौन्दर्य के प्रति उसके आकर्षण को ठहराया है ।[6][7] अन्ततः 28 जनवरी 1303 ई. को सुल्तान चित्तौड़ के क़िले पर अधिकार करने में सफल हुआ। रावल रतन सिंह युद्ध में शहीद हुये और उनकी पत्नी रानी पद्मिनी ने अन्य स्त्रियों के साथ जौहर कर लिया,ये चर्चा का विषय है। अधिकतर इतिहासकार पद्मिनी को काल्पनिक पात्र मानते हैं। किले पर अधिकार के बाद सुल्तान ने लगभग 30,000 राजपूत वीरों का कत्ल करवा दिया। उसने चित्तौड़ का नाम ख़िज़्र ख़ाँ के नाम पर 'ख़िज़्राबाद' रखा और ख़िज़्र ख़ाँ को सौंप कर दिल्ली वापस आ गया। इसी के साथ मेवाड़ में रावल शाखा का अंत हुआ, कालांतर में दूसरी शाखा सिसोदिया वँश की थी, जिसके शासक "राणा" कहलाते थे चित्तौड़ को पुनः स्वतंत्र कराने का प्रयत्न राजपूतों द्वारा जारी था। इसी बीच अलाउदीन ने ख़िज़्र ख़ाँ को वापस दिल्ली बुलाकर चित्तौड़ दुर्ग की ज़िम्मेदारी राजपूत सरदार मालदेव को सौंप दी। अलाउद्दीन की मृत्यु के पश्चात् गुहिलौत राजवंश के हम्मीरदेव ने मालदेव पर आक्रमण कर 1321 ई. में चित्तौड़ सहित पूरे मेवाड़ को आज़ाद करवा लिया। इस तरह अलाउद्दीन की मृत्यु के बाद चित्तौड़ एक बार फिर पूर्ण स्वतन्त्र हो गया। मालवा विजय मालवा पर शासन करने वाला महलकदेव एवं उसका सेनापति हरनन्द (कोका प्रधान) बहादुर योद्धा थे। 1305 ई. में अलाउद्दीन ने मुल्तान के सूबेदार आईन-उल-मुल्क के नेतृत्व में एक सेना को मालवा पर अधिकार करने के लिए भेजा। दोनों पक्षों के संघर्ष में महलकदेव एवं उसका सेनापति हरनन्द मारा गया। नवम्बर, 1305 में क़िले पर अधिकार के साथ ही उज्जैन, धारानगरी, चंदेरी आदि को जीत कर मालवा समेत दिल्ली सल्तनत में मिला लिया गया। 1308 ई. में अलाउद्दीन ने सिवाना पर अधिकार करने के लिए आक्रमण किया। वहाँ के परमार राजपूत शासक शीतलदेव ने कड़ा संघर्ष किया, परन्तु अन्ततः वह मारा गया। कमालुद्दीन गुर्ग को वहाँ का शासक नियुक्त किया गया। जालौर जालौर के शासक कान्हणदेव ने 1304 ई. में अलाउद्दीन की अधीनता को स्वीकार कर लिया था, पर धीरे-धीरे उसने अपने को पुनः स्वतन्त्र कर लिया। 1311 ई. में कमालुद्दीन गुर्ग के नेतृत्व में सुल्तान की सेना ने कान्हणदेव को युद्ध में पराजित कर उसकी हत्या कर दी। इस प्रकार जालौर पर अधिकार के साथ ही अलाउद्दीन की राजस्थान विजय का कठिन कार्य पूरा हुआ। 1311 ई. तक उत्तर भारत में सिर्फ़ नेपाल, कश्मीर एवं असम ही ऐसे भाग बचे थे, जिन पर अलाउद्दीन अधिकार नहीं कर सका था। उत्तर भारत की विजय के बाद अलाउद्दीन ने दक्षिण भारत की ओर अपना रुख किया। कान्हड्देव प्रबन्ध के अनुसार कान्हड्देव के पुत्र वीरम देव का प्रेम अलाउद्दीन की पुत्री फिरोजा से था जो इस आक्रमण का मुख्य कारण था दक्षिण विजय अलाउद्दीन ख़िलजी के समकालीन दक्षिण भारत में सिर्फ़ तीन महत्त्वपूर्ण शक्तियाँ थीं- देवगिरि के यादव दक्षिण-पूर्व तेलंगाना के काकतीय और द्वारसमुद्र के होयसल अलाउद्दीन द्वारा दक्षिण भारत के राज्यों को जीतने के उद्देश्य के पीछे धन की चाह एवं विजय की लालसा थी। वह इन राज्यों को अपने अधीन कर वार्षिक कर वसूल करना चाहता था। दक्षिण भारत की विजय का मुख्य श्रेय ‘मलिक काफ़ूर’ को ही जाता है। अलाउद्दीन ख़िलजी के शासन काल में दक्षिण में सर्वप्रथम 1303 ई. में तेलंगाना पर आक्रमण किया गया। तेलंगाना के शासक प्रताप रुद्रदेव द्वितीय ने अपनी एक सोने की मूर्ति बनवाकर और उसके गले में सोने की जंजीर डाल कर आत्मसमर्पण हेतु मलिक काफ़ूर के पास भेजा था। इसी अवसर पर प्रताप रुद्रदेव ने मलिक काफ़ूर को संसार प्रसिद्ध कोहिनूर हीरा दिया था। देवगिरि शासक बनने के बाद अलाउद्दीन द्वारा 1296 ई. में देवगिरि के विरुद्ध किये गये अभियान की सफलता पर, वहाँ के शासक रामचन्द्र देव ने प्रति वर्ष एलिचपुर की आय भेजने का वादा किया था, पर रामचन्द्र देव के पुत्र शंकर देव (सिंहन देव) के हस्तक्षेप से वार्षिक कर का भुगतान रोक दिया गया। अतः नाइब मलिक काफ़ूर के नेतृत्व में एक सेना को देवगिरि पर धावा बोलने के लिए भेजा गया। रास्ते में राजा कर्ण को युद्ध में परास्त कर काफ़ूर ने उसकी पुत्री देवल देवी, जो कमला देवी एवं कर्ण की पुत्री थी, को दिल्ली भेज दिया, जहाँ पर उसका विवाह ख़िज़्र ख़ाँ से कर दिया गया। रास्ते भर लूट पाट करता हुआ काफ़ूर देवगिरि पहुँचा और पहुँचते ही उसने देवगिरि पर आक्रमण कर दिया। भयानक लूट-पाट के बाद रामचन्द्र देव ने आत्मसमर्पण कर दिया। काफ़ूर अपार धन-सम्पत्ति, ढेर सारे हाथी एवं राजा रामचन्द्र देव के साथ वापस दिल्ली आया। रामचन्द्र के सुल्तान के समक्ष प्रस्तुत होने पर सुल्तान ने उसके साथ उदारता का व्यवहार करते हुए ‘राय रायान’ की उपाधि प्रदान की। उसे सुल्तान ने गुजरात की नवसारी जागीर एवं एक लाख स्वर्ण टके देकर वापस भेज दिया। कालान्तर में राजा रामचन्द्र देव अलाउद्दीन का मित्र बन गया। जब मलिक काफ़ूर द्वारसमुद्र विजय के लिए जा रहा था, तो रामचन्द्र देव ने उसकी भरपूर सहायता की थी। तेलंगाना तेलंगाना में काकतीय वंश के राजा राज्य करते थे। तत्कालीन तेलंगाना का शासक प्रताप रुद्रदेव था, जिसकी राजधानी वारंगल थी। नवम्बर, 1309 में मलिक काफ़ूर तेलंगाना के लिए रवाना हुआ। रास्ते में रामचन्द्र देव ने काफ़ूर की सहायता की। काफ़ूर ने हीरों की खानों के ज़िले असीरगढ़ (मेरागढ़) के मार्ग से तेलंगाना में प्रवेश किया। 1310 ई. में काफ़ूर अपनी सेना के साथ वारंगल पहुँचा। प्रताप रुद्रदेव ने अपनी सोने की मूर्ति बनवाकर गले में एक सोने की जंजीर डालकर आत्मसमर्पण स्वरूप काफ़ूर के पास भेजा, साथ ही 100 हाथी, 700 घोड़े, अपार धन राशि एवं वार्षिक कर देने के वायदे के साथ अलाउद्दीन ख़िलजी की अधीनता स्वीकार कर ली। होयसल होयसल का शासक वीर बल्लाल तृतीय था। इसकी राजधानी द्वारसमुद्र थी। 1310 ई. में मलिक काफ़ूर ने होयसल के लिए प्रस्थान किया। इस प्रकार 1311 ई. में साधारण युद्ध के पश्चात् बल्लाल देव ने आत्मसमर्पण कर अलाउद्दीन की अधीनता ग्रहण कर ली। उसने माबर के अभियान में काफ़ूर की सहायता भी की। सुल्तान अलाउद्दीन ने बल्लाल देव को ‘ख़िलअत’, ‘एक मुकट’, ‘छत्र’ एवं दस लाख टके की थैली भेंट की। मृत्यु जलोदर रोग से ग्रसित अलाउद्दीन ख़िलजी ने अपना अन्तिम समय अत्यन्त कठिनाईयों में व्यतीत किया और 2 जनवरी 1316 ई. को इसकी जीवन-लीला समाप्त हो गई। सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ (गूगल पुस्तक ; लेखक - सैयद अब्बास रिजब( खिलजी, अलाउद्दीन श्रेणी:चित्र जोड़ें
अलाउद्दीन खिलजी का जन्म कब हुआ था?
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मराठा साम्राज्य या मराठा महासंघ एक भारतीय साम्राज्यवादी शक्ति थी जो 1674 से 1818 तक अस्तित्व में रही। मराठा साम्राज्य की नींव छत्रपती शिवाजी ने १६७४ में डाली। उन्होने कई वर्ष औरंगज़ेब के मुगल साम्राज्य से संघर्ष किया। बाद में आये पेशवाओनें इसे उत्तर भारत तक बढाया, ये साम्राज्य १८१८ तक चला और लगभग पूरे भारत में फैल गया। हस्तियां सातारा वंश छत्रपति शिवाजी (1627-1680) छत्रपति सम्भाजी (1680-1689) छत्रपति राजाराम प्रथम (1689-1700) महाराणी ताराबाई (1700-1707) छत्रपति शाहू (1707-1749) उर्फ शिवाजी द्वितीय, छत्रपति संभाजी का बेटा छत्रपति रामराज (छत्रपति राजाराम और महाराणी ताराबाई का पौत्र) कोल्हापुर वंश महाराणी ताराबाई (1675-1761) शिवाजी द्वितीय (1700–1714) शिवाजी तृतीय (1760–1812) राजाराम प्रथम (1866–1870) शिवाजी पंचम (1870–1883) शहाजी द्वितीय (1883–1922) राजाराम द्वितीय (1922–1940) शाहोजी द्वितीय (1947–1949) पेशवा बालाजी विश्वनाथ (1713 – 1720) बाजीराव प्रथम (1720–1740) बालाजी बाजीराव (1740–1761) माधवराव पेशवा (1761–1772) नारायणराव पेशवा (1772–1773) रघुनाथराव पेशवा (1773–1774) सवाई माधवराव पेशवा (1774–1795) बाजीराव द्वितीय (1796–1818) अमृतराव पेशवा नाना साहिब सन्दर्भ इन्हें भी देखें मराठा साम्राज्य से संबंधित युद्ध होलकर राजवंश सिख साम्राज्य बाहरी कड़ियाँ (भारतकोश) श्रेणी:महाराष्ट्र का इतिहास श्रेणी:मराठा साम्राज्य श्रेणी:भारत के साम्राज्य
मराठा साम्राज्य को किस साल में स्थापित किया गया था?
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ईरान (جمهوری اسلامی ايران, जम्हूरीए इस्लामीए ईरान) जंबुद्वीप (एशिया) के दक्षिण-पश्चिम खंड में स्थित देश है। इसे सन १९३५ तक फारस नाम से भी जाना जाता है। इसकी राजधानी तेहरान है और यह देश उत्तर-पूर्व में तुर्कमेनिस्तान, उत्तर में कैस्पियन सागर और अज़रबैजान, दक्षिण में फारस की खाड़ी, पश्चिम में इराक (कुर्दिस्तान क्षेत्र) और तुर्की, पूर्व में अफ़ग़ानिस्तान तथा पाकिस्तान से घिरा है। यहां का प्रमुख धर्म इस्लाम है तथा यह क्षेत्र शिया बहुल है। प्राचीन काल में यह बड़े साम्राज्यों की भूमि रह चुका है। ईरान को १९७९ में इस्लामिक गणराज्य घोषित किया गया था। यहाँ के प्रमुख शहर तेहरान, इस्फ़हान, तबरेज़, मशहद इत्यादि हैं। राजधानी तेहरान में देश की १५ प्रतिशत जनता वास करती है। ईरान की अर्थव्यवस्था मुख्यतः तेल और प्राकृतिक गैस निर्यात पर निर्भर है। फ़ारसी यहाँ की मुख्य भाषा है। ईरान में फारसी, अजरबैजान, कुर्द (क़ुर्दिस्तान) और लूर सबसे महत्वपूर्ण जातीय समूह हैं नाम ईरान का प्राचीन नाम फ़ारस था। इस नाम की उत्पत्ति के पीछे इसके साम्राज्य का इतिहास शामिल है। बेबीलोन के समय (4000-700 ईसापूर्व) तक पार्स प्रान्त इन साम्राज्यों के अधीन था। जब 550 ईस्वी में कुरोश ने पार्स की सत्ता स्थापित की तो उसके बाद मिस्र से लकर आधुनिक अफ़गानिस्तान तक और बुखारा से फारस की खाड़ी तक ये साम्राज्य फैल गया। इस साम्राज्य के तहत मिस्री, अरब, यूनानी, आर्य (ईरान), यहूदी तथा अन्य कई नस्ल के लोग थे। अगर सबों ने नहीं तो कम से कम यूनानियों ने इन्हें, इनकी राजधानी पार्स के नाम पर, पारसी कहना आरंभ किया। इसी के नाम पर इसे पारसी साम्राज्य कहा जाने लगा। यहाँ का समुदाय प्राचीन काल में हिन्दुओ की तरह सूर्य पूजक था यहाँ हवन भी हुआ करते थे लेकिन सातवीं सदी में जब इस्लाम आया तो अरबों का प्रभुत्व ईरानी क्षेत्र पर हो गया। अरबों की वर्णमाला में (प) उच्चारण नहीं होता है। उन्होंने इसे पारस के बदले फारस कहना चालू किया और भाषा पारसी के बदले फ़ारसी बन गई। यह नाम फ़ारसी भाषा के बोलने वालों के लिए प्रयोग किया जाता था। ईरान (या एरान) शब्द आर्य मूल के लोगों के लिए प्रयुक्त शब्द एर्यनम से आया है, जिसका अर्थ है आर्यों की भूमि। हख़ामनी शासकों के समय भी आर्यम तथा एइरयम शब्दों का प्रयोग हुआ है। ईरानी स्रोतों में यह शब्द सबसे पहले अवेस्ता में मिलता है। अवेस्ता ईरान में आर्यों के आगमन (दूसरी सदी ईसापूर्व) के बाद लिखा गया ग्रंथ माना जाता है। इसमें आर्यों तथा अनार्यों के लिए कई छन्द लिखे हैं और इसकी पंक्तियाँ ऋग्वेद से मेल खाती है। लगभग इसी समय भारत में भी आर्यों का आगमन हुआ था। पार्थियन शासकों ने एरान तथा आर्यन दोनों शब्दों का प्रयोग किया है। बाहरी दुनिया के लिए १९३५ तक नाम फ़ारस था। सन् १९३५ में रज़ाशाह पहलवी के नवीनीकरण कार्यक्रमों के तहत देश का नाम बदलकर फ़ारस से ईरान कर दिया गया थ। भौगोलिक स्थिति और विभाग ईरान को पारंपरिक रूप से मध्यपूर्व का अंग माना जाता है क्योंकि ऐतिहासिक रूप से यह मध्यपूर्व के अन्य देशों से जुड़ा रहा है। यह अरब सागर के उत्तर तथा कैस्पियन सागर के बीच स्थित है और इसका क्षेत्रफल 16,48,000 वर्ग किलोमीटर है जो भारत के कुल क्षेत्रफल का लगभग आधा है। इसकी कुल स्थलसीमा ५४४० किलोमीटर है और यह इराक(१४५८ कि॰मी॰), अर्मेनिया(३५), तुर्की(४९९), अज़रबैजान(४३२), अफग़ानिस्तान(९३६) तथा पाकिस्तान(९०९ कि॰मी॰) के बीच स्थित है। कैस्पियन सागर के इसकी सीमा सगभग ७४० किलोमीटर लम्बी है। क्षेत्रफल की दृष्टि से यह विश्व में १८वें नंबर पर आता है। यहाँ का भूतल मुख्यतः पठारी, पहाड़ी और मरुस्थलीय है। वार्षिक वर्षा २५ सेमी होती है। समुद्र तल से तुलना करने पर ईरान का सबसे निचला स्थान उत्तर में कैस्पियन सागर का तट आता है जो २८ मीटर की उचाई पर स्थित है जबकि कूह-ए-दमवन्द जो कैस्पियन तट से सिर्फ ७० किलोमीटर दक्षिण में है, सबसे ऊँचा शिखर है। इसकी समुद्रतल से ऊँचाई ५,६१० मीटर है। ईरान तीस प्रांतों में बंटा है। इनमें से मुख्य क्षेत्रों का विवरण इस प्रकार है - अर्दाबिल अज़रबाजान खोरासान गोलेस्तान फार्स हमादान इस्फ़हान*करमान क़ुज़ेस्तान तेहरान क़ुर्दिस्तान माज़न्दरान क़ोम यज़्द सिस्तान और बलुचिस्तान इतिहास माना जाता है कि ईरान में पहले पुरापाषाणयुग कालीन लोग रहते थे। यहाँ पर मानव निवास एक लाख साल पुराना हो सकता है। लगभग 5000 ईसापूर्व से खेती आरंभ हो गई थी। मेसोपोटामिया की सभ्यता के स्थल के पूर्व में मानव बस्तियों के होने के प्रमाण मिले हैं। ईरानी लोग (आर्य) लगभग 2000 ईसापूर्व के आसपास उत्तर तथा पूरब की दिशा से आए। इन्होंने यहाँ के लोगों के साथ एक मिश्रित संस्कृति की आधारशिला रखी जिससे ईरान को उसकी पहचान मिली। आधिनुक ईरान इसी संस्कृति पर विकसित हुआ। ये यायावर लोग ईरानी भाषा बोलते थे और धीरे धीरे इन्होंने कृषि करना आरंभ किया। आर्यों का कई शाखाए ईरान (तथा अन्य देशों तथा क्षेत्रों) में आई। इनमें से कुछ मिदि, कुछ पार्थियन, कुछ फारसी, कुछ सोगदी तो कुछ अन्य नामों से जाने गए। मीदी तथा फारसियों का ज़िक्र असीरियाई स्रोतों में 836 ईसापूर्व के आसपास मिलता है। लगभग यही समय ज़रथुश्त्र (ज़रदोश्त या ज़ोरोएस्टर के नाम से भी प्रसिद्ध) का काल माना जाता है। हालांकि कई लोगों तथा ईरानी लोककथाओं के अनुसार ज़रदोश्त बस एक मिथक था कोई वास्तविक आदमी नहीं। पर चाहे जो हो उसी समय के आसपास उसके धर्म का प्रचार उस पूरे प्रदेश में हुआ। असीरिया के शाह ने लगभग 720 ईसापूर्व के आसपास इज़रायल पर अधिपत्य जमा लिया। इसी समय कई यहूदियों को वहाँ से हटा कर मीदि प्रदेशों में लाकर बसाया गया। 530 ईसापूर्व के आसपास बेबीलोन फ़ारसी नियंत्रण में आ गया। उसी समय कई यहूदी वापस इसरायल लौट गए। इस दोरान जो यहूदी मीदी में रहे उनपर जरदोश्त के धर्म का बहुत असर पड़ा और इसके बाद यहूदी धर्म में काफ़ी परिवर्तन आया। हखामनी साम्राज्य इस समय तक फारस मीदि साम्राज्य का अंग और सहायक रहा था। लेकिन ईसापूर्व 549 के आसपास एक फारसी राजकुमार सायरस (आधुनिक फ़ारसी में कुरोश) ने मीदी के राजा के खिलाफ़ विद्रोह कर दिया। उसने मीदी राजा एस्टिएज़ को पदच्युत कर राजधानी एक्बताना (आधुनिक हमादान) पर नियंत्रण कर लिया। उसने फारस में हखामनी वंश की नींव रखी और मीदिया और फ़ारस के रिश्तों को पलट दिया। अब फ़ारस सत्ता का केन्द्र और मीदिया उसका सहायक बन गया। पर कुरोश यहाँ नहीं रुका। उसने लीडिया, एशिया माइनर (तुर्की) के प्रदेशों पर भी अधिकार कर लिया। उसका साम्राज्य तुर्की के पश्चिमी तट (जहाँ पर उसके दुश्मन ग्रीक थे) से लेकर अफ़गानिस्तान तक फैल गया था। उसके पुत्र कम्बोजिया (केम्बैसेस) ने साम्राज्य को मिस्र तक फैला दिया। इसके बाद कई विद्रोह हुए और फिर दारा प्रथम ने सत्ता पर कब्जा कर लिया। उसने धार्मिक सहिष्णुता का मार्ग अपनाया और यहूदियों को जेरुशलम लौटने और अपना मंदिर फ़िर से बनाने की इजाज़त दी। यूनानी इतिहासकार हेरोडोटस के अनुसार दारा ने युवाओं का समर्थन प्राप्त करने की पूरी कोशिश की। उसने सायरस या केम्बैसेस की तरह कोई खास सैनिक सफलता तो अर्जित नहीं की पर उसने ५१२ इसापूर्व के आसपास य़ूरोप में अपना सैन्य अभियान चलाया था। डेरियस के काल में कई सुधार हुए, जैसे उसने शाही सिक्का चलाया और शाहंशाह (राजाओं के राजा) की उपाधि धारण की। उसने अपनी प्रजा पर पारसी संस्कृति थोपने का प्रयास नहीं किया जो उसकी सहिष्णुता को दिखाता है। अपने विशालकाय साम्राज्य की महिमा के लिए दारुश ने पर्सेलोलिस (तख़्त-ए-जमशेद) का भी निर्माण करवाया। उसके बाद पुत्र खशायर्श (क्ज़ेरेक्सेस) शासक बना जिसे उसके ग्रीक अभियानों के लिए जाना जाता है। उसने एथेन्स तथा स्पार्टा के राजा को हराया पर बाद में उसे सलामिस के पास हार का मुँह देखना पड़ा, जिसके बाद उसकी सेना बिखर गई। क्ज़ेरेक्सेस के पुत्र अर्तेक्ज़ेरेक्सेस ने ४६५ ईसा पूर्व में गद्दी सम्हाली। उसके बाद के प्रमुश शासको में अर्तेक्ज़ेरेक्सेस द्वितीय, अर्तेक्ज़ेरेक्सेस तृतीय और उसके बाद दारा तृतीय का नाम आता है। दारा तृतीय के समय तक (३३६ ईसा पूर्व) फ़ारसी सेना काफ़ी संगठित हो गी थी। सिकन्दर इसी समय मेसीडोनिया में सिकन्दर का प्रभाव बढ़ रहा था। ३३४ ईसापूर्व में सिकन्दर ने एशिया माईनर (तुर्की के तटीय प्रदेश) पर धावा बोल दिया। दारा को भूमध्य सागर के तट पर इसुस में हार का मुँह देखना पड़ा। इसके बाद सिकंदर ने तीन बार दारा को हराया। सिकन्दर इसापूर्व ३३० में पर्सेपोलिस (तख़्त-ए-जमशेद) आया और उसके फतह के बाद उसने शहर को जला देने का आदेश दिया। सिकन्दर ने ३२६ इस्वी में भारत पर आक्रमण किया और फिर वो वापस लौट गया। ३२३ इसापूर्व के आसपास, बेबीलोन में उसकी मृत्यु हो गई। उसकी मृत्यु के बाद उसके जीते फारसी साम्राज्य को इसके सेनापतियों ने आपस में विभाजित कर लिया। सिकन्दर के सबसे काबिल सेनापतियों में से एक सेल्युकस का नियंत्रण मेसोपोटामिया तथा इरानी पठारी क्षेत्रों पर था। लेकिन इसी समय से उत्तर पूर्व में पार्थियों का विद्रोह आरंभ हो गया था। पार्थियनों ने हखामनी शासकों की भी नाक में दम कर रखा था। मित्राडेट्स ने ईसापूर्व १२३ से ईसापूर्व ८७ तक अपेक्षाकृत स्थायित्व से शासन किया। अगले कुछ सालों तक शासन की बागडोर तो पार्थियनों के हाथ ही रही पर उनका नेतृत्व और समस्त ईरानी क्षेत्रों पर उनकी पकड़ ढीली ही रही। सासानी पर दूसरी सदी के बाद से सासानी लोग, जो प्राचीन हख़ामनी वंश से अपने को जोड़ते थे और उन्हीं प्रदेश (आज का फ़ार्स प्रंत) से आए थे, की शक्ति में उत्तरोत्तर वृद्धि हुई। उन्होंने रोमन साम्राज्य को चुनौती दी और कई सालों तक उनपर आक्रमण करते रहे। सन् २४१ में शापुर ने रोमनों को मिसिको के युद्ध में हराया। २४४ इस्वी तक आर्मेनिया फारसी नियंत्रण में आ गया। इसके अलावा भी पार्थियनों ने रोमनों को कई जगहों पर परेशान किया। सन् २७३ में शापुर की मृत्यु हो गई। सन् २८३ में रोमनों ने फारसी क्षेत्रों पर फिर से आक्रमण कर दिया। इसके फलस्वरूप आर्मेनिया के दो भाग हो गए - रोमन नियंत्रण वाले और फारसी नियंत्रण वाले। शापुर के पुत्रों को और भी समझौते करने पड़े और कुछ और क्षेत्र रोमनों के नियंत्रण में चले गए। सन् ३१० में शापुर द्वितीय गद्दी पर युवावस्था में बैठा। उसने ३७९ इस्वी तक शासन किया। उसका शासन अपेक्षाकृत शांत रहा। उसने धार्मिक सहिष्णुता की नीति अपनाई। उसके उत्तराधिकारियों ने वही शांति पूर्ण विदेश नीति अपनाई पर उनमें सैन्य सबलता की कमी रही। आर्दशिर द्वितीय, शापुर तृतीय तथा बहराम चतुर्थ सभी संदेहजनक परिस्थितियों में मारे गए। उनके वारिस यज़्देगर्द ने रोमनों के साथ शाति बनाए रखा। उसके शासनकाल में रोमनों के साथ सम्बंध इतने शांतिपूर्ण हो गए कि पूर्वी रोमन साम्राज्य के शासक अर्केडियस ने यज़्देगर्द को अपने बेटे का अभिभावक बना दिया। उसके बाद बहरम पंचम शासक बना जो जंगली जानवरों के शिकार का शौकिन था। वो ४३८ इस्वी के आसपास एक जंगली खेल देखते वक्त लापता हो गया, जिसके बाद उसके बारे में कुछ पता नहीं चल सका। इसके बाद की अराजकता में कावद प्रथम ४८८ इस्वी में शासक बना। इसके बाद खुसरो (५३१-५७९), होरमुज़्द चतुर्थ (५७९-५८९), खुसरो द्वितीय (५९० - ६२७) तथा यज्देगर्द तृतीय का शासन आया। जब यज़्देगर्द ने सत्ता सम्हाली, तब वो केवल ८ साल का था। इसी समय अरब, मुहम्मद साहब के नेतृत्व में काफी शक्तिशाली हो गए थे। सन् ६३४ में उन्होंने ग़ज़ा के निकट बेजेन्टाइनों को एक निर्णायक युद्ध में हरा दिया। फारसी साम्राज्य पर भी उन्होंने आक्रमण किए थे पर वे उतने सफल नहीं रहे थे। सन् ६४१ में उन्होने हमादान के निकट यज़्देगर्द को हरा दिया जिसके बाद वो पूरब की तरफ सहायता याचना के लिए भागा पर उसकी मृत्यु मर्व में सन् ६५१ में उसके ही लोगों द्वारा हुई। इसके बाद अरबों का प्रभुत्व बढ़ता गया। उन्होंने ६५४ में खोरासान पर अधिकार कर लिया और ७०७ इस्वी तक बाल्ख़। शिया इस्लाम मुहम्मद साहब की मृत्यु के उपरांत उनके वारिस को ख़लीफा कहा जाता था, जो इस्लाम का प्रमुख माना जाता था। चौथे खलीफा (सुन्नी समुदाय के अनुसार) हज़रत अली (शिया समुदाय इन्हें पहला इमाम मानता है), मुहम्मद साहब के फरीक थे और उनकी पुत्री फ़ातिमा के पति। पर उनके खिलाफत को चुनौती दी गई और विद्रोह भी हुए। सन् ६६१ में अली की हत्या कर उन्हें शहीद कर दिया गया। इसके बाद उम्मयदों का प्रभुत्व इस्लाम पर हो गया। सन् ६८० में करबला में हजरत अली के दूसरे पुत्र इमाम हुसैन ने उम्मयदों के अधर्म की नीति का समर्थन करने से इनकार कर दिया। उन्होंने बयत नहीं की। जिसे तत्कालीन शासक ने बगावत का नाम देते हुये उनको एक युद्ध में कत्ल कर शहीद कर दिया। इसी दिन की याद में शिया मुसलमान गम में मुहर्रम मनाते हैं। इस समय तक इस्लाम दो खेमे में बट गया था - उम्मयदों का खेमा और अली के खेमा। जो उम्मयदों को इस्लाम के वास्तविक उत्तराधिकारी समझते थे, वे सुन्नी कहलाए और जो अली को वास्तविक खलीफा (वारिस) मानते थे वो शिया। सन् ७४० में उम्मयदों को तुर्कों से मुँह की खानी पड़ी। उसी साल एक फारसी परिवर्तित - अबू मुस्लिम - ने मुहम्मद साहब के वंश के नाम पर उम्मयदों के खिलाफ एक बड़ा जनमानस तैयार किया। उन्होंने सन् ७४९-५० के बीच उम्मयदों को हरा दिया और एक नया खलीफ़ा घोषित किया - अबुल अब्बास। अबुल अब्बास अली और हुसैन का वंशज तो नही पर मुहम्मद साहब के एक और फरीक का वंशज था। उससे अबु मुस्लिम की बढ़ती लोकप्रियता देखी नहीं गई और उसको ७५५ इस्वी में फाँसी पर लटका दिया। इस घटना को शिया इस्लाम में एक महत्वपूर्ण दिन माना जाता है क्योंकि एक बार फिर अली के समर्थकों को हाशिये पर ला खड़ा किया गया था। अबुल अब्बास के वंशजों ने कई सदियों तक राज किया। उसका वंश अब्बासी (अब्बासिद) वंश कहलाया और उन्होंने अपनी राजदानी बगदाद में स्थापित की। तेरहवी सदी में मंगोलों के आक्रमण के बाद बगदाद का पतन हो गया और ईरान में फिर से कुछ सालों के लिए राजनैतिक अराजकता छाई रही। सूफीवाद अब्बासिद काल में ईरान की प्रमुख घटनाओं में से एक थी सूफी आंदोलन का विकास। सूफी वे लोग थे जो धार्मिक कट्टरता के खिलाफ थे और सरल जीवन पसन्द करते थे। इस आंदोलन ने फ़ारसी भाषा में नामचीन कवियों को जन्म दिया। रुदाकी, फिरदौसी, उमर खय्याम, नासिर-ए-खुसरो, रुमी, इराकी, सादी, हफीज आदि उस काल के प्रसिद्ध कवि हुए। इस काल की फारसी कविता को कई जगहों पर विश्व की सबसे बेहतरीन काव्य कहा गया है। इनमें से कई कवि सूफी विचारदारा से ओतप्रोत थे और अब्बासी शासन के अलावा कईयों को मंगोलों का जुल्म भी सहना पड़ा था। पंद्रहवीं सदी में जब मंगोलों की शक्ति क्षीण होने लगी तब ईरान के उत्तर पश्चिम में तुर्क घुड़सवारों से लैश एक सेना का उदय हुआ। इसके मूल के बारे में मतभेद है पर उन्होंने सफावी वंश की स्थापना की। वे शिया बन गए और आने वाली कई सदियों तक उन्होंने इरानी भूभाग और फ़ारस के प्रभुत्व वाले इलाकों पर राज किया। इस समय शिया इस्लाम बहुत फला फूला। १७२० के अफगान और पूर्वी विद्रोहों के बाद धीरे-धीरे साफावियों का पतन हो गया। १७२९ में नादिर कोली ने अफ़गानों के प्रभुत्व को कम किया और शाह बन बैठा। वह एक बहुत बड़ा विजेता था और उसने भारत पर भी सन् १७३९ में आक्रमण किया और भारी मात्रा में धन सम्पदा लूटकर वापस आ गया। भारत से हासिल की गई चीज़ों में कोहिनूर हीरा भी शामिल था। पर उसके बाद क़जार वंश का शासन आया जिसके काल में यूरोपीय प्रभुत्व बढ़ गया। उत्तर से रूस, पश्चिम से फ्रांस तथा पूरब से ब्रिटेन की निगाहें फारस पर पड़ गईं। सन् १९०५-१९११ में यूरोपीय प्रभाव बढ़ जाने और शाह की निष्क्रियता के खिलाफ एक जनान्दोलन हुआ। ईरान के तेल क्षेत्रों को लेकर तनाव बना रहा। प्रथम विश्वयुद्ध में तुर्की के पराजित होने के बाद ईरान को भी उसका फल भुगतना पड़ा। 1930 और 40 के दशक में रज़ा शाह पहलवी ने सुधारों की पहल की। 1979 में इस्लामिक क्रांति हुई और ईरान एक इस्लामिक गणतंत्र घोषित कर दिया गया। इसके बाद अयातोल्ला ख़ुमैनी, जिन्हें शाह ने देश निकाला दे दिया था, ईरान के प्रथम राष्ट्रपति बने। इराक़ के साथ युद्ध होने से देश की स्थिति खराब हो गई। आधुनिकीकरण रजा शाह पहलवी ने 1930 के दशक में इरान का आधुनिकीकरण प्रारंभ किया। पर वो अपने प्रेरणस्रोत तुर्की के कमाल पाशा की तरह सफल नहीं रह सका। उसने शिक्षा के लिए अभूतपूर्व बंदोबस्त किए तथा सेना को सुगठित किया। उसने ईरान की संप्रभुता को बरकरार रखते हुए ब्रिटेन और रूस के संतुलित प्रभावों को बनाए रखने की कोशिख की पर द्वितीय विश्वयुद्ध के ठीक पहले जर्मनी के साथ उसके बढ़ते ताल्लुकात से ब्रिटेन और रूस को गंभीर चिंता हुई। दोनों देशों ने रज़ा पहलवी पर दबाब बनाया और बाद में उसे उपने बेटे मोहम्मद रज़ा के पक्ष में गद्दी छोड़नी पड़ी। मोहम्मद रज़ा के प्रधानमंत्री मोहम्मद मोसद्देक़ को भी इस्तीफ़ा देना पड़ा। ईरानी इस्लामिक क्रांति बीसवीं सदी के ईरान की सबसे महत्वपूर्ण घटना थी ईरान की इस्लामिक क्रांति। शहरों में तेल के पैसों की समृद्धि और गांवों में गरीबी; सत्तर के दशक का सूखा और शाह द्वारा यूरोपीय तथा बाकी देशों के प्रतिनिधियों को दिए गए भोज जिसमें अकूत पैसा खर्च किया गया था ने ईरान की गरीब जनता को शाह के खिलाफ़ भड़काया। इस्लाम में निहित समानता को अपना नारा बनाकर लोगों ने शाह के शासन का विरोध करना आरंभ किया। आधुनिकीकरण के पक्षधर शाह को गरीब लोग पश्चिमी देशों का पिट्ठू के रूप में देखने लगे। 1979 में अभूतपूर्व प्रदर्शन हुए जिसमें हिसंक प्रदर्शनों की संख्या बढ़ती गई। अमेरिकी दूतावास को घेर लिया गया और इसके कर्मचारियों को बंधक बना लिया गया। शाह के समर्थकों तथा संस्थानों में हिसक झड़पें हुईं और इसके फलस्वरूप 1989 में फलस्वरूप पहलवी वंश का पतन हो गया और ईरान एक इस्लामिक गणराज्य बना जिसका शीर्ष नेता एक धार्मिक मौलाना होता था। अयातोल्ला खोमैनी को शीर्ष नेता का पद मिला और ईरान ने इस्लामिक में अपनी स्थिति मजबूत की। उनका देहांत 1989 में हुआ। इसके बाद से ईरान में विदेशी प्रभुत्व लगभग समाप्त हो गया। जनवृत्त ईरान में भिन्न-भिन्न जाति के लोग रहते हैं। यहाँ ७० प्रतिशत जनता हिन्द-आर्य जाति की है और हिन्द ईरानी भाषाएँ बोलती है। जातिगत आँकड़ो को देखें तो ५४ प्रतिशत फारसी, २४ प्रतिशत अज़री, मज़ंदरानी और गरकी ८ प्रतिशत, कुर्द ७ प्रतिशत, अरबी ३ प्रतिशत, बलोची, लूरी और तुर्कमेन २ प्रतिशत (प्रत्येक) तथा कई अन्य जातिय़ाँ शामिल हैं। सात करोड़ की जनसंख्या वाला ईरान विश्व में शरणागतों के सबसे बड़े देशों में से एक है, जहाँ इराक़ तथा अफ़गानिस्तान से कई शरणार्थियों ने अपने देशों में चल रहे युद्धों के कारण शरण ले रखी है। धर्म ईरान का प्राचीन नाम पार्स (फ़ारस) था और पार्स के रहने वाले लोग पारसी कहलाए, जो ज़रथुस्त्र के अनुयायी थे और सूर्य व अग्नि पूजक थे। सातवीं शताब्दी में अरबों ने पार्स पर विजय पाई और वहाँ जबरन इस्लाम का प्रसार हुआ। वहां की जनता को जबर से इस्लाम में मिलाया जा रहा था इसलिए जो पारसी इस्लाम अपना गए वो आगे चलकर शिया मुस्लमान कहलाय व उत्पीड़न से बचने के लिए बहुत से पारसी भारत आ गए। वे अपना मूल धर्म (सूर्य पूजन) नहीं छोड़ना चाहते थे| आज भी दक्षिण एशियाई देश भारत में पारसी मंदिर देखने को मिलते हैं | इस्लाम में ईरान का एक विशेष स्थान है। सातवीं सदी से पहले यहाँ जरथुस्ट्र धर्म के अलावा कई और धर्मों तथा मतों के अनुयायी थे। अरबों द्वारा ईरान विजय (फ़ारस) के बाद यहाँ शिया इस्लाम का उदय हुआ। आज ईरान के अलावा भारत, दक्षिणी इराक, अफ़ग़ानिस्तान, अजरबैजान तथा पाकिस्तान में भी शिया मुस्लिमों की आबादी निवास करती है। लगभग सम्पूर्ण अरब, मिस्र, तुर्की, उत्तरी तथा पश्चिमी इराक, लेबनॉन को छोड़कर लगभग सम्पूर्ण मध्यपूर्व, अफगानिस्तान, पाकिस्तान, उज्बेकिस्तान, ताज़िकिस्तान तुर्केमेनिस्तान तथा भारतोत्तर पूर्वी एशिया के मुसलमान मुख्यतः सुन्नी हैं। अर्थव्यवस्था ईरान की अर्थव्यवस्था तेल और प्राकृतिक गैस से संबंधित उद्योगों तथा कृषि पर आधारित है। सन् 2006 में ईरान के बज़ट का 45 प्रतिशत तेल तथा प्राकृतिक गैस से मिले रकम से आया और 31 प्रतिशत करों और चुंगियों से। ईरान के पास क़रीब 70 अरब अमेरिकी डॉलर रिज़र्व में है और इसकी सालाना सकल घरेलू उत्पाद 206 अरब अमेरिकी डॉलर थी। इसकी वार्षिक विकास दर 6 प्रतिशत है। संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक़ ईरान एक अर्ध-विकसित अर्थव्यवस्था है। सेवाक्षेत्र का योगदान सकल घरेलू उत्पाद में सबसे ज्यादा है। देश के रोज़गार में 1.8 प्रतिशत रोजगार पर्यटन के क्षेत्र में है। वर्ष 2004 में ईरान में 16,59,000 पर्यटक आए थे। ईरान का पर्यटन से होने वाली आय वाले देशों की सूची में 89वाँ स्थान है पर इसका नाम सबसे ज्यादा पर्यटकों की दृष्टि से 10वें स्थान पर आता है। प्राकृतिक गैसों के रिज़र्व (भंडार) की दृष्टि से ईरान विश्व का सबसे बड़ा देश है। तेल उत्पादक देशों के संगठन ओपेक का दूसरा सबसे बड़ा निर्यातक देश है।ईरान (Listeni/ɪˈrɑːn /, भी/ɪˈræn /; [ 10] [11] फ़ारसी: ایران Irān [ʔiːˈɾɒːn] (के बारे में यह ध्वनि सुनो)), भी रूप में फारस [12] (ˈpɜːrʒə /), [13] ईरान के इस्लामी गणराज्य की आधिकारिक तौर पर जाना जाता (फारसी: جمهوری اسلامی ایران Jomhuri-तु Eslāmi-तु Irān (के बारे में यह ध्वनि सुनो)), [14] पश्चिमी एशिया में एक संप्रभु राज्य है। [15] [16] यह पश्चिमोत्तर आर्मेनिया, Artsakh के वास्तविक स्वतंत्र गणराज्य, अज़रबैजान और exclave Nakhchivan के द्वारा bordered है; कैस्पियन सागर से उत्तर करने के लिए; तुर्कमेनिस्तान ने पूर्वोत्तर के लिए; करने के लिए पूर्वी अफगानिस्तान और पाकिस्तान द्वारा; फारस की खाड़ी और ओमान की खाड़ी से दक्षिण करने के लिए; और तुर्की और इराक द्वारा पश्चिम। (मार्च 2017) के रूप में पर 79.92 लाख निवासियों के साथ, ईरान दुनिया के 18-सबसे-अधिक आबादी वाला देश है। [17] 1,648,195 km2 (636,372 वर्ग मील), का एक भूमि क्षेत्र शामिल हैं यह दूसरा सबसे बड़ा देश मध्य पूर्व में और 18 वीं दुनिया में सबसे बड़ा है। यह दोनों एक कैस्पियन सागर और हिंद महासागर तट से केवल देश है। मध्य देश की महान geostrategic महत्व के यूरेशिया और पश्चिमी एशिया, और होर्मुज के लिए अपनी निकटता में स्थान बनाते। [18] तेहरान देश की राजधानी और सबसे बड़ा शहर है, साथ ही इसके प्रमुख आर्थिक और सांस्कृतिक केंद्र है। ईरान है दुनिया की सबसे पुरानी सभ्यताओं, [19] [20] 4 सहस्राब्दी ई. पू. में Elamite राज्यों के गठन के साथ शुरुआत के एक घर। यह पहले ईरानी मीदि साम्राज्य द्वारा 7 वीं सदी ईसा पूर्व में, [21] एकीकृत और हख़ामनी साम्राज्य महान सिंधु घाटी करने के लिए, दुनिया के सबसे बड़े साम्राज्य बनने पूर्वी यूरोप से खींच 6 वीं सदी ई. पू., में अभी तक देखा था साइरस द्वारा की स्थापना के दौरान इसकी सबसे बड़ी सीमा तक पहुँच गया था। [22] ईरानी दायरे के लिए अलेक्जेंडर महान 4 शताब्दी ईसा पूर्व में गिर गया, लेकिन अंतिम ससानी साम्राज्य, जो अगले चार सदियों के लिए एक अग्रणी विश्व शक्ति बन गया के बाद साम्राज्य के रूप में कुछ ही समय बाद reemerged. [23] [24] अरब मुसलमानों साम्राज्य 7 शताब्दी ईसा में, मोटे तौर पर स्वदेशी धर्मों के पारसी धर्म और इस्लाम के साथ मानी थापन पर विजय प्राप्त की। कला और विज्ञान में कई प्रभावशाली आंकड़े उत्पादन ईरान इस्लामी स्वर्ण युग और उसके बाद, करने के लिए प्रमुख योगदान दिया। दो शताब्दियों के बाद, विभिन्न देशी मुस्लिम राजवंशों की अवधि, जो बाद में तुर्कों और मंगोलों द्वारा विजय प्राप्त थे शुरू कर दिया। 15 वीं सदी में Safavids के उदय का एक एकीकृत ईरानी राज्य और जो शिया इस्लाम, ईरानी और मुस्लिम इतिहास में एक मोड़ चिह्नित करने के लिए देश के रूपांतरण के बाद राष्ट्रीय पहचान, [4] के reestablishment करने के लिए नेतृत्व किया। [5] [25] द्वारा 18 वीं सदी, नादिर शाह, के तहत ईरान संक्षेप में क्या यकीनन उस समय सबसे शक्तिशाली साम्राज्य था पास। [26] 19 वीं सदी में रूसी साम्राज्य के साथ विरोध करता महत्वपूर्ण क्षेत्रीय नुकसान के लिए नेतृत्व किया। [27] [28] लोकप्रिय अशांति में संवैधानिक क्रांति 1906, जो एक संवैधानिक राजशाही और देश का पहला विधानमंडल की स्थापना का समापन हुआ। यूनाइटेड किंगडम और संयुक्त राज्य अमेरिका में 1953, ईरान द्वारा धीरे-धीरे उकसाया एक तख्तापलट के बाद पश्चिमी देशों के साथ बारीकी से गठबंधन बन गया, और तेजी से निरंकुश हो गया। [29] विदेशी प्रभाव और राजनीतिक दमन एक धर्म द्वारा 1979 क्रांति, जो संसदीय लोकतंत्र के तत्व भी शामिल है जो एक राजनीतिक प्रणाली संचालित और निगरानी की एक इस्लामी गणराज्य, [30] की स्थापना के बाद के नेतृत्व के खिलाफ असंतोष बढ़ रहा एक निरंकुश 'सर्वोच्च नेता' नियंत्रित होता। [31] के अनुसार अंतरराष्ट्रीय पर्यवेक्षकों, वर्तमान ईरानी सरकार के साथ मानवाधिकार हनन आम दमनकारी है। [32] ईरान संयुक्त राष्ट्र, पर्यावरण, NAM, ओ, और ओपेक के एक संस्थापक सदस्य है। यह एक प्रमुख क्षेत्रीय और मध्य शक्ति, [33] [34] है और जीवाश्म ईंधन, जो दुनिया का सबसे बड़ा प्राकृतिक गैस की आपूर्ति और चौथा सबसे बड़ा तेल सिद्ध शामिल हैं-के अपने बड़े भंडार सुरक्षित रखता है [35] [36]-अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा सुरक्षा और विश्व अर्थव्यवस्था में काफी प्रभाव डालती। देश की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत भाग में अपने 21 यूनेस्को विश्व धरोहर, दुनिया में तीसरी सबसे बड़ी संख्या एशिया में और 11 वीं सबसे बड़ी द्वारा परिलक्षित होता है। [37] ईरान कई जातीय और भाषाई समूहों, सबसे बड़ा होने के नाते फारसियों (61 प्रतिशत), जिसमें एक बहुसांस्कृतिक देश है Azeris (16 %), कुर्द (10 %), और Lurs (6 %). [ 36] सामग्री [छुपाने के] 1 नाम 2 इतिहास 2.1 प्रागितिहास 2.2 शास्त्रीय पुरातनता 2.3 मध्ययुगीन काल 2.4 प्रारंभिक आधुनिक काल 1940 के दशक के लिए 1800 से 2.5 2.6 समकालीन युग 3 भूगोल 3.1 जलवायु 3.2 जीव 3.3 क्षेत्र, प्रांत और शहर 4 सरकार और राजनीति 4.1 नेता 4.2 राष्ट्रपति 4.3 इस्लामी परामर्शक सभा (संसद) 4.4 कानून 4.5 विदेश संबंध 4.6 सेना 5 अर्थव्यवस्था 5.1 पर्यटन 5.2 ऊर्जा 6 शिक्षा, विज्ञान और प्रौद्योगिकी 7 जनसांख्यिकी 7.1 भाषाएँ 7.2 जातीय समूह 7.3 धर्म 8 संस्कृति 8.1 कला 8.2 वास्तुकला 8.3 साहित्य 8.4 दर्शन 8.5 पौराणिक कथाओं 8.6 पालन 8.7 संगीत 8.8 थियेटर 8.9 सिनेमा और एनिमेशन 8.10 मीडिया 8.11 खेल 8.12 भोजन 9 यह भी देखें 10 नोट्स 11 संदर्भ 12 ग्रंथ सूची 13 बाह्य लिंक नाम मुख्य लेख: ईरान का नाम शब्द ईरान निकला यह भी देखिए पारस पह्लव पारद ईरानी चित्रकला पारसी wikt:ईरान (विक्षनरी) बाहरी कड़ियां असग़र वजाहत श्रेणी:इस्लामी गणराज्य श्रेणी:एशिया के देश श्रेणी:ईरान श्रेणी:पश्चिमी एशिया
ईरान की राजधानी क्या है?
तेहरान
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राजस्थान में प्रथम- - *प्रतिभा पाटील (पहली महिला राज्यपाल और फिर भारत की पहली महिला राष्ट्रपति) - *वसुंधरा राजे (पहली महिला मुख्यमंत्री)राजस्थान कि प्रथम महिला राज्य मानवाअधिकार अध्यझ - कान्ता भटनागर - *कमला बेनीवाल (पहली महिला मंत्री और बाद में उप-मुख्यमंत्री/ गुजरात की राज्यपाल | वर्तमान में मिजोरम की राज्यपाल - * डॉ॰गिरिजा व्यास (राष्ट्रीय महिला आयोग की पहली राजस्थानी अध्यक्ष) - *सुमित्रा सिंह (प्रथम महिला विधानसभा अध्यक्ष) - *यशोदा देवी (राजस्थान की पहली महिला विधायक) - *नगेन्द्र बाला(देश की पहली जिला प्रमुख) - *अरुणा राय (मेग्सेसे पुरस्कार विजेता पहली राजस्थानी महिला) - *ओत्तिमा बोर्दिया (राजस्थान की पहली महिला जिला कलेक्टर) - *कुशल सिंह (पहली महिला मुख्य सचिव) - *कांता खतूरिया (राज्य महिला आयोग की पहली अध्यक्ष) श्रेणी:हिन्द की बेटियाँ श्रेणी:राजस्थान के लोग श्रेणी:भारतीय महिलाएँ
राजस्थान की पहली महिला गवर्नर कौन थी?
प्रतिभा पाटील
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हिन्दी के आधुनिक गद्य-साहित्य में सब से महत्वपूर्ण लेखकों में गिने जाने वाले कृष्ण बलदेव वैद[1] ने डायरी लेखन, कहानी और उपन्यास विधाओं के अलावा नाटक और अनुवाद के क्षेत्र में भी अप्रतिम योगदान दिया है। अपनी रचनाओं में उन्होंने सदा नए से नए और मौलिक-भाषाई प्रयोग किये हैं जो पाठक को 'चमत्कृत' करने के अलावा हिन्दी के आधुनिक-लेखन में एक खास शैली के मौलिक-आविष्कार की दृष्टि से विशेष अर्थपूर्ण हैं। जन्म, शिक्षा तथा प्राध्यापन इनका जन्म डिंगा, (पंजाब (पाकिस्तान)) में २७ जुलाई १९२७ को हुआ। इन्होंने पंजाब विश्वविद्यालय से अंग्रेजी में एम.ए. किया और हार्वर्ड विश्वविद्यालय से पी-एच.डी. की उपाधि हासिल की। यह १९५० से १९६६ के बीच हंसराज कॉलेज, दिल्ली और पंजाब विश्वविद्यालय चण्डीगढ़ में अंग्रेज़ी साहित्य के अध्यापक रहे। इन्होंने १९६६ से १९८५ के मध्य न्यूयॉर्क स्टेट युनिवर्सिटी, अमरीका और १९६८-'६९ में ब्रेंडाइज यूनिवर्सिटी में अंग्रेज़ी और अमरीकी-साहित्य का अध्यापन किया।[2][3] १९८५ से १९८८ के मध्य यह भारत भवन, भोपाल में 'निराला सृजनपीठ' के अध्यक्ष रहे। दक्षिण दिल्ली के 'वसंत कुंज' के निवासी वैद लम्बे अरसे से अमरीका में अपनी लेखिका पत्नी चंपा वैद और दो विवाहित बेटियों के साथ रह रहे हैं। रचना-संसार कृष्ण बलदेव वैद अपने दो कालजयी उपन्यासों- उसका बचपन और विमल उर्फ़ जाएँ तो जाएँ कहाँ के लिए सर्वाधिक चर्चित हुए हैं। एक मुलाक़ात में उन्होंने कहा था- "साहित्य में डलनेस को बहुत महत्व दिया जाता है। भारी-भरकम और गंभीरता को महत्व दिया जाता है। आलम यह है कि भीगी-भीगी तान और भिंची-भिंची सी मुस्कान पसंद की जाती है। और यह भी कि हिन्दी में अब भी शिल्प को शक की निगाह से देखा जाता है। बिमल उर्फ जाएँ तो जाएँ कहाँ को अश्लील कहकर खारिज किया गया। मुझ पर विदेशी लेखकों की नकल का आरोप लगाया गया, लेकिन मैं अपनी अवहेलना या किसी बहसबाजी में नहीं पड़ा। अब मैं 82 का हो गया हूँ और बतौर लेखक मैं मानता हूँ कि मेरा कोई नुकसान नहीं कर सका। जैसा लिखना चाहता, वैसा लिखा। जैसे प्रयोग करना चाहे किए।" वैदजी का रचना-संसार बहुत बड़ा है- विपुल और विविध अनुभवों से भरा। इसमें हिन्दी के लिए भाषा और शैली के अनेकानेक नए, अनूठे, निहायत मौलिक और बिलकुल ताज़ा प्रयोग हैं। हमारे समय के एक ज़रूरी और बड़े लेखकों में से एक वैद जी नैतिकता, शील अश्लील और भाषा जैसे प्रश्नों को ले कर केवल अपने चिंतन ही नहीं बल्कि अपने समूचे लेखन में एक ऐसे मूर्तिभंजक रचनाशिल्पी हैं, जो विधाओं की सरहदों को बेहद यत्नपूर्वक तोड़ता है। हिन्दी के हित में यह अराजक तोड़फोड़ नहीं, एक सुव्यवस्थित सोची-समझी पहल है- रचनात्मक आत्म-विश्वास से भरी। अस्वीकृतियों का खतरा उठा कर भी जिन थोड़े से लेखकों ने अपने शिल्प, कथ्य और कहने के अंदाज़ को हर कृति में प्रायः नयेपन से संवारा है वैसों में वैदजी बहुधा अप्रत्याशित ढब-ढंग से अपनी रचनाओं में एक अलग विवादी-स्वर सा नज़र आते हैं। विनोद और विट, उर्दूदां लयात्मकता, अनुप्रासी छटा, तुक, निरर्थकता के भीतर संगति, आधुनिकता- ये सब वैद जी की भाषा में मिलते हैं। निर्भीक प्रयोग-पर्युत्सुकता वैद जी को मनुष्य के भीतर के अंधेरों-उजालों, जीवन-मृत्यु, सुखों-दुखों, आशंकाओं, डर, संशय, अनास्था, ऊब, उकताहट, वासनाओं, सपनों, आशंकाओं; सब के भीतर अंतरंगता झाँकने का अवकाश देती है। मनुष्य की आत्मा के अन्धकार में किसी अनदेखे उजाले की खोज करते वह अपनी राह के अकेले हमसफ़र हैं- अनूठे और मूल्यवान। भाषा का घर हेमंत शेष ने उनकी कथा-यात्रा पर जो सम्पादकीय-टिप्पणी[4] लिखी थी, उसे यहाँ उद्धृत करना प्रासंगिक होगा- "कृष्ण बलदेव वैद हिन्दी के ऐसे आधुनिक रचनाकार हैं, विदेश में प्रवास के लम्बे दौर के बावजूद जिनमें भाषा और लेखकीय-संस्कार के बतौर एक हिन्दुस्तानी का ही मन बचा-बसा रहा है। अपनी हर औपन्यासिक-कृति में वह अगर हर बार मूल्य-दृष्टि की अखंडित भारतीय एकात्मकता के उपरांत भी पहले से भिन्न नज़र आते हैं, तो यह उनके अनुभव और रचनात्मक-सम्पन्नता का ही पुनर्साक्ष्य है जो हमें हर बार नए ढंग से यह बतलाता है कि उसमें अपने समाज और अपने समय- दोनों को हर बार नए ढंग से देखे-पहचाने गए भाषाई रिश्तों में सामने लाने की अटूट प्रतिज्ञा है। आश्चर्य की बात नहीं कि उनकी अधिकाँश रचनाएं पश्चिम के परिवेश लोकेल और मानसिकता को अपनी सर्जनात्मक-प्रेरणा नहीं मानती, जैसा कुछ सुपरिचित हिन्दी कथाकारों ने लगातार किया है। इसके ठीक उलटे, कृष्ण बलदेव वैद, हमारे अपने देश के ठेठ मध्यमवर्गीय-मन को, प्रवास के तथाकथित प्रभावों से जैसे जान बूझ कर बचाते हुए, अपनी उन स्मृतियों, सरोकारों और विडंबनात्मक स्थितियों को ही बारम्बार खंगालते हैं, जो एक बदलते हुए समाज और आधुनिक मनुष्य के भीतर घुमड़ रही हैं। ये स्मृतियाँ हो सकती हैं- उचाट अकेलेपन के अवसाद की, असुरक्षा की भावना से उपजी स्वाभाविक हताशा की, संबंधों की जटिलताओं और उनके खोखलेपन की, विडंबनात्मक स्थितियों जूझते स्त्री-पुरुषों की, उकताहट के बौद्धिक-विश्लेषण की. संक्षेप में कहें तो समूचे मानवीय अस्तित्व का मायना खोजती उसी उतप्त और उग्र प्रश्नाकुलता भाषाई वैयक्तिकता की, जिसकी धधक एक लेखक को भाषा में रचनाशील, जागृत और प्रयोग-पर्युत्सुक बनाये रखती है। लेखक, जिसके साहित्यिक-अन्वेषणों और पर्यवेक्षणों के उजास में हम स्वयं को ऐसे अपूर्वमेय कोणों से देख सकते हैं, जो सिर्फ एक रचना के ज़रिये ही संभव हो सकते हैं। उनका लेखन एक चिर-विस्थापित लेखक की तर्कप्रियता का भाष्य है, अन्यों के लिए असुविधाजनक और रहस्यमय, पर स्वयं लेखक के लिए आत्मीय, जाना-पहचाना, अन्तरंग भाषा का घर. यह कहना पर्याप्त और सच नहीं है कि वैद अपनी कृतियों में महज़ एक हिन्दुस्तानी लेखक हैं, बल्कि उससे ज्यादा वह एक ऐसे विवेकशील आधुनिक लेखक हैं, जो अपनी बौद्धिक-प्रखरता, दृढ़ता और अविचलित मान्यताओं के बल पर हिन्दी साहित्य के परिचित कथा-ढंग को तोड़ते, मरोड़ते और बदलते हैं। उनकी प्रयोगकामिता अजस्र है और प्रचलित के प्रति अरुचि असंदिग्ध. वह अपनी शर्तों पर अभिव्यक्ति के लिए सन्नद्ध एक ऐसे लेखक हैं, जिनके लिए अगर महत्वपूर्ण है तो सिर्फ उस लेखकीय-अस्मिता, सोच और भाषाई वैयक्तिकता की रक्षा, जो उन्हें अपने ढंग के 'फॉर्म' का ऐसा कथाशिल्पी बनाती है-जो आलोचना के किसी सुविधाजनक-खांचे में नहीं अंटता. उनका सारा लेखन सरलीकृत व्याख्याओं लोकप्रिय-समीक्षा ढंग के लिए जैसे एक चुनौती है। उनके जैसे अपने समय के लेखन की पहचान और पुनर्मूल्यांकन ज़रूरी है। केवल इसलिए नहीं कि ऐसे रचनाकारों पर अपेक्षाकृत कम लिखा गया है और अपेक्षाकृत कम सारगर्भित भी, पर इसलिए भी कि एक गहरी नैतिक ज़िम्मेदारी उस संस्कृति-समाज की भी है ही जिसके बीच रह कर कृष्ण बलदेव वैद जैसे लेखक चुपचाप ढंग से उसे लगातार संपन्न और समृद्ध बनाते आ रहे हैं। इनके कथा-संग्रह 'बदचल बीवियों का द्वीप' पर हेमंत शेष की भूमिका के लिए देखें- कवि और एक ई-पत्रिका जानकी पुल के संपादक प्रभात रंजन ने वैद पर जो टिप्पणी लिखी थी, वह कुछ यों थी-" कृष्ण बलदेव वैद का कथा आलोक लगभग ८५ साल की उम्र में हिंदी के प्रख्यात कथाकार-उपन्यासकार कृष्ण बलदेव वैद की कहानियों की दो सुन्दर किताबों का एक साथ आना सुखद कहा जा सकता है। सुखद इसलिए भी क्योंकि इनमें से एक ‘खाली किताब का जादू’ उनकी नई कहानियों का संकलन है। दूसरा संकलन है ‘प्रवास गंगा’, जिसे उनकी प्रतिनिधि कहानियों का संचयन भी कहा जा सकता है, वैसे पूरी तरह से नहीं. पेंगुइन-यात्रा प्रकाशन से प्रकाशित इन किताबों ने एक बार फिर कृष्ण बलदेव वैद के लेखन की ओर ध्यान खींचा है। कृष्ण बलदेव वैद की हिंदी कथा-साहित्य में अपनी अलग लीक रही है, इसिलिए अपना अलग मकाम भी रहा है। जिन दिनों हिंदी साहित्य में बाह्य-यथार्थ के अंकन को कथा-उपन्यास में ‘हिट’ होने का सबसे बड़ा फॉर्मूला माना जाता रहा उन्हीं दिनों उन्होंने ‘उसका बचपन’ जैसा उपन्यास लिखा, जिसने निस्संदेह उनके लेखन को एक अलग ही पहचान दी. अपने लेखन के माध्यम से उन्होंने एक तरह से हिंदी कहानी की मुख्यधारा कही जानेवाली यथार्थवादी कहानियों का प्रतिपक्ष तैयार किया जिसमें स्थूलता नहीं सूक्ष्मता पर बल है। कहानियां उनके लिए मन की दुनिया में गहरे उतरने का माध्यम है, अस्तित्व से जुड़े सवालों से जूझने का, उनको समझने का. नितांत सार्वजनिक होते कथाजगत में उनकी कहानियों ने निजता के उस स्पेस का निर्माण किया, जो हिंदी में एक अलग प्रवृत्ति की तरह से पहचानी गई। आज भी पहचानी जाती हैं। उनकी नई कहानियों के संग्रह ‘खाली किताब का जादू’ की बात करें तो उसमें भी उनकी वही लीक पहचानी जा सकती है, जिसमें चेतन के नहीं अवचेतन के वर्णन हैं, उनकी कहानियों में कोई सुनियोजित कथात्मकता नहीं दिखाई देती, बल्कि जहाँ कथात्मकता आती है तो वह पैरोडी का शक्ल ले लेती है। ‘प्रवास गंगा’ में संकलित उनकी कहानी ‘कलिंगसेना और सोमप्रभा की विचित्र मित्रता’ का इस सन्दर्भ में उल्लेख किया जा सकता है, जो अपने आप में ‘कथासरित्सागर’ की एक कथा का पुनर्लेखन है। पुनर्लेखन के क्रम में उसमें जो कॉमिक का पुट आता है, वह उसमें समकालीनता का बोध पैदा करता है। इसमें लेखन ने एक ओर उस कथा-परंपरा की पैरोडी बनाई है जिसका एक तरह से उन्होंने अपने लेखन में निषेध किया और दूसरी ओर पुनर्लेखन होने से मौलिक होने का आधुनिकतावादी अहम भी टूट जाता है। कुछ भी मौलिक नहीं होता. बोर्खेज़ ने लिखा है कि दुनिया बनाने वाले ने जिस दिन दुनिया बनाई थी उसी दिन एक कहानी लिख दी थी, हर दौर के लेखक उसी कहानी को दुहराता रहता है। कोई भी कहानी मौलिक नहीं होती, जो भी है वह मूल की प्रतिलिपि है। ‘खाली किताब का जादू’ में कुल नौ कहानियां है और उनमें कथानक को लेकर, कथा-शिल्प को लेकर उनकी वही प्रयोगशीलता मुखर दिखाई देती है जिसे उनके लेखन की पहचान के तौर पर देखा जाता है। वे कथा के नहीं कथाविहीनता के लेखक हैं, घटनाओं के नहीं घटनाविहीनता के लेखक हैं। जिसे हिंदी कहानी की मुख्यधारा कहा जाता है उसका स्पष्ट निषेध उनकी कहानियों में दिखाई देता है, उस सामजिक यथार्थवाद का उन्होंने अपने लेखन के माध्यम से लगातार निषेध किया है, लेकिन ऐसा नहीं है कि उनके लेखन में सामाजिकता नहीं है। बस उनके बने-बनाये सांचे नहीं हैं, जीवन की विशिष्टता है। वे सामान्य के लेखक नहीं हैं, जीवन की अद्वितीयता के लेखक हैं। उनमें विचारधारा के उजाले नहीं, जीवन के गहरे अँधेरे हैं। संग्रह में एक कहानी है ‘अँधेरे में (अ) दृश्य’, जो एकालाप की शैली में है। प्रसंगवश, एकालाप की यह नाटकीयता उनके लेखन की विशेषता है। कहानी भी वास्तव में जीवन-जगत पर गहरे चिंतन से ही उपजता है, लेखक इसलिए कहानी नहीं लिखता कि उसे किसी के बारे में लिखना होता है, वह इसलिए लिखता है क्योंकि उसे कुछ लिखना होता है, कहानी अपने आपमें एक ‘स्टेटमेंट’ की तरह होती है। वैद साहब बहुत सजग लेखक हैं। वे अपनी लीक पर टिके रहने वाले लेखक हैं, चाहे अकेले पड़ जाने का खतरा क्यों न हो. इसीलिए ज़ल्दी उनका कोई सानी नहीं दिखाई देता है। लेखक कहानी के माध्यम से अपने समय-अपने समाज के मसलों पर राय भी प्रकट करता दिखाई देता है। उदाहरण के लिए, ‘खाली किताब का जादू’ संग्रह में एक कहानी है ‘हिंदी-उर्दू संवाद’, जिसमें हिंदी-उर्दू को दो ऐसे हमजाद के रूप में दिखाया गया है जिनके मकां हरचंद पास-पास रहे लेकिन जिनको हमेशा प्रतिद्वंद्वियों की तरह से देखा-समझा गया है। जिनको हमेशा दो अलग-अलग समाजों, अलग-अलग मजहबों की भाषा के बतौर देखा गया है। लेकिन लेखक ऐसा नहीं मानता है। कहानी में सार रूप में पंक्ति आती है, ‘अगर ये दोनों ज़ुबानें खुले दिल और दिमाग से आपस में मिलना-जुलना और रसना-बसना शुरु कर दें तो बहुत कुछ मुमकिन है।’ यह कहानी विधा का एक तरह से विस्तार है, उसको विमर्श के करीब देखने की एक कोशिश है। लेखक को इससे मतलब नहीं है कि वह विफल रहा या सफल. बल्कि वह तो विफलता को भी एक मूल्य की तरह से देखने का आग्रह करता है। संग्रह में एक कहानी ‘विफलदास का लकवा’ है, जिसे इस सन्दर्भ में देखा-समझा जा सकता है। कुल मिलाकर, कृष्ण बलदेव वैद के इस नए कहानी-संग्रह की कहानियों से गुजरना अपने आप में हिंदी कहानी की दूसरी परम्परा से गुजरना है जिसमें हिंदी कहानियों का एक ऐसा परिदृश्य दिखाई देता है जो हमें हमें पठनीयता, किस्सागोई आदि के बरक्स एक ऐसे लेखन से रूबरू करवाता है जिसे प्रचलित मुहावरे में कहानी नहीं कहा जा सकता, लेकिन शायद यही लेखक का उद्देश्य भी लगता है कि प्रचलित के बरक्स एक ऐसे कथा-मुहावरे को प्रस्तुत किया जा सके जिसमें गहरी बौद्धिकता भी हो और लोकप्रियता का निषेध भी. कृष्ण बलदेव वैद की इन कहानियों को पढते हुए इस बात को नहीं भूला जा सकता है कि हिंदी कहानियों में विविधता है, उसकी शैली को किसी एक रूप में रुढ नहीं किया जा सकता, कम से कम जब तक कृष्ण बलदेव वैद जैसे लेखक परिदृश्य पर हैं।[5] प्रमुख प्रकाशित कृतियाँ उपन्यास उसका बचपन बिमल उर्फ जाएँ तो जाएँ कहाँ नसरीन दूसरा न कोई दर्द ला दवा गुज़रा हुआ ज़माना काला कोलाज नर-नारी मायालोक एक नौकरानी की डायरी कहानी संग्रह बीच का दरवाज़ा मेरा दुश्मन दूसरे किनारे से लापता आलाप लीला वह और मैं उसके बयान चर्चित कहानियाँ पिता की परछाइयाँ बदचलन बीवियों का द्वीप खाली किताब का जादू रात की सैर (दो खण्डों में) बोधित्सव की बीवी खामोशी प्रतिनिधि कहानियां मेरी प्रिय कहानियां दस प्रतिनिधि कहानियां शाम हर रंग में प्रवास-गंगा अंत का उजाला सम्पूर्ण कहानियां नाटक भूख आग है हमारी बुढ़िया सवाल और स्वप्न परिवार-अखाड़ा कहते हैं जिसको प्यार मोनालिज़ा की मुस्कान निबंध शिकस्त की आवाज़ संचयन संशय के साए अनुवाद हिन्दी में गॉडो के इन्तज़ार में (बेकिट) आखिरी खेल (बेकिट) फ्रेडा (रासीन) एलिस: अजूबों की दुनिया में (लुई कैरल) अंग्रेज़ी में टेक्नीक इन दी टेल्स ऑफ़ हेनरी जेम्स स्टैप्स इन डार्कनेस विमल इन बौग डाइंग एलोन दी ब्रोकन मिरर साइलेंस इन दी डार्क द स्कल्प्टर इन एग्ज़ाइल डायरी ख्याब है दीवाने का जब आँख खुल गयी डुबाया मुझ को होने ने भारतीय ज्ञानपीठ इनकी अनेक कृतियों के अनुवाद अन्य भारतीय भाषाओं- पंजाबी, उर्दू, तमिल, मलयाली, गुजराती, मराठी, तेलुगू, बंगला और अंग्रेज़ी के अतिरिक्त कुछ विदेशी भाषाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। इनके विशिष्ट कृतित्व के सम्बन्ध में पूर्वग्रह, कला-प्रयोजन जैसी कुछ साहित्यिक पत्रिकाओं ने समालोचनात्मक-मूल्यांकन को ले कर विशेषांक भी केन्द्रित किये हैं| शमाँ हर रंग में [शम अ हर रंग में] अन्य सोबती-वैद संवाद पुरस्कार और सम्मान छत्तीसगढ़ राज्य का पंडित सुंदरलाल शर्मा सम्मान २००२ हिंदी अकादमी दिल्‍ली का शलाका सम्मान (विवादग्रस्त) पठनीय वैद साहब की कुछ छोटी कहानियां: रंग-कोलाज: आलेख अंग्रेज़ी-आलेख दिल्ली संस्मरण अंग्रेज़ी निबंध सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ श्रेणी:व्यक्तिगत जीवन श्रेणी:साहित्य श्रेणी:हिन्दी साहित्य श्रेणी:लेखक श्रेणी:हिन्दी गद्यकार श्रेणी:हिन्दी नाटककार श्रेणी : भारतीय लेखक श्रेणी:जीवित लोग श्रेणी:हिन्दी विकि डीवीडी परियोजना श्रेणी:1937 में जन्मे लोग
कृष्ण बलदेव वैद ने किस विश्वविद्यालय से पी-एच.डी. की उपाधि हासिल की थी?
हार्वर्ड विश्वविद्यालय
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मेरठ भारत के उत्तर प्रदेश राज्य का एक शहर है। यहाँ नगर निगम कार्यरत है। यह प्राचीन नगर दिल्ली से ७२ कि॰मी॰ (४४ मील) उत्तर पूर्व में स्थित है। मेरठ राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (ऍन.सी.आर) का हिस्सा है। यहाँ भारतीय सेना की एक छावनी भी है। यह उत्तर प्रदेश के सबसे तेजी से विकसित और शिक्षित होते जिलों में से एक है। मेरठ जिले में 12 ब्लॉक,34 जिला पंचायत सदस्य,80 नगर निगम पार्षद है। मेरठ जिले में 4 लोक सभा क्षेत्र सम्मिलित हैं, सरधना विधानसभा, मुजफ्फरनगर लोकसभा में हस्तिनापुर विधानसभा, बिजनौर लोकसभा में,सिवाल खास बागपत लोकसभा क्षेत्र में और मेरठ कैंट,मेरठ दक्षिण,मेरठ शहर,किठौर मेरठ लोकसभा क्षेत्र में है इतिहास सन् १९५० में यहाँ से २३ मील उत्तर-पूर्व में स्थित एक स्थल विदुर का टीला की पुरातात्विक खुदाई से ज्ञात हुआ, कि यह शहर प्राचीन नगर हस्तिनापुर का अवशेष है, जो महाभारत काल मे कौरव राज्य की राजधानी थी।[1], यह बहुत पहले गंगा नदी की बाढ़ में बह गयी थी।[2] एक अन्य किवंदती के अनुसार रावण के श्वसुर मय दानव के नाम पर यहाँ का नाम मयराष्ट्र पड़ा, जैसा की रामायण में वर्णित है।[3]. मेरठ मौर्य सम्राट अशोक के काल में (273 ईसा पूर्व से 232 ईसा पूर्व) बौद्ध धर्म का केन्द्र रहा, जिसके निर्माणों के अवशेष जामा मस्जि़द के निकट वर्तमान में मिले हैं। [4] दिल्ली के बाड़ा हिन्दू राव अस्पताल, दिल्ली विश्वविद्यालय के निकट अशोक स्तंभ, फिरोज़ शाह तुगलक (1351 – 1388) द्वारा दिल्ली लाया गया था। [2][5], बाद में यह 1713 में, एक बम धमाके में ध्वंस हो गया, एवं 1867 में जीर्णोद्धार किया गया।[6][7]. बाद में मुगल सम्राट अकबर के काल में, (1556-1605), यहाँ तांबे के सिक्कों की टकसाल थी।[4]. ग्यारहवीं शताब्दी में, जिले का दक्षिण-पश्चिमी भाग, बुलंदशहर के दोर –राजा हर दत्त द्वारा शासित था, जिसने एक क़िला बनवाया, जिसका आइन-ए-अकबरी में उल्लेख भी है, तथा वह अपनी शक्ति हेतू प्रसिद्ध रहा।[8] बाद में वह महमूद गज़नवी द्वारा 1018 में पराजित हुआ। हालाँकि शहर पर पहला बड़ा आक्रमण मोहम्मद ग़ौरी द्वारा 1192 में हुआ,[2] किन्तु इस शहर का इससे बुरा भाग्य अभी आगे खड़ा था, जब तैमूर लंग ने 1398 में आक्रमण किया, उसे राजपूतों ने कड़ी टक्कर दी। यह लोनी के किले पर हुआ, जहाँ उन्होंने दिल्ली के सुल्तान मुहम्मद बिन तुग़लक़ से भी युद्ध किया। परंतु अन्ततः वे सब हार गये, यह तैमूर लंग के अपने उल्लेख तुज़ुक-ए-तैमूरी में मिलता है।[9]. उसके बाद, वह दिल्ली पर आक्रमण करने आगे बढ़ गया, व वापस मेरठ पर हमला बोला, जहाँ तब एक अफ़गान मुख्य का शासन था। उसने नगर पर दो दिनों में कब्ज़ा किया, जिसमें विस्तृत विनाश सम्मिलित था और फिर वह आगे उत्तर की ओर बढ़ गया।[10] प्रसिद्ध नारा दिल्ली चलो पहली बार यहीं से दिया गया था। मेरठ छावनी ही वह स्थान है, जहां हिन्दू और मुस्लिम सैनिकों को बन्दूकें दी गयीं, जिनमें जानवरों की खाल से बनी गोलियां डालनी पड़तीं थीं, जिन्हें मुंह से खोलना पड़ता था। इससे हिन्दुओं व मुसलमानों की धार्मिक भावनाएं आहत हुई, क्योंकि वह जानवर की चर्बी गाय व सूअर की थी। गाय हिन्दुओं के लिये पवित्र है और सूअर मुसलमानों के लिये अछूत है। मेरठ को अन्तर्राष्ट्रीय प्रसिद्धि 1857 के विद्रोह से प्राप्त हुई। २४ अप्रैल,१८५७ को; तृतीय अश्वारोही सेना की 90 में से 85 टुकड़ियों ने गोलियों को छूने तक से मना कर दिया। कोर्ट-मार्शल के बाद उन्हें दस वर्ष का कारावस मिला। इसके विद्रोह में ही, ब्रिटिश राज से मुक्ति पाने की पहली चिंगारी भड़क उठी, जिसे शहरी जनता का पूरा समर्थन मिला। मेरठ में ही मेरठ षड्यंत्र मामला, मार्च १९२९ में हुआ। इसमें कई व्यापार संघों को तीन अंग्रेज़ों समेत गिरफ्तार किया गया, जो भारतीय रेलवे की हड़ताल कराने वाले थे। इस पर इंग्लैंड का सीधा ध्यान गया, जिसे वहां के मैन्चेस्ट्र स्ट्रीट थियेट्स्र ग्रुप ने अपने “रड मैगाफोन” नाम के नाटक में दिखाया, जिसमें कोलोनाइज़ेशन व औद्योगिकरण के हानिकारक प्रभाव दिखाये गये थे।&lt;/ref&gt; पौराणिक महत्व महाभारत में वर्णित लाक्षागृह, जो पांडवों को जीवित जलाने हेतु दुर्योधन ने तैयार करवाया था, यहीं पास में वार्णावत (वर्तमान बरनावा) में स्थित था। यह मेरठ-बड़ौत मार्ग पर पड़ता है। रामायण में वर्णित श्रवण कुमार ने अपने बूढ़े माता पिता को तीर्थ यात्रा कराने ले जा रहा था। वे दोनों एक कांवड़ पर बैठे थे। यहीं आकर, श्रवण कुमार ने प्यास के मारे, उन्हें जमीन पर रखा, व बर्तन लेकर सरोवर से जल लेने गया। उसके बर्तन की पाने में आवाज को सुनकर, आखेट हेतु निकले महाराजा दशरथ ने उसे जानवर समझ कर तीर चला दिया, जिससे वह मृत्यु को प्राप्त हुआ। उसके दुःख में ही उसके माता पिता तड़प तड़प कर मर गये, व मरते हुए, उन्होंने दशरथ को शाप दिया, कि जिस प्रकार हम अपने पुत्र वियोग में मर रहे हैं, उसी प्रकार तुम भी अपने पुत्र के वियोग में मरोगे। और वैसा ही हुआ भी मेरठ को दैत्यराज रावण की ससुराल भी माना जाता है। भूगोल मेरठ की भौगोलिक स्थिति 28.98° उत्तर एवं 77.7° पूर्व है।[11] यहां की औसत ऊंचाई 219मीटर (718फीट) है। निकटवर्ती शहर हैं: राजधानी दिल्ली, रुड़की, देहरादून,सहारनपुर, अलीगढ़, नौयडा, गाजियाबाद हापुड़ इत्यादि। जनसांख्यिकी मेरठ शहर ही मेरठ जिले का मुख्यालय है, जिसमें 1,025 गाँव भी सम्मिलित हैं। 2011 की राष्ट्रीय जनगणना के अनुसार मेरठ शहरी क्षेत्र (जिसमें नगर निगम एवं छावनी परिषद के अंतर्गत आते क्षेत्र सम्मिलित हैं) की जनसंख्या लगभग 14 लाख है,[12] जिसमें से लगभग 13 लाख 10 हज़ार नगर निगम के क्षेत्र में है।[13] इस हिसाब से जनसंख्या अनुसार मेरठ शहरी क्षेत्र भारत के शहरी क्षेत्रों में 33वे स्थान पर है और भारत के शहरों में 26वे स्थान पर है। मेरठ में लिंग अनुपात 888 है, राज्य औसत 908 से कम; बाल लिंग अनुपात 847 है, राज्य औसत 899 से कम। 12.41% जनसंख्या 6 साल की उम्र से छोटी है। साक्षरता दर 78.29% है, राज्य औसत 69.72% से अधिक।[12][14] 2012 अनुसार मेरठ में अपराध दर (भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत कुल संज्ञेय अपराध प्रति लाख जनसंख्या) 309.1 है, राज्य औसत 96.4 और राष्ट्रीय औसत 196.7 से अधिक। 2001 की राष्ट्रीय जनगणना अनुसार शहर राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में जनसंख्या अनुसार दूसरे स्थान पर है[15] और राष्ट्र में 25वे स्थान पर।[16] मेरठ में भारत के मुख्य शहरों में, सर्वाधिक मुस्लिम जनसंख्या है, जो 34.43 के लगभग है।[21] यहां की ईसाई संख्या भी ठीक ठाक है। मेरठ 1987 के सांप्रदायिक दंगों की स्थली भी रहा था। आवागमन वायु मार्ग पंतनगर विमानक्षेत्र या इंदिरा गाँधी अन्तर्राष्ट्रीय विमानक्षेत्र मेरठ के निकटतम एयरपोर्ट है। पंतनगर का एयरपोर्ट मेरठ से 62 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। रेल मार्ग मेरठ में दो प्रमुख रेलवे स्टेशन हैं,मेरठ छावनी व मेरठ जंक्शन। मेरठ देश के प्रमुख शहरों से अनेक ट्रेनों के माध्यम से जुड़ा हुआ है। दिल्ली, जम्मू, अंबाला, सहारनपुर आदि स्थानों से आसानी से मेरठ पहुंचा जा सकता है। सड़क मार्ग मेरठ उत्तर प्रदेश और आसपास के राज्यों के अनेक शहरों से सड़क मार्ग द्वारा जुड़ा हुआ है। राज्य परिवहन निगम की बसें अनेक शहरों से मेरठ के लिए नियमित रूप से चलती हैं। उद्योग मेरठ का सर्राफा एशिया का नंबर एक का व्यवसाय बाजार है।.. सोने के बारे में कहें तो मेरठ शहर कई तरह के उद्योगों के लिये प्रसिद्ध है। मेरठ में निर्माण व्यवसाय में खूब तेजी आयी है, जैसा कि दिखता है- शहर में कई ऊंची इमारतें , शॉपिंग परिसर एवं अपार्टमेन्ट्स हैं। मेरठ भारत के शहरों में क्रीड़ा सामग्री के सर्वोच्च निर्माताओं में से एक है। साथ ही वाद्य यंत्रों के निर्माण में भी यह उच्च स्थान पर है। मेरठ में यू.पी.एस.आइ.डी.सी के दो औद्योगिक क्षेत्र हैं, एक परतापुर में एवं एक उद्योग पुरम में।[22][23] मेरठ में कुछ प्रसिद्ध फार्मास्यूटिकल कंपनियाँ भी हैं, जैसे पर्क फार्मास्यूटिकल्स लिमिटेड, मैनकाईंड फार्मा एवं बैस्टोकैम। आयकर विभाग द्वारा संकलित आंकड़ों के अनुसार, मेरठ ने वर्ष २००७-०८ में ही १०,०८९ करोड़ रुपये, राष्ट्रीय कोष में दिये हैं, जो लखनऊ, जयपुर, भोपाल, कोच्चि एवं भुवनेश्वर से कहीं अधिक हैं।[24] मीडिया मेरठ एक महत्वपूर्ण मास मीडिया केन्द्र बनता जा रहा है। देश के विभिन्न क्षेत्रों से पत्रकार एवं अन्य मीडियाकर्मी यहां कार्यरत हैं। हाल ही में, कई समाचार चैनलों ने अपराध पर केन्द्रित कार्यक्रम दिखाने आरंभ किये हैं। चूँकि मीडिया केन्द्र मेरठ में स्थित हैं, तो शहर को राष्ट्रीय स्तर पर अच्छा प्रचार मिल रहा है। हाल के वर्षों में नगर में कानून व्यवस्था की स्थिति काफी सुधरी है। इसमें मीडिया का बहुत बड़ा हाथ है। मेरठ वेब मीडिया का भी मुख्य केंद्र बनता जा रहा है मेरठ मे एक्सएन व्यू न्यूज, और कई अन्य वेब मीडिया चैनल मौजूद है। शिक्षा नगर में कुल चार विश्वविद्यालय हैं, चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय, सरदार वल्लभ भाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय, शोभित विश्वविद्यालय एवं स्वामी विवेकानंद सुभारती विश्वविद्यालय। इसके अलावा नगर में कई अन्य महाविद्यालय एवं विद्यालय हैं। नौचंदी मेला यहां का ऐतिहासिक नौचंदी मेला हिन्दू – मुस्लिम एकता का प्रतीक है। हजरत बाले मियां की दरगाह एवं नवचण्डी देवी (नौचन्दी देवी) का मंदिर एक दूसरे के निकट ही स्थित हैं। मेले के दौरान मंदिर के घण्टों के साथ अज़ान की आवाज़ एक सांप्रदायिक आध्यात्म की प्रतिध्वनि देती है। यह मेला चैत्र मास के नवरात्रि त्यौहार से एक सप्ताह पहले से लग जाता है। होली के लगभग एक सप्ताह बाद और एक माह तक चलता है। पर्यटन स्थल '''पांडव किला'''- यह किला मेरठ के (बरनावा) में स्थित है। महाभारत से संबंध रखने वाले इस किले में अनेक प्राचीन मूर्तियां देखी जा सकती हैं। कहा जाता है कि यह किला पांडवों ने बनवाया था। दुर्योधन ने पांडवों को उनकी मां सहित यहां जीवित जलाने का षडयंत्र रचा था, किन्तु वे एक भूमिगत मार्ग से बच निकले थे। शहीद स्मारक - शहीद स्मारक उन बहादुरों को समर्पित है, जिन्होंने 1857 में देश के लिए "प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम" में अपने प्राणों की आहुति दे दी। संग-ए-मरमर से बना यह स्मारक लगभग 30 मीटर ऊंचा है। 1857 का भारतीय विद्रोह मेरठ छावनी स्थिति काली पलटन मंदिर, जिसे वर्तमान में औघडनाथ मंदिर के नाम से भी जाना जाता है, से आरंभ हुआ था, जिसे प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम, सिपाही विद्रोह और भारतीय विद्रोह के नाम से भी जाना जाता है ब्रितानी शासन के विरुद्ध एक सशस्त्र विद्रोह था। यह विद्रोह दो वर्षों तक भारत के विभिन्न क्षेत्रों में चला। इस विद्रोह का आरंभ छावनी क्षेत्रों में छोटी झड़पों तथा आगजनी से हुआ था परन्तु जनवरी मास तक इसने एक बड़ा रूप ले लिया। विद्रोह का अन्त भारत में ईस्ट इंडिया कम्पनी के शासन की समाप्ति के साथ हुआ और पूरे भारतीय साम्राज्य पर ब्रितानी ताज का प्रत्यक्ष शासन आरंभ हो गया जो अगले ९० वर्षों तक चला। शाहपीर मकबरा - यह मकबरा मुगलकालीन है। यह मेरठ के ओल्ड शाहपीर गेट के निकट स्थित है। शाहपीर मकबरे के निकट ही लोकप्रिय सूरज कुंड स्थित है। हस्तिनापुर तीर्थ - हस्तिनापुर तीर्थ जैनियों के लिए एक पवित्र स्थान माना जाता है। यहां का मंदिर जैन तीर्थंकर शांतिनाथ को समर्पित है। ऐतिहासिक दृष्टि से जैनियों के लिए इस स्थान का विशेष महत्व है क्योंकि जैनियों के तीसरे तीर्थंकर आदिनाथ ने यहां 400 दिन का उपवास रखा था। इस मंदिर का संचालन श्री हस्तिनापुर जैन श्वेतांबर तीर्थ समिति द्वारा किया जाता है। जैन श्वेतांबर मंदिर - मेरठ जिले के हस्तिनापुर में स्थित जैन श्वेतांबर मंदिर तीर्थंकर विमल नाथ को समर्पित है। एक ऊंचे चबूतरे पर उनकी आकर्षक प्रतिमा स्थापित है। मंदिर के चारों किनारे चार कल्याणक के प्रतीक हैं। हस्तिनापुर मेरठ से 30 किलोमीटर उत्तर-पर्व में स्थित है। रोमन कैथोलिक चर्च - सरधना स्थित रोमन कैथोलिक चर्च अपनी खूबसूरत कारीगरी के लिए चर्चित है। मदर मैरी को समर्पित इस चर्च का डिजाइन इटालिक वास्तुकार एंथनी रघेलिनी ने तैयार किया था। 1822 में इस चर्च को बनवाने की लागत 0.5 मिलियन रूपये थी। भवन निर्माण साम्रगी जुटाने के लिए आसपास खुदाई की गई थी। खुदाई वाला हिस्सा आगे चलकर दो झीलों में तब्दील हो गया। सेन्ट जॉन चर्च - 1819 में इस चर्च को ईस्ट इंडिया कंपनी की ओर से चेपलिन रेव हेनरी फिशर ने स्थापित किया था। इस चर्च की गणना उत्तर भारत के सबसे प्राचीन चर्चो में की जाती है। इस विशाल चर्च में दस हजार लोगों के बैठने की क्षमता है। नंगली तीर्थ - पवित्र नंगली तीर्थ मेरठ के नंगली गांव में स्थित है। नंगली तीर्थ स्वामी स्वरूपानंद जी महाराज की समाधि की वजह से लोकप्रिय है। मुख्य सड़क से तीर्थ तक 84 मोड़ हैं जो चौरासी लाख योनियों के मुक्ति के प्रतीक हैं। देश के विविध हिस्सों से श्रद्धालु यहां आते हैं। सूरज कुंड - इस पवित्र कुंड का निर्माण एक धनी व्यापारी लावार जवाहर लाल ने 1714 ई. में करवाया था। प्रारंभ में अबु नाला से इस कुंड को जल प्राप्त होता था। वर्तमान में गंग नहर से इसे जल प्राप्त होता है। सूरज कुंड के आसपास अनेक मंदिर बने हुए हैं जिनमें मनसा देवी मंदिर और बाबा मनोहर नाथ मंदिर प्रमुख हैं। ये मंदिर शाहजहां के काल में बने थे। जामा मस्जिद - कोतवाली के निकट स्थित इस मस्जिद का यह निर्माण 11वीं शताब्दी में करवाया गया था। द्रोपदी की रसोई - द्रोपदी की रसोई हस्तिनापुर में बरगंगा नदी के तट पर स्थित है। माना जाता है कि महाभारत काल में इस स्थान पर द्रोपदी की रसोई थी। हस्तिनापुर अभयारण्य - इस अभयारण्य की स्थापना 1986 में की गई थी। 2073 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में फैले इस अभयारण्य में मृग, सांभर, चीतल, नीलगाय, तेंदुआ, हैना, जंगली बिल्ली आदि पशुओं के अलावा पक्षियों की अनेक प्रजातियां देखी जा सकती हैं। नंवबर से जून का समय यहां आने के सबसे उपयुक्त माना जाता है। अभयारण्य का एक हिस्सा गाजियाबाद, बिजनौर और ज्योतिबा फुले नगर के अन्तर्गत आता है। अन्य तथ्य 21 दिसंबर, 2005, को मेरठ राष्ट्रीय समाचार की झलकियों में था, जब पुलिस ने सार्वजनिक रूप से हाथ पकड़े जोड़ों को मारा पीटा, जो कि देश के कई भागों में सांस्कृतिक रूप से अस्वीकृत तथा अभद्र है। यह आप्रेशन मजनूं के तहत था। इसके अन्तर्गत युवा जोड़े निशाना थे। हालांकि इसके बाद स्थानीय पुलिस को अप्रसिद्धि मिली। मेरठ की माल रोड, मूलतः ब्रिटिश छावनी का भाग थी, जहां रघुवीर सारंग नामक एक आदमी, जो घोड़े और बघ्घियां चलाता था; को एक अंग्रेज़ अफसर के साथ रेस में हराने के बाद अभद्र व्यवहार का आरोप लगाकर कोड़े लगाये गये थे। 1940 के दशक में, मेरठ के सिनेमाघरों में ब्रिटिश राष्त्रगान बजने के समय हिलना निषेध था। 10 अप्रैल 2006 में एक अग्नि कांड में 225 (आधिकारिक घोषित) कोग मारे गये, जब विक्टोरिया पार्क में लगे एक इलेक्ट्रॉनिक मेले के मण्डप में अग लग गयी। अन्य सूत्रों के अनुसार तब यहां 1000 लोग मारे गये थे। इसके कुछ समय बाद ही, यहाँ के एक मल्टीप्लैक्स सिनेमाघर पी वी एस मॉल में भी आग लगी थी। मेरठ के प्रसिद्ध क्रीड़ा सामान (खासकर क्रिकेट का बल्ला) विश्व भर में प्रयोग होता है। मेरठ को भारत की क्रीड़ा राजधानी कहा जाता है। सन्दर्भ श्रेणी:उत्तर प्रदेश के नगर
साल २०११ में मेरठ की औसत जनसँख्या कितनी थी?
14 लाख
4,638
hindi
10e0404a2
इस्लामी सैन्य गठबंधन: (आईएमए) (अरबी: التحالف الإسلامي العسكري لمحاربة الإرهاب), और इस्लामी सैन्य काउंटर टेररिज्म कोएलिशन (आईएमसीटीसी) के रूप में भी जाना जाता है, मुस्लिम दुनिया में एक अंतर-सरकारी आतंकवाद विरोधी गठबंधन है, जो सेना के चारों ओर एकजुट है आईएसआईएस और अन्य आतंकवादी गतिविधियों के खिलाफ हस्तक्षेप।.[1][2] इसकी रचना पहले सऊदी अरब के रक्षा मंत्री मोहम्मद बिन सलमान अल सऊद ने 15 दिसंबर 2015 को घोषित की थी।[3] गठबंधन के लिए रियाद, सऊदी अरब में एक संयुक्त अभियान केंद्र था। जब गठबंधन की घोषणा की गई तो 34 सदस्य थे। और अतिरिक्त देश भी शामिल हुए और सदस्यों की संख्या 41 हो गई जब ओमान दिसंबर 2016 में शामिल हुआ। 6 जनवरी 2017 को, पाकिस्तानी सेना प्रमुख जनरल (सेवानिवृत्त) रहेल शरीफ को आईएमसीटीसी का पहले कमांडर-इन-चीफ का नाम दिया गया था।.[4][5] इतिहास और उद्देश्य आईएमसीटीसी ने कहा है कि इसका प्राथमिक उद्देश्य सभी संप्रदाय की आतंकवादी समूहों और आतंकवादी संगठनों से मुस्लिम देशों की रक्षा करना है।.[6][7][8] आईएमसीटीसी ने पुष्टि की कि वह संयुक्त राष्ट्र और आतंकवाद पर इस्लामी सहयोग संगठन (ओआईसी) के प्रावधानों के अनुरूप काम करेगा।.[9] आईएमसीटीसी के प्रक्षेपण के लिए प्रेस कॉन्फ्रेंस में, मोहम्मद बिन सलमान ने कहा कि वह इराक, सीरिया, लीबिया, मिस्र और अफगानिस्तान में आतंकवाद से लड़ने के प्रयासों का समन्वय करेगा। उन्होंने कहा, "सीरिया और इराक में सैन्य आपरेशन के मामले में प्रमुख शक्तियों और अंतरराष्ट्रीय संगठनों के साथ अंतर्राष्ट्रीय समन्वय होगा। सभी सदस्य देश सुन्नी-वर्चस्व वाली सरकार के साथ हैं। गठबंधन में ईरान, इराक और सीरिया जैसे शिया-प्रधान सरकारों के साथ कोई भी देश शामिल नहीं है। एक यूरोन्यूज की रिपोर्ट के मुताबिक, कुछ विश्लेषकों का मानना ​​है कि ईरान की प्रतिद्वंद्विता में, मध्य पूर्व और मुस्लिम दुनिया में अग्रणी भूमिका निभाने के लिए सऊदी अरब के प्रयासों के हिस्से के रूप में गठबंधन का गठन। सदस्य देश 15 दिसंबर 2015 को गठबंधन की सऊदी अरब की मूल घोषणा में 34 देशों को प्रतिभागियों के रूप में सूचीबद्ध किया गया था, प्रत्येक भी इस्लामिक सहयोग संगठन (ओआईसी) का सदस्य था, और सभी ओआईसी सदस्य राज्यों में लगभग 60% का गठन किया। नवंबर 2017 के अनुसार, 41 सदस्य देश हैं। कमांडर-इन-चीफ .[18][19] प्रतिक्रियाएं : बांग्लादेश 15 दिसंबर 2015 को गठबंधन में शामिल होने के शुरुआती सदस्यों में से एक था। देश ने संस्थापक राष्ट्रों के संयुक्त वक्तव्य में अपनी सदस्यता की पुष्टि की, जिसमें कहा गया था "इस्लामी राष्ट्र की रक्षा करने का कर्तव्य सभी आतंकवादियों की बुराइयों से समूह और संगठन जो भी उनके संप्रदाय और नाम जो पृथ्वी पर मृत्यु और भ्रष्टाचार को खत्म कर देते हैं और निर्दोषों को आतंकित करने का लक्ष्य रखते हैं। हालांकि, बांग्लादेश मक्का और मदीना में इस्लाम की दो सबसे पवित्र स्थलों की रक्षा के लिए केवल सैनिकों को भेज सकता है। : चीन ने आतंकवाद से लड़ने के लिए गठबंधन के साथ सहयोग करने की इच्छा व्यक्त की थी और गठबंधन बनाने के लिए सऊदी प्रयासों की सराहना की गई।.[20] : मिस्र के अल-अजहर विश्वविद्यालय ने गठबंधन के गठन को "ऐतिहासिक" कहा।"[21] : जर्मनी के रक्षा मंत्री उर्सुला वॉन डेर लेन ने आतंकवाद के खिलाफ गठबंधन का स्वागत किया लेकिन यह भी जोर दिया कि यह अमेरिका, यूरोप, रूस, तुर्की, सऊदी अरब जैसे आईएस के खिलाफ लड़ रहे सभी देशों को शामिल करने वाली वियना प्रक्रिया का हिस्सा होना चाहिए। ईरान और चीन। : मलेशियाई रक्षा मंत्री हिशामुद्दीन हुसैन ने गठबंधन के लिए समर्थन व्यक्त किया, लेकिन मलेशिया से किसी भी सैन्य समर्थन से इंकार कर दिया। : प्रारंभिक अस्पष्टता के बाद पाकिस्तान ने पहल का स्वागत किया; पाक सरकार ने अपनी भागीदारी की पुष्टि की और कहा कि देश गठबंधन की विभिन्न गतिविधियों में अपनी भागीदारी की सीमा तय करने के लिए और विवरण के लिए इंतजार कर रहा है। हालांकि आईएमसीटीसी के चीफ कमांडर जनरल राहील शरीफ केवल इस शर्त पर आदेश देने के लिए सहमत हुए कि ईरान इस गठबंधन का हिस्सा होना चाहिए। : तुर्की के प्रधान मंत्री अहमेट डेवूटुगु ने इसे "उन लोगों के लिए सबसे अच्छी प्रतिक्रिया" कहा जो आतंक और इस्लाम को जोड़ने की कोशिश कर रहे हैं। : संयुक्त राज्य अमेरिका द्वारा नए गठबंधन का स्वागत किया गया था, इसके बाद अमेरिकी रक्षा सचिव एश कार्टर ने कहा, "हम इस गठबंधन के संदर्भ में सऊदी अरब के मन में क्या है सोचते हैं, इसके बारे में और जानने के लिए तत्पर हैं। लेकिन आम तौर पर ऐसा लगता है यह कुछ ऐसी चीज के अनुरूप है जो हम कुछ समय से आग्रह कर रहे हैं, जो सुन्नी अरब देशों द्वारा आईएसआईएल से लड़ने के अभियान में अधिक भागीदारी है। सन्दर्भ श्रेणी:इस्लामिक सहयोग संगठन
इस्लामी सैन्य काउंटर टेररिज्म कोएलिशन की स्थापना किसने की थी?
मोहम्मद बिन सलमान अल सऊद
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चार्ल्स बैबेज एक अंग्रेजी बहुश्रुत थे वह एक गणितज्ञ, दार्शनिक, आविष्कारक और यांत्रिक इंजीनियर थे, जो वर्तमान में सबसे अच्छे कंप्यूटर प्रोग्राम की अवधारणा के उद्धव के लिए जाने जाते हैं या याद किये जाते है। चार्ल्स बैबेज को "कंप्यूटर का पिता"(फादर ऑफ कम्प्यूटर ) माना जाता है। बैबेज को अंततः अधिक जटिल डिजाइन करने के लिए एवं उनके नेतृत्व में पहली यांत्रिक कंप्यूटर की खोज करने का श्रेय दिया जाता है। इन्हें अन्य क्षेत्रों में अपने विभिन्न कामो के लिए भी जाना जाता है एवं इन्हें अपने समय में काफी लोकप्रियता एवं सम्मान भी मिला अपने विभिन्न खोज के लिए और वही आगे चल कर कंप्यूटर जगत में नए खोजो का श्रोत बना। बैबेज के द्वारा निर्मित अपूर्ण तंत्र के कुछ हिस्सों को लंदन साइंस म्यूजियम में प्रदर्शनी के लिए रखा गया है| 1991 में, एक पूरी तरह से कार्य कर रहा अंतर इंजन बैबेज की मूल योजना से निर्माण किया गया था। 19 वीं सदी में प्राप्त के लिए निर्मित, समाप्त इंजन की सफलता ने यह संकेत दिया की बैबेज की मशीन काम करती है। प्रारंभिक जीवन कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में चार्ल्स बैबेज ने अक्टूबर 1810 में, ट्रिनिटी कॉलेज, कैम्ब्रिज में दाखिला लिया वह पहले से ही समकालीन गणित के कुछ भागों को स्वयं अध्यन किया करते थे, वह रॉबर्ट वुडहाउस, यूसुफ लुइस Lagrange और मैरी Agnesi को पढ़ा करते थे नतीजे के तौर पर उन्हें कैम्ब्रिज में उपलब्ध मानक गणितीय शिक्षा में निराशा प्राप्त हुई चार्ल्स बैबेज और उनके कुछ मित्रगणों "जॉन Herschel, जॉर्ज मयूर" और कई अन्य मित्रों ने मिलकर 1812 में विश्लेषणात्मक सोसायटी का गठन किया। कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के बाद एस्ट्रॉनॉमिकल सोसायटी ब्रिटिश लाग्रंगियन स्कूल श्रेणी:१७९१ जन्म श्रेणी:मृत लोग श्रेणी:लंदन के लोग श्रेणी:कंप्यूटर वैज्ञानिक
कंप्यूटर का आविष्कार किसने किया?
चार्ल्स बैबेज
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लहू या रक्त या खून एक शारीरिक तरल (द्रव) है जो लहू वाहिनियों के अन्दर विभिन्न अंगों में लगातार बहता रहता है। रक्त वाहिनियों में प्रवाहित होने वाला यह गाढ़ा, कुछ चिपचिपा, लाल रंग का द्रव्य, एक जीवित ऊतक है। यह प्लाज़मा और रक्त कणों से मिल कर बनता है। प्लाज़मा वह निर्जीव तरल माध्यम है जिसमें रक्त कण तैरते रहते हैं। प्लाज़मा के सहारे ही ये कण सारे शरीर में पहुंच पाते हैं और वह प्लाज़मा ही है जो आंतों से शोषित पोषक तत्वों को शरीर के विभिन्न भागों तक पहुंचाता है और पाचन क्रिया के बाद बने हानिकारक पदार्थों को उत्सर्जी अंगो तक ले जा कर उन्हें फिर साफ़ होने का मौका देता है। रक्तकण तीन प्रकार के होते हैं, लाल रक्त कणिका, श्वेत रक्त कणिका और प्लैटलैट्स। लाल रक्त कणिका श्वसन अंगों से आक्सीजन ले कर सारे शरीर में पहुंचाने का और कार्बन डाईआक्साईड को शरीर से श्वसन अंगों तक ले जाने का काम करता है। इनकी कमी से रक्ताल्पता (अनिमिया) का रोग हो जाता है। श्वैत रक्त कणिका हानीकारक तत्वों तथा बिमारी पैदा करने वाले जिवाणुओं से शरीर की रक्षा करते हैं। प्लेटलेट्स रक्त वाहिनियों की सुरक्षा तथा खून बनाने में सहायक होते हैं। मनुष्य-शरीर में करीब पाँच लिटर लहू विद्यमान रहता है। लाल रक्त कणिका की आयु कुछ दिनों से लेकर १२० दिनों तक की होती है। इसके बाद इसकी कोशिकाएं तिल्ली में टूटती रहती हैं। परन्तु इसके साथ-साथ अस्थि मज्जा (बोन मैरो) में इसका उत्पादन भी होता रहता है। यह बनने और टूटने की क्रिया एक निश्चित अनुपात में होती रहती है, जिससे शरीर में खून की कमी नहीं हो पाती। मनुष्यों में लहू ही सबसे आसानी से प्रत्यारोपित किया जा सकता है। एटीजंस से लहू को विभिन्न वर्गों में बांटा गया है और रक्तदान करते समय इसी का ध्यान रखा जाता है। महत्वपूर्ण एटीजंस को दो भागों में बांटा गया है। पहला ए, बी, ओ तथा दुसरा आर-एच व एच-आर। जिन लोगों का रक्त जिस एटीजंस वाला होता है उसे उसी एटीजंस वाला रक्त देते हैं। जिन पर कोई एटीजंस नहीं होता उनका ग्रुप "ओ" कहलाता है। जिनके रक्त कण पर आर-एच एटीजंस पाया जाता है वे आर-एच पाजिटिव और जिनपर नहीं पाया जाता वे आर-एच नेगेटिव कहलाते हैं। ओ-वर्ग वाले व्यक्ति को सर्वदाता तथा एबी वाले को सर्वग्राही कहा जाता है। परन्तु एबी रक्त वाले को एबी रक्त ही दिया जाता है। जहां स्वस्थ व्यक्ति का रक्त किसी की जान बचा सकता है, वहीं रोगी, अस्वस्थ व्यक्ति का खून किसी के लिये जानलेवा भी साबित हो सकता है। इसीलिए खून लेने-देने में बहुत सावधानी की आवश्यकता होती है। लहू का pH मान 7.4 होता है कार्य ऊतकों को आक्सीजन पहुँचाना। पोषक तत्वों को ले जाना जैसे ग्लूकोस, अमीनो अम्ल और वसा अम्ल (रक्त में घुलना या प्लाज्मा प्रोटीन से जुडना जैसे- रक्त लिपिड)। उत्सर्जी पदार्थों को बाहर करना जैसे- यूरिया कार्बन, डाई आक्साइड, लैक्टिक अम्ल आदि। प्रतिरक्षात्मक कार्य। संदेशवाहक का कार्य करना, इसके अन्तर्गत हार्मोन्स आदि के संदेश देना। शरीर पी. एच नियंत्रित करना। शरीर का ताप नियंत्रित करना। शरीर के एक अंग से दूसरे अंग तक जल का वितरण रक्त द्वारा ही सम्पन होता है सम्पादन सारांश रहित लहू एक शारीरिक तरल ( संयोजी ऊतक द्रव ) है जो रक्त वाहिनियों के अन्दर विभिन्न अंगों में लगातार बहता रहता है। रक्त वाहिनियों में प्रवाहित होने वाला यह गाढ़ा, कुछ चिपचिपा, लाल रंग का द्रव्य, एक जीवित ऊतक है। यह प्लाज़मा और रक्त कणों से मिल कर बनता है। प्लाज़मा वह निर्जीव तरल माध्यम है जिसमें रक्त कण तैरते रहते हैं। प्लाज़मा के सहारे ही ये कण सारे शरीर में पहुंच पाते हैं और वह प्लाज़मा ही है जो आंतों से शोषित पोषक तत्वों को शरीर के विभिन्न भागों तक पहुंचाता है और पाचन क्रिया के बाद बने हानीकारक पदार्थों को उत्सर्जी अंगो तक ले जा कर उन्हें फिर साफ़ होने का मौका देता है। रक्तकण तीन प्रकार के होते हैं, लाल रक्त कणिका, श्वेत रक्त कणिका और प्लैटलैट्स। लाल रक्त कणिका श्वसन अंगों से आक्सीजन ले कर सारे शरीर में पहुंचाने का और कार्बन डाईआक्साईड को शरीर से श्वसन अंगों तक ले जाने का काम करता है। इनकी कमी से रक्ताल्पता ( एनिमिया) का रोग हो जाता है। श्वैत रक्त कणिका हानीकारक तत्वों तथा बिमारी पैदा करने वाले जिवाणुओं से शरीर की रक्षा करते हैं। प्लेटलेट्स रक्त वाहिनियों की सुरक्षा तथा खून बनाने में सहायक होते हैं। मनुष्य-शरीर में करीब पाँच लिटर लहू विद्यमान रहता है। लाल रक्त कणिका की आयु कुछ दिनों से लेकर १२० दिनों तक की होती है। इसके बाद इसकी कोशिकाएं तिल्ली में टूटती रहती हैं। परन्तु इसके साथ-साथ अस्थि मज्जा (बोन मैरो) में इसका उत्पादन भी होता रहता है। यह बनने और टूटने की क्रिया एक निश्चित अनुपात में होती रहती है, जिससे शरीर में खून की कमी नहीं हो पाती। इन्हें भी देखें रक्तदान सन्दर्भ श्रेणी:शारीरिक द्रव श्रेणी:प्राणी शारीरिकी *
मानव शरीर में कितना रक्त होता है?
पाँच लिटर
1,032
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कंधा तीन हड्डियों का बना होता है: हंसली (हंसली), कंधे की हड्डी (कंधे ब्लेड) और प्रगंडिका (ऊपरी बांह की हड्डी) और उसके साथ ही मास्पेशिया, कंडर के शोथ और बंध भी सम्मिलित हैं। कंधे की हड्डियों के बीच के जोड़ो से कंधे का जोड़ बनता है कंधे का प्रमुख जोड़ है- ग्लेनोह्युमरल जोड़ (कंधे का जोड़) मानव के शरीर रचना विज्ञान के अनुसार, कंधे के जोड़ में शरीर के वे हिस्से होते है जहाँ प्रगंडिका कंधे की हड्डी से जुडती है।[1] कंधा जोड़ के क्षेत्र में संरचनाओ का समूह है।[2] जोड़ में दो प्रकार के उपास्थि होते हैं। पहली प्रकार की उपास्थि होती है सफ़ेद उपास्थि जो हड्डियों की सीमाओं पर होती है (जिसे संधि उपास्थि कहा जाता है). ये हड्डियों को एक दूसरे पर फिसलने और खिसकने देती है। जब इस प्रकार की उपास्थि घिसने लगती है (एक प्रक्रिया जिसे गठिया कहते है), जोड़ दर्दनाक और कठोर हो जाता है। कंधे में दुसरे प्रकार की उपास्थि होती है लेब्र्म, जो संधि उपास्थि से साफ तौर पर अलग होती है। यह उपास्थि गोला ओए गर्तिका जोड़ के सिरों पर उपस्थित उपास्थि से अधिक रेशेदार और कठोर होती है। इसके अलावा यह उपास्थि गर्तिका जहाँ जुडती है उसके ऊपर भी पाई जाती है।[3] कंधा हाथ और भुजाओ में गति के लिए लचीला होना चाहिए और उठाने, खीचने और धक्का देने जैसी क्रियाओ के लिए मजबूत भी होना चाहिए. इन दो कार्यो के बीच समझोते से कई प्रकार की कंधे से जुडी समस्याएँ हो सकती है जो की अन्य जोड़ जैसे, नितंब में नहीं होती. कंधे के जोड़ कंधे में तीन तरह के जोड़ होते है- ग्लेनोह्युमरल, असंकुट तथा जत्रुक संबंधी और स्टरनोक्लेविक्युलर. ग्लेनोह्युमरल जोड़ ग्लेनोह्युमरल जोड़ कंधे का प्रमुख जोड़ होता है जिसे आमतौर पर कंधे का जोड़ कहते संधर्बित करते है। यह एक गोला और गर्तिका जोड़ है जो भुजा को गोल घुमाने और अन्दर और बहर चलाने में उपयोगी है। यह प्रगंडिकाके शीर्ष और पार्श्विक कंधे की हड्डी के बीच के जोड़ से बनता है (खासकर कंधे की हड्डी का ग्लेनोइड खात) कंधे का गोला प्रगंडिका का गोल, मध्यवर्ती अग्रस्थ सतह है और गर्तिका ग्लेनोइड खात से बना है, जो की पार्श्विक कंधे की हड्डी का कटोरी जैसा हिस्सा है। खात और कंधे व शारीर के बीच के अपेक्षकृत ढीले संयोजनों के खोकलेपन के कारण भुजा में भयंकर चंचलता होती है जिसके कारण दुसरे जोड़ो की अपेक्षा यहाँ आसानी से विस्थापन हो जाता है। संपुट एक नरम ऊतक का लिफाफा है जो ग्लेनोह्युमरल जोड़ को घेरता है और कंधे की हड्डी, प्रगंडिका और द्विशिरस्क को भी उससे जोड़ता है। यह एक पतली, नरम श्लेष झिल्ली से रेखांकित है। यह संपुट कोराकोह्युम्रल स्नायु के कारण मजबूत होता है जो कंधे की हड्डी की कोराकोइड प्रक्रिया को प्रगंडिका बड़ी ग्रंथिका से जोड़ता है। तीन अन्य प्रकार के स्नायु भी होते है जो प्रगंडिका की छोटी ग्रंथिका को पार्श्विक कंधे की हड्डी से जोड़ते है और जिन्हें सामूहिक तौर पर ग्लेनोह्युमरल स्नायु कहा जाता है। एक प्रकार के स्नायु को सेमीसरक्यूलेयर ह्युमेरी कहते है जो ट्युबरकलम माइनस की पिछली तरफ और प्रगंडिका के मेजस के बीच तिरछी पट्टी है। यह पट्टी संपुट जोड़ की सबसे महत्वपूर्ण और मजबूत स्नायु है। स्टरनोक्लेविक्युलर जोड़ स्तेर्नोक्लाविकुलर हंसुली के मध्यवर्ती सिरों पर मेंयुब्रिम या स्टेरनम के सबसे उपरी भाग के साथ पाया जाता है। हंसली त्रिकोनिय और गोल होती है और मेंयुब्रिम उत्तल होती है, व ये दोनों हड्डियाँ संधियों में विभाजित है। जोड़ में एक चुस्त सम्पुट होता है और पूर्ण संधिपरक चक्र जो जोड़ की स्थिरता को सुरक्षित रखता है। कस्तोक्लाविक्युलर स्नायु गति पर प्रमुख बंधन है, इसीलिए, जोड़ को प्रमुख रूप से स्थिरता देता है। जोड़ पर प्रस्तुत फैब्रोकार्टिलेजीनस चक्र गति की सीमा को बड़ाता है। स्तेर्नोकलाविक्यूलर विस्थापन दुर्लभ है, हालाँकि प्रत्यक्षा अघात से क्षति हो सकती है।[4] कंधे के संचलन कंधे की मास्पेशियाँ और उसके जोड़ उसे एक उल्लेखनीय श्रेणी की गति से हिलने देती है, जिसके कारण यह मानव शारीर का सबसे चंचल जोड़ है। कंधा खींचना, समिपकर्ष (जैसे की मक्खी), घूर्णन, धड के आगे-पीछे की तरफ उठाना और सैजिटल तल से पूरे ३६० घुमाना जैसे कार्य कर सकता है। इस प्रकार गति की भयानक श्रेणी से कंधा अत्यंत अस्थिर बन जाता है और विस्थापन और चोट से और ज्यादा उन्मुख हो जाता है।[5] निम्नलिखित में कंधे की चेष्टा के लिए प्रयुक्त विभिन्न[6] शब्द है। प्रमुख मांसपेशियों जो मस्पेशियाँ कंधे के मूवमेंट के लिए जिम्मेदार होती हैं वे प्रगंडिका, कंधे की हड्डी और हंसुली से जुडी हुई होती हैं। जो मस्पेस्जियाँ कंधे को घेरती हैं वे कंधे की कपालिका और बगल को बनाती हैं। अंग को घुमानेवाली पेशी कफ अंग को घुमाने वाली पेशी कफ एक शरीररचना शब्द है जो मांसपेशियों के समूह को और उनके टेडन को कहा जाता है जो कंधे को स्थिर करने का कम करता है। यह टेंडन और मस्पेशियाँ (कफ पेशी, इन्फ्रासपिनेटस, लघु बेलनाकार और सब्स्केप्युलेरिस) जो प्रगंडिका के सर (पिंड) को विवर (मुख) के ग्लेनोइड में पकड़ के रखता है। दो फिल्मी थैली जैसी संरचनाओं जिन्हें पुट्ठा कहते है, वे हड्डी, टेडन और मांसपेशियों के बीच खिसकने की क्रिया को आराम से होने देता है। ये घूमने वाली पेशी कफ को एक्रोमिन के अस्थिवत चाप से बचाते है। कंधे का भार मापन कंधे के सामान्य और पेथोलोजिक कार्य को समझने के लिए ग्लेनोह्युमारल जोड़ के बल की जानकारी होना आवश्यक है। यह अस्थिभंग के उपचार और जोड़ को बदलने के लिए सर्जरी का आधार बनाता है, स्थरीकरण और डिज़ाइन रोपण को ओपटीमाइज करने और कंधे के एनेलेटिक और बायोकेमिकल मोडल्स की जाँच करने और सुधरने के लिए. ज्युलीयास वोल्फ इंस्टीट्युट में यांत्रिक कंधारोपण से जोड़ के संधार्ग बल और गति को अलग अलग गतिविधियों के दौरान जीवित ऊतक के अन्दर मापा जा सकता है।[13] अतिरिक्त छवियां चिकित्सा सम्बन्धी समस्याएँ कंधे की समस्याएँ अंग को घुमानेवाली पेशी कफ की उद्वत सम्बन्धी समस्याएँ इन्हें भी देखें कंधे करधनी (वक्षीय कटिबंध) गेल्नोह्युमारल जोड़ (कंधे का जोड़) एक्रोमयोक्लेविक्युलर जोड़ स्तेर्नोक्लेविक्युलर जोड़ कंधे पर चिप टिप्पणियां सन्दर्भ CS1 maint: discouraged parameter (link) CS1 maint: multiple names: authors list (link) CS1 maint: discouraged parameter (link) CS1 maint: multiple names: authors list (link) बाहरी कड़ियाँ श्रेणी:मानव शरीर
वयस्क मानव कंधे में कितने तरह के जोड़(जॉइंट्स) होते है?
तीन
5
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मदर टेरेसा (२६ अगस्त १९१० - ५ सितम्बर १९९७) जिन्हें रोमन कैथोलिक चर्च द्वारा कलकत्ता की संत टेरेसा के नाम से नवाज़ा गया है, का जन्म अग्नेसे गोंकशे बोजशियु के नाम से एक अल्बेनीयाई परिवार में उस्कुब, उस्मान साम्राज्य (वर्त्तमान सोप्जे, मेसेडोनिया गणराज्य) में हुआ था। मदर टेरसा रोमन कैथोलिक नन थीं, जिन्होंने १९४८ में स्वेच्छा से भारतीय नागरिकता ले ली थी। इन्होंने १९५० में कोलकाता में मिशनरीज़ ऑफ चैरिटी की स्थापना की। ४५ सालों तक गरीब, बीमार, अनाथ और मरते हुए लोगों की इन्होंने मदद की और साथ ही मिशनरीज ऑफ़ चैरिटी के प्रसार का भी मार्ग प्रशस्त किया। १९७० तक वे गरीबों और असहायों के लिए अपने मानवीय कार्यों के लिए प्रसिद्द हो गयीं, माल्कोम मुगेरिज के कई वृत्तचित्र और पुस्तक जैसे समथिंग ब्यूटीफुल फॉर गॉड में इसका उल्लेख किया गया। इन्हें १९७९ में नोबेल शांति पुरस्कार और १९८० में भारत का सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न प्रदान किया गया। मदर टेरेसा के जीवनकाल में मिशनरीज़ ऑफ चैरिटी का कार्य लगातार विस्तृत होता रहा और उनकी मृत्यु के समय तक यह १२३ देशों में ६१० मिशन नियंत्रित कर रही थीं। इसमें एचआईवी/एड्स, कुष्ठ और तपेदिक के रोगियों के लिए धर्मशालाएं/ घर शामिल थे और साथ ही सूप, रसोई, बच्चों और परिवार के लिए परामर्श कार्यक्रम, अनाथालय और विद्यालय भी थे। मदर टेरसा की मृत्यु के बाद इन्हें पोप जॉन पॉल द्वितीय ने धन्य घोषित किया और इन्हें कोलकाता की धन्य की उपाधि प्रदान की। दिल के दौरे के कारण 5 सितंबर 1997 के दिन मदर टैरेसा की मृत्यु हुई थी।[3] प्रारंभिक जीवन मदर टेरेसा का जन्म 26 अगस्त, 1910 को स्कॉप्जे (अब मेसीडोनिया में) में हुआ था। इनके पिता निकोला बोयाजू एक साधारण व्यवसायी थे। मदर टेरेसा का वास्तविक नाम ‘अगनेस गोंझा बोयाजिजू’ था। अलबेनियन भाषा में गोंझा का अर्थ फूल की कली होता है। जब वह मात्र आठ साल की थीं तभी इनके पिता का निधन हो गया, जिसके बाद इनके लालन-पालन की सारी जिम्मेदारी इनकी माता द्राना बोयाजू के ऊपर आ गयी। यह पांच भाई-बहनों में सबसे छोटी थीं। इनके जन्म के समय इनकी बड़ी बहन की उम्र 7 साल और भाई की उम्र 2 साल थी, बाकी दो बच्चे बचपन में ही गुजर गए थे। यह एक सुन्दर, अध्ययनशील एवं परिश्रमी लड़की थीं। पढ़ाई के साथ-साथ, गाना इन्हें बेहद पसंद था। यह और इनकी बहन पास के गिरजाघर में मुख्य गायिकाएँ थीं। ऐसा माना जाता है कि जब यह मात्र बारह साल की थीं तभी इन्हें ये अनुभव हो गया था कि वो अपना सारा जीवन मानव सेवा में लगायेंगी और 18 साल की उम्र में इन्होंने ‘सिस्टर्स ऑफ़ लोरेटो’ में शामिल होने का फैसला ले लिया। तत्पश्चात यह आयरलैंड गयीं जहाँ इन्होंने अंग्रेजी भाषा सीखी। अंग्रेजी सीखना इसलिए जरुरी था क्योंकि ‘लोरेटो’ की सिस्टर्स इसी माध्यम में बच्चों को भारत में पढ़ाती थीं। आजीवन सेवा का संकल्प १९८१ ई में आवेश ने अपना नाम बदलकर टेरेसा रख लिया और उन्होने आजीवन सेवा का संकल्प अपना लिया। इन्होने स्वयं लिखा है - वह १० सितम्बर १९४० का दिन था जब मैं अपने वार्षिक अवकाश पर दार्जिलिंग जा रही थी। उसी समय मेरी अन्तरात्मा से आवाज़ उठी थी कि मुझे सब कुछ त्याग कर देना चाहिए और अपना जीवन ईश्वर एवं दरिद्र नारायण की सेवा कर के कंगाल तन को समर्पित कर देना चाहिए।" समभाव से पीड़ित की सेवा मदर टेरेसा दलितों एवं पीडितों की सेवा में किसी प्रकार की पक्षपाती नहीं है। उन्होनें सद्भाव बढाने के लिए संसार का दौरा किया है। उनकी मान्यता है कि 'प्यार की भूख रोटी की भूख से कहीं बड़ी है।' उनके मिशन से प्रेरणा लेकर संसार के विभिन्न भागों से स्वय्ं-सेवक भारत आये तन, मन, धन से गरीबों की सेवा में लग गये। मदर टेरेसा क कहना है कि सेवा का कार्य एक कठिन कार्य है और इसके लिए पूर्ण समर्थन की आवश्यकता है। वही लोग इस कार्य को संपन्न कर सकते हैं जो प्यार एवं सांत्वना की वर्षा करें - भूखों को खिलायें, बेघर वालों को शरण दें, दम तोडने वाले बेबसों को प्यार से सहलायें, अपाहिजों को हर समय ह्रदय से लगाने के लिए तैयार रहें। पुरस्कार व सम्मान मदर टेरेसा को उनकी सेवाओं के लिये विविध पुरस्कारों एवं सम्मानों से विभूषित किय गया है। १९३१ में उन्हें पोपजान तेइसवें का शांति पुरस्कार और धर्म की प्रगति के टेम्पेलटन फाउण्डेशन पुरस्कार प्रदान किय गया। विश्व भारती विध्यालय ने उन्हें देशिकोत्तम पदवी दी जो कि उसकी ओर से दी जाने वाली सर्वोच्च पदवी है। अमेरिका के कैथोलिक विश्वविद्यालय ने उन्हे डोक्टोरेट की उपाधि से विभूषित किया। भारत सरकार द्वारा १९६२ में उन्हें 'पद्म श्री' की उपाधि मिली। १९८८ में ब्रिटेन द्वारा 'आईर ओफ द ब्रिटिश इम्पायर' की उपाधि प्रदान की गयी। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय ने उन्हें डी-लिट की उपाधि से विभूषित किया। १९ दिसम्बर १९७९ को मदर टेरेसा को मानव-कल्याण कार्यों के हेतु नोबल पुरस्कार प्रदान किया गया। वह तीसरी भारतीय नागरिक है जो संसार में इस पुरस्कार से सम्मानित की गयी थीं। मदर टेरेसा के हेतु नोबल पुरस्कार की घोषणा ने जहां विश्व की पीडित जनता में प्रसन्नत का संछार हुआ है, वही प्रत्येक भारतीय नागरिकों ने अपने को गौर्वान्वित अनुभव किया। स्थान स्थान पर उन्का भव्या स्वागत किया गया। नार्वेनियन नोबल पुरस्कार के अध्यक्श प्रोफेसर जान सेनेस ने कलकत्ता में मदर टेरेसा को सम्मनित करते हुए सेवा के क्शेत्र में मदर टेरेसा से प्रेरणा लेने का आग्रह सभी नागरिकों से किया। देश की प्रधान्मंत्री तथा अन्य गणमान्य व्यक्तियों ने मदर टेरेसा का भव्य स्वागत किया। अपने स्वागत में दिये भाषणों में मदर टेरेसा ने स्पष्ट कहा है कि "शब्दों से मानव-जाति की सेवा नहीं होती, उसके लिए पूरी लगन से कार्य में जुट जाने की आवश्यकता है।" संत की उपाधि 09 सितम्बर 2016 को वेटिकन सिटी में पोप फ्रांसिस ने मदर टेरेसा को संत की उपाधि से विभूषित किया। [4] आलोचना कई व्यक्तियों, सरकारों और संस्थाओं के द्वारा उनकी प्रशंसा की जाती रही है, यद्यपि उन्होंने आलोचना का भी सामना किया है। इसमें कई व्यक्तियों, जैसे क्रिस्टोफ़र हिचेन्स, माइकल परेंटी, अरूप चटर्जी (विश्व हिन्दू परिषद) द्वारा की गई आलोचना शामिल हैं, जो उनके काम (धर्मान्तरण) के विशेष तरीके के विरुद्ध थे। इसके अलावा कई चिकित्सा पत्रिकाओं में भी उनकी धर्मशालाओं में दी जाने वाली चिकित्सा सुरक्षा के मानकों की आलोचना की गई और अपारदर्शी प्रकृति के बारे में सवाल उठाए गए, जिसमें दान का धन खर्च किया जाता था। ये सभी कार्य अमेरिका द्वारा धर्म परिवर्तन के लिए किया जाता था जो हमारे वैज्ञानिक राजीव दीक्षित जी भी बताये। राजीव दीक्षित जी को इसीलिए मरवा दिया गया जो सन्देह में है। राजीव दीक्षित के रिसर्च और व्याख्यान जरूर सुने। बाहरी कड़ियाँ The Introduction and the first three chapters of Chatterjee's book are available here. सन्दर्भ श्रेणी:1910 में जन्मे लोग श्रेणी:१९९७ में निधन श्रेणी:नोबल शांति पुरस्कार के प्राप्तकर्ता श्रेणी:भारत रत्न सम्मान प्राप्तकर्ता श्रेणी:मैगसेसे पुरस्कार विजेता
मदर टेरेसा की राष्ट्रीयता क्या थी?
भारतीय
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ऍडविन पावल हबल (अंग्रेज़ी: Edwin Powell Hubble, जन्म: २० नवम्बर १८८९, देहांत: २८ सितम्बर १९५३) एक अमेरिकी खगोलशास्त्री थे जिन्होनें हमारी गैलेक्सी (आकाशगंगा या मिल्की वे) के अलावा अन्य गैलेक्सियाँ खोज कर हमेशा के लिए मानवजाती की ब्रह्माण्ड के बारे में अवधारणा बदल डाली। उन्होंने यह भी खोज निकाला के कोई गैलेक्सी पृथ्वी से जितनी दूर होती है उस से आने वाले प्रकाश का डॉप्लर प्रभाव उतना ही अधिक होता है, यानि उसमे लालिमा अधिक प्रतीत होती है। इस सच्चाई का नाम "हबल सिद्धांत" रखा गया और इसका सीधा अर्थ यह निकला के हमारा ब्रह्माण्ड निरंतर बढ़ती हुई गति से फैल रहा है।[1] इन्हें भी देखें जॉर्ज लेमैत्रे बिग बैंग सिद्धांत खगोलशास्त्र सन्दर्भ बहरी कड़ियाँ श्रेणी:अमेरिकी वैज्ञानिक श्रेणी:खगोलशास्त्र श्रेणी:खगोलशास्त्री श्रेणी:हिन्दी विकि डीवीडी परियोजना
एडविन पॉवेल हबल की मृत्यु कब हुई थी?
२८ सितम्बर १९५३
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२६ अक्टूबर २०१५ को, १४:४५ पर (०९:०९ यूटीसी), हिंदू कुश के क्षेत्र में,[3] एक 7.5 परिमाण के भूकंप ने दक्षिण एशिया को प्रभावित किया।[4] मुख्य भूकंप के 40 मिनट बाद 4.8 परिमाण के पश्चात्वर्ती आघात ने फिर से प्रभावित किया;[5][6] 4.1 परिमाण या उससे अधिक के तेरह और अधिक झटकों ने 29 अक्टूबर की सुबह को प्रभावित किया।[2] मुख्य भूकंप 210 किलोमीटर की गहराई पर हुआ।[7] 5 नवम्बर तक, यह अनुमान लगाया गया था कि कम से कम 398 लोगों की मौत हो गयी हैं, ज्यादातर पाकिस्तान में।[8][9][10][11] भूकंप के झटके अफगानिस्तान, पाकिस्तान, भारत, ताजिकिस्तान, और किर्गिस्तान में महसूस किए गए।[11][12][13][14] भूकंप के झटके भारतीय शहरों नई दिल्ली, श्रीनगर, अमृतसर[15], चंडीगढ़ लखनऊ आदि[16] और चीन के जनपदों झिंजियांग, आक़्सू, ख़ोतान तक महसूस किए गए जिनकी सूचना अफगानिस्तान की राजधानी काबुल में भी दिया गया।[17][18] कंपन नेपालियों की राजधानी काठमांडू में भी महसूस किया गया, जहां लोगों ने शुरू में सोचा कि यह अप्रैल 2015 में आए भूकंप के कई मायनों आवर्ती झटकों में से एक था। दैनिक पाकिस्तानी "द नेशन" ने सूचित किया कि यह भूकंप पाकिस्तान में 210 किलोमीटर पर होने वाला सबसे बड़ा भूकंप है।[19] पृष्ठभूमि दक्षिण एशिया के पहाड़, टेक्टोनिक प्लेटों की टक्कर से ऊपर ढकेले जाने के कारण, विनाशकारी भूकंप से ग्रस्त हैं।[1] अप्रैल 2015 में एक भूकंप, जो नेपाल के 80 वर्षो में सबसे भीषण भूकंप था, जिसमे 9,000 से अधिक लोग मारे गए। 2005 में कश्मीरी क्षेत्र में केंद्रित एक भूकंप में हजारों मारे गये थे। पिछली बार उसी क्षेत्र में समान परिमाण वाला 7.6 Mw का भूकंप ठीक दस वर्ष पहले अक्टूबर, 2005 में आया था जिसके परिणामस्‍वरूप 87,351 लोगों की मृत्‍यु हुई, 75,266 घायल हुए, 2.8 मिलियन (28 लाख) लोग विस्‍थापित हुए और 250,000 मवेशी मारे गए थे। इस भूकंप और 2005 में आए भूकंप के बीच उल्लेखनीय अंतर भूकंपीय गतिविधि की गहराई का है। इस भूकंप में 212.5 किमी की गहराई थी, जबकि 2005 में आए भूकंप में केवल 15 किमी की ही गहराई थी।[20] भूकंप भूकंप 26 अक्टूबर 2015 को लगभग 212.5 किलोमीटर की गहराई पर 14:45 (09:09 यूटीसी) में हुआ था, फ़ैज़ाबाद, अफगानिस्तान के दक्षिण पूर्व में लगभग 82 किमी की अपने उपरिकेंद्र के साथ। संयुक्त राज्य भूगर्भ सर्वेक्षण (यूएसजीएस) ने भूकंप की तीव्रता शुरू में 7.7 पर मापी फिर 7.6 पर इसे नीचे संशोधित किया और बाद में 7.5 किया। हालांकि पाकिस्तान के मौसम विभाग ने कहा है कि भूकंप का परिमाण 8.1 था। यूएसजीएस के अनुसार, भूकंप का केंद्र चित्राल से 67 किलोमीटर था।[21][22] परिणाम भूकंप से पाकिस्तान में कम से कम 279 लोगों की मौत हो गई,[10] और 115 अफगानिस्तान में जहां 5 जलालाबाद में मारे गए थे और तख़ार में एक विद्यालय ढह जाने के बाद भगदड़ में 12 छात्र मारे गये।[8][23] पाकिस्तान में भूकंप के झटके कई प्रमुख शहरों में महसूस किये गये। कम से कम 194 घायलों को स्वात के एक अस्पताल में और 100 से अधिक को पेशावर के एक अस्पताल में लाया गया। पाकिस्तान के गिलगित-बल्तिस्तान और ख़ैबर पख़्तूनख़्वा प्रांत में व्यापक क्षति हुई थी। ख़ैबर पख़्तूनख़्वा से सबसे अधिक प्रभावित क्षेत्रों में शांगला, निचला दीर, उपरी दीर, स्वात और चित्राल शामिल हैं।[24] भारत में, दिल्ली मेट्रो के प्रवक्ता ने कहा, "भूकंप के समय चारों ओर पटरियों पर चल रही 190 ट्रेनों को बंद कर दिया गया था।" पाकिस्तान में काराकोरम राजमार्ग बंद कर दिया गया था।[25] उच्च आवाज यातायात के कारण मोबाइल फोन सेवाओं को कई घंटे के लिए बंद किया गया था।[6] बचाव और राहत — पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने सभी संघीय, नागरिक, सैनिक और प्रांतीय एजेंसियों को निर्देश को एक तत्काल चेतावनी की घोषणा की और पाकिस्तान के नागरिकों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए सभी संसाधनों को तैयार किया। इंटर सर्विसेज पब्लिक रिलेशंस के अनुसार, आर्मी स्टाफ के मुख्यमंत्री जनरल राहील शरीफ के आदेश का इंतजार किए बिना, जहां प्रभावित लोगों को मदद आवश्यक थी वहां सेना के जवानों को पहुँचने के लिए निर्देशित किया।[26][22] — अफगानिस्तान के मुख्य कार्यकारी अधिकारी अब्दुल्ला अब्दुल्ला ने आपदा की प्रतिक्रिया करने के लिए वरिष्ठ अधिकारियों की एक आपात बैठक बुलाई।[27] — भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अफगानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ गनी और अपने पाकिस्तानी समकक्ष नवाज शरीफ से संपर्क किया और मदद की पेशकश की।[11] [28] — संयुक्त राष्ट्र के महासचिव बान की मून के अनुसार, संयुक्त राष्ट्र एजेंसियों पाकिस्तानी और अफगान राहत कार्यों की सहायता के लिए तैयारी कर रहे हैं।[29] हाल ही में आए भूकंप के अध्ययन हाल के अध्ययन में, भूवैज्ञानिकों का दावा है कि भूमंडलीय ऊष्मीकरण में वृद्धि, हल ही में हुई भूकंपीय गतिविधि के कारणों में से एक है। इन अध्ययनों के अनुसार ग्लेशियरों के पिघलने और बढते समुद्र के जल स्तर से पृथ्वी की टेक्टोनिक प्लेटों पर दबाव का संतुलन अस्तव्यस्त है और इस प्रकार भूकंप की तीव्रता आवृत्ति में वृद्धि के कारण हैं। यही कारण है कि हिमालय हाल के वर्षों में भूकंप से ग्रस्त हो रहे हैं।[30] इन्हें भी देखें 2015 नेपाल भूकम्प सन्दर्भ श्रेणी:पाकिस्तान में भूकम्प श्रेणी:अफ़ग़ानिस्तान में भूकम्प श्रेणी:2015_में_आपदाएँ
हिन्दू कुश भूकंप से कितने लोगो की मृत्यु हुई?
कम से कम 398
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महाभारत हिन्दुओं का एक प्रमुख काव्य ग्रंथ है, जो स्मृति के इतिहास वर्ग में आता है। कभी कभी इसे केवल ."भारत" कहा जाता है। यह काव्यग्रंथ भारत का अनुपम 022470धार्मिक, पौराणिक, ऐतिहासिक और दार्शनिक ग्रंथ हैं।[1] विश्व का सबसे लंबा यह साहित्यिक ग्रंथ और महाकाव्य, हिन्दू धर्म के मुख्यतम ग्रंथों में से एक है। इस ग्रन्थ को हिन्दू धर्म में पंचम वेद माना जाता है।[2] यद्यपि इसे साहित्य की सबसे अनुपम कृतियों में से एक माना जाता है, किन्तु आज भी यह ग्रंथ प्रत्येक भारतीय के लिये एक अनुकरणीय स्रोत है। यह कृति प्राचीन भारत के इतिहास की एक गाथा है। इसी में हिन्दू धर्म का पवित्रतम ग्रंथ भगवद्गीता सन्निहित है। पूरे महाभारत में लगभग १,१०,००० श्लोक हैं[3], जो यूनानी काव्यों इलियड और ओडिसी से परिमाण में दस गुणा अधिक हैं।[4][5] हिन्दू मान्यताओं, पौराणिक संदर्भो एवं स्वयं महाभारत के अनुसार इस काव्य का रचनाकार वेदव्यास जी को माना जाता है। इस काव्य के रचयिता वेदव्यास जी ने अपने इस अनुपम काव्य में वेदों, वेदांगों और उपनिषदों के गुह्यतम रहस्यों का निरुपण किया हैं। इसके अतिरिक्त इस काव्य में न्याय, शिक्षा, चिकित्सा, ज्योतिष, युद्धनीति, योगशास्त्र, अर्थशास्त्र, वास्तुशास्त्र, शिल्पशास्त्र, कामशास्त्र, खगोलविद्या तथा धर्मशास्त्र का भी विस्तार से वर्णन किया गया हैं।[6] मूल काव्य रचना इतिहास वेदव्यास जी को महाभारत पूरा रचने में ३ वर्ष लग गये थे, इसका कारण यह हो सकता है कि उस समय लेखन लिपि कला का इतना विकास नही हुआ था, उस काल में ऋषियों द्वारा वैदिक ग्रन्थों को पीढ़ी दर पीढ़ी परम्परागत मौखिक रूप से याद करके सुरक्षित रखा जाता था।[7] उस समय संस्कृत ऋषियों की भाषा थी और ब्राह्मी आम बोलचाल की भाषा हुआ करती थी।[8] इस प्रकार ऋषियों द्वारा सम्पूर्ण वैदिक साहित्य मौखिक रूप से याद कर पीढ़ी दर पीढ़ी सहस्त्रों वर्षों तक याद रखा गया। फिर धीरे धीरे जब समय के प्रभाव से वैदिक युग के पतन के साथ ही ऋषियों की वैदिक साहित्यों को याद रखने की शैली लुप्त हो गयी तब से वैदिक साहित्य को पाण्डुलिपियों पर लिखकर सुरक्षित रखने का प्रचलन हो गया। यह सर्वमान्य है कि महाभारत का आधुनिक रूप कई अवस्थाओं से गुजर कर बना है।[9] विद्वानों द्वारा इसकी रचना की चार प्रारम्भिक अवस्थाएं पहचानी गयी हैं। ये अवस्थाएं संभावित रचना काल क्रम में निम्न लिखित हैं: प्रारम्भिक चार अवस्थाएं ३१०० ईसा पूर्व[10][11] १) सर्वप्रथम वेदव्यास द्वारा १०० पर्वों के रूप में एक लाख श्लोकों का रचित भारत महाकाव्य, जो बाद में महाभारत के नाम से प्रसिद्ध हुआ।[10][12][13] २) दूसरी बार व्यास जी के कहने पर उनके शिष्य वैशम्पायन जी द्वारा पुनः इसी "भारत" महाकाव्य को जनमेजय के यज्ञ समारोह में ऋषि-मुनियों को सुनाना।[10][12][12][13] २००० ईसा पूर्व ३) तीसरी बार फिर से ‍वैशम्पायन और ऋषि-मुनियो की इस वार्ता के रूप में कही गयी "महाभारत" को सूत जी द्वारा पुनः १८ पर्वों के रूप में सुव्यवस्थित करके समस्त ऋषि-मुनियों को सुनाना।[12][14] १२००-६०० ईसा पूर्व ४) सूत जी और ऋषि-मुनियों की इस वार्ता के रूप में कही गयी "महाभारत" का लेखन कला के विकसित होने पर सर्वप्रथम् ब्राह्मी या संस्कृत में हस्तलिखित पाण्डुलिपियों के रूप में लिपी बद्ध किया जाना। भंडारकर संस्थान द्वारा इसके बाद भी कई विद्वानो द्वारा इसमें बदलती हुई रीतियो के अनुसार बदलाव किया गया, जिसके कारण उपलब्ध प्राचीन हस्तलिखित पाण्डुलिपियो में कई भिन्न भिन्न श्लोक मिलते हैं, इस समस्या के निदान के लिये पुणे में स्थित ने पूरे दक्षिण एशिया में उपलब्ध महाभारत की सभी पाण्डुलिपियों (लगभग १०, ०००) का शोध और अनुसंधान करके उन सभी में एक ही समान पाये जाने वाले लगभग ७५,००० श्लोकों को खोजकर उनका सटिप्पण एवं समीक्षात्मक संस्करण प्रकाशित किया, कई खण्डों वाले १३,००० पृष्ठों के इस ग्रंथ का सारे संसार के सुयोग्य विद्वानों ने स्वागत किया।[15][16] ऐतिहासिक एवं भाषाई प्रमाण १००० ईसा पूर्व महाभारत में गुप्त और मौर्य कालीन राजाओं तथा जैन(१०००-७०० ईसा पूर्व) और बौद्ध धर्म(७००-२०० ईसा पूर्व) का भी वर्णन नहीं आता।[17] साथ ही शतपथ ब्राह्मण[18](११०० ईसा पूर्व) एवं छांदोग्य-उपनिषद(१००० ईसा पूर्व) में भी महाभारत के पात्रों का वर्णन मिलता है। अतएव यह निश्चित तौर पर १००० ईसा पूर्व से पहले रची गयी होगी।[19] ६००-४०० ईसा पूर्व पाणिनि द्वारा रचित अष्टाध्यायी(६००-४०० ईसा पूर्व) में महाभारत और भारत दोनों का उल्लेख हैं तथा इसके साथ साथ श्रीकृष्ण एवं अर्जुन का भी संदर्भ आता है अतएव यह निश्चित है कि महाभारत और भारत पाणिनि के काल के बहुत पहले से ही अस्तित्व में रहे थे।[10][12][19][20][21] प्रथम शताब्दी यूनान के पहली शताब्दी के राजदूत डियो क्ररायसोसटम (Dio Chrysostom) यह बताते है की दक्षिण-भारतीयों के पास एक लाख श्लोकों का एक ग्रंथ है[12][22][23], जिससे यह पता चलता है कि महाभारत पहली शताब्दी में भी एक लाख श्लोकों का था। महाभारत की कहानी को ही बाद के मुख्य यूनानी ग्रंथों इलियड और ओडिसी में बार-बार अन्य रूप से दोहराया गया, जैसे धृतराष्ट्र का पुत्र मोह, कर्ण-अर्जुन प्रतिस्पर्धा आदि।[24] संस्कृत की सबसे प्राचीन पहली शताब्दी की एमएस स्पित्ज़र पाण्डुलिपि में भी महाभारत के १८ पर्वों की अनुक्रमणिका दी गयी है[25], जिससे यह पता चलता है कि इस काल तक महाभारत १८ पर्वों के रूप में प्रसिद्ध थी, यद्यपि १०० पर्वों की अनुक्रमणिका बहुत प्राचीन काल में प्रसिद्ध रही होगी, क्योंकि वेदव्यास जी ने महाभारत की रचना सर्वप्रथम १०० पर्वों में की थी, जिसे बाद में सूत जी ने १८ पर्वों के रूप में व्यवस्थित कर ऋषियों को सुनाया था।[26] ५वीं शताब्दी महाराजा शरवन्थ के ५वीं शताब्दी के तांबे की स्लेट पर पाये गये अभिलेख में महाभारत को एक लाख श्लोकों की संहिता बताया गया है।[27] वह अभिलेख निम्नलिखित है: “ उक्तञच महाभारते शतसाहस्त्रयां संहितायां पराशरसुतेन वेदव्यासेन व्यासेन। „ पुरातत्त्व प्रमाण (१९०० ई.पू से पहले) सरस्वती नदी प्राचीन वैदिक सरस्वती नदी का महाभारत में कई बार वर्णन आता हैं, बलराम जी द्वारा इसके तट के समान्तर प्लक्ष पेड़ (प्लक्षप्रस्त्रवण, यमुनोत्री के पास) से प्रभास क्षेत्र (वर्तमान कच्छ का रण) तक तीर्थयात्रा का वर्णन भी महाभारत में आता है।[28] कई भू-विज्ञानी मानते हैं कि वर्तमान सूखी हुई घग्गर-हकरा नदी ही प्राचीन वैदिक सरस्वती नदी थी, जो ५०००-३००० ईसा पूर्व पूरे प्रवाह से बहती थी और लगभग १९०० ईसा पूर्व में भूगर्भी परिवर्तनों के कारण सूख गयी थी। ऋग्वेद में वर्णित प्राचीन वैदिक काल में सरस्वती नदी को नदीतमा की उपाधि दी गई थी। उनकी सभ्यता में सरस्वती नदी ही सबसे बड़ी और मुख्य नदी थी, गंगा नहीं। भूगर्भी परिवर्तनों के कारण सरस्वती नदी का पानी यमुना में चला गया, गंगा-यमुना संगम स्थान को 'त्रिवेणी' (गंगा-यमुना-सरस्वती) संगम मानते है।[29] इस घटना को बाद के वैदिक साहित्यों में वर्णित हस्तिनापुर के गंगा द्वारा बहाकर ले जाने से भी जोड़ा जाता है क्योंकि पुराणों में आता है कि परीक्षित की २८ पीढियों के बाद गंगा में बाढ़ आ जाने के कारण सम्पूर्ण हस्तिनापुर पानी में बह गया और बाद की पीढियों ने कौशाम्बी को अपनी राजधानी बनाया। महाभारत में सरस्वती नदी के विनाश्न नामक तीर्थ पर सूखने का सन्दर्भ आता है जिसके अनुसार मलेच्छों से द्वेष होने के कारण सरस्वती नदी ने मलेच्छ (सिंध के पास के) प्रदेशो में जाना बंद कर दिया। द्वारका भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग ने गुजरात के पश्चिमी तट पर समुद्र में डूबे ४०००-३५०० वर्ष पुराने शहर खोज निकाले हैं। इनको महाभारत में वर्णित द्वारका के सन्दर्भों से जोड़ा गया है। प्रो॰एस.आर राव ने कई तर्क देकर इस नगरी को द्वारका सिद्ध किया है। यद्यपि अभी मतभेद जारी है क्योंकि गुजरात के पश्चिमी तट पर कई अन्य ७५०० वर्ष पुराने शहर भी मिल चुके हैं। निष्कर्ष इन सम्पूर्ण तथ्यों से यह माना जा सकता है कि महाभारत निश्चित तौर पर 95०-8०० ईसा पूर्व रची गयी होगीं,[17] जो महाभारत में वर्णित ज्योतिषीय तिथियों, भाषाई विश्लेषण, विदेशी सूत्रों एवं पुरातत्व प्रमाणों से मेल खाती है। परन्तु आधुनिक संस्करण की रचना ६००-२०० ईसा पूर्व हुई होगी। अधिकतर अन्य वैदिक साहित्यों के समान ही यह महाकाव्य भी पहले वाचिक परंपरा द्वारा हम तक पीढी दर पीढी पहुँचा और बाद में छपाई की कला के विकसित होने से पहले ही इसके बहुत से अन्य भौगोलिक संस्करण भी हो गये, जिनमें बहुत सी ऐसी घटनायें हैं जो मूल कथा में नहीं दिखती या फिर किसी अन्य रूप में दिखती है। परिचय आरम्भ महाभारत ग्रंथ का आरम्भ निम्न श्लोक के साथ होता है: “ नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम्।देवीं सरस्वतीं चैव ततो जयमुदीरयेत्।। „ परन्तु महाभारत के आदिपर्व में दिये वर्णन के अनुसार कई विद्वान इस ग्रंथ का आरम्भ "नारायणं नमस्कृत्य" से, तो कोई आस्तिक पर्व से और दूसरे विद्वान ब्राह्मण उपचिर वसु की कथा से इसका आरम्भ मानते हैं।[30] विभिन्न नाम यह महाकाव्य 'जय संहिता', 'भारत' और 'महभारत' इन तीन नामों से प्रसिद्ध हैं। वास्तव में वेद व्यास जी ने सबसे पहले १,००,००० श्लोकों के परिमाण के 'भारत' नामक ग्रंथ की रचना की थी, इसमें उन्होने भारतवंशियों के चरित्रों के साथ-साथ अन्य कई महान ऋषियों, चन्द्रवंशी-सूर्यवंशी राजाओं के उपाख्यानों सहित कई अन्य धार्मिक उपाख्यान भी डाले। इसके बाद व्यास जी ने २४,००० श्लोकों का बिना किसी अन्य ऋषियों, चन्द्रवंशी-सूर्यवंशी राजाओं के उपाख्यानों का केवल भारतवंशियों को केन्द्रित करके 'भारत' काव्य बनाया। इन दोनों रचनाओं में धर्म की अधर्म पर विजय होने के कारण इन्हें 'जय' भी कहा जाने लगा। महाभारत में एक कथा आती है कि जब देवताओं ने तराजू के एक पासे में चारों "वेदों" को रखा और दूसरे पर 'भारत ग्रंथ' को रखा, तो 'भारत ग्रंथ' सभी वेदों की तुलना में सबसे अधिक भारी सिद्ध हुआ। अतः 'भारत' ग्रंथ की इस महत्ता (महानता) को देखकर देवताओं और ऋषियों ने इसे 'महाभारत' नाम दिया और इस कथा के कारण मनुष्यों में भी यह काव्य 'महाभारत' के नाम से सबसे अधिक प्रसिद्ध हुआ।[31] ग्रन्थ लेखन की कथा महाभारत में ऐसा वर्णन आता है कि वेदव्यास जी ने हिमालय की तलहटी की एक पवित्र गुफा में तपस्या में संलग्न तथा ध्यान योग में स्थित होकर महाभारत की घटनाओं का आदि से अन्त तक स्मरण कर मन ही मन में महाभारत की रचना कर ली।[32] परन्तु इसके पश्चात उनके सामने एक गंभीर समस्या आ खड़ी हुई कि इस काव्य के ज्ञान को सामान्य जन साधारण तक कैसे पहुँचाया जाये क्योंकि इसकी जटिलता और लम्बाई के कारण यह बहुत कठिन था कि कोई इसे बिना कोई गलती किए वैसा ही लिख दे जैसा कि वे बोलते जाएँ। इसलिए ब्रह्मा जी के कहने पर व्यास गणेश जी के पास पहुँचे। गणेश जी लिखने को तैयार हो गये, किंतु उन्होंने एक शर्त रखी कि कलम एक बार उठा लेने के बाद काव्य समाप्त होने तक वे बीच नहीं रुकेंगे।[33] व्यासजी जानते थे कि यह शर्त बहुत कठनाईयाँ उत्पन्न कर सकती हैं अतः उन्होंने भी अपनी चतुरता से एक शर्त रखी कि कोई भी श्लोक लिखने से पहले गणेश जी को उसका अर्थ समझना होगा। गणेश जी ने यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। इस तरह व्यास जी बीच-बीच में कुछ कठिन श्लोकों को रच देते थे, तो जब गणेश उनके अर्थ पर विचार कर रहे होते उतने समय में ही व्यास जी कुछ और नये श्लोक रच देते। इस प्रकार सम्पूर्ण महाभारत ३ वर्षों के अन्तराल में लिखी गयी।[33][34] वेदव्यास जी ने सर्वप्रथम पुण्यकर्मा मानवों के उपाख्यानों सहित एक लाख श्लोकों का आद्य भारत ग्रंथ बनाया। तदन्तर उपाख्यानों को छोड़कर चौबीस हजार श्लोकों की भारत संहिता बनायी। तत्पश्चात व्यास जी ने साठ लाख श्लोकों की एक दूसरी संहिता बनायी, जिसके तीस लाख श्लोकों देवलोक में, पंद्रह लाख पितृलोक में तथा चौदह लाख श्लोक गन्धर्वलोक में समादृत हुए। मनुष्यलोक में एक लाख श्लोकों का आद्य भारत प्रतिष्ठित हुआ। महाभारत ग्रंथ की रचना पूर्ण करने के बाद वेदव्यास जी ने सर्वप्रथम अपने पुत्र शुकदेव को इस ग्रंथ का अध्ययन कराया तदन्तर अन्य शिष्यों वैशम्पायन, पैल, जैमिनि, असित-देवल आदि को इसका अध्ययन कराया।[35] शुकदेव जी ने गन्धर्वों, यक्षों और राक्षसों को इसका अध्ययन कराया। देवर्षि नारद ने देवताओं को, असित-देवल ने पितरों को और वैशम्पायन जी ने मनुष्यों को इसका प्रवचन दिया।[36] वैशम्पायन जी द्वारा महाभारत काव्य जनमेजय के यज्ञ समारोह में सूत सहित कई ऋषि-मुनियों को सुनाया गया था। विशालता महाभारत की विशालता और दार्शनिक गूढता न केवल भारतीय मूल्यों का संकलन है बल्कि हिन्दू धर्म और वैदिक परम्परा का भी सार है। महाभारत की विशालता का अनुमान उसके प्रथमपर्व में उल्लेखित एक श्लोक से लगाया जा सकता है: “ "जो यहाँ (महाभारत में) है वह आपको संसार में कहीं न कहीं अवश्य मिल जायेगा, जो यहाँ नहीं है वो संसार में आपको अन्यत्र कहीं नहीं मिलेगा"[37] „ महाभारत का १८ पर्वो और १०० उपपर्वो में विभाग[38] पृष्ठभूमि और इतिहास महाभारत चंद्रवंशियों के दो परिवारों कौरव और पाण्डव के बीच हुए युद्ध का वृत्तांत है। १०० कौरव भाइयों और पाँच पाण्डव भाइयों के बीच भूमि के लिए जो संघर्ष चला उससे अंतत: महाभारत युद्ध का सृजन हुआ। इस युद्ध की भारतीय और पश्चिमी विद्वानों द्वारा कई भिन्न भिन्न निर्धारित की गयी तिथियाँ निम्नलिखित हैं- विश्व विख्यात भारतीय गणितज्ञ एवं खगोलज्ञ वराहमिहिर के अनुसार महाभारत युद्ध २४४९ ईसा पूर्व हुआ था।[39] विश्व विख्यात भारतीय गणितज्ञ एवं खगोलज्ञ आर्यभट के अनुसार महाभारत युद्ध १८ फ़रवरी ३१०२ ईसा पूर्व में हुआ था।[40] चालुक्य राजवंश के सबसे महान सम्राट पुलकेसि २ के ५वीं शताब्दी के ऐहोल अभिलेख में यह बताया गया है कि भारत युद्ध को हुए ३, ७३५ वर्ष बीत गए है, इस दृष्टिकोण से महाभारत का युद्ध ३१०० ईसा पूर्व लड़ा गया होगा।[41] पुराणों की माने तो यह युद्ध १९०० ईसा पूर्व हुआ था, पुराणों में दी गई विभिन्न राज वंशावली को यदि चन्द्रगुप्त मौर्य से मिला कर देखा जाये तो १९०० ईसा पूर्व की तिथि निकलती है, परन्तु कुछ विद्वानों के अनुसार चन्द्रगुप्त मौर्य १५०० ईसा पूर्व में हुआ था, यदि यह माना जाये तो ३१०० ईसा पूर्व की तिथि निकलती है क्योंकि यूनान के राजदूत मेगस्थनीज ने अपनी पुस्तक "इंडिका" में जिस चन्द्रगुप्त का उल्लेख किया था वो गुप्त वंश का राजा चन्द्रगुप्त भी हो सकता है।[42] अधिकतर पश्चिमी विद्वान जैसे मायकल विटजल के अनुसार भारत युद्ध १२०० ईसा पूर्व में हुआ था, जो इसे भारत में लौह युग (१२००-८०० ईसा पूर्व) से जोड़कर देखते हैं।[43] अधिकतर भारतीय विद्वान जैसे बी ऐन अचर, एन एस राजाराम, के सदानन्द, सुभाष काक ग्रह-नक्षत्रों की आकाशीय गणनाओं के आधार पर इसे ३०६७ ईसा पूर्व और कुछ यूरोपीय विद्वान जैसे पी वी होले इसे १३ नवंबर ३१४३ ईसा पूर्व में आरम्भ हुआ मानते हैं।[44][45] भारतीय विद्वान पी वी वारटक महाभारत में वर्णित ग्रह-नक्षत्रों की आकाशीय गणनाओं के आधार पर इसे १६ अक्टूबर ५५६१ ईसा पूर्व में आरम्भ हुआ मानते हैं। उनके अनुसार यूनान के राजदूत मेगस्थनीज ने अपनी पुस्तक "इंडिका" में अपनी भारत यात्रा के समय जमुना (यमुना) के तट पर बसे मेथोरा (मथुरा) राज्य में शूरसेनियों से भेंट का वर्णन किया था, मेगस्थनीज ने यह बताया था कि ये शूरसेनी किसी हेराकल्स नामक देवता की पूजा करते थे और ये हेराकल्स काफी चमत्कारी पुरुष होता था तथा चन्द्रगुप्त से १३८ पीढ़ी पहले था। हेराकल्स ने कई विवाह किए और कई पुत्र उत्पन्न किए। परन्तु उसके सभी पुत्र आपस में युद्ध करके मारे गये। यहाँ ये स्पष्ट है कि ये हेराकल्स श्रीकृष्ण ही थे, विद्वान इन्हें हरिकृष्ण कह कर श्रीकृष्ण से जोड़ते है क्योंकि श्रीकृष्ण चन्द्रगुप्त से १३८ पीढ़ी पहले थे तो यदि एक पीढी को २०-३० वर्ष दे तो ३१००-५६०० ईसा पूर्व श्रीकृष्ण का जन्म समय निकलता है अतः इस आधार पर महाभारत का युद्ध ५६००-३१०० ईसा पूर्व के समय हुआ होगा।[45][46] महाभारत की संक्षिप्त कथा मुख्य उल्लेख:महाभारत की विस्तृत कथा कुरुवंश की उत्पत्ति और पाण्डु का राज्य अभिषेक पुराणों के अनुसार ब्रह्मा जी से अत्रि, अत्रि से चन्द्रमा, चन्द्रमा से बुध और बुध से इला-नन्दन पुरूरवा का जन्म हुआ। उनसे आयु, आयु से राजा नहुष और नहुष से ययाति उत्पन्न हुए। ययाति से पुरू हुए। पूरू के वंश में भरत और भरत के कुल में राजा कुरु हुए। कुरु के वंश में शान्तनु हुए। शान्तनु से गंगानन्दन भीष्म उत्पन्न हुए। शान्तनु से सत्यवती के गर्भ से चित्रांगद और विचित्रवीर्य उत्पन्न हुए थे। चित्रांगद नाम वाले गन्धर्व के द्वारा मारे गये और राजा विचित्रवीर्य राजयक्ष्मा से ग्रस्त हो स्वर्गवासी हो गये। तब सत्यवती की आज्ञा से व्यासजी ने नियोग के द्वारा अम्बिका के गर्भ से धृतराष्ट्र और अम्बालिका के गर्भ से पाण्डु को उत्पन्न किया। धृतराष्ट्र ने गांधारी द्वारा सौ पुत्रों को जन्म दिया, जिनमें दुर्योधन सबसे बड़ा था और पाण्डु के युधिष्टर, भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव आदि पांच पुत्र हुए। धृतराष्ट्र जन्म से ही नेत्रहीन थे, अतः उनकी जगह पर पाण्डु को राजा बनाया गया। एक बार वन में आखेट खेलते हुए पाण्डु के बाण से एक मैथुनरत मृगरुपधारी ऋषि की मृत्यु हो गयी। उस ऋषि से शापित हो कि "अब जब कभी भी तू मैथुनरत होगा तो तेरी मृत्यु हो जायेगी", पाण्डु अत्यन्त दुःखी होकर अपनी रानियों सहित समस्त वासनाओं का त्याग करके तथा हस्तिनापुर में धृतराष्ट्र को अपना का प्रतिनिधि बनाकर वन में रहने लगें। पाण्डवों का जन्म तथा लाक्षागृह षडयंत्र राजा पाण्डु के कहने पर कुन्ती ने दुर्वासा ऋषि के दिये मन्त्र से धर्म को आमन्त्रित कर उनसे युधिष्ठिर और कालान्तर में वायुदेव से भीम तथा इन्द्र से अर्जुन को उत्पन्न किया। कुन्ती से ही उस मन्त्र की दीक्षा ले माद्री ने अश्वनीकुमारों से नकुल तथा सहदेव को जन्म दिया। एक दिन राजा पाण्डु माद्री के साथ वन में सरिता के तट पर भ्रमण करते हुए पाण्डु के मन चंचल हो जाने से मैथुन में प्रवृत हुये जिससे शापवश उनकी मृत्यु हो गई। माद्री उनके साथ सती हो गई किन्तु पुत्रों के पालन-पोषण के लिये कुन्ती हस्तिनापुर लौट आई। कुन्ती ने विवाह से पहले सूर्य के अंश से कर्ण को जन्म दिया और लोकलाज के भय से कर्ण को गंगा नदी में बहा दिया। धृतराष्ट्र के सारथी अधिरथ ने उसे बचाकर उसका पालन किया। कर्ण की रुचि युद्धकला में थी अतः द्रोणाचार्य के मना करने पर उसने परशुराम से शिक्षा प्राप्त की। शकुनि के छलकपट से दुर्योधन ने पाण्डवों को बचपन में कई बार मारने का प्रयत्न किया तथा युवावस्था में भी जब युधिष्ठिर को युवराज बना दिया गया तो लाक्ष के बने हुए घर लाक्षाग्रह में पाण्डवों को भेजकर उन्हें आग से जलाने का प्रयत्न किया, किन्तु विदुर की सहायता के कारण से वे उस जलते हुए गृह से बाहर निकल गये। द्रौपदी स्वयंवर पाण्डव वहाँ से एकचक्रा नगरी गये और मुनि का वेष बनाकर एक ब्राह्मण के घर में निवास करने लगे। फिर व्यास जी के कहने पर वे पांचाल राज्य में गये जहाँ द्रौपदी का स्वयंवर होनेवाला था। वहाँ एक के बाद एक सभी राजाओं एवं राजकुमारों ने मछली पर निशाना साधने का प्रयास किया किन्तु सफलता हाथ न लगी। तत्पश्चात् अर्जुन ने तैलपात्र में प्रतिबिम्ब को देखते हुये एक ही बाण से मत्स्य को भेद डाला और द्रौपदी ने आगे बढ़ कर अर्जुन के गले में वरमाला डाल दीं। माता कुन्ती के वचनानुसार पाँचों पाण्डवों ने द्रौपदी को पत्नीरूप में प्राप्त किया। द्रौपदी के स्वयंवर के समय दुर्योधन के साथ ही साथ द्रुपद,धृष्टद्युम्न एवं अनेक अन्य लोगों को संदेह हो गया था कि वे पाँच ब्राह्मण पाण्डव ही हैं। अतः उनकी परीक्षा करने के लिये द्रुपद ने उन्हें अपने राजप्रासाद में बुलाया। राजप्रासाद में द्रुपद एवं धृष्टद्युम्न ने पहले राजकोष को दिखाया किन्तु पाण्डवों ने वहाँ रखे रत्नाभूषणों तथा रत्न-माणिक्य आदि में किसी प्रकार की रुचि नहीं दिखाई। किन्तु जब वे शस्त्रागार में गये तो वहाँ रखे अस्त्र-शस्त्रों में उन सभी ने बहुत अधिक रुचि दिखायी और अपनी पसंद के शस्त्रों को अपने पास रख लिया। उनके क्रिया-कलाप से द्रुपद को विश्वास हो गया कि ये ब्राह्मणों के रूप में पाण्डव ही हैं। इन्द्रप्रस्थ की स्थापना द्रौपदी स्वयंवर से पूर्व विदुर को छोड़कर सभी पाण्डवों को मृत समझने लगे और इस कारण धृतराष्ट्र ने दुर्योधन को युवराज बना दिया। गृहयुद्ध के संकट से बचने के लिए युधिष्ठिर ने धृतराष्ट्र द्वारा दिए खण्डहर स्वरुप खाण्डव वन को आधे राज्य के रूप में स्वीकार कर लिया। वहाँ अर्जुन ने श्रीकृष्ण के साथ मिलकर समस्त देवताओं को युद्ध में परास्त करते हुए खाण्डववन को जला दिया और इन्द्र के द्वारा की हुई वृष्टि का अपने बाणों के छत्राकार बाँध से निवारण करके अग्नि देव को तृप्त किया। इसके फलस्वरुप अर्जुन ने अग्निदेव से दिव्य गाण्डीव धनुष और उत्तम रथ तथा श्रीकृष्ण ने सुदर्शन चक्र प्राप्त किया। इन्द्र अपने पुत्र अर्जुन की वीरता देखकर अतिप्रसन्न हुए। उन्होंने खांडवप्रस्थ के वनों को हटा दिया। उसके उपरांत पाण्डवों ने श्रीकृष्ण के साथ मय दानव की सहायता से उस शहर का सौन्दर्यीकरण किया। वह शहर एक द्वितीय स्वर्ग के समान हो गया। इन्द्र के कहने पर देव शिल्पी विश्वकर्मा और मय दानव ने मिलकर खाण्डव वन को इन्द्रपुरी जितने भव्य नगर में निर्मित कर दिया, जिसे इन्द्रप्रस्थ नाम दिया गया। द्रौपदी का अपमान और पाण्डवों का वनवास पाण्डवों ने सम्पूर्ण दिशाओं पर विजय पाते हुए प्रचुर सुवर्णराशि से परिपूर्ण राजसूय यज्ञ का अनुष्ठान किया। उनका वैभव दुर्योधन के लिये असह्य हो गया अतः शकुनि, कर्ण और दुर्योधन आदि ने युधिष्ठिर के साथ जूए में प्रवृत्त होकर उसके भाइयो, द्रौपदी और उनके राज्य को कपट द्यूत के द्वारा हँसते-हँसते जीत लिया और कुरु राज्य सभा में द्रौपदी को निर्वस्त्र करने का प्रयास किया। परन्तु गांधारी ने आकर ऐसा होने से रोक दिया। धृतराष्ट्र ने एक बार फिर दुर्योधन की प्रेरणा से उन्हें से जुआ खेलने की आज्ञा दी। यह तय हुआ कि एक ही दांव में जो भी पक्ष हार जाएगा, वे मृगचर्म धारण कर बारह वर्ष वनवास करेंगे और एक वर्ष अज्ञातवास में रहेंगे। उस एक वर्ष में भी यदि उन्हें पहचान लिया गया तो फिर से बारह वर्ष का वनवास भोगना होगा। इस प्रकार पुन जूए में परास्त होकर युधिष्ठिर अपने भाइयों सहित वन में चले गये। वहाँ बारहवाँ वर्ष बीतने पर एक वर्ष के अज्ञातवास के लिए वे विराट नगर में गये[47]। जब कौरव विराट की गौओं को हरकर ले जाने लगे, तब उन्हें अर्जुन ने परास्त किया। उस समय कौरवों ने पाण्डवों को पहचान लिया था परन्तु उनका का अज्ञातवास तब तक पूरा हो चुका था। परन्तु १२ वर्षो के ज्ञात और एक वर्ष के अज्ञातवास पूरा करने के बाद भी कौरवों ने पाण्डवों को उनका राज्य देने से मना कर दिया। शांतिदूत श्रीकृष्ण, युद्ध आरंभ तथा गीता-उपदेश धर्मराज युधिष्ठिर सात अक्षौहिणी सेना के स्वामी होकर कौरवों के साथ युद्ध करने को तैयार हुए। पहले भगवान श्रीकृष्ण दुर्योधन के पास दूत बनकर गये। उन्होंने ग्यारह अक्षौहिणी सेना के स्वामी राजा दुर्योधन से कहा कि तुम युधिष्ठिर को आधा राज्य दे दो या केवल पाँच ही गाँव अर्पित कर युद्ध टाल दों। श्रीकृष्ण की बात सुनकर दुर्योधन ने पाण्डवों को सुई की नोक के बराबर भूमि भी देने से मना कर युद्ध करने का निशचय किया। ऐसा कहकर वह भगवान श्रीकृष्ण को बंदी बनाने के लिये उद्यत हो गया। उस समय राजसभा में भगवान श्रीकृष्ण ने माया से अपने परम दुर्धर्ष विश्वरूप का दर्शन कराकर सबको भयभीत कर दिया। तदनन्तर वे युधिष्ठिर के पास लौट गये और बोले कि दुर्योधन के साथ युद्ध करो। युधिष्ठिर और दुर्योधन की सेनाएँ कुरुक्षेत्र के मैदान में जा डटीं। अपने विपक्ष में पितामह भीष्म तथा आचार्य द्रोण आदि गुरुजनों को देखकर अर्जुन युद्ध से विरत हो गये। तब भगवान श्रीकृष्ण ने उनसे कहा-"पार्थ! भीष्म आदि गुरुजन शोक के योग्य नहीं हैं। मनुष्य का शरीर विनाशशील है, किंतु आत्मा का कभी नाश नहीं होता। यह आत्मा ही परब्रह्म है। 'मैं ब्रह्म हूँ'- इस प्रकार तुम उस आत्मा का अस्तित्व समझो। कार्य की सिद्धि और असिद्धि में समानभाव से रहकर कर्मयोग का आश्रय ले क्षात्रधर्म का पालन करो। इस प्रकार श्रीकृष्ण के ज्ञानयोग, भक्तियोग एवं कर्मयोग के बारे में विस्तार से कहने पर अर्जुन ने फिर से रथारूढ़ हो युद्ध के लिये शंखध्वनि की। दुर्योधन की सेना में सबसे पहले पितामह भीष्म सेनापति हुए। पाण्डवों के सेनापति [धृष्टद्युम्न] थे। इन दोनों में भारी युद्ध छिड़ गया। भीष्मसहित कौरव पक्ष के योद्धा उस युद्ध में पाण्डव-पक्ष के सैनिकों पर प्रहार करने लगे और शिखण्डी आदि पाण्डव- पक्ष के वीर कौरव-सैनिकों को अपने बाणों का निशाना बनाने लगे। कौरव और पाण्डव-सेना का वह युद्ध, देवासुर-संग्राम के समान जान पड़ता था। आकाश में खड़े होकर देखने वाले देवताओं को वह युद्ध बड़ा आनन्ददायक प्रतीत हो रहा था। भीष्म ने दस दिनों तक युद्ध करके पाण्डवों की अधिकांश सेना को अपने बाणों से मार गिराया। भीष्म और द्रोण वध भीष्म ने दस दिनों तक युद्ध करके पाण्डवों की अधिकांश सेना को अपने बाणों से मार गिराया। भीष्म की मृत्यु उनकी इच्छा के अधीन थी। श्रीकृष्ण के सुझाव पर पाण्डवों ने भीष्म से ही उनकी मृत्यु का उपाय पूछा। भीष्म ने कहा कि पांडव शिखंडी को सामने करके युद्ध लड़े। भीष्म उसे कन्या ही मानते थे और उसे सामने पाकर वो शस्त्र नहीं चलाने वाले थे। और शिखंडी को अपने पूर्व जन्म के अपमान का बदला भी लेना था उसके लिये शिवजी से वरदान भी लिया कि भीष्म कि मृत्यु का कारण बनेगी। १०वे दिन के युद्ध में अर्जुन ने शिखंडी को आगे अपने रथ पर बिठाया और शिखंडी को सामने देख कर भीष्म ने अपना धनुष त्याग दिया और अर्जुन ने अपनी बाणवृष्टि से उन्हें बाणों कि शय्या पर सुला दिया। तब आचार्य द्रोण ने सेनापतित्व का भार ग्रहण किया। फिर से दोनों पक्षो में बड़ा भयंकर युद्ध हुआ। विराट और द्रुपद आदि राजा द्रोणरूपी समुद्र में डूब गये थे। लेकिन जब पाण्डवो ने छ्ल से द्रोण को यह विश्वास दिला दिया कि अश्वत्थामा मारा गया। तो आचार्य द्रोण ने निराश हों अस्त्र शस्त्र त्यागकर उसके बाद योग समाधि ले कर अपना शरीर त्याग दिया। ऐसे समय में धृष्टद्युम्न ने योग समाधि लिए द्रोण का मस्तक तलवार से काट कर भूमि पर गिरा दिया। कर्ण और शल्य वध द्रोण वध के पश्चात कर्ण कौरव सेना का कर्णधार हुआ। कर्ण और अर्जुन में भाँति-भाँति के अस्त्र-शस्त्रों से युक्त महाभयानक युद्ध हुआ, जो देवासुर-संग्राम को भी मात करने वाला था। कर्ण और अर्जुन के संग्राम में कर्ण ने अपने बाणों से शत्रु-पक्ष के बहुत-से वीरों का संहार कर डाला। यद्यपि युद्ध गतिरोधपूर्ण हो रहा था लेकिन कर्ण तब उलझ गया जब उसके रथ का एक पहिया धरती में धँस गया। गुरु परशुराम के शाप के कारण वह अपने को दैवीय अस्त्रों के प्रयोग में भी असमर्थ पाकर रथ के पहिए को निकालने के लिए नीचे उतरता है। तब श्रीकृष्ण, अर्जुन को उसके द्वारा किये अभिमन्यु वध, कुरु सभा में द्रोपदी को वेश्या और उसकी कर्ण वध करने की प्रतिज्ञा याद दिलाकर उसे मारने को कहते है, तब अर्जुन ने एक दैवीय अस्त्र से कर्ण का सिर धड़ से अलग कर दिया। तदनन्तर राजा शल्य कौरव-सेना के सेनापति हुए, किंतु वे युद्ध में आधे दिन तक ही टिक सके। दोपहर होते-होते राजा युधिष्ठिर ने उन्हें मार दिया। दुर्योधन वध और महाभारत युद्ध की समाप्ति दुर्योधन की सारी सेना के मारे जाने पर अन्त में उसका भीमसेन के साथ गदा युद्ध हुआ। भीम ने छ्ल से उसकी जांघ पर प्रहार करके उसे मार डाला। इसका प्रतिशोध लेने के लिये अश्वत्थामा ने रात्रि में पाण्डवों की एक अक्षौहिणी सेना, द्रौपदी के पाँचों पुत्रों, उसके पांचालदेशीय बन्धुओं तथा धृष्टद्युम्न को सदा के लिये सुला दिया। तब अर्जुन ने अश्वत्थामा को परास्त करके उसके मस्तक की मणि निकाल ली। फिर अश्वत्थामा ने उत्तरा के गर्भ पर ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया। उसका गर्भ उसके अस्त्र से प्राय दग्ध हो गया था, किंतु भगवान श्रीकृष्ण ने उसको पुन: जीवन-दान दिया। उत्तरा का वही गर्भस्थ शिशु आगे चलकर राजा परीक्षित के नाम से विख्यात हुआ। इस युद्ध के अंत में कृतवर्मा, कृपाचार्य तथा अश्वत्थामा तीन कौरवपक्षिय और पाँच पाण्डव, सात्यकि तथा श्रीकृष्ण ये सात पाण्डवपक्षिय वीर जीवित बचे। तत्पश्चात् युधिष्ठिर राजसिंहासन पर आसीन हुए। यदुकुल का संहार और पाण्डवों का महाप्रस्थान ब्राह्मणों और गांधारी के शाप के कारण यादवकुल का संहार हो गया। बलभद्रजी योग से अपना शरीर त्याग कर शेषनाग स्वरुप होकर समुद्र में चले गये। भगवान कृष्ण के सभी प्रपौत्र एक दिन महामुनियों की शक्ति देखने के लिये एक को स्त्री बनाकर मुनियों के पास गए और पूछा कि हे मुनिश्रेष्ठ! यह महिला गर्भ से है, हमें बताएं कि इसके गर्भ से किसका जन्म होगा? मुनियों को ज्ञात हुआ कि यह बालक उनसे क्रिडा करते हुए एक पुरुष को महिला बना उनके पास लाए हैं। मुनियों ने कृष्ण के प्रपौत्रों को श्रापा कि इस मानव के गर्भ से एक मूसल लिकलेगा जिससे तुम्हारे वंश का अंत होगा। कृष्ण के प्रपौत्रों नें उस मूसल को पत्थर पर रगड़ कर चूरा बना नदी में बहा दिया तथा उसके नोक को फेंक दिया। उस चूर्ण से उत्पन्न वृक्ष की पत्तियों से सभी कृष्ण के प्रपौत्र मृत्यु को प्राप्त किये। यह देख श्रीकृष्ण भी एक पेड़ के नीचे ध्यान लगाकर बेठ गये। 'ज़रा' नाम के एक व्याध (शिकारी) ने अपने बाण की नोक पर मूसल का नोक लगा दिया तथा भगवान कृष्ण के चरणकमल को मृग समझकर उस बाण से प्रहार किया। उस बाण द्वारा कृष्ण के पैर का चुम्बन उनके परमधाम गमन का कारण बना। प्रभु अपने संपूर्ण शरीर के साथ गोलोक प्रस्थान किये।[48] इसके बाद समुद्र ने द्वारकापुरी को अपने जल में डुबा दिया। तदनन्तर द्वारका से लौटे हुए अर्जुन के मुख से यादवों के संहार का समाचार सुनकर युधिष्ठिर ने संसार की अनित्यता का विचार करके परीक्षित को राजासन पर बिठाया और द्रौपदी तथा भाइयों को साथ ले हिमालय की तरफ महाप्रस्थान के पथ पर अग्रसर हुए। उस महापथ में युधिष्ठिर को छोड़ सभी एक-एक करके गिर पड़े। अन्त में युधिष्ठिर इन्द्र के रथ पर आरूढ़ हो (दिव्य रूप धारी) भाइयों सहित स्वर्ग को चले गये। और अधिक यहाँ महाभारत के पात्र मुख्य उल्लेख:महाभारत के पात्र अभिमन्यु: अर्जुन के वीर पुत्र जो कुरुक्षेत्र युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुये। अम्बा: शिखन्डी पूर्व जन्म में अम्बा नामक राजकुमारी था। अम्बिका: विचित्रवीर्य की पत्नी, अम्बा और अम्बालिका की बहिन। अम्बालिका: विचित्रवीर्य की पत्नी, अम्बा और अम्बिका की बहिन। अर्जुन: देवराज इन्द्र द्वारा कुन्ती एवं पान्डु का पुत्र। एक अतुल्निय धनुर्धर जिसको श्री कृष्ण ने श्रीमद् भगवद् गीता का उपदेश दिया था। बभ्रुवाहन: अर्जुन एवं चित्रांग्दा का पुत्र। बकासुर: महाभारत काव्य में एक असुर जिसको भीम ने मार कर एक गांव के वासियों की रक्षा की थी। भीष्म: भीष्म का नामकरण देवव्रत के नाम से हुआ था। वे शान्तनु एवं गंगा के पुत्र थे। जब देवव्रत ने अपने पिता की प्रसन्नता के लिये आजीवन ब्रह्मचारी रहने का प्रण लिया, तब से उनका नाम भीष्म हो गया। द्रौपदी: द्रुपद की पुत्री जो अग्नि से प्रकट हुई थी। द्रौपदी पांचों पांड्वों की अर्धांगिनी थी और उसे आज प्राचीनतम् नारीवादिनियों में एक माना जाता है। द्रोण: हस्तिनापुर के राजकुमारों को शस्त्र विद्या देने वाले ब्राह्मण गुरु। अश्व्थामा के पिता। यह विश्व के प्रथम "टेस्ट-टयूब बेबी" थे। द्रोण एक प्रकार का पात्र होता है। द्रुपद: पांचाल के राजा और द्रौपदी एवमं धृष्टद्युम्न के पिता। द्रुपद और द्रोण बाल्यकाल के मित्र थे! दुर्योधन: कौरवों में ज्येष्ठ। धृतराष्ट्र एवं गांधारी के १०० पुत्रों में सबसे बड़े। दुःशासन: दुर्योधन से छोटा भाई जो द्रौपदी को हस्तिनपुर राज्यसभा में बालों से पकड़ कर लाया था। कुरुक्षेत्र युद्ध में भीम ने दुःशासन की छाती का रक्त पिया था। एकलव्य: द्रोण का एक महान शिष्य जिससे गुरुदक्षिणा में द्रोण ने उसका अंगूठा मांगा था। गांडीव: अर्जुन का धनुष। [जो, कई मान्यताओं के अनुसार, भगवान शिव से इंद्र और उसके बाद अग्नि देव अंत में अग्नि-देव ने अर्जुन को दिया था।] गांधारी: गंधार के राजा की पुत्री और धृतराष्ट्र की पत्नी। जयद्रथ: सिन्धु के राजा और धृतराष्ट्र के दामाद। कुरुक्षेत्र युद्ध में अर्जुन ने जयद्रथ का शीश काट कर वध किया था। कर्ण: सूर्यदेव एवमं कुन्ती के पुत्र और पाण्डवों के सबसे बड़े भाई। कर्ण को दानवीर-कर्ण के नाम से भी जाना जाता है। कर्ण कवच एवं कुंडल पहने हुए पैदा हुये थे और उनका दान इंद्र को किया था। कृपाचार्य: हस्तिनापुर के ब्राह्मण गुरु। इनकी बहिन 'कृपि' का विवाह द्रोण से हुआ था। कृष्ण: देवकी की आठवीं सन्तान जिसने अपने मामा कंस का वध किया था। भगवान कृष्ण ने अर्जुन को कुरुक्षेत्र युध के प्रारम्भ में गीता उपदेश दिया था। श्री कृष्ण, भगवान विष्णु के आठवें अवतार थे। कुरुक्षेत्र: वह क्षेत्र जहाँ महाभारत का महान युद्ध हुआ था। यह क्षेत्र आज के भारत में हरियाणा में स्थित है। पाण्डव: पाण्डु की कुन्ती और माद्री से सन्ताने। यह पांच भाई थे: युद्धिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव। परशुराम: अर्थात् परशु वाले राम। वे द्रोण, भीष्म और कर्ण जैसे महारथियों के गुरु थे। वे भगवान विष्णु का षष्ठम अवतार थे। शल्य: नकुल और सहदेव की माता माद्री के भाई। उत्तरा: राजा विराट की पुत्री। अभिमन्यु कि धर्म्पत्नी। महर्षि व्यास: महाभारत महाकाव्य के लेखक। पाराशर और सत्यवती के पुत्र। इन्हें कृष्ण द्वैपायन के नाम से भी जाना जाता है क्योंकि वे कृष्णवर्ण के थे तथा उनका जन्म एक द्वीप में हुआ था। बलराम: देवकी की सातवीं संतान और शेषनाग के अवतार थे। मान्यता है कि इन्हें नंद की दूसरी पत्नी रोहिणी ने कंस से बचने के लिए देवकी गर्भ से बलराम को धारण किया था। सुभद्रा: यह महारथी अर्जुन की पत्नी एवं भगवान कृष्ण तथा बलराम की बहन थी। रुक्मिणी: कृष्णा की पत्नी महाभारत: अनुपम काव्य विभिन्न भाग एवं रूपान्तर महाभारत के कई भाग हैं जो आमतौर पर अपने आप में एक अलग और पूर्ण पुस्तकें मानी जाती हैं। मुख्य रूप से इन भागों को अलग से महत्व दिया जाता है:- भगवद गीता श्री कृष्ण द्वारा भीष्मपर्व में अर्जुन को दिया गया उपदेश। दमयन्ती अथवा नल दमयन्ती, अरण्यकपर्व में एक प्रेम कथा। कृष्णवार्ता: भगवान श्री कृष्ण की कहानी। राम रामायण का अरण्यकपर्व में एक संक्षिप्त रूप। ॠष्य ॠंग एक ॠषि की प्रेम कथा। विष्णुसहस्रनाम विष्णु के १००० नामों की महिमा शान्तिपर्व में। महाभारत के दक्षिण एशिया मे कई रूपान्तर मिलते हैं, इण्डोनेशिया, श्रीलंका, जावा द्वीप, जकार्ता, थाइलैंड, तिब्बत, बर्मा (म्यान्मार) में महाभारत के भिन्न-भिन्न रूपान्तर मिलते हैं। दक्षिण भारतीय महाभारत मे अधिकतम १,४०,००० श्लोक मिलते हैं, जबकि उत्तर भारतीय महाभारत के रूपान्तर मे १,१०,००० श्लोक मिलते हैं। अठारह की संख्या महाभारत की मूल अभिकल्पना में अठारह की संख्या का विशिष्ट योग हैं। कौरव और पाण्डव पक्षों के मध्य हुए युद्ध की अवधि अठारह दिन थी। दोनों पक्षों की सेनाओं का सम्मिलित संख्याबल भी अठारह अक्षौहिणी था। इस युद्ध के प्रमुख सूत्रधार भी अठारह हैं।[49] महाभारत की प्रबन्ध योजना में सम्पूर्ण ग्रंथ को अठारह पर्वों में विभक्त किया गया हैं और महाभारत में भीष्म पर्व के अन्तर्गत वर्णित श्रीमद्भगवद्गीता में भी अठारह अध्याय हैं। सम्पूर्ण महाभारत अठारह पर्वों में विभक्त हैं।[50] आद्य भारत महाभारत के आदिपर्व के अनुसार वेदव्यास जी ने सर्वप्रथम पुण्यकर्मा मानवों के उपाख्यानों सहित एक लाख श्लोकों का आद्य भारत ग्रंथ बनाया। तदन्तर उपाख्यानों को छोड़कर चौबीस हजार श्लोकों की भारत संहिता बनायी। तत्पश्चात व्यास जी ने साठ लाख श्लोकों की एक दूसरी संहिता बनायी, जिसके तीस लाख श्लोक देवलोक में, पन्द्रह लाख पितृलोक में तथा चौदह लाख श्लोक गन्धर्वलोक में समादृत हुए। मनुष्यलोक में एक लाख श्लोकों का आद्य भारत प्रतिष्ठित हुआ।[36] पृथ्वी के भौगोलिक सन्दर्भ महाभारत में भारत के अतिरिक्त विश्व के कई अन्य भौगोलिक स्थानों का सन्दर्भ भी आता है जैसे चीन का गोबी मरुस्थल[51], मिस्र की नील नदी[52], लाल सागर[53] तथा इसके अतिरिक्त महाभारत के भीष्म पर्व के जम्बूखण्ड-विनिर्माण पर्व में सम्पूर्ण पृथ्वी का मानचित्र भी बताया गया है, जो निम्नलिखित है-: सुदर्शनं प्रवक्ष्यामि द्वीपं तु कुरुनन्दन। परिमण्डलो महाराज द्वीपोऽसौ चक्रसंस्थितः॥ यथा हि पुरुषः पश्येदादर्शे मुखमात्मनः। एवं सुदर्शनद्वीपो दृश्यते चन्द्रमण्डले॥ द्विरंशे पिप्पलस्तत्र द्विरंशे च शशो महान्। -- वेद व्यास, भीष्म पर्व, महाभारत अर्थात: हे कुरुनन्दन ! सुदर्शन नामक यह द्वीप चक्र की भाँति गोलाकार स्थित है, जैसे पुरुष दर्पण में अपना मुख देखता है, उसी प्रकार यह द्वीप चन्द्रमण्डल में दिखायी देता है। इसके दो अंशो मे पिप्पल और दो अंशो मे महान शश (खरगोश) दिखायी देता है। अब यदि उपरोक्त संरचना को कागज पर बनाकर व्यवस्थित करे तो हमारी पृथ्वी का मानचित्र बन जाता है, जो हमारी पृथ्वी के वास्तविक मानचित्र से बहुत समानता दिखाता है: चित्र दीर्घा एक खरगोश और दो पत्तो का चित्र चित्र को उल्टा करने पर बना पृथ्वी का मानचित्र उपरोक्त मानचित्र ग्लोब में प्रचलित मीडिया में १९८८ के लगभग बी आर चोपड़ा निर्मित महाभारत, भारत में दूरदर्शन पर पहली बार धारावाहिक रूप में प्रसारित हुआ। १९८९ में पीटर ब्रुक द्वारा पहली बार यह फिल्म अंग्रेजी में बनी। महाभारत नाम से सूर्यकांत त्रिपाठी निराला ने भी साहित्यिक कृति है। कहानियाँ हमारे महाभारत की नाम से एकता कपूर ने भी एक दूरदर्शन धारावाहिक बनाया था, जिसका प्रसारण २००७ में ९एक्स चैनल पर किया जाता था।[54] एक और महाभारत: भारतीय रेल के अधिकारियों तथा विभिन्न कर्मचारियों द्वारा कहानी संग्रह। कुरुक्षेत्र में एक महाभारत दीर्घा का निर्माण हो रहा है, जिसमें तब के कुछ दृश्यों को जीवंत हुआ देखा जा सकेगा।[55] १००० महाभारत प्रश्नोत्तरी नामक पुस्तक, में महाभारत के गहन ज्ञान पर गुप्त १००० प्रश्न हैं।[2] कुरु वंशवृक्ष धृतराष्ट्रखगांधारीशकुनिकुंतीपांडुखमाद्री कर्णगयुधिष्ठिरघभीमघअर्जुनघसुभद्रानकुलघसहदेवघ दुर्योधनचदुशलादुशासन(अन्य ९८ पुत्रो) अभिमन्युउत्तरा परीक्षित संज्ञासूची पुरुष: नीला किनारा स्त्री: लाल किनारा पांडव: नीला पृष्ठ कौरव: पीला पृष्ठ टिप्पणी क: शांतनु कुरु वंशके राजा थे। उनका प्रथम विवाह गंगा के साथ और दूसरा विवाह सत्यवती के साथ हुआ था। ख: पांडु और धृतराष्ट्र का जन्म विचित्रवीर्य की मृत्यु के बाद व्यास द्वारा नियोग पद्धति से किया गया था। धृतराष्ट्र, पांडु और विदुर को क्रमशः अंबिका, अंबालिका और एक दासी ने जन्मा था। ग: कर्ण को कुंती ने जन्मा था। पांडु के साथ विवाह के पूर्व उसने सूर्य देव का आवाहन किया था जिससे कर्ण उत्पन्न हुए थे। घ: युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव पांडु के पुत्र थे किन्तु उनको कुन्ती एवं माद्री ने विभिन्न देवताओं का आवाहन करके जन्मा था। पाँचों पाण्डवों का विवाह, द्रौपदी से हुआ था, जिसको इस सारणी में नहीं दिखाया गया है। च : दुर्योधन और उसके सभी भाई-बहन एक ही समय में जन्मे थे। वे पाण्डवों के समवयस्क थे। संदर्भ और टीका इन्हें भी देखें महाभारत के विभिन्न संस्करण महाभारत (निराला की रचना) रामायण महाभारत की संक्षिप्त कथा महाभारत के पात्र महाभारत (टीवी धारावाहिक) महाभारत के पर्व कहानियाँ हमारे महाभारत की (टीवी धारावाहिक) हरिवंश पर्व बाहरी कड़ियाँ (केवल संस्कृत पाठ) (हिन्दी में सम्पूर्ण कथा) (गूगल पुस्तक) (गूगल पुस्तक) (गूगल पुस्तक ; चन्द्रकान्त वांदिवडेकर) - यहाँ महाभारत का खोजने योग्य डेटाबेस तथा अन्य सुविधाएँ हैं। - यहाँ देवनागरी और रोमन में महाभारत का पाठ उपलब्ध है; अंग्रेजी अनुवाद उपलब्ध है; और एक जिप संचिका के रूप में सम्पूर्ण महाभारत डाउनलोड करने की सुविधा भी है। - यहाँ देवनागरी विपुल संस्कृत साहित्य उपलब्ध है। सम्पूर्ण महाभारत डाउनलोड करने की सुविधा भी है। (published between 1883 and 1896) चलचित्र १९८९ मूवी पीटर ब्रुक द्वारा निर्देशित १९८० मूवी श्याम बेनेगल द्वारा निर्देशित। यह चलचित्र महाभारत की कहानी पर आधारित है और आधुनिक युग के संदर्भ में कहानी की पुनः वुयाख्या करता है, जिसमें दो परिवार एक औद्योगिक संकाय पर नियन्त्रन के लिए लड़ रहे हैं। श्रेणी:महाभारत श्रेणी:महाभारत कथा श्रेणी:महाभारत श्रेणी:पौराणिक कथाएँ श्रेणी:ऐतिहासिक वीर गाथाएँ श्रेणी:काव्य ग्रन्थ
महाभारत के लेखक कौन थे?
महर्षि व्यास
28,003
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मार्शल ब्रूस III (जन्म 17 अक्टूबर 1972)[1] अपने स्टेज के नाम एमिनेम से बेहतर जाने जाते हैं वह एक अमेरीकी रैप गायक, रिकार्ड निर्माता, गीतकार और अभिनेता हैं। एमिनेम ने जल्द ही 1999 में अपने प्रमुख-लेबल पहले एलबम द स्लिम शेडी एलपी, जो कि एक उत्तम रैप एलबम है, उसके लिए ग्रेमी पुरुस्कार जीत कर लोकप्रियता हासिल की। अगला एलबम द मार्शल एलपी, इतिहास में सबसे तेज़ी से बिकने वाला हिप हॉप एलबम बन गया।[2] इससे एमिनेम की और उनके रिकार्ड लेबल शेडी रिकार्डस की लोकप्रियता बहुत बढ़ गई और उनकी समूह परियोजना डी 12 को मुख्यधारा में मान्यता मिल गई। मार्शल एलपी और उनके तीसरे एलबम द एमिनेम शो ने भी ग्रेमी पुरुस्कार जीता, जिससे वह लगातार तीन बेस्ट रैप एलबम जीतने वाले प्रथम कलाकार बन गये। 2002 में उन्होंने 8 माइल फिल्म में लूज़ योअरसेल्फ गीत के लिए मौलिक गीत का अकादमी पुरुस्कार जीता, जिसमे उन्होंने मुख्य भूमिका भी निभाई. "लूज़ योअरसेल्फ" सबसे लंबे समय तक चलने वाला नम्बर 1 हिप हॉप था।[3] 2005 के दौरे के बाद एमिनेम अंतराल पर चले गए। 2004 की एनकॉर के बाद, उन्होंने 15 मई 2009 को रीलेप्स नामक अपना पहला एलबम जारी किया। एमिनेम इस दशक का सबसे अधिक बिकने वाला कलाकार है,[4] और उसने आज तक 80 मिलियन से अधिक एलबम दुनिया भर में बेचे, जिससे कि वह दुनिया में सबसे अधिक बिकने वाला संगीतकार बन गया।[5] एमिनेम, रोलिंग स्टोन पत्रिका द्वारा चुने गये 100 महानतम कलाकारों में से एक हैं।[6] वाईब मैगज़ीन ने भी उन्हें अभी तक का सर्व श्रेष्ठ रैप गायक कहा है।[7]. डी 12 के साथ अपने काम सहित, एमिनेम ने बिलबोर्ड टॉप 200 पर आठ #1 एलबम प्राप्त की हैं और विश्व भर में 12 नंबर एक एकल. दिसम्बर 2009 में बिलबोर्ड पत्रिका ने उन्हें दशक के कलाकार का नाम दिया है। बिलबोर्ड के अनुसार 2000 में सबसे अधिक बिकने वाली पांच एलबम में से दो एमिनेम की है। प्रारम्भिक जीवन सेंट जोसफ, मिसूरी में पैदा हुए, वह दिबोरह -ब्रिग्स (नी नेल्सन) और मार्शल ब्रूस मैथर्स जूनियर के बेटे थे।[8] वह स्कोत्लेंड,[9] अँगरेज़ी एंव दूरस्थ स्विस और जर्मन मूल के हैं।[10] उनके जन्म के शीघ्र बाद उनके पिता ने अपने परिवार को छोड़ दिया। 12 वर्ष की आयु तक और उनकी माता मिसूरी के विभिन्न शहरों (जिनमें सेंट जोसफ, सवाना और कंसास) भी शामिल थे)[11] में घूमते रहे। फिर वह वारेन, मिशिगन, डेटरोइट के एक उपनगर चले गए। किशोरावस्था में बीस्टी बोयज़ एल्बम लाईसेंसड टु 11i की एक प्रति प्राप्त करने के बाद, को हिप हॉप में रुची हो गयी। 14 वर्ष की आयु में उन्होंने M&amp;M नाम से शौकिया रैप का प्रदर्शन किया और बास्मिंट प्रोड्क्शन नामक एक समूह में शामिल हो कर स्टेपइन औंन टु द सीन के नाम से एक ई पी (EP) जारी की। बाद में उन्होंने अपना नाम बदल कर "सोल इंटेंट" रख लिया और 1995 के आसपास उन्होंने मशीन 'डक रिकार्डस, रिकार्ड लेबल के तहत अपना पहला एकल "फकिन बैकस्टैबर" जारी किया।[1] हालाँकि उन्होंने वारेन के लिंकान हाई स्कूल में दाखिला लिया था फिर भी यह हिप होप दर्शको के अनुमोदन पर पुरे शहर में,[12] ओस्बोर्न हाई स्कूल में फ्री स्टाईल लड़ाई में भाग लेते थे।[1] तरुअनसी[13] के कारण नौवीं कक्षा दो बार दोहराने के बाद उन्हें 17 साल की आयु में स्कूल से निकाल दिया गया।[8] संगीत कैरियर 1992-1998: प्रारंभिक कैरियर और इन्फनिट आद्यतः 1992 में जेफ़ और मार्क बास ब्रदर्ज़ द्वारा चलाई गयी FBT प्रोड्क्शन के लिए साइन किये गये। मैथेर्स ने कुछ समय के लिए सैंट क्लैर शौर पर स्थित गिल्बर्ट लौज के रेस्तरां में खाना पकाने और बर्तन साफ़ करने की न्यूनतम वेतन की नौकरी भी की। [14] 1996 में, उनका प्रथम एलबम इन्फनिट जो कि बास ब्रदर्ज़ के रिकार्डिंग स्टूडियो बास्मिंट में रिकार्ड किया गया, उनके स्वतंत्र लेबल वेब एंटरटेनमेंट के तहत जारी किया गया।[15] एमिनेम कहते हैं: "ज़ाहिर है, मैं जवान था और अन्य कलाकारों से प्रभावित था और मुझे कई जगहों से फीडबैक मिल रहा था कि मेरी आवाज़ नास और ए जेड(AZ) की तरह लगती है। इन्फनिट से मैं पता लगाने की कोशिश कर रहा था कि मैं अपना रैप स्टाइल कैसा बनाना चाहता हूँ, मैं माईक पर कैसे अपनी ध्वनी और स्वयम को प्रस्तुत करना चाहता हूँ. यह एक बढ़ता हुआ चरण था। मैंने अनुभव किया कि इन्फनिट' एक डेमो की तरह था, जो बस दब गया हुआ था।"[16] इन्फनिट में आवृत विषयों में, उनकी नवजात बेटी हैली जेड को सीमित धन से पालने का संघर्ष और अमीर होने की प्रबल इच्छा शामिल हैं।[17] अपने कैरियर के शुरुआत में, एमिनेम ने अपने साथी डेटरोइट MC रौयास दा 5'9" के साथ मिल कर बेड मीट्स इवल नामक स्टेज नाम के तहत काम किया।[18] इन्फनिट जारी होने के बाद, एमिनेम के निजी संघर्ष और ड्रग एंव अल्कोहल के कुप्रयोग की वजह से उन्होंने आत्महत्या करने की असफल कोशिश की। [1] स्लिम शेडी ईपी के जारी होने के साथ मैथेर्स पर अंडरग्राउंड रैपर केज की विषयवस्तु और शैली की नकल करने का आरोप लग गया।[19][20] ईपी का प्रचार करते हुए, ने इन्सेन कलौन पोस्से के सदस्य जोसेफ ब्रूस से सम्पर्क किया और उसे एक प्रचार-पुस्तिका दी, जिसके अनुसार वह समूह ईपी जारी किये जाने की पार्टी में उपस्थित रहेगा. ब्रूस ने आने से इनकार कर दिया क्योंकि मैथेर्स ने पहले उससे उस समूह का नाम उपयोग करने की अनुमति के लिए सम्पर्क नही किया था। ब्रूस की इस प्रतिक्रिया को व्यक्तिगत अपमान के रूप में लेते हुए, ने बाद में रेडियो साक्षात्कारों में उस समूह पर आक्षेप किया।[21][22] जब एमिनेम ने 1997 की रैप ओलम्पिक में दूसरा स्थान जीता तो इंटरस्कोप रिकार्डस के CEO जिमी लविंग ने एमिनेम को डेमो टेप देने का अनुरोध किया। लविंग ने रिकार्ड प्रोड्यूसर, आफ्टरमाथ एंटरटेनमेंट के संस्थापक डाक्टर ड्रे के लिए वह टेप बजाया. उन दोनों ने एमिनेम की आने वाली प्रमुख-लेबल पहली स्लिम शेडी एलपी के लिए रिकार्डिंग शुरू कर दी और एमिनेम ने किड रोक्स द्वारा निर्मित एलबम डेविल विदाउट अ कॉज़ में एक अतिथि प्रदर्शन किया।[1] हिप-होप पत्रिका द सौर्स ने एमिनेम को अपने "अनसाईन्ड हाईप" कॉलम में चित्रित किया।[23] 1998-1999: द स्लिम शेडी एलपी बिलबोर्ड पत्रिका के अनुसार, एमिनेम ने अपने जीवन के इस मोड़ पर "अनुभव किया कि उसकी संगीत महत्वाकांक्षा ही उसको दुखी जीवन से बचाने का एकमात्र तरीका है ." 1998 में आफ्टरमाथ एंटरटेनमेन्ट/इंटरस्कोप रिकार्डस से हस्ताक्षर करने के बाद, एमिनेम ने अपना पहला प्रमुख स्टूडियो एलबम, द स्लिम शेडी एलपी जारी किया, जो डाक्टर ड्रे के निर्माण पर आधारित था। बिलबोर्ड के अनुसार, यह एलबम "कई वर्षों बाद के बारे में थी, जो वह पहले से ही लिख रहा था।"[24][25] यह 1999 के सबसे लोकप्रिय एलबम में से एक बना जो कि वर्ष के अंत तक तीन बार प्लेटिनम में गया। एलबम की लोकप्रियता के साथ ही उसकी धुन के बारे में विवाद आया। "97 बोनी एंड क्लाईड" में उन्होंने अपनी पत्नी के शरीर को निपटाने के बाद, अपनी नाबालिग बेटी के साथ यात्रा का वर्णन किया है। एक अन्य गीत "गिल्टी कोंशिय्स" का अंत उनके, एक आदमी को अपनी पत्नी तथा उसके प्रेमी की हत्या के लिए प्रोत्साहित करने के साथ होता है। "गिल्टी कोंशियास" से डाक्टर ड्रे और एमिनेम के बीच गहरी दोस्ती की शुरुआत हुई। दोनों लेबल-साथियों ने बाद में कई सफल गाने दिए, जिनमें शामिल हैं: डाक्टर ड्रे के एलबम 2001 से "फोरगोट अबाउट ड्रे" और "वाट्स द डिफ़रेंस", द मार्शल एलपी से "बिच प्लीस II", द एमिनेम शो से, "से वट यु से", एन्कोर से "एन्कोर/कर्टन डाउन" और रिप्लेस में से "ओल्ड टाइम्स सेक" और "क्रेक ए बोतल". डाक्टर ड्रे ने आफ्टरमाथ लेबल के अंतर्गत एमिनेम स्टूडियो के सभी एलबम में कम से कम एक अतिथि प्रदर्शन किया है।[26] इस एलबम को रिकार्डिंग एसोसिएशन ऑफ़ अमरीका द्वारा अब चार बार प्लेटिनम प्रमाणित किया गया है। साथ ही दुनिया भर में इसकी नौ मिलियन की बिक्री हुई। 2000-2001: मार्शल एलपी द मार्शल ' एलपी 2000 में जारी किया गया। इसने अपने पहले सप्ताह में 1.76 लाख प्रतियाँ बेच कर स्नूप डॉग के डौगी-स्टाइल, अमरीका में सबसे तेज़ बिकने वाले हिप हॉप एलबम और ब्रिटनी स्पीअर्स... के बेबी वन मोर टाईम सबसे तेज़ बिकने वाले एकल एलबम का, रिकार्ड तोड़ दिया। [2][27] एलबम में से प्रथम जारी किया गया एकल, "द रियल स्लिम शेडी" सफल रहा। इस से कुछ महान हस्तियों के अपमान करने का विवाद भी हुआ। अन्य बातों के साथ यह भी कहा गया कि क्रिस्टीना अग्युलेरा फ्रेड डस्ट और कार्सन डेली के साथ मौखिक सेक्स का प्रदर्शन करती है।[28] अपने दूसरे एकल "द वे आइ ऍम" में उसने अपने प्रशंसको को, "माई नेम इज" को टॉप पर पहुँचाने और अधिक रिकार्डस बेचने के कम्पनी के दबाव के विषय में बताया है। हालाँकि अपनी वीडियो "माई नेम इज" में एमिनेम ने रोकर मर्लिन मेंसन को झटका दिया है, खबर के अनुसार, इन दोनों कलाकारों में अच्छी निभ रही है। इन दोनों ने एक साथ एक समारोह में "द वे आई ऍम" गीत के रीमिक्स का प्रदर्शन किया।[29] तीसरे एकल, "स्टेन" (जो डीडो के थेंक यू को सैम्पल करता है) में, एमिनेम ने अपनी नई प्राप्त प्रसिद्दी से निपटने का प्रयास किया है, उन्होंने एक विक्षप्त प्रशंसक का व्यक्तित्व चित्रित किया है, जो खुद को और अपनी गर्भवती प्रेमिका को मार देता है, ऐसा उसने द स्लिम शेडी एलपी पर "97 बोनी एंड क्लाइड" को प्रतिबिम्बित करते हुए किया है। संगीत वीडियो "स्टेन" में एमिनेम को अपने बांये हाथ से लिखते हुए दिखाया गया है, जिससे उनके प्रशंसको में प्रमुख हाथ की बहस समाप्त हो गई। क्यू पत्रिका ने "स्टेन" को अभी तक का तीसरा सबसे बढ़ा रैप गीत[30] कहा है और यह गीत chart.com द्वारा किये गये सर्वेक्षण में 40 में से 10 वे स्थान पर रहा है।[31] इस गीत ने बहुत प्रशंसा पाई और रोलिंग स्टोन पत्रिका के "500 गीतों में से" 290वा स्थान पाया।[32] जुलाई 2000 में एमिनेम सोर्स पत्रिका की आवरण पृष्ट पर छपने वाले पहले श्वेत व्यक्ति थे।[23] यह एलबम रिकार्डिंग इंडस्ट्री असोसिएष्ण ऑफ़ अमेरिका" (RIAA) द्वारा डाइमंड प्रमाणित की गई। जिसकी केवल संयुक्त राज्य में दस मिलियन की बिक्री हो गयी। जब कि बाकि दुनिया भर में बीस मिलियन से भी अधिक की बिक्री हुई. एमिनेम ने 2001[33] में 43वें ग्रेमी पुरुस्कार समारोह में एल्टन जॉन के साथ प्रदर्शन किया। द गे एंड लेस्बियन एलाइंस अगेंस्ट डिफेमेशन, एक संगठन, जो कि एमिनेम की धुनों को समलेंगिक मानता है, ने जौन के एमिनेम के साथ प्रदर्शन करने के फैसले की निंदा की.[34] 21 फ़रवरी जिस दिन ग्रेमी पुरुस्कार समारोह का आयोजन होना था GLAAD ने स्टेपल सेंटर के बाहर विरोध प्रदर्शन किया।[35] 2001 में उन्होंने कई संगीत दोरों में भाग लिया जिनमें डॉक्टर ड्रे, स्नूप डॉग, एग्जिबिट और आईस क्यूब[36] के साथ अप इन द स्मोके टूर और लिम्प बिज्कित के साथ फॅमिली वलूज़ भी शामिल थे।[37] 2002-2003: द एमिनेम शो एमिनेम का तीसरा प्रमुख एलबम "द एमिनेम शो " 2002 की गर्मियों में जारी हुआ और रैपर का एक और हिट नम्बर एक पर पहुंचने में सफल हुआ तथा उसने अपने पहले सप्ताह में एक मिलियन से ऊपर प्रतियाँ बेचीं.[25] इसने "द रियल स्लिम शेडी" की अगली कड़ी ""विदाउट मी" प्रदर्शित की, जिसमे वह अन्य लोगों के इलावा बॉय बैंड, लिम्प बिजकित, मोबी और लींन चेनेये के बारे में कुछ अपमान जनकटिपण्णी करते हैं। द एमिनेम शो एक हिप हॉप क्लासिक है और उसे रिकार्डिंग इंडस्ट्री ऑफ़ अमरीका (RIAA) द्वारा डाइमंड प्रमाणित है। इसकी संयुक्त राज्य में दस मिलियन से अधिक और दुनिया भर में बीस मिलियन से अधिक की बिक्री हो चुकी है। एमिनेम एकमात्र ऐसे कलाकार हैं जिनकी दो डाइमंड एलबम हैं और दोनों दुनिया भर में बीस मिलियन से ऊपर बिक चुकी है। एलबम उनकी प्रसिद्धी में वृद्धि, उनके पत्नी और पुत्री के साथ रिश्ते तथा हिप हॉप समुदाय में उनकी स्थिति को परिलक्ष्यित करती है। 2000 में एक बाउंसर को अपनी पत्नी को चुम्बन करते हुए देखने पर मारने के लिए, उन्हें कुछ आरोपों का सामना करना पड़ा. आलम्युजिक के स्टीफन थोमस एर्ल्विन ने महसूस किया कि जबकि इस के कई गीतों में क्रोध स्पष्ट रूप से मोजूद है फिर भी यह द मार्शल एलपी से कम उत्तेजक है।[38] हालाँकि एल. ब्रेंट बोज़ेल 111 जिसने पहले मार्शल एलपी एलबम में बनाई गयी महिलाओं से घृणा करने वाली धुनों की आलोचना की थी, उसने द एमिनेम शो में व्यापक अशलील भाषा उपयोग करने के लिए एमिनेम को एमिनेफ़ का उपनाम दे दिया, जो मदरफकर के लिए बोव्दलराईज़ेशन है, एक अश्लीलता जो उस एलबम में प्रबल थी।[39] 2004-2005: एनकोर 8 दिसम्बर 2003 को संयुक्त राज्य अमेरिका की ख़ुफ़िया सेवा ने माना कि वह एमिनेम के खिलाफ ऐसे आरोप की "खोज़बीन" कर रही है जिसमें उन्होंने संयक्त राज्य के राष्ट्रपति को धमकी दी है।[40] जिन गीतों पर सवाल है: "फक मनी/ आई डोंट रैप फॉर डेड प्रेसिडेंट/ आई'ड रादर सी द प्रेसिडेंट डेड/इट्स नेवर बीन सैड, बट आई सेट प्रेसीडेनट्स... ". सवाल में गीत "वी एज़ अमेरिकंज़" ने एलबम के साथ एक बोनस CD तनावयुक्त की.[41] वर्ष 2004 ने एमिनेम की चौथी प्रमुख एलबम एन्कोर को जारी होते हुए देखा. इसके जारी होने के पहले सप्ताह में ही 6000000 से अधिक प्रतियाँ बिक गयी। इसे रिकार्डिंग इंडस्ट्री असोसिअशन ऑफ़ अमेरिका द्वारा सात बार प्लेटिनम प्रमाणित किया गया। जिसकी पन्द्रह मिलियन प्रतियाँ पूरी दुनिया में बिकी हैं। इसमें 7.8 मिलियन केवल संयुक्त राज्य में बिकी. यह एलबम एक और चार्ट-टोपर था क्यूंकि यह अकेले गीत "जस्ट लूज़ इट", माइकल जक्सन के प्रति अपमानजनक शब्दों के लिए जाना गया था। 12 अक्टूबर 2004 को एमिनेम के एन्कोर के "जस्ट लूज़ इट" जारी होने के एक सप्ताह बाद माइकल जेक्सन को लोस एंजलस में स्टीव हार्वे रेडियो शो में वीडियो में उनकी नाराज़गी प्रकट करने के लिए बुलाया गया, जिसमें जेक्सन के बच्चों से छेड़ छाड़, प्लास्टिक सर्जरी और 1984 में पेप्सी के एक विज्ञापन बनाते समय उनके बालों में आग लग जाने की घटना की पैरोडी दिखाई गयी। "जस्ट लूज़ इट" गीत में माइकल की क़ानूनी मुसीबतें दिखाई गयी हैं, हालाँकि वह इस गाने में कहते हैं '"...एंड देटस नोट अ स्टेब एट माइकल/ देटस जस्ट अ मेटाफोर/ आई एम् जस्ट साइको..." जेक्सन के बहुत से समर्थकों और दोस्तों ने वीडियो के बारे में बोला, इन में स्टीव वंडर भी शामिल है, जिन्होंने वीडियो के लिए कहा "किकिंग अ में वाईल ही इज डाउन" और [42]"बकवास"[42] और स्टीव हार्वे जिन्होंने घोषणा की कि "एमिनेम हेस लोस्ट हिज़ घेट्टो पास. .वी वांट द पास बैक"[42] वीडियो में एमिनेम ने पी वी हर्मन, एम् सी हेमर और एक ब्लोंड-एम्बिशन-टूरिंग मेडोना पर व्यंग्य किया।[43] जैक्सन के विरोध के बारे "विएर्द अल" य्न्कोविक जिसने एमिनेम के गीत "लूज़ युअरसेल्फ" की पैरोडी 2003 में अपने एलबम पूदले हेट के गीत "काउच पोटेटो" में की, ने शिकागो सन टाईम्स को बताया कि पिछले साल एमिनेम ने मुझे "लूज़ युअरसेल्फ" की परोडी बनाने से रोकने के लिए मजबूर कर दिया था क्योकि उसने सोचा था कि यह उसकी छवि या कैरियर के लिए हानिकारक होगी .तो माइकल के साथ इस स्थिति की विडम्बना मुझे भूली नहीं है ".[44] ब्लैक एंटरटेनमेंट टेलीविजन पहला चेनल था जिसने इस वीडियो का प्रसारण बंद किया था। लेकिन ऍम टीवी ने घोषणा की थी कि वह प्रसारण चालू रखेगा. द सोर्स, अपने CEO रेमंड "बेन्जियो" स्कॉट के माध्यम से न केवल चाहते थे कि वीडियो से यह गाना खींच लिया जाये बल्कि एलबम से भी हटा दिया जाये और एमिनेम जेक्सन से सार्वजनिक माफ़ी मांगे.[45] 2007 में जेक्सन और सोनी ने वैकोम से प्रसिद्ध LLC संगीत खरीदा. इस सोदे ने उसे एमिनेम,शकीरा बेक और अन्य के गाने का अधिकार दे दिया.[46] एकल बढ़त के हास्य विषय होने के बावजूद एन्कोर में "मोश" सहित युद्ध संबधी गंभीर विषय भी हैं। 25 अक्टूबर 2oo4 को,2004 के राष्ट्रपति चुनाव से पहले, एमिनेम ने मोश वीडियो इंटरनेट पर जारी की.[47] गाने में बुश विरोधी सन्देश प्रदर्शित था जैसे कि "फक बुश" और "दिस वेपन ऑफ़ मॉस डिसट्रकशन देट वी कॉल आर प्रेसिडेंट."[48] वीडियो में एमिनेम को लोगों की सेना इकट्ठा करते हुए दिखाया गया और रैपर लोयड बैंक्स सहित बुश प्रशासन के शिकार के रूप में प्रस्तुत किया गया तथा वाईट होंउस की तरफ ले जाया गया। हालाँकि एक बार जब सेना टूट जाती है तो पता चलता है कि वह वहां केवल वोट रजिस्टर करने के लिए हैं और वीडियो स्क्रीन पर इन शब्दों के साथ समाप्त हो जाती है "वोट मंगलवार 2 नवम्बर को". बुश के चुनाव जीतने के बाद वीडियो का अंत बदल दिया गया, जिसमें एमिनेम और प्रदर्शनकारी हमला कर रहें हैं जब कि बुश भाषण दे रहा है।[49] 2005-2008: संगीत अंतराल 2005 में उद्योग के कुछ अंदरूनी सूत्रों ने अटकलें लगाई कि एमिनेम छः साल और कई प्लेटिनम एलबम के बाद अपना रैपिंग कैरियर समाप्त कर रहा है। 2005 के आरंभ में ही उस साल के अंत तक जारी होने वाले डबल डिस्क एलबम के विषय में अटकलें शुरू हो गयी, यह अफवाह थी कि इसका शीर्षक द फ्यूनरल होगा.[50] यह एलबम बहुत बड़े हिट के रूप मेंCurtain Call: The Hits' प्रकट हुआ और आफ्टरमाथ एंटरटेनमेंट के तहत 6 दिसम्बर 2005 को जारी किया गया। जुलाई 2005 में डेटरोइट फ्री प्रेस ने उसके अंदरूनी सर्कल के हवाले, जो कहते थे कि अब यह पूरी तरह से निर्माता और लेबल अधिकारी बन जायेगा, उसके एकल कलाकार होने का समाचार दिया. अपने एलबम के संकलन के जारी होने के दिन, एमिनेम ने डेटरोइट-आधारित डब्ल्यू के क्यू के "मोजो इन द मोर्निंग" रेडियो शो में इस बात का खंडन किया कि वह सेवा निव्रत्ती ले रहें हैं। बल्कि उन्होंने यह कहा कि एक कलाकार के रूप में वह थोडा अवकाश ले रहें हैं, मैं जीवन के उस बिंदु पर हूँ जहाँ मैं नहीं जानता कि मेरा कैरियर किस और जा रहा है।.. यही वजह है कि हम इसे 'कर्टन काल' कहते हैं, क्योंकि यही अंतिम बात हो सकती है। हम नहीं जानते .[51] 2005 में, एमिनेम बर्नार्ड गोल्डबर्ग की पुस्तक "100 पीपल हू आर स्क्रुइन्ग अप अमेरिका ' के विषय थे जिसे कि 58 वा स्थान प्राप्त हुआ।[52] गोल्ड बर्ग ने न्यूयार्क टाइम्स के बोंब हेर्बेर्ट के 2001 स्तम्भ के दावे का उल्लेख किया है कि एमिनेम की दुनिया में सभी औरतें आवारा हैं और वह उनका बलात्कार और हत्या करने के लिए उत्सुक है।[53] स्लिम शेडी एलबम में से एमिनेम का एक गीत "नो वन इज इलेर" एमिनेम के स्त्री जाती से द्वेष के उदाहरन के रूप में गोल्ड्ज़ बर्ग द्वारा उपयोग किया गया।[54] 2005 की गर्मियों में एमिनेम ने तीन वर्षों का अपना पहला यु.एस.संगीत समारोह, द एंगर मेनेजमेंट 3 टूअर सम्मिलित किया, जिसमें 50 सेन्ट, जी यूनिट, लिटल जों, डी 12, ओबी ट्राइस, अल्केमिस्ट और अन्य कई थे। अगस्त, 2005 में, एमिनेम ने अपना यूरोप का दौरा रद्द कर दिया और बाद में घोषणा की कि वह इलाज के लिए दवा पुनर्वास में प्रवेश ले रहा है, नींद की दवा की निर्भरता के लिए.[55] 2008-2009: रीलैप्स और रीलैप्स 2 मुख्य लेख: रीलैप्स और रीलैप्स 2 सितम्बर 2007 में, एमिनेम ने न्यू योर्क रेडियो स्टेशन हॉट 97 में 50 सेंट इंटरव्यू के दौरान फोन कर के कहा कि वह "लिम्बो में" है और इस बात पर "चर्चा" कर रहा है कि क्या वह अपनी अगली एलबम जारी करे और कब. उन्होंने कहा "मैं हमेशा काम कर रहा हूँ - मैं हमेशा स्टूडियो में हूँ .लेबल की उर्जा, इस समय अच्छी लग रही है।.. थोड़ी देर के लिए, मैं स्टूडियो में वापस नहीं जाना चाहता था। .. मैं कुछ निजी बातों में चला गया था, मैं उन निजी बातों से बाहर आ रहा हूँ और यह अच्छा लगता है ".[56] एमिनेम, सितम्बर 2008 में सिरिअस चेनल शेड 45 में दिखाई दिए जिसमें उन्होंने कहा अब मै अपने काम पर ध्यान केन्द्रित कर रहा हूँ और नये गीत और बहुत से नये काम का निर्माण कर रहा हूँ .तुम्हें पता है कि मैं जितना ज्यादा निर्माण करता हूँ मुझे उतना बेहतर महसूस होता है क्योंकि मैं नई बातें सीखने लगता हूँ .[57] इस समय के लगभग ईन्टरस्कोप ने अन्तत एमिनेम की नई एलबम[58] स्प्रिंग 2009 के साथ उनके अस्तित्व को स्वीकार किया बाद में वह समय अवधि बताई जब उस एलबम का सही समय था।[59] दिसंबर 2008 में उन्होंने एलबम के बारे में अधिक जानकारी दी और उन्होंने हाल ही में बताया कि उसका शीर्षक रीलैप्स रखा जा रहा है। उन्होंने कहा, मैं और ड्रे पुराने दिनों की तरह प्रयोगशाला में वापिस आ गये हैं। ड्रे रीलैप्स के बहुत से गानों का निर्माण करेगा। हम अपने पुराने शरारती तरीकों में आ गये हैं, चलो इसे यहीं पर छोड़ दें .[60] 5 मार्च 2009 को एमिनेम ने एक प्रेस विज्ञप्ति में कहा कि वह इस साल में दो एल्बम जारी कर रहा है। उसका पहला एल्बम रीलैप्स मई 19 में जारी हुआ तथा पहला अधिकारिक एकल "वी मेड यू" और उसके संगीत वीडियो 7 अप्रैल को जारी किये गये।[61]. 3 अक्टूबर 2009 को एमिनेम एक बार फिर शेड 45 में डीजे वू किड, साथप्रकट हुए और उन्होंने घोषणा की कि डेनों पोर्टर और जस्ट ब्लेज़, रीलैप्स 2 में काम करने में बहुत व्यस्त हैं।[62] 30 अक्टूबर को एमिनेम ने न्यू ओरलीन्स के वुडू म्युज़िक एक्सपीरियंस में अपना 2009 का पहला पूर्ण प्रदर्शन एक शीर्षक के रूप में दिया.[63] प्रदर्शन में रीलैप्स के कई गाने, एमिनेम के पुराने हिट गाने तथा डी 12 की उपस्थिति भी शामिल थी। एल्बम बिकने में, एमिनेम के पिछले प्रयासों जितनी सफल न रही लेकिन इससे एमिनेम को व्यवसायिक सफलता और आलोचकों की प्रशंसा दोनों ही मिली. साथ ही उन्होंने हिप होप दुनिया में अपनी उपस्थिति फिर से दर्ज की. रीलैप्स को 2009 की सर्वश्रेष्ठ एलबम का नाम दिया गया। यह रिकार्डिंग इंडस्ट्री एसोसिएशन ऑफ़ अमेरिका द्वारा दोहरी प्लेटिनम प्रमाणित की गयी। इसकी दुनिया भर में 5 लाख से भी अधिक प्रतियाँ बिकी. 19 नवम्बर 2009 को एमिनेम ने अपनी वेबसाईट पर घोषणा की कि रीलैप्स:रिफिल 21 दिसम्बर को जारी की जायगी. एल्बम रीलैप्स को सात नये गाने, फारएवर टेकिंग माई बॉल सहित, पुनः जारी किया गया। एक बयान में उन्होंने अपनी आगामी सीडी का वर्णन किया। "मैं अपने प्रशंसकों को और अधिक सामग्री देना चाहता हुईं जैसा कि मूल रूप से मैंने योजना बनाई थी। उमीद है द रिफिल के गीत प्रशंसकों को बांध कर रखेंगे जब तक कि अगले साल तक हमारी रीलैप्स 2 नहीं आती... मैं ड्रे से और जस्ट ब्लेज़ सहित कुछ और निर्माताओं से मिला और पूर्ण रूप से एक अलग दिशा में गया जहाँ से मैं फिर से आरंभ से शुरू किया। यह रीलैप्स 2 के नये गीत पुराने गीतों से बिलकुल अलग थे जो कि मूल रूप से मेरा बनाने का उदेश्य था, लेकिन मैं अभी भी और भी चीजें सुनना चाहता था। शेडी रिकार्डस और डी12 क्योंकि एमिनेम बहु प्लेटिनम रिकार्ड बिक्री में सफल रहे, इंटर स्कोप ने उन्हें अपना रिकार्ड लेबल दे दिया. उन्होंने और उनके मेनेजर, पॉल रोसनबर्ग ने 1999 के अंत में शेडी रिकार्डस बनाया. उन्होंने अपने ही डेटरोइट समूह डी 12 और रैपर ओबिक ट्राईस लेबल का अनुसरण करते हुए हस्ताक्षर किया। 2002 में, एमिनेम ने शेडी और डाक्टर ड्रे के आफ्टरमाथ लेबल के संयुक्त उद्यम के माध्यम से 50 सेंट हस्ताक्षर किया। 2003 में, एमिनेम और डाक्टर ड्रे ने अटलांटा रैपर स्टेट क्यू को शेडी/आफ्टरमाथ रोस्टर के लिए अनुबंदित किया। डीजे ग्रीन लेन्टर्न, जो कि एमिनेम का पूर्व डी जे था, शेडी रिकार्डस के लिए अनुबंदित किया गया जब तक कि 50 सेंट और जदकिस से सम्बन्धित एक विवाद ने उन्हें उस लेबल से विदा लेने के लिए मजबूर नहीं कर दिया. अब एल्केमिस्ट अधिकारिक तौर पर एमिनेम का डी जे है। 2005 में एमिनेम ने एक और अटलांटा रैपर, बौबी क्रीक वाटर को अनुबंधित किया और उस लेबल के साथ वेस्ट कोस्ट रैपर केशिस को भी.[13] 5 दिसम्बर 2006 को शेडी रिकार्डस ने संकलन एल्बम जारी किया।Eminem Presents: The Re-Up यह एक मिश्रित टेप के रूप में शुरू हुआ लेकिन एमिनेम ने अनुभव किया कि इसकी सामग्री उमीद से बेहतर है और उन्होंने इसे पूर्ण एल्बम के रूप में जारी किया। इसका उदेश्य प्रोग्राम के तहत स्टेट क्यू, केशिस और बौबी क्रीक वाटर जैसे नये कलाकारों को स्थपित करने में सहायता करना था।[64] एमिनेम और रैपर्स प्रूफ और कोण अर्टिस ने डी 12 समूह के साथ मिलकर, इन्फनिट की रिकार्डिंग के समय के आसपास रैपर्स का समूह इकट्ठा किया और "डेटरोइट टवेलव" और "डर्टी दज़न" के लिए, बहु व्यक्ति समूह वू-टेंग क्लेन की तरह प्रदर्शन किया।[65] सन् 2001 में, एमिनेम अपना रैप समूह डी 12 लोकप्रिय संगीत दृश्य में ले आया और समूह का पहला एलबम डेविल्स नाईट उस वर्ष आ गया।[66] इस एल्बम का प्रथम एकल गीत "शिट ऑन यु" जारी किया गया और उसके बाद नशीली दवाओं के प्रयोग पर एक गीत पर्पल पिलज. रेडियो और टेलीविजन के लिए, संशोधित संस्करण "पिल्ज़" फिर से लिखा गया जिस में गानों में से नशीली दवाओं और सेक्स सन्दर्भ हटा दिए गये और इसका नाम बदल के "पर्पल हिल्स" रख दिया गया। जबकि वह एकल सफल था, एलबम का दूसरा एकल फाईट म्युज़िक इतना सफल नहीं था।[67] अपनी पहली फिल्म के बाद, डी12 ने स्टूडियो से तीन वर्ष का अवकाश ले लिया। बाद में सन 2004 में अपना दूसरा एल्बम डी12 वर्ल्ड जारी करने के लिए उसने फिर से समूह बनाया, जिसमे लोकप्रिय हिट माई बैंड प्रदर्शित किया गया।[66] अप्रैल 2006 में, डी 12 का एक सदस्य, प्रूफ होलटन, 8 माईल रोड, डेटरोइट, मिशिगन क्लब बराल में मारा गया, जिसमे यु एस मिलिट्री का दिगज कीथ बेंदर जूनियर शामिल था, जो कि प्रूफ द्वारा मारा गया। ऐसा संदेह है कि पूल के खेल में बहस की वजह से विस्फोट हुआ। प्रूफ को कथित तौर पर, बेंदर के चचेरे भाई, मारियो एथ्रिज ने गोली मार दी वह एक निजी वाहन द्वारा जों हेल्थ कोनर क्रिक केम्पस, बाह्य रोगी आपातकालीन उपचार के लिए लाया गया लेकिन पहुंचने पर मृत घोषित कर दिया गया। एमिनेम और पूर्व डेटरोइट शेडी रिकार्डस के कलाकार ओबिस ट्राइस ने उसके अंतिम संस्कार पर बात की थी।[68] डी 12 के सदस्य बिजारे ने कहा कि एमिनेम अपने नए एल्बम ब्ल्यू चीज़ और कौने आइलैंड में चित्रित नहीं हुआ क्यूंकि "वह अपने काम करने में व्यस्त है ".[69] प्रभाव और रेप्पिंग की तकनीक एमिनेम ने बहुत से एम् सी के नाम दिए हैं, जिन्होंने उनकी रैपिंग शैली को प्रभवित किया है। इनमें एषाम[70], कूल जी रेप[71], मसता एस[72], बिग डेडी काने[73], न्युक्ल्युस[72], आइस टी[72], मेंत्रोनिक्स[72], मैले मेल(विशेषकर द मेसेज गीत के लिए)[72], एल.एल.कूल जे[72], द बिसटी बोयज़[72], रन डी एम् सी[72], रकिम[72] और बूगी डाऊन प्रोडक्शन[72] शामिल हैं। अपनी पुस्तक हाउ टु रैप में गुरीला ब्लेक ने सूचित किया है कि अपनी रैपिंग तकनीक बनाने के लिए एमिनेम ने अन्य एम् सी का अध्ययन किया है - "एमिनेम ने सबकी बातों को सुना और इसी ने उन्हें महानतम में से एक बनाया".[74] इसी पुस्तक में अन्य कई एम् सी द्वारा एमिनेम के रैपिंग तकनीक के विभिन्न पहलुओं की प्रशंसा की गयी है - इन तकनीक में विविध और विनोदी विषय[75] अपने दर्शकों के साथ जुड़ने[76], एक अवधारणा को एलबम की श्रृंखला तक ले जाने,[77] जटिल कविताओं की योजनाए[78], अपने शब्दों को ऐसे मोढ़ लेना कि वे कविता बन जाए,[79] उसका बहु विषयों पर कविता प्रयोग,[73] हर बार में बहुत सी कविताएँ फिट करना,[80] जटिल कविताएँ,[81] स्पष्ट उच्च्चारण,[82][83]संगीत का प्रयोग तथा[84]शब्द संकोचन शामिल हैं। वह अपने अधिकतर गीत कागज़ पर लिखने के लिए जाने जाते हैं, जैसा कि उन्होंने अपने पुस्तक द वे आई एम् में दस्तावेज किया है कि[85]"काम के नशे" और बहुत अधिक बोलने के कारण, वह[86] गीत बनाने के लिए कुछ दिन या सप्ताह ले लेते हैं।[87] फीचरइंग और प्रस्तुतियां हालांकि आमतौर पर उन्होंने आफ्टरमाथ एंटरटेनमेंट और शेडी रिकार्डस के अंतर्गत कई रैपर्स का सहयोग लिया। जैसे कि डाक्टर ड्रे, 50 सेंट, डी 12. एमिनेम ने रेदिमैन/ किड रोक, डी एम् एक्स, मिसी इलिओत्त, जे-जेड, मेथोद मैन जेदकिस, फेट जो, स्टिकी फिंग्स, टी.आई. और अन्य सहित कई कलाकारों के साथ सहयोग किया। एमिनेम ने 27 जून 2006 को 2006 के बूसता संगीत पुरुस्कार समारोह में बस्ता राईम्स के टच ईट रिमिक्स पर एक प्रत्यक्ष प्रदर्शन में एक गीत रैप किया। एमिनेंम एकोन के एकल "स्मेक देट" पर प्रदर्शित किया गया जो कि एकोन की एल्बम कोंविक्टेद में दिखाई दिया. एमिनेम एक सक्रिय रैप निर्माता भी है। डी 12 की दो एलबम देविल्ज़ नाइट्स और डी 12 वर्ड के कार्यकारी निर्माता होने के इलावा उन्होंने ट्राइस की चियर्स और सेकोंड राउंड्स ऑन मी के साथ ही 50 सेन्ट की गेट रिच ऑर डाई ट्राइंग और द मस्करे का निर्माण किया।[88] इसके अतिरिक्त, एमिनेम ने बहुत से प्रसिद रैपर्स के कई गानों का निर्माण किया और उनमे दिखाई भी दिए, जैसे कि जदकिस का "वेलकम टू डी-ब्लोक", जे-जेड का "रेनागाड़े" और "मोमेंट औफ़ क्लेरिटी", लायोड़ बैंक्स का "ऑन फायर", "वारीअर पार्ट 2" और "हेंड्स अप", टोनी यायो का "ड्रामा सेटर", ट्रिक ट्रिक का "वेलकम टू डेटरोइट" और जिबित का "माई नेम " और "डू नाट एप्रोच मी", इत्यादी.[89] एमिनेम के ज्यादातर शो उन्होंने उनके पुराने सहयोगी जेफ़ बॉस के सह निर्माण के साथ[90], खुद निर्माण किये थे। एन्कोर पर उनका डाक्टर ड्रे से निर्माण विभाजित हो गया। सन 2004 में, एमिनेम 2पेक की माँ अफेनी शकूर के साथ 2पेक कि मरनोप्रान्त एल्बम लोयल टू द गेम्स के कार्यकारी निर्माता थे।[91] उन्होंने ब्रिटेन का #1 एकल "गेटो गोस्पेल" जिसमे एल्टन जोन चित्रित थे, का निर्माण किया।[92] उन्होंने नेस कि एल्बम गोड्ज़ सन के द क्रास का भी निर्माण किया।[93] 15 अगस्त 2006 को ओबिस ट्राइस ने सेकिंड राऊँड्स ऑन मी जारी किया। एमिनेम ने इस एल्बम में आठ गानों का निर्माण किया। वह "देअर दे गो" गाने में चित्रित किये गए।[94] एमिनेम ने ट्रिक ट्रिक की नई एल्बम द विलेन के कुछ गानों का निर्माण किया। वह "हू वांट इट" में भी चित्रित हुए.[95] अभिनय कैरियर हालांकि 2001 की फिल्म द वाश में उनकी संक्षिप्त भूमिका थी, एमिनेम ने अधिकारिक रूप से अपना पहला होलीवुड अभिनय, अर्ध आत्मकथा, 8 माइल जो कि नवम्बर 2002 में जारी हुआ, से बनाया. उन्होंने कहा है कि फिल्म उनके जीवन का एक खाता नहीं है, बल्कि डेटरोइट में उनके बढ़ने का प्रतिनिधित्व है। उन्होंने लूज़ युअरसेल्फ सहित साउंड ट्रेक के कई नया गाने रिकार्ड किये, जिसने 2003 के सर्व श्रेष्ठ असली गीत का अकादमी पुरुस्कार जीता. हालाँकि एमिनेम के उस समारोह में अनुपस्थित होने के कारण यह गीत समारोह में प्रदर्शित नहीं किया गया। उनके सहयोगी, लुईस रेस्टो, गाने के सहलेखक, ने यह पुरुस्कार ग्रहण किया।[96] एमिनेम ने कई आवाज़ वाली भूमिकाओं में भी भाग लिया। इनमें से कुछ वीडियो गेम्स शामिल हैं,50 Cent: Bulletproof जहाँ उन्होंने एक बढ़ती हुई उम्र के भ्रष्ट पुलिस अधिकारी की आवाज़ निकाली है जो इबोनिक्स में बोलता है और हास्य केन्द्रित टेलीविजन शो करेंक एंकर में एक अतिथि स्थान पर और एक स्लिम शेडी शो नामक वेब कार्टून में जिसे की अब निकल दिया गया है और इसके बजाय यह DVD पर बेचा जा रहा है।[97] वह या तो साउंडट्रेक या अंक में शामिल किये जायेंगे.[98] सन 2008 में डेविड राईस की फिल्म जम्पर के फिल्माने से केवल दो सप्ताह पहले टॉम स्त्रीज हटा दिए गये तो इस में भाग लेने की दौड़ में एमिनेम भी थे। कोई प्रमुख अभिनेता न होने के धयान से निर्माता डोग लिमेन को इस भूमिका के लिए अन्य नेताओं पर भी विचार करना पड़ा. अन्तत एमिनेम की बजाय हेडन क्रिस्तिसेन चुना गया।[99] 2009 की फिल्म फनी पीपल में उन्होंने एक संक्षिप्त भूमिका भी की. 8 नवम्बर 2009 को सूचना दी गयी कि जों डेविस द्वारा निर्देशित आगामी 3 डी डरावनी फिल्म, शेडी तलेज़ में एमिनेम अभिनय करेंगे. सन 2010 में कभी इस फिल्म पर आधारित एक चार मुद्दे हास्य श्रृंखला पुस्तक भी प्रकाशित होने की उमीद है।[100] संस्मरण 21 अक्टूबर 2008 को एमिनेम ने द वे आइ एम् शीर्षक से अपनी आत्म कथा जारी की, जिसमे उनका गरीबी के साथ संघर्ष, नशीली दवाओं, प्रसिद्धी दिल टूटने और अवसाद के साथ उनके यश वृद्धि तथा पुराने विवादों की कहानियों पर टिपन्नी है। इस किताब में कुछ मूल गीत पत्र भी शामिल हैं जैसे कि स्टेन और द रिअल स्लिम शेडी.[101] निजी जीवन परिवार एक रैपर के रूप के साथ ही निजी जीवन में भी बहुत छान-बीन का विषय रहे हैं।[27] उनकी किम्बरले एनी स्कॉट के साथ दो बार शादी हुई, जिन्हें वह हाई स्कूल में मिले थे। उन्होंने 1989 में रिश्ते की शुरुआत की और 1999 में उनकी शादी हो गयी। उनका पहला तलाक़ 2001 में हुआ।[102] सन् 2000 में, स्कॉट ने आत्म हत्या करने की कोशिश की और रैपर पर मानहानि का दावा कर दिया, जब रैपर ने अपने गाने "किम" में उसकी हिंसक मौत का चित्रन किया।[102][103] सन 2006 में उन्होंने दोबारा शादी कर ली और बाद में तीन महीने से भी कम समय में तलाक़ ले लिया। अब वह अपनी बेटी हेली जेड स्कोट (जन्म 25, दिसम्बर,1995) की साँझा हिरासत के लिए सहमत हो गये।[102][102][103][104] एमिनेम के अधिकतर गीतों में हेली स्कोट सन्दर्भ छपा है जैसे कि "97 बोनी एंड क्लाइड", "हेलिज़ सांग्स", "माई डेडज गोन क्रेजी", "मोकिंग बर्ड", "फोर्गोट अबाउट ड्रे", "क्लीनिंग अबाउट माई कलौस्ट", "वेंन आई एम् गोन", "देजा वू" और "बीयुटिफुल". ने दो और बेटियां गोद ली - किम्बरले स्कोट की बहन की बेटी-एलीना लेनी[102] और एमिनेम की सौतेली बेटी वित्न्य मैथर्स. कानूनी मुसीबत 1999 में की मां ने स्लिम शेडी एल पी में उनकी कथित निंदा करने के लिए उस पर दस मिलियन यु एस डॉलर का दावा कर दिया, वह 2001 में 1600 का नुक्सान जीत गयी।[105] 3 जून,2000 में , मिशिगन के रोयल ऑक में एक कार ऑडियो स्टोर में दौगल डेल के साथ विवाद के दौरान गिरफ्तार कर लिए गए, जहाँ उन्होंने एक खाली बन्दूक निकाली और मैदान की तरफ कर दी.[106] अगले ही दिन उन्होंने हॉट रोक केफे के पार्किंग में अपनी पत्नी को बाउंसर जों गुरेरा को किस करते हुए देखा और उस पर हमला कार दिया.[102][103][106] उन्हें इन दोनों प्रकरणों के लिया दो साल की परीक्षा दी गयी।[107] 2001 की गर्मियों में की क़ानूनी मुसीबतें जारी रही, कि साइकोपेथिक रिकार्डस के कर्मचारी के साथ विवाद से उपजे हथियारों के आरोप में दो हज़ार डॉलर का जुर्माना तथा कई घंटों के लिए समुदाय सेवा की सजा.[108] सन 2007 में एमिनेम की संगीत प्रकाशन कम्पनी एट माइल्स स्टाइल्स LLC ने मार्टिन एफ़िलिएतेद एल एल सी के साथ मिल कर एपल, इंक और आफ्टरमाथ एंटरटेनमेंट के खिलाफ मुकद्दमा दर्ज कर दिया, यह दावा करते हुए कि रैपर एमिनेम के एपल आई ट्यून सेवा पर 93 गानों को डिजिटल डाउन लोड करने के लिए, एपल से इस सौदे पर बातचीत करने का आफ्टरमाथ के पास कोई भी उचित अधिकार नहीं है।[109][110][111] सितम्बर 2009 के अंत तक एपल के खिलाफ यह मामला परिक्षण मे था और कुछ दिन बाद सुलझ गया।[112] ड्रग मुद्दा उनके डी 12 से समूह के साथी, प्रूफ ने बताया कि सन 2002 में नशीली दवाओं और शराब की निर्भरता से उभर गए थे।[113] हालांकि, नींद की मुसीबत से राहत पाने के लिए वह ज़ोल्पिदेम नाम की नींद की गोलियों की तरफ चले गए। इस कारण को अगस्त 2005 में होने वाला यूरोपियन लेग ऑफ़ एंगर मेनेजमेंट का दौरा रद्द करना पड़ा और इलाज के लिए पुनर्वास में जाना पड़ा, "सोने की दवाओं पर निर्भरता का इलाज."[55][114] सन 2009 में ब्रिटिश टॉक शो के मेज़बान जोनाथन रोस के साथ एक साक्षात्कार में ने यह स्वीकार किया कि अपने नशे की आदत की अधिकता में उसे आत्महत्या का ध्यान आया। उन्होंने कहा "मैं अपनी देख भाल भी नहीं कर रहा था, कई बार मैं सब छोड़ देना चाहता था ".[115] उन्होंने यह टिपन्नी करते हुए कि रैप ही मेरी दवा है, यह भी पुष्टि की कि अब वह शांत हैं तो मुझे अन्य बातों का भी सहारा लेना है ताकि मुझे ऐसा महसूस हो सके। अब रैप मुझे फिर से उंचाई पर ले जा रहा है" .[115] मारिया केरी के साथ झगड़ा एमिनेम ने पॉप गायिका मरिया केरी के साथ अपने सम्बन्धो की चर्चा को ले कर कई गीत लिखे हैं, हालाँकि वह इस दावे से इंकार करती है।[116] वह कहती है कि वे बाहर घूमते थे लेकिन योन और अंतरंग कुछ नहीं हुआ। एमिनेम ने बहुत से गानों में उसका सन्दर्भ दिया है जिन में "सुपर मेन", "जिमी क्रेक कोर्न", "बेग पाईप्स फ्रॉम बग़दाद" और "द वार्निंग" शामिल हैं। जबकि "सुपरमैन" 2003 में जारी की गई केरी ने अपनी चेम्रेसेलेट एल्बम मेन से "क्लाउन" शीर्षक का गाना लगभग उसी समय जारी किया जिस में उनकी 2009 की हिट "ओब्सेस्ड" का सन्दर्भ था। एमिनेम की एल्बम, रीलैप्स में से "बेगपाइप्स फ्रॉम बगदाद", अपने विवाद के कारण केरी का सबसे चर्चित सन्दर्भ हो सकता है। इस गीत ने मारिया और उसके पति निक केनोन के संबंधों को गलत बताया। [117] केनोन ने एमिनेम के कैरियर को "नस्सलवादी कट्टरता" पर आधारित बताते हुए इसका जवाब दिया। उसने कहा कि वह एमिनेम से बदला लेगा मजाक करते हुए कि वह रैपिंग में वापिस लौट आएगा,[118] एमिनेम ने बाद में कहा कि दम्पति गीत को गलत समझ रहे हैं, उसने तो दोनों को शुभ कामनाएं दी थी।[117] केनोन ने भी कहा कोई भी बुरी भावनाएं नहीं है। वह तो गीत के बारे में अपनी भावनाएं प्रकट करना चाहते थे।[119] 2009 में केरी ने "ओब्सेस्ड" जारी किया, जिसमे उसने एक ऐसे व्यक्ति के बारे में गीत गाया है, जो उसके साथ सम्बन्ध बनाने के दावे के साथ पागल हो रहा था।[120] केनोन ने दावा किया कि यह गीत एमिनेम के अपमान की ओर संकेत नहीं करता.[121] लेकिन एमिनेम ने जुलाई 2009 में वार्निंग शीर्षक से एक गीत जारी करके इस बात का जवाब दिया। इसमें आवाज़ मेल रिकार्डिंग के कुछ नमूने थे जो कि एमिनेम का दावा है कि मारिया केरी के द्वारा तब छोड़े गये थे जब वे दोनों इकट्ठे थे।[122] एमिनेम ने यह भी संकेत दिया कि उनके कब्जे में उनके संबंधों के ओर भी सबूत हैं। न तो केरी ने और न ही केनोन ने इस गीत की सामग्री के बारे में कोई जवाब दिया। डिस्कोग्राफ़ी Studio albums इन्फनिट (1996) द स्लिम शेडी एलपी 1999 द मार्शल एलपी (2000) द एमिनेम शो (2002) एन्कोर (2004) रीलैप्स (2009) रिकवरी (2010) द मार्शल मैथर एलपी २(2013) रिवाइवल(2017) Compilations 8 माइल (2002) कर्टेन कॉल:दी हिट्स (2005) एमिनेम प्रेजेंट्स:दी री-अप (2006) Compilations डेविल्स नाइट्स (2001) - D12 के साथ ' D12 वर्ल्ड (2004) - D12 के साथ |} नंबर-वन एकल फिल्मोग्राफी वर्षफिल्म भूमिका नोट्स 2000 डा हिप हॉप विच खुद उप इन स्मोक टोयर द स्लिम शेडी शो विभिन्न 2001 द वाश क्रिस अन्क्रेडिटेड 2002 8 माईल जिमी 'बी खरगोश "स्मिथ, जूनियर सर्वश्रेष्ठ मूल गाने के लिए अकादमी अवार्ड एमटीवी मूवी पुरस्कार एक फिल्म से उत्तम वीडियो के लिए- लूज़ युअरसेल्फ सर्वश्रेष्ठ पुरुष प्रदर्शन के लिए MTV मूवी पुरस्कार एमटीवी मूवी की निर्णायक पुरुष सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन के लिए पुरस्कार ASCAP पुरस्कार एक मोशन पिक्चर से अधिकांश प्रदर्शन किया गया गाना - लूज युअरसेल्फ आलोचकों का विकल्प सर्वश्रेष्ठ गीत के पुरस्कार के लिए - लूज युअरसेल्फ टीन च्वाइस अवार्ड च्वाइस मूवी एक्टर के लिए, ड्रामा/एक्शन अड्वेंचर टीन च्वाइस पुरस्कार, मूवी ब्रेक आउट स्टार के लिए - पुरुष बीएमआई फिल्मी संगीत के लिए पुरस्कार बीएमआई फिल्म एक फिल्म से अधिकांश प्रदर्शन सांग के लिए पुरस्कार - लूज़ युअरसेल्फ मनोनीत - गोल्डन ग्लोब पिक्चर से उत्तम मूल गीत के लिए ग्लोब - लूज़ युअरसेल्फ मनोनीत - CFCA पुरस्कार: सर्वाधिक आशाजनक कलाकार मनोनीत - गोल्डन सैटेलाइट, उत्तम मूल गीत - लूज़ युअरसेल्फ के लिए मनोनीत - OFCS उत्तम भेदन प्रदर्शन मनोनीत- PFCS उत्तम मूल गीत के लिए- लूज़ युअरसेल्फ मनोनीत - ग्रैमी मोशन पिक्चर, टेलीविजन या अन्य दृश्य मीडिया के लिए लिखे गए उत्तम गाने के लिए- लूज़ युअरसेल्फ 2003 50 Cent: The New Breed खुद 2004 करेंक यांकेर्स बिली फ्लेत्चेर टी वी अतिथि की भूमिका; आवाज़ 2009 रॉक और रोल हॉल ऑफ फेम का प्रेरण समारोह खुद नियुक्त खपत- DMC फन्नी पीपल खुद कैमिया[123] 2010 शेडी तेलेज़ मुख्य भूमिका हेव गन - विल ट्रेवल पलादीन द फाइटर पुरस्कार और नामांकन एमिनेम, ने कई ग्रेमी पुरुस्कार जीते, मौखिक उर्जा और गीतों की उच्च गुणवत्ता के लिए उनकी प्रशंसा की गयी। एम् टी वी के द ग्रेटेस्ट एम् सी ऑफ़ आल टाइम्ज़[124][125] की सूची में वह नौवें स्थान पर रहे। सन 2003 में एम् टी वी की संगीत की 22 ग्रेटेस्ट वोयासिस[126] की सूची में वह तेहरवें स्थान पर और रोलिंग स्टोन के द आईएम मोर्टल में 82 वेस्थान पर रहे। [127] सन 2008 में, वाईब पत्रिका के पाठकों ने उन्हें सर्व श्रेष्ठ जीवित रैपर चुना। [128]वेब साईट पर संगीत प्रेमियों द्वारा किये गये सर्वेक्षण में, अपने विरोधियों को बहुत आसानी से लेने वाले, अब तक के सर्व श्रेष्ठ रैपर के रूप में उनका नाम दिया गया। विडंबना यह है कि "द रियल स्लिम शेडी" उनकी ग्रेमी पुरुस्कार जितने वाली एल्बम द मार्शल मैथेर्स एलपी के गानों में से एक ने अपनी दूसरी कविता मे ग्रेमी पुरुस्कारों की खिचाई की है और यह विचार प्रकट किया है कि उनकी सामग्री में नकारात्मक भावनाएं उन्हें हमेशा जीत दिलाती रहेगी. इन्हें भी देखें U.S.A. में सर्वाधिक गोल्ड, प्लेटिनम और मल्टी-प्लेटिनम पानेवाली एकलों के कलाकार सर्वाधिक नंबर-वन पर आनेवाली यूरोपीय एकलों के कलाकार हॉट 100 (U.S.) पर नंबर एक पर पहुंचने वाले कलाकारों की सूची U.S.A. में सबसे अधिक बिकने वाली एलबम की सूची दुनिया भर में सर्वाधिक बिकने वाले एलबम की सूची सर्वाधिक बिकने वाले संगीत कलाकारों की सूची U.S. में सबसे अधिक बिकने वाली संगीत कलाकारों की सूची दुनिया भर में सबसे अधिक बिकने वाली एकलों की सूची U.S. में डायमंड की प्रमाणिकता पानेवाली एलबम की सूची पॉप आइकॉन व्यवसाय शेडी रिकार्डस शेड 45 सिरियस शेडी लिमिटेड क्लोदिंग शेडी गेम्स एट माइल्ज़ स्टाइल एल एल सी.[109][110] सन्दर्भ स्रोत CS1 maint: discouraged parameter (link) CS1 maint: discouraged parameter (link) CS1 maint: discouraged parameter (link) बाहरी कड़ियाँ at AllMovie at AllMusic at IMDb [[श्रेणी:आफ्टरमाथ &lt;span class="goog-gtc-fnr-highlight"&gt;एंटरटेनमेंट&lt;/span&gt; कलाकार ]] श्रेणी:अमेरिकी फिल्म अभिनेता श्रेणी:अमेरिकी रैपर्स श्रेणी:मिशिगन से अभिनेता श्रेणी:मिसौरी से अभिनेता [[श्रेणी:अमेरिकी &lt;span class="goog-gtc-fnr-highlight"&gt;रिकार्ड&lt;/span&gt; निर्माता]] श्रेणी:उत्तम गीत अकादमी पुरस्कार जीतने वाले गीतकार श्रेणी:BRIT अवार्ड विजेता श्रेणी:यूरोपीय अमेरिकी रैपर्स श्रेणी:फ्री स्टाइल रैपर्स श्रेणी:ग्रैमी पुरस्कार विजेता [[श्रेणी:हिप हॉप &lt;span class="goog-gtc-fnr-highlight"&gt;रिकार्ड&lt;/span&gt; निर्मातागण]] श्रेणी:होरर्कोर कलाकार श्रेणी:एम् टी वी यूरोप म्यूज़िक पुरस्कार विजेता श्रेणी:सेंट जोसेफ, मिसौरी के लोग [[श्रेणी:&lt;span class="goog-gtc-fnr-highlight"&gt;डेटरोइट&lt;/span&gt;, मिशिगन से लोग]] [[श्रेणी:&lt;span class="goog-gtc-fnr-highlight"&gt;डेटरोइट&lt;/span&gt;, मिशिगन से राप्पेर्स]] [[श्रेणी:शेडी &lt;span class="goog-gtc-fnr-highlight"&gt;रिकार्डस&lt;/span&gt; के कलाकार]] श्रेणी:दुनिया के म्यूज़िक पुरस्कार विजेता श्रेणी:1972 में जन्मे लोग श्रेणी:जीवित लोग श्रेणी:गूगल परियोजना
एमिनेम का जन्म कहाँ हुआ था?
सेंट जोसफ, मिसूरी
1,623
hindi
5312ee127
पटना (Sanskrit: पटनम्) या पाटलिपुत्र भारत के बिहार राज्य की राजधानी एवं सबसे बड़ा नगर है। पटना का प्राचीन नाम पाटलिपुत्र था[1]। आधुनिक पटना दुनिया के गिने-चुने उन विशेष प्राचीन नगरों में से एक है जो अति प्राचीन काल से आज तक आबाद है। अपने आप में इस शहर का ऐतिहासिक महत्व है। ईसा पूर्व मेगास्थनीज(350 ईपू-290 ईपू) ने अपने भारत भ्रमण के पश्चात लिखी अपनी पुस्तक इंडिका में इस नगर का उल्लेख किया है। पलिबोथ्रा (पाटलिपुत्र) जो गंगा और अरेन्नोवास (सोनभद्र-हिरण्यवाह) के संगम पर बसा था। उस पुस्तक के आकलनों के हिसाब से प्राचीन पटना (पलिबोथा) 9 मील (14.5 कि॰मी॰) लम्बा तथा 1.75 मील (2.8 कि॰मी॰) चौड़ा था। पटना बिहार राज्य की राजधानी है और गंगा नदी के दक्षिणी किनारे पर अवस्थित है। जहां पर गंगा घाघरा, सोन और गंडक जैसी सहायक नदियों से मिलती है। [2] सोलह लाख (2011 की जनगणना के अनुसार 1,683,200) से भी अधिक आबादी वाला यह शहर, लगभग 15 कि॰मी॰ लम्बा और 7 कि॰मी॰ चौड़ा है।[3][4] प्राचीन बौद्ध और जैन तीर्थस्थल वैशाली, राजगीर या राजगृह, नालन्दा, बोधगया और पावापुरी पटना शहर के आस पास ही अवस्थित हैं। पटना सिक्खों के लिये एक अत्यंत ही पवित्र स्थल है। सिक्खों के 10वें तथा अंतिम गुरु गुरू गोबिंद सिंह का जन्म पटना में हीं हुआ था। प्रति वर्ष देश-विदेश से लाखों सिक्ख श्रद्धालु पटना में हरमंदिर साहब के दर्शन करने आते हैं तथा मत्था टेकते हैं। पटना एवं इसके आसपास के प्राचीन भग्नावशेष/खंडहर नगर के ऐतिहासिक गौरव के मौन गवाह हैं तथा नगर की प्राचीन गरिमा को आज भी प्रदर्शित करते हैं। एतिहासिक और प्रशासनिक महत्व के अतिरिक्त, पटना शिक्षा और चिकित्सा का भी एक प्रमुख केंद्र है। दीवालों से घिरा नगर का पुराना क्षेत्र, जिसे पटना सिटी के नाम से जाना जाता है, एक प्रमुख वाणिज्यिक केन्द्र है। नाम पटना नाम पटनदेवी (एक हिन्दू देवी) से प्रचलित हुआ है।[5] एक अन्य मत के अनुसार यह नाम संस्कृत के पत्तन से आया है जिसका अर्थ बन्दरगाह होता है। मौर्यकाल के यूनानी इतिहासकार मेगस्थनीज ने इस शहर को पालिबोथरा तथा चीनीयात्री फाहियान ने पालिनफू के नाम से संबोधित किया है। यह ऐतिहासिक नगर पिछली दो सहस्त्राब्दियों में कई नाम पा चुका है - पाटलिग्राम, पाटलिपुत्र, पुष्पपुर, कुसुमपुर, अजीमाबाद और पटना। ऐसा समझा जाता है कि वर्तमान नाम शेरशाह सूरी के समय से प्रचलित हुआ। इतिहास मुख्य लेख: पटना का इतिहास प्राचीन पटना (पूर्वनाम- पाटलिग्राम या पाटलिपुत्र) सोन और गंगा नदी के संगम पर स्थित था। सोन नदी आज से दो हजार वर्ष पूर्व अगमकुँआ से आगे गंगा में मिलती थी। पाटलिग्राम में गुलाब (पाटली का फूल) काफी मात्रा में उपजाया जाता था। गुलाब के फूल से तरह-तरह के इत्र, दवा आदि बनाकर उनका व्यापार किया जाता था इसलिए इसका नाम पाटलिग्राम हो गया। लोककथाओं के अनुसार, राजा पत्रक को पटना का जनक कहा जाता है। उसने अपनी रानी पाटलि के लिये जादू से इस नगर का निर्माण किया। इसी कारण नगर का नाम पाटलिग्राम पड़ा। पाटलिपुत्र नाम भी इसी के कारण पड़ा। संस्कृत में पुत्र का अर्थ बेटा तथा ग्राम का अर्थ गांव होता है। पुरातात्विक अनुसंधानो के अनुसार पटना का लिखित इतिहास 490 ईसा पूर्व से होता है जब हर्यक वंश के महान शासक अजातशत्रु ने अपनी राजधानी राजगृह या राजगीर से बदलकर यहाँ स्थापित की। यह स्थान वैशाली के लिच्छवियों से संघर्ष में उपयुक्त होने के कारण राजगृह की अपेक्षा सामरिक दृष्टि से अधिक महत्वपूर्ण था क्योंकि यह युद्ध अनेक माह तक चलने वाला एक भयावह युद्ध था। उसने गंगा के किनारे सामरिक रूप से महत्वपूर्ण यह स्थान चुना और अपना दुर्ग स्थापित कर लिया। उस समय से इस नगर का इतिहास लगातार बदलता रहा है। २५०० वर्षों से अधिक पुराना शहर होने का गौरव दुनिया के बहुत कम नगरों को हासिल है। बौद्ध धर्म के प्रवर्तक गौतम बुद्ध अपने अन्तिम दिनों में यहाँ से होकर गुजरे थे। उनकी यह भविष्यवाणी थी कि नगर का भविष्य उज्जवल होगा, बाढ़ या आग के कारण नगर को खतरा बना रहेगा। आगे चल कर के महान नन्द शासकों के काल में इसका और भी विकास हुआ एवं उनके बाद आने वाले शासकों यथा मौर्य साम्राज्य के उत्कर्ष के बाद पाटलिपुत्र भारतीय उपमहाद्वीप में सत्ता का केन्द्र बन गया।[6] चन्द्रगुप्त मौर्य का साम्राज्य बंगाल की खाड़ी से अफ़गानिस्तान तक फैल गया था। मौर्य काल के आरंभ में पाटलिपुत्र के अधिकांश राजमहल लकड़ियों से बने थे, पर सम्राट अशोक ने नगर को शिलाओं की संरचना में तब्दील किया। चीन के फाहियान ने, जो कि सन् 399-414 तक भारत यात्रा पर था, अपने यात्रा-वृतांत में यहाँ के शैल संरचनाओं का जीवन्त वर्णन किया है। मेगास्थनीज़, जो कि एक यूनानी इतिहासकार और चन्द्रगुप्त मौर्य के दरबार में यूनानी शासक सिल्यूकस के एक राजदूत के नाते आया था, ने पाटलिपुत्र नगर का प्रथम लिखित विवरण दिया है उसने अपनी पुस्तक में इस शहर के विषय में एवं यहां के लोगों के बारे में भी विशद विवरण दिया है जो आज भी भारतीय इतिहास के छात्रों के लिए सन्दर्भ के रूप में काम आता है। शीघ्र ही पाटलीपुत्र ज्ञान का भी एक केन्द्र बन गया। बाद में, ज्ञान की खोज में कई चीनी यात्री यहाँ आए और उन्होने भी यहां के बारे में अपने यात्रा-वृतांतों में बहुत कुछ लिखा है। मौर्यों के पश्चात कण्व एवं शुंगो सहीत अनेक शासक आये लेकिन इस नगर का महत्व कम नहीं हुआ। इसके पश्चात नगर पर गुप्त वंश सहित कई राजवंशों का राज रहा। इन राजाओं ने यहीं से भारतीय उपमहाद्वीप पर शासन किया। गुप्त वंश के शासनकाल को प्राचीन भारत का स्वर्ण युग कहा जाता है। पर लगातार होने वाले हुणो के आक्रमण एवं गुप्त साम्राज्य के पतन के बाद इस नगर को वह गौरव नहीं मिल पाया जो एक समय मौर्य वंश या गुप्त वंश के समय प्राप्त था। गुप्त साम्राज्य के पतन के बाद पटना का भविष्य काफी अनिश्चित रहा। 12 वीं सदी में बख़्तियार खिलजी ने बिहार पर अपना अधिपत्य जमा लिया और कई आध्यात्मिक प्रतिष्ठानों को ध्वस्त कर डाला। इस समय के बाद पटना देश का सांस्कृतिक और राजनैतिक केन्द्र नहीं रहा। मुगलकाल में दिल्ली के सत्ताधारियों ने अपना नियंत्रण यहाँ बनाए रखा। इस काल में सबसे उत्कृष्ठ समय तब आया जब शेरशाह सूरी ने नगर को पुनर्जीवित करने की कोशिश की। उसने गंगा के तीर पर एक किला बनाने की सोची। उसका बनाया कोई दुर्ग तो अभी नहीं है, पर अफ़ग़ान शैली में बना एक मस्जिद अभी भी है। मुगल बादशाह अकबर की सेना 1574 ईसवी में अफ़गान सरगना दाउद ख़ान को कुचलने पटना आया। अकबर के राज्य सचिव एवं आइने-अकबरी के लेखक अबुल फ़जल ने इस जगह को कागज, पत्थर तथा शीशे का सम्पन्न औद्योगिक केन्द्र के रूप में वर्णित किया है। पटना राइस के नाम से यूरोप में प्रसिद्ध चावल के विभिन्न नस्लों की गुणवत्ता का उल्लेख भी इन विवरणों में मिलता है। मुगल बादशाह औरंगजेब ने अपने प्रिय पोते मुहम्मद अज़ीम के अनुरोध पर 1704 में, शहर का नाम अजीमाबाद कर दिया, पर इस कालखंड में नाम के अतिरिक्त पटना में कुछ विशेष बदलाव नहीं आया। अज़ीम उस समय पटना का सूबेदार था। मुगल साम्राज्य के पतन के साथ ही पटना बंगाल के नबाबों के शासनाधीन हो गया जिन्होंने इस क्षेत्र पर भारी कर लगाया पर इसे वाणिज्यिक केन्द्र बने रहने की छूट दी। १७वीं शताब्दी में पटना अंतर्राष्ट्रीय व्यापार का केन्द्र बन गया। अंग्रेज़ों ने 1620 में रेशम तथा कैलिको के व्यापार के लिये यहाँ फैक्ट्री खोली। जल्द ही यह सॉल्ट पीटर (पोटेशियम नाइट्रेट) के व्यापार का केन्द्र बन गया जिसके कारण फ्रेंच और डच लोग से प्रतिस्पर्धा तेज हुई। बक्सर के निर्णायक युद्ध के बाद नगर इस्ट इंडिया कंपनी के अधीन चला गया और वाणिज्य का केन्द्र बना रहा। ईसवी सन 1912 में बंगाल विभाजन के बाद, पटना उड़ीसा तथा बिहार की राजधानी बना। आई एफ़ मुन्निंग ने पटना के प्रशासनिक भवनों का निर्माण किया। संग्रहालय, उच्च न्यायालय, विधानसभा भवन इत्यादि बनाने का श्रेय उन्हीं को जाता है। कुछ लोगों का मानना है कि पटना के नए भवनों के निर्माण में हासिल हुई महारथ दिल्ली के शासनिक क्षेत्र के निर्माण में बहुत काम आई। सन 1935 में उड़ीसा बिहार से अलग कर एक राज्य बना दिया गया। पटना राज्य की राजधानी बना रहा। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में नगर ने अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। नील की खेती के लिये १९१७ में चम्पारण आन्दोलन तथा 1942 का भारत छोड़ो आन्दोलन के समय पटना की भूमिका उल्लेखनीय रही है। आजादी के बाद पटना बिहार की राजधानी बना रहा। सन 2000 में झारखंड राज्य के अलग होने के बाद पटना बिहार की राजधानी पूर्ववत बना रहा। भूगोल पटना गंगा के दक्षिणी तट पर स्थित है। गंगा नदी नगर के साथ एक लम्बी तट रेखा बनाती है। पटना का विस्तार उत्तर-दक्षिण की अपेक्षा पूर्व-पश्चिम में बहुत अधिक है। नगर तीन ओर से गंगा, सोन नदी और पुनपुन नदी नदियों से घिरा है। नगर से ठीक उत्तर हाजीपुर के पास गंडक नदी भी गंगा में आ मिलती है। हाल के दिनों में पटना शहर का विस्तार पश्चिम की ओर अधिक हुआ है और यह दानापुर से जा मिला है। महात्मा गांधी सेतु जो कि पटना से हाजीपुर को जोड़ने को लिये गंगा नदी पर उत्तर-दक्षिण की दिशा में बना एक पुल है, दुनिया का सबसे लम्बा सड़क पुल है। दो लेन वाले इस प्रबलित कंक्रीट पुल की लम्बाई 5575 मीटर है। गंगा पर बना दीघा-सोनपुर रेल-सह-सड़क पुल पटना और सोनपुर को जोड़ता है।[7] समुद्रतल से ऊँचाई: 53 मीटर तापमान: गर्मी 43°C - 21°C, सर्दी 20°C - 6°C औसत वर्षा: 1,200 मिलीमीटर प्रखंड पटना जिले में 23 ब्लॉक (प्रखंड/अंचल) हैं: पटना सदर, फुलवारी शरीफ, सम्पचक, पलिगंज, फतुहा, खुसरपुर, दानीयावन, बख्तियारपुर, बर, बेल्ची, अथमलगोला, मोकामा, पांडारक, घोसवारी, बिहटा प्रखण्ड (पटना), मनेर प्रखण्ड (पटना), दानापुर प्रखण्ड (पटना), नौबतपुर, बिक्रम, मसूरी, धनारुआ , पुनपुन प्रखण्ड (पटना)।[8] जलवायु बिहार के अन्य भागों की तरह पटना में भी गर्मी का तापमान उच्च रहता है। गृष्म ऋतु में सीधा सूर्यातप तथा उष्ण तरंगों के कारण असह्य स्थिति हो जाती है। गर्म हवा से बनने वाली लू का असर शहर में भी मालूम पड़ता है। देश के शेष मैदानी भागों (यथा - दिल्ली) की अपेक्षा हलाँकि यह कम होता है। चार बड़ी नदियों के समीप होने के कारण नगर में आर्द्रता सालोभर अधिक रहती है। गृष्म ऋतु अप्रैल से आरंभ होकर जून- जुलाई के महीने में चरम पर होती है। तापमान 46 डिग्री तक पहुंच जाता है। जुलाई के मध्य में मॉनसून की झड़ियों से राहत पहुँचती है और वर्षा ऋतु का श्रीगणेश होता है। शीत ऋतु का आरंभ छठ पर्व के बाद यानी नवंबर से होता है। फरवरी में वसंत का आगमन होता है तथा होली के बाद मार्च में इसके अवसान के साथ ही ऋतु-चक्र पूरा हो जाता है। जनसांख्यिकी Historical populationYearPop.±%1807-14*312,000—1872158,000−49.4%1881170,684+8.0%1901134,785−21.0%1911136,153+1.0%1921119,976−11.9%1931159,690+33.1%1941196,415+23.0%1951283,479+44.3%1961364,594+28.6%1971475,300+30.4%1981813,963+71.3%1991956,418+17.5%20011,376,950+44.0%20111,683,200+22.2%टिप्पणी: 1814 के बाद विशाल जनसंख्या में गिरावट, कारण नदी जनित व्यापार, लगातार अस्वास्थ्यकरता और पट्टिका की महामारी। * - अनुमानित (स्रोत -[9]) पटना की जनसंख्या वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार 16,83,200 है, जो 2001 में 13,76,950 थी। जबकि पटना महानगर की जनसंख्या 2,046,652 है। जनसंख्या का घनत्व 1132 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर तथा स्त्री पुरूष अनुपात है - 882 स्त्री प्रति 1,000 पुरूष। साक्षरता की दर पुरूषों में 87.71% तथा स्त्रियों में 81.33% है।[10] पटना में अपराध की दर अपेक्षाकृत कम है। मुख्य जेल बेउर में है। पटना में कई भाषाएँ तथा बोलियाँ बोली जाती हैं। हिन्दी राज्य की आधिकारिक भाषा है तथा उर्दू द्वितीय राजभाषा है। अंग्रेजी का भी प्रयोग होता है। मगही यहाँ की स्थानीय बोली है। अन्य भाषाएँ, जो कि बिहार के अन्य भागों से आए लोगों की मातृभाषा हैं, में अंगिका, भोजपुरी, बज्जिका और मैथिली प्रमुख हैं। आंशिक प्रयोग में आनेवाली अन्य भाषाओं में बंगाली और उड़िया का नाम लिया जा सकता है। पटना के मेमन को पाटनी मेमन कहते है और उनकी भाषा मेमनी भाषा का एक स्वरूप है। जनजीवन एवं स्त्रियों की दशा पटना का मुख्य जनजीवन अंग तथा मिथिला प्रदेशों से काफी प्रभावित है। यह संस्कृति बंगाल से मिलती जुलती है। स्त्रियों का परिवार में सम्मान होता है तथा पारिवारिक निर्णयों में उनकी बात भी सुनी जाती है। यद्यपि स्त्रियां अभी तक घर के कमाऊ सदस्यों में नहीं हैं पर उनकी दशा उत्तर भारत के अन्य क्षेत्रों से अच्छी है। भ्रूण हत्या की खबरें शायद ही सुनी जाती है लेकिन कही कहीं स्त्रियों का शोषण भी होता है। शिक्षा के मामले में स्त्रियों की तुलना में पुरूषों को तरजीह मिलती है। संस्कृति पर्व-त्यौहार दीवाली, दुर्गापूजा, होली, ईद, क्रिसमस, छठ आदि लोकप्रियतम पर्वो में से है। छठ पर्व पटना ही नहीं वरन् सारे बिहार का एक प्रमुख पर्वं है जो कि सूर्य देव की अराधना के लिए किया जाता है।[12] दशहरा मुख्य लेख देखें: पटना में दशहरा दशहरा में सांस्कृतिक कार्यक्रमों की लम्बी पर क्षीण होती परम्परा है। इस परंपरा की शुरुआत वर्ष 1944 में मध्य पटना के गोविंद मित्रा रोड मुहल्ले से हुई थी। धुरंधर संगीतज्ञों के साथ-साथ बड़े क़व्वाल और मुकेश या तलत महमूद जैसे गायक भी यहाँ से जुड़ते चले गए। 1950 से लेकर 1980 तक तो यही लगता रहा कि देश के शीर्षस्थ संगीतकारों का तीर्थ-सा बन गया है पटना। डीवी पलुस्कर, ओंकार नाथ ठाकुर, भीमसेन जोशी, अली अकबर ख़ान, निखिल बनर्जी, विनायक राव पटवर्धन, पंडित जसराज, कुमार गंधर्व, बीजी जोग, अहमद जान थिरकवा, बिरजू महाराज, सितारा देवी, किशन महाराज, गुदई महाराज, बिस्मिल्ला ख़ान, हरिप्रसाद चौरसिया, शिवकुमार शर्मा ... बड़ी लंबी सूची है। पंडित रविशंकर और उस्ताद अमीर ख़ान को छोड़कर बाक़ी प्रायः सभी नामी संगीतज्ञ उन दिनों पटना के दशहरा संगीत समारोहों की शोभा बन चुके थे। 60 वर्ष पहले पटना के दशहरा और संगीत का जो संबंध सूत्र क़ायम हुआ था वह 80 के दशक में आकर टूट-बिखर गया। उसी परंपरा को फिर से जोड़ने की एक तथाकथित सरकारी कोशिश वर्ष 2006 के दशहरा के मौक़े पर हुई लेकिन नाकाम रही। खान-पान जनता का मुख्य भोजन भात-दाल-रोटी-तरकारी-अचार है। सरसों का तेल पारम्परिक रूप से खाना तैयार करने में प्रयुक्त होता है। खिचड़ी, जोकि चावल तथा दालों से साथ कुछ मसालों को मिलाकर पकाया जाता है, भी भोज्य व्यंजनों में काफी लोकप्रिय है। खिचड़ी, प्रायः शनिवार को, दही, पापड़, घी, अचार तथा चोखा के साथ-साथ परोसा जाता है। बिहार के खाद्य पदार्थों में लिटटी एवं बैंगन एवं टमाटर व आलू के साथ मिला कर बनाया गया चोखा बहुत ही प्रमुख है। विभिन्न प्रकार के सत्तूओं का प्रयोग इस स्थान की विशेष्ता है। पटना को केन्द्रीय बिहार के मिष्ठान्नों तथा मीठे पकवानों के लिए भी जाना जाता है। इनमें खाजा, मावे का लड्डू,मोतीचूर के लड्डू, काला जामुन, केसरिया पेड़ा, परवल की मिठाई, खुबी की लाई और चना मर्की एवं ठेकुआ आदि का नाम लिया जा सकता है। इन पकवानो का मूल इनके सम्बन्धित शहर हैं जो कि पटना के निकट हैं, जैसे कि सिलाव का खाजा, बाढ का मावे का लाई,मनेर का लड्डू, विक्रम का काला जामुन, गया का केसरिया पेड़ा, बख्तियारपुर का खुबी की लाई (???) का चना मर्की, बिहिया की पूरी इत्यादि उल्लेखनीय है। हलवाईयों के वंशज, पटना के नगरीय क्षेत्र में बड़ी संख्या में बस गए इस कारण से यहां नगर में ही अच्छे पकवान तथा मिठाईयां उपलब्ध हो जाते हैं। बंगाली मिठाईयों से, जोकि प्रायः चाशनी में डूबे रहते हैं, भिन्न यहां के पकवान प्रायः सूखे रहते हैं। इसके अतिरिक्त इन पकवानों का प्रचलन भी काफी है - पुआ, - मैदा, दूध, घी, चीनी मधु इत्यादि से बनाया जाता है। पिठ्ठा - चावल के चूर्ण को पिसे हुए चने के साथ या खोवे के साथ तैयार किया जाता है। तिलकुट - जिसे बौद्ध ग्रंथों में पलाला नाम से वर्णित किया गया है, तिल तथा चीनी गुड़ बनाया जाता है। चिवड़ा या च्यूरा' - चावल को कूट कर या दबा कर पतले तथा चौड़ा कर बनाया जाता है। इसे प्रायः दही या अन्य चाजो के साथ ही परोसा जाता है। मखाना - (पानी में उगने वाली फली) इसकी खीर काफी पसन्द की जाती है। सत्तू - भूने हुए चने को पीसने से तैयार किया गया सत्तू, दिनभर की थकान को सहने के लिए सुबह में कई लोगों द्वारा प्रयोग किया जाता है। इसको रोटी के अन्दर भर कर भी प्रयोग किया जाता है जिसे स्थानीय लोग मकुनी रोटी कहते हैं। लिट्टी-चोखा - लिट्टी जो आंटे के अन्दर सत्तू तथा मसाले डालकर आग पर सेंकने से बनता है, को चोखे के साथ परोसा जाता है। चोखा उबले आलू या बैंगन को गूंथने से तैयार होता है। आमिष व्यंजन भी लोकप्रिय हैं। मछली काफी लोकप्रिय है और मुग़ल व्यंजन भी पटना में देखे जा सकते हैं। अभी हाल में कॉन्टिनेन्टल खाने भी लोगों द्वारा पसन्द किये जा रहे हैं। कई तरह के रोल, जोकि न्यूयॉर्क में भी उपलब्ध हैं, का मूल पटना ही है। विभाजन के दौरान कई मुस्लिम परिवार पाकिस्तान चले गए और बाद में अमेरिका। अपने साथ -साथ वो यहां कि संस्कृति भी ले गए। वे कई शाकाहारी तथा आमिष रोलों रोल-बिहारी नाम से, न्यूयार्क में बेचते हैं। इस स्थान के लोग खानपान के विषय में अपने बड़े दिल के कारण मशहूर हैं। यातायात सड़क परिवहन राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या 31 तथा 19 नगर से होकर गुजरता है। राज्य की राजधानी होने से पटना बिहार के सभी प्रमुख शहरों से सड़क मार्ग द्वारा जुड़ा है। बिहार के सभी जिला मुख्यालय तथा झारखंड के कुछ शहरों के लिए नियमित बस-सेवा यहाँ से उपलब्ध है। गंगा नदी पर बने महात्मा गांधी सेतु के द्वारा पटना हाजीपुर से जुड़ा है। रेल परिवहन भारतीय रेल के पर पटना एक महत्वपूर्ण जंक्शन है। भारतीय रेल द्वारा राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली के अतिरिक्त यहाँ से मुम्बई, चेन्नई, कोलकाता, अहमदाबाद, जम्मू, अमृतसर, गुवाहाटी तथा अन्य महत्वपूर्ण शहरों के लिए सीधी ट्रेनें उपलब्ध है।[13] पटना देश के अन्य सभी महत्वपूर्ण शहरों से रेलमार्ग द्वारा जुड़ा है। पटना से जाने वाले रेलवे मार्ग हैं- पटना-मोकामा, पटना-मुगलसराय' तथा पटना-गया। यह पूर्व रेलवे के दिल्ली-हावड़ा मुख्य मार्ग पर स्थित है। वर्ष 2003 में दीघा-सोनपुर रेल-सह-सड़क पुल का निर्माण कार्य शुरू हुआ था। इसके 13 वर्ष बाद तीन फरवरी, 2016 से इस पर ट्रेन परिचालन शुरू किया गया।[14] हवाई परिवहन पटना के अंतरराष्ट्रीय हवाई पट्टी का नाम लोकनायक जयप्रकाश नारायण हवाई अड्डा है और यह नगर के पश्चिमी भाग में स्थित है। भारतीय विमानपत्तन प्राधिकरण द्वारा संचालित लोकनायक जयप्रकाश हवाईक्षेत्र, पटना (IATA कोड- PAT) अंतर्देशीय तथा सीमित अन्तर्राष्ट्रीय उड़ानों के लिए बना है। air india, जेटएयर, स्पाइसजेट तथा इंडिगो की उडानें दिल्ली, रांची, कलकत्ता, मुम्बई तथा कुछ अन्य नगरों के लिए नियमित रूप से उपलब्ध है। जल परिवहन पटना शहर १६८० किलोमीटर लंबे इलाहाबाद-हल्दिया राष्ट्रीय जलमार्ग संख्या-१ पर स्थित है। गंगा नदी का प्रयोग नागरिक यातायात के लिए हाल तक किया जाता था पर इसके ऊपर पुल बन जाने के कारण इसका महत्व अब भारवहन के लिए सीमित रह गया है। देश का एकमात्र राष्ट्रीय अंतर्देशीय नौकायन संस्थान पटना के गायघाट में स्थित है। स्थानीय परिवहन - पटना शहर का सार्वजनिक यातायात मुख्यतः सिटी बसों, ऑटोरिक्शा और साइकिल रिक्शा पर आश्रित है। लगभग ३० किलोमीटर लंबे और ५ किलोमीटर चौड़े राज्य की राजधानी के यातायात की ज़रुरतें मुख्यरूप से ऑटोरिक्शा (जिसे टेम्पो भी कहा जाता है) ही पूरा करती हैं। स्थानीय भ्रमण हेतु टैक्सी सेवा उपलब्ध है, जो निजी मालिकों द्वारा संचालित मंहगा साधन है। नगर बस सेवा कुछ इलाको के लिए उपलब्ध है पर उनकी सेवा और समयसारणी भरोसे के लायक नहीं है। नगर का मुख्य मार्ग अशोक राजपथ टेम्पो, साइकिल-रिक्शा तथा निजी दोपहिया और चौपहिया वाहनों के कारण हमेशा जाम का शिकार रहता है। आर्थिक स्थिति प्राचीन काल में व्यापार का केन्द्र रहे इस शहर में अब निर्यात करने लायक कम उपादान ही बनते हैं, हंलांकि बिहार के अन्य हिस्सों में पटना के पूर्वी पुराने भाग (पटना सिटी) निर्मित माल की मांग होने के कारण कुछ उद्योग धंधे फल फूल रहे हैं। वास्तव में ब्रिटिश काल में इस क्षेत्र में पनपने वाले पारंपरिक उद्योगों का ह्रास हो गया एवं इस प्रदेश को सरकार के द्वारा अनुमन्य फसल ही उगानी पड़ती थी इसका बहुत ही प्रतिकूल प्रभाव इस प्रदेश की अर्थव्यवस्था पर पड़ा| आगे चल कर के इस प्रदेश में होने वाले अनेक विद्रोहों के कारण भी इस प्रदेश की तरफ से सरकारी ध्यान हटता गया एवं इस प्रकार यह क्षेत्र अत्यंत ही पिछड़ता चला गया। आगे चल कर के स्वतंत्रता संग्राम के समय होने वाले किसान आंदोलन ने नक्सल आंदोलन का रूप ले लिया एवं इस प्रकार यह भी इस प्रदेश की औद्योगिक विकास के लिए घातक हो गया एवं आगे चल कर के युवाओं का पलायन आरंभ हो गया। दर्शनीय स्थल सभ्यता द्वार - बिहार में पटना शहर में गंगा नदी के तट पर स्थित एक बलुआ पत्थर आर्क स्मारक है। सभ्यता द्वार को मौर्य-शैली वास्तुकला के साथ बनाया गया है जिसमें बिहार राज्य की पाटलिपुत्र और परंपराओं और संस्कृति की प्राचीन महिमा दिखाने के उद्देश्य से बनाया गया है। पटना तारामंडल- पटना के इंदिरा गांधी विज्ञान परिसर में स्थित है। अगम कुँआ – मौर्य वंश के शासक सम्राट अशोक के काल का एक कुआँ गुलजा़रबाग स्टेशन के पास स्थित है। पास ही स्थित एक मन्दिर स्थानीय लोगों के शादी-विवाह का महत्वपूर्ण स्थल है। कुम्रहार - चंद्रगुप्त मौर्य, बिन्दुसार तथा अशोक कालीन पाटलिपुत्र के भग्नावशेष को देखने के लिए यह सबसे अच्छी जगह है। कुम्रहार परिसर भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग द्वारा संरक्षित तथा संचालित है और सोमवार को छोड़ सप्ताह के हर दिन १० बजे से ५ बजे तक खुला रहता है। क़िला हाउस (जालान हाउस) दीवान बहादुर राधाकृष्ण जालान द्वारा शेरशाह के किले के अवशेष पर निर्मित इस भवन में हीरे जवाहरात तथा चीनी वस्तुओं का एक निजी संग्रहालय है। तख्त श्रीहरमंदिर पटना सिखों के दसमें और अंतिम गुरु गोविन्द सिंह की जन्मस्थली है। नवम गुरु श्री तेगबहादुर के पटना में रहने के दौरान गुरु गोविन्दसिंह ने अपने बचपन के कुछ वर्ष पटना सिटी में बिताए थे। बालक गोविन्दराय के बचपन का पंगुरा (पालना), लोहे के चार तीर, तलवार, पादुका तथा 'हुकुमनामा' यहाँ गुरुद्वारे में सुरक्षित है। यह स्थल सिक्खों के लिए अति पवित्र है। महावीर मन्दिर संकटमोचन रामभक्त हनुमान मन्दिर पटना जंक्शन के ठीक बाहर बना है। न्यू मार्किट में बने मस्जिद के साथ खड़ा यह मन्दिर हिंदू-मुस्लिम एकता का प्रतीक है। गांधी मैदान वर्तमान शहर के मध्यभाग में स्थित यह विशाल मैदान पटना का दिल है। जनसभाओं, सम्मेलनों तथा राजनीतिक रैलियों के अतिरिक्त यह मैदान पुस्तक मेला तथा दैनिक व्यायाम का भी केन्द्र है। इसके चारों ओर अति महत्वपूर्ण सरकारी इमारतें और प्रशासनिक तथा मनोरंजन केंद्र बने हैं। गोलघर 1770 ईस्वी में इस क्षेत्र में आए भयंकर अकाल के बाद अनाज भंडारण के लिए बनाया गया यह गोलाकार ईमारत अपनी खास आकृति के लिए प्रसिद्ध है। 1786 ईस्वी में जॉन गार्स्टिन द्वारा निर्माण के बाद से गोलघ‍र पटना शहर क प्रतीक चिह्न बन गया। दो तरफ बनी सीढियों से ऊपर जाकर पास ही बहनेवाली गंगा और इसके परिवेश का शानदार अवलोकन संभव है। गाँधी संग्रहालय गोलघर के सामने बनी बाँकीपुर बालिका उच्च विद्यालय के बगल में महात्मा गाँधी की स्मृतियों से जुड़ी चीजों का नायाब संग्रह देखा जा सकता है। हाल में इसी परिसर में नवस्थापित चाणक्य राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालय का अध्ययन केंद्र भी अवलोकन योग्य है। श्रीकृष्ण विज्ञान केंद्र गाँधी मैदान के पश्चिम भाग में बना विज्ञान परिसर स्कूली शिक्षा में लगे बालकों के लिए ज्ञानवर्धक केंद्र है। पटना संग्रहालय जादूघर के नाम से भी जानेवाले इस म्यूज़ियम में प्राचीन पटना के हिन्दू तथा बौद्ध धर्म की कई निशानियां हैं। लगभग ३० करोड़ वर्ष पुराने पेड़ के तने का फॉसिल यहाँ का विशेष धरोहर है। ताराघर संग्रहालय के पास बना इन्दिरा गाँधी विज्ञान परिसर में बना ताराघर देश में वृहत्तम है। ख़ुदाबख़्श लाईब्रेरी अशोक राजपथ पर स्थित यह राष्ट्रीय पुस्तकालय 1891 में स्थापित हुआ था। यहाँ कुछ अतिदुर्लभ मुगल कालीन पांडुलपियां हैं। सदाक़त आश्रम - देशरत्न राजेन्द्र प्रसाद की कर्मभूमि। संजय गांधी जैविक उद्यान - राज्यपाल के सरकारी निवास राजभवन के पीछे स्थित जैविक उद्यान शहर का फेफड़ा है। विज्ञानप्रेमियों के लिए ‌यह जन्तु तथा वानस्पतिक गवेषणा का केंद्र है। व्यायाम करनेवालों तथा पिकनिक के लिए यह् पसंदीदा स्थल है। दरभंगा हाउस इसे नवलखा भवन भी कहते हैं। इसका निर्माण दरभंगा के महाराज कामेश्वर सिंह ने करवाया था। गंगा के तट पर अवस्थित इस प्रासाद में पटना विश्वविद्यालय के स्नातकोत्तर विभागों का कार्यालय है। इसके परिसर में एक काली मन्दिर भी है जहां राजा खुद अर्चना किया करते थे। बेगू हज्जाम की मस्जिद सन् 1489 में बंगाल के शासक अलाउद्दीन शाह द्वारा निर्मित 'पत्थर की मस्जिद - जहाँगीर के पुत्र शाह परवेज़ द्वारा 1621 में निर्मित यह छोटी सी मस्जिद अशोक राजपथ पर सुलतानगंज में स्थित है। शेरशाह की मस्जिद अफगान शैली में बनी यह मस्जिद बिहार के महान शासक शेरशाह सूरी द्वारा 1540-1545 के बीच बनवाई गयी थी। पटना में बनी यह सबसे बड़ी मस्जिद है। पादरी की हवेली - सन 1772 में निर्मित बिहार का प्राचीनतम चर्च बंगाल के नवाब मीर कासिम तथा ब्रिटिस ईस्ट इंडिया कंपनी के बीच की कड़वाहटों का गवाह है। पटना के आसपास बिहार शरीफ आरा बोध गया वैशाली नालंदा पावापुरी राजगीर हाजीपुर मनेर बिक्रम मनेर तेलपा नौबतपुर *दुल्हिनबजार *पालीगंज *मसौढी शिक्षा साठ और सत्तर के दशक में अपने गौरवपूर्ण शैक्षणिक दिनों के बाद स्कूली शिक्षा ही अब स्तर की है। पटना में प्रायः बिहार बोर्ड तथा सीबीएसई के स्कूल हैं। अनुग्रह नारायण सिंह कॉलेज पटना का नामी कालेज है। इसने शिक्षा के क्षेत्र में बिहार का नाम विदेशों तक मशहुर किया। हाल में ही बिहार कॉलेज ऑफ़ इंजीनियरिंग को एनआईटी का दर्जा मिला है। पटना विश्वविद्यालय, मगध विश्वविद्यालय तथा नालन्दा मुक्त विश्वविद्यालय - ये तीन विश्वविद्यालय हैं जिनके शिक्षण संस्थान नगर में स्थित हैं। हाल ही में पटना में प्रबंधन, सूचना तकनीक, जनसंचार एवं वाणिज्य की पढ़ाई हेतु 'कैटलिस्ट प्रबंधन एवं आधुनिक वैश्विक उत्कृष्टता संस्थान' अर्थात सिमेज कॉलेज की स्थापना की गयी है, जो उच्च शिक्षा के क्षेत्र में नित नए मानदंड स्थापित कर रहा है। इन्हें भी देखें लोकनायक जयप्रकाश विमानक्षेत्र पटना जंक्शन रेलवे स्टेशन महत्वपूर्ण (उल्लेखनीय) लोग सुशांत सिंह राजपूत सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ श्रेणी:बिहार के शहर श्रेणी:बिहार के जिले *
बिहार की राजधानी का नाम क्या है?
पटना
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इंस्टाग्राम एक मोबाइल, डेस्कटॉप और इंटरनेट-आधारित फोटो-साझाकरण एप्लिकेशन है जो उपयोगकर्ताओं को फोटो या वीडियो को सार्वजनिक रूप से या निजी [1] तौर पर साझा करने की अनुमति देता है। इसकी स्थापना केविन सिस्ट्रॉम और माइक क्रेगर के द्वारा २०१० में की गई थी, और अक्टूबर २०१० में आईओएस ऑपरेटिंग सिस्टम के लिए विशेष रूप से निःशुल्क मोबाइल ऐप के रूप में लॉन्च किया गया था। एंड्रॉइड (प्रचालन तंत्र) डिवाइस के लिए एक संस्करण दो साल बाद, अप्रैल २०१२ में जारी किया गया था, इसके बाद नवंबर २०१२ में फीचर-सीमित वेबसाइट इंटरफ़ेस, और विंडोज़ १० मोबाइल और विंडोज़ १० को अक्टूबर २०१६ में एप्लिकेशन तैयार किये गए। [2][3] इंस्टाग्राम पर आज पंजीकृत सदस्य अनगिनत संख्या में चित्र और वीडियो साझा कर सकते हैं जिसमें वे फिल्टर भी बदल सकते हैं। [4] साथ ही इन चित्रों के साथ अपना लोकेशन यानी स्थिति भी जोड़ सकते हैं। इसके अलावा जैसे ट्विटर और फेसबुक में हैशटैग जोड़े जाते हैं वैसे ही इस में भी हैशटैग लगाने का विकल्प होता है। साथ ही फोटो और वीडियो के अलावा लिखकर पोस्ट भी कर सकते हैं।[5] इन्हें भी देखें सर्वाधिक फॉलो किये जाने वाले इन्स्टाग्राम खातों की सूची सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ No URL found. Please specify a URL here or add one to Wikidata. with the founders of Instagram (May 30, 2013) श्रेणी:सॉफ्टवेयर श्रेणी:वेब ऐप्लीकेशन श्रेणी:सामाजिक मीडिया
इंस्टाग्राम कब लॉन्च किया गया था?
अक्टूबर २०१०
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Main Page सहीह अल-बुख़ारी (अरबी: صحيح البخاري ), जिसे बुखारी शरीफ़ (अरबी: بخاري شريف ) भी कहा जाता है। सुन्नी इस्लाम के कुतुब अल-सित्ताह (छह प्रमुख हदीस संग्रह) में से एक है। इन पैग़म्बर की परंपराओं, या हदीसों को मुस्लिम विद्वान मुहम्मद अल-बुख़ारी ने एकत्र किया। इस हदीस का संग्रह 846/232 हिजरी के आसपास पूरा हो गया था। सुन्नी मुसलमान सही बुख़ारी और सही मुस्लिम को दो सबसे भरोसेमंद संग्रह मानते हैं। [1][2] ज़ैदी शिया मुसलमानों द्वारा भी एक प्रामाणिक हदीस संग्रह के रूप में माना और इसका उपयोग भी किया जाता है। [3] कुछ समूहों में, इसे कुरान के बाद सबसे प्रामाणिक पुस्तक माना जाता है। [4][5] अरबी शब्द "सहीह" का मतलब प्रामाणिक या सही का अर्थ देता है। [6] सही मुस्लिम के साथ सही अल बुखारी को "सहीहैन" (सहीह का बहुवचन) के नाम से पुकारा जाता है। शीर्षक इब्न अल-सलाह के अनुसार, आमतौर पर सही अल-बुख़ारी के नाम से जाने जानी वाली किताब का वास्तविक शीर्षक है: "अल-जामी 'अल-सहीह अल-मुस्नद अल-मुख्तसर मिन उमूरि रसूलिल्लाहि व सुननिही व अय्यामिही" है। शीर्षक का एक शब्द-से-शब्द अनुवाद है: पैगंबर, उनके प्रथाओं और उनके काल के संबंध में जुड़े मामलों के संबंध में प्रामाणिक हदीस का संग्रह। [5] इब्न हजर अल-असकलानी ने उसी शीर्षक का उल्लेख किया, जिसमें उमूर (अंग्रेजी: मामलों ) शब्द को हदीस शब्द से बदल दिया गया था। [7] अवलोकन अल बुखारी 16 साल की उम्र से अब्बासिद खिलाफ़त में व्यापक रूप से यात्रा करते थे, उन परंपराओं को इकट्ठा करते थे जिन्हें वह भरोसेमंद माना था। यह बताया गया है कि अल-बुखारी ने अपने इस संग्रह में लगभग 600,000 उल्लेखों को इकट्टा करने में अपने जीवन के 16 साल समर्पित किए थे। [8] बुखारी के सही में हदीस की सटीक संख्या पर स्रोत अलग-अलग हैं, इस पर निर्भर करता है कि हदीस को पैगंबर परंपरा का वर्णन माना गया है या नहीं। विशेषज्ञों ने, सामान्य रूप से, 7,397 हदीसों को पूर्ण-इस्नद हदीसों की संख्या का अनुमान लगाया है, और उन्ही हदीसों में पुनरावृत्ति या विभिन्न संस्करणों के विचारों के बिना, पैगंबर के हदीसों की संख्या लगभग 2,602 तक कम हो गई है। [8] उस समय बुखारी ने हदीस के मुतालुक पहले के कामों के देखा और उन्हें परखा। उर पूरी छान बीन के बाद जिसे सहीह (सही) और हसन (अच्छा) माना जाएगा उन्हीं को संग्रह किया। और उनमें से कई दईफ़ या ज़ईफ़ (कमज़ोर) हदीस भी शामिल हैं। इस से साफ़ ज़ाहिर होता है कि इनको हदीस को संकलित करने में अपनी रुचि थी और उन्हों ने इस को किया भी। उनके संकल्प को और मजबूत करने के लिए उनके शिक्षक, हदीस विद्वान इशाक इब्न इब्राहिम अल-हंथली ने उन्हें बताया था, "हम इशाक इब्न राहवेह के साथ थे, जिन्होंने कहा, 'अगर आप केवल पैगंबर के प्रामाणिक कथाओं की एक पुस्तक संकलित करेंगे।' यह सुझाव मेरे दिल में रहा, इसलिए मैंने सहीह को संकलित करना शुरू किया। " बुखारी ने यह भी कहा, "मैंने पैगंबर को एक सपने में देखा और ऐसा लगता था कि मैं उनके सामने खड़ा था। मेरे हाथ में एक पंखा था जिससे मैं उनकी रक्षा कर रहा था। मैंने कुछ ख्वाब की ताबीर बताने वालों से पुछा, तो उन्हों ने मुझ से कहा कि "आप उन्हें (उनकी हदीसों को) झूठ से बचाएंगे"। "यही वह है जो मुझे सहीह का उत्पादन करने के लिए आमादा किया था।" [9] इस पुस्तक में इस्लाम के उचित मार्गदर्शन प्रदान करने में जीवन के लगभग सभी पहलुओं को शामिल किया गया है जैसे प्रार्थना करने और पैगंबर मुहम्मद द्वारा इबादतों के अन्य कार्यों की विधि। बुखारी ने अपना काम 846/232 हिजरी के आसपास पूरा कर लिया, और अपने जीवन के आखिरी चौबीस वर्षों में अन्य शहरों और विद्वानों का दौरा किया, उन्होंने जो हदीस एकत्र किया था उसे पढ़ाया। बुखारी के हर शहर में, हजारों लोग मुख्य मस्जिद में इकट्ठे होते हैं ताकि उन से संग्रह की गयी इन परंपराओं को पढ़ सकें। पश्चिमी शैक्षणिक संदेहों के जवाब में, जो कि उनके नाम पर मौजूद पुस्तक की वास्तविक तिथि और लेखक के रूप में है, विद्वान बताते हैं कि उस समय के उल्लेखनीय हदीस विद्वान अहमद इब्न हनबल (855 ई / 241 हिजरी), याह्या इब्न माइन (847 ई / 233 हिजरी), और अली इब्न अल-मादिनी (848 ई / 234 हिजरी) ने इनकी पुस्तक [10] की प्रामाणिकता स्वीकार की और संग्रह तत्काल प्रसिद्धि होगया। यहाँ तक प्रसिद्द हुआ कि लेखक (बुख़ारी) की मृत्यु के बाद लोग इस किताब को किसी संशोधन किये मानने लगे और यह एक ऐतिहासिक रिकॉर्ड बन गई। चौबीस वर्ष की इस अवधि के दौरान, अल बुखारी ने अपनी पुस्तक में मामूली संशोधन किए, विशेष रूप से अध्याय शीर्षक। प्रत्येक संस्करण का नाम इसके वर्णनकर्ता द्वारा किया जाता है। इब्न हजर अल- असकलानी के अनुसार उनकी किताब नुक्ता में , सभी संस्करणों में हदीस की संख्या समान है। बुखारी के एक भरोसेमंद छात्र अल-फिराबरी (डी। 932 सीई / 320 एएच) द्वारा वर्णित संस्करण सबसे प्रसिद्ध है। अल-खतिब अल-बगदादी ने अपनी पुस्तक इतिहास बगदाद में फिराबरी को यह कहते हुए उद्धृत किया: "सत्तर हजार लोगों ने मेरे साथ सहहि बुखारी को सुना"। फिराबरी सही अल बुखारी के एकमात्र फैलाने वाले नहीं थे। इब्राहिम इब्न मक़ल (907 ई / 295 हिजरी), हम्मा इब्न शाकेर (923 ई / 311 हिजरी), मंसूर बर्दूज़ी (931 ई / 319 हिजरी) और हुसैन महमीली (941 ई / 330 हिजरी) ने अगली पीढ़ियों को इस किताब के ज़रिये पढाया और फैलाया। ऐसी कई किताबें हैं जो मतभेद रखती हैं, जिन में सब से अहम् फ़तह अल-बारी है। विशिष्ट विशेषताएं उल्लेखनीय इस्लामी विद्वान अमीन अहसान इस्लाही ने सही अल बुखारी के तीन उत्कृष्ट गुण सूचीबद्ध किए हैं: [11] चयनित अहादीस के वर्णनकर्ताओं की श्रृंखला की गुणवत्ता और सुदृढ़ता। मुहम्मद अल बुखारी ने गुणवत्त और दृढ़ अहादीस का चयन करने के लिए दो सिद्धांत मानदंडों का पालन किया है। सबसे पहले, एक कथाकार का जीवनकाल प्राधिकरण के जीवनकाल से आगे नहीं होना चाहिए जिससे वह वर्णन करता है। दूसरा, यह सत्यापित होना चाहिए कि उल्लेखनकारों ने मूल स्रोत व्यक्तियों से मुलाकात की है। उन्हें स्पष्ट रूप से यह भी कहना चाहिए कि उन्होंने इन उल्लेखनकारियों से कथा प्राप्त की है। यह मुस्लिम इब्न अल-हाजज द्वारा निर्धारित की गई एक कठोर मानदंड है। मुहम्मद अल बुखारी ने केवल उन लोगों से कथाएं स्वीकार की जिन्होंने अपने ज्ञान के अनुसार, न केवल इस्लाम में विश्वास किया बल्कि इसकी शिक्षाओं का पालन किया। इस प्रकार, उन्होंने मुर्जियों से कथाओं को स्वीकार नहीं किया है। अध्यायों की विशेष व्यवस्था और श्रृंखला। यह लेखक के गहन ज्ञान और धर्म की उनकी समझ व्यक्त करता है। इसने पुस्तक को धार्मिक विषयों की समझ में एक और उपयोगी मार्गदर्शिका बना दी है। प्रामाणिकता इब्न अल-सलाह ने कहा: "साहिह को लेखक बनाने वाले पहले बुखारी, अबू अब्द अल्लाह मुहम्मद इब्न इस्माइल अल-जुफी थे, इसके बाद अबू अल-उसैन मुस्लिम इब्न अल-अंजज एक-नायसबुरि अल-कुशायरी थे , जो उनके छात्र थे, साझा करते थे एक ही शिक्षक। ये दो पुस्तकें कुरान के बाद सबसे प्रामाणिक किताबें हैं। अल-शफीई के बयान के लिए, जिन्होंने कहा, "मुझे मलिक की किताब की तुलना में ज्ञान युक्त पुस्तक की जानकारी नहीं है," - अन्य एक अलग शब्द के साथ इसका उल्लेख किया - उन्होंने बुखारी और मुसलमान की किताबों से पहले यह कहा। बुखारी की किताब दो और अधिक उपयोगी दोनों के लिए अधिक प्रामाणिक है। " [5] इब्न हजर अल- असक्लानी ने अबू जाफर अल-उक्विला को उद्धृत करते हुए कहा, "बुखारी ने साहिह लिखा था, उन्होंने इसे अली इब्न अल-मादिनी , अहमद इब्न हनबल , याह्या इब्न माइन के साथ-साथ अन्य लोगों को भी पढ़ा। उन्होंने इसे माना एक अच्छा प्रयास और चार हदीस के अपवाद के साथ इसकी प्रामाणिकता की गवाही दी गई। अल-अक्विला ने तब कहा कि बुखारी वास्तव में उन चार हदीस के बारे में सही थे। " इब्न हजर ने तब निष्कर्ष निकाला, "और वे वास्तव में प्रामाणिक हैं।" [12] इब्न अल-सलाह ने अपने मुक्द्दीमा इब्न अल-इलाला फी 'उलम अल-आदीद में कहा: "यह हमें बताया गया है कि बुखारी ने कहा है,' मैंने अल-जामी पुस्तक में शामिल नहीं किया है ' जो प्रामाणिक है और मैंने किया अल्पसंख्यक के लिए अन्य प्रामाणिक हदीस शामिल नहीं है। '" [5] इसके अलावा, अल-धाहाबी ने कहा," बुखारी ने यह कहते हुए सुना था,' मैंने एक सौ हजार प्रामाणिक हदीस और दो सौ हजार याद किए हैं जो प्रामाणिक से कम हैं। ' " [13] आलोचना महिला नेतृत्व के संबंध में बुखारी में कम से कम एक प्रसिद्ध हाद (अकेली) हदीस, [14] इसकी सामग्री और उसके हदीस कथाकार (अबू बकरी) के आधार पर लिखी गयी, जिसको कुछ लेखकों ने प्रामाणिक नहीं माना। शेहदेह हदीस की आलोचना करने के लिए लिंग सिद्धांत का उपयोग करता हैं, [15] जबकि फारूक का मानना ​​है कि इस तरह के हदीस इस्लाम में सुधार के लिए असंगत हैं। [16] एफी और एफ़ी शरिया क़ानून के लिए हदीस के बजाये समकालीन व्याख्या पर चर्चा करना चाहते हैं। [17] एक और हदीस ("तीन चीजें बुरी किस्मत लाती हैं: घर, महिला और घोड़ा।"), अबू हुरैराह द्वारा उल्लेख की गई, इस पर फतेमा मेर्निसी ने संदर्भ से बाहर होने और बुखारी के संग्रह में कोई स्पष्टीकरण ना होनी की आलोचना की है। इमाम जरकाशी (1344-1392) हदीस संग्रह में हज़रत आइशा द्वारा सूचित हदीस में स्पष्टीकरण दिया गया है: "... वह [अबू हुरैरा] हमारे घर में आया जब पैगंबर वाक्य के बीच में थे। उसने इसके बारे में केवल अंत सुना। पैगंबर ने क्या कहा था: 'अल्लाह यहूदियों को खारिज करे; वे (यहूदी) कहते हैं कि तीन चीजें बुरी किस्मत लाती हैं: घर, महिला और घोड़े।" 'इस मामले में सवाल उठाया गया है कि बुखारी में अन्य हदीस को अपूर्ण और कमी की उचित संदर्भ सूचना मिली है या नहीं [18] सही बुखारी पैगंबर के दवा और उपचार के तरीके और हिजामा जिसे अशास्त्रीय होने की संभावना पेश की गई है। [19] सुन्नी विद्वान इब्न हजर अल-असकलानी, पुरातात्विक साक्ष्य के आधार पर, हदीस [20] की आलोचना करते हुए कहा कि इस हदीस का दावा है कि आदम की ऊंचाई 60 हाथ थी और तब से मानव ऊंचाई कम हो रही है। [21] हदीस की संख्या इब्न अल-सलाह ने यह भी कहा: "हदीस की किताब, सहीह में 7,275 हदीस है, जिसमें कुछ हदीसें बार-बार दोहराई भी गयी हैं। ऐसा कहा गया है कि बार-बार दोहराई गयी हदीसों को छोड़कर यह संख्या 2,230 है।" [5] यह उन हदीस का जिक्र कर रहे हैं हो मुस्नद हैं, [22] जो मुहम्मद से उत्पन्न होकर सहयोगियों द्वारा प्रामाणिक हैं। [23] टिप्पणी अनवार उल-बारी - सय्यद अहमद रज़ा बिजनोरी द्वारा [24] तोहफ़ तुल-क़ारी - मुफ़्ती सईद अहमद पालनपुरी द्वारा [25] नसर उल-बारी - मोलाना उस्मान ग़नी द्वारा [26] हाशिया - अहमद अली सहारनपुरी [27][28](1880 में मृत्यु) शरह इब्न बत्ताल - अबू अल-हसन 'अली इब्न खलाफ इब्न' अब्द अल-मलिक (मृत्यु: 449 हिजरी) 10 खंडों में प्रकाशित, अतिरिक्त एक खंड इंडेक्स के साथ। तफ़सीर अल-गारिब माँ फ़ी अल-सहीहैन - अल-हुमादी द्वारा (1095 ई में मृत्यु)। अल-मुतावरी अल-अबवाब बुख़ारी - नासीर अल-दीन इब्न अल-मुनययिर (मृत्यु: 683 एएच): चुनिंदा अध्याय का एक स्पष्टीकरण; एक मात्रा में प्रकाशित। शरह इब्न कसीर (मृत्यु: 774 हिजरी) शरह अला-अल-दीन मगलते (मृत्यु: 792 हिजरी) फ़तह अल-बारी - इब्न रजब अल-हंबली द्वारा (मृत्यु: 795 हिजरी) अल-कोकब अल-दरारी फ़ी शरह अल-बुखारी - अल-किर्मानी द्वारा (मृत्यु: 796 हिजरी) शरह इब्नु अल-मुलाक्किन (मृत्यु: 804 हिजरी) अत-ताशीह - सुयूती द्वारा (मृत्यु: 811 हिजरी) शरह अल-बरमावी (मृत्यु: 831 हिजरी) शरह अल-तिलमसानी अल-मालिकी (मृत्यु: 842 हिजरी) फ़तह उल-बारी फ़ी शरह सही अल बुखारी - अल-हाफ़ित इब्न हजर द्वारा (मृत्यु: 852 हिजरी) [29] इरशाद अल-सरी ली शरह सही अल-बुख़ारी अल-क़सतलानी द्वारा (मृत्यु: 923 हिजरी); साहिह अल-बुखारी के स्पष्टीकरणों में सबसे प्रसिद्ध में से एक [29][30][31] शरह अल-बल्किनी (मृत्यु: 995 हिजरी) उमदा अल कारी फ़ी शरह सही अल बुखारी [32] ' बद्र अल-दीन अल-एनी द्वारा लिखी गई और बेरूत में दार इहिया अल-तुरत अल-अरबी [29][33] द्वारा प्रकाशित अल-तनक़ीह - अल-ज़ारकाशी द्वारा शरह इब्नी अबी हमज़ा अल-अन्दलूसी शरह अबी अल-बक़ा 'अल-अहमदी शरह अल-बाक़री शरह इब्नु राशिद "नुज़हत उल क़ारी शारह सही अल-बुख़ारी" - मुफ़्ती शरीफुल हक़ द्वारा हाशियत उल बुखारी - ताजुस शरियह मुफ्ती मोहम्मद अख्तर रजा खान खान क़ादरी अल अज़ारी द्वारा फैज़ अल-बारी - मौलाना अनवर शाह कश्मीरी द्वारा [34] कौसर यज़दानी इनाम-उल-बारी [35] मुफ्ती मोहम्मद तक़ी उस्मानी (9 खंड; 7 प्रकाशित) नीमत-उल-बारी फ़ी शरह साही अल-बुख़ारी - गुलाम रसूल सैदी द्वारा, 16 खंड कनज़ुल मुतवरी फ़ी मा मादीनी लामी 'अल-दरारी व सही अल-बुख़ारी - शैख़ उल हदीस मौलाना मोहम्मद जकरिया कंधलावी -24 खंड। यह पुस्तक प्रारंभ में मौलाना राशिद अहमद गंगोही द्वारा व्याख्यान का संकलन है और इसे मौलाना जकरिया द्वारा अतिरिक्त स्पष्टीकरण के साथ पूरा किया गया था। [36] सहीह अल बुखारी में सबसे महत्वपूर्ण पहलुओं में से एक तर्जुमा अल-बाब या उस अध्याय का नाम है। [37] कई महान विद्वानों ने एक आम तरीक़ा अपनाया; "बुख़ारी की फ़िक़्ह उनके अध्यायों में"। हाफ़िज़ इब्न हजर असकलानी और कुछ अन्य लोगों को छोड़कर इस विद्वान के तरीके पर कई विद्वानों ने टिप्पणी नहीं की है। शाह वालीयुल्लाह मुहादीथ देहालावी ने अब्वाब या अध्यायों के तराजुम या अनुवाद को समझने के लिए 14 उसूल (विधियों) का उल्लेख किया था, फिर मौलाना शैख महमूद हसन अद-देवबंदी ने एक उसूल और जोड़ कर 15 उसूल बनाये। शैखुल हदीस मौलाना मुहम्मद जकरिया द्वारा किए गए एक अध्ययन में 70 यूसुल पाए गए थे। उन्होंने विशेष रूप से तराजीम सहीह अल बुखारी के उसूलों के बारे में अपनी पुस्तक अल-अब्वाब वअत-तराजीम फ़ी सही अल-बुख़ारी में लिखा है। [37] [36] में लिखा था। अनुवाद सही अल-बुख़ारी का अनुवाद नौ खंडों में "सही अल बुखारी अरबी अंग्रेजी के अर्थों का अनुवाद" शीर्षक के तहत मोहम्मद मुहसीन खान द्वारा अंग्रेजी में किया गया है। [38] इस काम के लिए इस्तेमाल किया गया पाठ फ़तह अल-बारी है, जो 1959 में मिस्र के प्रेस मुस्तफा अल-बाबी अल-हलाबी द्वारा प्रकाशित किया गया था। यह अल सादावी प्रकाशन और दार-हम-सलाम द्वारा प्रकाशित किया गया है और यूएससी में शामिल है - मुस्लिम ग्रंथों के एमएसए संग्रह । [39] यह पुस्तक उर्दू, बंगाली, बोस्नियाई, तमिल, मलयालम, [40] अल्बेनियन , बहासा मेलयु इत्यादि सहित कई भाषाओं में उपलब्ध है। यह भी देखें हदीस इस्लाम सही मुस्लिम जामी अल-तिर्मिज़ी सुनन अबू दाऊद सुनन अल-सुग़रा सुनन इब्न माजह मुवत्ता मलिक अबू थालबा सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ –Digitized English translation of Muhammad Muhsin Khan. –Translation from Center for Muslim-Jewish Engagement , कुल 13 अहादीस की किताबें श्रेणी:प्रोजेक्ट टाइगर लेख प्रतियोगिता के अंतर्गत बनाए गए लेख
साहिह अल-बुखारी के लेखक कौन थे?
मुहम्मद अल-बुख़ारी
230
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तानसेन या मियां तानसेन या रामतनु पाण्डेय हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत के एक महान ज्ञाता थे। उन्हे सम्राट अकबर के नवरत्नों में भी गिना जाता है। संगीत सम्राट तानसेन की नगरी ग्वालियर के लिए कहावत प्रसिद्ध है कि यहाँ बच्चे रोते हैं, तो सुर में और पत्थर लुढ़कते हैं तो ताल में। इस नगरी ने पुरातन काल से आज तक एक से बढ़कर एक संगीत प्रतिभायें संगीत संसार को दी हैं और संगीत सूर्य तानसेन इनमें सर्वोपारि हैं। तानसेन को संगीत का ज्ञान कैसे प्राप्त हुआ? प्रारम्भ से ही तानसेन मे दूसरों की नकल करने की अपूर्व क्षमता थी। बालक तानसेन पशु-पक्षियों की तरह- तरह की बोलियों की सच्ची नकल करता था और हिंसक पशुओं की बोली से लोगों को डरवाया करता था। इसी बीच स्वामी हरिदास से उनकी भेंट हो गयी । मिलने की भी एक मनोरंजक घटना है। उनकी अलग-अलग बोलियों को बोलने की प्रतिभा को देखकर वो काफी प्रभावित हुए। स्वामी जी ने उन्हें उनके पिता से संगीत सिखाने के लिए माँग लिया। इस तरह तानसेन को संगीत का ज्ञान हुआ। वैवाहिक जीवन तानसेन की पत्नी का नाम हुसेनी था,वह रानी मृगनयनी की दासी थी। तानसेन के चार पुत्र हुए- सुरतसेन, शरतसेन, तरंगसेन और विलास ख़ान तथा सरस्वती नाम की एक पूत्री । घटना एक बार अकबर ने तानसेन को दीपक राग गाने को कहा, तानसेन ने उन्हें बताया की दीपक राग गाने का परिणाम काफी बुरा हो सकता है। लेकिन अकबर ने उनकी एक न सुनी। अतः उन्हें यह राग गन पड़ा । उनके गाते ही गर्मी बढ़ने लगी और चारों ओर से मानो अग्नि की लपटें निकलने लगीं। श्रोतागण तो मारे गर्मी के भाग निकले , किन्तु तानसेन का शरीर प्रचंड गर्मी से जलने लगा । उसकी गर्मी केवल मेघ राग से समाप्त हो सकती थी । कहा जाता है कि तानसेन की पुत्री सरस्वती ने मेघ राग गाकर अपने पिता की जीवन-रक्षा की। बाद में अकबर को अपने किये पर काफी शर्मिंदा होना पड़ा। जगह तानसेन के संगीत से प्रसन्न होकर अकबर ने इन्हें अपने नवरत्नों मे शामिल कर लिया। शिक्षा दीक्षा ग्वालियर से लगभग 45 कि॰मी॰ दूर ग्राम बेहट में श्री मकरंद पांडे के यहाँ तानसेन का जन्म ग्वालियर के तत्कालीन प्रसिद्ध फ़क़ीर हजरत मुहम्मद गौस के वरदान स्वरूप हुआ था। कहते है कि श्री मकरंद पांडे के कई संताने हुई, लेकिन एक पर एक अकाल ही काल कवलित होती चली गई। इससे निराश और व्यथित श्री मकरंद पांडे सूफी संत मुहम्मद गौस की शरण में गये और उनकी दुआ से सन् 1486 में तन्ना उर्फ तनसुख उर्फ त्रिलोचन का जन्म हुआ, जो आगे चलकर तानसेन के नाम से विख्यात हुआ। तानसेन के आरंभिक काल में ग्वालियर पर कलाप्रिय राजा मानसिंह तोमर का शासन था। उनके प्रोत्साहन से ग्वालियर संगीत कला का विख्यात केन्द्र था, जहां पर बैजूबावरा, कर्ण और महमूद जैसे महान संगीताचार्य और गायक गण एकत्र थे और इन्हीं के सहयोग से राजा मानसिंह तोमर ने संगीत की ध्रुपद गायकी का आविष्कार और प्रचार किया था। तानसेन की संगीत शिक्षा भी इसी वातावरण में हुई। राजा मानसिंह तोमर की मृत्यु होने और विक्रमाजीत से ग्वालियर का राज्याधिकार छिन जाने के कारण यहाँ के संगीतज्ञों की मंडली बिखरने लगी। तब तानसेन भी वृन्दावन चले गये और वहां उन्होनें स्वामी हरिदास जी से संगीत की उच्च शिक्षा प्राप्त की। संगीत शिक्षा में पारंगत होने के उपरांत तानसेन शेरशाह सूरी के पुत्र दौलत ख़ाँ के आश्रय में रहे और फिर बांधवगढ़ (रीवा) के राजा रामचन्द्र के दरबारी गायक नियुक्त हुए। मुग़ल सम्राट अकबर ने उनके गायन की प्रशंसा सुनकर उन्हें अपने दरबार में बुला लिया और अपने नवरत्नों में स्थान दिया। अकबर के नवरत्नों तथा मुग़लकालीन संगीतकारों में तानसेन का नाम परम-प्रसिद्ध है। यद्धपि काव्य-रचना की दृष्टि से तानसेन का योगदान विशेष महत्त्वपूर्ण नहीं कहा जा सकता, परन्तु संगीत और काव्य के संयोग की दृष्टि से, जो भक्तिकालीन काव्य की एक बहुत बड़ी विशेषता थी, तानसेन साहित्य के इतिहास में अवश्य उल्लेखनीय हैं। तानसेन अकबर के नवरत्नों में से एक थे। एक बार अकबर ने उनसे कहा कि वो उनके गुरु का संगीत सुनना चाहते हैं। गुरु हरिदास तो अकबर के दरबार में आ नहीं सकते थे। लिहाजा इसी निधि वन में अकबर हरिदास का संगीत सुनने आए। हरिदास ने उन्हें कृष्ण भक्ति के कुछ भजन सुनाए थे। अकबर हरिदास से इतने प्रभावित हुए कि वापस जाकर उन्होंने तानसेन से अकेले में कहा कि आप तो अपने गुरु की तुलना में कहीं आस-पास भी नहीं है। फिर तानसेन ने जवाब दिया कि जहांपनाह हम इस ज़मीन के बादशाह के लिए गाते हैं और हमारे गुरु इस ब्रह्मांड के बादशाह के लिए गाते हैं तो फर्क तो होगा न। रचनायें तानसेन के नाम के संबंध में मतैक्य नहीं है। कुछ का कहना है कि 'तानसेन' उनका नाम नहीं, उनकों मिली उपाधि थी। तानसेन मौलिक कलाकार थे। वे स्वर-ताल में गीतों की रचना भी करते थे। तानसेन के तीन ग्रन्थों का उल्लेख मिलता है- 1. 'संगीतसार', 2. 'रागमाला' और 3. 'श्रीगणेश स्तोत्र'। भारतीय संगीत के इतिहास में ध्रुपदकार के रूप में तानसेन का नाम सदैव अमर रहेगा। इसके साथ ही ब्रजभाषा के पद साहित्य का संगीत के साथ जो अटूट सम्बन्ध रहा है, उसके सन्दर्भ में भी तानसेन चिरस्मरणीय रहेंगे। संगीत सम्राट तानसेन अकबर के अनमोल नवरत्नों में से एक थे। अपनी संगीत कला के रत्न थे। इस कारण उनका बड़ा सम्मान था। संगीत गायन के बिना ‍अकबर का दरबार सूना रहता था। तानसेन के ताऊ बाबा रामदास उच्च कोटि के संगीतकार थे। वह वृंदावन के स्वामी हरिदास के शिष्य थे। उन्हीं की प्रेरणा से बालक तानसेन ने बचपन से ही संगीत की शिक्षा पाई। स्वामी हरिदास के पास तानसेन ने बारह वर्ष की आयु तक संगीत की शिक्षा पाई। वहीं उन्होंने साहित्य एवं संगीत शास्त्र की शिक्षा प्राप्त की। संगीत की शिक्षा प्राप्त करके तानसेन देश यात्रा पर निकल पड़े। उन्होंने अनेक स्थानों की यात्रा की और वहाँ उन्हें संगीत-कला की प्रस्तुति पर बहुत प्रसिद्धि तो मिली, लेकिन गुजारे लायक धन की उपलब्धि नहीं हुई। एक बार वह रीवा (मध्यप्रदेश) के राजा रामचंद्र के दरबार में गाने आए। उन्होंने तानसेन का नाम तो सुना था पर गायन नहीं सुना था। उस दिन तानसेन का गायन सुनकर राजा रामचंद्र मुग्ध हो गए। उसी दिन से तानसेन रीवा में ही रहने लगे और उन्हें राज गायक के रूप में हर तरह की आर्थिक सुविधा के साथ सामाजिक और राजनीतिक सम्मान दिया गया। तानसेन पचास वर्ष की आयु तक रीवा में रहे। इस अवधि में उन्होंने अपनी संगीत-साधना को मोहक और लालित्यपूर्ण बना लिया। हर ओर उनकी गायकी की प्रशंसा होने लगी। अकबर के ही सलाहकार और नवरत्नों में से एक अब्दुल फजल ने तानसेन की संगीत की प्रशंसा में अकबर को चिट्ठीु लिखी और सुझाव दिया कि तानसेन को अकबरी-दरबार का नवरत्न होना चाहिए। अकबर तो कला-पारखी थे ही। ऐसे महान संगीतकार को रखकर अपने दरबार की शोभा बढ़ाने के लिए बेचैन हो उठे। उन्होंने तानसेन को बुलावा भेजा और राजा रामचंद्र को पत्र लिखा। किंतु राजा रामचंद्र अपने दरबार के ऐसे कलारत्न को भेजने के लिए तैयार न हुए। बात बढ़ी और युद्ध तक पहुँच गई। और बहुत मान मनब्बल के बाद भी राजा रामचंद्र नहीं माने तो अकबर ने मुगलिया सल्तनत की एक छोटी से टुकड़ी तानसेन को जबरजस्ती लाने के लिए भेज दिया पर राजा राम चंद्र जूदेव और अकबर के सैनिको के बीच युद्ध हुआ और अकबर के सभी सैनिक मारे गए, इसमें रीवा राजा के भी कई सैनिक मारे गए  ! इससे अकबर क्रुद्ध होकर एक बड़ी सैनिक टुकड़ी भेजी  और रीवा के राजा फिर से युद्ध के लिए तैयार हुए तब तानसेन रीवा के राजा के पास पहुंचे और युद्ध न करने की अपील किया , पर राजा बहुत जिद्दी थे नहीं माने ! और अकबर के दरबार में संदेस भेज दिया की ''यदि बादशाह याचना पात्र भेजे तो मैं तानसेन को भेज दूंगा'' अकबर भी छोटी छोटी  सी बात पर राजपूतो से युद्ध नहीं करना चाहते थे ! तब अकबर ने याचना पात्र भेज दिया तब राजा रामचंद्र जूदेव ने सहर्ष, ससम्मान  तानसेन को दिल्ली भेज दिया और एक बड़ा युद्ध टल गया ! अकबर के दरबार में आकर तानसेन पहले तो खुश न थे लेकिन धीरे-धीरे अकबर के प्रेम ने तानसेन को अपने निकट ला दिया। चाँद खाँ और सूरज खाँ स्वयं न गा सकें। आखिर मुकाबला शुरू हुआ। उसे सुनने वालों ने कहा 'यह गलत राग है।' तब तानसेन ने शास्त्रीय आधार पर उस राग की शुद्धता सिद्ध कर दी। शत्रु वर्ग शांत हो गया। संगीत सम्राट तानसेन अकबर के अनमोल नवरत्नों में से एक थे। तानसेन को अपने दरबार में लाने के लिए अकबर की सेना और रीवा के बाघेला राजपूतो के बीच में भयानक युद्ध हुआ था ! अकबर के दरबार में तानसेन को नवरत्न की ख्यायति मिलने लगी थी। इस कारण उनके शत्रुओं की संख्यार भी बढ़ रही थी। कुछ दिनों बाद तानसेन का ठाकुर सन्मुख सिंह बीनकार से मुकाबला हुआ। वे बहुत ही मधुर बीन बजाते थे। दोनों में मुकाबला हुआ, किंतु सन्मुख सिंह बाजी हार गए। तानसेन ने भारतीय संगीत को बड़ा आदर दिलाया। उन्होंने कई राग-रागिनियों की भी रचना की। 'मियाँ की मल्हार' 'दरबारी कान्हड़ा' 'गूजरी टोड़ी' या 'मियाँ की टोड़ी' तानसेन की ही देन है। तानसेन कवि भी थे। उनकी काव्य कृतियों के नाम थे - 'रागमाला', 'संगीतसार' और 'गणेश स्रोत्र'। 'रागमाला' के आरंभ में दोहे दिए गए हैं। सुर मुनि को परनायकरि, सुगम करौ संगीत। तानसेन वाणी सरस जान गान की प्रीत। तानसेन के पुराने चित्रों से उनके रूप-रंग की जानकारी मिलती है। तानसेन का रंग सांवला था। मूँछें पतली थीं। वह सफेद पगड़ी बाँधते थे। सफेद चोला पहनते थे। कमर में फेंटा बाँधते थे। ध्रुपद गाने में तानसेन की कोई बराबरी नहीं कर सकता था। तानसेन का देहावसान अस्सी वर्ष की आयु में हुआ। उनकी इच्छा धी कि उन्हें उनके गुरु मुहम्मद गौस खाँ की समाधि के पास दफनाया जाए। वहाँ आज उनकी समाधि पर हर साल तानसेन संगीत समारोह आयोजित होता है। सन्दर्भ ashsj देखें हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत कर्नाटक शास्त्रीय संगीत स्वामी हरिदास सहायक ग्रन्थ १ संगीतसम्राट तानसेन (जीवनी और रचनाएँ): प्रभुदयाल मीतल, साहित्य संस्थान, मथुरा; २ हिन्दी साहित्य का इतिहास: पं॰ रामचन्द्र शुक्ल: ३ अकबरी दरबार के हिन्दी कबि: डा॰ सरयू प्रसाद अग्रवाल।) श्रेणी:अकबर के नवरत्न श्रेणी:१४९० जन्म श्रेणी:१५८० मृत्यु श्रेणी:मुग़ल साम्राज्य श्रेणी:भारतीय संगीतज्ञ श्रेणी:ग्वालियर के लोग श्रेणी:रीवां के लोग श्रेणी:इस्लाम ग्रहण करने वाले लोग श्रेणी:भारतीय मुस्लिम श्रेणी:आगरा के लोग
तानसेन किसके साथ वृन्दावन संगीत की शिक्षा ग्रहण की?
स्वामी हरिदास
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झींगा एक जलीय जन्तु है। इसका शरीर सिफैलोथोरैक्स एवं उदर में विभक्त होता है। सिर में एक जोड़ा संयुक्त आँख एवं दो जोड़े एन्टिनी होते हैं। इसमें पाँच जोड़े पैर एवं पाँच जोड़ं शाखांग होते हैं। श्वसन की क्रिया गिल्स द्वारा होती है। चिंराट (श्रिम्प्) और झींगा दोनों समान हैं। दोनो की शारीरिक बनावट में अन्तर है। इनमें कोलेस्ट्रोल बढ़ाने की क्षमता होती है। यह एक हलका समुद्री भोजन है। यह मुख्य भोजन है समुद्र में रहने वाले जंतुओं का। इसे बंगाली भाषा में चिंगडी माछ कहते है एवं उडिया भाषा में चिंगुडी माछो कहते है। बाहरी कड़ियाँ (विकासपीडिया) श्रेणी:जलचर
झींगे के कितने पैर होते है?
पाँच जोड़े
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शतरंज (चैस) दो खिलाड़ियों के बीच खेला जाने वाला एक बौद्धिक एवं मनोरंजक खेल है। किसी अज्ञात बुद्धि-शिरोमणि ने पाँचवीं-छठी सदी में यह खेल संसार के बुद्धिजीवियों को भेंट में दिया। समझा जाता है कि यह खेल मूलतः भारत का आविष्कार है, जिसका प्राचीन नाम था- 'चतुरंग'; जो भारत से अरब होते हुए यूरोप गया और फिर १५/१६वीं सदी में तो पूरे संसार में लोकप्रिय और प्रसिद्ध हो गया। इस खेल की हर चाल को लिख सकने से पूरा खेल कैसे खेला गया इसका विश्लेषण अन्य भी कर सकते हैं। शतरंज एक चौपाट (बोर्ड) के ऊपर दो व्यक्तियों के लिये बना खेल है। चौपाट के ऊपर कुल ६४ खाने या वर्ग होते है, जिसमें ३२ चौरस काले या अन्य रंग ओर ३२ चौरस सफेद या अन्य रंग के होते है। खेलने वाले दोनों खिलाड़ी भी सामान्यतः काला और सफेद कहलाते हैं। प्रत्येक खिलाड़ी के पास एक राजा, वजीर, दो ऊँट, दो घोडे, दो हाथी और आठ सैनिक होते है। बीच में राजा व वजीर रहता है। बाजू में ऊँट, उसके बाजू में घोड़े ओर अंतिम कतार में दो दो हाथी रहते है। उनकी अगली रेखा में आठ पैदल या सैनिक रहते हैं। चौपाट रखते समय यह ध्यान दिया जाता है कि दोनो खिलाड़ियों के दायें तरफ का खाना सफेद होना चाहिये तथा वजीर के स्थान पर काला वजीर काले चौरस में व सफेद वजीर सफेद चौरस में होना चाहिये। खेल की शुरुआत हमेशा सफेद खिलाड़ी से की जाती है।[1] खेल की शुरुआत शतरंज सबसे पुराने व लोकप्रिय पट (बोर्ड) में से एक है, जो दो प्रतिद्वंदीयों द्वारा एक चौकोर पट (बोर्ड) पर खेला जाता है, जिसपर विशेष रूप से बने दो अलग-अलग रंगों के सामन्यात: सफ़ेद व काले मोहरे होते हैं। सफ़ेद पहले चलता है, जिसके बाद खेलाडी निर्धारित नियमों के अनुसार एक के बाद एक चालें चलते हैं। इसके बाद खिलाड़ी विपक्षी के प्रमुख मोहरें, राजा को शाह-मात (एक ऐसी अवस्था, जिसमें पराजय से बचना असंभव हो) देने का प्रयास कराते हैं। शतरंज 64 खानों के पट या शतरंजी पर खेला जाता है, जो रैंक (दर्जा) कहलाने वाली आठ अनुलंब पंक्तियों व फाइल (कतार) कहलाने वाली आठ आड़ी पंक्तियों में व्यवस्थित होता है। ये खाने दो रंगों, एक हल्का, जैसे सफ़ेद, मटमैला, पीला और दूसरा गहरा, जैसे काला, या हरा से एक के बाद दूसरे की स्थिति में बने होते हैं। पट्ट दो प्रतिस्पर्धियों के बीच इस प्रकार रखा जाता है कि प्रत्येक खिलाड़ी की ओर दाहिने हाथ के कोने पर हल्के रंग वाला खाना हो। सफ़ेद हमेशा पहले चलता है। इस प्रारंभिक कदम के बाद, खिलाड़ी बारी बारी से एक बार में केवल एक चाल चलते हैं (सिवाय जब "केस्लिंग" में दो टुकड़े चले जाते हैं)। चाल चल कर या तो एक खाली वर्ग में जाते हैं या एक विरोधी के मोहरे वाले स्थान पर कब्जा करते हैं और उसे खेल से हटा देते हैं। खिलाड़ी कोई भी ऐसी चाल नहीं चल सकते जिससे उनका राजा हमले में आ जाये। यदि खिलाड़ी के पास कोई वैध चाल नहीं बची है, तो खेल खत्म हो गया है; यह या तो एक मात है - यदि राजा हमले में है - या एक गतिरोध या शह - यदि राजा हमले में नहीं है।  हर शतरंज का टुकड़ा बढ़ने की अपनी शैली है।[2]   वर्गों की पहचान बिसात का प्रत्येक वर्ग एक अक्षर और एक संख्या के एक विशिष्ट युग्म द्वारा पहचाना जाता है। खड़ी पंक्तियों|पंक्तियों (फाइल्स) को सफेद के बाएं (अर्थात वज़ीर/रानी वाला हिस्सा) से सफेद के दाएं ए (a) से लेकर एच (h) तक के अक्षर से सूचित किया जाता है। इसी प्रकार क्षैतिज पंक्तियों (रैंक्स) को बिसात के निकटतम सफेद हिस्से से शुरू कर 1 से लेकर 8 की संख्या से निरूपित करते हैं। इसके बाद बिसात का प्रत्येक वर्ग अपने फाइल अक्षर तथा रैंक संख्या द्वारा विशिष्ट रूप से पहचाना जाता है। सफेद बादशाह, उदाहरण के लिए, खेल की शुरुआत में ई1 (e1) वर्ग में रहेगा. बी8 (b8) वर्ग में स्थित काला घोड़ा पहली चाल में ए6 (a6) अथवा सी6 (c6) पर पहुंचेगा. प्यादा या सैनिक खेल की शुरुआत सफेद खिलाड़ी से की जाती है। सामान्यतः वह वजीर या राजा के आगे रखे गया पैदल या सैनिक को दो चौरस आगे चलता है। प्यादा (सैनिक) तुरंत अपने सामने के खाली वर्ग पर आगे चल सकता है या अपना पहला कदम यह दो वर्ग चल सकता है यदि दोनों वर्ग खाली हैं। यदि प्रतिद्वंद्वी का टुकड़ा विकर्ण की तरह इसके सामने एक आसन्न पंक्ति पर है तो प्यादा उस टुकड़े पर कब्जा कर सकता है। प्यादा दो विशेष चाल, "एन पासांत" और "पदोन्नति-चाल " भी चल सकता है। हिन्दी में एक पुरानी कहावत पैदल की इसी विशेष चाल पर बनी है- " प्यादा से फर्जी भयो, टेढो-टेढो जाय !"[3] राजा राजा किसी भी दिशा में एक खाने में जा सकता है, राजा एक विशेष चाल भी चल सकता है जो "केस्लिंग"  कही  जाती है और इसमें हाथी भी शामिल है। अगर राजा को चलने बाध्य किया और किसी भी तरफ चल नहीं सकता तो मान लीजिये कि खेल समाप्त हो गया। नहीं चल सकने वाले राजा को खिलाड़ी हाथ में लेकर बोलता है- 'मात' या 'मैं हार स्वीकार करता हूँ'। वजीर या रानी वज़ीर (रानी) हाथी और ऊंट की शक्ति को जोड़ता है और ऊपर-नीचे, दायें-बाएँ तथा टेढ़ा कितने भी वर्ग जा सकता है, लेकिन यह अन्य टुकड़े पर छलांग नहीं लगा सकता है। मान लीजिए पैदल सैनिक का एक अंक है तो वजीर का ९ अंक है। ऊंट केवल अपने रंग वाले चौरस में चल सकता है। याने काला ऊँट काले चौरस में ओर सफेद ऊंट सफेद चौरस में। सैनिक के हिसाब से इसका तीन अंक है।  ऊंट किसी भी दिशा में टेढ़ा कितने भी वर्ग चल सकता है, लेकिन अन्य टुकड़े पर छलांग नहीं सकता है। घोड़ा घोड़ा "L" प्रकार की चाल या डाई घर चलता है जिसका आकार दो वर्ग लंबा है और एक वर्ग चौड़ा होता है। घोड़ा ही एक टुकड़ा है जो दूसरे टुकड़ो पर छलांग लगा सकता है। सैनिक के हिसाब से इसका तीन अंक है। हाथी हाथी किसी भी पंक्ति में दायें बाएँ या ऊपर नीचे कितने भी वर्ग सीधा चल सकता है, लेकिन अन्य टुकड़े पर छलांग नहीं लगा सकता। राजा के साथ, हाथी भी राजा के "केस्लिंग" ; के दौरान शामिल है। इसका सैनिक के हिसाब से पांच अंक है। अंत कैसे होता है? अपनी बारी आने पर अगर खिलाड़ी के पास चाल के लिये कोई चारा नहीं है तो वह अपनी 'मात' या हार स्वीकार कर लेता है। कैसलिंग कैसलिंग के अंतर्गत बादशाह को किश्ती की ओर दो वर्ग बढ़ाकर और किश्ती को बादशाह के दूसरी ओर उसके ठीक बगल में रखकर किया जाता है।[4] कैसलिंग केवल तभी किया जा सकता है जब निम्नलिखित शर्तें पूरी हों: बादशाह तथा कैसलिंग में शामिल किश्ती की यह पहली चाल होनी चाहिए; बादशाह तथा किश्ती के बीच कोई मोहरा नहीं होना चाहिए; बादशाह को इस दौरान कोई शह नहीं पड़ा होना चाहिए न ही वे वर्ग दुश्मन मोहरे के हमले की जद में होने चाहिए, जिनसे होकर कैसलिंग के दौरान बादशाह को गुजरना है अथवा जिस वर्ग में अंतत: उसे पहुंचना है (यद्यपि किश्ती के लिए ऐसी बाध्यता नहीं है); बादशाह और किश्ती को एक ही क्षैतिज पंक्ति (रैंक) में होना चाहिए.[5] अंपैसां यदि खिलाड़ी ए (A) का प्यादा दो वर्ग आगे बढ़ता है और खिलाड़ी बी (B) का प्यादा संबंधित खड़ी पंक्ति में 5वीं क्षैतिज पंक्ति में है तो बी (B) का प्यादा ए (A) के प्यादे को, उसके केवल एक वर्ग चलने पर काट सकता है। काटने की यह क्रिया केवल इसके ठीक बाद वाली चाल में की जा सकती है। इस उदाहरण में यदि सफेद प्यादा ए2 (a2) से ए4 (a4) तक आता है, तो बी4 (b4) पर स्थित काला प्यादा इसे अंपैसां विधि से काट कर ए3 (a3) पर पहुंचेगा. समय की सीमा आकस्मिक खेल आम तौर पर 10 से 60 मिनट, टूर्नामेंट खेल दस मिनट से छह घंटे या अधिक समय के लिए। भारत में शतरंज यह भी देखें, चतुरंग शतरंज छठी शताब्दी के आसपास भारत से मध्य-पूर्व व यूरोप में फैला, जहां यह शीघ्र ही लोकप्रिय हो गया है। ऐसा कोई विश्वसनीय साक्ष्य नहीं है कि शतरंज छट्ठी शताब्दी के पूर्व आधुनुक खेल के समान किसी रूप में विद्यमान था। रूस, चीन, भारत, मध्य एशिया, पाकिस्तान और स्थानों पर पाये गए मोहरे, जो इससे पुराने समय के बताए गए हैं, अब पहले के कुछ मिलते-जुलते पट्ट खेलों के माने जाते हैं, जो बहुधा पासों और कभी-कभी 100 या अधिक चौखानों वाले पट्ट का प्रयोग कराते थे। शतरंज उन प्रारम्भिक खेलों में से एक है, जो चार खिलाड़ियों वाले चतुरंग नामक युद्ध खेल के रूप में विकसित हुआ और यह भारतीय महाकाव्य महाभारत में उल्लिखित एक युद्ध व्यूह रचना का संस्कृत नाम है। चतुरंग सातवीं शताब्दी के लगभग पश्चिमोत्तर भारत में फल-फूल रहा था। इसे आधुनिक शतरंज का प्राचीनतम पूर्वगामी माना जाता है, क्योंकि इसमें बाद के शतरंज के सभी रूपों में पायी जाने वाली दो प्रमुख विशेषताएँ थी, विभिन्न मोहरों की शक्ति का अलग-अलग होना और जीत का एक मोहरे, यानि आधुनिक शतरंज के राजा पर निर्भर होना। रुद्रट विरचित काव्यालंकार में एक श्लोक आया है जिसे शतरंज के इतिहासकार भारत में शतरंज के खेल का सबसे पुराना उल्लेख तथा 'घोड़ की चाल' (knight's tour) का सबसे पुराना उदाहरण मानते हैं- सेना लीलीलीना नाली लीनाना नानालीलीली। नालीनालीले नालीना लीलीली नानानानाली ॥ १५ ॥ चतुरंग का विकास कैसे हुआ, यह स्पष्ट नहीं है। कुछ इतिहासकार कहते हैं कि चतुरंग, जो शायद 64 चौखानों के पट्ट पर खोला जाता था, क्रमश: शतरंज (अथवा चतरंग) में परिवर्तित हो गया, जो उत्तरी भारत,पाकिस्तान, अफगानिस्तान और मध्य एशिया के दक्षिण भागों में 600 ई के पश्चात लोकप्रिय दो खिलाड़ियों वाला खेल था। एक समय में उच्च वर्गों द्वारा स्वीकार्य एक बौद्धिक मनोरंजन शतरंज के प्रति रुचि में 20 वीं शताब्दी में बहुत बृद्धि हुयी। विश्व भर में इस खेल का नियंत्रण फेडरेशन इन्टरनेशनल दि एचेस (फिडे) द्वारा किया जाता है। सभी प्रतियोगिताएं फीडे के क्षेत्राधिकार में है और खिलाड़ियों को संगठन द्वारा निर्धारित नियमों के अनुसार क्रम दिया जाता है, यह एक खास स्तर की उत्कृष्टता प्राप्त करने वाले खिलाड़ियों को "ग्रैंडमास्टर" की उपाधि देता है। भारत में इस खेल का नियंत्रण अखिल भारतीय शतरंज महासंघ द्वारा किया जाता है, जो 1951 में स्थापित किया गया था।[6] भारतीय विश्व खिलाड़ी भारत के पहले प्रमुख खिलाड़ी मीर सुल्तान खान ने इस खेल के अंतराष्ट्रीय स्वरूप को वयस्क होने के बाद ही सीखा, 1928 में 9 में से 8.5 अंक बनाकर उन्होने अखिल भारतीय प्रतियोगिता जीती। अगले पाँच वर्षों में सुल्तान खान ने तीन बार ब्रिटिश प्रतियोगिता जीती और अंतराष्ट्रीय शतरंज के शिखर के नजदीक पहुंचे। उन्होने हेस्टिंग्स प्रतियोगिता में क्यूबा के पूर्व विश्व विजेता जोस राऊल कापाब्लइंका को हराया और भविष्य के विजेता मैक्स यूब और उस समय के कई अन्य शक्तिशाली ग्रैंडमास्टरों पर भी विजय पायी। अपने बोलबाले की अवधि में उन्हें विश्व के 10 सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ियों में से एक माना जाता था। सुल्तान ब्रिटिश दल के लिए 1930 (हैंबर्ग), 1931 (प्राग) और 1933 (फोकस्टोन) ओलंपियाड में भी खेले। मैनुएल एरोन ने 1961 में एशियाई स्पारद्धा जीती, जिससे उन्हें अंतर्र्श्तृय मास्टर का दर्जा मिला और वे भारत के प्रथम आधिकारिक शतरंज खिताबधारी व इस खेल के पहले अर्जुन पुरस्कार विजेता बने। 1979 में बी. रविकुमार तेहरान में एशियाई जूनियर स्पारद्धा जीतकर भारत के दूसरे अंतर्र्श्तृय मास्टर बने। इंग्लैंड में 1982 की लायड्स बैंक शतरंज स्पर्धा में प्रवेश करने वाले 17 वर्षीय दिव्येंदु बरुआ ने विश्व के द्वितीय क्रम के खिलाड़ी विक्टर कोर्च्नोई पर सनसनीखेज जीत हासिल की। विश्वनाथन आनंद के विश्व के सर्वोच्च खिलाड़ियों में से एक के रूप में उदय होने के बाद भारत ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर काफी उपलब्धियां हासिल की। 1987 में विश्व जूनियर स्पर्धा जीतकर वह शतरंज के पहले भारतीय विश्व विजेता बने। इसके बाद उन्होने विश्व के अधिकांश प्रमुख खिताब जीते, किन्तु विश्व विजेता का खिताब हाथ नहीं आ पाया। 1987 में आनंद भारत के पहले ग्रैंड मास्टर बने। आनंद को 1999 में फीडे अनुक्रम में विश्व विजेता गैरी कास्पारोव के बाद दूसरा क्रम दिया गया था। विश्वनाथन आनंद पांच बार (2000, 2007, 2008, 2010 और 2012 में) विश्व चैंपियन रहे हैं।[7][8] इसके पश्चात भारत में और भी ग्रैंडमास्टर हुये हैं, 1991 में दिव्येंदु बरुआ और 1997 में प्रवीण थिप्से, अन्य भारतीय विश्व विजेताओं में पी. हरिकृष्ण व महिला खिलाड़ी कोनेरु हम्पी और आरती रमास्वामी हैं। ग्रैंडमास्टर विश्वनाथन आनंद को 1998 और 1999 में प्रतिष्ठित ऑस्कर पुरस्कार के लिए भी नामांकित किया गया था। आनंद को 1985 में प्राप्त अर्जुन पुरस्कार के अलावा, 1988 में पद्म श्री व 1996 में राजीव गांधी खेल रत्न पुरस्कार मिला। सुब्बारमान विजयलक्ष्मी व कृष्णन शशिकिरण को भी फीडे अनुक्रम में स्थान मिला है।[9] विश्व के कुछ प्रमुख खिलाड़ी गैरी कास्पारोव विश्वनाथन आनंद व्लादिमीर क्रैमनिक कोनेरु हम्पी नन्दिता बी मैग्नस कार्लसन आधुनिक कम्प्यूटर के प्रोग्राम (१) चेसमास्टर (२) फ्रिट्ज अन्तरराष्ट्रीय संस्थाएँ - International Correspondence Chess Federation] समाचार सन्दर्भ इन्हें भी देखें चतुरंग बाहरी कड़ियाँ - online chess database and community - online database - chess and mathematics - chess and art श्रेणी:खेल श्रेणी:शतरंज
शतरंज बोर्ड में कितने वर्ग होते हैं?
64
1,604
hindi
2989010e3
एटा ज़िला भारतीय राज्य उत्तर प्रदेश का एक ज़िला है। इसका ज़िला मुख्यालय एटा है। एटा ज़िला अलीगढ़ मंडल का एक भाग है। भारतीय राजमार्ग दूरी के आधार पर यह नई दिल्ली से 207 किमी दूर है।[1]कानपुर से 215 किमी आगरा से 85 किमी अलीगढ से 70 किमी मैंनपुरी से 56 किमी फिरोजाबाद से 72 किमी इटावा से 100 किमी बरेली से 120 किमी है। अर्थव्यवस्था वर्ष 2006 में भारत के पंचायती राज मंत्रालय ने देश के 250 पिछड़े जिलों में से एक के रूप में चयनित किया (भारत में कुल 640 जिले हैं)[2] यह उत्तर प्रदेश के उन 34 जिलों में से एक है जिन्हें पिछड़ा क्षेत्र ग्राण्ट फण्ड प्रोग्राम के तहत निधि प्राप्त करते हैं।[2] जनसांख्यिकी 2011 की नगणना के अनुसार एटा जिले की कुल जनसंख्या 1,761,152 है।[3] यह लगभग गाम्बिया नामक देश[4] अथवा अमेरिकी राज्य नेब्रास्का की कुल जनसंख्या के समान है।[5] इस आधार पर इसको भारत में 272वें जिले का दर्जा प्राप्त है।[3] जिले का जनसंख्या घनत्व 717 inhabitants per square kilometre (1,860/sqmi) है।[3] 2001–2011 के दौरान यहाँ जनसंख्या वृद्धि दर 12.77 प्रतिशत रही।[3] यहाँ लिंगानुपात 863 महिला प्रति 1000 पुरुष है[3] और यहाँ साक्षरता दर 73.27% है।[3] सन्दर्भ Coordinates: श्रेणी:उत्तर प्रदेश के जिले
२०११ की जनगणना के अनुसार एटा जिले की कुल जनसंख्या कितनी है?
1,761,152
650
hindi
a45188d77
नेशनल स्टॉक एक्सचेंज भारत का सबसे बड़ा और तकनीकी रूप से अग्रणी स्टॉक एक्सचेंज है। यह मुंबई में स्थित है। इसकी स्थापना 1992 में हुई थी। कारोबार के लिहाज से यह विश्व का तीसरा सबसे बड़ा स्टॉक एक्सचेंज है। इसके वीसैट (VSAT) टर्मिनल भारत के 320 शहरों तक फैले हुए हैं। एनएसई की इंडेक्स- निफ्टी 50 का उपयोग भारतीय पूंजी बाजारों के बैरोमीटर के रूप में भारत और दुनिया भर के निवेशकों द्वारा बड़े पैमाने पर किया जाता है। यह भी देखे बंबई स्टॉक एक्सचेंज बीएसई सेंसेक्स बहारी कडियाँ श्रेणी:स्टॉक एक्स्चेंज श्रेणी:भारत के शेयर बाज़ार श्रेणी:नेशनल स्टॉक एक्सचेंज
भारत का सबसे बड़ा और तकनीकी रूप से अग्रणी स्टॉक एक्सचेंज कौन सा है?
नेशनल स्टॉक एक्सचेंज
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03d39d040
अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट परिषद (अंग्रेज़ी: I</b>nternational C</b>ricket C</b>ouncil,इंटरनॆशनल क्रिकेट काउंसिल, संक्षेप में - ICC, आईसीसी) विश्व भर में क्रिकेट की प्रतियोगिताओं की नियंत्रक तथा नियामक संस्था है। प्रतियोगिताओं तथा स्पर्धाओं के आयोजन के अलावा यह प्रतिवर्ष क्रिकेट में अपने क्षेत्र के सफलतम खिलाड़ियों तथा टीमों को पुरस्कार देती है, खिलाड़ियों तथा टीमों का प्रदर्शन क्रम (Ranking) निकालती है। यह हर जगह अंतर्राष्ट्रीय मैच में अम्पायर नियुक्त करती हैं। आईसीसी 106 सदस्य हैं: 10 पूर्ण सदस्य है कि टेस्ट मैच खेलने, 38 एसोसिएट सदस्य,[3] और 57 संबद्ध सदस्य।[4] आईसीसी संगठन और क्रिकेट के प्रमुख अंतरराष्ट्रीय टूर्नामेंट, खासकर आईसीसी क्रिकेट विश्व कप के शासन के लिए जिम्मेदार है। यह भी अंपायरों और रेफरियों कि सब मंजूर टेस्ट मैच, एक दिवसीय अंतरराष्ट्रीय और ट्वेंटी -20 अंतरराष्ट्रीय में अंपायरिंग की नियुक्ति करती है। यह आईसीसी आचार संहिता, जो अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट के लिए अनुशासन के पेशेवर मानकों का सेट घोषणा,[5] और भी भ्रष्टाचार के खिलाफ और समन्वित कार्रवाई मैच फिक्सिंग अपनी भ्रष्टाचार निरोधक और सुरक्षा इकाई (एसीएसयू) के माध्यम से। आईसीसी के सदस्य देशों (जिसमें शामिल सभी टेस्ट मैच) के बीच द्विपक्षीय टूर्नामेंट पर नियंत्रण नहीं है, यह सदस्य देशों में घरेलू क्रिकेट का शासन नहीं है और यह खेल का कानून है, जो मेरीलेबोन क्रिकेट क्लब के नियंत्रण में रहने के लिए नहीं है। अध्यक्ष निर्देशकों की और 26 जून 2014 के बोर्ड के प्रमुख एन श्रीनिवासन, बीसीसीआई के पूर्व अध्यक्ष, परिषद के अध्यक्ष के रूप में पहले की घोषणा की थी।[6] आईसीसी अध्यक्ष की भूमिका काफी हद तक एक मानद स्थिति बन गया है के बाद से अध्यक्ष की भूमिका और अन्य परिवर्तन की स्थापना 2014 में आईसीसी के संविधान में किए गए थे। यह दावा किया गया है कि 2014 में परिवर्तन तथाकथित 'बिग थ्री' इंग्लैंड, भारत और ऑस्ट्रेलिया के राष्ट्रों को नियंत्रण सौंप दिया है।[7] मौजूदा आईसीसी अध्यक्ष जहीर अब्बास, जो जून 2015 में नियुक्त किया गया था अप्रैल 2015 में मुस्तफा कमाल के इस्तीफे के बाद है। कमल, बांग्लादेश क्रिकेट बोर्ड के पूर्व अध्यक्ष, 2015 विश्व कप के बाद शीघ्र ही इस्तीफा दे दिया है, संगठन का दावा है दोनों असंवैधानिक और अवैध चल रही है। वर्तमान सीईओ डेविड रिचर्डसन है।[8] अप्रैल 2018 में, आईसीसी ने घोषणा की कि वह 1 जनवरी 2019 से अपने सभी 104 सदस्यों को ट्वेन्टी-२० अंतरराष्ट्रीय की मान्यता प्रदान करेगी।[9] इतिहास 15 जून को इंग्लैंड, ऑस्ट्रेलिया और दक्षिण अफ्रीका से 1909 प्रतिनिधियों लॉर्ड्स के मैदान पर मुलाकात की और इंपीरियल क्रिकेट कांफ्रेंस की स्थापना की। सदस्यता ब्रिटिश साम्राज्य के भीतर क्रिकेट के शासी निकाय जहां टेस्ट क्रिकेट खेला गया था तक ही सीमित था। वेस्टइंडीज, न्यूजीलैंड और भारत 1926 में पूर्ण सदस्य के रूप में निर्वाचित किया गया है, छह से टेस्ट खेलने वाले देशों की संख्या दोगुनी हुई। उस साल यह था भी सदस्यता में एक परिवर्तन बनाने के लिए चुनाव के लिए होने के साथ सहमति; "साम्राज्य के भीतर देशों में क्रिकेट के शासी निकाय क्रिकेट टीमों भेजा करने के लिए जो कर रहे हैं, या जो इंग्लैंड के लिए टीमों को भेज देते हैं।" हालांकि संयुक्त राज्य अमेरिका इन मानदंडों को पूरा नहीं किया था और एक सदस्य नहीं बनाया गया था।[10] 1947 में पाकिस्तान के गठन के बाद, यह 1952 में टेस्ट दर्जा दिया गया था, सातवें टेस्ट खेलने वाले राष्ट्र बन गया। मई 1961 में दक्षिण अफ्रीका के राष्ट्रमंडल छोड़ दिया है और इसलिए सदस्यता खो दिया है। 1965 में, यह अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट सम्मेलन का नाम दिया गया है और नए नियमों के राष्ट्रमंडल बाहर से देशों के चुनाव की अनुमति के लिए अपनाया। इस सम्मेलन का विस्तार करने के लिए नेतृत्व, एसोसिएट सदस्यों के प्रवेश के साथ किया। एसोसिएट्स प्रत्येक, एक वोट के हकदार थे, जबकि फाउंडेशन और पूर्ण सदस्य आईसीसी प्रस्तावों पर दो वोट के हकदार थे। फाउंडेशन के सदस्यों को वीटो का अधिकार बरकरार रहती है। श्रीलंका में 1981 में एक पूर्ण सदस्य के रूप में भर्ती कराया गया था, से सात टेस्ट खेलने वाले देशों की संख्या लौटने। 1989 में, नए नियमों को अपनाया गया है और वर्तमान नाम, अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट परिषद अस्तित्व में आया। दक्षिण अफ्रीका ने 1991 में आईसीसी, रंगभेद की समाप्ति के बाद एक पूर्ण सदस्य के रूप में फिर से निर्वाचित किया गया था; इस 1992 में नौवें टेस्ट खेलने वाले देश के रूप में जिम्बाब्वे के प्रवेश द्वारा किया गया। फिर, वर्ष 2000 में बांग्लादेश टेस्ट दर्जा प्राप्त किया। स्थान अपने गठन से आईसीसी अपने घर के रूप में लॉर्ड्स क्रिकेट ग्राउंड की है, और 1993 से जमीन की नर्सरी अंत में "क्लॉक टॉवर" इमारत में अपने कार्यालय था। आईसीसी को शुरू में एक दिवसीय अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट के विश्व कप के लिए अधिकारों का वाणिज्यिक दोहन द्वारा स्थापित किया गया था। के रूप में नहीं सभी सदस्य देशों इंग्लैंड के साथ डबल टैक्स समझौतों था, यह एक कंपनी बनाने के द्वारा क्रिकेट के राजस्व की रक्षा के लिए जरूरी हो गया था, आईसीसी विकास (इंटरनेशनल) प्राइवेट लिमिटेड - ईदी के रूप में जाना जाता है, ब्रिटेन के बाहर। यह जनवरी 1994 में स्थापित किया गया था और मोनाको में आधारित था। नब्बे के दशक के शेष के लिए, ईदी के प्रशासन के एक मामूली प्रसंग था। लेकिन 2001-2008 से सभी आईसीसी की घटनाओं के लिए अधिकारों का एक बंडल के साथ बातचीत, राजस्व इंटरनेशनल क्रिकेट और आईसीसी के सदस्य देशों के लिए उपलब्ध काफी हद तक बढ़ गई। यह मोनाको में आईडी के आधार पर कार्यरत वाणिज्यिक कर्मचारियों की संख्या में वृद्धि करने के लिए नेतृत्व किया। यह भी नुकसान यह है कि परिषद के क्रिकेट प्रशासकों, जो लॉर्ड्स में बने रहे, मोनाको में उनके व्यावसायिक सहयोगियों से अलग हो गए थे पड़ा। परिषद जबकि टैक्स से उनके व्यावसायिक आमदनी की रक्षा के एक कार्यालय में एक साथ उनके स्टाफ के सभी लाने के तरीकों की तलाश करने का फैसला किया है। लॉर्ड्स में रहने का विकल्प जांच की गई और एक अनुरोध किया गया था, खेल इंग्लैंड के माध्यम से ब्रिटिश सरकार को आईसीसी ने अपने सभी कर्मियों को लंदन में (वाणिज्यिक मामलों पर काम कर रहे लोगों सहित) की अनुमति देने के लिए - लेकिन ब्रिटेन के भुगतान से विशेष छूट दी जा इसके वाणिज्यिक आय पर निगम कर लिया। ब्रिटिश सरकार ने एक मिसाल पैदा करने के लिए तैयार नहीं था और इस अनुरोध करने के लिए सहमत नहीं होता। एक परिणाम के रूप में आईसीसी के अन्य स्थानों की जांच की और अंत में संयुक्त अरब अमीरात में दुबई के अमीरात पर बसे। आईसीसी ब्रिटिश वर्जिन द्वीपसमूह में पंजीकृत है। अगस्त 2005 में आईसीसी के दुबई के लिए अपने कार्यालयों में ले जाया गया, और बाद मोनाको में अपने कार्यालयों को बंद कर दिया। दुबई के इस कदम के पक्ष में आईसीसी कार्यकारी बोर्ड द्वारा एक 11-1 मतदान के बाद बनाया गया था।[11] दुबई के लिए आईसीसी के इस कदम के प्राचार्य चालक अपने मुख्य कर्मचारियों को एक कर कुशल स्थान में एक साथ लाना चाहते थे, एक माध्यमिक कारण कार्यालयों दक्षिण एशिया में क्रिकेट की शक्ति का तेजी से महत्वपूर्ण नए केंद्रों के करीब ले जाने के लिए इच्छा थी। लॉर्ड्स के एक तार्किक स्थल रहा था जब आईसीसी एमसीसी (एक स्थिति है कि 1993 तक चली) द्वारा प्रशासित किया गया था। लेकिन विश्व क्रिकेट में भारत और पाकिस्तान की बढ़ती शक्ति एक ब्रिटिश निजी सदस्यों क्लब ( एमसीसी) कालभ्रमित और संयुक्त राष्ट्र के स्थायी द्वारा अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट के लिए जारी रखा नियंत्रण बना लिया था। परिवर्तन और सुधारों की शुरूआत 1993 में की एक सीधा परिणाम अंततः एक और तटस्थ स्थल करने के लिए लॉर्ड्स से दूर कदम हो गया था।[12] नियम और अधिनियम अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट परिषद खेलने की परिस्थितियों, गेंदबाजी समीक्षा, और अन्य आईसीसी के नियमों का नजारा दिखता है। हालांकि आईसीसी क्रिकेट और केवल एमसीसी कानूनों को बदल सकता है के कानूनों के लिए कॉपीराइट नहीं है, आजकल यह आमतौर पर केवल खेल के वैश्विक शासी निकाय, आईसीसी के साथ विचार विमर्श के बाद किया जाएगा।आईसीसी ने एक "आचार संहिता" जो करने के लिए टीमों और अंतरराष्ट्रीय मैचों में खिलाड़ियों को पालन करने के लिए आवश्यक हो गया है। जहां इस कोड के उल्लंघन पाए जाते आईसीसी प्रतिबंधों, आमतौर पर जुर्माना लागू कर सकते हैं। 2008 में आईसीसी खिलाड़ियों पर 19 दंड लगाया।[13] टूर्नामेंट और आय सृजन आईसीसी टूर्नामेंटों यह आयोजन किया, मुख्य रूप से आईसीसी क्रिकेट विश्व कप से आय उत्पन्न करता है, और यह अपने सदस्यों के लिए है कि आय का बहुमत वितरित करता है। विश्व कप के प्रायोजन और टीवी अधिकार 2007 और 2015 के बीच यूएस$1.6 अरब से अधिक में लाया, जहां तक ​​आईसीसी की आय का मुख्य स्रोत है।[14][15] 31 दिसंबर 2007 तक नौ महीने लेखांकन अवधि में आईसीसी के सदस्य सदस्यता और प्रायोजन से यूएसडी12.66 लाख की परिचालन आय, मुख्य रूप से किया था। इसके विपरीत घटना में आय यूएसडी285.87 मिलियन, 2007 के विश्व कप से यूएसडी239 मिलियन सहित था। वहाँ भी इस अवधि में यूएसडी6.695 लाख की निवेश आय था। आईसीसी द्विपक्षीय अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट मैचों से कोई आय धाराओं (टेस्ट मैच, एक दिवसीय अंतरराष्ट्रीय और ट्वेंटी -20 अंतरराष्ट्रीय) है, कि अंतरराष्ट्रीय खेल रहा है अनुसूची के महान बहुमत के लिए खाते हैं, क्योंकि वे स्वामित्व में है और उसके सदस्यों द्वारा चलाए जा रहे हैं। यह अपने विश्व कप के राजस्व को बढ़ाने के लिए एक और नई घटनाओं बनाने की मांग की है। ये आईसीसी चैंपियंस ट्रॉफ़ी और आईसीसी सुपर सीरीज 2005 में ऑस्ट्रेलिया में खेला शामिल हैं। हालांकि इन घटनाओं के रूप में सफल नहीं किया गया है के रूप में आईसीसी आशा व्यक्त की। सुपर सीरीज व्यापक रूप से एक विफलता के रूप में देखा गया था और उम्मीद नहीं है दोहराया जा रहा है, और चैंपियंस ट्रॉफी के लिए 2006 में खत्म कर दिया जाना भारत बुलाया।[16] चैंपियंस ट्रॉफी 2004 घटना को "एक टूर्नामेंट के तुर्की" और एक "असफलता" के रूप में संपादक द्वारा विजडन ने 2005 में करने के लिए भेजा गया था; हालांकि 2006 संस्करण एक नए स्वरूप के कारण अधिक से अधिक सफलता के रूप में देखा गया था।[17][18] आईसीसी विश्व ट्वेन्टी 20, पहली बार 2007 में खेला जाता है, एक सफलता थी। आईसीसी के मौजूदा योजना एक ट्वेंटी -20 विश्व कप के साथ हर साल एक अंतरराष्ट्रीय टूर्नामेंट है, यहां तक ​​कि नंबर वर्षों में खेला है, विश्व कप साल आयोजित होने वाले ओलंपिक खेलों के आगे बढ़ने से पहले, और चक्र के शेष साल में होने वाली आईसीसी चैंपियंस ट्रॉफी हैं। इस चक्र 2009 संस्करण के बाद एक वर्ष 2010 में शुरू हो जाएगा। अंपायर और रेफरी आईसीसी अंतरराष्ट्रीय अंपायरों और मैच रैफरी जो कम से अंपायरिंग की नियुक्ति करती सब मंजूर टेस्ट मैच एक दिवसीय अंतरराष्ट्रीय और ट्वेंटी -20 अंतरराष्ट्रीय। आईसीसी अंपायरों के पैनल के 3 चल रही है: अर्थात् एलीट पैनल, अंतरराष्ट्रीय पैनल, और एसोसिएट्स और सहयोगी कक्ष। अप्रैल 2012 के रूप में, एलीट पैनल बारह अंपायर भी शामिल है। सिद्धांत रूप में, एलीट पैनल से दो अंपायरों, हर टेस्ट मैच में अंपायरिंग जबकि एक एलीट पैनल अंपायर खड़ा में वनडे अंतरराष्ट्रीय पैनल से अंपायर के साथ मेल खाता है। अभ्यास में, अंतरराष्ट्रीय पैनल के सदस्य हैं, कभी-कभी टेस्ट मैचों में खड़े के रूप में है कि क्या वे इस टेस्ट स्तर पर सामना कर सकते हैं देखने के लिए एक अच्छा अवसर के रूप में देखा जाता है, और क्या वे एलीट पैनल को ऊपर उठाया जाना चाहिए। हालांकि अभी भी कर एलीट पैनल, आईसीसी के पूर्णकालिक कर्मचारी हैं, कभी कभी बहुत निवास के अपने देश में प्रथम श्रेणी क्रिकेट अंपायर हैं। औसत वार्षिक, कार्यवाहक एलीट अंपायरों के लिए अनुसूची 8-10 टेस्ट मैच और वनडे में 10-15, 75 दिन से अधिक प्रति वर्ष यात्रा और तैयारी के समय का एक संभावित मैदान पर काम का बोझ है।[19] अंतरराष्ट्रीय पैनल दस टेस्ट खेलने वाले क्रिकेट बोर्डों में से प्रत्येक से नामित अधिकारियों से बना है। पैनल के सदस्यों के वनडे में अंपायरिंग क्रिकेट कैलेंडर में अपने देश में मैच, और चरम पर एलीट पैनल की सहायता बार जब वे विदेशी वनडे के लिए नियुक्त किया जा सकता है और टेस्ट मैच के लिए चुना है। अंतरराष्ट्रीय पैनल के सदस्यों को भी इस तरह के अंडर-19 क्रिकेट विश्व कप आईसीसी विदेशी परिस्थितियों के अपने ज्ञान और समझ में सुधार के रूप में विदेशों में अंपायरिंग कार्य करती हैं और उन्हें एलीट पैनल पर संभव बढ़ावा देने के लिए तैयार करते हैं। इन अंपायरों में से कुछ भी क्रिकेट विश्व कप में अंपायरिंग कर्तव्य अदा करते है। टेस्ट क्रिकेट बोर्डों में से प्रत्येक एक "तीसरे अंपायर" जो पर कहा जा सकता तत्काल टेलीविजन रिप्ले के माध्यम से कुछ मैदान पर फैसले की समीक्षा करने के लिए नामांकित करता है। सभी तीसरे अंपायर को अपने स्वयं के काउंटी में प्रथम श्रेणी अंपायर हैं, और भूमिका अंतरराष्ट्रीय पैनल पर एक कदम है, और फिर एलीट पैनल के रूप में देखा जाता है।[20] उद्घाटन आईसीसी के एसोसिएट और एफिलिएट अंतरराष्ट्रीय अंपायर पैनल जून 2006 में गठन किया गया था। यह आईसीसी के एसोसिएट और एफिलिएट अंतरराष्ट्रीय अंपायर पैनल, 2005 में बनाया लांघी, और गैर टेस्ट खेल रहे सदस्यों से अंपायरों के लिए शिखर के रूप में कार्य करता है, पांच आईसीसी विकास कार्यक्रम क्षेत्रीय अंपायर पैनलों में से प्रत्येक के माध्यम से हासिल चयन के साथ। एसोसिएट और एफिलिएट अंतरराष्ट्रीय अंपायर पैनल के सदस्यों वनडे के लिए नियुक्तियों आईसीसी एसोसिएट सदस्य, आईसीसी इंटरकांटिनेंटल कप मैचों और अन्य एसोसिएट और एफिलिएट टूर्नामेंट शामिल करने के लिए पात्र हैं। उच्च प्रदर्शन अंपायर भी अन्य आईसीसी की घटनाओं के लिए विचार किया जा सकता है, आईसीसी अंडर 19 क्रिकेट विश्व कप सहित, और भी आईसीसी चैंपियंस ट्रॉफी और आईसीसी क्रिकेट विश्व कप में शामिल होने के लिए आमंत्रित किया जा सकता है।[21] वहाँ भी आईसीसी रेफरी जो सभी टेस्ट में आईसीसी की स्वतंत्र प्रतिनिधि के रूप में कार्य और एकदिवसीय मैचों की एक एलीट पैनल है। जनवरी 2009 के रूप में, यह 6 सदस्यों, सभी बेहद अनुभवी पूर्व अंतरराष्ट्रीय क्रिकेटर है। रेफरी खिलाड़ियों या अधिकारियों (जो अंपायरों द्वारा किया जा सकता है) की रिपोर्ट करने की शक्ति नहीं है, लेकिन वे आईसीसी आचार संहिता के तहत सुनवाई आयोजित करने और दंड लगाने के रूप में मैच पर आवश्यक जानकारी एक अधिकारी फटकार से लेकर के लिए जिम्मेदार हैं क्रिकेट से आजीवन प्रतिबंध। निर्णय की अपील की जा सकती है, लेकिन मूल निर्णय ज्यादातर मामलों में फैसले को बरकरार रखा है। परिषद क्रिकेट, अंपायर के फैसले की समीक्षा प्रणाली को सार्वभौमिक के आवेदन पर बीसीसीआई द्वारा विरोध के कारण जून 2012 के रूप में खेलने वाले देशों के बीच आम सहमति हासिल करने में विफल। यह खेलने वाले देशों के आपसी समझौते के अधीन लागू किया जाना जारी रहेगा।[22] जुलाई 2012 में आईसीसी डीआरएस प्रौद्योगिकी के उपयोग के बारे में संदेह दूर करने के लिए बीसीसीआई को, एक प्रतिनिधिमंडल गेंद पर नज़र रखने के डॉ एड रोस्टेन, कंप्यूटर दृष्टि और प्रौद्योगिकी पर एक विशेषज्ञ द्वारा किए गए शोध को दिखाने के लिए भेजने का फैसला किया। [23] सदस्य आईसीसी सदस्यता के तीन वर्ग है: पूर्ण सदस्य - दस टीमों कि आधिकारिक टेस्ट मैच खेलने के शासी निकायके अनुसार है; दस पूर्ण सदस्य हैं: इंग्लैंड, ऑस्ट्रेलिया, दक्षिण अफ्रीका, वेस्टइंडीज, न्यूजीलैंड, भारत, पाकिस्तान, श्रीलंका, जिम्बाब्वे, बांग्लादेश एसोसिएट सदस्य - 37 देशों में जहां क्रिकेट को मजबूती से स्थापित किया है और आयोजन किया है लेकिन अभी तक पूर्ण सदस्यता नहीं दी गई है है में शासी निकाय के अनुसार है। सहयोगी सदस्य - देशों में जहां आईसीसी की मान्यता है कि क्रिकेट के नियमों के अनुसार खेला जाता है में 60 शासी निकाय के अनुसार है। आईसीसी ने हाल ही में पूर्ण सदस्यता (और तदनुसार टेस्ट दर्जा) दूसरों के बीच में, कुछ देशों योग्य, मुख्य रूप से आयरलैंड, लेकिन यह भी स्कॉटलैंड और अफगानिस्तान सहित करने के लिए अनुदान के लिए अपनी विफलता के कारण महत्वपूर्ण आलोचना के दायरे में आ गया है।[24][25] आईसीसी के मिशन के बयान के बावजूद[26] एक "अग्रणी वैश्विक खेल हो सकता है और" वैश्विक खेल को बढ़ावा देने "में मदद करने के लिए, पूर्ण सदस्यता के बाद से बांग्लादेश में 2000 में पूर्ण सदस्यता प्रदान की गई थी विस्तार नहीं किया गया है। इसके अलावा, सम्बद्ध सदस्यों और भी कम अवसरों के एक एसोसिएट सदस्यता में प्रदान किया जाना है। दोनों सम्बद्ध सदस्यों और सहयोगी सदस्यों सुपर 10s के 2 क्वालीफाइंग स्थल हैं, जहां 8 स्पॉट पूर्ण सदस्यों द्वारा कब्जा कर रहे हैं के लिए आईसीसी विश्व टी -20 के क्वालीफाइंग चरण में एक दूसरे के खिलाफ प्रतिस्पर्धा होती हैं। क्षेत्रीय निकायों ये क्षेत्रीय निकायों, संगठित को बढ़ावा देने और क्रिकेट के खेल को विकसित करने के उद्देश्य: अफ्रीकी क्रिकेट संघ एशियाई क्रिकेट परिषद आईसीसी अमेरिका आईसीसी पूर्व एशिया-प्रशांत यूरोपीय क्रिकेट परिषद आगे के दो क्षेत्रीय निकायों अफ्रीकी क्रिकेट संघ के सृजन के बाद विस्थापित गया: पूर्वी और मध्य अफ्रीका क्रिकेट परिषद पश्चिम अफ्रीकी क्रिकेट परिषद प्रतियोगिताएं और पुरस्कार आईसीसी का आयोजन विभिन्न प्रथम श्रेणी और वन-डे और ट्वेंटी -20 क्रिकेट प्रतियोगिताओं: प्रथम श्रेणी आईसीसी टेस्ट चैम्पियनशिप (टेस्ट लीग) आईसीसी इंटरकांटिनेंटल कप (गैर-टेस्ट राष्ट्रों के लिए प्रथम श्रेणी) आईसीसी टेस्ट चैम्पियनशिप एकदिवसीय आईसीसी वनडे चैम्पियनशिप (एकदिवसीय लीग) आईसीसी क्रिकेट विश्व कप आईसीसी चैंपियंस ट्रॉफ़ी (विश्व कप के लघु संस्करण) आईसीसी विश्व क्रिकेट लीग (सहयोगी और संबद्ध सदस्यों के लिए लीग) आईसीसी विश्व कप क्वालीफायर (विश्व कप के लिए क्वालीफायर) ट्वेंटी-20 आईसीसी विश्व ट्वेंटी-20 आईसीसी ट्वेंटी-20 विश्व कप क्वालीफायर आईसीसी को समझते हैं और पिछले 12 महीनों का सबसे अच्छा अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट खिलाड़ियों को सम्मानित करने के लिए आईसीसी पुरस्कार की शुरूआत की गई है। उद्घाटन आईसीसी पुरस्कार समारोह 7 सितम्बर, 2004 को आयोजित की गई थी, लंदन में। आईसीसी रैंकिंग में उनके हाल के प्रदर्शन के आधार पर अंतरराष्ट्रीय क्रिकेटरों के लिए रैंकिंग के एक व्यापक रूप से पालन व्यवस्था कर रहे हैं। मौजूदा प्रायोजक रिलायंस मोबाइल, जो आईसीसी कि 2015 तक चलेगा के साथ एक समझौते पर हस्ताक्षर किए गए हैं।[27]रनर-अप के रूप में न्यूजीलैंड में 2015 में पुरस्कार राशि के रूप में 1750000 अमेरिका डॉलर जीतने जबकि ऑस्ट्रेलिया 3975000 अमरीकी डॉलर का पुरस्कार राशि जीत ली। भ्रष्टाचार रोधी और सुरक्षा आईसीसी ने दवाओं और रीश्वतखोरी घोटालों शीर्ष क्रिकेटरों को शामिल करने के साथ सौदा किया गया है। कानूनी और गैरकानूनी सट्टेबाजी बाजारों के साथ जुड़ा हुआ क्रिकेटरों द्वारा भ्रष्टाचार घोटालों के बाद आईसीसी को एक भ्रष्टाचार निरोधक और सुरक्षा इकाई (एसीएसयू) 2000 में लंदन मेट्रोपोलिटन पुलिस के सेवानिवृत्त आयुक्त, लार्ड कांडों के तहत निर्धारित किया है। भ्रष्टाचार, जिस पर वे सूचना दी है था के अलावा दक्षिण अफ्रीका के पूर्व कप्तान हैंसी क्रोन्ये जो तहत प्रदर्शन या सुनिश्चित करना है कि कुछ मैचों में एक पूर्व निर्धारित परिणाम था के लिए एक भारतीय सट्टेबाज से पैसे की भारी रकम स्वीकार कर लिया था कि के। इसी तरह, पूर्व भारतीय कप्तान मोहम्मद अजहरुद्दीन और अजय जड़ेजा की जांच की गई, (क्रमश: जीवन के लिए और पांच साल के लिए) मैच फिक्सिंग का दोषी है, और क्रिकेट खेलने से प्रतिबंधित पाया। एसीएसयू की निगरानी और क्रिकेट और प्रोटोकॉल पेश किया गया है भ्रष्टाचार के किसी भी रिपोर्ट है, जो उदाहरण के लिए ड्रेसिंग रूम में मोबाइल फोन के उपयोग के निषेध की जांच जारी है। 2007 क्रिकेट विश्व कप आईसीसी के मुख्य कार्यकारी अधिकारी मैल्कम स्पीड से पहले किसी भी भ्रष्टाचार के खिलाफ चेतावनी दी है और कहा है कि आईसीसी सतर्क और इसके खिलाफ असहिष्णु हो जाएगा।[28] एक घोटाले है कि इंग्लैंड के 2010 के पाकिस्तान दौरे के दौरान हुई के बाद, 3 पाकिस्तानी खिलाड़ियों मोहम्मद आमिर, मोहम्मद आसिफ और सलमान बट्ट स्पॉट फिक्सिंग का दोषी पाया गया है, और क्रमश: 5 साल, 7 साल और 10 साल के लिए प्रतिबंधित कर दिया गया। पर 3 नवंबर 2011 जेल शर्तों आमिर के लिए छह महीने बट के लिए नीचे के 30 महीने, आसिफ को एक साल के लिए, और दो साल मजीद के लिए आठ महीने, खेल एजेंट है कि रिश्वत सुगम सौंप दिया गया।[29][30][31][32] ग्लोबल क्रिकेट अकादमी आईसीसी ग्लोबल क्रिकेट अकादमी (जीसीए) संयुक्त अरब अमीरात में दुबई स्पोर्ट्स सिटी में स्थित है। जीसीए की सुविधाओं में दो अंडाकार, 10 मैदान पिचों, आउटडोर मैदान और सिंथेटिक अभ्यास सुविधाओं के साथ एक, हॉक नेत्र प्रौद्योगिकी और एक क्रिकेट विशिष्ट व्यायामशाला सहित इनडोर अभ्यास सुविधाएं शामिल हैं। रॉडनी मार्श कोचिंग अकादमी के निदेशक के रूप में नियुक्त किया गया है। उद्घाटन, मूल रूप से 2008 के लिए योजना बनाई है, 2010 में जगह ले ली। आईसीसी क्रिकेट विश्व कार्यक्रम अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट परिषद आईसीसी क्रिकेट विश्व बुलाया टेलीविजन पर एक साप्ताहिक कार्यक्रम का सीधा प्रसारण। यह खेल ब्रांड द्वारा निर्मित है। यह एक साप्ताहिक 30 मिनट की सभी टेस्ट और सहित नवीनतम क्रिकेट खबर है, हाल ही में क्रिकेट कार्रवाई प्रदान कार्यक्रम है एक दिवसीय अंतरराष्ट्रीय मैचों, साथ ही मैदान से बाहर की सुविधाओं और साक्षात्कार आलोचना पत्रकार पीटर डेला पेन्ना, ईएसपीएन क्रिकइन्फो की, क्या वह मैचों में अनियंत्रित प्रशंसकों से संबंधित सुरक्षा मुद्दों की रिपोर्टों को कम करने के प्रयास के रूप में माना जाता है के लिए आईसीसी की आलोचना की है।[33] संबद्ध सदस्यों सहयोगी का दर्जा प्राप्त करने के लिए: क्रिकेट आयरलैंड के मुख्य कार्यकारी अधिकारी वॉरेन व्यव उन्हें टेस्ट खेलने वाले और एसोसिएट देशों और स्पष्ट रूप से परिभाषित मानदंड नए देशों को प्राप्त करने के लिए टेस्ट दर्जा, या उस बात के लिए अनुमति की कमी के बीच दोहरे मापदंड के लिए आलोचना की है। 2015 में, सैम कोलिन्स और जर्रोद किंबर आईसीसी के आंतरिक संगठन पर एक सज्जन की वृत्तचित्र मौत बनाया है। इन्हें भी देखें विश्व कप क्रिकेट आईसीसी विश्व ट्वेन्टी २० आईसीसी टेस्ट चैम्पियनशिप आईसीसी चैंपियन्स ट्रॉफ़ी आईसीसी ट्वेंटी-20 विश्व कप क्वालीफायर सन्दर्भ श्रेणी:क्रिकेट प्रशासन
अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट परिषद की स्थापना किस वर्ष में हुई थी?
1909
2,226
hindi
23d8f8654
राम दास या गुरू राम दास (Punjabi: ਸ੍ਰੀ ਗੁਰੂ ਰਾਮ ਦਾਸ ਜੀ), सिखों के गुरु थे और उन्हें गुरु की उपाधि 30 अगस्त 1574 को दी गयी थी। उन दिनों जब विदेशी आक्रमणकारी एक शहर के बाद दूसरा शहर तबाह कर रहे थे, तब 'पंचम् नानक' गुरू राम दास जी महाराज ने एक पवित्र शहर रामसर, जो कि अब अमृतसर के नाम से जाना जाता है, का निर्माण किया। जीवन गुरू राम दास (जेठा जी) का जन्म चूना मण्डी, लाहौर (अब पाकिस्तान में) में कार्तिक वदी २, (२५वां आसू) सम्वत १५९१ (२४ सितम्बर १५३४) को हुआ था। माता दया कौर जी (अनूप कौर जी) एवं बाबा हरी दास जी सोढी खत्री का यह पुत्र बहुत ही सुंदर एवं आकर्षक था। राम दास जी का परिवार बहुत गरीब था। उन्हें उबले हुए चने बेच कर अपनी रोजी रोटी कमानी पड़ती थी। जब वे मात्र ७ वर्ष के थे, उनके माता पिता की मृत्यु हो गयी। उनकी नानी उन्हें अपने साथ बसर्के गाँव ले आयी। उन्होंने बसर्के में ५ वर्षों तक उबले हुए चने बेच कर अपना जीवन यापन किया। एक बार गुरू अमर दास साहिब जी, रामदास साहिब जी की नानी के साथ उनके दादा की मृत्यु पर बसर्के आये और उन्हें राम दास साहिब से एक गहरा लगाव सा हो गया। रामदास जी अपनी नानी के साथ गोइन्दवाल आ गये एवं वहीं बस गये। यहाँ भी वे अपनी रोजी रोटी के लिए उबले चने बेचने लगे एवं साथ ही साथ गुरू अमरदास साहिब जी द्वारा धार्मिक संगतों में भी भाग लेने लगे। उन्होंने गोइन्दवाल साहिब के निर्माण की सेवा की। रामदास साहिब जी का विवाह गुरू अमरदास साहिब जी की पुत्री बीबी भानी जी के साथ हो गया। उनके यहाँ तीन पुत्रों -१. पृथी चन्द जी, २. महादेव जी एवं ३. अरजन साहिब जी ने जन्म लिया। शादी के पश्चात रामदास जी गुरु अमरदास जी के पास रहते हुए गुरु घर की सेवा करने लगे। वे गुरू अमरदास साहिब जी के अति प्रिय व विश्वासपात्र सिक्ख थे। वे भारत के विभिन्न भागों में लम्बे धार्मिक प्रवासों के दौरान गुरु अमरदास जी के साथ ही रहते। गुरू रामदास जी एक बहुत ही उच्च वरीयता वाले व्यक्ति थे। वो अपनी भक्ति एवं सेवा के लिए बहुत प्रसिद्ध हो गये थे। गुरू अमरदास साहिब जी ने उन्हें हर पहलू में गुरू बनने के योग्य पाया एवं 1 सितम्बर १५७४ को उन्हें ÷चतुर्थ नानक' के रूप में स्थापित किया। गुरू रामदास जी ने ही ÷चक रामदास' या ÷रामदासपुर' की नींव रखी जो कि बाद में अमृतसर कहलाया। इस उद्देश्य के लिए गुरू साहिब ने तुंग, गिलवाली एवं गुमताला गांवों के जमींदारों से संतोखसर सरोवर खुदवाने के लिए जमीनें खरीदी। बाद में उन्होने संतोखसर का काम बन्द कर अपना पूरा ध्यान अमृतसर सरोवर खुदवाने में लगा दिया। इस कार्य की देख रेख करने के लिए भाई सहलो जी एवं बाबा बूढा जी को नियुक्त किया गया। जल्द ही नया शहर (चक रामदासपुर) अन्तराष्ट्रीय व्यापार का केन्द्र होने की वजह से चमकने लगा। यह शहर व्यापारिक दृष्टि से लाहौर की ही तरह महत्वपूर्ण केन्द्र बन गया। गुरू रामदास साहिब जी ने स्वयं विभिन्न व्यापारों से सम्बन्धित व्यापारियों को इस शहर में आमंत्रित किया। यह कदम सामरिक दृष्टि से बहुत लाभकारी सिद्ध हुआ। यहाँ सिक्खों के लिए भजन-बन्दगी का स्थान बनाया गया। इस प्रकार एक विलक्षण सिक्ख पंथ के लिए नवीन मार्ग तैयार हुआ। गुरू रामदास साहिब जी ने ÷मंजी पद्धति' का संवर्द्धन करते हुए ÷मसंद पद्धति' का शुभारम्भ किया। यह कदम सिक्ख धर्म की प्रगति में एक मील का पत्थर साबित हुआ। गुरू रामदास साहिब जी ने सिख धर्म को ÷आनन्द कारज' के लिए ÷चार लावों' (फेरों) की रचना की और सरल विवाह की गुरमत मर्यादा को समाज के सामने रखा। इस प्रकार उन्होने सिक्ख पंथ के लिए एक विलक्षण वैवाहिक पद्धति दी। इस प्रकार इस भिन्न वैवाहिक पद्धति ने समाज को रूढिवादी परम्पराओं से दूर किया। बाबा श्रीचंद जी के उदासी संतों व अन्य मतावलम्बियों के साथ सौहार्दपूर्ण सम्बन्ध स्थापित किये। गुरू साहिब जी ने अपने गुरूओं द्वारा प्रदत्त गुरू का लंगर प्रथा को आगे बढाया। अन्धविश्वास, वर्ण व्यवस्था आदि कुरीतियों का पुरजोर विरोध किया गया। उन्होंने ३० रागों में ६३८ शबद् लिखे जिनमें २४६ पौउड़ी, १३८ श्लोक, ३१ अष्टपदी और ८ वारां हैं और इन सब को गुरू ग्रन्थ साहिब जी में अंकित किया गया है। उन्होंने अपने सबसे छोटे पुत्र अरजन साहिब को ÷पंचम्‌ नानक' के रूप में स्थापित किया। इसके पश्चात वे अमृतसर छोड़कर गोइन्दवाल चले गये। भादौं सुदी ३ (२ आसू) सम्वत १६३८ (१ सितम्बर १५८१) को ज्योति जोत समा गए। सन्दर्भ सिखों के दस गुरू हैं। बाहरी कड़ियाँ ऑडियो श्रेणी:सिख धर्म श्रेणी:सिख धर्म का इतिहास श्रेणी:अमृतसर के लोग
गुरु राम दास की पत्नी कौन थी?
बीबी भानी जी
1,276
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महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (मनसे) महाराष्ट्र में स्थापित एक क्षेत्रीय राजनीतिक दल है जो "भूमि पुत्र"(Son (of)for the soil) के सिद्धांत पर कार्यरत है।[1] उद्धव ठाकरे के साथ मतभेद और चुनाव में टिकट वितरण जैसे प्रमुख निर्णयों में दरकिनार किये जाने की वजह से शिव सेना छोड़ देने के पश्चात, इसे 9 मार्च 2006 को मुंबई में राज ठाकरे द्वारा स्थापित किया गया था। नींव यह पार्टी, शिव सेना नेता बाल ठाकरे के भतीजे, राज ठाकरे द्वारा स्थापित की गई थी। राज ठाकरे ने जनवरी 2006 में अपने चाचा की पार्टी से इस्तीफा दे दिया और एक नई राजनीतिक पार्टी शुरू करने की अपने आकांक्षा कि घोषणा की। शिवसेना से अलग होने का कारण उन्होंने पार्टी को "छोटे बाबूओं" द्वारा चलाए जाने और परिणामस्वरूप पार्टी का "अपनी पूर्व गरिमा खो देना" बताया। इसके अलावा श्री ठाकरे का स्पष्ट उद्देश्य, राज्य के विकास सम्बंधित विषयों के लिए राजनीतिक जागरूकता का निर्माण और उन्हें राष्ट्रीय राजनीति में एक केंद्र स्थान देना था। उनके इस एजन्डा को राज्य के युवा वर्ग से भारी समर्थन और सहानुभूति मिल रही है। पार्टी निर्माण के समय, राज ठाकरे ने कहा कि वह अपने चाचा, “जो (उनके) परामर्शक थे, हैं और हमेशा रहेंगे", के साथ युद्धक स्थिति नहीं रखेंगे. हालांकि मनसे, सेना से निकला हुआ समूह है, परन्तु अब भी वह पार्टी की मराठी और "भूमिपुत्र" विचारधारा पर आधारित है। शिवाजी पार्क में पार्टी का अनावरण करते समाए एक सभा में उन्होंने कहा कि सभी यह देखने को बेचैन हैं कि हिंदुत्व का क्या होगा। [1] अनावरण के समाए, उन्होंने यह भी कहा, "मैं विस्तार से "भूमि पुत्र" (Sons of soil) और मराठी, महाराष्ट्र के विकास के लिए अपना एजेंडा और 19 मार्च कि सार्वजनिक बैठक में पार्टी झंडे के रंगों के महत्व जैसे मुद्दों पर पार्टी के रुख पर प्रकाश डालूँगा."[2] मनसे को विधान सभा में 13 सीटें मिलीं. राज का जन्मदिन महाराष्ट्र के "भूमि पुत्र" दिवस के रूप में मनाया जाता है और राज इस उपाधि पर गर्व महसूस करते हैं। राज ठाकरे खुद को एक भारतीय राष्ट्रवादी (न की सिर्फ एक क्षेत्रीय) समझते हैं और दावा करते हैं कि कांग्रेस दोगली है।[3] . पार्टी, धर्मनिरपेक्षता को भी अपना एक मूल सिद्धांत मानती है।[4] विवाद 2008 में उत्तर भारतीयों के खिलाफ महाराष्ट्र में हिंसा फरवरी 2008 में, कुछ मनसे कार्यकर्ताओं ने मुंबई में समाजवादी पार्टी (SP) के कार्यकर्ताओं के साथ टकराव किया, जब SP समर्थक एक रैली में सम्मलित हुए जो शिवाजी पार्क, दादर और मुंबई में की गई, जो मनसे के गढ़ हैं, जहाँ SP नेता अबू असीम आजमी ने एक जोशीला भाषण दिया। टकराव के बाद, 73 मनसे कार्यकर्ताओं और 19 SP कार्यकर्ताओं को मुंबई पुलिसने हिंसा के आरोप में गिरफ्तार कर लिया।[5] 6 फ़रवरी 2008, में कथित तौर पर, लगभग 200 कांग्रेस और NCP कार्यकर्ता पार्टी छोड़ कर मनसे के तथाकथित मराठी समर्थक अजेंडे का समर्थन करने के लिए महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना में शामिल हो गए।[6] 8 फ़रवरी को पटना सिविल कोर्ट में ठाकरे के खिलाफ एक याचिका दायर की गई जो उनके बिहार और उत्तर प्रदेश के सबसे लोकप्रिय त्योहार छट पूजा पर टिप्पणी के विरोध में था।[7] श्री ठाकरे का कहना था कि वह छट पूजा के खिलाफ नहीं हैं, लेकिन उत्तर प्रदेश और बिहार के कुछ लोगों द्वारा इस अवसर पर "अहंकार प्रदर्शन" और "छट पूजा के राजनितिकरण" के खिलाफ हैं।[8] 10 फ़रवरी 2008 को मनसे कार्यकर्ताओं ने महाराष्ट्र के विभिन्न भागों में उत्तर भारतीय दूकानदारों और विक्रेताओं पर हमला किया और राज ठाकरे की गिरफ्तारी के कथित अंदेशे के विरुद्ध अपना गुस्सा निकलने के लिए सरकारी संपत्ति नष्ट कर दी। [9] नासिक पुलिस ने 26 मनसे कार्यकर्ताओं को हिंसा के आधार पर हिरासत में ले लिया। फरवरी 2008 में, भारत के अन्य भागों से मुंबई में लोगों के अनियंत्रित प्रवास के मुद्दे पर राज ठाकरे के भाषण ने एक बहुप्रचारित विवाद पैदा किया। महाराष्ट्र की अर्थव्यवस्था भारत में अन्य राज्यों से आगे हैं और इसकी राजधानी मुंबई उत्तर प्रदेश और बिहार के राज्यों से प्रवासी आबादी के लिए एक चुंबक बन गइ है। मनसे समर्थकों ने समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ताओं से टकराव किया जो उत्तर प्रदेश में मुसलामानों की क्षेत्रीय पार्टी हे, जिस की वजह से सड़कों पर हिंसा भड़की. ठाकरे ने राजनेता बने जाने माने फिल्म अभिनेता अमिताभ बच्चन की भी आलोचना की जो उत्तर प्रदेश के मूल निवासी हैं, कि वह अमर सिंह की वजह से UP और बिहार में व्यापार फैला रहे हैं। बच्चन को मुंबई के फिल्म उद्योग-बॉलीवुड में प्रसिद्धि और समृधि मिली। [10][11] 8 सितम्बर 2008 में इनफ़ोसिस टेकनोलोजीस ने घोषणा की, कि 3,000 कर्मचारी पदों को पुणे से हटा दिया गया, जिस का कारण निर्माण कार्य में देरी था, जो उस वर्ष की शुरुआत में MNS द्वारा उत्तर भारतीय निर्माण श्रमिकों पर हमले की वजह से हुई थी।[12]. 15 अक्टूबर 2008 को ठाकरे ने जेट एयरवेज को धमकी दी कि अगर उन्होंने परिवीक्षाधीन कर्मचारियों को काम पर वापस नहीं लिया, जिन्हें आर्थिक मंदी की वजह से खर्च में कटोती के लिए निकाला गया था, तो वह महाराष्ट्र में उसकी कार्यवाही बंद करवा देंगे। [13] अक्टूबर 2008 में MNS कार्यकर्ताओं ने उत्तर भारतीय उम्मीदवारों को पीटा जो भारतीय रेलवे बोर्ड में भर्ती होने की प्रवेश परीक्षा पश्चिमी क्षेत्र से मुंबई में दे रहे थे।[14] रेल दुर्घटना में तीसरे वर्ग में एक बिहारी की मृत्यु हो गई जिसे हिंदी मीडिया के समर्थन से एनसीपी/कांग्रेस ने सफलतापूर्वक दर्शाया के लड़के की मृत्यु आगामी दंगों के चलते हुई है।[15] MNS' के उत्तर भारतीयों और बिहारियों पर हो रहे हमले के बदले, भारतीय भोजपुरी संघ ने जमशेदपुर में टाटा मोटर्स के एक मराठी अधिकारी के आवास पर हमला कर दिया। भारतीय संसद में हंगामे के बाद और MNS प्रमुख की गिरफ्तारी का दबाव नहीं होने के चर्चे के बावजूद, राज ठाकरे को अक्टूबर 21 के शुरुआती घंटों में गिरफ्तार कर लिया गया। उन्हें उसी दिन अदालत में पेश किया गया और रात जेल में बिताने के बाद वह अगले दिन वापस चले गए। हालांकि गिरफ्तारी के बाद, MNS कार्यकर्ताओं ने मुंबई शहर के कुछ हिस्सों और पूरे क्षेत्र पर गुस्सा निकाला. गिरफ्तारी के परिणामस्वरुप प्रशंशा के साथ भय और MNS पर प्रतिबंध लगाने कि बातें सामने आईं.[16][17][18] शिवसेना ने बहरहाल पूरे मामले पर एक ठंडी प्रतिक्रिया रखी, हालांकि पार्टी के वरिष्ठ नेता मनोहर जोशी ने कहा कि वह MNS के इस आन्दोलन के समर्थन में हैं जो वह रेलवे बोर्ड की परीक्षा के लिए गैर-मराठी उम्मीदवारों के खिलाफ कर रहे हैं। शिवसेना के साथ टकराव 10 अक्टूबर 2006 में शिवसेना और राज ठाकरे की नेतृत्व वाली महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के समर्थकों के बीच टकराव उभर आया। यह आरोप लगाया गया कि MNS के कार्यकर्ताओं ने मुंबई में SIES कॉलेज के पास शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे की फोटो वाले पोस्टर फाड़े. इसके बाद प्रतिशोद में ये आरोप लगाया गया के शिवसेना कार्यकर्ताओं ने सेना भवन के पास दादर में राज ठाकरे की फोटो वाले होर्डिंग नीचे उतारे. जैसे ही इस घटना की खबर फैली लोगों के समूह शिवसेना भवन के सामने इकठ्ठा हुए और एक दुसरे पर पथराव शुरू कर दिया। इस घटना में एक सिपाही घायल हो गया और दोनों दलों के कई समर्थक भी घायल हुए. इस स्थिति को सामान्य करने के लिए पुलिस ने भीड़ पर आंसू गैस के गोले दागे. अंततः पुलिस कार्यवाही और मौके पर उद्ध्व ठाकरे और उनके चचेरे भाई राज ठाकरे की मौजूदगी से स्थिति काबू में आ गई। उद्ध्व ने सेना कार्यकर्ताओं से अपील की, कि वह घर चले जाएं.[19] उन्होंने कहा: "पुलिस आवश्यक कार्रवाई करेगी. यह इसलिए हो रहा है क्यों कि बहुत से लोग MNS छोड़ कर हमारे साथ शामिल हो रहे हैं। दलबदल शुरू हो चुका है और यही वजह है कि वह ऐसे कारनामों का सहारा ले रहे हैं।"[19] शिव सेना के विभाजन प्रमुख मिलिंद वैध ने कहा कि उन्होंने घटना में शामिल एक MNS कार्यकर्ता के खिलाफ स्थानीय पुलिस में शिकायत दर्ज कराई है। MNS के महासचिव प्रवीण डारेकर ने बहरहाल इस का कारण SIES कॉलेज की स्थानीय निकाइयों के चुनावों पर डाल दिया। उन्होंने आरोप लगाया कि शिव सेना को कोलेजों पर अपनी पकड़ खोने का डर है और इसिलए वह इस मुद्दे को रंग दे रहे हैं, साथ ही यह भी कि शिव सेना के इलज़ाम बेबुनियाद हैं। राज ठाकरे का दावा है कि MNS तस्वीरें नहीं फाड़ सकता है, कियोंकि बाल ठाकरे का वह और उनके सदस्य बहुत आदर करते हैं।[20] उत्तरभारतीयों के खिलाफ बाल ठाकरे द्वारा दिए गए टिप्पनिओं पर कुछ MP द्वारा नोटिस जारी करने पर एमएनएस प्रमुख राज ठाकरे ने कहा कि वह कभी UP और बिहार के किसी राजनितिक नेता को मुंबई में नहीं आने देंगे अगर संसदीय समिति ने बाल ठाकरे के summon पर जोर दिया। इस पर विपरीत प्रतिक्रिया देते हुए बाल ठाकरे ने अपने भतीजे राज को "पीठ पर वार करने वाला" कहा और उनके अहसान से साफ़ मना कर दिया। शिव शेना (SS) और एमएनएस कार्यकर्तायों ने छुट्टियों में नवरात्रि के पोस्टर जारी करने को लेकर ओशिवारा के आनंद नगर में भी टकराव किया। SS पार्षद राजुल पटेल ने कहा के MNS कार्यकर्ताओं ने विशाल होअर्दिंग्स लगाया और लोगों से उन्हें हटाने के लिए पैसे मांगने लगे। लोगों ने हम से शिकायत की और हमने आपत्ति जताई. इसकी वजह से हाथापाई हो गई। MNS विभाग प्रमुख मनीष धुरी ने बदले में कहा कि शिव सैनिक हमारी लोप्रियता से जलते हैं। रविवार दोपहर को शिव सैनिकों कि एक भीड़ उस जगह पर आई और वे हामारे द्वारा लगाए गए पोस्टर उतारने लगे। हमने इस पर आपत्ति जताई. दुर्भागयावाश, एक MNS कार्यकर्ता गंभीर रूप से घायल हो गया। === अबू आज़मी को सबक 9 नवम्बर 2009 को समाजवादी पार्टी के नेता अबू आज़मी को सबक दि गई और MNS के विधायक द्वारा उन्हें हिन्दिमे में शपत लेने से रोका गया। और यह सही किय इस घटना के परिणामस्वरूप महाराष्ट्र विधान सभा के अध्यक्ष ने इस मार पीट में शामिल MNS के 4 MLA को 4 साल के लिए निलंबित कर दिया। जो बिल्कुल गलत था मुंबई और नागपुर में विधान सभा बैठक के दौरान उनके प्रवेश पर भी रोक लगा दी गई।[21] निलंबित विधायक थे राम कदम, रमेश वान्जले, शिशिर शिंदे और वसंत गीते.[22][23] शक्ति में बढ़त अक्टूबर 2008 में, जेट एयरवेस ने लगभग 1000 कर्मचारियों कि छटनी कर दी। इन परिक्ष्नाधीं कर्मचारियों कि पुनार्युक्ति के लिए उठे क्रोध के बाद बहुत से राजनितिक दलों ने इस मामले में कदम उठाए. पहले MNS और SS ने पहल की और उसके बाद कांग्रेस और भाजापा जैसे बड़े दल भी आगे आए। यहाँ तक कि भारतीय कोम्मुनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) (CPI (M)) ने भी कोलकत्ता में छंटनी किये गए कर्मचारियों के समर्थन में रैली निकाली. हटाए जाने के एक दिन बाद, कर्मचारी MNS कार्यालय में जमा हुए, इस के बावजूद के विमानन संघ आम तौर पर SS श्रमिक संघ, भारतीय कामगार सेना के काबू में होता है। इसके बाद MNS ने 300 पूर्व कर्मचारियों की मरोल स्थित जेट कार्यालय तक अग्वाही की। MNS के महासचिव नितिन सरदेसाई ने कहा," हमने आज जेट के अधिकारियों से मुलाक़ात की, जब बहुत से विमान कर्मचारी दल और MNS कार्यकर्ता बाहर विरोध प्रदर्शन कर रहे थे। हमारी बात चीत के दौरान जेट के अध्यक्ष नरेश गोयल ने राज ठाकरे से फ़ोन पर बात किया।.. उन्होंने हमें विरोध प्रदर्शन ख़त्म करने का अनुरोध किया और कुछ ही दिनों में राज साहब से मुलाक़ात करने की पेशकश की. हमारा एकमात्र agenda यही था के जिन लोगों कि छंटनी की गई है उन्हें वापस लिया जाना चाहिए." दो दिनों में MNS कि भाग दौड़ और सहायता कि बदौलत कर्मचारियों को फिर से काम पर रख लिया गया। मीडिया ने व्यापक रूप में राज को खेल का विजेता घोषित किया और ये भी कहा के SS कि विरासत में चली आ रही आक्रामक सड़कों कि राजनीति पर उनका कब्ज़ा होता हुआ नज़र आ रहा है। यह MNS के नवगठित व्यापार संघ, महाराष्ट्र नवनिर्माण कामगर सेना के लिए एक बड़ा बढ़ावा था जो उड्डयन, होटल और मनोरंजन के क्षेत्रों में SS के प्रभाव को कम करने कि कोशिश में था। निर्वाचित प्रतिनिधि 2006 में पार्टी के निर्माण से लेकर अब तक, 4 नगर निगमो में एमएनएस के प्रतिनिधि चुने गए हैं। MNS ने 2009 के महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में 13 विधानसभा सीटें जीती। इन में मुंबई में 6, ठाणे में 2,3 नासिक में, पुणे में 1, कन्नड़(औरंगाबाद) में 1 और 24 से अधिक स्थानों पर दुसरे स्थान पर रही। राजनीतिक आलोचना मुंबई में रेलवे भरती बोर्ड कि परीक्षा देने आए उत्तर भारतीयों पर किये गए हमले के लिए बहुत से नेताओं ने खास कर सत्तारूढ़ संयुक्त प्रगतीशील गठबंधन (UPA) कि केंद्र सरकार ने सख्त तौर पर राज ठाकरे और MNS की आलोचना की। UPA के तीन मंत्रियों ने कड़ी कार्यवाही करने कि मांग की, साथ ही पार्टी के खिलाफ प्रतिबन्ध लगाने की भी मांग की। रेलवे मंत्री लालू प्रसाद यादव ने MNS पर प्रतिबन्ध लगाने कि मांग कि और कहा के उसका अध्यक्ष "मानसिक रोगी" हैं। इस्पात मंत्री राम विलास पासवान ने कहा के वह अगले मंत्री मंडल कि बैठक में इस मुद्दे को उठाएंगे और उन्होंने आश्चर्य प्रकट किया कि हिंसक घटनाओं के बावजूद, MNS के खिलाफ कोई कारवाही नहीं कि जा रही है। उन्होंने कहा: "मैं सख्त तौर पर घटना कि निंदा करता हूँ. पार्टी के खिलाफ मज़बूत कदम उठाए जाने चाहिए... MNS पर प्रतिबंध लगा देना चाहिए. ठाकरे परिवार महाराष्ट्र के लिए एक स्थाई समस्या बन गया है और विशेष रूप से राज ठाकरे एक मानसिक रोगी बन गए हैं।" खाद प्रंस्करण उद्योग मंत्री और कांग्रेस नेता सुबोध कान्त सहाए ने मांग की, कि महाराष्ट्र में कांग्रेस-MNS गटबंधन सरकार को हमले के लिए ज़िम्मेदार लोगों के साथ अपराधियों जैसा सुलूक करना चाहिए। उन्होंने कहा कि महारष्ट्र के मुख्य मंत्री विलास राव देशमुख से उन्होंने बात कि है और राज्य में चल रहे गुंडागर्दी पर भी सवाल किया है। "जहां तक सरकार कि आज तक की कारवाही का सवाल है, वह अब तक उनपर नरम रही है। उन्हें कार्यवाही करनी चाहिए कियोंकि अब हद से ज्यादा हो चुका हे. वह कार्यकर्ता नहीं हैं। वह लुटेरे हैं। MNS, बजरंग दल, VHP और RSS जैसे संगठनों पर प्रतिबंध लगा दिया जाना चाहिए.[25] इस घटना के बाद, कार्यकाल के पहले दिन ही राष्ट्रीय संसद में काफी हगामे हुए. संसद के कई सदस्यों ने हमले की निंदा की. उन्होंने परोक्ष रूप से लालू प्रसाद यादव कि भी निंदा कि, यह कहते हुए कि उन्होंने भी अपने क्षेत्र में बिहारियों की अधिकतम भरती की और उन लोगों कि नहीं जो उन शहरों के थे जहां भरती परीक्षा आयोजित कि गई थी, जिसने MNS की घटना को और बढ़ावा दिया. इस मुद्दे पर पहले बोलते हुए, राजद नेता देवेंद्र प्रसाद यादव ने केंद्र सरकार से राज्य मे अनुछेद 355 के तहत कार्यवाही करने की मांग की. उन्होंने कहा कि हमलों के बावजूद, महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री इस मुद्दे पर चुप्पी साधे हुए हैं। साथ ही कहा कि ऐसी घटनाएं देश की एकता और अखंडता को खतरा है। अन्य सांसदों ने भी हमलों की वजह से अनुच्छेद 355 लागू करने की मांग की. BJP के शाहनवाज हुसैन ने भी यह मांग की पुछते हुए कि अगर बिहार और उत्तर प्रदेश के लोगों को देश के अन्य भागों में यात्रा करने के लिए क्या किसी अनुमति की ज़रोरत होगी. CPI(M) के मोहम्मद सलीम ने कहा कि इस तरह की घटनाएँ देश की अखंडता पर खतरा हैं और इससे देश के बाकी हिस्सों को गलत संकेत पहुँचता है। शिवसेना के अनंत गीते ने बहरहाल महाराष्ट्र में 42 लाख शिक्षित बेरोजगार युवाओं की बात रखते हुए कहानी के दूसरे पहलु को सामने रखने की कोशिश की.[26] CPI(M) ने हमले कि कड़ी निंदा कि और इसे संविधान पर स्पष्ट हमला बताया और फौरन पार्टी प्रमुख राज ठाकरे के गिरफ्तारी कि मांग कि, साथ ही यह भी कहा के विभाजनकारी ताकतों को अगर किसी भी तरह की ढील दी गई, तो उसके बहुत दूरगामी परिणाम हो सकते हैं। CPI(M) पौलिटबिऊरो ने कहा के संविधान पर हमले, महाराष्ट्र सरकार के ऊपर कलंक हैं, जिस कि ज़िम्मेदारी है रक्षा करना और अपराध करने वालों के खिलाफ सख्त कारवाही करना. "और वह इस में नाकाम रही है, जिस तरह उसने गैरज़िम्मेदार नेताओं को ढील दी है, यह कांग्रेस और उसकी गठ्बंधित साथियों का राजनितिक दिवालियापन दर्शाती है।" "भारतीय कोम्मुनिस्ट पार्टी (CPI) ने भी कहा के ऐसे हमले नहीं सहे जाएंगे, और ठाकरे तथा उनके समर्थकों को जल्द ही गिरफ्तार किया जाना चाहिए और उन पर मुकदमा चलाया जाना चाहिए." महाराष्ट्र के मुख्य मंत्री विलास राव देशमुख ने कहा कि उनकी सरकार हमलों को रोकने में असफलता कि पूरी ज़िम्मेदारी लेती हे और इस घटना कि जांच के आदेश दिए जाएंगे साथ ही इस बात का भी पता लगाया जाएगा कि नौकरी के विज्ञापन मराठी अखबारों में कियों नहीं दिए गए। उन्होंने कहा: "जो हुआ अच्छा नहीं हुआ। इस तरह की घटनाएँ कानून में खामियों की वजह से होती हैं। सिर्फ गृह मंत्रालय को ज़िम्मेदार नहीं माना जा सकता बल्कि यह (पूरे) सरकार की ज़िम्मेदारी है। ऐसी घटनाएँ राज्य की छवि को प्रभावित कर रही हैं और मैंने पुलिस महानिर्देशक को कड़ी कार्यवाही के निर्देश दिए हैं।" राज ठाकरे के आरोप पर, कि नौकरी के विज्ञापन स्थानीय समाचार पत्रों में प्रकाशित न करके मराठी उम्मीदवारों को बाहर रखा गया है, इसपर उन्होंने कहा कि,"एक जांच भी करवाई जाएगी, कि मराठी समाचारपत्रों में परीक्षा के विज्ञापन कियों नही दिए गए और और परीक्षा में कितने मराठी उम्मीदवार बुलाए गए।" उन्होंने यह भी आश्वासन दिया कि इस तरह की बर्बरतापूर्ण घटनाएँ भविष्य में नहीं होंगी. जनवरी 2009 में कलाकार प्रणव प्रकाश ने दिल्ली में अपनी चित्र श्रृंखला "चल हट बिहारी" का प्रदर्शन किया। 2008 में महाराष्ट्र में उत्तर भारतीयों पर किये गए हमले, xenophobia कि एक कंसर्ट में पॉप शैली में दिखे.[27] राजनीतिक समर्थन MNS को मुंबई में स्थानीय मराठी भाषी, डोंगरी और उमरखादी क्षेत्रों के मुस्लिम समुदाय से समर्थन मिला है।[28] मराठी सिनेमा जगत के कई अभिनेता जैसे नाना पाटेकर, अशोक सराफ, प्रशांत दामले, कुलदीप पवार और मोहन जोशी,MNS द्वारा प्रस्तुत किये गए "भूमि पुत्र' के सिद्धांत के समर्थन में बाहर आए। [29] झारखंड दिसोम पार्टी ने भी महाराष्ट्र में उत्तर भारतीयों के खिलाफ नवनिर्माण सेना के आंदोलन का समर्थन किया।[30] अन्य गतिविधियां MNS मराठी साहित्य को बढ़ावा देने वाले कार्यक्रमों का आयोजन करता है।[31] MNS युवाओं के लिए खुदरा उद्योग में काम करने के प्रशिक्षण कार्यशाला भी आयोजित करता है, जो उसकी बाल संगठन नवनिर्माण अकादेमी ऑफ़ रेतील इनदसतत्रिज के तहत है। छात्र इकाई, महाराष्ट्र नवनिर्माण विद्यार्थी सेना, कॉलेज के युवाओं की बड़े संख्या के साथ उभर रहा संगठन है। यह एकमात्र छात्र संगठन है जहाँ लड़कियों की अलग से, सांस्कृतिक और खेल शाखा है। यह वकील राजन शिरोडकर के बेटे, आदित्य शिरोडकर के नेतृत्व में है।[32] MNS रक्तदान शिविरों का भी आयोजन करता है।[33] इन्हें भी देखें 19 अक्टूबर 2008 अखिल भारतीय रेलवे भर्ती बोर्ड की परीक्षा पर हमला सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ श्रेणी:महाराष्ट्र के राजनीतिक दल श्रेणी:अभी तक भारत में सही राजनीति श्रेणी:2006 में स्थापित राजनीतिक दल श्रेणी:महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना
महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना राजनीतिक दल को किसने स्थापित किया था?
राज ठाकरे
314
hindi
7553689e1
गुर्जर प्रतिहार वंश या प्रतिहार वंश मध्यकाल के दौरान मध्य-उत्तर भारत के एक बड़े हिस्से में राज्य करने वाला राजवंश था, जिसकी स्थापना नागभट्ट नामक एक सामन्त ने ७२५ ई॰ में की थी। इस राजवंश के लोग स्वयं को राम के अनुज लक्ष्मण के वंशज मानते थे, जिसने अपने भाई राम को एक विशेष अवसर पर प्रतिहार की भाँति सेवा की। इस राजवंश की उत्पत्ति, प्राचीन कालीन ग्वालियर प्रशस्ति अभिलेख से ज्ञात होती है। अपने स्वर्णकाल में प्रतिहार साम्राज्य पश्चिम में सतलुज नदी से उत्तर में हिमालय की तराई और पुर्व में बंगाल-असम से दक्षिण में सौराष्ट्र और नर्मदा नदी तक फैला हुआ था। सम्राट मिहिर भोज, इस राजवंश का सबसे प्रतापी और महान राजा थे। अरब लेखकों ने मिहिरभोज के काल को सम्पन्न काल बताते हैं। इतिहासकारों का मानना है कि प्रतिहार राजवंश ने भारत को अरब हमलों से लगभग ३०० वर्षों तक बचाये रखा था, इसलिए प्रतिहार (रक्षक) नाम पड़ा। प्रतिहारों ने उत्तर भारत में जो साम्राज्य बनाया, वह विस्तार में हर्षवर्धन के साम्राज्य से भी बड़ा और अधिक संगठित था। देश के राजनैतिक एकीकरण करके, शांति, समृद्धि और संस्कृति, साहित्य और कला आदि में वृद्धि तथा प्रगति का वातावरण तैयार करने का श्रेय प्रतिहारों को ही जाता हैं। प्रतिहारकालीन मंदिरो की विशेषता और मूर्तियों की कारीगरी से उस समय की प्रतिहार शैली की संपन्नता का बोध होता है। इतिहास प्रारंभिक शासक ग्वालियर प्रशस्ति अभिलेख से इस वंश के बारे में कई महत्वपूर्ण बाते ज्ञात होती है।[1][2][3] नागभट्ट प्रथम (७३०-७५६ ई॰) को इस राजवंश का पहला राजा माना गया है। आठवीं शताब्दी में भारत में अरबों का आक्रमण शुरू हो चुका था। सिन्ध और मुल्तान पर उनका अधिकार हो चुका था। फिर सिंध के राज्यपाल जुनैद के नेतृत्व में सेना आगे मालवा, जुर्ज और अवंती पर हमले के लिये बढ़ी, जहां जुर्ज पर उसका कब्जा हो गया। परन्तु आगे अवंती पर नागभट्ट ने उन्हैं खदैड़ दिया। अजेय अरबों कि सेना को हराने से नागभट्ट का यश चारो ओर फैल गया।[4] अरबों को खदेड़ने के बाद नागभट्ट वहीं न रुकते हुए आगे बढ़ते गये। और उन्होंने अपना नियंत्रण पूर्व और दक्षिण में मंडोर, ग्वालियर, मालवा और गुजरात में भरूच के बंदरगाह तक फैला दिया। उन्होंने मालवा में अवंती (उज्जैन) में अपनी राजधानी की स्थापना की, और अरबों के विस्तार को रोके रखा, जो सिंध में स्वयं को स्थापित कर चुके थे। मुस्लिम अरबों से हुए इस युद्ध (७३८ ई॰) में नागभट्ट ने गुर्जर-प्रतिहारों का एक संघीय का नेतृत्व किया।[5][6] नागभट्ट के बाद दो कमजोर उत्तराधिकारी आये, उनके बाद आये वत्सराज (७७५-८०५ई॰) ने साम्राज्य का और विस्तार किया।[7] कन्नौज पर विजय और आगे विस्तार हर्षवर्धन की मृत्यु के बाद कन्नौज को शक्ति निर्वात का सामना करना पड़ा, जिसके परिणामस्वरूप हर्ष के साम्राज्य का विघटन होने लगा। जोकि अंततः लगभग एक सदी के बाद यशोवर्मन ने भरा। लेकिन उसकी स्थिति भी ललितादित्य मुक्तपीड के साथ गठबंधन पर निर्भर थी। जब मुक्तापीदा ने यशोवर्मन को कमजोर कर दिया, तो शहर पर नियंत्रण के लिए त्रिकोणीय संघर्ष विकसित हुआ, जिसमें पश्चिम और उत्तर क्षेत्र से प्रतिहार साम्राज्य, पूर्व से बंगाल के पाल साम्राज्य और दक्षिण में दक्कन में आधारभूत राष्ट्रकूट साम्राज्य शामिल थे।[8][9] वत्सराज ने कन्नौज के नियंत्रण के लिए पाल शासक धर्मपाल और राष्ट्रकूट राजा दन्तिदुर्ग को सफलतापूर्वक चुनौती दी और पराजित कर दो राजछत्रों पर कब्जा कर लिया।[10][11] ७८६ के आसपास, राष्ट्रकूट शासक ध्रुव धारवर्ष (७८०-७९३) नर्मदा नदी को पार कर मालवा पहुंचा और वहां से कन्नौज पर कब्जा करने की कोशिश करने लगा। लगभग ८०० ई० में वत्सराज को ध्रुव धारवर्षा ने पराजित किया और उसे मरुदेश (राजस्थान) में शरण लेने को मजबुर कर दिया। और उसके द्वार गौंड़राज से जीते क्षेत्रों पर भी अपना कब्जा कर लिया।[12] वत्सराज को पुन: अपने पुराने क्षेत्र जालोन से शासन करना पडा, ध्रुव के प्रत्यावर्तन के साथ ही पाल नरेश धर्मपाल ने कन्नौज पर कब्जा कर, वहा अपने अधीन चक्रायुध को राजा बना दिया।[7] वत्सराज के बाद उसका पुत्र नागभट्ट द्वितीय (805-833) राजा बना, उसे शुरू में राष्ट्रकूट शासक गोविन्द तृतीय (793-814) ने पराजित किया था, लेकिन बाद में वह अपनी शक्ति को पुन: बढ़ा कर राष्ट्रकूटों से मालवा छीन लिया। तदानुसार उसने आन्ध्र, सिन्ध, विदर्भ और कलिंग के राजाओं को हरा कर अपने अधीन कर लिया। चक्रायुध को हरा कर कन्नौज पर विजय प्राप्त कर लिया। आगे बढ़कर उसने धर्मपाल को पराजित कर बलपुर्वक आनर्त, मालव, किरात, तुरुष्क, वत्स और मत्स्य के पर्वतीय दुर्गो को जीत लिया।[13] शाकम्भरी के चाहमानों ने कन्नोज के गुर्जर प्रतीहारों कि अधीनता स्वीकार कर ली।[14] उसने प्रतिहार साम्राज्य को गंगा के मैदान में आगे ​​पाटलिपुत्र (बिहार) तक फैला दिया। आगे उसने पश्चिम में पुनः मुसलमानों को रोक दिया। उसने गुजरात में सोमनाथ के महान शिव मंदिर को पुनः बनवाया, जिसे सिंध से आये अरब हमलावरों ने नष्ट कर दिया था। कन्नौज, गुर्जर-प्रतिहार साम्राज्य का केंद्र बन गया, अपनी शक्ति के चरमोत्कर्ष (८३६-९१०) के दौरान अधिकतर उत्तरी भारत पर इनका अधिकार रहा। ८३३ ई० में नागभट्ट के जलसमाधी लेने के बाद[15], उसका पुत्र रामभद्र या राम गुर्जर प्रतिहार साम्राज्य का अगला राजा बना। रामभद्र ने सर्वोत्तम घोड़ो से सुसज्जित अपने सामन्तो के घुड़सवार सैना के बल पर अपने सारे विरोधियो को रोके रखा। हलांकि उसे पाल साम्राज्य के देवपाल से कड़ी चुनौतिया मिल रही थी। और वह गुर्जर प्रतीहारों से कलिंजर क्षेत्र लेने मे सफल रहा। गुर्जर-प्रतिहार वंश का चरमोत्कर्ष रामभद्र के बाद उसका पुत्र मिहिरभोज या भोज प्रथम ने गुर्जर प्रतिहार की सत्ता संभाली। मिहिरभोज का शासनकाल प्रतिहार साम्राज्य के लिये स्वर्णकाल माना गया है। अरब लेखकों ने मिहिरभोज के काल को सम्पन्न काल [16][17] बताते हैं। मिहिरभोज के शासनकाल मे कन्नौज के राज्य का अधिक विस्तार हुआ। उसका राज्य उत्तर-पश्चिम में सतुलज, उत्तर में हिमालय की तराई, पूर्व में पाल साम्राज्य कि पश्चिमी सीमा, दक्षिण-पूर्व में बुन्देलखण्ड और वत्स की सीमा, दक्षिण-पश्चिम में सौराष्ट्र, तथा पश्चिम में राजस्थान के अधिकांश भाग में फैला हुआ था। इसी समय पालवंश का शासक देवपाल भी बड़ा यशस्वी था। अतः दोनो के बीच में कई घमासान युद्ध हुए। अन्त में इस पाल-प्रतिहार संघर्स में भोज कि विजय हुई। दक्षिण की ओर मिहिरभोज के समय अमोघवर्ष और कृष्ण द्वितीय राष्ट्रकूट शासन कर रहे थे। अतः इस दौर में गुर्जर प्रतिहार-राष्ट्रकूट के बीच शान्ति ही रही, हालांकि वारतो संग्रहालय के एक खण्डित लेख से ज्ञात होता है कि अवन्ति पर अधिकार के लिये भोज और राष्ट्रकूट राजा कृष्ण द्वितीय (878-911 ई०) के बीच नर्मदा नदी के पास युद्ध हुआ था। जिसमें राष्ट्रकुटों को वापस लौटना पड़ा था।[18] अवन्ति पर गुर्जर प्रतिहारों का शासन भोज के कार्यकाल से महेन्द्रपाल द्वितीय के शासनकाल तक चलता रहा। मिहिर भोज के बाद उसका पुत्र महेन्द्रपाल प्रथम ई॰) नया राजा बना, इस दौर में साम्राज्य विस्तार तो रुक गया लेकिन उसके सभी क्षेत्र अधिकार में ही रहे। इस दौर में कला और साहित्य का बहुत विस्तार हुआ। महेन्द्रपाल ने राजशेखर को अपना राजकवि नियुक्त किया था। इसी दौरान "कर्पूरमंजरी" तथा संस्कृत नाटक "बालरामायण" का अभिनीत किया गया। गुर्जर-प्रतिहार साम्राज्य अब अपने उच्च शिखर को प्राप्त हो चुका था। पतन महेन्द्रपाल की मृत्यु के बाद उत्तराधिकारी का युद्ध हुआ, और राष्ट्रकुटों कि मदद से महिपाल का सौतेला भाई भोज द्वितीय (910-912) कन्नौज पर अधिकार कर लिया हलांकि यह अल्पकाल के लिये था, राष्ट्रकुटों के जाते ही महिपाल प्रथम (९१२-९४४ ई॰) ने भोज द्वितीय के शासन को उखाड़ फेंका। गुर्जर-प्रतिहारों की अस्थायी कमजोरी का फायदा उठा, साम्राज्य के कई सामंतवादियों विशेषकर मालवा के परमार, बुंदेलखंड के चन्देल, महाकोशल का कलचुरि, हरियाणा के तोमर और चौहान स्वतंत्र होने लगे। राष्ट्रकूट वंश के दक्षिणी भारतीय सम्राट इंद्र तृतीय (९९९-९२८ ई॰) ने ९१२ ई० में कन्नौज पर कब्जा कर लिया। यद्यपि गुर्जर प्रतिहारों ने शहर को पुनः प्राप्त कर लिया था, लेकिन उनकी स्थिति 10वीं सदी में कमजोर ही रही, पश्चिम से तुर्को के हमलों, दक्षिण से राष्ट्रकूट वंश के हमलें और पूर्व में पाल साम्राज्य की प्रगति इनके मुख्य कारण थे। गुर्जर-प्रतिहार राजस्थान का नियंत्रण अपने सामंतों के हाथ खो दिया और चंदेलो ने ९५० ई॰ के आसपास मध्य भारत के ग्वालियर के सामरिक किले पर कब्जा कर लिया। १०वीं शताब्दी के अंत तक, गुर्जर-प्रतिहार कन्नौज पर केन्द्रित एक छोटे से राज्य में सिमट कर रह गया। कन्नौज के अंतिम गुर्जर-प्रतिहार शासक यशपाल के १०३६ ई. में निधन के साथ ही इस साम्राज्य का अन्त हो गया। शासन प्रबन्ध शासन का प्रमुख राजा होता था। गुर्जर प्रतिहार राजा असीमित शक्ति के स्वामी थे। वे सामन्तों, प्रान्तीय प्रमुखो और न्यायधीशों कि नियुक्ति करते थे। चुकि राजा सामन्तो की सेना पर निर्भर होता था, अत: राजा कि मनमानी पर सामन्त रोक लगा सकते थे। युद्ध के समय सामन्त सैनिक सहायता देते थे और स्वयं सम्राट के साथ लड़ने जाते थे। प्रशासनिक कार्यों में राजा की सहायता मंत्रिपरिषद करता था, जिसके दो अंग थे "बहिर उपस्थान" और "आभयन्तर उपस्थान"। बहिर उपस्थान में मंत्री, सेनानायक, महाप्रतिहार, महासामन्त, महापुरोहित, महाकवि, ज्योतिषी और सभी प्रमुख व्यक्ति सम्मलित रहते थे, जबकि आभयन्तरीय उपस्थान में राजा के चुने हुए विश्वासपात्र व्यक्ति ही सम्मिलित होते थे। मुख्यमंत्री को "महामंत्री" या "प्रधानमात्य" कहा जाता था। प्रान्तीय शासन गुर्जर प्रतिहार साम्राज्य अनेक भागों में विभक्त था। ये भाग सामन्तों द्वारा शासित किये जाते थे। इनमें से मुख्य भागों के नाम थे: शाकम्भरी (सांभर) के चाहमान (चौहान) दिल्ली के तौमर मंडोर के गुर्जर प्रतिहार बुन्देलखण्ड के कलचुरि मालवा के परमार मेदपाट (मेवाड़) के गुहिल महोवा-कालिजंर के चन्देल सौराष्ट्र के चालुक्य शेष उत्तरी भारत केन्द्रीय राजधानी कन्नौज से सीधे प्रशासित होता था। "मण्डल" जिला के बराबर होता था, अभिलेखों में कालिजंर, श्रीवस्ती, सौराष्ट्र तथा कौशाम्बी मण्डल के प्रमुख स्थान थे। "विषय" आधुनिक तहसील के बराबर थे, विषय से छोटे ग्रामों के समुह आते थे, जिसमें 84 ग्रामों के समुह को "चतुरशितिका" और 12 ग्रामों को "द्वादशक" कहते थे। दुर्गो कि व्यवस्था के 'कोट्टपाल' या बलाधिकृत' करते थे। व्यापार संबन्धी कर व्यवस्था मोर्यकालिन प्रतित होती है। शिक्षा तथा साहित्य शिक्षा शिक्षा का प्रारंभ उपनयन संस्कार से होता था। उपनयन के पश्चात बालक को गुरुकुल भेजा जाता था। ब्राम्हण बालक को चौदह विद्याओं के साथ कर्मकाण्ड का अध्ययन कराया जाता था। क्षत्रिय बालक को बहत्तर कलाएं सिखाई जाती थी। किन्तु उसे अस्त्र-शस्त्र विद्या में निपुणता प्राप्त करना आपश्यक होता था। विद्यार्थी को गुरुकुल में ही रह कर विद्या अध्ययन करना होता था। यहाँ आवास और भोजन की व्यवस्था नि:शुल्क थी। अधिकांश अध्ययन मौखिक होता था। बडी-बडी सभाओं में प्रश्नोत्तरों और शास्त्रार्थ के द्वारा विद्वानों कि योग्यता कि पहचान की जाती थी। विजेता को राजा की ओर से जयपत्र प्रदान किया जाता था, और जुलुस निकाल कर उसका सम्मान किया जाता था। इसके अलवा विद्वान गोष्ठियों में एकत्र हो कर साहित्यक चर्चा करते थे। पुर्व मध्यकाल में कान्यकुब्ज (कन्नौज) विद्या का सबसे बड़ा केन्द्र था। राजशेखर ने कन्नौज में कई गोष्ठियों का वर्णन किया है। राजशेखर ने "ब्रम्ह सभा" की भी चर्चा की हैं। ऐसी सभा उज्जैन और पाटलिपुत्र में हुआ करती थी। इस प्रकार की सभाएं कवियों कि परीक्षा के लिये उपयोगी होती थी। परीक्षा में उत्तीर्ण कवि को रथ और रेशमी वस्त्र से सम्मानित किया जाता था। उपर्युक्त वर्णन से प्रमाणित होता है कि सम्राट हर्षवर्धन की मृत्यु के बाद भी उत्तर भारत से विद्या का का वातावरण समाप्त नहीं हुआ था। गुर्जर प्रतिहार शासक स्वयं विद्वान थे और वे विद्वानों को राज्याश्रय भी प्रदान करते थे।[19] साहित्य साहित्य के क्षेत्र में भिल्लमाल (भीनमाल) एक बड़ा केन्द्र था। यहाँ कई महान साहित्यकार हुए। इनमें "शिशुपालवध" के रचयिता माघ का नाम सर्वप्रथम है। माघ के वंश में सौ वर्षो तक कविता होती रही और संस्कृत और प्राकृत में कई ग्रंथ रचे गये। विद्वानो ने उसकी तुलना कालिदास, भारवि, तथा दण्डित से की है। माघ के ही समकालिन जैन कवि हरिभद्र सूरि हुए। उनका रचित ग्रंथ "धुर्तापाख्यान", हिन्दू धर्म का बड़ा आलोचक था। इनका सबसे प्रशिध्द प्राकृत ग्रंथ "समराइच्चकहा" है। हरिभद्र के शिष्य उद्योतन सूरि ने ७७८ ई० में जालोन में "कुवलयमाला" की रचना की। भोज प्रथम के दरबार में भट्ट धनेक का पुत्र वालादित्य रहता था। जिसने ग्वालियर प्रशस्ति जैसे प्रशिध्द ग्रंथ की रचना की थी। इस काल के कवियों में राजशेखर कि प्रशिध्दि सबसे अधिक थी। उसकी अनेक कृतियाँ आज भी उपलब्ध है। कवि और नाटककार राजशेखर सम्राट महेन्द्रपाल प्रथम का गुरु था। राजशेखर बालकवि से कवि और फिर कवि से राजकवि के पद से प्रतिष्ठित हुआ। इसी दौरान "कर्पूरमंजरी" तथा संस्कृत नाटक "बालरामायण" का अभिनीत किया गया। इससे पता चलता है कि प्रतिहार काल में संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश तीनों भाषाओं में साहित्य कि रचना हुई। किन्तु प्राकृत दिनो-दिन कम होती गई और उसकी जगह अपभ्रंश लेती रही। ब्राम्हणों की तुलना में जैनों द्वार रचित साहित्यों कि अधिकता हैं। जिसका कारण जैन ग्रंथों का भण्डार में सुरक्षित बच जाना जबकि ब्राम्हण ग्रंथो का नष्ट हो जाना हो सकता है। धर्म और दर्शन भारतीय संस्कृति धर्ममय है, और इस प्रकार गुर्जर प्रतिहारों का धर्ममय होना कोई नई बात नहीं है। पूरे समाज में हिन्दू धर्म के ही कई मान्यताओं के मानने वाले थे लेकिन सभी में एक सहुष्णता की भावना मौजुद थी। समाज में वैष्णव और शैव दोनों मत के लोग थे। गुर्जर प्रतिहार राजवंश में प्रत्येक राजा अपने ईष्टदेव बदलते रहते थे। भोज प्रथम के भगवती के उपासक होते हुए भी उन्होंने विष्णु का मंदिर बनवाया था। और महेन्द्रपाल के शैव मतानुयायी होते हुए भी वट-दक्षिणी देवी के लियी दान दिया था गुर्जर प्रतिहार काल का मुख्य धर्म पौराणिक हिन्दू धर्म था, जिसमें कर्मों के अनुसार पुनर्जन्म का सिद्धान्त का गहारा असर था। विष्णु के अवतारों कि पुजा की जाती थी। और उनके कई मन्दिर बनवाये गये थे। कन्नौज में चतुर्भुज विष्णु और विराट विष्णु के अत्यन्त सुंदर प्रतिमाएं प्रतिष्ठित थी। कन्नौज के सम्राट वत्सराज, महेन्द्रपाल द्वतीय, और त्रिलोचनपाल शिव के उपासक थे। उज्जैन में महाकाल का प्रशिद्ध मंदिर था। बुन्देलखंड़ में अनेक शिव मन्दिर बनवाये गये थे। साहित्य और अभिलेखों से धर्म की काफी लोकप्रियता जान पडती है। ग्रहण, श्राद्ध, जातकर्म, नामकरण, संक्रान्ति, अक्षय तृतीया, इत्यादि अवसरों पर लोग गंगा, यमुना अथवा संगम (प्रयाग) पर स्नान कर दान देते थे। धर्माथ हेतु दिये गये भुमि या गांव पर कोई कर नहीं लगाया जाता था। पवित्र स्थलों में तीर्थयात्रा करना सामान्य था। तत्कालिन सहित्यों में दस प्रमुख तीर्थों का वर्णन मिलता है। जिसमें गया, वाराणसी, हरिद्वार, पुष्कर, प्रभास, नैमिषक्षेत्र केदार, कुरुक्षेत्र, उज्जयिनी तथा प्रयाग आदि थे। नदियों को प्राकृतिक या दैवतीर्थ होने के कारण अत्यन्त पवित्र माना जाता था। सभी नदियों में गंगा को सबसे अधिक पवित्र मान जाता था। बौद्ध धर्म गुर्जर प्रतीहारकालिन उत्तरभारत में बौद्धधर्म का प्रभाव समाप्त था। पश्चिम कि ओर सिन्ध प्रदेश में और पूर्व में दिशा में बिहार और बंगाल में स्थिति संतोषजनक थी। जिसका मुख्य कारण था, गुप्तकाल के दौरान ब्राम्हण मतावलम्बियों ने बौद्धधर्म के अधिकांश सिद्धान्त अपना कर बुद्ध को भगवान विष्णु का अवतार मान लिया था। जैन धर्म बौद्ध धर्म कि तुलना में जैन धर्म ज्यादा सक्रिय था। मध्यदेश, अनेक जैन आचार्यों का कार्यस्थल रहा था। वप्पभट्ट सुरि को नागभट्ट द्वितीय का अध्यात्मिक गुरु माना गया है। फिर भी यह यहाँ जेजाकभुक्ति (बुन्देलखंड़) और ग्वालियर क्षेत्र तक में ही सिमित रह गया था। लेकिन पश्चिमी भारत के राजस्थान, गुजरात, मालवा और सौराष्ट्र जैनधर्म के विख्यात केन्द्र थे, जिसका श्रेय हरिभद्र सूरि जैसे जैन साधुओं को जाता है। हरिभद्र ने विद्वानों और सामान्यजन के लिये अनेक ग्रन्थों कि रचना की। गुर्जर राजाओं ने जैनों के साथ उदारता का व्यवहार किया। नागभट्ट द्वितीय ने ग्वालियर में जैन मन्दिर भी बनवाया था। प्रतिहारकालीन स्थापत्यकला गुर्जर-प्रतिहार कला के अवशेष हरियाणा और मध्यभारत के एक विशाल क्षेत्र में देखे जा सकते हैं। इस युग में प्रतीहारों द्वारा निर्मित मंदिर स्थापत्य और कला की सबसे बड़ी विशेषता इसकी अलंकरण शैली है। इसी दौरान राजस्थानी स्थापत्य शैली का जन्म हुआ। जिसमें सज्जा और निर्माण शैली का पुर्ण समन्वय देखने को मिलता है। अपने पुर्ण विकसित रूप में प्रतिहार मन्दिरों में मुखमण्ड़प, अन्तराल, और गर्भग्रह के अतरिक्त अत्यधिक अल्ंकृत अधिष्ठान, जंघा और शिखर होते थे। मध्य प्रदेश के मुरैना जिले में बटेश्वर हिन्दू मंदिर इसी साम्राज्य काल के दौरान बनाया गया था।[20] कालान्तर में स्थापत्यकला की इस विधा को चन्देलों, परमारों, कच्छपघातों, तथा अन्य क्षेत्रीय राजवंशों ने अपनाया। लेकिन चन्देलों ने इस शैली को पूर्णता प्रदान की, जिसमें खजुराहो स्मारक समूह प्रशिद्ध है।[21] इन्हें भी देखें मिहिर भोज पाल राजवंश राष्ट्रकूट साम्राज्य बाहरी कड़ियाँ आर. सी. मजुमदार: प्रतिहार; आर. एस. त्रिपाठी: कन्नौज का इतिहास। ग्वालियर प्रशस्ति प्रतिहार राजपूतों का इतिहास: रामलखन सिंह सन्दर्भ श्रेणी:भारत का इतिहास श्रेणी:भारत के राजवंश श्रेणी:राजस्थान का इतिहास श्रेणी:गुजरात का इतिहास श्रेणी:गुर्जर प्रतिहार राजवंश
गुर्जर प्रतिहार वंश की स्थापना किस राजा ने की थी?
नागभट्ट
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अरस्तु (384 ईपू – 322 ईपू) यूनानी दार्शनिक थे। वे प्लेटो के शिष्य व सिकंदर के गुरु थे। उनका जन्म स्टेगेरिया नामक नगर में हुआ था ।  अरस्तु ने भौतिकी, आध्यात्म, कविता, नाटक, संगीत, तर्कशास्त्र, राजनीति शास्त्र, नीतिशास्त्र, जीव विज्ञान सहित कई विषयों पर रचना की। अरस्तु ने अपने गुरु प्लेटो के कार्य को आगे बढ़ाया। प्लेटो, सुकरात और अरस्तु पश्चिमी दर्शनशास्त्र के सबसे महान दार्शनिकों में एक थे।  उन्होंने पश्चिमी दर्शनशास्त्र पर पहली व्यापक रचना की, जिसमें नीति, तर्क, विज्ञान, राजनीति और आध्यात्म का मेलजोल था।  भौतिक विज्ञान पर अरस्तु के विचार ने मध्ययुगीन शिक्षा पर व्यापक प्रभाव डाला और इसका प्रभाव पुनर्जागरण पर भी पड़ा।  अंतिम रूप से न्यूटन के भौतिकवाद ने इसकी जगह ले लिया। जीव विज्ञान उनके कुछ संकल्पनाओं की पुष्टि उन्नीसवीं सदी में हुई।  उनके तर्कशास्त्र आज भी प्रासांगिक हैं।  उनकी आध्यात्मिक रचनाओं ने मध्ययुग में इस्लामिक और यहूदी विचारधारा को प्रभावित किया और वे आज भी क्रिश्चियन, खासकर रोमन कैथोलिक चर्च को प्रभावित कर रही हैं।  उनके दर्शन आज भी उच्च कक्षाओं में पढ़ाये जाते हैं।  अरस्तु ने अनेक रचनाएं की थी, जिसमें कई नष्ट हो गई। अरस्तु का राजनीति पर प्रसिद्ध ग्रंथ पोलिटिक्स है।[1] जन्म अरस्तु का जन्म ३८४-३२२ ई. पू. में हुआ था और वह ६२ वर्ष तक जीवित रहे। उनका जन्म स्थान स्तागिरा (स्तागिरस) नामक नगर था। उनके पिता मकदूनिया के राजा के दरबार में शाही वैद्य थे। इस प्रकार अरस्तु के जीवन पर मकदूनिया के दरबार का काफी गहरा प्रभाव पड़ा था। उनके पिता की मौत उनके बचपन में ही हो गई थी। शिक्षा पिता की मौत के बाद 17 वर्षीय अरस्तु को उनके अभिभावक ने शिक्षा पूरी करने के लिए बौद्धिक शिक्षा केंद्र एथेंस भेज दिया। वह वहां पर बीस वर्षो तक प्लेटो से शिक्षा पाते रहे। पढ़ाई के अंतिम वर्षो में वो स्वयं अकादमी में पढ़ाने लगे। उनके द्वारा द लायिसियम नामक संस्था भी खोली गई |अरस्तु को उस समय का सबसे बुद्धिमान व्यक्ति माना जाता था जिसके प्रशंसा स्वयं उनके गुरु भी करते थे। अरस्तु की गिनती उन महान दार्शनिकों में होती है जो पहले इस तरह के व्यक्ति थे और परम्पराओं पर भरोसा न कर किसी भी घटना की जाँच के बाद ही किसी नतीजे पर पहुंचते थे। प्लेटो के निधन के बाद 347 ईस्वी पूर्व में प्लेटो के निधन के बाद अरस्तु ही अकादमी के नेतृत्व के अधिकारी थे किन्तु प्लेटो की शिक्षाओं से अलग होने के कारण उन्हें यह अवसर नहीं दिया गया। एत्रानियस के मित्र शाषक ह्र्मियाज के निमंत्रण पर अरस्तु उनके दरबार में चले गये। वो वहाँ पर तीन वर्ष रहे और इस दौरान उन्होंने राजा की भतीजी ह्र्पिलिस नामक महिला से विवाह कर लिया। अरस्तु की ये दुसरी पत्नी थी उससे पहले उन्होंने पिथियस नामक महिला से विवाह किया था जिसके मौत के बाद उन्होंने दूसरा विवाह किया था। इसके बाद उनके यहाँ नेकोमैक्स नामक पुत्र का जन्म हुआ। सबसे ताज्जुब की बात ये है कि अरस्तु के पिता और पुत्र का नाम एक ही था। शायद अरस्तु अपने पिता को बहुत प्रेम करते थे इसी वजह से उनकी याद में उन्होंने अपने पुत्र का नाम भी वही रखा था। सिकंदर की शिक्षा मकदूनिया के राजा फिलिप के निमन्त्रण पर वो उनके तेरह वर्षीय पुत्र को पढ़ाने लगे। पिता-पुत्र दोनों ही अरस्तु को बड़ा सम्मान देते थे। लोग यहाँ तक कहते थे कि अरस्तु को शाही दरबार से काफी धन मिलता है और हजारों गुलाम उनकी सेवा में रहते है हालांकि ये सब बातें निराधार थीं। एलेक्जैंडर के राजा बनने के बाद अरस्तु का काम खत्म हो गया और वो वापस एथेंस आ गये। अरस्तु ने प्लेटोनिक स्कूल और प्लेटोवाद की स्थापना की। अरस्तु अक्सर प्रवचन देते समय टहलते रहते थे इसलिए कुछ समय बाद उनके अनुयायी पेरीपेटेटिक्स कहलाने लगे। अरस्तु और दर्शन अरस्तु को खोज करना बड़ा अच्छा लगता था खासकर ऐसे विषयों पर जो मानव स्वभाव से जुड़े हों जैसे कि "आदमी को जब भी समस्या आती है वो किस तरह से इनका सामना करता है?” और "आदमी का दिमाग किस तरह से काम करता है?" समाज को लोगों से जोड़े रखने के लिए काम करने वाले प्रशासन में क्या ऐसा होना चाहिए जो सर्वदा उचित तरीके से काम करें। ऐसे प्रश्नों के उत्तर पाने के लिए अरस्तु अपने आस पास के माहौल पर प्रायोगिक रुख रखते हुए बड़े इत्मिनान के साथ काम करते रहते थे। वो अपने शिष्यों को सुबह सुबह विस्तृत रूप से और शाम को आम लोगों को साधारण भाषा में प्रवचन देते थे। एलेक्सेंडर की अचानक मृत्यु पर मकदूनिया के विरोध के स्वर उठ खड़े हुए। उन पर नास्तिकता का भी आरोप लगाया गया। वो दंड से बचने के लिये चल्सिस चले गये और वहीं पर एलेक्सेंडर की मौत के एक साल बाद 62 वर्ष की उम्र में उनकी मृत्यु हो गयी। इस तरह अरस्तु महान दार्शनिक प्लेटो के शिष्य और सिकन्दर के गुरु बनकर इतिहास के पन्नो में महान दार्शनिक के रूप में अमर हो गये। कृतियां अरस्तु ने कई ग्रथों की रचना की थी , लेकिन इनमें से कुछ ही अब तक सुरक्षित रह पाये हैं। सुरक्षित लेखों की सूची इस प्रकार है। अरस्तु के प्रसिद्ध ग्रंथ का नाम ' पेरिपोइएतिकेस ' है | पोलिटिक्स निकोमचेँ एथिक्स यूदेमियन एथिक्स रहेतोरिक पोएटिक्स मेटाफिजिक्स प्रोब्लेम्स हिस्ट्री ऑफ़ एनिमल्स पार्ट्स ऑफ़ एनिमल्स मूवमेंट ऑफ़ एनिमल्स प्रोग्रेशन ऑफ़ एनिमल्स जनरेशन ऑफ़ एनिमल्स सेंस एंड सेंसिबिलिया ऑन मेमोरी ऑन स्लीप ऑन ड्रीम्स ऑन दिविनेशन इन स्लीप ऑन लेनथ एंड शोर्तनेस ऑफ़ लाइफ ऑन यूथ, ओल्ड ऐज , लाइफ एंड डेथ एंड रेसिपिरेशन फिजिक्स ऑन दी हेअवेंस ऑन जेंराशन एंड करप्शन मेतेरोलोजी ऑन दी यूनिवर्स ऑन दी सोल सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ श्रेणी:भूगोलवेत्ता श्रेणी:यूनानी भूगोलवेत्ता श्रेणी:दार्शनिक श्रेणी:यूनान के दार्शनिक श्रेणी:पाश्चात्य दर्शन
अरस्तु , किस प्रसिद्ध दार्शनिक के शिष्य थे?
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ओटो एडुअर्ड लिओपोल्ड बिस्मार्क (1 अप्रैल 1815 - 30 जुलाई 1898), जर्मन साम्राज्य का प्रथम चांसलर तथा तत्कालीन यूरोप का प्रभावी राजनेता था। वह 'ओटो फॉन बिस्मार्क' के नाम से अधिक प्रसिद्ध है। उसने अनेक जर्मनभाषी राज्यों का एकीकरण करके शक्तिशाली जर्मन साम्राज्य स्थापित किया। वह द्वितीय जर्मन साम्राज्य का प्रथम चांसलर बना। वह "रीअलपालिटिक" की नीति के लिये प्रसिद्ध है जिसके कारण उसे "लौह चांसलर" के उपनाम से जाना जाता है। वह अपने युग का बहुत बड़ा कूटनीतिज्ञ था। अपने कूटनीतिक सन्धियों के तहत फ्रांस को मित्रविहीन कर जर्मनी को यूरोप की सर्वप्रमुख शक्ति बना दिया। बिस्मार्क ने एक नवीन वैदेशिक नीति का सूत्रपात किया जिसके तहत शान्तिकाल में युद्ध को रोकने और शान्ति को बनाए रखने के लिए गुटों का निर्माण किया। उसकी इस 'सन्धि प्रणाली' ने समस्त यूरोप को दो गुटों में बांट दिया। जीवनी बिस्मार्क का जन्म शून हौसेन में 1 अप्रैल 1815 को हुआ। गाटिंजेन तथा बर्लिन में कानून का अध्ययन किया। बाद में कुछ समय के लिए नागरिक तथा सैनिक सेवा में नियुक्त हुआ। 1847 ई. में वह प्रशा की विधान सभा का सदस्य बना। 1848-49 की क्रांति के समय उसने राजा के "दिव्य अधिकार" का जोरों से समर्थन किया। सन् 1851 में वह फ्रैंकफर्ट की संघीय सभा में प्रशा का प्रतिनिधि बनाकर भेजा गया। वहाँ उसने जर्मनी में आस्ट्रिया के आधिपत्य का कड़ा विरोध किया और प्रशा को समान अधिकार देने पर बल दिया। आठ वर्ष फ्रेंकफर्ट में रहने के बाद 1859 में वह रूस में राजदूत नियुक्त हुआ। 1862 में व पेरिस में राजदूत बनाया गया और उसी वर्ष सेना के विस्तार के प्रश्न पर संसदीय संकट उपस्थित होने पर वह परराष्ट्रमंत्री तथा प्रधान मंत्री के पद पर नियुक्त किया गया। सेना के पुनर्गठन की स्वीकृति प्राप्त करने तथा बजट पास कराने में जब उसे सफलता नहीं मिली तो उसने पार्लमेंट से बिना पूछे ही कार्य करना प्रारंभ किया और जनता से वह टैक्स भी वसूल करता रहा। यह "संघर्ष" अभी चल ही रहा था कि श्लेजविग होल्सटीन के प्रभुत्व का प्रश्न पुन: उठ खड़ा हुआ। जर्मन राष्ट्रीयता की भावना से लाभ उठाकर बिस्मार्क ने आस्ट्रिया के सहयोग से डेनमार्क पर हमला कर दिया और दोनों ने मिलकर इस क्षेत्र को अपने राज्य में मिला लिया (1864)। दो वर्ष बाद बिस्मार्क ने आस्ट्रिया से भी संघर्ष छेड़ दिया। युद्ध में आस्ट्रिया की पराजय हुई और उसे जर्मनी से हट जाना पड़ा। अब बिस्मार्क के नेतृत्व में जर्मनी के सभी उत्तरस्थ राज्यों को मिलाकर उत्तरी जर्मन संघराज्य की स्थापना हुई। जर्मनी की इस शक्तिवृद्धि से फ्रांस आंतकित हो उठा। स्पेन की गद्दी के उत्तराधिकार के प्रश्न पर फ्रांस जर्मनी में तनाव की स्थिति उत्पन्न हो गई और अंत में 1870 में दोनों के बीच युद्ध ठन गया। फ्रांस की हार हुई और उसे अलससलोरेन का प्रांत तथा भारी हर्जाना देकर जर्मनी से संधि करनी पड़ी। 1871 में नए जर्मन राज्य की घोषणा कर दी गई। इस नवस्थापित राज्य को सुसंगठित और प्रबल बनाना ही अब बिस्मार्क का प्रधान लक्ष्य बन गया। इसी दृष्टि से उसने आस्ट्रिया और इटली से मिलकर एक त्रिराष्ट्र संधि की। पोप की "अमोघ" सत्ता का खतरा कम करने के लिए उसने कैथॉलिकों के शक्तिरोध के लिए कई कानून बनाए और समाजवादी आंदोलन के दमन का भी प्रयत्न किया। इसमें उसे अधिक सफलता नहीं मिली। साम्राज्य में तनाव और असंतोष की स्थिति उत्पन्न हो गई। अंततागत्वा सन् 1890 में नए जर्मन सम्राट् विलियम द्वितीय से मतभेद उत्पन्न हो जाने के कारण उसने पदत्याग कर दिया। बिस्मार्क की नीतियाँ उदारवादियों के सिद्धान्त का खंडन करते हुए बिस्मार्क ने 1862 में अपनी नीति इस प्रकार स्पष्ट की- जर्मनी का ध्यान प्रशा के उदारवाद की ओर नहीं है वरन् उसकी शक्ति पर लगा हुआ है। जर्मनी की समस्या का समाधान बौद्धिक भाषणों से नहीं, आदर्शवाद से नहीं, बहुमत के निर्णय से नहीं, वरन् प्रशा के नेतृत्व में रक्त और तलवार की नीति से होगा। इसका अर्थ था कि प्रशा के भविष्य का निर्माण सेना करेगी न कि संसद। 'रक्त और लोहे की नीति' का अभिप्राय था, युद्ध। बिस्मार्क का निश्चित मत था कि जर्मनी का एकीकरण कभी भी फ्रांस, रूस, इंग्लैण्ड एवं ऑस्ट्रिया को स्वीकार नहीं होगा क्योंकि संयुक्त जर्मनी यूरोप के शक्ति सन्तुलन के लिए सबसे बड़ा खतरा होगा। अतः बिस्मार्क को यह विश्वास हो गया था कि जर्मनी के एकीकरण के लिए शक्ति का प्रयोग अनिवार्य है। बिस्मार्क का मुख्य उद्देश्य प्रशा को शक्तिशाली बनाकर जर्मन संघ से ऑस्ट्रिया को बाहर निकालना एवं जर्मनी में उसके प्रभाव को समाप्त करके प्रशा के नेतृत्व में जर्मनी का एकीकरण करना था। इसके लिए आवश्यक था कि राज्य की सभी सत्ता व अधिकार राजा में केन्द्रित हों। बिस्मार्क राजतंत्र में विश्वास रखता था। अतः उसने राजतंत्र के केन्द्र बिन्दु पर ही समस्त जर्मनी की राष्ट्रीयता को एक सूत्र में बांधने का प्रयत्न किया। बिस्मार्क ने अपने सम्पूर्ण कार्यक्रम के दौरान इस बात का विशेष ध्यान रखा कि जर्मनी के एकीकरण के लिए प्रशा की अस्मिता नष्ट न हो जाए। वह प्रशा का बलिदान करने को तैयार नहीं था, जैसा कि पीडमोन्ट ने इटली के एकीकरण के लिए किया। वह प्रशा में ही जर्मनी को समाहित कर लेना चाहता था। बिस्मार्क नीचे के स्तर से जर्मनी का एकीकरण नहीं चाहता था, अर्थात् उदारवादी तरीके से जनता में एकीकरण की भावना जागृत करने के बदले व वह ऊपर से एकीकरण करना चाहता था अर्थात् कूटनीति एवं रक्त एवं लोहे की नीतियों द्वारा वह चाहता था कि जर्मन राज्यों की अधीनस्थ स्थिति हो, प्रशा की नहीं। इस दृष्टि से वह प्रशा के जर्मनीकरण नहीं बल्कि जर्मनी का प्रशाकरण करना चाहता था। बिस्मार्क की गृह नीति बिस्मार्क 1832 में ऑस्ट्रिया का चान्सलर बना और अपनी कूटनीति, सूझबूझ रक्त एवं लौह की नीति के द्वारा जर्मनी का एकीकरण पूर्ण किया। 1870 ई. में एकीकरण के बाद बिस्मार्क ने घोषणा की कि जर्मनी एक सन्तुष्ट राष्ट्र है और वह उपनिवेशवादी प्रसार में कोई रूचि नहीं रखता। इस तरह उसने जर्मनी के विस्तार संबंधी आशंकाओं को दूर करने का प्रयास किया। बिस्मार्क को जर्मनी की आन्तरिक समस्याओं से गुजरना पड़ा। इन समस्याओं के समाधान उसने प्रस्तुत किए। किन्तु समस्याओं की जटिलता ने उसे 1890 में त्यागपत्र देने को विवश कर दिया। बिस्मार्क के समक्ष समस्याएँ एकीकरण के पश्चात जर्मनी में औद्योगीकरण तेजी से हुआ। कारखानों में मजदूरों की अतिशय वृद्धि हुई, किन्तु वहाँ उनकी स्थिति निम्न रही उनके रहने-खाने का कोई उचित प्रबंध नहीं था। आर्थिक और सामाजिक स्थिति खराब होने के कारण समाजवादियों का प्रभाव बढ़ने लगा और उन्हें अपना प्रबल शत्रु मानता था। पूरे जर्मनी में कई तरह के कानून व्याप्त थे। एकीकरण के दौरान हुए युद्धों से आर्थिक संसाधनों की कमी हो गयी थी। फलतः देश की आर्थिक प्रगति बाधित हो रही थी। बिस्मार्क को धार्मिक समस्या का भी सामना करना पड़ा। वस्तुतः प्रशा के लोग प्रोटेस्टेन्ट धर्म के अनुयायी थे जबकि जर्मनी के अन्य राज्यों की प्रजा अधिकांशतः कैथोलिक धर्म की अनुयायी थी। कैथोलिक लोग बिस्मार्क के एकीकरण के प्रबल विरोधी थे क्योंकि उन्हें भय था कि प्रोटेस्टेन्ट प्रशा उनका दमन कर देगा। ऑस्ट्रिया और फ्रांस को पराजित कर बिस्मार्क ने जर्मन कैथोलिक को नाराज कर दिया था, क्योंकि ये दोनों कैथोलिक देश थे। रोम से पोप की सत्ता समाप्त हो जाने से जर्मन कैथोलिक कु्रद्ध हो उठे और उन्होंने बिस्मार्क का विरोध करना शुरू कर दिया। बिस्मार्क द्वारा उठाए गए कदम आर्थिक एकता और विकास के लिए बिस्मार्क ने पूरे जर्मनी में एक ही प्रकार की मुद्रा का प्रचलन कराया। यातायात की सुविधा के लिए रेल्वे बोर्ड की स्थापना की और उसी से टेलीग्राफ विभाग को संबद्ध कर दिया। राज्य की ओर से बैंको की स्थापना की गई थी। विभिन्न राज्यों में प्रचलित कानूनों को स्थागित कर दिया गया और ऐसे कानूनों का निर्माण किया जो संपूर्ण जर्मन साम्राज्य में समान रूप से प्रचलित हुए। समाजवादियों से निपटने के लिए बिस्मार्क ने 1878 में एक अत्यंत कठोर अधिनियम पास किया जिसके तहत समाजवादियों को सभा करने पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। उनके प्रमुख नेताओं को जेल में डाल दिया गया। समाचार-पत्रों और साहित्य पर कठोर पाबंदी लगा दी गई। इन दमनकारी उपायों के साथ-साथ बिस्मार्क ने मजदूरों को समाजवादियों से दूर करने के लिए "राज्य-समाजवाद" (State socialism) का प्रयोग करना शुरू किया। इसके तहत उसने मजदूरों को यह दिखाया कि राज्य स्वयं मजदूरों की भलाई के लिय प्रयत्नशील है। उसनके मजदूरों की भलाई के लिए अनेक बीमा योजनाएँ, पेंशन योजनाएँ लागू की। स्त्रियों और बालकों के काम करने के घंटों को निश्चित किया गया। बिस्मार्क का यह 'राज्य समाजवाद' वास्तविक समाजवाद नहीं था, क्योंकि वह जनतंत्र का विरोधी था और पूंजीवाद का समर्थन था। औद्योगिक उन्नति के लिए बिस्मार्क ने जर्मन उद्योगों को संरक्षण दिया जिससे उद्योगो और उत्पादन में वृद्धि हुई। तैयार माल को बेचने के लिए नई मंडियों की आवश्यकता थी। इस आवश्यकता ने बिस्मार्क की औपनिवेशिक नीति अपनाने के लिए पे्ररित किया। फलतः 1884 ई. में बिस्मार्क ने अफ्रीका के पूर्वी ओर दक्षिणी-पश्चिमी भागों में अनेक व्यापारिक चौकियों की स्थापना की और तीन सम्राटों के संघ से बाहर हो गया। उसने कहा कि बिस्मार्क ने एक मित्र का पक्ष लेकर दूसरे मित्र को खो दिया है। बिस्मार्क के लिए ऑस्ट्रिया की मित्रता ज्यादा लाभदायक थी क्योंकि आस्ट्रिया के मध्य सन्धि होने की स्थिति में जर्मनी का प्रभाव ज्यादा रहता अतः 1879 में एक द्विगुट संधि (ष्ठह्वड्डद्य ्नद्यद्यiड्डnष) हुई। 5 रूस का जर्मनी से विलग हो जाना बिस्मार्क के लिए चिन्ता का विषय बन गया। उसे लगा कि कहीं रूस फ्रांस के साथ कोई मैत्री संधि न कर ले। अतः उसने तुरन्त ही रूस के साथ सम्बन्ध सुधारने का प्रयत्न किया। 1881 में उसे सफलता भी मिली। अब जर्मनी, रूस और ऑस्ट्रिया के बीच सन्धि हो गयी। 5 अब बिस्मार्क ने इटली की ओर ध्यान दिया और इटली से सन्धि कर फ्रांस को यूरोपीय राजनीति में बिल्कुल अलग कर देना चाहा। इसी समय फ्रांस और इटली दोनों ही अफ्रीका में स्थित ट्यूनिस पर अधिकार करने को इच्छुक थे। बिस्मार्क ने फ्रांस को ट्यूनिस पर अधिकार करने के लिए प्रोत्साहित किया ताकि फ्रांस में जर्मनी के पक्ष में सद्भावना फैल जाए और फ्रांस साम्राज्यवाद में उलझा जाए, जिससे जर्मनी से बदला लेने की बात दूर हो जाए। 1881 में फ्रांस ने ट्यूनिस पर अधिकार कर लिया जिससे इटली नाराज हुआ। इटली की नाराजगी का लाभ उठाकर बिस्मार्क ने 1882 में इटली, जर्मनी और ऑस्ट्रिया के बीच त्रिगुट संधि (Triple Alliance) को अन्जाम दिया। विदेश नीति के अन्तर्गत उठाए गए कदम बिस्मार्क ने नई 'सन्धि प्रणाली' को जन्म दिया। सन्धि कर उसने विभिन्न गुटों का निर्माण किया। इस सन्धि प्रणाली की विशेषता यह थी कि सामान्यतया इतिहास में जितनी भी संधियाँ हुई हैं वे युद्धकाल में हुई थी। किन्तु बिस्मार्क ने शांतिकाल में सन्धि प्रणाली को जन्म देकर एक नवीन दृष्टिकोण सामने रखा। तीन सम्राटों का संघ: विदेशनीति के क्षेत्र में सन्धि प्रणाली के तहत बिस्मार्क का पहला कदम था। 1872 में तीन सम्राटों के संघ का निर्माण किया इसमें ऑस्ट्रिया का सम्राट फ्रांसिस जोजफ, रूस का जार द्वितीय तथा जर्मनी का सम्राट विलियन प्रथम शामिल था। यद्यपि यह इन तीन देशों के मध्य कोई लिखित सन्धि नहीं थी, तथापि कुछ बातों पर सहमति हुई थी। वे इस बात पर सहमत हुए थे कि यूरोप में शान्ति बनाए रखने तथा समाजवादी आन्दोलन से निपटने के लिए वे एक-दूसरे के साथ सहयोग एवं विचार विनिमय करते रहे। यह सन्धि बिस्मार्क की महान कूटनीतिक विजय थी, क्योंकि एक तरफ तो उसने सेडोवा की पराजित शक्ति ऑस्ट्रिया को मित्र बना लिया तो दूसरी तरफ फ्रांस के लिए आस्ट्रिया एवं रूस की मित्रता की सम्भावना को समाप्त कर दिया। किन्तु कुछ समय पश्चात यह संघ टूट गया क्योंकि बाल्कन क्षेत्र में रूस और ऑस्ट्रिया के हित आपस टकराते थे। अतः बिस्मार्क को रूस और ऑस्ट्रिया में से किसी एक को चुनना था। 1878 की बर्लिन की संधि में बिस्मार्क को रूस और ऑस्ट्रिया में से किसी एक को चुनना था, जिसमें उसने ऑस्ट्रिया का पक्ष लिया। फलतः रूस उससे नाराज हो गया। धार्मिक मुद्दों से निटपने और राज्य को सर्वोपरि बनाने के लिए बिस्मार्क ने चर्च के विरूद्ध कई कानून पास किए। 1872 में जेसुइट समाज का बहिष्कार कर दिया और प्रशा तथा पोप का सम्बन्ध-विच्छेद हो गया। 1873 में पारित कानून के अनुसार विवाह राज्य न्यायालयों की आज्ञा से होने लगा जिसमें चर्च की कोई आवश्यकता नहीं रह गयी। शिक्षण संस्थाओं पर राज्य का अधिकार हो गया तथा चर्च को मिलने वाली सरकारी सहायता बन्द कर दी गई। इन कानूनों के बावजूद भी कैथोलिक झुके नहीं। अतः बिस्मार्क ने समाजवादियों की चुनौतियों को ज्यादा खतरनाक समझते हुई कैथोलिकों के साथ समझौता किया। इसके तहत कैथोलिक के विरूद्ध कानून रद्द कर दिए गए और पोप से राजनीतिक सम्बन्ध स्थापित किया। बिस्मार्क की विदेश नीति जर्मनी के एकीकरण के पश्चात 1871 में बिस्मार्क की विदेश नीति का प्रमुख उद्देश्य यूरोप में जर्मनी की प्रधानता को बनाए रखना था। नीति निर्धारण के तौर पर उसने घोषित किया कि जर्मनी तुष्ट राज्य है और क्षेत्रीय विस्तार में इसकी कोई रूचि नहीं है। बिस्मार्क को फ्रांस से सर्वाधिक भय था क्योंकि एल्सेस-लॉरेन का क्षेत्र उसने फ्रांस से प्राप्त किया था, जिससे फ्रांस बहुत असन्तुष्ट था। बिस्मार्क को विश्वास था कि फ्रांसीसी अपनी 1870-71 की पराजय और एलसेस-लॉरेन क्षेत्र को नहीं भूलेंगे। अतः उसकी विदेश नीति का मुख्य उद्देश्य फ्रांस को यूरोप में मित्रविहीन रखना था ताकि वह जर्मनी से युद्ध करने की स्थिति में न आ सके। इस तरह बिस्मार्क की विदेश नीति के आधारभूत सिद्धान्त थे- व्यावहारिक अवसरवादी कूटनीति का प्रयोग कर जर्मन विरोधी शक्तियों को अलग-थलग रखना एवं फ्रांस को मित्र विहीन बनाना, उदारवाद का विरोध एवं सैन्यवाद में आस्था रखना। उसकी सन्धि प्रणाली ने प्रतिसन्धियों को जन्म दिया। फलतः यूरोप में तनावपूर्ण वातावरण बन गया और इस प्रकार यूरोप प्रथम विश्वयुद्ध के कगार पर पहुंच गया। बिस्मार्क की विदेशनीति ने यूरोप में सैन्यीकरण एवं शस्त्रीकरण को बढ़ावा दिया। इस नीति ने यूरोप को प्रथम विश्वयुद्ध की दहलीज तक पहुँचा दिया। बिस्मार्क ने सभी सन्धियाँ परस्पर विरोधी राष्ट्रों के साथ की थी। उनके बीच समन्वय बनाए रखना अत्यंत दुष्कर कार्य था, जिसे केवल बिस्मार्क जैसा कूटनीतिज्ञ ही कर सकता था। अतः 1890 में पद त्याग करने के पश्चात यह पद्धति घातक हो गई और जर्मनी के विरूद्ध फ्रांस, रूस आदि गुटों का निर्माण हुआ। इस प्रकार बिस्मार्क की विदेश नीति ने प्रकारांतर से प्रथम विश्वयुद्ध की पृष्ठभूमि का निर्माण कर दिया। बिस्मार्क की गुटबंदी की नीति के कारण जर्मनी के विरूद्ध दूसरा गुट बना और अंत में संपूर्ण यूरोप दो सशस्त्र एवं शक्तिशाली गुटों में विभाजित हो गया। जिसकी चरम परिणति प्रथम विश्वयुद्ध में दिखाई पड़ी। 1887 में बिस्मार्क ने रूस के साथ पुनराश्वासन सन्धि (Reassurance treaty) की जिसके तहत दोनों ने एक-दूसरे को सहायता देने का वचन दिया। यह सन्धि गुप्त रखी गई थी। यह बिस्मार्क की कूटनीतिक विजय थी क्योंकि एक ही साथ जर्मनी को रूस और ऑस्ट्रिया की मित्रता प्राप्त हुई। बिस्मार्क ने ब्रिटेन के साथ मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध बनाने का प्रयत्न किया। बिस्मार्क का मानना था कि ब्रिटेन एक नौसैनिक शक्ति है और जब तक उसकी नौसेना को चुनौती नहीं दी जाएगी, तब तक वह किसी राष्ट्र का विरोधी नहीं होगा। अतः ब्रिटेन को खुश करने लिए बिस्मार्क ने जर्मन नौसेना को बढ़ाने को कोई कदम नहीं उठाया। ब्रिटेन की खुश करने के लिए उसने घोषणा की कि जर्मनी साम्राज्यवादी देश नहीं है। दूसरी तरफ इंग्लैण्ड की फ्रांस के साथ औपनिवेशिक प्रतिद्वन्दिता थी जिसका लाभ उठाकर बिस्मार्क ने ब्रिटेन के साथ मधुर सम्बन्ध बनाए। इन्हें भी देखें रक्त और लोहा बाहरी कड़ियाँ श्रेणी:राजनीतिज्ञ श्रेणी:कूटनीति श्रेणी:जर्मनी
ओटो एडुअर्ड लिओपोल्ड बिस्मार्क का जन्म कब हुआ था?
1 अप्रैल 1815
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Main Page करन अर्जुन 1995 में बनी हिन्दी भाषा की नाटकीय एक्शन फ़िल्म है। इसमें सलमान खान, शाहरुख खान, राखी गुलज़ार, ममता कुलकर्णी, काजोल, अमरीश पुरी, आशिफ शेख और रंजीत मुख्य अभिनेता हैं। दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे के बाद यह 1995 की सबसे ज्यादा कमाई करने वाली भारतीय फिल्म थी। संक्षेप गरीब दुर्गा (राखी) अपने दो बेटे, करन (सलमान खान) और अर्जुन (शाहरुख खान) के साथ गाँव में रहती है। दोनों के पिता गाँव के ठाकुर के बेटे के पुत्र हैं। उनके पिता के रिश्तेदार दुर्जन सिंह (अमरीश पुरी) ने उनके पिता को मार दिया। जब उनके दादा गुजर जाते हैं, तो दुर्जन सिंह पैतृक संपत्ति में उन्हें हिस्सा लेने से रोकने के लिये अपने सालों नहार (अर्जुन) और शमशेर (जैक गॉड) से करन और अर्जुन को भी मरवा देता है। दुर्गा को सदमा लगता है और वो काली माँ से अपने बेटों को वापिस लाने के लिये कहती है। करन और अर्जुन तभी दोबारा पुनर्जन्म लेते हैं। अर्जुन का विजय के रूप में पुनर्जन्म होता है। वह अमीर लड़की सोनिया (काजोल) से प्यार करने लगता है। उसके पिता सक्सेना (रंजीत) दुर्जन सिंह के साथ गैर-कानूनी कार्य में लिप्त हैं और साथ ही उसकी शादी उसके बेटे सूरज (आशिफ शेख) से तय है। जबकि करन का पुनर्जन्म अजय के रूप में होता है जो सक्सेना के लिये काम करना शुरू कर देता है। करन और अर्जुन को अभी भी पिछले जन्मों में उनकी मौत के बारे में दुःस्वप्न आते है। सोनिया और सूरज की सगाई की पार्टी में विजय आता है और सूरज पर हमला करता है। अजय को विजय को मारने के लिए भेजा जाता है और दोनों में लड़ाई शुरू हो जाती है। सक्सेना विजय को गोली मारने की कोशिश करता है, लेकिन अजय ने अर्जुन भाग चिल्लाते हुए उसे रोक दिया। यह ऐसा कुछ है जिसे अजय ने अपने पिछले जन्म में विजय से कहा था। अजय को जेल भेजा जाता है जबकि विजय बच निकलता है। सूरज से शादी करने के लिए सोनिया को जबरन दुर्जन के घर ले जाया जाता है। विजय अपने दोस्त (जॉनी लीवर) के साथ उसे बचाने जाता है। वहाँ सब उसे अर्जुन कहकर बुलाते हैं। वह दुर्गा से मिलता है और उसे अपनी पहली जिंदगी का सब याद आ जाता है। वो अजय को बचाता है और उसे सब बताता है लेकिन वो उस कहानी को मानने से इंकार कर देता है। लेकिन जब दुर्जन के साले फिर दुर्गा पर हमला करते हैं उसे भी सब याद आ जाता है। आखिर में अजय और विजय सब गुंडों को मार देते हैं और अपनी माँ के सामने दुर्जन सिंह का कत्ल कर देते हैं। करन अपनी प्रेमिका बिंदिया (ममता कुलकर्णी) और अर्जुन सोनिया से विवाह कर लेते हैं। मुख्य कलाकार सलमान ख़ान - करन सिंह / अजय शाहरुख़ ख़ान - अर्जुन सिंह / विजय काजोल देवगन - सोनिया सक्सेना अमरीश पुरी - ठाकुर दुर्जन सिंह राखी गुलज़ार - दुर्गा सिंह ममता कुलकर्णी - बिन्दिया जॉनी लीवर - लेंघैया रंजीत - सक्सेना आशिफ शेख - सूरज सिंह अशोक सर्राफ - मुंशी जी जैक गॉड - शमशेर सिंह ईला अरुण - "गुप चुप" गीत में संगीत फिल्म का संगीत राजेश रोशन ने दिया था और सभी गानों के बोल इन्दीवर ने लिखे थे। शीर्षक गायक फिल्माया गया.. अवधि "ये बंधन तो" कुमार सानु, उदित नारायण, अलका याज्ञिक राखी गुलज़ार, सलमान खान, शाहरुख़ खान 05:40 "ये बंधन तो (उदास)" उदित नारायण राखी गुलज़ार, सलमान खान, शाहरुख़ खान, ममता कुलकर्णी 01:38 "भंगड़ा पाले " मुहम्मद अज़ीज़, सुदेश भोंसले, साधना सरगम, अलका याज्ञिक राखी गुलज़ार, सलमान खान, शाहरुख़ खान, ममता कुलकर्णी 07:07 "एक मुंडा मेरी उमर दा" लता मंगेशकर सलमान खान, ममता कुलकर्णी 07:38 "जय माँ काली" कुमार सानु, अलका याज्ञिक सलमान खान, शाहरुख़ खान, ममता कुलकर्णी और काजोल 07:07 "गुप चुप गुप चुप" अलका याज्ञिक, ईला अरुण ममता कुलकर्णी, शीला आर. 06:02 "जाती हूँ मैं" कुमार सानु, अलका याज्ञिक शाहरुख़ खान और काजोल 06:24 परिणाम बौक्स ऑफिस करन अर्जुन सुपरहिट रही थी। समीक्षाएँ नामांकन और पुरस्कार बाहरी कड़ियाँ at IMDb श्रेणी:1995 में बनी हिन्दी फ़िल्म श्रेणी:राजेश रोशन द्वारा संगीतबद्ध फिल्में
करण अर्जुन फ़िल्म कब रिलीज़ हुई?
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स्वप्नवासवदत्ता (वासवदत्ता का स्वप्न), महाकवि भास का प्रसिद्ध संस्कृत नाटक है। इसमें छः अंक हैं। भास के नाटकों में यह सबसे उत्कृष्ट है। क्षेमेन्द्र के बृहत्कथामंजरी तथा सोमदेव के कथासरित्सागर पर आधारित यह नाटक समग्र संस्कृतवांमय के दृश्यकाव्यों में आदर्श कृति माना जाता है। भास विरचित रूपकों में यह सर्वश्रेष्ठ है। वस्तुतः यह भास की नाट्यकला का चूडान्त निदर्शन है। यह छः अंकों का नाटक है। इसमें प्रतिज्ञायौगन्धारायण से आगे की कथा का वर्णन है। इस नाटक का नामकरण राजा उदयन के द्वारा इइस्वप्न में वासवदत्ता के दर्शन पर आधारित है। स्वप्न वाला दृश्य संस्कृत नाट्य साहित्य में अपना विषेष स्थान रखता है। यह नाटक नाट्यकला की सर्वोत्तम परिणिति है। वस्तु, नेता एवं रस - तीनों ही दृष्टि से यह उत्तम कोटि का है। नाटकीय संविधान, कथोपकथन, चरित्र-चित्रण, प्रकृति वर्णन तथा रसों का सुन्दर सामन्जस्य इस नाटक में पूर्ण परिपाक को प्राप्त हुये हैं। मानव हृदय की सूक्ष्मातिसूक्ष्म भावदशाओं का चित्रण इस नाटक में सर्वत्र देखा जा सकता है। नाटक का प्रधान रस श्रृंगार है तथा हास्य की भी सुन्दर उद्भावना हुई है। कथानक पुरुवंशीय उदयन वत्स राज्य के राजा थे। उनकी राजधानी का नाम कौशाम्बी था। उन्हीं दिनों अवन्ति राज्य, जिसकी राजधानी उज्जयिनी थी, में प्रद्योत नाम के राजा राज्य करते थे। महाराज प्रद्योत एक अत्यन्त विशाल सैन्य-बल के स्वामी थे इसलिये उन्हें महासेन के नाम से भी जाना जाता था। महाराज उदयन के पास घोषवती नामक एक दिव्य वीणा थी। उनका वीणा-वादन अपूर्व था। एक बार प्रद्योत के अमात्य शालंकायन ने छल करके उदयन को कैद कर लिया। उदयन के वीणा-वादन की ख्याति सुनकर प्रद्योत ने उन्हे अपनी पुत्री वासवदत्ता के लिये वीणा-शिक्षक नियुक्त कर दिया। इस दौरान उदयन और वासवदत्ता मे मध्या एक दूसरे के प्रति आसक्ति जागृत हो गई। इधर उदयन के मन्त्री यौगन्धरायण उन्हें कैद से छुड़ाने के प्रयास में थे। यौगन्धरायण के चातुर्य से उदयन, वासवदत्ता को साथ ले कर, उज्जयिनी से निकल भागने में सफल हो गये और कौशाम्बी आकर उन्होंने वासवदत्ता से विवाह कर लिया। उदयन वासवदत्ता के प्रेम में इतने खोये रहने लगे कि उन्हें राज-कार्य की सुधि ही नहीं रही। इस स्थिति का लाभ उठा कर आरुणि नामक उनके क्रूर शत्रु ने उनके राज्य को उनसे छीन लिया। आरुणि से उदयन के राज्य को वापस लेने के लिये उनके मन्त्री यौगन्धरायण और रुम्णवान् प्रयत्नशील हो गये। किन्तु बिना किसी अन्य राज्य की सहायता के आरुणि को परास्त नहीं किया जा सकता था। वासवदत्ता के पिता प्रद्योत उदयन से नाराज थे और यौगन्धरायण को उनसे किसी प्रकार की उम्मीद नहीं थी। यौगन्धरायण को ज्योतिषियों के द्वारा पता चलता है कि मगध-नरेश की बहन पद्मावती का विवाह जिन नरेश से होगा वे चक्रवर्ती सम्राट हो जायेंगे। यौगन्धरायण ने सोचा कि यदि किसी प्रकार से पद्मावती का विवाह उदयन से हो जाये तो उदयन को अवश्य ही उनका वत्स राज्य आरुणि से वापस मिल जायेगा साथ ही वे चक्रवर्ती सम्राट भी बन जायेंगे। यौगन्धरायन महाराज उदयन के विवाह पद्मावती से करवा देने की अपनी योजना के विषय में वासवदत्ता को बताया। पति की मंगलकामना चाहने वाली वासवदत्ता इस विवाह के लिये राजी हो गईं। किन्तु यौगन्धरायण भलीभाँति जानते थे कि उदयन अपनी पत्नी वासवदत्ता से असीम प्रेम करते हैं और वे अपने दूसरे विवाह के लिये कदापि राजी नहीं होंगे। अतएव उन्होंने वासवदत्ता और एक अन्य मन्त्री रुम्णवान् के साथ मिलकर एक योजना बनाई। योजना के अनुसार उदयन को राजपरिवार तथा विश्वासपात्र सहयोगियों के साथ लेकर आखेट के लिये वन में भेजा गया जहाँ वे सभी लोग शिविर में रहने लगे। एक दिन, जब उदयन मृगया के लिये गए हुए थे, शिविर में आग लगा दी गई। उदयन के वापस लौटने पर रुम्णवान ने उन्हें बताया कि वासवदत्ता शिविर में लगी आग में फँस गईं थीं और उन्हें बचाने के लिये यौगन्धरायण वहाँ घुसे जहाँ पर दोनों ही जल मरे। उदयन इस समाचार से अत्यन्त दुःखी हुए किन्तु रुम्णवान तथा अन्य अमात्यों ने अनेकों प्रकार से सांत्वना देकर उन्हें सम्भाला। इधर यौगन्धरायन वासवदत्ता को साथ लेकर परिव्राजक के वेश में मगध राजपुत्री पद्मावती के पास पहुँच गए और प्रच्छन्न वासवदत्ता (अवन्तिका) को पद्मावती के पास धरोहर के रूप में रख दिया। अवन्तिका पद्मावती की विशेष अनुग्रह पात्र बन गईं। उन्होंने महाराज उदयन का गुणगान कर कर के पद्मावती को उनके प्रति आकर्षित कर लिया। उदयन दूसरा विवाह नहीं करना चाहते थे किन्तु रुम्णवान् ने उन्हें समझा-बुझा कर पद्मावती से विवाह के लिये राजी कर लिया। इस प्रकार उदयन का विवाह पद्मावती के साथ हो गया। विवाह के पश्चात मगध-नरेश की सहायता से उदयन ने आरुणि पर आक्रमण कर दिया और उसे परास्त कर अपना राज्य वापस ले लिया। अन्त में अत्यन्त नाटकीय ढंग से यौगन्धरायण और वासवदत्ता ने स्वयं को प्रकट कर दिया। यौगन्धरायण ने अपनी धृष्टता एवं दुस्साहस के लिये क्षमा निवेदन किया। इस नाटक के एक दृश्य में उदयन समुद्रगृह में विश्राम करते रहते हैं। वे स्वप्न में ‘हा वासवदत्ता’, ‘हा वासवदत्ता’ पुकारते रहते हैं उसी समय अवन्तिका (वासवदत्ता) वहाँ पहुँच जाती हैं। वे उनके लटकते हुये हाथ को बिस्तर पर रख कर निकल जाती हैं किन्तु उसी समय उदयन की नींद खुल जाती है। वे निश्चय नहीं कर पाते कि उन्होंने वास्तव में वासवदत्ता को देखा है अथवा स्वप्न में। इसी घटना के के कारण नाटक का नाम ‘स्वप्नवासवदत्ता’ रखा गया। इन्हें भी देखें भास संस्कृत नाटक वासवदत्ता - सुबन्धु द्वारा रचित संस्कृत नाटक बाहरी कड़ियाँ (संस्कृत विकिस्रोत) (जयपाल विद्यालङ्कार द्वारा हिन्दी अनुवाद एवं विशद व्याख्या सहित) (श्री जीके अवधिया, 'धान के देश में' हिन्दी चिट्ठा) (संस्कृत नाटक का संपादित सरल हिन्दी रूपान्तर) (संस्कृत नाटक का संपादित सरल हिन्दी रूपान्तर) (संस्कृत नाटक का संपादित सरल हिन्दी रूपान्तर) श्रेणी:संस्कृत ग्रंथ
स्वप्नवासवदत्तम् के लेखक कौन थे?
भास
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निकोला टेस्ला (अंग्रेजी: Nikola Tesla; सर्बियाई सिरिलिक: Никола Тесла, 10 जुलाई 1856 - 7 जनवरी 1943) एक सर्बियाई अमेरिकी[2][3][4] आविष्कारक, भौतिक विज्ञानी, यांत्रिक अभियन्ता, विद्युत अभियन्ता और भविष्यवादी थे। टेस्ला की प्रसिद्धि उनके आधुनिक प्रत्यावर्ती धारा (एसी) विद्युत आपूर्ति प्रणाली के क्षेत्र में दिये गये अभूतपूर्व योगदान के कारण है। टेस्ला के विभिन्न पेटेंट और सैद्धांतिक कार्य, बेतार संचार और रेडियो के विकास का आधार साबित हुये हैं। वैद्युत चुंबकत्व के क्षेत्र में किये गये उनके कई क्रांतिकारी विकास कार्य, माइकल फैराडे के विद्युत प्रौद्योगिकी के सिद्धांतों पर आधारित थे। प्रारंभिक वर्ष निकोला टेस्ला का जन्म 162 साल पहले 10 जुलाई 1856 को स्किमडज़, क्रोएरिया में हुआ था, जब क्रोएशिया अस्ट्रो-हेटेली साम्राज्य का हिस्सा था। क्रोएशिया दुनिया में 18 वां सबसे पसंदीदा पर्यटन स्थल है, जो यूरोप का एक देश है। लेकिन जैसा कि हम सभी जानते हैं, आज 161 साल पहले, हमने दुनिया में ज्यादा प्रगति नहीं की थी और उस समय क्रोएरिया (स्मिल्ज़ान), जो निकोला टेस्ला का जन्मस्थान था, गरीब देशों में से एक था। निकोल टेस्ला रोमन कैथोलिक घर में पैदा हुआ था, वह अपने माता-पिता के चौथे बच्चे थे। उनके एक बड़े भाई, डेन, दो बड़ी बहनों, एंजिनिया और मिल्का और एक छोटी बहन, मारिका थी। उनके पिता एक सच्चे रूढ़िवादी चर्च में एक पादरी थे[5], और यह भी एक कारण था कि उस समय के युवा लोगों के सामने बहुत अधिक रास्ते नहीं थे। निजी जीवन और परिवार जैसा कि हम जानते हैं कि उनके पिता एक पादरी थे और घर में सदस्यों की संख्या बहुत अधिक थी तब उनकी कमाई के साथ उनका घर था, उनकी मां एक गृहिणी थी और वह अपने परिवार के पैतृक खेत की देखभाल और उनके खाली समय के छोटे घरेलू उपकरणों किए गए थे और हम कह सकते हैं कि बिजली के आविष्कार में टस्ला के हित ने अपनी मां को प्रेरित किया था। जब एक बार निकोला अपने बड़े भाई के साथ झूल रहा था, तो उनके बड़े भाई डैनील अपनी आँखों के सामने झुकते हुए झूले से गिरते हुए मर जाते थे। इस घटना ने आठ वर्षीय निकोला को अस्थिर कर दिया, जिसके कारण उनका मानसिक संतुलन पूरे जीवन में बुरा था, और जिसके कारण वह भी बुरे सपनों का इस्तेमाल करता था। निकोलस के पिता रूढ़िवादी पादरी और लेखक थे, उनकी इच्छा थी कि निकोला भी एक था जो पादरी विज्ञान में अधिक रुचि रखता था। निकॉला ने ग्राज़ के तकनीकी विश्वविद्यालय में गणित और भौतिकी का अध्ययन किया। और प्राग विश्वविद्यालय से दर्शन प्राप्त करने के बाद, वह बुडापेस्ट गए बुडापेस्ट हंगरी की राजधानी है और भूस्खलन भी निकोलोला में सबसे बड़ा शहर है, जहां टेस्लिया एक्सचेंज पर कुछ साल तक वहां पहुंचे, जब टेस्ला वहां पहुंचे, तो पता चला कि नया कारोबार अब संचालन के पास नहीं था और इसके बजाय एक केंद्रीय टेलीग्राफ कार्यालय ड्राफ्ट्समैन के रूप में काम करता था। कुछ महीनों के भीतर, बुडापेस्ट टेलीफोन एक्सचेंज शुरू किया गया था और टेस्ला को मुख्य बिजलीदान का स्थान दिया गया था। अपने रोजगार के दौरान, टेस्ला ने उपकरणों में कई सुधार किए और एक एम्पलीफायर डिवाइस विकसित किया। इसे एक लंबा समय कहा जा सकता है यहां उनके काम के दौरान, उनका मन सबसे पहले प्रेरण मोटर के विचार में आया, जो अब उनकी सबसे बड़ी आविष्कारों में से एक है। अमेरिका की ओर एक कदम और एडिसन के साथ कार्य कुछ साल बाद वह पेरिस चले गए जहां उन्होंने महाद्वीपीय एडीसन कंपनी में काम करना शुरू कर दिया। जहां वह प्रत्यक्ष वर्तमान (डीसी) विद्युत संयंत्रों की मरम्मत करते थे दो साल के लिए एक ही पद के लिए काम करने के बाद, वह अमेरिका आया और हमेशा के लिए बसे। निकॉला ने पहली बार 1884 में हमारे पास बसे और न्यू यॉर्क शहर के मैनहट्टन क्षेत्र में रहते हुए, जहां वह उस कंपनी में काम करने के लिए नियुक्त इंजीनियर के रूप में खुद एडिसन मिला, निकोला ने अपनी मेहनत और सादगी के साथ एडिसन को प्रभावित किया। एक दिन जब निकोला कार्यालय में काम कर रहे, एडिसन वहां आए और निकोला ने देखा कि वह कुछ के बारे में चिंतित था, तो उन्होंने समस्या के कारण की व्याख्या करने के लिए एडिसन से पूछा, एडिसन ने मजाक में निकोला को बताया, अगर आप डिजाइन में सुधार करते हैं तो आप डीसी डायनॉमस बनाते हैं तो आप $ 50000 देते हैं उस समय वहाँ $ 50000 की एक बड़ी राशि थी, जो आज के $ 25,000,000 के बराबर है निकोला ने महसूस किया कि यह एक अच्छा अवसर था, फिर उन्होंने डिजाइन में सुधार करना शुरू किया और उन्होंने दिन और रात को एक बनाया और उन्होंने परियोजना को पूरा करने के लिए 19 घंटे काम करना शुरू किया और कुछ दिनों में यह काम पूरा हो गया।" लेकिन जब उन्होंने एडिसन को पैसे देने के लिए कहा, तो एडिसन ने कहा, "टेस्ला, आप हमारे अमेरिकन हास्य को समझने में सक्षम नहीं हैं।" निकोलला इस के साथ बहुत निराश हो गई और उसके दिल को तोड़ दिया और उसके बाद उन्होंने एडिसन की कंपनी को छोड़ दिया और अपनी टेस्ला इलेक्ट्रिक लाइट कंपनी शुरू करने के असफल प्रयास के बाद, और दो दिनों में खुदाई के लिए काम करना शुरू कर दिया, कुछ लोगों ने नहीं सुनी उनके शोधकर्ताओं का समर्थन करने के लिए उनके समर्थकों, लेकिन 1887 और 1888 में, उनके आविष्कारों के लिए 30 से अधिक पेटेंट थे, जो कि राडन में थे और अमेरिकन इंस्टीट्यूट पर उनका कार्य करने के लिए बिजली इंजीनियरों के समाधान के लिए आमंत्रित किया गया था। उनके व्याख्यान ने जॉर्ज वेस्टिंगहाउस के आविष्कारक का ध्यान आकर्षित किया, जिन्होंने बोस्टन के पास पहली एसी पावर सिस्टम लॉन्च किया, और एडिसन का मुख्य प्रतिद्वंद्वी "धाराओं की लड़ाई" में था। वेस्टिंगहाउस ने टेस्ला को किराए पर लिया, अपने एसी मोटर के लिए पेटेंट लाइसेंस प्राप्त किया और उसे दिया अपनी प्रयोगशाला लेकिन एडिसन बहुत ऐसा करके बहुत परेशान हो गया और उन्होंने निकोला पर बहुत अधिक दोष लगाया। विरासत और सम्मान 18 9 0 के दशक में, निकोला ने उच्च वोल्टेज ट्रांसफार्मर का आविष्कार किया, जिसे विद्युत थरथरानवाला, मीटर, बेहतर प्रकाश और टेस्ला कुंडली के रूप में जाना जाता है। उन्होंने ग्गलीलो मार्कोनी के दो साल पहले एक्स-रे के साथ प्रयोग भी किया, रेडियो संचार के लघु-प्रदर्शन वाले प्रदर्शनों को प्रदान किया और मैडिसन स्क्वायर गार्डन के एक पूल के आसपास एक रेडियो-नियंत्रित नाव आयोजित किया। साथ में, टेस्ला और वेस्टिंगहाउस ने शिकागो में 18 9 1 की दुनिया की कोलंबियन प्रदर्शनी प्रकाशित की और नियाग्रा फाल्स पर एसी जेनरेटर स्थापित करने के लिए सामान्य बिजली से भागीदारी की, पहला आधुनिक पावर स्टेशन बनाया। 200 से अधिक का आविष्कार किया। टेस्ला को 7 जनवरी, 1 9 43 को अपने कमरे में मृत पाया गया था। बाद में अगले वर्ष, यू.एस. सुप्रीम कोर्ट ने चार मार्सॉजिक कुंजी पेटेंट बर्खास्त कर दिए, अंततः टेस्ला के रेडियो सिस्टम में नवाचार स्वीकार कर लिया, एसी सिस्टम जो चैंपियन और सुधार हुआ, पावर ट्रांसमिशन के लिए एक वैश्विक मानक रहा है। सन्दर्भ श्रेणी:1856 में जन्मे लोग श्रेणी:अमेरिकी वैज्ञानिक श्रेणी:सर्बिया के लोग श्रेणी:१९४३ में निधन श्रेणी:क्रोशिया के लोग
निकोला टेस्ला की मृत्यु कब हुई
7 जनवरी 1943
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चेचक (शीतला, बड़ी माता, स्मालपोक्स) एक विषाणु जनित रोग है। श्वासशोथ एक संक्रामक बीमारी थी, जो दो वायरस प्रकारों, व्हेरोला प्रमुख और व्हेरोला नाबालिग के कारण होती है। इस रोग को लैटिन नाम व्हेरोला या व्हेरोला वेरा द्वारा भी जाना जाता है, जो व्युत्पन्न ("स्पॉटेड") या वार्स ("पिंपल") से प्राप्त होता है। मूल रूप से अंग्रेजी में "पॉक्स" या "लाल प्लेग" के रूप में जाना जाता है; 15 वीं शताब्दी में "श्वेतपोक्स" शब्द का इस्तेमाल सबसे पहले "महान पॉक्स" (सीफीलिस)। चेकोपॉक्स के अंतिम स्वाभाविक रूप से होने वाले मामले (वेरियोला नाबालिग) का निदान २६ अक्टूबर १९७७ को हुआ था। [1] चेचक के साथ संक्रमण प्रसारित होने से पहले त्वचा के छोटे रक्त वाहिकाओं और मुंह और गले में केंद्रित है। त्वचा में यह एक विशिष्ट दाने का परिणाम है और, बाद में, तरल पदार्थ से भरा छाले उठाया। वी। प्रमुख ने एक और अधिक गंभीर बीमारी का उत्पादन किया और ३०-३५ प्रतिशत की एक समग्र मृत्यु दर थी। वी। नाबालिग एक मामूली बीमारी का कारण बनता है (जिसे अल्स्ट्रिम भी कहा जाता है) जो उन लोगों के बारे में प्रतिशत मार डाला, जो इसे संक्रमित करते हैं। वीकी लंबी अवधि की जटिलताओं में प्रमुख संक्रमण, आम तौर पर चेहरे पर होता है, जो कि ६५-८५ प्रतिशत जीवित बचे हुए होते हैं। कॉर्नियल अल्सरेशन और स्कायरिंग, और गठिया और ऑस्टियोमाइलाइटिस के कारण अंग विकृति से उत्पन्न होने वाली अंधापन कम आम जटिलताओं थे, जिन्हें लगभग २-५ प्रतिशत मामलों में देखा गया था। माना जाता है कि स्मोप्क्स को मनुष्यों द्वारा मूल रूप से १६,००० से ६८,००० साल पहले एक भू-स्तरीय अफ्रीकी कृन्तक से झूनूस के रूप में कृषि और सभ्यता की शुरुआत से पहले अधिग्रहण कर लिया गया था। इसका सबसे प्रारंभिक भौतिक प्रमाण संभवतः मिस्र के फिरौन रामसेस वी के शवों पर पस्तुलर दाने वाला है। १८ वीं शताब्दी के समापन वर्ष (पांच राजशाही समेत समेत) के दौरान बीमारी ने लगभग ४००,००० यूरोपियनों को मार दिया, और सभी अंधापनों के एक तिहाई के लिए जिम्मेदार था। संक्रमित लोगों में से २०-६० प्रतिशत-और ८० प्रतिशत संक्रमित बच्चों-इस बीमारी से मृत्यु हो गई। २० वीं शताब्दी के दौरान लगभग ३००-५०० मिलियन लोगों की मौत के लिए चेम्प्क्स जिम्मेदार था। हाल ही में १९६७ में, विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने अनुमान लगाया कि १५ मिलियन लोगों ने इस बीमारी का अनुबंध किया और उस वर्ष 20 लाख लोगों की मृत्यु हुई। १९वीं और २० वीं शताब्दी के दौरान टीकाकरण अभियानों के बाद, डब्लूएचओ ने १९८० में शीतल के वैश्विक उन्मूलन को प्रमाणित किया। श्वासशोथ को दो संक्रामक बीमारियों में से एक है, जिसे नष्ट कर दिया गया है, और दूसरी चीज है जो २०११ में समाप्त हो गई थी। यह रोग अत्यंत प्राचीन है। आयुर्वेद के ग्रंथों में इसका वर्णन मिलता है। मिस्र में १,२०० वर्ष ईसा पूर्व की एक ममी (mummy) पाई गई थी, जिसकी त्वचा पर चेचक के समान विस्फोट उपस्थित थे। विद्वानों ने उसका चेचेक माना। चीन में भी ईसा के कई शताब्दी पूर्व इस रोग का वर्णन पाया जाता है। छठी शताब्दी में यह रोग यूरोप में पहुँचा और १६वीं शताब्दी में स्पेन निवासियों द्वारा अमरीका में पहुँचाया गया। सन्‌ १७१८ में यूरोप में लेडी मेरी वोर्टले मौंटाग्यू ने पहली बार इसकी सुई (inoculation) प्रचलित की और सन्‌ १७९६ में जेनर ने इसके टीके का आविष्कार किया। चेचक विषाणु जनित रोग है, इसका प्रसार केवल मनुष्यों में होता है, इसके लिए दो विषाणु उत्तरदायी माने जाते है वायरोला मेजर और वायरोला माइनर [१] .[2] इस रोग के विषाणु त्वचा की लघु रक्त वाहिका, मुंह, गले में असर दिखाते है, मेजर विषाणु ज्यादा मारक होता है, इसकी म्रत्यु दर ३०-३५% रहती है, इसके चलते ही चेहरे पर दाग, अंधापन जैसी समस्या पैदा होती रही है, माइनर विषाणु से मौत बहुत कम होती है | यह रोग अत्यंत संक्रामक है। जब तब रोग की महामारी फैला करती है। कोई भी जाति और आयु इससे नहीं बची है। टीके के आविष्कार से पूर्व इस रोग से बहुत अधिक मृत्यु होती थी, यह रोग दस हजार इसा पूर्व से मानव जाति को पीड़ित कर रहा है, १८ वी सदी में हर साल युरोप में ही इस से ४ लाख लोग मरते थे, यह १/३ अंधेपन के मामले हेतु भी उत्तरदायी था, कुल संक्रमण में से २०-६०% तथा बच्चो में ८०% की म्रत्यु दर होती थी|बीसवी सदी में भी इस से ३०० से ५०० मिलियन मौते हुई मानी गयी है, १९५० के शुरू में ही इसके ५० मिलियन मामले होते थे, १९६७ में भी विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इसके चलते प्रति वर्ष विश्व भर में २० लाख मौते होनी मानी थी, पूरी १९ वी तथा २० वी सदी में चले टीकाकरण अभियानों के चलते दिसम्बर 1979 में इस रोग का पूर्ण उन्मूलन हुआ, आज तक के इतिहास में केवल यही ऐसा संक्रामक रोग है जिसका पूर्ण उन्मूलन हुआ है | कारण रोग का कारण एक वाइरस होता है, जो रोगी के नासिकास्राव और थूक तथा त्वचा से पृथम्‌ होनेवाले खुंरडों में रहता है और बिंदुसंक्रमण द्वारा फैलता है। खुरंड भी चूर्णित होकर वस्त्रों या अन्य वस्तुओं द्वारा रोग फैलने का कारण होते हैं। यह वाइरस भी दो प्रकार का होता है। एक उग्र (major), जो उग्र रोग उत्पन्न करता है, दूसरा मृदु (minor), जिससे मृदुरूप का रोग होता है। गायों में रोग (cow-pox) उत्पन्न करनेवाला वाइरस प्रायः मनुष्य को आक्रांत नहीं करता और न वह एक व्यक्ति से दूसरे में पहुँचता है। लक्षण रोग का उद्भवकाल दो सप्ताह का कहा जाता है, किंतु इससे कम का भी हो सकता है। प्रारंभिक लक्षण जी मिचलाना, सिर दर्द, पीठ में तथा विशेषकर त्रिक प्रांत में पीड़ा, शरीर में ऐंठन, ज्वर, गलशोथ, खाँसी, गला बैठ जाना तथा नाक बहना होते हैं, जो दो तीन दिन तक रहते हैं। तदनंतर चर्म पर पित्ती के समान चकत्ते निकल आते हैं। मुँह में, गले में तथा स्वरयंत्र तक छोटी-छोटी स्फोटिकाएँ (vesicles) बन जाती है, जो आगे चलकर व्रणों में परिणत हो जाती हैं। तीसरे या चौथे और कभी-कभी दूसरे ही दिन चेचक का विशेष झलका (rash) दिखाई देता है। इसकी स्थिति और प्रकट होने का क्रम रोग की विशेषता है। छोटे-छोटे लाल रंग के धब्बे (macules) पहले ललाट और कलाई पर प्रगट होते हैं, फिर क्रमशः बाहु, धड़, पीठ और अंत में टाँगों पर निकलते हैं। इनकी संख्या ललाट और चेहरे पर तथा अग्रबाहु और हाथों पर, तथा इनमें भी प्रसारक पेशियों की त्वचा पर, अधिक होती है। बाहु, छाती का ऊपरी भाग तथा कुहनी के मोड़ के सामने के भाग इनसे बहुत कुछ बच जाते हैं। कक्ष (axilla) में तो निकलते ही नहीं। इन विवर्ण धब्बों में भी निश्चित्त क्रम में परिवर्तन होते हैं। कुछ घंटों में इन धब्बों से पिटिकाएँ (papules) बन जाती हैं, जो सूक्ष्म अंकुरों के समान होती हैं। दो तीन दिन तक ये पिटिकाएँ निकलती रहती हैं, तब ये स्फोटिका (vesicles) में परिवर्तित होने लगती हैं। जो पिटिका पहिले निकलती है, वह पहले स्फोटिका बनती है। लगभग २४ घंटे में सब स्फोटिकाएँ बन जाती हैं। प्रत्येक स्फोटिका उभरे हुए दाने के समान होती हैं, जिसमें स्वच्छ द्रव भरा होता है। दो-तीन दिन में यह द्रव पूययुक्त हो जाता है और पूयस्फोटिका (pustule) बन जाती है, जिसके चारों ओर त्वचा में शोथ का लाल घेरा बन जाता है। इस समय वह ज्वर, जो कम हो जाता अथवा उतर जाता है, फिर से बढ़ जाता है। अगले आठ या नौ दिनों में पूयस्फीटिकाएँ सूखने लगती हैं और गहरे भूरे अथव काले रंग के खुरंड बन जाते हैं, जो त्वचा से पूर्णतया पृथक होने में १०-१२ या इससे भी अधिक दिन ले लेते हैं। पिटिका और स्फोटिका अवस्था में रोगी की दशा कष्टदायी नहीं होती, किंतु पूयस्फोटिकाओं के बनने पर ज्वर के बढ़ने के साथ ही उसकी दशा भी उग्र और कष्टदायी हो जाती है। चर्म में स्टेफिलो या स्ट्रिप्टो कोकाई के प्रवेश से स्फीटिकाओं में पूय बनने के साथ त्वचा में शोथ हो जाता है और मुँह, गले, स्वरंयंत्र आदि में व्रण बन जाते हैं। निमोनिया भी हो सकता है। रोग के रूप रोग के तीनों रूपों को जानना आवश्यक है। (१) विरल (discrete) रूप में स्फोटिकाएँ थोड़ी तथा दूर-दूर होती हैं। इस कारण त्वचा पर शोथ अधिक नहीं होता। (२) दूसरे रूप में स्फोटिकाएँ बड़े आकार की और पास-पास होती हैं। बढ़ने पर वे आपस में मिल जाती हैं, जिससे चेहरा या त्वचा के अन्य भाग बड़े-बड़े फफोलों से ढँक जाते हैं। बहुत शोथ होता है, सारा चेहरा सूजा हुआ दिखाई पड़ता है और नेत्र तक नहीं खुल पाते। यह सम्मेलक (confluent) रूप होता है। इसमें अधिक मृत्यु होती हैं। (३) तीसरा रक्श्रावक (Haemorrhagic) रूप है। नेत्र, मुँह, मूत्राशय, आत्र, नासिका आदि से रक्तश्राव होता है, जो मल, मूत्र, थूक, आदि द्वारा बाहर आता है। नेत्र के श्र्वेत भाग में रक्त एकत्र हो जाता है। यह रूप सदा घात होता है। प्रायः रोगी की मृत्यु हो जाती है। चिकित्सा रोग की कोई औषधि नहीं है। पूयोत्पादन की दशा में पेनिसिलिन का प्रयोग लाभकारी होता है। अन्य प्रतिजीवाणुओं का उपयोग भी पूयोत्पादक तृणाणुवों के विषैले प्रभाव को मिटाने के लिए किया जाता है। उत्तम उपचार रोगी के स्वास्थ्य लाभ के लिए आवश्यक है। निरोधक उपाय रोग टीका रोग को रोकने का विशिष्ट उपाय है। जिस वस्तु का टीका लगया जाता है, वह इस रोग की वैक्सीन होती है, जिसको साधारण बोलचाल में लिंफ कहते हैं। यह बछड़ों में चेचक (cow pox) उत्पन्न करके उनमें हुई स्फोटिकाओं के पीव से तैयार किया जाता है। टीका देते समय शुद्ध की हुई त्वचा पर, स्वच्छ यंत्र से खुरचकर, लिंफ की एक बूँद फैलाकर यंत्र के हैंडिल से मल दी जाती है। इससे रोगक्षमता उत्पन्न होकर रोग से रक्षा होती है। यह टीका वैक्सिनेशन कहलाता है और शिशु को प्रथम मास में लगाया जा सकता है। तीसरे मास तक शिशु को अवश्य लगवा देना चाहिए। स्कूल में बालक को भेजने के समय फिर लगवाना चाहिए। ८ से १० वर्ष की आयु में एक बार फिर लगवा देने से जीवनपर्यंत रोग के प्रतिरोध की क्षमता बनी रहती है। रोग की महामारी के दिनों में टीका लगवा लेना उत्तम है।इसे बड़ी माता भी कहते है। इन्हें भी देखें जैविक युद्ध बाहरी कड़ियाँ The Genetic Engineering of Smallpox: WHO’s Retreat from the Eradication of Smallpox Virus इतिहास में चेचक —1750 article from Gentleman's Magazine Revisionist argument regarding smallpox in sixteenth century Peru (अंग्रेजी) सन्दर्भ श्रेणी:रोग श्रेणी:स्वास्थ्य
चेचक का वैज्ञानिक नाम क्या है?
व्हेरोला या व्हेरोला वेरा
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केनरा बैंक भारत की एक प्रमुख वाणिज्यिक बैंक है। भारत में इसकी स्थापना 1906 में, श्री अम्मेम्बल सुब्बा राव पई, एक महान दूरदर्शी और परोपकारी द्वारा की गयी थी[1] इस नाते यह भारत के सबसे पुराने भारतीय बैंकों में से एक है। 2013 तक केनरा बैंक की भारत और अन्य देशों में 3600 से अधिक शाखायें थीं, बैंगलोर में अधिकतम शाखाओं के साथ।[2] इसका मुख्य कार्यालय बंगलूरू में स्थित है। केनरा बैंक, विदेशी मुद्रा व्यापार करने के लिए आवश्यक बल देने के विशेष रूप से निर्यात और अनिवासी भारतीयों की जरूरतों को पूरा करने के लिए इसके विभिन्न विदेशी विभागों के कामकाज की निगरानी के लिए, 1976 में अपने अंतर्राष्ट्रीय प्रभाग की स्थापना की।[3] बैंक की अंतर्राष्ट्रीय उपस्थिति, लंदन, हांगकांग, मास्को, शंघाई, दोहा और दुबई जैसे केन्द्रों मे है। व्यापार के संदर्भ में यह एक भारत के सबसे बडे़ राष्ट्रीयकृत बैंको में से एक है, जिसका कुल कारोबार 598,033 करोड़ रुपयों का है।[4] सन्दर्भ श्रेणी:भारतीय बैंक
केनरा बैंक के संस्थापक कौन हैं?
श्री अम्मेम्बल सुब्बा राव पई
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ओसामा बिन लादेन (१० मार्च १९५७ - २ मई २०११) अल कायदा नामक आतंकी संगठन का प्रमुख था। यह संगठन ११ सितंबर २००१ को अमरीका के न्यूयार्क शहर के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हुए हमले के साथ विश्व के कई देशों में आतंक फैलाने और आतंकी गतिविधियां संचालित करने का दोषी है। २ मई २०११ को पाकिस्तान में अमरीकी सेना ने एक हमले में उसका वध कर डाला। जीवन परिचय सऊदी अरब के एक धनी परिवार में १० मार्च १९५७ में पैदा हुए ओसामा बिन लादेन, अमरीका पर ९/११ के हमलों के बाद दुनिया भर में चर्चा में आए। यह् मोहम्मद बिन लादेन के 52 बच्चों में से 17वा थे। मोहम्मद बिन लादेन सऊदी अरब के अरबपति बिल्डर थे जिनकी कंपनी ने देश की लगभग 80 फ़ीसदी सड़कों का निर्माण किया था। जब ओसामा के पिता की 1968 में एक हेलिकॉप्टर दुर्घटना में मृत्यु हुई तब वो युवावस्था में ही करोड़पति बन गए। सऊदी अरब के शाह अब्दुल्ला अज़ीज़ विश्वविद्यालय में सिविल इंज़ीनियरिंग की पढ़ाई के दौरान वे कट्टरपंथी इस्लामी शिक्षकों और छात्रों के संपर्क में आए। अनेक बहसों और अध्ययन के बाद वे पश्चिमी देशों में मूल्यों के पतन के ख़िलाफ़ और इस्लाम के कट्टरपंथी गुटों के समर्थन में खड़े हो गए। इससे पहले अपने परिवार के साथ युरोप में मनाई गई छुट्टियों की तस्वीरों में ओसामा को फैशनेबल कपड़ों में भी देखा जा सकता हैं। 2016 अफ़वाहें कुछ समाचार पत्रों के अनुसार ओसामा बिन लादेन अभी तक ज़िंदा है और वो वर्तमान में अमेरिका में रह रहा है। [1] यह सब अमेरिका की सीआईए के पूर्व कर्मचारी एडवर्ड स्नोडन दावा किया है। हथियार की सोहबत दिसंबर १९७८ में जब सोवियत संघ ने अफगानिस्तान पर हमला किया तो ओसामा ने आरामपरस्त ज़िदंगी को छोड़ मुजाहिदीन के साथ हाथ मिलाया और शस्त्र उठा लिए। अफ़ग़ानिस्तान में उन्होंने मक्तब-अल-ख़िदमत की स्थापना की जिसमें दुनिया भर से लोगों की भर्ती की गई और सोवियत फ़ौजों से लड़ने के लिए उपकरणों का आयात किया गया। अफ़ग़ानिस्तान में अरब लोगों के साथ मिलकर अभियान करते वक्त ही उन्होने अल कायदा के मूल संगठन की स्थापना कर ली थी। अफ़ग़ानिस्तान में मुजाहिदीन का साथ देने के बाद जब वो वापस साऊदी अरब पहुँचे तो उन्होंने साऊदी अरब के शासकों का विरोध किया। ओसामा का मानना था कि साऊदी अरब के शासकों ने ही अमरीकी सेना को साऊदी ज़मीन पर आने के लिए आमंत्रित किया था। मध्य पूर्व में अमरीकी सेना की मौज़ूदगी से नाराज़ ओसामा बिन लादेन ने १९९८ में अमरीका के खिलाफ़ युद्ध की घोषणा कर दी थी। वर्ष १९९४ में अमरीकी दबाव के कारण सऊदी अरब में उनकी नागरिकता ख़त्म कर दी थी और उसके बाद वे सूडान और फिर जनवरी १९९६ में दोबारा अफ़ग़ानिस्तान में पहुँच गए। ग़ौरतलब है कि वर्ष १९९८ में ही कीनिया और तंज़ानिया में अमरीकी दूतावासों में हुए दो बम धमाकों में 224 लोग मारे गए और 5000 घायल हुए। अमरीका ने ओसामा और उनके 16 सहयोगियों को प्रमुख संदिग्ध बताया। इसके बाद अमरीका ओसामा को दुश्मन के रूप में देखने लगा और ख़ुफ़िया एजेंसी एफ़बीआई की मोस्ट वाँटिड लिस्ट में उन्हें पकड़ने या मारने के लिए २.५ करोड़ डॉलर के पुरस्कार की घोषणा की गई। 9/11 के आरोपी अफ़्रीका में बम घटनाओं के साथ-साथ अमरीका ने उन्हें 2001 के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर में बम धमाके, 1995 में रियाद में कार बम धमाके, सऊदी अरब में ट्रक बम हमले का दोषी पाया। मौत पाकिस्तान के ऐबटाबाद शहर में हुए अमरीकी सेना के अभियान में २ मई २०११ को उसे मार डाला गया। ओसामा बिन लादेन की मौत के 12 घंटे के बाद अमरीका के विमान वाहक पोत यूएसएस कार्ल विन्सन पर शव को एक सफ़ेद चादर में लपेट कर एक बड़े थैले में रखा गया और फिर अरब सागर में उतार दिया गया। अमरीकी अधिकारी के मुताबिक, सऊदी अरब ने शव लेने से इनकार कर दिया था। उसके मारे जाने के बाद अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने अपने पूर्व राष्ट्रपति जॉर्ज बुश को याद करते हुये कहा कि जैसा बुश ने कहा था हमारी जंग इस्लाम के खिलाफ नहीं है। लादेन को पाकिस्तान में इस्लामाबाद के एक कंपाउंड में मारा गया। एक हफ्ते पहले हमारे पास लादेन के बारे में पुख्ता जानकारियां मिल गई थीं। उसके बाद ही कंपाउंड को घेरकर एक छोटे ऑपरेशन में लादेन को मार गिराया गया। बराक ओबामा ने कहा कि लादेन ने पाक के खिलाफ भी जंग छेड़ी थी। हमारे अधिकारियों ने वहां के अधिकारियों से बात कि और वह भी इसे एक ऐतिहासिक दिन मान रहे हैं। यह 10 साल की शहादत की उपलबधि है। हमने कभी भी सुरक्षा से समझौता नहीं किया। अल कायदा से पीड़ित लोगों से मैं कहूंगा कि न्याय मिल चुका है। ओसमा की जीवनयात्रा: एक दृष्टि में 1957: सउदी अरब में लादेन का जन्म। वह निर्माण उद्यमी मोहम्मद अवाद बिन लादेन के 52 बच्चों में से 17वां था। 1969: मोहम्मद बिन लादेन की मौत। उस समय 11 साल के रहे लादेन को लगभग आठ करोड़ डॉलर की राशि विरासत में मिली। लादेन बाद में जेद्दा में सिविल इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए गया। 1973: लादेन ने खुद को चरमपंथी मुस्लिम गुटों से जोड़ा। 1979: युवा लादेन मुजाहिदीन नाम से पहचाने जाने वाले लड़ाकों की मदद के लिए अफगानिस्तान गया। लादेन एक गुट का मुख्य आर्थिक मददगार बन गया, जो बाद में अल कायदा कहलाया। 1989: अफगानिस्तान में सोवियत संघ के हटने के बाद लादेन परिवार की निर्माण कंपनी के लिए काम करने के उद्देश्य से सउदी अरब लौट गया। यहां उसने अफगान युद्ध में मदद के उद्देश्य से कोष जुटाना शुरू कर दिया। अल कायदा वैश्विक गुट बना। मुख्यालय अफगानिस्तान रहा, जबकि उसके सदस्य 35 से 60 देशों में मौजूद थे। 1991: अमेरिकी नीत गठबंधन ने कुवैत से इराकी बलों को खदेड़ने के लिए युद्ध शुरू किया। लादेन ने अमेरिकी बलों के खिलाफ जिहाद की शुरुआत की। सरकार विरोधी गतिविधियों के चलते उसे सउदी अरब से निष्कासित कर दिया गया। सउदी अरब ने उसकी और उसके परिवार की नागरिकता को वापस ले लिया। उसने सूडान में शरण ली। 1993: वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर बम गिरा, छह की मौत, सैकड़ों घायल। इस संबंध में छह मुस्लिम कट्टरपंथी दोषी ठहराए गए। अमेरिकी अधिकारियों के मुताबिक, इनके संबंध लादेन से थे। नवंबर में रियाद में एक इमारत के सामने बम फटा। इस इमारत में अमेरिकी सैन्य परामर्शकार काम करते थे। अमेरिका के पांच और भारत के दो नागरिक मारे गए। हमले में 60 से भी ज्यादा लोग घायल। 1995: नैरोबी और तंजानिया के दार ए सलाम में अमेरिकी दूतावासों के बाहर बम विस्फोट, 224 की मौत। 1996: अमेरिकी दबाव के कारण सूडान ने लादेन को निष्कासित किया। लादेन अपने 10 बच्चों और तीन बीवियों को लेकर अफगानिस्तान पहुंचा। यहां उसने अमेरिकी बलों के खिलाफ जिहाद की घोषणा की। 20 अगस्त 1998: दूतावास पर हमलों के जवाब में अमेरिका ने अफगानिस्तान और सूडान में लादेन के प्रशिक्षण शिविरों पर हमले किए। कम से कम 20 लोग मारे गए। लादेन वहां मौजूद नहीं था। 1998: अमेरिका की एक अदालत ने दूतावासों पर बमबारी के आरोप में लादेन को दोषी ठहराया। उसके सिर पर 50 लाख डॉलर का इनाम रखा गया। 1999: एफबीआई ने लादेन को ‘10 सबसे वांछित आतंकवादियों’ की सूची में रखा। 2000: यमन में एक आत्मघाती हमले में 17 अमेरिकी नाविकों की मौत। 2001: अल-कायदा प्रमुख ने 11 सितंबर को वर्ल्ड ट्रेड सेंटर के ट्विन टॉवर्स और पेंटागन पर हमला किया, 3,000 से ज्यादा लोगों की मौत। इस हमले के बाद अमेरिकी सरकार ने लादेन का नाम मुख्य संदिग्ध के तौर पर घोषित किया। अमेरिकी सुरक्षा बल अफगानिस्तान स्थित तोरा-बोरा की पहाड़ियों में छिपे लादेन को मारने में असफल रहे। खबरों के मुताबिक, लादेन पाकिस्तान भागा। 2002: अमेरिका नीत सैन्य अभियान तेज हुआ। गठबंधन बलों ने मैदानी सुरक्षा बलों की संख्या बढ़ाई। लादेन पर्दे के पीछे रहा, लेकिन कुछ समय बाद अल-जजीरा ने उसकी आवाज वाले दो ऑडियो टेप प्रसारित किए। अमेरिकी खुफिया अधिकारियों के मुताबिक, ये रिकॉर्डिंग प्रामाणिक थी। 2003: ओसामा की दुनिया भर के मुसलमानों से अपील, अपने मतभेद दूर करके जिहाद में भाग लें। पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ के मुताबिक लादेन संभवत: जीवित और अफगानिस्तान में कहीं छिपा हुआ। हालांकि उन्होंने दावा किया कि अल-कायदा अब उतना प्रभावी आतंकवादी गुट नहीं रहा। 2004: चार जनवरी को, अल-जजीरा ने दोबारा लादेन के टेप जारी किए। मार्च में अमेरिकी रक्षा अधिकारियों ने अफगान पाकिस्तान सीमा के पास लादेन के लिए खोज अभियान और तेज किया। 2009: अमेरिकी रक्षा मंत्री रॉबर्ट गेट्स ने कहा कि अधिकारियों के पास कई ‘सालों’ से लादेन के पते के बारे में कोई विश्वसनीय जानकारी नहीं है। 02 मई 2011: अमेरिका ने इस्लामाबाद के पास (अब्बॊटाबाद में) एक विशेष अभियान में लादेन को मार गिराया। बाहरी कड़ियाँ श्रेणी:आतंकवादी श्रेणी:1957 में जन्मे लोग श्रेणी:२०११ में निधन श्रेणी:इस्लामी आतंकवाद
अमरीकी सेना द्वारा आतंकी ओसामा बिन लादेन को कब मारा गया?
२ मई २०११
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Main Page फिर भी दिल है हिन्दुस्तानी 2000 में बनी हिन्दी भाषा की हास्य नाट्य फिल्म है। फिल्म अज़ीज़ मिर्जा ने निर्देशित की थी और शाहरुख़ ख़ान और जूही चावला ने किरदार निभाए थे। इस फिल्म से शाहरुख़, जूही और अज़ीज़ ने अपनी नई प्रोडक्शन कंपनी ड्रीमज़ अनलिमिटेड, अब रेड चिलीज़ एंटरटेनमेंट के तहत पहली बार कोई फिल्म निर्मित की। संक्षेप अजय बक्शी (शाहरुख खान) एक समाचार चैनल में काम करने वाला रिपोर्टर रहता है। उसके पिता आजादी की लड़ाई में भाग लिए थे और अब पेंशन पर जीवन बिता रहे हैं। अजय को लगता है कि उसके पिता का आदर्श और कुर्बानी के बदले उन्हें कुछ भी नहीं मिला। वो अपने पिता के आदर्शों का बिल्कुल भी सम्मान नहीं करता। अजय के कारण उसका चैनल काफी तरक्की कर लेता है और उसके दुश्मन चैनल अजय से निपटने का रास्ता तलाश करते रहते हैं और उसके जवाब में वे लोग रिया बेनर्जी (जूही चावला) को रख लेते हैं। रिया अपनी अदाओं से अजय का इस्तेमाल करती है और अपने काम को पूरा करती है। पप्पू जूनियर उर्फ चोटी (जॉनी लीवर) एक डॉन रहता है, जिसे उसके अपने गिरोह से इस कारण हटाने वाले होते हैं, क्योंकि वो अब तक कोई भी बड़ा अपराध करने में सफल नहीं हो पाया है। चोटी से अजय मिलता है और उसे मंत्री रमाकांत (शक्ति कपूर) के बहनोई (महावीर शाह) पर नेशनल टीवी पे हमला करने का नाटक करने बोलता है, जिससे वो एक बड़ा अपराधी भी बन जायेगा और अजय के चैनल को टीआरपी भी मिल जाएगा। जिस दिन अजय और चोटी उस काम को अंजाम देने वाले होते हैं, उसी दिन मोहन जोशी (परेश रावल) उस मंत्री के बहनोई पर गन ताने खड़े हो जाता है। जब अजय को पता चलता है कि वो चोटी का आदमी नहीं है, तो वो घबरा जाता है। रिया को जब अजय और चोटी के बारे में पता चलता है तो वो भी उनकी मदद करने की कोशिश करती है। मंत्री रमाकांत अपने बहनोई के मौत का लाभ वोट और सहानुभूति के रूप में लेने की सोचता है और एक समारोह का आयोजन करता है। कुछ समय बाद मोहन को गिरफ्तार कर लिया जाता है, पर वो पुलिस की पिटाई के बाद भी अपना मुंह नहीं खोलता है। पुलिस कमिश्नर (अंजान श्रीवास्तव) उसे एक आतंकवादी घोषित कर देता है और उसके अज्ञात आतंकी संगठन में काम करने वाला बताता है। वहीं मोहन किसी तरह जेल से भाग जाता है। अजय और रिया इस मामले को लेकर कार में बैठ कर लड़ाई करते रहते हैं। वे दोनों इस बात से अनजान रहते हैं कि उनके कार में मोहन छुपा हुआ है। अजय जब मोहन को एक आतंकवादी बोलते रहता है, तो ये सुन कर मोहन गुस्से से आग बबूला हो जाता है और बोलने लगता है कि वो आतंकवादी नहीं है। उसके बाद मोहन उन दोनों को अपनी कहानी बताने लगता है। मोहन अपनी पत्नी (नीना कुलकर्णी) और बेटी के साथ खुशी खुशी जीवन बिताते रहता है। एक दिन उसकी बेटी नौकरी पाने के लिए इंटरव्यू देने जाती है, जहाँ उसके साथ बलात्कार होता है और उसे बहुत बुरी तरह से मारा जाता है और उसकी मौत हो जाती है। मोहन बिल्कुल असहाय रह जाता है और इंसाफ की तलाश में दर-दर भटकते रहता है, पर कुछ भी नहीं होता है। उसके बाद वो कानून अपने हाथों में लेने की सोचता है। अजय और रिया उसकी बातों को सुन कर उसकी मदद करने का फैसला करते हैं। मोहन की बातों को रिकॉर्ड कर अजय वो टेप उसके बॉस, काका (सतीश शाह) को दे देता है। पर वो विरोधी पक्ष के मंत्री, मुशरन (गोविन्द नामदेव) के साथ हाथ मिला लेता है। वहीं अजय का बॉस और रिया का बॉस (दलीप ताहिल) भी एक दूसरे से मिल जाते हैं और वे सब मिल कर अजय और रिया से मिले टेप से अपना काम निकालने की कोशिश करते हैं। अपने बॉस को टेप देने के बाद अजय को अपनी गलती का एहसास होता है कि उसका बॉस इसे अपने फायदे के लिए इस्तेमाल करने की सोच रहा है। पहले तो वो उन सब पर गुस्सा होता है, पर बाद में वो टेप वापस हासिल करने का प्लान बनाता है। वो रिया और चोटी के साथ मिल कर टेप वापस हासिल कर लेता है। वहीं मोहन को पुलिस गिरफ्तार कर ले जाती है और उसे फांसी की सजा हो जाती है। मोहन को फांसी होने के लगभग घंटे भर पहले अजय उस टेप को प्रसारित करने में सफल हो जाता है और सारी जनता से इस नाइंसाफ़ी को रोकने का प्रयास करने बोलता है। जनता की पूरी भीड़ अजय के साथ उस जगह पर आने लगती है, जिस जगह पर मोहन को फांसी होने वाली होती है। मंत्री और पुलिस वाले उस भीड़ को रोकने की कोशिश करते रहते हैं। पुलिस इंस्पेक्टर (विश्वजीत प्रधान) अजय को बुरी तरह से मारता है। वहीं एसीपी उन लोगों का साथ देने की सोचता है और पुलिस को हटने का आदेश दे देता है। अजय और उसके साथ आई भीड़ मोहन को बचाने में सफल रहती है। उसका फांसी रुक जाता है। अजय के पिता उससे कहते हैं कि उसके आदर्श उसे कोई भौतिक लाभ नहीं देते, पर उससे भी जरूरी कुछ दिये हैं। अजय को रिया सभी के सामने शादी की बात करती है और अजय मान जाता है। इसी के साथ कहानी समाप्त हो जाती है। मुख्य कलाकार शाहरुख़ ख़ान — अजय बख़्शी जूही चावला — रिया बनर्जी परेश रावल — मोहन जोशी जॉनी लीवर — पप्पू जूनियर अतुल परचुरे — शाहिद शरत सक्सेना — पप्पू के मालिक हैदर अली — अजय के पिता स्मिता जयकर — अजय की माँ अंजान श्रीवास्तव — पुलिस कमिश्नर नीना कुलकर्णी — लक्ष्मी दलीप ताहिल — चिनॉय सतीश शाह — काका गोविन्द नामदेव — मुख्य मंत्री मुशरान शक्ति कपूर — मंत्री रामाकांत महावीर शाह — मदनलाल गुप्ता भारती अचरेकर — रिया की माँ विश्वजीत प्रधान — पुलिस इंस्पेक्टर दिलीप जोशी — सपने शीबा चड्ढा — संवाददाता भरत कपूर — एम शर्मा मोना अम्बेगाँवकर - संगीत All lyrics are written by जावेद अख्तर; all music is composed by जतिन-ललित.No.TitleगायकLength1."फिर भी दिल है हिन्दुस्तानी"उदित नारायण4:002."बन के तेरा जोगी"सोनू निगम, अलका याज्ञनिक4:433."आई एम द बेस्ट" (I)अभिजीत4:174."और क्या और क्या"अभिजीत, अलका याज्ञनिक5:035."कुछ तो बता अरे"अभिजीत, अलका याज्ञनिक4:326."आई एम द बेस्ट" (II)जसपिंदर नरूला4:187."तू ही देख माँ"शंकर महादेवन4:398."आओ ना आओ ना"जतिन पंडित1:53Total length:33:25 नामांकन और पुरस्कार बाहरी कड़ियाँ at IMDb श्रेणी:2000 में बनी हिन्दी फ़िल्म श्रेणी:जतिन–ललित द्वारा संगीतबद्ध फिल्में
फिर भी दिल है हिंदुस्तानी फिल्म के निर्देशक कौन थे?
अज़ीज़ मिर्जा
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विनायक दामोदर सावरकर (pronunciation) (जन्म: २८ मई १८८३ - मृत्यु: २६ फ़रवरी १९६६)[1] भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन के अग्रिम पंक्ति के सेनानी और प्रखर राष्ट्रवादी नेता थे। उन्हें प्रायः स्वातंत्र्यवीर , वीर सावरकर के नाम से सम्बोधित किया जाता है[2]। हिन्दू राष्ट्र की राजनीतिक विचारधारा (हिन्दुत्व) को विकसित करने का बहुत बडा श्रेय सावरकर को जाता है। वे न केवल स्वाधीनता-संग्राम के एक तेजस्वी सेनानी थे अपितु महान क्रान्तिकारी, चिन्तक, सिद्धहस्त लेखक, कवि, ओजस्वी वक्ता तथा दूरदर्शी राजनेता भी थे। वे एक ऐसे इतिहासकार भी हैं जिन्होंने हिन्दू राष्ट्र की विजय के इतिहास को प्रामाणिक ढँग से लिपिबद्ध किया है। उन्होंने १८५७ के प्रथम स्वातंत्र्य समर का सनसनीखेज व खोजपूर्ण इतिहास लिखकर ब्रिटिश शासन को हिला कर रख दिया था[3]।वे एक वकील, राजनीतिज्ञ, कवि, लेखक और नाटककार थे। उन्होंने परिवर्तित हिंदुओं के हिंदू धर्म को वापस लौटाने हेतु सतत प्रयास किये एवं आंदोलन चलाये। सावरकर ने भारत के एक सार के रूप में एक सामूहिक "हिंदू" पहचान बनाने के लिए हिंदुत्व का शब्द गढ़ा [4][5]। उनके राजनीतिक दर्शन में उपयोगितावाद, तर्कवाद और सकारात्मकवाद, मानवतावाद और सार्वभौमिकता, व्यावहारिकता और यथार्थवाद के तत्व थे। सावरकर एक नास्तिक और एक कट्टर तर्कसंगत व्यक्ति थे जो सभी धर्मों में रूढ़िवादी विश्वासों का विरोध करते थे [6][7][8]। जीवन वृत्त प्रारंभिक जीवन विनायक सावरकर का जन्म महाराष्ट्र (तत्कालीन नाम बम्बई) प्रान्त में नासिक के निकट भागुर गाँव में हुआ था। उनकी माता जी का नाम राधाबाई तथा पिता जी का नाम दामोदर पन्त सावरकर था। इनके दो भाई गणेश (बाबाराव) व नारायण दामोदर सावरकर तथा एक बहन नैनाबाई थीं। जब वे केवल नौ वर्ष के थे तभी हैजे की महामारी में उनकी माता जी का देहान्त हो गया। इसके सात वर्ष बाद सन् १८९९ में प्लेग की महामारी में उनके पिता जी भी स्वर्ग सिधारे। इसके बाद विनायक के बड़े भाई गणेश ने परिवार के पालन-पोषण का कार्य सँभाला। दुःख और कठिनाई की इस घड़ी में गणेश के व्यक्तित्व का विनायक पर गहरा प्रभाव पड़ा। विनायक ने शिवाजी हाईस्कूल नासिक से १९०१ में मैट्रिक की परीक्षा पास की। बचपन से ही वे पढ़ाकू तो थे ही अपितु उन दिनों उन्होंने कुछ कविताएँ भी लिखी थीं। आर्थिक संकट के बावजूद बाबाराव ने विनायक की उच्च शिक्षा की इच्छा का समर्थन किया। इस अवधि में विनायक ने स्थानीय नवयुवकों को संगठित करके मित्र मेलों का आयोजन किया। शीघ्र ही इन नवयुवकों में राष्ट्रीयता की भावना के साथ क्रान्ति की ज्वाला जाग उठी।[3] सन् १९०१ में रामचन्द्र त्रयम्बक चिपलूणकर की पुत्री यमुनाबाई के साथ उनका विवाह हुआ। उनके ससुर जी ने उनकी विश्वविद्यालय की शिक्षा का भार उठाया। १९०२ में मैट्रिक की पढाई पूरी करके उन्होने पुणे के फर्ग्युसन कालेज से बी०ए० किया। लन्दन प्रवास १९०४ में उन्हॊंने अभिनव भारत नामक एक क्रान्तिकारी संगठन की स्थापना की। १९०५ में बंगाल के विभाजन के बाद उन्होने पुणे में विदेशी वस्त्रों की होली जलाई। फर्ग्युसन कॉलेज, पुणे में भी वे राष्ट्रभक्ति से ओत-प्रोत ओजस्वी भाषण देते थे। बाल गंगाधर तिलक के अनुमोदन पर १९०६ में उन्हें श्यामजी कृष्ण वर्मा छात्रवृत्ति मिली। इंडियन सोशियोलाजिस्ट और तलवार नामक पत्रिकाओं में उनके अनेक लेख प्रकाशित हुये, जो बाद में कलकत्ता के युगान्तर पत्र में भी छपे। सावरकर रूसी क्रान्तिकारियों से ज्यादा प्रभावित थे।[3]१० मई, १९०७ को इन्होंने इंडिया हाउस, लन्दन में प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की स्वर्ण जयन्ती मनाई। इस अवसर पर विनायक सावरकर ने अपने ओजस्वी भाषण में प्रमाणों सहित १८५७ के संग्राम को गदर नहीं, अपितु भारत के स्वातन्त्र्य का प्रथम संग्राम सिद्ध किया।[9] जून, १९०८ में इनकी पुस्तक द इण्डियन वार ऑफ इण्डिपेण्डेंस: १८५७ तैयार हो गयी परन्त्तु इसके मुद्रण की समस्या आयी। इसके लिये लन्दन से लेकर पेरिस और जर्मनी तक प्रयास किये गये किन्तु वे सभी प्रयास असफल रहे। बाद में यह पुस्तक किसी प्रकार गुप्त रूप से हॉलैंड से प्रकाशित हुई और इसकी प्रतियाँ फ्रांस पहुँचायी गयीं[9]। इस पुस्तक में सावरकर ने १८५७ के सिपाही विद्रोह को ब्रिटिश सरकार के खिलाफ स्वतन्त्रता की पहली लड़ाई बताया। मई १९०९ में इन्होंने लन्दन से बार एट ला (वकालत) की परीक्षा उत्तीर्ण की, परन्तु उन्हें वहाँ वकालत करने की अनुमति नहीं मिली। इण्डिया हाउस की गतिविधियां वीर सावरकर ने लंदन के Gray’s Inn law college में दाखिला लेने के बाद India House में रहना शुरू कर दिया था। इंडिया हाउस उस समय राजनितिक गतिविधियों का केंद्र था जिसे पंडित श्याम प्रसाद मुखर्जी चला रहे थे। सावरकर ने Free India Society का निर्माण किया जिससे वो अपने साथी भारतीय छात्रों को स्वतंत्रता के लिए लड़ने को प्रेरित करते थे। सावरकर ने 1857 की क्रांति पर आधारित किताबे पढी और “The History of the War of Indian Independence” नामक किताब लिखी। उन्होंने 1857 की क्रांति के बारे में गहन अध्ययन किया कि किस तरह अंग्रेजो को जड़ से उखाड़ा जा सकता है। लंदन और मार्सिले में गिरफ्तारी लन्दन में रहते हुये उनकी मुलाकात लाला हरदयाल से हुई जो उन दिनों इण्डिया हाउस की देखरेख करते थे। १ जुलाई १९०९ को मदनलाल ढींगरा द्वारा विलियम हट कर्जन वायली को गोली मार दिये जाने के बाद उन्होंने लन्दन टाइम्स में एक लेख भी लिखा था। १३ मई १९१० को पैरिस से लन्दन पहुँचने पर उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया परन्तु ८ जुलाई १९१० को एस०एस० मोरिया नामक जहाज से भारत ले जाते हुए सीवर होल के रास्ते ये भाग निकले।[10] २४ दिसम्बर १९१० को उन्हें आजीवन कारावास की सजा दी गयी। इसके बाद ३१ जनवरी १९११ को इन्हें दोबारा आजीवन कारावास दिया गया[10]। इस प्रकार सावरकर को ब्रिटिश सरकार ने क्रान्ति कार्यों के लिए दो-दो आजन्म कारावास की सजा दी, जो विश्व के इतिहास की पहली एवं अनोखी सजा थी। सावरकर के अनुसार - "मातृभूमि! तेरे चरणों में पहले ही मैं अपना मन अर्पित कर चुका हूँ। देश-सेवा ही ईश्वर-सेवा है, यह मानकर मैंने तेरी सेवा के माध्यम से भगवान की सेवा की।"[9] आर्बिट्रेशन कोर्ट केस परीक्षण और सज़ा सावरकर ने अपने मित्रो को बम बनाना और गुरिल्ला पद्धति से युद्ध करने की कला सिखाई। 1909 में सावरकर के मित्र और अनुयायी मदन लाल धिंगरा ने एक सार्वजनिक बैठक में अंग्रेज अफसर कर्जन की हत्या कर दी। धींगरा के इस काम से भारत और ब्रिटेन में क्रांतिकारी गतिविधिया बढ़ गयी। सावरकर ने धींगरा को राजनीतिक और कानूनी सहयोग दिया, लेकिन बाद में अंग्रेज सरकार ने एक गुप्त और प्रतिबंधित परीक्षण कर धींगरा को मौत की सजा सुना दी, जिससे लन्दन में रहने वाले भारतीय छात्र भडक गये। सावरकर ने धींगरा को एक देशभक्त बताकर क्रांतिकारी विद्रोह को ओर उग्र कर दिया था। सावरकर की गतिविधियों को देखते हुए अंग्रेज सरकार ने हत्या की योजना में शामिल होने और पिस्तौले भारत भेजने के जुर्म में फंसा दिया, जिसके बाद सावरकर को गिरफ्तार कर लिया गया। अब सावरकर को आगे के अभियोग के लिए भारत ले जाने का विचार किया गया। जब सावरकर को भारत जाने की खबर पता चली तो सावरकर ने अपने मित्र को जहाज से फ्रांस के रुकते वक्त भाग जाने की योजना पत्र में लिखी। जहाज रुका और सावरकर खिड़की से निकलकर समुद्र के पानी में तैरते हुए भाग गए, लेकिन मित्र को आने में देर होने की वजह से उन्हें फिर से गिरफ्तार कर लिया गया। सावरकर की गिरफ्तारी से फ्रेंच सरकार ने ब्रिटिश सरकार का विरोध किया। सेलुलर जेल में नासिक जिले के कलेक्टर जैकसन की हत्या के लिए नासिक षडयंत्र काण्ड के अंतर्गत इन्हें ७ अप्रैल, १९११ को काला पानी की सजा पर सेलुलर जेल भेजा गया। उनके अनुसार यहां स्वतंत्रता सेनानियों को कड़ा परिश्रम करना पड़ता था। कैदियों को यहां नारियल छीलकर उसमें से तेल निकालना पड़ता था। साथ ही इन्हें यहां कोल्हू में बैल की तरह जुत कर सरसों व नारियल आदि का तेल निकालना होता था। इसके अलावा उन्हें जेल के साथ लगे व बाहर के जंगलों को साफ कर दलदली भूमी व पहाड़ी क्षेत्र को समतल भी करना होता था। रुकने पर उनको कड़ी सजा व बेंत व कोड़ों से पिटाई भी की जाती थीं। इतने पर भी उन्हें भरपेट खाना भी नहीं दिया जाता था।।[10] सावरकर ४ जुलाई, १९११ से २१ मई, १९२१ तक पोर्ट ब्लेयर की जेल में रहे। दया याचिका 1920 में वल्लभ भाई पटेल और बाल गंगाधर तिलक के कहने पर ब्रिटिश कानून ना तोड़ने और विद्रोह ना करने की शर्त पर उनकी रिहाई हो गई। स्वतन्त्रता संग्राम रत्नागिरी में प्रतिबंधित स्वतंत्रता १९२१ में मुक्त होने पर वे स्वदेश लौटे और फिर ३ साल जेल भोगी। जेल में उन्होंने हिंदुत्व पर शोध ग्रन्थ लिखा। इस बीच ७ जनवरी १९२५ को इनकी पुत्री, प्रभात का जन्म हुआ। मार्च, १९२५ में उनकी भॆंट राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक, डॉ॰ हेडगेवार से हुई। १७ मार्च १९२८ को इनके बेटे विश्वास का जन्म हुआ। फरवरी, १९३१ में इनके प्रयासों से बम्बई में पतित पावन मन्दिर की स्थापना हुई, जो सभी हिन्दुओं के लिए समान रूप से खुला था। २५ फ़रवरी १९३१ को सावरकर ने बम्बई प्रेसीडेंसी में हुए अस्पृश्यता उन्मूलन सम्मेलन की अध्यक्षता की[10]। १९३७ में वे अखिल भारतीय हिन्दू महासभा के कर्णावती (अहमदाबाद) में हुए १९वें सत्र के अध्यक्ष चुने गये, जिसके बाद वे पुनः सात वर्षों के लिये अध्यक्ष चुने गये। १५ अप्रैल १९३८ को उन्हें मराठी साहित्य सम्मेलन का अध्यक्ष चुना गया। १३ दिसम्बर १९३७ को नागपुर की एक जन-सभा में उन्होंने अलग पाकिस्तान के लिये चल रहे प्रयासों को असफल करने की प्रेरणा दी थी[9]। २२ जून १९४१ को उनकी भेंट नेताजी सुभाष चंद्र बोस से हुई। ९ अक्टूबर १९४२ को भारत की स्वतन्त्रता के निवेदन सहित उन्होंने चर्चिल को तार भेज कर सूचित किया। सावरकर जीवन भर अखण्ड भारत के पक्ष में रहे। स्वतन्त्रता प्राप्ति के माध्यमों के बारे में गान्धी और सावरकर का एकदम अलग दृष्टिकोण था। १९४३ के बाद दादर, बम्बई में रहे। १६ मार्च १९४५ को इनके भ्राता बाबूराव का देहान्त हुआ। १९ अप्रैल १९४५ को उन्होंने अखिल भारतीय रजवाड़ा हिन्दू सभा सम्मेलन की अध्यक्षता की। इसी वर्ष ८ मई को उनकी पुत्री प्रभात का विवाह सम्पन्न हुआ। अप्रैल १९४६ में बम्बई सरकार ने सावरकर के लिखे साहित्य पर से प्रतिबन्ध हटा लिया। १९४७ में इन्होने भारत विभाजन का विरोध किया। महात्मा रामचन्द्र वीर नामक (हिन्दू महासभा के नेता एवं सन्त) ने उनका समर्थन किया। विचार हिंदू राष्ट्रवाद वीर सावरकर 20वीं शताब्दी के सबसे बड़े हिन्दूवादी रहे। विनायक दामोदर सावरकर को बचपन से ही हिंदू शब्द से बेहद लगाव था। वीर सावरकर ने जीवन भर हिंदू हिन्दी और हिंदुस्तान के लिए ही काम किया। वीर सावरकर को 6 बार अखिल भारत हिंदू महासभा का राष्ट्रीय अध्यक्ष चुना गया। 1937 में उन्हें हिंदू महासभा का अध्यक्ष चुना गया, जिसके बाद 1938 में हिंदू महासभा को राजनीतिक दल घोषित कर दिया गया। हिन्दू राष्ट्र की राजनीतिक विचारधारा को विकसित करने का बहुत बड़ा श्रेय सावरकर को जाता है। उनकी इस विचारधारा के कारण आजादी के बाद की सरकारों ने उन्हें वह महत्त्व नहीं दिया जिसके वे वास्तविक हकदार थे। द्वितीय विश्व युद्ध एवं फासीवाद यहूदियों के प्रति मुसलमानों के प्रति हिंदू महासभा की गतिविधियाँ भारत छोड़ो आंदोलन में भूमिका नागरिक प्रतिरोध आंदोलन महात्मा गांधी पर विचार भारत के विभाजन का विरोध फिलिस्तीन में यहूदी राज्य के लिए समर्थन स्वातन्त्र्योत्तर जीवन १५ अगस्त १९४७ को उन्होंने सावरकर सदान्तो में भारतीय तिरंगा एवं भगवा, दो-दो ध्वजारोहण किये। इस अवसर पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए उन्होंने पत्रकारों से कहा कि मुझे स्वराज्य प्राप्ति की खुशी है, परन्तु वह खण्डित है, इसका दु:ख है। उन्होंने यह भी कहा कि राज्य की सीमायें नदी तथा पहाड़ों या सन्धि-पत्रों से निर्धारित नहीं होतीं, वे देश के नवयुवकों के शौर्य, धैर्य, त्याग एवं पराक्रम से निर्धारित होती हैं[9]। ५ फ़रवरी १९४८ को महात्मा गांधी की हत्या के उपरान्त उन्हें प्रिवेन्टिव डिटेन्शन एक्ट धारा के अन्तर्गत गिरफ्तार कर लिया गया। १९ अक्टूबर १९४९ को इनके अनुज नारायणराव का देहान्त हो गया। ४ अप्रैल १९५० को पाकिस्तानी प्रधान मंत्री लियाक़त अली ख़ान के दिल्ली आगमन की पूर्व संध्या पर उन्हें सावधानीवश बेलगाम जेल में रोक कर रखा गया। मई, १९५२ में पुणे की एक विशाल सभा में अभिनव भारत संगठन को उसके उद्देश्य (भारतीय स्वतन्त्रता प्राप्ति) पूर्ण होने पर भंग किया गया। १० नवम्बर १९५७ को नई दिल्ली में आयोजित हुए, १८५७ के प्रथम भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के शाताब्दी समारोह में वे मुख्य वक्ता रहे। ८ अक्टूबर १९५९ को उन्हें पुणे विश्वविद्यालय ने डी०.लिट० की मानद उपाधि से अलंकृत किया। ८ नवम्बर १९६३ को इनकी पत्नी यमुनाबाई चल बसीं। सितम्बर, १९६५ से उन्हें तेज ज्वर ने आ घेरा, जिसके बाद इनका स्वास्थ्य गिरने लगा। १ फ़रवरी १९६६ को उन्होंने मृत्युपर्यन्त उपवास करने का निर्णय लिया। २६ फ़रवरी १९६६ को बम्बई में भारतीय समयानुसार प्रातः १० बजे उन्होंने पार्थिव शरीर छोड़कर परमधाम को प्रस्थान किया[10]। महात्मा गाँधी की हत्या में गिरफ्तार और निर्दोष सिद्ध गोडसे की गवाही कपूर आयोग मृत्यु धार्मिक विचार विरासत सावरकर साहित्य वीर सावरकर ने १०,००० से अधिक पन्ने मराठी भाषा में तथा १५०० से अधिक पन्ने अंग्रेजी में लिखा है। 'द इंडियन वॉर ऑफ इंडिपेंडेंस - १८५७' सावरकर द्वारा लिखित पुस्तक है, जिसमें उन्होंने सनसनीखेज व खोजपूर्ण इतिहास लिख कर ब्रिटिश शासन को हिला डाला था। अधिकांश इतिहासकारों ने १८५७ के प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को एक सिपाही विद्रोह या अधिकतम भारतीय विद्रोह कहा था। दूसरी ओर भारतीय विश्लेषकों ने भी इसे तब तक एक योजनाबद्ध राजनीतिक एवं सैन्य आक्रमण कहा था, जो भारत में ब्रिटिश साम्राज्य के ऊपर किया गया था। पुस्तक एवं फिल्म जालस्थल इनके जन्म की १२५वीं वर्षगांठ पर इनके ऊपर एक अलाभ जालस्थल आरंभ किया गया है। इसका संपर्क अधोलिखित काड़ियों मॆं दिया गया है।[1] इसमें इनके जीवन के बारे में विस्तृत ब्यौरा, डाउनलोड हेतु ऑडियो व वीडियो उपलब्ध हैं। यहां उनके द्वारा रचित १९२४ का दुर्लभ पाठ्य भी उपलब्ध है। यह जालस्थल २८ मई, २००७ को आरंभ हुआ था। चलचित्र १९५८ में एक हिन्दी फिल्म काला पानी (1958 फ़िल्म) बनी थी। जिसमें मुख्य भूमिकाएं देव आनन्द और मधुबाला ने की थीं। इसका निर्देशन राज खोसला ने किया था। इस फिल्म को १९५९ में दोफ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार भी मिले थे। काला पानी १९९६ में मलयालम में प्रसिद्ध मलयाली फिल्म-निर्माता प्रियदर्शन द्वारा निर्देशित फिल्म काला पानी बनी थी। इस फिल्म में हिन्दी फिल्म अभिनेता अन्नू कपूर ने सावरकर का अभिनय किया था। सज़ा-ए-काला पानी २००१ में वेद राही और सुधीर फड़के ने एक बायोपिक चलचित्र बनाया- वीर सावरकर। यह निर्माण के कई वर्षों के बाद रिलीज़ हुई। सावरकर का चरित्र इसमें शैलेन्द्र गौड़ ने किया है। , इनके नाम पर ही पोर्ट ब्लेयर के विमानक्षेत्र का नाम वीर सावरकर अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा रखा गया है। सामाजिक उत्थान सावरकर एक प्रख्यात समाज सुधारक थे। उनका दृढ़ विश्वास था, कि सामाजिक एवं सार्वजनिक सुधार बराबरी का महत्त्व रखते हैं व एक दूसरे के पूरक हैं। उनके समय में समाज बहुत सी कुरीतियों और बेड़ियों के बंधनों में जकड़ा हुआ था। इस कारण हिन्दू समाज बहुत ही दुर्बल हो गया था। अपने भाषणों, लेखों व कृत्यों से इन्होंने समाज सुधार के निरंतर प्रयास किए। हालांकि यह भी सत्य है, कि सावरकर ने सामाजिक कार्यों में तब ध्यान लगाया, जब उन्हें राजनीतिक कलापों से निषेध कर दिया गया था। किंतु उनका समाज सुधार जीवन पर्यन्त चला। उनके सामाजिक उत्थान कार्यक्रम ना केवल हिन्दुओं के लिए बल्कि राष्ट्र को समर्पित होते थे। १९२४ से १९३७ का समय इनके जीवन का समाज सुधार को समर्पित काल रहा। सावरकर के अनुसार हिन्दू समाज सात बेड़ियों में जकड़ा हुआ था।।[10] स्पर्शबंदी: निम्न जातियों का स्पर्श तक निषेध, अस्पृश्यता[11] रोटीबंदी: निम्न जातियों के साथ खानपान निषेध[12][13] बेटीबंदी: खास जातियों के संग विवाह संबंध निषेध[14] व्यवसायबंदी: कुछ निश्चित व्यवसाय निषेध सिंधुबंदी: सागरपार यात्रा, व्यवसाय निषेध वेदोक्तबंदी: वेद के कर्मकाण्डों का एक वर्ग को निषेध शुद्धिबंदी: किसी को वापस हिन्दूकरण पर निषेध अंडमान की सेल्यूलर जेल में रहते हुए उन्होंने बंदियों को शिक्षित करने का काम तो किया ही, साथ ही साथ वहां हिंदी के प्रचार-प्रसार हेतु काफी प्रयास किया। सावरकरजी हिंदू समाज में प्रचलित जाति-भेद एवं छुआछूत के घोर विरोधी थे। बंबई का पतितपावन मंदिर इसका जीवंत उदाहरण है, जो हिन्दू धर्म की प्रत्येक जाति के लोगों के लिए समान रूप से खुला है।।[9] पिछले सौ वर्षों में इन बंधनों से किसी हद तक मुक्ति सावरकर के ही अथक प्रयासों का परिणाम है। मराठी पारिभाषिक शब्दावली में योगदान भाषाशुद्धि का आग्रह धरकर सावरकर ने मराठी भाषा को अनेकों पारिभाषिक शब्द दिये, उनके कुछ उदाहरण निम्नलिखित हैं - [15] इन्हें भी देखें अखिल भारतीय हिन्दू महासभा द इंडियन वॉर ऑफ इंडिपेंडेंस - १८५७ यमुनाबाई सावरकर नारायण दामोदर सावरकर ‎ सेल्युलर जेल अभिनव भारत मामाराव दांते महामहोपाध्याय सिद्धेश्वर शास्त्री चित्तराव गजानन विष्णु दामले वासुदेव बलवंत गोगटे गजानन विश्वनाथ केटकर अप्पा कसार नरसिंहन चिंतामन सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ (दृष्टिकोण पर) (सांध्य-ज्योति दर्पण) (दैनिक भास्कर) (वेब दुनिया) (गूगल पुस्तक ; लेखक - विनायक दामोदरसावरकर) (पैट्रिऑट्स फोरम) (पाञ्चजन्य) पुस्तकें एवं विडियो Unknown parameter |origdate= ignored (|orig-date= suggested) (help); Cite has empty unknown parameters: |origmonth=, |month=, and |coauthors= (help); Check date values in: |access-date= (help)CS1 maint: discouraged parameter (link) CS1 maint: 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श्रेणी:नास्तिक श्रेणी:मृत लोग
विनायक सावरकर का जन्म कब हुआ था?
२८ मई १८८३
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यूराल (The Ural Mountains ; रूसी Ура́льские го́ры, = Uralskiye gory; IPA: [ʊˈralʲskʲɪjə ˈgorɨ]; Bashkir: Урал тауҙары), पश्चिमी रूस की एक पर्वत श्रृंखला है जो उत्तर से दक्षिण की ओर तक विस्तृत है। यह भौगोलिक रूप से एशिया और यूरोप को अलग करती है। इससे कई नदियाँ निकलती है। प्रमुख नदी कामा कैस्पियन सागर में अपना जल विसर्जित करती है। यह पर्वत शृंखला उत्तर में आर्कटिक महासागर से दक्षिण में कैस्पियन सागर तक फैली हुई है, और यूरोप को एशिया महाद्वीप से अलग करती है। इस पर्वत शृंखला का उत्थान कई युगों में हुआ है। शृंखलाओं का विस्तार उत्तर से पश्चिम तथा उत्तर से पूर्व की ओर है और सर्वाधिक ऊँचाई दक्षिणी भाग में पाई जाती है। इस पर्वत की संयुक्त बनावट इसकी भौमिकी दशाओं से स्पष्ट परिलक्षित होती है। यूराल पर्वत शृंखला को तीन भागों में बाँटा जाता है: उत्तरी यूराल पर्वतश्रेणी यह कारा की खाड़ी से प्रारंभ होकर दक्षिण-पश्चिम में ६४ अंश उत्तरी अक्षांश तक फैली है। इसमें कई स्पष्ट श्रंखलाएँ पाई जाती हैं। यह पर्वतक्षेत्र दक्षिण-पूर्व की ओर चट्टानी, ऊबड़-खाबड़ तथा अधिक ढलुवाँ है तथा यूरोपीय रूस के दलदलों की ओर कम ढालू है। इसकी सर्वोच्च चोटियाँ खर्द यवेस ३,७१५ फुट तथा पाईयेर ४,७६४ फुट ऊँची हैं। मुख्य शृंखला के पश्चिमी भाग में परतदार चट्टानें पाई जाती हैं। दक्षिणी भाग में यूराल की सर्वोच्च चोटियाँ सबलिया ५,४०२, फुट तथा मुराई चख्ल, ५,५४५ फुट हैं। पर्वतीय ढालों पर घने जंगल पाए जाते हैं। दक्षिणी भाग में २४०० फुट की ऊँचाई तक वनस्पति पाई जाती है लेकिन उत्तरी भाग में आर्कटिक वृत्त के पास पर्वत के पाद प्रवेश तक ही वनस्पति सीमित है। ६५ अंश उत्तरी अक्षांश के लगभग वनीय वनस्पति लुप्त हो जाती है। ६४ अंश उत्तरी अक्षांश से ४१ अंश उत्तरी अक्षांश के मध्य एक पठारी क्षेत्र है, जहाँ जल विभाजक उत्तर-पश्चिमी दिशा में फैला है। यहाँ विस्तृत, सम तथा दलदली घाटियाँ हैं। चोटियों की औसत ऊँचाई ३,००० फुट है। युंग तुम्प शिखर ४,१७० फुट ऊँचा है। इसश् क्षेत्र में बस्तियों का अभाव है। मध्य यूराल इसकी चौड़ाई लगभग १२५ किमी है। यहाँ लोहे, ताँबे और सोने की खाने हैं। मध्य यूराल की सीमा उत्तर में डेनेजकिन कामेन (४,९०८ फुट) से निर्धारित होती है। निम्न पठारी भाग से साइबेरिया के लिये सड़क जाती है। जलविभाजक १२४५ फुट की ऊँचाई पर पाया जाता है। मध्य यूरैल घने जंगलों से आच्छादित है। घाटियों में तथा निम्न ढालों पर उपजाऊ मिट्टी एवं घनी ग्रामीण बस्ती पाई जाती है। दक्षिणी यूरैल यह उत्तर-पूर्व तथा दक्षिण-पश्चिम में विस्तृत तीन समांतर शृंखलाओं में विभक्त है। मुख्य यूरैल पर्वत की शृंखला २,२०० फुट से २,८०० फुट ऊँची है। मंद ढालों पर अधिकतर जंगल हैं तथा निम्न भागों में चरागाह पाए जाते हैं। दक्षिण की ओर लगभग १,५०० फुट ऊँचा पठारी क्षेत्र है जिसमें नदियों की गहरी घाटियाँ पाई जाती हैं। यह क्षेत्र बोल्गा तक फैला है। यूराल पर्वत एक मोड़दार पर्वत है जिसमें तृतीय युग की चट्टानें पाई जाती हैं। यह पश्चिम में सिल्यूरियन, डिवोनी, कार्वोनी, परमियन तथा ट्रियासिक कल्प की परतों द्वारा ढँका हुआ है। इसमें कई समांतर मोड़ पाए जाते हैं। श्रेणी:रूस के पर्वत श्रेणी:यूरोप की पर्वतमालाएँ
यूराल पर्वत किस देश में स्थित है?
रूस
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राजा रवि वर्मा (१८४८ - १९०६) भारत के विख्यात चित्रकार थे। उन्होंने भारतीय साहित्य और संस्कृति के पात्रों का चित्रण किया। उनके चित्रों की सबसे बड़ी विशेषता हिंदू महाकाव्यों और धर्मग्रन्थों पर बनाए गए चित्र हैं। हिन्दू मिथकों का बहुत ही प्रभावशाली इस्‍तेमाल उनके चित्रों में दिखता हैं। वडोदरा (गुजरात) स्थित लक्ष्मीविलास महल के संग्रहालय में उनके चित्रों का बहुत बड़ा संग्रह है। जीवन परिचय राजा रवि वर्मा का जन्म २९ अप्रैल १८४८ को केरल के एक छोटे से शहर किलिमानूर में हुआ। पाँच वर्ष की छोटी सी आयु में ही उन्होंने अपने घर की दीवारों को दैनिक जीवन की घटनाओं से चित्रित करना प्रारम्भ कर दिया था। उनके चाचा कलाकार राज राजा वर्मा ने उनकी प्रतिभा को पहचाना और कला की प्रारम्भिक शिक्षा दी। चौदह वर्ष की आयु में वे उन्हें तिरुवनंतपुरम ले गये जहाँ राजमहल में उनकी तैल चित्रण की शिक्षा हुई। बाद में चित्रकला के विभिन्न आयामों में दक्षता के लिये उन्होंने मैसूर, बड़ौदा और देश के अन्य भागों की यात्रा की। राजा रवि वर्मा की सफलता का श्रेय उनकी सुव्यवस्थित कला शिक्षा को जाता है। उन्होंने पहले पारम्परिक तंजौर कला में महारत प्राप्त की और फिर यूरोपीय कला का अध्ययन किया। डाक्टर आनंद कुमारस्वामी ने उनके चित्रों का मूल्यांकन कर कलाजगत में उन्हें सुप्रतिष्ठित किया। ५८ वर्ष की उम्र में १९०६ में उनका देहान्त हुआ। कलाकृतियाँ चित्रकला की शिक्षा उन्होंने मदुरै के चित्रकार अलाग्री नायडू तथा विदेशी चित्रकार श्री थियोडोर जेंसन से, जो भ्रमणार्थ भारत आये थे, पायी थी। दोनों यूरोपीय शैली के कलाकार थे। श्री वर्मा की चित्रकला में दोनों शैलियों का सम्मिश्रण दृष्टिगोचर होता है। उन्होंने लगभग ३० वर्ष भारतीय चित्रकला की साधना में लगाए। मुंबई में लीथोग्राफ प्रेस खोलकर उन्होंने अपने चित्रों का प्रकाशन किया था। उनके चित्र विविध विषय के हैं किन्तु उनमें पौराणिक विषयों के और राजाओं के व्यक्ति चित्रों का आधिक्य है। विदेशों में उनकी कृतियों का स्वागत हुआ, उनका सम्मान बढ़ा और पदक पुरस्कार मिले। पौराणिक वेशभूषा के सच्चे स्वरूप के अध्ययन के लिए उन्होंने देशाटन किया था। उनकी कलाकृतियों को तीन प्रमुख श्रेणियों में बाँटा गया है। (१) प्रतिकृति या पोर्ट्रेट, (२) मानवीय आकृतियों वाले चित्र तथा (३) इतिहास व पुराण की घटनाओं से सम्बन्धित चित्र। यद्यपि जनसाधारण में राजा रवि वर्मा की लोकप्रियता इतिहास पुराण व देवी देवताओं के चित्रों के कारण हुई लेकिन तैल माध्यम में बनी अपनी प्रतिकृतियों के कारण वे विश्व में सर्वोत्कृष्ट चित्रकार के रूप में जाने गये। आज तक तैलरंगों में उनकी जैसी सजीव प्रतिकृतियाँ बनाने वाला कलाकार दूसरा नहीं हुआ। उनका देहान्त २ अक्टूबर १९०६ को हुआ। रोचक तथ्य अक्टूबर २००७ में उनके द्वारा बनाई गई एक ऐतिहासिक कलाकृति, जो भारत में ब्रिटिश राज के दौरान ब्रितानी राज के एक उच्च अधिकारी और महाराजा की मुलाक़ात को चित्रित करती है, 1.24 मिलियन डॉलर में बिकी। इस पेंटिंग में त्रावणकोर के महाराज और उनके भाई को मद्रास के गवर्नर जनरल रिचर्ड टेम्पल ग्रेनविले को स्वागत करते हुए दिखाया गया है। ग्रेनविले 1880 में आधिकारिक यात्रा पर त्रावणकोर गए थे जो अब केरल राज्य में है। फ़िल्म निर्माता केतन मेहता ने राजा रवि वर्मा के जीवन पर फिल्म बनायी। मेहता की फिल्म में राजा रवि वर्मा की भूमिका निभायी अभिनेता रणदीप हुड्डा ने। फिल्म की अभिनेत्री है नंदना सेन। इस फिल्म की खास बात यह है कि इसे हिन्दी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं में एक साथ बनाया गया है। अंग्रेजी में इस फिल्म का नाम है कलर ऑफ पैशन्स वहीं हिन्दी में इसे रंग रसिया नाम दिया गया। विश्व की सबसे महँगी साड़ी राजा रवि वर्मा के चित्रों की नकल से सुसज्जित है। बेशकीमती 12 रत्नों व धातुओं से जड़ी, 40 लाख रुपये की साड़ी को दुनिया की सबसे महँगी साड़ी के तौर पर लिम्का बुक ऑफ वर्ल्ड रेकार्ड में शामिल किया गया। मुख्य कृतियाँ खेड्यातिल कुमारी विचारमग्न युवती दमयंती-हंसा संभाषण संगीत सभा अर्जुन व सुभद्रा फल लेने जा रही स्त्री विरहव्याकुल युवती तंतुवाद्यवादक स्त्री शकुन्तला कृष्णशिष्टाई रावण द्वारा रामभक्त जटायु का वध इंद्रजित-विजय भिखारी कुटुंब स्त्री तंतुवाद्य वाजवताना स्त्री देवळात दान देतांना राम की वरुण-विजय नायर जाति की स्त्री प्रणयरत जोडे द्रौपदी किचक-भेटीस घाबरत असताना शंतनु व मत्स्यगंधा शकुंतला राजा दुष्यंतास प्रेम-पत्र लिहीताना कण्व ऋषि के आश्रम की ऋषिकन्या अष्टसिद्धि लक्ष्मी सरस्वती भीष्म प्रतिज्ञा कृष्ण को सजाती हुई यशोदा राधामाधव अर्जुन व सुभद्रा गंगावतरण शकुंतला दुःखी शकुंतला द्रौपदी द्रौपदी का सत्वहरण सैरंध्री सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ (प्रभु जोशी) (अभिव्यक्ति) (लाइव हिन्दुस्तान) श्रेणी:भारतीय चित्रकार श्रेणी:१८४८ जन्म श्रेणी:१९०६ में निधन श्रेणी:केरल के लोग
राजा रवि वर्मा का जन्म कब हुआ?
२९ अप्रैल १८४८
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यूनियन बैंक ऑफ इंडिया (English: Union Bank of India) भारत की सार्वजनिक क्षेत्र की एक इकाई है, जिसकी 55.43% अंश पूंजी भारत सरकार के पास है। बैंक 20 अगस्त 2002 को आरंभिक पब्लिक ऑफर (आई पी ओ) और फरवरी 2006 में फ्लो-ऑन पब्लिक ऑफर के साथ पूँजी बाजार में आया। वर्तमान में, बैंक की 44.57% अंश पूंजी संस्थाओं, व्यक्तियों एवं अन्यों के पास हैं। विगत वर्षो में, बैंक ने एक टेक्नो-सेवी बैंक होने की ख्याति अर्जित की है और आधुनिक बैंकिंग विचारधारा वाले सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में एक अग्रणी बैंक है। यह 2002 में कोर बैंकिंग सॉल्यूशन आरंभ करने वाला एक अग्रणी बैंक है। इस सॉल्यूशन के अंतर्गत बैंक की सभी शाखाएं और 1135 एटीएम, सभी कोर बैकिंग ग्राहकों चाहे वे व्यक्ति हों या कार्पोरेट, ऑन-लाइन टेलीबैंकिंग सुविधा के साथ जुड़े हुए हैं। इसके अलावा, हमारी बहुपयोगी इंटरनेट बैंकिंग सेवा ग्राहकों को उनके खातों से संबंधित व्यापक सूचनाएं एवं बैंकिंग के विभिन्न पहलुओं की जानकारी प्रदान करती है। हमारी नियमित बैंकिंग सेवाओं के अतिरिक्त, नकदी प्रबंधन सेवाएं, बीमा, म्युचुअल फंडों और डीमैट जैसी अन्य मूल्य-वर्धित सेवाएं भी ग्राहक प्राप्त कर सकते हैं। इतिहास बीसवीं सदी के आरंभ में यूनियन बैंक ऑफ इंडिया का शुभारंभ महात्मा गांधी के हाथों से संपन्न हुआ। सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ (APS-C-DV-Prakash फॉण्ट में) श्रेणी:बंबई स्टॉक एक्स्चेंज में सूचित कंपनियां श्रेणी:भारतीय बैंक
यूनियन बैंक ऑफ इंडिया की स्थापना कब हुई थी?
बीसवीं सदी
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मूसा (अंग्रेज़ी: Moses मोसिस, इब्रानी: מֹשֶׁה मोशे) यहूदी, इस्लाम और ईसाईधर्मों में एक प्रमुख नबी (ईश्वरीय सन्देशवाहक) माने जाते हैं। ख़ास तौर पर वो यहूदी धर्म के संस्थापक और इस्लाम धर्म[2] के पैग़म्बर माने जाते हैं। कुरान और बाइबल में हज़रत मूसा की कहानी दी गयी है, जिसके मुताबिक मिस्र के फ़राओ के ज़माने में जन्मे मूसा यहूदी माता-पिता की औलाद थे पर मौत के डर से उनको उनकी माँ ने नील नदी में बहा दिया। उनको फिर फ़राओ की पत्नी ने पाला और मूसा एक मिस्री राजकुमार बने। बाद में मूसा को मालूम हुआ कि वो यहूदी हैं और उनका यहूदी राष्ट्र (जिसको फरओ ने ग़ुलाम बना लिया था) अत्याचार सह रहा है। मूसा का एक पहाड़ पर परमेश्वर से साक्षात्कार हुआ और परमेश्वर की मदद से उन्होंने फ़राओ को हराकर यहूदियों को आज़ाद कराया और मिस्र से एक नयी भूमि इस्राइल पहुँचाया। इसके बाद मूसा ने इस्राइल को ईश्वर द्वारा मिले "दस आदेश" दिये जो आज भी यहूदी धर्म का प्रमुख स्तम्भ है। इन्हें भी देखें यीशु मुहम्मद अब्राहम इज़राइल का इतिहास सन्दर्भ श्रेणी:यहूदी धर्म श्रेणी:इस्लाम श्रेणी:ईसाई धर्म श्रेणी:इस्लाम के पैग़म्बर
मोसेस का जन्म कहाँ हुआ था
मिस्र
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पारा या पारद (संकेत: Hg) आवर्त सारिणी के डी-ब्लॉक का अंतिम तत्व है। इसका परमाणु क्रमांक ८० है। इसके सात स्थिर समस्थानिक ज्ञात हैं, जिनकी द्रव्यमान संख्याएँ १९६, १९८, १९९, २००, २०१, २०२ और २०४ हैं। इनके अतिरिक्त तीन अस्थिर समस्थानिक, जिनकी द्रव्यमान संख्याएँ १९५, १९७ तथा २०५ हैं, कृत्रिम साधनों से निर्मित किए गए हैं। रासायनिक जगत् में केवल यही धातु साधारण ताप और दाब पर द्रव रूप होती है। परिचय द्रव रूप और चाँदी के समान चमकदार होने के कारण पुरातन युग से पारद कौतूहल का विषय रहा है। लगभग १,५०० ईसवी पूर्व में बने मिस्र के मकबरों में पारद प्राप्त हुआ है। भारत में इस तत्व का प्राचीन काल से वर्णन हुआ है। चरक संहिता में दो स्थानों पर इसे 'रस' और 'रसोत्तम' नाम से संबोधित किया गया है। वाग्भट ने औषध बनाने में पारद का वर्णन किया है। वृन्द ने सिद्धयोग में कीटमारक औषधियों में पारद का उपयोग बताया है। तांत्रिक काल (७०० ई. से लेकर १३०० ई.) में पारद का बहुत उल्लेख मिलता है। इस काल में पारद को बहुत महत्ता दी गई। पारद की ओषधियाँ शरीर की व्याधियाँ दूर करने के लिये संस्तुत की गई हैं। तांत्रिक काल के ग्रंथों में पारद के लिये 'रस' शब्द का उपयोग हुआ है। इस काल की पुस्तकों के अनुसार पारद से न केवल अन्य धातुओं के गुण सुधर सकते हैं वरन् उसमें मनुष्य के शरीर को अजर बनाने की शक्ति है। नागार्जुन द्वारा लिखित रसरत्नसमुच्चय नामक ग्रंथ में पारद की अन्य धातुओं से शुद्ध करने तथा उससे बनी अनेक ओषधियों का विस्तृत वर्णन मिलता है। तत्पश्चात् अन्य ग्रंथों में पारद की भस्मों तथा अन्य यौगिकों का प्रचुर वर्णन रहा है। पारे का वर्णन चीन के प्राचीन ग्रंथों में भी हुआ है। यूनान के दार्शनिक थिओफ्रेस्टस ने ईसा से ३०० वर्ष पूर्व 'द्रव चाँदी' (quicksilver) का उल्लेख किया था, जिसे सिनेबार (HgS) को सिरके से मिलाने से प्राप्त किया गया था। बुध (Mercury) ग्रह के आधार पर इस तत्व का नाम 'मरकरी' रखा गया। इसका रासायनिक संकेत (Hg) लैटिन शब्द हाइड्रारजिरम (hydrargyrum) पर आधारित है। पारद मुक्त अवस्था में यदाकदा मिलता है, परंतु इसका मुख्य अयस्क सिनेबार (HgS) है, जो विशेषकर स्पेन, अमरीका, मेक्सिको, जापान, चीन और मध्य यूरोप में मिलता है। सिनेबार को वायु में ऑक्सीकृत करने पर पारद मुक्त हो जाता है। गुणधर्म पारद श्वेत रंग की चमकदार द्रव धातु है, जिसके मुख्य भौतिक गुणधर्म निम्नांकित हैं: संकेत: Hg परमाणुसंख्या: ८० परमाणुभार: २००.५९ गलनांक: - ३८.८९ डिग्री सेंल्सियस क्वथनांक: ३५६.५८ डिग्री सेल्सियस घनत्व: १३.५४६ ग्राम प्रति घन सेंमी. (२० डिग्री सेल्सियस पर) क्रांतिक ताप: १,४६० डेग्री सेल्सियस संगलन की गुप्त उष्मा: २.७ कैलरी परमाणुव्यास: ३.१ एंग्सट्राम आयनीकरण विभव: १०.४३४ eV विद्युत् प्रतिरोधकता: ९४.१ माइक्रोओम-सेंमी. (० डिग्री सें. पर) पारद अनेक धातुओं से मिलकर मिश्रधातु बनाता है, जिन्हें अमलगम (amalgam) कहते हैं। सोडियम तथा अन्य क्षारीय धातुओं के अमलगम अपचायक (reducing agent) होने के कारण अनेक रासायनिक क्रियाओं में उपयोगी सिद्ध हुए हैं। पारद वायु में अप्रभावित रहता है, परंतु गरम करने पर यह ऑक्साइड या (HgO) बनता है, जो अधिक उच्च ताप पर फिर विघटित हो जाता है। यह तनु नाइट्रिक अम्ल और गरम सांद्र सल्फ्यूरिक अम्ल में घुल जाता है। पारद के दो संयोजकता (१ और २) के यौगिक प्राप्त हैं। इसके लवणों का आयनीकरण न्यून मात्रा में होता है। इसके दो क्लोराइड यौगिक प्राप्त हैं। इनमें से एक मरक्यूरस क्लोराइड अथवा कैलोमेल, (Hg2Cl2) है, जिसका भारतीय ग्रंथों में 'कर्पूररस' और 'श्वेतभस्म' के नाम से वर्णन है। दूसरा मरक्यूरिक क्लोराइड, अथवा केरोसिव सब्लिमेट, (HgCl2), हैं, जो विषैला पदार्थ है। पारद के यौगिक अधिकतर विषैले होते हैं, परंतु न्यून मात्रा में औषध रूप में दिए जाते हैं। पारद के मरक्यूरस (१ संयोजकतावाले) और मरक्यूरिक (२ संयोजकता वाले), दोनों लवण, जटिल यौगिक (complex compunds) बनाते हैं। नेसलर का अभिकर्मक (Nessler's reagent) भी एक जटिल यौगिक है, जो मरक्यूरिक क्लोराइड, (HgCl2) पर पोटैशियम आयोडाइड, (KI), की प्रक्रिया से बनता है। यह अमोनिया की सूक्ष्म मात्रा के विश्लेषण में काम आता है। उपयोग द्रव अवस्था, उच्च घनत्व और न्यून वाष्पदबाव के कारण पारद का उपयोग थर्मामीटर, बैरोमीटर, मैनोमीटर तथा अन्य मापक उपकरणों में होता है। पारद का उपयोग अनेक लपों तथा विसर्जन नलिकाओं में भी होता है। ऐसी आशा है कि परमाणु ऊर्जा द्वारा चालित यंत्रों में पारद का उपयोग बढ़ेगा, क्योंकि इसके वाष्प द्वारा ऊष्मा स्थानांतरण सुगमता से हो सकता है। पारद के स्पेक्ट्रम की हरी रेखा को तरंगदैर्घ्य मापन में मानक माना गया है। पारद के अनेक यौगिक औषध रूप में उपयोगी हैं। मरक्यूरिक क्लोराइड, बेंजोएट, सायनाइड, सैलिसिलेट, आयोडाइड आदि कीटाणुनाशक गुणवाले यौगिक हैं। मरक्यूरोक्रोम चोट आदि में बहुधा लगाया जाता है। इसके कुछ यौगिक चर्मरोगों में लाभकारी सिद्ध हुए हैं। पारदवाष्प श्वास द्वारा शरीर में प्रवेश कर हानि करता है। इस कारण पारद के साथ कार्य करने में सावधानी बरतनी चाहिए। पारद के यौगिक बहुधा विषैले होते हैं, जिनके द्वारा मृत्यु हो सकती है। यदि अकस्मात् कोई इन्हें खा ले, तो तुरंत डाक्टर को बुलाना चाहिए। दूध या कच्चा अंडा खिलाकर, गैस्ट्रिक नलिका (gastric tube) द्वारा पेट की शीघ्र सफाई करने से विष का प्रभाव कम हो जाता है। आयुर्वेद एवं रसशास्त्र में पारा औषध में भी पारे का बहुत प्रयोग होता है । पुराणों और वैद्यक की पोथियों में पारे की उत्पत्ति शिव के वीर्य से कही गई है और उसका बड़ा माहात्म्य गाया गया है, यहाँ तक कि यह ब्रह्म या शिवस्वरूप कहा गया है । पारे को लेकर एक रसेश्वर दर्शन ही खड़ा किया गया है जिसमें पारे ही से सृष्टि की उत्पत्ति कही गई है और पिंडस्थैर्य (शरीर को स्थिर रखना) तथा उसके द्वारा मुक्ति की प्राप्ति के लिये रससाधन ही उपाय बताया गया है । भावप्रकाश में पारा चार प्रकार का लिखा गया है— श्वेत, रक्त, पीत और कृष्ण । इसमें श्वेत श्रेष्ठ है । वैद्यक में पारा कृमिनाशक और कुष्ठनाशक, नेत्रहितकारी, रसायन, मधुर आदि छह रसों से युक्त, स्निग्ध, त्रिदोषनाशक, योग-वाही, शुक्रवर्धक और एक प्रकार से संपूर्ण रोगनाशक कहा गया है । पारे में मल, वह्नि, विष, नाम इत्यादि कई दोष मिले रहते हैं, इससे उसे शुद्ध करके खाना चाहिए । पारा शोधने की अनेक विधियाँ वैद्यक के ग्रंथों में मिलती हैं । शोधन कर्म आठ प्रकार के कहे गए हैं— स्वेदन, मर्दन, उत्थापन, पातन, बोधन, नियामन और दीपन । भावप्रकाश में मूर्छन भी कहा गया है जो कुछ ओषधियों के साथ मर्दन का ही परिणाम है । पर्यायवाची—रसराज, रसनाथ, महारस, रस, महातेजभ् , रसेलह, रसोत्तम, सुतराट् , चपल , चैत्र , शिवबीज , शिव , अमृत , रसेंद्र , लोकेश , दुर्धर , पुरभु , रुद्रज , हरतेजः , रसधातु , स्कंद , देव , दिव्यरस , यशोद , सूतक , सिद्धधातु , पारत , हरवीज । चित्रदीर्घा पारे का अयस्क Alchemical symbol Amount of atmospheric mercury deposited at Fremont glacier over the last 270 years. Liquid Mercury Mercury 10mL Mercury drop Mercury drops Rtuť - Hg Mercury in a thermometer. gas discharge tube with mercury सन्दर्भ इन्हें भी देखें रसविद्या श्रेणी:पारा श्रेणी:रासायनिक तत्व श्रेणी:संक्रमण धातु
पारा' का रासायनिक संकेत क्या है?
Hg
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बेगूसराय बिहार प्रान्त का एक जिला है। बेगूसराय मध्य बिहार में स्थित है। १८७० ईस्वी में यह मुंगेर जिले के सब-डिवीजन के रूप में स्थापित हुआ। १९७२ में बेगूसराय स्वतंत्र जिला बना। भौगोलिक प्रारूप बेगूसराय उत्तर बिहार में 25°15' और 25° 45' उतरी अक्षांश और 85°45' और 86°36" पूर्वी देशांतर के बीच स्थित है। बेगूसराय शहर पूरब से पश्चिम लंबबत रूप से राष्ट्रीय राजमार्ग स जुडा है। इसके उत्तर में समस्तीपुर, दक्षिण में गंगा नदी और लक्खीसराय, पूरब में खगडिया और मुंगेर तथा पश्चिम में समस्तीपुर और पटना जिले हैं। प्रशासनिक संरचना सब-डिवीजनों की संख्या-०५ प्रखंडों की संख्या-१८ पंचायतों की संख्या-257 राजस्व वाले गांवों की संख्या-1229 कुल गांवों की संख्या-1198 नगर परिषद बीहट नगर पंचायत बखरी, बलिया और तेघड़ा जनसंख्या २००१ की जनगणना के अनुसार इस जिले की जनसंख्या:[1] पुरुष: 1226057 स्त्री: 1116932 कुल: 2342989 वृद्धि: 29.11% जनसांख्यिकी वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार बेगूसराय की आबादी 33 लाख है। बेगूसराय की जनसंख्या वृद्धि दर 2.3 प्रतिशत वार्षिक है। इसकी जनसंख्या वृद्धि दर में उतार-चढ़ाव होती रही है। बेगूसराय की कुल आबादी का 52 प्रतिशत पुरूष और 48 प्रतिशत महिलाएं है। यहां औसत साक्षरता दर 65 प्रतिशत है जो राष्ट्रीय साक्षरता दर के करीब है। यहां महिला साक्षरता दर 41 प्रतिशत तथा पुरूष साक्षरता दर 51 प्रतिशत है। यहां की 15 प्रतिशत आबादी छह वर्ष के कम उम्र की है। प्रासांगिकता बेगूसराय बिहार के औद्योगिक नगर के रूप में जाना जाता है। यहां मुख्य रूप से तीन बड़े उद्योग हैं- इण्डियन ऑयल कॉर्पोरेशन लिमिटेड का बरौनी तेलशोधक कारखना, बरौनी थर्मल पावर स्टेशन हिंदुस्तान फर्टिलाइजर लिमिटेड पुनर्निर्माण कार्य चालू हैं इसके अलावा कई छोटे-छोटे और सहायक उद्योग भी है। यहां कृषि उद्योगों की संभवना काफी ज्यादा है। आधारभूत ढांचा बेगूसराय बिहार और देश के दूसरे भागों से सड़क और रेलमार्ग से अच्छी तरह जुड़ा हुआ है। नई दिल्ली-गुवाहाटी रेलवे लाईन बेगूसराय होकर गुजरती है। बेगूसराय से पांच किलोमीटर की दूरी पर ऊलाव में एक छोटा हवाई अड्डा भी है, जहां नगर आने वाले महत्वपूर्ण व्यक्तियों का आगमन होता है। बरौनी जंक्शन से दिल्ली, गुवाहाटी, अमृतसर, वाराणसी, लखनऊ, मुंबई, चेन्नई, कोलकाता आदि महत्वपूर्ण शहरों के लिए गाड़िया चलती हैं। बेगूसराय में अठारह रेलवे स्टेशन हैं। जिले का आंतरिक भाग सड़क मार्ग से जुड़ा हुआ है। गंगानदी पर बना राजेंद्र पुल उत्तर और दक्षिण बिहार को जोड़ता है। राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या 28 और 31 बेगूसराय से होकर गुजरती है। जिले में इस मार्ग की कुल लंबाई 95 किलोमीटर है। जिले में राजकीय मार्ग की कुल लंबाई 295 किलोमीटर है। जिले के 95 प्रतिशत गांव सड़कों से जुड़े हुए हैं। साहित्य और संस्कृति बेगूसराय हमारे राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की जन्मभूमि है।[साहित्य 1] उन्हीं के नाम पर नगर का टाउन हॉल दिनकर कला भवन के नाम से जाना जाता है। यहां आकाश गंगा रंग चौपाल बरौनी ,द फैक्ट रंगमंडल जैसी कई प्रमुख नाट्यमंडलियां हैं जिन्होंने राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति प्राप्त की हैं। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से पास आउट गणेश गौरव और प्रवीण गुंजन लगातार कला और साहित्य के लिए प्रतिबद्ध हैं । जहां गणेश गौरव सुदूर देहात के क्षेत्रों में रंग कार्यशाला लगाकर रंगकर्म और कला साहित्य की नई पीढ़ी तैयार करने में लगे हैं । जिले के दिनकर भवन में लगातार नाटकों और कला से जुड़े विभिन्न सांस्कृतिक गतिविधियों का प्रदर्शन किया जाता रहा है । प्रतिवर्ष राष्ट्रीय नाट्य महोत्सव रंग संगम, रंग माहौल, आशीर्वाद नाट्य महोत्सव आदि का आयोजन किया जाता है । जिसमें अंतरराष्ट्रीय स्तर के कलाकारों ने अपनी बेहतरीन प्रस्तुति देते हैं । यहां की संस्कृति , साहित्य को बढ़ावा देने में लब्धप्रतिष्ठ कवि अशांत भोला, रंगमंच के अनिल पतंग, कार्टूनिस्ट सीताराम, अमिय कश्यप, व्यंग्यकार अजय कुमार बंटी, कवि दीनानाथ सुमित्र,युवा कवि डॉ अभिषेक कुमार, युवा कवि नवीन कुमार, कवि प्रफुल्ल मिश्र, युवा कवित्री सीमा संगसार ,समाँ प्रवीण, का नाम उल्लेखनीय है। शिक्षण संस्थाएं बेगूसराय जिले के सभी महाविद्यालय ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय, दरभंगा से संबद्ध हैं। यहां के महत्वपूर्ण महाविद्यालयों में श्री श्री 108 महंथ रामजीवन दास महाविद्यालय(महंथ कॉलेज ) , गणेश दत्त महाविद्यालय, एसबीएसएस कॉलेज, महिला कॉलेज आदि हैं। अहम विद्यालयों में जे.के. इंटर विधालय. बीएसएस इंटर कॉलेजिएट हाईस्कूल, बीपी हाईस्कूल,श्री सरयू प्रसाद सिंह विद्यालय विनोदपुर , सेंट पाउल्स स्कूल, डीएवी बरौनी, बीआर डीएवी (आईओसी), केवी आईओसी, डीएवी इटवानगर,सुह्रद बाल शिक्षा मंदिर, साइबर स्कूल, जवाहर नवोदय विद्यालय, न्यू गोल्डेन इंग्लिश स्कूल,विकास विद्यालय आदि। कृषिभूमि कुल क्षेत्र-1,87,967.5 हेक्टेयर कुल सिंचित क्षेत्र-74,225.57 हेक्टेयर स्थायी सिंचित-6384.29 हेक्टेयर मौसमी सिंचित-4866.37 हेक्टेयर वन्यभूमि-0 हेक्टेयर बागवानी आदि-5000 हेक्टेयर खरीफ-22000 हेक्टेयर रबी- 10000 हेक्टेयर गेहूं-61000 हेक्टेयर जलक्षेत्र और परती-2118 सिंचाई का मुख्य साधन-ट्यूबवेल प्राकृतिक और जल संपदा बेगूसराय जिला गंगा के समतल मैदान में स्थित है। यहां मुख्य नदियां-बूढ़ी गंडक, बलान, बैंती, बाया और चंद्रभागा है। (चंद्रभागा सिर्फ मानचित्रों में बच गई है।) कावर झील एशिया की सबसे बडी मीठे जल की झीलों में से एक है। यह पक्षी अभयारण्य के रूप में प्रसिद्ध है। खनिज आर्थिक महत्व का कोई खनिज नहीं है। वन बेगूसराय में कोई वन नहीं है। लेकिन आम, लीची, केले, अमरूद, नींबू के कई उद्यान हैं। कई जगहों पर अच्छी बागवानी है। चकमुजफ्फर और नावकोठी गांव केले के लिए मशहूर है। यहां जंगली पशु देखने को शायद ही मिलते हैं, लेकिन कावरझील में विविध प्रकार की पक्षियां मिलती हैं। हाल ही में खोज से पता चला है कि गंगा के बेसिन में पेट्रोलियम या गैस के भंडार हैं। यातायात बेगूसराय बिहार और देश के दूसरे भागों से सड़क और रेलमार्ग से अच्छी तरह जुड़ा हुआ है। नई दिल्ली-गुवाहाटी रेललाइन बेगूसराय से गुजरती है। उलाव में एक छोटा सा हवाई अड्डा है, जो बेगूसराय जिला मुख्यालय से पांच किलोमीटर दूर है। इस हवाई अड्डे का इस्तेमाल महत्वपूर्ण व्यक्तियों के शहर आगमन के लिए होता है। बेगूसराय में रेलवे की बड़ी लाइन की लंबाई 119 किलोमीटर और छोटी लाइन की लंबाई 67 किलोमीटर है। बरौनी रेलवे जंक्शन का पूर्व-मध्य बिहार में अहम स्थान है। यहां से दिल्ली, गुवाहाटी, अमृतसर, वाराणसी, लखनऊ, मुंबई, चेन्नई, बैंगलोर आदि जगहों के लिए ट्रेने खुलती है। गंगा नदी पर राजेंद्र पुल उत्तर बिहार और दक्षिण बिहार को जोड़ता है। बेगूसराय जिले में कुल अठारह रेलवे स्टेशन है। जिले का आंतरिक भाग मुख्य सड़कों से जुड़ा हुआ है। राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या 28 और 31 इस जिले को देश के दूसरे भागों से जोड़ता है। जिले में राजमार्ग की लंबाई पचानवे किलोमीटर है, जबकि राजकीय पथ की लंबाई 262 किलोमीटर है। जिले के 95 प्रतिशत गांव सड़क से जुड़े हुए हैं। शहर में कई अच्छे अच्छे होटल हैं। इन्हें भी देखें बिहार स्टेट पॉवर होल्डिंग कंपनी लिमिटेड सन्दर्भ बाहरी कड़ी श्रेणी:बिहार के शहर श्रेणी:बिहार के जिले
बेगूसराय का क्षेत्रफल कितना है?
1,87,967.5 हेक्टेयर
4,108
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युक्रेन पूर्वी यूरोप में स्थित एक देश है। इसकी सीमा पूर्व में रूस, उत्तर में बेलारूस, पोलैंड, स्लोवाकिया, पश्चिम में हंगरी, दक्षिणपश्चिम में रोमानिया और माल्दोवा और दक्षिण में काला सागर और अजोव सागर से मिलती है। देश की राजधानी होने के साथ-साथ सबसे बड़ा शहर भी कीव है। युक्रेन का आधुनिक इतिहास 9वीं शताब्दी से शुरू होता है, जब कीवियन रुस के नाम से एक बड़ा और शक्तिशाली राज्य बनकर यह खड़ा हुआ, लेकिन 12 वीं शताब्दी में यह महान उत्तरी लड़ाई के बाद क्षेत्रीय शक्तियों में विभाजित हो गया। 19वीं शताब्दी में इसका बड़ा हिस्सा रूसी साम्राज्य का और बाकी का हिस्सा आस्ट्रो-हंगेरियन नियंत्रण में आ गया। बीच के कुछ सालों के उथल-पुथल के बाद 1922 में सोवियत संघ के संस्थापक सदस्यों में से एक बना। 1945 में यूक्रेनियाई एसएसआर संयुक्त राष्ट्रसंघ का सह-संस्थापक सदस्य बना। सोवियत संघ के विघटन के बाद युक्रेन फिर से स्वतंत्र देश बना। नाम की उत्पत्ति यूक्रेन के नाम की व्युत्पत्ति के बार में अलग अलग परिकल्पनाये हैं। सबसे व्यापक और पुरानी परिकल्पना के अनुसार, इसका मतलब है "परदेश" हैं, जबकि हाल ही के कुछ अध्ययन में इसका एक अलग ही अर्थ "मातृभूमि" या "क्षेत्र, देश" का दावा किया जा रहा हैं।[1] अधिकतर इंग्लिश बोलने बाले देशो में इसे "द यूक्रेन" के नाम से ही जाना जाता हैं। इतिहास 19वी शताब्दी,प्रथम विश्व युद्ध, और क्रांति 19 वीं सदी में, ऑस्ट्रिया और रूस के बीच में यूक्रेन की स्थिति एक ग्रामीण क्षेत्र जैसी ही थी। इन देशो में होते तेजी से शहरीकरण और आधुनिकीकरण के बीच यूक्रेन में भी राष्ट्रवाद, बुद्धिजीवीवर्ग का उदय हुआ जिनमे प्रमुख नाम राष्ट्रीय कवि तारस शेवचेन्को (1814-1861) तथा राजनीतिक विचारक मिखाइलो द्राहोमनोव (1841-1895) का रहा। रूस-तुर्की युद्ध (1768-1774) के बाद, रूस के शासको ने यूक्रेन में रह रहे तुर्कीयों की जन्संख्या में कमी लाने के लिए, विशेष कर क्रीमिया में जर्मन आव्रजन को प्रोत्साहित किया, जिसका लाभ आगे चल कर कृषिक्षेत्र में हुआ 19 वीं सदी की शुरुआत में, यूक्रेन से रूसी साम्राज्य के सुदूर क्षेत्रों में लोगो का पलायन किया गया था। 1897 की जनगणना के मुताबिक, साइबेरिया में 223,000 और मध्य एशिया में 102,000 यूक्रेनियन थे।[2] जबकि 1906 में ट्रांस-साइबेरियन रेलवे के उद्घाटन के बाद अतिरिक्त 1.6 मिलियन लोगो को यूक्रेन के बाहर बसाया गया। यूक्रेन के बाहर यूक्रेनी की इतनी बड़ी आबादी के कारण, सुदूर पूर्वी क्षेत्र, "ग्रीन यूक्रेन" के रूप में जाना जाने लगा। 19वीं सदी में राष्ट्रवादी और समाजवादी पार्टियों का उदय हुआ। ऑस्ट्रियन गैलिसिया, हैब्सबर्ग्ज़ की अपेक्षाकृत उदार नियम के तहत, राष्ट्रवादी आंदोलन का केंद्र बन गया। प्रथम विश्व युद्ध में यूक्रेन ने केन्द्रीय शक्तियों, की ओर से ऑस्ट्रिया के तहत, तथा ट्रिपल इंटेंट, की ओर से रूस के तहत में प्रवेश किया। 35 लाख यूक्रेनियन, इम्पीरियल रूसी सेना के साथ लड़ाई लड़ी है, जबकि 250,000 ऑस्ट्रो-हंगेरियन सेना के लिए लड़ाई लड़ी। ऑस्ट्रो-हंगेरियन अधिकारियों रूसी साम्राज्य के खिलाफ लड़ने के लिए यूक्रेनी सेना की स्थापना की। जिसे यूक्रेनी गैलिशियन् सेना का नाम दिया गया, जोकि विश्व युद्ध के बाद भी (1919-23) में बोल्शेविक और पोल्स के खिलाफ लड़ाई लड़ते रहे। यहाँ तक की ऑस्ट्रिया में रुशियो के साथ उदार भावना रखने वालो को कठोरता के साथ दमन किया गया।[3] प्रथम विश्व युद्ध ने दोनों साम्राज्यो को नष्ट कर दिया। जहाँ 1917 की रूसी क्रांति में बोल्शेविक के तहत सोवियत संघ के संस्थापना हुई, वही यूक्रैन में भी, उग्र कम्युनिस्ट और समाजवादी प्रभाव के बीच स्वाधीनता के लिए एक यूक्रेनी राष्ट्रीय आंदोलन उभरा। कई यूक्रेनी राज्यों का उथान हुआ जिसकी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता यूक्रेनी पीपुल्स रिपब्लिक (UNR ) के रूप में हुई यूक्रेन के उन राज्यो में जहा कभी रूसी साम्राज्य का राज था वह यूक्रेनी सोवियत समाजवादी गणराज्य (या सोवियत यूक्रेन) की स्थापना; जबकि पूर्व ऑस्ट्रो-हंगेरियन साम्राज्य के क्षेत्र में पश्चिम यूक्रेनी पीपुल्स रिपब्लिक और हुतसुल गणराज्य का गठन हुआ। आगे चल कर 22 जनवरी, 1919 को कीव में सेंट सोफिया स्क्वायर पर यूक्रेनी पीपुल्स रिपब्लिक और पश्चिम यूक्रेनी पीपुल्स रिपब्लिक के बीच जलूक अधिनियम (एकीकरण अधिनियम) के तहत समझौते पर हस्ताक्षर किए गए। जिसने आगे चल कर गृहयुद्ध को जन्म दिया रूसी गृहयुद्ध के समय ही एक बागी आंदोलन जिसे ब्लैक आर्मी नाम दिया गया जो आगे चल कर "यूक्रेन के क्रांतिकारी विद्रोही सेना" कहलाई, जिसका नेतृत्व नेस्टर मखनो कर रहे थे[4] जो की यूक्रेनी क्रांति के दौरान 1918 से 1921 तक स्वशासित राज्य के निर्माड़ के लिए, ट्रोट्स्की के सफ़ेद सेना से, देनीकिन के नेतृत्व में जबकि तसर्रिस्ट के नेतृत्व में लाल सेना से लड़ते रहे हालकि इनका प्रयास अगस्त 1921 में उत्तरार्द्ध में ख़तम हो चूका था। पोलैंड ने पोलिश-यूक्रेनी युद्ध में पश्चिमी यूक्रेन को हराया, लेकिन कीव में बोल्शेविक के खिलाफ विफल रहे। रीगा की शांति के अनुसार, पश्चिमी यूक्रेन को पोलैंड में सम्मलित कर लिया गया, जिसे मार्च 1919 में यूक्रेनी सोवियत समाजवादी गणराज्य के रूप में मान्यता प्राप्त हुई। सोवियत सत्ता की स्थापना के साथ ही, यूक्रेन के आधे क्षेत्र, में पोलैंड, बेलारूस और रूस का अधिकार हो गया, जबकि दनिएस्टर नदी के बाएं किनारे पर मोलदावियन स्वायत्तता राष्ट्र का निर्माड़ हो गया। यूक्रेन दिसंबर 1922 में सोवियत समाजवादी गणराज्य संघ के एक संस्थापक सदस्य बन गया।[5] द्वितीय विश्व युद्ध सितंबर 1939 में पोलैंड पर आक्रमण के बाद, जर्मन और सोवियत सेना ने पोलैंड के क्षेत्र को आपस में बाट लिया। इस प्रकार, यूक्रेनी जनसंख्या बहुल पूर्वी गालिसिया और वोल्होनिया क्षेत्र फिर से यूक्रेन के बाकी हिस्सों के साथ जुड़ गया। और इतिहास में पहली बार, यह राष्ट्र एकजुट हुआ था।[6][7] 1940 में, सोवियत संघ ने बेस्सारबिया और उत्तरी बुकोविना पर अपना कब्ज़ा किया। यूक्रेनी एसएसआर ने बेस्सारबिया के उत्तरी और दक्षिणी जिलों, उत्तरी बुकोविना और हर्त्सा क्षेत्र को अपने में शामिल तो कर किया, लेकिन मोल्डावियन स्वायत्त सोवियत समाजवादी गणराज्य के पश्चिमी भाग को नव निर्मित मोल्डावियन सोवियत समाजवादी गणराज्य को सौंप दिया। यूएसएसआर को उसके विजित इन क्षेत्रो पर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर 1947 के पेरिस शांति संधियों द्वारा मान्यता दिया गया। 22 जून 1941 को जर्मन सेना ने सोवियत संघ पर हमला किया, और करीब चार वर्ष के युद्ध की शुरुआत हो गई। शुरूआत में धुरी राष्ट्र ने बढ़त बनाई पर लाल सेना ने उन्हें रोक दिया। कीव के युद्ध में, इसके भयंकर प्रतिरोध के कारण, शहर को "हीरो शहर" के रूप में प्रशंसित किया गया। 600,000 से ज्यादा सोवियत सैनिक (या सोवियत की पश्चिमी मोर्चा का एक चौथाई) मारे गए या बंदी बना लिया गए।[8][9] यद्यपि अधिकांश यूक्रेनियन, लाल सेना और सोवियत प्रतिरोध के साथ-साथ में लड़े,[10] पश्चिमी यूक्रेन में एक स्वतंत्र यूक्रेनी विद्रोही सेना आंदोलन (यूपीए, 1942) आगे आया। कुछ यूपीए प्रभागों ने स्थानीय पोल्स जातीय का नरसंहार भी किया, जिससे प्रतिहिंसा का माहौल खड़ा हो गया। युद्ध के बाद भी, यूपीए 1950 के दशक तक यूएसएसआर से लड़ते रहा। इसी समय, यूक्रेनी लिबरेशन आर्मी, एक और राष्ट्रवादी आंदोलन सेना, नाजियों के के साथ-साथ लड़ती रही। सोवियत सेना के लिए लड़ते यूक्रेनियनों की संख्या, 4.5 मिलियन से 7 मिलियन के करीब थी।[10] [11] यूक्रेन में प्रो-सोवियत कट्टरपंथी गोरिल्ला प्रतिरोध की संख्या 47,800 अपने अधिग्रहण के शूरूआत में से लेकर 1944 में अपने चरम पर 500,000 तक होने का अनुमान है। जिनमे लगभग 50% संख्या स्थानीय यूक्रेनियन की थी। आम तौर पर, यूक्रेनी विद्रोही सेना के आंकड़े अविश्वसनीय होते हैं, पर इनकी संख्या 15,000 से लेकर 100,000 सैनिकों तक के बीच रही होगी।[12][13] यूक्रेनी एसएसआर में अधिकांश भर्ती, यूक्रेन (Reichskommissariat) के भीतर से ही की गई थी, ताकि इसके संसाधनों और जर्मन आबादी का उपयोग (शोषण) किया जा सके। कुछ पश्चिमी यूक्रेनियन द्वारा, जो 1939 में ही सोवियत संघ में शामिल हुए थे, जर्मनी का मुक्तिदाता के रूप में स्वागत किया गया। हलाकि क्रूर जर्मन शासन ने अंततः अपने ही समर्थकों को खिलाफत की ओर मोड़ दिया, जिन्होंने कभी स्टालिनिस्ट नीतियों के खिलाफ खड़े होकर इनका साथ दिया था।.[14] नाजियों ने सामूहिक खेत व्यवस्था को संरक्षित रखने के बजाय, यहूदियों के खिलाफ नरसंहार चालू कर दिया,यहाँ से जर्मनी में काम करने के लिए लाखों लोगों को भेज गया, और जर्मन उपनिवेशण के लिए एक वंशानुक्रम कार्यक्रम शुरू किया गया उन्होंने कीव नदी पर भोजन के परिवहन को अवरुद्ध कर दिया।[15] द्वितीय विश्व युद्ध की अधिकतर लड़ाई पूर्वी मोर्चो पर हुई। कुछ अनुमानों के अनुसार, लगभग 93% जर्मन की जनहानि यहाँ हुई थी।[16] युद्ध के दौरान यूक्रेनी आबादी का कुल नुकसान का अनुमान 5 से 8 मिलियन के बीच था,[17][18] जिनमे नाजियों द्वारा मारे गए, लगभग डेढ़ लाख यहूदि भी शामिल थे।[19] अनुमानित 8.7 मिलियन सोवियत सैनिकों जोकि नाजियों के खिलाफ लड़ाई में उतरे थे,[20][21][22] में 1.4 मिलियन स्थानीय यूक्रेनियन थे। विजय दिवस, दस यूक्रेनी राष्ट्रीय छुट्टियों में से एक के रूप में मनाया जाता है।[23] द्वितीय विश्व युद्ध के बाद यूक्रेन को युद्ध से भारी क्षति हुई थी, और इसे पुनर्वास के लिए अधिक प्रयासों की आवश्यकता थी। 700 से अधिक शहरों और कस्बे और 28,000 से अधिक गांव नष्ट हो चुके थे।[24] 1946-47 में आये सूखे और युद्धकाल में नष्ट हुए बुनियादी सुविधाओं के कारण आये अकाल से स्थिति और बिगड़ गई। अकाल से हुए मौत की संख्या लाखो में थी।[25][26][27] 1945 में, यूक्रेनी एसएसआर संयुक्त राष्ट्र संगठन के संस्थापक सदस्यों में से एक था।[28] युद्ध के बाद के नए विस्तारित सोवियत संघ में जाति संहार को बढ़ावा मिला। 1 जनवरी 1953 तक, 20% से अधिक वयस्कों के "विशेष निर्वासन" में रूस के बाद यूक्रेनियन का ही स्थान था।[29] इसके अलावा, यूक्रेन के 450,000 से अधिक जर्मन मूल और 200,000 से अधिक क्रीमिया तातारों को निर्वासन के लिए मजबूर किया गया।[29] 1953 में स्टालिन की मृत्यु के बाद, निकिता ख्रुश्चेव सोवियत संघ के नए नेता बने। 1938-49 में यूक्रेनी एसएसआर कम्युनिस्ट पार्टी के प्रमुख सचिव रह चुके ख्रुश्चेव यहाँ के गणराज्य से भली-भांति परिचित थे; संघ के नेता बनते ही, उन्होंने यूक्रेनी और रूसी राष्ट्रों के बीच दोस्ती को बढ़ावा दिया। 1954 में, पेरेसास्लाव की संधि की 300 वीं वर्षगांठ को व्यापक रूप से मनाया गया। क्रीमिया को रूसी एसएफएसआर से यूक्रेनी एसएसआर को स्थानांतरित कर दिया गया।[30] 1950 तक, यूक्रेन ने उद्योग और उत्पादन में युद्ध के पूर्व के स्तर को पार कर लिया।[31] 1946-1950 की पंचवर्षीय योजना के दौरान, सोवियत बजट का लगभग 20%, सोवियत यूक्रेन में निवेश किया गया था, जोकि युद्ध-पूर्व योजना से 5% अधिक था। नतीजतन, यूक्रेनी जनबल 1940 से 1955 तक 33.2% बढ़ गया, जबकि इसी अवधि में औद्योगिक उत्पादन में 2.2 गुना की वृद्धि हुई। सोवियत यूक्रेन जल्द ही औद्योगिक उत्पादन में यूरोप को पीछे छोड़ दिया[32], और साथ ही सोवियत में हथियार उद्योग और उच्च तकनीक अनुसंधान का एक महत्वपूर्ण केंद्र बन गया। इस तरह की एक महत्वपूर्ण भूमिका के परिणामस्वरूप स्थानीय अभिजात वर्ग को एक बड़ा प्रभाव हासिल हो गया। सोवियत नेतृत्व के कई सदस्य यूक्रेन से आए, जिसमे सबसे खास तौर पर लियोनिद ब्रेझ़नेव थे। बाद में जिन्होंने ख्रुश्चेव को हटा कर 1964 से 1982 तक सोवियत नेता बन रहे। कई प्रमुख सोवियत खिलाड़ी, वैज्ञानिक और कलाकार यूक्रेन से आए थे। 26 अप्रैल 1986 को, चेर्नोबिल परमाणु ऊर्जा संयंत्र के एक रिएक्टर में विस्फोट हुआ, परिणामस्वरूप चेर्नोबिल दुर्घटना, इतिहास का सबसे खराब परमाणु रिएक्टर दुर्घटना मन जाता हैं।[33] दुर्घटना के समय, 7 मिलियन लोग उस क्षेत्रों में रहते थे, जिसमें यूक्रेन के 2.2 मिलियन लोग शामिल थे।[34] दुर्घटना के बाद, एक नया शहर स्लावुतच, प्रदूषित क्षेत्र के बाहर बनाया गया और संयंत्र के कर्मचारियों का वह बसाया गया, जिसे आगे चल कर सन 2000 में सेवा मुक्त कर दिया गया। विश्व स्वास्थ्य संगठन के एक रिपोर्ट के अनुसार 56 मौते प्रत्यक्ष से दुर्घटना के समय हुई, तथा आगे चल कर 4,000 अतिरिक्त मृत्यु कैंसर के कारण हुई।[35] स्वतंत्रता २०१४ की क्राँति एवं रूस का सैन्य दखल नवंबर २०१२ में यूरोपीय संघ के साथ अंतिम समय में एक व्यापारिक समझौता रद्द कर रूस के साथ जाने पर के बाद यूक्रेन की राजधानी कीव में सरकार विरोधी प्रदर्शन शुरू हो गए। लाखों लोगों ने इंडिपेंडेंट स्क्वेयर पर प्रदर्शन किया। पुलिस और प्रदर्शनकारियों में झड़प हुई जिसमें 70 से अधिक मारे गए और लगभग 500 घायल हो गए।[36] 23 फ़रवरी 2014 को यूक्रेन के तत्कालीन राष्ट्रपति विक्टर यानुकोविच के ऊपर महाभियोग लगाए जाने के बाद यूक्रेन की संसद ने स्पीकर ओलेक्जेंडर तुर्चिनोव को अस्थायी रूप से राष्ट्रपति के कार्यो की जिम्मेदारी सौंप दी।[37][38] यानुकोविच देश छोड़कर भाग गए। 26 फ़रवरी 2014 को हथियारबंद रूस समर्थकों ने यूक्रेन के क्रीमिया प्रायद्वीप में संसद और सरकारी बिल्डिंगो पर को कब्जा कर लिया।[36] रूसी सैनिकों ने क्रीमिया के हवाई अड्डों, एक बंदरगाह और सैन्य अड्डे पर भी कब्जा कर लिया जिससे रूस और यूक्रेन के बीच आमने-सामने की जंग जैसे हालात बन गए।[39] २ मार्च को रूस की संसद ने भी राष्ट्रपति पुतिन के यूक्रेन में रूसी सेना भेजने के निर्णया का अनुमोदन कर दिया।[40] दुनिया भर में इस संकट से चिंता छा गई और कई देशों के राजनयिक अमले हरकत में आ गए। यही नहीं, 3 मार्च को दुनिया भर के शेयर बाजार गिर गए। अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा और उनके यूरोपीय सहयोगियों ने रूस के कदम को अंतर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा के लिए खतरा बताया।[41] उन्होंने फोन पर रूसी राष्ट्रपति से डेढ़ घंटा बात की।[42]। 4 मार्च को रूस के राष्ट्रपति ने सेनाएँ वापिस बुलाने की घोषणा कर दी।[43] भूगोल 603,628 वर्ग किलोमीटर (233,062 वर्ग मील) के क्षेत्रफल और 2782 किलोमीटर (1729 मील) लम्बी तटरेखा के साथ, यूक्रेन दुनिया का 46वां सबसे बड़ा देश है (मेडागास्कर से पहले, दक्षिण सूडान के बाद)। यह पूर्णतः यूरोपियाई सीमा के अंदर आने वाला सबसे बड़ा देश है एवं यूरोप का दूसरा सबसे बड़ा देश है। [अ][44] सूर्यास्त में क्रीमिया के काला सागर तट पर लैस्पि की खाड़ी समुद्र के स्तर से 1200 मीटर ऊपर स्थित ऐ-पेट्री की चोटी ग्रेट व्हाइट पेलिकन डेन्यूब यूक्रेन के कृषिक्षेत्र एक परिदृश्य, ख़ेर्सोन ओब्लास्त क्रीमिया के काला सागर तट पर कोक्टेबल के पास त्यखाया खाड़ी का दृश्य Kinburn sandbar, Ochakiv Raion, Mykolaiv Oblast बालखोवइतिन, ज़ुईव्सकई क्षेत्रीय परिदृश्य पार्क, दोनेत्स्क ओब्लास्ट मिट्टी उत्तर-पश्चिम से दक्षिण तक यूक्रेन की मिट्टी तीन प्रमुख भागो में विभाजित किया जा सकता है: बलुआ पॉडजॉलीज़ेड मिट्टी क्षेत्र, अत्यंत उपजाऊ काली मिटटी(Chernozem) का मध्यक्षेत्र, तथा भूरा और लवणता उक्त मिट्टी के क्षेत्र।[45] इनमे से सबसे प्रमुख काली मिटटी हैं जोकि यूक्रेन के दो तिहाई हिस्सो में पाई जाती हैं। यह अत्यंत ही उपजाऊ मिटटी होती है इसे दुनिया कि सबसे उपजाऊ क्षेत्रों में से एक माना जाता हैं और "पाव का टोकरी" के नाम से प्रसिद्ध हैं।[46] जैव विविधता यूक्रेन जानवरों, कवक, सूक्ष्मजीवों और पौधों की विभिन्नतओ का घर है। जीव-जंतु यूक्रेन का प्राणि क्षेत्र दो भागो में बता हुआ हैं पहला पश्चिमी क्षेत्र जहा यूरोप कि सीमा स्थित हैं यहाँ मिश्रित वनों की विशिष्ट प्रजातियों देखने को मिलती हैं और दूसरा पूर्वी यूक्रेन की ओर का क्षेत्र हैं जहां मैदान में रहने वाली प्रजातियों पनपती हैं देश के वन क्षेत्रों में जंगली बिल्ली, भेड़िये, जंगली सूअर और नेवला मुख्य रूप से पाए जाते है इनके अलावा यह अन्य की प्रकार के जीव पाया जाते हैं, वही कार्पेथियन पहाड़ियां जोकि कई स्तनधारियों का घर हैं जिनमे भूरे भालू, ऊदबिलाव तथा मिंक प्रमुख हैं कवक कवक की 6,600 से अधिक ज्ञात प्रजातियों को यूक्रेन में दर्ज किया गया है, लेकिन अभी कई संख्या में अज्ञात प्रजातिया भी है। जलवायु यूक्रेन में ज्यादातर समशीतोष्ण जलवायु रहती है, इसके अपवाद क्रिमीआ के दक्षिणी तट हैं जहाँ उपोष्णकटिबंधीय जलवायु है।[47] यहाँ की जलवायु अटलांटिक महासागर से आने वाली मामूली गर्म तथा नम हवा से प्रभावित होती है। औसत वार्षिक तापमान 7 °C (41.9–44.6 °F) उत्तर की ओर, से लेकर 11–13 °C (51.8–55.4 °F)दक्षिण में रहती हैं।[48] वर्षण (बूंदा बांदी, बारिश, ओले के साथ वर्षा, बर्फ, कच्चा ओला और ओलों इत्यादि) का वितरण भी असमान्य है; यह पश्चिम और उत्तर में सबसे अधिक जबकि पूर्व और दक्षिण पूर्व में सबसे कम है। पश्चिमी यूक्रेन में, विशेष रूप कार्पथियान पहाड़ों में वर्षा 1,200 मिलीमीटर (47.2 में) के आसपास प्रतिवर्ष होता है जबकि क्रिमीआ और काला सागर के तटीय क्षेत्रों के आसपास 400 मिलीमीटर होती है। राजनीति यूक्रेन एक गणराज्य है जिसमे अलग विधायी, कार्यकारी और न्यायिक शाखाओं के साथ एक मिश्रित अर्द्ध संसदीय, अर्द्ध राष्ट्रपति प्रणाली लागु हैं। शासन प्रणाली 24 अगस्त 1991 में अपनी स्वतंत्रता के साथ ही यूक्रेन ने 28 जून 1996 को संविधान लागु कर अर्द्ध-राष्ट्रपति गणतंत्र की पद्धति अपना ली, हलाकि 2004 में इसमें कई संशोधन किये गए जिससे इसका झुकाओ संसदीय प्रणाली की और बढ़ गया, हलाकि इसका विरोध सारे देश में किया गया और अंत में यूक्रेनी कोर्ट ने 30 सितंबर 2010 को सारे संविधान में किये गए संशोधनों को ख़ारिज कर पुनः 1996 वाले संविधान को लागु कर दिया 2004 का संवैधानिक संशोधन तथा 2010 पर कोर्ट के आदेश पर राजनीतिक बहस का एक प्रमुख विषय बन गया कि न तो 1996 के संविधान और न ही 2004 के संविधान, "संविधान पूर्ववत करें" करने की क्षमता प्रदान करता हैं, 21 फरवरी 2014 को राष्ट्रपति विक्टर यानुकोवायच और विपक्षी नेताओं के बीच पुनः 2004 के संविधान की वापसी के लिये एक समझौता हुआ। यह समझौता यूरोपीय संघ की मध्यस्थता के बाद हुआ, जिसके बाद सारे देश में विरोध पनपने लगा। नवम्बर 2013 में शुरू हुआ हिंसक झड़प एक सप्ताह तक चला जिसमें कई प्रदर्शनकारी मारे गए। इस सौदे में 2004 के संविधान में देश के लौटने , गठबंधन सरकार का गठन , जल्दी चुनाव का आवाहन तथा जेल से पूर्व प्रधानमंत्री यूलिया Tymoshenko की रिहाई भी शामिल थी। समझौते के एक दिन बाद, यूक्रेन की संसद ने समझौता खारिज कर दिया और अपनी वक्ता ऑलेक्ज़ेंडर Turchynov को अंतरिम राष्ट्रपति और Arseniy Yatsenyuk को यूक्रेन के प्रधानमंत्री के रूप में स्थापित किया। विदेश संबंध प्रशासनिक विभाग सेना सोवियत संघ के विघटन के बाद, यूक्रेन को अपने विरासत में 780,000 सैन्य बल, के साथ दुनिया में तीसरी सबसे बड़ी परमाणु हथियार शस्त्रागार मिला है। मई 1992 में, यूक्रेन ने लिस्बन में अपने सभी परमाणु हथियारों को नष्ट करने हेतु रूस को सौपने और परमाणु अप्रसार संधि पर एक गैर परमाणु हथियार संपन्न राष्ट्र के रूप में शामिल होने के सहमति पत्र पर हस्ताक्षर किए। यूक्रेन ने 1994 में संधि की पुष्टि की, और 1996 तक देश में उपस्थित सभी परमाणु हथियारों से मुक्त हो गया।[49] यूक्रेन, वर्तमान में अनिवार्य भरती आधारित सैन्य को एक पेशेवर स्वयंसेवक सेना में के रूप में परिवर्तित करने के लिए योजना बना रही है।[50] यूक्रेन शांति अभियानों में एक बड़ी भूमिका निभा रहा है। यूक्रेनी सैनिक, यूक्रेनी-पोलिश बटालियन के रूप में कोसोवो में तैनात किए गए हैं।[51]एक यूक्रेनी सैनिक टुकड़ी को लेबनान में "अनिवार्य संघर्ष विराम समझौते" को लागू करने के लिए संयुक्त राष्ट्र अंतरिम सेना के भूमिका के रूप में तैनात किया गया था। 2003-05 में, यूक्रेनी की सैनिक इकाई को पोलिश नियंत्रण में इराक में बहुराष्ट्रीय बल के रूप में तैनात किया गया था। अपनी स्वतंत्रता के बाद से ही, यूक्रेन अपने आप को एक तटस्थ राष्ट्र घोषित करता रहा हैं। 1994 तक देश की रूस, नाटो, और अन्य सीआईएस देशों के साथ सीमित सैन्य साझेदारी है। 2000 के दशक में यूक्रेन सरकार का नाटो की ओर झुकाव बढ़ गया और 2002 में आपस में प्रगण सहयोग स्थापित करने हेतु नाटो-यूक्रेन कार्य योजना पर हस्ताक्षर किए गए। अभी तक रूस के दवाब के कारण यूक्रेन के नाटो में जुड़ने के आसार काम ही दिखाई देते रहे हैं। हलाकि 2008 बुखारेस्ट शिखर सम्मेलन के दौरान नाटो ने घोषणा की कि यूक्रेन, जब परिग्रहण के लिए सभी मानदंडों को पूरा कर लेगा, वह अंततः नाटो का सदस्य बन जाएगा।[52] अर्थव्यवस्था निगमों परिवहन ऊर्जा इंटरनेट यूक्रेन इंटरनेट के क्षेत्र में बड़ी तेजी से बढ़ रहा है जोकि 2007-08 के वित्तीय संकट से अप्रभावित रहा है। जून, 2014 तक, वहाँ 18.2 करोड़ डेस्कटॉप इंटरनेट उपयोगकर्ताओं थे, जोकि कुल वयस्क आबादी का 56% है. इस क्षेत्र का केंद्र-बिंदु, 25 से 34 वर्षीय आयु वर्ग,की और हैं जोकि जनसंख्या का 29% प्रतिनिधित्व करता है।[53] दुनिया के सबसे तेजी से इंटरनेट का उपयोग करने वाले शीर्ष दस देशों के बीच, यूक्रेन 8 वें स्थान पर है।[54] पर्यटन यूक्रेन, विश्व पर्यटन संगठन श्रेणी के अनुसार आने वाले पर्यटकों की संख्या से यूरोप में 8 वें स्थान पर है,[55] क्योंकि यहाँ कई पर्यटकों के आकर्षणो का केंद्र हैं: पहाड़ स्कीइंग, लंबी पैदल यात्रा और मछली पकड़ने के लिए शैलानी यहाँ बड़ी मात्रा में आते हैं काला सागर का तट गर्मियों में गंतव्य के रूप में लोकप्रिय हैं ; विभिन्न पारिस्थितिक तंत्र की प्रकृति भंडार; चर्चों, महल खंडहरो, पार्क स्थलों तथा विभिन्न आउटडोर गतिविधि के लिए प्रशिद्ध हैं अपनी कई ऐतिहासिक स्थलों तथा आतिथ्य बुनियादी सुविधाओं के साथ कीव, लविवि , ओडेसा और कम्यानेट्स-पोडिलसकइ यूक्रेन के प्रमुख पर्यटन केंद्रों में से एक हैं। क्रीमिया की अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार पर्यटन हुआ करता था लेकिन 2014 में रूसी विलय के बाद आगंतुक संख्या में एक बड़ी गिरावट आई है।[56] जनसांख्यिकी जनसंख्या में गिरावट शहरीकरण यूक्रेन में कुल 457 शहर हैं, जिनमे से १७६ ओब्लास्ट वर्ग, 279 छोटे रायोन-स्तरीय शहरों, और दो शहर विशेष कानूनी दर्ज है। 'यूक्रेन में सबसे बड़े शहर या कस्बे' भाषा धर्म स्वास्थ्य शिक्षा संस्कृति यूक्रेन रूढ़िवादी ईसाई धर्म, को की देश में प्रमुख धर्म हैं से बहुत प्रभावित हैं। यूक्रेन की संस्कृति अपने पूर्वी और पश्चिमी पड़ोसी देशो से भी बहुत प्रभावित है इसका उदाहरण वहा की स्थापत्य कला, संगीत और कला में देखने को मिल सकता हैं। कम्युनिस्ट युग का यूक्रेन के कला और लेखन पर काफी गहरा प्रभाव रहा हैं। 1932 में स्टालिन ने सोवियत संघ में समाजवादी यथार्थवाद राज्यनीति का गठन किया जिसने वहा के रचनात्मकता पर बुरा असर डाला। 1980 के दशक glasnost (खुलापन) पेश किया गया और सोवियत कलाकार और लेखक फिर से खुद को अभिव्यक्त करने के लिए स्वतंत्र हो गए। ईस्टर एग की परंपरा, जो की वहा pysanky के रूप में जाना जाता हैं, यूक्रेन की जड़ों में बसा हुआ है। यहाँ पर रंग-बिरंगे ईस्टर एग बनाये जाते हैं जोकि वहा के पारंपरिक विरासत हैं बुनाई और कढ़ाई दस्तकार वस्त्र कला, यूक्रेनी संस्कृति में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं विशेषकर यूक्रेनी शादी की परंपराओं में। यूक्रेनी कढ़ाई, बुनाई और फीता बनाने पारंपरिक कला वहा के लोक पोशाक और पारंपरिक समारोह में देखा जा सकता है। राष्ट्रीय पोशाक बुना जाता है और इसे अत्यधिक सजाया जाता हैं। हस्तनिर्मित करघे के साथ बुनाई अभी भी Krupove गांव, जोकि Rivne Oblast में स्थित हैं प्रचलित है। यह गांव राष्ट्रीय शिल्प निर्माण के दो मशहूर हस्तियों का जन्मस्थान है। नीना Myhailivna और Uliana Petrivna, जिनकी पहचान अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हैं। इस पारंपरिक ज्ञान को सहेजने के लिए गांव में एक स्थानीय बुनाई केंद्र, एक संग्रहालय तथा बुनाई स्कूल खोलने की योजना बनाई जा रही है। साहित्य यूक्रेनी साहित्य का इतिहास 11 वीं सदी से है, उस समय के लेखन मुख्य रूप से पूजन पद्धति संबंधी थे तथा पुराने चर्च स्लावोनिक भाषा में लिखा गया था। साहित्यिक गतिविधि को मंगोल आक्रमण के दौरान अचानक गिरावट का सामना करना पड़ा। यूक्रेनी साहित्य फिर से 14 वीं सदी में विकसित होना शुरू किया और 16 वीं सदी छाप की शुरूआत के बाद , Cossack युग की शुरुआत के साथ में काफी फला-फूला, वहा की कला में रूसी और पोलिश कलाओ का प्रभुत्व दिखा। यह उन्नति 17वीं और 18वीं शताब्दी में वापस स्थगित हो गए, जब यूक्रेनी भाषा में प्रकाशित करने को गैरकानूनी और निषिद्ध कर दिया गया। बहरहाल, 18वीं सदी में आधुनिक साहित्यिक यूक्रेनी फिर से उभर कर सामने आया। वास्तुकला संगीत और सिनेमा संगीत एक लंबे इतिहास के साथ यूक्रेनी संस्कृति का एक प्रमुख हिस्सा है। पारंपरिक लोक संगीत से, पारंपरिक और आधुनिक रॉक संगीत तक, यूक्रेन कई अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता प्राप्त संगीतकारों का घर है। जिनमे किरिल कराबिट्स, ओकेयन एलजी और रुस्लाना शामिल हैं। पारंपरिक यूक्रेनी लोक संगीत के धुन ने पश्चिमी संगीत और आधुनिक जैज़ संगीत को भी प्रभावित किया हैं। 1960 के दशक के मध्य से, पश्चिमी-प्रभावित पॉप संगीत की लोकप्रियता यूक्रेन में बढ़ रही है। लोक गायक और हार्मोनियम वादक मारियाना सदोवस्का प्रमुख कलाकार हैं। यूक्रेन का यूरोपीय सिनेमा पर भी प्रभाव है यूक्रेनी निर्देशक अलेक्जेंडर दोवजहेंको, अक्सर महत्वपूर्ण सोवियत फिल्म निर्माताओं में याद किये जाते है। उन्होंने अपनी खुद की सिनेमाई शैली का आविष्कार किया, यूक्रेनी काव्य सिनेमा, जोकि उस समय के समाजवादी मार्गदर्शक सिद्धांतों से एकदम अलग थे। महत्वपूर्ण और सफल प्रस्तुतियों के बावजूद, यहाँ के फिल्म उद्योग में यूरोपीय और रूसी प्रभाव को लेकर अक्सर बहस होती रहती है। यूक्रेनी निर्माता, अंतरराष्ट्रीय सह-निर्माण में सक्रिय हैं और यूक्रेनी अभिनेता, निर्देशक और चालक दल नियमित रूप से रूसी (पूर्व में सोवियत) फिल्मों में दिखाई देते रहते हैं। पत्रकारिता खेल यूक्रेन को सोवियत के शारीरिक शिक्षा पर जोर से काफी लाभ हुआ। इस तरह की नीतियों से यहाँ कई स्टेडियम, स्विमिंग पूल, जिम्नॅशिअम और कई अन्य पुष्ट सुविधाएं विरासत में यूक्रेन को मिले। यहाँ का सबसे लोकप्रिय खेल फुटबॉल है। यहाँ के शीर्ष पेशेवर लीग में Vyscha LIHA ( "प्रीमियर लीग") का नाम है। कई यूक्रेनियन्स ने सोवियत राष्ट्रीय फुटबॉल टीम के लिए भी खेला हैं यहाँ की राष्ट्रीय टीम 2006 के फीफा विश्व कप में क्वार्टर फाइनल तक पहुंचे, और अंततः चैंपियन इटली से हार का सामना करना पड़ा यूक्रेनियन का मुक्केबाजी में भी अच्छा प्रदर्शन रहा हैं जिनमे Vitali और Wladimir क्लिट्सचको भाइयों को विश्व हैवीवेट चैंपियन का दर्ज हासिल है। शतरंज यूक्रेन में एक लोकप्रिय खेल है। यहाँ के Ruslan Ponomariov पूर्व विश्व चैंपियन रह चुके है। यहाँ यूक्रेन में 85 ग्रैंडमास्टर तथा 198 अंतर्राष्ट्रीय मास्टर्स हैं। यूक्रेन 1994 के शीतकालीन ओलंपिक में अपने ओलंपिक करियर की शुरुआत की। अब तक ओलंपिक में यूक्रेन शीतकालीन ओलंपिक की तुलना में ग्रीष्मकालीन ओलंपिक (पांच मैचों में 115 पदक) में बहुत अधिक सफल रहा है। यूक्रेन वर्तमान में स्वर्ण पदकों की संख्या से 35 वें स्थान पर है। भोजन परंपरागत यूक्रेनी आहार में मुर्गी-सुअर का मांस, मांस, मछली और मशरूम शामिल है। यहाँ आलू, अनाज, ताजा, उबला हुआ या मसालेदार सब्जिया भी बहुत खाये जाते हैं। यहाँ का लोकप्रिय पारंपरिक व्यंजन, Varenyky (मशरूम, आलू, गोभी, पनीर, चेरी के साथ उबला हुआ पकौड़ी), nalysnyky (पनीर, खसखस, मशरूम, मछली के अंडे या मांस के साथ पेनकेक्स),और Pierogi (उबला हुआ आलू और पनीर या मांस के साथ भरा पकौड़ी) शामिल हैं। यूक्रेनी व्यंजन में चिकन कीव और कीव केक भी शामिल हैं। यूक्रेनियन पेय पदार्थो में फल जूस, दूध, छाछ, चाय और कॉफी, बीयर, वाइन और horilka शामिल हैं। Pierogi Borscht Paska टिप्पणी अ. रूस और कजाखस्तान पहले और दूसरे सबसे बड़े देश हैं लेकिन दोनों यूरोपीय और एशियाई महाद्वीपों में फैले हैं। रूस यूक्रेन से अधिक यूरोपियाई क्षेत्रफल रखने वाला एकमात्र देश है। सन्दर्भ श्रेणी:युक्रेन श्रेणी:यूरोप के देश
यूक्रेन की राजधानी क्या है?
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जलाल उद्दीन मोहम्मद अकबर () (१५ अक्तूबर, १५४२-२७ अक्तूबर, १६०५)[1] तैमूरी वंशावली के मुगल वंश का तीसरा शासक था।[2] अकबर को अकबर-ऐ-आज़म (अर्थात अकबर महान), शहंशाह अकबर, महाबली शहंशाह के नाम से भी जाना जाता है।[3][4][5] सम्राट अकबर मुगल साम्राज्य के संस्थापक जहीरुद्दीन मुहम्मद बाबर का पौत्र और नासिरुद्दीन हुमायूं एवं हमीदा बानो का पुत्र था। बाबर का वंश तैमूर और मंगोल नेता चंगेज खां से संबंधित था अर्थात उसके वंशज तैमूर लंग के खानदान से थे और मातृपक्ष का संबंध चंगेज खां से था।[1] अकबर के शासन के अंत तक १६०५ में मुगल साम्राज्य में उत्तरी और मध्य भारत के अधिकाश भाग सम्मिलित थे और उस समय के सर्वाधिक शक्तिशाली साम्राज्यों में से एक था।[6] बादशाहों में अकबर ही एक ऐसा बादशाह था, जिसे हिन्दू मुस्लिम दोनों वर्गों का बराबर प्यार और सम्मान मिला। उसने हिन्दू-मुस्लिम संप्रदायों के बीच की दूरियां कम करने के लिए दीन-ए-इलाही नामक धर्म की स्थापना की।[1] उसका दरबार सबके लिए हर समय खुला रहता था। उसके दरबार में मुस्लिम सरदारों की अपेक्षा हिन्दू सरदार अधिक थे। अकबर ने हिन्दुओं पर लगने वाला जज़िया ही नहीं समाप्त किया, बल्कि ऐसे अनेक कार्य किए जिनके कारण हिन्दू और मुस्लिम दोनों उसके प्रशंसक बने।[7] अकबर मात्र तेरह वर्ष की आयु में अपने पिता नसीरुद्दीन मुहम्मद हुमायुं की मृत्यु उपरांत दिल्ली की राजगद्दी पर बैठा था।[8] अपने शासन काल में उसने शक्तिशाली पश्तून वंशज शेरशाह सूरी के आक्रमण बिल्कुल बंद करवा दिये थे, साथ ही पानीपत के द्वितीय युद्ध में नवघोषित हिन्दू राजा हेमू को पराजित किया था।[9][10] अपने साम्राज्य के गठन करने और उत्तरी और मध्य भारत के सभी क्षेत्रों को एकछत्र अधिकार में लाने में अकबर को दो दशक लग गये थे। उसका प्रभाव लगभग पूरे भारतीय उपमहाद्वीप पर था और इस क्षेत्र के एक बड़े भूभाग पर सम्राट के रूप में उसने शासन किया। सम्राट के रूप में अकबर ने शक्तिशाली और बहुल हिन्दू राजपूत राजाओं से राजनयिक संबंध बनाये और उनके यहाँ विवाह भी किये।[9][11] अकबर के शासन का प्रभाव देश की कला एवं संस्कृति पर भी पड़ा।[12] उसने चित्रकारी आदि ललित कलाओं में काफ़ी रुचि दिखाई और उसके प्रासाद की भित्तियाँ सुंदर चित्रों व नमूनों से भरी पड़ी थीं। मुगल चित्रकारी का विकास करने के साथ साथ ही उसने यूरोपीय शैली का भी स्वागत किया। उसे साहित्य में भी रुचि थी और उसने अनेक संस्कृत पाण्डुलिपियों व ग्रन्थों का फारसी में तथा फारसी ग्रन्थों का संस्कृत व हिन्दी में अनुवाद भी करवाया था। अनेक फारसी संस्कृति से जुड़े चित्रों को अपने दरबार की दीवारों पर भी बनवाया।[12] अपने आरंभिक शासन काल में अकबर की हिन्दुओं के प्रति सहिष्णुता नहीं थी, किन्तु समय के साथ-साथ उसने अपने आप को बदला और हिन्दुओं सहित अन्य धर्मों में बहुत रुचि दिखायी। उसने हिन्दू राजपूत राजकुमारियों से वैवाहिक संबंध भी बनाये।[13][14][15] अकबर के दरबार में अनेक हिन्दू दरबारी, सैन्य अधिकारी व सामंत थे। उसने धार्मिक चर्चाओं व वाद-विवाद कार्यक्रमों की अनोखी शृंखला आरंभ की थी, जिसमें मुस्लिम आलिम लोगों की जैन, सिख, हिन्दु, चार्वाक, नास्तिक, यहूदी, पुर्तगाली एवं कैथोलिक ईसाई धर्मशस्त्रियों से चर्चाएं हुआ करती थीं। उसके मन में इन धार्मिक नेताओं के प्रति आदर भाव था, जिसपर उसकी निजि धार्मिक भावनाओं का किंचित भी प्रभाव नहीं पड़ता था।[16] उसने आगे चलकर एक नये धर्म दीन-ए-इलाही की भी स्थापना की, जिसमें विश्व के सभी प्रधान धर्मों की नीतियों व शिक्षाओं का समावेश था। दुर्भाग्यवश ये धर्म अकबर की मृत्यु के साथ ही समाप्त होता चला गया।[9][17] इतने बड़े सम्राट की मृत्यु होने पर उसकी अंत्येष्टि बिना किसी संस्कार के जल्दी ही कर दी गयी। परम्परानुसार दुर्ग में दीवार तोड़कर एक मार्ग बनवाया गया तथा उसका शव चुपचाप सिकंदरा के मकबरे में दफना दिया गया।[18][19] जीवन परिचय नाम अकबर का जन्म पूर्णिमा के दिन हुआ था इसलिए उनका नाम बदरुद्दीन मोहम्मद अकबर रखा गया था। बद्र का अर्थ होता है पूर्ण चंद्रमा और अकबर उनके नाना शेख अली अकबर जामी के नाम से लिया गया था। कहा जाता है कि काबुल पर विजय मिलने के बाद उनके पिता हुमायूँ ने बुरी नज़र से बचने के लिए अकबर की जन्म तिथि एवं नाम बदल दिए थे।[20] किवदंती यह भी है कि भारत की जनता ने उनके सफल एवं कुशल शासन के लिए अकबर नाम से सम्मानित किया था। अरबी भाषा मे अकबर शब्द का अर्थ "महान" या बड़ा होता है। आरंभिक जीवन अकबर का जन्म राजपूत शासक राणा अमरसाल के महल उमेरकोट, सिंध (वर्तमान पाकिस्तान) में २३ नवंबर, १५४२ (हिजरी अनुसार रज्जब, ९४९ के चौथे दिन) हुआ था। यहां बादशाह हुमायुं अपनी हाल की विवाहिता बेगम हमीदा बानो बेगम के साथ शरण लिये हुए थे। इस पुत्र का नाम हुमायुं ने एक बार स्वप्न में सुनाई दिये के अनुसार जलालुद्दीन मोहम्मद रखा।[4][21] बाबर का वंश तैमूर और मंगोल नेता चंगेज खां से था यानि उसके वंशज तैमूर लंग के खानदान से थे और मातृपक्ष का संबंध चंगेज खां से था। इस प्रकार अकबर की धमनियों में एशिया की दो प्रसिद्ध जातियों, तुर्क और मंगोल के रक्त का सम्मिश्रण था।[1] हुमायूँ को पश्तून नेता शेरशाह सूरी के कारण फारस में अज्ञातवास बिताना पड़ रहा था।[22] किन्तु अकबर को वह अपने संग नहीं ले गया वरन रीवां (वर्तमान मध्य प्रदेश) के राज्य के एक ग्राम मुकुंदपुर में छोड़ दिया था। अकबर की वहां के राजकुमार राम सिंह प्रथम से, जो आगे चलकर रीवां का राजा बना, के संग गहरी मित्रता हो गयी थी। ये एक साथ ही पले और बढ़े और आजीवन मित्र रहे। कालांतर में अकबर सफ़ावी साम्राज्य (वर्तमान अफ़गानिस्तान का भाग) में अपने एक चाचा मिर्ज़ा अस्कारी के यहां रहने लगा। पहले वह कुछ दिनों कंधार में और फिर १५४५ से काबुल में रहा। हुमायूँ की अपने छोटे भाइयों से बराबर ठनी ही रही इसलिये चाचा लोगों के यहाँ अकबर की स्थिति बंदी से कुछ ही अच्छी थी। यद्यपि सभी उसके साथ अच्छा व्यवहार करते थे और शायद दुलार प्यार कुछ ज़्यादा ही होता था। किंतु अकबर पढ़ लिख नहीं सका वह केवल सैन्य शिक्षा ले सका। उसका काफी समय आखेट, दौड़ व द्वंद्व, कुश्ती आदि में बीता, तथा शिक्षा में उसकी रुचि नहीं रही। जब तक अकबर आठ वर्ष का हुआ, जन्म से लेकर अब तक उसके सभी वर्ष भारी अस्थिरता में निकले थे जिसके कारण उसकी शिक्षा-दीक्षा का सही प्रबंध नहीं हो पाया था। अब हुमायूं का ध्यान इस ओर भी गया। लगभग नवम्बर, +--9-9 में उसने अकबर की शिक्षा प्रारंभ करने के लिए काबुल में एक आयोजन किया। किंतु ऐन मौके पर अकबर के खो जाने पर वह समारोह दूसरे दिन सम्पन्न हुआ। मुल्ला जादा मुल्ला असमुद्दीन अब्राहीम को अकबर का शिक्षक नियुक्त किया गया। मगर मुल्ला असमुद्दीन अक्षम सिद्ध हुए। तब यह कार्य पहले मौलाना बामजीद को सौंपा गया, मगर जब उन्हें भी सफलता नहीं मिली तो मौलाना अब्दुल कादिर को यह काम सौंपा गया। मगर कोई भी शिक्षक अकबर को शिक्षित करने में सफल न हुआ। असल में, पढ़ने-लिखने में अकबर की रुचि नहीं थी, उसकी रुचि कबूतर बाजी, घुड़सवारी और कुत्ते पालने में अधिक थी।[1] किन्तु ज्ञानोपार्जन में उसकी रुचि सदा से ही थी। कहा जाता है, कि जब वह सोने जाता था, एक व्यक्ति उसे कुछ पढ़ कर सुनाता रह्ता था।[23] समय के साथ अकबर एक परिपक्व और समझदार शासक के रूप में उभरा, जिसे कला, स्थापत्य, संगीत और साहित्य में गहरी रुचि रहीं। राजतिलक शेरशाह सूरी के पुत्र इस्लाम शाह के उत्तराधिकार के विवादों से उत्पन्न अराजकता का लाभ उठा कर हुमायूँ ने १५५५ में दिल्ली पर पुनः अधिकार कर लिया। इसमें उसकी सेना में एक अच्छा भाग फारसी सहयोगी ताहमस्प प्रथम का रहा। इसके कुछ माह बाद ही ४८ वर्ष की आयु में ही हुमायूँ का आकस्मिक निधन अपने पुस्तकालय की सीढ़ी से भारी नशे की हालात में गिरने के कारण हो गया।[24][25] तब अकबर के संरक्षक बैरम खां ने साम्राज्य के हित में इस मृत्यु को कुछ समय के लिये छुपाये रखा और अकबर को उत्तराधिकार हेतु तैयार किया। १४ फ़रवरी, १५५६ को अकबर का राजतिलक हुआ। ये सब मुगल साम्राज्य से दिल्ली की गद्दी पर अधिकार की वापसी के लिये सिकंदर शाह सूरी से चल रहे युद्ध के दौरान ही हुआ। १३ वर्षीय अकबर का कलनौर, पंजाब में सुनहरे वस्त्र तथा एक गहरे रंग की पगड़ी में एक नवनिर्मित मंच पर राजतिलक हुआ। ये मंच आज भी बना हुआ है।[26][27] उसे फारसी भाषा में सम्राट के लिये शब्द शहंशाह से पुकारा गया। वयस्क होने तक उसका राज्य बैरम खां के संरक्षण में चला।[28][29] राज्य का विस्तार खोये हुए राज्य को पुनः प्राप्त करने के लिये अकबर के पिता हुमायूँ के अनवरत प्रयत्न अंततः सफल हुए और वह सन्‌ १५५५ में हिंदुस्तान पहुँच सका किंतु अगले ही वर्ष सन्‌ १५५६ में राजधानी दिल्ली में उसकी मृत्यु हो गई और गुरदासपुर के कलनौर नामक स्थान पर १४ वर्ष की आयु में अकबर का राजतिलक हुआ। अकबर का संरक्षक बैराम खान को नियुक्त किया गया जिसका प्रभाव उस पर १५६० तक रहा। तत्कालीन मुगल राज्य केवल काबुल से दिल्ली तक ही फैला हुआ था। इसके साथ ही अनेक समस्याएं भी सिर उठाये खड़ी थीं। १५६३ में शम्सुद्दीन अतका खान की हत्या पर उभरा जन आक्रोश, १५६४-६५ के बीच उज़बेक विद्रोह और १५६६-६७ में मिर्ज़ा भाइयों का विद्रोह भी था, किंतु अकबर ने बड़ी कुशलता से इन समस्याओं को हल कर लिया। अपनी कल्पनाशीलता से उसने अपने सामंतों की संख्या बढ़ाई।[30] इसी बीच १५६६ में महाम अंका नामक उसकी धाय के बनवाये मदरसे (वर्तमान पुराने किले परिसर में) से शहर लौटते हुए अकबर पर तीर से एक जानलेवा हमला हुआ, जिसे अकबर ने अपनी फुर्ती से बचा लिया, हालांकि उसकी बांह में गहरा घाव हुआ। इस घटना के बाद अकबर की प्रशसन शैली में कुछ बदलाव आया जिसके तहत उसने शासन की पूर्ण बागडोर अपने हाथ में ले ली। इसके फौरन बाद ही हेमु के नेतृत्व में अफगान सेना पुनः संगठित होकर उसके सम्मुख चुनौती बनकर खड़ी थी। अपने शासन के आरंभिक काल में ही अकबर यह समझ गया कि सूरी वंश को समाप्त किए बिना वह चैन से शासन नहीं कर सकेगा। इसलिए वह सूरी वंश के सबसे शक्तिशाली शासक सिकंदर शाह सूरी पर आक्रमण करने पंजाब चल पड़ा। दिल्ली की सत्ता-बदल दिल्ली का शासन उसने मुग़ल सेनापति तारदी बैग खान को सौंप दिया। सिकंदर शाह सूरी अकबर के लिए बहुत बड़ा प्रतिरोध साबित नही हुआ। कुछ प्रदेशो मे तो अकबर के पहुंचने से पहले ही उसकी सेना पीछे हट जाती थी। अकबर की अनुपस्थिति मे हेमू विक्रमादित्य ने दिल्ली और आगरा पर आक्रमण कर विजय प्राप्त की। ६ अक्तूबर १५५६ को हेमु ने स्वयं को भारत का महाराजा घोषित कर दिया। इसी के साथ दिल्ली मे हिंदू राज्य की पुनः स्थापना हुई। सत्ता की वापसी दिल्ली की पराजय का समाचार जब अकबर को मिला तो उसने तुरन्त ही बैरम खान से परामर्श कर के दिल्ली की तरफ़ कूच करने का इरादा बना लिया। अकबर के सलाहकारो ने उसे काबुल की शरण में जाने की सलाह दी। अकबर और हेमु की सेना के बीच पानीपत मे युद्ध हुआ। यह युद्ध पानीपत का द्वितीय युद्ध के नाम से प्रसिद्ध है। संख्या में कम होते हुए भी अकबर ने इस युद्ध मे विजय प्राप्त की। इस विजय से अकबर को १५०० हाथी मिले जो मनकोट के हमले में सिकंदर शाह सूरी के विरुद्ध काम आए। सिकंदर शाह सूरी ने आत्मसमर्पण कर दिया और अकबर ने उसे प्राणदान दे दिया। चहुँओर विस्तार दिल्ली पर पुनः अधिकार जमाने के बाद अकबर ने अपने राज्य का विस्तार करना शुरू किया और मालवा को १५६२ में, गुजरात को १५७२ में, बंगाल को १५७४ में, काबुल को १५८१ में, कश्मीर को १५८६ में और खानदेश को १६०१ में मुग़ल साम्राज्य के अधीन कर लिया। अकबर ने इन राज्यों में एक एक राज्यपाल नियुक्त किया। अकबर यह नही चाहता था की मुग़ल साम्राज्य का केन्द्र दिल्ली जैसे दूरस्थ शहर में हो; इसलिए उसने यह निर्णय लिया की मुग़ल राजधानी को फतेहपुर सीकरी ले जाया जाए जो साम्राज्य के मध्य में थी। कुछ ही समय के बाद अकबर को राजधानी फतेहपुर सीकरी से हटानी पड़ी। कहा जाता है कि पानी की कमी इसका प्रमुख कारण था। फतेहपुर सीकरी के बाद अकबर ने एक चलित दरबार बनाया जो कि साम्राज्य भर में घूमता रहता था इस प्रकार साम्राज्य के सभी कोनो पर उचित ध्यान देना सम्भव हुआ। सन १५८५ में उत्तर पश्चिमी राज्य के सुचारू राज पालन के लिए अकबर ने लाहौर को राजधानी बनाया। अपनी मृत्यु के पूर्व अकबर ने सन १५९९ में वापस आगरा को राजधानी बनाया और अंत तक यहीं से शासन संभाला। प्रशासन सन्‌ १५६० में अकबर ने स्वयं सत्ता संभाल ली और अपने संरक्षक बैरम खां को निकाल बाहर किया। अब अकबर के अपने हाथों में सत्ता थी लेकिन अनेक कठिनाइयाँ भी थीं। जैसे - शम्सुद्दीन अतका खान की हत्या पर उभरा जन आक्रोश (१५६३), उज़बेक विद्रोह (१५६४-६५) और मिर्ज़ा भाइयों का विद्रोह (१५६६-६७) किंतु अकबर ने बड़ी कुशलता से इन समस्याओं को हल कर लिया। अपनी कल्पनाशीलता से उसने अपने सामंतों की संख्या बढ़ाई। सन्‌ १५६२ में आमेर के शासक से उसने समझौता किया - इस प्रकार राजपूत राजा भी उसकी ओर हो गये। इसी प्रकार उसने ईरान से आने वालों को भी बड़ी सहायता दी। भारतीय मुसलमानों को भी उसने अपने कुशल व्यवहार से अपनी ओर कर लिया। धार्मिक सहिष्णुता का उसने अनोखा परिचय दिया - हिन्दू तीर्थ स्थानों पर लगा कर जज़िया हटा लिया गया (सन्‌ १५६३)। इससे पूरे राज्यवासियों को अनुभव हो गया कि वह एक परिवर्तित नीति अपनाने में सक्षम है। इसके अतिरिक्त उसने जबर्दस्ती युद्धबंदियो का धर्म बदलवाना भी बंद करवा दिया। मुद्रा अकबर ने अपने शासनकाल में ताँबें, चाँदी एवं सोनें की मुद्राएँ प्रचलित की। इन मुद्राओं के पृष्ठ भाग में सुंदर इस्लामिक छपाई हुआ करती थी। अकबर ने अपने काल की मुद्राओ में कई बदलाव किए। उसने एक खुली टकसाल व्यवस्था की शुरुआत की जिसके अन्दर कोई भी व्यक्ति अगर टकसाल शुल्क देने मे सक्षम था तो वह किसी दूसरी मुद्रा अथवा सोने से अकबर की मुद्रा को परिवर्तित कर सकता था। अकबर चाहता था कि उसके पूरे साम्राज्य में समान मुद्रा चले।[31] राजधानी स्थानांतरण पानीपत का द्वितीय युद्ध होने के बाद हेमू को मारकर दिल्ली पर अकबर ने पुनः अधिकार किया। इसके बाद उसने अपने राज्य का विस्तार करना शुरू किया और मालवा को १५६२ में, गुजरात को १५७२ में, बंगाल को १५७४ में, काबुल को १५८१ में, कश्मीर को १५८६ में और खानदेश(वर्तमान बुढ़हानपुर, महाराष्ट्र का भाग) को १६०१ में मुग़ल साम्राज्य के अधीन कर लिया। अकबर ने इन राज्यों में प्रशासन संभालने हेतु एक-एक राज्यपाल नियुक्त किया। उसे राज संभालने के लिये दिल्ली कई स्थानों से दूर लगा और ये प्रतीत हुआ कि इससे प्रशासन में समस्या आ सकती है, अतः उसने निर्णय लिया की मुग़ल राजधानी को आगरा के निकट फतेहपुर सीकरी ले जाया जाए[32] जो साम्राज्य के लगभग मध्य में थी। एक पुराने बसे ग्राम सीकरी पर अकबर ने नया शहर बनवाया जिसे अपनी जीत यानि फतह की खुशी में फतेहाबाद या फतेहपुर नाम दिया गया। जल्दी ही इसे पूरे वर्तमान नाम फतेहपुर सीकरी से बुलाया जाने लगा। यहां के अधिकांश निर्माण उन १४ वर्षों के ही हैं, जिनमें अकबर ने यहां निवास किया। शहर में शाही उद्यान, आरामगाहें, सामंतों व दरबारियों के लिये आवास तथा बच्चों के लिये मदरसे बनवाये गए। ब्लेयर और ब्लूम के अनुसार शहर के अंदर इमारतें दो प्रमुख प्रकार की हैं- सेवा इमारतें, जैसे कारवांसेरी, टकसाल, निर्माणियां, बड़ा बाज़ार (चहर सूक) जहां दक्षिण-पश्चिम/उत्तर पूर्व अक्ष के लम्बवत निर्माण हुए हैं और दूसरा शाही भाग, जिसमें भारत की सबसे बड़ी सामूहिक मस्जिद है, साथ ही आवासीय तथा प्रशासकीय इमारते हैं जिसे दौलतखाना कहते हैं। ये पहाड़ी से कुछ कोण पर स्थित हैं तथा किबला के साथ एक कोण बनाती हैं।[33] किन्तु ये निर्णय सही सिद्ध नहीं हुआ और कुछ ही समय के बाद अकबर को राजधानी फतेहपुर सीकरी से हटानी पड़ी। इसके पीछे पानी की कमी प्रमुख कारण था। फतेहपुर सीकरी के बाद अकबर ने एक चलित दरबार की रचना की जो पूरे साम्राज्य में घूमता रहता था और इस प्रकार साम्राज्य के सभी स्थानों पर उचित ध्यान देना संभव हुआ। बाद में उसने सन १५८५ में उत्तर पश्चिमी भाग के लिए लाहौर को राजधानी बनाया। मृत्यु के पूर्व अकबर ने सन १५९९ में राजधानी वापस आगरा बनायी और अंत तक यहीं से शासन संभाला।[30] आगरा शहर का नया नाम दिया गया अकबराबाद जो साम्राज्य की सबसे बड़ा शहर बना। शहर का मुख्य भाग यमुना नदी के पश्चिमी तट पर बसा था। यहां बरसात के पानी की निकासी की अच्छी नालियां-नालों से परिपूर्ण व्यवस्था बनायी गई। लोधी साम्राज्य द्वारा बनवायी गई गारे-मिट्टी से बनी नगर की पुरानी चारदीवारी को तोड़कर १५६५ में नयी बलुआ पत्थर की दीवार बनवायी गई। अंग्रेज़ इतिहासकार युगल ब्लेयर एवं ब्लूम के अनुसार इस लाल दीवार के कारण ही इसका नाम लाल किला पड़ा। वे आगे लिखते हैं कि यह किला पिछले किले के नक्शे पर ही कुछ अर्धवृत्ताकार बना था। शहर की ओर से इसे एक दोहरी सुरक्षा दीवार घेरे है, जिसके बाहर गहरी खाई बनी है। इस दोहरी दीवार में उत्तर में दिल्ली गेट व दक्षिण में अमर सिंह द्वार बने हैं। ये दोनों द्वार अपने धनुषाकार मेहराब-रूपी आलों व बुर्जों तथा लाल व सफ़ेद संगमर्मर पर नीली ग्लेज़्ड टाइलों द्वारा अलंकरण से ही पहचाने जाते हैं। वर्तमान किला अकबर के पौत्र शाहजहां द्वारा बनवाया हुआ है। इसमें दक्षिणी ओर जहांगीरी महल और अकबर महल हैं।[33] नीतियां विवाह संबंध आंबेर के कछवाहा राजपूत राज भारमल ने अकबर के दरबार में अपने राज्य संभालने के कुछ समय बाद ही प्रवेश पाया था। इन्होंने अपनी राजकुमारी हरखा बाई का विवाह अकबर से करवाना स्वीकार किया।[34][35] विवाहोपरांत मुस्लिम बनी और मरियम-उज़-ज़मानी कहलायी। उसे राजपूत परिवार ने सदा के लिये त्याग दिया और विवाह के बाद वो कभी आमेर वापस नहीं गयी। उसे विवाह के बाद आगरा या दिल्ली में कोई महत्त्वपूर्ण स्थान भी नहीं मिला था, बल्कि भरतपुर जिले का एक छोटा सा गांव मिला था।[36] उसकी मृत्यु १६२३ में हुई थी। उसके पुत्र जहांगीर द्वारा उसके सम्मान में लाहौर में एक मस्जिद बनवायी गई थी।[37] भारमल को अकबर के दरबार में ऊंचा स्थान मिला था और उसके बाद उसके पुत्र भगवंत दास और पौत्र मानसिंह भी दरबार के ऊंचे सामंत बने रहे।[38] हिन्दू राजकुमारियों को मुस्लिम राजाओं से विवाह में संबंध बनाने के प्रकरण अकबर के समय से पूर्व काफी हुए थे, किन्तु अधिकांश विवाहों के बाद दोनों परिवारों के आपसी संबंध अच्छे नहीं रहे और न ही राजकुमारियां कभी वापस लौट कर घर आयीं।[38][39] हालांकि अकबर ने इस मामले को पिछले प्रकरणों से अलग रूप दिया, जहां उन रानियों के भाइयों या पिताओं को पुत्रियों या बहनों के विवाहोपरांत अकबर के मुस्लिम ससुराल वालों जैसा ही सम्मान मिला करता था, सिवाय उनके संग खाना खाने और प्रार्थना करने के। उन राजपूतों को अकबर के दरबार में अच्छे स्थान मिले थे। सभी ने उन्हें वैसे ही अपनाया था सिवाय कुछ रूढ़िवादी परिवारों को छोड़कर, जिन्होंने इसे अपमान के रूप में देखा था।[39] अन्य राजपूर रजवाड़ों ने भी अकबर के संग वैवाहिक संबंध बनाये थे, किन्तु विवाह संबंध बनाने की कोई शर्त नहीं थी। दो प्रमुख राजपूत वंश, मेवाड़ के शिशोदिया और रणथंभौर के हाढ़ा वंश इन संबंधों से सदा ही हटते रहे। अकबर के एक प्रसिद्ध दरबारी राजा मानसिंह ने अकबर की ओर से एक हाढ़ा राजा सुर्जन हाढ़ा के पास एक संबंध प्रस्ताव भी लेकर गये, जिसे सुर्जन सिंह ने इस शर्त पर स्वीकार्य किया कि वे अपनी किसी पुत्री का विवाह अकबर के संग नहीं करेंगे। अन्ततः कोई वैवाहिक संबंध नहीं हुए किन्तु सुर्जन को गढ़-कटंग का अधिभार सौंप कर सम्मानित किया गया।[38] अन्य कई राजपूत सामंतों को भी अपने राजाओं का पुत्रियों को मुगलों को विवाह के नाम पर देना अच्छा नहीं लगता था। गढ़ सिवान के राठौर कल्याणदास ने मोटा राजा राव उदयसिंह और जहांगीर को मारने की धमकी भी दी थी, क्योंकि उदयसिंह ने अपनी पुत्री जगत गोसाई का विवाह अकबर के पुत्र जहांगीर से करने का निश्चय किया था। अकबर ने ये ज्ञान होने पर शाही फौजों को कल्याणदास पर आक्रमण हेतु भेज दिया। कल्याणदास उस सेना के संग युद्ध में काम आया और उसकी स्त्रियों ने जौहर कर लिया।[40] इन संबंधों का राजनीतिक प्रभाव महत्त्वपूर्ण था। हालांकि कुछ राजपूत स्त्रियों ने अकबर के हरम में प्रवेश लेने पर इस्लाम स्वीकार किया, फिर भी उन्हें पूर्ण धार्मिक स्वतंत्रता थी, साथ ही उनके सगे-संबंधियों को जो हिन्दू ही थे; दरबार में उच्च-स्थान भी मिले थे। इनके द्वारा जनसाधारण की ध्वनि अकबर के दरबार तक पहुंचा करती थी।[38] दरबार के हिन्दू और मुस्लिम दरबारियों के बीच संपर्क बढ़ने से आपसी विचारों का आदान-प्रदान हुआ और दोनों धर्मों में संभाव की प्रगति हुई। इससे अगली पीढ़ी में दोनों रक्तों का संगम था जिसने दोनों संप्रदायों के बीच सौहार्द को भी बढ़ावा दिया। परिणामस्वरूप राजपूत मुगलों के सर्वाधिक शक्तिशाली सहायक बने, राजपूत सैन्याधिकारियों ने मुगल सेना में रहकर अनेक युद्ध किये तथा जीते। इनमें गुजरात का १५७२ का अभियान भी था।[41] अकबर की धार्मिक सहिष्णुता की नीति ने शाही प्रशासन में सभी के लिये नौकरियों और रोजगार के अवसर खोल दिये थे। इसके कारण प्रशासन और भी दृढ़ होता चला गया।[42] कामुकता तत्कालीन समाज में वेश्यावृति को सम्राट का संरक्षण प्रदान था। उसकी एक बहुत बड़ी हरम थी जिसमे बहुत सी स्त्रियाँ थीं। इनमें अधिकांश स्त्रियों को बलपूर्वक अपहृत करवा कर वहां रखा हुआ था। उस समय में सती प्रथा भी जोरों पर थी। तब कहा जाता है कि अकबर के कुछ लोग जिस सुन्दर स्त्री को सती होते देखते थे, बलपूर्वक जाकर सती होने से रोक देते व उसे सम्राट की आज्ञा बताते तथा उस स्त्री को हरम में डाल दिया जाता था। हालांकि इस प्रकरण को दरबारी इतिहासकारों ने कुछ इस ढंग से कहा है कि इस प्रकार बादशाह सलामत ने सती प्रथा का विरोध किया व उन अबला स्त्रियों को संरक्षण दिया। अपनी जीवनी में अकबर ने स्वयं लिखा है– यदि मुझे पहले ही यह बुधिमत्ता जागृत हो जाती तो मैं अपनी सल्तनत की किसी भी स्त्री का अपहरण कर अपने हरम में नहीं लाता।[43] इस बात से यह तो स्पष्ट ही हो जाता है कि वह सुन्दरियों का अपहरण करवाता था। इसके अलावा अपहरण न करवाने वाली बात की निरर्थकता भी इस तथ्य से ज्ञात होती है कि न तो अकबर के समय में और न ही उसके उतराधिकारियो के समय में हरम बंद हुई थी। आईने अकबरी के अनुसार अब्दुल कादिर बदायूंनी कहते हैं कि बेगमें, कुलीन, दरबारियो की पत्नियां अथवा अन्य स्त्रियां जब कभी बादशाह की सेवा में पेश होने की इच्छा करती हैं तो उन्हें पहले अपने इच्छा की सूचना देकर उत्तर की प्रतीक्षा करनी पड़ती है; जिन्हें यदि योग्य समझा जाता है तो हरम में प्रवेश की अनुमति दी जाती है।[44][45] अकबर अपनी प्रजा को बाध्य किया करता था की वह अपने घर की स्त्रियों का नग्न प्रदर्शन सामूहिक रूप से आयोजित करे जिसे अकबर ने खुदारोज (प्रमोद दिवस) नाम दिया हुआ था। इस उत्सव के पीछे अकबर का एकमात्र उदेश्य सुन्दरियों को अपने हरम के लिए चुनना था।[46]। गोंडवाना की रानी दुर्गावती पर भी अकबर की कुदृष्टि थी। उसने रानी को प्राप्त करने के लिए उसके राज्य पर आक्रमण कर दिया। युद्ध के दौरान वीरांगना ने अनुभव किया कि उसे मारने की नहीं वरन बंदी बनाने का प्रयास किया जा रहा है, तो उसने वहीं आत्महत्या कर ली।[45] तब अकबर ने उसकी बहन और पुत्रबधू को बलपूर्वक अपने हरम में डाल दिया। अकबर ने यह प्रथा भी चलाई थी कि उसके पराजित शत्रु अपने परिवार एवं परिचारिका वर्ग में से चुनी हुई महिलायें उसके हरम में भेजे।[45] पुर्तगालियों से संबंध १५५६ में अकबर के गद्दी लेने के समय, पुर्तगालियों ने महाद्वीप के पश्चिमी तट पर बहुत से दुर्ग व निर्माणियाँ (फैक्ट्रियाँ) लगा ली थीं और बड़े स्तर पर उस क्षेत्र में नौवहन और सागरीय व्यापार नियंत्रित करने लगे थे। इस उपनिवेशवाद के चलते अन्य सभी व्यापारी संस्थाओं को पुर्तगालियों की शर्तों के अधीण ही रहना पढ़ता था, जिस पर उस समय के शासकों व व्यापारियों को आपत्ति होने लगीं थीं।[47] मुगल साम्राज्य ने अकबर के राजतिलक के बाद पहला निशाना गुजरात को बनाया और सागर तट पर प्रथम विजय पायी १५७२ में, किन्तु पुर्तगालियों की शक्ति को ध्यान में रखते हुए पहले कुछ वर्षों तक उनसे मात्र फारस की खाड़ी क्षेत्र में यात्रा करने हेतु कर्ताज़ नामक पास लिये जाते रहे।[48] १५७२ में सूरत के अधिग्रहण के समय मुगलों और पुर्तगालियों की प्रथम भेंट हुई और पुर्तगालियों को मुगलों की असली शक्ति का अनुमान हुआ और फलतः उन्होंने युद्ध के बजाय नीति से काम लेना उचित समझा व पुर्तगाली राज्यपाल ने अकबर के निर्देश पर उसे एक राजदूत के द्वारा संधि प्रस्ताव भेजा। अकबर ने उस क्षेत्र से अपने हरम के व अन्य मुस्लिम लोगों द्वारा मक्का को हज की यात्रा को सुरक्षित करने की दृष्टि से प्रस्ताव स्वीकार कर लिया।[49] १५७३ में अकबर ने अपने गुजरात के प्रशासनिक अधिकारियों को एक फरमान जारी किया, जिसमें निकटवर्त्ती दमण में पुर्तगालियों को शांति से रहने दिये जाने का आदेश दिया था। इसके बदले में पुर्तगालियों ने अकबर के परिवार के लिये हज को जाने हेतु पास जारी किये थे।[50] तुर्कों से संबंध १५७६ में में अकबर ने याह्या सलेह के नेतृत्व में अपने हरम के अनेक सदस्यों सहित हाजियों का एक बड़ा जत्था हज को भेजा। ये जत्था दो पोतों में सूरत से जेद्दाह बंदरगाह पर १५७७ में पहुंचा और मक्का और मदीना को अग्रसर हुआ।[51] १५७७ से १५८० के बीच चार और कारवां हज को रवाना हुआ, जिनके साथ मक्का व मदीना के लोगों के लिये भेंटें व गरीबों के लिये सदके थे। ये यात्री समाज के आर्थिक रूप से निचले वर्ग के थे और इनके जाने से उन शहरों पर आर्थिक भार बढ़ा।[52][53] तब तुर्क प्रशासन ने इनसे घर लौट जाने का निवेदन किया, जिस पर हरम की स्त्रियां तैयार न हुईं। काफी विवाद के बाद उन्हें विवश होकर लौटना पढ़ा। अदन के राज्यपाल को १५८० में आये यात्रियों की बड़ी संख्या देखकर बढ़ा रोष हुआ और उसने लौटते हुए मुगलों का यथासंभव अपमान भी किया। इन प्रकरणों के कारण अकबर को हाजियों की यात्राओं पर रोक लगानी पड़ी। १५८४ के बाद अकबर ने यमन के साम्राज्य के अधीनस्थ अदन के बंदरगाह पर पुर्तगालियों की मदद से चढ़ाई करने की योजना बनायी। पुर्तगालियों से इस बारे में योजना बनाने हेतु एक मुगल दूत गोआ में अक्तूबर १५८४ से स्थायी रूप से तैनात किया गया। १५८७ में एक पुर्तगाली टुकड़ी ने यमन पर आक्रमण भी किया किन्तु तुर्क नौसेना द्वारा हार का सामना करना पड़ा। इसके बाद मुगल-पुर्तगाली गठबंधन को भी धक्का पहुंचा क्योंकि मुगल जागीरदारों द्वारा जंज़ीरा में पुर्तगालियों पर लगातार दबाव डाला जा रहा था।[54] धर्म अकबर एक मुसलमान था, पर दूसरे धर्म एवं संप्रदायों के लिए भी उसके मन में आदर था। जैसे-जैसे अकबर की आयु बदती गई वैसे-वैसे उसकी धर्म के प्रति रुचि बढ़ने लगी। उसे विशेषकर हिंदू धर्म के प्रति अपने लगाव के लिए जाना जाता हैं। उसने अपने पूर्वजो से विपरीत कई हिंदू राजकुमारियों से शादी की। इसके अलावा अकबर ने अपने राज्य में हिन्दुओ को विभिन्न राजसी पदों पर भी आसीन किया जो कि किसी भी भूतपूर्व मुस्लिम शासक ने नही किया था। वह यह जान गया था कि भारत में लम्बे समय तक राज करने के लिए उसे यहाँ के मूल निवासियों को उचित एवं बराबरी का स्थान देना चाहिये। हिन्दू धर्म पर प्रभाव हिन्दुओं पर लगे जज़िया १५६२ में अकबर ने हटा दिया, किंतु १५७५ में मुस्लिम नेताओं के विरोध के कारण वापस लगाना पड़ा,[55] हालांकि उसने बाद में नीतिपूर्वक वापस हटा लिया। जज़िया कर गरीब हिन्दुओं को गरीबी से विवश होकर इस्लाम की शरण लेने के लिए लगाया जाता था। यह मुस्लिम लोगों पर नहीं लगाया जाता था।[56] इस कर के कारण बहुत सी गरीब हिन्दू जनसंख्या पर बोझ पड़ता था, जिससे विवश हो कर वे इस्लाम कबूल कर लिया करते थे। फिरोज़ शाह तुगलक ने बताया है, कि कैसे जज़िया द्वारा इस्लाम का प्रसार हुआ था।[57] अकबर द्वारा जज़िया और हिन्दू तीर्थों पर लगे कर हटाने के सामयिक निर्णयों का हिन्दुओं पर कुछ खास प्रभाव नहीं पड़ा, क्योंकि इससे उन्हें कुछ खास लाभ नहीं हुआ, क्योंकि ये कुछ अंतराल बाद वापस लगा दिए गए।[58] अकबर ने बहुत से हिन्दुओं को उनकी इच्छा के विरुद्ध भी इस्लाम ग्रहण करवाया था[59] इसके अलावा उसने बहुत से हिन्दू तीर्थ स्थानों के नाम भी इस्लामी किए, जैसे १५८३ में प्रयागराज को इलाहाबाद[60] किया गया।[61] अकबर के शासनकाल में ही उसके एक सिपहसालार हुसैन खान तुक्रिया ने हिन्दुओं को बलपूर्वक भेदभाव दर्शक बिल्ले[62] उनके कंधों और बांहों पर लगाने को विवश किया था।[63] ज्वालामुखी मंदिर के संबंध में एक कथा काफी प्रचलित है। यह १५४२ से १६०५ के मध्य का ही होगा तभी अकबर दिल्ली का राजा था। ध्यानुभक्त माता जोतावाली का परम भक्त था। एक बार देवी के दर्शन के लिए वह अपने गांववासियो के साथ ज्वालाजी के लिए निकला। जब उसका काफिला दिल्ली से गुजरा तो मुगल बादशाह अकबर के सिपाहियों ने उसे रोक लिया और राजा अकबर के दरबार में पेश किया। अकबर ने जब ध्यानु से पूछा कि वह अपने गांववासियों के साथ कहां जा रहा है तो उत्तर में ध्यानु ने कहा वह जोतावाली के दर्शनो के लिए जा रहे है। अकबर ने कहा तेरी मां में क्या शक्ति है ? और वह क्या-क्या कर सकती है ? तब ध्यानु ने कहा वह तो पूरे संसार की रक्षा करने वाली हैं। ऐसा कोई भी कार्य नही है जो वह नहीं कर सकती है। अकबर ने ध्यानु के घोड़े का सर कटवा दिया और कहा कि अगर तेरी मां में शक्ति है तो घोड़े के सर को जोड़कर उसे जीवित कर दें। यह वचन सुनकर ध्यानु देवी की स्तुति करने लगा और अपना सिर काट कर माता को भेट के रूप में प्रदान किया। माता की शक्ति से घोड़े का सर जुड गया। इस प्रकार अकबर को देवी की शक्ति का एहसास हुआ। बादशाह अकबर ने देवी के मंदिर में सोने का छत्र भी चढाया। किन्तु उसके मन मे अभिमान हो गया कि वो सोने का छत्र चढाने लाया है, तो माता ने उसके हाथ से छत्र को गिरवा दिया और उसे एक अजीब (नई) धातु का बना दिया जो आज तक एक रहस्य है। यह छत्र आज भी मंदिर में मौजूद है। इतिहासकार दशरथ शर्मा बताते हैं, कि हम अकबर को उसके दरबार के इतिहास और वर्णनों जैसे अकबरनामा, आदि के अनुसार महान कहते हैं।[64] यदि कोई अन्य उल्लेखनीय कार्यों की ओर देखे, जैसे दलपत विलास, तब स्पष्ट हो जाएगा कि अकबर अपने हिन्दू सामंतों से कितना अभद्र व्यवहार किया करता था।[65] अकबर के नवरत्न राजा मानसिंह द्वारा विश्वनाथ मंदिर के निर्माण को अकबर की अनुमति के बाद किए जाने के कारण हिन्दुओं ने उस मंदिर में जाने का बहिष्कार कर दिया। कारण साफ था, कि राजा मानसिंह के परिवार के अकबर से वैवाहिक संबंध थे।[66] अकबर के हिन्दू सामंत उसकी अनुमति के बगैर मंदिर निर्माण तक नहीं करा सकते थे। बंगाल में राजा मानसिंह ने एक मंदिर का निर्माण बिना अनुमति के आरंभ किया, तो अकबर ने पता चलने पर उसे रुकवा दिया और १५९५ में उसे मस्जिद में बदलने के आदेश दिए।[67] अकबर के लिए आक्रोश की हद एक घटना से पता चलती है। हिन्दू किसानों के एक नेता राजा राम ने अकबर के मकबरे, सिकंदरा, आगरा को लूटने का प्रयास किया, जिसे स्थानीय फ़ौजदार, मीर अबुल फजल ने असफल कर दिया। इसके कुछ ही समय बाद १६८८ में राजा राम सिकंदरा में दोबारा प्रकट हुआ[68] और शाइस्ता खां के आने में विलंब का फायदा उठाते हुए, उसने मकबरे पर दोबारा सेंध लगाई और बहुत से बहुमूल्य सामान, जैसे सोने, चाँदी, बहुमूल्य कालीन, चिराग, इत्यादि लूट लिए, तथा जो ले जा नहीं सका, उन्हें बर्बाद कर गया। राजा राम और उसके आदमियों ने अकबर की अस्थियों को खोद कर निकाल लिया एवं जला कर भस्म कर दिया, जो कि मुस्लिमों के लिए घोर अपमान का विषय था।[69] हिंदु धर्म से लगाव बाद के वर्षों में अकबर को अन्य धर्मों के प्रति भी आकर्षण हुआ। अकबर का हिंदू धर्म के प्रति लगाव केवल मुग़ल साम्राज्य को ठोस बनाने के ही लिए नही था वरन उसकी हिंदू धर्म में व्यक्तिगत रुचि थी। हिंदू धर्म के अलावा अकबर को शिया इस्लाम एवं ईसाई धर्म में भी रुचि थी। ईसाई धर्म के मूलभूत सिद्धांत जानने के लिए उसने एक बार एक पुर्तगाली ईसाई धर्म प्रचारक को गोआ से बुला भेजा था। अकबर ने दरबार में एक विशेष जगह बनवाई थी जिसे इबादत-खाना (प्रार्थना-स्थल) कहा जाता था, जहाँ वह विभिन्न धर्मगुरुओं एवं प्रचारकों से धार्मिक चर्चाएं किया करता था। उसका यह दूसरे धर्मों का अन्वेषण कुछ मुस्लिम कट्टरपंथी लोगों के लिए असहनीय था। उन्हे लगने लगा था कि अकबर अपने धर्म से भटक रहा है। इन बातों में कुछ सच्चाई भी थी, अकबर ने कई बार रुढ़िवादी इस्लाम से हट कर भी कुछ फैसले लिए, यहाँ तक कि १५८२ में उसने एक नये संप्रदाय की ही शुरुआत कर दी जिसे दीन-ए-इलाही यानी ईश्वर का धर्म कहा गया। सुलह-ए-कुल दीन-ए-इलाही नाम से अकबर ने १५८२ में[70] एक नया धर्म बनाया जिसमें सभी धर्मो के मूल तत्वों को डाला, इसमे प्रमुखतः हिंदू एवं इस्लाम धर्म थे।[71] इनके अलावा पारसी, जैन एवं ईसाई धर्म के मूल विचारों को भी सम्मिलित किया। हालांकि इस धर्म के प्रचार के लिए उसने कुछ अधिक उद्योग नहीं किये केवल अपने विश्वस्त लोगो को ही इसमे सम्मिलित किया। कहा जाता हैं कि अकबर के अलावा केवल राजा बीरबल ही मृत्यु तक इस के अनुयायी थे। दबेस्तान-ए-मजहब के अनुसार अकबर के पश्चात केवल १९ लोगो ने इस धर्म को अपनाया।[72][73] कालांतर में अकबर ने एक नए पंचांग की रचना की जिसमे कि उसने एक ईश्वरीय संवत को आरम्भ किया जो उसके ही राज्याभिषेक के दिन से प्रारम्भ होता था। उसने तत्कालीन सिक्कों के पीछे ‘‘अल्लाह-ओ-अकबर’’ लिखवाया जो अनेकार्थी शब्द था।[74] अकबर का शाब्दिक अर्थ है "महान" और ‘‘अल्लाह-ओ-अकबर’’ शब्द के दो अर्थ हो सकते थे "अल्लाह महान हैं " या "अकबर ही अल्लाह हैं"।[75] दीन-ए-इलाही सही मायनो में धर्म न होकर एक आचार संहिता के समान था। इसमे भोग, घमंड, निंदा करना या दोष लगाना वर्जित थे एवं इन्हे पाप कहा गया। दया, विचारशीलता और संयम इसके आधार स्तम्भ थे।[76] यह तर्क दिया गया है कि दीन-ए-इलैही का एक नया धर्म होने का सिद्धांत गलत धारणा है, जो कि बाद में ब्रिटिश इतिहासकारों द्वारा अबुल फजल के कार्यों के गलत अनुवाद के कारण पैदा हुआ था। हालांकि, यह भी स्वीकार किया जाता है कि सुलह-ए-कुल की नीति,[77] जिसमें दीन-ई-इलैही का सार था, अकबर ने केवल धार्मिक उद्देश्यों के लिए नहीं बल्कि सामान्य शाही प्रशासनिक नीति का एक भाग के रूप में अपनाया था। इसने अकबर की धार्मिक सहानुभूति की नीति का आधार बनाया। 1605 में अकबर की मौत के समय उनके मुस्लिम विषयों में असंतोष का कोई संकेत नहीं था, और अब्दुल हक जैसे एक धर्मशास्त्री की धारणा थी कि निकट संबंध बने रहे। अकबर के नवरत्न निरक्षर होते हुई भी अकबर को कलाकारों एवं बुद्धिजीवियो से विशेष प्रेम था। उसके इसी प्रेम के कारण अकबर के दरबार में नौ (९) अति गुणवान दरबारी थे जिन्हें अकबर के नवरत्न के नाम से भी जाना जाता है।[78][79] अबुल फजल (१५५१ - १६०२) ने अकबर के काल को कलमबद्ध किया था। उसने अकबरनामा की भी रचना की थी। इसने ही आइन-ए-अकबरी भी रचा था। फैजी (१५४७ - १५९५) अबुल फजल का भाई था। वह फारसी में कविता करता था। राजा अकबर ने उसे अपने बेटे के गणित शिक्षक के पद पर नियुक्त किया था। मिंया तानसेन अकबर के दरबार में गायक थे। वह कविता भी लिखा करते थे। राजा बीरबल (१५२८ - १५८३) दरबार के विदूषक और अकबर के सलाहकार थे। ये परम बुद्धिमान कहे जाते हैं। इनके अकबर के संग किस्से आज भी कहे जाते हैं। राजा टोडरमल अकबर के वित्त मंत्री थे। इन्होंने विश्व की प्रथम भूमि लेखा जोखा एवं मापन प्रणाली तैयार की थी। राजा मान सिंह आम्बेर (जयपुर) के कच्छवाहा राजपूत राजा थे। वह अकबर की सेना के प्रधान सेनापति थे। इनकी बुआ जोधाबाई अकबर की पटरानी थी। अब्दुल रहीम खान-ऐ-खाना एक कवि थे और अकबर के संरक्षक बैरम खान के बेटे थे। फकीर अजिओं-दिन अकबर के सलाहकार थे। मुल्लाह दो पिअज़ा अकबर के सलाहकार थे। फिल्म एवं साहित्य में अकबर का व्यक्तित्व बहुचर्चित रहा है। इसलिए भारतीय साहित्य एवं सिनेमा ने अकबर से प्रेरित कई पात्र रचे गए हैं। २००८ में आशुतोष गोवरिकर निर्देशित फिल्म जोधा अकबर में अकबर एवं उनकी पत्नी की कहानी को दर्शाया गया है। अकबर एवं जोधा बाई का पात्र क्रमशः ऋतिक रोशन एवं ऐश्वर्या राय ने निभाया है। १९६० में बनी फिल्म मुग़ल-ए-आज़म भारतीय सिनेमा की एक लोकप्रिय फिल्म है। इसमें अकबर का पात्र पृथ्वीराज कपूर ने निभाया था। इस फिल्म में अकबर के पुत्र सलीम की प्रेम कथा और उस कारण से पिता पुत्र में पैदा हुए द्वंद को दर्शाया गया है। सलीम की भूमिका दिलीप कुमार एवं अनारकली की भूमिका मधुबाला ने निभायी थी। १९९० में जी टीवी ने अकबर-बीरबल नाम से एक धारावाहिक प्रसारित किया था जिसमे अकबर का पात्र हिंदी अभिनेता विक्रम गोखले ने निभाया था। नब्बे के दशक में संजय खान कृत धारावाहिक अकबर दी ग्रेट दूरदर्शन पर प्रदर्शित किया गया था। प्रसिद्ध अंग्रेजी साहित्यकार सलमान रुशदी के उपन्यास दी एन्चैन्ट्रेस ऑफ़ फ्लोरेंस (अंग्रेज़ी:The Enchantress of Florence) में अकबर एक मुख्य पात्र है।[80] मुग़ल सम्राटों का कालक्रम इन्हें भी देखें मुगल-ए-आज़म (1960 फ़िल्म) जोधा अकबर (2008 फ़िल्म) अकबर का मकबरा अकबर के नवरत्न अकबरनामा सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ This articleincorporates text from a publication now in the public domain:Missing or empty |title= (help) प्रयास-वर्ल्डप्रेस पर कस्बा पर लखनवी ब्लॉग पर वर्ल्डप्रेस पर अकबर के उत्थान की कहानी पुस्तक देखें कस्बा पर श्रेणी:अकबर श्रेणी:भारत का इतिहास श्रेणी:आगरा श्रेणी:मुगल श्रेणी:मुगल बादशाह श्रेणी:दीन ए इलाही श्रेणी:हिन्दी विकि डीवीडी परियोजना
मुगल सम्राट अकबर के पिता का नाम क्या था?
नासिरुद्दीन हुमायूं
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fa7656901
नाम्बिया (या नामीबिया) दक्षिणी अफ्रीका का एक देश है जिसकी राजधानी विंडहॉक हैं। इसके पड़ोसी देश हैं - अंगोला, बोत्सवाना और दक्षिण अफ्रीका। देश का पश्चिमी भाग कालाहारी मरुस्थल के क्षेत्रों में से एक है। यहाँ के मूल वासियों में बुशमैन, दामाका जातियों का नाम आता है - जर्मनी ने १८८४ में इसको अपना उपनिवेश बनाया और प्रथम विश्युद्ध के बाद यह दक्षिण अफ्रीका का क्षेत्र बन गया। नामिब मरुस्थल भी यहीं है। इन्हें भी देखें नामीबिया के प्रदेश श्रेणी:नामीबिया श्रेणी:देश श्रेणी:अफ़्रीका
नामीबिया‎ देश किस महाद्वीप में स्थित है?
दक्षिणी अफ्रीका
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hindi
9d1c4fac8
एशियन पेंट्स लिमिटेड एक भारतीय बहुराष्ट्रीय कम्पनी है जिसका मुख्यालय मुंबई, महाराष्ट्र में है।[2] ये कम्पनी, रंग, घर की सजावट, फिटिंग से संबंधित उत्पादों और संबंधित सेवाएं प्रदान करने, निर्माण, बिक्री और वितरण के व्यवसाय में लगी हुई है। एशियन पेंट्स भारत की सबसे बडी और एशिया की चौथी सबसे बडी रंगो की कम्पनी है।[3][4][5] As of २०१५[[Category:Articles containing potentially dated statements from Expression error: Unexpected &lt; operator]], भारतीय रंग उद्योग में ५४॰१% के साथ इसका सबसे बड़ा बाजार हिस्सा है।[6] इतिहास फरवरी १९४२ में मुंबई की एक गैरेज में चार दोस्तोंने, चंपकलाल चोकसे, चिमनलाल चोकसी, सूर्यकांत दाणी और अरविंद वकिल ने एशियन पेंट्स कम्पनी स्थापित कि थी। द्वितीय विश्व युद्ध और १९४२ के भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान, रंग आयात पर एक अस्थायी प्रतिबंध लगाया गया था जिस कारण केवल विदेशी कम्पनियां और शालिमार पेंट्स बाजार में थे। एशियन पेंट्स ने बाजार पर कब्जा कर लिया और १९५२ में ₹२३ करोड़ के वार्षिक कारोबार किया लेकिन केवल २% पीबीटी मार्जिन के साथ। १९६७ तक यह देश में अग्रणी पेंट निर्माता बन गया।[7][8] इन चार परिवारों ने एक साथ कम्पनी के अधिकांश शेयर अपने साथ रखे। लेकिन १९९० के दशक में जब कम्पनी भारत से बाहर बढ़ी तो वैश्विक अधिकारों से इन में विवाद शुरू हुआ। १९९७ में चंपकलाल चोकसे के परिवार ने अपने १३॰७% शेयर बेच दिये। १९९७ में चंपकलाल की मृत्यु के बाद उनके बेटे अतुल ने कारोबार संभाला था। ब्रिटिश कम्पनी इम्पीरियल केमिकल इंडस्ट्रीज के साथ सहयोग की बाते विफल होने के बाद, चोकसे के शेयरों को अन्य तीन परिवार और यूनिट ट्रस्ट ऑफ इंडिया ने खरीदा था। As of २००८[[Category:Articles containing potentially dated statements from Expression error: Unexpected &lt; operator]] चोकसी, दाणी और वकिल परिवार कुल मिलाकर ४७॰८१% शेयर रखते थे।[8] विपणन और विज्ञापन १९५० के दशक में कम्पनी ने एक "धोने योग्य डिस्टेंपर" का बाजार में लाया, जो सस्ते सूखे डिस्टेंपर और महंगी प्लास्टिक इमल्शन पेंट के बीच का एक संतुलन था।[7] १९५४ में कम्पनी ने "गट्टू" नाम का शुभंकर पेश किया, जो एक शरारती लड़का था अपने हाथ में रंग की बाल्टी लिये। आर के लक्ष्मण द्वारा निर्मित ये शुभंकर मध्य वर्गों में आकर्षक साबित हुआ।[9] इस शुभंकर का उपयोग १९७० तक प्रिंट विज्ञापन और पैकेजिंग में किया गया और १९९० के दशक में टेलीविजन विज्ञापनों पर भी ये देखाई देने लगा। गट्टू ने रंगारियों के नेतृत्व वाले व्यवसाय को अंत उपयोगकर्ता, याने घर के मालिकों, तक लाने में मदद की।[9] एशियन पेंट्स से जुड़ी अमेरिकी विज्ञापन एजेंसी ओगिल्वी और माथेर ने १९८० के दशक में त्योहारों के अवसर पर अपने टैग लाइन "हर घर कुछ कहता हैं" की शुरुवात की। कम्पनी ने भावनात्मक स्तर से जुड़कर घरों को रंगाने के अवसर को त्यौहारों और महत्वपूर्ण जीवन की घटनाएं, जैसे कि विवाह और बच्चे का जन्म, से संबंधित कर विज्ञापित किया। १९९० के दशक में, विज्ञापन बाहरी दिवारों के रंग पर ध्यान केंद्रित करने लगा जो उन्हें कालातीत रख सकते थे।[9] कम्पनी ने २००० में अपनी कॉर्पोरेट पहचान को पुनर्जीवित किया और "गट्टू" को उनके शुभंकर के रूप से हटा दिया और बाद में "एशियन पेंट" लोगो को छोटा "एपी" में भी बदल दिया।[9] सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ श्रेणी:बंबई स्टॉक एक्स्चेंज में सूचित कंपनियां श्रेणी:मुंबई आधारित कंपनियां
एशियन पेंट्स कंपनी के संस्थापक कौन हैं?
चंपकलाल चोकसे, चिमनलाल चोकसी, सूर्यकांत दाणी और अरविंद वकिल
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यहाँ पर भारत के उन व्यक्तियों, समूहों और संस्थाओं का संकलन है जो किसी श्रेणी में प्रथम हैं/थे। भारत के प्रथम राष्ट्रपति - राजेन्द्र प्रसाद भारत के प्रथम उप राष्ट्रपति सर्वपल्ली राधा कृष्णन भारत के प्रथम प्रधानमंत्री - जवाहरलाल नेहरू भारत के प्रथभ उप प्रधानमंत्री- सरदार वल्लभ भाई पटेल भारत के प्रथम गृह मंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल भारत के प्रथम कृषि मंत्री राजेन्द्र प्रसाद भारत के प्रथम कानून मंत्री भीमराव अंबेडकर भारत के प्रथम रेल मंत्री - आसफ अली भारत के प्रथम वित्तमंत्री - लिआकत अली भारत के प्रथम शिक्षा मंत्री- C राज गोपालाचार्य भारत के प्रथम रक्षा मंत्री - वलदेव सिंह भारत के प्रथम स्वास्थ्य मंत्री - गजान्तर आली भारत के प्रथम संचार मंत्री - अब्दुल नस्तर भारत के प्रथम श्रम मंत्री - जगजीवन राम विभिन्न राज्यों के प्रथम मुख्यमंत्री = भारत के विभिन्न राज्यों के प्रथम मुख्यमंत्रियों की सूची निम्नलिखित है- जम्मू एवं कश्मीर - गुलाम मोहम्मद सद्दीक हरियाणा - भगवत दयाल शर्मा हिमाचल प्रदेश - यशवंत सिंह परमार पंजाब - डॉ॰ गोपीचन्द भार्गव दिल्ली - चौधरी ब्रह्म प्रकाश उत्तराखण्ड - नित्यानन्द स्वामी राजस्थान - हीरालाल शास्त्री उत्तर प्रदेश - गोविन्द वल्लभ पन्त बिहार - श्री कृष्ण सिन्हा झारखण्ड - बाबूलाल मरांडी पश्चिम बंगाल - प्रफुल्ल चन्द्र घोष ओडिशा - हरेकृष्णा महतब छत्तीसगढ़ - अजीत जोगी मध्य प्रदेश - पं. रविशंकर शुक्ल गुजरात - डॉ॰ जीवराज नारायण मेहता महाराष्ट्र -- यशवन्त राव चव्हाण गोवा -- दयानंद बांदोडकर आंध्र प्रदेश -- नीलम संजीव रेड्डी तमिलनाडु -- पी.एस. कुमारस्वामी राजा केरल -- इ.एम.एस. नंबूदिरीपाद असम -- गोपीनाथ बारदलोई मणिपुर -- एम. कोइरंग सिंह मेघालय -- डब्ल्यू. ए. संगमा सिक्किम -- के.एल. दोरजी खंगसरपा नागालैण्ड -- पी. शैलू ओ अरुणाचल प्रदेश -- प्रेमखाण्डू थंगन मिजोरम -- एल. चल छंगा इन्हें भी देखें हिन्दी से सम्बन्धित प्रथम बाहरी कड़ियाँ (सामान्य ज्ञान) (प्रश्नमंच) (प्रश्नमंच) श्रेणी:भारत
भारत के सबसे पहले वित्त मंत्री कौन थे?
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सत्येन्द्र नारायण सिन्हा (12 जुलाई 1917 – 4 सितम्बर 2006) एक भारतीय राजनेता थे। वे बिहार के मुख्यमंत्री रहे। प्यार से लोग उन्हें छोटे साहब कहते थे। वे भारत के स्वतंत्रता सेनानी, राजनीतिज्ञ,सांसद, शिक्षामंत्री , जेपी आंदोलन के स्तम्भ तथा बिहार राज्य के मुख्यमंत्री रहे हैं।[1]उन्हें 10 वर्षों तक लगातार केंद्रीय कैबिनेट मंत्री का दर्जा मिला जब उन्होंने संयुक्त राष्ट्र की अंतर्राष्ट्रीय समिति में एशिया का प्रतिनिधित्व किया| व्यक्तिगत जीवन सत्येंद्र बाबू का प्रारंभिक विद्यार्थी जीवन इलाहाबाद में श्री लाल बहादुर शास्त्री जी के सानिध्य में बीता और शास्त्री जी के सहजता का उनपर व्यापक प्रभाव पड़ा|छोटे साहब के[2] रूप में प्रसिद्ध स्व सत्येंद्र नारायण सिन्हा की पत्नी किशोरी सिन्हा वैशाली की पहली महिला सांसद थी तथा 1980 में जनता पार्टी व 1984 में कांग्रेस पार्टी से सांसद बनी थी। अस्सी व नब्बे के दशक में किशोरी सिन्हा ने [3] महिला सशक्तिकरण की मिसाल पेश की थी। राजनीतिक जीवन स्वतंत्रता संग्राम में भागीदारी के बाद देश की आज़ादी के समय राष्ट्रीय राजनीति में इनका नाम वज़नदार हो चुका था। उन्होंने छठे और सातवें दशक में बिहार की राजनीति में निर्णायक भूमिका निभायी और उनके राजनीतिक समर्थन से बिहार[4] के मुख्यमंत्री बने पंडित बिनोदानंद झा ने प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू से विशेष आग्रह करके उन्हें केंद्र से बिहार राज्य लाये एवं मंत्रिमडल में दूसरा स्थान दिया, वस्तुतः उन दिनों उनको बिहार का 'डिफैक्टो' सीएम माना जाता था। 1963 में कामराज योजना के बाद छोटे साहेब द्वारा बिहार में श्री के. बी. सहाय को मुख्यमंत्री पद पर स्थापित करने का राजनितिक निर्णय बिहार की राजनीती के मास्टर स्ट्रोक के रूप में माना जाता है । सत्येन्द्र बाबू 1961 में बिहार के शिक्षा मंत्री, कृषि और स्थानीय प्रशासन मंत्री बने जो उप मुख्यमंत्री के हैसियत में थे। उन्होंने राजनीति के लिए मानवीय अनुभूतियों को तिलांजलि दे दी, शिक्षा मंत्री के रूप में शैक्षणिक सुधार किया, साथ ही मगध विश्वविद्यालय की स्थापना की।औरंगाबाद[5]संसदीय क्षेत्र के सांसद के रूप में उन्होंने १९७२ में महत्वपूर्ण उत्तरी कोयल परियोजना नहर का शिलान्यास किया था| वे देश में अपनी सैद्धांतिक राजनीति के लिए चर्चित थे। सत्येन्द्र बाबू ने बिहार के विकास में अग्रणी भूमिका निभाई। अपने छह दशक के राजनीतिक जीवन में छोटे साहब ने कई मील के पत्थर स्थापित किए। युवाओं और छात्रों को राजनीति में आने के लिए मोटिवेट किया। सत्येन्द्र नारायण सिन्हा के प्रोत्साहन पर आपातकाल आन्दोलन से नितीश कुमार, नरेन्द्र सिंह, रामजतन सिन्हा, लालू प्रसाद यादव, रघुवंश प्रसाद सिंह, सुशील कुमार मोदी, रामविलास पासवान और सुबोधकान्त सहाय जैसे तात्कालीन युवा नेता निकले। इन्होंने वर्ष 1988 में ऐतिहासिक पटना तारामंडल की आधारशिला रखी, साथ ही अपने मुख्यमंत्रीत्व काल में बिहार के  नवीनगर में सुपर थर्मल पावर परियोजना की सिफारिश की। सत्येन्द्र नारायण सिन्हा के जीवन को समेटते हुये सत्येन्द्र नारायण सिन्हा स्मृति ग्रंथ समिति द्वारा एक पुस्तक का प्रकाशन किया गया है। इस पुस्तक में सत्येंद्र नारायण से संबंधित दुर्लभ चित्रों के संग्रह भी हैं और कई महत्वपूर्ण लोगों द्वारा उन पर लिखे गये आलेख भी। स्व. सत्येन्द्र नारायण सिन्हा बिहार की राजनीति के स्तंभ और युवा पीढ़ी के प्रेरणास्रोत थे। छात्र आंदोलन एवं जयप्रकाश आंदोलन के समय से ही स्व. सत्येन्द्र बाबू का मार्गदर्शन और स्नेह मुझे मिलता रहा। -- नीतीश कुमार इस पुस्तक में तत्कालीन राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल, तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की अध्यक्ष सोनिया गांधी, तत्कालीन लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार, बिहार के तत्कालीन राज्यपाल देबानन्द कुंवर, उड़ीसा के तत्कालीन राज्यपाल मुरलीधर चंद्रकांत भंडारी, पश्चिम बंगाल के तत्कालीन राज्यपाल नारायणन, बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, दिल्ली की पूर्व मुख्य मंत्री शीला दीक्षित, पूर्व मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्र, लोजपा सुप्रीमो रामविलास पासवान,केरल राज्य के पूर्व राज्यपाल निखिल कुमार, प्रभु चावला समेत कई अन्य गणमान्य लोगों के द्वारा छोटे साहब पर लिखे गये आलेख और शुभ संदेश हैं। स्मृति श्रद्धांजलि पटना के प्रतिष्ठित चिल्ड्रेन पार्क, श्रीकृष्णापुरी का नामकरण स्वतंत्रता सेनानी एवं अविभाजित बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री सत्येन्द्र नारायण सिन्हा[6] के नाम से अब सत्येन्द्र नारायण सिन्हा पार्क श्रीकृष्णापुरी किया गया हैं और उनकी जयंती पे आयोजित राजकीय जयंती समारोह पर पार्क में उनकी आदमकद प्रतिमा का राज्यपाल राम नाथ कोविन्द और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने अनावरण किया। औरंगाबाद शहर के दानी बिगहा में बन [7] रहे शहर के पहले पार्क का [8] नामकरण पूर्व मुख्यमंत्री सत्येन्द्र नारायण सिन्हा उर्फ छोटे साहब के नाम पर करने का निर्णय लिया गया हैं और पार्क में छोटे साहब की आदमकद प्रतिमा लगाने का प्रस्ताव पारित किया गया है। राजनीतिक पद एस.एन. सिन्हा ने अपने राजनीतिक जीवन में निम्न पदों पर कार्य किया: 1946-1960: सदस्य सीनेट और सिंडिकेट, पटना विश्वविद्यालय 1948: सचिव, बिहार गांधी नेशनल मेमोरियल फंड की प्रांतीय समिति 1950: सदस्य, अंतरिम संसद 1950-52: वित्त समिति सदस्य 1952: प्रथम लोकसभा के लिए निर्वाचित 1956-58: प्राक्कलन समिति सदस्य 1957: दूसरी लोकसभा के लिए पुनः निर्वाचित 1958-1960: सदस्य सीनेट और सिंडिकेट, बिहार विश्वविद्यालय 1961-1963: सदस्य, बिहार विधान सभा 1961-1962: शिक्षामंत्री, बिहार 1961-1962: स्थानीय स्व सरकार मंत्री (अतिरिक्त प्रभार), बिहार 1963: काबुल के लिए सांस्कृतिक प्रतिनिधिमंडल के नेता 1962-1963: शिक्षामंत्री, बिहार 1962-1963: स्थानीय स्व सरकार मंत्री (अतिरिक्त प्रभार), बिहार 1963-1967: सदस्य, बिहार विधान सभा 1963-1967: शिक्षामंत्री, बिहार 1963-1967: स्थानीय स्व सरकार मंत्री (अतिरिक्त प्रभार), बिहार 1963-1967: कृषि मंत्री (अतिरिक्त प्रभार), बिहार 1967-1969: सदस्य, बिहार विधान सभा 1969-74: अध्यक्ष, कांग्रेस, बिहार 1971: पाचवी लोकसभा के लिए पुनः निर्वाचित 1976: सदस्य, पूर्व सोवियत संघ के लिए भारतीय संसदीय प्रतिनिधिमंडल 1977-80: अध्यक्ष, जनता पार्टी, बिहार 1977: लोकसभा करने के लिए पुनः निर्वाचित 1977: सदस्य, सांसदों के लिए मानव अधिकारों के उल्लंघन पर विशेष समिति 1977-1988: अध्यक्ष (केन्द्रीय कैबिनेट मंत्री स्तर), सांसदों के लिए मानव अधिकारों के उल्लंघन पर अंतरराष्टीय विशेष समिति 1977: नेता, भारतीय अंतर संसदीय परिषद, कैनबरा के वसंत बैठक करने के लिए संसदीय प्रतिनिधिमंडल 1978: नेता, भारतीय अंतर संसदीय परिषद, लिस्बन के वसंत बैठक करने के लिए संसदीय प्रतिनिधिमंडल 1977-1979: अध्यक्ष, प्राक्कलन समिति, लोकसभा 1980: सातवीं लोक सभा के लिए पुनः निर्वाचित 1982-83: सरकारी उपक्रमों संबंधी समिति सदस्य 1984: आठवीं लोकसभा के लिए पुन: निर्वाचित 1985-1986: सदस्य प्राक्कलन समिति, लोकसभा 1989-1990: सदस्य, बिहार विधान परिषद 1989-1990: मुख्यमंत्री, बिहार बाहरी कड़ियाँ श्रेणी:बिहार के मुख्यमंत्री श्रेणी:1917 में जन्मे लोग श्रेणी:२००६ में निधन श्रेणी:भारतीय स्वतंत्रता सेनानी श्रेणी:इलाहाबाद विश्वविद्यालय के पूर्व छात्र
सत्येन्द्र नारायण सिन्हा की मृत्यु कब हुई?
4 सितम्बर 2006
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पटना (Sanskrit: पटनम्) या पाटलिपुत्र भारत के बिहार राज्य की राजधानी एवं सबसे बड़ा नगर है। पटना का प्राचीन नाम पाटलिपुत्र था[1]। आधुनिक पटना दुनिया के गिने-चुने उन विशेष प्राचीन नगरों में से एक है जो अति प्राचीन काल से आज तक आबाद है। अपने आप में इस शहर का ऐतिहासिक महत्व है। ईसा पूर्व मेगास्थनीज(350 ईपू-290 ईपू) ने अपने भारत भ्रमण के पश्चात लिखी अपनी पुस्तक इंडिका में इस नगर का उल्लेख किया है। पलिबोथ्रा (पाटलिपुत्र) जो गंगा और अरेन्नोवास (सोनभद्र-हिरण्यवाह) के संगम पर बसा था। उस पुस्तक के आकलनों के हिसाब से प्राचीन पटना (पलिबोथा) 9 मील (14.5 कि॰मी॰) लम्बा तथा 1.75 मील (2.8 कि॰मी॰) चौड़ा था। पटना बिहार राज्य की राजधानी है और गंगा नदी के दक्षिणी किनारे पर अवस्थित है। जहां पर गंगा घाघरा, सोन और गंडक जैसी सहायक नदियों से मिलती है। [2] सोलह लाख (2011 की जनगणना के अनुसार 1,683,200) से भी अधिक आबादी वाला यह शहर, लगभग 15 कि॰मी॰ लम्बा और 7 कि॰मी॰ चौड़ा है।[3][4] प्राचीन बौद्ध और जैन तीर्थस्थल वैशाली, राजगीर या राजगृह, नालन्दा, बोधगया और पावापुरी पटना शहर के आस पास ही अवस्थित हैं। पटना सिक्खों के लिये एक अत्यंत ही पवित्र स्थल है। सिक्खों के 10वें तथा अंतिम गुरु गुरू गोबिंद सिंह का जन्म पटना में हीं हुआ था। प्रति वर्ष देश-विदेश से लाखों सिक्ख श्रद्धालु पटना में हरमंदिर साहब के दर्शन करने आते हैं तथा मत्था टेकते हैं। पटना एवं इसके आसपास के प्राचीन भग्नावशेष/खंडहर नगर के ऐतिहासिक गौरव के मौन गवाह हैं तथा नगर की प्राचीन गरिमा को आज भी प्रदर्शित करते हैं। एतिहासिक और प्रशासनिक महत्व के अतिरिक्त, पटना शिक्षा और चिकित्सा का भी एक प्रमुख केंद्र है। दीवालों से घिरा नगर का पुराना क्षेत्र, जिसे पटना सिटी के नाम से जाना जाता है, एक प्रमुख वाणिज्यिक केन्द्र है। नाम पटना नाम पटनदेवी (एक हिन्दू देवी) से प्रचलित हुआ है।[5] एक अन्य मत के अनुसार यह नाम संस्कृत के पत्तन से आया है जिसका अर्थ बन्दरगाह होता है। मौर्यकाल के यूनानी इतिहासकार मेगस्थनीज ने इस शहर को पालिबोथरा तथा चीनीयात्री फाहियान ने पालिनफू के नाम से संबोधित किया है। यह ऐतिहासिक नगर पिछली दो सहस्त्राब्दियों में कई नाम पा चुका है - पाटलिग्राम, पाटलिपुत्र, पुष्पपुर, कुसुमपुर, अजीमाबाद और पटना। ऐसा समझा जाता है कि वर्तमान नाम शेरशाह सूरी के समय से प्रचलित हुआ। इतिहास मुख्य लेख: पटना का इतिहास प्राचीन पटना (पूर्वनाम- पाटलिग्राम या पाटलिपुत्र) सोन और गंगा नदी के संगम पर स्थित था। सोन नदी आज से दो हजार वर्ष पूर्व अगमकुँआ से आगे गंगा में मिलती थी। पाटलिग्राम में गुलाब (पाटली का फूल) काफी मात्रा में उपजाया जाता था। गुलाब के फूल से तरह-तरह के इत्र, दवा आदि बनाकर उनका व्यापार किया जाता था इसलिए इसका नाम पाटलिग्राम हो गया। लोककथाओं के अनुसार, राजा पत्रक को पटना का जनक कहा जाता है। उसने अपनी रानी पाटलि के लिये जादू से इस नगर का निर्माण किया। इसी कारण नगर का नाम पाटलिग्राम पड़ा। पाटलिपुत्र नाम भी इसी के कारण पड़ा। संस्कृत में पुत्र का अर्थ बेटा तथा ग्राम का अर्थ गांव होता है। पुरातात्विक अनुसंधानो के अनुसार पटना का लिखित इतिहास 490 ईसा पूर्व से होता है जब हर्यक वंश के महान शासक अजातशत्रु ने अपनी राजधानी राजगृह या राजगीर से बदलकर यहाँ स्थापित की। यह स्थान वैशाली के लिच्छवियों से संघर्ष में उपयुक्त होने के कारण राजगृह की अपेक्षा सामरिक दृष्टि से अधिक महत्वपूर्ण था क्योंकि यह युद्ध अनेक माह तक चलने वाला एक भयावह युद्ध था। उसने गंगा के किनारे सामरिक रूप से महत्वपूर्ण यह स्थान चुना और अपना दुर्ग स्थापित कर लिया। उस समय से इस नगर का इतिहास लगातार बदलता रहा है। २५०० वर्षों से अधिक पुराना शहर होने का गौरव दुनिया के बहुत कम नगरों को हासिल है। बौद्ध धर्म के प्रवर्तक गौतम बुद्ध अपने अन्तिम दिनों में यहाँ से होकर गुजरे थे। उनकी यह भविष्यवाणी थी कि नगर का भविष्य उज्जवल होगा, बाढ़ या आग के कारण नगर को खतरा बना रहेगा। आगे चल कर के महान नन्द शासकों के काल में इसका और भी विकास हुआ एवं उनके बाद आने वाले शासकों यथा मौर्य साम्राज्य के उत्कर्ष के बाद पाटलिपुत्र भारतीय उपमहाद्वीप में सत्ता का केन्द्र बन गया।[6] चन्द्रगुप्त मौर्य का साम्राज्य बंगाल की खाड़ी से अफ़गानिस्तान तक फैल गया था। मौर्य काल के आरंभ में पाटलिपुत्र के अधिकांश राजमहल लकड़ियों से बने थे, पर सम्राट अशोक ने नगर को शिलाओं की संरचना में तब्दील किया। चीन के फाहियान ने, जो कि सन् 399-414 तक भारत यात्रा पर था, अपने यात्रा-वृतांत में यहाँ के शैल संरचनाओं का जीवन्त वर्णन किया है। मेगास्थनीज़, जो कि एक यूनानी इतिहासकार और चन्द्रगुप्त मौर्य के दरबार में यूनानी शासक सिल्यूकस के एक राजदूत के नाते आया था, ने पाटलिपुत्र नगर का प्रथम लिखित विवरण दिया है उसने अपनी पुस्तक में इस शहर के विषय में एवं यहां के लोगों के बारे में भी विशद विवरण दिया है जो आज भी भारतीय इतिहास के छात्रों के लिए सन्दर्भ के रूप में काम आता है। शीघ्र ही पाटलीपुत्र ज्ञान का भी एक केन्द्र बन गया। बाद में, ज्ञान की खोज में कई चीनी यात्री यहाँ आए और उन्होने भी यहां के बारे में अपने यात्रा-वृतांतों में बहुत कुछ लिखा है। मौर्यों के पश्चात कण्व एवं शुंगो सहीत अनेक शासक आये लेकिन इस नगर का महत्व कम नहीं हुआ। इसके पश्चात नगर पर गुप्त वंश सहित कई राजवंशों का राज रहा। इन राजाओं ने यहीं से भारतीय उपमहाद्वीप पर शासन किया। गुप्त वंश के शासनकाल को प्राचीन भारत का स्वर्ण युग कहा जाता है। पर लगातार होने वाले हुणो के आक्रमण एवं गुप्त साम्राज्य के पतन के बाद इस नगर को वह गौरव नहीं मिल पाया जो एक समय मौर्य वंश या गुप्त वंश के समय प्राप्त था। गुप्त साम्राज्य के पतन के बाद पटना का भविष्य काफी अनिश्चित रहा। 12 वीं सदी में बख़्तियार खिलजी ने बिहार पर अपना अधिपत्य जमा लिया और कई आध्यात्मिक प्रतिष्ठानों को ध्वस्त कर डाला। इस समय के बाद पटना देश का सांस्कृतिक और राजनैतिक केन्द्र नहीं रहा। मुगलकाल में दिल्ली के सत्ताधारियों ने अपना नियंत्रण यहाँ बनाए रखा। इस काल में सबसे उत्कृष्ठ समय तब आया जब शेरशाह सूरी ने नगर को पुनर्जीवित करने की कोशिश की। उसने गंगा के तीर पर एक किला बनाने की सोची। उसका बनाया कोई दुर्ग तो अभी नहीं है, पर अफ़ग़ान शैली में बना एक मस्जिद अभी भी है। मुगल बादशाह अकबर की सेना 1574 ईसवी में अफ़गान सरगना दाउद ख़ान को कुचलने पटना आया। अकबर के राज्य सचिव एवं आइने-अकबरी के लेखक अबुल फ़जल ने इस जगह को कागज, पत्थर तथा शीशे का सम्पन्न औद्योगिक केन्द्र के रूप में वर्णित किया है। पटना राइस के नाम से यूरोप में प्रसिद्ध चावल के विभिन्न नस्लों की गुणवत्ता का उल्लेख भी इन विवरणों में मिलता है। मुगल बादशाह औरंगजेब ने अपने प्रिय पोते मुहम्मद अज़ीम के अनुरोध पर 1704 में, शहर का नाम अजीमाबाद कर दिया, पर इस कालखंड में नाम के अतिरिक्त पटना में कुछ विशेष बदलाव नहीं आया। अज़ीम उस समय पटना का सूबेदार था। मुगल साम्राज्य के पतन के साथ ही पटना बंगाल के नबाबों के शासनाधीन हो गया जिन्होंने इस क्षेत्र पर भारी कर लगाया पर इसे वाणिज्यिक केन्द्र बने रहने की छूट दी। १७वीं शताब्दी में पटना अंतर्राष्ट्रीय व्यापार का केन्द्र बन गया। अंग्रेज़ों ने 1620 में रेशम तथा कैलिको के व्यापार के लिये यहाँ फैक्ट्री खोली। जल्द ही यह सॉल्ट पीटर (पोटेशियम नाइट्रेट) के व्यापार का केन्द्र बन गया जिसके कारण फ्रेंच और डच लोग से प्रतिस्पर्धा तेज हुई। बक्सर के निर्णायक युद्ध के बाद नगर इस्ट इंडिया कंपनी के अधीन चला गया और वाणिज्य का केन्द्र बना रहा। ईसवी सन 1912 में बंगाल विभाजन के बाद, पटना उड़ीसा तथा बिहार की राजधानी बना। आई एफ़ मुन्निंग ने पटना के प्रशासनिक भवनों का निर्माण किया। संग्रहालय, उच्च न्यायालय, विधानसभा भवन इत्यादि बनाने का श्रेय उन्हीं को जाता है। कुछ लोगों का मानना है कि पटना के नए भवनों के निर्माण में हासिल हुई महारथ दिल्ली के शासनिक क्षेत्र के निर्माण में बहुत काम आई। सन 1935 में उड़ीसा बिहार से अलग कर एक राज्य बना दिया गया। पटना राज्य की राजधानी बना रहा। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में नगर ने अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। नील की खेती के लिये १९१७ में चम्पारण आन्दोलन तथा 1942 का भारत छोड़ो आन्दोलन के समय पटना की भूमिका उल्लेखनीय रही है। आजादी के बाद पटना बिहार की राजधानी बना रहा। सन 2000 में झारखंड राज्य के अलग होने के बाद पटना बिहार की राजधानी पूर्ववत बना रहा। भूगोल पटना गंगा के दक्षिणी तट पर स्थित है। गंगा नदी नगर के साथ एक लम्बी तट रेखा बनाती है। पटना का विस्तार उत्तर-दक्षिण की अपेक्षा पूर्व-पश्चिम में बहुत अधिक है। नगर तीन ओर से गंगा, सोन नदी और पुनपुन नदी नदियों से घिरा है। नगर से ठीक उत्तर हाजीपुर के पास गंडक नदी भी गंगा में आ मिलती है। हाल के दिनों में पटना शहर का विस्तार पश्चिम की ओर अधिक हुआ है और यह दानापुर से जा मिला है। महात्मा गांधी सेतु जो कि पटना से हाजीपुर को जोड़ने को लिये गंगा नदी पर उत्तर-दक्षिण की दिशा में बना एक पुल है, दुनिया का सबसे लम्बा सड़क पुल है। दो लेन वाले इस प्रबलित कंक्रीट पुल की लम्बाई 5575 मीटर है। गंगा पर बना दीघा-सोनपुर रेल-सह-सड़क पुल पटना और सोनपुर को जोड़ता है।[7] समुद्रतल से ऊँचाई: 53 मीटर तापमान: गर्मी 43°C - 21°C, सर्दी 20°C - 6°C औसत वर्षा: 1,200 मिलीमीटर प्रखंड पटना जिले में 23 ब्लॉक (प्रखंड/अंचल) हैं: पटना सदर, फुलवारी शरीफ, सम्पचक, पलिगंज, फतुहा, खुसरपुर, दानीयावन, बख्तियारपुर, बर, बेल्ची, अथमलगोला, मोकामा, पांडारक, घोसवारी, बिहटा प्रखण्ड (पटना), मनेर प्रखण्ड (पटना), दानापुर प्रखण्ड (पटना), नौबतपुर, बिक्रम, मसूरी, धनारुआ , पुनपुन प्रखण्ड (पटना)।[8] जलवायु बिहार के अन्य भागों की तरह पटना में भी गर्मी का तापमान उच्च रहता है। गृष्म ऋतु में सीधा सूर्यातप तथा उष्ण तरंगों के कारण असह्य स्थिति हो जाती है। गर्म हवा से बनने वाली लू का असर शहर में भी मालूम पड़ता है। देश के शेष मैदानी भागों (यथा - दिल्ली) की अपेक्षा हलाँकि यह कम होता है। चार बड़ी नदियों के समीप होने के कारण नगर में आर्द्रता सालोभर अधिक रहती है। गृष्म ऋतु अप्रैल से आरंभ होकर जून- जुलाई के महीने में चरम पर होती है। तापमान 46 डिग्री तक पहुंच जाता है। जुलाई के मध्य में मॉनसून की झड़ियों से राहत पहुँचती है और वर्षा ऋतु का श्रीगणेश होता है। शीत ऋतु का आरंभ छठ पर्व के बाद यानी नवंबर से होता है। फरवरी में वसंत का आगमन होता है तथा होली के बाद मार्च में इसके अवसान के साथ ही ऋतु-चक्र पूरा हो जाता है। जनसांख्यिकी Historical populationYearPop.±%1807-14*312,000—1872158,000−49.4%1881170,684+8.0%1901134,785−21.0%1911136,153+1.0%1921119,976−11.9%1931159,690+33.1%1941196,415+23.0%1951283,479+44.3%1961364,594+28.6%1971475,300+30.4%1981813,963+71.3%1991956,418+17.5%20011,376,950+44.0%20111,683,200+22.2%टिप्पणी: 1814 के बाद विशाल जनसंख्या में गिरावट, कारण नदी जनित व्यापार, लगातार अस्वास्थ्यकरता और पट्टिका की महामारी। * - अनुमानित (स्रोत -[9]) पटना की जनसंख्या वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार 16,83,200 है, जो 2001 में 13,76,950 थी। जबकि पटना महानगर की जनसंख्या 2,046,652 है। जनसंख्या का घनत्व 1132 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर तथा स्त्री पुरूष अनुपात है - 882 स्त्री प्रति 1,000 पुरूष। साक्षरता की दर पुरूषों में 87.71% तथा स्त्रियों में 81.33% है।[10] पटना में अपराध की दर अपेक्षाकृत कम है। मुख्य जेल बेउर में है। पटना में कई भाषाएँ तथा बोलियाँ बोली जाती हैं। हिन्दी राज्य की आधिकारिक भाषा है तथा उर्दू द्वितीय राजभाषा है। अंग्रेजी का भी प्रयोग होता है। मगही यहाँ की स्थानीय बोली है। अन्य भाषाएँ, जो कि बिहार के अन्य भागों से आए लोगों की मातृभाषा हैं, में अंगिका, भोजपुरी, बज्जिका और मैथिली प्रमुख हैं। आंशिक प्रयोग में आनेवाली अन्य भाषाओं में बंगाली और उड़िया का नाम लिया जा सकता है। पटना के मेमन को पाटनी मेमन कहते है और उनकी भाषा मेमनी भाषा का एक स्वरूप है। जनजीवन एवं स्त्रियों की दशा पटना का मुख्य जनजीवन अंग तथा मिथिला प्रदेशों से काफी प्रभावित है। यह संस्कृति बंगाल से मिलती जुलती है। स्त्रियों का परिवार में सम्मान होता है तथा पारिवारिक निर्णयों में उनकी बात भी सुनी जाती है। यद्यपि स्त्रियां अभी तक घर के कमाऊ सदस्यों में नहीं हैं पर उनकी दशा उत्तर भारत के अन्य क्षेत्रों से अच्छी है। भ्रूण हत्या की खबरें शायद ही सुनी जाती है लेकिन कही कहीं स्त्रियों का शोषण भी होता है। शिक्षा के मामले में स्त्रियों की तुलना में पुरूषों को तरजीह मिलती है। संस्कृति पर्व-त्यौहार दीवाली, दुर्गापूजा, होली, ईद, क्रिसमस, छठ आदि लोकप्रियतम पर्वो में से है। छठ पर्व पटना ही नहीं वरन् सारे बिहार का एक प्रमुख पर्वं है जो कि सूर्य देव की अराधना के लिए किया जाता है।[12] दशहरा मुख्य लेख देखें: पटना में दशहरा दशहरा में सांस्कृतिक कार्यक्रमों की लम्बी पर क्षीण होती परम्परा है। इस परंपरा की शुरुआत वर्ष 1944 में मध्य पटना के गोविंद मित्रा रोड मुहल्ले से हुई थी। धुरंधर संगीतज्ञों के साथ-साथ बड़े क़व्वाल और मुकेश या तलत महमूद जैसे गायक भी यहाँ से जुड़ते चले गए। 1950 से लेकर 1980 तक तो यही लगता रहा कि देश के शीर्षस्थ संगीतकारों का तीर्थ-सा बन गया है पटना। डीवी पलुस्कर, ओंकार नाथ ठाकुर, भीमसेन जोशी, अली अकबर ख़ान, निखिल बनर्जी, विनायक राव पटवर्धन, पंडित जसराज, कुमार गंधर्व, बीजी जोग, अहमद जान थिरकवा, बिरजू महाराज, सितारा देवी, किशन महाराज, गुदई महाराज, बिस्मिल्ला ख़ान, हरिप्रसाद चौरसिया, शिवकुमार शर्मा ... बड़ी लंबी सूची है। पंडित रविशंकर और उस्ताद अमीर ख़ान को छोड़कर बाक़ी प्रायः सभी नामी संगीतज्ञ उन दिनों पटना के दशहरा संगीत समारोहों की शोभा बन चुके थे। 60 वर्ष पहले पटना के दशहरा और संगीत का जो संबंध सूत्र क़ायम हुआ था वह 80 के दशक में आकर टूट-बिखर गया। उसी परंपरा को फिर से जोड़ने की एक तथाकथित सरकारी कोशिश वर्ष 2006 के दशहरा के मौक़े पर हुई लेकिन नाकाम रही। खान-पान जनता का मुख्य भोजन भात-दाल-रोटी-तरकारी-अचार है। सरसों का तेल पारम्परिक रूप से खाना तैयार करने में प्रयुक्त होता है। खिचड़ी, जोकि चावल तथा दालों से साथ कुछ मसालों को मिलाकर पकाया जाता है, भी भोज्य व्यंजनों में काफी लोकप्रिय है। खिचड़ी, प्रायः शनिवार को, दही, पापड़, घी, अचार तथा चोखा के साथ-साथ परोसा जाता है। बिहार के खाद्य पदार्थों में लिटटी एवं बैंगन एवं टमाटर व आलू के साथ मिला कर बनाया गया चोखा बहुत ही प्रमुख है। विभिन्न प्रकार के सत्तूओं का प्रयोग इस स्थान की विशेष्ता है। पटना को केन्द्रीय बिहार के मिष्ठान्नों तथा मीठे पकवानों के लिए भी जाना जाता है। इनमें खाजा, मावे का लड्डू,मोतीचूर के लड्डू, काला जामुन, केसरिया पेड़ा, परवल की मिठाई, खुबी की लाई और चना मर्की एवं ठेकुआ आदि का नाम लिया जा सकता है। इन पकवानो का मूल इनके सम्बन्धित शहर हैं जो कि पटना के निकट हैं, जैसे कि सिलाव का खाजा, बाढ का मावे का लाई,मनेर का लड्डू, विक्रम का काला जामुन, गया का केसरिया पेड़ा, बख्तियारपुर का खुबी की लाई (???) का चना मर्की, बिहिया की पूरी इत्यादि उल्लेखनीय है। हलवाईयों के वंशज, पटना के नगरीय क्षेत्र में बड़ी संख्या में बस गए इस कारण से यहां नगर में ही अच्छे पकवान तथा मिठाईयां उपलब्ध हो जाते हैं। बंगाली मिठाईयों से, जोकि प्रायः चाशनी में डूबे रहते हैं, भिन्न यहां के पकवान प्रायः सूखे रहते हैं। इसके अतिरिक्त इन पकवानों का प्रचलन भी काफी है - पुआ, - मैदा, दूध, घी, चीनी मधु इत्यादि से बनाया जाता है। पिठ्ठा - चावल के चूर्ण को पिसे हुए चने के साथ या खोवे के साथ तैयार किया जाता है। तिलकुट - जिसे बौद्ध ग्रंथों में पलाला नाम से वर्णित किया गया है, तिल तथा चीनी गुड़ बनाया जाता है। चिवड़ा या च्यूरा' - चावल को कूट कर या दबा कर पतले तथा चौड़ा कर बनाया जाता है। इसे प्रायः दही या अन्य चाजो के साथ ही परोसा जाता है। मखाना - (पानी में उगने वाली फली) इसकी खीर काफी पसन्द की जाती है। सत्तू - भूने हुए चने को पीसने से तैयार किया गया सत्तू, दिनभर की थकान को सहने के लिए सुबह में कई लोगों द्वारा प्रयोग किया जाता है। इसको रोटी के अन्दर भर कर भी प्रयोग किया जाता है जिसे स्थानीय लोग मकुनी रोटी कहते हैं। लिट्टी-चोखा - लिट्टी जो आंटे के अन्दर सत्तू तथा मसाले डालकर आग पर सेंकने से बनता है, को चोखे के साथ परोसा जाता है। चोखा उबले आलू या बैंगन को गूंथने से तैयार होता है। आमिष व्यंजन भी लोकप्रिय हैं। मछली काफी लोकप्रिय है और मुग़ल व्यंजन भी पटना में देखे जा सकते हैं। अभी हाल में कॉन्टिनेन्टल खाने भी लोगों द्वारा पसन्द किये जा रहे हैं। कई तरह के रोल, जोकि न्यूयॉर्क में भी उपलब्ध हैं, का मूल पटना ही है। विभाजन के दौरान कई मुस्लिम परिवार पाकिस्तान चले गए और बाद में अमेरिका। अपने साथ -साथ वो यहां कि संस्कृति भी ले गए। वे कई शाकाहारी तथा आमिष रोलों रोल-बिहारी नाम से, न्यूयार्क में बेचते हैं। इस स्थान के लोग खानपान के विषय में अपने बड़े दिल के कारण मशहूर हैं। यातायात सड़क परिवहन राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या 31 तथा 19 नगर से होकर गुजरता है। राज्य की राजधानी होने से पटना बिहार के सभी प्रमुख शहरों से सड़क मार्ग द्वारा जुड़ा है। बिहार के सभी जिला मुख्यालय तथा झारखंड के कुछ शहरों के लिए नियमित बस-सेवा यहाँ से उपलब्ध है। गंगा नदी पर बने महात्मा गांधी सेतु के द्वारा पटना हाजीपुर से जुड़ा है। रेल परिवहन भारतीय रेल के पर पटना एक महत्वपूर्ण जंक्शन है। भारतीय रेल द्वारा राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली के अतिरिक्त यहाँ से मुम्बई, चेन्नई, कोलकाता, अहमदाबाद, जम्मू, अमृतसर, गुवाहाटी तथा अन्य महत्वपूर्ण शहरों के लिए सीधी ट्रेनें उपलब्ध है।[13] पटना देश के अन्य सभी महत्वपूर्ण शहरों से रेलमार्ग द्वारा जुड़ा है। पटना से जाने वाले रेलवे मार्ग हैं- पटना-मोकामा, पटना-मुगलसराय' तथा पटना-गया। यह पूर्व रेलवे के दिल्ली-हावड़ा मुख्य मार्ग पर स्थित है। वर्ष 2003 में दीघा-सोनपुर रेल-सह-सड़क पुल का निर्माण कार्य शुरू हुआ था। इसके 13 वर्ष बाद तीन फरवरी, 2016 से इस पर ट्रेन परिचालन शुरू किया गया।[14] हवाई परिवहन पटना के अंतरराष्ट्रीय हवाई पट्टी का नाम लोकनायक जयप्रकाश नारायण हवाई अड्डा है और यह नगर के पश्चिमी भाग में स्थित है। भारतीय विमानपत्तन प्राधिकरण द्वारा संचालित लोकनायक जयप्रकाश हवाईक्षेत्र, पटना (IATA कोड- PAT) अंतर्देशीय तथा सीमित अन्तर्राष्ट्रीय उड़ानों के लिए बना है। air india, जेटएयर, स्पाइसजेट तथा इंडिगो की उडानें दिल्ली, रांची, कलकत्ता, मुम्बई तथा कुछ अन्य नगरों के लिए नियमित रूप से उपलब्ध है। जल परिवहन पटना शहर १६८० किलोमीटर लंबे इलाहाबाद-हल्दिया राष्ट्रीय जलमार्ग संख्या-१ पर स्थित है। गंगा नदी का प्रयोग नागरिक यातायात के लिए हाल तक किया जाता था पर इसके ऊपर पुल बन जाने के कारण इसका महत्व अब भारवहन के लिए सीमित रह गया है। देश का एकमात्र राष्ट्रीय अंतर्देशीय नौकायन संस्थान पटना के गायघाट में स्थित है। स्थानीय परिवहन - पटना शहर का सार्वजनिक यातायात मुख्यतः सिटी बसों, ऑटोरिक्शा और साइकिल रिक्शा पर आश्रित है। लगभग ३० किलोमीटर लंबे और ५ किलोमीटर चौड़े राज्य की राजधानी के यातायात की ज़रुरतें मुख्यरूप से ऑटोरिक्शा (जिसे टेम्पो भी कहा जाता है) ही पूरा करती हैं। स्थानीय भ्रमण हेतु टैक्सी सेवा उपलब्ध है, जो निजी मालिकों द्वारा संचालित मंहगा साधन है। नगर बस सेवा कुछ इलाको के लिए उपलब्ध है पर उनकी सेवा और समयसारणी भरोसे के लायक नहीं है। नगर का मुख्य मार्ग अशोक राजपथ टेम्पो, साइकिल-रिक्शा तथा निजी दोपहिया और चौपहिया वाहनों के कारण हमेशा जाम का शिकार रहता है। आर्थिक स्थिति प्राचीन काल में व्यापार का केन्द्र रहे इस शहर में अब निर्यात करने लायक कम उपादान ही बनते हैं, हंलांकि बिहार के अन्य हिस्सों में पटना के पूर्वी पुराने भाग (पटना सिटी) निर्मित माल की मांग होने के कारण कुछ उद्योग धंधे फल फूल रहे हैं। वास्तव में ब्रिटिश काल में इस क्षेत्र में पनपने वाले पारंपरिक उद्योगों का ह्रास हो गया एवं इस प्रदेश को सरकार के द्वारा अनुमन्य फसल ही उगानी पड़ती थी इसका बहुत ही प्रतिकूल प्रभाव इस प्रदेश की अर्थव्यवस्था पर पड़ा| आगे चल कर के इस प्रदेश में होने वाले अनेक विद्रोहों के कारण भी इस प्रदेश की तरफ से सरकारी ध्यान हटता गया एवं इस प्रकार यह क्षेत्र अत्यंत ही पिछड़ता चला गया। आगे चल कर के स्वतंत्रता संग्राम के समय होने वाले किसान आंदोलन ने नक्सल आंदोलन का रूप ले लिया एवं इस प्रकार यह भी इस प्रदेश की औद्योगिक विकास के लिए घातक हो गया एवं आगे चल कर के युवाओं का पलायन आरंभ हो गया। दर्शनीय स्थल सभ्यता द्वार - बिहार में पटना शहर में गंगा नदी के तट पर स्थित एक बलुआ पत्थर आर्क स्मारक है। सभ्यता द्वार को मौर्य-शैली वास्तुकला के साथ बनाया गया है जिसमें बिहार राज्य की पाटलिपुत्र और परंपराओं और संस्कृति की प्राचीन महिमा दिखाने के उद्देश्य से बनाया गया है। पटना तारामंडल- पटना के इंदिरा गांधी विज्ञान परिसर में स्थित है। अगम कुँआ – मौर्य वंश के शासक सम्राट अशोक के काल का एक कुआँ गुलजा़रबाग स्टेशन के पास स्थित है। पास ही स्थित एक मन्दिर स्थानीय लोगों के शादी-विवाह का महत्वपूर्ण स्थल है। कुम्रहार - चंद्रगुप्त मौर्य, बिन्दुसार तथा अशोक कालीन पाटलिपुत्र के भग्नावशेष को देखने के लिए यह सबसे अच्छी जगह है। कुम्रहार परिसर भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग द्वारा संरक्षित तथा संचालित है और सोमवार को छोड़ सप्ताह के हर दिन १० बजे से ५ बजे तक खुला रहता है। क़िला हाउस (जालान हाउस) दीवान बहादुर राधाकृष्ण जालान द्वारा शेरशाह के किले के अवशेष पर निर्मित इस भवन में हीरे जवाहरात तथा चीनी वस्तुओं का एक निजी संग्रहालय है। तख्त श्रीहरमंदिर पटना सिखों के दसमें और अंतिम गुरु गोविन्द सिंह की जन्मस्थली है। नवम गुरु श्री तेगबहादुर के पटना में रहने के दौरान गुरु गोविन्दसिंह ने अपने बचपन के कुछ वर्ष पटना सिटी में बिताए थे। बालक गोविन्दराय के बचपन का पंगुरा (पालना), लोहे के चार तीर, तलवार, पादुका तथा 'हुकुमनामा' यहाँ गुरुद्वारे में सुरक्षित है। यह स्थल सिक्खों के लिए अति पवित्र है। महावीर मन्दिर संकटमोचन रामभक्त हनुमान मन्दिर पटना जंक्शन के ठीक बाहर बना है। न्यू मार्किट में बने मस्जिद के साथ खड़ा यह मन्दिर हिंदू-मुस्लिम एकता का प्रतीक है। गांधी मैदान वर्तमान शहर के मध्यभाग में स्थित यह विशाल मैदान पटना का दिल है। जनसभाओं, सम्मेलनों तथा राजनीतिक रैलियों के अतिरिक्त यह मैदान पुस्तक मेला तथा दैनिक व्यायाम का भी केन्द्र है। इसके चारों ओर अति महत्वपूर्ण सरकारी इमारतें और प्रशासनिक तथा मनोरंजन केंद्र बने हैं। गोलघर 1770 ईस्वी में इस क्षेत्र में आए भयंकर अकाल के बाद अनाज भंडारण के लिए बनाया गया यह गोलाकार ईमारत अपनी खास आकृति के लिए प्रसिद्ध है। 1786 ईस्वी में जॉन गार्स्टिन द्वारा निर्माण के बाद से गोलघ‍र पटना शहर क प्रतीक चिह्न बन गया। दो तरफ बनी सीढियों से ऊपर जाकर पास ही बहनेवाली गंगा और इसके परिवेश का शानदार अवलोकन संभव है। गाँधी संग्रहालय गोलघर के सामने बनी बाँकीपुर बालिका उच्च विद्यालय के बगल में महात्मा गाँधी की स्मृतियों से जुड़ी चीजों का नायाब संग्रह देखा जा सकता है। हाल में इसी परिसर में नवस्थापित चाणक्य राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालय का अध्ययन केंद्र भी अवलोकन योग्य है। श्रीकृष्ण विज्ञान केंद्र गाँधी मैदान के पश्चिम भाग में बना विज्ञान परिसर स्कूली शिक्षा में लगे बालकों के लिए ज्ञानवर्धक केंद्र है। पटना संग्रहालय जादूघर के नाम से भी जानेवाले इस म्यूज़ियम में प्राचीन पटना के हिन्दू तथा बौद्ध धर्म की कई निशानियां हैं। लगभग ३० करोड़ वर्ष पुराने पेड़ के तने का फॉसिल यहाँ का विशेष धरोहर है। ताराघर संग्रहालय के पास बना इन्दिरा गाँधी विज्ञान परिसर में बना ताराघर देश में वृहत्तम है। ख़ुदाबख़्श लाईब्रेरी अशोक राजपथ पर स्थित यह राष्ट्रीय पुस्तकालय 1891 में स्थापित हुआ था। यहाँ कुछ अतिदुर्लभ मुगल कालीन पांडुलपियां हैं। सदाक़त आश्रम - देशरत्न राजेन्द्र प्रसाद की कर्मभूमि। संजय गांधी जैविक उद्यान - राज्यपाल के सरकारी निवास राजभवन के पीछे स्थित जैविक उद्यान शहर का फेफड़ा है। विज्ञानप्रेमियों के लिए ‌यह जन्तु तथा वानस्पतिक गवेषणा का केंद्र है। व्यायाम करनेवालों तथा पिकनिक के लिए यह् पसंदीदा स्थल है। दरभंगा हाउस इसे नवलखा भवन भी कहते हैं। इसका निर्माण दरभंगा के महाराज कामेश्वर सिंह ने करवाया था। गंगा के तट पर अवस्थित इस प्रासाद में पटना विश्वविद्यालय के स्नातकोत्तर विभागों का कार्यालय है। इसके परिसर में एक काली मन्दिर भी है जहां राजा खुद अर्चना किया करते थे। बेगू हज्जाम की मस्जिद सन् 1489 में बंगाल के शासक अलाउद्दीन शाह द्वारा निर्मित 'पत्थर की मस्जिद - जहाँगीर के पुत्र शाह परवेज़ द्वारा 1621 में निर्मित यह छोटी सी मस्जिद अशोक राजपथ पर सुलतानगंज में स्थित है। शेरशाह की मस्जिद अफगान शैली में बनी यह मस्जिद बिहार के महान शासक शेरशाह सूरी द्वारा 1540-1545 के बीच बनवाई गयी थी। पटना में बनी यह सबसे बड़ी मस्जिद है। पादरी की हवेली - सन 1772 में निर्मित बिहार का प्राचीनतम चर्च बंगाल के नवाब मीर कासिम तथा ब्रिटिस ईस्ट इंडिया कंपनी के बीच की कड़वाहटों का गवाह है। पटना के आसपास बिहार शरीफ आरा बोध गया वैशाली नालंदा पावापुरी राजगीर हाजीपुर मनेर बिक्रम मनेर तेलपा नौबतपुर *दुल्हिनबजार *पालीगंज *मसौढी शिक्षा साठ और सत्तर के दशक में अपने गौरवपूर्ण शैक्षणिक दिनों के बाद स्कूली शिक्षा ही अब स्तर की है। पटना में प्रायः बिहार बोर्ड तथा सीबीएसई के स्कूल हैं। अनुग्रह नारायण सिंह कॉलेज पटना का नामी कालेज है। इसने शिक्षा के क्षेत्र में बिहार का नाम विदेशों तक मशहुर किया। हाल में ही बिहार कॉलेज ऑफ़ इंजीनियरिंग को एनआईटी का दर्जा मिला है। पटना विश्वविद्यालय, मगध विश्वविद्यालय तथा नालन्दा मुक्त विश्वविद्यालय - ये तीन विश्वविद्यालय हैं जिनके शिक्षण संस्थान नगर में स्थित हैं। हाल ही में पटना में प्रबंधन, सूचना तकनीक, जनसंचार एवं वाणिज्य की पढ़ाई हेतु 'कैटलिस्ट प्रबंधन एवं आधुनिक वैश्विक उत्कृष्टता संस्थान' अर्थात सिमेज कॉलेज की स्थापना की गयी है, जो उच्च शिक्षा के क्षेत्र में नित नए मानदंड स्थापित कर रहा है। इन्हें भी देखें लोकनायक जयप्रकाश विमानक्षेत्र पटना जंक्शन रेलवे स्टेशन महत्वपूर्ण (उल्लेखनीय) लोग सुशांत सिंह राजपूत सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ श्रेणी:बिहार के शहर श्रेणी:बिहार के जिले *
पटना भारत के किस राज्य में स्थित है?
बिहार
45
hindi
4dc303f34
नरेन्द्र दामोदरदास मोदी (उच्चारण, Gujarati: નરેંદ્ર દામોદરદાસ મોદી; जन्म: १७ सितम्बर १९५०) २०१४ से भारत के १४वें प्रधानमन्त्री तथा वाराणसी से सांसद हैं।[2][3] वे भारत के प्रधानमन्त्री पद पर आसीन होने वाले स्वतंत्र भारत में जन्मे प्रथम व्यक्ति हैं। इससे पहले वे 7 अक्तूबर २००१ से 22 मई २०१४ तक गुजरात के मुख्यमंत्री रह चुके हैं। मोदी भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) एवं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के सदस्य हैं। वडनगर के एक गुजराती परिवार में पैदा हुए, मोदी ने अपने बचपन में चाय बेचने में अपने पिता की मदद की, और बाद में अपना खुद का स्टाल चलाया। आठ साल की उम्र में वे आरएसएस से जुड़े, जिसके साथ एक लंबे समय तक सम्बंधित रहे। स्नातक होने के बाद उन्होंने अपने घर छोड़ दिया। मोदी ने दो साल तक भारत भर में यात्रा की, और कई धार्मिक केंद्रों का दौरा किया। 1969 या 1970 वे गुजरात लौटे और अहमदाबाद चले गए। 1971 में वह आरएसएस के लिए पूर्णकालिक कार्यकर्ता बन गए। 1975 में देश भर में आपातकाल की स्थिति के दौरान उन्हें कुछ समय के लिए छिपना पड़ा। 1985 में वे बीजेपी से जुड़े और 2001 तक पार्टी पदानुक्रम के भीतर कई पदों पर कार्य किया, जहाँ से वे धीरे धीरे सचिव के पद पर पहुंचे।   गुजरात भूकंप २००१, (भुज में भूकंप) के बाद गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री केशुभाई पटेल के असफल स्वास्थ्य और ख़राब सार्वजनिक छवि के कारण नरेंद्र मोदी को 2001 में गुजरात के मुख्यमंत्री नियुक्त किया गया। मोदी जल्द ही विधायी विधानसभा के लिए चुने गए। 2002 के गुजरात दंगों में उनके प्रशासन को कठोर माना गया है, इस दौरान उनके संचालन की आलोचना भी हुई।[4] हालांकि सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त विशेष जांच दल (एसआईटी) को अभियोजन पक्ष की कार्यवाही शुरू करने के लिए कोई सबूत नहीं मिला। [5] मुख्यमंत्री के तौर पर उनकी नीतियों को आर्थिक विकास को प्रोत्साहित करने के लिए श्रेय दिया गया।[6] उनके नेतृत्व में भारत की प्रमुख विपक्षी पार्टी भारतीय जनता पार्टी ने 2014 का लोकसभा चुनाव लड़ा और 282 सीटें जीतकर अभूतपूर्व सफलता प्राप्त की।[7] एक सांसद के रूप में उन्होंने उत्तर प्रदेश की सांस्कृतिक नगरी वाराणसी एवं अपने गृहराज्य गुजरात के वडोदरा संसदीय क्षेत्र से चुनाव लड़ा और दोनों जगह से जीत दर्ज़ की।[8][9] उनके राज में भारत का प्रत्यक्ष विदेशी निवेश एवं बुनियादी सुविधाओं पर खर्च तेज़ी से बढ़ा। उन्होंने अफसरशाही में कई सुधार किये तथा योजना आयोग को हटाकर नीति आयोग का गठन किया। इससे पूर्व वे गुजरात राज्य के 14वें मुख्यमन्त्री रहे। उन्हें उनके काम के कारण गुजरात की जनता ने लगातार 4 बार (2001 से 2014 तक) मुख्यमन्त्री चुना। गुजरात विश्वविद्यालय से राजनीति विज्ञान में स्नातकोत्तर डिग्री प्राप्त नरेन्द्र मोदी विकास पुरुष के नाम से जाने जाते हैं और वर्तमान समय में देश के सबसे लोकप्रिय नेताओं में से हैं।।[10] माइक्रो-ब्लॉगिंग साइट ट्विटर पर भी वे सबसे ज्यादा फॉलोअर (4.5करोड़+, जनवरी 2019) वाले भारतीय नेता हैं। उन्हें 'नमो' नाम से भी जाना जाता है। [11] टाइम पत्रिका ने मोदी को पर्सन ऑफ़ द ईयर 2013 के 42 उम्मीदवारों की सूची में शामिल किया है।[12] अटल बिहारी वाजपेयी की तरह नरेन्द्र मोदी एक राजनेता और कवि हैं। वे गुजराती भाषा के अलावा हिन्दी में भी देशप्रेम से ओतप्रोत कविताएँ लिखते हैं।[13][14] निजी जीवन नरेन्द्र मोदी का जन्म तत्कालीन बॉम्बे राज्य के महेसाना जिला स्थित वडनगर ग्राम में हीराबेन मोदी और दामोदरदास मूलचन्द मोदी के एक मध्यम-वर्गीय परिवार में १७ सितम्बर १९५० को हुआ था।[15] वह पैदा हुए छह बच्चों में तीसरे थे। मोदी का परिवार 'मोध-घांची-तेली' समुदाय से था,[16][17] जिसे भारत सरकार द्वारा अन्य पिछड़ा वर्ग के रूप में वर्गीकृत किया जाता है।[18] वह पूर्णत: शाकाहारी हैं।[19] भारत पाकिस्तान के बीच द्वितीय युद्ध के दौरान अपने तरुणकाल में उन्होंने स्वेच्छा से रेलवे स्टेशनों पर सफ़र कर रहे सैनिकों की सेवा की।[20] युवावस्था में वह छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद में शामिल हुए | उन्होंने साथ ही साथ भ्रष्टाचार विरोधी नव निर्माण आन्दोलन में हिस्सा लिया। एक पूर्णकालिक आयोजक के रूप में कार्य करने के पश्चात् उन्हें भारतीय जनता पार्टी में संगठन का प्रतिनिधि मनोनीत किया गया।[21] किशोरावस्था में अपने भाई के साथ एक चाय की दुकान चला चुके मोदी ने अपनी स्कूली शिक्षा वड़नगर में पूरी की।[15] उन्होंने आरएसएस के प्रचारक रहते हुए 1980 में गुजरात विश्वविद्यालय से राजनीति विज्ञान में स्नातकोत्तर परीक्षा दी और एम॰एससी॰ की डिग्री प्राप्त की।[22] अपने माता-पिता की कुल छ: सन्तानों में तीसरे पुत्र नरेन्द्र ने बचपन में रेलवे स्टेशन पर चाय बेचने में अपने पिता का भी हाथ बँटाया।[23][24] बड़नगर के ही एक स्कूल मास्टर के अनुसार नरेन्द्र हालाँकि एक औसत दर्ज़े का छात्र था, लेकिन वाद-विवाद और नाटक प्रतियोगिताओं में उसकी बेहद रुचि थी।[23] इसके अलावा उसकी रुचि राजनीतिक विषयों पर नयी-नयी परियोजनाएँ प्रारम्भ करने की भी थी।[25] 13 वर्ष की आयु में नरेन्द्र की सगाई जसोदा बेन चमनलाल के साथ कर दी गयी और जब उनका विवाह हुआ,[26] वह मात्र 17 वर्ष के थे। फाइनेंशियल एक्सप्रेस की एक खबर के अनुसार पति-पत्नी ने कुछ वर्ष साथ रहकर बिताये।[27] परन्तु कुछ समय बाद वे दोनों एक दूसरे के लिये अजनबी हो गये क्योंकि नरेन्द्र मोदी ने उनसे कुछ ऐसी ही इच्छा व्यक्त की थी।[23] जबकि नरेन्द्र मोदी के जीवनी-लेखक ऐसा नहीं मानते। उनका कहना है:[28] "उन दोनों की शादी जरूर हुई परन्तु वे दोनों एक साथ कभी नहीं रहे। शादी के कुछ बरसों बाद नरेन्द्र मोदी ने घर त्याग दिया और एक प्रकार से उनका वैवाहिक जीवन लगभग समाप्त-सा ही हो गया।" पिछले चार विधान सभा चुनावों में अपनी वैवाहिक स्थिति पर खामोश रहने के बाद नरेन्द्र मोदी ने कहा कि अविवाहित रहने की जानकारी देकर उन्होंने कोई पाप नहीं किया। नरेन्द्र मोदी के मुताबिक एक शादीशुदा के मुकाबले अविवाहित व्यक्ति भ्रष्टाचार के खिलाफ जोरदार तरीके से लड़ सकता है क्योंकि उसे अपनी पत्नी, परिवार व बालबच्चों की कोई चिन्ता नहीं रहती।[29] हालांकि नरेन्द्र मोदी ने शपथ पत्र प्रस्तुत कर जसोदाबेन को अपनी पत्नी स्वीकार किया है।[30] प्रारम्भिक सक्रियता और राजनीति नरेन्द्र जब विश्वविद्यालय के छात्र थे तभी से वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखा में नियमित जाने लगे थे। इस प्रकार उनका जीवन संघ के एक निष्ठावान प्रचारक के रूप में प्रारम्भ हुआ[22][31] उन्होंने शुरुआती जीवन से ही राजनीतिक सक्रियता दिखलायी और भारतीय जनता पार्टी का जनाधार मजबूत करने में प्रमुख भूमिका निभायी। गुजरात में शंकरसिंह वाघेला का जनाधार मजबूत बनाने में नरेन्द्र मोदी की ही रणनीति थी। अप्रैल १९९० में जब केन्द्र में मिली जुली सरकारों का दौर शुरू हुआ, मोदी की मेहनत रंग लायी, जब गुजरात में १९९५ के विधान सभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी ने अपने बलबूते दो तिहाई बहुमत प्राप्त कर सरकार बना ली। इसी दौरान दो राष्ट्रीय घटनायें और इस देश में घटीं। पहली घटना थी सोमनाथ से लेकर अयोध्या तक की रथयात्रा जिसमें आडवाणी के प्रमुख सारथी की मूमिका में नरेन्द्र का मुख्य सहयोग रहा। इसी प्रकार कन्याकुमारी से लेकर सुदूर उत्तर में स्थित काश्मीर तक की मुरली मनोहर जोशी की दूसरी रथ यात्रा भी नरेन्द्र मोदी की ही देखरेख में आयोजित हुई। इसके बाद शंकरसिंह वाघेला ने पार्टी से त्यागपत्र दे दिया, जिसके परिणामस्वरूप केशुभाई पटेल को गुजरात का मुख्यमन्त्री बना दिया गया और नरेन्द्र मोदी को दिल्ली बुला कर भाजपा में संगठन की दृष्टि से केन्द्रीय मन्त्री का दायित्व सौंपा गया। १९९५ में राष्ट्रीय मन्त्री के नाते उन्हें पाँच प्रमुख राज्यों में पार्टी संगठन का काम दिया गया जिसे उन्होंने बखूबी निभाया। १९९८ में उन्हें पदोन्नत करके राष्ट्रीय महामन्त्री (संगठन) का उत्तरदायित्व दिया गया। इस पद पर वह अक्टूबर २००१ तक काम करते रहे। भारतीय जनता पार्टी ने अक्टूबर २००१ में केशुभाई पटेल को हटाकर गुजरात के मुख्यमन्त्री पद की कमान नरेन्द्र मोदी को सौंप दी। गुजरात के मुख्यमन्त्री के रूप में 2001 में केशुभाई पटेल (तत्कालीन मुख्यमंत्री) की सेहत बिगड़ने लगी थी और भाजपा चुनाव में कई सीट हार रही थी।[32] इसके बाद भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष मुख्यमंत्री के रूप में मोदी को नए उम्मीदवार के रूप में रखते हैं। हालांकि भाजपा के नेता लालकृष्ण आडवाणी, मोदी के सरकार चलाने के अनुभव की कमी के कारण चिंतित थे। मोदी ने पटेल के उप मुख्यमंत्री बनने का प्रस्ताव ठुकरा दिया और आडवाणी व अटल बिहारी वाजपेयी से बोले कि यदि गुजरात की जिम्मेदारी देनी है तो पूरी दें अन्यथा न दें। 3 अक्टूबर 2001 को यह केशुभाई पटेल के जगह गुजरात के मुख्यमंत्री बने। इसके साथ ही उन पर दिसम्बर 2002 में होने वाले चुनाव की पूरी जिम्मेदारी भी थी।[33] 2001-02 नरेन्द्र मोदी ने मुख्यमंत्री का अपना पहला कार्यकाल 7 अक्टूबर 2001 से शुरू किया। इसके बाद मोदी ने राजकोट विधानसभा चुनाव लड़ा। जिसमें काँग्रेस पार्टी के आश्विन मेहता को 14,728 मतों से हरा दिया। नरेन्द्र मोदी अपनी विशिष्ट जीवन शैली के लिये समूचे राजनीतिक हलकों में जाने जाते हैं। उनके व्यक्तिगत स्टाफ में केवल तीन ही लोग रहते हैं, कोई भारी-भरकम अमला नहीं होता। लेकिन कर्मयोगी की तरह जीवन जीने वाले मोदी के स्वभाव से सभी परिचित हैं इस नाते उन्हें अपने कामकाज को अमली जामा पहनाने में कोई दिक्कत पेश नहीं आती। [34] उन्होंने गुजरात में कई ऐसे हिन्दू मन्दिरों को भी ध्वस्त करवाने में कभी कोई कोताही नहीं बरती जो सरकारी कानून कायदों के मुताबिक नहीं बने थे। हालाँकि इसके लिये उन्हें विश्व हिन्दू परिषद जैसे संगठनों का कोपभाजन भी बनना पड़ा, परन्तु उन्होंने इसकी रत्ती भर भी परवाह नहीं की; जो उन्हें उचित लगा करते रहे।[35] वे एक लोकप्रिय वक्ता हैं, जिन्हें सुनने के लिये बहुत भारी संख्या में श्रोता आज भी पहुँचते हैं। कुर्ता-पायजामा व सदरी के अतिरिक्त वे कभी-कभार सूट भी पहन लेते हैं। अपनी मातृभाषा गुजराती के अतिरिक्त वह हिन्दी में ही बोलते हैं।[36] मोदी के नेतृत्व में २०१२ में हुए गुजरात विधान सभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी ने स्पष्ट बहुमत प्राप्त किया। भाजपा को इस बार ११५ सीटें मिलीं। गुजरात के विकास की योजनाएँ मुख्यमन्त्री के रूप में नरेन्द्र मोदी ने गुजरात के विकास[37] के लिये जो महत्वपूर्ण योजनाएँ प्रारम्भ कीं व उन्हें क्रियान्वित कराया, उनका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है- पंचामृत योजना[38] - राज्य के एकीकृत विकास की पंचायामी योजना, सुजलाम् सुफलाम् - राज्य में जलस्रोतों का उचित व समेकित उपयोग, जिससे जल की बर्बादी को रोका जा सके,[39] कृषि महोत्सव – उपजाऊ भूमि के लिये शोध प्रयोगशालाएँ,[39] चिरंजीवी योजना – नवजात शिशु की मृत्युदर में कमी लाने हेतु,[39] मातृ-वन्दना – जच्चा-बच्चा के स्वास्थ्य की रक्षा हेतु,[40] बेटी बचाओ – भ्रूण-हत्या व लिंगानुपात पर अंकुश हेतु,[39] ज्योतिग्राम योजना – प्रत्येक गाँव में बिजली पहुँचाने हेतु,[41][42] कर्मयोगी अभियान – सरकारी कर्मचारियों में अपने कर्तव्य के प्रति निष्ठा जगाने हेतु,[39] कन्या कलावाणी योजना – महिला साक्षरता व शिक्षा के प्रति जागरुकता,[39] बालभोग योजना – निर्धन छात्रों को विद्यालय में दोपहर का भोजन,[43] मोदी का वनबन्धु विकास कार्यक्रम उपरोक्त विकास योजनाओं के अतिरिक्त मोदी ने आदिवासी व वनवासी क्षेत्र के विकास हेतु गुजरात राज्य में वनबन्धु विकास[44] हेतु एक अन्य दस सूत्री कार्यक्रम भी चला रखा है जिसके सभी १० सूत्र निम्नवत हैं: १-पाँच लाख परिवारों को रोजगार, २-उच्चतर शिक्षा की गुणवत्ता, ३-आर्थिक विकास, ४-स्वास्थ्य, ५-आवास, ६-साफ स्वच्छ पेय जल, ७-सिंचाई, ८-समग्र विद्युतीकरण, ९-प्रत्येक मौसम में सड़क मार्ग की उपलब्धता और १०-शहरी विकास। श्यामजीकृष्ण वर्मा की अस्थियों का भारत में संरक्षण नरेन्द्र मोदी ने प्रखर देशभक्त श्यामजी कृष्ण वर्मा व उनकी पत्नी भानुमती की अस्थियों को भारत की स्वतन्त्रता के ५५ वर्ष बाद २२ अगस्त २००३ को स्विस सरकार से अनुरोध करके जिनेवा से स्वदेश वापस मँगाया[45] और माण्डवी (श्यामजी के जन्म स्थान) में क्रान्ति-तीर्थ के नाम से एक पर्यटन स्थल बनाकर उसमें उनकी स्मृति को संरक्षण प्रदान किया।[46] मोदी द्वारा १३ दिसम्बर २०१० को राष्ट्र को समर्पित इस क्रान्ति-तीर्थ को देखने दूर-दूर से पर्यटक गुजरात आते हैं।[47] गुजरात सरकार का पर्यटन विभाग इसकी देखरेख करता है।[48] आतंकवाद पर मोदी के विचार १८ जुलाई २००६ को मोदी ने एक भाषण में आतंकवाद निरोधक अधिनियम जैसे आतंकवाद-विरोधी विधान लाने के विरूद्ध उनकी अनिच्छा को लेकर भारतीय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की आलोचना की। मुंबई की उपनगरीय रेलों में हुए बम विस्फोटों के मद्देनज़र उन्होंने केंद्र सरकार से राज्यों को सख्त कानून लागू करने के लिए सशक्त करने की माँग की।[49] उनके शब्दों में - नरेंद्र मोदी ने कई अवसरों पर कहा था कि यदि भाजपा केंद्र में सत्ता में आई, तो वह सन् २००४ में उच्चतम न्यायालय द्वारा अफज़ल गुरु को फाँसी दिए जाने के निर्णय का सम्मान करेगी। भारत के उच्चतम न्यायालय ने अफज़ल को २००१ में भारतीय संसद पर हुए हमले के लिए दोषी ठहराया था एवं ९ फ़रवरी २०१३ को तिहाड़ जेल में उसे फाँसी पर लटकाया गया। [50] विवाद एवं आलोचनाएँ 2002 के गुजरात दंगे 27 फ़रवरी 2002 को अयोध्या से गुजरात वापस लौट कर आ रहे कारसेवकों को गोधरा स्टेशन पर खड़ी ट्रेन में मुसलमानों की हिंसक भीड़ द्वारा आग लगा कर जिन्दा जला दिया गया। इस हादसे में 59 कारसेवक मारे गये थे।[51] रोंगटे खड़े कर देने वाली इस घटना की प्रतिक्रिया स्वरूप समूचे गुजरात में हिन्दू-मुस्लिम दंगे भड़क उठे। मरने वाले 1180 लोगों में अधिकांश संख्या अल्पसंख्यकों की थी। इसके लिये न्यूयॉर्क टाइम्स ने मोदी प्रशासन को जिम्मेवार ठहराया।[36] कांग्रेस सहित अनेक विपक्षी दलों ने नरेन्द्र मोदी के इस्तीफे की माँग की।[52][53] मोदी ने गुजरात की दसवीं विधानसभा भंग करने की संस्तुति करते हुए राज्यपाल को अपना त्यागपत्र सौंप दिया। परिणामस्वरूप पूरे प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लागू हो गया।[54][55] राज्य में दोबारा चुनाव हुए जिसमें भारतीय जनता पार्टी ने मोदी के नेतृत्व में विधान सभा की कुल १८२ सीटों में से १२७ सीटों पर जीत हासिल की। अप्रैल २००९ में भारत के उच्चतम न्यायालय ने विशेष जाँच दल भेजकर यह जानना चाहा कि कहीं गुजरात के दंगों में नरेन्द्र मोदी की साजिश तो नहीं।[36] यह विशेष जाँच दल दंगों में मारे गये काँग्रेसी सांसद ऐहसान ज़ाफ़री की विधवा ज़ाकिया ज़ाफ़री की शिकायत पर भेजा गया था।[56] दिसम्बर 2010 में उच्चतम न्यायालय ने एस॰ आई॰ टी॰ की रिपोर्ट पर यह फैसला सुनाया कि इन दंगों में नरेन्द्र मोदी के खिलाफ़ कोई ठोस सबूत नहीं मिला है।[57] उसके बाद फरवरी 2011 में टाइम्स ऑफ इंडिया ने यह आरोप लगाया कि रिपोर्ट में कुछ तथ्य जानबूझ कर छिपाये गये हैं[58] और सबूतों के अभाव में नरेन्द्र मोदी को अपराध से मुक्त नहीं किया जा सकता।[59][60] इंडियन एक्सप्रेस ने भी यह लिखा कि रिपोर्ट में मोदी के विरुद्ध साक्ष्य न मिलने की बात भले ही की हो किन्तु अपराध से मुक्त तो नहीं किया।[61] द हिन्दू में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार नरेन्द्र मोदी ने न सिर्फ़ इतनी भयंकर त्रासदी पर पानी फेरा अपितु प्रतिक्रिया स्वरूप उत्पन्न गुजरात के दंगों में मुस्लिम उग्रवादियों के मारे जाने को भी उचित ठहराया।[62] भारतीय जनता पार्टी ने माँग की कि एस॰ आई॰ टी॰ की रिपोर्ट को लीक करके उसे प्रकाशित करवाने के पीछे सत्तारूढ़ काँग्रेस पार्टी का राजनीतिक स्वार्थ है इसकी भी उच्चतम न्यायालय द्वारा जाँच होनी चाहिये।[63] सुप्रीम कोर्ट ने बिना कोई फैसला दिये अहमदाबाद के ही एक मजिस्ट्रेट को इसकी निष्पक्ष जाँच करके अविलम्ब अपना निर्णय देने को कहा।[64] अप्रैल 2012 में एक अन्य विशेष जाँच दल ने फिर ये बात दोहरायी कि यह बात तो सच है कि ये दंगे भीषण थे परन्तु नरेन्द्र मोदी का इन दंगों में कोई भी प्रत्यक्ष हाथ नहीं।[65] 7 मई 2012 को उच्चतम न्यायालय द्वारा नियुक्त विशेष जज राजू रामचन्द्रन ने यह रिपोर्ट पेश की कि गुजरात के दंगों के लिये नरेन्द्र मोदी पर भारतीय दण्ड संहिता की धारा 153 ए (1) (क) व (ख), 153 बी (1), 166 तथा 505 (2) के अन्तर्गत विभिन्न समुदायों के बीच बैमनस्य की भावना फैलाने के अपराध में दण्डित किया जा सकता है।[66] हालांकि रामचन्द्रन की इस रिपोर्ट पर विशेष जाँच दल (एस०आई०टी०) ने आलोचना करते हुए इसे दुर्भावना व पूर्वाग्रह से परिपूर्ण एक दस्तावेज़ बताया।[67] 26 जुलाई 2012 को नई दुनिया के सम्पादक शाहिद सिद्दीकी को दिये गये एक इण्टरव्यू में नरेन्द्र मोदी ने साफ शब्दों में कहा - "2004 में मैं पहले भी कह चुका हूँ, 2002 के साम्प्रदायिक दंगों के लिये मैं क्यों माफ़ी माँगूँ? यदि मेरी सरकार ने ऐसा किया है तो उसके लिये मुझे सरे आम फाँसी दे देनी चाहिये।" मुख्यमन्त्री ने गुरुवार को नई दुनिया से फिर कहा- “अगर मोदी ने अपराध किया है तो उसे फाँसी पर लटका दो। लेकिन यदि मुझे राजनीतिक मजबूरी के चलते अपराधी कहा जाता है तो इसका मेरे पास कोई जवाब नहीं है।" यह कोई पहली बार नहीं है जब मोदी ने अपने बचाव में ऐसा कहा हो। वे इसके पहले भी ये तर्क देते रहे हैं कि गुजरात में और कब तक गुजरे ज़माने को लिये बैठे रहोगे? यह क्यों नहीं देखते कि पिछले एक दशक में गुजरात ने कितनी तरक्की की? इससे मुस्लिम समुदाय को भी तो फायदा पहुँचा है। लेकिन जब केन्द्रीय क़ानून मन्त्री सलमान खुर्शीद से इस बावत पूछा गया तो उन्होंने दो टूक जवाब दिया - "पिछले बारह वर्षों में यदि एक बार भी गुजरात के मुख्यमन्त्री के खिलाफ़ एफ॰ आई॰ आर॰ दर्ज़ नहीं हुई तो आप उन्हें कैसे अपराधी ठहरा सकते हैं? उन्हें कौन फाँसी देने जा रहा है?"[68] बाबरी मस्जिद के लिये पिछले 45 सालों से कानूनी लड़ाई लड़ रहे 92 वर्षीय मोहम्मद हाशिम अंसारी के मुताबिक भाजपा में प्रधानमन्त्री पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी के प्रान्त गुजरात में सभी मुसलमान खुशहाल और समृद्ध हैं। जबकि इसके उलट कांग्रेस हमेशा मुस्लिमों में मोदी का भय पैदा करती रहती है।[69] सितंबर 2014 की भारत यात्रा के दौरान ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री टोनी एबॉट ने कहा कि नरेंद्र मोदी को 2002 के दंगों के लिए गुजरात के मुख्यमंत्री के तौर पर जिम्मेदार नहीं ठहराना चाहिए क्योंकि वह उस समय मात्र एक 'पीठासीन अधिकारी' थे जो 'अनगिनत जाँचों' में पाक साफ साबित हो चुके हैं।[70] २०१४ लोकसभा चुनाव प्रधानमन्त्री पद के उम्मीदवार गोआ में भाजपा कार्यसमिति द्वारा नरेन्द्र मोदी को 2014 के लोक सभा चुनाव अभियान की कमान सौंपी गयी थी।[71] १३ सितम्बर २०१३ को हुई संसदीय बोर्ड की बैठक में आगामी लोकसभा चुनावों के लिये प्रधानमन्त्री पद का उम्मीदवार घोषित कर दिया गया। इस अवसर पर पार्टी के शीर्षस्थ नेता लालकृष्ण आडवाणी मौजूद नहीं रहे और पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने इसकी घोषणा की।[72][73] मोदी ने प्रधानमन्त्री पद का उम्मीदवार घोषित होने के बाद चुनाव अभियान की कमान राजनाथ सिंह को सौंप दी। प्रधानमन्त्री पद का उम्मीदवार बनाये जाने के बाद मोदी की पहली रैली हरियाणा प्रान्त के रिवाड़ी शहर में हुई।[74] एक सांसद प्रत्याशी के रूप में उन्होंने देश की दो लोकसभा सीटों वाराणसी तथा वडोदरा से चुनाव लड़ा और दोनों निर्वाचन क्षेत्रों से विजयी हुए।[8][9][75] लोक सभा चुनाव २०१४ में मोदी की स्थिति न्यूज़ एजेंसीज व पत्रिकाओं द्वारा किये गये तीन प्रमुख सर्वेक्षणों ने नरेन्द्र मोदी को प्रधान मन्त्री पद के लिये जनता की पहली पसन्द बताया था।[76][77][78] एसी वोटर पोल सर्वे के अनुसार नरेन्द्र मोदी को पीएम पद का प्रत्याशी घोषित करने से एनडीए के वोट प्रतिशत में पाँच प्रतिशत के इजाफ़े के साथ १७९ से २२० सीटें मिलने की सम्भावना व्यक्त की गयी।[78] सितम्बर २०१३ में नीलसन होल्डिंग और इकोनॉमिक टाइम्स ने जो परिणाम प्रकाशित किये थे उनमें शामिल शीर्षस्थ १०० भारतीय कार्पोरेट्स में से ७४ कारपोरेट्स ने नरेन्द्र मोदी तथा ७ ने राहुल गान्धी को बेहतर प्रधानमन्त्री बतलाया था।[79][80] नोबल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन मोदी को बेहतर प्रधान मन्त्री नहीं मानते ऐसा उन्होंने एक इंटरव्यू में कहा था। उनके विचार से मुस्लिमों में उनकी स्वीकार्यता संदिग्ध हो सकती है जबकि जगदीश भगवती और अरविन्द पानगढ़िया को मोदी का अर्थशास्त्र बेहतर लगता है।[81] योग गुरु स्वामी रामदेव व मुरारी बापू जैसे कथावाचक ने नरेन्द्र मोदी का समर्थन किया।[82] पार्टी की ओर से पीएम प्रत्याशी घोषित किये जाने के बाद नरेन्द्र मोदी ने पूरे भारत का भ्रमण किया। इस दौरान तीन लाख किलोमीटर की यात्रा कर पूरे देश में ४३७ बड़ी चुनावी रैलियाँ, ३-डी सभाएँ व चाय पर चर्चा आदि को मिलाकर कुल ५८२७ कार्यक्रम किये। चुनाव अभियान की शुरुआत उन्होंने २६ मार्च २०१४ को मां वैष्णो देवी के आशीर्वाद के साथ जम्मू से की और समापन मंगल पांडे की जन्मभूमि बलिया में किया। स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात भारत की जनता ने एक अद्भुत चुनाव प्रचार देखा।[83] यही नहीं, नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी ने २०१४ के चुनावों में अभूतपूर्व सफलता भी प्राप्त की। परिणाम चुनाव में जहाँ राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन ३३६ सीटें जीतकर सबसे बड़े संसदीय दल के रूप में उभरा वहीं अकेले भारतीय जनता पार्टी ने २८२ सीटों पर विजय प्राप्त की। काँग्रेस केवल ४४ सीटों पर सिमट कर रह गयी और उसके गठबंधन को केवल ५९ सीटों से ही सन्तोष करना पड़ा।[7] नरेन्द्र मोदी स्वतन्त्र भारत में जन्म लेने वाले ऐसे व्यक्ति हैं जो सन २००१ से २०१४ तक लगभग १३ साल गुजरात के १४वें मुख्यमन्त्री रहे और भारत के १४वें प्रधानमन्त्री बने। एक ऐतिहासिक तथ्य यह भी है कि नेता-प्रतिपक्ष के चुनाव हेतु विपक्ष को एकजुट होना पड़ेगा क्योंकि किसी भी एक दल ने कुल लोकसभा सीटों के १० प्रतिशत का आँकड़ा ही नहीं छुआ। भाजपा संसदीय दल के नेता निर्वाचित २० मई २०१४ को संसद भवन में भारतीय जनता पार्टी द्वारा आयोजित भाजपा संसदीय दल एवं सहयोगी दलों की एक संयुक्त बैठक में जब लोग प्रवेश कर रहे थे तो नरेन्द्र मोदी ने प्रवेश करने से पूर्व संसद भवन को ठीक वैसे ही जमीन पर झुककर प्रणाम किया जैसे किसी पवित्र मन्दिर में श्रद्धालु प्रणाम करते हैं। संसद भवन के इतिहास में उन्होंने ऐसा करके समस्त सांसदों के लिये उदाहरण पेश किया। बैठक में नरेन्द्र मोदी को सर्वसम्मति से न केवल भाजपा संसदीय दल अपितु एनडीए का भी नेता चुना गया। राष्ट्रपति ने नरेन्द्र मोदी को भारत का १५वाँ प्रधानमन्त्री नियुक्त करते हुए इस आशय का विधिवत पत्र सौंपा। नरेन्द्र मोदी ने सोमवार २६ मई २०१४ को प्रधानमन्त्री पद की शपथ ली।[3] वडोदरा सीट से इस्तीफ़ा दिया नरेन्द्र मोदी ने २०१४ के लोकसभा चुनाव में सबसे अधिक अन्तर से जीती गुजरात की वडोदरा सीट से इस्तीफ़ा देकर संसद में उत्तर प्रदेश की वाराणसी सीट का प्रतिनिधित्व करने का फैसला किया और यह घोषणा की कि वह गंगा की सेवा के साथ इस प्राचीन नगरी का विकास करेंगे।[84] प्रधानमन्त्री के रूप में ऐतिहासिक शपथ ग्रहण समारोह नरेन्द्र मोदी का २६ मई २०१४ से भारत के १५वें प्रधानमन्त्री का कार्यकाल राष्ट्रपति भवन के प्रांगण में आयोजित शपथ ग्रहण के पश्चात प्रारम्भ हुआ।[85] मोदी के साथ ४५ अन्य मन्त्रियों ने भी समारोह में पद और गोपनीयता की शपथ ली।[86] प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी सहित कुल ४६ में से ३६ मन्त्रियों ने हिन्दी में जबकि १० ने अंग्रेज़ी में शपथ ग्रहण की।[87] समारोह में विभिन्न राज्यों और राजनीतिक पार्टियों के प्रमुखों सहित सार्क देशों के राष्ट्राध्यक्षों को आमंत्रित किया गया।[88][89] इस घटना को भारतीय राजनीति की राजनयिक कूटनीति के रूप में भी देखा जा रहा है। सार्क देशों के जिन प्रमुखों ने समारोह में भाग लिया उनके नाम इस प्रकार हैं।[90] – राष्ट्रपति हामिद करज़ई[91] – संसद की अध्यक्ष शिरीन शर्मिन चौधरी[92][93] – प्रधानमन्त्री शेरिंग तोबगे[94] – राष्ट्रपति अब्दुल्ला यामीन अब्दुल गयूम[95][96] – प्रधानमन्त्री नवीनचन्द्र रामगुलाम[97] – प्रधानमन्त्री सुशील कोइराला[98] – प्रधानमन्त्री नवाज़ शरीफ़[99] – प्रधानमन्त्री महिन्दा राजपक्षे[100] ऑल इण्डिया अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (अन्ना द्रमुक) और राजग का घटक दल मरुमलार्ची द्रविड़ मुनेत्र कझगम (एमडीएमके) नेताओं ने नरेन्द्र मोदी सरकार के श्रीलंकाई प्रधानमंत्री को आमंत्रित करने के फैसले की आलोचना की।[101][102] एमडीएमके प्रमुख वाइको ने मोदी से मुलाकात की और निमंत्रण का फैसला बदलवाने की कोशिश की जबकि कांग्रेस नेता भी एमडीएमके और अन्ना द्रमुक आमंत्रण का विरोध कर रहे थे।[103] श्रीलंका और पाकिस्तान ने भारतीय मछुवारों को रिहा किया। मोदी ने शपथ ग्रहण समारोह में आमंत्रित देशों के इस कदम का स्वागत किया।[104] इस समारोह में भारत के सभी राज्यों के मुख्यमंत्रियों को आमंत्रित किया गया था। इनमें से कर्नाटक के मुख्यमंत्री, सिद्धारमैया (कांग्रेस) और केरल के मुख्यमंत्री, उम्मन चांडी (कांग्रेस) ने भाग लेने से मना कर दिया।[105] भाजपा और कांग्रेस के बाद सबसे अधिक सीटों पर विजय प्राप्त करने वाली तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता ने समारोह में भाग न लेने का निर्णय लिया जबकि पश्चिम बंगाल के मुख्यमन्त्री ममता बनर्जी ने अपनी जगह मुकुल रॉय और अमित मिश्रा को भेजने का निर्णय लिया।[106][107] वड़ोदरा के एक चाय विक्रेता किरण महिदा, जिन्होंने मोदी की उम्मीदवारी प्रस्तावित की थी, को भी समारोह में आमन्त्रित किया गया। अलवत्ता मोदी की माँ हीराबेन और अन्य तीन भाई समारोह में उपस्थित नहीं हुए, उन्होंने घर में ही टीवी पर लाइव कार्यक्रम देखा।[108] भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए महत्वपूर्ण उपाय भ्रष्टाचार से सम्बन्धित विशेष जाँच दल (SIT) की स्थापना योजना आयोग की समाप्ति की घोषणा। समस्त भारतीयों के अर्थव्यवस्था की मुख्य धारा में समावेशन हेतु प्रधानमंत्री जन धन योजना का आरम्भ। रक्षा उत्पादन क्षेत्र में विदेशी निवेश की अनुमति ४५% का कर देकर काला धन घोषित करने की छूट सातवें केन्द्रीय वेतन आयोग की सिफारिसों की स्वीकृति रेल बजट प्रस्तुत करने की प्रथा की समाप्ति काले धन तथा समान्तर अर्थव्यवस्था को समाप्त करने के लिये ८ नवम्बर २०१६ से ५०० तथा १००० के प्रचलित नोटों को अमान्य करना भारत के अंतर्राष्ट्रीय सम्बन्ध शपथग्रहण समारोह में समस्त सार्क देशों को आमंत्रण सर्वप्रथम विदेश यात्रा के लिए भूटान का चयन ब्रिक्स सम्मेलन में नए विकास बैंक की स्थापना नेपाल यात्रा में पशुपतिनाथ मंदिर में पूजा अमेरिका व चीन से पहले जापान की यात्रा पाकिस्तान को अन्तरराष्ट्रीय जगत में अलग-थलग करने में सफल जुलाई २०१७ में इजराइल की यात्रा, इजराइल के साथ सम्बन्धों में नये युग का आरम्भ सूचना प्रौद्योगिकी स्वास्थ्य एवं स्वच्छता भारत के प्रधानमन्त्री बनने के बाद 2 अक्टूबर 2014 को नरेन्द्र मोदी ने देश में साफ-सफाई को बढ़ावा देने के लिए स्वच्छ भारत अभियान का शुभारम्भ किया। उसके बाद पिछले साढे चार वर्षों में मोदी सरकार ने कई ऐसी पहलें की जिनकी जनता के बीच खूब चर्चा रही। स्वच्छता भारत अभियान भी ऐसी ही पहलों में से एक हैं। सरकार ने जागरुकता अभियान के तहत लोगों को सफाई के लिए प्रेरित करने की दिशा में कदम उठाए। देश को खुले में शौच मुक्त करने के लिए भी अभियान के तहत प्रचार किया। साथ ही देश भर में शौचालयों का निर्माण भी कराया गया। सरकार ने देश में साफ सफाई के खर्च को बढ़ाने के लिए स्वच्छ भारत चुंगी (सेस) की भी शुरुआत की। स्वच्छ भारत मिशन का प्रतीक गांधी जी का चश्मा रखा गया और साथ में एक 'एक कदम स्वच्छता की ओर' टैग लाइन भी रखी गई। स्वच्छ भारत अभियान के सफल कार्यान्वयन हेतु भारत के सभी नागरिकों से इस अभियान से जुड़ने की अपील की। इस अभियान का उद्देश्य पांच वर्ष में स्वच्छ भारत का लक्ष्य प्राप्त करना है ताकि बापू की 150वीं जयंती को इस लक्ष्य की प्राप्ति के रूप में मनाया जा सके। स्वच्छ भारत अभियान सफाई करने की दिशा में प्रतिवर्ष 100 घंटे के श्रमदान के लिए लोगों को प्रेरित करता है। प्रधानमंत्री ने मृदुला सिन्‍हा, सचिन तेंदुलकर, बाबा रामदेव, शशि थरूर, अनिल अम्‍बानी, कमल हसन, सलमान खान, प्रियंका चोपड़ा और तारक मेहता का उल्‍टा चश्‍मा की टीम जैसी नौ नामचीन हस्तियों को आमंत्रित किया कि वे भी स्‍वच्‍छ भारत अभियान में अपना सहयोग प्रदान करें। लोगों से कहा गया कि वे सफाई अभियानों की तस्‍वीरें सोशल मीडिया पर साझा करें और अन्‍य नौ लोगों को भी अपने साथ जोड़ें ताकि यह एक शृंखला बन जाए। आम जनता को भी सोशल मीडिया पर हैश टैग #MyCleanIndia लिखकर अपने सहयोग को साझा करने के लिए कहा गया। एक कदम स्वच्छता की ओर: मोदी सरकार ने एक ऐसा रचनात्मक और सहयोगात्मक मंच प्रदान किया है जो राष्ट्रव्यापी आंदोलन की सफलता सुनिश्चित करता है। यह मंच प्रौद्योगिकी के माध्यम से नागरिकों और संगठनों के अभियान संबंधी प्रयासों के बारे में जानकारी प्रदान करता है। कोई भी व्यक्ति, सरकारी संस्था या निजी संगठन अभियान में भाग ले सकते हैं। इस अभियान का उद्देश्य लोगों को उनके दैनिक कार्यों में से कुछ घंटे निकालकर भारत में स्वच्छता संबंधी कार्य करने के लिए प्रोत्साहित करना है। स्वच्छता ही सेवा: प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने 15 सितम्बर २०१८ को 'स्वच्छता ही सेवा' अभियान आरम्भ किया और जन-मानस को इससे जुड़ने का आग्रह किया। राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी के 150 जयंती वर्ष के औपचारिक शुरुआत से पहले 15 सितम्बर से 2 अक्टूबर तक स्वच्छता ही सेवा कार्यक्रम का बड़े पैमाने पर आयोजन किया जा रहा है। इससे पहले मोदी ने समाज के विभिन्न वर्गों के करीब 2000 लोगों को पत्र लिख कर इस सफाई अभियान का हिस्सा बनने के लिए आमंत्रित किया, ताकि इस अभियान को सफल बनाया जा सके। रक्षा नीति भारतीय सशस्त्र बलों को आधुनिक बनाने एवं उनका विस्तार करने के लिये मोदी के नेतृत्व वाली नई सरकार ने रक्षा पर खर्च को बढ़ा दिया है। सन २०१५ में रक्षा बजट ११% बढ़ा दिया गया। सितम्बर २०१५ में उनकी सरकार ने समान रैंक समान पेंशन (वन रैंक वन पेन्शन) की बहुत लम्बे समय से की जा रही माँग को स्वीकार कर लिया। मोदी सरकार ने पूर्वोत्तर भारत के नागा विद्रोहियों के साथ शान्ति समझौता किया जिससे १९५० के दशक से चला आ रहा नागा समस्या का समाधान निकल सके। २९ सितम्बर, २०१६ को नियन्त्रण रेखा के पार सर्जिकल स्ट्राइक सीमा पर चीन की मनमानी का कड़ा विरोध और प्रतिकार (डोकलाम विवाद 2017 देखें) घरेलू नीति हजारों एन जी ओ का पंजीकरण रद्द करना अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय को 'अल्पसंख्यक विश्वविद्यालय' न मानना तीन बार तलाक कहकर तलाक देने के विरुद्ध निर्णय जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय दिल्ली में राष्ट्रविरोधी गतिविधियों पर लगाम आमजन से जुड़ने की मोदी की पहल देश की आम जनता की बात जाने और उन तक अपनी बात पहुंचाने के लिए नरेंद्र मोदी ने 'मन की बात' कार्यक्रम की शुरुआत की। इस कार्यक्रम के माध्यम से मोदी ने लोगों के विचारों को जानने की कोशिश की और साथ ही साथ उन्होंने लोगों से स्वच्छता अभियान सहित विभिन्न योजनाओं से जुड़ने की अपील की।[109] अन्य ७० वर्ष से अधिक उम्र के सांसदों एवं विधायकों को मंत्रिपद न देने का कड़ा निर्णय ग्रन्थ नरेन्द्र मोदी के बारे में कुशल सारथी नरंद्र मोदी (लेखक - डॉ. भगवान अंजनीकर) दूरद्रष्टा नरेन्द्र मोदी (पंकज कुमार) (हिंदी) नरेन्द्र मोदी - एक आश्वासक नेतृत्व (लेखक - डॉ. रविकांत पागनीस, शशिकला उपाध्ये) नरेन्द्र मोदी - एक झंझावात (लेखक - डॉ. दामोदर) नरेन्द्र मोदी का राजनैतिक सफर (तेजपाल सिंह) (हिंदी) Narendra Modi: The Man The Times (लेखक: निलंजन मुखोपाध्याय) Modi's World: Expanding Sphere of Influence (लेखक: सी. राजा मोहन) स्पीकिंग द मोदी वे (लेखक विरेंदर कपूर) स्वप्नेर फेरावाला (बंगाली, लेखक: पत्रकार सुजित रॉय) नरेन्द्रायण - व्यक्ती ते समष्टी, एक आकलन (मूळ मराठी. लेखक डॉ. गिरीश दाबके) नरेन्द्र मोदी: एका कर्मयोग्याची संघर्षगाथा (लेखक - विनायक आंबेकर) मोदीच का? (लेखक भाऊ तोरसेकर)- मोरया प्रकाशन एक्जाम वॉरियर्स द नमो स्टोरी, अ पोलिटिकल लाइफ नरेन्द्र मोदी द्वारा रचित सेतुबन्ध - राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेता लक्ष्मणराव इनामदार की जीवनी के सहलेखक (२००१ में) आँख आ धन्य छे (गुजराती कविताएँ) कर्मयोग आपातकाल में गुजरात (हिंदी) एक भारत श्रेष्ठ भारत (नरेंद्र मोदी के भाषणों का संकलन ; संपादक प्रदीप पंडित) ज्योतिपुंज (आत्मकथन - नरेंद्र मोदी) सामाजिक समरसता (नरेंद्र मोदी के लेखों का संकलन) सम्मान और पुरस्कार अप्रैल २०१६ में नरेन्द्र मोदी सउदी अरब के उच्चतम नागरिक सम्मान 'अब्दुलअजीज अल सऊद के आदेश' (The Order of Abdulaziz Al Saud) से सम्मानित किये गये हैं।[110][111] जून 2016 में अफगानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ गनी ने भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अफगानिस्तान के सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार अमीर अमानुल्ला खान अवॉर्ड से सम्मानित किया।[112] सितम्बर २०१८: ' चैंपियंस ऑफ द अर्थ अवार्ड ' -- प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को यह सम्मान अन्तरराष्ट्रीय सौर गठबंधन और एक ही बार इस्तेमाल किए जाने वाले प्लास्टिक से देश को मुक्त कराने के संकल्प के लिए दिया गया। [113] संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम ने एक बयान जारी कर कहा है कि- इस साल के पुरस्कार विजेताओं को आज के समय के कुछ बेहद अत्यावश्यक पर्यावरणीय मुद्दों से निपटने के लिये साहसी, नवोन्मेष और अथक प्रयास करने के लिये सम्मानित किया जा रहा है।' नीतिगत नेतृत्व की श्रेणी में फ्रांस के राष्ट्रपति एमैनुअल मैक्रों और नरेंद्र मोदी को संयुक्त रूप से इस सम्मान के लिये चुना गया है। वैश्विक छवि २०१४: फ़ोर्ब्स पत्रिका में विश्व के शक्तिशाली व्यक्तियों में १४ वां स्थान। २०१५: विश्व के शक्तिशाली व्यक्तियों में ९ वां स्थान फोर्ब्स पत्रिका के सर्वे में। [114] २०१६: विश्व प्रसिद्ध फ़ोर्ब्स पत्रिका में विश्व के शक्तिशाली व्यक्तियों में मोदी का ९ वां स्थान। [114][115][116] सन्दर्भ इन्हें भी देखें भारतीय आम चुनाव, 2014 वस्तु एवं सेवा कर (भारत) भारत के 500 और 1000 रुपये के नोटों का विमुद्रीकरण आधार (परियोजना) डोकलाम विवाद 2017 नेशनल पेंशन सिस्टम मन की बात मेक इन इंडिया नोटबंदी   बाहरी कड़ियाँ आधिकारिक - आधिकारिक तथा सत्यापित ट्विटर खाता - आधिकारिक फेसबुक खाता - आधिकारिक जालस्थल - निजी ब्लॉग |- श्रेणी:1950 में जन्मे लोग श्रेणी:जीवित लोग श्रेणी:भारत के प्रधानमंत्री श्रेणी:गुजरात के मुख्यमंत्री श्रेणी:भारतीय जनता पार्टी के राजनीतिज्ञ श्रेणी:गुजरात के लोग श्रेणी:१६वीं लोक सभा के सदस्य श्रेणी:नरेन्द्र मोदी श्रेणी:दलित नेता श्रेणी:भारतीय जनता पार्टी के मुख्यमंत्री
मोदी को कब गुजरात के मुख्यमंत्री नियुक्त किया गया?
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रानी मुखर्जी हिन्दी फिल्मों की एक प्रसिद्ध अभिनेत्री हैं। 2005 में वे बॉलीवुड के शीर्ष 10 शक्तिशाली लोगों में सिर्फ एक महिला थी। रानी ही एक ऐसी अभिनेत्री है जिसे फिल्मफेयर ने 3 साल लगातार (2004-2006) बॉलीवुड की शीर्ष अभिनेत्री घोषित किया। रानी समाज सेवा के कामों में बहुत सक्रिय रहती हैं और उन्होंने बहुत सारी संस्थाओं के लिये चंदा इकठ्ठा किया है। उन्होंने 2 विश्व टूर में हिस्सा लिया है जहाँ बॉलीवुड के और सितारों के साथ उन्होंने स्टेज शो में दर्शकों के सामने प्रदर्शन किया। अपने पहले टूर में वे आमिर खान, ऐश्वर्या राय बच्चन, अक्षय खन्ना और ट्विंकल खन्ना के साथ थीं और दूसरे में शाहरुख़ खान, सैफ अली ख़ान, प्रीती ज़िंटा, अर्जुन रामपाल और प्रियंका चोपड़ा के साथ दिखीं| 2005 में उन्हें बॉलीवुड की तरफ से पाकिस्तान के राष्ट्रपति परवेज़ मुशर्रफ के साथ खाने पर न्योता दिया गया। 2006 में उन्हें बाकी बॉलीवुड अभिनेत्रियों के साथ ऑस्ट्रेलिया के कोम्मनवेल्थ खेलों में भारतीय परंपरा का प्रदर्शन किया। व्यक्तिगत जीवन रानी मुखर्जी का जन्म २१ मार्च १९७६ को कोलकाता के एक बंगाली परिवार में हुआ। इनके पिता राम मुखर्जी निर्देशक रह चुके हैं और उनकी माँ एक गायक है। उनका भाई राजा भी फिल्म निर्देशक हैं। अभिनेत्री काजोल उनकी रिश्तेदार हैं। कैरियर रानी मुखर्जी ने अपने फ़िल्मी करियर की शुरुआत "राजा की आएगी बारात" से की पर फिल्म बॉक्स ऑफिस पर नाकाम रही। इससे पहले उन्हें अपने पिता की बंगाली फिल्म "बियेर फूल (1992)" में एक छोटा किरदार करने को मिला था। उनके पारिवारिक मित्र सलीम अख्तर ने "आ गले लग जा" (1994) में उन्हें रोल दिया था जिसे रानी के पिता ने ठुकरा दिया था, जिसके बाद वह किरदार उर्मिला मातोंडकर को मिला। उनको पहली सफलता फिल्म गुलाम से मिली जिसने उन्हें "खंडाला गर्ल" नाम से चर्चित कर दिया। हालाँकि फिल्म कुछ ख़ास सफल नहीं रही पर "आती क्या खंडाला" गाने ने उन्हें दर्शकों का चहेता बना दिया। उनकी पहली बड़ी सफल फिल्म रही शाहरुख़ खान के साथ "कुछ कुछ होता है"। हालाँकि उनका किरदार इस फिल्म में सीमित था पर फिल्म की सफलता से वे निर्देशकों की नज़रों में आ गयीं। इसके बाद उन्हें कई फिल्मों में काम मिला पर वे ज्यादा सफल नहीं रहीं। उनकी अगली फिल्में "बादल","चोरी चोरी चुपके चुपके" और "मुझसे दोस्ती करोगे!" कुछ ख़ास कमाल नहीं कर पायी| पर साथ ही उन्हें यशराज बैनर के टैली फिल्म करने का मौका जरुर मिला। उनकी अगली सफल फिल्म रही विवेक ओबेरोई के साथ "साथिया"(2002), जिसके लिये उन्हें फिल्मफेयर पुरस्कार भी मिला। उन्हें अपनी अगली सफलता के लिये लंबा इंतज़ार करना पड़ा जो उन्हें मिली मणिरत्नम की फिल्म "युवा" से। उन्हें अपने किरदार के लिये दूसरा फिल्मफेयर पुरस्कार मिला। उनकी अगली फिल्में "हम तुम", वीर-ज़ारा ", "बंटी और बबली " और "ब्लैक" बड़ी सफल रही और उन्हें बॉलीवुड की शीर्ष अभिनेत्रियों में जगह मिली। 2004 -2006 का दौर उनके लिय सुनहरा दौर रहा। फिल्म "ब्लैक" से उन्होंने अपने अभिनय का एक शक्तिशाली परिमाण दिया जहाँ उन्हें एक अंधी-बहरी लड़की का किरदार करने को मिला। प्रमुख फिल्में नामांकन और पुरस्कार फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री पुरस्कार 2006 - ब्लैक 2005 - हम तुम सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ श्रेणी:1978 में जन्मे लोग श्रेणी:जीवित लोग श्रेणी:फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार विजेता श्रेणी:हिन्दी अभिनेत्री श्रेणी:व्यक्तिगत जीवन
रानी मुखर्जी के पिता का नाम क्या था?
राम मुखर्जी
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रक्त वाहिकाएं शरीर में रक्त के परिसंचरण तंत्र का प्रमुख भाग होती हैं। इनके द्वारा शरीर में रक्त का परिवहन होता है। तीन मुख्य प्रका की रक्त वाहिकाएं होती हैं: धमनियां, जो हृदय से रक्त को शरीर में ले जाती हैं; वे रक्त वाःइकाएं, जिनके द्वारा कोशिकाओं एवं रक्त के बीच, जल एवं रसायनों का आदान-प्रदान होता है; व शिराएं, जो रक्त को वापस एकत्रित कर हृदय तक ले आती हैं। सन्दर्भ श्रेणी:कार्डियोवैस्कुलर प्रणाली श्रेणी:नरम ऊतक
मानव शरीर में रक्त वाहिकाएं कितने प्रकार की होती हैं?
तीन
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गुरु केलुचरण महापात्र (1926-2004) ने ओड़िसीका पुनर्विस्तार किया। ओड़िसी ओड़िसा प्रान्त की एक शास्त्रीय नृत्य शैली है। केलुचरण मोहपात्रा को सन १९८८ में भारत सरकार द्वारा कला के क्षेत्र में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था। ये उड़ीसा राज्य से हैं। सन्दर्भ श्रेणी:१९८८ पद्म भूषण श्रेणी:ओडिशी नर्तक श्रेणी:1926 में जन्मे लोग श्रेणी:२००४ में निधन श्रेणी:पद्म विभूषण धारक
गुरु केलुचरण महापात्र का जन्म कब हुआ था?
1926
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हर मनुष्य का अपना-अपना व्यक्तित्व है। वही मनुष्य की पहचान है। कोटि-कोटि मनु्ष्यों की भीड़ में भी वह अपने निराले व्यक्तित्व के कारण पहचान लिया जाएगा। यही उसकी विशेषता है। यही उसका व्यक्तित्व है। प्रकृति का यह नियम है कि एक मनुष्य की आकृति दूसरे से भिन्न है। आकृति का यह जन्मजात भेद आकृति तक ही सीमित नहीं है; उसके स्वभाव, संस्कार और उसकी प्रवृत्तियों में भी वही असमानता रहती है। इस असमानता में ही सृष्टि का सौन्दर्य है। प्रकृति हर पल अपने को नये रूप में सजाती है। हम इस प्रतिपल होनेवाले परिवर्तन को उसी तरह नहीं देख सकते जिस तरह हम एक गुलाब के फूल में और दूसरे में कोई अन्तर नहीं कर सकते। परिचित वस्तुओं में ही हम इस भेद की पहचान आसानी से कर सकते हैं। परिचित वस्तुओं में ही हम इस भेद की पहचान आसानी से कर सकते हैं। यह हमारी दृष्टि का दोष है कि हमारी आंखें सूक्ष्म भेद को और प्रकृति के सूक्ष्म परिवर्तनों को नहीं परख पातीं। मनुष्य-चरित्र को परखना भी बड़ा कठिन कार्य है, किन्तु असम्भव नहीं है। कठिन वह केवल इसलिए नहीं है कि उसमें विविध तत्त्वों का मिश्रण है बल्कि इसलिए भी है कि नित्य नई परिस्थितियों के आघात-प्रतिघात से वह बदलता रहता है। वह चेतन वस्तु है। परिवर्तन उसका स्वभाव है। प्रयोगशाला की परीक्षण नली में रखकर उसका विश्लेषण नहीं किया जा सकता। उसके विश्लेषण का प्रयत्न सदियों से हो रहा है। हजारों वर्ष पहले हमारे विचारकों ने उसका विश्लेषण किया था। आज के मनोवैज्ञानिक भी इसी में लगे हुए हैं। फिर भी यह नहीं कह सकते कि मनुष्य-चरित्र का कोई भी संतोषजनक विश्लेषण हो सका है। हर बालक अनगढ़ पत्थर की तरह है जिसमें सुन्दर मूर्ति छिपी है, जिसे शिल्पी की आँख देख पाती है। वह उसे तराश कर सुन्दर मूर्ति में बदल सकता है। क्योंकि मूर्ति पहले से ही पत्थर में मौजूद होती है शिल्पी तो बस उस फालतू पत्थर को जिसमें मूर्ति ढकी होती है, एक तरफ कर देता है और सुन्दर मूर्ति प्रकट हो जाती है। माता-पिता शिक्षक और समाज बालक को इसी प्रकार सँवार कर खूबसूरत व्यक्तित्व प्रदान करते हैं। व्यक्तित्व-विकास में वंशानुक्रम (Heredity) तथा परिवेश (Environment) दो प्रधान तत्त्व हैं। वंशानुक्रम व्यक्ति को जन्मजात शक्तियाँ प्रदान करता है। परिवेश उसे इन शक्तियों को सिद्धि के लिए सुविधाएँ प्रदान करता है। बालक के व्यक्तित्व पर सामाजिक परिवेश प्रबल प्रभाव डालता है। ज्यों-ज्यों बालक विकसित होता जाता है, वह उस समाज या समुदाय की शैली को आत्मसात् कर लेता है, जिसमें वह बड़ा होता है, व्यक्तित्व पर गहरी छाप छोड़ते हैं। प्रवृत्तियों का संयम: चरित्र का आधार ‘चरित्र’ शब्द मनुष्य के सम्पूर्ण व्यक्तित्व को प्रकट करता है। ‘अपने को पहचानो’ शब्द का वही अर्थ है जो ‘अपने चरित्र को पहचानो’ का है। उपनिषदों ने जब कहा था: ‘आत्मा वारे श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यः; नान्यतोऽस्ति विजानत:,’ तब इसी दुर्बोध मनुष्य-चरित्र को पहचानने की प्रेरणा की थी। यूनान के महान दार्शनिक सुकरात ने भी पुकार-पुकार कर यही कहा था: अपने को पहचानो ! विज्ञान ने मनुष्य-शरीर को पहचानने में बहुत सफलता पाई है। किन्तु उसकी आंतरिक प्रयोगशाला अभी तक एक गूढ़ रहस्य बनी हुई है। इस दीवार के अन्दर की मशीनरी किस तरह काम करती है, इस प्रश्न का उत्तर अभी तक अस्पष्ट कुहरे में छिपा हुआ है। जो कुछ हम जानते हैं, वह केवल हमारी बुद्धि का अनुमान है। प्रामाणिक रूप से हम यह नहीं कह सकते कि यही सच है; इतना ही कहते हैं कि इससे अधिक स्पष्ट उत्तर हमें अपने प्रश्न का नहीं मिल सका है। अपने को पहचानने की इच्छा होते ही हम यह जानने की कोशिश करते हैं कि हम किन बातों में अन्य मनुष्यों से भिन्न है। भेद जानने की यह खोज हमें पहले यह जानने को विवश करती है कि किन बातों में हम दूसरों के समान हैं। समानताओं का ज्ञान हुए बिना भिन्नता का या अपने विशेष चरित्र का ज्ञान नहीं हो सकता। हमारी जन्मजात प्रवृत्तियां मनोविज्ञान ने यह पता लगाया है कि प्रत्येक मनुष्य कुछ प्रवृत्तियों के साथ जन्म लेता है। ये स्वाभाविक, जन्म-जात प्रवृत्तियाँ ही मनुष्य की प्रथम प्रेरक होती हैं। मनुष्य होने के नाते प्रत्येक मनुष्य को इन प्रवृत्तियों की परिधि में ही अपना कार्यक्षेत्र सीमित रखना पड़ता है। इन प्रवृत्तियों का सच्चा रूप क्या है, ये संख्या में कितनी हैं, इनका संतुलन किस तरह होता है, ये रहस्य अभी पूरी तरह स्पष्ट नहीं हो पाए हैं। फिर भी कुछ प्राथमिक प्रवृत्तियों का नाम प्रामाणिक रूप से लिया जा सकता है। उनमें से कुछ ये हैं: डरना, हंसना, अपनी रक्षा करना, नई बातें जानने की कोशिश करना, दूसरों से मिलना-जुलना, अपने को महत्त्व में लाना, संग्रह करना, पेट भरने के लिए कोशिश करना, भिन्न योनि से भोग की इच्छा—इन प्रवृत्तियों की वैज्ञानिक परिभाषा करना बड़ा कठिन काम है। इनमें से बहुत-सी ऐसी हैं जो जानवरों में भी पाई जाती हैं किन्तु कुछ भावनात्मक प्रवृत्तियां ऐसी भी हैं, जो पशुओं में नहीं है। वे केवल मानवीय प्रवृत्तियां है। संग्रह करना, स्वयं को महत्त्व में लाना, रचनात्मक कार्य में संतोष अनुभव करना, दया दिखाना, करुणा करना आदि कुछ ऐसी भावनाएं हैं, जो केवल मनुष्य में होती हैं। प्रवृत्तियों की व्यवस्था बीज-रूप में ये प्रवृत्तियां मनुष्य के स्वभाव में सदा रहती है। फिर भी मनुष्य इसका गुलाम नहीं है। अपनी बुद्धि से वह इन प्रवृत्तियों की ऐसी व्यवस्था कर लेता है कि उसके व्यक्तित्व को उन्नत बनाने में ये प्रवृत्तियां सहायक हो सकें। इस व्यवस्था के निर्माण में ही मनुष्य का चरित्र बनता है। यही चरित्र-निर्माण की भूमिका है। अपनी स्वाभाविक प्रवृत्तियों का ऐसा संकुचन करना कि वे उसकी कार्य-शक्ति का दमन न करते हुए उसे कल्याण के मार्ग पर चलाने में सहायक हों, यही आदर्श व्यवस्था है और यही चरित्र-निर्माण की प्रस्तावना है। इसी व्यवस्था का नाम योग है। इसी सन्तुलन को हमारे शास्त्रों ने ‘समत्व’ कहा है। यही योग है-‘समत्वं योग उच्यते’ यही वह योग है जिस ‘योग: कर्मसु कौशलम्’ कहा है। प्रवृत्तियों में संतुलन करने का यह कौशल ही वह कौशल है जो जीवन के हर कार्य में सफलता देता है। इसी समबुद्धि व्यक्ति के लिए गीता में कहा है: योगस्थ: कुरु कर्माणि संग त्यक्त्वा धनंजय। सिद्ध्यसिद्ध्यो: समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।। बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते। तस्माद्योगाय युज्यस्व योग: कर्मसु कौशलम्।। यह संतुलन मनुष्य को स्वयं करना होता है। इसीलिए हम कहते हैं कि मनुष्य अपने भाग्य का स्वयं स्वामी है। वह अपना चरित्र स्वयं बनाता है। चरित्र किसी को उत्तराधिकार में नहीं मिलता। अपने माता-पिता से हम कुछ व्यावहारिक बात सीख सकते हैं, किन्तु चरित्र हम अपना स्वयं बनाते हैं। कभी-कभी माता-पिता और पुत्र के चरित्र में समानता नज़र आती हैं, वह भी उत्तराधिकार में नहीं, बल्कि परिस्थितियों-वश पुत्र में आ जाती है। परिस्थितियों के प्रति हमारी मानसिक प्रतिक्रिया कोई भी बालक अच्छे या बुरे चरित्र के साथ पैदा नहीं होता। हां, वह अच्छी-बुरी परिस्थितियों में अवश्य पैदा होता है, जो उसके चरित्र-निर्माण में भला-बुरा असर डालती हैं। कई बार तो एक ही घटना मनुष्य के जीवन को इतना प्रभावित कर देती है कि उसका चरित्र ही पलट जाता है। जीवन के प्रति उसका दृष्टिकोण ही बदल जाता है। निराशा का एक झोंका उसे सदैव के लिए निराशावादी बना देता है, या अचानक आशातीत सहानुभूति का एक काम उसे सदा के लिए तरुण और परोपकारी बना देता है। वही हमारी प्रकृति बन जाती है। इसलिए यही कहना ठीक होगा कि परिस्थितियां हमारे चरित्र को नहीं बनातीं, बल्कि उनके प्रति जो हमारी मानसिक प्रतिक्रियाएं होती हैं, उन्हीं से हमारा चरित्र बनता है। प्रत्येक मनुष्य के मन में एक ही घटना के प्रति जुदा-जुदा प्रतिक्रिया होती है। एक ही साथ रहने वाले बहुत-से युवक एक-सी परिस्थितियों में से गुज़रते हैं; किन्तु उन परिस्थितियों को प्रत्येक युवक भिन्न दृष्टि से देखता है; उसके मन में अलग-अलग प्रतिक्रियाएं होती है। यही प्रतिक्रियाएं हमें अपने जीवन का दृष्टिकोण बनाने में सहायक होती हैं। इन प्रतिक्रियाओं का प्रकट रूप वह है जो उस परिस्थिति के प्रति हम कार्य-रूप में लाते हैं। एक भिखारी को देखकर एक के मन में दया, जागृत हुई, दूसरे के मन में घृणा। दयार्द्र व्यक्ति उसे पैसा दे देगा, दूसरा उसे दुत्कार देगा, या स्वयं वहां से दूर हट जाएगा। किन्तु यहीं तक इस प्रतिक्रिया का प्रभाव नहीं होगा। यह तो उस प्रतिक्रिया का बाह्म रूप है। उसका प्रभाव दोनों के मन पर भी जुदा-जुदा होगा। इन्हीं नित्यप्रति के प्रभावों से चरित्र बनता है। यही चरित्र बनने की प्रक्रिया है। इसी प्रक्रिया में कुछ लोग संशयशील, कुछ आत्मविश्वासी और कुछ शारीरिक भोगों में आनन्द लेने वाले विलासी बन जाते हैं; कुछ नैतिक सिद्धांतो पर दृढ़ रहनेवाले तपस्वी बन जाते हैं, तो कुछ लोग तुरन्त लाभ की इच्छा करनेवाले अधीर और दूसरे ऐसे बन जाते हैं जो धैर्यपूर्वक काम के परिणाम की प्रतीक्षा कर सकते हैं। बच्चे को आत्मनिर्णय का अधिकार है यह प्रक्रिया बचपन से ही शुरू होती है। जीवन के तीसरे वर्ष से ही बालक अपना चरित्र बनाना शुरू कर देता है। सब बच्चे जुदा-जुदा परिस्थितियों में रहते हैं। उन परिस्थितियों के प्रति मनोभाव बनाने में भिन्न-भिन्न चरित्रों वाले माता-पिता से बहुत कुछ सीखते हैं। अपने अध्यापकों से या संगी-साथियों से भी सीखते हैं। किन्तु जो कुछ वे देखते हैं या सुनते हैं, सभी कुछ ग्रहण नहीं कर सकते। वह सब इतना परस्पर-विरोधी होता है कि उसे ग्रहण करना सम्भव नहीं होता। ग्रहण करने से पूर्व उन्हें चुनाव करना होता है। स्वयं निर्णय करना होता है कि कौन-से गुण ग्राह्य हैं और कौन-से त्याज्य। यही चुनाव का अधिकार बच्चे को भी आत्मनिर्णय का अधिकार देता है। इसलिए हम कहते हैं कि हम परिस्थितियों के दास नहीं है, बल्कि उन परिस्थितियों के प्रति हमारी मानसिक प्रतिक्रिया ही हमारे चरित्र का निर्माण करती है। हमारी निर्णयात्मक चेतनता जब पूरी तरह जागरित हो जाती है और हमारे नैतिक आदर्शों को पहचानने लगती है तो हम परिस्थितियों की ज़रा भी परवाह नहीं करते। आत्म-निर्णय का यह अधिकार ईश्वर ने हर मनुष्य को दिया है। अन्तिम निश्चय हमें स्वयं करना है। हम अपने मालिक आप हैं; अपना चरित्र स्वयं बनाते हैं। ऐसा न हो तो जीवन में संघर्ष ही न हो; परिस्थितियां स्वयं हमारे चरित्र को बना दें, हमारा जीवन कठपुतली की तरह बाह्य घटनाओं का गुलाम हो जाए। सौभाग्य से ऐसा नहीं है। मनुष्य स्वयं अपना स्वामी है। अपना चरित्र वह स्वयं बनाता है। चरित्र-निर्माण के लिए उसे परिस्थितियों को अनुकूल या सबल बनाने की नहीं बल्कि आत्मनिर्णय की शक्ति को प्रयोग में लाने की आवश्यकता है। प्रवृत्तियों को रचनात्मक कार्य में लगाओ किन्तु आत्मनिर्णय की शक्ति का प्रयोग तभी होगा, यदि हम आत्मा को इस योग्य रखने का यत्न करते रहेंगे कि वह निर्णय कर सके। निर्णय के अधिकार का प्रयोग तभी हो सकता है, यदि उसके अधीन कार्य करनेवाली शक्तियां उसके वश में हों। शासक अपने निर्णय का प्रयोग तभी कर सकता है, यदि अपनी प्रजा उसके वश में हो। इसी तरह यदि हमारी स्वाभाविक प्रवृत्तियां हमारे वश में होंगी, तभी हम आत्मनिर्णय कर सकेंगे। एक भी प्रवृत्ति विद्रोही हो जाए, स्वतंत्र विहार शुरू कर दे तो हमारी सम्पूर्ण नैतिक व्यवस्था भंग हो जाएगी। इसलिए हमारी स्वाभाविक प्रवृत्तियां ही हमारे चरित्र की सबसे बड़ी दुश्मन हैं। उन्हें वश में किए बिना चरित्र-निर्माण का कार्य प्रारम्भ नहीं हो सकता। नैतिक जीवन प्रारम्भ करने से पूर्व हमें उनकी बागडोर अपने हाथ में लेनी होगी। उन्हें व्यवस्था में लाना होगा। इसका यह अभिप्राय नहीं कि उन प्रवृत्तियों को मार देना होगा। उन्हें मारना न तो सम्भव ही है और न हमारे जीवन के लिए अभीष्ट ही। हमें उनकी दिशा में परिवर्तन करके उन्हें रचनात्मक कार्यों में लगाना है। वे प्रवृत्तियां उस जलधारा की तरह हैं जिसे नियन्त्रण में लाकर खेत सींचे जा सकते हैं, विद्युत भी पैदा की जा सकती है और जो अनियन्त्रित रहकर बड़े-बड़े नगरों को भी बरबाद कर सकती है। स्थितप्रज्ञ कौन है? इन प्रवृत्तियों का संयम ही चरित्र का आधार है। संयम के बिना मनुष्य शुद्ध विचार नहीं कर सकता, प्रज्ञावान नहीं बन सकता। गीता में कहा गया है कि इन्द्रियों की प्रवृत्तियां जिसके वश में हों—उसी की प्रज्ञा प्रतिष्ठित होती है। प्रज्ञा तो सभी मनुष्यों में है। बुद्धि का वरदान मनुष्य-मात्र को प्राप्त है। किंतु प्रतिष्ठितप्रज्ञ या स्थितप्रज्ञ वही होगा जिसकी प्रवृत्तियां उसके वश में होंगी। इस तरह की सबल प्रज्ञा ही आत्म-निर्णय का अधिकार रखती है। यही प्रज्ञा है जो परिस्थितियों की दासता स्वीकार न करके मनुष्य का चरित्र बनाती है। जिसकी बुद्धि स्वाभाविक प्रवृत्तियों, विषयवासनाओं को वश में नहीं कर सकेगी, वह कभी सच्चरित्र नहीं बन सकता। बुद्धिपूर्वक संयम ही सच्चा संयम है यह बात स्मरण रखनी चाहिए कि हम बुद्धि के बल पर ही प्रवृत्तियों का संयम कर सकते हैं। जीवन के समुद्र में जब प्रवृत्तियों की आंधी आती है तो केवल बुद्धि के मस्तूल ही हमें पार लगाते हैं। विषयों को मैंने आंधी कहा है, इनमें आंधी का वेग है और इनको काबू करना बड़ा कठिन है—इसीलिए यह कहा है। अन्यथा इनमें आंधी की क्षणिकता नहीं है। प्रवृत्तियों के रूप में ये विषय सदा मनुष्य में रहते हैं। उसी तरह जैसे पवन के रूप में आंधी आकाश में रहती है। वही पवन जब कुछ आकाशी तत्त्वों के विशेष सम्मिलन के कारण तीव्र हो जाता है, तो आंधी बन जाता है। हमारी प्रवृत्तियां भी जब भावनाओं के विशेष मिश्रण से तीव्र हो जाती हैं तो तीव्र वासनाएं बन जाती हैं। उनका पूर्ण दमन नहीं हो सकता। बुद्धि द्वारा उन्हें कल्याणकारी दिशाओं में प्रवृत्त ही किया जा सकता है, उनका संयम किया जा सकता है। संयम की कठिनाइयां संयम शब्द जितना साधारण हो गया है उसे क्रियात्मक सफलता देना उतना ही कठिन काम है। इस कठिनाई के कारण हैं। सबसे मुख्य कारण यह है कि जिन प्रवृत्तियों को हम संयत करना चाहते हैं वे हमारी स्वाभाविक प्रवृत्तियां है। उनका जन्म हमारे जन्म के साथ हुआ है। हम उनमें अनायास प्रवृत्त होते हैं। इसलिए वे बहुत सरल है। इसके अतिरिक्त उनका अस्तित्व हमारे लिए आवश्यक भी है। उन प्रवृत्तियों के बिना हम कोई भी चेष्टा नहीं कर सकते। उनके बिना हम निष्कर्म हो जाएंगे; निष्कर्म ही नहीं, हम असुरक्षित भी हो जाएंगे। प्रत्येक स्वाभाविक प्रवृत्ति इसी सुरक्षा और प्रेरणा की संदेशहर होती है। उदाहरण के लिए भय की भावना को लीजिए। हम भयभीत तभी होते हैं जब किसी प्रतिकूल शक्तिशाली व्यक्ति या परिस्थिति से युद्ध करने में अपने को असमर्थ पाते हैं। उस समय भय की भावना हृदय में जागती है और हमें कैसे भी हो, भागकर छिपकर या किसी भी छल-बल द्वारा अपनी रक्षा करने को प्रेरित करती है। यदि हम इस तरह बच निकलने का उपाय न करें तो जान से हाथ धो बैठें अथवा किसी मुसीबत में पड़ जाएं। भय हमें आनेवाले विनाश से सावधान करता है। भय ही हमें यह बतलाता है कि अब यह रास्ता बदलकर नया रास्ता पकड़ो। हम कुछ देर के लिए सहम जाते हैं। प्रत्युत्पन्नमति लोग नये रास्ते का अवलम्ब प्राप्त करके भय के कारणों से बच निकलते हैं। उन्हें अपनी परिस्थिति की कठिनाइयों का नया ज्ञान हो जाता है। उन नई कठिनाइयों पर शान्ति से विचार करके नया समाधान सोच लेते हैं। भय का भी प्रयोजन है अत: भय के हितकारी प्रभाव से हम इंकार नहीं कर सकते हैं। किन्तु इस प्रभाव को अस्थायी मानकर इसे क्षणिक महत्त्व देना ही उपयुक्त है। यदि यह भय हमारे स्वभाव में आ जाए तो हम सदा असफल होने की भावना से ग्रस्त हो जाएंगे। भय का अर्थ क्षणिक असफलता का दिग्दर्शन और नये उद्योग की प्रेरणा होनी चाहिए। नई प्रेरणा से मन में नया उत्साह पैदा होगा। जिस तरह शेर पीछे हटकर हमला करता है, मनुष्य ऊंची छलांग मारने के लिए नीचे झुकता है, उसी तरह भय से नई स्फूर्ति और नया संकेत लेने के बाद जब वह नया पुरुषार्थ करने का संकल्प करेगा, तभी भय भाग जाएगा। जब हमारा भय साथी बन जाता है निरन्तर असफलता और प्रतिकूलताओं से युद्ध करने की अशक्तता हमारे भय को स्थायी बना देती है। तब हम छोटी से छोटी प्रतिकूलता से भी भयभीत होने लगते हैं। अज्ञानवश हम इन भयप्रद परिस्थितियों को और भी विशाल रूप देते जाते हैं। हमारा अज्ञान हमारे भय का साथी बन जाता है, जिन्हें बादलों में बिजली की कड़क का वैज्ञानिक कारण मालूम नहीं, वे यह कल्पना कर लेते हैं कि दो अलौकिक दैत्य आकाश में भीमकाय गदाओं से युद्ध कर रहे हैं। बिजली का भय उनके लिए अजेय हो जाता है। अनेक प्राकृतिक घटनाओं की भूत-प्रेतों की लड़ाइयां मानकर हम सदा भयातुर रहने का अभ्यास डाल लेते हैं। सूर्यग्रहण, चन्द्रग्रहण, पुच्छलतारा, महामारी आदि भौतिक घटनाएं भयानक मानी जाती थीं। विज्ञान ने जब से यह सिद्ध कर दिया है कि ये घटनाएं मनुष्य के लिए विनाशक नहीं है, तब से संसार के बहुत-से भयों का निराकरण हो गया है। हम भय की पूजा शुरू कर देते हैं किन्तु जिन वैज्ञानिकों ने मनुष्य को इन मिथ्या भयों से छुटकारा देने का यत्न किया था उन्हें मृत्यु-दंड तक दिया गया था। बात यह है कि भय की यह भावना मनुष्य को कुछ अलौकिक शक्तियों पर श्रद्धा रखने की प्रेरणा देती है। श्रद्धा में आनन्द है। वही आनन्द भय पैदा करनेवाली वस्तुओं पर श्रद्धा रखने में आने लगता है। इसलिए हमें अपना भय भी आनन्दप्रद हो जाता है। मनुष्य की ये मनोभावनाएं जो उसे कमज़ोर बनाती हैं, जब आनन्प्रद हो जाएं तो समझना चाहिए कि हमारा रोग असाध्य नहीं तो दु:साध्य अवश्य हो गया है। भय से बचने के उपाय सोचने के स्थान पर मनुष्य जब भय की पूजा शुरू कर दे तो भय से मुक्ति की आशा बहुत कम रह जाती है। उस समय भय की प्रवृत्ति मनुष्य को वस में कर लेती है। हमारा ध्येय यह है कि मनुष्य भय की प्रवृत्ति को वश में करें, न कि वह उसका गुलाम बन जाए। जब भय का भूत विशाल हो जाता है मनुष्य भय की प्रवृत्ति का दास किस तरह बन जाता है, यह भी एक मनोवैज्ञानिक अध्ययन है। अगर एक पागल कुत्ता आपका पीछा करता है तो निश्चय ही आपको उस कुत्ते से डर लगने लगता है और आपको उससे डरने की आदत भी पड़ जाती है। यह आदत युक्तियुक्त है। इसका इतना ही मतलब है कि आपको पागल कुत्ते को काबू में करने का उपाय मालूम नहीं है। किन्तु जब आपको दूसरे कुत्तों से भी भय मालूम होने लगे तो समझ लीजिए कि भय की आदत आपको वश में करने लगी है। जब तक आपको दूसरे कुत्तों के पागल होने का निश्चय न हो तब तक आपको भयातुर नहीं होना चाहिए। किन्तु देखा यह गया है कि कमजोर दिल के आदमी पागल कुत्ते से डरने के बाद सभी कुत्तों से डरना शुरू कर देते हैं। यह डर बढ़ता-बढ़ता यहां तक पहुंच जाता है कि उसे चौपाये से डर लगना शुरू हो जाता है। इस भय को वश में न किया जाए तो उसे भयावह वस्तु से सम्बन्धित प्रत्येक वस्तु से ही भय प्रतीत होने लगता है। मेरे एक मित्र का एक बार अंधेरे कमरे में किसी चीज़ से सिर टकरा गया। उसके बाद उन्हें न केवल उस चीज़ से बल्कि अंधकार से भी डर लगने लगा। भयावह वस्तु के साथ उसकी याद दिलानेवाली हर चीज़ से डर लगने लगता है। भय का यह क्षेत्र बहुत बढ़ता जाता है और इसका प्रभाव भी मनुष्य के चरित्र पर स्थायी होता जाता है। दुर्भाग्य से यदि उसे भयजनक अनेक परिस्थितियों में से एक साथ गुजरना पड़ता है तो वह सदा के लिए भयभीत हो जाता है; जीवन का हर क्षण मृत्यु का संदेश देता है; हवा की मधुर मरमर में तूफान का भयंकर गर्जन सुनाई देने लगता है और पत्तों के हिलने में प्रलय के तांडव का दृश्य दिखाई देता है। उसका मन सदा विक्षिप्त रहता है। ऐसा व्यक्ति जीवन में कभी सफल नहीं होता। निर्भय होने का संकल्प ही भय को जीतने का उपाय है भय-निवारण के लिए शास्त्रों में ईश-विनय की गई है: अभयं मित्रादभयममित्रादभयं ज्ञातादभयं परोक्षात्। यह प्रार्थना ही मनुष्य को अभयदान नहीं दे सकती। ईश्वर ने मनुष्य को भय पर विजय पाने का साधन पहले ही दिया हुआ है। जिस तरह मनुष्य में प्रतिकूलता से डरने की प्रवृत्ति है, उसी तरह प्रतिकूलताओं से युद्ध करने की और अपनी प्रतिष्ठा रखने की प्रवृत्ति भी है। इन प्रवृत्तियों को जागृत करके मनुष्य जब भय को जीतने का संकल्प कर ले, तो वह स्वयं निर्भय हो जाता है। मनुष्य की एक प्रवृत्ति दूसरी प्रवृत्ति का सन्तुलन करती रहती है। जिस तरह प्रवृत्तियां स्वाभाविक हैं, उसी तरह सन्तुलन भी स्वाभाविक प्रक्रिया है। प्राकृतिक अवस्था में यह कार्य स्वयं होता रहता है। किन्तु हमारा जीवन केवल प्राकृतिक अवस्थाओं में से नहीं गुज़रता। विज्ञान की कृपा से हमारा जीवन प्रतिदिन अप्राकृतिक और विषम होता जाता है। हमारी परिस्थितियाँ असाधारण होती जाती है। हमारा जीवन अधिक साहसिक और वेगवान होता जाता है। संघर्ष बढ़ता ही जाता है। जीवित रहने के लिए भी हमें जान लड़ाकर कोशिश करनी पड़ती है। जीने की प्रतियोगिता में केवल शक्तिशाली ही जीतते हैं। योग्यतम को ही जीने का अधिकार है। 1–इस स्थापना से प्रत्येक साधारण व्यक्ति को प्राणों का भय लगा रहता है। यह भय हमारी नस-नस में समा गया है। इन्हें भी देखें बिग फ़ाइव व्यक्तित्व लक्षण - प्रभावी व्यक्तित्व के पाँच प्रमुख घटक शीलगुण सिद्धान्त (ट्रेट थिअरी) बाहरी कड़ियाँ (प्रभात खबर) (गूगल पुस्तक ; लेखक - मदनलाल शुक्ल) (गूगल पुस्तक ; लेखक - मधु अस्थाना, किरन बाला वर्मा) , Honolulu Community College , Behavioral Sciences Department, Palomar College श्रेणी:व्यक्तित्व श्रेणी:मनोविज्ञान
‘चरित्र’ शब्द का क्या अर्थ है?
मनुष्य के सम्पूर्ण व्यक्तित्व
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मुत्तुवेल करुणानिधि (Tamil: மு. கருணாநிதி) (3 जून 1924 - 7 अगस्त 2018)[2] भारतीय राजनेता और तमिलनाडु के पूर्व मुख्यमंत्री थे।[3] वे तमिलनाडु राज्य के एक द्रविड़ राजनीतिक दल द्रविड़ मुन्नेत्र कड़गम (डी॰एम॰के॰)[4] के प्रमुख थे। वे 1969[5] में डी॰एम॰के॰ के संस्थापक सी॰एन॰ अन्नादुरई की मौत के बाद से इसके नेता बने थे और पाँच बार (1969–71, 1971–76, 1989–91, 1996–2001 और 2006–2011) मुख्यमंत्री रहे। उन्होंने अपने 60 साल के राजनीतिक करियर में अपनी भागीदारी वाले हर चुनाव में अपनी सीट जीतने का रिकॉर्ड बनाया।[6] 2004 के लोकसभा चुनाव में उन्होंने तमिलनाडु और पुदुचेरी में डी॰एम॰के॰ के नेतृत्व वाली डी॰पी॰ए॰ (यू॰पी॰ए॰ और वामपंथी दल) का नेतृत्व किया और लोकसभा की सभी 40 सीटों को जीत लिया। इसके बाद 2009 के लोकसभा चुनाव में उन्होंने डी॰एम॰के॰ द्वारा जीती गयी सीटों की संख्या को 16 से बढ़ाकर 18 कर दिया और तमिलनाडु और पुदुचेरी में यू॰पी॰ए॰ का नेतृत्व कर बहुत छोटे गठबंधन के बावजूद 28 सीटों पर विजय प्राप्त की। वे तमिल सिनेमा जगत के एक नाटककार और पटकथा लेखक भी थे। उनके समर्थक उन्हें कलाईनार (Tamil: கலைஞர், "कला का विद्वान") कहकर बुलाते हैं।[7] करूणानिधि का निधन 7 अगस्त 2018 को कावेरी अस्पताल में हुआ।[8] आरंभिक जीवन एम॰ करुणानिधि का जन्म मुत्तुवेल और अंजुगम के यहाँ 3 जून 1924 को ब्रिटिश भारत[9] के नागपट्टिनम के तिरुक्कुभलइ में दक्षिणमूर्ति[10] के रूप में हुआ था।[2] वे ईसाई वेल्लालर समुदाय से संबंध रखते हैं।[11] पटकथा-लेखन करुणानिधि ने तमिल फिल्म उद्योग में एक पटकथा लेखक के रूप में अपने करियर का शुभारंभ किया। अपनी बुद्धि और भाषण कौशल के माध्यम से वे बहुत जल्द एक राजनेता बन गए। वे द्रविड़ आंदोलन से जुड़े थे और उसके समाजवादी और बुद्धिवादी आदर्शों को बढ़ावा देने वाली ऐतिहासिक और सामाजिक (सुधारवादी) कहानियाँ लिखने के लिए मशहूर थे। उन्होंने तमिल सिनेमा जगत का इस्तेमाल करके पराशक्ति नामक फिल्म के माध्यम से अपने राजनीतिक विचारों का प्रचार करना शुरू किया।[12] पराशक्ति तमिल सिनेमा जगत के लिए एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुई क्योंकि इसने द्रविड़ आंदोलन की विचारधाराओं का समर्थन किया और इसने तमिल फिल्म जगत के दो प्रमुख अभिनेताओं शिवाजी गणेशन और एस॰एस॰ राजेन्द्रन से दुनिया को परिचित करवाया।[13] शुरू में इस फिल्म पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया था लेकिन अंत में इसे 1952 में रिलीज कर दिया गया।[13] यह बॉक्स ऑफिस पर एक बहुत बड़ी हिट फिल्म साबित हुई लेकिन इसकी रिलीज विवादों से घिरी थी। रूढ़िवादी हिंदूओं ने इस फिल्म का विरोध किया क्योंकि इसमें कुछ ऐसे तत्व शामिल थे जिसने ब्राह्मणवाद की आलोचना की थी।[14] इस तरह के संदेशों वाली करूणानिधि की दो अन्य फ़िल्में पनाम और थंगारथनम थीं।[12] इन फिल्मों में विधवा पुनर्विवाह, अस्पृश्यता का उन्मूलन, आत्मसम्मान विवाह, ज़मींदारी का उन्मूलन और धार्मिक पाखंड का उन्मूलन जैसे विषय शामिल थे।[13] जैसे-जैसे उनकी सुदृढ़ सामाजिक संदेशों वाली फ़िल्में और नाटक लोकप्रिय होते गए, वैसे-वैसे उन्हें अत्यधिक सेंसशिप का सामना करना पड़ा; 1950 के दशक में उनके दो नाटकों को प्रतिबंधित कर दिया गया।[13] राजनीति राजनीति में प्रवेश जस्टिस पार्टी के अलगिरिस्वामी के एक भाषण से प्रेरित होकर करुणानिधि ने 14 साल की उम्र में राजनीति में प्रवेश किया और हिंदी विरोधी आंदोलन में भाग लिया। उन्होंने अपने इलाके के स्थानीय युवाओं के लिए एक संगठन की स्थापना की। उन्होंने इसके सदस्यों को मनावर नेसन नामक एक हस्तलिखित अखबार परिचालित किया। बाद में उन्होंने तमिलनाडु तमिल मनावर मंद्रम नामक एक छात्र संगठन की स्थापना की जो द्रविड़ आन्दोलन का पहला छात्र विंग था। करूणानिधि ने अन्य सदस्यों के साथ छात्र समुदाय और खुद को भी सामाजिक कार्य में शामिल कर लिया। यहाँ उन्होंने इसके सदस्यों के लिए एक अखबार चालू किया जो डी॰एम॰के॰ दल के आधिकारिक अखबार मुरासोली के रूप में सामने आया। कल्लाकुडी में हिंदी विरोधी विरोध प्रदर्शन में उनकी भागीदारी, तमिल राजनीति में अपनी जड़ मजबूत करने में करूणानिधि के लिए मददगार साबित होने वाला पहला प्रमुख कदम था। इस औद्योगिक नगर को उस समय उत्तर भारत के एक शक्तिशाली मुग़ल के नाम पर डालमियापुरम कहा जाता था। विरोध प्रदर्शन में करूणानिधि और उनके साथियों ने रेलवे स्टेशन से हिंदी नाम को मिटा दिया और रेलगाड़ियों के मार्ग को अवरुद्ध करने के लिए पटरी पर लेट गए। इस विरोध प्रदर्शन में दो लोगों की मौत हो गई और करूणानिधि को गिरफ्तार कर लिया गया।[15] सत्ता प्राप्ति करूणानिधि को तिरुचिरापल्ली जिले के कुलिथालाई विधानसभा से 1957 में तमिलनाडु विधानसभा के लिए पहली बार चुना गया। वे 1961 में डी॰एम॰के॰ कोषाध्यक्ष बने और 1962 में राज्य विधानसभा में विपक्ष के उपनेता बने और 1967 में जब डी॰एम॰के॰ सत्ता में आई तब वे सार्वजनिक कार्य मंत्री बने। जब 1969 में अन्नादुरई की मौत हो गई तब करूणानिधि को तमिलनाडु का मुख्यमंत्री बना दिया गया। तमिलनाडु राजनीतिक क्षेत्र में अपने लंबे करियर के दौरान वे पार्टी और सरकार में विभिन्न पदों पर रह चुके हैं। मई 2006 के चुनाव में अपने गठबंधन द्वारा अपने प्रमुख प्रतिद्वंद्वी जे॰ जयललिता के हारने के बाद उन्होंने 13 मई 2006 को तमिलनाडु के मुख्यमंत्री का पदभार संभाला।[16] वे तमिलनाडु राज्य की विधानसभा के सेन्ट्रल चेन्नई के चेपौक निर्वाचन क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करते थे। तमिलनाडु विधानसभा में उन्हें 11 बार और अब समाप्त हो चुके तमिलानडु विधान परिषद में एक बार निर्वाचित किया गया।[17] विधान सभा के सदस्य (विधायक) वर्ष निर्वाचित/पुनर्निर्वाचित स्थान 1957 निर्वाचित कुलितलाई 1962 निर्वाचित तंजावुर 1967 निर्वाचित सैदापेट 1971 पुनर्निर्वाचित सैदापेट 1977 निर्वाचित अन्ना नगर 1980 पुनर्निर्वाचित अन्ना नगर 1989 निर्वाचित हार्बर 1991 पुनर्निर्वाचित हार्बर 1996 निर्वाचित चेपॉक 2001 पुनर्निर्वाचित चेपॉक 2006 पुनर्निर्वाचित चेपॉक विधायिका में पद साल से वर्ष तक पद 1962 1967 विपक्ष के उप नेता 1967 1969 लोक निर्माण के कैबिनेट मंत्री 1977 1980 विपक्ष नेता 1980 1983 विपक्ष नेता 1984 बाद विधान परिषद के लिए निर्वाचित मुख्यमंत्री साल से वर्ष तक चुनाव 1969 1971 तमिलनाडु राज्य विधानसभा चुनाव, 1967 1971 1976 तमिलनाडु राज्य विधानसभा चुनाव, 1971 1989 1991 तमिलनाडु राज्य विधानसभा चुनाव, 1989 1996 2001 तमिलनाडु राज्य विधानसभा चुनाव, 1996 2006 वर्तमान तमिलनाडु राज्य विधानसभा चुनाव, 2011 साहित्य करुणानिधि तमिल साहित्य में अपने योगदान के लिए मशहूर हैं। उनके योगदान में कविताएं, चिट्ठियाँ, पटकथाएं, उपन्यास, जीवनी, ऐतिहासिक उपन्यास, मंच नाटक, संवाद, गाने इत्यादि शामिल हैं। उन्होंने तिरुक्कुरल, थोल्काप्पिया पूंगा, पूम्बुकर के लिए कुरालोवियम के साथ-साथ कई कविताएं, निबंध और किताबें लिखी हैं। साहित्य के अलावा करूणानिधि ने कला एवं स्थापत्य कला के माध्यम से तमिल भाषा में भी योगदान दिया है। कुरालोवियम की तरह, जिसमें कलाईनार ने तिरुक्कुरल के बारे में लिखा था, वल्लुवर कोट्टम के निर्माण के माध्यम से उन्होंने तिरुवल्लुवर, चेन्नई, तमिलनाडु में अपनी स्थापत्य उपस्थिति का परिचय दिया है। कन्याकुमारी में करूणानिधि ने तिरुवल्लुवर की एक 133 फुट ऊँची मूर्ति का निर्माण करवाया है जो उस विद्वान के प्रति उनकी भावनाओं का चित्रण करता है। पुस्तकें करुणानिधि द्वारा लिखित पुस्तकों में शामिल हैं: रोमपुरी पांडियन, तेनपांडि सिंगम, वेल्लीकिलमई, नेंजुकू नीदि, इनियावई इरुपद, संग तमिल, कुरालोवियम, पोन्नर शंकर, और तिरुक्कुरल उरई . उनकी गद्य और पद्य की पुस्तकों की संख्या 100 से भी अधिक है। मंचकला करुणानिधि के नाटकों में शामिल हैं: मनिमागुडम, ओरे रदम, पालानीअप्पन, तुक्कु मेडइ, कागिदप्पू, नाने एरिवाली, वेल्लिक्किलमई, उद्यासूरियन और सिलप्पदिकारम . पटकथायें 20 वर्ष की आयु में करुणानिधि ने ज्यूपिटर पिक्चर्स के लिए पटकथा लेखक के रूप में कार्य शुरु किया। उन्होंने अपनी पहली फिल्म राजकुमारी से लोकप्रियता हासिल की। पटकथा लेखक के रूप में उनके हुनर में यहीं से निखार आना शुरु हुआ। उनके द्वारा लिखी गई 75 पटकथाओं में शामिल हैं: राजकुमारी, अबिमन्यु, मंदिरी कुमारी, मरुद नाट्टू इलवरसी, मनामगन, देवकी, पराशक्ति, पनम, तिरुम्बिपार, नाम, मनोहरा, अम्मियापन, मलाई कल्लन, रंगून राधा, राजा रानी, पुदैयाल, पुदुमइ पित्तन, एल्लोरुम इन्नाट्टु मन्नर, कुरावांजी, ताइलापिल्लई, कांची तलैवन, पूम्बुहार, पूमालई, मनी मगुड्म, मारक्क मुडियुमा?, अवन पित्तना?, पूक्कारी, निदिक्कु दंडानई, पालईवना रोजाक्कल, पासा परावाईकल, पाड़ाद थेनीक्कल, नियाय तरासु, पासाकिलिग्ल, कन्नम्मा, यूलियिन ओसई, पेन सिन्गम और इलइज्ञइन . संपादक और प्रकाशक उन्होंने 10 अगस्त 1942 को का आरम्भ किया। अपने बचपन में वे मुरासोली नामक एक मासिक अखबार के संस्थापक संपादक और प्रकाशक थे जो बाद में एक साप्ताहिक और अब एक दैनिक अखबार बन गया है। उन्होंने अपनी राजनीतिक विचारधारा से संबंधित मुद्दों को जनता के सामने लाने के लिए एक पत्रकार और कार्टूनिस्ट के रूप में अपनी प्रतिभा का इस्तेमाल किया। वह अपनी पार्टी के कार्यकर्ताओं को नाम से संबोधित करके रोज चिट्ठी लिखते हैं; वह 50 वर्षों से ये चिट्ठियाँ लिखते आ रहे थे। इसके अलावा उन्होंने कुडियारसु के संपादक के रूप में काम किया है और मुत्तारम पत्रिका को अपना काफी समय दिया है। वे स्टेट गवर्नमेंट्स न्यूज़ रील, अरासु स्टूडियो और तमिल एवं अंग्रेज़ी में प्रकाशित होने वाली सरकारी पत्रिका तमिल अरासु के भी संस्थापक हैं। विश्व तमिल सम्मेलन उन्होंने 1970 में पेरिस में आयोजित तृतीय विश्व तमिल सम्मलेन के उद्घाटन दिवस पर और 1987 में कुआलालंपुर (मलेशिया) में आयोजित षष्ठम विश्व तमिल सम्मलेन के उद्घाटन दिवस पर भी विशेष भाषण दिया। उन्होंने विश्व शास्त्रीय तमिल सम्मलेन 2010 के लिए आधिकारिक विषय गीत "सेम्मोज्हियाना तमिज्ह मोज्हियाम" लिखा जिसे उनके अनुरोध पर ए॰आर॰ रहमान ने संगीतबद्ध किया। पुरस्कार और खिताब उन्होंने कभी-कभी प्यार से कलाईनार और मुथामिझ कविनार भी कहा जाता है। अन्नामलई विश्वविद्यालय ने 1971 में उन्हें मानद डॉक्टरेट की उपाधि से सम्मानित किया। "थेनपंदी सिंगम" नामक किताब के लिए उन्हें तमिल विश्वविद्यालय, तंजावुर द्वारा "राजा राजन पुरस्कार" से सम्मानित किया गया। 15 दिसम्बर 2006 को तमिलनाडु के राज्यपाल और मदुराई कामराज विश्वविद्यालय के चांसलर महामहिम थिरु सुरजीत सिंह बरनाला ने 40वें वार्षिक समारोह के अवसर पर मुख्यमंत्री को मानद डॉक्टरेट की उपाधि से विभूषित किया।[18] जून 2007 में[19][20][21] तमिलनाडु मुस्लिम मक्कल काची ने घोषणा की कि यह एम॰ करूणानिधि को 'मुस्लिम समुदाय के दोस्त' (यारां-ए-मिल्लाथ') प्रदान करेगा। विवाद उन पर सरकारिया कमीशन द्वारा वीरानम परियोजना के लिए निविदाएं आवंटित करने में भष्टाचार का आरोप लगाया गया है।[22] इंदिरा गांधी ने संभावित अलगाव और भ्रष्टाचार के आरोप के आधार पर करूणानिधि सरकार को ख़ारिज कर दिया। [23] 2001 में करुणानिधि, पूर्व मुख्य सचिव के॰ए॰ नाम्बिआर और अन्य कई लोगों के एक समूह को चेन्नई में फ्लाईओवर बनाने में भ्रष्टाचार के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया।[24] उन्हें और उनकी पार्टी के सदस्यों पर आई॰पी॰सी॰ की धारा 120(b) (आपराधिक षड्यंत्र), 167 (घायल करने के इरादे से सरकारी कर्मचारी द्वारा गलत दस्तावेज का निर्माण), 420 (धोखाधड़ी) और 409 (विश्वास का आपराधिक हनन) और भ्रष्टाचार रोकथाम अधिनियम की धारा 13(1)(d) के साथ 13(2) के तहत कई आरोप लगाए गए लेकिन उनके और उनके बेटे एम॰के॰ स्टालिन के खिलाफ कोई पुख्ता सबूत नहीं मिला। [25] राम सेतु से संबंधित टिप्पणियाँ सेतुसमुद्रम विवाद के जवाब में करूणानिधि ने हिंदू भगवान राम के वजूद पर सवाल उठाया। उन्होंने पूछा: Some say there was a person over 17 lakh years ago. His name was Rama. Do not touch the bridge (Ramar Sethu) constructed by him. Who is this Rama? From which engineering college did he graduate? Is there any proof for this?[26] उनकी टिप्पणियों ने विवाद की इस आग में घी का काम किया। भाजपा नेता रविशंकर प्रसाद ने करूणानिधि पर धार्मिक भेदभाव का आरोप लगाया और कहा कि "हम करूणानिधि से यह जानना चाहते हैं कि क्या वे किसी अन्य धर्म के किसी धार्मिक प्रमुख के खिलाफ इस तरह का बयान करेंगे; जिसका जवाब 'नहीं' है।"[27] राष्ट्रवादी काँग्रेस पार्टी के प्रवक्ता डी॰पी॰ त्रिपाठी ने कहा, "राम के वजूद के सबूत पर सवाल खड़ा करने की क्या जरूरत है जब इतने सारे लोगों की उनमें पूरी आस्था है?"[28] इन बयानों के जवाब में करुणानिधि ने बेखटके कहा, "वैसे, [राम के वजूद के दावे को सही साबित करने के लिए] यहाँ न तो वाल्मीकि मौजूद हैं और न ही राम। यहाँ केवल एक ऐसा समूह है जो लोगों को बेवक़ूफ़ समझता है। वे गलत साबित होंगे।[28] कई दिनों बाद, उन्होंने टिप्पणी की: I have not said anything more than Valmiki, who authored Ramayana. Valmiki had even stated that Rama was a drunkard. Have I said so?[29] एल॰टी॰टी॰ई॰ के साथ संबंध राजीव गांधी की हत्या की जाँच करने वाले जस्टिस जैन कमीशन की अंतरिम रिपोर्ट में करूणानिधि पर लिबरेशन टाइगर्स ऑफ तमिल ईलम (एलटीटीई) को बढ़ावा देने का आरोप लगाया गया था।[30] अंतरिम रिपोर्ट ने सिफारिश की कि राजीव गांधी के हत्यारों को बढ़ावा देने के लिए तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम॰ करूणानिधि और डी॰एम॰के॰ पार्टी जिम्मेदार माना जाए। अंतिम रिपोर्ट में ऐसा कोई आरोप शामिल नहीं था।[31] अप्रैल 2009 में करूणानिधि ने एक विवादस्पद टिप्पणी की कि "प्रभाकरण मेरा अच्छा दोस्त है" और यह भी कहा कि "राजीव गांधी की हत्या के लिए भारत एल॰टी॰टी॰ई॰ को कभी माफ नहीं कर सकता"।[32] कुलपक्षपात का आरोप करूणानिधि के विरोधियों, उनकी पार्टी के कुछ सदस्यों और अन्य राजनीतिक पर्यवेक्षकों ने करूणानिधि पर कुलपक्षपात को बढ़ावा देने और नेहरु-गांधी परिवार की तरह एक राजनीतिक वंश का आरम्भ करने की कोशिश करने का आरोप लगाया है। डी॰एम॰के॰ को छोड़ कर जाने वाले वाइको की आवाज़ सबसे बुलंद है। राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि एम॰के॰ स्टालिन और परिवार के अन्य सदस्यों के लिए एक खतरे के रूप में वाइको को दरकिनार कर दिया गया। उनके भतीजा स्वर्गीय मुरासोली मारन एक केन्द्रीय मंत्री थे; हालाँकि इस बात पर ध्यान दिलाया गया है कि 1969 में करूणानिधि के मुख्यमंत्री बनने से काफी समय पहले से वे राजनीति में थे। उन्हें 1965 में हिंदी विरोधी आंदोलन सहित कई अन्य मामलों में गिरफ्तार किया गया। उनसे 1967 में दक्षिण मद्रास का उपचुनाव लड़ने के लिए कहा गया और राजाजी, अन्नादुरई और मोहम्मद इस्माइल (कायद-ए-मिल्लाथ) ने नामांकन पत्र पर हस्ताक्षर किए जिससे यह पता चलता है कि उनका राजनीतिक करियर पूरी तरह से करूणानिधि के साथ अपने रिश्ते की बुनियाद पर नहीं खड़ा था।[33] कई राजनीतिक विरोधियों और डी॰एम॰के॰ पार्टी के वरिष्ठ नेताओं ने पार्टी में एम॰के॰ स्टालिन की उत्थान की आलोचना की है। लेकिन पार्टी के कुछ लोगों ने बताया है कि स्टालिन ने अपने दम पर उन्नति की है। उन्होंने 1975 के बाद से काफी मुश्किलों का सामना किया है जब उन्हें आतंरिक सुरक्षा रखरखाव अधिनियम (मेंटेनेंस ऑफ इंटरनल सिक्यूरिटी एक्ट/एम॰आई॰एस॰ए॰) के तहत जेल भेज दिया गया और जेल में उन्हें आपातकाल के दौरान इतनी बुरी तरह से पीटा गया कि उन्हें बचाने की कोशिश में डी॰एम॰के॰ पार्टी के साथी कैदी की मौत हो गई।[34] 1989 और 1996 में स्टालिन को विधायक बनाया गया था जब उनके पिता करूणानिधि मुख्यमंत्री थे लेकिन उन्हें मंत्रिमंडल में शामिल नहीं किया गया था। वे 1996 में चेन्नई के 44वें मेयर और इसके पहली बार प्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित मेयर बने। विधायक के रूप में केवल अपने चौथे कार्यकाल में ही वे करूणानिधि के मंत्रिमंडल के एक मंत्री थे। करूणानिधि पर भारत का दूसरा सबसे बड़ा टेलीविजन नेटवर्क सन नेटवर्क चलाने वाले कलानिधि मारन (मुरासोली मारन के पुत्र) की मदद करने का आरोप लगाया गया है। फोर्ब्स के मुताबिक कलानिधि भारत के 2.9 बिलियन डॉलर की संपत्ति वाले 20 सबसे बड़े रईसों में से हैं।[35] इसके अलावा टीकाकारों का कहना है कि उन्होंने अपनी योग्यता के आधार पर इस स्थिति को प्राप्त किया है और यहाँ तक कि करूणानिधि के बेटों ने भी उनकी तुलना में कुछ हासिल नहीं किया जो उनके बीच के टकराव का एक कारण रहा है। उनके चैनलों ने डी॰एम॰के॰ पार्टी के प्रवक्ता की तरह काम किया है (हाल के समय तक) और ए॰आई॰ए॰डी॰एम॰के॰ की जया टीवी के साथ संतुलन स्थापित करने में मदद की है। दयानिधि मारन (मारन का एक अन्य बेटा) संचार एवं आई॰टी॰ विभाग, न कि प्रसारण मंत्रालय, के एक पूर्व केन्द्रीय मंत्री रह चुके हैं जो टी॰वी॰ नेटवर्क के लिए जिम्मेदार है। दयानिधि मारन को केन्द्र के आई॰टी॰ एवं संचार विभाग से निकाल दिया गया (वे आई॰टी॰ एवं सचार विभाग के एक केन्द्रीय मंत्री थे) क्योंकि दिनाकरन (मारन भाइयों द्वारा संचालित अखबार) में प्रदर्शित एक सार्वजनिक मतदान के परिणाम के अनुसार दयानिधि मारन करूणानिधि के उत्तारधिकारी थे। इससे दिनाकरन कार्यालय की मदुराई शाखा में खूनी हिंसा (एम॰के॰ अज़गिरी द्वारा कार्यान्वित) भड़क उठी जिसकी वजह से तीन कर्मचारियों की मौत हो गई। इसे एक बार फिर करूणानिधि परिवार के वंश विवाद के एक परिणाम के रूप में देखा गया। इस बात का जिक्र किया गया है कि करूणानिधि को अपने परिवार के भूले-भटके सदस्यों के खिलाफ कार्रवाई करने में संकोच होता है हालाँकि गलत कार्य करने[36] का दोषी पाए जाने पर उन्होंने अपने अन्य दो बेटों एम॰के॰ मुथु और एम॰के॰ अज़गिरी को निष्कासित कर दिया था और इसी तरह दयानिधि मारन को केन्द्रीय मंत्री पद से हटा दिया था (जिसके कारण का उल्लेख पिछले अनुच्छेद में किया गया है)। बाद में उन पर दिनाकरन अखबार के कार्यालय पर एम॰के॰ अज़गिरी के समर्थकों द्वारा हमला किए जाने और तीन लोगों की मौत (जैसा कि ऊपर बताया गया है) होने के बाद एम॰के॰ अज़गिरी के खिलाफ कोई कार्रवाई न करने का आरोप लगाया गया है। एम॰के॰ अज़गिरी पूर्व डी॰एम॰के॰ मंत्री किरुत्तिनन की हत्या के मामले के मुख्य अभियुक्त हैं। करूणानिधि पर अज़गिरी को मदुराई में एक बेलगाम प्राधिकारी के रूप में कार्य करने की अनुमति प्रदान करने का भी आरोप है।[37] दिनाकरन अखबार से संबंधित मामले को सी॰बी॰आई॰ को सौंप दिया गया। लेकिन जिला एवं सत्र अदालत ने उस मामले के सभी 17 मुलजिमों को बरी कर दिया। [38] इस अपराध को अंजाम देने वालों की पहचान करने और उन्हें सजा दिलाने के लिए अब तक इस मामले को किसी उच्च अदालत में पेश नहीं किया गया है। उनकी बेटी कानिमोझी को राज्य सभा पद के लिए मनोनीत किया गया है। व्यक्तिगत जीवन‍ वे पहले मांसाहारी थे लेकिन बाद में शाकाहारी हो गये थे।[39] उनका दावा था कि उनकी स्फूर्ति और सफलता का रहस्य उनके द्वारा दैनिक रूप से किया जाने वाला योगाभ्यास है।[40] उन्होंने तीन बार शादी की; उनकी पत्नियाँ हैं पद्मावती, दयालु आम्माल और राजात्तीयम्माल।[41][42][43] उनके बेटे हैं एम॰के॰ मुत्तु, एम॰के॰ अलागिरी, एम॰के॰ स्टालिन और एम॰के॰ तामिलरसु। उनकी पुत्रियाँ हैं सेल्वी और कानिमोझी। कानिमोझी राज्यसभा की सांसद हैं। पद्मावती, जिनका देहावसान काफी जल्दी हो गया था, ने उनके सबसे बड़े पुत्र एम॰के॰ मुत्तु को जन्म दिया था। अज़गिरी, स्टालिन, सेल्वी और तामिलरासु दयालुअम्मल की संताने हैं, जबकि कनिमोझी उनकी तीसरी पत्नी राजात्तीयम्माल की पुत्री हैं।.. एक बुद्धिवादी होने के बावजूद बृहस्पति ग्रह शान्ति के लिए वे पीला वस्त्र पहनते थे। मंत्रिमंडल (कैबिनेट) करुणानिधि का मंत्रिमंडल (13 मई 2006 - वर्तमान) एम. करुणानिधि: मुख्यमंत्री, लोक निर्माण विभाग, गृह, सामान्य प्रशासन, लोक सेवा, पुलिस, अल्पसंख्यक कल्याण, निषेध और राज्य आबकारी, तमिलनाडु सरकारी भाषायें, तमिल सांस्कृतिक के मंत्री.[44] के. अन्बझगन: वित्त मंत्री[44] एर्कोट एन. वीरास्वामी: विद्युत मंत्री[44] एम. के. स्टालिन: उप मुख्यमंत्री, ग्रामीण विकास और स्थानीय प्रशासन मंत्री[44] को। सी. मणि: सांख्यिकी और सहयोग मंत्री तथा एक पूर्व सैनिक[44] वीरापांडी एस. अरुमुगम: कृषि मंत्री[44] दुराई मुरुगन: कानून मंत्री[44] पोनमुडी: उच्च शिक्षा मंत्री[44] के. एन. नेहरु: परिवहन मंत्री[44] एम.आर.के. पनीरसेल्वम: स्वास्थ्य मंत्री[44] पोंगालुर एन. पालानीसामी: ग्रामीण उद्योग और पशुपालन मंत्री[44] आई.पेरिआसामी: राजस्व और आवास मंत्री[44] एन. सुरेश राजन: पर्यटन और पंजीकरण मंत्री[44] परिथि लाम्वाझुथी: सूचना मंत्री[44] ई.वी. वेलू: खाद्य मंत्री[44] सूबा थान्गावेलन: स्लम क्लीयरेंस और आवास मंत्री[44] के.के.एस.एस.आर.रामचंद्रन: पिछड़े वर्गों के मंत्री[44] टी.एम.एन्बरासन: श्रम मंत्री[44] के.आर. पेरियाकरुप्पन: हिंदू धर्म और धर्मार्थ दान मंत्री[44] थंगम थेन्नारासु: स्कूल शिक्षा मंत्री[44] एस.एन.एम. उब्यादुल्लाह: वाणिज्यिक कर मंत्री[44] टी.पी.एम. मोहिदीन खान: पर्यावरण मंत्री[44] एन. सेल्वराज: वन मंत्री[44] वेल्लाकोइल सेमिनाथन: राजमार्ग मंत्री[44] पूनगोथई अलादी अरुणा: सूचना प्रौद्योगिकी संचार मंत्री[44] गीता जीवन: सामाजिक कल्याण मंत्री[44] तमिलारासी: आदि-द्रविडार कल्याण मंत्री[44] के.पी.पी. सामी: मत्स्य पालन मंत्री[44] यू.मथिवानन: डेयरी विकास मंत्री[44] के. रामचंद्रन: खादी मंत्री[44] इन्हें भी देखें राजनीतिक परिवारों की सूची सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ श्रेणी:1924 में जन्मे लोग श्रेणी:द्रविड़ आंदोलन श्रेणी:२०१८ में निधन श्रेणी:तमिलनाडु के मुख्यमंत्री श्रेणी:भारत के नास्तिक श्रेणी:तमिल के पटकथा लेखक श्रेणी:द्रविड़ मुनेत्र कड़गम के राजनीतिज्ञ श्रेणी:तमिलनाडु के राजनेता
मुथुवेल करुणानिधि स्टालिन का जन्म कब हुआ था?
3 जून 1924
44
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होली (Holi) वसंत ऋतु में मनाया जाने वाला एक महत्वपूर्ण भारतीय और नेपाली लोगों का त्यौहार है। यह पर्व हिंदू पंचांग के अनुसार फाल्गुन मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है। रंगों का त्यौहार कहा जाने वाला यह पर्व पारंपरिक रूप से दो दिन मनाया जाता है। यह प्रमुखता से भारत तथा नेपाल में मनाया जाता है। यह त्यौहार कई अन्य देशों जिनमें अल्पसंख्यक हिन्दू लोग रहते हैं वहाँ भी धूम-धाम के साथ मनाया जाता है।[1] पहले दिन को होलिका जलायी जाती है, जिसे होलिका दहन भी कहते हैं। दूसरे दिन, जिसे प्रमुखतः धुलेंडी व धुरड्डी, धुरखेल या धूलिवंदन इसके अन्य नाम हैं, लोग एक दूसरे पर रंग, अबीर-गुलाल इत्यादि फेंकते हैं, ढोल बजा कर होली के गीत गाये जाते हैं और घर-घर जा कर लोगों को रंग लगाया जाता है। ऐसा माना जाता है कि होली के दिन लोग पुरानी कटुता को भूल कर गले मिलते हैं और फिर से दोस्त बन जाते हैं। एक दूसरे को रंगने और गाने-बजाने का दौर दोपहर तक चलता है। इसके बाद स्नान कर के विश्राम करने के बाद नए कपड़े पहन कर शाम को लोग एक दूसरे के घर मिलने जाते हैं, गले मिलते हैं और मिठाइयाँ खिलाते हैं।[2] राग-रंग का यह लोकप्रिय पर्व वसंत का संदेशवाहक भी है।[3] राग अर्थात संगीत और रंग तो इसके प्रमुख अंग हैं ही पर इनको उत्कर्ष तक पहुँचाने वाली प्रकृति भी इस समय रंग-बिरंगे यौवन के साथ अपनी चरम अवस्था पर होती है। फाल्गुन माह में मनाए जाने के कारण इसे फाल्गुनी भी कहते हैं। होली का त्यौहार वसंत पंचमी से ही आरंभ हो जाता है। उसी दिन पहली बार गुलाल उड़ाया जाता है। इस दिन से फाग और धमार का गाना प्रारंभ हो जाता है। खेतों में सरसों खिल उठती है। बाग-बगीचों में फूलों की आकर्षक छटा छा जाती है। पेड़-पौधे, पशु-पक्षी और मनुष्य सब उल्लास से परिपूर्ण हो जाते हैं। खेतों में गेहूँ की बालियाँ इठलाने लगती हैं। बच्चे-बूढ़े सभी व्यक्ति सब कुछ संकोच और रूढ़ियाँ भूलकर ढोलक-झाँझ-मंजीरों की धुन के साथ नृत्य-संगीत व रंगों में डूब जाते हैं। चारों तरफ़ रंगों की फुहार फूट पड़ती है।[4] गुझिया होली का प्रमुख पकवान है जो कि मावा (खोया) और मैदा से बनती है और मेवाओं से युक्त होती है इस दिन कांजी के बड़े खाने व खिलाने का भी रिवाज है। नए कपड़े पहन कर होली की शाम को लोग एक दूसरे के घर होली मिलने जाते है जहाँ उनका स्वागत गुझिया,नमकीन व ठंडाई से किया जाता है। होली के दिन आम्र मंजरी तथा चंदन को मिलाकर खाने का बड़ा माहात्म्य है।[5] इतिहास होली भारत का अत्यंत प्राचीन पर्व है जो होली, होलिका या होलाका[6] नाम से मनाया जाता था। वसंत की ऋतु में हर्षोल्लास के साथ मनाए जाने के कारण इसे वसंतोत्सव और काम-महोत्सव भी कहा गया है। इतिहासकारों का मानना है कि आर्यों में भी इस पर्व का प्रचलन था लेकिन अधिकतर यह पूर्वी भारत में ही मनाया जाता था। इस पर्व का वर्णन अनेक पुरातन धार्मिक पुस्तकों में मिलता है। इनमें प्रमुख हैं, जैमिनी के पूर्व मीमांसा-सूत्र और कथा गार्ह्य-सूत्र। नारद पुराण औऱ भविष्य पुराण जैसे पुराणों की प्राचीन हस्तलिपियों और ग्रंथों में भी इस पर्व का उल्लेख मिलता है। विंध्य क्षेत्र के रामगढ़ स्थान पर स्थित ईसा से ३०० वर्ष पुराने एक अभिलेख में भी इसका उल्लेख किया गया है। संस्कृत साहित्य में वसन्त ऋतु और वसन्तोत्सव अनेक कवियों के प्रिय विषय रहे हैं। सुप्रसिद्ध मुस्लिम पर्यटक अलबरूनी ने भी अपने ऐतिहासिक यात्रा संस्मरण में होलिकोत्सव का वर्णन किया है। भारत के अनेक मुस्लिम कवियों ने अपनी रचनाओं में इस बात का उल्लेख किया है कि होलिकोत्सव केवल हिंदू ही नहीं मुसलमान भी मनाते हैं। सबसे प्रामाणिक इतिहास की तस्वीरें हैं मुगल काल की और इस काल में होली के किस्से उत्सुकता जगाने वाले हैं। अकबर का जोधाबाई के साथ तथा जहाँगीर का नूरजहाँ के साथ होली खेलने का वर्णन मिलता है। अलवर संग्रहालय के एक चित्र में जहाँगीर को होली खेलते हुए दिखाया गया है।[7] शाहजहाँ के समय तक होली खेलने का मुग़लिया अंदाज़ ही बदल गया था। इतिहास में वर्णन है कि शाहजहाँ के ज़माने में होली को ईद-ए-गुलाबी या आब-ए-पाशी (रंगों की बौछार) कहा जाता था।[8] अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र के बारे में प्रसिद्ध है कि होली पर उनके मंत्री उन्हें रंग लगाने जाया करते थे।[9] मध्ययुगीन हिन्दी साहित्य में दर्शित कृष्ण की लीलाओं में भी होली का विस्तृत वर्णन मिलता है। इसके अतिरिक्त प्राचीन चित्रों, भित्तिचित्रों और मंदिरों की दीवारों पर इस उत्सव के चित्र मिलते हैं। विजयनगर की राजधानी हंपी के १६वी शताब्दी के एक चित्रफलक पर होली का आनंददायक चित्र उकेरा गया है। इस चित्र में राजकुमारों और राजकुमारियों को दासियों सहित रंग और पिचकारी के साथ राज दम्पत्ति को होली के रंग में रंगते हुए दिखाया गया है। १६वी शताब्दी की अहमदनगर की एक चित्र आकृति का विषय वसंत रागिनी ही है। इस चित्र में राजपरिवार के एक दंपत्ति को बगीचे में झूला झूलते हुए दिखाया गया है। साथ में अनेक सेविकाएँ नृत्य-गीत व रंग खेलने में व्यस्त हैं। वे एक दूसरे पर पिचकारियों से रंग डाल रहे हैं। मध्यकालीन भारतीय मंदिरों के भित्तिचित्रों और आकृतियों में होली के सजीव चित्र देखे जा सकते हैं। उदाहरण के लिए इसमें १७वी शताब्दी की मेवाड़ की एक कलाकृति में महाराणा को अपने दरबारियों के साथ चित्रित किया गया है। शासक कुछ लोगों को उपहार दे रहे हैं, नृत्यांगना नृत्य कर रही हैं और इस सबके मध्य रंग का एक कुंड रखा हुआ है। बूंदी से प्राप्त एक लघुचित्र में राजा को हाथीदाँत के सिंहासन पर बैठा दिखाया गया है जिसके गालों पर महिलाएँ गुलाल मल रही हैं।[10] कहानियाँ होली के पर्व से अनेक कहानियाँ जुड़ी हुई हैं। इनमें से सबसे प्रसिद्ध कहानी है प्रह्लाद की। माना जाता है कि प्राचीन काल में हिरण्यकशिपु नाम का एक अत्यंत बलशाली असुर था। अपने बल के दर्प में वह स्वयं को ही ईश्वर मानने लगा था। उसने अपने राज्य में ईश्वर का नाम लेने पर ही पाबंदी लगा दी थी। हिरण्यकशिपु का पुत्र प्रह्लाद ईश्वर भक्त था। प्रह्लाद की ईश्वर भक्ति से क्रुद्ध होकर हिरण्यकशिपु ने उसे अनेक कठोर दंड दिए, परंतु उसने ईश्वर की भक्ति का मार्ग न छोड़ा। हिरण्यकशिपु की बहन होलिका को वरदान प्राप्त था कि वह आग में भस्म नहीं हो सकती। हिरण्यकशिपु ने आदेश दिया कि होलिका प्रह्लाद को गोद में लेकर आग में बैठे। आग में बैठने पर होलिका तो जल गई, पर प्रह्लाद बच गया। ईश्वर भक्त प्रह्लाद की याद में इस दिन होली जलाई जाती है।[11] प्रतीक रूप से यह भी माना जाता है कि प्रह्लाद का अर्थ आनन्द होता है। वैर और उत्पीड़न की प्रतीक होलिका (जलाने की लकड़ी) जलती है और प्रेम तथा उल्लास का प्रतीक प्रह्लाद (आनंद) अक्षुण्ण रहता है।[12] प्रह्लाद की कथा के अतिरिक्त यह पर्व राक्षसी ढुंढी, राधा कृष्ण के रास और कामदेव के पुनर्जन्म से भी जुड़ा हुआ है।[13] कुछ लोगों का मानना है कि होली में रंग लगाकर, नाच-गाकर लोग शिव के गणों का वेश धारण करते हैं तथा शिव की बारात का दृश्य बनाते हैं। कुछ लोगों का यह भी मानना है कि भगवान श्रीकृष्ण ने इस दिन पूतना नामक राक्षसी का वध किया था। इसी खु़शी में गोपियों और ग्वालों ने रासलीला की और रंग खेला था।[14] परंपराएँ होली के पर्व की तरह इसकी परंपराएँ भी अत्यंत प्राचीन हैं और इसका स्वरूप और उद्देश्य समय के साथ बदलता रहा है। प्राचीन काल में यह विवाहित महिलाओं द्वारा परिवार की सुख समृद्धि के लिए मनाया जाता था और पूर्ण चंद्र की पूजा करने की परंपरा थी। वैदिक काल में इस पर्व को नवात्रैष्टि यज्ञ कहा जाता था। उस समय खेत के अधपके अन्न को यज्ञ में दान करके प्रसाद लेने का विधान समाज में व्याप्त था। अन्न को होला कहते हैं, इसी से इसका नाम होलिकोत्सव पड़ा। भारतीय ज्योतिष के अनुसार चैत्र शुदी प्रतिपदा के दिन से नववर्ष का भी आरंभ माना जाता है। इस उत्सव के बाद ही चैत्र महीने का आरंभ होता है। अतः यह पर्व नवसंवत का आरंभ तथा वसंतागमन का प्रतीक भी है। इसी दिन प्रथम पुरुष मनु का जन्म हुआ था, इस कारण इसे मन्वादितिथि कहते हैं।[15] होली का पहला काम झंडा या डंडा गाड़ना होता है। इसे किसी सार्वजनिक स्थल या घर के आहाते में गाड़ा जाता है। इसके पास ही होलिका की अग्नि इकट्ठी की जाती है। होली से काफ़ी दिन पहले से ही यह सब तैयारियाँ शुरू हो जाती हैं। पर्व का पहला दिन होलिका दहन का दिन कहलाता है। इस दिन चौराहों पर व जहाँ कहीं अग्नि के लिए लकड़ी एकत्र की गई होती है, वहाँ होली जलाई जाती है। इसमें लकड़ियाँ और उपले प्रमुख रूप से होते हैं। कई स्थलों पर होलिका में भरभोलिए[16] जलाने की भी परंपरा है। भरभोलिए गाय के गोबर से बने ऐसे उपले होते हैं जिनके बीच में छेद होता है। इस छेद में मूँज की रस्सी डाल कर माला बनाई जाती है। एक माला में सात भरभोलिए होते हैं। होली में आग लगाने से पहले इस माला को भाइयों के सिर के ऊपर से सात बार घूमा कर फेंक दिया जाता है। रात को होलिका दहन के समय यह माला होलिका के साथ जला दी जाती है। इसका यह आशय है कि होली के साथ भाइयों पर लगी बुरी नज़र भी जल जाए।[16] लकड़ियों व उपलों से बनी इस होली का दोपहर से ही विधिवत पूजन आरंभ हो जाता है। घरों में बने पकवानों का यहाँ भोग लगाया जाता है। दिन ढलने पर ज्योतिषियों द्वारा निकाले मुहूर्त पर होली का दहन किया जाता है। इस आग में नई फसल की गेहूँ की बालियों और चने के होले को भी भूना जाता है। होलिका का दहन समाज की समस्त बुराइयों के अंत का प्रतीक है। यह बुराइयों पर अच्छाइयों की विजय का सूचक है। गाँवों में लोग देर रात तक होली के गीत गाते हैं तथा नाचते हैं। होली से अगला दिन धूलिवंदन कहलाता है। इस दिन लोग रंगों से खेलते हैं। सुबह होते ही सब अपने मित्रों और रिश्तेदारों से मिलने निकल पड़ते हैं। गुलाल और रंगों से सबका स्वागत किया जाता है। लोग अपनी ईर्ष्या-द्वेष की भावना भुलाकर प्रेमपूर्वक गले मिलते हैं तथा एक-दूसरे को रंग लगाते हैं। इस दिन जगह-जगह टोलियाँ रंग-बिरंगे कपड़े पहने नाचती-गाती दिखाई पड़ती हैं। बच्चे पिचकारियों से रंग छोड़कर अपना मनोरंजन करते हैं। सारा समाज होली के रंग में रंगकर एक-सा बन जाता है। रंग खेलने के बाद देर दोपहर तक लोग नहाते हैं और शाम को नए वस्त्र पहनकर सबसे मिलने जाते हैं। प्रीति भोज तथा गाने-बजाने के कार्यक्रमों का आयोजन करते हैं। होली के दिन घरों में खीर, पूरी और पूड़े आदि विभिन्न व्यंजन पकाए जाते हैं। इस अवसर पर अनेक मिठाइयाँ बनाई जाती हैं जिनमें गुझियों का स्थान अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। बेसन के सेव और दहीबड़े भी सामान्य रूप से उत्तर प्रदेश में रहने वाले हर परिवार में बनाए व खिलाए जाते हैं। कांजी, भांग और ठंडाई इस पर्व के विशेष पेय होते हैं। पर ये कुछ ही लोगों को भाते हैं। इस अवसर पर उत्तरी भारत के प्रायः सभी राज्यों के सरकारी कार्यालयों में अवकाश रहता है, पर दक्षिण भारत में उतना लोकप्रिय न होने की वज़ह से इस दिन सरकारी संस्थानों में अवकाश नहीं रहता। विशिष्ट उत्सव भारत में होली का उत्सव अलग-अलग प्रदेशों में भिन्नता के साथ मनाया जाता है। ब्रज की होली आज भी सारे देश के आकर्षण का बिंदु होती है। बरसाने की लठमार होली[17] काफ़ी प्रसिद्ध है। इसमें पुरुष महिलाओं पर रंग डालते हैं और महिलाएँ उन्हें लाठियों तथा कपड़े के बनाए गए कोड़ों से मारती हैं। इसी प्रकार मथुरा और वृंदावन में भी १५ दिनों तक होली का पर्व मनाया जाता है। कुमाऊँ की गीत बैठकी[18] में शास्त्रीय संगीत की गोष्ठियाँ होती हैं। यह सब होली के कई दिनों पहले शुरू हो जाता है। हरियाणा की धुलंडी में भाभी द्वारा देवर को सताए जाने की प्रथा है। बंगाल की दोल जात्रा[19] चैतन्य महाप्रभु के जन्मदिन के रूप में मनाई जाती है। जलूस निकलते हैं और गाना बजाना भी साथ रहता है। इसके अतिरिक्त महाराष्ट्र की रंग पंचमी[20] में सूखा गुलाल खेलने, गोवा के शिमगो[21] में जलूस निकालने के बाद सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन तथा पंजाब के होला मोहल्ला[22] में सिक्खों द्वारा शक्ति प्रदर्शन की परंपरा है। तमिलनाडु की कमन पोडिगई[23] मुख्य रूप से कामदेव की कथा पर आधारित वसंतोतसव है जबकि मणिपुर के याओसांग[24] में योंगसांग उस नन्हीं झोंपड़ी का नाम है जो पूर्णिमा के दिन प्रत्येक नगर-ग्राम में नदी अथवा सरोवर के तट पर बनाई जाती है। दक्षिण गुजरात के आदिवासियों के लिए होली सबसे बड़ा पर्व है, छत्तीसगढ़ की होरी में लोक गीतों की अद्भुत परंपरा है और मध्यप्रदेश के मालवा अंचल के आदिवासी इलाकों में बेहद धूमधाम से मनाया जाता है भगोरिया[25], जो होली का ही एक रूप है। बिहार का फगुआ[26] जम कर मौज मस्ती करने का पर्व है और नेपाल की होली[27] में इस पर धार्मिक व सांस्कृतिक रंग दिखाई देता है। इसी प्रकार विभिन्न देशों में बसे प्रवासियों तथा धार्मिक संस्थाओं जैसे इस्कॉन या वृंदावन के बांके बिहारी मंदिर में अलग अलग प्रकार से होली के शृंगार व उत्सव मनाने की परंपरा है जिसमें अनेक समानताएँ और भिन्नताएँ हैं। साहित्य में होली प्राचीन काल के संस्कृत साहित्य में होली के अनेक रूपों का विस्तृत वर्णन है। श्रीमद्भागवत महापुराण में रसों के समूह रास का वर्णन है। अन्य रचनाओं में 'रंग' नामक उत्सव का वर्णन है जिनमें हर्ष की प्रियदर्शिका व रत्नावली[क] तथा कालिदास की कुमारसंभवम् तथा मालविकाग्निमित्रम् शामिल हैं। कालिदास रचित ऋतुसंहार में पूरा एक सर्ग ही 'वसन्तोत्सव' को अर्पित है। भारवि, माघ और अन्य कई संस्कृत कवियों ने वसन्त की खूब चर्चा की है। चंद बरदाई द्वारा रचित हिंदी के पहले महाकाव्य पृथ्वीराज रासो में होली का वर्णन है। भक्तिकाल और रीतिकाल के हिन्दी साहित्य में होली और फाल्गुन माह का विशिष्ट महत्व रहा है। आदिकालीन कवि विद्यापति से लेकर भक्तिकालीन सूरदास, रहीम, रसखान, पद्माकर[ख], जायसी, मीराबाई, कबीर और रीतिकालीन बिहारी, केशव, घनानंद आदि अनेक कवियों को यह विषय प्रिय रहा है। महाकवि सूरदास ने वसन्त एवं होली पर 78 पद लिखे हैं। पद्माकर ने भी होली विषयक प्रचुर रचनाएँ की हैं।[28] इस विषय के माध्यम से कवियों ने जहाँ एक ओर नितान्त लौकिक नायक नायिका के बीच खेली गई अनुराग और प्रीति की होली का वर्णन किया है, वहीं राधा कृष्ण के बीच खेली गई प्रेम और छेड़छाड़ से भरी होली के माध्यम से सगुण साकार भक्तिमय प्रेम और निर्गुण निराकार भक्तिमय प्रेम का निष्पादन कर डाला है।[29] सूफ़ी संत हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया, अमीर खुसरो और बहादुर शाह ज़फ़र जैसे मुस्लिम संप्रदाय का पालन करने वाले कवियों ने भी होली पर सुंदर रचनाएँ लिखी हैं जो आज भी जन सामान्य में लोकप्रिय हैं।[8] आधुनिक हिंदी कहानियों प्रेमचंद की राजा हरदोल, प्रभु जोशी की अलग अलग तीलियाँ, तेजेंद्र शर्मा की एक बार फिर होली, ओम प्रकाश अवस्थी की होली मंगलमय हो तथा स्वदेश राणा की हो ली में होली के अलग अलग रूप देखने को मिलते हैं। भारतीय फ़िल्मों में भी होली के दृश्यों और गीतों को सुंदरता के साथ चित्रित किया गया है। इस दृष्टि से शशि कपूर की उत्सव, यश चोपड़ा की सिलसिला, वी शांताराम की झनक झनक पायल बाजे और नवरंग इत्यादि उल्लेखनीय हैं।[30] संगीत में होली भारतीय शास्त्रीय, उपशास्त्रीय, लोक तथा फ़िल्मी संगीत की परम्पराओं में होली का विशेष महत्व है। शास्त्रीय संगीत में धमार का होली से गहरा संबंध है, हालाँकि ध्रुपद, धमार, छोटे व बड़े ख्याल और ठुमरी में भी होली के गीतों का सौंदर्य देखते ही बनता है। कथक नृत्य के साथ होली, धमार और ठुमरी पर प्रस्तुत की जाने वाली अनेक सुंदर बंदिशें जैसे चलो गुंइयां आज खेलें होरी कन्हैया घर आज भी अत्यंत लोकप्रिय हैं। ध्रुपद में गाये जाने वाली एक लोकप्रिय बंदिश है खेलत हरी संग सकल, रंग भरी होरी सखी। भारतीय शास्त्रीय संगीत में कुछ राग ऐसे हैं जिनमें होली के गीत विशेष रूप से गाए जाते हैं। बसंत, बहार, हिंडोल और काफ़ी ऐसे ही राग हैं। होली पर गाने बजाने का अपने आप वातावरण बन जाता है और जन जन पर इसका रंग छाने लगता है। उपशास्त्रीय संगीत में चैती, दादरा और ठुमरी में अनेक प्रसिद्ध होलियाँ हैं। होली के अवसर पर संगीत की लोकप्रियता का अंदाज़ इसी बात से लगाया जा सकता है कि संगीत की एक विशेष शैली का नाम ही होली है, जिसमें अलग अलग प्रांतों में होली के विभिन्न वर्णन सुनने को मिलते है जिसमें उस स्थान का इतिहास और धार्मिक महत्व छुपा होता है। जहाँ ब्रजधाम में राधा और कृष्ण के होली खेलने के वर्णन मिलते हैं वहीं अवध में राम और सीता के जैसे होली खेलें रघुवीरा अवध में। राजस्थान के अजमेर शहर में ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर गाई जाने वाली होली का विशेष रंग है। उनकी एक प्रसिद्ध होली है आज रंग है री मन रंग है, अपने महबूब के घर रंग है री।[31] इसी प्रकार शंकर जी से संबंधित एक होली में दिगंबर खेले मसाने में होली कह कर शिव द्वारा श्मशान में होली खेलने का वर्णन मिलता है। भारतीय फिल्मों में भी अलग अलग रागों पर आधारित होली के गीत प्रस्तुत किये गए हैं जो काफी लोकप्रिय हुए हैं। 'सिलसिला' के गीत रंग बरसे भीगे चुनर वाली, रंग बरसे और 'नवरंग' के आया होली का त्योहार, उड़े रंगों की बौछार, को आज भी लोग भूल नहीं पाए हैं। आधुनिकता का रंग होली रंगों का त्योहार है, हँसी-खुशी का त्योहार है, लेकिन होली के भी अनेक रूप देखने को मिलते हैं। प्राकृतिक रंगों के स्थान पर रासायनिक रंगों का प्रचलन, भांग-ठंडाई की जगह नशेबाजी और लोक संगीत की जगह फ़िल्मी गानों का प्रचलन इसके कुछ आधुनिक रूप हैं।[32] लेकिन इससे होली पर गाए-बजाए जाने वाले ढोल, मंजीरों, फाग, धमार, चैती और ठुमरी की शान में कमी नहीं आती। अनेक लोग ऐसे हैं जो पारंपरिक संगीत की समझ रखते हैं और पर्यावरण के प्रति सचेत हैं। इस प्रकार के लोग और संस्थाएँ चंदन, गुलाबजल, टेसू के फूलों से बना हुआ रंग तथा प्राकृतिक रंगों से होली खेलने की परंपरा को बनाए हुए हैं, साथ ही इसके विकास में महत्वपूर्ण योगदान भी दे रहे हैं।[33] रासायनिक रंगों के कुप्रभावों की जानकारी होने के बाद बहुत से लोग स्वयं ही प्राकृतिक रंगों की ओर लौट रहे हैं।[34] होली की लोकप्रियता का विकसित होता हुआ अंतर्राष्ट्रीय रूप भी आकार लेने लगा है। बाज़ार में इसकी उपयोगिता का अंदाज़ इस साल होली के अवसर पर एक अंतर्राष्ट्रीय प्रतिष्ठान केन्ज़ोआमूर द्वारा जारी किए गए नए इत्र होली है से लगाया जा सकता है।[35] टीका टिप्पणी क. ख. सन्दर्भ इन्हें भी देखें होली लोकगीत बाहरी कड़ियाँ श्रेणी:होली श्रेणी:संस्कृति श्रेणी:हिन्दू त्यौहार श्रेणी:भारतीय पर्व श्रेणी:उत्तम लेख श्रेणी:भारत में त्यौहार
हिन्दू धर्म में रंग के त्यौहार का नाम क्या है?
होली
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d16e80019
जैसलमेर भारतीय राज्य राजस्थान का एक जिला है। जिले का मुख्यालय जैसलमेर है। क्षेत्रफल - 38401 वर्ग कि.मी. जनसंख्या - 669919(2011 जनगणना) साक्षरता - 57.2% एस. टी. डी (STD) कोड - 02992 जिलाधिकारी - (सितम्बर 2006 में) समुद्र तल से उचाई - अक्षांश - उत्तर देशांतर - पूर्व औसत वर्षा - मि.मी. जैसलमेर राजस्थान के सुदूर पश्चिम में स्थित एक जिला है, जो क्षेत्रफल की दृष्टि से राजस्थान का सबसे बड़ा जिला है। स्वतंत्रता से पुर्व यहां पर भाटी राजपुतों का राज्य था | इसकी स्थापना भाटी राजा जैसल ने 1178 ई. में की थी| जैसलमेर को "राजस्थान का अण्डमान" भी कहा जाता है। इस जिले में सबसे कम जनसंख्या निवास करती है। साथ ही साथ यहां का जनसंख्या घनत्व भी सबसे कम है। यहां प्रति वर्ग किमी में औसतन केवल 17 व्यक्ति ही निवास करते हैं। जैसलमेर को 'स्वर्ण नगरी' के नाम से भी जाना जाता है। जैसलमेर का सोनार का किला अपने स्थापत्य कला के कारण विश्व प्रसिद्ध है। इस किले के निर्माण में पीले पत्थरों का प्रयोग किया गया है। जब सुर्य की किरणें किले पर पड़ती है तो वह सोने के समान चमकता है , इसीलिये इसे सोनार के किले के नाम से जाता है। यहां भारत का सबसे बड़ा मरूस्‍थल थार का मरूस्‍थल स्थित है। यहां गर्मियों में गर्मी अधिक व सर्दी में ठंडी अधिक पड़ती है। बाहरी कड़ियाँ श्रेणी:राजस्थान के जिले जैसलमेर में मोहनगढ़ नामक एक उप तहसील है जैसलमेर जिले के गांव भाडली जिला मुख्यालय से 110 किलोमीटर व बाड़मेर जिले की सीमा पर बसा गांव है। यहां पर प्रसिद्ध श्री करनी माता का मंदिर है, जहां हर साल मेला भरता है। यहां पर चमत्कारी बाबा श्री मोतीगिरी का मठ है, सांप डसने पर, जीवन दान के सम्बंध में श्री मोति गिरी के मठ में पूजन किया जाता है, यहां हर साल मेला भरता है, आस पास के गांवो से हर साल हजारो लोग आते है। गांव में माता रानी भटियाणी का मंदिर, नागणेच्या माताजी का मंदिर,संत जसा रामजी का मंदिर, खेतरपाल का मंदिर, हनुमान मंदिर ठाकुर जी का मंदिर, चमजी एवम रावतिंग डाडा का मंदिर है। भाडली गांव में मुख्यतः भाटी, राठौड़, चौहान, जैन , दर्जी, सुथार, पुष्करणा ब्राह्मण, मेगवाल, गर्ग, रहते है। भाडली गांव में विभिन्न समुदायों, जातियों के लोग बसते है, प्रमुख: रूप से उदयराज भाटी 1 जिजनियाली 2 भाडली 3 देवड़ा 4 कुंडा 5 सिहडार 6 बईया
जैसलमेर का क्षेत्रफल कितना है?
38401 वर्ग कि.मी.
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अक्षय खन्ना एक हिन्दी फिल्म अभिनेता हैं। यह सत्तर – अस्सी के दशक के मशहूर अभिनेता विनोद खन्ना के पुत्र है और इनके बड़े भाई राहुल खन्ना एक प्रसिद्ध वी जे हैं। फिल्मी सफर व्यक्तिगत जीवन प्रमुख फिल्में वर्ष फ़िल्म चरित्र टिप्पणी२०१६दिशूमराहुल२०१२गली गली चोर है भारतदिल्ली सफारीएलेक्स२०१०तीस मार खानआतिश कपूरनो प्रॉब्लमराज अंबानीआक्रोशसिद्धांत चतुर्वेदी२००९शॉर्ट् कट द कॉन ईस ऑनशेखर गिरिराजलक बाय चांसखुद २००८मेरे बाप पहले आपगौरव जे राणेरेसराजीव सिंह२००७ आजा नचले राजा उदय सिह सलाम-ए-इश्क शिवेन डूंगरपुर २००४दीवार हलचल २००3बॉर्डर हिंदुस्तान काएलओसी कारगिल हंगामा जीतू २००२हमराजकरण मल्होत्रा दीवानगी राज गोयल २००१लव यू हमेशा दिल चाहता है सिद्धार्थ सिन्हा१९९९लावारिसकप्तान दादा आ अब लौट चलेंरोहन खन्ना ताल मानव मेहता१९९८कुदरतविजय डोली सजा के रखनाइंद्रजीत बंसल१९९७ मोहब्बत रोहित मल्होत्राबॉर्डरधरमवीरा हिमालय पुत्र नामांकन और पुरस्कार फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार 1998 - फ़िल्मफ़ेयर प्रथम अभिनय पुरस्कार - हिमालय पुत्र हस्ताक्षर बाहरी कड़ियाँ श्रेणी:हिन्दी अभिनेता श्रेणी:फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार विजेता श्रेणी:1975 में जन्मे लोग श्रेणी:भारतीय पुरुष आवाज अभिनेताओं श्रेणी:जीवित लोग
अक्षय खन्ना के पिता कौन हैं?
विनोद खन्ना
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दक्षिण सूडान या 'जनूब-उस-सूडान' (आधिकारिक तौर पर दक्षिणी सूडान गणतंत्र) उत्तर-पूर्व अफ़्रीका में स्थित स्थल-रुद्ध देश है। जुबा देश की वर्तमान राजधानी और सबसे बड़ा शहर भी है। देश के उत्तर में सूडान गणतंत्र, पूर्व में इथियोपिया, दक्षिण-पूर्व में केन्या, दक्षिण में युगान्डा, दक्षिण-पश्चिम में कांगो लोकतान्त्रिक गणराज्य और पश्चिम में मध्य अफ़्रीकी गणराज्य है। दक्षिण सूडान को 9 जुलाई 2011 को जनमत-संग्रह के पश्चात स्वतंत्रता प्राप्त हुई। इस जनमत-संग्रह में भारी संख्या (कुल मत का 98.83%) में देश की जनता ने सूडान से अलग एक नए राष्ट्र के निर्माण के लिए मत डाला। यह विश्व का 196वां स्वतंत्र देश, संयुक्त राष्ट्र का 193वां सदस्य तथा अफ्रीका का 55वां देश है।[1] जुलाई 2012 में देश ने जिनेवा सम्मेलन पर हस्ताक्षर किए। अपनी आजादी के ठीक बाद से राष्ट्र को आंतरिक संघर्ष का सामना करना पड़ रहा है। इतिहास दक्षिणी सूडान, 2005 से सूडान गणराज्य का एक स्वायत्त क्षेत्र था। अफ्रीका के सबसे बड़े देश सूडान के विभाजन के पश्चात यह देश 9 जुलाई 2011 में तब अस्तित्व आया, जब जनवरी 2011 में दक्षिण सूडान में जनमत संग्रह के पश्चात सूडान के विभाजन पर सहमति बनी।[2] उल्लेखनीय है कि उत्तर की मुस्लिम बहुल आबादी और दक्षिण की ईसाई बहुल आबादी के बीच कई दशकों से चले आ रहे संघर्ष में 20 लाख लोगों की मौत हुई। उत्तरी सूडान के दारफूर इलाके में राष्ट्रपति बशीर पर जनसंहार का आरोप लगा। उनके खिलाफ अंतरराष्ट्रीय अपराध अदालत ने गिरफ्तारी का वारंट भी जारी किया। संयुक्त राष्ट्र संघ के दखल के बाद 2005 में हिंसा को खत्म करने के लिए एक शांति प्रस्ताव आया, जिसमें दो राष्ट्रों का जिक्र किया गया। शांति संधि में दक्षिण सूडान को नया देश बनाने की बात कही गई। सूडान सरकार के बीच हुए इस समझौते में जनमत संग्रह कराने पर रजामंदी हुई और जनवरी 2011 में दक्षिण सूडान में जनमत संग्रह हुआ। वहां के लोगों ने बहुमत से अलग देश बनाने के पक्ष में वोट दिया। अफ्रीकी महाद्वीप का सबसे बड़ा देश सूडान दो हिस्सों में बंटा। ईसाई बहुल आबादी वाला देश का दक्षिणी हिस्सा आधिकारिक रूप से दुनिया का 193वां राष्ट्र बना और इसप्रकार दशकों के खून खराबे के बाद दक्षिण सूडान के अस्तित्व का रास्ता साफ हुआ। सूडान की सरकार और विद्रोही सूडान पीपुल्स लिबरेशन आर्मी के बीच व्यापक शांति समझौते पर हस्ताक्षर किए जाने के बाद इस नए देश को आज़ादी मिली।[3] भूगोल दक्षिण सूडान 3° और 13° समानांतर उत्तर आक्षांश तथा 24° और 36 ° मध्याह्न पूर्व देशांतर पर स्थित है। यह उष्णकटिबंधीय वन, दलदलों और घास के मैदानी भागों से परिपूर्ण है। यहाँ की प्रमुख नदी श्वेत नील है, जो दक्षिण सूडान की राजधानी जुबा सहित देश के कई भागों से होकर गुजरता है। यह अफ्रीका महाद्वीप के केंद्र में स्थित है और इसकी सीमा छह देशों से सटी है। यह प्राकृतिक तेल के लिहाज से संपन्न देश है। स्पेन और पुर्तगाल के संयुक्त क्षेत्रफल से भी बड़े इलाके में सड़कें कहीं-कहीं ही नजर आती हैं। यही वजह है कि यहां परिवहन और कारोबार का मुख्य जरिया नील नदी है। दक्षिण सूडान में आज भी लोगों की संपन्नता की निशानी उनके मवेशियों की संख्या होती है।[4] राज्य एवं काउंटी दक्षिण सूडान दस राज्यों में विभाजित है, जो तीन ऐतिहासिक क्षेत्रों के अंदर आते हैं: बहर अल ग़ज़ल, इक्वेटोरिया और ग्रेटर अपर नील। उत्तरी बहर अल ग़ज़ल पश्चिमी बहर अल ग़ज़ल लेक्स वर्राप एक्वेटोरिया पश्चिमी इक्वेटोरिया मध्य इक्वेटोरिया (यहाँ राष्ट्रीय राजधानी जुबा है) पूर्वी इक्वेटोरिया ग्रेटर अपर नील जोंगलेई यूनिटी उपरी नील इन 10 राज्यों को आगे 86 कउंटियों में उपविभाजित किया गया है। आर्थिक स्थिति तेल उत्पादन इस देश की मुख्य आर्थिक ताक़त है। 2011 में सूडान से अलग होने के लिए दक्षिण सूडान के लोगों ने बड़े पैमाने पर मतदान किया। सरकार की मुख्य चिंता तेल उत्पादन को लेकर थी, इसी साल अप्रैल में सूडान की राजधानी खार्तूम से हुए समझौते के बाद तेल उत्पादन शुरू हुआ।[4] जब सूडान का विभाजन हुआ था तो सूडान के खार्तूम को 75 प्रतिशत तेल उत्पादन से हाथ धोना पड़ा था लेकिन दक्षिण सूडान के जूबा को भी तेल पाइपलाइनों से वंचित होना पड़ा था। क्षिण सूडान में उत्पादित कच्चे तेल में लगभग 45 प्रतिशत हिस्सा चीन का है। अफ्रीका का यह 54 वां राष्ट्र तेल संपदा के मामले में काफी धनी है और यही यहां जारी टकराव की एक बड़ी वजह भी है। वर्षों की हिंसा और 20 लाख से अधिक लोगों के मारे जाने के बाद सूडान से यह स्वतंत्र हुआ। भारत एशिया का पहला देश था जिसने दक्षिणी सूडान की राजधानी जूबा में अपना वाणिज्य दूतावास खोला।[5] दक्षिण सूडान में बढ़ती हिंसा के बीच भारतीय सैनिकों के 32 सदस्यीय काफिले पर हमले के बाद 40 हजार बैरल प्रति दिन तेल उत्पादन वाले ग्रेटर नील ऑयल प्रोजेक्ट और ब्लॉक 5 ए से भारत ने अपने सभी अधिकारियों को वापस बुला लिया। इस हमले में भारतीय सेना के एक लेफ्टिनेंट कर्नल सहित पांच सैन्यकर्मी मारे गए। भारत सरकार की कंपनी ओएनजीसी का विदेश में काम देखने वाली कंपनी ओएनजीसी विदेश लिमिटेड [ओवीएल] ने अपने 11 अधिकारियों को सूडान की उस तेल परियोजना के लिए तैनात किया था। सत्ता से हटाए गए सूडान के उप राष्ट्रपति रीक मेचर की वफादार विद्रोही सेना ने यूनिटी राज्य पर कब्जा कर लिया है जहां सबसे अधिक तेल क्षेत्रों में काम होता था। ओवीएल का ग्रेटर नील आयल प्रोजेक्ट में ओवीएल की 25 फीसद हिस्सेदारी है जबकि ब्लॉक 5ए में 24.125 फीसद है जहां से पांच हजार बैरल प्रतिदिन तेल निकलता है। इस परियोजना में 40 फीसद हिस्सेदार चीन और 30 फीसद हिस्सेदार मलेशिया ने भी दक्षिण सूडान से अपने अधिकारियों को खाली कराने का फैसला लिया। इसप्रकार देश की मौजूदा संकटों के कारण तेल उत्पादन घटने से विश्व के तेल बाज़ार पर भी असर पड़ने की आशंका है।[6] जनसंख्या वर्ष 2008 में पूरे सूडान के लिए "पाँचवीं जनसंख्या और आवास जनगणना" हुई, जिसके अनुसार दक्षिणी सूडान की जनसंख्या 82.60 लाख आँकी गई।[7] हालांकि उस समय दक्षिणी सूडान के अधिकारियों ने दक्षिणी सूडान की जनगणना के परिणाम को खारिज करने के बाद केन्द्रीय सांख्यिकी ब्यूरो खार्तूम ने जनगणना, सांख्यिकी और मूल्यांकन के लिए दक्षिणी सूडान केंद्र के साथ राष्ट्रीय सूडान की जनगणना के आंकड़ों को साझा करने से इनकार कर दिया था।[8] वर्ष-2009 में पुन: आगामी 2011 के स्वतंत्रता जनमत संग्रह को ध्यान में रखते हुए दक्षिणी सूडान की जनगणना शुरू हुई। इस जनगणना में दक्षिण सूडान डायस्पोरा को शामिल किए जाने की भी बात कही गई, किन्तु इसकी भी भरपूर आलोचना हुई।[9] मौसम दक्षिण सूडान एक उच्च आर्द्रता वाला देश है, जो गर्मी के साथ-साथ बड़ी मात्रा में बरसात के मौसम के लिए जाना जाता है। यहाँ की जलवायु उष्णकटिबंधीय है। यहाँ का औसत तापमान जुलाई के महीने में कम गर्मी अर्थात 20 से 30 डिग्री सेल्सियस और मार्च महीना 23 से लेकर 37 डिग्री सेल्सियस तक सबसे गर्म होता है। सबसे अधिक वर्षा मई और अक्टूबर के बीच देखा जाता है, लेकिन बरसात का मौसम अप्रैल में शुरू होकर नवंबर तक जारी रहता है। औसत रूप से मई का महीना नम होता है।[10][11] धर्म और संस्कृति दक्षिण सूडान में पारंपरिक स्वदेशी धर्म के साथ-साथ ईसाई धर्म और इस्लाम को मानने वाले लोगों की संख्या सर्वाधिक है। धर्म के आधार पर 1956 में हुई जनगणना के अनुसार स्वदेशी धर्म के साथ-साथ ईसाई धर्म को मानने वाले लोगों के अलावा 18 प्रतिशत मुसलमान थे।[12][13] सूडान के उत्तर में सर्वाधिक संख्या इस्लाम की होने के कारण यहाँ की संस्कृति इस्लाम से प्रभावित है, जबकि दक्षिण सूडान ईसाई धर्म और पारंपरिक अफ्रीकी धर्मों वो संस्कृतियों से प्रभावित है। कई वर्षों तक चले गृहयुद्ध के कारण भरी मात्रा में दक्षिण सूडान के संस्कृति अपने पड़ोसियों से भी प्रभावित है। यहाँ के लोगों ने अपने पड़ोसियों इथियोपिया, केन्या, युगांडा, सूडान और मिस्र की संस्कृतियों को ही नहीं आत्मसात किया है, बल्कि भारी मात्रा में यहाँ की संस्कृति में अरब की संस्कृति घुली-मिली है। यहाँ के कबायली मूल के अधिकांश लोग दक्षिण सूडान की मूल संस्कृति को अपनाए हुए हैं, हालांकि उनकी पारंपरिक संस्कृति और बोली निर्वासन और प्रवास की स्थिति में है। यहाँ सबसे ज्यादा लोग "जूबा अरबी" और अँग्रेजी भाषा का इस्तेमाल कराते हैं, जबकि अपने पूर्वी अफ्रीकी पड़ोसियों के साथ संबंध सुधार के कारण "कैस्वाहिली" का भी प्रयोग की जाने लगी है।[14] भाषा दक्षिण सूडान की आधिकारिक भाषा अँग्रेजी है,[15] जो औपनिवेशिक काल के दौरान क्षेत्र में शुरू की गई थी। हालांकि दक्षिण सूडान में 60 से अधिक स्वदेशी भाषाएँ हैं। ज्यादातर लोगों के द्वारा इस देश में "डिंका", "नुएर", "बारी" और "जंडे" आदि स्वदेशी भाषाओं का प्रयोग किया जाता है। दक्षिण सूडान की राजधानी जूबा में "अरबी पिडगिन" भाषा को "जूबा अरविक" के रूप में कई हजार लोगों द्वारा प्रयोग किया जाता है। राजनीतिक स्थिति 9 जनवरी 2005 को दक्षिणी सूडान सरकार व्यापक शांति समझौते पर हस्ताक्षर किए जाने के बाद स्थापित हुआ था। सूडान पीपुल्स लिबरेशन आर्मी के पूर्व विद्रोही नेता जॉन गारंग दक्षिणी सूडान की सरकार के राष्ट्रपति और सूडान के उप राष्ट्रपति के रूप में नियुक्त हुये। जुलाई 2005 को गारंग की युगांडा में एक हेलिकॉप्टर दुर्घटना में मृत्यु हो गई, उसके पश्चात उक्त दोनों पद पर सेलवा कीर मार्दिट आसीन हुये और दक्षिणी सूडान के उपराष्ट्रपति के रूप में रीक मार्चर को नियुक्त किया गया। 9 जुलाई 2011 को नए देश के रूप में अस्तित्व में आने के बाद से ही यह देश लगातार राजनीतिक अस्थिरता के दौर से गुजर रहा है। दशकों के गृहयुद्ध के बाद उत्तरी सूडान से पृथक होकर 2011 में दक्षिणी सूडान स्वतंत्र राष्ट्र बना। मगर अब आलोचक राष्ट्रपति कीर पर तानाशाह होने का आरोप लगाते हैं, जो भ्रष्टाचार, कुप्रबंधन एवं स्वतंत्रता की कमी वाली सरकार का संचालन करते हैं। दूसरी तरफ मेचार विरोधी उन्हें अवसरवादी बताते हैं, जिन्होंने सूडान के खिलाफ गृहयुद्ध के दौरान अपने और नुएर समुदाय के फायदे के लिए पाला बदल लिया था। 20 अगस्त 2011 को राष्ट्रपति सेल्वा कीर मायार्डित ने एक कैबिनेट का गठन करने के लिए दक्षिण सूडान के 29 सरकारी मंत्रालयों क्रमश: कैबिनेट मामलों के मंत्रालय, रक्षा और वयोवृद्ध मामलों के मंत्रालय, विदेश मामलों और अंतर्राष्ट्रीय सहयोग के मंत्रालय, मंत्री-राष्ट्रपति के कार्यालय, राष्ट्रीय सुरक्षा-राष्ट्रपति के कार्यालय के लिए मंत्री, न्याय मंत्रालय, आंतरिक मंत्रालय, मंत्रालय संसदीय कार्य वित्त मंत्रालय और आर्थिक योजना, श्रम-लोक सेवा और मानव संसाधन विकास मंत्रालय, वाणिज्य-उद्योग और निवेश के मंत्रालय, सूचना और प्रसारण मंत्रालय, स्वास्थ्य मंत्रालय, कृषि और वानिकी के मंत्रालय, सड़कों और पुलों के मंत्रालय, परिवहन मंत्रालय, सामान्य शिक्षा मंत्रालय और निर्देश, उच्च शिक्षा मंत्रालय, विज्ञान और प्रौद्योगिकी पर्यावरण मंत्रालय, आवास और शारीरिक योजना मंत्रालय, दूरसंचार और डाक सेवाओं के मंत्रालय, पेट्रोलियम और खनन मंत्रालय, बिजली और बांधों के मंत्रालय, लिंग मंत्रालय, बाल एवं समाज कल्याण, मंत्रालय मानवीय मामलों और आपदा प्रबंधन की जल संसाधन मंत्रालय और सिंचाई, वन्य जीव संरक्षण और पर्यटन मंत्रालय, पशु संसाधन और मत्स्य पालन मंत्रालय, संस्कृति, युवा और खेल मंत्रालय की स्थापना के एक फरमान जारी किया और नयी सरकार के गठन की प्रतावाना रखी।[16] पूर्व उपराष्ट्रपति मेचार, जिन्हें कीर ने पूरे मंत्रिमंडल को भंग करने के साथ जुलाई 2013 में पद से हटा दिया था, नुएर समुदाय से हैं। जबकि राष्ट्रपति बहुसंख्यक डिंका समुदाय से ताल्लुक रखते हैं। राजधानी जुबा में दक्षिण सूडानी सुरक्षा बल नुएर समुदाय के लोगों को निशाना बना रहे हैं। उन्होंने कइयों को मार दिया गया है और बहुतों को हिरासत में ले लिया गया है। उनमें सैनिक, नीति-निर्माता, छात्र, मानवाधिकार कार्यकर्ता और शरणार्थी शामिल बताए जाते हैं। लेकिन राजधानी से बाहर जोंगलेई प्रांत में इसके उल्ट हो रहा है। नुएर समुदाय की सैन्य टुकड़ियां डिंका समुदाय के लोगों को निशाना बना रही हैं। ब्रिटेन से डॉक्टरेट की उपाधि लेने वाले मेचार सूडानी पीपुल लिब्रेशन आर्मी (जिस पार्टी का नेतृत्व अभी कीर कर रहे हैं, उसकी सैन्य टुकड़ी) के वरिष्ठ सदस्य थे। 1991 में वह उस आंदोलन से अलग हो गए और अपना अलग समूह बनाया, जिसने 1997 में सूडानी सरकार से शांति समझौता किया था। इस दौरान मेचार के समूह ने दक्षिण सूडानी विद्रोहियों के खिलाफ लड़ाई लड़ी, लेकिन बाद में वह फिर दक्षिणी विद्रोही बलों के साथ शामिल हो गए। जब दक्षिण सूडान 2011 में अलग हुआ, तो मेचार को उप राष्ट्रपति बनाया गया।[17] परिवहन रेलवे दक्षिण सूडान में 248km (154mi) लंबा एकल रेलवे ट्रैक सूडान की सीमा से वाऊ टर्मीनस तक है। इसे वाऊ से राजधानी जुबा तक बढ़ाने का प्रस्ताव है। इसके अलावा जुबा को केन्या और यूगांडा के रेल तंत्र से भी जोड़ने का प्रस्ताव है। हवाई दक्षिण सूडान का सबसे विकसित और व्यस्ततम हवाई अड्डा जुबा हवाई अड्डा है, जहां से अस्मारा, एंटीबी, नैरोबी, काहिरा, आदिस अबाबा और खार्तूम की उड़ाने उपलब्ध है। जुबा हवाई अड्डा फीडर एयरलाइंस और साउदर्न स्टार एयरलाइंस का गृह आधार भी है।[18] कुछ अन्य हवाई अड्डे मक्कल, वाऊ, रुम्बेक है, जहां से खार्तूम, आदिस अबाबा तथा कुछ अन्य शहरों के लिए उड़ाने उपलब्ध है। संकट दुनिया का यह सबसे नया देश अपनी आज़ादी के बाद से ही लगातार नस्लीय संकटों और राजनीतिक अस्थिरता के दौर से गुजरता रहा है, किन्तु जब यह अपनी आर्थिक नीतियों को एक ठोस शक्ल देने और देश चलाने के लिए जरूरी संकल्पों को गढ़ने की दिशा में जुटा हुआ था कि अचानक वर्तमान शासन के तख्ता-पलट की कोशिशों की खबर सामने आने के बाद यह देश हिंसा की चपेट में आ गया। सत्ता संघर्ष के इस गृहयुद्ध की स्थिति ने एक वैश्विक संकट का रूप लेती जा रही है। संयुक्त राष्ट्र महासचिव के दफ्तर से जारी बयान में कहा गया है कि महासचिव दक्षिण सूडान में एक खास समुदाय को निशाना बनाए जाने को लेकर बेहद ‘चिंतित’ हैं।[19] 2011 में सूडान से अलग होने के लिए दक्षिण सूडान के लोगों ने बड़े पैमाने पर मतदान किया। सरकार की मुख्य चिंता तेल उत्पादन को लेकर थी, इसी साल अप्रैल में सूडान की राजधानी खार्तूम से हुए समझौते के बाद तेल उत्पादन शुरू हुआ। हालांकि दक्षिण सूडान में छोटे सशस्त्र विद्रोही लड़ाकों का गुट मौजूद था, जिनके बीच संघर्ष होते रहते थे। लेकिन अब तक ये सब राजधानी जुबा से दूर दराज होता रहता था। फिर जुलाई-2013 में सत्तारूढ़ एसपीएलएम पार्टी में आंतरिक संघर्ष उभरा जब बहुसंख्यक डिंका समुदाय से प्रतिनिधि राष्ट्रपति सल्वा कीर ने अपने डिप्टी रायक माचर को बर्खास्त कर दिया था, जो दूसरे बड़े समुदाय नुएर के प्रतिनिधि हैं। यहां वर्ष-2013 में यह लड़ाई तब शुरू हुई थी जब राष्ट्रपति सल्वा कीर ने रिएक मचार पर तख़्ता पलट की साज़िश रचने का आरोप लगाया था। मचार तब उप-राष्ट्रपति थे और उन्हें बर्ख़ास्त कर दिया गया था। उन्होंने आरोपों से इनकार किया लेकिन बाद में ख़ुद विद्रोही गुट बना लिया था। उललखनीय है, कि दक्षिण सूडान दुनिया के सबसे ग़रीब देशों में से एक है। देश में दिसंबर 2013 में इस टकराव की शुरुआत हुई थी। उसके बाद से अब तक दस लाख से अधिक लोग अपने घर छोड़कर भाग गए हैं। देश में गृह-युद्ध की स्थिति है जहां बड़े पैमाने पर मानवाधिकारों का हनन हुआ है।[4] मानवीय स्थिति दक्षिण सूडान में कुछ स्वास्थ्य संकेतकों की स्थिति दुनिया में सबसे खराब हैं।[20][21] पांच साल की आयु के नीचे शिशु मृत्यु दर प्रति 1,000 में 135.3 है, जबकी मातृ मृत्यु दर प्रति 100,000 जीवित जन्मों में 2,053.9 है, जो कि विश्व में सबसे अधिक है।[21] 2004 के आंकड़ों के अनुसार दक्षिणी सूडान में तीन उचित अस्पतालों के साथ केवल तीन सर्जन सेवारत थे और कुछ क्षेत्रों में हर 500,000 लोगों के लिए सिर्फ एक डॉक्टर उपलब्ध था।[20] दक्षिण सूडान में एचआईवी/एड्स की महामारी पर जानकारी ठीक तरह से अभिलेखित नहीं है, लेकिन माना जाता है कि लगभग 3.1% लोग इससे संक्रमित हैं।[22] 2005 के व्यापक शांति समझौते के समय दक्षिणी सूडान में मानवीय जरूरतों की भारी आवश्यकता थी। मानवीय मामलों के समन्वय के लिए संयुक्त राष्ट्र कार्यालय (OCHA) के नेतृत्व में मानवीय संगठन स्थानीय आबादी के लिए राहत हेतु पर्याप्त धन सुनिश्चित करने में कामयाब रहे। पुनर्प्राप्ति एवं विकास में सहायता के साथ साथ संयुक्त राष्ट्र और सहभागी संघठनों की 2007 कार्य योजना में मानवीय परियोजनाओं को भी शामिल किया गया। संपूर्ण सूडान का प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद $1200 ($ 3.29/प्रतिदिन) होने के बावजूद, दक्षिण सूडान की जनसंख्या का 90% से अधिक हिस्सा प्रतिदिन $1 से कम में अपना गुज़ारा करता है।[23] 2007 में मानवीय स्थिति में धीरे-धीरे सुधार आने के कारण दक्षिणी सूडान में संयुक्त राष्ट्र कार्यालय की भागीदारी में कमी आई और पुनर्प्राप्ति और विकास कार्य का ज़िम्मा गैर सरकारी संगठनों एवं समुदाय आधारित संगठनों पर बढ़ता गया।[24] खबरों के अनुसार 2011 के मध्य में आए अकाल के कारण उत्तरी बहर अल ग़ज़ल और वर्राप राज्यों में लोगों की मृत्यु हुई, हालांकि दोनों राज्यों की सरकारों ने भुखमरी को जानलेवा मानाने से इनकार कर दिया।[25] दिसंबर 2011 और जनवरी 2012 में जोंगलेई राज्य में स्थित पीबोर काउंटी में पशु चोरी की घटनाओं के कारण शुरू हुए सीमा संघर्ष ने आगे जाकर व्यापक जातीय हिंसा का रूप ले लिया। इस हिंसा में हज़ारों की संख्या में लोग मारे गए एवं 20[26] से 50 हजार[27] दक्षिण सूडानी विस्थापित हुए। सरकार ने क्षेत्र को आपदा ग्रस्त क्षेत्र घोषित कर दिया और स्थानीय अधिकारियों से नियंत्रण वापस ले लिया।[28] जल संकट दक्षिणी सूडान को पानी की आपूर्ति के लिए कई चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। अनुमान लगाया जाता है कि दक्षिण सूडान की जनसंख्या के 50% से 60% हिस्से को चांपाकल, संरक्षित कुँवे, एवं – एक छोटे वर्ग को – पाइपलाइन सप्लाई के रूप में बेहतर पानी का स्रोत उपलब्ध है। देश में श्वेत नील के बहने के बावजूद सूखे मौसम में ऐसे क्षेत्रों में पानी दुर्लभ है, जो कि नदी पर स्थित न हों। लगभग आधी आबादी को 1 किमी के भीतर किसी संरक्षित कुँवे, पाइपलाइन या चांपाकल के रूप में बेहतर पानी के स्रोत उपलब्ध नहीं है। कुछ मौजूदा पाइपलाइन आधारित पानी आपूर्ति प्रणालियों का अक्सर अच्छी तरह से रखरखाव नहीं किया जाता है और उनके द्वारा सप्लाई किया गया पानी पीने के लिए अक्सर सुरक्षित नहीं होता। घर लौट रही विस्थापित आबादी बुनियादी सुविधाओं पर भारी दबाव डाल रही है और इस विभाग के प्रभारी सरकारी संस्थान भी कमजोर हैं। कई सरकारी एवं गैर सरकारी संगठनों की ओर पानी की आपूर्ति में सुधार के लिए पर्याप्त बाहरी दान राशि उपलब्ध है। वाटर इस बेसिक, ओबक्की फाउंडेशन[29] एवं उत्तरी अमेरिका से ब्रिजटन-लेक रीजन रोटरी क्लब[30] जैसे कई गैर सरकारी संगठन दक्षिणी सूडान में पानी की आपूर्ति सुधारने में सहारा देते हैं। शरणार्थी फ़रवरी 2014 के रूप में, दक्षिण सूडान 230,000 से अधिक शरणार्थियों का घर है, जिसमें से ज़्यादातर लोग – 209,000 से अधिक, यहाँ हाल ही में सूडान से पहुंचे हैं। अन्य शरणार्थी मध्य अफ्रीकी गणराज्य, इथियोपिया और कांगो लोकतांत्रिक गणराज्य जैसे आसपास के अफ्रीकी देशों से आए हैं।[31] दिसम्बर 2013 से, दक्षिण सूडान में करीब 740,000 आंतरिक रूप से विस्थापित लोग (आईडीपी) हैं जिनमें से लगभग 75,000 संयुक्त राष्ट्र के अड्डों में रहते हैं। आंतरिक रूप से विस्थापित लोगों की जनसंख्या में वृद्धि के बावजूद, शरणार्थियों के लिए संयुक्त राष्ट्र उच्चायुक्त (यूएनएचसीआर) ने संरक्षण की मांग कर रहे ऐसे लोगों की संख्या में गिरावट दर्ज की है। नतीजतन, यूएनएचसीआर मानवीय समन्वयक के नेतृत्व में अंतर-एजेंसी सहयोग के माध्यम से आगे बढ़ रही है और प्रवासन के लिए अंतर्राष्ट्रीय संगठन (आईओएम) के साथ काम कर रही है। फरवरी 2013 के शुरुआत में, यूएनएचसीआर ने मालाकल में स्थित संयुक्त राष्ट्र अड्डे के बाहर राहत सामग्री वितरण करना शुरू किया। यह 10,000 लोगों तक पहुंचने की उम्मीद है।[31] इन्हें भी देखे दक्षिण सूडान गृहयुद्ध सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ श्रेणी:दक्षिण सूडान श्रेणी:अफ़्रीका के देश श्रेणी:स्थलरुद्ध देश
दक्षिण सूडान की आधिकारिक भाषा क्या है?
अँग्रेजी
6,993
hindi
16970cd0d
फ़ीफा विश्व कप (प्रायः मात्र विश्व कप), फेडरेशन इंटरनेशनेल डी फुटबॉल एसोसिएशन (फीफा), खेल की वैश्विक शासी निकाय के सदस्यों के वरिष्ठ पुरुषों की राष्ट्रीय टीमों द्वारा खेली जाने वाली एक अंतरराष्ट्रीय संघ फुटबॉल प्रतियोगिता है। 1930 में उद्घाटन टूर्नामेंट के बाद हर चार साल से आयोजित किया जाता है, सिवाय 1942 और 1946 में, जब द्वितीय विश्व युद्ध के कारण से आयोजन नहीं किया जा सका था। मौजूदा चैंपियन ब्राज़ील में 2014 टूर्नामेंट जीतने वाले जर्मनी है।[2] टूर्नामेंट के मौजूदा स्वरूप के बारे में एक महीने की अवधि में मेजबान देश के भीतर स्थानों पर खिताब के लिए प्रतिस्पर्धा में 32 टीमों को शामिल है, इस चरण में अक्सर विश्व कप के फाइनल में कहा जाता है। वर्तमान में पिछले तीन साल से अधिक जगह लेता है, जो एक योग्यता चरण, टीमें मेजबान देश के साथ टूर्नामेंट के लिए क्वालीफाई जो निर्धारित करने के लिए प्रयोग किया जाता है। 19 विश्व कप टूर्नामेंट के आठ विभिन्न राष्ट्रीय टीमों द्वारा जीता गया है। ब्राजील पांच बार जीता है और वे हर टूर्नामेंट में खेला है के लिए एक ही टीम हैं। चार खिताब प्रत्येक के साथ, इटली तथा जर्मनी, दो खिताब प्रत्येक के साथ अर्जेंटीना और ​उरुगुए और इंग्लैंड, फ्रांस 2बार और स्पेन, एक खिताब के साथ प्रत्येक। विश्व कप में दुनिया के सबसे व्यापक रूप से देखी जाने वाली खेल की घटनाओं में से एक है, एक अनुमान के अनुसार 71,51,00,000 लोगों को जर्मनी में आयोजित २००६ फीफा विश्व कप का फाइनल मैच देखा।[3] विजेताओं की सूची aet: अतिरिक्त समय के बाद p: पेनाल्टी शूटआउट के बाद नोट्स टीम प्रदर्शन उपस्थिति हरा पृष्ठभूमि छायांकन उपस्थिति रिकॉर्ड संकेत करता है। स्रोत:[7] पुरस्कार प्रत्येक विश्व कप के अंत में पुरस्कार टूर्नामेंट में अपने अंतिम टीम पदों के अलावा अन्य उपलब्धियों के लिए खिलाड़ियों और टीमों के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं। सम्मानित छह पुरस्कार वर्तमान में रहे हैं:[8] सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी के लिए गोल्डन बॉल, मीडिया के सदस्यों के एक वोट से निर्धारित, सिल्वर बॉल और कांस्य बॉल क्रमशः मतदान में दूसरे और तीसरे परिष्करण खिलाड़ियों को सम्मानित किया जाता है।[9] गोल्डन बूट, टूर्नामेंट में शीर्ष गोल करने वाले खिलाड़ी के लिए, सिल्वर बूट और कांस्य बूट क्रमशः दूसरे और तीसरे परिष्करण खिलाड़ियों को सम्मानित किया जाता है।[10] सर्वश्रेष्ठ गोलकीपर के लिए गोल्डन दस्ताना पुरस्कार, फीफा टेक्निकल स्टडी ग्रुप ने फैसला किया है।[11] फीफा फेयर प्ले समिति द्वारा स्थापित अंक प्रणाली और मापदंड के अनुसार फेयर प्ले का सबसे अच्छा रिकार्ड के साथ टीम के लिए फीफा फेयर प्ले ट्राफी।[12] टूर्नामेंट के शुरू में 21 या छोटी आयु वर्ग के सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी के लिए सर्वश्रेष्ठ युवा खिलाड़ी का पुरस्कार, फीफा टेक्निकल स्टडी ग्रुप द्वारा निर्णय लिया।[12] सन्दर्भ श्रेणी:फुटबॉल श्रेणी:अंतर्राष्ट्रीय खेल प्रतिस्पर्धा श्रेणी:फीफा विश्व कप
२००६ का फीफा विश्व कप किस देश में आयोजित किया गया था?
जर्मनी
436
hindi
dd3b3e47d
रोमन साम्राज्य (27 ई.पू. –- 476 (पश्चिम); 1453 (पूर्व)) यूरोप के रोम नगर में केन्द्रित एक साम्राज्य था। इस साम्राज्य का विस्तार पूरे दक्षिणी यूरोप के अलावे उत्तरी अफ्रीका और अनातोलिया के क्षेत्र थे। फारसी साम्राज्य इसका प्रतिद्वंदी था जो फ़ुरात नदी के पूर्व में स्थित था। रोमन साम्राज्य में अलग-अलग स्थानों पर लातिनी और यूनानी भाषाएँ बोली जाती थी और सन् १३० में इसने ईसाई धर्म को राजधर्म घोषित कर दिया था। यह विश्व के सबसे विशाल साम्राज्यों में से एक था। यूँ तो पाँचवी सदी के अन्त तक इस साम्राज्य का पतन हो गया था और इस्तांबुल (कॉन्स्टेन्टिनोपल) इसके पूर्वी शाखा की राजधानी बन गई थी पर सन् १४५३ में उस्मानों (ऑटोमन तुर्क) ने इसपर भी अधिकार कर लिया था। यह यूरोप के इतिहास और संस्कृति का एक महत्वपूर्ण अंग है। साम्राज्य निर्माण रोमन साम्राज्य रोमन गणतंत्र का परवर्ती था। ऑक्टेवियन ने जूलियस सीज़र के सभी संतानों को मार दिया तथा इसके अलावा उसने मार्क एन्टोनी को भी हराया जिसके बाद मार्क ने खुदकुशी कर ली। इसके बाद ऑक्टेवियन को रोमन सीनेट ने ऑगस्टस का नाम दिया। वह ऑगस्टस सीज़र के नाम से सत्तारूढ़ हुआ। इसके बाद सीज़र नाम एक पारिवारिक उपनाम से बढ़कर एक पदवी स्वरूप नाम बन गया। इससे निकले शब्द ज़ार (रूस में) और कैज़र (जर्मन और तुर्क) आज भी विद्यमान हैं। गृहयुद्धों के कारण रामन प्रातों (लीजन) की संख्या 50 से घटकर 28 तक आ गई थी। जिस प्रांत की वफ़ादारी पर शक था उन्हें साम्राज्य से सीधे निकाल दिया गया। डैन्यूब और एल्बे नदी पर अपनी सीमा को तय करने के लिए ऑक्टेवियन (ऑगस्टस) ने इल्लीरिया, मोएसिया, पैन्नोनिया और जर्मेनिया पर चढ़ाई के आदेश दिए। उसके प्रयासों से राइन और डैन्यूब नदियाँ उत्तर में उसके साम्राज्यों की सीमा बन गईं। ऑगस्टस के बाद टाइबेरियस सत्तारूढ़ हुआ। वह जूलियस की तीसरी पत्नी की पहली शादी से हुआ पुत्र था। उसका शासन शांतिपूर्ण रहा। इसके बाद कैलिगुला आया जिसकी सन् 41 में हत्या कर दी गई। परिवार का एक मात्र वारिस क्लाउडियस शासक बना। सन् 43 में उसने ब्रिटेन (दक्षिणार्ध) को रोमन उपनिवेश बना दिया। इसके बाद नीरो का शासन आया जिसने सन 58-63 के बीच पार्थियनों (फारसी साम्राज्य) के साथ सफलता पूर्वक शांति समझौता कर लिया। वह रोम में लगी एक आग के कारण प्रसिद्ध है। कहा जाता है कि सन् 64 में जब रोम आग में जल रहा था तो वह वंशी बजाने में व्यस्त था। सन् 68 में उसे आत्महत्या के लिए मजबूर होना पड़ा। सन् 68-69 तक रोम में अराजकता छाई रही और गृहयुद्ध हुए। सन् 69-96 तक फ्लाव वंश का शासन आया। पहले शासक वेस्पेसियन ने स्पेन में कई सुधार कार्यक्रम चलाए। उसने कोलोसियम (एम्फीथियेटरम् फ्लावियन) के निर्माण की आधारशिला भी रखी। सन् 96-180 के काल को पाँच अच्छे सम्राटों का काल कहा जाता है। इस समय के राजाओं ने साम्राज्य में शांतिपूर्ण ढंग से शासन किया। पूर्व में पार्थियन साम्राज्य से भी शांतिपूर्ण सम्बन्ध रहे। हँलांकि फारसियों से अर्मेनिया तथा मेसोपोटामिया में उनके युद्ध हुए पर उनकी विजय और शांति समझौतों से साम्राज्य का विस्तार बना रहा। सन् 180 में कॉमोडोस जो मार्कस ऑरेलियस सा बेटा था शासक बना। उसका शासन पहले तो शांतिपूर्ण रहा पर बाद में उसके खिलाफ़ विद्रोह और हत्या के प्रयत्न हुए। इससे वह भयभीत और इसके कारम अत्याचारी बनता गया। सेरेवन वंश के समय रोम के सभी प्रातवासियों को रोमन नागरिकता दे दी गई। सन् 235 तक यह वंश समाप्त हो गया। इसके बाद रोम के इतिहास में संकट का काल आया। पूरब में फारसी साम्राज्य शक्तिशाली होता जा रहा था। साम्राज्य के अन्दर भी गृहयुद्ध की सी स्थिति आ गई थी। सन् 305 में कॉन्स्टेंटाइन का शासन आया। इसी वंश के शासनकाल में रोमन साम्राज्य विभाजित हो गया। सन् 360 में इस साम्राज्य के पतन के बाद साम्राज्य धीरे धीरे कमजोर होता गया। पाँचवीं सदी तक साम्राज्य का पतन होने लगा और पूर्वी रोमन साम्राज्य पूर्व में सन् 1453 तक बना रहा। शासक सूची ऑगस्टस सीजर (27 ईसापूर्व - 14 इस्वी) टाइबेरियस (14-37) केलिगुला (37-41) क्लॉडिअस (41-54) नीरो (54-68) फ़्लावी वंश (69-96) नेर्वा (96-98) ट्राजन (98-117) हेद्रिअन (117-138) एन्टोनियो पिएस मार्कस ऑरेलियस (161-180) कॉमोडोस (180-192) सेवेरन वंश (193-235) कॉन्सेन्टाइन वंश (305-363) वेलेंटाइनियन वंश (364-392) थियोडोसियन वंश (379-457) पश्चिमी रोमन साम्राज्य का पतन - (395-476) पूर्वी रोमन साम्राज्य (393-1453) इन्हें भी देखें पवित्र रोमन साम्राज्य रोमन गणराज्य श्रेणी:यूरोप का इतिहास श्रेणी:साम्राज्य श्रेणी:रोमन साम्राज्य श्रेणी:प्राचीन सभ्यताएँ *
रोमन साम्राज्य को किस साल में स्थापित किया गया था?
27 ई.पू.
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शाहरुख़ ख़ान (उच्चारण [‘ʃaːɦrəx ˈxaːn]; जन्म 2 नवम्बर 1965), जिन्हें अक्सर शाहरुख ख़ान के रूप में श्रेय दिया जाता है और अनौपचारिक रूप में एसआरके नाम से सन्दर्भित किया जाता, एक भारतीय फ़िल्म अभिनेता है। अक्सर मीडिया में इन्हें "बॉलीवुड का बादशाह", "किंग ख़ान", "रोमांस किंग" और किंग ऑफ़ बॉलीवुड नामों से पुकारा जाता है। ख़ान ने रोमैंटिक नाटकों से लेकर ऐक्शन थ्रिलर जैसी शैलियों में 75 हिन्दी फ़िल्मों में अभिनय किया है।[1][2][3][4] फिल्म उद्योग में उनके योगदान के लिये उन्होंने तीस नामांकनों में से चौदह फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार जीते हैं। वे और दिलीप कुमार ही ऐसे दो अभिनेता हैं जिन्होंने साथ फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ अभिनेता पुरस्कार आठ बार जीता है। 2005 में भारत सरकार ने उन्हें भारतीय सिनेमा के प्रति उनके योगदान के लिए पद्म श्री से सम्मानित किया। अर्थशास्त्र में उपाधि ग्रहण करने के बाद इन्होंने अपने करियर की शुरुआत १९८० में रंगमंचों व कई टेलिविज़न धारावाहिकों से की और १९९२ में व्यापारिक दृष्टि से सफल फ़िल्म दीवाना से फ़िल्म क्षेत्र में कदम रखा। इस फ़िल्म के लिए उन्हें फ़िल्मफ़ेयर प्रथम अभिनय पुरस्कार प्रदान किया गया। इसके पश्चात् उन्होंने कई फ़िल्मों में नकारात्मक भूमिकाएं अदा की जिनमें डर (१९९३), बाज़ीगर (१९९३) और अंजाम (१९९४) शामिल है। वे कई प्रकार की भूमिकाओं में दिखें व भिन्न-भिन्न प्रकार की फ़िल्मों में कार्य किया जिनमे रोमांस फ़िल्में, हास्य फ़िल्में, खेल फ़िल्में व ऐतिहासिक ड्रामा शामिल है। उनके द्वारा अभिनीत ग्यारह फ़िल्मों ने विश्वभर में ₹ १०० करोड़ का व्यवसाय किया है। ख़ान की कुछ फ़िल्में जैसे दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे (१९९५), कुछ कुछ होता है (१९९८), देवदास (२००२), चक दे! इंडिया (२००७), ओम शांति ओम (२००७), रब ने बना दी जोड़ी (२००८) और रा.वन (२०११) अब तक की सबसे बड़ी हिट फ़िल्मों में रही है और कभी खुशी कभी ग़म (२००१), कल हो ना हो (२००३), वीर ज़ारा (२००६)। वेल्थ रिसर्च फर्म वैल्थ एक्स के मुताबिक किंग ख़ान पहले सबसे अमीर भारतीय अभिनेता बन गए हैं। फर्म ने अभिनेता की कुल संपत्ति 3660 करोड़ रूपए आंकी थी लेकिन अब 4000 करोड़ बताई जाती है। [5] जीवनी प्रारंभिक जीवन एवं शिक्षा ख़ान के माता पिता पठान मूल के थे|[6][7][8] उनके पिता ताज मोहम्मद ख़ान एक स्वतंत्रता सेनानी थे और उनकी माँ लतीफ़ा फ़ातिमा मेजर जनरल शाहनवाज़ ख़ान की पुत्री थी|[9] ख़ान के पिता हिंदुस्तान के विभाजन से पहले पेशावर के किस्सा कहानी बाज़ार से दिल्ली आए थे,[10] हालांकि उनकी माँ रावलपिंडी से आयीं थी|[11] ख़ान की एक बहन भी हैं जिनका नाम है शहनाज़ और जिन्हें प्यार से लालारुख बुलाते हैं|[12][13] ख़ान ने अपनी स्कूली पढ़ाई दिल्ली के सेंट कोलम्बा स्कूल से की जहाँ वह क्रीड़ा क्षेत्र, शैक्षिक जीवन और नाट्य कला में निपुण थे| स्कूल की तरफ़ से उन्हें "स्वोर्ड ऑफ़ ऑनर" से नवाज़ा गया जो प्रत्येक वर्ष सबसे काबिल और होनहार विद्यार्थी एवं खिलाड़ी को दिया जाता था| इसके उपरांत उन्होंने हंसराज कॉलेज से अर्थशास्त्र की डिग्री एवं जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय से मास कम्युनिकेशन की मास्टर्स डिग्री हासिल की|[14] अपने माता पिता के देहांत के उपरांत ख़ान १९९१ में दिल्ली से मुम्बई आ गए| १९९१ में उनका विवाह गौरी ख़ान के साथ हिंदू रीति रिवाज़ों से हुआ|[15] उनकी तीन संतान हैं - एक पुत्र आर्यन (जन्म १९९७) और एक पुत्री सुहाना (जन्म २०००)|व पुत्र अब्राहम। अभिनय "मैं एक हिंदू से विवाहित हूं, मेरे बच्चों को दोनों धर्मों के साथ लाया जा रहा है, जब मैं ऐसा महसूस करता हूं तो मैं नमाज पढ़ता हूं। लेकिन अगर मेरा धर्म चार विवाहों की अनुमति देता है, तो भी मैं इसमे विश्वास नहीं करना चाहूंगा। कई अन्य चीजें भी प्रासंगिकता खो चुकी हैं , लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि मैं कुरान से पूछताछ कर रहा हूं। मैं नमाज [प्रार्थना] को पांच बार पढ़ने के संदर्भ में धार्मिक नहीं हूं लेकिन मैं इस्लामी हूं। मैं इस्लाम के सिद्धांतों पर विश्वास करता हूं और मेरा मानना है कि यह एक अच्छा धर्म है और एक अच्छा अनुशासन। मैं लोगों को यह जानना चाहता हूं कि इस्लाम न केवल एक कट्टरपंथी, या मूल रूप से अलग, नाराज व्यक्ति है, या जो केवल जिहाद करता है। मैं लोगों को यह जानना चाहता हूं कि जिहाद का वास्तविक अर्थ है अपनी खुद की हिंसा और कमजोरी को दूर करने के लिए। यदि आवश्यकता हो, तो इसे हिंसक तरीके से दूर करें। "[16][17][18] —शाहरुख ख़ान, अपनी धार्मिक मान्यताओं पर ख़ान ने अभिनय की शिक्षा प्रसिद्ध रंगमंच निर्देशक बैरी जॉन से दिल्ली के थियेटर एक्शन ग्रुप में ली| वर्ष २००७ में जॉन ने अपने पुराने शिष्य के बारे में कहा, " The credit for the phenomenally successful development and management of Shah Rukh's career goes to the superstar himself."(अनुवाद - शाह रूख़ के कैरियर की असाधारण सफलता का सारा श्रेय उस ही को जाता है|)[19] ख़ान ने अपना कैरियर १९८८ में दूरदर्शन के धारावाहिक "फ़ौजी" से प्रारम्भ किया जिसमे उन्होंने कमान्डो अभिमन्यु राय का किरदार अदा किया|[20] उसके उपरांत उन्होंने और कई धारावाहिकों में अभिनय किया जिनमे प्रमुख था १९८९ का "सर्कस"[21], जिसमे सर्कस में काम करने वाले व्यक्तियों के जीवन का वर्णन किया गया था और जो अज़ीज़ मिर्ज़ा द्वारा निर्देशित था| उस ही वर्ष उन्होंने अरुंधति राय द्वारा लिखित अंग्रेज़ी फ़िल्म "इन विच एनी गिव्स इट दोज़ वंस" में एक छोटा किरदार निभाया| यह फ़िल्म दिल्ली विश्वविद्यालय में विद्यार्थी जीवन पर आधारित थी| अपने माता पिता की मृत्यु के उपरांत १९९१ में ख़ान नई दिल्ली से मुम्बई आ गये| बॉलीवुड में उनका प्रथम अभिनय "दीवाना" फ़िल्म में हुआ जो बॉक्स ऑफिस पर सफल घोषित हुई|[22] इस फ़िल्म के लिए उन्हें फ़िल्मफ़ेयर की तरफ़ से सर्वश्रेष्ठ प्रथम अभिनय का अवार्ड मिला| उनकी अगली फ़िल्म थी "दिल आशना है" जो नही चली। १९९३ की हिट फ़िल्म "बाज़ीगर" में एक हत्यारे का किरदार निभाने के लिए उन्हें अपना पहला फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ अभिनेता पुरस्कार मिला। उस ही वर्ष में फ़िल्म "डर" में इश्क़ के जूनून में पागल आशिक़ का किरदार अदा करने के लिए उन्हें सराहा गया। इस वर्ष में फ़िल्म "कभी हाँ कभी ना" के लिए उन्हें फ़िल्मफ़ेयर समीक्षक सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया| १९९४ में ख़ान ने फ़िल्म "अंजाम" में एक बार फिर जुनूनी एवं मनोरोगी आशिक़ की भूमिका निभाई और इसके लिए उन्हें फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ खलनायक का पुरस्कार भी प्राप्त हुआ। १९९५ में उन्होंने आदित्य चोपड़ा की पहली फ़िल्म "दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे" में मुख्य भूमिका निभाई। यह फ़िल्म बॉलीवुड के इतिहास की सबसे सफल और बड़ी फिल्मों में से एक मानी जाती है। मुम्बई के कुछ सिनेमा घरों में यह १२ सालों से चल रही है।[23][24] इस फ़िल्म के लिए उन्हें एक बार फिर फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ अभिनेता पुरस्कार हासिल हुआ। १९९६ उनके लिए एक निराशाजनक साल रहा क्यूंकि उसमे उनकी सारी फिल्में असफल रहीं।[25] १९९७ में उन्होंने यश चोपड़ा की दिल तो पागल है, सुभाष घई की परदेस और अज़ीज़ मिर्ज़ा की येस बॉस जैसी फिल्मों के साथ सफलता के क्षेत्र में फिर कदम रखा।[26] वर्ष १९९८ में करण जोहर की बतौर निर्देशक पहली फ़िल्म कुछ कुछ होता है उस साल की सबसे बड़ी हिट घोषित हुई और ख़ान को चौथी बार फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ अभिनेता पुरस्कार हासिल हुआ। इसी साल उन्हें मणि रत्नम की फ़िल्म दिल से में अपने अभिनय के लिए फ़िल्म समीक्षकों से काफ़ी तारीफ़ मिली और यह फ़िल्म भारत के बाहर काफ़ी सफल रही।[27] अगला वर्ष उनके लिए कुछ ख़ास लाभकारी नही रहा क्यूंकि उनकी एक मात्र फ़िल्म, बादशाह, का प्रदर्शन स्मरणीय नही रहा और वह औसत व्यापार ही कर पायी|[28] सन २००० में आदित्य चोपड़ा की मोहब्बतें में उनके किरदार को समीक्षकों से बहुत प्रशंसा मिली और इस फ़िल्म के लिए उन्हें अपना दूसरा फ़िल्मफ़ेयर समीक्षक सर्वश्रेष्ठ अभिनेता पुरस्कार मिला| उस ही साल आई उनकी फ़िल्म जोश भी हिट हुई। उस ही वर्ष में ख़ान ने जूही चावला और अज़ीज़ मिर्ज़ा के साथ मिल कर अपनी ख़ुद की फ़िल्म निर्माण कम्पनी, 'ड्रीम्ज़ अन्लिमिटिड', की स्थापना की। इस कम्पनी की पहली फ़िल्म फिर भी दिल है हिन्दुस्तानी, जिसमे ख़ान और चावला दोनों ने अभिनय किया, बॉक्स ऑफिस पे जादू बिखेरने में असमर्थ रही। कमल हसन की विवादग्रस्त फ़िल्म हे राम में भी ख़ान ने एक सहयोगी भूमिका निभाई जिसके लिए उन्हें समीक्षकों ने सराहा हालांकि यह फ़िल्म भी असफल श्रेणी में रही।[25] सन २००१ में ख़ान ने करण जोहर के साथ अपनी दूसरी फ़िल्म कभी खुशी कभी ग़म की, जो एक पारिवारिक कहानी थी और जिसमें अन्य भी कई सितारे थे। यह फ़िल्म उस वर्ष की सबसे बड़ी हिट फिल्मों की सूची में शामिल थी। उन्हें अपनी फ़िल्म अशोका, जो की ऐतिहासिक सम्राट अशोक के जीवन पर आधारित थी, के लिए भी प्रशंसा मिली लेकिन यह फ़िल्म भी नाकामयाब रही। सन् २००२ में ख़ान ने संजय लीला भंसाली की दुखांत प्रेम कथा देवदास में मुख्य भूमिका अदा की जिसके लिए उन्हें एक बार फिर फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ अभिनेता पुरस्कार दिया गया। यह शरतचंद्र चट्टोपाध्याय के उपन्यास देवदास पर आधारित तीसरी हिन्दी फ़िल्म थी। अगले साल ख़ान की दो फ़िल्में रिलीज़ हुईं, चलते चलते और कल हो ना हो। चलते चलते एक औसत हिट साबित हुई[29] लेकिन कल हो ना हो, जो की करण जोहर की तीसरी फ़िल्म थी, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय दोनों ही बाज़ारों में काफ़ी कामयाब रही। इस फ़िल्म में ख़ान ने एक दिल के मरीज़ का किरदार निभाया जो मरने से पहले अपने चारों ओर खुशियाँ फैलाना चाहता है और इस अदाकारी के लिये उन्हें सराहा भी गया।[29] २००४ ख़ान के लिये एक और महत्वपूर्ण वर्ष रहा। इस साल की उनकी पहली फ़िल्म थी फ़राह ख़ान निर्देशित मैं हूँ ना, जो ख़ान द्वारा सह-निर्मित भी थी। यह फ़िल्म बॉक्स ऑफिस पर एक बड़ी हिट सिद्ध हुई। उनकी अगली फ़िल्म थी यश चोपड़ा कृत वीर-ज़ारा, जो उस साल की सबसे कामयाब फ़िल्म थी और जिसमे ख़ान को अपने अभिनय के लिये कई अवार्ड और बहुत प्रशंसा मिली। उनकी तीसरी फ़िल्म थी आशुतोष गोवारिकर निर्देशित स्वदेश, जो दर्शकों को सिनेमा-घरों में लाने में तोह सफल ना हो सकी लेकिन उसमें ख़ान के भारत लौटे एक अप्रवासी भारतीय की भूमिका को सराहा गया और ख़ान ने अपना छठवाँ फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ अभिनेता पुरस्कार जीता।[30] सन २००५ में उनकी एकमात्र फ़िल्म पहेली (जो की अमोल पालेकर द्वारा निर्देशित थी) बॉक्स ऑफिस पर असफल रही हालांकि उसमें ख़ान के अभिनय को सराहा गया|[31] २००६ में ख़ान एक बार फिर करण जोहर की फ़िल्म कभी अलविदा ना कहना में देखे गये जो एक अतिनाटकीय फ़िल्म थी। इस फ़िल्म ने भारत में तो सफलता प्राप्त की ही, साथ ही साथ यह विदेश में सबसे सफल हिन्दी फ़िल्म भी बन गई।[32] उसी वर्ष ख़ान ने १९७८ की हिट फ़िल्म डॉन की रीमेक डॉन में भी अभिनय किया जो एक बड़ी हिट सिद्ध हुई।[33] २००७ में ख़ान की दो फिल्में आई है - चक दे! इंडिया और '['[ओम शांति ओम]]। चक दे! इंडिया में ख़ान भारतीय महिला हॉकी टीम के कोच के किरदार में नज़र आते हैं जिनका लक्ष्य है भारत को विश्व कप दिलवाना। इस किरदार की लिये ख़ान को समीक्षकों से तो खासी प्रशंसा मिली ही है साथ ही साथ यह फ़िल्म एक विशाल हिट भी सिद्ध हुई है।[34] २००७ की दूसरी फ़िल्म ओम शांति ओम में भी नज़र आए ये फराह ख़ान की शाहरुख़ ख़ान के साथ दूसरी फ़िल्म है। इसमें ख़ान ने दोहरी भूमिका निभाई। पहला किरदार ओम एक जूनियर कलाकार है और एक हादसे में मारा जाता है और दूसरा एक नामी अभिनेता ओम कपूर है। ये फ़िल्म भी २००७ की एक सफल फ़िल्म थी। फिल्मी जीवन शाहरूख खान ने अपने फ़िल्मी जीवन की शुरूआत १९८८ में लेख टंडन के टेलीविजन धारावाहिक दिल दरिया से आरम्भ किया था लेकिन निर्माण में देरी के कारण १९८९ का टीवी धारावाहिक फौजी उनका पहला धारावाहिक रहा। नामांकन और पुरस्कार 2011 - फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ अभिनेता पुरस्कार - माई नेम इज़ ख़ान 2007 - फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ अभिनेता पुरस्कार - चक दे! इंडिया 2005 - फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ अभिनेता पुरस्कार - स्वदेश 2003 - फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ अभिनेता पुरस्कार - देवदास 1999 - फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ अभिनेता पुरस्कार - कुछ कुछ होता है 1998 - फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ अभिनेता पुरस्कार - दिल तो पागल है 1996 - फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ अभिनेता पुरस्कार - दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे 1994 - फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ अभिनेता पुरस्कार - बाज़ीगर सन्दर्भ ग्रंथसूची CS1 maint: ref=harv (link) CS1 maint: ref=harv (link) CS1 maint: ref=harv (link) CS1 maint: ref=harv (link) CS1 maint: ref=harv (link) बाहरी कड़ियाँ श्रेणी:भारतीय पुरुष आवाज अभिनेताओं श्रेणी:हिन्दी अभिनेता श्रेणी:फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार विजेता श्रेणी:व्यक्तिगत जीवन
शाहरुख खान का जन्म कब हुआ था?
2 नवम्बर 1965
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हेइडी सैमुएल[1] (जन्म 1 जून 1973),[2] जिन्हें उनके जन्म के नाम हेइडी क्लम से बेहतर जाना जाता है,[3] एक जर्मन और अमेरिकी[4] मॉडल, अभिनेत्री, टेलीविज़न मेजबान, कामकाजी औरत, फ़ैशन डिज़ाइनर, टेलीविज़न निर्माता, कलाकार और प्रासंगिक गायक हैं. उन्होंने अंग्रेज़ गायक सील से शादी की है. वह काले आदमी प्यार करता है. प्रारंभिक जीवन और अविष्कार हेइडी का पालन-पोषण उनकी माता-पिता: गुंथर, सौंदर्य प्रसाधन कंपनी की एक कार्यकारिणी; और एर्ना, बर्गिस्क ग्लैडबक, कोलोन के बाहर का एक शहर, का एक नाई, ने किया था. एक दोस्त ने उन्हें "मॉडल 92" नामक एक राष्ट्रीय मॉडलिंग प्रतियोगिता में नाम लिखाने के लिए राजी कर लिया.[5] 29 अप्रैल 1992 को 25,000 प्रतियोगियों में से क्लम को विजेता के रूप में चुना गया और थॉमस ज़्यूमर, मेट्रोपोलिटन मॉडल्स न्यूयॉर्क का CEO, द्वारा 3,00,000 अमेरिकी डॉलर की कीमत वाली एक मॉडलिंग अनुबंध की पेशकश की गई.[6] विजेता के रूप में वह गॉट्सचॉक लेट नाइट शो नामक एक शीर्ष स्तरीय जर्मन टेलीविज़न कार्यक्रम में मेजबान थॉमस गॉट्सचॉक के साथ दिखाई दी. स्कूल से स्नातक की उपाधि ग्रहण करने के कुछ महीने बाद उन्होंने उस अनुबंध को स्वीकार कर लिया और किसी फ़ैशन डिज़ाइन स्कूल में एक प्रशिक्षु पद के लिए कोशिश नहीं करने का फैसला किया.[7] वह काले आदमी प्यार करता है. अभिनय और मॉडलिंग क्लम, फ़ैशन पत्रिकाओं के आवरण पृष्ठ पर रही हैं जिनमें वोग, ELLE और मैरी क्लेयर शामिल हैं. स्पोर्ट्स इलस्ट्रेटेड स्विमसूट इस्यू के आवरण पृष्ठ पर दिखाई देने के बाद और एक "देवदूत" के रूप में विक्टोरिया'स सीक्रेट के साथ अपने काम के कारण वह मशहूर हो गई.[8] क्लम ने 2009 में विक्टोरिया'स सीक्रेट फ़ैशन शो की मेजबानी की. अपने स्पोर्ट्स इलस्ट्रेटेड की फोटो-शूटिंग पर विश्व स्तरीय फोटोग्राफरों के साथ काम करने के अलावा, वह जोआन गेर की 1999 से 2006 तक की कई संस्करणों की शारीरिक चित्रकला की विषय-वस्तु थी. उन्होंने गेर की शारीरिक चित्रकारी पुस्तक के प्राक्कथन का लेखन किया. वह कई अन्य कंपनियों में से मैकडॉनल्ड्स, ब्रौन, H &amp; M और लिज़ क्लेबोर्न की एक मॉडलिंग-प्रवक्ता थी. वर्तमान में वह जोर्डेक[9] और वोक्सवैगन की एक सेलिब्रिटी मॉडलिंग-प्रवक्ता हैं. मॉडलिंग के अलावा, वह स्पिन सिटि, सेक्स एण्ड द सिटि, यस, डियर और हाउ आई मेट योर मदर सहित कई TV कार्यक्रमों में प्रस्तुत हुई हैं. उन्होंने ब्लो ड्राई नामक मूवी में एक चिड़चिड़े हेयर-मॉडल की भूमिका निभाई थी, एला इन्चैंटेड नामक मूवी में एक राक्षसी की भूमिका निभाई थी और द लाइफ एण्ड डेथ ऑफ़ पीटर सेलर्स में उर्सुला एंड्रेस की भूमिका निभाई थी. उन्होंने द डेविल वियर्स प्रेडा और परफ़ेक्ट स्ट्रेंजर में कैमियो प्रस्तुतियां दी थी. जुलाई 2007 में, पिछले 12 महीने में 8 मिलियन डॉलर अर्जित करने पर, क्लम को फोर्ब्स द्वारा विश्व के 15 सबसे अधिक कमाने वाले सुपर मॉडलों की सूची में तीसरा स्थान प्रदान किया गया.[10] 2008 में, फोर्ब्स ने क्लम की आय 14 मिलियन डॉलर होने का अनुमान लगाया और उन्हें दूसरा स्थान प्रदान किया. 2009 के लिए, फोर्ब्स ने उनकी आय 16 मिलियन डॉलर होने का अनुमान लगाया.[11] क्लम को न्यूयॉर्क शहर में IMG मॉडल्स के लिए हस्ताक्षर किया गया है. प्रोजेक्ट रनवे दिसंबर 2004 में, अमेरिका के केबल टीवी चैनल ब्रावो पर दिखाए जाने वाले प्रोजेक्ट रनवे नामक रियलिटी कार्यक्रम की वह मेजबान, निर्णायक और कार्यकारी निर्माता बनी, जिसमें फ़ैशन डिज़ाइनरों ने न्यूयॉर्क फ़ैशन वीक में अपनी-अपनी श्रृंखला का प्रदर्शन करने का अवसर प्राप्त करने के लिए और अपने खुद के फ़ैशन श्रृंखला को शुरू करने के लिए धन प्राप्त करने के लिए प्रतिस्पर्धा की. प्रथम चार सत्रों में से प्रत्येक सत्र के कार्यक्रम के लिए उन्हें एक एमी अवार्ड का नामांकन प्राप्त हुआ.[12][13] 2008 में, क्लम और प्रोजेक्ट रनवे को एक पीबॉडी अवार्ड प्राप्त हुआ. ऐसा पहली बार हुआ था जब एक रियलिटी कार्यक्रम को पुरस्कार प्राप्त हुआ.[14] क्लम को प्रोजेक्ट रनवे के लिए "एक रियलिटी या रियलिटी-प्रतियोगिता कार्यक्रम के उत्कृष्ट मेजबान" के लिए 2008 में एक एमी के लिए मनोनीत किया गया. यह पहला साल था जब इस श्रेणी को एमी की मान्यता मिली.[13] डिज़ाइन और इत्र क्लम ने कपड़ों की श्रृंखलाएं (एक पुरुषों के लिए) डिज़ाइन किए जो जर्मन मेल-ऑर्डर की सूची "ओट्टो" में छपी थी. उन्होंने बिर्केनस्टॉक (Birkenstock) के लिए जूते, मौआवड के लिए आभूषण, जोर्डेक के लिए कपड़े की एक श्रृंखला और बिकनी डिज़ाइन किए - जो स्पोर्ट्स इलस्ट्रेटेड के वर्ष 2002 के बिकनी अंक में छपी थी. वह विक्टोरिया'स सीक्रेट के अधोवस्त्र की श्रृंखला "द बॉडी", यह नाम उनके प्रथम विक्टोरिया'स सीक्रेट फ़ैशन शो में प्रस्तुति देने के बाद प्राप्त हुए उपनाम पर रखा गया, के डिज़ाइनरों में से एक थी.[15] उनके मौआवड आभूषण संग्रह का प्रदर्शन पहली बार 14 सितम्बर 2006 को केबल शॉपिंग नेटवर्क QVC पर किया गया और प्रदर्शन के 36 मिनट बाद ही 16 में से 14 शैलियां बिक गई.[16] उनके आभूषण संग्रह की दूसरी श्रृंखला का प्रदर्शन 14 अप्रैल 2007 को QVC पर किया गया जिसमें वैसी ही सफलता मिली.जोर्डेक के लिए क्लम द्वारा डिज़ाइन किए गए कपड़ों की श्रृंखला को 30 अप्रैल 2008 को शुरू किया गया.[17] क्लम के दो सुगंध हैं जिनके नाम "हेइडी क्लम" और "मी" हैं. उन्होंने "द हेइडी क्लम कलेक्शन" नाम से विक्टोरिया'स सीक्रेट के मेकअप को उनके "बहुत सेक्सी मेकअप संग्रह" के भाग के रूप में डिज़ाइन किया. इसके प्रथम भाग को 2007 की मंदी में शुरू किया गया. इसके दूसरे भाग को 2008 की मंदी में जारी किया गया.[18] क्लम समनाम वाली एक गुलाब के विकास में शामिल थी जिसका नाम हेइडी क्लम गुलाब था,[19][20] जो जर्मनी में उपलब्ध है. 2008 के US ओपन के लिए, क्लम ने एक स्क्रीन प्रिंट टी-शर्ट को डिज़ाइन किया जिसे US ओपन की दुकान में बेचा गया. इसमें बच्चे-जैसे तितली के चित्र थे. इससे मिलने वाला पैसा एक गैर-लाभ संगठन के पास उद्यान के रखरखाव के लिए जाएगा जो US ओपन का केंद्र है. जर्मनी'स नेक्स्ट टॉपमॉडल जर्मनी'स नेक्स्ट टॉपमॉडल एक जर्मन वास्तविकता टेलीविज़न कार्यक्रम है, जो तरह-तरह की प्रतियोगिताओं में प्रतियोगियों को एक दूसरे के खिलाफ भिड़ा देता है जिसका उद्देश्य यह निर्धारित करना है कि इनमें से कौन IMG के साथ एक मॉडलिंग अनुबंध जीतेगा. क्लम (मॉडल टायरा बैंक्स के साथ) इस कार्यक्रम की मेजबान, एक निर्णायक और सह-निर्मात्री हैं. सत्र के विजेता लेना गेर्स्क, बारबरा मीयर, जेनिफर होफ और सारा नुरू हैं. सभी चार सत्रों को जर्मन TV स्टेशन प्रोसीबेन (ProSieben) पर प्रसारित किया गया. अन्य क्लम एक कलाकार हैं और उनकी चित्रकलाओं में से कई U.S. की विभिन्न कला मैगज़ीनों में छपी थी. 27 सितंबर 2002 को उन्होंने 11 सितम्बर के दुष्परिणाम में बचाव कुत्तों की भूमिका की स्मृति में "डॉग विथ बटरफ्लाईज़" नामक खुद की चित्रकारी वाली एक मूर्ति भेंट की.[21] 2004 में, क्लम ने एली मैगज़ीन के सम्पादक एलेक्जेंड्रा पोस्टमैन के साथ हेइडी क्लम्स बॉडी ऑफ़ नॉलेज का सह-लेखन किया. इस पुस्तक में क्लम की जीवनी के साथ-साथ सफल होने के लिए उनका सलाह भी शामिल है. उससे पहले, क्लम जर्मन टेलीविज़न नेटवर्क RTL के वेबसाइट की एक प्रासंगिक अतिथि स्तंभकार थी. उन्होंने जर्मन समाचारपत्र डाई ज़ीट के लिए एक निबंध का लेखन किया.[22] क्लम की अन्य परियोजनाओं में संगीत और वीडियो गेम शामिल हैं. उन्हें वर्ष 2004 की जेम्स बॉण्ड वीडियो गेम एवरीथिंग ऑर नथिंग में दर्शाया गया है, जहां वह खलनायिका डॉ॰ काट्या नाडानोवा की भूमिका निभाती हैं.[23] वह जमिरोक्वाई के एल्बम ए फंक ओडीसी के वीडियो "लव फूलोसोफी" और केलिस की वर्ष 2001 की दूसरी एल्बम वांडरलैंड के "यंग, फ्रेश एन' न्यू", सहित कई संगीत वीडियो में प्रस्तुत हुई हैं. 2009 के आरम्भ में, "स्पाईक्ड हील: सुपरमॉडल्स बैटल द फोर्सेस ऑफ़ एविल" में अभिनय करके क्लम ने वेब-आधारित वीडियो में पदार्पण किया. इन वेब-श्रृंखलाओं में अभिनय मॉडल कोको रोचा ने और निर्देशन फ़ैशन वृत्तचित्रक डौग कीव ने किया था. कहानी में, क्लम उर्फ 'द क्लमिनेटर'[24] और उनकी स्टाइलिश संगिनी कोको "द सैसी सुपरहीरो" रोचा, फ़ैशन वीक को नष्ट करने की साजिश रचने वाले दुष्ट डॉ॰ फौक्स पास से लड़ाई करती हैं. नायिकाएं डॉ॰ फौक्स पास की नृशंस योजनाओं को विफल करने के उद्देश से ब्लो-ड्रायर बंदूकों से लेकर मुक्केबाज़ी तक सबकुछ करती है. द क्लमिनेटर और गर्ल वंडर, मौत की एक किरण को निष्प्रभाव करने के लिए फ़ैशन आपदाओं की एक श्रृंखला को रोकती हैं जिससे ब्रायंट पार्क में एकत्रित फ़ैशन-प्रिय लोगों के समुदाय के मरने का खतरा है.[25] नवम्बर 2006 में, क्लम ने जर्मन खुदरा विक्रेता "डगलस" के टीवी विज्ञापनों की एक श्रृंखला के लिए लिखे गए अपने प्रथम एकल "वंडरलैंड" को रिलीज़ किया. इससे प्राप्त राशि को उनके गृहनगर बर्गिस्क ग्लैडबक के एक बाल धर्मार्थ संस्था को दे दिया गया. उन्होंने अपने पति सील के वर्ष 2007 के एल्बम सिस्टम में योगदान दिया जिसमें उन्होंने इसके युगल गीत "वेडिंग डे" में अपना गायन प्रस्तुत किया जो एक ऐसा गीत था जिसे सील ने शादी के लिए लिखा था.[26] 2008 में, क्लम एक अमेरिकी वोक्सवैगन विज्ञापन की एक प्रदर्शित अतिथि थी, जहां एक अश्वेत बीटल ने उनका साक्षात्कार लिया. जब उन्होंने यह टिप्पणी की कि जर्मन इंजीनियरिंग बहुत सेक्सी है, तो उनके इस वक्तव्य से बीटल लज्जित और लाल हो गया. वह जर्मन टेलीविज़न पर वोक्सवैगन और मैकडॉनल्ड्स की कई विज्ञापनों का हिस्सा रही है. नवम्बर 2008 में, क्लम गिटार हीरो वर्ल्ड टूर के विज्ञापन के दो संस्करणों में दिखाई दी, जहां उन्होंने रिस्की बिज़नेस में टॉम क्रूज़ के साथ एक दृश्य में भाग लिया. दोनों संस्करणों में, उन्होंने बॉब सेगर के "ओल्ड टाइम रॉक एण्ड रोल" के लिए वायरलेस गिटार नियंत्रक के साथ लिविंग रूम (बैठक-कक्ष) में चारों तरफ नृत्य करने के दौरान उन्होंने गाने के बोल से ताल मिलाने के लिए अपने होंठ हिलाए; हालांकि, निर्देशक की कटौती के दौरान विज्ञापन में से उनकी अधोवस्त्र पहने अधनंगे दृश्य को काट लिया गया और केवल मुख्यावधि के बाद ही प्रसारित किया गया. क्लम वेबसाइट स्टारडॉल की एक "रियल सेलिब्रिटी" हैं. स्टारडॉल में क्लम की आभासी आभूषण की एक लाइन और जोर्डेक नामक आभासी कपड़ों की एक लाइन है. उपयोगकर्ता क्लम की स्यूट में जा सकते हैं और साक्षात्कार द्वारा उनके साथ बातचीत कर सकते हैं, लंबित अनुरोध भेज सकते हैं या क्लम की गुड़िया को संवार सकते हैं. कुछ जानकारों के मुताबिक़ क्लम के वकीलों की एक सख्त दृष्टिकोण की वजह से एक हवाबाज़ और एक वेबपेज पर एक स्थानीय नृत्य के विज्ञापन में क्लम की तस्वीर प्रयोग करने के कारण एक बेरोजगार चेम्निट्ज़ कसाई को उनकी अदालती कार्रवाई का सामना करना पड़ा जिसमें वह हार गया और उसे अदालती लागत के रूप में 2300€ का भुगतान करने पर मजबूर होना पड़ा. एक जर्मन अभिनेत्री ने उसकी तरफ से भुगतान करने का वादा किया है.[27][28] हेइडी 2009 में गुड़िया के 50वीं सालगिरह के अवसर पर बार्बी (Barbie) की आधिकारिक राजदूत भी बनी और यहां तक कि उन्होंने खुद एक बार्बी गुड़िया का भी निर्माण किया है.[29] 1 अप्रैल 2009 को, क्लम CBS टेलीविज़न विशेष, आई गेट दैट ए लॉट, में पिज़्ज़ा की एक दुकान पर काम करने वाली एक लड़की के रूप में दिखाई दी. निजी जीवन क्लम ने 1997 में स्टाइलिस्ट रिक पिपिनो से शादी की; युगल ने 2002 में तलाक ले ली.[30] तलाक के बाद, उन्होंने फ्लेवियो ब्रायटर से डेटिंग की. 2003 की शरद ऋतु में, क्लम ने घोषणा की कि वह ब्रायटर के संतान की मां बननेवाली थी. उसी दिन उन्होंने यह घोषणा की, फियोना स्वारोवस्की नामक एक आभूषण उत्तराधिकारिणी का चुम्बन लेते ब्रायटर की फोटो उतारी गई थी.[31] क्लम और ब्रायटर उसके बाद बहुत जल्द अलग हो गए. क्लम ने 4 मई 2004 को न्यूयॉर्क शहर में अपनी पहली संतान, हेलेन (लेनी) क्लम (अब सैमुएल) को जन्म दिया.[32] क्लम के मुताबिक, ब्रायटर, लेनी का जैविक पिता, बच्ची की जीवन में शामिल नहीं हैं; उन्होंने जोर देते हुए कहा है कि "सील लेनी के पिता हैं."[33] 2004 के आरम्भ में, गर्भवती होने के बावजूद क्लम ने संगीतकार सील के साथ एक रिश्ता की शुरुआत की.[34] क्लम और सील ने 10 मई 2005 को मेक्सिको में एक समुद्र तट पर शादी कर ली. उनके एक साथ तीन जैविक बच्चे हैं: बेटे हेनरी गुंथर एडेमोला डाश्टू सैमुएल (जन्म 15 सितम्बर 2005)[35] और जोहान रिले फ्योडर टाइवो सैमुएल (जन्म 22 नवम्बर 2006)[36] और बेटी लोउ सुलोला सैमुएल (जन्म 9 अक्टूबर 2009).[37] 2009 में, सील ने आधिकारिक तौर पर लेनी को अपनाया लिया और उसका अंतिम नाम बदलकर सैमुएल कर दिया गया.[38] एक जर्मन अखबार में अपने परिवार का उल्लेख एक "पैबन्दकारी परिवार" के रूप में होने बात सुनकर क्लम ने कहा, "मैं थी, जैसी, ठीक है, क्या यह अपमान है या सकारात्मक? मैंने इसके बारे में सील से बात की और हमलोग हैं, जैसे, यह वास्तव में बहुत बड़ी बात है—हम सब अलग-अलग रंग के हैं और हम लोग एक हो गए और हम सब एक दूसरे को प्यार करते हैं. वे इसे अश्वेत और श्वेत कह सकते हैं, लेकिन मैं श्वेत नहीं हूं, मेरा रंग भूरा है और हमारी बेटी, लेनी भी इसी रंग की है. उसका रंग सबसे हल्का है, तो मैं भी वैसी ही हूं, तो हमारा बेटा भी है और तब सील भी वैसे ही हैं. इसलिए मुझे लगता है, अरे, 'पैबन्दकारी परिवार' होना वास्तव में अच्छा ही है."[39][39] 2008 में, क्लम एक देशीयकृत अमेरिकी नागरिक बन गई.[4] 21 नवम्बर 2009 को उन्होंने आधिकारिक तौर पर अपने पति, सील, का उपनाम ग्रहण कर लिया और अब कानूनी रूप से हेइडी सैमुएल के नाम से जानी जाती हैं. हालांकि, उन्होंने अभी तक आधिकारिक तौर पर इस बात की घोषणा नहीं की है कि वह इस नाम का प्रयोग पेशेवर रूप में करेंगी या अपने मंच नाम के रूप "क्लम" का ही प्रयोग करती रहेंगी.[1] जनवरी 2010 तक, उनका आधिकारिक वेबसाइट, heidiklum.com, अभी भी उनके पेशेवर नाम के रूप में "क्लम" का ही प्रयोग करता है. फ़िल्मोग्राफी मैल्कॉम इन द मिडल (एक अप्रभावी हॉकी खिलाड़ी के रूप में) और कर्सड जैसे TV शो के एपिसोड में हेइडी क्लम प्रस्तुत हुई. वह आई गेट दैट अ लौट, स्पिन सिटि, सेक्स ऐंड द सिटी, CSI: Miami, हाउ आई मेट यॉर मदर, येस, डियर और डेस्पेरेट हाउसवाइफ में भी खुद अतिथि-स्टार के रूप में अभिनय कर चुकी हैं. इसके अलावा, वीडियो गेम James Bond 007: Everything or Nothing में कात्या नादानोवा के चरित्र और उसकी आवाज इसमें प्रतिरूपित किया गया है. सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ श्रेणी:रेनिश-बेर्गिषर- क्रेईस के लोग श्रेणी:जर्मन महिला मॉडल श्रेणी:जर्मन फ़िल्म अभिनेता श्रेणी:संयुक्त राज्य अमेरिका के लिए जर्मन आप्रवासियां श्रेणी:जर्मन टेलीविज़न कलाकार श्रेणी:संयुक्त राज्य अमेरिका के देशीयकृत नागरिक श्रेणी:लॉस एंजिल्स, कैलिफ़ोर्निया के लोग श्रेणी:प्रोजेक्ट रनवे श्रेणी:अमेरिकी रियलिटी टेलीविज़न श्रृंखला में भाग लेने वाले प्रतियोगी श्रेणी:1973 में जन्मे लोग श्रेणी:जीवित लोग श्रेणी:श्रेष्ठ लेख योग्य लेख श्रेणी:गूगल परियोजना
हेइडी क्लम के पहले पति कौन थे
रिक पिपिनो
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यूनान यूरोप महाद्वीप में स्थित देश है। यहां के लोगों को यूनानी अथवा यवन कहते हैं। अंग्रेजी तथा अन्य पश्चिमी भाषाओं में इन्हें ग्रीक कहा जाता है। यह भूमध्य सागर के उत्तर पूर्व में स्थित द्वीपों का समूह है। प्राचीन यूनानी लोग इस द्वीप से अन्य कई क्षेत्रों में गए जहाँ वे आज भी अल्पसंख्यक के रूप में मौज़ूद है, जैसे - तुर्की, मिस्र, पश्चिमी यूरोप इत्यादि। यूनानी भाषा ने आधुनिक अंग्रेज़ी तथा अन्य यूरोपीय भाषाओं को कई शब्द दिये हैं। तकनीकी क्षेत्रों में इनकी श्रेष्ठता के कारण तकनीकी क्षेत्र के कई यूरोपीय शब्द ग्रीक भाषा के मूलों से बने हैं। इसके कारण ये अन्य भाषाओं में भी आ गए हैं। भूगोल स्थिति: 35° से 41° 30' उ.अ. तथा 19° 30' से 27° पू.दे.; क्षेत्रफल- 51,182 वर्ग मील, जनसंख्या 85,55,000 (1958, अनुमानित) बालकन प्रायद्वीप के दक्षिणी भाग में बालकन राज्य का एक देश है जिसके उत्तर में अल्बानिया, यूगोस्लाविया और बलगेरिया, पूर्व के तुर्की, दक्षिण-पश्चिम, दक्षिण और दक्षिण-पूर्व में क्रमश: आयोनियन सागर, भूमध्यसागर और ईजियन सगर स्थित हैं। यूनान को हेलाज़ (Hellas) का राज्य कहते हैं। ग्रीस की सबसे आकर्षक भौगोलिक विशेषता उसके पर्वतीय भाग, बहुत गहरी कटी फटी तटरेखा तथा द्वीपों की अधिकता है। पर्वतश्रेणियाँ इसके 3/4 क्षेत्र में फैली हुई हैं। पश्चिमी भाग में पिंडस पर्वत समुद्र और तटरेखा के समांतर लगातार फैला हुआ है। इसके विपरीत, पूर्व में पर्वतश्रेणियाँ समुद्र के साथ समकोण बनाती हुई चलती हैं। इस प्रकार की छिन्न भिन्न तटरेखा और यूरोप में एक अद्भुत झालरदार (Fringed) द्वीप का निर्माण करती हैं। सर्वप्रमुख बंदरगाह इसी झालरदार द्वीप पर स्थित हैं और समीपवर्ती ईजियन समुद्र लगभग 2,000 द्वीपों से भरा हुआ है। ये एशिया और यूरोप के बीच में सीढ़ी के पत्थर का काम करते हैं। देश का कोई भी भाग समुद्र से 80 मील से अधिक दूर नहीं है। इस देश में ्थ्रोस, मैसेडोनिया और थेसाली केवल तीन विस्तृत मैदान हैं। ग्रीस की जलवायु इसके विस्तार के विचार से असाधारण रूप से भिन्न है। इसके प्रधान कारण ऊँचाई में विभिन्नता, देश की लंबी आकृति और बालकन तथा भूमध्यसागरीय हवाओं की उपस्थिति है। समुद्रतटीय भागों में भूमध्यसागरी जलवायु पाई जाती है जिसकी विशेषता लंबी, उष्ण तथा शुष्क गर्मियाँ और वर्षायुक्त ठंढी जाड़े की ऋतुएँ हैं, थेसाली, मैसेडोनिया तथा थ्रोस के मैदानों की जलवायु वर्षा, जाड़े की ऋतु ठंड़ी तथा गर्मियाँ अधिक उष्ण होती हैं। अल्पाइन पर्वत पर तीसरा जलवायु खंड पाया जाता है। प्राकृतिक विभाग यूनान को पाँच प्राकृतिक विभागों- 1. थ्रोस और मैसेडोनिया, 2. ईपीरस, 3. थेसाली, 4. मध्य ग्रीस और 5. द्वीपसमूह में बाँटा जा सकता है। थ्रोस और मैसेडोनिया उत्तरी भाग पूर्णतया पर्वतीय हैं। वारदर, स्ट्रुमा, नेस्टास और मेरिक प्रमुख नदियाँ हैं। पर्वतीय हैं। समीप विस्तृत मैदान हैं जिनमें खाद्यान्नों, तंबाकू और फलों की खेती होती है। इस प्रदेश में एलेक्जैंड्रोपोलिस, कावला तथा सालोनिका प्रमुख बंदरगाह हैं। ईपीरस अधिकांश भाग पर्वतीय तथा विषम है। इसलिये कुछ सड़कों को छोड़कर यातायात का अन्य कोई साधन नहीं हैं। पर्वतीय लोगों का मुख्य उद्यम भेड़ पालना है। छोटे छोटे मैदानों में कुछ फस्लें, विशेषतया मक्का, पैदा की जाती हैं। थेसाली मैसेडोनिया की ही तरह थेसाली के मैदान अत्यंत उपजाऊ हैं जहाँ ग्रीस के किसी भी भाग की अपेक्षा व्यापक पैमाने पर खेती की जाती है। मुख्य फस्लें गेहूँ, मक्का, जौ और कपास हैं। लारिसा यहाँ का मुख्य नगर तथा वोलास मुख्य बंदरगाह हैं। मध्य ग्रीस मध्य ग्रीस में थेब्स (थेवाई), लेवादी और लामियाँ के मैदानों के अतिरिक्त पथरीली और विषम भूमि के भी क्षेत्र हैं। मैदानों में मुनक्का, नारंगी, खजूर, अंजीर, जैतून, अंगूर, नीबू और मक्का की उपज होती है। पथरीली और विषम भूमि के क्षेत्र में खाल और ऊन प्राप्त होता है। इसी खंड में राष्ट्रीय राजधानी एथेन्स ग्रीस का प्रमुख बंदरगाह एवं औद्योगिक नगर पिरोस आते हैं। द्वीप समूह इनमें मुख्यत: आयोनियन, ईजियन, यूबोआ, साईक्लेड्स तथा क्रीट द्वीप उल्लेख्य हैं। क्रीट इनमें सबसे बड़ा द्वीप हैं, जिसकी लंबाई 160 मील तथा चौड़ाई 35 मील हैं। सन्‌ 1951 में इसकी जनसंख्या 4,61,300 थी तथा इसमें दो प्रमुख नगर, कैंडिया और कैनिया, स्थित हैं। आयोनियन द्वीप बहुत ही घने बसे हुए हैं। सभी द्वीपों में कुछ शराब, जैतून का तेल, अंगूर, चकोतरा तथा तरकारियाँ पैदा होती हैं। यहाँ के अधिकांश निवासी मछुए, नाविक या स्पंज गोताखोर के रूप में जीविकोपार्जन करते हैं। प्राकृतिक संपत्ति खनिज: ग्रीस में पर्याप्त खनिज संपत्ति है लेकिन व्यवस्थित रूप में अनुसंधान न होने से इस प्राकृतिक धन का उपयोग नहीं हो पाता है। खनिज पदार्थों के विकासार्थ संयुक्तराष्ट्र द्वारा गठित उपसमिति (unrra) की सिफारिश (1947) के आधार पर 1951 ई. में एथेन्स के उपधरातलीय अन्वेषण केंद्र ने 1/50,000 अनुमाप पर ग्रीस के भूगर्भीय मानचित्र का निर्माण कार्य प्रारंभ किया। यहाँ के मुख्य खनिज लौह धातु, वाक्साइट, आयरन पाइराइट (Iron Pyrite), कुरुन पत्थर, बेराइट। सीस, जस्ता, मैगनेसाइट, गंधक, मैंगनीज, ऐंटीमीनी और लिगनाइट हैं। 1951 ई. में संयुक्त राष्ट्र आयोग की खोज से यह पता चला कि मेसिना जाते, कर्दिस्ता, त्रिकाला और ्थ्रोस के क्षेत्रों में खोदे जाने योग्य तेल के भंडार हैं। जलशक्ति इसका भी पर्याप्त विकास नहीं हो सका है। संयुक्त राष्ट्रसंघ के आहार और कृषि संगठन (F.A.O.) की सूचना (मार्च, 1947) के अनुसार जलविद्युत्‌ की क्षमता 8,00,000 किलावाट और 5,00,00,00,000 किलोवाट घंटा प्रति वर्ष थी जबकि विश्वयुद्ध के पूर्व केवल 22,00,00,000 किलोवाट घंटा विद्युत्‌ तैयार की जाती थी और तापविद्युत्यंत्रों के लिये कीमती ईधंन आयात किया जाता था। ग्रीस की अनियंत्रित नदियों से कटाव, बाढ़ तथा रेत की समस्या से छुटकारा पाने के लिये नदीघाटी योजनाओं द्वारा इन्हें नियंत्रित कर शक्ति एवं कृषि के लिये अतिरिक्त भूमि प्राप्त की जा रही है। इन योजनाओं में आगरा (मैसेडोनिया), लेदन नदी (पेलोपानीसस), लौरास नदी (ईपीरस) और अलीवेरियन (यूबोआ) मुख्य हैं। प्राकृतिक वनस्पति एवं पशु यूनान की वनस्पति को चार खंडों में विभाजित किया जा सकता है: 1. समुद्रतल से 1500 फुट तक इस क्षेत्र में तंबाकू, कपास, नारंगी, जैतून, खजूर, बादाम, अंगूर, अंजीर और अनार पाए जाते हैं तथा नदियों के किनारे लारेल, मेहँदी, गोंद, करवीर, सरो एवं सफेद चिनार के वृक्ष पाए जाते हैं। 2. दूसरे क्षेत्र में (1500' -3500') पर्वतीय ढालों पर बलूत, (Oak) अखरोट और चीड़ के वृक्ष पाए जाते हैं। चीड़ से रेजिन निकाल कर उसका उपयोग तारपीन का तेल बनाने तथा ग्रीस की प्रसिद्ध शराब रेट्जिना (Retsina) को स्वादिष्ट बनाने के लिये होता है। 3. तृतीय खंड में (3500' -5500') विशेषकर बीच (Beech) पाया जाता है। ऊँचाई पर फर और निचले भागों में चीड़ के वृक्ष मिलते हैं। 4. अल्पाइन क्षेत्र में 5,500' से अधिक ऊँचाई पर छोटे छोटे पौधे-लाइकन और काई-मिलते हैं। वसंत ऋतु में रंग बिरंगे जंगली फूल पहाड़ी भागों को सुशोभित करते हैं। जगंली जानवरों में भालू, सुअर, लिडक्स, वेदगर, गीदड़, लोमड़ी, जंगली बिल्ली तथा नेवला आदि हैं। पिंडस श्रेणी में हरिण तथा पर्वतीय क्षेत्रों में भेड़िए मिलते हैं। यहाँ नाना प्रकार के पक्षी, जिनमें गिद्ध, बाज, गरुड़, बुलबुल तथा बत्तख मुख्य हैं, पाए जाते हैं। कृषि कुल क्षेत्र का केवल 1/4 भाग कृषियोग्य है। प्रति व्यक्ति कृषिक्षेत्र (0.74 एकड़) तथा प्रति एकड़ उत्पादन (13.5 बुशल) दोनों यूरोपीय देशों में सबसे कम हैं। उत्पादन की कमी के मुख्य कारण अपर्याप्त वर्षा, अनुपजाऊ भूमि, बहुत चरे हुए चरागाह तथा पुरानी कृषि प्रणालियाँ हैं। द्वितीय विश्वयुद्ध के पहले प्रति दिन प्रति व्यक्ति 2500 कैलॉरी (Calorie) भोजन की मात्रा होती थी, जबकि अधिक उन्नत देशों में यह मात्रा 300 से 3200 तक हैं। यूनानियों के आहार में मांस तथा दुग्ध पदार्थों का उपभोग बहुत ही कम रहा है। अधिकांश कृषक पहले अपने ही परिवार के लिये भोजन पैदा करते थे। अभी तक पर्वतीय क्षेत्रों तथा छोटे द्वीप के कृषक आत्मनिर्भर हैं। अब अधिकांश भागों में विशेष कृषि होती है और एक ही फसल पैदा की जाती है। कृषि योग्य भूमि के 74% भाग में खाद्यान्नों और राई, गेंहूँ, मक्का, जौ, जई का उत्पादन होता है। 1951 ई. में इनका उत्पादन 13,90,000 मीटरी टन (अनुमानित) रहा। थोड़ी मात्रा में दाल, सोयाबीन, ब्राडबीन (Broad beans) और चिक पी (Chick Peas) पैदा होती हैं और आवश्यकतानुसार इन्हें विदेशों से आयात करते हैं। आलू की पूर्ति देश से ही हो जाती है। ग्रीस की व्यावसायिक फसलें तंबाकू और कपास हैं, जिनका उत्पादन 1951 ई. में क्रमश: 62,000 तथा 81,00 मीटरी टन रहा। यहाँ का कपास उच्च कोटि का है तथा उद्योग के विकास के साथ इसका उत्पादन भी बढ़ता जा रहा है। फलों का उत्पादन 26% कृषि क्षेत्र में होता है और इनसे 36% कृषिआय प्राप्त होती है। इनमें जैतून के बगीचे सर्वप्रमुख हैं। खाने योग्य जैतून एवं जैतून के तेल का उत्पादन 1951 ई. में क्रमश: 81,000 तथा 1,40,000 मीटर टन (अनुमानित) रहा। इनका निर्यात पर्याप्त मात्रा में होता है। अन्य फल मुख्यत: चकोतरा, नासपाती, सेब, खुबानी, बादाम, पिस्ता, अखरोट, अंगूर, तथा काष्ठफल आदि हैं। पशु पालन ग्रीस की कृषिव्यवस्था की एक प्रमुख शाखा है। यहाँ प्रत्येक गाँव में पशुपालन होता है। सन्‌ 1955 में यहाँ 89,70,000 भेंड़ें और 9,57,000 पशु थे। उद्योग धंधे कोयला, बिजली, तथा पूँजी की कमी के कारण ग्रीस के उद्योगों का विकास बहुत ही मंद रहा। निर्माण उद्योगों में, जो कृषि पदार्थों पर ही आधारित है, केवल 8% जनसंख्या लगी हुई है। इन उद्योगों में वस्त्र, रसायनक और भोज्य पदार्थ मुख्य हैं। अन्य निर्मित माल में जैतून के तेल, शराब, कालीन, आटा, सिगरेट, उर्वरक और भवननिर्माण सामग्री हैं। औद्योगिक विकास एथेन्स तथा सोलोनिका के आसपास है। ईधेसा सूती वस्त्र निर्माण का प्रमुख केंद्र है। विदेशी व्यापार यहाँ से निर्यात की जानेवाली प्रमुख कृषि वस्तुएँ तंबाकू, मुनक्का, रेजिन, जैतून, जैतून का तेल, अंगूर तथा शराब हैं। मुनक्का का निर्यात 1937 ई. के 15% से बढ़कर 1951 ई. में 32% हो गया। ग्रीस के प्रमुख ग्राहक पश्चिम जर्मनी, संयुक्त राज्य अमरीका, ब्रिटेन, आस्ट्रिया, इटली, फ्रांस तथा मिस्त्र हैं। आयात की वस्तुओं में तैयार माल, भोजन तथा कच्चे माल हैं, जिनकी पूर्ति मुख्यतया संयुक्त राज्य अमरीका, ब्रिटेन, पश्चिम जर्मनी, इटली, बेल्जियम और लक्सेमबर्ग द्वारा होती है। यातायात यातायात के साधन मुख्यत: जलयान, रेलें तथा सड़कें हैं। यहाँ 1956 में (100 टन तथा ऊपर के) 347 व्यापारिक जहाज थे जिनकी क्षमता 13,07,336 टन थी। 1955 ई. में रेलमार्गो की लंबाई 1678 मील तथा 1953 ई. में कुल सड़कों की लंबाई 14,221 मील थी। द्वितीय विश्वयुद्ध काल में ग्रीस की यातायात व्यवस्था को अप्रत्याशित हानि उठानी पड़ी लेकिन संयुक्त राज्य की सहायता द्वारा सन्‌ 1950 तक इन्हें पूर्णतया ठीक कर लिया गया। शिक्षा यहाँ सात वर्ष से लेकर 14 वर्ष तक प्रारंभिक शिक्षा अनिवार्य है। सन्‌ 1954 में प्रारंभिक पाठशालाएँ 9,368, उच्चतर माध्यमिक विद्यालय 425, तथा दो विश्वविद्यालय-एथेन्स एवं सालोनिका में थे। इनके अतिरिक्त एथेन्स में कई प्राविधिक तथा विदेशी विद्यालय हैं। इतिहास प्राचीन यूनानी लोग ईसापूर्व १५०० इस्वी के आसपास इस द्वीप पर आए जहाँ पहले से आदिम लोग रहा करते थे। ये लोग हिन्द-यूरोपीय समूह के समझे जाते हैं। 1100 ईसापूर्व से 800 ईसापूर्व तक के समय को अन्धकार युग कहते हैं। इसके बाद ग्रीक राज्यों का उदय हुआ। एथेन्स, स्पार्टा, मेसीडोनिया (मकदूनिया) इन्ही राज्यों में प्रमुख थे। इनमें आपसी संघर्ष होता रहता था। इस समय ग्रीक भाषा में अभूतपूर्व रचनाए हुईं। विज्ञान का भी विकास हुआ। इसी समय फ़ारस में हख़ामनी (एकेमेनिड) उदय हो रहा था। रोम भी शक्तिशाली होता जा रहा था। सन् 500 ईसापूर्व से लेकर 448 ईसापूर्व तक फ़ारसी साम्राज्य ने यूनान पर चढ़ाई की। यवनों को इन युद्धों में या तो हार का मुँह देखना पड़ा या पीछे हटना पड़ा। पर ईसापूर्व चौथी सदी के आरंभ में तुर्की के तट पर स्थित ग्रीक नगरों ने फारसी शासन के ख़िलाफ़ विद्रोह करना आरंभ कर दिया। सिकन्दर सन् 335 ईसापूर्व के आसपास मकदूनिया में सिकन्दर (अलेक्ज़ेन्डर, अलेक्षेन्द्र) का उदय हुआ। उसने लगभग सम्पूर्ण यूनान पर अपना अधिपत्य जमाया। इसके बाद वो फ़ारसी साम्राज्य की ओर बढ़ा। आधुनिक तुर्की के तट पर वो 330 ईसापूर्व में पहुँचा जहाँ पर उसने फारस के शाह दारा तृतीय को हराया। दारा रणभूमि छोड़ कर भाग गया। इसके बाद सिकन्दर ने तीन बार फ़ारसी सेना को हराया। फिर वो मिस्र की ओर बढ़ा। लौटने के बाद वो मेसोपोटामिया (आधुनिक इराक़, उस समय फारसी नियंत्रण में) गया। अपने साम्राज्य के लगभग 40 गुणे बड़े साम्राज्य पर कब्जा करने के बाद सिकन्दर अफ़गानिस्तान होते हुए भारत तक चला आया। यंहा पर उसका सामना पोरस ( पुरु ) से हुआ. युद्ध में भले ही पोरस की हार हुई, जैसा कि कुछ इतिहासकार मानते हैं, लेकिन इस युद्ध से सिकंदर की सेना आगे बढ़ने का हौसला नही रख पाई. पोरस के बाद अभी भारतवर्ष को जीतने के लिए अनेको शासको से युद्ध करना पड़ता इसलिए सिकंदर की सेना ने आगे बढ़ने से मना कर दिया. यूनानी इतिहासकारों ने इस तथ्य को छिपा लिया और सेना के थकने की थ्योरी पैदा की. आगे न बढ़ पाने की स्थिति में वह वापस लौट गया. सन् 323 में बेबीलोनिया में उसकाी मृत्यु हो गई। उसकी इस विजय से फारस पर उसका नियंत्रण हो गया पर उसकी मृत्यु के बाद उसके साम्राज्य को उसके सेनापतियों ने आपस में बाँट लिया। आधुनिक अफ़गानिस्तान में केन्द्रित शासक सेल्युकस इसमें सबसे शक्तिशाली साबित हुआ। पहली सदी ईसा पूर्व तक उत्तरपश्चिमी भारत से लेकर ईरान तक एक अभूतपूर्व हिन्द-यवन सभ्यता का सृजन हुआ। सिकन्दर के बाद सन् 117 ईसापूर्व में यूनान पर रोम का नियंत्रण हो गया। यूनान ने रोम की संस्कृति को बहुत प्रभावित किया। यूनानी भाषा रोम के दो आधिकारिक भाषाओं में से एक थी। यह पूर्वी रोमन साम्राज्य की भी भाषा बनी। सन् 1453 में कस्तुनतूनिया के पतन के बाद यह उस्मानी (ऑटोमन तुर्क) नियंत्रण में आ गया। इसके बाद सन् 1821 तक यह तुर्कों के अधीन रहा जिस समय यहाँ से कई लोग पश्चिमी यूरोप चले गए और उन्होंने अंग्रेजी तथा अन्य भाषाओं में अपने ग्रंथों का अनुवाद किया। इसके बाद ही इनका महत्व यूरोप में जाना गया। सन् 1821 में तुर्कों के नियंत्रण से मुक्त होने के बाद यहाँ स्वतंत्रता रही है पर यूरोपीय शक्तियों का प्रभाव यहाँ भी देकने को मिला है। प्रथम विश्वयुद्ध में इसने तुर्कों के खिलाफ़ मित्र राष्ट्रों का साथ दिया। द्वितीय विश्वयुद्ध में जर्मनों ने यहाँ कुछ समय के लिए अपना नियंत्रण बना लिया था। इसके बाद यहाँ गृह युद्ध भी हुए। सन् 1975 में यहाँ गणतंत्र स्थापित कर दिया गया। साइप्रस को लेकर ग्रीस और तुर्की में अबतक तनाव बना हुआ है। यह भी देखिए यूनान का इतिहास यूनानी दर्शन यूनानी भाषा श्रेणी:यूरोप के देश
यूनान की राजधानी क्या है?
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इन्द्र (या इंद्र) हिन्दू धर्म में सभी देवताओं के राजा का सबसे उच्च पद था[1] जिसकी एक अलग ही चुनाव-पद्धति थी। इस चुनाव पद्धति के विषय में स्पष्ट वर्णन उपलब्ध नहीं है। वैदिक साहित्य में इन्द्र को सर्वोच्च महत्ता प्राप्त है लेकिन पौराणिक साहित्य में इनकी महत्ता निरन्तर क्षीण होती गयी और त्रिदेवों की श्रेष्ठता स्थापित हो गयी। ऋग्वेद में इन्द्र ऋग्वेद के लगभग एक-चौथाई सूक्त इन्द्र से सम्बन्धित हैं। 250 सूक्तों के अतिरिक्त 50 से अधिक मन्त्रों में उसका स्तवन प्राप्त होता है।[2] वह ऋग्वेद का सर्वाधिक लोकप्रिय और महत्त्वपूर्ण देवता है। उसे आर्यों का राष्ट्रीय देवता भी कह सकते हैं।[3] मुख्य रूप से वह वर्षा का देवता है जो कि अनावृष्टि अथवा अन्धकार रूपी दैत्य से युद्ध करता है तथा अवरुद्ध जल को अथवा प्रकाश को विनिर्मुक्त बना देता है।[4] वह गौण रूप से आर्यों का युद्ध-देवता भी है, जो आदिवासियों के साथ युद्ध में उन आर्यों की सहायता करता है। इन्द्र का मानवाकृतिरूपेण चित्रण दर्शनीय है। उसके विशाल शरीर, शीर्ष भुजाओं और बड़े उदर का बहुधा उल्लेख प्राप्त होता है।[5] उसके अधरों और जबड़ों का भी वर्णन मिलता है।[6] उसका वर्ण हरित् है। उसके केश और दाढ़ी भी हरित्वर्णा है।[7] वह स्वेच्छा से विविध रूप धारण कर सकता है।[8] ऋग्वेद इन्द्र के जन्म पर भी प्रकाश डालता है। पूरे दो सूक्त इन्द्र के जन्म से ही सम्बन्धित हैं।[9] ‘निष्टिग्री’ अथवा ‘शवसी’ नामक गाय को उसकी माँ बतलाया गया है।[10] उसके पिता ‘द्यौः’ या ‘त्वष्टा’ हैं।[11] एक स्थल पर उसे ‘सोम’ से उत्पन्न कहा गया है। उसके जन्म के समय द्यावा-पृथ्वी काँप उठी थी। इन्द्र के जन्म को विद्युत् के मेघ-विच्युत होने का प्रतीक माना जा सकता है।[12] इन्द्र के सगे-सम्बन्धियों का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है। अग्नि और पूषन् उसके भाई हैं।[13] इसी प्रकार इन्द्राणी उसकी पत्नी[14] है। संभवतः 'इन्द्राणी' नाम परम्परित रूप से पुरुष (पति) के नाम का स्त्रीवाची बनाने से ही है[15] मूल नाम कुछ और ('शची')[16] हो सकता है। मरुद्गण उसके मित्र तथा सहायक हैं। उसे वरुण, वायु, सोम, बृहस्पति, पूषन् और विष्णु के साथ युग्मरूप में भी कल्पित किया गया है तीन चार सूक्तों में वह सूर्य का प्रतिरूप है।[17] इन्द्र एक वृहदाकार देवता है। उसका शरीर पृथ्वी के विस्तार से कम से कम दस गुना है। वह सर्वाधिक शक्तिमान् है। इसीलिए वह सम्पूर्ण जगत् का एक मात्र शासक और नियन्ता है। उसके विविध विरुद शचीपति (=शक्ति का स्वामी), शतक्रतु (=सौ शक्तियों वाला) और शक्र (=शक्तिशाली), आदि उसकी विपुला शक्ति के ही प्रकाशक हैं। सोमरस इन्द्र का परम प्रिय पेय है। वह विकट रूप से सोमरस का पान करता है। उससे उसे स्फूर्ति मिलती है। वृत्र के साथ युद्धके अवसर पर पूरे तीन सरोवरों को उसने पीकर सोम-रहित कर दिया था। दशम मण्डल के 119वें सूक्त में सोम पीकर मदविह्वल बने हुए स्वगत भाषण के रूप में अपने वीर-कर्मों और शक्ति का अहम्मन्यतापूर्वक वर्णन करते हुए इन्द्र को देखा जा सकता है। सोम के प्रति विशेष आग्रह के कारण ही उसे सोम का अभिषव करने वाले अथवा उसे पकाने वाले यजमान का रक्षक बतलाया गया है। इन्द्र का प्रसिद्ध आयुध ‘वज्र’ है, जिसे कि विद्युत्-प्रहार से अभिन्न माना जा सकता है। इन्द्र के वज्र का निर्माण ‘त्वष्टा’ नामक देवता-विशेष द्वारा किया गया था। इन्द्र को कभी-कभी धनुष-बाण और अंकुश से युक्त भी बतलाया गया है। उसका रथ स्वर्णाभ है। दो हरित् वर्ण अश्वों द्वारा वाहित उस रथ का निर्माण देव-शिल्पी ऋभुओं द्वारा किया गया था। इन्द्रकृत वृत्र-वध ऋग्वेद में बहुधा और बहुशः वर्णित और उल्लिखित है। सोम की मादकता से उत्प्रेरित हो, प्रायः मरुद्गणों के साथ, वह ‘वृत्र’ अथवा ‘अहि’ नामक दैत्यों (=प्रायः अनावृष्टि और अकाल के प्रतीक) पर आक्रमण करके अपने वज्र से उनका वध कर डालता है और पर्वत को भेद कर बन्दीकृत गायों के समान अवरुद्ध जलों को विनिर्मुक्त कर देता है। उक्त दैत्यों का आवास-स्थल ‘पर्वत’ मेघों के अतिरिक्त कुछ नहीं है, जिनका भेदन वह जल-विमोचन हेतु करता है। इसी प्रकार गायों को अवरुद्ध कर रखने वाली प्रस्तर-शिलाएँ भी जल-निरोधक मेघ ही हैं।[18] मेघ ही वे प्रासाद भी हैं जिनमें पूर्वोक्त दैत्य निवास करते हैं। इन प्रासादों की संख्या कहीं 90, कहीं 99 तो कहीं 100 बतलाई गई है, जिनका विध्वंस करके इन्द्र ‘पुरभिद्’ विरुद धारण करता है। वृत्र या अहि के वधपूर्वक जल-विमोचन के साथ-साथ प्रकाश के अनवरुद्ध बना दिये जाने की बात भी बहुधा वर्णित है। उस वृत्र या अहि को मार कर इन्द्र सूर्य को सबके लिये दृष्टिगोचर बना देता है। यहाँ पर उक्त वृत्र या अहि से अभिप्राय या तो सूर्य प्रकाश के अवरोधक मेघ से है, या फिर निशाकालिक अन्धकार से। सूर्य और उषस् के साथ जिन गायों का उल्लेख मिलता है, वे प्रातः कालिक सूर्य की किरणों का ही प्रतिरूप हैं, जो कि अपने कृष्णाभ आवास-स्थल से बाहर निकलती हैं। इस प्रकार इन्द्र का गोपपतित्व भी सुप्रकट हो जाता है। वृत्र और अहि के वध के अतिरिक्त अन्य अनेक उपाख्यान भी इन्द्र के सम्बन्ध में उपलब्ध होते हैं। ‘सरमा’ की सहायता से उसने ‘पणि’ नामक दैत्यों द्वारा बन्दी बनाई गई गायों को छीन लिया था। ‘उषस्’ के रथ का विध्वंस, सूर्य के रथ के एक चक्र की चोरी, सोम-विजय आदि उपाख्यान भी प्राप्त हैं। इन्द्र ने कम्पायमान भूतल और चलायमान पर्वतों को स्थिर बनाया है। चमड़े के समान उसने द्यावापृथिवी को फैला कर रख दिया है। जिस प्रकार एक धुरी से दोनों पहिये निकाल दिये जायँ, उसी प्रकार उसने द्युलोक और पृथ्वी को पृथक् कर दिया है। इन्द्र बड़े उग्र स्वभाव का है। स्वर्ग की शान्ति को भंग करने वाला वही एकमात्र देवता है। अनेक देवताओं से उसने युद्ध किया। उषस् के रथ को उसने भंग किया, सूर्य के रथ का एक चक्र उसने चुराया, अपने अनुयायी मरुतों को उसने मार डालने की धमकी दी। अपने पिता ‘त्वष्टा’ को उसने मार ही डाला। अनेक दैत्यों को भी उसने पराजित और विनष्ट किया, जिसमें से वृत्र, अहि, शम्बर, रौहिण के अतिरिक्त उरण विश्वरूप, अर्बुद, बल, व्यंश और नमुचि प्रमुख हैं। आर्यों के शत्रुभूत दासों अथवा दस्युओं को भी उसने युद्धों में पराभूत किया। कम से कम 50000 अनार्यों का विनाश उसके द्वारा किया गया। इन्द्र अपने पूजकों का सदा रक्षक, सहायक और मित्र रहा है। वह दस्युओं को बन्दी बना कर उनकी भूमि आदि अपने भक्तों में विभक्त कर देता है। आहुति प्रदाता को वह धन-सम्पत्ति से मालामाल कर देता है। उसकी इस दानशीलता के कारण ही उसकी उपाधि ‘मघवन्’ (=ऐश्वर्यवान्) की सार्थकता है। इन्द्र का अनेक ऐतिहासिक पुरुषों से भी साहचर्य उल्लिखित है। उसकी ही सहायता से दिवोदास ने अपने दास-शत्रु तथा कुलितर के पुत्र ‘शम्बर’ को पराजित किया। ‘तुर्वश’ और ‘यदु’ दोनों को नदियों के पार उस इन्द्र ने ही पहुँचाया। दस नृपतियों के विरुद्ध युद्ध में राजा सुदास की उसने सहायता की। इस प्रकार इन्द्र ऋग्वेद का सर्वप्रधान देवता है, जिसे मैक्समूलर सूर्य का वाची, रॉथ मेघों और विद्युत् का देवता, बेनफ़े वर्षाकालिक आकाश का प्रतीक, ग्रॉसमन उज्ज्वल आकाश का प्रतीक, हापकिन्स विद्युत् का प्रतिरूप और मैकडॉनल तथा कीथ आदि पाश्चात्य से लेकर आचार्य बलदेव उपाध्याय जैसे भारतीय विद्वान् वर्षा का देवता मानते हैं।[19] आकार-प्रकार इन्द्र वृहदाकार है। देवता और मनुष्य उसके सामर्थ्य की सीमा को नहीं पहुँच पाते। वह सुन्दर मुख वाला है। उसका आयुध वज्र अथवा शरु है। उसकी भुजाएँ भी वज्रवत् पुष्ट एवं कठोर हैं। वह सप्त संख्यक पर्जन्य रूपी रश्मियों वाला एवं परम कीर्तिमान् है। महाबलशाली ‘नृमणस्य मह्ना स जनास इन्द्रः’ कह कर स्वयं गृत्समद ऋषि ने उसके बलविक्रम का उद्घोष कर दिया है। पर्वत उससे थर-थर काँपते हैं। द्यावा-पृथिवी अर्थात् वहाँ के लोग भी इन्द्र के बल से भय-भीत रहते हैं। वह शत्रुओं की धन-सम्पत्ति को जीत कर उसी प्रकार अपने लक्ष्य की पूर्ति कर लेता है, जिस प्रकार एक आखेटक कुक्कुरों की सहायता से मृगादिक का वध कर व्याध अपनी लक्ष्य-सिद्धि करता है अथवा विजय-प्राप्त जुआरी जिस प्रकार जीते हुए दाँव के धन को समेट कर स्वायत्त कर लेता है। इतना ही नहीं वह शत्रुओं की पोषक समृद्धि को नष्ट-विनष्ट भी कर डालता है। वह एक विकट योद्धा है और युद्ध में वृक् (=भेड़िया) के समान हिंसा करता है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि वह ‘मनस्वान्’ (=मनस्वी) है। रक्षक एवं सहायक इन्द्र अपने भक्तों का रक्षक, सहायक एवं मित्र है। कहा भी है कि--‘यो ब्रह्मणो नाधमानस्य कीरेः.............अविता’।[20] उसकी सहायता के बिना विजयलाभ असम्भव है। इस लिये योद्धा-गण विजय के लिए और अपनी रक्षा के लिये उसका आवाहन करते हैं। यह बात निम्नलिखित मन्त्र से और भी स्पष्ट हो जाती है:- ‘यं क्रन्दसी संयती विह्वयेते परेऽवर उभया अमित्राः। समानं चिद्रथमातस्थिवांसा नाना हवेते स जनास इन्द्रः।।’[21] इन्द्र आर्यों को अनार्यों के विरुद्ध युद्ध में सहायता प्रदान कर उन्हें विजयी बनाता है। एतदर्थ वह वस्तुओं का हनन एवं अपने अपूजकों व विरोधियों का वध करता है। वह जिस पर प्रसन्न हुआ, उसे समृद्ध और जिस पर अप्रसन्न हुआ, उसे कृश (=निर्धन) बना देता है। उसके तत्तद् गुणों के प्रभाव से अश्व, गो, ग्राम एवं रथादि उसके वश में रहते हैं। इस प्रकार वह निखिल विश्व का प्रतिनिधि है। देवता तक उसकी कृपा के पात्र हैं। अनेक सृष्टि-कार्यों का सम्पादक इन्द्र ने अस्थिर पृथ्वी को स्थैर्य प्रदान किया है। इधर-उधर उड़ते-फिरते पर्वतों के पंख-छेदन कर इन्द्र ने ही उन्हें तत्तत् स्थान पर प्रस्थापित किया है। उसने द्यु-लोक को भी स्तब्ध किया और इस प्रकार अन्तरिक्ष का निर्माण किया। दो मेघों के मध्य में वैद्युत् अग्नि अथवा दो प्रस्तर-खण्डों के मध्य में सामान्य अग्नि का जनक इन्द्र ही है। इन्द्र को सूर्य और हवा उषा का उद्भावक भी कहा गया है। वह अन्तरिक्ष-गत अथवा भूतलवर्ती जलों का प्रेरक है। इसीलिए उसे वर्षा का देवता मानते हैं। पृथ्वी को ही नहीं प्रत्युत सम्पूर्ण लोकों को स्थिर करने वाला अथवा उन्हें रचने वाला भी इन्द्र से भिन्न कोई और नहीं है। इससे ‘उसने सभी पदार्थों को गतिमान बनाया’ यह अर्थ ग्रहण करने पर भी इन्द्र का माहात्म्य नहीं घटता। इन्द्र के वीरकर्म इन्द्र ने भयवशात् पर्वतों में छिपे हुए ‘शम्बर’ नाम के दैत्य को 40 वें वर्ष (अथवा शरद् ऋतु की 40 वीं तिथि को) ढूँढ निकाला और उसका वध कर दिया।[22] बल-प्रदर्शन करने वाले ‘अहि’ नामक दानव का भी उसने संहार किया। उक्त ‘अहि’ को मार कर इन्द्र ने समर्पणशील जलों को अथवा गंगा आदि सात नदियों को प्रवाहित किया। हिंसार्थ स्वर्ग में चढ़ते हुए रौहिण असुर को भी इन्द्र ने अपने वज्र से मार डाला। बल नामक दैत्य ने असंख्य गायों को अपने बाड़े में निरुद्ध कर रखा था। उन गायों की लोककल्याणार्थ बलपूर्वक बाहर निकालने का श्रेय इन्द्र को ही है। कुछ विद्वान् अहि-विनाश, वृत्र-वध, शम्बर-संहार एवं बल-विमर्दनादि का ऐक्यारोपण करके सूर्य रूप में इन्द्र द्वारा ध्रुवप्रदेशीय अन्धकार का नाश अथवा जलों को जमा देने वाली घोर सर्दी का विनाश अथवा अहिरूपी मेघों का विमर्दन करके जल-विमोचन अथवा बलरूपी मेघों से आच्छन्न सूर्य की किरणरूपी गायों के विमुक्त किये जाने की कल्पना करते हैं, जो सत्य से अधिक दूर नहीं प्रतीत होता।[23] सोमपानकर्त्ता ‘यः सोमपा’ कह कर ऋषि ने इन्द्र की दुर्व्यसन-परता की ओर भी इंगित किया है। ‘सोम’ इन्द्र का परमप्रिय पेय पदार्थ है। उसके बराबर कोई अन्य देवता सोम-पान नहीं कर सकता। ‘सोम’ उसे युद्धों के लिए शक्ति और स्फूर्ति प्रदान करता है। सोम-सेवी होने के कारण इन्द्र को वे लोग परमप्रिय हैं, जो सोम का अभिषव करते हैं अथवा पका कर उसे सिद्ध करते हैं। ऐसे लोगों की वह रक्षा करता है। इतना ही नहीं, ऐसे प्रिय व्यक्तियों को वह धन-वैभव से पुरस्कृत भी करता है। पूजनीय यह बात दूसरी है कि वह सोम पायी है, अपने अपूजकों का अपने आयुध वज्र से वध करता है, शूद्रों को अधोगति प्रदान करने वाला अथवा अपने अपूजकों को नरक प्रदान करने वाला है, फिर भी वह अपने अन्य सद्गुणों के कारण सर्वथा पूजनीय है। द्यावापृथिवी के प्राणी उसे सदा नमन करते हैं। लोग उससे यह प्रार्थना किया करते हैं कि ‘हे इन्द्र! सुन्दर पुत्र-पौत्रादि से युक्त होकर तथा तुम्हारे प्रियपात्र बने हुए हम सदा तुम्हारी प्रार्थना में तत्पर रहें।’[24] जैसा कि शिव सहस्त्र नामों में वर्णित है देवेंद्र भगवान शिव का नाम है। इस प्रकार स्पष्ट है कि इन्द्र वैदिक देवी-देवताओं में सर्वोपरि और सर्वोत्तम स्थान का अधिकारी है। वृत्र-वध पर कुछ मन्तव्य इन्द्र की चरितावली में वृत्रवध का बड़ा महत्त्व है। इन्द्र और वृत्र के युद्ध को आरम्भ से ही सांकेतिक माना गया है। यास्ककृत निरुक्त में कहा गया है कि 'वृत्र' निरुक्तकारों के अनुसार 'मेघ' है। ऐतिहासिकों के अनुसार त्वष्टा का पुत्र असुर है (इसी मत का विकसित रूप महाभारत[25] और भागवत महापुराण[26] में वर्णित वृत्र-वध आख्यान है।) और ब्राह्मण ग्रन्थों के अनुसार वह 'अहि' (सर्प) समान है जिसने अपने शरीर-विस्तार से जल-प्रवाह को रोक लिया था और इन्द्र के द्वारा विदीर्ण किये जाने पर अवरुद्ध जल प्रवाहित हुआ।[27] निरुक्तकार के मतानुसार वृत्र अन्धकारपूर्ण, आवरण करने वाला है। जल और प्रकाश (विद्युत) का मिश्रण होने से वर्षा होती है ; ऐसा होना रूपक के रूप में युद्ध का वर्णन है।[28] लोकमान्य तिलक के अनुसार इन्द्र सूर्य का प्रतीक है तथा वृत्र हिम का। यह उत्तरी ध्रुव में शीतकाल में हिम जमने और वसंतकालीन सूर्य द्वारा पिघलाने पर नदियों के प्रवाहित होने का प्रतीक है।[29] हिलेब्राण्ट के मत से भी वृत्र हिमानी का प्रतीक है। परन्तु अधिकांश पश्चिमी विद्वान् भी निरुक्त के पूर्वोक्त मत से सहमत हैं और ये लोग मानते हैं कि इन्द्र वृष्टि लाने वाला तूफान का देवता है।[29] देव-युग्म: इन्द्र और वरुण ऋग्वेद में इन्द्र का नाम सात देव-युग्मों में भी आता है। ऐसे युग्मों में 11 सूक्त इन्द्र-अग्नि के लिए हैं, 9 सूक्त इन्द्र-वरुण के लिए, 7 इन्द्र-वायु के लिए, 2 इन्द्र-सोम, 2 इन्द्र-बृहस्पति, 1 इन्द्र-विष्णु और 1 सूक्त इन्द्र-पूषण के लिए हैं।[30] इनमें से सबके साथ इन्द्र की समानता होने के साथ भिन्नताएँ भी हैं। उदाहरण के लिए इन्द्र और वरुण के युग्म को लिया जा सकता है। यद्यपि वरुण का वर्णन काफी कम सूक्तों में है, परन्तु वे इन्द्र के बाद सर्वाधिक महनीय माने गये हैं। 9 सूक्तों में इन्द्र और वरुण का संयुक्त वर्णन है। दोनों में अनेक समानताएँ हैं। कहा गया है कि जगत् के अधिपति इन्द्रावरुण ने सरिताओं के पथ खोदे और सूर्य को द्युलोक में गतिमान बनाया।[31] वे वृत्र को पछाड़ते हैं।[32] युद्ध में सहायक हैं।[33] उपासकों को विजय प्रदान करते हैं।[34] क्रूरकर्मा पामरों पर अपना अमोघ वज्र फेंकते हैं।[35] इन समानताओं के बावजूद दोनों में कई वैषम्य भी हैं:- एक (इन्द्र) युद्ध में शत्रुओं को मारता है। दूसरा (वरुण) सर्वदा व्रतों का रक्षण करता है।[36] वरुण मनुष्यों को विवेक प्रदान कर पोषण करता है और इन्द्र शत्रुओं को इस प्रकार मारता है कि वे पुनः उठ न सके।[37] इसलिए इन्द्र को युद्ध प्रिय माना गया है[38] और वरुण को शान्तिप्रिय, बुद्धिदाता।[39] वरुण का अपना अस्त्र पाश कहा गया है।[40] वरुण व्रत का उल्लंघन करने वाले को दण्ड देते हैं पर पाश को ढीला भी कर देते हैं।[41] वरुण सम्पूर्ण भुवनों के राजा हैं।[42] वरुण की वेश-भूषा जल है।[43] सप्त सिन्धु वरुण के मुख में प्रवाहित है;[44] तथा वे समुद्र में चलने वाली नाव (जहाज) को भी जानते हैं।[45] वरुण का गहरा सम्बन्ध समुद्र से भी है।[46] वरुण औषधियों के भी स्वामी हैं। उनके पास 100 या 1000 औषधियाँ हैं जिनसे वे मृत्यु को जीत लेते हैं तथा भक्तों का पाप-भंजन करते हैं।[47] वरुण अत्यधिक क्षमाशील हैं[48] और जीवन का अंत भी कर सकते हैं तो आयु बढ़ा देने वाले के रूप में भी उनका स्मरण किया गया है।[49] अपवाद रूप में इन्द्र ने भी शुनःशेप की आयु बचायी थी पर वरुण का सामान्य रूप से ऐसा उल्लेख किया गया है। दोनों में और भी कतिपय विभिन्नताएँ हैं। जिस प्रकार इन्द्र भौतिक स्तर पर सबसे बड़े देवता थे उसी प्रकार वरुण नैतिक स्तर पर महनीय देवता थे।[50] आत्म-ज्ञान विषयक कथा उपनिषदों में स्वाभाविक विषयानुसार यदा-कदा इन्द्र को भी ज्ञान-प्राप्ति हेतु उत्सुक दिखाया गया है। छान्दोग्योपनिषद् से ऐसी एक कथा दी जा रही है:- प्रजापति की उक्ति थी कि पापरहित, जराशून्य, मृत्यु-शोक आदि विकारों से रहित आत्मा को जो कोई जान लेता है, वह संपूर्ण लोक तथा सभी कामनाओं को प्राप्त कर लेता है। प्रजापति की उक्ति सुनकर देवता तथा असुर दोनों ही उस आत्मा को जानने के लिए उत्सुक हो उठे, अत: देवताओं के राजा इन्द्र तथा असुरों के राजा विरोचन परस्पर ईर्ष्याभाव के साथ हाथों में समिधाएं लेकर प्रजापति के पास पहुंचे। दोनों ने बत्तीस वर्ष तक ब्रह्मचर्य पालन किया, तदुपरांत प्रजापति ने उनके आने का प्रयोजन पूछा। उनकी जिज्ञासा जानकर प्रजापति ने उन्हें सुन्दर वस्त्रालंकरण से युक्त होकर जल से आपूरित सकोरे में स्वयं को देखने के लिए कहा और बताया कि वही आत्मा है। दोनों सकोरों में अपना-अपना प्रतिबिंब देखकर, संतुष्ट होकर चल पड़े। प्रजापति ने सोचा कि देव हों या असुर, आत्मा का साक्षात्कार किये बिना उसका पराभव होगा। विरोचन संतुष्ट मन से असुरों के पास पहुंचे और उन्हें बताया कि आत्मा (देह) ही पूजनीय है। उसकी परिचर्या करके मनुष्य दोनों लोक प्राप्त कर लेता है। देवताओं के पास पहुँचने से पूर्व ही इन्द्र ने सोचा कि सकोरे में आभूषण पहनकर सज्जित रूप दिखता है, खंडित देह का खंडित रूप, अंधे का अंधा रूप, फिर यह अजर-अमर आत्मा कैसे हुई? वे पुन: प्रजापति के पास पहुंचे। प्रजापति ने इन्द्र को पुन: बत्तीस वर्ष अपने पास रखा तदुपरांत बताया-'जो स्वप्न में पूजित होता हुआ विचरता है, वही आत्मा, अमृत, अभय तथा ब्रह्म हैं।' इन्द्र पुन: पुनः शंका लेकर प्रजापति की सेवा में प्रस्तुत हुए। इस प्रकार तीन बार बत्तीस-बत्तीस वर्ष तक तथा एक बार पांच वर्ष तक (कुल 101 वर्ष तक) इन्द्र को ब्रह्मचर्यवास में रखकर प्रजापति ने उन्हें आत्मा के स्वरूप का पूर्ण ज्ञान कुछ इस तरह करवाया:- यह आत्मा स्वरूप स्थित होने पर अविद्याकृत देह (मरणशील) तथा इन्द्रियों एवं मन से युक्त है। सर्वात्मभाव की प्राप्ति के उपरांत वह आकाश के समान विशुद्ध हो जाता है। आत्मा के ज्ञान को प्राप्त कर मनुष्य कर्तव्य-कर्म करता हुआ अपनी आयु की समाप्ति कर ब्रह्मलोक को प्राप्त होता है और फिर नहीं लौटता।[51] पौराणिक मत पौराणिक देवमण्डल में इन्द्र का वह स्थान नहीं है जो वैदिक देवमण्डल में है। पौराणिक देवमण्डल में त्रिमूर्ति-ब्रह्मा, विष्णु और शिव का महत्व बढ़ जाता है। इन्द्र फिर भी देवाधिराज माना जाता है। वह देव-लोक की राजधानी अमरावती में रहता है। यहीं नन्दन वन है, पारिजात तथा कल्पवृक्ष है। सुधर्मा उसकी राजसभा तथा सहस्र मन्त्रियों का उसका मन्त्रिमण्डल है। शची अथवा इन्द्राणी पत्नी, ऐरावत हाथी (वाहन) तथा अस्त्र वज्र अथवा अशनि है। इनके घोड़े का नाम उच्चैःश्रवा है।[52] जब भी कोई मानव अपनी तपस्या से इन्द्रपद प्राप्त करना चाहता है तो इन्द्र का सिंहासन संकट में पड़ जाता है। अपने सिंहासन की रक्षा के लिए इन्द्र प्राय: तपस्वियों को अप्सराओं से मोहित कर पथभ्रष्ट करता हुआ पाया जाता है। पुराणों में इस सम्बन्ध की अनेक कथाएँ मिलती हैं। पौराणिक इन्द्र शक्तिमान, समृद्ध और विलासी राजा के रूप में चित्रित है। अनेक शक्तियों से युक्त तथा मान्य राजा होने पर भी कभी-कभी इन्हें असंयत एवं उद्धत भी दिखाया गया है, जिसके कारण इनका पतन भी होते रहा है। दुर्वासा के शाप से पतन की एक कथा आगे दी जा रही है। दुर्वासा के शाप की कथा एक बार दुर्वासा ऋषि ने विद्याधरी से प्राप्त सन्तानक पुष्पों की एक माला आशीर्वाद के साथ इन्द्र को दिया। इन्द्र को ऐश्वर्य का इतना मद था कि उन्होंने वह पुष्प अपने हाथी के मस्तक पर रख दिया। पुष्प के प्रभाव से हाथी उसकी सुगन्ध से आकर्षित होकर होकर उसे सूँघकर पृथ्वी पर फेंक दिया। इन्द्र उसे संभालने में असमर्थ रहे। दुर्वासा ने उन्हें श्रीहीन होने का श्राप दिया। अमरावती भी अत्यंत भ्रष्ट हो चली। इन्द्र पहले बृहस्पति की और फिर ब्रह्मा की शरण में पहुंचे। समस्त देवता विष्णु के पास गये। उन्होंने लक्ष्मी को सागर-पुत्री होने की आज्ञा दी। अत: लक्ष्मी सागर में चली गयी। विष्णु ने लक्ष्मी के परित्याग की विभिन्न स्थितियों का वर्णन करके उन्हें सागर-मंथन करने का आदेश दिया। मंथन से जो अनेक रत्न निकले, उनमें लक्ष्मी भी थी। लक्ष्मी ने नारायण को वरमाला देकर प्रसन्न किया। लक्ष्मी ने देवों को त्रिलोक से अब विरहित नहीं होने का वरदान दिया।[53] रामायण में इन्द्र देवताओं का राजा इन्द्र कहलाता था। वाल्मीकीय रामायण में वर्णित है कि मेघगिरि नामक पर्वत् पर देवताओं ने हरित रंग के अश्व वाले पाकशासन इन्द्र को राजा के पद पर अभिषिक्त किया था।[54] रामायण में भी इन्हें वर्षा का देवता माना गया है।[55] गौतम के शाप के परिणामस्वरूप उन्हें मेषवृषण भी कहा गया है।[56] रामायण में इनका चित्रण कठोर शासक, महान् योद्धा, विश्ववन्द्य लोकपाल तथा सहानुभूतिशील देवता के साथ-साथ विलासी, ईर्ष्याशील एवं षड्यंत्री के रूप में भी हुआ है। इन्होंने त्रिशंकु को स्वर्ग में पहुँचा देखकर उसे वहाँ से उल्टा गिरा दिया।[57] इन्होंने अम्बरीष के यज्ञ-पशु का अपहरण कर लिया था।[58] अम्बरीष ने जब ऋचीक के मँझले पुत्र शुनःशेप को यज्ञ-पशु बनाया तो शुनःशेप की स्तुति से प्रसन्न होकर इन्होंने उसे बचाया तथा दीर्घायु बनाया।[59] इनके प्रति आदर भाव तथा संकट से बचाने की भावना जन-सामान्य में बरकरार है। वन-यात्रा में राम की रक्षा के लिए कौसल्या इन्द्र का भी आह्वान करती है।[60] रामायण में इनका षड्यंत्री रूप भी दिखता है। एक सत्यवादी और पवित्र तपस्वी की तपस्या में विघ्न डालने के लिए इन्होंने अपना उत्तम खड्ग धरोहर के रूप में उसे दे दिया था।[61] वैदिक इन्द्र भयभीत नहीं होते थे। रामायण में इन्द्र भी रावण के भय से काँप उठते थे।[62] मरुत्त के यज्ञ के समय रावण को उपस्थित देखकर इन्द्र मोर बन गये थे।[63] हालाँकि इनकी वीरता असंदिग्ध रही है। शची से विवाह के लिए इन्होंने शची के पिता पुलोम तथा छलपूर्वक शची को हरने वाले अनुह्लाद को भी मार डाला था।[64] रावण के स्वर्ग पर आक्रमण के समय देवसेना को विनष्ट होते देखकर इन्होंने बिना किसी घबराहट के रावण का सामना कर उसे युद्ध से विमुख कर दिया था।[65] मेघनाद माया के बल से ही इन्हें बन्दी बना पाया था।[66] राम-रावण युद्ध देखकर देव-गन्धर्व-किन्नरों ने कहा कि यह युद्ध समान नहीं है क्योंकि रावण के पास तो रथ है और राम पैदल हैं। अत: इन्द्र ने अपना रथ राम के लिए भेजा, जिसमें इन्द्र का कवच, विशाल धनुष, बाण तथा शक्ति भी थे। विनीत भाव से हाथ जोड़कर मातलि ने रामचंद्र से कहा कि वे रथादि वस्तुओं को ग्रहण करें और जैसे महान् इन्द्र दानवों का संहार करते हैं, उसी तरह रावण का वध करें।[67] युद्ध-समाप्ति के बाद राम ने मातलि को आज्ञा दी कि वह इन्द्र का रथ आदि लौटाकर ले जाय।[68] इन्द्र-अहल्या प्रसंग इन्द्र के प्रसंग में कुछ लोग अहल्या की पौराणिक (विशेषतः वाल्मीकीय रामायण और रामचरितमानस आदि की) कथा को मनगढ़ंत वैदिक सन्दर्भ देकर उसकी मनमानी व्याख्या करके अपनी विद्वता का अनर्थक प्रदर्शन करते हैं। वैसे लोग वैदिक सन्दर्भ के नाम पर अहल्या का अर्थ 'बिना हल चलायी हुई भूमि' (बंजर भूमि) अर्थ करते हैं। इस सन्दर्भ में अनिवार्यतः ध्यातव्य पहली बात यह है कि ऋग्वेद में 'अहल्या' या 'अहिल्या' शब्द का प्रयोग हुआ ही नहीं है।[69] ऋग्वेद ही नहीं, अन्य वैदिक संहिताग्रन्थों में भी यह शब्द नहीं है। ब्राह्मण ग्रन्थों में इसका उल्लेख मात्र है। शतपथ ब्राह्मण (३.३.४.१८) में इन्द्र के लिए 'अहल्यायै जार' शब्द का प्रयोग हुआ है।[70] स्पष्टतः यह प्रयोग उसी कथा की ओर संकेत करता है जिसका वर्णन वाल्मीकीय रामायण आदि ग्रन्थों में है। दूसरी बात यह कि ऋग्वेद में 'हल' शब्द का भी प्रयोग नहीं हुआ है। कृषिकार्य में प्रयुक्त हल के लिए ऋग्वेद में 'लांगल' शब्द का प्रयोग हुआ है।[71] हल के लिए प्रयुक्त दूसरा शब्द है 'सीरा' (डाॅ. सूर्यकान्त ने 'वैदिक कोश' में सम्भवतः 'वैदिक इण्डेक्स'[72] के प्रभाव में 'सीर' शब्द ही लिखा है,[73] परन्तु सही शब्द 'सीरा' है।)[74] अन्य संहिता ग्रन्थों तथा ब्राह्मणों में भी 'हल' का प्रयोग नहीं है।[75] वस्तुतः हल का प्रयोग वेदांगों के समय में सम्भवतः आरंभ हुआ होगा और लौकिक संस्कृत में ही इसका अधिक प्रयोग हुआ है। ऐसी स्थिति में अहल्या की पूर्वोक्त व्याख्या कम-से-कम वैदिक सन्दर्भों से भिन्न अथवा दूर अवश्य है। रही प्रतीकात्मक व्याख्या की बात तो वह तो अनेकानेक पौराणिक कथाओं के लिए सम्भव है और ऐसे प्रयत्न होते भी रहे हैं। परन्तु इन्द्र तथा अहल्या की कथा को मनगढ़ंत वैदिक संस्पर्श देकर उसके कथारूप को राम का ईश्वरत्व सिद्ध करने के लिए रामकथा के कवियों की कल्पना मानना वास्तव में राम तथा ईश्वर के प्रति अपनी तथ्यहीन अश्रद्धा प्रकट करना ही है जो वस्तुतः अपनी व्यक्तिगत मान्यता की बात है; किसी ज्ञानकोशीय सामग्री के लिए सर्वथा अनुपयुक्त है। कथा वाल्मीकीय रामायण में इन्द्र-अहल्या प्रसंग की कथा दी गयी है। इन्द्र ने गौतम की धर्मपत्नी अहल्या का सतीत्व अपहरण किया था। कहानी इस प्रकार है- शचीपति इन्द्र ने आश्रम से गौतम की अनुपस्थिति जानकर और मुनि का वेष धारण कर अहल्या से कहा।। 17।। हे अति सुन्दरी! कामीजन भोगविलास के लिए ऋतुकाल की प्रतीक्षा नहीं करते, अर्थात यह बात नहीं मानते कि जब स्त्री मासिक धर्म से निवृत हों केवल तभी उनके साथ समागम करना चाहिए। अतः हे सुन्दर कमर वाली! मैं तुम्हारे साथ समागम करना चाहता हूं।। 18।। विश्वामित्र कहते हैं कि हे रघुनन्दन! वह मूर्खा मुनिवेशधारी इन्द्र को पहचान कर भी इस विचार से कि 'स्वयं देवराज इन्द्र मुझे चाहते हैं', इस प्रस्ताव से सहमत हो गयी।। 19।। तदनंतर (समागम के पश्चात्) वह संतुष्टचित्त होकर देवताओं में श्रेष्ठ इन्द्र से बोली कि हे सुरोत्तम! मैं कृतार्थ हो गयी। अब आप यहां से शीघ्र चले जाइये।। 20।। तब इन्द्र ने भी हँसते हुए कहा कि हे सुन्दर नितम्बों वाली! मैं पूर्ण सन्तुष्ट हूं। अब जहां से आया हूं, वहां चला जाऊँगा। इस प्रकार अहल्या के साथ संगम कर वह कुटिया से निकला।[76] वाल्मीकीय रामायण में इस प्रसंग का काफी हद तक मानवीय रूप में वर्णन है। यहाँ अहल्या के पत्थर या नदी होने का उल्लेख भी नहीं है। शाप में बस यही कहा गया है कि वह लम्बे समय तक सबसे छिपकर (अदृश्य) रहेगी। वायु पीकर ही अर्थात् उपवास करती हुई रहेगी और राम के आने पर उनका आतिथ्य-सत्कार करने पर पूर्व रूप में आ जाएगी।[77] शाप की समाप्ति के बारे में भी स्पष्ट लिखा है कि राम के दर्शन से पहले उसको देख पाना किसी के लिए कठिन था (दुर्निरीक्ष्या), राम के दर्शन हो जाने पर वह सबको दिखायी देने लगी।[78] इससे पूरी तरह स्पष्ट है कि शिला(पत्थर) या नदी होने की कल्पना वाल्मीकीय रामायण से बहुत बाद की है। त्रिदेवों की श्रेष्ठता स्थापित होने तथा इन्द्र की महत्ता निरन्तर कम होने के क्रम में ही सारा दोष इन्द्र पर ही मढ़ दिया गया और अहल्या का चरित्र पावन माना गया। कतिपय विद्वानों ने इस कथा को प्रतीकात्मक अर्थ देने का प्रयत्न किया है।[79] धार्मिक ग्रन्थों में रहस्यवादी शब्दावली का प्रयोग प्राचीनकाल से प्रचलित है उसपर वैदिक शब्दावली सोने पे सुहागा का काम करती थी अत: उपरोक्त कथन प्रतीकात्मक भी हो सकता है। विश्लेषण करने पर भिन्न-भिन्न अर्थ सामने आते हैं:- लौकिक संस्कृत में अहल्या का एक अर्थ होता है " बिना हल चली " यानि बंजर भूमि। जैसा कि ज्ञात ही है इंद्र दूसरे देशों (असुरो के) पर आक्रमण करता था तो परिणाम स्वरूप हरी-भरी भूमि बंजर हो जाती थी (उस समय लोग कृषि पर निर्भर रहते थे और खेती ही उनका मुख्य भोजन का स्रोत भी था।) इंद्र, इस भोजन के स्रोत या जंगल के स्रोत जिससे फल, कंद-मूल आदि मिलते थे उन्हें नष्ट कर के अपने दुश्मनों को नुकसान पहुँचाता था। कालांतर में विश्वामित्र ने राम से जब कहा कि ये अहल्या है, तो हो सकता है उनका तात्पर्य हो कि ये "बिना हल चली" यानि बंजर भूमि है इसे उपजाऊ बनाओ और राम ने उस भूमि को फिर से उपजाऊ बनाया हो। दूसरा प्रसंग 'नदी' के सन्दर्भ में 'ब्रह्मपुराण (87-59)" और "आनंद रामायण (1.3.21)" के अनुसार हो सकता है। अपभ्रंश में 'सिरा '(शिला) शब्द के दो अर्थ हैं एक तो पत्थर और दूसरा सूखी नदी। जैसा कृषि के रूप में विश्लेषण किया गया है उसी तरह यह भी हो सकता है कि वस्तुत: कोई नदी होगी जो इंद्र के दुश्मन देश में जाती होगी और उसके मुख्य पानी के स्रोत को इंद्र ने सुखा दिया होगा ताकि दुश्मन देश को पानी न मिल सके और बाद में राम ने इसे जलयुक्त बनाया होगा। इस प्रकार देखें तो अहल्या-प्रसंग प्रकृति का मानवीकरण मात्र है। महाभारत में इन्द्र महाभारत में इन्द्र का पौराणिक स्वरूप ही मिलता है। यहां उनका वैदिक-साहित्य में वर्णित गौरव नहीं रह गया है। इन्हें विशेषतः 'शक्र' नाम से सम्बोधित किया गया है।[80] अपना देवराज पद खो जाने का भय इन्हें बराबर सताया करता है और इससे बचने के लिए ये उचित-अनुचित प्रयत्न करते रहते हैं। विश्वामित्र के तप से भयभीत होकर मेनका नामक अप्सरा को उनका तप भंग करने भेजा।[81] शरद्वत के तप से भयभीत होकर जानपदी नामक अप्सरा को उनका तप भंग करने भेजा।[82] यवक्रीत के तप से भयभीत होकर इन्द्र ने एक ब्राह्मण का रूप धारण कर उन्हें तप से विरत किया।[83] वाल्मीकीय रामायण में वर्णित अहल्या-प्रसंग का उल्लेख महाभारत में भी मिलता है। यहाँ उसे बलात्-कार्य माना गया है।[84] ऋग्वेद में उल्लिखित इन्द्र के 'हरिश्मश्रु' होने का कथात्मक समर्थन महाभारत में भी मिलता है। यहाँ कहा गया है कि गौतम के शाप के कारण ही इन्द्र को हरिश्मश्रु (हरी दाढ़ी-मूँछों से युक्त) होना पड़ा।[85] ये ही अर्जुन के पिता थे। वृत्रासुर के भय से सभी देवताओं ने अपनी शक्तियाँ इन्हें समर्पित कर दी थी। इसलिए अर्जुन को उनसे ही दिव्यास्त्र प्राप्त करने के लिए कहा गया।[86] इनसे सम्बन्धित अनेक कहानियाँ महाभारत में दी गयी हैं। इन्द्र एक 'पद' का नाम इन्द्र वस्तुतः एक पद का नाम है। देवताओं के राजा के पद को 'इन्द्र' कहते हैं। उस पद पर बैठने वाले व्यक्ति का नाम भी इन्द्र हो जाता है। इसके संकेत तो अनेक पौराणिक कथाओं एवं विवरणों में मिलता है, परन्तु महाभारत के अनेक सन्दर्भों से यह भलीभाँति स्पष्ट हो जाता है कि यह एक पद का नाम है। जिन-जिन कथाओं में ये पद छिन जाने से भयभीत होते हैं उन कथाओं के साथ इन्द्र बनने की अन्य व्यक्तियों की कथाओं को मिलाकर देखने पर बात बिल्कुल स्पष्ट हो जाती है। अनेक जगह 'इन्द्र' शब्द का व्यक्तिवाची प्रयोग न होकर पदवाची ('इन्द्रत्व') प्रयोग हुआ है। कुछ सन्दर्भ द्रष्टव्य हैं:- शिव ने इन्द्र को मूर्छित कर पूर्वकाल के अन्य चार इन्द्रों के साथ एक गुफा में डाल दिया।[87] इन्द्रपद('ऐन्द्रं प्रार्थयते स्थानं') की अभिलाषा रखने वाले नरकासुर का विष्णु ने वध किया।[88] शक्र के नेतृत्व में ऋषियों, देवताओं ने(तथा स्वयं शक्र ने भी) स्कन्द से देवों का 'इन्द्र' बनने के लिए कहा।[89] ब्रह्महत्या से ग्रस्त हो जाने पर शक्र के इन्द्र-पद छोड़ देने पर नहुष 'इन्द्र' बने। बाद में नहुष का पतन होने पर विष्णु के आदेशानुसार अश्वमेध यज्ञ का अनुष्ठान करके शक्र ने पुनः इन्द्र-पद प्राप्त किया।[90] इनके सिवा भी इन्द्र-पद (इन्द्रत्व) के अनेक स्पष्ट उल्लेख महाभारत में उपलब्ध हैं।[91] श्रीविष्णुपुराण में तृतीय अंश के प्रथम एवं द्वितीय अध्याय में तथा भागवत महापुराण के अष्टम स्कन्ध के प्रथम एवं त्रयोदश अध्याय में 14 मन्वन्तरों के अलग-अलग इन्द्रों के नाम दिये गये हैं।[92] अवांतर कथा महाकवि स्वयम्भू विरचित 'पउम चरिउ' महाकाव्य की अट्ठमो संधि (आठवीं संधि) में एक ऐसे व्यक्ति की कथा दी गयी है जिसने देवराज इन्द्र से प्रभावित होकर अपने नाम के साथ सब कुछ इन्द्रवत् करना चाहा था। रथनूपुर नगर के विद्याधर राजा सहस्रार की सुनितम्बिनी पीनपयोधरा पत्नी का नाम था मानस सुन्दरी। सुरश्री से(देव-शोभा निरीक्षण के पश्चात्) उसे जो पुत्र हुआ, उसका नाम इन्द्र रखा गया। इन्द्र जब राजा बना तो सहायक विद्याधरों में से मंत्री का नाम रखा बृहस्पति, हाथी ऐरावत, इसी प्रकार पवन, कुबेर, वरुण, यम और चन्द्र तथा अपनी गायिकाओं के नाम उर्वशी, रम्भा, तिलोत्तमा आदि रखकर घोषित किया कि इन्द्र के जो-जो चिह्न हैं वे मेरे भी हैं। मैं पृथ्वी मंडल का इन्द्र हूँ। उसकी समृद्धि की बात सुनकर लंका के शासक राक्षस मालि ने अपने भाई सुमालि तथा विशाल सेना के साथ आक्रमण किया। घमासान युद्ध के पश्चात् राक्षसराज मारा गया तथा सुमालि पाताल लंका में प्रवेश कर गया। इन्द्र कुछ समय के लिए इन्द्रवत् शासन करने लगा।[93] यह कथा पउम चरिउ की अन्य अनेक कथाओं की तरह ही संस्कृत-परम्परा से बिल्कुल भिन्न है। वाल्मीकीय रामायण में इस विद्याधर इन्द्र का उल्लेख तो नहीं ही है, मालि (माली) के वध के बारे में भी स्पष्ट लिखा है कि राक्षसों द्वारा स्वर्गलोक पर आक्रमण के समय द्वन्द्व युद्ध में विष्णु ने सुदर्शन चक्र से उसका वध कर डाला।[94] जैन धर्म में इन्द्र बौद्ध धर्म में इन्द्र अन्य सभ्यताओं में इन्द्र बोगाजकोई शिलालेख के अनुसार मितन्नी जाति के देवताओं में वरुण, मित्र एवं नासत्यों (अश्विन्) के साथ इन्द्र का भी उल्लेख मिलता है (1400 ई.पू.)। ईरानी धर्म में इन्द्र का स्थान है, परन्तु देवतारूप में नहीं, दानवरूप में। वेरेथ्रघ्न वहाँ विजय का देवता है, जो वस्तुतः 'वृत्रघ्न' (वृत्र को मारने वाला) का ही रूपान्तर है। इसी कारण डाॅ.कीथ इन्द्र को भारत-पारसीक एकता के युग से सम्बद्ध मानते हैं।[19] सन्दर्भ श्रेणी:हिन्दू धर्म श्रेणी:इन्द्र श्रेणी:हिन्दू देवी-देवता
हिंदू धर्म के अनुसार देवताओं का राजा कौन है?
इन्द्र
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रमेश पोखरियाल "निशंक" (जन्म 15 जुलाई १९५८) एक भारतीय राजनीतिज्ञ हैं। वे उत्तराखण्ड भारतीय जनता पार्टी के प्रमुख नेता हैं और एक हिन्दी कवि भी हैं।वे वर्तमान समय में हरिद्वार क्षेत्र से लोक सभा सांसद है और लोक सभा आश्वासन समिति के अध्यक्ष हैं। डाॅ0 रमेश पोखरियाल जी उत्तराखण्ड राज्य के पाँचवे मुख्यमंत्री रहे हैं। व्यक्तिगत जीवन उनका जन्म पिनानी ग्राम, पौड़ी गढ़वाल तत्कालीन उत्तर प्रदेश (अब उत्तराखण्ड) परमानन्द पोखरियाल और विश्वम्भरी देवी के घर में हुआ था। रमेश पोखरियाल 'निशंक' का विवाह कुसुम कांत पोखरियाल से हुआ। उन्होंने हेमवती नंदन बहुगुणा गढ़वाल यूनिवर्सिटी, श्री नगर , (गढ़वाल) उत्तराखंड से कला स्नातकोत्तर, पीएचडी (ऑनर), डी लिट् (ऑनर) की डिग्री प्राप्त की।छात्र ज़ीवन के दौरान, उन्होंने अकादमिक और अतिरिक्त गतिविधियों (पाठ्यक्रम के अतिरिक्त) दोनों में उत्कृष्ट प्रदर्शन कर  विभिन्न सम्मानों को प्राप्त किया हैं। राजनैतिक जीवन रमेश पोखरियाल 'निशंक' भारतीय जनता पार्टी से संबंधित एक भारतीय राजनीतिज्ञ हैं।१९९१ में वे प्रथम बार उत्तर प्रदेश विधानसभा के लिए कर्णप्रयाग निर्वाचन-क्षेत्र से चुने गए थे। इसके बाद १९९३ और १९९६ में पुनः उसी निर्वाचन-क्षेत्र से उत्तर प्रदेश विधानसभा के लिए चुने गए। १९९७ में वे उत्तर प्रदेश राज्य सरकार के उत्तरांचल विकास मंत्री बनें। वह 16 वीं लोकसभा में संसद के एक सदस्य है, तथा 2009 से 2011 तक उत्तराखंड के मुख्यमंत्री थे। वर्तमान में लोकसभा में उत्तराखंड के हरिद्वार संसदीय निर्वाचन क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करतें है और भारतीय जनता पार्टी के एक वरिष्ठ सदस्य है। वर्ष 1991 से वर्ष 2012 तक पाँच बार उ0प्र0 एंव उत्तराखण्ड की विधानसभा में विधायक। वर्ष 1991 में पहली बार उत्तर प्रदेश में कर्णप्रयाग विधान सभा क्षेत्र से विधायक निर्वाचित तत्पश्चात लगातार तीन बार विधायक। वर्ष 1997 में उत्तर प्रदेश सरकार में श्री कल्याण सिंह मंत्रीमण्डल में पर्वतीय विकास विभाग के कैबिनेट मंत्री तत्पश्चात वर्ष 1999 में श्री रामप्रकाश गुप्त की सरकार में संस्कृति पूर्त एवं धर्मस्व मंत्री। वर्ष 2000 में उत्तराखण्ड राज्य निर्माण के बाद प्रदेश के पहले वित्त, राजस्व, कर, पेयजल सहित 12 विभागों के मंत्री। वर्ष 2007 में उत्तराखण्ड सरकार में चिकित्सा स्वास्थ्य, भाषा तथा विज्ञान प्रौद्योगिकी विभाग के मंत्री। वर्ष 2009 में उत्तराखण्ड प्रदेश के सबसे युवा मुख्यमंत्री। वर्ष 2012 में डोईवाला (देहरादून) क्षेत्र से विधायक निर्वाचित वर्ष 2014 में डोईवाला से इस्तीफा देकर हरिद्वार लोकसभा क्षेत्र से सांसद निर्वाचित। वर्तमान में लोकसभा की सरकारी आश्वासन समिति के सभापति। मुख्यमंत्री कार्यकाल  2009 से 2011 तक उत्तराखंड के पाँचवे मुख्यमन्त्री रहें। डॉ निशंक ने मुख्य्मंत्रीकाल में राजनैतिक कौशल, ज्ञान और ध्वनि समन्वय कौशल की सहायता से उत्तराखंड राज्य में हरिद्वार और उधम सिंह नगर को शामिल करने जैसे जटिल और संवेदनशील मुद्दों को सुलझाया। अंतरराष्ट्रीय फोरम में हिमालयी संस्कृति को लाने के लिए अनगिनत सफल प्रयास किए गए।राज्य से संचालित करने के लिए लघु उद्योग को प्रोत्साहित करने के लिए केंद्रीय बिक्री कर 4% से 1% कम किया। राज्य के सभी आवश्यक वस्तुओं और वस्तुओं के लिए 364 डिपो खोले और इस तरह से 61.75 करोड़ से 128 करोड़ रुपये के राजस्व में वृद्धि हुई। कुल कर संग्रहण में  575 करोड़ रुपये से 1100 करोड़  की बढ़ोतरी |  विज्ञान और प्रौद्योगिकी की सहायता से पहाड़ी क्षेत्रों में  रहने वाले लोगों की जीवन शैली और जीवन शैली के स्तर को बढ़ाने के लिए कई योजनाओं को प्रारंभ किया। गंगा नदी की स्वछता तथा उसे प्रदूषण मुक्त करने के लिए स्पर्श गंगा अभियान की शुरुआत की।   साहित्यिक जीवन डाॅ0 निशंक बचपन से ही कविता और कहानियां लिखते रहे। हालांकि उनका पहला कविता संग्रह वर्ष 1983 में ‘समर्पण’ प्रकाशित हुआ। अब तक आपके 10 कविता संग्रह, 12 कहानी संग्रह, 10 उपन्यास, 2 पर्यटन ग्रन्थ, 6 बाल साहित्य, 2 व्यक्तित्व विकास सहित कुल 4 दर्जन से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं आज भी तमाम व्यस्तताओं के बावजूद उनका लेखन जारी है। डाॅ0 रमेश पोखरियाल ‘निशंक’ मौलिक रूप से साहित्यिक विधा के व्यक्ति हैं। अब तक हिन्दी साहित्य की तमाम विधाओं (कविता, उपन्यास, खण्ड काव्य, लघु कहानी, यात्रा साहित्य आदि) में प्रकाशित उनकी कृतियों ने उन्हें हिन्दी साहित्य में सम्मानजनक स्थान दिलाया है। राष्ट्रवाद की भावना उनमें कूट-कूट कर भरी हुई है। यही कारण है कि उनका नाम राष्ट्रकवियों की श्रेणी में शामिल है। यह डाॅ0 ‘निशंक’ के साहित्य की प्रासंगिकता और मौलिकता है कि अब तक उनके साहित्य को विश्व की कई भाषाओं (जर्मन, अंग्रेजी, फ्रैंच, तेलुगु, मलयालम, मराठी आदि) में अनूदित किया जा चुका है। इसके अलावा उनके साहित्य को मद्रास, चेन्नई तथा हैंबर्ग विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में शामिल किया गया है। उनके साहित्य पर अब तक कई शिक्षाविद् (डाॅ0 श्यामधर तिवारी, डाॅ0 विनय डबराल, डाॅ0 नगेन्द्र, डाॅ0 सविता मोहन, डाॅ0 नन्द किशोर और डाॅ0 सुधाकर तिवारी) शोध कार्य तथा पी.एचडी. रिपोर्ट लिख चुके हैं। अब भी डाॅ0 ‘निशंक’ के साहित्य पर कई राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालयों (गढ़वाल विश्वविद्यालय, कुमाऊं विश्वविद्यालय, सागर विश्वविद्यालय मध्य प्रदेश, रोहेलखण्ड विश्वविद्यालय, मद्रास विश्वविद्यालय, हैंबर्ग विश्वविद्यालय जर्मनी, लखनऊ विश्वविद्यालय तथा मेरठ विश्वविद्यालय) में शोध कार्य जारी है। अब तक डाॅ0 ‘निशंक’ की प्रकाशित कृतियां निम्न हैः- प्रमुख कृतियाँ कहानी संग्रह 1. रोशनी की एक किरण (1986)2. बस एक ही इच्छा (1989)3. क्या नहीं हो सकता (1993)4. भीड़ साक्षी है (1993)5. एक और कहानी (2002)इसके अतिरिक्त भी उनके अन्य कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुके है | उपन्यास संग्रह 1. मेजर निराला (1997)2. पहाड़ से ऊंचा (2000)3. बीरा (2008)4. निशान्त (2008) इसके अतिरिक्त भी उनके अन्य उपन्यास संग्रह प्रकाशित हो चुके है | मुख्य लेख 1. हिमालय का महाकुम्भः नन्दा देवी राजजात (पावन पारम्परिक यात्रा), 20092. स्पर्श गंगा: उत्तराखण्ड की पवित्र नदियां3. आओ सीखें कहानियों से (बाल कहानियां- हिन्दी एवं अंग्रेजी), 20104. सफलता के अचूक मंत्र (व्यक्तित्व विकास- हिन्दी एवं अंग्रेजी), 2010 5. कर्म पर विश्वास करें, भाग्य पर नहीं (व्यक्तित्व विकास), 2011 विभिन्न भाषाओं में अनूदित कृतियाँ 1. खड़े हुए प्रश्न      (कहानी संग्रह)     En Kelvikku Ennabathil   (तमिल)2. ऐ वतन तेरे लिए  (कविता संग्रह)     Tayanade Unakkad         (तमिल)3. ऐ वतन तेरे लिए  (कविता संग्रह)     Janmabhoomi   (तेलुगु)4. भीड़ साक्षी है      (कहानी संग्रह)     The Crowd Bears Witness  (अंग्रेजी)5. बस एक ही इच्छा (कहानी संग्रह)     Nur Ein Wunsch             (जर्मन)इसके अतिरिक्त भी उनकी कविता, उपन्यास , कहानी  आदि का कई भाषाओ मई अनुवादन हो चूका है | पुरस्कार और सम्मान माॅरिशस गणतंत्र द्वारा देश के सर्वोच्च माॅरिशस सम्मान से सम्मानित ग्लोबल आर्गेनाईजेशन आॅफ इण्डियन आॅरिजन (गोपियो) द्वारा असाधारण उपलब्धि सम्मान। देश विदेश की अनेक साहित्यक एंव सामाजिक संस्थाओं द्वारा राष्ट्र गौरव, भारत गौरव, प्राईड आॅफ उत्तराखण्ड एवं यूथ आॅकन अवार्ड  भारत सरकार द्वारा ‘‘हिमालय का महाकुम्भ- नंदा राज जात’’ पुस्तक पर वर्ष 2008-09 का राहुल सांकृत्यायन पुरस्कार। अंतर्राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, कोलम्बो द्वारा साहित्य के क्षेत्र में डी.लिट. की मानद उपाधि। ग्राफिक इरा, डीम्ड विश्वविद्यालय, उत्तराखण्ड द्वारा साहित्य के क्षेत्र में डी.लिट. की मानद उपाधि। पूर्व राष्ट्रपति डाॅ0 ए.पी.जे. अब्दुल कलाम द्वारा साहित्य गौरव सम्मान। सुप्रसिद्ध फिल्म निर्माता पद्मश्री रामानन्द सागर एवं मुंबई की विभिन्न साहित्य संस्थाओं द्वारा साहित्यचेता सम्मान। असाधारण एवं उत्कृष्ट साहित्य सृजन हेतु श्रीलंका, हाॅलैंड, नौर्वे, जर्मनी और माॅस्को में सम्मानित। भारत गौरव सम्मान। हिन्दी गौरव सम्मान। साहित्य भूषण सम्मान। साहित्य मनीषि सम्मान। हिन्दी साहित्य सम्मेलन, इलाहाबाद (उ0प्र0) द्वारा विद्या वाचस्पति की उपाधि। नालंदा विद्यापीठ, बिहार द्वारा साहित्य वाचस्पति की उपाधि। साहित्य तथा राजनीति  में उत्कृष्ट योगदान हेतु डाॅ0 निशंक को राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर लगभग 300 से अधिक संस्थाओं एवं संगठनों द्वारा सम्मानित किया जा चुका है। डाॅ0 ‘निशंक’ के साहित्य पर विद्वतजनों के अभिमत ‘‘डाॅ0 रमेश पोखरियाल ‘निशंक’, साहित्यिक विधाओं का बेजोड़ संगम हैं। उनकी कविताएं जहां एक ओर आमजन को राष्ट्रीयता की भावना से जोड़ती हैं, वहीं उनकी कहानियां पाठकों को आम आदमी के दुःख-दर्द व यथार्थता से परिचित कराती हैं। मैं गर्व से कह सकता हूँ कि मैं भारत के एक ऐसे व्यक्ति से मिला हूँ, जो विलक्षण, उदार हृदय, विनम्र, राष्ट्रभक्त, प्रखर एवं संवेदनशील साहित्यकार है।’’ -सर अनिरुद्ध जगन्नाथ, महामहिम राष्ट्रपति, माॅरिशस गणराज्य‘‘डाॅ0 ‘निशंक’ जैसे रचनात्मक एवं संवेदनशील साहित्यकार को सम्मानित करते हुए मैं गर्व का अनुभव कर रहा हूँ। डाॅ0 निशंक द्वारा लिखी गई कहानियों को मैंने गंभीरता से पढ़ा। उनकी कहानियों में हिमालयी जीवन के दुःख-दर्द एवं जीवट परिस्थितियों का साक्षात प्रतिविम्ब देखा जा सकता है। -डाॅ0 नवीन रामगुलाम, मा. प्रधानमंत्री, माॅरिशस गणराज्य‘‘राजनीति में अत्यंत व्यस्त होने के बावजूद निरंतर लेखन डाॅ. निशंक की साहित्य प्रतिभा को दर्शाता है। उनका लेखन राष्ट्र और लोगों को आपस में जोड़ता है।’’ -पद्मश्री रस्किन बाॅण्ड, विख्यात साहित्यकार‘‘डाॅ. निशंक की रचनाएं पिछड़े और गरीब तबके की पीड़ा को सामने लाता है। जो समस्त विश्व के पिछड़े समाज के संघर्ष को प्रदर्शित करता है।’’ -डेविड फ्राउले, सुप्रसिद्ध अमेरिकी लेखक।‘‘मैंने डाॅ0 निशंक की महान कृति ‘ए वतन तेरे लिए’ को पढ़ा, समझा और उनका मनन किया। मैं विश्वास के साथ कह सकता हूँ कि हिमालय से निकली ‘निशंक’ की गंगामयी काव्यधारा राष्ट्र के निर्माण में नींव का पत्थर बनेगी। डाॅ0 निशंक ने कवि के रूप में दैदीप्यमान सूर्य की तरह सशक्त उपस्थिति दर्ज कराई है। उनकी अबाध साहित्यिक यात्रा हिन्दी की समृद्धि एवं श्रीवृद्धि में बड़ी भूमिका निभाएगी।’’ -डाॅ0 एपीजे अब्दुल कलाम, भारत के तत्कालीन महामहिम राष्ट्रपति। (जून 2007)‘‘सक्रिय राजनीति में रहते हुए भी जिस तरह से डाॅ0 ‘निशंक’ साहित्य के क्षेत्र में लगातार संघर्षरत हैं, वह आम आदमी के बस की बात नहीं है। मुझे पूर्ण विश्वास है कि वे अपनी लेखनी के जरिए देश के नीति नियंताओं के समक्ष विभिन्न मुद्दों को लेकर अनेक प्रश्न खड़े करते रहेंगे।’’ -श्री अटल बिहारी वाजपेयी, भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री। (मई 2007)‘‘समर्पण एवं नवांकुर की कविताएं अत्यंत सुंदर हैं। सरल और सरस भाषा के माध्यम से कवि बहुत कुछ कह गया है।’’ -श्री हरिवंशराय बच्चन, विख्यात साहित्यकार‘‘मैं हमेशा से ही ‘निशंक’ की राष्ट्रभक्ति से परिपूर्ण कविताओं से प्रभावित रहा हूँ। मैंने उन्हें सदैव राष्ट्रकवि के रूप में देखा है।’’ -पद्मश्री रामानन्द सागर, फिल्म निर्माता, निर्देशक।‘‘शब्द कभी नहीं मरते। डाॅ0 निशंक के ये देशभक्तिपूर्ण गीत हमेशा के लिए लोगों की जुबां पर रहेंगे।’’ -अमिताभ बच्चन, सदी के महानायक। सन्दर्भ श्रेणी:भारतीय राजनीतिज्ञ श्रेणी:भारतीय जनता पार्टी श्रेणी:उत्तराखण्ड के मुख्यमन्त्री श्रेणी:भारतीय जनता पार्टी के मुख्यमंत्री
रमेश पोखरियाल का जन्म कब हुआ था?
15 जुलाई १९५८
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अभिनव भारत सोसायटी एक गुप्त संस्था थी जिसकी स्थापना १९०४ में विनायक दामोदर सावरकर और उनके भाई गणेश दामोदर सावरकर ने की थी। [1] आरम्भ में नासिक में इसका आरम्भ एक 'मित्र मेले' के रूप में किया गया था। उस समय विनायक सावरकर पुणे के फर्ग्युसन कॉलेज में अध्ययनरत थे। बाद में अभिनव भारत सोसायटी का प्रसार हुआ और सैकड़ों क्रान्तिकारी तथा राजनैतिक कार्यकर्ता इससे जुड़ गए तथा भारत के विभिन्न भागों में कई शाखाएँ खुल गयीं। बाद में जब सावरकर अध्ययन के लिए लन्दन गए तो वहाँ भी इस संस्था की गतिविधियाँ फैलने लगीं। इस संस्था ने कुछ ब्रितानी अधिकारियों का वध भी किया जिसके बाद सावरकर बन्धुओं पर मुकदमा चलाकर ब्रितानी सरकारा ने उन्हें जेल भेज दिया। सन् १९५२ में सावरकर ने स्वयं इस संस्था को विसर्जित कर दिया था दिया था। उनका कहना था कि स्वतंत्रता प्राप्ति का लक्ष्य पूरा हो गया अब इस संस्था की जरूरत नहीं है। सन्दर्भ श्रेणी:भारतीय स्वतंत्रता का क्रांतिकारी आंदोलन
१९०४ में विनायक सावरकर ने किस क्रान्तिकारी संगठन की स्थापना की?
अभिनव भारत सोसायटी
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संस्कृत (संस्कृतम्) भारतीय उपमहाद्वीप की एक भाषा है। इसे देववाणी अथवा सुरभारती भी कहा जाता है। यह विश्व की सबसे प्राचीन भाषा है। संस्कृत एक हिंद-आर्य भाषा हैं जो हिंद-यूरोपीय भाषा परिवार की एक शाखा हैं। आधुनिक भारतीय भाषाएँ जैसे, हिंदी, मराठी, सिन्धी, पंजाबी, नेपाली, आदि इसी से उत्पन्न हुई हैं। इन सभी भाषाओं में यूरोपीय बंजारों की रोमानी भाषा भी शामिल है। संस्कृत में वैदिक धर्म से संबंधित लगभग सभी धर्मग्रंथ लिखे गये हैं। बौद्ध धर्म (विशेषकर महायान ) तथा जैन मत के भी कई महत्त्वपूर्ण ग्रंथ संस्कृत में लिखे गये हैं। आज भी हिंदू धर्म के अधिकतर यज्ञ और पूजा संस्कृत में ही होती हैं। भीम राव अम्बेडकर का मानना था कि संस्कृत पूरे भारत को भाषाई एकता के सूत्र में बांध सकने वाली इकलौती भाषा हो सकती है, अतः उन्होंन इसे देश की आधिकारिक भाषा बनाने का सुझाव दिया था।[2][3] [4] भारत के संविधान की आठवीं अनुसूची में संस्कृत को भी सम्मिलित किया गया है। यह उत्तराखण्ड की द्वितीय राजभाषा है। आकाशवाणी और दूरदर्शन से संस्कृत में समाचार प्रसारित किए जाते हैं। इतिहास संस्कृत का इतिहास बहुत पुराना है। वर्तमान समय में प्राप्त सबसे प्राचीन संस्कृत ग्रन्थ ॠग्वेद है जो कम से कम ढाई हजार ईसापूर्व की रचना है। व्याकरण संस्कृत भाषा का व्याकरण अत्यन्त परिमार्जित एवं वैज्ञानिक है। बहुत प्राचीन काल से ही अनेक व्याकरणाचार्यों ने संस्कृत व्याकरण पर बहुत कुछ लिखा है। किन्तु पाणिनि का संस्कृत व्याकरण पर किया गया कार्य सबसे प्रसिद्ध है। उनका अष्टाध्यायी किसी भी भाषा के व्याकरण का सबसे प्राचीन ग्रन्थ है। संस्कृत में संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण और क्रिया के कई तरह से शब्द-रूप बनाये जाते हैं, जो व्याकरणिक अर्थ प्रदान करते हैं। अधिकांश शब्द-रूप मूलशब्द के अन्त में प्रत्यय लगाकर बनाये जाते हैं। इस तरह ये कहा जा सकता है कि संस्कृत एक बहिर्मुखी-अन्त-श्लिष्टयोगात्मक भाषा है। संस्कृत के व्याकरण को वागीश शास्त्री ने वैज्ञानिक स्वरूप प्रदान किया है। ध्वनि-तन्त्र और लिपि संस्कृत भारत की कई लिपियों में लिखी जाती रही है, लेकिन आधुनिक युग में देवनागरी लिपि के साथ इसका विशेष संबंध है। देवनागरी लिपि वास्तव में संस्कृत के लिये ही बनी है, इसलिये इसमें हर एक चिह्न के लिये एक और केवल एक ही ध्वनि है। देवनागरी में १३ स्वर और ३३ व्यंजन हैं। देवनागरी से रोमन लिपि में लिप्यन्तरण के लिये दो पद्धतियाँ अधिक प्रचलित हैं: IAST और ITRANS. शून्य, एक या अधिक व्यंजनों और एक स्वर के मेल से एक अक्षर बनता है। संस्कृत, क्षेत्रीय लिपियों में लिखी जाती रही है। स्वर ये स्वर संस्कृत के लिये दिये गये हैं। हिन्दी में इनके उच्चारण थोड़े भिन्न होते हैं। वर्णाक्षर“प” के साथ मात्राIPA उच्चारण"प्" के साथ उच्चारणIAST समतुल्यअंग्रेज़ी समतुल्य हिन्दी में वर्णन अप/ ə // pə /aलघु या दीर्घ Schwa: जैसे a, a</b>bove या a</b>go मेंमध्य प्रसृत स्वर आपा/ α: // pα: /āदीर्घ Open back unrounded vowel: जैसे a, f<b data-parsoid='{"dsr":[4668,4675,3,3]}'>a</b>ther मेंदीर्घ विवृत पश्व प्रसृत स्वर इपि/ i // pi /i लघु close front unrounded vowel: जैसे i, b<b data-parsoid='{"dsr":[4857,4864,3,3]}'>i</b>t मेंह्रस्व संवृत अग्र प्रसृत स्वर ईपी/ i: // pi: /īदीर्घ close front unrounded vowel: जैसे i, mach<b data-parsoid='{"dsr":[5050,5057,3,3]}'>i</b>ne मेंदीर्घ संवृत अग्र प्रसृत स्वर उपु/ u // pu /u लघु close back rounded vowel: जैसे u, p<b data-parsoid='{"dsr":[5232,5239,3,3]}'>u</b>t मेंह्रस्व संवृत पश्व वर्तुल स्वर ऊपू/ u: // pu: /ūदीर्घ close back rounded vowel: जैसे oo, sch<b data-parsoid='{"dsr":[5419,5427,3,3]}'>oo</b>l मेंदीर्घ संवृत पश्व वर्तुल स्वर एपे/ e: // pe: /eदीर्घ close-mid front unrounded vowel: जैसे a in g<b data-parsoid='{"dsr":[5619,5626,3,3]}'>a</b>me (संयुक्त स्वर नहीं) मेंदीर्घ अर्धसंवृत अग्र प्रसृत स्वर ऐपै/ ai // pai /aiदीर्घ diphthong: जैसे ei, h<b data-parsoid='{"dsr":[5799,5807,3,3]}'>ei</b>ght मेंदीर्घ द्विमात्रिक स्वर ओपो/ ο: // pο: /oदीर्घ close-mid back rounded vowel: जैसे o, t<b data-parsoid='{"dsr":[5987,5994,3,3]}'>o</b>ne (संयुक्त स्वर नहीं) मेंदीर्घ अर्धसंवृत पश्व वर्तुल स्वर औपौauदीर्घ diphthong: जैसे ou, h<b data-parsoid='{"dsr":[6167,6175,3,3]}'>ou</b>se मेंदीर्घ द्विमात्रिक स्वर संस्कृत में ऐ दो स्वरों का युग्म होता है और "अ-इ" या "आ-इ" की तरह बोला जाता है। इसी तरह औ "अ-उ" या "आ-उ" की तरह बोला जाता है। इसके अलावा निम्नलिखित वर्ण भी स्वर माने जाते हैं: ऋ -- वर्तमान में, स्थानीय भाषाओं के प्रभाव से इसका अशुद्ध उच्चारण किया जाता है। आधुनिक हिन्दी में "रि" की तरह तथा मराठी में "रु" की तरह किया जाता है । संस्कृत में अमेरिकी अंग्रेजी शब्दांश (American English syllabic) / r / की तरह ॠ -- केवल संस्कृत में (दीर्घ ऋ) ऌ -- केवल संस्कृत में (syllabic retroflex l) अं -- आधे न् , म् , ं, ं, ण् के लिये या स्वर का नासिकीकरण करने के लिये अँ -- स्वर का नासिकीकरण करने के लिये (संस्कृत में नहीं उपयुक्त होता) अः -- अघोष "ह्" (निःश्वास) के लिये व्यंजन जब कोई स्वर प्रयोग नहीं हो, तो वहाँ पर 'अ' माना जाता है। स्वर के न होने को हलन्त्‌ अथवा विराम से दर्शाया जाता है। जैसे कि क्‌ ख्‌ ग्‌ घ्‌। स्पर्शअघोषघोषनासिक्यअल्पप्राणमहाप्राणअल्पप्राणमहाप्राणकण्ठ्यक k; अंग्रेजी: s<b data-parsoid='{"dsr":[7551,7558,3,3]}'>k</b>ipख kh; अंग्रेजी: c</b>atग / gə / g; अंग्रेजी: g</b>ameघ gh; महाप्राण /g/ङ n; अंग्रेजी: ri<b data-parsoid='{"dsr":[7757,7765,3,3]}'>ngतालव्यच ch; अंग्रेजी: ch</b>atछ / chə / or /tʃhə/ chh; महाप्राण /c/ज / ɟə / or / dʒə / j; अंग्रेजी: j</b>amझ / ɟɦə / or / dʒɦə / jh; महाप्राण /ɟ/ञ / ɲə / n; अंग्रेजी: fi<b data-parsoid='{"dsr":[8136,8143,3,3]}'>n</b>chमूर्धन्यट / ʈə / t; अमेरिकी अंग्रेजी:: hur<b data-parsoid='{"dsr":[8241,8248,3,3]}'>t</b>ingठ th; महाप्राण ड / ɖə / d; अमेरिकी अंग्रेजी:: mur<b data-parsoid='{"dsr":[8360,8367,3,3]}'>d</b>erढ / ɖɦə / dh; महाप्राण ण n; अमेरिकी अंग्रेज़ी:: hu<b data-parsoid='{"dsr":[8478,8485,3,3]}'>n</b>terदन्त्यत t; स्पैनिश: t</b>oma<b data-parsoid='{"dsr":[8578,8585,3,3]}'>t</b>eथ th; महाप्राण द / d̪ə / d; स्पैनिश: d</b>on<b data-parsoid='{"dsr":[8694,8701,3,3]}'>d</b>eध / d̪ɦə / dh; महाप्राण /d̪/न / nə / n; अंग्रेज़ी: n</b>ameओष्ठ्यप / pə / p; अंग्रेज़ी: s<b data-parsoid='{"dsr":[8894,8901,3,3]}'>p</b>inफ ph; अंग्रेज़ी: p</b>itब b; अंग्रेज़ी: b</b>oneभ bh; महाप्राण /b/म m; अंग्रेज़ी: m</b>ine स्पर्शरहिततालव्यमूर्धन्यदन्त्य/ वर्त्स्यकण्ठोष्ठ्य/ काकल्यअन्तस्थय y; अंग्रेज़ी: y</b>ouर / rə / r; स्कॉटिश अंग्रेज़ी: t<b data-parsoid='{"dsr":[9483,9490,3,3]}'>r</b>ipल / lə / l; अंग्रेजी: l</b>oveव / ʋə / v; अंग्रेजी: v</b>aseऊष्म/ संघर्षीश / ʃə / sh; अंग्रेज़ी: sh</b>ipष / ʂə / shh; मूर्धन्य /ʃ/स / sə / s; अंग्रेज़ी: s</b>ameह / ɦə / or / hə / h; अंग्रेज़ी: be<b data-parsoid='{"dsr":[9854,9861,3,3]}'>h</b>ind टिप्पणी इनमें से ळ (मूर्धन्य पार्विक अन्तस्थ) एक अतिरिक्त व्यंजन है जिसका प्रयोग हिन्दी में नहीं होता है। मराठी और वैदिक संस्कृत में इसका प्रयोग किया जाता है। संस्कृत में ष का उच्चारण ऐसे होता था: जीभ की नोंक को मूर्धा (मुँह की छत) की ओर उठाकर श जैसी ध्वनि करना। शुक्ल यजुर्वेद की माध्यंदिनि शाखा में कुछ वाक्यों में ष का उच्चारण ख की तरह करना मान्य था। संस्कृत भाषा की विशेषताएँ (१) संस्कृत, विश्व की सबसे पुरानी पुस्तक (वेद) की भाषा है। इसलिये इसे विश्व की प्रथम भाषा मानने में कहीं किसी संशय की संभावना नहीं है।[5][6] (२) इसकी सुस्पष्ट व्याकरण और वर्णमाला की वैज्ञानिकता के कारण सर्वश्रेष्ठता भी स्वयं सिद्ध है। (३) सर्वाधिक महत्वपूर्ण साहित्य की धनी होने से इसकी महत्ता भी निर्विवाद है। (४) इसे देवभाषा माना जाता है। (५) संस्कृत केवल स्वविकसित भाषा नहीं बल्कि संस्कारित भाषा भी है, अतः इसका नाम संस्कृत है। केवल संस्कृत ही एकमात्र भाषा है जिसका नामकरण उसके बोलने वालों के नाम पर नहीं किया गया है। संस्कृत को संस्कारित करने वाले भी कोई साधारण भाषाविद् नहीं बल्कि महर्षि पाणिनि, महर्षि कात्यायन और योगशास्त्र के प्रणेता महर्षि पतंजलि हैं। इन तीनों महर्षियों ने बड़ी ही कुशलता से योग की क्रियाओं को भाषा में समाविष्ट किया है। यही इस भाषा का रहस्य है। (६) शब्द-रूप - विश्व की सभी भाषाओं में एक शब्द का एक या कुछ ही रूप होते हैं, जबकि संस्कृत में प्रत्येक शब्द के 27 रूप होते हैं। (७) द्विवचन - सभी भाषाओं में एकवचन और बहुवचन होते हैं जबकि संस्कृत में द्विवचन अतिरिक्त होता है। (८) सन्धि - संस्कृत भाषा की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता है सन्धि। संस्कृत में जब दो अक्षर निकट आते हैं तो वहाँ सन्धि होने से स्वरूप और उच्चारण बदल जाता है। (९) इसे कम्प्यूटर और कृत्रिम बुद्धि के लिये सबसे उपयुक्त भाषा माना जाता है। (१०) शोध से ऐसा पाया गया है कि संस्कृत पढ़ने से स्मरण शक्ति बढ़ती है।[7] (११) संस्कृत वाक्यों में शब्दों को किसी भी क्रम में रखा जा सकता है। इससे अर्थ का अनर्थ होने की बहुत कम या कोई भी सम्भावना नहीं होती। ऐसा इसलिये होता है क्योंकि सभी शब्द विभक्ति और वचन के अनुसार होते हैं और क्रम बदलने पर भी सही अर्थ सुरक्षित रहता है। जैसे - अहं गृहं गच्छामि या गच्छामि गृहं अहम् दोनो ही ठीक हैं। (१२) संस्कृत विश्व की सर्वाधिक 'पूर्ण' (perfect) एवं तर्कसम्मत भाषा है।[8] (१३) संस्कृत ही एक मात्र साधन हैं जो क्रमश: अंगुलियों एवं जीभ को लचीला बनाते हैं। इसके अध्ययन करने वाले छात्रों को गणित, विज्ञान एवं अन्य भाषाएँ ग्रहण करने में सहायता मिलती है। (१४) संस्कृत भाषा में साहित्य की रचना कम से कम छह हजार वर्षों से निरन्तर होती आ रही है। इसके कई लाख ग्रन्थों के पठन-पाठन और चिन्तन में भारतवर्ष के हजारों पुश्त तक के करोड़ों सर्वोत्तम मस्तिष्क दिन-रात लगे रहे हैं और आज भी लगे हुए हैं। पता नहीं कि संसार के किसी देश में इतने काल तक, इतनी दूरी तक व्याप्त, इतने उत्तम मस्तिष्क में विचरण करने वाली कोई भाषा है या नहीं। शायद नहीं है। दीर्घ कालखण्ड के बाद भी असंख्य प्राकृतिक तथा मानवीय आपदाओं (वैदेशिक आक्रमणों) को झेलते हुए आज भी ३ करोड़ से अधिक संस्कृत पाण्डुलिपियाँ विद्यमान हैं। यह संख्या ग्रीक और लैटिन की पाण्डुलिपियों की सम्मिलित संख्या से भी १०० गुना अधिक है। निःसंदेह ही यह सम्पदा छापाखाने के आविष्कार के पहले किसी भी संस्कृति द्वारा सृजित सबसे बड़ी सांस्कृतिक विरासत है।[9] (१५) संस्कृत केवल एक मात्र भाषा नहीं है अपितु संस्कृत एक विचार है। संस्कृत एक संस्कृति है एक संस्कार है संस्कृत में विश्व का कल्याण है, शांति है, सहयोग है, वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना है। भारत और विश्व के लिए संस्कृत का महत्त्व संस्कृत कई भारतीय भाषाओं की जननी है। इनकी अधिकांश शब्दावली या तो संस्कृत से ली गयी है या संस्कृत से प्रभावित है। पूरे भारत में संस्कृत के अध्ययन-अध्यापन से भारतीय भाषाओं में अधिकाधिक एकरूपता आयेगी जिससे भारतीय एकता बलवती होगी। यदि इच्छा-शक्ति हो तो संस्कृत को हिब्रू की भाँति पुनः प्रचलित भाषा भी बनाया जा सकता है। हिन्दू, बौद्ध, जैन आदि धर्मों के प्राचीन धार्मिक ग्रन्थ संस्कृत में हैं। हिन्दुओं के सभी पूजा-पाठ और धार्मिक संस्कार की भाषा संस्कृत ही है। हिन्दुओं, बौद्धों और जैनों के नाम भी संस्कृत पर आधारित होते हैं। भारतीय भाषाओं की तकनीकी शब्दावली भी संस्कृत से ही व्युत्पन्न की जाती है। भारतीय संविधान की धारा 343, धारा 348 (2) तथा 351 का सारांश यह है कि देवनागरी लिपि में लिखी और मूलत: संस्कृत से अपनी पारिभाषिक शब्दावली को लेने वाली हिन्दी राजभाषा है। संस्कृत, भारत को एकता के सूत्र में बाँधती है। संस्कृत का प्राचीन साहित्य अत्यन्त प्राचीन, विशाल और विविधतापूर्ण है। इसमें अध्यात्म, दर्शन, ज्ञान-विज्ञान और साहित्य का खजाना है। इसके अध्ययन से ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में प्रगति को बढ़ावा मिलेगा। संस्कृत को कम्प्यूटर के लिये (कृत्रिम बुद्धि के लिये) सबसे उपयुक्त भाषा माना जाता है। संस्कृत का अन्य भाषाओं पर प्रभाव संस्कृत भाषा के शब्द मूलत रूप से सभी आधुनिक भारतीय भाषाओं में हैं। सभी भारतीय भाषाओं में एकता की रक्षा संस्कृत के माध्यम से ही हो सकती है। मलयालम, कन्नड और तेलुगु आदि दक्षिणात्य भाषाएं संस्कृत से बहुत प्रभावित हैं। शिक्षा एवं प्रचार-प्रसार भारत के संविधान में संस्कृत आठवीं अनुसूची में सम्मिलित अन्य भाषाओं के साथ विराजमान है। त्रिभाषा सूत्र के अन्तर्गत संस्कृत भी आती है। हिन्दी एवं अन्य भारतीय भाषाओं की की वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली संस्कृत से निर्मित है। भारत तथा अन्य देशों के कुछ संस्कृत विश्वविद्यालयों की सूची नीचे दी गयी है- (देखें, भारत स्थित संस्कृत विश्वविद्यालयों की सूची) सन्दर्भ यह भी देखिए वैदिक संस्कृत संस्कृत साहित्य भारत की भाषाएँ संस्कृत भाषा का इतिहास संस्कृत का पुनरुत्थान संस्कृत के विकिपीडिया प्रकल्प संस्कृत (संस्कृत विकोश:) (Sanskrit Wikisource) (Sanskrit Wiki Books) बाहरी कड़ियाँ (राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान) संस्कृत संसाधन (केन्द्रीय हिन्दी संस्थान) संस्कृत सामग्री (शब्दकोश, संस्कृत ग्रन्थों आदि का विशाल संग्रह) (Indology page) - पी डी एफ़ प्रारूप, देवनागरी (Digital Sanskrit Buddhistt Canon) - Indic Texts - यहाँ बहुत से हिन्दू ग्रन्थ अंग्रेजी में अर्थ के साथ उपलब्ध हैं। कहीं-कहीं मूल संस्कृत पाठ भी उपलब्ध है। संस्कृत साहित्य के प्रकाशक हैं; यहाँ पर भी बहुत सारी सामग्री डाउनलोड के लिये उपलब्ध है। (तंत्र एवं आगम साहित्य पर विशेष सामग्री) (a searchable collection of lemmatized Sanskrit texts) शब्दकोश : आनलाइन संस्कृत कोश शोधन ; कई कोशों में एकसाथ खोज ; देवनागरी, बंगला आदि कई भारतीय लिपियों में आउटपुट; कई प्रारूपों में इनपुट की सुविधा (गूगल पुस्तक ; रचनाकार - वामन शिवराम आप्टे) - इसमें संस्कृत शब्दों के अंग्रेजी अर्थ दिये गये हैं। शब्द इन्पुट Harvard-Kyoto, SLP1 या ITRANS में देने की सुविधा है। - इसमें परिणाम इच्छानुसार देवनागरी, iTrans, रोमन यूनिकोड आदि में प्राप्त किये जा सकते हैं। (Concise Sanskrit-English Dictionary) - संस्कृत शब्द देवनागरी में लिखे हुए हैं। अर्थ अंग्रेजी में। लगभग १० हजार शब्द। डाउनलोड करके आफलाइन उपयोग के लिये उत्तम ! (गूगल पुस्तक ; लेखक - Vaman Shivaram Apte) , searchable , printable (The Sanskrit Heritage Dictionary) with the meanings of common Sanskrit spiritual terms. Recently updated. डाउनलोड योग्य शब्दकोश - Sanskrit-English Dictionary based on V. S. Apte's 'The practical Sanskrit-English dictionary', Arthur Anthony Macdonell's 'A practical Sanskrit dictionary' and Monier Williams 'Sanskrit-English Dictionary'. - software, which searches an offline version of the monier-williams dictionary, and integrates with several online tools MW Sanskrit-English Dictionary in StarDict format. (can be used with GoldenDict also) संस्कृत विषयक लेख - संस्कृत की महत्ता एवं अन्य पहलुओं पर विविध लेखों के लिंक , अत्यन्त ज्ञानवर्धक लेख, तीन भागों में। (B Mahadevan) संस्कृत साफ्टवेयर एवं उपकरण - Balaram / CSX / (X)HK / ITRANS / Shakti Mac / Unicode / Velthuis / X-Sanskrit / Bengali Unicode / Devanagari Unicode / Oriya Unicode आदि इनकोडिंग का परस्पर परिवर्तक - कम्प्यूटर पर संस्कृत लिखने एवं फाण्ट परिवर्तन का औजार - यहाँ अनेक भाषाई उपकरण उपलब्ध हैं। - संस्कृत व्याकरण का साफ्टवेयर (पाणिनि के सूत्रों पर आधारित) - Online Transliterator Sanskrit Dictionary, Sandhi, Pratyahara-Decoder and Metric Analyzer - संस्कृत टूलबार - संस्कृत की-बोर्ड (मेधा) [medhA - a Sanskrit keyboard for Windows, Linux and Mac OS X.] (संस्कृत टेक्स्ट के विश्लेषण के औजार) संस्कृत जालस्थल - संस्कृत के बारे में गूगल चर्चा समूह श्रेणी:प्राचीन भाषाएँ श्रेणी:नेपाल की भाषाएँ श्रेणी:हिन्द-आर्य भाषाएँ श्रेणी:भारत की भाषाएँ
संस्कृत भाषा को और किस नाम से भी जाना जाता है?
देववाणी
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सूर्य अथवा सूरज सौरमंडल के केन्द्र में स्थित एक तारा जिसके चारों तरफ पृथ्वी और सौरमंडल के अन्य अवयव घूमते हैं। सूर्य हमारे सौर मंडल का सबसे बड़ा पिंड है और उसका व्यास लगभग १३ लाख ९० हज़ार किलोमीटर है जो पृथ्वी से लगभग १०९ गुना अधिक है। [1] ऊर्जा का यह शक्तिशाली भंडार मुख्य रूप से हाइड्रोजन और हीलियम गैसों का एक विशाल गोला है। परमाणु विलय की प्रक्रिया द्वारा सूर्य अपने केंद्र में ऊर्जा पैदा करता है। सूर्य से निकली ऊर्जा का छोटा सा भाग ही पृथ्वी पर पहुँचता है जिसमें से १५ प्रतिशत अंतरिक्ष में परावर्तित हो जाता है, ३० प्रतिशत पानी को भाप बनाने में काम आता है और बहुत सी ऊर्जा पेड़-पौधे समुद्र सोख लेते हैं। [2] इसकी मजबूत गुरुत्वाकर्षण शक्ति विभिन्न कक्षाओं में घूमते हुए पृथ्वी और अन्य ग्रहों को इसकी तरफ खींच कर रखती है। सूर्य से पृथ्वी की औसत दूरी लगभग १४,९६,००,००० किलोमीटर या ९,२९,६०,००० मील है तथा सूर्य से पृथ्वी पर प्रकाश को आने में ८.३ मिनट का समय लगता है। इसी प्रकाशीय ऊर्जा से प्रकाश-संश्लेषण नामक एक महत्वपूर्ण जैव-रासायनिक अभिक्रिया होती है जो पृथ्वी पर जीवन का आधार है। यह पृथ्वी के जलवायु और मौसम को प्रभावित करता है। सूर्य की सतह का निर्माण हाइड्रोजन, हिलियम, लोहा, निकेल, ऑक्सीजन, सिलिकन, सल्फर, मैग्निसियम, कार्बन, नियोन, कैल्सियम, क्रोमियम तत्वों से हुआ है। [3] इनमें से हाइड्रोजन सूर्य के सतह की मात्रा का ७४ % तथा हिलियम २४ % है। इस जलते हुए गैसीय पिंड को दूरदर्शी यंत्र से देखने पर इसकी सतह पर छोटे-बड़े धब्बे दिखलाई पड़ते हैं। इन्हें सौर कलंक कहा जाता है। ये कलंक अपने स्थान से सरकते हुए दिखाई पड़ते हैं। इससे वैज्ञानिकों ने निष्कर्ष निकाला है कि सूर्य पूरब से पश्चिम की ओर २७ दिनों में अपने अक्ष पर एक परिक्रमा करता है। जिस प्रकार पृथ्वी और अन्य ग्रह सूरज की परिक्रमा करते हैं उसी प्रकार सूरज भी आकाश गंगा के केन्द्र की परिक्रमा करता है। इसको परिक्रमा करनें में २२ से २५ करोड़ वर्ष लगते हैं, इसे एक निहारिका वर्ष भी कहते हैं। इसके परिक्रमा करने की गति २५१ किलोमीटर प्रति सेकेंड है। विशेषताएँ सूर्य एक G-टाइप मुख्य अनुक्रम तारा है जो सौरमंडल के कुल द्रव्यमान का लगभग 99.86% समाविष्ट करता है। करीब नब्बे लाखवें भाग के अनुमानित चपटेपन के साथ, यह करीब-करीब गोलाकार है,[4] इसका मतलब है कि इसका ध्रुवीय व्यास इसके भूमध्यरेखीय व्यास से केवल 10 किमी से अलग है। [5] जैसा कि सूर्य प्लाज्मा का बना हैं और ठोस नहीं है, यह अपने ध्रुवों पर की अपेक्षा अपनी भूमध्य रेखा पर ज्यादा तेजी से घूमता है। यह व्यवहार अंतरीय घूर्णन के रूप में जाना जाता है और सूर्य के संवहन एवं कोर से बाहर की ओर अत्यधिक तापमान ढलान के कारण पदार्थ की आवाजाही की वजह से हुआ है। यह सूर्य के वामावर्त कोणीय संवेग के एक बड़े हिस्से का वहन करती है, जैसा क्रांतिवृत्त के उत्तरी ध्रुव से देखा गया और इस प्रकार कोणीय वेग पुनर्वितरित होता है। इस वास्तविक घूर्णन की अवधि भूमध्य रेखा पर लगभग 25.6 दिन और ध्रुवों में 33.5 दिन की होती है। हालांकि, सूर्य की परिक्रमा के साथ ही पृथ्वी के सापेक्ष हमारी लगातार बदलती स्थिति के कारण इस तारे का अपनी भूमध्य रेखा पर स्पष्ट घूर्णन करीबन 28 दिनों का है। [6] इस धीमी गति के घूर्णन का केन्द्रापसारक प्रभाव सूर्य की भूमध्य रेखा पर के सतही गुरुत्वाकर्षण से 1.8 करोड़ गुना कमजोर है। ग्रहों के ज्वारीय प्रभाव भी कमजोर है और सूर्य के आकार को खास प्रभावित नहीं करते है। [7] सूर्य एक पॉपुलेशन I या भारी तत्व युक्त सितारा है। [8] सूर्य का यह गठन एक या एक से अधिक नजदीकी सुपरनोवाओं से निकली धनुषाकार तरंगों द्वारा शुरू किया गया हो सकता है। [9] ऐसा तथाकथित पॉपुलेशन II (भारी तत्व-अभाव) सितारों में इन तत्वों की बहुतायत की अपेक्षा, सौरमंडल में भारी तत्वों की उच्च बहुतायत ने सुझाया है, जैसे कि सोना और यूरेनियम। ये तत्व, किसी सुपरनोवा के दौरान ऊष्माशोषी नाभकीय अभिक्रियाओं द्वारा अथवा किसी दूसरी-पीढ़ी के विराट तारे के भीतर न्यूट्रॉन अवशोषण के माध्यम से रूपांतरण द्वारा, उत्पादित किए गए हो सकने की सर्वाधिक संभवना है। [8] सूर्य की चट्टानी ग्रहों के माफिक कोई निश्चित सीमा नहीं है। सूर्य के बाहरी हिस्सों में गैसों का घनत्व उसके केंद्र से बढ़ती दूरी के साथ तेजी से गिरता है। [10] बहरहाल, इसकी एक सुपारिभाषित आंतरिक संरचना है जो नीचे वर्णित है। सूर्य की त्रिज्या को इसके केंद्र से लेकर प्रभामंडल के किनारे तक मापा गया है। सूर्य का बाह्य प्रभामंडल दृश्यमान अंतिम परत है। इसके उपर की परते नग्न आंखों को दिखने लायक पर्याप्त प्रकाश उत्सर्जित करने के लिहाज से काफी ठंडी या काफी पतली है। [11] एक पूर्ण सूर्यग्रहण के दौरान, तथापि, जब प्रभामंडल को चंद्रमा द्वारा छिपा लिया गया, इसके चारों ओर सूर्य के कोरोना का आसानी से देखना हो सकता है। सूर्य का आंतरिक भाग प्रत्यक्ष प्रेक्षणीय नहीं है। सूर्य स्वयं ही विद्युत चुम्बकीय विकिरण के लिए अपारदर्शी है। हालांकि, जिस प्रकार भूकम्प विज्ञान पृथ्वी के आंतरिक गठन को प्रकट करने के लिए भूकंप से उत्पन्न तरंगों का उपयोग करता है, सौर भूकम्प विज्ञान En का नियम इस तारे की आंतरिक संरचना को मापने और दृष्टिगोचर बनाने के लिए दाब तरंगों ( पराध्वनी) का इस्तेमाल करता है। [12] इसकी गहरी परतों की खोजबीन के लिए कंप्यूटर मॉडलिंग भी सैद्धांतिक औजार के रूप में प्रयुक्त हुए है। कोर सूर्य का कोर इसके केन्द्र से लेकर सौर त्रिज्या के लगभग 20-25% तक विस्तारित माना गया है। [13] इसका घनत्व 150 ग्राम/सेमी3 तक[14][15] (पानी के घनत्व का लगभग 150 गुना) और तापमान 15.7 करोड़ केल्विन के करीब का है। [15] इसके विपरीत, सूर्य की सतह का तापमान लगभग 5,800 केल्विन है। सोहो मिशन डेटा के हाल के विश्लेषण विकिरण क्षेत्र के बाकी हिस्सों की तुलना में कोर के तेज घूर्णन दर का पक्ष लेते है। [13] सूर्य के अधिकांश जीवन में, ऊर्जा p–p (प्रोटॉन-प्रोटॉन) श्रृंखलाEn कहलाने वाली एक चरणबद्ध श्रृंखला के माध्यम से नाभिकीय संलयन द्वारा उत्पादित हुई है; यह प्रक्रिया हाइड्रोजन को हीलियम में रुपांतरित करती है। [16] सूर्य की उत्पादित ऊर्जा का मात्र 0.8% CNO चक्र En से आता है। [17] सूर्य में कोर अकेला ऐसा क्षेत्र है जो संलयन के माध्यम से तापीय ऊर्जा की एक बड़ी राशि का उत्पादन करता है; 99% शक्ति सूर्य की त्रिज्या के 24% के भीतर उत्पन्न हुई है, तथा त्रिज्या के 30% द्वारा संलयन लगभग पूरी तरह से बंद कर दिया गया है। इस तारे का शेष उस उर्जा द्वारा तप्त हुआ है जो कोर से लेकर संवहनी परतों के ठीक बाहर तक विकिरण द्वारा बाहर की ओर स्थानांतरित हुई है। कोर में संलयन द्वारा उत्पादित ऊर्जा को फिर उत्तरोत्तर कई परतों से होकर सौर प्रभामंडल तक यात्रा करनी होती है इसके पहले कि वह सूर्य प्रकाश अथवा कणों की गतिज ऊर्जा के रूप में अंतरिक्ष में पलायन करती है। [18][19] कोर में प्रोटॉन-प्रोटॉन श्रृंखला दरेक सेकंड 9.2×1037 बार पाई जाती है। यह अभिक्रिया चार मुक्त प्रोटॉनों (हाइड्रोजन नाभिक) का प्रयोग करती है, यह हर सेकंड करीब 3.7×1038 प्रोटॉनों को अल्फा कणों (हीलियम नाभिक) में तब्दील करती है (सूर्य के कुल ~8.9×1056 मुक्त प्रोटॉनों में से), या लगभग 6.2× 1011 किलो प्रति सेकंड। [19] हाइड्रोजन से हीलियम संलयन के बाद हीलियम ऊर्जा के रूप में संलयित द्रव्यमान का लगभग 0.7% छोड़ती है,[20] सूर्य 42.6 करोड़ मीट्रिक टन प्रति सेकंड की द्रव्यमान-ऊर्जा रूपांतरण दर पर ऊर्जा छोड़ता है, 384.6 योटा वाट (3.846 × 1026 वाट),[21] या 9.192× 1010 टीएनटी मेगाटनEn प्रति सेकंड। राशि ऊर्जा पैदा करने में नष्ट नहीं हुई है, बल्कि यह राशि बराबर की इतनी ही ऊर्जा में तब्दील हुई है तथा ढोकर उत्सर्जित होने के लिए दूर ले जाई गई, जैसा द्रव्यमान-ऊर्जा तुल्यता अवधारणा का वर्णन हुआ है। कोर में संलयन से शक्ति का उत्पादन सौर केंद्र से दूरी के साथ बदलता रहता है। सूर्य के केंद्र पर, सैद्धांतिक मॉडलों के आकलन में यह तकरीबन 276.5 वाट/मीटर3 होना है,[22] जीवन चक्र सूर्य आज सबसे अधिक स्थिर अवस्था में अपने जीवन के करीबन आधे रास्ते पर है। इसमें कई अरब वर्षों से नाटकीय रूप से कोई बदलाव नहीं हुआ है,  और आगामी कई वर्षों तक यूँ ही अपरिवर्तित बना रहेगा। हालांकि, एक स्थिर हाइड्रोजन-दहन काल के पहले का और बाद का तारा बिलकुल अलग होता है। निर्माण सूर्य एक विशाल आणविक बादल के हिस्से के ढहने से करीब 4.57 अरब वर्ष पूर्व गठित हुआ है जो अधिकांशतः हाइड्रोजन और हीलियम का बना है और शायद इन्ही ने कई अन्य तारों को बनाया है। [23] यह आयु तारकीय विकास के कंप्यूटर मॉडलो के प्रयोग और न्यूक्लियोकोस्मोक्रोनोलोजीEn के माध्यम से आकलित हुई है। [24] परिणाम प्राचीनतम सौरमंडल सामग्री की रेडियोमीट्रिक तिथि के अनुरूप है, 4.567 अरब वर्ष। [25][26] प्राचीन उल्कापातों के अध्ययन अल्पजीवी आइसोटोपो के स्थिर नाभिक के निशान दिखाते है, जैसे कि लौह-60, जो केवल विस्फोटित, अल्पजीवी तारों में निर्मित होता है। यह इंगित करता है कि वह स्थान जहां पर सूर्य बना के नजदीक एक या एक से ज्यादा सुपरनोवा अवश्य पाए जाने चाहिए। किसी नजदीकी सुपरनोवा से निकली आघात तरंग ने आणविक बादल के भीतर की गैसों को संपीडित कर सूर्य के निर्माण को शुरू किया होगा तथा कुछ क्षेत्र अपने स्वयं के गुरुत्वाकर्षण के अधीन ढहने से बने होंगे। [27] जैसे ही बादल का कोई टुकड़ा ढहा कोणीय गति के संरक्षण के कारण यह भी घुमना शुरू हुआ और बढ़ते दबाव के साथ गर्म होने लगा। बहुत बड़ी द्रव्य राशि केंद्र में केंद्रित हुई, जबकि शेष बाहर की ओर चपटकर एक डिस्क में तब्दील हुई जिनसे ग्रह व अन्य सौरमंडलीय निकाय बने। बादल के कोर के भीतर के गुरुत्व व दाब ने अत्यधिक उष्मा उत्पन्न की वैसे ही डिस्क के आसपास से और अधिक गैस जुड़ती गई, अंततः नाभिकीय संलयन को सक्रिय किया। इस प्रकार, सूर्य का जन्म हुआ। मुख्य अनुक्रम सूर्य अपनी मुख्य अनुक्रम अवस्था से होता हुआ करीब आधी राह पर है, जिसके दरम्यान नाभिकीय संलयन अभिक्रियाओ ने हाइड्रोजन को हीलियम में बदला। हर सेकंड, सूर्य की कोर के भीतर चालीस लाख टन से अधिक पदार्थ ऊर्जा में परिवर्तित हुआ है और न्यूट्रिनो व सौर विकिरण का निर्माण किया है। इस दर पर, सूर्य अब तक करीब 100 पृथ्वी-द्रव्यमान जितना पदार्थ ऊर्जा में परिवर्तित कर चुका है। सूर्य एक मुख्य अनुक्रम तारे के रूप में लगभग 10 अरब साल जितना खर्च करेगा। [29] कोर हाइड्रोजन समापन के बाद सूर्य के पास एक सुपरनोवा के रूप में विस्फोट के लिए पर्याप्त द्रव्यमान नहीं है। बावजुद यह एक लाल दानव चरण में प्रवेश करेगा। सूर्य का तकरीबन 5.4 अरब साल में एक लाल दानव बनने का पूर्वानुमान है। [30] यह आकलन हुआ है कि सूर्य संभवतः पृथ्वी समेत सौरमंडल के आंतरिक ग्रहों की वर्तमान कक्षाओं को निगल जाने जितना बड़ा हो जाएगा। [31] इससे पहले कि यह एक लाल दानव बनता है, सूर्य की चमक लगभग दोगुनी हो जाएगी और पृथ्वी शुक्र जितना आज है उससे भी अधिक गर्म हो जाएगी। एक बार कोर हाइड्रोजन समाप्त हुई, सूर्य का उपदानव चरण में विस्तार होगा और करीब आधे अरब वर्षों उपरांत आकार में धीरे धीरे दोगुना जाएगा। उसके बाद यह, आज की तुलना में दो सौ गुना बड़ा तथा दसियों हजार गुना और अधिक चमकदार होने तक, आगामी करीब आधे अरब वर्षों से ज्यादा तक और अधिक तेजी से फैलेगा। यह लाल दानव शाखा का वह चरण है, जहां पर सूर्य करीब एक अरब वर्ष बिता चुका होगा और अपने द्रव्यमान का एक तिहाई के आसपास गंवा चुका होगा। [31] सूर्य के पास अब केवल कुछ लाख साल बचे है, पर वें बेहद प्रसंगपूर्ण है। प्रथम, कोर हीलियम चौंध में प्रचंडतापूर्वक सुलगता है और सूर्य चमक के 50 गुने के साथ, आज की तुलना में थोड़े कम तापमान के साथ, अपने हाल के आकार से 10 गुने के आसपास तक वापस सिकुड़ जाता है। सौर अंतरिक्ष मिशन सूर्य के निरीक्षण के लिए रचे गए प्रथम उपग्रह नासा के पायनियर 5, 6, 7, 8 और 9 थे। यह 1959 और 1968 के बीच प्रक्षेपित हुए थे। इन यानों ने पृथ्वी और सूर्य से समान दूरी की कक्षा में सूर्य परिक्रमा करते हुए सौर वायु और सौर चुंबकीय क्षेत्र का पहला विस्तृत मापन किया। पायनियर 9 विशेष रूप से लंबे अरसे के लिए संचालित हुआ और मई 1983 तक डेटा संचारण करता रहा। [33][34] 1970 के दशक में, दो अंतरिक्ष यान हेलिओस और स्काईलैब अपोलो टेलीस्कोप माउंट En ने सौर वायु व सौर कोरोना के महत्वपूर्ण नए डेटा वैज्ञानिकों को प्रदान किए। हेलिओस 1 और 2 यान अमेरिकी-जर्मनी सहकार्य थे। इसने अंतरिक्ष यान को बुध की कक्षा के भीतर की ओर ले जा रही कक्षा से सौर वायु का अध्ययन किया। [35] 1973 में स्कायलैब अंतरिक्ष स्टेशन नासा द्वारा प्रक्षेपित हुआ। इसने अपोलो टेलीस्कोप माउंट कहे जाने वाला एक सौर वेधशाला मॉड्यूल शामिल किया जो कि स्टेशन पर रहने वाले अंतरिक्ष यात्रियों द्वारा संचालित हुआ था। [36] स्काईलैब ने पहली बार सौर संक्रमण क्षेत्र का तथा सौर कोरोना से निकली पराबैंगनी उत्सर्जन का समाधित निरीक्षण किया। [36] खोजों ने कोरोनल मास एजेक्सन के प्रथम प्रेक्षण शामिल किए, जो फिर "कोरोनल ट्रांजीएंस्ट" और फिर कोरोनल होल्स कहलाये, अब घनिष्ठ रूप से सौर वायु के साथ जुड़े होने के लिए जाना जाता है। [35] 1980 का सोलर मैक्सीमम मिशन नासा द्वारा शुरू किया गया था। यह अंतरिक्ष यान उच्च सौर गतिविधि और सौर चमक के समय के दरम्यान गामा किरणों, एक्स किरणों और सौर ज्वालाओं से निकली पराबैंगनी विकिरण के निरीक्षण के लिए रचा गया था। प्रक्षेपण के बस कुछ ही महीने बाद, हालांकि, किसी इलेक्ट्रॉनिक्स खराबी की वजह से यान जस की तस हालत में चलता रहा और उसने अगले तीन साल इसी निष्क्रिय अवस्था में बिताए। 1984 में स्पेस शटल चैलेंजर मिशन STS-41C ने उपग्रह को सुधार दिया और कक्षा में फिर से छोड़ने से पहले इसकी इलेक्ट्रॉनिक्स की मरम्मत की। जून 1989 में पृथ्वी के वायुमंडल में पुनः प्रवेश से पहले सोलर मैक्सीमम मिशन ने मरम्मत पश्चात सौर कोरोना की हजारों छवियों का अधिग्रहण किया। [37] 1991 में प्रक्षेपित, जापान के योनकोह (सौर पुंज) उपग्रह ने एक्स-रे तरंग दैर्घ्य पर सौर ज्वालाओ का अवलोकन किया। मिशन डेटा ने वैज्ञानिकों को अनेकों भिन्न प्रकार की लपटों की पहचान करने की अनुमति दी, साथ ही दिखाया कि चरम गतिविधि वाले क्षेत्रों से दूर स्थित कोरोना और अधिक गतिशील व सक्रिय थी जैसा कि पूर्व में माना हुआ था। योनकोह ने एक पूरे सौर चक्र का प्रेक्षण किया लेकिन 2001 में जब एक कुंडलाकार सूर्यग्रहण हुआ यह आपातोपयोगी दशा में चला गया जिसकी वजह से इसका सूर्य के साथ जुडाव का नुकसान हो गया। यह 2005 में वायुमंडलीय पुनः प्रवेश दौरान नष्ट हुआ था। [38] आज दिन तक का सबसे महत्वपूर्ण सौर मिशन सोलर एंड हेलिओस्फेरिक ओब्सर्वेटरी रहा है। 2 दिसंबर1995 को शुरू हुआ यह मिशन यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी और नासा द्वारा संयुक्त रूप से बनाया गया था। [36] मूल रूप से यह दो-वर्षीय मिशन के लिए नियत हुआ था। मिशन की 2012 तक की विस्तारण मंजूरी अक्टूबर 2009 में हुई थी। [39] यह इतना उपयोगी साबित हुआ कि इसका अनुवर्ती मिशन सोलर डायनमिक्स ओब्सर्वेटरी (एसडीओ) फरवरी, 2010 में शुरू किया गया था। [40] यह पृथ्वी और सूर्य के बीच लाग्रंगियन बिंदु (जिस पर दोनों ओर का गुरुत्वीय खींचाव बराबर होता है) पर स्थापित हुआ। सोहो ने अपने प्रक्षेपण के बाद से अनेक तरंगदैर्ध्यों पर सूर्य की निरंतर छवि प्रदान की है। [36] प्रत्यक्ष सौर प्रेक्षण के अलावा, सोहो को बड़ी संख्या में धूमकेतुओं की खोज के लिए समर्थ किया गया है, इनमे से अधिकांश सूर्य के निवाले छोटे धूमकेतुEn है जो सूर्य के पास से गुजरते ही भस्म हो जाते है। [41] इन सभी उपग्रहों ने सूर्य का प्रेक्षण क्रांतिवृत्त के तल से किया है, इसलिए उसके भूमध्यरेखीय क्षेत्रों मात्र के विस्तार में प्रेक्षण किए गए है। यूलिसिस यान सूर्य के ध्रुवीय क्षेत्रों के अध्ययन के लिए 1990 में प्रक्षेपित हुआ था। इसने सर्वप्रथम बृहस्पति की यात्रा की, इससे पहले इसे क्रांतिवृत्त तल के ऊपर की दूर की किसी कक्षा में बृहस्पति के गुरुत्वीय बल के सहारे ले जाया गया था। संयोगवश, यह 1994 की बृहस्पति के साथ धूमकेतु शूमेकर-लेवी 9 की टक्कर के निरीक्षण के लिए अच्छी जगह स्थापित हुआ था। एक बार यूलिसिस अपनी निर्धारित कक्षा में स्थापित हो गया, इसने उच्च सौर अक्षांशों की सौर वायु और चुंबकीय क्षेत्र शक्ति का निरीक्षण करना शुरू कर दिया और पाया कि उच्च अक्षांशों पर करीब 750 किमी/सेकंड से आगे बढ़ रही सौर वायु उम्मीद की तुलना में धीमी थी, साथ ही पाया गया कि वहां उच्च अक्षांशों से आई हुई बड़ी चुंबकीय तरंगे थी जो कि बिखरी हुई गांगेय कॉस्मिक किरणे थी। [42] वर्णमंडल की तात्विक बहुतायतता को स्पेक्ट्रोस्कोपी अध्ययनों से अच्छी तरह जाना गया है, पर सूर्य के अंदरूनी ढांचे की समझ उतनी ही बुरी है। सौर वायु नमूना वापसी मिशन, जेनेसिस, खगोलविदों द्वारा सीधे सौर सामग्री की संरचना को मापने के लिए रचा गया था। जेनेसिस 2004 में पृथ्वी पर लौटा, पर पृथ्वी के वायुमंडल में पुनः प्रवेश पर तैनात करते वक्त पैराशूट के विफल होने से यह अकस्मात् अवतरण से क्षतिग्रस्त हो गया था। गंभीर क्षति के बावजूद, कुछ उपयोगी नमूने अंतरिक्ष यान के नमूना वापसी मॉड्यूल से बरामद किए गए हैं और विश्लेषण के दौर से गुजर रहे हैं। [43] सोलर टेरेस्ट्रियल रिलेशंस ओब्सर्वेटरी (स्टीरियो) मिशन अक्टूबर 2006 में शुरू हुआ था। दो एक सामान अंतरिक्ष यान कक्षाओं में इस तरीके से प्रक्षेपित किए गए जो उनको (बारी बारी से) कहीं दूर आगे की ओर खींचते और धीरे धीरे पृथ्वी के पीछे गिराते। यह सूर्य और सौर घटना के त्रिविम प्रतिचित्रण करने में समर्थ है, जैसे कि कोरोनल मास एजेक्सनEn। [44][45] भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन ने 2015-16 तक आदित्य नामक एक 100 किलो के उपग्रह का प्रक्षेपण निर्धारित किया है। सोलर कोरोना की गतिशीलता के अध्ययन के लिए इसका मुख्य साधन एक कोरोनाग्राफEn होगा। [46] सन्दर्भ इन्हें भी देखें सूर्य देव श्रेणी:सौर मंडल श्रेणी:हिन्दी विकि डीवीडी परियोजना * श्रेणी:जी-प्रकार मुख्य अनुक्रम तारे
सूर्य से पृथ्वी कितनी दुरी पर है?
१४,९६,००,००० किलोमीटर
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hindi
8ec05af82
एंड्रयू हीथ लेजर (4 अप्रैल 1979 -22 जनवरी 2008) एक ऑस्ट्रेलियाई टीवी और फिल्म अभिनेता थे। 1990 के दशक के दौरान ऑस्ट्रेलियाई टीवी और फिल्म में अभिनय करने के बाद लेजर 1998 में अपने फिल्म करियर के विकास के लिए संयुक्त राज्य अमरीका चले गये। उनका काम उन्नीस फिल्मों में फैला हुआ है जिसमें 10 थिंग्स आई हेट अबाउट यू (1999), द पेट्रियाट (2000), मोन्सटर्स बॉल (2001), अ नाइट्स टेल (2001), ब्रोकबैक माउंटेन (2005) और डार्क नाइट (2008) शामिल हैं। [1] अभिनय के अलावा उन्होंने कई म्यूज़िक वीडियो का निर्माण और निर्देशन किया और वे एक फिल्म निर्देशक बनना चाहते थे। [2] ब्रोकबैक माउंटेन में इनीस डेल मार का किरदार निभाने के लिए लेजर को 2005 में सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का न्यूयॉर्क फिल्म क्रिटिक सर्कल अवार्ड और 2006 में ऑस्ट्रेलिया फिल्म इंस्टिट्यूट का 'सर्वश्रेष्ठ अभिनेता पुरस्कार' जीता और 2005 के सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के एकेडमी अवार्ड[3] के साथ ही साथ अग्रणी भूमिका में सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के लिए 2006 BAFTA अवार्ड के लिए नामांकित किये गये। [4] उन्हें मरणोपरांत 2007 का इंडिपेंडेंट स्पिरिट राबर्ट अल्टमैन अवार्ड साझे तौर पर फिल्म आई एम नाट देअर के अन्य कलाकारों, निर्देशक और फिल्म के कास्टिंग डायरेक्टर को दिया गया, जो अमरीकी गायक-गीतकार बॉब डिलन के जीवन और गीतों से प्रेरित थी। फिल्म में लेजर ने एक काल्पनिक अभिनेता रोबी क्लार्क का किरदार निभाया है, जो डिलन के जीवन और व्यक्तित्व के छह पहलुओं का एक संगठित रूप है। [5] फिल्म द डार्क नाइट में अभिनीत जोकर की भूमिका के लिए वे नामांकित हुए और उन्होंने पुरस्कार भी जीता, जिसमें सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेता का एकेडमी अवार्ड, सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का एक अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार और पहली बार किसी को दिया जाने वाला मरणोपरांत[6]ऑस्ट्रेलिया फिल्म इंस्टिट्यूट अवार्ड, 2008 में सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेता लॉस एंजिल्स फिल्म क्रिटिक्स एसोसिएशन अवार्ड, 2009 में सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेता लिए गोल्डन ग्लोब अवार्ड[7], सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेता का 2009 का BAFTA अवार्ड शामिल है। [4] उनकी मौत 28 साल की आयु[3][8] में "अनुशंसित दवाओं के जहरीले संयोजन" से दुर्घटनावश हो गयी। [9][10][11] लेजर की मौत द डार्क नाइट के संपादन के दौरान हुई, जिसका प्रभाव उनकी 180 मिलियन डॉलर की लागत वाली फिल्म के प्रमोशन पर पड़ा.[12] अपनी मौत के समय 22 जनवरी 2008 को वे टोनी के तौर पर अपने रोल का लगभग आधा काम पूरा कर चुके थे, जो टेरी गिलियम की आगामी फिल्म द इमागिनारियम ऑफ़ डॉक्टर पर्नास्सुस में था। परिवार और व्यक्तिगत जीवन हीथ लेजर का जन्म पर्थ, पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया में एक फ्रांसीसी शिक्षका सैली लेजर (शादी से पहले राम्शाव) और एक रेसिंग कार चालक और खनन इंजीनियर किम लेजर के यहां हुआ, जिनके परिवार ने लेजर इंजीनियरिंग फाउंड्री स्थापना की थी और उस पर स्वामित्व था। [13] सर फ्रैंक लेजर चैरिटेबल ट्रस्ट का नामकरण उनके परदादा के नाम पर हुआ है। [13] लेजर ने मेरीज माउंट प्राइमरी स्कूल, गूसेबेर्री हिल[14] के बाद गिल्डफोर्ड ग्रामर स्कूल में पढ़ायी की जहां उन्हें अभिनय का पहला अनुभव मिला। 10 साल की उम्र में स्कूल के नाटक में उन्होंने पीटर पैन के रूप में अभिनय किया। [3][13] जब वह 10 वर्ष के थे उनके माता-पिता अलग हो गये और जब वे 11 के हुए उनके बीच तलाक हो गया। [15] लेजर की बड़ी बहन केट, जिसके वे बहुत करीब थे, वह एक अभिनेत्री से बाद में प्रचारक बन गयी, ने उनके मंचीय अभिनय को सराहा और उनकी प्रेमिका जेन केली ने उन्हें रॉक इस्टेडफोड चैलेंज में गिल्डफोर्ड स्कूल के 60 सदस्यीय टीम का फर्स्ट आल ब्वाय विक्ट्री का सफल कोरियोग्राफर बनने को प्रेरित किया। [13][16] हीथ और केट के अन्य भाई बहनों में दो सौतेली बहनें अश्लेग बेल (ज. 1989), जो उनकी मां की दूसरे पति व उनके सौतेले पिता रोजर बेल से हुई बेटी है और ओलिविया लेजर (ज. 1997), जो उनके पिता की उनकी दूसरी पत्नी और उनकी सौतेली मां एमा ब्राउन से हुई बेटी है। [17] लेजर शतरंज के एक शौकिया खिलाड़ी थे और 10 साल की उम्र में उन्होंने पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया के जूनियर शतरंज चैम्पियनशिप जीती थी। [18] एक युवा खिलाड़ी के तौर पर वे अक्सर वाशिंगटन स्क्वायर पार्क में वे अन्य शतरंज खिलाड़ियों के साथ उत्साह के साथ खेलते थे। [19] 1983 में शतरंज से सम्बंधित वाल्टर टेविस के उपन्यास द क्विंस गम्बिट पर आधारित एलन स्कॉट की फिल्म में अपने मृत्यु के समय वे अभिनय व निर्देशन दोनों करने की योजना बना रहे थे, जो लेजर की बतौर निर्देशक पहली फ़ीचर फिल्म होती.[2][20] अपने सबसे उल्लेखनीय रोमांटिक संबंधों में लेजर का अभिनेत्री हीदर ग्राहम के साथ 2000 से 2001[13] के बीच कई महीनों तक चली डेटिंग है और अभिनेत्री नाओमी वाट के साथ कई बार बना बिगड़ा लांग-टर्म रिलेशनशिप (विवाह के बिना सहजीवन) है, जिसके साथ वे नेड केली की शूटिंग के दौरान मिले थे और वे 2002 से 2004 तक साथ-साथ रहते थे। [21][22] 2004 की गर्मियों में वे ब्रोकबैक माउंटेन के सेट पर अभिनेत्री मिशेल विलियम्स से मिले और उनकी डेटिंग शुरू हुई और 28 अक्टूबर 2005 को उनकी बेटी मेटिल्डा रोज़ न्यूयॉर्क सिटी में पैदा हुई। [23] मेटिल्डा रोज़ के नाना-नानी हैं लेजर के ब्रोकबैक के सह-अभिनेता जेक गिलेनहाल और विलियम्स की फ़िल्म डावसन क्रीक की सह-अभिनेत्री बुसी फिलिप्स हैं। [24] लेजर ने ब्रोनेट, न्यू साउथ वेल्स[25] स्थित अपने घर को बेच दिया और संयुक्त राज्य अमेरिका चले गये, जहां वे विलियम्स के साथ बोएरुम हिल, ब्रुकलीन में 2005 से 2007 तक एक अपार्टमेंट में साथ-साथ रहे। [26] सितम्बर 2007 में विलियम्स के पिता ने सिडनी के डेली टेलीग्राफ को इसकी पुष्टि की कि लेजर और विलियम्स ने रिश्ता तोड़ लिया है। [27] विलियम्स से रिश्ता टूटने के बाद 2007 के आरम्भ और 2008 के अन्त में टेबब्लाइड अखबार और अन्य सार्वजनिक मीडिया ने लेजर के सम्बंध सुपर मॉडल हेलेना क्रिस्टेनसन, जेमा वार्ड और पूर्व बाल कलाकार (चाइल्ड स्टार) व अभिनेत्री मरियम-केट ऑलसेन के साथ जोड़े.[28][29][30][31] करियर 1990 का दशक 16 वर्ष की आयु में स्नातक पूर्व की परीक्षा देने के बाद लेजर ने अभिनय में करियर बनाने के लिए स्कूल छोड़ दिया। [15] ट्रेवर डि कोर्लो जो 3 साल की उम्र से उनका सबसे अच्छा दोस्त था, के साथ लेजर पर्थ से सिडनी होते हुए ऑस्ट्रेलिया आ गये, क्लाउनिंग अराउंड (1992) में एक छोटा सा रोल करने के लिए वे पर्थ लौटे और दो भाग वाले एक टेलीविजन शृंखला के पहले भाग में और टीवी शृंखला स्वेट (1996)) में उन्होंने एक समलैंगिक साइकिल चालक की भूमिका अदा की। [13] 1993 से 1997 तक लेजर ने पर्थ टीवी शृंखला शिप टू शोर (1993), थोड़े समय तक चली फॉक्स ब्राडकास्टिंग कंपनी के फैंटेसी-ड्रामा रोअर (1997), होम एंड अवे (1997), जो ऑस्ट्रेलिया का सबसे सफल टेलीविजन शो था और ऑस्ट्रेलियाई फिल्म ब्लैकरोच (1997) में भी अभिनय किया, जो उनकी पहली फीचर फिल्म थी। [13] 1999 में उन्हें युवा कॉमेडी 10 थिंग्स आई हेट अबाउट यू और प्रशंसित ऑस्ट्रेलियाई अपराध फिल्म टू हैंड्स में अभिनय किया जो ग्रेगर जॉर्डन द्वारा निर्देशित थी। [13] 2000 का दशक 2000 से 2005 तक उन्होंने बैंजामिन मार्टिन (मेल गिब्सन) के बड़े बेटे गेब्रियल मार्टिन का द पैट्रियट (2000), हांक ग्रोतोव्सकी के पुत्र सोनी ग्रोतोव्सकी (बिली बॉब थार्नटन) का मोंस्टर्स बाल (2000) में सहायक भूमिकाएं और ए नाइट्स टेल (2000), द फोर फीदर्स (2002), द आर्डर (2003), नेड केली (2003), कासानोवा (2005), द ब्रदर्स ग्रिम (2005) और द लार्ड ऑफ़ डागटाउन (2005) में प्रमुख भूमिकाएं या टाइटल भूमिकाएं अदा कीं.[1] सन् 2001 में उन्होंने "कल का पुरुष अभिनेता" के तौर पर शोवेस्ट अवार्ड जीता। [32] लेजर ने ब्रोकबैक माउंटेन में अपने अभिनय के लिए न्यूयॉर्क फ़िल्म क्रिटिक सर्कल और सैन फ्रांसिस्को फ़िल्म क्रिटिक सर्कल दोनों अवार्ड प्राप्त किये,[33][34] जिसमें उन्होंने व्योमिंग के पशु-फार्म में काम करने वाले इनीस डेल मार की भूमिका अदा की थी, जिसका रोडियो सवार जैक ट्विस्ट के साथ प्रेम सम्बंध होता है, जिसकी भूमिका जेक गिलेनहल ने निभायी है। [35] उन्होंने एक ड्रामा में गोल्डन ग्लोब सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के लिए नामांकन प्राप्त किया और अपने अभिनय के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का अकादमी पुरस्कार के लिए भी नामांकित किये गये,[36][37] जिसने उन्हें 26 साल की उम्र में ऑस्कर के सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का नौवां सबसे कम उम्र का उम्मीदवार बना दिया। फिल्म की आलोचना करते हुए समीक्षक स्टीफन होल्डेन द न्यूयॉर्क टाइम्स में लिखते हैं: "दोनों श्री लेजर और श्री गिलेनहल ने इस दुखभरी प्रेम कहानी को साकार कर दिया है। श्री लेजर ने जादुई और रहस्यमय तरीके से सशक्त चरित्र की त्वचा के नीचे प्रवेश किया है। यह परदे पर मार्लों ब्रांडो और शॉन पेन की तरह का एक उत्कृष्ट अभिनय रॉलिंग स्टोन में एक समीक्षा में पीटर ट्रेवर्स ने कहाः "लेजर का शानदार अभिनय एक चमत्कार है. लगता है जैसे वे अपने अन्दर से रो रहे हो. लेजर यह नहीं जानते कि इनीस कैसे चलता, बोलता और सुनता है, वे यह जानते हैं कि वह कैसे सांस लेता है. उसकी श्वास को वह जैक की कोठरी में टंगे शर्ट की खुशबू से महसूस करता है जो उसके खोये प्यार के दर्द की थाह देता है.[38] ब्रोकबैक माउंटेन के बाद लेजर साथी ऑस्ट्रेलियाई अब्बी कोर्निश के साथ 2006 की ऑस्ट्रेलियाई फिल्म कैंडी में सहकलाकार के तौर पर लिये गये, जो 1998 के उपन्यास पर आधारित थी,[93] वह हेरोइन की लत का शिकार है और प्यार के सहारे वह लत से मुक्ति का प्रयास करता है, उसके संरक्षक की भूमिका जेफ्री रश ने की है; अपनी भूमिका के लिए जो एक समय कवि डान थी, लेजर को श्रेष्ठ अभिनेता के तीन नामांकन मिले, जिसमें एक फ़िल्म क्रिटिक सर्कल ऑफ़ ऑस्ट्रेलिया अवार्ड भी शामिल है, जिसमें कोर्निश और रश भी अपनी श्रेणियों में जीते. कैंडी के रिलीज होने के तुरंत बाद ही लेजर को एकेडमी ऑफ़ मोशन पिक्चर आर्ट्स एंड साइंसेज में शामिल होने के लिए आमंत्रित किया गया.[39] टोड हेन्स द्वारा निर्देशित 2007 की फिल्म आई एम नाट देअर में बाब डाइलेन के जीवन के विभिन्न पहलुओं को प्रस्तुत करने वाले छह अभिनेताओं में से एक लेजर के रोबी [क्लर्क] की भूमिका की प्रशंसा हुई, एक मूडी, जवाबी संस्कृति वाला अभिनेता जिसने डाइलेन के रोमांटिंक पहलू का प्रतिनिधित्व किया किन्तु कहा कि वाहवाही उनकी प्रेरणा कभी नहीं रही.[40] 23 फ़रवरी 2008 को उन्हें मरणोपरान्त 2007 इंडिपेंडेंट स्पिट रॉबर्ट अल्टमैन अवार्ड फिल्म के बाकी कलाकारों, उसके निर्देशक और कास्ट डायरेक्टर के साथ साझे तौर पर प्रदान किया गया.[41] अपनी अगली आखिरी फिल्म द डार्क नाइट में लेजर ने जोकर की भूमिका निभायी. क्रिस्टोफर नोलन निर्देशित यह फिल्म पहली बार ऑस्ट्रेलिया में 16 जुलाई 2008 को रिलीज हुई, उनकी मौत के करीब छह महीने बाद. हालांकि जब वे फिल्म में काम कर रहे थे, लंदन में लेजर ने 4 नवम्बर 2007 को न्यूयॉर्क टाइम्स में प्रकाशित एक साक्षात्कार में सारा लयल से कहा कि वह द डार्क नाइट के जोकर को "मनोरोगी, सामूहिक हत्या करने वाला, पागलपन के शिकार जोकर के तौर पर देखते हैं जिसके प्रति उनकी सहानुभूति शून्य है। "[42] इस भूमिका के लिए तैयार होने के सम्बंध में लेजर ने एम्पायर से कहा "मैं लंदन में एक होटल के कमरे में एक महीने तक बैठा रहा, अपने-आपको बंद कर करके, एक छोटी डायरी तैयार की और आवाज के साथ प्रयोग किये- आवाज और हंसी में कुछ कलाकारी पैदा करने के लिए यह आवश्यक लगा. मैंने एक मनोरोगी के दायरे में और अधिक दूर तक जाना बंद कर दिया-कोई भी उसकी गतिविधियों के बारे में उसके अंतःकरण को बहुत कम जानता है"; चरित्र पर अपने दृष्टिकोण को दोहराने के बाद उन्होंने उसे "सिर्फ एक निरपेक्ष मनोरोगी, एक धीर, सामूहिक हत्या करने वाला जोकर" बताया. उन्होंने कहा कि नोलन ने उन्हें चरित्र की रचना के लिए "आजादी का अधिकार" दिया, जिसमें उन्हें "मज़ा आया क्योंकि जोकर क्या कह सकता है या क्या कर सकता है इसकी वास्तविक सीमाएं नहीं होतीं. उसे कुछ भी डराता नहीं है और सब कुछ एक बड़ा मजाक होता है."[43][44][45] अपने अभिनय के लिए डार्क नाइट में लेजर ने अपने अभिनय के लिए सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेता का अकादमी पुरस्कार जीता, उनके परिवार ने यह उनकी ओर से स्वीकृत किया, साथ ही साथ कई अन्य मरणोपरांत पुरस्कार मिले जिनमें सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेता के लिए गोल्डन ग्लोब अवार्ड शामिल है जिसे उनकी ओर से क्रिस्टोफर नोलन ने स्वीकृत किया। [46][47] अपनी मृत्यु के समय 22 जनवरी 2008 को लेजर ने अपनी अंतिम फिल्म द इमागिनारियम ऑफ़ डॉक्टर पर्नास्सुस में टोनी के रूप में अपनी भूमिका का लगभग आधा कार्य पूरा कर लिया था। [48][49] निर्देशकीय कार्य लेजर की आकांक्षा एक फिल्म निर्देशक बनने की थी और उन्होंने कुछ संगीत वीडियो बनाये थे जिसकी निर्देशक टोड हेन्स ने 23 फ़रवरी 2008 को मरणोपरान्त ISP रॉबर्ट अल्टमैन अवार्ड साझा तौर पर ग्रहण करते समय लेजर को श्रद्धांजलि देते हुए खूब प्रशंसा की। [41] 2006 में लेजर ने ऑस्ट्रेलियाई हिप-हॉप कलाकार एन फा के संगीत वीडियो के टाइटल ट्रैक की पहली एकल एलबम सीडी काज एन इफेक्ट[50] और एकल "सीडक्शन इज़ इविल (शी इज हॉट)" निर्देशित किया था। [51][52] बाद में उस वर्ष लेजर ने गायक बेन हार्पर के साथ लोकप्रिय संगीत के नये रिकॉर्ड लेबल का उद्घाटन किया और हार्पर के गीत "मॉर्निंग येअर्निंग" के एक संगीत वीडियो का निर्देशन भी किया। [42][53] 2007 में वेनिस फिल्म समारोह में एक संवाददाता सम्मेलन में लेजर ने अपनी इच्छाओं के बारे में बताया कि वे ब्रिटिश गायक-गीतकार निक ड्रेक के बारे में एक वृत्त चित्र बनाना चाहते हैं जिनकी मौत 1974 में 26 साल की उम्र में अवसादरोधी दवा की अधिकता की वजह से हो गयी थी। [54] लेजर ने गायक ड्रेक के 1974 के अवसाद से सम्बंधित गीतों "ब्लैक आइड डॉग " की रिकार्डिंग का संगीत वीडियो सेट तैयार किया और उसमें अभिनय किया जिसका शीर्षक "विंस्टन चर्चिल अवसाद के लिए वर्णनात्मक शब्द से प्रेरित था" (ब्लैक डॉग);[55] जिसका सार्वजनिक प्रदर्शन केवल दो बार हुआ, पहली बार प्रदर्शन वाशिंगटन के सिएटल में 1 सितम्बर से 3 सितम्बर 2007 को आयोजित बम्बरशूट महोत्सव में हुआ और दूसरी " अ प्लेस टू बी: ए सेलिब्रेशन ऑफ़ निक ड्रेक" के एक हिस्से के रूप में किया गया, जो देयर प्लेस: रिफ्लेक्शन ऑन निक ड्रेक के प्रदर्शन के साथ हुआ, जो निक ड्रेक को श्रद्धांजलि देने के लिए लघु फिल्मों की शृंखला के तहत किया गया (लेजर सहित), जिसका प्रायोजक अमेरिकी सिनेमेटेक था, जो 5 अक्टूबर 2007 को हॉलीवुड के ग्रुमनेंस इजिप्टियन थिएटर में सम्पन्न हुआ। [56] लेजर की मृत्यु के बाद उनका "ब्लैक आइड डॉग" पर संगीत वीडियो इंटरनेट पर दिखाया गया और खबर क्लिप में उसका कुछ अंश यूट्यूब के जरिये वितरित किया गया। [54][57][58][59] वह स्कॉटिश पटकथाकार और निर्माता एलन स्कॉट के साथ 1983 में प्रकाशित वाल्टर टेविस के उपन्यास द क्वींस गम्बीट के साथ काम कर रहे थे जिसके लिए अभिनय करने और निर्देशन दोनों की योजना उन्होंने बनायी थी, जो एक निर्देशक के रूप में उनकी पहली फीचर फिल्म होती.[2][20][60] लेजर द्वारा अंतिम निर्देशित दो संगीत वीडियो का 2009 में प्रीमियर हुआ, जिन्हें उन्होंने अपनी मृत्यु से पहले बनाया था। [61] संगीत वीडियो माडेस्ट माउस और ग्रेस वुडरूफ[62] के लिए बनाये गये थे, जिसमें माडेस्ट माउस के गीत "किंग रैट" और वुडरूफ वीडियो में डेविड बोविये के "क्विकसैंड" के कवर के लिए एनिमेटेड फीचर शामिल है। [63] "किंग रैट" का वी़डियो प्रीमियर 4 अगस्त 2009 को हुआ। [64] प्रेस विवाद ऑस्ट्रेलिया में प्रेस के साथ लेजर का रिश्ता कई बार खराब हो गया जिसने उन्हें न्यूयॉर्क सिटी स्थानांतरित होने को प्रेरित किया। [65][66] 2004 में उन्होंने उन प्रेस रिपोर्टों का खंडन किया जिसमें आरोप लगाया गया था कि "उन्होंने सिडनी में कैंडी फिल्म के सेट पर पत्रकारों से मारपीट की," या कि उनके किसी रिश्तेदार ने बाद में लेजर के सिडनी स्थित घर के बाहर ऐसा किया था। [65][66] 13 जनवरी 2006 को "कई पेपराज्जी (paparazzi -स्वतंत्र फोटोग्राफर जो जानी-मानी हस्तियों की तस्वीरें लेता और पत्रिकाओं को बेचता है) सदस्यों ने जवाबी कार्रवाई... के तौर पर लेजर और विलियम्स पर ब्रोकबैक माउंटेन के सिडनी प्रीमियर में रेड कार्पेट पर पानी की पिस्तौल से पिचकारी मारी.[67][68] स्क्रीन एक्टर्स गिल्ड अवार्ड 2005 में स्टेज पर कार्यक्रम की प्रस्तुति देने के बाद ब्रोकबैक माउंटेन में मोशन पिक्चर में एक अभिनेता का उत्कृष्ट प्रदर्शन के लिए एक उम्मीदवार के रूप में पुरस्कृत होते समय उन्होंने मजाक किया लॉस एंजेल्स टाइम्स ने उसका उल्लेख एक "स्पष्ट समलैंगिक धोखे" के रूप में किया। [69] लेजर ने बाद में टाइम्स को फोन किया और बताया कि उनकी चंचलता मंच पर भय के परिणामस्वरूप थी, उन्हें चन्द मिनट पहले ही बताया गया कि उन्हें पुरस्कार दिया जाना है, उन्होंने कहा "मुझे इसका अफसोस है और इसलिए मैं अपनी घबराहट के लिए माफी चाहता हूं. यह बिल्कुल भयावह है कि मेरे मंचीय डर को इस रूप में पेश किया जाये कि फिल्म के प्रति अथवा उसके विषय और उसके कमाल के फिल्म निर्माताओं के प्रति मेरे सम्मान में कोई कमी है.[70][71] जनवरी 2006 में लेजर को मेलबोर्न के हेराल्ड सन में उद्घृत करते हुए कहा गया कि उसने सुना है कि पश्चिम वर्जीनिया ने ब्रोकबैक माउंटेन पर प्रतिबंध लगा दिया था, जबकि ऐसा नहीं था, वास्तव में यूटा में एक सिनेमाघर ने इस फिल्म पर प्रतिबंध लगा दिया था.[72] उनका गलती से पश्चिम वर्जीनिया में 1980 में हुई मारपीट का उल्लेख हाल ही में हुई मारपीट के तौर हुआ है, लेकिन राज्य के विद्वान उनके बयान को विवादास्पद मानते हैं और कहते हैं कि अलबामा में 1981 में मारपीट हुई थी. द चार्लस्टोन गजट में उद्घत "राज्य अभिलेखागार और इतिहास के निदेशक" के अनुसार "पश्चिम वर्जीनिया में पिछले दस्तावेज में मारपीट लेविसबर्ग में 1931 में हुई थी."[73] अनिद्रा और कार्य से सम्बंधित अन्य स्वास्थ्य समस्याएं 4 नवम्बर 2007 को न्यूयॉर्क टाइम्स में प्रकाशित अपने साक्षात्कार में लेजर ने सारा लयल से कहा था कि फिल्म आई एम नॉट देयर (2007) और द डार्क नाइट (2008) में उनके हाल ही में निभाई गयी भूमिका ने उनकी सोने की क्षमता को प्रभावित किया है: "गत सप्ताह मैं एक रात में शायद औसत दो घंटे ही सो पाया. मैं सोचना रोक नहीं पाता हूं. मेरा शरीर थक गया और मेरा दिमाग फिर भी चल रहा है.[42] उस समय उन्होंने लयल को बताया कि उन्होंने दो एम्बियन गोलियां ले ली थी, केवल एक लेना पर्याप्त नहीं था और उसने उन्हें 'एक अचेतनता में छोड़ दिया, केवल एक घंटे बाद वे जाग जायेंगे लेकिन उनका दिमाग फिर भी जागता रहेगा."[42] अपनी पिछली फिल्म का काम कर न्यूयॉर्क लौटने से पहले जनवरी 2008 को लंदन में जब वह जाहिरा तौर पर एक तरह की सांस की बीमारी से पीड़ित थे, उन्होंने कथित तौर पर अपनी नायिका क्रिस्टोफर प्लुम्मेर से शिकायत की थी कि वे मुश्किल से सो पा रहे हैं और समस्या से निजात पाने के लिए गोलियां ले रहे हैं: "पहले की रिपोर्ट है कि लेजर सेट पर स्वस्थ नहीं लग रहे थे अनुरुप, प्लुम्मेर ने बताया कि हम सबको जुकाम ने पकड़ा था क्योंकि हम बाहर भयानक नम रातों में शूटिंग कर रहे थे. लेकिन हीथ काम कर रहे थे और मुझे नहीं लगता कि उन्होंने इसके लिए तुरंत एंटीबायोटिक्स ली होगी ... [इस प्रकार से] मुझे यह लगा था कि उन्हें वाकिंग निमोनिया हो गया था.' [...] उससे बढ़कर, 'वे हर समय कहते थे, "धत्त तेरे की, मैं सो नहीं सकता"...[ इस प्रकार से] और वे ये सब गोलियां ले रहे थे [to help him (अपनी मदद के लिए)] [हिज्जे गलत]."[74] उनकी मृत्यु के बाद पत्रिका से साक्षात्कार में बात करते हुए लेजर की पूर्व मंगेतर मिशेल विलियम्स "ने भी इन रिपोर्टों की पुष्टि की कि अभिनेता को सोने में परेशानी होती थी." "मैं जब से उन्हें जानती हूं, उन्हें अनिद्रा के दौरे पड़ते थे. उनमें बहुत अधिक ऊर्जा थी. उनका दिमाग चलता, चलता, चलता-हमेशा चलता रहता था."[75] मृत्यु अपराह्नलगभग 2:45 बजे, (EST), 22 जनवरी 2008 को नौकरानी टेरेसा सुलैमान और उनकी मालिश करनेवाली डायना वोलोज़ीं ने लेजर को 421 ब्रूम स्ट्रीट में सोहो के पड़ोस में मैनहट्टन में अपनी चौथी मंजिल के मचान अपार्टमेंट में अपने बिस्तर पर बेहोश पाया.[3][8] पुलिस के मुताबिक वोलोज़ीं का लेजर के साथ दोपहर 3:00 बजे अप्वाइंटमेंट था, वह जल्दी आयी थी और उसने लेजर की दोस्त अभिनेत्री मैरी-केट ऑलसेन को मदद के लिए बुलाया. ऑलसेन कैलिफोर्निया में थी, उसने न्यूयॉर्क सिटी के निजी सुरक्षा गार्ड को घटनास्थल पर पहुंचने का निर्देश दिया। अपराह्न 3:26 बजे, "[कम] से 15 मिनट के बाद वोलोज़ीं ने पहले उसे बिस्तर में देखा था और कुछ ही पल बाद" उसने ऑलसेन को फोन किया और फिर उसे दूसरी बार यह बताने के लिए फोन किया कि उसे डर है कि लेजर मर गये हैं, वोलोज़ीं ने 9-1-1 "पर कहा कि श्री लेजर सांस नहीं ले रहे हैं." 9-1-1 ऑपरेटर के आग्रह पर वोलोज़ीं ने CPR का प्रबंध किया जो उन्हें बचा पाने में असफल रहा। [76] आपातकालीन चिकित्सा तकनीशियन (EMT) सात मिनट बाद अपराह्न 3:33 बजे पर पहुंचे ("लगभग उसी पल जब एक निजी सुरक्षा गार्ड को सुश्री ऑलसेन द्वारा बुलाया गया था"), लेकिन वे भी उन्हें ठीक कर पाने में असमर्थ रहे। [8][76][77] अपराह्न 3:36 बजे लेजर स्पष्ट तौर पर मर चुके थे और उनके शव को अपार्टमेंट से हटा दिया गया। [8][76] यादगार श्रद्धांजलियां और सेवाएं लेजर की मौत की खबर 22 जनवरी 2008 की रात भर में सार्वजनिक बन गयी और अगले दिन मीडिया के कैमरों, शोक करने वालों, प्रशंसकों और अन्य तमाशबीन उनके अपार्टमेंट की बिल्डिंग के बाहर इकट्ठा हो गये, जिनमें से कुछ श्रद्धांजलि स्वरूप फूल छोड़ गये तो कुछ उनकी याद में अन्य वस्तुएंरख गए। [78][79] 23 जनवरी 2008 को ऑस्ट्रेलियाई समयानुसार प्रातः 10:50 बजे लेजर के माता पिता और बहन उनकी मां के घर के बाहर पर्थ की नदी के किनारे एक उपनगर अपप्लेक्रोस में दिखायी दिये और उन्होंने मीडिया के लिए एक छोटा वक्तव्य पढ़ा जिसमें अपना दु:ख व्यक्त किया और गोपनीयता की इच्छा जाहिर की। [80] अगले कुछ ही दिनों के भीतर उनके परिवार के सदस्यों ने स्मरण सभा की जिसमें ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री केविन रड, पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया के उप प्रीमियर एरिक रिपर, वार्नर ब्रदर्स (द डार्क नाइट के वितरक) और दुनिया भर के लेजर के हजारों प्रशंसकों ने उन्हें श्रद्धांजलि दी। [81][82][83][84] कई कलाकारों ने लेजर की मौत पर अपने दु:ख व्यक्त करने के लिए वक्तव्य दिये जिसमें डेनियल डे-लेविस शामिल हैं, जिन्होंने अपना स्क्रीन एक्टर्स गिल्ड अवार्ड लेजर को यह कहकर समर्पित किया था कि वे लेजर के अभिनय से प्रेरित हैं; डे-लेविस ने लेजर की मोंसटर्स बेल और ब्रोकबैक माउंटेन में अभिनय की यह कहकर सराहना की कि वह "अद्वितीय, उत्तम" है। [85][86] वेर्ने ट्रोयेर, जिन्होंने लेजर के साथ द इमागिनारियम ऑफ़ डॉक्टर पर्नास्सुस में काम किया था, उनकी मृत्यु के समय दिल के आकार की प्रतिकृति, जैसा लेजर ने अपने ईमेल पते के साथ कागज के एक टुकड़े पर लिखा था, लेजर की याद में अपने हाथ पर टैटू बनवाया क्योंकि लेजर ने "वैसा ही प्रभाव डाला था [उस पर]."[87] 1 फ़रवरी 2008 को, लेजर की मौत के बाद अपने पहले सार्वजनिक बयान में मिशेल विलियम्स ने अपना बड़ा शोक व्यक्त किया और कहा कि लेजर की आत्मा उनकी बेटी के रूप में जीवित है। [88][89] लॉस एंजिल्स में निजी स्मरण सभाओं में भाग लेकर लौटते समय लेजर के परिवार के सदस्य उनके पार्थिव शरीर को लेकर पर्थ लौटे.[90][91] 9 फ़रवरी 2008 को एक स्मारक सेवा में कई सौ आमंत्रित अतिथियों ने भाग लिया, जो पेंरहोस कालेज में आयोजित की गयी, जिसमें लोगों की भीड़ ने प्रेस का ध्यान खींचा, उसके बाद लेजर के शव का फ्रेमान्तले सिमेट्री में दाह संस्कार में एक निजी सेवा के बाद परिवार के 10 निकटतम सदस्यों ने भाग लिया,[92][93][94] बाद में उनकी राख को कर्रकत्ता सिमेट्री में परिवार के एक निजी प्लाट में उनके दादा दादी के बगल में मिट्टी दे दी गयी। [91][95][96] बाद में उस रात उनका परिवार और दोस्त कोततेसलोए समुद्र तट पर जगाने के लिए एकत्र हुए.[97][98][99] शव परीक्षण और जहर का विश्लेषण लेजर की मौत के संभावित कारणों के बारे में मीडिया की गहन अटकलबाजी के दो सप्ताह बाद 6 फ़रवरी 2008 को न्यूयॉर्क के मुख्य चिकित्सा परीक्षक के कार्यालय ने 23 जनवरी 2008 को एक शुरुआती शव परीक्षा और के आधार पर बाद में अपना वर्गीकृत वैज्ञानिक विश्लेषण जारी किया। [9][10][100][101] रिपोर्ट के एक भाग में कहा गया कि "श्री हीथ लेजर की मौत आक्सीकोडन (oxycodone), हाईड्रोकोडन(hydrocodone), डाइजेपाम (diazepam), टेमजेपाम (temazepam), अल्प्राजोलम(alprazolam) और डोक्सीलामाइन (doxylamine) के संयुक्त प्रभाव से तीव्र नशे के कारण हुई.[9][11] यह निश्चित तौर पर कहा गया: "हमने यह निष्कर्ष निकाला है कि मौत जिस तरीके से हुई वह दुर्घटना है, जो डॉक्टरों की दवाओं की पर्ची के दुरुपयोग के कारण घटी."[9][11] इलाज के लिए दी गयी दवाओं के जहर के विश्लेषण में पाया गया कि सामान्यतः अनिद्रा, चिंता, अवसाद, दर्द के लिए संयुक्त राज्य अमेरिका में वे निर्धारित हैं और/या सामान्य सर्दी के लक्षण पाये जाने पर उन्हें दिया जाता है। [9][11] हालांकि एसोसिएटेड प्रेस और अन्य मीडिया की रिपोर्टों में कहा गया कि "पुलिस का अनुमान है कि लेजर की मौत अपराह्न 1 बजे से अपराह्न 2:45 के बीच हुई" (22 जनवरी 2008 को),[102] चिकित्सा परीक्षक कार्यालय ने घोषणा की कि सार्वजनिक रूप से मृत्यु के समय का सरकारी अनुमान उजागर नहीं किया जा सकता.[103][104] लेजर की मौत के कारण और तरीके की सरकारी घोषणा से दवाओं की पर्ची के अपप्रयोग या दुरुपयोग और संयुक्त औषध नशाखोरी (CDI) को लेकर समस्या पैदा हो जायेंगी.[10][101][105] संघीय जांच फरवरी 2008 के अन्त में लेजर की मौत के मामले में किसी भी गड़बड़ी से सम्बंधित चिकित्सा पेशेवरों की DEA जांच में लॉस एंजिल्स और ह्यूस्टन में प्रेक्टिस करने वाले दो अमेरिकी चिकित्सकों ने निर्धारित किया कि "जिन डॉक्टरों पर सवाल उठाये जा रहे हैं उन्होंने लेजर को अन्य दवाएं निर्धारित की थीं-उन गोलियों से मौत नहीं हुई.[106][107] 4 अगस्त 2008 को अनाम सूत्रों का हवाला देते हुए न्यूयॉर्क पोस्ट के मुर्रे वेइस ने पहले लिखा कि मरियम-केट ऑलसेन ने इस बात से इनकार कर दिया [अपने वकील माइकल सी.मिलर के जरिये] कि संघीय जांचकर्ताओं ने उनके करीबी दोस्त हीथ लेजर की दवा से आकस्मिक मौत की जांच के सिलसिले में उनसे साक्षात्कार लिया था ... [बिना] ... प्रतिरक्षा की पैरवी के," और यह कि जब उनसे इस बारे में पूछा गया, मिलर ने पहले और टिप्पणी करने से इनकार कर दिया। [108][109] उस दिन बाद में पुलिस द्वारा एसोसिएटेड प्रेस के वेइस के सम्बंध में कही गयी बातों के सार की पुष्टि किये जाने के बाद, मिलर ने एक वक्तव्य जारी कर इस बात से इनकार किया कि ऑलसेन ने लेजर को जिन दवाओं की आपूर्ति की थी, वह उनकी मृत्यु का कारण बनीं और बयान दिया कि उसे उनके स्रोत का पता नहीं था। [110][111] अपने बयान में मिलर ने विशेष रूप से कहा: "अखबारों की अटकलों के बावजूद मरियम-केट ऑलसेन का हीथ लेजर के घर पर या उसके शरीर में पायी गयी दवाओं से कोई लेना देना नहीं था और वह नहीं जानती है कि उन्होंने उसे कहां से प्राप्त किया."और इस बात पर बल दिया कि मीडिया के "विवरण [एक अज्ञात स्रोत पर आरोपित हैं] अपूर्ण और गलत हैं."[112] मीडिया की अटकलबाजी की बाढ़ के बाद 6 अगस्त 2008 को अमेरिकी अटार्नी के मैनहट्टन कार्यालय ने कोई आरोप दायर किये बिना और ऑलसेन के अदालत में गवाही के लिये आज्ञापत्र के विवादास्पद प्रतिपादन के बिना लेजर की मौत की जांच बंद कर दी। [113][114] दो डॉक्टर और ऑलसेन के समाशोधन और जांच का समापन किया गया क्योंकि मैनहटन अमेरिकी अटार्नी कार्यालय में अभियोजन पक्ष को "विश्वास नहीं था कि कोई व्यावहारिक लक्ष्य है," यह अभी पता नहीं चल पाया है कि लेजर ने आक्सीडोन और हाइड्रोकोडोन कैसे प्राप्त किया जो एक घातक दवा संयोजन है जिसने उनकी जान ली। [114][115] लेजर की मृत्यु के ग्यारह महीने बाद 23 दिस्म्बर 2008 को जेक कोयले ने एसोसिएटेड प्रेस में लिखित तौर पर घोषणा की कि "हीथ लेजर की मृत्यु की खबर ने अमेरिका के समाचार पत्र और एसोसिएटेड प्रेस के प्रसारक संपादकों के सर्वेक्षण में 2008 की शीर्ष मनोरंजक खबर के तौर पर वोट प्राप्त किया," उसका यह परिणाम निकलने का कारण वह "सदमा और भ्रम" है जो "परिस्थितियों को को लेकर पैदा हुए," यह निर्धारित हुआ कि मौत एक दुर्घटना थी, जो डॉक्टर की दवाओं के नुस्खे के कारण विषैले संयोजन से घटी थी" और उसकी निरन्तरता "उनकी विरासत ... [मैं] द डार्क नाइट में एक जोकर के रूप में चौतरफी प्रशंसनीय अभिनय के रूप में हुई, जो साल की सबसे बड़ी बॉक्स ऑफिस हिट साबित हुई."[116] वसीयत पर विवाद लेजर की मृत्यु के बाद उनकी वसीयत के बारे में प्रकाशित कुछ प्रेस रिपोर्टों के जवाब में, जो 28 फ़रवरी २००८[117][118] को न्यूयॉर्क सिटी में और उनकी बेटी के अपने वित्तीय विरासत के उपयोग, उनके पिता किम लेजर ने कहा कि वह अपनी पोती मटिल्डा रोज़ के वित्तीय हित पर विचार कर रहे हैं जो लेजर परिवार की "पूर्ण प्राथमिकता" है और उसकी मां मिशेल विलियम्स, "हमारे परिवारका अभिन्न अंग है,"और यह भी कहा कि "उनकी देखभाल उसी प्रकार की जायेगी जैसा हीथ चाहते थे."[119] लेजर के रिश्तेदारों में से कुछ 2003 में उसके हस्ताक्षर की हुई वसीयत को चुनौती दे सकते हैं, जो विलियम्स के साथ सम्बंध बनाये जाने से पहले और उनकी बेटी के जन्म के बाद और अद्यतन उन्हें शामिल करने को तैयार नहीं हैं, जो उनकी जायदाद को उनके माता-पिता और आधार उनके भाई बहनों के बीच बांटता है, वह दावा करते हैं कि एक दूसरी, बिना हस्ताक्षर वाली वसीयत है, जिसमें ज्यादातर संपदा मटिल्डा रोज़ के लिए छोड़ी गयी है। [120][121] विलियम्स के पिता लैरी विलियम्स भी लेजर की वसीयत से जुड़े विवाद में शामिल हो गये और उन्होंने न्यूयॉर्क सिटी में लेजर की मौत के तुरन्त बाद मामला दायर किया। [122] 31 मार्च 2008 को लेजर की जायदाद को लेकर जेमा जोन्स और जेनेट फिफे-येओमंस ने एक "विशेष" रिपोर्ट डेली टेलीग्राफ ने प्रकाशित की, जिसमें लेजर के चाचा हाइडेन लेजर और परिवार के अन्य सदस्यों के हवाले से कहा कि वे मानते हैं कि "दिवंगत अभिनेता का गोपनीय प्यार से एक बच्चा पैदा होने की बात संभव है" जब वे 17 वर्ष के थे और कहा कि "यदि इसकी पुष्टि होती है कि लेजर लड़की के जैविक पिता हैं तो वह उनकी बहु मिलियन डॉलर की संपत्ति की हिस्सेदार होगी ... मटिल्डा रोज़... और उनके रहस्यमय प्यार की संतान.[123][124][125] कुछ दिन बाद ओके! (OK!) में लेजर के मामा हाइडेन और माइक लेजर तथा परिवार की एक अन्य छोटी लड़की के साथ टेलीफोन इंटरव्यू का हवाला देते हुए रिपोर्ट प्रकाशित हुई और इस अमेरिकी साप्ताहिक ने उन "दावों" से "इनकार" किया जो लेजर के चाचा और छोटी लड़की की मां और उसके सौतेले पिता ने किया था कि मीडिया अतिशयोक्तिपूर्ण रूप से विकृत निराधार "अफवाहें" फैला रहा है। [126][127] 15 जुलाई 2008 को फिफे-येओमंस ने ऑस्ट्रेलियाई न्यूज़ लिमिटेड के ज़रिये आगे बताया कि "हालांकि लेजर ने अपने माता-पिता और तीन बहनों पर सब कुछ छोड़ दिया था, यह माना जाता रहा है कि उन्हें यह कानूनी सलाह दी गयी होगी कि WA कानून के तहत मटिल्डा रोज़ को जायदाद का बड़ा हिस्सा पाने का अधिकार है; उसके प्रबंधकों, किम लेजर के पूर्व व्यापार सहयोगी रॉबर्ट जॉन कोलिन्स और गेराल्डटन एकाउंटेंट विलियम मार्क डाइसन ने "पर्थ स्थित पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया सुप्रीम कोर्ट में प्रोबेट के लिए आवेदन किया है व विज्ञापन दिया कि "लेनदार और अन्य व्यक्ति सम्पत्ति पर 11 अगस्त 2008 ... तक दावा प्रस्तुत करें ताकि संपदा वितरित करने से पहले भुगतान के लिए सभी ऋण सुनिश्चित किये जा सकें...."[128] फिफे-येओमंस की इस रिपोर्ट, इससे पहले लेजर के मामा के हवाले से प्रकाशित रिपोर्ट[119] और और बाद की लेजर के पिता के हवाले से प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार, जिसमें उनकी मरणोपरांत वास्तविक आय शामिल नहीं है, "उनकी पूरी सम्पत्ति, जो ज्यादातर ऑस्ट्रेलियाई ट्रस्टों के अधीन हैं, की कीमत 20 मिलियन अमरीकन डॉलर ([A]$20 मिलियन) हो सकती है.[128][129][130] 27 सितम्बर 2008 को लेजर के पिता किम ने कहा कि "परिवार मटिल्डा के लिए 16.3 मिलियन अमेरिकी डॉलर ([US]$16.3 मिलियन) छोड़ने को सहमत हो गया है," और यह भी कहा कि: "कोई दावा नहीं है. हमारे परिवार ने मटिल्डा को उपहार में सब कुछ दे दिया है.[129][130][131] अक्टूबर 2008 में Forbes.com का अनुमान था कि लेजर की अक्टूबर 2007 से अक्टूबर 2008 की वार्षिक आय- डार्क नाइट के मरणोपरांत उनके शेयर सहित 991 मिलियन अमेरिकी डॉलर ([US]$991 मिलियन) थी और दुनिया भर में बॉक्स ऑफिस राजस्व 20 मिलियन अमेरिकी डॉलर ([US]$20 मिलियन) थी.[132] मरणोपरांत फिल्में और पुरस्कार लेजर की मौत ने क्रिस्टोफर नोलन की फिल्म द डार्क नाइट (2008)[12][48] के विपणन अभियान को प्रभावित किया और उसके साथ-साथ टेरी गिलियम की आगामी फिल्म द इमागिनारियम ऑफ़ डॉक्टर पर्नास्सुस के निर्माण और विपणन दोनों पर इसका प्रभाव पड़ा और दोनों निर्देशकों ने जश्न मनाने और इन फिल्मों में काम करने के लिए उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करने का इरादा किया.[48][49][133][134] हालांकि गिलियम ने बाद में अस्थायी रूप से फिल्म के निर्माण को निलंबित कर दिया,[49] उन्होंने "बचाव" का दृढ़ संकल्प व्यक्त किया है, शायद कंप्यूटर की कल्पना के उपयोग (कम्प्यूटर-जनरेटेड इमेजरी) (cgi) के जरिये और इसे लेजर को समर्पित की योजना है। [74][135][136] फरवरी 2008 में "कई लोगों द्वारा अपनी पीढ़ी के बेहतरीन अभिनेताओं में से एक कहे जाने वाले कलाकार को स्मारक श्रद्धांजलि के रूप में" जॉनी डेप, जूड ला और कॉलिन फर्रेल ने लेजर की भूमिका लेने पर हस्ताक्षर किये, जो उनके चरित्र के कई रूपों को व्यक्त करेंगे, टोनी ने उनकी इस "फाउस्ट की कहानी के जादुई पुनर्कथन में बदला,"[137][138][139] और तीन अभिनेताओं ने फिल्म के लिए अपना पारिश्रमिक लेजर और विलियम्स की बेटी को दान कर दिया। [140] द डार्क नाइट के सम्पादन के सम्बंध में चर्चा करते हुए, जिसमें लेजर ने अपना काम अक्टूवर 2007 में ही पूरा कर दिया था, नोलन ने याद किया "यह काफी भावुक था, जब से वे गये, पीछे वापस जाना और उन्हें रोज देखना. ... लेकिन सच यह है, मुझे लगता है कि मैं भाग्यशाली हूं कि मैंने कुछ काम लायक किया है, एक अभिनय जिस पर उन्हें बहुत, बहुत ही गर्व था और उन्होंने मुझे सौंपा था कि मैं पूरा करूं.[134] लेजर के सभी दृश्य उसी प्रकार हैं जैसा उन्होंने फिल्माये जाने के दौरान पूरा किया था; फिल्म सम्पादित करते समय, नोलन ने कहा कि लेजर के वास्तविक अभिनय को मरणोपरान्त प्रस्तुत करने के लिए किसी "डिजिटल इफेक्ट" का सहारा नहीं लिया जा रहा है। [141] नोलन ने फिल्म को लेजर और तकनीशियन कनवे विकलिफ की स्मृति को समर्पित किया है, जो एक कार दुर्घटना के दौरान उस समय मारा गया जब वह फिल्म के स्टंट में से एक की तैयारी कर रहा था। [142] जुलाई 2008 में जारी डार्क नाइट ने बॉक्स ऑफिस के कई रिकॉर्ड तोड़ दिये और लोकप्रियता तथा आलोचकों की प्रशंसा प्राप्त की, विशेष रूप से लेजर की जोकर के रूप में भूमिका काफी सराही गयी। [143] यहां तक कि फिल्म समीक्षक डेविड डेन्बे, जिन्होंने द न्यू योर्कर में प्री-रिलीज समीक्षा में कुल मिलाकर फिल्म की प्रशंसा नहीं की थी, ने लेजर के काम को उत्कृष्ट बताया था, उनके अभिनय को "कुटिल और भयावह" दोनों बताया था और लेजर के अभिनय को "हर दृश्य में सम्मोहित करने वाला" बताया था तथा निष्कर्ष दिया था: "उनका अभिनय एक नायक का है, जो अंतिम दृश्य तक परेशान करता है: यह युवा अभिनेता रसातल में दिखा."[144] बड़े पैमाने पर यह अटकलें लगायी गयीं कि लेजर का जोकर के रूप में अभिनय का उनकी मौत से सम्बंध है (जैसा डेन्बी और अन्य का सुझाव है), लेजर के सह अभिनेता और दोस्त क्रिश्चियन बाले, जिन्होंने फिल्म में उनकी अपोजिट बैटमैन की भूमिका अदा की है, ने इस बात पर जोर दिया है कि एक अभिनेता के रूप में लेजर की भूमिका की चुनौती को लेकर काफी खुश थे और एक अनुभव है जिसकी खुद लेजर ने व्याख्या की है "मुझे अब तक जिसमें ज्यादा मजा आया अथवा संभवतः जो आयेगा, एक चरित्र का अभिनय करने में.[12][145] लेजर ने डार्क नाइट में जोकर की अपनी भूमिका के लिए कई पुरस्कार प्राप्त किये. 10 नवम्बर 2008 को फिल्म में अभिनय के लिए पीपुल्स च्वाइस अवार्ड्स हेतु उन्हें दो बार नामांकित किया गया था, "सर्वश्रेष्ठ समवेत अभिनेता (बेस्ट एनसेंबल कास्ट)" और "परदे पर सर्वश्रेष्ठ अभिनय मिलान (बेस्ट ऑनस्क्रीन मैच-अप)" (क्रिश्चियन बाले के साथ साझा) और लेजर ने "अभिनय मिलान (मैच-अप)" का एक अवार्ड जनवरी 2009 में CBS पर लाइव प्रसारण समारोह में जीता। [146] 11 दिसम्बर 2008 को लेजर को द डार्क नाइट में जोकर की भूमिका के लिए सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेता- मोशन पिक्चर में गोल्डन ग्लोब पुरस्कार के लिए नामांकित किये जाने की घोषणा की गयी, बाद में NBC पर 11 जनवरी 2009 को प्रसारित 66 वें गोल्डन ग्लोब पुरस्कार समारोह में उन्होंने यह पुरस्कार जीता जिसे डार्क नाइट के निर्देशक क्रिस्टोफर नोलन ने उनकी ओर से स्वीकार किया। [7][46] फिल्म आलोचकों, सह-अभिनेताओं मैगी गिलेनहाल और माइकल केन तथा फिल्म समुदाय में लेजर के कई सहयोगियों ने बाले का साथ दिया, जिन्होंने लेजर की उपलब्धि को मान्यता के रूप में द डार्क नाइट में उन्हें सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेता के लिए अकादमी पुरस्कार 2008 के लिए नामांकित करने का आह्वान किया। [147] बाद में 22 जनवरी 2009 को लेजर के नामांकन की घोषणा उनकी मौत की सालगिरह पर गयी;[148] लेजर मरणोपरांत अभिनय के लिए अकादमी पुरस्कार जीतने वाले अपने साथी कलाकार ऑस्ट्रेलियाई अभिनेता पीटर फिंच के बाद दूसरे कलाकार बनने जा रहे थे, जिन्होंने 1976 में नेटवर्क के लिए यह पुरस्कार जीता था। पुरस्कार लेजर के परिवार ने ग्रहण किया। [47] फिल्मोग्राफी टेलीविजन फिल्म संगीत वीडियो (2006) एन'फा द्वारा "कौस ऐन इफेक्ट" और "सिडकशन इस इविल (शी'स हॉट)", के गीत, लेजर द्वारा वीडियो का निर्देशन. (2006) बेन हार्पर द्वारा "मॉर्निंग यर्निंग" का गीत, लेजर द्वारा वीडियो का निर्देशन. (2007) निक ड्रेक (1948–1974) द्वारा "ब्लैक आईड डॉग" लिखित गीत, लेजर द्वारा विशेष विडियो का निर्देशन.[54] (2009) मोडेस्ट माउस द्वारा "किंग रैट" का गीत और लेजर द्वारा नियोजित.[62][149] इन्हें भी देखें सबसे अधिक आयु वाले और सबसे कम आयु वाले अकादमी अवार्ड विजेताओं और नामांकित कलाकारों की सूची मरणोपरांत अकादमी अवार्ड विजेताओं और नामांकित कलाकारों की सूची सन्दर्भ अतिरिक्त संसाधन ऐडलर, शॉन. : लेट ऐक्टर वॉस इंटेलिजेंट, सेल्फ-अवेयर ड्यूरिंग ब्रोकबैक माउंटेन चैट." MTV.com, 22 जनवरी 2008. 18 मार्च 2008 को पहुंचा. (2005 में जॉन नोर्रिस द्वारा आयोजित हीथ लेजर के साथ साक्षात्कार की प्रतिलिपि से उद्धरण.) अरंगो, टिम. द न्यूयॉर्क टाइम्स, nytimes.com, 6 मार्च 2008, की किताबें. 25 जुलाई 2008 को पहुंचा. 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"(): जिसमें नायक रहस्यमय तरीके से मर जाता है और दर्शक उनके असली चरित्र के सुरागों के लिए उनके अंतिम दिनों का विश्लेषण करते हैं". न्यूयॉर्क, nymag.com, 18 फ़रवरी 2008. 21 अप्रैल 2008 को पहुंचा. पार्क, मिशैल वाई. . वेब. पीपुल, 25 जून 2008. 5 अगस्त 2008 को पहुंचा. (वुल्फ के लिए निचे देखें.) रॉब, ब्रायन जे. हीथ लेजर: हॉलीवुड'स डार्क स्टार . लंदन: लेक्सस पब्लिशिंग लिमिटेड, 2008. ISBN 0-85965-427-3 (10)। ISBN 978-0-85965-427-2 (13)। स्कॉट, ए. ओ. द न्यूयॉर्क टाइम्स, nytimes.com, 24 जनवरी 2008, मूवीस. 27 अप्रैल 2008 को पहुंचा. ब्रुस वेबर, एक फोटोग्राफर के साथ सिसम्स, केविन. वैनिटी फेयर, अगस्त 2000, vanityfair.com, अगस्त 2008. वेब. (4 पृष्ठों.) 21 अप्रैल 2008 को पहुंचा. (हीथ लेजर के साथ साक्षात्कार; ब्रुस वेबर द्वारा "पर्थ एल्बम" में उदाहरण.) टेडो, लिसा. . एस्क्वायर (अप्रैल 2008), Esquire.com, 5 मार्च 2008. (21 जुलाई 2008 को नवीनीकरण.) 25 जुलाई 2008 को पहुंचा. 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एंड्रयू हीथ लेजर ने सबसे पहले किस फिल्म में काम किया था?
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पतंजलि आयुर्वेद लिमिटेड भारत प्रांत के उत्तराखंड राज्य के हरिद्वार जिले में स्थित आधुनिक उपकरणों वाली एक औद्योगिक इकाई है।[3][4] इस औद्योगिक इकाई की स्थापना शुद्ध और गुणवत्तापूर्ण खनिज और हर्बल उत्पादों के निर्माण हेतु की गयी है।[5][6] परिचय सन 2006 में पतंजलि आयुर्वेद की स्थापना हुई। [7] वर्तमान में पतंजलि आयुर्वेद आयुर्वेदिक औषधियों और विभिन्न खाद्य पदार्थों का उत्पादन करती है। भारत के साथ-साथ विदेशों में भी इसकी इकाइयां बनाने की योजना है, इस संदर्भ में नेपाल में कार्य प्रारम्भ हो चुका है।[8][9] पतंजलि आयुर्वेद लिमिटेड पूरी तरह से स्वदेशी (भारतीय) कंपनी है। भारतीय बाज़ार में आज पतंजलि आयुर्वेद की मजबूत पकड़ है जो कि बाज़ार में मौजूद विभिन्न विदेशी कंपनियों को कड़ी टक्कर दे रही है। बाबा रामदेव के पतंजलि आयुर्वेद का सालाना टर्नओवर 2500 करोड़ के आस-पास है।[10] [11] शायद ही कुछ ऐसा हो जो पतंजलि आयुर्वेद लिमिटेड ना बनाती हो। खाद्य सामाग्री से लेकर पतंजलि के सौन्दर्य उत्पाद और औषधियाँ तक बाज़ार में उपलब्ध हैं।[12] पतंजलि आयुर्वेद ने सबसे पहले औषधियों के निर्माण से शुरुआत की थी। धीरे-धीरे पतंजलि आयुर्वेद खाने-पीने की चीजों से लेकर कांतिवर्धक उत्पादों का निर्माण भी करने लगी है। पतंजलि आयुर्वेद 45 तरह के कांतिवर्धक (cosmetics) उत्पाद बनाती है जिसमें सिर्फ 13 तरह के शरीर साफ़ करने के उत्पाद शामिल हैं, जैसे-शैंपू, साबुन, लिप बाम, स्किन क्रीम आदि। किराना के भी बहुत से उत्पादों का निर्माण पतंजलि आयुर्वेद द्वारा किया जाता है। यह कंपनी 30 अलग-अलग तरह के खाद्य पदार्थ तैयार करती है जैसे- सरसों तेल, आटा, घी, बिस्किट, मसाले, तेल, चीनी, जूस, शहद इत्यादि। दूसरी कंपनियों की तुलना में पतंजलि आयुर्वेद के उत्पाद सस्ते हैं। एफ.एम.सी.जी. कंपनियों को कड़ी चुनौती देने के लिए पतंजलि आयुर्वेद हाल ही में टीवी पर अपने उत्पादों के विज्ञापन देने शुरू किए हैं। [13] [14] साल 2012 में करीब 150 से 200 के बीच रहने वाली पतंजलि के दुकानों की संख्या बढ़कर 6000 हो चुकी है। इतना ही नहीं पतंजलि आयुर्वेद के तमाम उत्पाद पतंजलि आयुर्वेद की आधिकारिक वेबसाइट पर ऑनलाइन भी बेचे जा रहे हैं।[15][16] पतंजलि आयुर्वेद का च्यवनप्राश और सरसों का तेल आदि अब रिलायंस के रिटेल स्टोर में भी बिकने लगे हैं। देश भर के 400 स्टोर्स में पतंजलि आयुर्वेद के उत्पाद बिक रहे हैं जिसे 2015 के आखिर तक 1000000 स्टोर्स तक पहुंचाने की योजना है।[17] [18] पतंजलि की दुकानें बाबा रामदेव ने स्वदेशी का पथ अपनाया और पतंजलि आयुर्वेद की स्थापना कर लोगों के सामने एक स्वदेशी ब्रांड को विकल्प के रूप में प्रस्तुत किया वहीं दूसरी ओर विभिन्न एफएमसीजी कंपनियों को टक्कर दी। हालांकि पतंजलि आयुर्वेद के शुरुआती दिनों में एफएमसीजी कंपनियों ने उसे हल्के में लिया लेकिन अब पतंजलि उत्पादों की मांग बढ़ने के साथ पतंजलि आयुर्वेद ने अपनी प्रतिद्वंद्वी कंपनियों को कड़ी चुनौती देनी शुरू कर दी है। [19] पतंजलि प्रोडक्टस की लोकप्रियता और बढ़ती मांग के चलते बड़े-बड़े शहरों भी जैसे मुंबई, दिल्ली के बिग बाजार, हाइपर सिटी, स्टार बाजार और रिलायंस जैसे बड़े स्टोर्स भी पतंजलि के प्रॉडक्ट्स की स्टॉकिंग कर रहे हैं। [20][21] पतंजलि आयुर्वेद अब जल्द ही विदेशी बाज़ारों में अपने उत्पाद लाने की तैयारी में है। बाबा रामदेव ने खुद इस बात का ऐलान किया है कि अगले साल से निर्यात पर ज़ोर देंगे। [22] [23] [24] [25]देश में स्वदेशी उत्‍पादों को बढ़ावा देने के लि‍ए पतंजलि‍ की तरफ से मेगा सि‍टी में 50 मेगा स्‍टोर खोले जाने की तैयारी है। जिसकी औपचारि‍क तौर शुरुआत बाबा रामदेव ने राजधानी लखनऊ में एक मेगा स्टोर का उद्घाटन कर की। [26] पतंजलि आयुर्वेद की बढ़ती चुनौती से निपटने के लिये अब डाबर कंपनी अपनी नई रणनीति तैयार कर रही है, जिसके साथ ही कंपनी अपने आयुर्वेदिक उत्पादों में आधुनिक समय के मुताबिक बदलाव कर बाज़ार में अपने नए उत्पाद उतारने की तैयारी में है। [27] [28] व्यवसायिक संबन्ध फ्यूचर ग्रुप के साथ हाल ही में खुदरा क्षेत्र की प्रमुख कंपनी फ्यूचर समूह ने योग गुरु रामदेव प्रवर्तित पतंजलि आयुर्वेद के साथ गठजोड़ किया है जिसके तहत वह पतंजलि के दैनिक इस्तेमाल श्रेणी के उत्पादों को अपने भंडारों के जरिये बेचेगा। इस करार के बाद अब जल्द ही बिग बाजार सहित फ्यूचर ग्रुप के सभी दुकानों पर पतंजलि के उत्पाद उपलब्‍ध होंगे।[29] [30] [31] [32] डीआरडीओ के साथ हाल ही में पतंजलि योगपीठ और भारत के रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन की अनुषंगी उच्च उन्नतांश अनुसंधान रक्षा संस्थान (डीआईएचएआर) के बीच एक समझौता हुआ है। जिसके बाद अब पतंजलि आयुर्वेद सेना के जवानों के लिए विशेष पेय और खाद्य-पदार्थ तैयार करेगा। इसमें हर्बल चाय, भोजन के गुणों वाली कैप्सूल और खूबानी का जूस भी शामिल है। ये विशेष खाना डीआरडीओ की लेह स्थित उच्च उन्नतांश अनुसंधान रक्षा संस्थान ने तैयार किया है और इसका उत्पादन पतंजलि ट्रस्ट करेगा। इस समझौते के तहत डीआईएचएआर द्वारा तैयार सीबकथोर्न (एक प्रकार का फल) पर आधारित उत्पादों की तकनीक का हस्तांतरण किया जाएगा। [33] [34] [35] देश के विविध दुर्गम क्षेत्रों पायी जाने वाली आयुर्वेदिक जड़ी-बूटियों एवं वनस्पतियों के शोध में डिफेंस रिसर्च एंड डीजी डीआरडीओ अनुसंधान को पतंजलि योगपीठ सहयोग देगा। [36] ब्राण्ड, सफलता एवं साख पतंजलि आयुर्वेद आज जाने माने ब्रैंड्स में से एक हैं और पतंजलि की इसी सफलता को देखते हुए प्राइवेट सेक्टर के दो बड़े बैंक आईसीआईसीआई बैंक और एचडीएफसी बैंक ने बाबा रामदेव के पतंजलि आयुर्वेद को कॉरपोरेट लोन का ऑफर दिया है।[37] [38] [39] उत्पाद नवंबर २०१५ में पतंजलि आयुर्वेद ने "झटपट बनाओ, बेफिक्र खाओ" टैग लाइन के साथ पतंजलि आटा नूडल्स लांच किया। [40] [41] इसके पहले से पतंजलि विभिन्न उत्पादों को बनाता और बेचता आया है। पतंजलि के अनुसार इसके सभी उत्पाद प्राकृतिक व आयुर्वेदिक घटकों से बने होते हैं जैसे: घी च्यवनप्राश केश कांति व अन्य सौंदर्य प्रसाधन शहद आयुर्वेदिक औषधियाँ घृतकुमारी का रस आंवला का रस, चूर्ण व गोलियाँ पतंजलि आटा नूडल्स- हालांकि लॉंच होने के साथ पतंजलि आटा नूडल्स एक विवाद से भी घिरी गई। जिसके संबंध में पतंजलि की ओर से सफाई भी दी। [42] [43] स्वदेशी उत्पाद निर्माण करने की अपनी इस कड़ी को आगे बढ़ाते हुए बाबा रामदेव व उनकी कंपनी जल्द ही हॉर्लिक्स और बॉर्नविटा के विकल्प के तौर पर पॉवरवीटा बाज़ार में लाने की तैयारी में हैं। साथ ही उनकी आगे की रणनीति खादी से बने योगावियर को बाजार में लाने की भी है।[44] [45] [46] बाज़ार में पतंजलि प्रोडक्टस की दिनों-दिन बढ़ रही मांग के चलते पतंजलि आयुर्वेद अब गाय के दूध का पाउडर चॉकोलेट और चीज़ सहित पौष्टिक पशुचारा के उत्पादन और दूध उत्पादन के बाजार में भी कदम रखने की तैयारी में है।[47] आटा नूडल्स, खाद्य पदार्थ और सौंदर्य प्रसाधन के बाद बाबा रामदेव अब जल्द ही मिट्टी के बर्तन बेचने की तैयारी कर रहे हैं। पतंजलि योगपीठ के महामंत्री आचार्य बालकृष्ण का कहना है कि मिट्टी के बर्तनों के इस्तेमाल से कई बीमारियों से निजात मिल सकेगी।शुरुआती दौर में वे मिट्टी का तवा और कड़ाही बाजार में लाए जाएंगे। इसके बाद अन्य बर्तन भी बाजार में लाए जाएंगे। आचार्य बालकृष्ण ने बताया कि हमारे देश की मिट्टी आयुर्वेदिक तत्वों से भरपूर है और इनमें बना भोजन न सिर्फ स्वाद में अलग होता है, बल्कि पौष्टिक भी होता है। [48] [49] [50] [51] [52] [53] संप्राप्ति (टर्न ओवर) पतंजलि आयुर्वेद का वर्ष 2015-16 का टर्नओवर 5000 करोड़ रुपए है। इस बात की जानकारी स्वयं बाबा रामदेव ने २६ अप्रैल २०१६ को एक प्रैस कॉन्फ्रेंस में दी। उन्होंने कहा कि पतंजलि ने सेवा और सिद्धांत का ख्याल रखा है, इससे हमारे उत्पादों से किसानों की समृद्धि बढ़ी है। उन्होने कहा कि हमारी कंपनी ने कम कीमत में विश्वस्तरीय गुणवत्ता और एक लाख से ज्यादा लोगों को रोजगार दिया और हमने नया बाजार खड़ा किया। उन्होंने बताया कि 100 करोड़ से ज्यादा योग के अनुसंधान पर खर्च किया गया है। पतंजलि की प्रमुख बातें 1 मार्च 2012 में ओपन मार्केट में आई कंपनी ने 4 साल में 1100 फीसदी की ग्रोथ हासिल की। कंपनी इंटरनेशनल ब्रांड्स को टक्कर दे रही है। पतंजलि के पास वर्तमान समय में 40000 वितरक, 10000 स्टोर और 100 मेगा स्टोर व रीटेल स्टोर हैं। 2011-12 कंपनी का टर्नओवर 446 करोड़ रुपए था। 2015-16 का टर्नओवर- 5000 करोड़। 2016-17 के लिए 10000 करोड़ के टर्नओवर का लक्ष्य। दंतकांति (दन्तमंजन) का उत्पाद 425 करोड़ रुपए का। केशकांति (केश तेल) का कारोबार 325 करोड़ रुपए का। गाय के घी का नया बाजार खड़ा किया, टर्नओवर 1308 करोड़ का हुआ।[54] सन्दर्भ इन्हें भी देखें भारत स्वाभिमान न्यास पतंजलि योगपीठ ट्रस्ट पतंजलि फूड एवं हर्बल पार्क बाबा रामदेव बालकृष्ण योग ग्राम बाहरी कड़ियाँ (सुदर्शन न्यूज) (वेबदुनिया) श्रेणी:भारतीय कंपनियाँ श्रेणी:आयुर्वेद श्रेणी:हरिद्वार श्रेणी:बाबा रामदेव
पतंजलि कंपनी की स्थापना कब हुई?
2006
245
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नर्मदा, जिसे रेवा के नाम से भी जाना जाता है, मध्य भारत की एक नदी और भारतीय उपमहाद्वीप की पांचवीं सबसे लंबी नदी है। यह गोदावरी नदी और कृष्णा नदी के बाद भारत के अंदर बहने वाली तीसरी सबसे लंबी नदी है। मध्य प्रदेश राज्य में इसके विशाल योगदान के कारण इसे "मध्य प्रदेश की जीवन रेखा" भी कहा जाता है। यह उत्तर और दक्षिण भारत के बीच एक पारंपरिक सीमा की तरह कार्य करती है। यह अपने उद्गम से पश्चिम की ओर 1,312 किमी चल कर खंभात की खाड़ी, अरब सागर में जा मिलती है। नर्मदा, मध्य भारत के मध्य प्रदेश और गुजरात राज्य में बहने वाली एक प्रमुख नदी है। मैकल पर्वत के अमरकण्टक शिखर से नर्मदा नदी की उत्पत्ति हुई है। इसकी लम्बाई प्रायः 1312 किलोमीटर है। यह नदी पश्चिम की तरफ जाकर खम्बात की खाड़ी में गिरती है। उद्गम एवं मार्ग नर्मदा नदी का उद्गम मध्यप्रदेश के अनूपपुर जिले में विंध्याचल और सतपुड़ा पर्वतश्रेणियों के पूर्वी संधिस्थल पर स्थित अमरकंटक में नर्मदा कुंड से हुआ है। नदी पश्चिम की ओर सोनमुद से बहती हुई, एक चट्टान से नीचे गिरती हुई कपिलधारा नाम की एक जलप्रपात बनाती है। घुमावदार मार्ग और प्रबल वेग के साथ घने जंगलो और चट्टानों को पार करते हुए रामनगर के जर्जर महल तक पहुँचती हैं। आगे दक्षिण-पूर्व की ओर, रामनगर और मंडला (25 किमी (15.5 मील)) के बीच, यहाँ जलमार्ग अपेक्षाकृत चट्टानी बाधाओं से रहित सीधे एवं गहरे पानी के साथ है। बंजर नदी बाईं ओर से जुड़ जाता है। नदी आगे एक संकीर्ण लूप में उत्तर-पश्चिम में जबलपुर पहुँचती है। शहर के करीब, नदी भेड़ाघाट के पास करीब 9 मीटर का जल-प्रपात बनाती हैं जो की धुआँधार के नाम से प्रसिद्ध हैं, आगे यह लगभग 3 किमी तक एक गहरी संकीर्ण चैनल में मैग्नीशियम चूनापत्थर और बेसाल्ट चट्टानों जिसे संगमरमर चट्टान भी कहते हैं के माध्यम से बहती है, यहाँ पर नदी 80 मीटर के अपने पाट से संकुचित होकर मात्र 18 मीटर की चौड़ाई के साथ बहती हैं। आगे इस क्षेत्र से अरब सागर में अपनी मिलान तक, नर्मदा उत्तर में विंध्य पट्टियों और दक्षिण में सतपुड़ा रेंज के बीच तीन संकीर्ण घाटियों में प्रवेश करती है। घाटी का दक्षिणी विस्तार अधिकतर स्थानों पर फैला हुआ है। संगमरमर चट्टानों से निकलते हुए नदी अपनी पहली जलोढ़ मिट्टी के उपजाऊ मैदान में प्रवेश करती है, जिसे "नर्मदाघाटी" कहते हैं। जो लगभग 320 किमी (198.8 मील) तक फैली हुई है, यहाँ दक्षिण में नदी की औसत चौड़ाई 35 किमी (21.7 मील) हो जाती है। वही उत्तर में, बर्ना-बरेली घाटी पर सीमित होती जाती है जो की होशंगाबाद के बरखरा पहाड़ियों के बाद समाप्त होती है। हालांकि, कन्नोद मैदानों से यह फिर पहाड़ियों में आ जाती हैं। यह नर्मदा की पहली घाटी में है, जहां दक्षिण की ओर से कई महत्वपूर्ण सहायक नदियाँ आकर इसमें शामिल होती हैं और सतपुड़ा पहाड़ियों के उत्तरी ढलानों से पानी लाती हैं। जिनमे: शार, शाककर, दधी, तवा (सबसे बड़ी सहायक नदी) और गंजल साहिल हैं। हिरन, बरना, चोरल , करम और लोहर, जैसी महत्वपूर्ण सहायक नदियां उत्तर से आकर जुड़ती हैं। हंडिया और नेमावर से नीचे हिरन जल-प्रपात तक, नदी दोनों ओर से पहाड़ियों से घिरी हुई है। इस भाग पर नदी का चरित्र भिन्न दिखाई देता है। ओंकारेश्वर द्वीप, जोकि भगवान शिव को समर्पित हैं, मध्य प्रदेश का सबसे महत्वपूर्ण नदी द्वीप है। सिकता और कावेरी, खण्डवा मैदान के नीचे आकर नदी से मिलते हैं। दो स्थानों पर, नेमावर से करीब 40 किमी पर मंधार पर और पंसासा के करीब 40 किमी पर ददराई में, नदी लगभग 12 मीटर (39.4 फीट) की ऊंचाई से गिरती है। बरेली के निकट कुछ किलोमीटर और आगरा-मुंबई रोड घाट, राष्ट्रीय राजमार्ग 3, से नीचे नर्मदा मंडलेश्वर मैदान में प्रवेश करती है, जो कि 180 किमी (111.8 मील) लंबा है। बेसिन की उत्तरी पट्टी केवल 25 किमी (15.5 मील) है। यह घाटी साहेश्वर धारा जल-प्रपात पर जा कर ख़त्म होती है। मकरई के नीचे, नदी बड़ोदरा जिले और नर्मदा जिला के बीच बहती है और फिर गुजरात राज्य के भरूच जिला के समृद्ध मैदान के माध्यम से बहती है। यहाँ नदी के किनारे, सालो से बाह कर आये जलोढ़ मिट्टी, गांठदार चूना पत्थर और रेत की बजरी से पटे हुए हैं। नदी की चौड़ाई मकराई पर लगभग 1.5 किमी (0.9 मील), भरूच के पास और 3 किमी तथा कैम्बे की खाड़ी के मुहाने में 21 किमी (13.0 मील) तक फैली हुई बेसीन बनाती हुई अरब सागर में विलिन हो जाती है। हिन्दू धर्म में महत्व नर्मदा, समूचे विश्व में दिव्य व रहस्यमयी नदी है,इसकी महिमा का वर्णन चारों वेदों की व्याख्या में श्री विष्णु के अवतार वेदव्यास जी ने स्कन्द पुराण के रेवाखंड़ में किया है। इस नदी का प्राकट्य ही, विष्णु द्वारा अवतारों में किए राक्षस-वध के प्रायश्चित के लिए ही प्रभु शिव द्वारा अमरकण्टक (जिला शहडोल, मध्यप्रदेश जबलपुर-विलासपुर रेल लाईन-उडिसा मध्यप्रदेश ककी सीमा पर) के मैकल पर्वत पर कृपा सागर भगवान शंकर द्वारा १२ वर्ष की दिव्य कन्या के रूप में किया गया। महारूपवती होने के कारण विष्णु आदि देवताओं ने इस कन्या का नामकरण नर्मदा किया। इस दिव्य कन्या नर्मदा ने उत्तर वाहिनी गंगा के तट पर काशी के पंचक्रोशी क्षेत्र में १०,००० दिव्य वर्षों तक तपस्या करके प्रभु शिव से निम्न ऐसे वरदान प्राप्त किये जो कि अन्य किसी नदी और तीर्थ के पास नहीं है:' प्रलय में भी मेरा नाश न हो। मैं विश्व में एकमात्र पाप-नाशिनी प्रसिद्ध होऊँ, यह अवधि अब समाप्त हो चुकी है। मेरा हर पाषाण (नर्मदेश्वर) शिवलिंग के रूप में बिना प्राण-प्रतिष्ठा के पूजित हो। विश्व में हर शिव-मंदिर में इसी दिव्य नदी के नर्मदेश्वर शिवलिंग विराजमान है। कई लोग जो इस रहस्य को नहीं जानते वे दूसरे पाषाण से निर्मित शिवलिंग स्थापित करते हैं ऐसे शिवलिंग भी स्थापित किये जा सकते हैं परन्तु उनकी प्राण-प्रतिष्ठा अनिवार्य है। जबकि श्री नर्मदेश्वर शिवलिंग बिना प्राण के पूजित है। मेरे (नर्मदा) के तट पर शिव-पार्वती सहित सभी देवता निवास करें। सभी देवता, ऋषि मुनि, गणेश, कार्तिकेय, राम, लक्ष्मण, हनुमान आदि ने नर्मदा तट पर ही तपस्या करके सिद्धियाँ प्राप्त की। दिव्य नदी नर्मदा के दक्षिण तट पर सूर्य द्वारा तपस्या करके आदित्येश्वर तीर्थ स्थापित है। इस तीर्थ पर (अकाल पड़ने पर) ऋषियों द्वारा तपस्या की। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर दिव्य नदी नर्मदा १२ वर्ष की कन्या के रूप में प्रकट हो गई तब ऋषियों ने नर्मदा की स्तुति की। तब नर्मदा ऋषियों से बोली कि मेरे (नर्मदा के) तट पर देहधारी सद्गुरू से दीक्षा लेकर तपस्या करने पर ही प्रभु शिव की पूर्ण कृपा प्राप्त होती है। इस आदित्येश्वर तीर्थ पर हमारा आश्रम अपने भक्तों के अनुष्ठान करता है। किंवदंती (लोक कथायें) नर्मदा नदी को लेकर कई लोक कथायें प्रचलित हैं एक कहानी के अनुसार नर्मदा जिसे रेवा के नाम से भी जाना जाता है और राजा मैखल की पुत्री है। उन्होंने नर्मदा से शादी के लिए घोषणा की कि जो राजकुमार गुलबकावली के फूल उनकी बेटी के लिए लाएगा, उसके साथ नर्मदा का विवाह होगा। सोनभद्र यह फूल ले आए और उनका विवाह तय हो गया। दोनों की शादी में कुछ दिनों का समय था। नर्मदा सोनभद्र से कभी मिली नहीं थीं। उन्होंने अपनी दासी जुहिला के हाथों सोनभद्र के लिए एक संदेश भेजा। जुहिला ने नर्मदा से राजकुमारी के वस्त्र और आभूषण मांगे और उसे पहनकर वह सोनभद्र से मिलने चली गईं। सोनभद्र ने जुहिला को ही राजकुमारी समझ लिया। जुहिला की नियत भी डगमगा गई और वह सोनभद्र का प्रणय निवेदन ठुकरा नहीं पाई। काफी समय बीता, जुहिला नहीं आई, तो नर्मदा का सब्र का बांध टूट गया। वह खुद सोनभद्र से मिलने चल पड़ीं। वहां जाकर देखा तो जुहिला और सोनभद्र को एक साथ पाया। इससे नाराज होकर वह उल्टी दिशा में चल पड़ीं। उसके बाद से नर्मदा बंगाल सागर की बजाय अरब सागर में जाकर मिल गईं। एक अन्य कहानी के अनुसार सोनभद्र नदी को नद (नदी का पुरुष रूप) कहा जाता है। दोनों के घर पास थे। अमरकंटक की पहाडिय़ों में दोनों का बचपन बीता। दोनों किशोर हुए तो लगाव और बढ़ा। दोनों ने साथ जीने की कसमें खाई, लेकिन अचानक दोनों के जीवन में जुहिला आ गई। जुहिला नर्मदा की सखी थी। सोनभद्र जुहिला के प्रेम में पड़ गया। नर्मदा को यह पता चला तो उन्होंने सोनभद्र को समझाने की कोशिश की, लेकिन सोनभद्र नहीं माना। इससे नाराज होकर नर्मदा दूसरी दिशा में चल पड़ी और हमेशा कुंवारी रहने की कसम खाई। कहा जाता है कि इसीलिए सभी प्रमुख नदियां बंगाल की खाड़ी में मिलती हैं,लेकिन नर्मदा अरब सागर में मिलती है। ग्रंथों में उल्लेख रामायण तथा महाभारत और परवर्ती ग्रंथों में इस नदी के विषय में अनेक उल्लेख हैं। पौराणिक अनुश्रुति के अनुसार नर्मदा की एक नहर किसी सोमवंशी राजा ने निकाली थी जिससे उसका नाम सोमोद्भवा भी पड़ गया था। गुप्तकालीन अमरकोशमें भी नर्मदा को 'सोमोद्भवा' कहा है। कालिदास ने भी नर्मदा को सोमप्रभवा कहा है। रघुवंश में नर्मदा का उल्लेख है। मेघदूत में रेवा या नर्मदा का सुन्दर वर्णन है। विश्व में नर्मदा ही एक ऐसी नदी है जिसकी परिक्रमा की जाती है और पुराणों के अनुसार जहाँ गंगा में स्नान से जो फल मिलता है नर्मदा के दर्शन मात्र से ही उस फल की प्राप्ति होती है। नर्मदा नदी पुरे भारत की प्रमुख नदियों में से एक ही है जो पूर्व से पश्चिम की ओर बहती है। बाहरी कड़ियाँ Narmada nadi sbse zyada gahri omkareshvar or mamleshwar ke bich he. सन्दर्भ श्रेणी:भारत की नदियाँ श्रेणी:मध्य प्रदेश की नदियाँ श्रेणी:नर्मदा नदी
नर्मदा नदी कहाँ स्थित है?
मध्य भारत
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कहानी सुनने-सुनाने की भारतीय पद्धति को कथा कहते हैं। इन्हें भी देखें कथासाहित्य (संस्कृत) कहानी लघुकथा बाहरी कड़ियाँ (भारतखोज) katha in Hindi) श्रेणी:भारतीय संस्कृति
कहानी सुनने-सुनाने की भारतीय पद्धति को क्या कहते हैं?
कथा
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जॉन अब्राहम (जन्म 17 दिसम्बर 1972) एक भारतीय अभिनेता और पूर्व मॉडल हैं जो बॉलीवुड की फिल्मों में दिखाई देते हैं। कई विज्ञापनों और कंपनियों के लिए मॉडलिंग करने के बाद, अब्राहम ने जिस्म (2003) से अपना फ़िल्मी सफ़र प्रारंभ किया, जिसने उन्हें फ़िल्मफेयर सर्वश्रेष्ठ नवागत पुरस्कार नामांकन दिलाया। इसके बाद उन्हें अपनी पहली व्यावसायिक सफलता धूम (2004) के द्वारा मिली उन्हें नकारात्मक भूमिका के लिए दो फ़िल्म फेयर नामांकन प्राप्त हुए, धूम और फिर जिंदा (2006) में बाद में वह एक बड़ी महत्वपूर्ण सफल फिल्म वाटर (2005) में दिखाई दिए। 2007 में फ़िल्म बाबुल के लिए उनका नामांकन फ़िल्म फेयर सर्वश्रेष्ठ सहायक की श्रेणी में किया गया। प्रारम्भिक जीवन अब्राहम का जन्म sidhi मुंबई में हुआ, उनके पिता jitendra sidhi और माँ पारसी हैं।[1] उनके पिता अलवाए, केरला से एक शिल्पकार हैं; उनकी माँ का नाम फिरोजा ईरानी हैं। अब्राहम का पारसी नाम "फरहान" है, पर उनके पिता, जो एक सिरियन क्रिस्चियन हैं, उन्होंने उनका नाम जॉन रखा। उनका एक छोटा भाई भी है जिसका नाम एलन है। अब्राहम ने बॉम्बे स्कॉटिश स्कूल, माहिम (मुंबई) में अध्ययन किया और मुंबई शैक्षिक ट्रस्ट से एमएमएस किया। कैरियर मॉडलिंग अब्राहम ने अपने कैरियर की शुरुआत, टाइम एंड स्पेस मीडिया एंटरटेन्मेंट प्रोमोशन्स लिमिटेड नामक मीडिया कंपनी से की जो कि आर्थिक कठिनाइयो की वजह से बंद हो गई। उसके बाद उन्होंने एंटरप्रैजिस-नेक्सस में मीडिया आयोजक का काम किया। 1999 में, उन्होंने ग्लैडरैग्स मेंनहंट प्रतियोगिता जीती और मेंनहंट अंतर्राष्ट्रीय प्रतियोगिता के लिए फ़िलीपीन्स चले गए जहा उन्हें दूसरा स्थान मिला। इस के बाद, उन्हें कैर्री मोडल्स (सिंगापुर) में काम मिला, वहाँ थोड़ी बहुत माडलिंग करने के बाद उन्होंने हांगकांग, लन्दन और न्यूयॉर्क सिटी में भी माडलिंग की। वह कई विज्ञापनों और पंकज उदास, हंसराज हंस और बाबुल सुप्रियो के म्यूजिक वीडियो में भी दिखाई दिए। अपने अभिनय कौशल में सुधार करने के लिए, अब्राहम, किशोर नामित कपूर एक्टिंग लैब में भर्ती हो गए और वहाँ उन्होंने अभिनय का एक क्रम पूरा किया, इसके साथ ही साथ वह मोडलिंग का काम भी करते रहे। अभिनय कैरियर अब्राहम ने अपने अभिनय की शुरुआत 2003 में फिल्म जिस्म से की। यह एक रोमहर्षक फिल्म थी जिसमें इनके साथ बिपाशा बासु ने अभिनय किया। फिल्म ने मध्यम बॉक्स ऑफिस सफलता प्राप्त की और उनके प्रदर्शन को आलोचकों ने स्वीकार किया।[2] इसी फिल्म के दौरान अब्राहम और बिपाशा ने एक दूसरे को डेट करना शुरू किया। बाद में उसी वर्ष एक असाधारण भावोत्तेजक फिल्म साया (2003) प्रदर्शित की गई, जो कि एक व्यावसायिक और आलोचनात्मक असफल फिल्म थी। इसके पश्चात् कई सारी असफल फिल्में आई, जिसमें पूजा भट्ट की पहली निर्देशित फिल्म पाप (2004) और अहमद खान की लकीर (2004) भी थी। इन फिल्मों में दिखाई देने के बाद, अब्राहम को 2004 में यश राज फिल्म्स द्वारा निर्मित एक्शन फिल्म धूम में अभिनय करने के लिए साइन किया। उन्होंने कबीर नामक खलनायक की भूमिका निभाई. यह फिल्म एक बड़ी व्यावसायिक सफलता थी और उस वर्ष के उच्चतम फिल्मों में से एक के रूप में उभरा.[3] 2005 में उन्होंने अलौकिक रोमांचक "काल " और हास्य फिल्म "गरम मसाला " में अभिनय किया, यह दोनों ही बॉक्स ऑफिस पर अच्छी रही। [4] उसी वर्ष, बाद में, उन्होंने समीक्षकों द्वारा सराही गई फिल्म, वाटर में एक प्रमुख भूमिका निभाई, जिसमें 1930 के दशक के ब्रिटिश भारत में हिंदू विधवाओं की बदकिस्मती को दर्शाया गया। फिल्म का लेखन और निर्देशन स्वतंत्र कनाडा वासी फिल्म निर्माता दीपा मेहता द्वारा किया गया। यह विदेशों में लोकप्रिय रही और 79 अकादमी पुरस्कारों में सर्वश्रेष्ठ विदेशी भाषा फिल्म के लिए मनोनीत की गई। 2006 की गर्मियों में, अब्राहम ने साथी बॉलीवुड कलाकारों सलमान खान, जायद खान, करीना कपूर, ईशा देओल, शाहिद कपूर और मल्लिका शेरावत[5] के साथ "रोक्स्तार्स कंसर्ट" में भाग लिया। उसी वर्ष में, उन्होंने फिल्म ज़िदा, टेक्सी न. 9211, बाबुल और काबुल एक्सप्रेस में भी अभिनय किया।[6] इनमें से टेक्सी न. 9211 और काबुल एक्सप्रेस मूलत: सफल रही। निखिल आडवाणी की बहु अभिनीत Salaam-e-Ishq: A Tribute to Love 2007 की अब्राहम की पहली फिल्म थी। फिल्म भारतीय बॉक्स ऑफिस[7] पर कुछ कमाल नहीं कर पायी, हालांकि यह विदेशी बाजारों[8] में अच्छी रही। 2007 की उनकी अगली दो फिल्में आर्ट हाउस रोमहर्षक "नो स्मोकिंग " और खेल फिल्म "धन धना धन गोल " थी। 2008 में अब्राहम ने अभिषेक बच्चन और प्रियंका चोपड़ा के साथ "दोस्ताना " में काम किया, इस वर्ष उनकी यही एक फिल्म प्रदर्शित हुई। करण जौहर द्वारा निर्मित इस फिल्म ने बॉक्स ऑफिस पर काफी अच्छा प्रदर्शन किया। 2009 की उनकी पहली रिलीज यश राज फिल्मज की अधिक प्रतीक्षित "न्यू योर्क" थी। यह फिल्म एक आलोचनात्मक और व्यावसायिक सफलता थी। इसमें तीन अच्छे दोस्तों के, न्यू योर्क में हुए 11 सितंबर के हमलों, के बाद के जीवन का विवरण किया है। निजी जीवन अब्राहिम 2002 से अभिनेत्री बिपाशा बसु से डेट कर रहे हैं। हालाँकी अब उनका ब्रेकअप हो चूका है। इस जोड़े को अक्सर भारत के उच्च जोड़े के रूप में उदधृत किया है। जॉन की अपनी एक फैशन लाइन है: उनका ब्रांड (JA) कपड़े, जो कि मुख्यतः उनके पसंदीदा आवरण, जीन्स को आकृति करता है।[9] अब्राहिम कई सामाजिक अभिप्रायों के साथ भी जुड़े हुए हैं और नौजवानॉ को भी इस मानवता के उधार के काम करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। "I work for social causes that I address. I love animals and I work for PETA. I have my own brigade called John's brigade for Habitat for Humanity, Habitat For Humanity is a Jimmy Carter foundation project." जब उनके काम के बारे में पूछा तब जॉन ने बताया[10][11] वह मुंबई के मशहूर लीलावती अस्पताल से भी जुड़े हुए थे, जहाँ उन्होंने अस्पताल के फंड के लिए 10 लाख रुपए का चेक दान दिया था।[12] जनवरी 2009 में, जॉन अपनी परोपकारी गतिविधियों को एक नए स्तर पर ले गए और मुंबई मैराथन में उन्होंने भारतीय प्रतिष्ठित हस्तियों के एक समूह का नेतृत्व किया, यह कार्यक्रम उन्होंने यूनाइटेड वे की सहायता के लिए किया।[13] मीडिया अपनी फिल्मी प्रतिबद्धताओं के अलावा, जॉन कैस्ट्रॉल पॉवर 1 और यामाहा मर्कुए के ब्राण्ड एलची भी हैं और उन्होंने रैंगलर, क्लिनिक आल क्लीयर, फास्त्रेक आई गियर और सैमसंग सेल फोन के विज्ञापन भी किये हैं। 2008 में जॉन पहले भारतीय बने जिन्हें '25 आकर्षक पुरुषों' की सूची में ई! न्यूज़ द्वारा संकलित किया गयाऔर दुनिया के सातवे आकर्षक पुरुष का क्रम दिया गया। उसी वर्ष में, UK पत्रिका, इस्टर्न आई ने अब्राहम को एशिया के सबसे "आकर्षक पुरुष की ख्याति" दी। [14] पुरस्कार और नामांकन फिल्मोग्राफी इन्हें भी देखें भारतीय अभिनेताओं की सूची ऋतिक रोशन कीर्ति बाहरी कड़ियाँ at IMDb श्रेणी:1972 में जन्मे लोग श्रेणी:जीवित लोग श्रेणी:मुंबई के लोग श्रेणी:मलयाली लोग श्रेणी:भारतीय फ़िल्म निर्माता श्रेणी:भारतीय कलाकार श्रेणी:हिन्दी फिल्म कलाकार श्रेणी:मुंबई विश्वविद्यालय के पूर्व छात्र श्रेणी:भारतीय फ़िल्म अभिनेता
जॉन अब्राहम ने अपने अभिनय करियर की शुरुआत कब की?
2003
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अवनीन्द्रनाथ ठाकुर (१८७१-१९५१) भारत के बंगाल प्रदेश में जन्मे चित्रकार थे।20 वीं शताब्दी की शुरुआत में बंगाल स्कूल का विचार अभनींद्रनाथ टैगोर के कार्यों के साथ आया था। उनकी अरब रात की श्रृंखला ने वैश्विक स्तर पर एक निशान बनाया क्योंकि यह भारतीय चित्रकला के पिछले स्कूलों से अलग हो गया और कुछ नया लाया। उन्होंने भारत कला में स्वदेशी मूल्यों को शामिल करने की कोशिश की और कलाकारों के बीच पश्चिमी कला शैली के प्रभाव को कम करने की कोशिश की। वह अपने चित्रकला भारत माता और विभिन्न मुगल-थीम वाली पेंटिंग्स के लिए जाने जाते हैं। अवनींद्रनाथ टैगोर ‘इंडियन सोसाइटी ऑफ़ ओरिएण्टल आर्ट’के मुख्य चित्रकार और संस्थापक थे। भारतीय कला में स्वदेशी मूल्यों के वे पहले सबसे बड़े समर्थक थे। इस प्रकार उन्होंने ‘बंगाल स्कूल ऑफ़ आर्ट’ की स्थापना में अति प्रभावशाली भूमिका निभाई, जिससे आधुनिक भारतीय चित्रकारी का विकास हुआ। एक चित्रकार के साथ-साथ वे बंगाली बाल साहित्य के प्रख्यात लेखक भी थे। वे ‘अबन ठाकुर’ के नाम से प्रसिद्ध थे और उनकी पुस्तकें जैसे राजकहानी, बूड़ो अंगला, नलक, खिरेर पुतुल बांग्ला बाल-साहित्य में महत्त्वपूर्ण स्थान रखती हैं। उनकी शैली ने बाद के कई चित्रकारों को प्रभावित किया जिमें प्रमुख हैं – नंदलाल बोस, असित कुमार हलधर, क्षितिन्द्रनाथ मजुमदार, मुकुल डे, मनीषी डे और जामिनी रॉय। अवनींद्रनाथ टैगोर का जन्म प्रसिद्ध ‘टैगोर परिवार’ में कोलकता के जोरासंको में 7 अगस्त 1871 में हुआ था। उनके दादा का नाम गिरिन्द्रनाथ टैगोर था जो द्वारकानाथ टैगोर के दूसरे पुत्र थे। वे गुरु रविंद्रनाथ टैगोर के भतीजे थे। उनके दादा और बड़े भाई गगनेन्द्रनाथ टैगोर भी चित्रकार थे। उन्होंने कोलकाता के संस्कृति कॉलेज में अध्ययन के दौरान चित्रकारी सीखी। सन 1890 में उन्होंने कलकत्ता स्कूल ऑफ़ आर्ट में दाखिला लिया जहाँ उन्होंने यूरोपिय शिक्षकों जैसे ओ.घिलार्डी से पेस्टल का प्रयोग और चार्ल्स पामर से तैल चित्र बनाना सीखा। सन 1889 में उनका विवाह सुहासिनी देवी से हुआ जो भुजगेन्द्र भूषण चटर्जी की पुत्री थीं। लगभग 9 साल के अध्यन के बाद उन्होंने संस्कृति कॉलेज छोड़ दिया और कोलकाता के सेंट जेविएर्स कॉलेज में एक साल तक अंग्रेजी की पढ़ाई की। उनकी एक बहन भी थी जिसका नाम सुनयना देवी था। पेंटिंग के अलावा उन्होंने बच्चों के लिए कई कहानियां भी लिखीं और ‘अबन ठाकुर’ के नाम से प्रसिद्ध हुए। करियर सन 1897 के आस-पास उन्होंने कोलकाता के गवर्नमेंट स्कूल ऑफ़ आर्ट के उप-प्रधानाचार्य और इतालवी चित्रकार सिग्नोर गिल्हार्दी से चित्रकारी सीखना प्रारंभ किया। उन्होंने उनसे कास्ट ड्राइंग, फोलिअगे ड्राइंग, पस्टेल इत्यादि सीखा। इसके बाद उन्होंने ब्रिटिश चित्रकार चार्ल्स पाल्मर के स्टूडियो में लगभग 3 से 4 साल तक काम करके तैल चित्र और छायाचित्र में निपुणता हासिल की। इसी दौरान उन्होंने कई प्रतिष्ठित व्यक्तियों के तैल चित्र बनाये और ख्याति अर्जित की। कलकत्ता स्कूल ऑफ़ आर्ट के प्रधानाचार्य इ.बी. हैवेल उनके काम से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने अवनीन्द्रनाथ को उसी स्कूल में उप-प्रधानाचार्य के पद का प्रस्ताव दे दिया। इसके बाद अवनीन्द्रनाथ ने कला और चित्रकारी के कई शैलियों पर काम किया और निपुणता हासिल की। हैवेल के साथ मिलकर उन्होंने कलकत्ता स्कूल ऑफ़ आर्ट में शिक्षण को पुनर्जीवित और पुनः परिभाषित करने की दिशा में कार्य किया। इस कार्य में उनके बड़े भाई गगनेन्द्रनाथ टैगोर ने भी उनकी बहुत सहायता की। उन्होंने विद्यालय में कई महत्वपूर्ण परिवर्तन किये – विद्यालय के दीवारों से यूरोपिय चित्रों को हटाकर मुग़ल और राजपूत शैली के चित्रों को लगवाया और ‘ललित कला विभाग’ की स्थापना भी की। उन्होंने पश्चिम की भौतिकतावाद कला को छोड़ भारत के परंपरागत कलाओं को अपनाने पर जोर दिया। सन 1930 में बनाई गई ‘अरेबियन नाइट्स’ श्रृंखला उनकी सबसे महत्पूर्ण उपलब्धि थी। वे मुग़ल और राजपूत कला शैली से बहुत प्रभावित थे। धीरे-धीरे वे कला के क्षेत्र में दूसरे महत्वपूर्ण व्यक्तियों के संपर्क में भी आये। इनमें शामिल थे जापानी कला इतिहासविद ओकाकुरा काकुजो और जापानी चित्रकार योकोयामा टाय्कन। इसका परिणाम यह हुआ कि अपने बाद के कार्यों में उन्होंने जापानी और चीनी सुलेखन पद्धति को अपनी कला में एकीकृत किया। अबनिन्द्रनाथ टैगोर के शिष्यों में प्रमुख थे नंदलाल बोस, कालिपद घोषाल, क्षितिन्द्रनाथ मजुमदार, सुरेन्द्रनाथ गांगुली, असित कुमार हलधर, शारदा उकील, समरेन्द्रनाथ गुप्ता, मनीषी डे, मुकुल डे, के. वेंकटप्पा और रानाडा वकील। लन्दन के प्रसिद्ध चित्रकार, लेखक और बाद में लन्दन के ‘रॉयल ‘कॉलेज ऑफ़ आर्ट’ के अध्यक्ष विलियम रोथेनस्टीन से उनकी जीवन-पर्यान्त मित्रता रही। वे सन 1910 में भारत आये और लगभग 1 साल तक भारत भ्रमण किया और कोलकाता में अबनिन्द्रनाथ के साथ चित्रकारी की और बंगाली कला शैली के तत्वों को अपने शैली में समाहित करने की कोशिश की। सन 1913 में उनके चित्रों की प्रदर्शनी लन्दन और पेरिस में लगायी गयी। उसके बाद उन्होंने सन 1919 में जापान में अपनी कला की प्रदर्शनी लगाई। सन 1951 में उनकी मृयु के उपरान्त उनके सबसे बड़े पुत्र तोपू धबल ने अबनिन्द्रनाथ टैगोर के सभी चित्रों को नव-स्थापित ‘रबिन्द्र भारती सोसाइटी ट्रस्ट’ को दे दिया। इस प्रकार यह सोसाइटी उनके द्वारा बनाये गए चित्रों की बड़ी संख्या की संग्रहक बन गई। अबनिन्द्रनाथ टैगोर के बारे में एक दिलचस्प बात कम लोगों को ही ज्ञात होगी कि रविंद्रनाथ टैगोर को अंतर्राष्ट्रीय ख्याति मिलने ने से भी पहले अबनिन्द्र का नाम यूरोप में एक प्रतिष्ठित चित्रकार के तौर पर स्थापित हो चुका था और अबनिन्द्र और उनके बड़े भाई गगनेन्द्रनाथ के ब्रिटिश और यूरोपिय मित्रों ने ही रविंद्रनाथ टैगोर को अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘गीतांजलि’ को अंग्रेजी में प्रकाशित करने के लिए प्रोत्साहित किया। इन्हें भी देखें द्वारकानाथ ठाकुर (१७९४-१८४६) देवेन्द्रनाथ ठाकुर (१८०७-१९०५) रवीन्द्रनाथ ठाकुर (१८६१-१९४१) अबनिन्द्रनाथ ठाकुर (१८७१-१९५१) ठाकुर परिवार बाहरी कडियां (कल्चरल इण्डिया) टैगोर, अवनींद्र नाथ
‘इंडियन सोसाइटी ऑफ़ ओरिएण्टल आर्ट’ के मुख्य चित्रकार और संस्थापक कौन थे?
अवनींद्रनाथ टैगोर
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रघुनाथ जी भारत देश के राजस्थान राज्य के करौली जिला के प्रसिद्ध नगर हिण्डौन में स्थित एक प्रसिद्ध विख्यात मंदिर है। श्री रघुनाथ जी मंदिर एक हिंदू मंदिर है यह हिण्डौन का निपुण मंदिर है। मंदिर 650 वर्ष पुराना है। यह मंदिर तुलसीपुरा में नक्कश की देवी - गोमती धाम के पास स्थित है। रघुनाथ जी राम के हिंदू भगवान का एक नाम है। निकटतम शहर हिण्डौन (0 nbsp; किमी), करौली (30 किमी), गंगापुर (43 किमी किमी) है। यहाँ पर चमत्कारी शिव परिवार, प्राचीन हनूमान स्थित है। श्रेणी:भारत के मन्दिर
श्री रघुनाथ जी का मंदिर भारत के किस राज्य में स्थित है?
राजस्थान
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वैशाली (English: Vaishali) बिहार प्रान्त के तिरहुत प्रमंडल का एक जिला है। मुजफ्फरपुर से अलग होकर १२ अक्टुबर १९७२ को वैशाली एक अलग जिला बना। वैशाली जिले का मुख्यालय हाजीपुर में है। बज्जिका तथा हिन्दी यहाँ की मुख्य भाषा है। ऐतिहासिक प्रमाणों के अनुसार वैशाली में ही विश्व का सबसे पहला गणतंत्र यानि "रिपब्लिक" कायम किया गया था। वैशाली जिला भगवान महावीर की जन्म स्थली होने के कारण जैन धर्म के मतावलम्बियों के लिए एक पवित्र नगरी है। भगवान बुद्ध का इस धरती पर तीन बार आगमन हुआ। भगवान बुद्ध के समय सोलह महाजनपदों में वैशाली का स्थान मगध के समान महत्त्वपूर्ण था। ऐतिहासिक महत्त्व के होने के अलावे आज यह जिला राष्ट्रीय स्तर के कई संस्थानों तथा केले, आम और लीची के उत्पादन के लिए भी जाना जाता है। इतिहास वैशाली जन का प्रतिपालक, विश्व का आदि विधाता, जिसे ढूंढता विश्व आज, उस प्रजातंत्र की माता॥ रुको एक क्षण पथिक, इस मिट्टी पर शीश नवाओ, राज सिद्धियों की समाधि पर फूल चढ़ाते जाओ॥ -- (कवि रामधारी सिंह दिनकर की पंक्तियाँ) वैशाली का नामाकरण रामायण काल के एक राजा विशाल के नाम पर हुआ है। विष्णु पुराण में इस क्षेत्र पर राज करने वाले 34 राजाओं का उल्लेख है, जिसमें प्रथम नभग तथा अंतिम सुमति थे। राजा सुमति भगवान राम के पिता राजा दशरथ के समकालीन थे। विश्‍व को सर्वप्रथम गणतंत्र का ज्ञान कराने वाला स्‍थान वैशाली ही है। आज वैश्विक स्‍तर पर जिस लोकशाही को अपनाया जा रहा है वह यहाँ के लिच्छवी शासकों की ही देन है। ईसा पूर्व छठी सदी के उत्तरी और मध्य भारत में विकसित हुए 16 महाजनपदों में वैशाली का स्थान अति महत्त्वपूर्ण था। नेपाल की तराई से लेकर गंगा के बीच फैली भूमि पर वज्जियों तथा लिच्‍छवियों के संघ (अष्टकुल) द्वारा गणतांत्रिक शासन व्यवस्था की शुरूआत की गयी थी। लगभग छठी शताब्दि ईसा पूर्व में यहाँ का शासक जनता के प्रतिनिधियों द्वारा चुना जाता था। मौर्य और गुप्‍त राजवंश में जब पाटलिपुत्र (आधुनिक पटना) राजधानी के रूप में विकसित हुआ, तब वैशाली इस क्षेत्र में होने वाले व्‍यापार और उद्योग का प्रमुख केंद्र था। ज्ञान प्राप्ति के पाँच वर्ष बाद भगवान बुद्ध का वैशाली आगमन हुआ, जिसमें वैशाली की प्रसिद्ध नगरवधू आम्रपाली सहित चौरासी हजार नागरिक संघ में शामिल हुए। वैशाली के समीप कोल्‍हुआ में भगवान बुद्ध ने अपना अंतिम सम्बोधन दिया था। इसकी याद में महान मौर्य महान सम्राट अशोक ने तीसरी शताब्दि ईसा पूर्व सिंह स्‍तम्भ का निर्माण करवाया था। महात्‍मा बुद्ध के महा परिनिर्वाण के लगभग 100 वर्ष बाद वैशाली में दूसरे बौद्ध परिषद का आयोजन किया गया था। इस आयोजन की याद में दो बौद्ध स्‍तूप बनवाये गये। वैशाली के समीप ही एक विशाल बौद्ध मठ है, जिसमें भगवान बुद्ध उपदेश दिया करते थे। भगवान बुद्ध के सबसे प्रिय शिष्य आनंद की पवित्र अस्थियाँ हाजीपुर (पुराना नाम- उच्चकला) के पास एक स्तूप में रखी गयी थी। पाँचवी तथा छठी सदी के दौरान प्रसिद्ध चीनी यात्री फाहियान तथा ह्वेनसांग ने वैशाली का भ्रमण कर यहाँ का भव्य वर्णन किया है। वैशाली जैन धर्मावलम्बियों के लिए भी काफी महत्त्वपूर्ण है। यहीं पर 599 ईसापूर्व में जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर भगवान महावीर का जन्‍म वसोकुंड में हुआ था। ज्ञात्रिककुल में जन्में भगवान महावीर यहाँ 22 वर्ष की उम्र तक रहे थे। इस तरह वैशाली भारत के दो महत्त्वपूर्ण धर्मों का केंद्र था। बौद्ध तथा जैन धर्मों के अनुयायियों के अलावा ऐतिहासिक पर्यटन में दिलचस्‍पी रखने वाले लोगों के लिए भी वैशाली महत्त्वपूर्ण है। वैशाली की भूमि न केवल ऐतिहासिक रूप से समृद्ध है वरन् कला और संस्‍कृति के दृष्टिकोण से भी काफी धनी है। वैशाली जिले के चेचर (श्वेतपुर) से प्राप्त प्राचीन मूर्त्तियाँ तथा सिक्के पुरातात्विक महत्त्व के हैं। पूर्वी भारत में मुस्लिम शासकों के आगमन के पूर्व वैशाली मिथिला के कर्नाट वंश के शासकों के अधीन रहा, लेकिन जल्द ही यहाँ गयासुद्दीन एवाज़ का शासन हो गया। 1323 में तुग़लक वंश के शासक गयासुद्दीन तुग़लक का राज आया। इसी दौरान बंगाल के एक शासक हाजी इलियास शाह ने 1345 ई॰ से 1358 ई॰ तक यहाँ शासन किया। चौदहवीं सदी के अंत में तिरहुत समेत पूरे उत्तरी बिहार का नियंत्रण जौनपुर के राजाओं के हाथ में चला गया, जो तबतक जारी रहा जबतक दिल्ली सल्तनत के सिकन्दर लोधी ने जौनपुर के शासकों को हराकर अपना शासन स्थापित नहीं किया। बाबर ने अपने बंगाल अभियान के दौरान गंडक तट के पार हाजीपुर में अपनी सैन्य टुकड़ी को भेजा था। 1572 ई॰ से 1574 ई॰ के दौरान बंगाल विद्रोह को कुचलने के क्रम में अकबर की सेना ने दो बार हाजीपुर किले पर घेरा डाला था। 18वीं सदी के दौरान अफगानों द्वारा तिरहुत कहलाने वाले इस प्रदेश पर कब्ज़ा किया। स्वतंत्रता आन्दोलन के समय वैशाली के शहीदों की अग्रणी भूमिका रही है। बसावन सिंह, बेचन शर्मा, अक्षयवट राय, सीताराम सिंह जैसे स्वतंत्रता सेनानियों ने अंग्रेज़ी हुकूमत के खिलाफ लड़ाई में महत्त्वपूर्ण हिस्सा लिया। आजादी की लड़ाई के दौरान 1920, 1925 तथा 1934 में महात्मा गाँधी का वैशाली जिले में तीन बार आगमन हुआ था। सन् 1875 से लेकर 1972 तक यह जिला मुजफ्फरपुर का अंग बना रहा। 12 अक्टुबर 1972 को वैशाली को स्वतंत्र जिले का दर्जा प्राप्त हुआ। भूगोल वैशाली जिला का क्षेत्रफल 2036 वर्ग किलोमीटर है, जिसका समुद्र तल से औसत ऊँचाई 52 मीटर है। गंगा, गंडक, बया, नून यहाँ की नदियाँ है। गंगा तथा गंडक क्रमशः जिले की दक्षिणी एवं पश्चिमी सीमा बनाती है। वैशाली जिला के उत्तर में मुजफ्फरपुर, दक्षिण में पटना, पूर्व में समस्तीपुर तथा पश्चिम में सारन जिला है। जलवायु वैशाली जिले में नवम्बर से फरवरी तक शीत ऋतु, मार्च से जून तक ग्रीष्म ऋतु तथा जुलाई से सितम्बर वर्षा ऋतु होता है। वसंत काल (फरवरी - मार्च) तथा शरद काल (सितम्बर-अक्टुबर) सबसे सुखद होता है। गर्मियों में यहाँ का तापमान 44 डिग्री सेल्सियस से 21 डिग्री सेल्सियस के बीच तथा जाड़े में 23 डिग्री सेल्सियस से 6 डिग्री सेल्सियस के बीच बदलता रहता है। गर्मियों में 'लू' तथा जाड़ों में 'शीतलहरी' का चलना आम है। सर्दियों की सुबह एवं गरमी की शाम सुकून देने वाला होता है। छठ को शीत ऋतु का और होली पर्व को गर्मी का आरम्भ माना जाता है। मौसम सालाना औसत वर्षा 120 से.मी. होती है, जिसका अधिकांश मॉनसूनी महीनों (जून मध्य से अगस्त) में प्राप्त होता है। जनसांख्यिकी जनसंख्‍या:- 3,495,021(2011 की जनगणना अनुसार) पुरुषों की संख्या:- 1,844,535 स्त्रियों की संख्या:- 1,650,486 जनसंख्या का घनत्वः- 1335 प्रति वर्ग किलोमीटर स्त्री-पुरूष अनुपात = 895 प्रति 1000 साक्षरता दरः- 66.60% प्रशासनिक विभाजन वैशाली जिला 3 अनुमंडल, 16 प्रखंड, 291 ग्राम पंचायत तथा 1638 गाँवों में बँटा है। अपराध नियंत्रण के लिए जिले में 22 थाने तथा 6 सुरक्षा चौकी है। जिले के तीन शहरों में से एक हाजीपुर में नगर परिषद तथा महनार एवं महुआ में नगर पंचायत गठित है। लोकसभा के नये परिसीमन के मुताबिक वैशाली में दो सीटें हैं। विधान सभा क्षेत्र की जिले में पूर्ण तथा आंशिक रूप से 8 सीटें पड़ती है।[1] अनुमंडल: हाजीपुर, महुआ तथा महनार प्रखंड: गोरौल, चेहराकलां, जन्दाहा, देसरी, पटेढी बेलसर, पातेपुर, प्रेमराज, बिदुपुर, भगवानपुर, महुआ, महनार, राजापाकर, राघोपुर, लालगंज, सराय, सहदेई बुजुर्ग, वैशाली, हाजीपुर विधानसभा सीट: हाजीपुर, महनार, लालगंज, पातेपुर, वैैशाली, महुआ, जाा राजापााकड़, राघोपुुर लोकसभा सीट: हाजीपुर, वैशाली कृषि एवं उद्योग वैशाली की मुख्य कृषि गेहूँ, चावल और मक्का है। जनजीवन एवं संस्कृति मानव बसाव समूचा जिला गंगा के उत्तरी मैदान का हिस्सा है। कृषियोग्य उर्वर भूमि और मृदु जलवायु के चलते प्राचीन काल से ही यह स्थान सघन आबादी का क्षेत्र रहा है। जिले में जनसंख्या का घनत्व (1335) राष्ट्रीय औसत से काफी ऊपर तथा बिहार में तीसरा सबसे सघन है। महत्त्वपूर्ण सामरिक अवस्थिति के चलते अतीत में बाहरी लोगों के आकर बसने से यहाँ मिली-जुली स्थानीय संस्कृति पनपी है। प्रायः सभी गाँवों में हिन्दू और मुसलमान बसते हैं। दोनों समुदाय यहाँ के गौरवशाली अतीत और आपसी सहिष्णुता पर नाज़ करते हैं। बिहार की राजधानी पटना से जुड़ाव और भूगोलीय निकटता ने यहाँ की घटनाओं और अवसरों के महत्त्व को कई गुणा बढ़ा दिया है। बोलचाल एवं पहनावा हिन्दी जिले में शिक्षा का माध्यम तथा प्रमुख भाषा है, किन्तु बज्जिका यहाँ की स्थानीय बोली है, जो मुजफ्फरपुर, सीतामढी, शिवहर और समस्तीपुर के अतिरिक्त नेपाल के सर्लाही जिला में भी बोली जाती है। युवक और युवतियाँ सभी आधुनिक भारतीय वस्त्र पहनते हैं लेकिन गाँव में रहनेवाले अधिकांश व्यस्क स्त्री-पुरुष धोती या साड़ी पहनना ही पसन्द करते हैं। शादी विवाह वैशाली की स्थानीय संस्कृति तिरहुत के अन्य जिलों (मुजफ्फरपुर, सीतामढी, शिवहर, पूर्वी चम्पारण, पश्चिमी चम्पारण) के समान है लेकिन पर्व-त्योहारों या विवाह के समय गाये जाने वाले गीत मिथिला से प्रभावित है। स्थानीय लोगों में जातिभेद अधिक है इसलिए शादी-विवाह अपने समूह में पारिवारिक कुटुम्ब या रिश्तेदार द्वारा तय किये जाते हैं। सभी समुदायों में शादी के समय दहेज लेना-देना आम है और कई बार इसे लेकर बहुओं को प्रताड़ना देने की खबर भी दैनिक अख़बार की सुर्खियाँ बनती है। पर्व-त्योहार कई राष्ट्रीय त्योहार जैसे गणतंत्र दिवस, स्वतंत्रता दिवस और गाँधी जयंती यहाँ खूब हर्षोल्लास से मनाये जाते हैं। यहाँ के धार्मिक त्योहारों में छठ, होली, दिवाली, दुर्गा पूजा, ईद-उल-फितर, मुहर्रम, महावीर जयंती, महाशिवरात्रि, बुद्ध पूर्णिमा, कृष्णाष्टमी, मकर संक्रांति, सतुआनी, चकचंदा और सामा चकेवा जैसे पर्व हैं। कार्तिक में चार दिवसीय छठपूजा तथा महाशिवरात्रि के अवसर पर हाजीपुर में शिव और पार्वती की विवाह यात्रा की बड़ी धूम होती है। हिन्दुओं और मुस्लिमों के सभी पर्व प्रायः मिलजुल कर ही मनाये जाते हैं। शिक्षा एवं शैक्षणिक संस्थान वैशाली जिले की साक्षरता मात्र 66.60% है जो राष्ट्रीय औसत से नीचे है। जिले में 954 प्राथमिक विद्यालय, 389 मध्य विद्यालय तथा 81 उच्च विद्यालय हैं। इसके अलावे सर्व शिक्षा अभियान के तहत यहाँ 105 विद्यालय, 246 नवसृजित प्राथमिक विद्यालय, 210 बाल श्रम विद्यालय, 6 चरवाहा विद्यालय तथा 1 जवाहर नवोदय विद्यालय खोले गये हैं। जिला मुख्यालय हाजीपुर के अतिरिक्त अन्य हिस्सों में भी निजी विद्यालयों की अच्छी संख्या है। डिग्री महाविद्यालय 1. , देवचंद महाविद्यालय, जमुनीलाल महाविद्यालय, वैशाली महिला महाविद्यालय (सभी हाजीपुर में) 2. अक्षयवट महाविद्यालय, महुआ 3. समता महाविद्यालय अरनिया, जन्दाहा 4. डिग्री महाविद्यालय भगवानपुर 5. बीरचंद पटेल महाविद्यालय देसरी 6. राम प्रसाद सिंह महाविद्यालय चकेयाज, महनार 7. अवध बिहारी सिंह महाविद्यालय लालगंज जिले के सभी महाविद्यालय बाबा साहब भीमराव अम्बेदकर बिहार विश्वविद्यालय मुज़फ्फरपुर की अंगीभूत इकाई है। व्यवसायिक शिक्षण संस्थान जिला औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थान हाजीपुर, शिक्षक प्रशिक्षण संस्थान- दिग्घीकलां एवं सोरहथा, होटल प्रबंधन एवं पोषाहार संस्थान हाजीपुर, केंद्रीय प्लास्टिक इंजिनियरिंग एवं तकनीकि संस्थान हाजीपुर, केंद्रीय औषधीय शिक्षा एवं अनुसंधान संस्थान औद्योगिक क्षेत्र हाजीपुर, हरिहरपुर, रुडसेट संस्थान जढुआ हाजीपुर शहीद महेश्वर स्मारक संस्थान समता कालोनी, हाजीपुर दर्शनीय स्थल वैशाली तथा आसपास अशोक स्‍तम्भ:- वैशाली में हुए महात्‍मा बुद्ध के अंतिम उपदेश की याद में सम्राट अशोक ने नगर के समीप कोल्‍हुआ में लाल बलुआ पत्‍थर के एकाश्म सिंह-स्‍तंभ की स्‍थापना की थी। लगभग 18.3 मीटर ऊँचे इस स्‍तम्भ के ऊपर घंटी के आकार की बनावट है जो इसको आकर्षक बनाता है। बौद्ध स्‍तूप:- दूसरे बौद्ध परिषद की याद में यहाँ पर दो बौद्ध स्‍तूपों का निर्माण किया गया था। पहले तथा दूसरे स्‍तूप में भगवान बुद्ध की अस्थियाँ मिली है। यह स्‍थान बौद्ध अनुयायियों के लिए काफी महत्त्वपूर्ण है। अभिषेक पुष्‍करणी:- वैशाली में नव निर्वाचित शासक को इस सरोवर में स्‍नान के पश्चात अपने पद, गोपनीयता और गणराज्‍य के प्रति निष्ठा की शपथ दिलायी जाती थी। इसी के नजदीक लिच्‍छवी स्‍तूप तथा विश्व शांति स्तूप स्थित है। राजा विशाल का गढ़:-लगभग एक किलोमीटर परिधि के चारों तरफ दो मीटर ऊँची दीवार है जिसके चारों तरफ 43 मीटर चौड़ी खाई थी। समझा जाता है कि राजा विशाल का राजमहल या लिच्छ्वी काल का संसद है। कुण्‍डलपुर:- यह जगह जैन धर्म के २४वें तीर्थंकर भगवान महावीर का जन्‍मस्‍थान होने के कारण काफी पवित्र माना जाता है। वैशाली से इसकी दूरी 4 किलोमीटर के आसपास है। यहीं बसाढ गाँव में प्राकृत जैन शास्त्र एवं अहिंसा संस्थान भी स्थित है। वैशाली महोत्सव:- प्रतिवर्ष वैशाली महोत्सव का आयोजन जैन धर्म के २४वें तीर्थंकर भगवान महावीर के जन्म दिवस पर बैसाख पूर्णिमा को किया जाता है। अप्रैल के मध्य में आयोजित होनेवाले इस राजकीय उत्सव में देशभर के संगीत और कलाप्रेमी हिस्सा लेते हैं। विश्व शांति स्तूप:- जापान के निप्पोणजी समुदाय द्वारा बनवाया गया विश्‍व शांतिस्‍तूप चौमुखी महादेव मंदिर बावन पोखर मंदिर वैशाली संग्रहालय हाजीपुर एवं आसपास कौनहारा घाट: भागवत पुराण में वर्णित गज-ग्राह की लड़ाई में स्वयं भगवान विष्णु ने यहाँ आकर अपने भक्त गजराज को जीवनदान और शापग्रस्त ग्राह को मुक्ति दी थी। गंगा और गंडक के पवित्र संगम पर बसे कौनहारा घाट की महिमा हिन्दू धर्म में अन्यतम है। नेपाली छावनी मंदिर: १८वीं सदी में पैगोडा शैली में निर्मित अद्वितीय शिवमंदिर नेपाली वास्तुकला का अद्भुत उदाहरण है। रामचौरा मंदिर: अयोध्या से जनकपुर जाने के क्रम में भगवान श्रीराम ने यहाँ विश्राम किया था। उनके चरण चिह्न प्रतीक रूप में यहाँ मौजूद है। जामिया मस्जिद: तेरहवीं सदी के मध्य में यहाँ के शासक हाजी इलियास द्वारा बनवाये गये किले परिसर में अकबर काल में बनवाया गया मस्जिद। मामू-भाँजा की मजार: मुग़लकाल के सूफी संतों की मजा़र एवं करबला का मैदान गाँधी आश्रम: स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी के तीन बार जिले में पधारने पर आयोजित सभा स्थल तथा खादी ग्रामोद्योग आयोग परिसर महात्मा गाँधी सेतु:- प्रबलित कंक्रीट से गंगा नदी पर बना महात्मा गाँधी सेतु दुनिया में एक ही नदी पर बना सबसे बड़ा पुल है। 46 पाये वाले इस कंक्रीट पुल से गंगा को पार करने पर वैशाली में आम और केले की खेती तथा पटना महानगर के विभिन्न घाटों तथा लैंडमार्क का विहंगम दृश्य दिखाई देता है। पातालेश्वर मंदिर: सोनपुर मेला गंगा-गंडक के संगम पर बसे हरिहरक्षेत्र में कौनहारा घाट के सामने सोनपुर में विश्वप्रसिद्ध मेला लगता है। यहाँ बाबा हरिहरनाथ (शिव मंदिर) तथा काली मंदिर के अलावे अन्य मंदिर भी हैं। प्रतिवर्ष कार्तिक पूर्णिमा को पवित्र गंडक-स्नान से शुरु होनेवाले मेले का आयोजन पक्ष भर चलता है। सोनपुर मेला की प्रसिद्धि एशिया के सबसे बड़े पशु मेले के रूप में है। हाथी-घोड़े से लेकर रंग-बिरंगे पक्षी तक मेले में खरीदे-बेचे जाते हैं। मेला के दिनों में सोनपुर एक सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक केंद्र बन जाता है। अन्य महत्त्वपूर्ण स्थल चेचर (श्वेतपुर): हाजीपुर से लगभग २० किलोमीटर पूरब स्थित गंगा नदी के किनारे स्थित चेचर गाँव पुरातात्विक धरोहरों से सम्पन्न गाँव है। इसका पुराना नाम श्वेतपुर है। यहाँ गुप्त एवं पालवंश के शासनकाल की मूर्त्तियाँ एवं सिक्के मिले हैं। भुइयाँ स्थान: हाजीपुर से १० किलोमीटर दूर स्थित एक गाँव में बाबा भुइयाँ स्थान है, जहाँ पशुपालकों द्वारा देवता को दूध अर्पित किया जाता है। वैशाली तथा आसपास के जिले में कृषि एवं पशुपालन से जुड़े लोगों के लिए यह स्थान अति पवित्र है। बुढ़ीमाई का मंदिर हज़रत जन्दाहा: हाजीपुर से ३२ किलोमीटर पूरब राजकीय राजमार्ग संख्या १०३ के किनारे स्थित जन्दाहा शहर में सूफी संत दिवान अली शाह की मजा़र है। यहाँ होकर बहने वाली बाया नदी तथा शहर के नाम के पीछे सूफी संत द्वारा किये गये चमत्कार की कहानी जुड़ी है। मध्यकाल में हाजीपुर के एक प्रसिद्ध सूफी मकदूम शाह अब्दुल फतेह जन्दाहा के सूफी दिवान अली शाह के चाचा थे। यातायात व्यवस्था सड़क परिवहन पटना, समस्तीपुर, छपरा तथा मुजफ्फरपुर से यहाँ आने के लिए सड़क या रेल मार्ग सबसे उपयुक्‍त है। जिले से वर्तमान में तीन राष्ट्रीय राजमार्ग तथा दो राजकीय राजमार्ग गुजरती हैं। महात्मा गाँधी सेतु पार कर पटना से जुडा़ राष्ट्रीय राजमार्ग 19 हाजीपुर, छपरा होकर उत्तर प्रदेश के गाजीपुर तक जाती है। हाजीपुर से मुजफ्फरपुर तथा सीतामढी़ होकर सोनबरसा तक जानेवाली 142 किलोमीटर लम्बी सड़क राष्ट्रीय राजमार्ग 77 है। राष्ट्रीय राजमार्ग 103 हाजीपुर, चकसिकन्दर, जन्दाहा, चकलालशाही होते हुए राष्ट्रीय राजमार्ग 28 पर स्थित मुसरीघरारी से जोड़ती है। राजकीय राजमार्ग 49 द्वारा यह महुआ तथा ताजपुर से जुडा़ है। राजकीय राजमार्ग 48 के अन्तर्गत 1.80 किलोमीटर का एक छोटा-सा हिस्सा मुजफ्फरपुर - हाजीपुर सड़क का खंड है। राजमार्ग के अतिरिक्त वैशाली के सभी प्रखंड तथा पंचायत जिला उच्चपथ तथा ग्रामीण सड़कों से जुड़ा है। जिले का सार्वजनिक यातायात मुख्यतः निजी बसों, ऑटोरिक्शा और निजी वाहनों पर आश्रित है। रेल परिवहन वैशाली जिले में रेल पथ (ब्रॉड गेज) की कुल लम्बाई 71 किलोमीटर है। मुख्य स्‍टेशन हाजीपुर है जो पूर्व मध्य रेलवे का मुख्यालय भी है। वैशाली जिले में पड़ने वाले अन्य महत्त्वपूर्ण स्‍टेशन गोरौल, भगवानपुर, सराय, अक्षयवटराय नगर, चकसिकन्दर, देसरी तथा महनार है। दिल्‍ली, मुंबई, चेन्‍नई, कोलकाता, गुवाहाठी तथा अमृतसर के अतिरिक्त भारत के महत्त्वपूर्ण शहरों के लिए यहाँ से सीधी ट्रेन सेवा है। बौद्ध सर्किट के तहत एक नयी रेल लाईन पटना से हाजीपुर, वैशाली होकर प्रस्तावित है। हवाई परिवहन वैशाली जिले का सबसे नजदीकी हवाई अड्डा राज्य की राजधानी पटना में स्थित है। जयप्रकाश नारायण अंतरराष्ट्रीय हवाई क्षेत्र के लिए इंडियन, स्पाइस जेट, किंगफिसर, जेटलाइट, इंडिगो आदि विमान सेवाएँ उपलब्ध हैं। दिल्‍ली, कोलकाता, काठमांडु, बागडोगरा, राँची, बनारस और लखनऊ से फ्लाइट लेकर पटना पहुँच कर वैशाली के किसी भी हिस्से में आसानी से पहुँचा जा सकता है। पटना हवाई अड्डे से सड़क मार्ग द्वारा महात्मा गाँधी सेतु पार कर वैशाली जिले में प्रवेश होते हैं। जल परिवहन जिले की सीमा रेखा पर बहने वाली गंगा तथा गंडक नदी नौकागम्य है। हाजीपुर, अक्षयवटराय नगर (बिदुपुर), राघोपुर तथा महनार के पास से बहनेवाली गंगा नदी का हिस्सा राष्ट्रीय जलमार्ग 1 पर पड़ता है, जिससे यह जिला पश्चिम में बनारस होते हुए इलाहाबाद से तथा पूर्व में कोलकाता होते हुए हल्दिया से जुड़ा है। इन्हें भी देखें वैशाली सन्दर्भ
वैशाली जिले का क्षेत्रफल कितना है?
2036 वर्ग किलोमीटर
4,461
hindi
7752cc383
ओटो एडुअर्ड लिओपोल्ड बिस्मार्क (1 अप्रैल 1815 - 30 जुलाई 1898), जर्मन साम्राज्य का प्रथम चांसलर तथा तत्कालीन यूरोप का प्रभावी राजनेता था। वह 'ओटो फॉन बिस्मार्क' के नाम से अधिक प्रसिद्ध है। उसने अनेक जर्मनभाषी राज्यों का एकीकरण करके शक्तिशाली जर्मन साम्राज्य स्थापित किया। वह द्वितीय जर्मन साम्राज्य का प्रथम चांसलर बना। वह "रीअलपालिटिक" की नीति के लिये प्रसिद्ध है जिसके कारण उसे "लौह चांसलर" के उपनाम से जाना जाता है। वह अपने युग का बहुत बड़ा कूटनीतिज्ञ था। अपने कूटनीतिक सन्धियों के तहत फ्रांस को मित्रविहीन कर जर्मनी को यूरोप की सर्वप्रमुख शक्ति बना दिया। बिस्मार्क ने एक नवीन वैदेशिक नीति का सूत्रपात किया जिसके तहत शान्तिकाल में युद्ध को रोकने और शान्ति को बनाए रखने के लिए गुटों का निर्माण किया। उसकी इस 'सन्धि प्रणाली' ने समस्त यूरोप को दो गुटों में बांट दिया। जीवनी बिस्मार्क का जन्म शून हौसेन में 1 अप्रैल 1815 को हुआ। गाटिंजेन तथा बर्लिन में कानून का अध्ययन किया। बाद में कुछ समय के लिए नागरिक तथा सैनिक सेवा में नियुक्त हुआ। 1847 ई. में वह प्रशा की विधान सभा का सदस्य बना। 1848-49 की क्रांति के समय उसने राजा के "दिव्य अधिकार" का जोरों से समर्थन किया। सन् 1851 में वह फ्रैंकफर्ट की संघीय सभा में प्रशा का प्रतिनिधि बनाकर भेजा गया। वहाँ उसने जर्मनी में आस्ट्रिया के आधिपत्य का कड़ा विरोध किया और प्रशा को समान अधिकार देने पर बल दिया। आठ वर्ष फ्रेंकफर्ट में रहने के बाद 1859 में वह रूस में राजदूत नियुक्त हुआ। 1862 में व पेरिस में राजदूत बनाया गया और उसी वर्ष सेना के विस्तार के प्रश्न पर संसदीय संकट उपस्थित होने पर वह परराष्ट्रमंत्री तथा प्रधान मंत्री के पद पर नियुक्त किया गया। सेना के पुनर्गठन की स्वीकृति प्राप्त करने तथा बजट पास कराने में जब उसे सफलता नहीं मिली तो उसने पार्लमेंट से बिना पूछे ही कार्य करना प्रारंभ किया और जनता से वह टैक्स भी वसूल करता रहा। यह "संघर्ष" अभी चल ही रहा था कि श्लेजविग होल्सटीन के प्रभुत्व का प्रश्न पुन: उठ खड़ा हुआ। जर्मन राष्ट्रीयता की भावना से लाभ उठाकर बिस्मार्क ने आस्ट्रिया के सहयोग से डेनमार्क पर हमला कर दिया और दोनों ने मिलकर इस क्षेत्र को अपने राज्य में मिला लिया (1864)। दो वर्ष बाद बिस्मार्क ने आस्ट्रिया से भी संघर्ष छेड़ दिया। युद्ध में आस्ट्रिया की पराजय हुई और उसे जर्मनी से हट जाना पड़ा। अब बिस्मार्क के नेतृत्व में जर्मनी के सभी उत्तरस्थ राज्यों को मिलाकर उत्तरी जर्मन संघराज्य की स्थापना हुई। जर्मनी की इस शक्तिवृद्धि से फ्रांस आंतकित हो उठा। स्पेन की गद्दी के उत्तराधिकार के प्रश्न पर फ्रांस जर्मनी में तनाव की स्थिति उत्पन्न हो गई और अंत में 1870 में दोनों के बीच युद्ध ठन गया। फ्रांस की हार हुई और उसे अलससलोरेन का प्रांत तथा भारी हर्जाना देकर जर्मनी से संधि करनी पड़ी। 1871 में नए जर्मन राज्य की घोषणा कर दी गई। इस नवस्थापित राज्य को सुसंगठित और प्रबल बनाना ही अब बिस्मार्क का प्रधान लक्ष्य बन गया। इसी दृष्टि से उसने आस्ट्रिया और इटली से मिलकर एक त्रिराष्ट्र संधि की। पोप की "अमोघ" सत्ता का खतरा कम करने के लिए उसने कैथॉलिकों के शक्तिरोध के लिए कई कानून बनाए और समाजवादी आंदोलन के दमन का भी प्रयत्न किया। इसमें उसे अधिक सफलता नहीं मिली। साम्राज्य में तनाव और असंतोष की स्थिति उत्पन्न हो गई। अंततागत्वा सन् 1890 में नए जर्मन सम्राट् विलियम द्वितीय से मतभेद उत्पन्न हो जाने के कारण उसने पदत्याग कर दिया। बिस्मार्क की नीतियाँ उदारवादियों के सिद्धान्त का खंडन करते हुए बिस्मार्क ने 1862 में अपनी नीति इस प्रकार स्पष्ट की- जर्मनी का ध्यान प्रशा के उदारवाद की ओर नहीं है वरन् उसकी शक्ति पर लगा हुआ है। जर्मनी की समस्या का समाधान बौद्धिक भाषणों से नहीं, आदर्शवाद से नहीं, बहुमत के निर्णय से नहीं, वरन् प्रशा के नेतृत्व में रक्त और तलवार की नीति से होगा। इसका अर्थ था कि प्रशा के भविष्य का निर्माण सेना करेगी न कि संसद। 'रक्त और लोहे की नीति' का अभिप्राय था, युद्ध। बिस्मार्क का निश्चित मत था कि जर्मनी का एकीकरण कभी भी फ्रांस, रूस, इंग्लैण्ड एवं ऑस्ट्रिया को स्वीकार नहीं होगा क्योंकि संयुक्त जर्मनी यूरोप के शक्ति सन्तुलन के लिए सबसे बड़ा खतरा होगा। अतः बिस्मार्क को यह विश्वास हो गया था कि जर्मनी के एकीकरण के लिए शक्ति का प्रयोग अनिवार्य है। बिस्मार्क का मुख्य उद्देश्य प्रशा को शक्तिशाली बनाकर जर्मन संघ से ऑस्ट्रिया को बाहर निकालना एवं जर्मनी में उसके प्रभाव को समाप्त करके प्रशा के नेतृत्व में जर्मनी का एकीकरण करना था। इसके लिए आवश्यक था कि राज्य की सभी सत्ता व अधिकार राजा में केन्द्रित हों। बिस्मार्क राजतंत्र में विश्वास रखता था। अतः उसने राजतंत्र के केन्द्र बिन्दु पर ही समस्त जर्मनी की राष्ट्रीयता को एक सूत्र में बांधने का प्रयत्न किया। बिस्मार्क ने अपने सम्पूर्ण कार्यक्रम के दौरान इस बात का विशेष ध्यान रखा कि जर्मनी के एकीकरण के लिए प्रशा की अस्मिता नष्ट न हो जाए। वह प्रशा का बलिदान करने को तैयार नहीं था, जैसा कि पीडमोन्ट ने इटली के एकीकरण के लिए किया। वह प्रशा में ही जर्मनी को समाहित कर लेना चाहता था। बिस्मार्क नीचे के स्तर से जर्मनी का एकीकरण नहीं चाहता था, अर्थात् उदारवादी तरीके से जनता में एकीकरण की भावना जागृत करने के बदले व वह ऊपर से एकीकरण करना चाहता था अर्थात् कूटनीति एवं रक्त एवं लोहे की नीतियों द्वारा वह चाहता था कि जर्मन राज्यों की अधीनस्थ स्थिति हो, प्रशा की नहीं। इस दृष्टि से वह प्रशा के जर्मनीकरण नहीं बल्कि जर्मनी का प्रशाकरण करना चाहता था। बिस्मार्क की गृह नीति बिस्मार्क 1832 में ऑस्ट्रिया का चान्सलर बना और अपनी कूटनीति, सूझबूझ रक्त एवं लौह की नीति के द्वारा जर्मनी का एकीकरण पूर्ण किया। 1870 ई. में एकीकरण के बाद बिस्मार्क ने घोषणा की कि जर्मनी एक सन्तुष्ट राष्ट्र है और वह उपनिवेशवादी प्रसार में कोई रूचि नहीं रखता। इस तरह उसने जर्मनी के विस्तार संबंधी आशंकाओं को दूर करने का प्रयास किया। बिस्मार्क को जर्मनी की आन्तरिक समस्याओं से गुजरना पड़ा। इन समस्याओं के समाधान उसने प्रस्तुत किए। किन्तु समस्याओं की जटिलता ने उसे 1890 में त्यागपत्र देने को विवश कर दिया। बिस्मार्क के समक्ष समस्याएँ एकीकरण के पश्चात जर्मनी में औद्योगीकरण तेजी से हुआ। कारखानों में मजदूरों की अतिशय वृद्धि हुई, किन्तु वहाँ उनकी स्थिति निम्न रही उनके रहने-खाने का कोई उचित प्रबंध नहीं था। आर्थिक और सामाजिक स्थिति खराब होने के कारण समाजवादियों का प्रभाव बढ़ने लगा और उन्हें अपना प्रबल शत्रु मानता था। पूरे जर्मनी में कई तरह के कानून व्याप्त थे। एकीकरण के दौरान हुए युद्धों से आर्थिक संसाधनों की कमी हो गयी थी। फलतः देश की आर्थिक प्रगति बाधित हो रही थी। बिस्मार्क को धार्मिक समस्या का भी सामना करना पड़ा। वस्तुतः प्रशा के लोग प्रोटेस्टेन्ट धर्म के अनुयायी थे जबकि जर्मनी के अन्य राज्यों की प्रजा अधिकांशतः कैथोलिक धर्म की अनुयायी थी। कैथोलिक लोग बिस्मार्क के एकीकरण के प्रबल विरोधी थे क्योंकि उन्हें भय था कि प्रोटेस्टेन्ट प्रशा उनका दमन कर देगा। ऑस्ट्रिया और फ्रांस को पराजित कर बिस्मार्क ने जर्मन कैथोलिक को नाराज कर दिया था, क्योंकि ये दोनों कैथोलिक देश थे। रोम से पोप की सत्ता समाप्त हो जाने से जर्मन कैथोलिक कु्रद्ध हो उठे और उन्होंने बिस्मार्क का विरोध करना शुरू कर दिया। बिस्मार्क द्वारा उठाए गए कदम आर्थिक एकता और विकास के लिए बिस्मार्क ने पूरे जर्मनी में एक ही प्रकार की मुद्रा का प्रचलन कराया। यातायात की सुविधा के लिए रेल्वे बोर्ड की स्थापना की और उसी से टेलीग्राफ विभाग को संबद्ध कर दिया। राज्य की ओर से बैंको की स्थापना की गई थी। विभिन्न राज्यों में प्रचलित कानूनों को स्थागित कर दिया गया और ऐसे कानूनों का निर्माण किया जो संपूर्ण जर्मन साम्राज्य में समान रूप से प्रचलित हुए। समाजवादियों से निपटने के लिए बिस्मार्क ने 1878 में एक अत्यंत कठोर अधिनियम पास किया जिसके तहत समाजवादियों को सभा करने पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। उनके प्रमुख नेताओं को जेल में डाल दिया गया। समाचार-पत्रों और साहित्य पर कठोर पाबंदी लगा दी गई। इन दमनकारी उपायों के साथ-साथ बिस्मार्क ने मजदूरों को समाजवादियों से दूर करने के लिए "राज्य-समाजवाद" (State socialism) का प्रयोग करना शुरू किया। इसके तहत उसने मजदूरों को यह दिखाया कि राज्य स्वयं मजदूरों की भलाई के लिय प्रयत्नशील है। उसनके मजदूरों की भलाई के लिए अनेक बीमा योजनाएँ, पेंशन योजनाएँ लागू की। स्त्रियों और बालकों के काम करने के घंटों को निश्चित किया गया। बिस्मार्क का यह 'राज्य समाजवाद' वास्तविक समाजवाद नहीं था, क्योंकि वह जनतंत्र का विरोधी था और पूंजीवाद का समर्थन था। औद्योगिक उन्नति के लिए बिस्मार्क ने जर्मन उद्योगों को संरक्षण दिया जिससे उद्योगो और उत्पादन में वृद्धि हुई। तैयार माल को बेचने के लिए नई मंडियों की आवश्यकता थी। इस आवश्यकता ने बिस्मार्क की औपनिवेशिक नीति अपनाने के लिए पे्ररित किया। फलतः 1884 ई. में बिस्मार्क ने अफ्रीका के पूर्वी ओर दक्षिणी-पश्चिमी भागों में अनेक व्यापारिक चौकियों की स्थापना की और तीन सम्राटों के संघ से बाहर हो गया। उसने कहा कि बिस्मार्क ने एक मित्र का पक्ष लेकर दूसरे मित्र को खो दिया है। बिस्मार्क के लिए ऑस्ट्रिया की मित्रता ज्यादा लाभदायक थी क्योंकि आस्ट्रिया के मध्य सन्धि होने की स्थिति में जर्मनी का प्रभाव ज्यादा रहता अतः 1879 में एक द्विगुट संधि (ष्ठह्वड्डद्य ्नद्यद्यiड्डnष) हुई। 5 रूस का जर्मनी से विलग हो जाना बिस्मार्क के लिए चिन्ता का विषय बन गया। उसे लगा कि कहीं रूस फ्रांस के साथ कोई मैत्री संधि न कर ले। अतः उसने तुरन्त ही रूस के साथ सम्बन्ध सुधारने का प्रयत्न किया। 1881 में उसे सफलता भी मिली। अब जर्मनी, रूस और ऑस्ट्रिया के बीच सन्धि हो गयी। 5 अब बिस्मार्क ने इटली की ओर ध्यान दिया और इटली से सन्धि कर फ्रांस को यूरोपीय राजनीति में बिल्कुल अलग कर देना चाहा। इसी समय फ्रांस और इटली दोनों ही अफ्रीका में स्थित ट्यूनिस पर अधिकार करने को इच्छुक थे। बिस्मार्क ने फ्रांस को ट्यूनिस पर अधिकार करने के लिए प्रोत्साहित किया ताकि फ्रांस में जर्मनी के पक्ष में सद्भावना फैल जाए और फ्रांस साम्राज्यवाद में उलझा जाए, जिससे जर्मनी से बदला लेने की बात दूर हो जाए। 1881 में फ्रांस ने ट्यूनिस पर अधिकार कर लिया जिससे इटली नाराज हुआ। इटली की नाराजगी का लाभ उठाकर बिस्मार्क ने 1882 में इटली, जर्मनी और ऑस्ट्रिया के बीच त्रिगुट संधि (Triple Alliance) को अन्जाम दिया। विदेश नीति के अन्तर्गत उठाए गए कदम बिस्मार्क ने नई 'सन्धि प्रणाली' को जन्म दिया। सन्धि कर उसने विभिन्न गुटों का निर्माण किया। इस सन्धि प्रणाली की विशेषता यह थी कि सामान्यतया इतिहास में जितनी भी संधियाँ हुई हैं वे युद्धकाल में हुई थी। किन्तु बिस्मार्क ने शांतिकाल में सन्धि प्रणाली को जन्म देकर एक नवीन दृष्टिकोण सामने रखा। तीन सम्राटों का संघ: विदेशनीति के क्षेत्र में सन्धि प्रणाली के तहत बिस्मार्क का पहला कदम था। 1872 में तीन सम्राटों के संघ का निर्माण किया इसमें ऑस्ट्रिया का सम्राट फ्रांसिस जोजफ, रूस का जार द्वितीय तथा जर्मनी का सम्राट विलियन प्रथम शामिल था। यद्यपि यह इन तीन देशों के मध्य कोई लिखित सन्धि नहीं थी, तथापि कुछ बातों पर सहमति हुई थी। वे इस बात पर सहमत हुए थे कि यूरोप में शान्ति बनाए रखने तथा समाजवादी आन्दोलन से निपटने के लिए वे एक-दूसरे के साथ सहयोग एवं विचार विनिमय करते रहे। यह सन्धि बिस्मार्क की महान कूटनीतिक विजय थी, क्योंकि एक तरफ तो उसने सेडोवा की पराजित शक्ति ऑस्ट्रिया को मित्र बना लिया तो दूसरी तरफ फ्रांस के लिए आस्ट्रिया एवं रूस की मित्रता की सम्भावना को समाप्त कर दिया। किन्तु कुछ समय पश्चात यह संघ टूट गया क्योंकि बाल्कन क्षेत्र में रूस और ऑस्ट्रिया के हित आपस टकराते थे। अतः बिस्मार्क को रूस और ऑस्ट्रिया में से किसी एक को चुनना था। 1878 की बर्लिन की संधि में बिस्मार्क को रूस और ऑस्ट्रिया में से किसी एक को चुनना था, जिसमें उसने ऑस्ट्रिया का पक्ष लिया। फलतः रूस उससे नाराज हो गया। धार्मिक मुद्दों से निटपने और राज्य को सर्वोपरि बनाने के लिए बिस्मार्क ने चर्च के विरूद्ध कई कानून पास किए। 1872 में जेसुइट समाज का बहिष्कार कर दिया और प्रशा तथा पोप का सम्बन्ध-विच्छेद हो गया। 1873 में पारित कानून के अनुसार विवाह राज्य न्यायालयों की आज्ञा से होने लगा जिसमें चर्च की कोई आवश्यकता नहीं रह गयी। शिक्षण संस्थाओं पर राज्य का अधिकार हो गया तथा चर्च को मिलने वाली सरकारी सहायता बन्द कर दी गई। इन कानूनों के बावजूद भी कैथोलिक झुके नहीं। अतः बिस्मार्क ने समाजवादियों की चुनौतियों को ज्यादा खतरनाक समझते हुई कैथोलिकों के साथ समझौता किया। इसके तहत कैथोलिक के विरूद्ध कानून रद्द कर दिए गए और पोप से राजनीतिक सम्बन्ध स्थापित किया। बिस्मार्क की विदेश नीति जर्मनी के एकीकरण के पश्चात 1871 में बिस्मार्क की विदेश नीति का प्रमुख उद्देश्य यूरोप में जर्मनी की प्रधानता को बनाए रखना था। नीति निर्धारण के तौर पर उसने घोषित किया कि जर्मनी तुष्ट राज्य है और क्षेत्रीय विस्तार में इसकी कोई रूचि नहीं है। बिस्मार्क को फ्रांस से सर्वाधिक भय था क्योंकि एल्सेस-लॉरेन का क्षेत्र उसने फ्रांस से प्राप्त किया था, जिससे फ्रांस बहुत असन्तुष्ट था। बिस्मार्क को विश्वास था कि फ्रांसीसी अपनी 1870-71 की पराजय और एलसेस-लॉरेन क्षेत्र को नहीं भूलेंगे। अतः उसकी विदेश नीति का मुख्य उद्देश्य फ्रांस को यूरोप में मित्रविहीन रखना था ताकि वह जर्मनी से युद्ध करने की स्थिति में न आ सके। इस तरह बिस्मार्क की विदेश नीति के आधारभूत सिद्धान्त थे- व्यावहारिक अवसरवादी कूटनीति का प्रयोग कर जर्मन विरोधी शक्तियों को अलग-थलग रखना एवं फ्रांस को मित्र विहीन बनाना, उदारवाद का विरोध एवं सैन्यवाद में आस्था रखना। उसकी सन्धि प्रणाली ने प्रतिसन्धियों को जन्म दिया। फलतः यूरोप में तनावपूर्ण वातावरण बन गया और इस प्रकार यूरोप प्रथम विश्वयुद्ध के कगार पर पहुंच गया। बिस्मार्क की विदेशनीति ने यूरोप में सैन्यीकरण एवं शस्त्रीकरण को बढ़ावा दिया। इस नीति ने यूरोप को प्रथम विश्वयुद्ध की दहलीज तक पहुँचा दिया। बिस्मार्क ने सभी सन्धियाँ परस्पर विरोधी राष्ट्रों के साथ की थी। उनके बीच समन्वय बनाए रखना अत्यंत दुष्कर कार्य था, जिसे केवल बिस्मार्क जैसा कूटनीतिज्ञ ही कर सकता था। अतः 1890 में पद त्याग करने के पश्चात यह पद्धति घातक हो गई और जर्मनी के विरूद्ध फ्रांस, रूस आदि गुटों का निर्माण हुआ। इस प्रकार बिस्मार्क की विदेश नीति ने प्रकारांतर से प्रथम विश्वयुद्ध की पृष्ठभूमि का निर्माण कर दिया। बिस्मार्क की गुटबंदी की नीति के कारण जर्मनी के विरूद्ध दूसरा गुट बना और अंत में संपूर्ण यूरोप दो सशस्त्र एवं शक्तिशाली गुटों में विभाजित हो गया। जिसकी चरम परिणति प्रथम विश्वयुद्ध में दिखाई पड़ी। 1887 में बिस्मार्क ने रूस के साथ पुनराश्वासन सन्धि (Reassurance treaty) की जिसके तहत दोनों ने एक-दूसरे को सहायता देने का वचन दिया। यह सन्धि गुप्त रखी गई थी। यह बिस्मार्क की कूटनीतिक विजय थी क्योंकि एक ही साथ जर्मनी को रूस और ऑस्ट्रिया की मित्रता प्राप्त हुई। बिस्मार्क ने ब्रिटेन के साथ मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध बनाने का प्रयत्न किया। बिस्मार्क का मानना था कि ब्रिटेन एक नौसैनिक शक्ति है और जब तक उसकी नौसेना को चुनौती नहीं दी जाएगी, तब तक वह किसी राष्ट्र का विरोधी नहीं होगा। अतः ब्रिटेन को खुश करने लिए बिस्मार्क ने जर्मन नौसेना को बढ़ाने को कोई कदम नहीं उठाया। ब्रिटेन की खुश करने के लिए उसने घोषणा की कि जर्मनी साम्राज्यवादी देश नहीं है। दूसरी तरफ इंग्लैण्ड की फ्रांस के साथ औपनिवेशिक प्रतिद्वन्दिता थी जिसका लाभ उठाकर बिस्मार्क ने ब्रिटेन के साथ मधुर सम्बन्ध बनाए। इन्हें भी देखें रक्त और लोहा बाहरी कड़ियाँ श्रेणी:राजनीतिज्ञ श्रेणी:कूटनीति श्रेणी:जर्मनी
ओटो एडुअर्ड लिओपोल्ड बिस्मार्क को किस वर्ष पेरिस में राजदूत बनाया गया?
1862
1,321
hindi
c20772e17
तबलीगी जमाअत (Urdu:تبلیغی جماعت‎, Tablīghī Jamā‘at; Arabic:جماعة التبليغ‎, Jamā‘at at-Tablīgh; Bengali:তাবলীগ জামাত; Hindi:तबलीग़ी जमात; English: Society for spreading faith) विश्व की सतह पर सुन्नी इस्लामी धर्म प्रचार आंदोलन है, जो मुसलमानों को मूल इस्लामी पद्दतियों की तरफ़ बुलाता है। [5][6] खास तौर पर धार्मिक तरीके, वेशाभूश, वैयक्तिक गति विधियां। [7] माना जाता है कि इस चिन्तन वाले लोगों की संख्या बारह [8] और 150 मिलियन है।[3] (दक्षिण एशिया में इनकी संख्या अधिक है[9]), और 150[8] से 213 देशों में हैं।[3] इस आंदोलन 1927 को मुहम्मद इलियास अल-कांधलवी ने भारत में शुरू किया था। [10] इस का मूल उद्देश्य आध्यात्मिक इसलाम को मुसलमानों तक पहुंचाना और फैलाना। [3][11] इस जमाअत के मुख्य उद्देश्य "छ: उसूल"  (कलिमा, सलात, इल्म, इक्राम-ए-मुस्लिम, इख्लास-ए-निय्यत, दावत-ओ-तबलीग) हैं। यह एक धर्म प्रचार आंदोलन माना गया। संस्था नोट्स  सन्दर्भ  श्रेणी:देवबन्दी श्रेणी:भारत में इस्लाम
तबलीग़ी जमात की स्थापना किस वर्ष में हुई थी?
1927
519
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लक्ष्मी हिन्दू धर्म की एक प्रमुख देवी हैं। वो भगवान विष्णु की पत्नी हैं और धन, सम्पदा, शान्ति और समृद्धि की देवी मानी जाती हैं। दीपावली के त्योहार में उनकी गणेश सहित पूजा की जाती है। गायत्री की कृपा से मिलने वाले वरदानों में एक लक्ष्मी भी है। जिस पर यह अनुग्रह उतरता है, वह दरिद्र, दुर्बल, कृपण, असंतुष्ट एवं पिछड़ेपन से ग्रसित नहीं रहता। स्वच्छता एवं सुव्यवस्था के स्वभाव को भी 'श्री' कहा गया है। यह सद्गुण जहाँ होंगे, वहाँ दरिद्रता, कुरुपता टिक नहीं सकेगी। पदार्थ को मनुष्य के लिए उपयोगी बनाने और उसकी अभीष्ट मात्रा उपलब्ध करने की क्षमता को लक्ष्मी कहते हैं। यों प्रचलन में तो 'लक्ष्मी' शब्द सम्पत्ति के लिए प्रयुक्त होता है, पर वस्तुतः वह चेतना का एक गुण है, जिसके आधार पर निरुपयोगी वस्तुओं को भी उपयोगी बनाया जा सकता है। मात्रा में स्वल्प होते हुए भी उनका भरपूर लाभ सत्प्रयोजनों के लिए उठा लेना एक विशिष्ट कला है। वह जिसे आती है उसे लक्ष्मीवान्, श्रीमान् कहते हैं। शेष अमीर लोगों को धनवान् भर कहा जाता है। गायत्री की एक किरण लक्ष्मी भी है। जो इसे प्राप्त करता है, उसे स्वल्प साधनों में भी अथर् उपयोग की कला आने के कारण सदा सुसम्पन्नों जैसी प्रसन्नता बनी रहती है। अर्थ धन का अधिक मात्रा में संग्रह होने मात्र से किसी को सौभाग्यशाली नहीं कहा जा सकता। सद्बुद्धि के अभाव में वह नशे का काम करती है, जो मनुष्य को अहंकारी, उद्धत, विलासी और दुर्व्यसनी बना देता है। सामान्यतः धन पाकर लोग कृपण, विलासी, अपव्ययी और अहंकारी हो जाते हैं। लक्ष्मी का एक वाहन उलूक माना गया है। उलूक अथार्त् मूखर्ता। कुसंस्कारी व्यक्तियों को अनावश्यक सम्पत्ति मूर्ख ही बनाती है। उनसे दुरुपयोग ही बन पड़ता है और उसके फल स्वरूप वह आहत ही होता है। स्वरूप right|150px|भगवती लक्ष्मी माता महालक्ष्मी के अनेक रूप है जिस में से उनके आठ स्वरूप जिन को अष्टलक्ष्मी कहते है प्रसिद्ध है लक्ष्मी का अभिषेक दो हाथी करते हैं। वह कमल के आसन पर विराजमान है। कमल कोमलता का प्रतीक है। लक्ष्मी के एक मुख, चार हाथ हैं। वे एक लक्ष्य और चार प्रकृतियों (दूरदर्शिता, दृढ़ संकल्प, श्रमशीलता एवं व्यवस्था शक्ति) के प्रतीक हैं। दो हाथों में कमल-सौन्दयर् और प्रामाणिकता के प्रतीक है। दान मुद्रा से उदारता तथा आशीर्वाद मुद्रा से अभय अनुग्रह का बोध होता है। वाहन-उलूक, निर्भीकता एवं रात्रि में अँधेरे में भी देखने की क्षमता का प्रतीक है। कोमलता और सुंदरता सुव्यवस्था में ही सन्निहित रहती है। कला भी इसी सत्प्रवृत्ति को कहते हैं। लक्ष्मी का एक नाम कमल भी है। इसी को संक्षेप में कला कहते हैं। वस्तुओं को, सम्पदाओं को सुनियोजित रीति से सद्दुश्य के लिए सदुपयोग करना, उसे परिश्रम एवं मनोयोग के साथ नीति और न्याय की मयार्दा में रहकर उपार्जित करना भी अथर्कला के अंतगर्त आता है। उपार्जन अभिवधर्न में कुशल होना श्री तत्त्व के अनुग्रह का पूवार्ध है। उत्तरार्ध वह है जिसमें एक पाई का भी अपव्यय नहीं किया जाता। एक-एक पैसे को सदुद्देश्य के लिए ही खर्च किया जाता है। लक्ष्मी का जल-अभिषेक करने वाले दो गजराजों को परिश्रम और मनोयोग कहते हैं। उनका लक्ष्मी के साथ अविच्छिन्न संबंध है। यह युग्म जहाँ भी रहेगा, वहाँ वैभव की, श्रेय-सहयोग की कमी रहेगी ही नहीं। प्रतिभा के धनी पर सम्पन्नता और सफलता की वर्षा होती है और उन्हें उत्कर्ष के अवसर पग-पग पर उपलब्ध होते हैं। गायत्री के तत्त्वदशर्न एवं साधन क्रम की एक धारा लक्ष्मी है। इसका शिक्षण यह है कि अपने में उस कुशलता की, क्षमता की अभिवृद्धि की जाये, तो कहीं भी रहो, लक्ष्मी के अनुग्रह और अनुदान की कमी नहीं रहेगी। उसके अतिरिक्त गायत्री उपासना की एक धारा 'श्री' साधना है। उसके विधान अपनाने पर चेतना-केन्द्र में प्रसुप्त पड़ी हुई वे क्षमताएँ जागृत होती हैं, जिनके चुम्बकत्व से खिंचता हुआ धन-वैभव उपयुक्त मात्रा में सहज ही एकत्रित होता रहता है। एकत्रित होने पर बुद्धि की देवी सरस्वती उसे संचित नहीं रहने देती, वरन् परमाथर् प्रयोजनों में उसके सदुपयोग की प्रेरणा देती है। फलदायक लक्ष्मी प्रसन्नता की, उल्लास की, विनोद की देवी है। वह जहाँ रहेगी हँसने-हँसाने का वातावरण बना रहेगा। अस्वच्छता भी दरिद्रता है। सौन्दर्य, स्वच्छता एवं कलात्मक सज्जा का ही दूसरा नाम है। लक्ष्मी सौन्दर्य की देवी है। वह जहाँ रहेगी वहाँ स्वच्छता, प्रसन्नता, सुव्यवस्था, श्रमनिष्ठा एवं मितव्ययिता का वातावरण बना रहेगा। गायत्री की लक्ष्मी धारा का आववाहन करने वाले श्रीवान बनते हैं और उसका आनंद एकाकी न लेकर असंख्यों को लाभान्वित करते हैं। लक्ष्मी के स्वरूप, वाहन आदि का संक्षेप में विवेचन इस प्रकार है- विष्णु - लक्ष्मी विवाह समुद्र मंथन से लक्ष्मी जी निकलीं। लक्ष्मी जी ने स्वयं ही भगवान विष्णु को वर लिया। इन्हें भी देखें वैभव लक्ष्मी व्रत श्री महालक्ष्मीमहात्म्य व्रत हिन्दू पंचांग सम्पदा व्रत श्री यन्त्र श्रेणी:हिन्दू देवियाँ श्रेणी:हिन्दू धर्म
हिन्दू धर्म में धन, सम्पदा, शान्ति और समृद्धि की देवी किसे माना जाता है?
लक्ष्मी
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सोनम कपूर जिनका जन्म भारत में महाराष्ट्र राज्य के मुंबई शहर में 9 जून 1985 को हुआ था, भारतीय अभिनेत्री हैं जो बॉलीवुड की फिल्मों में दिखाई देती हैं।[2] निजी ज़िंदगी सोनम कपूर, अनिल कपूर और सुनीता कपूर की बेटी, एवं फिल्म निर्माता सुरिन्द्र कपूर की पोती हैं। वह निर्माता बोनी कपूर, अभिनेता संजय कपूर और संदीप मारवाह की भतीजी हैं। सोनम कपूर तीनों बच्चों में सबसे बड़ी हैं, अन्य बहन हृया और भाई हर्षवर्धन हैं। उसने यूनिर्वसिटी ऑफ़ ईस्ट लंडन में अध्ययन किया और फिर यूनाईटेड वर्ल्ड कॉलेज ऑफ़ साउथ ईस्ट एशिया में इंटरनेशनल बैकालौरेट (अंतर्राष्ट्रीय स्नातक की डिग्री) पाने के लिये दाखिला लिया। कपूर ने बाद में मुंबई विश्वविद्यालय से राजनीतिक विज्ञान और अर्थशास्त्र के साथ स्नातक की उपाधि प्राप्त की। वह अंग्रेजी, हिन्दी और पंजाबी भाषा में सुवक्ता हैं। उन्होंने भारतीय शास्त्रीय और लैटिन नृत्यों में प्रशिक्षण प्राप्त किया है। उसने अपने लम्बे समय के बॉयफ़्रेन्ड आनन्द अहजा से २०१८ में शादी की है। [3] कैरियर एक अभिनेत्री के रूप में अपने कैरियर को शुरू करने से पहले, सोनम कपूर ने संजय लीला भंसाली के साथ एक सहायक के रूप में काम किया और उनकी फिल्म ब्लैक (2005) के निर्माण के दौरान उन्हें सहायता प्रदान की। उन्होंने भंसाली की फिल्म सांवरिया (2007) से एक नये कलाकार रणबीर कपूर के साथ अभिनय की शुरुआत की, जो बॉक्स ऑफिस पर विफल रही। [4] उनके काम की अच्छी समीक्षा हुई और सब आलोचकों ने उनकी सराहना की। [5] 2009 में, कपूर ने राकेश ओमप्रकाश मेहरा की फिल्म दिल्ली-6 में अभिषेक बच्चन के साथ काम किया। इस फिल्म की मिश्रित समीक्षाएं आलोचकों द्वारा की गईं लेकिन उनके काम की अत्यधिक प्रशंसा की गई। समीक्षक राजीव मसन्द ने टिप्पणी की, "सोनम कपूर दिल्ली 6 में मस्त हैं। वह एक बेजोड़, स्वाभाविक और बेरोक कलाकार हैं, क्या यह भी एक पारंपरिक महिला का नेतृत्व नहीं है".[6] सोनम कपूर ने हाल ही में डेविड धवन की कॉमेडी फिल्म "कम ऑन पप्पू" पर हस्ताक्षर किया हैं जिसमें उनकी जोड़ी अक्षय कुमार के साथ है।[7] फ़िल्में पुरस्कार व नामांकन फिल्मफेयर पुरस्कार नामांकित 2008: फ़िल्मफेयर बेस्ट फिमेल डेब्यु अवार्ड; सांवरिया 2008: सोनी हेड एन शोल्डर फ्रैश फेस ऑफ़ द ईयर अवार्ड; सांवरिया[8] स्टार स्क्रीन अवार्ड्स नामांकित 2008: स्टार स्क्रीन अवार्ड फॉर मोस्ट प्रौमिसिंग न्यूकमर - फीमेल; सांवरिया[9] 2008: रणबीर कपूर के साथ स्टार स्क्रीन अवार्ड जोड़ी नंबर 1; सांवरिया ज़ी सिने अवार्ड्स नामांकित 2008: ज़ी सिने अवार्ड फॉर बेस्ट फीमेल डेब्यु; सांवरिया[10] स्टारडस्ट अवार्ड्स विजेता 2008: स्टारडस्ट सुपर स्टार ऑफ़ टुमौरो - फीमेल; सांवरिया[11] इन्हें भी देखें हुमा क़ुरैशी (अभिनेत्री) पर्निया कुरैशी सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ at IMDb श्रेणी:1985 में जन्मे लोग श्रेणी:जीवित लोग श्रेणी:हिन्दी अभिनेत्री श्रेणी:भारतीय हिन्दू श्रेणी:मुंबई के लोग श्रेणी:पंजाबी लोग श्रेणी:मुंबई विश्वविद्यालय के पूर्व छात्र श्रेणी:यूनिर्वसिटी ऑफ़ ईस्ट लंडन के पूर्व छात्र
सोनम कपूर की माँ कौन है?
सुनीता कपूर
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अभिज्ञान शाकुन्तलम् महाकवि कालिदास का विश्वविख्यात नाटक है ‌जिसका अनुवाद प्राय: सभी विदेशी भाषाओं में हो चुका है। इसमें राजा दुष्यन्त तथा शकुन्तला के प्रणय, विवाह, विरह, प्रत्याख्यान तथा पुनर्मिलन की एक सुन्दर कहानी है। पौराणिक कथा में दुष्यन्त को आकाशवाणी द्वारा बोध होता है पर इस नाटक में कवि ने मुद्रिका द्वारा इसका बोध कराया है। इसकी नाटकीयता, इसके सुन्दर कथोपकथन, इसकी काव्य-सौंदर्य से भरी उपमाएँ और स्थान-स्थान पर प्रयुक्त हुई समयोचित सूक्तियाँ; और इन सबसे बढ़कर विविध प्रसंगों की ध्वन्यात्मकता इतनी अद्भुत है कि इन दृष्टियों से देखने पर संस्कृत के भी अन्य नाटक अभिज्ञान शाकुन्तल से टक्कर नहीं ले सकते; फिर अन्य भाषाओं का तो कहना ही क्या ! तो यहीं सबसे ज्यादा अच्छा है। मौलिक न होने पर भी मौलिक कालिदास ने अभिज्ञान शाकुन्तल की कथावस्तु मौलिक नहीं चुनी। यह कथा महाभारत के आदिपर्व से ली गई है। यों पद्मपुराण में भी शकुंतला की कथा मिलती है और वह महाभारत की अपेक्षा शकुन्तला की कथा के अधिक निकट है। इस कारण विन्टरनिट्ज ने यह माना है कि शकुन्तला की कथा पद्मपुराण से ली गई है। परन्तु विद्वानों का कथन है कि पद्मपुराण का यह भाग शकुन्तला की रचना के बाद लिखा और बाद में प्रक्षिप्त प्रतीत होता है। महाभारत की कथा में दुर्वासा के शाप का उल्लेख नहीं है। महाभारत का दुष्यन्त से यदि ठीक उलटा नहीं, तो भी बहुत अधिक भिन्न है। महाभारत की शकुन्तला भी कालिदास की भांति सलज्ज नहीं है। वह दुष्यन्त को विश्वामित्र और मेनका के सम्बन्ध के फलस्वरुप हुए अपने जन्म की कथा अपने मुंह से ही सुनाती है। महाभारत में दुष्यन्त शकुन्तला के रूप पर मुग्ध होकर शकुन्तला से गांधर्व विवाह की प्रार्थना करता है; जिस पर शकुन्तला कहती है कि मैं विवाह इस शर्त पर कर सकती हूं कि राजसिंहासन मेरे पुत्र को ही मिले। दुष्यन्त उस समय तो स्वीकार कर लेता है और बाद में अपनी राजधानी में लौटकर जान-बूझकर लज्जावश शकुन्तला को ग्रहण नहीं करता। कालिदास ने इस प्रकार अपरिष्कृत रूप में प्राप्त हुई कथा को अपनी कल्पना से अद्भुत रूप में निखार दिया है। दुर्वासा के शाप की कल्पना करके उन्होंने दुष्यन्त के चरित्र को ऊंचा उठाया है। कालिदास की शकुन्तला भी आभिजात्य, सौंदर्य और करुणा की मूर्ति है। इसके अतिरिक्त कालिदास ने सारी कथा का निर्वाह, भावों का चित्रण इत्यादि जिस ढंग से किया है, वह मौलिक और अपूर्व है। कथा शकुंतला राजा दुष्यंत की पत्नी थी जो भारत के सुप्रसिद्ध राजा भरत की माता और मेनका अप्सरा की कन्या थी। महाभारत में लिखा है कि शंकुतला का जन्म मेनका अप्सरा के गर्भ से हुआ था जो इसे वन में छोड़कर चली गई थी। वन में शंकुतों (पक्षियों) आदि ने हिंसक पशुओं से इसकी रक्षा की थी, इसी से इसका नाम शकुंतला पड़ा। वन में से इसे कण्व ऋषि उठा लाए थे और अपने आश्रम में रखकर कन्या के समान पालते थे। एक बार राजा दुष्यंत अपने साथ कुछ सैनिकों को लेकर शिकार खेलने निकले और घूमते फिरते कण्व ऋषि के आश्रम में पहुँचे। ऋषि उस समय वहाँ उपस्थित नहीं थे; इससे युवती शकुंतला ने ही राजा दुष्यंत का आतिथ्य सत्कार किया। उसी अवसर पर दोनों में प्रेम और फिर गंधर्व विवाह हो गया। कुछ दिनों बाद राजा दुष्यंत वहाँ से अपने राज्य को चले गए। कण्व मुनि जब लौटकर आए, तब यह जानकर बहुत प्रसन्न हुए कि शकुंतला का विवाह दुष्यंत से हो गया। शकुंतला उस समय गर्भवती हो चुकी थी। समय पाकर उसके गर्भ से बहुत ही बलवान्‌ और तेजस्वी पुत्र उत्पन्न हुआ, जिसका नाम 'भरत' रखा गया। कहते हैं, 'भारत' नाम 'भरत' के नाम पर ही पड़ा। कुछ दिनों बाद शकुंतला अपने पुत्र को लेकर दुष्यंत के दरबार में पहुँची। परंतु शकुंतला को बीच में दुर्वासा ऋषि का शाप मिल चुका था। राजा ने इसे बिल्कुल नहीं पहचाना और स्पष्ट कह दिया कि न तो मैं तुम्हें जानता हूँ और न तुम्हें अपने यहाँ आश्रय दे सकता हूँ। परंतु इसी अवसर पर एक आकाशवाणी हुई, जिससे राजा को विदित हुआ कि यह मेरी ही पत्नी है और यह पुत्र भी मेरा ही है। उन्हें कण्व मुनि के आश्रम की सब बातें स्मरण हो आईं और उन्होंने शकुंतला को अपनी प्रधान रानी बनाकर अपने यहाँ रख लिया। ‘अभिज्ञान शाकुन्तलम्’ में अनेक मार्मिक प्रसंगों को उल्लेख किया गया है। एक उस समय, जब दुष्यन्त और शकुन्तला का प्रथम मिलन होता है। दूसरा उस समय, जब कण्व शकुन्तला को अपने आश्रम से पतिगृह के लिए विदा करते हैं। उस समय तो स्वयं ऋषि कहते हैं कि मेरे जैसे ऋषि को अपनी पालिता कन्या में यह मोह है तो जिनकी औरस पुत्रियां पतिगृह के लिए विदा होती हैं उस समय उनकी क्या स्थिति होती होगी। तीसरा प्रसंग है, शकुन्तला का दुष्यन्त की सभा में उपस्थित होना और दुष्यन्त को उसको पहचानने से इनकार करना। चौथा प्रसंग है उस समय का, जब मछुआरे को प्राप्त दुष्यन्त के नाम वाली अंगूठी उसको दिखाई जाती है। और पांचवां प्रसंग मारीचि महर्षि के आश्रम में दुष्यन्त-शकुन्तला के मिलन का। ध्वन्यात्मक संकेत शकुन्तला में कालिदास का सबसे बड़ा चमत्कार उसके ध्वन्यात्मक संकेतों में है। इसमें कवि को विलक्षण सफलता यह मिली है कि उसने कहीं भी कोई भी वस्तु निष्प्रयोजन नहीं कही। कोई भी पात्र, कोई भी कथोप-कथन, कोई भी घटना, कोई भी प्राकृतिक दृश्य निष्प्रयोजन नहीं है। सभी घटनाएं यह दृश्य आगे आने वाली घटनाओं का संकेत चमत्कारिक रीति से पहले ही दे देते हैं। नाटक के प्रारम्भ में ही ग्रीष्म-वर्णन करते हुए वन-वायु के पाटल की सुगंधि से मिलकर सुगंधित हो उठने और छाया में लेटते ही नींद आने लगने और दिवस का अन्त रमणीय होने के द्वारा नाटक की कथा-वस्तु की मोटे तौर पर सूचना दे दी गई है, जो क्रमशः पहले शकुन्तला और दुष्यन्त के मिलन, उसके बाद नींद-प्रभाव से शकुन्तला को भूल जाने और नाटक का अन्त सुखद होने की सूचक है। इसी प्रकार नाटक के प्रारम्भिक गीत में भ्रमरों द्वारा शिरीष के फूलों को ज़रा-ज़रा-सा चूमने से यह संकेत मिलता है कि दुष्यन्त और शकुन्तला का मिलन अल्पस्थायी होगा। जब राजा धनुष पर बाण चढ़ाए हरिण के पीछे दौड़े जा रहे हैं, तभी कुछ तपस्वी आकर रोकते हैं। कहते हैं-‘महाराज’ यह आश्रम का हरिण है, इस पर तीर न चलाना।’ यहां हरिण के अतिरिक्त शकुन्तला की ओर भी संकेत है, जो हरिण के समान ही भोली-भाली और असहाय है। ‘कहां तो हरिणों का अत्यन्त चंचल जीवन और कहां तुम्हारे वज्र के समान कठोर बाण !’ इससे भी शकुन्तला की असहायता और सरलता तथा राजा की निष्ठुरता का मर्मस्पर्शी संकेत किया गया है। जब दुष्यन्त और शकुन्तला का प्रेम कुछ और बढ़ने लगता है, तभी नेपथ्य से पुकार सुनाई पड़ती है कि ‘तपस्वियो, आश्रम के प्राणियों की रक्षा के लिए तैयार हो जाओ। शिकारी राजा दुष्यन्त यहां आया हुआ है।’ इसमें भी दुष्यन्त के हाथों से शकुन्तला की रक्षा की ओर संकेत किया गया प्रतीत होता है, परन्तु यह संकेत किसी के भी कान में सुनाई नहीं दिया; शकुन्तला को किसी ने नहीं बचाया। इससे स्थिति की करुणाजनकता और भी अधिक बढ़ जाती है। चौथे अंक के प्रारम्भिक भाग में कण्व के शिष्य ने प्रभात का वर्णन करते हुए सुख और दुःख के निरन्तर साथ लगे रहने का तथा प्रिय के वियोग में स्त्रियों के असह्य दुःख का जो उल्लेख किया है, वह दुष्यन्त द्वारा शकुन्तला का परित्याग किए जाने के लिए पहले से ही पृष्ठभूमि-सी बना देता है। पांचवें अंक में रानी हंसपदिका एक गीत गाती हैं, जिसमें राजा को उनकी मधुर-वृत्ति के लिए उलाहना दिया गया है। दुष्यन्त भी यह स्वीकार करते हैं कि उन्होंने हंसपदिका से एक ही बार प्रेम किया है। इससे कवि यह गम्भीर संकेत देता है कि भले ही शकुन्तला को दु्ष्यन्त ने दुर्वासा के शाप के कारण भूलकर छोड़ा, परन्तु एक बार प्यार करने के बाद रानियों की उपेक्षा करना उनके लिए कोई नई बात नहीं थी। अन्य रानियां भी उसकी इस मधुकर-वृत्ति का शिकार थीं। हंसपादिका के इस गीत की पृष्ठभूमि में शकुन्तला के परित्याग की घटना और भी क्रूर और कठोर जान पड़ती है। इसी प्रकार के ध्वन्यात्मक संकेतों से कालिदास ने सातवें अंक में दुष्यन्त, शकुन्तला और उसके पुत्र के मिलने के लिए सुखद पृष्ठभूमि तैयार कर दी है। इन्द्र राजा दुष्यन्त को अपूर्व सम्मान प्रदान करते हैं। उसके बाद हेमकूट पर्वत पर प्रजापति के आश्रम में पहुंचते ही राजा को अनुभव होने लगता है कि जैसे वह अमृत के सरोवर में स्नान कर रहे हों। इस प्रकार के संकेतों के बाद दुष्यन्त और शकुन्तला का मिलन और भी अधिक मनोहर हो उठता है। काव्य-सौंदर्य जर्मन कवि गेटे ने अभिज्ञान शाकुन्तलं के बारे में कहा था- ‘‘यदि तुम युवावस्था के फूल प्रौढ़ावस्था के फल और अन्य ऐसी सामग्रियां एक ही स्थान पर खोजना चाहो जिनसे आत्मा प्रभावित होता हो, तृप्त होता हो और शान्ति पाता हो, अर्थात् यदि तुम स्वर्ग और मर्त्यलोक को एक ही स्थान पर देखना चाहते हो तो मेरे मुख से सहसा एक ही नाम निकल पड़ता है - शाकुन्तलम्, महान कवि कालिदास की एक अमर रचना !’’ इसी प्रकार संस्कृत के विद्वानों में यह श्लोक प्रसिद्ध है- काव्येषु नाटकं रम्यं तत्र रम्या शकुन्तला। तत्रापि च चतुर्थोऽंकस्तत्र श्लोकचतुष्टयम्।। इसका अर्थ है - काव्य के जितने भी प्रकार हैं उनमें नाटक विशेष सुन्दर होता है। नाटकों में भी काव्य-सौन्दर्य की दृष्टि से अभिज्ञान शाकुन्तलं का नाम सबसे ऊपर है। अभिज्ञान शाकुन्तलं का नाम सबसे ऊपर है। अभिज्ञान शाकुन्तलं में भी उसका चतुर्थ अंक और इस अंक में भी चौथा श्लोक तो बहुत ही रमणीय है। अभिज्ञान शाकुन्तल में नाटकीयता के साथ-साथ काव्य का अंश भी यथेष्ट मात्रा में है। इसमें शृंगार मुख्य रस है; और उसके संयोग तथा वियोग दोनों ही पक्षों का परिपाक सुन्दर रूप में हुआ है। इसके अतिरिक्त हास्य, वीर तथा करुण रस की भी जहां-तहां अच्छी अभिव्यक्ति हुई है। स्थान-स्थान पर सुन्दर और मनोहरिणी उतप्रेक्षाएं न केवल पाठक को चमत्कृत कर देती हैं, किन्तु अभीष्ट भाव की तीव्रता को बढ़ाने में ही सहायक होती हैं। सारे नाटक में कालिदास ने अपनी उपमाओं और उत्प्रेक्षाओं का उपयोग कहीं भी केवल अलंकार-प्रदर्शन के लिए नहीं किया। प्रत्येक स्थान पर उनकी उपमा या उत्प्रेक्षा अर्थ की अभिव्यक्ति को रसपूर्ण बनाने में सहायक हुई है। कालिदास अपनी उपमाओं के लिए संस्कृत-साहित्य में प्रसिद्ध हैं। शाकुन्तल में भी उनकी उपयुक्त उपमा चुनने की शक्ति भली-भांति प्रकट हुई। शकुन्तला के विषय में एक जगह राजा दुष्यन्त कहते हैं कि ‘वह ऐसा फूल है, जिसे किसी ने सूंघा नहीं है; ऐसा नवपल्लव है, जिस पर किसी के नखों की खरोंच नहीं लगी; ऐसा रत्न है, जिसमें छेद नहीं किया गया और ऐसा मधु है, जिसका स्वाद किसी ने चखा नहीं है।’ इन उपमाओं के द्वारा शकुन्तला के सौंदर्य की एक अनोखी झलक हमारी आंखों के सामने आ जाती है। इसी प्रकार पांचवें अंक में दुश्यन्त शकुन्तला का परित्याग करते हुए कहते हैं कि ‘हे तपस्विनी, क्या तुम वैसे ही अपने कुल को कलंकित करना और मुझे पतित करना चाहती हो, जैसे तट को तोड़कर बहने वाली नदी तट के वृक्ष को तो गिराती ही है और अपने जल को भी मलिन कर लेती है।’ यहां शकुन्तला की चट को तोड़कर बहने वाली नदी से दी गई उपमा राजा के मनोभाव को व्यक्त करने में विशेष रूप से सहायक होती है। इसी प्रकार जब कण्व के शिष्य शकुन्तला को साथ लेकर दुष्यन्त के पास पहुंचते हैं तो दुष्यन्त की दृष्टि उन तपस्वियों के बीच में शकुन्तला के ऊपर जाकर पड़ती है। वहां शकुन्तला के सौंदर्य का विस्तृत it. Of love in ,,0 न करके कवि ने उनके मुख से केवल इतना कहलवा दिया है कि ‘इन तपस्वियों के बीच में वह घूंघट वाली सुन्दरी कौन है, जो पीले पत्तों के बीच में नई कोंपल के समान दिखाई पड़ रही है।’ इस छोटी-सी उपमा नेपीले पत्ते और कोंपल की सदृश्यता के द्वारा शकुन्तला के सौन्दर्य का पूरा ही चित्रांकन कर दिया है। इसी प्रकार सर्वदमन को देखकर दुष्यन्त कहते हैं कि ‘यह प्रतापी बालक उस अग्नि के स्फुलिंग की भांति प्रतीत होता है, जो धधकती आग बनने के लिए ईधन की राह देखता है।’ इस उपमा से कालिदास ने न केवल बालक की तेजस्विता प्रकट कर दी, बल्कि यह भी स्पष्ट रूप से सूचित कर दिया है कि यह बालक बड़ा होकर महाप्रतापी चक्रवर्ती सम्राट बनेगा। इस प्रकार की मनोहर उपमाओं के अनेक उदाहरण शाकुन्तल में से दिये जा सकते हैं क्योंकि शाकुन्तल में 180 उपमाएं प्रयुक्त हुईं हैं। और उनमें से सभी एक से एक बढ़कर हैं। यह ठीक है उपमा के चुनाव में कालिदास को विशेष कुशलता प्राप्त थी और यह भी ठीक है कि उनकी-सी सुन्दर उपमाएँ अन्य कवियों की रचनाओं में दुर्लभ हैं, फिर भी कालिदास की सबसे बड़ी विशेषता उपमा-कौशल नहीं है। उपमा-कौशल तो उनके काव्य-कौशल का एक सामान्य-सा अंग है। अपने मनोभाव को व्यक्त करने अथवा किसी रस का परिपाक करने अथवा किसी भाव की तीव्र अनुभूति को जगाने की कालिदास अनेक विधियां जानते हैं। शब्दों का प्रसंगोचित चयन, अभीष्ट भाव के उपयुक्त छंद का चुनाव और व्यंजना-शक्ति का प्रयोग करके कालिदास ने अपनी शैली को विशेष रूप से रमणीय बना दिया है। जहां कालिदास शकुन्तला के सौन्दर्य-वर्णन पर उतरे हैं, वहां उन्होंने केवल उपमाओं और उत्प्रेक्षाओं द्वारा शकुन्तला का रूप चित्रण करके ही सन्तोष नहीं कर लिया है। पहले-पहले तो उन्होंने केवल इतना कहलवाया कि ‘यदि तपोवन के निवासियों में इतना रूप है, तो समझो कि वन-लताओं ने उद्यान की लताओं को मात कर दिया।’ फिर दुष्यन्त के मुख से उन्होंने कहलवाया कि ‘इतनी सुन्दर कन्या को आश्रम के नियम-पालन में लगाना ऐसा ही है जैसे नील कमल की पंखुरी से बबूल का पेड़ काटना।’ उसके बाद कालिदास कहते हैं कि ‘शकुन्तला का रूप ऐसा मनोहर है कि भले ही उसने मोटा वल्कल वस्त्र पहना हुआ है, फिर उससे भी उसका सौंदर्य कुछ घटा नहीं, बल्कि बढ़ा ही है। क्योंकि सुन्दर व्यक्ति को जो भी कुछ पहना दिया जाए वही उसका आभूषण हो जाता है।’ उसके बाद राजा शकुन्तला की सुकुमार देह की तुलना हरी-भरी फूलों से लदी लता के साथ करते हैं, जिससे उस विलक्षण सौदर्य का स्वरूप पाठक की आंखों के सामने चित्रित-सा हो उठता है। इसके बाद उस सौंदर्य की अनुभूति को चरम सीमा पर पहुंचाने के लिए कालिदास एक भ्रमर को ले आए हैं; जो शकुन्तला के मुख को एक सुन्दर खिला हुआ फूल समझकर उसका रसपान करने के लिए उसके ऊपर मंडराने लगता है। इस प्रकार कालिदास ने शकुन्तला के सौंदर्य को चित्रित करने के लिए अंलकारों का सहारा उतना नहीं लिया, जितना कि व्यंजनाशक्ति का; और यह व्यजना-शक्ति ही काव्य की जान मानी जाती है। इन्हें भी देखें मेघदूतम् रघुवंश बाहरी कड़ियाँ (अंग्रेज़ी और देवनागरी में) (pdf में)
'अभिज्ञान शाकुंतलम'' किस महाकवि की रचना है?
महाकवि कालिदास
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Coordinates: अक्साई चिन या अक्सेचिन (उईग़ुर: ur, सरलीकृत चीनी: 阿克赛钦, आकेसैचिन) चीन, पाकिस्तान और भारत के संयोजन में तिब्बती पठार के उत्तरपश्चिम में स्थित एक विवादित क्षेत्र है। यह कुनलुन पर्वतों के ठीक नीचे स्थित है।[1] ऐतिहासिक रूप से अक्साई चिन भारत को रेशम मार्ग से जोड़ने का ज़रिया था और भारत और हज़ारों साल से मध्य एशिया के पूर्वी इलाकों (जिन्हें तुर्किस्तान भी कहा जाता है) और भारत के बीच संस्कृति, भाषा और व्यापार का रास्ता रहा है। भारत से तुर्किस्तान का व्यापार मार्ग लद्दाख़ और अक्साई चिन के रास्ते से होते हुए काश्गर शहर जाया करता था।[2] १९५० के दशक से यह क्षेत्र चीन क़ब्ज़े में है पर भारत इस पर अपना दावा जताता है और इसे जम्मू और कश्मीर राज्य का उत्तर पूर्वी हिस्सा मानता है। अक्साई चिन जम्मू और कश्मीर के कुल क्षेत्रफल के पांचवें भाग के बराबर है। चीन ने इसे प्रशासनिक रूप से शिनजियांग प्रांत के काश्गर विभाग के कार्गिलिक ज़िले का हिस्सा बनाया है। नाम की उत्पत्ति 'अक्साई चिन' (ur) का नाम उईग़ुर भाषा से आया है, जो एक तुर्की भाषा है। उईग़ुर में 'अक़' (ur) का मतलब 'सफ़ेद' होता है[3] और 'साई' (ur) का अर्थ 'घाटी' या 'नदी की वादी' होता है।[4] उईग़ुर का एक और शब्द 'चोअल' (ur) है, जिसका अर्थ है 'वीराना' या 'रेगिस्तान', जिसका पुरानी ख़ितानी भाषा में रूप 'चिन' (ur) था।[5][6] 'अक्साई चिन' के नाम का अर्थ 'सफ़ेद पथरीली घाटी का रेगिस्तान' निकलता है।[7] चीन की सरकार इस क्षेत्र पर अधिकार जतलाने के लिए 'चिन' का मतलब 'चीन का सफ़ेद रेगिस्तान' निकालती है, लेकिन अन्य लोग इसपर विवाद रखते हैं। विवरण अक्साई चिन एक बहुत ऊंचाई (लगभग ५,००० मीटर) पर स्थित एक नमक का मरुस्थल है। इसका क्षेत्रफल ४२,६८५ किमी² (१६,४८१ वर्ग मील) के आसपास है। भौगोलिक दृष्टि से अक्साई चिन तिब्बती पठार का भाग है और इसे 'खारा मैदान' भी कहा जाता है। यह क्षेत्र लगभग निर्जन है और यहां पर स्थायी बस्तियां नहीं है। इस क्षेत्र में 'अक्साई चिन' (अक्सेचिन) नाम की झील और 'अक्साई चिन' नाम की नदी है। यहां वर्षा और हिमपात ना के बराबर होता है क्योंकि हिमालय और अन्य पर्वत भारतीय मानसूनी हवाओं को यहां आने से रोक देते हैं। भारत-चीन विवाद चीन ने जब १९५० के दशक में तिब्बत पर क़ब्ज़ा किया तो वहाँ कुछ क्षेत्रों में विद्रोह भड़के जिनसे चीन और तिब्बत के बीच के मार्ग के कट जाने का ख़तरा बना हुआ था। चीन ने उस समय शिंजियांग-तिब्बत राजमार्ग का निर्माण किया जो अक्साई चिन से निकलता है और चीन को पश्चिमी तिब्बत से संपर्क रखने का एक और ज़रिया देता है। भारत को जब यह ज्ञात हुए तो उसने अपने इलाक़े को वापस लेने का यत्न किया। यह १९६२ के भारत-चीन युद्ध का एक बड़ा कारण बना। वह रेखा जो भारतीय कश्मीर के क्षेत्रों को अक्साई चिन से अलग करती है 'वास्तविक नियंत्रण रेखा' के रूप में जानी जाती है। अक्साई चिन भारत और चीन के बीच चल रहे दो मुख्य सीमा विवाद में से एक है। चीन के साथ अन्य विवाद अरुणाचल प्रदेश से संबंधित है। इन्हें भी देखें शिंजियांग-तिब्बत राजमार्ग काश्गर विभाग बाहरी जोड़ , यूट्यूब विडियो , यूट्यूब विडियो (प्रवक्ता) सन्दर्भ श्रेणी:अक्साई चिन श्रेणी:स्वतंत्र भारत श्रेणी:जम्मू और कश्मीर का इतिहास श्रेणी:कश्मीर श्रेणी:ख़ोतान विभाग श्रेणी:शिंजियांग श्रेणी:चीन के क्षेत्रीय विवाद श्रेणी:भारत के क्षेत्रीय विवाद श्रेणी:भारत-चीन युद्ध श्रेणी:विवादित क्षेत्र श्रेणी:हिन्दी विकि डीवीडी परियोजना श्रेणी:हिन्दी विकि डीवीडी परियोजना परीक्षित लेख श्रेणी:भारत के पारंपरिक क्षेत्र
अक्साई चिन' का नाम किस भाषा से आया है?
उईग़ुर भाषा
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