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रावण रामायण का एक प्रमुख प्रतिचरित्र है। रावण लंका का राजा था[1]। वह अपने दस सिरों के कारण भी जाना जाता था, जिसके कारण उसका नाम दशानन (दश = दस + आनन = मुख) भी था। किसी भी कृति के लिये नायक के साथ ही सशक्त खलनायक का होना अति आवश्यक है। रामकथा में रावण ऐसा पात्र है, जो राम के उज्ज्वल चरित्र को उभारने का काम करता है। किंचित मान्यतानुसार रावण में अनेक गुण भी थे। सारस्वत ब्राह्मण पुलस्त्य ऋषि [2] का पौत्र और विश्रवा का पुत्र रावण एक परम शिव भक्त, उद्भट राजनीतिज्ञ , महापराक्रमी योद्धा , अत्यन्त बलशाली , शास्त्रों का प्रखर ज्ञाता ,प्रकान्ड विद्वान पंडित एवं महाज्ञानी था। रावण के शासन काल में लंका का वैभव अपने चरम पर था और उसने अपना महल पूरी तरह स्वर्ण रजित बनाया था इसलिये उसकी लंकानगरी को सोने की लंका अथवा सोने की नगरी भी कहा जाता है। रावण का उदय पद्मपुराण, श्रीमद्भागवत पुराण, कूर्मपुराण, रामायण, महाभारत, आनन्द रामायण, दशावतारचरित आदि ग्रंथों में रावण का उल्लेख हुआ है। रावण के उदय के विषय में भिन्न-भिन्न ग्रंथों में भिन्न-भिन्न प्रकार के उल्लेख मिलते हैं। वाल्मीकि द्वारा लिखित रामायण महाकाव्य के अनुसार रावण लंकापुरी का सबसे शक्तिशाली राजा था। पद्मपुराण तथा श्रीमद्भागवत पुराण के अनुसार हिरण्याक्ष एवं हिरण्यकशिपु दूसरे जन्म में रावण और कुम्भकर्ण के रूप में पैदा हुए। वाल्मीकि रामायण के अनुसार रावण पुलस्त्य मुनि का पौत्र था अर्थात् उनके पुत्र विश्रवा का पुत्र था। विश्वश्रवा की वरवर्णिनी और कैकसी नामक दो पत्नियां थी। वरवर्णिनी के कुबेर को जन्म ,के बाद रावन पैदा हुऐ . तुलसीदास जी के रामचरितमानस में रावण का जन्म शाप के कारण हुआ था। वे नारद एवं प्रतापभानु की कथाओं को रावण के जन्म कारण बताते हैं। रावण के जन्म की कथा रावण कौन था? देव और दैत्य आपस में सौतेले भाई हैं और निरंतर झगडते आ रहे हैं. महर्षी कश्यप की पत्नी अदिति से देव और दिति से दैत्य जन्म लिये. दिति की गलत शिक्षाओं का नतीजा और अदिति के पुत्रों से अपने संतान को आगे बनाने की होड में दैत्य गलत दिशा (डाइरेक्शन) में चले गये और देवताओं के कट्टर शत्रु बन गये. युगों तक लडते रहे, कभी दैत्य तो कभी देवताओं का पलडा भारी रहता था। दोनों देव और दानव तपस्या करते थे, दान पुण्य आदि श्रेष्ठ कर्म करते थे कभी ब्रह्मा जी से तो कभी महादेव से वर प्राप्त करते थे और फिर एक ही काम एक दूसरे को नीचा दिखाना. निरंतर लडाई झगडे से देवता दुखी हो गये तब देवताओं ने ब्रह्मा जी से प्रार्थना की, कि वो कुछ करें. ब्रह्मा जी ने देवताओं को सागर मंथन की बात कह और उससे अमृत प्राप्त होने की बात बतलाई जिसे देवता पी लें, तो वो दानवों के हाथ मृत्यु को प्राप्त नहीं होंगे और यह साथ में यह भी कहा कि सागर मंथन आसान नहीं है उसमें दानवों को भी शामिल करो और युक्ति पूर्वक अमृत को प्राप्त करो दानवों को सम्मिलित करने के कारण हैं एक तो इतना बडा काम अकेले और गुप्त तरीके से कर नहीं सकोगे, क्युँकि दानवों को पता चल जाएगा दूसरा इसमें श्रम बहुत लगेगा. ब्रह्मा जी की बात पर तब युक्ति पूर्वक देवताओं ने दानवों को सागर मंथन मिलकर करने की बात के लिये राजी किया और दानवों को सागर से बहुत से रत्न निकलने की बात कही, लेकिन अमृत की बात नहीं बतलाई. दानव सहमत हो गये और फिर उन्होंने कहा भाई पहले ही इस बात को तय कर लो कि पहला रत्न निकला तो कौन लेगा दूसरा किसका होगा, ताकि बाद में वाद विवाद न हो. देवता थोडे घबराये कि, कहीं पहली बार में अमृत निकल गया और दानवों के हाथ लगा गया तो? लेकिन फिर भगवान को मन ही मन नमस्कार कर उन्होंने विश्वास किया कि भगवान उनका कल्याण अवश्य करंगे और तय हो गया कि पहला रत्न निकलेगा वो दानवों को दूसरा देवताओं को और फिर इसी प्रकार से क्रम चलता रहेगा. मंथन के लिये रस्सी का काम करने के लिये देवताओं ने सर्पों के राजा वासुकी से प्रार्थना की और उसे भी रत्नों में भाग देने की बात कही गई, वासुकि नहीं माना, उसने कहा कि रत्न लेकर वो क्या करेगा? फिर देवताओं ने अलग से उसे समझाया और अमृत में हिस्सा देने कि बात कही तब वो तैयार हुआ. सुमेरु पर्वत से प्रार्थना की गई उसको को मथनी बनने के लिये मनाया गया. सब तैयारी पूर्ण होने के बाद तय किये मापदंडों पर नियत दिन में सागर मंथन हुआ, लेकिन जैसे ही मदरांचल पर्वत को समुद्र में ऊतारा गया वो अपने भार के बल से सीधा सागर की गहराइयों में डूब गया और अपना घमंड प्रदर्शित किया, तब असुरों में बाणासुर इतना शक्तिशाली था, उसने मदरांचल पर्वत को अकेले ही अपनी एक हजार भुजाओं में उठा लिया और सागर से बाहर ले आया और मदरांचल का अभिमान नष्ट हो गया. देव और दानवों के प्राक्रम से खुश हो और ब्रह्मा जी की प्रार्थना पर, भगवान श्री नारायण ने कच्छ्प अवतार लिया और पर्वत को अपनी पीठ पर रखा. सागर मंथन शुरु हुआ सागर मंथन और देव दानवों का प्राक्रम देखने स्वयं ब्रह्मा, विष्णु, महेश, सप्त ऋषि, आदि अपने-अपने स्थान पर बैठ गए. सागर मंथन शुरु होने के बहुत दिनों के बाद सबसे पहले हलाहल विष निकला, जिसके जहर से देव दानव और तीनों लोकों के प्राणी, वनस्पति आदि मूर्छित होने लगे तब देवताओं ने भगवान से प्रार्थना की और श्री विष्णु ने कहा इससे रुद्र ही बचा सकते हैं. तब भगवान रुद्र ने वो जहर पी लिया लेकिन गले से नीचे नहीं ऊतरने दिया. हलाहल विष से उनका कंठ नीला हो गया और उसके बाद से ही वे देवाधिदेव महादेव कहलाए और गला नीला पड जाने के कारण नीलकंठ नाम से जाने और पूजे गये. पुन: मंथनशुरु हुआ, भगवान शंकर के मस्तक पर विष के प्रभाव से गर्मी होने लगी तब मंथन के समय ही चंद्रमा ने अपने एक अंश से सागर में प्रवेश किया और साथ में शीतलता लिये हुए बाल रूप में प्रकट हुआ और महादेव की सेवा में उपस्तिथ हुआ. भगवान शिव उसके इस भक्ति पर भाव पर बहुत खुस हुये और उसे हमेशा के लिये अपने मस्तक पर बाल चंद्र के रूप में शीतलता प्रदान करने के लिये सुशोभित कर दिया. फिर रत्न रूप में कामधेनु गाय निकली और दानवों के भाग की थी, जिसे उन्होंने बिना गुण बिचारे सोचा कि गाय का हम क्या करंगे और उस गाय को सप्त्ऋषीयों को दान में दे दिया अब बारी थी देवताओं की लेकिन रत्न में प्रकट हुई महालक्ष्मी. देवताओं और दानवों ने उनकी स्तुति की और सागर ने अपने एक अंश से पृकट होकर महालक्ष्मी जी को भगवान विष्णु को कन्यादान किया और वो श्री विष्णु के वाम भाग में विराजमान हो गई. फिर ऐरावत हाथी देवताओं के भाग में आया इसके बाद कौस्तुभ मणी और अन्य रत्न निकले. और जब दानवों के भाग में उच्चेश्रवा नामक घोडा आया जो वेद मंत्रों से भगवान की स्तुति करने लगा तब दानवों ने अभिमान पूर्वक देवताओं को दे दिया बोले रख लो, वेद बोलने वाला तुम्हारे ही काम आएगा हमें इसकी जरुरत नहीं है. फिर मदिरा निकली वो दानवों के भाग की थी और वो उसे पा के और पी के वो बहुत प्रसन्न हो गये. दानव मदिरा पान से बहुत आनंदित हो गये थे और जब नशा थोडा कम हुआ तो पुन: मंथन शुरु किया इसके बाद देवताओं की बारी थी और अमृत कलश के साथ भगवान के अंशावतार श्री धनवंतरि अवतरित हुए. लेकिन दानवों को लगा शायद इसमें भी मदिरा हो तो वो बलपूर्वक उस कलश को लेने की कोशिस करने लगे. बढते झगडे को निपटाने के लिये श्री नारायण ने पुन: समुद्र से ही मोहिनी रूप में अंशावतार लिया. सभी देव और दानवों ने मोहिनी को रत्नरुपी देवी जानकर प्रणाम किया तब मोहिनी ने कहा कि, आप लोग झग़डा क्युँ कर रहे हैं? और जब कारण जाना तो उसने कहा कि आप लोगों द्वारा ही तय नियमानुसार यह कलश तो वैसे देवताओं को मिलना चाहिये, लेकिन फिर भी यदि तुम चाहो तो मैं आप सभी में कलश के द्रव्य को बाँट कर आपका विवाद समाप्त कर देती हूँ, देवता समझ गये कि भगवान हैं और उनकी सहायता के लिये आए हैं अत: सबने मोहिनी के मीठे वचनों को मान लिया. मोहिनी ने सभी को कहा कि वो पंक्ति में बैठ जाएं, तब देव दानवों को अलग पंक्ति में बैठाकर कलश के द्रव्य को जो अमृत था पर दानव उसे मदिरा समझ रहे थे. मोहिनि ने कहा देवताओं की पंक्ति से आरम्भ करुंगी, क्युंकि आप लोग एक बार द्रव्य का पान कर ही चुके हो और यह कह कर देवताओं को बाँटना शुरु किया. दानवों में एक को नशा कुछ कम सा हो गया तो वो फिर से मदिरा पीने की चाहत में चुपके से देवताओं की पंक्ति में अंतिम स्थान पर बैठ गया और उसे भी अमृत मिल गया. सूर्य और चंन्द्रमा ने इस बात की शिकायत भगवान विष्णु से कर दी तब उन्होनें उस दानव पर छ्ल करने का दंड देने के लिये चक्र से प्रहार कर दिया और उस दानव का सर कटते ही भगदड मच गई लेकिन वो दानव अमृत पान के बाद भी जिवित रहा. सभी दानव बोले क्या हुआ? क्युँ हुआ? कैसे हो गया? श्री हरि का चक्र प्रहार दानवों को यह बतलाने के लिये था कि धोखे से इस दानव ने अनाधिकार पूर्वक द्र्व्य पान किया था जब मोहिनी बांट रही थी तो धैर्य रखना चाहिये था, तथा अमृत पान के बाद देवता अब दानवों से ज्यादा शक्तिशाली हो गये है अत: अब दानव ईर्ष्या वश देवताओं से अकारण झगडा न करें. जिस दानव ने वेश बदलकर अमृत पान किया वो गलत था क्युँकि तय मापदंडो के आधार पर अमृत पर देवताओं का अधिकार था उसके बाद भी मोहिनी अमृत सब को बांट ही तो रही थी पंक्ति में एक तरफ से. दानवों को अब पता चला कि कलश में मदिरा नहीं वल्कि अमृत है तब कुछ दानव मोहिनी से कलश छिन लेने के प्रयास में आगे आये मोहिनी बचा हुआ अमृत कलश देवराज इंद्र को दे कर चली गई और कहा तुम लोग ही आपस में निपटारा कर लो. ईधर उस दानव ने जिसने अमृत पी लिया था उसका सर राहु और धड केतु नाम से जिवित रहा और बाद में उसे छाया ग्रह के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया गया. अमृत प्राप्ति के बाद वर्षों तक देवताओं का पलडा भारी रहा और वो दानवों पर भारी पड गये. इस बीच देवताओं ने पुन: तपबल से शक्ति अर्जित की तब दानव परेशान हो गये और उन्होंने अपने गुरु से पूछा कि, गुरुवर हम कैसे देवताओं को हरा सकते है तब उनके गुरु ने कहा देवता अमृत पान कर चुके हैं उन्हें हराना बहुत कठिन है, और एक ही उपाय है अगर श्रेष्ठ ब्राह्मण का तेजस्वी पुत्र आपको सहायता करे तो देवताओं को हराया जा सकता है. ऊपाय जान कर दानवों ने सोचा ब्राह्मण पुत्र भला हमारा काम क्युँ करेगा, उसके लिये हमारा साथ देना उसका अधर्म होगा और इस कार्य के लिये कोई भी तेजस्वी तो क्या पृथ्वी लोक का साधारण ब्राह्मण भी तैयार नहीं होगा. अगर हम बलपूर्वक कुछ करंगे तो श्रेष्ठ और तेजस्वी ब्राह्मण हमारा ही विनाश कर डालेगा और कमजोर ब्राह्मण के पास हम गये तो, देवता भी हँसी करंगे और हमारी किर्ति को भी धब्बा लगेगा. मंथन और चिंतन के दौर शुरु हुए दानवों के और वे सब एक निर्णय पर पहुँचे कि अगर हम अपनी कन्या का दान किसी श्रेष्ठ ब्राह्मण को दें तो, ब्राह्मण को अवश्य स्वीकार करना ही पडेगा क्युँकि ब्राह्मण श्रेष्ठ मर्यादा का पालन करने को बाध्य है उसका पुत्र होगा, वो हमारा भांजा होगा और ब्राह्मण भी, उसे हम पालंगे क्षिक्षा दिक्षा देंगे, हमारे अनुसार चलेगा और जब मर्जी देवताओं से भिडा देंगे. तब एक दानव बोला कन्या दान वाली बात ठीक है पर दान कैसे दोगे? ये रीति तो हम दानवों की है नहीं, ब्राह्मण कन्यादान कैसे और क्युँ स्वीकार करेगा. देवताओं वाले रिवाज हम कर नहीं सकते, क्युँकि वो हमारे अनुकुल नहीं रहे हैं. अन्य दानवों ने कहा बात तो सही है और निर्णय को सोच समझ कर के लेने के लिये मीटींग को दूसरे दिन तक के लिये टाल दिया. रात को एक दानव अपने घर में बहुत परेशान और उधेड्बुन में था कि इस बात का हल कैसे दिया जाए. वो अपने परिवार में बैठा था उसकी पत्नी और पुत्री ने चिंता का कारण पूछा, तब उसने उनको बात बतलाई. उसकी पुत्री का नाम था केशिनी उसने कहा पिता जी दानव कन्या का विवाह श्रेष्ठ ब्राह्मण के साथ इसकी आप चिंता ना करें, मैं श्रेष्ठ ब्राह्मण विश्रवा को जानती हूँ जो आर्यावृत प्रदेश के पास के जंगल में ही अपने शिष्यों के साथ आश्रम में रहते हैं. वे अपने शिष्यों को बहुत सयंम और शांति के साथ अध्ययन कराते हैं, मैंने उनको देखा है उनका ज्ञान भी बहुत श्रेष्ठ है, ऐसा मुझे लगता है क्युँकि मैं कई बार छुप छुप के उनको सुन चुकी हूँ. अगर पिताजी आपकी आज्ञाँ हो तो मैं उनके पास जाऊँगी और उनसे प्रार्थना करूँगी कि वो मुझे अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार करें. मुझे पूर्ण विश्वास है वे मुझे अवश्य अपनाएंगे, मैं उनके स्वभाव से परिचित हूँ. पुत्री केशिनी की बात सुन, उसके माता पिता बहुत प्रसन्न हुए, पिता ने अपनी पुत्री को कहा कि पुत्री तु इस दानव कुल की रक्षा और भलाई के लिये सोचा, तु भाग्यशाली और धन्य है, कल मैं सभी से इस बारे में चर्चा करुंगा और तब तुम्हें अपना निर्णय दुँगा. दूसरे दिन केशिनी के पिता ने अन्य सभी दानवों को अपनी पुत्री केशिनी द्वारा दिया गया सुझाव बतलाया और सभी बहुत खुश हुए केशिनी को आज्ञाँ दे दी गई. केशिनी अपने कार्य में सफल रही. शक्तिशाली दानव की पुत्री होने के बाद भी उसने नम्रता पूर्वक अपने माता पिता की चिंता दूर करने का प्रयास किया और ब्रह्मा जी के मानस पुत्र, महर्षि पुलस्त्य के पुत्र विश्रवा ने उन्हें अपनी पत्नी के रूप में आश्रम में स्वीकार कर लिया. एक अच्छी पत्नी के रूप में केशिनी अपने पति की कई वर्षों तक बहुत सेवा की और एक दिन उसके पति ऋषी विश्रवा ने प्रसन्न हो कर केशिनी से वर माँगने को कहा. केशिनी ने अद्भुत और तेजस्वी पुत्रों की माँ होने का वरदान माँगा, जो देवताओं को भी पराजित करने की ताकत रखता हो. केशिनी ने एक पुत्री, पत्नी और माँ के रूप मे अपनी मर्यादा का पालन करने में पूर्णरुप से सफल रही. अपने माता पिता की चिंता को दूर ही नहीं किया अपितु उसके बाद पति सेवा का तप भी किया समय आने पर उसने एक अद्भुत बालक को जन्म दिया जो दस सिर और बीस हाथों वाला अत्यंत तेजस्वी और बहुत सुंदर बालक था। केशिनी ने ऋषि से पूछा यह तो इतने हाथ और सर लेके पैदा हुआ है ऋषि ने कहा कि तुमने अद्भुत पुत्र की माँग की थी इसलिये अद्भुत अर्थात इस जैसा कोई और न हो, ठीक वैसा ही पुत्र हुआ है. उसके पिता ने ग्यारहवें दिन अद्भुत बालक का नामकर्ण संस्कार किया और नाम दिया रावण. रावण अपने पिता के आश्रम में बडा हुआ और बाद में उसके दो भाई कुम्भकर्ण तथा विभीषण और एक अत्यंत रुपवती बहन सूर्पनखा हुई. रावण जन्म का सयोंग कुछ इस तरह से बना था। पूर्वकाल की बात है वैकुंठ लोक में जय-विजय नामक दो द्वारपाल थे. एक बार उन्होंने शौनकादि बालक ऋषियों को वैकुंठ में जाने से रोक दिया था, उन्हें लगा कि बालकों को भला भगवान के पास क्या काम है. तब शौनकादि ऋषियों में से एक बालक ऋषि ने जय विजय को श्राप दे दिया कि तुम दोनों ने वैकुंठ लोक में मृत्युलोक जैसा नियम का पालन किया और स्वयं श्री हरि के द्वार पर सेवा में रहते हुये इतना ज्ञान भी नहीं है अत: तुम मृत्युलोक को प्राप्त हो जाओगे. दुसरे बालक ऋषि ने कहा तुम्हें इस बात का भान भी नहीं कि श्री विष्णु लोक में यह परम्परा नहीं हो सकती. इसी बीच आवाज सुन कर स्वयं भगवान विष्णु उन शौनकादि ऋषियों को लेने आ गये. उन्होंने तथा जय-विजय ने ऋषियों से क्षमा माँगी. इस पर ऋषियों ने कहा कि श्राप वापस नहीं हो सकता, समय आने पर तुम्हें मृत्युलोक जाना ही होगा, पर जैसे स्वयं श्री हरि हमें लेने आये है वैसे ही वो तुम्हें भी वापस वैकुंठ लोक लाने के लिये मृत्युलोक में आयेंगे. दुसरा कारण यह था कि एक बार नारदजी को अपनी भक्ति पर अभिमान आ गया और वो हर लोक में जा जा के अपनी भक्ति और तपस्या का बखान करते थे. नारद ने अपने पिता ब्रह्मदेव को बतलाया तब उन्होंने कहा ने नारद अपनी भक्ति का बखान मत करना यह अच्छा नहीं है. नारद कैलाश में गये और वहाँ भोलेनाथ को बताया उन्होंने भी कहा नारद आप हर जगह इस बात को कह रहे हो अच्छा नहीं है. लेकिन नारद अभिमान में थे कि समस्त लोकों में उन जैसा कोई नारायण भक्त नहीं है. कैलाश से लौटते हुये नारद वैकुंठ की ओर चले तब नारद के अभिमान को नष्ट करने के लिये भगवान विष्णु ने एक माया नगरी का निर्माण किया. नारद जहाँ से निकले तब मार्ग में उन्हें एक सुंदर नगर दिखाई दिया. नारद ने सोचा मैं सभी लोकों और नगर में गया हूँ पर यह इस नगर में नहीं गया अत: यहाँ जा के देखता हूँ कौन सा नगर है. नारद वहाँ पहुँचे, बहुत सुंदर नगर था इंद्र्लोक से भी सुंदर वहाँ के राजा ने नारदजी का सम्मान किया, महल में बैठाया और स्वयँ सपरिवार नारद जी को नमस्कार किया. जलपान आदि के बाद कहा, महर्षि आप तो चिरिंजीवी, त्रिकालदर्शी महात्मा हैं मेरी पुत्री का स्वयँवर दो दिनों के बाद रखा है वैसे तो मैंने समस्त तीनों लोकों में खुला आमंत्रण दिया है कि जिसे भी मेरी पुत्री चाहेगी उसी से विवाह किया जायेगा परंतु यदि आप मुझे बता दें कि दामाद कैसा होगा तो मुझे आत्म संतोष हो जायेगा. नारद जी ने उनकी पुत्री के हस्तरेखा देख कर कहा कि आपकी पुत्री बहुत भाग्यशाली है, इसे चिरिंजीवी, अजर अमर, सुंदर और शतोगुणी प्रधान वर मिलेगा. जिसकी किर्ति समस्त लोकों में हो और नारद जी उस कन्या के रूप को देख कर मोहित हो गये उन्हें अपने आप में भी वो सब गुण नजर आये जो उसकी हस्तरेखा बता रही थी. इसके बाद नारद जी ने बिदा ली और वैकुंठ लोक को अपनी भक्ति का बखान करने निकल पढे. रास्ते में विचार किया की मुझ मे सारे गुण है लेकिन मैं संन्यासी हूँ. अब मुझे भी सप्तऋषियोँकी तरह अपनी ग्रहस्थी बसा लेनी चाहिये. विवाह के लिये अभी जिस कन्या को देखा वो उपयुक्त है. लेकिन एक कमी है वो है मेरा रूप पर उसकि चिंता की कोई बात नहीं क्युँकि मैं भगवान का भक्त हूँ और अभी जा के भगवान विष्णु से उनका रूप माँग लुंगा और उन्हें अपने भक्त को देना ही पडेगा. नारद थोडे समय बाद वैकुंठ पहुँचे भगवान ने स्वागत किया पूछा बहुत जल्दी में हो क्या बात है. नारद ने कहा भगवन एसे ही बहुत दिन हो गये आप से मिले हुये, भगवान भोलेनाथ से मिलकर आ रहा हूँ और अब आप से मिलने चला आया. अब वैसे भी मेरे पास समय है क्युँकि तपस्या और भक्ति मार्ग की उच्च अवस्था भी प्राप्त कर ली है, ज्ञानकाण्ड, कर्मकाण्ड और भक्ति में भी अब मैं चरम सीमा पर पहुँच चुका हूँ. माया को भी जीत चुका हूँ अब सोच रहा हूँ मैं भी ग्रहस्थी बन जाऊँ. रास्ते में एक कन्या को देख कर आ रहा हूँ जो सभी गुणों से युक्त है आपसे क्या कहुँ भगवन आप तो सर्वज्ञ हैं और मैं तो आपका सब से बडा भक्त भी हूँ अत: आप मेरी सहायता किजिये. भगवान ने मुस्कुराते हुये कहा नारद तुम ग्रहस्थ बनने की चाह में लगता है कन्या के सुंदर रूप पर रोगग्रस्थ हो गये हो अत: मैं अवश्य तुम्हारे इस रोग को दूर कर दुंगा तुम चिंता मत करो. तुम मेरे सबसे बडे भक्त हो तो मुझे भी एक चिकित्सक की तरह से ही अपने भक्त के रोग को दूर करना होगा. नारद भगवान के इन वाक्यों को नहीं समझ पाये और बोले प्रभु मेरा रोग दूर करने का उपाय है आप मुझे अपना ही रूप दे दीजिये ताकि मैं सुंदरता में बिल्कुल आप जैसा ही दिखुं ताकि वो कन्या मुझे वरणकर ले. भगवान ने कहा नारद मैं तुम्हारा चिकित्सक हूँ इसलिये मैं रोग को ठीक करुंगा तुम चिंता मत करो. नारद ने कहा प्रभु मुझेआज्ञाँ दिजिये अब मैं चलता हूँ. नारद जी खुश थे की अब वो भी भगवान विष्णु जैसे ही हो गये हैं और स्वयंवर के दिन पहुँचे. वहाँ तीनों लोक से बहुतसे लोग आये थे, राजा ने सभी को बैठने को आसन दिये. नारद जी ने अनुमान लगाया पिछली बार राजा ने मुझे महर्षि कह कर चरण धोये पर, आज सिर्फ सामान्य तरीके से प्रणाम करके आसन दिया, इसका मतलब भगवान ने मुझे अपना रूप दे दिया तभी तो ये राजा आज मुझे नहीं पहचान सका. स्वयँवर आरम्भ हुआ कन्या अपने लिये वर का चयन करने के लिये एक तरफ से आगे बढी और नारद जी एक दो बार अपनी जगह से खडे हुये कन्या का ध्यान अपनी तरफ आकर्षित करने के लिये और जैसे ही वो पास से निकली तो नारद जी अपनी गर्दन को आगे की तरफ झुका के खडे हो गये. लेकिन कन्या आगे बढ गई और एक अन्य दिव्य पुरुष के गले में जयमाला डाल दी. कन्या का विवाह उनसे संमपन्न हुआ विवाह के बाद दो शिव गण जो वहाँ आये थे, वो नारद जी को देख कर बोले आप क्युँ बार–बार ऊछल रहे थे. नारद को उनकी बात पर बहुत गुस्सा आया और बोले मूर्खो हँस क्युँ रहे हो जानते नहीं मैं कौन हूँ? वो ये तो पता नहीं कौन हो पर देखने पर लगते एकदम बंदर हो, वो बंदर जो मृत्युलोक पर पाये जाते हैं. नारद ने अपना मुँह जल में देखा तो वानर का सा मुँह का नजर आया. शिव गण फिर बोले क्युँ लग रहे हो ना मृत्युलोक के बंदर और पुन: जोर से हँसें तो नारद जी को और अधिक क्रोध आ गया और उन्हें श्राप दे दिया कि तुम दोनों शिव गण हो कैलाश में रहते हो और मेरा उपहास करते हो, नारद का उपहास करके कहते हो मृत्युलोक का बंदर इसलिये तुम्हें श्राप देता हूँ तुम मृत्युलोक में जाओगे और वो भी राक्षस कुल में, और फिर बंदर ही तुमको पीटेंगे. इसके बाद नारद जी गुस्से से वैकुंठ लोक की ओर तेजी से बडे, उन्हें भगवान विष्णु पर बहुत गुस्सा आ रहा था। रास्ते में वही कन्या और वर भी विवाह के बाद जा रहे थे. जैसे ही नारद ने बारात क्रोस करते हुये आगे निकले वर ने पूछ लिया अरे नारद जी कहाँ को चले? इस प्रश्न से ही नारद को गुस्सा आ गया और थोडा रुक के बोले ओह तो आप हैं अब मैंने पहचान लिया है आप को. आप विष्णु भगवान हैं. इतना बडा खेल वो भी मेरे साथ मैंने आपको इस कन्या के बारे में बतलाया, जानकारी दी और आपने इस कन्या के रूप गुणों की चर्चा मुझ से ही सुनकर मुझे ही छला, और खुद रूप बदल कर दुसरा विवाह इस कन्या से किया. इसके बाद नारद जी ने श्री हरि को भी श्राप दे दिया, जैसे मैं पत्नी के वियोग में हूँ वैसे ही आप को भी श्राप देता हूँ कि आप भी पत्नी के वियोग में दुखी रहेंगे वो भी मृत्युलोक में क्युँकि असली वियोग तो क्या होता है वहीं पता चलेगा और आप पत्नी के वियोग में मेरी तरह ही भटकेंगें. भगवान ने कहा नारद आपने श्राप दिया इसे स्वीकार करता हूँ और फिर अपनी माया हटा दी तब नारद ने देखा कुछ भी नहीं था ना वो नगर, न वो कन्या. नारद ने कहा यह क्या हुआ? भगवान ने कहा तुमने ही कहा था नारद की माया को जीत चुके हो इसलिये तुम्हारी परीक्षा ले रहा था। नारद ने श्री हरि से क्षमा माँगी और भगवान विष्णु अदृश्य हो गये. इसी बीच वहाँ शिव गण भी आये और उन्होनें नारद जी से अपराध क्षमा करने को कहा. नारद ने कहा श्राप मिथ्या तो नहीं होगा, अत: राक्षस तो तुम होओगे ही लेकिन इतना और कर देता हूँ कि तुम इतने प्राक्रमी राक्षस होओगे कि स्वयं भगवान श्री हरि ही तुम्हारे उद्धार के लिये आएँगे. इसके अतिरिक्त तीसरा योग था प्रतापभानु जो चक्रवर्ति राजा होने के लिये लालच में ब्राह्मणों के श्राप का शिकार हो जाता है जिसकी कथा आगे आयेगी, जो सीताजी के जन्म से भी जुडी है. इन तीनों श्राप (जय-विजय, शिव गण और प्रतापभानु) से और इन सभी के अंश के रूप में प्रकट हुआ रावण. प्रतापभानु का राजसी गुण, शिव गणों का तामसी गुण और जय–विजय का भक्ति का गुण, इन तीनों व्यक्तियों के गुणों की प्रधानता लिये जन्म लिया रावण ने. बाल्यकाल में ही रावण ने चारों वेद पर अपनी कुशाग्र बुद्धी से पकड बना ली, उसे ज्योतिषि का इतना अच्छा ज्ञान था कि, उसकी रावण संहिता आज भी ज्योतिषी में श्रेष्ठ मानी जाती है. युवावस्था में ही रावण तपस्या करने निकल गया उसे पता था कि ब्रह्मा जी उसके परदादा हैं, इसलिये उसने पहले उनकी घोर तपस्या की और कई वर्षों की तपस्या से प्रसन्न होके ब्रह्मा जी ने उसे वरदान माँग़ने को कहा, तब रावण ने अजर–अमर होने का वरदान माँगा. ब्रह्मा जी ने कहा मैं अजर अमर होने का वरदान नहीं दे सकता हूँ तुम ज्ञानी हो इसलिये समझने का प्रयास करो. मैं तुम्हें वो नहीं दे सकता हूँ लेकिन बदले मैं अन्य शक्तियां देता हूँ. रावण तपस्या से शक्ति प्राप्त करके आया माता-पिता से मिला वे बहुत प्रसन्न हुए. अब थोडा अभिमान मन में आ गया और एक दिन, दो चार साथियों को लेके रावण अपनी युवावस्था में सहस्त्रबाहु अर्जुन के राज्य की सीमा में गया, वहाँ नर्मदा नदी के किनारे उसने देखा नदी की चौडाई बहुत होने के बाद भी उसमें जल बहुत कम था। रावण ने अपने साथीयों से कहा ये नदी का जल इतना कम कैसे है पहले तो इसमें बहुत जल भरा हुआ करता था। तब साथियों ने थोडा आगे बढकर देखा एक बाँध नजर आया जिसमें नदी का समस्त जल रोका गया था और बांध को बाणों से बनाया था। तब रावण के साथियों ने उसको बताया कि, किसी ने अपनी अद्भुत धनुर्विद्या के प्रयोग द्वारा बाणों से बाँधकर जल को रोका है. वो सब आगे बढे उन्हें कुछ शस्त्रधारी सुरक्षा में लगे सैनिक दिखे रावण ने पूछा कौन हो और ये बांध किसने बनाया है. उन लोगों ने कहा हमारे महराज सहस्त्रबाहु अर्जुन ने वो इस समय अपनी पत्नीयों के साथ विहार करने (पिकनिक मनाने) आये हैं. रावण ने कहा अच्छा तो अब मेरा कौशल देखो और एक ही बाण से उसने बांध तोड दिया. सहस्त्रबाहु की पत्नीयां जो स्नान करने के लिए गई थी बह गई काफी प्रयास करने के बाद उन्हें निकाला गया. रावण ने बांध तोडा जब इस बात की सूचना सहस्त्रबाहु को उसके सैनिकों ने दी तब इस बात पर सहस्त्रबाहु और रावण का युद्ध हो गया और रावण हार गया उसको बंदी बना लिया और जेल डाल दिया. उसके साथी भाग गये और रावण के दादा जी मुनि पुलस्त्य को बताया गया तब उन्होंने सहस्त्रबाहु अर्जुन के पास संदेश भेजा कि रावण युवक है और युवावस्था में गलती की सम्भावना हो जाती है इसलिये उसे छोड दो. अर्जुन ने उसे छोड दिया और चेतावनी दी कि दुबारा इस तरह की गलती न हो नहीं तो एक भी सर धड पर नहीं दिखाई देगा. रावण को बहुत ग्लानि महसुस हुई और उसने वर्षो तक पुन: ब्रह्मा जी के लिये तप किया. और ब्रह्मदेव के पृकट होने पर उसने फिर से अमर होने का वरदान माँगा. लेकिन इस बार भी उसे अमर होने का वरदान नहीं मिला लेकिन और ज्यादा मायावी शक्ति प्राप्त हुई. मायावी शक्तियां पा कर एक बार घुमते हुए वानरों के क्षेत्र में प्रवेश किया. शाम का समय था वानरों का राजा बालि उस वक्त एक वृक्ष के नीचे संध्या जप कर रहा था। रावण उसे देख कर हँसा और फिर उसे छेडने लगा ऐ मर्कट, ऐ बंदर बोल उसका उपहास करने लगा और युद्ध करने के लिये उकसाने लगा. रावण को अपनी मायावी शक्ति पर घमंड आ गया था वो बालि से कहा अरे मर्कटमैंने सुना है तु बहुत शक्तिशाली है आ जरा मुझसे युद्द कर के देख तेरा अभिमान मैं कैसे ढीला करता हूँ. लेकिन बालि ध्यान में था इसलिये उसने इसकी बात को सुना ही नहीं. इसके बाद रावण ने उसको जोर से लात मारी और बोला पाखंडी मेरे ललकारने के बाद मेरे डर से ध्यान में बैठा है, सीधे-सीधे बोल कि मैं नहीं लड सकता. बालि क्रोध से ऊबल पडा उसने रावण को पटक-पटक कर इतनी मार मारी बस वो सिर्फ मरने से ही बचा और फिर उसे अपनी पूँछ में बाँध कर लपेट लिया, पुन: संध्या वंदन समाप्त करके उसने रावण के गर्व को चूर-चूर कर दिया. छ: महीने तक बालि ने उसे अपनी कैद में रखा एक दिन उसे अपने बाँए हाथ से उसको अपनी काँख में दबाकर बालि जा रहा था तभी उसके हाथ की पकड ढीली हो गयी और रावण भाग निकला ऐसा भागा की दिखाई नहीं दिया. अब रावण को पता चला कि उससे भी बलशाली लोग हैं मुझे ही पितामह की वजह से अभिमान ज्यादा था। इसके बाद वो फिर से घोर तपस्या करने निकल पडा और फिर से उसने अमर होने का वरदान माँगा. ब्रह्मा जी ने कहा पुत्र मेरे अधिकार मे वो वरदान नहीं है और इस बार उसने ब्रह्मा जी से प्रचंड शक्तियां और ब्रह्मास्त्र प्राप्त किया. एक दिन देवताओं से किसी बात पर नाराज हो गया और उसने स्वर्ग में अकेले ही चढाई कर दी और घोर युद्ध में उसने अकेले ही सभी देवताओं को परास्त कर डाला. इंद्र, यम, वरूण अन्य सभी दिकपाल और प्रजापतियों को बंधक बना लिया अन्य सभी देवता स्वर्ग से भाग निकले, उसने स्वर्ग लोक पर अधिकार कर लिया और बाद में उसे देवताओं को लौटा दिया, लेकिन देवताओं का मान भंग हो गया वो चुपचाप हो गये. दानवों को पता चला कि उनका भांजा रावण अकेले ही स्वर्ग में सभी देवताओं को परास्त कर दिया तीनो लोकों में इस बात का पता चला और इस बात से दानव बहुत खुश हो गये उनकी वर्षो की मनोकामना पूर्ण हो गयी और दानवों ने रावण की जय जयकार की और रावण को अपना राजा बनने कि प्रार्थना की. रावण के तेज और उसके भव्य स्वरूप और नेतृत्व (डायनामिक लीडरशिप) से मय दानव ने प्रसन्न हो के अपनी अत्यंत सुंदर और मर्यादा का पालन करने वाली पुत्री मंदोदरी का विवाह रावण के साथ किया और रावण पत्नी रूप में मंदोदरी को पा के प्रसन्न हुआ. पतिव्रता नारियों में मंदोदरी का स्थान देवी अहिल्या के समकक्ष है. रावण राजा के रूप में राक्षसों द्वारा प्रतिष्ठित हो गया तो फिर उसने अपने लिये राजधानी का निर्माण करने की सोची, वो फिर से स्वर्ग गया शायद राजधानी बनाने के लिये ये ठीक रहे, सभी देवता इंद्र, यम, वरुण उसे देख भाग लिये, वो खुस हुआ लेकिन उसे स्वर्ग पसंद नहीं आया वापसी में लौटते वक्त उसे समुद्र में त्रिकूट पर्वत पर सुंदर नगर नजर आया. वो सीधे उधर गया वहाँ उसने देखा उसका ही सौतेला भाई कुबेर यक्षों के साथ रहता है उसने कुबेर को उस नगर को यक्षों सहित खाली करने को कहा. कुबेर अपने पिताजी के पास गया और कहा पिताजी रावण जबरन लंका खाली करने को कह रहा है तब उन्होंने कहा पुत्र रावण इस वक्त मानने वालों में नहीं है अत: तुम उसे वो स्थान दे दो. तुम उत्तर दिशा में सुरक्षित स्थान में चले जाओ वहाँ तुम्हें कोई तंग नही करेगा. अपने पिता के आदेशानुसार कुबेर ने हिमालय क्षेत्र में अल्कापुरी नाम से नगर का निर्माण मानसरोवर झील के पास कर लिया और यक्षों सहित लंका से धन दौलत के साथ चला गया. ईधर रावण ने त्रिकूटपर्वत पर लंका को बहुत सुंदर बनवाया. उसके ससुर मय नामक दानव ने जो मायवी विद्याओं में अत्यंत निपुण (मास्टर माइंड) था, उसने लंका को तीनों लोकों मे सबसे सुंदर नगर बना दिया, सोने की पन्नी (फोइल) से और हीरे जवाहारात, मणिया से लंका के सभी दिवारें, खंम्भे आदि को मड दिया और जब इन की कमी महसुस हुई तो रावण, कुबेर से छीन कर ले आया. रावण ने सभी राक्षसों को लंका में रहने का निर्देश दिया और सभी को एक से एक सुंदर घर और महल दिये, फिर एक दिन कुबेर से पुष्पक विमान भी छीन लिया. राज्य स्थापना और सुंदर राजधानी बसा कर सभी असुरों को अच्छी तरह से सब सुख सुविधाएं उपलब्ध करा कर और उन्हें पूर्ण रूप से सुरक्षित कर रावण फिर से ब्रह्मदेव की तपस्या में लग गया, उसे देख बाद में उसके भाई कुम्भकर्ण और विभीषण भी उसके साथ तपस्या में आ गये. ब्रह्मा जी फिर रावण के पास आये रावण ने कहा पितामह मुझे अमरता का वरदान चाहिये. ब्रह्मदेव ने कहा वो मेरे लिये देना सम्भव ही नहीं है लेकिन रावण नहीं माना ब्रह्मा जी चले गये. रावण पुन: तप में लगा रहा और वर्षों बाद घोर तपस्या से ब्रह्मा जी फिर रावण के पास आये उसको समझाया कि, अजर–अमरता वाला वरदान मत माँगो तुम ज्ञानी हो, संसार के नियम को फेरने की शक्ति मुझ में नहीं, मैं मर्यादा में ही काम कर सकने की शक्ति रखता हूँ, पुत्र तुम मेरी तपस्या बार–बार कर रहे हो और मुझे व्यवधान (डीस्टर्ब) हो रहा है इसलिये जितना हो सकता है मैं ऊतना तुम्हें आज दे देता हूँ. तुम्हारी नाभि में, मैं एक अमृत कुंड प्रदान करता हूँ और जब तक यह अमृत कुंड तुम्हारी नाभी में रहेगा तब तक तुम्हारी मृत्यु नहीं होगी. अगर तुम इस पर भी संतुष्ट नहीं हो और अजर-अमर होना चाहते हो, तो बेहतर है तुम महादेव की शरण में जाओ. महादेव की मैं नहीं जानता वो अमर होने का वरदान देंगे या नहीं, किंतु मेरे वश में तो नहीं है. रावण ने फिर ब्रह्मा जी से पूछा कि पितामह यह अमृत कुंड नाभि में कब तक रहेगा? तब ब्रह्मा जी ने कहा अग्नि बाण के अतिरिक्त इस अमृत कुंड को कोई नहीं सुखा सकता है रावण ने सोचा लगभग अमर होने जैसी बात है, क्युँकि अग्नि बाण का प्रयोग भगवान विष्णु के अतिरिक्त अन्य कोई नहीं कर सकता है इसलिये उसने ब्रह्मा जी से कहा पितामह अब आप अजर अमर होने का वरदान तो नहीं दे रहे हैं इसलिये मैं इसे स्वीकार कर लेता हूँ पर आपको और भी कुछ देना होगा. ब्रह्मा जी ने कहा तुम अमर होने के अतिरिक्त अन्य जो माँगो मैं देने को तैयार हूँ तब रावण ने वरदान ऐसे माँगा कि उसको देव, दनुज, नाग, यक्ष, किन्नर, गंधर्व कोई भी युद्द में न मार सके. ब्रह्मा जी ने तथास्तु कह दिया. इसी समय ब्रह्मा जी की दृष्टी एक अप्सरा पर पडी जो पास में जो छुपके से अपना कान लगा के सुन रही थी कि ब्रह्मदेव रावण को क्या वरदान दे रहे हैं. ब्रह्मा जी समझ गये कौन है किसने भेजा है और वो अप्सरा घबराते हुए ब्रह्मा जी को प्रणाम करती है लेकिन उसका इस तरह छुप कर देखना ब्रह्मा जी को अच्छा नहीं लगा, उन्होंने सिर्फ उस अप्सरा को इतना ही कहा ‘’जब तुमने छुप के सुन ही लिया है तो इतना और भी सुन लो कि, जिस दिन किसी वानर का जोरदार मुक्का तुम्हारे इसी कान पर पडेगा, उस दिन समझ लेना रावण और राक्षसों का अंत आ गया” ब्रह्मा जी चले गये और अप्सरा चुपके से भागने वाली थी कि रावण ने उसे पकड लिया और बोला कौन हो यहाँ क्याकर रही हो? उसने बताया कि युँ ही ब्रह्मदेव क्या कह रहे है वो देखने आई थी. रावण समझ गया कि देवताओं की चाल है इसलिये उसने उस अप्सरा को कहा तुम्हें बहुत ज्यादा कान लगा के सुनने की आदत है इसलिये अब मेरे साथ चल अब लंका के द्वार पर, वहाँ कोई घुसे तब कान लगा के सुनना और रखवाली करना और उसे लंकिनी नाम से मुख्य द्वार पर रखवाली के लिये रख दिया. रावण अब तपस्या जनित अपनी शक्ति की लगभग चरम सीमा पर पहुँच गया था इसलिये अभिमान भी स्वाभाविक था। सभी राक्षस उसकी छत्र छाया में सुरक्षित थे उनमें से कई राक्षस वो पहले देवताओं के भय से तपस्या नहीं कर पा रहे थे, वो तपस्या करने लगे शक्ति प्राप्त करने के लिये और अन्य सभी राक्षस लंका में आनंद और एश्वर्य का भोग करने लगे. एक दिन रावण अपने अभिमान और ऐश्वर्य के बल पर अकेले ही त्रिलोक में विजय के लिये निकला और सुतल लोक में गया. वहाँ सुतल लोक में राजा बलि राजमहल में थे और रावण बडे अभिमान और गरजना के साथ उनके द्वार पर गया और द्वार पाल को बोला “ बलि को बोलो रावण युद्ध के लिये आया है” द्वारपाल के भेष में कोई और नहीं वल्कि स्वयं नारायण थे उन्होंने बलि को वरदान दिया था, कि उसके द्वार पर पहरा वो देंगे. रावण ने जब द्वार पाल को जबरन धमकाकर बोला, तो द्वारपाल ने कहा “हे लंकापति रावण, महाराज बलि इस वक्त पूजा में है और पूजा की समाप्ति के बाद वो तुमसे अवश्य लडगें, चिंता मत करो धैर्य रखो, वो भगवान भक्त हैं इसलिये पहले वो उस काम को ही पूरा करंगे उसके बाद वो अपना ये सामने रखा कवच पहनने को यहाँ आएंगे तब तुम्हारा संदेश उन्हें हम यहीं तुम्हारे सामने ही दे देंगे”. रावण अभिमान में चूर था और बोला “अच्छा इस कवच को पहनेगा वो मैं इसे अभी तोड देता हूँ.” रावण आगे बडा और उस कवच को उठाने की कोशिस करने लगा, लेकिन वो इतना भारी था कि रावण को उठाने में पसीना आ गया. द्वारपाल ने कटाक्ष किया लंकापति रावण, हमारे महाराज बलि का कवच तक उठाने में आपके माथे पर पसीना निकल आया है मुझे संदेह हो रहा है कि तुम महाराज बलि से कैसे लड पाओगे कोई बात नहीं कुछ ही समय की बात है और आप धैर्य रखें. रावण मन में डर गया और बाद आता हूँ कहकर भाग निकला, वापस नहीं आया. रावण ने सभी देवताओं, यक्ष, किन्नर, गंधर्व आदि को युद्द में परास्त करके राक्षसों को अभय कर दिया और मानवों को वो पहले से ही सोचता था कि, वो क्या लडगें बेचारे सीधे साधे लोग है इसलिये पृथ्वी के अन्य भू भागों पर उसके राक्षस अपनी चला ही रहे थे. यद्यपि शक्तिशाली राज्यों, जिनमें अयोध्या, मिथिला, कौशल जैसे अन्य राजा थे, वो बहुत उच्च कोटी के प्रतापी और सक्षम राज्य थे और कभी सीमा विस्तार के लिये युद्ध नहीं करते थे, ये राजा सन्मार्गी और नारायण भक्त थे, उनकी प्रजा भी सुखी संपन्न और उच्च कोटी की थी. महाराजा दशरथ तो इतने प्राक्रमी थे कि, देवराज इंद्र ने तक उनसे युद्ध में सहायता माँगी थी. राजा जनक इतने श्रेष्ठ राजा थे कि उन्हें प्रजा के, हित के कार्यो और संत सेवा में अपनी देह की सुध तक नहीं होती थी और इसलिये उनका नाम विदेह भी पड गया था। एक से बढकर एक ऋषी, महर्षी, मुनि जिनमें परशुराम, विस्वामित्र, बामदेव जैसे लोग इन राजाओं के दरबार में आते थे और इसी वजह से इनके राज्य को टेडी आँख देखने का साहस तीनों लोकों में स्वत: ही कोई नहीं कर सका. एक प्रश्न उठता है कि रावण, सहस्त्रबाहु अर्जुन से, फिर बालि से मार खाया, फिर सुतल लोक में बलि के डर से भाग गया, अयोध्या, मिथिला, कौशल, वानरों के प्रदेश आदि उसके अधीन नहीं थे, फिर रावण त्रिलोक विजेता कैसे मान लिया गया? रावण ने ब्रह्मा जी से नाभी कुंड मे अमृत पाया इससे उसकी मृत्यु सिर्फ भगवान नारायण के अतिरिक्त किसी और से नहीं हो सकती है इस बात का उसको ज्ञान था, मन में ग्लानि थी कि, अगर-अमर हो जाता तो कितना अच्छा रहता क्युँकि उसका लक्ष वही था और उसके लिये वो प्रयत्नशील था। लेकिन सिर्फ अमर रहने से कोई बात नहीं बनती है बल, कौशल और शस्त्र भी चाहिये उसके लिये उसने तपस्या से बहुत कुछ पाया भी. उस वक्त रावण जैसे कई अन्य तपस्वी भी थे, राजा बलि, वानर प्रदेश का राजा बालि, बाणासुर आदि. रावण ने ब्रह्मा जी से वरदान पाने के बाद सोचा अब वो अमरता का वरदान पाने के लिये महादेव को ही प्रसन्न कर के रहेगा और वरदान ले के रहेगा. रावण ने भगवान भोले नाथ की तपस्या आरम्भ कर दी, वर्षों तक तपस्या की, भोले नाथ प्रकट नहीं हुये, रावण ने सोचा भोलेनाथ जल्दी प्रसन्न होने वाले महादेव हैं और मुझसे ही लगता है अप्रसन्न हैं ये सोच कर उसने और कठोर तपस्या करना शुरु कर दिया, कभी निराहार रह कर तो कभी भगवान भोलेनाथ की सुदंर स्त्रोतों से वीणा वादन कर, लेकिन प्रभु पृकट नहीं हुए. रावण ने सोचा उसका जीवन ही बेकार है अगर वो महादेव को प्रसन्न न कर सका, महादेव जो शीघ्र प्रसन्न हो जाते हैं अपने भक्तों पर, और मैं ही उनको प्रसन्न न कर सका ये सोच कर आत्मग्लानि से भर गया. एक दिन वो पूजा में जब पुष्प चढाने लगा तो पुष्प कम पड गये, तब उसने पूजा को पूर्ण करने के लिये उसने एक-एक कर अपना मस्तक काट कर पुष्प की जगह चढाना शुरु कर दिया, ये सोच के कि जो अपने जीवन में महादेव को प्रसन्न नहीं कर सका तो उस जीने वाले को धिक्कार है. आज पुष्प की जगह महादेव को मेरे शीश अर्पण हैं. दर्द से रावण बेसुध सा हो गया लेकिन मुँह से हर हर महादेव कहना नहीं छोडा. अंतिम सिर से झुक कर महादेव को अंतिम प्रणाम कर जैसे ही खड्ग प्रहार किया अपनी गर्दन पर महादेव ने प्रकट हो उसका हाथ पकड लिया, बोले रावण मुझे बहुत प्रसन्नता हुई, तुमने मेरे लिये अपने प्राण संकट में डाल दिये, माँगो क्या चाहिये. रावण दर्द को सहता हुआ महादेव के चरणों में प्रणाम करता हुआ, अति विनम्र होके बोला “हे देवाधिदेव महादेव मुझे आपके दर्शन हो गये, आप मुझ से प्रसन्न हैं मुझे अब और कुछ नहीं चाहिये, मैं माँगने की ईच्छा से ही तप कर रहा था, लेकिन आप के इस सुंदर स्वरूप को देखकर ही मैं धन्य हो गया, आप प्रसन्न हो गये मुझे इस बात से पूर्ण संतोष है प्रभु और मुझे कूछ नहीं चाहिये, आपने मुझे दर्शन दे दिये, मेरे लिये इससे बडा वरदान कुछ नहीं, अत: मुझे कुछ नहीं चाहिये. महादेव ने कहा रावण मैं तो तुम्हारे संकल्प से ही वरदान देने के लिए आया हूँ अत: ऐसे तो जा ही नहीं सकता हूँ. अत: तुम नि:संकोच होके माँगो, तुम्हें जो चाहिये तुम माँग लो. रावण ने कहा “हे महादेव, हे देवाधिदेव, हे भक्तवत्सल यदि आप देना ही चाहते हैं, तो मुझे आपकी अटुट भक्ति दे दीजिये और मैं हमेशा आपके “नम: शिवाय” रुपी मंत्र का जप करता रहूँ, इसके अतिरिक्त मुझे कुछ भी नहीं चाहिये. महादेव उसकी बात सुन अत्यंत प्रसन्न हुये, जिसका लक्ष था अमरता प्राप्त करना और वो प्रभु भक्ति माँग रहा है इससे बढा ज्ञानी और कौन हो सकता है. तब महादेव ने उसे अपनी भक्ति प्रदान की और वरदान दिया कि, तुम्हारे शीश पुन:आ जाएंगे इसके अलावा जब भी कोई अंग कट जाएगा उस के स्थान पर पुन: नया अंग़ स्वत: ही उग आएगा. महादेव जानते थे कि रावण को बालि और अन्य लोगों से युद्ध में हार जाने की ग्लानि मन में है कि वो ऊतना शक्तिशाली नहीं है इसलिये महादेव ने भक्ति के अतिरिक्त उसे बहुत अपार बल दे दिया और साथ में पाशुपत नामक अस्त्र दिया. महादेव से बल पाकर जब वह जैसे ही अपने स्थान से ऊठा और वापस चलने के लिये कदम आगे रखा तो तो पृथ्वी डगमगा गई और रावण बहुत आनंदित हो गया और पुन: महादेव को मन में प्रणाम कर वो लौट के लंका में आ गया. महादेव का रावण प्रिय भक्त बन गया, लंका से प्रतिदिन पुष्पक विमान से कैलाश जाता था और वहाँ भगवान महादेव की पूजा और अराधना करता था। रावण ने तीनों लोकों को अपनी गति से चलाने वाले नौ ग्रहों को जब अपने अधीन कर लिया, और दिगपालों से उसने अपने लंका के मार्गो मे जल छिड्काव के काम में लगा दिया तब उसे एक तरह से त्रिलोक विजेता माना गया, क्युँकी त्रिलोक का संचालन करने वाले सभी देवता, नौ ग्रह उसके अधीन थे और अब उसे भी पराजित करने वाला त्रिलोक में कोई नहीं था उसने तीनों लोकों में रहने वाले अधिकांश भागों को अपने अधीन कर लिया था। एक बार नारद जी फिर से लंका आये, रावण ने उनकी बहुत अच्छी सेवा की, नारद जी ने रावण को कहा “सुना है महादेव से बल पाए हो रावण ने कहा हाँ आपकी बात सही है. नारद ने कहा कितना बल पाए. रावण ने कहा यह तो नहीं पता परंतु अगर मैं चाहूँ तो पृथ्वी को हिला डुला सकता हूँ. नारद ने कहा तब तो आपको उस बल की परीक्षा भी लेनी चाहिये क्युँकि व्यक्ति को अपने बल का पता तो होना ही चाहिये. रावण को नारद की बात ठीक लगी और सोच के बोला महर्षि अगर मैं महादेव को कैलाश पर्वत सहित ऊठा के लंका में ही ले आता हूँ ये कैसा रहेगा? इससे ही मुझे पता चला जायेगा कि मेरे अंदर कितना बल है. नारद जी ने कहा आइडीया बुरा तो नहीं है और उसके बाद चले गये. एक दिन रावण भक्ति और शक्ति के बल पर कैलाश समेत महादेव को लंका में ले जाने का प्रयास किया. जैसे ही उसने कैलाश पर्वत को अपने हाथों में ऊठाया तो देवि सती फिसलने लगी, वो जोर से बोली ठहरो-ठहरो ! इसके उन्होंने महादेव से पूछा कि भगवन ये कैलाश क्युँ हिल रहा है महादेव ने बताया रावण हमें लंका ले जाने की कोशिस में है. रावण ने जब महादेव समेत कैलाश पर्वत को अपने हाथों में ऊठाया तो उसे बहुत अभिमान भी आ गया कि अगर वो महादेव सहित कैलाश पर्वत को ऊठा सकता है तो अब उसके लिये कोई अन्य असम्भव भी नहीं और रावण जैसे ही एक कदम आगे रखा तो उसका बैलेंस डगमगाया लेकिन इसके बाद भी वो अपनी कोशिस में लगा रहा और इतने में देवि सती एक बार फिर फिसल गई उन्हें क्रोध आ गया उन्होंने रावण को श्राप दे दिया कि “अरे अभिमानी रावण तु आज से राक्षसों में गिना जाएगा क्युँकि तेरी प्रकृति राक्षसों की जैसी हो गई है और तु अभिमानी हो गया है. रावण ने देवि सती के शब्दों पर फिर भी ध्याननहीं दिया तब भगवान शिव ने अपना भार बढाना शुरु किया और उस भार से रावण ने कैलाश पर्वत को धीरे से उसी जगह पर रखना शुरु किया और भार से उसका एक हाथ दब गया और वो दर्द से चिल्लाया उसके चिल्लाने की आवाज स्वर्ग तक सुनाई दी और वो कुछ देर तक मूर्छित हो गया और फिर होश आने पर उसने भगवान महादेव की सुंदर स्तुती की ”जटाटवीगलज्जलप्रवाहपावितस्थले गलेऽवलम्ब्य लम्बितां भुजंगतुंगमालिकाम्... भोलेनाथ ने स्तुति से प्रसन्न होके उससे कहा कि रावण यद्यपि मैं नृत्य तभी करता हूँ जब क्रोध में होता हूँ, इसलिये क्रोध में किये नृत्य को तांडव नृत्य नाम से संसार जानता है. किंतु आज तुमने अपनी इस सुंदर स्रोत से और सुंदर गायन से मेरा मन प्रसन्नता पूर्वक नृत्य करने को हो गया. रावण द्वारा रचित और गाया हुआ यह स्रोत शिव तांडव स्रोत कहलाया क्युँकि भगवान शिव का नृत्य तांडव कहलाता है परन्तु वह क्रोध मे होता है लेकिन इस स्रोत में भगवान प्रसन्नता पूर्वक नृत्य करते हैं. इसके उपरांत भगवान शिव ने रावण को प्रसन्न होके चंद्रहास नामक तलवार दी, जिसके हाथ में रहने पर उसे तीन लोक में कोई युद्द में नहीं हरा सकता था. देवि सती के श्राप के बाद से ही रावण की गिनती राक्षसों में होने लगी और राक्षसों की संगति तो थी ही, इसलिये राक्षसी संगति में अभिमान, गलत कार्य और भी बढते चले गये, श्राप के पहले वो ब्राह्मण था और सात्विक तपस्या करता था. ब्रह्मदेव और महादेव की पूजा का जल लाने का कार्य भी देवताओं को दिया था. लेकिन बाद में वो सात्विक से तामसी प्रवर्त्ति में पड गया अभिमान और असुरों की संगति इन दो कारणों से रावण पतन को प्राप्त हुआ. रावण से ज्यादा रावण के नाम का फायदा ऊठाया दूसरे राक्षसों ने, उसके नाम पर कर वसूली, सिद्द, संतों मुनि जनों का अपमान होने लगा. राक्षसों ने देवताओं से अपना बैर निकालने के लिये, वो कभी गायों को (पृथ्वी समझ कर कि ब्रह्मा जी के पास गयी थी, इसका भेद पूछने के लिये) और ब्राह्मणों इसलिये कि, स्वर्ग में बहुत कम देवता ही रह गये है शायद ये रूप बदल कर देवता ही ब्राह्मण हैं और संत बन के देवताओं की मदद कर रहे हैं राक्षस जहाँ तहाँ सभी को त्रास देने और मारने लगे. रावण और राक्षस कुल रामायण के अनुसार रावण के पिता विश्रवा थे तो ऋषि पुलत्स्य के पुत्र थे। रावण की माता कैकसी थी जो राक्षस कुल की थी इसलिए रावण ब्राह्मण पिता और राक्षसी माता का संतान था और रावण कई विद्याएं, वेद, पुराण, नीति, दर्शनशास्त्र, इंद्रजाल आदि में पारंगत होने के बावजूद भी उनकी प्रवृत्तियां राक्षसी थी और पूरे संसार में आतंक मचाता था। रावण का विवाह दानवों को पता चला कि उनका भांजा रावण अकेले ही स्वर्ग में सभी देवताओं को परास्त कर दिया तीनो लोकों में इस बात का पता चला और इस बात से दानव बहुत खुश हो गये उनकी वर्षो की मनोकामना पूर्ण हो गयी और दानवों ने रावण की जय जयकार की और रावण को अपना राजा बनने कि प्रार्थना की. रावण के तेज और उसके भव्य स्वरूप और नेतृत्व (डायनामिक लीडरशिप) से मय दानव ने प्रसन्न हो के अपनी अत्यंत सुंदर और मर्यादा का पालन करने वाली पुत्री मंदोदरी का विवाह रावण के साथ किया और रावण पत्नी रूप में मंदोदरी को पा के प्रसन्न हुआ. पतिव्रता नारियों में मंदोदरी का स्थान देवी अहिल्या के समकक्ष है रावण द्वारा भगवान शंकर की स्तुति एक बार नारद जी फिर से लंका आये, रावण ने उनकी बहुत अच्छी सेवा की, नारद जी ने रावण को कहा “सुना है महादेव से बल पाए हो रावण ने कहा हाँ आपकी बात सही है. नारद ने कहा कितना बल पाए. रावण ने कहा यह तो नहीं पता परंतु अगर मैं चाहूँ तो पृथ्वी को हिला डुला सकता हूँ. नारद ने कहा तब तो आपको उस बल की परीक्षा भी लेनी चाहिये क्युँकि व्यक्ति को अपने बल का पता तो होना ही चाहिये. रावण को नारद की बात ठीक लगी और सोच के बोला महर्षि अगर मैं महादेव को कैलाश पर्वत सहित ऊठा के लंका में ही ले आता हूँ ये कैसा रहेगा? इससे ही मुझे पता चला जायेगा कि मेरे अंदर कितना बल है. नारद जी ने कहा विचार बुरा तो नहीं है और उसके बाद चले गये. एक दिन रावण भक्ति और शक्ति के बल पर कैलाश समेत महादेव को लंका में ले जाने का प्रयास किया. जैसे ही उसने कैलाश पर्वत को अपने हाथों में ऊठाया तो देवि सती फिसलने लगी, वो जोर से बोली ठहरो-ठहरो ! इसके उन्होंने महादेव से पूछा कि भगवन ये कैलाश क्युँ हिल रहा है महादेव ने बताया रावण हमें लंका ले जाने की कोशिस में है. रावण ने जब महादेव समेत कैलाश पर्वत को अपने हाथों में ऊठाया तो उसे बहुत अभिमान भी आ गया कि अगर वो महादेव सहित कैलाश पर्वत को ऊठा सकता है तो अब उसके लिये कोई अन्य असम्भव भी नहीं और रावण जैसे ही एक कदम आगे रखा तो उसका बैलेंस डगमगाया लेकिन इसके बाद भी वो अपनी कोशिस में लगा रहा और इतने में देवि सती एक बार फिर फिसल गई उन्हें क्रोध आ गया उन्होंने रावण को श्राप दे दिया कि “अरे अभिमानी रावण तु आज से राक्षसों में गिना जाएगा क्युँकि तेरी प्रकृति राक्षसों की जैसी हो गई है और तु अभिमानी हो गया है. रावण ने देवि सती के शब्दों पर फिर भी ध्याननहीं दिया तब भगवान शिव ने अपना भार बढाना शुरु किया और उस भार से रावण ने कैलाश पर्वत को धीरे से उसी जगह पर रखना शुरु किया और भार से उसका एक हाथ दब गया और वो दर्द से चिल्लाया उसके चिल्लाने की आवाज स्वर्ग तक सुनाई दी और वो कुछ देर तक मूर्छित हो गया और फिर होश आने पर उसने भगवान महादेव की सुंदर स्तुती की ”जटाटवीगलज्जलप्रवाहपावितस्थले गलेऽवलम्ब्य लम्बितां भुजंगतुंगमालिकाम्... भोलेनाथ ने स्तुति से प्रसन्न होके उससे कहा कि रावण यद्यपि मैं नृत्य तभी करता हूँ जब क्रोध में होता हूँ, इसलिये क्रोध में किये नृत्य को तांडव नृत्य नाम से संसार जानता है. किंतु आज तुमने अपनी इस सुंदर स्रोत से और सुंदर गायन से मेरा मन प्रसन्नता पूर्वक नृत्य करने को हो गया. रावण द्वारा रचित और गाया हुआ यह स्रोत शिव तांडव स्रोत कहलाया क्युँकि भगवान शिव का नृत्य तांडव कहलाता है परन्तु वह क्रोध मे होता है लेकिन इस स्रोत में भगवान प्रसन्नता पूर्वक नृत्य करते हैं. इसके उपरांत भगवान शिव ने रावण को प्रसन्न होके चंद्रहास नामक तलवार दी, जिसके हाथ में रहने पर उसे तीन लोक में कोई युद्द में नहीं हरा सकता था। रावण का अत्याचार रावण के नाम का फायदा ऊठाया दूसरे राक्षसों ने, उसके नाम पर कर वसूली, सिद्द, संतों मुनि जनों का अपमान होने लगा. राक्षसों ने देवताओं से अपना बैर निकालने के लिये, वो कभी गायों को (पृथ्वी समझ कर कि ब्रह्मा जी के पास गयी थी, इसका भेद पूछने के लिये) और ब्राह्मणों इसलिये कि, स्वर्ग में बहुत कम देवता ही रह गये है शायद ये रूप बदल कर देवता ही ब्राह्मण हैं और संत बन के देवताओं की मदद कर रहे हैं राक्षस जहाँ तहाँ सभी को त्रास देने और मारने लगे. जिससे पृथ्वी पर भार और बढ गया. लेकिन रावण ने इन सब पर ध्यान नहीं दिया. राजा अनरण्य का रावण को शाप अनेक राजा महाराजाओं को पराजित करता हुआ दशग्रीव इक्ष्वाकु वंश के राजा अनरण्य के पास पहुँचा जो अयोध्या पर राज्य करते थे। उसने उन्हें भी द्वन्द युद्ध करने अथवा पराजय स्वीकार करने के लिये ललकारा। दोनों में भीषण युद्ध हुआ किन्तु ब्रह्माजी के वरदान के कारण रावण उनसे पराजित न हो सका। जब अनरण्य का शरीर बुरी तरह से क्षत-विक्षत हो गया तो रावण इक्ष्वाकु वंश का अपमान और उपहास करने लगा। इससे कुपित होकर अनरण्य ने उसे शाप दिया कि तूने अपने व्यंगपूर्ण शब्दों से इक्ष्वाकु वंश का अपमान किया है, इसलिये मैं तुझे शाप देता हूँ कि महात्मा इक्ष्वाकु के इसी वंश में दशरथ-नन्दन राम का जन्म होगा जो तेरा वध करेंगे। यह कह कर राजा स्वर्ग सिधार गये। बालि से विवशतापूर्ण मैत्री मायावी शक्तियां पा कर एक बार घुमते हुए वानरों के क्षेत्र में प्रवेश किया. शाम का समय था वानरों का राजा बालि उस वक्त एक वृक्ष के नीचे संध्या जप कर रहा था। रावण उसे देख कर हँसा और फिर उसे छेडने लगा ऐ मर्कट, ऐ बंदर बोल उसका उपहास करने लगा और युद्ध करने के लिये उकसाने लगा. रावण को अपनी मायावी शक्ति पर घमंड आ गया था वो बालि से कहा अरे मर्कटमैंने सुना है तु बहुत शक्तिशाली है आ जरा मुझसे युद्द कर के देख तेरा अभिमान मैं कैसे ढीला करता हूँ. लेकिन बालि ध्यान में था इसलिये उसने इसकी बात को सुना ही नहीं. इसके बाद रावण ने उसको जोर से लात मारी और बोला पाखंडी मेरे ललकारने के बाद मेरे डर से ध्यान में बैठा है, सीधे-सीधे बोल कि मैं नहीं लड सकता. बालि क्रोध से ऊबल पडा उसने रावण को पटक-पटक कर इतनी मार मारी बस वो सिर्फ मरने से ही बचा और फिर उसे अपनी पूँछ में बाँध कर लपेट लिया, पुन: संध्या वंदन समाप्त करके उसने रावण के गर्व को चूर-चूर कर दिया. छ: महीने तक बालि ने उसे अपनी कैद में रखा एक दिन उसे अपने बाँए हाथ से उसको अपनी काँख में दबाकर बालि जा रहा था तभी उसके हाथ की पकड ढीली हो गयी और रावण भाग निकला ऐसा भागा की दिखाई नहीं दिया. अब रावण को पता चला कि उससे भी बलशाली लोग हैं मुझे ही पितामह की वजह से अभिमान ज्यादा था। इसके बाद वो फिर से घोर तपस्या करने निकल पडा और फिर से उसने अमर होने का वरदान माँगा. ब्रह्मा जी ने कहा पुत्र मेरे अधिकार मे वो वरदान नहीं है और इस बार उसने ब्रह्मा जी से प्रचंड शक्तियां और ब्रह्मास्त्र प्राप्त किया. रावण के गुण रावण मे कितना ही राक्षसत्व क्यों न हो, उसके गुणों विस्मृत नहीं किया जा सकता। ऐसा माना जाता हैं कि रावण शंकर भगवान का बड़ा भक्त था। वह महा तेजस्वी, प्रतापी, पराक्रमी, रूपवान तथा विद्वान था। वाल्मीकि उसके गुणों को निष्पक्षता के साथ स्वीकार करते हुये उसे चारों वेदों का विश्वविख्यात ज्ञाता और महान विद्वान बताते हैं। वे अपने रामायण में हनुमान का रावण के दरबार में प्रवेश के समय लिखते हैं अहो रूपमहो धैर्यमहोत्सवमहो द्युति:। अहो राक्षसराजस्य सर्वलक्षणयुक्तता॥ आगे वे लिखते हैं "रावण को देखते ही राम मुग्ध हो जाते हैं और कहते हैं कि रूप, सौन्दर्य, धैर्य, कान्ति तथा सर्वलक्षणयुक्त होने पर भी यदि इस रावण में अधर्म बलवान न होता तो यह देवलोक का भी स्वामी बन जाता।" रावण जहाँ दुष्ट था और पापी था, वहीं उसमें शिष्टाचार और ऊँचे आदर्श वाली मर्यादायें भी थीं। राम के वियोग में दुःखी सीता से रावण ने कहा है, "हे सीते! यदि तुम मेरे प्रति काम-भाव नहीं रखती तो मैं तुझे स्पर्श नहीं कर सकता।" शास्त्रों के अनुसार वन्ध्या, रजस्वला, अकामा आदि स्त्री को स्पर्श करने का निषेष है अतः अपने प्रति अ-कामा सीता को स्पर्श न करके रावण शास्त्रोचित मर्यादा का ही आचरण करता है। वाल्मीकि रामायण और रामचरितमानस दोनों ही ग्रंथों में रावण को बहुत महत्त्व दिया गया है। राक्षसी माता और ऋषि पिता की सन्तान होने के कारण सदैव दो परस्पर विरोधी तत्त्व रावण के अन्तःकरण को मथते रहते हैं। बौद्धिक संपदा का संरक्षणदाता: रावण रावण के ही प्रसंग में श्रीकृष्ण जुगनू का अभिमत है- ".....लंकापति रावण पर विजय का पर्व अकसर यह याद दिलाता है कि रावण की सभा बौद्धिक संपदा के संरक्षण की केंद्र थी। उस काल में जितने भी श्रेष्‍ठजन थे, बुद्धिजीवी और कौशलकर्ता थे, रावण ने उनको अपने आश्रय में रखा था। रावण ने सीता के सामने अपना जो परिचय दिया, वह उसके इसी वैभव का विवेचन है। अरण्‍यकाण्‍ड का 48वां सर्ग इस प्रसंग में द्रष्‍टव्‍य है। उस काल का श्रेष्‍ठ शिल्‍पी मय, जिसने स्‍वयं को विश्‍वकर्मा भी कहा, उसके दरबार में रहा। उसकाल की श्रेष्‍ठ पुरियों में रावण की राजधानी लंका की गणना होती थी - यथेन्‍द्रस्‍यामरावती। मय के साथ रावण ने वैवाहिक संबंध भी स्‍थापित किया। मय को विमान रचना का भी ज्ञान था। कुशल आयुर्वेदशास्‍त्री सुषेण उसके ही दरबार में था जो युद्धजन्‍य मूर्च्‍छा के उपचार में दक्ष था और भारतीय उपमहाद्वीप में पाई जाने वाली सभी ओषधियों को उनके गुणधर्म तथा उपलब्धि स्‍थान सहित जानता था। शिशु रोग निवारण के लिए उसने पुख्‍ता प्रबंध किया था। स्‍वयं इस विषय पर ग्रंथों का प्रणयन भी किया। श्रेष्‍ठ वृक्षायुर्वेद शास्‍त्री उसके यहां थे जो समस्‍त कामनाओं को पूरी करने वाली पर्यावरण की जनक वाटिकाओं का संरक्षण करते थे - सर्वकाफलैर्वृक्षै: संकुलोद्यान भूषिता। इस कार्य पर स्‍वयं उसने अपने पुत्र को तैनात किया था। उसके यहां रत्‍न के रूप में श्रेष्‍ठ गुप्‍तचर, श्रेष्‍ठ परामर्शद और कुलश संगीतज्ञ भी तैनात थे। अंतपुर में सैकड़ों औरतें भी वाद्यों से स्‍नेह रखती थीं। उसके यहां श्रेष्‍ठ सड़क प्रबंधन था और इस कार्य पर दक्ष लोग तैनात थे तथा हाथी, घोड़े, रथों के संचालन को नियमित करते थे। वह प्रथमत: भोगों, संसाधनों के संग्रह और उनके प्रबंधन पर ध्‍यान देता था। इसी कारण नरवाहन कुबेर को कैलास की शरण लेनी पड़ी थी। उसका पुष्‍पक नामक विमान रावण के अधिकार में था और इसी कारण वह वायु या आकाशमार्ग उसकी सत्‍ता में था: यस्‍य तत् पुष्‍पकं नाम विमानं कामगं शुभम्। वीर्यावर्जितं भद्रे येन या‍मि विहायसम्। उसने जल प्रबंधन पर पूरा ध्‍यान दिया, वह जहां भी जाता, नदियों के पानी को बांधने के उपक्रम में लगा रहता था: नद्यश्‍च स्तिमतोदका:, भवन्ति यत्र तत्राहं तिष्‍ठामि चरामि च। कैलास पर्वतोत्‍थान के उसके बल के प्रदर्शन का परिचायक है, वह 'माउंट लिफ्ट' प्रणाली का कदाचित प्रथम उदाहरण है। भारतीय मूर्तिकला में उसका यह स्‍वरूप बहुत लोकप्रिय रहा है। बस.... उसका अभिमान ही उसके पतन का कारण बना। वरना नीतिज्ञ ऐसा कि राम ने लक्ष्‍मण को उसके पास नीति ग्रहण के लिए भेजा था, विष्‍णुधर्मोत्‍तरपुराण में इसके संदर्भ विद्यमान हैं।" रावण के अवगुण वाल्मीकि रावण के अधर्मी होने को उसका मुख्य अवगुण मानते हैं। उनके रामायण में रावण के वध होने पर मन्दोदरी विलाप करते हुए कहती है, "अनेक यज्ञों का विलोप करने वाले, धर्म व्यवस्थाओं को तोड़ने वाले, देव-असुर और मनुष्यों की कन्याओं का जहाँ तहाँ से हरण करने वाले! आज तू अपने इन पाप कर्मों के कारण ही वध को प्राप्त हुआ है।" तुलसीदास जी केवल उसके अहंकार को ही उसका मुख्य अवगुण बताते हैं। उन्होंने रावण को बाहरी तौर से राम से शत्रु भाव रखते हुये हृदय से उनका भक्त बताया है। तुलसीदास के अनुसार रावण सोचता है कि यदि स्वयं भगवान ने अवतार लिया है तो मैं जा कर उनसे हठपूर्वक वैर करूंगा और प्रभु के बाण के आघात से प्राण छोड़कर भव-बन्धन से मुक्त हो जाऊंगा। रावण के दस सिर रावण के दस सिर होने की चर्चा रामायण में आती है। वह कृष्णपक्ष की अमावस्या को युद्ध के लिये चला था तथा एक-एक दिन क्रमशः एक-एक सिर कटते हैं। इस तरह दसवें दिन अर्थात् शुक्लपक्ष की दशमी को रावण का वध होता है। रामचरितमानस में यह भी वर्णन आता है कि जिस सिर को राम अपने बाण से काट देते हैं पुनः उसके स्थान पर दूसरा सिर उभर आता था। विचार करने की बात है कि क्या एक अंग के कट जाने पर वहाँ पुनः नया अंग उत्पन्न हो सकता है? वस्तुतः रावण के ये सिर कृत्रिम थे - आसुरी माया से बने हुये। मारीच का चाँदी के बिन्दुओं से युक्त स्वर्ण मृग बन जाना, रावण का सीता के समक्ष राम का कटा हुआ सिर रखना आदि से सिद्ध होता है कि राक्षस मायावी थे। वे अनेक प्रकार के इन्द्रजाल (जादू) जानते थे। तो रावण के दस सिर और बीस हाथों को भी कृत्रिम माना जा सकता है। कुछ विद्वान मानते हैं कि रावण के दस सिरों की बात प्रतीकात्मक है- उसमें दस मनुष्यों की जितनी बुद्धि थी और दस आदमियों का बल था! जैन मत जैन ग्रंथों के अनुसार राम और रावण दोनों जैन धर्म में पूर्ण आस्था रखते थे। रामायण की घटना २०वें तीर्थंकर मुनिसुव्रतनाथ भगवान के समय की हैं।[3] जैन मत अनुसार रावण राक्षस नहीं बल्कि विद्याधर था जिसके कारण उसके पास जादुई शक्तियाँ थी।[4] जैन ग्रंथों के अनुसार रावण का वध लक्ष्मण ने किया था ना की रामजी ने।[5] उल्लेखनीय स्थल उत्तर प्रदेश के जालौन में २१० फीट ऊंची वर्ष १८७५[6] में बनी ‘लंका मीनार’ है। इसके अंदर रावण के पूरे परिवार का चित्रण किया गया है।जिसे मथुरा प्रसाद,जो रामलीला में रावण का पात्र निभाते थे, ने बनवाया था। सन्दर्भ सन्दर्भ ग्रन्थ श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण (प्रथम एवं द्वितीय खंड), सचित्र, हिंदी अनुवाद सहित, प्रकाशक एवं मुद्रक: गीताप्रेस, गोरखपुर वाल्मीकीय रामायण, प्रकाशक: देहाती पुस्तक भंडार, दिल्ली आचार्य चतुरसेन का उपन्यास: 'वयं रक्षाम:' ("Vayam Rakshamah" ) SBN-10:8121608775 / ISBN 9788121608770 बाहरी कड़ियाँ श्रेणी:रावण श्रेणी:रामायण के पात्र
रावण के पिता का नाम क्या था?
विश्रवा
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गुरु गोबिन्द सिंह (जन्म: 05 जनवरी 1666सिखों के दसवें गुरु थे। उनके पिता गुरू तेग बहादुर की मृत्यु के उपरान्त ११ नवम्बर सन १६७५ को वे गुरू बने। वह एक महान योद्धा, कवि, भक्त एवं आध्यात्मिक नेता थे। सन १६९९ में बैसाखी के दिन उन्होने खालसा पन्थ की स्थापना की जो सिखों के इतिहास की सबसे महत्वपूर्ण घटना मानी जाती है। गुरू गोबिन्द सिंह ने सिखों की पवित्र ग्रन्थ गुरु ग्रंथ साहिब को पूरा किया तथा उन्हें गुरु रूप में सुशोभित किया। बिचित्र नाटक को उनकी आत्मकथा माना जाता है। यही उनके जीवन के विषय में जानकारी का सबसे महत्वपूर्ण स्रोत है। यह दसम ग्रन्थ का एक भाग है। दसम ग्रन्थ, गुरू गोबिन्द सिंह की कृतियों के संकलन का नाम है। उन्होने मुगलों या उनके सहयोगियों (जैसे, शिवालिक पहाडियों के राजा) के साथ १४ युद्ध लड़े। धर्म के लिए समस्त परिवार का बलिदान उन्होंने किया, जिसके लिए उन्हें 'सर्वस्वदानी' भी कहा जाता है। इसके अतिरिक्त जनसाधारण में वे कलगीधर, दशमेश, बाजांवाले आदि कई नाम, उपनाम व उपाधियों से भी जाने जाते हैं। गुरु गोविंद सिंह जहां विश्व की बलिदानी परम्परा में अद्वितीय थे, वहीं वे स्वयं एक महान लेखक, मौलिक चिंतक तथा संस्कृत सहित कई भाषाओं के ज्ञाता भी थे। उन्होंने स्वयं कई ग्रंथों की रचना की। वे विद्वानों के संरक्षक थे। उनके दरबार में ५२ कवियों तथा लेखकों की उपस्थिति रहती थी, इसीलिए उन्हें 'संत सिपाही' भी कहा जाता था। वे भक्ति तथा शक्ति के अद्वितीय संगम थे। उन्होंने सदा प्रेम, एकता, भाईचारे का संदेश दिया। किसी ने गुरुजी का अहित करने की कोशिश भी की तो उन्होंने अपनी सहनशीलता, मधुरता, सौम्यता से उसे परास्त कर दिया। गुरुजी की मान्यता थी कि मनुष्य को किसी को डराना भी नहीं चाहिए और न किसी से डरना चाहिए। वे अपनी वाणी में उपदेश देते हैं भै काहू को देत नहि, नहि भय मानत आन। वे बाल्यकाल से ही सरल, सहज, भक्ति-भाव वाले कर्मयोगी थे। उनकी वाणी में मधुरता, सादगी, सौजन्यता एवं वैराग्य की भावना कूट-कूटकर भरी थी। उनके जीवन का प्रथम दर्शन ही था कि धर्म का मार्ग सत्य का मार्ग है और सत्य की सदैव विजय होती है। इस बार सन् 2019 में 13जनवरी को गुरु गोविंद सिंह जी का जन्म दिन मनाया जाएगा। गुरु गोबिन्द सिंह का जन्म गुरु गोविंद सिंह का जन्म नौवें सिख गुरु गुरु तेगबहादुर और माता गुजरी के घर पटना में 05 जनवरी १६६६ को हुआ था। जब वह पैदा हुए थे उस समय उनके पिता असम में धर्म उपदेश को गये थे। उनके बचपन का नाम गोविन्द राय था। पटना में जिस घर में उनका जन्म हुआ था और जिसमें उन्होने अपने प्रथम चार वर्ष बिताये थे, वहीं पर अब तखत श्री पटना साहिब स्थित है। १६७० में उनका परिवार फिर पंजाब आ गया। मर्च १६७२ में उनका परिवार हिमालय के शिवालिक पहाड़ियों में स्थित चक्क नानकी नामक स्थान पर आ गया। यहीं पर इनकी शिक्षा आरम्भ हुई। उन्होंने फारसी, संस्कृत की शिक्षा ली और एक योद्धा बनने के लिए सैन्य कौशल सीखा। चक नानकी ही आजकल आनन्दपुर साहिब कहलता है। गोविन्द राय जी नित्य प्रति आनंदपुर साहब में आध्यात्मिक आनंद बाँटते, मानव मात्र में नैतिकता, निडरता तथा आध्यात्मिक जागृति का संदेश देते थे। आनंदपुर वस्तुतः आनंदधाम ही था। यहाँ पर सभी लोग वर्ण, रंग, जाति, संप्रदाय के भेदभाव के बिना समता, समानता एवं समरसता का अलौकिक ज्ञान प्राप्त करते थे। गोविन्द जी शांति, क्षमा, सहनशीलता की मूर्ति थे। काश्मीरी पण्डितों का जबरन धर्म परिवर्तन करके मुसलमान बनाये जाने के विरुद्ध शिकायत को लेकर तथा स्वयं इस्लाम न स्वीकारने के कारण ११ नवम्बर १६७५ को औरंगजेब ने दिल्ली के चांदनी चौक में सार्वजनिक रूप से उनके पिता गुरु तेग बहादुर का सिर कटवा दिया। इसके पश्चात वैशाखी के दिन २९ मार्च १६७६ को गोविन्द सिंह सिखों के दसवें गुरु घोषित हुए। १०वें गुरु बनने के बाद भी आपकी शिक्षा जारी रही। शिक्षा के अन्तर्गत लिखना-पढ़ना, घुड़सवारी तथा धनुष चलाना आदि सम्मिलित था। १६८४ में उन्होने चंडी दी वार कि रचना की। १६८५ तक आप यमुना नदी के किनारे पाओंटा नामक स्थान पर रहे। गुरु गोबिन्द सिंह की तीन पत्नियाँ थीं। 21जून, 1677 को 10 साल की उम्र में उनका विवाह माता जीतो के साथ आनंदपुर से 10 किलोमीटर दूर बसंतगढ़ में किया गया। उन दोनों के 3 पुत्र हुए जिनके नाम थे – जुझार सिंह, जोरावर सिंह, फ़तेह सिंह। 4 अप्रैल, 1684 को 17 वर्ष की आयु में उनका दूसरा विवाह माता सुंदरी के साथ आनंदपुर में हुआ। उनका एक बेटा हुआ जिसका नाम था अजित सिंह। 15 अप्रैल, 1700 को 33 वर्ष की आयु में उन्होंने माता साहिब देवन से विवाह किया। वैसे तो उनका कोई संतान नहीं था पर सिख धर्म के पन्नों पर उनका दौर भी बहुत प्रभावशाली रहा।[1] आनन्दपुर साहिब को छोड़कर जाना और वापस आना अप्रैल 1685 में, सिरमौर this Sirmour belongs to Himanchal pradesh के राजा मत प्रकाश के निमंत्रण पर गुरू गोबिंद सिंह ने अपने निवास को सिरमौर राज्य के पांवटा शहर में स्थानांतरित कर दिया। सिरमौर राज्य के गजट के अनुसार, राजा भीम चंद के साथ मतभेद के कारण गुरु जी को आनंदपुर साहिब छोड़ने के लिए मजबूर किया गया था और वे वहाँ से टोका शहर चले गये। मत प्रकाश ने गुरु जी को टोका से सिरमौर की राजधानी नाहन के लिए आमंत्रित किया। नाहन से वह पांवटा के लिए रवाना हुऐ| मत प्रकाश ने गढ़वाल के राजा फतेह शाह के खिलाफ अपनी स्थिति मजबूत करने के उद्देश्य से गुरु जी को अपने राज्य में आमंत्रित किया था। राजा मत प्रकाश के अनुरोध पर गुरु जी ने पांवटा में बहूत कम समय में उनके अनुयायियों की मदद से एक किले का निर्माण करवाया। गुरु जी पांवटा में लगभग तीन साल के लिए रहे और कई ग्रंथों की रचना की। &lt;ग्रंथों की सूची &gt; सन 1687 में नादौन की लड़ाई में, गुरु गोबिंद सिंह, भीम चंद, और अन्य मित्र देशों की पहाड़ी राजाओं की सेनाओं ने अलिफ़ खान और उनके सहयोगियों की सेनाओ को हरा दिया था। विचित्र नाटक (गुरु गोबिंद सिंह द्वारा रचित आत्मकथा) और भट्ट वाहिस के अनुसार, नादौन पर बने व्यास नदी के तट पर गुरु गोबिंद सिंह आठ दिनों तक रहे और विभिन्न महत्वपूर्ण सैन्य प्रमुखों का दौरा किया। भंगानी के युद्ध के कुछ दिन बाद, रानी चंपा (बिलासपुर की विधवा रानी) ने गुरु जी से आनंदपुर साहिब (या चक नानकी जो उस समय कहा जाता था) वापस लौटने का अनुरोध किया जिसे गुरु जी ने स्वीकार किया। वह नवंबर 1688 में वापस आनंदपुर साहिब पहुंच गये। 1695 में, दिलावर खान (लाहौर का मुगल मुख्य) ने अपने बेटे हुसैन खान को आनंदपुर साहिब पर हमला करने के लिए भेजा। मुगल सेना हार गई और हुसैन खान मारा गया। हुसैन की मृत्यु के बाद, दिलावर खान ने अपने आदमियों जुझार हाडा और चंदेल राय को शिवालिक भेज दिया। हालांकि, वे जसवाल के गज सिंह से हार गए थे। पहाड़ी क्षेत्र में इस तरह के घटनाक्रम मुगल सम्राट औरंगज़ेब लिए चिंता का कारण बन गए और उसने क्षेत्र में मुगल अधिकार बहाल करने के लिए सेना को अपने बेटे के साथ भेजा। खालसा पंथ की स्थापना गुरु गोबिंद सिंह जी का नेतृत्व सिख समुदाय के इतिहास में बहुत कुछ नया ले कर आया। उन्होंने सन 1699 में बैसाखी के दिन खालसा जो की सिख धर्म के विधिवत् दीक्षा प्राप्त अनुयायियों का एक सामूहिक रूप है उसका निर्माण किया। सिख समुदाय के एक सभा में उन्होंने सबके सामने पुछा – "कौन अपने सर का बलिदान देना चाहता है"? उसी समय एक स्वयंसेवक इस बात के लिए राज़ी हो गया और गुरु गोबिंद सिंह उसे तम्बू में ले गए और कुछ देर बाद वापस लौटे एक खून लगे हुए तलवार के साथ। गुरु ने दोबारा उस भीड़ के लोगों से वही सवाल दोबारा पुछा और उसी प्रकार एक और व्यक्ति राज़ी हुआ और उनके साथ गया पर वे तम्बू से जब बहार निकले तो खून से सना तलवार उनके हाथ में था। उसी प्रकार पांचवा स्वयंसेवक जब उनके साथ तम्बू के भीतर गया, कुछ देर बाद गुरु गोबिंद सिंह सभी जीवित सेवकों के साथ वापस लौटे और उन्होंने उन्हें पंज प्यारे या पहले खालसा का नाम दिया। उसके बाद गुरु गोबिंद जी ने एक लोहे का कटोरा लिया और उसमें पानी और चीनी मिला कर दुधारी तलवार से घोल कर अमृत का नाम दिया। पहले 5 खालसा के बनाने के बाद उन्हें छठवां खालसा का नाम दिया गया जिसके बाद उनका नाम गुरु गोबिंद राय से गुरु गोबिंद सिंह रख दिया गया। उन्होंने पांच क</b>कारों का महत्व खालसा के लिए समझाया और कहा – केश, कंघा, कड़ा, किरपान, कच्चेरा।[2] इधर 27 दिसम्बर सन्‌ 1704 को दोनों छोटे साहिबजादे और जोरावतसिंह व फतेहसिंहजी को दीवारों में चुनवा दिया गया। जब यह हाल गुरुजी को पता चला तो उन्होंने औरंगजेब को एक जफरनामा (विजय की चिट्ठी) लिखा, जिसमें उन्होंने औरगंजेब को चेतावनी दी कि तेरा साम्राज्य नष्ट करने के लिए खालसा पंथ तैयार हो गया है। 8 मई सन्‌ 1705 में 'मुक्तसर' नामक स्थान पर मुगलों से भयानक युद्ध हुआ, जिसमें गुरुजी की जीत हुई। अक्टूबर सन्‌ 1706 में गुरुजी दक्षिण में गए जहाँ पर आपको औरंगजेब की मृत्यु का पता लगा। औरंगजेब ने मरते समय एक शिकायत पत्र लिखा था। हैरानी की बात है कि जो सब कुछ लुटा चुका था, (गुरुजी) वो फतहनामा लिख रहे थे व जिसके पास सब कुछ था वह शिकस्त नामा लिख रहा है। इसका कारण था सच्चाई। गुरुजी ने युद्ध सदैव अत्याचार के विरुद्ध किए थे न कि अपने निजी लाभ के लिए। औरंगजेब की मृत्यु के बाद आपने बहादुरशाह को बादशाह बनाने में मदद की। गुरुजी व बहादुरशाह के संबंध अत्यंत मधुर थे। इन संबंधों को देखकर सरहद का नवाब वजीत खाँ घबरा गया। अतः उसने दो पठान गुरुजी के पीछे लगा दिए। इन पठानों ने गुरुजी पर धोखे से घातक वार किया, जिससे 7 अक्टूबर 1708 में गुरुजी (गुरु गोबिन्द सिंह जी) नांदेड साहिब में दिव्य ज्योति में लीन हो गए। अंत समय आपने सिक्खों को गुरु ग्रंथ साहिब को अपना गुरु मानने को कहा व खुद भी माथा टेका। गुरुजी के बाद माधोदास ने, जिसे गुरुजी ने सिक्ख बनाया बंदासिंह बहादुर नाम दिया था, सरहद पर आक्रमण किया और अत्याचारियों की ईंट से ईंट बजा दी। गुरु गोविंदजी के बारे में लाला दौलतराय, जो कि कट्टर आर्य समाजी थे, लिखते हैं 'मैं चाहता तो स्वामी विवेकानंद, स्वामी दयानंद, परमहंस आदि के बारे में काफी कुछ लिख सकता था, परंतु मैं उनके बारे में नहीं लिख सकता जो कि पूर्ण पुरुष नहीं हैं। मुझे पूर्ण पुरुष के सभी गुण गुरु गोविंदसिंह में मिलते हैं।' अतः लाला दौलतराय ने गुरु गोविंदसिंहजी के बारे में पूर्ण पुरुष नामक एक अच्छी पुस्तक लिखी है। इसी प्रकार मुहम्मद अब्दुल लतीफ भी लिखता है कि जब मैं गुरु गोविंदसिंहजी के व्यक्तित्व के बारे में सोचता हूँ तो मुझे समझ में नहीं आता कि उनके किस पहलू का वर्णन करूँ। वे कभी मुझे महाधिराज नजर आते हैं, कभी महादानी, कभी फकीर नजर आते हैं, कभी वे गुरु नजर आते हैं। सिखों के दस गुरू हैं। एक हत्यारे से युद्ध करते समय गुरु गोबिंद सिंह जी के छाती में दिल के ऊपर एक गहरी चोट लग गयी थी। जिसके कारण 18 अक्टूबर, 1708 को 42 वर्ष की आयु में नान्देड में उनकी मृत्यु हो गयी। [3] रचनायें जाप साहिब: एक निरंकार के गुणवाचक नामों का संकलन अकाल उस्तत: अकाल पुरख की अस्तुति एवं कर्म काण्ड पर भारी चोट बचित्र नाटक: गोबिन्द सिंह की सवाई जीवनी और आत्मिक वंशावली से वर्णित रचना चण्डी चरित्र - ४ रचनाएँ - अरूप-आदि शक्ति चंडी की स्तुति। इसमें चंडी को शरीर औरत एवंम मूर्ती में मानी जाने वाली मान्यताओं को तोड़ा है। चंडी को परमेशर की शक्ति = हुक्म के रूप में दर्शाया है। एक रचना मार्कण्डेय पुराण पर आधारित है। शास्त्र नाम माला: अस्त्र-शस्त्रों के रूप में गुरमत का वर्णन। अथ पख्याँ चरित्र लिख्यते: बुद्धिओं के चाल चलन के ऊपर विभिन्न कहानियों का संग्रह। ज़फ़रनामा: मुगल शासक औरंगजेब के नाम पत्र। खालसा महिमा: खालसा की परिभाषा और खालसा के कृतित्व। सन्दर्भ इन्हें भी देखें खालसा दशम ग्रन्थ तखत श्री पटना साहिब हजूर साहिब (नान्देड) बाहरी कड़ियाँ (सरदार गुरचरन सिंह गिल) - ६ गुरुओं, ३० संतों एवं ३ गुरुघर के श्रद्धालुओ की बाणी का संग्रह श्रेणी:सिख धर्म श्रेणी:सिख धर्म का इतिहास श्रेणी:व्यक्तिगत जीवन श्रेणी:गुरु गोविंद सिंह
गुरु गोबिंद सिंह की मृत्यु कब हुई?
18 अक्टूबर, 1708
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अदिति ऋषि कश्यप की दूसरी पत्नी थीं।[1][2] इनके बारह पुत्र हुए जो आदित्य कहलाए (अदितेः अपत्यं पुमान् आदित्यः)। उन्हें देवता भी कहा जाता है। अतः अदिति को देवमाता कहा जाता है। संस्कृत शब्द अदिति का अर्थ होता है 'असीम'। == परिवार ==jai ho mata aditi ki... अदिति दक्ष प्रजापति की पुत्री थी। इनका विवाह ऋषि कश्यप से हुआ था। अदिति की सपत्नी का नाम दिति था। दिति के पुत्र दैत्य कहलाते हैं ( दितेः पुत्राः दैत्याः)। अदिति के बारह पुत्र हुए जिनमें से मित्र, वरुण, धाता, अर्यमा, अंश, भग, विवस्वान्, आदित्य, रुद्र, इन्द्र इत्यादि प्रमुख हैं। खगोलीय दृष्टि से अन्तरिक्ष में द्वादश आदित्य भ्रमण करते हैं, वे आदित्य अदिति के पुत्र हैं। अदिति के पुण्यबल से ही उनके पुत्रों को देवत्व प्राप्त हुआ। अदिति का एक पुत्र गर्भ में ही मृत्यु को प्राप्त हो गया था। परन्तु अदिति ने अपने तपोबल से उसे पुनरुज्जीवित किया था। उस पुत्र का नाम मार्तण्ड था। वह मार्तण्ड विश्वकल्याण के लिये अन्तरिक्ष में गतमान् है। परिचय ऋग्वेद में अदिति को माता के रूप में स्वीकारा गया है। उस मातृदेवी की स्तुति में उस वेद में बीस मंत्र कहे गए हैं। उन मन्त्रों में अदितिर्द्यौः ये मन्त्र अदिति को माता के रूप में प्रदर्शित करता है -  अदितिर्द्यौरदितिरन्तरिक्षमदितिर्माता स-पिता स-पुत्रः । विश्वे देवा अदितिः पञ्च जना अदितिर्जातमदितिर्जनित्वम् [1]॥ यह मित्रावरुण, अर्यमन्, रुद्रों, आदित्यों इंद्र आदि की माता हैं। इंद्र और आदित्यों को शक्ति अदिति से ही प्राप्त होती है। उसके मातृत्व की ओर संकेत अथर्ववेद (7.6.2) और वाजसनेयिसंहिता (21,5) में भी हुआ है। इस प्रकार उसका स्वाभाविक स्वत्व शिशुओं पर है और ऋग्वैदिक ऋषि अपने देवताओं सहित बार बार उसकी शरण जाता है एवं कठिनाइयों में उससे रक्षा की अपेक्षा करता है। अदिति अपने शाब्दिक अर्थ में बंधनहीनता और स्वतंत्रता की द्योतक है। 'दिति' का अर्थ बँधकर और 'दा' का बाँधना होता है। इसी से पाप के बंधन से रहित होना भी अदिति के संपर्क से ही संभव माना गया है। ऋग्वेद (1,162,22) में उससे पापों से मुक्त करने की प्रार्थना की गई है। कुछ अर्थों में उसे गो का भी पर्याय माना गया है। ऋग्वेद का वह प्रसिद्ध मंत्र (8,101,15)- मा गां अनागां अदिति वधिष्ट- गाय रूपी अदिति को न मारो। -जिसमें गोहत्या का निषेध माना जाता है - इसी अदिति से संबंध रखता है। इसी मातृदेवी की उपासना के लिए किसी न किसी रूप में बनाई मृण्मूर्तियां प्राचीन काल में सिंधुनद से भूमध्यसागर तक बनी थीं। सूर्यजन्म स्वर्गलोक की सत्ता के लोभ में दैत्यों और देवों में शत्रुता हो गई। दैत्यों और देवों के परस्पर युद्ध आरम्भ हो गये। एक समय दोनों पक्षों में भयङ्कर युद्ध हुआ। अनेक वर्षों तक वो युद्ध चला। उस युद्ध में देवों का दैत्यों स पराजय हो गया। सभी देव वनो में विचरण करने लगे। उनकी दुर्दशा को देखकर अदिति और कश्यप भी दुःखी हुए। पश्चात् नारद मुनि के द्वारा सूर्योपासना का उपाय बताया गया। अदिति ने अनेक वर्षों पर्यन्त सूर्य की घोर तपस्या की। सूर्य देव अदिति के तप से प्रसन्न हुए। उन्होंने साक्षात् दर्शन दिये और वरदान माँगने को कहा। अदिति ने सूर्य की स्तुति की। तत्पश्चात् अदिति द्वारा वरदान माँगा गया कि – “आप मेरे पुत्र रूप में जन्म लेवें”। कालान्तर में सूर्य का तेज अदिति के गर्भ में प्रतिष्ठित हुआ । किन्तु एक बार अदिति और कश्यप के मध्य कलह उत्पन्न हो गया। क्रोध में कश्यप अदिति के गर्भस्थ शिशु को “मृत” शब्द से सम्बोधित कर बैठे। उसी समय अदिति के गर्भ से एक प्रकाशपुञ्ज बाहर आया। उस प्रकाशपुञ्ज को देखकर कश्यप भयभीत हो गये। कश्यप ने सूर्य से क्षमा याचना की। तब ही आकाशवाणी हुई कि – “आप दोनों इस पुञ्ज का प्रतिदिन पूजन करें। उचित समय होते ही उस पुञ्ज से एक पुत्ररत्न जन्म लेगा। वो आप दोनों की इच्छा को पूर्ण करके ब्रह्माण्ड में स्थित होगा। समयान्तर में उस पुञ्ज से तेजस्वी बालक उत्पन्न हुआ। वही “आदित्य” या “मार्तण्ड” नाम से विख्यात है। आदित्य का तेज असहनीय था। अतः युद्ध में दैत्य आदित्य के तेज को देखकर ही पलायन कर गये। सर्वे दैत्य पाताललोक में चले गये। अन्त में आदित्य सूर्यदेव स्वरूप में ब्रह्माण्ड के मध्यभाग में स्थित हुए और ब्रह्माण्ड का सञ्चालन करते हैं[3]। दिति का शाप दक्षप्रजापत की दिति और अदिति दो पुत्रीयाँ थीं। कश्यप ऋषि के साथ उन दोनों का विवाह हुआ था। अदिति ने इन्द्र को जन्म दिया। वह तेजस्वी था। अतः दिति ने भी कश्यप ऋषि से एक तेजस्वी पुत्र की याचना की। तब महर्षि ने पयोव्रत नामक उत्तम व्रत करने का उपाय प्रदान किया। महर्षि की आज्ञानुसार दिति ने उस व्रत को किया। समयान्तर में दिति का शरीर दुर्बल हो गया। एक बार अदिति की आज्ञानुसार इन्द्र दिति की सेवा करने के लिये गया। इन्द्र ने छलपूर्वक दिति के गर्भ के सात भाग कर दिये। जब वें शिशु रुदन कर रहे थे, तब इन्द्र ने कहा – “मा रुदन्तु” । तत् पश्चात् पुनः प्रत्येक गर्भ के सात विभाग किये। इस प्रकार उनचास (४९) पुत्रों का जन्म हुआ। वें पुत्र मरुद्गण कहे जाते हैं, जो कि उनचास हैं। इन्द्र के अभद्र कार्य से क्रुद्ध दिति अदिति को शाप देती है कि – “इन्द्र का राज्य शीघ्र ही नष्ट हो जाएगा। जैसा अदिति ने मेरे गर्भ को गिराया, वैसे ही उसका भी पुत्र जन्म समय में ही नष्ट हो जाएगा”। शाप के प्रभाव से हि द्वापरयुग में कश्यप ऋषि का वसुदेव के स्वरूप में, अदिति का देवकी के रूप में और दिति का रोहिणी के रूप में जन्म हुआ। देवकी के सात पुत्रों की कारागार में कंस ने हत्या कर दी। तत् पश्चात् अष्टम पुत्र विष्णु के अवतार भगवान् श्रीकृष्ण का जन्म हुआ। अन्त में कृष्ण ने अपने मातुल (मामा) कंस का वध किया था [4]। वामन अवतार राजा बलि दैत्यराज थे। देवों और राजा बलि के मध्य युद्ध होते ही रहते थे। अन्त में देव पराजित हुए । देवों की स्थिति दयनीय हो चुकी थी। उनकी माता अदिति भी अपने पुत्रों के दुःख से दुःखी थीं। उस समय कश्यप ऋषि वन में तपस्या कर रहे थे। जब उनका तप पूर्ण हुआ, तो अदिति ने देवों की स्थिति सुनाई। देवों के कल्याण के लिये उपाय भी उन्ह से पूछा। पयोव्रत पूर्वक विष्णु की भक्ति का उपाय कश्यप ऋषि ने बताया। अदिति द्वारा पयोव्रत पूर्वक भगवान् विष्णु की उपासना की गई। कुछ दिनो के अनन्तर भगवान् विष्णु प्रसन्न हुए। भगवान् विष्णु प्रकट हो कर बोले कि – “हे देवि ! आपने श्रद्धा पूर्वक मेरी उपासना की है। अतः “मैं आपके गर्भ से अवतार धारण करूंगा। वह मेरा वामन अवतार होगा। मैं दैत्यों का संहार और देवों का रक्षण करूंगा” ये आपको वर देता हूँ। कश्यप ऋषि भविष्यदर्शी थे। अतः वह पूर्व ही अगवत थे कि – “विष्णु अदिति के गर्भ से वामन अवतार धारण करेंगे” । तत्पश्चात् वें अपने तेज से अदिति के गर्भ में प्रवेश कर गये। समयान्तर में भगवान् विष्णु का वामन अवतार हुआ। गाय के रूप में गाय भी अदिति का स्वरूप है ऐसा ऋग्वेद के अष्टम मण्डल में प्राप्त होता है –  माता रुद्राणां दुहिता वसूनां स्वसादित्यानाममृतस्य नाभिः । प्र नु वोचं चिकितुषे जनाय मा गामनागामदितिं वधिष्ट ॥१५॥ अर्थात् – “गो स्वरूपा अदिति का वध न करें” । गाय को अदिति का स्वरूप माना जाता है।[5]। इन्हें भी देखें स्वर्ग असुर गर्भावस्था मातुल सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ अदिति श्रेणी:ऋषिकाएँ
देवी अदिती के पति का क्या नाम था?
ऋषि कश्यप
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रने डॅकार्ट (फ़्रांसिसी भाषा: René Descartes; लातिनी भाषा: Renatus Cartesius ; 31 मार्च 1596 - 11 फ़रवरी 1650) एक फ़्रांसिसी गणितज्ञ, भौतिकीविज्ञानी, शरीरक्रियाविज्ञानी तथा दार्शनिक थे। परिचय उनका जन्म ३१ मार्च १५९६ ई. को हेग में हुआ था। २१ वर्ष की आयु में शिक्षा समाप्त कर ये ओरेंज के राजकुमार मोरिस की सेना में भर्ती हो गए। यहाँ पर प्राप्त अवकाश को ये गणित के अध्ययन में व्यतीत किया करते हैं। इन्होंने कई युद्धों में भी भाग लिया। सेवॉय के ड्यूक के साथ हुए युद्ध में प्रदर्शित वीरता के कारण इनका लेफ्टिनेंट जनरल की उपाधि प्रदान की गई, परंतु इन्होंने उसे स्वीकार नहीं किया और पेरिस में तीन वर्ष तक शांतिपूर्वक दर्शनशास्त्र की साधना करते रहे। प्रकृति के भेदों की गणित के नियमों से तुलना करने पर इन्होंने आशा प्रकट की कि दोनों के रहस्यों का ज्ञान एक ही प्रकार से किया जा सकता है। इस भाँति इन्होंने तत्वज्ञान में 'कार्तेज़ियनवाद' का आविष्कार किया। गणित को इनकी सर्वोत्तम देन है वैश्लेषिक ज्यामिति। १६३७ ई. में प्रकाशित इनके "दिस्कूर द ला मेतौद्' (Discours de la Methode) में ज्यामिति पर भी १०६ पृष्ठ का एक निबंध था। इन्होंने समीकरण सिद्धांत के कुछ नियमों का भी अविष्कार किया, जिनमें "चिन्हों का नियम' अत्यंत प्रसिद्ध है। ११ फ़रवरी १६५० को इनकी मृत्यु हो गई। सन्दर्भ सन्दर्भ ग्रन्थ सी. ऐडम एवं पी. टैनरि: अय्ब्र दे देकार्त, १३ खंड, पैरिस, १८९७-१९११। बाहरी कड़ियाँ श्रेणी:1596 में जन्मे लोग श्रेणी:गणितज्ञ श्रेणी:दार्शनिक श्रेणी:फ्रांसीसी दार्शनिक श्रेणी:१६५० में निधन
वैज्ञानिक रेने देकार्त की राष्ट्रीयता क्या थी?
फ़्रांसिसी
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2016 ग्रीष्मकालीन ओलम्पिक, आधिकारिक तौर पर XXXI ओलम्पियाड खेल, विश्व की सर्वोच्च प्रमुख अन्तर्राष्ट्रीय बहु-खेल प्रतियोगिता का 31वाँ संस्करण है जिसका आयोजन ब्राज़ील के रियो डि जेनेरो शहर में हुआ था।[1] इस में अमरीका पहले पायदान पर रहा था। मेज़बान नगर का चयन स्पोर्ट्स 2016 के ग्रीष्मकालीन ओलंपिक कार्यक्रम में 306 घटनाओं के 28 खेल शामिल थे। प्रत्येक अनुशासन में घटनाओं की संख्या कोष्ठकों में देखा जाता है एक्वेटिक्स Template:SOGC Template:SOGC Template:SOGC Template:SOGC Template:SOGC Template:SOGC Template:SOGC Template:SOGC Template:SOGC Template:SOGC स्लैलम (4) स्प्रिंट (12) Template:SOGC बीएमएक्स (2) माउंटेन बाइकिंग (2) रोड (4) ट्रैक (10) Template:SOGC ड्रेसेज (2) ईवेंटीग (2) जंपिंग (2) Template:SOGC Template:SOGC Template:SOGC Template:SOGC Template:SOGC कलात्मक (14) तालबद्ध (2) ट्रेम्पोलिन (2) Template:SOGC Template:SOGC Template:SOGC Template:SOGC Template:SOGC वॉलीबॉल (2) बीच वॉलीबॉल (2) फ्रीस्टाइल (12) ग्रीको रोमन (6) भाग लेने वाली राष्ट्रीय ओलंपिक समितियां सभी 206 राष्ट्रीय ओलम्पिक समितियों ने कम से कम एक एथलीट के लिए योग्यता प्राप्त की है। खेल के लिए एथलीटों के योग्य होने वाले पहले तीन देशों में जर्मनी, ग्रेट ब्रिटेन और नीदरलैंड थे, जो 2014 एफईआई वर्ल्ड इक्वेस्ट्रियन गेम्स में टीम के आयोजन में पदक जीतकर टीम के ड्रेसशॉए के लिए चार एथलीटों में से प्रत्येक योग्य थे।[2] मेजबान राष्ट्र के रूप में, ब्राज़ील को कुछ खेलों के लिए स्वत: प्रवेश मिला है जिसमें सभी साइकिल चालन विषयों और वेटलिफ्टिंग कार्यक्रमों के लिए छह स्थानों शामिल हैं।[3][4] 2016 ग्रीष्मकालीन ओलंपिक पहला खेल है जिसमें कोसोवो और दक्षिण सूदान भाग लेने के लिए पात्र हैं। कई एंटी डोपिंग उल्लंघनों के लिए बल्गेरियाई और रूसी भारोत्तोलक को रियो ओलंपिक से प्रतिबंधित कर दिया गया था।[5][6] कुवैत को अक्टूबर 2015 में देश की ओलंपिक समिति में सरकारी हस्तक्षेप से पांच साल में दूसरी बार प्रतिबंध लगा दिया गया था।[7] कैलेंडर This is currently based on the schedule released on the same day as ticket sales began, 31 March 2015.[8] All dates are Brasília Time (UTC–3) पदक तालिका शीर्ष दस सूचीबद्ध एनओसी गोल्ड मेडल की संख्या के अनुसार नीचे सूचीबद्ध हैं मेजबान राष्ट्र ब्राजील कुल मिलाकर 19 पदक (7 स्वर्ण, 6 रजत और 6 कांस्य) के साथ 13 वें स्थान पर रहे। राष्ट्र द्वारा इस तालिका को क्रमबद्ध करने के लिए, कुल पदक गिनती, या कोई अन्य स्तंभ, कॉलम शीर्षक के बगल में सॉर्ट करें आइकन पर क्लिक करें। 2016 ग्रीष्मकालीन ओलंपिक पदक तालिका *मेजबान देश (ब्राज़िल) (ब्राजील #13 में स्थान पर है। 2016 ग्रीष्मकालीन ओलंपिक पदक तालिका में पूर्ण पदक तालिका देखें।) इन्हें भी देखें 2016 ग्रीष्मकालीन ओलम्पिक पदक तालिका 2016 ओलम्पिक में भारत सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ No URL found. Please specify a URL here or add one to Wikidata. No URL found. Please specify a URL here or add one to Wikidata. श्रेणी:2016 ग्रीष्मकालीन ओलम्पिक श्रेणी:रियो डि जेनेरो श्रेणी:ब्राज़ील में खेल श्रेणी:ग्रीष्मकालीन ओलम्पिक
२०१६ ग्रीष्मकालीन ओलम्पिक में कितने राष्ट्रों ने भाग लिया था?
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प्रदीपक गैसों में पहली गैस "कोयला गैस" थी। कोयला गैस कोयले के भंजक आसवन या कार्बनीकरण से प्राप्त होती है। एक समय कोक बनाने में उपजात के रूप में यह प्राप्त होती थी। पीछे केवल गैस की प्राप्ति के लिये ही कोयले का कार्बनीकरण होता है। आज भी केवल गैस की प्राप्ति के लिये कोयले का कार्बनीकरण होता है। कोयले का कार्बनीकरण पहले पहल ढालवाँ लोहे के भमके में लगभग 600 डिग्री सें. पर होता था। इससे गैस की उपलब्धि यद्यपि कम होती थी, तथापि उसका प्रदीपक गुण उत्कृष्ट होता था। सामान्य कोयले में एक विशेष प्रकार के कोयले, "कैनेल" कोयला, को मिला देने से प्रदीपक गुण उन्नत हो गया। पीछे अग्नि-मिट्टी और सिलिका के भभकों में उच्च ताप पर कार्बनीकरण से गैस की मात्रा अधिक बनने लगी। अब गैस का उपयोग प्रदीपन के स्थान पर तापन में अधिकाधिक होने लगा। गैस का मूल्य ऊष्मा उत्पन्न करने से आँका जाने लगा और इसके नापने के लिये एक नया मात्रक "थर्म" निकला, जो एक लाख ब्रिटिश ऊष्मा मात्रक के बराबर है। गैसनिर्माण में जो भभके आज प्रयुक्त होते हैं वे क्षैतिज हो सकते हैं, या उर्ध्वाधर, या 30 डिग्री से लेकर 35 डिग्री तक नत। इन भभकों का वर्णन "कोक" प्रकरण में हुआ है। गैसनिर्माण के लिये वही कोयला उत्तम समझा जाता है जिसमें 30 से लेकर 40 प्रतिशत तक वाष्पशील अंश हो तथा कोयले के टुकड़े एक किस्म के और एक विस्तार के हों। गैस के लिये कोयले का कार्बनीकरण पहले 1,000 डिग्री सें. पर होता था, पर अब 1,200 डिग्री -1,400 डिग्री सें. पर और कभी कभी 1,500 सें. पर भी, होता है। उच्च ताप पर और अधिक काल तक कार्बनीकरण से गैस अधिक बनती है। उच्च ताप पर प्रति टन कोयले से 10,000 से लेकर 12,500 घन फुट तक, मध्य ताप पर 6,000 से लेकर 10,000 घन फुट तक और निम्न ताप पर 3,000 से लेकर 4,000 घन फुट तक गैस बनती है। विभिन्न तापों पर कार्बनीकरण से गैस के अवयवों में बहुत भिन्नता आ जाती है। प्रमुख गैसों, मेथेन, एथेन, हाइड्रोजन और कार्बन डाइआक्साइड, की मात्राओं में अंतर होता है। कोयला गैस का संघटन एक सा नहीं होता। कोयले की विभिन्न किस्में होने के कारण और विभिन्न ताप पर कार्बनीकरण से अवयवों में बहुत कुछ भिन्नता आ जाती है, तथापि सामान्यत: कोयला गैस का संघटन इस प्रकार दिया जा सकता है: अवयव प्रतिशत आयतन हाइड्रोजन 57.2 मेथेन 29.2 कार्बनमोनोक्साइड 5.8 एथेन 1.35 एथिलीन 2.50 कार्बन डाइ-आक्साइड 1.5 नाइट्रोजन 1.0 प्रोपेन 0.11 प्रोपिलीन 0.29 हाइड्रोजन सल्फाइड 0.7 ब्यूटेन 0.04 ब्यूटिलीन 0.18 एसीटिलीन 0.05 हलका तेल 0.15 भभके से जो गैस निकलती है उसका ताप ऊँचा होता है। उसमें पर्याप्त अलकतरा, भाप, ऐमोनिया, हाइड्रोजन सल्फाइड, नैपथेलीन, गोंद बनानेवाले पदार्थ और वाष्प रूप में गंधक के कार्बनिक यौगिक रहते हैं। इन अपद्रव्यों को गैस से निकालना जरूरी होता है, विशेषत: जब गैस का उपयोग घरेलू ईंधन के रूप में होता है। कोयला गैस के निर्माण के प्रत्येक कारखाने में इन अपद्रव्यों को पूर्ण रूप से निकालने अथवा उनकी मात्रा इतनी कम करने का प्रबंध रहता है कि उनसे कोई क्षति न हो। सुरक्षा की दृष्टि से ऐसा होना आवश्यक भी है। भभके से गरम गैसें (ताप 600 डिग्री -700 डिग्री सें.) नलों के द्वारा बाहर निकलती हैं। उष्ण, हलके ऐमोनियम-द्राव के फुहारे से उसे ठंड़ा करते हैं। गैसें ठंड़ी होकर ताप 75 डिग्री -95 डिग्री सें. हो जाता है। अधिकांश अलकतरा यहीं संघनित होकर नीचे बैठ जाता है। यहां से गैसें प्राथमिक शीतक, परोक्ष या प्रत्यक्ष, में जाती हैं, जहाँ ताप और गिरकर 25 डिग्री से 35 डिग्री सें. के बीच हो जाता है। यहाँ जल और अलकतरा संघनित होकर नीचे बैठ जाते हैं। गैस को शीतक में लाने के लिये रेचक पंप का व्यवहार होता है। शीतक से गैस अलकतरा निष्कर्षक या अवक्षेपक में जाती है, जहाँ बिजली से अलकतरे का अवक्षेपण संपन्न होता है। यहाँ से गैस फिर अंतिम शीतक में जाती है जहाँ गैस का नैपथलीन निकाला जाता है। हलके तेलों को निकालने के लिये गैस को मार्जक में ले जाते हैं। यहाँ हाइड्रोजन सल्फाइड को निकालने के लिये बक्स में लोहे के सक्रिय जलीयित आक्साइड रखे रहते हैं। एक दूसरी विधि "सीबोर्ड विधि" से भी हाइड्रोजन सल्फाइड निकाला जाता है। यहाँ मीनार में सोडियम कार्बोनेट का 3.5 प्रतिशत विलयन रखा रहता है, जिससे धोने से 98 से 99 प्रतिशत हाइड्रोजन सल्फाइड निकाला जा सकता है। यह विधि अपेक्षतया सरल है। मार्जक में हलके तेल से धोने से कार्बनिक गंधक यौगिक निकल जाते हैं। गैस में अल्प मात्रा में नैफ्थेलीन रहने से कोई हानि नहीं, पर अधिक मात्रा से कठिनाई उत्पन्न हो सकती है। इसे निकालने के लिये पेट्रोलियम का कम श्यानवाला अंश इस्तेमाल होता है। इससे गोंद बननेवाले पदार्थ भी कुछ निकल जाते हैं, पर "कोरोना" विसर्जन से ओर फिर मार्जक में पारित करने से गोंद बननेवाले पदार्थ प्राय: समस्त निकल जाते हैं। अब गैस को कुछ सुखाने की आवश्यकता पड़ती है। गैस न बिलकुल सूखी रहनी चाहिए और न बहुत भीगी। गैस का अनावश्यक जल आर्द्रताग्राही विलयन, या प्रशीतन, या संपीडन द्वारा निकालकर बड़ी-बड़ी गैस-टंकियों में संग्रह करते अथवा सिलिंडरों में दबाव से भरकर उपभोक्ताओं के पास भेजते हैं। टंकियों में गैस नापने के लिये गैसमीटर भी लगे होते हैं। इन्हें भी देखें गैसनिर्माण (Gasification) श्रेणी:गैसें श्रेणी:ईन्धन श्रेणी:कोयला
गैस के लिये कोयले का कार्बनीकरण अधिकतम कितने डिग्री सें. पर होता है?
1,500 सें.
1,296
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इन्दौर (अंग्रेजी:Indore) जनसंख्या की दृष्टि से भारत के मध्य प्रदेश राज्य का सबसे बड़ा शहर है। [2] यह इन्दौर ज़िला और इंदौर संभाग दोनों के मुख्यालय के रूप में कार्य करता है। इंदौर मध्य प्रदेश राज्य की वाणिज्यिक राजधानी भी है। यह राज्य के शिक्षा हब के रूप में माना जाता है। इंदौर भारत का एकमात्र शहर है, जहाँ भारतीय प्रबन्धन संस्थान (IIM इंदौर) व भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (IIT इंदौर) दोनों स्थापित हैं। [3] मालवा पठार के दक्षिणी छोर पर स्थित इंदौर शहर, राज्य की राजधानी [भोपाल] से १९० किमी पश्चिम में स्थित है। भारत की जनगणना,२०११ के अनुसार २१६७४४७[4] की आबादी सिर्फ ५३० वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में वितरित है। यह मध्यप्रदेश में सबसे अधिक घनी आबादी वाले प्रमुख शहर है। यह भारत में [टीयर-2 शहरों] के तहत आता है। इंदौर मेट्रोपोलिटन एरिया (शहर व आसपास के इलाके) की आबादी राज्य में २१ लाख लोगों के साथ सबसे बड़ी है। इंदौर अपने स्थापना के इतिहास में १६वीं सदी क डेक्कन (दक्षिण) और दिल्ली के बीच एक व्यापारिक केंद्र के रूप में अपने निशान पाता है। मराठा पेशवा बाजीराव प्रथम के मालवा पर पूर्ण नियंत्रण ग्रहण करने के पश्चात, १८ मई १७२४ को इंदौर मराठा साम्राज्य में सम्मिलित हो गया था। और मल्हारराव होलकर को वहाँ का सुबेदार बनाया गया। जो आगे चल कर होलकर राजवंश की स्थापना की। ब्रिटिश राज के दिनों में, इन्दौर रियासत एक १९ गन सेल्यूट (स्थानीय स्तर पर २१) रियासत था जो की उस समय (एक दुर्लभ उच्च रैंक) थी। अंग्रेजी काल के दौरान में भी यह होलकर राजवंश द्वारा शासित रहा। भारत के स्वतंत्र होने के कुछ समय बाद यह भारत अधिराज्य में विलय कर दिया गया। [5] इंदौर के रूप में सेवा की राजधानी मध्य भारत १९५० से १९५६ तक। इंदौर एक वित्तीय जिले के समान, मध्य प्रदेश की आर्थिक राजधानी के रूप में कार्य करता है। और भारत का तीसरा सबसे पुराने शेयर बाजार, मध्यप्रदेश स्टॉक एक्सचेंज इंदौर में स्थित है। यहाँ का अचल संपत्ति (रीयल एस्टेट) बज़ार, मध्य भारत में सबसे महंगा है। यह एक औद्योगिक शहर है। यहाँ लगभग ५,००० से अधिक छोटे-बडे उद्योग हैं। यह सारे मध्य प्रदेश में सबसे अधिक वित्त पैदा करता है। पीथमपुर औद्योगिक क्षेत्र में ४०० से अधिक उद्योग हैं और इनमे १०० से अधिक अंतर्राष्ट्रीय सहयोग के उद्योग हैं। पीथमपुर औद्योगिक क्षेत्र के प्रमुख उद्योग व्यावसायिक वाहन बनाने वाले व उनसे सम्बन्धित उद्योग हैं। व्यावसायिक क्षेत्र में मध्य प्रदेश की प्रमुख वितरण केन्द्र और व्यापार मंडीयाँ है। यहाँ मालवा क्षेत्र के किसान अपने उत्पादन को बेचने और औद्योगिक वर्ग से मिलने आते है। यहाँ के आस पास की ज़मीन कृषि-उत्पादन के लिये उत्तम है और इंदौर मध्य-भारत का गेहूँ, मूंगफली और सोयाबीन का प्रमुख उत्पादक है। यह शहर, आस-पास के शहरों के लिए प्रमुख खरीददारी का केन्द्र भी है। इन्दौर अपने नमकीनों व खान-पान के लिये भी जाना जाता है। प्र.म. नरेंद्र मोदी के स्मार्ट सिटी मिशन में १०० भारतीय शहरों को चयनित किया गया है जिनमें से इंदौर भी एक स्मार्ट सिटी के रूप में विकसित किया जाएगा। [6] स्मार्ट सिटी मिशन के पहले चरण के अंतर्गत बीस शहरों को स्मार्ट सिटी के रूप में विकसित किया जायेगा और इंदौर भी इस प्रथम चरण का हिस्सा है। [7] 'स्वच्छ सर्वेक्षण २०१७' के परिणामों के अनुसार इन्दौर भारत का सबसे स्वच्छ नगर है।[8][9] व्युत्पत्ति उज्जैन पर विजय पाने की राह में, राजा इंद्र सिंह काह्न नदी (आधुनिक नाम कान (Kahn) और विकृत नाम खान) के निकट एक शिविर रखी और वे इस जगह की प्राकृतिक हरियाली से बहुत प्रभावित हुए। इस प्रकार वह नदियों काह्न और सरस्वती के संगम की जगह पर एक शिवलिंग रखी और इंद्रेश्वर मंदिर का निर्माण प्रारंभ किया। साथ ही इंद्रपुर की स्थापना की गई। कई वर्षों बाद जब पेशवा बाजीराव-१ द्वारा, मराठा शासन के तहत, इसे मराठा सूबेदार 'मल्हार राव होलकर' को दिया गया था तब से इसका नाम इंदूर पड़ा। ब्रिटिश राज के दौरान यह नाम अपने वर्तमान रूप इंदौर में बदल गया था। इतिहास १७१५ में स्थानीय ज़मींदारों ने इन्दौर को नर्मदा नदी घाटी मार्ग पर व्यापार केन्द्र के रूप में बसाया था। पहले इन्दौर का नाम इन्दुर था लेकिन १७३१ ई. में बने इंद्रेश्वर मंदिर के कारण यहाँ का नाम इन्दौर पड़ा। यह मराठा होल्कर की पूर्व इन्दौर रियासत की राजधानी बन गया।[10] मध्य प्रदेश में स्थित प्रसिद्ध शहर इन्दौर को अठारहवीं सदी के मध्य में मल्हारराव होल्कर द्धारा स्थापित किया गया था। होल्कर ने दूसरे पेशवा बाजीराव प्रथम की ओर से अनेक लड़ाइयाँ जीती थीं। १७३३ में बाजीराव पेशवा ने इन्दौर को मल्हारराव होल्कर को पुरस्कार के रूप में दिया था। उसने मालवा के दक्षिण-पश्चिम भाग में अधिपत्य कर होल्कर राजवंश की नींव रखी और इन्दौर को अपनी राजधानी बनाया। उसकी मृत्यु के पश्चात दो अयोग्य शासक गद्दी पर बैठे, किंतु तीसरी शासिका अहिल्या बाई (१७५६-१७९५ ई.) ने शासन कार्य बड़ी सफलता के साथ निष्पादित किया। जनवरी १८१८ में इन्दौर ब्रिटिश शासन के अधीन हो गया। यह ब्रिटिश मध्य भारत संस्था का मुख्यालय एवं मध्य भारत की ग्रीष्मकालीन राजधानी (१९५४-५६) था। इन्दौर में होल्कर नरेशों के प्रासाद उल्लेखनीय हैं। मराठा राज (होलकर युग) शहर में बढ़ रही व्यावसायिक गतिविधियों के कारण स्थानीय परगना मुख्यालय कम्पेल से इंदौर के लिए १७२० में स्थानांतरित कर दिया गया। १८ मई १७२४ को , निज़ाम ने बाजीराव प्रथम द्वारा क्षेत्र से चौथ (कर) इकट्ठा करने के लिए मंज़ूरी दे दी। १७३३ में, पेशवा ने मालवा का पूर्ण नियंत्रण ग्रहण किया, और कमांडर मल्हारराव होलकर प्रान्त के सूबेदार (राज्यपाल) के रूप में नियुक्त किया।[11] नंदलाल चौधरी ने मराठों का आधिपत्य स्वीकार[12] कर लिया। मराठा शासन के दौरान,गुर्जर चौधरीयों को "मंडलोई" (मंडल से उत्पत्ति) के रूप में जाना जाने लगा। होलकरों ने नंदलाल के परिवार को राव राजा"[13] की विभूति प्रदान की।[14] साथ ही साथ होलकर शासकों दशहरा पर होलकर परिवार से पहले "शमी पूजन" करने की अनुमति भी दे दी। २९ जुलाई १७३२, बाजीराव पेशवा प्रथम ने होलकर राज्य में '२८ और आधा परगना' में विलय कर दी जिससे मल्हारराव होलकर ने होलकर राजवंश की स्थापना की। उनकी पुत्रवधू देवी अहिल्याबाई होलकर ने १७६७ में राज्य की नई राजधानी महेश्वर में स्थापित की। लेकिन इंदौर एक महत्वपूर्ण व्यापारिक और सैन्य केंद्र बना रहा। ब्रिटिश काल (इंदौर/होलकर राज्य) १८१८ में, तीसरे एंग्लो-मराठा युद्ध के दौरान, महिदपुर की लड़ाई में होलकर, ब्रिटिश से हार गए थे, जिसके परिणामस्वरूप राजधानी फिर से महेश्वर से इंदौर स्थानांतरित हो गयी। इंदौर में ब्रिटिश निवास स्थापित किया गया, लेकिन मुख्य रूप से दीवान तात्या जोग के प्रयासों के कारण होलकरों ने इन्दौर रियासत पर रियासत के रूप में शासन करना जारी रखा। उस समय, इंदौर में ब्रिटिश मध्य भारत एजेंसी का मुख्यालय स्थापित किया गया। उज्जैन मूल रूप से मालवा का वाणिज्यिक केंद्र था। लेकिन जॉन मैल्कम जैसे ब्रिटिश प्रबंधन अधिकारियों ने इंदौर को उज्जैन के लिए एक विकल्प के रूप में बढ़ावा देने का फैसला किया क्योंकि उज्जैन के व्यापारियों ने ब्रिटिश विरोधी तत्वों का समर्थन किया था।[15] १९०६ में शहर में बिजली की आपूर्ति शुरू की गई था, १९०९ में फायर ब्रिगेड स्थापित किया गया था और १९१८ में, शहर के पहले मास्टर-योजना का उल्लेख वास्तुकार और नगर योजनाकार, पैट्रिक गेडडेज़ द्वारा किया गया था। (१८५२-१८८६) की अवधि के दौरान महाराजा तुकोजी राव होलकर द्वितीय के द्वारा इंदौर के औद्योगिक व नियोजित विकास के लिए प्रयास किए गए थे। १८७५ में रेलवे की शुरूआत के साथ, इंदौर में व्यापार महाराजा तुकोजीराव होलकर तृतीय, यशवंतराव होलकर द्वितीय, महाराजा शिवाजी राव होलकर के शासनकाल तक तरक्की करता रहा। आजादी के पश्चात १९४७ में भारत की आजादी के बाद, कुमावत राज्य ने, अन्य पड़ोसी रियासतों के साथ साथ, भारतीय संघ को स्वीकार कर लिया। १९४८ में मध्य भारत के गठन के साथ इंदौर, राज्य की ग्रीष्मकालीन राजधानी बन गया। परन्तु १ नवंबर, १९५६ को मध्यप्रदेश राज्य के गठन[16] के साथ, राज्य की राजधानी भोपाल स्थानांतरित कर दी गयी थी। इंदौर, लगभग २१ लाख निवासियों के एक शहर आज, एक पारंपरिक वाणिज्यिक शहरी केंद्र से राज्य की एक आधुनिक गतिशील वाणिज्यिक राजधानी में परिवर्तित हो गया है। भूगोल इंदौर मालवा पठार के दक्षिणी किनारे पर मध्य प्रदेश के पश्चिमी क्षेत्र में स्थित है। क्षिप्रा नदी की सहायक नदियों, सरस्वती और कान (खान) नदियों, पर स्थित हैं और समुद्र तल से औसत ऊंचाई के ५५३.०० मीटर है। यह एक ऊंचा मैदान है जिसके दक्षिण पर विंध्य रेंज है। यशवंत झील के अलावा, वहाँ कई झील जैसे की सिरपुर टैंक, बिलावली तालाब, सुखनिवास झील और पिपलियापाला तालाब सहित शहर को पानी की आपूर्ति कर रहे हैं। शहर क्षेत्र में मिट्टी मुख्य रूप से काली है। उपनगरों में, मिट्टी काफी हद तक लाल और काले रंग की है। क्षेत्र के अंतर्निहित चट्टान काली बेसाल्ट से बनी है, और उनके अम्लीय और बुनियादी वेरिएंट क्रीटेशयस युग तक जाते हैं। इस क्षेत्र को भारत के भूकंपीय जोन तृतीय क्षेत्र के रूप में वर्गीकृत किया गया है, जिसके अनुसार रिक्टर पैमाने पर ६.५ व ऊपर की तीव्रता के एक भूकंप उम्मीद की जा सकती है। पश्चिम में, पीथमपुर और बेटमा जैसे शहरों के साथ इंदौर ज़िले की सीमा धार के प्रशासनिक जिले के साथ लगी हुई हैं; और साथ ही उत्तर-पश्चिम में हातोद व देपालपुर; उत्तर की ओर सांवेर की उज्जैन जिले के साथ; पूर्वोत्तर में माँगलिया सड़क की देवास ज़िले के साथ; दक्षिण पूर्व में सिमरोल; दक्षिण में महू, और मानपुर की सीमा खंडवा जिले के साथ। इन शहरों (और कुछ बड़े पास के उपनगरों, जैसे राऊ, अहिरखेड़ी, हुकमाखेड़ी, खंडवा नाका, कनाड़िया, रंगवासा, पालदा, सिहांसा) को मिलाकर इंदौर एक सन्निहित निर्मित शहरी क्षेत्र इंदौर महानगर क्षेत्र कहलाता है। जो की एक अनौपचारिक प्रशासनिक जिला माना जाता है। जलवायु इंदौर में नम उपोष्णकटिबंधीय जलवायु है। तीन अलग मौसम होते है: गर्मी, वर्षा और शीत ऋतु। ग्रीष्मकाल मार्च के मध्य में शुरू होता हैं और अप्रैल और मई में बेहद गर्म होता है। कई बार दिन का तापमान तक चला जाता हैं। लेकिन उमस बहुत कम रहती है, गर्मियों में औसत तापमान से भी उच्च जा सकता हैं। शीत ऋतु मध्यम और आमतौर पर सूखी होती है, और औसत तापमान १०°-१५° सेल्सियस रहती है। इंदौर में जुलाई-सितम्बर में दक्षिणपूर्व मानसून के चलते की मध्यम वर्षा होती है। वर्षा, मध्य जून से मध्य सितंबर तक होती है, बारिश का 95% मानसून के मौसम के दौरान होते हैं। जनसांख्यिकी इंदौर मध्य प्रदेश में सबसे अधिक आबादी वाला शहर है। मध्य भारत में इंदौर सबसे बड़ा नगर है। भारत की २०११ की जनगणना के अनुसार, इंदौर शहर (नगर निगम के तहत क्षेत्र) की जनसंख्या १९,६४,०८६ है। [20] इंदौर महानगर की आबादी (शहरी व पड़ोसी क्षेत्रों को मिलाकर) २१,६७,४४७ है। [21] २०१० में, शहर वर्ग मील (९७१८ /प्रति वर्ग किमी २५,१७० लोगों की आबादी के घनत्व था ), यह सबसे घनी मध्यप्रदेश में १,००,००० से अधिक आबादी वाले सभी नगर पालिकाओं की आबादी प्रतिपादन। वर्ष २०११ की जनगणना के अनुसार, इंदौर शहर ८७.३८% की एक औसत साक्षरता दर ७४% के राष्ट्रीय औसत से अधिक है। पुरुष साक्षरता ९१.८४% थी, और महिला साक्षरता ८२.५५% था। [22] इंदौर की जिला प्रशासन। २००९ इंदौर में लिया, जनसंख्या का १२.७२% उम्र के ६ वर्ष से कम (प्रति २०११ की जनगणना के रूप में) है। जनसंख्या की औसत वार्षिक वृद्धि दर २०११ की जनगणना रिपोर्ट के अनुसार। हिन्दी इंदौर शहर की आधिकारिक भाषा है, और जनसंख्या के बहुमत द्वारा बोली जाती हैं जैसे बुंदेली, मालवी और छत्तीसगढ़ी भी बोली जाती हैं। वक्ताओं में से एक पर्याप्त संख्या के साथ अन्य भाषाएँ जैसे बंगाली, उर्दू, मराठी शामिल हैं, सिंधी और गुजराती। [23] २०१२ के आंकड़ों के अनुसार पाकिस्तानी हिन्दू प्रवासी शहर (कुल राज्य के १०,००० में से) में रहते हैं [24] अर्थव्यवस्था इंदौर के सामान एवम् सेवाओं के लिए एक वाणिज्यिक केंद्र है। २०११ में इंदौर का सकल घरेलू उत्पाद $14,000,000,000 था [25] शहर ग्लोबल इन्वेस्टर्स समिट में कई देशों से निवेशकों को आकर्षित करता है। इंदौर के प्रमुख औद्योगिक क्षेत्र में निम्न सम्मिलित हैं: पीथमपुर (चरण- I,II व III) के आसपास के क्षेत्रों में अकेले १५०० बड़े, मध्यम और लघु औद्योगिक सेट-अप हैं। [26], इंदौर के विशेष आर्थिक क्षेत्र (SEZ लगभग ३००० एकड़),[27], सांवेर औद्योगिक बेल्ट (१००० एकड़), लक्ष्मीबाई नगर औद्योगिक क्षेत्र (औ.क्षे.), राऊ (औ.क्षे.), भागीरथपुरा काली बिल्लोद (औ.क्षे.), , रणमल बिल्लोद (औ.क्षे.), शिवाजी नगर भिंडिको (औ.क्षे.), हातोद (औ.क्षे.),[28] क्रिस्टल आईटी पार्क (५.५ लाख वर्गफ़ीट) , आईटी पार्क परदेशीपुरा (१ लाख वर्गफ़ीट) [29]), इलेक्ट्रॉनिक कॉम्प्लेक्स, व्यक्तिगत टीसीएस SEZ, इंफोसिस SEZ आदि।, डायमंड पार्क, रत्न और आभूषण पार्क, फूड पार्क, परिधान पार्क, नमकीन क्लस्टर और फार्मा क्लस्टर। पीथमपुर भी भारत के डेट्रॉइट के रूप में जाना जाता है [30] पीथमपुर औद्योगिक क्षेत्र विभिन्न दवा उत्पादन कम्पनियाँ जैसे इप्का लैबोरेटरीज़, सिप्ला, ल्यूपिन लिमिटेड, ग्लेनमार्क फार्मास्युटिकल्स, यूनिकेम लेबोरेटरीज और बड़ी ऑटो कंपनियों इनमें से प्रमुख फोर्स मोटर्स, वोल्वो आयशर वाणिज्यिक, महिंद्रा वाहन लिमिटेड उत्पादन कर रहे हैं मध्य प्रदेश स्टॉक एक्सचेंज (MPSE) मूल रूप से १९१९ में स्थापना के बाद से मध्य भारत का एकमात्र शेयर बाज़ार और भारत में तीसरा सबसे पुराना स्टॉक एक्सचेंज है जो कि इंदौर में स्थित है। कुछ ही दिनों पूर्व नेशनल स्टॉक एक्सचेंज (एनएसई) ने शहर में एक निवेशक सेवा केंद्र की स्थापना की। [31] औद्योगिक रोजगार ने इंदौर के आर्थिक भूगोल को प्रभावित किया। १९५६ में मध्यप्रदेश में विलय के बाद, इंदौर ने उच्च स्तर के उपनगरीय विस्तार और अधिकाधिक कार स्वामित्व का अनुभव किया। कार्यबल विकेन्द्रीकरण और परिवहन सुधार उपनगरों में छोटे पैमाने पर निर्माण की स्थापना के लिए यह संभव बना दिया। कई कंपनियों अपेक्षाकृत सस्ते भूमि का फायदा उठाते हुए विशाल, उपनगरीय स्थानों जहां पार्किंग, उपयोग और यातायात भीड़ को कम से कम थे में एक मंजिला संयंत्रों की निर्माण की। कपड़ा उत्पादन और व्यापार अर्थव्यवस्था में बहुत समय से योगदान कर रहें हैं , रियल एस्टेट कंपनियों डीएलएफ लिमिटेड, सनसिटी, ज़ी समूह, ओमेक्स, सहारा, पार्श्वनाथ, अंसल एपीआई, एम्मार एमजीएफ ने पहले से ही आवासीय परियोजनाओं इंदौर में शुरू किया है। यह परियोजनाओं इंदौर बाईपास पर आम तौर पर बनाई जा रहीं हैं। यह सड़क कासा ग्रीन्स, सिल्वर स्प्रिंग, कालिंदी, और मिलान हाइट्स सहित कई स्थानीय और क्षेत्रीय रियल एस्टेट कंपनियों की परियोजनाओं का एक फेवरेट स्थान है। इंफोसिस सुपर कॉरिडोर पर एक चरण में १०० करोड़ रुपये के निवेश से इंदौर में एक नया विकास केंद्र स्थापित कर रही है [32] इंफोसिस १३० एकड़ क्षेत्र में इंदौर में अपनी नई कैम्पस खोला है जिससे लगभग १३,००० लोगों को रोजगार देने का वायदा किया है। टाटा कंसल्टेंसी सर्विसेज इंदौर में अपने परिसर का निर्माण कार्य शुरू कर दिया है, सरकार द्वारा भूमि का आवंटन किया गया है [33] कोल्लाबेरा [34] ने भी इंदौर में परिसरों खोलने की योजना की घोषणा की। इन के अलावा, वहाँ कई छोटे और मध्यम आकार सॉफ्टवेयर इंदौर में विकास कंपनियाँ हैं। प्रमुख ऐतिहासिक एवं दर्शनीय स्थल राजबाड़ा, शिवविलास पैलेस, लालबाग, मल्हार आश्रम, मध्यभारत हिन्दी साहित्य समिति, गोपाल मंदिर, महालक्ष्मी मंदिर, बांकेबिहारी मंदिर, जनरल लाइब्रेरी, आड़ा बाजार, बिजासन माता मन्दिर, अन्नपूर्णा देवी मन्दिर, यशवंत निवास, जमींदार बाडा, हरसिद्धी मंदिर, पंढ़रीनाथ, टाउन हॉल, शिवाजी राव स्कूल, अहिल्याश्रम, एसपी ऑफिस, छत्रीबाग, ओल्ड मेडिकल कॉलेज, आर्ट स्कूल, होलकर कॉलेज, देवी अहिल्या विश्वविद्यालय, एमवाय अस्पताल, माणिक बाग, सुखनिवास, फूटीकोठी, दुर्गादेवी मंदिर, इमामबाडा, गणेश मंडल, बक्षीबाग, खजराना मंदिर,कांच मंदिर ,मयुर हॉस्पिटलश्री ऋद्धि सिद्धि चिन्तामन गणेश मंदिर, कुम्हार मोहल्ला, जूनी इंदौर ,आदि इन्दौर के प्रमुख धरोहरें हैं। राजबाड़ा यह नगर के बीचोबीच स्थित है। १९८४ के दंगों के समय इसमें आग लग जाने से इसको बहुत क्षति पहुँची थी। उसके बाद इसको कुछ सीमा तक पुनर्निर्मित करने का प्रयत्न किया गया। कांच मन्दिर यह एक जैन मन्दिर है जिसमें दीवारों पर अन्दर की तरफ कांच से सजाया गया है। काह्न नदी इन्दौर में एक नदी भी बहती है जिसका पुराना नाम कृष्णा या 'कान्ह नदी' है। 'खान नदी', 'कान्ह' का अपभ्रंश है। इसलिए इसका नाम बदलकर काह्न रख दिया गया है।किन्तु पानी की कमी एवं जलमल निकासी को इस नदी में छोड़ने के कारण यह अब एक नाले में बदल चुकी है। इसी के किनारे छतरियां हैं। यह स्थान राजबाड़े से लगभग १०० मीटर की दूरी पर है। खजराना मंदिर खजराना मंदिर भगवान गणेश का एक सुन्दर मंदिर है। ये मंदिर विजय नगर से पास है। ये मंदिर अहिल्या बाई होलकर ने दक्षिण शैली में बनवाया था। यह मंदिर इन्दौरवासियों की आस्था का केंद्र है। यहाँ पर भगवान गणेश के साथ माता दुर्गा, लक्ष्मी, साईबाबा आदि भगवान के मंदिर है। प्रमुख धार्मिक स्थल अन्नपूर्णा मन्दिर खजराना का गणेश मन्दिर हरसिद्धि मन्दिर देवगुराडिया बिजासन माता मन्दिर, एरोड्रम रोड गेन्देश्वर महादेव मन्दिर, परदेशीपुरा गोपेश्वर महादेव मन्दिर, गान्धी हॉल परिसर जबरेश्वर महादेव मन्दिर, राजबाडा गोपाल मंदिर, राजबाडा श्री रिद्धी सिद्धी चिन्तामन गणेश मंदिर, कुम्हार मोहल्ला, जूनी इंदौर शनि मन्दिर, जूनी इंदौर कांच मन्दिर यातायात विमानक्षेत्र इंदौर का विमानक्षेत्र इसे भारत के प्रमुख शहरो से हवाई मार्ग से जोड़ता है। सार्वजनिक यातायात की दृष्टि से सन् २००५ तक इन्दौर बहुत पिछड़ा था किन्तु उसके बाद इन्दौर नगर निगम ने नगर बस सेवा आरम्भ की जो भारत में सर्वोत्तम कही जा सकती है। रेल यातायात की दृष्टि से इन्दौर मुख्य रेल मार्ग पर स्थित नहीं है। तथापि यहां से दिल्ली, मुम्बई, कोलकाता, हैदराबाद, पटना, देहरादून तथा जम्मू-तवी के लिये सीधी गाडियाँ उपलब्ध हैं। इन्दौर से भोपाल और खण्डवा के लिये बहुत अच्छी बस सेवा उपलब्ध है। रेलवे स्टेशन इंदौर जंक्शन ₹ ५० करोड़ (५०० मिलियन) रुपये से अधिक का राजस्व के साथ एक ए-१ (A-1) ग्रेड रेलवे स्टेशन है। सिटी पश्चिम रेलवे की रतलाम रेलवे डिवीजन के अंतर्गत आता है। इंदौर सीधे दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, चेन्नई, पुणे, लखनऊ, कोच्चि, जयपुर, अहमदाबाद आदि जैसे प्रमुख शहरों से जुड़ा है। मीटर गेज ट्रेन का परिचालन फ़रवरी २०१५ से बंद कर दिया गया। इंदौर-महू अनुभाग अब ब्रॉड गेज करने के लिए उन्नत किया जा रहा है। [35] इंदौर - देवास - उज्जैन विद्युतीकरण जून २०१२ में पूरा कर लिया और रतलाम - इंदौर ब्रॉडगेज रूपांतरण सितंबर २०१४ में पूरा कर लिया गया [36] प्लैटफॉर्म क्र. १ को ब्रॉड गेज करने के लिए उन्नत किया जा रहा है दो नए प्लेटफार्मों के साथ आधुनिक स्टेशन परिसर राजकुमार रेलवे ओवर ब्रिज के करीब विकसित किया जा रहा है [37] मुख्य जंक्शन को छोड़कर, इंदौर महानगरीय क्षेत्र में ७ अन्य रेलवे स्टेशनों भी हैं जो है: इंदौर सिटी बस इंदौर में एक अच्छी तरह से विकसित परिवहन प्रणाली है। अटल इंदौर सिटी ट्रांसपोर्ट सर्विसेज लिमिटेड, एक पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप योजना बसों और रेडियो टैक्सियां शहर में चल रही है। नामित बसों सिटी बस ३६ मार्गों पर, संचालित करीब १७० बस स्टॉप के साथ। बसें कलर-कोडेड उनके मार्ग के अनुसार कर रहे हैं। उनमें से कई गैर-एसी हैं और जीपीएस सिस्टम और दुर्घटना से बचें से लैस हैं। इन्दौर बीआरटीएस (iBus) इंदौर बीआरटीएस एक बस ​​रैपिड ट्रांजिट प्रणाली है जिसका १० मई २०१३ से परिचालन शुरू किया गया है। यह वातानुकूलित (एसी) बसों के साथ चलती हैं। इन बसों में भी जीपीएस और आईवीआर जैसी सेवाओं जैसे एलईडी प्रदर्शन है। यह निरंजनपुर और राजीव गांधी चौराहा के बीच समर्पित गलियारे में चलाई जाती ही। जिसके आगे राऊ को राजीव गांधी चौराहा से सामान्य सड़क गलियारे से इस सेवा के लिए आगे महू जो की बिना एक समर्पित गलियारे के कार्य करेंगे। स्थानीय परिवहन भी शामिल है ऑटो रिक्शा, मारुति वैन और टाटा मैजिक वैन सीएनजी जो मिनी बसें भी the<i data-parsoid='{"dsr":[32394,32407,2,2]}'>नगर सेवा नामक जगह ले ली है। कई निजी टैक्सी सेवा भी TaxiForSure, जैसे ओला कैब्स, मेरु कैब्स उबर और चार्टर्ड कैब्स (पहले मेट्रो टैक्सी) शहर में संचालित होते हिन्। शहर के प्रमुख बस-अड्डे हैं: सरवटे बस-स्टैण्ड[38] (इन्दौर रेलवे स्टेशन के पास) गंगवाल बस-स्टैण्ड[39] (लाबरिया भैरू, धार रोड) नवलखा बस-स्टैंड(आगरा मुम्बई रोड) विजय नगर ISBT(ए.बी. रोड) बस टर्मिनल जो की पूरा अंतर्र-राज्य बस-अड्डे के रूप में अच्छी तरह से विकसित किया जायेगा। मनोरंजन पार्क अटल बिहारी वाजपेयी क्षेत्रीय पार्क (पिप्लियापाला पार्क या इंदौर क्षेत्रीय पार्क) के रूप में जाना जाता है, यह इंदौर विकास प्राधिकरण (आईडीए) द्वारा विकसित किया गया है। पार्क के विकास के तालाब और इस टैंक के पास ४२ एकड़ भूमि की भूमि में से ८० एकड़ जमीन पर है। वहाँ एक नहर है, जो पूरे पार्क तालाब के एक बिंदु से शुरू करने और दूसरे भाग में समाप्त शामिल किया गया है। पार्क में आकर्षण, एक संगीतमय फव्वारा शामिल जेट फव्वारा, 'कलाकार गांव, भूलभुलैया, फ्रेंच उद्यान, जैव-विविधता उद्यान, धुंध फव्वारा, फास्ट फूड जोन, नौका विहार, और एक मिनी दो डेक मिलनसार ८० के साथ "मालवा क्वीन" नाम क्रूज कूद लोग, एक रेस्तरां और निजी पार्टी कमरे। कमला नेहरू प्राणी संग्रहालय या इंदौर चिड़ियाघर ४,००० वर्ग मीटर के क्षेत्र में फैला हुआ इंदौर का सबसे पुराना प्राणी उद्यानों में से एक है। सफ़ेद बाघ, हिमालयी भालू और सफेद मोर, इसकी प्रजातियों के लिए जाना जाता है, इंदौर चिड़ियाघर भी प्रजनन, संरक्षण और जानवरों, पौधों और उनके निवास की प्रदर्शनी के लिए एक केंद्र है। मेघदूत गार्डन शहर के विजयनगर क्षेत्र में स्थित है। यह २००१-०१ में पुनर्निर्मित किया गया था। जमीन मकान लॉन, रोशन और नृत्य के फव्वारे, और सुंदर बगीचों की उपस्थिति। फॉर्च्यून लैंडमार्क और सयाजी होटल इस पार्क के करीब हैं। सिनेमा सिनेमा इंदौर में और साथ ही साथ पूरे देश में मनोरंजन का सबसे लोकप्रिय माध्यम है। शहर में कई सिनेमाघर हैं जैसे की: आइनॉक्स (सपना-संगीता रोड) आइनॉक्स (सेंट्रल मॉल, रीगल चौराहा) आइनॉक्स सत्यम (सी२१ मॉल, विजय नगर) कार्निवल सिनेमाज़ (मल्हार मेगा मॉल, विजय नगर) पीवीआर सिनेमाज़ (ट्रेज़र आइलैंड मॉल, दक्षिण तुकोगंज) मधुमिलन (मधुमिलन चौराहा) मंगल बिग सिनेमा (मंगल सिटी, विजय नगर) रीगल (रीगल चौराहा) मॉल इंदौर में कई मॉल, जो दर्शकों के लिए विभिन्न प्रकार और आराम प्रदान करने के लिए मेज़बान है। ट्रेजर आईलैंड, मंगल सिटी मॉल, इंदौर सेंट्रल मॉल, सी२१ मॉल, मल्हार मेगा मॉल, ऑर्बिट मॉल बहुत अच्छी तरह से जाना जाता है। २०११ में, वॉलमार्ट की एक शाखा, नामित बेस्ट प्राइस भी दुकानदारों छूट माल खरीदने के लिए खोला गया। इंदौर मध्य भारत में सबसे अधिक मॉल होने का रिकार्ड बना रही है।[40] इन्दौर की संस्थाएँ शिक्षण संस्थाएँ इंदौर महाविद्यालयो और विद्यालयो की श्रृंखला के लिए जाना जाता है। इंदौर में एक बड़े छात्र आबादी है और यह मध्य भारत में एक बड़ा शिक्षा का केंद्र है, यह भी मध्य भारत के एजुकेशन हब है [41] इंदौर में अधिकांश प्राथमिक और माध्यमिक स्कूल केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (सीबीएसई) से मान्यता प्राप्त है। हालांकि, स्कूलों की संख्या में काफी कुछ आईसीएसई बोर्ड, एनआईओएस बोर्ड, CBSEi बोर्ड और राज्य स्तर सांसद के साथ संबद्ध हैं। डेली कॉलेज, 1882 में स्थापना की, दुनिया में सबसे पुराना सह-शिक्षा बोर्डिंग स्कूलो में से एक है, जो 'मराठा' की केन्द्रीय भारतीय रियासतों के शासकों को शिक्षित करने के लिए स्थापित किया गया था। [42] होलकर विज्ञान महाविद्यालय, आधिकारिक तौर पर सरकार के मॉडल स्वायत्त होलकर साइंस कॉलेज के रूप में जाना जाता है। महाविद्यालय की स्थापना 10 जून, 1891 [43] को शिवाजी राव होलकर द्वारा की गई थी। इंदौर भारत में एकमात्र शहर है जहाँ भारतीय प्रबन्धन संस्थान (आईआईएम इंदौर) व भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी इंदौर) दोनों स्थापित है। सोशल वर्क इंदौर स्कूल (ISSW) सामाजिक विज्ञान के क्षेत्र में एक स्कूल है जो दोनों शिक्षा और अनुसंधान के क्षेत्र में कार्य करता है। वर्ष 1951 से पेशेवर सामाजिक कार्यकर्ताओ को प्रशिक्षण प्रदान कर रहा है। देवी अहिल्या विश्वविद्यालयय, जो "डी ए वी वी" (पूर्व में 'इंदौर विश्वविद्यालय' के रूप में जाना जाता था) के रूप में जाना कई अपने तत्वावधान ऑपरेटिंग कॉलेजों के साथ इंदौर में एक विश्वविद्यालय है। यह शहर के भीतर दो परिसरों, तक्षशिला परिसर (भंवरकुआ चौराहे के पास) में एक और रवींद्र नाथ टैगोर रोड, इंदौर में है। विश्वविद्यालय सहित कई विभागों चलाता इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट स्टडीज (आईएमएस), संगणक विज्ञान एवं सूचना प्रौद्योगिकी का विद्यालय (SCSIT), कानून के स्कूल (एसओएल), इंस्टीट्यूट ऑफ इंजीनियरिंग एंड टेक्नोलॉजी (आईईटी), शैक्षिक मल्टीमीडिया रिसर्च सेंटर (EMRC), व्यावसायिक अध्ययन के इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट (आईआईपीएस), फार्मेसी के स्कूल, ऊर्जा और पर्यावरण अध्ययन के स्कूल - एम टेक के लिए प्राइमर स्कूलों में से एक। (ऊर्जा प्रबंधन), पत्रकारिता के स्कूल और फ्यूचर्स अध्ययन और योजना है, जो दो एम टेक चलाता स्कूल। प्रौद्योगिकी प्रबंधन और सिस्टम साइंस एंड इंजीनियरिंग, एमबीए (बिजनेस पूर्वानुमान), और एमएससी में विशेषज्ञता के साथ पाठ्यक्रम। विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी संचार में। परिसर में कई अन्य अनुसंधान और शिक्षा विभाग, हॉस्टल, खेल के मैदानों और कैफ़े के घरों। महात्मा गांधी स्मारक चिकित्सा महाविद्यालय (MGMMC) एक और पुरानी संस्था है, और पूर्व में किंग एडवर्ड मेडिकल कॉलेज के रूप में जाना जाता था [44] श्री गोविन्दराम सेकसरिया प्रौद्योगिकी एवं विज्ञान संस्थान (SGSITS) को 1952 में स्थापित किया गया। डेली कालेज भा.प्र.स. (IIM, इंदौर) इ.प.स. अकादमी (IPS Academy) भा.प्रौ.स. (IIT,इंदौर) म.गा.स.चि.म. (MGM, इंदौर) श्री गो.से.त.प्र.स. (SGSITS,इंदौर) मीडिया प्रिंट मीडिया यहाँ से २० हिन्दी दैनिक समाचार पत्र, ७ अंग्रेजी दैनिक समाचार पत्र, २४ साप्ताहिक और मासिक, ४ चतुर्मासिक, २ द्विमासिक पत्रिका, एक वार्षिक कागज, और एक मासिक हिंदी भाषा शैक्षिक "कैम्पस डायरी" नाम अखबार शहर से प्रकाशित हो रहे हैं। भारत की 'पंप उद्योग पर केवल पत्रिका पंप्स भारत और वाल्व पत्रिका वाल्व भारत यहां से प्रकाशित किया जाता है [45] प्रमुख हिंदी अखबारों और राष्ट्रीय मीडिया घरानों का इंदौर में अपना क्षेत्रीय कार्यालय है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया रेडियो उद्योग निजी और सरकारी स्वामित्व वाली एफएम चैनलों के शुरू होने के साथ विस्तार किया गया है। निम्न एफ़एम रेडियो चैनल है जो कि शहर में प्रसारण कर रहें हैं। बिग एफ़एम (९२.७ मेगाहर्ट्ज़ (MHz)) रेड एफ़एम (९३.५ मेगाहर्ट्ज़ (MHz)) माय एफ़एम (९४.३ मेगाहर्ट्ज़ (MHz)) रेडियो मिर्ची एफ़एम (९८.३ मेगाहर्ट्ज़ (MHz)) विविध भारती एफ़एम (१०१.६ मेगाहर्ट्ज़ (MHz)) आकाशवाणी ज्ञानवाणी एफएम (१०५.६ मेगाहर्ट्ज़ (MHz)) सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय द्वारा चलाए डिजिटलीकरण के दूसरे चरण के तहत २०१३ में केबल टीवी का डिजिटलीकरण पूर्ण कर दिया था। सिटी केबल सीटी केबल (Siti Cable) एक डिजिटल सिटी के ७०% कवरेज के साथ केबल वितरण कंपनी है। मध्य प्रदेश क्षेत्र का प्रधान कार्यालय इंदौर है और सिटी केबल ७ स्थानीय चैनलों भी चलाता है। इंदौर को प्रकाशीय तन्तु (ऑप्टिकल फ़ाइबर) तारों के एक नेटवर्क के द्वारा कवर किया जाता है। यहाँ लैंडलाइन के तीन ऑपरेटर हैं बीएसएनएल, रिलायंस और एयरटेल। वहीं आठ मोबाइल फोन कंपनियों, जिसमें जीएसएम में निम्न खिलाड़ी में शामिल हैं आइडिया टाटा डोकोमो बीएसएनएल एयरटेल रिलायंस वोडाफ़ोन वीडियोकाॅन मोबाइल सर्विस जबकि सीडीएमए सेवाओं में बीएसएनएल और रिलायंस हैं। स्टूडियो और ट्रांसमिशन के साथ दूरदर्शन केन्द्र इंदौर जुलाई २००० से शुरू कर दिया गया। वेब मीडिया इंदौर से लगभग १५ हिंदी समाचार पोर्टल, ५ अंग्रेजी समाचार पोर्टल चलाये जाते हैं। आसपास के आकर्षण विभिन्न स्थानों पर्यटकों और इंदौर के नागरिकों सप्ताहांत और अवसर या छुट्टियों के लिए यात्रा करने के लिए की तरह है जो कर रहे हैं। महेश्वर -महेश्वर मध्य प्रदेश राज्य के खरगोन जिले में एक शहर है यह ६ जनवरी १८१८ तक मराठा होलकर एस के शासनकाल, जब राजधानी मल्हार राव होलकर तृतीय द्वारा इंदौर में स्थानांतरित कर दिया गया था के दौरान मालवा की राजधानी थी। महेश्वर 5 वीं सदी के बाद से हथकरघा बुनाई का एक केंद्र रहा है। महेश्वर भारत के हाथ करघा कपड़े परंपराओं में से एक का घर है। यह मंदिरों, घाटों, किले और महलों में जाना जाता है। इंदौर से ९० किमी की दूरी पर है। मांडवगढ़ या मांडू - माण्डू है धार जिले की वर्तमान दिन माण्डव क्षेत्र में एक बर्बाद कर दिया किला-शहर है। इसके बारे में बहुत सी बातें कही जाती है। इन्दौर से ९९ किमी दूर और अपने किलों, महलों और प्राकृतिक परिदृश्य के लिए जाना जाता है। पातालपानी झरना - यह इंदौर से ३५ किमी दूर है इंदौर के उपनगर महू की और [46] सीतला माता झरना - यह पर्यटकों के आकर्षण के मानसून सत्र में अपने झरने के लिए जाना जाता है। टिनचा झरना - टिनचा झरना मानसून के मौसम का एक झरना है। बाज़ बहादुर महल, मांडू जामी मस्जिद, मांडू जहाज महल, मांडू पातालपानी झरना टिनचा झरना महेश्वर के अहिल्या किले से नर्मदा दर्शन खेल क्रिकेट शहर में सबसे लोकप्रिय खेलों में से एक है। इंदौर मध्य प्रदेश क्रिकेट संघ (MPCA), मध्य प्रदेश टेबल टेनिस एसोसिएशन (MPTTA) के लिए घर है और शहर के एक अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट ग्राउंड, होलकर क्रिकेट स्टेडियम है। राज्य में पहली बार क्रिकेट वनडे मैच जवाहरलाल नेहरू स्टेडियम, इंदौर में खेला गया था। क्रिकेट के अलावा, इंदौर कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं के लिए एक केंद्र है। शहर ने दक्षिण एशियाई चैम्पियनशिप की मेजबानी की और बिलियर्ड तीन दिवसीय राष्ट्रीय ट्रायथलन चैंपियनशिप है, जिसमें लगभग 450 खिलाड़ियों और 250 खेल के 23 राज्यों से संबंधित अधिकारियों को कार्रवाई में भाग लेने के लिए एक मेजबान है। [47] इंदौर बास्केटबॉल के लिए भी एक पारंपरिक केंद्र है, और एक वर्ग के इनडोर बास्केटबाल स्टेडियम के साथ भारत का पहला नेशनल बास्केटबॉल एकेडमी का घर है। इंदौर में सफलतापूर्वक विभिन्न नेशनल बास्केटबॉल चैंपियनशिप का आयोजन किया गया है। निम्न प्रमुख खेल स्टेडियम में शामिल हैं: बास्केट बॉल - बास्केटबॉल कॉम्प्लेक्स, बास्केट बॉल क्लब क्रिकेट - होल्कर क्रिकेट स्टेडियम, जवाहरलाल नेहरू स्टेडियम, इंदौर, खालसा स्कूल स्टेडियम, महाराजा स्कूल स्टेडियम लॉन टेनिस - इंदौर टेनिस क्लब, इंदौर रेसीडेंसी क्लब टेबल टेनिस नेहरू स्टेडियम टीटी हॉल, अभय खेल प्रशाल कबड्डी - लकी वांडरर्स शतरंज - एसकेएम शतरंज अकादमी, iLEAD शतरंज अकादमी डाइविंग - नेहरू पार्क इंदौर के नाम दो गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स दर्ज है, इसे दुनिया में सबसे बड़ी चाय पार्टी के लिए और दुनिया के सबसे बड़े बर्गर बनाने के लिए शामिल किया गया था। [48] खान-पान इंदौर अप्ने विशिस्ट खान-पान के लिये प्रसिद्ध है। यहाँ के नमकीन, पोहा और जलेबी, चाट (नमकीन), कचोरी (कचौड़ी), गराड़ू, भुट्टे का कीस और साबूदाना खिचड़ी स्वाद में अपनी अलग पहचान बनाये हुए है। मिठाई में मूंग का हलवा, गाजर का हलवा, रबड़ी, मालपुए, फालूदा कुल्फी, गुलाब जामुन, रस-मलाई, रस गुल्ला चाव से खाये जाते है। इसके अलावा विभिन्न रेस्तरां में विभिन्न प्रकार के व्यंजन, और मराठा, मुगलई, बंगाली, राजस्थानी, और एक किस्म का स्थानीय व्यंजन दाल-बाफला काफी प्रसिद्ध है। सराफा बाजार और छप्पन दुकान, इंदौर के एक प्रमुख खाद्य स्थल है। आम तौर पर, नमकीन इंदौर में प्रमुखता से परोसा जाता है। सैव-परमल यहाँ का प्रसिद नास्ता है। जो की मालवा का नास्ता माना जाता है। हाल ही में मैकडोनल्ड, डोमिनोज़, पिज्जा हट, केएफसी, सबवे, बरिस्ता लवाज़ा और कैफे कॉफी डे जैसी कई राष्ट्रीय कंपनियों ने इंदौर में अपनी शाखाएं खोली है। अन्य श्री मध्यभारत हिन्दी साहित्य समिति, इन्दौर इन्‍दौर शहर की सरकारी एजेंसियाँ इन्हें भी देखें होलकर राजवंश अहिल्याबाई होल्कर सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ (भारत दर्शन, हिन्दी चिट्ठा) (भरपूर जानकारी युक्त हिंदी ब्लॉग) श्रेणी:मध्य प्रदेश श्रेणी:मध्य प्रदेश के शहर *
इन्दौर का क्षेत्रफल कितना है?
५३० वर्ग किलोमीटर
570
hindi
c09892648
कीनिया गणतंत्र पूर्वी अफ्रीका में स्थित एक देश है। भूमध्य रेखा पर हिंद महासागर के सटे हुए इस देश की सीमा उत्तर में इथियोपिया, उत्तर-पूर्व में सोमालिया, दक्षिण में तंजानिया, पश्चिम में युगांडा व विक्टोरिया झील और उत्तर पश्चिम में सूडान से मिलती है। देश की राजधानी नैरोबी है। केन्या में 581,309 km2 (224,445 वर्ग मील) शामिल हैं और जुलाई 2012 तक इसकी जनसंख्या लगभग 4.4 करोड़ है।[1] देश का नाम माउंट केन्या पर रखा गया है, जो एक महत्वपूर्ण भौगोलिक प्रतीक है और अफ्रीका महाद्वीप की दूसरी सबसे ऊंची पर्वत चोटी है। 1920 से पहले, जिस क्षेत्र को अब कीनिया के नाम से जाना जाता है, उसे ब्रिटिश ईस्ट अफ्रीका संरक्षित राज्य के रूप में जाना जाता था। भूगोल अवस्थिति और विस्तार कीनिया अफ्रीका महाद्वीप के पूर्वी तट पर स्थित है और इस प्रकार पूर्वी अफ्रीका का देश कहलाता है। भौगोलिक निर्देशांकों में इसका विस्तार लगभग 5° उत्तरी से 5° दक्षिणी अक्षांशों तक और 34° से 42° पूर्वी देशान्तर के मध्य है। कीनिया का कुल क्षेत्रफल 580,367 वर्ग कि॰मी॰ है और यह क्षेत्रफल के अनुसार विश्व का 49वाँ बड़ा देश है। इस में स्थलीय भाग 569,140 वर्ग कि॰मी॰ और जलीय क्षेत्र (विक्टोरिया झील और अन्य) 11,227 वर्ग कि॰मी॰ हैं।[2] कीनिया की स्थलीय सीमा 3,447 कि॰मी॰ लम्बी है जिसमें द॰ सूडान के साथ 232 कि॰मी॰, इथियोपिया के साथ 861 कि॰मी॰, सोमालिया के साथ 682 कि॰मी॰, तंजानिया के साथ 769 कि॰मी॰ और युगांडा के साथ 933 कि॰मी॰ हिस्सा है। समुद्र तट की लम्बाई हिन्द महासागर के सहारे 536 कि॰मी॰ है।[3] स्थलाकृति कीनिया को स्थलाकृतिक विशेषताओं के आधार पर छह प्रमुख भौगोलिक प्रदेशों में बाँटा जाता है।[4] समुद्र तटीय क्षेत्र हिन्द महासागर के किनारे के सहारे उत्तर से दक्षिण की ओर फैला हुआ है और यहाँ विविध तटीय स्थलरूप पाए जाते हैं। छोटी खाड़ियाँ और मूँगे की चट्टानें तट के सहारे और एक लगभग सतत अवरोधक प्रवाल भित्ति तट के साथ पायी जाती है। उत्तरी हिस्से में लामू द्वीप चाप (Lamu Archipelago) है जो समुद्र तल में वृद्धि के परिणाम स्वरूप समुद्र में डूबे तट का उच्च भूमि वाला हिस्सा है जो समुद्र से ऊपर द्वीप के रूप में उभरा हुआ है। मैदानी क्षेत्र के अंतर्गत दक्षिण तटीय पश्चभूमि एक उच्चावच विहीन अपरदनात्मक मैदान है जिसमें कहीं कहीं छोटी पहाड़ियां परिलक्षित होती हैं और ताना मैदान, ताना नदी द्वारा जमा किये गये निक्षेपों से निर्मित है। उत्तरी मैदानी-क्षेत्र पश्चिम में युगांडा की सीमा से पूर्व में सोमालिया की सीमा तक फैला है। यह बहुधा लावा निर्मित मैदान है। रुडोल्फ झील और चाल्बी रेगिस्तान इसी क्षेत्र का हिस्सा हैं। यहाँ शुष्क प्रदेशों में पायी जाने वाली स्थल रूप निर्माण के प्रक्रम क्रियाशील हैं क्योंकि यह प्रदेश शुष्क जलवायु वाला है। कीनियाई उच्च भूमि को यूरोपीयन लोग श्वेत उच्च भूमि भी कहते थे। यह भ्रंश घाटी के पश्चिम और पूर्व दो हिस्सों में विभक्त होकर अवस्थित है। माउंट केन्या पूर्वी हिस्से में स्थित है। भ्रंशघाटी प्रदेश पूर्वी अफ़्रीकी भ्रंश का हिस्सा है और यह रुडोल्फ झील के इलाके से लेकर दक्षिण में तंजानिया की सीमा तक है। कीनियाई उच्च भूमि इसके द्वारा द्विभाजित की जाती है। पश्चिमी पठार प्रदेश एक बड़े बेसिन के आकार में विक्टोरिया झील के सहारे स्थित है और बहुधा भ्रन्शित पठारों वाला है। जलवायु कीनिया की जलवायु इसकी अक्षांशीय स्थिति से काफ़ी प्रभावित है। विषुवत रेखा पर स्थित होने के कारण यहाँ विषुवतीय जलवायु पाई जाती है जिसमें वर्ष भर मौसम लगभग एक सा रहता है। तटीय भागों में वर्ष भर वर्षा इसका प्रमुख उदहारण है और तापमान तथा आर्द्रता में दैनिक चक्र स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है। पश्चिमी और भीतरी भागों में उत्तरी हिस्से में रेगिस्तानी जलवायु या अर्ध-शुष्क जलवायु पाई जाती है। कीनिया के लगभग 70% से अधिक भागों में अर्ध-शुष्क जलवायु का ही विस्तार है जहाँ 51 सेमी से कम वार्षिक वर्षा होती है।[5] कम वर्षा वाले क्षेत्रों में वर्षा अनियमित भी होती है और वर्षा की मात्रा की औसत से विचारंशीलता अधिक पायी जाती है। कीनियाई उच्च भूमि पर ऊंचाई का जलवायु के ऊपर स्पष्ट प्रभाव है और भूमध्य रेखा पर अवस्थिति के कारण वर्ष भर में कोई विशेष ऋत्विकता नहीं पायी जाती। प्राकृतिक वनस्पतियाँ कीनिया में प्राकृतिक वनस्पतियों का वितरण जलवायु और उच्चावच का अनुसरण करता है। समुद्र तटीय भागों में मैंग्रोव वनस्पति पायी जाती है और तटीय मैदानों में आर्द्र भागों में पाम और अन्य उष्ण कटिबंधीय वनस्पतियाँ प्रमुख हैं। अंदरूनी क्षेत्रों में वर्षा की मात्रा क्रमशः कम होते जाने के कारण यहाँ घास के मैदान और खुले वन का फैलाव है। और अधिक शुष्क भागों में कटीली झाडियाँ और मरुस्थली वनस्पतियाँ पायी जाती हैं। चूँकि कीनिया का 70% से अधिक भाग अर्धशुष्क या शुष्क है अतः यहाँ झाडियों वाले घास के मैदानों की बहुलता है जिनमें छिटपुट बड़े वृक्ष पाए जाते हैं। ऐसे मैदानों को wooded and bushed grassland अथवा woodland and bushland कहा जाता है। पहाड़ी इलाकों में जहाँ वर्षा की मात्रा आधिक होती है वहाँ काफ़ी लम्बी घास के क्षेत्र पाए जाते हैं। ऐसे क्षेत्रों में बाँस (Arundinalia alpina) लगभग 3000 मीटर की ऊंचाई तक मिलता है। अन्य वृक्षों में कैम्फर, जैतून, पोडो और सीडर इत्यादि हैं।[7] वर्तमान समय में वनों का तेजी से हो रहा दोहन कीनिया की कुछ प्रमुख पर्यावरणीय समस्याओं में से एक है। नोबल पुरस्कार प्राप्त कार्यकत्री वंगारी मथाई ने इन वनों के संरक्षण के लिये काफ़ी काम किया और उनके जैसे अन्य पर्यावरण कार्यकर्ता अब भी यहाँ के वनों को संरक्षित करने हेतु जनांदोलन चला रहे हैं। भूगर्भिक संरचना कीनिया का नवीनकालिक भूगर्भिक परिदृश्य मुख्यतः ज्वालामुखीयता द्वारा प्रभावित रहा है। यहाँ प्लेट विवर्तनिकी की सक्रियता रिफ्ट घाटियों के रूप में इस पूरे क्षेत्र की संरचना को निर्धारित करती है। यहाँ पूर्वी अफ़्रीकी रिफ्ट कीनिया की सबसे उत्तरी झील तुरकाना से लेकर, माउंट केन्या होते हुए दक्षिण में किलिमांजारो पर्वत तक और आगे तंजानिया में फैली है। कीनिया के पश्चिमी भाग का ज्यादातर हिस्सा प्लायोसीन-प्लीस्टोसीन काल के ज्वालामुखियों द्वारा आच्छादित है जिसके नीचे प्रीकैम्ब्रियन चट्टानें पायी जाती है।[8] वहीं कीनिया का दक्षिणी-पूर्वी हिस्सा कारू नदी तन्त्र द्वारा जमा किये तलछट से निर्मित है जो पर्मियन से लेकर बाद के ट्रियासिक काल के अवसाद हैं। अन्जा द्रोणी का दिग्विन्यास उतर-पश्चिम से दक्षिण-पूर्व की ओर है और यह रिफ्ट गोंडवानालैण्ड के विभाजन के समय उत्पन्न हुयी थी।[9][10] पर्यावरणीय मुद्दे कीनिया में प्रमुख पर्यावरणीय मुद्दों और चुनौतियों में निर्वनीकरण, जल संसाधन का न्यूनीकरण, मरुस्थलीकरण और औद्योगिक प्रदूषण इत्यादि हैं। जल संसाधनों की उपलब्धता और गुणवत्ता में गिरावट एक बहुत बड़ी समस्या के रूप में उभरा है।[11] कई झीलों में जलकुम्भी (Eichhornia crassipes) जैसे पौधों का अतिक्रमण उनके प्राकृतिक पारितंत्र को नष्ट कर रहा है और इन झीलों के मछली उत्पादन तथा जल की सामान्य गुणवत्ता में भी कमी आयी है। नदियों के जलधारण में भी सिकुड़ाव दर्ज किया गया है जो इनके बेसिन में भूजल के नीचे चले जाने का परिणाम माना जा रहा है। सरकार और राजनीति केन्या एक राष्ट्रपति प्रतिनिधि लोकतांत्रिक गणराज्य है। राष्ट्रपति, राज्य का प्रमुख और सरकार का मुखिया दोनों है, जो एक बहुदलीय प्रणाली के साथ हैं। कार्यकारी शक्ति सरकार द्वारा प्रयोग की जाती है। विधायी शक्ति सरकार और राष्ट्रीय सभा या के संसदीय निचले सदन, में निहित है। न्यायपालिका कार्यपालिका और विधायिका से स्वतंत्र है। जनसांख्यिकी केन्या में विविध आबादी रहती हैं जिसमें अफ्रीका में पाए जाने वाले अधिकांश प्रमुख जातीय, नस्लीय और भाषाई समूहों शामिल हैं। एक अनुमान के अनुसार 42 अलग-अलग समुदाय केन्या में रहते हैं, जिसमें बांटु लोग (67%) और निलोत लोग (30%) बहुमत में हैं। अरब लोग, भारतीय और यूरोपीय लोग केन्या में अल्पसंख्यक के रूप में रहते हैं। यह देश एक युवा आबादी वाला है, 73% लोग 30 साल से कम उम्र के हैं, तेज़ी से जनसंख्या वृद्धि की वजह से। पिछली सदी से केन्या की आबादी 29 लाख से 4 करोड़ हो गई हैं। केन्या के विभिन्न जातीय समूह आम तौर पर अपने समुदाय के भीतर अपनी मातृभाषा में बोलते हैं। दो आधिकारिक भाषाएँ, अंग्रेजी और स्वाहिली, अन्य आबादी के साथ संचार के लिए, विविध स्तर में उपयोग की जाती हैं। अंग्रेजी व्यापक रूप से वाणिज्य, स्कूली शिक्षा और सरकार में बोली जाती है। सन्दर्भ
केनया की राष्ट्रीय भाषा क्या है?
अंग्रेजी और स्वाहिली
7,073
hindi
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अघोराचार्य बाबा कीनाराम (जन्म:१६९३-१७६९, काशी) अघोर सम्प्रदाय के अनन्य आचार्य थे। इनका जन्म सन् १६९३ भाद्रपद शुक्ल को चंदौली के रामगढ़ गाँव में अकबर सिंह के घर हुआ।[1] बारह वर्ष की अवस्था में विवाह अवश्य हुआ पर वैराग्य हो जाने के कारण गौना नहीं कराया। ये देश के विभिन्न भागों का भ्रमण करते हुए गिरनार पर्वत पर बस गये। कीनाराम सिद्ध महात्मा थे और इनके जीवन की अनेक चमत्कारी घटनाएं प्रसिद्ध हैं। सन् १७६९ को काशी में ही इनका निधन हुआ। जीवन परिचय बाबा किनाराम उत्तर भारतीय संत परंपरा के एक प्रसिद्ध संत थे, जिनकी यश-सुरभि परवर्ती काल में संपूर्ण भारत में फैल गई। वाराणसी के पास चंदौली जिले के ग्राम रामगढ़ में एक कुलीन रघुवंशी क्षत्रिय परिवार में सन् 1601 ई. में इनका जन्म हुआ था। बचपन से ही इनमें आध्यात्मिक संस्कार अत्यंत प्रबल थे। तत्कालीन रीति के अनुसार बारह वर्षों के अल्प आयु में, इनकी घोर अनिच्छा रहते हुए भी, विवाह कर दिया गया किंतु दो तीन वर्षों बाद द्विरागमन की पूर्व संध्या को इन्होंने हठपूर्वक माँ से माँगकर दूध-भात खाया। ध्यातव्य है कि सनातन धर्म में मृतक संस्कार के बाद दूध-भात एक कर्मकांड है। बाबा के दूध-भात खाने के अगले दिन सबेरे ही वधू के देहांत का समाचार आ गया। सबको आश्चर्य हुआ कि इन्हें पत्नी की मृत्यु का पूर्वाभास कैसे हो गया। अघोर पंथ के ज्वलंत संत के बारे में ऐक कथानक प्रसिद्ध है,कि ऐक बार काशी नरेश अपने हाथी पर सवार होकर शिवाला स्थित आश्रम से जा रहे थे,उन्होनें बाबा किनाराम के तरफ तल्खी नजरों से देखा,तत्काल बाबा किनाराम ने आदेश दिया दिवाल चल आगे,इतना कहना कि दिवाल चल दिया और काशी नरेश की हाथी के आगे - आगे चलने लगा। तब काशी नरेश को अपने अभिमान का बोध हो गया और तत्काल बाबा किनाराम जी के चरणों में गिर गये। [2] वैराग्य यह विरक्त तो रहते ही थे, घर से भी निकल पड़े और घूमते-फिरते गाजीपुर (अब बलिया) जिले के कारों ग्राम के पास कामेश्वर धाम में रामानुजी संप्रदाय के संत शिवाराम की सेवा में पहुँचे। कुछ समय बाद दीक्षा देने के पूर्व महात्मा जी ने परीक्षार्थ इनसे स्नान ध्यान के सामान लेकर गंगातट पर चलने को कहा। यह शिवाराम जी की पूजनादि की सामग्री लेकर गंगातट से कुछ दूर पहुँच कर रुक गए तथा गंगाजी को झुककर प्रणाम करने लगे। जब सिर उठाया तब देखा कि भागीरथी का जल बढ़कर इनके चरणों तक पहुँच गया है। इन्होंने इस घटना को गुरु की महिमा मानी। शिवाराम जी दूर से यह सब देख रहे थे। उन्होंने किशोर किनाराम को असामान्य सिद्ध माना तथा मंत्र दीक्षा दी। जनश्रुतियों के अनुसार कारों के कामेश्वर धाम में साधना के दौरान बाबा किनाराम प्रतिदिन मध्यरात्रि में कारो से पैदल चलकर करीमुद्दीनपुर के कष्टहरणी भवानी मंदिर पहुंचकर दर्शन करते थे और भोर होने से पहले कारो पहुंच जाते थे। बाबा किनाराम को माता कष्टहरणी ने अपने हाथों से प्रसाद देकर सिद्धि प्रदान की थी।[3] पत्नी की मृत्यु के बाद शिवाराम जी ने जब पुनर्विवाह किया तब किनाराम जी ने उन्हें छोड़ दिया। घूमते-घामते नईडीह गाँव पहुँचे। वहाँ एक वृद्धा बहुत रो कलप रही थी। पूछने पर उसने बताया कि उसके एकमात्र पुत्र को बकाया लगान के बदले जमींदार के सिपाही पकड़ ले गए हैं। किनाराम जी ने वृद्धा के साथ जमींदार के द्वार पर जाकर देखा कि वह लड़का धूप में बैठा रखा है। जमींदार से उसे मुक्त करने का आग्रह व्यर्थ गया तब किनाराम ने जमींदार से कहा-जहाँ लड़का बैठा है वहाँ की धरती खुदवा ले और जितना तेरा रुपया हो, वहाँ से ले ले। हाथ दो हाथ गहराई तक खुदवाने पर वहाँ अशेष रु पए पड़े देखकर सब स्तंभित रह गए। लड़का तो तुरंत बंधनमुक्त कर ही दिया गया, जमींदार ने बहुत बहुत क्षमा मांगी। बुढ़िया ने वह लड़का किनाराम जी को ही सौंप दिया। बीजाराम उसका नाम था और संभवत: किनाराम जी के शरीर त्याग पश्चात्‌ वाराणसी के उनके मठ की गद्दी पर वही अधिष्ठित हुआ। गिरनार की यात्रा औघड़ों के मान्य स्थल गिरनार पर किनाराम जी को दत्तात्रेय के स्वयं दर्शन हुए थे जो रुद्र के बाद औघड़पन के द्वितीय प्रतिष्ठापक माने जाते हैं। ऐसी मान्यता है कि परम सिद्ध औघड़ों को भगवान दत्तात्रेय के दर्शन गिरनार पर आज भी होते है वर्तमान काल में, किनारामी औघड़पंथी परमसिद्धों की बारहवीं पीढ़ी में, वाराणसीस्थ अघोरेश्वर भगवान राम को भी गिरनार पर्वत पर ही दत्तात्रेय जी का प्रत्यक्ष दर्शन हुआ था। गिरनार के बाद किनाराम जी बीजाराम के साथ जूनागढ़ पहुँचे। वहाँ भिक्षा माँगने के अपराध में उस समय के नवाब के आदमियों ने बीजाराम को जेल में बंद कर दिया तथा वहाँ रखी 981 चक्कियों में से, जिनमें से अधिकतर पहले से ही बंदी साधु संत चला रहे थे, एक चक्की इनको भी चलाने को दे दिया। किनाराम जी ने सिद्धिबल से यह जान लिया तथा दूसरे दिन स्वयं नगर में जाकर भिक्षा माँगने लगे। वह भी कारागार पहुँचाए गए और उन्हें भी चलाने के लिए चक्की दी गई। बाबा ने बिना हाथ लगाए चक्की से चलने को कहा किंतु यह तो उनकी लीला थी, चक्की नहीं चली। तब उन्होंने पास ही पड़ी एक लकड़ी उठाकर चक्की पर मारी। आश्चर्य कि सब 981 चक्कियाँ अपने आप चलने लगीं। समाचार पाकर नवाब ने बहुत क्षमा माँगी और बाबा के आदेशानुसार यह वचन दिया कि उस दिन से जो भी साधु महात्मा जूनागढ़ आएँगे उन्हें बाबा के नाम पर ढाई पाव आटा रोज दिया जाएगा। नवाब की वंशपरंपरा भी बाबा के आशीर्वाद से ही चली। अघोरपंथ के साधक उत्तराखंड हिमालय में बहुत वर्षों तक कठोर तपस्या करने के बाद किनाराम जी वाराणसी के हरिश्चंद्र घाट के श्मशान पर रहनेवाले औघड़ बाबा कालूराम (कहते हैं, यह स्वयं भगवान दत्तात्रेय थे) के पास पहुँचे। कालूराम जी बड़े प्रेम से दाह किए हुए शवों की बिखरी पड़ी खोपड़ियों को अपने पास बुला-बुलाकर चने खिलाते थे। किनाराम को यह व्यर्थ का खिलवाड़ लगा और उन्होंने अपनी सिद्धि शक्ति से खोपड़ियों का चलना बंद कर दिया। कालूराम ने ध्यान लगाकर समझ लिया कि यह शक्ति केवल किनाराम में है। इन्हें देखकर कालूराम ने कहा-भूख लगी है। मछली खिलाओ। किनाराम ने गंगा तट की ओर मुख कर कहा-गंगिया, ला एक मछली दे जा। एक बड़ी मछली स्वत: पानी से बाहर आ गई। थोड़ी देर बाद कालूराम ने गंगा में बहे जा रहे एक शव को किनाराम को दिखाया। किनाराम ने वहीं से मुर्दे को पुकारा, वह बहता हुआ किनारे आ लगा और उठकर खड़ा हो गया। बाबा किनाराम ने उसे घर वापिस भेज दिया पर उसकी माँ ने उसे बाबा की चरणसेवा के लिए ही छोड़ दिया। इन सब के बाद, कहते हैं, कालूराम जी ने अपने स्वरूप को दर्शन दिया और किनाराम को साथ, क्रींकुण्ड (भदैनी, वाराणसी) ले गए जहाँ उन्हें बताया कि इस स्थल को ही गिरनार समझो। समस्त तीर्थों का फल यहाँ मिल जाएगा। किनाराम तबसे मुख्यश: उसी स्थान पर रहने लगे। अपने प्रथम गुरु वैष्णव शिवाराम जी के नाप पर उन्होंने चार मठ स्थापित किए तथा दूसरे गुरु, औघड़ बाबा कालूराम की स्मृति में क्रींकुंड (वाराणसी), रामगढ़ (चंदौली), देवल (गाजीपुर) तथा हरिहरपुर (जौनपुर) में चार औघड़ गद्दियाँ कायम कीं। इन प्रमुख स्थानों के अतिरिक्त तकिया भी कितनी ही हैं। सहज ही प्रश्न उठता है कि औघड़ कौन हैं ? औघड़ (संस्कृत रूप अघोर) शक्ति का साधक होता है। चंडी, तारा, काली यह सब शक्ति के ही रूप हैं, नाम हैं। यजुर्वेद के रुद्राध्याय में रुद्र की कल्याण्कारी मूर्ति को शिवी की संज्ञा दी गई है, शिवा को ही अघोरा कहा गया है। शिव और शक्ति संबंधी तंत्र ग्रंथ यह प्रतिपादित करते हैं कि वस्तुत: यह दोनों भिन्न नहीं, एक अभिन्न तत्व हैं। रुद्र अघोरा शक्ति से संयुक्त होने के कारण ही शिव हैं। संक्षेप में इतना जान लेना ही हमारे लिए यहाँ पर्याप्त है। बाबा किनाराम ने इसी अघोरा शक्ति की साधना की थी। ऐसी साधना के अनिवार्य परिणामस्वरूप चमत्कारिक दिव्य सिद्धियाँ अनायास प्राप्त हो जाती हैं, ऐसे साधक के लिए असंभव कुछ नहीं रह जाता। वह परमहंस पद प्राप्त होता है। कोई भी ऐसा सिद्ध प्रदर्शन के लिए चमत्कार नहीं दिखाता, उसका ध्येय लोक कल्याण होना चाहिए। औघड़ साधक की भेद बुद्धि का नाश हो जाता है। वह प्रचलित सांसारिक मान्यताओं से बँधकर नहीं रहता। सब कुछ का अवधूनन कर, उपेक्षा कर ऊपर उठ जाना ही अवधूत पद प्राप्त करना है। बाबा किनाराम परम्परा के सन्त अघोरेश्वर भगवान राम हिरामन तिवारी 'दादाजी' इन्हें भी देखें अघोर पंथ सन्दर्भ श्रेणी:अघोरी श्रेणी:अघोर संप्रदाय श्रेणी:वाराणसी के लोग श्रेणी:योग
अघोराचार्य बाबा कीनाराम की मृत्यु किस शहर में हुई थी?
काशी
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तांग राजवंश (चीनी: 唐朝, तांग चाओ) चीन का एक राजवंश था, जिसका शासनकाल सन् ६१८ ईसवी से सन्न ९०७ ईसवी तक चला। इनसे पहले सुई राजवंश का ज़ोर था और इनके बाद चीन में पाँच राजवंश और दस राजशाहियाँ नाम का दौर आया। तांग राजवंश की नीव 'ली' (李) नामक परिवार ने रखी जिन्होनें सुई साम्राज्य के पतनकाल में सत्ता पर क़ब्ज़ा कर लिए। इस राजवंश के शासन में लगभग १५ साल का एक अंतराल आया था, जो ८ अक्टूबर ६९० से ३ मार्च ७०५ तक चला, जिसमें दुसरे झऊ राजवंश की महारानी वू ज़ेतियाँ ने कुछ समय के लिए राजसिंहासन पर नियंत्रण हासिल कर लिया।[2][3] तांग साम्राज्य ने शिआन के शहर को अपनी राजधानी बनाया और इस समय शिआन दुनिया का सब से बड़ा नगर था। इस दौर को चीनी सभ्यता की चरम सीमा माना जाता है। चीन में पूर्व के हान राजवंश को इतनी इज़्ज़त से याद किया जाता है कि उनके नाम पर चीनी जाति को हान चीनी बुलाया जाने लगा, लेकिन तांग राजवंश को उनके बराबर का या उनसे भी महान वंश समझा जाता है। ७वीं और ८वीं शताब्दियों में तांग साम्राज्य ने चीन में जनगणना करवाई और उन से पता चलता है कि उस समय चीन में लगभग ५ करोड़ नागरिकों के परिवार पंजीकृत थे। ९वीं शताब्दी में वे जनगणना पूरी तो नहीं करवा पाए लेकिन अनुमान लगाया जाता है कि देश में ख़ुशहाली होने से आबादी बढ़कर ८ करोड़ तक पहुँच चुकी थी। इस बड़ी जनसँख्या से तांग राजवंश लाखों सैनिकों की बड़ी फौजें खड़ी कर पाया, जिनसे मध्य एशिया के इलाक़ों में और रेशम मार्ग के बहुत मुनाफ़े वाले व्यापारिक रास्तों पर यह वंश अपनी धाक जमाने लगी। बहुत से क्षेत्रों के राजा तांग राजवंश को अपना मालिक मानने पर मजबूर हो गए और इस राजवंश का सांस्कृतिक प्रभाव दूर-दराज़ में कोरिया, जापान और वियतनाम पर भी महसूस किया जाने लगा। तांग दौर में सरकारी नौकरों को नियुक्त करने के लिए प्रशासनिक इम्तिहानों को आयोजित किया जाता था और उस आधार पर उन्हें सेवा में रखा जाता था। योग्य लोगों के आने से प्रशासन में बेहतरी आई। संस्कृति के क्षेत्र में इस समय को चीनी कविया का सुनहरा युग समझा जाता है, जिसमें चीन के दो सब से प्रसिद्ध कवियों - ली बाई और दू फ़ू - ने अपनी रचनाएँ रची। हान गान, झांग शुआन और झऊ फ़ंग जैसे जाने-माने चित्रकार भी तांग ज़माने में ही रहते थे। इस युग के विद्वानों ने कई ऐतिहासिक साहित्य की पुस्तकें, ज्ञानकोश और भूगोल-प्रकाश लिखे जो आज तक पढ़े जाते हैं। इसी दौरान बौद्ध धर्म भी चीन में बहुत फैला और विकसित हुआ।तांग राजवंश के काल में काफी विकास हुआ और स्थिरता आई चीन में, सिवाय अन लुशान विद्रोह और केन्द्रीय सत्ता के कमजोर होने के बाद जो के साम्राज्य के अंतिम वर्षो में हुआ। तांग शासकों ने जिएदूशी नाम के क्षेत्रीय सामंतो को नियुक्त किया अलग अलग प्रान्तों में पर ९वी सदी के अंत तक इन्होने तांग साम्राज्य के विरुद्ध युद्ध शुरू कर दिया और खुदके स्वतंत्र राज्य स्थापित किये। इन्हें भी देखें सुई राजवंश चीन के राजवंश हान राजवंश सन्दर्भ श्रेणी:चीन के राजवंश श्रेणी:चीन का इतिहास
टैंग वंश का अंत किस साल में हुआ था?
९०७ ईसवी
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देस्पासीतो या डेस्पासिटो (हिन्दी: "धीरे-धीरे") पोर्टो रीको के गायक लुइ फोंसी तथा रैपर डैडी यांकी द्वारा उनकी आगामी स्टूडियो एल्बम से एक एकल स्पेनिश गीत है।[1] १२ जनवरी २०१७ को, यूनिवर्सल म्यूज़िक लैटिन ने "देस्पासीतो" और उसके म्यूजिक वीडियो को जारी किया, जिसमें दोनों कलाकार पोर्टो रीको के ओल्ड सान जुआन के ला पेर्ला क्षेत्र में, और स्थानीय बार ला फैक्टोरिया में गीत का प्रदर्शन करते दिखते हैं। इस गीत को फोंसी, एरिका एन्डर, और डैडी यांकी ने लिखा है, और मौरिसियो रेंगफो तथा एन्ड्रेस टॉरेस द्वारा इसका संगीत निर्मित किया गया है। १७ अप्रैल २०१७ को कनाडाई गायक जस्टिन बीबर के साथ गीत का एक रीमिक्स संस्करण रिलीज़ किया गया, जिसने कई देशों में, खासकर अंग्रेजी भाषी क्षेत्रों में गीत के प्रदर्शन में सुधार करने में मदद की। पॉप-रेगेटन शैली का यह गीत व्यावसायिक रूप से फ़ॉन्सी और डैडी याकी का सबसे सफल एकल गीत बना। यह गीत ४७ देशों के संगीत चार्ट में शीर्ष पर रहा, और दस अन्य देशों के शीर्ष १० में इसने जगह बनायी। १९९६ में "माकारीना (बेयसाइड बॉयज मिक्स)" के बाद "बिलबोर्ड हॉट १००" के शीर्ष पर पहुँचने वाला यह पहला स्पैनिश गीत है। ४२ हफ्तों तक "बिलबोर्ड हॉट लैटिन सांग्स" चार्ट के शीर्ष पर रहा यह गीत इस सूची में सबसे लंबे समय तक शीर्ष पर रहा है। अगस्त २०१७ में यूट्यूब पर तीन अरब व्यूज तक पहुँचते ही यह अब तक का सबसे ज्यादा देखा गया गीत बन गया। इसके अतिरिक्त साइट पर तीन और चार अरब व्यूज तक पहुंचने वाला भी यह पहला वीडियो है। यह गाना २७ देशों में २०१७ के दो सर्वश्रेष्ठ एकल गीतों में से एक था। "देस्पासीतो" को संगीत आलोचकों से अनुकूल समीक्षाएं प्राप्त हुई, जिन्होंने इसके लैटिन और अर्बन संगीत के फ्यूजन, और इसकी गतिशीलता की सराहना की। इसे १८वें वार्षिक लैटिन ग्रैमी पुरस्कारों में रिकार्ड ऑफ द ईयर, सॉन्ग ऑफ द ईयर, बेस्ट अर्बन फ्यूजन/परफॉर्मेंस, और बेस्ट शोर्ट फॉर्म म्यूजिक वीडियो के पुरस्कार प्राप्त हुए। इसके अतिरिक्त इस गीत के रीमिक्स संस्करण को भी ६०वें ग्रैमी पुरस्कारों में रिकार्ड ऑफ़ द ईयर, सॉन्ग ऑफ द ईयर और सर्वश्रेष्ठ पॉप डुओ/ग्रुप प्रदर्शन के लिए नामांकित किया गया। २०१७ में, "डेस्पासिटो" को बिलबोर्ड द्वारा हर समय के पांचवें सर्वश्रेष्ठ लैटिन गीत का दर्जा दिया गया था और यह टाइम, बिलबोर्ड और रोलिंग स्टोन पत्रिकाओं की वर्ष के शीर्ष दस गीतों की सूची में था। पृष्ठभूमि दो साल तक बिना किसी नए संगीत को रिलीज़ किए, लुइ फोंसी "एक मजेदार गीत बनाना चाहते थे, जिसमें लैटिन आभा हो, और जिसे सुनकर लोग नृत्य करने को मजबूर हो जाएँ।"[2][3] गीत के बोल सन् २०१५ के अंत में फोंसी के घर में लिखे गए, जब उन्होंने अपनी नई एल्बम के लिए एक "स्विंगिंग गीत" रिकॉर्ड करने की इच्छा व्यक्त की।[4] पनामाई गायिका और गीतकार एरिका एन्डर, जो एक लैटिन ग्रेमी अवार्ड-विजेता हैं, मियामी में लुइ फोंसी के घर गई, जहाँ फोंसी ने उन्हें कहा कि वह "देस्पासीतो" नामक एक गीत लिखने के बारे में सोच रहे हैं।"[5][6] फ़ॉन्सी ने "वामोस आ हाकर्लो एन ऊना प्लाया इन पोर्टो रीको" लाइनों को गाया, जिसके जवाब में एन्डर ने "हास्ता ले लास ओलास ग्रितेन अई बैंडिटो" कहा और फिर वे बाकी का गाना बनाने लगे।[6] गीत को क्षेत्रीय ध्वनि नहीं देने के लिए बाद में पोर्टो रीको वाली लाइन को गीत के अंत में स्थानांतरित कर दिया गया और फिर उन्होंने वीडियो की कहानी लिखना शुरू कर दिया।[6] फोंसी पहले इसे एक कंबिया और पॉप गीत के रूप में लिखना चाहते थे, लेकिन बाद में उन्होंने इसे "अर्बन इंजेक्शन" देने पर विचार करना शुरू किया और व्हाट्सएप के माध्यम से रेगेटन कलाकार डैडी यांकी से संपर्क किया, जो फ़ोन्सी के गीत का डेमो सुनने के बाद साथ काम करने पर सहमत हो गए।[3][7] "देस्पासीतो" से पहले, फोंसी और डैडी यांकी ने "उना ओपरतुनिदाद" पर एक साथ काम किया था, जो २०१० में डिजिटल रिलीज़ किया गया था।[8] डैडी यांकी ने अपनी कविता और पोस्ट-कोरस (हुक) लिखा,[9][10] जिसे उन्होंने अपने पिता के बारे में सोचते हुए लिखा, जब वह अपने घर में बोंगो बजा रहे थे।[11] उन दोनों ने यह गीत २०१६ में मियामी में रिकॉर्ड किया।[12] गीत का निर्माण मौरिसियो रेंगीफो और एन्ड्रेस टॉरेस ने किया है। रेंगीफो को पूर्व कोलीबियन पॉप जोड़ी कैली एंड एल डांडी के सदस्य के रूप में जाना जाता है और टॉरेस को प्रमुख लैटिन कलाकरों जैसे डेविड बिसबल, थैलिया और रिकी मार्टिन के साथ काम करने के लिए जाना जाता है।[13][14][15] मूलतः, लुइस फोंसी ने "देस्पासीतो" का डेमो बनाने के बाद अपने एल्बम के अन्य गीतों पर ध्यान केंद्रित किया।[16] अपने निर्माताओं को गीत दिखाने के बाद उन्होंने और फोंसी ने "देस्पासीतो" पर ध्यान केंद्रित करना शुरू किया, और अन्य कार्यों को अलग छोड़ने का फैसला किया।[16] फोंसी ने कहा कि दोनों डैडी याकी और वह अंतिम गीत सुनने के बाद आश्चर्यचकित थे, क्योंकि यह "शक्तिशाली, ताजा और अलग" लग रहा था।[16] लुइ फोंसी ने यह भी कहा कि वह इसे रेगेटन गीत नहीं मानते, लेकिन लगता है कि "इसमें रेगेटन की ऊर्जा और हलकी अर्बन बीट्स हैं।"[3] साथ साथ ही उन्होंने यह भी पुष्टि की कि डैडी यांकी का काम गीत के लिए एक प्लस था क्योंकि गीत को "उस विस्फोट की आवश्यकता थी जो केवल वह [यांकी] गीत में ला सकता था।"[3] एन्डर ने कहा कि गीत "कई परिवर्तनों से गुजरा" जब तक फोंसी को वह नहीं मिला, "जो वह चाहते थे।"[6] फोंसी ने कहा कि उन्होंने "देस्पासीतो" को एक नृत्य योग्य गीत इसलिए बनाया क्योंकि "लेटिन के लोगों को खुश रहने के लिए जाना जाता है" और वह उल्लासपूर्ण संगीत की जरूरत महसूस करते हैं।[17] उन्होंने कहा कि गीत की लय में "अर्बन अनुभव" एक प्रकार है जो "[हमे] अंदर और बाहर साँस लेते हैं" और यह "पार्टी का एक पर्याय है।"[17] उनके अनुसार, "देस्पासीतो" एक बहुत मेलॉडिक गीत है, जो कई अन्य संगीत शैलियों को अच्छी तरह से अनुकूलित कर सकता है।[17] अप्रैल २०१७ में बिलबोर्ड पत्रिका के साथ एक साक्षात्कार में, एरिका एन्डर ने कहा कि उनका गीत से "एक विशेष संबंध बना" और डैडी यांकी के साथ सहयोग "एक महान विचार था।"[4] उसने यह भी कहा कि गीत की कामुक प्रकृति के कारण, उन्हें "एक अच्छा गीत के लिए ज़िम्मेदार होना ज़रूरी है" और फोंसी के लिए लिखते समय उनका दृष्टिकोण "अच्छे विचारों के साथ बातें कैसे कहें" का ध्यान रखना था।[4] २०१७ बिलबोर्ड लैटिन संगीत सम्मेलन के दौरान, अमेरिकी-प्योर्टो रिकान गायक और गीतकार निकी जाम ने बताया कि "देस्पासीतो" के मूल संस्करण में डैडी यांकी के स्थान पर वह थे।[18][19][20] रिलीज़ तथा परिणाम यूनिवर्सल म्यूज़िक लैटिन द्वारा १३ जनवरी २०१७ को "देस्पासीतो" डिजिटल डाउनलोड के लिए उपलब्ध कराया गया था।[21] सीडी पर इसे ३० अप्रैल २०१७ को यूरोप में मूल और पॉप संस्करण सहित २-ट्रैक सिंगल के रूप में जारी किया गया।[22] कुछ संगीत प्रकाशनों का मानना ​​है कि इस गीत की सफलता प्रमुखतः निकी जैम, थिलिया, एनरिक इग्लेसियस, कार्लोस वाइव्स, रिकी मार्टिन और शकीरा जैसे कलाकारों द्वारा लैटिन पॉप और अर्बन संगीत के संयोजन की प्रवृत्ति से प्रभावित थी।[23] इस प्रवृत्ति को फ़ॉन्सी ने "नया पॉप" नाम दिया, जबकि एडर ने कहा, "इस तरह के फ़्यूज़न तो हर कोई कर रहा है।"[2][4] गीत को समीक्षकों से भी सकारात्मक प्रतिक्रियाएं प्राप्त हुई। एएक्सएस के डोरीस इरिज़ाररी ने "लैटिन लय" और अर्बन संगीत के फ्यूज़न की सराहना की, और इसे "मार्मिक" कहकर वर्णित किया।[24] डांस-चार्ट्स जर्नल के सेबस्टियन वर्केके ने कहा कि "एक साधारण ४/४ की लय, स्पेनिश गिटार, शुरुआत से बेस का प्रयोग, और लुइस फोंसी [और डैडी यांकी] की बेहतरीन आवाज़ अकेले ही इस गीत को हिट कर पाने के लिए पर्याप्त थे।"[25] आगे उन्होंने कहा कि "देस्पासीतो" में दुनिया तक पहुंचने वाला जादू है" और यह "डांसफ्लोर और रेडियो, दोनों पर सामान रूप से काम करता है।"[25] द म्यूजिक यूनिवर्स के बडी इहन ने इसे "संक्रमक धुन" बताया, और कहा कि इसका संगीत वीडियो बहुत लोकप्रिय हो गया क्योंकि यह "लैटिन संगीत व्यवसाय के दो सबसे बड़े सितारों द्वारा बनाया गया महान संगीत है।"[26] ई! न्यूज़ की डायना मार्टि ने कहा कि "[इस पर] नृत्य न करना लगभग असंभव है।"[27] एन्टाटा पत्रिका के कैरोलीन सोरिआनो ने गीत की बीट को "काफी सेक्सी और आकर्षक" बताया, और गीत को "मनोरम" के रूप में परिभाषित किया।[28] रोलिंग स्टोन पत्रिका के ब्रिटनी स्पैनोस ने इसे आकर्षक, सेक्सी और दिलकश बताया।[12] बिलबोर्ड के लीला कोबो ने "देस्पासीतो" को एक "महान पॉप गीत" कहा, और इसके पूर्व-कोरस और कोरस की "निर्विवाद तात्कालिक क्षमता" पर प्रकाश डाला।[29] कोबो ने यह भी कहा कि "इस रोमांटिक लैटिन पॉप गीत में रेगेटन बीट, एकदम शरारती बोल, एक समकालीन रैप, और एक अनूठा कोरस है, जिसे कई स्थितियों में महसूस किया जा सकता है।"[30] मीडियमस कल्चर के रॉबर्ट जोफ़्रेड ने अपनी समीक्षा में कहा कि गीत में "[बहुत] कुछ दिलचस्प हो रहा है" और इसकी इसकी संरचना और विशेषताओं के आधार पर इसे लैटिन-अमेरिकी गीत के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है।[31] उन्होंने एक नायलॉन-स्ट्रिंग गिटार की बजाय फ्लैमेन्को-शैली की धुन बजाने के लिए एक स्टील-स्ट्रिंग गिटार का उपयोग करने पर भी जोर डाला, और इसे "पुरानी संगीत शैली पर एक आधुनिक दृष्टिकोण" कहा।[31] जोफ़्रड ने यह भी कहा कि "डेस्पासिटो" एक "महान गीत" इसलिए भी है क्योंकि "यह बहुत ही सूक्ष्म तरीके से दशकों की परंपरा को हवा में फेंक देता है।"[31] रीमिक्सिंग रीगाटेन (२०१५) की लेखक, पेट्रा रिवेरा-रीडाऊ ने कहा कि वह इस गीत को "वास्तव में पसंद करती है" और यह "सुपर आकर्षक" है।[32] उसने यह भी कहा कि यह गीत दिखाता है कि "रेगेटन वास्तव में कभी गया ही नहीं था" और इस गीत की सफलता "[उन्हें] सचमुच उत्साहित करती है कि यह देखने के लिए कि आगे और क्या-क्या हो सकता है।"[32] टाइम पत्रिका के राइसा ब्रूनर ने गीत को "रेगेटन ग्रूव्स के साथ जोड़ा गया एक संक्रामक लैटिन संगीत" और "एक अनूठी नृत्य धुन" के रूप में वर्णित किया।[33] स्पैनिश रिकॉर्ड निर्माता नाहुम गार्सिया ने कहा कि यह गीत "बहुत अच्छी तरह से बनाया गया है", पहली बार लुइस फोंसी शब्द "देस्पासीतो" का प्रयोग करता है, तब "जिस तरह से ताल कोरस से पहले टूट जाता है वह विशिष्ट है।"[34] उन्होंने आगे समझाया कि "मस्तिष्क को पता चलता है कि लय टूट गई है, और यह तुरंत अपनी छाप छोड़ता है", और दावा किया कि यह "चाल" बहुत आम नहीं है "और पॉप संगीत में बहुत कम प्रयोग होती है।"[34] सिनसिनाटी विश्वविद्यालय के बिजनेस स्कूल में संगीतकार और प्रोफेसर,[35] जेम्स केलारिस ने व्यक्त किया कि "हंसमुख, सरल, दोहराव और एक खूबसूरत ताल होने के कारण" देस्पासीतो में "इयरवॉर्म तत्व शामिल हैं।"[34] आयरिश मिरर के जोशुआ बैरी ने हालांकि गीत के बारे में एक नकारात्मक राय दी, और उन्होंने इसके बोलों को यह बताते हुए "बहुत कठोर और डरावना" कहा कि "कुछ लोगों को ये अपमानजनक लग सकते हैं।"[36] पुरस्कार अपनी व्यावसायिक सफलता के बाद "देस्पासीतो" को कई पुरस्कार और नामांकन प्राप्त हुए हैं। इस गीत के रीमिक्स संस्करण को ६०वें ग्रैमी पुरस्कारों में रिकार्ड ऑफ़ द ईयर, सॉन्ग ऑफ द ईयर और सर्वश्रेष्ठ पॉप डुओ/ग्रुप प्रदर्शन के लिए नामांकित किया गया।[37] मूल गीत ने १८वें वार्षिक लैटिन ग्रैमी पुरस्कारों में ४ पुरस्कार जीते: रिकार्ड ऑफ द ईयर, सॉन्ग ऑफ द ईयर, बेस्ट अर्बन फ्यूजन/परफॉर्मेंस, और बेस्ट शोर्ट फॉर्म म्यूजिक वीडियो।[38] ४५वें अमेरिकी म्यूजिक पुरस्कार में इसने कोलैबोरेशन ऑफ़ द ईयर और फेवरेट पॉप/रॉक सांग का पुरस्कार जीता, और वीडियो ऑफ़ द ईयर के लिए नामित किया गया।[39] गीत को तीन लैटिन अमेरिकी संगीत पुरस्कार और एक एमटीवी वीडियो म्यूजिक अवार्ड के लिए भी नामित किया गया था।[40][41] इनके अतिरिक्त इस गीत ने दो टीन चॉइस अवार्ड्स, दो प्रीमिओस जुवेंटुड और एक एनआरजे म्यूज़िक अवार्ड भी जीता।[42][43][44] आर्थिक प्रभाव जुलाई २०१७ में, यह खबर आयी थी कि गीत की दुनिया भर में सफलता के बाद पोर्टो रीको में पर्यटकों में ४५% की वृद्धि हुई है।[47][48] कई टूर ऑपरेटर्स ने कहा कि पर्यटक गीत के संगीत वीडियो का हवाला देकर क्लब ला फैक्टोरिया और ओल्ड सान जुआन के ला पर्ला जिले जैसे स्थानों में रुचि ले रहे थे, जो वीडियो में दिखाए गए थे।[49] विवाद जुलाई 2017 में, मलेशिया सरकार के अधिकारियों ने बताया कि सार्वजनिक शिकायतों के परिणामस्वरूप सरकार के स्वामित्व वाले प्रसारण स्टेशनों पर प्रसारण के लिए "देस्पासीतो" पर प्रतिबंध लगा दिया गया था।[50] सरकारी मंत्रियों ने कहा कि यह गीत इस्लामिक नहीं हैं, और गीत के बोल "सुनने योग्य नहीं" थे।[50] रिलीज़ इतिहास सन्दर्भ श्रेणी:स्पेनिश भाषा के गाने
देस्पासीतो गीत किस वर्ष में प्रदर्शित हुआ था?
१२ जनवरी २०१७
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नीरजा भनोट (English: Neerja Bhanot, 7 सितंबर 1963- 5 सितंबर 1986[1]) मुंबई में पैन ऍम एयरलाइन्स (English: Pan Am Airlines) की विमान परिचारिका थीं। 5 सितंबर 1986 के मुम्बई से न्यूयॉर्क जा रहे पैन एम फ्लाइट 73 के अपहृत विमान में यात्रियों की सहायता एवं सुरक्षा करते हुए वे आतंकवादियों की गोलियों का शिकार हो गईं थीं।[1] उनकी बहादुरी के लिये मरणोपरांत उन्हें भारत सरकार ने शान्ति काल के अपने सर्वोच्च वीरता पुरस्कार अशोक चक्र से सम्मानित किया और साथ ही पाकिस्तान सरकार और अमरीकी सरकार ने भी उन्हें इस वीरता के लिये सम्मानित किया है। इनकी कहानी पर आधारित २०१६ में एक फ़िल्म भी बनी, जिसमें उनका किरदार सोनम कपूर ने अदा किया।[2] प्रारंभिक जीवन नीरजा का जन्म 7 सितंबर 1963 को पिता हरीश भनोट और माँ रमा भनोट की पुत्री के रूप में चंडीगढ़ में हुआ। उनके पिता बंबई (अब मुंबई) में पत्रकारिता के क्षेत्र में कार्यरत थे और नीरजा की प्रारंभिक शिक्षा अपने गृहनगर चंडीगढ़ के सैक्रेड हार्ट सीनियर सेकेण्डरी स्कूल में हुई। इसके पश्चात् उनकी शिक्षा मुम्बई के स्कोटिश स्कूल और सेंट ज़ेवियर्स कॉलेज में हुई।[1] नीरजा का विवाह वर्ष 1985 में संपन्न हुआ और वे पति के साथ खाड़ी देश को चली गयी लेकिन कुछ दिनों बाद दहेज के दबाव को लेकर इस रिश्ते में खटास आयी और विवाह के दो महीने बाद ही नीरजा वापस मुंबई आ गयीं। इसके बाद उन्होंने पैन एम में विमान परिचारिका की नौकरी के लिये आवेदन किया और चुने जाने के बाद मियामी में ट्रेनिंग के बाद वापस लौटीं।[1] विमान अपहरण घटनाक्रम मुम्बई से न्यूयॉर्क के लिये रवाना पैन ऍम-73 को कराची में चार आतंकवादियों ने अपहृत कर लिया और सारे यात्रियों को बंधक बना लिया। नीरजा उस विमान में सीनियर पर्सर के रूप में नियुक्त थीं और उन्हीं की तत्काल सूचना पर चालक दल के तीन सदस्य विमान के कॉकपिट से तुरंत सुरक्षित निकलने में कामयाब हो गये। पीछे रह गयी सबसे वरिष्ठ विमानकर्मी के रूप में यात्रियों की जिम्मेवारी नीरजा के ऊपर थी और जब १७ घंटों के बाद आतंकवादियों ने यात्रियों की हत्या शुरू कर दी और विमान में विस्फोटक लगाने शुरू किये तो नीरजा विमान का इमरजेंसी दरवाजा खोलने में कामयाब हुईं और यात्रियों को सुरक्षित निकलने का रास्ता मुहैय्या कराया। वे चाहतीं तो दरवाजा खोलते ही खुद पहले कूदकर निकल सकती थीं किन्तु उन्होंने ऐसा न करके पहले यात्रियों को निकलने का प्रयास किया। इसी प्रयास में तीन बच्चों को निकालते हुए जब एक आतंकवादी ने बच्चों पर गोली चलानी चाही नीरजा के बीच में आकार मुकाबला करते वक्त उस आतंकवादी की गोलियों की बौछार से नीरजा की मृत्यु हुई। नीरजा के इस वीरतापूर्ण आत्मोत्सर्ग ने उन्हें अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर हीरोइन ऑफ हाईजैक के रूप में मशहूरियत दिलाई। सम्मान नीरजा को भारत सरकार ने इस अदभुत वीरता और साहस के लिए मरणोपरांत अशोक चक्र से सम्मानित किया जो भारत का सर्वोच्च शांतिकालीन वीरता पुरस्कार है।अपनी वीरगति के समय नीरजा भनोट की उम्र २३ साल थी। इस प्रकार वे यह पदक प्राप्त करने वाली पहली महिला और सबसे कम आयु की नागरिक भी बन गईं।[3] पाकिस्तान सरकार की ओर से उन्हें तमगा-ए-इन्सानियत से नवाज़ा गया। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नीरजा का नाम हीरोइन ऑफ हाईजैक के तौर पर मशहूर है। वर्ष २००४ में उनके सम्मान में भारत सरकार ने एक डाक टिकट भी जारी किया[4] और अमेरिका ने वर्ष २००५ में उन्हें जस्टिस फॉर क्राइम अवार्ड दिया है।[5] स्मृति शेष नीरजा की समृति में मुम्बई के घाटकोपर इलाके में एक चौराहे का नामकरण किया गया जिसका उद्घाटन ९० के दशक में अमिताभ बच्चन ने किया। इसके अलावा उनकी स्मृति में एक संस्था नीरजा भनोट पैन ऍम न्यास की स्थापना भी हुई है जो उनकी वीरता को स्मरण करते हुए महिलाओं को अदम्य साहस और वीरता हेतु पुरस्कृत करती है। उनके परिजनों द्वारा स्थापित यह संस्था प्रतिवर्ष दो पुरस्कार प्रदान करती है जिनमें से एक विमान कर्मचारियों को वैश्विक स्तर पर प्रदान किया जाता है और दूसरा भारत में महिलाओं को विभिन्न प्रकार के अन्याय और अत्याचार के खिलाफ़ आवाज़ उठाने और संघर्ष के लिये।[6] प्रत्येक पुरास्कार की धन्राषित १,५०,००० रुपये हैं और इसके साथ पुरस्कृत महिला को एक ट्रोफी और स्मृतिपत्र दिया जाता है।[7] महिला अत्याचार के खिलाफ़ आवाज़ उठाने के लिये प्रसिद्ध हुई राजस्थान की दलित महिला भंवरीबाई को भी यह पुरस्कार दिया गया था।[8] फ़िल्म नीरजा के इस साहसिक कार्य और उनके बलिदान को याद रखने के लिये उन पर फ़िल्म निर्माण की घोषणा वर्ष २०१० में ही हो गयी थी परन्तु किन्हीं कारणों से यह कार्य टलता रहा। अप्रैल २०१५ में यह खबर आयी कि राम माधवानी के निर्देशन में इस फ़िल्म की शूटिंग शुरू हुई है। इस फ़िल्म में नीरजा का किरदार अभिनेत्री सोनम कपूर अदा किया है। यह फ़िल्म 19 फ़रवरी 2016 को रिलीज हुई है।[2] [2] इस फ़िल्म के प्रोड्यूसर अतुल काशबेकर हैं।[9] इन्हें भी देखें पैन एम् फ्लाइट 73 नीरजा भनोट (फ़िल्म) सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ , न्यास की वेबसाइट। श्रेणी:हिन्द की बेटियाँ श्रेणी:विकिपरियोजना हिन्द की बेटियाँ श्रेणी:अशोक चक्र सम्मानित लोग श्रेणी:1963 में जन्मे लोग श्रेणी:मृत लोग श्रेणी:चंडीगढ़ के लोग श्रेणी:१९८६ में निधन श्रेणी:नीरजा भनोट श्रेणी:तमगा-ए-इन्सानियत से सम्मानित
नीरजा भनोट की मृत्यु कब हुई थी?
5 सितंबर 1986
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भारत के पश्चिमी तट पर स्थित मुंंबई (पूर्व नाम बम्बई), भारतीय राज्य महाराष्ट्र की राजधानी है। इसकी अनुमानित जनसंख्या ३ करोड़ २९ लाख है जो देश की पहली सर्वाधिक आबादी वाली नगरी है।[1] इसका गठन लावा निर्मित सात छोटे-छोटे द्वीपों द्वारा हुआ है एवं यह पुल द्वारा प्रमुख भू-खंड के साथ जुड़ा हुआ है। मुंबई बन्दरगाह भारतवर्ष का सर्वश्रेष्ठ सामुद्रिक बन्दरगाह है। मुम्बई का तट कटा-फटा है जिसके कारण इसका पोताश्रय प्राकृतिक एवं सुरक्षित है। यूरोप, अमेरिका, अफ़्रीका आदि पश्चिमी देशों से जलमार्ग या वायुमार्ग से आनेवाले जहाज यात्री एवं पर्यटक सर्वप्रथम मुम्बई ही आते हैं, इसलिए मुम्बई को भारत का प्रवेशद्वार कहा जाता है। मुम्बई भारत का सर्ववृहत्तम वाणिज्यिक केन्द्र है। जिसकी भारत के सकल घरेलू उत्पाद में 5% की भागीदारी है।[2] यह सम्पूर्ण भारत के औद्योगिक उत्पाद का 25%, नौवहन व्यापार का 40%, एवं भारतीय अर्थ व्यवस्था के पूंजी लेनदेन का 70% भागीदार है।[3] मुंबई विश्व के सर्वोच्च दस वाणिज्यिक केन्द्रों में से एक है।[4] भारत के अधिकांश बैंक एवं सौदागरी कार्यालयों के प्रमुख कार्यालय एवं कई महत्वपूर्ण आर्थिक संस्थान जैसे भारतीय रिज़र्व बैंक, बम्बई स्टॉक एक्स्चेंज, नेशनल स्टऑक एक्स्चेंज एवं अनेक भारतीय कम्पनियों के निगमित मुख्यालय तथा बहुराष्ट्रीय कंपनियां मुम्बई में अवस्थित हैं। इसलिए इसे भारत की आर्थिक राजधानी भी कहते हैं। नगर में भारत का हिन्दी चलचित्र एवं दूरदर्शन उद्योग भी है, जो बॉलीवुड नाम से प्रसिद्ध है। मुंबई की व्यवसायिक अपॊर्ट्युनिटी, व उच्च जीवन स्तर पूरे भारतवर्ष भर के लोगों को आकर्षित करती है, जिसके कारण यह नगर विभिन्न समाजों व संस्कृतियों का मिश्रण बन गया है। मुंबई पत्तन भारत के लगभग आधे समुद्री माल की आवाजाही करता है।[5] उद्गम "मुंबई" नाम दो शब्दों से मिलकर बना है, मुंबा या महा-अंबा – हिन्दू देवी दुर्गा का रूप, जिनका नाम मुंबा देवी है – और आई, "मां" को मराठी में कहते हैं।[6] पूर्व नाम बाँम्बे या बम्बई का उद्गम सोलहवीं शताब्दी से आया है, जब पुर्तगाली लोग यहां पहले-पहल आये, व इसे कई नामों से पुकारा, जिसने अन्ततः बॉम्बे का रूप लिखित में लिया। यह नाम अभी भी पुर्तगाली प्रयोग में है। सत्रहवीं शताब्दी में, ब्रिटिश लोगों ने यहां अधिकार करने के बाद, इसके पूर्व नाम का आंग्लीकरण किया, जो बॉम्बे बना। किन्तु मराठी लोग इसे मुंबई या मंबई व हिन्दी व भाषी लोग इसे बम्बई ही बुलाते रहे।[7][8] इसका नाम आधिकारिक रूप से सन 1995 में मुंबई बना। बॉम्बे नाम मूलतः पुर्तगाली नाम से निकला है, जिसका अर्थ है "अच्छी खाड़ी" (गुड बे)[9] यह इस तथ्य पर आधारित है, कि बॉम का पुर्तगाली में अर्थ है अच्छा, व अंग्रेज़ी शब्द बे का निकटवर्ती पुर्तगाली शब्द है बैआ। सामान्य पुर्तगाली में गुड बे (अच्छी खाड़ी) का रूप है: बोआ बहिया, जो कि गलत शब्द बोम बहिया का शुद्ध रूप है। हां सोलहवीं शताब्दी की पुर्तगाली भाषा में छोटी खाड़ी के लिये बैम शब्द है। अन्य सूत्रों का पुर्तगाली शब्द बॉम्बैम के लिये, भिन्न मूल है। José Pedro Machado's Dicionário Onomástico Etimológico da Língua Portuguesa ("एटायमोलॉजी एवं ओनोमैस्टिक्स का पुर्तगाली शब्दकोष") बताता है, कि इस स्थान का १५१६ से प्रथम पुर्तगाली सन्दर्भ क्या है, बेनमजम्बु या तेन-माइयाम्बु,[10] माइआम्बु या "MAIAMBU"' मुंबा देवी से निकला हुआ लगता है। ये वही मुंबा देवी हैं, जिनके नाम पर मुंबई नाम मराठी लोग लेते हैं। इसी शताब्दी में मोम्बाइयेन की वर्तनी बदली (१५२५)[11] और वह मोंबैएम बना (१५६३)[12] और अन्ततः सोलहवीं शताब्दी में बोम्बैएम उभरा, जैसा गैस्पर कोर्रेइया ने लेंडास द इंडिया ("लीजेंड्स ऑफ इंडिया") में लिखा है।[13] [14] इतिहास कांदिवली के निकट उत्तरी मुंबई में मिले प्राचीन अवशेष संकेत करते हैं, कि यह द्वीप समूह पाषाण युग से बसा हुआ है। मानव आबादी के लिखित प्रमाण २५० ई.पू तक मिलते हैँ, जब इसे हैप्टानेसिया कहा जाता था। तीसरी शताब्दी इ.पू. में ये द्वीपसमूह मौर्य साम्राज्य का भाग बने, जब बौद्ध सम्राट अशोक महान का शासन था। कुछ शुरुआती शताब्दियों में मुंबई का नियंत्रण सातवाहन साम्राज्य व इंडो-साइथियन वैस्टर्न सैट्रैप के बीच विवादित है। बाद में हिन्दू सिल्हारा वंश के राजाओं ने यहां १३४३ तक राज्य किया, जब तक कि गुजरात के राजा ने उनपर अधिकार नहीं कर लिया। कुछ पुरातन नमूने, जैसे ऐलीफैंटा गुफाएं व बालकेश्वर मंदिर में इस काल के मिलते हैं। १५३४ में, पुर्तगालियों ने गुजरात के बहादुर शाह से यह द्वीप समूह हथिया लिया। जो कि बाद में चार्ल्स द्वितीय, इंग्लैंड को दहेज स्वरूप दे दिये गये।[16] चार्ल्स का विवाह कैथरीन डे बर्गैन्ज़ा से हुआ था। यह द्वीपसमूह १६६८ में, ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी को मात्र दस पाउण्ड प्रति वर्ष की दर पर पट्टे पर दे दिये गये। कंपनी को द्वीप के पूर्वी छोर पर गहरा हार्बर मिला, जो कि उपमहाद्वीप में प्रथम पत्तन स्थापन करने के लिये अत्योत्तम था। यहां की जनसंख्या १६६१ की मात्र दस हजार थी, जो १६७५ में बढ़कर साठ हजार हो गयी। १६८७ में ईस्ट इंडिया कम्पनी ने अपने मुख्यालय सूरत से स्थानांतरित कर यहां मुंबई में स्थापित किये। और अंततः नगर बंबई प्रेसीडेंसी का मुख्यालय बन गया। सन १८१७ के बाद, नगर को वृहत पैमाने पर सिविल कार्यों द्वारा पुनर्ओद्धार किया गया। इसमें सभी द्वीपों को एक जुड़े हुए द्वीप में जोडने की परियोजना मुख्य थी। इस परियोजना को हॉर्नबाय वेल्लार्ड कहा गया, जो १८४५ में पूर्ण हुआ, तथा पूरा ४३८bsp;कि॰मी॰² निकला। सन १८५३ में, भारत की प्रथम यात्री रेलवे लाइन स्थापित हुई, जिसने मुंबई को ठाणे से जोड़ा। अमरीकी नागर युद्ध के दौरान, यह नगर विश्व का प्रमुख सूती व्यवसाय बाजार बना, जिससे इसकी अर्थ व्यवस्था मजबूत हुई, साथ ही नगर का स्तर कई गुणा उठा। १८६९ में स्वेज नहर के खुलने के बाद से, यह अरब सागर का सबसे बड़ा पत्तन बन गया।[17] अगले तीस वर्षों में, नगर एक प्रधान नागरिक केंद्र के रूप में विकसित हुआ। यह विकास संरचना के विकास एवं विभिन्न संस्थानों के निर्माण से परिपूर्ण था। १९०६ तक नगर की जनसंख्या दस लाख बिलियन के लगभग हो गयी थी। अब यह भारत की तत्कालीन राजधानी कलकत्ता के बाद भारत में, दूसरे स्थान सबसे बड़ा शहर था। बंबई प्रेसीडेंसी की राजधानी के रूप में, यह भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का आधार बना रहा। मुंबई में इस संग्राम की प्रमुख घटना १९४२ में महात्मा गाँधी द्वारा छेड़ा गया भारत छोड़ो आंदोलन था। १९४७ में भारतीय स्वतंत्रता के उपरांत, यह बॉम्बे राज्य की राजधानी बना। १९५० में उत्तरी ओर स्थित सैल्सेट द्वीप के भागों को मिलाते हुए, यह नगर अपनी वर्तमान सीमाओं तक पहुंचा। १९५५ के बाद, जब बॉम्बे राज्य को पुनर्व्यवस्थित किया गया और भाषा के आधार पर इसे महाराष्ट्र और गुजरात राज्यों में बांटा गया, एक मांग उठी, कि नगर को एक स्वायत्त नगर-राज्य का दर्जा दिया जाये। हालांकि संयुक्त महाराष्ट्र समिति के आंदोलन में इसका भरपूर विरोध हुआ, व मुंबई को महाराष्ट्र की राजधानी बनाने पर जोर दिया गया। इन विरोधों के चलते, १०५ लोग पुलिस गोलीबारी में मारे भी गये और अन्ततः १ मई, १९६० को महाराष्ट्र राज्य स्थापित हुआ, जिसकी राजधानी मुंबई को बनाया गया। १९७० के दशक के अंत तक, यहां के निर्माण में एक सहसावृद्धि हुई, जिसने यहां आवक प्रवासियों की संख्या को एक बड़े अंक तक पहुंचाया। इससे मुंबई ने कलकत्ता को जनसंख्या में पछाड़ दिया, व प्रथम स्थान लिया। इस अंतःप्रवाह ने स्थानीय मराठी लोगों के अंदर एक चिंता जगा दी, जो कि अपनी संस्कृति, व्यवसाय, भाषा के खोने से आशंकित थे।[18] बाला साहेब ठाकरे द्वारा शिव सेना पार्टी बनायी गयी, जो मराठियों के हित की रक्षा करने हेतु बनी थी।[19] नगर का धर्म-निरपेक्ष सूत्र १९९२-९३ के दंगों के कारण छिन्न-भिन्न हो गया, जिसमें बड़े पैमाने पर जान व माल का नुकसान हुआ। इसके कुछ ही महीनों बाद १२ मार्च,१९९३ को शृंखलाबद्ध बम विस्फोटों ने नगर को दहला दिया। इनमें पुरे मुंबई में सैंकडों लोग मारे गये। १९९५ में नगर का पुनर्नामकरण मुंबई के रूप में हुआ। यह शिवसेना सरकार की ब्रिटिश कालीन नामों के ऐतिहासिक व स्थानीय आधार पर पुनर्नामकरण नीति के तहत हुआ। यहां हाल के वर्षों में भी इस्लामी उग्रवादियों द्वारा आतंकवादी हमले हुए। २००६ में यहां ट्रेन विस्फोट हुए, जिनमें दो सौ से अधिक लोग मारे गये, जब कई बम मुंबई की लोकल ट्रेनों में फटे।[20] भूगोल मुंबई शहर भारत के पश्चिमी तट पर कोंकण तटीय क्षेत्र में उल्हास नदी के मुहाने पर स्थित है। इसमें सैलसेट द्वीप का आंशिक भाग है और शेष भाग ठाणे जिले में आते हैं। अधिकांश नगर समुद्रतल से जरा ही ऊंचा है, जिसकी औसत ऊंचाई 10m (33ft) से 15m (49ft) के बीच है। उत्तरी मुंबई का क्षेत्र पहाड़ी है, जिसका सर्वोच्च स्थान 450m (1,476ft) पर है।[21] नगर का कुल क्षेत्रफल ६०३कि.मी² (२३३sqmi) है। संजय गाँधी राष्ट्रीय उद्यान नगर के समीप ही स्थित है। यह कुल शहरी क्षेत्र के लगभग छठवें भाग में बना हुआ है। इस उद्यान में तेंदुए इत्यादि पशु अभी भी मिल जाते हैं,[22][23] जबकि जातियों का विलुप्तीकरण तथा नगर में आवास की समस्या सर उठाये खड़ी है। भाटसा बांध के अलावा, ६ मुख्य झीलें नगर की जलापूर्ति करतीं हैं: विहार झील, वैतर्णा, अपर वैतर्णा, तुलसी, तंस व पोवई। तुलसी एवं विहार झील बोरिवली राष्ट्रीय उद्यान में शहर की नगरपालिका सीमा के भीतर स्थित हैं। पोवई झील से केवल औद्योगिक जलापुर्ति की जाती है। तीन छोटी नदियां दहिसर, पोइसर एवं ओहिवाड़ा (या ओशीवाड़ा) उद्यान के भीतर से निकलतीं हैं, जबकि मीठी नदी, तुलसी झील से निकलती है और विहार व पोवई झीलों का बढ़ा हुआ जल ले लेती है। नगर की तटरेखा बहुत अधिक निवेशिकाओं (संकरी खाड़ियों) से भरी है। सैलसेट द्वीप की पूर्वी ओर दलदली इलाका है, जो जैवभिन्नताओं से परिपूर्ण है। पश्चिमी छोर अधिकतर रेतीला या पथरीला है। मुंबई की अरब सागर से समीपता के खारण शहरी क्षेत्र में मुख्यतः रेतीली बालू ही मिलती है। उपनगरीय क्षेत्रों में, मिट्टी अधिकतर अल्युवियल एवं ढेलेदार है। इस क्षेत्र के नीचे के पत्थर काले दक्खिन बेसाल्ट व उनके क्षारीय व अम्लीय परिवर्तन हैं। ये अंतिम क्रेटेशियस एवं आरंभिक इयोसीन काल के हैं। मुंबई सीज़्मिक एक्टिव (भूकम्प सक्रिय) ज़ोन है।[24] जिसके कारण इस क्षेत्र में तीन सक्रिय फॉल्ट लाइनें हैं। इस क्षेत्र को तृतीय श्रेणी में वर्गीकृत किया गया है, जिसका अर्थ है, कि रिक्टर पैमाने पर 6.5 तीव्रता के भूकम्प आ सकते हैं। जलवायु उष्णकटिबंधीय क्षेत्र में अरब सागर के निकट स्थित मुंबई की जलवायु में दो मुख्य ऋतुएं हैं: शुष्क एवं आर्द्र ऋतु। आर्द्र ऋतु मार्च एवं अक्टूबर के बीच आती है। इसका मुख्य लक्षण है उच्च आर्द्रता व तापमन लगभग 30°C (86°F) से भी अधिक। जून से सितंबर के बीच मानसून वर्षाएं नगर भिगोतीं हैं, जिससे मुंबई का वार्षिक वर्षा स्तर 2,200 millimetres (86.6in) तक पहुंचता है। अधिकतम अंकित वार्षिक वर्षा १९५४ में 3,452 millimetres (135.9in) थी।[25] मुंबई में दर्ज एक दिन में सर्वोच्च वर्षा 944 millimetres (37.17in) २६ जुलाई,२००५ को हुयी थी।[26] नवंबर से फरवरी तक शुष्क मौसम रहता है, जिसमें मध्यम आर्द्रता स्तर बना रहता है, व हल्का गर्म से हल्का ठंडा मौसम रहता है। जनवरी से फरवरी तक हल्की ठंड पड़ती है, जो यहां आने वाली ठंडी उत्तरी हवाओं के कारण होती है। मुंबई का वार्षिक तापमान उच्चतम 38°C (100°F) से न्यूनतम 11°C (52°F)तक रहता है। अब तक का रिकॉर्ड सर्वोच्च तापमान 43.3°C (109.9°F) तथा २२ जनवरी,१९६२ को नयूनतम 7.4°C (45.3°F) रहा।[27]। हालांकि 7.4°C (45.3°F) यहां के मौसम विभाग के दो में से एक स्टेशन द्वारा अंकित न्यूनतम तापमान कन्हेरी गुफाएं के निकट नगर की सीमाओं के भीतर स्थित स्टेशन द्वारा न्यूनतम तापमान ८ फरवरी,२००८ को अंकित किया गया।[28] अर्थ-व्यवस्था मुंबई भारत की सबसे बड़ी नगरी है। यह देश की एक महत्वपूर्ण आर्थिक केन्द्र भी है, जो सभी फैक्ट्री रोजगारों का १०%, सभी आयकर संग्रह का ४०%, सभी सीमा शुल्क का ६०%, केन्द्रीय राजस्व का २०% व भारत के विदेश व्यापार एवं निगमित करों से योगदान देती है।[29] मुंबई की प्रति-व्यक्ति आय है, जो राष्ट्रीय औसत आय की लगभग तीन गुणा है।[30] भारत के कई बड़े उद्योग (भारतीय स्टेट बैंक, टाटा ग्रुप, गोदरेज एवं रिलायंस सहित) तथा चार फॉर्च्यून ग्लोबल 500 कंपनियां भी मुंबई में स्थित हैं। कई विदेशी बैंक तथा संस्थानों की भी शाखाएं यहां के विश्व व्यापार केंद्र क्षेत्र में स्थित हैं।[31] सन १९८० तक, मुंबई अपने कपड़ा उद्योग व पत्तन के कारण संपन्नता अर्जित करता था, किन्तु स्थानीय अर्थ-व्यवस्था तब से अब तक कई गुणा सुधर गई है, जिसमें अब अभियांत्रिकी, रत्न व्यवसाय, हैल्थ-केयर एवं सूचना प्रौद्योगिकी भी सम्मिलित हैं। मुंबई में ही भाभा आण्विक अनुसंधान केंद्र भी स्थित है। यहीं भारत के अधिकांश विशिष्ट तकनीकी उद्योग स्थित हैं, जिनके पास आधुनिक औद्योगिक आधार संरचना के साथ ही अपार मात्रा में कुशल मानव संसाधन भी हैं। आर्थिक कंपनियों के उभरते सितारे, ऐयरोस्पेस, ऑप्टिकल इंजीनियरिंग, सभी प्रकार के कम्प्यूटर एवं इलेक्ट्रॉनिक उपकरण, जलपोत उद्योग तथा पुनर्नवीनीकृत ऊर्जा स्रोत तथा शक्ति-उद्योग यहां अपना अलग स्थान रखते हैं। नगर के कार्यक्षेत्र का एक बड़ा भाग केन्द्र एवं राज्य सरकारी कर्मचारी बनाते हैं। मुंबई में एक बड़ी मात्रा में कुशल तथा अकुशल व अर्ध-कुशल श्रमिकों की शक्ति है, जो प्राथमिकता से अपना जीवन यापन टैक्सी-चालक, फेरीवाले, यांत्रिक व अन्य ब्लू कॉलर कार्यों से करते हैं। पत्तन व जहाजरानी उद्योग भी प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से ढ़ेरों कर्मचारियों को रोजगार देता है। नगर के धारावी क्षेत्र में, यहां का कूड़ा पुनर्चक्रण उद्योग स्थापित है। इस जिले में अनुमानित १५,००० एक-कमरा फैक्ट्रियां हैं।[32] मीडिया उद्योग भी यहां का एक बड़ा नियोक्ता है। भारत के प्रधान दूरदर्शन व उपग्रह तंत्रजाल (नेटवर्क), व मुख्य प्रकाशन गृह यहीं से चलते हैं। हिन्दी चलचित्र उद्योग का केन्द्र भी यहीं स्थित है, जिससे प्रति वर्ष विश्व की सर्वाधिक फिल्में रिलीज़ होती हैं। बॉलीवुड शब्द बाँम्बे व हॉलीवुड को मिलाकर निर्मित है। मराठी दूरदर्शन एवं मराठी फिल्म उद्योग भी मुंबई में ही स्थित है। शेष भारत की तरह, इसकी वाणिज्यिक राजधानी मुंबई ने भी १९९१ के सरकारी उदारीकरण नीति के चलते आर्थिक उछाल (सहसावृद्धि) को देखा है। इसके साथ ही १९९० के मध्य दशक में सूचना प्रौद्योगिकी, निर्यात, सेवाएं व बी पी ओ उद्योगों में भी उत्थान देखा है। मुंबई का मध्यम-वर्गीय नागरिक जहां इस उछाल से सर्वाधिक प्रभावित हुआ है वहीं वो इसकी प्रतिक्रिया स्वरूप उपभोक्ता उछाल का कर्ता भी है। इन लोगों की ऊपरावर्ती गतिशीलता ने उपभोक्तओं के जीवन स्तर व व्यय क्षमता को भी उछाला है। मुंबई को वित्तीय बहाव के आधार पर मास्टरकार्ड वर्ल्डवाइड के एक सर्वेक्षण में; विश्व के दस सर्वोच्च वाणिज्य केन्द्रों में से एक गिना गया है।[4] नगर प्रशासन मुंबई में दो पृथक क्षेत्र हैं: नगर एवं उपनगर, यही महाराष्ट्र के दो जिले भी बनाते हैं। शहरी क्षेत्र को प्रायः द्वीप नगर या आइलैण्ड सिटी कहा जाता है।[33] नगर का प्रशासन बृहन्मुंबई नगर निगम (बी एम सी) (पूर्व बंबई नगर निगम) के अधीन है, जिसकी कार्यपालक अधिकार नगर निगम आयुक्त, राज्य सरकार द्वारा नियुक्त एक आई ए एस अधिकारी को दिये गए हैं। निगम में 227 पार्षद हैं, जो 24 नगर निगम वार्डों का प्रतिनिधित्व करते हैं, पाँच नामांकित पार्षद व एक महापौर हैं। निगम नागरिक सुविधाओं एवं शहर की अवसंरचना आवश्यकताओं के लिए प्रभारी है। एक सहायक निगम आयुक्त प्रत्येक वार्ड का प्रशासन देखता है। पार्षदों के चुनाव हेतु, लगभग सभी राजनीतिक पार्टियां अपने प्रत्याशि खड़े करतीं हैं। मुंबई महानगरीय क्षेत्र में 7 नगर निगम व 13 नगर परिषद हैं। बी एम सी के अलावा, यहां ठाणे, कल्याण-डोंभीवली, नवी मुंबई, मीरा भयंदर, भिवंडी-निज़ामपुर एवं उल्हासनगर की नगरमहापालिकाएं व नगरपालिकाएं हैं।[34] ग्रेटर मुंबई में महाराष्ट्र के दो जिले बनते हैं, प्रत्येक का एक जिलाध्यक्ष है। जिलाध्यक्ष जिले की सम्पत्ति लेख, केंद्र सरकार के राजस्व संग्रहण के लिए उत्तरदायी होता है। इसके साथ ही वह शहर में होने वाले चुनावों पर भी नज़र रखता है। मुंबई पुलिस का अध्यक्ष पुलिस आयुक्त होता है, जो आई पी एस अधिकारी होता है। मुंबई पुलिस राज्य गृह मंत्रालय के अधीन आती है। नगर सात पुलिस ज़ोन व सत्रह यातायात पुलिस ज़ोन में बंटा हुआ है, जिनमें से प्रत्येक का एक पुलिस उपायुक्त है। यातायात पुलिस मुंबई पुलिस के अधीन एक स्वायत्त संस्था है।[35] मुंबई अग्निशमन दल विभाग का अध्यक्ष एक मुख्य फायर अधिकारी होता है, जिसके अधीन चार उप मुख्य फायर अधिकारी व छः मंडलीय अधिकारी होते हैं। मुंबई में ही बंबई उच्च न्यायालय स्थित है, जिसके अधिकार-क्षेत्र में महाराष्ट्र, गोआ राज्य एवं दमन एवं दीव तथा दादरा एवं नागर हवेली के केंद्र शासित प्रदेश भी आते हैं। मुंबई में दो निम्न न्यायालय भी हैं, स्मॉल कॉज़ेज़ कोर्ट –नागरिक मामलों हेतु, व विशेष टाडा (टेररिस्ट एण्ड डिस्रप्टिव एक्टिविटीज़) न्यायालय –जहां आतंकवादियों व फैलाने वालों व विध्वंसक प्रवृत्ति व गतिविधियों में पहड़े गए लोगों पर मुकदमें चलाए जाते हैं। शहर में लोक सभा की छः व महाराष्ट्र विधान सभा की चौंतीस सीटें हैं। मुंबई की महापौर शुभा रावल हैं, नगर निगम आयुक्त हैं जयराज फाटाक एवं शेर्रिफ हैं इंदु साहनी। यातायात मुंबई के अधिकांश निवासी अपने आवास व कार्याक्षेत्र के बीच आवागमन के लिए कोल यातायात पर निर्भर हैं। मुंबई के यातायात में मुंबई उपनगरीय रेलवे, बृहन्मुंबई विद्युत आपूर्ति एवं यातायात की बसें, टैक्सी ऑटोरिक्शा, फेरी सेवा आतीं हैं। यह शहर भारतीय रेल के दो मंडलों का मुख्यालय है: मध्य रेलवे (सेंट्रल रेलवे), जिसका मुख्यालय छत्रपति शिवाजी टर्मिनस है, एवं पश्चिम रेलवे, जिसका मुख्यालय चर्चगेट के निकट स्थित है। नगर यातायात की रीढ़ है मुंबई उपनगरीय रेल, जो तीन भिन्न नेटव्र्कों से बनी है, जिनके रूट शहर की लम्बाई में उत्तर-दक्षिण दिशा में दौड़ते हैं। मुंबई मैट्रो, एक भूमिगत एवं उत्थित स्तरीय रेलवे प्रणाली, जो फिल्हाल निर्माणाधीन है, वर्सोवा से अंधेरी होकर घाटकोपर तक प्रथम चरण में 2009 तक चालू होगी। मुंबई भारत के अन्य भागों से भारतीय रेल द्वारा व्यवस्थित ढंग से जुड़ा है। रेलगाड़ियां छत्रपति शिवाजी टर्मिनस, दादर, लोकमान्य तिलक टर्मिनस, मुंबई सेंट्रल, बांद्रा टर्मिनस एवं अंधेरी से आरंभ या समाप्त होती हैं। मुंबई उपनगरीय रेल प्रणाली 6.3 मिलियन यात्रियों को प्रतिदिन लाती ले जाती है।[36] बी ई एस टी द्वारा चालित बसें, लगभग नगर के हरेक भाग को यातायात उपलब्ध करातीं हैं। साथ ही नवी मुंबई एवं ठाणे के भी भाग तक जातीं हैं। बसें छोटी से मध्यम दूरी तक के सफर के लिए प्रयोगनीय हैं, जबकि ट्रेनें लम्बी दूरियों के लिए सस्ता यातायात उपलब्ध करातीं हैं। बेस्ट के अधीन लगभग 3,408 बसें चलतीं हैं,[37] जो प्रतिदिन लगभग 4.5 मिलियन यात्रियों को 340 बस-रूटों पर लाती ले जातीं हैं। इसके बेड़े में सिंगल-डेकर, डबल-डेकर, वेस्टीब्यूल, लो-फ्लोर, डिसेबल्ड फ्रेंड्ली, वातानुकूलित एवं हाल ही में जुड़ीं यूरो-तीन सम्मत सी एन जी चालित बसें सम्मिलित हैं। महाराष्ट्र राज्य सड़क परिवहन निगम (एम एस आर टी सी) की अन्तर्शहरीय यातायात सेवा है, जो मुंबई को राज्य व अन्य राज्यों के शहरों से जोड़तीं हैं। मुंबई दर्शन सेवा के द्वारा पर्यटक यहां के स्थानीय पर्यटन स्थलों का एक दिवसीय दौरा कर सकते हैं। काली व पीली, मीटर-युक्त टैसी सेवा पूरे शहर में उपलब्ध है। मुंबई के उपनगरीय क्षेत्रों में ऑटोरिक्शा उपलब्ध हैं, जो सी एन जी चालित हैं, व भाड़े पर चलते हैं। ये तिपहिया सवारी जाने आने का उपयुक्त साधन हैं। ये भाड़े के यातायात का सबसे सस्ता जरिया हैं, व इनमें तीन सवारियां बैठ सकतीं हैं। मुंबई का छत्रपति शिवाजी अन्तर्राष्ट्रीय विमानक्षेत्र (पूर्व सहर अन्तर्राष्ट्रीय विमानक्षेत्र) दक्षिण एशिया का व्यस्ततम हवाई अड्डा है।[38] जूहू विमानक्षेत्र भारत का प्रथम विमानक्षेत्र है, जिसमें फ्लाइंग क्लब व एक हैलीपोर्ट भी हैं। प्रस्तावित नवी मुंबई अन्तर्राष्ट्रीय विमानक्षेत्र, जो कोपरा-पन्वेल क्षेत्र में बनना है, को सरकार की मंजूरी मिल चुकी है, पूरा होने पर, वर्तमान हवाई अड्डे का भार काफी हद तक कम कर देगा। मुंबई में देश के 25% अन्तर्देशीय व 38% अन्तर्राष्ट्रीय यात्री यातायात सम्पन्न होता है। अपनी भौगोलिक स्थिति के कारण, मुंबई में विश्व के सर्वश्रेष्ठ प्राकृतिक पत्तन उपलब्ध हैं। यहां से ही देश के यात्री व कार्गो का 50% आवागमन होता है।[5] यह भारतीय नौसेना का एक महत्वपूर्ण बेस भी है, क्योंकि यहां पश्चिमी नौसैनिक कमान भी स्थित है।[39] फैरी भी द्वीपों आदि के लिए उपलब्ध हैं, जो कि द्वीपों व तटीय स्थलों पर जाने का एक सस्ता जरिया हैं। उपयोगिता सेवाएं बी एम सी शहर की पेय जलापूर्ति करता है। इस जल का अधिकांश भाग तुलसी एवं विहार झील से तथा कुछ अन्य उत्तरी झीलों से आता है। यह जल भाण्डुप एशिया के सबसे बड़े जल-शोधन संयंत्र में में शोधित कर आपूर्ति के लिए उपलब्ध कराया जाता है। भारत की प्रथम भूमिगत जल-सुरंग भी मुंबई में ही बनने वाली है।[40] बी एम सी ही शहर की सड़क रखरखाव और कूड़ा प्रबंधन भी देखता है। प्रतिदिन शहर का लगभग ७८००मीट्रिक टन कूड़ा उत्तर-पूर्वी क्षेत्र में मुलुंड, उत्तर-पश्चिम में गोराई और पूर्व में देवनार में डम्प किया जाता है। सीवेज ट्रीटमेंट वर्ली और बांद्रा में कर सागर में निष्कासित किया जाता है। मुंबई शहर में विद्युत आपूर्ति बेस्ट, रिलायंस एनर्जी, टाटा पावर और महावितरण (महाराष्ट्र राज्य विद्युत वितरण कंपनी लि.) करते हैं। यहां की अधिकांश आपूर्ति जल-विद्युत और नाभिकीय शक्ति से होती है। शहर की विद्युत खपत उत्पादन क्षमता को पछाड़ती जा रही है। शहर का सबसे बड़ा दूरभाष सेवा प्रदाता एम टी एन एल है। इसकी २००० तक लैंडलाइन और सेल्युलर सेवा पर मोनोपॉली थी। आज यहां मोबाइल सेवा प्रदाताओं में एयरटेल, वोडाफोन, एम टी एन एल, बी पी एल, रिलायंस कम्युनिकेशंस और टाटा इंडिकॉम हैं। शहर में जी एस एम और सी डी एम ए सेवाएं, दोनों ही उपलब्ध हैं। एम टी एन एल एवं टाटा यहां ब्रॉडबैंड सेवा भी उपलब्ध कराते हैं। जनसांख्यिकी २००१ की जनगणना अनुसार मुंबई की जनसंख्या ११,९१४,३९८ थी।[41] वर्ल्ड गैज़ेटियर द्वारा २००८ में किये गये गणना कार्यक्रम के अनुसार मुंबई की जनसंख्या १३,६६२,८८५ थी।[42] तभी मुंबई महानगरीय क्षेत्र की जनसंख्या २१,३४७,४१२ थी।[43] यहां की जनसंख्या घनत्व २२,००० व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर था। २००१ की जनगणना अनुसार बी.एम.सी के प्रशासनाधीन ग्रेटर मुंबई क्षेत्र की साक्षरता दर ७७.४५% थी,[44] जो राष्ट्रीय औसत ६४.८% से अधिक थी।[45] यहां का लिंग अनुपात ७७४ स्त्रियां प्रति १००० पुरुष द्वीपीय क्षेत्र में, ८२६ उपनगरीय क्षेत्र और ८११ ग्रेटर मुंबई में,[44] जो आंकड़े सभी राष्ट्रीय औसत अनुपात ९३३ से नीचे हैं।[46] यह निम्नतर लिंग अनुपात बड़ी संख्या में रोजगार हेतु आये प्रवासी पुरुषों के कारण है, जो अपने परिवार को अपने मूल स्थान में ही छोड़कर आते हैं।[47] मुंबई में ६७.३९% हिन्दू, १८.५६% मुस्लिम, ३.९९% जैन और ३.७२% ईसाई लोग हैं। इनमें शेष जनता सिख और पारसीयों की है।[48][49] मुंबई में पुरातनतम, मुस्लिम संप्रदाय में दाउदी बोहरे, खोजे और कोंकणी मुस्लिम हैं।[50] स्थानीय ईसाइयों में ईस्ट इंडियन कैथोलिक्स हैं, जिनका धर्मांतरण पुर्तगालियों ने १६वीं शताब्दी में किया था।[51] शहर की जनसंख्या का एक छोटा अंश इज़्राइली बेने यहूदी और पारसीयों का भी है, जो लगभग १६०० वर्ष पूर्व यहां फारस की खाड़ी या यमन से आये थे।[52] मुंबई में भारत के किसी भी महानगर की अपेक्षा सबसे अधिक बहुभाषियों की संख्या है।महाराष्ट्र राज्य की आधिकारिक राजभाषा मराठी है। अन्य बोली जाने वाली भाषाओं में हिन्दी और अंग्रेज़ी हैं।[53] एक सर्वसाधारण की बोलचाल की निम्न-स्तरीय भाषा है बम्बइया हिन्दी जिसमें अधिकांश शब्द और व्याकरण तो हिन्दी का ही है, किंतु इसके अलावा मराठी और अंग्रेज़ी के शब्द भी हैं। इसके अलावा कुछ शब्द यही अविष्कृत हैं। मुंबई के लोग अपने ऑफ को मुंबईकर या मुंबैयाइट्स कहलाते हैं। उच्चस्तरीय व्यावसाय में संलग्न लोगों द्वारा अंग्रेज़ी को वरीयता दी जाती है। मुंबई में भी तीव्र गति से शहरीकरण को अग्रसर विकसित देशों के शहरों द्वारा देखी जारही प्रधान शहरीकरण समस्या का सामना करना पड़ रहा है। इनमें गरीबी, बेरोजगारी, गिरता जन-स्वास्थ्य और अशिक्षा/असाक्षरता प्रमुख हैं। यहां की भूमि के मूल्य इतने ऊंचे हो गये हैं, कि लोगों को निम्नस्तरीय क्षेत्रों में अपने व्यवसाय स्थल से बहुत दूर रहना पड़ता है। इस कारण सड़कों पर यातायात जाम और लोक-परिवहन आदि में अत्यधिक भीड़ बढ़ती ही जा रही हैं। मुंबई की कुल जनसंख्या का लगभग ६०% अंश गंदी बस्तियों और झुग्गियों में बसता है।[54] धारावी, एशिया की दूसरी सबसे बड़ी स्लम-बस्त्ती[55] मध्य मुंबई में स्थित है, जिसमें ८ लाख लोग रहते हैं।[56] ये स्लम भी मुंबई के पर्यटक आकर्षण बनते जा रहे हैं।[57][58][59] मुंबई में प्रवारियों की संख्या १९९१-२००१ में ११.२ लाख थी, जो मुंबई की जनसंख्या में कुल बढ़त का ५४.८% है।[60] २००७ में मुंबई की अपराध दर (भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत दर्ज अपराध) १८६.२ प्रति १ लाख व्यक्ति थी, जो राष्ट्रीय औसत १७५.१ से कुछ ही अधिक है, किंतु भारत के दस लाख से अधिक जनसंख्या वाले शहर सूची के अन्य शहरों की औसत दर ३१२.३ से बहुत नीचे है।[61] शहर की मुख्य जेल अर्थर रोड जेल है। संस्कृति मुंबई की संस्कृति परंपरागत उत्सवों, खानपान, संगीत, नृत्य और रंगमंच का सम्मिश्रण है। इस शहर में विश्व की अन्य राजधानियों की अपेक्षा बहुभाषी और बहुआयामी जीवनशैली देखने को मिलती है, जिसमें विस्तृत खानपान, मनोरंजन और रात्रि की रौनक भी शामिल है।[62] मुंबई के इतिहास में यह मुख्यतः एक प्रधान व्यापारिक केन्द्र रहा है। इस खारण विभिन्न क्षेत्रों के लोग यहां आते रहे, जिससे बहुत सी संस्कृतियां, धर्म, आदि यहां एकसाथ मिलजुलकर रहते हैं।[49] मुंबई भारतीय चलचित्र का जन्मस्थान है।[63]—दादा साहेब फाल्के ने यहां मूक चलचित्र के द्वारा इस उद्योग की स्थापना की थी। इसके बाद ही यहां मराठी चलचित्र का भी श्रीगणेश हुआ था। तब आरंभिक बीसवीं शताब्दी में यहां सबसे पुरानी फिल्म प्रसारित हुयी थी।[64] मुंबई में बड़ी संख्या में सिनेमा हॉल भी हैं, जो हिन्दी, मराठी और अंग्रेज़ी फिल्में दिखाते हैं। विश्व में सबसे बड़ा IMAX डोम रंगमंच भी मुंबई में वडाला में ही स्थित है।[65] मुंबई अंतर्राष्ट्रीय फिल्म उत्सव[66] और फिल्मफेयर पुरस्कार की वितरण कार्यक्रम सभा मुंबाई में ही आयोजित होती हैं।[67] हालांकि मुंबई के ब्रिटिश राज में स्थापित अधिकांश रंगमंच समूह १९५० के बाद भंग हो चुके हैं, फिर भी मुंबई में एक समृद्ध रंगमंच संस्कृति विकसित हुयी हुई है। ये मराठी और अंग्रेज़ी, तीनों भाषाओं के अलावा अन्य क्षेत्रीय भाषाओं में भी विकसित है।[68][69] यहां कला-प्रेमियों की कमी भी नहीं है। अनेक निजी व्यावसायिक एवं सरकारी कला-दीर्घाएं खुली हुई हैं। इनमें जहांगीर कला दीर्घा और राष्ट्रीय आधुनिक कला संग्रहालय प्रमुख हैं। १८३३ में बनी बंबई एशियाटिक सोसाइटी में शहर का पुरातनतम पुस्तकालय स्थित है।[70] छत्रपति शिवाजी महाराज वस्तु संग्रहालय (पूर्व प्रिंस ऑफ वेल्स म्यूज़ियम) दक्षिण मुंबई का प्रसिद्ध संग्रहालय है, जहां भारतीय इतिहास के अनेक संग्रह सुरक्षित हैं।[71] मुंबई के चिड़ियाघर का नाम जीजामाता उद्यान है (पूर्व नाम: विक्टोरिया गार्डन्स), जिसमें एक हरा भरा उद्यान भी है।[72] नगर की साहित्य में संपन्नता को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति तब मिली जब सलमान रुश्दी और अरविंद अडिग को मैन बुकर पुरस्कार मिले थे।[73] यही के निवासी रुडयार्ड किपलिंग को १९०७ में नोबल पुरस्कार भी मिला था।[74] मराठी साहित्य भी समय की गति क साथ साथ आधुनिक हो चुका है। यह मुंबई के लेखकों जैसे मोहन आप्टे, अनन्त आत्माराम काणेकर और बाल गंगाधर तिलक के कार्यों में सदा दृष्टिगोचर रहा है। इसको वार्षिक साहित्य अकादमी पुरस्कार से और प्रोत्साहन मिला है।[75] मुंबई शहर की इमारतों में झलक्ता स्थापत्य, गोथिक स्थापत्य, इंडो रेनेनिक, आर्ट डेको और अन्य समकालीन स्थापत्य शैलियों का संगम है।[76] ब्रिटिश काल की अधिकांश इमारतें, जैसे विक्टोरिया टर्मिनस और बंबई विश्वविद्यालय, गोथिक शैली में निर्मित हैं।[77] इनके वास्तु घटकों में यूरोपीय प्रभाव साफ दिखाई देता है, जैसे जर्मन गेबल, डच शैली की छतें, स्विस शैली में काष्ठ कला, रोमन मेहराब साथ ही परंपरागत भारतीय घटक भी दिखते हैं।[78] कुछ इंडो सेरेनिक शैली की इमारतें भी हैं, जैसे गेटवे ऑफ इंडिया।[79] आर्ट डेको शैली के निर्माण मैरीन ड्राइव और ओवल मैदान के किनारे दिखाई देते हैं।[80] मुंबई में मायामी के बाद विश्व में सबसे अधिक आर्ट डेको शैली की इमारतें मिलती हैं।[81] नये उपनगरीय क्षेत्रों में आधुनिक इमारतें अधिक दिखती हैं। मुंबई में अब तक भारत में सबसे अधिक गगनचुम्बी इमारतें हैं। इनमें ९५६ बनी हुई हैं और २७२ निर्माणाधीन हैं। (२००९ के अनुसार)[82] १९९५ में स्थापित, मुंबई धरोहर संरक्षण समिति (एम.एच.सी.सी) शहर में स्थित धरोहर स्थलों के संरक्षण का ध्यान रखती है।[76] मुंबई में दो यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल हैं – छत्रपति शिवाजी टर्मिनस और एलीफेंटा की गुफाएं[83] शहर के प्रसिद्ध पर्यटन स्थलों में नरीमन पाइंट, गिरगांव चौपाटी, जुहू बीच और मैरीन ड्राइव आते हैं। एसेल वर्ल्ड यहां का थीम पार्क है, जो गोरई बीच के निकट स्थित है।[84] यहीं एशिया का सबसे बड़ा थीम वाटर पार्क, वॉटर किंगडम भी है।[85] मुंबई के निवासी भारतीय त्यौहार मनाने के साथ-साथ अन्य त्यौहार भी मनाते हैं। दिवाली, होली, ईद, क्रिसमस, नवरात्रि, दशहरा, दुर्गा पूजा, महाशिवरात्रि, मुहर्रम आदि प्रमुख त्यौहार हैं। इनके अलावा गणेश चतुर्थी और जन्माष्टमी कुछ अधिक धूम-धाम के संग मनाये जाते हैं।[86] गणेश-उत्सव में शहर में जगह जगह बहुत विशाल एवं भव्य पंडाल लगाये जाते हैं, जिनमें भगवान गणपति की विशाल मूर्तियों की स्थापना की जाती है। ये मूर्तियां दस दिन बाद अनंत चौदस के दिन सागर में विसर्जित कर दी जाती हैं। जन्माष्टमी के दिन सभी मुहल्लों में समितियों द्वारा बहुत ऊंचा माखान का मटका बांधा जाता है। इसे मुहल्ले के बच्चे और लड़के मुलकर जुगत लगाकर फोड़ते हैं। काला घोड़ा कला उत्सव कला की एक प्रदर्शनी होती है, जिसमें विभिन्न कला-क्षेत्रों जैसे संगीत, नृत्य, रंगमंच और चलचित्र आदि के क्षेत्र से कार्यों का प्रदर्शन होता है।[87] सप्ताह भर लंबा बांद्रा उत्सव स्थानीय लोगों द्वारा मनाया जाता है।[88] बाणागंगा उत्सव दो-दिवसीय वार्षिक संगीत उत्सव होता है, जो जनवरी माह में आयोजित होता है। ये उत्सव महाराष्ट्र पर्यटन विकास निगम (एम.टी.डी.सी) द्वारा ऐतिहाशिक बाणगंगा सरोवर के निकट आयोजित किया जाटा है।[89] एलीफेंटा उत्सव—प्रत्येक फरवरी माह में एलीफेंटा द्वीप पर आयोजित किया जाता है। यह भारतीय शास्त्रीय संगीत एवं शास्त्रीय नृत्य का कार्यक्रम ढेरों भारतीय और विदेशी पर्यटक आकर्षित करता है।[90] शहर और प्रदेश का खास सार्वजनिक अवकाश १ मई को महाराष्ट्र दिवस के रूप में महाराष्ट्र राज्य के गठन की १ मई, १९६० की वर्षागांठ मनाने के लिए होता है।[91][92] मुंबई के भगिनि शहर समझौते निम्न शहरों से हैं:[93] योकोहामा, जापान[94][95] लॉस एंजिलिस, संयुक्त राज्य[96] लंदन, यूनाइटेड किंगडम बर्लिन, जर्मनी स्टुगार्ट, जर्मनी[97] पीटर्सबर्ग, रूस मीडिया मुंबई में बहुत से समाचार-पत्र, प्रकाशन गृह, दूरदर्शन और रेडियो स्टेशन हैं। मराठी समाचारपत्र में नवकाल, महाराष्ट्र टाइम्स, लोकसत्ता, लोकमत, सकाल आदि प्रमुख हैं। मुंबई में प्रमुख अंग्रेज़ी अखबारों में टाइम्स ऑफ इंडिया, मिड डे, हिन्दुस्तान टाइम्स, डेली न्यूज़ अनालिसिस एवं इंडियन एक्स्प्रेस आते हैं। हिंदी का सबसे पुराना और सार्वाधिक प्रसार संख्या वाला समाचार पत्र टाइम्स समूह का हिंदी का अखबार नवभारत टाइम्स भी मुंबई का प्रमुख हिंदी भाषी समाचार पत्र है। [98] मुंबई में ही एशिया का सबसे पुराना समाचार-पत्र बॉम्बे समाचार भी निकलता है।[99] बॉम्बे दर्पण प्रथम मराठी समाचार-पत्र था, जिसे बालशास्त्री जाम्भेकर ने १८३२ में आरंभ किया था।[100] यहां बहुत से भारतीय एवं अंतर्राष्ट्रीय टीवी चैनल्स उपलब्ध हैं। यह महानगर बहुत से अन्तर्राष्ट्रीय मीडिया निगमों और मुद्रकों एवं प्रकाशकों का केन्द्र भी है। राष्ट्रीय टेलीवीज़र प्रसारक दूरदर्शन, दो टेरेस्ट्रियल चैनल प्रसारित करता है,[101] और तीन मुख्य केबल नेटवर्क अन्य सभी चैनल उपलब्ध कराते हैं।[102] केबल चैनलों की विस्तृत सूची में ईएसपीएन, स्टार स्पोर्ट्स, ज़ी मराठी, ईटीवी मराठी, डीडी सह्याद्री, मी मराठी, ज़ी टाकीज़, ज़ी टीवी, स्टार प्लस, सोनी टीवी और नये चैनल जैसे स्टार मांझा आइ कई मराठी टीवी चैनल व अन्य भाषाओं के चैनल शामिल हैं। मुंबई के लिए पूर्ण समर्पित चैनलों में सहारा समय मुंबई आदि चैनल हैं। इनके अलावा डी.टी.एच प्रणाली अपनी ऊंची लागत के कारण अभी अधिक परिमाण नहीं बना पायी है।[103] प्रमुख डीटीएच सेवा प्रदाताओं में डिश टीवी, बिग टीवी, टाटा स्काई और सन टीवी हैं।[104] मुंबई में बारह रेडियो चैनल हैं, जिनमें से नौ एफ़ एम एवं तीन ऑल इंडिया रेडियो के स्टेशन हैं जो ए एम प्रसारण करते हैं।[105] मुंबई में कमर्शियल रेडियो प्रसारण प्रदाता भी उपलब्ध हैं, जिनमें वर्ल्ड स्पेस, सायरस सैटेलाइट रेडियो तथा एक्स एम सैटेलाइट रेडियो प्रमुख हैं।[106] बॉलीवुड, हिन्दी चलचित्र उद्योग भी मुंबई में ही स्थित है। इस उद्योग में प्रतिवर्शः १५०-२०० फिल्में बनती हैं।[107] बॉलीवुड का नाम अमरीकी चलचित्र उद्योग के शहर हॉलीवुड के आगे बंबई का ब लगा कर निकला हुआ है।[108] २१वीं शताब्दी ने बॉलीवुड की सागरपार प्रसिद्धि के नये आयाम देखे हैं। इस कारण फिल्म निर्माण की गुणवत्ता, सिनेमैटोग्राफ़ी आदि में नयी ऊंचाइयां दिखायी दी हैं।[109] गोरेगांव और फिल सिटी स्थित स्टूडियो में ही अधिकांश फिल्मों की शूटिंग होतीं हैं।[110] मराठी चलचित्र उद्योग भी मुंबई में ही स्थित है।[111] शिक्षा मुंबई के विद्यालय या तो नगरपालिका विद्यालय होते हैं,[112] या निजी विद्यालय होते हैं, जो किसी न्यास या व्यक्ति द्वारा चलाये जा रहे होते हैं। इनमें से कुछ निजी विद्यालयों को सरकारी सहायता भी प्राप्त होती है।[113] ये विद्यालय महाराष्ट्र स्टेट बोर्ड, अखिल भारतीय काउंसिल ऑफ इंडियन स्कूल सर्टिफिकेट एग्ज़ामिनेशंस (आई.सी.एस.ई) या सीबीएसी बोर्ड द्वारा संबद्ध होते हैं।[114] यहां मराठी या अंग्रेज़ी शिक्षा का माध्यम होता है।[115] सरकारी सार्वजनिक विद्यालयों में वित्तीय अभाव के चलते बहुत सी कमियां होती हैं, किंतु गरीब लोगों का यही सहारा है, क्योंकि वे महंगे निजी विद्यालय का भार वहन नहीं कर सकते हैं।[116] १०+२+३ योजना के अंतर्गत, विद्यार्थी दस वर्ष का विद्यालय समाप्त कर दो वर्ष कनिष्ठ कालिज (ग्यारहवीं और बारहवीं कक्षा) में भर्ती होते हैं। यहां उन्हें तीन क्षेत्रों में से एक चुनना होता है: कला, विज्ञान या वाणिज्य।[117] इसके भाद उन्हें सामान्यतया एक ३-वर्षीय स्नातक पाठ्यक्रम अपने चुने क्षेत्र में कर ना होता है, जैसे विधि, अभियांत्रिकी या चिकित्सा इत्यादि।[118] शहर के अधिकांश महाविद्यालय मुंबई विश्वविद्यालय से सम्बद्ध हैं, जो स्नातओं की संख्यानुसार विश्व के सबसे बड़े विश्वविद्यालयों में से एक है।[119] भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (बंबई),[120] वीरमाता जीजाबाई प्रौद्योगिकी संस्थान (वी.जे.टी.आई),[121] और युनिवर्सिटी इंस्टीट्यूट ऑफ केमिकल टेक्नोलॉजी (यू.आई.सी.टी),[122] भारत के प्रधान अभियांत्रिकी और प्रौद्योगिकी संस्थानों में आते हैं और [[एस एन डी टी महिला विश्वविद्यालय मुंबई के स्वायत्त विश्वविद्यालय हैं।[123] मुंबई में जमनालाल बजाज प्रबंधन शिक्षा संस्थान, एस पी जैन प्रबंधन एवं शोध संस्थान एवं बहुत से अन्य प्रबंधन महाविद्यालय हैं।[124] मुंबई स्थित गवर्नमेंट लॉ कालिज तथा सिडनहैम कालिज, भारत के पुरातनतम क्रमशः विधि एवं वाणिज्य महाविद्यालय हैं।[125][126] सर जे जे स्कूल ऑफ आर्ट्स मुंबई का पुरातनतम कला महाविद्यालय है।[127] मुंबई में दो प्रधान अनुसंधान संस्थान भी हैं: टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च (टी.आई.एफ.आर), तथा भाभा आण्विक अनुसंधान केन्द्र (बी.ए.आर.सी).[128] भाभा संस्थान ही सी आई आर यू एस, ४०मेगावाट नाभिकीय भट्टी चलाता है, जो उनके ट्राम्‍बे स्थित संस्थान में स्थापित है।[129] क्रीड़ा क्रिकेट शहर और देश के सबसे चहेते खेलों में से एक है।.[130] महानगरों में मैदानों की कमी के चलते गलियों का क्रिकेट सबसे प्रचलित है। मुंबई में ही भारतीय क्रिकेट नियंत्रण बोर्ड (बीसीसीआई) स्थित है।[131] मुंबई क्रिकेट टीम रणजी ट्रॉफी में शहर का प्रतिनिधित्व करती है। इसको अब तक ३८ खिताब मिले हैं, जो किसी भी टीम को मिलने वाले खिताबों से अधिक हैं।[132] शहर की एक और टीम मुंबई इंडियंस भी है, जो इंडियन प्रीमियर लीग में शहर की टीम है। शहर में दो अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट मैदान हैं- वान्खेड़े स्टेडियम और ब्रेबोर्न स्टेडियम[133] शहर में आयोजित हुए सबसे बड़े क्रिकेट कार्यक्रम में आईसीसी चैंपियन्स ट्रॉफ़ी का २००६ का फाइनल था। यह ब्रेबोर्न स्टेडियम में हुआ था।[134] मुंबई से प्रसिद्ध क्रिकेट खिलाड़ियों में विश्व-प्रसिद्ध सचिन तेन्दुलकर[135] और सुनील गावस्कर हैं।[136] क्रिकेट की प्रसिद्ध के चलते हॉकी कुछ नीचे दब गया है।[137] मुंबई की मराठा वारियर्स प्रीमियर हाकी लीग में शहर की टीम है।[138] प्रत्येक फरवरी में मुंबई में डर्बी रेस घुड़दौड़ होती है। यह महालक्ष्मी रेसकोर्स में आयोजित की जाती है। यूनाइटेड ब्रीवरीज़ डर्बी भी टर्फ़ क्लब में फ़रवरी में माह में ही आयोजित की जाती है।[139] फार्मूला वन कार रेस के प्रेमी भी यहां बढ़ते ही जा रहे हैं,[140] २००८ में, फोर्स इंडिया (एफ़ १) टीम कार मुंबई में अनावृत हुई थी।[141] मार्च २००४ में यहां मुंबई ग्रैंड प्रिक्स एफ़ १ पावरबोट रेस की विश्व प्रतियोगिता का भाग आयोजित हुआ था।[142] चित्र दीर्घा मुंबई उच्च न्यायालय जार्ज पंचम एवं क्वीन मेरी की स्मृति में बनाया गया गेटवे ऑफ़ इन्डिया स्थापना - दिसम्बर 1911 फ्लोरा फाउंटेन जिसे हुतात्मा चौक का नाम दिया गया है। मुंबई स्टाक एक्स्चेंज एशिया का सबसे पुराना स्टाक एक्सचेंज बांद्रा-वर्ली समुद्रसेतु ब्रेबोर्न स्टेडियम, शहर के सबसे पुराने स्टेडियमों में से एक है इन्हें भी देखें मुंबई यौन संग्रहालय सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ श्रेणी:महाराष्ट्र के शहर श्रेणी:पूर्व पुर्तगाली कालोनी श्रेणी:तटवर्ती शहर श्रेणी:उच्च-प्रौद्योगिकी व्यापार जिले श्रेणी:भारत के नगर
भारत के किस राज्य की राजधानी का नाम मुंबई है?
महाराष्ट्र
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कृषि भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ है। भारत में कृषि सिंधु घाटी सभ्यता के दौर से की जाती रही है। १९६० के बाद कृषि के क्षेत्र में हरित क्रांति के साथ नया दौर आया। सन् २००७ में भारतीय अर्थव्यवस्था में कृषि एवं सम्बन्धित कार्यों (जैसे वानिकी) का सकल घरेलू उत्पाद (GDP) में हिस्सा 16.6% था। उस समय सम्पूर्ण कार्य करने वालों का 52% कृषि में लगा हुआ था। इतिहास भारत में कृषि में 1960 के दशक के मध्य तक पारंपरिक बीजों का प्रयोग किया जाता था जिनकी उपज अपेक्षाकृत कम थी। उन्हें सिंचाई की कम आवश्यकता पड़ती थी। किसान उर्वरकों के रूप में गाय के गोबर आदि का प्रयोग करते थे। १९६० के बाद उच्च उपज बीज (HYV) का प्रयोग शुरु हुआ। इससे सिंचाई और रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों का प्रयोग बढ़ गया। इस कृषि में सिंचाई की अधिक आवश्यकता पड़ने लगी। इसके साथ ही गेहूँ और चावल के उत्पादन में काफी वृद्धी हुई जिस कारण इसे हरित क्रांति भी कहा गया। उत्पादन भारत में विभिन्न वर्षों में दाल-गेहूँ का उत्पादन (दस करोड़ टन में)- 1970-71 12-24 1980-81 11-36 1990-91 14-55 2000-01 11-70 2008-10 12-60 कृषि औजार भारत में कृषि में परंपरागत औजारों जैसे फावड़ा, खुरपी, कुदाल, हँसिया, बल्लम, के साथ ही आधुनिक मशीनों का प्रयोग भी किया जाता है। किसान जुताई के लिए ट्रैक्टर, कटाई के लिए हार्वेस्टर तथा गहाई के लिए थ्रेसर का प्रयोग करते हैं। अवलोकन २०१० एफएओ विश्व कृषि सांख्यिकी, के अनुसार भारत के कई ताजा फल और सब्जिया, दूध, प्रमुख मसाले आदि को सबसे बड़ा उत्पादक ठहराया गया है। रेशेदार फसले जैसे जूट, कई स्टेपल जैसे बाजरा और अरंडी के तेल के बीज आदि का भी उत्पादक है। भारत गेहूं और चावल की दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक है। भारत, दुनिया का दूसरा या तीसरा सबसे बड़ा उत्पादक है कई चीजो का जैसे सूखे फल, वस्त्र कृषि-आधारित कच्चे माल, जड़ें और कंद फसले, दाल, मछलीया, अंडे, नारियल, गन्ना और कई सब्जिया। २०१० मई भारत को दुनिया का पॉचवा स्थान हासिल हुआ जिसके मुताबिक उसने ८०% से अधिक कई नकदी फसलो का उत्पादन् किया जैसे कॉफी और कपास आदि। २०११ के रिपोर्ट के अनुसार, भारत को दुनिया में पाँचवे स्थान पर रखा गया जिसके मुताबिक व सबसे तेज़ वृद्धि के रूप में पशुधन उत्पादक करता है। २००८ के एक रिपोर्ट ने दावा किया कि भारत की जनसंख्या, चावल और गेहूं का उत्पादन करने की क्षमता से अधिक तेजी से बढ़ रही है। अन्य सुत्रो से पता चलता है कि, भारत अपनी बढती जनसंख्या को अराम से खिला सकता है और साथ ही साथ चावल और गेहूं को निर्यात भी कर सकता है। बस, भारत को अपनी बुनियादी सुविधाओं को बढाना होगा जिससे उत्पादक भी बढे जैसे अन्य देश ब्राजील और चीन ने किया। भारत २०११ में लगभग २लाख मीट्रिक टन गेहूँ और २.१ करोड़ मीट्रिक टन चावल का निर्यात अफ्रीका, नेपाल, बांग्लादेश और दुनिया भर के अन्य देशों को किया। जलीय कृषि और पकड़ मत्स्यपालन भारत में सबसे तेजी से बढ़ते उद्योगों के बीच है। १९९० से २०१० के बीच भारतीय मछली फसल दोगुनी हुई, जबकि जलीय कृषि फसल तीन गुना बढ़ा। २००८ में, भारत दुनिया का छठा सबसे बड़ा उत्पादक था समुद्री और मीठे पानी की मत्स्य पालन के क्षेत्र में और दूसरा सबसे बड़ा जलीय मछली कृषि का निर्माता था। भारत ने दुनिया के सभी देशों को करीब ६,00,000 मीट्रिक टन मछली उत्पादों का निर्यात किया। भारत ने पिछ्ले ६० वर्षो मैं कृषि विभाग में कई सफलताए प्राप्त की है। ये लाभ मुख्य रूप से भारत को हरित क्रांति, पावर जनरेशन, बुनियादी सुविधाओं, ज्ञान में सुधार आदि से प्राप्त हुआ। भारत में फसल पैदावार अभी भी सिर्फ ३०% से ६०% ही है। अभी भी भारत में कृषि प्रमुख उत्पादकता और कुल उत्पादन लाभ के लिए क्षमता है। विकासशील देशों के सामने भारत अभी भी पीछे है। इसके अतिरिक्त, गरीब अवसंरचना और असंगठित खुदरा के कारण, भारत ने दुनिया में सबसे ज्यादा खाद्य घाटे से कुछ का अनुभव किया और नुकसान भी भुगतना पड़ा। भारत मे सिंचाई भारत में सिंचाई का मतलब खेती और कृषि गतिविधियों के प्रयोजन के लिए भारतीय नदियों, तालाबों, कुओं, नहरों और अन्य कृत्रिम परियोजनाओं से पानी की आपूर्ति करना होता है। भारत जैसे देश में, ६४% खेती करने की भूमि, मानसून पर निर्भर होती है। भारत में सिंचाई करने का आर्थिक महत्व है - उत्पादन में अस्थिरता को कम करना, कृषि उत्पादकता की उन्नती करना, मानसून पर निर्भरता को कम करना, खेती के अंतर्गत अधिक भूमि लाना, काम करने के अवसरों का सृजन करना, बिजली और परिवहन की सुविधा को बढ़ाना, बाढ़ और सूखे की रोकथाम को नियंत्रण में करना। पहल विपणन के विकास के लिए निवेश की आवश्यकता स्तर, भंडारण और कोल्ड स्टोरेज बुनियादी सुविधाओं को भारी होने का अनुमान है। हाल ही में भारत सरकार ने पूरी तरह से कृषि कार्यक्रम का मूल्यांकन करने के लिए किसान आयोग का गठन किया। हालांकि सिफारिशों का केवल एक मिश्रित स्वागत किया गया है। नवम्बर २०११ में, भारत ने संगठित खुदरा के क्षेत्र में प्रमुख सुधारों की घोषणा की। इन सुधारों में रसद और कृषि उत्पादों की खुदरा शामिल हुई। यह सुधार घोषणा प्रमुख राजनीतिक विवाद का कारण भी बना। यह सुधार योजना, दिसंबर २०११ में भारत सरकार द्वारा होल्ड पर रख दिया गया था ॥ वित्त वर्ष २०१३-१४ के अंत में भारत में कृषि की स्थिति[1] वर्ष 2013-14 में कृषि क्षेत्र की वृद्धि दर 4.7 प्रतिशत वर्ष 2013-14 में 264.4 मिलियन टन खाद्यान का रिकॉर्ड उत्‍पादन वर्ष 2013-14 में 32.4 मिलियन टन तिलहन का रिकॉर्ड उत्‍पादन वर्ष 2013-14 में 19.6 मिलियन टन दलहन का रिकॉर्ड उत्‍पादन वर्ष 2013-14 में मुंगफली का सबसे अधिक 73.17 प्रतिशत उत्‍पादन हुआ अंगूर, केला, कसाबा, मटर और पपीता के उत्‍पादन के क्षेत्र में विश्‍व में भारत का पहला स्‍थान है वर्ष 2013-14 में खाद्यान के तहत क्षेत्र 4.47 प्रतिशत से बढ़कर 126.2 मिलियन हैक्‍टर हो गया वर्ष 2013-14 में तिलहन का क्षेत्र 6.42 प्रतिशत से बढ़कर 28.2 मिलियन हैक्‍टर हुआ 01 जून 2014 को केन्‍द्रीय पूल में खाद्यान्न का भंडारण 69.84 मिलियन टन 2013 में खाद्यान्‍न की उपलब्‍धता 15 प्रतिशत बढ़कर 229.1 मिलियन टन हो गई वर्ष 2013 में प्रति व्‍यक्ति कुल खाद्यान्‍न की उपलब्‍धता बढ़कर 186.4 किलोग्राम हो गई वर्ष 2013-14 में कृषि निर्यात में 5.1 प्रतिशत की वृद्धि वर्ष 2013-14 में समुद्री उत्‍पादों के निर्यात में 45 प्रतिशत वृद्धि दर रही वर्ष 2012-13 में दूध उत्‍पादन 132.43 मिलियन टन की रिकॉर्ड ऊंचाई पर पहुंचा वर्ष 2013-14 में कुल सकल घरेलू उत्‍पाद में पशुधन क्षेत्र की 4.1 प्रतिशत भागीदारी रही वर्ष दर वर्ष भारत में दूध उत्‍पादन की वृद्धि दर 4.04 प्रतिशत है जबकि विश्‍व में यह औसत 2.2 प्रतिशत है वर्ष 2013-14 में कृषि क्षेत्र के लिए ऋण 7,00,000 करोड़ रुपये के लक्ष्‍य से अधिक वर्ष 2013-14 में सकल घरेलू उत्‍पाद में कृषि और इसके सहयोगी क्षेत्रों की हिस्‍सेदारी 13.9 प्रतिशत से घटी किसानों की संख्‍या घटी, वर्ष 2001 में 12.73 करोड़ किसान थे जिनकी संख्‍या घटकर 2011 में 11.87 करोड़ रह गई। उत्पादन में भारत का स्थान पहला स्थान: गन्ना, बाजरा, जूट, अरंडी, आम, केला, अंगूर, कसाबा, मटर, अदरक, पपीता और दूध दूसरा स्थान: गेहूँ, चावल, फल और सब्जियाँ, चाय, आलू, प्याज, लहसुन, चावल, बिनौला तीसरा स्थान: उर्वरक कृषि संस्थान भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद जवाहरलाल नेहरू कृषि विश्वविद्यालय, जबलपुर इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर गोविन्द बल्लभ पन्त कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय, पन्तनगर चन्द्र शेखर आजाद कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय, कानपुर चौधरी चरण सिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय, हिसार लाला लाजपतराय पशुचिकित्सा एवं पशुविज्ञान विश्वविद्यालय, हिसार यशवन्त सिंह परमार औद्यानिकी एवं वानिकी विश्वविद्यालय, सोलन राजेन्द्र कृषि विश्वविद्यालय, पूसा बिरसा कृषि विश्वविद्यालय, काँके कृषि संबंधित अनुसंधान केन्द्र, राष्ट्रीय ब्यूरो एवं निदेशालय/परियोजना निदेशालय समतुल्य विश्वविद्यालय 1.भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली 2.राष्ट्रीय डेरी अनुसंधान संस्थान, करनाल 3.भारतीय पशु चिकित्सा अनुसंधान संस्थान, इज्जतनगर 4.केन्द्रीय मात्स्यिकी शिक्षा संस्थान, मुंबई संस्थान 1.केन्द्रीय धान अनुसंधान संस्थान, कटक 2.विवेकानंद पर्वतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, अल्मोड़ा 3.भारतीय दलहन अनुसंधान संस्थान, कानपुर 4.केन्द्रीय तम्बाकू अनुसंधान संस्थान, राजामुंद्री 5.भारतीय गन्ना अनुसंधान संस्थान, लखनऊ 6.गन्ना प्रजनन संस्थान, कोयम्बटूर 7.केन्द्रीय कपास संस्थान, नागपुर 8.केन्द्रीय जूट एवं संबद्ध रेशे अनुसंधान संस्थान, बैरकपुर 9.भारतीय चरागाह एवं चारा अनुसंधान संस्थान, झांसी 10. भारतीय बागवानी अनुसंधान संस्थान, बैंगलोर 11. केन्द्रीय उपोष्ण बागवानी संस्थान, लखनऊ 12. केन्द्रीय शीतोष्ण बागवानी संस्थान, श्रीनगर 13. केन्द्रीय शुष्क बागवानी संस्थान, बीकानेर 14. भारतीय सब्जी अनुसंधान संस्थान, वाराणसी 15. केन्द्रीय आलू अनुसंधान संस्थान, शिमला 16. केन्द्रीय कंदी फसलें अनुसंधान संस्थान, त्रिवेन्द्रम 17. केन्द्रीय रोपण फसलें अनुसंधान संस्थान, कासरगोड 18. केन्द्रीय कृषि अनुसंधान संस्थान, पोर्ट ब्लेअर 19. भारतीय मसाला अनुसंधान संस्थान, कालीकट 20. केन्द्रीय मृदा और जल संरक्षण अनुसंधान एवं प्रशिक्षण संस्थान, देहरादून 21. भारतीय मृदा विज्ञान संस्थान, भोपाल 22. केन्द्रीय मृदा लवणता अनुसंधान संस्थान, करनाल 23. पूर्वी क्षेत्र के लिए भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद अनुसंधान परिसर, मखाना केन्द्र सहित, पटना 24. केन्द्रीय शुष्क भूमि कृषि अनुसंधान संस्थान, हैदराबाद 25. केन्द्रीय शुष्क क्षेत्र अनुसंधान संस्थान, जोधपुर 26. भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद अनुसंधान परिसर, गोवा 27. पूर्वोत्तर पहाड़ी क्षेत्रों के लिए भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद अनुसंधान परिसर, बारापानी 28. राष्ट्रीय अजैविक दबाव प्रबन्धन संस्थान, मालेगांव, महाराष्ट्र 29. केन्द्रीय कृषि अभियांत्रिकी संस्थान, भोपाल 30. केन्द्रीय कटाई उपरांत अभियांत्रिकी और प्रौद्योगिकी संस्थान, लुधियाना 31. भारतीय प्राकृतिक रेज़िन और गोंद संस्थान, रांची 32. केन्द्रीय कपास प्रौद्योगिकी अनुसंधान संस्थान, मुंबई 33. राष्ट्रीय जूट एवं संबद्ध रेशे प्रौद्योगिकी अनुसंधान संस्थान, कोलकाता 34. भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली 35. केन्द्रीय बकरी अनुसंधान संस्थान, मखदुम 36. केन्द्रीय भैंस अनुसंधान संस्थान, हिसार 37. राष्ट्रीय पशु पोषण और कायिकी संस्थान, बेंगलौर 38. केन्द्रीय पक्षी अनुसंधान संस्थान, इज्जतनगर 39. केन्द्रीय समुद्री मात्स्यिकी अनुसंधान संस्थान, कोच्चि 40. केन्द्रीय खारा जल जीवपालन अनुसंधान संस्थान, चैन्नई 41. केन्द्रीय अंतः स्थलीय मात्स्यिकी अनुसंधान संस्थान, बैरकपुर 42. केन्द्रीय मात्स्यिकी प्रौद्योगिकी संस्थान, कोच्चि 43. केन्द्रीय ताजा जल जीव पालन संस्थान, भुवनेश्वर 44. राष्ट्रीय कृषि अनुसंधान एवं प्रबन्धन अकादमी, हैदराबाद राष्ट्रीय अनुसंधान केन्द्र 1.राष्ट्रीय पादप जैव प्रौद्यौगिकी अनुसंधान केन्द्र, नई दिल्ली 2.राष्ट्रीय समन्वित कीट प्रबन्धन केन्द्र, नई दिल्ली 3.राष्ट्रीय लीची अनुसंधान केन्द्र, मुजफ्फरपुर 4.राष्ट्रीय नीबू वर्गीय अनुसंधान केन्द्र, नागपुर 5.राष्ट्रीय अंगूर अनुसंधान केन्द्र, पुणे 6.राष्ट्रीय केला अनुसंधान केन्द्र, त्रिची 7.राष्ट्रीय बीज मसाला अनुसंधान केन्द्र, अजमेर 8.राष्ट्रीय अनार अनुसंधान केन्द्र, शोलापुर 9.राष्ट्रीय आर्किड अनुसंधान केन्द्र, पेकयांग, सिक्किम 10. राष्ट्रीय कृषि वानिकी अनुसंधान केन्द्र, झांसी 11. राष्ट्रीय ऊंट अनुसंधान केन्द्र, बीकानेर 12. राष्ट्रीय अश्व अनुसंधान केन्द्र, हिसार 13. राष्ट्रीय मांस अनुसंधान केन्द्र, हैदराबाद 14. राष्ट्रीय शूकर अनुसंधान केन्द्र, गुवाहाटी 15. राष्ट्रीय याक अनुसंधान केन्द्र, वेस्ट केमंग 16. राष्ट्रीय मिथुन अनुसंधान केन्द्र, मेदजीफेमा, नगालैंड 17. राष्ट्रीय कृषि अर्थशास्त्र और नीति अनुसंधान केन्द्र, नई दिल्ली राष्ट्रीय ब्यूरो 1.राष्ट्रीय पादप आनुवंशिकी ब्यूरो, नई दिल्ली 2.राष्ट्रीय कृषि के लिए महत्वपूर्ण सूक्ष्म जीव ब्यूरो, मऊ, उत्तर प्रदेश 3.राष्ट्रीय कृषि के लिए उपयोगी कीट ब्यूरो, बेंगलौर 4.राष्ट्रीय मृदा सर्वेक्षण और भूमि उपयोग नियोजन ब्यूरो, नागपुर 5.राष्ट्रीय पशु आनुवंशिकी संसाधन ब्यूरो, करनाल 6.राष्ट्रीय मत्स्य आनुवंशिकी संसाधन ब्यूरो, लखनऊ निदेशालय/प्रायोजना निदेशालय 1.मक्का अनुसंधान निदेशालय, नई दिल्ली 2.धान अनुसंधान निदेशालय, हैदराबाद 3.गेहूँ अनुसंधान निदेशालय, करनाल 4.तिलहन अनुसंधान निदेशालय, हैदराबाद 5.बीज अनुसंधान निदेशालय, मऊ 6.ज्वार अनुसंधान निदेशालय, हैदराबाद 7.मूंगफली अनुसंधान निदेशालय, जूनागढ़ 8.सोयाबीन अनुसंधान निदेशालय, इंदौर 9.तोरिया और सरसों अनुसंधान निदेशालय, भरतपुर 10. मशरूम अनुसंधान निदेशालय, सोलन 11. प्याज एवं लहसुन अनुसंधान निदेशालय, पुणे 12. काजू अनुसंधान निदेशालय, पुत्तुर 13. तेलताड़ अनुसंधान निदेशालय, पेडावेगी, पश्चिम गोदावरी 14. औषधीय एवं सगंधीय पादप अनुसंधान निदेशालय, आणंद 15. पुष्पोत्पादन अनुसंधान निदेशालय, नई दिल्ली 16. कृषि पद्धतियां अनुसंधान प्रयोजना निदेशालय, मोदीपुरम 17. जल प्रबन्धन अनुसंधान निदेशालय, भुवनेश्वर 18. खरपतवार विज्ञान अनुसंधान निदेशालय, जबलपुर 19. गोपशु प्रायोजना निदेशालय, मेरठ 20. खुर एवं मुंहपका रोग प्रायोजना निदेशालय, मुक्तेश्वर 21. कुक्कुट पालन प्रायोजना निदेशालय, हैदराबाद 22. पशु रोग निगरानी एवं जीवितता प्रयोजना निदेशालय, हैब्बल, बेंगलूर 23. कृषि सूचना एवं प्रकाशन निदेशालय (दीपा), नई दिल्ली 24. शीत जल मात्स्यिकी अनुसंधान निदेशालय, भीमताल, नैनीताल 25. कृषक महिला अनुसंधान निदेशालय, भुवनेश्वर इन्हें भी देखें भारतीय कृषि का इतिहास भारतीय किसान भारत में सिंचाई व्यवस्था भारत में पशुपालन मानसून बाहरी कड़ियाँ —सुनील अमर (in English) (based in India) (in English) (based in India) (३ जुलाई २०१७) सन्दर्भ श्रेणी:भारत में कृषि श्रेणी:भारत
भारत में राष्ट्रीय अनुसंधान केंद्र अंगूर के लिए कहा पर स्थित है?
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भारतीय विदेश मन्त्रालय के कार्य को चलाने के लिए एक विशेष सेवा वर्ग का निर्माण किया गया है जिसे भारतीय विदेश सेवा (Indian Foreign Service I.F.S.) कहते हैं। यह भारत के पेशेवर राजनयिकों का एक निकाय है। यह सेवा भारत सरकार की केंद्रीय सेवाओं का हिस्सा है। भारत के विदेश सचिव भारतीय विदेश सेवा के प्रशासनिक प्रमुख होते हैं। भारतीय राजनय अब संभ्रान्त परिवारों, राजा-रजवाड़ों, सैनिक अफसरों आदि तक ही सीमित न रहकर सभी के लिए खुल गया है। सामान्य नागरिक अपनी योग्यता और शिक्षा के आधार पर इस सेवा का सदस्य बन सकता है। सन 1947-1948 की विशेष संकटकालीन भरती के अलावा विदेश सेवा के लिये चुनाव एक विशेष परीक्षा व साक्षात्कार द्वारा किया जाता है। चुनाव हो जाने के पश्चात् इन्हें एक विशेष प्रशिक्षण के लिये भेजा जाता है, जो कई भागों में पूरा होता है। इसमें शैक्षणिक विषयों का ज्ञान, विदेश भाषा की शिक्षा, एक माह के लिये विदेश दूतावास में व्यापार की शिक्षा और राष्टंमण्डल के विदेश सेवा अधिकारी प्रशिक्षण केन्द्र में डेढ़ माह का प्रशिक्षण दिया जाता है। तत्पश्चात् ही इनकी किसी विदेश दूतावास में नियुक्ति होती है। इस प्रकार प्रशिक्षित व्यावसायिक राजदूतों के अलावा सरकार समय-समय पर गैर-व्यावसायिक राजनीतिज्ञों सैनिकों, खिलाड़ियों आदि को भी राजदूत नियुक्त करती है। दूतावास में अताशों की भी नियुक्ति की जाती है। प्रधानमन्त्री कभी-कभी विशेष परिस्थितियों में अपने व्यक्तिगत प्रतिनिधि विशेष दूत अथवा घूमने वाले राजदूत (Roving Ambassador) को भी भेज सकता है। विदेश सेवा बोर्ड राजनयिक, व्यापारी एवं वाणिज्य ओर दूतावासों में अधिकारियों की नियुक्ति, उनका स्थानान्तरण और पदोन्नति के कार्य करता है। इतिहास 13 सितम्बर 1783 को ईस्ट इंडिया कंपनी के निदेशक मंडल ने कलकत्ता (अब कोलकाता) के फोर्ट विलियम में एक ऐसा विभाग बनाने के लिए एक प्रस्ताव पारित किया जो वारेन हेस्टिंग्स प्रशासन पर इसके द्वारा "गोपनीय एवं राजनीतिक कारोबार" के संचालन में "दबाव को कम करने" में मदद कर सके। हालांकि इसकी स्थापना कंपनी द्वारा की गयी थी, फिर भी भारतीय विदेश विभाग ने विदेशी यूरोपीय शक्तियों के साथ कारोबार किया। शुरुआत से ही विदेश विभाग के विदेशी और राजनीतिक कार्यों के बीच एक अंतर बनाए रखा किया गया था; सभी "एशियाई शक्तियों" (स्वदेशी शाही रियासतों सहित) को राजनीतिक के रूप में माना गया था जबकि यूरोपीय शक्तियों के साथ संबंधों को विदेशी के रूप में समझा गया था।[1] 1843 में भारत के गवर्नर-जनरल एडवर्ड लॉ, एलेनबोरो के पहले अर्ल ने सरकार के सचिवालय को चार विभागों - विदेश, गृह, वित्त और सैन्य विभाग में व्यवस्थित कर प्रशासनिक सुधारों को अंजाम दिया। इनमें से प्रत्येक की अध्यक्षता एक सचिव-स्तर के अधिकारी द्वारा की गयी थी। विदेश विभाग के सचिव को "सरकार के बाह्य और आंतरिक राजनयिक संबंधों से संबंधित सभी तरह के पत्राचार के संचालन" का कार्यभार सौंपा गया था। भारत सरकार के अधिनियम 1935 ने विदेश विभाग के विदेशी और राजनीतिक अंगों की कार्यप्रणालियों को और अधिक स्पष्ट रूप से निरूपित करने का प्रयास किया, शीघ्र ही यह महसूस किया गया कि विभाग को पूरी तरह से दो शाखाओं में बांटना प्रशासकीय रूप से अनिवार्य था। नतीजतन गवर्नर-जनरल के प्रत्यक्ष प्रभार के तहत अलग से विदेशी विभाग की स्थापना की गयी। भारत सरकार की बाहरी-गतिविधियों को संचालित करने के लिए एक राजनयिक सेवा के गठन का विचार योजना और विकास विभाग के सचिव, लेफ्टिनेंट-जनरल टी.जे. हटन द्वारा रिकॉर्ड किये गए दिनांक 30 सितम्बर 1944 के एक नोट से उत्पन्न हुआ था। जब इस नोट को विदेशी विभाग के पास उनकी टिप्पणी के लिए भेजा गया तो विदेश सचिव, ओलफ कैरोई ने अपनी टिप्पणियां एक विस्तृत नोट में प्रस्तावित सेवा की सीमा, संरचना और कार्यों के विस्तार से रिकॉर्ड की। कैरोई ने यह बताया था कि जिस तरह भारत एक स्वायत्त राष्ट्र के रूप में उभरा है, इसके लिए विदेश में प्रतिनिधित्व की एक ऐसी प्रणाली तैयार करना अनिवार्य है जो भावी सरकार के उद्देश्यों के साथ पूर्ण सामंजस्य बिठा सके। सितंबर 1946 को भारत की आजादी के ठीक पहले भारत सरकार ने विदेशों में भारत के कूटनीतिक, दूतावास संबंधी और वाणिज्यिक प्रतिनिधित्व के लिए भारतीय विदेश सेवा की स्थापना की। आजादी के साथ ही विदेशी और राजनीतिक विभाग का लगभग-पूर्ण रूपांतरण एक ऐसे स्वरूप में हुआ जो उस समय का नया विदेशी मामलों और राष्ट्रमंडल संबंधों का मंत्रालय बना। चयन 1948 में संघ लोक सेवा आयोग द्वारा संचालित संयुक्त सिविल सेवा परीक्षा के तहत नियुक्त भारतीय विदेश सेवा के अधिकारियों के पहले समूह ने सेवा में योगदान दिया। इस परीक्षा को आज भी नए आईएफएस अधिकारियों के चयन के लिए इस्तेमाल किया जाता है। सिविल सेवा परीक्षा का प्रयोग कई भारतीय प्रशासनिक निकायों की भर्ती के लिए किया जाता है। इसके तीन चरण हैं - एक प्रारंभिक परीक्षा, एक मुख्य परीक्षा और एक साक्षात्कारसाक्षात्कार - और इसे अत्यंत चुनौतीपूर्ण माना जाता है। संपूर्ण चयन प्रक्रिया लगभग 12 महीनों तक चलती है। लगभग 400,000 प्रतिभागियों में से प्रति वर्ष लगभग 800 से 900 उम्मीदवारों का चयन अंतिम रूप से किया जाता है, लेकिन केवल एक अच्छी रैंक ही आईएफएस में चयन की गारंटी देती है - जिसकी स्वीकृति दर 0.01 फीसदी है। हाल के वर्षों में भारतीय विदेश सेवा में प्रति वर्ष औसतन लगभग 20 व्यक्तियों को शामिल किया जाता है। सेवा की वर्तमान कैडर संख्या लगभग 600 अधिकारियों की है जिसमें लगभग 162 अधिकारी विदेशों में भारतीय मिशन एवं पदों पर और देश में विदेशी मामलों के मंत्रालय में विभिन्न पदों पर आसीन हैं। टाइम्स ऑफ इंडिया ने भारतीय राजनयिकों की संख्या में कमी की जानकारी दी थी।[2] प्रशिक्षण विदेश सेवा के लिए स्वीकृति मिलाने पर नए सदस्यों को महत्वपूर्ण प्रशिक्षण से गुजरना पड़ता है। नए सदस्य एक परिवीक्षाधीन अवधि से गुजरते हैं (और इन्हें परिवीक्षार्थी (प्रोबेशनर) कहा जाता है). प्रशिक्षण की शुरुआत मसूरी में स्थित लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय प्रशासनिक अकादमी में होती है जहां कई विशिष्ट भारतीय सिविल सेवा संगठनों के सदस्यों को प्रशिक्षित किया जाता है। लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय प्रशासनिक अकादमी का प्रशिक्षण पूरा करने के बाद परिवीक्षार्थी आगे प्रशिक्षण के साथ-साथ विभिन्न सरकारी निकायों के साथ संलग्न होने और भारत एवं विदेश में भ्रमण के लिए नई दिल्ली में स्थित विदेश सेवा संस्थान में दाखिला लेते हैं। संपूर्ण प्रशिक्षण कार्यक्रम 36 महीनों की अवधि का होता है। प्रशिक्षण कार्यक्रम के समापन पर अधिकारी को अनिवार्य रूप से एक विदेशी भाषा (सीएफएल) सीखने का जिम्मा दिया जाता है। एक संक्षिप्त अवधि तक विदेशी मामलों के मंत्रालय से संलग्न रहने के बाद अधिकारी को विदेश में एक भारतीय राजनयिक मिशन पर नियुक्त किया जाता है जहां की स्थानीय भाषा सीएफएल हो। वहां अधिकारी भाषा का प्रशिक्षण प्राप्त करते हैं और उनसे उनके सीएफएल में दक्षता प्राप्त करने और एक परीक्षा उत्तीर्ण करने की अपेक्षा की जाती है, उसके बाद ही उन्हें सेवा में बने रहने की अनुमति दी जाती है। करियर और पद संरचना दूतावास में: तृतीय सचिव (प्रवेश स्तर) द्वितीय सचिव (सेवा में पुष्टि के बाद पदोन्नति) प्रथम सचिव सलाहकार मंत्री मिशन के उप-अध्यक्ष/ उप उच्चायुक्त/ उप स्थायी प्रतिनिधि राजदूत/उच्चायुक्त/स्थायी प्रतिनिधि वाणिज्य दूतावास में: उप वाणिज्यदूत वाणिज्यदूत महावाणिज्यदूत विदेश मंत्रालय में अवर सचिव उप सचिव निदेशक संयुक्त सचिव अतिरिक्त सचिव सचिव सन्दर्भ इन्हें भी देखें भारतीय विदेश मंत्रालय बाहरी कड़ियाँ श्रेणी:भारतीय सिविल सेवा श्रेणी:केन्द्रीय सिविल सेवा, भारत श्रेणी:भारत सरकार श्रेणी:भारत के वैदेशिक सम्बन्ध श्रेणी:भारत में विदेशी बाजार
भारतीय विदेश सेवा की स्थापना किस साल में की गयी थी?
1946
3,457
hindi
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त्रिपुरा उत्तर-पूर्वी सीमा पर स्थित भारत का एक राज्य है। यह भारत का तीसरा सबसे छोटा राज्य है जिसका क्षेत्रफल १०४९१ वर्ग किमी है। इसके उत्तर, पश्चिम और दक्षिण में बांग्लादेश स्थित है जबकि पूर्व में असम और मिजोरम स्थित हैं। सन २०११ में इस राज्य की जनसंख्या लगभग ३६ लाख ७१ हजार थी। अगरतला त्रिपुरा की राजधानी है। बंगाली और त्रिपुरी भाषा (कोक बोरोक) यहाँ की मुख्य भाषायें हैं। आधुनिक त्रिपुरा क्षेत्र पर कई शताब्दियों तक त्रिपुरी राजवंश ने राज किया। त्रिपुरा की स्थापना 14वीं शताब्दी में माणिक्य नामक इंडो-मंगोलियन आदिवासी मुखिया ने की थी, जिसने हिंदू धर्म अपनाया था। 1808 में इसे ब्रिटिश साम्राज्य ने जीता, यह स्व-शासित शाही राज्य बना। 1956 में यह भारतीय गणराज्य में शामिल हुआ और 1972 में इसे राज्य का दर्जा मिला। त्रिपुरा का आधे से अधिक भाग जंगलों से घिरा है, जो प्रकृति-प्रेमी पर्यटकों को आकर्षित करता है, किंतु दुर्भाग्यवश यहां कई आतंकवादी संगठन पनप चुके हैं जो अलग राज्य की मांग के लिए समय-समय पर राज्य प्रशासन से लड़ते रहते हैं। हैंडलूम बुनाई यहां का मुख्य उद्योग है। नाम ऐसा कहा जाता है कि राजा त्रिपुर, जो ययाति वंश का 39 वाँ राजा था के नाम पर इस राज्य का नाम त्रिपुरा पड़ा। एक मत के मुताबिक स्थानीय देवी त्रिपुर सुन्दरी के नाम पर यहाँ का नाम त्रिपुरा पड़ा। यह हिन्दू धर्म के 51 शक्ति पीठों में से एक है। इतिहासकार कैलाश चन्द्र सिंह के मुताबिक यह शब्द स्थानीय कोकबोरोक भाषा के दो शब्दों का मिश्रण है - त्वि और प्रा। त्वि का अर्थ होता है पानी और प्रा का अर्थ निकट। ऐसा माना जाता है कि प्राचीन काल में यह समुद्र (बंगाल की खाड़ी) के इतने निकट तक फैला था कि इसे इस नाम से बुलाया जाने लगा। उल्लेख त्रिपुरा का उल्लेख महाभारत, पुराणों तथा अशोक के शिलालेखों में मिलता है। आज़ादी के बाद भारतीय गणराज्य में विलय के पूर्व यह एक राजशाही थी। उदयपुर इसकी राजधानी थी जिसे अठारहवीं सदी में पुराने अगरतला में लाया गया और उन्नीसवीं सदी में नये अगरतला में। राजा वीर चन्द्र माणिक्य महादुर देववर्मा ने अपने राज्य का शासन ब्रिटिश भारत की तर्ज पर चलाया। गणमुक्ति परिषद द्वारा चलाए गए आन्दोलनों से यह सन् 1949 में भारतीय गणराज्य में शामिल हुआ। सन् 1971 में बांग्लादेश के निर्माण के बाद यहाँ सशस्त्र संघर्ष आरंभ हो गया। त्रिपुरा नेशनल वॉलेंटियर्स, नेशनल लिबरेशन फ्रंट ऑफ़ त्रिपुरा जैसे संगठनों ने स्थानीय बंगाली लोगों को निकालने के लिए मुहिम छेड़ रखी है। इतिहास त्रिपुरा का बड़ा पुराना और लंबा इतिहास है। इसकी अपनी अनोखी जनजातीय संस्‍कृति तथा दिलचस्‍प लोकगाथाएं है। इसके इतिहास को त्रिपुरा नरेश के बारे में ‘राजमाला’ गाथाओं तथा मुसलमान इतिहासकारों के वर्णनों से जाना जा सकता है। महाभारत और पुराणों में भी त्रिपुरा का उल्‍लेख मिलता है। राजमाला के अनुसार त्रिपुरा के शासकों को ‘फा’ उपनाम से पुकारा जाता था जिसका अर्थ ‘पिता’ होता है। 14वीं शताब्‍दी में बंगाल के शासकों द्वारा त्रिपुरा नरेश की मदद किए जाने का भी उल्‍लेख मिलता है। त्रिपुरा के शासकों को मुगलों के बार-बार आक्रमण का भी सामना करना पड़ा जिसमें आक्रमणकारियों को कमोबेश सफलता मिलती रहती थी। कई लड़ाइयों में त्रिपुरा के शासकों ने बंगाल के सुल्‍तानों कों हराया। 19वीं शताब्‍दी में महाराजा वीरचंद्र किशोर माणिक्‍य बहादुर के शासनकाल में त्रिपुरा में नए युग का सूत्रपात हुआ। उन्‍होने अपने प्रशासनिक ढांचे को ब्रिटिश भारत के नमूने पर बनाया और कई सुधार लागू किए। उनके उत्‍तराधिकारों ने 15 अक्‍तूबर, 1949 तक त्रिपुरा पर शासन किया। इसके बाद त्रिपुरा भारत संघ में शामिल हो गया। शुरू में यह भाग-सी के अंतर्गत आने वाला राज्‍य था और 1956 में राज्‍यों के पुनर्गठन के बाद यह केंद्रशासित प्रदेश बना। 1972 में इसने पूर्ण राज्‍य का दर्जा प्राप्‍त किया। त्रिपुरा बांग्‍लादेश तथा म्‍यांमार की नदी घाटियों के बीच स्थित है। इसके तीन तरफ बांग्‍लादेश है और केवल उत्तर-पूर्व में यह असम और मिजोरम से जुड़ा हुआ है। सिंचाई और बिजली त्रिपुरा राज्‍य का भौगोलिक क्षेत्र 10,49,169 हेक्‍टेयर है। अनुमान है कि 2,80,000 हेक्‍टेयर भूमि कृषि योग्‍य है। 31 मार्च 2005 तक 82,005 हेक्‍टेयर भूमि क्षेत्र में लिफ्ट सिंचाई, गहरे नलकूप, दिशा परिवर्तन, मध्‍यम सिंचाई व्‍यवस्‍था, शैलो ट्यूबवैल और पंपसेटों के जरिए सुनिश्चित सिंचाई के प्रबंध किए गए हैं। यह राज्‍य की कृषि योग्‍य भूमि का लगभग 29.29 प्रतिशत है। 1,269 एल.आई. स्‍कीम, 160 गहरे नलकूप, 27 डाइवर्जन स्‍कीमें पूरी हो चुकी हैं तथा 3 मध्‍यम सिंचाई योजनाओं (i) गुमती (ii) खोवई और (iii) मनु के जरिए कमान एरिया के कुछ भाग को सिचांई का पानी उपलब्‍ध कराया जा रहा है क्‍योंकि नहर प्रणाली का कार्य पूरा नहीं हुआ है। इस समय राज्‍य की व्‍यस्‍त समय की बिजली की मांग लगभग 162 मेगावाट है। राज्‍य में अपनी परियोजनाओं से 70 मेगावाट बिजली पैदा की जा रही है। लगभग 50 मेगावाट बिजली पूर्वोत्‍तर क्षेत्र में स्थित केंद्रीय क्षेत्र के विद्युत उत्‍पादन केंद्रों से राज्‍य के लिए आवंटिक हिस्‍से से प्राप्‍त की जाती है। इस प्रकार कुल उपलब्‍ध बिजली लगभग 120 मेगावाट है और व्‍यस्‍त समय में 42 मेगावाट बिजली की कमी पड़ जाती है। इस कमी की वजह से पूरे राज्‍य में शाम को डेढ़ घंटे क्रमिक रूप से बिजली की आपूर्ति बंद कर दी जाती है। परिवहन सडकें त्रिपुरा में विभिन्‍न प्रकार की सड़कों की कुल लंबाई 15,227 कि॰मी॰ है, जिसमें से मुख्‍य जिला सड़कें 454 कि.मी., अन्‍य जिला सड़कें 1,538 कि॰मी॰ हैं। रेलवे राज्‍य में रेल मार्गो की कुल लंबाई 66 कि॰मी॰ है। रेलवे लाइन मानूघाट तक बढा दी गई है तथा अगरतला तक रेलमार्ग पहुंचाने का काम पूरा किया जा च्हुका है। मानू अगरतला रेल लाइन (88 कि.मी.) को राष्‍ट्रीय परियोजना घोषित कर दिया गया था। पर्यटन महत्‍वपूर्ण पर्यटन केंद्र इस प्रकार हैं: पश्चिमी-दक्षिणी त्रिपुरा पर्यटन-मण्डल अगरतला, कमल सागर सेफाजाला नील महल उदयपुर पिलक महामुनि पश्चिमी-उत्तरी त्रिपुरा पर्यटन-मण्डल अगरतला, उनोकोटि जामपुई हिल त्रिपुर सुंदरी मंदिर त्रिपुरा सुन्दरी-तलवाडा ग्राम से 5 किलोमीटर दूर स्थित भव्य प्राचीन त्रिपुरा सुन्दरी का मंदिर हैं, जिसमें सिंह पर सवार भगवती अष्टादश भुजा की मूर्ति स्थित हैं। मूर्ति की भुजाओं में अठारह प्रकार के आयुध हैं। इस मंदिर की गिनती प्राचीन शक्तिपीठों में होती हैं। मंदिर में खण्डित मूर्तियों का संग्रहालय भी बना हुआ हैं जिनकी शिल्पकला अद्वितीय हैं। मंदिर में प्रतिदिन दर्शनार्थियों का तांता लगा रहता हैं। प्रतिवर्ष नवरात्रा में यहाँ भारी मेला भी लगता हैं। पर्यटन समारोह आरेंज एंड टूरिज्‍म फेस्टिवल वांगमुन उनोकेटि टूरिज्‍म फेस्टिवल नीरमहल टूरिज्‍म फेस्टिवल पिलक टुरिज्‍म फेस्टिवल। जिले त्रिपुरा में पहले केवल 4 जिले थे - धलाई जिला पश्चिम त्रिपुरा जिला उत्तर त्रिपुरा जिला दक्षिण त्रिपुरा जिला बाद में इनसे निकालकर ४ और जिले बनाये गये। इस प्रकार त्रिपुरा में अब कुल ८ जिले हैं। संस्कृति त्रिपुरा में हिन्दुओं की संख्या लगभग ८४ प्रतिशत है। दुर्गापूजा यहा का प्रमुख त्यौहार है। बांग्ला यहाँ की प्रमुख भाषा है।[1] सन्दर्भ श्रेणी:भारत के राज्य श्रेणी:त्रिपुरा
त्रिपुरा राज्य की राजधानी का नाम क्या है?
अगरतला
279
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वारेन हेस्टिंग्स (6 दिसंबर 1732– 22 अगस्त 1818), एक अंग्रेज़ राजनीतिज्ञ था, जो  फोर्ट विलियम प्रेसीडेंसी (बंगाल) का प्रथम गवर्नर तथा बंगाल की सुप्रीम काउंसिल का अध्यक्ष था और इस तरह 1773 से 1785 तक वह भारत का प्रथम वास्तविक (डी-फैक्टो) गवर्नर जनरल रहा। 1787 में भ्रष्टाचार के मामले में उस पर महाभियोग चलाया गया लेकिन एक लंबे परीक्षण के बाद उसे 1795 में अंततः बरी कर दिया गया। 1814 में उसे प्रिवी काउंसिलर बनाया गया। प्रारंभिक जीवन हेस्टिंग्स का जन्म ऑक्सफोर्डशायर के चर्चिल नामक स्थान में हुआ था। एक गरीब पिता, Penystone हेस्टिंग्स, और एक माँ, हेस्टर हेस्टिंग्स, जो मर गया के बाद जल्द ही वह पैदा हुआ था.[1] उन्होंने भाग लिया वेस्टमिंस्टर स्कूल गया था, जहां एक समकालीन भविष्य के प्रधानमंत्रियों प्रभु Shelburne और ड्यूक पोर्टलैंड के रूप में अच्छी तरह के रूप में कवि विलियम कूपर.[2] वह ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी 1750 में एक क्लर्क के रूप में और से बाहर रवाना करने के लिए भारत पहुंचने कलकत्ता में जुलाई 1750.[3] हेस्टिंग्स पर एक प्रतिष्ठा का निर्माण के लिए कड़ी मेहनत और परिश्रम, और खर्च अपने खाली समय में सीखने के बारे में भारत और माहिर , उर्दू और फारसी.[4] वह पुरस्कृत किया गया अपने काम के लिए 1752 में जब वह पदोन्नत किया गया था और के लिए भेजा Kasimbazar, एक महत्वपूर्ण ब्रिटिश व्यापार पोस्ट में बंगाल है, जहां वह काम किया है के लिए विलियम वाट. जबकि वह वहाँ प्राप्त किया और आगे सबक की प्रकृति के बारे में पूर्व भारतीय राजनीति है । समय पर, ब्रिटिश व्यापारियों अभी भी संचालित की लहर पर स्थानीय शासकों, और इतने हेस्टिंग्स और उनके सहयोगियों द्वारा अस्थिर राजनीतिक उथल-पुथल के बंगाल में, जहां बुजुर्ग मध्यम नवाब Alivardi खान की संभावना थी किया जा करने के लिए सफल रहा द्वारा अपने पोते सिराज उद-दौला, हालांकि कई अन्य प्रतिद्वंद्वी दावेदारों पर नजर गड़ाए हुए थे सिंहासन. यह ब्रिटिश व्यापार पोस्ट के दौरान बंगाल में तेजी से असुरक्षित है, के रूप में सिराज उद-दौला के लिए जाना जाता था हार्बर विरोधी यूरोपीय विचारों और की संभावना हो करने के लिए एक हमले शुरू एक बार जब उन्होंने सत्ता संभाली थी. जब Alivardi खान की मृत्यु हो गई अप्रैल में 1756, ब्रिटिश व्यापारियों और छोटी चौकी पर Kasimbazar छोड़ दिया गया, कमजोर । पर 3 जून, जा रहा है के बाद से घिरा हुआ एक बहुत बड़ा बल, ब्रिटिश राजी थे आत्मसमर्पण करने को रोकने के लिए एक नरसंहार जगह ले जा रहा है । [5] हेस्टिंग्स कैद किया गया था दूसरों के साथ में बंगाली राजधानी मुर्शिदाबाद, जबकि नवाब की सेना चढ़ाई पर कलकत्ता और यह कब्जा कर लियाहै । चौकी और नागरिकों थे, तो बंद कर दिया तहत भयावह स्थिति में ब्लैक होल का कलकत्ताहै । थोड़ी देर के लिए हेस्टिंग्स बने रहे मुर्शिदाबाद में किया गया था और यहां तक कि प्रयोग किया जाता नवाब द्वारा एक मध्यस्थ के रूप में, लेकिन अपने जीवन के लिए डर, वह बच करने के लिए द्वीप के Fulta, जहां शरणार्थियों के एक नंबर से कलकत्ता आश्रय लिया था. वहाँ हालांकि, वह मुलाकात की और मेरी शादी बुकानन, विधवा के पीड़ितों में से एक ब्लैक होल है । शीघ्र ही बाद में एक ब्रिटिश अभियान से मद्रास के तहत रॉबर्ट क्लाइव पहुंचे उन्हें बचाव के लिए है । हेस्टिंग्स की सेवा एक स्वयंसेवक के रूप में क्लाइव की सेना के रूप में वे retook कलकत्ता में जनवरी 1757. के बाद इस तेज हार, नवाब तत्काल मांग की शांति और युद्ध के लिए आया था । क्लाइव के साथ प्रभावित हुआ था हेस्टिंग्स जब वह उनसे मिले थे, और के लिए व्यवस्था करने के लिए उनकी वापसी Kasimbazar फिर से शुरू करने के लिए अपने युद्ध पूर्व की गतिविधियों. बाद में 1757 में लड़ाई फिर से शुरू करने के लिए अग्रणी, लड़ाई के Plassey, जहां क्लाइव होंगे एक निर्णायक जीत पर नवाब है । सिराज उद-दौला परास्त किया गया था और द्वारा प्रतिस्थापित अपने चाचा मीर जफर, जो शुरू की प्रो-ब्रिटिश नीतियों. बढ़ती स्थिति 1758 में हेस्टिंग्स ब्रिटिश बने निवासी में बंगाली की राजधानी मुर्शिदाबाद – में एक बड़ा कदम आगे अपने कैरियर की शह पर क्लाइव. उनकी भूमिका शहर में था जाहिरा तौर पर है कि एक राजदूत के रूप में लेकिन बंगाल में आया था, तेजी के प्रभुत्व के तहत ईस्ट इंडिया कंपनी वह अक्सर दिया गया था के कार्य आदेश जारी करने के लिए नए नवाब की ओर से क्लाइव और कलकत्ता के अधिकारियों.[6] हेस्टिंग्स व्यक्तिगत रूप से सहानुभूति के साथ मीर जफर और माना जाता है के कई पर रखा मांगों से उसे कंपनी के रूप में अत्यधिक है । हेस्टिंग्स ने पहले से ही विकसित की है कि एक दर्शन पर आधारित था स्थापित करने की कोशिश कर एक और अधिक समझ के साथ संबंध भारत के निवासियों और उनके शासकों, और वह अक्सर करने की कोशिश की मध्यस्थता से दोनों पक्षों के बीच है । के दौरान मीर जफर के शासनकाल में ईस्ट इंडिया कंपनी ने एक तेजी से बड़ी भूमिका में चल रहा है के क्षेत्र, और प्रभावी ढंग से पदभार संभाल लिया रक्षा का बंगाल के खिलाफ बाहरी आक्रमणकारियों जब बंगाल के सैनिकों साबित अपर्याप्त कार्य के लिए. के रूप में वह बड़े बढ़ी है, मीर जफर बन गया है, धीरे-धीरे कम प्रभावी में सत्तारूढ़ राज्य, और 1760 में ब्रिटिश सैनिकों को अपदस्थ से उसे शक्ति और जगह के साथ उसे मीर कासिम.[7] हेस्टिंग्स अपने संदेह व्यक्त किया करने के लिए कलकत्ता से स्थानांतरित, वे विश्वास थे सम्मान करने के लिए बाध्य समर्थन मीर जफर, लेकिन उसकी राय थे खारिज. हेस्टिंग्स के साथ अच्छे संबंध स्थापित नए नवाब और फिर से गलतफहमी थी मांगों के बारे में वह relayed अपने वरिष्ठ अधिकारियों से की । उन्होंने 1761 में वापस बुलाया गया था और नियुक्त करने के लिए कलकत्ता परिषद. विजय बंगाल की हेस्टिंग्स था व्यक्तिगत रूप से नाराज कर दिया जब वह एक जांच का आयोजन किया व्यापार में गाली बंगाल में है । उन्होंने आरोप लगाया कि कुछ यूरोपीय और ब्रिटिश-संबद्ध भारतीय व्यापारियों थे इस स्थिति का लाभ लेने के लिए खुद को समृद्ध व्यक्तिगत रूप से. व्यक्तियों यात्रा के तहत अनाधिकृत संरक्षण के ब्रिटिश ध्वज लगे हुए बड़े पैमाने में धोखाधड़ी और अवैध व्यापार में, यह जानकर कि स्थानीय सीमा शुल्क अधिकारियों होगा जिससे हो cowed में दखल नहीं है । हेस्टिंग्स यह महसूस किया गया था लाने पर शर्म की बात है ब्रिटेन की प्रतिष्ठा, और उन्होंने आग्रह किया कि सत्तारूढ़ अधिकारियों में कलकत्ता के लिए एक अंत डाल करने के लिए यह है । परिषद माना जाता है, उसकी रिपोर्ट लेकिन अंततः खारिज कर दिया हेस्टिंग्स' प्रस्ताव था और उन्होंने जमकर आलोचना की, अन्य सदस्यों से था, जिनमें से कई खुद को फायदा से व्यापार.[8] अंत में, छोटे से किया गया था करने के लिए स्टेम के हनन, और हेस्टिंग्स शुरू करने के लिए छोड़ने पर विचार और उसके बाद ब्रिटेन की ओर लौटने. अपने इस्तीफे था केवल देरी के फैलने आकर्षक लड़ रहे हैं बंगाल में. एक बार सिंहासन पर कासिम साबित तेजी से स्वतंत्र अपने कार्यों में है, और वह फिर से बनाया बंगाल की सेना को काम पर रखने से यूरोपीय प्रशिक्षकों और भाड़े के सैनिकों जो काफी सुधार मानक के बलों.[9] उन्होंने महसूस किया कि धीरे-धीरे और अधिक आत्मविश्वास और 1764 में जब एक विवाद छिड़ने के निपटान में पटना वह कब्जा कर लिया अपने ब्रिटिश चौकी और धमकी दी निष्पादित करने के लिए अगर उन्हें ईस्ट इंडिया कंपनी के जवाब में सैन्य. जब कलकत्ता भेजा सैनिकों वैसे भी, मीर कासिम को मार डाला बंधकों. ब्रिटिश बलों पर चला गया तो हमले होंगे और लड़ाई की एक श्रृंखला के समापन में निर्णायक लड़ाई के बक्सर में अक्टूबर 1764. इस के बाद मीर कासिम भाग में निर्वासन में दिल्लीमें, जहां वह बाद में मृत्यु हो गई (1777). संधि के इलाहाबाद (1765) ने ईस्ट इंडिया कंपनी को इकट्ठा करने के लिए सही करों में बंगाल की ओर से मुगल सम्राट । हेस्टिंग्स दिसंबर में इस्तीफा दे दिया और 1764 के लिए रवाना हुए ब्रिटेन अगले महीने. वह छोड़ दिया, गहराई से दुखी विफलता के और अधिक उदार रणनीति है कि उन्होंने समर्थन किया था, लेकिन जो किया गया था द्वारा अस्वीकार कर दिया तेजतर्रार सदस्यों के कलकत्ता परिषद. एक बार जब वह लंदन में पहुंचे हेस्टिंग्स शुरू किया खर्च अब तक अपने मतलब से परे है । वह रुके में फैशनेबल पते और उनकी तस्वीर द्वारा चित्रित जोशुआ रेनॉल्ड्स के बावजूद तथ्य यह है कि, के विपरीत, अपने समकालीनों के कई के साथ, वह नहीं था भाग्य कमाया है, जबकि भारत में है । अंत में, चलाने के ऊपर भारी कर्ज है, हेस्टिंग्स का एहसास करने की जरूरत है कि वापसी के लिए भारत को बहाल करने के लिए, अपने वित्त, और लागू करने के लिए ईस्ट इंडिया कंपनी के लिए रोजगार. अपने आवेदन शुरू किया गया था अस्वीकार कर दिया के रूप में वह किया था कई राजनीतिक दुश्मनों सहित, शक्तिशाली निर्देशक लारेंस Sulivan. अंत में एक अपील करने के लिए Sulivan के प्रतिद्वंद्वी रॉबर्ट क्लाइव सुरक्षित हेस्टिंग्स की स्थिति के उप शासक के शहर में मद्रास. वह जहाज से Dover में मार्च 1769. यात्रा पर वह मुलाकात की जर्मन मॉडल Imhoff और उसके पति है. वह जल्द ही प्यार में गिर गई के साथ मॉडल और वे एक चक्कर शुरू किया, प्रतीत होता है के साथ उसके पति की सहमति है । हेस्टिंग्स' पहली पत्नी, मैरी, की मृत्यु हो गई थी 1759 में, और वह योजना बनाई शादी करने के लिए मॉडल एक बार वह प्राप्त किया था उसके पति से तलाक. इस प्रक्रिया को एक लंबा समय लगा और यह नहीं था जब तक 1777 जब समाचार के तलाक जर्मनी से आया है कि हेस्टिंग्स अंत में सक्षम था उससे शादी करने के लिए है । मद्रास और कलकत्ता हेस्टिंग्स में पहुंचे मद्रास अंत के बाद शीघ्र ही के प्रथम आंग्ल-मैसूर युद्ध के 1767-1769, जिसके दौरान बलों के हैदर अली की धमकी दी थी का कब्जा शहर है । इस संधि के मद्रास (29 मार्च 1769), जो युद्ध समाप्त हो गया में विफल करने के लिए विवाद को सुलझाने और आगे के तीन एंग्लो-मैसूर युद्ध के बाद (1780-1799). में अपने समय के दौरान मद्रास हेस्टिंग्स शुरू किए गए सुधारों के व्यापार प्रथाओं जो बाहर में कटौती के उपयोग बिचौलियों और लाभ दोनों कंपनी और भारतीय मजदूरहै, लेकिन अन्यथा अवधि में किया गया था के लिए अपेक्षाकृत ऊंचा नीचा है । [10] इस चरण में हेस्टिंग्स साझा क्लाइव के विचार है कि तीन प्रमुख ब्रिटिश प्रेसीडेंसी (बस्तियों) – मद्रास, बम्बई और कलकत्ता – सब होना चाहिए के तहत लाया एक ही नियम के बजाय अलग से संचालित किया जा रहा के रूप में वे वर्तमान में कर रहे थे । 1771 में, उन्होंने नियुक्त किया गया करने के लिए हो सकता है के राज्यपाल कलकत्ता, सबसे महत्वपूर्ण के प्रेसीडेंसी. ब्रिटेन में चाल चल रहे थे में सुधार करने के लिए विभाजित सिस्टम की सरकार और स्थापित करने के लिए एक ही नियम के सभी भर में ब्रिटिश भारत में अपनी पूंजी के साथ कलकत्ता. हेस्टिंग्स माना जाता था प्राकृतिक पसंद किया जा करने के लिए पहला गवर्नर जनरल. गवर्नर-जनरल 1774 में,[11] उन्होंने नियुक्त किया गया पहला गवर्नर जनरल बंगाल कीहै । वे पहले भी राज्यपाल का भारत है । [12]:190 पद नया था, और ब्रिटिश तंत्र के लिए प्रशासन के क्षेत्र में नहीं थे पूरी तरह से विकसित की है । की परवाह किए बिना अपने शीर्षक, हेस्टिंग्स था केवल एक सदस्य के एक पांच आदमी की सुप्रीम काउंसिल बंगाल:190 तो अस्तव्यस्त रूप से संरचित है कि यह मुश्किल था बताओ कि क्या संवैधानिक स्थिति हेस्टिंग्स वास्तव में आयोजित की जाती है । [13] भूटान और तिब्बत 1773 में, हेस्टिंग्स प्रतिक्रिया व्यक्त करने के लिए एक अपील के लिए मदद से राजा के राजसी राज्य का कूच बिहार के उत्तर में बंगाल, जिसका क्षेत्र था द्वारा हमला किया गया Zhidar, के ड्रक देसी , के भूटान पिछले वर्ष की है । हेस्टिंग्स मदद करने के लिए सहमत है कि इस शर्त पर कूच बिहार पहचान ब्रिटिश संप्रभुता.[14] रज सहमति व्यक्त की और की मदद से ब्रिटिश सैनिकों वे धक्का दिया भूटानी के बाहर Duars और तलहटी में 1773 में है । ड्रक देसी, लौटे सामना करने के लिए नागरिक युद्ध के घर पर है । अपने प्रतिद्वंद्वी जिग्मे Senge, रीजेंट के लिए सात वर्षीय Shabdrung (भूटानी समकक्ष के दलाई लामा), का समर्थन किया था लोकप्रिय असंतोष है । Zhidar अलोकप्रिय था के लिए अपने corvee टैक्स (उन्होंने मांग की के पुनर्निर्माण के लिए एक प्रमुख dzong में एक वर्ष, एक अनुचित लक्ष्य), के रूप में अच्छी तरह के रूप में उनकी पहल के लिए मांचू सम्राटों जो धमकी दी भूटानी स्वतंत्रता है । Zhidar था जल्द ही परास्त और पलायन करने के लिए मजबूर करने के लिए तिब्बत, जहां वह कैद किया गया था और एक नए ड्रक देसी, Kunga Rinchen, में स्थापित किया गया है । इस बीच, छठी पंचेन लामाथा, जो कैद Zhidar, interceded की ओर से भूटान के साथ एक पत्र के लिए हेस्टिंग्स, imploring संघर्ष करने के लिए उसे युद्ध के लिए बदले में दोस्ती है । हेस्टिंग्स देखा करने के लिए अवसर के साथ संबंधों की स्थापना, दोनों तिब्बतियों और भूटानी और को एक पत्र लिखा था पंचेन लामा का प्रस्ताव "एक सामान्य संधि के सौहार्द और वाणिज्य के बीच तिब्बत और बंगाल."[15] फरवरी में 1782, समाचार पहुंच होने के मुख्यालय में ईआईसी कलकत्ता के पुनर्जन्म के पंचेन लामा, हेस्टिंग्स प्रस्तावित despatching एक मिशन तिब्बत के लिए एक संदेश के साथ बधाई के डिजाइन को मजबूत करने के लिए सौहार्दपूर्ण संबंधों की स्थापना के द्वारा अराबा के दौरान अपने पहले दौरे. की स्वीकृति के साथ EIC अदालत के निदेशक, शमूएल टर्नर का प्रमुख नियुक्त किया गया तिब्बत मिशन पर 9 जनवरी 1783 साथी के साथ EIC कर्मचारी और कलाकार शमूएल डेविस के रूप में "ड्राफ्ट्समैन एवं सर्वेयर".[16] टर्नर के लिए लौट आए गवर्नर-जनरल के शिविर में पटना 1784 में, जहां उन्होंने बताया कि हालांकि यात्रा करने में असमर्थ तिब्बत की राजधानी ल्हासा, वह प्राप्त किया था एक वादा करता हूँ कि व्यापारियों के लिए भेजा करने के लिए देश भारत से प्रोत्साहित किया जाएगा.[17]टर्नर भी निर्देश प्राप्त करने के लिए एक जोड़ी के याक अपनी यात्रा पर, जो वह विधिवत था. वे के लिए ले जाया गया Hasting के पिंजरा में कलकत्ता और गवर्नर-जनरल की वापसी के लिए इंग्लैंड, याक भी चला गया है, हालांकि केवल पुरुष बच मुश्किल समुद्र यात्रा. विख्यात कलाकार जॉर्ज स्टब्स बाद में चित्रित पशु के चित्र के रूप में याक की Tartary और 1854 में यह चला गया पर करने के लिए दिखाई देते हैं, यद्यपि, पर महान प्रदर्शनी में क्रिस्टल पैलेस, लंदन में है.[18] Hasting की वापसी के लिए इंग्लैंड समाप्त हो गया है किसी भी आगे के प्रयासों में संलग्न करने के लिए कूटनीति के साथ तिब्बत है । इस्तीफे और महाभियोग 1784 में, के बाद दस साल की सेवा के दौरान, जिसमें उन्होंने मदद का विस्तार और नियमित नवजात राज के द्वारा बनाई गई क्लाइव भारत, हेस्टिंग्स इस्तीफा दे दिया है । पर उनकी वापसी के लिए इंग्लैंड में वह था महाभियोग में हाउस ऑफ कॉमन्स के लिए अपराधों और misdemeanors के दौरान अपने समय में भारत के लिए विशेष रूप से कथित न्यायिक हत्या के महाराजा Nandakumar. पहली बार में समझा सफल होने की संभावना नहीं है,[19] अभियोजन पक्ष द्वारा प्रबंधित था सांसदों सहित एडमंड बर्क, जो द्वारा प्रोत्साहित किया गया था सर फिलिप फ्रांसिस, जिसे हेस्टिंग्स घायल था एक विवाद के दौरान भारत में,:190 चार्ल्स जेम्स फॉक्स और रिचर्ड Brinsley शेरिडन. जब आरोपों के अभियोग पढ़ रहे थे, बीस की गिनती के लिए ले लिया एडमंड बर्क दो दिनों में पूरा पढ़ने के लिए.[20] घर बैठे की कुल के लिए 148 दिनों की अवधि से अधिक सात साल के दौरान जांच.[21] जांच पीछा किया गया था पर महान लागत के लिए हेस्टिंग्स व्यक्तिगत रूप से, और उन्होंने शिकायत की है कि लगातार की लागत से खुद का बचाव अभियोजन था bankrupting । वह अफवाह है करने के लिए है एक बार में कहा गया है कि सजा उसे दिया गया होता कम चरम था, वह दोषी पाया गया है । [22] के हाउस ऑफ लॉर्ड्स अंत में अपने निर्णय पर 24 अप्रैल 1795, बरी उसे सभी आरोपों पर.[23] कंपनी बाद में मुआवजा के साथ उसे 4,000 पाउंड स्टर्लिंग प्रतिवर्ष है । पूरे साल के लंबे समय के परीक्षण, नेब्रास्का में रहते थे काफी शैली में अपने टाउन हाउस, सोमरसेट हाउस, पार्क लेनहै । [24] के बीच में कई जो उसे समर्थित प्रिंट में था pamphleteer और versifier राल्फ ब्रूम.[25] अन्य लोगों द्वारा परेशान कथित अन्याय की कार्यवाही में शामिल फैनी बर्नी.[26] पत्र और पत्र-पत्रिकाओं के लिए जेन ऑस्टेन और उसके परिवार जो जानता था कि हेस्टिंग्स दिखाने के लिए, कि वे का पालन बारीकी से परीक्षण है । बाद के जीवन अपने समर्थकों से एडिनबर्ग ईस्ट इंडिया क्लब, के रूप में अच्छी तरह के रूप में एक नंबर के अन्य सज्जनों से भारत ने कथित तौर पर "सुंदर मनोरंजन के लिए" Hastings जब वह का दौरा किया एडिनबर्ग. एक टोस्ट अवसर पर करने के लिए चला गया "समृद्धि के लिए हमारी बस्तियों में भारत" और कामना की है कि "पुण्य और प्रतिभा, जो उन्हें बचाया जा कभी याद आभार के साथ."[27] 1788 में वह हासिल कर लिया संपत्ति पर Daylesford, ग्लूस्टरशायर, सहित साइट के मध्ययुगीन सीट के हेस्टिंग्स परिवार है । बाद के वर्षों में, वह remodeled हवेली के डिजाइन करने के लिए Samuel Pepys Cockerellके साथ, शास्त्रीय संगीत और भारतीय सजावट, और landscaped उद्यान द्वारा जॉन डेवनपोर्ट. उन्होंने यह भी पुनर्निर्माण नॉर्मन चर्च 1816 में, जहाँ वह दफनाया गया था, दो साल बाद. सन्दर्भ श्रेणी:1732 में जन्मे लोग श्रेणी:1818 में निधन श्रेणी:भारत के गवर्नर जनरल
वारेन हेस्टिंग्स का निधन कब हुआ?
22 अगस्त 1818
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होली (Holi) वसंत ऋतु में मनाया जाने वाला एक महत्वपूर्ण भारतीय और नेपाली लोगों का त्यौहार है। यह पर्व हिंदू पंचांग के अनुसार फाल्गुन मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है। रंगों का त्यौहार कहा जाने वाला यह पर्व पारंपरिक रूप से दो दिन मनाया जाता है। यह प्रमुखता से भारत तथा नेपाल में मनाया जाता है। यह त्यौहार कई अन्य देशों जिनमें अल्पसंख्यक हिन्दू लोग रहते हैं वहाँ भी धूम-धाम के साथ मनाया जाता है।[1] पहले दिन को होलिका जलायी जाती है, जिसे होलिका दहन भी कहते हैं। दूसरे दिन, जिसे प्रमुखतः धुलेंडी व धुरड्डी, धुरखेल या धूलिवंदन इसके अन्य नाम हैं, लोग एक दूसरे पर रंग, अबीर-गुलाल इत्यादि फेंकते हैं, ढोल बजा कर होली के गीत गाये जाते हैं और घर-घर जा कर लोगों को रंग लगाया जाता है। ऐसा माना जाता है कि होली के दिन लोग पुरानी कटुता को भूल कर गले मिलते हैं और फिर से दोस्त बन जाते हैं। एक दूसरे को रंगने और गाने-बजाने का दौर दोपहर तक चलता है। इसके बाद स्नान कर के विश्राम करने के बाद नए कपड़े पहन कर शाम को लोग एक दूसरे के घर मिलने जाते हैं, गले मिलते हैं और मिठाइयाँ खिलाते हैं।[2] राग-रंग का यह लोकप्रिय पर्व वसंत का संदेशवाहक भी है।[3] राग अर्थात संगीत और रंग तो इसके प्रमुख अंग हैं ही पर इनको उत्कर्ष तक पहुँचाने वाली प्रकृति भी इस समय रंग-बिरंगे यौवन के साथ अपनी चरम अवस्था पर होती है। फाल्गुन माह में मनाए जाने के कारण इसे फाल्गुनी भी कहते हैं। होली का त्यौहार वसंत पंचमी से ही आरंभ हो जाता है। उसी दिन पहली बार गुलाल उड़ाया जाता है। इस दिन से फाग और धमार का गाना प्रारंभ हो जाता है। खेतों में सरसों खिल उठती है। बाग-बगीचों में फूलों की आकर्षक छटा छा जाती है। पेड़-पौधे, पशु-पक्षी और मनुष्य सब उल्लास से परिपूर्ण हो जाते हैं। खेतों में गेहूँ की बालियाँ इठलाने लगती हैं। बच्चे-बूढ़े सभी व्यक्ति सब कुछ संकोच और रूढ़ियाँ भूलकर ढोलक-झाँझ-मंजीरों की धुन के साथ नृत्य-संगीत व रंगों में डूब जाते हैं। चारों तरफ़ रंगों की फुहार फूट पड़ती है।[4] गुझिया होली का प्रमुख पकवान है जो कि मावा (खोया) और मैदा से बनती है और मेवाओं से युक्त होती है इस दिन कांजी के बड़े खाने व खिलाने का भी रिवाज है। नए कपड़े पहन कर होली की शाम को लोग एक दूसरे के घर होली मिलने जाते है जहाँ उनका स्वागत गुझिया,नमकीन व ठंडाई से किया जाता है। होली के दिन आम्र मंजरी तथा चंदन को मिलाकर खाने का बड़ा माहात्म्य है।[5] इतिहास होली भारत का अत्यंत प्राचीन पर्व है जो होली, होलिका या होलाका[6] नाम से मनाया जाता था। वसंत की ऋतु में हर्षोल्लास के साथ मनाए जाने के कारण इसे वसंतोत्सव और काम-महोत्सव भी कहा गया है। इतिहासकारों का मानना है कि आर्यों में भी इस पर्व का प्रचलन था लेकिन अधिकतर यह पूर्वी भारत में ही मनाया जाता था। इस पर्व का वर्णन अनेक पुरातन धार्मिक पुस्तकों में मिलता है। इनमें प्रमुख हैं, जैमिनी के पूर्व मीमांसा-सूत्र और कथा गार्ह्य-सूत्र। नारद पुराण औऱ भविष्य पुराण जैसे पुराणों की प्राचीन हस्तलिपियों और ग्रंथों में भी इस पर्व का उल्लेख मिलता है। विंध्य क्षेत्र के रामगढ़ स्थान पर स्थित ईसा से ३०० वर्ष पुराने एक अभिलेख में भी इसका उल्लेख किया गया है। संस्कृत साहित्य में वसन्त ऋतु और वसन्तोत्सव अनेक कवियों के प्रिय विषय रहे हैं। सुप्रसिद्ध मुस्लिम पर्यटक अलबरूनी ने भी अपने ऐतिहासिक यात्रा संस्मरण में होलिकोत्सव का वर्णन किया है। भारत के अनेक मुस्लिम कवियों ने अपनी रचनाओं में इस बात का उल्लेख किया है कि होलिकोत्सव केवल हिंदू ही नहीं मुसलमान भी मनाते हैं। सबसे प्रामाणिक इतिहास की तस्वीरें हैं मुगल काल की और इस काल में होली के किस्से उत्सुकता जगाने वाले हैं। अकबर का जोधाबाई के साथ तथा जहाँगीर का नूरजहाँ के साथ होली खेलने का वर्णन मिलता है। अलवर संग्रहालय के एक चित्र में जहाँगीर को होली खेलते हुए दिखाया गया है।[7] शाहजहाँ के समय तक होली खेलने का मुग़लिया अंदाज़ ही बदल गया था। इतिहास में वर्णन है कि शाहजहाँ के ज़माने में होली को ईद-ए-गुलाबी या आब-ए-पाशी (रंगों की बौछार) कहा जाता था।[8] अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र के बारे में प्रसिद्ध है कि होली पर उनके मंत्री उन्हें रंग लगाने जाया करते थे।[9] मध्ययुगीन हिन्दी साहित्य में दर्शित कृष्ण की लीलाओं में भी होली का विस्तृत वर्णन मिलता है। इसके अतिरिक्त प्राचीन चित्रों, भित्तिचित्रों और मंदिरों की दीवारों पर इस उत्सव के चित्र मिलते हैं। विजयनगर की राजधानी हंपी के १६वी शताब्दी के एक चित्रफलक पर होली का आनंददायक चित्र उकेरा गया है। इस चित्र में राजकुमारों और राजकुमारियों को दासियों सहित रंग और पिचकारी के साथ राज दम्पत्ति को होली के रंग में रंगते हुए दिखाया गया है। १६वी शताब्दी की अहमदनगर की एक चित्र आकृति का विषय वसंत रागिनी ही है। इस चित्र में राजपरिवार के एक दंपत्ति को बगीचे में झूला झूलते हुए दिखाया गया है। साथ में अनेक सेविकाएँ नृत्य-गीत व रंग खेलने में व्यस्त हैं। वे एक दूसरे पर पिचकारियों से रंग डाल रहे हैं। मध्यकालीन भारतीय मंदिरों के भित्तिचित्रों और आकृतियों में होली के सजीव चित्र देखे जा सकते हैं। उदाहरण के लिए इसमें १७वी शताब्दी की मेवाड़ की एक कलाकृति में महाराणा को अपने दरबारियों के साथ चित्रित किया गया है। शासक कुछ लोगों को उपहार दे रहे हैं, नृत्यांगना नृत्य कर रही हैं और इस सबके मध्य रंग का एक कुंड रखा हुआ है। बूंदी से प्राप्त एक लघुचित्र में राजा को हाथीदाँत के सिंहासन पर बैठा दिखाया गया है जिसके गालों पर महिलाएँ गुलाल मल रही हैं।[10] कहानियाँ होली के पर्व से अनेक कहानियाँ जुड़ी हुई हैं। इनमें से सबसे प्रसिद्ध कहानी है प्रह्लाद की। माना जाता है कि प्राचीन काल में हिरण्यकशिपु नाम का एक अत्यंत बलशाली असुर था। अपने बल के दर्प में वह स्वयं को ही ईश्वर मानने लगा था। उसने अपने राज्य में ईश्वर का नाम लेने पर ही पाबंदी लगा दी थी। हिरण्यकशिपु का पुत्र प्रह्लाद ईश्वर भक्त था। प्रह्लाद की ईश्वर भक्ति से क्रुद्ध होकर हिरण्यकशिपु ने उसे अनेक कठोर दंड दिए, परंतु उसने ईश्वर की भक्ति का मार्ग न छोड़ा। हिरण्यकशिपु की बहन होलिका को वरदान प्राप्त था कि वह आग में भस्म नहीं हो सकती। हिरण्यकशिपु ने आदेश दिया कि होलिका प्रह्लाद को गोद में लेकर आग में बैठे। आग में बैठने पर होलिका तो जल गई, पर प्रह्लाद बच गया। ईश्वर भक्त प्रह्लाद की याद में इस दिन होली जलाई जाती है।[11] प्रतीक रूप से यह भी माना जाता है कि प्रह्लाद का अर्थ आनन्द होता है। वैर और उत्पीड़न की प्रतीक होलिका (जलाने की लकड़ी) जलती है और प्रेम तथा उल्लास का प्रतीक प्रह्लाद (आनंद) अक्षुण्ण रहता है।[12] प्रह्लाद की कथा के अतिरिक्त यह पर्व राक्षसी ढुंढी, राधा कृष्ण के रास और कामदेव के पुनर्जन्म से भी जुड़ा हुआ है।[13] कुछ लोगों का मानना है कि होली में रंग लगाकर, नाच-गाकर लोग शिव के गणों का वेश धारण करते हैं तथा शिव की बारात का दृश्य बनाते हैं। कुछ लोगों का यह भी मानना है कि भगवान श्रीकृष्ण ने इस दिन पूतना नामक राक्षसी का वध किया था। इसी खु़शी में गोपियों और ग्वालों ने रासलीला की और रंग खेला था।[14] परंपराएँ होली के पर्व की तरह इसकी परंपराएँ भी अत्यंत प्राचीन हैं और इसका स्वरूप और उद्देश्य समय के साथ बदलता रहा है। प्राचीन काल में यह विवाहित महिलाओं द्वारा परिवार की सुख समृद्धि के लिए मनाया जाता था और पूर्ण चंद्र की पूजा करने की परंपरा थी। वैदिक काल में इस पर्व को नवात्रैष्टि यज्ञ कहा जाता था। उस समय खेत के अधपके अन्न को यज्ञ में दान करके प्रसाद लेने का विधान समाज में व्याप्त था। अन्न को होला कहते हैं, इसी से इसका नाम होलिकोत्सव पड़ा। भारतीय ज्योतिष के अनुसार चैत्र शुदी प्रतिपदा के दिन से नववर्ष का भी आरंभ माना जाता है। इस उत्सव के बाद ही चैत्र महीने का आरंभ होता है। अतः यह पर्व नवसंवत का आरंभ तथा वसंतागमन का प्रतीक भी है। इसी दिन प्रथम पुरुष मनु का जन्म हुआ था, इस कारण इसे मन्वादितिथि कहते हैं।[15] होली का पहला काम झंडा या डंडा गाड़ना होता है। इसे किसी सार्वजनिक स्थल या घर के आहाते में गाड़ा जाता है। इसके पास ही होलिका की अग्नि इकट्ठी की जाती है। होली से काफ़ी दिन पहले से ही यह सब तैयारियाँ शुरू हो जाती हैं। पर्व का पहला दिन होलिका दहन का दिन कहलाता है। इस दिन चौराहों पर व जहाँ कहीं अग्नि के लिए लकड़ी एकत्र की गई होती है, वहाँ होली जलाई जाती है। इसमें लकड़ियाँ और उपले प्रमुख रूप से होते हैं। कई स्थलों पर होलिका में भरभोलिए[16] जलाने की भी परंपरा है। भरभोलिए गाय के गोबर से बने ऐसे उपले होते हैं जिनके बीच में छेद होता है। इस छेद में मूँज की रस्सी डाल कर माला बनाई जाती है। एक माला में सात भरभोलिए होते हैं। होली में आग लगाने से पहले इस माला को भाइयों के सिर के ऊपर से सात बार घूमा कर फेंक दिया जाता है। रात को होलिका दहन के समय यह माला होलिका के साथ जला दी जाती है। इसका यह आशय है कि होली के साथ भाइयों पर लगी बुरी नज़र भी जल जाए।[16] लकड़ियों व उपलों से बनी इस होली का दोपहर से ही विधिवत पूजन आरंभ हो जाता है। घरों में बने पकवानों का यहाँ भोग लगाया जाता है। दिन ढलने पर ज्योतिषियों द्वारा निकाले मुहूर्त पर होली का दहन किया जाता है। इस आग में नई फसल की गेहूँ की बालियों और चने के होले को भी भूना जाता है। होलिका का दहन समाज की समस्त बुराइयों के अंत का प्रतीक है। यह बुराइयों पर अच्छाइयों की विजय का सूचक है। गाँवों में लोग देर रात तक होली के गीत गाते हैं तथा नाचते हैं। होली से अगला दिन धूलिवंदन कहलाता है। इस दिन लोग रंगों से खेलते हैं। सुबह होते ही सब अपने मित्रों और रिश्तेदारों से मिलने निकल पड़ते हैं। गुलाल और रंगों से सबका स्वागत किया जाता है। लोग अपनी ईर्ष्या-द्वेष की भावना भुलाकर प्रेमपूर्वक गले मिलते हैं तथा एक-दूसरे को रंग लगाते हैं। इस दिन जगह-जगह टोलियाँ रंग-बिरंगे कपड़े पहने नाचती-गाती दिखाई पड़ती हैं। बच्चे पिचकारियों से रंग छोड़कर अपना मनोरंजन करते हैं। सारा समाज होली के रंग में रंगकर एक-सा बन जाता है। रंग खेलने के बाद देर दोपहर तक लोग नहाते हैं और शाम को नए वस्त्र पहनकर सबसे मिलने जाते हैं। प्रीति भोज तथा गाने-बजाने के कार्यक्रमों का आयोजन करते हैं। होली के दिन घरों में खीर, पूरी और पूड़े आदि विभिन्न व्यंजन पकाए जाते हैं। इस अवसर पर अनेक मिठाइयाँ बनाई जाती हैं जिनमें गुझियों का स्थान अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। बेसन के सेव और दहीबड़े भी सामान्य रूप से उत्तर प्रदेश में रहने वाले हर परिवार में बनाए व खिलाए जाते हैं। कांजी, भांग और ठंडाई इस पर्व के विशेष पेय होते हैं। पर ये कुछ ही लोगों को भाते हैं। इस अवसर पर उत्तरी भारत के प्रायः सभी राज्यों के सरकारी कार्यालयों में अवकाश रहता है, पर दक्षिण भारत में उतना लोकप्रिय न होने की वज़ह से इस दिन सरकारी संस्थानों में अवकाश नहीं रहता। विशिष्ट उत्सव भारत में होली का उत्सव अलग-अलग प्रदेशों में भिन्नता के साथ मनाया जाता है। ब्रज की होली आज भी सारे देश के आकर्षण का बिंदु होती है। बरसाने की लठमार होली[17] काफ़ी प्रसिद्ध है। इसमें पुरुष महिलाओं पर रंग डालते हैं और महिलाएँ उन्हें लाठियों तथा कपड़े के बनाए गए कोड़ों से मारती हैं। इसी प्रकार मथुरा और वृंदावन में भी १५ दिनों तक होली का पर्व मनाया जाता है। कुमाऊँ की गीत बैठकी[18] में शास्त्रीय संगीत की गोष्ठियाँ होती हैं। यह सब होली के कई दिनों पहले शुरू हो जाता है। हरियाणा की धुलंडी में भाभी द्वारा देवर को सताए जाने की प्रथा है। बंगाल की दोल जात्रा[19] चैतन्य महाप्रभु के जन्मदिन के रूप में मनाई जाती है। जलूस निकलते हैं और गाना बजाना भी साथ रहता है। इसके अतिरिक्त महाराष्ट्र की रंग पंचमी[20] में सूखा गुलाल खेलने, गोवा के शिमगो[21] में जलूस निकालने के बाद सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन तथा पंजाब के होला मोहल्ला[22] में सिक्खों द्वारा शक्ति प्रदर्शन की परंपरा है। तमिलनाडु की कमन पोडिगई[23] मुख्य रूप से कामदेव की कथा पर आधारित वसंतोतसव है जबकि मणिपुर के याओसांग[24] में योंगसांग उस नन्हीं झोंपड़ी का नाम है जो पूर्णिमा के दिन प्रत्येक नगर-ग्राम में नदी अथवा सरोवर के तट पर बनाई जाती है। दक्षिण गुजरात के आदिवासियों के लिए होली सबसे बड़ा पर्व है, छत्तीसगढ़ की होरी में लोक गीतों की अद्भुत परंपरा है और मध्यप्रदेश के मालवा अंचल के आदिवासी इलाकों में बेहद धूमधाम से मनाया जाता है भगोरिया[25], जो होली का ही एक रूप है। बिहार का फगुआ[26] जम कर मौज मस्ती करने का पर्व है और नेपाल की होली[27] में इस पर धार्मिक व सांस्कृतिक रंग दिखाई देता है। इसी प्रकार विभिन्न देशों में बसे प्रवासियों तथा धार्मिक संस्थाओं जैसे इस्कॉन या वृंदावन के बांके बिहारी मंदिर में अलग अलग प्रकार से होली के शृंगार व उत्सव मनाने की परंपरा है जिसमें अनेक समानताएँ और भिन्नताएँ हैं। साहित्य में होली प्राचीन काल के संस्कृत साहित्य में होली के अनेक रूपों का विस्तृत वर्णन है। श्रीमद्भागवत महापुराण में रसों के समूह रास का वर्णन है। अन्य रचनाओं में 'रंग' नामक उत्सव का वर्णन है जिनमें हर्ष की प्रियदर्शिका व रत्नावली[क] तथा कालिदास की कुमारसंभवम् तथा मालविकाग्निमित्रम् शामिल हैं। कालिदास रचित ऋतुसंहार में पूरा एक सर्ग ही 'वसन्तोत्सव' को अर्पित है। भारवि, माघ और अन्य कई संस्कृत कवियों ने वसन्त की खूब चर्चा की है। चंद बरदाई द्वारा रचित हिंदी के पहले महाकाव्य पृथ्वीराज रासो में होली का वर्णन है। भक्तिकाल और रीतिकाल के हिन्दी साहित्य में होली और फाल्गुन माह का विशिष्ट महत्व रहा है। आदिकालीन कवि विद्यापति से लेकर भक्तिकालीन सूरदास, रहीम, रसखान, पद्माकर[ख], जायसी, मीराबाई, कबीर और रीतिकालीन बिहारी, केशव, घनानंद आदि अनेक कवियों को यह विषय प्रिय रहा है। महाकवि सूरदास ने वसन्त एवं होली पर 78 पद लिखे हैं। पद्माकर ने भी होली विषयक प्रचुर रचनाएँ की हैं।[28] इस विषय के माध्यम से कवियों ने जहाँ एक ओर नितान्त लौकिक नायक नायिका के बीच खेली गई अनुराग और प्रीति की होली का वर्णन किया है, वहीं राधा कृष्ण के बीच खेली गई प्रेम और छेड़छाड़ से भरी होली के माध्यम से सगुण साकार भक्तिमय प्रेम और निर्गुण निराकार भक्तिमय प्रेम का निष्पादन कर डाला है।[29] सूफ़ी संत हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया, अमीर खुसरो और बहादुर शाह ज़फ़र जैसे मुस्लिम संप्रदाय का पालन करने वाले कवियों ने भी होली पर सुंदर रचनाएँ लिखी हैं जो आज भी जन सामान्य में लोकप्रिय हैं।[8] आधुनिक हिंदी कहानियों प्रेमचंद की राजा हरदोल, प्रभु जोशी की अलग अलग तीलियाँ, तेजेंद्र शर्मा की एक बार फिर होली, ओम प्रकाश अवस्थी की होली मंगलमय हो तथा स्वदेश राणा की हो ली में होली के अलग अलग रूप देखने को मिलते हैं। भारतीय फ़िल्मों में भी होली के दृश्यों और गीतों को सुंदरता के साथ चित्रित किया गया है। इस दृष्टि से शशि कपूर की उत्सव, यश चोपड़ा की सिलसिला, वी शांताराम की झनक झनक पायल बाजे और नवरंग इत्यादि उल्लेखनीय हैं।[30] संगीत में होली भारतीय शास्त्रीय, उपशास्त्रीय, लोक तथा फ़िल्मी संगीत की परम्पराओं में होली का विशेष महत्व है। शास्त्रीय संगीत में धमार का होली से गहरा संबंध है, हालाँकि ध्रुपद, धमार, छोटे व बड़े ख्याल और ठुमरी में भी होली के गीतों का सौंदर्य देखते ही बनता है। कथक नृत्य के साथ होली, धमार और ठुमरी पर प्रस्तुत की जाने वाली अनेक सुंदर बंदिशें जैसे चलो गुंइयां आज खेलें होरी कन्हैया घर आज भी अत्यंत लोकप्रिय हैं। ध्रुपद में गाये जाने वाली एक लोकप्रिय बंदिश है खेलत हरी संग सकल, रंग भरी होरी सखी। भारतीय शास्त्रीय संगीत में कुछ राग ऐसे हैं जिनमें होली के गीत विशेष रूप से गाए जाते हैं। बसंत, बहार, हिंडोल और काफ़ी ऐसे ही राग हैं। होली पर गाने बजाने का अपने आप वातावरण बन जाता है और जन जन पर इसका रंग छाने लगता है। उपशास्त्रीय संगीत में चैती, दादरा और ठुमरी में अनेक प्रसिद्ध होलियाँ हैं। होली के अवसर पर संगीत की लोकप्रियता का अंदाज़ इसी बात से लगाया जा सकता है कि संगीत की एक विशेष शैली का नाम ही होली है, जिसमें अलग अलग प्रांतों में होली के विभिन्न वर्णन सुनने को मिलते है जिसमें उस स्थान का इतिहास और धार्मिक महत्व छुपा होता है। जहाँ ब्रजधाम में राधा और कृष्ण के होली खेलने के वर्णन मिलते हैं वहीं अवध में राम और सीता के जैसे होली खेलें रघुवीरा अवध में। राजस्थान के अजमेर शहर में ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर गाई जाने वाली होली का विशेष रंग है। उनकी एक प्रसिद्ध होली है आज रंग है री मन रंग है, अपने महबूब के घर रंग है री।[31] इसी प्रकार शंकर जी से संबंधित एक होली में दिगंबर खेले मसाने में होली कह कर शिव द्वारा श्मशान में होली खेलने का वर्णन मिलता है। भारतीय फिल्मों में भी अलग अलग रागों पर आधारित होली के गीत प्रस्तुत किये गए हैं जो काफी लोकप्रिय हुए हैं। 'सिलसिला' के गीत रंग बरसे भीगे चुनर वाली, रंग बरसे और 'नवरंग' के आया होली का त्योहार, उड़े रंगों की बौछार, को आज भी लोग भूल नहीं पाए हैं। आधुनिकता का रंग होली रंगों का त्योहार है, हँसी-खुशी का त्योहार है, लेकिन होली के भी अनेक रूप देखने को मिलते हैं। प्राकृतिक रंगों के स्थान पर रासायनिक रंगों का प्रचलन, भांग-ठंडाई की जगह नशेबाजी और लोक संगीत की जगह फ़िल्मी गानों का प्रचलन इसके कुछ आधुनिक रूप हैं।[32] लेकिन इससे होली पर गाए-बजाए जाने वाले ढोल, मंजीरों, फाग, धमार, चैती और ठुमरी की शान में कमी नहीं आती। अनेक लोग ऐसे हैं जो पारंपरिक संगीत की समझ रखते हैं और पर्यावरण के प्रति सचेत हैं। इस प्रकार के लोग और संस्थाएँ चंदन, गुलाबजल, टेसू के फूलों से बना हुआ रंग तथा प्राकृतिक रंगों से होली खेलने की परंपरा को बनाए हुए हैं, साथ ही इसके विकास में महत्वपूर्ण योगदान भी दे रहे हैं।[33] रासायनिक रंगों के कुप्रभावों की जानकारी होने के बाद बहुत से लोग स्वयं ही प्राकृतिक रंगों की ओर लौट रहे हैं।[34] होली की लोकप्रियता का विकसित होता हुआ अंतर्राष्ट्रीय रूप भी आकार लेने लगा है। बाज़ार में इसकी उपयोगिता का अंदाज़ इस साल होली के अवसर पर एक अंतर्राष्ट्रीय प्रतिष्ठान केन्ज़ोआमूर द्वारा जारी किए गए नए इत्र होली है से लगाया जा सकता है।[35] टीका टिप्पणी क. कीर्णौःपिष्टातकौधैः कृतदिवसमुखैः कुंकुमसिनात गौरेः हेमालंकारभाभिर्भरनमितशिखैः शेखरैः कैकिरातैः। एषा वेषाभिलक्ष्यस्वभवनविजिताशेषवित्तेशकोषा कौशाम्बी शातकुम्भद्रवखजितजनेवैकपीता विभाति। -'रत्नावली', 1.11 ख. फाग के भीर अभीरन में गहि गोविन्दै लै गई भीतर गोरी। भाई करी मन की 'पद्माकर' ऊपर नाई अबीर की झोरी। छीन पिताम्बर कम्मर ते सु बिदा दई मीड़ कपालन रोरी। नैन नचाइ, कही मुसकाइ लला फिरी अइयो खेलन होरी। सन्दर्भ इन्हें भी देखें होली लोकगीत बाहरी कड़ियाँ श्रेणी:होली श्रेणी:संस्कृति श्रेणी:हिन्दू त्यौहार श्रेणी:भारतीय पर्व श्रेणी:उत्तम लेख श्रेणी:भारत में त्यौहार
होली किस धर्म का त्योहार है?
हिंदू
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वीसलदेव विग्रहराज (r. c. 1150-1164 ई) चहमान वंश के एक हिन्दू राजा थे जिन्होने भारत के उत्तर-पश्चिम भाग में शासन किया। उन्होने अपने पड़ोसी राजाओं को जीतकर चहमान राज्य को एक साम्राज्य में परिवर्तित कर दिया। उनके राज्य में वर्तमान राजस्थान, हरियाणा और दिल्ली के क्षेत्र सम्मिलित थे। उनकी राजधानी अजयमेरु (वर्तमान अजमेर) थी जहाँ उन्होने अनेकों भवनों का निर्माण कराया। जब अजमेर पर मुसलमान शासकों का आधिपत्य हो गया तो उनमें से अधिकांश भवनों को या तो नष्ट कर दिया गया या उन्हें 'इस्लामी भवनों' में परिवर्तित कर दिया गया। इन्हीं में से वीसलदेव द्वारा निर्मित सरस्वतीकण्ठाभरणविद्यापीठ था जो संस्कृत अध्ययन का केन्द्र था। इसे बदलकर 'आढाई दिन का झोपड़ा' नामक मसजिद बना दी गयी। इन्हें भी देखें वीसलदेव रास श्रेणी:भारत के राजा
सम्राट विग्रहराज चौहान की मृत्यु किस वर्ष में हुई थी?
1164 ई
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एलेन ओक्टेवियन ह्यूम (६ जून १८२९ - ३१ जुलाई १९१२) ब्रिटिशकालीन भारत में सिविल सेवा के अधिकारी एवं राजनैतिक सुधारक थे। वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के संस्थापकों में से एक थे। ह्यूम प्रशासनिक अधिकारी और राजनैतिक सुधारक के अलावा माहिर पक्षी-विज्ञानी भी थे, इस क्षेत्र में उनके कार्यों की वजह से उन्हें 'भारतीय पक्षीविज्ञान का पितामह' कहा जाता है। जीवनी ए ओ ह्यूम का जन्म 1829 को इंग्लैंड में हुआ था। आपने अंग्रजी शासन की प्रतिष्ठित बंगाल सिविल सेवा में चयनित होकर 1849 में अधिकारी बनकर सर्वप्रथम उत्तर प्रान्त के जनपद इटावा में आये। 1857 के प्रथम विद्रोह के सममय वे इटावा के कलक्टर थे। कांग्रेस संस्थापक ए.ओ.ह्यूम को भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान 17 जून 1857 को उत्तर प्रदेश के इटावा मे जंगे आजादी के सिपाहियों से जान बचाने के लिये साड़ी पहन कर ग्रामीण महिला का वेष धारण कर भागना पड़ा था। आजादी के संघर्ष के दरम्यान ह्यूम को मारने के लिये सेनानियों ने पूरी तरह से घेर लिया था तब ह्यूम ने साड़ी पहन कर अपनी पहचान छुपाई थी। ए.ओ.ह्यूम तब इटावा के कलक्टर हुआ करते थे। इटावा के हजार साल और इतिहास के झरोखे में इटावा नाम ऐतिहासिक पुस्तकों में ह्यूम की बारे में इन अहम बातों का उल्लेख किया गया है। सैनिकों ने ह्यूम और उनके परिवार को मार डालने की योजना बनाई जिसकी भनक लगते ही 17 जून 1857 को ह्यूम महिला के वेश में गुप्त ढंग से इटावा से निकल कर बढ़पुरा पहुंच गये और सात दिनों तक बढ़पुरा में छिपे रहे। एलन आक्टेवियन ह्यूम यानि ए.ओ.ह्यूम को वैसे तो आम तौर सिर्फ काग्रेंस के संस्थापक के तौर पर जाना और पहचाना जाता है लेकिन ए.ओ.ह्यूम की कई पहचानें रही हैं। यमुना और चंबल नदी के किनारे बसे उत्तर प्रदेश के छोटे से जिले इटावा में चार फरवरी 1856 को इटावा के कलेक्टर के रूप मे ए.ओ.ह्यूम की तैनाती अंग्रेज सरकार की ओर से की गई। यह ह्यूम की कलक्टर के रूप मे पहली तैनाती थी। ए.ओ.ह्यूम इटावा में अपने कार्यकाल के दौरान 1867 तक तैनात रहे। आते ही ह्यूम ने अपनी कार्यक्षमता का परिचय देना शुरू कर दिया। सोलह जून 1856 को ह्यूम ने इटावा के लोगों की जनस्वास्थ्य सुविधाओं को मद्देनजर रखते हुये मुख्यालय पर एक सरकारी अस्पताल का निर्माण कराया तथा स्थानीय लोगों की मदद से ह्यूम ने खुद के अंश से 32 स्कूलों को निर्माण कराया जिसमें 5683 बालक बालिका अध्ययनरत रहे। खास बात यह है कि उस वक्त बालिका शिक्षा का जोर न के बराबर था तभी तो सिर्फ दो ही बालिका अध्ययन के लिये सामने आई। ह्यूम ने इटावा को एक बड़ा व्यापारिक केन्द्र बनाने का निर्णय लेते हुये अपने ही नाम के उपनाम ह्यूम से ह्यूमगंज की स्थापना करके बाजार खुलवाया जो आज बदलते समय में होमगंज के रूप मे बडा व्यापारिक केन्द्र बन गया है। ह्यूम को उस अंग्रेज अफसर के रूप में माना जाता है जिसने अपने समय से पहले बहुत आगे के बारे में न केवल सोचा बल्कि उस पर काम भी किया। वैसे तो इटावा का वजूद ह्यूम के यहं आने से पहले ही हो गया था लेकिन ह्यूम ने जो कुछ दिया उसके कोई दूसरी मिसाल देखने को कहीं भी नहीं मिलती। एक अंग्रेज अफसर होने के बावजूद भी ह्यूम का यही इटावा प्रेम उनके लिये मुसीबत का कारण बना। इन्होंने भारत में भिन्न-भिन्न पदों पर काम किया और 1882 में अवकाश ग्रहण किया। इसी समय ब्रिटिश सरकार के असंतोषजनक कार्यों के फलस्वरूप भारत में अद्भुत जाग्रति उत्पन्न हो गई और वे अपने को संघटित करने लगे। इस कार्य में ह्यूम साहब से भारतीयों बड़ी प्रेरणा मिली। 1884 के अंतिम भाग में सुरेन्द्रनाथ बनर्जी तथा व्योमेशचन्द्र बनर्जी और ह्यूम साहब के प्रयत्न से इंडियन नेशनल यूनियम का संघटन किया गया। 27 दिसम्बर 1885 को भारत के भिन्न-भिन्न भागों से भारतीय नेता बंबई पहुँचे और दूसरे दिन सम्मेलन आरंभ हुआ। इस सम्मेलन का सारा प्रबंध ह्यूम साहब ने किया था। इस प्रथम सम्मेलन के सभापति व्योमेशचंद्र बनर्जी बनाए गए थे जो बड़े योग्य तथा प्रतिष्ठित बंगाली क्रिश्चियन वकील थे। यह सम्मेलन "इंडियन नेशनल कांग्रेस" के नाम से प्रसिद्ध हुआ। ह्यूम भारतवासियों के सच्चे मित्र थे। उन्होंने कांग्रेस के सिद्धांतों का प्रचार अपने लेखों और व्याख्यानों द्वारा किया। इनका प्रभाव इंग्लैंड की जनता पर संतोषजनक पड़ा। वायसराय लार्ड डफरिन के शासनकाल में ही ब्रिटिश सरकार कांग्रेस को शंका की दृष्टि से देखने लगी। ह्यूम साहब को भी भारत छोड़ने की राजाज्ञा मिली। ह्यूम के मित्रों में दादा भाई नौरोजी, सर सुरेंद्रनाथ बनर्जी, सर फीरोज शाह मेहता, श्री गोपाल कृष्ण गोखले, श्री व्योमेशचंद्र बनर्जी, श्री बालगंगाधर तिलक आदि थे। इनके द्वारा शासन तथा समाज में अनेक सुधार हुए। उन्होंने अपने विश्राम के दिनों में भारतवासियों को अधिक से अधिक अंग्रेजी सरकार से दिलाने की कोशिश की। इस संबंध में उनको कई बार इंग्लैंड भी जाना पड़ा। इंग्लैंड में ह्यूम साहब ने अंग्रेजों को यह बताया कि भारतवासी अब इस योग्य हैं कि वे अपने देश का प्रबंध स्वयं कर सकते हैं। उनको अंग्रेजों की भाँति सब प्रकार के अधिकार प्राप्त होने चाहिए और सरकारी नौकरियों में भी समानता होना आवश्यक है। जब तक ऐसा न होगा, वे चैन से न बैठेंगे। इंग्लैंड की सरकार ने ह्यूम साहब के सुझावों को स्वीकार किया। भारतवासियों को बड़े से बड़े सरकारी पद मिलने लगे। कांग्रेस को सरकार अच्छी दृष्टि से देखने लगी और उसके सुझावों का सम्मान करने लगी। ह्यूम साहब तथा व्योमेशचंद्र बनर्जी के हर सुझाव को अंग्रेजी सरकार मानती थी और प्रत्येक सरकारी कार्य में उनसे सलाह लेती थी। ह्यूम अपने को भारतीय ही समझते थे। भारतीय भोजन उनको अधिक पसंद था। गीता तथा बाइबिल को प्रतिदिन पढ़ा करते थे। उनके भाषणों में भारतीय विचार होते थे तथा भारतीय जनता कैसे सुखी बनाई जा सकती है और अंग्रेजी सरकार को भारतीय जनता के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए, इन्हीं सब बातों को वह अपने लेखों तथा भाषणों में कहा करते थे। वे कहते थे कि भारत में एकता तथा संघटन की बड़ी आवश्यकता है। जिस समय भी भारतवासी इन दोनों गुणों को अपना लेंगे उसी समय अंग्रेज भारत छोड़कर चले जाएँगे। ह्यूम लोकमान्य बालगंगाधर तिलक को सच्चा देशभक्त तथा भारत माता का सुपुत्र समझते थे। उनका विश्वास था कि वे भारत को अपने प्रयास द्वारा स्वतंत्रता अवश्य दिला सकेंगे। इन्हें भी देखें बूढ़े की आशा, ह्यूम द्वारा लिखी गई एक भारतीय देशभक्ति की कविता बाहरी कड़ियाँ Lahore to Yarkand. Incidents of the Route and Natural History of the countries traversed by the expedition of 1870 under T. D. Forsyth. श्रेणी:भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम
एलेन ऑक्टेवियन ह्यूम का जन्म कहाँ हुआ था?
इंग्लैंड
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यह लेख वाराणसी (बनारस) शहर के लिये है। काशी हेतु देखें काशी वाराणसी (अंग्रेज़ी: Vārāṇasī, Hindustani pronunciation:[ʋaːˈɾaːɳəsiː](listen)) भारत के उत्तर प्रदेश राज्य का प्रसिद्ध नगर है। इसे 'बनारस' और 'काशी' भी कहते हैं। इसे हिन्दू धर्म में सर्वाधिक पवित्र नगरों में से एक माना जाता है और इसे अविमुक्त क्षेत्र कहा जाता है। [1][2][3][4] इसके अलावा बौद्ध एवं जैन धर्म में भी इसे पवित्र माना जाता है। यह संसार के प्राचीनतम बसे शहरों में से एक और भारत का प्राचीनतम बसा शहर है।[5][6] काशी नरेश (काशी के महाराजा) वाराणसी शहर के मुख्य सांस्कृतिक संरक्षक एवं सभी धार्मिक क्रिया-कलापों के अभिन्न अंग हैं।[7] वाराणसी की संस्कृति का गंगा नदी एवं इसके धार्मिक महत्त्व से अटूट रिश्ता है। ये शहर सहस्रों वर्षों से भारत का, विशेषकर उत्तर भारत का सांस्कृतिक एवं धार्मिक केन्द्र रहा है। हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत का बनारस घराना वाराणसी में ही जन्मा एवं विकसित हुआ है। भारत के कई दार्शनिक, कवि, लेखक, संगीतज्ञ वाराणसी में रहे हैं, जिनमें कबीर, वल्लभाचार्य, रविदास, स्वामी रामानंद, त्रैलंग स्वामी, शिवानन्द गोस्वामी, मुंशी प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, पंडित रवि शंकर, गिरिजा देवी, पंडित हरि प्रसाद चौरसिया एवं उस्ताद बिस्मिल्लाह खां आदि कुछ हैं। गोस्वामी तुलसीदास ने हिन्दू धर्म का परम-पूज्य ग्रंथ रामचरितमानस यहीं लिखा था और गौतम बुद्ध ने अपना प्रथम प्रवचन यहीं निकट ही सारनाथ में दिया था।[8] वाराणसी में चार बड़े विश्वविद्यालय स्थित हैं: बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय, महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ, सेंट्रल इंस्टीट्यूट ऑफ हाइयर टिबेटियन स्टडीज़ और संपूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय। यहां के निवासी मुख्यतः काशिका भोजपुरी बोलते हैं, जो हिन्दी की ही एक बोली है। वाराणसी को प्रायः 'मंदिरों का शहर', 'भारत की धार्मिक राजधानी', 'भगवान शिव की नगरी', 'दीपों का शहर', 'ज्ञान नगरी' आदि विशेषणों से संबोधित किया जाता है।[9] प्रसिद्ध अमरीकी लेखक मार्क ट्वेन लिखते हैं: "बनारस इतिहास से भी पुरातन है, परंपराओं से पुराना है, किंवदंतियों (लीजेन्ड्स) से भी प्राचीन है और जब इन सबको एकत्र कर दें, तो उस संग्रह से भी दोगुना प्राचीन है।"[10] नाम का अर्थ वाराणसी नाम[11] का उद्गम संभवतः यहां की दो स्थानीय नदियों वरुणा नदी एवं असि नदी के नाम से मिलकर बना है। ये नदियाँ गंगा नदी में क्रमशः उत्तर एवं दक्षिण से आकर मिलती हैं।[12] नाम का एक अन्य विचार वरुणा नदी के नाम से ही आता है जिसे संभवतः प्राचीन काल में वरणासि ही कहा जाता होगा और इसी से शहर को नाम मिला।[13] इसके समर्थन में शायद कुछ आरंभिक पाठ उपलब्ध हों, किन्तु इस दूसरे विचार को इतिहासवेत्ता सही नहीं मानते हैं।[14] लंबे काल से वाराणसी को अविमुक्त क्षेत्र, आनंद-कानन, महाश्मशान, सुरंधन, ब्रह्मावर्त, सुदर्शन, रम्य, एवं काशी नाम से भी संबोधित किया जाता रहा है।[15] ऋग्वेद में शहर को काशी या कासी नाम से बुलाया गया है। इसे प्र<b data-parsoid='{"dsr":[6952,6962,3,3]}'>काशि</b>त शब्द से लिया गया है, जिसका अभिप्राय शहर के ऐतिहासिक स्तर से है, क्योंकि ये शहर सदा से ज्ञान, शिक्षा एवं संस्कृति का केन्द्र रहा है।[16] काशी शब्द सबसे पहले अथर्ववेद की पैप्पलाद शाखा से आया है और इसके बाद शतपथ में भी उल्लेख है। लेकिन यह संभव है कि नगर का नाम जनपद में पुराना हो। स्कंद पुराण के काशी खण्ड में नगर की महिमा १५,००० श्लोकों में कही गयी है। एक श्लोक में भगवान शिव कहते हैं: तीनों लोकों से समाहित एक शहर है, जिसमें स्थित मेरा निवास प्रासाद है काशी[17] वाराणसी का एक अन्य सन्दर्भ ऋषि वेद व्यास ने एक अन्य गद्य में दिया है: गंगा तरंग रमणीय जातकलापनाम, गौरी निरंतर विभूषित वामभागम. नारायणप्रियम अनंग मदापहारम, वाराणसीपुर पतिम भज विश्वनाथम अथर्ववेद[18] में वरणावती नदी का नाम आया है जो बहुत संभव है कि आधुनिक वरुणा नदी के लिये ही प्रयोग किया गया हो। अस्सी नदी को पुराणों में असिसंभेद तीर्थ कहा है। स्कंद पुराण के काशी खंड में कहा गया है कि संसार के सभी तीर्थ मिल कर असिसंभेद के सोलहवें भाग के बराबर भी नहीं होते हैं।[19][20] अग्निपुराण में असि नदी को व्युत्पन्न कर नासी भी कहा गया है। वरणासि का पदच्छेद करें तो नासी नाम की नदी निकाली गयी है, जो कालांतर में असी नाम में बदल गई। महाभारत में वरुणा या आधुनिक बरना नदी का प्राचीन नाम वरणासि होने की पुष्टि होती है।[21] अतः वाराणासी शब्द के दो नदियों के नाम से बनने की बात बाद में बनायी गई है। पद्म पुराण के काशी महात्म्य, खंड-३ में भी श्लोक है: वाराणसीति विख्यातां तन्मान निगदामि व: दक्षिणोत्तरयोर्नघोर्वरणासिश्च पूर्वत। जाऋवी पश्चिमेऽत्रापि पाशपाणिर्गणेश्वर:।।[22] अर्थात दक्षिण-उत्तर में वरुणा और अस्सी नदी है, पूर्व में जाह्नवी और पश्चिम में पाशपाणिगणेश। मत्स्य पुराण में शिव वाराणसी का वर्णन करते हुए कहते हैं - वाराणस्यां नदी पु सिद्धगन्धर्वसेविता। प्रविष्टा त्रिपथा गंगा तस्मिन् क्षेत्रे मम प्रिये॥ अर्थात्- हे प्रिये, सिद्ध गंधर्वों से सेवित वाराणसी में जहां पुण्य नदी त्रिपथगा गंगा आता है वह क्षेत्र मुझे प्रिय है।[14] यहां अस्सी का कहीं उल्लेख नहीं है। वाराणसी क्षेत्र का विस्तार बताते हुए मत्स्य पुराण में एक और जगह कहा गया है- वरणा च नदी यावद्यावच्छुष्कनदी तथा। भीष्मयंडीकमारम्भ पर्वतेश्वरमन्ति के॥[14][23] उपरोक्त उद्धरणों से यही ज्ञात होता है कि वास्तव में नगर का नामकरण वरणासी पर बसने से हुआ। अस्सी और वरुणा के बीच में वाराणसी के बसने की कल्पना उस समय से उदय हुई जब नगर की धार्मिक महिमा बढ़ी और उसके साथ-साथ नगर के दक्षिण में आबादी बढ़ने से दक्षिण का भाग भी उसकी सीमा में आ गया। वैसे वरणा शब्द एक वृक्ष का भी नाम होता है। प्राचीनकाल में वृक्षों के नाम पर भी नगरों के नाम पड़ते थे जैसे कोशंब से कौशांबी, रोहीत से रोहीतक इत्यादि। अतः यह संभव है कि वाराणसी और वरणावती दोनों का ही नाम इस वृक्ष विशेष को लेकर ही पड़ा हो। वाराणसी नाम के उपरोक्त कारण से यह अनुमान कदापि नहीं लगाना चाहिये कि इस नगर के से उक्त विवेचन से यह न समझ लेना चाहिए कि काशी राज्य के इस राजधानी शहर का केवल एक ही नाम था। अकेले बौद्ध साहित्य में ही इसके अनेक नाम मिलते हैं। उदय जातक में सुर्रूंधन (अर्थात सुरक्षित), सुतसोम जातक में सुदर्शन (अर्थात दर्शनीय), सोमदंड जातक में ब्रह्मवर्द्धन, खंडहाल जातक में पुष्पवती, युवंजय जातक में रम्म नगर (यानि सुन्दर नगर)[24], शंख जातक में मोलिनो (मुकुलिनी)[25] नाम आते हैं। इसे कासिनगर और कासिपुर के नाम से भी जाना जाता था[26]। सम्राट अशोक के समय में इसकी राजधानी का नाम पोतलि था[27]। यह निश्चय पूर्वक नहीं कहा जा सकता है कि ये सभी नाम एक ही शहर के थे, या काशी राज्य की अलग-अलग समय पर रहीं एक से अधिक राजधानियों के नाम थे। इतिहास पौराणिक कथाओं के अनुसार, काशी नगर की स्थापना हिन्दू भगवान शिव ने लगभग ५००० वर्ष पूर्व की थी,[5] जिस कारण ये आज एक महत्त्वपूर्ण तीर्थ स्थल है। ये हिन्दुओं की पवित्र सप्तपुरियों में से एक है। स्कन्द पुराण, रामायण, महाभारत एवं प्राचीनतम वेद ऋग्वेद सहित कई हिन्दू ग्रन्थों में इस नगर का उल्लेख आता है। सामान्यतया वाराणसी शहर को लगभग ३००० वर्ष प्राचीन माना जाता है।[28], परन्तु हिन्दू परम्पराओं के अनुसार काशी को इससे भी अत्यंत प्राचीन माना जाता है। नगर मलमल और रेशमी कपड़ों, इत्रों, हाथी दांत और शिल्प कला के लिये व्यापारिक एवं औद्योगिक केन्द्र रहा है। गौतम बुद्ध (जन्म ५६७ ई.पू.) के काल में, वाराणसी काशी राज्य की राजधानी हुआ करता था। प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेन त्सांग ने नगर को धार्मिक, शैक्षणिक एवं कलात्मक गतिविधियों का केन्द्र बताया है और इसका विस्तार गंगा नदी के किनारे ५कि॰मी॰ तक लिखा है। विभूतियाँ काशी में प्राचीन काल से समय समय पर अनेक महान विभूतियों का प्रादुर्भाव या वास होता रहा हैं। इनमें से कुछ इस प्रकार हैं: महर्षि अगस्त्य धन्वंतरि गौतम बुद्ध संत कबीर अघोराचार्य बाबा कानीराम लक्ष्मीबाई पाणिनी पार्श्वनाथ पतंजलि संत रैदास स्वामी रामानन्दाचार्य वल्लभाचार्य शंकराचार्य गोस्वामी तुलसीदास महर्षि वेदव्यास वल्लभाचार्य प्राचीन काशी अतिप्राचीन गंगा तट पर बसी काशी बड़ी पुरानी नगरी है। इतने प्राचीन नगर संसार में बहुत नहीं हैं। हजारों वर्ष पूर्व कुछ नाटे कद के साँवले लोगों ने इस नगर की नींव डाली थी। तभी यहाँ कपड़े और चाँदी का व्यापार शुरू हुआ। कुछ समय उपरांत पश्चिम से आये ऊँचे कद के गोरे लोगों ने उनकी नगरी छीन ली। ये बड़े लड़ाकू थे, उनके घर-द्वार न थे, न ही अचल संपत्ति थी। वे अपने को आर्य यानि श्रेष्ठ व महान कहते थे। आर्यों की अपनी जातियाँ थीं, अपने कुल घराने थे। उनका एक राजघराना तब काशी में भी आ जमा। काशी के पास ही अयोध्या में भी तभी उनका राजकुल बसा। उसे राजा इक्ष्वाकु का कुल कहते थे, यानि सूर्यवंश।[29] काशी में चन्द्र वंश की स्थापना हुई। सैकड़ों वर्ष काशी नगर पर भरत राजकुल के चन्द्रवंशी राजा राज करते रहे। काशी तब आर्यों के पूर्वी नगरों में से थी, पूर्व में उनके राज की सीमा। उससे परे पूर्व का देश अपवित्र माना जाता था। महाभारत काल महाभारत काल में काशी भारत के समृद्ध जनपदों में से एक था। महाभारत में वर्णित एक कथा के अनुसार एक स्वयंवर में पाण्डवों और कौरवों के पितामह भीष्म ने काशी नरेश की तीन पुत्रियों अंबा, अंबिका और अंबालिका का अपहरण किया था। इस अपहरण के परिणामस्वरूप काशी और हस्तिनापुर की शत्रुता हो गई। कर्ण ने भी दुर्योधन के लिये काशी राजकुमारी का बलपूर्वक अपहरण किया था, जिस कारण काशी नरेश महाभारत के युद्ध में पाण्डवों की तरफ से लड़े थे। कालांतर में गंगा की बाढ़ ने हस्तिनापुर को डुबा दिया, तब पाण्डवों के वंशज वर्तमान इलाहाबाद जिले में यमुना किनारे कौशाम्बी में नई राजधानी बनाकर बस गए। उनका राज्य वत्स कहलाया और काशी पर वत्स का अधिकार हो गया। उत्तर वैदिक काल इसके बाद ब्रह्मदत्त नाम के राजकुल का काशी पर अधिकार हुआ। उस कुल में बड़े पंडित शासक हुए और में ज्ञान और पंडिताई ब्राह्मणों से क्षत्रियों के पास पहुंच गई थी। इनके समकालीन पंजाब में कैकेय राजकुल में राजा अश्वपति था। तभी गंगा-यमुना के दोआब में राज करने वाले पांचालों में राजा प्रवहण जैबलि ने भी अपने ज्ञान का डंका बजाया था। इसी काल में जनकपुर, मिथिला में विदेहों के शासक जनक हुए, जिनके दरबार में याज्ञवल्क्य जैसे ज्ञानी महर्षि और गार्गी जैसी पंडिता नारियां शास्त्रार्थ करती थीं। इनके समकालीन काशी राज्य का राजा अजातशत्रु हुआ।[29] ये आत्मा और परमात्मा के ज्ञान में अनुपम था। ब्रह्म और जीवन के सम्बन्ध पर, जन्म और मृत्यु पर, लोक-परलोक पर तब देश में विचार हो रहे थे। इन विचारों को उपनिषद् कहते हैं। इसी से यह काल भी उपनिषद-काल कहलाता है। महाजनपद युग युग बदलने के साथ ही वैशाली और मिथिला के लिच्छवियों में साधु वर्धमान महावीर हुए, कपिलवस्तु के शाक्यों में गौतम बुद्ध हुए। उन्हीं दिनों काशी का राजा अश्वसेन हुआ। इनके यहां पार्श्वनाथ हुए जो जैन धर्म के २३वें तीर्थंकर हुए। उन दिनों भारत में चार राज्य प्रबल थे जो एक-दूसरे को जीतने के लिए, आपस में बराबर लड़ते रहते थे। ये राह्य थे मगध, कोसल, वत्स और उज्जयिनी। कभी काशी वत्सों के हाथ में जाती, कभी मगध के और कभी कोसल के। पार्श्वनाथ के बाद और बुद्ध से कुछ पहले, कोसल-श्रावस्ती के राजा कंस ने काशी को जीतकर अपने राज में मिला लिया। उसी कुल के राजा महाकोशल ने तब अपनी बेटी कोसल देवी का मगध के राजा बिम्बसार से विवाह कर दहेज के रूप में काशी की वार्षिक आमदनी एक लाख मुद्रा प्रतिवर्ष देना आरंभ किया और इस प्रकार काशी मगध के नियंत्रण में पहुंच गई।[29] राज के लोभ से मगध के राजा बिम्बसार के बेटे अजातशत्रु ने पिता को मारकर गद्दी छीन ली। तब विधवा बहन कोसलदेवी के दुःख से दुःखी उसके भाई कोसल के राजा प्रसेनजित ने काशी की आमदनी अजातशत्रु को देना बन्द कर दिया जिसका परिणाम मगध और कोसल समर हुई। इसमें कभी काशी कोसल के, कभी मगध के हाथ लगी। अन्ततः अजातशत्रु की जीत हुई और काशी उसके बढ़ते हुए साम्राज्य में समा गई। बाद में मगध की राजधानी राजगृह से पाटलिपुत्र चली गई और फिर कभी काशी पर उसका आक्रमण नहीं हो पाया। काशी नरेश और रामनगर वाराणसी १८वीं शताब्दी में स्वतंत्र काशी राज्य बन गया था और बाद के ब्रिटिश शासन के अधीन, ये प्रमुख व्यापारिक और धार्मिक केन्द्र रहा। १९१० में ब्रिटिश प्रशासन ने वाराणसी को एक नया भारतीय राज्य बनाया और रामनगर को इसका मुख्यालय बनाया, किंतु इसका अधिकार क्षेत्र कुछ नहीं था। काशी नरेश अभी भी रामनगर किले में रहते हैं। ये किला वाराणसी नगर के पूर्व में गंगा के तट पर बना हुआ है।[30] रामनगर किले का निर्माण काशी नरेश राजा बलवंत सिंह ने उत्तम चुनार बलुआ पत्थर ने १८वीं शताब्दी में करवाया था।[7] किला मुगल स्थापत्य शैली में नक्काशीदार छज्जों, खुले प्रांगण और सुरम्य गुम्बददार मंडपों से सुसज्जित बना है।[7] काशी नरेश का एक अन्य महल चैत सिंह महल है। ये शिवाला घाट के निकट महाराजा चैत सिंह ने बनवाया था।[31] रामनगर किला और इसका संग्रहालय अब बनारस के राजाओं की ऐतिहासिक धरोहर रूप में संरक्षित हैं और १८वीं शताब्दी से काशी नरेश का आधिकारिक आवास रहे हैं।[7] आज भी काशी नरेश नगर के लोगों में सम्मानित हैं।[7] ये नगर के धार्मिक अध्यक्ष माने जाते हैं और यहां के लोग इन्हें भगवान शिव का अवतार मानते हैं।[7] नरेश नगर के प्रमुख सांस्कृतिक संरक्षक एवं सभी बड़ी धार्मिक गतिविधियों के अभिन्न अंग रहे हैं।[7] काशी तीर्थ का इतिहास वाराणसी शहर का बड़ा अंश अतिप्राचीनकाल से काशी कहा जाता है। इसे हिन्दू मान्यता में सबसे बड़ा तीर्थ माना जाता है, किन्तु तीर्थ के रूप में वाराणसी का सबसे पुराना उल्लेख महाभारत मे मिलता है।[32][33] महाभारत-पूर्व के किसी साहित्य में किसी भी तीर्थ आदि के बारे में कोई उल्लेख नहीं है। आज के तीर्थस्थल तब अधिकतर वन प्रदेश में थे और मनुष्यों से रहित थे। कहीं-कहीं आदिवासियों का वास रहा होगा। कालांतर में तीर्थों के बारे में कही गयी कथाएं अस्तित्त्व में आयीं और तीर्थ बढ़ते गये, जिनके आसपास नगर और शहर भी बसे। भारतभूमि में आर्यों के प्रसार के द्वारा तीर्थों के अस्तित्व तथा माहात्मय का पता चला। महाभारत में उल्लेख है पृथ्वी के कुछ स्थान पुण्यप्रद तथा पवित्र होते है। इनमें से कोई तो स्थान की विचित्रता के कारण कोई जन्म के प्रभाव और कोई ॠषि-मुनियों के सम्पर्क से पवित्र हो गया है।[34] यजुर्वेदीय जाबाल उपनिषद में काशी के विषय में महत्वपूर्ण वर्णन आता है, परन्तु इस उपनिषद् को आधुनिक विद्वान उतना प्राचीन नहीं मानते हैं।[35] जाबाल-उपनिषद् खण्ड-२ में महर्षि अत्रि ने महर्षि याज्ञवल्क्य से अव्यक्त और अनन्त परमात्मा को जानने का तरीका पूछा। तब याज्ञवल्क्य ने कहा कि उस अव्यक्त और अनन्त आत्मा की उपासना अविमुक्त क्षेत्र में हो सकती है, क्योंकि वह वहीं प्रतिष्ठित है। और अत्रि के अविमुक्त की स्थिति पूछने पर। याज्ञवल्क्य ने उत्तर दिया कि वह वरणा तथा नाशी नदियों के मध्य में है। वह वरणा क्या है और वह नाशी क्या है, यह पूछने पर उत्तर मिला कि इन्द्रिय-कृत सभी दोषों का निवारण करने वाली वरणा है और इन्द्रिय-कृत सभी पापों का नाश करने वाली नाशी है। वह अविमुक्त क्षेत्र देवताओं का देव स्थान और सभी प्राणियों का ब्रह्म सदन है। वहाँ ही प्राणियों के प्राण-प्रयाण के समय में भगवान रुद्र तारक मन्त्र का उपदेश देते है जिसके प्रभाव से वह अमृती होकर मोक्ष प्राप्त करता है। अत एव अविमुक्त में सदैव निवास करना चाहिए। उसको कभी न छोड़े, ऐसा याज्ञवल्क्य ने कहा है। जाबालोपिनषद के अलावा अनेक स्मृतियों जैसे लिखितस्मृति, श्रृंगीस्मृति तथा पाराशरस्मृति, ब्राह्मीसंहिता तथा सनत्कुमारसंहिता में भी काशी का माहात्म्य बताया है। प्रायः सभी पुराणों में काशी का माहात्म्य कहा गया है। ब्रह्मवैवर्त पुराण में तो काशी क्षेत्र पर काशी-रहस्य नाम से पूरा ग्रन्थ ही है, जिसे उसका खिल भाग कहते हैं। पद्म पुराण में काशी-महात्म्य और अन्य स्थानों पर भी काशी का उल्लेख आता है। प्राचीन लिंग पुराण में सोलह अध्याय काशी की तीर्थों के संबंध में थे। वर्त्तमान लिंगपुराण में भी एक अध्याय है। स्कंद पुराण का काशीखण्ड तो काशी के तीर्थ-स्वरुप का विवेचन तथा विस्तृत वर्णन करता ही है। इस प्रकार पुराण-साहित्य में काशी के धार्मिक महात्म्य पर सामग्री है। इसके अतिरिक्त, संस्कृत-वाड्मय, दशकुमारचरित, नैषध, राजतरंगिणी और कुट्टनीपतम् में भी काशी का वर्णन आता है। १२वीं शताब्दी ईसवी तक प्राप्त होने वाले लिंग पुराण में तीसरे से अट्ठारहवें अध्याय तक काशी के देवायतनों तथा तीर्थें का विस्तृत वर्णन था। त्रिस्थलीसेतु ग्रन्थ की रचना (सन् १५८० ई.) में लिंगपुराण वैसा ही रहा था। लैंंगोडपि तृतीयाध्यायात्षोऽशान्तं लिंंगान्युक्तवोक्तम्[36] अर्थात लिंगपुराण में भी तीसरे से सोलहवें अध्याय तक लिंगो का वर्णन किया है। वर्तमान लिंग पुराण में केवल एक ही अध्याय काशी के विषय में है, जिसमें केवल १४४ श्लोक हैं। इस प्रकार महाभारत के अलावा यदि सभी पुराणों के उल्लेख देखें, तो काशी के तीर्थ रूप के उल्लेख की सूची बहुत लंबी बनती है। शब्दकल्पद्रुम मे २६४ तीर्थों का उल्लेख है, परन्तु महिमा के विचार से भारत के तीर्थों में चार धाम और सप्तपुरियों के नाम शीर्षस्थ माने जाते है। प्रयाग, गया और गंगासागर तक के नाम इनमें नहीं आते। अतः इसे नकारा भी जा सकता है। क्षेत्र का विस्तार वाराणसी क्षेत्र के विस्तार के अनेक पौराणिक उद्धरण उपलब्ध हैं।[37] कृत्यकल्पतरु में दिये तीर्थ-विवेचन व अन्य प्राचीन ग्रन्थों के अनुसार[38]: ब्रह्म पुराण में भगवान शिव पार्वती से कहते हैं कि- हे सुरवल्लभे, वरणा और असि इन दोनों नदियों के बीच में ही वाराणसी क्षेत्र है, उसके बाहर किसी को नहीं बसना चाहिए। मत्स्य पुराण[39] में इसकी लम्बाई-चौड़ाई अधिक स्पष्ट रूप से वर्णित है। पूर्व-पश्चिम ढ़ाई (२½) योजन भीष्मचंडी से पर्वतेश्वर तक, उत्तर-दक्षिण आधा (1/2) योजन, शेष भाग वरुणा और अस्सी के बीच। उसके बीच में मध्यमेश्वर नामक स्वयंभू लिंग है। यहां से भी एक-एक कोस चारों ओर क्षेत्र का विस्तार है। यही वाराणसी की वास्तविक सीमा है। उसके बाहर विहार नहीं करना चाहिए।[38] अग्नि पुराण[40] के अनुसार वरणा और असी नदियों के बीच बसी हुई वाराणसी का विस्तार पूर्व में दो योजन और दूसरी जगह आधा योजन भाग फैला था और दक्षिण में यह क्षेत्र वरणा से गंगा तक आधा योजन फैला हुआ था। मत्स्य पुराण में ही अन्यत्र नगर का विस्तार बतलाते हुए कहा गया है- पूर्व से पश्चिम तक इस क्षेत्र का विस्तार दो योजन है और दक्षिण में आधा योजन नगर भीष्मचंडी से लेकर पर्वतेश्वर तक फैला हुआ था।[38] ब्रह्म पुराण के अनुसार इस क्षेत्र का प्रमाण पांच कोस का था उसमें उत्तरमुखी गंगा है[41] जिससे क्षेत्र का महात्म्य बढ़ गया। उत्तर की ओर गंगा दो योजन तक शहर के साथ-साथ बहती थी। स्कंद पुराण के अनुसार उस क्षेत्र का विस्तार चारों ओर चार कोस था। लिंग पुराण में इस क्षेत्र का विस्तार कृतिवास से आरंभ होकर यह क्षेत्र एक-एक कोस चारों ओर फैला हुआ है। उसके बीच में मध्यमेश्वर नामक स्वयंभू लिंग है। यहां से भी एक-एक कोस चारों ओर क्षेत्र का विस्तार है। यही वाराणसी की वास्तविक सीमा है। उसके बाहर विहार न करना चाहिए।[38] उपरोक्त उद्धरणों से ज्ञात होता है कि प्राचीन वाराणसी का विस्तार काफी दूर तक था। वरुणा के पश्चिम में राजघाट का किला जहां प्राचीन वाराणसी के बसे होने में कोई संदेह नहीं है, एक मील लंबा और ४०० गज चौड़ा है। गंगा नदी उसके दक्षिण-पूर्व मुख की रक्षा करती है और वरुणा नदी उत्तर और उत्तर-पूर्व मुखों की रक्षा एक छिछली खाई के रूप में करती है, पश्चिम की ओर एक खाली नाला है जिसमें से होकर किसी समय वरुणा नदी बहती थी। रक्षा के इस प्राकृतिक साधनों को देखते हुए ही शायद प्राचीन काल में वाराणसी नगर के लिए यह स्थान चुना गया। सन् १८५७ ई. के प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के समय अंग्रेजों ने भी नगर रक्षा के लिए वरुणा के पीछे ऊंची जमीन पर कच्ची मिट्टी की दीवारें उठाकर किलेबन्दी की थी। पुराणों में आयी वाराणसी की सीमा राजघाट की उक्त लम्बाई-चौड़ाई से कहीं अधिक है। उन वर्णनों से लगता है कि वहां केवल नगर की सीमा ही नहीं वर्णित है, बल्कि पूरे क्षेत्र को सम्मिलित कर लिया गया है।[38] वरुणा के उस पार तक प्राचीन बसावटों के अवशेष काफी दूर तक मिलते हैं। अतः संभव है कि पुराणों में मिले वर्णन वे सब भाग भी आ गये हों। इस क्षेत्र को यदि नगर में जुड़ा हुआ मानें, तो पुराणों में वर्णित नगर की लम्बाई-चौड़ाई लगभग सही ही बतायी गई है। गौतम बुद्ध के जन्म पूर्व महाजनपद युग में वाराणसी काशी जनपद की राजधानी थी।[38] किंतु प्राचीन काशी जनपद के विस्तार के बारे में यथार्थ आदि से अनुमान लगाना कठिन है। जातकों में[42] काशी का विस्तार ३०० योजन दिया गया है। काशी जनपद के उत्तर में कोसल जनपद, पूर्व में मगध जनपद और पश्चिम में वत्स था।[43] इतिहासवेत्ता डॉ॰ ऑल्टेकर के मतानुसार काशी जनपद का विस्तार उत्तर-पश्चिम की ओर २५० मील तक था, क्योंकि इसका पूर्व का पड़ोसी जनपद मगध और उत्तर-पश्चिम का पड़ोसी जनपद उत्तर पांचाल था। जातक (१५१) के अनुसार काशी और कोसल की सीमाएं मिली हुई थी। काशी की दक्षिण सीमा का सही वर्णन उपलब्ध नहीं है, शायद इसलिये कि वह विंध्य श्रृंखला तक गई हुई थी व आगे कोई आबादी नहीं थी। जातकों के आधार पर काशी का विस्तार वर्तमान बलिया से कानपुर तक फैला रहा होगा।[44] यहां श्री राहुल सांकृत्यायन कहते हैं, कि आधुनिक बनारस कमिश्नरी ही प्राचीन काशी जनपद रहा था। संभव है कि आधुनिक गोरखपुर कमिश्नरी का भी कुछ भाग काशी जनपद में शामिल रहा हो। दूसरी वाराणसी पुरु कुल के राजा दिवोदास द्वारा दूसरी वाराणसी की स्थापना का उल्लेख महाभारत और अन्य ग्रन्थों में आता है। इस नगरी के बैरांट में होने की संभावना भी है। इस बारे में पंडित कुबेरनाथ सुकुल के अनुसार[45] बैराट खंडहर बाण गंगा के दक्षिण (दाएं) किनारे पर है वाम (बाएं) पर नहीं। इस प्रकार गोमती और बैरांट के बीच गंगा की धारा बाधक हो जाती है। गंगा के रास्ते बदलने, बाण गंगा में गंगा के बहने और गंगा-गोमती संगम सैदपुर के पास होने के बारे में आगे सुकुलजी ने महाभारत के हवाले से[46] बताया है कि गंगा-गोमती संगम पर मार्कण्डेय तीर्थ था, जो वर्तमान में कैथी के समीप स्थित है। अत: ये कह सकते हैं कि यदि गंगा-गोमती संगम सैदपुर के पास था तो यह महाभारत-पूर्व हो सकता है, न कि तृतीय शताब्दी ईसवी के बाद का। मार्कण्डेयस्य राजेन्द्रतीर्थमासाद्य दुलभम्। गोमतीगंगयोश्चैव संगमें लोकविश्रुते।।महाभारत भूगोल तथा जलवायु भूगोल वाराणसी शहर उत्तरी भारत की मध्य गंगा घाटी में, भारतीय राज्य उत्तर प्रदेश के पूर्वी छोर पर गंगा नदी के बायीं ओर के वक्राकार तट पर स्थित है। यहां वाराणसी जिले का मुख्यालय भी स्थित है। वाराणसी शहरी क्षेत्र — सात शहरी उप-इकाइयों का समूह है और ये ११२.२६वर्ग कि॰मी॰ (लगभग ४३वर्ग मील) के क्षेत्र फैला हुआ है।[47] शहरी क्षेत्र का विस्तार (८२°५६’ पूर्व) - (८३°०३’ पूर्व) एवं (२५°१४’ उत्तर) - (२५°२३.५’ उत्तर) के बीच है।[47] उत्तरी भारत के गांगेय मैदान में बसे इस क्षेत्र की भूमि पुराने समय में गंगा नदी में आती रहीं बाढ़ के कारण उपत्यका रही है। खास वाराणसी शहर गंगा और वरुणा नदियों के बीच एक ऊंचे पठार पर बसा है। नगर की औसत ऊंचाई समुद्र तट से ८०.७१मी. है।[48] यहां किसी सहायक नदी या नहर के अभाव में मुख्य भूमि लगातार शुष्क बनी रही है। प्राचीन काल से ही यहां की भौगोलिक स्थिति बसावट के लिये अनुकूल रही है। किन्तु नगर की मूल स्थिति का अनुमान वर्तमान से लगाना मुश्किल है, क्योंकि आज की स्थिति कुछ प्राचीन ग्रन्थों में वर्णित स्थिति से भिन्न है। नदियाँ वाराणसी या काशी का विस्तार प्रायः गंगा नदी के दो संगमों: एक वरुणा नदी से और दूसरा असी नदी से संगम के बीच बताया जाता है। इन संगमों के बीच की दूरी लगभग २.५मील है। इस दूरी की परिक्रमा (दोनों ओर की यात्रा) हिन्दुओं में पंचकोसी यात्रा या पंचकोसी परिक्रमा कहलाती है। इसक यात्रा का समापन साक्षी विनायक मंदिर में किया जाता है। वाराणसी क्षेत्र में अनेक छोटी बड़ी नदियां बहती हैं। इनमें सबसे प्रमुख नदी तो गंगा ही है, किंतु इसके अलावा अन्य बहुत नदियां हैं जैसे गंगा, बानगंगा, वरुणा, गोमती, करमनासा, गड़ई, चंद्रप्रभा, आदि। बनारस जिले की नदियों के विस्तार से अध्ययन करने पर यह ज्ञात होता है कि बनारस में तो प्रस्रावक नदियां है लेकिन चंदौली में नहीं है जिससे उस जिले में झीलें और दलदल हैं, अधिक बरसात होने पर गांव पानी से भर जाते हैं तथा फसल को काफी नुकसान पहुंचता है। नदियों के बहाव और जमीन की के कारण जो हानि-लाभ होता है इससे प्राचीन आर्य अनभिज्ञ नहीं थे और इसलिए सबसे पहले आबादी बनारस में हुई।[49] जलवायु वाराणसी में आर्द्र अर्ध-कटिबन्धीय जलवायु (कोप्पन जलवायु वर्गीकरण Cwa के अनुसार) है जिसके संग यहां ग्रीष्म ऋतु और शीत ऋतु ऋतुओं के तापमान में बड़े अंतर हैं। ग्रीष्म काल अप्रैल के आरंभ से अक्टूबर तक लंबे होते हैं, जिस बीच में ही वर्षा ऋतु में मानसून की वर्षाएं भी होती हैं। हिमालय क्षेत्र से आने वाली शीत लहर से यहां का तापमान दिसम्बर से फरवरी के बीच शीतकाल में गिर जाता है। यहां का तापमान ३२° से.– ४६°C (९०° फै.– ११५°फै.) ग्रीष्म काल में, एवं ५°से.– १५°से. (४१°फै.– ५९°फै.) शीतकाल में रहता है।[48] औसत वार्षिक वर्षा १११०मि.मी. (४४इंच) तक होती है।[50] ठंड के मौसम में कुहरा सामान्य होता है और गर्मी के मौसम में लू चलना सामान्य होता है। यहां निरंतर बढ़ते जल प्रदूषण और निर्माण हुए बांधों के कारण स्थानीय तापमान में वृद्धि दर्ज हुई है। गंगा का जलस्तर पुराने समय से अच्छा खासा गिर गया है और इस कारण नदी के बीच कुछ छोटे द्वीप भी प्रकट हो गये हैं। इस प्राचीन शहर में पानी का जलस्तर इतना गिर गया है कि इंडिया मार्क-२ जैसे हैंडपंप भी कई बार चलाने के बाद भी पानी की एक बूंद भी नहीं निकाल पाते। वाराणसी में गंगा का जलस्तर कम होना भी एक बड़ी समस्या है। गंगा के जल में प्रदूषण होना सभी के लिए चिंता का विषय था, लेकिन अब इसका प्रवाह भी कम होता जा रहा है, जिसके कारण उत्तराखंड से लेकर बंगाल की खाड़ी तक चिंता जतायी जा रही है।[51] अर्थ-व्यवस्था वाराणसी में विभिन्न कुटीर उद्योग कार्यरत हैं, जिनमें बनारसी रेशमी साड़ी, कपड़ा उद्योग, कालीन उद्योग एवं हस्तशिल्प प्रमुख हैं। बनारसी पान विश्वप्रसिद्ध है और इसके साथ ही यहां का कलाकंद भी मशहूर है। वाराणसी में बाल-श्रमिकों का काम जोरों पर है।[53] बनारसी रेशम विश्व भर में अपनी महीनता एवं मुलायमपन के लिये प्रसिद्ध है। बनारसी रेशमी साड़ियों पर बारीक डिज़ाइन और ज़री का काम चार चांद लगाते हैं और साड़ी की शोभा बढ़ाते हैं। इस कारण ही ये साड़ियां वर्षों से सभी पारंपरिक उत्सवों एवं विवाह आदि समारोहों में पहनी जाती रही हैं। कुछ समय पूर्व तक ज़री में शुद्ध सोने का काम हुआ करता था। भारतीय रेल का डीजल इंजन निर्माण हेतु डीजल रेल इंजन कारखाना भी वाराणसी में स्थित है। वाराणसी और कानपुर का प्रथम भारतीय व्यापार घराना निहालचंद किशोरीलाल १८५७ में देश के चौथे ऑक्सीजन संयंत्र की स्थापना से आरंभ हुआ था। इसका नाम इण्डियन एयर गैसेज़ लि. था। लॉर्ड मकॉले के अनुसार, वाराणसी वह नगर था, जिसमें समृद्धि, धन-संपदा, जनसंख्या, गरिमा एवं पवित्रता एशिया में सर्वोच्च शिखर पर थी। यहां के व्यापारिक महत्त्व की उपमा में उसने कहा था: " बनारस की खड्डियों से महीनतम रेशम निकलता है, जो सेंट जेम्स और वर्सेल्स के मंडपों की शोभा बढ़ाता है"।[17][54] बनारसी रेशमी साड़ी डीजल रेल इंजन कारखाना बनारसी कलाकंद मिठाई पान की दुकान पर बिकते पान बनारसी रेशमी साड़ी का अंश प्रशासन एवं राजनीति वाराणसी के प्रशासन में कई संस्थाएं संलग्न हैं, जिनमें से प्रमुख है वाराणसी नगर निगम एवं वाराणसी विकास प्राधिकरण जो वाराणसी शहर की मास्टर योजना के लिये उत्तरदायी है। यहां की जलापूर्ति एवं मल-निकास व्यवस्था नगर निगम के अधीनस्थ जल निगम द्वारा की जाती है। यहां की विद्युत आपूर्ति उत्तर प्रदेश पावर कार्पोरेशन लिमिटेड द्वारा की जाती है। नगर से प्रतिदिन लगभग ३५ करोड़ लीटर मल[55] एवं ४२५ टन कूड़ा निकलता है।[56] कूड़े का निष्कासन लैण्ड-फ़िल स्थलों पर किय़ा जाता है।[57] बडी मात्रा में मल निकास गंगा नदी में किया जाता है। शहर और उपनगरीय क्षेत्र में नगर निगम द्वारा बस सेवा भी संचालित की जाती है। नगर की कानून व्यवस्था उत्तर प्रदेश पुलिस सेवा की वाराणसी मंडल में वाराणसी क्षेत्र के अधीन आती है। नगर में पुलिस के उच्चतम अधिकारी पुलिस अधीक्षक हैं।[58] बनारस शहर वाराणसी लोक सभा निर्वाचन क्षेत्र में आता है। वर्ष २०१४ में हुए आम चुनावों में भारतीय जनता पार्टी के नरेन्द्र मोदी यहां से सांसद चुने गये थे।[59] वाराणसी जिले में पाँच विधान सभा निर्वाचन क्षेत्र आते हैं। ये इस प्रकार से हैं[60]: ३८७-रोहनिया, ३८८-वाराणसी उत्तर, ३८९-वाराणसी दक्षिण, ३९०-वाराणसी छावनी और ३९१-सेवापुरी। वाराणसी उन पांच शहरों में से एक है, जहां गंगा एकशन प्लान की शुरुआत हुई थी। देखें: शिक्षा वाराणसी के उच्चतर माध्यमिक विद्यालय इंडियन सर्टिफिकेट ऑफ सैकेंडरी एजुकेशन (आई.सी.एस.ई), केन्द्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (सी.बी.एस.ई) या उत्तर प्रदेश माध्यमिक शिक्षा परिषद (यू.पी.बोर्ड) से सहबद्ध हैं। उच्च शिक्षा वाराणसी में तीन सार्वजनिक एवं एक मानित विश्वविद्यालय हैं: बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय जिसकी स्थापना १९१६ में पं.मदन मोहन मालवीय ने एनी बेसेंट के सहयोग से की थी। इसका १३५०एकड़ (५.५वर्ग कि॰मी॰) में फैला परिसर काशी नरेश द्वारा दान की गई भूमि पर निर्मित है। इस विश्वविद्यालय में भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आई.आई.टी-बी.एच.यू) एवं आयुर्विज्ञान संस्थान विश्व के सर्वोच्च तीन एवं एशिया सबसे बड़े आवासीय विश्वविद्यालयों में से एक हैं। यहां १२८ से अधिक स्वतंत्र शैक्षणिक विभाग हैं।[61] संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय: भारत के गवर्नर जनरल लॉर्ड कॉर्नवालिस ने इस संस्कृत महाविद्यालय की स्थापना १७९१ में की थी। ये वाराणसी का प्रथम महाविद्यालय था। इस महाविद्यालय के प्रथम प्रधानाचार्य संस्कृत प्राध्यापक जे म्योर, आई.सी.एस थे। इनके बाद जे.आर.बैलेन्टियन, आर.टी.एच.ग्रिफ़िथ, डॉ॰जी.थेवो, डॉ॰आर्थर वेनिस, डॉ॰गंगानाथ झा और गोपीनाथ कविराज हुए। भारतीय स्वतंत्रता उपरांत इस महाविद्यालय को विश्वविद्यालय बनाकर वर्तमान नाम दिया गया।[1] महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ एक मानित राजपत्रित विश्वविद्यालय है। इसका नाम भारत के राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के नाम पर है और यहां उनके सिद्धांतों का पालन किया जाता है। केन्द्रीय तिब्बती अध्ययन विश्वविद्यालय सारनाथ में स्थापित एक मानित विश्वविद्यालय है। यहां परंपरागत तिब्बती पठन-पाठन को आधुनिक शिक्षा के साथ वरीयता दी जाती है।[2] उदय प्रताप कॉलिज, एक स्वायत्त महाविद्यालय है जहां आधुनिक बनारस के उपनगरीय छात्रों हेतु क्रीड़ा एवं विज्ञान का केन्द्र है। वाराणसी में बहुत से निजी एवं सार्वजनिक संस्थान है, जहां हिन्दू धार्मिक शिक्षा की व्यवस्था है। प्राचीन काल से ही लोग यहां दर्शन शास्त्र, संस्कृत, खगोलशास्त्र, सामाजिक ज्ञान एवं धार्मिक शिक्षा आदि के ज्ञान के लिये आते रहे हैं। भारतीय परंपरा में प्रायः वाराणसी को सर्वविद्या की राजधानी कहा गया है।[3] नगर में एक जामिया सलाफिया भी है, जो सलाफ़ी इस्लामी शिक्षा का केन्द्र है।[4] इन विश्वविद्यालयों के अलावा शहर में कई स्नातकोत्तर एवं स्नातक महाविद्यालय भी हैं, जैसे अग्रसेन डिगरी कॉलिज, हरिशचंद्र डिगरी कॉलिज, आर्य महिला डिगरी कॉलिज, एवं स्कूल ऑफ मैनेजमेंट। बाहरी कड़ियाँ संस्कृति वाराणसी का पुराना शहर, गंगा तीरे का लगभग चौथाई भाग है, जो भीड़-भाड़ वाली संकरी गलियों और किनारे सटी हुई छोटी-बड़ी असंख्य दुकानों व सैंकड़ों हिन्दू मंदिरों से पटा हुआ है। ये घुमाव और मोड़ों से भरी गलियां किसी के लिये संभ्रम करने वाली हैं। ये संस्कृति से परिपूर्ण पुराना शहर विदेशी पर्यटकों के लिये वर्षों से लोकप्रिय आकर्षण बना हुआ है।[5] वाराणसी के मुख्य आवासीय क्षेत्र (विशेषकर मध्यम एवं उच्च-मध्यम वर्गीय श्रेणी के लिये) घाटों से दूर स्थित हैं। ये विस्तृत, खुले हुए और अपेक्षाकृत कम प्रदूषण वाले हैं। रामनगर की रामलीला यहां दशहरा का त्यौहार खूब रौनक और तमाशों से भरा होता है। इस अवसर पर रेशमी और ज़री के ब्रोकेड आदि से सुसज्जित भूषा में काशी नरेश की हाथी पर सवारी निकलती है और पीछे-पीछे लंबा जलूस होता है।[6] फिर नरेश एक माह लंबे चलने वाले रामनगर, वाराणसी की रामलीला का उद्घाटन करते हैं।[6] रामलीला में रामचरितमानस के अनुसार भगवान श्रीराम के जीवन की लीला का मंचन होता है।[6] ये मंचन काशी नरेश द्वारा प्रायोजित होता है अर पूरे ३१ दिन तक प्रत्येक शाम को रामनगर में आयोजित होता है।[6] अंतिम दिन इसमें भगवान राम रावण का मर्दन कर युद्ध समाप्त करते हैं और अयोध्या लौटते हैं।[6] महाराजा उदित नारायण सिंह ने रामनगर में इस रामलीला का आरंभ १९वीं शताब्दी के मध्य से किया था।[6] बनारस घराना बनारस घराना भारतीय तबला वादन के छः प्रसिद्ध घरानों में से एक है।[7] ये घराना २०० वर्षों से कुछ पहले ख्यातिप्राप्त पंडित राम सहाय (१७८०-१८२६) के प्रयासों से विकसित हुआ था। पंडित राम सहाय ने अपने पिता के संग पांच वर्ष की आयु से ही तबला वादन आरंभ किया था। बनारस-बाज कहते हैं। ये बनारस घराने की विशिष्ट तबला वादन शैली है। इन्होंने तत्कालीन संयोजन प्रारूपों जैसे जैसे गट, टुकड़ा, परान, आदि से भी विभिन्न संयोजन किये, जिनमें उठान, बनारसी ठेका और फ़र्द प्रमुख हैं। आज बनारसी तबला घराना अपने शक्तिशाली रूप के लिये प्रसिद्ध है, हालांकि बनारस घराने के वादक हल्के और कोमल स्वरों के वादन में भी सक्षम हैं। घराने को पूर्वी बाज मे वर्गीकृत किया गया है, जिसमें लखनऊ, फर्रुखाबाद और बनारस घराने आते हैं। बनारस शैली तबले के अधिक अनुनादिक थापों का प्रयोग करती है, जैसे कि ना और धिन। बनारस घराने में एकल वादन बहुत इकसित हुआ है और कई वादक जैसे पंडित शारदा सहाय, पंडित किशन महाराज[8] और पंडित समता प्रसाद[9], एकल तबला वादन में महारत और प्रसिद्धि प्राप्त हैं। घराने के नये युग के तबला वादकों में पं॰ कुमार बोस, पं.समर साहा, पं.बालकृष्ण अईयर, पं.शशांक बख्शी, संदीप दास, पार्थसारथी मुखर्जी, सुखविंदर सिंह नामधारी, विनीत व्यास और कई अन्य हैं। बनारसी बाज में २० विभिन्न संयोजन शैलियों और अनेक प्रकार के मिश्रण प्रयुक्त होते हैं। पवित्र नगरी वाराणसी या काशी को हिन्दू धर्म में पवित्रतम नगर बताया गया है। यहां प्रतिवर्ष १० लाख से अधिक तीर्थ यात्री आते हैं।[10] यहां का प्रमुख आकर्षण है काशी विश्वनाथ मंदिर, जिसमें भगवान शिव के बारह ज्योतिर्लिंग में से प्रमुख शिवलिंग यहां स्थापित है।[11][12] हिन्दू मान्यता अनुसार गंगा नदी सबके पाप मार्जन करती है और काशी में मृत्यु सौभाग्य से ही मिलती है और यदि मिल जाये तो आत्मा पुनर्जन्म के चक्र से मुक्त हो कर मोक्ष पाती है। इक्यावन शक्तिपीठ में से एक विशालाक्षी मंदिर यहां स्थित है, जहां भगवती सती की कान की मणिकर्णिका गिरी थी। वह स्थान मणिकर्णिका घाट के निकट स्थित है।[13] हिन्दू धर्म में शाक्त मत के लोग देवी गंगा को भी शक्ति का ही अवतार मानते हैं। जगद्गुरु आदि शंकराचार्य ने हिन्दू धर्म पर अपनी टीका यहीं आकर लिखी थी, जिसके परिणामस्वरूप हिन्दू पुनर्जागरण हुआ। काशी में वैष्णव और शैव संप्रदाय के लोग सदा ही धार्मिक सौहार्द से रहते आये हैं। वाराणसी बौद्ध धर्म के पवित्रतम स्थलों में से एक है और गौतम बुद्ध से संबंधित चार तीर्थ स्थलों में से एक है। शेष तीन कुशीनगर, बोध गया और लुंबिनी हैं। वाराणसी के मुख्य शहर से हटकर ही सारनाथ है, जहां भगवान बुद्ध ने अपना प्रथम प्रवचन दिया था। इसमें उन्होंने बौद्ध धर्म के मूलभूत सिद्दांतों का वर्णन किया था। अशोक-पूर्व स्तूपों में से कुछ ही शेष हैं, जिनमें से एक धामेक स्तूप यहीं अब भी खड़ा है, हालांकि अब उसके मात्र आधारशिला के अवशेष ही शेष हैं। इसके अलावा यहां चौखंडी स्तूप भी स्थित है, जहां बुद्ध अपने प्रथम शिष्यों से (लगभग ५वीं शताब्दी ई.पू या उससे भी पहले) मिले थे। वहां एक अष्टभुजी मीनार बनवायी गई थी। वाराणसी हिन्दुओं एवं बौद्धों के अलावा जैन धर्म के अवलंबियों के लिये भी पवित तीर्थ है। इसे २३वें तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथ का जन्मस्थान माना जाता है।[14] वाराणसी पर इस्लाम संस्कृति ने भी अपना प्रभाव डाला है। हिन्दू-मुस्लिम समुदायों में तनाव की स्थिति कुछ हद तक बहुत समय से बनी हुई है। गंगा नदी भारत की सबसे बड़ी नदी गंगा करीब २,५२५ किलोमीटर की दूरी तय कर गोमुख से गंगासागर तक जाती है। इस पूरे रास्ते में गंगा उत्तर से दक्षिण की ओर यानि उत्तरवाहिनी बहती है।[10] केवल वाराणसी में ही गंगा नदी दक्षिण से उत्तर दिशा में बहती है। यहां लगभग ८४ घाट हैं। ये घाट लगभग ६.५ किमी लं‍बे तट पर बने हुए हैं। इन ८४ घाटों में पांच घाट बहुत ही पवित्र माने जाते हैं। इन्हें सामूहिक रूप से 'पंचतीर्थी' कहा जाता है। ये हैं अस्सी घाट, दशाश्वमेध घाट, आदिकेशव घाट, पंचगंगा घाट तथा मणिकर्णिक घाट। अस्सी ‍घाट सबसे दक्षिण में स्थित है जबकि आदिकेशवघाट सबसे उत्तर में स्थित हैं।[15] घाट वाराणसी में १०० से अधिक घाट हैं। शहर के कई घाट मराठा साम्राज्य के अधीनस्थ काल में बनवाये गए थे। वर्तमान वाराणसी के संरक्षकों में मराठा, शिंदे (सिंधिया), होल्कर, भोंसले और पेशवा परिवार रहे हैं। अधिकतर घाट स्नान-घाट हैं, कुछ घाट अन्त्येष्टि घाट हैं। कई घाट किसी कथा आदि से जुड़े हुए हैं, जैसे मणिकर्णिका घाट, जबकि कुछ घाट निजी स्वामित्व के भी हैं। पूर्व काशी नरेश का शिवाला घाट और काली घाट निजी संपदा हैं। । इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र। सुनील झा। अभिगमन तिथि:२९ अप्रैल २०१०[16] प्रमुख घाट दशाश्वमेध घाट काशी विश्वनाथ मंदिर के निकट ही स्थित है और सबसे शानदार घाट है।इससे संबंधित दो पौराणिक कथाएं हैं: एक के अनुसार ब्रह्मा जी ने इसका निर्माण शिव जी के स्वागत हेतु किया था। दूसरी कथा के अनुसार ब्रह्माजी ने यहां दस अश्वमेध यज्ञ किये थे। प्रत्येक संध्या पुजारियों का एक समूह यहां अग्नि-पूजा करता है जिसमें भगवान शिव, गंगा नदी, सूर्यदेव, अग्निदेव एवं संपूर्ण ब्रह्मांड को आहुतियां समर्पित की जाती हैं। यहां देवी गंगा की भी भव्य आरती की जाती है। मणिकर्णिका घाट इस घाट से जुड़ी भी दो कथाएं हैं। एक के अनुसार भगवान विष्णु ने शिव की तपस्या करते हुए अपने सुदर्शन चक्र से यहां एक कुण्ड खोदा था। उसमें तपस्या के समय आया हुआ उनका स्वेद भर गया। जब शिव वहां प्रसन्न हो कर आये तब विष्णु के कान की मणिकर्णिका उस कुंड में गिर गई थी। दूसरी कथा के अनुसार भगवाण शिव को अपने भक्तों से छुट्टी ही नहीं मिल पाती थी। देवी पार्वती इससे परेशान हुईं और शिवजी को रोके रखने हेतु अपने कान की मणिकर्णिका वहीं छुपा दी और शिवजी से उसे ढूंढने को कहा। शिवजी उसे ढूंढ नहीं पाये और आज तक जिसकी भी अन्त्येष्टि उस घाट पर की जाती है, वे उससे पूछते हैं कि क्या उसने देखी है?प्राचीन ग्रन्थों के अनुसार मणिकर्णिका घाट का स्वामी वही चाण्डाल था, जिसने सत्यवादी राजा हरिशचंद्र को खरीदा था। उसने राजा को अपना दास बना कर उस घाट पर अन्त्येष्टि करने आने वाले लोगों से कर वसूलने का काम दे दिया था। इस घाट की विशेषता ये है, कि यहां लगातार हिन्दू अन्त्येष्टि होती रहती हैं व घाट पर चिता की अग्नि लगातार जलती ही रहती है, कभी भी बुझने नहीं पाती। सिंधिया घाट सिंधिया घाट, जिसे शिन्दे घाट भी कहते हैं, मणिकर्णिका घाट के उत्तरी ओर लगा हुआ है। यह घाट काशी के बड़े तथा सुंदर घाटों में से एक है। इस घाट का निर्माण १५० वर्ष पूर्व १८३० में ग्वालियर की महारानी बैजाबाई सिंधिया ने कराया था तथा और इससे लगा हुआ शिव मंदिर आंशिक रूप से नदी के जल में डूबा हुआ है। इस घाट के ऊपर काशी के अनेकों प्रभावशाली लोगों द्वारा बनवाये गए मंदिर स्थित हैं। ये संकरी घुमावदार गलियों में सिद्ध-क्षेत्र में स्थित हैं। मान्यतानुसार अग्निदेव का जन्म यहीं हुआ था। यहां हिन्दू लोग वीर्येश्वर की अर्चना करते हैं और पुत्र कामना करते हैं। १९४९ में इसका जीर्णोद्धार हुआ। यहीं पर आत्माविरेश्वर तथा दत्तात्रेय के प्रसिद्ध मंदिर हैं। संकठा घाट पर बड़ौदा के राजा का महल है। इसका निर्माण महानाबाई ने कराया था। यहीं संकठा देवी का प्रसिद्ध मंदिर है। घाट के अगल- बगल के क्षेत्र को "देवलोक' कहते हैं। मान मंदिर घाट जयपुर के महाराजा जयसिंह द्वितीय ने ये घाट १७७० में बनवाया था। इसमें नक्काशी से अलंकृत झरोखे बने हैं। इसके साथ ही उन्होंने वाराणसी में यंत्र मंत्र वेधशाला भी बनवायी थी जो दिल्ली, जयपुर, उज्जैन, मथुरा के संग पांचवीं खगोलशास्त्रीय वेधशाला है। इस घाट के उत्तरी ओर एक सुंदर बारजा है, जो सोमेश्वर लिंग को अर्घ्य देने के लिये बनवाया गई थी। ललिता घाट स्वर्गीय नेपाल नरेश ने ये घाट वाराणसी में उत्तरी ओर बनवाया था। यहीं उन्होंने एक नेपाली काठमांडु शैली का पगोडा आकार गंगा-केशव मंदिर भी बनवाया था, जिसमें भगवान विष्णु प्रतिष्ठित हैं। इस मंदिर में पशुपतेश्वर महादेव की भी एक छवि लगी है। असी घाट असी घाट असी नदी के संगम के निकट स्थित है। इस सुंदर घाट पर स्थानीय उत्सव एवं क्रीड़ाओं के आयोजन होते रहते हैं। ये घाटों की कतार में अंतिम घाट है। ये चित्रकारों और छायाचित्रकारों का भी प्रिय स्थल है। यहीं स्वामी प्रणवानंद, भारत सेवाश्रम संघ के प्रवर्तक ने सिद्धि पायी थी। उन्होंने यहीं अपने गोरखनाथ के गुरु गंभीरानंद के गुरुत्व में भगवान शिव की तपस्या की थी। अन्य आंबेर के मान सिंह ने मानसरोवर घाट का निर्माण करवाया था। दरभंगा के महाराजा ने दरभंगा घाट बनवाया था। गोस्वामी तुलसीदास ने तुलसी घाट पर ही हनुमान चालीसा[17] और रामचरितमानस की रचना की थी। बचरज घाट पर तीन जैन मंदिर बने हैं और ये जैन मतावलंबियों का प्रिय घाट रहा है। १७९५ में नागपुर के भोसला परिवार ने भोसला घाट बनवाया। घाट के ऊपर लक्ष्मी नारायण का दर्शनीय मंदिर है। राजघाट का निर्माण लगभग दो सौ वर्ष पूर्व जयपुर महाराज ने कराया। मंदिर वाराणसी मंदिरों का नगर है। लगभग हर एक चौराहे पर एक मंदिर तो मिल ही जायेगा। ऐसे छोटे मंदिर दैनिक स्थानीय अर्चना के लिये सहायक होते हैं। इनके साथ ही यहां ढेरों बड़े मंदिर भी हैं, जो वाराणसी के इतिहास में समय समय पर बनवाये गये थे। इनमें काशी विश्वनाथ मंदिर, अन्नपूर्णा मंदिर, ढुंढिराज गणेश, काल भैरव, दुर्गा जी का मंदिर, संकटमोचन, तुलसी मानस मंदिर, नया विश्वनाथ मंदिर, भारतमाता मंदिर, संकठा देवी मंदिर व विशालाक्षी मंदिर प्रमुख हैं।[18] काशी विश्वनाथ मंदिर, जिसे कई बार स्वर्ण मंदिर भी कहा जाता है,[19] अपने वर्तमान रूप में १७८० में इंदौर की महारानी अहिल्या बाई होल्करद वारा बनवाया गया था। ये मंदिर गंगा नदी के दशाश्वमेध घाट के निकट ही स्थित है। इस मंदिर की काशी में सर्वोच्च महिमा है, क्योंकि यहां विश्वेश्वर या विश्वनाथ ज्योतिर्लिंग स्थापित है। इस ज्योतिर्लिंग का एक बार दर्शनमात्र किसी भी अन्य ज्योतिर्लिंग से कई गुणा फलदायी होता है। १७८५ में तत्कालीन गवर्नर जनरल वार्रन हास्टिंग्स के आदेश पर यहां के गवर्नर मोहम्मद इब्राहिम खां ने मंदिर के सामने ही एक नौबतखाना बनवाया था। १८३९ में पंजाब के शासक पंजाब केसरी महाराजा रणजीत सिंह इस मंदिर के दोनों शिखरों को स्वर्ण मंडित करवाने हेतु स्वर्ण दान किया था। २८ जनवरी १९८३ को मंदिर का प्रशासन उत्तर प्रदेश सरकार नेल लिया और तत्कालीन काशी नरेश डॉ॰विभूति नारायण सिंह की अध्यक्षता में एक न्यास को सौंप दिया। इस न्यास में एक कार्यपालक समिति भी थी, जिसके चेयरमैन मंडलीय आयुक्त होते हैं।[20] इस मंदिर का ध्वंस मुस्लिम मुगल शासक औरंगज़ेब ने करवाया था और इसके अधिकांश भाग को एक मस्जिद में बदल दिया। बाद में मंदिर को एक निकटस्थ स्थान पर पुनर्निर्माण करवाया गया। दुर्गा मंदिर, जिसे मंकी टेम्पल भी कहते हैं; १८वीं शताब्दी में किसी समय बना था। यहां बड़ी संख्या में बंदरों की उपस्थिति के कारण इसे मंकी टेम्पल कहा जाता है। मान्यता अनुसार वर्तमाण दुर्गा प्रतिमा मानव निर्मित नहीं बल्कि मंदिर में स्वतः ही प्रकट हुई थी। नवरात्रि उत्सव के समय यहां हजारों श्रद्धालुओं की भीड़ होती है। इस मंदिर में अहिन्दुओं का भीतर प्रवेश वर्जित है। इसका स्थापत्य उत्तर भारतीय हिन्दू वास्तु की नागर शैली का है। मंदिर के साथ ही एक बड़ा आयताकार जल कुण्ड भी है, जिसे दुर्गा कुण्ड कहते हैं। मंदिर का बहुमंजिला शिखर है[19] और वह गेरु से पुता हुआ है। इसका लाल रंग शक्ति का द्योतक है। कुण्ड पहले नदी से जुड़ा हुआ था, जिससे इसका जल ताजा रहता था, किन्तु बाद में इस स्रोत नहर को बंद कर दिया गया जिससे इसमें ठहरा हुआ जल रहता है और इसका स्रोत अबव र्शषआ या मंदिर की निकासी मात्र है। प्रत्येक वर्ष नाग पंचमी के अवसर पर भगवान विष्णु और शेषनाग की पूजा की जाती है। यहां संत भास्कपरानंद की समाधि भी है। मंगलवार और शनिवार को दुर्गा मंदिर में भक्तों की काफी भीड़ रहती है। इसी के पास हनुमान जी का संकटमोचन मंदिर है। महत्ता की दृष्टि से इस मंदिर का स्थागन काशी विश्वभनाथ और अन्नेपूर्णा मंदिर के बाद आता है। संकट मोचन मंदिर राम भक्त हनुमान को समर्पैत है और स्थानीय लोगों में लोकप्रिय है। यहां बहुत से धार्मिक एवं सांस्कृतिक आयोजन वार्षिक रूप से होते हैं। ७ मार्च २००६ को इस्लामी आतंकवादियों द्वारा शहर में हुए तीन विस्फोटों में से एक यहां आरती के समय हुआ था। उस समय मंदिर में श्रद्धालुओं की भीड़ थी। साथ ही एक विवाह समारोह भी प्रगति पर था।[21] व्यास मंदिर, रामनगर प्रचलित पौराणिक कथा के अनुसार, एक बार जब वेद व्यास जी को नगर में कहीं दान-दक्षिणा नहीं मिल पायी, तो उन्होंने पूरे नगर को श्राप देने लगे।[6] उसके तुरंत बाद ही भगवान शिव एवं माता पार्वतीएक द पति रूप में एक घर से निकले और उन्हें भरपूर दान दक्षिणा दी। इससे ऋषि महोदय अतीव प्रसन्न हुए और श्राप की बात भूल ही गये।[6] इसके बाद शिवजी ने व्यासजी को काशी नगरी में प्रवेश निषेध कर दिया।[6] इस बात के समाधान रूप में व्यासजी ने गंगा के दूसरी ओर आवास किया, जहां रामनगर में उनका मंदिर अभी भी मिलता है।[6] बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के परिसर में नया विश्वनाथ मंदिर बना है, जिसका निर्माण बिरला परिवार के राजा बिरला ने करवाया था।[22] ये मंदिर सभी धर्मों और जाति के लोगों के लिये खुला है। कला एवं साहित्य वाराणसी की संस्कृति कला एवं साहित्य से परिपूर्ण है। इस नगर में महान भारतीय लेखक एवं विचारक हुए हैं, कबीर, रविदास, तुलसीदास जिन्होंने यहां रामचरितमानस लिखी, कुल्लुका भट्ट जिन्होंने १५वीं शताब्दी में मनुस्मृति पर सर्वश्रेष्ठ ज्ञात टीका यहां लिखी[23] एवं भारतेन्दु हरिशचंद्र और आधुनिक काल के जयशंकर प्रसाद, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, मुंशी प्रेमचंद, जगन्नाथ प्रसाद रत्नाकर, देवकी नंदन खत्री, हजारी प्रसाद द्विवेदी, तेग अली, क्षेत्रेश चंद्र चट्टोपाध्याय, वागीश शास्त्री, बलदेव उपाध्याय, सुमन पांडेय (धूमिल) एवं विद्या निवास मिश्र और अन्य बहुत। यहां के कलाप्रेमियों और इतिहासवेत्ताओं में राय कृष्णदास, उनके पुत्र आनंद कृष्ण, संगीतज्ञ जैसे ओंकारनाथ ठाकुर[24], रवि शंकर, बिस्मिल्लाह खां, गिरिजा देवी, सिद्देश्वरी देवी, लालमणि मिश्र एवं उनके पुत्र गोपाल शंकर मिश्र, एन राजम, राजभान सिंह, अनोखेलाल,[25] समता प्रसाद[26], कांठे महाराज, एम.वी.कल्विंत, सितारा देवी, गोपी कृष्ण, कृष्ण महाराज, राजन एवं साजन मिश्र, महादेव मिश्र एवं बहुत से अन्य लोगों ने नगर को अपनी ललित कलाओं के कौशल से जीवंत बनाए रखा। नगर की प्राचीन और लोक संस्कृति की पारंपरिक शैली को संरक्षित किये ढेरों उत्सव और त्यौहार यहां मनाये जाते हैं। रात्रिकालीन, संगीत सभाएं आदि संकटमोचन मंदिर, होरी, कजरी, चैती मेला, बुढ़वा मंगल यहां के अनेक पर्वों में से कुछ हैं जो वार्षिक रूप से सभी जगहों से पर्यटक एवं शौकीनों को आकर्षित करते हैं। महान शल्य चिकित्सक सुश्रुत, जिन्होंने शल्य-क्रिया का संस्कृत ग्रन्थ सुश्रुत संहिता लिखा था; वाराणसी में ही आवास करते थे।[27] सरस्वती भवन रामनगर किले में स्थित सरस्वती भवन में दुर्लभ पांडुलिपियों, विशेषकर धार्मिक ग्रन्थों का दुर्लभ संग्रह सुरक्षित है। यहां गोस्वामी तुलसीदास की एक पांडुलिपि की मूल प्रति भी रखी है।[6] यहां मुगल मिनियेचर शैली में बहुत सी पुस्तकें रखी हैं, जिनके सुंदर आवरण पृष्ठ हैं।[6] जनसांख्यिकी वाराणसी शहरी क्षेत्र की २००१ के अनुसार जनसंख्या १३,७१,७४९ थी; और लिंग अनुपात ८७९ स्त्रियां प्रति १००० पुरुष था।[28] वाराणसी नगर निगम के अधीनस्थ क्षेत्र की जनसंख्या ११,००,७४८[29] जिसका लिंग अनुपात ८८३ स्त्रियां प्रति १००० पुरुष था।[29] शहरी क्षेत्र में साक्षरता दर ७७% और निगम क्षेत्र में ७८% थी।[29] निगम क्षेत्र के लगभग १,३८,००० लोग झुग्गी-झोंपड़ियों में रहते हैं।[30] वर्ष २००४ की अपराध दर १२८.५ प्रति १ लाख थी; जो राज्य की दर ७३.२ से अधिक है, किन्तु राष्ट्रीय अपराध दर १६८.८ से कहीं कम है।[31] परिवहन वाराणसी भारत के मुख्य बड़े शहरों जैसे नई दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, चेन्नई, पुणे, अहमदाबाद, इंदौर, भोपाल, ग्वालियर, जबलपुर, उज्जैन और जयपुर आदि से वायु, सड़क एवं रेल यातायात द्वारा भली-भांति जुड़ा हुआ है। ये दिल्ली से ७७६कि.मी दूरी पर है। वाराणसी की अधिकांश शहरों से दूरी में अस्तित्त्व का प्रमुख कारण इसका इन शहरों के बीच एक यातायात केन्द्र के रूप में जुड़ा होना है। प्राचीन समय से ही शहर तक्षिला, गाज़ीपुर, पाटलिपुत्र, वैशाली, अयोध्या, गोरखपुर एवं आगरा आदि से जुड़ा रहा है। वायु बाबतपुर विमानक्षेत्र (लाल बहादुर शास्त्री विमानक्षेत्र) शहर के केन्द्र से २५ कि॰मी॰ की दूरी पर स्थित है और चेन्नई, दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, खजुराहो, बैंगकॉक, बंगलुरु, कोलंबो एवं काठमांडु आदि देशीय और अंतर्राष्ट्रीय शहरों से वायु मार्ग द्वारा जुड़ा हुआ है। अधिकांश प्रमुख देशीय विमान सेवाओं में इंडियन एयरलाइंस, जेट एयरवेज़, किंगफिशर एयरलाइंस, एयर इंडिया, स्पाइसजेट एवं एलाइंस एयर द्वारा वायु सेवाएँ यहां से संचालित होती है। रेल बनारस की प्रथम रेलवे लाइन दिसम्बर, १८६२ में ईस्ट इंडिया रेलवे कंपनी ने कोलकाता से बनवायी थी।[32] उत्तर रेलवे के अधीन वाराणसी जंक्शन एवं पूर्व मध्य रेलवे के अधीन मुगलसराय जंक्शन नगर की सीमा के भीतर दो प्रमुख रेलवे स्टेशन हैं। इनके अलावा नगर में १६ अन्य छोटे-बड़े रेलवे स्टेशन हैं। सड़क मौर्य साम्राज्य काल में वाराणसी तक्षिला शहर से इकलौती सड़क द्वारा जुड़ा हुआ था। बाद में इस सड़क का पुनरोद्धार हुआ और शेरशाह सूरी ने १६वीं शताब्दी में इसे विस्तृत कर काबुल से रंगून तक बढ़ाया, जिसे ग्रैंड ट्रंक रोड कहा जाता है। एन.एच.-२ दिल्ली-कोलकाता राजमार्ग वाराणसी नगर से निकलता है। इसके अलावा एन.एच.-७, जो भारत का सबसे लंबा राजमार्ग है, वाराणसी को जबलपुर, नागपुर, हैदराबाद, बंगलुरु, मदुरई और कन्याकुमारी से जोड़ता है। सार्वजनिक यातायात ऑटो रिक्शा एवं साइकिल रिक्शा वाराणसी शहर के स्थानीय प्रचलित यातायात साधन हैं। बाहरी क्षेत्रों में नगर-बस सेवा में मिनी-बसें चलती हैं। छोटी नावें और छोटे स्टीमर गंगा नदी पार करने हेतु उपलब्ध रहते हैं। पर्यटन संभवतः अपनी अनुपम और अद्वितीय संस्कृति के कारण वाराणसी संसार भर में पर्यटकों का आकर्षण बना हुआ है। शहर में अनेक ३, ४ और ५ सितारा होटल हैं। इसके अलावा पश्चिमी छात्रों और शोधकर्ताओं के लिये पर्याप्त और दक्ष रहन सहन व्यवस्था है। यहां के स्थानीय खानपान के अलावा लगभग सभी प्रकार की खानपान व्यवस्था शहर में उपलब्ध है। शहर के लोगों का स्व्भाव भी सत्कार से परिपूर्ण है। वाराणसी बनारसी रेशम की साड़ियों और पीतल के सामान के लिये भी प्रसिद्ध है। इसके अलावा उच्च कोटि के रेशमी वस्त्र, कालीन, काष्ठ शिल्प, भित्ति सज्जा एवं प्रदीपन आदि के सामान के साथ-साथ बौद्ध एवं हिन्दू देवी-देवताओं के मुखौटे विशेशः आकर्षण रहे हैं। मुख्य खरीदारी बाजारों में चौक, गोदौलिया, विश्वनाथ गली, लहुराबीर एवं ठठेरी बाजार हैं।[13] अस्सी घाट शहर के डाउनटाउन इलाके गोदौलिया और युवा संस्कृति से ओतप्रोत बी.एच.यू के बीच एक मध्यस्थ स्थान है, जहां युवा, विदेशी और आवधिक लोग आवास करते हैं। प्रचलित संस्कृति में चलचित्र बनारस – ए मिस्टिक लव स्टोरी (२००६), वाराणसी के इतिहास और उसके भारतीय परंपराओं में स्थान पर आधारित हिन्दी चलचित्र है। बिभूतिभूषण बंधोपाध्याय के बांग्ला उपन्यास अपराजितो में, बनारस के आंशिक दृश्य हैं, जिन्हें बाद में सत्यजित राय द्वारा अपनी फिल्म द अपु ट्राइलॉजी में भी दिखाया गया है। इस फिल्म के कुछ भाग बनारस में ही शूट किये गए हैं। आयन मैकडोनाल्ड के उपन्यास रिवर ऑफ गॉड्स की पृष्ठभूमि के कुछ अंश बनारस के हैं। सत्यजित राय की फिल जोइ बाबा फेलुनाथ लगभग सारी बनारस में शूट हुई थी। १९७८ की सुपरहिट हिन्दी चलचित्र डॉन का गाना खईके पान बनारस वाला अमिताभ बच्चन के साथ बनारसी पान की प्रशंसा में गाया गया था और बहुत लोकप्रिय हुआ था। पंडित विकास महाराज के संयोजन "गंगा" पर बनी डॉक्युमेंट्री फिल्म होलीवॉटर यहीं बनी थी। कृष्ण दास द्वारा गाया गया गीत "काशी विश्वनाथ गंगे" सीडी ब्रॅथ ऑफ द हार्ट में निकला था[33] जेयॉफ डायर की २००९ में निकली पुस्तक: जैफ इन वेनिस, डेथ इन वाराणसी आधी बनारस पर लिखी है। विजय सिंह के उपन्यास जय गंगा, इन सर्च ऑफ द रिवर गॉडेस एवं क्लासिकल चलचित्र जय गंगा आंशिक रूप सए बनारस पर बनी हैं। इसमें यहां के घाटों के अच्छे दृश्य हैं। वर्तमान काल की प्रमुख विभूतियाँ मदन मोहन मालवीय, बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के संस्थापक लाल बहादुर शास्त्री, भारत के पूर्व प्रधान मंत्री बिस्मिल्लाह खां, शहनाईवादक, भारत रत्न कृष्ण महाराज, तबला वादक, पद्म विभूषण रवि शंकर, सितारवादक, भारत रत्न सिद्धेश्वरी देवी, खयालगायिका विकाश महाराज, सरोद के महारथी नैना देवी, खयाल गायिका भगवान दास, भारत रत्न समता प्रसाद (गुदई महाराज) तबला वादक, पद्मश्री जय शंकर प्रसाद - हिंदी साहित्यकार) प्रेमचंद - हिंदी साहित्यकार भारतेंदु हरिश्चंद्र - हिंदी साहित्यकार सन्दर्भ ग्रन्थ बृहदारण्यक उपनिषद, अध्याय २, खण्ड १, श्लोक-१ कौषीतकी उपनिषद, अध्याय ४, खण्ड-१ * Cite has empty unknown parameter: |chapterurl= (help)CS1 maint: unrecognized language (link) Cite has empty unknown parameter: |chapterurl= (help)CS1 maint: unrecognized language (link) पाणिनि के अष्टाध्यायी ४/२/११* ऋग्वेद १/१३०/* रघुवंश ७/६-१० एवं कुमारसंभवम् ७/५/य नाट्य शास्त्र: पृ. ३६-३०-४* Cite has empty unknown parameter: |chapterurl= (help)CS1 maint: unrecognized language (link) Cite has empty unknown parameter: |chapterurl= (help)CS1 maint: unrecognized language (link) Cite has empty unknown parameter: |chapterurl= (help)CS1 maint: unrecognized language (link) Cite has empty unknown parameter: |chapterurl= (help)CS1 maint: unrecognized language (link) Cite has empty unknown parameter: |chapterurl= (help)CS1 maint: unrecognized 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सावमृततीभूत्वा मोक्षीभवती तस्मादविमुक्तमेव निषेविताविमुक्तं न विमुंचेदेवमेवैतद्याज्ञवल्क्यः। च. अविमुक्तं समासाद्य तीर्थसेवी कुरुद्वह।:दर्शनादेवदेस्य मुच्यते ब्रह्महत्यया॥ छ. ततो वाराणसीं गत्वा देवमच्र्य वृषध्वजम्। कपिलाऊदमुपस्पृश्य राजसूयफलं लभेत् ॥ झ. द्वादश ज्योतिर्लिंग स्तोत्रम् सौराष्ट्रे सोमनाथं च श्रीशैले मल्लिकार्जुनम्। उज्जयिन्यां महाकालमोंकारममलेश्वरम्॥ परल्यां वैद्यनाथं च डाकिन्यां भीमशंकरम्। सेतुबन्धे तु रामेशं नागेशं दारुकावने॥ वाराणस्यां तु विश्वेशं त्र्यम्बकं गौतमीतटे। हिमालये तु केदारं घुश्मेशं च शिवालये॥ एतानि ज्योतिर्लिंगानि सायं प्रातः पठेन्नरः। सप्तजन्मकृतं पापं स्मरणेन विनश्यति॥ एतेशां दर्शनादेव पातकं नैव तिष्ठति। कर्मक्षयो भवेत्तस्य यस्य तुष्टो महेश्वराः॥ अर्थात:सौराष्ट्र प्रदेश (काठियावाड़) में श्री सोमनाथ, श्रीशैल पर श्री मल्लिकार्जुन, उज्जयिनी में श्री महाकाल, ओंकारेश्वर, अमलेश्वर, परली में वैद्यनाथ, डाकिनी नामक स्थान में श्रीभीमशंकर, सेतुबंध पर श्री रामेश्वर, दारुकावन में श्रीनागेश्वर, वाराणसी (काशी) में श्री विश्वनाथ, गौतमी (गोदावरी) के तट पर श्री त्र्यम्बकेश्वर, हिमालय पर श्रीकेदारनाथ और शिवालय में श्री घृष्णेश्वर, को स्मरण करें। जो मनुष्य प्रतिदिन प्रातःकाल और संध्या के समय इन बारह ज्योतिर्लिंगों का नाम लेता है, उसके सात जन्मों का किया हुआ पाप इन लिंगों के स्मरण-मात्र से मिट जाता है। सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ सभी मुख्य मंदिर एवं घाट चिह्नित श्रेणी:वाराणसी जिले के शहर श्रेणी:हिन्दू पवित्र शहर श्रेणी:प्राचीन भारतीय शहर श्रेणी:हिन्दू तीर्थ स्थल श्रेणी:भारत के रजवाड़े श्रेणी:शैव धर्म श्रेणी:वाराणसी श्रेणी:शक्ति पीठ श्रेणी:१८५७ के भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के स्थल श्रेणी:बौद्ध धार्मिक स्थल श्रेणी:आज का आलेख श्रेणी:पूर्व भारतीय राजधानियां श्रेणी:भारत के घाट श्रेणी:हिन्दी विकि डीवीडी परियोजना
वाराणसी का क्षेत्रफल कितना है?
११२.२६वर्ग कि॰मी॰
19,418
hindi
e03a1c0a8
भारत के पश्चिमी तट पर स्थित मुंंबई (पूर्व नाम बम्बई), भारतीय राज्य महाराष्ट्र की राजधानी है। इसकी अनुमानित जनसंख्या ३ करोड़ २९ लाख है जो देश की पहली सर्वाधिक आबादी वाली नगरी है।[1] इसका गठन लावा निर्मित सात छोटे-छोटे द्वीपों द्वारा हुआ है एवं यह पुल द्वारा प्रमुख भू-खंड के साथ जुड़ा हुआ है। मुंबई बन्दरगाह भारतवर्ष का सर्वश्रेष्ठ सामुद्रिक बन्दरगाह है। मुम्बई का तट कटा-फटा है जिसके कारण इसका पोताश्रय प्राकृतिक एवं सुरक्षित है। यूरोप, अमेरिका, अफ़्रीका आदि पश्चिमी देशों से जलमार्ग या वायुमार्ग से आनेवाले जहाज यात्री एवं पर्यटक सर्वप्रथम मुम्बई ही आते हैं, इसलिए मुम्बई को भारत का प्रवेशद्वार कहा जाता है। मुम्बई भारत का सर्ववृहत्तम वाणिज्यिक केन्द्र है। जिसकी भारत के सकल घरेलू उत्पाद में 5% की भागीदारी है।[2] यह सम्पूर्ण भारत के औद्योगिक उत्पाद का 25%, नौवहन व्यापार का 40%, एवं भारतीय अर्थ व्यवस्था के पूंजी लेनदेन का 70% भागीदार है।[3] मुंबई विश्व के सर्वोच्च दस वाणिज्यिक केन्द्रों में से एक है।[4] भारत के अधिकांश बैंक एवं सौदागरी कार्यालयों के प्रमुख कार्यालय एवं कई महत्वपूर्ण आर्थिक संस्थान जैसे भारतीय रिज़र्व बैंक, बम्बई स्टॉक एक्स्चेंज, नेशनल स्टऑक एक्स्चेंज एवं अनेक भारतीय कम्पनियों के निगमित मुख्यालय तथा बहुराष्ट्रीय कंपनियां मुम्बई में अवस्थित हैं। इसलिए इसे भारत की आर्थिक राजधानी भी कहते हैं। नगर में भारत का हिन्दी चलचित्र एवं दूरदर्शन उद्योग भी है, जो बॉलीवुड नाम से प्रसिद्ध है। मुंबई की व्यवसायिक अपॊर्ट्युनिटी, व उच्च जीवन स्तर पूरे भारतवर्ष भर के लोगों को आकर्षित करती है, जिसके कारण यह नगर विभिन्न समाजों व संस्कृतियों का मिश्रण बन गया है। मुंबई पत्तन भारत के लगभग आधे समुद्री माल की आवाजाही करता है।[5] उद्गम "मुंबई" नाम दो शब्दों से मिलकर बना है, मुंबा या महा-अंबा – हिन्दू देवी दुर्गा का रूप, जिनका नाम मुंबा देवी है – और आई, "मां" को मराठी में कहते हैं।[6] पूर्व नाम बाँम्बे या बम्बई का उद्गम सोलहवीं शताब्दी से आया है, जब पुर्तगाली लोग यहां पहले-पहल आये, व इसे कई नामों से पुकारा, जिसने अन्ततः बॉम्बे का रूप लिखित में लिया। यह नाम अभी भी पुर्तगाली प्रयोग में है। सत्रहवीं शताब्दी में, ब्रिटिश लोगों ने यहां अधिकार करने के बाद, इसके पूर्व नाम का आंग्लीकरण किया, जो बॉम्बे बना। किन्तु मराठी लोग इसे मुंबई या मंबई व हिन्दी व भाषी लोग इसे बम्बई ही बुलाते रहे।[7][8] इसका नाम आधिकारिक रूप से सन 1995 में मुंबई बना। बॉम्बे नाम मूलतः पुर्तगाली नाम से निकला है, जिसका अर्थ है "अच्छी खाड़ी" (गुड बे)[9] यह इस तथ्य पर आधारित है, कि बॉम का पुर्तगाली में अर्थ है अच्छा, व अंग्रेज़ी शब्द बे का निकटवर्ती पुर्तगाली शब्द है बैआ। सामान्य पुर्तगाली में गुड बे (अच्छी खाड़ी) का रूप है: बोआ बहिया, जो कि गलत शब्द बोम बहिया का शुद्ध रूप है। हां सोलहवीं शताब्दी की पुर्तगाली भाषा में छोटी खाड़ी के लिये बैम शब्द है। अन्य सूत्रों का पुर्तगाली शब्द बॉम्बैम के लिये, भिन्न मूल है। José Pedro Machado's Dicionário Onomástico Etimológico da Língua Portuguesa ("एटायमोलॉजी एवं ओनोमैस्टिक्स का पुर्तगाली शब्दकोष") बताता है, कि इस स्थान का १५१६ से प्रथम पुर्तगाली सन्दर्भ क्या है, बेनमजम्बु या तेन-माइयाम्बु,[10] माइआम्बु या "MAIAMBU"' मुंबा देवी से निकला हुआ लगता है। ये वही मुंबा देवी हैं, जिनके नाम पर मुंबई नाम मराठी लोग लेते हैं। इसी शताब्दी में मोम्बाइयेन की वर्तनी बदली (१५२५)[11] और वह मोंबैएम बना (१५६३)[12] और अन्ततः सोलहवीं शताब्दी में बोम्बैएम उभरा, जैसा गैस्पर कोर्रेइया ने लेंडास द इंडिया ("लीजेंड्स ऑफ इंडिया") में लिखा है।[13] [14] इतिहास कांदिवली के निकट उत्तरी मुंबई में मिले प्राचीन अवशेष संकेत करते हैं, कि यह द्वीप समूह पाषाण युग से बसा हुआ है। मानव आबादी के लिखित प्रमाण २५० ई.पू तक मिलते हैँ, जब इसे हैप्टानेसिया कहा जाता था। तीसरी शताब्दी इ.पू. में ये द्वीपसमूह मौर्य साम्राज्य का भाग बने, जब बौद्ध सम्राट अशोक महान का शासन था। कुछ शुरुआती शताब्दियों में मुंबई का नियंत्रण सातवाहन साम्राज्य व इंडो-साइथियन वैस्टर्न सैट्रैप के बीच विवादित है। बाद में हिन्दू सिल्हारा वंश के राजाओं ने यहां १३४३ तक राज्य किया, जब तक कि गुजरात के राजा ने उनपर अधिकार नहीं कर लिया। कुछ पुरातन नमूने, जैसे ऐलीफैंटा गुफाएं व बालकेश्वर मंदिर में इस काल के मिलते हैं। १५३४ में, पुर्तगालियों ने गुजरात के बहादुर शाह से यह द्वीप समूह हथिया लिया। जो कि बाद में चार्ल्स द्वितीय, इंग्लैंड को दहेज स्वरूप दे दिये गये।[16] चार्ल्स का विवाह कैथरीन डे बर्गैन्ज़ा से हुआ था। यह द्वीपसमूह १६६८ में, ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी को मात्र दस पाउण्ड प्रति वर्ष की दर पर पट्टे पर दे दिये गये। कंपनी को द्वीप के पूर्वी छोर पर गहरा हार्बर मिला, जो कि उपमहाद्वीप में प्रथम पत्तन स्थापन करने के लिये अत्योत्तम था। यहां की जनसंख्या १६६१ की मात्र दस हजार थी, जो १६७५ में बढ़कर साठ हजार हो गयी। १६८७ में ईस्ट इंडिया कम्पनी ने अपने मुख्यालय सूरत से स्थानांतरित कर यहां मुंबई में स्थापित किये। और अंततः नगर बंबई प्रेसीडेंसी का मुख्यालय बन गया। सन १८१७ के बाद, नगर को वृहत पैमाने पर सिविल कार्यों द्वारा पुनर्ओद्धार किया गया। इसमें सभी द्वीपों को एक जुड़े हुए द्वीप में जोडने की परियोजना मुख्य थी। इस परियोजना को हॉर्नबाय वेल्लार्ड कहा गया, जो १८४५ में पूर्ण हुआ, तथा पूरा ४३८bsp;कि॰मी॰² निकला। सन १८५३ में, भारत की प्रथम यात्री रेलवे लाइन स्थापित हुई, जिसने मुंबई को ठाणे से जोड़ा। अमरीकी नागर युद्ध के दौरान, यह नगर विश्व का प्रमुख सूती व्यवसाय बाजार बना, जिससे इसकी अर्थ व्यवस्था मजबूत हुई, साथ ही नगर का स्तर कई गुणा उठा। १८६९ में स्वेज नहर के खुलने के बाद से, यह अरब सागर का सबसे बड़ा पत्तन बन गया।[17] अगले तीस वर्षों में, नगर एक प्रधान नागरिक केंद्र के रूप में विकसित हुआ। यह विकास संरचना के विकास एवं विभिन्न संस्थानों के निर्माण से परिपूर्ण था। १९०६ तक नगर की जनसंख्या दस लाख बिलियन के लगभग हो गयी थी। अब यह भारत की तत्कालीन राजधानी कलकत्ता के बाद भारत में, दूसरे स्थान सबसे बड़ा शहर था। बंबई प्रेसीडेंसी की राजधानी के रूप में, यह भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का आधार बना रहा। मुंबई में इस संग्राम की प्रमुख घटना १९४२ में महात्मा गाँधी द्वारा छेड़ा गया भारत छोड़ो आंदोलन था। १९४७ में भारतीय स्वतंत्रता के उपरांत, यह बॉम्बे राज्य की राजधानी बना। १९५० में उत्तरी ओर स्थित सैल्सेट द्वीप के भागों को मिलाते हुए, यह नगर अपनी वर्तमान सीमाओं तक पहुंचा। १९५५ के बाद, जब बॉम्बे राज्य को पुनर्व्यवस्थित किया गया और भाषा के आधार पर इसे महाराष्ट्र और गुजरात राज्यों में बांटा गया, एक मांग उठी, कि नगर को एक स्वायत्त नगर-राज्य का दर्जा दिया जाये। हालांकि संयुक्त महाराष्ट्र समिति के आंदोलन में इसका भरपूर विरोध हुआ, व मुंबई को महाराष्ट्र की राजधानी बनाने पर जोर दिया गया। इन विरोधों के चलते, १०५ लोग पुलिस गोलीबारी में मारे भी गये और अन्ततः १ मई, १९६० को महाराष्ट्र राज्य स्थापित हुआ, जिसकी राजधानी मुंबई को बनाया गया। १९७० के दशक के अंत तक, यहां के निर्माण में एक सहसावृद्धि हुई, जिसने यहां आवक प्रवासियों की संख्या को एक बड़े अंक तक पहुंचाया। इससे मुंबई ने कलकत्ता को जनसंख्या में पछाड़ दिया, व प्रथम स्थान लिया। इस अंतःप्रवाह ने स्थानीय मराठी लोगों के अंदर एक चिंता जगा दी, जो कि अपनी संस्कृति, व्यवसाय, भाषा के खोने से आशंकित थे।[18] बाला साहेब ठाकरे द्वारा शिव सेना पार्टी बनायी गयी, जो मराठियों के हित की रक्षा करने हेतु बनी थी।[19] नगर का धर्म-निरपेक्ष सूत्र १९९२-९३ के दंगों के कारण छिन्न-भिन्न हो गया, जिसमें बड़े पैमाने पर जान व माल का नुकसान हुआ। इसके कुछ ही महीनों बाद १२ मार्च,१९९३ को शृंखलाबद्ध बम विस्फोटों ने नगर को दहला दिया। इनमें पुरे मुंबई में सैंकडों लोग मारे गये। १९९५ में नगर का पुनर्नामकरण मुंबई के रूप में हुआ। यह शिवसेना सरकार की ब्रिटिश कालीन नामों के ऐतिहासिक व स्थानीय आधार पर पुनर्नामकरण नीति के तहत हुआ। यहां हाल के वर्षों में भी इस्लामी उग्रवादियों द्वारा आतंकवादी हमले हुए। २००६ में यहां ट्रेन विस्फोट हुए, जिनमें दो सौ से अधिक लोग मारे गये, जब कई बम मुंबई की लोकल ट्रेनों में फटे।[20] भूगोल मुंबई शहर भारत के पश्चिमी तट पर कोंकण तटीय क्षेत्र में उल्हास नदी के मुहाने पर स्थित है। इसमें सैलसेट द्वीप का आंशिक भाग है और शेष भाग ठाणे जिले में आते हैं। अधिकांश नगर समुद्रतल से जरा ही ऊंचा है, जिसकी औसत ऊंचाई 10m (33ft) से 15m (49ft) के बीच है। उत्तरी मुंबई का क्षेत्र पहाड़ी है, जिसका सर्वोच्च स्थान 450m (1,476ft) पर है।[21] नगर का कुल क्षेत्रफल ६०३कि.मी² (२३३sqmi) है। संजय गाँधी राष्ट्रीय उद्यान नगर के समीप ही स्थित है। यह कुल शहरी क्षेत्र के लगभग छठवें भाग में बना हुआ है। इस उद्यान में तेंदुए इत्यादि पशु अभी भी मिल जाते हैं,[22][23] जबकि जातियों का विलुप्तीकरण तथा नगर में आवास की समस्या सर उठाये खड़ी है। भाटसा बांध के अलावा, ६ मुख्य झीलें नगर की जलापूर्ति करतीं हैं: विहार झील, वैतर्णा, अपर वैतर्णा, तुलसी, तंस व पोवई। तुलसी एवं विहार झील बोरिवली राष्ट्रीय उद्यान में शहर की नगरपालिका सीमा के भीतर स्थित हैं। पोवई झील से केवल औद्योगिक जलापुर्ति की जाती है। तीन छोटी नदियां दहिसर, पोइसर एवं ओहिवाड़ा (या ओशीवाड़ा) उद्यान के भीतर से निकलतीं हैं, जबकि मीठी नदी, तुलसी झील से निकलती है और विहार व पोवई झीलों का बढ़ा हुआ जल ले लेती है। नगर की तटरेखा बहुत अधिक निवेशिकाओं (संकरी खाड़ियों) से भरी है। सैलसेट द्वीप की पूर्वी ओर दलदली इलाका है, जो जैवभिन्नताओं से परिपूर्ण है। पश्चिमी छोर अधिकतर रेतीला या पथरीला है। मुंबई की अरब सागर से समीपता के खारण शहरी क्षेत्र में मुख्यतः रेतीली बालू ही मिलती है। उपनगरीय क्षेत्रों में, मिट्टी अधिकतर अल्युवियल एवं ढेलेदार है। इस क्षेत्र के नीचे के पत्थर काले दक्खिन बेसाल्ट व उनके क्षारीय व अम्लीय परिवर्तन हैं। ये अंतिम क्रेटेशियस एवं आरंभिक इयोसीन काल के हैं। मुंबई सीज़्मिक एक्टिव (भूकम्प सक्रिय) ज़ोन है।[24] जिसके कारण इस क्षेत्र में तीन सक्रिय फॉल्ट लाइनें हैं। इस क्षेत्र को तृतीय श्रेणी में वर्गीकृत किया गया है, जिसका अर्थ है, कि रिक्टर पैमाने पर 6.5 तीव्रता के भूकम्प आ सकते हैं। जलवायु उष्णकटिबंधीय क्षेत्र में अरब सागर के निकट स्थित मुंबई की जलवायु में दो मुख्य ऋतुएं हैं: शुष्क एवं आर्द्र ऋतु। आर्द्र ऋतु मार्च एवं अक्टूबर के बीच आती है। इसका मुख्य लक्षण है उच्च आर्द्रता व तापमन लगभग 30°C (86°F) से भी अधिक। जून से सितंबर के बीच मानसून वर्षाएं नगर भिगोतीं हैं, जिससे मुंबई का वार्षिक वर्षा स्तर 2,200 millimetres (86.6in) तक पहुंचता है। अधिकतम अंकित वार्षिक वर्षा १९५४ में थी।[25] मुंबई में दर्ज एक दिन में सर्वोच्च वर्षा २६ जुलाई,२००५ को हुयी थी।[26] नवंबर से फरवरी तक शुष्क मौसम रहता है, जिसमें मध्यम आर्द्रता स्तर बना रहता है, व हल्का गर्म से हल्का ठंडा मौसम रहता है। जनवरी से फरवरी तक हल्की ठंड पड़ती है, जो यहां आने वाली ठंडी उत्तरी हवाओं के कारण होती है। मुंबई का वार्षिक तापमान उच्चतम से न्यूनतम तक रहता है। अब तक का रिकॉर्ड सर्वोच्च तापमान तथा २२ जनवरी,१९६२ को नयूनतम रहा।[27]। हालांकि यहां के मौसम विभाग के दो में से एक स्टेशन द्वारा अंकित न्यूनतम तापमान कन्हेरी गुफाएं के निकट नगर की सीमाओं के भीतर स्थित स्टेशन द्वारा न्यूनतम तापमान ८ फरवरी,२००८ को 6.5°C (43.7°F) अंकित किया गया।[28] अर्थ-व्यवस्था मुंबई भारत की सबसे बड़ी नगरी है। यह देश की एक महत्वपूर्ण आर्थिक केन्द्र भी है, जो सभी फैक्ट्री रोजगारों का १०%, सभी आयकर संग्रह का ४०%, सभी सीमा शुल्क का ६०%, केन्द्रीय राजस्व का २०% व भारत के विदेश व्यापार एवं निगमित करों से योगदान देती है।[29] मुंबई की प्रति-व्यक्ति आय है, जो राष्ट्रीय औसत आय की लगभग तीन गुणा है।[30] भारत के कई बड़े उद्योग (भारतीय स्टेट बैंक, टाटा ग्रुप, गोदरेज एवं रिलायंस सहित) तथा चार फॉर्च्यून ग्लोबल 500 कंपनियां भी मुंबई में स्थित हैं। कई विदेशी बैंक तथा संस्थानों की भी शाखाएं यहां के विश्व व्यापार केंद्र क्षेत्र में स्थित हैं।[31] सन १९८० तक, मुंबई अपने कपड़ा उद्योग व पत्तन के कारण संपन्नता अर्जित करता था, किन्तु स्थानीय अर्थ-व्यवस्था तब से अब तक कई गुणा सुधर गई है, जिसमें अब अभियांत्रिकी, रत्न व्यवसाय, हैल्थ-केयर एवं सूचना प्रौद्योगिकी भी सम्मिलित हैं। मुंबई में ही भाभा आण्विक अनुसंधान केंद्र भी स्थित है। यहीं भारत के अधिकांश विशिष्ट तकनीकी उद्योग स्थित हैं, जिनके पास आधुनिक औद्योगिक आधार संरचना के साथ ही अपार मात्रा में कुशल मानव संसाधन भी हैं। आर्थिक कंपनियों के उभरते सितारे, ऐयरोस्पेस, ऑप्टिकल इंजीनियरिंग, सभी प्रकार के कम्प्यूटर एवं इलेक्ट्रॉनिक उपकरण, जलपोत उद्योग तथा पुनर्नवीनीकृत ऊर्जा स्रोत तथा शक्ति-उद्योग यहां अपना अलग स्थान रखते हैं। नगर के कार्यक्षेत्र का एक बड़ा भाग केन्द्र एवं राज्य सरकारी कर्मचारी बनाते हैं। मुंबई में एक बड़ी मात्रा में कुशल तथा अकुशल व अर्ध-कुशल श्रमिकों की शक्ति है, जो प्राथमिकता से अपना जीवन यापन टैक्सी-चालक, फेरीवाले, यांत्रिक व अन्य ब्लू कॉलर कार्यों से करते हैं। पत्तन व जहाजरानी उद्योग भी प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से ढ़ेरों कर्मचारियों को रोजगार देता है। नगर के धारावी क्षेत्र में, यहां का कूड़ा पुनर्चक्रण उद्योग स्थापित है। इस जिले में अनुमानित १५,००० एक-कमरा फैक्ट्रियां हैं।[32] मीडिया उद्योग भी यहां का एक बड़ा नियोक्ता है। भारत के प्रधान दूरदर्शन व उपग्रह तंत्रजाल (नेटवर्क), व मुख्य प्रकाशन गृह यहीं से चलते हैं। हिन्दी चलचित्र उद्योग का केन्द्र भी यहीं स्थित है, जिससे प्रति वर्ष विश्व की सर्वाधिक फिल्में रिलीज़ होती हैं। बॉलीवुड शब्द बाँम्बे व हॉलीवुड को मिलाकर निर्मित है। मराठी दूरदर्शन एवं मराठी फिल्म उद्योग भी मुंबई में ही स्थित है। शेष भारत की तरह, इसकी वाणिज्यिक राजधानी मुंबई ने भी १९९१ के सरकारी उदारीकरण नीति के चलते आर्थिक उछाल (सहसावृद्धि) को देखा है। इसके साथ ही १९९० के मध्य दशक में सूचना प्रौद्योगिकी, निर्यात, सेवाएं व बी पी ओ उद्योगों में भी उत्थान देखा है। मुंबई का मध्यम-वर्गीय नागरिक जहां इस उछाल से सर्वाधिक प्रभावित हुआ है वहीं वो इसकी प्रतिक्रिया स्वरूप उपभोक्ता उछाल का कर्ता भी है। इन लोगों की ऊपरावर्ती गतिशीलता ने उपभोक्तओं के जीवन स्तर व व्यय क्षमता को भी उछाला है। मुंबई को वित्तीय बहाव के आधार पर मास्टरकार्ड वर्ल्डवाइड के एक सर्वेक्षण में; विश्व के दस सर्वोच्च वाणिज्य केन्द्रों में से एक गिना गया है।[4] नगर प्रशासन मुंबई में दो पृथक क्षेत्र हैं: नगर एवं उपनगर, यही महाराष्ट्र के दो जिले भी बनाते हैं। शहरी क्षेत्र को प्रायः द्वीप नगर या आइलैण्ड सिटी कहा जाता है।[33] नगर का प्रशासन बृहन्मुंबई नगर निगम (बी एम सी) (पूर्व बंबई नगर निगम) के अधीन है, जिसकी कार्यपालक अधिकार नगर निगम आयुक्त, राज्य सरकार द्वारा नियुक्त एक आई ए एस अधिकारी को दिये गए हैं। निगम में 227 पार्षद हैं, जो 24 नगर निगम वार्डों का प्रतिनिधित्व करते हैं, पाँच नामांकित पार्षद व एक महापौर हैं। निगम नागरिक सुविधाओं एवं शहर की अवसंरचना आवश्यकताओं के लिए प्रभारी है। एक सहायक निगम आयुक्त प्रत्येक वार्ड का प्रशासन देखता है। पार्षदों के चुनाव हेतु, लगभग सभी राजनीतिक पार्टियां अपने प्रत्याशि खड़े करतीं हैं। मुंबई महानगरीय क्षेत्र में 7 नगर निगम व 13 नगर परिषद हैं। बी एम सी के अलावा, यहां ठाणे, कल्याण-डोंभीवली, नवी मुंबई, मीरा भयंदर, भिवंडी-निज़ामपुर एवं उल्हासनगर की नगरमहापालिकाएं व नगरपालिकाएं हैं।[34] ग्रेटर मुंबई में महाराष्ट्र के दो जिले बनते हैं, प्रत्येक का एक जिलाध्यक्ष है। जिलाध्यक्ष जिले की सम्पत्ति लेख, केंद्र सरकार के राजस्व संग्रहण के लिए उत्तरदायी होता है। इसके साथ ही वह शहर में होने वाले चुनावों पर भी नज़र रखता है। मुंबई पुलिस का अध्यक्ष पुलिस आयुक्त होता है, जो आई पी एस अधिकारी होता है। मुंबई पुलिस राज्य गृह मंत्रालय के अधीन आती है। नगर सात पुलिस ज़ोन व सत्रह यातायात पुलिस ज़ोन में बंटा हुआ है, जिनमें से प्रत्येक का एक पुलिस उपायुक्त है। यातायात पुलिस मुंबई पुलिस के अधीन एक स्वायत्त संस्था है।[35] मुंबई अग्निशमन दल विभाग का अध्यक्ष एक मुख्य फायर अधिकारी होता है, जिसके अधीन चार उप मुख्य फायर अधिकारी व छः मंडलीय अधिकारी होते हैं। मुंबई में ही बंबई उच्च न्यायालय स्थित है, जिसके अधिकार-क्षेत्र में महाराष्ट्र, गोआ राज्य एवं दमन एवं दीव तथा दादरा एवं नागर हवेली के केंद्र शासित प्रदेश भी आते हैं। मुंबई में दो निम्न न्यायालय भी हैं, स्मॉल कॉज़ेज़ कोर्ट –नागरिक मामलों हेतु, व विशेष टाडा (टेररिस्ट एण्ड डिस्रप्टिव एक्टिविटीज़) न्यायालय –जहां आतंकवादियों व फैलाने वालों व विध्वंसक प्रवृत्ति व गतिविधियों में पहड़े गए लोगों पर मुकदमें चलाए जाते हैं। शहर में लोक सभा की छः व महाराष्ट्र विधान सभा की चौंतीस सीटें हैं। मुंबई की महापौर शुभा रावल हैं, नगर निगम आयुक्त हैं जयराज फाटाक एवं शेर्रिफ हैं इंदु साहनी। यातायात मुंबई के अधिकांश निवासी अपने आवास व कार्याक्षेत्र के बीच आवागमन के लिए कोल यातायात पर निर्भर हैं। मुंबई के यातायात में मुंबई उपनगरीय रेलवे, बृहन्मुंबई विद्युत आपूर्ति एवं यातायात की बसें, टैक्सी ऑटोरिक्शा, फेरी सेवा आतीं हैं। यह शहर भारतीय रेल के दो मंडलों का मुख्यालय है: मध्य रेलवे (सेंट्रल रेलवे), जिसका मुख्यालय छत्रपति शिवाजी टर्मिनस है, एवं पश्चिम रेलवे, जिसका मुख्यालय चर्चगेट के निकट स्थित है। नगर यातायात की रीढ़ है मुंबई उपनगरीय रेल, जो तीन भिन्न नेटव्र्कों से बनी है, जिनके रूट शहर की लम्बाई में उत्तर-दक्षिण दिशा में दौड़ते हैं। मुंबई मैट्रो, एक भूमिगत एवं उत्थित स्तरीय रेलवे प्रणाली, जो फिल्हाल निर्माणाधीन है, वर्सोवा से अंधेरी होकर घाटकोपर तक प्रथम चरण में 2009 तक चालू होगी। मुंबई भारत के अन्य भागों से भारतीय रेल द्वारा व्यवस्थित ढंग से जुड़ा है। रेलगाड़ियां छत्रपति शिवाजी टर्मिनस, दादर, लोकमान्य तिलक टर्मिनस, मुंबई सेंट्रल, बांद्रा टर्मिनस एवं अंधेरी से आरंभ या समाप्त होती हैं। मुंबई उपनगरीय रेल प्रणाली 6.3 मिलियन यात्रियों को प्रतिदिन लाती ले जाती है।[36] बी ई एस टी द्वारा चालित बसें, लगभग नगर के हरेक भाग को यातायात उपलब्ध करातीं हैं। साथ ही नवी मुंबई एवं ठाणे के भी भाग तक जातीं हैं। बसें छोटी से मध्यम दूरी तक के सफर के लिए प्रयोगनीय हैं, जबकि ट्रेनें लम्बी दूरियों के लिए सस्ता यातायात उपलब्ध करातीं हैं। बेस्ट के अधीन लगभग 3,408 बसें चलतीं हैं,[37] जो प्रतिदिन लगभग 4.5 मिलियन यात्रियों को 340 बस-रूटों पर लाती ले जातीं हैं। इसके बेड़े में सिंगल-डेकर, डबल-डेकर, वेस्टीब्यूल, लो-फ्लोर, डिसेबल्ड फ्रेंड्ली, वातानुकूलित एवं हाल ही में जुड़ीं यूरो-तीन सम्मत सी एन जी चालित बसें सम्मिलित हैं। महाराष्ट्र राज्य सड़क परिवहन निगम (एम एस आर टी सी) की अन्तर्शहरीय यातायात सेवा है, जो मुंबई को राज्य व अन्य राज्यों के शहरों से जोड़तीं हैं। मुंबई दर्शन सेवा के द्वारा पर्यटक यहां के स्थानीय पर्यटन स्थलों का एक दिवसीय दौरा कर सकते हैं। काली व पीली, मीटर-युक्त टैसी सेवा पूरे शहर में उपलब्ध है। मुंबई के उपनगरीय क्षेत्रों में ऑटोरिक्शा उपलब्ध हैं, जो सी एन जी चालित हैं, व भाड़े पर चलते हैं। ये तिपहिया सवारी जाने आने का उपयुक्त साधन हैं। ये भाड़े के यातायात का सबसे सस्ता जरिया हैं, व इनमें तीन सवारियां बैठ सकतीं हैं। मुंबई का छत्रपति शिवाजी अन्तर्राष्ट्रीय विमानक्षेत्र (पूर्व सहर अन्तर्राष्ट्रीय विमानक्षेत्र) दक्षिण एशिया का व्यस्ततम हवाई अड्डा है।[38] जूहू विमानक्षेत्र भारत का प्रथम विमानक्षेत्र है, जिसमें फ्लाइंग क्लब व एक हैलीपोर्ट भी हैं। प्रस्तावित नवी मुंबई अन्तर्राष्ट्रीय विमानक्षेत्र, जो कोपरा-पन्वेल क्षेत्र में बनना है, को सरकार की मंजूरी मिल चुकी है, पूरा होने पर, वर्तमान हवाई अड्डे का भार काफी हद तक कम कर देगा। मुंबई में देश के 25% अन्तर्देशीय व 38% अन्तर्राष्ट्रीय यात्री यातायात सम्पन्न होता है। अपनी भौगोलिक स्थिति के कारण, मुंबई में विश्व के सर्वश्रेष्ठ प्राकृतिक पत्तन उपलब्ध हैं। यहां से ही देश के यात्री व कार्गो का 50% आवागमन होता है।[5] यह भारतीय नौसेना का एक महत्वपूर्ण बेस भी है, क्योंकि यहां पश्चिमी नौसैनिक कमान भी स्थित है।[39] फैरी भी द्वीपों आदि के लिए उपलब्ध हैं, जो कि द्वीपों व तटीय स्थलों पर जाने का एक सस्ता जरिया हैं। उपयोगिता सेवाएं बी एम सी शहर की पेय जलापूर्ति करता है। इस जल का अधिकांश भाग तुलसी एवं विहार झील से तथा कुछ अन्य उत्तरी झीलों से आता है। यह जल भाण्डुप एशिया के सबसे बड़े जल-शोधन संयंत्र में में शोधित कर आपूर्ति के लिए उपलब्ध कराया जाता है। भारत की प्रथम भूमिगत जल-सुरंग भी मुंबई में ही बनने वाली है।[40] बी एम सी ही शहर की सड़क रखरखाव और कूड़ा प्रबंधन भी देखता है। प्रतिदिन शहर का लगभग ७८००मीट्रिक टन कूड़ा उत्तर-पूर्वी क्षेत्र में मुलुंड, उत्तर-पश्चिम में गोराई और पूर्व में देवनार में डम्प किया जाता है। सीवेज ट्रीटमेंट वर्ली और बांद्रा में कर सागर में निष्कासित किया जाता है। मुंबई शहर में विद्युत आपूर्ति बेस्ट, रिलायंस एनर्जी, टाटा पावर और महावितरण (महाराष्ट्र राज्य विद्युत वितरण कंपनी लि.) करते हैं। यहां की अधिकांश आपूर्ति जल-विद्युत और नाभिकीय शक्ति से होती है। शहर की विद्युत खपत उत्पादन क्षमता को पछाड़ती जा रही है। शहर का सबसे बड़ा दूरभाष सेवा प्रदाता एम टी एन एल है। इसकी २००० तक लैंडलाइन और सेल्युलर सेवा पर मोनोपॉली थी। आज यहां मोबाइल सेवा प्रदाताओं में एयरटेल, वोडाफोन, एम टी एन एल, बी पी एल, रिलायंस कम्युनिकेशंस और टाटा इंडिकॉम हैं। शहर में जी एस एम और सी डी एम ए सेवाएं, दोनों ही उपलब्ध हैं। एम टी एन एल एवं टाटा यहां ब्रॉडबैंड सेवा भी उपलब्ध कराते हैं। जनसांख्यिकी २००१ की जनगणना अनुसार मुंबई की जनसंख्या ११,९१४,३९८ थी।[41] वर्ल्ड गैज़ेटियर द्वारा २००८ में किये गये गणना कार्यक्रम के अनुसार मुंबई की जनसंख्या १३,६६२,८८५ थी।[42] तभी मुंबई महानगरीय क्षेत्र की जनसंख्या २१,३४७,४१२ थी।[43] यहां की जनसंख्या घनत्व २२,००० व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर था। २००१ की जनगणना अनुसार बी.एम.सी के प्रशासनाधीन ग्रेटर मुंबई क्षेत्र की साक्षरता दर ७७.४५% थी,[44] जो राष्ट्रीय औसत ६४.८% से अधिक थी।[45] यहां का लिंग अनुपात ७७४ स्त्रियां प्रति १००० पुरुष द्वीपीय क्षेत्र में, ८२६ उपनगरीय क्षेत्र और ८११ ग्रेटर मुंबई में,[44] जो आंकड़े सभी राष्ट्रीय औसत अनुपात ९३३ से नीचे हैं।[46] यह निम्नतर लिंग अनुपात बड़ी संख्या में रोजगार हेतु आये प्रवासी पुरुषों के कारण है, जो अपने परिवार को अपने मूल स्थान में ही छोड़कर आते हैं।[47] मुंबई में ६७.३९% हिन्दू, १८.५६% मुस्लिम, ३.९९% जैन और ३.७२% ईसाई लोग हैं। इनमें शेष जनता सिख और पारसीयों की है।[48][49] मुंबई में पुरातनतम, मुस्लिम संप्रदाय में दाउदी बोहरे, खोजे और कोंकणी मुस्लिम हैं।[50] स्थानीय ईसाइयों में ईस्ट इंडियन कैथोलिक्स हैं, जिनका धर्मांतरण पुर्तगालियों ने १६वीं शताब्दी में किया था।[51] शहर की जनसंख्या का एक छोटा अंश इज़्राइली बेने यहूदी और पारसीयों का भी है, जो लगभग १६०० वर्ष पूर्व यहां फारस की खाड़ी या यमन से आये थे।[52] मुंबई में भारत के किसी भी महानगर की अपेक्षा सबसे अधिक बहुभाषियों की संख्या है।महाराष्ट्र राज्य की आधिकारिक राजभाषा मराठी है। अन्य बोली जाने वाली भाषाओं में हिन्दी और अंग्रेज़ी हैं।[53] एक सर्वसाधारण की बोलचाल की निम्न-स्तरीय भाषा है बम्बइया हिन्दी जिसमें अधिकांश शब्द और व्याकरण तो हिन्दी का ही है, किंतु इसके अलावा मराठी और अंग्रेज़ी के शब्द भी हैं। इसके अलावा कुछ शब्द यही अविष्कृत हैं। मुंबई के लोग अपने ऑफ को मुंबईकर या मुंबैयाइट्स कहलाते हैं। उच्चस्तरीय व्यावसाय में संलग्न लोगों द्वारा अंग्रेज़ी को वरीयता दी जाती है। मुंबई में भी तीव्र गति से शहरीकरण को अग्रसर विकसित देशों के शहरों द्वारा देखी जारही प्रधान शहरीकरण समस्या का सामना करना पड़ रहा है। इनमें गरीबी, बेरोजगारी, गिरता जन-स्वास्थ्य और अशिक्षा/असाक्षरता प्रमुख हैं। यहां की भूमि के मूल्य इतने ऊंचे हो गये हैं, कि लोगों को निम्नस्तरीय क्षेत्रों में अपने व्यवसाय स्थल से बहुत दूर रहना पड़ता है। इस कारण सड़कों पर यातायात जाम और लोक-परिवहन आदि में अत्यधिक भीड़ बढ़ती ही जा रही हैं। मुंबई की कुल जनसंख्या का लगभग ६०% अंश गंदी बस्तियों और झुग्गियों में बसता है।[54] धारावी, एशिया की दूसरी सबसे बड़ी स्लम-बस्त्ती[55] मध्य मुंबई में स्थित है, जिसमें ८ लाख लोग रहते हैं।[56] ये स्लम भी मुंबई के पर्यटक आकर्षण बनते जा रहे हैं।[57][58][59] मुंबई में प्रवारियों की संख्या १९९१-२००१ में ११.२ लाख थी, जो मुंबई की जनसंख्या में कुल बढ़त का ५४.८% है।[60] २००७ में मुंबई की अपराध दर (भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत दर्ज अपराध) १८६.२ प्रति १ लाख व्यक्ति थी, जो राष्ट्रीय औसत १७५.१ से कुछ ही अधिक है, किंतु भारत के दस लाख से अधिक जनसंख्या वाले शहर सूची के अन्य शहरों की औसत दर ३१२.३ से बहुत नीचे है।[61] शहर की मुख्य जेल अर्थर रोड जेल है। संस्कृति मुंबई की संस्कृति परंपरागत उत्सवों, खानपान, संगीत, नृत्य और रंगमंच का सम्मिश्रण है। इस शहर में विश्व की अन्य राजधानियों की अपेक्षा बहुभाषी और बहुआयामी जीवनशैली देखने को मिलती है, जिसमें विस्तृत खानपान, मनोरंजन और रात्रि की रौनक भी शामिल है।[62] मुंबई के इतिहास में यह मुख्यतः एक प्रधान व्यापारिक केन्द्र रहा है। इस खारण विभिन्न क्षेत्रों के लोग यहां आते रहे, जिससे बहुत सी संस्कृतियां, धर्म, आदि यहां एकसाथ मिलजुलकर रहते हैं।[49] मुंबई भारतीय चलचित्र का जन्मस्थान है।[63]—दादा साहेब फाल्के ने यहां मूक चलचित्र के द्वारा इस उद्योग की स्थापना की थी। इसके बाद ही यहां मराठी चलचित्र का भी श्रीगणेश हुआ था। तब आरंभिक बीसवीं शताब्दी में यहां सबसे पुरानी फिल्म प्रसारित हुयी थी।[64] मुंबई में बड़ी संख्या में सिनेमा हॉल भी हैं, जो हिन्दी, मराठी और अंग्रेज़ी फिल्में दिखाते हैं। विश्व में सबसे बड़ा IMAX डोम रंगमंच भी मुंबई में वडाला में ही स्थित है।[65] मुंबई अंतर्राष्ट्रीय फिल्म उत्सव[66] और फिल्मफेयर पुरस्कार की वितरण कार्यक्रम सभा मुंबाई में ही आयोजित होती हैं।[67] हालांकि मुंबई के ब्रिटिश राज में स्थापित अधिकांश रंगमंच समूह १९५० के बाद भंग हो चुके हैं, फिर भी मुंबई में एक समृद्ध रंगमंच संस्कृति विकसित हुयी हुई है। ये मराठी और अंग्रेज़ी, तीनों भाषाओं के अलावा अन्य क्षेत्रीय भाषाओं में भी विकसित है।[68][69] यहां कला-प्रेमियों की कमी भी नहीं है। अनेक निजी व्यावसायिक एवं सरकारी कला-दीर्घाएं खुली हुई हैं। इनमें जहांगीर कला दीर्घा और राष्ट्रीय आधुनिक कला संग्रहालय प्रमुख हैं। १८३३ में बनी बंबई एशियाटिक सोसाइटी में शहर का पुरातनतम पुस्तकालय स्थित है।[70] छत्रपति शिवाजी महाराज वस्तु संग्रहालय (पूर्व प्रिंस ऑफ वेल्स म्यूज़ियम) दक्षिण मुंबई का प्रसिद्ध संग्रहालय है, जहां भारतीय इतिहास के अनेक संग्रह सुरक्षित हैं।[71] मुंबई के चिड़ियाघर का नाम जीजामाता उद्यान है (पूर्व नाम: विक्टोरिया गार्डन्स), जिसमें एक हरा भरा उद्यान भी है।[72] नगर की साहित्य में संपन्नता को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति तब मिली जब सलमान रुश्दी और अरविंद अडिग को मैन बुकर पुरस्कार मिले थे।[73] यही के निवासी रुडयार्ड किपलिंग को १९०७ में नोबल पुरस्कार भी मिला था।[74] मराठी साहित्य भी समय की गति क साथ साथ आधुनिक हो चुका है। यह मुंबई के लेखकों जैसे मोहन आप्टे, अनन्त आत्माराम काणेकर और बाल गंगाधर तिलक के कार्यों में सदा दृष्टिगोचर रहा है। इसको वार्षिक साहित्य अकादमी पुरस्कार से और प्रोत्साहन मिला है।[75] मुंबई शहर की इमारतों में झलक्ता स्थापत्य, गोथिक स्थापत्य, इंडो रेनेनिक, आर्ट डेको और अन्य समकालीन स्थापत्य शैलियों का संगम है।[76] ब्रिटिश काल की अधिकांश इमारतें, जैसे विक्टोरिया टर्मिनस और बंबई विश्वविद्यालय, गोथिक शैली में निर्मित हैं।[77] इनके वास्तु घटकों में यूरोपीय प्रभाव साफ दिखाई देता है, जैसे जर्मन गेबल, डच शैली की छतें, स्विस शैली में काष्ठ कला, रोमन मेहराब साथ ही परंपरागत भारतीय घटक भी दिखते हैं।[78] कुछ इंडो सेरेनिक शैली की इमारतें भी हैं, जैसे गेटवे ऑफ इंडिया।[79] आर्ट डेको शैली के निर्माण मैरीन ड्राइव और ओवल मैदान के किनारे दिखाई देते हैं।[80] मुंबई में मायामी के बाद विश्व में सबसे अधिक आर्ट डेको शैली की इमारतें मिलती हैं।[81] नये उपनगरीय क्षेत्रों में आधुनिक इमारतें अधिक दिखती हैं। मुंबई में अब तक भारत में सबसे अधिक गगनचुम्बी इमारतें हैं। इनमें ९५६ बनी हुई हैं और २७२ निर्माणाधीन हैं। (२००९ के अनुसार)[82] १९९५ में स्थापित, मुंबई धरोहर संरक्षण समिति (एम.एच.सी.सी) शहर में स्थित धरोहर स्थलों के संरक्षण का ध्यान रखती है।[76] मुंबई में दो यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल हैं – छत्रपति शिवाजी टर्मिनस और एलीफेंटा की गुफाएं[83] शहर के प्रसिद्ध पर्यटन स्थलों में नरीमन पाइंट, गिरगांव चौपाटी, जुहू बीच और मैरीन ड्राइव आते हैं। एसेल वर्ल्ड यहां का थीम पार्क है, जो गोरई बीच के निकट स्थित है।[84] यहीं एशिया का सबसे बड़ा थीम वाटर पार्क, वॉटर किंगडम भी है।[85] मुंबई के निवासी भारतीय त्यौहार मनाने के साथ-साथ अन्य त्यौहार भी मनाते हैं। दिवाली, होली, ईद, क्रिसमस, नवरात्रि, दशहरा, दुर्गा पूजा, महाशिवरात्रि, मुहर्रम आदि प्रमुख त्यौहार हैं। इनके अलावा गणेश चतुर्थी और जन्माष्टमी कुछ अधिक धूम-धाम के संग मनाये जाते हैं।[86] गणेश-उत्सव में शहर में जगह जगह बहुत विशाल एवं भव्य पंडाल लगाये जाते हैं, जिनमें भगवान गणपति की विशाल मूर्तियों की स्थापना की जाती है। ये मूर्तियां दस दिन बाद अनंत चौदस के दिन सागर में विसर्जित कर दी जाती हैं। जन्माष्टमी के दिन सभी मुहल्लों में समितियों द्वारा बहुत ऊंचा माखान का मटका बांधा जाता है। इसे मुहल्ले के बच्चे और लड़के मुलकर जुगत लगाकर फोड़ते हैं। काला घोड़ा कला उत्सव कला की एक प्रदर्शनी होती है, जिसमें विभिन्न कला-क्षेत्रों जैसे संगीत, नृत्य, रंगमंच और चलचित्र आदि के क्षेत्र से कार्यों का प्रदर्शन होता है।[87] सप्ताह भर लंबा बांद्रा उत्सव स्थानीय लोगों द्वारा मनाया जाता है।[88] बाणागंगा उत्सव दो-दिवसीय वार्षिक संगीत उत्सव होता है, जो जनवरी माह में आयोजित होता है। ये उत्सव महाराष्ट्र पर्यटन विकास निगम (एम.टी.डी.सी) द्वारा ऐतिहाशिक बाणगंगा सरोवर के निकट आयोजित किया जाटा है।[89] एलीफेंटा उत्सव—प्रत्येक फरवरी माह में एलीफेंटा द्वीप पर आयोजित किया जाता है। यह भारतीय शास्त्रीय संगीत एवं शास्त्रीय नृत्य का कार्यक्रम ढेरों भारतीय और विदेशी पर्यटक आकर्षित करता है।[90] शहर और प्रदेश का खास सार्वजनिक अवकाश १ मई को महाराष्ट्र दिवस के रूप में महाराष्ट्र राज्य के गठन की १ मई, १९६० की वर्षागांठ मनाने के लिए होता है।[91][92] मुंबई के भगिनि शहर समझौते निम्न शहरों से हैं:[93] योकोहामा, जापान[94][95] लॉस एंजिलिस, संयुक्त राज्य[96] लंदन, यूनाइटेड किंगडम बर्लिन, जर्मनी स्टुगार्ट, जर्मनी[97] पीटर्सबर्ग, रूस मीडिया मुंबई में बहुत से समाचार-पत्र, प्रकाशन गृह, दूरदर्शन और रेडियो स्टेशन हैं। मराठी समाचारपत्र में नवकाल, महाराष्ट्र टाइम्स, लोकसत्ता, लोकमत, सकाल आदि प्रमुख हैं। मुंबई में प्रमुख अंग्रेज़ी अखबारों में टाइम्स ऑफ इंडिया, मिड डे, हिन्दुस्तान टाइम्स, डेली न्यूज़ अनालिसिस एवं इंडियन एक्स्प्रेस आते हैं। हिंदी का सबसे पुराना और सार्वाधिक प्रसार संख्या वाला समाचार पत्र टाइम्स समूह का हिंदी का अखबार नवभारत टाइम्स भी मुंबई का प्रमुख हिंदी भाषी समाचार पत्र है। [98] मुंबई में ही एशिया का सबसे पुराना समाचार-पत्र बॉम्बे समाचार भी निकलता है।[99] बॉम्बे दर्पण प्रथम मराठी समाचार-पत्र था, जिसे बालशास्त्री जाम्भेकर ने १८३२ में आरंभ किया था।[100] यहां बहुत से भारतीय एवं अंतर्राष्ट्रीय टीवी चैनल्स उपलब्ध हैं। यह महानगर बहुत से अन्तर्राष्ट्रीय मीडिया निगमों और मुद्रकों एवं प्रकाशकों का केन्द्र भी है। राष्ट्रीय टेलीवीज़र प्रसारक दूरदर्शन, दो टेरेस्ट्रियल चैनल प्रसारित करता है,[101] और तीन मुख्य केबल नेटवर्क अन्य सभी चैनल उपलब्ध कराते हैं।[102] केबल चैनलों की विस्तृत सूची में ईएसपीएन, स्टार स्पोर्ट्स, ज़ी मराठी, ईटीवी मराठी, डीडी सह्याद्री, मी मराठी, ज़ी टाकीज़, ज़ी टीवी, स्टार प्लस, सोनी टीवी और नये चैनल जैसे स्टार मांझा आइ कई मराठी टीवी चैनल व अन्य भाषाओं के चैनल शामिल हैं। मुंबई के लिए पूर्ण समर्पित चैनलों में सहारा समय मुंबई आदि चैनल हैं। इनके अलावा डी.टी.एच प्रणाली अपनी ऊंची लागत के कारण अभी अधिक परिमाण नहीं बना पायी है।[103] प्रमुख डीटीएच सेवा प्रदाताओं में डिश टीवी, बिग टीवी, टाटा स्काई और सन टीवी हैं।[104] मुंबई में बारह रेडियो चैनल हैं, जिनमें से नौ एफ़ एम एवं तीन ऑल इंडिया रेडियो के स्टेशन हैं जो ए एम प्रसारण करते हैं।[105] मुंबई में कमर्शियल रेडियो प्रसारण प्रदाता भी उपलब्ध हैं, जिनमें वर्ल्ड स्पेस, सायरस सैटेलाइट रेडियो तथा एक्स एम सैटेलाइट रेडियो प्रमुख हैं।[106] बॉलीवुड, हिन्दी चलचित्र उद्योग भी मुंबई में ही स्थित है। इस उद्योग में प्रतिवर्शः १५०-२०० फिल्में बनती हैं।[107] बॉलीवुड का नाम अमरीकी चलचित्र उद्योग के शहर हॉलीवुड के आगे बंबई का ब लगा कर निकला हुआ है।[108] २१वीं शताब्दी ने बॉलीवुड की सागरपार प्रसिद्धि के नये आयाम देखे हैं। इस कारण फिल्म निर्माण की गुणवत्ता, सिनेमैटोग्राफ़ी आदि में नयी ऊंचाइयां दिखायी दी हैं।[109] गोरेगांव और फिल सिटी स्थित स्टूडियो में ही अधिकांश फिल्मों की शूटिंग होतीं हैं।[110] मराठी चलचित्र उद्योग भी मुंबई में ही स्थित है।[111] शिक्षा मुंबई के विद्यालय या तो नगरपालिका विद्यालय होते हैं,[112] या निजी विद्यालय होते हैं, जो किसी न्यास या व्यक्ति द्वारा चलाये जा रहे होते हैं। इनमें से कुछ निजी विद्यालयों को सरकारी सहायता भी प्राप्त होती है।[113] ये विद्यालय महाराष्ट्र स्टेट बोर्ड, अखिल भारतीय काउंसिल ऑफ इंडियन स्कूल सर्टिफिकेट एग्ज़ामिनेशंस (आई.सी.एस.ई) या सीबीएसी बोर्ड द्वारा संबद्ध होते हैं।[114] यहां मराठी या अंग्रेज़ी शिक्षा का माध्यम होता है।[115] सरकारी सार्वजनिक विद्यालयों में वित्तीय अभाव के चलते बहुत सी कमियां होती हैं, किंतु गरीब लोगों का यही सहारा है, क्योंकि वे महंगे निजी विद्यालय का भार वहन नहीं कर सकते हैं।[116] १०+२+३ योजना के अंतर्गत, विद्यार्थी दस वर्ष का विद्यालय समाप्त कर दो वर्ष कनिष्ठ कालिज (ग्यारहवीं और बारहवीं कक्षा) में भर्ती होते हैं। यहां उन्हें तीन क्षेत्रों में से एक चुनना होता है: कला, विज्ञान या वाणिज्य।[117] इसके भाद उन्हें सामान्यतया एक ३-वर्षीय स्नातक पाठ्यक्रम अपने चुने क्षेत्र में कर ना होता है, जैसे विधि, अभियांत्रिकी या चिकित्सा इत्यादि।[118] शहर के अधिकांश महाविद्यालय मुंबई विश्वविद्यालय से सम्बद्ध हैं, जो स्नातओं की संख्यानुसार विश्व के सबसे बड़े विश्वविद्यालयों में से एक है।[119] भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (बंबई),[120] वीरमाता जीजाबाई प्रौद्योगिकी संस्थान (वी.जे.टी.आई),[121] और युनिवर्सिटी इंस्टीट्यूट ऑफ केमिकल टेक्नोलॉजी (यू.आई.सी.टी),[122] भारत के प्रधान अभियांत्रिकी और प्रौद्योगिकी संस्थानों में आते हैं और [[एस एन डी टी महिला विश्वविद्यालय मुंबई के स्वायत्त विश्वविद्यालय हैं।[123] मुंबई में जमनालाल बजाज प्रबंधन शिक्षा संस्थान, एस पी जैन प्रबंधन एवं शोध संस्थान एवं बहुत से अन्य प्रबंधन महाविद्यालय हैं।[124] मुंबई स्थित गवर्नमेंट लॉ कालिज तथा सिडनहैम कालिज, भारत के पुरातनतम क्रमशः विधि एवं वाणिज्य महाविद्यालय हैं।[125][126] सर जे जे स्कूल ऑफ आर्ट्स मुंबई का पुरातनतम कला महाविद्यालय है।[127] मुंबई में दो प्रधान अनुसंधान संस्थान भी हैं: टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च (टी.आई.एफ.आर), तथा भाभा आण्विक अनुसंधान केन्द्र (बी.ए.आर.सी).[128] भाभा संस्थान ही सी आई आर यू एस, ४०मेगावाट नाभिकीय भट्टी चलाता है, जो उनके ट्राम्‍बे स्थित संस्थान में स्थापित है।[129] क्रीड़ा क्रिकेट शहर और देश के सबसे चहेते खेलों में से एक है।.[130] महानगरों में मैदानों की कमी के चलते गलियों का क्रिकेट सबसे प्रचलित है। मुंबई में ही भारतीय क्रिकेट नियंत्रण बोर्ड (बीसीसीआई) स्थित है।[131] मुंबई क्रिकेट टीम रणजी ट्रॉफी में शहर का प्रतिनिधित्व करती है। इसको अब तक ३८ खिताब मिले हैं, जो किसी भी टीम को मिलने वाले खिताबों से अधिक हैं।[132] शहर की एक और टीम मुंबई इंडियंस भी है, जो इंडियन प्रीमियर लीग में शहर की टीम है। शहर में दो अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट मैदान हैं- वान्खेड़े स्टेडियम और ब्रेबोर्न स्टेडियम[133] शहर में आयोजित हुए सबसे बड़े क्रिकेट कार्यक्रम में आईसीसी चैंपियन्स ट्रॉफ़ी का २००६ का फाइनल था। यह ब्रेबोर्न स्टेडियम में हुआ था।[134] मुंबई से प्रसिद्ध क्रिकेट खिलाड़ियों में विश्व-प्रसिद्ध सचिन तेन्दुलकर[135] और सुनील गावस्कर हैं।[136] क्रिकेट की प्रसिद्ध के चलते हॉकी कुछ नीचे दब गया है।[137] मुंबई की मराठा वारियर्स प्रीमियर हाकी लीग में शहर की टीम है।[138] प्रत्येक फरवरी में मुंबई में डर्बी रेस घुड़दौड़ होती है। यह महालक्ष्मी रेसकोर्स में आयोजित की जाती है। यूनाइटेड ब्रीवरीज़ डर्बी भी टर्फ़ क्लब में फ़रवरी में माह में ही आयोजित की जाती है।[139] फार्मूला वन कार रेस के प्रेमी भी यहां बढ़ते ही जा रहे हैं,[140] २००८ में, फोर्स इंडिया (एफ़ १) टीम कार मुंबई में अनावृत हुई थी।[141] मार्च २००४ में यहां मुंबई ग्रैंड प्रिक्स एफ़ १ पावरबोट रेस की विश्व प्रतियोगिता का भाग आयोजित हुआ था।[142] चित्र दीर्घा मुंबई उच्च न्यायालय जार्ज पंचम एवं क्वीन मेरी की स्मृति में बनाया गया गेटवे ऑफ़ इन्डिया स्थापना - दिसम्बर 1911 फ्लोरा फाउंटेन जिसे हुतात्मा चौक का नाम दिया गया है। मुंबई स्टाक एक्स्चेंज एशिया का सबसे पुराना स्टाक एक्सचेंज बांद्रा-वर्ली समुद्रसेतु ब्रेबोर्न स्टेडियम, शहर के सबसे पुराने स्टेडियमों में से एक है इन्हें भी देखें मुंबई यौन संग्रहालय सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ श्रेणी:महाराष्ट्र के शहर श्रेणी:पूर्व पुर्तगाली कालोनी श्रेणी:तटवर्ती शहर श्रेणी:उच्च-प्रौद्योगिकी व्यापार जिले श्रेणी:भारत के नगर
मुम्बई किस राज्य की राजधानी है?
महाराष्ट्र
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महर्षि डॉ॰ धोंडो केशव कर्वे जन्म तारीख: अप्रेल १८, १८५८ म्रुत्यु तारीख: नवंबर ९, १९६२ प्राध्यापक और समाज सुधारक महर्षि डॉ॰ धोंडो केशव कर्वे (अप्रेल १८, १८५८ - नवंबर ९, १९६२) प्रसिद्ध समाज सुधारक थे। उन्होने महिला शिक्षा और विधवा विवाह मे महत्त्वपूर्ण योगदान किया। उन्होने अपना जीवन महिला उत्थान को समर्पित कर दिया। उनके द्वारा मुम्बई में स्थापित एस एन डी टी महिला विश्वविघालय भारत का प्रथम महिला विश्वविघालय है। वे वर्ष १८९१ से वर्ष १९१४ तक पुणे के फरगुस्सन कालेज में गणित के अध्यापक थे। उन्हे वर्ष १९५८ में भारत रत्न से सम्मनित किया गया। जीवनी उनका जन्म महाराष्ट्र के मुरुड नामक कस्बे (शेरावाली, जिला रत्नागिरी), मे एक गरीब परिवार में हुआ था। पिता का नाम केशवपंत और माता का लक्ष्मीबाई। आरंभिक शिक्षा मुरुड में हुई। पश्चात् सतारा में दो ढाई वर्ष अध्ययन करके मुंबई के राबर्ट मनी स्कूल में दाखिल हुए। 1884 ई. में उन्होंने मुंबई विश्वविद्यालय से गणित विषय लेकर बी.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की। बी.ए. करने के बाद वे एलफिंस्टन स्कूल में अध्यापक हो गए। कर्वे का विवाह 15 वर्ष की आयु में ही हो गया था और बी.ए. पास करने तक उनके पुत्र की अवस्था ढाई वर्ष हो चुकी थी। अत: खर्च चलाने के लिए स्कूल की नौकरी के साथ-साथ लड़कियों के दो हाईस्कूलों में वे अंशकालिक काम भी करते थे। गोपालकृष्णन गोखले के निमंत्रण पर 1891 ई. में वे पूना के प्रख्यात फ़र्ग्युसन कालेज में प्राध्यापक बन गए। यहाँ लगातार 23 वर्ष तक सेवा करने के उपरांत 1914 ई. में उन्होंने अवकाश ग्रहण किया। भारत में हिंदू विधवाओं की दयनीय और शोचनीय दशा देखकर कर्वे, मुंबई में पढ़ते समय ही, विधवा विवाह के समर्थक बन गए थे। उनकी पत्नी का देहांत भी उनके मुंबई प्रवास के बीच हो चुका था। अत: 11 मार्च 1893 ई. को उन्होंने गोड़बाई नामक विधवा से विवाह कर, विधवा विवाह संबंधी प्रतिबंध को चुनौती दी। इसके लिए उन्हें घोर कष्ट सहने पड़े। मुरुड में उन्हें समाजबहिष्कृत घोषित कर दिया गया। उनके परिवार पर भी प्रतिबंध लगाए गए। कर्वे ने "विधवा विवाह संघ" की स्थापना की। किंतु शीघ्र ही उन्हें पता चल गया कि इक्के-दुक्के विधवा विवाह करने अथवा विधवा विवाह का प्रचार करने से विधवाओं की समस्या हल होनेवाली नहीं है। अधिक आवश्यक यह है कि विधवाओं को शिक्षित बनाकर उन्हें अपने पैरों पर खड़ा किया जाए ताकि वे सम्मानपूर्ण जीवन बिता सकें। अत: 1896 ई. में उन्होंने "अनाथ बालिकाश्रम एसोसिएशन" बनाया और जून, 1900 ई. में पूना के पास हिंगणे नामक स्थान में एक छोटा सा मकान बनाकर "अनाथ बालिकाश्रम" की स्थापना की गई। 4 मार्च 1907 ई. को उन्होंने "महिला विद्यालय" की स्थापना की जिसका अपना भवन 1911 ई. तक बनकर तैयार हो गया। काशी के बाबू शिवप्रसाद गुप्त जापान गए थे और वहाँ के महिला विश्वविद्यालय से बहुत प्रभावित हुए थे। जापान से लौटने पर 1915 ई. में गुप्त जी ने उक्त महिला विश्वविद्यालय से संबंधित एक पुस्तिका कर्वे को भेजी। उसी वर्ष दिसंबर में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का बंबई में अधिवेशन हुआ। कांग्रेस अधिवेशन के साथ ही "नैशनल सोशल कानफ़रेंस" का अधिवेशन होना था जिसके अध्यक्ष महर्षि कर्वे चुने गए। गुप्त जी द्वारा प्रेषित पुस्तिका से प्रेरणा पाकर कर्वे ने अपने अध्यक्षीय भाषण का मुख्य विषय "महाराष्ट्र में महिला विश्वविद्यालय" को बनाया। महात्मा गांधी ने भी महिला विश्वविद्यालय की स्थापना और मातृभाषा के माध्यम से शिक्षा देने के विचार का स्वागत किया। फलस्वरूप 1916 ई. में, कर्वे के अथक प्रयासों से, पूना में महिला विश्वविद्यालय की नींव पड़ी, जिसका पहला कालेज "महिला पाठशाला" के नाम से 16 जुलाई 1916 ई. को खुला। महर्षि कर्वे इस पाठशाला के प्रथम प्रिंसिपल बने। लेकिन धन की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए, उन्होंने अपना पद त्याग दिया और धनसंग्रह के लिए निकल पड़े। चार वर्ष में ही सारे खर्च निकालकर उन्होंने विश्वविद्यालय के कोष में दो लाख 16 हजार रुपए से अधिक धनराशि जमा कर दी। इसी बीच बंबई के प्रसिद्ध उद्योगपति सर विठ्ठलदास दामोदर ठाकरसी ने इस विश्वविद्यालय को 15 लाख रुपए दान दिए। अत: विश्वविद्यालय का नाम श्री ठाकरसी की माता के नाम पर "श्रीमती नत्थीबाई दामोदर ठाकरसी (एस.एन.डी.टी.) विश्वविद्यालय रख दिया गया और कुछ वर्ष बाद इसे पूना से मुंबई स्थानांतरित कर दिया गया। 70 वर्ष की आयु में कर्वे उक्त विश्वविद्यालय के लिए धनसंग्रह करने यूरोप, अमरीका और अफ्रीका गए। सन् 1936 ई. में गांवों में शिक्षा के प्रचार के लिए कर्वे ने "महाराष्ट्र ग्राम प्राथमिक शिक्षा समिति" की स्थापना की, जिसने धीरे-धीरे विभिन्न गाँवों में 40 प्राथमिक विद्यालय खोले। स्वतंत्रताप्राप्ति के बाद यह कार्य राज्य सरकार ने सँभाल लिया। सन् 1915 ई. में कर्वे द्वारा मराठी भाषा में रचित "आत्मचरित" नामक पुस्तक प्रकाशित हो चुकी थी। 1942 ई. में काशी हिंदू विश्वविद्यालय ने उन्हें डॉ॰ लिट्. की उपाधि प्रदान की। 1954 ई. में उनके अपने महिला विश्वविद्यालय ने उन्हें एल.एल.डी. की उपाधि दी। 1955 ई. में भारत सरकार ने उन्हें "पद्मविभूषण" से अलंकृत किया और 100 वर्ष की आयु पूरी हो जाने पर, 1957 ई. में मुंबई विश्वविद्यालय ने उन्हें एल.एल.डी. की उपाधि से सम्मानित किया। 1958 ई. में भारत के राष्ट्रपति ने उन्हें देश के सर्वोच्च सम्मान "भारतरत्न" से विभूषित किया। भारत सरकार के डाक तार विभाग ने इनके सम्मान में एक डाक टिकट निकालकर इनके प्रति अपनी श्रद्धा प्रकट की थी। देशवासी आदर से उन्हें महर्षि कहते थे1 9 नवम्बर 1962 ई. को 104 वर्ष की आयु में "महर्षि" कर्वे का शरीरांत हो गया। श्रेणी:१८५८ जन्म श्रेणी:१९६२ में निधन श्रेणी:भारत रत्न सम्मान प्राप्तकर्ता
भारत का प्रथम महिला विश्विद्यालय कौन सा है?
एस एन डी टी
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कुरुक्षेत्र युद्ध कौरवों और पाण्डवों के मध्य कुरु साम्राज्य के सिंहासन की प्राप्ति के लिए लड़ा गया था। महाभारत के अनुसार इस युद्ध में भारत के प्रायः सभी जनपदों ने भाग लिया था। महाभारत व अन्य वैदिक साहित्यों के अनुसार यह प्राचीन भारत में वैदिक काल के इतिहास का सबसे बड़ा युद्ध था। [1] इस युद्ध में लाखों क्षत्रिय योद्धा मारे गये जिसके परिणामस्वरूप वैदिक संस्कृति तथा सभ्यता का पतन हो गया था। इस युद्ध में सम्पूर्ण भारतवर्ष के राजाओं के अतिरिक्त बहुत से अन्य देशों के क्षत्रिय वीरों ने भी भाग लिया और सब के सब वीर गति को प्राप्त हो गये। [2] इस युद्ध के परिणामस्वरुप भारत में ज्ञान और विज्ञान दोनों के साथ-साथ वीर क्षत्रियों का अभाव हो गया। एक तरह से वैदिक संस्कृति और सभ्यता जो विकास के चरम पर थी उसका एकाएक विनाश हो गया। प्राचीन भारत की स्वर्णिम वैदिक सभ्यता इस युद्ध की समाप्ति के साथ ही समाप्त हो गयी। इस महान युद्ध का उस समय के महान ऋषि और दार्शनिक भगवान वेदव्यास ने अपने महाकाव्य महाभारत में वर्णन किया, जिसे सहस्राब्दियों तक सम्पूर्ण भारतवर्ष में गाकर एवं सुनकर याद रखा गया। [3] महाभारत में मुख्यतः चंद्रवंशियों के दो परिवार कौरव और पाण्डव के बीच हुए युद्ध का वृत्तांत है। १०० कौरवों और पाँच पाण्डवों के बीच कुरु साम्राज्य की भूमि के लिए जो संघर्ष चला उससे अंतत: महाभारत युद्ध का सृजन हुआ। उक्त युद्ध को हरियाणा में स्थित कुरुक्षेत्र के आसपास हुआ माना जाता है। इस युद्ध में पाण्डव विजयी हुए थे। [1] महाभारत में इस युद्ध को धर्मयुद्ध कहा गया है, क्योंकि यह सत्य और न्याय के लिए लड़ा जाने वाला युद्ध था। [2] महाभारत काल से जुड़े कई अवशेष दिल्ली में पुराना किला में मिले हैं। पुराना किला को पाण्डवों का किला भी कहा जाता है।[4] कुरुक्षेत्र में भी भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग द्वारा महाभारत काल के बाण और भाले प्राप्त हुए हैं।[5] गुजरात के पश्चिमी तट पर समुद्र में डूबे ७०००-३५०० वर्ष पुराने शहर खोजे गये हैं[6], जिनको महाभारत में वर्णित द्वारका के सन्दर्भों से जोड़ा गया[7], इसके अलावा बरनावा में भी लाक्षागृह के अवशेष मिले हैं[8], ये सभी प्रमाण महाभारत की वास्तविकता को सिद्ध करते हैं। पृष्ठभूमि महाभारत युद्ध होने का मुख्य कारण कौरवों की उच्च महत्वाकांक्षाएँ और धृतराष्ट्र का पुत्र मोह था। कौरव और पाण्डव आपस में सहोदर भाई थे। वेदव्यास जी से नियोग के द्वारा विचित्रवीर्य की भार्या अम्बिका के गर्भ से धृतराष्ट्र और अम्बालिका के गर्भ से पाण्डु उत्पन्न हुए। धृतराष्ट्र ने गान्धारी के गर्भ से सौ पुत्रों को जन्म दिया, उनमें दुर्योधन सबसे बड़ा था। पाण्डु के युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव आदि पाँच पुत्र हुए| धृतराष्ट्र जन्म से ही नेत्रहीन थे अतः उनकी जगह पर पाण्डु को राज दिया गया जिससे धृतराष्ट्र को सदा पाण्डु और उसके पुत्रों से द्वेष रहने लगा। यह द्वेष दुर्योधन के रूप मे फलीभूत हुआ और शकुनि ने इस आग में घी का काम किया। शकुनि के कहने पर दुर्योधन ने बचपन से लेकर लाक्षागृह तक कई षडयंत्र किये। परन्तु हर बार वो विफल रहा। युवावस्था में आने पर जब युधिष्ठिर को युवराज बना दिया गया तो उसने उन्हें लाक्षागृह भिजवाकर मारने की कोशिश की परन्तु पाण्डव बच निकले। पाण्डवों की अनुपस्थिति में धृतराष्ट्र ने दुर्योधन को युवराज बना दिया परन्तु जब पाण्डवों ने वापिस आकर अपना राज्य वापिस मांगा तो उन्हें राज्य के नाम पर खण्डहर रुपी खाण्डव वन दिया गया। धृतराष्ट्र के अनुरोध पर गृहयुद्ध के संकट से बचने के लिए युधिष्ठिर ने यह प्रस्ताव भी स्वीकार कर लिया। पाण्डवों ने श्रीकृष्ण की सहायता से इन्द्र की अमारावती पुरी जितनी भव्य नगरी इन्द्रप्रस्थ का निर्माण किया। पाण्डवों ने विश्वविजय करके प्रचुर मात्रा में रत्न एवं धन एकत्रित किया और राजसूय यज्ञ किया। दुर्योधन पाण्डवों की उन्नति देख नहीं पाया और शकुनि के सहयोग से द्यूत में छ्ल से युधिष्ठिर से उसका सारा राज्य जीत लिया और कुरु राज्य सभा में द्रौपदी को निर्वस्त्र करने का प्रयास कर उसे अपमानित किया। सम्भवतः इसी दिन महाभारत के युद्ध के बीज पड़ गये थे। अन्ततः पुनः द्यूत में हारकर पाण्डवों को १२ वर्षो को ज्ञातवास और १ वर्ष का अज्ञातवास स्वीकार करना पड़ा। परन्तु जब यह शर्त पूरी करने पर भी कौरवों ने पाण्डवों को उनका राज्य देने से मना कर दिया। तो पाण्डवों को युद्ध करने के लिये बाधित होना पड़ा, परन्तु श्रीकृष्ण ने युद्ध रोकने का हर सम्भव प्रयास करने का सुझाव दिया। तब श्रीकृष्ण पाण्डवों की तरफ से कुरुराज्य सभा में शांतिदूत बनकर गये और वहाँ श्रीकृष्ण ने दुर्योधन से पाण्डवों को केवल पाँच गाँव देकर युद्ध टालने का प्रस्ताव रखा। परन्तु जब दुर्योधन ने पाण्डवों को सुई की नोंक जितनी भी भूमि देने से मना कर दिया तो अन्ततः युधिष्ठिर को युद्ध करने के लिये बाधित होना पड़ा। इस प्रकार कौरवों ने ११ अक्षौहिणी तथा पाण्डवों ने ७ अक्षौहिणी सेना एकत्रित कर ली। युद्ध की तैयारियाँ पूर्ण करने के बाद कौरव और पाण्डव दोनों दल कुरुक्षेत्र पहुँचे, जहाँ यह भयंकर युद्ध लड़ा गया [9] कुरुक्षेत्र के उस भयानक और घमासान संहारक युद्ध का अनुमान महाभारत के भीष्म पर्व में दिये एक श्लोक [10] से लगाया जा सकता है कि “ न पुत्रः पितरं जज्ञे पिता वा पुत्रमौरसम्।भ्राता भ्रातरं तत्र स्वस्रीयं न च मातुलः॥ „ “ अर्थात्:उस युद्ध में न पुत्र पिता को, न पिता पुत्र को, न भाई भाई को, न मामा भांजे को, न मित्र मित्र को पहचानता था' „ ऐतिहासिकता महाभारत युद्ध को आमतौर पर वैदिक युग में लगभग 950 ईसा पूर्व के समय का माना जाता है।[11] अधिकतर पश्चिमी विद्वान् इसे १००० ईसा पूर्व से १५०० ईसा पूर्व मानते है विद्वानों ने इसकी तिथि निर्धारित करने के लिये इसमें वर्णित सूर्य ग्रहण और चंद्र ग्रहणों के बारे में अध्ययन किया है और इसे ३१ वीं सदी ईसा पूर्व का मानते हैं, लेकिन मतभेद अभी भी जारी है। इसकी कई भारतीय और पश्चिमी विद्वानों द्वारा भिन्न-भिन्न तिथियाँ निर्धारित की गयी हैं- विश्व विख्यात भारतीय गणितज्ञ एवं खगोलज्ञ वराहमिहिर के अनुसार महाभारत युद्ध २४४९ ईसा पूर्व हुआ था। [12] विश्व विख्यात भारतीय गणितज्ञ एवं खगोलज्ञ आर्यभट के अनुसार महाभारत युद्ध १८ फ़रवरी ३१०२ ईसा पूर्व में हुआ था। [13] चालुक्य राजवंश के सबसे महान सम्राट् पुलकेसि २ के ५वी शताब्दी के ऐहोल अभिलेख में यह बताया गया है कि भारत युद्ध को हुए ३,७३५ वर्ष बीत गए हैं, इस दृष्टि से महाभारत का युद्ध ३१०० ईसा पूर्व लड़ा गया होगा। [14] पुराणों की मानें तो यह युद्ध १९०० ईसा पूर्व हुआ था, पुराणों में दी गई विभिन्न राज वंशावलियों को यदि चन्द्रगुप्त मौर्य से मिला कर देखा जाये तो १९०० ईसा पूर्व की तिथि निकलती है, परन्तु कुछ विद्वानों के अनुसार चन्द्रगुप्त मौर्य १५०० ईसा पूर्व में हुआ था, यदि यह माना जाये तो ३१०० ईसा पूर्व की तिथि निकलती है क्योंकि यूनान के राजदूत मेगस्थनीज ने अपनी पुस्तक "इंडिका" में जिस चन्द्रगुप्त का उल्लेख किया है वो गुप्त वंश का राजा चन्द्रगुप्त भी हो सकता है। [15] अधिकतर पश्चिमी यूरोपीय विद्वानों जैसे मायकल विटजल के अनुसार भारत युद्ध १२०० ईसा पूर्व में हुआ था, जो इसे भारत में लौह युग (१२००-८०० ईसा पूर्व) से जोड़कर देखते हैं। [16] कुछ पश्चिमी यूरोपीय विद्वानों जैसे पी वी होले महाभारत में वर्णित ग्रह-नक्षत्रों की आकाशीय स्थितियों का अध्ययन करने के बाद इसे १३ नवंबर ३१४३ ईसा पूर्व में आरम्भ हुआ मानते हैं। [17] अधिकतर भारतीय विद्वान् जैसे बी ऐन अचर, एन एस राजाराम, के. सदानन्द, सुभाष काक ग्रह-नक्षत्रों की आकाशीय गणनाओं के आधार पर इसे ३०६७ ईसा पूर्व में आरम्भ हुआ मानते हैं। [18] भारतीय विद्वान् पी वी वारटक महाभारत में वर्णित ग्रह-नक्षत्रों की आकाशीय गणनाओं के आधार पर इसे १६ अक्तूबर ५५६१ ईसा पूर्व में आरम्भ हुआ मानते हैं। [17][19] कुछ विद्वानों जैसे पी वी वारटक [17][19] के अनुसार यूनान के राजदूत मेगस्थनीजअपनी पुस्तक "इंडिका" में अपनी भारत यात्रा के समय जमुना (यमुना) के तट पर बसे मेथोरा (मथुरा) राज्य में शूरसेनियों से मिलने का वर्णन करते है, मेगस्थनीज यह बताते है कि ये शूरसेनी किसी हेराकल्स नामक देवता की पुजा करते थे और ये हेराकल्स काफी चमत्कारी पुरुष होता था तथा चन्द्रगुप्त से १३८ पीढ़ियों पहले था। हेराकल्स ने कई विवाह किए और कई पुत्र उत्पन्न किए। परन्तु उसके सभी पुत्र आपस में युद्ध करके मारे गये। यहाँ यह साफ है कि ये हेराकल्स श्रीकृष्ण ही थे, विद्वान् इसे हरिकृष्ण कह कर श्रीकृष्ण से जोडते है क्योंकि श्रीकृष्ण चन्द्रगुप्त से १३८ पीढ़ियों पहले थे तो अगर एक पीढ़ी को २०-३० वर्ष दें तो ३१००-५६०० ईसा पूर्व श्रीकृष्ण का जन्म समय निकलता है अत इस हिसाब से ५६००-३१०० ईसा पूर्व के समय महाभारत का युद्ध हुआ होगा। मोहनजोदड़ो में १९२७ में मैके द्वारा किये गये पुरातात्विक उत्खनन में मिली एक पत्थर की टेबलेट में एक छोटे बालक को दो पेड़ों को खींचता दिखाया गया है और उन पेड़ों से दो पुरुषों को निकलकर उस बालक को प्रणाम करते हुए भी दिखाया गया है, यह दृश्य भगवान श्रीकृष्ण की बचपन की यमलार्जुन-लीला से समानता दिखाता है, अत कई विद्वान् यह मानते है कि मोहनजोदड़ो सभ्यता के लोग महाभारत की कथाओं से परिचित थे। इस कारण भी इस युद्ध को ३००० ईसा पूर्व माना गया है। [20] श्रीकृष्ण द्वारा शांति का अंतिम प्रयास[21] १२ वर्षों के ज्ञातवास और १ वर्ष के अज्ञातवास की शर्त पूरी करने पर भी जब कौरवों ने पाण्डवों को उनका राज्य देने से मना कर दिया तो पाण्डवों को युद्ध करने के लिये बाधित होना पड़ा। परन्तु श्रीकृष्ण ने कहा कि यह युद्ध सम्पूर्ण विश्व सभ्यता के विनाश का कारण बन सकता है अतः उन्होने युद्ध रोकने का हर सम्भव प्रयास करने का सुझाव दिया। श्रीकृष्ण ने कहा कि दुर्योधन को एक अन्तिम अवसर अवश्य देना चाहिए, इसलिये श्रीकृष्ण पाण्डवों की तरफ से कुरुराज्य सभा में शांतिदूत बनकर गये और दुर्योधन से पाण्डवों के सामने केवल पाँच गाँव देकर युद्ध टालने का प्रस्ताव रखा। जब दुर्योधन ने पाण्डवों को सुई की नोंक जितनी भी भूमि देने से मना कर दिया तो श्रीकृष्ण ने उसे समझाया कि दुर्योधन के इस हठ के कारण उसके वंश और साथियों के साथ-साथ कई निर्दोष लोगों को युद्ध की बलि चढ़ना पड़ेगा। इस बात क्रोधित होकर दुर्योधन ने श्रीकृष्ण को बन्दी बनाने की कोशिश की परन्तु श्रीकृष्ण माया का प्रयोग करके सबको अपने विराट रूप से भयभीत कर वहाँ से चले गये। इसके बाद तो युधिष्ठिर को युद्ध करने के लिये विवश होना ही पड़ा। उसी समय भगवान वेदव्यास ने धृतराष्ट्र के पास जाकर कहा कि तुम्हारे पुत्रों ने समस्त गुरुजनों की बातों की अवहेलना करके अन्ततः महाविनाशकारी युद्ध को खड़ा ही कर दिया। धृतराष्ट्र के युद्ध की संसूचना जानने की विनती करने पर वेदव्यास जी ने उन्हे कहा कि यदि तुम इस महायुद्ध को देखना चाहते हो तो मैं तुम्हें दिव्य दृष्टि प्रदान कर सकता हूँ। इस पर धृतराष्ट्र ने कहा कि इसमें मेरे ही कुल का विनाश होना है, इसलिये मैं इस युद्ध अपनी आँखों से नहीं देखूँगा। अतः आप कृपा करके ऐसी व्यवस्था कर दें कि मुझे इस युद्ध का समाचार मिलता रहे। यह सुनकर वेदव्यास जी ने संजय को बुलाकर उसे दिव्य दृष्टि दे दी और कहा, “हे धृतराष्ट्र! मैंने संजय को दिव्य दृष्टि प्रदान कर दिया है। सम्पूर्ण युद्ध क्षेत्र में कोई भी बात ऐसी न रहेगी जो इससे छुपी रहे। यह तुम्हें इस महायुद्ध का सारा वृत्तान्त सुनायेगा।” इतना कहकर वेदव्यास जी चले गये। युद्ध की तैयारियाँ और कुरुक्षेत्र की ओर प्रस्थान[22] जब यह निश्चित हो गया कि युद्ध तो होगा ही, तो दोनों पक्षों ने युद्ध के लिए तैयारियाँ शुरू कर दीं। दुर्योधन पिछ्ले १३ वर्षों से ही युद्ध की तैयारी कर रहा था, उसने बलराम जी से गदा युद्ध की शिक्षा प्राप्त की तथा कठिन परिश्रम और अभ्यास से गदा युद्ध करने में भीम से भी अच्छा हो गया। शकुनि ने इन वर्षों मे की विश्व के अधिकतर जनपदों को अपनी तरफ कर लिया। दुर्योधन कर्ण को अपनी सेना का सेनापति बनाना चाहता था परन्तु शकुनि के समझाने पर दुर्योधन ने पितामह भीष्म को अपनी सेना का सेनापति बनाया, जिसके कारण भारत और विश्व के कई जनपद दुर्योधन के पक्ष मे हो गये। पाण्डवों की तरफ केवल वही जनपद थे जो धर्म और श्रीकृष्ण के पक्ष मे थे। महाभारत के अनुसार महाभारत काल में कुरुराज्य विश्व का सबसे बड़ा और शक्तिशाली जनपद था। विश्व के सभी जनपद कुरुराज्य से कभी युद्ध करने की भूल नहीं करते थे एवं सौहार्दपूर्ण संबंध बनाए रखते थे। अत: सभी जनपद कुरुओं द्वारा लाभान्वित होने के लोभ से युद्ध में उनकी सहायता करने के लिये तैयार हो गये। पाण्डवों और कौरवों द्वारा यादवों से सहायता मांगने पर श्रीकृष्ण ने पहले तो युद्ध में शस्त्र न उठाने की प्रतिज्ञा की और फिर कहा कि "एक तरफ मैं अकेला और दूसरी तरफ मेरी एक अक्षौहिणी नारायणी सेना", अब अर्जुन व दुर्योधन को इनमें से एक का चुनाव करना था। अर्जुन ने तो श्रीकृष्ण को ही चुना, तब श्रीकृष्ण ने अपनी एक अक्षौहिणी सेना दुर्योधन को दे दी और खुद अर्जुन का सारथि बनना स्वीकार किया। इस प्रकार कौरवों ने ११ अक्षौहिणी तथा पाण्डवों ने ७ अक्षौहिणी सेना एकत्रित कर ली। फिर श्रीकृष्ण ने कर्ण से मिलकर उसे यह समझाया कि वह पाण्डवों का ही भाई है अतः वह पाण्डवों की तरफ से युद्ध करे, परन्तु कर्ण ने दुर्योधन के ऋण और मित्रता के कारण कौरवों का साथ नहीं छोड़ा। इसके बाद कुन्ती के विनती करने पर कर्ण ने अर्जुन को छोड़कर उसके शेष चार पुत्रों को अवसर प्राप्त होने पर भी न मारने का वचन दिया। इधर इन्द्र ने भी ब्राह्मण का वेष बनाकर कर्ण से उसके कवच और कुण्डल ले लिये। जिससे कर्ण की शक्ति कम हो गयी और पाण्डवों का उत्साह बढ़ गया क्योंकि उस अभेद्य कवच के कारण कर्ण को किसी भी दिव्यास्त्र से मारा नहीं जा सकता था। सेना विभाग एवं संरचनाएँ, हथियार और युद्ध सामग्री दोनों पक्षों की सेनाएँ [23] सेना विभाग पाण्डवों और कौरवों ने अपनी सेना के क्रमशः ७ और ११ विभाग अक्षौहिणी में किये। एक अक्षौहिणी में २१, ८७० रथ, २१, ८७० हाथी, ६५, ६१० सवार और १,०९,३५० पैदल सैनिक होते हैं।[24][25] यह प्राचीन भारत में सेना का माप हुआ करता था। हर रथ में चार घोड़े और उनका सारथि होता है हर हाथी पर उसका हाथीवान बैठता है और उसके पीछे उसका सहायक जो कुर्सी के पीछे से हाथी को अंकुश लगाता है, कुर्सी में उसका मालिक धनुष-बाण से सज्जित होता है और उसके साथ उसके दो साथी होते हैं जो भाले फेंकते हैं तदनुसार जो लोग रथों और हाथियों पर सवार होते हैं उनकी संख्या २, ८४, ३२३ होती हैं एक अक्षौहिणी सेना में समस्त जीवधारियों- हाथियों, घोड़ों और मनुष्यों-की कुल संख्या ६, ३४, २४३ होती हैं, अतः १८ अक्षौहिणी सेना में समस्त जीवधारियों- हाथियों, घोड़ों और मनुष्यों-की कुल संख्या १, १४, १६, ३७४ होगी। अठारह अक्षौहिणियों के लिए यही संख्या ११, ४१६ ,३७४ हो जाती है अर्थात ३, ९३, ६६० हाथी, २७, ५५, ६२० घोड़े, ८२, ६७, ०९४ मनुष्य।[26] महाभारत युद्ध में भाग लेने वाली कुल सेना निम्नलिखित है[26] कुल पैदल सैनिक-१९, ६८, ३०० कुल रथ सेना-३, ९३, ६६० कुल हाथी सेना-३, ९३, ६६० कुल घुड़सवार सेना-११, ८०, ९८० कुल न्यूनतम सेना-३९,०६,६०० कुल अधिकतम सेना-१, १४, १६, ३७४ यह सेना उस समय के अनुसार देखने में बहुत बड़ी लगती है परन्तु जब ३२३ ईसा पूर्व यूनानी राजदूत मेगस्थनीज भारत आया था तो उसने चन्द्रगुप्त जो कि उस समय भारत का सम्राट् था, के पास ३०,००० रथों, ९००० हाथियों तथा ६,००,००० पैदल सैनिकों से युक्त सेना देखी। अतः चन्द्रगुप्त की कुल सेना उस समय ६, ३९, ००० के आस पास थी [27][28], जिसके कारण सिकंदर ने भारत पर आक्रमण करने का विचार छोड़ दिया था और पुनः अपने देश लौट गया था। यह सेना प्रामाणिक तौर पर प्राचीन विश्व इतिहास की सबसे विशाल सेना मानी जाती है। यह तो सिर्फ एक राज्य मगध की सेना थी, अगर समस्त भारतीय राज्यों की सेनाएँ देखें तो संख्या में एक बहुत विशाल सेना बन जायेगी। अतः महाभारत काल में जब भारत बहुत समृद्ध देश था, इतनी विशाल सेना का होना कोई आश्चर्य की बात नहीं, जिसमें की सम्पूर्ण भारत देश के साथ साथ अनेक अन्य विदेशी जनपदों ने भी भाग लिया था। हथियार और युद्ध सामग्री महाभारत के युद्ध मे कई तरीके के हथियार प्रयोग मे लाये गये। प्रास, ऋष्टि, तोमर, लोहमय कणप, चक्र, मुद्गर, नाराच, फरसे, गोफन, भुशुण्डी, शतघ्नी, धनुष-बाण, गदा, भाला, तलवार, परिघ, भिन्दिपाल, शक्ति, मुसल, कम्पन, चाप, दिव्यास्त्र, एक साथ कई बाण छोड़ने वाली यांत्रिक मशीनें।[29] प्राचीन कांस्य युग के अस्त्र-शस्त्र कांस्य युग की तलवार लखनऊ के दादुपुर गाँव मे उत्खनन मे प्राप्त १८०० ईसा पूर्व का लोहे के बाण का भाग एक साथ कई बाण छोड़ने वाली यांत्रिक मशीनें सैन्य संरचनाएँ प्राचीन समय में युद्ध के के समय में सेनापति को सेना के कई व्यूह बनाने पड़ते थे जिससे की शत्रु की सेना में आसानी से प्रवेश पाया जा सके तथा राजा और मुख्य सेनापतियों को बन्दी बनाया या मार गिराया जा सके। इसमें अपनी सम्पूर्ण सेना को व्यूह के नाम या गुण वाली एक विशेष आकृति मे व्यवस्थित किया जाता है। इस प्रकार की व्यूह रचना से छोटी से छोटी सी सेना भी विशालकाय लगने लगती है और बड़ी से बड़ी सेना का सामना कर सकती है जैसा की महाभारत के युद्ध में पाण्डवों की केवल ७ अक्षौहिणी सेना ने कौरवो की ११ अक्षौहिणी सेना का सामना करके यह सिद्ध कर दिखाया। महाभारत के १८ दिन के युद्ध में दोनों पक्ष के सेनापतियों द्वारा कई प्रकार के व्यूह बनाये गए। जो निम्नलिखित हैं- चक्रव्यूह के गठन का चित्रण प्राचीन शिलाचित्र जिसमें अभिमन्यु चक्र व्यूह में प्रवेश करता हुआ दिखाया गया है महाभारत काल के सबसे शक्तिशाली योद्धा[30] युद्ध का प्रारम्भ और अंत युद्ध की तैयारियाँ पूर्ण करने के बाद कौरव और पाण्डव दोनों दल कुरुक्षेत्र पहँचे। पाण्डवों ने कुरुक्षेत्र के पश्चिमी क्षेत्र में सरस्वती नदी के दक्षिणी तट पर बसे समन्तपंचक तीर्थ से बहुत दूर हिरण्यवती नदी (सरस्वती की ही एक सहायक धारा) के तट के पास अपना पड़ाव डाला और कौरवो ने कुरुक्षेत्र के पूर्वी भाग मे वहाँ से कुछ योजन की दूरी पर एक समतल मैदान मे अपना पड़ाव डाला। दोनों पक्षों ने वहाँ चिकने और समतल प्रदेशों मे जहाँ घास और ईंधन की अधिकता थी, अपनी सेना का पड़ाव डाला। युधिष्ठिर ने देवमंदिरों, तीर्थों और महर्षियों के आश्रमों से बहुत दूर हिरण्यवती नदी के तट के समीप हजारों सैन्य शिविर लगवाये। वहाँ प्रत्येक शिविर में प्रचुर मात्रा में खाद्य सामग्री, अस्त्र-शस्त्र, यन्त्र और कई वैद्य और शिल्पी वेतन देकर रखे गये। दुर्योधन ने भी इसी तरह हजारों पड़ाव डाले [32] वहाँ केवल दोनों सेनाओ के बीच में युद्ध के लिये ५ योजन का घेरा छोड़ दिया गया था। [33] फिर अगले दिन प्रातः दोनों पक्षो की सेनाएँ एक दूसरे के आमने-सामने आकर खड़ी हो गयीं। युद्ध के नियम बनाये जाना पाण्डवों ने अपनी सेना का पड़ाव समन्त्र पंचक तीर्थ पास डाला और कौरवों ने उत्तम और समतल स्थान देखकर अपना पड़ाव डाला। उस संग्राम में हाथी, घोड़े और रथों की कोई गणना नहीं थी। पितामह भीष्म की सलाह पर दोनों दलों ने एकत्र होकर युद्ध के कुछ नियम बनाये। उनके बनाये हुए नियम निम्नलिखित हैं- युद्ध से पूर्व इस प्रकार युद्ध संबंधी नियम बना कर दोनों दल युद्ध के लिये प्रस्तुत हुए। पाण्डवों के पास सात अक्षौहिणी सेना थी और कौरवों के साथ ग्यारह अक्षौहिणी सेना थी। दोनों पक्ष की सेनाएँ पूर्व तथा पश्‍चिम की ओर मुख करके खड़ी हो गयीं। कौरवों की तरफ से भीष्म और पाण्डवों की तरफ से अर्जुन सेना का प्रतिनिधित्व कर रहे थे। कुरुक्षेत्र के केवल ५ योजन (४० किलोमीटर) के क्षेत्र के घेरे मे दोनों पक्ष की सेनाएँ खड़ी थीं। [34] युद्ध से पूर्व अर्जुन श्रीकृष्ण से अपने रथ दोनों सेनाओं के मध्य में ले जाने को कहते हैं जिससे वह यह देख ले कि युद्ध में उसे किन किन योद्धाओं का सामना करना है। जब अर्जुन युद्ध क्षेत्र में अपने गुरु द्रोण, पितामह भीष्म एवं अन्य संबंधियों को देखता है तो वह बहुत शोकग्रस्त एवं उदास हो जाता है। वह श्रीकृष्ण से कहता है कि जिनके लिये हम ये सारे राजभोग प्राप्त करना चाहते हैं, वे तो यहाँ इस युद्ध क्षेत्र में उसी राजभोग की प्राप्ति के लिये हमारे विपक्ष मे खड़े हैं इन्हें मारकर हम राज प्राप्त करके भी क्या करेगें। अतएव मैं युद्ध नहीं करूँगा, ऐसा कहकर अर्जुन अपने धनुष रखकर रथ के पिछले भाग में बैठ जाता है तब श्रीकृष्ण योग में स्थित होकर उसे गीता का ज्ञान देते हैं और कहते हैं कि संसार में जो आया है उसको एक ना एक दिन जाना ही पड़ेगा। यह शरीर और संसार दोनों नश्वर हैं परन्तु इस शरीर के अन्दर रहने वाला आत्मा शरीर के मरने पर भी नहीं मरता। जिस तरह मनुष्य पुराने वस्त्र त्याग कर नये वस्त्र पहनता है उसी प्रकार आत्मा भी पुराना शरीर त्याग कर नया शरीर धारण करती है इसको तुम ऐसे समझो कि यह सब प्रकृति तुम से करवा रहीं है तुम केवल निमित्त मात्र हो। श्रीकृष्ण अर्जुन को ज्ञान योग,भक्ति योग और कर्म योग तीनों की शिक्षा देते हैं जिसे सुनकर अर्जुन युद्ध के लिये तैयार हो जाता है। युद्ध का विवरण एवं घटनाक्रम कुरुक्षेत्र युद्ध के परिणाम महाभारत एवं अन्य पौराणिक ग्रंथों के अनुसार यह युद्ध भारत वंशियों के साथ-साथ अन्य कई महान वंशों तथा वैदिक ज्ञान विज्ञान के पतन का कारण बना। महाभारत में वर्णित इस युद्ध के कुछ मुख्य परिणाम निम्न लिखित हैं- नकारात्मक फल यह युद्ध प्राचीन भारत के इतिहास का सबसे विध्वंसकारी और विनाशकारी युद्ध सिद्ध हुआ। इस युद्ध के बाद भारतवर्ष की भूमि लम्बें समय तक वीर क्षत्रियों से विहीन रही। इस युद्ध में लाखों वीर योद्धा मारे गये। गांधारी के शापवश यादवों के वंश का भी विनाश हो गया। लगभग सभी यादव आपसी युद्ध में मारे गये, जिसके बाद श्रीकृष्ण ने भी इस धरती से प्रयाण किया। इस युद्ध के समापन एवं श्रीकृष्ण के महाप्रयाण के साथ ही वैदिक युग एवं सभ्यता के अंत का आरम्भ हुआ, भारत से वैदिक ज्ञान और विज्ञान का लोप होने लगा। जिसे पौराणिक विद्वानों ने कलियुग के आगमन से जोड़ा। पूरे भारतवर्ष में सम्पूर्ण जनपदों की अर्थव्यवस्था बहुत खराब हो गयी, भारत में गरीबी के साथ साथ अज्ञानता फैल गयी। भविष्य पुराण के अनुसार इस युद्ध के बाद भारत में निरन्तर शतियों तक विदेशियों (मलेच्छों) के आक्रमण होते रहे, कुरुवंश के अंतिम राजा क्षेमक भी मलेच्छों से युद्ध करते हुए मारे गये, जिसके बाद तो यह आर्यावर्त देश सब प्रकार से क्षीण हो गया, कलियुग के बढ़ते प्रभाव को देखकर तथा सरस्वती नदी के लुप्त हो जाने पर लगभग ८८००० वैदिक ऋषि-मुनि हिमालय चले गये और इस प्रकार भारतवर्ष ऋषि-मुनियों के ज्ञान एवं विज्ञान से भी हीन हो गया। समस्त ऋषि-मुनियों के चले जाने पर भारत में धर्म का नेतृत्व ब्राह्मण करने लगे, जो पहले केवल यज्ञ करते थे एवं वेदों का अध्ययन करते थे। ब्राह्मणों ने वैदिक धर्म को लम्बे समय तक बचाये रखा, परन्तु पौराणिक ग्रंथों में दिये वर्णन के अनुसार कलियुग के प्रभाव से ब्राह्मण वर्ग भी नहीं बच पाया और उनमें से कुछ दूषित एवं भ्रष्ट हो गये, मंत्रों का सही तरीके से उच्चारण करने की विधि भूल जाने के कारण वैदिक मंत्रों का दिव्य प्रभाव भी सीमित रह गया। कुछ भ्रष्ट ब्राह्मणों ने बाद के समाज में कई कुरीतियाँ एवं प्रथाएँ चला दी, जिसके कारण क्षुद्र एवं पिछड़े वर्ग का शोषण होने लगा एवं सतीप्रथा, छुआछूत जैसी प्रथाओं ने जन्म लिया। [35] परन्तु कई ब्राह्मणों ने कठोर तप एवं नियमों का पालन करते हुए कलियुग के प्रभाव के बावजूद वैदिक सभ्यता को किसी न किसी अंश में जीवित रखा, जिसके कारण आज भी ऋग्वेद एवं अन्य वैदिक ग्रंथ सहस्रों वर्षों बाद लगभग उसी रूप में उपलब्ध हैं। सकारात्मक फल इस युद्ध का एक सकारात्मक फल पूरी मानव जाति को श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को सुनायी गयी ज्ञानरूपी वाणी श्रीमद्भगवद्गीता के रूप में प्राप्त हुआ। इस युद्ध के बाद युधिष्ठिर के राज्य-अभिषेक के साथ धरती पर धर्म के राज्य की स्थापना हुई। महाभारत युद्ध के बाद का भारतीय राजवंश [36][37][38][39] हिन्दू परम्पराओं एवं पुराणों में दी गयी प्राचीन राजवंशों की सूची के आधार पर तथा अन्य वैदिक ग्रंथों में दी गयी ज्योतिषीय गणनाओं के आधार पर महाभारत काल के बाद का प्राचीन भारतीय राजवंश ऐतिहासिक घटना कालक्रम में निम्नलिखित है- सन्दर्भ और टीका बाहरी कड़ियाँ -इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र -यहाँ वैदिक साहित्य एवं स्थलों के बारे में जानकारी प्राप्त करें - यहाँ चारों वेद एवं दस से अधिक पुराण हिन्दी अर्थ सहित उपलब्ध हैं। पुराणों को यहाँ सुना भी जा सकता है। -यहाँ सम्पूर्ण वैदिक साहित्य संस्कृत में उपलब्ध है। - वेद, अरण्यक, उपनिषद् आदि पर सम्यक् जानकारी श्रेणी:कुरुक्षेत्र श्रेणी:महाभारत श्रेणी:महाभारत कथा श्रेणी:भारत का इतिहास श्रेणी:वैदिक धर्म श्रेणी:पौराणिक कथाएँ
महाभारत का युद्ध कितने दिनों तक चला था?
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कुरुक्षेत्र युद्ध कौरवों और पाण्डवों के मध्य कुरु साम्राज्य के सिंहासन की प्राप्ति के लिए लड़ा गया था। महाभारत के अनुसार इस युद्ध में भारत के प्रायः सभी जनपदों ने भाग लिया था। महाभारत व अन्य वैदिक साहित्यों के अनुसार यह प्राचीन भारत में वैदिक काल के इतिहास का सबसे बड़ा युद्ध था। [1] इस युद्ध में लाखों क्षत्रिय योद्धा मारे गये जिसके परिणामस्वरूप वैदिक संस्कृति तथा सभ्यता का पतन हो गया था। इस युद्ध में सम्पूर्ण भारतवर्ष के राजाओं के अतिरिक्त बहुत से अन्य देशों के क्षत्रिय वीरों ने भी भाग लिया और सब के सब वीर गति को प्राप्त हो गये। [2] इस युद्ध के परिणामस्वरुप भारत में ज्ञान और विज्ञान दोनों के साथ-साथ वीर क्षत्रियों का अभाव हो गया। एक तरह से वैदिक संस्कृति और सभ्यता जो विकास के चरम पर थी उसका एकाएक विनाश हो गया। प्राचीन भारत की स्वर्णिम वैदिक सभ्यता इस युद्ध की समाप्ति के साथ ही समाप्त हो गयी। इस महान युद्ध का उस समय के महान ऋषि और दार्शनिक भगवान वेदव्यास ने अपने महाकाव्य महाभारत में वर्णन किया, जिसे सहस्राब्दियों तक सम्पूर्ण भारतवर्ष में गाकर एवं सुनकर याद रखा गया। [3] महाभारत में मुख्यतः चंद्रवंशियों के दो परिवार कौरव और पाण्डव के बीच हुए युद्ध का वृत्तांत है। १०० कौरवों और पाँच पाण्डवों के बीच कुरु साम्राज्य की भूमि के लिए जो संघर्ष चला उससे अंतत: महाभारत युद्ध का सृजन हुआ। उक्त युद्ध को हरियाणा में स्थित कुरुक्षेत्र के आसपास हुआ माना जाता है। इस युद्ध में पाण्डव विजयी हुए थे। [1] महाभारत में इस युद्ध को धर्मयुद्ध कहा गया है, क्योंकि यह सत्य और न्याय के लिए लड़ा जाने वाला युद्ध था। [2] महाभारत काल से जुड़े कई अवशेष दिल्ली में पुराना किला में मिले हैं। पुराना किला को पाण्डवों का किला भी कहा जाता है।[4] कुरुक्षेत्र में भी भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग द्वारा महाभारत काल के बाण और भाले प्राप्त हुए हैं।[5] गुजरात के पश्चिमी तट पर समुद्र में डूबे ७०००-३५०० वर्ष पुराने शहर खोजे गये हैं[6], जिनको महाभारत में वर्णित द्वारका के सन्दर्भों से जोड़ा गया[7], इसके अलावा बरनावा में भी लाक्षागृह के अवशेष मिले हैं[8], ये सभी प्रमाण महाभारत की वास्तविकता को सिद्ध करते हैं। पृष्ठभूमि महाभारत युद्ध होने का मुख्य कारण कौरवों की उच्च महत्वाकांक्षाएँ और धृतराष्ट्र का पुत्र मोह था। कौरव और पाण्डव आपस में सहोदर भाई थे। वेदव्यास जी से नियोग के द्वारा विचित्रवीर्य की भार्या अम्बिका के गर्भ से धृतराष्ट्र और अम्बालिका के गर्भ से पाण्डु उत्पन्न हुए। धृतराष्ट्र ने गान्धारी के गर्भ से सौ पुत्रों को जन्म दिया, उनमें दुर्योधन सबसे बड़ा था। पाण्डु के युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव आदि पाँच पुत्र हुए| धृतराष्ट्र जन्म से ही नेत्रहीन थे अतः उनकी जगह पर पाण्डु को राज दिया गया जिससे धृतराष्ट्र को सदा पाण्डु और उसके पुत्रों से द्वेष रहने लगा। यह द्वेष दुर्योधन के रूप मे फलीभूत हुआ और शकुनि ने इस आग में घी का काम किया। शकुनि के कहने पर दुर्योधन ने बचपन से लेकर लाक्षागृह तक कई षडयंत्र किये। परन्तु हर बार वो विफल रहा। युवावस्था में आने पर जब युधिष्ठिर को युवराज बना दिया गया तो उसने उन्हें लाक्षागृह भिजवाकर मारने की कोशिश की परन्तु पाण्डव बच निकले। पाण्डवों की अनुपस्थिति में धृतराष्ट्र ने दुर्योधन को युवराज बना दिया परन्तु जब पाण्डवों ने वापिस आकर अपना राज्य वापिस मांगा तो उन्हें राज्य के नाम पर खण्डहर रुपी खाण्डव वन दिया गया। धृतराष्ट्र के अनुरोध पर गृहयुद्ध के संकट से बचने के लिए युधिष्ठिर ने यह प्रस्ताव भी स्वीकार कर लिया। पाण्डवों ने श्रीकृष्ण की सहायता से इन्द्र की अमारावती पुरी जितनी भव्य नगरी इन्द्रप्रस्थ का निर्माण किया। पाण्डवों ने विश्वविजय करके प्रचुर मात्रा में रत्न एवं धन एकत्रित किया और राजसूय यज्ञ किया। दुर्योधन पाण्डवों की उन्नति देख नहीं पाया और शकुनि के सहयोग से द्यूत में छ्ल से युधिष्ठिर से उसका सारा राज्य जीत लिया और कुरु राज्य सभा में द्रौपदी को निर्वस्त्र करने का प्रयास कर उसे अपमानित किया। सम्भवतः इसी दिन महाभारत के युद्ध के बीज पड़ गये थे। अन्ततः पुनः द्यूत में हारकर पाण्डवों को १२ वर्षो को ज्ञातवास और १ वर्ष का अज्ञातवास स्वीकार करना पड़ा। परन्तु जब यह शर्त पूरी करने पर भी कौरवों ने पाण्डवों को उनका राज्य देने से मना कर दिया। तो पाण्डवों को युद्ध करने के लिये बाधित होना पड़ा, परन्तु श्रीकृष्ण ने युद्ध रोकने का हर सम्भव प्रयास करने का सुझाव दिया। तब श्रीकृष्ण पाण्डवों की तरफ से कुरुराज्य सभा में शांतिदूत बनकर गये और वहाँ श्रीकृष्ण ने दुर्योधन से पाण्डवों को केवल पाँच गाँव देकर युद्ध टालने का प्रस्ताव रखा। परन्तु जब दुर्योधन ने पाण्डवों को सुई की नोंक जितनी भी भूमि देने से मना कर दिया तो अन्ततः युधिष्ठिर को युद्ध करने के लिये बाधित होना पड़ा। इस प्रकार कौरवों ने ११ अक्षौहिणी तथा पाण्डवों ने ७ अक्षौहिणी सेना एकत्रित कर ली। युद्ध की तैयारियाँ पूर्ण करने के बाद कौरव और पाण्डव दोनों दल कुरुक्षेत्र पहुँचे, जहाँ यह भयंकर युद्ध लड़ा गया [9] कुरुक्षेत्र के उस भयानक और घमासान संहारक युद्ध का अनुमान महाभारत के भीष्म पर्व में दिये एक श्लोक [10] से लगाया जा सकता है कि “ न पुत्रः पितरं जज्ञे पिता वा पुत्रमौरसम्।भ्राता भ्रातरं तत्र स्वस्रीयं न च मातुलः॥ „ “ अर्थात्:उस युद्ध में न पुत्र पिता को, न पिता पुत्र को, न भाई भाई को, न मामा भांजे को, न मित्र मित्र को पहचानता था' „ ऐतिहासिकता महाभारत युद्ध को आमतौर पर वैदिक युग में लगभग 950 ईसा पूर्व के समय का माना जाता है।[11] अधिकतर पश्चिमी विद्वान् इसे १००० ईसा पूर्व से १५०० ईसा पूर्व मानते है विद्वानों ने इसकी तिथि निर्धारित करने के लिये इसमें वर्णित सूर्य ग्रहण और चंद्र ग्रहणों के बारे में अध्ययन किया है और इसे ३१ वीं सदी ईसा पूर्व का मानते हैं, लेकिन मतभेद अभी भी जारी है। इसकी कई भारतीय और पश्चिमी विद्वानों द्वारा भिन्न-भिन्न तिथियाँ निर्धारित की गयी हैं- विश्व विख्यात भारतीय गणितज्ञ एवं खगोलज्ञ वराहमिहिर के अनुसार महाभारत युद्ध २४४९ ईसा पूर्व हुआ था। [12] विश्व विख्यात भारतीय गणितज्ञ एवं खगोलज्ञ आर्यभट के अनुसार महाभारत युद्ध १८ फ़रवरी ३१०२ ईसा पूर्व में हुआ था। [13] चालुक्य राजवंश के सबसे महान सम्राट् पुलकेसि २ के ५वी शताब्दी के ऐहोल अभिलेख में यह बताया गया है कि भारत युद्ध को हुए ३,७३५ वर्ष बीत गए हैं, इस दृष्टि से महाभारत का युद्ध ३१०० ईसा पूर्व लड़ा गया होगा। [14] पुराणों की मानें तो यह युद्ध १९०० ईसा पूर्व हुआ था, पुराणों में दी गई विभिन्न राज वंशावलियों को यदि चन्द्रगुप्त मौर्य से मिला कर देखा जाये तो १९०० ईसा पूर्व की तिथि निकलती है, परन्तु कुछ विद्वानों के अनुसार चन्द्रगुप्त मौर्य १५०० ईसा पूर्व में हुआ था, यदि यह माना जाये तो ३१०० ईसा पूर्व की तिथि निकलती है क्योंकि यूनान के राजदूत मेगस्थनीज ने अपनी पुस्तक "इंडिका" में जिस चन्द्रगुप्त का उल्लेख किया है वो गुप्त वंश का राजा चन्द्रगुप्त भी हो सकता है। [15] अधिकतर पश्चिमी यूरोपीय विद्वानों जैसे मायकल विटजल के अनुसार भारत युद्ध १२०० ईसा पूर्व में हुआ था, जो इसे भारत में लौह युग (१२००-८०० ईसा पूर्व) से जोड़कर देखते हैं। [16] कुछ पश्चिमी यूरोपीय विद्वानों जैसे पी वी होले महाभारत में वर्णित ग्रह-नक्षत्रों की आकाशीय स्थितियों का अध्ययन करने के बाद इसे १३ नवंबर ३१४३ ईसा पूर्व में आरम्भ हुआ मानते हैं। [17] अधिकतर भारतीय विद्वान् जैसे बी ऐन अचर, एन एस राजाराम, के. सदानन्द, सुभाष काक ग्रह-नक्षत्रों की आकाशीय गणनाओं के आधार पर इसे ३०६७ ईसा पूर्व में आरम्भ हुआ मानते हैं। [18] भारतीय विद्वान् पी वी वारटक महाभारत में वर्णित ग्रह-नक्षत्रों की आकाशीय गणनाओं के आधार पर इसे १६ अक्तूबर ५५६१ ईसा पूर्व में आरम्भ हुआ मानते हैं। [17][19] कुछ विद्वानों जैसे पी वी वारटक [17][19] के अनुसार यूनान के राजदूत मेगस्थनीजअपनी पुस्तक "इंडिका" में अपनी भारत यात्रा के समय जमुना (यमुना) के तट पर बसे मेथोरा (मथुरा) राज्य में शूरसेनियों से मिलने का वर्णन करते है, मेगस्थनीज यह बताते है कि ये शूरसेनी किसी हेराकल्स नामक देवता की पुजा करते थे और ये हेराकल्स काफी चमत्कारी पुरुष होता था तथा चन्द्रगुप्त से १३८ पीढ़ियों पहले था। हेराकल्स ने कई विवाह किए और कई पुत्र उत्पन्न किए। परन्तु उसके सभी पुत्र आपस में युद्ध करके मारे गये। यहाँ यह साफ है कि ये हेराकल्स श्रीकृष्ण ही थे, विद्वान् इसे हरिकृष्ण कह कर श्रीकृष्ण से जोडते है क्योंकि श्रीकृष्ण चन्द्रगुप्त से १३८ पीढ़ियों पहले थे तो अगर एक पीढ़ी को २०-३० वर्ष दें तो ३१००-५६०० ईसा पूर्व श्रीकृष्ण का जन्म समय निकलता है अत इस हिसाब से ५६००-३१०० ईसा पूर्व के समय महाभारत का युद्ध हुआ होगा। मोहनजोदड़ो में १९२७ में मैके द्वारा किये गये पुरातात्विक उत्खनन में मिली एक पत्थर की टेबलेट में एक छोटे बालक को दो पेड़ों को खींचता दिखाया गया है और उन पेड़ों से दो पुरुषों को निकलकर उस बालक को प्रणाम करते हुए भी दिखाया गया है, यह दृश्य भगवान श्रीकृष्ण की बचपन की यमलार्जुन-लीला से समानता दिखाता है, अत कई विद्वान् यह मानते है कि मोहनजोदड़ो सभ्यता के लोग महाभारत की कथाओं से परिचित थे। इस कारण भी इस युद्ध को ३००० ईसा पूर्व माना गया है। [20] श्रीकृष्ण द्वारा शांति का अंतिम प्रयास[21] १२ वर्षों के ज्ञातवास और १ वर्ष के अज्ञातवास की शर्त पूरी करने पर भी जब कौरवों ने पाण्डवों को उनका राज्य देने से मना कर दिया तो पाण्डवों को युद्ध करने के लिये बाधित होना पड़ा। परन्तु श्रीकृष्ण ने कहा कि यह युद्ध सम्पूर्ण विश्व सभ्यता के विनाश का कारण बन सकता है अतः उन्होने युद्ध रोकने का हर सम्भव प्रयास करने का सुझाव दिया। श्रीकृष्ण ने कहा कि दुर्योधन को एक अन्तिम अवसर अवश्य देना चाहिए, इसलिये श्रीकृष्ण पाण्डवों की तरफ से कुरुराज्य सभा में शांतिदूत बनकर गये और दुर्योधन से पाण्डवों के सामने केवल पाँच गाँव देकर युद्ध टालने का प्रस्ताव रखा। जब दुर्योधन ने पाण्डवों को सुई की नोंक जितनी भी भूमि देने से मना कर दिया तो श्रीकृष्ण ने उसे समझाया कि दुर्योधन के इस हठ के कारण उसके वंश और साथियों के साथ-साथ कई निर्दोष लोगों को युद्ध की बलि चढ़ना पड़ेगा। इस बात क्रोधित होकर दुर्योधन ने श्रीकृष्ण को बन्दी बनाने की कोशिश की परन्तु श्रीकृष्ण माया का प्रयोग करके सबको अपने विराट रूप से भयभीत कर वहाँ से चले गये। इसके बाद तो युधिष्ठिर को युद्ध करने के लिये विवश होना ही पड़ा। उसी समय भगवान वेदव्यास ने धृतराष्ट्र के पास जाकर कहा कि तुम्हारे पुत्रों ने समस्त गुरुजनों की बातों की अवहेलना करके अन्ततः महाविनाशकारी युद्ध को खड़ा ही कर दिया। धृतराष्ट्र के युद्ध की संसूचना जानने की विनती करने पर वेदव्यास जी ने उन्हे कहा कि यदि तुम इस महायुद्ध को देखना चाहते हो तो मैं तुम्हें दिव्य दृष्टि प्रदान कर सकता हूँ। इस पर धृतराष्ट्र ने कहा कि इसमें मेरे ही कुल का विनाश होना है, इसलिये मैं इस युद्ध अपनी आँखों से नहीं देखूँगा। अतः आप कृपा करके ऐसी व्यवस्था कर दें कि मुझे इस युद्ध का समाचार मिलता रहे। यह सुनकर वेदव्यास जी ने संजय को बुलाकर उसे दिव्य दृष्टि दे दी और कहा, “हे धृतराष्ट्र! मैंने संजय को दिव्य दृष्टि प्रदान कर दिया है। सम्पूर्ण युद्ध क्षेत्र में कोई भी बात ऐसी न रहेगी जो इससे छुपी रहे। यह तुम्हें इस महायुद्ध का सारा वृत्तान्त सुनायेगा।” इतना कहकर वेदव्यास जी चले गये। युद्ध की तैयारियाँ और कुरुक्षेत्र की ओर प्रस्थान[22] जब यह निश्चित हो गया कि युद्ध तो होगा ही, तो दोनों पक्षों ने युद्ध के लिए तैयारियाँ शुरू कर दीं। दुर्योधन पिछ्ले १३ वर्षों से ही युद्ध की तैयारी कर रहा था, उसने बलराम जी से गदा युद्ध की शिक्षा प्राप्त की तथा कठिन परिश्रम और अभ्यास से गदा युद्ध करने में भीम से भी अच्छा हो गया। शकुनि ने इन वर्षों मे की विश्व के अधिकतर जनपदों को अपनी तरफ कर लिया। दुर्योधन कर्ण को अपनी सेना का सेनापति बनाना चाहता था परन्तु शकुनि के समझाने पर दुर्योधन ने पितामह भीष्म को अपनी सेना का सेनापति बनाया, जिसके कारण भारत और विश्व के कई जनपद दुर्योधन के पक्ष मे हो गये। पाण्डवों की तरफ केवल वही जनपद थे जो धर्म और श्रीकृष्ण के पक्ष मे थे। महाभारत के अनुसार महाभारत काल में कुरुराज्य विश्व का सबसे बड़ा और शक्तिशाली जनपद था। विश्व के सभी जनपद कुरुराज्य से कभी युद्ध करने की भूल नहीं करते थे एवं सौहार्दपूर्ण संबंध बनाए रखते थे। अत: सभी जनपद कुरुओं द्वारा लाभान्वित होने के लोभ से युद्ध में उनकी सहायता करने के लिये तैयार हो गये। पाण्डवों और कौरवों द्वारा यादवों से सहायता मांगने पर श्रीकृष्ण ने पहले तो युद्ध में शस्त्र न उठाने की प्रतिज्ञा की और फिर कहा कि "एक तरफ मैं अकेला और दूसरी तरफ मेरी एक अक्षौहिणी नारायणी सेना", अब अर्जुन व दुर्योधन को इनमें से एक का चुनाव करना था। अर्जुन ने तो श्रीकृष्ण को ही चुना, तब श्रीकृष्ण ने अपनी एक अक्षौहिणी सेना दुर्योधन को दे दी और खुद अर्जुन का सारथि बनना स्वीकार किया। इस प्रकार कौरवों ने ११ अक्षौहिणी तथा पाण्डवों ने ७ अक्षौहिणी सेना एकत्रित कर ली। फिर श्रीकृष्ण ने कर्ण से मिलकर उसे यह समझाया कि वह पाण्डवों का ही भाई है अतः वह पाण्डवों की तरफ से युद्ध करे, परन्तु कर्ण ने दुर्योधन के ऋण और मित्रता के कारण कौरवों का साथ नहीं छोड़ा। इसके बाद कुन्ती के विनती करने पर कर्ण ने अर्जुन को छोड़कर उसके शेष चार पुत्रों को अवसर प्राप्त होने पर भी न मारने का वचन दिया। इधर इन्द्र ने भी ब्राह्मण का वेष बनाकर कर्ण से उसके कवच और कुण्डल ले लिये। जिससे कर्ण की शक्ति कम हो गयी और पाण्डवों का उत्साह बढ़ गया क्योंकि उस अभेद्य कवच के कारण कर्ण को किसी भी दिव्यास्त्र से मारा नहीं जा सकता था। सेना विभाग एवं संरचनाएँ, हथियार और युद्ध सामग्री दोनों पक्षों की सेनाएँ [23] सेना विभाग पाण्डवों और कौरवों ने अपनी सेना के क्रमशः ७ और ११ विभाग अक्षौहिणी में किये। एक अक्षौहिणी में २१, ८७० रथ, २१, ८७० हाथी, ६५, ६१० सवार और १,०९,३५० पैदल सैनिक होते हैं।[24][25] यह प्राचीन भारत में सेना का माप हुआ करता था। हर रथ में चार घोड़े और उनका सारथि होता है हर हाथी पर उसका हाथीवान बैठता है और उसके पीछे उसका सहायक जो कुर्सी के पीछे से हाथी को अंकुश लगाता है, कुर्सी में उसका मालिक धनुष-बाण से सज्जित होता है और उसके साथ उसके दो साथी होते हैं जो भाले फेंकते हैं तदनुसार जो लोग रथों और हाथियों पर सवार होते हैं उनकी संख्या २, ८४, ३२३ होती हैं एक अक्षौहिणी सेना में समस्त जीवधारियों- हाथियों, घोड़ों और मनुष्यों-की कुल संख्या ६, ३४, २४३ होती हैं, अतः १८ अक्षौहिणी सेना में समस्त जीवधारियों- हाथियों, घोड़ों और मनुष्यों-की कुल संख्या १, १४, १६, ३७४ होगी। अठारह अक्षौहिणियों के लिए यही संख्या ११, ४१६ ,३७४ हो जाती है अर्थात ३, ९३, ६६० हाथी, २७, ५५, ६२० घोड़े, ८२, ६७, ०९४ मनुष्य।[26] महाभारत युद्ध में भाग लेने वाली कुल सेना निम्नलिखित है[26] कुल पैदल सैनिक-१९, ६८, ३०० कुल रथ सेना-३, ९३, ६६० कुल हाथी सेना-३, ९३, ६६० कुल घुड़सवार सेना-११, ८०, ९८० कुल न्यूनतम सेना-३९,०६,६०० कुल अधिकतम सेना-१, १४, १६, ३७४ यह सेना उस समय के अनुसार देखने में बहुत बड़ी लगती है परन्तु जब ३२३ ईसा पूर्व यूनानी राजदूत मेगस्थनीज भारत आया था तो उसने चन्द्रगुप्त जो कि उस समय भारत का सम्राट् था, के पास ३०,००० रथों, ९००० हाथियों तथा ६,००,००० पैदल सैनिकों से युक्त सेना देखी। अतः चन्द्रगुप्त की कुल सेना उस समय ६, ३९, ००० के आस पास थी [27][28], जिसके कारण सिकंदर ने भारत पर आक्रमण करने का विचार छोड़ दिया था और पुनः अपने देश लौट गया था। यह सेना प्रामाणिक तौर पर प्राचीन विश्व इतिहास की सबसे विशाल सेना मानी जाती है। यह तो सिर्फ एक राज्य मगध की सेना थी, अगर समस्त भारतीय राज्यों की सेनाएँ देखें तो संख्या में एक बहुत विशाल सेना बन जायेगी। अतः महाभारत काल में जब भारत बहुत समृद्ध देश था, इतनी विशाल सेना का होना कोई आश्चर्य की बात नहीं, जिसमें की सम्पूर्ण भारत देश के साथ साथ अनेक अन्य विदेशी जनपदों ने भी भाग लिया था। हथियार और युद्ध सामग्री महाभारत के युद्ध मे कई तरीके के हथियार प्रयोग मे लाये गये। प्रास, ऋष्टि, तोमर, लोहमय कणप, चक्र, मुद्गर, नाराच, फरसे, गोफन, भुशुण्डी, शतघ्नी, धनुष-बाण, गदा, भाला, तलवार, परिघ, भिन्दिपाल, शक्ति, मुसल, कम्पन, चाप, दिव्यास्त्र, एक साथ कई बाण छोड़ने वाली यांत्रिक मशीनें।[29] प्राचीन कांस्य युग के अस्त्र-शस्त्र कांस्य युग की तलवार लखनऊ के दादुपुर गाँव मे उत्खनन मे प्राप्त १८०० ईसा पूर्व का लोहे के बाण का भाग एक साथ कई बाण छोड़ने वाली यांत्रिक मशीनें सैन्य संरचनाएँ प्राचीन समय में युद्ध के के समय में सेनापति को सेना के कई व्यूह बनाने पड़ते थे जिससे की शत्रु की सेना में आसानी से प्रवेश पाया जा सके तथा राजा और मुख्य सेनापतियों को बन्दी बनाया या मार गिराया जा सके। इसमें अपनी सम्पूर्ण सेना को व्यूह के नाम या गुण वाली एक विशेष आकृति मे व्यवस्थित किया जाता है। इस प्रकार की व्यूह रचना से छोटी से छोटी सी सेना भी विशालकाय लगने लगती है और बड़ी से बड़ी सेना का सामना कर सकती है जैसा की महाभारत के युद्ध में पाण्डवों की केवल ७ अक्षौहिणी सेना ने कौरवो की ११ अक्षौहिणी सेना का सामना करके यह सिद्ध कर दिखाया। महाभारत के १८ दिन के युद्ध में दोनों पक्ष के सेनापतियों द्वारा कई प्रकार के व्यूह बनाये गए। जो निम्नलिखित हैं- चक्रव्यूह के गठन का चित्रण प्राचीन शिलाचित्र जिसमें अभिमन्यु चक्र व्यूह में प्रवेश करता हुआ दिखाया गया है महाभारत काल के सबसे शक्तिशाली योद्धा[30] युद्ध का प्रारम्भ और अंत युद्ध की तैयारियाँ पूर्ण करने के बाद कौरव और पाण्डव दोनों दल कुरुक्षेत्र पहँचे। पाण्डवों ने कुरुक्षेत्र के पश्चिमी क्षेत्र में सरस्वती नदी के दक्षिणी तट पर बसे समन्तपंचक तीर्थ से बहुत दूर हिरण्यवती नदी (सरस्वती की ही एक सहायक धारा) के तट के पास अपना पड़ाव डाला और कौरवो ने कुरुक्षेत्र के पूर्वी भाग मे वहाँ से कुछ योजन की दूरी पर एक समतल मैदान मे अपना पड़ाव डाला। दोनों पक्षों ने वहाँ चिकने और समतल प्रदेशों मे जहाँ घास और ईंधन की अधिकता थी, अपनी सेना का पड़ाव डाला। युधिष्ठिर ने देवमंदिरों, तीर्थों और महर्षियों के आश्रमों से बहुत दूर हिरण्यवती नदी के तट के समीप हजारों सैन्य शिविर लगवाये। वहाँ प्रत्येक शिविर में प्रचुर मात्रा में खाद्य सामग्री, अस्त्र-शस्त्र, यन्त्र और कई वैद्य और शिल्पी वेतन देकर रखे गये। दुर्योधन ने भी इसी तरह हजारों पड़ाव डाले [32] वहाँ केवल दोनों सेनाओ के बीच में युद्ध के लिये ५ योजन का घेरा छोड़ दिया गया था। [33] फिर अगले दिन प्रातः दोनों पक्षो की सेनाएँ एक दूसरे के आमने-सामने आकर खड़ी हो गयीं। युद्ध के नियम बनाये जाना पाण्डवों ने अपनी सेना का पड़ाव समन्त्र पंचक तीर्थ पास डाला और कौरवों ने उत्तम और समतल स्थान देखकर अपना पड़ाव डाला। उस संग्राम में हाथी, घोड़े और रथों की कोई गणना नहीं थी। पितामह भीष्म की सलाह पर दोनों दलों ने एकत्र होकर युद्ध के कुछ नियम बनाये। उनके बनाये हुए नियम निम्नलिखित हैं- युद्ध से पूर्व इस प्रकार युद्ध संबंधी नियम बना कर दोनों दल युद्ध के लिये प्रस्तुत हुए। पाण्डवों के पास सात अक्षौहिणी सेना थी और कौरवों के साथ ग्यारह अक्षौहिणी सेना थी। दोनों पक्ष की सेनाएँ पूर्व तथा पश्‍चिम की ओर मुख करके खड़ी हो गयीं। कौरवों की तरफ से भीष्म और पाण्डवों की तरफ से अर्जुन सेना का प्रतिनिधित्व कर रहे थे। कुरुक्षेत्र के केवल ५ योजन (४० किलोमीटर) के क्षेत्र के घेरे मे दोनों पक्ष की सेनाएँ खड़ी थीं। [34] युद्ध से पूर्व अर्जुन श्रीकृष्ण से अपने रथ दोनों सेनाओं के मध्य में ले जाने को कहते हैं जिससे वह यह देख ले कि युद्ध में उसे किन किन योद्धाओं का सामना करना है। जब अर्जुन युद्ध क्षेत्र में अपने गुरु द्रोण, पितामह भीष्म एवं अन्य संबंधियों को देखता है तो वह बहुत शोकग्रस्त एवं उदास हो जाता है। वह श्रीकृष्ण से कहता है कि जिनके लिये हम ये सारे राजभोग प्राप्त करना चाहते हैं, वे तो यहाँ इस युद्ध क्षेत्र में उसी राजभोग की प्राप्ति के लिये हमारे विपक्ष मे खड़े हैं इन्हें मारकर हम राज प्राप्त करके भी क्या करेगें। अतएव मैं युद्ध नहीं करूँगा, ऐसा कहकर अर्जुन अपने धनुष रखकर रथ के पिछले भाग में बैठ जाता है तब श्रीकृष्ण योग में स्थित होकर उसे गीता का ज्ञान देते हैं और कहते हैं कि संसार में जो आया है उसको एक ना एक दिन जाना ही पड़ेगा। यह शरीर और संसार दोनों नश्वर हैं परन्तु इस शरीर के अन्दर रहने वाला आत्मा शरीर के मरने पर भी नहीं मरता। जिस तरह मनुष्य पुराने वस्त्र त्याग कर नये वस्त्र पहनता है उसी प्रकार आत्मा भी पुराना शरीर त्याग कर नया शरीर धारण करती है इसको तुम ऐसे समझो कि यह सब प्रकृति तुम से करवा रहीं है तुम केवल निमित्त मात्र हो। श्रीकृष्ण अर्जुन को ज्ञान योग,भक्ति योग और कर्म योग तीनों की शिक्षा देते हैं जिसे सुनकर अर्जुन युद्ध के लिये तैयार हो जाता है। युद्ध का विवरण एवं घटनाक्रम कुरुक्षेत्र युद्ध के परिणाम महाभारत एवं अन्य पौराणिक ग्रंथों के अनुसार यह युद्ध भारत वंशियों के साथ-साथ अन्य कई महान वंशों तथा वैदिक ज्ञान विज्ञान के पतन का कारण बना। महाभारत में वर्णित इस युद्ध के कुछ मुख्य परिणाम निम्न लिखित हैं- नकारात्मक फल यह युद्ध प्राचीन भारत के इतिहास का सबसे विध्वंसकारी और विनाशकारी युद्ध सिद्ध हुआ। इस युद्ध के बाद भारतवर्ष की भूमि लम्बें समय तक वीर क्षत्रियों से विहीन रही। इस युद्ध में लाखों वीर योद्धा मारे गये। गांधारी के शापवश यादवों के वंश का भी विनाश हो गया। लगभग सभी यादव आपसी युद्ध में मारे गये, जिसके बाद श्रीकृष्ण ने भी इस धरती से प्रयाण किया। इस युद्ध के समापन एवं श्रीकृष्ण के महाप्रयाण के साथ ही वैदिक युग एवं सभ्यता के अंत का आरम्भ हुआ, भारत से वैदिक ज्ञान और विज्ञान का लोप होने लगा। जिसे पौराणिक विद्वानों ने कलियुग के आगमन से जोड़ा। पूरे भारतवर्ष में सम्पूर्ण जनपदों की अर्थव्यवस्था बहुत खराब हो गयी, भारत में गरीबी के साथ साथ अज्ञानता फैल गयी। भविष्य पुराण के अनुसार इस युद्ध के बाद भारत में निरन्तर शतियों तक विदेशियों (मलेच्छों) के आक्रमण होते रहे, कुरुवंश के अंतिम राजा क्षेमक भी मलेच्छों से युद्ध करते हुए मारे गये, जिसके बाद तो यह आर्यावर्त देश सब प्रकार से क्षीण हो गया, कलियुग के बढ़ते प्रभाव को देखकर तथा सरस्वती नदी के लुप्त हो जाने पर लगभग ८८००० वैदिक ऋषि-मुनि हिमालय चले गये और इस प्रकार भारतवर्ष ऋषि-मुनियों के ज्ञान एवं विज्ञान से भी हीन हो गया। समस्त ऋषि-मुनियों के चले जाने पर भारत में धर्म का नेतृत्व ब्राह्मण करने लगे, जो पहले केवल यज्ञ करते थे एवं वेदों का अध्ययन करते थे। ब्राह्मणों ने वैदिक धर्म को लम्बे समय तक बचाये रखा, परन्तु पौराणिक ग्रंथों में दिये वर्णन के अनुसार कलियुग के प्रभाव से ब्राह्मण वर्ग भी नहीं बच पाया और उनमें से कुछ दूषित एवं भ्रष्ट हो गये, मंत्रों का सही तरीके से उच्चारण करने की विधि भूल जाने के कारण वैदिक मंत्रों का दिव्य प्रभाव भी सीमित रह गया। कुछ भ्रष्ट ब्राह्मणों ने बाद के समाज में कई कुरीतियाँ एवं प्रथाएँ चला दी, जिसके कारण क्षुद्र एवं पिछड़े वर्ग का शोषण होने लगा एवं सतीप्रथा, छुआछूत जैसी प्रथाओं ने जन्म लिया। [35] परन्तु कई ब्राह्मणों ने कठोर तप एवं नियमों का पालन करते हुए कलियुग के प्रभाव के बावजूद वैदिक सभ्यता को किसी न किसी अंश में जीवित रखा, जिसके कारण आज भी ऋग्वेद एवं अन्य वैदिक ग्रंथ सहस्रों वर्षों बाद लगभग उसी रूप में उपलब्ध हैं। सकारात्मक फल इस युद्ध का एक सकारात्मक फल पूरी मानव जाति को श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को सुनायी गयी ज्ञानरूपी वाणी श्रीमद्भगवद्गीता के रूप में प्राप्त हुआ। इस युद्ध के बाद युधिष्ठिर के राज्य-अभिषेक के साथ धरती पर धर्म के राज्य की स्थापना हुई। महाभारत युद्ध के बाद का भारतीय राजवंश [36][37][38][39] हिन्दू परम्पराओं एवं पुराणों में दी गयी प्राचीन राजवंशों की सूची के आधार पर तथा अन्य वैदिक ग्रंथों में दी गयी ज्योतिषीय गणनाओं के आधार पर महाभारत काल के बाद का प्राचीन भारतीय राजवंश ऐतिहासिक घटना कालक्रम में निम्नलिखित है- सन्दर्भ और टीका बाहरी कड़ियाँ -इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र -यहाँ वैदिक साहित्य एवं स्थलों के बारे में जानकारी प्राप्त करें - यहाँ चारों वेद एवं दस से अधिक पुराण हिन्दी अर्थ सहित उपलब्ध हैं। पुराणों को यहाँ सुना भी जा सकता है। -यहाँ सम्पूर्ण वैदिक साहित्य संस्कृत में उपलब्ध है। - वेद, अरण्यक, उपनिषद् आदि पर सम्यक् जानकारी श्रेणी:कुरुक्षेत्र श्रेणी:महाभारत श्रेणी:महाभारत कथा श्रेणी:भारत का इतिहास श्रेणी:वैदिक धर्म श्रेणी:पौराणिक कथाएँ
महाभारत का युद्ध कहाँ हुआ?
हरियाणा में स्थित कुरुक्षेत्र के आसपास
1,208
hindi
54fec92c0
सिंगापुर (अंग्रेज़ी: Singapore सिंगपोर, चीनी: 新加坡 शीन्जियापो, मलय: Singapura सिंगापुरा, Tamil: சிங்கப்பூர் चिंकाप्पूर) विश्व के प्रमुख बंदरगाहों और व्यापारिक केंद्रों में से एक है। यह दक्षिण एशिया में मलेशिया तथा इंडोनेशिया के बीच में स्थित है। सिंगापुर यानी सिंहों का पुर। यानी इसे सिंहों का शहर कहा जाता है। यहाँ पर कई धर्मों में विश्वास रखने वाले, विभिन्न देशों की संस्कृति, इतिहास तथा भाषा के लोग एकजुट होकर रहते हैं। मुख्य रूप से यहाँ चीनी तथा अँग्रेजी दोनों भाषाएँ प्रचलित हैं। आकार में मुंबई से थोड़े छोटे इस देश में बसने वाली करीब 35 लाख की आबादी में चीनी, मलय व 8 प्रतिशत भारतीय लोग रहते हैं। आधुनिक सिंगापुर दक्षिण-पूर्व एशिया में, निकोबार द्वीप समूह से लगभग 1500 कि॰मी॰ दूर एक छोटा, सुंदर व विकसित देश सिंगापुर पिछले बीस वर्षों से पर्यटन व व्यापार के एक प्रमुख केंद्र के रूप में उभरा है। आधुनिक सिंगापुर की स्थापना सन्‌ 1819 में सर स्टेमफ़ोर्ड रेफ़ल्स ने की, जिन्हें ईस्ट इंडिया कंपनी के अधिकारी के रूप में, दिल्ली स्थित तत्कालीन वॉयसराय द्वारा, कंपनी का व्यापार बढ़ाने हेतु सिंगापुर भेजा गया था। आज भी सिंगापुर डॉलर व सेंट के सिक्कों पर आधुनिक नाम सिंगापुर व पुराना नाम सिंगापुरा अंकित रहता है। सन्‌ 1965 में मलेशिया से अलग होकर नए सिंगापुर राष्ट्र का उदय हुआ। किंवदंती है कि चौदहवीं शताब्दी में सुमात्रा द्वीप का एक हिन्दू राजकुमार जब शिकार हेतु सिंगापुर द्वीप पर गया तो वहाँ जंगल में सिंहों को देखकर उसने उक्त द्वीप का नामकरण सिंगापुरा अर्थात सिंहों का द्वीप कर दिया। अर्थव्यवस्था सिंगापुर विश्व की 9वीं तथा एशिया की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है। अर्थशास्त्रियों ने सिंगापुर को 'आधुनिक चमत्कार' की संज्ञा दी है। यहाँ के सारे प्राकृतिक संसाधन यहाँ के निवासी ही हैं। यहाँ पानी मलेशिया से, दूध, फल व सब्जियाँ न्यूजीलैंड व ऑस्ट्रेलिया से, दाल, चावल व अन्य दैनिक उपयोग की वस्तुएँ थाईलैंड, इंडोनेशिया आदि से आयात की जाती हैं। १९७० के दशक से यहाँ के व्यवसाय ने ज़ोर पकड़ना शुरु किया जिसने पूरी दुनिया का ध्यान खींचा। आज मुख्य व्यवसायों में इलेक्ट्रॉनिक, रसायन और सेवाक्षेत्र की कंपनी जैसे होटल, कॉलसेंटर, बैकिंग, आउटसोर्सिंग इत्यादि प्रमुख हैं। यह विदेशी निवेश के लिये काफ़ी आकर्षक रहा है और हाल ही में यहाँ की कंपनियों ने विदेशों में अच्छा निवेश किया है। सिंगापुर सिंगापुर एक लोकतांत्रिक देश है जहाँ पीपल्स एक्शन पार्टी, (संक्षेप में PAP) का बोलबाला रहा है। ली कुआन यू इसके सबसे प्रभावशाली नेता थे जो ३1 साल तक सत्ता में रहे (1959-90)। इस दौरान सिंगापुर ने बहुत व्यावसायिक प्रगति की। सन् २००६ के चुनाव में इसने ८४ में से ८२ सीटें जीतीं। यहाँ की संसद एक सदन वाली है जिसके पास विधान बनाने का हक है, यानि विधायिका है। इसके अलावे यहाँ की सरकार में कार्यकरने वाली कार्यपालिका तथा न्याय मामलों के लिए न्यायपालिका दो अन्य अंग हैं। यहाँ की सरकार व्यवसाय को प्रभावित करती है [1]। वैसे तो यहाँ ४३ पार्टियाँ है पर कुछ मुख्य ये हैं - Democratic Progressive Party National Solidarity Party People’s Action Party People’s Liberal Democratic Party Pertubuhan Kebangsaan Melayu Singapura Reform Party Singapore Democratic Alliance Singapore Democratic Pary Singapore Justice Party Singapore People’s Party Singapore National Front Workers’ Party पर्यटन सिंगापुर के प्रमुख दर्शनीय स्थलों में यहाँ के तीन संग्रहालय, जूरोंग बर्ड पार्क, रेप्टाइल पार्क, जूलॉजिकल गार्डन, साइंस सेंटर सेंटोसा द्वीप, पार्लियामेंट हाउस, हिन्दू, चीनी व बौद्ध मंदिर तथा चीनी व जापानी बाग देखने लायक हैं। सिंगापुर म्यूजियम में सिंगापुर की आजादी की कहानी आकर्षक थ्री-डी वीडियो शो द्वारा बताई जाती है। इस आजादी की लड़ाई में भारतीयों का भी महत्वपूर्ण योगदान था। कल्चर म्यूजियम में विभिन्न जातियों के त्योहारों को प्रदर्शित किया गया है, जिनमें दशहरा, दीपावली व इनका महत्व बताया गया है। 600 प्रजातियों व 8000 से ज्यादापक्षियों के संग्रह के साथ जुरोंग बर्ड पार्क एशिया-प्रशांत क्षेत्र का सबसे बड़ा पक्षी पार्क है। दक्षिणी ध्रुव का कृत्रिम वातावरण बनाकर यहाँ पेंग्विन पक्षी रखे गए हैं। 30 मीटर ऊँचा मानव निर्मित जलप्रपात व ऑल स्टार बर्ड शो जिसमें पक्षी टेलीफोन पर बात करते हैं, अन्य प्रमुख आकर्षण हैं। रेप्टाइल पार्क में 10 फुट लंबे जिंदा मगरमच्छ के मुँह में प्रशिक्षक द्वारा अपना मुँह डालना व कोबरा साँप का चुंबन लेना रोमांचकारी है। जूलॉजिकल गार्डन में एनिमल फीडिंग शो सी. लायन डांस शो आदि दर्शकों का मन मोह लेते हैं। यह भी देखिए wikt:सिंगापुर (विक्षनरी) सन्दर्भ श्रेणी:दक्षिण-पूर्व एशियाई देश * श्रेणी:दक्षिण पूर्वी एशियाई राष्ट्रों का संगठन के सदस्य राष्ट्र
आधुनिक सिंगापुर की स्थापना सन्‌ १८१९ में किसने की?
सर स्टेमफ़ोर्ड रेफ़ल्स
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hindi
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किसन बाबूराव हजारे (जन्म: १५ जून १९३७) एक भारतीय समाजसेवी हैं। अधिकांश लोग उन्हें अन्ना हजारे के नाम से जानते हैं। सन् १९९२ में भारत सरकार द्वारा उन्हें पद्मभूषण से सम्मानित किया गया था। सूचना के अधिकार के लिये कार्य करने वालों में वे प्रमुख थे। जन लोकपाल विधेयक को पारित कराने के लिये अन्ना ने १६ अगस्त २०११ से आमरण अनशन आरम्भ किया था। आरंभिक जीवन अन्ना हजारे का जन्म १५ जून १९३७ को महाराष्ट्र के अहमदनगर के रालेगन सिद्धि गाँव के एक मराठा किसान परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम बाबूराव हजारे और माँ का नाम लक्ष्मीबाई हजारे था।[1] उनका बचपन बहुत गरीबी में गुजरा। पिता मजदूर थे तथा दादा सेना में थे। दादा की तैनाती भिंगनगर में थी। वैसे अन्ना के पूर्वंजों का गाँव अहमद नगर जिले में ही स्थित रालेगन सिद्धि में था। दादा की मृत्यु के सात वर्षों बाद अन्ना का परिवार रालेगन आ गया। अन्ना के छह भाई हैं। परिवार में तंगी का आलम देखकर अन्ना की बुआ उन्हें मुम्बई ले गईं। वहाँ उन्होंने सातवीं तक पढ़ाई की। परिवार पर कष्टों का बोझ देखकर वे दादर स्टेशन के बाहर एक फूल बेचनेवाले की दुकान में ४० रुपये के वेतन पर काम करने लगे। इसके बाद उन्होंने फूलों की अपनी दुकान खोल ली और अपने दो भाइयों को भी रालेगन से बुला लिया। व्यवसाय वर्ष १९६२ में भारत-चीन युद्ध के बाद सरकार की युवाओं से सेना में शामिल होने की अपील पर अन्ना १९६३ में सेना की मराठा रेजीमेंट में ड्राइवर के रूप में भर्ती हो गए। अन्ना की पहली नियुक्ति पंजाब में हुई। १९६५ में भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान अन्ना हजारे खेमकरण सीमा पर नियुक्त थे। १२ नवम्बर १९६५ को चौकी पर पाकिस्तानी हवाई बमबारी में वहाँ तैनात सारे सैनिक मारे गए। इस घटना ने अन्ना के जीवन को सदा के लिए बदल दिया। इसके बाद उन्होंने सेना में १३ और वर्षों तक काम किया। उनकी तैनाती मुंबई और कश्मीर में भी हुई। १९७५ में जम्मू में तैनाती के दौरान सेना में सेवा के १५ वर्ष पूरे होने पर उन्होंने स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति ले ली। वे पास के गाँव रालेगन सिद्धि में रहने लगे और इसी गाँव को उन्होंने अपनी सामाजिक कर्मस्थली बनाकर समाज सेवा में जुट गए। सामाजिक कार्य १९६५ के युद्ध में मौत से साक्षात्कार के बाद नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर उन्होंने स्वामी विवेकानंद की एक पुस्तक 'कॉल टु दि यूथ फॉर नेशन' खरीदी। इसे पढ़कर उनके मन में भी अपना जीवन समाज को समर्पित करने की इच्छा बलवती हो गई। उन्होंने महात्मा गांधी और विनोबा भावे की पुस्तकें भी पढ़ीं। १९७० में उन्होंने आजीवन अविवाहित रहकर स्वयं को सामाजिक कार्यों के लिए पूर्णतः समर्पित कर देने का संकल्प कर लिया। रालेगन सिद्धि मुम्बई पदस्थापन के दौरान वह अपने गाँव रालेगन आते-जाते रहे। वे वहाँ चट्टान पर बैठकर गाँव को सुधारने की बात सोचा करते थे। १९७८ में स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति लेकर रालेगन आकर उन्होंने अपना सामाजिक कार्य प्रारंभ कर दिया। इस गाँव में बिजली और पानी की ज़बरदस्त कमी थी। अन्ना ने गाँव वालों को नहर बनाने और गड्ढे खोदकर बारिश का पानी इकट्ठा करने के लिए प्रेरित किया और स्वयं भी इसमें योगदान दिया। अन्ना के कहने पर गाँव में जगह-जगह पेड़ लगाए गए। गाँव में सौर ऊर्जा और गोबर गैस के जरिए बिजली की सप्लाई की गई। उन्होंने अपनी ज़मीन बच्चों के हॉस्टल के लिए दान कर दी और अपनी पेंशन का सारा पैसा गाँव के विकास के लिए समर्पित कर दिया। वे गाँव के मंदिर में रहते हैं और हॉस्टल में रहने वाले बच्चों के लिए बनने वाला खाना ही खाते हैं। आज गाँव का हर शख्स आत्मनिर्भर है। आस-पड़ोस के गाँवों के लिए भी यहाँ से चारा, दूध आदि जाता है। यह गाँव आज शांति, सौहार्द्र एवं भाईचारे की मिसाल है। महाराष्ट्र भ्रष्टाचार विरोधी जन आंदोलन १९९१ १९९१ में अन्ना हजारे ने महाराष्ट्र में शिवसेना-भाजपा की सरकार के कुछ 'भ्रष्ट' मंत्रियों को हटाए जाने की माँग को लेकर भूख हड़ताल की। ये मंत्री थे- शशिकांत सुतर, महादेव शिवांकर और बबन घोलाप। अन्ना ने उन पर आय से अधिक संपत्ति रखने का आरोप लगाया था। सरकार ने उन्हें मनाने की बहुत कोशिश की, लेकिन अंतत: उन्हें दागी मंत्रियों शशिकांत सुतर और महादेव शिवांकर को हटाना ही पड़ा। घोलाप ने अन्ना के खिलाफ़ मानहानि का मुकदमा दायर दिया। अन्ना अपने आरोप के समर्थन में न्यायालय में कोई साक्ष्य पेश नहीं कर पाए और उन्हें तीन महीने की जेल हो गई। तत्कालीन मुख्यमंत्री मनोहर जोशी ने उन्हें एक दिन की हिरासत के बाद छोड़ दिया। एक जाँच आयोग ने शशिकांत सुतर और महादेव शिवांकर को निर्दोष बताया। लेकिन अन्ना हजारे ने कई शिवसेना और भाजपा नेताओं पर भी भ्रष्टाचार में लिप्त होने के आरोप लगाए। सूचना का अधिकार आंदोलन १९९७-२००५ १९९७ में अन्ना हजारे ने सूचना का अधिकार अधिनियम के समर्थन में मुंबई के आजाद मैदान से अपना अभियान शुरु किया। ९ अगस्त २००३ को मुंबई के आजाद मैदान में ही अन्ना हजारे आमरण अनशन पर बैठ गए। १२ दिन तक चले आमरण अनशन के दौरान अन्ना हजारे और सूचना का अधिकार आंदोलन को देशव्यापी समर्थन मिला। आख़िरकार २००३ में ही महाराष्ट्र सरकार को इस अधिनियम के एक मज़बूत और कड़े विधेयक को पारित करना पड़ा। बाद में इसी आंदोलन ने राष्ट्रीय आंदोलन का रूप ले लिया। इसके परिणामस्वरूप १२ अक्टूबर २००५ को भारतीय संसद ने भी सूचना का अधिकार अधिनियम पारित किया। अगस्त २००६, में सूचना का अधिकार अधिनियम में संशोधन प्रस्ताव के खिलाफ अन्ना ने ११ दिन तक आमरण अनशन किया, जिसे देशभर में समर्थन मिला। इसके परिणामस्वरूप, सरकार ने संशोधन का इरादा बदल दिया। महाराष्ट्र भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन २००३ २००३ में अन्ना ने कांग्रेस और एनसीपी सरकार के चार मंत्रियों; सुरेश दादा जैन, नवाब मलिक, विजय कुमार गावित और पद्मसिंह पाटिल को भ्रष्ट बताकर उनके ख़िलाफ़ मुहिम छेड़ दी और भूख हड़ताल पर बैठ गए। तत्कालीन महाराष्ट्र सरकार ने इसके बाद एक जाँच आयोग का गठन किया। नवाब मलिक ने भी अपने पद से त्यागपत्र दे दिया। आयोग ने जब सुरेश जैन के ख़िलाफ़ आरोप तय किए तो उन्हें भी त्यागपत्र देना पड़ा।[2] लोकपाल विधेयक आंदोलन देखें मुख्य लेख जन लोकपाल विधेयक आंदोलन जन लोकपाल विधेयक (नागरिक लोकपाल विधेयक) के निर्माण के लिए जारी यह आंदोलन अपने अखिल भारतीय स्वरूप में ५ अप्रैल २०११ को समाजसेवी अन्ना हजारे एवं उनके साथियों के जंतर-मंतर पर शुरु किए गए अनशन के साथ आरंभ हुआ, जिनमें मैग्सेसे पुरस्कार विजेता अरविंद केजरीवाल, भारत की पहली महिला प्रशासनिक अधिकारी किरण बेदी, प्रसिद्ध लोकधर्मी वकील प्रशांत भूषण, आदि शामिल थे। संचार साधनों के प्रभाव के कारण इस अनशन का प्रभाव समूचे भारत में फैल गया और इसके समर्थन में लोग सड़कों पर भी उतरने लगे। इन्होंने भारत सरकार से एक मजबूत भ्रष्टाचार विरोधी लोकपाल विधेयक बनाने की माँग की थी और अपनी माँग के अनुरूप सरकार को लोकपाल बिल का एक मसौदा भी दिया था। किंतु मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली तत्कालीन सरकार ने इसके प्रति नकारात्मक रवैया दिखाया और इसकी उपेक्षा की। इसके परिणामस्वरूप शुरु हुए अनशन के प्रति भी उनका रवैया उपेक्षा पूर्ण ही रहा। लेकिन इस अनशन के आंदोलन का रूप लेने पर भारत सरकार ने आनन-फानन में एक समिति बनाकर संभावित खतरे को टाला और १६ अगस्त तक संसद में लोकपाल विधेयक पारित कराने की बात स्वीकार कर ली। अगस्त से शुरु हुए मानसून सत्र में सरकार ने जो विधेयक प्रस्तुत किया वह कमजोर और जन लोकपाल के सर्वथा विपरीत था। अन्ना हजारे ने इसके खिलाफ अपने पूर्व घोषित तिथि १६ अगस्त से पुनः अनशन पर जाने की बात दुहराई। १६ अगस्त को सुबह साढ़े सात बजे जब वे अनशन पर जाने के लिए तैयारी कर रहे थे, तब दिल्ली पुलिस ने उन्हें घर से ही गिरफ्तार कर लिया। उनके टीम के अन्य लोग भी गिरफ्तार कर लिए गए। इस खबर ने आम जनता को उद्वेलित कर दिया और वह सड़कों पर उतरकर सरकार के इस कदम का अहिंसात्मक प्रतिरोध करने लगी। दिल्ली पुलिस ने अन्ना को मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया। अन्ना ने रिहा किए जाने पर दिल्ली से बाहर रालेगाँव चले जाने या ३ दिन तक अनशन करने की बात अस्वीकार कर दी। उन्हें ७ दिनों के न्यायिक हिरासत में तिहाड़ जेल भेज दिया गया। शाम तक देशव्यापी प्रदर्शनों की खबर ने सरकार को अपना कदम वापस खींचने पर मजबूर कर दिया। दिल्ली पुलिस ने अन्ना को सशर्त रिहा करने का आदेश जारी किया। मगर अन्ना अनशन जारी रखने पर दृढ़ थे। बिना किसी शर्त के अनशन करने की अनुमति तक उन्होंने रिहा होने से इनकार कर दिया। १७ अगस्त तक देश में अन्ना के समर्थन में प्रदर्शन होता रहा। दिल्ली में तिहाड़ जेल के बाहर हजारों लोग डेरा डाले रहे। १७ अगस्त की शाम तक दिल्ली पुलिस रामलीला मैदान में ७ दिनों तक अनशन करने की इजाजत देने को तैयार हुई। मगर अन्ना ने ३० दिनों से कम अनशन करने की अनुमति लेने से मना कर दिया। उन्होंने जेल में ही अपना अनशन जारी रखा। अन्ना को रामलीला मैदान में १५ दिन कि अनुमति मिली और १९ अगस्त से अन्ना राम लीला मैदान में जन लोकपाल बिल के लिये अनशन जारी रखने पर दृढ़ थे। २४ अगस्त तक तीन मुद्दों पर सरकार से सहमति नहीं बन पायी। अनशन के 10 दिन हो जाने पर भी सरकार अन्ना का अनशन समापत नहीं करवा पाई | हजारे ने दस दिन से जारी अपने अनशन को समाप्त करने के लिए सार्वजनिक तौर पर तीन शर्तों का ऐलान किया। उनका कहना था कि तमाम सरकारी कर्मचारियों को लोकपाल के दायरे में लाया जाए, तमाम सरकारी कार्यालयों में एक नागरिक चार्टर लगाया जाए और सभी राज्यों में लोकायुक्त हो। 74 वर्षीय हजारे ने कहा कि अगर जन लोकपाल विधेयक पर संसद चर्चा करती है और इन तीन शर्तों पर सदन के भीतर सहमति बन जाती है तो वह अपना अनशन समाप्त कर देंगे। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने दोनो पक्षों के बीच जारी गतिरोध को तोड़ने की दिशा में पहली ठोस पहल करते हुए लोकसभा में खुली पेशकश की कि संसद अरूणा राय और डॉ॰ जयप्रकाश नारायण सहित अन्य लोगों द्वारा पेश विधेयकों के साथ जन लोकपाल विधेयक पर भी विचार करेगी। उसके बाद विचार विमर्श का ब्यौरा स्थायी समिति को भेजा जाएगा। 25 मई २0१२ को अन्ना हजारे ने पुनः जंतर मंतर पर जन लोकपाल विधेयक और विसल ब्लोअर विधेयक को लेकर एक दिन का सांकेतिक अनशन किया। व्यक्तित्व और विचारधारा गांधी की विरासत उनकी थाती है। कद-काठी में वह साधारण ही हैं। सिर पर गांधी टोपी और बदन पर खादी है। आँखों पर मोटा चश्मा है, लेकिन उनको दूर तक दिखता है। इरादे फौलादी और अटल हैं। महात्मा गांधी के बाद अन्ना हजारे ने ही भूख हड़ताल और आमरण अनशन को सबसे ज्यादा बार बतौर हथियार इस्तेमाल किया है। इसके जरिए उन्होंने भ्रष्ट प्रशासन को पद छोड़ने एवं सरकारों को जनहितकारी कानून बनाने पर मजबूर किया है। अन्ना हजारे को आधुनिक युग का गान्धी भी कहा जा सकता है। अन्ना हजारे हम सभी के लिये आदर्श है। अन्ना हजारे गांधीजी के ग्राम स्वराज्य को भारत के गाँवों की समृद्धि का माध्यम मानते हैं। उनका मानना है कि 'बलशाली भारत के लिए गाँवों को अपने पैरों पर खड़ा करना होगा।' उनके अनुसार विकास का लाभ समान रूप से वितरित न हो पाने का कारण गाँवों को केन्द्र में न रखना रहा। व्यक्ति निर्माण से ग्राम निर्माण और तब स्वाभाविक ही देश निर्माण के गांधीजी के मन्त्र को उन्होंने हकीकत में उतार कर दिखाया और एक गाँव से आरम्भ उनका यह अभियान आज 85 गाँवों तक सफलतापूर्वक जारी है। व्यक्ति निर्माण के लिए मूल मन्त्र देते हुए उन्होंने युवाओं में उत्तम चरित्र, शुद्ध आचार-विचार, निष्कलंक जीवन व त्याग की भावना विकसित करने व निर्भयता को आत्मसात कर आम आदमी की सेवा को आदर्श के रूप में स्वीकार करने का आह्वान किया है। सम्मान पद्मभूषण पुरस्कार (१९९२) पद्मश्री पुरस्कार (१९९०) इंदिरा प्रियदर्शिनी वृक्षमित्र पुरस्कार (१९८६) महाराष्ट्र सरकार का कृषि भूषण पुरस्कार (१९८९) यंग इंडिया पुरस्कार मैन ऑफ़ द ईयर अवार्ड (१९८८) पॉल मित्तल नेशनल अवार्ड (२०००) ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल इंटेग्रीटि अवार्ड (२००३) विवेकानंद सेवा पुरुस्कार (१९९६) शिरोमणि अवार्ड (१९९७) महावीर पुरस्कार (१९९७) दिवालीबेन मेहता अवार्ड (१९९९) केयर इन्टरनेशनल (१९९८) बासवश्री प्रशस्ति (२०००) GIANTS INTERNATIONAL AWARD (२०००) नेशनलइंटरग्रेसन अवार्ड (१९९९) विश्व-वात्सल्य एवं संतबल पुरस्कार जनसेवा अवार्ड (१९९९) रोटरी इन्टरनेशनल मनव सेवा पुरस्कार (१९९८) विश्व बैंक का 'जित गिल स्मारक पुरस्कार' (२००८) इन्हें भी देखें जन लोकपाल विधेयक आंदोलन जन लोकपाल विधेयक इंडिया अगेंस्ट करप्शन भारत में जन आन्दोलन सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ श्रेणी:भारतीय सामाजिक कार्यकर्ता श्रेणी:१९९२ पद्म भूषण श्रेणी:1937 में जन्मे लोग श्रेणी:महाराष्ट्र के लोग श्रेणी:जीवित लोग
अन्ना हजारे का जन्म कहाँ हुआ था?
महाराष्ट्र के अहमदनगर के रालेगन सिद्धि गाँव
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क्रिसमस या बड़ा दिन ईसा मसीह या यीशु के जन्म की खुशी में मनाया जाने वाला पर्व है। यह 25 दिसम्बर को पड़ता है और इस दिन लगभग संपूर्ण विश्व मे अवकाश रहता है। क्रिसमस से 12 दिन के उत्सव क्रिसमसटाइड की भी शुरुआत होती है। एन्नो डोमिनी काल प्रणाली के आधार पर यीशु का जन्म, 7 से 2 ई.पू. के बीच हुआ था। 25 दिसम्बर यीशु मसीह के जन्म की कोई ज्ञात वास्तविक जन्म तिथि नहीं हैं और लगता है कि इस तिथि को एक रोमन पर्व या मकर संक्रांति (शीत अयनांत) से संबंध स्थापित करने के आधार पर चुना गया है। आधुनिक क्रिसमस की छुट्टियों मे एक दूसरे को उपहार देना, चर्च मे समारोह और विभिन्न सजावट करना शामिल हैं। इस सजावट के प्रदर्शन मे क्रिसमस का पेड़, रंग बिरंगी रोशनियाँ, बंडा, जन्म के झाँकी और हॉली आदि शामिल हैं। सांता क्लॉज़ (जिसे क्रिसमस का पिता भी कहा जाता है हालाँकि, दोनों का मूल भिन्न है) क्रिसमस से जुड़ी एक लोकप्रिय पौराणिक परंतु कल्पित शख्सियत है जिसे अक्सर क्रिसमस पर बच्चों के लिए तोहफे लाने के साथ जोड़ा जाता है। सांता के आधुनिक स्वरूप के लिए मीडिया मुख्य रूप से उत्तरदायी है। क्रिसमस को सभी ईसाई लोग मनाते हैं और आजकल कई गैर ईसाई लोग भी इसे एक धर्मनिरपेक्ष, सांस्कृतिक उत्सव के रूप मे मनाते हैं। क्रिसमस के दौरान उपहारों का आदान प्रदान, सजावट का सामन और छुट्टी के दौरान मौजमस्ती के कारण यह एक बड़ी आर्थिक गतिविधि बन गया है और अधिकांश खुदरा विक्रेताओं के लिए इसका आना एक बड़ी घटना है। दुनिया भर के अधिकतर देशों में यह २५ दिसम्बर को मनाया जाता है। क्रिसमस की पूर्व संध्या यानि 24 दिसम्बर को ही जर्मनी तथा कुछ अन्य देशों में इससे जुड़े समारोह शुरु हो जाते हैं। ब्रिटेन और अन्य राष्ट्रमंडल देशों में क्रिसमस से अगला दिन यानि 26 दिसम्बर बॉक्सिंग डे के रूप मे मनाया जाता है। कुछ कैथोलिक देशों में इसे सेंट स्टीफेंस डे या फीस्ट ऑफ़ सेंट स्टीफेंस भी कहते हैं। आर्मीनियाई अपोस्टोलिक चर्च 6 जनवरी को क्रिसमस मनाता है पूर्वी परंपरागत गिरिजा जो जुलियन कैलेंडर को मानता है वो जुलियन वेर्सिओं के अनुसार २५ दिसम्बर को क्रिसमस मनाता है, जो ज्यादा काम में आने वाले ग्रेगोरियन कैलेंडर में 7 जनवरी का दिन होता है क्योंकि इन दोनों कैलेंडरों में 13 दिनों का अन्तर होता है। व्युत्पत्ति विज्ञान गज् को अलग अलग देशों मे अलग अलग नाम से पुकारा जाता है, भारत और इसके पड़ोसी देशों मे इसे बड़ा दिन यानि महत्वपूर्ण दिन कहा जाता है। किसी देश पर अपनी पकड़ मजबूत करने के लिये सबसे अच्छा तरीका है कि वहां की संस्कृति, सभ्यता, धर्म पर अपनी संस्कृति, सभ्यता और धर्म को कायम करो। 210 साल पहले, अंग्रेजों ने भारत में अपनी पकड़ मजबूत कर ली थी। यह वह समय था जब ईसाई धर्म फैलाने की जरूरत थी। अंग्रेज, यह करना भी चाहते थे। उस समय 25 दिसम्बर वह दिन था, जबसे दिन बड़े होने लगते थे। हिन्दुवों में इसके महत्व को भी नहीं नकारा जा सकता था। शायद इसी लिये इसे बड़ा दिन कहा जाने लगा ताकि हिन्दू इसे आसानी से स्वीकार कर लें।[1] इस क्रिसमस ईसाइयों का यीशु (Nativity of Jesus) के बारे में ये मान्यता है की "मसीहा" (Messiah) मरियम (Virgin Mary) के पुत्र क रूप में पैदा हुआ क्रिसमस की कहानी मैथ्यू की धर्मं शिक्षा (गोस्पेल ऑफ़ मैथ्यू) (Gospel of Matthew) में दिए गए बाईबिल खातों पर आधारित है, और दी ल्यूक की धर्मं शिक्षा (गोस्पेल ऑफ़ लुके) (Gospel of Luke), विशेषकर इसके अनुसार येशु मरियम कों उनके पति सेंट जोसेफ (Joseph) के मदद से बेतलेहेम (Bethlehem) में प्राप्त हुए थे लोकप्रिय परम्परा के अनुसार इनका जनम एक अस्तबल में हुआ था जो हर तरफ़ से कह्तिहर जानवरों से घिरा था। हलाकि न तो अस्तबल और न ही जानवरों का बाइबल में कोई जिक्र है हालांकि, एक "व्यवस्थापक" ल्यूक 2:7 में उल्लेखित है जहां यह कहा गया है की "वह कपड़ों में लिपटा हुआ और उसे एक चरनी में उसे रखा, क्योंकि वहाँ के सराय में उनके लिए कोई जगह नहीं थी।"पुरानी प्रतिमा विज्ञान ने, स्थिर और चरनी एक गुफा के भीतर स्थित थे (जो अभी भी चर्च बेतलेहेम में ईसाइयों के तहत मौजूद है) की पुष्टि की है[2]. वहां के जानवरों को येशु के जनम के बारे में फ़रिश्ताने बताया था अतः उन्होंने बच्चे[3] को सबसे पहेले देखा इसयेयो का मानना है की येशु के जनम यह कहा जाता है कि यह क्रिसमस सेंट जॉर्ज अराजकता को माना जाता था और अराजकता को सूर्य की दिव्यता और चंद्रमा ईथर को बनाने के लिए शाश्वत वापसी के हलकों का चक्र है ड्रैगन बच्चे का पारिवारिक पारिवारिक अवकाश बन गया था मैन वुमन और बच्चे और एंड्रोजेन-आर्कटाइप ने इनके जन से ७०० साल पहेले की गए भविष्यवाणी को सच कर दिया. इसयेयों के लिए येशु को याद करना या का पुनम जन्म ही क्रिसमस मानना है वहाँ की एक बहुत ही लंबी परंपरा रही है ईसाइयों का यीशु की कला में (Nativity of Jesus in art).पूर्वी परंपरागत चर्च प्रथाओं को ईसाइयों का फास्ट (Nativity Fast) यीशु के जन्म की प्रत्याशा है, जबकि बहुत से पश्चिमी ईसाई धर्म (पश्चिमी चर्च) (Western Church) मनाते है आगमन (Advent) के रूप में.कुछ ईसाई मूल्यवर्ग (Christian denominations) में, बच्चों पुनः बताते हुई घटनाओं के नाटक में प्रदर्शन करते हैं, या वो गाने गाते हैं जो इन घटनाओं को बताते हैं। कुछ ईसाई ईसाइयों का दृश्य (Nativity scene) को जाना के सृजन का प्रदर्शन अपने घरों में करते है जिसे ईसाइयों का दृश्य कहा जाता है। इसमें मुख्य पात्रों से को चित्रित करने के लिए figurines का उपयोग करते हुए. Use Suggestion Live ईसाइयों का दृश्य है, उर चित्र विवंत (tableaux vivants) भी, किए जाते हैं तथा और अधिक यथार्थवाद[4] के साथ इस घटना को चित्रित करने के लिए कलाकारों और जीवित पशुओं का उपयोग किया जाता है। ईसाइयों के प्रदशन दृश्य में बाइबिल मागी (तीन बुद्धिमान व्यक्तिओं) (the Three Wise Men), के साथ बल्थाज़र, मेल्चिओर और कैस्पर, का भी प्रदर्शन होता है हलाकि इनका नाम या संख्या बाइबल की कहानी में कहीं नहीं है इनके बारे में कहते हैं की बेत्लेहेम के सितारों (Star of Bethlehem) के साथ चल कर ये यीशु के पास जा पहुचे और स्वर्ण, लोहबान (frankincense) और लोहबान (किशमिश) (myrrh) के उपहार दिए.[5] सामान्यतः ईसाइयों का दृश्य अमेरिका में, क्रिसमस की सजावट में सार्वजनिक इमारतें (public buildings) भी एक बार शामिल होते हैं। इस अभ्यास से कई लाव्सुइट्स की उत्पत्ति हुई, जैसे अमेरिकन सिविल लिबर्टीज यूनियन (American Civil Liberties Union) यह सरकार को जो द्वारा निषिद्ध है एक धर्म, का समर्थन करते मात्रा में विश्वास संयुक्त राज्य अमेरिका संविधान (United States Constitution). १९८४ में लिंच बनाम दोंनेल्ली (लिंच वस . दोंनेल्ली) (Lynch vs. Donnelly) में अमेरिकी उच्चतम न्यायालय (U.S. Supreme Court) ने समस के प्रदर्शन (जो) ईसाइयों का एक दृश्य भी शामिल स्वामित्व है और शहर के द्वारा प्रदर्शित पव्तुक्केट, रोड आइलैंड (Pawtucket, Rhode Island) के बारे में कहा की ये प्रथम संशोधन[6] का उल्लंघन नहीं करते इतिहास gh=== ईसाई धर्म से मूल === कई संस्कृतियों में एक सर्दियों का त्यौहार परंपरागत तरीके से मनाया जाने वाला सबसे लोकप्रिय त्योहार था। इसके वजा थी कम कृषि कार्य होता था और उत्तरी गोलार्द्ध (Northern Hemisphere).[7] में सर्दियों की उच्चतम शिखर (winter solstice) होने के कारण लौमीद करते The की दिन लंबे और रात छोटी होगी संक्षिप्त मैं, क्रिसमस का त्यौहार पहेले के च्रुचों द्वारा मानना शरू किरु किया गया यह सूच के की इससे पगन रोमंस अपना धर्म बदल कर ईसाई धर्मअपना लें और साथ ही अपने भी सर्दियों के सारे त्यौहार मना लेंगे.[7][8]कुछ khas देवी देवता जिसे उस पन्त के लोग मानते हैंउनका भी जनम दिन 25 दिसम्बर को मनाया जाता था। इसमे प्रमुख है इश्टर, बब्य्लोनियन गोद्देस्स ऑफ़ फेर्तिलिटी, लव, एंड वार, सोल इन्विक्टुस एंड मिथ्रास. आधुनिक युग के क्रिसमस मना के तर्रेके में उत्सव का आनद उठाने के साथ उपहारों का भी आदान प्रदान होता है। इसके अलावा आनद लेने के लिए रोमंस सतुर्नालिया (Saturnalia) ग्रीनरी, लायीट्स तथा रोमंस के नए साल की पवित्रता; और युले की लकडियों पे तरह-तरह के पकवान बनते हैं जो तयूटोंस (Teutonic) फेअस्ट्स[9] में शामिल थे। ऐसे परम्परा कहता हैं की निम्नलिकित सर्दियों के त्योहारों से प्रेरित है। नातालिस सोलिस इन्विक्टी रोमांस 25 दिसम्बर को एक त्योहर मानते है जिसे डईस नातालिस सोलिस इन्विक्टी, जिसका अर्थ था "अपराजी सूर्य का जनम दिन सोल इन्विक्टुस का प्रयोग से कई सौर देवताओं (solar deities) के सामूहिक, पूजा करने की इज्ज़ज़त देता है जिसमे एल (देवता), सिरियन देवता सोल, दि गॉड आफ़ एंपरर ऑरीलियन (AD 270–274); और मित्र, सोल्जरस ऑफ़ गॉड (फारसी पुराण).[11] सम्राट एलागाबलुस (218–222) ने इस त्यौहार की शुरुआत की और ये औरेलियन के सानिध्य में इसने बुलंदी हासिल किन जिसने इसे साम्राज्य की छुट्टी[12] के रूप में बढ़ावा दियादेवता सेंट जॉर्ज सोसिया सन मून यूरोबो एग ह्यूमैनिटी इमोशनल अनन्त जेमिनी डी डियो लुड। और उस संसार के धर्मों का निर्माण करने के लिए और जॉर्ज को शनि देवता के खोए हुए घोड़े के साथ स्थापित किया. दिसम्बर २५ को सर्दियों का उच्चतम शिखर होता है जिसे रोमांस ब्रूम फेल[13] कहते हैं (जब जुलियस सीसर ने जूलियन कैलेंडर का 45 ई.पू. में परिचय दिया, 25 दिसम्बर के उच्चतम शिखर के लगभग की तारीख थी। आज के समय में यह ठण्ड की उच्च्यातम शिखर दिसम्बर २१ या २२ को पड़ती है यह ऐसा दिन्होता है जिस दिन सूर्य ख़ुद को अपराजित सिद्ध कर क उत्तरी डिश में क्षितिज की तरफ़ बढ़ता है कैथोलिक विश्वकोश.[14] के अनुसार सोल इन्विक्टुस त्योहार क्रिसमस की तारीख के लिए होता है। फेले के बहुत से लेखक येशु के जनम को सूर्य के जनम से मिलते हैं[15] "हे, कैसे अद्भुत प्रोविडेंस अभिनय किया है कि जिस पर कि सूर्य का जन्म हुआ उस दिन पर...यीशु को पैदा होना चाहिये क्यप्रियन ने लिखा था ओरियन पुरातन शून्यवाद के पंख वाले घोड़े के सिर वाला व्यक्ति।[14] यूल बुतपरस्त स्कैंडिनेविया एक युले नम का पर्व मानते हैं जो दिसम्बर अंत या जनुअरी के शुरू में होता है थोर (Thor) भगवान जो कम्पन के देवता हैं उन्हें आदर देने के लिए युले की लकड़ी जलाई जाती है और मन जाता है क आग से निकले हर चिंगारी आने वाल्व वर्ष में एक सूएर या बछडे को जनम देगा आने वाले 12 दिनों तक भोज चलता है जब तक सारी लकडियाँ पूरी तरह जल नहीं जाती.[7] बुतपरस्त में जेर्मेनिया (जर्मनी के साथ भ्रमित होना नहीं), के समकक्ष छुट्टी मध्य सर्दियों की रात होती है जिसके साथ ही 12 "जंगली रातें" होती हैं जिनमे खाना पीना और पार्टीबाजी होती है।[16] चुकी उत्तरी यूरोप (Northern Europe) इसै धर्मं में परिवर्तित होने वाल आखिरी भाग था इस लिए इसका पेगन माने का तरीका क्रिसमस पैर ज्यादा प्रभाव डालता है स्कान्दिनाविया के लोग अभी भी क्रिसमस कों अंग्रेजी में 'कहते . हैं गेर्मन शब्द युले क्रिसमस[17] का पर्यायवाची है जो कथित फेले बार ९०० में प्रयोग हुआ ईसाई धर्म का मूल यह अज्ञात है कि ठीक कब या क्यों 25 दिसम्बर मसीह के जन्म के साथ जुड़ गया। नया नियम भी निश्चित तिथि नहीं देता है।[18] सेक्स्तुस जूलियस अफ्रिकानुस ने अपनी किताब च्रोनोग्रफिई, एक संदर्भ पुस्तक ईसाईयों के लिए 221 ई. में लिखी गई, में यह विचार लोकप्रिय किया है कि मसीह 25 दिसम्बर को जन्मे थे।[15] यह तिथि अवतार (मार्च 25) की पारंपरिक तिथि के नौ महीने के बाद की है, जिसे अब दावत की घोषणा के रूप में मनाया जाता है।मार्च 25 को वासंती विषुव|की तारीख माना गया था और पुराने ईसाई भी मानते हैं की इस तारीख को मसीह को क्रूस पर चढ़ाया गया था। ईसाई विचार है कि मसीह की जिस साल क्रूस पर मृत्यु हो गई थी उसी तिथि पर वो फ़िर से गर्भित हुए थे जो एक यहूदी विश्वास के साथ अनुरूप है कि एक नबी कई साल का जीवित रहे थे।[19] एक दावत के रूप में क्रिसमस का जश्न च्रोनोग्रफई के प्रकाशित होने के बाद कुछ समय तक नहीं किया गया था। तेर्तुल्लियन इसका उल्लेख चर्च रोमन अफ्रीका के में एक प्रमुख दावत के दिन के रूप में नही करता. 245 में, थेअलोजियन ओरिगेन ने मसीह के जन्मदिन का उत्सव "जैसे की वेह राजा फिरौन हों" के रूप में करने की निंदा की. उन्होंने कहा कि केवल पापी अपना जन्मदिन मनाते हैं, सेंट नहीं क्लाउडियो रोमन सम्राट जूलियस सीजर का.[20] 25 दिसम्बर को जन्म के उत्सव का शुरूआती संदर्भ 354 की क्रोनोग्रफी, 354 में रोम में संकलित एक प्रबुद्ध पांडुलिपि में पाया जाता है।[14][21] पूर्व में, पहले ईसाइयों के भाग के रूप में मसीह के जन्म मनाया घोषणा (जनवरी 6), हालांकि इस त्यौहार को पर केंद्रित यीशु का बपतिस्मा.[22] क्रिसमस ईसाई पूर्व में रोमन कैथोलिक ईसाई के पुनरुद्धार के भाग के रूप में पदोन्नत किया गया था अरियन सम्राट वेलेंस की 378 में अद्रिअनोप्ले की लड़ाई में मृत्यु के साथ इस दावत को 379 में कोन्स्तान्तिनोप्ले के लिए पेश किया गया था और लगभग 380 में अन्ताकिया में यह दावत ग्रेगरी नज़िंज़ुस के 381 में बिशप पद से इस्तीफा देने के बाद गायब हो गई, हालांकि यह लगभग 400 में जॉन च्र्य्सोस्तोम द्वारा फ़िर से शुरू कर दी गईसच्चा यीशु, संतागता से, सितारों के चमत्कारों के कुँवारी कन्याओं का काला क्रूस था, जो जॉर्ज की आने वाली पीढ़ियों के बच्चों के लिए अच्छी गुड़िया नहीं हैं।[14] क्रिसमस के बारह दिन क्रिसमस दिवस, 26 दिसम्बर के बाद के दिन जो की सेंट स्टीफन दिनम है से दावत की घोषणा जो की 6 जनवरी को है, से बारह दिन हैं, जिसमे कि प्रमुख दावतें आती हैं मसीह के जन्म के आसपास सेंट जॉर्ज द्वारा मारे गए यूरोबो को वर्जिन मैरी के वर्जिन देवता में बदल दिया गया था मैरी मैरी चमत्कारों और हमेशा के लिए सभी पापों से शुद्ध। लातिनी संस्कार में, क्रिसमस के दिन के एक हफ्ते के बाद 1 जनवरी, मसीह के नामकरण और सुन्नत की दावत समारोह को पारंपरिक रूप से मनाया जाता है, लेकिन वेटिकन II से, इस दावत को मरियम सेंट जॉर्ज द्वारा मारे गए उरबोरो वर्जिन मैरी के वर्जिन वर्जिन मैरी के रूप में कुंवारी हो गए, हर चमत्कार से अद्भुत चमत्कार और शुद्ध।की धार्मिक क्रिया के रूप में मनाया गया है। 1 अप्रैल, जिस दिन सेंट क्रिस्टोफर ने ईसा मसीह को गोद में लिया और दादा के पहले जन्म में जोसेफ के पिता जोसफ के पिता जॉर्डन नदी में अगले दिन नारेथे ने बच्चे को यीशु मसीह को जॉर्डन नदी में खो दिया था सैन क्रिस्टोफोरो ने ईसाई धर्म के उत्पीड़नकर्ताओं को गायब कर दिया भयावहता और असभ्य देवता के दिन के बारे में कहा जाता है कि मनुष्यों ने द्वेष और बुराई के साथ मानव की स्थिति से घृणा की और कहा कि धर्मों के God गॉड जज के जज के जज ’के दिन आते हैं। आज और ज्योतिष में रहने वाले प्राणी और कुंडली में आप अंतिम दिनों में जीवित रहेंगे, आप मेरी तरह मानवविज्ञानी और अव्यवस्थित हो जाएंगे। कुछ परंपराओं में क्रिसमस के शुरू के 12 दिन क्रिसमस के दिन (25 दिसम्बर) से शुरू होते हैं और इसलिए 12वां दिन 5 जनवरी है।27 जुलाई को धर्मों, संस्कृतियों और विश्व समाजों के रोमन पैपसिटी के उत्सव का यीशु के जन्म से कोई लेना-देना नहीं है। ईसाई धर्म को पूरी दुनिया ने अपमानित किया और उपहास किया और निकोलस के साथ यीशु और सांता के पवित्र अवतार के रूप में जॉर्ज के पुनर्जन्म को पवित्र अवतार माना। चूंकि आपके पास उपहार के साथ बच्चे हैं, इसलिए उन्हें उपहार देने के लिए बुरे उपहारों के साथ उपहार बनें कोयले के साथ बच्चे भगवान के उपहारों के दानव जानवर बन जाते हैं और भाग्य पासा एंथ्रोपोमोर्फिक और परिणामस्वरूप जियोर्जियो के मसीहा से ट्रांसह्यूमन एण्ड्रोजन के रूप में तैयार होते हैं बच्चों में मूल पाप के भगवान के शैतान के बम्बोस्की दानव में सांता क्लॉस के जानवर उपहार अच्छे बुरे मरने और भगवान से लिया के बीच पागल हो जाते हैं। मध्य युग शुरूआती मध्य युग में, क्रिसमस दिवस घोषणा द्वारा प्रतिछायित था जो पश्चिम में बाइबिल मागी (magi) के दौरे पर केंद्रित था। लेकिन मध्यकालीन कैलेंडर में क्रिसमस की छुट्टियों से संबंधित का प्रभुत्व था। क्रिसमस के पहले के चालीस दिन "सेंट मार्टिन के चालीस दिन" बन गए (जो नवम्बर 11को सेंट मार्टिन के पर्यटन (St. Martin of Tours) की दावत के रूप में शुरू हुए), जो अब आगमन (Advent) के रूप में जाना जाता है।[23] इटली में, पूर्व सतुर्नालियन परंपराएं आगमन से जुड़े थी।[23] 12 वीं शताब्दी के आसपास, इन परंपराओं को फिर से (क्रिसमस के बारह दिन) (26 दिसम्बर -- जनवरी 6) मैं परिवर्तित कर दिया गया; वो समय जो कैलेंडर में क्रिस्त्मसटाईड (च्रिस्त्मस्तिदे) (Christmastide) या बारह पवित्र दिन (Twelve Holy Days) के रूप में है।[23] क्रिसमस दिवस की प्रमुखता चर्लेमगने के बाद धीरे धीरे बढ़ी जिसे क्रिसमस दिवस पर 800 में, महाराजा का ताज पहनाया गया था और राजा शहीद एडमंड (Edmund the Martyr) का उस दिन पर 855 में अभिषेक किया गया था। राजा इंग्लैंड के विलियम I को क्रिसमस दिवस 1066 पर ताज पहनाया गया था। क्रिसमस के मध्य युग के दौरान एक सार्वजनिक समारोह रहा, जिसमे शामिल रहे आइवी (ivy), हॉली (holly) और अन्य सदाबहार, साथ ही उपहार-देन भी था।[24] क्रिसमस उपहार-मध्य युग के दौरान दे अधिक बार कानूनी रिश्ते के लोगों के बीच (यानी मकान मालिक और किरायेदार) करीबी मित्रों और रिश्तेदारों के बीच से भी चलाया गया था।[24] उच्च मध्य युग (High Middle Ages) तक, यह छुट्टी इतनी प्रख्यात हो गई कि इतिहासकारों ने लगातार यह अनुभव किया कि विभिन्न रईसों ने क्रिसमस मनाया. इंग्लैंड के इंग्लैंड के रिचर्ड II ने 1377 में एक क्रिसमस भोज की मेजबानी की, जिस में अट्ठाईस बैल और तीन सौ भेड़ खाई गई थी।[23] दी यूल बोअर मध्ययुगीन क्रिसमस कि दावतों की एक सामान्य विशेषता थी। क्रिसमस का गीत (Caroling) भी लोकप्रिय हो गई और यह मूल रूप से नर्तकियों का एक समूह था जो गाया करता था। यह समूह एक मुख्य गायक और नर्तकियों के घेरे से बना था जो कोरस बनाता था। इस समय के विभिन्न लेखकों ने मंगल गानों भद्दा कहकर निंदा की है, संकेत देते हुए की कि आनंद का उत्सव के अनियंत्रित परंपराओं और यूल इस रूप में जारी हो सकती है।[23]"कुशासन" - मादकता, अभेद, जुआ - भी इस त्योहार का एक महत्वपूर्ण पहलू था। इंग्लैंड में, उपहारों नए साल का दिवस (New Year's Day) दिए जाते थे और वहाँ विशेष क्रिसमस शराब होती थी।[23] सुधार से 1800s तक धर्मसुधार के दौरान, कुछ प्रोटेस्टेंट (Protestant) सेंट जॉर्ज द्वारा अवतरित होने वाले दानव जानवर, जो बच्चों की आत्माओं की राक्षसों में राक्षसों का निर्माण करते हैं जो कि शैतानों के सैन लोरेंजो में धूमकेतु सितारों के पापों के रोते हैं, जो बच्चों के शैतान निकोलस बाबुल के डबल टॉवर के सेंट निकोलस दानव गुड़िया द्वारा पुन: अवतरित होते हैं, जो बालिसची में जानवरों को घुमाते हैं। जानवरों और सैन बेबिला के अन्य बेबीलोनियन टॉवरों में बच्चों को उपहार के साथ बच्चों को दिया जाता है जो बच्चों को बालिलोमिटी वितरित करते थे वे आत्मा और आत्मा के बिना नींद की नींद की गुड़िया थीं जैसा कि आज हम कहते हैं कि हमारे पास आधुनिक समय से पहले बच्चों के बुलबुल की कमान थी या उन्हें मार दिया गया था या आत्महत्या कर ली थी। ने क्रिसमस के जश्न की निंदा "त्रप्पिंग्स ऑफ़ पोप" और "शैतान के रैग्ज़" के रूप में की बलिदान का त्याग मानव बलिदान रोमन कैथोलिक चर्च (Roman Catholic Church) ने इसे और अधिक धार्मिक उन्मुख रूप में इस त्यौहार को बढ़ावा देने के द्वारा प्रतिक्रिया व्यक्त की. अंग्रेज़ी गृहयुद्ध के दौरान निम्नलिखित सांसद (Parliamentarian) की राजा चार्ल्स I (King Charles I) के ऊपर जीत, इंग्लैंड के नैतिकतावादी (Puritan) शासकों ने 1647 में क्रिसमस पर रोक लगा दी.क्रिसमस के पहले दंगों कई शहरों में हो गए और कई सप्ताह के लिए कैंटरबरी (Canterbury) को दंगाइयों द्वारा नियंत्रित किया गया, जो होली के साथ दरवाजे सजाया करते थे और राजभक्त नारे चिल्लाते थे।[25] चार्ल्स द्वितीय की 1660 में अंग्रेज़ी बहाली (Restoration) पर प्रतिबंध समाप्त हो गया लेकिन कई पादरी अभी भी क्रिसमस के समारोह को अस्वीकृत करते हैं। कॉलोनियल अमेरिका (औपनिवेशिक अमेरिका) में, "न्यू इंग्लैंड" के तीर्थयात्री ने क्रिसमस को अस्वीकृत कर दिया; इसका समारोह बोस्टन, मैसाचुसेट्स में 1659 से 1681 तक गैरकानूनी घोषित किया गया। इसी समय, वर्जीनिया (Virginia) और न्यूयॉर्क के ईसाई निवासियों ने इस छुट्टी को आज़ादी से मनाया.क्रिसमस संयुक्त राज्य अमेरिका में अमेरिकी क्रांति (American Revolution) के बाद शुरू हो गया, जब इसे एक अंग्रेज़ी कस्टम माना गया था।[26] वास्तव में, एक अमेरिकी क्रांतिकारियों की सबसे बड़ी सफलता ट्रेंटन का युद्ध क्रिसमस पर में हेस्सियन भाड़े के सैनिक टुकड़ियों पर हमला करके perpetuated था। 1820 से, इंग्लैंड में साम्प्रदायिकता (sectarian) तनाव ठीक होने लगा था और ब्रिटिश लेखकों चिंता करने लगे कि क्रिसमस ख़तम होने लगा था, विशेष रूप से लेखक विलियम विन्स्तान्ले ने फिर से इस त्योहार को प्रसिद्धि दिलाने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. ट्यूडर अवधि (Tudor) क्रिसमस की हार्दिक खुशी की एक समय के रूप में और प्रयासों के अवकाश को पुनर्जीवित करने के लिए बनाए गए थे। चार्ल्स डिक्केन्स (Charles Dickens) की किताब एक क्रिसमस कैरल, 1843 में प्रकाशित, ने क्रिसमस को छुट्टी के रूप में बदलने में एक प्रमुख भूमिका निभाई परिवार (family), सद्भावना और सांप्रदायिक उत्सव और अधिक से अधिक दया पर ज़ोर दिया.[27] वॉशिंगटन इरविंग (Washington Irving) द्वारा लिखी गयी कई लघु कहानियो (short stories) में से अमेरिका में क्रिसमस में लोगों की रुचि जागृत हुई . ये कहानियाँ उसकी ग़ेओफ़्फ़्रेय क्रेयों की संक्षिप्त वर्णन बुक (The Sketch Book of Geoffrey Crayon) और "ओल्ड क्रिसमस", में प्रकाशित थी और कुछ 1822 के क्लेमेंट क्लार्के मूरे (Clement Clarke Moore)'(या शायद हेनरी बीक्मन लिविनग्स्तों (Henry Beekman Livingston)) द्वारा लिखित ए विज़िट फ्रॉम सत. निकोलस (A Visit From St. Nicholas) (जो मशहूर रूप से पहले पंक्ती: त्वास दी नाईट बिफोर क्रिसमस के नाम से जानी जाती है) कविताओं में थीं।Irving की कहानियों से इंग्लैंड में प्रेम और साद भावना से मनाया जाने वाले छुट्टियों का जिक्र है हालांकि कुछ तर्क है कि Irving, ने अपने द्वारा जिक्र किए परम्परण की शुरुआत की थी ओ उनके अमेरिकन पाठकों[28] से प्रभावित थे कविता ए विज़िट फ्रॉम सत. निकोलस ने उपहार बदले और मौसमी क्रिसमस की खरीदारी की परंपरा लोकप्रिय आर्थिक महत्व की कल्पना करनी शुरू की.[29]हेरिएट बीचेर स्तोवे (Harriet Beecher Stowe) द्वारा 1850 में "दी फर्स्ट क्रिसमस इन न्यू इंग्लैंड", लिखी किताब में एक ऐसे छवि भी है जो क्रिसमस के बारे में कहती है की क्रिसमस खरीदारी के होड़[30] की वजह से अपना असल अर्ध खोता जा रहा है उल्य्स्सेस एस ग्रांट ने 1870 में क्रिसमस को कानूनी रूप से एक फेडरल छुट्टी घोषित किया। सांता क्लॉस और अन्य तोहफे लाने वाले अमरीकी गृहयुद्ध के दौरान थॉमस नस्त के 'पहले सांता क्लॉस का कार्टून, हार्पर'स वीकली, 1863 में पहली बार पश्चिमी संस्कृति से उभरा हुआ, जहाँ छुट्टी का मतलब दोस्तों और रिश्तेदारों में उपहार लेना देना होता है वहां कुछ उपहार सांता क्लॉस के छवि से मिलते हैं (इहे और भी नामो से जाना जाता है क्रिसमस के पिता सेंट निकोलस या सेंट निलोलास, सिन्तेर्क्लास क्रिस क्रिंगले, पेरे नोएल, जौलुपुक्की बब्बो नाताले, वेइहनक्ट्समन कैसरिया के बेसिल और डेड मोरोज़ (पिता फ्रॉस्ट) सांता क्लॉस की लोकप्रिय छवि को जर्मन मूल के अमेरिकी कार्टूनिस्ट थॉमस नस्ट (1840-1902) के द्वारा बनाया गया, जो हर साल एक नई छवि को बनाते थे, 1863 से शुरू.१८८० तक, नस्त जिसे अब हम संता कहते हैं उसके पहचान बनी छवि को 1920 के दशक में विज्ञापनदाताओं के द्वारा मानकीकृत किया गया।[31] फ़ादर क्रिसमस जो संता की छवि को predate करते है उनका चरित्र सबसे पहले १५ सन्तुरी में प्रयोग में आए परन्तु ये सिर्फ़ छुट्टी मेर्रीमेकिंग और मतवालापन [32] केसाथ होता है विक्टोरियन ब्रिटेन, में उसकी छवि का पुनर्निर्माण किया ताकि वो संता की छवि से मिल सके फ़्रेंच पेरे नोएल भी संता के तर्ज़ पैर ही काम करते हैं इटली में मन जाता है की बब्बो नाताले संता की तरह काम का करती है जबकि ला बेफाना खिलोने लेट है जो घोषणा के पूर्व संध्या पैर आती है कहा जाता है की La बेफाना को छोटे येशु के लिए खिलोने लेन के लिए भेजा गया था वो रस्ते में भटक गयी अब. वो सभी बच्चों के लिए उपहार लती है कुछ सभ्यताओं में संता क्लॉज़ के साथ क्नेच्त रुप्रेच्त या ब्लैक पीटर भी होते हैं अन्य संस्करणों में, अप्सराओं ने खिलौने बनाये. उसकी पत्नी को श्रीमती क्लॉस के रूप में संदर्भित किया जाता है। लैटिन अमेरिका के देशों {जैसे वेनेंज़ुएला में जो परम्परा आज भी चली आ है उसके अनुसार संता खिलोने बाना कर बालक यीशु को देता है जो असल में सभी बच्चों के घर इसे पहुचाते हा यह कहानी एक पुराणी धार्मिक मान्यताओं और आज के आधुनिक युग में विश्वीकरण से मिलकर बनी है, सबसे खासकर सांता क्लॉस के प्रतिमा विज्ञान जो संयुक्त राज्य अमेरिका से आयात से प्रभावित है। अल्टो अदिगे (इटली), आस्ट्रिया, चेक गणराज्य दक्षिणी जर्मनी, हंगर लियक़्टँस्टीन, स्लोवाकिया और स्विट्जरलैंड, इस क्रिस्टकाइंड जेज़ीसेक चेक, जेज़ुस्का में हंगरियन और Ježiško में स्लोवाक में) उपहार लेट हैं र्मन सेंट निकोलौस एइह्नच्त्स्मन (जो सांता क्लॉस के जर्मन संस्करण) है।) के समान नहीं हैसत. निकोलोउस बिशोप एक बिशोप की पोषाक पहन कर क्नेच्त रुप्रेच्त के साथ. 6 दिसम्बर को छोटे छोटे तोहफे लेकर (जैसे तोफ्फे, नुट्स और फल) आते हैं हलाकि दुनिया भर के की बहुत से अभिभावक अपने बच्चे| को सांता क्लॉस की कहानी सुनते हैं तथा और उप्फार देनेवालों की कहानी सुनते है पैर बहुत से अभिभावक इस ग़लत[33] मान कर इसका विरोध करते हैं। क्रिसमस का पेड़ और अन्य सजावट क्रिसमस का पेड़ को अक्सर बुतपरस्त परंपरा और अनुष्ठान के ईसाईता के रूप में जाना जाता है और तकालीन उच्चतम शिखर के आस पास सदा बहार टहनियों और बुतपरस्ती का एक रूपांतर पेड़ की पूजा[34] ऐ पिसमे शामिल होती है अंग्रेजी भाषा में कहा जाने वाला वाक्यांश क्रिसमस ट्री सबसे फेले 1835[32] मे दर्ज किया गया और ये जर्मन भाषा के एक आयत का प्रतिनिधित्व करता है आज के युग का क्रिसमस ट्री का रिवाज़ मन जाता है की जर्मनी में 18वि शाताब्दी वैन रेंतेर्घेम, टोनी. जब सांता एक जादूगर था।सेंट पॉल: ल्लेवेल्ल्यं प्रकाशन, मार्टिन लुथेर ने 16 वीं शाताब्दी [35][36] मे शुरू किया जर्मनी से इंग्लैंड में सबसे पहले इस प्रथा को रानी चर्लोत्ते, जॉर्ज III की पत्नी ने शुरू किया था पर इसे ज्यादा सफलतापूर्वक प्रिंस अलबर्ट ने विक्टोरिया के शासन में आगे बढाया. लगभग उसी समय, जर्मन आप्रवासी संयुक्त राज्य में यह प्रथा शुरू की.[37] क्रिसमस पेड की सजावट रौशनी (lights) और क्रिसमस के गहने से भी होती है। 19 वीं सदी के बाद से पोंसेत्तिया क्रिसमस के साथ जोड़ा जाने लगा.अन्य लोकप्रिय छुट्टी के पौधों में शामिल हैं हॉली अमरबेल लाल, अमर्य्ल्लिस और क्रिसमस का कटीला पौधा. क्रिसमस के पेड के अतिरिक्त घरों के अन्दर दूसरे पौधों से भी सजाया जाता है जिसमे फूलों की माला और सदा बहार पत्ते. शामिल हैं। ऑस्ट्रेलिया उत्तरी और दक्षिण अमेरिका और यूरोप का कुछ हिस्सा पारंपरिक रूप से सजाया जाता है जिसमे घर के बहार की बत्तियों से सजावट स्लेड (बेपहियों की गाड़ी), बर्फ का इंसान और अन्य क्रिसमस के मूरत शामिल होते हैं नगर पालिका भी अक्सर सजावट करते हैं क्रिसमस के पताका स्ट्रीट लाइट से टंगा होता है और शहर के हर वर्ग[38] में क्रिसमस के पोधे रखे जाते हैं पश्चिमी दुनिया में रंगीन कागजों पे धर्मनिरपेक्ष या धार्मिक क्रिसमस मोटिफ्स चप्पा हुआ कागज़ का रोल निर्मित करते हैं जिसमे लोग अपने उपहार लपेटेते हैं क्रिसमस गाँव का प्रदर्शन भी कई घरों में इस मौसम में एक परम्परा बन गया है। बाकी पारंपरिक सजावट में घंटी मोमबत्ती कैंडी केन्स]] बड़े मोजे पुष्पमालाएं और फ़रिश्ता शामिल होते हैं। क्रिसमस की तयारी बारहवीं रात को उतारी जाती है जो 5 जनवरी की शाम का दिन होता हैं। क्रिसमस टिकट बहुत से देशों में क्रिसमस के समय स्मारक डाक टिकट (commemorative stamp) भी जारी करते हैं ददक तिच्केतों का प्रयोग करने वाले इसे क्रिसमस कार्ड (Christmas card) भेजने में करते थे खास कर के डाक टिकट संग्रह (फिलातेलिस्ट्स) (philatelists).ये स्टांप भी आम डाक टिकेट(postage stamps) की तरह ही होते हैं। बाकी स्टांप की तरह इस पर क्रिसमस की मुहर (Christmas seal) नहीं होते और ये बारहों महीने काम में लिया जा सकता है वे आमतौर कुछ समय पहले, अक्टूबर के शरुआत से दिसम्बर के शुरुआत तक बिक्री के लिए निकल जाते हैं और काफी मात्रा में मुद्रित कर रहे हैं। 1898 में कनाडा द्वारा स्टांप जरी किया गया इम्पीरियल पैसा डाक दर का उद्घाटन किया गया। इस स्टांप पैर एक ग्लोब बना है और नीचे "ऐक्स्मस 1898" इंकित है 1937, में ऑस्ट्रिया ने दो क्रिसमस ग्रीटिंग्स वाले स्टांप जिसमे गुलाब (rose) और राशिः चक्र (zodiac) के चिह्न अंकित थे जरी किया 1939 में ब्राजील ने ४ सेमी पोस्टल (semi-postal) स्टांप जारी किए. जिसमे तीन राजा (three kings) और बेत्लेहेम का एक तारा (star of Bethlehem) एक फ़रिश्ता (एंजल) और बच्चा सदरन क्रॉस (Southern Cross) और बच्चा और एक माँ और बच्चा के चित्र हैं उस का डाक विभाग (US Postal Service) हर साल इस उपलक्ष में धार्मिक-थीम्ड और एक धर्मनिरपेक्ष-थीम्ड वाले स्टांप जरी करता है क्रिसमस का अर्थशास्त्र क्रिसमस आमतौर पर बहुत सी देशों के लिए सबसे बड़ा वार्षिक आर्थिक उत्तेजना लाता है। सभी खुदरा दूकानों में बिक्री अचानक से बढ़ जाती है। दूकानों में नए ये सामान मिलने लगते हैं क्यूंकि लोग सजावट. के सामान. उपहार और अन्य सामान की करिदारी शुरू कर देते हैं। अमेरिका में, "क्रिसमस की खरीदारी का मौसम" आम तौर पर ब्लैक फ्राइडे (खरीदारी) (Black Friday), को शुरू होता है ये दिन धन्यवाद (Thanksgiving) दिन के बाद आता है हलाकि बहुत से दुनाकन में क्रिसमस के सामान अक्टूबर[39] के शुरुआत से ही मिलने लगते हैं। अधिकांश क्षेत्रों में, क्रिसमस दिवस व्यापार और वाणिज्य के लिए इस वर्ष के कम से कम सक्रिय दिन है, लगभग सभी, वाणिज्यिक खुदरा और संस्थागत व्यवसाय बंद हो जाती हैं लगभग सभी उद्योगों गतिविधि समाप्त (वर्ष के किसी भी दूसरे दिन की तुलना में) इंग्लैंड और वेल्स (England and Wales) में क्रिसमस के दिन (व्यापार) अधिनियम, (Christmas Day (Trading) Act 2004) क्रिसमस दिवस पर व्यापार से सभी बड़े दुकानों से बचाता है। स्कॉटलैंड वर्तमान में इसी तरह के कानून की योजना बना रही है। फ़िल्म स्टूडियो (Film studio) इन छुट्टी के दिनों में बहुत से मेहेंगी फिल्में रेलेसे करती है जिनमें जाया कर के क्रिसमस फिल्में काल्पनिक (fantasy) या उच्चा कोटि का ड्रामा होता था और उनका उत्पादन (production) मूल्य काफी ज्यादा होता था एक अर्थशास्त्री के विश्लेषण के अनुसार रूढ़िवादी मिक्रोएकोनोमिक सिद्धांत (microeconomic theory), उपहार में वृद्धि-देने के कारण.क्रिसमस एक डेथवेट लॉस (deadweight loss) इस नुकसान की गणना उपहार देने और उपहार लेने के बीच के खर्च को जोड़ कर होता है ऐसा लगता है कि 2001 में क्रिसमस अमेरिका में अकेले एक 4 अरब डॉलर डेडवेट की हानी की वजह था।[40][41] पेचीदा कारकों की वजह से, इस विश्लेषण का प्रयोग कभी कभी वर्तमान मिक्रोइकनॉमिक सिद्धांत में संभव दोषों की चर्चा करने के लिए किया जाता है। अन्य डेडवेट हानियों me शामिल हैं क्रिसमस के प्रभावों पर्यावरण और इस तथ्य पर कि उपहार अक्सर सफ़ेद हाथी की रखरखाव और भंडारण और अव्यवस्था में योगदान करने के लिए अधिरोपित करने की लागत, माना जाता है।[42] अन्य नाम क्रिसमस के लिए कई विकल्प शब्दों हैं, 1928 में सबसे पहले क्रिम्बो एक सलंग के रूप में जोह्न्लेंनों (John Lennon) चाप था इसका अन्य रूप का क्रिम्ब्ले सबसे पहले 1963 द बीटल्स/बेअत्लेस फेन क्लब क्रिसमस सिंगल मेंबड़ा दिन (Xmas) हालांकि क्रिसमस के धरम निरपेक्षता (secularization of Christmas) की बहस में शामिल है पर यह क्रिसमस का काफी लंबे समय से स्थापित संक्षिप्त नाम है। यूल (Yule) उत्तरी यूरोप में प्रयोग किया जाता है। संयुक्त राज्य अमेरिका में, शब्द " होलीडे ग्रीटिंग्स (holiday)" या "मौसम", क्रिसमस विवाद (Christmas controversy) के रूप में संबोधित किया जा सकता है। अमेरिका क्रिसमस विवाद 20 वीं शताब्दी के दौरान, संयुक्त राज्य अमेरिका में क्रिसमस विवाद (Christmas controversies) चलता रहा. हलांकि जून 26, 1870 को अ.सं.रा. राष्ट्रियापति उल्य्स्सेस एस ग्रांट Ulysses S. Grant). ने एक संघीय छुट्टी घोषित कर दिया था धर्मनिरपेक्ष क्रिसमस अवकाश के आर्थिक प्रभाव का महत्व 1930 के दशक में बढ़ाया गया था जब राष्ट्रपति फ्रैंकलिन डी. रूजवेल्ट (Franklin D. Roosevelt) ने धन्यवाद (Thanksgiving) छुट्टी तारीख को क्रिसमस की खरीदारी के मौसम का विस्तार करने का प्रस्ताव रखा. इस से इसी दौरान अर्थव्यवस्था के घना विषाद (ग्रेट डिप्रेशन) (Great Depression).[43] को बढावा का फायेदा मिला. धार्मिक नेताओं, एक के साथ इस कदम का विरोध न्यूयॉर्क टाइम्स. उनका मानना है की क्रिसमस सेर्मोंस जो christmas का सबसे जन विषय था उसे बढते वनिजिकरण[44] से खतरा है कुछ यह समझते है किको उ. स. सरकार के इस तरीके से संघीय अवकाश के रूप मान्य जन और इसे इस रूप में मायता देना चर्च और राज्य का विभाजन (separation of church and state) का उल्लंघन है यह हाल ही में केई बार परीक्षण में लाया गया जिसमे Lynch v. Donnelly (1984)[6] and Ganulin v. United States (1999).[45] शामिल हैं 6 दिसम्बर 1999 को गनुलिन व्.उनितेद स्टातेस (1999) के फैसले के अनुसार क्रिसमस दिवस की स्थापना और उसेकानूनी सार्वजनिक अवकाश के रूप में घोषित करनास्थापना खण्ड का उल्लंघन नहीं करता है क्योंकि यह एक वैध धर्मनिरपेक्ष उद्देश्य है। दिसम्बर 19, 2000.[46] को छठी सर्किट कोर्ट द्वारा इस apeel को वैध ठहराया gayaइसी समय, कई भक्त ईसाई क्रिसमस की मान्या ख़तम करने और इसे अश्लील तरीके से माने की वजह से काफी बिगड़ गए। उनका मनना था की धर्मनिरपेक्ष वाणिज्यिक समाज द्वारा इस पर्व की मान्यता ख़तम कर डी गयी है अतः वे इसके मान्यता को वापस करे की मांग कर रहे थे २१ शताब्दी तक अमेरिका में क्रिसमस के बारे में विवाद चलता रहा 2005 में कुछ ईसाई, अमेरिका के राजनीतिक टीकाकारों जैसे बिल ओ'रेइल्ली (कमेंटेटर) (Bill O'Reilly), ने साथ मिलकर उनके समझ से क्रिसमस का विवाद (secularization of Christmas) होने का विरोध किया उनका मानना था की यह अवकाश एक सामान्य धर्मनिरपेक्ष प्रवृत्ति (secular trend) है जिसे कुछ विरोधी ईसाई वाले व्यक्तियों और संगठनों द्वारा धमकी दी जा सकते है कथित राजनैतिक शुद्धता (political correctness).[47] को भो दोषी ठहरता है किताबें Penne L. Restad (New York: Oxford University Press, 1995).द्वारा Christmas in America: A History, आईएसबीएन 0-19-509300-3 स्टेफेन निस्सेंबौम (1996; न्यू यार्क: विंटेज बुक्स, 1997).द्वारा दी बैटल फॉर क्रिसमस, आईएसबीएन 0-679-74038-4 जोसफ फ. Kelly (August 2004: Liturgical Press) ISBN 978-०८१४६२९८४०-द्वारा The Origins of Christmas Clement A. Miles (1976: Dover Publications) ISBN 978-०४८६२३३५४३द्वर Christmas Customs and Traditions erry Bowler (October 2004: McClelland &amp; Stewart) ISBN 978-०७७१०१५३५९ द्वारा The World Encyclopedia of Christmas, Gerry Bowler (November 2007: McClelland &amp; Stewart) ISBN 978-0-7710-1668-4 द्वारा Santa Claus: A Biography, William J. Federer (December 2002: Amerisearch) ISBN 978-०९६५३५५७४२२द्वर There Really Is a Santa Claus: The History of St. Nicholas &amp; Christmas Holiday Traditions im Rosenthal (July 2006: Nelson Reference) ISBN 1-4185-0407-6 द्वारा St. Nicholas: A Closer Look at Christmas David Comfort (November 1995: Fireside) ISBN 978-०६८४८००५७८ द्वारा Just say Noel: A History of Christmas from the Nativity to the Nineties, एअरल W. काउंट (नवम्बर 1997: उल्य्स्सेस प्रेस) ISBN 978-1-56975-087-2 द्वारा 4000 येअर्स ऑफ़ क्रिसमस: अ गिफ्ट फ्रॉम थे अगेस इसे भी देखें क्रिसमस का समय "क्रिसमस की पूर्व संध्या" (Christmas Eve) "क्रिसमस रविवार" (Christmas Sunday) "दुनिया भर में क्रिसमस" (Christmas worldwide) "क्रिस्त्मसटाईड" (Christmastide) "छुट्टी का मौसम" (Holiday season) "छोटी क्रिसमस" (Little Christmas) "सर्दी का बीच क्रिसमस" (Midwinter Christmas) "सर्दी का बीच" (Midwinter) "क्रिसमस के बारह दिन" (Twelve days of Christmas) "यूलटाइड" (Yuletide) क्रिसमस के विषय क्रिसमस टेम्पलेट नीचे "ईसाइयों का यीशु" (Nativity of Jesus) सन्दर्भ बाहरी कडियां at Curlie श्रेणी:क्रिस्मस श्रेणी:पर्व श्रेणी:ईसाई त्यौहार श्रेणी:गूगल परियोजना
क्रिसमस कब मनाया जाता है?
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एडम स्मिथ (५जून १७२३ से १७ जुलाई १७९०) एक ब्रिटिश नीतिवेत्ता, दार्शनिक और राजनैतिक अर्थशास्त्री थे। उन्हें अर्थशास्त्र का पितामह भी कहा जाता है।आधुनिक अर्थशास्त्र के निर्माताओं में एडम स्मिथ (जून 5, 1723—जुलाई 17, 1790) का नाम सबसे पहले आता है. उनकी पुस्तक ‘राष्ट्रों की संपदा(The Wealth of Nations) ने अठारहवीं शताब्दी के इतिहासकारों एवं अर्थशास्त्रियों को बेहद प्रभावित किया है. कार्ल मार्क्स से लेकर डेविड रिकार्डो तक अनेक ख्यातिलब्ध अर्थशास्त्री, समाजविज्ञानी और राजनेता एडम स्मिथ से प्रेरणा लेते रहे हैं. बीसवीं शताब्दी के अर्थशास्त्रियों में, जिन्होंने एडम स्मिथ के विचारों से प्रेरणा ली है, उनमें मार्क्स, एंगेल्स, माल्थस, मिल, केंस(Keynes) तथा फ्राइडमेन(Friedman) के नाम उल्लेखनीय हैं. स्वयं एडम स्मिथ पर अरस्तु, जा॓न ला॓क, हा॓ब्स, मेंडविले, फ्रांसिस हचसन, ह्यूम आदि विद्वानों का प्रभाव था. स्मिथ ने अर्थशास्त्र, राजनीति दर्शन तथा नीतिशास्त्र के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य किया. किंतु उसको विशेष मान्यता अर्थशास्त्र के क्षेत्र में ही मिली. आधुनिक बाजारवाद को भी एडम स्मिथ के विचारों को मिली मान्यता के रूप में देखा जा सकता है. एडम स्मिथ के जन्म की तिथि सुनिश्चित नहीं है. कुछ विद्वान उसका जन्म पांच जून 1723 को तथा कुछ उसी वर्ष की 16 जून को मानते हैं. जो हो उसका जन्म ब्रिटेन के एक गांव किर्काल्दी(Kirkaldy, Fife, United Kingdom) में हुआ था. एडम के पिता कस्टम विभाग में इंचार्ज रह चुके थे. किंतु उनका निधन स्मिथ के जन्म से लगभग छह महीने पहले ही हो चुका था. एडम अपने माता–पिता की संभवतः अकेली संतान था. वह अभी केवल चार ही वर्ष का था कि आघात का सामना करना पड़ा. जिप्सियों के एक संगठन द्वारा एडम का अपहरण कर लिया गया. उस समय उसके चाचा ने उसकी मां की सहायता की. फलस्वरूप एडम को सुरक्षित प्राप्त कर लिया गया. पिता की मृत्यु के पश्चात स्मिथ को उसकी मां ने ग्लासगो विश्वविद्यालय में पढ़ने भेज दिया. उस समय स्मिथ की अवस्था केवल चौदह वर्ष थी. प्रखर बुद्धि होने के कारण उसने स्कूल स्तर की पढ़ाई अच्छे अंकों के साथ पूरी की, जिससे उसको छात्रवृत्ति मिलने लगी. जिससे आगे के अध्ययन के लिए आ॓क्सफोर्ड विश्वविद्यालय जाने का रास्ता खुल गया. वहां उसने प्राचीन यूरोपीय भाषाओं का ज्ञान प्राप्त किया. उस समय तक यह तय नहीं हो पाया था कि भाषा विज्ञान का वह विद्यार्थी आगे चलकर अर्थशास्त्र के क्षेत्र में न केवल नाम कमाएगा, बल्कि अपनी मौलिक स्थापनाओं के दम पर वैश्विक अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में युगपरिवर्तनकारी योगदान भी देगा. सन 1738 में स्मिथ ने सुप्रसिद्ध विद्वान–दार्शनिक फ्रांसिस हचीसन के नेतृत्व में नैतिक दर्शनशास्त्र में स्नातक की परीक्षा पास की. वह फ्रांसिस की मेधा से अत्यंत प्रभावित था तथा उसको एवं उसके अध्यापन में बिताए गए दिनों को, अविस्मरणीय मानता था. अत्यंत मेधावी होने के कारण स्मिथ की प्रतिभा का॓लेज स्तर से ही पहचानी जाने लगी थी. इसलिए अध्ययन पूरा करने के पश्चात युवा स्मिथ जब वापस अपने पैत्रिक नगर ब्रिटेन पहुंचा, तब तक वह अनेक महत्त्वपूर्ण लेक्चर दे चुका था, जिससे उसकी ख्याति फैलने लगी थी. वहीं रहते हुए 1740 में उसने डेविड ह्यूम की चर्चित कृति A Treatise of Human Nature का अध्ययन किया, जिससे वह अत्यंत प्रभावित हुआ. डेविड ह्यूम उसके आदर्श व्यक्तियों में से था. दोनों में गहरी दोस्ती थी. स्वयं ह्यूम रूसो की प्रतिभा से बेहद प्रभावित थे. दोनों की दोस्ती के पीछे एक घटना का उल्लेख मिलता है. जिसके अनुसार ह्यूम ने एक बार रूसो की निजी डायरी उठाकर देखी तो उसमें धर्म, समाज, राजनीति, अर्थशास्त्र आदि को लेकर गंभीर टिप्पणियां की गई थीं. उस घटना के बाद दोनों में गहरी मित्रता हो गई. ह्यूम एडम स्मिथ से लगभग दस वर्ष बड़ा था. डेविड् हयूम के अतिरिक्त एडम स्मिथ के प्रमुख दोस्तों में जा॓न होम, ह्यूज ब्लेयर, लार्ड हैलिस, तथा प्रंसिपल राबर्टसन आदि के नाम नाम उल्लेखनीय हैं.अपनी मेहनत एवं प्रतिभा का पहला प्रसाद उसको जल्दी मिल गया. सन 1751 में स्मिथ को ग्लासगा॓ विश्वविद्यालय में तर्कशास्त्र के प्रवक्ता के पद पर नौकरी मिल गई. उससे अगले ही वर्ष उसको नैतिक दर्शनशास्त्र का विभागाध्यक्ष बना दिया गया. स्मिथ का लेखन और अध्यापन का कार्य सतत रूप से चल रहा था. सन 1759 में उसने अपनी पुस्तक ‘नैतिक अनुभूतियों का सिद्धांत’ (Theory of Moral Sentiments) पूरी की. यह पुस्तक अपने प्रकाशन के साथ ही चर्चा का विषय बन गई. उसके अंग्रेजी के अलावा जर्मनी और फ्रांसिसी संस्करण हाथों–हाथ बिकने लगे. पुस्तक व्यक्ति और समाज के अंतःसंबंधों एवं नैतिक आचरण के बारे में थी. उस समय तक स्मिथ का रुझान राजनीति दर्शन एवं नीतिशास्त्र तक सीमित था. धीरे–धीरे स्मिथ विश्वविद्यालयों के नीरस और एकरस वातावरण से ऊबने लगा. उसे लगने लगा कि जो वह करना चाहता है वह का॓लेज के वातावरण में रहकर कर पाना संभव नहीं है. इस बीच उसका रुझान अर्थशास्त्र के प्रति बढ़ा था. विशेषकर राजनीतिक दर्शन पर अध्यापन के दौरान दिए गए लेक्चरर्स में आर्थिक पहलुओं पर भी विचार किया गया था. उसके विचारों को उसी के एक विद्यार्थी ने संकलित किया, जिन्हें आगे चलकर एडविन केनन ने संपादित किया. उन लेखों में ही ‘वैल्थ आ॓फ नेशनस्’ के बीजतत्व सुरक्षित थे. करीब बारह वर्ष अध्यापन के क्षेत्र में बिताने के पश्चात स्मिथ ने का॓लेज की नौकरी से त्यागपत्र दे दिया और जीविकोपार्जन के लिए ट्यूशन पढ़ाने लगा. इसी दौर में उसने फ्रांस तथा यूरोपीय देशों की यात्राएं कीं तथा समकालीन विद्वानों डेविड ह्यूम, वाल्तेयर, रूसो, फ्रांसिस क्वेसने (François Quesnay), एनी राबर्ट जेकुइस टुरगोट(Anne-Robert-Jacques Turgot) आदि से मिला. इस बीच उसने कई शोध निबंध भी लिखे, जिनके कारण उसकी प्रष्तिठा बढ़ी. कुछ वर्ष पश्चात वह वह किर्काल्दी वापस लौट आया. अपने पैत्रिक गांव में रहते हुए स्मिथ ने अपनी सर्वाधिक चर्चित पुस्तक The Wealth of Nations पूरी की, जो राजनीतिविज्ञान और अर्थशास्त्र पर अनूठी पुस्तक है. 1776 में पुस्तक के प्रकाशन के साथ ही एडम स्मिथ की गणना अपने समय के मूर्धन्य विद्वानों में होने लगी. इस पुस्तक पर दर्शनशास्त्र का प्रभाव है. जो लोग स्मिथ के जीवन से परिचित नहीं हैं, उन्हें यह जानकर और भी आश्चर्य होगा कि स्मिथ ने इस पुस्तक की रचना एक दर्शनशास्त्र का प्राध्यापक होने के नाते अपने अध्यापन कार्य के संबंध में की थी. उन दिनों विश्वविद्यालयों में इतिहास और दर्शनशास्त्र की पुस्तकें ही अधिक पढ़ाई जाती थीं, उनमें एक विषय विधिवैज्ञानिक अध्ययन भी था. विधिशास्त्र के अध्ययन का सीधा सा तात्पर्य है, स्वाभाविक रूप से न्यायप्रणालियों का विस्तृत अध्ययन. प्रकारांतर में सरकार और फिर राजनीति अर्थव्यवस्था का चिंतन. इस तरह यह साफ है कि अपनी पुस्तक ‘राष्ट्रों की संपदा’ में स्मिथ ने आर्थिक सिद्धांतों की दार्शनिक विवेचनाएं की हैं. विषय की नवीनता एवं प्रस्तुतीकरण का मौलिक अंदाज उस पुस्तक की मुख्य विशेषताएं हैं. स्मिथ पढ़ाकू किस्म का इंसान था. उसके पास एक समृद्ध पुस्तकालय था, जिसमें सैंकड़ों दुर्लभ ग्रंथ मौजूद थे. रहने के लिए उसको शांत एवं एकांत वातावरण पसंद था, जहां कोई उसके जीवन में बाधा न डाले. स्मिथ आजीवन कुंवारा ही रहा. जीवन में सुख का अभाव एवं अशांति की मौजूदगी से कार्य आहत न हों, इसलिए उसका कहना था कि समाज का गठन मनुष्यों की उपयोगिता के आधार पर होना चाहिए, जैसे कि व्यापारी समूह गठित किए जाते हैं; ना कि आपसी लगाव या किसी और भावनात्मक आधार पर. अर्थशास्त्र के क्षेत्र में एडम स्मिथ की ख्याति उसके सुप्रसिद्ध सिद्धांत ‘लेजे फेयर (laissez-faire) के कारण है, जो आगे चलकर उदार आर्थिक नीतियों का प्रवर्तक सिद्धांत बना. लेजे फेयर का अभिप्राय था, ‘कार्य करने की स्वतंत्रता’ अर्थात आर्थिक गतिविधियों के क्षेत्र में सरकार का न्यूनतम हस्तक्षेप. आधुनिक औद्योगिक पूंजीवाद के समर्थक और उत्पादन व्यवस्था में क्रांति ला देने वाले इस नारे के वास्तविक उदगम के बारे में सही–सही जानकारी का दावा तो नहीं किया जाता. किंतु इस संबंध में एक बहुप्रचलित कथा है, जिसके अनुसार इस उक्ति का जन्म 1680 में, तत्कालीन प्रभावशाली फ्रांसिसी वित्त मंत्री जीन–बेपटिस्ट कोलबार्ट की अपने ही देश के व्यापरियों के साथ बैठक के दौरान हुआ था. व्यापारियों के दल का नेतृत्व एम. ली. जेंड्री कर रहे थे. व्यापारियों का दल कोलबार्ट के पास अपनी समस्याएं लेकर पहुंचा था. उन दिनों व्यापारीगण एक ओर तो उत्पादन–व्यवस्था में निरंतर बढ़ती स्पर्धा का सामना कर रहे थे, दूसरी ओर सरकारी कानून उन्हें बाध्यकारी लगते थे. उनकी बात सुनने के बाद कोलबार्ट ने किंचित नाराजगी दर्शाते हुए कहा— ‘इसमें सरकार व्यापारियों की भला क्या मदद कर सकती है?’ इसपर ली. जेंड्री ने सादगी–भरे स्वर में तत्काल उत्तर दिया—‘लीजेज–नाउज फेयर [Laissez-nous faire (Leave us be, Let us do)].’ उनका आशय था, ‘आप हमें हमारे हमारे हाल पर छोड़ दें, हमें सिर्फ अपना काम करने दें.’ इस सिद्धांत की लोकप्रियता बढ़ने के साथ–साथ, एडम स्मिथ को एक अर्थशास्त्री के रूप में पहचान मिलती चली गई. उस समय एडम स्मिथ ने नहीं जानता था कि वह ऐसे अर्थशास्त्रीय सिद्धांत का निरूपण कर रहा है, जो एक दिन वैश्विक अर्थव्यवस्था के लिए क्रांतिकारी सिद्ध होगा. ‘राष्ट्रों की संपदा’ नामक पुस्तक के प्रकाशन के दो वर्ष बाद ही स्मिथ को कस्टम विभाग में आयुक्त की नौकरी मिल गई. उसी साल उसे धक्का लगा जब उसके घनिष्ट मित्र और अपने समय के जानेमाने दार्शनिक डेविड ह्यूम की मृत्यु का समाचार उसको मिला. कस्टम आयुक्त का पद स्मिथ के लिए चुनौती–भरा सिद्ध हुआ. उस पद पर रहते हुए उसे तस्करी की समस्या से निपटना था; जिसे उसने अपने ग्रंथ राष्ट्रों की संपदा में ‘अप्राकृतिक विधान के चेहरे के पीछे सर्वमान्य कर्म’ (Legitimate activity in the face of ‘unnatural’ legislation) के रूप में स्थापित किया था. 1783 में एडिनवर्ग रा॓यल सोसाइटी की स्थापना हुई तो स्मिथ को उसका संस्थापक सदस्य मनोनीत किया गया. अर्थशास्त्र एवं राजनीति के क्षेत्र में स्मिथ की विशेष सेवाओं के लिए उसको ग्ला॓स्ग विश्वविद्यालय का मानद रेक्टर मनोनीत किया गया. वह आजीवन अविवाहित रहा. रात–दिन अध्ययन–अध्यापन में व्यस्त रहने के कारण उसका स्वास्थ्य गड़बड़ाने लगा था. अंततः 19 जुलाई 1790 को, मात्र सढ़सठ वर्ष की अवस्था में एडिनबर्ग में उसकी मृत्यु हो गई. वैचारिकी एडम स्मिथ को आधुनिक अर्थव्यवस्था के निर्माताओं में से माना जाता है. उसके विचारों से प्रेरणा लेकर जहां कार्ल मार्क्स, एंगेल्स, मिल, रिकार्डो जैसे समाजवादी चिंतकों ने अपनी विचारधारा को आगे बढ़ाया, वहीं अत्याधुनिक वैश्विक अर्थव्यवस्था के बीजतत्व भी स्मिथ के विचारों में निहित हैं. स्मिथ का आर्थिक सामाजिक चिंतन उसकी दो पुस्तकों में निहित है. पहली पुस्तक का शीर्षक है— नैतिक अनुभूतियों के सिद्धांत’ जिसमें उसने मानवीय व्यवहार की समीक्षा करने का प्रयास किया है. पुस्तक पर स्मिथ के अध्यापक फ्रांसिस हचसन का प्रभाव है. पुस्तक में नैतिक दर्शन को चार वर्गों—नैतिकता, सदगुण, व्यक्तिगत अधिकार की भावना एवं स्वाधीनता में बांटते हुए उनकी विवेचना की गई है. इस पुस्तक में स्मिथ ने मनुष्य के संपूर्ण नैतिक आचरण को निम्नलिखित दो हिस्सों में वर्गीकृत किया है— 1. नैतिकता की प्रकृति (Nature of morality) २. नैतिकता का लक्ष्य (Motive of morality) नैतिकता की प्रकृति में स्मिथ ने संपत्ति, कामनाओं आदि को सम्मिलित किया है. जबकि दूसरे वर्ग में स्मिथ ने मानवीय संवेदनाओं, स्वार्थ, लालसा आदि की समीक्षा की है. स्मिथ की दूसरी महत्त्वपूर्ण पुस्तक है—‘राष्ट्रों की संपदा की प्रकृति एवं उसके कारणों की विवेचना’ यह अद्वितीय ग्रंथ पांच खंडों में है. पुस्तक में राजनीतिविज्ञान, अर्थशास्त्र, मानव व्यवहार आदि विविध विषयों पर विचार किया गया है, किंतु उसमें मुख्य रूप से स्मिथ के आर्थिक विचारों का विश्लेषण है. स्मिथ ने मुक्त अर्थव्यवस्था का समर्थन करते हुए दर्शाया है कि ऐसे दौर में अपने हितों की रक्षा कैसे की जा सकती है, किस तरह तकनीक का अधिकतम लाभ कमाया जा सकता है, किस प्रकार एक कल्याणकारी राज्य को धर्मिकता की कसौटी पर कसा जा सकता है और कैसे व्यावसायिक स्पर्धा से समाज को विकास के रास्ते पर ले जाया जा सकाता है. स्मिथ की विचारधारा इसी का विश्लेषण बड़े वस्तुनिष्ठ ढंग से प्रस्तुत करती है. इस पुस्तक के कारण स्मिथ पर व्यक्तिवादी होने के आरोप भी लगते रहे हैं. लेकिन जो विद्वान स्मिथ को निरा व्यक्तिवादी मानते हैं, उन्हें यह तथ्य चौंका सकता है कि उसका अधिकांश कार्य मानवीय नैतिकता को प्रोत्साहित करने वाला तथा जनकल्याण पर केंद्रित है. अपनी दूसरी पुस्तक ‘नैतिक अनुभूतियों का सिद्धांत’ में स्मिथ लिखता है— ‘पूर्णतः स्वार्थी व्यक्ति की संकल्पना भला कैसे की जा सकती है. प्रकृति के निश्चित ही कुछ ऐसे सिद्धांत हैं, जो उसको दूसरों के हितों से जोड़कर उनकी खुशियों को उसके लिए अनिवार्य बना देते हैं, जिससे उसे उन्हें सुखी–संपन्न देखने के अतिरिक्त और कुछ भी प्राप्त नहीं होता.’ स्मिथ के अनुसार स्वार्थी और अनिश्चितता का शिकार व्यक्ति सोच सकता है कि प्रकृति के सचमुच कुछ ऐसे नियम हैं जो दूसरे के भाग्य में भी उसके लिए लाभकारी सिद्ध हो सकते हैं तथा उसके लिए खुशी का कारण बन सकते हैं. जबकि यह उसका सरासर भ्रम ही है. उसको सिवाय ऐसा सोचने के कुछ और हाथ नहीं लग पाता. मानव व्यवहार की एकांगिकता और सीमाओं का उल्लेख करते हुए एक स्थान पर स्मिथ ने लिखा है कि— ‘हमें इस बात का प्रामाणिक अनुभव नहीं है कि दूसरा व्यक्ति क्या सोचता है. ना ही हमें इस बात का कोई ज्ञान है कि वह वास्तव में किन बातों से प्रभावित होता है. सिवाय इसके कि हम स्वयं को उन परिस्थितियों में होने की कल्पना कर कुछ अनुमान लगा सकें. छज्जे पर खडे़ अपने भाई को देखकर हम निश्चिंत भी रह सकते हैं, बिना इस बात की परवाह किए कि उसपर क्या बीत रही है. हमारी अनुभूतियां उसकी स्थिति के बारे में प्रसुप्त बनी रहती हैं. वे हमारे ‘हम’ से परे न तो जाती हैं, न ही जा सकती हैं; अर्थात उसकी वास्तविक स्थिति के बारे में हम केवल अनुमान ही लगा पाते हैं. न उसकी चेतना में ही वह शक्ति है जो हमें उसकी परेशानी और मनःस्थिति का वास्तविक बोध करा सके, उस समय तक जब तक कि हम स्वयं को उसकी परिस्थितियों में रखकर नहीं सोचते. मगर हमारा अपना सोच केवल हमारा सोच और संकल्पना है, न कि उसका. कल्पना के माध्यम से हम उसकी स्थिति का केवल अनुमान लगाने में कामयाब हो पाते हैं.’ उपर्युक्त उद्धरण द्वारा स्मिथ ने यथार्थ स्थिति बयान की है. हमारा रोजमर्रा का बहुत–सा व्यवहार केवल अनुमान और कल्पना के सहारे ही संपन्न होता है. भावुकता एवं नैतिकता के अनपेक्षित दबावों से बचते हुए स्मिथ ने व्यक्तिगत सुख–लाभ का पक्ष भी बिना किसी झिझक के लिया है. उसके अनुसार खुद से प्यार करना, अपनी सुख–सुविधाओं का खयाल रखना तथा उनके लिए आवश्यक प्रयास करना किसी भी दृष्टि से अकल्याणकारी अथवा अनैतिक नहीं है. उसका कहना था कि जीवन बहुत कठिन हो जाएगा यदि हमारी कोमल संवेदनाएं और प्यार, जो हमारी मूल भावना है, हर समय हमारे व्यवहार को नियंत्रित करने लगे, और उसमें दूसरों के कल्याण की कोई कामना ही न हो; या वह अपने अहं की रक्षा को ही सर्वस्व मानने लगे, और दूसरों की उपेक्षा ही उसका धर्म बन जाए. सहानुभूति तथा व्यक्तिगत लाभ एक दूसरे के विरोधी न होकर परस्पर पूरक होते हैं. दूसरों की मदद के सतत अवसर मनुष्य को मिलते ही रहते हैं. स्मिथ ‘राष्ट्रों की संपदा’ नामक ग्रंथ में परोपकार और कल्याण की व्याख्या बड़े ही वस्तुनिष्ट ढंग से करता है. स्मिथ के अनुसार अभ्यास की कमी के कारण हमारा मानस एकाएक ऐसी मान्यताओं को स्वीकारने को तैयार नहीं होता, हालांकि हमारा आचरण निरंतर उसी ओर इंगित करता रहता है. हमारे अंतर्मन में मौजूद द्वंद्व हमें निरंतर मथते रहते हैं. एक स्थान पर वह लिखता है कि केवल धर्म अथवा परोपकार के बल पर आवश्यकताओं की पूर्ति असंभव है. उसके लिए व्यक्तिगत हितों की उपस्थिति भी अनिवार्य है. वह लिखता है— ‘हमारा भोजन किसी कसाई, शराब खींचनेवाले या तंदूरवाले की दयालुता की सौगात नहीं है. यह उनके निहित लाभ के लिए, स्वयं के लिए किए गए कार्य का प्रतिफल है.’ स्मिथ के अनुसार यदि कोई आदमी धनार्जन के लिए परिश्रम करता है तो यह उसका अपने सुख के लिए किया गया कार्य है. लेकिन उसका प्रभाव स्वयं उस तक ही सीमित नहीं रहता. धनार्जन की प्रक्रिया में वह किसी ने किसी प्रकार दूसरों से जुड़ता है. उनका सहयोग लेता है तथा अपने उत्पाद के माध्यम से अपने साथ–साथ अपने समाज की आवश्यकताएं पूरी करता है. स्पर्धा के बीच कुछ कमाने के लिए उसे दूसरों से अलग, कुछ न कुछ उत्पादन करना ही पड़ता है. उत्पादन तथा उत्पादन के लिए प्रयुक्त तकनीक की विशिष्टता का अनुपात ही उसकी सफलता तय करता है. ‘राष्ट्रों की संपदा’ नामक ग्रंथ में स्मिथ लिखता है कि— ‘प्रत्येक उद्यमी निरंतर इस प्रयास में रहता है कि वह अपनी निवेश राशि पर अधिक से अधिक लाभ अर्जित कर सके. यह कार्य वह अपने लिए, केवल अपने भले की कामना के साथ करता है, न कि समाज के कल्याण की खातिर. यह भी सच है कि अपने भले के लिए ही वह अपने व्यवसाय को अधिक से अधिक आगे ले जाने, उत्पादन और रोजगार के अवसरों को ज्यादा से ज्यादा विस्तार देने का प्रयास करता है. किंतु इस प्रक्रिया में देर–सवेर समाज का भी हित–साधन होता है.’ पांच खंडों में लिखी गई पुस्तक ‘राष्ट्रों की संपदा’ में स्मिथ किसी राष्ट्र की समृद्धि के कारणों और उनकी प्रकृति को स्पष्ट करने का प्रयास भी किया है. किंतु उसका आग्रह अर्थव्यवस्था पर कम से कम नियंत्रण के प्रति रहा है. स्मिथ के अनुसार समृद्धि का पहला कारण श्रम का अनुकूल विभाजन है. यहां अनुकूलता का आशय किसी भी व्यक्ति की कार्यकुशलता का सदुपयोग करते हुए उसे अधिकतम उत्पादक बनाने से है. इस तथ्य को स्पष्ट करने के लिए स्मिथ का एक उदाहरण बहुत ही चर्चित रहा है— ‘कल्पना करें कि दस कारीगर मिलकर एक दिन में अड़तालीस हजार पिन बना सकते हैं, बशर्ते उनकी उत्पादन प्रक्रिया को अलग–अलग हिस्सों में बांटकर उनमें से हर एक को उत्पादन प्रक्रिया का कोई खास कार्य सौंप दिया जाए. किसी दिन उनमें से एक भी कारीगर यदि अनुपस्थित रहता है तो; उनमें से एक कारीगर दिन–भर में एक पिन बनाने में भी शायद ही कामयाब हो सके. इसलिए कि किसी कारीगर विशेष की कार्यकुशलता उत्पादन प्रक्रिया के किसी एक चरण को पूरा कर पाने की कुशलता है.’ स्मिथ मुक्त व्यापार के पक्ष में था. उसका कहना था कि सरकारों को वे सभी कानून उठा लेने चाहिए जो उत्पादकता के विकास के आड़े आकर उत्पादकों को हताश करने का कार्य करते हैं. उसने परंपरा से चले आ रहे व्यापार–संबंधी कानूनों का विरोध करते हुए कहा कि इस तरह के कानून उत्पादकता पर नकारात्मक प्रभाव डालते हैं. उसने आयात के नाम पर लगाए जाने वाले करों एवं उसका समर्थन करने वाले कानूनों का भी विरोध किया है. अर्थशास्त्र के क्षेत्र में उसका सिद्धांत ‘लैसे फेयर’ के नाम से जाना जाता है. जिसका अभिप्रायः है—उन्हें स्वेच्छापूर्वक कार्य करने दो (let them do). दूसरे शब्दों में स्मिथ उत्पादन की प्रक्रिया की निर्बाधता के लिए उसकी नियंत्रणमुक्ति चाहता था. वह उत्पादन–क्षेत्र के विस्तार के स्थान पर उत्पादन के विशिष्टीकरण के पक्ष में था, ताकि मशीनी कौशल एवं मानवीय श्रम का अधिक से अधिक लाभ उठाया जाए. उत्पादन सस्ता हो और वह अधिकतम तक पहुंच सके. उसका कहना था कि— ‘किसी वस्तु को यदि कोई देश हमारे देश में आई उत्पादन लागत से सस्ती देने को तैयार है तो यह हमारा कर्तव्य है कि उसको वहीं से खरीदें. तथा अपने देश के श्रम एवं संसाधनों का नियोजन इस प्रकार करें कि वह अधिकाधिक कारगर हो सकें तथा हम उसका उपयुक्त लाभ उठा सकें.’ स्मिथ का कहना था कि समाज का गठन विभिन्न प्रकार के व्यक्तियों, अनेक सौदागरों के बीच से होना चाहिए. बगैर किसी पारस्पिरिक लाभ अथवा कामना के होना चाहिए. उत्पादन की इच्छा ही उद्यमिता की मूल प्रेरणाशक्ति है. लेकिन उत्पादन के साथ लाभ की संभावना न हो, यदि कानून मदद करने के बजाय उसके रास्ते में अवरोधक बनकर खड़ा हो जाए, तो उसकी इच्छा मर भी सकती है. उस स्थिति में उस व्यक्ति और राष्ट्र दोनों का ही नुकसान है. स्मिथ के अनुसार— ‘उपभोग का प्रत्यक्ष संबंध उत्पादन से है. कोई भी व्यक्ति इसलिए उत्पादन करता करता है, क्योंकि वह उत्पादन की इच्छा रखता है. इच्छा पूरी होने पर वह उत्पादन की प्रक्रिया से किनारा कर सकता है अथवा कुछ समय के लिए उत्पादन की प्रक्रिया को स्थगित भी कर सकता है. जिस समय कोई व्यक्ति अपनी आवश्यकता से अधिक उत्पादन कर लेता है, उस समय अतिरिक्त उत्पादन को लेकर उसकी यही कामना होती है कि उसके द्वारा वह किसी अन्य व्यक्ति से, किसी और वस्तु की फेरबदल कर सके. यदि कोई व्यक्ति कामना तो किसी वस्तु की करता है तथा बनाता कुछ और है, तब उत्पादन को लेकर उसकी यही इच्छा हो सकती है कि वह उसका उन वस्तुओं के साथ विनिमय कर सके, जिनकी वह कामना करता है और उन्हें उससे भी अच्छी प्रकार से प्राप्त कर सके, जैसा वह उन्हें स्वयं बना सकता था.’ स्मिथ ने कार्य–विभाजन को पूर्णतः प्राकृतिक मानते हुआ उसका मुक्त स्वर में समर्थन किया है. यह उसकी वैज्ञानिक दृष्टि एवं दूरदर्शिता को दर्शाता है. उसके विचारों के आधार पर अमेरिका और यूरोपीय देशों ने मुक्त अर्थव्यवस्था को अपनाया. शताब्दियों बाद भी उसके विचारों की प्रासंगिकता यथावत बनी हुई है. औद्योगिक स्पर्धा में बने रहने के लिए चीन और रूस जैसे कट्टर साम्यवादी देश भी मुक्त अर्थव्यवस्था के समर्थक बने हुए हैं. उत्पादन के भिन्न–भिन्न पहलुओं का विश्लेषण करते हुए स्मिथ ने कहा कि उद्योगों की सफलता में मजदूर और कारीगर का योगदान भी कम नहीं होता. वे अपना श्रम–कौशल निवेश करके उत्पादन में सहायक बनते हैं. स्मिथ का यह भी लिखा है ऐसे स्थान पर जहां उत्पादन की प्रवृत्ति को समझना कठिन हो, वहां पर मजदूरी की दरें सामान्य से अधिक हो सकती हैं. इसलिए कि लोग, जब तक कि उन्हें अतिरिक्त रूप से कोई लाभ न हो, सीखना पसंद ही नहीं करेंगे. अतिरिक्त मजदूरी अथवा सामान्य से अधिक अर्जन की संभावना उन्हें नई प्रविधि अपनाने के लिए प्रेरित करती हैं. इस प्रकार स्मिथ ने सहज मानववृत्ति के विशिष्ट लक्षणों की ओर संकेत किया है. इसी प्रकार ऐसे कार्य जहां व्यक्ति को स्वास्थ्य की दृष्टि से प्रतिकूल स्थितियों में कार्य करना पड़े अथवा असुरक्षित स्थानों पर चल रहे कारखानों में मजदूरी की दरें सामान्य से अधिक रखनी पड़ेंगी. नहीं तो लोग सुरक्षित और पसंदीदा ठिकानों की ओर मजदूरी के लिए भागते रहेंगे और वैसे कारखानों में प्रशिक्षित कर्मियों का अभाव बना रहेगा. स्मिथ ने तथ्यों का प्रत्येक स्थान पर बहुत ही संतुलित तथा तर्कसंगत ढंग से उपयोग किया है. अपनी पुस्तक ‘राष्ट्रों की संपदा’ में वह स्पष्ट करता है कि कार्य की प्रवृत्ति के अंतर को वेतन के अंतर से संतुलित किया जा सकता है. उसके लेखन की एक विशेषता यह भी है कि वह बात को समझाने के लिए लंबे–लंबे वर्णन के बजाए तथ्यों एवं तर्कों का सहारा लेता है. उत्पादन–व्यवस्था के अंतरराष्ट्रीयकरण को लेकर भी स्मिथ के विचार आधुनिक अर्थचिंतन की कसौटी पर खरे उतरते हैं. इस संबंध में उसका मत था कि— ‘यदि कोई विदेशी मुल्क हमें किसी उपभोक्ता सामग्री को अपेक्षाकृत सस्ता उपलब्ध कराने को तैयार है तो उसे वहीं से मंगवाना उचित होगा. क्योंकि उसी के माध्यम से हमारे देश की कुछ उत्पादक शक्ति ऐसे कार्यों को संपन्न करने के काम आएगी जो कतिपय अधिक महत्त्वपूर्ण एवं लाभकारी हैं. इस व्यवस्था से अंततोगत्वा हमें लाभ ही होगा.’ विश्लेषण के दौरान स्मिथ की स्थापनाएं केवल पिनों की उत्पादन तकनीक के वर्णन अथवा एक कसाई तथा रिक्शाचालक के वेतन के अंतर को दर्शाने मात्र तक सीमित नहीं रहतीं. बल्कि उसके बहाने से वह राष्ट्रों के जटिल राजनीतिक मुद्दों को सुलझाने का भी काम करता है. अर्थ–संबंधों के माध्यम से अंतरराष्ट्रीय रणनीति बनाने का चलन आजकल आम हो चला है. संपन्न औद्योगिक देश यह कार्य बड़ी कुशलता के साथ करते हैं. मगर उसके बीजतत्व स्मिथ के चिंतन में अठारहवीं शताब्दी से ही मौजूद हैं. ‘राष्ट्रों की संपदा’ शृंखला की चैथी पुस्तक में सन 1776 में स्मिथ ने ब्रिटिश सरकार से साफ–साफ कह दिया था कि उसकी अमेरिकन कालोनियों पर किया जाने व्यय, उनके अपने मूल्य से अधिक है. इसका कारण स्पष्ट करते हुए उसने कहा था कि ब्रिटिश राजशाही बहुत खर्चीली व्यवस्था है. उसने आंकड़ों के आधार पर यह सिद्ध किया था कि राजनीतिक नियंत्रण के स्थान पर एक साफ–सुथरी अर्थनीति, नियंत्रण के लिए अधिक कारगर व्यवस्था हो सकती है. वह आर्थिक मसलों से सरकार को दूर रखने का पक्षधर था. इस मामले में स्मिथ कतिपय आधुनिक अर्थनीतिकारों से कहीं आगे था. लेकिन यदि सबकुछ अर्थिक नीतियों के माध्यम से पूंजीपतियों अथवा उनके सहयोग से बनाई गई व्यवस्था द्वारा ही संपन्न होना है तब सरकार का क्या दायित्व है? अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए वह क्या कर सकती है? इस संबंध में स्मिथ का एकदम स्पष्ट मत था कि सरकार पेटेंट कानून, कांट्रेक्ट, लाइसेंस एवं का॓पीराइट जैसी व्यवस्थाओं के माध्यम से अपना नियंत्रण बनाए रख सकती है. यही नहीं सरकार सार्वजनिक महत्त्व के कार्यों जैसे कि पुल, सड़क, विश्रामालय आदि बनाने का कार्य अपने नियंत्रण में रखकर जहां राष्ट्र की समृद्धि का लाभ जन–जन पहुंचा सकती है. प्राथमिकता के क्षेत्रों में, ऐसे क्षेत्रों में जहां उद्यमियों की काम करने की रुचि कम हो, विकास की गति बनाए रखकर सरकार अपने कर्तव्यों का निर्वहन कर सकती है. पूंजीगत व्यवस्था के समर्थन में स्मिथ के विचार कई स्थान पर व्यावहारिक हैं तो कई बार वे अतिरेक की सीमाओं को पार करते हुए नजर आते हैं. वह सरकार को एक स्वयंभू सत्ता के बजाय एक पूरक व्यवस्था में बदल देने का समर्थक था. जिसका कार्य उत्पादकता में यथासंभव मदद करना है. उसका यह भी विचार था कि नागरिकों को सुविधाओं के उपयोग के अनुपात में निर्धारित शुल्क का भुगतान भी करना चाहिए. लेकिन इसका अभिप्राय यह नहीं है कि स्मिथ सरकारों को अपने नागरिकों के कल्याण की जिम्मेदारी से पूर्णतः मुक्त कर देना चाहता था. उसका मानना था कि— ‘कोई भी समाज उस समय तक सुखी एवं समृद्ध नहीं माना जा सकता, जब तक कि उसके सदस्यों का अधिकांश, गरीब, दुखी एवं अवसादग्रस्त हो.’ व्यापार और उत्पादन तकनीक के मामले में स्मिथ मुक्त स्पर्धा का समर्थक था. उसका मानना था कि अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में स्पर्धा का आगमन ‘प्राकृतिक नियम’ के अनुरूप होगा. स्मिथ का प्राकृतिक नियम निश्चित रूप से जंगल के उस कानून का ही विस्तार है, जिसमें जीवन की जिजीविषा संघर्ष को अनिवार्य बना देती है. स्मिथ के समय में सहकारिता की अवधारणा का जन्म नहीं हुआ था, समाजवाद का विचार भी लोकचेतना के विकास के गर्भ में ही था. उसने एक ओर तो उत्पादन को स्पर्धा से जोड़कर उसको अधिक से अधिक लाभकारी बनाने पर जोर दिया. दूसरी ओर उत्पादन और नैतिकता को परस्पर संबद्ध कर उत्पादन–व्यवस्था के चेहरे को मानवीय बनाए रखने का रास्ता दिखाया. हालांकि अधिकतम मुनाफे को ही अपना अभीष्ठ मानने वाला पूंजीपति बिना किसी स्वार्थ के नैतिकता का पालन क्यों करे, उसकी ऐसी बाध्यता क्योंकर हो? इस ओर उसने कोई संकेत नहीं किया है. तो भी स्मिथ के विचार अपने समय में सर्वाधिक मौलिक और प्रभावशाली रहे हैं. स्मिथ ने आग्रहपूर्वक कहा था कि— ‘किसी भी सभ्य समाज में मनुष्य को दूसरों के समर्थन एवं सहयोग की आवश्यकता प्रतिक्षण पड़ती है. जबकि चंद मित्र बनाने के लिए मनुष्य को एक जीवन भी अपर्याप्त रह जाता है. प्राणियों में वयस्कता की ओर बढ़ता हुआ कोई जीव आमतौर पर अकेला और स्वतंत्र रहने का अभ्यस्त हो चुका होता है. दूसरों की मदद करना उसके स्वभाव का हिस्सा नहीं होता. किंतु मनुष्य के साथ ऐसा नहीं है. उसको अपने स्वार्थ के लिए हर समय अपने भाइयों एवं सगे–संबंधियों के कल्याण की चिंता लगी रहती है. जाहिर है मनुष्य अपने लिए भी यही अपेक्षा रखता है. क्योंकि उसके लिए केवर्ल शुभकामनाओं से काम चलाना असंभव ही है. वह अपने संबंधों को और भी प्रगाढ़ बनाने का कार्य करेगा, यदि वह उनकी सुख–लालसाओं में अपने लिए स्थान बना सके. वह यह भी जताने का प्रयास करेगा कि यह उनके अपने भी हित में है कि वे उन सभी कार्यों को अच्छी तरह अंजाम दें, जिनकी वह उनसे अपेक्षा रखता है. मनुष्य दूसरों के प्रति जो भी कर्तव्य निष्पादित करता है, वह एक तरह की सौदेबाजी ही है– यानी तुम मुझको वह दो जिसको मैं चाहता हूं, बदले में तुम्हें वह सब मिलेगा जिसकी तुम कामना करते हो. किसी को कुछ देने का यही सिद्धांत है, यही एक रास्ता है, जिससे हमारे सामाजिक संबंध विस्तार पाते हैं और जिनके सहारे यह संसार चलता है. हमारा भोजन किसी कसाई, शराब खींचनेवाले या तंदूरवाले की दयालुता की सौगात नहीं है. यह उनके निहित लाभ के लिए, स्वयं के लिए किए गए कार्य का प्रतिफल है.’ इस प्रकार हम देखते हैं कि एडम स्मिथ के अर्थनीति संबंधी विचार न केवल व्यावहारिक, मौलिक और दूरदर्शितापूर्ण हैं; बल्कि आज भी अपनी प्रासंकगिता को पूर्ववत बनाए हुए हैं. शायद यह कहना ज्यादा उपयुक्त होगा कि वे पहले की अपेक्षा आज कहीं अधिक प्रासंगिक हैं. उसकी विचारधारा में हमें कहीं भी विचारों के भटकाव अथवा असंमजस के भाव नहीं दिखते. स्मिथ को भी मान्यताओं पर पूरा विश्वास था, यही कारण है कि वह अपने तर्क के समर्थन में अनेक तथ्य जुटा सका. यही कारण है कि आगे आने वाले अर्थशास्त्रियों को जितना प्रभावित स्मिथ ने किया; उस दौर का कोई अन्य अर्थशास्त्री वैसा नहीं कर पाया. हालांकि अपने विचारों के लिए एडम स्मिथ को लोगों की आलोचनाओं का सामना भी करना पड़ा. कुछ विद्वानों का विचार है कि उसके विचार एंडरर्स चांडिनिअस(Anders Chydenius) की पुस्तक ‘दि नेशनल गेन (The National Gain, 1765) तथा डेविड ह्यूम आदि से प्रभावित हैं. कुछ विद्वानों ने उसपर अराजक पूंजीवाद को बढ़ावा देने के आरोप भी लगाए हैं. मगर किसी भी विद्वान के विचारों का आकलन उसकी समग्रता में करना ही न्यायसंगत होता है. स्मिथ के विचारों का आकलन करने वाले विद्वान अकसर औद्योगिक उत्पादन संबंधी विचारों तक ही सिमटकर रह जाते हैं, वे भूल जाते हैं कि स्मिथ की उत्पादन संबंधी विचारों में सरकार और नागरिकों के कर्तव्य भी सम्मिलित हैं. जो भी हो, उसकी वैचारिक प्रखरता का प्रशंसा उसके तीव्र विरोधियों ने भी की है. दुनिया के अनेक विद्वान, शोधार्थी आज भी उसके आर्थिक सिद्धांतों का विश्लेषण करने में लगे हैं. एक विद्वान के विचारों की प्रासंगिकता यदि शताब्दियों बाद भी बनी रहे तो यह निश्चय ही उसकी महानता का प्रतीक है. जबकि स्मिथ ने तो विद्वानों की पीढ़ियों को न केवल प्रभावित किया, बल्कि अर्थशास्त्रियों की कई पीढ़ियां तैयार भी की हैं. कार्य एवं महत्व आडम स्मिथ मुख्यतः अपनी दो रचनाओं के लिये जाने जाते हैं- थिअरी ऑफ मोरल सेंटिमेन्ट्स (The Theory of Moral Sentiments (1759)) तथा ऐन इन्क्वायरी इन्टू द नेचर ऐण्ड काजेज ऑफ द वेल्थ ऑफ नेशन्स (An Inquiry into the Nature and Causes of the Wealth of Nations) वाह्य सूत्र at MetaLibri Digital Library (PDF) at MetaLibri Digital Library at the at the . Cannan edition. Definitive, fully searchable, free online from - full text; formatted for easy on-screen reading from the - elegantly formatted for on-screen reading श्रेणी:अर्थशास्त्री श्रेणी:व्यक्तिगत जीवन
राष्ट्रों की संपदा' नामक पुस्तक किसके द्वारा लिखित है?
एडम स्मिथ
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अफ़्रीका में धर्म बहुआयामी हैं। अधिकांश लोग या तो इस्लाम को मानते हैं या ईसाई धर्म को। इस्लाम और ईसाई धर्म मेंअफ़्रीकी लोग विभिन्न प्रकार की धार्मिक मान्यताओं को स्वीकार करते हैं[1] और इनके धार्मिक आस्था के अंकड़े एकत्र कर पाना बहुत ही मुश्किल है, क्योंकि ये कई आस्थाओं वाली मिश्रित जनसंख्या की सरकारों के लिए बहुत ही संवेदनशील विषय होता है।[2] वर्ल्ड बुक विश्वकोष के अनुसार अफ़्रीका का सबसे बड़ा मान्य धर्म इस्लाम है। इसके बाद यहां ईसाई आते हैं। ब्रिटैनिका विश्वकोष के अनुसार यहां की कुल जनसंख्या का ४५% भाग मुस्लिम और ४०% ईसाई लोग हैं। १५% से कम लोग या तो नास्तिक हैं, या अफ़्रीकी धर्मों को मानने वाले हैं। एक बहुत ही छोटा प्रतिशत हिन्दुओं, बहाई लोगों और यहूदियों को जाता है। यहूदियों के क्षेत्र यहां बीटा इज़्राइल, लेम्बा लोग और पूर्वी युगांडा के अबयुदय हैं। यहां एक प्रकार की स्पर्धा चलती रहती है, कि कौन बड़ा है। किंतु यहां के बहुत से लोग दोनों ही धर्मों का एकसाथ पालन करते हुए चलते हैं और साथ ही यहां के पारंपरिक अफ़्रीकी धर्मों को भी मानते हैं। यहां के पारम्परिक धर्म लोक-संस्कृति पर आधारित हैं। अब्राहमिक धर्म अफ़्रीकी बहुमत अब्राहमिक धर्म मानता है: इस्लाम एवं ईसाई। दोनों ही अफ़्रीका पर्यन्त फैले हुए हैं। २००० के आंकड़ों के अनुसार यहां ४५% जनसंख्या ईसाई एवं ४०.६% जनसंख्या मुस्लिम है। ईसाइ धर्म ईसाई धर्म यहां राजा एज़ाना के एक्ज़म राज्य का शाही धर्म ३३० ई में घोषित हुआ था। इथियोपिया में प्रथम शताब्दी में आया। यूरोपियाई सेलर, फ़्रुमेन्टियस ४३० ई में इथियोपिया आया, तब उसका स्वागत वहां के शासकों ने किया, जो इसाई नहीं थे। उसके अनुसार दस वर्ष बाद राजा सहित पूरी प्रजा ने ईसाई धर्म ग्रहण किया व राजधर्म घोषित हुआ। इस्लाम इस्लाम के अनुयायी पूरे महाद्वीप में फैले हुए हैं। इस धर्म की जड़ें पैगम्बर मुहम्मद के समय तक जाती हैं, जब उनके संबंधी एवं अनुयायी एबेसिनिया में पैगन अरब लोगों से अपनी जान बचाने आये थे। इस्लाम अफ़्रीका में सिनाई प्रायद्वीप एवं मिस्र के रास्ते आया। इसका पूर्ण सहयोग इस्लामिक अरब एवं फारसी व्यापारियों एवं नाविकों ने किया। इस्लाम उत्तरी अफ़्रीका एवं अफ़्रीका के सींग में प्रधान धर्म है। पश्चिमी अफ़्रीका के आंतरिक भागों एवं तटीय क्षेत्रों में और पूर्वी अफ़्रीका के तटीय क्षेत्रों में भी यह ऐतिहासिक एवं प्रधान धर्म है। यहां बहुत से मुस्लिम साम्राज्य रहे हैं। इस्लाम की द्रुत-प्रगति बीसवीं एवं इक्कीसवीं शताब्दियों तक होती आयी है। न्यू यॉर्क टाइम्स के अनुसार ईसाई धर्म यहां एक अन्यदेशी धर्म ही रहा है। यहूदी यहूदी धर्म के लोग भी अफ़्रीका पर्यन्त फैले हुए मिलेंगे। बाहरी लोगों को अफ़्रीका में ईसाई एवं इस्लाम धर्मों के इतिहास जैसा नहीं प्रतीत होने पर भी यहूदी धर्म की यहां प्राचीन एवं समृद्ध इतिहास है। आज यहां कई देशों में यहूदी समुदाय हैं, जिनमें इथियोपिया के बीटा इज़्रायल, युगांडा के अब्युदय, घाना के हाउस ऑफ़ इज़्राइल, नाइजीरिया के इगबो यहूदी एवं दक्षिणी अफ़्रीका के लेम्बा लोग मुख्य हैं। हिन्दू धर्म इस्लाम, ईसाई एवं यहूदियों की अपेक्षा हिन्दू धर्म का इतिहास यहां अत्यन्त लघु है। हालांकि इसके अनुयाइयों की उपस्थिति यहां साम्राज्यवाद-काल से बहुत पहले, बल्कि मध्यकाल से ही रही है। दक्षिण अफ़्रीका एवं पूर्व अफ़्रीकी तटीय देशों में हिन्दू जनसंख्या उल्लेखनीय रही है। पारम्परिक धर्म पारम्परिक अफ़्रीकी धर्मों में ढेरों मान्यताएं और विश्वास प्रचलित हैं। ये कई अफ़्रीकी समाजों द्वारा माने जाते रहे हैं, किंतु खास जाति विशेष के लिए ये खास होते हैं। कई परिवर्तन किये हुए मुस्लिम एवं ईसाई लोग इन मान्यताओं को अभी भी मानते हैं। पश्चिम अफ़्रीका के बहुत से पारंपरिक मतों में से कुछ यहां दिए हुए हैं। ये बेनिन, नाइजीरिया, घाना आदि में प्रचलित हैं। लेगबा, सांगो, एबोह, आदि सन्दर्भ श्रेणी:अफ़्रीका श्रेणी:अफ़्रीकी संस्कृति
वर्ल्ड बुक विश्वकोष के अनुसार अफ़्रीका का सबसे बड़ा मान्य धर्म कौन सा है?
इस्लाम
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जल पानी सभी जीवों के लिए एक महत्वपूर्ण विलायक है और पृथ्वी की सतह पर बहुतायत में मिलने वाला यौगिक है। सूचना एंव गुण साधारण नाम जल, पानी नीर IUPAC नाम वैकल्पिक नाम एक्वा, डाईहाइड्रोजन मोनो ऑक्साइड, हाइड्रोजन हाइड्रॉक्साइड, (और) अणु सूत्र H2O CAS संख्या 7732-18-5 InChI InChI=1/H2O/h1H2 मोलर द्रव्यमान 18.0153 g/mol घनत्व और रूप 0.998 g/cm³ (द्रव 20°C पर, 1 atm) 0.917 g/cm³ (ठोस 0°C पर, 1 atm) गलनांक 0 °C (273.15 K) (32 °F) क्वथनांक 99.974°C (373.124 K) (211.95°F) विशिष्ठ उष्मा क्षमता 4.184 J/(g·K) (द्रव 20°C पर) 74.539 J/ (mol·K) (द्रव 25°C पर) Supplementary data pageDisclaimer and references जल या पानी एक आम रासायनिक पदार्थ है जिसका अणु दो हाइड्रोजन परमाणु और एक ऑक्सीजन परमाणु से बना है - H2O। यह सारे प्राणियों के जीवन का आधार है। आमतौर पर जल शब्द का प्प्रयोग द्रव अवस्था के लिए उपयोग में लाया जाता है पर यह ठोस अवस्था (बर्फ) और गैसीय अवस्था (भाप या जल वाष्प) में भी पाया जाता है। पानी जल-आत्मीय सतहों पर तरल-क्रिस्टल के रूप में भी पाया जाता है।[1][2] पृथ्वी का लगभग 71% सतह को 1.460 पीटा टन (पीटी) (1021 किलोग्राम) जल से आच्छदित है जो अधिकतर महासागरों और अन्य बड़े जल निकायों का हिस्सा होता है इसके अतिरिक्त, 1.6% भूमिगत जल एक्वीफर और 0.001% जल वाष्प और बादल (इनका गठन हवा में जल के निलंबित ठोस और द्रव कणों से होता है) के रूप में पाया जाता है।[3] खारे जल के महासागरों में पृथ्वी का कुल 97%, हिमनदों और ध्रुवीय बर्फ चोटिओं में 2.4% और अन्य स्रोतों जैसे नदियों, झीलों और तालाबों में 0.6% जल पाया जाता है। पृथ्वी पर जल की एक बहुत छोटी मात्रा, पानी की टंकिओं, जैविक निकायों, विनिर्मित उत्पादों के भीतर और खाद्य भंडार में निहित है। बर्फीली चोटिओं, हिमनद, एक्वीफर या झीलों का जल कई बार धरती पर जीवन के लिए साफ जल उपलब्ध कराता है। जल लगातार एक चक्र में घूमता रहता है जिसे जलचक्र कहते है, इसमे वाष्पीकरण या ट्रांस्पिरेशन, वर्षा और बह कर सागर में पहुॅचना शामिल है। हवा जल वाष्प को स्थल के ऊपर उसी दर से उड़ा ले जाती है जिस गति से यह बहकर सागर में पहँचता है लगभग 36 Tt (1012किलोग्राम) प्रति वर्ष। भूमि पर 107 Tt वर्षा के अलावा, वाष्पीकरण 71 Tt प्रति वर्ष का अतिरिक्त योगदान देता है। साफ और ताजा पेयजल मानवीय और अन्य जीवन के लिए आवश्यक है, लेकिन दुनिया के कई भागों में खासकर विकासशील देशों में भयंकर जलसंकट है और अनुमान है कि 2025 तक विश्व की आधी जनसंख्या इस जलसंकट से दो-चार होगी।.[4] जल विश्व अर्थव्यवस्था में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, क्योंकि यह रासायनिक पदार्थों की एक विस्तृत श्रृंखला के लिए विलायक के रूप में कार्य करता है और औद्योगिक प्रशीतन और परिवहन को सुगम बनाता है। मीठे जल की लगभग 70% मात्रा की खपत कृषि में होती है।[5] पदार्थों में से है जो पृथ्वी पर प्राकृतिक रूप से सभी तीन अवस्थाओं में मिलते हैं। जल पृथ्वी पर कई अलग अलग रूपों में मिलता है: आसमान में जल वाष्प और बादल; समुद्र में समुद्री जल और कभी कभी हिमशैल; पहाड़ों में हिमनद और नदियां ; और तरल रूप में भूमि पर एक्वीफर के रूप में। जल में कई पदार्थों को घोला जा सकता है जो इसे एक अलग स्वाद और गंध प्रदान करते है। वास्तव में, मानव और अन्य जानवरों समय के साथ एक दृष्टि विकसित हो गयी है जिसके माध्यम से वो जल के पीने को योग्यता का मूल्यांकन करने में सक्षम होते हैं और वह बहुत नमकीन या सड़ा हुआ जल नहीं पीते हैं। मनुष्य ठंडे से गुनगुना जल पीना पसंद करते हैं; ठंडे जल में रोगाणुओं की संख्या काफी कम होने की संभावना होती है। शुद्ध पानी H2O स्वाद में फीका होता है जबकि सोते (झरने) के पानी या लवणित जल (मिनरल वाटर) का स्वाद इनमे मिले खनिज लवणों के कारण होता है। सोते (झरने) के पानी या लवणित जल की गुणवत्ता से अभिप्राय इनमे विषैले तत्वों, प्रदूषकों और रोगाणुओं की अनुपस्थिति से होता है। रसायनिक और भौतिक गुण जल एक रसायनिक पदार्थ है जिसका रसायनिक सूत्र H2O है: जल के एक अणु में दो हाइड्रोजन के परमाणु सहसंयोजक बंध के द्वारा एक ऑक्सीजन के परमाणु से जुडे़ रहते हैं। जल के प्रमुख रसायनिक और भौतिक गुण हैं: जल सामान्य तापमान और दबाव में एक फीका, बिना गंध वाला तरल है। जल और बर्फ़ का रंग बहुत ही हल्के नीला होता है, हालांकि जल कम मात्रा में रंगहीन लगता है। बर्फ भी रंगहीन लगती है और जल वाष्प मूलतः एक गैस के रूप में अदृश्य होता है।[6] जल पारदर्शी होता है, इसलिए जलीय पौधे इसमे जीवित रह सकते हैं क्योंकि उन्हे सूर्य की रोशनी मिलती रहती है। केवल शक्तिशाली पराबैंगनी किरणों का ही कुछ हद तक यह अवशोषण कर पाता है। ऑक्सीजन की वैद्युतऋणात्मकता हाइड्रोजन की तुलना में उच्च होती है जो जल को एक ध्रुवीय अणु बनाती है। ऑक्सीजन कुछ ऋणावेशित होती है, जबकि हाइड्रोजन कुछ धनावेशित होती है जो अणु को द्विध्रुवीय बनाती है। प्रत्येक अणु के विभिन्न द्विध्रुवों के बीच पारस्परिक संपर्क एक शुद्ध आकर्षण बल को जन्म देता है जो जल को उच्च पृष्ट तनाव प्रदान करता है। एक अन्य महत्वपूर्ण बल जिसके कारण जल अणु एक दूसरे से चिपक जाते हैं, हाइड्रोजन बंध है।[7] जल का क्वथनांक (और अन्य सभी तरल पदार्थ का भी) सीधे बैरोमीटर का दबाव से संबंधित होता है। उदाहरण के लिए, एवरेस्ट पर्वत के शीर्ष पर, जल 68°C पर उबल जाता है जबकि समुद्रतल पर यह 100°C होता है। इसके विपरीत गहरे समुद्र में भू-उष्मीय छिद्रों के निकट जल का तापमान सैकड़ों डिग्री तक पहुँच सकता है और इसके बावजूद यह द्रवावस्था में रहता है। जल का उच्च पृष्ठ तनाव, जल के अणुओं के बीच कमजोर अंतःक्रियाओं के कारण होता है (वान डर वाल्स बल) क्योंकि यह एक ध्रुवीय अणु है। पृष्ठ तनाव द्वारा उत्पन्न यह आभासी प्रत्यास्था (लोच), केशिका तरंगों को चलाती है। अपनी ध्रुवीय प्रकृति के कारण जल में उच्च आसंजक गुण भी होते है। केशिका क्रिया, जल को गुरुत्वाकर्षण से विपरीत दिशा में एक संकीर्ण नली में चढ़ने को कहते हैं। जल के इस गुण का प्रयोग सभी संवहनी पौधों द्वारा किया जाता है। जल एक बहुत प्रबल विलायक है, जिसे सर्व-विलायक भी कहा जाता है। वो पदार्थ जो जल में भलि भाँति घुल जाते है जैसे लवण, शर्करा, अम्ल, क्षार और कुछ गैसें विशेष रूप से ऑक्सीजन, कार्बन डाइऑक्साइड उन्हे हाइड्रोफिलिक (जल को प्यार करने वाले) कहा जाता है, जबकि दूसरी ओर जो पदार्थ अच्छी तरह से जल के साथ मिश्रण नहीं बना पाते है जैसे वसा और तेल, हाइड्रोफोबिक (जल से डरने वाले) कहलाते हैं। कोशिका के सभी प्रमुख घटक (प्रोटीन, डीएनए और बहुशर्कराइड) भी जल में घुल जाते हैं। शुद्ध जल की विद्युत चालकता कम होती है, लेकिन जब इसमे आयनिक पदार्थ सोडियम क्लोराइड मिला देते है तब यह आश्चर्यजनक रूप से बढ़ जाती है। अमोनिया के अलावा, जल की विशिष्ट उष्मा क्षमता किसी भी अन्य ज्ञात रसायन से अधिक होती है, साथ ही उच्च वाष्पीकरण ऊष्मा (40.65 kJ mol−1) भी होती है, यह दोनों इसके अणुओं के बीच व्यापक हाइड्रोजन बंधों का परिणाम है। जल के यह दो असामान्य गुण इसे तापमान में हुये उतार-चढ़ाव का बफ़रण कर पृथ्वी की जलवायु को नियमित करने पात्रता प्रदान करते हैं। जल का घनत्व अधिकतम 3.98°C पर होता है।[8] जमने पर जल का घनत्व कम हो जाता है और यह इसका आयतन 9% बढ़ जाता है। यह गुण एक असामान्य घटना को जन्म देता जिसके कारण: बर्फ जल के ऊपर तैरती है और जल में रहने वाले जीव आंशिक रूप से जमे हुए एक तालाब के अंदर रह सकते हैं क्योंकि तालाब के तल पर जल का तापमान 4°C के आसपास होता है। जल कई तरल पदार्थ के साथ मिश्रय होता है, जैसे इथेनॉल, सभी अनुपातों में यह एक एकल समरूप तरल बनाता है। दूसरी ओर, जल और तेल अमिश्रय होते हैं और मिलाने परत बनाते है और इन परतों में सबसे ऊपर वाली परत का घनत्व सबसे कम होता है। गैस के रूप में, जल वाष्प पूरी तरह हवा के साथ मिश्रय है। जल अन्य कई विलायकों के साथ एक एज़िओट्रोप बनाता है। जल को हाइड्रोजन और आक्सीजन में विद्युतपघटन द्वारा विभाजित किया जा सकता है। हाइड्रोजन की एक ऑक्साइड के रूप में, जब हाइड्रोजन या हाइड्रोजन-यौगिकों जलते हैं या ऑक्सीजन या ऑक्सीजन-यौगिकों के साथ प्रतिक्रिया करते हैं तब जल का सृजन होता है। जल एक ईंधन नहीं है। यह हाइड्रोजन के दहन का अंतिम उत्पाद है। जल को विद्युतपघटन द्वारा वापस हाइड्रोजन और आक्सीजन में विभाजन करने के लिए आवश्यक ऊर्जा, हाइड्रोजन और ऑक्सीजन को पुनर्संयोजन से उत्सर्जित ऊर्जा से अधिक होती है। वह तत्व जो हाइड्रोजन से अधिक वैद्युतधनात्मक (electropositive) होते हैं जैसे लिथियम, सोडियम, कैल्शियम, पोटेशियम और सीजयम, वो जल से हाइड्रोजन को विस्थापित कर हाइड्रोक्साइड (जलीयऑक्साइड) बनाते हैं। एक ज्वलनशील गैस होने के नाते, हाइड्रोजन का उत्सर्जन खतरनाक होता है और जल की इन वैद्युतधनात्मक तत्वों के साथ प्रतिक्रिया बहुत विस्फोटक होती है। जल संसाधन और इसे भी देखें भारत के जल संसाधन जल का उपयोग जब मानव करता है तो यह उसके लिये संसाधन हो जाता है। दैनिक कार्यों से लेकर कृषि में और विविध उद्द्योगों में जल का उपयोग होता है। जल मानव जीवन के लिये इतना महत्वपूर्ण संसाधन है कि यह मुहावरा ही प्रचलित है कि जल ही जीवन है। जीवन पर प्रभाव जैविक दृष्टिकोण से, पानी में कई विशिष्ट गुण हैं जो जीवन के प्रसार के लिए महत्वपूर्ण हैं। यह कार्बनिक यौगिकों को उन तरीकों पर प्रतिक्रिया देने की अनुमति देता है जो अंततः प्रतिकृति की अनुमति देती है। जीवन के सभी ज्ञात रूप पानी पर निर्भर करते हैं। जल एक विलायक के रूप में दोनों महत्वपूर्ण है जिसमें शरीर के कई विलायकों को भंग किया जाता है और शरीर के भीतर कई चयापचय प्रक्रियाओं का एक अनिवार्य हिस्सा होता है। पानी प्रकाश संश्लेषण और श्वसन के लिए मौलिक है। ऑक्सीजन से पानी के हाइड्रोजन को अलग करने के लिए प्रकाश संश्लेषक कोशिका सूर्य की ऊर्जा का उपयोग करते हैं। हाइड्रोजन CO2 (हवा या पानी से अवशोषित) के साथ मिलाकर ग्लूकोज और ऑक्सीजन को रिलीज करने के लिए जोड़ा जाता है। सभी जीवित कोशिकाओं ने इस तरह के ईंधन का उपयोग किया और सूर्य की ऊर्जा को प्राप्त करने के लिए हाइड्रोजन और कार्बन को ऑक्सीकरण, प्रक्रिया में पानी और CO2 (सेलुलर श्वसन) का उपयोग किया। कृषि पानी का सबसे महत्वपूर्ण उपयोग कृषि में है, जो खाने के उत्पाद में महत्वपूर्ण है| कुछ विकासशील देशों ९०% पानी का उपयोग सिंचाई में होता है [9] और अधिक आर्थिक रूप से विकसित देशों में भी बहुत सारा उत्पाद होता है (जैसे अमरीका में, 30% ताजे मिठे जल का उपयोग सिंचाई के लिए होता है)।[10] पचास साल पहले, आम धारणा यह थी कि पानी एक अनंत संसाधन था। उस समय, धरती पर इंसानों की संख्या आज के संख्या के आधे से भी काम था। लोग भी आज जितने आमिर नहीं थे और खाना, खास तौर पर, मांस कम खाते थे, इसलिए उनके भोजन का उत्पादन करने के लिए कम पानी की जरूरत थी उन्हें पानी की एक तिहाई आवश्यकता हथी जो हम वर्तमान में नदियों से लेते हैं। आज, जल संसाधनों के लिए प्रतिस्पर्धा तीव्र है, जो "पीक पानी" की अवधारणा को जन्म देती है।[11]  इसका कारण यह है कि अब इस ग्रह पर सात अरब लोग हैं, जल-प्यास मांस और सब्जियों की खपत बढ़ रही है, और उद्योग, शहरीकरण और जैव-ईंधन फसलों से पानी की बढ़ती प्रतिस्पर्धा है। भविष्य में, भोजन का उत्पादन करने के लिए और भी ज्यादा पानी की आवश्यकता होगी क्योंकि पृथ्वी की आबादी 2050 तक 9 अरब तक पहुंचने का अनुमान है। [12] कृषि में जल प्रबंधन का मूल्यांकन 2007 में श्रीलंका में अंतर्राष्ट्रीय जल प्रबंधन संस्थान द्वारा किया गया था यह देखने के लिए कि दुनिया के बढ़ती आबादी के लिए भोजन उपलब्ध कराने के लिए पर्याप्त पानी है या नहीं। [13] इसने वैश्विक स्तर पर कृषि के लिए पानी की मौजूदा उपलब्धता का मूल्यांकन किया और पानी की कमी से पीड़ित स्थानों का नक्शा बनाया। यह पाया गया कि दुनिया में 1.2 अरब (बिलियन) से अधिक (कुल जान-संख्या का पांचवां हिस्सा) भौतिक पानी की कमी के क्षेत्र में रहता है , जहां सभी मांगों को पूरा करने के लिए पर्याप्त पानी नहीं है। एक और 1.6 अरब (बिलियन) लोग आर्थिक जल की कमी का सामना कर रहे इलाकों में रहते हैं, जहां पानी में निवेश की कमी या अपर्याप्त मानव क्षमता से अधिकारियों को पानी की मांग को पूरा करना असंभव बना देता है। रिपोर्ट में पाया गया कि भविष्य में आवश्यक भोजन का उत्पादन करना संभव होगा, लेकिन आज के खाद्य उत्पादन और पर्यावरण के रुझान को जारी रखने से दुनिया के कई हिस्सों में संकट पैदा हो जाएगा। वैश्विक जल संकट से बचने के लिए, किसानों को भोजन की बढ़ती मांगों को पूरा करने के लिए उत्पादकता बढ़ाने का प्रयास करना होगा, और उद्योगों और शहरों को पानी अधिक कुशलता से उपयोग करने के तरीकों खोजने होंगे|[14] कपास के उत्पादन के कारण भी पानी की कमी हुई है: १ किलोग्राम कपास - एक जींस पतलून के बराबर - उत्पाद करने के लिए 10.9 मीटर 3 पानी का उपयोग किया जाता है। जबकि कपास का उत्पादन दुनिया क 2.4% पानी ही उपयोग करता है,यह उपयोग उन क्षेत्रों में किया जाता है जो पहले से ही पानी की कमी के जोखिम में हैं। महत्वपूर्ण पर्यावरणीय नुकसान हुआ है, जैसे कि अराल सागर के लापता होना। [15] जल चक्र (वैज्ञानिक रूप से जल विज्ञान चक्र के रूप में जाना जाता है) जल, वायुमंडल, मिट्टी के पानी, सतह के पानी, भूजल और पौधों के बीच जल के निरंतर आदान-प्रदान को दर्शाता है। पानी इन चक्रों में से प्रत्येक के माध्यम से सख्ती से जल चक्र में निम्नलिखित स्थानांतरण प्रक्रियाओं को शामिल करता है: महासागरों और अन्य जल निकायों से हवा में वाष्पीकरण और भूमि के पौधों और जानवरों से हवा में प्रत्यारोपण। वर्षा से, हवा से घनीभूत वायु वाष्प से और पृथ्वी या सागर तक गिरने से। आम तौर पर समुद्र तक पहुंचने वाले देश से बहने वाला पानी महासागरों पर अधिकांश जल वाष्प महासागरों में लौटता है, लेकिन हवाएं समुद्र में जल प्रवाह के रूप में उसी दर पर पानी की वाष्प लेती हैं, प्रति वर्ष लगभग 47 टीटी। भूमि के ऊपर, बाष्पीकरण और संवहन प्रति वर्ष एक और 72 टीटी का योगदान करते हैं। जमीन पर प्रति वर्ष 119 टन प्रति वर्ष की दर से वर्षा होती है, इसमें कई रूप होते हैं: सबसे अधिक बारिश, बर्फ, और ओलों, कोहरे और ओस  से कुछ योगदान के साथ।ओस पानी की छोटी बूंद है जो पानी के वाष्प की एक उच्च घनत्व एक शांत सतह से मिलता है जब गाढ़ा रहे हैं ओस आम तौर पर सुबह में बना रहता है जब तापमान सबसे कम होता है, सूर्योदय से पहले और जब पृथ्वी की सतह का तापमान बढ़ना शुरू हो जाता है। सन्दर्भ इन्हें भी देखें भारी जल कठोर जल आसुत जल शोधित जल (purified water) खनिजरहित जल (demineralised water) खनिज जल (mineral water) पेय जल लवणीय जल (या, खारा जल) बाहरी कड़ियाँ (बच्चों का कोना; केन्द्रीय जल आयोग) श्रेणी:द्रव श्रेणी:अकार्बनिक यौगिक
पृथ्वी का लगभग कितने प्रतिशत भाग जल से आच्छदित है?
71%
980
hindi
612852f39
भारतीय थलसेना, सेना की भूमि-आधारित दल की शाखा है और यह भारतीय सशस्त्र बल का सबसे बड़ा अंग है। भारत का राष्ट्रपति, थलसेना का प्रधान सेनापति होता है,[6] और इसकी कमान भारतीय थलसेनाध्यक्ष के हाथों में होती है जो कि चार-सितारा जनरल स्तर के अधिकारी होते हैं। पांच-सितारा रैंक के साथ फील्ड मार्शल की रैंक भारतीय सेना में श्रेष्ठतम सम्मान की औपचारिक स्थिति है, आजतक मात्र दो अधिकारियों को इससे सम्मानित किया गया है। भारतीय सेना का उद्भव ईस्ट इण्डिया कम्पनी, जो कि ब्रिटिश भारतीय सेना के रूप में परिवर्तित हुई थी, और भारतीय राज्यों की सेना से हुआ, जो स्वतंत्रता के पश्चात राष्ट्रीय सेना के रूप में परिणत हुई। भारतीय सेना की टुकड़ी और रेजिमेंट का विविध इतिहास रहा हैं इसने दुनिया भर में कई लड़ाई और अभियानों में हिस्सा लिया है, तथा आजादी से पहले और बाद में बड़ी संख्या में युद्ध सम्मान अर्जित किये।[7] भारतीय सेना का प्राथमिक उद्देश्य राष्ट्रीय सुरक्षा और राष्ट्रवाद की एकता सुनिश्चित करना, राष्ट्र को बाहरी आक्रमण और आंतरिक खतरों से बचाव, और अपनी सीमाओं पर शांति और सुरक्षा को बनाए रखना हैं। यह प्राकृतिक आपदाओं और अन्य गड़बड़ी के दौरान मानवीय बचाव अभियान भी चलाते है, जैसे ऑपरेशन सूर्य आशा, और आंतरिक खतरों से निपटने के लिए सरकार द्वारा भी सहायता हेतु अनुरोध किया जा सकता है। यह भारतीय नौसेना और भारतीय वायुसेना के साथ राष्ट्रीय शक्ति का एक प्रमुख अंग है।[8] सेना अब तक पड़ोसी देश पाकिस्तान के साथ चार युद्धों तथा चीन के साथ एक युद्ध लड़ चुकी है। सेना द्वारा किए गए अन्य प्रमुख अभियानों में ऑपरेशन विजय, ऑपरेशन मेघदूत और ऑपरेशन कैक्टस शामिल हैं। संघर्षों के अलावा, सेना ने शांति के समय कई बड़े अभियानों, जैसे ऑपरेशन ब्रासस्टैक्स और युद्ध-अभ्यास शूरवीर का संचालन किया है। सेना ने कई देशो में संयुक्त राष्ट्र के शांति मिशनों में एक सक्रिय प्रतिभागी भी रहा है जिनमे साइप्रस, लेबनान, कांगो, अंगोला, कंबोडिया, वियतनाम, नामीबिया, एल साल्वाडोर, लाइबेरिया, मोज़ाम्बिक और सोमालिया आदि सम्मलित हैं। भारतीय सेना में एक सैन्य-दल (रेजिमेंट) प्रणाली है, लेकिन यह बुनियादी क्षेत्र गठन विभाजन के साथ संचालन और भौगोलिक रूप से सात कमान में विभाजित है। यह एक सर्व-स्वयंसेवी बल है और इसमें देश के सक्रिय रक्षा कर्मियों का 80% से अधिक हिस्सा है। यह 1,200,255 सक्रिय सैनिकों[9][10] और 909,60 आरक्षित सैनिकों[11] के साथ दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी स्थायी सेना है। सेना ने सैनिको के आधुनिकीकरण कार्यक्रम की शुरुआत की है, जिसे "फ्यूचरिस्टिक इन्फैंट्री सैनिक एक प्रणाली के रूप में" के नाम से जाना जाता है इसके साथ ही यह अपने बख़्तरबंद, तोपखाने और उड्डयन शाखाओं के लिए नए संसाधनों का संग्रह एवं सुधार भी कर रहा है।.[12][13][14] उद्देश्य बाहरी खतरों के विरुद्ध शक्ति संतुलन के द्वारा या युद्ध छेड़ने की स्थिति में संरक्षित राष्ट्रीय हितों, संप्रभुता की रक्षा, क्षेत्रीय अखंडता और भारत की एकता की रक्षा करना। सरकारी तन्त्र को छाया युद्ध और आन्तरिक खतरों में मदद करना और आवश्यकता पड़ने पर नागरिक अधिकारों में सहायता करना।"[15] दैवीय आपदा जैसे भूकंप,बाढ़ , समुद्री तूफान ,आग लगने ,विस्फोट आदि के अवसर पर नागरिक प्रशासन की मदद करना। नागरिक प्रशासन के पंगु होने पर उसकी सहायता करना। इतिहास १९४७ में आजा़दी मिलने के बाद ब्रिटिश भारतीय सेना को नये बने राष्ट्र भारत और इस्लामी गणराज्य पाकिस्तान की सेवा करने के लिये २ भागों में बांट दिया गया। ज्यादातर इकाइयों को भारत के पास रखा गया। चार गोरखा सैन्य दलों को ब्रिटिश सेना में स्थानांतरित किया गया जबकि शेष को भारत के लिए भेजा गया। जैसा कि ज्ञात है, भारतीय सेना में ब्रिटिश भारतीय सेना से व्युत्पन्न हुयी है तो इसकी संरचना, वर्दी और परंपराओं को अनिवार्य रूप से विरासत में ब्रिटिश से लिया गया हैं| प्रथम कश्मीर युद्ध (१९४७) आजादी के लगभग तुरंत बाद से ही भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव पैदा हो गया था और दोनों देशों के बीच पहले तीन पूर्ण पैमाने पर हुये युद्ध के बाद राजसी राज्य कश्मीर का विभाजन कर दिया गय। कश्मीर के महाराजा की भारत या पाकिस्तान में से किसी भी राष्ट्र के साथ विलय की अनिच्छा के बाद पाकिस्तान द्वारा कश्मीर के कुछ हिस्सों मे आदिवासी आक्रमण प्रायोजित करवाया गया। भारत द्वारा आरोपित पुरुषों को भी नियमित रूप से पाकिस्तान की सेना मे शामिल किया गया। जल्द ही पाकिस्तान ने अपने दलों को सभी राज्यों को अपने में संलग्न करने के लिये भेजा। महाराजा हरि सिंह ने भारत और लॉर्ड माउंटबेटन से अपनी मदद करने की याचना की, पर उनको कहा गया कि भारत के पास उनकी मदद करने के लिये कोई कारण नही है। इस पर उन्होने कश्मीर के विलय के एकतरफा सन्धिपत्र पर हस्ताक्षर किये जिसका निर्णय ब्रिटिश सरकार द्वारा लिया गया पर पाकिस्तान को यह सन्धि कभी भी स्वीकार नहीं हुई। इस सन्धि के तुरन्त बाद ही भारतीय सेना को आक्रमणकारियों से मुकाबला करने के लिये श्रीनगर भेजा गया। इस दल में जनरल थिम्मैया भी शामिल थे जिन्होने इस कार्यवाही में काफी प्रसिद्धि हासिल की और बाद में भारतीय सेना के प्रमुख बने। पूरे राज्य में एक गहन युद्ध छिड़ गया और पुराने साथी आपस मे लड़ रहे थे। दोनो पक्षों में कुछ को राज्यवार बढत मिली तो साथ ही साथ महत्वपूर्ण नुकसान भी हुआ। १९४८ के अन्त में नियन्त्रण रेखा पर लड़ रहे सैनिकों में असहज शान्ति हो गई जिसको संयुक्त राष्ट्र द्वारा भारत और पाकिस्तान में विभाजित कर दिया गया। पाकिस्तान और भा‍रत के मध्य कश्मीर में उत्पन्न हुआ तनाव कभी भी पूर्ण रूप से समाप्त नहीं हुआ है। संयुक्त राष्ट्र शान्ति सेना में योगदान वर्तमान में भारतीय सेना की एक टुकड़ी संयुक्त राष्ट्र की सहायता के लिये समर्पित रहती है। भारतीय सेना द्वारा निरंतर कठिन कार्यों में भाग लेने की प्रतिबद्धताओं की हमेशा प्रशंसा की गई है। भारतीय सेना ने संयुक्त राष्ट्र के कई शांति स्थापित करने की कार्यवाहियों में भाग लिया गया है जिनमें से कुछ इस प्रकार हैं: अंगोला कम्बोडिया साइप्रस लोकतांत्रिक गणराज्य कांगो, अल साल्वाडोर, नामीबिया, लेबनान, लाइबेरिया, मोजाम्बिक, रवाण्डा, सोमालिया, श्रीलंका और वियतनाम| भारतीय सेना ने कोरिया में हुयी लड़ाई के दौरान घायलों और बीमारों को सुरक्षित लाने के लिये भी अपनी अर्द्ध-सैनिकों की इकाई प्रदान की थी। हैदराबाद का विलय (१९४८) भारत के विभाजन के उपरान्त राजसी राज्य हैदराबाद, जो कि निजा़म द्वारा शासित था, ने स्वतन्त्र राज्य के तौर रहना पसन्द किया। निजा़म ने हैदराबाद को भारत में मिलाने पर अपनी आपत्ति दर्ज करवाई। भारत सरकार और हैदराबाद के निज़ाम के बीच पैदा हुई अनिर्णायक स्थिति को समाप्त करने हेतु भारत के उप-प्रधानमन्त्री सरदार बल्लभ भाई पटेल द्वारा १२ सितम्बर १९४८ को भारतीय टुकड़ियों को हैदराबाद की सुरक्षा करने का आदेश दिया। ५ दिनों की गहन लड़ाई के बाद वायु सेना के समर्थन से भारतीय सेना ने हैदराबाद की सेना को परास्त कर दिया। उसी दिन हैदराबाद को भारत गणराज्य का भाग घोषित कर दिया गया। पोलो कार्यवाही के अगुआ मेजर जनरल जॉयन्तो नाथ चौधरी को कानून व्यवस्था स्थापित करने के लिये हैदराबाद का सैन्य शाशक (१९४८-१९४९) घोषित किया गया। गोवा, दमन और दीव का विलय (१९६१) ब्रिटिश और फ्रान्स द्वारा अपने सभी औपनिवेशिक अधिकारों को समाप्त करने के बाद भी भारतीय उपमहाद्वीप, गोवा, दमन और दीव में पुर्तगालियों का शासन रहा। पुर्तगालियों द्वारा बारबार बातचीत को अस्वीकार कर देने पर नई दिल्ली द्वारा १२ दिसम्बर १९६१ को ऑपरेशन विजय की घोषणा की और अपनी सेना के एक छोटे से दल को पुर्तगाली क्षेत्रों पर आक्रमण करने के आदेश दिए। २६ घंटे चले युद्ध के बाद गोवा और दमन और दीव को सुरक्षित आजाद करा लिया गया और उनको भारत का अंग घोषित कर दिया गया। भारत-चीन युद्ध (१९६२) 1959 से भारत प्रगत नीति का पालन करना शुरु कर दिया। 'प्रगत नीति' के अंतर्गत भारतीय गश्त दलों ने चीन द्वारा भारतीय सीमा के काफी अन्दर तक हथियाई गई चौकियों पर हमला बोल कर उन्हें फिर कब्ज़े में लिया। भारत के मैक-महोन रेखा को ही अंतरराष्ट्रीय सीमा मान लिए जाने पर जोर डालने के कारण भारत और चीन की सेनाओं के बीच छोटे स्तर पर संघर्ष छिड़ गया। बहरहाल, भारत और चीन के बीच मैत्रीपूर्ण संबंधों के कारण विवाद ने अधिक तूल नहीं पकड़ा। युद्ध का कारण अक्साई चिन और अरुणाचल प्रदेश की क्षेत्रों की संप्रभुता को लेकर था। अक्साई चिन में, जिसे भारत द्वारा कश्मीर और चीन द्वारा झिंजियांग का हिस्सा का दावा किया जाता रहा है, एक महत्वपूर्ण सड़क लिंक है जोकि तिब्बत और चीनी क्षेत्रों झिंजियांग को जोड़ती है। चीन के तिब्बत में भारत की भागीदारी के संदेह के चलते दोनों देशों के बीच संघर्ष की संभावनाएं और बढ़ गई। हैदराबाद व गोवा में अपने सैन्य अभियानों की सफलता से उत्साहित भारत ने चीन के साथ सीमा विवाद में आक्रामक रुख ले लिया। 1962 में, भारतीय सेना को भूटान और अरुणाचल प्रदेश के बीच की सीमा के निकट और विवादित मैकमहोन रेखा के लगभग स्थित 5 किमी उत्तर में स्थित थाग ला रिज तक आगे बढ़ने का आदेश दिया गया। इसी बीच चीनी सेनाएँ भी भारतीय क्षेत्र में घुसपैठ कर चुकी थीं और दोनो देशों के बीच तनाव चरम पर पहुँच गया जब भारतीय सेनाओं ने पाया कि चीन ने अक्साई चिन क्षेत्र में सड़क बना ली है। वार्ताओं की एक श्रृंखला के बाद, चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी ने थाग ला रिज पर भारतीय सेनाओं के ठिकानों पर हमला बोल दिया। चीन के इस कदम से भारत आश्चर्यचकित रह गया और 12 अक्टूबर को नेहरू ने अक्साई चिन से चीनियों को खदेड़ने के आदेश जारी कर दिए। किन्तु, भारतीय सेना के विभिन्न प्रभागों के बीच तालमेल की कमी और वायु सेना के प्रयोग के निर्णय में की गई देरी ने चीन को महत्वपूर्ण सामरिक व रणनीतिक बढ़त लेने का अवसर दे दिया। 20 अक्टूबर को चीनी सैनिकों नें दोनों मोर्चों उत्तर-पश्चिम और सीमा के उत्तर-पूर्वी भागों में भारत पर हमला किया और अक्साई चिन और अरुणाचल प्रदेश के विशाल भाग पर कब्जा कर लिया। जब लड़ाई विवादित प्रदेशों से भी परे चली गई तो चीन ने भारत सरकार को बातचीत के लिए आमंत्रण दिया, लेकिन भारत अपने खोए क्षेत्र हासिल करने के लिए अड़ा रहा। कोई शांतिपूर्ण समझौता न होते देख, चीन ने एकतरफा युद्धविराम घोषित करते हुए अरुणाचल प्रदेश से अपनी सेना को वापस बुला लिया। वापसी के कारण विवादित भी हैं। भारत का दावा है कि चीन के लिए अग्रिम मोर्चे पर मौजूद सेनाओं को सहायता पहुँचाना संभव न रह गया था, तथा संयुक्त राज्य अमेरिका का राजनयिक समर्थन भी एक कारण था। जबकि चीन का दावा था कि यह क्षेत्र अब भी उसके कब्जे में है जिसपर उसने कूटनीतिक दावा किया था। भारतीय और चीनी सेनाओं के बीच विभाजन रेखा को वास्तविक नियंत्रण रेखा का नाम दिया गया। भारत के सैन्य कमांडरों द्वारा लिए गए कमज़ोर फैसलों ने कई सवाल उठाए। जल्द ही भारत सरकार द्वारा भारतीय सेना के खराब प्रदर्शन के कारणों का निर्धारण करने के लिए हेंडरसन ब्रूक्स समिति का गठन कर दिया गया। कथित तौर पर समिति की रिपोर्ट ने भारतीय सशस्त्र बलों की कमान की गलतियाँ निकाली और अपनी नाकामियों के लिए कई मोर्चों पर विफल रहने के लिए कार्यकारी सरकार की बुरी तरह आलोचना की। समिति ने पाया कि हार के लिए प्रमुख कारण लड़ाई शुरु होने के बाद भी भारत चीन के साथ सीमा पर कम सैनिकों की तैनाती था और यह भी कि भारतीय वायु सेना को चीनी परिवहन लाइनों को लक्ष्य बनाने के लिए चीन द्वारा भारतीय नागरिक क्षेत्रों पर जवाबी हवाई हमले के डर से अनुमति नहीं दी गई। ज्यादातर दोष के तत्कालीन रक्षा मंत्री कृष्ण मेनन की अक्षमता पर भी दिया गया। रिपोर्ट को सार्वजनिक करने की लगातार माँग के बावजूद हेंडरसन - ब्रूक्स रिपोर्ट अभी भी गोपनीय रखी गई है। द्वितीय कश्मीर युद्ध (१९६५) पाकिस्तान के साथ एक दूसरे टकराव पर मोटे तौर पर 1965 में जगह ले ली कश्मीर. पाकिस्तानी राष्ट्रपति अयूब खान शुरूऑपरेशन जिब्राल्टर१,९६५ अगस्त में जिसके दौरान कई पाकिस्तानी अर्धसैनिक सैनिकों को भारतीय प्रशासित कश्मीर में घुसपैठ और भारत विरोधी विद्रोह चिंगारी की कोशिश की. पाकिस्तानी नेताओं का मानना ​​है कि भारत, जो अभी भी विनाशकारी युद्ध भारत - चीन से उबरने था एक सैन्य जोर और विद्रोह के साथ सौदा करने में असमर्थ होगा. हालांकि, आपरेशन एक प्रमुख विफलता के बाद से कश्मीरी लोगों को इस तरह के एक विद्रोह के लिए थोड़ा समर्थन दिखाया और भारत जल्दी बलों स्थानांतरित घुसपैठियों को बाहर निकालने. भारतीय जवाबी हमले के प्रक्षेपण के एक पखवाड़े के भीतर, घुसपैठियों के सबसे वापस पाकिस्तान के लिए पीछे हट गया था। ऑपरेशन जिब्राल्टर की विफलता से पस्त है और सीमा पार भारतीय बलों द्वारा एक प्रमुख आक्रमण की उम्मीद है, पाकिस्तान [[ऑपरेशन ग्रैंड स्लैम] 1 सितंबर को शुरू, भारत Chamb - Jaurian क्षेत्र हमलावर. जवाबी कार्रवाई में, 6 सितंबर को पश्चिमी मोर्चे पर भारतीय सेना के 15 इन्फैन्ट्री डिवीजन अंतरराष्ट्रीय सीमा पार कर गया। प्रारंभ में, भारतीय सेना के उत्तरी क्षेत्र में काफी सफलता के साथ मुलाकात की. पाकिस्तान के खिलाफ लंबे समय तक तोपखाने barrages शुरू करने के बाद, भारत कश्मीर में तीन महत्वपूर्ण पर्वत पदों पर कब्जा करने में सक्षम था। 9 सितंबर तक भारतीय सेना सड़कों में काफी पाकिस्तान में बनाया था। भारत पाकिस्तानी टैंकों की सबसे बड़ी दौड़ था जब पाकिस्तान के एक बख्तरबंद डिवीजन के आक्रामक [Asal उत्तर [लड़ाई]] पर सितंबर 10 वीं पा गया था। छह पाकिस्तानी आर्मड रेजिमेंट लड़ाई में भाग लिया, अर्थात् 19 (पैटन) लांसर्स, 12 कैवलरी (Chafee), 24 (पैटन) कैवलरी 4 कैवलरी (पैटन), 5 (पैटन) हार्स और 6 लांसर्स (पैटन). इन तीन अवर टैंक के साथ भारतीय आर्मड रेजिमेंट द्वारा विरोध किया गया, डेकन हार्स (शेरमेन), 3 (सेंचुरियन) कैवलरी और 8 कैवलरी (AMX). लड़ाई इतनी भयंकर और तीव्र है कि समय यह समाप्त हो गया था द्वारा, 4 भारतीय डिवीजन के बारे में या तो नष्ट में 97 पाकिस्तानी टैंक, या क्षतिग्रस्त, या अक्षुण्ण हालत में कब्जा कर लिया था। यह 72 पैटन टैंक और 25 Chafees और Shermans शामिल हैं। 28 Pattons सहित 97 टैंक, 32 शर्त में चल रहे थे। भारतीय खेम करण पर 32 टैंक खो दिया है। के बारे में मोटे तौर पर उनमें से पन्द्रह पाकिस्तानी सेना, ज्यादातर शेरमेन टैंक द्वारा कब्जा कर लिया गया। युद्ध के अंत तक, यह अनुमान लगाया गया था कि 100 से अधिक पाकिस्तानी टैंक को नष्ट कर दिया और गया एक अतिरिक्त 150 भारत द्वारा कब्जा कर लिया गया। भारतीय सेना ने संघर्ष के दौरान 128 टैंक खो दिया है। इनमें से 40 टैंक के बारे में, उनमें से ज्यादातर AMX-13s और Shermans पुराने Chamb और खेम ​​करण के पास लड़ाई के दौरान पाकिस्तानी हाथों में गिर गया। 23 सितंबर तक भारतीय सेना +३००० रणभूमि मौतों का सामना करना पड़ा, जबकि पाकिस्तान ३,८०० की तुलना में कम नहीं सामना करना पड़ा. सोवियत संघ दोनों देशों के बीच एक शांति समझौते की मध्यस्थता की थी और बाद में औपचारिक वार्ता में आयोजित किए गए ताशकंद, एक युद्धविराम पर घोषित किया गया था [23 सितंबर]]. भारतीय प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री और अयूब खान लगभग सभी युद्ध पूर्व पदों को वापस लेने पर सहमत हुए. समझौते पर हस्ताक्षर करने के बाद घंटे, लाल बहादुर शास्त्री ताशकंद विभिन्न षड्यंत्र के सिद्धांत को हवा देने में रहस्यमय परिस्थितियों में मृत्यु हो गई। युद्ध पूर्व पदों के लिए वापस करने का निर्णय के कारण भारत के रूप में नई दिल्ली में राजनीति के बीच एक चिल्लाहट युद्ध के अंत में एक लाभप्रद स्थिति में स्पष्ट रूप से किया गया था। एक स्वतंत्र विश्लेषक के मुताबिक, युद्ध को जारी रखने के आगे नुकसान का नेतृत्व होता है और अंततः पाकिस्तान के लिए हार[16]. बांग्लादेश मुक्ति युद्ध (१९७१) एक स्वतंत्रता आंदोलन में बाहर तोड़ दिया पूर्वी पाकिस्तान जो था बेरहमी से कुचल दिया. पाकिस्तानी बलों द्वारा. कारण बड़े पैमाने पर अत्याचारों उनके खिलाफ के हजारों [[बंगाली लोग | बंगालियों] पड़ोसी भारत में शरण ली, वहाँ एक प्रमुख शरणार्थी संकट के कारण. जल्दी 1971 में, भारत बंगाली विद्रोहियों के लिए पूर्ण समर्थन, मुक्ति वाहिनी के रूप में जाना जाता घोषित और भारतीय एजेंटों को बड़े पैमाने पर गुप्त आपरेशनों में शामिल थे उन्हें सहायता. 20 नवम्बर 1971 को भारतीय सेना 14 पंजाब बटालियन चले गए और 45 कैवलरी गरीबपुर, पूर्वी पाकिस्तान के साथ भारत की सीमा के पास एक रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण शहर है और में सफलतापूर्वक [[गरीबपुर की लड़ाई | कब्जा कर लिया]. अगले दिन और संघर्ष] भारतीय और पाकिस्तानी सेनाओं के बीच जगह ले ली. भारत बंगाली विद्रोह में बढ़ती भागीदारी से सावधान पाकिस्तान वायु सेना (पीएएफ) का शुभारंभ किया [ऑपरेशन [Chengiz खान | हड़ताल अग्रकय] 3 दिसम्बर को भारतीय सेना पूर्वी पाकिस्तान के साथ अपनी सीमा के निकट पदों पर. हवाई आपरेशन, तथापि, इसकी कहा उद्देश्यों को पूरा करने में विफल रहा है और भारत पाकिस्तान के खिलाफ एक पूर्ण पैमाने पर युद्ध के कारण उसी दिन घोषित किया। आधी रात से, भारतीय सेना, भारतीय वायु सेना के साथ, पूर्वी पाकिस्तान में प्रमुख सैन्य जोर का शुभारंभ किया। भारतीय सेना की निर्णायक सहित पूर्वी मोर्चे पर कई लड़ाइयों जीता [Hilli [लड़ाई पाकिस्तान के पश्चिमी मोर्चे पर भारत के खिलाफ जवाबी हमले का शुभारंभ किया। December 4, 1971 को, एक कंपनी के 23 बटालियन के पंजाब रेजिमेंट का पता चला और पाकिस्तान के पास सेना की 51 इन्फैंट्री डिवीजन के आंदोलन को रोक [[रामगढ़, राजस्थान]. [Longewala [लड़ाई]] के दौरान जो लागू एक कंपनी है, हालांकि outnumbered, वीरतापूर्वक लड़ी और पाकिस्तानी अग्रिम नाकाम जब तक भारतीय वायु सेना अपने सेनानियों को निर्देशित करने के लिए पाकिस्तानी टैंक संलग्न. समय लड़ाई समाप्त करके 34 पाकिस्तानी टैंक और 50 APCs या नष्ट हो गए थे परित्यक्त. के बारे में 200 पाकिस्तानी सैनिकों को लड़ाई के दौरान कार्रवाई में मारे गए थे जबकि केवल 2 भारतीय सैनिकों को उनके जीवन खो दिया है। 4 दिसम्बर से 16 तक भारतीय सेना लड़ी और अंत जिसमें से 66 पाकिस्तानी टैंक को नष्ट कर रहे थे और 40 से कब्जा कर लिया गया [] [लड़ाई के Basantar] जीता. बदले में पाकिस्तानी बलों के लिए केवल 11 भारतीय टैंकों को नष्ट करने में सक्षम थे। 16 दिसम्बर तक पाकिस्तान के पूर्वी और पश्चिमी दोनों मोर्चों पर बड़े आकार का क्षेत्र खो दिया था। लेफ्टिनेंट | जगजीत सिंह अरोड़ा के आदेश के तहत जनरल जे एस अरोड़ा, भारतीय सेना के तीन कोर में प्रवेश किया जो पूर्वी पाकिस्तान पर आक्रमण किया था ढाका और पाकिस्तानी सेना ने 16 दिसम्बर 1971 को आत्मसमर्पण करने के लिए मजबूर किया। पाकिस्तान के लेफ्टिनेंट जनरल के बाद AAK नियाज़ी समर्पण के साधन पर हस्ताक्षर किए, भारत में 90,000 से अधिक पाकिस्तानी [[] युद्ध के कैदियों (+३८,००० सशस्त्र बलों के कर्मियों और 52,000 मिलिशिया पश्चिम पाकिस्तानी मूल के और नौकरशाहों) ले लिया। 1972 में, [[शिमला समझौते] दोनों देशों के तनाव और simmered के बीच हस्ताक्षर किए गए थे। हालांकि, वहाँ कूटनीतिक तनाव है जो दोनों पक्षों पर वृद्धि हुई सैन्य सतर्कता में समापन में कभी कभी spurts थे। सियाचिन विवाद (1984-) सियाचिन ग्लेशियर, हालांकि कश्मीर क्षेत्र के एक हिस्सा है, आधिकारिक तौर पर सीमांकन नहीं है। एक परिणाम के रूप में, पहले 1980 के दशक के लिए, न तो भारत और न ही पाकिस्तान इस क्षेत्र में स्थायी सैन्य उपस्थिति को बनाए रखा. हालांकि, पाकिस्तान पर्वतारोहण अभियानों के 1950 के दशक के दौरान ग्लेशियर श्रृंखला की मेजबानी शुरू कर दिया. 1980 के दशक तक पाकिस्तान की सरकार पर्वतारोहियों के लिए विशेष अभियान परमिट देने गया था और संयुक्त राज्य अमेरिका सेना नक्शे जानबूझकर पाकिस्तान के एक भाग के रूप में सियाचिन से पता चला है। इस अभ्यास कार्यकाल के समकालीन अर्थoropolitics . को जन्म दिया एक irked भारत का शुभारंभ किया ऑपरेशन मेघदूत अप्रैल 1984 के दौरान जो पूरे कुमाऊं रेजिमेंट भारतीय सेना की ग्लेशियर पहुंचा था। पाकिस्तानी सेना ने जल्दी से जवाब दिया और दोनों के बीच संघर्ष का पालन किया। भारतीय सेना सामरिक सिया ला और Bilafond ला पहाड़ गुजरता है और 1985 के द्वारा, क्षेत्र के 1000 वर्ग मील से अधिक, पाकिस्तान ने दावा किया, भारतीय नियंत्रण के अधीन था।[17] भारतीय सेना के लिए और अधिक नियंत्रण से ग्लेशियर के 2/3rd जारी है।[18] पाकिस्तान siachen.htm सियाचिन पर नियंत्रण पाने के कई असफल प्रयास किया। देर से 1987 में, पाकिस्तान के बारे में 8,000 सैनिकों जुटाए और उन्हें Khapalu निकट garrisoned, हालांकि Bilafond La. कब्जा करने के लिए लक्ष्य है, वे भारतीय सेना कर्मियों Bilafond रखवाली उलझाने के बाद वापस फेंक दिया गया। पाकिस्तान द्वारा 1990, 1995, 1996 और 1999 में पदों को पुनः प्राप्त करने के लिए आगे प्रयास शुरू किया गया। भारत के लिए अत्यंत दुर्गम परिस्थितियों और नियमित रूप से पहाड़ युद्ध.[19] सियाचिन से अधिक नियंत्रण बनाए रखने भारतीय सेना के लिए कई सैन्य चुनौतियों poses. कई बुनियादी ढांचा परियोजनाओं के क्षेत्र में निर्माण किया गया, समुद्र के स्तर से ऊपर एक हेलिपैड 21,000 फीट (+६४०० मीटर) सहित[20] 2004 में भारतीय सेना के एक अनुमान के अनुसार 2 लाख अमरीकी डॉलर एक दिन खर्च करने के लिए अपने क्षेत्र में तैनात कर्मियों का समर्थन. [21] उपद्रव-रोधी गतिविधियाँ भारतीय सेना अतीत में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है, लड़ाई विद्रोही और आतंकवादियों राष्ट्र के भीतर. सेना ऑपरेशन ब्लूस्टार और [ऑपरेशन [Woodrose]] [[सिख] विद्रोहियों का मुकाबला करने के लिए 1980 के दशक में. शुभारंभ सेना के साथ अर्द्धसैनिक बलों भारत के कुछ अर्धसैनिक बलों, बनाए रखने के प्रधानमंत्री जिम्मेदारी है [[कानून और व्यवस्था (राजनीति) | कानून और व्यवस्था] परेशान जम्मू कश्मीर क्षेत्र में. भारतीय सेना श्रीलंका 1987 में के एक भाग के रूप में भी एक दल भेजा है भारतीय शांति सेना. कारगिल संघर्ष (1999) और कुछ दिनों के बाद, पाकिस्तान और अधिक द्वारा प्रतिक्रिया परमाणु परीक्षणों देने के दोनों देशों के परमाणु प्रतिरोध क्षमता | 1998 में, भारत [परमाणु परीक्षण] [पोखरण द्वितीय] किया जाता है कूटनीतिक तनाव के बाद ढील लाहौर शिखर सम्मेलन 1999 में आयोजित किया गया था। आशावाद की भावना कम रहता था, तथापि, के बाद से मध्य 1999-पाकिस्तानी अर्धसैनिक बलों में और कश्मीरी आतंकवादियों पर कब्जा कर लिया वीरान है, लेकिन सामरिक, कारगिल जिले भारत के हिमालय हाइट्स. इन दुर्गम सर्दियों की शुरुआत के दौरान किया गया था भारतीय सेना द्वारा खाली थे और वसंत में reoccupied चाहिए. मुजाहिदीनजो इन क्षेत्रों का नियंत्रण ले लिया महत्वपूर्ण समर्थन प्राप्त है, दोनों हाथ और आपूर्ति के रूप में पाकिस्तान से. उनके नियंत्रण है, जो भी<i data-parsoid='{"dsr":[27177,27190,2,2]}'>टाइगर हिल</i>के तहत हाइट्स के कुछ महत्वपूर्ण श्रीनगर -[[ लेह] राजमार्ग (एनएच 1A), बटालिक और Dras की अनदेखी . एक बार पाकिस्तानी आक्रमण के पैमाने का एहसास था, भारतीय सेना जल्दी 200.000 के बारे में सैनिकों जुटाए और ऑपरेशन विजय शुरू किया गया था। हालांकि, बाद से ऊंचाइयों पाकिस्तान के नियंत्रण के अधीन थे, भारत एक स्पष्ट रणनीतिक नुकसान में था। राष्ट्रीय राजमार्ग 1 ए पर भारतीयों पर भारी हताहत inflicting &lt;रेफरी नाम = "NLI" | अपने प्रेक्षण चौकी से पाकिस्तानी बलों की दृष्टि से एक स्पष्ट रेखा अप्रत्यक्ष तोपखाने आग [] [अप्रत्यक्ष आग] नीचे रखना पड़ा &gt; 5 मई [[+२,००३] डेली टाइम्स, पाकिस्तान &lt;/ रेफरी&gt; यह भारतीय सेना के लिए एक गंभीर समस्या है के रूप में राजमार्ग अपने मुख्य सैन्य और आपूर्ति मार्ग था इ शार्प, 2003 द्वारा प्रकाशित रॉबर्ट Wirsing करके युद्ध की छाया में[22] इस प्रकार, भारतीय सेना की पहली प्राथमिकता चोटियों कि NH1a के तत्काल आसपास के क्षेत्र में थे हटा देना था। यह भारतीय सैनिकों में पहली बार टाइगर हिल और Dras में Tololing जटिल लक्ष्यीकरण परिणामस्वरूप[23] यह जल्द ही अधिक हमलों से पीछा किया गया था। बटालिक Turtok उप - क्षेत्र है जो सियाचिन ग्लेशियर तक पहुँच प्रदान पर. 4590 प्वाइंट है, जो NH1a के निकटतम दृश्य था सफलतापूर्वक पर 14 जून को भारतीय बलों द्वारा पुनः कब्जा दक्षिण एशिया में युद्ध के नेब्रास्का प्रेस प्रदीप बरुआ 261 &lt;/ ref&gt;[24][25] सरकारी गिनती के अनुसार, एक अनुमान के अनुसार 75% -80% और घुसपैठ क्षेत्र के लगभग सभी उच्च भूमि भारतीय नियंत्रण के तहत वापस आ गया था। भारत पर, समाचार जिनमें से चिंतित अमेरिकी | के रूप में पाकिस्तान पाया खुद एक कांटेदार स्थिति में entwined सेना छिपकर [] परमाणु हमले [परमाणु युद्ध] की योजना बनाई थी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन, एक कड़ी चेतावनी में नवाज शरीफ के परिणामस्वरूप[26] वाशिंगटन पर समझौते के बाद 4 जुलाई, जहां शरीफ पाकिस्तानी सैनिकों को वापस लेने पर सहमत हुए, लड़ने के सबसे एक क्रमिक रोकने के लिए आया था, लेकिन कुछ पाकिस्तानी सेना ने भारतीय पक्ष पर स्थिति में बने रहे नियंत्रण रेखा. इसके अलावा, यूनाइटेड जिहाद काउंसिल (सभी [अतिवादी []] समूहों के लिए एक छाता) एक चढ़ाई नीचे के लिए पाकिस्तान की योजना को अस्वीकार कर दिया है, बजाय पर लड़ने के निर्णय लेने.[27] जुलाई के आखिरी हफ्ते में भारतीय सेना अपनी अंतिम हमलों का शुभारंभ किया, के रूप में जल्द ही के रूप में द्रास Subsector पाकिस्तान की मंजूरी दे दी थी बलों से लड़ने पर रह गए 26 जुलाई. दिन के बाद से<i data-parsoid='{"dsr":[31515,31530,2,2]}'>कारगिल विजय</i>भारत में (कारगिल विजय दिवस) दिवस के रूप में चिह्नित किया गया है है। युद्ध के अंत तक भारत सभी क्षेत्र दक्षिण और नियंत्रण रेखा के पूर्व का नियंत्रण फिर से शुरू किया था, के रूप में जुलाई 1972 में शिमला समझौते के अनुसार स्थापित किया गया था। प्रमुख युद्धाभ्यास [[चित्र:. IAexercise.jpg | अंगूठे | भारतीय सेना [[टी 90] टैंक थार रेगिस्तान में एक अभ्यास के दौरान भाग लेने के]] ऑपरेशन पराक्रम {{मुख्य | 2001-2002 भारत - पाकिस्तान} गतिरोध} के बाद 13 दिसंबर [2001]]] [[भारतीय संसद] ऑपरेशन पराक्रम में जो भारतीय सैनिकों की हजारों की दसियों भारत - पाकिस्तान सीमा पर तैनात किया गया था शुरू किया गया था पर हमले. भारत हमले समर्थन के लिए पाकिस्तान को दोषी ठहराया. सबसे बड़ा सैन्य किसी एशियाई देश से बाहर किए गए व्यायाम आपरेशन किया गया था। इसका मुख्य उद्देश्य अभी स्पष्ट नहीं है है लेकिन परमाणु संघर्ष पाकिस्तान, जो भारतीय संसद पर दिसंबर हमले के बाद तेजी से संभव लग रहा था के साथ किसी भी भविष्य के लिए सेना को तैयार करने के लिए किया गया है प्रकट होता है। ऑपरेशन संघ शक्ति इसके बाद से कहा है कि इस अभ्यास का मुख्य लक्ष्य अम्बाला [[]] आधारित<i data-parsoid='{"dsr":[32589,32609,2,2]}'>द्वितीय स्ट्राइक</i>कोर जुटाना रणनीति को मान्य किया गया था। एयर समर्थन इस अभ्यास का एक हिस्सा था और हवाई छतरी सेना की एक पूरी बटालियन के युद्ध खेल के संचालन के दौरान paradropped संबद्ध उपकरणों के साथ. कुछ २०००० सैनिक अभ्यास में भाग लिया। अश्वमेध युद्धाभ्यास भारतीय सेना व्यायाम अश्वमेध में अपने नेटवर्क केंद्रित युद्ध क्षमताओं का परीक्षण किया। व्यायाम थार रेगिस्तान में आयोजित किया गया, जिसमें 30,000 से अधिक सैनिकों ने भाग लिया[28] पुष्ट अन्य सैन्य व्यूह (Other Field Formations) पैदल सेना रेजिमेंट (Infantry Regiments) तोपखाना रेजिमेंट (Artillery Regiments) तोपखाना सेना के विध्वंसक शक्ति का मुख्य अंग है | भारत में प्राचीन ग्रंथों में तोपखाने का वर्णन मिलता है | तोप को संस्कृत में शतघ्नी कहा जाता है | मध्य कालीन इतिहास में तोप का प्रयोग सर्वप्रथम बाबर ने पानीपत के प्रथम युद्ध में सन १५२६ ई० में किया था| कुछ नवीन प्रमाणों से यहाँ प्रतीत होता है के तोप का प्रयोग बहमनी राजाओं ने १३६८ में अदोनी के युद्ध में तथा गुजरात के शासक मोहमद शाह ने १५ वीं शताब्दी में किया था |भरत मे तोप खाना के दोउ केन्द्र है ह्य्द्रबद और नसिक रोअद थलसेना का कार्यबल क्षमता भारतीय थल सेना सम्बंधित आंकड़े कार्यरत सैनिक 1,300,000 आरक्षित सैनिक 1,200,000 प्रादेशिक सेना 200,000** मुख्य युद्धक टैंक4500 तोपखाना 12,800 प्रक्षेपास्त्र 100 (अग्नि-1, अग्नि-2) क्रूज प्रक्षेपास्त्र ब्रह्मोस वायुयान 10 स्क्वाड्रन हेलिकॉप्टर सतह से वायु प्रक्षेपास्त्र 90000 * 300,000 प्रथम पंक्ति ओर 500,000 द्वितीय पंक्ति के योद्धा सम्मिलित हैं ** 40,000 प्रथम पंक्ति ओर 160,000 द्वितीय पंक्ति के योद्धा सम्मिलित हैं पदानुक्रम संरचना भारतीय सेना के विभिन्न पद अवरोही क्रम में इस प्रकार हैं: कमीशन प्राप्त अधिकारी फ़ील्ड मार्शल1 जनरल (यह थलसेना अध्यक्ष का पद है) लेफ्टिनेंट-जनरल मेजर-जनरल ब्रिगेडियर कर्नल लेफ्टिनेंट-कर्नल मेजर कैप्टन लेफ्टिनेंट सेकंड लेफ्टिनेंट2 कनिष्ठ कमीशन प्राप्त अधिकारी (JCOs) सूबेदार मेजर /मानद कप्तान3 सूबेदार /मानद लेफ्टिनेंट3 सूबेदार मेजर सूबेदार नायब सूबेदार गैर कमीशन प्राप्त अधिकारी (NCOs) रेजीमेंट हवलदार मेजर2 रेजीमेंट क्वार्टरमास्टर हवलदार मेजर2 कंपनी हवलदार मेजर कंपनी क्वार्टरमास्टर हवलदार मेजर हवलदार नायक लांसनायक सिपाही नोट: •1। आज तक केवल दो ही जनरल फील्ड मार्शल के पद से विभूषित हुए हैं। -: फील्ड मार्शल के एम करिअप्पा– भारतीय सेना के प्रथम कमाण्डर इन चीफ (यह पद अब समाप्त कर दिया गया है) – तथा फील्ड मार्शल सैम मानेकशा, १९७१ युद्ध के दौरान सेनाध्यक्ष •2. This has now been discontinued. Non-Commissioned Officers in the rank of Havildar are elible for Honorary JCO ranks. •3. Given to Outstanding JCO's Rank and pay of a Lieutenant, role continues to be of a JCO. युद्ध सिद्धान्त उपस्कर एवं उपकरण विमान ! style="text-align: left; background: #aacccc;"|विमान ! style="text-align: left; background: #aacccc;"|उद्गम ! style="text-align: left; background: #aacccc;"|प्रकार ! style="text-align: left; background: #aacccc;"|संस्करण ! style="text-align: left; background: #aacccc;"|सेवारत [29] ! style="text-align: left; background: #aacccc;"|टिप्पणी |----- | HAL Dhruv || India || utility helicopter || || 36+ || To acquire 73 more Dhruv in next 5 years. |----- | Aérospatiale SA 316 Alouette III || France || utility helicopter || SA 316B Chetak || 60 || to be replaced by Dhruv |----- | Aérospatiale SA 315 Lama || France || utility helicopter || SA 315B Cheetah || 48 || to be replaced by Dhruv |----- | DRDO Nishant || India || reconnaissance UAV || || 1 || Delivery of 12 UAV's in 2008. |----- | IAI Searcher II || Israel || reconnaissance UAV || || 100+ || |----- | IAI Heron II || Israel || reconnaissance UAV || || 50+ || |} [30] परम वीर चक्र विजेता भारत का सर्वोच्च वीरता पुरस्कार परमवीर चक्र प्राप्त करने वाले वीरों की सूची इस प्रकार है: भारतीय थलसेना की संरचना भारतीय थलसेना को 13 कोर के अंतर्गत 35 प्रभागों में संगठित किया गया है। सेना का मुख्यालय, भारतीय राजधानी नई दिल्ली में स्थित है, और यह सेना प्रमुख (चीफ ऑफ़ दी आर्मी स्टाफ) के निरिक्षण में रहती हैं। वर्तमान में जनरल बिपिन रावत सेना प्रमुख हैं। कमान संरचना सेना की 6 क्रियाशील कमान(कमांड) और 1 प्रशिक्षण कमांड है। प्रत्येक कमान का नेतृत्व जनरल ऑफिसर कमांडिंग इन चीफ होता है जोकि एक लेफ्टिनेंट जनरल रैंक का अधिकारी होता हैं। प्रत्येक कमांड, नई दिल्ली में स्थित सेना मुख्यालय से सीधे जुड़ा हुआ है। इन कमानो को नीचे उनके सही क्रम में दर्शाया गया हैं, लड़ाकू दल नीचे दिए गए कोर, विशिष्ट पैन-आर्मी कार्यों हेतु एक कार्यात्मक प्रभाग हैं। भारतीय प्रादेशिक सेना विभिन्न इन्फैंट्री रेजिमेंटों से संबद्ध बटालियन हैं, जिनमे कुछ विभागीय इकाइयां, कॉर्प्स ऑफ इंजीनियर्स, आर्मी मेडिकल कोर या आर्मी सर्विस कोर से हैं। ये अंशकालिक आरक्षित के रूप में सेवा करते हैं। पैदल सेना (इन्फैंट्री) अपनी स्थापना के समय, भारतीय सेना को ब्रिटिश सेना की संगठनात्मक संरचना विरासत में मिली, जो आज भी कायम है। इसलिए, अपने पूर्ववर्ती की तरह, एक भारतीय इन्फैंट्री रेजिमेंट की ज़िम्मेदारी न सिर्फ फ़ील्ड ऑपरेशन की है बल्कि युद्ध मैदान और बटालियन में अच्छी तरह से प्रशिक्षित सैनिक प्रदान करना भी हैं, जैसे कि एक ही रेजिमेंट के बटालियन का कई दल, प्रभागों, कोर, कमान और यहां तक ​​कि थिएटरों में होना आम बात है। अपने ब्रिटिश और राष्ट्रमंडल समकक्षों की तरह, सैनिक अपने आवंटित रेजिमेंट के प्रति बेहद वफादार और बहुत गर्व करते हैं, जहाँ सामान्यतः उनका पूरा कार्यकाल बीतता हैं। भारतीय सेना के इन्फैंट्री रेजिमेंट्स में नियुक्ति, विशिष्ट चयन मानदंडों के आधार पर होती हैं, जैसे कि क्षेत्रीय, जातीयता, या धर्म पर; असम रेजिमेंट, जाट रेजिमेंट, और सिख रेजिमेंट क्रमशः। अधिकतर रेजिमेंट तो ब्रटिश राज के समय के ही हैं, लेकिन लद्दाख स्काउट, अरुणाचल स्काउट्स, और सिक्किम स्काउट्स, सीमा सुरक्षा विशेष दल, स्वतंत्रता के बाद बनाये गए हैं। वर्षों से विभिन्न राजनीतिक और सैन्य गुटों ने रेजिमेंटों की इस अनूठी चयन मानदंड प्रक्रिया को भंग करने की कोशिश करते रहे है उनका मानना था की कि सैनिक का अपने रेजिमेंट के प्रति वफादारी या उसमे उसके ही जातीय के लोगों के प्रति निष्ठा, भारत के प्रति निष्ठा से ऊपर न हो जाये। और उन्होंने कुछ गैर नस्लीय, धर्म, क्षेत्रीय रेजिमेंट, जैसे कि ब्रिगेड ऑफ गॉर्ड्स और पैराशूट रेजिमेंट, बनाने में सफल भी रहे, लेकिन पहले से बने रेजिमेंट्स में इस प्रकार के प्रयोग का कम ही समर्थन देखने को मिला हैं। भारतीय सेना के रेजिमेंट, अपनी वरिष्ठता के क्रम में:[48] तोपख़ाना (आर्टिलरी) तोपखाना रेजिमेंट (आर्टिलरी रेजिमेंट) भारतीय सेना का दूसरा सबसे बड़ा हाथ है, जोकि सेना की कुल ताकत का लगभग छठवाँ भाग हैं। मूल रूप से यह 1935 में ब्रिटिश भारतीय सेना में रॉयल भारतीय तोपखाने के नाम से शामिल हुआ था। और अब इस रेजिमेंट को, सेना को स्व-प्रचालित आर्टिलरी फील्ड प्रदान करने का काम सौंपा गया है, जिसमे बंदूकें, तोप, भारी मोर्टार, रॉकेट और मिसाइल आदि भी सम्मलित हैं। भारतीय सेना द्वारा संचालित लगभग सभी लड़ाकू अभियानों में, तोपखाना रेजिमेंट एक अभिन्न अंग के रूप में, भारतीय सेना की सफलता में एक प्रमुख योगदानकर्ता रहा है। कारगिल युद्ध के दौरान, वह भारतीय तोपखाना ही था, जिसने दुश्मन को सबसे ज्यादा नुकसान पहुँचाया था।[50] पिछले कुछ वर्षों में, पांच तोपखाना अधिकारी भारतीय सेना की सर्वोच्च पद, सेना प्रमुख के रूप में रह चुके हैं। कुछ समय के लिए, आज की तुलना में तोपखाना रेजिमेंट सेना के कर्मियों के काफी बड़े हिस्से की कमान संभालता था, जिनमें हवाई रक्षा तोपखाना और कुछ विमानन संपत्तियों का रख-रखाव भी सम्मलित थे। फिर 1990 के दशक में सेना के वायु रक्षा कोर के गठन किया गया और विमानन संपत्तियों को सेना के विमानन कॉर्प्स को हस्तान्तरित कर दिया गया। अब यह रेजिमेंट अपना ध्यान फील्ड आर्टिलरी पर केंद्रित करता है, और प्रत्येक परिचालन कमानो के लिए रेजिमेंट और बैटरी की आपूर्ति करता है। इस रेजिमेंट का मुख्यालय नाशिक, महाराष्ट्र में है, इसके साथ यहाँ एक संग्रहालय भी स्थित है। भारतीय सेना का तोपखाना स्कूल देवलाली में स्थित है। तीन दशकों से आधुनिक तोपखाने के आयात या उत्पादन में निरंतर विफलताओं के बाद[51][52], अंततः तोपखाना रेजिमेंट 130 मिमी और 150 मिमी तोपो की अधिप्राप्ति कर ली है।[53][54][55] सेना बड़ी संख्या में रॉकेट लांचरों को भी सेवा में ला रहा है, अगले दशक के अंत तक 22 रेजिमेंट को स्वदेशी-विकसित पिनाका मल्टी बैरल रॉकेट लॉन्चर से सशत्र किया जायेगा।[56] बख़्तरबंद (आर्मर) पैरा (विशेष बल) (आदेश) कमान सेना के सामरिक 6 आदेशों चल रही है। प्रत्येक आदेश [[लेफ्टिनेंट जनरल] रैंक के साथ जनरल कमांडिंग इन चीफ अधिकारी की अध्यक्षता में है। प्रत्येक आदेश सीधे में सेना मुख्यालय से संबद्ध है [[नई दिल्ली]. इन आदेशों नीचे उनके सही क्रम को ऊपर उठाने के स्थान (शहर) और उनके कमांडरों में दिया जाता है। उनकी भी एक प्रशिक्षण ARTRAC के रूप में जाना जाता है आदेश है। (कोर) कॉर्प व्यूह - रचना (फील्ड गठन) वाहिनी सेना के एक क्षेत्र में एक कमान के भीतर एक क्षेत्र के लिए जिम्मेदार गठन है। स्ट्राइक होल्डिंग और मिश्रित: वहाँ भारतीय सेना वाहिनी के 3 प्रकार के होते हैं। कमान आम तौर पर 2 या अधिक कोर के होते हैं। अपने आदेश के तहत एक कोर सेना प्रभागों है। कोर मुख्यालय सेना में उच्चतम क्षेत्र गठन है। 9 वाहिनी || | योल, हिमाचल प्रदेश || पश्चिमी कमान || लेफ्टिनेंट जनरल पीके रामपाल || 26 इन्फैंट्री डिवीजन ([[जम्मू छावनी | जम्मू]) 29, इन्फैंट्री डिवीजन(पठानकोट), 2,3,16 इंडस्ट्रीज़ ARMD Bdes10 कोर || | भटिंडा, पंजाब || पश्चिमी कमान || लेफ्टिनेंट जनरल || 16 इन्फैंट्री डिवीजन (श्री गंगानगर), 18 त्वरित ( कोटा), 24 त्वरित (बीकानेर), 6 इंडस्ट्रीज़ ARMD BDEकोर 12 || | जोधपुर, राजस्थान || दक्षिण पश्चिमी कमान || || 4 ARMD BDE, 340 Mech BDE, 11 इन्फैंट्री डिवीजन (अहमदाबाद), 12 Inf (प्रभाग जोधपुर)16 वाहिनी || | नगरोटा, जम्मू एवं कश्मीर || उत्तरी कमान || लेफ्टिनेंट जनरल आर Karwal || 10 Inf (डिव अखनूर ),&lt; रेफरी&gt; इन्हें भी देखें site/cimh/divisions/10th%% 20Division 20orbat% 20Chaamb 201971.html% &lt;/ ref&gt; 25 Inf डिव (Rajauri), 39 Inf डिव ( योल), तोपखाना ब्रिगेड, बख़्तरबंद ब्रिगेड? रेजिमेंट संगठन (फील्ड कोर ऊपर उल्लेख किया है के साथ भ्रमित होने की नहीं) इस के अलावा रेजिमेंट या कोर या विभागों भारतीय सेना के हैं। कोर नीचे उल्लेख किया कार्यात्मक विशिष्ट अखिल सेना कार्यों के साथ सौंपा डिवीजनों हैं। शैली = "फ़ॉन्ट - आकार: 100%;" | |शस्त्र भारतीय इन्फैन्ट्री रेजिमेंट आर्मड रेजिमेंट कोर - बख्तरबंद कोर स्कूल और सेंटर [अहमदनगर []] आर्टिलरी रेजिमेंट - आर्टिलरी स्कूल में देवलाली के निकट नासिक. [[भारतीय सेना के कोर इंजीनियर्स | कोर ऑफ इंजीनियर्स] - दपोदी पर सैन्य अभियांत्रिकी कालेज, पुणे. केंद्र इस प्रकार है - मद्रास इंजीनियर ग्रुप बंगलौर, बंगाल इंजीनियर ग्रुप रुड़की और बॉम्बे इंजीनियर ग्रुप Khadki में, पुणे के रूप में स्थित हैं . आर्मी एयर डिफेंस सेंटर कोर गोपालपुर उड़ीसा राज्य. मैकेनाइज्ड इंफेंट्री अहमदनगर - पर रेजिमेंटल केंद्र [[]]. सिग्नल कोर सेना उड्डयन कोरसेवा' आर्मी डेंटल कोर सेना शिक्षा कोर - सेंटर में पचमढ़ी. आर्मी मेडिकल कोर - सेंटर में [[लखनऊ]. सेना आयुध कोर में केंद्र जबलपुर और सिकंदराबाद. सेना डाक सेवा कोर सेना सेवा कोर - बंगलौर पर केंद्र वाहिनी इलेक्ट्रिकल और भोपाल में मैकेनिकल इंजीनियर्स के केंद्र और सिकंदराबाद. वाहिनी सैन्य पुलिस के - बंगलौर में केंद्र इंटेलीजेंस कोर - सेंटर में पुणे. जज एडवोकेट जनरल विभाग. सैन्य विधि संस्थान में कैम्पटी , नागपुर. सैन्य फार्म सेवा मिलिट्री नर्सिंग सर्विस रिमाउंट और वेटेनरी कोर पायनियर कोर अन्य व्यूह सैन्य (अन्य फील्ड संरचनाओं) * प्रभाग: सेना डिवीजन एक कोर और एक ब्रिगेड के बीच एक मध्यवर्ती है। यह सबसे बड़ी सेना में हड़ताली बल है। प्रत्येक प्रभाग [जनरल आफिसर कमांडिंग (जीओसी) द्वारा [[मेजर जनरल] रैंक में होता है। यह आमतौर पर +१५,००० मुकाबला सैनिकों और 8000 का समर्थन तत्वों के होते हैं। वर्तमान में, भारतीय सेना 4 रैपिड (पुनः संगठित सेना Plains इन्फैंट्री प्रभागों) सहित 34 प्रभागों लड़ाई प्रभागों, 18 इन्फैन्ट्री प्रभागों, 10 माउंटेन प्रभागों, 3 आर्मड प्रभागों और 2 आर्टिलरी प्रभागों. प्रत्येक डिवीजन के कई composes ब्रिगेड्स. * ब्रिगेड: ब्रिगेड डिवीजन की तुलना में छोटे है और आम तौर पर विभिन्न लड़ाकू समर्थन और आर्म्स और सेवाएँ के तत्वों के साथ साथ 3 इन्फैन्ट्री बटालियन के होते हैं। यह की अध्यक्षता में है एक ब्रिगेडियर के बराबर ब्रिगेडियर जनरल भारतीय सेना भी 5 स्वतंत्र बख्तरबंद ब्रिगेड, 15 स्वतंत्र आर्टिलरी ब्रिगेड, 7 स्वतंत्र इन्फैंट्री ब्रिगेड, 1 स्वतंत्र पैराशूट ब्रिगेड, 3 स्वतंत्र वायु रक्षा ब्रिगेड, 2 स्वतंत्र वायु रक्षा समूह और 4 स्वतंत्र अभियंता ब्रिगेड है। ये स्वतंत्र ब्रिगेड कोर कमांडर (जीओसी कोर) के तहत सीधे काम. * बटालियन: एक बटालियन की कमान में है एक कर्नल और इन्फैंट्री के मुख्य लड़ इकाई है। यह 900 से अधिक कर्मियों की होते हैं। * कंपनी] के नेतृत्व: मेजर, एक कंपनी के 120 सैनिकों को शामिल. * प्लाटून: एक कंपनी और धारा के बीच एक मध्यवर्ती, एक प्लाटून लेफ्टिनेंट या कमीशंड अधिकारियों की उपलब्धता पर निर्भर करता है, एक जूनियर कमीशंड अधिकारी [रैंक के साथ, [जूनियर कमीशन अफसर की अध्यक्षता में | सूबेदार या नायब सूबेदार. यह बारे में 32 सैनिकों की कुल संख्या है। * धारा: सबसे छोटा 10 कर्मियों के एक शक्ति के साथ सैन्य संगठन. रैंक के एक गैर कमीशन अधिकारी द्वारा कमान संभाली हवलदार या [सार्जेंट []]. रेजिमेंट पैदल सेना रेजिमेंट (इन्फैन्ट्री रेजिमेंट) वहाँ कई बटालियनों या इकाइयों के एक रेजिमेंट में वही गठन के अंतर्गत हैं। गोरखा रेजिमेंट, उदाहरण के लिए, कई बटालियनों है। एक रेजिमेंट के तहत सभी संरचनाओं के एक ही हथियार या कोर (यानी, इन्फैंट्री या इंजीनियर्स) की बटालियनों हैं। रेजिमेंट बिल्कुल क्षेत्र संरचनाओं नहीं कर रहे हैं, वे ज्यादातर एक गठन नहीं कर सकता हूँ. गोरखा उदाहरण के लिए सभी रेजिमेंट के एक साथ एक गठन के रूप में लड़ना नहीं है, लेकिन विभिन्न ब्रिगेड या कोर या भी आदेश पर फैलाया जा सकता है है। तोपखाना रेजिमेंट (आर्टिलरी रेजिमेंट) तोपखाना सेना के विध्वंसक शक्ति का मुख्य अंग है | भारत सभी प्राचीन ग्रंथों सभी तोपखाने का वर्णन मिलता है | तोप को संस्कृत सभी शतघ्नी कहा जाता है | मध्य कालीन इतिहास सभी तोप का प्रयोग सर्वप्रथम बाबर ने पानीपत के प्रथम युद्ध सभी 1526 सन 0 ई सभी किया था | कुछ नवीन प्रमाणों से यहाँ प्रतीत होता है के तोप का प्रयोग बहमनी राजाओं 1368 ने सभी अदोनी के युद्ध सभी तथा गुजरात के शासक मोहमद शाह ने 15 वीं शताब्दी सभी किया था | भरत मे तोप खाना के दोउ है केन्द्र ह्य्द्रबद और नसिक रोअद थलसेना का कार्यबल क्षमता भारतीय थल सेना सम्बंधित आंकड़े - कार्यरत सैनिक १३,००,००० | - आरक्षित सैनिक 1,200,000 | - [[प्रादेशिक सेना] 200.000 ** | - मुख्य युद्धक टैंक 4500 | - तोपखाना 12,800 | - [[] प्रक्षेपास्त्र] 100 (अग्नि -1, अग्नि -2) | - [[क्रूज प्रक्षेपास्त्र] ब्रह्मोस - वायुयान 10 स्क्वाड्रन हेलिकॉप्टर - [[सतह से वायु] प्रक्षेपास्त्र] 90000 | * 300.000 प्रथम पंक्ति 500.000 ओर द्वितीय पंक्ति के योद्धा सम्मिलित हैं; * 40,000 प्रथम पंक्ति 160.000 ओर द्वितीय पंक्ति के योद्धा सम्मिलित हैं आंकड़े 4 त्वरित (Reorganised सेना Plains इन्फैंट्री प्रभागों) 18 इन्फैंट्री प्रभागों 10 माउंटेन प्रभागों 3 आर्मड प्रभागों 2 आर्टिलरी प्रभागों 13 एयर डिफेंस + ब्रिगेड्स 2 भूतल एयर मिसाइल समूह 5 स्वतंत्र बख्तरबंद ब्रिगेड 15 स्वतंत्र आर्टिलरी ब्रिगेड 7 स्वतंत्र इन्फैंट्री ब्रिगेड 1 पैराशूट ब्रिगेड 4 अभियंता ब्रिगेड 14 सेना उड्डयन हेलीकाप्टर इकाइयों उप - इकाइयाँ 63 टैंक रेजिमेंट 7 एयरबोर्न बटालियन 200 आर्टिलरी रेजिमेंट 360 इन्फैंट्री बटालियन + 5 पैरा बटालियन (एस एफ) 40 मैकेनाइज्ड इंफेंट्री बटालियन लड़ाकू हेलीकाप्टर इकाइयों 20 52 एयर डिफेंस रेजिमेंट पदानुक्रम संरचना [[चित्र: भारतीय सेना के गोरखा rifles.jpg | अंगूठे | [[1 की 1 बटालियन गोरखा राइफल्स] भारतीय सेना का] एक नकली मुकाबला शहर के बाहर एक प्रशिक्षण अभ्यास के दौरान स्थान ले]] भारतीय सेना के विभिन्न रैंक से नीचे के अवरोही क्रम में सूचीबद्ध हैं:कमीशन प्राप्त अधिकारी फ़ील्ड मार्शल] * जनरल (यह थलसेना अध्यक्ष का पद है) * लेफ्टिनेंट - जनरल * मेजर - जनरल * ब्रिगेडियर * कर्नल * लेफ्टिनेंट - कर्नल * मेजर * [कप्तान [(भूमि) | कप्तान [[लेफ्टिनेंट] सेकंड लेफ्टिनेंट 2 कनिष्ठ कमीशन प्राप्त अधिकारी (जेसीओ) सूबेदार मेजर / [[मानद कप्तान] 3 सूबेदार / मानद लेफ्टिनेंट 3 सूबेदार मेजर सूबेदार नायब सूबेदारगैर कमीशन प्राप्त अधिकारी (NCOs) रेजीमेंट हवलदार मेजर 2 रेजीमेंट क्वार्टरमास्टर हवलदार मेजर 2 कंपनी हवलदार मेजर कंपनी क्वार्टरमास्टर हवलदार मेजर हवलदार नायक लांसनायक सिपाही नोट: • 1. केवल दो अधिकारियों को फील्ड मार्शल किया गया है अब तक बना है: फील्ड के.एम. करियप्पा – पहले भारतीय कमांडर - इन - चीफ (एक के बाद के बाद समाप्त कर दिया है) – और फील्ड मार्शल SHFJ मानेकशॉ मार्शल , 1971 के युद्ध पाकिस्तान के साथ. में सेना के दौरान थल सेनाध्यक्ष • 2. यह अब बंद कर दिया गया है। हवलदार के रैंक में गैर कमीशंड अधिकारी मानद जूनियर कमीशन अफसर रैंकों के लिए elible हैं • 3. बकाया है जूनियर कमीशन अफसर श्रेष्टता श्रेणी को देखते हुए और एक लेफ्टिनेंट के भुगतान, भूमिका एक जूनियर कमीशन अफसर का होना जारी है युद्ध सिद्धान्त भारतीय सेना के वर्तमान सिद्धांत का मुकाबला प्रभावी ढंग से पकड़े संरचनाओं और हड़ताल संरचनाओं के उपयोग पर आधारित है। एक हमले के मामले में पकड़े संरचनाओं दुश्मन होते हैं और हड़ताल संरचनाओं दुश्मन ताकतों को बेअसर पलटवार होगा. एक भारतीय हमले के मामले में पकड़े संरचनाओं दुश्मन ताकतों नीचे पिन भारतीय को चुनने के एक बिंदु पर whilst हड़ताल संरचनाओं हमले. भारतीय सेना काफी बड़ी हड़ताल भूमिका के लिए कई कोर समर्पित है। वर्तमान में, सेना अपने विशेष बलों क्षमताओं को बढ़ाने में भी देख रहा है। उपस्कर एवं उपकरण सही | अंगूठे | एमबीटी अर्जुन . [[चित्र: भारतीय सेना टी 90.jpg | अंगूठे | भीष्म टी 90] एमबीटी [[चित्र: भारतीय सेना T-72 image1.jpg | अंगूठे | सही | [[टी 72] अजेय]] सही | अंगूठे | नाग मिसाइल और NAMICA (नाग मिसाइल वाहक) Template:मुख्य सेना के उपकरणों के अधिकांश आयातित है, लेकिन प्रयासों के लिए स्वदेशी उपकरणों के निर्माण किए जा रहे हैं। सभी भारतीय सैन्य आग्नेयास्त्रों बंदूकें आयुध निर्माणी बोर्ड की छतरी के प्रशासन के तहत निर्मित कर रहे हैं, ईशापुर में प्रिंसिपल बन्दूक विनिर्माण सुविधाओं के साथ, काशीपुर, कानपुर, जबलपुर और तिरूचिरापल्ली. भारतीय राष्ट्रीय लघु शस्त्र प्रणाली (INSAS) राइफल है, जो सफलतापूर्वक 1997 के बाद से भारतीय सेना द्वारा शामिल Ordanance निर्माणी बोर्ड, ईशापुर के एक उत्पाद है। जबकि गोला बारूद किरकी (अब Khadki) में निर्मित है और संभवतः बोलंगीर पर. इन्हें भी देखें भारतीय सशस्‍त्र सेनाएं ब्रिटिश भारतीय सेना आज़ाद हिन्द फ़ौज प्रादेशिक सेना भारतीय सेनाएं सशस्त्र ब्रिटिश भारतीय सेना इंडियन नेशनल आर्मी भारतीय प्रादेशिक सेना बाहरी कड़ियाँ मुख्य लेख: भारतीय सेना के उपकरण भारतीय सेना के विभिन्न रैंक से नीचे के अवरोही क्रम में सूचीबद्ध हैं:कमीशन प्राप्त अधिकारी फ़ील्ड मार्शल] * जनरल (यह थलसेना अध्यक्ष का पद है) * लेफ्टिनेंट - जनरल * मेजर - जनरल * ब्रिगेडियर * कर्नल * लेफ्टिनेंट - कर्नल * मेजर * [कप्तान [(भूमि) | कप्तान [[लेफ्टिनेंट] सेकंड लेफ्टिनेंट 2 कनिष्ठ कमीशन प्राप्त अधिकारी (जेसीओ) सूबेदार मेजर / [[मानद कप्तान] 3 सूबेदार / मानद लेफ्टिनेंट 3 सूबेदार मेजर सूबेदार नायब सूबेदारगैर कमीशन प्राप्त अधिकारी (NCOs) रेजीमेंट हवलदार मेजर 2 रेजीमेंट क्वार्टरमास्टर हवलदार मेजर 2 कंपनी हवलदार मेजर कंपनी क्वार्टरमास्टर हवलदार मेजर हवलदार नायक लांसनायक सिपाही नोट: • 1. केवल दो अधिकारियों को फील्ड मार्शल किया गया है अब तक बना है: फील्ड के.एम. करियप्पा – पहले भारतीय कमांडर - इन - चीफ (एक के बाद के बाद समाप्त कर दिया है) – और फील्ड मार्शल SHFJ मानेकशॉ मार्शल , 1971 के युद्ध पाकिस्तान के साथ. में सेना के दौरान थल सेनाध्यक्ष • 2. यह अब बंद कर दिया गया है। हवलदार के रैंक में गैर कमीशंड अधिकारी मानद जूनियर कमीशन अफसर रैंकों के लिए elible हैं • 3. बकाया है जूनियर कमीशन अफसर श्रेष्टता श्रेणी को देखते हुए और एक लेफ्टिनेंट के भुगतान, भूमिका एक जूनियर कमीशन अफसर का होना जारी है युद्ध सिद्धान्त भारतीय सेना के वर्तमान सिद्धांत का मुकाबला प्रभावी ढंग से पकड़े संरचनाओं और हड़ताल संरचनाओं के उपयोग पर आधारित है। एक हमले के मामले में पकड़े संरचनाओं दुश्मन होते हैं और हड़ताल संरचनाओं दुश्मन ताकतों को बेअसर पलटवार होगा. एक भारतीय हमले के मामले में पकड़े संरचनाओं दुश्मन ताकतों नीचे पिन भारतीय को चुनने के एक बिंदु पर whilst हड़ताल संरचनाओं हमले. भारतीय सेना काफी बड़ी हड़ताल भूमिका के लिए कई कोर समर्पित है। वर्तमान में, सेना अपने विशेष बलों क्षमताओं को बढ़ाने में भी देख रहा है। उपस्कर एवं उपकरण सही | अंगूठे | एमबीटी अर्जुन . [[चित्र: भारतीय सेना टी 90.jpg | अंगूठे | भीष्म टी 90] एमबीटी [[चित्र: भारतीय सेना T-72 image1.jpg | अंगूठे | सही | [[टी 72] अजेय]] सही | अंगूठे | नाग मिसाइल और NAMICA (नाग मिसाइल वाहक) Template:मुख्य सेना के उपकरणों के अधिकांश आयातित है, लेकिन प्रयासों के लिए स्वदेशी उपकरणों के निर्माण किए जा रहे हैं। सभी भारतीय सैन्य आग्नेयास्त्रों बंदूकें आयुध निर्माणी बोर्ड की छतरी के प्रशासन के तहत निर्मित कर रहे हैं, ईशापुर में प्रिंसिपल बन्दूक विनिर्माण सुविधाओं के साथ, काशीपुर, कानपुर, जबलपुर और तिरूचिरापल्ली. भारतीय राष्ट्रीय लघु शस्त्र प्रणाली (INSAS) राइफल है, जो सफलतापूर्वक 1997 के बाद से भारतीय सेना द्वारा शामिल Ordanance निर्माणी बोर्ड, ईशापुर के एक उत्पाद है। जबकि गोला बारूद किरकी (अब Khadki) में निर्मित है और संभवतः बोलंगीर पर. इन्हें भी देखें भारतीय सशस्‍त्र सेनाएं ब्रिटिश भारतीय सेना आज़ाद हिन्द फ़ौज प्रादेशिक सेना भारतीय सेनाएं सशस्त्र ब्रिटिश भारतीय सेना इंडियन नेशनल आर्मी भारतीय प्रादेशिक सेना बाहरी कड़ियाँ सन्दर्भ श्रेणी:भारतीय सेना
भारतीय सेना का मुख्यालय कहा पर है?
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आयरिश (अंग्रेज़ी: Irish) (मूल नाम: Gaeilge, teanga na Gaeilge, Ghaelacha) भारोपीय परिवार की एक गोइदेलिक भाषा है, जिसका उद्भव आयरलैंड में हुआ और आयरिश लोगों द्वारा बोली जाती है। आज आयरिश भले ही केवल आयरिश जनसंख्या के एक छोटे समुदाय द्वारा बोली जाती हो, लेकिन यह आयरिश राज्य के निवासियों के जीवन में एक महत्वपूर्ण प्रतीकात्मक भूमिका अदा करता है, जिसका इस्तेमाल देश भर में मीडिया, निजी संदर्भों और सामाजिक स्थितियों में किया जाता है। इसे आयरलैंड गणतंत्र की राष्ट्रीय और पहली आधिकारिक भाषा के रूप में संवैधानिक दर्जा प्राप्त है, इसके अलावा इसे यूरोपीय संघ के एक आधिकारिक भाषा के रूप में दर्जा प्राप्त है। आयरिश को उत्तरी आयरलैंड में भी आधिकारिक तौर पर अल्पसंख्यक भाषा का दर्जा प्राप्त है। आयरिश साहित्य आयरिश आयरलैंड की भाषा तथा साहित्य को 'आयरिश' नाम से जाना जाता है। आयरलैंड में अंग्रेजों के प्रभुत्वकाल में तो अंग्रेजी की ही प्रधानता रही, पर देश की स्वाधीनता के बाद वहाँ की अपनी भाषा आयरिश (गैली) को फिर से महत्व दिया गया। गैली का साहित्य पाँचवी शताब्दी ई. तक का मिलता है। आयरिश भारत यूरोपीय कुल की केल्टिक शाखा के गोइडेली वर्ग से संबद्ध नहीं मानी जाती है। विकास की दृष्टि से आयरिश भाषा के इतिहास को तीन कालों में विभक्त किया जाता है- (१) प्राचीन आयरिश (सातवीं सदी नवीं सदी के मध्य तक) (२) मध्यकालीन आयरिश (नवीं से १२वीं सदी तक तथा) (३) आधुनिक (१३वीं सदी के उपरांत) (क) १७वीं सदी से पूर्व, तथा (ख) १७वीं सदी के बाद। राष्ट्रीय पुनर्जागरण के फलस्वरूप आयरिश को देश में फिर से स्थापित तो किया गया, परंतु आधुनिक आयरिश का कोई एक स्थिरीकृत रूप नहीं बन सका है। आयरिश की कई बोलियाँ अब भी महत्व की स्थिति लिए हुए हैं। प्रारंभिक आयरिश साहित्य में शौर्यगाथाओं की प्रधानता रही है जो गद्य तथा पद्य के मिले जुले रूप में लिखी गई थीं। ऐसे गाथाचक्रों में 'अलस्टर' का नाम विशेष महत्वपूर्ण है। इसके अतिरिक्त आदिकालीन आयरिश कविता में गीत तत्व की भी प्रधानता थी। ऐसा काव्य प्रमुखत: धार्मिक तथा प्रकृति सम्बंधी प्रेरणाओं की पृठभूमि में लिखा गया था। इन धार्मिक गीतों में सेंट पैट्रिक का गीत तथा उल्टान का सेंट ब्रिजिट के प्रति गीत विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। नवीं तथा १०वीं सदी के आसपास ऐतिहासिक आभास देनेवाले साहित्य का सर्जन हुआ। धार्मिक साहित्य के अंतर्गत उपदेश, संतों के चरित्र तथा इलहाम आदि आते हैं। इस वर्ग के लेखकों में माइकेल ओ' क्लेरे (१७वीं सदी) का नाम महत्वपूर्ण है। फिर इस युग में ऐतिहासिक रचनाएँ भी लिखी गईं। प्रारंभिक आधुनिक आयरिश साहित्य को क्लैसिकल युग कहकर भी अभिहित किया जाता है। १३वीं से १७वीं शताब्दी के बीच प्रमुखत: दरबारों में लिखा गया काव्य ऐसे कवियों द्वारा प्रस्तुत किया गया जिन्हें पेशेवर कहा जा सकता है। इन कवियों ने अपनी कुछ रचनाएँ गद्य में भी लिखीं। १७वीं सदी के अंत तक यह चारणकाव्य समाप्त हो जाता है। नए काव्यसंप्रदाय में स्वराघात पर आधारित छंदयोजना प्रचलित हुई। इस युग के प्रमुख कवि थे ईगन ओ' राहिली (१८वीं सदी का पूर्व) तथा धार्मिक कवि ताग गैले ओ' सुइलयाँ। रिवाइवलिस्ट आंदोलन के प्रमुख लेखकों में हैं-थॉमस ओ' क्रिओमथाँ (मृत्यु-१९३७), थॉमस ओ' सुइलयाँ, पैप्लेट ओ' कोनर तथा माहरे। आयरिश पुनर्जागरण का एक सशक्त रूप अंग्रेजी साहित्य में भी व्यक्ति हुआ है जहाँ आयरलैंड के अंग्रेजी लेखकों ने अपनी रचनाओं में आयरिश लोकतत्व, शब्दविधान तथा प्रतीकयोजना के अत्यंत सफल प्रयोग किए हैं। इस आंदोलन को आयरिश या केल्टिक पुनर्जागरण के नाम से जाना जाता है। इन्हें भी देखें आंग्ल-आयरी साहित्य बाहरी कड़ियाँ "," BBC "," "," (from Wiktionary's ) व्याकरण एवं उच्चारण A dialect of Donegal (a phonological description of the dialect of Glenties by E.C. Quiggin, from 1906) – Irish Gaelic Arts, Culture, And History Alive Worldwide Today incl sound file Die araner mundart (a phonological description of the dialect of the Aran Islands by F.N. Finck, from 1899) शब्दकोश श्रेणी:केल्टी भाषाएँ श्रेणी:आयरलैण्ड की भाषाएँ श्रेणी:गोइडेलिक भाषाएँ
आयरलैंड की आधिकारिक भाषा क्या है?
आयरिश
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नारद मुनि, (तमिल}:தேவர்ஷி நாரத) हिन्दु शास्त्रों के अनुसार, ब्रह्मा के छः पुत्रों में से छठे है। उन्होने कठिन तपस्या से ब्रह्मर्षि पद प्राप्त किया । वे भगवान विष्णु के अनन्य भक्तों में से एक माने जाते है। देवर्षि नारद धर्म के प्रचार तथा लोक-कल्याण हेतु सदैव प्रयत्नशील रहते हैं। शास्त्रों में इन्हें भगवान का मन कहा गया है। इसी कारण सभी युगों में, सभी लोकों में, समस्त विद्याओं में, समाज के सभी वर्गो में नारद जी का सदा से एक महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। मात्र देवताओं ने ही नहीं, वरन् दानवों ने भी उन्हें सदैव आदर किया है। समय-समय पर सभी ने उनसे परामर्श लिया है। श्रीमद्भगवद्गीता के दशम अध्याय के २६वें श्लोक में स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने इनकी महत्ता को स्वीकार करते हुए कहा है - देवर्षीणाम् च नारद:। देवर्षियों में मैं नारद हूं। श्रीमद्भागवत महापुराणका कथन है, सृष्टि में भगवान ने देवर्षि नारद के रूप में तीसरा अवतार ग्रहण किया और सात्वततंत्र (जिसे नारद-पांचरात्र भी कहते हैं) का उपदेश दिया जिसमें सत्कर्मो के द्वारा भव-बंधन से मुक्ति का मार्ग दिखाया गया है। नारद जी मुनियों के देवता थे। वायुपुराण में देवर्षि के पद और लक्षण का वर्णन है- देवलोक में प्रतिष्ठा प्राप्त करने वाले ऋषिगण देवर्षि नाम से जाने जाते हैं। भूत, वर्तमान एवं भविष्य-तीनों कालों के ज्ञाता, सत्यभाषी, स्वयं का साक्षात्कार करके स्वयं में सम्बद्ध, कठोर तपस्या से लोकविख्यात, गर्भावस्था में ही अज्ञान रूपी अंधकार के नष्ट हो जाने से जिनमें ज्ञान का प्रकाश हो चुका है, ऐसे मंत्रवेत्ता तथा अपने ऐश्वर्य (सिद्धियों) के बल से सब लोकों में सर्वत्र पहुँचने में सक्षम, मंत्रणा हेतु मनीषियों से घिरे हुए देवता, द्विज और नृपदेवर्षि कहे जाते हैं। इसी पुराण में आगे लिखा है कि धर्म, पुलस्त्य, क्रतु, पुलह, प्रत्यूष, प्रभास और कश्यप - इनके पुत्रों को देवर्षि का पद प्राप्त हुआ। धर्म के पुत्र नर एवं नारायण, क्रतु के पुत्र बालखिल्यगण, पुलह के पुत्र कर्दम, पुलस्त्य के पुत्र कुबेर, प्रत्यूष के पुत्र अचल, कश्यप के पुत्र नारद और पर्वत देवर्षि माने गए, किंतु जनसाधारण देवर्षि के रूप में केवल नारद जी को ही जानता है। उनकी जैसी प्रसिद्धि किसी और को नहीं मिली। वायुपुराण में बताए गए देवर्षि के सारे लक्षण नारदजी में पूर्णत:घटित होते हैं। महाभारत के सभापर्व के पांचवें अध्याय में नारद जी के व्यक्तित्व का परिचय इस प्रकार दिया गया है - देवर्षि नारद वेद और उपनिषदों के मर्मज्ञ, देवताओं के पूज्य, इतिहास-पुराणों के विशेषज्ञ, पूर्व कल्पों (अतीत) की बातों को जानने वाले, न्याय एवं धर्म के तत्त्‍‌वज्ञ, शिक्षा, व्याकरण, आयुर्वेद, ज्योतिष के प्रकाण्ड विद्वान, संगीत-विशारद, प्रभावशाली वक्ता, मेधावी, नीतिज्ञ, कवि, महापण्डित, बृहस्पति जैसे महाविद्वानोंकी शंकाओं का समाधान करने वाले, धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष के यथार्थ के ज्ञाता, योगबल से समस्त लोकों के समाचार जान सकने में समर्थ, सांख्य एवं योग के सम्पूर्ण रहस्य को जानने वाले, देवताओं-दैत्यों को वैराग्य के उपदेशक, क‌र्त्तव्य-अक‌र्त्तव्य में भेद करने में दक्ष, समस्त शास्त्रों में प्रवीण, सद्गुणों के भण्डार, सदाचार के आधार, आनंद के सागर, परम तेजस्वी, सभी विद्याओं में निपुण, सबके हितकारी और सर्वत्र गति वाले हैं। अट्ठारह महापुराणों में एक नारदोक्त पुराण; बृहन्नारदीय पुराण के नाम से प्रख्यात है। मत्स्यपुराण में वर्णित है कि श्री नारद जी ने बृहत्कल्प-प्रसंग में जिन अनेक धर्म-आख्यायिकाओं को कहा है, २५,००० श्लोकों का वह महाग्रन्थ ही नारद महापुराण है। वर्तमान समय में उपलब्ध नारदपुराण २२,००० श्लोकों वाला है। ३,००० श्लोकों की न्यूनता प्राचीन पाण्डुलिपि का कुछ भाग नष्ट हो जाने के कारण हुई है। नारदपुराण में लगभग ७५० श्लोक ज्योतिषशास्त्र पर हैं। इनमें ज्योतिष के तीनों स्कन्ध-सिद्धांत, होरा और संहिता की सर्वांगीण विवेचना की गई है। नारदसंहिता के नाम से उपलब्ध इनके एक अन्य ग्रन्थ में भी ज्योतिषशास्त्र के सभी विषयों का सुविस्तृत वर्णन मिलता है। इससे यह सिद्ध हो जाता है कि देवर्षिनारद भक्ति के साथ-साथ ज्योतिष के भी प्रधान आचार्य हैं। आजकल धार्मिक चलचित्रों और धारावाहिकों में नारद जी का जैसा चरित्र-चित्रण हो रहा है, वह देवर्षि की महानता के सामने एकदम बौना है। नारद जी के पात्र को जिस प्रकार से प्रस्तुत किया जा रहा है, उससे आम आदमी में उनकी छवि लडा़ई-झगडा़ करवाने वाले व्यक्ति अथवा विदूषक की बन गई है। यह उनके प्रकाण्ड पांडित्य एवं विराट व्यक्तित्व के प्रति सरासर अन्याय है। नारद जी का उपहास उडाने वाले श्रीहरि के इन अंशावतार की अवमानना के दोषी है। भगवान की अधिकांश लीलाओं में नारद जी उनके अनन्य सहयोगी बने हैं। वे भगवान के पार्षद होने के साथ देवताओं के प्रवक्ता भी हैं। नारद जी वस्तुत: सही मायनों में देवर्षि हैं। विभिन्न धर्मग्रन्थों में नारद मुनि को देवर्षि कहा गया है। विभिन्न धर्मग्रन्थों में इनका उल्लेख आता है। कुछ उल्लेख निम्न हैं:[1] अथर्ववेद के अनुसार नारद नाम के एक ऋषि हुए हैं। ऐतरेय ब्राह्मण के कथन के अनुसार हरिशचंद्र के पुरोहित सोमक, साहदेव्य के शिक्षक तथा आग्वष्टय एवं युधाश्रौष्ठि को अभिशप्त करने वाले भी नारद थे। मैत्रायणी संहिता में नारद नाम के एक आचार्य हुए हैं। सामविधान ब्राह्मण में बृहस्पति के शिष्य के रू प में नारद का वर्णन मिलता है। छान्दोग्यपनिषद् में नारद का नाम सनत्कुमारों के साथ लिखा गया है। महाभारत में मोक्ष धर्म के नारायणी आख्यान में नारद की उत्तरदेशीय यात्रा का विवरण मिलता है। इसके अनुसार उन्होंने नर-नारायण ऋषियों की तपश्चर्या देखकर उनसे प्रश्न किया और बाद में उन्होंने नारद को पांचरात्र धर्म का श्रवण कराया। नारद पंचरात्र के नाम से एक प्रसिद्ध वैष्णव ग्रन्थ भी है जिसमें दस महाविद्याओं की कथा विस्तार से कही गई है। इस कथा के अनुसार हरी का भजन ही मुक्ति का परम कारण माना गया है। नारद पुराण के नाम से एक ग्रन्थ मिलता है। इस ग्रन्थ के पूर्वखंड में 125 अघ्याय और उत्तरखण्ड में 182 अघ्याय हैं। कुछ स्मृतिकारों ने नारद का नाम सर्वप्रथम स्मृतिकार के रू प में माना है। नारद स्मृति में व्यवहार मातृका यानी अदालती कार्रवाई और सभा अर्थात न्यायालय सर्वोपरि माना गया है। इसके अलावा इस स्मृति में ऋणाधान ऋण वापस प्राप्त करना, उपनिधि यानी जमानत, संभुय, समुत्थान यानी सहकारिता, दत्ताप्रदानिक यानी करार करके भी उसे नहीं मानने, अभ्युपेत्य-असुश्रुषा यानी सेवा अनुबंध को तोड़ना है। वेतनस्य अनपाकर्म यानी काम करवाके भी वेतन का भुगतान नहीं करना शामिल है। नारद स्मृति में अस्वामी विक्रय यानी बिना स्वामित्व के किसी चीज का विक्रय कर देने को दंडनीय अपराध माना है। विक्रिया संप्रदान यानी बेच कर सामान न देना भी अपराध की कोटि में है। इसके अतिरिक्त क्रितानुशय यानी खरीदकर भी सामान न लेना, समस्यानपाकर्म यानी निगम श्रेणी आदि के नियमों का भंग करना, सीमाबंद यानी सीमा का विवाद और स्त्रीपुंश योग यानी वैवाहिक संबंध के बारे में भी नियम-कायदों की चर्चा मिलती है। नारद स्मृति में दायभाग यानी पैतृक संपत्ति के उत्तराधिकार और विभाजन की चर्चा भी मिलती है। इसमें साहस यानी बल प्रयोग द्वारा अपराधी को दंडित करने का विधान भी है। नारद स्मृति वाक्पारूष्य यानी मानहानि करने, गाली देने और दण्ड पारूष्य यानी चोट और क्षति पहुँचाने का वर्णन भी करती है। नारद स्मृति के प्रकीर्णक में विविध अपराधों और परिशिष्ट में चौर्य एवं दिव्य परिणाम का निरू पण किया गया है। नारद स्मृति की इन व्यवस्थाओं पर मनु स्मृति का पूर्ण प्रभाव दिखाई देता है। श्रीमद्भागवत और वायुपुराण के अनुसार देवर्षि नारद का नाम दिव्य ऋषि के रू प में भी वर्णित है। ये ब्रह्मधा के मानस पुत्र थे। नारद का जन्म ब्रह्मधा की जंघा से हुआ था। इन्हें वेदों के संदेशवाहक के रू प में और देवताओं के संवाद वाहक के रू प में भी चित्रित किया गया है। नारद देवताओं और मनुष्यों में कलह के बीज बोने से कलिप्रिय अथवा कलहप्रिय कहलाते हैं। मान्यता के अनुसार वीणा का आविष्कार भी नारद ने ही किया था। ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार मेरू के चारों ओर स्थित बीस पर्वतों में से एक का नाम नारद है। मत्स्य पुराण के अनुसार वास्तुकला विशारद अठारह आचार्यो में से एक का नाम भी नारद है। चार शक्ति देवियों में से एक शक्ति देवी का नाम नारदा है। रघुवंश के अनुसार लोहे के बाण को नाराच कहते हैं। जल के हाथी को भी नाराच कहा जाता है। स्वर्णकार की तराजू अथवा कसौटी का नाम नाराचिका अथवा नाराची है। मनुस्मृति के अनुसार एक प्राचीन ऋषि का नाम नारायण है जो नर के साथी थे। नारायण ने ही अपनी जंघा से उर्वशी को उत्पन्न किया था। विष्णु के एक विशेषण के रू प में भी नारायण शब्द का प्रयोग किया जाता है। इन्हें भी देखें हिन्दू धर्म बाहरी कड़ियाँ सन्दर्भ श्रेणी:हिन्दू देवता
नारद मुनि के पिता का नाम क्या था?
ब्रह्मा
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सलमा वल्गार्मा हायेक जिमेनेज़ दी पिनौल्ट (English: Salma Valgarma Hayek Jiménez de Pinault, जन्म २ सितम्बर १९६६) एक मैक्सिकी अभिनेत्री, निर्देशक, टीवी और फ़िल्म निर्माता हैं।[1][2] हायेक के परोपकारी कार्यों में महिलाओं के प्रति हिंसा के खिलाफ जागरूकता को बढ़ावा देना और अप्रवासियों[3] के प्रति भेदभाव को ख़त्म करने जैसी चीज़ें शामिल हैं। हायेक पहली ऐसी मैक्सिकन नागरिक हैं जिन्हें अकादमी पुरस्कार के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री के तौर पर नामांकित किया गया। मूक फ़िल्मों की अभिनेत्री डोलोरेस डेल रियो के बाद सलमा हायेक हॉलीवुड में काम करने वाले मेक्सिको के सबसे प्रख्यात लोगों में से एक हैं। सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री के रूप में अकादमी पुरस्कार के लिए नामांकित होने वाली तीन लातिनी अमरीकी अभिनेत्रियों में भी वो तीसरे स्थान पर हैं यानि दूसरे स्थान पर फर्नेंडा मोंटेनेग्रो के बाद (जबकि इन तीन अभिनेत्रियों में एक और हैं कैटलीना सैंडीनो मोरेनो)। जुलाई २००७ में, हॉलीवुड रिपोर्टर ने लैटीनो पावर ५० यानि हॉलीवुड के लातिनी समुदाय के सबसे प्रभावशाली सदस्यों की सूची के शुरूआती अंक में हायेक को चौथे स्थान पर रखा।[4] इसी महीने के दौरान, एक सर्वेक्षण में ३,००० प्रसिद्ध व्यक्तियों (स्त्री और पुरुष) में से हायेक को "सबसे आकर्षक (सेक्सी) व्यक्तित्व" के रूप में चुना गया, इस सर्वेक्षण के अनुसार, "अमेरिका की 65 प्रतिशत जनता हायेक के लिए 'सेक्सी' शब्द का प्रयोग करेगी"।[5] दिसम्बर 2008 में, एन्टरटेनमेंट वीकली ने हायेक को "टीवी पर आने वाले 25 सबसे स्मार्ट लोगों" की सूची में १७वां स्थान दिया।[6] प्रारंभिक जीवन हायेक का जन्म हुआ कोआत्ज़ाकोअल्कोज़, वेराकृज़, मेक्सिको में. हायेक डायना जीमेनेज़ मेडिना नामक एक ओपेरा गायक और प्रतिभाशाली स्काउट तथा तेल कंपनी में कार्यकारी अधिकारी के रूप में कार्य करने वाले सामी हायेक डोमिन्गुएज़ की बेटी हैं। सामी हायेक डोमिन्गुएज़ एक बार कोआत्ज़ाकोअल्कोज़ के मेयर के पद के उम्मीदवार भी रहे।[7][8][9][10] हायेक के पिता लेबनान मूल के मेक्सिकन हैं जो विस्थापित हो कर मेक्सिको शहर आये थे, जबकि उनकी माँ स्पेनिश मूल की मेक्सिकन है।[11] उनका पहला नाम 'सलमा', अरबी का एक शब्द है जिसका अर्थ है "भयरहित"। एक अमीर, धार्मिक केथोलिक परिवार में उनकी परवरिश हुई। बारह वर्ष की आयु में उन्हें अकैडेमी ऑफ़ सेक्रेड हार्ट, ग्रैंड कोटू, लुसियाना में भेजा गया।[10] वहां पता चला कि उन्हें डिसलेक्सिया था।[12] वह ओलंपिक्स में भाग लेने की आकांक्षा रखने वाली एक पारंगत जिमनास्ट भी थीं, परन्तु उनके पिता ने मेक्सिकन राष्ट्रीय टीम में भर्ती होने से उनको रोक दिया।[13] अकादमी चलाने वाली सिस्टर (धर्मानुसार) ने उनके व्यवहार में समस्याएं होने का हवाला देते हुए उन्हें अकादमी से निकाल दिया, अतः वो वापस मेक्सिको लौट गयीं। बाद में उन्हें अपनी चाची के साथ रहने के लिए ह्यूस्टन, टेक्सास भेज दिया गया, १७ साल की उम्र तक वो वहीँ रहीं। उन्होंने मेक्सिको शहर के कॉलेज में दाखिला लिया, जहां उन्होंने युनिवर्सीडैड इबेरोमेरिकाना में अंतर्राष्ट्रीय संबंधो की पढाई की। अपने परिवार को आश्चर्य में डालते हुए, उन्होंने अभिनेत्री के रूप में अपना भविष्य बनाने के लिए पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी।[10] करियर मेक्सिको 23 की उम्र में, हायेक ने टेरेसा (1998) में शीर्षक भूमिका की, जोकि मेक्सिको में सीमित अंकों तक चलने वाला एक सफल टीवी धारावाहिक (टेलेनोवेला) था, जिसने उन्हें मेक्सिको में एक स्टार बना दिया। 1994 में, हायेक ने एल कालिजोंन डी लोस मिलाग्रोस (मिरेकल ऐली) फिल्म में काम किया, जिसने मक्सिकन सिनेमा के इतिहास में किसी भी दूसरी फिल्म से ज्यादा पुरस्कार जीते हैं। हायेक को उनके प्रदर्शन के लिए एरियल पुरस्कार के लिए नामांकित किया गया।[14] हॉलीवुड में अभिनय का शुरूआती दौर हायेक 1991 में स्टेल्ला एड्लेर के मार्गदर्शन में अभिनय सीखने लॉस एंजिल्स, कैलिफोर्निया आ गयीं.[15] अंग्रेजी में उन्हें सीमित बातचीत करना ही आता था जोकि दरअसल उनके डिसलेक्सिया से पीड़ित होने की वजह से था।[16] रॉबर्ट रोड्रीगुज़ और उनकी निर्माता पत्नी एलिज़ाबेथ ऐवेलन ने जल्द ही हायेक को वो मौका दिया जिसकी उन्हें ज़रुरत थी यानि 1995 में आई फिल्म डेसपरेडो में एंटोनियो बैंडेराज़ के साथ एक मुख्य भूमिका।[10] इस फिल्म ने होलिवुड का ध्यान आकर्षित किया, क्योंकि फिल्म देखने जाने वाले लोग भी रोड्रीगुएज़ की ही तरह हायेक को देखकर चकित रह गए। निर्देशक की ओर हायेक की वफादारी के चलते, उन्होंने बाद में मास्क ऑफ़ ज़ोरो में कैथरीन ज़ीटा-जोन्स को मिलने वाली भूमिका करने से तब मना कर दिया जब रोड्रीगुएज़ ने इस फिल्म को छोड़ दिया। रोमांटिक हास्य फिल्म फूल्स रश इन में मेथ्यु पेरी के साथ हायेक प्रमुख भूमिका में थीं। उन्होंने डेसपरेडो की सफलता के बाद उन्होंने फ्रॉम डस्क टिल डॉन में पिशाचों की रानी के रूप में एक संक्षिप्त लेकिन यादगार भूमिका अदा की जिसमें उन्होंने एक टेबल के ऊपर सर्प नृत्य किया था। 1999 में, उन्होंने बड़े बजट की फिल्म वाइल्ड वाइल्ड वेस्ट में विल स्मिथ के साथ काम किया और केविन स्मिथ की डोग्मा में एक सहायक भूमिका निभायी।[10] सन् 2000 में, हायेक ने बेनिसियो डेल टोरो के साथ ट्रैफिक में एक ऐसी भूमिका की जिसके लिए उन्होंने श्रेय नहीं लिया। 2003 में, उन्होंने वंस अपोन अ टाइम इन मेक्सिको, जो कि मराची के तीन भागों में से आखिरी फिल्म थी, में अपनी डेसपरेडो में निभाई हुई भूमिका को दोहराया। हॉलीवुड में बाद में किये गए कार्य: निर्देशक, निर्माता और अभिनेत्री के तौर पर 2000 के आसपास, हायेक ने एक फिल्म निर्माण कंपनी वेंटानारोसा शुरू की, जिसके माध्यम से उन्होंने फिल्म और टेलीविजन कार्यक्रम बनाना शुरू किया। निर्माता के तौर पर उनके द्वारा बनाया गया पहली फिल्म थी 1999 की एल कोरोनेल नो तिएनी कुइन ली एस्क्रिबा, जिसे मेक्सिको ने उस साल आधिकारिक तौर पर ऑस्कर में सर्वश्रेष्ठ विदेशी फिल्म की प्रतियोगिता में भेजा।[17] हायेक 2002 में प्रदर्शित हुई फिल्म फ्रीडा की सह-निर्माता थीं। इस फिल्म में फ्रीडा कालो के रूप में हायेक और उनके बेवफा पति डिएगो रिवेरा के रूप में अल्फ्रेड मोलिना ने अभिनय किया था, फिल्म का निर्देशन जुली टेमर ने किया था और इसमें कई सहायक और छोटी भूमिकाओं में (वेलेरिया गोलिनो, अश्ले जुड़, एडवर्ड नोर्टन, जेओफ़्री रश) और छोटी लेकिन प्रमुख भूमिका में (एंटोनियो बैंडेराज़) कई और सितारे भी थे। इस फिल्म में अपने अभिनय के लिए उन्हें अकादमी पुरस्कार में सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री के तौर पर नामांकित किया गया।[10] इसी के साथ हायेक कैटी जुराडो और एड्रीऐना बर्राज़ा के साथ उन मात्र तीन मेक्सिकन अभिनेत्रियों में शामिल हो गयीं जिन्हें अकादमी पुरस्कार के लिए नामांकित किया गया है। फिल्म ने दो ऑस्कर जीते। 2001 में आई "इन दी टाइम ऑफ़ बटरफ्लाईस ", जूलिया एल्वारेज़ की इसी नाम से आई एक पुस्तक पर आधारित थी और इसमें मिराबल बहनों के जीवन को दिखाया गया था। इस फिल्म में, सलमा हायेक ने इन बहनों में से एक 'मिनर्वा' की भूमिका निभायी थी और एडवर्ड जेम्स ओल्मोस ने डोमिनकन तानाशाह रफेल लियोनिडास ट्रूजिलो का किरदार किया जिसका ये बहनें विरोध करती थीं। मार्क एंथोनी ने मिनर्वा के पहले प्यार की संक्षिप्त भूमिका निभायी जिसने मिनर्वा की उसकी क्रांतिकारी गतिविधियों की प्रेरणा दी। 2003 में, हायेक ने एक शो टाइम फिल्म द मैल्डोनाडो मिरैकल का निर्माण और निर्देशन किया जिसने उन्हें बाल/युवा/पारिवारिक कार्यक्रमों में विलक्षण निर्देशन के लिए एक डेटाइम एमी पुरस्कार जिताया।[18] दिसम्बर 2005 में, उन्होनें प्रिन्स के लिए "टे एमो कोराज़ों" ("आई लव यु, स्वीट हार्ट") नाम के एक म्यूजिक वीडियो का निर्देशन किया जिसे हायेक की अच्छी दोस्त म़िया मैस्त्रो पर फिल्माया गया।[19] हायेक अग्ली बेटी की कार्यकारी निर्माता हैं, जोकि सितम्बर 2006 से लगातार विश्व भर में प्रसारित की जा रही एक टीवी श्रृंखला है। हायेक ने बेन सिल्वर्मेंन के साथ मिलकर अमेरिकन टीवी के लिए इस श्रृंखला का रूपांतरण भी बनाया, बेन ने कोलंबिया के टेलेनोवेला यो सोय ला फी से वर्ष 2001 में इस धारावाहिक की पटकथा तथा अधिकार लिए थे। इसे मूल रूप से 2004 में एनबीसी के लिए आधे घंटे के सिटकॉम (ऐसा कार्यक्रम जिसकी कहानी में अजीबो-गरीब हास्यास्पद घटनाएं या परिस्थितियां होती हैं) के रूप में बनाया गया था, बाद में साल 2006-2007 में प्रदर्शित करने के लिए इसी कार्यक्रम को ऐबीसी द्वारा सिल्वियो होरटा के निर्देशन में भी बनाया गया। हायेक ने अग्ली बेटी में एक पत्रिका की सम्पादक सोफिया रेयेस के रूप एक अतिथि भूमिका निभाई। उन्होंने उसी शो में ही दिखाए जाने वाले एक टेलेनोवेला में अभिनेत्री के तौर पर एक विशिष्ट भूमिका भी की। यह कार्यक्रम योग्यता और लोकप्रियता के आधार पर जल्दी ही हिट हो गया और इसे साल 2007 में सर्वश्रेष्ठ हास्य श्रृंखला के लिए गोल्डेन ग्लोब पुरस्कार भी दिया गया। सोफिया के तौर पर हायेक के प्रदर्शन के लिए 59वे प्राइमटाइम एमी पुरस्कार में उन्हें हास्य श्रृंखला में "अतिथि अभिनेत्री के रूप में विलक्षण प्रदर्शन" के पुरस्कार के लिए नामांकित किया गया। अप्रैल 2007 में, हायेक ने एमजीएम के साथ चल रही बातचीत को अंतिम रूप दिया और अपनी खुद की लातिनी फिल्म प्रोडक्शन कंपनी वेंटानारोसा की मुख्य कार्यकारी अधिकारी बन गयीं।[20] आने वाले महीने में उन्होंने अपनी प्रोडक्शन कम्पनी, वेंटारोसा के ज़रिये ऐबीसी नेटवर्क के लिए कार्यक्रम बनाने के लिए दो साल के एक समझौते पर हस्ताक्षर किये।[21] हायेक फिलहाल इसा लोपेज़ द्वारा लिखित एक स्पैनिश रोमांटिक कोमेडी ला बैंडा को विकसित और निर्मित कर रही हैं जिसकी कहानी मेक्सिको में घटती है। हाल ही में हायेक ने ३० राक में जैक डॉनैघी की माँ की देख-भाल करने वाली नर्स की भूमिका की जिसे जैक पसंद करता है। हायेक ग्रोन अप्स में ऐडम सैंडलर की पत्नी की भूमिका निभायेंगी जिसमे उनके सह कलाकार क्रिस राक और केविन जेम्स होंगे।[22] गायन के क्षेत्र में उनकी ख्याति हायेक ने तीन फिल्मों में गाने गाए हैं। उनका पहला गाना डेसपरेडो के लिए गाया गया क़ुएदते एकुई था। फ्रीडा में उन्होंने लोस वेगा बैंड के साथ मेक्सिकन लोक गीत ला ब्रूजा गाया। उन्होंने सिएंते मी अमोर गाना भी रिकॉर्ड किया जो वंस अपोन अ टाईम इन मेक्सिको में फिल्म में अंत में दिखाए जाने वाले नामों के साथ आता है। उन्होनें "एक्रोस दी यूनिवर्स" में एक गायिका नर्स के रूप में हेपीनेस इज अ वार्म गन में भी अपना योगदान दिया। प्रचार का कार्य हायेक फरवरी 2004 से एवोन कोस्मेटिक की प्रवक्ता रही हैं।[23] इसके पहले 1998 में वो रेवलॉन की प्रवक्ता थीं। सन् 2001 में, उन्होंने शोपर्ड[24] के लिए मोड़लिंग की और 2006 में मारियो टेस्टीनो द्वारा खिंची गयी तस्वीरों के माध्यम से वो काम्परी विज्ञापन में दिखायी दीं।[25] अप्रैल 3 को, उन्होंने साथी मेक्सिकन अभिनेत्री मारिया फेलिक्स से प्रेरित होकर कार्टीयेर की घडी ला डोना का शुरूआती प्रचार किया।[26] हायेक लिंकन कार के लिए स्पैनिश भाषा के व्यावसायिक विज्ञापनों की श्रृंखला में भी दिखाई दीं। फलस्वरूप लातिन अमरीकी मूल के लोगों के बीच लिंकन नेविगेटर की बिक्री बारह प्रतिशत तक बढ़ गयी।[27] कला में 2006 के बसंत में, सेंट ऐंटोनियो, टेक्सस स्थित द ब्ल्यू स्टार समकालीन कला केंद्र ने मुराल चित्रकार जोर्ज एप्स और फिल्म निर्माता रोड्रिगुएज़ के 16 चित्रों की प्रदर्शनी लगायी जिसमे हायेक को एजटेक देवी इत्ज़पैपलोटील के तौर पर दर्शाया गया।[28] व्यक्तिगत जीवन हायेक सहज रूप से एक अमरीकी नागरिक है।[29] 1999 से 2003 के बीच अभिनेता एडवर्ड नोर्टन के साथ और फिर 2003 में जोश लुकास के साथ उनके प्रेम सम्बन्ध रहे। वह स्पेनिश अभिनेत्री पेनेलोपे क्रूज़ की अच्छी दोस्त हैं और उनके साथ हायेक ने 2006 में आयी फिल्म बैनडिडास में अभिनय भी किया है। हायेक ने राम्था स्कूल ऑफ़ इनलाईटमेंट में शिक्षा ली।[30] उनके भाई, सामी हायेक[31] एक डिज़ाईनर हैं जिनकी टार्गेट[32] के अंतर्गत अपने डिज़ाइन किये गए कपड़ों की पूरी और उनके ग्राहकों में लुईस व्युइटन, ब्रैड पिट और मैक्सिकन सरकार शामिल हैं।[33] हायेक प्राय पात्रों को निभाने में पद्धति अभिनय (जिसमें अभिनेता या अभिनेत्री वास्तविक जीवन में भी उन्हीं पात्रों की तरह जीते हैं जिसे वो उस वक्त अदा कर रहे हैं) का प्रयोग करती हैं। जब उन्हें फ्रीडा कालो की भूमिका के लिए चुना गया, तो उन्होंने इस पात्र को निभाने लिए धूम्रपान करते समय असली सिगरेट का प्रयोग किया। इसका परिणाम यह निकला की उन्होंने खुद स्वीकार किया कि उन्हें धुम्रपान करने की आदत लग गई जिसे वो फ़िलहाल छोड़ने का प्रयत्न कर रही हैं। 9 मार्च 2007 को, हायेक ने इस बात की पुष्टि की कि वो पीपीआर सीईओ फ्रेंकोइस-हेनरी पिनौल्ट के साथ अपने पहले बच्चे की माँ बनने वाली हैं। 21 सितम्बर 2007 को, उन्होंने बेटी वैलेंटीना पैलोमा पिनौल्ट के रूप में अपने पहले बच्चे को लोस एंजेल्स, केलिफोर्निया के सीडर्स-सिने मेडिकल सेंटर में जन्म दिया। 18 जुलाई 2008 को, हायेक और पिनौल्ट ने अपनी सगाई टूटने की घोषणा कर दी।[34] बाद में उनके बीच फिर मिलाप हो गया और 2009 में वैलेंटाइन्स डे को पेरिस में उन्होंने शादी कर ली।[35] 25 अप्रैल 2009 को उन्होंने वेनिस[36] में दुबारा शादी की।[37] समर्थन 19 जुलाई 2005 को, हायेक यू एस सीनेट कमिटी के सामने महिलाओं के खिलाफ हिंसा क़ानून को दुबारा लागू करने के पक्ष में साक्षी बनीं।[38] फरवरी 2006 में, उन्होंने $25,000 कोत्जाकोल्कोस, मेक्सिको में उपेक्षित महिलाओं के लिए बने एक आश्रयगृह को और $50,000 मोंटेरी आधारित घरेलु हिंसा विरोधी समूहों को दान में दिए।[39] उनकी बेटी के जन्म के बाद से ही उन्होंने दुनिया भर के विकासशील देशों में माताओं की सहायता की है और पैम्पर और यूनिसेफ के साथ मिलकर माँ तथा नवजात शिशु के जीवन को खतरे में डालने वाले टिटनेस को रोकने में सहायता प्रदान की है। वो पैम्पर/यूनिसेफ भागीदारी प्रयास 1 पैक = 1 वैक्सीन कार्यक्रम के बारे में लोगों को जागरूक करने के लिए एक वै्श्विक प्रवक्ता के रूप में कार्य कर रही हैं।[40] हायेक शिशुओं को स्तनपान कराने का भी समर्थन करती हैं क्योंकि इससे उनकी प्रतिरक्षा प्रणाली बेहतर होती है और इसके अन्य कई लाभ भी हैं। सीएरा लियोन में युनिसेफ़ के तथ्य अन्वेषण दौरे में एक ऐसे शिशु को स्तनपान कराया जो एक हफ्ते से भूखा था क्योंकि उसकी माँ दूध न बनने की वजह से उसे स्तनपान नहीं करा पा रही थी। सम्मान अक्टूबर 2001 में ग्लैमर पत्रिका द्वारा साल की सर्वश्रेष्ठ महिला के पुरस्कार से सम्मानित.[41] 2003 में प्रोड्यूसर्स गिल्ड ऑफ़ अमेरिका द्वारा सेलीब्रेशन ऑफ़ डाईवर्सिटी अवार्ड से सम्मानित.[42] फरवरी 2006 में हार्वर्ड फाउंडेशन द्वारा साल की सर्वश्रेष्ठ कलाकार के पुरस्कार से सम्मानित.[43] 2005 में टाइम पत्रिका द्वारा 25 सबसे प्रभावशाली लातिन अमरीकी व्यक्तित्व के पुरस्कार से सम्मानित.[44] फिल्मोग्राफी फिल्म टेलीविजन समारोहों में उपस्थिति 2005 कान फिल्म समारोहमें निर्णायक मंडल की सदस्या थीं।[45] 11 दिसम्बर 2005 को ओस्लो, नोर्वे में जुलिआन मूर के साथ वार्षिक नोबेल शान्ति पुरस्कार की सह-मेजबानी की. इन्हें भी देखें डेमी मूर डकोटा जॉनसन जेनिफ़र लॉरेंस शेरोन स्टोन दीना शिहाबी ऐनी हैथवे सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ at IMDb श्रेणी:जन्म 1966 श्रेणी:जीवित लोग श्रेणी:अमेरिकी अभिनेत्री श्रेणी:गूगल परियोजना श्रेणी:मेक्सिको की अभिनेत्री
सलमा हायेक के पति का नाम क्या है?
फ्रेंकोइस-हेनरी पिनौल्ट
10,759
hindi
412e00bf1
अफ़ग़ानिस्तान इस्लामी गणराज्य दक्षिणी मध्य एशिया में अवस्थित देश है, जो चारो ओर से जमीन से घिरा हुआ है। प्रायः इसकी गिनती मध्य एशिया के देशों में होती है पर देश में लगातार चल रहे संघर्षों ने इसे कभी मध्य पूर्व तो कभी दक्षिण एशिया से जोड़ दिया है। इसके पूर्व में पाकिस्तान, उत्तर पूर्व में भारत तथा चीन, उत्तर में ताजिकिस्तान, कज़ाकस्तान तथा तुर्कमेनिस्तान तथा पश्चिम में ईरान है। अफ़ग़ानिस्तान रेशम मार्ग और मानव प्रवास का एक प्राचीन केन्द्र बिन्दु रहा है। पुरातत्वविदों को मध्य पाषाण काल ​​के मानव बस्ती के साक्ष्य मिले हैं। इस क्षेत्र में नगरीय सभ्यता की शुरुआत 3000 से 2,000 ई.पू. के रूप में मानी जा सकती है। यह क्षेत्र एक ऐसे भू-रणनीतिक स्थान पर अवस्थित है जो मध्य एशिया और पश्चिम एशिया को भारतीय उपमहाद्वीप की संस्कृति से जोड़ता है। इस भूमि पर कुषाण, हफ्थलिट, समानी, गजनवी, मोहमद गौरी, मुगल, दुर्रानी और अनेक दूसरे प्रमुख साम्राज्यों का उत्थान हुआ है। प्राचीन काल में फ़ारस तथा शक साम्राज्यों का अंग रहा अफ़्ग़ानिस्तान कई सम्राटों, आक्रमणकारियों तथा विजेताओं की कर्मभूमि रहा है। इनमें सिकन्दर, फारसी शासक दारा प्रथम, तुर्क,मुगल शासक बाबर, मुहम्मद गौरी, नादिर शाह इत्यादि के नाम प्रमुख हैं। ब्रिटिश सेनाओं ने भी कई बार अफ़ग़ानिस्तान पर आक्रमण किया। वर्तमान में अमेरिका द्वारा तालेबान पर आक्रमण किये जाने के बाद नाटो(NATO) की सेनाएं वहां बनी हुई हैं। अफ़ग़ानिस्तान के प्रमुख नगर हैं- राजधानी काबुल, कंधार। यहाँ कई नस्ल के लोग रहते हैं जिनमें पश्तून (पठान या अफ़ग़ान) सबसे अधिक हैं। इसके अलावा उज्बेक, ताजिक, तुर्कमेन और हज़ारा शामिल हैं। यहाँ की मुख्य भाषा पश्तो है। फ़ारसी भाषा के अफ़गान रूप को दरी कहते हैं। नाम अफ़्ग़ानिस्तान का नाम अफगान और स्तान से मिलकर बना है जिसका शाब्दिक अर्थ है अफ़गानों की भूमि। स्तान इस क्षेत्र के कई देशों के नाम में है जैसे- पाकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान, कज़ाख़स्तान, हिन्दुस्तान इत्यादि जिसका अर्थ है भूमि या देश। अफ़्गान का अर्थ यहां के सबसे अधिक वसित नस्ल (पश्तून) को कहते है। अफ़्गान शब्द को संस्कृत अवगान से निकला हुआ माना जाता है। ध्यान रहे की "अफ़्ग़ान" शब्द में ग़ की ध्वनी है और "ग" की नहीं। इतिहास मानव बसाहट १०,००० साल से भी अधिक पुराना हो सकता है। ईसा के १८०० साल पहले आर्यों का आगमन इस क्षेत्र में हुआ। ईसा के ७०० साल पहले इसके उत्तरी क्षेत्र में गांधार महाजनपद था जिसके बारे में भारतीय स्रोत महाभारत तथा अन्य ग्रंथों में वर्णन मिलता है। ईसापूर्व ५०० में फ़ारस के हखामनी शासकों ने इसको जीत लिया। सिकन्दर के फारस विजय अभियान के तहते अफ़गानिस्तान भी यूनानी साम्राज्य का अंग बन गया। इसके बाद यह शकों के शासन में आए। शक स्कीथियों के भारतीय अंग थे। ईसापूर्व २३० में मौर्य शासन के तहत अफ़ग़ानिस्तान का संपूर्ण इलाका आ चुका था पर मौर्यों का शासन अधिक दिनों तक नहीं रहा। इसके बाद पार्थियन और फ़िर सासानी शासकों ने फ़ारस में केन्द्रित अपने साम्राज्यों का हिस्सा इसे बना लिया। सासनी वंश इस्लाम के आगमन से पूर्व का आखिरी ईरानी वंश था। अरबों ने ख़ुरासान पर सन् ७०७ में अधिकार कर लिया। सामानी वंश, जो फ़ारसी मूल के पर सुन्नी थे, ने ९८७ इस्वी में अपना शासन गजनवियों को खो दिया जिसके फलस्वरूप लगभग संपूर्ण अफ़ग़ानिस्तान ग़ज़नवियों के हाथों आ गया। ग़ोर के शासकों ने गज़नी पर ११८३ में अधिकार कर लिया। मध्यकाल में कई अफ़्गान शासकों ने दिल्ली की सत्ता पर अधिकार किया या करने का प्रयत्न किया जिनमें लोदी वंश का नाम प्रमुख है। इसके अलावा भी कई मुस्लिम आक्रमणकारियों ने अफगान शाहों की मदद से हिन्दुस्तान पर आक्रमण किया था जिसमें बाबर, नादिर शाह तथा अहमद शाह अब्दाली शामिल है। अफ़ग़ानिस्तान के कुछ क्षेत्र दिल्ली सल्तनत के अंग थे। आधुनिक काल उन्नीसवीं सदी में आंग्ल-अफ़ग़ान युद्धों के कारण अफ़ग़ानिस्तान का काफी हिस्सा ब्रिटिश इंडिया के अधीन हो गया जिसके बाद अफ़ग़ानिस्तान में यूरोपीय प्रभाव बढ़ता गया। १९१९ में अफ़ग़ानिस्तान ने विदेशी ताकतों से एक बार फिर स्वतंत्रता पाई। आधुनिक काल में १९३३-१९७३ के बाच का काल अफ़ग़ानिस्तान का सबसे अधिक व्यवस्थित काल रहा जब ज़ाहिर शाह का शासन था। पर पहले उसके जीजा तथा बाद में कम्युनिस्ट पार्टी के सत्तापलट के कारण देश में फिर से अस्थिरता आ गई। सोवियत सेना ने कम्युनिस्ट पार्टी के सहयोग के लिए देश में कदम रखा और मुजाहिदीन ने सोवियत सेनाओं के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया और बाद में अमेरिका तथा पाकिस्तान के सहयोग से सोवियतों को वापस जाना पड़ा। ११ सितम्बर २००१ के हमले में मुजाहिदीन के सहयोग होने की खबर के बाद अमेरिका ने देश के अधिकांश हिस्से पर सत्तारुढ़ मुजाहिदीन (तालिबान), जिसको कभी अमेरिका ने सोवियत सेनाओं के खिलाफ लड़ने में हथियारों से सहयोग दिया था, के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया। नाम की उत्पत्ति अफगानिस्तान नाम अफ्गान समुदाय की जगह के रूप में प्रयुक्त किया गया है, यह नाम सबसे पहले 10 वीं शताब्दी में हूदूद उल-आलम (विश्व की सीमाएं) नाम की भौगोलिक किताब में आया था इसके रचनाकार का नाम अज्ञात है' साल 2006 में पारित देश के संविधान में अफगानिस्तान के सभी नागरिकों को अफ्गान कहा गया है जो अफगानिस्तान के सभी नागरिक अफ्गान है' वर्तमान वर्तमान में (फरवरी २००७) देश में नाटो(NATO) की सेनाएं बनी हैं और देश में लोकतांत्रिक सरकार का शासन है। हालांकि तालिबान ने फिर से कुछ क्षेत्रों पर अधिपत्य जमा लिया है, अमेरिका का कहना है कि तालिबान को पाकिस्तानी जमीन पर फलने-फूलने दिया जा रहा है। प्रशासनिक विभाग अफ़ग़ानिस्तान में कुल ३४ प्रशासनिक विभाग हैं। इनके नाम हैं - बदख़्शान बदगीश बाग़लान बाल्क़ बमयन दायकुंडी फ़राह फ़रयब ग़ज़नी ग़ोर हेलमंद हेरात ज़ोजान क़ाबुल कांदहार (कांधार) क़पिसा ख़ोस्त कोनार कुन्दूज लगमान लोगर नांगरहर निमरूज़ नूरेस्तान ओरुज़्ग़ान पक़्तिया पक़्तिका पंजशिर परवान समंगान सरे पोल तक़ार वारदाक़ ज़बोल भूगोल अफ़ग़ानिस्तान चारों ओर से ज़मीन से घिरा हुआ है और इसकी सबसे बड़ी सीमा पूर्व की ओर पाकिस्तान से लगी है। इसे डूरण्ड रेखा भी कहते हैं। केन्द्रीय तथा उत्तरपूर्व की दिशा में पर्वतमालाएँ हैं जो उत्तरपूर्व में ताजिकिस्तान स्थित हिन्दूकुश पर्वतों का विस्तार हैं। अक्सर तापमान का दैनिक अन्तरण अधिक होता है। यह भी देखिए अफ़ग़ानिस्तान के युद्ध अफ़्गानिस्तान के नगरो की सूची ग़ की ध्वनी सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ (वेद प्रताप वैदिक) श्रेणी:इस्लामी गणराज्य अफ़ग़ानिस्तान अफ़्गानिस्तान श्रेणी:दक्षिण एशिया के देश श्रेणी:स्थलरुद्ध देश
अफ़ग़ानिस्तान की राजभाषा क्या है?
पश्तो
1,460
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साबूदाना एक खाद्य पदार्थ है। यह छोटे-छोटे मोती की तरह सफ़ेद और गोल होते हैं। यह सैगो पाम नामक पेड़ के तने के गूदे से बनता है। सागो, ताड़ की तरह का एक पौधा होता है। ये मूलरूप से पूर्वी अफ़्रीका का पौधा है। पकने के बाद यह अपादर्शी से हल्का पारदर्शी, नर्म और स्पंजी हो जाता है। भारत में साबूदाने का उपयोग अधिकतर पापड़, खीर और खिचड़ी बनाने में होता है। सूप और अन्य चीज़ों को गाढ़ा करने के लिये भी इसका उपयोग होता है। महाराष्ट्र में जब लोग उपवास करते हैं, तब उपवास के दौरान साबूदाने को बनाकर खाते हैं| भारत में साबूदाने का उत्पादन सबसे पहले तमिलनाडु के सेलम में हुआ था। लगभग १९४३-४४ में भारत में इसका उत्पादन एक कुटीर उद्योग के रूप में हुआ था। इसमें पहले टैपियाका की जड़ों को मसल कर उसके दूध को छानकर उसे जमने देते थे। फिर उसकी छोटी छोटी गोलियां बनाकर सेंक लेते थे। टैपियाका के उत्पादन में भारत अग्रिम देशों में है। लगभग ७०० इकाइयाँ सेलम में स्थित हैं। साबूदाना में कार्बोहाइड्रेट की प्रमुखता होती है और इसमें कुछ मात्रा में कैल्शियम व विटामिन सी भी होता है। साबूदाना की कई किस्में बाजार में उपलब्ध हैं उनके बनाने की गुणवत्ता अलग होने पर उनके नाम बदल और गुण बदल जाते हैं अन्यथा ये एक ही प्रकार का होता है, आरारोट भी इसी का एक उत्पाद है। परिचय साबुदाना टेपिओका-सागो एक संसाधित, पकाने के लिये तैयार, खाद्य उत्पाद है। साबुदाना के निर्माण के लिए एक ही कच्चा माल है "टैपिओका रूट" जिसे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर "कसावा" के रूप में जाना जाता है। शिशुओं और बीमार व्यक्तियों के लिए या उपवास (vrata-upawas) के दौरान, साबुदाना पोषण का एक स्वीकार्य रूप माना जाता है। यह कइ तरह से (मीठे दूध के साथ उबाली हुइ "खीर") या खिचडी, वड़ा, बोंडा (आलू, सींगदाना, सेंधा-नमक, काली मिर्च या हरी मिर्च के साथ मिश्रित) आदि या डेसर्ट के रूप में व्यंजनों की एक किस्म में प्रयोग किया जाता है। साबुदाना, टैपिओका-रूट (कसावा) से तैयार किया गया एक उत्पादन है, जिसका वानस्पतिक नाम "Manihot Esculenta Crantz पर्याय Utilissima " है। यह से अत्यधिक मिलता-जुलता है। दोनों आम तौर पर छोटे (लगभग 2 मिमी व्यास) सूखे, अपारदर्शी दाने के रूप में होते हैं। दोनों (बहुत शुद्ध हो तो) सफेद रंग में होते हैं। जब भिगोया और पकाया जाता है, तब दोनों नरम और स्पंजी, बहुत बड़े पारदर्शी दाने बन जाते हैं। दोनों का व्यापक रूप से दुनिया भर में आम तौर पर पुडिंग बनाने में उपयोग किया जाता है। तकरीबन आम तौर पर भारत में हिंदी में साबुदाना; , बंगाली में 'Tapioca globule' या 'sagu' ট্যাপিওকা গ্লোবিউল या সাগু; गुजराती में 'sabudana' સાબુદાણા; और मराठी में साबुदाना;', तमिल में 'Javvarisi' சாகோவில்; , मलयालम में 'Kappa Sagu' കപ്പ സാഗൊ; कन्नड़ में 'Sabbakki' ಸಾಬುದಾನ; तेलुगु में 'Saggubeeyam' సగ్గు బియ్యం; ऊर्दु में 'sagudan-' ساگودانه; कहा जाता है। कइ जगह इसे 'टैपिओका साबुदाना' या 'टैपिओका ग्लोबुल्स' के नाम से भी जाना जाता है। और ' ' के अलग अलग अर्थ हैं। "टैपिओका" कसावा (Manihot Esculenta) से निकाला जाने वाला एक उत्पाद है। कसावा स्टार्च को टैपिओका कहा जाता है। यह "टूपी" शब्द जिसे पुर्तगाली शब्द tipi'óka से लिया गया, से निकला है॥ जिसका अर्थ कसावा स्टार्च से बनाये गये खाद्य की प्रक्रिया को दर्शाता है। भारत में, शब्द "टैपिओका-रूट" कसावा कंद के लिये ही उपयोग किया जाता है और शब्द 'टैपिओका' कसावा से निकाली गई एक विशेष आकार में भुनी हुइ या सेंकी हुइ स्टार्च के लिए प्रतिनिधित्व करता है। कसावा या manioc पौधे का मूल आरम्भ दक्षिण अमेरिका में हूआ। अमेजन निवासियों ने चावल / आलू / मक्का के साथ या इसके अलावा भी कसावा का इस्तेमाल किया। पुर्तगाली खोजकर्ताओं ने अफ्रीकी तटों और आसपास के द्वीपों के साथ अपने व्यापार के माध्यम से अफ्रीका में कसावा की शुरुआत की। टैपिओका-रूट साबुदाना और स्टार्च के लिए बुनियादी कच्चा माल है। टैपिओका 19 वीं सदी के बाद के हिस्से के दौरान भारत में आया था। 1940 के दशक में मुख्य रूप से केरल , आंध्रप्रदेश, और तमिलनाडु राज्यों में इसकी वृद्धि हुई, जब टैपिओका से उत्पादित स्टार्च और साबूदाने के तरीके भारत में आरम्भ हुए। सबसे पहले हाथ से मैन्युअल रूप से और बाद में स्वदेशी उत्पादन के तरीकों से इसका डिकास हुआ। यह कार्बोहाइड्रेट और कैल्शियम और विटामिन-सी की पर्याप्त राशि वाला एक बहुत ही पौष्टिक उत्पाद है। भारत में 1943-44 में सबसे पहले साबुदाना उत्पादन, अत्यन्त छोटे पैमाने पर, टैपिओका की जड़ों से दूध निकाल कर, छान कर और, दाने बना कर एक कुटीर-उद्योग के रूप में शुरू हुआ। भारत में, साबुदाना पहली बार तमिलनाडु राज्य के सेलम में तैयार किया गया ॥ भारतीय टैपिओका-रूट में आम तौर 30% से 35% स्टार्च सामग्री है। वर्तमान में भारत टैपिओका-रुट की पैदावार में अग्रणी देशों में से एक है। करीब 650-700 इकाइयाँ तमिलनाडु राज्य के सेलम जिले में टैपिओका प्रसंस्करण में लगी हुई है। इतिहास तमिलनाडु के टैपिओका साबुदाना और टैपिओका स्टार्च उद्योग, द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान सिंगापुर, मलेशिया, हॉलैंड, जापान और संयुक्त राज्य अमेरिका से विदेशी साबुदाना और स्टार्च के आयात की निषेधआज्ञा से उपजी कमी का परिणाम है। सेलम के मछली व्यापारी श्री मनिक्क्कम चेट्टियार अपने व्यापार के सिलसिले में बहुत बार सेलम से केरल जाते रहते थे। उनकी मुलाकात पेनांग (मलेशिया) से आकर केरल में बसे श्री पोपटलाल जी शाह से हुइ, जिन्हे टैपिओका स्टार्च निर्माण का ज्ञान था। वर्ष 1943 में, सेलम से इन दोनों ने बहुत छोटे कुटीर उद्योग रूप में टैपिओका स्टार्च और साबुदाना आदिम तरीकों से निर्माण प्रारम्भ किया। साबुदाना और स्टार्च के लिए दैनिक बढ़ती मांग को पूरा करने के लिए, एक प्रतिभाशाली मैकेनिक श्री एम वेंकटचलम गौंदर की मदद से उत्पादन की मशीनरी और तरीकों में सुधार हुआ। परिणामस्वरूप उद्योग की उत्पादन क्षमता प्रति दिन 100 किलो के 2 थैलों से बढ कर 25 थैले हो गई। 1944 में पूरे देश में एक गंभीर अकाल पडा। चूँकि साबुदाना एक खाद्य-पदार्थ माना गया, अत: सेलम कलेक्टर ने सेलम से बाहर बेचने पर रोक लगा दी। सेलम साबुदाना और स्टार्च निर्माताओं ने एक संघ का गठन कर नागरिक आपूर्ति आयुक्त के समक्ष इस मामले का प्रतिनिधित्व किया और जिला कलेक्टर के निषेधात्मक आदेश को रद्द करवाया। 1945 से साबुदाना और टैपिओका स्टार्च के उत्पादन में प्रशंसनीय वृद्धि हुई। सन्दर्भ इन्हें भी देखें साबूदाने की खिचड़ी साबूदाने का खीर साबूदाना मिक्चर बाहरी कड़ियाँ फलाहार निशामधुलिका पर 'साबुदाना "से जुड़े अन्य पोस्ट: अभिलक्षण और साबुदाना का विवरण साबुदाना के लिए मानक (साबुदाना, टैपिओका साबुदाना) भारत में साबुदाना विनिर्माण केंद्रों भारत में साबुदाना की मूल्य-प्रशंसा साबुदाना संबंधित HSCodes साबुदाना विनिर्माण प्रक्रिया कसावा के बारे में - साबुदाना के लिए कच्चे माल क्यों भारतीय साबुदाना सर्वश्रेष्ठ है? भारत में साबुदाना उद्योग के इतिहास: साबुदाना के बारे में कुछ भ्रामक प्रचार SAVOSA (साबू दृश्य और मौखिक साबुदाना) परीक्षण पर्चा टैपिओका साबुदाना का परिचय (साबुदाना) साबुदाना (टेपीयो -का-सागो) - निर्माण प्रक्रिया साबुदाना - शाकाहारी है या नहीं? श्रेणी:भोजन
सैगो पाम पेड़ का वैज्ञानिक नाम क्या है?
"Manihot Esculenta Crantz पर्याय Utilissima "
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लियोनेल आंद्रेस मेस्सी (Spanish pronunciation:[lioˈnel anˈdres ˈmesi]; जन्म 24 जून 1987) अर्जेंटीना के फ़ुटबॉल खिलाड़ी हैं, जो इस समय ला लिगा टीम बार्सिलोना और अर्जेंटीना की राष्ट्रीय टीम के लिए खेलते हैं। मेस्सी को अपनी पीढ़ी के सर्वश्रेष्ठ फ़ुटबॉल खिलाड़ियों में से एक माना जाता है,[3][4][5] जिसने 21 साल की उम्र में ही कई बैलन डी'ऑर और FIFA वर्ष का विश्व खिलाड़ी नामांकन प्राप्त किए। [6][7][8] उनकी खेल शैली और क्षमता की वजह से, फ़ुटबॉल के दिग्गज डिएगो मारडोना के साथ उनकी तुलना की जाने लगी, जिन्होंने ख़ुद मेस्सी को अपना "उत्तराधिकारी" घोषित किया है।[9][10] मेस्सी ने कम उम्र में ही फ़ुटबॉल खेलना शुरू किया और जल्द ही बार्सिलोना ने उनकी क्षमता पहचान ली। उन्होंने 2000 में रोसारियो-आधारित न्यूवेल्स ओल्ड बॉय्स युवा दल को छोड़ा और अपने परिवार के साथ यूरोप आए, चूंकि बार्सिलोना ने उनके विकास हार्मोन की कमी के लिए इलाज की पेशकश की। 2004-05 सीज़न में पहली बार मैदान में उतरते हुए, उन्होंने सबसे कम उम्र के लीग खेल खेलने वाले फ़ुटबॉलर का ला लिगा रिकॉर्ड तोड़ दिया और साथ ही, सबसे कम उम्र के लीग गोल स्कोर करने वाले बने। मेस्सी के प्रथम प्रदर्शन के दौरान बार्सिलोना ने ला लिगा जीता और 2006 में दोहरा लीग और UEFA चैंपियन्स लीग जीतने के साथ ही, जल्द ही प्रमुख सम्मान मिलने लगे। 2006-07 उनकी सफलता का सीज़न था: एल क्लासिको में लगातार तीन गोल करते हुए और 26 लीग मैचों में 14 गोल की फ़िनिशिंग के साथ, उन्होंने नियमित रूप से फ़र्स्ट टीम में जगह बनाई। संभवतः 2008-09 का सीज़न उनका सबसे सफल सीज़न था, जिसमें मेस्सी 38 गोल करते हुए तिगुने विजय अभियान का अभिन्न अंग बने। मेस्सी, 2005 FIFA वर्ल्ड यूथ चैम्पियनशिप में छह गोल के साथ, जिसमें अंतिम खेल के दो गोल शामिल हैं, शीर्ष स्कोरर बने। उसके शीघ्र बाद, वे अर्जेंटीना के वरिष्ठ अंतर्राष्ट्रीय टीम के एक सदस्य के रूप में स्थापित हुए. 2006 में, वे अर्जेंटीना की ओर से FIFA विश्व कप में खेलने वाले सबसे कम उम्र के खिलाड़ी बने और अगले साल उन्होंने कोपा अमेरिका टूर्नामेंट में रनर्स-अप पदक जीता। 2008 में, उन्होंने अर्जेटीना ओलंपिक फ़ुटबॉल टीम के साथ बीजिंग में अपना पहला अंतर्राष्ट्रीय सम्मान, ओलंपिक स्वर्ण पदक जीता। प्रारंभिक जीवन मेस्सी का जन्म 24 जून 1987 को रोसारियो, अर्जेंटीना में जॉर्ज मेस्सी, एक फ़ैक्टरी मज़दूर और सीलिया (उर्फ़ कुक्कीटिनी), एक अंशकालिक क्लीनर दंपति के घर हुआ।[11][12] उनके पैतृक परिवार का उद्गम इतालवी शहर एंकोना से हुआ, जहां से 1883 में उनके पूर्वज, एंजलो मेस्सी ने अर्जेंटीना में प्रवास किया।[13][14] उनके दो बड़े भाई हैं रॉडरिगो तथा मेशियस और साथ ही मारिया सोल नामक एक बहन है।[15] पांच साल की उम्र में मेस्सी अपने पिता जॉर्ज द्वारा प्रशिक्षित किए जा रहे एक स्थानीय क्लब ग्रैंडोली के लिए फ़ुटबॉल खेलना शुरू कर दिया। [16] 1995 में, मेस्सी अपने गृह शहर रोसारियो में स्थित न्यूवेल ओल्ड बॉय्स के लिए खेलने लगे। [16] 11 वर्ष की उम्र में, उनके नैदानिक परीक्षण में विकास हार्मोन की कमी पाई गई।[17] प्राइमरा डिविज़न क्लब रिवर प्लेट ने मेस्सी की प्रगति में दिलचस्पी दिखाई, लेकिन उसके इलाज के लिए उनके पास पर्याप्त धन नहीं था, जिसका खर्चा 900 डॉलर प्रति माह था।[12] बार्सिलोना के खेल निदेशक कार्ल्स रिक्सैक को मेस्सी की प्रतिभा के बारे में बताया गया, चूंकि मेस्सी के रिश्तेदार लेइडा, कैटालोनिया में थे, मेस्सी और उनके पिता एक परीक्षण की व्यवस्था करा सके। [12] उनका खेल देखने के बाद बार्सिलोना ने उनसे अनुबंध पर हस्ताक्षर करवाए,[18] जिसमें उनके चिकित्सा बिलों के लिए भुगतान की पेशकश की गई, बशर्ते कि वे स्पेन स्थानांतरित होने के लिए तैयार हों.[16] उनका परिवार यूरोप चला गया और उन्होंने क्लब के युवा टीमों में खेलना शुरू किया।[18] क्लब कॅरिअर बार्सिलोना मेस्सी ने 16 नवम्बर 2003 को (16 वर्ष और 145 दिन की उम्र में) पोर्टो के खिलाफ़ एक दोस्ताना मैच में फ़र्स्ट टीम के लिए अपने खेल-जीवन की अनधिकृत शुरूआत की। [19][20] बाद में, एक साल से भी कम समय में, फ़्रैंक रिजकार्ड ने उन्हें 16 अक्टूबर 2004 को (17 वर्ष और 114 दिन की उम्र में) एस्पैनयॉल के खिलाफ़ अपने लीग खेल की शुरूआत का मौक़ा दिया और वे बार्सिलोना के लिए खेलने वाले तब तक के तीसरे सबसे कम उम्र के खिलाड़ी और ला लिगा में खेलने वाले सबसे युवा क्लब के खिलाड़ी बने (जो रिकॉर्ड सितंबर, 2007 को टीम के साथी बोयान क्रिच ने तोड़ा).[1][19] जब उन्होंने 1 मई 2005 को अल्बासेटे के खिलाफ़ क्लब के लिए अपना पहला सीनियर गोल किया, मेस्सी 17 वर्ष, 10 महीने और 7 दिन की उम्र के थे और तब तक बार्सिलोना के लिए ला लिगा खेल में स्कोर करने वाले सबसे कम उम्र के खिलाड़ी बने[21] जिस रिकॉर्ड को 2007 में मेस्सी के असिस्ट से बोयान क्रिच ने तोड़ा.[22] मेस्सी ने अपने पूर्व कोच फ़्रैंक रिजकार्ड के बारे में कहा: "मैं कभी नहीं भूल सकता कि रिजकार्ड ने मुझे खेल में प्रवेश कराया. उन्होंने ही मुझमें विश्वास जगाया, जब मैं केवल सोलह, सत्रह साल का था।"[23] 2005-06 सीज़न "Messi I think is like me, he is the best in the world along with Ronaldinho." Diego Maradona.[24] 16 सितंबर को, तीन महीनों में दूसरी बार, बार्सिलोना ने मेस्सी के अनुबंध के लिए एक अद्यतनीकरण की घोषणा की - इस बार उन्हें फ़र्स्ट टीम के सदस्य के रूप में मेहनताना देने और जून 2014 तक अनुबंध बढ़ाने का सुधार किया गया।[16] मेस्सी ने 26 सितंबर[25] को स्पैनिश नागरिकता हासिल की और अंततः सीज़न के स्पैनिश फ़र्स्ट डिवीज़न में पहली बार खेलने में सक्षम हुए. मेस्सी को UEFA चैम्पियन्स लीग में इतालवी उडिनीज़ क्लब के खिलाफ़ 27 सितंबर को पहली बार घर से बाहर खेलने का मौक़ा मिला। [19] बार्सिलोना स्टेडियम, शिविर नाउ में प्रशंसकों ने मेस्सी को उनके प्रतिस्थापन पर, खड़े होकर तालियां बजाते हुए सम्मान दिया, चूंकि गेंद पर उनके आत्मसंयम और रोनाल्डिन्हो के साथ संयोजन ने बार्सिलोना के लिए लाभदायक स्थिति हासिल की थी।[26] मेस्सी ने सत्रह लीग प्रदर्शनों में छह गोल किए और छह में से एक चैंपियन्स लीग का गोल स्कोर किया। बहरहाल, 7 मार्च 2006 को समय से पहले उनका सीज़न ख़त्म हो गया, जब चेल्सी के खिलाफ़ सेकेंड राउंड चैंपियन्स लीग टाई के दूसरे चरण के दौरान उनकी दाहिनी जांघ की मांसपेशी फट गई।[27] फ़्रैंक रिजकार्ड के बार्सिलोना ने सीज़न का समापन, स्पेन और यूरोप के विजेता के रूप में किया।[28][29] 2006-07 सीज़न 2006-07 सीज़न में, 26 मैचों में 14 बार स्कोर करते हुए, मेस्सी ने खुद को फ़र्स्ट टीम के नियमित खिलाड़ी के रूप में स्थापित किया।[30] 12 नवम्बर को, रियल ज़ारागोज़ा के खिलाफ़ खेल में, मेस्सी को प्रपदिकीय हड्डी की टूटन का सामना करना पड़ा, जिसकी वजह से तीन महीने के लिए वे खेल से बाहर हो गए।[31][32] मेस्सी, अर्जेंटीना में अपनी चोट से उबरे और खेल में उनकी वापसी 11 फ़रवरी को रेसिंग सैंटैन्डर के खिलाफ़ हुई,[33] जिसमें वे सेकंड-हॉफ़ स्थानापन्न के रूप में शामिल हुए. 11 मार्च को, एल क्लासिको ने मेस्सी को टॉप फ़ॉर्म में देखा, जहां उन्होंने हैट-ट्रिक के साथ, 10-मैन बार्सिलोना को, तीन बार बराबरी करते हुए, जिसमें अंतिम बराबरी इंजुरी-टाइम में हुई, 3-3 अंकों से ड्रा करने में मदद की। [34] इस तरह वे इवान ज़मोरानो (रियल मैड्रिड के 1994-95 सीज़न में) के बाद एल क्लासिको में लगातार तीन गोल स्कोर करने वाले पहले खिलाड़ी बने। [35] मेस्सी, इस फ़िक्सचर (नियत मैच) में भी अब तक के सबसे कम उम्र के खिलाड़ी हैं। सीज़न के अंत में वे अक्सर नेट पाने लगे; सीज़न के लिए उनके 14 लीग गोलों में से 11, अंतिम 13 मैचों से हासिल हुए हैं।[36] मेस्सी ने एक ही सीज़न के दौरान मारडोना के सबसे प्रसिद्ध गोलों को लगभग दोहराते हुए, साबित किया कि "नया मारडोना" का टैग केवल अतिप्रचार नहीं है।[37] 18 अप्रैल 2007 को उन्होंने गेटेफ़ के खिलाफ़ कोपा डेल रे के सेमी-फ़ाइनल में दो गोल किए, जिनमें से एक, मेक्सिको में संपन्न 1986 FIFA विश्व कप में इंग्लैंड के खिलाफ़ सदी का गोल के रूप में विख्यात मारडोना के प्रसिद्ध गोल से काफ़ी मिलता-जुलता था।[38] दुनिया के खेल पत्रकारों ने मारडोना के साथ उनकी तुलना की और स्पैनिश प्रेस ने मेस्सी को "मेस्सीडोना" नाम दिया। [39] उन्होंने वही दूरी तय की, उतने ही खिलाड़ियों को चकमा दिया (गोलकीपर सहित छह खिलाड़ी), बिल्कुल वैसी ही पोज़िशन से स्कोर किया और कोने के झंडे के पास वैसे ही भागे जैसे 21 साल पहले मारडोना ने मेक्सिको में किया था।[37] खेल के बाद एक संवाददाता सम्मेलन में मेस्सी के साथी खिलाड़ी डेको ने कहा: "यह सर्वोत्तम गोल है, जिसे मैंने कभी अपने जीवन में देखा."[40] एस्पेनयॉल के खिलाफ़ भी मेस्सी ने एक ऐसा गोल किया, जो विश्व कप के क्वार्टर फ़ाइनल में इंग्लैंड के खिलाफ़ मारडोना के गोल से काफ़ी मिलता-जुलता था। मेस्सी ने ख़ुद को गेंद की दिशा में प्रवर्तित किया और हाथ से मेल खाते हुए, गोलकीपर कार्लोस कमेनी को पार करने में गेंद का निशाना साधा.[41] एस्पेनयॉल के खिलाड़ियों के विरोध के बावजूद और रीप्ले ने भी दर्शाया कि वह स्पष्टतः हैंडबाल था, गोल बना रहा। [41] 2007-08 सीज़न 2007-08 सीज़न के दौरान, मेस्सी ने ला लिगा में बार्सिलोना को शीर्ष चार में ले जाते हुए, एक सप्ताह में पांच गोल किए। 19 सितंबर को जब बार्सिलोना ने चैम्पियन्स लीग मैच में अपने स्व-स्थान पर, ओलंपिक लियोनाइस को हराया, उसमें मेस्सी ने एक स्कोर किया।[42] 22 सितंबर को[43] सेविला के खिलाफ़ दो गोल किए और फिर 26 सितंबर को, मेस्सी ने रियल ज़ारागोज़ा पर 4-1 की जीत में और दो गोल किए। [44] 27 फ़रवरी को, मेस्सी ने वैलेंशिया के खिलाफ़ बार्सा के लिए अपना 100वां आधिकारिक मैच खेला।[45] उन्हें फ़ारवर्ड की श्रेणी में FIFPro विश्व एकादश खिलाड़ी पुरस्कार के लिए नामांकित किया गया।[46] एक स्पैनिश अख़बार मार्का के ऑन-लाइन संस्करण में किए गए सर्वेक्षण में उन्हें 77 प्रतिशत वोटों के साथ विश्व के सर्वोत्तम खिलाड़ी के रूप में चुना गया।[47] बार्सिलोना-आधारित अख़बार एल मुंडो डिपोर्टिवो और स्पोर्ट के स्तंभकारों ने उल्लेख किया कि मेस्सी को बैलन डी'ऑर दिया जाना चाहिए, एक मत जिसका समर्थन फ़्रांज़ बेकेनबॉएर ने भी किया।[48] फ़्रांसेस्को टोट्टी जैसे फ़ुटबॉल के महान शख्सों ने घोषित किया है कि वे मेस्सी को संप्रति दुनिया का सर्वोत्तम फ़ुटबॉल खिलाड़ी मानते हैं।[49] 4 मार्च को एक चोट के बाद मेस्सी को छह हफ्तों के लिए खेल से बाहर रखा गया, जब केल्टिक के खिलाफ़ चैम्पियन्स लीग मैच के दौरान उनकी बाईं जांघ की मांसपेशी फट गई। यह तीन सीज़नों में चौथी बार था जब मेस्सी को इस प्रकार की चोट पहुंची थी।[50] 2008-09 सीज़न क्लब से रोनाल्डिन्हो के प्रस्थान पर, मेस्सी ने उनका नंबर 10 जर्सी विरासत में हासिल किया।[51] 1 अक्टूबर 2008 को, शखटार डोनेट्स्क के खिलाफ़ चैम्पियन्स लीग मैच के दौरान, मेस्सी ने अंतिम सात मिनट में दो गोल किए, जब उन्होंने थीयर्री हेनरी के स्थानापन्न के रूप में आने के बाद, बार्सिलोना के लिए 1-0 के स्कोर को 1-2 की जीत में बदल दिया। [52] अगला लीग खेल एटलेटिको मैड्रिड के खिलाफ़ था, जिसे मेस्सी और उनके अच्छे दोस्त सर्जियो अग्वेरो के बीच एक दोस्ताना संघर्ष के रूप में प्रचारित किया गया।[53] मेस्सी ने एक फ़्री किक से गोल दागा और दूसरे में असिस्ट किया, जब बार्सा ने मैच 6-1 से जीता। [54] मेस्सी ने सेविला के खिलाफ़ 23 metres (25yd) से वॉली स्कोर करते हुए, एक और प्रभावशाली ब्रेस नेट में डाला और फिर गोलकीपर के इर्द-गिर्द ड्रिबलिंग करते हुए, तथा एक टाइट एंगल से दूसरा स्कोर किया।[55] 13 दिसम्बर 2008 को, क्लासिको के पहले सीज़न के दौरान, मेस्सी ने रियल मैड्रिड के खिलाफ़ बार्सिलोना की 2-0 जीत में दूसरा गोल किया।[56] उन्हें 2008 FIFA वर्ष के विश्व खिलाड़ी पुरस्कारों में 678 अंकों के साथ दूसरे स्थान पर नामांकित किया गया।[7] मेस्सी ने एटलेटिको मैड्रिड के खिलाफ़ कोपा डेल रे टाई में पहली बार लगातार तीन गोल किए, जहां बार्सिलोना ने 3-1 की जीत हासिल की। [57] मेस्सी ने 1 फ़रवरी 2009 को एक और महत्वपूर्ण डबल स्कोर किया, जहां सेकंड हॉफ़ स्थानापन्न के रूप में आते हुए उन्होंने 1-0 से नीचे रहने के बाद, 1-2 से रेसिंग सैंटैंडर को हराने में बार्सिलोना की मदद की। दो स्ट्राइक में दूसरा, बार्सिलोना का 5000वां लीग गोल था।[58] ला लिगा के 28वें दौर में, मेस्सी ने सभी प्रतियोगिताओं में सीज़न का अपना 30वां गोल बनाया, जिस प्रक्रिया में उन्होंने मलागा CF के खिलाफ़ 6-0 की जीत हासिल करने में अपने टीम की मदद की। [59] 8 अप्रैल 2009 को उन्होंने किसी प्रतियोगिता में नौ गोलों का व्यक्तिगत रिकॉर्ड बनाते हुए, बेयर्न म्यूनिख के खिलाफ़ चैंपियन्स लीग में दो बार गोल किए। [60] 18 अप्रैल को, मेस्सी ने गेटेफ़ में हासिल 1-0 की जीत में सीज़न का अपना 20वां लीग गोल किया, जिसकी वजह से रियल मैड्रिड के ख़िलाफ़ बार्सिलोना लीग तालिका के शीर्ष पर अपने छह अंक की बढ़त को बनाए रख सकी। [61] चूंकि बार्सिलोना सीज़न के समापन की ओर उन्मुख था, मेस्सी ने सैंटियागो बर्नब्यू में रियल मैड्रिड पर 6-2 की जीत के लिए दो गोल बनाए (उनका सभी प्रतियोगिताओं में 35वां और 36वां गोल)[62], जोकि रियल मैड्रिड के लिए 1930 के बाद की सबसे भारी हार थी।[63] प्रत्येक गोल के बाद वे अपने प्रशंसकों और कैमरा की ओर दौड़ते और अपनी बार्सिलोना जर्सी को ऊपर उठाते, तथा एक और टी-शर्ट दिखाते, जिस पर लिखा था, सिंड्रोम X फ़्रेजाइल, जो कैटलान भाषा में भंगुरता X संलक्षण का पर्याय है, जिसके ज़रिए वे इस रोग से ग्रस्त बच्चों के प्रति अपना समर्थन जता रहे थे।[64] मेस्सी, चैम्पियन्स लीग सेमी-फ़ाइनल में चेल्सी के ख़िलाफ़ एन्ड्रेस इनेस्टा के इंजुरी टाइम गोल बनाने में शामिल थे, जिससे बार्सिलोना, मैनचेस्टर युनाइटेड का मुक़ाबला करने के लिए फ़ाइनल में पहुंच सका। उन्होंने एथलीटिक बिलबाओ के खिलाफ़ 4-1 की जीत में एक गोल स्कोर करते हुए, तथा अन्य दो में असिस्ट करते हुए 13 मई को अपना पहला कोपा डेल रे जीता। [65] उन्होंने ला लिगा जीत कर, अपनी टीम को दोहरी जीत दिलाने में मदद की। 27 मई को उन्होंने 70वें मिनट में दूसरा गोल करते हुए बार्सिलोना को 2009 UEFA चैम्पियन्स लीग फ़ाइनल जीतने में मदद की, जिसमें बार्सिलोना ने दो गोल की बढ़त हासिल की; नौ गोलों के साथ वे चैम्पियन्स लीग के टॉप स्कोरर बने। [66] यूरोप में शानदार वर्ष संपन्न करते हुए, मेस्सी ने UEFA वर्ष का क्लब फ़ारवर्ड: और UEFA वर्ष का क्लब फ़ुटबॉलर ख़िताब भी जीता। [67] इस जीत का मतलब था बार्सिलोना ने एक ही सीज़न में कोपा डेल रे, ला लिगा और UEFA चैम्पियन्स लीग जीता,[68] और इस तरह पहली बार किसी स्पेनिश क्लब ने कभी तिगुनी जीत हासिल की थी।[69] 2009-10 सीज़न 2009 UEFA सुपर कप जीतने के बाद, बार्सिलोना प्रबंधक जोसेप गार्डियोला ने ज़ोर देते हुए कहा कि मेस्सी सबसे अच्छा खिलाड़ी है, उस जैसा शायद ही उन्होंने कभी देखा था।[70] 18 सितंबर को, मेस्सी ने बार्सिलोना के साथ एक नए अनुबंध पर हस्ताक्षर किए, जो 2016 तक चलेगा और जिसमें €250 मिलियन के नियंत्रण-ख़रीद का प्रावधान शामिल है, जिससे मेस्सी, ज़्लाटन इब्रहिमोविक के साथ, लगभग €9.5 मिलियन वार्षिक आय सहित, ला लिगा के उच्चतम वेतनभोगी खिलाड़ी बन गए हैं।[71][72] चार दिन बाद 22 सितंबर को, मेस्सी ने ला लिगा में रेसिंग सैंटनडर के खिलाफ़ बार्सा की 4-1 जीत हासिल करने में दो गोल किए और एक और में असिस्ट किया।[73] मेस्सी ने 29 सितंबर को डाइनमो कीव पर 2-0 जीत में सीज़न का पहला यूरोपीय गोल स्कोर किया।[74] मेस्सी ने शिविर नाउ में रियल ज़ारागोज़ा की 6-1 से घोर पराजय के दौरान, ला लिगा में अपने गोलों की संख्या को सात मैचों में छह गोल के स्ट्राइक द्वारा आगे बढ़ाया[75][76] और 7 नवम्बर को शिविर नाउ में मालॉर्का पर बार्सा की 4-2 से जीत में पेनाल्टी भी स्कोर किया।[77] 1 दिसम्बर 2009 को, मेस्सी का नाम 2009 बैलन डी'ऑर के विजेता के रूप में घोषित किया गया, जहां उन्होंने रनर-अप क्रिस्टियानो रोनाल्डो को 233 के मुक़ाबले 473 के विशाल अंतर से हराया.[78][79][80] उसके बाद, फ़्रांस फ़ुटबॉल पत्रिका ने मेस्सी को यह कहते हुए उद्धृत किया: "मैं इसे अपने परिवार को समर्पित करता हूं. जब भी मुझे उनकी ज़रूरत थी, वे हमेशा मौजूद थे और कभी-कभी उन्होंने मुझसे भी ज़्यादा गहराई से भावनाओं को महसूस किया है।[81] 19 दिसम्बर को, अबू धाबी में एस्टुडियान्टेस के खिलाफ़ 2009 FIFA क्लब विश्व कप के फ़ाइनल में मेस्सी ने विजेता गोल स्कोर किया।[82] दो दिन बाद, उन्हें FIFA वर्ष का विश्व खिलाड़ी पुरस्कार दिया गया; जहां उन्होंने क्रिस्टियानो रोनाल्डो, क्सेवी, काका और एन्ड्रेस इनिएस्टा को हराया. उनके लिए यह पुरस्कार जीतने का पहला अवसर था और वे अर्जेंटीना से कभी भी यह सम्मान पाने वाले पहले खिलाड़ी बने.[83] 10 जनवरी 2010 को, मेस्सी ने 2010 में अपना पहला हैट-ट्रिक बनाया और जो 0-5 की जीत में सीडी टेनेरिफ़े के खिलाफ़ सीज़न का पहला हैट-ट्रिक था।[84] 17 जनवरी को, मेस्सी ने सेविला पर 4-0 की जीत में क्लब के लिए अपना 100वां गोल स्कोर किया।[85] अंतर्राष्ट्रीय कॅरिअर जून 2004 में, पारागुए के खिलाफ़ अंडर-20 दोस्ताना मैच में उन्होंने अर्जेंटीना के लिए शुरूआत की.[86] 2005 में वे नीदरलैंड में 2005 FIFA वर्ल्ड यूथ चैम्पियनशिप जीतने वाली टीम का हिस्सा थे। वहां, उन्होंने गोल्डन बॉल और गोल्डन शू जीता.[87] उन्होंने 17 अगस्त 2005 को 18 वर्ष की उम्र में हंगरी के खिलाफ़ अपना संपूर्ण अंतर्राष्ट्रीय पहला खेल खेला। 63वें मिनट पर उन्होंने प्रतिस्थापित किया, लेकिन 65वें मिनट में निकाले गए, क्योंकि रेफ़री, मार्कस मर्क ने पाया कि उन्होंने रक्षक विलमॉस वैनज़ैक को कोहनी मारी थी, जो मेस्सी के शर्ट को कसा हुआ था। निर्णय विवादास्पद था और मारडोना ने दावा किया कि निर्णय पूर्व-विमर्शित था।[88][89] 3 सितंबर को मेस्सी टीम में वापस लौटे, जहां विश्व कप पात्रता में पराग्वे से अर्जेंटीना की 1-0 से हार हुई थी। मैच से पहले उन्होंने कहा था कि "यह मेरी दुबारा शुरूआत है। पहला बहुत कम समय के लिए ही था।"[90] इसके बाद उन्होंने अर्जेंटीना के लिए पेरू के खिलाफ़ अपना पहला खेल शुरू किया; मैच के बाद पेकरमैन ने मेस्सी को "रत्न" के रूप में वर्णित किया।[91] 28 मार्च 2009 को वेनेज़ुएला के खिलाफ़ विश्व कप पात्रता में, मेस्सी ने पहली बार अर्जेंटीना के लिए 10 नंबर की जर्सी पहनी थी। यह मैच डिएगो मारडोना के लिए अर्जेंटीना के कोच के रूप में पहला आधिकारिक मैच था। लियोनेल मेस्सी के द्वारा स्कोरिंग की शुरूआत के साथ अर्जेंटीना ने 4-0 से मैच जीता। [92] 2006 FIFA विश्व कप जिस चोट ने 2005-06 सीज़न के अंत में दो महीने के लिए मेस्सी को खेल से बाहर रखा, उसकी वजह से विश्व कप में मेस्सी की उपस्थिति भी आशंका की चपेट में आ गई। बहरहाल, 15 मई 2006 को टूर्नामेंट के लिए अर्जेंटीना टीम में मेस्सी चुने गए। उन्होंने विश्व कप से पहले, अर्जेंटीना अंडर-20 टीम के खिलाफ़ 15 मिनटों के लिए फ़ाइनल मैच और 64 मिनट से अंगोला के खिलाफ़ एक दोस्ताना मैच खेला।[93][94] उन्होंने प्रतिस्थापकों के बेंच से आइवरी कोस्ट के खिलाफ़ अर्जेंटीना के शुरूआती मैच विजय को भी देखा.[95] सर्बिया के खिलाफ़ अगले मैच में मेस्सी, विश्व कप में अर्जेंटीना का प्रतिनिधित्व करने वाले सबसे कम उम्र के खिलाड़ी बने, जब वे 74वें मिनट में मैक्सी रॉड्रीग्वेज़ के स्थानापन्न के रूप में खेलने आए। उन्होंने खेल में प्रवेश करने के चंद मिनटों में ही हरनैन क्रेस्पो को गोल बनाने में असिस्ट किया और 6-0 की जीत में अंतिम गोल भी स्कोर किया, जिससे वे टूर्नामेंट में सबसे कम उम्र के स्कोरर और विश्व कप के इतिहास में सबसे कम उम्र के छठे गोल स्कोरर बने। [96] मेस्सी ने नीदरलैंड के खिलाफ़ अर्जेंटीना 0-0 टाई में शुरूआत की। [97] मैक्सिको के खिलाफ़ अगले खेल में, 1-1 पर स्कोर के टाई के साथ, मेस्सी 84वें मिनट में स्थानापन्न के रूप में आए। लगा कि उन्होंने गोल स्कोर किया, लेकिन उसे ऑफ़साइड घोषित किया गया,[98][99] जबकि अतिरिक्त समय में अर्जेंटीना को आगे बढ़ने के लिए एक गोल की ज़रूरत थी। कोच जोस पेकरमैन ने जर्मनी के खिलाफ़ क्वार्टर-फ़ाइनल मैच में मेस्सी को बेंच पर ही छोड़ा, जो वे पेनाल्टी शूटआउट में 4-2 से हार गए।[100] 2007 कोपा अमेरिका मेस्सी ने 29 जून 2007 को, कोपा अमेरिका 2007 में अपना पहला खेल खेला, जब अर्जेंटीना ने पहले खेल में संयुक्त राज्य अमेरिका को 4-1 से हराया. इस खेल में, उन्होंने एक खेल-रचयिता के रूप में अपनी क्षमताओं का प्रदर्शन किया। उन्होंने अपने साथी स्ट्राइकर हरनैन क्रेस्पो के लिए लक्ष्य निर्धारित किया और कई शॉट लक्ष्य पर सफल हुए. 79वें मिनट में टेवेज़ मेस्सी के लिए स्थानापन्न के रूप में आए और मिनटों बाद गोल स्कोर किए। [101] उनका दूसरा मैच कोलम्बिया के खिलाफ़ था, जिसमें उन्होंने एक पेनाल्टी जीती जिसे क्रेस्पो 1-1 पर खेल को टाई में परिवर्तित करने में सफल हुए. उन्होंने अर्जेंटीना के दूसरे गोल में हिस्सा लिया चूंकि उन्हें बॉक्स के बाहर फ़ाउल किया गया था, जिससे जुआन रोमन रिक्वेल्म को फ़्रीकिक से स्कोर करने की अनुमति मिली और अर्जेंटीना ने 3-1 से बढ़त हासिल की। खेल का फ़ाइनल स्कोर 4-2 अर्जेंटीना के पक्ष में रहा और उन्हें टूर्नामेंट के क्वार्टर-फ़ाइनल में जगह की गारंटी मिली। [102] पारागुए के खिलाफ़ तीसरे खेल में, कोच ने मेस्सी को विश्राम दिया, चूंकि वे क्वार्टर-फ़ाइनल के लिए योग्य साबित हो चुके थे। उन्हें 64वें मिनट में, 0-0 स्कोर के साथ, एस्टेबैन कैम्बियासो की जगह बेंच से उतरने का मौक़ा मिला। 79वें मिनट में उन्होंने जेवियर मैस्चरानो के लिए एक गोल रचा।[103] क्वार्टर-फ़ाइनल में, जब अर्जेंटीना को पेरू का सामना करना पड़ा, 4-0 की जीत में रिक्वेल्मे से एक पास लेकर मेस्सी ने खेल का दूसरा गोल बनाया। [104] मेक्सिको के खिलाफ़ सेमी-फ़ाइनल मैच के दौरान, मेस्सी ने ओसवाल्डो सैनशेज़ पर उछाल कर गोल बनाया, जिससे अर्जेंटीना 3-0 जीत के साथ फ़ाइनल में पहुंच सकी। [105] अर्जेंटीना को फ़ाइनल में ब्राज़ील से 3-0 के साथ हार गई।[106] 2008 ग्रीष्मकालीन ओलंपिक 2008 ओलंपिक में मेस्सी को अर्जेंटीना के लिए खेलने से वर्जित किए जाने के बाद,[107] बार्सिलोना ने जोसेप गार्डियोला के साथ उनकी बातचीत के बाद उन्हें मुक्त करने के प्रति अपनी सहमति जताई.[108] वे अर्जेंटीना की टीम में शामिल हुए और आइवरी कोस्ट पर 2-1 की जीत में पहला गोल स्कोर किया।[108] इसके बाद उन्होंने शुरूआती गोल बनाया और दूसरे में एंजल डी मारिया को असिस्ट किया, जिससे उनके पक्ष को नीदरलैंड के खिलाफ़ 2-1 के अतिरिक्त समय की जीत हासिल करने में मदद मिली। [109] उन्होंने प्रतिद्वंद्वी ब्राज़ील के खिलाफ़ अर्जेंटीना की मैच में भी भाग लिया, जिसमें अर्जेंटीना ने 3-0 से जीत हासिल की और इस तरह फ़ाइनल की ओर आगे बढ़े.[110] स्वर्ण पदक मैच में मेस्सी ने दुबारा, नाइजीरिया पर 1-0 की जीत में एकमात्र गोल के लिए डी मारिया को असिस्ट किया।[111] निजी जीवन मेस्सी एक चरण में, अपने ही गृह नगर रोसारियो की माकारीना लीमोस के साथ रूमानी तौर पर जुड़े थे। कहते हैं कि लड़की के पिता ने ही उनसे परिचय कराया था, जब वे 2006 विश्व कप के शुरू होने से कुछ दिन पहले अपनी चोट से उबरने के लिए रोसारियो लौट आए थे।[112][113] अतीत में भी उनका नाम अर्जेंटीना मॉडल, लूसियाना सालाज़ार से जोड़ा गया था।[114][115] जनवरी 2009 में उन्होंने चैनल 33 पर एक कार्यक्रम "हैट ट्रिक बार्सा" में कहा: "मेरी एक प्रेमिका है और वह अर्जेंटीना में बसी है, मैं निश्चिंत और खुश हूँ."[115] वे बार्सिलोना-एस्पेनयॉल डर्बी के बाद, सिटजेस के एक कार्निवल में एन्टोनेला रोकुज़ो नामक युवती के साथ देखे गए।[116] रोकुज़ो भी उन्हीं की भांति रोसारियो की निवासी है।[117] 2010 के अंत के आस-पास उन्होंने शादी की योजना बनाई है।[116] वीडियो गेम प्रो इवल्यूशन फ़ुटबॉल 2009 के मुखपृष्ठ पर उनकी छवि अंकित है और वे इस खेल के प्रचार अभियान में भी शामिल हैं।[118][119] मेस्सी, फ़र्नेन्डो टॉरेस[120] के साथ, प्रो इवल्यूशन सॉकर 2010 की पहचान हैं और मोशन कैप्चरिंग और ट्रेलर में भी शामिल थे।[121][122][123] मेस्सी का प्रायोजन जर्मन स्पोर्ट्सवेयर कंपनी एडिडास द्वारा किया गया है और उनके टेलीविज़न विज्ञापनों में भी वे नज़र आते हैं।[124] फ़ुटबॉल में उनके दो चचेरे भाई हैं, मैक्सी और इमैन्युअल बियानकुची.[125][126] क्लब के आंकड़े यथा 30 जनवरी 2010[127] अंतर्राष्ट्रीय गोल सम्मान बार्सिलोना स्पैनिश लीग (3): 2004-05, 2005-06, 2008-09 स्पैनिश कप: (1) 2008-09 स्पैनिश सुपरकप (3): 2005, 2006, 2009 UEFA चैम्पियन्स लीग (2): 2005-06, 2008-09 UEFA सुपर कप (1): 2009 FIFA क्लब विश्व कप (1): 2009 अंतर्राष्ट्रीय FIFA U-20 विश्व कप: 2005 ओलंपिक स्वर्ण पदक: 2008 व्यक्तिगत FIFA U-20 विश्व कप शीर्ष स्कोरर: 2005 FIFA U-20 विश्व कप टूर्नामेंट का खिलाड़ी: 2005 कोपा अमेरिका टूर्नामेंट का युवा खिलाड़ी: 2007 U-21 वर्ष का यूरोपीय फ़ुटबॉल खिलाड़ी: 2007 अर्जेंटीना का वर्ष का खिलाड़ी: 2005, 2007, 2009 FIFPro वर्ष का विशेष युवा खिलाड़ी: 2006-2007, 2007-2008 FIFPro वर्ष का विश्व युवा खिलाड़ी: 2005-2006, 2006-2007, 2007-2008 वर्ष का विश्व फ़ुटबॉल युवा खिलाड़ी: 2005-2006, 2006-2007, 2007-2008 प्रिमियो डॉन बेलॉन (ला लिगा सर्वश्रेष्ठ विदेशी खिलाड़ी): 2006-2007, 2008-2009 EFE ट्रॉफी (ला लिगा में उत्तम इबेरो अमेरिकी खिलाड़ी): 2006-2007, 2008-2009 FIFPro विश्व एकादश: 2006-2007, 2007-2008, 2008-2009 UEFA वर्ष की टीम: 2007-2008, 2008-2009 FIFA वर्ष की टीम: 2008, 2009 UEFA चैंपियन्स लीग शीर्ष स्कोरर: 2008-2009 ट्रोफ़ियो अल्फ़्रेडो डी स्टेफ़ानो: 2008-2009 UEFA क्लब वर्ष का फ़ारवर्ड: 2008-2009 UEFA क्लब वर्ष का फ़ुटबॉलर: 2008-2009 LFP सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी: 2008-2009 LFP सर्वश्रेष्ठ स्ट्राइकर: 2008-2009 ओन्ज़े डी'ऑर: 2009 बैलन डी'ऑर: 2009 वर्ष का विश्व फ़ुटबॉल खिलाड़ी: 2009 FIFA क्लब विश्व कप गोल्डन बॉल: 2009 टोयोटा पुरस्कार: 2009 FIFA वर्ष का विश्व खिलाड़ी: 1996, 1997, 2002 FIFPro वर्ष का विश्व खिलाड़ी: 2008-09 नोट सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ FC बार्सिलोना वेबसाइट पर FIFA.com पर - Football-Lineups.com vi tr en th श्रेणी:1987 में जन्मे लोग श्रेणी:जीवित लोग श्रेणी:रोसारियो से लोग श्रेणी:अर्जेंटीना के फ़ुटबॉल खिलाड़ी श्रेणी:ला लीगा फ़ुटबॉल खिलाड़ी श्रेणी:FC बार्सिलोना फ़ुटबॉल खिलाड़ी श्रेणी:फ़ुटबॉल (सॉकर) फॉरवर्ड्स श्रेणी:2006 FIFA विश्व कप खिलाड़ी श्रेणी:2007 कोपा अमेरिका खिलाड़ी श्रेणी:अर्जेंटीना अंतर्राष्ट्रीय फ़ुटबॉल खिलाड़ी श्रेणी:अर्जेंटीना प्रवासी फ़ुटबॉल खिलाड़ी श्रेणी:2008 ग्रीष्मकालीन ओलंपिक में फ़ुटबॉल खिलाड़ी श्रेणी:अर्जेंटीना के ओलंपिक फ़ुटबॉल खिलाड़ी श्रेणी:अर्जेंटीना के लिए ओलंपिक स्वर्ण पदक विजेता श्रेणी:इतालवी मूल के अर्जेंटीनावासी
लियोनेल मेसी का जन्म कब हुआ था?
24 जून 1987
76
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ओटो एडुअर्ड लिओपोल्ड बिस्मार्क (1 अप्रैल 1815 - 30 जुलाई 1898), जर्मन साम्राज्य का प्रथम चांसलर तथा तत्कालीन यूरोप का प्रभावी राजनेता था। वह 'ओटो फॉन बिस्मार्क' के नाम से अधिक प्रसिद्ध है। उसने अनेक जर्मनभाषी राज्यों का एकीकरण करके शक्तिशाली जर्मन साम्राज्य स्थापित किया। वह द्वितीय जर्मन साम्राज्य का प्रथम चांसलर बना। वह "रीअलपालिटिक" की नीति के लिये प्रसिद्ध है जिसके कारण उसे "लौह चांसलर" के उपनाम से जाना जाता है। वह अपने युग का बहुत बड़ा कूटनीतिज्ञ था। अपने कूटनीतिक सन्धियों के तहत फ्रांस को मित्रविहीन कर जर्मनी को यूरोप की सर्वप्रमुख शक्ति बना दिया। बिस्मार्क ने एक नवीन वैदेशिक नीति का सूत्रपात किया जिसके तहत शान्तिकाल में युद्ध को रोकने और शान्ति को बनाए रखने के लिए गुटों का निर्माण किया। उसकी इस 'सन्धि प्रणाली' ने समस्त यूरोप को दो गुटों में बांट दिया। जीवनी बिस्मार्क का जन्म शून हौसेन में 1 अप्रैल 1815 को हुआ। गाटिंजेन तथा बर्लिन में कानून का अध्ययन किया। बाद में कुछ समय के लिए नागरिक तथा सैनिक सेवा में नियुक्त हुआ। 1847 ई. में वह प्रशा की विधान सभा का सदस्य बना। 1848-49 की क्रांति के समय उसने राजा के "दिव्य अधिकार" का जोरों से समर्थन किया। सन् 1851 में वह फ्रैंकफर्ट की संघीय सभा में प्रशा का प्रतिनिधि बनाकर भेजा गया। वहाँ उसने जर्मनी में आस्ट्रिया के आधिपत्य का कड़ा विरोध किया और प्रशा को समान अधिकार देने पर बल दिया। आठ वर्ष फ्रेंकफर्ट में रहने के बाद 1859 में वह रूस में राजदूत नियुक्त हुआ। 1862 में व पेरिस में राजदूत बनाया गया और उसी वर्ष सेना के विस्तार के प्रश्न पर संसदीय संकट उपस्थित होने पर वह परराष्ट्रमंत्री तथा प्रधान मंत्री के पद पर नियुक्त किया गया। सेना के पुनर्गठन की स्वीकृति प्राप्त करने तथा बजट पास कराने में जब उसे सफलता नहीं मिली तो उसने पार्लमेंट से बिना पूछे ही कार्य करना प्रारंभ किया और जनता से वह टैक्स भी वसूल करता रहा। यह "संघर्ष" अभी चल ही रहा था कि श्लेजविग होल्सटीन के प्रभुत्व का प्रश्न पुन: उठ खड़ा हुआ। जर्मन राष्ट्रीयता की भावना से लाभ उठाकर बिस्मार्क ने आस्ट्रिया के सहयोग से डेनमार्क पर हमला कर दिया और दोनों ने मिलकर इस क्षेत्र को अपने राज्य में मिला लिया (1864)। दो वर्ष बाद बिस्मार्क ने आस्ट्रिया से भी संघर्ष छेड़ दिया। युद्ध में आस्ट्रिया की पराजय हुई और उसे जर्मनी से हट जाना पड़ा। अब बिस्मार्क के नेतृत्व में जर्मनी के सभी उत्तरस्थ राज्यों को मिलाकर उत्तरी जर्मन संघराज्य की स्थापना हुई। जर्मनी की इस शक्तिवृद्धि से फ्रांस आंतकित हो उठा। स्पेन की गद्दी के उत्तराधिकार के प्रश्न पर फ्रांस जर्मनी में तनाव की स्थिति उत्पन्न हो गई और अंत में 1870 में दोनों के बीच युद्ध ठन गया। फ्रांस की हार हुई और उसे अलससलोरेन का प्रांत तथा भारी हर्जाना देकर जर्मनी से संधि करनी पड़ी। 1871 में नए जर्मन राज्य की घोषणा कर दी गई। इस नवस्थापित राज्य को सुसंगठित और प्रबल बनाना ही अब बिस्मार्क का प्रधान लक्ष्य बन गया। इसी दृष्टि से उसने आस्ट्रिया और इटली से मिलकर एक त्रिराष्ट्र संधि की। पोप की "अमोघ" सत्ता का खतरा कम करने के लिए उसने कैथॉलिकों के शक्तिरोध के लिए कई कानून बनाए और समाजवादी आंदोलन के दमन का भी प्रयत्न किया। इसमें उसे अधिक सफलता नहीं मिली। साम्राज्य में तनाव और असंतोष की स्थिति उत्पन्न हो गई। अंततागत्वा सन् 1890 में नए जर्मन सम्राट् विलियम द्वितीय से मतभेद उत्पन्न हो जाने के कारण उसने पदत्याग कर दिया। बिस्मार्क की नीतियाँ उदारवादियों के सिद्धान्त का खंडन करते हुए बिस्मार्क ने 1862 में अपनी नीति इस प्रकार स्पष्ट की- जर्मनी का ध्यान प्रशा के उदारवाद की ओर नहीं है वरन् उसकी शक्ति पर लगा हुआ है। जर्मनी की समस्या का समाधान बौद्धिक भाषणों से नहीं, आदर्शवाद से नहीं, बहुमत के निर्णय से नहीं, वरन् प्रशा के नेतृत्व में रक्त और तलवार की नीति से होगा। इसका अर्थ था कि प्रशा के भविष्य का निर्माण सेना करेगी न कि संसद। 'रक्त और लोहे की नीति' का अभिप्राय था, युद्ध। बिस्मार्क का निश्चित मत था कि जर्मनी का एकीकरण कभी भी फ्रांस, रूस, इंग्लैण्ड एवं ऑस्ट्रिया को स्वीकार नहीं होगा क्योंकि संयुक्त जर्मनी यूरोप के शक्ति सन्तुलन के लिए सबसे बड़ा खतरा होगा। अतः बिस्मार्क को यह विश्वास हो गया था कि जर्मनी के एकीकरण के लिए शक्ति का प्रयोग अनिवार्य है। बिस्मार्क का मुख्य उद्देश्य प्रशा को शक्तिशाली बनाकर जर्मन संघ से ऑस्ट्रिया को बाहर निकालना एवं जर्मनी में उसके प्रभाव को समाप्त करके प्रशा के नेतृत्व में जर्मनी का एकीकरण करना था। इसके लिए आवश्यक था कि राज्य की सभी सत्ता व अधिकार राजा में केन्द्रित हों। बिस्मार्क राजतंत्र में विश्वास रखता था। अतः उसने राजतंत्र के केन्द्र बिन्दु पर ही समस्त जर्मनी की राष्ट्रीयता को एक सूत्र में बांधने का प्रयत्न किया। बिस्मार्क ने अपने सम्पूर्ण कार्यक्रम के दौरान इस बात का विशेष ध्यान रखा कि जर्मनी के एकीकरण के लिए प्रशा की अस्मिता नष्ट न हो जाए। वह प्रशा का बलिदान करने को तैयार नहीं था, जैसा कि पीडमोन्ट ने इटली के एकीकरण के लिए किया। वह प्रशा में ही जर्मनी को समाहित कर लेना चाहता था। बिस्मार्क नीचे के स्तर से जर्मनी का एकीकरण नहीं चाहता था, अर्थात् उदारवादी तरीके से जनता में एकीकरण की भावना जागृत करने के बदले व वह ऊपर से एकीकरण करना चाहता था अर्थात् कूटनीति एवं रक्त एवं लोहे की नीतियों द्वारा वह चाहता था कि जर्मन राज्यों की अधीनस्थ स्थिति हो, प्रशा की नहीं। इस दृष्टि से वह प्रशा के जर्मनीकरण नहीं बल्कि जर्मनी का प्रशाकरण करना चाहता था। बिस्मार्क की गृह नीति बिस्मार्क 1832 में ऑस्ट्रिया का चान्सलर बना और अपनी कूटनीति, सूझबूझ रक्त एवं लौह की नीति के द्वारा जर्मनी का एकीकरण पूर्ण किया। 1870 ई. में एकीकरण के बाद बिस्मार्क ने घोषणा की कि जर्मनी एक सन्तुष्ट राष्ट्र है और वह उपनिवेशवादी प्रसार में कोई रूचि नहीं रखता। इस तरह उसने जर्मनी के विस्तार संबंधी आशंकाओं को दूर करने का प्रयास किया। बिस्मार्क को जर्मनी की आन्तरिक समस्याओं से गुजरना पड़ा। इन समस्याओं के समाधान उसने प्रस्तुत किए। किन्तु समस्याओं की जटिलता ने उसे 1890 में त्यागपत्र देने को विवश कर दिया। बिस्मार्क के समक्ष समस्याएँ एकीकरण के पश्चात जर्मनी में औद्योगीकरण तेजी से हुआ। कारखानों में मजदूरों की अतिशय वृद्धि हुई, किन्तु वहाँ उनकी स्थिति निम्न रही उनके रहने-खाने का कोई उचित प्रबंध नहीं था। आर्थिक और सामाजिक स्थिति खराब होने के कारण समाजवादियों का प्रभाव बढ़ने लगा और उन्हें अपना प्रबल शत्रु मानता था। पूरे जर्मनी में कई तरह के कानून व्याप्त थे। एकीकरण के दौरान हुए युद्धों से आर्थिक संसाधनों की कमी हो गयी थी। फलतः देश की आर्थिक प्रगति बाधित हो रही थी। बिस्मार्क को धार्मिक समस्या का भी सामना करना पड़ा। वस्तुतः प्रशा के लोग प्रोटेस्टेन्ट धर्म के अनुयायी थे जबकि जर्मनी के अन्य राज्यों की प्रजा अधिकांशतः कैथोलिक धर्म की अनुयायी थी। कैथोलिक लोग बिस्मार्क के एकीकरण के प्रबल विरोधी थे क्योंकि उन्हें भय था कि प्रोटेस्टेन्ट प्रशा उनका दमन कर देगा। ऑस्ट्रिया और फ्रांस को पराजित कर बिस्मार्क ने जर्मन कैथोलिक को नाराज कर दिया था, क्योंकि ये दोनों कैथोलिक देश थे। रोम से पोप की सत्ता समाप्त हो जाने से जर्मन कैथोलिक कु्रद्ध हो उठे और उन्होंने बिस्मार्क का विरोध करना शुरू कर दिया। बिस्मार्क द्वारा उठाए गए कदम आर्थिक एकता और विकास के लिए बिस्मार्क ने पूरे जर्मनी में एक ही प्रकार की मुद्रा का प्रचलन कराया। यातायात की सुविधा के लिए रेल्वे बोर्ड की स्थापना की और उसी से टेलीग्राफ विभाग को संबद्ध कर दिया। राज्य की ओर से बैंको की स्थापना की गई थी। विभिन्न राज्यों में प्रचलित कानूनों को स्थागित कर दिया गया और ऐसे कानूनों का निर्माण किया जो संपूर्ण जर्मन साम्राज्य में समान रूप से प्रचलित हुए। समाजवादियों से निपटने के लिए बिस्मार्क ने 1878 में एक अत्यंत कठोर अधिनियम पास किया जिसके तहत समाजवादियों को सभा करने पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। उनके प्रमुख नेताओं को जेल में डाल दिया गया। समाचार-पत्रों और साहित्य पर कठोर पाबंदी लगा दी गई। इन दमनकारी उपायों के साथ-साथ बिस्मार्क ने मजदूरों को समाजवादियों से दूर करने के लिए "राज्य-समाजवाद" (State socialism) का प्रयोग करना शुरू किया। इसके तहत उसने मजदूरों को यह दिखाया कि राज्य स्वयं मजदूरों की भलाई के लिय प्रयत्नशील है। उसनके मजदूरों की भलाई के लिए अनेक बीमा योजनाएँ, पेंशन योजनाएँ लागू की। स्त्रियों और बालकों के काम करने के घंटों को निश्चित किया गया। बिस्मार्क का यह 'राज्य समाजवाद' वास्तविक समाजवाद नहीं था, क्योंकि वह जनतंत्र का विरोधी था और पूंजीवाद का समर्थन था। औद्योगिक उन्नति के लिए बिस्मार्क ने जर्मन उद्योगों को संरक्षण दिया जिससे उद्योगो और उत्पादन में वृद्धि हुई। तैयार माल को बेचने के लिए नई मंडियों की आवश्यकता थी। इस आवश्यकता ने बिस्मार्क की औपनिवेशिक नीति अपनाने के लिए पे्ररित किया। फलतः 1884 ई. में बिस्मार्क ने अफ्रीका के पूर्वी ओर दक्षिणी-पश्चिमी भागों में अनेक व्यापारिक चौकियों की स्थापना की और तीन सम्राटों के संघ से बाहर हो गया। उसने कहा कि बिस्मार्क ने एक मित्र का पक्ष लेकर दूसरे मित्र को खो दिया है। बिस्मार्क के लिए ऑस्ट्रिया की मित्रता ज्यादा लाभदायक थी क्योंकि आस्ट्रिया के मध्य सन्धि होने की स्थिति में जर्मनी का प्रभाव ज्यादा रहता अतः 1879 में एक द्विगुट संधि (ष्ठह्वड्डद्य ्नद्यद्यiड्डnष) हुई। 5 रूस का जर्मनी से विलग हो जाना बिस्मार्क के लिए चिन्ता का विषय बन गया। उसे लगा कि कहीं रूस फ्रांस के साथ कोई मैत्री संधि न कर ले। अतः उसने तुरन्त ही रूस के साथ सम्बन्ध सुधारने का प्रयत्न किया। 1881 में उसे सफलता भी मिली। अब जर्मनी, रूस और ऑस्ट्रिया के बीच सन्धि हो गयी। 5 अब बिस्मार्क ने इटली की ओर ध्यान दिया और इटली से सन्धि कर फ्रांस को यूरोपीय राजनीति में बिल्कुल अलग कर देना चाहा। इसी समय फ्रांस और इटली दोनों ही अफ्रीका में स्थित ट्यूनिस पर अधिकार करने को इच्छुक थे। बिस्मार्क ने फ्रांस को ट्यूनिस पर अधिकार करने के लिए प्रोत्साहित किया ताकि फ्रांस में जर्मनी के पक्ष में सद्भावना फैल जाए और फ्रांस साम्राज्यवाद में उलझा जाए, जिससे जर्मनी से बदला लेने की बात दूर हो जाए। 1881 में फ्रांस ने ट्यूनिस पर अधिकार कर लिया जिससे इटली नाराज हुआ। इटली की नाराजगी का लाभ उठाकर बिस्मार्क ने 1882 में इटली, जर्मनी और ऑस्ट्रिया के बीच त्रिगुट संधि (Triple Alliance) को अन्जाम दिया। विदेश नीति के अन्तर्गत उठाए गए कदम बिस्मार्क ने नई 'सन्धि प्रणाली' को जन्म दिया। सन्धि कर उसने विभिन्न गुटों का निर्माण किया। इस सन्धि प्रणाली की विशेषता यह थी कि सामान्यतया इतिहास में जितनी भी संधियाँ हुई हैं वे युद्धकाल में हुई थी। किन्तु बिस्मार्क ने शांतिकाल में सन्धि प्रणाली को जन्म देकर एक नवीन दृष्टिकोण सामने रखा। तीन सम्राटों का संघ: विदेशनीति के क्षेत्र में सन्धि प्रणाली के तहत बिस्मार्क का पहला कदम था। 1872 में तीन सम्राटों के संघ का निर्माण किया इसमें ऑस्ट्रिया का सम्राट फ्रांसिस जोजफ, रूस का जार द्वितीय तथा जर्मनी का सम्राट विलियन प्रथम शामिल था। यद्यपि यह इन तीन देशों के मध्य कोई लिखित सन्धि नहीं थी, तथापि कुछ बातों पर सहमति हुई थी। वे इस बात पर सहमत हुए थे कि यूरोप में शान्ति बनाए रखने तथा समाजवादी आन्दोलन से निपटने के लिए वे एक-दूसरे के साथ सहयोग एवं विचार विनिमय करते रहे। यह सन्धि बिस्मार्क की महान कूटनीतिक विजय थी, क्योंकि एक तरफ तो उसने सेडोवा की पराजित शक्ति ऑस्ट्रिया को मित्र बना लिया तो दूसरी तरफ फ्रांस के लिए आस्ट्रिया एवं रूस की मित्रता की सम्भावना को समाप्त कर दिया। किन्तु कुछ समय पश्चात यह संघ टूट गया क्योंकि बाल्कन क्षेत्र में रूस और ऑस्ट्रिया के हित आपस टकराते थे। अतः बिस्मार्क को रूस और ऑस्ट्रिया में से किसी एक को चुनना था। 1878 की बर्लिन की संधि में बिस्मार्क को रूस और ऑस्ट्रिया में से किसी एक को चुनना था, जिसमें उसने ऑस्ट्रिया का पक्ष लिया। फलतः रूस उससे नाराज हो गया। धार्मिक मुद्दों से निटपने और राज्य को सर्वोपरि बनाने के लिए बिस्मार्क ने चर्च के विरूद्ध कई कानून पास किए। 1872 में जेसुइट समाज का बहिष्कार कर दिया और प्रशा तथा पोप का सम्बन्ध-विच्छेद हो गया। 1873 में पारित कानून के अनुसार विवाह राज्य न्यायालयों की आज्ञा से होने लगा जिसमें चर्च की कोई आवश्यकता नहीं रह गयी। शिक्षण संस्थाओं पर राज्य का अधिकार हो गया तथा चर्च को मिलने वाली सरकारी सहायता बन्द कर दी गई। इन कानूनों के बावजूद भी कैथोलिक झुके नहीं। अतः बिस्मार्क ने समाजवादियों की चुनौतियों को ज्यादा खतरनाक समझते हुई कैथोलिकों के साथ समझौता किया। इसके तहत कैथोलिक के विरूद्ध कानून रद्द कर दिए गए और पोप से राजनीतिक सम्बन्ध स्थापित किया। बिस्मार्क की विदेश नीति जर्मनी के एकीकरण के पश्चात 1871 में बिस्मार्क की विदेश नीति का प्रमुख उद्देश्य यूरोप में जर्मनी की प्रधानता को बनाए रखना था। नीति निर्धारण के तौर पर उसने घोषित किया कि जर्मनी तुष्ट राज्य है और क्षेत्रीय विस्तार में इसकी कोई रूचि नहीं है। बिस्मार्क को फ्रांस से सर्वाधिक भय था क्योंकि एल्सेस-लॉरेन का क्षेत्र उसने फ्रांस से प्राप्त किया था, जिससे फ्रांस बहुत असन्तुष्ट था। बिस्मार्क को विश्वास था कि फ्रांसीसी अपनी 1870-71 की पराजय और एलसेस-लॉरेन क्षेत्र को नहीं भूलेंगे। अतः उसकी विदेश नीति का मुख्य उद्देश्य फ्रांस को यूरोप में मित्रविहीन रखना था ताकि वह जर्मनी से युद्ध करने की स्थिति में न आ सके। इस तरह बिस्मार्क की विदेश नीति के आधारभूत सिद्धान्त थे- व्यावहारिक अवसरवादी कूटनीति का प्रयोग कर जर्मन विरोधी शक्तियों को अलग-थलग रखना एवं फ्रांस को मित्र विहीन बनाना, उदारवाद का विरोध एवं सैन्यवाद में आस्था रखना। उसकी सन्धि प्रणाली ने प्रतिसन्धियों को जन्म दिया। फलतः यूरोप में तनावपूर्ण वातावरण बन गया और इस प्रकार यूरोप प्रथम विश्वयुद्ध के कगार पर पहुंच गया। बिस्मार्क की विदेशनीति ने यूरोप में सैन्यीकरण एवं शस्त्रीकरण को बढ़ावा दिया। इस नीति ने यूरोप को प्रथम विश्वयुद्ध की दहलीज तक पहुँचा दिया। बिस्मार्क ने सभी सन्धियाँ परस्पर विरोधी राष्ट्रों के साथ की थी। उनके बीच समन्वय बनाए रखना अत्यंत दुष्कर कार्य था, जिसे केवल बिस्मार्क जैसा कूटनीतिज्ञ ही कर सकता था। अतः 1890 में पद त्याग करने के पश्चात यह पद्धति घातक हो गई और जर्मनी के विरूद्ध फ्रांस, रूस आदि गुटों का निर्माण हुआ। इस प्रकार बिस्मार्क की विदेश नीति ने प्रकारांतर से प्रथम विश्वयुद्ध की पृष्ठभूमि का निर्माण कर दिया। बिस्मार्क की गुटबंदी की नीति के कारण जर्मनी के विरूद्ध दूसरा गुट बना और अंत में संपूर्ण यूरोप दो सशस्त्र एवं शक्तिशाली गुटों में विभाजित हो गया। जिसकी चरम परिणति प्रथम विश्वयुद्ध में दिखाई पड़ी। 1887 में बिस्मार्क ने रूस के साथ पुनराश्वासन सन्धि (Reassurance treaty) की जिसके तहत दोनों ने एक-दूसरे को सहायता देने का वचन दिया। यह सन्धि गुप्त रखी गई थी। यह बिस्मार्क की कूटनीतिक विजय थी क्योंकि एक ही साथ जर्मनी को रूस और ऑस्ट्रिया की मित्रता प्राप्त हुई। बिस्मार्क ने ब्रिटेन के साथ मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध बनाने का प्रयत्न किया। बिस्मार्क का मानना था कि ब्रिटेन एक नौसैनिक शक्ति है और जब तक उसकी नौसेना को चुनौती नहीं दी जाएगी, तब तक वह किसी राष्ट्र का विरोधी नहीं होगा। अतः ब्रिटेन को खुश करने लिए बिस्मार्क ने जर्मन नौसेना को बढ़ाने को कोई कदम नहीं उठाया। ब्रिटेन की खुश करने के लिए उसने घोषणा की कि जर्मनी साम्राज्यवादी देश नहीं है। दूसरी तरफ इंग्लैण्ड की फ्रांस के साथ औपनिवेशिक प्रतिद्वन्दिता थी जिसका लाभ उठाकर बिस्मार्क ने ब्रिटेन के साथ मधुर सम्बन्ध बनाए। इन्हें भी देखें रक्त और लोहा बाहरी कड़ियाँ श्रेणी:राजनीतिज्ञ श्रेणी:कूटनीति श्रेणी:जर्मनी
द्वितीय जर्मन साम्राज्य का प्रथम चांसलर कौन था?
ओटो एडुअर्ड लिओपोल्ड बिस्मार्क
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कुमार गंधर्व सम्मान मध्यप्रदेश शासन ने संगीत के क्षेत्र में राष्ट्रीय स्तर की उत्कृष्ट युवा प्रतिभा को सम्मानित और प्रोत्साहित करने के लिए वर्ष 1992-93 से वार्षिक राष्ट्रीय सम्मान स्थापित किया है। इस सम्मान का नाम संगीत के क्षेत्र में राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति के अद्वितीय गायक पण्डित कुमार गंधर्व की स्मृति में रखा गया है।[1] चयन के मापदंड सम्मान के समय कलाकार की आयु सीमा 25 से 45 वर्ष के बीच निर्धारित की गई है। यह सम्मान भारतीय शास्त्रीय संगीत; हिन्दुस्तानी संगीत और कर्नाटक संगीत के लिए प्रतिवर्ष बारी-बारी से शास्त्रीय गायन और वादन में दिया जाता है। राष्ट्रीय कुमार गंधर्व सम्मान का निकष सृजनात्मक उत्कृष्टता, प्रखर प्रयोगशीलता, निरन्तर सृजन सक्रियता और भावी संभावनाओं के निविर्वाद मानदण्ड रखे गये हैं। प्रक्रिया के अनुसार संस्कृति विभाग शास्त्रीय संगीत के कलाकारों, विशेषज्ञों, रसिकों, संगठनों और समाचार-पत्रों में प्रकाशित विज्ञापनों के माध्यम से उनके रचनात्मक वैशिष्ट्य ज्ञान और संसक्ति का लाभ लेते हुए उनसे सम्मान के लिए उपयुक्त कलाकारों के नामांकन करने का अनुरोध करता है। ये नामांकन विशेषज्ञों की चयन समिति के सामने अंतिम निर्णय के लिए रखे जाते हैं। इस समिति में राष्ट्रीय ख्याति के कलाकार और विशेषज्ञ होते हैं। चयन समिति को यह स्वतंत्रता है कि अगर कोई नाम छूट गया हो तो उसे अपनी तरफ से जोड़ ले। राज्य शासन ने चयन समिति की अनुशंसा को अपने लिए बंधनकारी माना है। मध्यप्रदेश के लिए यह गौरव की बात है कि उसके अन्य अनेक राष्ट्रीय सम्मानों की तरह राष्ट्रीय कुमार गंधर्व सम्मान शास्त्रीय संगीत के क्षेत्र में युवा कलाकार को दिया जाने वाला देश का सर्वोच्च सम्मान है। कुमार जी की अद्वितीय प्रतिभा के लिए यह मध्यप्रदेश की विनढा श्रद्धांजलि है। पुरस्कार कलाकार को सम्मान स्वरूप इक्यावन हजार रुपये की राशि और सम्मान पट्टिका अर्पित की जाती है। प्राप्तकर्ता सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ श्रेणी:मध्यप्रदेश शासन द्वारा दिए जाने वाले सम्मान श्रेणी:मध्य प्रदेश शासन द्वारा दिए जाने वाले सम्मान एवं पुरस्कार
कुमार गंधर्व सम्मान' किस क्षेत्र में उत्कृष्ट कार्य के लिए प्रदान किया जाता है?
संगीत
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गौतम बुद्ध (जन्म 563 ईसा पूर्व – निर्वाण 483 ईसा पूर्व) एक श्रमण थे जिनकी शिक्षाओं पर बौद्ध धर्म का प्रचलन हुआ।[1] उनका जन्म लुंबिनी में 563 ईसा पूर्व इक्ष्वाकु वंशीय क्षत्रिय शाक्य कुल के राजा शुद्धोधन के घर में हुआ था। उनकी माँ का नाम महामाया था जो कोलीय वंश से थी जिनका इनके जन्म के सात दिन बाद निधन हुआ, उनका पालन महारानी की छोटी सगी बहन महाप्रजापती गौतमी ने किया। सिद्धार्थ विवाहोपरांत एक मात्र प्रथम नवजात शिशु राहुल और पत्नी यशोधरा को त्यागकर संसार को जरा, मरण, दुखों से मुक्ति दिलाने के मार्ग की तलाश एवं सत्य दिव्य ज्ञान खोज में रात में राजपाठ छोड़कर जंगल चले गए। वर्षों की कठोर साधना के पश्चात बोध गया (बिहार) में बोधि वृक्ष के नीचे उन्हें ज्ञान की प्राप्ति हुई और वे सिद्धार्थ गौतम से बुद्ध बन गए। जीवन वृत्त उनका जन्म 563 ईस्वी पूर्व के बीच शाक्य गणराज्य की तत्कालीन राजधानी कपिलवस्तु के निकट लुम्बिनी में हुआ था, जो नेपाल में है।[2] लुम्बिनी वन नेपाल के तराई क्षेत्र में कपिलवस्तु और देवदह के बीच नौतनवा स्टेशन से 8 मील दूर पश्चिम में रुक्मिनदेई नामक स्थान के पास स्थित था। कपिलवस्तु की महारानी महामाया देवी के अपने नैहर देवदह जाते हुए रास्ते में प्रसव पीड़ा हुई और वहीं उन्होंने एक बालक को जन्म दिया। शिशु का नाम सिद्धार्थ रखा गया।[3] गौतम गोत्र में जन्म लेने के कारण वे गौतम भी कहलाए। क्षत्रिय राजा शुद्धोधन उनके पिता थे। परंपरागत कथा के अनुसार सिद्धार्थ की माता का उनके जन्म के सात दिन बाद निधन हो गया था। उनका पालन पोषण उनकी मौसी और शुद्दोधन की दूसरी रानी महाप्रजावती (गौतमी)ने किया। शिशु का नाम सिद्धार्थ दिया गया, जिसका अर्थ है "वह जो सिद्धी प्राप्ति के लिए जन्मा हो"। जन्म समारोह के दौरान, साधु द्रष्टा आसित ने अपने पहाड़ के निवास से घोषणा की- बच्चा या तो एक महान राजा या एक महान पवित्र पथ प्रदर्शक बनेगा।[4] शुद्दोधन ने पांचवें दिन एक नामकरण समारोह आयोजित किया और आठ ब्राह्मण विद्वानों को भविष्य पढ़ने के लिए आमंत्रित किया। सभी ने एक सी दोहरी भविष्यवाणी की, कि बच्चा या तो एक महान राजा या एक महान पवित्र आदमी बनेगा।[4] दक्षिण मध्य नेपाल में स्थित लुंबिनी में उस स्थल पर महाराज अशोक ने तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व बुद्ध के जन्म की स्मृति में एक स्तम्भ बनवाया था। बुद्ध का जन्म दिवस व्यापक रूप से थएरावदा देशों में मनाया जाता है।[4] सुद्धार्थ का मन वचपन से ही करुणा और दया का स्रोत था। इसका परिचय उनके आरंभिक जीवन की अनेक घटनाओं से पता चलता है। घुड़दौड़ में जब घोड़े दौड़ते और उनके मुँह से झाग निकलने लगता तो सिद्धार्थ उन्हें थका जानकर वहीं रोक देता और जीती हुई बाजी हार जाता। खेल में भी सिद्धार्थ को खुद हार जाना पसंद था क्योंकि किसी को हराना और किसी का दुःखी होना उससे नहीं देखा जाता था। सिद्धार्थ ने चचेरे भाई देवदत्त द्वारा तीर से घायल किए गए हंस की सहायता की और उसके प्राणों की रक्षा की। शिक्षा एवं विवाह सिद्धार्थ ने गुरु विश्वामित्र के पास वेद और उपनिषद्‌ को तो पढ़ा हीं , राजकाज और युद्ध-विद्या की भी शिक्षा ली। कुश्ती, घुड़दौड़, तीर-कमान, रथ हाँकने में कोई उसकी बराबरी नहीं कर पाता। सोलह वर्ष की उम्र में सिद्धार्थ का कन्या यशोधरा के साथ विवाह हुआ। पिता द्वारा ऋतुओं के अनुरूप बनाए गए वैभवशाली और समस्त भोगों से युक्त महल में वे यशोधरा के साथ रहने लगे जहाँ उनके पुत्र राहुल का जन्म हुआ। लेकिन विवाहके बाद उनका मन वैराग्यमें चला और सम्यक सुख-शांतिके लिए उन्होंने आपने परिवार का त्याग कर दिया। विरक्ति राजा शुद्धोधन ने सिद्धार्थ के लिए भोग-विलास का भरपूर प्रबंध कर दिया। तीन ऋतुओं के लायक तीन सुंदर महल बनवा दिए। वहाँ पर नाच-गान और मनोरंजन की सारी सामग्री जुटा दी गई। दास-दासी उसकी सेवा में रख दिए गए। पर ये सब चीजें सिद्धार्थ को संसार में बाँधकर नहीं रख सकीं। वसंत ऋतु में एक दिन सिद्धार्थ बगीचे की सैर पर निकले। उन्हें सड़क पर एक बूढ़ा आदमी दिखाई दिया। उसके दाँत टूट गए थे, बाल पक गए थे, शरीर टेढ़ा हो गया था। हाथ में लाठी पकड़े धीरे-धीरे काँपता हुआ वह सड़क पर चल रहा था। दूसरी बार कुमार जब बगीचे की सैर को निकला, तो उसकी आँखों के आगे एक रोगी आ गया। उसकी साँस तेजी से चल रही थी। कंधे ढीले पड़ गए थे। बाँहें सूख गई थीं। पेट फूल गया था। चेहरा पीला पड़ गया था। दूसरे के सहारे वह बड़ी मुश्किल से चल पा रहा था। तीसरी बार सिद्धार्थ को एक अर्थी मिली। चार आदमी उसे उठाकर लिए जा रहे थे। पीछे-पीछे बहुत से लोग थे। कोई रो रहा था, कोई छाती पीट रहा था, कोई अपने बाल नोच रहा था। इन दृश्यों ने सिद्धार्थ को बहुत विचलित किया। उन्होंने सोचा कि ‘धिक्कार है जवानी को, जो जीवन को सोख लेती है। धिक्कार है स्वास्थ्य को, जो शरीर को नष्ट कर देता है। धिक्कार है जीवन को, जो इतनी जल्दी अपना अध्याय पूरा कर देता है। क्या बुढ़ापा, बीमारी और मौत सदा इसी तरह होती रहेगी सौम्य? चौथी बार कुमार बगीचे की सैर को निकला, तो उसे एक संन्यासी दिखाई पड़ा। संसार की सारी भावनाओं और कामनाओं से मुक्त प्रसन्नचित्त संन्यासी ने सिद्धार्थ को आकृष्ट किया। महाभिनिष्क्रमण सुंदर पत्नी यशोधरा, दुधमुँहे राहुल और कपिलवस्तु जैसे राज्य का मोह छोड़कर सिद्धार्थ तपस्या के लिए चल पड़े। वह राजगृह पहुँचे। वहाँ भिक्षा माँगी। सिद्धार्थ घूमते-घूमते आलार कालाम और उद्दक रामपुत्र के पास पहुँचे। उनसे योग-साधना सीखी। समाधि लगाना सीखा। पर उससे उसे संतोष नहीं हुआ। वह उरुवेला पहुँचे और वहाँ पर तरह-तरह से तपस्या करने लगे। सिद्धार्थ ने पहले तो केवल तिल-चावल खाकर तपस्या शुरू की, बाद में कोई भी आहार लेना बंद कर दिया। शरीर सूखकर काँटा हो गया। छः साल बीत गए तपस्या करते हुए। सिद्धार्थ की तपस्या सफल नहीं हुई। शांति हेतु बुद्ध का मध्यम मार्ग: एक दिन कुछ स्त्रियाँ किसी नगर से लौटती हुई वहाँ से निकलीं, जहाँ सिद्धार्थ तपस्या कर रहा थे। उनका एक गीत सिद्धार्थ के कान में पड़ा- ‘वीणा के तारों को ढीला मत छोड़ दो। ढीला छोड़ देने से उनका सुरीला स्वर नहीं निकलेगा। पर तारों को इतना कसो भी मत कि वे टूट जाएँ।’ बात सिद्धार्थ को जँच गई। वह मान गये कि नियमित आहार-विहार से ही योग सिद्ध होता है। अति किसी बात की अच्छी नहीं। किसी भी प्राप्ति के लिए मध्यम मार्ग ही ठीक होता है ओर इसके लिए कठोर तपस्या करनी पड़ती है। ज्ञान की प्राप्ति वैशाखी पूर्णिमा के दिन सिद्धार्थ वटवृक्ष के नीचे ध्यानस्थ थे। समीपवर्ती गाँव की एक स्त्री सुजाता को पुत्र हुआ। उसने बेटे के लिए एक वटवृक्ष की मनौती मानी थी। वह मनौती पूरी करने के लिए सोने के थाल में गाय के दूध की खीर भरकर पहुँची। सिद्धार्थ वहाँ बैठा ध्यान कर रहा था। उसे लगा कि वृक्षदेवता ही मानो पूजा लेने के लिए शरीर धरकर बैठे हैं। सुजाता ने बड़े आदर से सिद्धार्थ को खीर भेंट की और कहा- ‘जैसे मेरी मनोकामना पूरी हुई, उसी तरह आपकी भी हो।’ उसी रात को ध्यान लगाने पर सिद्धार्थ की साधना सफल हुई। उसे सच्चा बोध हुआ। तभी से सिद्धार्थ 'बुद्ध' कहलाए। जिस पीपल वृक्ष के नीचे सिद्धार्थ को बोध मिला वह बोधिवृक्ष कहलाया और गया का समीपवर्ती वह स्थान बोधगया। धर्म-चक्र-प्रवर्तन वे 80 वर्ष की उम्र तक अपने धर्म का संस्कृत के बजाय उस समय की सीधी सरल लोकभाषा पाली में प्रचार करते रहे। उनके सीधे सरल धर्म की लोकप्रियता तेजी से बढ़ने लगी। चार सप्ताह तक बोधिवृक्ष के नीचे रहकर धर्म के स्वरूप का चिंतन करने के बाद बुद्ध धर्म का उपदेश करने निकल पड़े। आषाढ़ की पूर्णिमा को वे काशी के पास मृगदाव (वर्तमान में सारनाथ) पहुँचे। वहीं पर उन्होंने सबसे पहला धर्मोपदेश दिया और पहले के पाँच मित्रों को अपना अनुयायी बनाया और फिर उन्हें धर्म प्रचार करने के लिये भेज दिया। महापरिनिर्वाण पालि सिद्धांत के महापरिनिर्वाण सुत्त के अनुसार ८० वर्ष की आयु में बुद्ध ने घोषणा की कि वे जल्द ही परिनिर्वाण के लिए रवाना होंगे। बुद्ध ने अपना आखिरी भोजन, जिसे उन्होंने कुन्डा नामक एक लोहार से एक भेंट के रूप में प्राप्त किया था, ग्रहण लिया जिसके कारण वे गंभीर रूप से बीमार पड़ गये। बुद्ध ने अपने शिष्य आनंद को निर्देश दिया कि वह कुन्डा को समझाए कि उसने कोई गलती नहीं की है। उन्होने कहा कि यह भोजन अतुल्य है।[5] उपदेश भगवान बुद्ध ने लोगों को मध्यम मार्ग का उपदेश किया। उन्होंने दुःख, उसके कारण और निवारण के लिए अष्टांगिक मार्ग सुझाया। उन्होंने अहिंसा पर बहुत जोर दिया है। उन्होंने यज्ञ और पशु-बलि की निंदा की। बुद्ध के उपदेशों का सार इस प्रकार है - महात्मा बुद्ध ने सनातन धरम के कुछ संकल्पनाओं का प्रचार किया, जैसे अग्निहोत्र तथा गायत्री मन्त्र ध्यान तथा अन्तर्दृष्टि मध्यमार्ग का अनुसरण चार आर्य सत्य अष्टांग मार्ग बौद्ध धर्म एवं संघ बुद्ध के धर्म प्रचार से भिक्षुओं की संख्या बढ़ने लगी। बड़े-बड़े राजा-महाराजा भी उनके शिष्य बनने लगे। शुद्धोधन और राहुल ने भी बौद्ध धर्म की दीक्षा ली। भिक्षुओं की संख्या बहुत बढ़ने पर बौद्ध संघ की स्थापना की गई। बाद में लोगों के आग्रह पर बुद्ध ने स्त्रियों को भी संघ में ले लेने के लिए अनुमति दे दी, यद्यपि इसे उन्होंने उतना अच्छा नहीं माना। भगवान बुद्ध ने ‘बहुजन हिताय’ लोककल्याण के लिए अपने धर्म का देश-विदेश में प्रचार करने के लिए भिक्षुओं को इधर-उधर भेजा। अशोक आदि सम्राटों ने भी विदेशों में बौद्ध धर्म के प्रचार में अपनी अहम्‌ भूमिका निभाई। मौर्यकाल तक आते-आते भारत से निकलकर बौद्ध धर्म चीन, जापान, कोरिया, मंगोलिया, बर्मा, थाईलैंड, हिंद चीन, श्रीलंका आदि में फैल चुका था। इन देशों में बौद्ध धर्म बहुसंख्यक धर्म है। गौतम बुद्ध - अन्य धर्मों की दृष्टि में हिन्दू धर्म में हिन्दू धर्म में भगवान बुद्ध बुद्ध को विष्णु का अवतार माना जाता है। अनेक पुराणों में उनका उल्लेख है। सन्दर्भ स्रोत ग्रन्थ According to Pali scholar K. R. Norman, a life span for the Buddha of c. 480 to 400 BCE (and his teaching period roughly from c. 445 to 400 BCE) "fits the archaeological evidence better".[6] See also .}} इन्हें भी देखें हिन्दू धर्म में भगवान बुद्ध बुद्धावतार बाहरी कड़ियाँ श्रेणी:बौद्ध धर्म श्रेणी:धर्म प्रवर्तक श्रेणी:धर्मगुरू श्रेणी:भारतीय बौद्ध
गौतम बुद्ध का जन्म कहाँ हुआ था
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ऑस्कर वाइल्ड उस शख्स का नाम है, जिसने सारी दुनिया में अपने लेखन से हलचल मचा दी थी। शेक्सपीयर के उपरांत सर्वाधिक चर्चित ऑस्कर वाइल्ड सिर्फ उपन्यासकार, कवि और नाटककार ही नहीं थे, अपितु वे एक संवेदनशील मानव थे। उनके लेखन में जीवन की गहरी अनुभूतियाँ हैं, रिश्तों के रहस्य हैं, पवित्र सौन्दर्य की व्याख्या है, मानवीय धड़कनों की कहानी है। उनके जीवन का मूल्यांकन एक व्यापक फैलाव से गुजरकर ही किया जा सकता है। अपने धूपछाँही जीवन में उथल-पुथल और संघर्ष को समेटे 'ऑस्कर फिंगाल ओं फ्लाहर्टी विल्स वाइल्ड' मात्र 46 वर्ष पूरे कर अनंत आकाश में विलीन हो गए। ऑस्कर वाइल्ड 'कीरो' के समकालीन थे। एक बार भविष्यवक्ता कीरो किसी संभ्रांत महिला के यहांं भोज पर आमंत्रित थे। काफी संख्या में यहाँ प्रतिष्ठित लोग मौजूद थे। कीरो उपस्थित हों और भविष्य न पूछा जाए, भला यह कैसे संभव होता। एक दिलचस्प अंदाज में भविष्य दर्शन का कार्यक्रम आरंभ हुआ। एक लाल मखमली पर्दा लगाया गया। उसके पीछे से कई हाथ पेश किए गए। यह सब इसलिए ताकि कीरो को पता न चल सके कि कौन सा हाथ किसका है? दो सुस्पष्ट, सुंदर हाथ उनके सामने आए। उन हाथों को कीरो देखकर हैरान रह गए। दोनों में बड़ा अंतर था। जहाँ बाएँ हाथ की रेखाएँ कह रही थीं कि व्यक्ति असाधारण बुद्धि और अपार ख्याति का मालिक है। वहीं दायाँ हाथ..? कीरो ने कहा 'दायाँ हाथ ऐसे शख्स का है जो अपने को स्वयं देश निकाला देगा और किसी अनजान जगह एकाकी और मित्रविहीन मरेगा। कीरो ने यह भी कहा कि 41 से 42वें वर्ष के बीच यह निष्कासन होगा और उसके कुछ वर्षों बाद मृत्यु हो जाएगी। यह दोनों हाथ लंदन के सर्वाधिक चर्चित व्यक्ति ऑस्कर वाइल्ड के थे। संयोग की बात कि उसी रात एक महान नाटक 'ए वुमन ऑफ नो इम्पोर्टेंस' मंचित किया गया। उसके रचयिता भी और कोई नहीं ऑस्कर वाइल्ड ही थे। बहरहाल, 15 अक्टूबर 1854 को ऑस्कर वाइल्ड जन्मे थे। कीरो की भविष्यवाणी पर दृष्टिपात करें तो 1895 में ऑस्कर वाइल्ड ने समाज के नैतिक नियमों का उल्लंघन कर दिया। फलस्वरूप समाज में उनकी अब तक अर्जित प्रतिष्ठा, मान-सम्मान और सारी उपलब्धियाँ ध्वस्त हो गईं। यहाँ तक कि उन्हें दो वर्ष का कठोर कारावास भी भुगतना पड़ा। जब ऑस्कर वाइल्ड ने अपने सौभाग्य के चमकते सितारे को डूबते हुए और अपनी कीर्ति पताका को झुकते हुए देखा तो उनके धैर्य ने जवाब दे दिया। अब वे अपने उसी गौरव और प्रभुता के साथ समाज के बीच खड़े नहीं हो सकते थे। हताशा की हालत में उन्होंने स्वयं को देश निकाला दे दिया। वे पेरिस चले गए और अकेले गुमनामी की जिंदगी गुजारने लगे। कुछ वर्षों बाद 30 नवम्बर 1900 को पेरिस में ही उनकी मृत्यु हो गई। उस समय उनके पास कोई मित्र नहीं था। यदि कुछ था तो सिर्फ सघन अकेलापन और पिछले सम्मानित जीवन की स्मृतियों के बचे टुकड़े। ऑस्कर वाइल्ड का पूरा नाम बहुत लंबा था, लेकिन वे सारी दुनिया में केवल ऑस्कर वाइल्ड के नाम से ही जाने गए। उनके पिता सर्जन थे और माँ कवयित्री। कविता के संस्कार उन्हें अपनी माँ से ही मिले। क्लासिक्स और कविता में उनकी विशेष गति थी। 19वीं शताब्दी के अंतिम दशक में उन्होंने सौंदर्यवादी आंदोलन का नेतृत्व किया। इससे उनकी कीर्ति चारों ओर फैली। ऑस्कर वाइल्ड विलक्षण बुद्धि, विराट कल्पनाशीलता और प्रखर विचारों के स्वामी थे। परस्पर बातचीत से लेकर उद्भट वक्ता के रूप में भी उनका कोई जवाब नहीं था। उन्होंने कविता, उपन्यास और नाटक लिखे। अँग्रेजी साहित्य में शेक्सपीयर के बाद उन्हीं का नाम प्राथमिकता से लिया जाता है। 'द पिक्चर ऑफ डोरियन ग्रे' उनका प्रथम और अंतिम उपन्यास था, जो 1890 में पहली बार प्रकाशित हुआ। विश्व की कई भाषाओं में उनकी कृतियाँ अनुवादित हो चुकी हैं। 'द बैलेड ऑफ रीडिंग गोल' और 'डी प्रोफनडिस', उनकी सुप्रसिद्ध कृतियाँ हैं। लेडी विंडरम'र्स फेन और द इम्पोर्टेंस ऑफ बीइंग अर्नेस्ट जैसे नाटकों ने भी खासी लोकप्रियता अर्जित की। उनकी लिखी परिकथाएँ भी विशेष रूप से पसंद की गईं। उनके एक नाटक 'सलोमी' को प्रदर्शन के लिए इंग्लैंड में लाइसेंस नहीं मिला। बाद में उसे सारा बरनार्ड ने पेरिस में प्रदर्शित किया। ऑस्कर वाइल्ड ने जीवन मूल्यों, पुस्तकों, कला इत्यादि के विषय में अनेक सारगर्भित रोचक टिप्पणियाँ की हैं। उन्होंने कहा- 'पुस्तकें नैतिक या अनैतिक नहीं होतीं। वे या तो अच्छी लिखी गई होती हैं या बुरी।' अपने अनंत अनुभवों के आधार पर एक जगह उन्होंने लिखा- 'विपदाएँ झेली जा सकती हैं, क्योंकि वे बाहर से आती हैं, किंतु अपनी गलतियों का दंड भोगना हाय, वही तो है जीवन का दंश। कला के विषय में उनके विचार थे- 'कला, जीवन को नहीं, बल्कि देखने वाले को व्यक्त करती है अर्थात तब किसी कलात्मक कृति पर लोग विभिन्ना मत प्रकट करते हैं तब ही कृति की पहचान निर्धारित होती है कि वास्तव में वह कैसी है, आकर्षक या उलझी हुई।' ऑस्कर वाइल्ड ने अपने साहित्य में कहीं न कहीं अपनी पीड़ा, अवसाद और अपमान को ही अभिव्यक्त किया है। बावजूद इसके उनकी रचनाएँ एक विशेष प्रकार का कोमलपन लिए एक विशेष दिशा में चलती हैं। कई बड़े साहित्यकारों की तरह उन्होंने भी विषपान किया, नीलकंठ बने और खामोश रहे। विश्व साहित्य का यह तेजस्वी हस्ताक्षर आज भी पूरी दुनिया में स्नेह के साथ पढ़ा और सराहा जाता है। बाहरी कड़ियाँ (वेबदुनिया साहित्य) श्रेणी:अंग्रेजी साहित्यकार‎
ऑस्कर वाइल्ड द्वारा रचित सबसे पहला उपन्यास कौन सा था?
द पिक्चर ऑफ डोरियन ग्रे
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अवनीन्द्रनाथ ठाकुर (१८७१-१९५१) भारत के बंगाल प्रदेश में जन्मे चित्रकार थे।20 वीं शताब्दी की शुरुआत में बंगाल स्कूल का विचार अभनींद्रनाथ टैगोर के कार्यों के साथ आया था। उनकी अरब रात की श्रृंखला ने वैश्विक स्तर पर एक निशान बनाया क्योंकि यह भारतीय चित्रकला के पिछले स्कूलों से अलग हो गया और कुछ नया लाया। उन्होंने भारत कला में स्वदेशी मूल्यों को शामिल करने की कोशिश की और कलाकारों के बीच पश्चिमी कला शैली के प्रभाव को कम करने की कोशिश की। वह अपने चित्रकला भारत माता और विभिन्न मुगल-थीम वाली पेंटिंग्स के लिए जाने जाते हैं। अवनींद्रनाथ टैगोर ‘इंडियन सोसाइटी ऑफ़ ओरिएण्टल आर्ट’के मुख्य चित्रकार और संस्थापक थे। भारतीय कला में स्वदेशी मूल्यों के वे पहले सबसे बड़े समर्थक थे। इस प्रकार उन्होंने ‘बंगाल स्कूल ऑफ़ आर्ट’ की स्थापना में अति प्रभावशाली भूमिका निभाई, जिससे आधुनिक भारतीय चित्रकारी का विकास हुआ। एक चित्रकार के साथ-साथ वे बंगाली बाल साहित्य के प्रख्यात लेखक भी थे। वे ‘अबन ठाकुर’ के नाम से प्रसिद्ध थे और उनकी पुस्तकें जैसे राजकहानी, बूड़ो अंगला, नलक, खिरेर पुतुल बांग्ला बाल-साहित्य में महत्त्वपूर्ण स्थान रखती हैं। उनकी शैली ने बाद के कई चित्रकारों को प्रभावित किया जिमें प्रमुख हैं – नंदलाल बोस, असित कुमार हलधर, क्षितिन्द्रनाथ मजुमदार, मुकुल डे, मनीषी डे और जामिनी रॉय। अवनींद्रनाथ टैगोर का जन्म प्रसिद्ध ‘टैगोर परिवार’ में कोलकता के जोरासंको में 7 अगस्त 1871 में हुआ था। उनके दादा का नाम गिरिन्द्रनाथ टैगोर था जो द्वारकानाथ टैगोर के दूसरे पुत्र थे। वे गुरु रविंद्रनाथ टैगोर के भतीजे थे। उनके दादा और बड़े भाई गगनेन्द्रनाथ टैगोर भी चित्रकार थे। उन्होंने कोलकाता के संस्कृति कॉलेज में अध्ययन के दौरान चित्रकारी सीखी। सन 1890 में उन्होंने कलकत्ता स्कूल ऑफ़ आर्ट में दाखिला लिया जहाँ उन्होंने यूरोपिय शिक्षकों जैसे ओ.घिलार्डी से पेस्टल का प्रयोग और चार्ल्स पामर से तैल चित्र बनाना सीखा। सन 1889 में उनका विवाह सुहासिनी देवी से हुआ जो भुजगेन्द्र भूषण चटर्जी की पुत्री थीं। लगभग 9 साल के अध्यन के बाद उन्होंने संस्कृति कॉलेज छोड़ दिया और कोलकाता के सेंट जेविएर्स कॉलेज में एक साल तक अंग्रेजी की पढ़ाई की। उनकी एक बहन भी थी जिसका नाम सुनयना देवी था। पेंटिंग के अलावा उन्होंने बच्चों के लिए कई कहानियां भी लिखीं और ‘अबन ठाकुर’ के नाम से प्रसिद्ध हुए। करियर सन 1897 के आस-पास उन्होंने कोलकाता के गवर्नमेंट स्कूल ऑफ़ आर्ट के उप-प्रधानाचार्य और इतालवी चित्रकार सिग्नोर गिल्हार्दी से चित्रकारी सीखना प्रारंभ किया। उन्होंने उनसे कास्ट ड्राइंग, फोलिअगे ड्राइंग, पस्टेल इत्यादि सीखा। इसके बाद उन्होंने ब्रिटिश चित्रकार चार्ल्स पाल्मर के स्टूडियो में लगभग 3 से 4 साल तक काम करके तैल चित्र और छायाचित्र में निपुणता हासिल की। इसी दौरान उन्होंने कई प्रतिष्ठित व्यक्तियों के तैल चित्र बनाये और ख्याति अर्जित की। कलकत्ता स्कूल ऑफ़ आर्ट के प्रधानाचार्य इ.बी. हैवेल उनके काम से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने अवनीन्द्रनाथ को उसी स्कूल में उप-प्रधानाचार्य के पद का प्रस्ताव दे दिया। इसके बाद अवनीन्द्रनाथ ने कला और चित्रकारी के कई शैलियों पर काम किया और निपुणता हासिल की। हैवेल के साथ मिलकर उन्होंने कलकत्ता स्कूल ऑफ़ आर्ट में शिक्षण को पुनर्जीवित और पुनः परिभाषित करने की दिशा में कार्य किया। इस कार्य में उनके बड़े भाई गगनेन्द्रनाथ टैगोर ने भी उनकी बहुत सहायता की। उन्होंने विद्यालय में कई महत्वपूर्ण परिवर्तन किये – विद्यालय के दीवारों से यूरोपिय चित्रों को हटाकर मुग़ल और राजपूत शैली के चित्रों को लगवाया और ‘ललित कला विभाग’ की स्थापना भी की। उन्होंने पश्चिम की भौतिकतावाद कला को छोड़ भारत के परंपरागत कलाओं को अपनाने पर जोर दिया। सन 1930 में बनाई गई ‘अरेबियन नाइट्स’ श्रृंखला उनकी सबसे महत्पूर्ण उपलब्धि थी। वे मुग़ल और राजपूत कला शैली से बहुत प्रभावित थे। धीरे-धीरे वे कला के क्षेत्र में दूसरे महत्वपूर्ण व्यक्तियों के संपर्क में भी आये। इनमें शामिल थे जापानी कला इतिहासविद ओकाकुरा काकुजो और जापानी चित्रकार योकोयामा टाय्कन। इसका परिणाम यह हुआ कि अपने बाद के कार्यों में उन्होंने जापानी और चीनी सुलेखन पद्धति को अपनी कला में एकीकृत किया। अबनिन्द्रनाथ टैगोर के शिष्यों में प्रमुख थे नंदलाल बोस, कालिपद घोषाल, क्षितिन्द्रनाथ मजुमदार, सुरेन्द्रनाथ गांगुली, असित कुमार हलधर, शारदा उकील, समरेन्द्रनाथ गुप्ता, मनीषी डे, मुकुल डे, के. वेंकटप्पा और रानाडा वकील। लन्दन के प्रसिद्ध चित्रकार, लेखक और बाद में लन्दन के ‘रॉयल ‘कॉलेज ऑफ़ आर्ट’ के अध्यक्ष विलियम रोथेनस्टीन से उनकी जीवन-पर्यान्त मित्रता रही। वे सन 1910 में भारत आये और लगभग 1 साल तक भारत भ्रमण किया और कोलकाता में अबनिन्द्रनाथ के साथ चित्रकारी की और बंगाली कला शैली के तत्वों को अपने शैली में समाहित करने की कोशिश की। सन 1913 में उनके चित्रों की प्रदर्शनी लन्दन और पेरिस में लगायी गयी। उसके बाद उन्होंने सन 1919 में जापान में अपनी कला की प्रदर्शनी लगाई। सन 1951 में उनकी मृयु के उपरान्त उनके सबसे बड़े पुत्र तोपू धबल ने अबनिन्द्रनाथ टैगोर के सभी चित्रों को नव-स्थापित ‘रबिन्द्र भारती सोसाइटी ट्रस्ट’ को दे दिया। इस प्रकार यह सोसाइटी उनके द्वारा बनाये गए चित्रों की बड़ी संख्या की संग्रहक बन गई। अबनिन्द्रनाथ टैगोर के बारे में एक दिलचस्प बात कम लोगों को ही ज्ञात होगी कि रविंद्रनाथ टैगोर को अंतर्राष्ट्रीय ख्याति मिलने ने से भी पहले अबनिन्द्र का नाम यूरोप में एक प्रतिष्ठित चित्रकार के तौर पर स्थापित हो चुका था और अबनिन्द्र और उनके बड़े भाई गगनेन्द्रनाथ के ब्रिटिश और यूरोपिय मित्रों ने ही रविंद्रनाथ टैगोर को अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘गीतांजलि’ को अंग्रेजी में प्रकाशित करने के लिए प्रोत्साहित किया। इन्हें भी देखें द्वारकानाथ ठाकुर (१७९४-१८४६) देवेन्द्रनाथ ठाकुर (१८०७-१९०५) रवीन्द्रनाथ ठाकुर (१८६१-१९४१) अबनिन्द्रनाथ ठाकुर (१८७१-१९५१) ठाकुर परिवार बाहरी कडियां (कल्चरल इण्डिया) टैगोर, अवनींद्र नाथ
चित्रकार अवनीन्द्रनाथ ठाकुर के दादा का क्या नाम था?
गिरिन्द्रनाथ टैगोर
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बाड़मेर जिला भारतीय राज्य राजस्थान का एक जिला है। जिले का मुख्यालय बाड़मेर नगर है[1], जबकि अन्य मुख्य कस्बे बालोतरा,गुड़ामलानी, बायतु,सिवाना,जसोल,चौहटन,धोरीमन्ना और उत्तरलाई हैं। बाड़मेर में एक रिफ़ाइनरी भी प्रस्तावित है[2]। प्रशासनिक इकाइयां उपखण्ड बाड़मेर, * बालोतरा, * गुड़ामालानी, * सिवाना, * बायतु, * शिव, * चौहटन, * धोरीमना, * सेड़वा, * समदड़ी, * रामसर, * सिणधरी, तहसीलें बाड़मेर, * सिवाना , * पचपदरा, * गुड़ामालानी, * बायतु, * शिव, * चौहटन, * धोरीमना, * समदड़ी, * रामसर, * सिणधरी, * सेड़वा, * धनाऊ, * गड़रारोड़, * गिड़ा पंचायत समितियां बाड़मेर, * सिवाना , * बालोतरा, * गुड़ामालानी, * बायतु, * शिव, * चौहटन, * धोरीमना, * समदड़ी, * रामसर, * सिणधरी, * सेड़वा, * धनाऊ, * गड़रारोड़, * गिड़ा, * कल्याणपुर, * पाटोदी बाड़मेर (बाड़े र) नाम की व्युत्पत्ति ऐतिहासिक रूप से 'बाड़मेर' जिले का नाम प्रसिद्ध ऐतिहासिक बाहड़ शासक राव (पंवार) परमार या बाहड़ राव परमार (पंवार) के नाम पर पड़ा माना जाता है। ऐसा माना जाता है कि प्रसिद्ध बाहड़ शासक बाहड़ राव परमार (पंवार) ने 13 वीं सदी में इस बाड़मेर शहर की स्थापना की थी और तभी से यह शहर बाहड़मेर के नाम से जाना जाता है। वास्तव में 'बाहड़मेर' शब्द इसके संस्थापक शासक बाहड़ राव परमार (पंवार) के पहाड़ी किले से व्युत्पन्न है। भूगोल थार मरुस्थल का एक भाग बाड़मेर जिला, राजस्थान के पश्चिम में स्थित है। जिला उत्तर में जैसलमेर जिले, दक्षिण में जालौर जिले, पूर्व में पाली और जोधपुर जिले तथा पश्चिम में पाकिस्तान से घिरा है। जिले का कुल क्षेत्रफल 28387 वर्ग किमी है। जिला उत्तरी अक्षांश 24,58’ से 26, 32’ और पूर्वी देशान्तर 70, 05’ से 72, 52’ के मध्य स्थित है। जिले में सबसे लंबी नदी लूनी है। यह जालोर के माध्यम से गुजर कच्छ की खाड़ी में लंबाई और नाली में 480 किमी दूर है। विभिन्न सत्रों में तापमान में बदलाव के काफी अधिक है। गर्मियों में तापमान 51 डिग्री सेल्सियस के लिए 46 डिग्री सेल्सियस के नाद सुनाई देने लगता। सर्दियों में यह शून्य डिग्री सेल्सियस (41 ° एफ) के लिए चला जाता। एक साल में औसत वर्षा 277 मिमी है, जहां मुख्य रूप से बाड़मेर जिले में एक रेगिस्तान है। हालांकि, 16 और 25 अगस्त 2006 के बीच 549 मिमी बारिश के चरम वर्षा जलमग्न पास के एक शहर कवास और पूरे शहर में बाढ़ की वजह से कई लोग मारे गए और भारी नुकसान छोड़ दिया है। के रूप में कई के रूप में बीस नए झीलों छह से 10 से अधिक वर्ग किलोमीटर के एक क्षेत्र को कवर करने के साथ, का गठन किया। खराब योजना बनाई है और तेजी से शहरीकरण बाढ़ फ्लैश करने के लिए बाड़मेर के जोखिम बढ़ गया है। स्थानीय पारिस्थितिकी और मिट्टी के प्रकार छोटी और लंबी अवधि के नुकसान का कारण बनता है, जो अचानक या अत्यधिक पानी के संचय से निपटने के लिए सुसज्जित नहीं है। अन्य क्षेत्रों में भी स्थानीय लोगों के जीवन और आजीविका की धमकी दी है, जो 'अदृश्य आपदाओं' के क्रमिक प्रभाव पीड़ित हैं। मुख्य आकर्षण जसोल एक समय में जसोल मालानी का प्रमुख क्षेत्र था। रावल मल्लीनाथ के नाम पर परगने का नाम मालानी पङा, इस प्राचीन गांव का नाम राठौड़ उपवंश के वंशजों के नाम पर पड़ा। यहां पर स्थित जैन मंदिर और हिंदु मंदिर जसोल के मुख्य आकर्षण हैं। यहां एक चमत्कारिक देवी माता रानी भटीयाणी का मन्दिर है। हरसाणी यह बाडमेर-गिराब और शिव-गडरारोड सडक के मिलन स्थल पर एक चोराहे पर आया हुआ है यहाँ एक माल्हण बाई का चमत्कारिक मन्दिर है। जानसिह की बेरी यह ग्राम शिव-गडरारोड मार्ग पर शिव से ४३ किलोमिटर पर आया हुआ है यहाँ एक सच्चियाय माता क मन्दिर है। खेड़ राठौड़ वंश के संस्थापक राव सिहा और उनके पुत्र ने खेड़ को गुहिल राजपूतों से जीता और यहां राठौड़ों का गढ़ बनाया। रणछोड़जी का विष्णु मंदिर यहां का प्रमुख आकर्षण है। मंदिर के चारों और दीवार बनी है और द्वार पर गरुड़ की प्रतिमा लगी है जिसे देख कर लगता है मानो वे मंदिर की रक्षा कर रहे हों। पास ही ब्रह्मा, भैरव, महादेव और जैन मंदिर भी हैं। जो सैलानियो का मुख्य आकर्षण का केन्द्र है। गुहिल राजपूत यहाँ से भावनगर चले गये और १९४७ तक शासन किया। मेहलू जिला मुख्यालय से 41 किलोमीटर दूर मेहलू गांव स्थिति है यहां धर्मपुरी जी का मंदिर है तथा यहां विशाल मेला भरता है सन्दर्भ श्रेणी:राजस्थान के जिले
बाड़मेर जिले का क्षेत्रफल कितना है?
28387 वर्ग किमी
1,387
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पटना (Sanskrit: पटनम्) या पाटलिपुत्र भारत के बिहार राज्य की राजधानी एवं सबसे बड़ा नगर है। पटना का प्राचीन नाम पाटलिपुत्र था[1]। आधुनिक पटना दुनिया के गिने-चुने उन विशेष प्राचीन नगरों में से एक है जो अति प्राचीन काल से आज तक आबाद है। अपने आप में इस शहर का ऐतिहासिक महत्व है। ईसा पूर्व मेगास्थनीज(350 ईपू-290 ईपू) ने अपने भारत भ्रमण के पश्चात लिखी अपनी पुस्तक इंडिका में इस नगर का उल्लेख किया है। पलिबोथ्रा (पाटलिपुत्र) जो गंगा और अरेन्नोवास (सोनभद्र-हिरण्यवाह) के संगम पर बसा था। उस पुस्तक के आकलनों के हिसाब से प्राचीन पटना (पलिबोथा) 9 मील (14.5 कि॰मी॰) लम्बा तथा 1.75 मील (2.8 कि॰मी॰) चौड़ा था। पटना बिहार राज्य की राजधानी है और गंगा नदी के दक्षिणी किनारे पर अवस्थित है। जहां पर गंगा घाघरा, सोन और गंडक जैसी सहायक नदियों से मिलती है। [2] सोलह लाख (2011 की जनगणना के अनुसार 1,683,200) से भी अधिक आबादी वाला यह शहर, लगभग 15 कि॰मी॰ लम्बा और 7 कि॰मी॰ चौड़ा है।[3][4] प्राचीन बौद्ध और जैन तीर्थस्थल वैशाली, राजगीर या राजगृह, नालन्दा, बोधगया और पावापुरी पटना शहर के आस पास ही अवस्थित हैं। पटना सिक्खों के लिये एक अत्यंत ही पवित्र स्थल है। सिक्खों के 10वें तथा अंतिम गुरु गुरू गोबिंद सिंह का जन्म पटना में हीं हुआ था। प्रति वर्ष देश-विदेश से लाखों सिक्ख श्रद्धालु पटना में हरमंदिर साहब के दर्शन करने आते हैं तथा मत्था टेकते हैं। पटना एवं इसके आसपास के प्राचीन भग्नावशेष/खंडहर नगर के ऐतिहासिक गौरव के मौन गवाह हैं तथा नगर की प्राचीन गरिमा को आज भी प्रदर्शित करते हैं। एतिहासिक और प्रशासनिक महत्व के अतिरिक्त, पटना शिक्षा और चिकित्सा का भी एक प्रमुख केंद्र है। दीवालों से घिरा नगर का पुराना क्षेत्र, जिसे पटना सिटी के नाम से जाना जाता है, एक प्रमुख वाणिज्यिक केन्द्र है। नाम पटना नाम पटनदेवी (एक हिन्दू देवी) से प्रचलित हुआ है।[5] एक अन्य मत के अनुसार यह नाम संस्कृत के पत्तन से आया है जिसका अर्थ बन्दरगाह होता है। मौर्यकाल के यूनानी इतिहासकार मेगस्थनीज ने इस शहर को पालिबोथरा तथा चीनीयात्री फाहियान ने पालिनफू के नाम से संबोधित किया है। यह ऐतिहासिक नगर पिछली दो सहस्त्राब्दियों में कई नाम पा चुका है - पाटलिग्राम, पाटलिपुत्र, पुष्पपुर, कुसुमपुर, अजीमाबाद और पटना। ऐसा समझा जाता है कि वर्तमान नाम शेरशाह सूरी के समय से प्रचलित हुआ। इतिहास मुख्य लेख: पटना का इतिहास प्राचीन पटना (पूर्वनाम- पाटलिग्राम या पाटलिपुत्र) सोन और गंगा नदी के संगम पर स्थित था। सोन नदी आज से दो हजार वर्ष पूर्व अगमकुँआ से आगे गंगा में मिलती थी। पाटलिग्राम में गुलाब (पाटली का फूल) काफी मात्रा में उपजाया जाता था। गुलाब के फूल से तरह-तरह के इत्र, दवा आदि बनाकर उनका व्यापार किया जाता था इसलिए इसका नाम पाटलिग्राम हो गया। लोककथाओं के अनुसार, राजा पत्रक को पटना का जनक कहा जाता है। उसने अपनी रानी पाटलि के लिये जादू से इस नगर का निर्माण किया। इसी कारण नगर का नाम पाटलिग्राम पड़ा। पाटलिपुत्र नाम भी इसी के कारण पड़ा। संस्कृत में पुत्र का अर्थ बेटा तथा ग्राम का अर्थ गांव होता है। पुरातात्विक अनुसंधानो के अनुसार पटना का लिखित इतिहास 490 ईसा पूर्व से होता है जब हर्यक वंश के महान शासक अजातशत्रु ने अपनी राजधानी राजगृह या राजगीर से बदलकर यहाँ स्थापित की। यह स्थान वैशाली के लिच्छवियों से संघर्ष में उपयुक्त होने के कारण राजगृह की अपेक्षा सामरिक दृष्टि से अधिक महत्वपूर्ण था क्योंकि यह युद्ध अनेक माह तक चलने वाला एक भयावह युद्ध था। उसने गंगा के किनारे सामरिक रूप से महत्वपूर्ण यह स्थान चुना और अपना दुर्ग स्थापित कर लिया। उस समय से इस नगर का इतिहास लगातार बदलता रहा है। २५०० वर्षों से अधिक पुराना शहर होने का गौरव दुनिया के बहुत कम नगरों को हासिल है। बौद्ध धर्म के प्रवर्तक गौतम बुद्ध अपने अन्तिम दिनों में यहाँ से होकर गुजरे थे। उनकी यह भविष्यवाणी थी कि नगर का भविष्य उज्जवल होगा, बाढ़ या आग के कारण नगर को खतरा बना रहेगा। आगे चल कर के महान नन्द शासकों के काल में इसका और भी विकास हुआ एवं उनके बाद आने वाले शासकों यथा मौर्य साम्राज्य के उत्कर्ष के बाद पाटलिपुत्र भारतीय उपमहाद्वीप में सत्ता का केन्द्र बन गया।[6] चन्द्रगुप्त मौर्य का साम्राज्य बंगाल की खाड़ी से अफ़गानिस्तान तक फैल गया था। मौर्य काल के आरंभ में पाटलिपुत्र के अधिकांश राजमहल लकड़ियों से बने थे, पर सम्राट अशोक ने नगर को शिलाओं की संरचना में तब्दील किया। चीन के फाहियान ने, जो कि सन् 399-414 तक भारत यात्रा पर था, अपने यात्रा-वृतांत में यहाँ के शैल संरचनाओं का जीवन्त वर्णन किया है। मेगास्थनीज़, जो कि एक यूनानी इतिहासकार और चन्द्रगुप्त मौर्य के दरबार में यूनानी शासक सिल्यूकस के एक राजदूत के नाते आया था, ने पाटलिपुत्र नगर का प्रथम लिखित विवरण दिया है उसने अपनी पुस्तक में इस शहर के विषय में एवं यहां के लोगों के बारे में भी विशद विवरण दिया है जो आज भी भारतीय इतिहास के छात्रों के लिए सन्दर्भ के रूप में काम आता है। शीघ्र ही पाटलीपुत्र ज्ञान का भी एक केन्द्र बन गया। बाद में, ज्ञान की खोज में कई चीनी यात्री यहाँ आए और उन्होने भी यहां के बारे में अपने यात्रा-वृतांतों में बहुत कुछ लिखा है। मौर्यों के पश्चात कण्व एवं शुंगो सहीत अनेक शासक आये लेकिन इस नगर का महत्व कम नहीं हुआ। इसके पश्चात नगर पर गुप्त वंश सहित कई राजवंशों का राज रहा। इन राजाओं ने यहीं से भारतीय उपमहाद्वीप पर शासन किया। गुप्त वंश के शासनकाल को प्राचीन भारत का स्वर्ण युग कहा जाता है। पर लगातार होने वाले हुणो के आक्रमण एवं गुप्त साम्राज्य के पतन के बाद इस नगर को वह गौरव नहीं मिल पाया जो एक समय मौर्य वंश या गुप्त वंश के समय प्राप्त था। गुप्त साम्राज्य के पतन के बाद पटना का भविष्य काफी अनिश्चित रहा। 12 वीं सदी में बख़्तियार खिलजी ने बिहार पर अपना अधिपत्य जमा लिया और कई आध्यात्मिक प्रतिष्ठानों को ध्वस्त कर डाला। इस समय के बाद पटना देश का सांस्कृतिक और राजनैतिक केन्द्र नहीं रहा। मुगलकाल में दिल्ली के सत्ताधारियों ने अपना नियंत्रण यहाँ बनाए रखा। इस काल में सबसे उत्कृष्ठ समय तब आया जब शेरशाह सूरी ने नगर को पुनर्जीवित करने की कोशिश की। उसने गंगा के तीर पर एक किला बनाने की सोची। उसका बनाया कोई दुर्ग तो अभी नहीं है, पर अफ़ग़ान शैली में बना एक मस्जिद अभी भी है। मुगल बादशाह अकबर की सेना 1574 ईसवी में अफ़गान सरगना दाउद ख़ान को कुचलने पटना आया। अकबर के राज्य सचिव एवं आइने-अकबरी के लेखक अबुल फ़जल ने इस जगह को कागज, पत्थर तथा शीशे का सम्पन्न औद्योगिक केन्द्र के रूप में वर्णित किया है। पटना राइस के नाम से यूरोप में प्रसिद्ध चावल के विभिन्न नस्लों की गुणवत्ता का उल्लेख भी इन विवरणों में मिलता है। मुगल बादशाह औरंगजेब ने अपने प्रिय पोते मुहम्मद अज़ीम के अनुरोध पर 1704 में, शहर का नाम अजीमाबाद कर दिया, पर इस कालखंड में नाम के अतिरिक्त पटना में कुछ विशेष बदलाव नहीं आया। अज़ीम उस समय पटना का सूबेदार था। मुगल साम्राज्य के पतन के साथ ही पटना बंगाल के नबाबों के शासनाधीन हो गया जिन्होंने इस क्षेत्र पर भारी कर लगाया पर इसे वाणिज्यिक केन्द्र बने रहने की छूट दी। १७वीं शताब्दी में पटना अंतर्राष्ट्रीय व्यापार का केन्द्र बन गया। अंग्रेज़ों ने 1620 में रेशम तथा कैलिको के व्यापार के लिये यहाँ फैक्ट्री खोली। जल्द ही यह सॉल्ट पीटर (पोटेशियम नाइट्रेट) के व्यापार का केन्द्र बन गया जिसके कारण फ्रेंच और डच लोग से प्रतिस्पर्धा तेज हुई। बक्सर के निर्णायक युद्ध के बाद नगर इस्ट इंडिया कंपनी के अधीन चला गया और वाणिज्य का केन्द्र बना रहा। ईसवी सन 1912 में बंगाल विभाजन के बाद, पटना उड़ीसा तथा बिहार की राजधानी बना। आई एफ़ मुन्निंग ने पटना के प्रशासनिक भवनों का निर्माण किया। संग्रहालय, उच्च न्यायालय, विधानसभा भवन इत्यादि बनाने का श्रेय उन्हीं को जाता है। कुछ लोगों का मानना है कि पटना के नए भवनों के निर्माण में हासिल हुई महारथ दिल्ली के शासनिक क्षेत्र के निर्माण में बहुत काम आई। सन 1935 में उड़ीसा बिहार से अलग कर एक राज्य बना दिया गया। पटना राज्य की राजधानी बना रहा। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में नगर ने अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। नील की खेती के लिये १९१७ में चम्पारण आन्दोलन तथा 1942 का भारत छोड़ो आन्दोलन के समय पटना की भूमिका उल्लेखनीय रही है। आजादी के बाद पटना बिहार की राजधानी बना रहा। सन 2000 में झारखंड राज्य के अलग होने के बाद पटना बिहार की राजधानी पूर्ववत बना रहा। भूगोल पटना गंगा के दक्षिणी तट पर स्थित है। गंगा नदी नगर के साथ एक लम्बी तट रेखा बनाती है। पटना का विस्तार उत्तर-दक्षिण की अपेक्षा पूर्व-पश्चिम में बहुत अधिक है। नगर तीन ओर से गंगा, सोन नदी और पुनपुन नदी नदियों से घिरा है। नगर से ठीक उत्तर हाजीपुर के पास गंडक नदी भी गंगा में आ मिलती है। हाल के दिनों में पटना शहर का विस्तार पश्चिम की ओर अधिक हुआ है और यह दानापुर से जा मिला है। महात्मा गांधी सेतु जो कि पटना से हाजीपुर को जोड़ने को लिये गंगा नदी पर उत्तर-दक्षिण की दिशा में बना एक पुल है, दुनिया का सबसे लम्बा सड़क पुल है। दो लेन वाले इस प्रबलित कंक्रीट पुल की लम्बाई 5575 मीटर है। गंगा पर बना दीघा-सोनपुर रेल-सह-सड़क पुल पटना और सोनपुर को जोड़ता है।[7] समुद्रतल से ऊँचाई: 53 मीटर तापमान: गर्मी 43°C - 21°C, सर्दी 20°C - 6°C औसत वर्षा: 1,200 मिलीमीटर प्रखंड पटना जिले में 23 ब्लॉक (प्रखंड/अंचल) हैं: पटना सदर, फुलवारी शरीफ, सम्पचक, पलिगंज, फतुहा, खुसरपुर, दानीयावन, बख्तियारपुर, बर, बेल्ची, अथमलगोला, मोकामा, पांडारक, घोसवारी, बिहटा प्रखण्ड (पटना), मनेर प्रखण्ड (पटना), दानापुर प्रखण्ड (पटना), नौबतपुर, बिक्रम, मसूरी, धनारुआ , पुनपुन प्रखण्ड (पटना)।[8] जलवायु बिहार के अन्य भागों की तरह पटना में भी गर्मी का तापमान उच्च रहता है। गृष्म ऋतु में सीधा सूर्यातप तथा उष्ण तरंगों के कारण असह्य स्थिति हो जाती है। गर्म हवा से बनने वाली लू का असर शहर में भी मालूम पड़ता है। देश के शेष मैदानी भागों (यथा - दिल्ली) की अपेक्षा हलाँकि यह कम होता है। चार बड़ी नदियों के समीप होने के कारण नगर में आर्द्रता सालोभर अधिक रहती है। गृष्म ऋतु अप्रैल से आरंभ होकर जून- जुलाई के महीने में चरम पर होती है। तापमान 46 डिग्री तक पहुंच जाता है। जुलाई के मध्य में मॉनसून की झड़ियों से राहत पहुँचती है और वर्षा ऋतु का श्रीगणेश होता है। शीत ऋतु का आरंभ छठ पर्व के बाद यानी नवंबर से होता है। फरवरी में वसंत का आगमन होता है तथा होली के बाद मार्च में इसके अवसान के साथ ही ऋतु-चक्र पूरा हो जाता है। जनसांख्यिकी Historical populationYearPop.±%1807-14*312,000—1872158,000−49.4%1881170,684+8.0%1901134,785−21.0%1911136,153+1.0%1921119,976−11.9%1931159,690+33.1%1941196,415+23.0%1951283,479+44.3%1961364,594+28.6%1971475,300+30.4%1981813,963+71.3%1991956,418+17.5%20011,376,950+44.0%20111,683,200+22.2%टिप्पणी: 1814 के बाद विशाल जनसंख्या में गिरावट, कारण नदी जनित व्यापार, लगातार अस्वास्थ्यकरता और पट्टिका की महामारी। * - अनुमानित (स्रोत -[9]) पटना की जनसंख्या वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार 16,83,200 है, जो 2001 में 13,76,950 थी। जबकि पटना महानगर की जनसंख्या 2,046,652 है। जनसंख्या का घनत्व 1132 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर तथा स्त्री पुरूष अनुपात है - 882 स्त्री प्रति 1,000 पुरूष। साक्षरता की दर पुरूषों में 87.71% तथा स्त्रियों में 81.33% है।[10] पटना में अपराध की दर अपेक्षाकृत कम है। मुख्य जेल बेउर में है। पटना में कई भाषाएँ तथा बोलियाँ बोली जाती हैं। हिन्दी राज्य की आधिकारिक भाषा है तथा उर्दू द्वितीय राजभाषा है। अंग्रेजी का भी प्रयोग होता है। मगही यहाँ की स्थानीय बोली है। अन्य भाषाएँ, जो कि बिहार के अन्य भागों से आए लोगों की मातृभाषा हैं, में अंगिका, भोजपुरी, बज्जिका और मैथिली प्रमुख हैं। आंशिक प्रयोग में आनेवाली अन्य भाषाओं में बंगाली और उड़िया का नाम लिया जा सकता है। पटना के मेमन को पाटनी मेमन कहते है और उनकी भाषा मेमनी भाषा का एक स्वरूप है। जनजीवन एवं स्त्रियों की दशा पटना का मुख्य जनजीवन अंग तथा मिथिला प्रदेशों से काफी प्रभावित है। यह संस्कृति बंगाल से मिलती जुलती है। स्त्रियों का परिवार में सम्मान होता है तथा पारिवारिक निर्णयों में उनकी बात भी सुनी जाती है। यद्यपि स्त्रियां अभी तक घर के कमाऊ सदस्यों में नहीं हैं पर उनकी दशा उत्तर भारत के अन्य क्षेत्रों से अच्छी है। भ्रूण हत्या की खबरें शायद ही सुनी जाती है लेकिन कही कहीं स्त्रियों का शोषण भी होता है। शिक्षा के मामले में स्त्रियों की तुलना में पुरूषों को तरजीह मिलती है। संस्कृति पर्व-त्यौहार दीवाली, दुर्गापूजा, होली, ईद, क्रिसमस, छठ आदि लोकप्रियतम पर्वो में से है। छठ पर्व पटना ही नहीं वरन् सारे बिहार का एक प्रमुख पर्वं है जो कि सूर्य देव की अराधना के लिए किया जाता है।[12] दशहरा मुख्य लेख देखें: पटना में दशहरा दशहरा में सांस्कृतिक कार्यक्रमों की लम्बी पर क्षीण होती परम्परा है। इस परंपरा की शुरुआत वर्ष 1944 में मध्य पटना के गोविंद मित्रा रोड मुहल्ले से हुई थी। धुरंधर संगीतज्ञों के साथ-साथ बड़े क़व्वाल और मुकेश या तलत महमूद जैसे गायक भी यहाँ से जुड़ते चले गए। 1950 से लेकर 1980 तक तो यही लगता रहा कि देश के शीर्षस्थ संगीतकारों का तीर्थ-सा बन गया है पटना। डीवी पलुस्कर, ओंकार नाथ ठाकुर, भीमसेन जोशी, अली अकबर ख़ान, निखिल बनर्जी, विनायक राव पटवर्धन, पंडित जसराज, कुमार गंधर्व, बीजी जोग, अहमद जान थिरकवा, बिरजू महाराज, सितारा देवी, किशन महाराज, गुदई महाराज, बिस्मिल्ला ख़ान, हरिप्रसाद चौरसिया, शिवकुमार शर्मा ... बड़ी लंबी सूची है। पंडित रविशंकर और उस्ताद अमीर ख़ान को छोड़कर बाक़ी प्रायः सभी नामी संगीतज्ञ उन दिनों पटना के दशहरा संगीत समारोहों की शोभा बन चुके थे। 60 वर्ष पहले पटना के दशहरा और संगीत का जो संबंध सूत्र क़ायम हुआ था वह 80 के दशक में आकर टूट-बिखर गया। उसी परंपरा को फिर से जोड़ने की एक तथाकथित सरकारी कोशिश वर्ष 2006 के दशहरा के मौक़े पर हुई लेकिन नाकाम रही। खान-पान जनता का मुख्य भोजन भात-दाल-रोटी-तरकारी-अचार है। सरसों का तेल पारम्परिक रूप से खाना तैयार करने में प्रयुक्त होता है। खिचड़ी, जोकि चावल तथा दालों से साथ कुछ मसालों को मिलाकर पकाया जाता है, भी भोज्य व्यंजनों में काफी लोकप्रिय है। खिचड़ी, प्रायः शनिवार को, दही, पापड़, घी, अचार तथा चोखा के साथ-साथ परोसा जाता है। बिहार के खाद्य पदार्थों में लिटटी एवं बैंगन एवं टमाटर व आलू के साथ मिला कर बनाया गया चोखा बहुत ही प्रमुख है। विभिन्न प्रकार के सत्तूओं का प्रयोग इस स्थान की विशेष्ता है। पटना को केन्द्रीय बिहार के मिष्ठान्नों तथा मीठे पकवानों के लिए भी जाना जाता है। इनमें खाजा, मावे का लड्डू,मोतीचूर के लड्डू, काला जामुन, केसरिया पेड़ा, परवल की मिठाई, खुबी की लाई और चना मर्की एवं ठेकुआ आदि का नाम लिया जा सकता है। इन पकवानो का मूल इनके सम्बन्धित शहर हैं जो कि पटना के निकट हैं, जैसे कि सिलाव का खाजा, बाढ का मावे का लाई,मनेर का लड्डू, विक्रम का काला जामुन, गया का केसरिया पेड़ा, बख्तियारपुर का खुबी की लाई (???) का चना मर्की, बिहिया की पूरी इत्यादि उल्लेखनीय है। हलवाईयों के वंशज, पटना के नगरीय क्षेत्र में बड़ी संख्या में बस गए इस कारण से यहां नगर में ही अच्छे पकवान तथा मिठाईयां उपलब्ध हो जाते हैं। बंगाली मिठाईयों से, जोकि प्रायः चाशनी में डूबे रहते हैं, भिन्न यहां के पकवान प्रायः सूखे रहते हैं। इसके अतिरिक्त इन पकवानों का प्रचलन भी काफी है - पुआ, - मैदा, दूध, घी, चीनी मधु इत्यादि से बनाया जाता है। पिठ्ठा - चावल के चूर्ण को पिसे हुए चने के साथ या खोवे के साथ तैयार किया जाता है। तिलकुट - जिसे बौद्ध ग्रंथों में पलाला नाम से वर्णित किया गया है, तिल तथा चीनी गुड़ बनाया जाता है। चिवड़ा या च्यूरा' - चावल को कूट कर या दबा कर पतले तथा चौड़ा कर बनाया जाता है। इसे प्रायः दही या अन्य चाजो के साथ ही परोसा जाता है। मखाना - (पानी में उगने वाली फली) इसकी खीर काफी पसन्द की जाती है। सत्तू - भूने हुए चने को पीसने से तैयार किया गया सत्तू, दिनभर की थकान को सहने के लिए सुबह में कई लोगों द्वारा प्रयोग किया जाता है। इसको रोटी के अन्दर भर कर भी प्रयोग किया जाता है जिसे स्थानीय लोग मकुनी रोटी कहते हैं। लिट्टी-चोखा - लिट्टी जो आंटे के अन्दर सत्तू तथा मसाले डालकर आग पर सेंकने से बनता है, को चोखे के साथ परोसा जाता है। चोखा उबले आलू या बैंगन को गूंथने से तैयार होता है। आमिष व्यंजन भी लोकप्रिय हैं। मछली काफी लोकप्रिय है और मुग़ल व्यंजन भी पटना में देखे जा सकते हैं। अभी हाल में कॉन्टिनेन्टल खाने भी लोगों द्वारा पसन्द किये जा रहे हैं। कई तरह के रोल, जोकि न्यूयॉर्क में भी उपलब्ध हैं, का मूल पटना ही है। विभाजन के दौरान कई मुस्लिम परिवार पाकिस्तान चले गए और बाद में अमेरिका। अपने साथ -साथ वो यहां कि संस्कृति भी ले गए। वे कई शाकाहारी तथा आमिष रोलों रोल-बिहारी नाम से, न्यूयार्क में बेचते हैं। इस स्थान के लोग खानपान के विषय में अपने बड़े दिल के कारण मशहूर हैं। यातायात सड़क परिवहन राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या 31 तथा 19 नगर से होकर गुजरता है। राज्य की राजधानी होने से पटना बिहार के सभी प्रमुख शहरों से सड़क मार्ग द्वारा जुड़ा है। बिहार के सभी जिला मुख्यालय तथा झारखंड के कुछ शहरों के लिए नियमित बस-सेवा यहाँ से उपलब्ध है। गंगा नदी पर बने महात्मा गांधी सेतु के द्वारा पटना हाजीपुर से जुड़ा है। रेल परिवहन भारतीय रेल के पर पटना एक महत्वपूर्ण जंक्शन है। भारतीय रेल द्वारा राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली के अतिरिक्त यहाँ से मुम्बई, चेन्नई, कोलकाता, अहमदाबाद, जम्मू, अमृतसर, गुवाहाटी तथा अन्य महत्वपूर्ण शहरों के लिए सीधी ट्रेनें उपलब्ध है।[13] पटना देश के अन्य सभी महत्वपूर्ण शहरों से रेलमार्ग द्वारा जुड़ा है। पटना से जाने वाले रेलवे मार्ग हैं- पटना-मोकामा, पटना-मुगलसराय' तथा पटना-गया। यह पूर्व रेलवे के दिल्ली-हावड़ा मुख्य मार्ग पर स्थित है। वर्ष 2003 में दीघा-सोनपुर रेल-सह-सड़क पुल का निर्माण कार्य शुरू हुआ था। इसके 13 वर्ष बाद तीन फरवरी, 2016 से इस पर ट्रेन परिचालन शुरू किया गया।[14] हवाई परिवहन पटना के अंतरराष्ट्रीय हवाई पट्टी का नाम लोकनायक जयप्रकाश नारायण हवाई अड्डा है और यह नगर के पश्चिमी भाग में स्थित है। भारतीय विमानपत्तन प्राधिकरण द्वारा संचालित लोकनायक जयप्रकाश हवाईक्षेत्र, पटना (IATA कोड- PAT) अंतर्देशीय तथा सीमित अन्तर्राष्ट्रीय उड़ानों के लिए बना है। air india, जेटएयर, स्पाइसजेट तथा इंडिगो की उडानें दिल्ली, रांची, कलकत्ता, मुम्बई तथा कुछ अन्य नगरों के लिए नियमित रूप से उपलब्ध है। जल परिवहन पटना शहर १६८० किलोमीटर लंबे इलाहाबाद-हल्दिया राष्ट्रीय जलमार्ग संख्या-१ पर स्थित है। गंगा नदी का प्रयोग नागरिक यातायात के लिए हाल तक किया जाता था पर इसके ऊपर पुल बन जाने के कारण इसका महत्व अब भारवहन के लिए सीमित रह गया है। देश का एकमात्र राष्ट्रीय अंतर्देशीय नौकायन संस्थान पटना के गायघाट में स्थित है। स्थानीय परिवहन - पटना शहर का सार्वजनिक यातायात मुख्यतः सिटी बसों, ऑटोरिक्शा और साइकिल रिक्शा पर आश्रित है। लगभग ३० किलोमीटर लंबे और ५ किलोमीटर चौड़े राज्य की राजधानी के यातायात की ज़रुरतें मुख्यरूप से ऑटोरिक्शा (जिसे टेम्पो भी कहा जाता है) ही पूरा करती हैं। स्थानीय भ्रमण हेतु टैक्सी सेवा उपलब्ध है, जो निजी मालिकों द्वारा संचालित मंहगा साधन है। नगर बस सेवा कुछ इलाको के लिए उपलब्ध है पर उनकी सेवा और समयसारणी भरोसे के लायक नहीं है। नगर का मुख्य मार्ग अशोक राजपथ टेम्पो, साइकिल-रिक्शा तथा निजी दोपहिया और चौपहिया वाहनों के कारण हमेशा जाम का शिकार रहता है। आर्थिक स्थिति प्राचीन काल में व्यापार का केन्द्र रहे इस शहर में अब निर्यात करने लायक कम उपादान ही बनते हैं, हंलांकि बिहार के अन्य हिस्सों में पटना के पूर्वी पुराने भाग (पटना सिटी) निर्मित माल की मांग होने के कारण कुछ उद्योग धंधे फल फूल रहे हैं। वास्तव में ब्रिटिश काल में इस क्षेत्र में पनपने वाले पारंपरिक उद्योगों का ह्रास हो गया एवं इस प्रदेश को सरकार के द्वारा अनुमन्य फसल ही उगानी पड़ती थी इसका बहुत ही प्रतिकूल प्रभाव इस प्रदेश की अर्थव्यवस्था पर पड़ा| आगे चल कर के इस प्रदेश में होने वाले अनेक विद्रोहों के कारण भी इस प्रदेश की तरफ से सरकारी ध्यान हटता गया एवं इस प्रकार यह क्षेत्र अत्यंत ही पिछड़ता चला गया। आगे चल कर के स्वतंत्रता संग्राम के समय होने वाले किसान आंदोलन ने नक्सल आंदोलन का रूप ले लिया एवं इस प्रकार यह भी इस प्रदेश की औद्योगिक विकास के लिए घातक हो गया एवं आगे चल कर के युवाओं का पलायन आरंभ हो गया। दर्शनीय स्थल सभ्यता द्वार - बिहार में पटना शहर में गंगा नदी के तट पर स्थित एक बलुआ पत्थर आर्क स्मारक है। सभ्यता द्वार को मौर्य-शैली वास्तुकला के साथ बनाया गया है जिसमें बिहार राज्य की पाटलिपुत्र और परंपराओं और संस्कृति की प्राचीन महिमा दिखाने के उद्देश्य से बनाया गया है। पटना तारामंडल- पटना के इंदिरा गांधी विज्ञान परिसर में स्थित है। अगम कुँआ – मौर्य वंश के शासक सम्राट अशोक के काल का एक कुआँ गुलजा़रबाग स्टेशन के पास स्थित है। पास ही स्थित एक मन्दिर स्थानीय लोगों के शादी-विवाह का महत्वपूर्ण स्थल है। कुम्रहार - चंद्रगुप्त मौर्य, बिन्दुसार तथा अशोक कालीन पाटलिपुत्र के भग्नावशेष को देखने के लिए यह सबसे अच्छी जगह है। कुम्रहार परिसर भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग द्वारा संरक्षित तथा संचालित है और सोमवार को छोड़ सप्ताह के हर दिन १० बजे से ५ बजे तक खुला रहता है। क़िला हाउस (जालान हाउस) दीवान बहादुर राधाकृष्ण जालान द्वारा शेरशाह के किले के अवशेष पर निर्मित इस भवन में हीरे जवाहरात तथा चीनी वस्तुओं का एक निजी संग्रहालय है। तख्त श्रीहरमंदिर पटना सिखों के दसमें और अंतिम गुरु गोविन्द सिंह की जन्मस्थली है। नवम गुरु श्री तेगबहादुर के पटना में रहने के दौरान गुरु गोविन्दसिंह ने अपने बचपन के कुछ वर्ष पटना सिटी में बिताए थे। बालक गोविन्दराय के बचपन का पंगुरा (पालना), लोहे के चार तीर, तलवार, पादुका तथा 'हुकुमनामा' यहाँ गुरुद्वारे में सुरक्षित है। यह स्थल सिक्खों के लिए अति पवित्र है। महावीर मन्दिर संकटमोचन रामभक्त हनुमान मन्दिर पटना जंक्शन के ठीक बाहर बना है। न्यू मार्किट में बने मस्जिद के साथ खड़ा यह मन्दिर हिंदू-मुस्लिम एकता का प्रतीक है। गांधी मैदान वर्तमान शहर के मध्यभाग में स्थित यह विशाल मैदान पटना का दिल है। जनसभाओं, सम्मेलनों तथा राजनीतिक रैलियों के अतिरिक्त यह मैदान पुस्तक मेला तथा दैनिक व्यायाम का भी केन्द्र है। इसके चारों ओर अति महत्वपूर्ण सरकारी इमारतें और प्रशासनिक तथा मनोरंजन केंद्र बने हैं। गोलघर 1770 ईस्वी में इस क्षेत्र में आए भयंकर अकाल के बाद अनाज भंडारण के लिए बनाया गया यह गोलाकार ईमारत अपनी खास आकृति के लिए प्रसिद्ध है। 1786 ईस्वी में जॉन गार्स्टिन द्वारा निर्माण के बाद से गोलघ‍र पटना शहर क प्रतीक चिह्न बन गया। दो तरफ बनी सीढियों से ऊपर जाकर पास ही बहनेवाली गंगा और इसके परिवेश का शानदार अवलोकन संभव है। गाँधी संग्रहालय गोलघर के सामने बनी बाँकीपुर बालिका उच्च विद्यालय के बगल में महात्मा गाँधी की स्मृतियों से जुड़ी चीजों का नायाब संग्रह देखा जा सकता है। हाल में इसी परिसर में नवस्थापित चाणक्य राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालय का अध्ययन केंद्र भी अवलोकन योग्य है। श्रीकृष्ण विज्ञान केंद्र गाँधी मैदान के पश्चिम भाग में बना विज्ञान परिसर स्कूली शिक्षा में लगे बालकों के लिए ज्ञानवर्धक केंद्र है। पटना संग्रहालय जादूघर के नाम से भी जानेवाले इस म्यूज़ियम में प्राचीन पटना के हिन्दू तथा बौद्ध धर्म की कई निशानियां हैं। लगभग ३० करोड़ वर्ष पुराने पेड़ के तने का फॉसिल यहाँ का विशेष धरोहर है। ताराघर संग्रहालय के पास बना इन्दिरा गाँधी विज्ञान परिसर में बना ताराघर देश में वृहत्तम है। ख़ुदाबख़्श लाईब्रेरी अशोक राजपथ पर स्थित यह राष्ट्रीय पुस्तकालय 1891 में स्थापित हुआ था। यहाँ कुछ अतिदुर्लभ मुगल कालीन पांडुलपियां हैं। सदाक़त आश्रम - देशरत्न राजेन्द्र प्रसाद की कर्मभूमि। संजय गांधी जैविक उद्यान - राज्यपाल के सरकारी निवास राजभवन के पीछे स्थित जैविक उद्यान शहर का फेफड़ा है। विज्ञानप्रेमियों के लिए ‌यह जन्तु तथा वानस्पतिक गवेषणा का केंद्र है। व्यायाम करनेवालों तथा पिकनिक के लिए यह् पसंदीदा स्थल है। दरभंगा हाउस इसे नवलखा भवन भी कहते हैं। इसका निर्माण दरभंगा के महाराज कामेश्वर सिंह ने करवाया था। गंगा के तट पर अवस्थित इस प्रासाद में पटना विश्वविद्यालय के स्नातकोत्तर विभागों का कार्यालय है। इसके परिसर में एक काली मन्दिर भी है जहां राजा खुद अर्चना किया करते थे। बेगू हज्जाम की मस्जिद सन् 1489 में बंगाल के शासक अलाउद्दीन शाह द्वारा निर्मित 'पत्थर की मस्जिद - जहाँगीर के पुत्र शाह परवेज़ द्वारा 1621 में निर्मित यह छोटी सी मस्जिद अशोक राजपथ पर सुलतानगंज में स्थित है। शेरशाह की मस्जिद अफगान शैली में बनी यह मस्जिद बिहार के महान शासक शेरशाह सूरी द्वारा 1540-1545 के बीच बनवाई गयी थी। पटना में बनी यह सबसे बड़ी मस्जिद है। पादरी की हवेली - सन 1772 में निर्मित बिहार का प्राचीनतम चर्च बंगाल के नवाब मीर कासिम तथा ब्रिटिस ईस्ट इंडिया कंपनी के बीच की कड़वाहटों का गवाह है। पटना के आसपास बिहार शरीफ आरा बोध गया वैशाली नालंदा पावापुरी राजगीर हाजीपुर मनेर बिक्रम मनेर तेलपा नौबतपुर *दुल्हिनबजार *पालीगंज *मसौढी शिक्षा साठ और सत्तर के दशक में अपने गौरवपूर्ण शैक्षणिक दिनों के बाद स्कूली शिक्षा ही अब स्तर की है। पटना में प्रायः बिहार बोर्ड तथा सीबीएसई के स्कूल हैं। अनुग्रह नारायण सिंह कॉलेज पटना का नामी कालेज है। इसने शिक्षा के क्षेत्र में बिहार का नाम विदेशों तक मशहुर किया। हाल में ही बिहार कॉलेज ऑफ़ इंजीनियरिंग को एनआईटी का दर्जा मिला है। पटना विश्वविद्यालय, मगध विश्वविद्यालय तथा नालन्दा मुक्त विश्वविद्यालय - ये तीन विश्वविद्यालय हैं जिनके शिक्षण संस्थान नगर में स्थित हैं। हाल ही में पटना में प्रबंधन, सूचना तकनीक, जनसंचार एवं वाणिज्य की पढ़ाई हेतु 'कैटलिस्ट प्रबंधन एवं आधुनिक वैश्विक उत्कृष्टता संस्थान' अर्थात सिमेज कॉलेज की स्थापना की गयी है, जो उच्च शिक्षा के क्षेत्र में नित नए मानदंड स्थापित कर रहा है। इन्हें भी देखें लोकनायक जयप्रकाश विमानक्षेत्र पटना जंक्शन रेलवे स्टेशन महत्वपूर्ण (उल्लेखनीय) लोग सुशांत सिंह राजपूत सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ श्रेणी:बिहार के शहर श्रेणी:बिहार के जिले *
पटना का क्षेत्रफल कितना है?
15 कि॰मी॰ लम्बा और 7 कि॰मी॰ चौड़ा है
820
hindi
c232306d4
यह लेख या कुछ अंश अपनी मूल भाषा में है, जिससे कि इन तथ्यों की मौलिकता बनी रहे। कृपया इसे अनुवाद करने का प्रयास न करें, या पहले संवाद पृष्ठ पर चर्चा करके फिर सुधार करें। 'अन्तराष्ट्रीय मानकीकरण संगठन (फ्रेंच में Organisation internationale de normalisation), जिसे अधिकतर ISO कहा जाता है, विभिन्न राष्ट्रों के मानक संगठनों के प्रतिनिधियों से गठित एक अन्तर्राष्ट्रीय मानक-विन्यास संस्था है। इसकी स्थापना 23 फरवरी, 1947 को हुई थी, विश्वव्यापी औद्योगिक एवं वाणिज्यिक मानकों को घोषित करने हेतु। इसका मुख्यालय जेनेवा, स्विट्जरलैंड में स्थित है।[1] यद्यपि ISO स्वयं को एक गैर सरकारी संगठन कहता है, इसकी मानक स्थापित करने की क्षमता, जो कि प्राय्ः विधि बन जाते हैं, या तो समझौतों के द्वारा, या फिर राष्ट्रीय मान; यह इसको गैर सरकारी संगठनों से अधिक शक्तिशाली बनाता है। वैसे व्यवहार में यह एक संकाय या अल्पकालीन संगठन जैसे कार्यरत है, जिसकी सरकारों से मजबूत कङियाँ हैं।.[1] नाम एवं संक्षेपाक्षर इस संगठन का लोगो या चिह्न दो आधिकारिक भाषाओं में है अमरीकी अँग्रेजी एवं फ्रेंच। इसमें ISO अक्षर भी सम्मिलित हैं, जिनसे यह प्रायः जाना जाता है, जो कि इसकी संक्षिप्ति है। बल्कि यह संक्षिप्ति यूनानी/ग्रीक शब्द ἴσος (isos) से बना है, जिसका अर्थ है बराबर। यह मानते हुए कि संगठन का भिन्न भाषाओं में भिन्न संक्षिप्ति बनेगी, यह तय किया कि एक सर्वव्यापी सर्वमान्य नाम ISO ही चलाया जाए। यह स्वयं में इस संगठन का उद्देश्य सिद्ध करता है।[2][3] अन्तर्राष्ट्रीय मानक एवं अन्य प्रकाशन ISO के मुख्य उत्पाद हैं अन्तर्राष्ट्रीय मानक। ISO द्वारा ही प्रकाशित हैं: तकनीकी रिपोर्ट, तकनीकी विशेषीकरण (Specifications), सार्वजनिक उपलब्ध विशेषीकरण, तकनीकी शुद्धिपत्र (Corrigenda), एवं and पथप्रदर्शक.[4] अन्तर्राष्ट्रीय मानक का रूपाकार होता है ISO[/IEC][/ASTM] [IS] nnnnn[:yyyy] शीर्षक्, जहाँ nnnnn है मानक संख्या, yyyy है प्रकाशन का वर्ष, एवं शीर्षक् बताता है विषय. यदि मानक संयुक्त तकनीकी समिति JTC1 के कार्य का परिणाम है, तो IEC भी सम्मिलित किया जाता है। ASTM International के सहयोग से विकसित मानकों में ASTM को भी सम्मिलित किया जाता है। दिनाँक एवं IS का प्रयोग अपूर्ण या अप्रकाशित मानकों के लिए अप्रयोगनीय है, एवं कुछ परिस्थितियों में प्रकाशित कार्य का शीर्षक भी छोङा जा सकता है। तकनीकी रिपोर्ट जारी होती है, जब कोई तकनीकी समिति या उप-समिति ने सामान्यतया प्रकाशित अन्तर्राष्ट्रीय मानक से भिन्न प्रकार का कोई आंकङा संग्रहीत किया हो,[4] जैसे कि संदर्भ या व्याख्याएं। इनकी नामकरण प्रथा मानकों की भांति ही है, केवल TR लगाया जाता है IS के स्थान पर, रिपोर्ट के नाम से पहले। उदाहरणतः ISO/IEC TR 17799:2000 Code of Practice for Information Security Management ISO/TR 19033:2000 Technical product documentation — Metadata for construction documentation तकनीकी विशेषीकरण को तब रचित किया जा सकता है, जबकि "सम्बंधित विषय अभी भी विकास की स्थिति में ही है, या किसी अन्य कारणवश भविष्य में (तत्काल नहीं) किसी अन्तर्राष्ट्रीय मानक को प्रकाशित करने की सहमति की सम्भावना होती है" (the subject in question is still under development or where for any other reason there is the future but not immediate possibility of an agreement to publish an International Standard)। सार्वजनिक उपलब्ध विशेषीकरण कोई "मध्यवर्ती विशेषीकरण हो सकते हैं, जो कि पूर्ण अन्तर्राष्ट्रीय मानक के विकास से पूर्व ही प्रकाशित हुआ हो" (an intermediate specification, published prior to the development of a full International Standard), या, IEC में 'द्विचिह्न' ('dual logo') प्रकाशन, जो कि किसी बाहरी संगठन के सहयोग से प्रकाशित हुआ हो "[4] दोनों के ही नामकरण तकनीकी रिपोर्ट की भांति ही किया जाता है। उदाहरणतः ISO/TS 16952-1:2006 Technical product documentation — Reference designation system — Part 1: General application rules ISO/PAS 11154:2006 Road vehicles — Roof load carriers ISO कभी कभी तकनीकी/पारिभाषिक शुद्धिपत्र (Technical Corrigendum) भी जारी करता है। ये वर्तमान मानकों के संशोधन होते हैं, जो कि क्षुद्र तकनीकी/पारिभाषिक त्रुटियों, प्रयोगनीयता सुधार या सीमित तरीके से प्रयोज्यता बढाने हेतु किए जाते हैं। प्रायः इन्हें इस आशा के साथ जारी किया जात है कि प्रभावित मानक यातो उद्धृत या वापस लिया जाएगा, अपने अगले अनुसूचना पनरावलोकन तक।[4] ISO पथ-प्रदर्शक अर्ध-मानक होते हैं, अन्तर्राष्ट्रीय मानकीकरण से सम्बंधित विषयों को लिए हुए।[4] इन का नामकरण "ISO[/IEC] Guide N:yyyy: शीर्षक" में होता है, उदाहरणतः ISO/IEC Guide 2:2004 Standardization and related activities — General vocabulary ISO/IEC Guide 65:1996 General requirements for bodies operating product certification ISO प्रलेख प्रकाशनाधिकार ISO प्रलेख प्रकाशनाधिकार सुरक्षित होते हैं, एवं ISO अधिकतर की प्रतियों का मूल्य लेता है। वैसे अधिकतर के मूल्य केवल इलैक्ट्रॉनिक रूपाकार में ही लिए जाते हैं। यद्यपि उपयोगी, परंतु इन प्रलेखों को प्रयोग करते हुए यह ध्यानयोग्य है, कि इनकी प्रचुर मात्रा में भी परिवर्तन की संभावना है, इससे पहले कि यह मानक ही नाअ बन जाए। ISO एवं इसके आधिकारिक संयुक्त राज्य प्रतिनिधि एवं अन्तर्राष्ट्रीय विद्युततकनीकी आयोग (International Electrotechnical Commission) द्वारा कुछ मानक नि:शुल्क उपलब्ध कराए जाते हैं।[5][6] सदस्य ISO के 157 राष्ट्रीय सदस्य हैं,[7] out of the 195 total countries in the world. ISO की तीन सदस्यता श्रेणियाँ हैं: सदस्य संस्थाएं वे राष्ट्रीय संस्थाएं हैं, जो कि प्रत्येक देश में सर्वाधिक प्रतिनिधित्व मानक संस्था मानी जाती हैं। केवल इन सदस्यों को मतदान का अधिकार है। प्रतिनिधि सदस्य वे राष्ट्र हैं, जिनका अपना कोई मानक संगठन नहीं है। इन सदस्यों को ISO की गतिविधियों से सुविज्ञ रखा जाता है, परंतु ये मानक प्रख्यापन, या प्रवर्तन में भाग नहीं लेते। अंशदाता या उपभोक्ता सदस्य छोटी अर्थव्यवस्था वाले वे राष्ट्र हें, जो घटी सदस्यता शुल्क देते हैं, परंतु मानकों के विकास का अनुसरण कर सकते हैं। भागीदार सदस्य "P" या पी सदस्य कहलाते हैं, जबकि अनुपालन करने वाले "O" या ओ सदस्य कहलाते हैं। ISO के नाम पर उत्पाद इस तथ्य ने, कि कई ISO-सृजित मानक सर्वगत, सर्वव्यापी हैं; कई मौकों पर, "ISO" का सामान्य प्रयोग प्रेरित किया है, उस उत्पाद को वर्णित करने हेतु, जो कि मानकों को मानता है। इसके कई उदाहरण हैं: सी डी की प्रतियाँ, file extension "ISO" में लिखीं होती हैं, यह दिखाने हेतु कि वे ISO 9660 मानक filesystem संचिका प्रणाली प्रयोग कर रहे हैं, अन्य की अपेक्षा, अतएव CD images को प्रायः "ISOs" कहा जाता है। जहाँ तक है, सभी कम्प्यूटर CD-ROM सीडी रोम के संग CD को पङ सकते हैं, जो कि यह मानक प्रयोग करती हैं। कुछ DVD-ROMs जो हैं, वे ISO 9660 filesystems भी प्रयोग करती हैं। फोटोग्राफिक फिल्म की प्राकाशिक संवेदनशीलता, उसकी फिल्म गति को अंकित किया जाता है ISO 5800:1987 में। इसलिए फिल्म गति को भी प्रायः उसका "ISO नंबर."कहा जाता है। ISO/IEC संयुक्त तकनीकी समिति 1 मानकीकरण के क्षेत्रों में, प्रचुर आच्छादन के परिणामों से, एवं सूचना प्रौद्योगिकि से संबंधित कर्यों से, निबटने हेतु; ISO एवं IEC या अन्तर्राष्ट्रीय विद्युततकनीकी आयोग से एक संयुक्त तकनीकी समिति गठित कीजिसे ISO/IEC JTC1 के नम से जाना जाता है। यह एसी प्रथम समिति है, एवं आजतक एक ही है। इसका आधिकारिक आदेश है, विश्वव्यापी बाजारों में व्यापार एवं उपयोक्ता की आवश्यकताओं हेतु, IT मानकों का विकास, अनुरक्षण, प्रचार करना। इसका मूल अंग्रेजी़ पाठ, वर्ता पॄशःठ पर उपलब्ध है। सूचना-प्रौद्योगिकी और उपकरणों की अभिकल्पना और विकास सूचना और प्रौद्योगिकी उत्पादों और प्रणालियों का निष्पादन और गुणवत्ता सूचना प्रौद्योगिकी प्रणालियों और सूचनाओं की सुरक्षा अनुप्रयोग प्रोग्रामों की सुबाह्यता सूचना और प्रौद्योगिकी उत्पादों और प्रणालियों की अन्तर्कार्योत्पादकता एकीकॄत उपकरण और वातावरण सामंजस्यपूर्ण सूचना प्रौद्योगिकी शब्दावली और उपयोक्ता-सहयोगी और श्रमदक्षतापूर्वक अभिकल्पित उपयोक्ता अन्तराफ़लक वर्तमान में 18 उप-समितियाँ हैं:- SC 02 - कूटिकॄत वर्ण समूह SC 06 - प्रणालियों के बीच दूरसंचार और सूचना आदान प्रदान SC 07 - सॉफ्ट्वेयर और प्रणाली अभियाँत्रिकी SC 17 - कार्ड्स और वैयक्तिक पहचान SC 22 - प्रोग्रामिंग भाषाएं, उनके वातावरण और प्रणाली सॉफ्ट्वेयर अन्तर्फलक SC 23 - अपनेय डिजिटल भण्डारण, माध्यम, जो कि ऑप्टिकल अओर/या चुम्बकीय लेखन का प्रयोग करता है SC 24 - कम्प्यूटर ग्राफ़िक्स और चित्र प्रक्रमण SC 25 - Interconnection of Information Technology Equipment SC 27 - IT Security Techniques SC 28 - Office Equipment SC 29 - Coding of Audio, Picture, and Multimedia and Hypermedia Information SC 31 - Automatic Identification and Data Capture Techniques SC 32 - Data Management and Interchange SC 34 - Document Description and Processing Languages SC 35 - User Interfaces SC 36 - Information Technology for Learning, Education, and Training SC 37 - Biometrics ISO/IEC JTC1 की सदस्यता बिलकुल व लगभग अपने दोनों मूल संगठनों की भांति ही प्रतिबंधित है। एक सदस्य या तो भागीदार (P) या प्रेक्षक (O) हो सकता है। दोनों में केवल प्रस्तावित मानकों एवं अन्य उत्पादों पर मतदान की क्षमता का ही भेद है। किसी सदस्य संस्था के लिए किसी या प्रत्येक उप-समिति पर स्तर/राय बनाए रखने की, कोई आवश्यकता नहीं है। यद्यपि यदा-कदा, परंतु नई परिअस्थितियों (SC 37 जो कि 2002 में अनुमोदित हुई थी) से सामना करने हेतु उप-समितियाँ गठित की जा सकती हैं, या भंग भी की जा सकती हैं, यदि उनका कार्य क्षेत्र अब लागू नहीं है। IWA प्रलेख ISO/TS जैसे, अंतरराष्ट्रीय कार्यशाला समझौता International Workshop Agreement (IWA) भी ISO का एक और शस्त्रागार है, जो कि उन क्षेत्रों में, जहाँ तकनीकी संरचना एवं निपुणता अभी नहीं पहुँची है; वहाँ मानकीकरण की आवश्यकताओं पर त्वरित प्रतिक्रिया उपलब्ध कराता है। यह उपयोगिता विश्वव्यापी तकनीकी अत्यावश्यकता को भरण करती है। इन्हें भी देखें अन्तर्राष्ट्रीय मानकीकरण संगठन में राष्ट्र भारतीय मानक ब्यूरो (BIS) (ANSI) ब्रिटिश मानक यूरोपियन मानकीकरण समिति (CEN) अन्तराष्ट्रीय मानक वर्गीकरण अन्तर्राष्ट्रीय विद्युततकनीकी आयोग (IEC) and ISO/IEC standards. अन्तर्राष्ट्रीय दूरसंचार संघ (ITU) ISO A4 ISO country code ISO मानकों की सूची मानकीकरण मानक संगठन अन्तर्राष्ट्रीय नागर विमानन संगठन सन्दर्भ बाहरी कङियाँ (free access to the catalogue of standards only, not to the contents) (free access to a small subset of the standards) (search engine by/on ISO) श्रेणी:ISO श्रेणी:ISO मानक श्रेणी:मानक संगठन श्रेणी:1947 में गठित संगठन
अंतरराष्ट्रीय मानकीकरण संगठन की स्थापना किस वर्ष में हुई थी?
1947
411
hindi
9b04631cf
Main Page खामोशियाँ एक भारतीय बॉलीवुड फिल्म है, जिसका निर्देशन करन दर्रा ने किया और महेश भट्ट व मुकेश भट्ट इसके निर्माता हैं। यह ३० जनवरी २०१५ को सिनेमाघर में प्रदर्शित होगी। इसके गाने को १० दिसम्बर २०१४ में दिखाया और सुनाया गया। कलाकार गुर्मीत चौधरी अली फज़ल सपना पबबी निर्माण इसके मुख्य किरदारों गुर्मीत चौधरी अली फज़ल और सपना पबबी को २०१४ के मध्य चुना गया। इसके बाद गुर्मीत चौधरी ने बताया की वे इस फिल्म में एक नकारात्मक भूमिका में दिखाई देंगे।[2] सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ at IMDb श्रेणी:2015 में बनी हिन्दी फ़िल्म
खामोशियां फिल्म कब रिलीज़ हुई थी?
३० जनवरी २०१५
129
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6c518f0a8
किसन बाबूराव हजारे (जन्म: १५ जून १९३७) एक भारतीय समाजसेवी हैं। अधिकांश लोग उन्हें अन्ना हजारे के नाम से जानते हैं। सन् १९९२ में भारत सरकार द्वारा उन्हें पद्मभूषण से सम्मानित किया गया था। सूचना के अधिकार के लिये कार्य करने वालों में वे प्रमुख थे। जन लोकपाल विधेयक को पारित कराने के लिये अन्ना ने १६ अगस्त २०११ से आमरण अनशन आरम्भ किया था। आरंभिक जीवन अन्ना हजारे का जन्म १५ जून १९३७ को महाराष्ट्र के अहमदनगर के रालेगन सिद्धि गाँव के एक मराठा किसान परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम बाबूराव हजारे और माँ का नाम लक्ष्मीबाई हजारे था।[1] उनका बचपन बहुत गरीबी में गुजरा। पिता मजदूर थे तथा दादा सेना में थे। दादा की तैनाती भिंगनगर में थी। वैसे अन्ना के पूर्वंजों का गाँव अहमद नगर जिले में ही स्थित रालेगन सिद्धि में था। दादा की मृत्यु के सात वर्षों बाद अन्ना का परिवार रालेगन आ गया। अन्ना के छह भाई हैं। परिवार में तंगी का आलम देखकर अन्ना की बुआ उन्हें मुम्बई ले गईं। वहाँ उन्होंने सातवीं तक पढ़ाई की। परिवार पर कष्टों का बोझ देखकर वे दादर स्टेशन के बाहर एक फूल बेचनेवाले की दुकान में ४० रुपये के वेतन पर काम करने लगे। इसके बाद उन्होंने फूलों की अपनी दुकान खोल ली और अपने दो भाइयों को भी रालेगन से बुला लिया। व्यवसाय वर्ष १९६२ में भारत-चीन युद्ध के बाद सरकार की युवाओं से सेना में शामिल होने की अपील पर अन्ना १९६३ में सेना की मराठा रेजीमेंट में ड्राइवर के रूप में भर्ती हो गए। अन्ना की पहली नियुक्ति पंजाब में हुई। १९६५ में भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान अन्ना हजारे खेमकरण सीमा पर नियुक्त थे। १२ नवम्बर १९६५ को चौकी पर पाकिस्तानी हवाई बमबारी में वहाँ तैनात सारे सैनिक मारे गए। इस घटना ने अन्ना के जीवन को सदा के लिए बदल दिया। इसके बाद उन्होंने सेना में १३ और वर्षों तक काम किया। उनकी तैनाती मुंबई और कश्मीर में भी हुई। १९७५ में जम्मू में तैनाती के दौरान सेना में सेवा के १५ वर्ष पूरे होने पर उन्होंने स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति ले ली। वे पास के गाँव रालेगन सिद्धि में रहने लगे और इसी गाँव को उन्होंने अपनी सामाजिक कर्मस्थली बनाकर समाज सेवा में जुट गए। सामाजिक कार्य १९६५ के युद्ध में मौत से साक्षात्कार के बाद नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर उन्होंने स्वामी विवेकानंद की एक पुस्तक 'कॉल टु दि यूथ फॉर नेशन' खरीदी। इसे पढ़कर उनके मन में भी अपना जीवन समाज को समर्पित करने की इच्छा बलवती हो गई। उन्होंने महात्मा गांधी और विनोबा भावे की पुस्तकें भी पढ़ीं। १९७० में उन्होंने आजीवन अविवाहित रहकर स्वयं को सामाजिक कार्यों के लिए पूर्णतः समर्पित कर देने का संकल्प कर लिया। रालेगन सिद्धि मुम्बई पदस्थापन के दौरान वह अपने गाँव रालेगन आते-जाते रहे। वे वहाँ चट्टान पर बैठकर गाँव को सुधारने की बात सोचा करते थे। १९७८ में स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति लेकर रालेगन आकर उन्होंने अपना सामाजिक कार्य प्रारंभ कर दिया। इस गाँव में बिजली और पानी की ज़बरदस्त कमी थी। अन्ना ने गाँव वालों को नहर बनाने और गड्ढे खोदकर बारिश का पानी इकट्ठा करने के लिए प्रेरित किया और स्वयं भी इसमें योगदान दिया। अन्ना के कहने पर गाँव में जगह-जगह पेड़ लगाए गए। गाँव में सौर ऊर्जा और गोबर गैस के जरिए बिजली की सप्लाई की गई। उन्होंने अपनी ज़मीन बच्चों के हॉस्टल के लिए दान कर दी और अपनी पेंशन का सारा पैसा गाँव के विकास के लिए समर्पित कर दिया। वे गाँव के मंदिर में रहते हैं और हॉस्टल में रहने वाले बच्चों के लिए बनने वाला खाना ही खाते हैं। आज गाँव का हर शख्स आत्मनिर्भर है। आस-पड़ोस के गाँवों के लिए भी यहाँ से चारा, दूध आदि जाता है। यह गाँव आज शांति, सौहार्द्र एवं भाईचारे की मिसाल है। महाराष्ट्र भ्रष्टाचार विरोधी जन आंदोलन १९९१ १९९१ में अन्ना हजारे ने महाराष्ट्र में शिवसेना-भाजपा की सरकार के कुछ 'भ्रष्ट' मंत्रियों को हटाए जाने की माँग को लेकर भूख हड़ताल की। ये मंत्री थे- शशिकांत सुतर, महादेव शिवांकर और बबन घोलाप। अन्ना ने उन पर आय से अधिक संपत्ति रखने का आरोप लगाया था। सरकार ने उन्हें मनाने की बहुत कोशिश की, लेकिन अंतत: उन्हें दागी मंत्रियों शशिकांत सुतर और महादेव शिवांकर को हटाना ही पड़ा। घोलाप ने अन्ना के खिलाफ़ मानहानि का मुकदमा दायर दिया। अन्ना अपने आरोप के समर्थन में न्यायालय में कोई साक्ष्य पेश नहीं कर पाए और उन्हें तीन महीने की जेल हो गई। तत्कालीन मुख्यमंत्री मनोहर जोशी ने उन्हें एक दिन की हिरासत के बाद छोड़ दिया। एक जाँच आयोग ने शशिकांत सुतर और महादेव शिवांकर को निर्दोष बताया। लेकिन अन्ना हजारे ने कई शिवसेना और भाजपा नेताओं पर भी भ्रष्टाचार में लिप्त होने के आरोप लगाए। सूचना का अधिकार आंदोलन १९९७-२००५ १९९७ में अन्ना हजारे ने सूचना का अधिकार अधिनियम के समर्थन में मुंबई के आजाद मैदान से अपना अभियान शुरु किया। ९ अगस्त २००३ को मुंबई के आजाद मैदान में ही अन्ना हजारे आमरण अनशन पर बैठ गए। १२ दिन तक चले आमरण अनशन के दौरान अन्ना हजारे और सूचना का अधिकार आंदोलन को देशव्यापी समर्थन मिला। आख़िरकार २००३ में ही महाराष्ट्र सरकार को इस अधिनियम के एक मज़बूत और कड़े विधेयक को पारित करना पड़ा। बाद में इसी आंदोलन ने राष्ट्रीय आंदोलन का रूप ले लिया। इसके परिणामस्वरूप १२ अक्टूबर २००५ को भारतीय संसद ने भी सूचना का अधिकार अधिनियम पारित किया। अगस्त २००६, में सूचना का अधिकार अधिनियम में संशोधन प्रस्ताव के खिलाफ अन्ना ने ११ दिन तक आमरण अनशन किया, जिसे देशभर में समर्थन मिला। इसके परिणामस्वरूप, सरकार ने संशोधन का इरादा बदल दिया। महाराष्ट्र भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन २००३ २००३ में अन्ना ने कांग्रेस और एनसीपी सरकार के चार मंत्रियों; सुरेश दादा जैन, नवाब मलिक, विजय कुमार गावित और पद्मसिंह पाटिल को भ्रष्ट बताकर उनके ख़िलाफ़ मुहिम छेड़ दी और भूख हड़ताल पर बैठ गए। तत्कालीन महाराष्ट्र सरकार ने इसके बाद एक जाँच आयोग का गठन किया। नवाब मलिक ने भी अपने पद से त्यागपत्र दे दिया। आयोग ने जब सुरेश जैन के ख़िलाफ़ आरोप तय किए तो उन्हें भी त्यागपत्र देना पड़ा।[2] लोकपाल विधेयक आंदोलन देखें मुख्य लेख जन लोकपाल विधेयक आंदोलन जन लोकपाल विधेयक (नागरिक लोकपाल विधेयक) के निर्माण के लिए जारी यह आंदोलन अपने अखिल भारतीय स्वरूप में ५ अप्रैल २०११ को समाजसेवी अन्ना हजारे एवं उनके साथियों के जंतर-मंतर पर शुरु किए गए अनशन के साथ आरंभ हुआ, जिनमें मैग्सेसे पुरस्कार विजेता अरविंद केजरीवाल, भारत की पहली महिला प्रशासनिक अधिकारी किरण बेदी, प्रसिद्ध लोकधर्मी वकील प्रशांत भूषण, आदि शामिल थे। संचार साधनों के प्रभाव के कारण इस अनशन का प्रभाव समूचे भारत में फैल गया और इसके समर्थन में लोग सड़कों पर भी उतरने लगे। इन्होंने भारत सरकार से एक मजबूत भ्रष्टाचार विरोधी लोकपाल विधेयक बनाने की माँग की थी और अपनी माँग के अनुरूप सरकार को लोकपाल बिल का एक मसौदा भी दिया था। किंतु मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली तत्कालीन सरकार ने इसके प्रति नकारात्मक रवैया दिखाया और इसकी उपेक्षा की। इसके परिणामस्वरूप शुरु हुए अनशन के प्रति भी उनका रवैया उपेक्षा पूर्ण ही रहा। लेकिन इस अनशन के आंदोलन का रूप लेने पर भारत सरकार ने आनन-फानन में एक समिति बनाकर संभावित खतरे को टाला और १६ अगस्त तक संसद में लोकपाल विधेयक पारित कराने की बात स्वीकार कर ली। अगस्त से शुरु हुए मानसून सत्र में सरकार ने जो विधेयक प्रस्तुत किया वह कमजोर और जन लोकपाल के सर्वथा विपरीत था। अन्ना हजारे ने इसके खिलाफ अपने पूर्व घोषित तिथि १६ अगस्त से पुनः अनशन पर जाने की बात दुहराई। १६ अगस्त को सुबह साढ़े सात बजे जब वे अनशन पर जाने के लिए तैयारी कर रहे थे, तब दिल्ली पुलिस ने उन्हें घर से ही गिरफ्तार कर लिया। उनके टीम के अन्य लोग भी गिरफ्तार कर लिए गए। इस खबर ने आम जनता को उद्वेलित कर दिया और वह सड़कों पर उतरकर सरकार के इस कदम का अहिंसात्मक प्रतिरोध करने लगी। दिल्ली पुलिस ने अन्ना को मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया। अन्ना ने रिहा किए जाने पर दिल्ली से बाहर रालेगाँव चले जाने या ३ दिन तक अनशन करने की बात अस्वीकार कर दी। उन्हें ७ दिनों के न्यायिक हिरासत में तिहाड़ जेल भेज दिया गया। शाम तक देशव्यापी प्रदर्शनों की खबर ने सरकार को अपना कदम वापस खींचने पर मजबूर कर दिया। दिल्ली पुलिस ने अन्ना को सशर्त रिहा करने का आदेश जारी किया। मगर अन्ना अनशन जारी रखने पर दृढ़ थे। बिना किसी शर्त के अनशन करने की अनुमति तक उन्होंने रिहा होने से इनकार कर दिया। १७ अगस्त तक देश में अन्ना के समर्थन में प्रदर्शन होता रहा। दिल्ली में तिहाड़ जेल के बाहर हजारों लोग डेरा डाले रहे। १७ अगस्त की शाम तक दिल्ली पुलिस रामलीला मैदान में ७ दिनों तक अनशन करने की इजाजत देने को तैयार हुई। मगर अन्ना ने ३० दिनों से कम अनशन करने की अनुमति लेने से मना कर दिया। उन्होंने जेल में ही अपना अनशन जारी रखा। अन्ना को रामलीला मैदान में १५ दिन कि अनुमति मिली और १९ अगस्त से अन्ना राम लीला मैदान में जन लोकपाल बिल के लिये अनशन जारी रखने पर दृढ़ थे। २४ अगस्त तक तीन मुद्दों पर सरकार से सहमति नहीं बन पायी। अनशन के 10 दिन हो जाने पर भी सरकार अन्ना का अनशन समापत नहीं करवा पाई | हजारे ने दस दिन से जारी अपने अनशन को समाप्त करने के लिए सार्वजनिक तौर पर तीन शर्तों का ऐलान किया। उनका कहना था कि तमाम सरकारी कर्मचारियों को लोकपाल के दायरे में लाया जाए, तमाम सरकारी कार्यालयों में एक नागरिक चार्टर लगाया जाए और सभी राज्यों में लोकायुक्त हो। 74 वर्षीय हजारे ने कहा कि अगर जन लोकपाल विधेयक पर संसद चर्चा करती है और इन तीन शर्तों पर सदन के भीतर सहमति बन जाती है तो वह अपना अनशन समाप्त कर देंगे। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने दोनो पक्षों के बीच जारी गतिरोध को तोड़ने की दिशा में पहली ठोस पहल करते हुए लोकसभा में खुली पेशकश की कि संसद अरूणा राय और डॉ॰ जयप्रकाश नारायण सहित अन्य लोगों द्वारा पेश विधेयकों के साथ जन लोकपाल विधेयक पर भी विचार करेगी। उसके बाद विचार विमर्श का ब्यौरा स्थायी समिति को भेजा जाएगा। 25 मई २0१२ को अन्ना हजारे ने पुनः जंतर मंतर पर जन लोकपाल विधेयक और विसल ब्लोअर विधेयक को लेकर एक दिन का सांकेतिक अनशन किया। व्यक्तित्व और विचारधारा गांधी की विरासत उनकी थाती है। कद-काठी में वह साधारण ही हैं। सिर पर गांधी टोपी और बदन पर खादी है। आँखों पर मोटा चश्मा है, लेकिन उनको दूर तक दिखता है। इरादे फौलादी और अटल हैं। महात्मा गांधी के बाद अन्ना हजारे ने ही भूख हड़ताल और आमरण अनशन को सबसे ज्यादा बार बतौर हथियार इस्तेमाल किया है। इसके जरिए उन्होंने भ्रष्ट प्रशासन को पद छोड़ने एवं सरकारों को जनहितकारी कानून बनाने पर मजबूर किया है। अन्ना हजारे को आधुनिक युग का गान्धी भी कहा जा सकता है। अन्ना हजारे हम सभी के लिये आदर्श है। अन्ना हजारे गांधीजी के ग्राम स्वराज्य को भारत के गाँवों की समृद्धि का माध्यम मानते हैं। उनका मानना है कि 'बलशाली भारत के लिए गाँवों को अपने पैरों पर खड़ा करना होगा।' उनके अनुसार विकास का लाभ समान रूप से वितरित न हो पाने का कारण गाँवों को केन्द्र में न रखना रहा। व्यक्ति निर्माण से ग्राम निर्माण और तब स्वाभाविक ही देश निर्माण के गांधीजी के मन्त्र को उन्होंने हकीकत में उतार कर दिखाया और एक गाँव से आरम्भ उनका यह अभियान आज 85 गाँवों तक सफलतापूर्वक जारी है। व्यक्ति निर्माण के लिए मूल मन्त्र देते हुए उन्होंने युवाओं में उत्तम चरित्र, शुद्ध आचार-विचार, निष्कलंक जीवन व त्याग की भावना विकसित करने व निर्भयता को आत्मसात कर आम आदमी की सेवा को आदर्श के रूप में स्वीकार करने का आह्वान किया है। सम्मान पद्मभूषण पुरस्कार (१९९२) पद्मश्री पुरस्कार (१९९०) इंदिरा प्रियदर्शिनी वृक्षमित्र पुरस्कार (१९८६) महाराष्ट्र सरकार का कृषि भूषण पुरस्कार (१९८९) यंग इंडिया पुरस्कार मैन ऑफ़ द ईयर अवार्ड (१९८८) पॉल मित्तल नेशनल अवार्ड (२०००) ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल इंटेग्रीटि अवार्ड (२००३) विवेकानंद सेवा पुरुस्कार (१९९६) शिरोमणि अवार्ड (१९९७) महावीर पुरस्कार (१९९७) दिवालीबेन मेहता अवार्ड (१९९९) केयर इन्टरनेशनल (१९९८) बासवश्री प्रशस्ति (२०००) GIANTS INTERNATIONAL AWARD (२०००) नेशनलइंटरग्रेसन अवार्ड (१९९९) विश्व-वात्सल्य एवं संतबल पुरस्कार जनसेवा अवार्ड (१९९९) रोटरी इन्टरनेशनल मनव सेवा पुरस्कार (१९९८) विश्व बैंक का 'जित गिल स्मारक पुरस्कार' (२००८) इन्हें भी देखें जन लोकपाल विधेयक आंदोलन जन लोकपाल विधेयक इंडिया अगेंस्ट करप्शन भारत में जन आन्दोलन सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ श्रेणी:भारतीय सामाजिक कार्यकर्ता श्रेणी:१९९२ पद्म भूषण श्रेणी:1937 में जन्मे लोग श्रेणी:महाराष्ट्र के लोग श्रेणी:जीवित लोग
अन्ना हजारे को पद्म भूषण पुरस्कार कब मिला?
सन् १९९२
115
hindi
9802d5026
विश्व स्वास्थ्य संगठन (वि॰ स्वा॰ सं॰) (WHO) विश्व के देशों के स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं पर आपसी सहयोग एवं मानक विकसित करने की संस्था है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के 193 सदस्य देश तथा दो संबद्ध सदस्य हैं। यह संयुक्त राष्ट्र संघ की एक अनुषांगिक इकाई है। इस संस्था की स्थापना 7 अप्रैल 1948 को की गयी थी। इसका उद्देश्य संसार के लोगो के स्वास्थ्य का स्तर ऊँचा करना है। डब्‍ल्‍यूएचओ का मुख्यालय स्विटजरलैंड के जेनेवा शहर में स्थित है। इथियोपिया के डॉक्टर टैड्रोस ऐडरेनॉम ग़ैबरेयेसस विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के नए महानिदेशक निर्वाचित हुए हैं। वो डॉक्टर मार्गरेट चैन का स्थान लेंगे जो पाँच-पाँच साल के दो कार्यकाल यानी दस वर्षों तक काम करने के बाद इस पद से रिटायर हो रही हैं।। [1] भारत भी विश्व स्वास्थ्‍य संगठन का एक सदस्य देश है और इसका भारतीय मुख्यालय भारत की राजधानी दिल्ली में स्थित है। सन्दर्भ मूल रूप से 23 जून 1851 को आयोजित अंतर्राष्ट्रीय स्वच्छता सम्मेलन, डब्ल्यूएचओ के पहले पूर्ववर्ती थे। 1851 से 1 9 38 तक चलने वाली 14 सम्मेलनों की एक श्रृंखला, अंतरराष्ट्रीय स्वच्छता सम्मेलनों ने कई बीमारियों, मुख्य रूप से कोलेरा, पीले बुखार, और ब्यूबोनिक प्लेग का मुकाबला करने के लिए काम किया। 18 9 2 में सातवें तक सम्मेलन काफी हद तक अप्रभावी थे; जब कोलेरा के साथ निपटाया गया एक अंतरराष्ट्रीय स्वच्छता सम्मेलन पारित किया गया था। पांच साल बाद, प्लेग के लिए एक सम्मेलन पर हस्ताक्षर किए गए। [2] सम्मेलनों की सफलताओं के परिणामस्वरूप, पैन-अमेरिकन सेनेटरी ब्यूरो, और ऑफिस इंटरनेशनल डी हाइगेन पब्लिक को जल्द ही 1 9 02 और 1 9 07 में स्थापित किया गया था। जब 1 9 20 में लीग ऑफ नेशंस का गठन हुआ, तो उन्होंने लीग ऑफ नेशंस के हेल्थ ऑर्गनाइजेशन की स्थापना की। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद, संयुक्त राष्ट्र ने डब्ल्यूएचओ बनाने के लिए अन्य सभी स्वास्थ्य संगठनों को अवशोषित किया। [3] बाह्य कड़ि‍यां श्रेणी:स्वास्थ्यविज्ञान
विश्व स्वास्थ्य संगठन को किस साल में स्थापित किया गया था?
7 अप्रैल 1948
270
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5f7c6e0a7
फ्रांसीसी क्रांति (फ्रेंच: Révolution française [ʁevɔlysjɔ̃ fʁɑ̃sɛːz] / रेवोलुस्योँ फ़्राँसेज़ ; 1789-1799) फ्रांस के इतिहास की राजनैतिक और सामाजिक उथल-पुथल एवं आमूल परिवर्तन की अवधि थी जो 1789 से 1799 तक चली। बाद में, नेपोलियन बोनापार्ट ने फ्रांसीसी साम्राज्य के विस्तार द्वारा कुछ अंश तक इस क्रांति को आगे बढ़ाया। क्रांति के फलस्वरूप राजा को गद्दी से हटा दिया गया, एक गणतंत्र की स्थापना हुई, खूनी संघर्षों का दौर चला, और अन्ततः नेपोलियन की तानाशाही स्थापित हुई जिससे इस क्रांति के अनेकों मूल्यों का पश्चिमी यूरोप में तथा उसके बाहर प्रसार हुआ। इस क्रान्ति ने आधुनिक इतिहास की दिशा बदल दी। इससे विश्व भर में निरपेक्ष राजतन्त्र का ह्रास होना शुरू हुआ, नये गणतन्त्र एव्ं उदार प्रजातन्त्र बने। आधुनिक युग में जिन महापरिवर्तनों ने पाश्चात्य सभ्यता को हिला दिया उसमें फ्रांस की राज्यक्रांति सर्वाधिक नाटकीय और जटिल साबित हुई। इस क्रांति ने केवल फ्रांस को ही नहीं अपितु समस्त यूरोप के जन-जीवन को अस्त-व्यस्त कर दिया। फ्रांसीसी क्रांति को पूरे विश्व के इतिहास में मील का पत्थर कहा जाता है। इस क्रान्ति ने अन्य यूरोपीय देशों में भी स्वतन्त्रता की ललक कायम की और अन्य देश भी राजशाही से मुक्ति के लिए संघर्ष करने लगे। इसने यूरोपीय राष्ट्रों सहित एशियाई देशों में राजशाही और निरंकुशता के खिलाफ वातावरण तैयार किया। क्रांति के कारण राजनीतिक परिस्थितियाँ फ्रांस में निरंकुश राजतंत्र था जो राजत्व के दैवी सिद्धान्त पर आधारित था। इसमें राजा को असीमित अधिकार प्राप्त थे और राजा स्वेच्छाचारी था। लुई 14वें के शासनकाल में (1643-1715) निरंकुशता अपनी पराकाष्ठा पर थी। उसने कहा- "मैं ही राज्य हूँ"। वह अपनी इच्छानुसार कानून बनाता था। उसने शक्ति का अत्यधिक केन्द्रीयकरण राजतंत्र के पक्ष में कर दिया। कूटनीति और सैन्य कौशल से फ्रांस का विस्तार किया। इस तरह उसने राजतंत्र को गंभीर पेशा बनाया। लुई 14वें ने जिस शासन व्यवस्था का केन्द्रीकरण किया था उसने योग्य राजा का होना आवश्यक था किन्तु उसके उत्तराधिकारी लुई १५वां एवं लूई १६वाँ पूर्णतः अयोग्य थे। लुई 15वां (1715-1774) अत्यंत विलासी, अदूरदर्शी और निष्क्रिय शासक था। आस्ट्रिया के उत्तराधिकार युद्ध एवं सप्तवर्षीय युद्ध में भाग लेकर देश की आर्थिक स्थिति को भारी क्षति पहुँचाई। इसके बावजूद भी वर्साय का महल विलासिता का केन्द्र बना रहा। उसने कहा कि मेरे बाद प्रलय होगी। क्रांति की पूर्व संध्या पर लुई 16वें (1774 - 93) का शासक था। वह एक अकर्मण्य और अयोग्य शासक था। उसने भी स्वेच्छाचारित और निरंकुशता का प्रदर्शन किया। उसने कहा कि "यह चीज इसलिए कानूनी है कि यह मैं चाहता हूं।" अपने एक मंत्री के त्यागपत्र के समय उसने कहा कि-काश! मैं भी त्यागपत्र दे पाता। उसकी पत्नी मेरी एन्टोनिएट का उस पर अत्यधिक प्रभाव था। वह फिजूलखर्ची करती थी। उसे आम आदमी की परेशानियों की कोई समझ नहीं थी। एक बार जब लोगों का जुलूस रोटी की मांग कर रहा था तो उसने सलाह दी कि यदि रोटी उपलब्ध नहीं है तो लोग केक क्यों नहीं खाते। इस तरह देश की शासन पद्धति पूरी तरह नौकरशाही पर निर्भर थी। जो वंशानुगत थी। उनकी भर्ती तथा प्रशिक्षण के कोई नियम नहीं थे और इन नौकरशाहों पर भी नियंत्रण लगाने वाली संस्था मौजूद नहीं थी। इस तरह शासन प्रणाली पूरी तरह भ्रष्ट, निरंकुश, निष्क्रिय और शोषणकारी थी। व्यक्तिगत कानून और राजा की इच्छा का ही कानून लागू होता था। फलतः देश में एक समान कानून संहिता का अभाव तथा विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्न कानूनों का प्रचलन था। इस अव्यवस्थित और जटिल कानून के कारण जनता को अपने ही कानून का ज्ञान नहीं था। इस अव्यवस्थित निरंकुश तथा संवेदनहीन शासन तंत्र का अस्तित्व जनता के लिए कष्टदायी बन गया। इन उत्पीड़क राजनीतिक परिस्थितियों ने क्रांति का मार्ग प्रशस्त किया। फ्रांस की अराजकपूर्ण स्थिति के बारें में यू कहा जा सकता है कि "बुरी व्यवस्था का तो कोई प्रश्न नहीं, कोई व्यवस्था ही नहीं थी।" सामाजिक परिस्थितियाँ क्रांति के कारणों को सामाजिक परिस्थितियों में भी देखा जा सकता है। फ्रांसीसी समाज विषम और विघटित था। वह समाज तीन वर्गों/ स्टेट्स में विभक्त था। प्रथम स्टेट्स में पादरी वर्ग, द्वितीय स्टेट्स में कुलीन वर्ग एवं तृतीय स्टेट्स में जनसाधारण शामिल था। पादरी एवं कुलीन वर्ग को व्यापक विशेषाधिकार प्राप्त था जबकि जनसाधारण अधिकार विहीन था। (क) प्रथम स्टेट: पादरी वर्ग दो भागों में विभाजित था-उच्च एवं निम्न। उच्च वर्ग के पास अपार धन था। वह “टाइथ” नामक कर वसूलता था। ये शानों शौकत एवं विलासीपूर्ण जीवन बिताते थे, धार्मिक कार्यों में इनकी रूचि कम थी। देश की जमीन का पांचवा भाग चर्च के पास ही था और ये पादरी वर्ग चर्च की अपार सम्पदा का प्रयोग करते थे। ये सभी प्रकार के करों से मुक्त थे इस तरह उनका जीवन भ्रष्ट, अनैतिक और विलासी था। इस कारण यह वर्ग जनता के बीच अलोकप्रिय हो गया था और जनता के असंतोष का कारण भी बन रहा था। दूसरा साधारण पादरी वर्ग था जो निम्न स्तर के थे। चर्च के सभी धार्मिक कार्यों को ये सम्पादित करते थे। वे ईमानदार थे और सादा जीवन व्यतीत करते थे। अतः उनके जीवन यापन का ढंग सामान्य जनता के समान था। अतः उच्च पादरियों से ये घृणा करते थे और जनसाधारण के प्रति सहानुभूति रखते थे। क्रांति के समय इन्होंने क्रांतिकारियों को अपना समर्थन दिया। (ख) द्वितीय स्टेट: कुलीन वर्ग द्वितीय स्टेट में शामिल था और सेना, चर्च, न्यायालय आदि सभी महत्वपूर्ण विभागों में इनकी नियुक्ति की जाती थी। एतदां के रूप में उच्च प्रशासनिक पदों पर इनकी नियुक्ति होती थी और ये किसानों से विभिन्न प्रकार के कर वसूलते थे और शोषण करते थे। यद्यपि रिशलू और लुई 14वें के समय कुलीनों को उनके अधिकारों से वंचित कर दिया गया था किन्तु आगे लुई 15वें और 16वें के समय से उन्होंने अपने अधिकारों को पुनः प्राप्त करने का प्रयास किया। यह कुलीन वर्ग भी आर्थिक स्थिति के अनुरूप उच्च और निम्न वर्ग में विभाजित थे। (ग) तृतीय स्टेट: तृतीय स्टेट के लोग जनसाधारण वर्ग से संबद्ध थे जिन्हें कोई विशेषाधिकार प्राप्त नहीं था। इनमें मध्यम वर्ग किसान, मजदूर, शिल्पी, व्यापारी और बुद्धिजीवी लोग शामिल थे। इस वर्ग में भी भारी असमानता थी। इन सभी वर्गों की अपनी-अपनी समस्याएं थी। किसानों की संख्या सर्वाधिक थी और इनकी दशा निम्न और सोचनीय थी। किसानों को राज्य, चर्च तथा अन्य जमीदारों को अनेक प्रकार के कर देने पड़ते थे और सामंती अत्याचारी को सहना पड़ता था। एक दृष्टि से किसानों के असंतोष का मुख्य कारण सामंतों द्वारा दिए जा रहे कष्ट एवं असुविधाएं थी और राजतंत्र इस पर चुप्पी साधे हुए था। इस तरह किसान इतने दुःखी हो चुके थे कि वे स्वयं ही एक क्रांतिकारी तत्व के रूप में परिणत हो गए और उन्हें क्रांति करने के लिए मात्र एक संकेत की आवश्यकता थी। मध्यम वर्ग (बुर्जुआ) में साहुकार व्यापारी, शिक्षक, वकील, डॉक्टर, लेखक, कलाकार, कर्मचारी आदि सम्मिलित थे। उनकी आर्थिक दशा में अवश्य ठीक थी फिर भी वे तत्कालीन राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियों के प्रति आक्रोशित थे। इस वर्ग को कोई राजनीतिक अधिकार प्राप्त नहीं था और पादरी और कुलीन वर्ग का व्यवहार इनके प्रति अच्छा नहीं था। इस कारण मध्यवर्ग कुलीनों के सामाजिक श्रेष्ठता से घृणा रखते था और राजनीतिक व्यवस्था में परिवर्तन कर अपने अधिकारों को प्राप्त करने के इच्छुक था। यही कारण था कि फ्रांस की क्रांति में उनका मुख्य योगदान रहा और उन्होंने क्रांति को नेतृत्व प्रदान किया। मध्यवर्ग के कुछ आर्थिक शिकायतें भी थी। पूर्व के वाणिज्य व्यापार के कारण इस वर्ग ने धनसंपत्ति अर्जित कर ली थी किन्तु अब सामंती वातावरण में उनके व्यापार पर कई तरह के प्रतिबंध लगे थे जगह-जगह चुंगी देनी पड़ती थी। वे अपने व्यापार व्यवसाय के लिए उन्मुक्त वातावरण चाहते थे। इसके लिए उन्होंने क्रांति को नेतृत्व प्रदान किया। इस तरह हम कह सकते हैं कि फ्रांस की क्रांति फ्रांसीसी समाज के दो परस्पर विरोधी गुटों के संघर्ष का परिणाम थी। एक तरफ राजनीतिक दृष्टिकोण से प्रभावशाली और दूसरी तरफ आर्थिक दृष्टिकोण से प्रभावशाली वर्ग थे। देश की राजनीति और सरकार पर प्रभुत्व कायम करने के लिए इन दोनों वर्गों में संघर्ष अनिवार्य था। इस तरह 1789 की फ्रांसीसी क्रांति, फ्रांसीसी समाज में असमानता के विरूद्ध संघर्ष थी। आर्थिक परिस्थितियाँ फ्रांस की आर्थिक अवस्था संकटग्रस्त थी। राज्य दिवालियापन के कगार पर पहुंच गया था। वस्तुतः फ्रांस के राजाओं की फिजूलखर्ची तथा लुई 14वें के लगातार युद्धों के कारण शाही कोष खाली हो गया था। उसकी मृत्यु के बाद लुई 15वें ने आस्ट्रिया के उत्तराधिकार युद्ध एवं सप्तवर्षीय युद्ध में भाग लिया जिससे राजकोष पर बोझ और बढ़ा और अंततः लुई 16वें ने अमेरिकी स्वतंत्रता युद्ध में भाग लेकर फ्रांस की आर्थिक दशा को और भी जर्जर बना दिया। सम्राट, साम्राज्ञी और उनके परिवार पर राज्य की अत्यधिक राशि खर्च की जाती थी। वर्साय का राजमहल राजकोष के लूटपाट का साधन बना था। दूसरी तरफ कर प्रणाली असंतोषजनक थी। विशेषाधिकारों के कारण सम्पन्न वर्ग कर से मुक्त था तथा गरीब किसान जो आर्थिक दृष्टि से विपन्न था, एकमात्र करदाता था। इस तरह राजकोष की स्थिति अत्यंत सोचनीय हो गई थी। सरकार फ्रांस में आय के अनुसार व्यय करने के बजाय व्यय के अनुसार आय को निश्चित करती थी। राज्य ऋण के बोझ तले दबता गया। मूल धन की तो बात ही क्या फ्रांस ब्याज चुकाने में असमर्थ था अर्थात् राज्य दिवालिएपन की स्थिति में पहुंच गया था। देश की आर्थिक दुर्व्यवस्था को व्यापार वाणिज्य को प्रोत्साहन देकर सुधारा जा सकता था परन्तु सरकार की वाणिज्य नीति इतनी अनियंत्रित एवं दोषपूर्ण थी कि उससे राज्य में उत्पादन एवं व्यापार का विकास संभव नहीं था। लुई 16वें ने तुर्गों, नेकर जैसे वित्त सलाहकारों के माध्यम से आर्थिक संकट को दूर कनने का प्रयास किया लेकिन ये सुधार प्रयास लागू नहीं हो सके क्योंकि विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग ने अपने ऊपर कर लगाने की बात स्वीकार नहीं की। अंततः विशेषाधिकार उन्मूलन के प्रस्तावों को पारित करने के लिए इस्टेट जनरल की बैठक बुलाने की मांग की गई और 1789 ई. में इस्टेट जनरल की बैठक के साथ ही क्रांति का आगमन हुआ, इसलिए तत्कालीन आर्थिक दुर्दशा को फ्रांस की क्रांति का सबसे महत्वपूर्ण कारण माना जाता है। विचारकों/दार्शनिकों की भूमिका फ्रांसीसी क्रांति में दार्शनिकों की भूमिका के संदर्भ में दो मत सामने आते हैं-एक, दार्शनिकों ने क्रांति की परिस्थितियों को जन्म देकर क्रांति को उत्पन्न किया और दूसरा क्रांति का स्रोत तो उस समय के राष्ट्रीय जीवन के दोषों में तथा सरकार की भूलों में था और दार्शनिकों ने क्रांति उत्पन्न नहीं की। किसी भी मत पर निर्णय देने के पूर्व उन दार्शनिकों के विचारों और क्रांति के साथ उनके संबंधों को समझना वांछनीय होगा। दार्शनिकों के विचारों की लोकप्रियता का निर्धारण तो उस समय उनके छपे लेखों के संस्करणों और प्रसार के आधार पर देखा जाना चाहिए। मॉण्टेस्क्यू मॉण्टेस्क्यू (1689-1755 ई.) ने अपनी पुस्तक 'द स्पिरिट ऑफ लॉज' (The Spirit of Laws) में राजा के दैवी अधिकारों के सिद्धान्तों का खण्डन किया और फ्रांसीसी राजनीतिक संस्थाओं की आलोचना ही नहीं कि वरन् विकल्प भी प्रस्तुत किया। उसने लिखा कि फ्रांसीसी सरकार निरकुंश सरकार है क्योंकि फ्रांस में कार्यपालिका, न्यायपालिका और विधायिका संबंधी सभी शक्तियां एक ही व्यक्ति अर्थात् राजा के हाथों में केन्द्रित है इसलिए फ्रांस की जनता को स्वतंत्रता प्राप्त नहीं है। इसी सदंर्भ में उसने “शक्ति के पृथक्करण” का सिद्धान्त दिया जिसके अनुसार शासन के तीन प्रमुख अंग-कार्यपालिका, न्यायपालिका और विधायिका को अलग-अलग हाथों में रखने की सलाह दी। उसने इंग्लैंड की सराकर को आदर्श बताया क्योंकि वहां संवैधानिक राजतंत्र था जिससे वहां नागरिकों को स्वतंत्रता थी। इस प्रकार मॉण्टेस्क्यू ने शक्ति के पृथक्करण के माध्यम से फ्रांस की निरंकुश राजव्यवस्था पर चोट की। उसके ये विचार इतने लोकप्रिय हुए कि 'द स्पिरिट ऑफ लाज' के तीन वर्षों में छह संस्करण प्रकाशित हुए। यहां ध्यान रखने की बात यह है कि मॉण्टेस्क्यू ने न तो क्रांति की बात की और न ही राजतंत्र को समाप्त करने की। उसने तो सिर्फ निरंकुश राजतंत्र के दोषों को उजागर किया और संवैधानिक राजतंत्र की बात की। वाल्टेयर वाल्टेयर ( 1694 - 1778 ई.) ने अपनी पुस्तकों, जैसे "लेटर्स ऑन द इंगलिश" आदि, के माध्यम से ब्रिटेन में व्याप्त उदार राजनीति, धर्म और विचार की स्वतंत्रता का विषद् चित्रण किया तथा पुरातन फ्रांसीसी व्यवस्था से उसकी तुलना की और फ्रांस में व्याप्त बुराईयों एवं कमियों का उल्लेख किया। प्रतिबंधित होने से पूर्व ये पुस्तकें बहुत लोकप्रिय हुई थी। वाल्टेयर ने चर्च के भ्रष्ट अचारण, असहिष्णुता, अन्याय, दमन और अत्याचार के विरोध में लिखा। चर्च की भ्रष्टता पर उंगली उठाते हुए उसने लिखा कि अब तो कोई ईसाई बचा नहीं क्योंकि एक ही ईसाई था और उसे सूली पर चढ़ा दिया गया। उसने लिखा कि कुख्यात एवं बदनाम चीज को कुचल दो। यह स्पष्ट रूप से फ्रांस के निरंकुश राजतंत्र एवं चर्च के अत्याचार पर प्रहार था। वाल्टेयर इंग्लैंड के संवैधानिक राजतंत्र के अनुरूप ही फ्रांस में भी वैसा ही शासन स्थापित करना चाहता था। उसने कहा कि मैं सौ चूहों के स्थान पर एक सिंह का शासन पसंद करता हूँ। वाल्टेयर ने क्रांति की बात नहीं की लेकिन वैचारिक स्वतंत्रता की पृष्ठभूमि तैयार की। उसने पुरातन फ्रांसीसी व्यवस्था की बुराईयों को उजागर किया। उसने लोगों के समक्ष तत्कालीन फ्रांसीसी समाज का आइना प्रस्तुत किया और यह बताया कि आइना में दाग कहा है। रूसो रूसो ने अपनी पुस्तक “एमिली”, “सोशल कॉन्ट्रैक्ट” व “रूसोनी” के माध्यम से मनुष्य की स्वतंत्रता की बात की। उसने कहा कि मनुष्य स्वतंत्र पैदा होते हुए भी सर्वत्र जंजीरों से जकड़ा हुआ है। इन जंजीरों से मुक्ति पाने का एक ही तरीका है कि हम प्राकृतिक आदिम अवस्था की ओर लौटें। रूसों ने कहा कि सामूहिक इच्छा से बने राज्य का यह अनिवार्य तथा सार्वभौम कर्तव्य है कि वह सारे समाज को सर्वोपरि मानते हुए कार्य को संचालित करे। जिन लोगों को कार्यपालिका शक्ति सौपीं गई है वे जनता के स्वामी नहीं, उसके कार्यकारी है और उनका कर्तव्य जनता की आज्ञा का पालन करना है। इस तरह उसका दृढ़ विश्वास था कि सर्वोपरि सत्ता जनता के हाथ में होनी चाहिए, किसी एक व्यक्ति या संस्था के हाथ में नहीं। सार्वभौम सत्ता जनता की इच्छा में निहित है जिसे “सामान्य इच्छा” (General Will) कहा गया। राज्य के कानून को इसी सामान्य इच्छा की अभिव्यक्ति होना चाहिए लेकिन कानून का स्वरूप ऐसा नहीं रह गया है, बल्कि यह शासक की इच्छा पर निर्भर रहने लगा है। रूसों ने भी क्रांति की बात नहीं की लेकिन सभी व्यक्तियों को स्वतंत्र एवं समान माना और फ्रांसीसी क्रांति का नारा 'स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व' उसी के विचारों से प्रभावित था। नेपोलियन ने उसके महत्व को स्वीकार करते हुए कहा कि यदि रूसो नहीं होता तो फ्रांस में क्रांति नहीं होती। रूसों की 'सोशल कॉन्ट्रैक्ट' की लोकप्रियता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि एक वर्ष में उसके 13 संस्करण प्रकाशित हुए। अन्य दार्शनिक 18वीं शताब्दी के श्रेष्ठ विचारकों की रचनाओं को संकलित कर आम जनता तक पहुंचाने का श्रेय फ्रांसीसी विद्वान दिदरो (1713-84) को दिया जाता है इसने एक ज्ञान कोष (इन्साइक्लोपीडिया) का प्रकाशन किया। इसमें शासन की बुराइयों, चर्च की भ्रष्टता तथा हर क्षेत्र में व्याप्त असमानता को उजागर किया गया। फ्रांस की सरकार ने दिदरों को अपना घोर शत्रु माना और उसकी पुस्तक पर अनेक प्रतिबंध लगाए। विचारकों का एक वर्ग इस समय फ्रांस में व्याप्त आर्थिक अव्यवस्था और उसके विश्लेषण पर केन्द्रित था। इन अर्थशास्त्रियों को “फिज्योक्रात” के नाम से जाना जाता था। इसमें प्रमुख थे- तुर्गों, क्वेसने, मिराबों आदि। क्वेसने मुक्त व्यापार का समर्थक था। व्यापारिक उत्पादन एवं वितरण की पूर्ण स्वतंत्रता तथा चुंगी कर एवं अन्य करों का विरोधी था। उसका तर्क था कि केवल भूमि सारी संपत्ति का मूल स्रोत है। अतः कर केवल भूमि पर लगाना चाहिए व्यापारी एवं कारीगरों पर नहीं। तात्कालिक कारण लुई 16वें के काल तक आते-आते फ्रांस की वित्तीय व्यवस्था ऋणों में डुब चुकी थीं। अमेरिकी स्वतंत्रता संग्राम ने फ्रांस के दिवालिएपन पर मुहर लगा दी। अतः आर्थिक दुरावस्था को दूर करने के क्रम में तुर्गों, नेकर, कोलोन जैसे अर्थशास्त्रियों की मदद ली। कोलोन ने विशेषाधिकार प्राप्त कुलीन वर्ग पर कर लगाने का सुझाव दिया जिसे कुलीनों ने अस्वीकार कर दिया। अंततः स्टेस्ट्स जनरल की बैठक बुलाई गई। यह बैठक 1789 से 175 वर्ष बाद हो रही थी। स्टेट्स जनरल की बैठक का समाचार सुनकर सभी वर्ग उत्साहित थे। कुलीनाें उम्मीद थी कि इस बैठक में वे उन विशेषाधिकारों को प्राप्त कर सकेंगे जो लुई 14वां के समय उसने छिन लिए गए थे। मध्यवर्ग के लोगों का मानान था कि वे अपने पक्ष में प्रगतिशील नीतियों का निर्धारण करवा सकेंगे। किसानों को आशा थी कि वह सामंती विशेषधिकारों के विरूद्ध आवाज उठाकर अपने अधिकारों को सुरक्षित कर उनके शोषण चक्र से मुक्त हो सकेंगे। इस तरह फ्रांसीसी राजतंत्र का समर्थन करने के लिए फ्रांसीसी जनसंख्या का कोई महत्वपूर्ण भाग तैयार नहीं था। एस्टेट्स जनरल के अधिवेशन में मताधिकार पद्धति के मुद्दे पर तृतीय स्टेट (III Estate) एवं अन्य स्टेट के बीच विवाद हो गया। मतदान के बारे में कहा गया कि प्रत्येक स्टेट का एक ही मत माना जाएगा। इस प्रकार विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग का दो तथा जनसाधारण का एक ही मत होता है। (विशेषाधिकार वर्ग में प्रथम स्टेट और द्वितीय स्टेट के पादरी और कुलीन वर्ग आते हैं।) जनसाधारण के प्रतिनिधियों ने अर्थात् 'तृतीय स्टेट' ने इस मतदान प्रणाली का विरोध किया क्योंकि इससे वे बहुत में होते हुए भी अल्पमत में आ जाते। तृतीय स्टेट यह चाहता था कि तीनों श्रेणियों के प्रतिनिधि एक साथ बैठकर बहुमत से निर्णय ले लेकिन पादरी एवं कुलीन वर्ग अलग-अलग बैठक चाहते थे। अतः तृतीय स्टेट ने स्टेट्स जनरल की बैठक का बहिष्कार कर अपने को समस्त राष्ट्र का प्रतिनिधि मानते हुए राष्ट्रीय सभा के रूप में घोषित कर दिया और पास के टेनिस कोर्ट में अपनी सभा बुलाई। 20 जून 1789 को राष्ट्रीय सभा ने यह घोषणा की कि ““हम कभी अलग नहीं होंगे और जब तक संविधान नहीं बन जाता तब तक साथ में बने रहेंगे।”” यह एक क्रांतिकारी घटना थी। अंततः 27 जून को लुई 16वें ने तीनों वर्गों के प्रतिनिधियों की संयुक्त बैठक की अनुमति दे दी। यह जनसाधारण की विजय थी। यह राजा तथा विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग की परजय का प्रथम दस्तावेज था। इस प्रकार स्टेट्स जनरल राष्ट्रीय सभा (National assembly) बन गई और उसे राजा की मान्यता मिल गई और वह वैधानिक हो गई। सभा ने 9 जुलाई 1789 को स्वयं को संविधान सभा (Constituent Assembly) घोषित करके देश के संविधान का निर्माण करना अपना सर्वप्रमुख लक्ष्य बनाया। 5 इसी समय लुई 16वें ने अर्थमंत्री नेकर को बर्खास्त कर दिया जिसे जनता अपना समर्थक मानती थी और इसे क्रांति को कुचलने का प्रयास समझा गया। उसी समय यह खबर फैल गई कि बास्तील के किले में राजा ने शस्त्रों का भंडार जमाकर रखा है। अतः 14 जुलाई 1789 को पेरिस की भीड़ ने बास्तील के किले में राजा ने शास्त्रों का भंडार जमाकर रखा है। अतः 14 जुलाई 1789 को पेरिस की भीड़ ने बास्तील के किले पर पर हमला कर दरवाजा तोड़ दिया और कैदियों को मुक्त कर दिया। बास्तील का पतन एक युगांतकारी घटना थी जो निरंकुशता का पतन एवं जनता की विजय का प्रतीक थी। वास्तव में यह क्रांति का उद्घोष था और इसीलिए फ्रांस में 14 जुलाई को स्वतंत्रता दिवस के रूप में मनाया जाता है। क्रांति के विभिन्न चरण फ्रांसीसी क्रांति विभिन्न चरणों से होते हुए अपने मुकाम तक पहुंची। अध्ययन की सुविधा की दृष्टि से क्रांति को निम्नलिखित चार चरणों में बांटकर देखा जा सकता है। प्रथम चरण - 1789-1792 ई. संवैधानिक राजतंत्र का चरण द्वितीय चरण - 1792-1794 ई. उग्र गणतंत्रवाद का चरण तृतीय चरण - 1794-1799 ई. उदार गणतंत्रवाद का चरण चतुर्थ चरण - 1799-1814 ई. तानाशाही एवं साम्राज्यवादी चरण प्रथम चरण (1789-1792) इस चरण में पेरिस की भीड़ ने बास्तील के किले पर नियंत्रण स्थापित किया। इस तरह क्रांति की शुरूआत हुई। वस्तुतः बास्तील का किला निरंकुशता एवं अत्याचार का प्रतीक था और इसके पतन से पुरातन व्यवस्था का गहरी चुनौती मिली। इस घटना का प्रभाव फ्रांस के ग्रामीण क्षेत्रों में भी पड़ा और ग्रामीणों ने सामंती करों के अभिलेखों को आग लगा दी। जनता की इन कार्यवाहियों का राष्ट्रीय सभा पर भी गहरा असर पड़ा। अतः 4 अगस्त 1789 जो रात भर का राष्ट्रीय सभा का अधिवेशन चला जिसमें कानून निर्मित करके सभी विशेषाधिकारों को समाप्त कर दिया। इस तरह इंग्लैंड और अमेरिका को समाप्त कर दिया गया। राष्ट्रीय सभा का महत्वपूर्ण कार्य था- एक संविधान का निर्माण करना। अतः राष्ट्रीय सभा ही संविधान सभा कहलायी और 26 अगस्त 1789 को संविधान सभा ने मानवाधिकारों की घोषणा की। मानवाधिकारों की सीमाएं संविधान सभा ने अपने आदर्शों तथा उद्देश्यों के रूप में मानवाधिकारों की घोषणा की। इस घोषणा में समानता के सिद्धान्त पर बल दिया गया और कहा गया कि चूंकि सभी मनुष्य समान रूप से पैदा होते है अतः उन्हें समान अधिकार मिलने चाहिए। इन अधिकारों में स्वतंत्रता, संपत्ति सुरक्षा तथा अत्याचार के विरोध का अधिकार आदि शामिल थे। इस प्रकार संविधान सभा ने आधारभूत सिद्धान्तों, स्वतंत्रता, समानता व जनता के प्रभुत्व की घोषणा की। संपत्ति के अधिकार को घोषणा पत्र में बार-बार दुहराया गया। इस अधिकार से किसी को वंचित नहीं किया जा सकता था। चर्च पर नियंत्रण राष्ट्रीय संविधान सभा ने चर्च की संपत्ति को जब्त कर लिया और जनता पर चर्च के नियंत्रण को कम करने का प्रयास किया। इस संदर्भ में चर्च को राज्य के अधीन ले आया गया और उसे रोम के पोप के प्रभाव से मुक्त कर राष्ट्रीय चर्च के रूप में तब्दील कर दिया गया। राज्य के प्रति पादरियों की वफादारी सुरक्षित करने के लिए "सिविल कांस्टीच्यूशन ऑफ क्लर्जी" बनाया गया। जिसके अनुसार पादरियों को राज्य के प्रति निष्ठा की शपथ लेनी पड़ती थी और जनता के द्वारा उनका चुनाव होता था। पोप और कुछ पादरियों ने इस कदम का विरोध किया। जिन पादरियों ने राज्य के प्रति निष्ठा की शपथ ग्रहण कि वे “ज्यूरर” कहलाए जबकि शपथ नहीं लेने वाले “नॉन ज्यूरर” कहलाए। इस कानून से क्रांति के विरूद्ध एक माहौल निर्मित होने लगा क्योंकि अभी तक छोटे पादरियों ने क्रांति का समर्थन किया था। अब वे इससे अलग हो गए और कुछ पादरी देश छोड़ विदेशों में चले गए और वहां यूरोप में क्रांति के विरूद्ध प्रचार करने लगे। संविधान निर्माण राष्ट्रीय संविधान सभा ने फ्रांस के लिए लिखित संवधिान तैयार किया और इस संविधान को 1791 में लुई सोलहवें ने अपनी स्वीकृति दे दी। संविधान में दो बातों पर बल दिया गया-एक, राज्य की सार्वभौम शक्ति जनता में निहित है और दूसरा, शक्ति का पृथक्करण राज्य एवं जनता के हित में है। यद्यपि शासन प्रणाली राजतंत्रात्मक बनी रहीं परन्तु राजा के अधिकारों को सीमित किया गया। अब वह कानून निर्माता नहीं रहा। राजा को किसी देश से युद्ध या संधि करने का अधिकार नहीं था। कानून बनाने का अधिकार एक व्यवस्थापिका सभा को दिया गया और उसके सदस्यों की संख्या 745 थी। व्यवस्थापिका के सदस्यों के निर्वाचन के लिए नागरिकों को सक्रिय और निष्क्रय दो भागों में विभक्त कर दिया गया और मताधिकार केवल सक्रिय नागरिकों को दिया गया। सक्रिय नागरिक 25 वर्ष से अधिक आयु के वे लोग थे जो राज्य को तीन दिन की आय के बराबर प्रत्यक्ष कर देते थे जबकि निष्क्रिय नागरिक वे थे जो गरीब थे। राष्ट्रीय सभा ने फ्रांस की प्रशासनिक संरचना में परिवर्तन किया। प्राचीन प्रांतो को खत्म करके सम्पूर्ण देश को 83 डिपार्टमेन्टों (Departments) में विभक्ति किया गया। इन डिपार्टमेन्टों को Cantan और Comune में बांटा गया। प्रत्येक ईकाईयों का शासन चलाने के लिए निर्वाचन परिषद् होती थी जिसका चुनाव सक्रिय नागरिक करते थे। इस तरह स्थानीय स्तर से लेकर केन्द्रीय स्तर तक सारी राज्य व्यवस्था बर्जआ वर्ग में आ गई। द्वितीय चरण (1792-94) राष्ट्रीय सभा के भंग होने के पश्चात् 1791 ई. में 745 सदस्यीय व्यवस्थापिका सभा (Legislative Assembly) अस्तित्व में आई थी। इस व्यवस्थापिका सभा में अध्यक्ष के दाहिने हाथ की ओर बैठने वाले 'दक्षिणपंथी' कहलाए। ये लोग अनुदार एवं राजतंत्र के समर्थक थे जबकि बाईं ओर बैठने वाले 'वामपंथी' कहलाए और यह समूह मूल परिवर्तनवादियों (Redicals) का था जो उग्र और क्रांतिकारी थे। रेडिकल्स भी दो वर्गों में बंटे थे- जिरोंदिस्त और दूसरा जैकोबियन। इसी बीच फ्रांस की क्रांति का भय यूरोप के अन्य देशों के भी फैलने लगा। जो पादरी एवं कुलीन वर्ग फ्रांस से भाग यूरोप के अन्य क्षेत्रों के चले गए थे उन्होंने क्रांति के विरूद्ध भावना फैलाई। दूसरी तरफ फ्रांस के क्रांतिकारी अन्य देशों में भी क्रांतिकारी सिद्धान्तों को प्रचार चाह रहे थे। फलतः यूरोप के अन्य राजा शंकित हुए। परिणामस्वरूप क्रांतिकारी फ्रांस और यूरोप के अन्य देशों का आपसी संबंध बिगड़ा। आस्ट्रिया ने क्रांतिकारियों के मना करने पर भी फ्रांस के राजतंत्र के समर्थक शरणार्थियों को अपने यहां रहने दिया था। अतः व्यवस्थापिका सभा ने अपै्रल 1792 ई. में आस्ट्रिया के विरूद्ध युद्ध की घोषणा कर दी, किन्तु फ्रांस की सेना बुरी तरह पराजित हुई। इस पराजय से फ्रांस की जनता को विश्वास हो गया कि राजा ने आस्ट्रिया को फ्रांस की सैन्य शक्ति और सुरक्षा के सारे भेद बता दिए हैं। अतः राजा के प्रति जनता का रवैया उग्र हो गया। इन स्थितियों में फ्रांसीसी राजतंत्र के समर्थन में प्रशा और आस्ट्रिया ने घोषणा की कि फ्रांस की जनता राजा की आज्ञा का पालन करे अन्यथा हम उनके विरूद्ध कार्यवाही करेंगे। इस तरह फ्रांस की क्रांति ने यूरोप में युद्ध की स्थिति उत्पन्न की। इस घोषणा से फ्रांस की जनता और उग्र हो गई और उसने राजा को घेर लिया। राजा भागकर व्यवस्थापिका सभा की शरण में पहुंचा। अब यह विचार किया जाने लगा कि व्यवस्थापिका सभा भंग की जाए; पुनः चुनाव हो, नयी व्यवस्थापिका सभा बने और वह राजतंत्र के भविष्य पर अपना निर्णय दे। इसी के साथ व्यवस्थापिका सभा को समाप्त कर दिया गया और वयस्क मताधिकार के आधार पर राष्ट्रीय कन्वेशन का गठन हुआ। नेशनल कन्वेंशन और आतंक का राज्य 21 सिंतबर 1792 को नेशनल कन्वेशन का प्रथम अधिवेशन हुआ। इसमें जैकोबियन एवं जिरोदिस्त दल प्रमुख थे। जैकोबियन अनुशासित और संगठित थे। पेरिस की भीड़ पर इनका प्रभाव था। इसमें प्रमुख नेता थे- दांते, रॉबस्पियर, हीटर आदि। दूसरी तरफ जिरोंदिस्त थे- ये शिक्षित और सुसंस्कृत लोग थे। इन्हें किताबी ज्ञान अधिक था। फलतः ये व्यावहारिक राजनीतिज्ञ नहीं थे। प्रमुख नेता थे- इस्नार, मैडम रोलां, ब्रिसो आदि। यहां समझने की बात यह है कि दोनों ही गुट गणतंत्र के हिमायती थे, विदेशी शक्तियों के विरूद्ध युद्ध का समर्थन करते थे। अंतर केवल स्वरूप का था। वस्तुतः जिरोदिस्तो ने फ्रांस में उदारवादी स्थान ग्रहण कर लिया था। उनका मानना था की क्रांति बहुत आगे जा चुकी है और उसका अंत होना चाहिए। वे और अधिक सामाजिक समानता लाने के विरूद्ध थे। वे स्वतंत्रता पर अधिक जोर देते थे। उधर जैकोबियन लोग समानता पर अधिक जोर देते थे तथा निम्न वर्गों के प्रति सद्भावपूर्ण रवैया रखते थे। नेशनल कन्वेंशन के समक्ष कठिनाइयां नेशनल कन्वेंशन के सामने तीन प्रमुख समस्याएं थी- विदेशी आक्रमण, राजा की मौजूदगी और गृहयुद्ध। सितंबर 1792 में फ्रांसीसी सेना ने बेल्जियम पर अधिकार कर लिया और दक्षिण में नीस और सेवॉय भी उसके अधिकार में आ गए। इन विजयों से हॉलैंड, आस्ट्रिया, प्रशा और इंग्लैंड घबरा गए। क्रांतिकारियों ने 1792 में घोषणा भी कर दी कि फ्रांस का गणतंत्र स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व की भावनाओं पर आधारित है और इन भावनाओं का प्रसार करना वह अपना कर्तव्य समझता है। फ्रांस जिन जगहों पर आधिपतय कायम करेगा वहां क्रांतिकारी सिद्धान्तों को लागू करेगा और पादरियों और कुलीनों की संपत्ति छीन लेगा और जो भी देश इसका विरोध करेगा उसे क्रांति का शुत्र समझ जाएगा। इस घोषणा से यूरोप के निरंकुश राजतंत्री देश भयभीत हो गए और अब फ्रांस की क्रांति फ्रांस की न होकर पूरे यूरोप की हो गई। अतः यूरोपीय देश क्रांति के प्रसार को रोकने के लिए एकजूट हो गए और इंग्लैंड, हॉलैंड, आस्ट्रिया, प्रशा के एक गुट का फ्रांस के विरूद्ध निर्माण हुआ। इस गुट ने कई जगहों पर फ्रांस को पराजित किया। फलतः विदेशी युद्ध में फ्रांस की पराजय नेशनल कन्वेशन के समक्ष एक मुख्य समस्या बन गई। नेशनल कन्वेंशन ने एक प्रस्ताव पारित कर राजतंत्र को समाप्त किया और गणतंत्र की स्थापना की। राजा पर देशद्रोह का मुकदमा चलाया गया और मृत्युदण्ड की सजा दी गई। राजा के वध के प्रश्न पर जिरोंदिस्तों की नीति स्पष्ट नहीं थी। वे राजतंत्र के विरोधी तो थे लेकिन वध के प्रश्न पर जनमत संग्रह की बात कर रहे थे। इसके विपरीत जैकोबियन्स का मत था कि राजा का देशद्रोह सिद्ध हो चुका है। अतः उसे मृत्युदण्ड दिया जाना चाहिए। अतंतः 21 जनवरी 1793 को लुई 16वां फांसी पर चढ़ा दिया गया। नेशनल कन्वेंशन को जैकोबियन और जिरोदिस्तों के बीच संघर्ष की समस्या का भी सामना करना पड़ा। वस्तुतः युद्ध के कारण फ्रांस आर्थिक संकट से घिर गया था, कीमतें बढ़ गई थी जिससे कन्वेशन ने राहत देने के लिए विधान बनाया, अमीरों से कर्ज वसूलने का नियम बनाया। इन कदमों का जिरोंदिस्तों ने विरोध किया। जब जैकोबियो ने पेरिस की भीड़ और कम्यून की सहायता से कन्वेंशन पर आक्रमण कर सत्ता पर अधिकार किया और जिरोंदिस्तो को गिरफ्तार कर आतंक के राज्य (reign of terror) की स्थापना की। 'आतंक के राज्य' की स्थापना के साथ ही फ्रांस एक बार पुनः अव्यवस्था का शिकार हुआ। रॉबस्पियर के नेतृत्व में इसकी स्थापना की गई थी। इसमें क्रांतिकारी, जनसुरक्षा की स्थापना की गई थी और जो कोई जैकाबिन्स के विरूद्ध काम करता उसे मृत्युदण्ड की सजा दी जाती। रॉबस्पियर रूसो की विचारधारा से प्रभावित था। जिसके अनुसार “सामान्य इच्छा” (जनरल विल) ही सार्वभौमिक इच्छा है। रॉबस्पियर ने सत्ता पर नियंत्रण रखने के लिए विरोधियों को “गिलोटिन” (फांसी) पर चढ़ा दिया। अतः सभी व्यक्ति अपने जीवन को लेकर सशंकित हो उठे। अंततः जुलाई 1794, में रॉबस्पियर कैद कर लिया गया और फांसी दे दी गई इसी के साथ आंतक के राज्य की समाप्ति हुई। आंतक के राज्य के बाद 'थर्मिदोरियन की प्रतिक्रिया' (Thermidorian reaction) हुई। उदारवादी थर्मिदोरियन नेताओं ने देश की सत्ता संभाली और आंतक राज्य की व्यवस्थाओं को भंग किया, जैकोबियन्स को अवैध घोषित किया। आंतक के शासन के दौरान लगाए गए मूल्य तथा पारिश्रमिक पर से नियंत्रण उठा लिया गया। जिससे कीमतें पुनः बढ़ गई, सट्टेबाजों का प्रभाव बढ़ गया और प्रतिक्रिया स्वरूप विद्रोह हुए लेकिन इन विद्रोंहो को दबा दिया गया। नेशनल कन्वेंशन के कार्य 1. राष्ट्रीय शिक्षा नीति अपनाई गई ओर फे्रंच राष्ट्रभाषा घोषित की गई। 2. गुलामी प्रथा समाप्त कर दी गई तथा ऋण न चुकाने पर जेल भेजने संबंधी कानून समाप्त किए गए। 3. सबसे बड़े पुत्र को ही उत्तराधिकार देने का कानून समाप्त कर पारिवारिक जीवन में समानता को स्थापित किया गया। 4. राजतंत्र को समाप्त कर गणतंत्र की स्थापना दिवस से एक नया पंचाग (22 सितंबर 1792) लागू किया गया। 5. माप तौल की नयी पद्धति, ग्राम, लीटर, मीटर शुरू की गई। 6. कालाबाजारी रोकने के लिए राशनिंग व्यवस्था लागू की गयी। 7. मुआवजा देने की नीति समाप्त कर दी गई। धनवानों पर आयकर तथा युद्ध कर लगाया गया। 8. धर्म के मामले में राज्य ने अपने को धर्मनिरपेक्ष घोषित किया और पादरियों को कोई मान्यता नहीं दी गई। तृतीय चरण (1794-99 ई) तृतीय चरण-1794-99 (उदार गणतंत्र)-“डायरेक्टरी” का शासन वस्तुतः नेशनल कन्वेंशन ने एक संविधान का निर्माण कर कार्यपालिका का उत्तरदायित्व 5 सदस्यीय “निदेशक मंडल” को सौंपा। मंडल के सभी सदस्यों के अधिकार बराबर थे। प्रत्येक सदस्य बारी-बारी से तीन महीने के लिए अध्यक्ष हुआ करते थे। प्रत्येक वर्ष एक सदस्य कार्यकाल समाप्त होना था और उसके बदले दूसरे सदस्य की नियुक्ति की जानी थी। इस तरह नेशनल कन्वेंशन के बाद फ्रांस में डायरेक्टरी का शासन शुरू हुआ जो 1795 से 1799 तक चला। अतं में नेपोलियन ने डायरेक्टरी के शासन का अंत कर दिया। डायरेक्टरी का यह शासन अव्यवस्थित, दुःखमय रहा। संचालक मंडल को सशस्त्र सेनाओं के नियंत्रण एवं सेनाध्यक्षों की नियुक्ति, फ्रांस की ओर से संधि करने या युद्ध करने के अधिकार प्राप्त थे। संचालक मंडल के सामने सबसे प्रमुख समस्या थी युद्ध की समस्या, दूसरी तरफ डायरेक्टरी के सदस्य अनुभवहीन, अयोग्य तथा भ्रष्ट थे। अतः डायरेक्टरी के शासन काल में तरह-तरह की गड़बड़ी फैली, बेकारी बढ़ी, व्यापार ठप्प पड़ गया और उसकी विदेश नीति भी कमजोर रही। ऐसी स्थिति में फ्रांस की जनता एक ऐसे शासक (नेतृत्व) की आवश्यकता महसूस कर रही थी जो देश के अंदर और बाहर शांति स्थापित कर सके तथा विदेशी शक्तियों को परास्त कर सके। इस काल में नेपोलियन ने सैन्य विजयों द्वारा फ्रांस के सम्मान को स्थापित किया और अंततः डायरेक्टरी के शासन का अंत कर सत्ता पर नियंत्रण स्थापित किया। चतुर्थ चरण (1799-1814 ई) 1799 में नेपोलियन ने डायरेक्टरी के शासन का अंत किया और फ्रांस का प्रथम काउन्सल बना और 1804 ई. में उसने अपने को सम्राट घोषित कर दिया और इस तरह नेपोलियन के तानाशाही साम्राज्यवादी शासन की शुरूआत हुई। क्रांति का प्रभाव यूरोप में फ्रांस ही वह देश है जिसने क्रांति के माध्यम से पुरातन व्यवस्था के पतन को सुनिश्चित किया। इस क्रांति का प्रभाव यूरोप तक ही सीमित न रहा। इसने समस्त विश्व को प्रभावित किया। क्रांति के नारे स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व का प्रसार पूरे यूरोप में हुआ। एक तरफ इसने जहां राष्ट्रवाद, जनतंत्रवाद जैसी नई शक्तियों को पनपने का मौका दिया तो दूसरी तरफ आधुनिक तानाशाही और सैनिकवाद की नींव भी डाली। फ्रांसीसी क्रांति के प्रभावों को निम्न बिन्दुओं के तहत् समझा जा सकता हैः स्वतंत्रता, समानता एवं बंधुत्व के नारे का प्रसार: फ्रांसीसी क्रांति के प्रेरक शब्द थे-स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व। इन तीन शब्दों ने विश्व की राजनीतिक व्यवस्था के स्वरूप में आमूलचूल परिवर्तन का मार्ग प्रशस्त किया। जिस प्रकार धर्म और संस्कृति के क्षेत्र में सत्यम् शिवम् और सुन्दरम का महत्व है उसी प्रकार राजव्यवस्था में स्वतंत्रता एवं बंधुत्व का भारत सहित अनेक देशों के संविधानों में भावना को देखा जा सकता है। लोकतांत्रिक सिद्धान्त का विकास: फ्रांसीसी क्रांति का महत्व इस बात में है कि इसमें लोकतांत्रिक मूल्यों को प्रतिष्ठित किया। क्रांति ने शासन के दैवी सिद्धान्त का अंत कर लोकप्रिय सम्प्रभुता के सिद्धान्त को मान्यता दी। मानवधिकारों की घोषणा ने व्यक्ति की महत्ता को प्रतिपादित किया और यह सिद्ध किया कि सार्वभौम सत्ता जनता में निहित है और शासन का अधिकार जनता से आता है। सामंतवाद की समाप्ति: फ्रांसीसी क्रांति ने सामंती व्यवस्था पर चोट कर सामंती विशेषाधिकारों का अंत किया और क्रांति की ये उपलब्धि यूरोप के अन्य देशों को भी प्रभावित करती रही। राष्ट्रवाद का प्रसार: फ्रांसीसी क्रांति ने जन-जन में राष्ट्रवाद की भावना को पैदा किया। वस्तुतः अभी तक आम जनता की भक्ति राजा के प्रति थी। फ्रांसीसी क्रांति ने राजभक्ति को देशभक्ति में परिवर्तित कर दिया। इतना ही नहीं, फ्रांस के बाहर भी फ्रांसीसी क्रांति ने राष्ट्रीयता की भावना का प्रसार किया और नेपोलियन के साम्राज्यवादी विस्तार को रोका। धर्मनिरपेक्षता की भावना का प्रसार: फ्रांसीसी क्रांति ने धर्म को राज्य से अलग कर धर्मनिरपेक्ष स्वरूप प्रदान किया। अब धर्म व्यक्तिगत विश्वास की वस्तु बन गई। जिसनें राज्य को किसी तरह हस्तक्षेप नहीं करना था। सैन्यवाद का विकास: फ्रांसीसी क्रांति ने सैन्यवाद को प्रेरित किया। वस्तुतः नागरिकों के लिए सैनिक सेवा अनिवार्य कर दी गई। युद्ध के लिए जनता की संपूर्ण लामबंदी के लिए ये पहली अपील थी। कहा गया "अब से जब तक गणतंत्र के प्रदेश से शत्रुओं को निकाल बाहर नहीं कर दिया जाता तब तक फ्रांसीसी जनता स्थायी रूप से सैनिक सेवा के लिए उपलब्ध रहेगी।" अभी तक युद्ध राजा के पेशेवर सैनिकों द्वारा लड़ा जाता था। इसी सैन्यवाद ने आगे चलकर अनेक राष्ट्रों को प्रभावित किया और प्रथम विश्वयुद्ध का एक महत्वपूर्ण कारण बना। अधिनायकवाद की शुरूआत: फ्रांसीसी क्रांति को अधिनायकवाद का उद्गम स्रोत माना जाता है। रॉबस्पिर के 'आतंक का शासन' उसका पहला जीता जागता सबूत था। क्रांति के दौरान अनेक नीतियों और सिद्धान्तों को बदलना पड़ा और वे असफल हुए। फलस्वरूप एक व्यक्ति की योग्यता पर बल दिया जाने लगा। इसी से नेपोलियन जैसे तानाशाह का उद्भव संभव हुआ। आगे चलकर इटली, जर्मनी सहित कई देशों में अधिनायकवाद पनपा। समाजवाद का मार्ग प्रशस्त: फ्रांसीसी क्रांति ने समाजवादी आंदोलन को दिशा दी। एक प्रगतिवादी संस्था “एनरेजेज” के लोगों ने जनता की ओर से बोलने का दावा करते हुए मांग की कि कीमतों पर सरकारी नियंत्रण हो, गरीबों की सहायता की जाएं और युद्ध खर्च को पूरा करने के लिए धनवानों पर भारी कर लगाए जाए। 'अधिकतम नियम' (Law of maximum) के तहत वस्तुओं का अधिकतम मूल्य सरकार द्वारा निर्धारित कर दिया गया। 1795 ई. में पैन्थियन सोसायटी का गठन हुआ। इसका उद्देश्य मजदूर वर्ग के आंदोलन को सशक्त करना था। इससे संबंधित एक “ट्रिब्यून” नामक पत्र निकलता था जिसका संपादक- नोएल बवूफ था। वह फ्रांस में ऐसी राजव्यवस्था स्थापित करना चाहता था जो पूंजीवादी प्रभाव से मुक्त हो और आर्थिक समानता से परिपूर्ण हो। उसने सर्वहारा वर्ग के माध्यम से क्रांतिकारी कार्यक्रम बनाए। यद्यपि पैन्थियन विद्रोह का दमन कर दिया गया किन्तु आधुनिक समाजवादी आंदोलन “बवूफवाद” से काफी प्रभावित रहा। फ्रांसीसी क्रांति की प्रकृति फ्रांसीसी क्रांति की प्रकृति को क्रांति के आदर्शों, क्रांति के नेतृत्व, क्रांति की प्रगति, क्रांति के दौरान लाए गए परिवर्तनों और विश्व पर पड़े प्रभावों के प्रकाश में समझे जाने की जरूरत है। इस दृष्टि से क्रांति एक ऐसी क्रांति थी जिसका प्रारंभ तो कुलीन वर्ग ने किया, फिर आगे चलकर इसका नेतृत्व मध्यवर्ग के हाथों में आया। कुछ समय के लिए यह क्रांतिकारी तत्वों के प्रभाव में रही और अंत एक सैनिक तानाशाह के साथ हुआ। इस तरह फ्रांसीसी क्रांति उस विशाल नदी की तरह जो उच्च पर्वत शिखर से प्रारंभ होकर मार्ग में अनेक छोटे-मोटे पर्वतों को लांघती हुई कभी तीव्र गति से, तो मंद गति से प्रवाहमान रही। क्रांति का मध्यवर्गीय स्वरूप 1789 में हुई फ्रांसीसी क्रांति को एक बुर्जुआ क्रांति के रूप में देखा जा सकाता है। क्रांति के प्रथम चरण में नेतृत्व तृतीय स्टेट के बुर्जुआई तत्वों के हाथों में था। मध्यवर्गीय नेतृत्व ने निजी संपत्ति को ध्यान में रखते हुए कुछ सिद्धान्त भी बनाएं। वस्तुतः सामंतवाद के अंत की घोषणा तो कर दी गई किन्तु सामंती अधिकारों को यूं ही नहीं छोड़ दिया गया, बल्कि भूमिपतियों की क्षतिपूर्ति करने के बाद ही किसान किसी उत्तरदायित्व से मुक्त हो सकते थे। मानवाधिकारों की घोषणा में मध्यवर्गीय प्रभाव देखा जा सकता है। संपत्ति के अधिकार को मनुष्य के नैसर्गिक अधिकारों की श्रेणी में रखा गया जो बुर्जुआ हितों के संरक्षण से संबंधित है। इसी प्रकार वयस्क मताधिकार की बात तो की गई किन्तु संविधान में “नागरिक” शब्द का अत्यंत संकुचित अर्थों में प्रयोग किया गया। नागरिक को सक्रिय व निष्क्रिय नागरिकों में विभाजित किया गया। सक्रिय नागरिक वे थे जो अपनी कम से कम तीन दिन के आय की रकम प्रत्यक्ष कर के रूप में अदा करते थे और सिर्प इन्हें ही मत देने का अधिकार था। प्रतिनिधि होने के लिए भी संपत्ति की योग्यता को आधार बनाया गया और यह धनी लोग ही राजनीतिक क्रियाकलापों में भाग ले सकते थे और इसका मतलब था कि धनी लोग मध्यवर्ग से जुड़े थे। इस तरह फ्रांसीसी क्रांति ने जन्म पर आधारित भेदभाव को नष्ट किया परन्तु उसके जगह प्राचीन सामंतवाद के बदले धन पर आधारित नए सामंतवाद का प्रभुत्व हुआ। क्रांति के दौरान क्रांतिकारियों ने निरंकुश सरकार द्वारा लिए गए ऋणों की बात तो की किन्तु उन ऋणों को माफ करने की बात किसी ने नहीं की। इसका कारण था यह ऋण सरकार को बुर्जुआ वर्ग ने दिया था। इसी प्रकार सरकार ने चर्च की संपत्ति को तो जब्त किया परन्तु उसे भूमिहीनों को नहीं बांटा गया। जमीनों को सर्वाधिक ऊंची कीमतों पर बेचा गया और इस जमीन को खरीदने की क्षमता मध्यवर्ग के पास थी। फ्रांसीसी क्रांति ने मजदूरों के हितों को नजरंदाज किया और श्रमिक आंदोलन को हतोत्साहित किया। क्रांति के दौरान श्रमिक वर्ग ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी किन्तु बुर्जुआ नेतृत्व को उसकी बढ़ती स्थिति मंजूर नहीं थी। अतः नेशनल असेम्बली ने निरंकुश राजतंत्र युग में निर्मित कानूनों को पुनः लागू कर दिया। जिसके तहत् सभी श्रमिक संघ संबंधी कार्यों पर प्रतिबंध लगा दिया गए और गिल्डों को गैरकानूनी घोषित कर दिया गया। नेशनल एसेम्बली में बुर्जुआओं की प्रधानता थी और उसमें जिरोंदिस्त और जैकोबियन भी बुर्जुआ वर्ग से संबंधित थे। यद्यपि जैकोबियन सर्वहारा वर्ग के हित की बात करते थे परन्तु आतंक के राज्य की स्थापना में बुर्जुआ हितों को ही ऊपर रखा गया और श्रमिकों प्रतिक्रियाओं को दबाने हेतु सेना की सहायता ली गई। डायरेक्टरी के शासन में भी मध्यवर्गीय हितों को प्रमुखता दी गई। संचालक मंडल ने जिस द्विसदनी विधायिका का निर्माण किया उसके सभी सदस्य मध्यवर्गीय बुद्धिजीवी थे। नेपोलियन के सुधारों पर भी बुर्जुआई प्रभाव देखा जा सकता है। उसने बुर्जुआ हितों को संरक्षित रखते हुए अपनी विधि संहिता में संपत्ति के अधिकार को सुरक्षित रखा, कुलीनों को अपेक्षाकृत व्यापक अधिकार दिए तथा उसके व्यापारिक और वाणिज्यिक सुधारों का फायदा मध्यवर्ग को ही मिला। इस तरह क्रांति के स्वरूप में मध्यवर्गीय तत्व दिखाई देते हैं। किन्तु पूरे क्रांति और उसके प्रभाव के विश्लेषण से यह स्पष्ट होता है कि क्रांति में मध्यवर्गीय तत्वों के साथ कृषक, मजदूर, महिलाओं की सहमागिता थी। इस तरीके से यह मात्र मध्यवर्गीय क्रांति नहीं थी अपितु एक लोकप्रिय क्रांति के रूप में इसे देखा जा सकता है। विश्वव्यापी स्वरूप फ्रांसीसी क्रांति एक विश्वव्यापी चरित्र को लिए हुए थी। क्रांतिकारियों ने 1789 में मनुष्य तथा नागरिक अधिकारों की घोषणा की, जिसके तहत् कहा गया कि जन्म से समान पैदा होने के कारण सभी मनुष्यों को समान अधिकार मिलना चाहिए और यह सभी देशों के लिए सभी मनुष्यों के लिए, सभी समय के लिए और उदाहरण स्वरूप सारी दुनिया के लिए हैं। यह घोषणा सिर्प फ्रांस के लिए नहीं वरन् हर जगह के उन सभी लोगों की भलाई के लिए हैं जो स्वतंत्र होना चाहते थे तथा निरंकुश राजतंत्र एवं सामंती विशेषधिकारों के बोझ से मुक्ति पाना चाहते थे, बनाया गया था। नेशनल एसेम्बली द्वारा 1792 ई. में कॉमपेने नामक अंगे्रज नायक को फ्रांसीसी नागरिक की उपाधि दी गई और उसे नेशनल कन्वेंशन का प्रतिनिध भी चुना गया। इसी प्रकार क्रांति के दौरान यह विचार आया कि क्रांति को स्थायी और सुदृढ़ रखने के लिए इसे यूरोप के अन्य देशों में भी विस्तारित किया जाएं। इसमें एक ऐसे युद्ध की कल्पना की गई जिसमें फ्रांसीसी सेनाएं पड़ोसी देशों में प्रवेश कर वहां के स्थानीय क्रांतिकारियों से मिलकर राजतंत्र को अपदस्थ कर गणतंत्रों की स्थापना करती है। फ्रांस की क्रांति मात्र एक राष्ट्रीय घटना नहीं थी अपितु सिद्धान्तों- स्वतंत्रता, समानता एवं बंधुत्व के नारों से संपूर्ण यूरोप गूंज उठा। क्रांति के प्रभाव इतने दूरगामी रहे कि समस्त यूरोप इससे आच्छादित हुआ। इसी संदर्भ में कहा गया “यदि फ्रांस को जुकाम होता है तो समस्त यूरोप छींकता है।” क्रांति सुनियोजित नहीं थी फ्रांस की क्रांति रूसी क्रांति के समान सुनियोजित नहीं थी। वस्तुतः रूसी क्रांति बोल्शेविकों द्वारा सुनियोजित थी और उसका उद्देश्य सत्ता हासिल कर सर्वहारा का शासन स्थापित करना था लेकिन फ्रांसीसी क्रांति शुरू से अंत तक घटनाओं और परिस्थितियों का शिकार रहीं और घटनाएं इस तरह से नहीं घटी जिस तरह से क्रांतिकारियों ने चाहा बल्कि घटनाओं ने क्रांतिकारियों को अपना रास्ता बदलने के लिए मजबूर किया। स्टेट्स जनरल की बैठक में यदि तृतीय स्टेट की बात अन्य स्टेट्स ने मान ली होती तो क्रांति का रूख दूसरा होता। इसी प्रकार आतंक का राज्य और डायरेक्टरी के शासन भी सुनियोजित ढंग से नहीं चले। इस दृष्टि से यह क्रांति अव्यवस्थित थी। 'सामाजिक क्रांति' के रूप में फ्रांसीसी क्रांति के मूल में तत्कालीन फ्रांसीसी समाज की दुरावस्था भी एक महत्वपूर्ण कारक थी। पूरा समाज विशेषाधिकार प्राप्त और अधिकार विहीन वर्गों में विभक्त था। कृषकों की स्थिति करों के बोझ से खराब थी तो दूसरी तरफ उन्हें सामंतों के अत्याचार तथा चर्च के हस्तक्षेप से भी शोषण का शिकार होना पड़ता था। इन स्थितियों ने क्रांति को राह दिखाई और क्रांतिकारियों ने इसी असमानता के विरूद्ध आवाज बुलंद की और स्वतंत्रता, समानता तथा बंधुत्व का नारा दिया। क्रांति के दौरान ही सामंतवाद के अंत की घोषणा हुई, विशेषाधिकारों को खत्म किया गया। अधिनायकवादी स्वरूप फ्रांसीसी क्रांति में सर्वसाधारण की भागेदारी रहीं थी किन्तु उनके हितों को नजरंदाज करके क्रांति ने अधिनायकवाद का रूप धारण कर लिया जिसमें किसी एक व्यक्ति के सिद्धान्तों और इच्छाओं की प्रधानता थी। वस्तुतः क्रांति के दौरान रॉबस्पियर के नेतृत्व में एक तानाशाही सरकार या अधिनायकतंत्र की स्थापना हुई थी और आगे चलकर नेपालियन ने भी अधिनायकतंत्र की स्थापना की। प्रगतिशील क्रांति के रूप में फ्रांस की क्रांति वहां की पुरातन व्यवस्था में व्याप्त तमाम विकृतियों, विसंगतियों एवं बुनियादी दोषों के विरूद्ध एक सशक्त प्रतिक्रिया थी। क्रांति ने निरंकुश राजतंत्र असमानता पर आधारित फ्रांसीसी समाज, विलासितापूर्ण पादरी वर्ग तथा आर्थिक दिवालियेपन के संकट से जूझ रहे कुशासन का अंत कर फ्रांस में प्रजातांत्रिक शासन प्रणाली का मार्ग प्रशस्त किया। इस दृष्टि से इसे दृष्टि से इसे प्रगतिशील क्रांति के रूप में देखा जा सकता है इतना ही नहीं मानवधिकारों की घोषणा स्वतंत्रता, समानता व बंधुत्व के नारे तथा राष्ट्रीयता की विचारधारा से समस्त विश्व के नारे तथा राष्ट्रीयता की विचारधारा से समस्त विश्व को अवगत कराया परिणामस्वरूप विश्व के कई देशों में राजनीतिक अधिकारों की मांग को लेकर जनांदोलन होने लगे। इटली एवं जर्मनी के एकीकरण की भावना को प्रोत्साहन मिला। धर्म और राजनीति के पृथक्करण का मुद्दा पहली बार इस क्रांति के दौरान उठा। राज्य और राजनीति धर्म से अलग किए गए। फ्रांस में ही क्रांति क्यों? विश्व इतिहास में फ्रांस की राज्य क्रांति को विशिष्ट महत्व प्राप्त है यह मानव इतिहास की एक महत्वपूर्ण घटना मानी जाती है। इसमें न केवल फ्रांस बल्कि युरोप के जन जीवन में अमुल्य परिवर्तन ला दिया इसमें शदियों से चली आ रही सामंती व्यवस्था को नष्ट कर आधुनिक लोकतांत्रिक व्यवस्था का मार्ग प्रास्त किय। राजतंत्र की निरंकुशता समाप्त हुई और लोकतांत्रिक वातावर्ण में लोगों ने चैन की साँस ली। इस समय हमारे सामने यह प्रशन उठता है कि 1789 ई. में क्रांति का सुत्रपात अन्य युरोप देशों में न होकर पहले फ्रांस में ही क्यों हुई। 18 वीं शताब्दी के युरोप राष्ट्रों का अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि उस समय फ्रांस की जो स्थिति थी उससे भी बदतर अन्य यूरोप राष्ट्रों की थी। निरंकुश राजतंत्र सुविधा युक्त वर्ग और करों के असाहनीय भार से दबा हुआ था। साधारण वर्ग प्राय: सभी युरोप देशों में मौजुद थे। कुछ राज्यों की स्थिति तो फ्रांस से भी अधिक विकृत थी प्रशा, आस्ट्रिया और रुस आदि फ्रांस से भी अधिक विकृत थे। फ्रांसीसी कृषक अन्य यूरोप राष्ट्रों की अपेक्षा खुसहाल थे। साधारण वर्ग की स्थिति अन्य युरोप राज्यों में और भी खराब थी। फिर भी क्रांति इन देशों में न होकर पहले फ्रांस में ही हुई। इसका प्रमुख कारण यह था की फ्रांस लोग अपनी स्थिति के प्रति जागरुक थे। क्रांति के लिए यह कोई आवश्यक शर्त नहीं कि इसका विस्फोट उसी देशों में हो जहाँ के लोग अत्याचार, अनाचार और शोषण के शिकार हो। समृद्ध और उन्नत देश में भी क्रांति हो सकती है। बशर्ते उसके निवासी यह महसुस करे कि उनके साथ अन्याय हो रहा है। फ्रांस की जनता इस अन्याय को महसुस कर रही थी। और से दूर करना चाहती थी। वहाँ ऐसे अनेक दार्शनिक और लेखक पैदा हुए जिन्होंने अपनी लेखनी के द्वारा इन कष्टों की ओर लोगों का ध्यान आकृष्टि कराया अन्य युरोपीय देशों की बदतर स्थिति के बावजुद फ्रांस में सर्वप्रथम लुई सोलवाँ के खिलाफ क्रांति हुई। इस क्रांति के अनेक कारण थे जो इस प्रकार है। फ्रासीसी सामंतों का बदला हुआ स्वरुप और किसानो की उन्नत अवस्था- फ्रांसीसी किसानों की उन्नत अवस्था और सामंतवाद का बदला हुआ स्वरुप ऐसा कारण था। जिसके चलते फ्रांस में सर्व प्रथम राज्यक्रांति हुई। यूरोपीय देश के किसान अभी उदासी की स्थिति में थे। परन्तु फ्रांस के किसान स्वतंत्र हो चुके थे। उनके पास अपनी जमीन अपना मकान इतनी सुविधा के बावजुद सामंत कर एवं सामंत सेवाओं का अंत नहीं हुआ था उन्हें अपनी आमदनी का बहुत बड़ा हिस्सा सामंत कर के रूप में चुकाना पड़ता था। और फिर भी उसकी स्थिति अच्छी धी। वे पैसे बचाकर कुछ न- कुछ जमीन खरीद लिया करते थे जमीन खरीदने की भूख निरंतर बढ़ती जा रही थी इसमें सामंत कर व बेरोजगारी बाधक थे अत: वे सामंत पेशों को हटाने की बात सोच रहे थे अत: माध्यम वर्ग के नेतृत्व में उन्हे बल मिला और 1789 ई. में उन्होंने विद्रोह कर दिया। फ्रांस में उदार निरंकुशता की परंपरा का आभाव- अन्य यूरोपीय देशों में भी निरंकुश राजतंत्र था। परन्तु वहाँ के सम्राटों ने समयनुसार अपनी निरंकुशता में कमी कर दी थी। प्रशा का राजा फ्रेडिरक अपने समय का महान प्रबुद्ध प्रशासक था। जिसका अनुसरण यूरोप के अन्य देश रुस जर्मनी, इटली, स्पेन आदि ने किया। उन्होने समयनुसार जाता की आर्थिक भौतिक तथा अन्य क्षेत्रों में उन्नत करने का यथा संभव प्रयास किया। परन्तु फ्रांस में इस तरह कि उदार निरंकुशता का आभाव था। वहाँ के राजा जनता की भलाई के लिए कुछ नहीं कर रहे थे। बल्कि अधिक टैक्स वसुलना और जनता का शोषण करना उनकी नीति बन गई थी। इसलिए फ्रांस की जनता इससे उब गई थी इसलिए फ्रांस की जनता निरंकुश राजतंत्र को समाप्त करना चाहती थी। माद्यम वर्ग की जागरुकता- फ्रांस में ही सर्वप्रथम क्रांति होने का कारण वहाँ का मध्यमवर्ग था। अन्य देशों में भी मध्यम वर्ग थी परन्तु वे फ्रांस की तरह सांस्कृति, धनी एवं शिक्षित नहीं थे। उनमें शक्ति का आभाव था। वे राजा के खिलाफ बगावत करने की सोच नहीं सकते थे। फ्रांस में मध्यम वर्ग के लोग अनेक कारण से अपने सम्राटों से असंतुष्ट थे। और अपनी रक्षा के लिए राज सत्ता पर अंकुश लगाने के लिए उतावला हो रहे थे। अन्य यूरोपीय राज्यों में इस तरह की स्थिति का अभाव था। अन्य देशों में नेतृत्व करने वाला कोई नहीं था फ्रांस में जागरुक मध्यमवर्ग तैयार था। अत: सर्वप्रथम फ्रांस में ही क्रांति हुई। कुलीनवर्ग की अनुपयोगिता- कुलीन वह्ग को पहसे विशेषधिकार इस लिए दिया गया था कि वे शासन चलाने में राजा की मदद करे। और वे जनाता की रक्षा भी करते थे। परन्तु धीरे – 2 यह कार्य राजा के कर्मचारी करने लगा। फलत: कुलीनों की उपयोगिता समाप्त हो गई। फिर भी इसके विशेषधिकार में किसी प्रकार की कटौती नहीं की गई। इसलिए किसान और मध्यम वर्ग के लोग कुलिनवर्ग से घृणा करने लगे। अन्य देशों में ऐसी बात नहीं थी। वहाँ अभी भी कुलीनों कि पयोगिता बनी हुई थी। दार्शनिकों का प्रभाव- 18 वीं शताब्दी में सम्पूर्ण यूरोप में बौदिक हलचल मची हुई थी। दार्शनिक, विचारक, वाज्ञानिक सभी देशों में विद्धमान थे। परन्तु उनमें मुख्य फ्रांस के विचारक थे। जिन्होंने क्रांति का मनोवैज्ञानिक आधार प्रस्तुत किया। उन्होंने समाज में वयप्त बुराईयों की ओर लोगों का ध्यान आकृष्ट कराया और मुक जनता को वाणी दी। इस तरह का प्रयास अन्य देशों में नहीं किया जा रहा था। मान्टेग्यु, वाल्टेयर रुसो आदि विचारकों का कार्य क्षेत्र फ्रांस ही था। आस्ट्रिया, प्रशा और रुस में इस तरह के विचारक नहीं थे। यूरोप के अन्य देशों में लोगों का उनकी वास्तविक स्थिति बताने वाला और उनमें संतोष पैदा करने वाला दार्शनिकों का कोई वर्ग नहीं था। फ्रांस में ही क्रांति होने का यह एक प्रमुख कारण था। राजनीतिक सहभागिता का आभाव- इंगलैण्ड में जब मध्यम वर्ग ने जागरुकता आई तो उसे देश की राजनीति में भाग लेने का अवसर दिया गया। परन्तु फ्रांस के साथ ऐसी बात नहीं थी। फ्रांस का मध्यम वर्ग अपने सम्राटों से काफी असंतुष्ट था। उनकी अपेक्षा की जाती थी। शिक्षित होने के बावजूद उन्हें कुलीनों की तरह प्रतिष्ठा उपलब्ध नहीं थी। उन्हें फ्रांस की राजनीति में भाग लेने का अवसर नहीं दिया जाता था। इसलिए उन्होने असंतुष्ट होकर क्रांति का नारा बुलंद किया। अयोग्य राजा तथा प्रशासन में भ्रष्टाचार- फ्रांस की राजनितिक व्यवस्था केन्द्रीकृत थी लेकिन राजा अयोग्य थे। प्रशासन में भ्रष्टाचार का बोलबाला था। यूरोप के अन्य देशों में निरंकुश शासन तोथा परन्तु राजा योग्य थे और शासन पर उनका पुर्ण नियंत्रण था। फ्रांस का माध्यम वर्ग इस प्रशासनिक भ्रष्टाटार को महसूस कर रहा था। तथा इसलिए वह विद्रोह करने के लिए तैयार था। राष्ट्रीय भावना का उदय- इस समय यूरोप में तेजी से राष्ट्रीय भावना का उदय होने लगा। सम्पूर्ण यूरोप में फ्रांस ही एक ऐसा देश था जहाँ एक राष्ट्र भावना का पूर्णत: अभाव था। इसके चलते भी सर्वप्रथम फ्रांस में ही क्रांति हुई। अमेरिकी स्वतंत्रता संग्राम का प्रभाव- 1776 ई. में अमेरिकन स्वतंत्रता संग्राम प्रारंभ हुआ। जिमें अमेरिका के लोगों ने इंगलैण्ड के खिलाफ विद्रोह कर कर दिया। फ्रांस के सैनिकों को भी इस स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने का अवसर मिला अत: उन्होने यह महसुस किया कि युद्ध के द्वारा स्वतंत्रता प्राप्ति की जा सकती है। उन्होंने यह भी अनुभव किया कि स्वतंत्रता सो ही सुख की प्राप्ति संभव है। फ्रांस लौटने पर उन्होने देखा की जिस स्वतंत्रता को लिए उन्होनें अमेरिका में युद्ध किया उसी स्वतंत्रता का फ्रांस में पूर्णत: आभाव है। अत: वे यहाँ की क्रांति के लिए बेचैन हो उठे और युद्ध के द्वारा स्वतंत्रता प्राप्त करने की चेष्टा करने लगे। यूरोप के अन्य देशों में ऐसी बात नहीं थी। फ्रांसीसी सभ्यता की श्रेष्ठता- फ्रांस में ही क्रांति होने का एक विशिष्ट कारण यह था कि यहाँ की सभ्यता और सांस्कृति अन्य यूरोप की सभ्यता और सांस्कृति अन्य यूरोप राष्ट्रों की अपेक्षा अधिक समृद्ध और वैभव पूर्ण थी। शासन व्यवस्था की दृष्टि से भी फ्रांस का शासन अत्यधिक सुवयवस्थित था। फ्रांस सम्पूर्ण यूरोप सभ्यता और सांस्कृति का प्रतिक माना जाता है। सम्पूर्ण यूरोप में पेरिस साहित्य और चिंतन का सबसे बड़ा केन्द्र माना जाता है। फ्रांस जनमत अन्य यूरोप राज्यों की अपेक्षा अधिक जागृत और आलोचनात्मक था। इन सभी कारणों के फलस्वरुप 1789 ई. में अन्य यूरोप राज्यों में क्रांति न होकर सर्वप्रथम फ्रांस में ही क्राति हुई। इन्हें भी देखें संबंधित पेज Biens nationaux लोकतंत्र के इतिहास जीन निकोलस पचे - लिबरते, इगालाईट, फ्रेतार्नाईट ला रेवोल्यूशन फ़्रेन्काइस (फिल्म) फ्रांसीसी क्रांति के दौरान फ्रांस की मानद नागरिकता प्राप्त करने वाले लोगों की सूची क्रांतियों और विद्रोहों की सूची नेपोलियन बोनापार्ट की सैन्य कैरियर नेपोलियन की संकेत-लिपि यूरोप में राष्ट्रवाद का उत्थान फ्रांसीसी इतिहास में अन्य क्रांतियां या विद्रोह कामिसर्द विद्रोह, फ्रेंच हुगुएनोट्स (1710-1715) हाईटियन क्रांति, हैती कॉलोनी (1791-1804) जुलाई क्रांति (1830) 1848 की फ्रांसीसी क्रांति 1871 के पेरिस कम्यून फ्रांसीसी सेना विद्रोह (1917) मई 1968 फ्रांस में, एक उल्लेखनीय विद्रोह, हालांकि एक क्रांति के लिए काफी नहीं सन्दर्भ This articleincorporates text from a publication now in the public domain:Missing or empty |title= (help) This article incorporates text from the public domain , by François Mignet (1824), as made available by Project Gutenberg. उद्धृत कार्य CS1 maint: discouraged parameter (link) CS1 maint: discouraged parameter (link) ऐतिहासिक युग बाहरी सम्बन्ध कोलंबिया विश्वकोश से में प्रवेश इंटरनेट आधुनिक इतिहास स्रोत पुस्तक से सेंटर फॉर हिस्ट्री एंड न्यू मिडिया (जोर्ज मेसन विश्विद्यालय) और अमेरिकन सोशल हिस्ट्री प्रोजेक्ट (सिटी यूनिवर्सिटी न्यू यार्क) के द्वारा एक सहयोगी साईट. और , दी हिस्ट्री गाइड से तीन निबंध: आधुनिक यूरोपीय बौद्धिक इतिहास पर व्याख्यान श्रेणी:फ़्रांस का इतिहास श्रेणी:18 वीं सदी के विद्रोह श्रेणी:18 वीं सदी की क्रांति श्रेणी:गूगल परियोजना श्रेणी:फ्रांसीसी क्रान्ति
फ्रांसीसी क्रांति किस वर्ष में समाप्त हुई थी?
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पालक (वानस्पतिक नाम: Spinacia oleracea) अमरन्थेसी कुल का फूलने वाला पादप है, जिसकी पत्तियाँ एवं तने शाक के रूप में खाये जाते हैं। पालक में खनिज लवण तथा विटामिन पर्याप्त रहते हैं, किंतु ऑक्ज़ैलिक अम्ल की उपस्थिति के कारण कैल्शियम उपलब्ध नहीं होता। यह ईरान तथा उसके आस पास के क्षेत्र का देशज है। ईसा के पूर्व के अभिलेख चीन में हैं, जिनसे ज्ञात होता है कि पालक चीन में नेपाल से गया था। 12वीं शताब्दी में यह अफ्रीका होता हुआ यूरोप पहुँचा।[1] परिचय पालक शीतऋतु की फसल है तथा पाले को सहन कर सकता है, किंतु अधिक गर्मी नहीं सह सकता। जब दिन लंबे तथा रातें छोटी होती हैं, तब इसमें बीज के डंठल निकलने लगते हैं और पौधों का बढ़ना कम हो जाता है। कई प्रकार की मिट्टियों में पालक सुगमता से उगाया जा सकता है, पर बलुई, दुमट, सादमय दुमट (silty loams) तथा दुमट भूमियों पर अधिक अच्छा उगता है। अम्लता को यह अधिक सहन कर सकता है। यथेष्ट बुद्धि के लिए इसको 6.0 से 7.0 पीएच की आवश्यकता है। पानी के निकास का अच्छा प्रबंध आवश्यक है, अन्यथा पत्तियों में बीमारी लग जाती है। इसमें प्रति एकड़ 75 से 100 पाउंड नाइट्रोजन की आवश्यकत होती है, जो आंशिक रूप से ऐमोनियम्‌ सल्फेट के रूप में, कई बार करके, प्रत्येक कटाई के बाद दी जाती है। अधिक अच्छा होगा कि खाद पहले वाली फसल को दी जाए। पालक के बीज की बुआई का मुख्य समय वर्षा के बाद है तथा बुआई लगातार नंवबर तक चलती है। छोटे पैमाने से बुआई वर्षा ऋतु में भी ऊँची उठी हुई भूमियों में की जा सकती है। बीज खेत में 6 इंच से 9 इंच की दूरी पर, की गहराई पर तथा बीज से बीज की दूरी पर बोया जाता है। यदि बुआई अधिक घनी है तो पत्तियों में बीमारी लगने का भय रहता है। 100 वर्ग फुट की बुआई करने के लिए लगभग 25 ग्राम बीज की आवश्यकता होगी। पहली कटाई एक माह बाद तथा बाद की कटाइयाँ प्रत्येक तीन सप्ताह बाद की जाती है। प्रत्येक कटाई के बाद खेत के खर पतवार निकालकर, एक मन प्रति एकड़ की दर से ऐमोनियम्‌ सल्फेट डालकर खेत की सिंचाई करनी चाहिए। छिटकावाँ बुआई भी प्राय: प्रचलित है, मगर इस प्रकार में निकाई करना कठिन हो जाता है। पर्वतों पर बुआई फरवरी के अंत से लेकर अप्रैल के अंत तक की जा सकती है। पालक की औसत उपज लगभग 120 मन प्रति एकड़ है। आयातित (imported) जातियों में, जो वर्ष के केवल ठंडे भाग में ही होती हैं, 'लांग स्टैंडिंग ब्लूम्सडेल' (Long Standing Bloomsdel), वरजीनिया सेवॉय (Virginia Savoy) तथा राउंड लीव्ड डच (Round Leaved Dutch) लोकप्रिय हैं। देशी पालक में 'बैनर्जीज़ जाएंट' (Banerjees giant) तथा 'बनारसी' या 'कटवी पालक' की माँग अत्यधिक है। असली पालक स्पिनेशिआ ओलरएसिइ (Spinacia oleraceae) कहलाता है तथा कीनोपोडिएसिइ कुल (Chenopodiaceae family) के अंतर्गत आता है। भारत में यह अत्यधिक विस्तार से नहीं बोया जाता। आमतौर पर भारतीय पालक 'वेर वलगैरिस' जाति (Var Vulgaris) के अंतर्गत आते हैं। परागण प्राय: हवा के द्वारा होता है, अत: पास पास बोई हुई दो जातियाँ, कभी शुद्ध पैदा नहीं होंगी। इसलिए किसी जाति का शुद्ध बीज उपजाने के लिए उस जाति के खेत बिलकुल अलग, कम से कम आधे मील की दूरी पर, होने चाहिए। बीज की अधिक उपज के लिए नवंबर के तीसरे सप्ताह के बाद कटाई बंद कर देनी चाहिए तथा पौधों को बीज बनाने के लिए छोड़ देना चाहिए। बीज को पकने में अधिक समय लगता है। जब बीज पक जाता है तब पौधों को काटकर तथा सुखाकर अन्न की तरह मड़ाई कर लेते हैं। पालक के गुण सर्दियों के मौसम में सबसे स्वास्थ्यवर्धक सब्जी मानी जाती है। पालक में जो गुण पाये जाते है वे समान्यत:अन्य सब्जियों में नहीं पाये जाते। पालक में लोहे का अंश भी बहुत अधिक रहता है, पालक में मौजूद लोहा शरीर द्वारा आसानी से सोख लिया जाता है। इसलिए पालक खाने से खून के लाल कणों की संख्या बढ़ती है। [2] [3] चित्रदीर्घा नर पुष्प मादा पुष्प गोल बीज शंक्वाकार बीज सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ USDA 2007 USDA 2004 Powell, D. and Chapman श्रेणी:पत्तेदार सब्ज़ियाँ
पालक का वैज्ञानिक नाम क्या है?
Spinacia oleracea
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अगरतला (Bengali: আগরতলা) भारत के त्रिपुरा प्रान्त की राजधानी है। अगरतला की स्थापना 1850 में महाराज राधा कृष्ण किशोर माणिक्य बहादुर द्वारा की गई थी। बांग्लादेश से केवल दो किमी दूर स्थित यह शहर सांस्कृतिक रूप से काफी समृद्ध है। अगरतला त्रिपुरा के पश्चिमी भाग में स्थित है और हरोआ नदी शहर से होकर गुजरती है। पर्यटन की दृष्टि से यह एक ऐसा शहर है, जहां मनोरंजन के तमाम साधन हैं, एंडवेंचर के ढेरों विकल्प हैं और सांस्कृतिक रूप से भी बेहद समृद्ध है। इसके अलावा यहां पाए जाने वाले अलग-अलग प्रकार के जीव-जन्तु और पेड़-पौधे अगरतला पर्यटन को और भी रोचक बना देते हैं। अगरतला उस समय प्रकाश में आया जब माणिक्य वंश ने इसे अपनी राजधानी बनाया। 19वीं शताब्दी में कुकी के लगातार हमलों से परेशान होकर महाराज कृष्ण माणिक्य ने उत्तरी त्रिपुरा के उदयपुर स्थित रंगामाटी से अपनी राजधानी को अगरतला स्थानान्तरित कर दिया। राजधानी बदलने का एक और कारण यह भी था कि महाराज अपने साम्राज्य और पड़ोस में स्थित ब्रिटिश बांग्लादेश के साथ संपर्क बनाने चाहते थे। आज अगरतला जिस रूप में दिखाई देता है, दरअसल इसकी परिकल्पना 1940 में महाराज वीर बिक्रम किशोर माणिक्य बहादुर ने की थी। उन्होंने उस समय सड़क, मार्केट बिल्डिंग और नगरनिगम की योजना बनाई। उनके इस योगदान को देखते हुए ही अगरतला को ‘बीर बिक्रम सिंह माणिक्य बहादुर का शहर’ भी कहा जाता है। शाही राजधानी और बांग्लादेश से नजदीकी होने के कारण अतीत में कई बड़ी नामचीन हस्तियों ने अगरतला का भ्रमण किया। रविन्द्रनाथ टैगोर कई बार अगरतला आए थे। उनके बारे में कहा जाता है कि त्रिपुरा के राजाओं से उनके काफी गहरे संबंध थे। पर्यटन स्थल 1901 में निर्मित उज्जयंत पैलेस, अगरतला का मुख्य स्मारक है जो मुगल-यूरोपीय मिश्रित शैली में निर्मित है। 800 एकड़ में फैला यह विशाल परिसर अब राज्य की विधान सभा के रूप में प्रयुक्त होता है। इसमें बगीचे और मानव-निर्मित झीलें है। आमतौर पर इसे जनता के लिए नहीं खोला जाता परंतु यदि आप सायं 3 से 4 बजे के बीत मुख्य द्वार पर जाएं तो आप यहां प्रवेश के लिए प्रवेश-पास प्राप्त कर सकते हैं। पैलेस के मैदान में नारंगी रंग के दो मंदिर अर्थात् उम्मेनश्वर मंदिर और जगन्नाथ मंदिर स्थित है, जिनमें कोई भी व्यक्ति दर्शानार्थ जा सकता है। एयरपोर्ट रोड पर लगभग 1 कि॰मी॰ उत्तर में वेणुबन विहार नामक एक बौद्ध मंदिर है। गेदू मियां मस्जिद, जो अनोखे तकीके से क्राकरी के टूटे हुए टुकड़ों से बनी है, भी दर्शनीय है। एचजीबी रोड पर स्थित स्टेट म्यूजियम में एथनोग्राफिकल और आर्कियोलॉजी संबंधी वस्तुएं प्रदर्शित की गई हैं। यह सोमवार से शनिवार तक प्रात: 10 से सायं 5 बजे तक खुलता है, इसमें प्रवेश निशुल्क है। पर्यटन कार्यालय के पीछे स्थित ट्राइबल म्यूजियम त्रिपुरा के 19 आदिवासी समूहों की स्मृति के रूप में बनाया गया है। पुराना अगरतला पूर्व में 5 कि॰मी॰ दूर है। यहां चौदह मूर्तियों वाला मंदिर है जहां जुलाई माह में श्रद्धालु कड़छी-पूजा के लिए एकत्र होते हैं। यहां आटोरिक्शा, बस और जीप द्वारा पहुंचा जा सकता है। उज्जयंत महल इस महल को महाराजा राधा किशोर माणिक्य ने बनवाया था। अगरतला जाने पर इस महल को जरूर घूमना चाहिए। इसका निर्माण कार्य 1901 में पूरा हुआ था और फिलहाल इसका इस्तेमाल राज्य विधानसभा के रूप में किया जा रहा है। नीरमहल मुख्य शहर से 53 किमी दूर स्थित इस खूबसूतर महल को महाराजा बीर बिक्रम किशोर माणिक्य ने बनवाया था। रुद्रसागर झील के बीच में स्थित इस महल में महाराजा गर्मियों के समय ठहरते थे। महल निर्माण में इस्लामिक और हिंदू वास्तुशिल्प का मिला-जुला रूप देखने को मिलता है, जिससे इसे काफी ख्याति भी मिली है। जगन्नाथ मंदिर अगरतला के सर्वाधिक पूजनीय मंदिरों में से एक जन्नाथ मंदिर अपनी अनूठी वास्तुशिल्पीय शैली के लिए जाना जाता है। यह एक अष्टभुजीय संरचना है और मंदिर के पवित्र स्थल के चारों ओर आकर्षक प्रधक्षण पठ है। महाराजा बीर बिक्रम कॉलेज जैसा कि नाम से ही जाहिर है, इस कॉलेज को महाराजा बीर बिक्रम सिंह ने बनवाया था। 1947 में इस कॉलेज को बनवाने पीछे महाराजा कि मंशा स्थानीय युवाओं को व्यवसायिक और गुणवत्तायुक्त शिक्षा उपलब्ध कराना था। लक्ष्मीनारायण मंदिर इस मंदिर में हिंदू धर्म को मानने वाले नियमित रूप से जाते हैं। साथ ही यह अगरतला का एक लोकप्रिय पर्यटन स्थल भी है। इस मंदिर को कृष्णानंद सेवायत ने बनवाया था। रविन्द्र कानन राज भवन के बगल में स्थित रविन्द्र कानन एक बड़ा सा हरा-भरा गार्डन है। यहां हर उम्र के लोग आते हैं। कुछ तो यहां मौज मस्ती के मकसद से आते हैं, वहीं कुछ इसका इस्तेमाल प्ले ग्राउंड के तौर पर भी करते हैं। पिछले कुछ सालों में चावल, तिलहन, चाय और जूट के नियमित व्यापार से अगरतला पूर्वोत्तर भारत के एक व्यवसायिक गढ़ के रूप में भी उभरा है। शहर में कुछ फलते-फूलते बाजार हैं, जिन्हें घूमना बेकार नहीं जाएगा। इन बाजारों में बड़े पैमाने पर हस्तशिल्प और ऊन से बने वस्त्र आपको मिल जाएंगे।
भारत में नीरमहल कहाँ स्थित है?
रुद्रसागर झील के बीच में स्थित
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जामिया हमदर्द उच्च शिक्षा का एक संस्थान है, भारत में नई दिल्ली में स्थित मानित विश्वविद्यालय है । इसे भारत के राष्ट्रीय आकलन और मान्यता परिषद द्वारा 'ए' ग्रेड विश्वविद्यालय की स्थिति से सम्मानित किया गया है और यह 1989 में स्थापित किया गया। यह एक सरकारी वित्त पोषित मानित विश्वविद्यालय है जो मुख्य रूप से अपने फार्मेसी कार्यक्रम के लिए जाना जाता है। [2] फैकल्टीज विश्वविद्यालय आधुनिक चिकित्सा में स्नातक कार्यक्रम प्रदान करता है जो एमबीबीएस, इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी, और कंप्यूटर अनुप्रयोगों के पुरस्कार और सूचना प्रौद्योगिकी, कंप्यूटर अनुप्रयोग, बिजनेस मैनेजमेंट, फिजियोथेरेपी और व्यावसायिक थेरेपी में स्नातकोत्तर कार्यक्रम पिछले कुछ सालों में शुरू किया गया है। फिजियोथेरेपी और व्यावसायिक थेरेपी में स्नातक कार्यक्रम और निवारक कार्डियोलॉजी में स्नातकोत्तर डिप्लोमा भी शुरू करने के लिए योजनाबद्ध है। फैकल्टी में शामिल हैं: फार्मेसी: स्कूल ऑफ फार्मास्यूटिकल एजुकेशन एंड रिसर्च (पूर्व फार्मेसी फैकल्टी) भारत में सबसे पुराने और सबसे प्रतिष्ठित फार्मेसी संस्थानों में से एक है। इसे राष्ट्रीय संसाधन विकास मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा अपने राष्ट्रीय संस्थान रैंकिंग फ्रेमवर्क के माध्यम से वर्ष 2017 में भारत में नंबर एक रैंक से सम्मानित किया गया था। .[3][4] स्कूल ऑफ़ फार्मेसी और फार्मास्युटिकल विज्ञान में डिप्लोमा, स्नातक, स्नातक और पीएचडी कार्यक्रम प्रदान करता है। संस्थान अनुसंधान गहन है और भारत और विदेश दोनों में दवा उद्योग में कई उल्लेखनीय पूर्व छात्र हैं। अंतःविषय विज्ञान और प्रौद्योगिकी: जो खाद्य प्रौद्योगिकी कार्यक्रम प्रदान करता है। प्रबंधन अध्ययन (मैनेजमेंट स्टडीज) और सूचना टेक्नोलॉजी (इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी) इंजीनियरिंग विज्ञान और टेक्नोलॉजी हमदर्द इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज एंड रिसर्च (एचआईएमएसआर) और एसोसिएटेड हकीम अब्दुल हमीद शताब्दी अस्पताल चिकित्सा (यूनानी) नर्सिंग इस्लामी अध्ययन और सामाजिक विज्ञान विज्ञान बायो टेक्नोलॉजी बायो केमिस्ट्री बॉटनी (वनस्पति विज्ञान) टॉक्सिकोलॉजी (ज़हरज्ञान) केमिस्ट्री (रसायन विज्ञान) क्लिनिकल रिसर्च केंद्रीय इंस्ट्रुमेंटेशन सुविधा (सीआईएफ) जुलाई 1990 में फार्मेसी के फैकल्टी में सेंट्रल इंस्ट्रुमेंटेशन सुविधा की स्थापना एल 7 बैकमैन अल्ट्रा-अपकेंद्रित्र, सोरवाल आरटी -6000 कम गति अपकेंद्रित्र, डीयू -64 बैकमैन यूवी-वीआईएस स्पेक्ट्रोमीटर, पेर्किन-एल्मर 8700 गैस क्रोमैटोग्राफ, पेर्किन-एल्मर की स्थापना के साथ की गई थी। एचपीएलसी और मेटलर इलेक्ट्रॉनिक संतुलन। वर्ष 1992 में, गामा-काउंटर, बीटा-काउंटर और डीएनए इलेक्ट्रोफोरोसिस सिस्टम सीआईएफ में जोड़े गए थे। पेर्किन-एल्मर लैम्ब्डा -20 डबल-बीम यूवी-वीआईएस स्पेक्ट्रोफोटोमीटर, पेर्किन-एल्मर एलएस -50 लुमेनसेंस स्पेक्ट्रोमीटर, बायो-रेड एफटी-आईआर स्पेक्ट्रोमीटर और मिनी कंप्यूटर, जिसमें आठ कंप्यूटर, इंटरनेट और ई-मेल सुविधाएं शामिल हैं, सीआईएफ में भी उपलब्ध हैं । सीआईएफ का उद्देश्य पीएचडी को प्रशिक्षित करने के लिए जामिया हमदर्द के शोधकर्ताओं को एक उपकरण सुविधा प्रदान करना है। और एम। फार्म / एमएससी .. विभिन्न उपकरणों पर छात्र। जामिया हमदर्द शोध छात्र अपने प्रयोगों के लिए खुद को यंत्र संचालित करते हैं। पीएच.डी. छात्रों, देर से घंटों के दौरान और सप्ताहांत पर अपने प्रयोगों को पूरा करने के लिए सीआईएफ का उपयोग करें। कई एम। फार्म और पीएच.डी. विद्वानों ने अपने शोध के लिए सीआईएफ का उपयोग किया है। कैंपस सुविधाएं लाइब्रेरी पुस्तकालय प्रणाली में केंद्रीय पुस्तकालय और छह फैकल्टी पुस्तकालय शामिल हैं: विज्ञान, चिकित्सा, फार्मेसी, नर्सिंग, इस्लामी अध्ययन, और प्रबंधन अध्ययन और सूचना टेक्नोलॉजी के फैकल्टी। केंद्रीय पुस्तकालय का नाम संस्थापक के छोटे भाई का नाम 'हाकिम मोहम्मद सैद सेंट्रल लाइब्रेरी' रखा गया है। कंप्यूटर केंद्र विश्वविद्यालय के पास एक कंप्यूटर केंद्र है जो कंप्यूटर विज्ञान विभाग, कंप्यूटिंग सुविधाओं, और सिस्टम विश्लेषण इकाइयों के साथ-साथ सभी आवश्यक परिधीय और आवश्यक सॉफ़्टवेयर के प्रयोगशाला के रूप में काम करता है। कंप्यूटर सेंटर में पांच प्रयोगशालाएं हैं, जिनके संबंधित विकास क्षेत्रों की सुविधाएं हैं। विद्वानों का घर विद्वानों का घर विद्वानों, विश्वविद्यालय के मेहमानों, परीक्षा परीक्षकों, चयन बोर्ड के सदस्यों और आवासीय सम्मेलनों के लिए एक गेस्ट हाउस है। इसमें 12 डबल बेड कमरे, 27 सिंगल बेड रूम और 4 फ्लैट हैं। रसोईघर अनुरोध पर मजीदिया अस्पताल और बाहरी लोगों के डॉक्टरों की भी सेवा करता है। हमदर्द इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज एंड रिसर्च (एचआईएमएसआर) और हाकिम अब्दुल हमीद शताब्दी अस्पताल विश्वविद्यालय के संस्थापक जनाब हकीम अब्दुल हमीद ने 1953 में यूनानी प्रणाली की दवा के साथ मेडिकल कॉलेज शुरू करने की कल्पना की थी। हिमासर भारतीय विश्वविद्यालयों में शीर्ष 7 स्थान पर है। जुलाई 2012 में मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया ने अपने परिसर में मेडिकल कॉलेज शुरू करने के लिए जामिया हमदर्द को अनुमति दी थी। इससे पहले विश्वविद्यालय ने पूर्व मजीदिया हॉस्पिटल का नाम हकीम अब्दुल हमीद शताब्दी अस्पताल (एचएएच शताब्दी अस्पताल) रखा और इसे एक नए स्थापित मेडिकल इंस्टीट्यूट - हामार्ड इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज ऑफ रिसर्च (एचआईएमएसआर) से जोड़ दिया। एचएएच शताब्दी अस्पताल में वर्तमान में 650 शिक्षण बिस्तर हैं जो रक्त बैंक और अस्पताल प्रयोगशाला सेवाओं के साथ सभी व्यापक नैदानिक ​​विषयों का आवास करते हैं। एचआईएमएसआर दिल्ली के राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में छठा मेडिकल कॉलेज था, और राजधानी शहर दिल्ली में सार्वजनिक-निजी क्षेत्र में पहला मॉडल अस्पताल था। विश्वविद्यालय का वर्तमान नेतृत्व डॉ। सेयद एहतेशाम हसनैन, कुलगुरू हैं। एमबीबीएस छात्रों के पहले बैच को अगस्त 2012 में लिया गया था। संस्थान ने दूसरे बैच लेने के लिए एमसीआई जांच पास की, और अगस्त 2013 में राष्ट्रीय पात्रता और प्रवेश परीक्षा (एनईईटी) के माध्यम से दूसरा बैच लिया। संस्थान कर्क रोग (कैंसर), मधुमेह और कार्डियोवैस्कुलर बीमारियों में अनुसंधान करता है । संस्थान ने ऑल इंडिया हार्ट फाउंडेशन और नेशनल हार्ट इंस्टीट्यूट, नई दिल्ली के सहयोग से निवारक कार्डियोलॉजी में एक साल का स्नातकोत्तर डिप्लोमा शुरू किया। एक 550 बिस्तर की सुविधा की योजना बनाई गई है। एक छत के नीचे चिकित्सा इमेजिंग प्रदान करने के लिए हमदर्द इमेजिंग सेंटर की स्थापना की गई है। विश्वविद्यालय के छात्रों, शिक्षण और गैर-शिक्षण कर्मचारियों, उनके परिवार के सदस्यों और बहुत गरीब लोगों को मुफ्त ओपीडी सुविधाएं मुहैया कराई जाती हैं। पुराने मजीदिया अस्पताल को चिकित्सा फैकल्टी (यूनानी) के छात्रों के लिए प्रशिक्षण स्थान के रूप में विकसित किया जा रहा है। जामिया हमदर्द के पूर्व छात्र को 'हमदर्दियन' कहा जाता है। रैंकिंग विश्वविद्यालय और कॉलेज रैंकिंग NIRF_O_2018 = 37 NIRF_U_2018 = 23 NIRF_P_2018 = 2 2018 में राष्ट्रीय संस्थागत रैंकिंग फ्रेमवर्क (एनआईआरएफ) द्वारा विश्वविद्यालयों में जामिया हमदार्ड को 37 वें स्थान पर रखा गया था और 23 विश्वविद्यालयों में। यह फार्मेसी रैंकिंग में दूसरे स्थान पर था। सुविधाएं जामिया हमदर्द परिसर में और बाहर दोनों कर्मचारियों और छात्रों के लिए पूर्ण आवासीय सुविधाएं प्रदान करता है। परिसर में नौ आवासीय ब्लॉक हैं जो शिक्षण और गैर-शिक्षण कर्मचारियों की सभी श्रेणियों के निवास के लिए हैं। जामिया हमदर्द में लड़कियां और लड़के के लिए अलग-अलग छात्रावास हैं। प्रत्येक छात्रावास में एक आम कमरा, पढ़ने का कमरा, डाइनिंग हॉल और आगंतुकों का कमरा होता है। हॉस्टल की संख्या इस प्रकार है: 2 यूजी लड़कियों के छात्रावास 1 पीजी लड़कियों का छात्रावास। 1 यूजी लड़कों का छात्रावास। (बन्द है) 1 इब्न बतूता पीजी लड़कों का छात्रावास। (एमबीबीएस छात्रों और पुराने पीएचडी छात्रों के लिए)। 1 अंतर्राष्ट्रीय लड़कों का छात्रावास। एक व्यायामशाला, बास्केटबाल कोर्ट। क्रिकेट और फुटबॉल (5-ए पक्ष) के लिए खेल के मैदान भी उपलब्ध हैं। विश्वविद्यालय में तीन कैंटीन हैं जिन्हें आंशिक रूप से सब्सिडी दी जाती है और ठेकेदारों द्वारा संचालित होते हैं। विदेशी नागरिक विश्वविद्यालय उन विदेशी नागरिकों का स्वागत करता है जिनके पास एक अच्छा अकादमिक रिकॉर्ड है और जो समकक्ष योग्यता परीक्षाओं में अच्छे अंक प्राप्त किए हैं। एसएटी / जीमैट / जीआरई परीक्षाओं में अच्छा प्रतिशत हासिल करने वाले उम्मीदवारों को प्राथमिकता दी जाती है। विदेशी छात्र का सेल विदेशी छात्र सेल उनके अधिकारों और सुविधाओं की देखभाल करता है। विदेशी छात्रों के सलाहकार विदेशी छात्रों के मामलों की देखभाल करते हैं। हर साल सेल द्वारा सांस्कृतिक और सामाजिक कार्यक्रम आयोजित किया जाता है। प्लेसमेंट गतिविधियां विश्वविद्यालय अपने छात्रों के लिए नियुक्ति गतिविधियों का आयोजन करता है और बड़ी संख्या में कंपनियां एलरगन, भारत, अमेरिकन एक्सप्रेस, एरिसेंट, बी ब्रून मेल्सुंगेन, बायोकॉन, ब्रिस्टल मायर्स स्क्विब, सिप्ला, सिस्को, सीएससी, कॉम्विवा टेक्नोलॉजीज लिमिटेड, डॉ। रेड्डीज लेबोरेटरीज, फिसर, हेडस्ट्रांग, हेवलेट पैकार्ड, एचसीएल टेक्नोलॉजीज, आईसीआईसीआई बैंक, इम्पेसस, इंफोसिस ल्यूपिन, मैक्स न्यू यॉर्क लाइफ इंश्योरेंस, मारुति उद्योग, न्यूजेन, नोवार्टिस, न्यूक्लियस सॉफ्टवेयर एक्सपोर्ट्स, पैनेसा, पेरोट सिस्टम्स, फाइजर, क्वालिटेक कंसल्टेंट्स, क्वार्क, रैनबैक्सी, अनुसंधान प्रयास, सैपीएंट, सन फार्मा, सिंटेल, टीसीएस, टेक महिंद्रा और कई अन्य कंपनियों में कैंपस द्वारा नियुक्त होते हैं। हमदर्द स्टडी सर्किल लोक सेवा आयोग द्वारा आयोजित सिविल सेवा परीक्षा के लिए समाज के कमजोर वर्ग, विशेष रूप से मुसलमानों के छात्रों की तैयारी के लिए 1992 में जनाब हकीम अब्दुल हमीद साहेब द्वारा स्थापित एक प्रमुख कोचिंग संस्थान है। सर्किल सिविल सेवा परीक्षा, जैसे प्रारंभिक परीक्षा, मुख्य परीक्षा और व्यक्तित्व परीक्षण के सभी तीन चरणों के लिए कोचिंग प्रदान करता है। हमदर्द स्टडी सर्किल में उत्कृष्ट बोर्डिंग और रहने की सुविधा, एक अच्छी तरह से सुसज्जित पुस्तकालय, इंटरनेट सुविधा, कार्यालय परिसर, मनोरंजन कक्ष, आधुनिक भोजन कक्ष और रसोईघर दक्षिण दिल्ली में तालिमाबाद के 14 एकड़ (57,000 वर्ग मीटर ) में फैला हुए परिसर में स्थित है। कोचिंग के लिए कोई शुल्क नहीं लिया जाता है। लेकिन छात्रावास और सुविधाओं के रखरखाव के लिए प्रति माह 1750 / - और रु। 2000 / - भोजन के लिए प्रति माह का भुगतान करना होगा। अल्पसंख्यक, ओबीसी और एससी / एसटी श्रेणियों के योग्य छात्रों के लिए छात्र सामाजिक न्याय और सशक्तिकरण अनुदान मंत्रालय के माध्यम से उपलब्ध हैं। मुख्य परीक्षा कोचिंग के लिए अगले वर्ष जुलाई के अंतिम सप्ताह में प्रीलिम परीक्षा कोचिंग और नई दिल्ली में हर साल नवंबर के तीसरे रविवार को नई दिल्ली, पटना, चेन्नई और तिरुवनंतपुरम में आयोजित प्रतिस्पर्धी परीक्षण के माध्यम से मेरिट आधार पर सख्ती से प्रवेश परिक्षा के द्वारा एडमिशन दिया जाता है। व्यक्तित्व परीक्षण कोचिंग के लिए प्रवेश प्रत्येक वर्ष मार्च के आखिरी सप्ताह में व्यक्तिगत साक्षात्कार के माध्यम से किया जाता है। कुल 10 लड़कियों और 50 लड़कों तक का सेवन सुविधा है। अब तक 161 उम्मीदवारों ने हमदर्द स्टडी सर्कल से विभिन्न सिविल सेवाओं के लिए अर्हता प्राप्त की है। पूर्व छात्र समुदाय जामिया हमदर्द पूर्व छात्रों की एसोसिएशन और जामिया हमदर्द फार्मा प्रोफेशनल पूर्व छात्र लिंकडइन नेटवर्क पर दो समुदाय हैं। उन्हें बड़ी सफलता मिली है और पूर्व छात्रों और वर्तमान छात्रों के लिए गतिविधियों का केंद्र बन गया है। यह भी देखें भारत में विश्वविद्यालयों की सूची] भारत में शिक्षा विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (भारत) संदर्भ अभिषेक- vice- of- Hamdard/ 53985672.cms सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ No URL found. 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जामिया हमदर्द विश्वविद्यालय कहाँ स्थित है?
नई दिल्ली
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कुंती महाभारत में वर्णित पांडव जो कि पाँच थे, में से बड़े तीन की माता थीं। कुन्ती पंच-कन्याओं में से एक हैं जिन्हें चिर-कुमारी कहा जाता है। कुन्ती वसुदेव जी की बहन और भगवान श्रीकृष्ण की बुआ थी। महाराज कुन्तिभोज ने कुन्ती को गोद लिया था। ये हस्तिनापुर के नरेश महाराज पांडु की पहली पत्नी थीं। कुंती को कुंआरेपन में महर्षि दुर्वासा ने एक वरदान दिया था जिसमें कुंती किसी भी देवता का आवाहन कर सकती थी और उन देवताओं से संतान प्राप्त कर सकती थी। पाण्डु एवं कुंती ने इस वरदान का प्रयोग किया एवं धर्मराज, वायु एवं इंद्र देवता का आवाहन किया। अर्जुन तीसरे पुत्र थे जो देवताओं के राजा इंद्र से हुए। कुंती का एक नाम पृथा भी था। युधिष्ठर यमराज और कुंती का पुत्र था। भीम वायु और कुंती का पुत्र था। अर्जुन इन्द्र और कुंती का पुत्र था। सहदेव और नकुल अश्विनीकुमार और माद्री का पुत्र था। और अश्विनीकुमार देवो के वैद्य है। पृथा' (कुंती) महाराज शूरसेन की बेटी और वसुदेव की बहन थीं। शूरसेन के ममेरे भाई कुन्तिभोज ने पृथा को माँगकर अपने यहाँ रखा। इससे उनका नाम 'कुंती' पड़ गया। पृथा को दुर्वासा ऋषि ने एक मंत्र दिया था, जिसके द्वारा वह किसी भी देवता का आवाहन करके उससे संतान प्राप्त कर सकती थीं। समय आने पर स्वयंवर-सभा में कुंती ने पाण्डु को जयमाला पहनाकर पति रूप से स्वीकार कर लिया। महर्षि दुर्वासा का वरदान आगे चलकर पाण्डु को शाप हो जाने से जब उन्हें संतान उत्पन्न करने की रोक हो गई, तब कुंती ने महर्षि दुर्वासा के वरदान का हाल सुनाया। यह सुनने से महाराज पाण्डु को सहारा मिल गया। उनकी अनुमति पाकर कुंती ने धर्मराज के द्वारा युधिष्ठिर को, वायु के द्वारा भीमसेन को और इन्द्र के द्वारा अर्जुन को उत्पन्न किया। इसके पश्चात् पाण्डु ने पुत्र उत्पन्न करने के लिए जब उनसे दोबारा आग्रह किया, तब उन्होंने उसे स्वीकार नहीं किया। कह दिया कि यह नियम विरुद्ध और अनुचित होगा। सन्दर्भ श्रेणी:महाभारत के पात्र
कुंती के पिता का नाम क्या था?
महाराज शूरसेन
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भगवान राम चन्द्र जी का जीवनकाल एवं पराक्रम महर्षि वाल्मीकि द्वारा रचित संस्कृत महाकाव्य रामायण के रूप में वर्णित हुआ है। गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी उनके जीवन पर केन्द्रित भक्तिभावपूर्ण सुप्रसिद्ध महाकाव्य श्री रामचरितमानस जी की रचना की है। इन दोनों के अतिरिक्त अन्य भारतीय भाषाओं में भी रामायण की रचनाएं हुई हैं, जो काफी प्रसिद्ध भी हैं। खास तौर पर उत्तर भारत में श्री राम जी अत्यंत पूज्यनीय हैं और आदर्श पुरुष हैं। इन्हें पुरुषोत्तम शब्द से भी अलंकृत किया जाता है। मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम जी, अयोध्या के राजा दशरथ और रानी कौशल्या के सबसे बड़े पुत्र थे। राम की पत्नी का नाम सीता था इनके तीन भाई थे- लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न। हनुमान, श्री रामजी के, सबसे बड़े भक्त माने जाते हैं। श्री राम जी ने लंका के राजा रावण (जो अधर्म का पथ अपना लिया था) का वध किया। श्री राम जी की प्रतिष्ठा मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में है। राम ने मर्यादा के पालन के लिए राज्य, मित्र, माता-पिता, यहाँ तक कि पत्नी का भी साथ छोड़ा। इनका परिवार आदर्श भारतीय परिवार का प्रतिनिधित्व करता है। राम रघुकुल में जन्मे थे, जिसकी परम्परा प्रान जाहुँ बरु बचनु न जाई[1] की थी। श्रीराम के पिता दशरथ ने उनकी सौतेली माता कैकेयी को उनकी किन्हीं दो इच्छाओं को पूरा करने का वचन (वर) दिया था। कैकेयी ने दासी मन्थरा के बहकावे में आकर इन वरों के रूप में राजा दशरथ से अपने पुत्र भरत के लिए अयोध्या का राजसिंहासन और राम के लिए चौदह वर्ष का वनवास माँगा। पिता के वचन की रक्षा के लिए राम ने खुशी से चौदह वर्ष का वनवास स्वीकार किया। पत्नी सीता ने आदर्श पत्नी का उदाहरण देते हुए पति के साथ वन जाना उचित समझा। भाई लक्ष्मण ने भी राम के साथ चौदह वर्ष वन में बिताए। भरत ने न्याय के लिए माता का आदेश ठुकराया और बड़े भाई राम के पास वन जाकर उनकी चरणपादुका (खड़ाऊँ) ले आए। फिर इसे ही राज गद्दी पर रख कर राजकाज किया। जब राम वनवासी थे तभी उनकी पत्नी सीता को रावण हरण (चुरा) कर ले गया। जंगल में राम को हनुमान जैसा मित्र और भक्त मिला जिसने राम के सारे कार्य पूरे कराये। राम ने हनुमानजी,सुग्रीव आदि वानर जाति के महापुरुषो की मदद से सीताजी को ढूँढ़ा। समुद्र में पुल बना कर लंका पहुँचे तथा रावण के साथ युद्ध किया। उसे मार कर सीता को वापस लाये। राम के अयोध्या लौटने पर भरत ने राज्य उनको ही सौंप दिया। राम न्यायप्रिय थे। उन्होंने बहुत अच्छा शासन किया इसलिए लोग आज भी अच्छे शासन को रामराज्य की उपमा देते हैं। इनके दो पुत्रों कुश व लव ने इनके राज्यों को सँभाला। वैदिक धर्म के कई त्योहार, जैसे दशहरा, राम नवमी और दीपावली, राम की जीवन-कथा से जुड़े हुए हैं। नाम-व्युत्पत्ति एवं अर्थ 'रम्' धातु में 'घञ्' प्रत्यय के योग से 'राम' शब्द निष्पन्न होता है।[2] 'रम्' धातु का अर्थ रमण (निवास, विहार) करने से सम्बद्ध है। वे प्राणीमात्र के हृदय में 'रमण' (निवास) करते हैं, इसलिए 'राम' हैं तथा भक्तजन उनमें 'रमण' करते (ध्याननिष्ठ होते) हैं, इसलिए भी वे 'राम' हैं। 'विष्णुसहस्रनाम' पर लिखित अपने भाष्य में आद्य शंकराचार्य ने पद्मपुराण का हवाला देते हुए कहा है कि नित्यानन्दस्वरूप भगवान् में योगिजन रमण करते हैं, इसलिए वे 'राम' हैं।[3] अवतार रूप में प्राचीनता वैदिक साहित्य में 'राम' का उल्लेख प्रचलित रूप में नहीं मिलता है। ऋग्वेद में केवल दो स्थलों पर ही 'राम' शब्द का प्रयोग हुआ है[4] (१०-३-३ तथा १०-९३-१४)। उनमें से भी एक जगह काले रंग (रात के अंधकार) के अर्थ में[5] तथा शेष एक जगह ही व्यक्ति के अर्थ में प्रयोग हुआ है[6]; लेकिन वहाँ भी उनके अवतारी पुरुष या दशरथ-पुत्र होने का कोई संकेत नहीं है। यद्यपि नीलकंठ चतुर्धर ने ऋग्वेद के अनेक मन्त्रों को स्वविवेक से चुनकर उनके रामकथापरक अर्थ किये हैं, परन्तु यह उनकी निजी मान्यता है। स्वयं ऋग्वेद के उन प्रकरणों में प्राप्त किसी संकेत या किसी अन्य भाष्यकार के द्वारा उन मंत्रों का रामकथापरक अर्थ सिद्ध नहीं हो पाया है। ऋग्वेद में एक स्थल पर 'इक्ष्वाकुः' (१०-६०-४) का[7] तथा एक स्थल पर[8] 'दशरथ' (१-१२६-४) शब्द का भी प्रयोग हुआ है। परन्तु उनके राम से सम्बद्ध होने का कोई संकेत नहीं मिल पाता है।[9] ब्राह्मण साहित्य में 'राम' शब्द का प्रयोग ऐतरेय ब्राह्मण में दो स्थलों पर[10] (७-५-१{=७-२७} तथा ७-५-८{=७-३४})हुआ है; परन्तु वहाँ उन्हें 'रामो मार्गवेयः' कहा गया है, जिसका अर्थ आचार्य सायण के अनुसार 'मृगवु' नामक स्त्री का पुत्र है।[11] शतपथ ब्राह्मण में एक स्थल पर[10] 'राम' शब्द का प्रयोग हुआ है (४-६-१-७)। यहाँ 'राम' यज्ञ के आचार्य के रूप में है तथा उन्हें 'राम औपतपस्विनि' कहा गया है।[12] तात्पर्य यह कि प्रचलित राम का अवतारी रूप वाल्मीकीय रामायण एवं पुराणों की ही देन है। जन्म रामकथा से सम्बद्ध सर्वाधिक प्रमाणभूत ग्रन्थ आदिकाव्य वाल्मीकीय रामायण में राम-जन्म के सम्बन्ध में निम्नलिखित वर्णन उपलब्ध है:- ...................... चैत्रे नावमिके तिथौ।। नक्षत्रेऽदितिदैवत्ये स्वोच्चसंस्थेषु पञ्चसु। ग्रहेषु कर्कटे लग्ने वाक्पताविन्दुना सह।।[13] अर्थात् चैत्र मास की नवमी तिथि में, पुनर्वसु नक्षत्र में, पाँच ग्रहों के अपने उच्च स्थान में रहने पर तथा कर्क लग्न में चन्द्रमा के साथ बृहस्पति के स्थित होने पर (श्रीराम का जन्म हुआ)। यहाँ केवल बृहस्पति तथा चन्द्रमा की स्थिति स्पष्ट होती है। बृहस्पति उच्चस्थ है तथा चन्द्रमा स्वगृही। आगे पन्द्रहवें श्लोक में सूर्य के उच्च होने का उल्लेख है। इस प्रकार बृहस्पति तथा सूर्य के उच्च होने का पता चल जाता है। बुध हमेशा सूर्य के पास ही रहता है। अतः सूर्य के उच्च (मेष में) होने पर बुद्ध का उच्च (कन्या में) होना असंभव है। इस प्रकार उच्च होने के लिए बचते हैं शेष तीन ग्रह -- मंगल, शुक्र तथा शनि। इसी कारण से प्रायः सभी विद्वानों ने राम-जन्म के समय में सूर्य, मंगल, बृहस्पति, शुक्र तथा शनि को उच्च में स्थित माना है। भगवान श्री राम जी के जन्म-समय पर आधुनिक शोध परम्परागत रूप से श्री राम जी का जन्म त्रेता युग में माना जाता है। हिंदू धर्मशास्त्रों में, विशेषतः पौराणिक साहित्य में उपलब्ध आँकड़ों के अनुसार एक चतुर्युगी में 43,20,000 वर्ष होते हैं, जिनमें कलियुग के 4,32,000 वर्ष तथा द्वापर के 8,64,000 वर्ष होते हैं। राम का जन्म त्रेता युग में अर्थात द्वापर से पहले हुआ था। चूँकि कलियुग का अभी प्रारंभ ही हुआ है (लगभग 5,500 वर्ष ही बीते हैं) और राम का जन्म त्रेता के अंत में हुआ तथा अवतार लेकर धरती पर उनके वर्तमान रहने का समय परंपरागत रूप से 11,000 वर्ष माना गया है।[14] अतः द्वापर युग के 8,64,000 वर्ष + राम की वर्तमानता के 11,000 वर्ष + द्वापर युग के अंत से अबतक बीते 5,100 वर्ष = कुल 8,80,100 वर्ष। अतएव परंपरागत रूप से राम का जन्म आज से लगभग 8,80,100 वर्ष पहले माना जाता है। प्रख्यात मराठी शोधकर्ता विद्वान डॉ० पद्माकर विष्णु वर्तक ने एक दृष्टि से इस समय को संभाव्य माना है। उनका कहना है कि वाल्मीकीय रामायण में एक स्थल पर विंध्याचल तथा हिमालय की ऊँचाई को समान बताया गया है। विंध्याचल की ऊँचाई 5,000 फीट है तथा यह प्रायः स्थिर है, जबकि हिमालय की ऊँचाई वर्तमान में 29,029 फीट है तथा यह निरंतर वर्धनशील है। दोनों की ऊँचाई का अंतर 24,029 फीट है। विशेषज्ञों की मान्यता के अनुसार हिमालय 100 वर्षो में 3 फीट बढ़ता है। अतः 24,029 फीट बढ़ने में हिमालय को करीब 8,01,000 वर्ष लगे होंगे। अतः अभी से करीब 8,01,000 वर्ष पहले हिमालय की ऊँचाई विंध्याचल के समान रही होगी, जिसका उल्लेख वाल्मीकीय रामायण में वर्तमानकालिक रूप में हुआ है। इस तरह डाॅ० वर्तक को एक दृष्टि से यह समय संभव लगता है, परंतु उनका स्वयं मानना है कि वे किसी अन्य स्रोत से इस समय की पुष्टि नहीं कर सकते हैं।[15] अपने सुविख्यात ग्रंथ 'वास्तव रामायण' में डॉ० वर्तक ने मुख्यतः ग्रहगतियों के आधार पर गणित करके[16] वाल्मीकीय रामायण में उल्लिखित ग्रहस्थिति के अनुसार राम की वास्तविक जन्म-तिथि 4 दिसंबर 7323 ईसापूर्व को सुनिश्चित किया है। उनके अनुसार इसी तिथि को दिन में 1:30 से 3:00 बजे के बीच राम का जन्म हुआ होगा।[17] डॉ० पी० वी० वर्तक के शोध के अनेक वर्षों के बाद[18] (2004 ईस्वी से) 'आई-सर्व' के एक शोध दल ने 'प्लेनेटेरियम गोल्ड' सॉफ्टवेयर का प्रयोग करके श्री राम का जन्म 10 जनवरी 5114 ईसापूर्व में सिद्ध किया। उनका मानना था कि इस तिथि को ग्रहों की वही स्थिति थी जिसका वर्णन वाल्मीकीय रामायण में है। परंतु यह समय काफी संदेहास्पद हो गया है। 'आई-सर्व' के शोध दल ने जिस 'प्लेनेटेरियम गोल्ड' सॉफ्टवेयर का प्रयोग किया वह वास्तव में ईसा पूर्व 3000 से पहले का सही ग्रह-गणित करने में सक्षम नहीं है।[19] वस्तुतः 2013 ईस्वी से पहले इतने पहले का ग्रह-गणित करने हेतु सक्षम सॉफ्टवेयर उपलब्ध ही नहीं था।[20] इस गणना द्वारा प्राप्त ग्रह-स्थिति में शनि वृश्चिक में था अर्थात उच्च (तुला) में नहीं था। चन्द्रमा पुनर्वसु नक्षत्र में न होकर पुष्य के द्वितीय चरण में ही था तथा तिथि भी अष्टमी ही थी।[21] बाद में अन्य विशेषज्ञ द्वारा ejplde431 सॉफ्टवेयर द्वारा की गयी सही गणना में तिथि तो नवमी हो जाती है परन्तु शनि वृश्चिक में ही आता है तथा चन्द्रमा पुष्य के चतुर्थ चरण में।[22] अतः 10 जनवरी 5114 ईसापूर्व की तिथि वस्तुतः श्रीराम की जन्म-तिथि सिद्ध नहीं हो पाती है। ऐसी स्थिति में अब यदि डॉ० पी० वी० वर्तक द्वारा पहले ही परिशोधित तिथि सॉफ्टवेयर द्वारा प्रमाणित हो जाए तभी श्रीराम का वास्तविक समय प्रायः सर्वमान्य हो पाएगा अथवा प्रमाणित न हो पाने की स्थिति में नवीन तिथि के शोध का रास्ता खुलेगा। श्री राम जी के जीवन की प्रमुख घटनाएँ बालपन और सीता-स्वयंवर पुराणों में श्री राम जी के जन्म के बारे में स्पष्ट प्रमाण मिलते कि श्री राम जी का जन्म वर्तमान उत्तर प्रदेश के अयोध्या जिले के अयोध्या नामक नगर में हुआ था। अयोध्या जो कि भगवान श्री राम जी के पूर्वजों की ही राजधानी थी। रामचन्द्र जी के पूर्वज रघु थे। भगवान श्री राम जी बचपन से ही शान्‍त स्‍वभाव के वीर पुरूष थे। उन्‍होंने मर्यादाओं को हमेशा सर्वोच्च स्थान दिया था। इसी कारण उन्‍हें मर्यादा पुरूषोत्तम राम के नाम से जाना जाता है। उनका राज्य न्‍यायप्रिय और खुशहाल माना जाता था। इसलिए भारत में जब भी सुराज (अच्छे राज) की बात होती है तो रामराज या रामराज्य का उदाहरण दिया जाता है। धर्म के मार्ग पर चलने वाले राम ने अपने तीनों भाइयों के साथ गुरू वशिष्‍ठ से शिक्षा प्राप्‍त की। किशोरावस्था में गुरु विश्वामित्र उन्‍हें वन में राक्षसों द्वारा मचाए जा रहे उत्पात को समाप्त करने के लिए साथ ले गये। राम के साथ उनके छोटे भाई लक्ष्मण भी इस कार्य में उनके साथ थे। ताड़का नामक राक्षसी बक्सर (बिहार) में रहती थी। वहीं पर उसका वध हुआ। राम ने उस समय ताड़का नामक राक्षसी को मारा तथा मारीच को पलायन के लिए मजबूर किया। इस दौरान ही गुरु विश्‍वामित्र उन्हें मिथिला ले गये। वहाँ के विदेह राजा जनक ने अपनी पुत्री सीता के विवाह के लिए एक स्वयंवर समारोह आयोजित किया था। जहाँ भगवान शिव का एक धनुष था जिसकी प्रत्‍यंचा चढ़ाने वाले शूरवीर से सीता का विवाह किया जाना था। बहुत सारे राजा महाराजा उस समारोह में पधारे थे। जब बहुत से राजा प्रयत्न करने के बाद भी धनुष पर प्रत्‍यंचा चढ़ाना तो दूर उसे उठा तक नहीं सके, तब विश्‍वामित्र की आज्ञा पाकर राम ने धनुष उठा कर प्रत्‍यंचा चढ़ाने का प्रयत्न किया। उनकी प्रत्‍यंचा चढाने के प्रयत्न में वह महान धनुष घोर ध्‍‍वनि करते हुए टूट गया। महर्षि परशुराम ने जब इस घोर ध्‍वनि को सुना तो वे वहाँ आ गये और अपने गुरू (शिव) का धनुष टूटनें पर रोष व्‍यक्‍त करने लगे। लक्ष्‍मण उग्र स्‍वभाव के थे। उनका विवाद परशुराम से हुआ। (वाल्मिकी रामायण में ऐसा प्रसंग नहीं मिलता है।) तब राम ने बीच-बचाव किया। इस प्रकार सीता का विवाह राम से हुआ और परशुराम सहित समस्‍त लोगों ने आशीर्वाद दिया। अयोध्या में राम सीता सुखपूर्वक रहने लगे। लोग राम को बहुत चाहते थे। उनकी मृदुल, जनसेवायुक्‍त भावना और न्‍यायप्रियता के कारण उनकी विशेष लोकप्रियता थी। राजा दशरथ वानप्रस्‍थ की ओर अग्रसर हो रहे थे। अत: उन्‍होंने राज्‍यभार राम को सौंपनें का सोचा। जनता में भी सुखद लहर दौड़ गई की उनके प्रिय राजा उनके प्रिय राजकुमार को राजा नियुक्‍त करनेवाले हैं। उस समय राम के अन्‍य दो भाई भरत और शत्रुघ्‍न अपने ननिहाल कैकेय गए हुए थे। कैकेयी की दासी मन्थरा ने कैकेयी को भरमाया कि राजा तुम्‍हारे साथ गलत कर रहें है। तुम राजा की प्रिय रानी हो तो तुम्‍हारी संतान को राजा बनना चाहिए पर राजा दशरथ राम को राजा बनाना चा‍हते हैं। भगवान श्री राम जी के बचपन की विस्तार-पूर्वक विवरण स्वामी तुलसीदास की रामचरितमानस के बालकाण्ड से मिलती है। वनवास राजा दशरथ के तीन रानियाँ थीं: कौशल्या, सुमित्रा और कैकेयी। भगवान श्री राम जी कौशल्या के पुत्र थे, सुमित्रा के दो पुत्र, लक्ष्मण और शत्रुघ्न थे और कैकेयी के पुत्र भरत थे। राज्य नियमो से राजा का ज्येष्ठ लड़का ही राजा बनने का पात्र होता है अत: राम को अयोध्या का राजा बनना निश्चित था। कैकेयी जिन्होने दो बार दशरथ की जान बचाई थी और दशरथ ने उन्हें यह वर दिया था कि वो जीवन के किसी भी पल उनसे दो वर मांग सकती है। राम को राजा बनते हुए और भविष्य को देखते हुए कैकेयी चाहती थी उसका पुत्र भरत ही राजा बनें, इसलिए उन्होने राजा दशरथ द्वारा राम को १४ वर्ष का वनवास दिलाया और अपने पुत्र भरत के लिए अयोध्या का राज्य मांग लिया। वचनों में बंदे राजा दशरथ को मजबूरन यह स्वीकार करना पड़ा। राम ने अपने पिता की आज्ञा का पालन किया। राम की पत्नी सीता और उनके भाई लक्ष्मण भी वनवास गये थे। सीता का हरण वनवास के समय, रावण ने सीता का हरण किया था। रावण एक राक्षस तथा लंका का राजा था। रामायण के अनुसार, जब श्री राम जी , सीता जी और लक्ष्मण जी कुटिया में थे तब एक हिरण की वाणी सुनकर सीता व्याकुल हो गयी। वह हिरण रावण का मामा मारीच था। उसने रावण के कहने पर सुनहरे हिरण का रूप बनाया। सीता जी उसे देख कर मोहित हो गई और श्रीराम जी से उस हिरण का शिकार करने का अनुरोध किया। श्रीराम जी अपनी भार्या की इच्छा पूरी करने चल पड़े और लक्ष्मण जी से सीता की रक्षा करने को कहा| मारीच श्रीराम जी को बहुत दूर ले गया। मौका मिलते ही श्रीराम जी ने तीर चलाया और हिरण बने मारीच का वध किया। मरते-मरते मारीच ने ज़ोर से "हे सीता! हे लक्ष्मण!" की आवाज़ लगायी| उस आवाज़ को सुन सीता चिन्तित हो गयीं और उन्होंने लक्ष्मण जी को श्रीराम जी के पास जाने को कहा| लक्ष्मण जी जाना नहीं चाहते थे, पर अपनी भाभी की बात को इंकार न कर सके। लक्ष्मण ने जाने से पहले एक रेखा खींची, जो लक्ष्मण रेखा के नाम से प्रसिद्ध है। भगवान श्री राम जी, अपने भाई लक्ष्मण के साथ सीता की खोज में दर-दर भटक रहे थे। तब वे हनुमान और सुग्रीव नामक दो वानरों से मिले। हनुमान, राम के सबसे बड़े भक्त बने। रावण का वध सीता को को पुनः प्राप्त करने के लिए भगवन श्री राम जी ने हनुमान,विभीषण और वानर सेना की मदद से रावन के सभी बंधु-बांधवों और उसके वंशजों को पराजित किया तथा लौटते समय विभीषण को लंका का राजा बनाकर अच्छे शासक के लिए मार्गदर्शन किया। अयोध्या वापसी भगवान श्री राम जी ने जब रावण को युद्ध में परास्त किया और उसके छोटे भाई विभीषण को लंका का राजा बना दिया। श्री राम जी, सीता, लक्षमण और कुछ वानर जन पुष्पक विमान से अयोध्या की ओर प्रस्थान किया। वहां सबसे मिलने के बाद राम और सीता का अयोध्या में राज्याभिषेक हुआ। पूरा राज्य कुशल समय व्यतीत करने लगा। दैहिक त्याग सीता की सती प्रमाणिकता सिद्ध होने के पश्चात सीता अपने दोनों पुत्रों कुश और लव को राम के गोद में सौंप कर धरती माता के साथ भूगर्भ में चली गई। ततपश्चात रामजन्म की जीवन भी पूर्ण हो गई थी। अतः उन्होंने यमराज की सहमति से सरयू नदी के तट पर गुप्तार घाट में दैहिक त्याग कर पुनः बैकुंठ धाम में विष्णु रूप में विराजमान हो गये। इन्हें भी देखें रामायण रामचरितमानस रामकथा : उत्पत्ति और विकास जैन धर्म में राम कृष्ण शुद्ध रामायण सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ श्रेणी:हिन्दू धर्म श्रेणी:राम श्रेणी:अयोध्याकुल श्रेणी:विष्णु अवतार श्रेणी:रामायण के पात्र • शुद्ध रामायण
भगवान राम को कुल कितने पुत्र थे?
दो
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हंसिका मोटवानी (जन्म 9 अगस्त 1991) एक भारतीय अभिनेत्री है जो मुख्यत तमिल और तेलुगू फिल्मों में काम करती है। निजी जीवन (मुंबई, भारत) में जन्मी, हंसिका वर्त्तमान में १२ वीं ग्रेड में अ स्तर में है .वह पोद्दार अंतर्राष्ट्रीय विद्यालय में पढ़ रही है (Podar International School).हंसिका मुख्यतः तेलुगु, अंग्रेजी, हिन्दी और टूटी-फूटी तुलु भाषा बोल लेती हैं . हंसिका और उनका परिवार बौद्ध है। उसके पिताजी का नाम श्री प्रदीप मोटवानी और माता का नाम श्रीमती मोना मोटवानी है .जहाँ उसके पिताजी व्यापर करते हैं वहीं उसकी माँ एक प्रशिद्ध त्वचा रोग विशेषज्ञ हैं . फ़िल्म व्यवसाय हंसिका ने फ़िल्म कैरियर की शुरुआत पुरी जगन्नाथ की तेलुगु फ़िल्म, देसमुद्रू से की, जिसमे अल्लू अर्जुन अल्लू अर्जुन अभिनेता थे। फ़िल्म की कहानी एक अपराध संवाददाता से जुड़ी हुई है जो हंसिका से प्यार करने लगता है, जिसमें वह एक संन्यासी का रोल अदा करती है।[1] उनके पास एक हिन्दी फ़िल्म है जिसका नाम He: The Only One है जिसमे उन्हें एक हत्यारे की भूमिका निभानी है, जो पारिवारिक बदला लेने के लिए आतुर।[2]. हंसिका ने बॉलीवुड में मुख्य अभिनेत्री के रूप में पहली फ़िल्म हिमेश रेशमिया के साथ आप का सुरूर -- द रियल लव स्टोरी है। वह फ़िल्म में हिमेश रेशमिया की प्रेमिका रिया का पात्र निभाई है। २९ जून २००७ को यह फ़िल्म प्रदर्शित हुई और भारत के अधिकतर भाग में हिट हुई। यह फ़िल्म उसके के लिए मार्ग प्रशस्त किया जो कि एक नवांगतुक है। हंसिका ने कन्नड़ फ़िल्म बिंदास में पुनीत राजकुमार के साथ मुख्य अभिनेत्री की भूमिका निभाई है। यह फ़िल्म १५ फ़रवरी २००८ को प्रदर्शित हुई। वह जूनियर एनटीआर के साथ फ़िल्म कंट्री में काम किया जो मई २००८ में प्रदर्शित हुई। यह फ़िल्म एक मध्यम हिट रही। यह अपवाह फैलाई गई कि वह अपनी आने वाली फ़िल्म " पुली" में प्रशिद्ध अभिनेता पवन कल्याण के साथ काम कर रही हैं। उन्हें हाल ही में प्रतिष्टित फ़िल्म फेयर पुरस्कार में सर्वश्रेष्ट महिला अभिनेत्री पुरस्कार से नवाजा गया। एक और फ़िल्म जिसका शीर्षक मनी है तो हनी है बन रही है। MHTHH में, हंसिका गोविंदा के साथ काम कर रही है। धारावाहिक हम दो हैं ना --- करीना और कोयल के रूप में क्योंकि सास भी कभी बहू थी --- सावरी के रूप में शाका लाका बूम बूम --- भाग १ में करूणा के रूप में और भाग २ में शोना के रूप में देश में निकला होगा चांद --- टीना के रूप में फिल्में आबरा का डाबरा (दिसम्बर) हम कौन है (३ सितम्बर २००४).....सारा विलियम्स जागो (6 फ़रवरी 2004) ...... श्रुति कोई मिल गया (८ अगस्त २००३) ......The Super Six हवा (४ जुलाई २००३) एस्केप फ़्रोम तालिबान (१४ फ़रवरी २००३) गुंचा (सीमा मोटवानी के रूप में) अग्रणी भूमिका में फ़िल्म प्रदर्शन की तारीख भाषा साथी कलाकार अन्य नोट्स टिपण्णी देसमुदुरु १२ जनवरी २००७ तेलुगुअल्लू अर्जुन आरंभिक फ़िल्म सुपर हिटआप का सुरुर २९ जून २००७ हिन्दीहिमेश रेशमियाबॉलीवुड में पहली फ़िल्म हिट बिंदास१५ फ़रवरी २००८ कन्नड़ पुनीत राजकुमार कन्नड़ की पहली फ़िल्म सुपीर हिट कंट्री ९ मई २००८ तेलुगुJr.NTRहिट मनी है तो हनी है २५ जुलाई २००८ हिन्दीगोविंदा सन्दर्भ बाहरी सम्बन्ध at IMDb श्रेणी:1991 में जन्मे लोग श्रेणी:जीवित लोग श्रेणी:मुंबई के लोग श्रेणी:भारतीय फ़िल्म अभिनेत्री श्रेणी:तेलुगू अभिनेत्री श्रेणी:व्यक्तिगत जीवन श्रेणी:भारतीय अभिनेत्री
हंसिका मोटवानी का जन्म कब हुआ था?
9 अगस्त 1991
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सारस विश्व का सबसे विशाल उड़ने वाला पक्षी है। इस पक्षी को क्रौंच के नाम से भी जानते हैं। पूरे विश्व में भारतवर्ष में इस पक्षी की सबसे अधिक संख्या पाई जाती है। सबसे बड़ा पक्षी होने के अतिरिक्त इस पक्षी की कुछ अन्य विशेषताएं इसे विशेष महत्व देती हैं। उत्तर प्रदेश के इस राजकीय पक्षी को मुख्यतः गंगा के मैदानी भागों और भारत के उत्तरी और उत्तर पूर्वी और इसी प्रकार के समान जलवायु वाले अन्य भागों में देखा जा सकता है। भारत में पाये जाने वाला सारस पक्षी यहां के स्थाई प्रवासी होते हैं और एक ही भौगोलिक क्षेत्र में रहना पसंद करते हैं। सारस पक्षी का अपना विशिष्ट सांस्कृतिक महत्व भी है। विश्व के प्रथम ग्रंथ रामायण की प्रथम कविता का श्रेय सारस पक्षी को जाता है। रामायण का आरंभ एक प्रणयरत सारस-युगल के वर्णन से होता है। प्रातःकाल की बेला में महर्षि वाल्मीकि इसके द्रष्टा हैं तभी एक आखेटक द्वारा इस जोड़े में से एक की हत्या कर दी जाती है। जोड़े का दूसरा पक्षी इसके वियोग में प्राण दे देता है। ऋषि उस आखेटक को श्राप देते हैं। मा निषाद प्रतिष्ठांत्वमगमः शाश्वतीः समाः। यत् क्रौंचमिथुनादेकं वधीः काममोहितम्।। अर्थात्, हे निषाद! तुझे निरंतर कभी शांति न मिले। तूने इस क्रौंच के जोड़े में से एक की जो काम से मोहित हो रहा था, बिना किसी अपराध के हत्या कर डाली। वर्गीकरण एवं सामान्य विवरण लाइनस के द्विपद नाम वर्गीकरण में इसे ग्रस एंटीगोन (Grus antigone) कहते हैं। वर्ग गुइफॉर्मस् (Guiformes) का यह सदस्य श्वेताभ-सलेटी रंग के परों से ढका होता है। कलगी पर की त्वचा चिकनी हरीतिमा लिए हुए होती है। ऊपरी गर्दन और सिर के हिस्सों पर गहरे लाल रंग की थोड़ी खुरदरी त्वचा होती है। कानों के स्थान पर सलेटी रंग के पर होते हैं। इनका औसत भार ७.३ किलो ग्राम तक होता है। इनकी लंबाई १७६ सेमी. (५.६-६ फीट) तक हो सकती है। इनके पंखो का फैलाव २५० सेमी. (~८.५ फीट) तक होता है। अपने इस विराट व्यक्तित्व के कारण इसको धरती के सबसे बड़े उड़ने वाले पक्षी की संज्ञा दी गई है। नर और मादा में ऐसा कोई विभेदी चिह्न दृष्टिगोचर नहीं होता लेकिन जोड़े में मादा को इसके अपेक्षाकृत छोटे शरीर के कारण आसानी से पहचाना जा सकता है। वितरण और आवास पूरे विश्व में इसकी कुल आठ जातियां पाई जाती हैं। इनमें से चार भारत में पाई जाती हैं। पांचवी साइबेरियन क्रेन भारत में से सन् २००२ में ही विलुप्त हो गई। भारत में सारस पक्षियों की कुल संख्या लगभग ८००० से १०००० तक है। इनका वितरण भारत के उत्तरी, उत्तर-पूर्वी, उत्तर-पश्चिमी एवं पश्चिमी मैदानो में और नेपाल के कुछ तराई इलाको में है। विशेषतः गंगीय प्रदेशों के मैदानी भाग इनके प्रिय आवासीय क्षेत्र होते हैं। भारत में पाए जाने वाले सारस प्रवासी नहीं होते हैं और मुख्यतः स्थाई रूप से एक ही भौगोलिक क्षेत्र में निवास करते हैं। इनके मुख्य निवास स्थान दलदली भूमि, बाढ़ वाले स्थान, तालाब, झील, परती जमीन और मुख्यतः धान के खेत इत्यादि हैं। ये मुख्यतः २ से ५ तक की संख्या में रहते हैं। अपने घोसले छिछले पानी के आस-पास में जहां हरे-भरे पौधों (मुख्यतः झाड़ियां और घास) की बहुतायत होती है वहीं बनाना पसंद करते हैं। ये मुख्यतः शाकाहारी होते हैं और कंदो, बीजों और अनाज के दानों को ग्रहण करते हैं। कभी कभी ये कुछ छोटे अकशेरुकी जीवों को भी खाते हैं। प्रजनन नर और मादा युगल एक दूसरे के प्रति पूर्णतः समर्पित होते हैं। एक बार जोड़ा बनाने के बाद ये जीवन भर साथ रहते हैं। अगर किसी दुर्घटना में किसी एक साथी की मृत्यु हो जाए तो दूसरा अकेले ही रहता है। मुख्यतः वर्षा ऋतु इनका प्रजनन काल है। इनके प्रणय का आरंभ नृत्य से होता है। नृत्य के आरंभ से पहले ये पक्षी अपनी चोंच को आसमान की ओर कर के विशेष तीव्र ध्वनियां निकालते हैं। इस प्रणय ध्वनि का आरंभ मादा करती है और नर की प्रत्येक अपेक्षाकृत लंबी ध्वनि के उत्तर में दो बार छोटी ध्वनियां निकालती है। ध्वनि के समय नर अपनी चोंच और गर्दन को आसमान की तरफ सीधा रखता है और पंखो को फैलाता है। मादा केवल गर्दन और चोंच को सीधा रखती है और ध्वनि निकालती है। इनका प्रणय नृत्य आकर्षक होता है। ये इसे विभिन्न तरह से पंखो को फड़फड़ा के, अपने स्थान पर कूद के और थोड़ी दूरी तक गोलाई में दौड़ कर और छोटे घास एवं लकड़ियों को उछाल कर पूरा करते हैं। मादा एक बार में दो से तीन अंडे देती है। इन अंडो को नर और मादा बारी-बारी से सेते हैं। नर सारस मुख्यतः सुरक्षा की भूमिका अदा करता है। लगभग एक महीने के पश्चात उसमें से बच्चे बाहर आते हैं। बच्चों के बाहर आने के बाद माता-पिता ४-५ सप्ताह तक उनका पोषण नन्हे कोमल जड़ों, कीटों, सूँडियों और अनाज के दानो इत्यादि से करते हैं। इतने समय के बाद बच्चे अपने माता-पिता के जैसे अपना आहार स्वयं प्राप्त करना सीख लेते हैं। बच्चे लगभग दो महीनों में अपनी प्रथम उड़ान भरने के योग्य हो जाते हैं। नन्हे सारस का शरीर बहुत हल्की लालिमायुक्त भूरे मुलायम रोंएदार परों से ढ़का होता है। जो लगभग एक वर्ष में श्वेताभ हो जाते हैं। सारस पक्षी का संपूर्ण जीवन काल १८ वर्षों तक हो सकता है। नर और मादा सारस में कोई विभेदी चिह्न दृष्टिगोचर नहीं होता लेकिन जब नर और मादा साथ साथ होते हैं तो मादा को इसके थोड़े से छोटे आकार के कारण आसानी से पहचाना जा सकता है। सारस पक्षी की सामाजिक स्थिति इस पक्षी को प्रेम और समर्पण का प्रतीक मानते हैं। यह पक्षी अपने जीवन काल में मात्र एक बार जोड़ा बनाता है और जोड़ा बनाने के बाद सारस युगल पूरे जीवन भर साथ रहते हैं। यदि किसी कारण से एक साथी की मृत्यु हो जाती है तो दूसरा बहुत सुस्त होकर खाना पीना बंद कर देता है जिससे प्रायः उसकी भी मृत्यु हो जाती है। अपनी इस विशेषता के कारण इसे एक अच्छी सामाजिक स्थिति प्राप्त है। भारत के कुछ भागों में नवविवाहित युगल के लिए सारस युगल का दर्शन करना अनिवार्य होता है। यहां यह उल्लेखनीय है कि बाल्मीकी ने रामायण लिखने का आरंभ सारस पक्षी के वर्णन से ही किया था। प्रणयरत सारस पक्षी युगल में से एक की शिकारी द्वारा तीर से हत्या कर दी जाती है तो दूसरा अपने साथी के वियोग में वहीं तड़प कर प्राण त्याग देता है। इस घटना से द्रवित होकर महर्षि उस शिकारी को श्राप देते हैं और वही पंक्तियां रामायण के प्रथम श्लोक के रूप में लिपिबद्ध होती हैं। सारस युगल को पवित्र और सौभाग्यदायक पक्षी के रूप में मान्यता मिली हुई है और इस पक्षी का वर्णन लोककथाओं और लोक गीतों में मिलता रहता है। संरक्षण स्थिति भारत में सारस पक्षियों की कुल संख्या लगभग ८,००० से १०,००० तक है। वर्तमान काल में इस पक्षी के साथ दुखद् बात जुड़ी हुई है। वैश्विक स्तर पर इसकी संख्या में हो रही कमी को देखते हुए IUCN (International Union for Conservation of Nature) द्वारा इसे संकटग्रस्त प्रजाति घोषित किया गया है[1] और इसकी वर्तमान संरंक्षण स्थिति को (VUA2cde + 3cde) द्वारा निरूपित किया गया है। इसका अर्थ यह है कि वैश्विक स्तर पर इस पक्षी की संख्या में तेजी से कमी आ रही है और अगर इसकी सुरक्षा के समुचित उपाय नहीं किये गए तो यह प्रजाति विलुप्त हो सकती है। यहां यह उल्लेखनीय है कि मलेशिया, फिलीपिन्स और थाइलैंड में सारस पक्षी की यह जाति पूरी तरह से विलुप्त हो चुकी है। भारत वर्ष में भी कथित रूप से विकसित स्थानों में से अधिकांश स्थानों पर सारस पक्षी विलुप्तप्राय हो चुके हैं।[2] इसकी घटती संख्या के अनेक कारण हैं। खेती की कम होती भूमि, सिमटते जंगल, कीटनाशकों का अंधाधुंध प्रयोग और मानवों की बढ़ती आबादी इसके मुख्य कारण हैं। तेजी से बदलता पर्यावरण और बढ़ता प्रदूषण भी इसके लिए उत्तरदाई है। इसके अतिरिक्त बिजली की अति उच्च धारा वाले तारों से भी इनको बहुत बड़ा खतरा है। ये बिजली के खंबे सामान्यतः आबादी से थोड़ी दूरी पर स्थापित किए जाते हैं और इन जगहों पर सारस के आने की पूर्ण संभावनाएं होती हैं। इसके अतिरिक्त इनके शिकार एवं अंडो तथा चूजों की तस्करी के भी प्रमाण मिले हैं। आकार में बड़ा होने के नाते इसे बाकी शिकारी पक्षियों (जैसे कौवे और चील आदि) से कोई खतरा नहीं है। जंगली बिल्लियां और लोमड़ियां कभी-कभी इनके बच्चों को उठा ले जाती हैं। लेकिन ऐसा तभी होता है जब ये अपने घोसलों से दूर होते हैं। लेकिन ये जंगली कुत्तों के झुंड से अपने आपको असहाय पाते हैं। यह देखा गया है कि सारस उन्ही जगहों पर अधिक पाए जाते हैं जहां पर थोड़ा कम विकास हुआ है। शहरीकरण और औद्योगीकरण से दूर के स्थानों पर ये ज्यादा फलते-फूलते हैं। विशेष तौर पर जहां रासायनिक खादों और मशीनीकरण का प्रकोप कम है। आज-कल के कथित रूप से विकसित स्थानों पर इनकी संख्या में आश्चर्यजनक रूप से गिरावट आई है। उड़ीसा, मध्य प्रदेश, बिहार और गुजरात की कुछ जनजातियां इनका शिकार करती हैं। इन स्थानों पर भी ये विलुप्तप्राय हैं। संक्षेप में कहा जाए तो मानव की बढती हुई लिप्सा इस स्थिति के लिए जिम्मेदार है। सारस पक्षियों की घटती हुई संख्या इस बात का द्योतक है कि अब खतरे का समय आ चुका है और हमारे पर्यावरण और समाज में बड़े स्तर पर बदलाव की आवश्यकता है। सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ (पाञ्चजन्य) (रेडियो रूस) श्रेणी:पक्षी श्रेणी:भारत के पक्षी श्रेणी:पर्यावरण विज्ञान
क्रेन पक्षी का वैज्ञानिक नाम क्या है?
ग्रस एंटीगोन
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विद्याधर शास्त्री (१९०१-१९८३) संस्कृत कवि और संस्कृत तथा हिन्दी भाषाओं के विद्वान थे। आपका जन्म राजस्थान के चूरु शहर में हुआ था। पंजाब विश्वविद्यालय (लाहौर) से शास्त्री की परीक्षा आपने सोलह वर्ष की आयु में उत्तीर्ण की थी। आगरा विश्वविद्यालय (वर्तमान डॉ॰ भीमराव अम्बेडकर विश्वविद्यालय) से आपने संस्कृत कलाधिस्नातक परीक्षा में सफलता प्राप्त की। शिक्षण कार्य और अकादमिक प्रयासों के दौरान आपने बीकानेर शहर में जीवन व्यतीत किया। १९६२ में भारत के राष्ट्रपति द्वारा विद्यावाचस्पति की उपाधि से आपको सम्मानित किया गया था। पारिवारिक पृष्ठभूमि विद्याधर शास्त्री सुप्रसिद्ध भाष्याचार्य हरनामदत्त शास्त्री के पौत्र थे। बीकानेर रियासत के महाराजा गंगा सिंह ने आपके पिता विद्यावाचस्पति देवीप्रसाद शास्त्री को राज पंडित के रूप में नियुक्त किया था। इतिहासकार दशरथ शर्मा और न्यायाधीश भानु प्रकाश शर्मा उनके छोटे भाई थे। आपके बड़े पुत्र दिवाकर शर्मा भी संस्कृत विद्वान थे और छोटे पुत्र गिरिजा शंकर शर्मा इतिहासकार और हिंदी तथा राजस्थानी भाषा के विद्वान हैं। शैक्षणिक नियुक्तियाँ १९२८ में आपको डूंगर महाविद्यालय (बीकानेर) में संस्कृत व्याख्याता नियुक्त किया गया, १९३६ में आप संस्कृत विभाग के अध्यक्ष बने। १९५६ में डूंगर महाविद्यालय से अवकाश ग्रहण करने के पश्चात आप हीरालाल बारह्सैनी महाविद्यालय (अलीगढ़) में संस्कृत विभाग के अध्यक्ष रहे। १९५८ में संस्कृत, हिंदी और राजस्थानी साहित्य को बढ़ावा देने के लिए आपने हिन्दी विश्व भारती (बीकानेर) की स्थापना की। आपने जीवन पर्यन्त इस संस्था का नेतृत्व किया। शिष्य वर्ग बीकानेर के राजपरिवार के गुरु होने के अलावा शास्त्रीजी ने कई छात्रों को प्रेरित किया। इन छात्रों की प्रमुख नामों में नरोत्तमदास स्वामी, डॉ ब्रह्मानंद शर्मा, श्री काशीराम शर्मा, श्रीमती कृष्णा मेहता और श्री रावत सारस्वत शामिल हैं। ग्रन्थकारिता संस्कृत महाकाव्य, हरनामाम्रितम् केवल पितामह का जीवन चरित नहीं बल्कि उदारचेता प्रशांताभाव विद्वानों का चरित चिंतन है। महाकाव्य पाठकों को प्रेरित करने के लिए हैं जिससे वह विश्वकल्याण के लिए स्वयं को समर्पित करें। महाकाव्य विश्वमानवियम् में कवि आधुनिकीकरण और १९६९ चन्द्र अभियान के प्रभाव को संबोधित करता है।विक्रमाभिनन्दनम् में कवि ने चंद्रगुप्त विक्रमादित्य के शासनकाल में भारतीय सांस्कृतिक परम्पराओं का चित्रण किया है। आदि शंकर, रानी पद्मिनी, राणा प्रताप, गुरु गोविंद सिंह, शिवाजी इत्यादि महान पुरुषों का चरित्र स्मरण है। वैचित्र्य लहरी अपने अनर्गल व्यवहार पर प्रतिबिंबित करने के लिए जनता को एक विनती है।मत्त लहरी कवि की व्यंग कृति है। मत्त लहरी का नायक एक मध्यप (शराबी) है जो सभी को मधुशाला में समाज के बंधन से मुक्ति का आश्वासन देता है।. आनंद मंदाकिनी मत्त लहरी की पूरक है। यहां शराबी का साथी उसे चेत्रित करता है कि मदिरापान में व्यतीत समय असाध्य होगा। हिमाद्रि माहात्य़म् मदन मोहन मालवीय शताब्दी उत्सव के वर्ष में में लिखी गयी थी। उसी वर्ष चीन ने भारत पर आक्रमण किया था। कविता में मदन मोहन मालवीय सभी भारतीयों से हिमालय की रक्षा का निवेदन करते हुए कहते हैं कि हिमालय के महत्व को न भूलें। शाकुन्तल विज्ञानम् कालिदास नाटक अभिज्ञान शाकुंतलम् पर टिप्पणी है, कवि के अनुसार नाटक में प्रेम भावना का सामर्थ्य दर्शित किया गया है। शिव पुष्पांजलि १९१५ में प्रकाशित हुई थी, कवि की यह प्राथमिक प्रकाशित रचना है। इसमें कवि ने कई छंदों का उपयोग किया है तथा ग़ज़ल और कव्वाली की शैली का भी प्रयोग है। सूर्य स्तवन तथा शिव पुष्पांजलि साथ ही प्रकाशित हुई थी, इस रचना में भी कई छंदों का उपयोग है। लीला लहरी में कवि भारतीय दर्शन की सभी शाखाओं के साथ पाठक को परिचित कराता है परन्तु अद्वैत को प्रधान मानता है। पूर्णानन्दम् संस्कृत नाटक पूर्णानन्दम् एक प्रसिद्ध लोक कथा पर आधारित है। नायक पूर्णमल का शीतलकोट शहर के राजकुमार रूप में जन्म होता है। प्रतिकूल ग्रहों के कारण राजा को उसे सोलह साल के लिए महल से बाहर भेजना पड़ता है। इस अन्तरकाल में राजा एक युवती नवीना से विवाह कर लेता है। जब पूर्णमल महल वापस पहुँचता है तो नवीना उसपर आसक्त हो जाती है। पूर्णमल जब नवीना को ठुकराता है तो नवीना उसको राजा से मृत्यु दंड दिलवा देती है। वधिक (जल्लाद) जंगल में पूर्णमल को कुँए में गिरा कर राजा के पास वापस चले जाते हैं। गुरु गोरखनाथ और उनके शिष्य कुँए से पूर्णमल को बचाकर अपने आश्रम ले जाते हैं। शिक्षा ग्रहण कर पूर्णमल गुरु के आज्ञानुसार शीतलकोट वापस लौटता है। वृद्ध राजा पूर्णमल को छाती से लगा कर दहाड़ मार कर रो उठता है। पूर्णमल की माता अक्षरा की प्रार्थना के कारण गुरु गोरखनाथ प्रकट होते हैं। गुरु गोरखनाथ अपने शिष्य पूर्णमल को जब तक नवीना का पुत्र योग्य न हो तब तक राज्य भार का कार्य संभालने का आदेश देकर अन्तर्धान हो जाते हैं। इस नाटक में भौतिक जीवन से अध्यात्मिक जीवन की श्रेष्ठता प्रतिपादित की गयी है। प्रमुख सम्मान भारतीय विद्या भवन, मुंबई द्वारा आयोजित 'संस्कृत विश्व परिषद्' के वाराणसी अधिवेशन में आपको राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद ने संस्कृत भाषा में विशिष्ट योगदान के लिए सम्मानित किया। राजस्थान साहित्य अकादमी, उदयपुर ने आपको अपनी सर्वोच्च उपाधि साहित्य मनीषी से सम्मानित किया। अखिल भारतीय संस्कृत सम्मलेन के स्वर्णजयंती के अवसर पर तत्कालीन राष्ट्रपति सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने आपको विद्यावाचस्पति उपाधि देकर सम्मान प्रदान किया। भारत की स्वतंत्रता के रजत जयंती वर्ष में राष्ट्रपति वी॰ वी॰ गिरि ने आपको एक संस्कृत विद्वान के रूप में सम्मानित किया। अखिल भारतीय संस्कृत प्रचार सभा, दिल्ली ने कवि सम्राट की उपाधि से सम्मानित किया। भारतीय गणतंत्र की रजत जयंती पर आप राष्ट्रीय संस्कृत मनीषी के रूप में सम्मानित हुए। १९८२ में महाराणा मेवाड़ फाउंडेशन उदयपुर के हरित ऋषि की स्मृति में दिए जाने वाले सम्मान से आप सम्मानित हुए। ग्रंथ सूची संस्कृत महाकाव्य हरनामाम्रितम् विश्वमानवियम् संस्कृत कविताएँ विक्रमाभिनन्दनम् वैचित्र्य लहरी मत्त लहरी आनंद मंदाकिनी हिमाद्रि माहात्य़म् शाकुन्तल विज्ञानम् अलिदुर्ग दर्शनम् स्तवन काव्य शिव पुष्पांजलि सूर्य स्तवन लीला लहरी संस्कृत नाटक पूर्णानन्दम् कलिदैन्य़म् दुर्बल बलम् चम्पूकाव्य (चम्पूकाव्य में गद्य और पद्य मिश्रित होते हैं) विक्रमाभ्य़ुदय़म् ग्रन्थ संग्रह विद्याधर ग्रंथावली प्रकाशक: राजस्थान साहित्य अकादमी, उदयपुर १९७७ संपादित कृष्णग्रंथावली (तुलसीदास रचित कविताएँ), संपादक: नरोत्तमदास स्वामी तथा विद्याधर शास्त्री, १९३१ में प्रकाशित स्रोत सामग्री सारस्वत, परमानन्द (१९८४) साहित्य़स्रष्टा श्री विद्याधर शास्त्री, गनु प्रकाशन, बीकानेर बाहरी कड़ियाँ लाइब्रेरी ऑफ़ कांग्रेस संग्रह सूची में साहित्य़स्रष्टा श्री विद्याधर शास्त्री लाइब्रेरी ऑफ़ कांग्रेस संग्रह सूची में हरनामाम्रितम् लाइब्रेरी ऑफ़ कांग्रेस संग्रह सूची में विद्याधर ग्रंथावली लाइब्रेरी ऑफ़ कांग्रेस संग्रह सूची में कृष्णग्रंथावली श्रेणी:संस्कृत कवि श्रेणी:संस्कृत नाटककार श्रेणी:संस्कृत विद्वान श्रेणी:व्यक्तिगत जीवन श्रेणी:राजस्थान के लोग श्रेणी:1901 में जन्मे लोग
विद्याधर शास्त्री को भारत के राष्ट्रपति द्वारा किस उपाधि से सम्मानित किया गया था?
विद्यावाचस्पति
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उत्तर अमेरिका (अंग्रेजी: North America; स्पेनी: América del Norte; फ़्रान्सीसी: Amérique du Nord) महाअमेरिका (उत्तर और दक्षिण अमेरिका संयुक रूप से) का उत्तरी महाद्वीप है, जो पृथ्वी के उत्तरी गोलार्ध में स्थित है और पूर्णतः पश्चिमी गोलार्ध में आता है। उत्तर में यह आर्कटिक महासागर, पूर्व में उत्तरी अन्ध महासागर, दक्षिणपूर्व में कैरिबियाई सागर और पश्चिम में उत्तरी प्रशान्त महासागर से घिरा हुआ है। उत्तर अमेरिका का मुख्य भाग ४० उत्तरी अक्षांश से ८३० उत्तरी अक्षांश तथआ ५३० पश्चिमी देशान्तर से १६८० पश्चिमी देशान्तर के बीच स्थित है। इसका आकार त्रिभुज के समान है जिसका शीर्ष दक्षिण की ओर और आधार उत्तर की ओर है। उत्तर अमेरिका का कुल भूभाग २,४७,०९,००० वर्ग किलोमीटर है, पृथ्वी की कुल सतह का ४.८% या कुल भूभाग का १६.५%। जुलाई, २००८ तक, इसकी अनुमानित जनसंख्या ५२.९ करोड़ थी। क्षेत्रफल की दृष्टि से यह एशिया और अफ़्रीका के बाद विश्व का तीसरा सबसे बड़ा और जनसंख्या की दृष्टि से यह एशिया, अफ़्रीका और यूरोप के बाद चौथा सबसे बड़ा महाद्वीप है। नामोत्पत्ति व्यापक रूप से यह माना जाता है, की उत्तर और दक्षिण अमेरिका का यह नाम मार्टिन वाल्डसिम्यूलर और मात्थियास रिंगमन नामक दो जर्मन मानचित्रकारों द्वारा, अमेरिगो वेस्पूची के नाम पर रखा गया, जो एक इतालवी खोजकर्ता था। वेस्पूची ही वह पहला यूरोपीय व्यक्ति था जिसने यह सुझाया कि महाअमेरिका पूर्वी इंडीस नहीं हैं, बल्कि एक नई दुनिया है जो यूरोपीयनों को अज्ञात है। दूसरा कम प्रचलित प्रमेय यह है, की यह नाम ब्रिस्टल के एक अंग्रेज़ व्यापारी रिचर्ड अमेरीक के नाम पर पड़ा, जिसने जॉन कैबॉट की १४९७ में इंग्लैंड से न्यूफ़ाउण्डलैण्ड तक की गई यात्रा में पैसा लगाया था। एक अन्य प्रमेय यह है कि यह नाम अमेरिण्डिया भाषा से आया। इतिहास जब प्रथम यूरोपीय खोजकर्ता यहाँ पहुँचे थे तो उस समय यह क्षेत्र एशिया से देशज लोगों द्वारा किए गए अप्रवासन से बसासित था जो बेरिंग की खाड़ी से होते हुए यहाँ पहुँचे थे। यूरोपीय उपनिवेशवाद का क्रम इस महाद्वीप में इस प्रकार था: स्पेनी, फ़्रान्सीसी और अंग्रेज़ जिन्होनें पूर्वी तट से लेखर पश्चिमी तट तक इस महाद्वीप पर शासन किया। कुल मिलाकर यूरोपीय उपनिवेशवाद यहाँ के मूल लोगों के लिए हानिकर रहा। इस उपनिवेशवाद के कारण मूल लोगों का पार्श्वीकरण और निर्मूलन हुआ और जो लोग बच गए वे सबसे कम उपजाऊ, ऊसर और बंजर स्थानों पर रहने के लिए विवश हो गए। यूरोपीय उपनिवेशवाद अपने साथ बहुत सी बीमारियाँ भी लेकर आया जो स्थानीय लोगों के लिए नई थी और इस कारण भी बहुत से मूल लोगों का विनाश हुआ क्योंकि इन नई बीमारियों से लड़ने की प्रतिरोधक क्षमता मूल निवासियों में नहीं थी। भूगोल जलवायु तथा वनस्पति उत्तर अमेरिका की जलवायु और वनस्पति में बहुत विविधता पाई जाती है और विश्व के लगभग सभी जलवायु प्रकार यहाँ पाए जाते हैं। उत्तर में आर्कटिक टुंड्रा (ग्रीनलैंड, यूकौन (कनाडा)), विविध प्रकार के वन (रॉकी पर्वत, अप्पालचियन पर्वत और द थ्री मदर), रेगिस्तान (पिनाकाटे, ज़ोना डैल सिलेन्सियो), मैदान (विशाल मैदान (ग्रेट प्लेन्स), शायर लौगूनेरा (Shire Lagunera), वायुशिफ (लुईज़ियाना, टबास्को इत्यादि) जैसे जलवायु प्रकार यहाँ पाए जाते हैं। मानव भूगोल उत्तर अमेरिका की तीन प्रमुख भाषाएँ है (बोलने वालों की संख्या क्रम में): अंग्रेज़ी, स्पेनी और फ़्रान्सीसी। एंग्लोअमेरिका शब्द कभी-कभी दोनों अमेरिकी महाद्वीपों में अंग्रेज़ी भाषी देशों के लिए प्रयुक्त होता है। लैटिन अमेरिका शब्द उन देशों के लिए प्रयुक्त होता है जहाँ रोमान्स भाषाएँ (स्पेनी और पुर्तगाली) प्रमुखता से बोली जातीं हैं। दोनो ही शब्दों का उपयोग उत्तर अमेरिकी महाद्वीप के लिए किया जा सकता है। अंग्रेज़ी एक आधिकारिक भाषा तो नहीं है[1] लेकिन यह संयुक्त राज्य अमेरिका की आम भाषा और प्रमुख भाषा है। यह कनाडा की भी बहुसंख्यक भाषा और दो आधिकारिक भाषाओं में से एक है।[2] यह ब्रिटिश अधिनस्थ बरमूडा द्वीप समूह की भी आधिकारिक भाषा है। स्पेनी भाषा आधिकारिक नहीं है लेकिन यह मेक्सिको की आम भाषा और प्रमुख भाषा है और सयुंक्त राज्य अमेरिका की दूसरी सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा भी है। मेक्सिको में संसार की सर्वाधिक स्पेनी भाषी जनसंख्या निवास करती है और स्पेन व अर्जेण्टीना के बाद संराअमेरिका विश्व का चौथा सबसे बड़ा स्पेनी भाषी देश है। फ़्रान्सीसी भाषा की उत्तर अमेरिका के इतिहास में महत्वपूर्ण भूमिका रही है और आज भी बहुत से क्षेत्रों में है। यह कनाडा की दो आधिकारिक भाषाओं में से एक है और इसके क्यूबेक में प्रमुखता से बोली जाती है और यहाँ की आधिकारिक भाषा भी है। कनाडा के ही नया बर्नस्विक में भी यह दो आधिकारिक भाषाओं में से एक है। न्यूफाउण्डलैण्ड के तट पर स्थित सन्त पियर एवं मिकलान फ़्रान्सीसी अधिनस्थ हैं और यह यहाँ की भी आधिकारिक भाषा है। इसके अतिरिक्त अमेरिका के लुईज़ियाना राज्य में भी यह भाषा बोली जाती है। डैनिश भाषा, कलाल्लिसुत भाषा के साथ ग्रीनलैण्ड की आधिकारिक भाषा है। जनसांख्यकीय दृष्टि से उत्तर अमेरिका प्रजातीय और नस्लीय रूप से बहुत विविध है। तीन प्रमुख नस्लीय समूह हैं श्वेत, मेस्तिज़ो और अश्वेत। इनके अतिरिक्त बड़ी संख्या में अमेरिण्डियन और एशियाई लोग भी इस महाद्वीप में रहते हैं। उत्तर अमेरिका के पाँच सर्वाधिक जनसंख्या वाले महानगरः १. मेक्सिको नगर, मेक्सिको २. न्यूयॉर्क नगर, संयुक्त राज्य अमेरिका ३. लास एंजेल्स, संयुक्त राज्य अमेरिका ४. शिकागो, संयुक्त राज्य अमेरिका ५. टोरण्टो, कनाडा मानव संसाधन विकास सूचकांक के अनुसार उत्तर अमेरिका के तीन प्रमुख देश: १. Canada ०.९६७ (उच्च) २. United States ०.९५० (उच्च) ३. Mexico ०.८४२ (उच्च) जल अपवाह प्रणाली thumbnail|right|कोलोरेडो नदी उत्तर अमेरिका की नदियाँ विभिन्न दिशाओं में बहती हैं। अधिकांश नदियाँ पश्चिमी कार्डलेरा अर्थात राकी पर्वतमाला से निकलती हैं। राकी पर्वतमाला से निकलकर पूर्व से पश्चिम बहती हुई प्रशान्त महासागर में गिरने वाली प्रमुख नदियाँ यूकन, फ्रेजर, कोलम्बिया, स्नेक एवं सैक्रामेण्टे हैं।[3] यूकन नदी बेरिंग सागर में गिरती है तथा कोलोरेडो नदी दक्षिण-पश्चिम की और बहती हुई कैलीफोर्निया की खाड़ी में प्रवेश करती है। देश और क्षेत्र उत्तर अमेरिका राजनैतिक दृष्टि से तीन स्वतन्त्र और सम्प्रभुता सम्पन्न देशो में बँटा हुआ है: कनाडा, संराअमेरिका और मेक्सिको। इनके अतिरिक्त तीन अधिनस्थ क्षेत्र भी इस महाद्वीप में हैं: ग्रीनलैंड, बरमूडा और सन्त पियर और मिकलान। नोट: १. ग्रीनलैण्ड डेनमार्क राजशाही का एक स्वायत्तशासी क्षेत्र है। २. बरमूडा एक ब्रिटिश पारसमुद्री क्षेत्र है। ३. सन्त पियर और मिकलान एक फ़्रान्सीसी पारसमुद्री क्षेत्र है। सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ श्रेणी:उत्तर अमेरिका श्रेणी:महाद्वीप
उत्तर अमेरिका महाद्वीप के पूर्व में कौन सा महासागर है?
उत्तरी अन्ध महासागर
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कार्टून और कार्टूनिस्ट व्युत्पत्ति अंग्रेजी के जाने पहचाने शब्द ‘‘कार्टून’’ की व्युत्पत्ति इतालवी के शब्द ‘‘कार्तोने’’ और डच भाषा के शब्द ‘‘कारटों’’ से हुई है। स्टेन-ग्लास या टेपेस्ट्री पर चित्रांकन या रेखांकन करने के लिए बहुत मोटे कागज पर जो स्केच/ या ड्राइंग की जाती थी - उसके लिए ये शब्द इतालवी और डच भाषाओं में आए। बाद में भित्ति चित्रकला में इस तकनीक का प्रयोग हुआ। जाने-माने चित्रकारों राफेल औरलियोनार्दो दा विन्ची ने अपनी रचनाओं में कार्टून तकनीक का इस्तेमाल किया। ऐतिहासिक तथ्य आधुनिक छापे-संदर्भों में, हास्य व्यंग्य की सर्जना करने के उद्देश्य से बनाए जाने वाले रेखांकनों और चित्रों के लिए कालांतर में ये शब्द रूढ हो गया। १८८३ में ‘पंच’ ने राजनैतिक व्यंग्यात्मक रेखांकनों का यह सिलसिला चालू किया था। भारत में कार्टून कला की शुरुआत ब्रिटिश काल में मानी जाती है और केशव शंकर पिल्लै जिन्हें ‘‘शंकर’’ के नाम से भी जाना जाता है, को भारतीय कार्टून कला का पितामह कहा जाता है। शंकर ने 1932 में ‘हिन्दुस्तान टाइम्स’ में कार्टून बनाने प्रारम्भ किए। 1946 में अनवर अहमद हिंदुस्तान टाइम्स में कार्टूनिस्ट शंकर की जगह पर नियुक्त हुए। शंकर के बाद भारत में धीरे धीरे कार्टून कला का विकास हुआ और आज भारत में हर प्रान्त और भाषा में कार्टूनिस्ट काम कर रहे हैं। शंकर के अलावा आर.के. लक्ष्मण, कुट्टी, मेनन, रंगा, मारियो मिरांडा, अबू अब्राहम, मीता रॉय,सुधीर तैलंग और शेखर गुरेरा अदि पचासों ऐसे नाम हैं जिन्होंने कार्टून-कला को आगे बढ़ाया है। आज प्रायः हर अखबार और पत्रिका ससम्मान व्यंग्यचित्रों को प्रकाशित करती है क्योंकि पाठकों का सबसे पहले ध्यान आकर्षित करने वाली सामग्री में कार्टून-कोने की अपनी खासमखास जगह जो है। भारत के प्रमुख कार्टूनिस्ट के. शंकर पिल्लई, आर. के. लक्ष्मण, अबू अब्राहम, रंगा, कुट्टी, (ई. पी.), उन्नी, प्राण, मारियो मिरांडा, रवींद्र, केशव, बाल ठाकरे, अनवर अहमद, मीता रॉय, जी. अरविन्दन, जयंतो बनर्जी, माया कामथ, कुट्टी, माधन, वसंत सरवटे, रविशंकर, आबिद सुरती, अजीत नैनन, काक, मिकी पटेल, सुधीर दर, सुधीर तैलंग, शेखर गुरेरा, राजेंद्र धोड़पकर, इस्माईल लहरी, आदि इस कला के कई जाने पहचाने नाम हैं। दूसरे कुछ भारतीय व्यंग्यचित्रकार माली, सुशील कालरा , नीरद, देवेन्द्र शर्मा, सुधीर गोस्वामी इंजी, मंजुला पद्मनाभन, पी. के मंत्री, सलाम, प्रिया राज, तुलाल, येसुदासन, यूसुफ मुन्ना, चंदर, पोनप्पा, सतीश आचार्य, चन्दर, त्र्यम्बक शर्मा, अभिषेक तिवारी, इरफान, चंद्रशेखर हाडा, हरिओम तिवारी, गोपी कृष्णन, शरद शर्मा, शुभम गुप्ता, शिरीश, पवन, देवांशु वत्स, के. अनूप, राधाकृष्णन, अनुराज, के. आर. अरविंदन, धीमंत व्यास, धीर, द्विजित, गिरीश वेंगर, सुरेन्द्र वर्मा, धनेश दिवाकर, ए. एस. नायर, नम्बूतिरी, शिवराम दत्तात्रेय फडणीस, शंकर परमार्थी, एन. पोनप्पा, गोपुलू. राजिंदर पुरी, के. के. राघव, माधन, माया कामथ, जी. अरविन्दन. नीलाभ बनर्जी, सुमंत बरुआ, चित्त्प्रसाद भट्टाचार्य, एम्. वी. धुरंधर, बी. एम् गफूर, जयराज, उस्मान (Irumpuzhi), जयराज, ऐस. जितेश, जनार्दन स्वामी, असीम त्रिवेदी, ओ.वी. विजयन, विन्स, येसुदासन, मोहन शिवानंद, मंजुल, जया गोस्वामी आदि अलग अलग भारतीय भाषाओँ में व्यंग्यचित्र बनाने वाले कलाकर्मी हैं। बीकानेर के कार्टूनिस्ट: एक परंपरा: एक ही शहर के एक ही मोहल्ले में पचासों कार्टूनिस्ट एक साथ सक्रिय हों, ये बात सुनने में अजीब तो है पर सच है। अकेले बीकानेर शहर के 'गोस्वामी चौक' ने हिन्दी पत्रकारिता को शताधिक व्यंग्यकार दिए हैं जिनके व्यंग्यचित्र अक्सर समाचार पत्रों और पत्रिकाओं के माध्यम से पाठकों का ध्यानाकर्षित करते आ रहे हैं। व्यंग्यचित्र-कला को विस्तार देने में बीकानेर में अकेले दाक्षिणात्य प्रवासी तैलंग समाज के कुछ व्यंग्य चित्रकारों का हिंदी की व्यंग्यचित्र कला के विकास में अनूठा योगदान रहा है। कार्टून के क्षेत्र में (पद्मश्री) सुधीर तैलंग, पंकज गोस्वामी, संकेत, सुधीर गोस्वामी ‘इन्जी’, सुशील गोस्वामी, शंकर रामचन्द्र राव तैलंग, अनूप गोस्वामी आदि कई कलाकार हैं जिन्होंने न केवल इस कला को परवान चढ़ाया अपितु, अपनी कला-साधना से वैयक्तिक ख्याति भी अर्जित की। हिंदी क्रिकेट कमेंटेटर प्रभात गोस्वामी के कार्टून्स भी लगभग एक दशक पूर्व विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए हैं। इन दिनों राहुल गोस्वामी, अवनीश कुमार गोस्वामी, अलंकार गोस्वामी जैसे अनेक युवा व किशोर कलाकार लगभग अविज्ञप्त रह कर बतौर अभिरुचि व्यंग्यचित्र के मैदान में तूलिका चला रहे हैं। एक समय वह भी था जब संभवतः कार्टूनिस्ट पंकज गोस्वामी के प्रभाव और प्रेरणा से व्यंग्यचित्र कला को ले कर बीकानेर के प्रसिद्ध गोस्वामी चौक में एक तूफानी उत्साह का दौर आ गया था, जब वहां का हर दूसरा तीसरा युवा व्यंग्यचित्र बनाता और छपवाता रहा था। इसी बात से प्रभावित हो कर विनोद दुआ ने बीकानेर के गोस्वामी चौक में बनाए जा रहे कार्टून- और उनके कलाकारों पर केन्द्रित एक रोचक वृत्तचित्र का निर्माण किया था- जिसका प्रसारण दूरदर्शन के विभिन्न चैनलों पर हुआ था। बाहरी कड़ियाँ श्रेणी:चित्रकला
किसने १९३२ में हिन्दुस्तान टाइम्स में कार्टून बनाने प्रारम्भ किए?
केशव शंकर पिल्लै जिन्हें ‘‘शंकर’’
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संयुक्त राष्ट्र संगठन का मुख्यालय [[[अमेरिका]] के न्युयॉर्क शहर में स्थित है। इसका भवन आधिकारिक रूप से 9 जनवरी 1951 को खुला। इस भवन का निर्माण 1949-1950 में हुआ। इसके लिए विलियम जेकेंडॉफ से नदी के पूर्वी किनारे पर 17 एकड़ जमीन खरीदी गई। इस सौदे में नेल्सन रॉकफेलर की अहम भूमिका थी। सहायक एवं संदर्भ श्रोत श्रेणी:आधार श्रेणी:संयुक्त राष्ट्र
संयुक्त राष्ट्र का मुख्यालय कहाँ पर है?
न्युयॉर्क
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संयुक्त राष्ट्र (English: United Nations) एक अंतरराष्ट्रीय संगठन है, जिसके उद्देश्य में उल्लेख है कि यह अंतरराष्ट्रीय कानून को सुविधाजनक बनाने के सहयोग, अन्तर्राष्ट्रीय सुरक्षा, आर्थिक विकास, सामाजिक प्रगति, मानव अधिकार और विश्व शांति के लिए कार्यरत है। संयुक्त राष्ट्र की स्थापना २४ अक्टूबर १९४५ को संयुक्त राष्ट्र अधिकारपत्र पर 50 देशों के हस्ताक्षर होने के साथ हुई। द्वितीय विश्वयुद्ध के विजेता देशों ने मिलकर संयुक्त राष्ट्र को अन्तर्राष्ट्रीय संघर्ष में हस्तक्षेप करने के उद्देश्य से स्थापित किया था। वे चाहते थे कि भविष्य में फ़िर कभी द्वितीय विश्वयुद्ध की तरह के युद्ध न उभर आए। संयुक्त राष्ट्र की संरचना में सुरक्षा परिषद वाले सबसे शक्तिशाली देश (संयुक्त राज्य अमेरिका, फ़्रांस, रूस और यूनाइटेड किंगडम) द्वितीय विश्वयुद्ध में बहुत अहम देश थे। वर्तमान में संयुक्त राष्ट्र में १९३ देश है, विश्व के लगभग सारे अन्तर्राष्ट्रीय मान्यता प्राप्त देश। इस संस्था की संरचन में आम सभा, सुरक्षा परिषद, आर्थिक व सामाजिक परिषद, सचिवालय और अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय सम्मिलित है। इतिहास प्रथम विश्वयुद्ध के बाद 1929 में राष्ट्र संघ का गठन किया गया था। राष्ट्र संघ काफ़ी हद तक प्रभावहीन था और संयुक्त राष्ट्र का उसकी जगह होने का यह बहुत बड़ा फायदा है कि संयुक्त राष्ट्र अपने सदस्य देशों की सेनाओं को शांति संभालने के लिए तैनात कर सकता है। संयुक्त राष्ट्र के बारे में विचार पहली बार द्वितीय विश्वयुद्ध के समाप्त होने के पहले उभरे थे। द्वितीय विश्व युद्ध में विजयी होने वाले देशों ने मिलकर कोशिश की कि वे इस संस्था की संरचना, सदस्यता आदि के बारे में कुछ निर्णय कर पाए। 24 अप्रैल 1945 को, द्वितीय विश्वयुद्ध के समाप्त होने के बाद, अमेरिका के सैन फ्रैंसिस्को में अंतराष्ट्रीय संस्थाओं की संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन हुई और यहां सारे 40 उपस्थित देशों ने संयुक्त राष्ट्रिय संविधा पर हस्ताक्षर किया। पोलैंड इस सम्मेलन में उपस्थित तो नहीं थी, पर उसके हस्ताक्षर के लिए खास जगह रखी गई थी और बाद में पोलैंड ने भी हस्ताक्षर कर दिया। सुरक्षा परिषद के पांच स्थायी देशों के हस्ताक्षर के बाद संयुक्त राष्ट्र की अस्तित्व हुई। सदस्य वर्ग 2006 तक संयुक्त राष्ट्र में 192 सदस्य देश है। विश्व के लगभग सारी मान्यता प्राप्त देश [1] सदस्य है। कुछ विषेश उपवाद तइवान (जिसकी स्थिति चीन को 1971 में दे दी गई थी), वैटिकन, फ़िलिस्तीन (जिसको दर्शक की स्थिति का सदस्य माना जा [2] सक्ता है), तथा और कुछ देश। सबसे नए सदस्य देश है माँटेनीग्रो, जिसको 28 जून, 2006 को सदस्य बनाया गया। मुख्यालय संयुक्त राष्ट्र का मुख्यालय अमेरिका के न्यूयॉर्क शहर में पचासी लाख डॉलर के लिए खरीदी भूसंपत्ति पर स्थापित है। इस इमारत की स्थापना का प्रबंध एक अंतर्राष्ट्रीय शिल्पकारों के समूह द्वारा हुआ। इस मुख्यालय के अलावा और अहम संस्थाएं जनीवा, कोपनहेगन आदि में भी है। यह संस्थाएं संयुक्त राष्ट्र के स्वतंत्र अधिकार क्षेत्र तो नहीं हैं, परंतु उनको काफ़ी स्वतंत्रताएं दी जाती है। भाषाएँ संयुक्त राष्ट्र ने 6 भाषाओं को "राज भाषा" स्वीकृत किया है (अरबी, चीनी, अंग्रेज़ी, फ़्रांसीसी, रूसी और स्पेनी), परंतु इन में से केवल दो भाषाओं को संचालन भाषा माना जाता है (अंग्रेज़ी और फ़्रांसीसी)। स्थापना के समय, केवल चार राजभाषाएं स्वीकृत की गई थी (चीनी, अंग्रेज़ी, फ़्रांसीसी, रूसी) और 1973 में अरबी और स्पेनी को भी सम्मिलित किया गया। इन भाषाओं के बारे में विवाद उठता रहता है। कुछ लोगों का मानना है कि राजभाषाओं की संख्या 6 से एक (अंग्रेज़ी) तक घटाना चाहिए, परंतु इनके विरोध है वे जो मानते है कि राजभाषाओं को बढ़ाना चाहिए। इन लोगों में से कई का मानना है कि हिंदी को भी संयुक्त राष्ट्रसंघ की आधिकारिक भाषा बनाया जाना चाहिए। संयुक्त राष्ट्र अमेरिकी अंग्रेज़ी की जगह ब्रिटिश अंग्रेज़ी का प्रयोग करता है। 1971 तक चीनी भाषा के परम्परागत अक्षर का प्रयोग चलता था क्योंकि तब तक संयुक्त राष्ट्र तईवान के सरकार को चीन का अधिकारी सरकार माना जाता था। जब तईवान की जगह आज के चीनी सरकार को स्वीकृत किया गया, संयुक्त राष्ट्र ने सरलीकृत अक्षर के प्रयोग का प्रारंभ किया। संयुक्त राष्ट्र में हिन्दी संयुक्त राष्ट्र में किसी भाषा को आधिकारिक भाषा के रूप में मान्यता दिए जाने के लिए कोई विशिष्ट मानदंड नहीं है। किसी भाषा को संयुक्त राष्ट्र में आधिकारिक भाषा के रूप में शामिल किए जाने की प्रक्रिया में संयुक्त राष्ट्र महासभा में साधारण बहुमत द्वारा एक संकल्प को स्वीकार करना और संयुक्त राष्ट्र की कुल सदस्यता के दो तिहाई बहुमत द्वारा उसे अंतिम रूप से पारित करना होता है। [3] भारत काफी लम्बे समय से यह कोशिश कर रहा है कि हिंदी भाषा को संयुक्त राष्ट्र संघ की आधिकारिक भाषाओं में शामिल किया जाए। भारत का यह दावा इस आधार पर है कि हिन्दी, विश्व में बोली जाने वाली दूसरी सबसे बड़ी भाषा है और विश्व भाषा के रूप में स्थापित हो चुकी है। भारत का यह दावा आज इसलिए और ज्यादा मजबूत हो जाता है क्योंकि आज का भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने के साथ-साथ चुनिंदा आर्थिक शक्तियों में भी शामिल हो चुका है।[4] २०१५ में भोपाल में हुए विश्व हिंदी सम्मेलन के एक सत्र का शीर्षक ‘विदेशी नीतियों में हिंदी’ पर समर्पित था, जिसमें हिंदी को संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा में से एक के तौर पर पहचान दिलाने की सिफारिश की गई थी। हिन्दी को अंतरराष्ट्रीय भाषा के तौर पर प्रतिष्ठित करने के लिए फरवरी 2008 में मॉरिसस में भी विश्व हिंदी सचिवालय खोला गया था। संयुक्त राष्ट्र अपने कार्यक्रमों का संयुक्त राष्ट्र रेडियो पर हिंदी भाषा में भी प्रसारण करता है। कई अवसरों पर भारतीय नेताओं ने यू एन में हिंदी में वक्तव्य दिए हैं जिनमें १९७७ में अटल बिहारी वाजपेयी का हिन्दी में भाषण, सितंबर, 2014 में 69वीं संयुक्त राष्ट्र महासभा में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का वक्तव्य, सितंबर 2015 में संयुक्त राष्ट्र टिकाऊ विकास शिखर सम्मेलन में उनका संबोधन, अक्तूबर, 2015 में विदेश मंत्री सुषमा स्वराज द्वारा 70वीं संयुक्त राष्ट्र महासभा को संबोधन [5] और सितंबर, 2016 में 71वीं संयुक्त राष्ट्र महासभा को विदेश मंत्री द्वारा संबोधन शामिल है। उद्देश्य संयुक्त राष्ट्र के व्यक्त उद्देश्य हैं युद्ध रोकना, मानव अधिकारों की रक्षा करना, अंतर्राष्ट्रीय कानून को निभाने की प्रक्रिया जुटाना, सामाजिक और आर्थिक विकास [6] उभारना, जीवन स्तर सुधारना और बिमारियों से लड़ना। सदस्य राष्ट्र को अंतर्राष्ट्रीय चिंताएं और राष्ट्रीय मामलों को सम्हालने का मौका मिलता है। इन उद्देश्य को निभाने के लिए 1948 में मानव अधिकारों की सार्वभौम घोषणा प्रमाणित की गई। मानव अधिकार द्वितीय विश्वयुद्ध के जातिसंहार के बाद, संयुक्त राष्ट्र ने मानव अधिकारों को बहुत आवश्यक समझा था। ऐसी घटनाओं को भविष्य में रोकना अहम समझकर, 1948 में सामान्य सभा ने मानव अधिकारों की सार्वभौम घोषणा को स्वीकृत किया। यह अबंधनकारी घोषणा पूरे विश्व के लिए एक समान दर्जा स्थापित करती है, जो कि संयुक्त राष्ट्र समर्थन करने की कोशिश करेगी। 15 मार्च 2006 को, समान्य सभा ने संयुक्त राष्ट्र मानव अधिकारों के आयोग को त्यागकर संयुक्त राष्ट्र मानव अधिकार परिषद की स्थापना की। आज मानव अधिकारों के संबंध में सात संघ निकाय स्थापित है। यह सात निकाय हैं: मानव अधिकार संसद आर्थिक सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों का संसद जातीय भेदबाव निष्कासन संसद नारी विरुद्ध भेदभाव निष्कासन संसद यातना विरुद्ध संसद बच्चों के अधिकारों का संसद प्रवासी कर्मचारी संसद संयुक्त राष्ट्र महिला (यूएन वूमेन) विश्व में महिलाओं के समानता के मुद्दे को प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से विश्व निकाय के भीतर एकल एजेंसी के रूप में संयुक्त राष्ट्र महिला के गठन को ४ जुलाई २०१० को स्वीकृति प्रदान कर दी गयी। वास्तविक तौर पर ०१ जनवरी २०११ को इसकी स्थापना की गयी। मुख्यालय अमेरिका के न्यूयार्क शहर में बनाया गया है। यूएन वूमेन की वर्तमान प्रमुख चिली की पूर्व प्रधानमंत्री सुश्री मिशेल बैशलैट हैं। संस्था का प्रमुख कार्य महिलाओं के प्रति सभी तरह के भेदभाव को दूर करने तथा उनके सशक्तिकरण की दिशा में प्रयास करना होगा। उल्लेखनीय है कि १९५३ में ८वें संयुक्त राष्ट्र महासभा की प्रथम महिला अध्यक्ष होने का गौरव भारत की विजयलक्ष्मी पण्डित को प्राप्त है। संयुक्त राष्ट्र के ४ संगठनों का विलय करके नई इकाई को संयुक्त राष्ट्र महिला नाम दिया गया है। ये संगठन निम्नवत हैं: संयुक्त राष्ट्र महिला विकास कोष १९७६ महिला संवर्धन प्रभाग १९४६ लिंगाधारित मुद्दे पर विशेष सलाहकार कार्यालय १९९७ महिला संवर्धन हेतु संयुक्त राष्ट्र अंतरराष्ट्रीय शोध और प्रशिक्षण संस्थान १९७६ शांतिरक्षा संयुक्त राष्ट्र के शांतिरक्षक वहां भेजे जाते हैं जहां हिंसा कुछ देर पहले से बंद है ताकि वह शांति संघ की शर्तों को लगू रखें और हिंसा को रोककर रखें। यह दल सदस्य राष्ट्र द्वारा प्रदान होते हैं और शांतिरक्षा कर्यों में भाग लेना वैकल्पिक होता है। विश्व में केवल दो राष्ट्र हैं जिनने हर शांतिरक्षा कार्य में भाग लिया है: कनाडा और पुर्तगाल। संयुक्त राष्ट्र स्वतंत्र सेना नहीं रखती है। शांतिरक्षा का हर कार्य सुरक्षा परिषद द्वारा अनुमोदित होता है। संयुक्त राष्ट्र के संस्थापकों को ऊंची उम्मीद थी की वह युद्ध को हमेशा के लिए रोक पाएंगे, पर शीत युद्ध (1945 - 1991) के समय विश्व का विरोधी भागों में विभाजित होने के कारण, शांतिरक्षा संघ को बनाए रखना बहुत कठिन था। संघ की स्वतंत्र संस्थाएं संयुक्त राष्ट्र संघ के अपने कई कार्यक्रमों और एजेंसियों के अलावा १४ स्वतंत्र संस्थाओं से इसकी व्यवस्था गठित होती है। स्वतंत्र संस्थाओं में विश्व बैंक, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व स्वास्थ्य संगठन शामिल हैं। इनका संयुक्त राष्ट्र संघ के साथ सहयोग समझौता है। संयुक्त राष्ट्र संघ की अपनी कुछ प्रमुख संस्थाएं और कार्यक्रम हैं।[7] ये इस प्रकार हैं: अंतर्राष्ट्रीय परमाणु उर्जा एजेंसी – विएना में स्थित यह एजेंसी परमाणु निगरानी का काम करती है। अंतर्राष्ट्रीय अपराध आयोग – हेग में स्थित यह आयोग पूर्व यूगोस्लाविया में युद्द अपराध के सदिंग्ध लोगों पर मुक़दमा चलाने के लिए बनाया गया है। संयुक्त राष्ट्र बाल कोष (यूनिसेफ़) – यह बच्चों के स्वास्थय, शिक्षा और सुरक्षा की देखरेख करता है। संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) – यह ग़रीबी कम करने, आधारभूत ढाँचे के विकास और प्रजातांत्रिक प्रशासन को प्रोत्साहित करने का काम करता है। संयुक्त राष्ट्र व्यापार और विकास सम्मेलन-यह संस्था व्यापार, निवेश और विकस के मुद्दों से संबंधित उद्देश्य को लेकर चलती है। संयुक्त राष्ट्र आर्थिक एवं सामाजिक परिषद (ईकोसॉक)- यह संस्था सामान्य सभा को अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक एवं सामाजिक सहयोग एवं विकास कार्यक्रमों में सहायता एवं सामाजिक समस्याओं के माध्यम से अंतर्राष्ट्रीय शांति को प्रभावी बनाने में प्रयासरतहै। संयुक्त राष्ट्र शिक्षा, विज्ञान और सांस्कृतिक परिषद – पेरिस में स्थित इस संस्था का उद्देश्य शिक्षा, विज्ञान संस्कृति और संचार के माध्यम से शांति और विकास का प्रसार करना है। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) – नैरोबी में स्थित इस संस्था का काम पर्यावरण की रक्षा को बढ़ावा देना है। संयुक्त राष्ट्र राजदूत – इसका काम शरणार्थियों के अधिकारों और उनके कल्याण की देखरेख करना है। यह जीनिवा में स्थित है। विश्व खाद्य कार्यक्रम – भूख के विरुद्द लड़ाई के लिए बनाई गई यह प्रमुख संस्था है। इसका मुख्यालय रोम में है। अंतरराष्ट्रीय श्रम संघ- अंतरराष्ट्रीय आधारों पर मजदूरों तथा श्रमिकों के हितों की रक्षा के लिए नियम वनाता है। सन्दर्भ बाहरी कडियाँ (गूगल पुस्तक ; लेखक - राधेश्याम चौरसिया) (दैनिक जागरण) श्रेणी:संयुक्त राष्ट्र श्रेणी:अंतर्राष्ट्रीय संगठन श्रेणी:नोबल शांति पुरस्कार के प्राप्तकर्ता श्रेणी:नोबेल पुरस्कार सम्मानित संगठन
संयुक्त राष्ट्र की स्थापना कब हुई?
२४ अक्टूबर १९४५
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Main Page आई एन एस (INS) विक्रमादित्य (Sanskrit: विक्रमादित्य, Vikramāditya, "सूर्य की तरह प्रतापी") पूर्व सोवियत विमान वाहक एडमिरल गोर्शकोव का नया नाम है, जो भारत द्वारा हासिल किया गया है। पहले अनुमान था कि 2012 में इसे भारत को सौंप दिया जाएगा, किंतु काफी विलंब[5] के पश्चात् 16 नवम्बर 2013 को इसे भारतीय नौसेना में सेवा के लिए शामिल कर लिया गया।[1][6] दिसंबर अंत या जनवरी आरंभ में यह भारतीय नौसैनिक अड्डा कारवाड़ तक पहुंच जाएगा।[3] विक्रमादित्य यूक्रेन के माइकोलैव ब्लैक ‍सी शिपयार्ड में 1978-1982 में निर्मित कीव श्रेणी के विमान वाहक पोत का एक रूपांतरण है। रूस के अर्खान्गेल्स्क ओब्लास्ट के सेवेरॉद्विनस्क के सेवमाश शिपयार्ड में इस जहाज की बड़े स्तर पर मरम्मत की गई। यह पोत भारत के एकमात्र सेवारत विमान वाहक पोत आई एन एस विराट का स्थान लेगा। इस पोत को नया रूप देने में भारत को 2.3 अरब डॉलर खर्च करने पड़े हैं।[3] क्षमता विक्रमादित्य ४५३०० टन भार वाला, २८४ मीटर लम्बा और ६० मीटर ऊँचा युद्धपोत है।[7] तुलनातमक तरीके से कहा जाए तो यह लंबाई लगभग तीन फुटबॉल मैदानों के बराबर तथा ऊंचाई लगभग 22 मंजिली इमारत के बराबर है। इस पर मिग-29-के (K) लड़ाकू विमान, कामोव-31, कामोव-28, सीकिंग, एएलएच ध्रुव और चेतक हेलिकॉप्टरों सहित तीस विमान तैनात और एंटी मिसाइल प्रणालियां तैनात होंगी, जिसके परिणामस्वरूप इसके एक हजार किलोमीटर के दायरे में लड़ाकू विमान और युद्धपोत नहीं फटक सकेंगे। 1600 नौसैनिकों के क्रू मेंबर्स के लिए 18 मेगावॉट जेनरेटर से बिजली तथा ऑस्मोसिस प्लांट से 400 टन पीने का पानी उपलब्ध होगा। इन नौसैनिकों के लिए हर महीने एक लाख अंडे, 20 हजार लीटर दूध, 16 टन चावल आदि की सप्लाई की जरूरत होगी।[3] इतिहास खरीद 1987 में एडमिरल गोर्शकोव को सोवियत संघ की नौसेना में शामिल किया गया था, लेकिन विघटन के पश्चात् 1996 में यह निष्क्रिय हो गया क्योंकि शीत युद्ध के बाद के बजट में इससे काम लेना बहुत ही महंगा पड़ रहा था। इसने भारत का ध्यान आकर्षित किया, जो अपनी वाहक विमानन की क्षमता में इजाफा करने के लिए कोई रास्ता तलाश रहा था।[8] वर्षों तक बातचीत चलने के बाद 20 जनवरी 2004 को रूस और भारत ने जहाज के सौदे के लिए समझौते पर हस्ताक्षर किए। जहाज सेवा मुक्त था, जबकि जहाज में सुधार और मरम्मत के लिए के भारत द्वारा 800 मिलियन यूएस (US) डॉलर के अलावा विमान और हथियार प्रणालियों के लिए अतिरिक्त एक बिलियन यू एस डॉलर (US$1bn) का भुगतान किया गया। नौसेना वाहक पोत को ई-2सी हॉक आई (E-2C Hawkeye) से लैस करने की सोच रही थी, लेकिन नहीं करने का निर्णय लिया गया।[9] 2009 में, भारतीय नौसेना को नोर्थरोप ग्रुम्मान ने उन्नत ई-2डी हॉव्केय (E-2D Hawkeye) की पेशकश की। [10] सौदे में 1 बिलियन यू एस डॉलर में 12 एकल सीट वाले मिकोयान मिग-29के 'फल्क्रम-डी' (प्रोडक्ट 9.41) और 4 दो सीटों वाले मिग-29केयूबी (14 और विमानों के विकल्प के साथ), 6 कामोव केए-31 "हेलिक्स" टोही विमान और पनडुब्बी रोधी हेलीकाप्टरों, टारपीडो ट्यूब्स, मिसाइल प्रणाली और तोपखानों की ईकाई शामिल है। पायलटों और तकनीकी स्टाफ के प्रशिक्षण के लिए प्रक्रियाएं और सुविधाएं, अनुकारियों की सुपुर्दगी, अतिरिक्त कल-पुर्जे और भारतीय नौसेना प्रतिष्ठान के रखरखाव की सुविधाएं भी अनुबंध का हिस्सा हैं। ये विकसित योजनाएं शॉर्ट टेक-ऑफ बट एसिस्टेड रिकवरी (एसटीओबीएआर (STOBAR)) विन्यास का रास्ता बनाने के लिए जहाज के फोरडेक से सभी हथियारों और मिसाइल लॉन्चर ट्यूबों को अनावृत करने से जुड़ी हैं।[11] गोर्शकोव को यह एक संकर वाहक/क्रुजर से केवल वाहक में तब्दील कर देगा। आई एन एस विक्रमादित्य को सौंप दिए जाने की घोषणा अगस्त 2008 को हुई, जिससे इस विमान वाहक पोत को भारतीय नौसेना के सेवानिवृत होने वाले एकमात्र हल्के विमान वाहक आई एन एस विराट की ही तरह सेवा की अनुमति मिल गयी। आई एन एस विराट की सेवानिवृत्ति की समय-सीमा 2010-2012 तक के लिए आगे बढा दी गयी।[12] देरी के साथ खर्च में होती जा रही वृद्धि का मामला जुड़ गया है। इस मामले के हल के लिए उच्चस्तरीय कूटनीतिक बातचीत हो रही है। भारत इस परियोजना के लिए अतिरिक्त 1.2 बिलियन यूएस (US) डॉलर का भुगतान करने को तैयार हो गया, जो मूल लागत के दुगुने से अधिक है।[13] जुलाई 2008 में, बताया गया कि रूस ने कुल कीमत बढ़ाकर 3.4 बिलियन यूएस डॉलर कर दिया है, उसने इसके लिए जहाज की बिगड़ी हुई हालत के कारण अप्रत्याशित खर्च को जिम्मेवार करार दिया।[14] भारत ने नवंबर 2008 तक 400 मिलियन अमेरिकी डॉलर का भुगतान कर दिया। हालांकि, अगर भारत जहाज नहीं खरीदना चाहे तो रूसी अब जहाज को अपने पास ही रखने के बारे में सोचने लगे थे। दिसंबर 2008 में, भारत में सरकारी सूत्रों ने बताया कि कैबिनेट कमिटी ऑन सिक्युरिटी (सीसीएस) ने अंततः उपलब्ध सर्वोत्तम विकल्प के रूप में एडमिरल गोर्शकोव को खरीदने के पक्ष में निर्णय लिया है।[15] भारत के लेखानियंत्रक व महालेखा परीक्षक (सीएजी) ने इसकी आलोचना करते हुए कहा कि विक्रमादित्य एक पुराना युद्धपोत है जिसकी जीवनावधि छोटी है, जो किसी नए पोत से 60 प्रतिशत अधिक महंगा पडेगा और उसमें अधिक देर होने की भी आशंका है।[16] भारतीय नौसेना प्रमुख एडमिरल सुरीश मेहता ने युद्धपोत की कीमत का बचाव करते हुए कहा: "मैं सीएजी पर टिप्पणी नहीं कर सकता, लेकिन आप सभी रक्षा विश्लेषक हैं, क्या आप लोग मुझे दो बिलियन अमरीकी डॉलर से कम में कोई विमान वाहक पोत लाकर दे सकते हैं? यदि आप ला सकते हैं तो मैं इसी वक्त चेक लिखकर देने को तैयार हूं"। नौसेना प्रमुख के बयान से संभवतः यह संकेत मिलता है कि अंतिम सौदा 2 बिलियन अमरीकी डॉलर से अधिक का हो सकता है। जहाज खरीदने के काम से पहले नौसेना ने इसका जोखिम विश्लेषण नहीं किया, सीएजी की इस टिप्पणी के बारे में पूछे जाने पर उन्होंने कहा, "मैं आपको यह सुनिश्चित कर सकता हूं कि ऐसी कोई बात नहीं है। इसका कोई सवाल ही पैदा नहीं होता है, 90 के दशक से ही इस जहाज पर हमारी नज़र रही है।"[17] 2 जुलाई 2009 को रूसी राष्ट्रपति दिमित्री मेदवेदेव ने कहा कि वाहक को यथासंभव जल्द पूरा कर लिया जाना चाहिए ताकि यह 2012 में भारत को दिया जा सके।[18] 7 दिसम्बर 2009 को, रूसी सूत्रों ने बताया कि अंतिम शर्तों पर सहमति हो गयी है, लेकिन कोई सुपुर्दगी तारीख तय नहीं हुई है।[19] 3 सितंबर को मॉस्को में एक संवाददाता सम्मेलन में राज्य प्रौद्योगिकी निगम रोस्टेखनोलोजी के प्रमुख सर्गेई चेमेज़ोव ने कहा कि एडमिरल गोर्शकोव की मरम्मती के लिए भारत और रूस के बीच एक नए सौदे पर अक्तूबर के मध्य में हस्ताक्षर किये जाएंगे।[20] 8 दिसम्बर 2009 को खबर आयी कि 2.2 बिलियन डॉलर पर सहमति के साथ गोर्शकोव की कीमत पर भारत और रूस के बीच का गतिरोध समाप्त हो गया। मॉस्को ने विमान वाहक के लिए 2.9 बिलियन डॉलर की मांग की थी, जो 2004 में दोनों पक्षों के बीच हुई मूल सहमति से लगभग तीन गुना अधिक थी। दूसरी ओर, नई दिल्ली चाहती थी कि कीमत 2.1 अमेरिकी डॉलर की जाय।[21][22] 10 मार्च को, रूसी प्रधानमंत्री व्लादिमीर पुतिन की भारत यात्रा के एक दिन पहले दोनों सरकारों द्वारा एडमिरल गोर्शकोव की कीमत को अंतिम रूप देते हुए 2.35 बिलियन अमेरिकी डॉलर तय किया गया।[23] अंततः 16 नवम्बर 2013 को इस पोत को भारतीय नौसेना के बेड़े में शामिल कर लिया गया।[1][6] जनवरी 2014 तक यह कारवाड़ के नौसैनिक अडडे पर पहुँच जाएगा।[3],[24] नवीकरण जहाज की पेंदी का काम 2008 तक पूरा कर लिया गया[25] और विक्रमादित्य को 4 दिसम्बर 2008 को पुनः जलावतरण किया गया।[26] वाहक पर जून 2010 तक संरचनात्मक काम का 99% के आसपास और केबल कार्य का लगभग 50% पूरा कर लिया गया। इंजन और डीजल जेनरेटर सहित लगभग सभी बड़े उपकरण स्थापित कर दिए गये।[27] डेक प्रणाली के परीक्षण के लिए 2010 में एक नौसेना मिग-29के (MiG-29K) प्रोटोटाइप का इस्तेमाल किया जा रहा है।[28] अब इस पोत का नवीकरण इस तरह हुआ है कि यह 80 प्रतिशत पूरी तरह नया बन चुका है। केवल पोत का बाहरी ढांचा ही पूर्ववत रखा गया है। इसके इंजन, ब्वॉयलर, इलेक्ट्रिक केबल, रेडार, सेंसर आदि सभी बदल दिए गए हैं। पहले यह पोत हेलिकॉप्टर वाहक पोत था, अब इस पर विमान उड़ाने और उतरने लायक हवाई पट्टी भी बनाई गई है।[3][6] डिजाइन जहाज के अगले भाग में 14.3 डिग्री स्की-जंप के साथ और कोणयुक्त डेक के पिछले हिस्से में तीन रोधक तार के साथ जहाज को एसटीओबीएआर (STOBAR) में संचालित किया जाएगा. यह मिग-29के (MiG-29K) और सी हैरियर विमान को संचालित करने की अनुमति देगा। विक्रमादित्य पर मिग-29के (MiG-29K) के लिए अधिकतम उड़ान भरने की लंबाई 160-180 मीटर के बीच है। 'एडमिरल गोर्शकोव' प्लैटफॉर्म का अतिरिक्त लाभ इसकी अधिरचना प्रोफ़ाइल है, इसमें सशक्त समतल या ”बिलबोर्ड स्टाइल” एंटेना के साथ चरणबद्ध प्रभावशाली रडार प्रणाली को अपने अनुरूप बनाने का सामर्थ्य है, जो हवाई अभियान चलाने के लिए व्यापक समादेश और नियंत्रण सुविधा के साथ संयुक्त राज्य अमेरिका नेवी के यूएसएस (USS) लॉन्ग बीच पर पहली बार देखा गया। एसएएम (SAM) और/या सीआईडब्ल्यूएस (CIWS) जैसे हवाई प्रतिरक्षा हथियारों के संयोजन से सुसज्जित जहाज के रूप में इसे पेश किया गया है।[29] पेंदी की डिजाइन 1982 में प्रारंभ किए गए पुराने गोर्शकोव एडमिरल पर आधारित है, लेकिन पूरे लदान विस्थापन के साथ यह बहुत बड़ा होगा। 14.3º बो स्की-जंप के लिए रास्ता बनाने के लिए विमान वाहक के लिए रूपांतरण की योजनाओं में पी-500 बाज्लट क्रूज मिसाइल लॉन्चर और सामने की ओर लगे हुए जमीन से हवा में मार करनेवाले चार अन्ते किन्झल (Antey Kinzhal) समेत सारी युद्ध सामग्री को हटाया जाना शामिल है। दो निरोधक स्टैंड भी लगाया जाएंगे, ताकि स्की जंप-एसिस्टेड शॉर्ट टेक-ऑफ से पहले लड़ाकू विमान अपनी पूरी ताकत प्राप्त कर ले. एक समय में केवल एक विमान लॉन्च करने की क्षमता हो सकता है इसके विघ्न को प्रमाणित करती है। आधुनिकीकरण योजना के तहत, जहाज के आईलैंड की अधिरचना के साथ 20 टन क्षमता वाला एलीवेटर अपरिवर्तित ही रहेंगे, लेकिन पिछले लिफ्ट को बड़ा किया जाएगा और इसके भार उठाने की क्षमता में 30 टन तक की वृद्धि की जाएगी. कोणयुक्त डेक के पिछले भाग में तीन आकर्षक गियर लगाए जाएंगे. एलएके (LAK) ऑप्टिकल-लैंडिंग सिस्टम समेत एसटीओबीएआर (STOBAR) (शॉर्ट टेक-ऑफ बट एरेस्टेड रिकवरी) के संचालन के लिए फिक्स्ड विंग को सहारा देने के लिए नेविगेशन और वाहक लैंडिंग सहायक लगाये जाएंगे.[30] आठ बॉयलरों को निकाल दिया जा रहा है और तेल ईंधन भट्ठी को डीजल ईंधन भट्ठी में तब्दील कर दिया गया है और अंतरराष्ट्रीय मानकों को पूरा करने के लिए आधुनिक तेल-जल विभाजकों के साथ-साथ एक दूषित जल शोधक संयंत्र लगाया जा रहा है। इस जहाज में छह नए इतालवी-निर्मित वार्तसिला (Wärtsilä) 1.5 मेगावाट डीजल जेनरेटर, एक वैश्विक समुद्री संचार प्रणाली, स्पेरी ब्रिजमास्टर नेविगेशन रडार, एक नया टेलीफोन एक्सचेंज, नया डेटा लिंक और एक आईएफएफ एमके XI प्रणाली (IFF Mk XI system) भी लगायी जा रही है। जल-उत्पादन संयंत्रों के अलावा योर्क अंतर्राष्ट्रीय प्रशीतन संयंत्र और वातानुकूलक के साथ होटल सेवाओं में सुधार किए जा रहे हैं। घरेलू सेवाओं में सुधार तथा 10 महिला अधिकारियों की आवास सुविधा के साथ एक नया पोत-रसोईघर स्थापित की जा रही है।[30] हालांकि जहाज का आधिकारिक जीवन काल 20 वर्ष अपेक्षित है, लेकिन विशेषज्ञों का मानना है कि नियुक्ति के समय से इसका जीवन काल वास्तव में कम से कम 30 वर्ष हो सकता है। आधुनिकीकरण के पूरा हो जाने पर जहाज और उसके उपकरण का 70 प्रतिशत नया होगा और बाक़ी का नवीकरण किया जाएगा.[30] नामकरण "विक्रमादित्य" एक संस्कृत शब्द है जिसका अर्थ है "सूर्य की तरह प्रतापी"[31] और भारतीय इतिहास के कुछ प्रसिद्ध राजाओं का भी नाम है, जैसे कि उज्जैन के विक्रमादित्य, जिन्हें एक महान शासक और शक्तिशाली योद्धा के रूप में जाना जाता है। यह उपाधि का प्रयोग भारतीय राजा चंद्रगुप्त द्वितीय द्वारा भी किया जाता था जिनका शासन-काल 375-413/15 ई.सं. के बीच रहा इन्हें भी देखें विमान वाहक की सूची सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ डिफेंस इंडस्ट्री डेली -. कार्यक्रम की पूर्ण इतिहास, वायुविषयक के पूरक और संबंधित घटनाओं को आवरण करता है। Coordinates: श्रेणी:कीव श्रेणी के विमान वाहक श्रेणी:सोवियत संघ में बनाया गया जहाज श्रेणी:1982 के जहाज श्रेणी:भारतीय नौसेना श्रेणी:भारतीय नौसेना के विमान वाहक पोत श्रेणी:युद्धपोत
आई एन एस विक्रमादित्य को किस वर्ष भारतीय नौसेना में शामिल कर लिया गया?
16 नवम्बर 2013
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ज्ञानमीमांसा (Epistemology) दर्शन की एक शाखा है। ज्ञानमीमांसा ने आधुनिक काल में विचारकों का ध्यान आकृष्ट किया। दर्शनशास्त्र का ध्येय सत् के स्वरूप को समझना है। सदियों से विचारक यह खोज करते रहे हैं, परंतु किसी निश्चित निष्कर्ष से अब भी उतने ही दूर प्रतीत होते हैं, जितना पहले थे। आधुनिक काल में देकार्त (1596-1650 ई) को ध्यान आया कि प्रयत्न की असफलता का कारण यह है कि दार्शनिक कुछ अग्रिम कल्पनाओं को लेकर चलते रहे हैं। दर्शनशास्त्र को गणित की निश्चितता तभी प्राप्त हो सकती है, जब यह किसी धारणा को, जो स्वत:सिद्ध नहीं, प्रमाणित किए बिना न मानें। उसने व्यापक संदेह से आरंभ किया। उसकी अपनी चेतना उसे ऐसी वस्तु दिखाई दी, जिसके अस्तित्व में संदेह ही नहीं हो सकता: संदेह तो अपने आप चेतना का एक आकार या स्वरूप है। इस नींव पर उसने, अपने विचार में, परमात्मा और सृष्टि के अस्तित्व को सिद्ध किया। देकार्त की विवेचन-विधि नई थी, परंतु पूर्वजों की तरह उसका अनुराग भी तत्वज्ञान में ही थाु। जॉन लॉक (1632-1704 ई) ने अपने लिये नया मार्ग चुना। सदियों से सत् के विषय में विवाद होता रहा है। पहले तो यह जानना आवश्यक है कि हमारे ज्ञान की पहुँच कहाँ तक है। इसी से ये प्रश्न भी जुड़े थे कि ज्ञान क्या है और कैसे प्राप्त होता है। यूरोप महाद्वीप के दार्शनिकों ने दर्शन को गणित का प्रतिरूप देना चाहा था, लॉक ने अपना ध्यान मनोविज्ञान की ओर फेरा "मानव बुद्धि पर निबंध" की रचना की। यह युगांतकारी पुस्तक सिद्ध हुई, इसे अनुभववाद का मूलाधार समझा जाता है। जार्ज बर्कले (1684-1753) ने लॉक की आलोचना में "मानवज्ञान" के नियम लिखकर अनुभववाद को आगे बढ़ाया और डेविड ह्यूम (1711-1776 ईदृ) ने "मानव प्रकृति" में इसे चरम सीमा तक पहुँचा दिया। ह्यूम के विचारों का विशेष महत्व यह है कि उन्होंने कांट (1724-1804 ईदृ) के "आलोचनवाद" के लिये मार्ग खोल दिया। कांट ने ज्ञानमीमांसा को दर्शनशास्त्र का केंद्रीय प्रश्न बना दिया। किंतु पश्चिम में ज्ञानमीमांसा को उचित पद प्रप्त करने में बड़ी देर लगी। भारत में कभी इसकी उपेक्षा हुई ही नहीं। गौतम के न्यायसूत्रों में पहले सूत्र में ही 16 विचारविषयों का वर्णन हुआ है, जिसके यथार्थ ज्ञान से नि:श्रेयस की प्राप्ति होती है। इनमें प्रथम दो विषय "प्रमाण" और "प्रमेय" हैं। ये दोनों ज्ञानमीमांसा और ज्ञेय तत्व ही हैं। यह उल्लेखनीय है कि इन दोनों में भी प्रथम स्थान "प्रमाण" को दिया गया है। ज्ञानमीमांसा में प्रमुख प्रश्न ज्ञान, ज्ञाता और ज्ञेय का संबंध है। देकार्त ने अपने अनुभव के विश्लेषण से आरंभ किया, परंतु मनुष्य सामाजिक प्राणी है, उसका अनुभव शून्य में नहीं विकसित होता। दर्शनशास्त्र का इतिहास वादविवाद की कथा है। प्लेटो ने अपना मत संवादों में व्यक्त किया। संवाद में एक से अधिक चेतनाओं का अस्तित्व स्वीकार किया जाता है। ज्ञानमीमांसा में विवेचन का विषय वैयक्तिक चेतना नहीं, अपितु सामाजिक चेतना बन जाती है। ज्ञान का अपना अस्तित्व तो असंदिग्ध है परंतु इसमें निम्नलिखित स्वीकृतियाँ भी निहित होती हैं- क. ज्ञान से भिन्न ज्ञाता है, जिसे ज्ञान होता है। ख. ज्ञान एक से अधिक ज्ञाताओं के संसर्ग का फल है। ग. ज्ञान का विषय ज्ञान से भिन्न है। प्रत्येक धारणा सत्य होने का दावा करती है। परंतु मीमांसा इस दावे को उचित जाँच के बिना स्वीकार नहीं कर सकता। हम अभी इन धारणाओं की परीक्षा करेंगे, परंतु पहले ज्ञान के स्वरूप पर कुछ कहना आवश्यक है। ज्ञानमीमांसा में प्रमुख प्रश्न ये हैं- 1. ज्ञान क्या है? 2. ज्ञान की संभावना भी है या नहीं? 3. ज्ञान प्राप्त कैसे होता है? 4. मानव ज्ञान की सीमाएँ क्या हैं? ज्ञान का स्वरूप: सम्मति, विश्वास और ज्ञान जब हम किसी धारणा को सुनते हैं या उसका चिंतन करते हैं तो उस सबंध में हमारी वृत्ति इस प्रकार की होती है - हम उसे सत्य स्वीकार करते हैं या उसे असत्य समझकर अस्वीकार करते हैं। सत्य और असत्य में निश्चय न कर सकें, तो स्वीकृति अस्वीकृति दोनों को विराम में रखते हैं। यह संदेह की वृत्ति है। उपन्यास पढ़ते हुए हम अपने आपको कल्पना के जगत् में पाते हैं और जो कुछ कहा जाता है उसे हम उस समय के लिये तथ्य मान लेते हैं। यह "काल्पनिक स्वीकृति" है। स्वीकृति के कई स्तर होते हैं। अधम स्तर पर सामयिक स्वीकृति है, इसे सम्मति कहते हैं। यह स्वीकृति प्रमाणित नहीं होती, इसे त्यागना पड़े तो हमें कोई विरक्ति नहीं होती। सम्मति के साथ तेज और सजीवता प्रबल होती है। धार्मिक विश्वासों पर जमें रहने के लिये मनुष्य हर प्रकार का कष्ट सहन कर लेता है। विश्वास और सम्मति दोनों वैयक्तिक कृतियाँ हैं, ज्ञान में यह परिसीमन नहीं होता। मैं यह नहीं कहता कि मेरी संमति में दो और दो चार होते हैं, न यह कहता हूँ कि मेरे विश्वास के अनुसार, यदि क और ख दोनों ग के बराबर हैं तो एक दूसरे के भी बराबर हैं। ये तो ऐसे तथ्य हैं, जिन्हें प्रत्येक बुद्धिवंत प्राणी को अवश्य मानना होता है संमतियो में भेद होता है ज्ञान सबके लिये एक है। ज्ञान में संमति की आत्मपरकता का स्थान वस्तुपरकता ले लेती है। ज्ञान और ज्ञाता अनुभववाद के अनुसार, ज्ञानसामग्री के दो ही भाग हैं -- प्रभाव और उनके बिंब। द्रव्य के लिये इनमें कोई ज्ञान नहीं। ह्यूम ने कहा कि जिस तरह भौतिक पदार्थ गुणसमूह के अतिरिक्त कुछ नहीं, उसी तरह अनुभवी अनुभवों के समूह के अतिरिक्त कुछ नहीं। इन दोनों समूहों में एक भेद है -- कुल के सभी गुण एक साथ विद्यमान होते हैं, चेतन की चेतनावस्थाएँ एक दूसरे के बाद प्रकट होती हैं। चेतना श्रेणी या पंक्ति है और किसी पंक्ति को अपने आप पंक्ति होने का बोध नहीं हो सकता। हृदय की व्याख्या में स्मरण शक्ति के लिये कोई स्थान नहीं; जैसे विलियम जेम्स ने कहा, अनुभववाद को स्मृति माँगनी पड़ती है। ह्यूम को ज्ञाता ज्ञानसामग्री में नहीं मिला; वह वहाँ मिल ही नहीं सकता था। अनुभववाद के लिये प्रश्न था -- अनुभव क्या बताता है? पीछे कांट ने पूछा -- अनुभव बनता कैसे है? अनुभव अनुभवी की क्रिया के बिना बन ही नहीं सकता। पुरुषबहुत्व मनुष्य सामाजिक प्राणी है; हमारा सारा जीवन और मनुष्यों के साथ व्यतीत होता है। पुरुषबहुत्व व्यापक स्वीकृति है। मीमांसा के लिये प्रश्न यह है कि इस स्वीकृति की स्थिति दृढ़ विश्वास की स्थिति है या ज्ञान की? इस विषय में स्वप्न संदेह का कारण है। स्वप्न में मैं देखता सुनता प्रतीत होता हूँ; अन्य मनुष्यों के साथ संसर्ग भी होता प्रतीत होता है। क्या जागरण और स्वप्न का भी स्वप्न की प्रतीति तो नहीं? अहंवाद के अनुसार सारी सत्ता भारी कल्पना ही है। हमारा सामाजिक जीवन अहंवाद का खंडन है, परंतु प्रश्न तो सामाजिक जीवन के संबंध में ही है -- क्या यह जीवन विश्वास मात्र ही तो नहीं? अहंवाद के विरुद्ध कोई ऐसा प्रमाण नहीं जिसे अखंडनीय कह सकें। जब हम ऐसे संदेह से ग्रस्त होते हैं तो, जैसा ह्यूम ने कहा है, थोड़े समय के बाद हम अपने आपको थका पाते हैं और हमारा ध्यान विवश होकर दुनिया की ओर फिरता है, जिसमें भौतिक पदार्थ भी हैं और चेतन प्राणी भी। जब बुद्धि काम नहीं करती, प्रकृति हमारी सहायता करती है। प्रतिबोध मीमांसा अनुभववाद के अनुसार सारा ज्ञान अंत में प्रभावों और उनके चित्रों से बनता है। प्रभाव में गुणबोध और वस्तुवाद का भेद कर सकते हैं; चित्र में प्रतिबिंब और प्रत्यय का भेद होता है। प्रत्येक ज्ञानेंद्रिय किसी विशेष गुण का चरिचय देती है -- आँख रूप का, कान शब्द का, नाक गंध का। इन गुणों के समन्वय से वस्तुज्ञान प्राप्त होता है। इसे प्रतिबोध या प्रत्यक्ष भी कहते हैं। ऐसे बोध में ज्ञान का विषय ज्ञाता के बाहर होता है; प्रतिबिंब और प्रत्यय अंदर होते हैं। यह बाहर और अंदर का भेद कल्पना मात्र है या तथ्य है, ज्ञानमीमांसा में यह प्रमुख प्रश्न रहा है। प्रतिबोध या प्रत्यक्ष ज्ञान ने जितना ध्यान आकर्षित किया है, उतना ज्ञानमीमांसा में किसी अन्य प्रश्न ने नहीं किया। सांख्य दर्शन के अनुसार प्रत्यक्ष के दो प्रमुख चिह्न हैं -- (1) प्रत्यक्ष इंद्रिय और विषय के संपर्क का परिणाम होता है। (2) प्रत्यक्ष में चित्त विषय के आकार को ग्रहण कर लेता है। इसका अर्थ यह है कि प्रत्यक्ष ज्ञान कल्पनामात्र नहीं होता और इसमें किसी प्रकार की भ्रांति नहीं होती। यह तो स्पष्ट ही है कि हमारे पास प्रत्यक्ष से अधिक विश्वस्त ज्ञान नहीं, परंतु प्रश्न यह है कि विषयी और विषय में सीधा संपर्क हो भी सकता है या नहीं। यदि ऐसा संपर्क होता है, तो भ्रांति कैसे प्रविष्ट हो जाती है? विषयी और विषय में कुछ अंतर होता है। इस अंतर की दशा हमारे बोध को प्रभावित करती है। जंगल के वृक्ष दूर से हरेनहीं दीखते, क्योंकि उनके रंग के साथ बीच में पड़नेवाली वायु का रंग भी मिल जाता है। फिर, हमारी इंद्रिय की अवस्था भी एक सी नहीं रहती, कान का रोगी पदार्थों को पीला देखता है। कुछ विचारक कहते हैं कि हम बाह्य पदार्थों को नहीं देखते, उनके चित्रों को देखते हैं, इन चित्रों के विषय में निश्चयपूर्वक नहीं कह सकते कि ये बाह्य पदार्थों के अनुरूप हैं; यहाँ भ्रांति की संभावना सदा बनी रहती है। वास्तववाद के दो रूप हैं -- साक्षातात्मक वास्तववाद और प्रतिबिंबात्मक वास्तववाद। पहले रूप में भ्रांति का अस्तित्व समस्या बन जाता है, दूसरे रूप में सत्य ज्ञान का समाधान नहीं होता। विज्ञानवाद अंदर और बाहर के भेद को समाप्त कर देता है। जान लॉक के विचारों में ही इसका बीज विद्यमान था। उसने कहा कि द्रव्य का प्रत्यय अस्पष्ट है। उसने यह भी कहा कि भौतिक पदार्थों के प्रधान गुण तो उनमें विद्यमान होते हैं, परंतु अप्रधान गुण वे परिणाम हैं जो प्रधान गुणों के आघात से हमारे मन में व्यक्त होते हैं। बर्कले ने कहा कि जो युक्तियाँ अप्रधान गुणों के वस्तुगत अस्तित्व के विरुद्ध दी जाती हैं, वही प्रधान गुणों के विरुद्ध दी जाती है। बाहर कुछ है ही नहीं, उसके बोध के स्पष्ट या अस्पष्ट होने का प्रश्न प्रत्यय बन गया है। इंद्रियदत्त (रूप, रस, गंध आदि) बाह्य पदार्थों के गुण नहीं, न ही ये मानसिक अवस्थाएँ हैं। ये ज्ञाता से भिन्न, उसके बाहर हैं और उनका स्वतंत्र अस्तित्व है। रस्सला के अनुसार, "इंद्रियग्राह्यों" के समूह विद्यमान हैं, इनके कुछ अंश गृहीत हो जाते हैं। हमारा परिबोध सत्य ज्ञान है, परंतु आंशिक ज्ञान। ज्ञान की सीमाएँ कांट ने अपनी विख्यात पुस्तक "शुद्ध बुद्धि की समालोचना" को इन शब्दों के साथ आरंभ किया -- "इस बात में तो संदेह ही नहीं हो सकता कि हमारा सारा ज्ञान अनुभव के साथ आरंभ होता है। क्योंकि यह कैसे संभव है कि बोध शक्ति कुछ करने लगे, सिवाय इसके कि हमारी इंद्रियों को प्रभावित करनेवाले पदार्थ इसे यह क्षमता दें। परंतु यद्यपि हमारा सारा ज्ञान अनुभव के साथ आरंभ होता है, इससे यह निष्कर्ष नहीं निकलता कि सारा ज्ञान अनुभव की ही देन है। कांट ने अनुभव की बनावट में बुद्धि के भागदान पर बल दिया। ऐसा करने पर भी, उसने आरंभ में कहा कि हमारा विचार प्रकटनों की दुनिया से परे नहीं जा सकता। पीछे उसने अनुशीलक बुद्धि और व्यावहारिक बुद्धि में भेद किया और कहा कि अनुशीलक बुद्धि ज्ञान देती है, परंतु यह ज्ञान प्रकटनों की दुनिया से परे ही सत्ता है। मनुष्य सारभूत रूप में नैतिक प्राणी है। नीति की माँगें ये हैं -- मनुष्य के कर्तव्य हैं, इसलिये उसमें कर्तव्यपालन की क्षमता है; वह स्वाधीन है। मनुष्य का लक्ष्य अनंत है, इसकी सिद्धि के लिये अनंतकाल की आवश्यकता है। आत्मा अमर है। नीति की माँग यह है कि सदाचार और सुख संयुक्त हों। ऐसा संयोग हमारे वश में नहीं, परमात्मा ही ऐसा संयोग करने में समर्थ है; परमात्मा का अस्तित्व है। भारत में परा विद्या और अपरा विद्या में भेद किया गया है और दोनों में प्रथम को ऊँचा पद दिया है। कुछ विचारक तो अपरा विद्या को अविद्या ही कहते हैं। प्लेटो ने विशेष पदार्थों के बोध को सम्मति का पद दिया और सम्मति को विद्या और अविद्या के मध्य में रखा। सत्य का स्वरूप प्रत्येक निर्णय सत्य होने का दावा करता है। इस दावे का अर्थ क्या है? निर्णय में दो प्रत्ययों या विचारों के संबंध की बात कही जाती है। यदि यह संबंध उन पदार्थों में भी विद्यमान है जो उन विचारों के मूल हैं, तो निर्णय सत्य है। सत्य का यह समाधान अनुरूपतावाद कहलाता है। विज्ञानवाद बाह्य जगत् को कल्पना मात्र कहता है, इसके अनुसार सत्ता में चेतनाओं और चेतन अवस्थाओं के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। यदि कोई निर्णय शेष ज्ञान से संसक्त हो सकता है, तो वह सत्य है। यह अविरोधवाद है। आधुनिकवाद काल में अमरीका में व्यवहारवाद का प्रसार हुआ है। इसके अनुसार, जो धारणा व्यवहार में सफल सिद्ध होती है, वह सत्य है। सत्य कोई स्थायी वस्तु नहीं, जिसे हम देखते हैं; यह बनता है। वास्तव में यहाँ दो प्रश्न हैं -- (त) सत्य का स्वरूप क्या है? (थ) किसी धारणा के सत्य होने की कसौटी क्या है? अनुरूपतावाद पहले प्रश्न का उत्तर देता है तथा अविरोधवाद और व्यवहारवाद दूसरे प्रश्न का। इन्हें भी देखें प्रमाण दर्शन तत्वमीमांसा मूल्यमीमांसा बाहरी कड़ियाँ Stanford Encyclopedia of Philosophy articles: by William Talbott. by Matthias Steup. by Michael Bradie &amp; William Harms. by Elizabeth Anderson. by Richard Feldman. by Alvin Goldman. by John Greco. Other links: Synthese, An International Journal for Epistemology, Methodology and Philosophy of Science — a brief introduction to the topic by Keith DeRose. — a group blog run by Jonathan Kvanvig, with many leading epistemologists as contributors. by Birger Hjørland &amp; Jeppe Nicolaisen (eds.) by Keith DeRose. by Mathew Toll a collection of Michael Huemer's. and by Paul Newall at the Galilean Library. — Marjorie Clay (ed.), an electronic publication from The Council for Philosophical Studies. — an introduction at Groovyweb. — from PhilosophyOnline. A practical introduction to the theory of knowledge — an introduction to epistemology, exploring the various theories of knowledge, justification, and belief. by Clóvis Juarez Kemmerich, on the Social Science Research Network, 2006. by Paul Newall, aimed at beginners. श्रेणी:दर्शन श्रेणी:ज्ञानमीमांसा
'ज्ञानमीमांसा'' विषय को अंग्रेज़ी भाषा में किस नाम से जाना जाता है?
Epistemology
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hindi
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भारत का स्वतंत्रता दिवस (अंग्रेज़ी: Independence Day of India, हिंदी:इंडिपेंडेंस डे ऑफ़ इंडिया) हर वर्ष 15 अगस्त को मनाया जाता है। सन् 1947 में इसी दिन भारत के निवासियों ने ब्रिटिश शासन से स्‍वतंत्रता प्राप्त की थी। यह भारत का राष्ट्रीय त्यौहार है। प्रतिवर्ष इस दिन भारत के प्रधानमंत्री लाल किले की प्राचीर से देश को सम्बोधित करते हैं। 15 अगस्त 1947 के दिन भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने, दिल्ली में लाल किले के लाहौरी गेट के ऊपर, भारतीय राष्ट्रीय ध्वज फहराया था।[1] महात्मा गाँधी के नेतृत्व में भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में लोगों ने काफी हद तक अहिंसक प्रतिरोध और सविनय अवज्ञा आंदोलनों में हिस्सा लिया। स्वतंत्रता के बाद ब्रिटिश भारत को धार्मिक आधार पर विभाजित किया गया, जिसमें भारत और पाकिस्तान का उदय हुआ। विभाजन के बाद दोनों देशों में हिंसक दंगे भड़क गए और सांप्रदायिक हिंसा की अनेक घटनाएं हुईं। विभाजन के कारण मनुष्य जाति के इतिहास में इतनी ज्यादा संख्या में लोगों का विस्थापन कभी नहीं हुआ। यह संख्या तकरीबन 1.45 करोड़ थी। भारत की जनगणना 1951 के अनुसार विभाजन के एकदम बाद 72,26,000 मुसलमान भारत छोड़कर पाकिस्तान गये और 72,49,000 हिन्दू और सिख पाकिस्तान छोड़कर भारत आए। [2] इस दिन को झंडा फहराने के समारोह, परेड और सांस्कृतिक आयोजनों के साथ पूरे भारत में मनाया जाता है। भारतीय इस दिन अपनी पोशाक, सामान, घरों और वाहनों पर राष्ट्रीय ध्वज प्रदर्शित कर इस उत्सव को मनाते हैं और परिवार व दोस्तों के साथ देशभक्ति फिल्में देखते हैं, देशभक्ति के गीत सुनते हैं।[3] इतिहास यूरोपीय व्यापारियों ने 17वीं सदी से ही भारतीय उपमहाद्वीप में पैर जमाना आरम्भ कर दिया था। अपनी सैन्य शक्ति में बढ़ोतरी करते हुए ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने 18वीं सदी के अन्त तक स्थानीय राज्यों को अपने वशीभूत करके अपने आप को स्थापित कर लिया था। 1857 के प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के बाद भारत सरकार अधिनियम 1858 के अनुसार भारत पर सीधा आधिपत्य ब्रितानी ताज (ब्रिटिश क्राउन) अर्थात ब्रिटेन की राजशाही का हो गया। दशकों बाद नागरिक समाज ने धीरे-धीरे अपना विकास किया और इसके परिणामस्वरूप 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (आई० एन० सी०) निर्माण हुआ।[4][5]:123 प्रथम विश्वयुद्ध के बाद का समय ब्रितानी सुधारों के काल के रूप में जाना जाता है जिसमें मोंटेगू-चेम्सफोर्ड सुधार गिना जाता है लेकिन इसे भी रोलेट एक्ट की तरह दबाने वाले अधिनियम के रूप में देखा जाता है जिसके कारण स्वरुप भारतीय समाज सुधारकों द्वारा स्वशासन का आवाहन किया गया। इसके परिणामस्वरूप महात्मा गांधी के नेतृत्व में असहयोग और सविनय अवज्ञा आंदोलनों तथा राष्ट्रव्यापी अहिंसक आंदोलनों की शुरूआत हो गयी।[5]:167 1930 के दशक के दौरान ब्रितानी कानूनों में धीरे-धीरे सुधार जारी रहे; परिणामी चुनावों में कांग्रेस ने जीत दर्ज की।[5]:195–197 अगला दशक काफी राजनीतिक उथल पुथल वाला रहा: द्वितीय विश्व युद्ध में भारत की सहभागिता, कांग्रेस द्वारा असहयोग का अन्तिम फैसला और अखिल भारतीय मुस्लिम लीग द्वारा मुस्लिम राष्ट्रवाद का उदय। 1947 में स्वतंत्रता के समय तक राजनीतिक तनाव बढ़ता गया। इस उपमहाद्वीप के आनन्दोत्सव का अंत भारत और पाकिस्तान के विभाजन के रूप में हुआ।[5]:203 स्वतंत्रता से पहले स्वतंत्रता दिवस 1929 लाहौर सत्र में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने पूर्ण स्वराज घोषणा की और 26 जनवरी को स्वतंत्रता दिवस के रूप में घोषित किया। कांग्रेस ने भारत के लोगों से सविनय अवज्ञा करने के लिए स्वयं प्रतिज्ञा करने व पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्ति तक समय-समय पर जारी किए गए कांग्रेस के निर्देशों का पालन करने के लिए कहा।[6] इस तरह के स्वतंत्रता दिवस समारोह का आयोजन भारतीय नागरिकों के बीच राष्ट्रवादी ईधन झोंकने के लिये किया गया व स्वतंत्रता देने पर विचार करने के लिए ब्रिटिश सरकार को मजबूर करने के लिए भी किया गया।[7] कांग्रेस ने 1930 और 1950 के बीच 26 जनवरी को स्वतंत्रता दिवस के रूप में मनाया।[8][9] इसमें लोग मिलकर स्वतंत्रता की शपथ लेते थे। जवाहरलाल नेहरू ने अपनी आत्मकथा में इनका वर्णन किया है कि ऐसी बैठकें किसी भी भाषण या उपदेश के बिना, शांतिपूर्ण व गंभीर होती थीं।[10] गांधी जी ने कहा कि बैठकों के अलावा, इस दिन को, कुछ रचनात्मक काम करने में खर्च किया जाये जैसे कताई कातना या हिंदुओं और मुसलमानों का पुनर्मिलन या निषेध काम, या अछूतों की सेवा। 1947 में वास्तविक आजादी के बाद [11],भारत का संविधान 26 जनवरी 1950 को प्रभाव में आया; तब के बाद से 26 जनवरी को गणतंत्र दिवस के रूप में मनाया जाता है। तात्कालिक पृष्ठभूमि सन् 1946 में, ब्रिटेन की लेबर पार्टी की सरकार का राजकोष, हाल ही में समाप्त हुए द्वितीय विश्व युद्ध के बाद खस्ताहाल था। तब उन्हें एहसास हुआ कि न तो उनके पास घर पर जनादेश था और न ही अंतर्राष्ट्रीय समर्थन। इस कारण वे तेजी से बेचैन होते भारत को नियंत्रित करने के लिए देसी बलों की विश्वसनीयता भी खोते जा रहे थे। फ़रवरी 1947 में प्रधानमंत्री क्लीमेंट एटली ने ये घोषणा की कि ब्रिटिश सरकार जून 1948 से ब्रिटिश भारत को पूर्ण आत्म-प्रशासन का अधिकार प्रदान करेगी।[12][13] [14][15] अंतिम वायसराय लॉर्ड माउंटबेटन ने सत्ता हस्तांतरण की तारीख को आगे बढ़ा दिया क्योंकि उन्हें लगा कि, कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच लगातार विवाद के कारण अंतरिम सरकार का पतन हो सकता है। उन्होंने सत्ता हस्तांतरण की तारीख के रूप में, द्वितीय विश्व युद्ध, में जापान के आत्मसमर्पण की दूसरी सालगिरह 15 अगस्त को चुना।[16] ब्रिटिश सरकार ने ब्रिटिश भारत को दो राज्यों में विभाजित करने के विचार को 3 जून 1947 को स्वीकार कर लिया[12] व ये भी घोषित किया कि उत्तराधिकारी सरकारों को स्वतंत्र प्रभुत्व दिया जाएगा और ब्रिटिश राष्ट्रमंडल से अलग होने का पूर्ण अधिकार होगा। यूनाइटेड किंगडम की संसद के भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम 1947 (10 और 11 जियो 6 सी. 30) के अनुसार 15 अगस्त 1947 से प्रभावी (अब बांग्लादेश सहित) ब्रिटिश भारत को भारत और पाकिस्तान नामक दो नए स्वतंत्र उपनिवेशों में विभाजित किया और नए देशों के संबंधित घटक असेंबलियों को पूरा संवैधानिक अधिकार दे दिया।[17] 18 जुलाई 1947 को इस अधिनियम को शाही स्वीकृति प्रदान की गयी। स्वतंत्रता व बंटवारा सुबह 08.30बजे – गवर्नमेंट हाउस पर गवर्नर जनरल और मंत्रियों का शपथ समारोह सुबह 09.40बजे – संवैधानिक सभा की और मंत्रियों का प्रस्थान सुबह 09.50बजे – संवैधानिक सभा तक स्टेट ड्राइव सुबह 09.55बजे – गवर्नर जनरल को शाही सलाम सुबह 10.30बजे – संवैधानिक सभा में राष्ट्रीय ध्वज को फहराना सुबह 10.35बजे – गवर्नमेंट हाउस तक स्टेट ड्राइव सायं 06.00बजे – इंडिया गेट पर झंडा समारोह सायं 07.00बजे – प्रकाश सायं 07.45बजे – आतिश बाज़ी प्रदर्शन सायं 08.45बजे – गवर्नमेंट हाउस पर आधिकारिक रात्रि भोज (डिनर) रात्रि 10.15बजे – गवर्नमेंट हाउस पर स्वागत समारोह 15 अगस्त 1947 के दिन का प्रोग्राम [7]:7 लाखों मुस्लिम, सिख और हिन्दू शरणार्थियों ने स्वतंत्रता के बाद तैयार नयी सीमाओं को पैदल पार कर सफर तय किया।[18] पंजाब जहाँ सीमाओं ने सिख क्षेत्रों को दो हिस्सों में विभाजित किया, वहां बड़े पैमाने पर रक्तपात हुआ, बंगाल व बिहार में भी हिंसा भड़क गयी पर महात्मा गांधी की उपस्थिति ने सांप्रदायिक हिंसा को कम किया। नई सीमाओं के दोनों ओर 2 लाख 50 हज़ार से 10 लाख लोग हिंसा में मारे गए। पूरा देश स्वतंत्रता दिवस मना रहा था, वहीं[19], गांधी जी नरसंहार को रोकने की कोशिश में कलकत्ता में रुक गए,[20] पर 14 अगस्त 1947, को पाकिस्तान का स्वतंत्रता दिवस घोषित हुआ और पाकिस्तान नामक नया देश अस्तित्व में आया; मुहम्मद अली जिन्ना ने कराची में पहले गवर्नर जनरल के रूप में शपथ ली। भारत की संविधान सभा ने नई दिल्ली में संविधान हॉल में 14 अगस्त को 11 बजे अपने पांचवें सत्र की बैठक की।[21] सत्र की अध्यक्षता राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद ने की। इस सत्र में जवाहर लाल नेहरू ने भारत की आजादी की घोषणा करते हुए ट्रिस्ट विद डेस्टिनी नामक भाषण दिया। सभा के सदस्यों ने औपचारिक रूप से देश की सेवा करने की शपथ ली। महिलाओं के एक समूह ने भारत की महिलाओं का प्रतिनिधित्व किया व औपचारिक रूप से विधानसभा को राष्ट्रीय ध्वज भेंट किया।[21] आधिकारिक समारोह नई दिल्ली में हुए जिसके बाद भारत एक स्वतंत्र देश बन गया। नेहरू ने प्रथम प्रधानमंत्री के रूप में पद ग्रहण किया, और वायसराय लॉर्ड माउंटबेटन ने पहले गवर्नर जनरल के रूप में अपना पदभार संभाला। महात्मा गांधी के नाम के साथ लोगों ने इस अवसर को मनाया। गांधी ने हालांकि खुद आधिकारिक घटनाओं में कोई हिस्सा नहीं लिया। इसके बजाय, उन्होंने हिंदू और मुसलमानों के बीच शांति को प्रोत्साहित करने के लिए कलकत्ता में एक भीड़ से बात की, उस दौरान ये 24 घंटे उपवास पर रहे।[7] 15 अगस्‍त 1947 को सुबह 11:00 बजे संघटक सभा ने भारत की स्‍वतंत्रता का समारोह आरंभ किया, जिसमें अधिकारों का हस्‍तांतरण किया गया। जैसे ही मध्‍यरात्रि की घड़ी आई भारत ने अपनी स्‍वतंत्रता हासिल की और एक स्‍वतंत्र राष्‍ट्र बन गया। स्‍वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने इस दिन ट्रिस्ट विद डेस्टिनी (नियति से वादा) नामक अपना प्रसिद्ध भाषण दिया: इस भाषण को 20वीं सदी के महानतम भाषणों में से एक माना जाता है।[22] समारोह पूरे भारत में अनूठे समर्पण और अपार देशभक्ति की भावना के साथ स्‍वतंत्रता दिवस मनाया जाता है। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रवासी भारतीयों विशेषकर भारतीय आप्रवासियों की उच्च सघनता के क्षेत्रों में परेड और प्रतियोगिताओं के साथ दुनिया भर में स्वतंत्रता दिवस मनाया जाता है।[23] न्यूयॉर्क और अन्य अमेरिकी शहरों में कुछ स्थानों में, 15 अगस्त प्रवासी और स्थानीय आबादी के बीच में भारत दिवस बन गया है। यहां लोग 15 अगस्त के आसपास या सप्ताह के अंतिम दिन पर भारत दिवस मनाते हैं व प्रतियोगिताएँ रखते हैं।[24] राष्ट्रीय स्तर पर देश के प्रथम नागरिक और देश के राष्ट्रपति स्वतंत्रता दिवस की पूर्वसंध्या पर "राष्ट्र के नाम संबोधन" देते हैं।[3] इसके बाद अगले दिन दिल्‍ली में लाल किले पर तिरंगा झंडा फहराया जाता है। जिसे 21 तोपों की सलामी दी जाती है। इसके बाद प्रधानमंत्री देश को संबोधित करते हैं। आयोजन के बाद स्कूली छात्र तथा राष्ट्रीय कैडेट कोर के सदस्य राष्ट्र गान गाते हैं। लाल किले में आयोजित देशभक्ति से ओतप्रोत इस रंगारंग कार्यक्रम को देश के सार्वजनिक प्रसारण सेवा दूरदर्शन (चैनल), द्वारा देशभर में सजीव (लाइव) प्रसारित किया जाता है। स्वतंत्रता दिवस की संध्या पर राष्ट्रीय राजधानी तथा सभी शासकीय भवनों को रंग बिरंगी विद्युत सज्जा से सजाया जाता है, जो शाम का सबसे आकर्षक आयोजन होता है।[3] राज्य/स्थानीय स्तर पर देश के सभी राज्यों की राजधानी में इस अवसर पर विशेष झंडावंदन कार्यक्रम आयोजित किया जाता है, तथा राज्य के सुरक्षाबल राष्ट्रध्वज को सलामी देते हैं। प्रत्येक राज्य में वहाँ के मुख्यमंत्री ध्वजारोहण करते हैं। स्थानीय प्रशासन, जिला प्रशासन, नगरीय निकायों, पंचायतों में भी इसी प्रकार के कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं। शासकीय भवनों को आकर्षक पुष्पों से तिरंगे की तरह सजाया जाता है। छोटे पैमाने पर शैक्षिक संस्‍थानों में, आवासीय संघों में, सांस्‍कृतिक केन्‍द्रों तथा राजनैतिक सभाओं का आयोजन किया जाता है।[3] एक अन्‍य अत्‍यंत लोकप्रिय गतिविधि जो स्‍वतंत्रता की भावना का प्रतीक है और यह है पतंगें उड़ाना (अधिकतर दिल्ली व गुजरात में)। आसमान में हजारों रंग बिरंगी पतंगें देखी जा सकती हैं, ये चमकदार पतंगें हर भारतीय के घर की छतों और मैदानों में देखी जा सकती हैं और ये पतंगें इस अवसर के आयोजन का अपना विशेष तरीका है।[3] सुरक्षा खतरे आजादी के तीन साल बाद, नागा नेशनल काउंसिल ने उत्तर पूर्व भारत में स्वतंत्रता दिवस के बहिष्कार का आह्वान किया। इस क्षेत्र में[25] अलगाववादी विरोध प्रदर्शन 1980 के दशक में तेज हो गए और उल्फा व बोडोलैंड के नेशनल डेमोक्रेटिक फ्रंट ऑफ़ बोडोलैंड की ओर से आतंकवादी हमलों व बहिष्कारों की ख़बरें आती रहीं।[26] 1980 के दशक से जम्मू-कश्मीर में उग्रवाद में वृद्धि के साथ,[27] अलगाववादी प्रदर्शनकारियों ने बंद करके, काले झंडे दिखाकर और ध्वज जलाकर वहां स्वतंत्रता दिवस का बहिष्कार किया।[28][29][30] इसी के साथ लश्कर-ए-तैयबा, हिजबुल मुजाहिदीन और जैश-ए-मोहम्म्द जैसे आतंकवादी संगठनों द्वारा धमकियाँ भी जारी की गयीं और स्वतंत्रता दिवस के आसपास हमले किए गए हैं।[31] उत्सव के बहिष्कार की विद्रोही माओवादी संगठनों द्वारा वकालत की गई।[32][33] विशेष रूप से आतंकवादियों की ओर से आतंकवादी हमलों की आशंका में सुरक्षा उपायों को, विशेषकर दिल्ली, मुंबई व जम्मू-कश्मीर के संकटग्रस्त राज्यों के प्रमुख शहरों में, कड़ा कर दिया जाता है।[34] हवाई हमलों से बचने के लिए लाल किले के आसपास के इलाके को नो फ्लाई ज़ोन (उड़न निषेध क्षेत्र) घोषित किया जाता है और अतिरिक्त पुलिस बलों को अन्य [35] शहरों में भी तैनात किया जाता है।[36] लोकप्रिय संस्कृति में स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस पर हिंदी देशभक्ति के गीत और क्षेत्रीय भाषाओं में टेलीविजन और रेडियो चैनलों पर प्रसारित किए जाते हैं। इनको झंडा फहराने के समारोह के साथ भी बजाया जाता है।[37] देशभक्ति की फिल्मों का प्रसारण भी होता है, टाइम्स ऑफ इंडिया के अनुसार ऐसी फिल्मों के प्रसारण की संख्या में कमी आई है।[38] नयी पीढ़ी के लिए तीन रंगो में रंगे डिज़ाइनर कपड़े भी इस दौरान दिखाई दे जाते हैं। खुदरा स्टोर स्वतंत्रता दिवस पर बिक्री के लिए छूट प्रदान करते हैं।[39] कुछ समाचार चैनलों ने इस दिवस के व्यवसायीकरण की निंदा की है।[40] भारतीय डाक सेवा 15 अगस्त को स्वतंत्रता आंदोलन के नेताओं, राष्ट्रवादी विषयों और रक्षा से संबंधित विषयों पर डाक टिकट प्रकाशित करता है।[41] इंटरनेट पर, 2003 के बाद गूगल अपने भारतीय होमपेज पर एक विशेष गूगल डूडल के साथ स्वतंत्रता दिवस मनाता है।[42] इन्हें भी देखें स्वतंत्रता दिवस (पाकिस्तान) स्वतंत्रता दिवस (बांग्लादेश) गणतंत्र दिवस (भारत) भारत का इतिहास चित्रशाला स्वतंत्रता दिवस पर एक छात्रा दूसरे को लघु तिरंगा लगाते हुए बच्चा हाथ में राष्ट्रीय ध्वज लिए हुए स्‍वतंत्रता दिवस की तैयारी में सजी एक दुकान साइकिल पर लगे राष्ट्रीय ध्वज सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ दैनिक जागरण का एक लेख। श्रेणी:राष्ट्रीय त्यौहार श्रेणी:भारत के प्रमुख दिवस
भारत को आज़ादी किस तारीख को मिली थी?
15 अगस्त 1947
336
hindi
ab33a9160
its test by amit Verma Kargwal bahal b Part of a series on theHistory of printingvt एक लेज़र प्रिंटर कम्प्यूटर प्रिंटर का एक आम प्रकार है, जो तीव्र गति से किसी सादे कागज़ पर उच्च गुणवत्ता वाले अक्षर और चित्र उत्पन्न (मुद्रित) करता है। डिजिटल फोटोकॉपियर्स या बहु-कार्यात्मक प्रिंटर्स (MFPs) की ही तरह लेज़र प्रिंटर में भी एक ज़ेरोग्राफिक प्रिंटिंग प्रक्रिया का प्रयोग किया जाता है, लेकिन यह एनालॉग फोटोकॉपियर्स से इस रूप में अलग होता है कि प्रिंटर के फोटोकॉपियर पर एक लेज़र किरण की प्रत्यक्ष स्कैनिंग के द्वारा छवि उत्पन्न की जाती है। अवलोकन एक लेज़र किरण प्रिंट किये जाने वाले पृष्ठ का एक चित्र घूमते हुए विद्युतीय रूप से आवेशित ड्रम, जिस पर सेलेनियम की परत चढ़ी होती है, पर प्रक्षेपित करती है। प्रकाश-चालकता उन क्षेत्रों से आवेश को हटा देती है, जिन पर प्रकाश पड़ रहा हो। तब सूखी स्याही (टोनर) के कणों को ड्रम के आवेशित क्षेत्रों द्वारा विद्युतीय रूप से उठाया जाता है। इसके बाद ड्रम प्रत्यक्ष संपर्क और उष्मा, जो स्याही को कागज़ पर मिलाती है, के द्वारा छवि को कागज़ पर प्रिंट करता है। प्रिंटर के अन्य प्रकारों की तुलना में लेज़र प्रिंटर के अनेक महत्वपूर्ण लाभ हैं। इम्पैक्ट प्रिंटरों के विपरीत, लेज़र प्रिंटर की गति में व्यापक अंतर हो सकता है और यह अनेक कारकों पर निर्भर होती है, जिनमें किये जा रहे कार्य की रेखाचित्रीय तीव्रता शामिल है। सबसे तेज़ गति वाले मॉडल प्रति मिनट एक रंग वाले 200 से अधिक पृष्ठ (12,000 पृष्ठ प्रति घंटा) मुद्रित कर सकते हैं। सबसे तेज़ गति वाले रंगीन लेज़र प्रिंटर प्रति मिनट 100 से अधिक (6000 पृष्ठ प्रति घंटा) मुद्रित कर सकते हैं। अत्यधिक उच्च-गति वाले लेज़र प्रिंटरों का प्रयोग निजीकृत दस्तावेजों, जैसे क्रेडिट कार्ड या सुविधा-बिलों, के सामूहिक प्रेषण के लिये किया जाता है और कुछ वाणिज्यिक अनुप्रयोगों में इनकी प्रतिस्पर्धा लिथोग्राफी से है। इस प्रौद्योगिकी की लागत कारकों के एक संयोजन पर निर्भर होती है, जिसमें कागज़, टोनर और कभी-कभी ड्रम के प्रतिस्थापन की लागत व साथ ही फ्यूज़र असेम्बली और स्थानांतरण असेम्बली जैसे अन्य उपभोग्य सामग्रियां शामिल हैं। नर्म प्लास्टिक ड्रम वाले प्रिंटर्स में अक्सर स्वामित्व की लागत उच्च हो सकती है, जो तब तक दिखाई नहीं पड़ती, जब तक कि ड्रम के प्रतिस्थापन की आवश्यकता न पड़े. एक ड्युप्लेक्सिंग प्रिंटर (ऐसा प्रिंटर, जो कागज़ के दोनों ओर मुद्रण करता है) कागज़ की लागत आधी कर सकता है और फाइल के आयतन को घटा सकता है। ड्युप्लेक्सर, जो कि पहले केवल उच्च श्रेणी के प्रिंटरों में ही उपलब्ध थे, अब मध्यम-श्रेणी के प्रिंटरों में भी आम हैं, हालांकि सभी प्रिंटर एक ड्युप्लेक्सिंग इकाई को समाहित नहीं कर सकते. ड्युप्लेक्सिंग में कागज़ के लंबे पथ के कारण पृष्ठ-मुद्रण की गति धीमी भी हो सकती है। लेज़र प्रिंटर की तुलना में, अधिकांश इंक-जेट प्रिंटर और डॉट-मैट्रिक्स प्रिंटर केवल डाटा की अंतर्गामी धारा को लेते हैं और उसे प्रत्यक्ष रूप से एक धीमी झटकेदार प्रक्रिया में प्रकाशित करते हैं, जिसमें कुछ विराम भी हो सकते हैं क्योंकि प्रिंटर अधिक डाटा को पाने के लिये प्रतीक्षा करता है। लेज़र प्रिंटर इस विधि से कार्य करने में असमर्थ होता है क्योंकि इतनी बड़ी मात्रा में डाटा को एक तीव्र, सतत प्रक्रिया के द्वारा मुद्रण उपकरण तक भेजने की आवश्यकता होती है। अधिक डाटा के आने तक प्रतीक्षा करने के दौरान प्रिंटर मुद्रित पृष्ठ पर एक दृश्य-मान अंतर अथवा बिंदुओं के एकरेखन में त्रुटि निर्मित किये बिना इस कार्यविधि को पर्याप्त अचूकता के साथ नहीं रोक सकता. इसकी बजाय चित्र का डाटा मेमोरी के एक बड़े संग्रह में रखा जाता है, जो पृष्ठ के प्रत्येक बिंदु को प्रदर्शित कर पाने में सक्षम होता है। मुद्रण के पूर्व संपूर्ण डाटा को संग्रहित करने की इस आवश्यकता ने लेज़र प्रिंटर्स को पारंपरिक रूप से कागज़ के छोटे निश्चित आकारों, जैसे A4, तक सीमित कर दिया है। अधिकांश लेज़र प्रिंटर्स ऐसे अखण्ड बैनर को मुद्रित कर पाने में असमर्थ होते हैं, जो कागज़ की दो मीटर लंबी शीट तक फैले हुए हों, क्योंकि मुद्रण का प्रारंभ करने से पूर्व इतने बड़े चित्र का भण्डारण करने के लिये प्रिंटर में पर्याप्त मेमोरी उपलब्ध नहीं होती. इतिहास लेज़र प्रिंटर का आविष्कार ज़ेरोक्स में 1969 में अनुसंधानकर्ता गैरी स्टार्कवेदर द्वारा किया गया, जिन्होंने 1971 तक एक उन्नत प्रिंटर कार्यक्षमता प्राप्त की[1] और लगभग एक वर्ष बाद इसे एक पूर्ण कार्यात्मक नेटवर्क प्रिंटर प्रणाली में सम्मिलित किया।[2] इसका प्रोटोटाइप पुराने ज़ेरोग्राफिक कॉपियर में संशोधन के द्वारा बनाया गया था। स्टार्कवेदर ने चित्रण प्रणाली को अक्षम किया और 8 दर्पण भुजाओं से युक्त एक घूमनेवाले ड्रम, जिस पर एक लेज़र केंद्रित थी, का निर्माण किया। लेज़र से आने वाला प्रकाश घूमते हुए ड्रम से टकराएगा और कॉपियर से गुज़रते हुए पृष्ठ पर फैल जाएगा. इसका हार्डवेयर केवल एक या दो सप्ताहों में तैयार कर लिया गया था, लेकिन कम्प्यूटर इंटरफेस और सॉफ्टवेयर को पूरा होने में लगभग 3 माह का समय लगा। लेज़र प्रिंटर का पहला वाणिज्यिक कार्यान्वयन 1976 में निर्मित IBM मॉडल 3800 था, जिसका प्रयोग चालानों और पत्र-लेबल जैसे दस्तावेजों के अधिक मात्रा में मुद्रण के लिये किया जाता था। अक्सर इसका उल्लेख "एक पूरा कमरा लेने वाला" के रूप में किया जाता है, जो इस बात का सूचक है कि यह पर्सनल कम्प्यूटर के साथ बाद में प्रयुक्त परिचित उपकरण का प्रारंभिक संस्करण था। हालांकि, इसका आकार बड़ा था, लेकिन इसे एक पूर्णतः भिन्न उद्देश्य के लिये बनाया गया था। अनेक 3800 मॉडल आज भी उपयोग में हैं। किसी कार्यालयीन व्यवस्था में प्रयोग के लिये बनाया गया पहला लेज़र प्रिंटर 1981 में ज़ेरोक्स स्टार 8010 के साथ रिलीज़ हुआ था। यद्यपि यह अभिनव था, लेकिन स्टार एक महंगा ($17,000) तंत्र था, जिसे व्यापारिक प्रतिष्ठानों और संस्थाओं की एक अपेक्षाकृत छोटी संख्या द्वारा ही खरीदा गया। पर्सनल कम्प्यूटरों का व्यापक प्रयोग शुरु हो जाने के बाद, सामूहिक बाज़ार को लक्ष्य बनाकर रिलीज़ किया गया पहला लेज़र प्रिंटर 1984 में विमोचित HP लेज़र जेट 8ppm था, जिसमें HP सॉफ्टवेयर द्वारा नियंत्रित कैनन इंजन का प्रयोग किया जाता था। HP लेज़र प्रिंटर के बाद शीघ्र ही ब्रदर इण्डस्ट्रीज़ (Brother Industries), IBM और अन्य कम्पनियों ने भी अपने लेज़र प्रिंटर प्रस्तुत किये। पहली-पीढ़ी की मशीनों में बड़े प्रकाश-संवेदनशील ड्रम होते थे, जिनकी परिधि कागज़ की लंबाई से अधिक होती थी। एक बार शीघ्र-पुनर्प्राप्ति कोटिंग का विकास कर लिये जाने पर, ड्रम एक ही चक्र में कागज़ को अनेक बार छू सकता था और इस प्रकार उसका व्यास कम किया जा सकता था। अधिकांश इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों की ही तरह, लेज़र प्रिंटरों की लागत भी पिछले कुछ वर्षों में उल्लेखनीय रूप से कम हुई है। 1984 में, HP लेज़र जेट का विक्रय मूल्य $3500 था, इसमें बहुत छोटे, निम्न रिजॉल्यूशन वाले चित्रों के मुद्रण में भी समस्या आती थी और इसका भार 71 पाउंड (32 किग्रा) था।[3] 2008 तक की जानकारी के अनुसार निम्न श्रेणी वाले एक रंगीय प्रिंटर अक्सर $75 से कम मूल्य पर बेचे जाते हैं। अक्सर इन प्रिंटरों में बोर्ड पर प्रसंस्करण की कमी होती है और वे रास्टर चित्र के निर्माण के लिये मेज़बान कम्प्यूटर पर आश्रित होते हैं (विनप्रिंटर देखें), लेकिन फिर भी लगभग सभी स्थितियों में वे लेज़रजेट क्लासिक से बेहतर प्रदर्शन करते हैं। यह किस प्रकार कार्य करता है लेज़र मुद्रण की प्रक्रिया में विशिष्ट रूप से सात चरण सम्मिलित होते हैं: रास्टर चित्र का प्रसंस्करण पृष्ठ के पार बिन्दुओं की प्रत्येक आड़ी पट्टिका को एक रास्टर रेखा या स्कैन रेखा कहा जाता है। मुद्रित की जाने वाली छवि का निर्माण विशिष्टतः लेज़र प्रिंटरों में निर्मित रास्टर इमेज प्रोसेसिंग (RIP) द्वारा किया जाता है। स्रोत सामग्री को किसी भी विशेष पृष्ठ वर्णन भाषा, जैसे अडोब पोस्टस्क्रिप्ट (PS), HP प्रिंटर कमाण्ड लैंग्वेज (PCL), या माइक्रोसॉफ्ट XML पेज स्पेसीफिकेशन (XPS) में अथवा अप्रारूपित केवल-पाठ्य डाटा के रूप में कूटबद्ध किया जा सकता है। रास्टर मेमोरी में अंतिम पृष्ठ के बिटमैप के निर्माण के लिये RIP द्वारा पृष्ठ विवरण भाषा का प्रयोग किया जाता है। एक बार पूरा पृष्ठ रास्टर मेमोरी में तैयार कर लिये जाने पर, प्रिंटर एक सतत धारा में कागज़ पर बिंदुओं का एक रास्टरीकृत प्रवाह भेजने की प्रक्रिया का प्रारंभ करने के लिये तैयार होता है। पहले ह्युलेट पैकार्ड लेज़र जेट में केवल 128 किलोबाइट मेमोरी थी। विशिष्टतः इसका प्रयोग केवल पाठ्य सामग्री के मुद्रण के लिये किया जाता था और यह आधुनिक चित्रीय प्रिंटरों के समान संचालित नहीं होता था। पृष्ठ वर्ण सूचना केवल कुछ किलोबाइटों में रखी जाती थी और मुद्रण के दौरान प्रत्येक रास्टर स्कैन रेखा के लिये वास्तविक बिंदु को रीड ओन्ली मेमोरी (ROM) में रखी फॉन्ट बिटमैप सारिणियों में देखा जाता था। अतिरिक्त फॉन्ट ROM कार्ट्रिज में रखे जाते थे, जिसे विस्तारण स्लॉट में जोड़ा जाता था। एक पृष्ठ वर्णन भाषा का प्रयोग करके पूर्णतः चित्रमय परिणाम पाने के लिये 300 dpi पर किसी एक-रंगीय पत्र/A4 आकार के एक पृष्ठ का भण्डारण करने के लिये न्यूनतम 1 मेगाबाइट मेमोरी की आवश्यकता होती है। 300 dpi पर, प्रति वर्ग इंच में 90,000 बिंदु (300 बिंदु प्रति रेखीय इंच) होते हैं। कागज़ की एक विशिष्ट 8.5 x 11 शीट पर 0.25 इंच का हाशिया होता है, जिससे मुद्रणयोग्य क्षेत्र घटकर 8.0 x 10.5 इंच या 84 वर्ग इंच रह जाता है। 84 वर्ग/इंच x 90,000 बिंदु प्रति वर्ग/इंच= 7,560,000 बिंदु. इस बीच 1 मेगाबाइट=1048576 बाइट्स या 8,388,608 बिट्स, जो कि 300 dpi के एक संपूर्ण पृष्ठ को रखने के लिये पर्याप्त होता है और रास्टर इमेज प्रोसेसर द्वारा प्रयोग किये जाने के लिये 100 किलोबाइट अतिरिक्त स्थान बच जाता है। रंगीन प्रिंटर में, चार CMYK टोनर परतों में से प्रत्येक को एक पृथक बिटमैप के रूप में रखा जाता है और मुद्रण से पहले सभी चार परतों का विशिष्ट रूप से प्रसंस्करण किया जाता है, अतः एक पूर्ण-रंगीन पत्र के आकार के पृष्ठ के लिये 300 dpi पर न्यूनतम 4 मेगाबाइट्स की आवश्यकता होती है। मेमोरी आवश्यकताएं dpi के वर्ग के साथ बढ़ती हैं, अतः 600 dpi पर मोनोक्रोम के लिये 4 मेगाबाइट्स और 600 dpi पर रंगीन मुद्रण के लिये 16 मेगाबाइट्स की आवश्यकता होती है। कुछ प्रिंटरों में विभिन्न आकारों वाले बिंदुओं और अंतरालीय बिंदुओं की क्षमता होती है; इन अतिरिक्त विशेषताओं के लिये यहां वर्णित न्यूनतम मात्रा से कई गुना अधिक मेमोरी की आवश्यकता हो सकती है। समाचार-पत्र और उससे बड़े आकार की क्षमता वाले प्रिंटरों में मेमोरी विस्तारण स्लॉट शामिल हो सकते हैं। यदि उपलब्ध मेमोरी अपर्याप्त है, तो कुछ विशेषतायें अक्षम की जा सकती हैं, जैसे पत्र के आकार में रंगीन मुद्रण की क्षमता हो, लेकिन समाचार-पत्र के मुद्रण में केवल एक-रंगीय मुद्रण कर पाने की ही क्षमता उपलब्ध हो। अतिरिक्त मेमोरी खरीदने पर बड़े आकार में रंगीन प्रिंटिंग की क्षमता प्राप्त हो सकती है। आवेशण पुराने प्रिंटरों में, एक परिमण्डल तार को ड्रम के समानांतर लगाया जाता था, या अधिक हालिया प्रिंटरों में, एक प्राथमिक आवेश रोलर, एक इलेक्ट्रोस्टैटिक आवेश को फोटोरिसेप्टर, एक घूमता हुआ प्रकाश-संवेदी ड्रम या बेल्ट, जो कि अंधेरा में होने पर अपनी सतह पर एक इलेक्ट्रोस्टैटिक आवेश को रख पाने में सक्षम होता है, पर प्रायोजित करता है (इसे फोटोकण्डक्टर ईकाई भी कहा जाता है). पुराने चित्र द्वारा छोड़े गये किसी अवशिष्ट आवेश को हटाने के लिये प्राथमिक आवेश रोलर पर एक AC दबाव लागू किया जाता है। समान नकारात्मक सामार्थ्य को सुनिश्चित करने के लिये रोलर ड्रम की सतह पर DC दबाव भी लागू करेगा। वांछित मुद्रण घनत्व इस DC दबाव के द्वारा ठीक किया जाता है।[4] अनेक पेटेंट प्रकाश-संवेदी ड्रम कोटिंग को एक प्रकाश-आवेशण परत, एक आवेश रिसाव-रोधी परत और साथ ही एक सतह परत के साथ एक सिलिकॉन सैण्डविच के रूप में वर्णित करते हैं। एक संस्करण अक्रिस्टलीय सिलिकॉन का प्रयोग करता है, जिसमें प्रकाश प्राप्त करनेवाली परत के रूप में हाइड्रोजन, आवेश रिसाव-रोधी परत के रूप में बोरॉन नाइट्राइड का और साथ ही डोपित सिलिकॉन की सतह परत, उल्लेखनीय रूप से ऑक्सीजन या नाइट्रोजन के साथ सिलिकॉन, जो कि पर्याप्त सान्द्रता में मशीनिंग सिलिकॉन नाइट्राइड के समान दिखाई देता है, का प्रयोग किया जाता है; यह न्यूनतम रिसाव और रगड़ के प्रति प्रतिरोध के साथ एक प्रकाश आवेश-क्षम डायोड का प्रभाव होता है। प्रकटन लेज़र को एक घूमते हुए बहुभुजीय दर्पण पर लक्ष्यित किया जाता है, जो लेज़र किरण को लेंसों और दर्पणों के एक तंत्र से होकर एक फोटोरिसेप्टर की ओर भेजा जाता है। यह किरण फोटोरिसेप्टर पर एक ऐसा कोण बनाते हुए फैल जाती है कि यह फैलाव पूरे पृष्ठ पर हो; सिलिण्डर इस फैलाव के दौरान घूमता रहता है और फैलाव का कोण इस गति की पूर्ति करता है। सिलिण्डर पर बिंदुओं के निर्माण के लिये मेमोरी में रखे रास्टरीकृत डाटा की धारा लेज़र को शुरु और बंद करती है। (कुछ प्रिंटर प्रकाश उत्सर्जक द्वियग्रों की एक श्रेणी का प्रयोग करते हैं, जिनका विस्तार पूरे पृष्ठ की चौड़ाई तक होता है, लेकिन ये उपकरण "लेज़र प्रिंटर" नहीं होते. लेज़रों का प्रयोग इसलिये किया जाता है क्योंकि वे लंबी दूरी तक एक संकरी किरण उत्पन्न करते हैं। लेज़र किरण टोनर के कणों को उठाने के लिये फोटोरिसेप्टर की सतह पर एक स्थिर विद्युत ऋणात्मक चित्र छोड़ते हुए चित्र के कालों भागों पर आवेश को निष्प्रभावित कर देती है (या उलट देती है). प्रत्येक फैलाव चक्र के अंत में लेज़र फैलाव प्रक्रिया को समकालिक करने के लिये एक बीम डिटेक्ट (BD) संवेदक का प्रयोग किया जाता है।[4] विकास इस अदृश्य सतह को टोनर, काले कार्बन या रंगीन एजेंट के साथ मिश्रित सूखे प्लास्टिक पाउडर के बारीक कणों के सामने उजागर किया जाता है। आवेशित टोनर कणों को एक ऋणात्मक आवेश दिया जाता है और वे फोटोरिसेप्टर के अदृश्य चित्र, लेज़र द्वारा स्पर्श किये गये क्षेत्रों, की ओर स्थिरविद्युत रूप से आकर्षित होते हैं। चूंकि समान आवेश एक-दूसरे का प्रतिरोध करते हैं, अतः ऋणात्मक रूप से आवेशित टोनर ड्रम को उस स्थान पर स्पर्श नहीं करेगा, जहां ऋणात्मक आवेश उपस्थित है। मुद्रित छवि के सकल कालेपन को आपूर्ति टोनर पर लागू किये गये उच्च वोल्टेज द्वारा नियंत्रित किया जाता है। आवेशित टोनर एक बार ड्रम की सतह के अंतर को पार कर लेता है, तो टोनर पर ऋणात्मक आवेश स्वतः ही आपूर्ति टोनर का प्रतिरोध करता है और अतिरिक्त टोनर को ड्रम पर जाने से रोकता है। यदि वोल्टेज कम हो, तो अधिक टोनर को स्थानांतरित होने से रोकने के लिये टोनर की केवल एक पतली परत की आवश्यकता होती है। यदि वोल्टेज अधिक हो, तो अधिक टोनर को ड्रम पर स्थानांतरित होने से रोकने के लिये ड्रम पर एक पतली परत बहुत कमज़ोर होती है। अधिक आपूर्ति टोनर ड्रम पर जाना तब तक जारी रखता है, जब तक कि ड्रम पर स्थित आवेश आपूर्ति टोनर का प्रतिरोध करने के लिये पुनः पर्याप्त रूप से उच्च न हो जायें. सबसे काली सेटिंग पर आपूर्ति टोनर का वोल्टेज पर्याप्त रूप से इतना उच्च होता है कि जहां अलिखित ड्रम आवेश अभी भी उपस्थित हो, वहां वह भी ड्रम पर परत चढ़ाना शुरु करेगा और पूरे पृष्ठ को एक काली छाया देगा। स्थानांतरण फोटोरिसेप्टर को कागज़ पर दबाया या चलाया जाता है, जिससे चित्र स्थानांतरित होता है। टोनर को फोटोरिसेप्टर से कागज़ पर खींचने के लिये उच्च-श्रेणी वाली मशीनें कागज़ के पिछले भाग में एक धनात्मक रूप से आवेशित स्थानांतरण रोलर का प्रयोग करती हैं। फ्यूज़ीकरण फ़्यूज़र असेम्बली में कागज़ रोलरों से होकर गुज़रता है, जहां उष्मा (200 सेल्सियस तक) और दबाव प्लास्टिक पाउडर को कागज़ से जोड़ते हैं। एक रोलर सामान्यतः एक पोली नली (उष्मा रोलर) के रूप में होता है और दूसरा एक रबर समर्थित रोलर (दबाव रोलर) होता है। एक दीप्तिमान उष्मा लैंप को पोली नली के केंद्र में लटकाया जाता है और इसकी इन्फ्रारेड ऊर्जा रोलर को समान रूप से भीतर से गर्म करती है। टोनर की उपयुक्त जुड़ाई के लिये फ्यूज़र रोलर समान रूप से गर्म होना चाहिये। प्रिंटर द्वारा प्रयुक्त विद्युत शक्ति के 90% तक का प्रयोग फ्यूज़र रोलर द्वारा किया जाता है। फ्यूज़र असेम्बली से उत्पन्न उष्मा प्रिंटर के अन्य भागों को क्षतिग्रस्त कर सकती है, अतः आंतरिक भाग से उष्मा को दूर हटाने के लिये अक्सर इसे पंखों से ढंका जाता है। अधिकांश कॉपियर्स और लेज़र प्रिंटर्स की प्राथमिक विद्युत बचत विशेषता फ्यूज़र को बंद करना और इसे ठंडा होने देना है। सामान्य प्रचालन को पुनः प्राप्त करने के लिये फ्यूज़र के प्रचालन तापमान पर लौटने तक प्रतीक्षा करना आवश्यक होता है, उसके बाद ही मुद्रण प्रारंभ हो सकता है। कुछ प्रिंटर एक बहुत पतले लचीले धातु-निर्मित फ्यूज़र रोलर का प्रयोग करते हैं, अतः बहुत थोड़े भार को गर्म करने की आवश्यकता होती है और फ्यूज़र बहुत जल्द प्रचालन तापमान तक पहुंच सकता है। ऐसा करना एक निष्क्रिय अवस्था से मुद्रण को गति प्रदान करता है और साथ ही बिजली बचाने के लिये फ्यूज़र को अधिक शीघ्रता से बंद होने की अनुमति देता है। यदि कागज़ अधिक धीमी गति से फ्यूज़र से गुज़रता है, तो टोनर को पिघलने के लिये रोलर के साथ अधिक संपर्क समय की आवश्यकता होती है और फ्यूज़र एक कम तापमान पर भी प्रचालन कर सकता है। बड़े उच्च गति वाले प्रिंटरों, जिनमें कागज़ बहुत कम संपर्क समय में एक उच्च-तापमान वाले फ्यूज़र से अधिक तेज़ी से गुज़रता है, की तुलना में ऊर्जा की बचत करने वाले इस डिज़ाइन के कारण छोटे, सस्ते लेज़र प्रिंटर विशिष्ट रूप से धीमी गति से मुद्रण करते हैं। सफाई जब मुद्रण पूर्ण हो जाता है, तो एक विद्युतीय रूप से आवेशित नर्म प्लास्टिक ब्लेड फोटोरिसेप्टर से अतिरिक्त टोनर को साफ करती है और इसे एक कूड़ा भण्डार में जमा करता है, तथा एक विसर्जक लैंप बचे हुए आवेश को फोटोरिसेप्टर से हटाता है। कागज़ फंस जाने जैसी किन्हीं अनपेक्षित घटनाओं के कारण टोनर कभी-कभी प्रकाश-चालक पर ही छूट जाता है। टोनर प्रकाश-चालक पर लगाए जाने के लिये तैयार है, लेकिन इसे लागू किये जा सकने से पूर्व ही प्रचालन विफल हो जाता है। टोनर को हटाकर प्रक्रिया फिर से शुरू करनी चाहिए। दूषित टोनर को मुद्रण के लिये पुनः प्रयोग नहीं किया जा सकता क्योंकि यह धूल और कागज़ के रेशों के कारण खराब हो सकता है। एक गुणवत्तापूर्वक मुद्रित चित्र के लिये एक शुद्ध, साफ टोनर की आवश्यकता होती है। दूषित टोनर का पुनर्प्रयोग करने के परिणामस्वरूप धब्बेदार मुद्रण क्षेत्र या कागज़ पर टोनर की बुरी फ्यूज़िंग प्राप्त होती है। हालांकि कुछ अपवाद होते हैं, जिनमें ब्रदर (Brother) और तोशिबा (Toshiba) के लेज़र प्रिंटर सर्वाधिक उल्लेखनीय हैं, जो दूषित टोनर को साफ करने और उसका पुनर्चक्रण करने के लिये एक पेटेंटीकृत विधि का प्रयोग करते हैं।[5][6] एक ही समय पर घटित होने वाले अनेक चरण एक बार रास्टर चित्र का निर्माण पूरा हो जाने पर प्रिंटिग प्रक्रिया के सभी चरण एक तीव्र अनुक्रमण में एक के बाद एक घटित हो सकते हैं। यह एक बहुत छोटी और सुसंबद्ध ईकाई के प्रयोग की अनुमति देता है, जहां फोटोरिसेप्टर आवेशित होता है, कुछ अंशों तक घूमता है और स्कैन किया जाता है, कुछ और अंशों तक घूमता है और विकसित होता है, इस प्रकार प्रक्रिया जारी रहती है। ड्रम की एक परिक्रमा पूरी होने से पहले ही इस पूरी प्रक्रिया को पूर्ण किया जा सकता है। भिन्न-भिन्न प्रिंटर इन चरणों को भिन्न रूप से क्रियान्वित करते हैं। कुछ "लेज़र" प्रिंटर ड्रम पर प्रकाश को "लिखने" के लिये वस्तुतः प्रकाश-उत्सर्जक द्वियग्र की एक रेखीय श्रेणी का प्रयोग करते हैं (LED प्रिंटर देखें). टोनर मोम या प्लास्टिक पर आधारित होता है, ताकि जब कागज़ फ्यूज़र असेम्बली से होकर गुज़रता है, तो टोनर के कण पिघल जाते हैं। कागज़ विपरीत रूप से आवेशित हो भी सकता है और नहीं भी. फ्यूज़र एक इन्फ्रारेड ओवन, एक गर्म किया गया दबाव रोलर या (कुछ अधिक तेज़ गति वाले, महंगे प्रिंटरों पर) एक ज़ेनॉन फ्लैश लैंप हो सकता है। प्रिंटर को पहली बार विद्युत शक्ति प्रदान किये जाने पर प्रिंटर को गर्म करने के लिये इस पर लागू की गई जिस वॉर्म-अप प्रक्रिया से एक लेज़र प्रिंटर गुज़रता है, उसमें मुख्यतः फ्यूज़र तत्व को गर्म करना शामिल होता है। अनेक प्रिंटरों में एक टोनर-बचाव मोड होता है, जिसे ह्युलेट-पैकार्ड (Hewlett-Packard) द्वारा "इकॉनोमोड" कहा जाता है, जो टोनर की लगभग आधी मात्रा का ही प्रयोग करता है, लेकिन एक हल्का, मसौदे की गुणवत्ता वाला परिणाम उत्पन्न करता है। रंगीन लेज़र प्रिंटर रंगीन लेज़र प्रिंटर रंगीन टोनर (सूखी स्याही) का प्रयोग करते हैं, विशिष्ट रूप से हरिनील (Cyan), नीलातिरक्त (Magenta), पीला (Yellow) और काला (Black) (CMYK). एक ओर जहां मोनोक्रोम प्रिंटर केवल एक लेज़र स्कैनर असेम्बली का प्रयोग करते हैं, वहीं रंगीन प्रिंटरों में अक्सर दो या अधिक स्कैनर असेम्बलियां होती हैं। रंगीन मुद्रण के कारण मुद्रण प्रक्रिया में जटिलता जुड़ती है क्योंकि प्रत्येक रंग के मुद्रण के बीच एकरेखन में बहुत कम त्रुटि हो सकती है, जिसे पंजीयन त्रुटि के रूप में जाना जाता है, जो अनभिप्रेत रंग किनारे, धुंधलापन, या रंगीन क्षेत्रों के किनारों पर हल्की/गहरी धारियां उत्पन्न करती है। उच्च पंजीयन अचूकता की अनुमति देने के लिये, कुछ रंगीन लेज़र प्रिंटर एक बड़े घूमते हुए पट्टे का प्रयोग करते हैं, जिसे "स्थानांतरण पट्टा" कहा जाता है। स्थानांतरण पट्टा सभी टोनर कार्ट्रिजों के सामने से गुज़रता है और प्रत्येक टोनर परत को पट्टे पर स्पष्ट रूप से लागू किया जाता है। इसके बाद संयोजित परतों को एक समान एकल चरण में कागज़ पर लागू किया जाता है। रंगीन प्रिंटरों में सामान्यतः मोनोक्रोम प्रिंटरों की तुलना में एक उच्च "सेंट-प्रति-पृष्ठ" उत्पादन लागत होती है। DPI रिज़ॉल्युशन 1200 DPI प्रिंटर्स आम तौर पर 2008 के दौरान उपलब्ध थे। 2400 DPI इलेक्ट्रोफोटोग्राफिक मुद्रण प्लेट निर्माता, आवश्यक रूप से वे लेज़र प्रिंटर, जो प्लास्टिक शीटों पर मुद्रण करते हैं, भी उपलब्ध हैं। लेज़र प्रिंटर का रखरखाव अधिकांश उपभोक्ता और छोटे व्यावसायिक लेज़र प्रिंटर एक टोनर कार्ट्रिज का प्रयोग करते हैं, जो फोटोरिसेप्टर (जिसे कभी-कभी "प्रकाश-चालक ईकाई" या "चित्रण ड्रम" कहा जाता है) को टोनर आपूर्ति भण्डार, अवशिष्ट टोनर हॉपर और विभिन्न वाइपर ब्लेड्स के साथ संयोजित करता है। जब टोनर आपूर्ति की खपत पूरी हो जाती है, तो टोनर कार्ट्रिज को स्वचालित रूप से प्रतिस्थापित करना चित्रण ड्रम, अवशिष्ट टोनर हॉपर और वाइपर ब्लेड्स को प्रतिस्थापित कर देता है। कुछ लेज़र प्रिंटर पिछले रख-रखाव के बाद से अभी तक मुद्रित किये गये पृष्ठों की संख्या की एक पृष्ठ-गिनती रखते हैं। इन मॉडलों पर, एक स्मरण-संदेश दिखाई देगा, जो प्रयोक्ता को इस बात की सूचना देगा कि अब मानक रखरखाव भागों के प्रतिस्थापन का समय आ गया है। अन्य मॉडलों पर, कोई पृष्ठ-गिनती नहीं रखी जाती या कोई स्मरण-संदेश प्रदर्शित नहीं किया जाता, अतः प्रयोक्ता को मुद्रित पृष्ठों का रिकॉर्ड मानवीय रूप से रखना पड़ता है और कागज़ भरने की समस्यायों और मुद्रण त्रुटियों जैसे चेतावनी सूचकों को देखना पड़ता है। निर्माता सामान्यतः प्रिंटर के आम भागों और उपभोग्य सामग्रियों के लिये एक जीवन प्रत्याशा सूची प्रदान करते हैं। निर्माता प्रिंटर के उनके भागों के लिये जीवन प्रत्याशा को समय की ईकाई की बजाय "अपेक्षित पृष्ठ-उत्पादन जीवन" के संदर्भ में मूल्यांकित करते हैं। व्यावसायिक-श्रेणी के प्रिंटरों के लिये उपभोग्य-सामग्रियां और रख-रखाव भागों को सामान्यतः व्यक्तिगत प्रिंटरों के लिये प्रयुक्त भागों की तुलना में एक उच्च पृष्ठ-उत्पादन प्रत्याशा के लिये मूल्यांकित किया जायेगा. विशिष्ट रूप से, टोनर कार्ट्रिज और फ्यूज़र की पृष्ठ-उत्पादन प्रत्याशा सामान्यतः एक व्यक्तिगत प्रिंटर की बजाय व्यावसायिक-श्रेणी के प्रिंटर में उच्चतर होती है। मोनोक्रोम लेज़र प्रिंटरों की तुलना में रंगीन लेज़र प्रिंटरों में रख-रखाव और पुर्ज़ों के प्रतिस्थापन की अधिक आवश्यकता होती है क्योंकि उनमें अधिक चित्रण घटक होते हैं। कागज़ को उठानेवाले पथ और कागज़ भरनेवाले पथ में शामिल रोलर्स और असेम्बलियों के लिये, कार्यविधि से टोनर और धूल को हटाना और कागज़ को संभालनेवाले रबर के रोलर्स को बदलना, साफ करना और पुनः लगाना एक विशिष्ट रख-रखाव है। अधिकांश पिक-अप, फीड और पृथक्करण रोलर्स में एक रबर की परत होती है, जो अंततः घिसाव से प्रभावित होती है और कागज़ की फिसलन भरी धूल से ढंक ली जाती है। जिन मामलों में प्रतिस्थापन रोलर्स का प्रयोग बंद कर दिया गया हो या वे उपलब्ध न हों, वहां रबर के रोलर्स को एक आर्द्र रोआं-मुक्त टुकड़े की सहायता से सुरक्षित रूप से साफ किया जा सकता है। वाणिज्यिक रासायनिक विलयन भी उपलब्ध हैं, जो अस्थाई रूप से रबर के कर्षण को पुनः प्राप्त करने में सहायता कर सकते हैं। फ्यूज़िंग असेम्बली (जिसे "फ्यूज़र" भी कहते हैं) को लेज़र प्रिंटर्स पर सामान्यतः एक प्रतिस्थापनीय उपभोग्य पुर्ज़ा माना जाता है। फ्यूज़िंग असेम्बली टोनर को पिघलाने और उसे कागज़ पर जोड़ने के लिए उत्तरदायी होती है। फ्यूज़िंग असेम्ब्लियों के लिये अनेक त्रुटियां संभव हैं: त्रुटियों में जीर्ण प्लास्टिक संचालन गियर, गर्म करनेवाले घटकों की इलेक्ट्रॉनिक विफलता, विदीर्ण फिक्सिंग फिल्म स्लीव, जीर्ण दबाव रोलर्स, गर्म करनेवाले रोलर्स और दबाव रोलर्स पर टोनर का जमाव, जीर्ण या खरोच-युक्त दबाव रोलर्स और क्षतिग्रस्त कागज़ संवेदक शामिल हैं। कुछ निर्माता बचावात्मक रख-रखाव किट प्रदान करते हैं, जो प्रिंटर के प्रत्येक मॉडल के लिये विशिष्ट होती है; सामान्यतः इस किट में एक फ्यूज़र शामिल होता है और इसमें पिक-अप रोलर्स, फीड रोलर्स, स्थानांतरण रोलर्स, आवेश रोलर्स और पृथक्करण रोलर्स भी शामिल हो सकते हैं। स्टेगैनोग्राफिक जालसाज़ी-रोधी ("गुप्त") चिन्ह अनेक आधुनिक रंगीन लेज़र प्रिंटर्स मुद्रित कागज़ों को पहचान के उद्देश्य से एक लगभग अदृश्य बिंदु रास्टर के द्वारा चिन्हित करते हैं। ये बिंदु पीले रंग के और लगभग 0.1 मिमी आकार के होते हैं और रास्टर लगभग 1 मिमी का होता है। संभवतः यह जालसाज़ों पर निगाह रखने के लिये U.S. सरकार और प्रिंटर निर्माताओं के बीच हुए एक समझौते का परिणाम है।[7] बिंदुओं में मुद्रण तिथि, समय और प्रिंटर अनुक्रमांक जैसा डाटा बाइनरी-कोडित दशमलवों में मुद्रित कागज़ की प्रत्येक शीट पर होता है, जो खरीद के स्थान और कभी-कभी क्रय-कर्ता की पहचान करने के कागज़ के टुकड़ों को निर्माता द्वारा जांचने की अनुमति देता है। डिजिटल अधिकारों की वक़ालत करनेवाले समूह, जैसे इलेक्ट्रॉनिक फ्रंटियर फाउंडेशन, मुद्रण करनेवालों की गोपनीयता और अनामिकता के इस क्षरण के प्रति चिंतित हैं।[8] सुरक्षा खतरे, स्वास्थ्य जोखिम और सावधानियां आघात जोखिम यद्यपि आधुनिक प्रिंटरों में अनेक सुरक्षा इंटरलॉक और रक्षात्मक परिपथ शामिल होते हैं, लेकिन एक लेज़र प्रिंटर के भीतर विभिन्न रोलर्स, तारों और धातु के संपर्कों में उच्च वोल्टेज या एक निवासी वोल्टेज उपस्थित होना संभव है। दर्दनाक विद्युत आघात की संभावना को कम करने के लिये इन भागों के साथ अनावश्यक संपर्क से बचने हेतु सतर्कता रखी जानी चाहिए। टोनर की साफ-सफाई टोनर के कण इलेक्ट्रोस्टैटिक विशेषताओं से युक्त होने के लिए बनाए जाते हैं और अन्य कणों, वस्तुओं या परिवहन प्रणालियों और निर्वात नलिकाओं के आंतरिक भागों के साथ रगड़े जाने पर वे स्थिर-विद्युत आवेश विकसित कर सकते हैं। इस वजह से और कणों के छोटे आकार के कारण, टोनर में निर्वात उत्पन्न करने के लिये एक पारंपरिक घरेलू वैक्यूम क्लीनर का प्रयोग नहीं किया जाना चाहिए। आवेशित टोनर कणों से उत्पन्न स्थिर निस्सरण वैक्यूम क्लीनर बैग में धूल को जला सकता है या यदि पर्याप्त टोनर वायुवाहित हो, तो एक छोटा विस्फोट निर्मित कर सकता है। यह वैक्यूम क्लीनर को क्षतिग्रस्त कर सकता है या आग उत्पन्न कर सकता है। इसके अतिरिक्त, टोनर के कण इतने महीन होते हैं कि उन्हें पारंपरिक घरेलू वैक्यूम क्लीनर के फिल्टर बैग द्वारा अच्छी तरह नहीं छाना जा सकता है और वे मोटर से उड़ सकते हैं या पुनः कमरे में वापस आ सकते हैं। गर्म होने पर टोनर के कण पिघलते (या मिलते) हैं। टोनर के छोटे छलकावों को एक ठंडे, आर्द्र कपड़े द्वारा पोंछा जा सकता है। यदि टोनर लेज़र प्रिंटर के भीतर छलक जाए, तो इसे प्रभावी ढंग से साफ करने के लिये एक विद्युतीय रूप से आवेशित नली और एक उच्च दक्षता (HEPA) वाले फिल्टर से युक्त एक विशेष प्रकार के वैक्यूम क्लीनर की आवश्यकता हो सकती है। इन्हें ESD-सुरक्षित (इलेक्ट्रोस्टैटिक निस्सरण-सुरक्षित) या टोनर वैक्यूम कहा जाता है। टोनर के बड़े छलकावों की साफ-सफाई के लिये इस प्रकार के HEPA-फिल्टर से सज्जित वैक्यूमों का प्रयोग किया जाना चाहिये। टोनर को पानी द्वारा धोये जा सकनेवाले अधिकांश वस्त्रों की सहायता से सरलतापूर्वक साफ किया जा सकता है। चूंकि टोनर कम गलन तापमान वाला मोम या प्लास्टिक का पाउडर होता है, अतः सफाई की प्रक्रिया के दौरान इसे ठंडा रखा जाना चाहिये। टोनर का दाग़ लगे वस्त्रों को ठंडे पानी में धोना अक्सर सफल रहता है। यहां तक कि गर्म पानी का प्रयोग करने पर दाग के स्थाई हो जाने की संभावना भी होती है। कपड़े डालने से पहले वॉशिंग मशीन में ठंडा पानी भरा जाना चाहिए। दो चक्रों में धुलाई करने से सफलता की संभावना बढ़ जाती है। पहले चक्र में बर्तनों को हाथों से धोये जाने वाले साबुन का और दूसरे चक्र में कपड़े धोने वाले सामान्य साबुन का प्रयोग किया जा सकता है। प्रथम चक्र में धुलाई के लिये प्रयुक्त पानी में टोनर का अवशिष्ट प्लव बचा रहेगा और यह स्थाई धूसरता का कारण बन सकता है। जब तक यह सुनिश्चित न हो जाए कि पूरा टोनर हटा दिया गया है, तब तक कपड़े सुखानेवाले किसी उपकरण या इस्तरी का प्रयोग नहीं किया जाना चाहिए। ओजोन खतरे मुद्रण प्रक्रिया के प्राकृतिक भाग के रूप में प्रिटर के भीतर उच्च वोल्टेज एक परिमण्डल निस्सरण उत्पन्न कर सकता है, जो आयनित ऑक्सीजन और नाइट्रोजन की एक छोटी मात्रा निर्मित करता है, जिससे ओज़ोन और नाइट्रोजन ऑक्साइड का निर्माण होता है। बड़े वाणिज्यिक प्रिंटरों और कॉपियरों में, एक वायु निकास धारा में एक कार्बन फिल्टर इन ऑक्साइडों को तोड़ता है, ताकि कार्यालय के वातावरण को प्रदूषण से बचाया जा सके। हालांकि, कुछ ओज़ोन वाणिज्यिक प्रिंटरों में होने वाली इस फिल्टरिंग प्रक्रिया से बच जाती है और अनेक छोटे उपभोक्ता प्रिंटरों में ओज़ोन फिल्टरों का प्रयोग नहीं किया जाता. जब किसी लेज़र प्रिंटर या कॉपियर का प्रयोग एक छोटे, कम हवादार स्थान में लंबे समय तक किया जाता है, तो ये गैसें इतने उच्च स्तरों तक बढ़ सकतीं हैं, जहां ओज़ोन की गंध या जलन को महसूस किया जा सकता है। चरम स्थितियों में एक स्वास्थ्य खतरे के निर्माण की संभावना सैद्धांतिक रूप से संभव है।[9] श्वसन स्वास्थ्य जोखिम क़्वीन्सलैण्ड, ऑस्ट्रेलिया में किये गए एक हालिया अध्ययन के अनुसार, कुछ प्रिंटर उप-सूक्ष्ममापी कण उत्पन्न करते हैं, जिन्हें कुछ लोग श्वसन से जुड़ी बीमारियों के साथ जोड़कर देखते हैं।[10] क़्वीन्सलैण्ड प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय के अध्ययन में जिन 63 प्रिंटरों का मूल्यांकन किया गया, उनमें से 17 सर्वाधिक शक्तिशाली उत्सर्जक ह्युलेट-पैकार्ड (Hewlett-Packard) द्वारा निर्मित थे और एक तोशिबा (Toshiba) द्वारा बनाया गया था। हालांकि, अध्ययन की गई मशीनों की इस संख्या में केवल वे मशीनें हैं, जिन्हें पहले से ही इमारत में रखा जा चुका था और इस प्रकार यह विशिष्ट उत्पादकों के प्रति पक्षपातपूर्ण था। लेखकों ने इस बात का उल्लेख किया कि मशीनों के एक ही मॉडल के बीच भी कणों के उत्सर्जन में उल्लेखनीय अंतर था। क़्वीन्सलैण्ड विश्वविद्यालय के प्रोफेसर मोराव्स्का के अनुसार, एक प्रिंटर ने इतने अधिक कण उत्सर्जित किये जितने एक सिगरेट को जलाने पर उत्सर्जित होते हैं।[11] "अति-महीन कणों को ग्रहण करने से स्वास्थ्य पर होने वाले प्रभाव कणों की बनावट पर निर्भर होते हैं, लेकिन परिणाम सांस लेने में तकलीफ से लेकर अधिक गंभीर बीमारियों, जैसे ह्रदवाहिनी में होने वाली समस्याओं या कैंसर, तक फैले हुए हो सकते हैं।" (क्वींसलैंड प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय).[12] 2006 में जापान में किये गए एक अध्ययन में पाया गया कि लेज़र प्रिंटर स्टाइरिन, ज़ाइलिन और ओज़ोन की मात्रा को बढ़ाते हैं और इंक-जेट प्रिंटर पेंटानॉल का उत्सर्जन करते हैं।[13] मुहले आदि (1991) ने यह सूचित किया कि दीर्घकालिक रूप से ग्रहण किये गए प्रतिलिपि टोनर, कार्बन ब्लैक के साथ रंजित प्लास्टिक धूल, टिटैनियम डाइ-ऑक्साइड और सिलिका के प्रति प्रतिक्रियायें भी मात्रात्मक रूप से टिटैनियम डाइ-ऑक्साइड और डिज़ल उत्सर्जन के समान थीं।[14] इन्हें भी देखें डेज़ी व्हील प्रिंटर डॉट मैट्रिक्स प्रिंटर इंकजेट प्रिंटर LED प्रिंटर थर्मल प्रिंटर डाई-सब्लिमेशन प्रिंटर स्टेग्नोग्राफ़ी सॉलिड इंक कार्डबोर्ड इंजीनियरिंग प्रिंट प्रबंधित सेवाएं सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ (EFF द्वारा) श्रेणी:कंप्यूटर प्रिंटर श्रेणी:नॉन-इम्पैक्ट प्रिंटिंग श्रेणी:कंप्यूटिंग हार्डवेयर का इतिहास श्रेणी:डिजिटल प्रेस श्रेणी:कार्यालय उपकरण श्रेणी:अमेरिकी आविष्कार श्रेणी:श्रेष्ठ लेख योग्य लेख श्रेणी:गूगल परियोजना
प्रिंटर का आविष्कार किस वर्ष हुआ था?
1969
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मायावती (जन्मः १५ जनवरी १९५६;) भारतीय राजनीतिज्ञ एवं बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) की राष्ट्रीय अध्यक्षा है, जो भारतीय समाज के सबसे कमजोर वर्गों - बहुजनों या अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों, अन्य पिछड़ा वर्ग और धार्मिक अल्पसंख्यकों के जीवन में सुधार के लिए सामाजिक परिवर्तन के एक मंच पर केंद्रित है।[2] दलित राजनीति की पुरोधा भारतीय राजनीति में अपना दखल रखने वाली इस दलित महिला ने चार बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री पद की बागडोर संभाली।[1] व्यक्तिगत जीवन मायावती का जन्म 15 जनवरी 1956 को श्रीमती सुचेता कृपलानी अस्पताल, नई दिल्ली में एक हिंदू जाटव (दलित) परिवार में हुआ था। उनके पिता, प्रभु दास, बादलपुर, गौतम बुद्ध नगर में एक डाकघर कर्मचारी थे। परिवार के पुत्रों को निजी स्कूलों में भेजा गया था, जबकि बेटियां "कम-प्रदर्शन वाली सरकारी विद्यालयों" में गई थीं। बाद में उनके पिता भारतीय डाक-तार विभाग के अनुभाग प्रधान के पद से सेवा निवृत्त हुए।मायावती के ६ भाई एवं २ बहनें हैं। मायावती के पूर्वज ग्राम बादलपुर जिला गौतमबुद्ध नगर, उत्तर प्रदेश के रहने वाले थे। लोग सम्मान में इन्हें बहन जी कह कर पुकारते हैं। उनके परिवार का सम्बन्ध दलित उपजाति (जाटव) से है। [3] स्थाई आवास:C-57, इंद्रपुरी , नई दिल्ली -110012 वर्तमान आवास:C-1/12, हुमायूँ रोड , नई दिल्ली -110003[1] शिक्षा बी.ए.(1975): कालिंदी कॉलेज , दिल्ली विश्वविद्यालय बी.एड(1976): बी एम एल जी कॉलेज , गाज़ियाबाद, मेरठ विश्वविद्यालय एल एल बी(1983): मेरठ विश्वविद्यालय[1] व्यवसाय प्रारम्भ आप ने जे जे कॉलोनी दिल्ली के एक स्कूल में शिक्षण कार्य किया। किसी समय उन्होंने भारतीय प्रशासनिक सेवा की परीक्षाओं के लिये अध्ययन भी किया था राजनीति में प्रवेश सन् 1977 में कांशीराम के सम्पर्क में आने के बाद उन्होंने एक पूर्ण कालिक राजनीतिज्ञ बनने का निर्णय ले लिया। कांशीराम के संरक्षण के अन्तर्गत वे उस समय उनकी कोर टीम का हिस्सा रहीं, जब सन् 1984 में बसपा की स्थापना हुई थी। राजनैतिक जीवन 1989:बिजनौर लोकसभा (सु ) उत्तर प्रदेश से संसद सदस्य निर्वाचित। 1994: उत्तर प्रदेश से राज्य सभा के लिए निर्वाचित। 1995:प्रथम भारतीय दलित महिला के रूप में उत्तर प्रदेश राज्य की मुख्यमंत्री के पद की शपथ ली। उत्तर प्रदेश की राजनीति में मायावती एक मजबूत स्तम्भ है। आप के द्वारा उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री पद का कार्य काल निम्नवत रहा 3 जून 1995–18 अक्टूवर 1995 21 मार्च 1997–20 सितम्बर 1997 3 मई 2002–26 अगस्त , 2003 13 मई 2007–6 मार्च 2012[4] इन्हें भी देखें उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री भारत के मुख्यमंत्रियों की सूची कांशीराम रवीश कुमार सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ श्रेणी:1956 में जन्मे लोग श्रेणी:जीवित लोग श्रेणी:उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री श्रेणी:९वीं लोक सभा के सदस्य श्रेणी:१२वीं लोक सभा के सदस्य श्रेणी:१३वीं लोक सभा के सदस्य श्रेणी:राज्यसभा सदस्य श्रेणी:बहुजन समाज पार्टी के राजनीतिज्ञ श्रेणी:भारतीय महिला राजनीतिज्ञ श्रेणी:दलित नेता श्रेणी:हिन्द की बेटियाँ श्रेणी:विकिपरियोजना हिन्द की बेटियाँ
भारतीय राजनीतिज्ञ मायावती का जन्म कब हुआ था?
१५ जनवरी १९५६
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भारत सरकार अधिनियम, १९१९ (Government of India Act, 1919) युनाइटेड किंगडम के संसद द्वारा पारित एक विधान था जिसे 'मांटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार' के नाम से भी जाना जाता है क्योंकि इस अधिनियम के पारित होने के समय मांटेग्यू भारत सचिव तथा चेम्सफोर्ड वायसराय थे। सरकार का दावा था कि उस अधिनियम की विशेषता 'उत्तरदायी शासन की प्रगति' है। इस अधिनियम पर राजा ने २३ दिसम्बर १९१९ को हस्ताक्षर किया। इतिहास भारतमंत्री लॉर्ड मांटेग्यू ने 20 अगस्त, 1917 को ब्रिटिश संसद में यह घोषणा की कि ब्रिटिश सरकार का उद्देश्य भारत में उत्तरदायी शासन की स्थापना करना है। नवम्बर, 1917 में भारतमंत्री मांटेग्यू ने भारत आकर तत्कालीन वायसराय चेम्सफ़ोर्ड एवं अन्य असैनिक अधिकारियों एवं भारतीय नेताओं से प्रस्ताव के बारे में विचार-विमर्श किया। सर विलियम ड्यूक, भूपेन्द्रनाथ बासु, चार्ल्स रॉबर्ट की सदस्यता में एक समिति बनाई गयी, जिसने भारतमंत्री एवं वायसराय को प्रस्तावों को अन्तिम रूप देने में सहयोग दिया। 1918 ई. में इस प्रस्ताव को प्रकाशित किया गया। यह अधिनियम अन्तिम रूप से 1921 ई. में लागू किया गया। मांटेग्यू-चेम्सफोर्ड रिपोर्ट के प्रवर्तनों को 'भारत के रंग बिरंगे इतिहास में सबसे महत्त्वपूर्ण घोषणा' की संज्ञा दी गयी और इसे एक युग का अन्त और एक नवीन युग का प्रारंभ माना गया। इस घोषणा ने कुछ समय के लिए भारत में तनावपूर्ण वातावरण को समाप्त कर दिया। पहली बार 'उत्तरदायी शासन' शब्दों का प्रयोग इसी घोषणा में किया गया। विशेषताएँ 1. केंद्र में द्विसदनात्मक विधायिका की स्थापना 2. केंद्र में प्रत्यक्ष निर्वाचन व्यवस्था 3. प्रांतों में द्वैध शासन प्रणाली की शुरुआत 4. लोक सेवा आयोग का गठन किया गया 5. पहली बार महिलाओं को (सीमित मात्रा में) मत देने का अधिकार 6. केन्द्रीय बजट को राज्य के बजट से अलग किया गया. कमियाँ परंतु, इस अधिनियम में अनेक कमियाँ थी और यह भारतीयों की आकांक्षाओं को एक सिरे से नकार रहा था। उदाहरण के लिए इसमें भारतीयों के लिये मताधिकार बहुत सीमित था। केंद्र में कार्यकारी परिषद के सदस्यों का गवर्नर-जनरल के निर्णयों पर कोई नियंत्रण नहीं था और न ही केंद्र में विषयों का विभाजन संतोषजनक था। प्रांतीय स्तर पर प्रशासन का दो स्वतंत्र भागों में बँटवारा भी राजनीति के सिद्धान्त व व्यवहार के विरूद्ध था। अधिनियम में विषयों का जो 'आरक्षित' व 'हस्तांतरित' बँटवारा था, वह भी अव्यवहारिक था। उस समय मद्रास के मंत्री रहे के.वी. रेड्डी ने व्यंग्य भी किया था- 'मैं विकास मंत्री था किंतु मेरे अधीन वन विभाग नहीं था। मैं सिंचाई मंत्री था किंतु मेरे अधीन सिंचाई विभाग नहीं था।' इस अधिनियम का एक महत्त्वपूर्ण दोष यह भी था कि इसमें प्रांतीय मंत्रियों का वित्त और नौकरशाही पर कोई नियंत्रण नहीं था। नौकरशाही मंत्रियों की अवहेलना तो करती ही थी, कई महत्त्वपूर्ण विषयों पर मंत्रियों से मंत्रणा भी नहीं की जाती थी। इस सभी दोषी के कारण हसन इमाम की अध्यक्षता में कांग्रेस के एक विशेष अधिवेशन ने इस अधिनियम को 'निराशाजनक' एवं 'असंतोषकारी' कहकर इसकी आलोचना की तथा प्रभावी स्वशासन की मांग की। महात्मा गांधी ने इन सुधारों को भविष्य में भी भारत के आर्थिक शोषण तथा उसे परतंत्र बनाये रखने की प्रक्रिया का अंग बताया। फिर भी, इस अधिनियम का भारत के सांविधानिक विकास के इतिहास में महत्त्वपूर्ण स्थान है। इस व्यवस्था से देश के मतदाताओं में मत देने की व्यावहारिक समझ विकसित हुई। इस अधिनियम द्वारा भारत में प्रांतीय स्वशासन तथा आंशिक रूप से उत्तरदायी शासन की व्यवस्था की गई। केंद्र में जहाँ द्विसदनीय व्यवस्थापिका की व्यवस्था हुई, वहीं केंद्र की कार्यकारी परिषद में भारतीयों को पहले से तिगुना प्रतिनिधित्व देने का प्रावधान था। एक विशेष परिवर्तन के तहत 'भारत मंत्री' के वेतन व भत्तों का भारतीय राजस्व के स्थान पर ब्रिटिश राजस्व से देने तथा एक नये पदाधिकारी 'भारतीय उच्चायुक्त' की नियुक्ति की भी घोषणा हुई। सन्दर्भ इन्हें भी देखें भारत सरकार अधिनियम, १८५८ भारत सरकार अधिनियम, १९३५ बाहरी कड़ियाँ श्रेणी:भारतीय इतिहास श्रेणी:भारत का संविधान
भारतमंत्री लॉर्ड मांटेग ने २० अगस्त १९१७ को ब्रिटिश संसद में क्या घोषणा की?
ब्रिटिश सरकार का उद्देश्य भारत में उत्तरदायी शासन की स्थापना करना है
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नाग (Indian Cobra) भारतीय उपमहाद्वीप का जहरीला (विषधर) सांप (सर्प) है। यद्यपि इसका विष करैत जितना घातक नहीं है और यह रसेल्स वाइपर जैसा आक्रामक नहीं है, किन्तु भारत में सबसे अधिक लोग इस सर्प के काटने से मरते हैं क्योंकि यह सभी जगह बहुतायत (अधिक मात्रा) में पाया जाता है। यह चूहे खाता है जिसके कारण अक्सर यह मानव बस्तियों के आसपास, खेतों में एवं शहरी इलाकों के बाहरी भागों में अधिक मात्रा में पाया जाता है। भारत में नाग लगभग सभी इलाकों में आसानी से देखने को मिलते है यह एशिया के उन चार सांपो में से एक है जिनके काटने से अधिक लोग मरते है ज्यादा तर भारत में ये घटना होती है भारतीय नाग में सिनेप्टिक न्यूरोटॉक्सिन (synaptic neurotoxin) और कार्डिओटोक्सिन (cardiotoxin) नामक घातक विष होता है एक वयस्क नाग की लंबाई 1 मीटर से 1.5 मीटर (3.3 से 4.9 फिट) तक हो सकती है जबकि श्रीलंका की कुछ प्रजातियां लगभग 2.1 मीटर से 2.2 मीटर (6.9 से 7.9 फिट) तक हो जाती हैँ जो आसमान है इन्हें भी देखें नागराज (सांप) करैत श्रेणी:भारत के सर्प श्रेणी:सर्प श्रेणी:विषैले सर्प
नाग, किस उपमहाद्वीप का एक जहरीला(विषधर) सर्प है?
भारतीय उपमहाद्वीप
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हर्षवर्धन (590-647 ई.) प्राचीन भारत में एक राजा था जिसने उत्तरी भारत में अपना एक सुदृढ़ साम्राज्य स्थापित किया था। वह हिंदू सम्राट् था जिसने पंजाब छोड़कर शेष समस्त उत्तरी भारत पर राज्य किया। शशांक की मृत्यु के उपरांत वह बंगाल को भी जीतने में समर्थ हुआ। हर्षवर्धन के शासनकाल का इतिहास मगध से प्राप्त दो ताम्रपत्रों, राजतरंगिणी, चीनी यात्री युवान् च्वांग के विवरण और हर्ष एवं बाणभट्टरचित संस्कृत काव्य ग्रंथों में प्राप्त है। शासनकाल ६०६ से ६४७ ई.। वंश - थानेश्वर का पुष्यभूति वंश। उसके पिता का नाम 'प्रभाकरवर्धन' था। राजवर्धन उसका बड़ा भाई और राज्यश्री उसकी बड़ी बहन थी। ६०५ ई. में प्रभाकरवर्धन की मृत्यु के पश्चात् राजवर्धन राजा हुआ पर मालव नरेश देवगुप्त और गौड़ नरेश शंशांक की दुरभिसंधि वश मारा गया। हर्षवर्धन 606 में गद्दी पर बैठा। हर्षवर्धन ने बहन राज्यश्री का विंध्याटवी से उद्धार किया, थानेश्वर और कन्नौज राज्यों का एकीकरण किया। देवगुप्त से मालवा छीन लिया। शंशाक को गौड़ भगा दिया। दक्षिण पर अभियान किया पर आंध्र पुलकैशिन द्वितीय द्वारा रोक दिया गया। उसने साम्राज्य को सुंदर शासन दिया। धर्मों के विषय में उदार नीति बरती। विदेशी यात्रियों का सम्मान किया। चीनी यात्री युवेन संग ने उसकी बड़ी प्रशंसा की है। प्रति पाँचवें वर्ष वह सर्वस्व दान करता था। इसके लिए बहुत बड़ा धार्मिक समारोह करता था। कन्नौज और प्रयाग के समारोहों में युवेन संग उपस्थित था। हर्ष साहित्य और कला का पोषक था। कादंबरीकार बाणभट्ट उसका अनन्य मित्र था। हर्ष स्वयं पंडित था। वह वीणा बजाता था। उसकी लिखी तीन नाटिकाएँ नागानन्द, रत्नावली और प्रियदर्शिका संस्कृत साहित्य की अमूल्य निधियाँ हैं। हर्षवर्धन का हस्ताक्षर मिला है जिससे उसका कलाप्रेम प्रगट होता है। गुप्त साम्राज्य के पतन के बाद भारत में (मुख्यतः उत्तरी भाग में) अराजकता की स्थिति बना हुई थी। ऐसी स्थिति में हर्ष के शासन ने राजनैतिक स्थिरता प्रदान की। कवि बाणभट्ट ने उसकी जीवनी हर्षचरित में उसे चतुःसमुद्राधिपति एवं सर्वचक्रवर्तिनाम धीरयेः आदि उपाधियों से अलंकृत किया। हर्ष कवि और नाटककार भी था। उसके लिखे गए दो नाटक प्रियदर्शिका और रत्नावली प्राप्त होते हैं। हर्ष का जन्म थानेसर (वर्तमान में हरियाणा) में हुआ था। थानेसर, प्राचीन हिन्दुओं के तीर्थ केन्द्रों में से एक है तथा ५१ शक्तिपीठों में एक है। यह अब एक छोटा नगर है जो दिल्ली के उत्तर में हरियाणा राज्य में बने नये कुरुक्षेत्र के आस-पडोस में स्थित है। हर्ष के मूल और उत्पत्ति के संर्दभ में एक शिलालेख प्राप्त हुई है जो कि गुजरात राज्य के गुन्डा जिले में खोजी गयी है। शासन प्रबन्ध हर्ष स्वयं प्रशासनिक व्यवस्था में व्यक्तिगत रूप से रुचि लेता था। सम्राट की सहायता के लिए एक मंत्रिपरिषद् गठित की गई थी। बाणभट्ट के अनुसार 'अवन्ति' युद्ध और शान्ति का सर्वोच्च मंत्री था। 'सिंहनाद' हर्ष का महासेनापति था। बाणभट्ट ने हर्षचरित में इन पदों की व्याख्या इस प्रकार की है- अवन्ति - युद्ध और शान्ति का मंत्री सिंहनाद - हर्ष की सेना का महासेनापति कुन्तल - अश्वसेना का मुख्य अधिकारी स्कन्दगुप्त - हस्तिसेना का मुख्य अधिकारी भंंडी- प्रधान सचिव लोकपाल- प्रान्तीय शासक सन्दर्भ 1. हर्षवर्धन भारत के आखिरी महान राजाओं में एक थे। चौथी शताब्दी से लेकर 6ठी शताब्दी तक मगध पर से भारत पर राज करने वाले गुप्त वंश का जब अन्त हुआ, तब देश के क्षितिज पर सम्राट हर्ष का उदय हुआ। उन्होंने कन्नौज को अपनी राजधानी बनाकर पूरे उत्तर भारत को एक सूत्र में बांधने में सफलता हासिल की। 2. 16 वर्ष की छोटी उम्र में बने राजा। बड़े भाई राज्यवर्धन की हत्या के बाद हर्षवर्धन को राजपाट सौंप दिया गया। खेलने-कूदने की उम्र में हर्षवर्धन को राजा शशांक के खिलाफ युद्ध के मैदान में उतरना पड़ा। शशांक ने ही राज्यवर्धन की हत्या की थी। ADVERTISEMENT 3. उत्तर भारत के विशाल हिस्से पर किया राज। हर्षवर्धन ने एक विशाल सेना तैयार की और करीब 6 साल में वल्लभी, मगध, कश्मीर, गुजरात और सिंध को जीत कर पूरे उत्तर भारत पर अपना दबदबा कायम कर लिया। जल्दी ही हर्षवर्धन का साम्राज्य गुजरात (पश्चिम) से लेकर आसाम (पूर्व) तक और कश्मीर (उत्तर) से लेकर नर्मदा नदी (दक्षिण) तक फैल गया। 4. तैयार की विशाल सेना। माना जाता है कि सम्राट हर्षवर्धन की सेना में 1 लाख से अधिक सैनिक थे। यही नहीं, सेना में 60 हजार से अधिक हाथियों को रखा गया था। 5. हर्ष परोपकारी सम्राट थे। सम्राट हर्षवर्धन ने भले ही अलग-अलग राज्यों को जीत लिया, लेकिन उन राज्यों के राजाओं को अपना शासन चलाने की इजाज़त दी। शर्त एक थी कि वे हर्ष को अपना सम्राट मानेंगे। हालांकि इस तरह की संधि कन्नौज और थानेश्वर के राजाओं के साथ नहीं की गई थी। 6. चीन के साथ बेहतर संबंध। 21वीं सदी में, जहां भारत और चीन जैसे उभरते हुए देशों के बीच राजनितिक सम्बन्ध बिगड़ते नज़र आ रहे हैं, वहीं 7वीं सदी में हर्ष ने कला और संस्कृति के बलबूते पर, दोनों देशों के बीच बेहतर संबंध बनाकर रखे थे। इतिहास के मुताबिक, चीन के मशहूर चीनी यात्री ह्वेन त्सांग हर्ष के राज-दरबार में 8 साल तक उनके दोस्त की तरह रहे थे। 7. हर्ष ने ‘सती’ प्रथा पर लगाया प्रतिबंध। हर्षवर्धन ने सामाजिक कुरीतियों को जड़ से खत्म करने का बीड़ा उठाया था। उनके राज में सती प्रथा पर पूरी तरह प्रतिबंध लगा दिया गया। कहा जाता है कि सम्राट हर्षवर्धन ने अपनी बहन को भी सती होने से बचाया था। Also See जूता चुराई के लिए परिणीति ने निक जीजू से मांग थे 37 करोड़, और मिल गए इतने जूता चुराई के लिए परिणीति ने निक जीजू से मांग थे 37 करोड़, और मिल गए इतने 8. सभी धर्मों का समान आदर और महत्व। पारम्परिक हिन्दू परिवार में जन्म लेने वाले सम्राट हर्ष, सभी धर्मों को समान आदर और महत्व देते थे। बौद्ध धर्म हो या जैन धर्म, हर्ष किसी भी धर्म में भेद-भाव नहीं करते थे। चीनी दूत ह्वेन त्सांग ने अपनी किताबों में भी हर्ष को महायान यानी कि बौद्ध धर्म के प्रचारक की तरह दिखाया है। 9. शिक्षा को महत्व। सम्राट हर्षवर्धन ने शिक्षा को देश भर में फैलाया। हर्षवर्धन के शासनकाल में नालंदा विश्वविद्यालय एक शिक्षा के सर्वश्रेष्ठ केन्द्र के रूप में प्रसिद्ध हुआ। 10. हर्ष एक बहुत अच्छे लेखक ही नहीं, बल्कि एक कुशल कवि और नाटककार भी थे। हर्ष की ही देख-रेख में ‘बाना’ और ‘मयूरा’ जैसे मशहूर कवियों का जन्म हुआ था। यही नहीं, हर्ष खुद भी एक बहुत ही मंजे हुए नाटककार के रूप में सामने आए। ‘नगनन्दा’, ‘रत्नावली’ और ‘प्रियदर्शिका’ उनके द्वारा लिखे गए कुछ नामचीन नाटक हैं। 11. प्रयाग का मशहूर ‘कुम्भ मेला’ भी हर्ष ने ही शुरु करवाया था। प्रयाग (इलाहबाद) में हर साल होने वाला ‘कुम्भ मेला’, जो सदियों से चला आ रहा है और हिन्दू धर्म के प्रचारकों के बीच काफी प्रसिद्ध है; माना जाता है कि वो भी राजा हर्ष ने ही शुरु करवाया था। 12. भारत की अर्थव्यवस्था ने हर्ष के शासनकाल में बहुत तरक्की की थी। भारत, जो मुख्य तौर पर एक कृषि-प्रधान देश माना जाता है; हर्ष के कुशल शासन में तरक्की की उचाईयों को छू रहा था। हर्ष के शासनकाल में भारत ने आर्थिक रूप से बहुत प्रगति की थी। 13. हर्ष के बाद उनके राज्य को संभालने के लिए उनका कोई भी वारिस नहीं था। हर्षवर्धन के अपनी पत्नी दुर्गावती से 2 पुत्र थे- वाग्यवर्धन और कल्याणवर्धन। पर उनके दोनों बेटों की अरुणाश्वा नामक मंत्री ने हत्या कर दी। इस वजह से हर्ष का कोई वारिस नहीं बचा। 14. हर्ष के मरने के बाद उनका साम्राज्य भी पूरी तरह से समाप्त हो गया था। 647 A.D. में हर्ष के मरने के बाद, उनका साम्राज्य भी धीरे-धीरे बिखरता चला गया और फिर समाप्त हो गया। उनके बाद जिस राजा ने कन्नौज की बागडोर संभाली थी, वह बंगाल के राजा के विरुद्ध जंग में हार गया। वारिस न होने की वजह से, सम्राट हर्षवर्धन का साम्राज्य छिन्न-भिन्न हो गया। इन्हें भी देखें पुष्यभूति राजवंश बाहरी कड़ियाँ श्रेणी:भारत का इतिहास श्रेणी:कुरुक्षेत्र का इतिहास श्रेणी:भारत के शासक श्रेणी:हर्षवर्धन श्रेणी:भारतीय बौद्ध श्रेणी:भारत के बौद्ध शासक
राजा हर्षवर्धन के पिता का क्या नाम था?
प्रभाकरवर्धन'
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हार्ट-स्पॉटेड कठफोड़वा (हेमीसिर्कस कैनेंटे) कठफोड़वा परिवार में पक्षियों की एक प्रजाति है। उनमें विपरीत रंगों, सफ़ेद तथा काले का संयोजन पाया जाता है, एक नाटे परन्तु सुदृढ़ शरीर के साथ एक ढलुआं आकार का सिर इसे आसानी से पहचाने जाने योग्य बनाते हैं, तथा इनकी नियमित पुकार इन्हें आसनी से खोजे जाने योग्य बनाती है, ये अपृष्ठवंशियों (मुख्यतः कीट) रूपी चारा खोजने के लिए वृक्षों की टहनियों के नीचे तनों पर जाते हैं। वे जोड़े अथवा छोटे समूह में देखे जाते हैं तथा अक्सर चारा खोजता हुआ मिश्रित-प्रजाति का समूह के भाग के रूप में भी दिखाई देते हैं। इनका व्यापक वितरण सम्पूर्ण एशिया में विशेष रूप से दक्षिण-पश्चिमी और मध्य भारत के जंगलों में, जो अपने विस्तार में हिमालय तथा दक्षिण-पूर्व एशिया से अलग होते हैं, पाया जाता है। विवरण एक छोटा, विशिष्ट आकार का, काला-सफ़ेद कठफोड़वा, अपनी बड़ी चोंच के साथ अपने शरीर की तुलना में बड़े आकार के सिर वाला दिखता है। नर तथा मादा, दोनों में ही मुख्यतः काले रंग के होते हैं, जिसमें सफ़ेद कन्धों पर ह्रदय के आकार के काले चकत्ते तथा उड़ने वाले पंखों को छोड़कर चौड़े सफ़ेद स्कैप्युला के आकार के धब्बे पाए जाते हैं। मादा का मस्तक तथा मुकुट बादामी श्वेत रंग का होता है जबकि नारों में यह काला होता है। गला सफेद रंग का तथा शरीर का निचला भाग सादे सलेटी रंग का होता है। पीठ पर पंखों का एक विशिष्ट गुच्छा होता है जिसमें अधिक वसा पायी जाती है तथा जिसके कारण संरक्षित नमूनों में पंख एक दूसरे से चिपके रहते हैं।[3][4] ये विशेष पंख अथवा "वसा क्विल" के कारण कभी-कभी पूंछ के पंख खड़े दिखाए देते हैं तथा इन्हें "प्रसाधक रंजन" समझा जा सकता है एवं इससे होने वाले स्राव में एक अच्छी महक होती है, परन्तु इसका प्रयोजन अभी ज्ञात नहीं है।[5][6][7][8] निवास और विस्तार इसका प्राकृतिक आवास उष्ण-कटिबंधीय तथा उपोष्ण-कटिबंधीय आर्द्र वर्षा वन हैं। वे भारत के हिमालय वनों व बांग्लादेश के साथ-साथ म्यांमार, थाईलैंड, लाओस, कम्बोडिया तथा वियतनाम तक पाए जाते हैं। भारत में वे पश्चिमी घाट तथा मध्य भारत के वनों में भी मिलते हैं।[9] पश्चिमी घाट से प्राप्त एक नमूने के आधार पर थॉमस सी. जेर्डन के वर्णन के अनुसार उप-प्रजाति कॉरडेटस को अलग प्रजाति नहीं माना जाना चाहिए, इन दोनों में पंखों के रंग में अंतर के साथ ही क्लीनिकली आकार में भी भिन्न हैं (उत्तरी भाग की पक्षी आकार में भू-मध्य रेखा के पास के पक्षियों की तुलना में बड़ी होती हैं).[6][10][11] व्यवहार और पारिस्थितिकी ये कठफोड़वे जोड़े के अतिरिक्त अक्सर चारा खोजता हुआ मिश्रित-प्रजाति का समूह के भाग के रूप में भी दिखाई देते हैं। वे एक पेड़ से दूसरे पेड़ तेजी से उड़ान भरते हैं, इस उड़ान में ऐसा प्रतीत होता है की जैसे उनका सिर भारी हो. वे पतली शाखाओं पर चारा खोजते हैं और अक्सर आवाजें निकालते हैं। मुख्य रूप से वे शाखाओं के नीचे कीड़ों को खाती हैं, यह भी ज्ञात है कि वे कैसिया फिस्टुला की टहनियों में छेद करके कीड़ों के लार्वा पकडती हैं।[12] इनकी ध्वनियों में एक तीखी ट्वी-ट्वी-ट्वी (जोड़े की ध्वनि) शामिल है जो कभी-कभी कई स्वरों में ऊपर-नीचे होती है,[13] एक नासिक ध्वनि की-ईव,[14] तथा बार-बार की जाने वाली स्यू-सी शामिल हैं।[15] वे कभी-कभी प्रजनन के मौसम के दौरान, मुख्य रूप से सर्दियों के दौरान ड्रम करती हैं। घोंसला किसी सूखी शाख में 3 से 4 सें.मी. व्यास के द्वार के साथ बनाया जाता है, एक इस द्वार से एक संकरा रास्ता जाता है जो कि लगभग 20 सें.मी. आगे एक कक्ष में परिवर्तित होता है। घोल्सला कभी-कभी फेंस पोस्ट (चारदीवारी में प्रकाश के लिए लगे खम्भे) में भी बनाया जा सकता है।[16] सामान्य रूप से 2 या 3 अंडे दिए जाते हैं जो सफ़ेद होते हैं तथा उनमें धब्बे नहीं होते.[6] इन पक्षियों पर हेमाफिसैलिस स्पिनिगेरा (Haemaphysalis spinigera) प्रजाति का प्रभाव देखा गया है।[17] सन्दर्भ अन्य स्रोत मेनन, जीके (1985): हार्ट स्पॉटेड कठफोड़वा, हेमीसर्कस कैनेंट के पंख पर रेज़िन का स्रोत पैवो 23(1और2), 107-109. नीलाकंतन, केके (1965): हार्ट स्पॉटेड कठफोड़वा का घोंसला. बर्डवाचर के लिए न्यूज़लैटर. 5(3), 6-8. बाहरी कड़ियाँ श्रेणी:हेमीसर्कस श्रेणी:कठफोड़वा श्रेणी:बांग्लादेश के पंछी श्रेणी:भारत के पक्षी
हार्ट-स्पॉटेड कठफोड़वा का वैज्ञानिक नाम क्या है?
हेमीसिर्कस कैनेंटे
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अग्नि पंचम (अग्नि-५) भारत की अन्तरमहाद्वीपीय बैलिस्टिक प्रक्षेपास्त्र है। इसे रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन ने विकसित किया है। यह अत्याधुनिक तकनीक से बनी 17 मीटर लंबी और दो मीटर चौड़ी अग्नि-५ मिसाइल परमाणु हथियारों से लैस होकर 1 टन पेलोड ले जाने में सक्षम है। 5 हजार किलोमीटर तक के दायरे में इस्तेमाल की जाने वाली इस मिसाइल में तीन चरणों का प्रोपल्शन सिस्टम लगाया गया है। इसे हैदराबाद की प्रगत (उन्नत) प्रणाली प्रयोगशाला (Advanced Systems Laboratory) ने तैयार किया है। इस मिसाइल की सबसे बड़ी खासियत है MIRV तकनीक यानी एकाधिक स्वतंत्र रूप से लक्षित करने योग्य पुनः प्रवेश वाहन (Multiple Independently targetable Re -entry Vehicle), इस तकनीक की मदद से इस मिसाइल से एक साथ कई जगहों पर वार किया जा सकता है, एक साथ कई जगहों पर गोले दागे जा सकते हैं, यहां तक कि अलग-अलग देशों के ठिकानों पर एक साथ हमले किए जा सकते हैं। अग्नि 5 मिसाइल का इस्तेमाल बेहद आसान है। इसे रेल सड़क हो या हवा, कहीं भी इस्तेमाल किया जा सकता है। देश के किसी भी कोने में इसे तैनात कर सकते हैं जबकि किसी भी प्लेटफॉर्म से युद्ध के दौरान इसकी मदद ली जा सकती हैं। यही नहीं अग्नि पांच के लॉन्चिंग सिस्टम में कैनिस्टर तकनीक का इस्तेमाल किया गया है। इस की वजह से इस मिसाइल को कहीं भी बड़ी आसानी से ट्रांसपोर्ट किया जा सकता है, जिससे हम अपने दुश्मन के करीब पहुंच सकते हैं। अग्नि 5 मिसाइल की कामयाबी से भारतीय सेना की ताकत कई गुना बढ़ जाएगी क्योंकि न सिर्फ इसकी मारक क्षमता 5 हजार किलोमीटर है, बल्कि ये परमाणु हथियारों को भी ले जाने में सक्षम है। अग्नि-5 भारत की पहली अंतर महाद्वीपीय यानी इंटरकॉन्टिनेंटल बालिस्टिक मिसाइल है। अग्नी-5 के बाद भारत की गिनती उन 5 देशों में हो गई है जिनके पास है इंटरकॉन्टिनेंटल बालिस्टिक मिसाइल यानी आईसीबीएम है। भारत से पहले अमेरिका, रूस, फ्रांस और चीन ने इंटर-कॉन्टिनेंटल बालिस्टिक मिसाइल की ताकत हासिल की है. ये करीब 10 साल का फासला है जब भारत की ताकत अग्नि-1 मिसाइल से अब अग्नि 5 मिसाइल तक पहुंची है। 2002 में सफल परीक्षण की रेखा पार करने वाली अग्नि-1 मिसाइल- मध्यम रेंज की बालिस्टिक मिसाइल थी। इसकी मारक क्षमता 700 किलोमीटर थी और इससे 1000 किलो तक के परमाणु हथियार ढोए जा सकते थे। फिर आई अग्नि-2, अग्नि-3 और अग्नि-4 मिसाइलें. ये तीनों इंटरमीडिएट रेंज बालिस्टिक मिसाइलें हैं। इनकी मारक क्षमता 2000 से 3500 किलोमीटर है। और अब भारत का रक्षा अनुसंधान और विकास संगठन यानी डीआरडीओ परीक्षण करने जा रहा है अग्नि-5 मिसाइल का। 3 जून 2018 को प्रातः 9 बजकर 48 मिनट पर किया गया। [13] जहां तक भारत की पहली अंतर महाद्वीपीय बालिस्टिक मिसाइल अग्नि-5 की खूबियों का सवाल है। तो ये करीब एक टन का पे-लोड ले जाने में सक्षम होगा। खुद अग्नि-5 मिसाइल का वजन करीब 50 टन है। अग्नि-5 की लंबाई 17 मीटर और चौड़ाई 2 मीटर है। अग्नि-5 सॉलिड फ्यूल की 3 चरणों वाली मिसाइल है। आज जब ओडिशा तट के व्हीलर आईलैंड से भारत की पहली इंटर कॉन्टिनेन्टल बालिस्टिक मिसाइल का परीक्षण किया जाएगा तो डीआरडीओ के प्रमुख डॉ॰ वी. के. सारस्वत समेत तमाम आला मिसाइल वैज्ञानिक मौजूद रहेंगे. अग्नि-5 में RING LASER GYROSCOPE यानि RLG तकनीक का इस्तेमाल किया गया है। भारत में ही बनी इस तकनीक की खासियत ये हैं कि ये निशाना बेहद सटीक लगाती है। अगर सबकुछ ठीक से हुआ तो अग्नि-5 को 2014 से भारतीय सेना में शामिल कर दिया जाएगा। यही नहीं चीनी मिसाइल डोंगफेंग 31A को अग्नि-5 से कड़ी टक्कर मिलेगी क्योंकि अग्नि-5 की रेंज में चीन का सबसे उत्तरी शहर हार्बिन भी आता है जो चीन के डर की सबसे बड़ी वजह है। प्रमुख विशिष्टियाँ (1) अग्नि 5 से भारत इंटरकॉन्टिनेंटल बलिस्टिक मिसाइल (ICBM) क्लब में शामिल हो जाएगा। अमेरिका, रूस, फ्रांस और चीन पहले से ही इस तरह की मिसाइलों से लैस हैं। (2) अग्नि-5 मिसाइल का निशाना गजब का है। यह 20 मिनट में पांच हजार किलोमीटर की दूरी तय कर लेगी और डेढ़ मीटर के टारगेट पर निशाना लगा लेगी। (3) अग्नि-5 से भारत की सामरिक रणनीति में बड़ा बदलाव आएगा। इस मिसाइल से अमेरिका को छोड़कर पूरा एशिया, अफ्रीका और यूरोप भारत के दायरे में होगा। (4) यह मिसाइल एक बार छूटी तो रोकी नहीं जा सकेगी। यह गोली से भी तेज चलेगी और 1000 किलो का न्यूक्लियर हथियार ले जा सकेगी। (5) यह भारत की सबसे लंबी दूरी की मारक मिसाइल होगी। वॉरहेड पर एक टन तक का परमाणु हथियार ले जाने में सक्षम। (6) अग्नि-5 से भारत की एक मिसाइल से कई न्यूक्लियर वॉरहेड छोड़ने की तकनीक की परख होगी। (7) अग्नि 5 मिसाइल की तकनीक छोटे सैटेलाइट छोड़ने में इस्तेमाल हो सकेगी। यही नहीं यह दुश्मनों के सेटेलाइट को नष्ट करने में भी इस्तेमाल हो सकेगी। (8)-इसे केवल प्रधानमंत्री के आदेश के बाद ही छोड़ा जाएगा। भारत इसे 'शान्ति शस्त्र' (वेपन ऑफ पीस) कह रहा है। (9) 17 मीटर ऊंची इस मिसाइल में गजब की टेक्नीक का इस्तेमाल किया गया है। यह मिसाइल तीन स्टेज में मार करेगी। पहला रॉकेट इंजन इसे 40 किलोमीटर की ऊंचाई तक ले जाएगा। दूसरे स्टेज में यह 150 किलोमीटर तक जाएगी। तीसरे स्टेज में यह 300 किलोमीटर तक जाएगी। कुल मिलाकर यह 800 किलोमीटर की ऊंचाई तक पहुंचेगी। (10) भारत के पास अभी तक सबसे अधिक दूर तक मार करने वाली मिसाइल अग्नि 4 है। यह साढ़े तीन हजार किलोमीटर तक मार करती है। अग्नि 5 पांच हजार किलोमीटर तक मार करेगी। बाहरी कड़ियाँ (नईदुनिया) सन्दर्भ श्रेणी:भारतीय सेना श्रेणी:प्रक्षेपास्त्र श्रेणी:अन्तरमहाद्वीपीय प्रक्षेपण प्रक्षेपास्त्र श्रेणी:भारत के प्रक्षेपास्त्र
अग्नि पंचम(५) मिसाइल की परिचालन सीमा कितने किलोमीटर से अधिक है?
5 हजार किलोमीटर
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जेसिका मैरी एल्बा (जन्म - 28 अप्रैल 1981)[1] एक अमेरिकी टेलीविज़न और फ़िल्म अभिनेत्री है। उसने 13 वर्ष की आयु में कैंप नोव्हेयर और द सीक्रेट वर्ल्ड ऑफ़ एलेक्स मैक (1994) में अपने टेलीविज़न और मूवी कार्यक्रमों का आरंभ किया। एल्बा, टेलीविज़न श्रृंखला डार्क एंजल (2000–2002) में प्रमुख अभिनेत्री के रूप में उभर कर सामने आई.[2][3] एल्बा ने बाद में हनी (2003), सिन सिटि (2005), फैंटास्टिक फोर (2005), इंटू द ब्लू (2005) और 2007 की दोनों फ़िल्में, Fantastic Four: Rise of the Silver Surfer और गुड लक चक सहित कई फ़िल्मों में काम किया।[4][5] एल्बा को एक यौन प्रतीक माना जाता है और प्रायः अपने रूप-सौंदर्य की वजह से वह मीडिया का ध्यान आकर्षित कर लेती है। मैक्सिम (Maxim) के "हॉट 100" सेक्शन में उसे कई बार देखा गया और 2006 में [[AskMen.com [आस्कमेन.कॉम]]] के "99 मोस्ट डिज़ायरेबल वीमेन" (99 सर्वाधिक वांछनीय औरत) की सूची में उसे प्रथम स्थान प्राप्त होने के साथ-साथ 2007 में FHM द्वारा "सेक्सिएस्ट वूमन इन द वर्ल्ड" (विश्व की सर्वाधिक कामुक औरत) का ख़िताब भी हासिल हुआ।[6][7][8] मार्च 2006 के प्लेबॉय (Playboy) के कवर पेज पर अपनी छवि के प्रयोग से असंतुष्ट होकर उसने मुकदमा चलाया जिसे बाद में उसने वापस ले लिया।[9] उसने अपने अभिनय के लिए कई पुरस्कार भी जीते जिनमें चॉइस ऐक्ट्रेस टीन चॉइस अवार्ड और सैटर्न अवार्ड फॉर बेस्ट ऐक्ट्रेस (TV) के साथ-साथ टेलीविज़न श्रृंखला डार्क एंजल में अपनी मुख्य भूमिका के लिए एक गोल्डेन ग्लोब नामांकन भी शामिल था।[4] प्रारंभिक जीवन एल्बा का जन्म कैलिफोर्निया[1] के पोमोना में कैथरीन एल्बा (née जेन्सेन) और मार्क एल्बा के यहां हुआ था। उसकी मां, डेनिश और फ्रेंच कैनेडियन वंश की महिला है और उसके पिता, मेक्सिकन अमेरिकन है, हालांकि उसके माता-पिता दोनों का ही जन्म कैलिफोर्निया[10][11] में हुआ था (1 दिसम्बर 2009 को लोपेज़ टुनाइट के एपिसोड में, जॉर्ज लोपेज़ ने घोषणा की कि एक DNA टेस्ट से पता चला है कि एल्बा, 87% यूरोपीय और 13% देशी अमेरिकी है).[12] उसका एक छोटा भाई, जोशुआ है। उसके पिता के एयर फोर्स जीविका के कारण उनलोगों को मिसिसिपी के बिलोक्सी जाकर रहना पड़ा और जिस समय उसकी आयु नौ वर्ष थी उस समय वापस कैलिफोर्निया में जाकर बसने से ठीक पहले वे लोग टेक्सास के डेल रियो में रह रहे थे।[3][11] एल्बा ने अपने परिवार को एक "अति रूढ़िवादी परिवार — एक परंपरागत, कैथोलिक, लैटिन अमेरिकी परिवार" और स्वयं को बहुत उदार बताया है; उसका कहना है कि पांच वर्ष की आयु में ही उसने अपने आपको एक "नारीवादी" बताया था।[13] एल्बा ने अपने प्रारंभिक जीवन में कई प्रकार की शारीरिक विकृतियों का सामना किया। बचपन में, वह दो बार कोलैप्स्ड लंग्स से पीड़ित हुई और एक वर्ष में उसे 4-5 बार निमोनिया हो जाया करता था और साथ ही साथ उसे एक बार रप्चर्ड अपेंडिक्स और एक बार टोंसिलर सिस्ट भी हुआ था।[3] अपनी बीमारी के कारण एल्बा, स्कूल के अन्य बच्चों से दूर अलग-थलग हो गई क्योंकि अपनी बीमारी के कारण उसे कई बार अस्पताल में रहना पड़ता था और किसी को इस बात की भी जानकारी नहीं थी कि वह ठीक-ठाक है ताकि कोई उससे दोस्ती कर सके। [14] एल्बा को बचपन से ही अस्थमा है।[3] एल्बा ने यह भी कहा है कि अपने परिवार के बार-बार स्थानांतरण के कारण भी वह अपने दोस्तों से दूर हो गई थी।[13] एल्बा ने यह भी स्वीकार किया है कि अपने बचपन में वह ऑब्सेसिव-कंपल्सिव डिसऑर्डर (बाध्यकर मनोग्रस्ति विकृति) से पीड़ित थी।[15][16] एल्बा ने 16 वर्ष की आयु में हाई स्कूल से स्नातक किया[17] और उसके बाद वह अटलांटिक थिएटर कंपनी (Atlantic Theater Company) से जुड़ गई। जीविका पांच वर्ष की आयु से ही एल्बा को अभिनय में रुचि थी। 1992 में, 11 वर्षीया एल्बा ने कैलिफोर्निया के बेवर्ली हिल्स में एक अभिनय प्रतियोगिता में उसे ले चलने के लिए अपनी मां को राज़ी कर लिया जिसके शानदार पुरस्कार के रूप में निःशुल्क अभिनय कक्षाओं की सुविधा प्रदान की जाएगी. एल्बा ने वह भव्य पुरस्कार जीत लिया और अपना पहला अभिनय सबक सीखने लगी। नौ महीनों के बाद एक एजेंट ने एल्बा को साइन कर लिया।[3][18][19] 1994 की फीचर फ़िल्म कैंप नोव्हेयर में उसने गेल की एक छोटी भूमिका निभाई. उसे मूल रूप से दो सप्ताह के लिए काम पर रखा गया था लेकिन एक प्रमुख अभिनेत्री के चले जाने के बाद उसकी भूमिका को दो महीने की नौकरी में एक मुख्य भूमिका के रूप में परिणत कर दिया गया।[2] निंटेंडो (Nintendo) और जे.सी. पेनी (J.C. Penney) के दो राष्ट्रीय टेलीविज़न विज्ञापनों में एल्बा ने एक बच्चे की भूमिका निभाई. बाद में उसे कई इंडिपेंडेंट फ़िल्मों में फ़िल्माया गया। निकेलोडियोन कॉमेडी श्रृंखला, द सीक्रेट वर्ल्ड ऑफ़ एलेक्स मैक के तीन एपिसोडों में उसने वेन जेसिका के रूप में एक बार-बार भूमिका निभाकर टेलीविज़न जगत में पदार्पण किया।[3] उसके बाद उसने टेलीविज़न श्रृंखला, फ्लिपर के पहले दो सीज़नों में माया की भूमिका निभाई.[2] अपनी लाइफगार्ड (संरक्षिका) मां के अभिभावकत्व के अंतर्गत, एल्बा ने चलने से पहले तैरना सीखा और वह एक PADI-प्रमाणित स्क्यूबा गोताखोर थी जिसके कौशल का प्रयोग ऑस्ट्रेलिया में फ़िल्माए गए शो में किया गया।[3][20] 1998 में, उसे स्टीवन बोच्को के क्राइम-ड्रामा, ब्रूकलिन साउथ के प्रथम-सीज़न एपिसोड में मेलिसा हौएर के रूप में, बेवर्ली हिल्स, 90210 के दो एपिसोडों में लिएन के रूप में और The Love Boat: The Next Wave के एक एपिसोड में लायला के रूप में देखा गया।The Love Boat: The Next Wave 1999 में, उसे रैंडी क्वाइड के कॉमेडी फीचर, P.U.N.K.S. में देखा गया।[2] हाई स्कूल से स्नातक की उपाधि प्राप्त करने के बाद, एल्बा ने विलियम एच. मैसी और उसकी पत्नी, फेलिसिटी हफमन के साथ [[अटलांटिक थिएटर कंपनी [Atlantic Theater Company]]] में अभिनय सीखा जिसे मैसी और पुलित्ज़र प्राइज़-विजेता नाटककार और फ़िल्म निर्देशक, डेविड मैमेट ने विकसित किया था।[18][21] ड्रियू बैरीमोर की रोमांटिक कॉमेडी, नेवर बीन किस्ड में एक दंभी हाई स्कूल गुट के एक सदस्य के रूप में और 1999 के कॉमेडी-हॉरर फ़िल्म, आइडल हैंड्स में डेवोन सावा के विपरीत मुख्य महिला कलाकार के रूप में दिखाई देने के बाद एल्बा, 1999 में हॉलीवुड में बहुत विख्यात हो गई।[5] उसे सबसे बड़ी सफलता तब मिली जब लेखक/निर्देशक जेम्स कैमरन ने फॉक्स (Fox) sci-fi (विज्ञान-कल्पित कथा पर आधारित) टेलीविज़न श्रृंखला, डार्क एंजल के अनुवांशिकी-अभियांत्रिक महान-सैनिक, मैक्स ग्वेरा की भूमिका के लिए 1,200 उम्मीदवारों में से एल्बा का चयन किया। कैमरन के सह-निर्माण में बनी इस श्रृंखला में एल्बा ने स्टार की भूमिका निभाई और यह श्रृंखला 2002 तक दो सीज़नों तक चला जिससे एल्बा को आलोचकों की प्रशंसा के साथ-साथ गोल्डन ग्लोब नामांकन भी प्राप्त हुआ।[5][22] एल्बा को बाद में पता चला कि डार्क एंजल की तैयारी के समय वह इटिंग डिसऑर्डर (बदहज़मी) से पीड़ित थी।[23] लोकप्रिय संस्कृति में एल्बा की काफी तारीफ़ की गई है। डार्क एंजल में अपनी भूमिका के लिए उसे टीन चॉइस अवार्ड फॉर चॉइस ऐक्ट्रेस [पसंदीदा अभिनेत्री के लिए टीन चॉइस अवार्ड] और सैटर्न अवार्ड फॉर बेस्ट ऐक्ट्रेस (TV) मिला। मैक्सिम के हॉट 100 की सूची में उसे कई बार देखा गया है। 2006 में, सिन सिटि में "सेक्सिएस्ट परफोर्मेंस" (सबसे कामुक प्रदर्शन) के लिए एल्बा को MTV मूवी अवार्ड मिला। [4][8][24] उसके अभिनय की आलोचना भी हुई है क्योंकि अवेक, गुड लक चक और Fantastic Four: Rise of the Silver Surfer में उसके अभिनय के लिए उसे 2007 के रेज़ी अवार्ड फॉर वर्स्ट ऐक्ट्रेस के लिए नामांकित किया गया था।[25] फैंटास्टिक फोर और इंटू द ब्लू में उसके अभिनय के लिए 2005 में उसे उसी पुरस्कार के लिए नामांकित किया गया था।[26] एल्बा की सबसे उल्लेखनीय फ़िल्म भूमिकाओं में हनी फ़िल्म की एक महत्वाकांक्षी नर्तकी और नृत्य-निर्देशक, सिन सिटि की मनमोहक नर्तकी नैंसी कॉलाहन, मार्वल कॉमिक्स के पात्र सू स्टॉर्म और फैंटास्टिक फोर में इनविज़िबल वूमन (अदृश्य औरत) की भूमिका शामिल है जिसके बारे में फ़िल्म समीक्षक मिक ला सैले ने कहा कि लंबे समय से उसका अभिनय, "अस्थिर धरातल" पर है। इसके बाद उसे तब इसकी अगली कड़ी, इंटू द ब्लू में और कुछ वर्षों के बाद गुड लक चक में देखा गया।[4][27][28] एल्बा ने 2006 MTV मूवी अवार्ड्स की मेजबानी की और किंग कॉन्ग, मिशन इमपॉसिबल 3 और द डा विंची कोड फ़िल्मों के नकली रेखाचित्रों में अभिनय किया।[29] फरवरी में, उसने अकेडमी ऑफ़ मोशन पिक्चर आर्ट्स ऐंड साइंसेस के साइंस ऐंड टेक्निकल अवार्ड्स की मेजबानी की। [30] एल्बा का प्रतिनिधित्व, टैलेंट एजेंट पैट्रिक व्हाइटसेल[31] और ब्रैड कैफरेली ने किया है।[9] 2008 में एल्बा ने हांगकांग मूल के एक रीमेक, द आई में अपने अभिनय का रूख हॉरर-फ़िल्म विधा की ओर मोड़ दिया। [11][32] इस फ़िल्म को 1 फ़रवरी 2008 को रिलीज़ किया गया। हालांकि इस फ़िल्म को आलोचकों की भरपूर प्रशंसा प्राप्त नहीं हुई,[33] लेकिन एल्बा के अभिनय की सकारात्मक और नकारात्मक दोनों ही रूपों में समीक्षा की गई। एल्बा ने एक टीन चॉइस फॉर चॉइस मूवी ऐक्ट्रेस: हॉरर/थ्रिलर और एक रेज़ी-अवार्ड फॉर वर्स्ट ऐक्ट्रेस-नामांकन प्राप्त किया।[34] 2008 में ही, "बॉक्स ऑफिस बम" द लव गुरु में माइक मायर्स और जस्टिन टिम्बरलेक के साथ-साथ एल्बा ने भी अभिनय किया। समीक्षकों ने फ़िल्म और एल्बा के अभिनय दोनों की आलोचना की। एल्बा को रेज़ी अवार्ड फॉर वर्स्ट ऐक्ट्रेस के लिए नामांकित किया गया।[4] 2008 के अंत में, एल्बा को ऐन इनविज़िबल साइन ऑफ़ माइ ओन में मुख्य भूमिका के रूप में अभिनय करने के लिए अनुबंधित किया गया।[35] इस फ़िल्म का फ़िल्मांकन नवंबर 2008 में पूरा हुआ।[36] फ़िल्म अभी निर्माणोत्ताराधीन है और इसका 2009 में रिलीज़ होना तय है।[35][37][38][39][40] वास्तव में अग्ली बेट्टी की अभिनेत्री अमेरिका फेरेरा को इस फ़िल्म की मुख्य भूमिका के रूप में अभिनय करने के लिए चुना गया था लेकिन उसके टेलीविज़न शो, अग्ली बेट्टी की फ़िल्मांकन प्रतिबद्धताओं के कारण उसे हटा दिया गया।[41][42][43] द किलर इनसाइड मी नामक पुस्तक के ही नाम से बनने वाले फ़िल्म रूपांतरण में अभिनय करने के लिए केट हडसन और केसी एफलेक के साथ-साथ एल्बा को भी चुना गया।[44] वर्तमान में बन रहे नामक फ़िल्म में, एल्बा एक वेश्या के रूप में जॉयस लेकलैंड की भूमिका निभा रही है।[45][46] इस फ़िल्म का 2010 में रिलीज़ होना तय है।[45][47] अल्बा ने 2010 में रिलीज़ होने वाली रोमैंटिक कॉमेडी, वैलेंटाइन्'स डे में अभिनय करने के लिए साइन किया है।[48][49][50] जूलिया रॉबर्ट्स, ऐनी हैथवे, जेसिका बिएल, एमा रॉबर्ट्स, ऐश्टन कुट्चर और जेनिफर गार्नर के साथ-साथ एल्बा भी इसमें अभिनय करेगी। [49][51][52] यह फ़िल्म अभी पूर्व-निर्माणाधीन है और इसे 12 फ़रवरी 2010 में रिलीज़ करने के लिए नियत किया गया है।[52] सार्वजनिक छवि सन् 2001 में, एल्बा को मैक्सिम के हॉट 100 की सूची में नं. 1 पर श्रेणीत किया गया। उसने कहा कि "मैं इस कामुकता को उस हद तक ले जाना चाहती हूं जहां मुझे इससे लाभ हो और इसके साथ-साथ मैं लोगों का मार्गदर्शन भी करना चाहती हूं जिससे लोगों की सोचने की शक्ति ठीक वैसी हो जाए जैसी मैं चाहती हूं."[53] 2005 में, एल्बा को पीपुल मैगज़ीन के 50 मोस्ट ब्यूटीफुल पीपुल (50 सर्वाधिक खूबसूरत लोगों) में से एक के रूप में नामित किया गया और 2007 में उसे इस मैगज़ीन के 100 मोस्ट ब्यूटीफुल की सूची में भी देखा गया। 2002 में, Hollywood.com (हॉलीवुड.कॉम) के एक मतदान में एल्बा को 2002 के पांचवें सेक्सिएस्ट फिमेल स्टार (सबसे कामुक महिला कलाकार) और टॉप 10 Sci-Fi बेब्स (शीर्ष 10 विज्ञान-कल्पित कथा की लड़कियों) की सूची में #4 और FHM के सेक्सिएस्ट गर्ल्स (सबसे कामुक लड़कियों) के लिए होने वाले मतदान में #6 के रूप में सम्मति प्रदान की गई और स्टफ मैगज़ीन के 2002 के एडिशन में "102 सेक्सिएस्ट वीमेन इन द वर्ल्ड" (विश्व की 102 सबसे कामुक महिलाओं) की सूची में 12वें स्थान पर श्रेणीत किया गया।[54] 2005 में एल्बा को मैक्सिम मैगज़ीन के हॉट 100 की सूची में #5 पर श्रेणीत किया गया।[55] मार्च 2006 के अंक के कवर पेज पर, प्लेबॉय मैगज़ीन ने एल्बा को अपने 25 सेक्सिएस्ट सिलेब्रिटीज़ (25 सबसे कामुक प्रतिष्ठित व्यक्तियों) में और सेक्स स्टार ऑफ़ द इयर (वर्ष के कामुक सितारे) के रूप में नामित किया। एल्बा ने प्लेबॉय के खिलाफ एक मुकदमा चलाया था क्योंकि (इंटू द ब्लू के एक प्रचारक फ़िल्मांकन से उद्धृत) उसकी छवि को उसकी सहमति के बिना ही इस मैगज़ीन में उपयोग किया गया था जिसके संदर्भ में उसने तर्क दिया कि उसे इस अंक में एक "न्यूड पिक्टोरिअल" (नग्न रूप) में दर्शाया गया था। हालांकि, उसने इस मुक़दमे को वापस ले लिया जब प्लेबॉय के मालिक ह्यू हेफ्नर ने उससे व्यक्तिगत तौर पर माफ़ी मांगी और एल्बा पर आश्रित दो दानाश्रयों को दान देने पर अपनी सहमति व्यक्त की। [9] 2006 में, एल्बा, E! टेलीविज़न (E! Television) के 101 सेक्सिएस्ट सिलेब्रिटी बॉडीज़ (101 सबसे कामुक प्रतिष्ठित व्यक्तियों) की सूची में तीसरे स्थान पर पहुंच गई। 2006 में AskMen.com (आस्कमेन.कॉम) के पाठकों ने एल्बा को 99 मोस्ट डिज़ायरेबल वीमेन (99 सर्वाधिक वांछनीय औरतों की सूची) में अपने मतों से नं. 1 पर पहुंचा दिया[7] जबकि 2007 में, मैक्सिम मैगज़ीन ने एल्बा को अपने "टॉप 100" के दूसरे स्थान पर रखा। [8] GQ और इन स्टाइल (In Style) दोनों के जून कवर पेजों पर एल्बा को दर्शाया गया था[56][57] और मई में, आठ मिलियन मतों के आधार पर, FHM (UK और USA में प्रकाशित होने वाले एडिशनों) में एल्बा को "2007’s सेक्सिएस्ट वूमन इन द वर्ल्ड" (2007 में विश्व की सबसे कामुक औरत) के रूप में नामित किया गया।[6] 2008 में मैक्सिम के हॉट 100 में नामित होने के कारण, एल्बा को विश्व की सर्वाधिक आकर्षक महिलाओं में से एक माना जाता है।[58] 2007 में मैगज़ीन के लातवियन एडिशन में FHM की सेक्सिएस्ट गर्ल्स के लिए होने वाले 2007 के मतदान में एल्बा को पहले स्थान पर श्रेणीत किया गया। एल्बा को 2007 में एम्पायर मैगज़ीन के 100 सेक्सिएस्ट मूवी स्टार्स (100 सबसे कामुक फ़िल्म कलाकार) की सूची में चौथे स्थान पर श्रेणीत किया गया। 2006 और 2007 में एल्बा को नार्वे के FHM के द्वारा विश्व की सर्वाधिक कामुक औरत के रूप में #1 पर रखा गया।[55] एल्बा को 2009 कैंपरी (Campari) कैलेंडर में देखा गया। कैंपरी (Campari) ने इस कैलेंडर की 9,999 प्रतियों का मुद्रण किया जिसमें एल्बा को स्विमसूट और हाई हिल्स पहने कामुक दृश्यों में दर्शाया गया था।[59] 2008 में एल्बा को मैक्सिम के मैगज़ीन के हॉट 100 की सूची में #34 पर और विज़र्ड मैगज़ीन के "सेक्सिएस्ट वीमेन ऑफ़ TV" की सूची में #2 पर क्रमबद्ध किया गया तथा GQ मैगज़ीन में सर्वकालीन फ़िल्मों के 25 सेक्सिएस्ट वीमेन (25 सबसे कामुक औरतों) में से एक के रूप में नामित किया गया।[55] "I think there are ambitious girls who will do anything to be famous, and they think men in this business are used to women doing that. Contrary to how people may feel, I've never used my sexuality. That's not part of it for me. When I'm in a meeting, I want to tell you why I'm an asset, how I'm a commodity, how I can put asses in the seats, not, 'There's a chance you're going to be able to f*** me.' That's never been my deal." Alba on not using her sex appeal in order to get her goals in her acting career, 2008[60] उसे प्रस्तावित अधिकतर भूमिकाओं के आधार पर एक सेक्स किटन (यौन प्रतीक) के रूप में टाइपकास्ट (एक ही तरह के किरदार में अभिनय करना) होने से एल्बा को डर लगता है, वह कहती है कि "मुझे नहीं लगता है कि किसी भी तरह से यह सब नटाली पोर्टमैन के साथ हो रहा है।"[61] साक्षात्कार में एल्बा ने कहा कि वह चाहती है कि लोग उसे एक अभिनेत्री के रूप गंभीरतापूर्वक लें लेकिन उसे विश्वास है कि उसे फ़िल्मों में काम करने की आवशयकता है, नहीं तो वह अपने जीविका के निर्माण में रुचि नहीं ले पाएगी और उसका यह भी कहना है कि उसे अपनी फ़िल्म परियोजनाओं में और अधिक चयनात्मक बनने की आवश्यकता है।[61] एल्बा, अपने अनुबंध में एक सख्त शर्त का भी पालन करती है जिसके आधार पर वह किसी तरह की कोई नग्नता वाला दृश्य नहीं देती है। फ़िल्म के निर्देशकों, फ्रैंक मिलर और रॉबर्ट रॉड्रिगेज़ द्वारा उसे सिन सिटि में नग्न रूप में दिखाई देने का विकल्प प्रदान किया गया लेकिन उसने यह कहते हुए इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया कि "मैं नग्नता का प्रदर्शन नहीं करती हूं. मैं बिलकुल नहीं करती हूं. हो सकता है कि मैं इससे एक बुरी अभिनेत्री बन जाऊं. हो सकता है कि मुझे कुछ कामों में नहीं रखा जाएगा. लेकिन मुझे बहुत चिंता है".[62] उसने एक GQ चित्रांकन के संदर्भ में आक्षेप किया जिसमें उसने बहुत कम कपड़े पहने थे,"वे नहीं चाहते थे कि मैं ग्रैनी पैंटीज़ (बड़े आकार की जांघिया) पहनूं, लेकिन मैंने कहा, "यदि मैं टॉपलेस (अधनंगी या अर्धनग्न) बनूंगी तो मुझे ग्रैनी पैंटीज़ पहनना ही पड़ेगा."[63] व्यक्तिगत जीवन धर्म अपनी किशोरावस्था के दौरान, एल्बा एक ईसाई थी[64] लेकिन चार वर्षों के बाद उसने चर्च को त्याग दिया क्योंकि उसे लगता था कि उसे उसके अभिनय के लिए सजा दिया जा रहा है, वह वर्णन करती हुई कहती है:"बुजुर्ग लोग मेरी निंदा करते थे और मेरे युवा पादरी कहते थे कि ऐसा इसलिए हैं क्योंकि मैं उत्तेजक कपड़े पहनती थी जबकि ऐसा नहीं था। इससे मुझे ऐसा लगने लगा जैसे यदि मैं किसी भी तरह विपरीत सेक्स के प्रति इच्छुक हूं तो यह मेरी गलती है और इस तरह इसने मुझे अपने शरीर के प्रति और एक औरत होने पर लज्जित कर दिया".[65] एल्बा को विवाह-पूर्व सेक्स और समलैंगिकता के संदर्भ में चर्च के दंडादेशों और बाइबिल में महिला नायिकाओं की सशक्त भूमिका की कमी से भी आपत्ति थी, वह उल्लेख करती है कि "मैंने सोचा था कि यह एक अच्छा मार्गदर्शक है लेकिन यह निश्चित रूप से वैसा नहीं है जैसा जीवन मैं जीना चाहती हूं."[62] 15 वर्ष की आयु से उसकी "धार्मिक भक्ति घटने लगी" जब गले में गॉनरिया (सूजाक) होने पर भी उसने टेलीविज़न श्रृंखला, शिकागो होप के एक 1996 एपिसोड में एक किशोरी के रूप में गेस्ट-स्टार की भूमिका (एक छोटी भूमिका) निभाई. चर्च में उसके दोस्तों ने उसकी भूमिका पर नकारात्मक प्रतिक्रिया व्यक्त की जिससे उसका चर्च पर से विश्वास उठ गया।[3] हालांकि, उसने कहा है कि चर्च छोड़ने के बावजूद वह अभी भी ईश्वर में आस्था रखती है।[66] संबंध जनवरी 2000 में डार्क एंजल के फ़िल्मांकन के समय, एल्बा ने अपने सह-अभिनेता माइकल वेदर्ली के साथ तीन वर्षीय संबंध का आरंभ किया लेकिन उन दोनों की आयु में 12 वर्ष का अंतर था जो विवाद का कारण बना। [67] वेदर्ली ने एल्बा के बीसवें जन्मदिवस के अवसर पर उसके समक्ष अपना प्रेम-प्रस्ताव रखा जिसे उसने स्वीकार कर लिया।[11] अगस्त 2003 में, एल्बा और वेदर्ली ने घोषणा की कि उनके बीच जो संबंध था वो अब ख़त्म हो गया है।[3] जुलाई 2007 में, एल्बा ने यह कहते हुए अपने अलगाव के बारे में बताया कि "मुझे नहीं मालूम है [कि मैंने उससे संबंध स्थापित क्यों किया]. मैं एक कुंवारी थी। वह मुझसे 12 वर्ष बड़ा था। मैंने सोचा था कि उसे अच्छी तरह मालूम है। मेरे माता-पिता खुश नहीं थे। वे सचमुच में धार्मिक हैं। उनका मानना है कि परमेश्वर इस बात की अनुमति नहीं देंगे कि बाइबिल में उन बातों का समावेश हो जिसमें उनकी आस्था नहीं है। मैं बिलकुल अलग हूं."[68] एल्बा ने एक बार कहा था कि अपने आदर्श साथी के रूप में वह एक अधिक आयु के व्यक्ति की कल्पना करती है और उदाहरण के तौर पर उसने मॉर्गन फ्रीमन, शॉन कॉनरी, रॉबर्ट रेडफोर्ड और माइकल केन के नाम का संदर्भ प्रस्तुत किया। उसने कहा, "मैंने यह सब बुजुर्ग लोगों के लिए रखा है। वे लोग आस-पास ही है और उन्हें बहुत कुछ मालूम है।"[69] 2004 में फैंटास्टिक फोर के निर्माण के समय, एल्बा की मुलाक़ात, अभिनेता माइकल वॉरेन के बेटे, कैश वॉरेन से हुई। [70][71] 27 दिसम्बर 2007 को एल्बा और वॉरेन ने घोषणा की कि उनकी सगाई हो गई है।[70] सोमवार, 19 मई 2008 को एल्बा ने वॉरेन से लॉस एंजिल्स में विवाह कर लिया।[72][73] 7 जून 2008 को, एल्बा ने कैलिफोर्निया के लॉस एंजिल्स स्थित सेडार्स-सिनाई मेडिकल सेंटर में एक बच्ची, होनर मैरी वॉरेन[74] को जन्म दिया। [75] होनर मैरी की पहली तस्वीरों को OK! मैगज़ीन में देखा गया जिसने इन तस्वीरों के एवज में 1.5 मिलियन डॉलर के एक प्रतिवेदित रकम का भुगतान किया।[76] एल्बा ने कहा है कि वह और अधिक बच्चे पैदा करना चाहती है।[77][78] दान और राजनीति 2005 में एल्बा ने AIDS चैरिटी (दान) ऐम्फर (Amfar) के लिए रकम जुटाने के उद्देश्य से कॉन्स फ़िल्म फेस्टिवल (कॉन फ़िल्म समारोह) में अपनी अभिनय प्रतिभा का निःशुल्क प्रदर्शन किया। इस उद्योग ने US शोध प्रतिष्ठान को सुविधा उपलब्ध कराने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। एल्बा ने यह वादा किया कि द लॉर्ड ऑफ़ द रिंग्स के निर्माता बॉब वेंस्टीन की एक फ़िल्म में वह एक अवैतनिक अभिनेत्री के रूप में अभिनय करेगी लेकिन साथ में उसने यह शर्त भी रखी कि वेंस्टीन को स्पोर्ट्स स्टार्स मोनिका सेलेस और बोरिस बेकर के साथ टेनिस के प्रशिक्षण के लिए 100,000 डॉलर की बोली लगानी होगी। यदि वे इस पर सहमत हुए तो वह भी निःशुल्क अभिनय करेगी। उसका यह वादा, "सबसे बड़े हलचल" का कारण बन गया था।[79] एल्बा ने कई दान कर्मों में भाग लिया जिसमें क्लोथ्स ऑफ आवर बैक, हैबिटेट फॉर ह्यूमनिटी, नैशनल सेंटर फॉर मिसिंग ऐंड एक्सप्लोएटेड चिल्ड्रेन, प्रोजेक्ट HOME, RADD, रेव्लन रन/वॉक फॉर वीमेन, SOS चिल्ड्रेन विलेज्स, सोल्स4सॉल्स और स्टेप अप शामिल हैं।[80] 2008 प्राथमिक सीज़न के दौरान, एल्बा ने डेमोक्रेटिक (लोकतंत्रवादी) राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार बराक ओबामा का खुलेआम अनुमोदन और समर्थन किया।[81] एल्बा ने डिक्लेयर योरसेल्फ (Declare Yourself) की एक बंधन-प्रकरण पर आधारित मुद्रण विज्ञापन अभियान के लिए एक विशेष मुद्रा में फोटो खिंचवाया. यह एक ऐसी भंगिमा थी जिसका मुख्य उद्देश्य, [[2008 में होने वाले यूनाइटेड स्टेट्स [संयुक्त राज्य अमेरिका] के राष्ट्रपति पद के चुनाव]] के लिए युवाओं में मतदाता पंजीकरण को बढ़ावा देना था। इन विज्ञापनों के फोटों को मार्क लिडेल ने खींचा[82][83] जिसमें एल्बा को काले फीते में लपेट-चपेट कर दर्शाया गया था जिसने देश भर के लोगों का ध्यान आकर्षित कर लिया। इन विज्ञापनों को कुछ लोगों ने "अप्रीतिकर" बताया। [83] इन विज्ञापनों के संदर्भ में एल्बा ने कहा कि "इसमें मुझे किसी प्रकार की कोई उत्तेजना नहीं हुई." एल्बा ने यह भी कहा कि "मुझे लगता है कि यह युवा लोगों के लिए महत्वपूर्ण है कि वे देशव्यापी आवश्यकताओं के प्रति जागरूक बने ताकि वे राजनीतिक दृष्टि से और ज्यादा सक्रिय बन सके" और "लोग उन चीजों या वस्तुओं पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त कर सके जो अप्रीतिकर हैं।" जून 2009 में, ओक्लाहोमा सिटि में द किलर इनसाइड मी के फ़िल्मांकन के दौरान, जब एल्बा ने शहर में चारों तरफ शार्क के पोस्टर चिपकाए तो वहां के निवासी एल्बा से "नाराज़" हो गए।[84] एल्बा ने कहा कि वह बड़ी सफ़ेद शार्कों की घटती आबादी की तरफ लोगों का ध्यान आकर्षित करने की कोशिश कर रही थी। मीडिया केंद्रों ने अपना विचार प्रस्तुत करते हुए कहा कि एल्बा के खिलाफ कदम उठाया जाएगा और उस पर कलाविध्वंस का आरोप लगाया जाएगा.[85][86] 16 जून 2009 को, ओक्लाहोमा सिटी पुलिस ने कहा कि वे एल्बा के खिलाफ लगाए गए आपराधिक आरोपों पर कोई कदम नहीं उठाएंगे क्योंकि कोई भी संपत्ति-स्वामी इस बात को और आगे बढ़ाना नहीं चाहते.[87][88][89][90] एल्बा ने पीपुल मैगज़ीन में दिए गए एक बयान में माफ़ी मांगी और कहा कि उसे अपनी हरकतों पर अफ़सोस है।[87] बाद में उसने यूनाइटेड वे को (500[91] डॉलर से अधिक की) एक अज्ञात राशि का अनुदान दिया जिसके एक विज्ञापन-पट्ट को उसने शार्क के एक पोस्टर से ढंक दिया था।[92][93][94][95] फ़िल्मोग्राफी पुरस्कार सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ श्रेणी:1981 में जन्मे लोग श्रेणी:फ्रेंच-कैनेडियन अमेरिकी श्रेणी:डेनिश अमेरिकी श्रेणी:मैक्सिकी अमेरिकी श्रेणी:अमेरिकी बाल कलाकार श्रेणी:अमेरिकी अभिनेत्री श्रेणी:अमेरिकी टेलीविज़न कलाकार श्रेणी:कैलिफोर्निया मूल के अभिनेता श्रेणी:जीवित लोग श्रेणी:सैन्य छोकरें श्रेणी:हिस्पैनिक अमेरिकी अभिनेता श्रेणी:कैलिफोर्निया के पोमोना मूल के लोग श्रेणी:गूगल परियोजना
जेसिका मैरी एल्बा के पति का नाम क्या है?
कैश वॉरेन
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ओजोन परत पृथ्वी के वायुमंडल की एक परत है जिसमें ओजोन गैस की सघनता अपेक्षाकृत अधिक होती है। इसे O3 के संकेत से प्रदर्शित करते हैं। यह परत सूर्य के उच्च आवृत्ति के पराबैंगनी प्रकाश की 93-99 % मात्रा अवशोषित कर लेती है, जो पृथ्वी पर जीवन के लिये हानिकारक है। पृथ्वी के वायुमंडल का 91% से अधिक ओजोन यहां मौजूद है। यह मुख्यतः स्ट्रैटोस्फियर के निचले भाग में पृथ्वी की सतह के ऊपर लगभग 10 किमी से 50 किमी की दूरी तक स्थित है, यद्यपि इसकी मोटाई मौसम और भौगोलिक दृष्टि से बदलती रहती है। ओजोन की परत की खोज 1913 में फ्रांस के भौतिकविदों फैबरी चार्ल्स और हेनरी बुसोन ने की थी। इसके गुणों का विस्तार से अध्ययन ब्रिटेन के मौसम विज्ञानी जी एम बी डोबसन ने किया था। उन्होने एक सरल स्पेक्ट्रोफोटोमीटर विकसित किया था जो स्ट्रेटोस्फेरिक ओजोन को भूतल से माप सकता था। सन 1928 से 1958 के बीच डोबसन ने दुनिया भर में ओजोन के निगरानी केन्द्रों का एक नेटवर्क स्थापित किया था, जो आज तक काम करता है (2008)। ओजोन की मात्रा मापने की सुविधाजनक इकाई का नाम डोबसन के सम्मान में डोबसन इकाई रखा गया है। [[श्रेणी:पर्यावरण] ] श्रेणी:पराबैंगनी विकिरण
ओजोन की खोज किसने की थी?
फैबरी चार्ल्स और हेनरी बुसोन
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सूक्ष्मदर्शिकी या सूक्ष्मदर्शन (अंग्रेज़ी:माइक्रोस्कोपी) विज्ञान की एक शाखा होती है, जिसमें सूक्ष्म व अतिसूक्ष्म जीवों को बड़ा कर देखने में सक्षम होते हैं, जिन्हें साधारण आंखों से देखना संभव नहीं होता है। इसका मुख्य उद्देश्य सूक्ष्मजीव संसार का अध्ययन करना होता है। इसमें प्रकाश के परावर्तन, अपवर्तन, विवर्तन और विद्युतचुम्बकीय विकिरण का प्रयोग होता है। विज्ञान की इस शाखा मुख्य प्रयोग जीव विज्ञान में किया जाता है। विश्व भर में रोगों के नियंत्रण और नई औषधियों की खोज के लिए माइक्रोस्कोपी का सहारा लिया जाता है।[1] सूक्ष्मदर्शन की तीन प्रचलित शाखाओं में ऑप्टिकल, इलेक्ट्रॉन एवं स्कैनिंग प्रोब सूक्ष्मदर्शन आते हैं। माइक्रोस्कोपी विषय का आरंभ १७वीं शताब्दी के आरंभ में हुआ माना जाता है। इसी समय जब वैज्ञानिकों और अभियांत्रिकों ने भौतिकी में लेंस की खोज की थी। लेंस के आविष्कार के बाद वस्तुओं को उनके मूल आकार से बड़ा कर देखना संभव हो पाया। इससे पानी में पाए जाने वाले छोटे और अन्य अति सूक्ष्म जंतुओं की गतिविधियों के दर्शन सुलभ हुए और वैज्ञानिकों को उनके बारे में नये तथ्यों का ज्ञान हुआ। इसके बाद ही वैज्ञानिकों को यह भी ज्ञात हुआ कि प्राणी जगत के बारे में अपार संसार उनकी प्रतीक्षा में है व उनका ज्ञान अब तक कितना कम था। माइक्रोस्कोपी की शाखा के रूप में दृष्टि संबंधी सूक्ष्मदर्शन (ऑप्टिकल माइक्रोस्कोपी) का जन्म सबसे पहले माना जाता है। इसे प्रकाश सूक्ष्मदर्शन (लाइट माइक्रोस्कोपी) भी कहा जाता है। जीव-जंतुओं के अंगों को देखने के लिए इसका प्रयोग होता है। प्रकाश सूक्ष्मदर्शी (ऑप्टिकल माइक्रोस्कोप) अपेक्षाकृत महंगे किन्तु बेहतर उपकरण होते हैं।[1] सूक्ष्मदर्शन के क्षेत्र में इलेक्ट्रॉन सूक्ष्मदर्शी की खोज अत्यंत महत्वपूर्ण मील का पत्थर माना जाता है क्योंकि इसकी खोज के बाद वस्तुओं को उनके वास्तविक आकार से कई हजार गुना बड़ा करके देखना संभव हुआ था। इसकी खोज बीसवीं शताब्दी में हुई थी। हालांकि इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोप अन्य सूक्ष्मदर्शियों से महंगा होता है और प्रयोगशाला में इसका प्रयोग करना छात्रों के लिए संभव नहीं होता, लेकिन इसके परिणाम काफी बेहतर होते हैं। इससे प्राप्त चित्र एकदम स्पष्ट होते हैं। सूक्ष्मदर्शन में एक अन्य तकनीक का प्रयोग होता है, जो इलेक्ट्रॉन सूक्ष्मदर्शन से भी बेहतर मानी जाती है। इसमें हाथ और सलाई के प्रयोग से वस्तु का कई कोणों से परीक्षण होता है। ग्राहम स्टेन ने इसी प्रक्रिया में सबसे पहले जीवाणु को देखा था।[1] परिचय सूक्ष्मदर्शिकी (Microscopy) भौतिकी का एक अभिन्न अंग है। आज सूक्ष्मदर्शी का उपयोग कायचिकित्सा (Medicine), जीवविज्ञान (Biology), शैलविज्ञान (Perology), मापविज्ञान (Metrology), क्रिस्टलविज्ञान (Crystallography) एवं धातुओं और प्लास्टिक की तलाकृति के अध्ययन में व्यापक रूप से ही हो रहा है। आज सूक्ष्मदर्शी का उपयोग वस्तुओं को देखने के लिए ही नहीं होता वरन्‌ द्रव्यों के कणों के मापने, गणना करने और तौलने के लिए भी इसका उपयोग हो रहा है। मनुष्य की प्रवृत्ति सदा ही अधिक से अधिक जानने और देखने की रही है, इसी से वह प्रकृति के रहस्यों को अधिक से अधिक सुलझाना चाहता है। हमारी इंद्रियों की कार्य करने की क्षमता सीमित है और सही यही हाल हमारी आँख का भी है। इसकी भी अपना एक सीमा है। बहुत दूर की जो वस्तु खाली आँख से दिखाई नहीं पड़ती वह दूरदर्शी से देखा जा सकती है या बहुत निकट की वस्तु का विस्तृत विवरण सूक्ष्मदर्शी से अधिक स्पष्ट देखा जा सकता है। यहाँ सूक्ष्मदर्शी के क्षेत्र में १८६५ ई. से अब तक जो प्रगति हुई है उसी का उल्लेख किया जा रहा है: एकल उत्तल लेंस, जिसे साधारणत: आवर्धन लेंस कहते हैं, सरलतम सूक्ष्मदर्शी कहा जा सकता है। इसे 'जेबी सूक्ष्मदर्शी' भी कहते हैं। सरल सूक्ष्मदर्शी एक निश्चित दूरी पर स्थित दो उत्तल लेंसों के संयोजन से बना होता है। पदार्ध की तरफ लगे लेंस को अभिदृश्यक (Objective) लेंस और आँख के पास लगे लेंस को 'अभिनेत्र लेंस' (eye-lens) कहते हैं। ऐसे सूक्ष्मदर्शी का दृष्टिक्षेत्र (field of view) सीमित होता है। इसमें सुधार की आवश्यकता है। अभिनेत्र लेंस में एक लेंस जोड़ने से क्षेत्र बढ़ जाता है और गोलीय वर्णविपथन एवं वर्णीय वर्णविपथन (Chromatic aberration) से उत्पन्न दोष कम हो जाते हैं। ऐसे सूक्ष्मदर्शी को संयुक्त सूक्ष्मदर्शी या प्रकाश सूक्ष्मदर्शी या परंपरागत प्रकाशीय सूक्ष्मदर्शी कहते हैं। इतिहास यद्यपि प्रकाश के परावर्तन, अपवर्तन और रेखीय संचरण के नियम ग्रीक दार्शनिकों को ईसा से कुछ शताब्दियों पूर्व से ही ज्ञात थे पर आपतन (incidence) कोण और अपवर्तन कोण के ज्या के नियम का आविष्कार सत्रहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध तक नहीं हुआ था। हालैंड के स्नेल और फ्रांस के देकार्त (Descartes, १५५१-१६५० ई.) ने अलग-अलग इसका आविष्कार किया। १००० ई. के लगभग अरब ज्योतिषविंद अल्हैजैन ने परावर्तन और अपवर्तन के नियमों को सूत्रबद्ध किया पर ये ज्या में नहीं थे, वरन्‌ लंब दूरी में थे। ऐसा कहा जाता है कि उसके पाकस एक बड़ा लेंस था। सूक्ष्मदर्शी का सूत्रपात यहीं से होता है। सूक्ष्मदर्शी निर्माण का श्रेय एक वनस्पतिज्ञ जेकारियोस जोनमिड्स (१६००) को है। हाइगेंज (Higens) के अनुसार आविष्कार का श्रेय कॉर्नीलियस ड्रेबल (१६०८ ई.) को है। ऐबे (Abbe) के समय तक सूक्ष्मदर्शी की परिस्थिति ऐसी ही रही। १८७० ई. में ऐबे ने सूक्ष्मदर्शी की सदृढ़ नींव डाली। उन्होंने सुप्रसिद्ध तैलनिमज्जन तकनीकी निकाली। इससे सर्वोत्कृष्ट वैषम्य (Contrast) और आवर्धन प्राप्त हुआ। पर जहाँ तक परासूक्ष्मकणों (ultramicroscopic particles) के अध्ययन का संबंध था, वैज्ञानिक अभी भी अपने को असहाय अनुभव कर रहे थे। १८७३ ई. में ऐबे ने अनुभव किया कि सूक्ष्मदर्शी को चाहे कितनी ही पूर्णता प्रदान करने का प्रयत्न किया जाए किसी पदार्थ में उसके कणों की सूक्ष्मता को एक सीमा तक ही देखा जा सकता है। केवल आँखों से परमाणु या अणु को देखना असंभव है क्योंकि हमारे नेत्रों द्वारा सूक्ष्म वस्तुओं को देखने की एक सीमा है। यह सीमा उपकरण की अपूर्णता के कारण ही नहीं परंतु प्रकाश तरंगों (रंग) की प्रकृति के कारण भी है जिनके प्रति हमारी आँख संवेदनशील है। यदि हमें धातुओं को देखना है तो हमारे जैविकीविदों को एक ऐसे नए किस्म के नेत्रों का विकास करना होगा जो उन तरंगों को ग्रहण करें जो हमारे वर्तमान साधारण नेत्रों, या दृष्टितंत्रिका को सुग्राह्य होने वाली तरंगों की अपेक्षा हजारों गुना छोटी हैं। वास्तव में किसी वस्तु में स्थित दो निकटवर्ती बिंदुओं को कभी भी अलग पहचाना नहीं जा सकता है यदि उस प्रकाश का तरंग दैर्घ्य जिसमें उन बिंदुओं का अवलोकन किया जाता है उन बिंदुओं के बीच की दूरी के दुगने से अधिक न हो। इस प्रकार से यह उनके बिलगाव को सीमित कर देता है। इसे विभेदन (resolution) की सीमा कहते हैं। गणित में इसे निम्नलिखित संबंध द्वारा व्यक्त किया जाता है। विभेदन या पृथक्करण की सीमा (limit of resolution) sin (q) = q (appx) = 1.22 * lamda / D जहाँ N.A. संख्यात्मक द्वारक है और N.A. = sin (q)। यहाँ u वस्तु दूरी (Object space) का अपवर्तनांक है। q वह कोण है जो रिम किरण (rim-ray) प्रकाशिक अक्ष के साथ बनाती है। इस प्रकार दृष्टि विकिरण का विचार करने से अल्पतम विभेदन दूरी ३००० A° (=0.3 माइक्रॉन) के लगभग होती है। सबसे छोटी पराबैगनी और अवरक्त किरणों के लिए यह सीमा क्रमश: १५०० A° और ३८५० A° के लगभग होगी, जहाँ १ A° = 10-8 सेमी.। आइए हम अपने को पूर्व के सूक्ष्मदर्शिकीविद् के रूप में सोचें और उन सुधारों पर विचार करें जो हम उस समय करना चाहते थे। साधारणत: हम अपनी आशाओं को चार बातों पर केंद्रित करते हैं: (१) उच्चतर आवर्धन प्राप्त करना, (२) अधिकतम विभेदन क्षमता प्राप्त करना, (३) अधिक क्रियात्मक दूरी प्राप्त करना तथा (४) उत्तम वैषम्य या पर्याप्त दृश्यता प्राप्त करना। उपर्युक्त सुधार या कठिनाइयों का वस्तु की प्रकृति (अपारदर्शी या पारदर्शी), प्रदीप्ति के प्रकार (विकिरण) और फोटोग्राफी तकनीकी (फिल्म या प्लेट और प्रस्फुक के प्रकार के संदर्भ में विचार करना उचित होगा। उपर्युक्त आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए विभिन्न प्रकार के सूक्ष्मदर्शी अभिकल्पित किए गए जिनमें छोटे से छोटे तरंगदैर्ध्य के विकिरण का प्रयोग किया गया। हम देख चुके हैं कि लघुतम तरंगदैर्घ्य विकिरण का अर्थ है - उच्चतर विभेदन क्षमता। रंटजेन (Roentgen) ने सन्‌ १८९५ में एक्स किरण का आविष्कार किया। परंतु सन्‌ १९१२ तक एक्स किरण (X-ray) की तरंग प्रकृति का कोई पता नहीं था जब तक वान लाउए (Von Laue) ने उसे सिद्ध नहीं किया। अब यह आशा हुई कि एक्स-रे सूक्ष्मदर्शी बनाया जा सकता है। अत: उस समय यह विचार त्याग दिया गया। कुछ वर्षों बाद १९२३ ई. में द ब्रॉग्ली (De Broglie) ने इलेक्ट्रॉन की तरंग प्रकृति को निश्चित किया और न्यूयार्क में १९२७ ई. में डेविसन (Davission) और जर्मर (Germer) ने तथा ऐबर्डीन में जी.पी. टामसन (G.P. Thomson) ने १९२८ ई. में उसकी पुष्टि की। इलेक्ट्रॉन के किरण पुँज भी उपयुक्त विद्युत या चुंबकीय क्षेत्र द्वारा मोड़े जा सकते हैं। ऐसे सूक्ष्मदर्शी जिन्हें सफलतापूर्वक उपयोग में लाया जा सकता था १९४७ ई. में नोल (Knovl), रस्क (Rusk) और ब्रुख (जर्मनी) ने प्रस्तुत किए। इस विकिरण का तरंगदैर्घ्य निम्नलिखित संबंध द्वारा व्यक्त किया जाता है। l = h/(m n) सेमी यहाँ h प्लैंक का नियतांक है, m इलेक्ट्रॉन का द्रव्यमान और q वेग हैं। वेग वोल्टता का फलन है, जो इलेक्ट्रॉन किरणपुणज की त्वरित करने के लिए प्रयुक्त होता है। इस सूक्ष्मदर्शी से १० A° तक विभेदन संभव था और इसकी आवर्धन क्षमता बहुत अधिक थी। इसके द्वारा १.६.१०-८ मिमी विस्तार की वस्तुएँ देखी जा सकती हैं। निस्संदेह यह बड़ी ठोस प्रगति है और इसके साथ-साथ अनेक नए आविष्कार जुड़े हुए हैं। आज इलेक्ट्रॉन सूक्ष्मदर्शिकी की अपनी अनेक तकनीकियाँ हैं। उच्च ऊर्जा इलेक्ट्रॉन की भाँति लघुतरंगदैर्घ्य के साथ-साथ एक्स किरणों में वेधनक्षमता बहुत अधिक होती है और वे कम शीघ्रता से अवशोषित भी होती हैं। अत: छोटी अपारदर्शी वस्तुओं की आंतरिक संरचना ज्ञात करने में एक्स किरणें प्रयुक्त की जा सकती हैं। एरैनवेर्ख (Ehrenberg) ने १९४७ ई. में पहला एक्स किरण सूक्ष्मदर्शी या छाया सूक्ष्मदर्शी निकाला और १९४८ ई. में किंक पैट्रिक (Kink Patrick) और बेजय (Baez) ने उसका सुधार किया। इलेक्ट्रॉन सूक्ष्मदर्शी की तरह यहाँ निर्वात की आवश्यकता नहीं होती। अच्छे प्रतिबिंब के लिए केवल सूक्ष्म छिद्र (Pin hole) की आवश्यकता होती है। इसका अर्थ है कि इससे कम विकिरण प्रवेश करता है और इसीलिए उद्भासन बहुत बड़ा होता है। पीछे चित्र का बड़ा विस्तार करना पड़ता है जिसके लिए बहुत सूक्ष्म कणों का पायस आवश्यक होता है। परावर्ती सूक्ष्मदर्शी अब हम सामान्य दृश्य प्रकाश सूक्ष्मदर्शिकी की ओर देखें। इसके पूर्व कि हम उस दिशा में हुआ प्रगति पर विचार-विमर्श करे, हमें उन आकांक्षाओं पर ध्यान रखना होगा जो ४० वर्ष पूर्व सूक्ष्मदर्शिकीविदों की थी। एकमात्र उपकरण से सब आवश्यकताओं की साथ ही पूर्ति संभव न थी। विभेदन क्षमता में वृद्धि संख्यात्मक द्वारक (N.A.) के मान से सीमित हो जाती है जिसका मान १.५ से अधिक नहीं हो सकता। प्रणाली की आवर्धन क्षमता की वृद्धि की भी एक सीमा होती है। यह प्रयुक्त लेसों की फोकस दूरियों का फलन (Function) है। आवर्धन फोकस दूरी का प्रतिलोम फलन है, अत: फोकस दूरी की कमी से आवर्धन बढ़ जाता है। पर साथ ही क्रियात्मक दूरी नष्ट हो जाती है। ऐसे ही विचारों के कारण लेंस के स्थान में दर्पणों के उपयोग से परावर्ती सूक्ष्मदर्शी का निर्माण बर्च ने ब्रिस्टल में १९४७ ई. में किया। सिद्धांतत: पराबैंगनी किरण तक विकिरण का उपयोग यहाँ संभव हो सका। इसका सांख्यिक द्वारक (N.A.) कम होता है पर अवर्णता (achromatism) और अधिक क्रियात्मक दूरी का इसमें लाभ होता है। चूँकि क्वार्ट्ज़ २००० A° तक विकिरण का अवशोषण नहीं करता इसलिए उस सूक्ष्मदर्शी से जिसमें क्वाटर्ज लेंसों का उपयोग होता है, कम से कम विभेदन दूरी १,००० A° प्राप्त होगी अत: इस प्रकार के विन्यास के साथ पराबैंगनी विकिरण के उपयोग से 'पराबैंगनी सूक्ष्मदर्शी' का निर्माण होता है। यदि सामान्य प्रकाश सूक्ष्मदर्शी का उपयोग छोटी वस्तुओं द्वारा बिखरे विकिरण को एकत्र करने के लिए होता है तो इस प्रकार की व्यवस्था को परासूक्ष्मदर्शी (ultramicroscope) कहते हैं। (१) आपतित प्रकाश को वस्तु तक सीधे पहुँचने से रोक दिया जाता है। यह बिखरित या विवर्तित (Scattered diffracted) प्रकाश द्वारा निर्मित प्रतिबिंब निमज्जित नहीं करता। इसे धुँधला पृष्ठाधार प्रदीप्ति कहते हैं। (२) इस सूक्ष्मदर्शी से परासूक्ष्मदर्शी कणों के व्यास को आसानी से नापा जा सकता है। (३) वस्तु के स्थान का अनुमान बिखरित विकिरण (किरणपुँज) की चमक पर निर्भर करता है। (४) यदि प्रकाश स्रोत की चमक वैसी ही हो जैसी सूर्य के तल पर होती है तो साधारण अणु भी देखे जाते सकते हैं। प्रो॰ जेर्निक (१९४२ ई., जर्मनी) ने सूक्ष्मदर्शी में कला वैषम्य प्रदीप्ति का उपयोग किया। इस तकनीकी को कला वैषम्य सूक्ष्मदर्शिकी (Phase Contrast Microscopy) कहते थे। यह रंगहीन विशेषत: पारदर्शक पदार्थों की संरचना दिखाने की विधि है। विभिन्न संरचनाओं के कारण उनमें क्रमभंग देखा जाता है, जैसे मेढक के यकृत में। वैषम्य को सुधारने के लिए जैविकीविद रंजकों की सहायता लेते हैं। प्राय: वैषम्य वर्ण फिल्टर से ऐसा किया जाता है। ध्रुवित प्रकाश से कुछ ही किस्म के क्रिस्टलों का विश्लेषण किया जा सकता है पर कलावैषम्य से सब प्रकार के क्रिस्टलों का अध्ययन किया जा सकता है। इस तकनीकी में अभिरंजन के रूप में कृत्रिम वर्णों का उपयोग नहीं होता। अभिरंजन में दोष यह बताया जाता है कि यद्यपि अभिरंजन जीवों का कोशिकाओं को नष्ट नहीं करता है, तथापि ऐसा नहीं कहा जा सकता कि वह जीवों या कोशिकाओं को बिल्कुल प्रभावित नहीं करता। कला-वैषम्य-विधि का लाभ यह है कि प्रदीप्ति जो प्रत्येक सूक्ष्मदर्शी में आवश्यक है, जीव को देखने के लिए और कुछ करना नहीं पड़ता। कला वैषम्य सूक्ष्मदर्शी में सूक्ष्मदर्शी सामान्य किस्म का ही रहता है। इसमें केवल यह नवीनता रहती है कि एक नवीन प्रकाशमय युक्ति जोड़ दी जाती है। प (P) एक काँच का प्लेट है जिसमें एक वलयाकार खाँचा (groove) है। प्लेट पर कैल्सियम फ्लुओराइड का पारदर्शक लेप चढ़ा रहता है। लेप की मोटाई एक सी रहती है। निर्वात में वाष्पन द्वारा लेप चढ़ाया जाता है। लेप की मोटाई ठीक इतनी रहती है कि खाँचा और प्लेट के अन्य भाग द्वारा पारित प्रकाश के बीच के समय का अंतर कंपन का चतुर्थांश (कला के ९०° परिवर्तन) रहे। द (D) पर्दा है जिसमें एक वलयाकार काट (Cut) होती है जिससे अभिदृश्यक में उतना प्रकाश पारित होता है जितना कलापट्ट के खाँचे में भरेगा। वस्तु द्वारा बिखरित और विवर्तित प्रकाश खाँचे द्वारा पारित नहीं होता और यह प्रकाश जब प्रतिबिंब पर पहुँचता है, तब वह स्रोत से सीधे पहुँचे प्रकाश से मिला हुआ नहीं होता है और व्यतिकरण चित्र (Interference Pattern) बनता है। अभिनेत्रक में यही प्रतिबिंब दिखाई पड़ता है। वस्तु के विभिन्न अंग अपवर्तनांक के अनुसार प्रकाश में विभिन्न कलांतर प्रदर्शित करते हैं अत: अभिनेत्र में दिखाई पड़ने वाला प्रतिबिंब वस्तु का अपवर्तनांक चित्र होता है। यह सूक्ष्मदर्शी १९५२ ई. तक प्रयोग के लिए उपलब्ध हो गया। १९५२ ई. में इस उपलब्धि के लिए प्रो॰ जेर्निक (Zerniack) को नोबेल पुरस्कार मिला। डाइसन (Dyson) ने १९५१ ई. में इस समस्या को भिन्न रूप से सुलझाया जिसके फलस्वरूप उन्होंने व्यतिकरण सूक्ष्मदर्शी का निर्माण किया जिसमें परंपरागत कलावैषम्य सूक्ष्मदर्शी से कुछ श्रेष्ठता थी। इसमें वस्तु की काँच के दो अर्धरजतित पट्टों के मध्य में दबा दिया जाता है और उसे एक विशेष दर्पण प्रणाली से इस प्रकार देखा जाता है कि कुछ प्रकाश अभिनेत्रक में बिना वस्तु से पारित हुए सीधा चला जाए और शेष प्रकाश वस्तु से होकर जाए। इस प्रकार उत्पन्न व्यक्तिकरण फिंज वस्तु की अपवर्तनांक संरचना को व्यक्त कर देता है। वस्तुत: दो प्रकार की यह प्रदीप्ति धुँधली पृष्ठभूमि और कलावैषम्य मानव के लिए एक बड़ा महत्व का साधन है। धुँधली पृष्ठभूमि प्रदीप्ति अत्यंत सूक्ष्म कणों को देखने में उपयोगी सिद्ध हुई है और कला वैषम्य प्रदीप्ति से प्रकाशीय घनत्व में न्यूनतम परिवर्तन जानने की तकनीकी की संभावना बढ़ गई है जिससे प्रतिबिंब की व्याख्या बड़ी आसानी से की जा सकती है। हम देखते हैं कि चालीस वर्ष पूर्व के सूक्ष्मदर्शीविदों की अनेक आकांक्षाएँ पूरी हो गई हैं। इसका यहीं अंत नहीं है क्योंकि किसी शोध का अंत नहीं होता और यही बात सूक्ष्मदर्शिकी के लिए भी है और आवर्धन क्षमता के विभेदन क्षमता की ऊपर दी गई सीमा की वृद्धि के प्रयास अब भी हो रहे हैं। नए किस्म के काँच और प्लास्टिक के उपयोग से सूक्ष्मदर्शिकी की तकनीकी में और भी प्रगति होना अनिवार्य है। इन सब सूक्ष्मदर्शियों से, जिनका वर्णन किया गयाहै, केवल विस्तार में ही विभेदन प्राप्त किया जा सकता है। सूक्ष्मदर्शिकी की और शाखा है जो बड़ी शानदार और रोचक है। यह प्<b data-parsoid='{"dsr":[15537,15569,3,3]}'>रकाश विभेदन सूक्ष्मदर्शिकी है (टोलोनस्की, १९४८)। इसके द्वारा गहराई में भी विभेदन मालूम किया जा सकता है। यह गहराई में विभेदन करने में उत्कृष्ट सिद्ध हुआ है। यह प्रकाशकीय और व्यक्तिकरणमापीय तकनीकी है जिसे प्रकाश कट (Light cut), प्रकाश प्रोफाइल (Light profile), बहुलित किरण पुँज (Multiple Beam) फिज़ो (Fizeau) फ्रंज (Fringes) और समान वर्णिक कोटि के फ्रंज के नाम से जाना जाता है। इन पृष्ठीय छानबीन की सुग्राह्य विधियों में आण्विक परिमाण तक सफलतापूर्वक विभेदन किया जा सकता है। इन सूक्ष्मदर्शिकियों की कार्यकुशलता कभी भी संभव न होती यदि पृष्ठ पर धात्विक फिल्म को जमा कर अधिक परावर्तित बनाने की युक्ति न विकसित की गई होती। सूक्ष्मदर्शन चित्र कुछ अव्यावसायिक सूक्ष्मदर्शन चित्र: एक मक्षिका का मुख 100X चावल की जड़ 400X शशक अण्डकोष 100X फर्न पोरोथैलियम 400X सन्दर्भ इन्हें भी देखें सूक्ष्मदर्शी सूक्ष्मजैविकी बाहरी कड़ियाँ संगठन (RMS) (MSA) (EMS) श्रेणी:सूक्ष्मजैविकी श्रेणी:सूक्ष्मजैविकीय तकनीक श्रेणी:प्रयोगशाला तकनीक श्रेणी:भौतिकी श्रेणी:हिन्दी विकि डीवीडी परियोजना
विश्व में सबसे पहले माइक्रोस्कोप का आविष्कार किसने किया था?
जेकारियोस जोनमिड्स
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जेफ्री चासर (Geoffrey Chaucer ; लगभग १३४३-१४००) अंग्रेजी भाषा के कवि, लेखक, दार्शनिक एवं राजनयिक थे। उनके साथ ही अंग्रेजी साहित्य में आधुनिक युग का प्रारंभ माना जाता है। 'कैंटरबरी टेल्स' उनकी प्रसिद्ध रचना है। उनकी रचनाएँ साहित्य के अतिरिक्त जीवन के व्यापक क्षेत्र में नए मोड़ का संकेत करती हैं। जॉन ड्राइडेन ने उनको 'अंग्रेजी कविता का जनक' कहा है। परिचय चासर का जन्म लंदन में सन् १३४० ई. के लगभग हुआ था। पिता शराब के व्यापारी थे। १७ वर्ष की अवस्था में इन्होंने इंग्लैंड के राजा एडवर्ड तृतीय के पुत्र अल्स्टर के अर्ल के परिवार में नौकरी कर ली। इस प्रकार इन्हें राजदरबार के तौर तरीकों की अच्छी जानकारी प्राप्त करने का अवसर मिला जिसका उपयोग इन्होंने अपनी कविता में किया। राजपरिवार की नौकरी ने इनकी साहित्यिक प्रतिभा के विकास के कुछ और भी अवसर दिए। दो वर्ष बाद इन्हें शतवर्षीय युद्ध के संबंध में फ्रांस जाना पड़ा जहां इन्होंने कुछ दिन फ्रांसीसी शत्रुओं की कैद में बिताए। यह यात्रा इनके साहित्यिक जीवन में बड़ी ही महत्वपूर्ण सिद्ध हुई। इस समय की फ्रांसीसी कविता में कृत्रिमता का दोष होते हुए भी उसमें सौंदर्य और कलात्मकता के गुण भी थे। चासर ने अपना साहित्यिक जीवन तत्कालीन फ्रांसीसी कविता को व्यापक रूप से प्रभावित करने वाली रचना 'रोमां डे ला रोज' के अनुवाद से किया। फ्रांसीसी कविता का और विशेषतया इस काव्यग्रंथ का अमिट प्रभाव उनकी प्रारंभिक रचनाओं पर नहीं वरन् जीवन का यथार्थ चित्र प्रस्तुत करनेवाली अंतिम और सर्वोत्तम रचना 'कैंटरबरी टेल्स' पर भी देखने को मिलता है। राजदरबार में चासर को अपनी कार्यकुशलता के फलस्वरूप पर्याप्त ख्याति प्राप्त हो चुकी थी। सन् १३७२ ई. के करीब इन्हें कुछ महत्व पूर्ण व्यापारिक मंत्रणा के लिये इटली भेजा गया। छ: साल बाद इन्होंने इटली की दूसरी बार यात्रा की। इटली की यात्रा ने इनके साहित्यिक जीवन को नया मोड़ दिया। इसी के फलस्वरूप ये फ्रांसीसी प्रभाव से मुक्त हो सके। अब इनकी प्रेरणा के स्रोत इटली के प्रसिद्ध कवि और कथाकार दांते, पेत्रार्क तथा बोकेशियो हो गए थे। इनपर सबसे अधि प्रभाव बोकेशियो का पड़ा। 'ट्रायलस और क्रेसिड' क दु:खांत कहानी चासर ने बोकेशियो से ही ली। चासर की अंतिम और सर्वोत्तम रचना कैंटरबरी टेल्स में हम उनके स्वतंत्र व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति पाते हैं। इस ग्रंथ की रचना के समय तक उन्होंने फ्रांसीसी तथा इटालियन साहित्यिक प्रभावों को पूर्णतया आत्मसात् कर लिया था। कैंटरबरी टेल्स में चासर किसी विदेशी साहित्यिक शैली का अनुसरण न कर जीवन के अपने अनुभव तथा व्यापक अध्ययन के आधार पर मौलिक रचना प्रस्तुत करते हैं। स्त्रियों तथा वैवाहिक जीवन के संबंध में इन्होंने सामान्यतया व्यंग्यात्मक ढंग से लिखा है। संभव है ऐसा इन्होंने केवल विनोद के लिये किया हो। इनकी पत्नी का नाम फिलिप्पा था। सन् १४०० ई. में चासर की मृत्यु हुई। चासुर के जीवनकाल में कुछ महत्वपूर्ण घटनाएँ हुई। सबसे महत्वपूर्ण इंग्लैंड और फ्रांस के बीच लगभग सौ वर्ष तक चलनेवाला युद्ध ही था जिसमें इन्होंने स्वयं भाग लिया था। लेकिन इनकी कविता में न इस युद्ध का उल्लेख है और न शत्रुओं के विरुद्ध दुर्भावना की अभिव्यक्ति। इसी समय किसानों का विद्रोह तथा विनाशकारी प्लेग जैसी ऐतिहासिक महत्व की घटनाएँ हुई। लेकिन इनका भी कोई जिक्र इनकी रचनाओं में नहीं मिलता। फिर भी कैंटरबरी टेल्स में न केवल इंग्लैंड के तत्कालीन सामाजिक जीवन की, यूरोपीय जीवन में हो रहे महत्वपूर्ण परिवर्तनों की स्पष्ट झलक देखने को मिलती है। इस समय तक रोम के चर्च में व्याप्त भ्रष्टाचारों की ओर लोगों का ध्यान जाने लगा था। यत्रतत्र पादरियों की चारित्रिक त्रुटियां की खरी आलोचना भी होने लगी थी। धर्म द्वारा व्यापक रूप से प्रभावित यूरोपीय विचारधारा में यह महान परिवर्तन का लक्षण था जिसे हम कैंटरबरी टेल्स में भी देखते हैं। साथ ही साथ लोगों का ध्यान अब पारलौकिक बातों से हटकर भौतिक जगत् की समस्याओं तथा दैनिक जीवन के सुख दु:ख की ओर जाने लगा। यूरोपीय जीवनदर्शन की यह महत्वपूर्ण प्रवृत्ति भी कैंटरबरी टेल्स तथा चासर की अन्य रचनाओं में परिलक्षित होती है। मध्ययुगीन साहित्य अधिकांशत: कल्पनाप्रधान था या अध्यात्म तथा नैतिकता की शिक्षा देने का माध्यम मात्र। चासर ने उसे वर्ग तथा नैतिकता के आग्रह से मुक्त कर स्वतंत्र अस्तित्व दिया। साहित्य रचना में उनका उद्देश्य प्रधानत: जीवन के प्रति अपनी व्यक्तिगत अनुभतियों की मनोरंजक अभिव्यक्ति था। चासर के साहित्य की ये सारी विशेषताएँ लगभग दो सौ वर्ष बाद एलिजाबेथ कालीन साहित्य में अपने पूरे निखार के साथ देखने को मिलती हैं। इस प्रकार हम उन्हें यूरोपीय पुनर्जागरण का आद्य अंग्रेजी कवि कह सकते हैं। जैसा कहा जा चुका है, चासर ने अपना साहित्यिक जीवन 'रोमाँ डे ला रोज़' के अनुवाद से प्रारंभ किया। रूपक शैलो में प्रेम की व्याख्या प्रस्तुत करनेवाला वह काव्य भिन्न ही नहीं अपितु परस्पर विरोधी प्रकृति के दो फ्रांसीसी कवियों की कृति है। स्वप्न में एक प्रेमी एक सुंदर उद्यान में प्रेम के पुष्प को तोड़ने का प्रयत्न करता है। प्रारंभिक भाग प्रेम का बड़ा ही शिष्ट, सुंदर एवं प्रभावोत्पादक चित्र प्रस्तुत करता है लेकिन बादवाले भाग में दूसरे कवियों ने स्त्रियों तथा प्रेम के वर्णन में ध्यंग्यात्मक शैली अपनाई है। चासर की कई रचनाओं में हम फ्रांसीसी काव्य का प्रभाव देखते हैं। 'बुक आँव डचेज़' 'हाउस ऑव फेम' तथा 'पार्लमेंट ऑव फाउल्स' रूपक शैली में हैं। तीनों में वर्णित घटनाएँ स्वप्न में देखी प्रतीत होती हैं। बुक ऑव डचेज तथा पार्लमेंट ऑव फाउल्स में कवि दरबारी परंपरा के अनुसार प्रेम की व्याख्या प्रस्तुत करता है। प्रेम का ऐसा ही आदर्श चित्रण हम रों डे ला रोज में भी पाते हैं। 'ट्रायल्स ऐंड क्रेसिड' की कहानी बोकेशियो से ली हुई है। यह दु:खांत काव्य चासर के ऊपर पड़े इटालीय प्रभाव की पुष्टि करता है। ट्रायलस निराश प्रेमी है जिसकी प्रेमिका क्रेसिड उससे अलग हो जाने पर एक अन्य पुरुष का वरण कर लेती है। चासर ने 'लीजेंड ऑव गुड विमेन' की रचना जैसा उसने स्वयं इसकी प्रस्तावना में कहा है, रानी के यह शिकायत करने पर की कि उसने 'क्रेसिड के चरित्र द्वारा पूरी स्त्री जाति पर अविश्वसनीय होने पर आरोप लगाया था। इस अधूरी पुसतक में लगभग दस ऐतिहासिक तथा पौराणिक ख्यातिप्राप्त नारियों का प्रशंसात्मक जीवनवृत्तांत है। चासर की अंतिम और सर्वश्रेष्ठ रचना 'कैंटरबरी टेल्स' है। अंग्रेजी समाज के विभिन्न स्तरों तथा पेशों का प्रतिनिधित्व करनेवाले लगभग तीस तीर्थयात्री जो कैंटरबरी नगर में टामस बेकेट की समाधि पर अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करने जानेवाले हैं एक सराय में इकट्ठा होते हैं। रास्ते की थकान न खले और सबका मनोरंजन हो, इस विचार से सराय के स्वामी के सुझाव पर यह तय होता है कि प्रत्येक यात्री चार कहानियाँ दो जाते समय और दो लौटती बार कहे। जिसकी कहानियाँ बहुमत द्वारा सर्वोत्तम समझी जाएँ, उसे सब लोग मिलकर उसी सराय में अच्छी दावत दें। 'कैंटरबरी' की कहानियाँ चासर की अपनी रचना न होकर पूरे यूरोपीय उपाख्यान साहित्य से ली हुई हैं। उसकी मैलिकता यात्रियों के चरित्र के सूक्ष्म अध्ययन में देखने को मिलती है। चरित्रचित्रण में उच्च कोटि की पटुता दिखाने के साथ अपने तीस यात्रियों के माध्यम से चासर ने तत्कालीन बृटिश समाज का व्यापक चित्र प्रस्तुत करने में भी प्रशंसनीय सफलता प्राप्त की है। कैंटरबरी टेल्स में हमें युग के सामाजिक जीवन की झाँकी मिलती है। चासर की एक अन्य विशेषता उसका उन्मुक्त हास्य है। यहाँ वह मानवचरित्र की छोटी बड़ी कमजोरियों पर हँसता है, वहीं उसे मनुष्य मात्र से, उसकी सारी त्रुटियों के बावजूद अपार सहानुभूति भी है। इन्हीं कारणों से उसका साहित्य स्वस्थ तथा आज भी अक्षय प्रेरणा का स्रोत बना हुआ है। बाहरी कड़ियाँ श्रेणी:अंग्रेजी कवि
जेफ्री चासर का जन्म किस साल में हुआ था?
१३४० ई. के लगभग
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भारतीय नौसेना(English: Indian Navy) भारतीय सेना का सामुद्रिक अंग है जो कि ५६०० वर्षों के अपने गौरवशाली इतिहास के साथ न केवल भारतीय सामुद्रिक सीमाओं अपितु भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति की भी रक्षक है। ५५,००० नौसेनिकों से लैस यह विश्व की पाँचवी सबसे बड़ी नौसेना भारतीय सीमा की सुरक्षा को प्रमुखता से निभाते हुए विश्व के अन्य प्रमुख मित्र राष्ट्रों के साथ सैन्य अभ्यास में भी सम्मिलित होती है। पिछले कुछ वर्षों से लागातार आधुनिकीकरण के अपने प्रयास से यह विश्व की एक प्रमुख शक्ति बनने की भारत की महत्त्वाकांक्षा को सफल बनाने की दिशा में है। जून २०१६ से एडमिरल सुनील लांबा भारत के नौसेनाध्यक्ष हैं। इतिहास ब्रिटिश भारत भारतीय नौसेना सन् 1613 ई. में ईस्ट इंडिया कंपनी की युद्धकारिणी सेना के रूप में इंडियन मेरीन संगठित की गई। 1685 ई. में इसका नामकरण "बंबई मेरीन" हुआ, जो 1830 ई. तक चला। 8 सितंबर 1934 ई. को भारतीय विधानपरिषद् ने भारतीय नौसेना अनुशासन अधिनियम पारित किया और रॉयल इंडियन नेवी का प्रादुर्भाव हुआ। द्वितीय विश्वयुद्ध के समय नौसेना का विस्तार हुआ और अधिकारी तथा सैनिकों की संख्या 2,000 से बढ़कर 30,000 हो गई एवं बेड़े में आधुनिक जहाजों की संख्या बढ़ने लगी। स्वतंत्रता पश्चात् स्वतंत्रताप्राप्ति के समय भारत की नौसेना नाम मात्र की थी। विभाजन की शर्तों के अनुसार लगभग एक तिहाई सेना पाकिस्तान को चली गई। कुछ अतिशय महत्व के नौसैनिक संस्थान भी पाकिस्तान के हो गए। भारत सरकार ने नौसेना के विस्तार की तत्काल योजना बनाई और एक वर्ष बीतने के पहले ही ग्रेट ब्रिटेन से 7, 030 टन का क्रूजर " दिल्ली" खरीदा। इसके बाद ध्वंसक " राजपूत", " राणा", " रणजीत", " गोदावरी", " गंगा" और " गोमती" खरीदे गए। इसके बाद आठ हजार टन का क्रूजर खरीदा गया। इसका नामकरण " मैसूर" हुआ। 1964 ई. तक भारतीय बेड़े में वायुयानवाहक, " विक्रांत" (नौसेना का ध्वजपोत), क्रूजर "दिल्ली" एवं "मैसूर" दो ध्वंसक स्क्वाड्रन तथा अनेक फ्रिगेट स्कवाड्रन थे, जिनमें कुछ अति आधुनिक पनडुब्बीनाशक तथा वायुयाननाशक फ्रिगेट सम्मिलित किए जा चुके थे। " ब्रह्मपुत्र", " व्यास", " बेतवा ", " खुखरी," " कृपाण", " तलवार" तथा " त्रिशूल" नए फ्रिगेट हैं, जिनका निर्माण विशेष रीति से हुआ है। " कावेरी", " कृष्ण" और " तीर" पुराने फ्रिगेट हैं जिनका उपयोग प्रशिक्षण देने में होता है। "कोंकण", "कारवार", "काकीनाडा" "कणानूर", "कडलूर", "बसीन" तथा "बिमलीपट्टम" से सुंरग हटानेवाले तीन स्क्वाड्रन तैयार किए गए हैं। छोटे नौसैनिक जहाजों के नवनिर्माण का कार्य प्रारंभ हो चुका है और तीन सागरमुख प्रतिरक्षा नौकाएँ, "अजय", "अक्षय" तथा "अभय" और एक नौबंध "ध्रुवक" तैयार हो चुके हैं। कोचीन, लोणावला, तथा जामनगर में भारतीय नौसेना के प्रशिक्षण संस्थान हैं। आई एन एस अरिहन्त भारत की नाभिकीय उर्जा पनडुब्बी है। २१वीं सदी / आधुनिक भारत आई एन एस विक्रमादित्य - नवंबर 2013 में शामिल। संगठन नेतृत्व वर्तमानजून २०१६ में एडमिरल सुनील लांबा भारत के नौसेनाध्यक्ष हैं। बेड़ा भारतीय नौसेना के बेड़े में निम्न पोत शामिल हैं[5]- चित्र दीर्घा भारत एवं अमेरीका की एक संयुक्त सैन्य अभ्यास के दौरान आई एन एस विराट अन्य युद्ध पोतो से साथ गोदी मे खड़ा विराट रैंक और प्रतीक चिन्ह बाहरी कड़ियाँ (By Indian Navy) सन्दर्भ श्रेणी:भारतीय सेना श्रेणी:भारतीय नौसेना
भारतीय नौसेना का गठन कब हुआ?
1613 ई.
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सनातन गोस्वामी (सन् 1488 - 1558 ई), चैतन्य महाप्रभु के प्रमुख शिष्य थे। उन्होने गौड़ीय वैष्णव भक्ति सम्प्रदाय की अनेकों ग्रन्थोंकी रचना की। अपने भाई रूप गोस्वामी सहित वृन्दावन के छ: प्रभावशाली गोस्वामियों में वे सबसे ज्येष्ठ थे।[1] जीवनी सनातन गोस्वामी कर्णाट श्रेणीय पंचद्रविड़ भारद्वाज गोत्रीय यजुर्वेदी ब्राह्मण थे। इनके पूर्वज कर्णाट राजवंश के थे और सर्वज्ञ के पुत्र रूपेश्वर बंगाल में आकर गंगातटस्थ बारीसाल में बस गए। इनके पौत्र मुकुंददेव बंगाल के नवाब के दरबार में राजकर्मचारी नियत हुए तथा गौड़ के पास रामकेलि ग्राम में रहने लगे। इनके पुत्र कुमारदेव तीन पुत्रों अमरदेव, संतोषदेव तथा वल्लभ को छोड़कर युवावस्था ही में परलोक सिधार गए जिससे मुकुंददेव ने तीनों पौत्रों का पालन कर उन्हें उचित शिक्षा दिलाई। इन्हीं तीनों को श्री चैतन्य महाप्रभु ने क्रमश: सनातन, रूप तथा अनुपम नाम दिया। सनातन का जन्म सं. 1523 के लगभग हुआ था तथा संस्कृत के साथ फारसी अरबी की भी अच्छी शिक्षा पाई थी। सन् 1483 ई. में पितामह की मृत्यु पर अठारह वर्ष की अवस्था में यह उन्हीं के पद पर नियत किए गए और बड़ी योग्यता से कार्य सँभाल लिया। हुसेन शाह के समय में यह प्रधान मंत्री हो गए तथा इन्हें दरबारे खास उपाधि मिली। राजकार्य करते हुए भी तीनों भाई परम भक्त, विरक्त तथा सत्संग प्रेमी थे। इन्होंने "कानाई नाट्यशाला" बनवाई थी, जिसमें कृष्णलीला सबंधी बहुत सी मूर्तियों का संग्रह था। श्री चैतन्य महाप्रभु का जब प्रकाश हुआ तब यह भी उनके दर्शन के लिए उतावले हुए, पर राजकार्य से छुट्टी नहीं मिली। इसलिए उन्हें पत्र लिखकर रामकेलि ग्राम में आने का आग्रह किया। श्री चैतन्य जब वृंदावन जाते समय रामकेलि ग्राम में आए तब इन तीनों भाइयों ने उनके दर्शन किए और सभी ने सांसारिक जंजाल से मुक्ति पाने का दृढ़ संकल्प किया। सभी राजपद पर थे। पर सनातन इनमें सबसे बड़े और मंत्रीपद पर थे अत: पहले श्री रूप तथा अनुपम सारे कुटुंब को स्वजन्मस्थान फतेहाबाद वाकला में सुरक्षित रख आए और रामकेलि ग्राम में सनतान जी के लिए कुसमय में काम आने को कुछ धन एक विश्वसनीय पुरुष के पास रखकर वृंदावन की ओर चले गए। जब सनातन जी ने राजकार्य से हटने का प्रयत्न किया तब नवाब ने इन्हें कारागार में बंद करा दिया। अंत में घूस देकर यह बंदीगृह से भागे और काशी पहुँच गए। स. 1572 में यहीं श्रीगौरांग से भेंट हुई और दो मास तक वैष्णव भक्ति शास्त्र पर उपदेश देकर इन्हें वृंदावन भेज दिया कि वहाँ के लुप्त तीर्थों का उद्धार, भक्तिशास्त्र की रचना तथा प्रेमभक्ति एवं संकीर्तन का प्रचार करें। यह वृंदावन चले गए पर कुछ दिनों बाद श्रीगौरांग के दर्शन की प्रबल इच्छा से जगदीशपुरी की यात्रा की। वहाँ कुछ दिन रहकर यह पुन: वृंदावन लौट आए और आदित्यटीला पर अंत तक यहीं रहें। मधुकरी माँगने यह नित्य मथुरा जाते थे और वहीं उन्होंने श्री अद्वैताचार्य द्वारा प्रकटित श्री मदनगोपाल जी के विग्रह का दर्शन किया। यह उस मूर्ति को वृंदावन लाए और आदित्यटीला पर प्रतिष्ठापित कर सेवा करने लगे। कुछ दिनों बाद एक मंदिर बन गया और सं. 1591 से सेवा की व्यवस्था ठीक रूप से चलने लगी। इसी प्रकार अनेक विग्रहों को खोजकर उनकी सेवा का प्रबंध किया, अनेक लुप्त तीर्थों का उद्धार किया तथा कई ग्रंथ लिख। यह श्रीगौरांग के प्रमुख शिष्यों तथा पार्षदों में थे। रचनाएँ इनकी रचनाएँ हैं - श्री बृहत् भागवतामृत, वैष्णवतोषिणी तथा श्रीकृष्णलीलास्तव। हरिभक्तिविलास तथा भक्तिरसामृतसिंधु की रचना में भी इनका सहयोग था। सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ राधाकुण्ड.कॉम पर (इस्कॉन.कॉम) राधादामोदरमंदिर.कॉम) श्रेणी:चैतन्य महाप्रभु श्रेणी:हिन्दू धर्म
सनातन गोस्वामी का जन्म कब हुआ था?
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अल-अब्बास इब्न अली (अरबी: العباس بن علي, फारसी: عباس فرزند علی), कमर बनी हाशिम (बनी हाशिम का चंद्रमा) (जन्म 4 वें शाबान 26 हिजरी - 10 मुहर्रम 61 हिजरी, लगभग 15 मई, 647 - 10 अक्टूबर, 680), शिया मुसलमानों के पहले इमाम और सुन्नी मुसलमानों के चौथे खलीफ हज़रत इमाम अली और फातिमा के पुत्र थे। अब्बास को शिया मुसलमानों द्वारा उनके भाई हज़रत हुसैन, के परिवार के प्रति सम्मान और कर्बला की लड़ाई में उनकी भूमिका के प्रति सम्मान के लिए सम्मानित किया जाता है। हज़रत अब्बास को इराक के करबाला प्रान्त, करबाला में हज़रत अब्बास के रोज़े में दफनाया गया ही, जहां वह अशूरा के दिन करबाला की लड़ाई के दौरान शहीद हुए थे।[2].[3] प्रारंभिक जीवन हज़रत अब्बास हज़रत अली इब्न अबी तालिब पुत्र थे। अब्बास के तीन भाई थे - अब्दुल्ला इब्न अली, जाफर इब्न अली, और उस्मान इब्न अली। अब्बास ने लुबाबा से शादी की। उनके तीन बेटे थे - फदल इब्न अब्बास, मोहम्मद इब्न अब्बास, और उबायदुल्ला इब्न अब्बास। सिफिन की लड़ाई 657 ईस्वी में अब्बास के पिता हज़रत अली और मुआयाह प्रथम, सीरिया के गवर्नर, के बीच संघर्ष के मुख्य संघर्षों में से एक, हज़रत अब्बास ने सिफिन की लड़ाई में एक सैनिक के रूप में शुरुआत की। अपने पिता के कपड़े पहने हुए, जो एक महान योद्धा होने के लिए जाने जाते थे, अब्बास ने कई दुश्मन सैनिकों को मार डाला। मुवाया की सेना ने वास्तव में उन्हें अली के लिए गलत समझा। इसलिए, जब हज़रत अली खुद युद्ध के मैदान पर दिखाई दिए, तो मुआविया के सैनिक उसे देखकर आश्चर्यचकित हुए और दूसरे सैनिक की पहचान के बारे में उलझन में थे। तब अली ने अब्बास को यह कहते हुए पेश किया: वह अब्बास है, हाशिमियों का चंद्रमा है।.[4][5] हजरत अब्बास को अपने पिता अली द्वारा युद्ध की कला में प्रशिक्षित किया गया था, जो मुख्य कारण था कि वह युद्ध के मैदान पर अपने पिता जैसा दिखता थे। कर्बला की लड़ाई हजरत अब्बास ने करबाला की लड़ाई में हज़रत हुसैन के प्रति अपनी वफादारी दिखायी। लेकिन मुआविया को खलीफा के रूप में सफल होने के बाद, अत्याचारी यज़ीद ने निंदा की कि हज़रत हुसैन ने उनके प्रति निष्ठा का वचन दिया है, लेकिन हज़रत हुसैन ने इससे इनकार कर दिया, याज़ीद एक शराबी है, एक महिलाकार है जो नेतृत्व के लिए अनुपयुक्त है। चूंकि ये व्यवहार इस्लाम में निषिद्ध थे (और अभी भी हैं), यदि हजरत हुसैन ने याजीद के प्रति निष्ठा का वचन दिया था, तो उनके इस कार्य से इस्लाम की मूलभूत बातें बर्बाद कर दी होंगी। हुसैन के बड़े भाई हजरत इमाम हसन ने एक समझौता किया था, कि वे (यानी अहल अल-बेत) धार्मिक (यानी इस्लामी) निर्णयों के लिए जिम्मेदार होंगे और अन्य मामलों में हस्तक्षेप नहीं करेंगे। लेकिन याज़ीद धार्मिक आधिकार नियंत्रण लेना चाहता था। उबायद अल्लाह की मदद से, याज़ीद ने कुसा (इराक) के लोगों के नाम पर उन्हें एक पत्र भेजकर हजरत हुसैन को मारने की साजिश रची। हालांकि अधिकांश इतिहासकारों का कहना है कि पत्र वास्तव में कुफा के लोगों द्वारा भेजे गए थे, जिन्होंने बाद में उनसे धोखा दिया जब मुस्लिम इब्न अकेल (हुसैन के कुफा के लिए संदेशवाहक) के शरीर को यज़ीद की सेना द्वारा कुफा के केंद्र में एक इमारत से फेंक दिया गया था, जबकि कुफा के लोग चुप खड़े रहे थे। 60 हिजरी (680 ईस्वी) में, हजरत हुसैन ने मक्का के लिए मदीना को कुफा यात्रा करने के लिए साथी और परिवार के सदस्यों के एक छोटे समूह के साथ छोड़ दिया। उन्होंने अपने चचेरे भाई, हजरत मुस्लिम को सलाह के बाद अपना निर्णय लेने के लिए भेजा। लेकिन, जब तक हजरत हुसैन कुफा के पास पहुंचे, तो उनके चचेरे भाई की हत्या कर दी गई थी। जिस तरह से हजरत हुसैन और उसके समूह को रोक दिया गया था। हजरत अब्बास का घोड़ा हज़रत अब्बास को "उकब" (ईगल) नामक घोड़ा दिया गया था।.[6] शिया सूत्रों का कहना है कि इस घोड़े का इस्तेमाल हज़रत मुहम्मद सहाब और हज़रत अली ने किया था और यह घोड़ा अब्दुल मुतालिब के माध्यम से यमन के राजा सैफ इब्न ज़ी याज़नी द्वारा मुहम्मद को प्रस्तुत किया गया था। राजा घोड़े को बहुत महत्वपूर्ण मानते थे, और अन्य घोड़ों पर इसकी श्रेष्ठता इस तथ्य से स्पष्ट थी कि इसका वंशावली वृक्ष भी बनाए रखा गया था। इसे शुरू में "मुर्तजिज" नाम दिया गया था, जो अरबी नाम "रिजिज" से आता है जिसका अर्थ है थंडर (बिजली)।.[6][7][8] सन्दर्भ श्रेणी:इस्लाम श्रेणी:इस्लाम का इतिहास श्रेणी:हिन्दी दिवस लेख प्रतियोगिता २०१८ के अन्तर्गत बनाये गये लेख
अल-अब्बास इब्न अली का जन्म कब हुआ था?
लगभग 15 मई, 647
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एरीजोना (English: Arizona) संयुक्त राज्य अमेरिका के दक्षिणपश्चिमी हिस्से में स्थित राज्य है। इसका सबसे बड़ा शहर और राजधानी फ़िनक्स है। दूसरा सबसे बड़ा राज्य टक्सन है और उसके बाद फ़िनक्स के महानगर क्षेत्र स्थित शहर मेसा, ग्लेनडेल, चंदलर और स्कोत्ट्सडेल है। एरीजोना संयुक्त राज्यों में शामिल होने वाला ४८व राज्य था जिसे की इसमें १४ फरबरी १९१२ को समिलित किया गया। इसी दिन इस राज्य की देश में माने जाने वाली भूमि की वर्षागाठ भी थी। एरीजोना अपने रेगिस्तानी मौसम, भयंकर गर्मी और हल्की ठंड के लिए जाना जाता है। पर राज्य के उच्च इलाकों में बहुत पहाड़ व जंगल है, इसी कारण वहाँ का मौसम अन्य राज्य के मुकाबले ठंडा रहता है। जुलाई १ २००६ के अनुसार एरीजोना देश में आबादी के हिसाब से सबसे तेजी से बढ़ता राज्य है। इससे पहले यह दर्जा नेवादा के पास था। राज्य का एक-चौथाई इलाका मूल अमेरिकी आदिवासी के लिये संरक्षित है। राज्य की आधिकरिक भाषा अँग्रेजी है जिसे बोलने वाले जनसंख्या के 74 प्रतिशत है। स्पेनी 19.5 प्रतिशत द्वारा बोली जाती है। 2015 में राज्य की आबादी 68,28,065 अनुमानित की गई है। जिस हिसाब से उसका अमेरिकी राज्यों में 14वां स्थान है। श्रेणी:संयुक्त राज्य अमेरिका के राज्य
एरिज़ोना की राजधानी क्या है?
फ़िनक्स
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वैशाली (English: Vaishali) बिहार प्रान्त के तिरहुत प्रमंडल का एक जिला है। मुजफ्फरपुर से अलग होकर १२ अक्टुबर १९७२ को वैशाली एक अलग जिला बना। वैशाली जिले का मुख्यालय हाजीपुर में है। बज्जिका तथा हिन्दी यहाँ की मुख्य भाषा है। ऐतिहासिक प्रमाणों के अनुसार वैशाली में ही विश्व का सबसे पहला गणतंत्र यानि "रिपब्लिक" कायम किया गया था। वैशाली जिला भगवान महावीर की जन्म स्थली होने के कारण जैन धर्म के मतावलम्बियों के लिए एक पवित्र नगरी है। भगवान बुद्ध का इस धरती पर तीन बार आगमन हुआ। भगवान बुद्ध के समय सोलह महाजनपदों में वैशाली का स्थान मगध के समान महत्त्वपूर्ण था। ऐतिहासिक महत्त्व के होने के अलावे आज यह जिला राष्ट्रीय स्तर के कई संस्थानों तथा केले, आम और लीची के उत्पादन के लिए भी जाना जाता है। इतिहास वैशाली जन का प्रतिपालक, विश्व का आदि विधाता, जिसे ढूंढता विश्व आज, उस प्रजातंत्र की माता॥ रुको एक क्षण पथिक, इस मिट्टी पर शीश नवाओ, राज सिद्धियों की समाधि पर फूल चढ़ाते जाओ॥ -- (कवि रामधारी सिंह दिनकर की पंक्तियाँ) वैशाली का नामाकरण रामायण काल के एक राजा विशाल के नाम पर हुआ है। विष्णु पुराण में इस क्षेत्र पर राज करने वाले 34 राजाओं का उल्लेख है, जिसमें प्रथम नभग तथा अंतिम सुमति थे। राजा सुमति भगवान राम के पिता राजा दशरथ के समकालीन थे। विश्‍व को सर्वप्रथम गणतंत्र का ज्ञान कराने वाला स्‍थान वैशाली ही है। आज वैश्विक स्‍तर पर जिस लोकशाही को अपनाया जा रहा है वह यहाँ के लिच्छवी शासकों की ही देन है। ईसा पूर्व छठी सदी के उत्तरी और मध्य भारत में विकसित हुए 16 महाजनपदों में वैशाली का स्थान अति महत्त्वपूर्ण था। नेपाल की तराई से लेकर गंगा के बीच फैली भूमि पर वज्जियों तथा लिच्‍छवियों के संघ (अष्टकुल) द्वारा गणतांत्रिक शासन व्यवस्था की शुरूआत की गयी थी। लगभग छठी शताब्दि ईसा पूर्व में यहाँ का शासक जनता के प्रतिनिधियों द्वारा चुना जाता था। मौर्य और गुप्‍त राजवंश में जब पाटलिपुत्र (आधुनिक पटना) राजधानी के रूप में विकसित हुआ, तब वैशाली इस क्षेत्र में होने वाले व्‍यापार और उद्योग का प्रमुख केंद्र था। ज्ञान प्राप्ति के पाँच वर्ष बाद भगवान बुद्ध का वैशाली आगमन हुआ, जिसमें वैशाली की प्रसिद्ध नगरवधू आम्रपाली सहित चौरासी हजार नागरिक संघ में शामिल हुए। वैशाली के समीप कोल्‍हुआ में भगवान बुद्ध ने अपना अंतिम सम्बोधन दिया था। इसकी याद में महान मौर्य महान सम्राट अशोक ने तीसरी शताब्दि ईसा पूर्व सिंह स्‍तम्भ का निर्माण करवाया था। महात्‍मा बुद्ध के महा परिनिर्वाण के लगभग 100 वर्ष बाद वैशाली में दूसरे बौद्ध परिषद का आयोजन किया गया था। इस आयोजन की याद में दो बौद्ध स्‍तूप बनवाये गये। वैशाली के समीप ही एक विशाल बौद्ध मठ है, जिसमें भगवान बुद्ध उपदेश दिया करते थे। भगवान बुद्ध के सबसे प्रिय शिष्य आनंद की पवित्र अस्थियाँ हाजीपुर (पुराना नाम- उच्चकला) के पास एक स्तूप में रखी गयी थी। पाँचवी तथा छठी सदी के दौरान प्रसिद्ध चीनी यात्री फाहियान तथा ह्वेनसांग ने वैशाली का भ्रमण कर यहाँ का भव्य वर्णन किया है। वैशाली जैन धर्मावलम्बियों के लिए भी काफी महत्त्वपूर्ण है। यहीं पर 599 ईसापूर्व में जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर भगवान महावीर का जन्‍म वसोकुंड में हुआ था। ज्ञात्रिककुल में जन्में भगवान महावीर यहाँ 22 वर्ष की उम्र तक रहे थे। इस तरह वैशाली भारत के दो महत्त्वपूर्ण धर्मों का केंद्र था। बौद्ध तथा जैन धर्मों के अनुयायियों के अलावा ऐतिहासिक पर्यटन में दिलचस्‍पी रखने वाले लोगों के लिए भी वैशाली महत्त्वपूर्ण है। वैशाली की भूमि न केवल ऐतिहासिक रूप से समृद्ध है वरन् कला और संस्‍कृति के दृष्टिकोण से भी काफी धनी है। वैशाली जिले के चेचर (श्वेतपुर) से प्राप्त प्राचीन मूर्त्तियाँ तथा सिक्के पुरातात्विक महत्त्व के हैं। पूर्वी भारत में मुस्लिम शासकों के आगमन के पूर्व वैशाली मिथिला के कर्नाट वंश के शासकों के अधीन रहा, लेकिन जल्द ही यहाँ गयासुद्दीन एवाज़ का शासन हो गया। 1323 में तुग़लक वंश के शासक गयासुद्दीन तुग़लक का राज आया। इसी दौरान बंगाल के एक शासक हाजी इलियास शाह ने 1345 ई॰ से 1358 ई॰ तक यहाँ शासन किया। चौदहवीं सदी के अंत में तिरहुत समेत पूरे उत्तरी बिहार का नियंत्रण जौनपुर के राजाओं के हाथ में चला गया, जो तबतक जारी रहा जबतक दिल्ली सल्तनत के सिकन्दर लोधी ने जौनपुर के शासकों को हराकर अपना शासन स्थापित नहीं किया। बाबर ने अपने बंगाल अभियान के दौरान गंडक तट के पार हाजीपुर में अपनी सैन्य टुकड़ी को भेजा था। 1572 ई॰ से 1574 ई॰ के दौरान बंगाल विद्रोह को कुचलने के क्रम में अकबर की सेना ने दो बार हाजीपुर किले पर घेरा डाला था। 18वीं सदी के दौरान अफगानों द्वारा तिरहुत कहलाने वाले इस प्रदेश पर कब्ज़ा किया। स्वतंत्रता आन्दोलन के समय वैशाली के शहीदों की अग्रणी भूमिका रही है। बसावन सिंह, बेचन शर्मा, अक्षयवट राय, सीताराम सिंह जैसे स्वतंत्रता सेनानियों ने अंग्रेज़ी हुकूमत के खिलाफ लड़ाई में महत्त्वपूर्ण हिस्सा लिया। आजादी की लड़ाई के दौरान 1920, 1925 तथा 1934 में महात्मा गाँधी का वैशाली जिले में तीन बार आगमन हुआ था। सन् 1875 से लेकर 1972 तक यह जिला मुजफ्फरपुर का अंग बना रहा। 12 अक्टुबर 1972 को वैशाली को स्वतंत्र जिले का दर्जा प्राप्त हुआ। भूगोल वैशाली जिला का क्षेत्रफल 2036 वर्ग किलोमीटर है, जिसका समुद्र तल से औसत ऊँचाई 52 मीटर है। गंगा, गंडक, बया, नून यहाँ की नदियाँ है। गंगा तथा गंडक क्रमशः जिले की दक्षिणी एवं पश्चिमी सीमा बनाती है। वैशाली जिला के उत्तर में मुजफ्फरपुर, दक्षिण में पटना, पूर्व में समस्तीपुर तथा पश्चिम में सारन जिला है। जलवायु वैशाली जिले में नवम्बर से फरवरी तक शीत ऋतु, मार्च से जून तक ग्रीष्म ऋतु तथा जुलाई से सितम्बर वर्षा ऋतु होता है। वसंत काल (फरवरी - मार्च) तथा शरद काल (सितम्बर-अक्टुबर) सबसे सुखद होता है। गर्मियों में यहाँ का तापमान 44 डिग्री सेल्सियस से 21 डिग्री सेल्सियस के बीच तथा जाड़े में 23 डिग्री सेल्सियस से 6 डिग्री सेल्सियस के बीच बदलता रहता है। गर्मियों में 'लू' तथा जाड़ों में 'शीतलहरी' का चलना आम है। सर्दियों की सुबह एवं गरमी की शाम सुकून देने वाला होता है। छठ को शीत ऋतु का और होली पर्व को गर्मी का आरम्भ माना जाता है। मौसम सालाना औसत वर्षा 120 से.मी. होती है, जिसका अधिकांश मॉनसूनी महीनों (जून मध्य से अगस्त) में प्राप्त होता है। जनसांख्यिकी जनसंख्‍या:- 3,495,021(2011 की जनगणना अनुसार) पुरुषों की संख्या:- 1,844,535 स्त्रियों की संख्या:- 1,650,486 जनसंख्या का घनत्वः- 1335 प्रति वर्ग किलोमीटर स्त्री-पुरूष अनुपात = 895 प्रति 1000 साक्षरता दरः- 66.60% प्रशासनिक विभाजन वैशाली जिला 3 अनुमंडल, 16 प्रखंड, 291 ग्राम पंचायत तथा 1638 गाँवों में बँटा है। अपराध नियंत्रण के लिए जिले में 22 थाने तथा 6 सुरक्षा चौकी है। जिले के तीन शहरों में से एक हाजीपुर में नगर परिषद तथा महनार एवं महुआ में नगर पंचायत गठित है। लोकसभा के नये परिसीमन के मुताबिक वैशाली में दो सीटें हैं। विधान सभा क्षेत्र की जिले में पूर्ण तथा आंशिक रूप से 8 सीटें पड़ती है।[1] अनुमंडल: हाजीपुर, महुआ तथा महनार प्रखंड: गोरौल, चेहराकलां, जन्दाहा, देसरी, पटेढी बेलसर, पातेपुर, प्रेमराज, बिदुपुर, भगवानपुर, महुआ, महनार, राजापाकर, राघोपुर, लालगंज, सराय, सहदेई बुजुर्ग, वैशाली, हाजीपुर विधानसभा सीट: हाजीपुर, महनार, लालगंज, पातेपुर, वैैशाली, महुआ, जाा राजापााकड़, राघोपुुर लोकसभा सीट: हाजीपुर, वैशाली कृषि एवं उद्योग वैशाली की मुख्य कृषि गेहूँ, चावल और मक्का है। जनजीवन एवं संस्कृति मानव बसाव समूचा जिला गंगा के उत्तरी मैदान का हिस्सा है। कृषियोग्य उर्वर भूमि और मृदु जलवायु के चलते प्राचीन काल से ही यह स्थान सघन आबादी का क्षेत्र रहा है। जिले में जनसंख्या का घनत्व (1335) राष्ट्रीय औसत से काफी ऊपर तथा बिहार में तीसरा सबसे सघन है। महत्त्वपूर्ण सामरिक अवस्थिति के चलते अतीत में बाहरी लोगों के आकर बसने से यहाँ मिली-जुली स्थानीय संस्कृति पनपी है। प्रायः सभी गाँवों में हिन्दू और मुसलमान बसते हैं। दोनों समुदाय यहाँ के गौरवशाली अतीत और आपसी सहिष्णुता पर नाज़ करते हैं। बिहार की राजधानी पटना से जुड़ाव और भूगोलीय निकटता ने यहाँ की घटनाओं और अवसरों के महत्त्व को कई गुणा बढ़ा दिया है। बोलचाल एवं पहनावा हिन्दी जिले में शिक्षा का माध्यम तथा प्रमुख भाषा है, किन्तु बज्जिका यहाँ की स्थानीय बोली है, जो मुजफ्फरपुर, सीतामढी, शिवहर और समस्तीपुर के अतिरिक्त नेपाल के सर्लाही जिला में भी बोली जाती है। युवक और युवतियाँ सभी आधुनिक भारतीय वस्त्र पहनते हैं लेकिन गाँव में रहनेवाले अधिकांश व्यस्क स्त्री-पुरुष धोती या साड़ी पहनना ही पसन्द करते हैं। शादी विवाह वैशाली की स्थानीय संस्कृति तिरहुत के अन्य जिलों (मुजफ्फरपुर, सीतामढी, शिवहर, पूर्वी चम्पारण, पश्चिमी चम्पारण) के समान है लेकिन पर्व-त्योहारों या विवाह के समय गाये जाने वाले गीत मिथिला से प्रभावित है। स्थानीय लोगों में जातिभेद अधिक है इसलिए शादी-विवाह अपने समूह में पारिवारिक कुटुम्ब या रिश्तेदार द्वारा तय किये जाते हैं। सभी समुदायों में शादी के समय दहेज लेना-देना आम है और कई बार इसे लेकर बहुओं को प्रताड़ना देने की खबर भी दैनिक अख़बार की सुर्खियाँ बनती है। पर्व-त्योहार कई राष्ट्रीय त्योहार जैसे गणतंत्र दिवस, स्वतंत्रता दिवस और गाँधी जयंती यहाँ खूब हर्षोल्लास से मनाये जाते हैं। यहाँ के धार्मिक त्योहारों में छठ, होली, दिवाली, दुर्गा पूजा, ईद-उल-फितर, मुहर्रम, महावीर जयंती, महाशिवरात्रि, बुद्ध पूर्णिमा, कृष्णाष्टमी, मकर संक्रांति, सतुआनी, चकचंदा और सामा चकेवा जैसे पर्व हैं। कार्तिक में चार दिवसीय छठपूजा तथा महाशिवरात्रि के अवसर पर हाजीपुर में शिव और पार्वती की विवाह यात्रा की बड़ी धूम होती है। हिन्दुओं और मुस्लिमों के सभी पर्व प्रायः मिलजुल कर ही मनाये जाते हैं। शिक्षा एवं शैक्षणिक संस्थान वैशाली जिले की साक्षरता मात्र 66.60% है जो राष्ट्रीय औसत से नीचे है। जिले में 954 प्राथमिक विद्यालय, 389 मध्य विद्यालय तथा 81 उच्च विद्यालय हैं। इसके अलावे सर्व शिक्षा अभियान के तहत यहाँ 105 विद्यालय, 246 नवसृजित प्राथमिक विद्यालय, 210 बाल श्रम विद्यालय, 6 चरवाहा विद्यालय तथा 1 जवाहर नवोदय विद्यालय खोले गये हैं। जिला मुख्यालय हाजीपुर के अतिरिक्त अन्य हिस्सों में भी निजी विद्यालयों की अच्छी संख्या है। डिग्री महाविद्यालय 1. , देवचंद महाविद्यालय, जमुनीलाल महाविद्यालय, वैशाली महिला महाविद्यालय (सभी हाजीपुर में) 2. अक्षयवट महाविद्यालय, महुआ 3. समता महाविद्यालय अरनिया, जन्दाहा 4. डिग्री महाविद्यालय भगवानपुर 5. बीरचंद पटेल महाविद्यालय देसरी 6. राम प्रसाद सिंह महाविद्यालय चकेयाज, महनार 7. अवध बिहारी सिंह महाविद्यालय लालगंज जिले के सभी महाविद्यालय बाबा साहब भीमराव अम्बेदकर बिहार विश्वविद्यालय मुज़फ्फरपुर की अंगीभूत इकाई है। व्यवसायिक शिक्षण संस्थान जिला औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थान हाजीपुर, शिक्षक प्रशिक्षण संस्थान- दिग्घीकलां एवं सोरहथा, होटल प्रबंधन एवं पोषाहार संस्थान हाजीपुर, केंद्रीय प्लास्टिक इंजिनियरिंग एवं तकनीकि संस्थान हाजीपुर, केंद्रीय औषधीय शिक्षा एवं अनुसंधान संस्थान औद्योगिक क्षेत्र हाजीपुर, हरिहरपुर, रुडसेट संस्थान जढुआ हाजीपुर शहीद महेश्वर स्मारक संस्थान समता कालोनी, हाजीपुर दर्शनीय स्थल वैशाली तथा आसपास अशोक स्‍तम्भ:- वैशाली में हुए महात्‍मा बुद्ध के अंतिम उपदेश की याद में सम्राट अशोक ने नगर के समीप कोल्‍हुआ में लाल बलुआ पत्‍थर के एकाश्म सिंह-स्‍तंभ की स्‍थापना की थी। लगभग 18.3 मीटर ऊँचे इस स्‍तम्भ के ऊपर घंटी के आकार की बनावट है जो इसको आकर्षक बनाता है। बौद्ध स्‍तूप:- दूसरे बौद्ध परिषद की याद में यहाँ पर दो बौद्ध स्‍तूपों का निर्माण किया गया था। पहले तथा दूसरे स्‍तूप में भगवान बुद्ध की अस्थियाँ मिली है। यह स्‍थान बौद्ध अनुयायियों के लिए काफी महत्त्वपूर्ण है। अभिषेक पुष्‍करणी:- वैशाली में नव निर्वाचित शासक को इस सरोवर में स्‍नान के पश्चात अपने पद, गोपनीयता और गणराज्‍य के प्रति निष्ठा की शपथ दिलायी जाती थी। इसी के नजदीक लिच्‍छवी स्‍तूप तथा विश्व शांति स्तूप स्थित है। राजा विशाल का गढ़:-लगभग एक किलोमीटर परिधि के चारों तरफ दो मीटर ऊँची दीवार है जिसके चारों तरफ 43 मीटर चौड़ी खाई थी। समझा जाता है कि राजा विशाल का राजमहल या लिच्छ्वी काल का संसद है। कुण्‍डलपुर:- यह जगह जैन धर्म के २४वें तीर्थंकर भगवान महावीर का जन्‍मस्‍थान होने के कारण काफी पवित्र माना जाता है। वैशाली से इसकी दूरी 4 किलोमीटर के आसपास है। यहीं बसाढ गाँव में प्राकृत जैन शास्त्र एवं अहिंसा संस्थान भी स्थित है। वैशाली महोत्सव:- प्रतिवर्ष वैशाली महोत्सव का आयोजन जैन धर्म के २४वें तीर्थंकर भगवान महावीर के जन्म दिवस पर बैसाख पूर्णिमा को किया जाता है। अप्रैल के मध्य में आयोजित होनेवाले इस राजकीय उत्सव में देशभर के संगीत और कलाप्रेमी हिस्सा लेते हैं। विश्व शांति स्तूप:- जापान के निप्पोणजी समुदाय द्वारा बनवाया गया विश्‍व शांतिस्‍तूप चौमुखी महादेव मंदिर बावन पोखर मंदिर वैशाली संग्रहालय हाजीपुर एवं आसपास कौनहारा घाट: भागवत पुराण में वर्णित गज-ग्राह की लड़ाई में स्वयं भगवान विष्णु ने यहाँ आकर अपने भक्त गजराज को जीवनदान और शापग्रस्त ग्राह को मुक्ति दी थी। गंगा और गंडक के पवित्र संगम पर बसे कौनहारा घाट की महिमा हिन्दू धर्म में अन्यतम है। नेपाली छावनी मंदिर: १८वीं सदी में पैगोडा शैली में निर्मित अद्वितीय शिवमंदिर नेपाली वास्तुकला का अद्भुत उदाहरण है। रामचौरा मंदिर: अयोध्या से जनकपुर जाने के क्रम में भगवान श्रीराम ने यहाँ विश्राम किया था। उनके चरण चिह्न प्रतीक रूप में यहाँ मौजूद है। जामिया मस्जिद: तेरहवीं सदी के मध्य में यहाँ के शासक हाजी इलियास द्वारा बनवाये गये किले परिसर में अकबर काल में बनवाया गया मस्जिद। मामू-भाँजा की मजार: मुग़लकाल के सूफी संतों की मजा़र एवं करबला का मैदान गाँधी आश्रम: स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी के तीन बार जिले में पधारने पर आयोजित सभा स्थल तथा खादी ग्रामोद्योग आयोग परिसर महात्मा गाँधी सेतु:- प्रबलित कंक्रीट से गंगा नदी पर बना महात्मा गाँधी सेतु दुनिया में एक ही नदी पर बना सबसे बड़ा पुल है। 46 पाये वाले इस कंक्रीट पुल से गंगा को पार करने पर वैशाली में आम और केले की खेती तथा पटना महानगर के विभिन्न घाटों तथा लैंडमार्क का विहंगम दृश्य दिखाई देता है। पातालेश्वर मंदिर: सोनपुर मेला गंगा-गंडक के संगम पर बसे हरिहरक्षेत्र में कौनहारा घाट के सामने सोनपुर में विश्वप्रसिद्ध मेला लगता है। यहाँ बाबा हरिहरनाथ (शिव मंदिर) तथा काली मंदिर के अलावे अन्य मंदिर भी हैं। प्रतिवर्ष कार्तिक पूर्णिमा को पवित्र गंडक-स्नान से शुरु होनेवाले मेले का आयोजन पक्ष भर चलता है। सोनपुर मेला की प्रसिद्धि एशिया के सबसे बड़े पशु मेले के रूप में है। हाथी-घोड़े से लेकर रंग-बिरंगे पक्षी तक मेले में खरीदे-बेचे जाते हैं। मेला के दिनों में सोनपुर एक सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक केंद्र बन जाता है। अन्य महत्त्वपूर्ण स्थल चेचर (श्वेतपुर): हाजीपुर से लगभग २० किलोमीटर पूरब स्थित गंगा नदी के किनारे स्थित चेचर गाँव पुरातात्विक धरोहरों से सम्पन्न गाँव है। इसका पुराना नाम श्वेतपुर है। यहाँ गुप्त एवं पालवंश के शासनकाल की मूर्त्तियाँ एवं सिक्के मिले हैं। भुइयाँ स्थान: हाजीपुर से १० किलोमीटर दूर स्थित एक गाँव में बाबा भुइयाँ स्थान है, जहाँ पशुपालकों द्वारा देवता को दूध अर्पित किया जाता है। वैशाली तथा आसपास के जिले में कृषि एवं पशुपालन से जुड़े लोगों के लिए यह स्थान अति पवित्र है। बुढ़ीमाई का मंदिर हज़रत जन्दाहा: हाजीपुर से ३२ किलोमीटर पूरब राजकीय राजमार्ग संख्या १०३ के किनारे स्थित जन्दाहा शहर में सूफी संत दिवान अली शाह की मजा़र है। यहाँ होकर बहने वाली बाया नदी तथा शहर के नाम के पीछे सूफी संत द्वारा किये गये चमत्कार की कहानी जुड़ी है। मध्यकाल में हाजीपुर के एक प्रसिद्ध सूफी मकदूम शाह अब्दुल फतेह जन्दाहा के सूफी दिवान अली शाह के चाचा थे। यातायात व्यवस्था सड़क परिवहन पटना, समस्तीपुर, छपरा तथा मुजफ्फरपुर से यहाँ आने के लिए सड़क या रेल मार्ग सबसे उपयुक्‍त है। जिले से वर्तमान में तीन राष्ट्रीय राजमार्ग तथा दो राजकीय राजमार्ग गुजरती हैं। महात्मा गाँधी सेतु पार कर पटना से जुडा़ राष्ट्रीय राजमार्ग 19 हाजीपुर, छपरा होकर उत्तर प्रदेश के गाजीपुर तक जाती है। हाजीपुर से मुजफ्फरपुर तथा सीतामढी़ होकर सोनबरसा तक जानेवाली 142 किलोमीटर लम्बी सड़क राष्ट्रीय राजमार्ग 77 है। राष्ट्रीय राजमार्ग 103 हाजीपुर, चकसिकन्दर, जन्दाहा, चकलालशाही होते हुए राष्ट्रीय राजमार्ग 28 पर स्थित मुसरीघरारी से जोड़ती है। राजकीय राजमार्ग 49 द्वारा यह महुआ तथा ताजपुर से जुडा़ है। राजकीय राजमार्ग 48 के अन्तर्गत 1.80 किलोमीटर का एक छोटा-सा हिस्सा मुजफ्फरपुर - हाजीपुर सड़क का खंड है। राजमार्ग के अतिरिक्त वैशाली के सभी प्रखंड तथा पंचायत जिला उच्चपथ तथा ग्रामीण सड़कों से जुड़ा है। जिले का सार्वजनिक यातायात मुख्यतः निजी बसों, ऑटोरिक्शा और निजी वाहनों पर आश्रित है। रेल परिवहन वैशाली जिले में रेल पथ (ब्रॉड गेज) की कुल लम्बाई 71 किलोमीटर है। मुख्य स्‍टेशन हाजीपुर है जो पूर्व मध्य रेलवे का मुख्यालय भी है। वैशाली जिले में पड़ने वाले अन्य महत्त्वपूर्ण स्‍टेशन गोरौल, भगवानपुर, सराय, अक्षयवटराय नगर, चकसिकन्दर, देसरी तथा महनार है। दिल्‍ली, मुंबई, चेन्‍नई, कोलकाता, गुवाहाठी तथा अमृतसर के अतिरिक्त भारत के महत्त्वपूर्ण शहरों के लिए यहाँ से सीधी ट्रेन सेवा है। बौद्ध सर्किट के तहत एक नयी रेल लाईन पटना से हाजीपुर, वैशाली होकर प्रस्तावित है। हवाई परिवहन वैशाली जिले का सबसे नजदीकी हवाई अड्डा राज्य की राजधानी पटना में स्थित है। जयप्रकाश नारायण अंतरराष्ट्रीय हवाई क्षेत्र के लिए इंडियन, स्पाइस जेट, किंगफिसर, जेटलाइट, इंडिगो आदि विमान सेवाएँ उपलब्ध हैं। दिल्‍ली, कोलकाता, काठमांडु, बागडोगरा, राँची, बनारस और लखनऊ से फ्लाइट लेकर पटना पहुँच कर वैशाली के किसी भी हिस्से में आसानी से पहुँचा जा सकता है। पटना हवाई अड्डे से सड़क मार्ग द्वारा महात्मा गाँधी सेतु पार कर वैशाली जिले में प्रवेश होते हैं। जल परिवहन जिले की सीमा रेखा पर बहने वाली गंगा तथा गंडक नदी नौकागम्य है। हाजीपुर, अक्षयवटराय नगर (बिदुपुर), राघोपुर तथा महनार के पास से बहनेवाली गंगा नदी का हिस्सा राष्ट्रीय जलमार्ग 1 पर पड़ता है, जिससे यह जिला पश्चिम में बनारस होते हुए इलाहाबाद से तथा पूर्व में कोलकाता होते हुए हल्दिया से जुड़ा है। इन्हें भी देखें वैशाली सन्दर्भ
वैशाली जिले को किस साल में स्थापित किया गया था?
१२ अक्टुबर १९७२
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रोहतक जिला, भारत के हरियाणा राज्य का एक जिला है। जिले का क्षेत्रफल 2,330 वर्ग मील है और यह भारत की राजधानी दिल्ली से 66 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है| रोहतक कृषिप्रधान जिला है। यह जिला चारों तरफ से हरियाणा के ही पाँच जिलों से घिरा हुआ है। वे हैं: उत्तर में जींद, पूर्व में सोनीपत, पश्चिम में भिवानी, दक्षिण में झज्जर उत्तर-पश्चिम में हिसार और दक्षिण पश्चिम में बहादुरगढ़ है। यमुना और सतलज नदियों के मध्यवर्ती उच्चसम भूमि पर, दिल्ली के उत्तर-पश्चिम में यह जिला स्थित है। इसका उत्तरी भाग पश्चिमी यमुना नहर के रोहतक और बुटाना शाखाओं द्वारा सींचा जाता है, किंतु मध्यवर्ती मैदान का अधिकांश भाग अनिश्चित प्राकृतिक वर्षा पर निर्भर है। इतिहास कहा जाता है कि पहले रोहतासगढ़ (रोहतास का दुर्ग) कहलाने वाले रोहतक की स्थापना एक पंवार राजपूत राजा रोहतास द्वारा की गई थी। यहाँ 1140 में निर्मित दीनी मस्जिद है। समीप के खोकरा कोट टीले की खुदाई से बौद्ध मूर्तियों के अवशेष मिले हैं। दक्षिण पंजाब का यह अति प्राचीन नगर है। इसका उल्लेख महाभारत सभापर्व में प्रसंग नकुल की पश्चिम दिशा की दिग्विजय का है जो इस प्रकार है:- 'ततो बहुधनं रम्यं गवाढ्यं धनधान्यवत्, कार्तिकेयस्य दयितं रोहितकमुपाद्रवत्, तत्र युद्धं महच्चासीच्छूरैर्मत्तरमूरकैः' इस प्रदेश को यहाँ बहुत उपजाऊ बताया गया है तथा इसमें मत्तमयूरकों का निवास बताया गया है, जिनके इष्टदेव स्वामी कार्तिकेय थे। इसी प्रसंग में इसके पश्चात ही शेरीषक (वर्तमान सिरसा) का उल्लेख है। उद्योग पर्व में भी रोहितक को कुरुदेश के सन्निकट बताया गया है- दुर्योधन के सहायतार्थ जो सेनाएँ आई थीं, वे रोहतक के पास भी ठहरी थीं- 'तथा रोहिताकारण्यं मरुभूमिश्च केवला, अहिच्छत्रं कालकूटं गंगाकूलं चं भारत' रोहतक के पास उस समय वन प्रदेश रहा होगा, जिसे यहाँ रोहिताकारण्य कहा गया है। कर्ण ने भी रोहितक निवासियों को जीता था, 'भद्रान् रोहितकांश्चैव आग्रेयान् मालवानपि,'। प्राचीन नगर की स्थिति वर्तमान खोखराकोट के पास कही जाती है। भूगोल रोहतक नगर स्थिति: 28°54' उ.अ. तथा 76°38' पू.दे.। यह रोहतक जिले का नगर है, यह नगर 1824 ई. में एक ब्रिटिश जिले का मुख्यालय बना था। दक्षिणवर्ती सैकत पहाड़ियों से नगर के मध्य में स्थित श्वेत मस्जिद एवं पूर्व में स्थित भव्य दुर्ग अत्यंत मनोरम लगता है। दिल्ली से 44 मील उत्तर पश्चिम स्थित रोहतक, उत्तरी रेलवे का एक स्टेशन है। रोहतक शहर और ज़िला, मध्य हरियाणा राज्य, पश्चिमोत्तर भारत में स्थित है। रोहतक दिल्ली और फ़िरोज़पुर को जोड़ने वाले प्रमुख रेलमार्ग पर स्थित है। यह सड़क मार्ग द्वारा दिल्ली, पानीपत, जींद, हिसार, भिवानी, रिवाड़ी, अम्बाला छावनी और चण्‍डीगढ़ से जुड़ा हुआ है। उद्योग और व्यापार रोहतक अनाज और कपास का प्रमुख बाज़ार है। यहाँ की औद्योगिक गतिविधियों में खाद्य उत्पाद, कपास की ओटाई, चीनी और बिजली के करघे पर बुनाई का काम उल्लेखनीय है। शिक्षण संस्थान रोहतक में महर्षि दयानन्द विश्वविद्यालय है, जिससे सम्बद्ध अनेक महाविद्यालयों में जाट हीरो मेमोरियल कॉलेज रोहतक जी. बी. आयुर्वेदिक कॉलेज, आई. सी. कॉलेज, वैश कॉलेज आफ़ इंजीनियरिंग ओर गोड ब्रामण डिग्री कालेज व जाट कॉलेज हैं व मस्तनाथ महाविद्यालय भी हैं। पण्डित भगवत दयाल शर्मा स्वास्थ्य विश्वविद्यलय चिकित्सकिय शिक्षण में एक श्रेष्ठ संस्थान है। रोहतक को शैक्षणिक नगर के नाम से जाना जाता है। क्षेत्र क्षेत्र की खेती के लिए उपलब्ध नहीं है: 15956 एकड़ जमीन खेती अपशिष्ट: 3775 एकड़ जमीन असिंचित क्षेत्र: 20200 एकड़ जमीन सिंचित क्षेत्र: 123422 एकड़ जमीन जनसंख्या (2011) कुल: 10,34,000 शहरी: 5,17,120 ग्रामीण: 6,20,520 लिंग अनुपात (स्त्री:पुरुष): 807:1000 बाहरी कड़ियाँ जाट हीरो मेमोरियल कॉलेज रोहतक श्रेणी:हरियाणा श्रेणी:हरियाणा के शहर
रोहतक जिले का क्षेत्रफल कितना है?
2,330 वर्ग मील
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मंगल सौरमंडल में सूर्य से चौथा ग्रह है। पृथ्वी से इसकी आभा रक्तिम दिखती है, जिस वजह से इसे "लाल ग्रह" के नाम से भी जाना जाता है। सौरमंडल के ग्रह दो तरह के होते हैं - "स्थलीय ग्रह" जिनमें ज़मीन होती है और "गैसीय ग्रह" जिनमें अधिकतर गैस ही गैस है। पृथ्वी की तरह, मंगल भी एक स्थलीय धरातल वाला ग्रह है। इसका वातावरण विरल है। इसकी सतह देखने पर चंद्रमा के गर्त और पृथ्वी के ज्वालामुखियों, घाटियों, रेगिस्तान और ध्रुवीय बर्फीली चोटियों की याद दिलाती है। हमारे सौरमंडल का सबसे अधिक ऊँचा पर्वत, ओलम्पस मोन्स मंगल पर ही स्थित है। साथ ही विशालतम कैन्यन वैलेस मैरीनेरिस भी यहीं पर स्थित है। अपनी भौगोलिक विशेषताओं के अलावा, मंगल का घूर्णन काल और मौसमी चक्र पृथ्वी के समान हैं। इस गृह पर जीवन होने की संभावना है। 1965 में मेरिनर ४ के द्वारा की पहली मंगल उडान से पहले तक यह माना जाता था कि ग्रह की सतह पर तरल अवस्था में जल हो सकता है। यह हल्के और गहरे रंग के धब्बों की आवर्तिक सूचनाओं पर आधारित था विशेष तौर पर, ध्रुवीय अक्षांशों, जो लंबे होने पर समुद्र और महाद्वीपों की तरह दिखते हैं, काले striations की व्याख्या कुछ प्रेक्षकों द्वारा पानी की सिंचाई नहरों के रूप में की गयी है। इन् सीधी रेखाओं की मौजूदगी बाद में सिद्ध नहीं हो पायी और ये माना गया कि ये रेखायें मात्र प्रकाशीय भ्रम के अलावा कुछ और नहीं हैं। फिर भी, सौर मंडल के सभी ग्रहों में हमारी पृथ्वी के अलावा, मंगल ग्रह पर जीवन और पानी होने की संभावना सबसे अधिक है। वर्तमान में मंगल ग्रह की परिक्रमा तीन कार्यशील अंतरिक्ष यान मार्स ओडिसी, मार्स एक्सप्रेस और टोही मार्स ओर्बिटर है, यह सौर मंडल में पृथ्वी को छोड़कर किसी भी अन्य ग्रह से अधिक है। मंगल पर दो अन्वेषण रोवर्स (स्पिरिट और् ओप्रुच्युनिटी), लैंडर फ़ीनिक्स, के साथ ही कई निष्क्रिय रोवर्स और लैंडर हैं जो या तो असफल हो गये हैं या उनका अभियान पूरा हो गया है। इनके या इनके पूर्ववर्ती अभियानो द्वारा जुटाये गये भूवैज्ञानिक सबूत इस ओर इंगित करते हैं कि कभी मंगल ग्रह पर बडे़ पैमाने पर पानी की उपस्थिति थी साथ ही इन्होने ये संकेत भी दिये हैं कि हाल के वर्षों में छोटे गर्म पानी के फव्वारे यहाँ फूटे हैं। नासा के मार्स ग्लोबल सर्वेयर की खोजों द्वारा इस बात के प्रमाण मिले हैं कि दक्षिणी ध्रुवीय बर्फीली चोटियाँ घट रही हैं। मंगल के दो चन्द्रमा, फो़बोस और डिमोज़ हैं, जो छोटे और अनियमित आकार के हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि यह 5261 यूरेका के समान, क्षुद्रग्रह है जो मंगल के गुरुत्व के कारण यहाँ फंस गये हैं। मंगल को पृथ्वी से नंगी आँखों से देखा जा सकता है। इसका आभासी परिमाण -2.9, तक पहुँच सकता है और यह् चमक सिर्फ शुक्र, चन्द्रमा और सूर्य के द्वारा ही पार की जा सकती है, यद्यपि अधिकांश समय बृहस्पति, मंगल की तुलना में नंगी आँखों को अधिक उज्जवल दिखाई देता है। भौतिक विशेषताएं मंगल, पृथ्वी के व्यास का लगभग आधा है। यह पृथ्वी से कम घना है, इसके पास पृथ्वी का १५ % आयतन और ११ % द्रव्यमान है। इसका सतही क्षेत्रफल, पृथ्वी की कुल शुष्क भूमि से केवल थोड़ा सा कम है।[6] हालांकि मंगल, बुध से बड़ा और अधिक भारी है पर बुध की सघनता ज्यादा है। फलस्वरूप दोनों ग्रहों का सतही गुरुत्वीय खिंचाव लगभग एक समान है। मंगल ग्रह की सतह का लाल- नारंगी रंग लौह आक्साइड (फेरिक आक्साइड) के कारण है, जिसे सामान्यतः हैमेटाईट या जंग के रूप में जाना जाता है।[7] यह बटरस्कॉच भी दिख सकता है,[8] तथा अन्य आम सतह रंग, भूरा, सुनहरा और हरे शामिल करते है जो कि खनिजों पर आधारित होता है।[8] भूविज्ञान मंगल एक स्थलीय ग्रह है जो सिलिकॉन और ऑक्सीजन युक्त खनिज, धातु और अन्य तत्वों को शामिल करता है जो आम तौर पर उपरी चट्टान बनाते है। मंगल ग्रह की सतह मुख्यतः थोलेईटिक बेसाल्ट की बनी है,[9] हालांकि यह हिस्से प्रारूपिक बेसाल्ट से अधिक सिलिका-संपन्न हैं और पृथ्वी पर मौजूद एन्डेसिटीक चट्टानों या सिलिका ग्लास के समान हो सकते है। निम्न एल्बिडो के क्षेत्र प्लेजिओक्लेस स्फतीय का सांद्रण दर्शाते है, उत्तरी निम्न एल्बिडो क्षेत्रों के साथ परतदार सिलिकेट और उच्च सिलिकॉन ग्लास, सामान्य की तुलना में अधिक सांद्रण प्रदर्शित करते है। दक्षिणी उच्चभूमि के हिस्से पता लगाने योग्य मात्रा में उच्च- कैल्शियम पायरोक्सिन शामिल करते है। हेमेटाईट और ओलीविन की स्थानीयकृत सांद्रता भी पायी गई है।[10] अधिकतर सतह लौह ऑक्साइड धूल के बारीक कणों द्वारा गहराई तक ढंकी हुई है।[11][12] पृथ्वी की तरह, यह ग्रह भी भिन्नता (planetary differentiation) से गुजरा है, परिणामस्वरूप सघनता में, धातु कोर क्षेत्र, कम घने पदार्थों द्वारा लदा रहता है।[13] ग्रह के भीतर के मौजूदा मॉडल, लगभग १७९४ ± ६५ कि॰मी॰ त्रिज्या में एक कोर क्षेत्र दर्शातें है, जो मुख्य रूप से लौह और १६-१७ % सल्फर युक्त निकल से बना है।[14] यह लौह सल्फाइड कोर आंशिक रूप से तरल पदार्थ है और इसके हल्के तत्वों का सांद्रण पृथ्वी के कोर पर मौजूद तत्वों से दुगुना है। कोर एक सिलिकेट मेंटल से घिरा हुआ है जिसने ग्रह पर कई विवर्तनिक और ज्वालामुखीय आकृतियों को रचा है, लेकिन अब निष्क्रिय हो गया लगता है। सिलिकॉन और ऑक्सीजन के अलावा, मंगल की पर्पटी में बहुतायत में पाए जाने वाले तत्व लोहा, मैग्नेशियम, एल्युमिनियम, कैल्सियम और पोटेशियम है। १२५ कि॰मी॰ की अधिकतम मोटाई के साथ, ग्रह की पर्पटी की औसत मोटाई लगभग ५० कि॰मी॰ है।[15] दोनों ग्रहों के आकार के सापेक्ष, पृथ्वी पर्पटी का औसत ४० कि॰मी॰ है, जो मंगल पर्पटी की मोटाई का केवल एक तिहाई है। यद्यपि मंगल ग्रह पर वर्तमान ढांचागत वैश्विक चुंबकीय क्षेत्र के कोई सबूत नहीं है,[16] अवलोकन दर्शाते है कि ग्रह के भूपटल के कुछ हिस्से चुम्बकित किये गए है और इसके द्विध्रुव क्षेत्र का यह क्रमिक ध्रुवीकरण उलटाव अतीत में पाया गया है। चुम्बकीय अध्ययन से प्राप्त चुंबकीयकृत अतिसंवेदनशील खनिजों के गुण, काफी हद तक पृथ्वी के समुद्र तल पर पाए जाने वाली क्रमिक पट्टियों के समान है। एक सिद्धांत, १९९९ में प्रकाशित हुआ और अक्टूबर २००५ में फिर से जांचा गया (मार्स ग्लोबल सर्वेयर की मदद के साथ), वह यह है कि यह पट्टियां चार अरब वर्षों पहले के मंगल ग्रह पर प्लेट विवर्तनिकी प्रदर्शित करती है, इससे पहले ग्रहीय चुम्बकीय तंत्र ने कार्य करना बंद कर दिया और इस ग्रह का चुम्बकीय क्षेत्र मुरझा गया।[17] सौर प्रणाली निर्माण के दौरान, मंगल की रचना एक प्रसंभाव्य प्रक्रिया के परिणामस्वरूप हुई थी। सौर प्रणाली में अपनी स्थिति की वजह से मंगल की कई विशिष्ट रासायनिक विशेषताएं है। अपेक्षाकृत निम्न क्वथनांक बिन्दुओं के साथ के तत्व, जैसे क्लोरीन, फास्फोरस और सल्फर, मंगल ग्रह पर पृथ्वी की तुलना में अधिक आम हैं; यह तत्व संभाव्यतया नवीकृत तारों की उर्जायुक्त सौर वायु द्वारा सूर्य के नजदीकी क्षेत्रों से हटा दिए गए थे।[18] ग्रहों के गठन के बाद, सभी तथाकथित ' 'आदि भीषण बमबारी' ' (LHB) के अधीन रहे थे। मंगल की लगभग ६०% सतह उस युग से आघातों का एक रिकार्ड दर्शाता है,[19][20][21] जबकि शेष सतह का ज्यादातर हिस्सा शायद उन घटनाओं की वजह से बनी अत्याघात घाटियों द्वारा नीचे कर दिया गया है। मंगल के उत्तरी गोलार्द्ध में एक भारी संघात घाटी का प्रमाण है, जो १०,६०० कि॰मी॰ गुणा ८,५०० कि॰मी॰ में फैली, या करीबन चंद्रमा की दक्षिण ध्रुव—ऐटकेन घाटी से चार गुना बड़ी, अब तक की खोजी गई सबसे बड़ी संघात घाटी है।[22][23] यह सिद्धांत सुझाव देता है कि लगभग चार अरब वर्ष पहले मंगल ग्रह प्लूटो आकार के पिंड द्वारा मारा गया था। यह घटना, मंगल का अर्धगोलार्ध विरोधाभास, का कारण मानी जाती है, जिसने सपाट बोरेलिस घाटी रची जो कि ग्रह का ४०% हिस्सा समाविष्ट करती है।[24][25] मंगल ग्रह के भूवैज्ञानिक इतिहास को कई अवधियों में विभाजित किया जा सकता है, लेकिन निम्नलिखित तीन प्राथमिक अवधियां हैं:[26][27] नोएचियन काल (नोएचिस टेरा पर से नामित), आज से ४.५ अरब वर्ष पूर्व से लेकर ३.५ अरब वर्ष पूर्व तक की एक अवधि है, इसके दरम्यान मंगल ग्रह के सबसे पुराने मौजूदा सतहों का गठन हुआ था। नोएचियन आयु की सतहें कई बड़े संघात क्रेटरों द्वारा दिए जख्मों से दागदार है। थर्सिस उभार, एक ज्वालामुखीय उच्चभूमि है, जो तरल पानी द्वारा व्यापक बाढ़ के साथ, इस काल के दौरान बनी गई समझी जाती है। हेस्पेरियन काल (हेस्पेरिया प्लैनम पर से नामित), ३.५ अरब वर्ष पूर्व से लेकर २.९—३.३ अरब वर्ष पूर्व तक की अवधि है, यह काल व्यापक लावा मैदानों के गठन द्वारा चिह्नित है। अमेजोनियन काल (अमेजोनिस प्लेनिसिया पर से नामित), २.९—३.३ अरब वर्ष पूर्व से वर्तमान तक की अवधि है, अमेजोनियन क्षेत्रों के कुछ उल्का संघात क्रेटर है, लेकिन अन्यथा काफी विविध है। ओलम्पस मोन्स इसी अवधि के दौरान बना था। कुछ भूवैज्ञानिक गतिविधि अभी भी मंगल पर जारी है, अथाबास्का वैलेस पत्तर-सदृश्य लावा प्रवाहों के लिए लगभग २ अरब वर्ष पूर्व तक का बसेरा है।[29] १९ फ़रवरी २००८ की मंगल टोही परिक्रमा यान की तस्वीरें ७०० मीटर ऊंची चट्टान से एक हिमस्खलन का प्रमाण दर्शाती है।[30] मृदा फीनिक्स लैंडर के वापसी आंकड़े मंगल की मिट्टी को थोड़ा क्षारीय होना दर्शा रही है तथा मैग्नीशियम, सोडियम, पोटेशियम और क्लोराइड जैसे तत्वों को सम्मिलित करती है। यह पोषक तत्व पृथ्वी पर हरियाली में पाए जाते हैं एवं पौधों के विकास के लिए आवश्यक हैं।[31] लैंडर द्वारा प्रदर्शित प्रयोगों ने दर्शाया है कि मंगल की मिट्टी की एक ८.३ की क्षारीय pH है तथा लवण परक्लोरेट के अंश सम्मिलित कर सकते है।[32][33] धारियाँ मंगल ग्रह भर में आम हैं एवं मांदों, घाटियों और क्रेटरों की खड़ी ढलानों पर अनेकों नई अक्सर दिखाई देती हैं। यह धारियाँ पहले स्याह होती है और उम्र के साथ हल्की होती जाती है। कभी कभी धारियाँ एक छोटे से क्षेत्र में शुरू होती हैं जो फिर सैकड़ों मीटरों तक बाहर फैलती जाती है। वे पत्थरों के किनारों और अपने रास्ते में अन्य बाधाओं का अनुसरण करते भी देखी गई है। सामान्य रूप से स्वीकार किये सिद्धांत इन बातों को शामिल करते है कि वे मिटटी की सतहों में गहरी अंतर्निहित रही है जो उज्ज्वल धूल के भूस्खलनों के बाद प्रकट हुई।[34] कई स्पष्टीकरण सामने रख दिए गए, जिनमें से कुछ पानी या जीवों की वृद्धि भी शामिल करते है।[35][36] जलविज्ञान निम्न वायुमंडलीय दाब के कारण मंगल की सतह पर तरल जल मौजूद नहीं है,निम्न उच्चतांशों पर अल्प काल के आलावा।[37][38] दो ध्रुवीय बर्फीली चोटियां मोटे तौर पर जल से बनी हुई नजर आती हैं। दक्षिण ध्रुवीय बर्फीली चोटी में जलीय बर्फ की मात्रा, अगर पिघल जाये, तो इतनी पर्याप्त है कि समूची ग्रहीय सतह को ११ मीटर गहरे तक ढँक देगा।[39] जलीय बर्फ की विशाल मात्रा मंगल के मोटे क्रायोस्फेयर के नीचे फंसी हुई होना मानी गयी हैं। मार्स एक्सप्रेस और मंगल टोही परिक्रमा यान से प्रेषित रडार आंकड़े दोनों ध्रुवों (जुलाई 2005)[40][41] और मध्य अक्षांशों (नवंबर 2008) पर जलीय बर्फ की बड़ी मात्रा दर्शाते है।[42] ३१ जुलाई २००८ को फीनिक्स लैंडर ने मंगल की उथली मिट्टी में जलीय बर्फ की सीधी जांच की।[43] मंगल की दृश्य भूरचनाएँ दृढ़ता से बताती है कि इस ग्रह की सतह पर कम से कम किसी समय तरल जल विद्यमान रहा है। ध्रुवीय टोपियां मंगल की दो स्थायी ध्रुवीय बर्फ टोपियां है। ध्रुव की सर्दियों के दौरान, यह लगातार अंधेरे में रहती है, सतह को जमा देती है और CO2 बर्फ (शुष्क बर्फ) की परतों में से वायुमंडल के २५-३० % के निक्षेपण का कारण होती है।[44] जब ध्रुव फिर से सूर्य प्रकाश से उजागर होते है, जमी हुई CO2 का उर्ध्वपातन होता है, जबरदस्त हवाओं का निर्माण होता है जो ध्रुवों को ४०० कि॰मी॰/घंटे की रफ़्तार से झाड़ देती है। ये मौसमी कार्रवाईयां बड़ी मात्रा में धूल और जल वाष्प का परिवहन करती है, जो पृथ्वी की तरह तुषार और बड़े बादलों को जन्म देती है। २००४ में ओपोर्च्युनिटी द्वारा जल-बर्फ के बादलों का छायांकन किया गया था। [45] दोनों ध्रुवों पर ध्रुवीय टोपियां मुख्यतः जल-बर्फ की बनी है। जमी हुई कार्बन डाइऑक्साइड केवल उत्तरी सर्दियों में उत्तर टोपी पर लगभग एक मीटर की एक अपेक्षाकृत मोटी परत के रूप में इकट्ठी होती है, जबकि दक्षिण टोपी लगभग आठ मीटर की मोटी शुष्क बर्फ से स्थायी रूप से ढंकी होती है।[46] मंगल की उत्तरी गर्मियों के दौरान उत्तरी ध्रुवीय टोपी का व्यास १.००० कि॰मी॰ के करीब होता है,[47] और लगभग १६ लाख घन कि॰मी॰ की बर्फ शामिल करती है, जो अगर टोपी पर समान रूप से फैल जाए तो २ कि॰मी॰ की मोटी होगी[48] (यह ग्रीनलैंड बर्फ चादर की २८.५ लाख घन कि॰मी॰ की मात्रा के तुल्य है), दक्षिणी ध्रुवीय टोपी का व्यास ३५० कि॰मी॰ और मोटाई ३ कि॰मी॰ है।[49] दक्षिण ध्रुवीय टोपी और समीपवर्ती स्तरित निक्षेपों में बर्फ की कुल मात्रा का अनुमान १६ लाख घन कि॰मी॰ का लगाया गया है।[50] दोनों ध्रुवीय टोपियां सर्पिल गर्ते प्रदर्शित करती हैं, जिसे हाल के बर्फ भेदन रडार शरद (मंगल का उथला रडार ध्वनी यंत्र (SHARAD)) के विश्लेषण ने दिखाया है, यह अधोगामी हवाओं का एक परिणाम हैं और कोरिओलिस प्रभाव (Coriolis Effect) के कारण सर्पिल हैं।[51][52] दक्षिणी बर्फ टोपी के पास के कुछ इलाकों के मौसमी तुषाराच्छादन का परिणाम, जमीन के ऊपर शुष्क बर्फ की १ मीटर मोटी पारदर्शी परत के निर्माण के रूप में होता है। बसंत के आगमन के साथ, धूप उपसतह को तप्त के देती है और वाष्पीकृत CO2 परत के नीचे से दबाव बनाती है, ऊपर उठती है और अंततः इसको तोड़ देती है। यह प्रक्रिया काली बेसाल्टी रेत या धूल के साथ मिश्रित CO2 के गीजर-सदृश्य विष्फोट का नेतृत्व करती है। यह प्रक्रिया तेज होती है, कुछ दिनों, सप्ताहों या महीनों के लिए अंतरिक्ष में घटित होते देखी गई है, बल्कि भूविज्ञान में असामान्य परिवर्तन की एक दर है—विशेष रूप से मंगल के लिए। गीजर के स्थान पर परत के नीचे की गैस तेजी से दौड़ती है जो बर्फ के अन्दर त्रिज्यीय वाहिकाओं की एक मकड़ी जैसी आकृति को तराशती है।[53][54][55][56] नासा ने खोज द्वारा में पाया की मंगल ग्रह पर पानी पाया जाता है। भूगोल हालांकि जोहान हेनरिच मैडलर और विलहेम बियर को चंद्रमा के मानचित्रण के लिए बेहतर ढंग से याद किया जाता है, जो कि पहले "हवाई फोटोग्राफर" थे। मंगल की अधिकतर सतही आकृतियां स्थायी थी, उन्होंने इसकी नींव रखना शुरू किया और ग्रह की घूर्णन अवधि का और बारीकी से निर्धारण किया। १८४० में, मैडलर ने दस वर्षों के संयुक्त अवलोकनों के बाद मंगल का पहला नक्शा खींचा। मैडलर और बियर ने विभिन्न स्थलाकृतियों को नाम देने की बजाय उन्हें सरलता से अक्षरों के साथ निर्दिष्ट किया; इस प्रकार मेरिडियन खाड़ी (सिनस मेरिडियन) थी आकृति "a"।[57] आज, मंगल की आकृतियों के नाम विविध स्रोतों पर से रखे गए है। एल्बिडो आकृतियां शास्त्रीय पौराणिक कथाओं पर से नामित है। ६० कि॰मी॰ (३७ मिल) से बड़े क्रेटर, दिवंगत वैज्ञानिकों या लेखकों या अन्य जिन्होंने मंगल के अध्ययन के लिए योगदान दिया है, पर से नामित है। ६० कि॰मी॰ से छोटे क्रेटरों के नाम विश्व के उन शहरों और गाँवों पर से है जिनकी आबादी एक लाख से कम है। बड़ी घाटियों के नाम विभिन्न भाषाओं में सितारों के नाम पर से और इसी तरह छोटी घाटियों के नाम नदियों पर से है।[58] बड़ी एल्बिडो आकृतियों को अनेक पुराने नामों पर ही रहने दिया गया है, लेकिन प्रायः आकृतियों की प्रकृति की नई जानकारी के हिसाब से इन्हें हटाकर इनका नवीकरण कर दिया जाता है। उदाहरण के लिए, निक्स ओलाम्पिका ("ओलम्पस की बर्फ") हो गया ओलम्पस मोन्स (माउंट ओलम्पस)।[59] मंगल की सतह को भिन्न एल्बिडो के साथ दो प्रकार के क्षेत्रों में विभाजित किया गया है (जिस रूप में इसे पृथ्वी से देखा गया)। रक्तिम लौह आक्साइड से समृद्ध बालू और धूल से आच्छादित मैदानों को अरेबिया टेरा (अरब की भूमि) या अमेज़ोनिस प्लेनेसिया (अमेज़न का मैदान) नाम दिया गया। इन मैदानों को कभी मंगल के 'महाद्वीपों' के जैसा समझा जाता था। श्याम आकृतियों को समुद्र होना समझा जाता था, इसलिए उनके नाम मेयर एरीथ्रेयम, मेयर सिरेनम और औरोरा सिनस है। पृथ्वी पर से देखी गई सबसे बड़ी श्याम आकृति सायर्टिस मेजर प्लैनम है।[60] स्थायी उत्तरी ध्रुवीय बर्फ टोपी प्लैनम बोरेयम के नाम पर है, जबकि दक्षिणी टोपी को प्लैनम ऑस्ट्राले कहा जाता है। मंगल का विषुववृत्त इसके घूर्णन द्वारा परिभाषित है, लेकिन इसकी प्रमुख मध्याह्न रेखा को एक मनमाने बिंदु के चुनाव द्वारा निर्धारित किया गया था, ठीक उसी तरह जैसे पृथ्वी का ग्रीनविच; मैडलर और बियर ने १८३० में मंगल के अपने पहले नक्शे के लिए एक रेखा का चयन किया था। १९७२ में अंतरिक्ष यान मेरिनर ९ की पहुँच ने मंगल के व्यापक चित्रण प्रदान किये, उसके बाद सिनस मेरिडियन ("मध्य खाड़ी" या "मेरिडियन खाड़ी") में स्थित एक छोटे से क्रेटर (अब आइरी-शून्य कहा जाता है) को मूल चुनाव के साथ मेल के लिए ०.०° देशांतर की परिभाषा के लिए चुना गया था।[61] चूँकि मंगल पर महासागर नहीं है, इसलिए कोई 'समुद्र स्तर' भी नहीं है और एक शून्य-उन्नतांश सतह को संदर्भ के स्तर के रूप में भी चयनित किया जाना था; इसे मंगल का एरोइड (areoid) भी कहा जाता है,[62] ठीक स्थलीय जियोइड (Geoid) के अनुरूप। शून्य उच्चतांश को उस उंचाई द्वारा परिभाषित किया गया है जहां पर ६१०.५ पास्कल (६.१०५ मिलीबार) का वायुमंडलीय दबाव है।[63] यह दबाव जल के त्रिगुण बिंदु से मेल खाता है और पृथ्वी पर समुद्र स्तर के सतही दबाव (०.००६ एटीएम) का लगभग ०.६% है।[64] अभ्यास में, आज इस सतह को सीधे उपग्रह गुरुत्वाकर्षण मापों से परिभाषित किया गया है। चतुष्कोणों का नक्शा मंगल ग्रह की तस्वीरों के निम्न नक्शे संयुक्त राज्य भूगर्भ सर्वेक्षण द्वारा परिभाषित 30 चतुष्कोणों में विभाजित है।[65][66] यह चतुष्कोण "मंगल ग्रह चार्ट" के लिए उपसर्ग "MC" के साथ क्रमांकित हैं।[67] चतुष्कोण पर क्लिक करें और आप इसी लेख के पृष्ठों पर ले जाए जाएंगे। उत्तर दिशा शीर्ष पर है, भूमध्य रेखा के एकदम बांये है। नक्शों की तस्वीरें मार्स ग्लोबल सर्वेयर द्वारा ली गई थी। आघात स्थलाकृति मंगल ग्रह की द्विभाजन स्थलाकृति असाधारण है: उत्तरी मैदान लावा प्रवाहों द्वारा चपटे है, इसके विपरीत दक्षिणी उच्चभूमि, गड्ढों और प्राचीन आघातों द्वारा दागदार है। २००८ के अनुसंधान ने १९८० की अभिधारणा में प्रस्तावित एक सिद्धांत कि, चार अरब वर्ष पहले, चन्द्रमा के आकार के एक-दहाई से दो-तिहाई की एक चीज ने मंगल ग्रह के उत्तरी गोलार्द्ध को दे मारा था, के सम्बन्ध में साक्ष्य प्रस्तुत किया। यदि मान्य है, इसने मंगल के उत्तरी गोलार्द्ध को बनाया होगा, यह स्थल एक अघात से बना १०,६०० कि॰मी॰ लंबा और ८,५०० कि॰मी॰ चौड़ा गड्ढा है, जो मोटे तौर पर यूरोप, एशिया और आस्र्टेलिया के संयुक्त क्षेत्रफल जितना है, आश्चर्यजनक रूप से दक्षिण ध्रुव-ऐटकेन घाटी आघात गढ्ढे के रूप में सौरमंडल में सबसे बड़ी है।[22][23] मंगल अनेक संख्या के आघात गड्ढो के जख्मों से अटा पड़ा है, ५ कि॰मी॰ या इससे अधिक व्यास के कुल ४३,००० गड्ढे पाए गए है।[68] निश्चित ही इनमे से सबसे बड़ा है हेलास आघात घाटी, एक फीकी धवल आकृति जो पृथ्वी से नजर आती है।[69] मंगल के अपेक्षाकृत छोटे द्रव्यमान के कारण इस ग्रह के साथ किसी वस्तु के टकराने की संभावना पृथ्वी की तुलना में आधी है। मंगल की स्थिति क्षुद्रग्रह पट्टे के करीब है, इसीलिए उस स्रोत से मलबे द्वारा प्रहार होने की संभावना की वृद्धि हुई है। मंगल पर इसी तरह के प्रहार होने की संभावना उन लघु-अवधि धूमकेतुओं के द्वारा और अधिक है, जो कि बृहस्पति की कक्षा के भीतर मौजूद है।[70] इन सबके बावजूद, मंगल पर अब तक चंद्रमा की तुलना में कम गड्ढे हैं क्योंकि मंगल का वायुमंडल छोटी उल्काओं के प्रहार खिलाफ ग्रह को संरक्षण प्रदान करता है। कुछ गड्ढो की आकारिकी ऐसी है कि वह उल्का प्रहार हो जाने के बाद जमीन में नमी होने का सुझाव देती है।[71] विवर्तनिक स्थल ओलम्पस मोन्स (ओलम्पस पर्वत), एक २७ कि॰मी॰ का ढाल ज्वालामुखी है जो सौरमंडल में सबसे बड़ा ज्ञात पर्वत है।[72] यह विशाल उच्चभूमि क्षेत्र थर्सिस (Tharsis) में एक विलुप्त ज्वालामुखी है, जो अन्य कई बड़े जवालामुखीयों को शामिल करता है। ओलम्पस मोन्स, ८.८ कि॰मी॰ ऊँचे माउंट एवरेस्ट से तीन गुना से भी ज्यादा उंचा है।[73] एक बड़ी घाटी, वैल्स मेरिनेरिस की लम्बाई ४,००० कि॰मी॰ और गहराई ७ कि॰मी॰ तक है। वैल्स मेरिनेरिस की लंबाई यूरोप की लंबाई के बराबर है तथा यह आरपार मंगल की परिधि के पांचवें भाग जितना फैला हुआ है। तुलना के लिए, पृथ्वी पर ग्रांड घाटी मात्र ४४६ कि॰मी॰ लम्बी और करीबन २ कि॰मी॰ गहरी है। वैल्स मेरिनेरिस, थर्सिस क्षेत्र के फुलाव की वजह से बना था जो वाल्लेस मेरिनेरिस के क्षेत्र में पर्पटी के पतन का कारण है। एक और बड़ी घाटी मा'अडिम वैलिस (हिब्रू में मंगल ग्रह के लिए मा'अडिम शब्द है) है। यह ७०० किमी लंबी और फिर से कुछ स्थानों में २० किमी की चौड़ाई और २ किमी की गहराई के साथ ग्रांड घाटी से बहुत बड़ी है। इसकी संभावना है कि मा'अडिम वैलिस पूर्व में तरल पानी से जलमग्न थी।[74] गुफाएं नासा के मार्स ओडिसी यान ने अपने तापीय उत्सर्जन छविअंकन प्रणाली (THEMIS) से प्राप्त छवियों की सहायता से अर्सिया मॉन्स ज्वालामुखी के किनारे पर गुफा के सात संभावित प्रवेश द्वारों का पता लगाया है।[75] इन गुफाओं के नाम उनके खोजकर्ता के प्रियजनों पर रखे गए है, सामूहिक तौर पर इन्हें ' 'सात बहनों' ' के रूप में जाना जाता है।[76] गुफा के मुहाने की चौड़ाई १०० मीटर से २५२ मीटर तक मापी गई है और इसकी गहराई ७३ मीटर से ९६ मीटर तक होना मानी गयी है। चूँकि अधिकाँश गुफाओं की फर्श तक रोशनी पहुँच नहीं पाती है, यह संभावना है कि वे इन कम अनुमान की तुलना से विस्तार में कहीं ज्यादा गहरी और सतह के नीचे चौड़ी हो। ' ' डेना' ' एकमात्र अपवाद है, इसका तल दृश्यमान है और गहराई १३० मीटर मापी गई थी। इन कंदराओं के भीतरी भाग, सूक्ष्म उल्कापात, पराबैगनी विकिरण, सौर ज्वालाओं और उच्च ऊर्जा कणों से संरक्षित रहे हो सकते है जो ग्रह की सतह पर बमबारी करते है।[77] वायुमंडल मंगल ने अपना मेग्नेटोस्फेयर ४ अरब वर्ष पहले खो दिया है,[78] इसीलिए सौर वायु मंगल के आयनमंडल के साथ सीधे संपर्क करती है, जिससे उपरी परत से परमाणुओं के बिखरकर दूर होने से वायुमंडलीय सघनता कम हो रही है। मार्स ग्लोबल सर्वेयर और मार्स एक्सप्रेस दोनों ने इस आयानित वायुमंडलीय कणों का पता लगाया है जो अंतरिक्ष में मंगल के पीछे फ़ैल रहे हैं।[78][79] पृथ्वी की तुलना में, मंगल ग्रह का वातावरण काफी विरल है। सतही स्तर पर ६०० Pa (०.६० kPa) के औसत दबाव के साथ, सतह पर वायुमंडलीय दाब का विस्तार, ओलम्पस मोन्स पर ३० Pa (०.०३० kPa) निम्न से हेल्लास प्लेनिसिया में १,१५५ Pa (१ .१५५ kPa) के ऊपर तक है।[80] अपने सबसे मोटाई पर मंगल का सतही दबाव, पृथ्वी की सतह से ३५ कि॰मी॰ ऊपर पाए जाने वाले दबाव के बराबर है।[81] यह पृथ्वी के सतही दबाव से १% कम है (१०१.३ kPa)। वायुमंडल का स्केल हाईट लगभग १०.८ कि॰मी॰ है,[82] जो कि पृथ्वी पर से (६ कि॰मी॰) उंचा है क्योंकि मंगल का सतही गुरुत्व पृथ्वी के सतही गुरुत्व से केवल ३८% है, इस प्रभाव की भरपाई मंगल के वातावरण के ५०% से अधिक औसत आणविक भार और कम तापमान द्वारा की जाती है। मंगल का वायुमंडल ९५% कार्बन डाइऑक्साइड, ३% नाइट्रोजन, १.६% आर्गन से बना हैं और ऑक्सीजन और पानी के निशान शामिल हैं।[6] वातावरण काफी धूल युक्त है, जो मंगल के आसमान को एक गहरा पीला रंग देता है जैसा सतह से देखा गया।[83] मंगल के वातावरण में मीथेन का पता ३० पीपीबी की मोल भिन्नता के साथ लगाया गया है;[84][85] यह विस्तारित पंखों में पाई जाती है और रूपरेखा बताती है कि मीथेन असतत क्षेत्रों से जारी की गई थी। उत्तरी मध्य ग्रीष्म में, प्रधान पंख १९,००० मीट्रिक टन मीथेन शामिल करती है, ०.६ किलोग्राम प्रति सेकंड की एक शक्तिशाली स्रोत के साथ।[86][87] रूपरेखा सुझाव देती है कि वहां दो स्थानीय स्रोत क्षेत्र हो सकते है, पहला ३०° उत्तर,२६०° पश्चिम के नजदीकी केंद्र और दूसरा ०°, ३१०° पश्चिम के नजदीक।[86] यह अनुमान है कि मंगल २७० टन / वर्ष मीथेन उत्पादित करता है।[86][88] गर्भित मीथेन के विनाश का जीवनकाल लम्बे से लंबा ४ पृथ्वी वर्ष और छोटे से छोटा ०.६ पृथ्वी वर्ष हो सकता है।[86][89] ज्वालामुखी गतिविधि, धूमकेतु संघातों और मीथेन पैदा करने वाले सूक्ष्मजीवी जीवन रूपों की उपस्थिति, संभव स्रोतों के बीच हैं। मीथेन एक गैर-जैविक प्रक्रिया द्वारा भी पैदा हो सकी है जिसे सर्पेंटाइनीजेसन कहा जाता है, जो पानी, कार्बन डाईआक्साइड और उस ओलिविन खनिज को शामिल करता है, जिसे मंगल पर आम होना माना जाता है।[90] जलवायु सौरमंडल के सभी ग्रहों में, समान घूर्णन अक्षीय झुकाव के कारण मंगल और पृथ्वी पर ऋतुएँ ज्यादातर एक जैसी है। मंगल के ऋतुओं की लम्बाइयां पृथ्वी की अपेक्षा लगभग दोगुनी है, सूर्य से अपेक्षाकृत अधिक से अधिक दूर होने से मंगल के वर्ष, लगभग दो पृथ्वी-वर्ष लम्बाई जितने आगे हैं। मंगल सतह का तापमान भी विविधतापूर्ण है, ध्रुवीय सर्दियों के दौरान तापमान लगभग −८७° से. (−१२५° फे.) नीचे से लेकर गर्मियों में −५° से. (२३° फे.) ऊँचे तक रहता है।[37] व्यापक तापमान विस्तार, निम्न वायुमंडलीय दाब, निम्न तापीय जड़त्व और पतले वायुमंडल, जो ज्यादा सौर ताप संग्रहित नहीं कर सकता, के कारण है। यह ग्रह पृथ्वी की तुलना में सूर्य से १.५२ गुना अधिक दूर भी है, परिणामस्वरूप मात्र ४३% सूर्य प्रकाश की मात्रा ही पहुँच पाती है।[91] यदि मंगल की एक पृथ्वी-सदृश्य कक्षा थी, तो उसकी ऋतुएँ भी पृथ्वी-सदृश्य रही होगी क्योंकि दोनों ग्रहों का अक्षीय झुकाव लगभग समान है। तुलनात्मक रूप से मंगल की बड़ी कक्षीय विकेन्द्रता एक महत्वपूर्ण प्रभाव रखती है। मंगल के नजदीक होता है तब दक्षिणी गोलार्द्ध में गर्मी और उत्तर में सर्दी होती है और के नजदीक होता है तब दक्षिणी गोलार्द्ध में सर्दी और उत्तर में गर्मी होती है। परिणामस्वरूप, दक्षिणी गोलार्द्ध में मौसम अधिक चरम और उत्तरी गोलार्द्ध में मौसम मामूली होता है अन्यथा मामला कुछ अलग ही होता। दक्षिण में ग्रीष्म तापमान ३०° से. (८६° फे.) तक पहुँच सकता है जो उत्तर में समतुल्य ग्रीष्म तापमान से ज्यादा तप्त होता है।[92] मंगल पर हमारे सौरमंडल का सबसे बड़ा धूल तूफ़ान है। यह विविधता लिए हो सकता है, छोटे हिस्से पर से लेकर इतना विशाल तूफ़ान कि समूचे ग्रह को ढँक दे। वें तब प्रवृत्त पाए जाते है जब सूर्य के समीप होते है और वैश्विक तापमान के लिए वृद्धि दर्शा गए है।[93] मंगल ग्रह पर पृथ्वी की अपेक्षा गुरुत्वाकर्षण (Gravity) कम है इसे 1/6 मानी जाती है । परिक्रमा एवं घूर्णन मंगल की सूर्य से औसत दूरी लगभग २३ करोड़ कि॰मी॰ (१.५ ख॰इ॰) और कक्षीय अवधि ६८७ (पृथ्वी) दिवस है। मंगल पर सौर दिवस एक पृथ्वी दिवस से मात्र थोड़ा सा लंबा है: २४ घंटे, ३९ मिनट और ३५.२४४ सेकण्ड। एक मंगल वर्ष १.८८०९ पृथ्वी वर्ष के बराबर या १ वर्ष, ३२० दिन और १८.२ घंटे है।[6] मंगल का अक्षीय झुकाव २५.१९ डिग्री है, जो कि पृथ्वी के अक्षीय झुकाव के बराबर है।[6] परिणामस्वरूप, मंगल की ऋतुएँ पृथ्वी के जैसी है, हालांकि मंगल पर ये ऋतुएँ पृथ्वी पर से दोगुनी लम्बी है। वर्त्तमान में मंगल के उत्तरी ध्रुव की स्थिति ड़ेनेब तारे के करीब है। [94] मंगल अपने से मार्च २०१० में गुजरा[95] और अपने से मार्च २०११ में।[96] अगला फरवरी २०१२ में[96] और अगला उपसौर जनवरी २०१३ में होगा।[96] मंगल ग्रह की ०.०९ की एक अपेक्षाकृत स्पष्ट कक्षीय विकेन्द्रता है, सौर प्रणाली के सात अन्य ग्रहों में केवल बुध, अधिक से अधिक विकेन्द्रता दर्शाता है। यह ज्ञात है कि पूर्व में मंगल की कक्षा वर्त्तमान की अपेक्षा अधिक वृत्ताकार थी। १३.५ लाख पृथ्वी वर्ष पहले के एक बिंदु पर मंगल की विकेन्द्रता लगभग ०.००२ थी, जो आज की पृथ्वी से बहुत कम है।[97] मंगल की विकेन्द्रता का चक्र, पृथ्वी के १,००,००० वर्षीय चक्र की तुलना में ९६,००० पृथ्वी वर्ष है।[98] मंगल के विकेन्द्रता का चक्र २२ लाख पृथ्वी वर्ष के साथ बहुत लंबा भी है और यह विकेन्द्रता ग्राफ में ९६,००० वर्षीय चक्र को ढँक देता है। अंतिम ३५,००० वर्षों के लिए मंगल की कक्षा, दूसरे ग्रहों के गुरुत्वाकर्षण प्रभाव के कारण थोड़ी सी और अधिक विकेन्द्रता पाती रही है। पृथ्वी और मंगल ग्रह के बीच की निकटतम दूरी, मामूली घटाव के साथ अगले २५,००० वर्षों के लिए जारी रहेगी।[99] चन्द्रमा मंगल के दो अपेक्षाकृत छोटे प्राकृतिक चन्द्रमा है, फोबोस और डिमोज़, जिसकी कक्षा ग्रह के करीब है। क्षुद्रग्रह पर कब्जा एक ज्यादा समर्थित सिद्धांत है लेकिन इसकी उत्पत्ति अनिश्चित बनी हुई है।[100] दोनों उपग्रह असाफ हाल द्वारा १८७७ में खोजे गए थे और उनके नाम पात्र फोबोस (आतंक / डर) और डिमोज़ (आतंक / भय) पर रखे गए जो, ग्रीक पौराणिक कथाओं में लड़ाई में, उनके पिता युद्ध के देवता एरीस के साथ थे। एरीस रोम के लोगों के लिए मंगल ग्रह के रूप में जाना जाता था।[101][102] मंगल ग्रह की सतह से, फोबोस और डिमोज़ की गतियां हमारे अपने चाँद की अपेक्षा काफी अलग दिखाई देती हैं। फोबोस पश्चिम में उदय होता है, पूर्व में अस्त होता है और मात्र ११ घंटे बाद फिर से उदित होता है। डिमोज़ की बिलकुल थोड़ी सी बाहर समकालिक कक्षा है, अर्थात उसकी कक्षीय अवधि उसकी घूर्णन अवधि से मेल खाती है, आशानुरूप यह पूर्व में उदित होता है लेकिन बहुत धीरे धीरे। डिमोज़ की ३० घंटे की कक्षा के बावजूद, यह पश्चिम में अस्त होने के लिए २.७ दिन लेता है क्योंकि यह मंगल ग्रह की घूर्णन दिशा में साथ साथ घूमते हुए धीरे से डूबता है, उदय के लिए फिर से इसी तरह लंबा समय लेता है।[103] चूँकि फोबोस की कक्षा तुल्यकालिक ऊंचाई से नीचे है, मंगल ग्रह से ज्वारीय बल उसकी कक्षा को धीरे-धीरे छोटी कर रहा हैं (वर्तमान दर: लगभग १.८ मीटर प्रति सदीं)। लगभग ५ करोड़ वर्ष में यह या तो मंगल की सतह में दुर्घटनाग्रस्त हो जाएगा या ग्रह के चारों ओर छल्ले के रूप में टूटकर बिखर जाएगा।[103] दोनों चन्द्रमाओं की उत्पत्ति की अच्छी तरह से समझ नहीं है, निम्न एल्बिडो और कार्बनयुक्त कोंड्राईट संरचना के कारण इसे क्षुद्रग्रह के समान माना जा रहा है, जो हथियाने के सिद्धांत का समर्थन करता है। फोबोस की अस्थिर कक्षा एक अपेक्षाकृत हाल ही में हथियाने की प्रवृत्ति की ओर इंगित प्रतीत होती है। लेकिन दोनों की कक्षाएं वृत्ताकार है, भूमध्य रेखा के बहुत निकट है, जो जबरन छीन लिए गए निकायों के लिए बहुत ही असामान्य है और आवश्यक अधिग्रहण गतिशीलता भी जटिल कर रही हैं। जीवन के लिए खोज हाल की ग्रहीय वासयोग्यता की हमारी समझ उन ग्रहों के पक्ष में है जिनके पास अपनी सतह पर तरल पानी है। ग्रहीय वासयोग्यता, दुनिया को विकसित करने और जीवन को बनाए रखने के लिए ग्रह की एक क्षमता है। प्रायः इसकी मुख्य मांग है कि ग्रह की कक्षा वासयोग्य क्षेत्र के भीतर स्थित हो, जिसके लिए सूर्य वर्तमान में इस दायरे को शुक्र से थोड़े से परे से लेकर लगभग मंगल के अर्ध्य-मुख्य अक्ष तक विस्तारित करता है।[104] सूर्य से निकटता के दौरान मंगल इस क्षेत्र के अन्दर डुबकी लगाता है, परन्तु ग्रह का पतला (निम्न-दाब) वायुमंडल, इन विस्तारित अवधियों से बड़े क्षेत्रों पर विद्यमान तरल पानी की रक्षा करता है। तरल पानी के पूर्व प्रवाह वासयोग्यता के लिए ग्रह की क्षमता को दर्शाता है। हाल के कुछ प्रमाण ने संकेत दिया है कि नियमित स्थलीय जीवन को आधार हेतू मंगल की सतह पर किंचित पानी बहुत ज्यादा लवणीय औए अम्लीय रहा हो सकता है।[105] चुम्बकीय क्षेत्र की कमी और मंगल का अत्यंत पतला वायुमंडल एक चुनौती है: इस ग्रह के पास, अपनी सतह के आरपार मामूली ताप संचरण, सौर वायु के हमले के खिलाफ कमजोर अवरोधक और पानी को तरल रूप में बनाए रखने के लिए अपर्याप्त वायु मंडलीय दाब है। मंगल भी करीब करीब, या शायद पूरी तरह से, भूवैज्ञानिक रूप से मृत है; ज्वालामुखी गतिविधि के अंत ने उपरी तौर पर ग्रह के भीतर और सतह के बीच में रसायनों और खनिजों के पुनर्चक्रण (रीसाइक्लिंग) को बंद कर दिया है।[106] प्रमाण सुझाव देते है कि यह ग्रह जैसा कि आज है कि तुलना में एक समय काफी अधिक रहने योग्य था, परन्तु चाहे जो हो वहां कभी रहे जीवों की मौजूदगी अनजान बनी हुई है। मध्य १९७० के वाइकिंग यान ने अपने संबंधित अवतरण स्थलों पर मंगल की मिट्टी में सूक्ष्मजीवों का पता लगाने के लिए जान-बूज कर परीक्षण किये और परिणाम सकारात्मक रहा, जिसमे पानी और पोषक तत्वों पर से अनावरित CO2 के उत्पादन की एक अस्थायी वृद्धि भी शामिल है। जीवन का यह चिन्ह बाद में कुछ वैज्ञानिकों के द्वारा विवादित रहा था, जिसका परिणाम निरंतर बहस के रूप में हुआ, नासा के वैज्ञानिक गिल्बर्ट लेविन ने जोर देते हुए कहा कि वाइकिंग ने जीवन पाया हो सकता है। आधुनिक ज्ञान के प्रकाश में, जीवन के चरमपसंदी रूपों के वाइकिंग आंकड़ो के एक पुनः विश्लेषण ने सुझाव दिया है कि जीवन के इन रूपों का पता लगाने के लिए वाइकिंग के परीक्षण पर्याप्त परिष्कृत नहीं थे। इस परीक्षण ने एक जीवन रूप (कल्पित) को भी मार डाला है।[107] फीनिक्स मार्स लैंडर द्वारा किए गए परीक्षणों से पता चला है कि मिट्टी की एक बहुत क्षारीय pH है और यह मैग्नीशियम, सोडियम, पोटेशियम और क्लोराइड शामिल करता है।[108] मिट्टी के पोषक तत्व जीवन को आधार देने के लिए समर्थ हो सकते है लेकिन जीवन को अभी भी गहन पराबैंगनी प्रकाश से परिरक्षित करना होगा।[109] जॉनसन स्पेस सेंटर प्रयोगशाला में, उल्का ALH84001 में कुछ आकर्षक आकार पाए गए है, जो मंगल ग्रह से उत्पन्न हुए माने गए है। कुछ वैज्ञानिकों का प्रस्ताव है कि मंगल पर विद्यमान यह ज्यामितीय आकृतियां अश्मिभूत रोगाणुओं की हो सकती है, इससे पहले एक उल्का टक्कर ने इस उल्कापिंड को अंतरिक्ष में विष्फोटित कर दिया था और इसे एक १.५ करोड़-वर्षीय यात्रा पर पृथ्वी के लिए भेज दिया।[110] हाल ही में मार्स ऑर्बिटरों द्वारा मीथेन और फोर्मेल्ड़ेहाईड की छोटी मात्रा का पता लगाया गया और दोनों ने जीवन के लिए संकेत के होने का दावा किया है, उनके अनुसार ये रासायनिक यौगिक मंगल के माहौल में जल्दी से टूट जाएंगे।[111][112] यह दूर से संभव है कि इन यौगिकों के स्थान की भरपाई ज्वालामुखी या भूगर्भीय माध्यम से हो सकती है अर्थात् जैसे कि सर्पेंटाइनीजेसन।[90] अन्वेषण अभियान मंगल ग्रह को पृथ्वी से देखा जा सकता है, पर नवीनतम विस्तृत जानकारी तो अपनी-अपनी कक्षाओं में उसके इर्दगिर्द मंडरा रहे चार सक्रिय यानों से आती है: मार्स ओडिसी, मार्स एक्सप्रेस, मंगल टोही परिक्रमा यान और ओपोर्च्युनिटी रोवर। लोग हाईवीश कार्यक्रम के साथ मंगल के सतह की २५ से.मी. पिक्सेल की तस्वीरों के लिए अनुरोध कर सकते है जो मंगल की कक्षा में एक ५० से.मी. व्यास की दूरबीन का उपयोग करता है। मंगल के लिए पूर्व में दर्जनों अंतरिक्ष यान, जिसमें ऑर्बिटर, लैंडर और रोवर शामिल है, ग्रह के सतह, जलवायु और भूविज्ञान के अध्ययन के लिए सोवियत संघ, संयुक्त राज्य अमेरिका, यूरोप और जापान द्वारा भेजे गए है। २००८ में, पृथ्वी की सतह से मंगल की धरती तक का सामग्री परिवहन मूल्य लगभग ३,०९,००० अमेरिकी डॉलर प्रति किलोग्राम है।[113] वर्तमान अभियान नासा के मार्स ओडिसी यान ने २००१ में मंगल की कक्षा में प्रवेश किया।[114] ओडिसी के गामा रे स्पेक्ट्रोमीटर ने मंगल के उपरी मीटर में महत्वपूर्ण मात्रा की हाइड्रोजन का पता लगाया। ऐसा लगता है कि यह हाइड्रोजन, जल बर्फ के विशाल भंडार में निहित है।[115] यूरोपीय अंतरिक्ष अभिकरण (इसा) का अभियान, मार्स एक्सप्रेस, २००३ में मंगल पर पहुंचा। इसने बीगल २ लैंडर को ढोया, जो अवतरण के दौरान विफल रहा और फरवरी २००४ में इसे लापता घोषित किया गया।[116] २००४ की शुरुआत में प्लेनेटरी फूरियर स्पेक्ट्रोमीटर टीम ने घोषणा की कि इस यान ने मंगल के वायुमंडल में मीथेन का पता लगाया था। इसा ने जून २००६ में औरोरा के खोज की घोषणा की।[117] जनवरी २००४ में, नासा के जुड़वा मंगल अन्वेषण रोवर, स्पिरिट (एमइआर-ए) और ओपोर्च्युनिटी (एमइआर-बी) मंगल की धरती पर उतरे। दोनों को अपने सभी लक्ष्यों से अधिक मिला। अनेकों अति महत्वपूर्ण वैज्ञानिक वापसीयों के बीच यह एक निर्णायक सबूत रहे हैं कि दोनों अवतरण स्थलों पर पूर्व में कुछ समय के लिए तरल पानी मौजूद था। मंगल के धूल बवंडर और हवाई तूफानों ने कई अवसरों पर दोनों रोवरों के सौर पैनलों को साफ किया है और इस प्रकार उनके जीवन काल में वृद्धि हुई है।[118] स्पिरिट रोवर (एमइआर-ए) २०१० तक सक्रिय रहा था, जब तक कि इसने आंकड़े भेजना बंद नहीं कर दिया। १० मार्च २००६ को नासा का मंगल टोही परिक्रमा यान (एमआरओ), एक दो-वर्षीय विज्ञान सर्वेक्षण चलाने के लिए कक्षा में पहुंचा। इस यान ने आगामी लैंडर अभियान के लिए उपयुक्त अवतरण स्थलों को खोजने के लिए मंगल के इलाकों और मौसम का मानचित्रण शुरू किया। ३ मार्च २००८ को वैज्ञानिकों ने बताया, एमआरओ ने ग्रह के उत्तरी ध्रुव के पास एक सक्रिय हिमस्खलन श्रृंखला की पहली छवि बिगाड़ दी।[119] क्युरीआसिटी नामक, मंगल विज्ञान प्रयोगशाला को २६ नवम्बर २०११ को प्रक्षेपित किया और अगस्त २०१२ में मंगल तक पहुंचने की उम्मीद है। ९० मीटर/घंटे के विस्थापन दर के साथ, यह मार्स एक्सप्लोरेशन रोवर्स से बड़ा और अधिक उन्नत है। इसका परिक्षण, रसायन नमूना जांचने वाला एक लेजर शामिल करता है, जो कि १३ मीटर की दूरी पर से चट्टानों की रूपरेखा निकाल लेता है।[120] भूतपूर्व अभियान मंगल ग्रह की पहली सफल उड़ान १४-१५ जुलाई १९६५ को नासा द्वारा भेजी गई मेरिनर ४ थी। १४ नवम्बर १९७१ को मेरिनर ९, पहला अंतरिक्ष यान बना जिसने किसी अन्य ग्रह की परिक्रमा के लिए मंगल के चारों ओर की कक्षा में प्रवेश किया।[121] दो सोवियत यान, २७ नवम्बर १९७१ को मार्स २ और ३ दिसम्बर को मार्स ३, सतह पर सफलतापूर्वक कदम रखने वाली पहली वस्तुएं थी, परन्तु उतरने के चंद सेकंडों के भीतर ही दोनों का संचार बंद हो गया। १९७५ में नासा ने वाइकिंग कार्यक्रम की शुरूआत की, जिसमें दो कक्षीय यान शामिल थे, प्रत्येक में एक एक लैंडर थे और दोनों लैंडर १९७६ में सफलतापूर्वक नीचे उतरे थे। वाइकिंग १ छः वर्ष के लिए और वाइकिंग २ तीन वर्ष के लिए परिचालक बने रहे। वाइकिंग लैंडरों ने मंगल के जीवंत परिदृश्य प्रसारित किये,[122] और इस यान ने सतह को इतनी अच्छी तरह से प्रतिचित्रित किया है कि यह छवियाँ प्रयोग में बनी रहती है। मंगल और उसके चंद्रमाओं के अध्ययन के लिए १९८८ में सोवियत यान फ़ोबस १ और २ मंगल को भेजे गए। फ़ोबस १ ने मंगल के रास्ते पर ही संपर्क खो दिया। जबकि फ़ोबस २ ने सफलतापूर्वक मंगल और फ़ोबस की तस्वीरें खिंची, विफल होने के ठीक पहले इसे फ़ोबस की धरती पर दो लैंडर छोड़ने के लिए तैयार किया गया था।[123] मंगल की ओर रवाना सभी अंतरिक्ष यानों के लगभग दो-तिहाई, अभियान पूरा होने या यहाँ तक कि अपने अभियान के शुरुआत के पहले ही किसी ना किसी तरीके से विफल हो गए। अभियान विफलता के लिए आमतौर पर तकनीकी समस्याओं को जिम्मेदार माना जाता है और योजनाकार प्रौद्योगिकी और अभियान लक्ष्यों का संतुलन करते है।[124] १९९५ के बाद से विफलताओं में शामिल है: मार्स ९६ (१९९६), मार्स क्लाइमेट ऑर्बिटर (१९९९), मार्स पोलार लैंडर (१९९९), डीप स्पेस २ (१९९९), नोजोमी (२००३) और फोबोस-ग्रंट (२०११)। मार्स ऑब्सर्वर यान की १९९२ की विफलता के बाद, १९९७ में नासा के मार्स ग्लोबल सर्वेयर ने मंगल ग्रह की कक्षा हासिल की। यह अभियान एक पूर्ण सफलता थी, २००१ के शुरू में इसने अपना प्राथमिक मानचित्रण मिशन समाप्त कर दिया। अपने तीसरे विस्तारित कार्यक्रम के दौरान नवंबर २००६ में इस यान के साथ संपर्क टूट गया, इसने अंतरिक्ष में ठीक १० परिचालन वर्ष खर्च किये। नासा का मार्स पाथफाइंडर, एक रोबोटिक अन्वेषण वाहन सोजौर्नर ले गया, १९९७ की गर्मियों में यह मंगल पर एरेस वालिस में उतरा और अनेक छवियाँ वापस लाया।[125] नासा का फीनिक्स मार्स लैंडर मंगल के उत्तर ध्रुवीय क्षेत्र पर २५ मई २००८ को पहुंचा।[126] मंगल की मिटटी में खुदाई के लिए इसकी रोबोटिक भुजा का इस्तेमाल किया गया था और २० जून को जल बर्फ की उपस्थिति की पुष्टि की गई।[127][128][128] संपर्क टूटने के पश्चात १० नवम्बर २००८ को इस अभियान का निष्कर्ष निकाला गया।[129] डान अंतरिक्ष यान ने अपने पथ पर वेस्टा और फिर सेरेस की छानबीन के लिए, गुरुत्वाकर्षण की सहायता से फरवरी २००९ में मंगल के लिए उड़ान भरी।[130] भविष्य के अभियान भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) के अध्यक्ष जी. माधवन नायर ने कहा है कि भारत २०१३ तक मंगल के लिए एक अभियान शुरू करेगा। इसरो ने मंगल पर अंतरिक्ष यान भेजने के लिए तैयारी शुरू कर दी है।[131] इस यान को लाल ग्रह के वातावरण के अध्ययन के लिए मंगल की कक्षा में ध्रुवीय उपग्रह प्रक्षेपण यान (पीएसएलवी) की सहायता से भेजा जाएगा। मंगल परिक्रमा यान ग्रह के चारों ओर ५०० x ८०,००० कि॰मी॰ की कक्षा में रखा जाएगा और करीबन २५ किलो के वैज्ञानिक पेलोड को ले जाने का एक प्रावधान होगा।[132] सन् २००८ में नासा ने मंगल के वायुमंडल के बारे में सूचना प्रदान करने के लिए २०१३ के एक रोबोटिक अभियान मावेन की घोषणा की।[133] इसा ने २०१८ में मंगल के लिए अपने पहले रोवर प्रक्षेपण की योजना बनाई, यह एक्सोमार्स रोवर मिट्टी के अन्दर कार्बनिक अणुओं की तलाश में २ मीटर की खुदाई करने में सक्षम होगा।[134] फिनिश-रूसी मेटनेट, एक मिशन अवधारणा है जो मंगल ग्रह पर कई छोटे वाहनों का एक व्यापक अवलोकन नेटवर्क स्थापित करने के लिए ग्रह की वायुमंडलीय संरचना, भौतिकी और मौसम विज्ञान की जांच करेगा।[135] मेटनेट प्रक्षेपण हेतू, पीठ पर सवारी के लिए एक रूसी फोबोस-ग्रन्ट मिशन का विचार किया गया, लेकिन इसे नहीं चुना गया।[136] यह मंगल के एक भविष्य के नेट-मिशन के लिए शामिल किया जा सकता है।[137] मार्स-ग्रन्ट एक अन्य रूसी अभियान अवधारणा है, यह एक मंगल नमूना वापसी अभियान है।[137] इनसाइट (औपचारिक नाम GEMS), मंगल की भीतरी बनावट के अध्ययन और आंतरिक सौर प्रणाली के चट्टानी ग्रहों को आकार देने की प्रक्रियाओं को समझने के लिए, मंगल पर एक भूभौतिकीय लैंडर स्थापना हेतू, नासा के डिस्कवरी कार्यक्रम अंतर्गत प्रस्तावित एक मार्स लैंडर मिशन है।[138] मानव मिशन लक्ष्य इसा को २०३० और २०३५ के बीच मंगल ग्रह पर मानव के कदम पड़ने की उम्मीद है।[139] एक्सोमार्स यान के प्रक्षेपण और नासा-इसा के संयुक्त मंगल नमूना वापसी अभियान के साथ, यह क्रमिक बड़े यानों द्वारा पहले ही हो जाएगा।[140] संयुक्त राज्य अमेरिका द्वारा मानवयुक्त अन्वेषण की पहचान एक अंतरिक्ष अन्वेषण स्वप्न में दीर्घकालिक लक्ष्य के रूप में की गई थी जिसकी घोषणा तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश द्वारा २००४ में की गई थी।[141] ओरियन अंतरिक्ष यान योजना का उपयोग २०२० तक एक मानव अभियान दल भेजने के लिए किया जाएगा जिसमें मंगल अभियान के लिए हमारे चाँद का इस्तेमाल एक कदम रखने के पत्थर के रूप में होगा। २८ सितंबर २००७ को नासा के प्रशासक माइकल डी. ग्रिफिन ने कहा कि नासा का लक्ष्य २०३७ तक मंगल पर मानव को रखना है।[142] मार्स डाइरेक्ट, मंगल सोसायटी के संस्थापक रॉबर्ट ज़ुब्रिन द्वारा प्रस्तावित एक कम-लागत का मानव मिशन है, जिसमे कक्षीय निर्माण, मिलन स्थल और चंद्र ईंधन डिपो को छोड़ने के लिए स्पेस X, फाल्कन X या एरेस V जैसे हेवी लिफ्ट सेटर्न V राकेटों का इस्तेमाल होगा। एक संशोधित प्रस्ताव, अगर कभी हुआ तो, जिसे ' मार्स टू स्टे' कहा जाता है, यह तुरंत वापसी नहीं करने वाले पहले आप्रवासी खोजकर्ता शामिल करता है (देखें: मंगल का उपनिवेशण)।[143] मंगल पर खगोलविज्ञान विभिन्न यानों, लैंडरों और रोवरों की मौजूदगी के साथ, मंगल के आसमान से खगोलविज्ञान का अध्ययन अब संभव है। मंगल का चन्द्रमा फोबोस, जैसा कि पृथ्वी से नजर आता है, पूर्ण चंद्र के कोणीय व्यास का लगभग एक तिहाई दिखाई देता है, जबकि डीमोस इससे और अधिक कम तारों जैसा छोटा दिखाई देता है और पृथ्वी से यह शुक्र से केवल थोड़ा सा ज्यादा उज्जवल दिखाई देता है।[144] पृथ्वी पर अच्छी तरह से जाने जानी वाली अनेकों घटनाएं, जैसे कि उल्कापात और औरोरा इत्यादि, मंगल पर देखी गई है।[117] एक पृथ्वी पारगमन जैसा कि मंगल से नजर आयेगा, १० नवम्बर २०८४ को घटित होगा।[145] मंगल की ओर से बुध पारगमन और शुक्र पारगमन भी होता है, फोबोस और डिमोज चन्द्रमा के छोटे कोणीय व्यास इतने पर्याप्त है कि उसके द्वारा सूर्य का आंशिक ग्रहण एक श्रेष्ठ पारगमन माना गया है (देखे:मंगल से डिमोज पारगमन)।[146][147] प्रदर्शन चूँकि मंगल की कक्षा उत्केंद्रित है, सूर्य से विमुखता पर इसका आभासी परिमाण -३.० से -१.४ तक के परास का हो सकता है। जब यह ग्रह सूर्य के साथ समीपता में होता है इसकी न्यूनतम चमक +१.६ परिमाण की होती है।[148] मंगल आमतौर पर एक विशिष्ट पीला, नारंगी या लाल रंग प्रकट करता है, मंगल का वास्तविक रंग बादामी के करीब है और दिखाई देने वाली लालिमा ग्रह के वायुमंडल में सिर्फ एक धूल है; ऐसा नासा के स्पिरिट रोवर से, नीले-धूसर चट्टानों के साथ हरे-भूरे, मटमैले भूदृश्यों और हल्के लाल रेत के भूखंडों, की ली गई तस्वीरों को देखते हुए माना जाता है।[149] जब यह पृथ्वी से सबसे दूरतम होता है, तो यह पहले से सात गुने से ज्यादा जितना दूर हो जाता है और इतना ही जब सबसे नजदीक होता है। जब न्यूनतम अनुकूल अवस्थिति पर होता है, यह एक समय पर सूर्य की चमक में महीनों के लिए गायब हो सकता है। इसी तरह अधिकतम अनुकूल समयों पर—१५ या १७-वर्षीय अंतराल पर और हमेशा जुलाई के अंत और सितम्बर के अंत के मध्य—मंगल एक दूरबीन से ही विस्तृत सतही समृद्धि प्रदर्शित करता है। विशेष रूप से ध्यान देने योग्य है, ध्रुवीय बर्फ टोपियां, यहाँ तक कि निम्न आवर्धन पर भी।[150] जैसे ही मंगल विमुखता पर पहुंचता है इसकी प्रतिगामी गति की एक अवधि प्रारंभ होती है, इसका अर्थ है, पृष्ठभूमि सितारों के सापेक्ष एक पश्चगामी गति में यह पीछे की ओर खिसकता हुआ नजर आएगा। इस प्रतिगामी गति की अवधि लगभग ७२ दिनों तक के लिए रहती है और मंगल इस अवधि के मध्य में अपनी चमक के शिखर तक पहुँच जाता है।[151] निकटतम पहुँच सापेक्ष भूकेन्द्रीय देशांतर पर मंगल और सूर्य के बिन्दुओं के बीच का १८०° का अंतर, विमुखता के रूप में जाना जाता है, जो पृथ्वी से निकटतम पहुँच के समय से नजदीक है। निकटतम पहुँच से परे विमुखता का समय अधिक से अधिक ८.५ दिन मिल सकता है। दीर्घवृत्तीय कक्षाओं के कारण निकटतम पहुँच से दूरी, लगभग ५.४ करोड़ कि॰मी॰ और लगभग १०.३ करोड़ कि॰मी॰ के बीच विविध हो सकती है, जो कोणीय आकार में तुलनात्मक अंतर के कारण बनती है।[152] अंतिम मंगल विमुखता लगभग १० करोड़ किलोमीटर की दूरी पर ३ मार्च २०१२ को हुई।[153] मंगल की क्रमिक विमुखता के बीच का औसत समय, ७८० दिन, उसका संयुति काल है लेकिन क्रमिक विमुखताओं के दिनांकों के बीच के दिनों की संख्या ७६४ से ८१२ तक के विस्तार की हो सकती है।[154] जैसे ही मंगल विमुखता पर पहुचता है इसकी प्रतिगामी गति की एक अवधि शुरू हो जाती है, जो उसे पृष्ठभूमि सितारों के सापेक्ष एक पश्चगामी गति में पीछे की ओर खिसकता हुआ दिखाई देता है। इस प्रतिगामी गति की समयावधि लगभग ७२ घंटे है। निरपेक्ष, वर्तमान समय के आसपास मंगल ने नजदीकी ६०,००० वर्षों में, पृथ्वी से अपनी निकटतम पहुँच और अधिकतम स्पष्ट उज्जवलता, क्रमशः ५५,७५८ कि॰मी॰ (०.३७२७१९ ख॰इ॰), -२.८८ परिमाण, २७ अगस्त २००३ को ९:५१:१३ बजे (UT) बनाई है। यह तब पायी जब मंगल वियुति से एक दिन और अपने से तीन दिन दूर था, जो मंगल को विशेषरूप से पृथ्वी से आसानी से देखने लायक बनाता है। पिछली बार यह इतना पास अनुमानतः १२ सितंबर ५७,६१७ ई.पू. को आया था और अगली बार २२८७ में होगा।[155] यह रिकॉर्ड पहुँच हाल की अन्य नजदीकी पहुँचों से केवल थोड़ी बहुत करीब थी। उदाहरण के लिए, २२ अगस्त १९२४ को न्यूनतम दूरी ०.३७२८५ ख॰इ॰ थी और २४ अगस्त,२२०८ को न्यूनतम दूरी ०.३७२७९ ख॰इ॰ होगी।[98] ऐतिहासिक अवलोकन मंगल के अवलोकनों का इतिहास मंगल की विमुखता के द्वारा चिह्नित है, तब यह ग्रह पृथ्वी से सबसे करीब होता है और इसलिए बहुत ही आसानी से दिखाई देता है, यह स्थिति प्रत्येक दो वर्षों में पायी जाती है। इससे भी अधिक उल्लेखनीय मंगल की भू-समीपक विमुखता, प्रत्येक १५ या १७ वर्षों में पाई जाती है, जो प्रतिष्ठित हो गई क्योंकि तब मंगल सूर्य-समीपक से करीब होता है, जो उसे पृथ्वी से और भी करीब बनाता है। प्राचीन और मध्ययुगीन अवलोकन रात्रि आकाश में एक घुमक्कड़ निकाय के रूप में मंगल की मौजूदगी प्राचीन मिस्र के खगोलविदों द्वारा दर्ज की गई थी। वें १५३४ ईपू से ही ग्रह की प्रतिगामी गति से परिचित थे।[156] नव बेबीलोन साम्राज्य के समय से बेबीलोन खगोलविद ग्रहों की स्थितियों का नियमित दस्तावेज बनाते रहे तथा उनके व्यवहार का व्यवस्थित अवलोकन करते थे। मंगल के लिए वें जानते थे कि इस ग्रह ने प्रत्येक ७९ वर्षों में ३७ संयुति काल या राशि चक्र के ४२ परिपथ बनाएं। उन्होंने ग्रहों की स्थिति के पूर्वानुमानों के लिए मामूली सुधार करने हेतू गणित के तरीकों का भी आविष्कार किया।[157][158] चौथी शताब्दी ईपू में अरस्तू ने गौर किया कि एक ग्रहण के दौरान मंगल ग्रह चंद्रमा के पीछे विस्मृत हो गया है। जो ग्रह के दूर उस पार होने का संकेत था।[159] टॉलेमी, सिकन्दरिया में रहने वाले एक यूनानी,[160] ने मंगल की कक्षीय गति की समस्या का समाधान करने का प्रयास किया। टॉलेमी के मॉडल और खगोल विज्ञान पर उनके सामूहिक कार्य बहु-खंड संग्रह अल्मागेस्ट में प्रस्तुत किये गए थे। जो अगले चौदह शताब्दियों तक के लिए पश्चिमी खगोल विज्ञान पर एक प्रामाणिक ग्रंथ बना रहा।[161] प्राचीन चीन का साहित्य पुष्टि करता है कि चीनी खगोलविदों ने ईपू चौथी शताब्दी से ही मंगल को जान लिया था।[162] पांचवीं शताब्दी में भारतीय खगोलीय ग्रन्थ सूर्य सिद्धांत ने मंगल के व्यास का अनुमान लगाया था।[163] सत्रहवीं सदी के दरम्यान टाइको ब्राहे ने मंगल के दैनिक लंबन की गणना की जिसे योहानेस केप्लर ने ग्रह की सापेक्ष दूरी के प्रारंभिक आकलन के लिए प्रयुक्त किया।[164] जब दूरबीन उपलब्ध बना, मंगल के दैनिक लंबन को सूर्य-पृथ्वी की दूरी निर्धारण के एक प्रयास में एक बार फिर से मापा गया। यह पहली बार १६७२ में गिओवान्नी डोमेनिको कैसिनी द्वारा प्रदर्शित किया गया था। इससे पहले के लंबन माप उपकरणों की गुणवत्ता के द्वारा अवरुद्ध हो गए थे।[165] शुक्र द्वारा मंगल के जिस एक मात्र ग्रहण को अवलोकित किया गया वह १३ अक्टूबर १५९० का था, इसे माइकल माएस्टलिन द्वारा हीडलबर्ग में देखा गया था।[166] १६१० में गैलीलियो गैलीली द्वारा मंगल को देखा गया जो दूरबीन के माध्यम से इसे देखने वाले सर्वप्रथम व्यक्ति थे।[167] प्रथम व्यक्ति जिन्होंने मंगल का एक नक्शा बनाया जो किसी भी भूभाग की विशेषताओं को प्रदर्शित करता था, वह थे डच खगोलशास्त्री क्रिश्चियान हायगेन्स।[168] भारतीय दर्शन भारतीय ज्योतिष में, मंगल (देवनागरी: मंगला, Maṅgala), एक लाल ग्रह अर्थात मंगल ग्रह के लिए नाम है। संस्कृत में मंगल को अंगारका ('जो लाल रंग का हो')[169] या भौम ('भूमि पुत्र') भी कहा जाता है। वह युद्ध के देवता है और अविवाहित है। उन्हें पृथ्वी या भूमि का पुत्र माना जाता है। वह मेष और वृश्चिक राशियों के स्वामी और मनोगत विज्ञान (रुचका महापुरुष योग) के गुरु है। वह लाल या लौ रंग से चित्रांकित है, वें हाथो में चार शस्त्र, एक त्रिशूल, एक गदा, एक पद्म या कमल और एक शूल थामे हुए हैं। उनका वाहन एक भेड़ है। वें 'मंगला-वरम' (मंगलवार) के अधिष्ठाता है।[170] वैश्विक संस्कृति में मंगल का नाम युद्ध के रोमन देवता पर है। विभिन्न संस्कृतियों में, मंगल वास्तव में मर्दानगी और युवाओं का प्रतिनिधित्व करता है। इसके प्रतीक, एक तीर एक चक्र के साथ ऊपरी दाएँ से बाहर की ओर इशारा करते हुए, का उपयोग पुरुष लिंग के लिए भी एक चिन्ह के रूप में हुआ। मंगल को विज्ञान कथा संचार माध्यम में चित्रित किया गया है और एक विषय है बुद्धिमान "मंगल वासी", जो ग्रह पर कौतूहलपूर्ण " चैनलों "और " चेहरों" के लिए जिम्मेदार है। एक अन्य विषय है, मंगल, पृथ्वी की भविष्य की एक बस्ती होगा, या एक मानव अभियान के लिए लक्ष्य होगा। मंगल अन्वेषण यान में अनेक विफलताओं का नतीजा एक व्यंगपूर्ण मुठभेड़-संस्कृति में हुआ, इन विफलताओं का दोष पृथ्वी-मंगल के "बरमूडा त्रिभुज", एक "मंगल अभिशाप", या एक "महान गांगेय पिशाच" पर लगाया जाता है जो मंगल अंतरिक्ष यान को निगल जाता है।[124] इन्हें भी देखें मंगलयान द मार्शियन (फ़िल्म) बाहरी कड़ियाँ (बीबीसी हिन्दी) BBC BBC BBC BBC मेरी कलम दैनिक भास्कर BBC भारत कोश सन्दर्भ श्रेणी:मंगल ग्रह श्रेणी:सौर मंडल के ग्रह श्रेणी:सौर मंडल
सूर्या से मंगल ग्रह की दूरी कितनी है?
लगभग २३ करोड़ कि॰मी॰
22,435
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हरिजन सेवक संघ की स्थापना 30 सितम्बर 1932 को एक अखिल भारतीय संगठन के रूप में हुई थी। पहले इस संगठन का नाम अस्पृश्यता निवारण संघ रखा गया था, जिसे 13 सितम्बर 1933 को हरिजन सेवक संघ नाम दिया गया| इसके प्रथम अध्यक्ष प्रसिद्ध उद्योगपति घनश्यामदास बिड़ला तथा सचिव अमृतलाल विट्ठलदास ठक्कर[1] हुए| संघ का मुख्यालय गाँधी आश्रम, किंग्सवे कैम्प, दिल्ली में है। इसकी शाखाएँ भारत में लगभग सभी राज्यों में हैं। वर्तमान में इसके अध्यक्ष शंकर कुमार सान्याल हैं।[2] इतिहास महात्मा गाँधी ने पुणे की यरवदा जेल में रहते हुए ब्रिटिश सरकार द्वारा दलितों के लिए पृथक निर्वाचन की पद्धति स्वीकृत किये जाने के विरुद्ध 20 सितम्बर 1932 को उपवास शुरू किया|[3] महात्मा गाँधी तथा ब्रिटिश सरकार के बीच हुए पत्र-व्यवहार के प्रकाशित होते ही उनके 20 सितम्बर से उपवास शुरू होने की खबर अख़बारों में आ गयी, जिसकी देशभर में व्यापक प्रतिक्रिया हुई| 15 सितम्बर को बम्बई सरकार को भेजे अपने वक्तव्य में महात्मा गाँधी ने कहा, " उपवास का निर्णय ईश्वर के नाम पर, उसके काम से और जैसा मैं नम्रतापूर्वक मानता हूँ उसके आदेशानुसार किया गया है| इस उपवास का मुख्य हेतु सच्चा धार्मिक कार्य करने के लिए हिन्दूओं की आत्मा को सतेज बनाना है| अस्पृश्य वर्गों का सवाल मुख्यतः धार्मिक होने के करण मै इसे खास अपना प्रश्न मानता हूँ|" एक ओर उस सरकारी निर्णय को बदलने की देशव्यापी माँग सामने आयी तो दूसरी ओर अस्पृश्यता को समाप्त करने की भावना जागृत हुई| इसका हल निकालने के लिए राष्ट्रीय नेताओं की कई बैठकें हुई, जिसका परिणाम यरवदा करार, जिसे पूना पैक्ट भी कहते हैं, के रूप में सामने आया| इस करार पर 24 सितम्बर 1932 को डॉ. भीमराव अम्बेडकर और एम. सी. राजा ने दलितों की ओर से तथा पं. मदन मोहन मालवीय ने सवर्ण हिन्दुओं की ओर से हस्ताक्षर किए| इस समझौते के साथ ही हरिजन सेवक संघ अस्तित्व में आया तथा दलितों को हरिजन जैसा पवित्र नाम मिला|[4] यरवदा करार 24 सितम्बर 1932 को यरवडा जेल में बन्द गांधी के सामने भारत के दलितों की ओर से डॉ भीमराव अम्बेडकर और एम सी राजा द्वारा तथा सवर्ण हिन्दुओं की ओर से मदन मोहन मालवीय ने हस्ताक्षर कर ऐक करार किया जिसके अंतरगत सांप्रदायिक अधिनिर्णय में संशोधन के साथ दलित वर्ग के लिये प्रथक निर्वाचन मंडल को त्याग कर प्रान्तीय विधान मंडलों में 71 के स्थान पर 147 स्थान और केन्द्रीय विधायिका में कुल सीटों की 18 प्रतिशत सीटें दी गयी। तदोपरान्त 26 सितम्बर 1932 को रवीन्द्रनाथ ठाकुर की उपस्थिति में गांधी जी ने यह कहते हुये अपना उपवास तोडा उचित समय के अन्दर अस्पृश्यता निवारण सम्बन्धी सुधार यदि नेकनीयती के साथ न पूरा किया गया तो मुझे निश्चय ही फिर नये सिरे से उपवास करना पडेगा। परन्तु इस विषय पर गांधी जी को पुनः उपवास करने की आवश्यकता नहीं पडी क्योकि चौथे दिन 30 सितंबर 1932 को बम्बई में मदन मोहन मालवीय जी की अध्यक्षता में एक बैठक हुई जिसमें देश के सभी हिन्दू नेताओं ने निश्चय किया कि अस्पृश्यता निवारण के लिए एक अखिल भारतीय अस्पृश्यता विरोधी मंडल एंटी अनटचेनिलिटी लीग स्थापित किया जाय जिनका प्रधान कार्यालय दिल्ली में हो तथा जिसकी शाखायें विभिन्न प्रांतों में स्थापित हों साथ ही जो अस्पृश्यता उन्मूलन के उद्देश्य को पूरा करने के लिए निम्न कार्यक्रम चलाये. - सभी सार्वजनिक कुएँ धर्मशालाओ सड़कों स्कूल शमशान घाट इत्यादि दलित वर्ग के लिए खुले घोषित किये जायें। - सार्वजनिक मंदिर उनके लिए खोल दिए जायँ। - साथ ही उपरोक्त दोनों कार्यों के लिए जोर.जबरदस्ती का प्रयोग न किया जाय बल्कि केवल शान्तिपूर्वक समझाते. बुझाते हुए यह प्रयास किया जाय। इन्ही विनिश्चयन के अनुसार अश्पृश्यता विरोधी मंडल नाम की अखिल भारतीय संस्था बनाई गयी जिसका मूल संविधान महात्मा गांधी ने अपनी हस्तलिपि में तैयार किया। यही संस्था आगे चलकर ष्हरिजन सेवक संघष् कहलाई जिसका मुख्यालय किंग्सवे कैम्प दिल्ली में स्थापित है। इस संघ का प्रथम प्रमुख श्री घनश्यामदास जी बिरला को नियुक्त किया गया तथा इसके पहले मंत्री बने श्री अमृतलाल बिट्टालदास ठक्कर जी ठक्कर बाबा के नाम से जाने जाते हैं। [5] हरिजन शब्द महात्मा गाँधी ने अपने वक्तव्य में हरिजन शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग किया तथा लिखा, " हिन्दुस्तान में जो सबसे सबसे अधिक दुःख में पड़े हुए हैं, उन्हें हरिजन कहना यथार्थ है| हरिजन का अर्थ है, ईश्वर का भक्त, ईश्वर का प्यारा| अपने एक भजन में भक्तकवि नरसी मेहता ने अस्पृश्य भाइयों का उल्लेख हरिजन पद से किया है| इस दृष्टि से अस्पृश्य भाइयों के लिए हरिजन शब्द उपयुक्त है, ऐसा मैं मानता हूँ|" मोरोपंत-ग्रंथावली के सम्पादक-प्रकाशक आर. डी. पराड़कर ने भी मोरोपंत के एक प्रमाणिक पद्य में हरिजन पद को देखा तथा महात्मा गाँधी को बताया| उन्होंने अपनी टिप्पणी में कहा कि नरसी मेहता जैसे ही प्रमाण अन्य संतों की रचनाओं में पाए जाते हैं| हरिजन नाम अस्पृश्य, अंत्यज आदि नामों की घृणाभाव से मुक्त था, इसलिए इस नाम को तुरन्त सामाजिक स्वीकृति भी मिल गई| अध्यक्ष हरिजन सेवक संघ के अध्यक्ष घनश्याम दास बिड़ला सितम्बर 1932 से अप्रैल, 1959 तक रामेश्वरी नेहरुअप्रैल,1959 से नवम्बर , 1965 तक वियोगी हरि नवम्बर 1965 से मई , 1975 तक श्यामलाल जून , 1975 से अक्टूबर , 1978 तक आर. के. यार्डे दिसम्बर , 1978 से अप्रैल, 1983 तक निर्मला देशपाण्डे जून , 1983 से मई , 2008 तक राधाकृष्ण मालवीय मई , 2008 से फरवरी , 2013 तक शंकर कुमार सान्याल। [6] अप्रैल, 2013 से अबतक सचिव हरिजन सेवक संघ के सचिव अमृतलाल बिट्टालदास ठक्कर सितम्बर 1932 से जनवरी , 1951 तक वियोगी हरि जनवरी , 1951 से अप्रैल, 1959 तक के ऐस श्रीवाम अप्रैल,1959 से अप्रैल, 1962 तक जीवन लाल जैरामदास अप्रैल,1962 से अप्रैल, 1973 तक शंकरलाल जोशी अप्रैल,1973 से जुलाई , 1980 तक मानक चन्द कटारिया जून, 1976 से अक्टूबर,1977 तक चितरन्जन देव अक्टूबर, 1980 से जुलाई,1982 तक बसन्तराव ईग्ले मार्च ,1982 से अगस्त, 1983 तक बलराम दास जुलाई , 1983 से अक्टूबर,1985 तक लक्ष्मी दास अगस्त.,1983 से दिसम्बर,1988 तक ऐ अवैयान नवम्बर,1985 से दिसम्बर,1988 तक आनन्दी भाई मई , 1988 से दिसम्बर,1991 तक प्रशान्त मोहन्ती दिसम्बर,1988 से जुलाई ,1991 तक जटा शंकर फरवरी,19 91 से मई ,1993 तक डीऐन बैनर्जी जुलाई ,1992 से जनवरी,1998 तक रमेश भाई जून,1993 से मई ,2008 तक ऐम ऐम जोशी जनवरी . 1998 से अप्रैल,1999 तक ऐन वासुदेवन दिसम्बर, 1999 से जनवरी ,2004 तक हीरापौल गंगनेगी फरवरी, 2004 से ....तक लक्ष्मीदास अगस्त, 2008 से ....तक रजनीश कुमार मई , 2016 से अब तक प्रान्तीय व अन्य इकाइयां हरिजन सेवक संध की महिला संभाग की अध्यक्षा सुश्री उर्मिला श्रीवास्तव है। [7] संपादक श्री लक्ष्मी दास जी द्वारा संघ की पत्रिका हरिजन सेवा का नियमित प्रकाशन किया जाता है। [8] उत्तर प्रदेश राज्य सहित देश के 26 राज्यों में हरिजन सेवक संघ की प्रादेशिक इकाइयां स्थापित हैं। वर्तमान में उत्तर प्रदेश इकाई की अध्यक्षा सुश्री कुसुम जौहरी तथा उपाध्यक्ष अशोक कुमार शुक्ला हैं। उत्तर प्रदेश इकाई का अधिकारिक प्रादेशिक फेसबुक हैन्डिल है।[9] हरिजन सेवक संघ के रचनात्मक कार्यों को व्यापक आयाम देने हेतु विश्व भर के रचनात्मक संगठनों तथा रचनात्मक कार्यकर्त्ताओं से संवाद स्थापित करने के उद्देश्य से 17 जून 2017 को माइक्रो नेटवर्किंग साइट ट्विटर पर हरिजन सेवक संघ का आधिकारिक हैंडल प्रारम्भ हुआ।[10] सन्दर्भ श्रेणी:संगठन श्रेणी:पूना समझौता श्रेणी:यरवदा करार श्रेणी:महात्मा गाँधी द्वारा स्थापित श्रेणी:महात्मा गाँधी
हरिजन सेवक संघ का मुख्यालय कहाँ पर है?
गाँधी आश्रम, किंग्सवे कैम्प, दिल्ली
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राइन नदी (Romansh: Rain; German: Rhein; French: Rhin; Dutch: Rijn) यूरोप के कई देशों से होकर बहने वाली एक नदी है। यह नदी व्यावसाइक दृष्टि से महत्वपूर्ण है और यहाँ से अन्तरराष्ट्रीय व्यापार संचालित होता था। दक्षिणी स्विस आल्प्स और प्रवाह जर्मनी के माध्यम से और नीदरलैंड में उत्तरी सागर में अंत में खाली में ग्रिसंस के स्विस केंटन में शुरू होता है। ह 1,233 किलोमीटर (766 मील) में, यूरोप में बारहवें सबसे लंबी नदी है[1][2] 2,000 से अधिक एम 3 / एस (71,000 घन फुट / एस) के एक औसत के निर्वहन के साथ. राइन और डेन्यूब रोमन साम्राज्य के उत्तरी अंतर्देशीय सीमा से ज्यादातर का गठन किया और उन दिनों के बाद से, राइन गहरी देशी व्यापार और माल ले जाने के लिए एक महत्वपूर्ण और नौगम्य जलमार्ग की गई है। यह भी एक रक्षात्मक सुविधा के रूप में सेवा की है और क्षेत्रीय और अंतर्राष्ट्रीय सीमाओं के लिए आधार दिया गया है। राइन के साथ कई महल और प्रागैतिहासिक किलेबंदी एक जलमार्ग के रूप में इसके महत्व को गवाही. नदी यातायात नदी के उस हिस्से को नियंत्रित किया है कि राज्य द्वारा, आमतौर पर टोल टैक्स एकत्र करने के उद्देश्य के लिए, इन स्थानों पर रोका जा सकता है। यह विश्व की व्यस्त व्यापारिक नदियों में से एक है सन्दर्भ श्रेणी:यूरोप श्रेणी:विश्व की नदियाँ
राइन नदी की लंबाई कितनी है?
1,233 किलोमीटर
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भारतीय वानिकी संस्थान, का एक संस्थान है और भारत में वानिकी शोध के क्षेत्र में एक प्रमुख संस्थान है। यह देहरादून, उत्तराखण्ड में स्थिर है। इसकी स्थापना १९०६ में की गई थी और यह अपने प्रकार के सब्से पुराने संथानों में से एक है। १९९१ में इसे विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा डीम्ड विश्वविद्यालय घोषित कर दिया गया।[2] भारतीय वानिकी संस्थान ४.५ किमी² के क्षेत्रफल में फैला हुआ है, बाहरी हिमालय की निकटता में। मुख्य भवन का वास्तुशिल्प यूनानी-रोमन और औपनिवेशिक शैली में बना हुआ है। यहाँ प्रयोगशालाएँ, एक पुस्तकालय, वनस्पतिय-संग्राह, वनस्पति-वाटिका, मुद्रण - यंत्र और प्रयोगिक मैदानी क्षेत्र हैं जिनपर वानिकी शोध किया जाता है। इसके संग्रहालय, वैज्ञानिक जानकारी के अतिरिक्त, पर्यटकों के लिए आकर्षण भी है। एफ़आरआई और कॉलेज एरिया प्रांगण एक जनगणना क्षेत्र है, उत्तर में देहरादून छावनी और दक्षिण में भारतीय सैन्य अकादमी के बीच। टोंस नदी इसकी पश्चिमी सीमा बनाती है। देहरादून के घण्टाघर से इस संस्थान की दूरी लगभग ७ किमी है।[3] भारतीय वन सेवा के अधिकारियों को यहाँ प्रशिक्षण दिया जाता है, क्योंकि भारतीय वानिकी शोध और शिक्षा परिषद जो इस संस्थान का संचालन करता है आईएफ़एस भी चलाता है और इसके अतिरिक्त भारतीय वन्यजीव संस्थान और भारतीय वन प्रबन्धन संस्थान भी संचालित करता है। एफ़आरआई में एक वानिकी संग्रहालय भी है। यह प्रतिदिन प्रातः ९:३० से सांय ५:०० बजे तक खुला रहता है और प्रवेश शुल्क है १५ रू प्रति व्यक्ति और वाहनों के लिए भी नाममात्र का शुल्क है। इस संग्रहालय में छः अनुभाग हैं: पैथोलॉजी संग्रहालय सामाजिक वानिकी संग्रहालय वन-वर्धन संग्रहालय लकड़ी संग्रहालय अकाष्ठ वन उत्पाद संग्रहालय कीटविज्ञान संग्रहालय एफ़आरआई और संग्रहालय चित्र दीर्घा संग्रहालय में ७००+ वर्ष पुराने वृक्ष का तना एफ़आरआई परिसर और पृष्ठभूमि मे मसूरी जैवईंधन पौधरोपण एफ़आरआई कीटविज्ञान अनुभाग पट्ट वन उत्पाद वन फफूंद वन उत्पादों पर फफूंद का हमला वृक्ष काटने/वनोन्मूलन के औज़ार भारतीय काष्ठ के क्षय का तुलनात्मक टिकाऊपन गोंद नमूना रबड़ निष्कर्षण को प्रदर्शित करता संग्रहालय का अनुभाग सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ (आईयूएफ़आरओ) श्रेणी:भारत के अनुसंधान संस्थान श्रेणी:वन शोध संस्थान श्रेणी:भारत के वन शोध संस्थान श्रेणी:देहरादून श्रेणी:उत्तराखण्ड में पर्यटन श्रेणी:भारत में संग्रहालय श्रेणी:भारत के मानद विश्वविद्यालय श्रेणी:हिन्दी विकि डीवीडी परियोजना
भारतीय वानिकी संस्थान, भारत के किस शहर में स्थित है?
देहरादून
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इमली, (अंग्रेजी:Tamarind, अरबी: تمر هندي तमर हिन्दी "भारतीय खजूर") पादप कुल फैबेसी का एक वृक्ष है। इसके फल लाल से भूरे रंग के होते हैं, तथा स्वाद में बहुत खट्टे होते हैं। इमली का वृक्ष समय के साथ बहुत बड़ा हो सकता है और इसकी पत्तियाँ एक वृन्त के दोनों तरफ छोटी-छोटी लगी होती हैं। इसके वंश टैमेरिन्डस में सिर्फ एक प्रजाति होती है। बाहरी कड़ियाँ == (वेबदुनिया) श्रेणी:फल
इमली का वैज्ञानिक नाम क्या है?
टैमेरिन्डस
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मऊ उत्तर प्रदेश के मऊ जिले का मुख्यालय है। इसका पूर्व नाम 'मऊनाथ भंजन' था। यह जिला लखनऊ के दक्षिण-पूर्व से 282 किलोमीटर और आजमगढ़ के पूर्व से 56 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यह शहर तमसा नदी के किनारे बसा है। तमसा नदी शहर के बीच से निकलती/गुजरती है। तथा उत्तरी सीमा से घाघरा नदी बहती है। मऊ जिला का बहुत ही गर्वशाली इतिहास रहा है।पांडवो के वनवास के समय वो मऊ जिले में भी आये थे,आज वो स्थान खुरहत के नाम से जाना जाता है। तथा उत्तरी सीमा पर बसे छोटा सा शहर दोहरीघाट जहा पर राम और परशुराम जी मीले थे। तथा दोहरीघाट से दस किलोमीटर पूर्व सूरजपुर नामक गाँव है,जहां पर श्रवण की समाधिस्थल है,जहाँ दशरथ ने श्रवण को मारा था। । सामान्यत: यह माना जाता है कि 'मऊ' शब्द तुर्किश शब्द से लिया गया है जिसका अर्थ गढ़, पांडव और छावनी होता है। वस्तुत: इस जगह के इतिहास के बारे में कोई ऐतिहासिक प्रमाण उपलब्ध नहीं है। माना जाता है प्रसिद्ध शासक शेर शाह सूरी के शासनकाल में इस क्षेत्र में कई आर्थिक विकास करवाए गए। वहीं मिलिटरी बेस और शाही मस्जिद के निर्माण में काफी संख्या में श्रमिक और कारीगर मुगल सैनिकों के साथ यहां आए थे। स्वतंत्रता आन्दोलन के समय में भी मऊ की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। 3 अक्टूबर 1939 ई. को महात्मा गांधी इस जगह पर आए थे। श्रेणी:मऊ जिले के शहर
मऊ शहर किस नदी के किनारे बसा है?
तमसा नदी
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वाइ॰एस॰ जगनमोहन रेड्डी: (येदुगूरी संदिंटि जगन्मोहन रेड्डी) (तेलुगु: యెదుగూరి సందింటి జగన్మోహన్ రెడ్డి) (जन्म 21 दिसंबर 1972) [1] इन को भी जगन कहते हैं कि वे जून 2004 से वाई एस आर कांग्रेस पार्टी के एक भारतीय राजनीतिज्ञ और आंध्र प्रदेश विधान सभा में विपक्ष के नेता हैं। [2] वह आंध्र प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री, वाईएस के बेटे हैं। राजशेखर रेड्डी उन्होंने कडप्पा जिले में 2004 के चुनाव में कांग्रेस पार्टी के लिए अभियान चलाया और 2009 के चुनावों में उन्हें भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सदस्य के रूप में कडपा निर्वाचन क्षेत्र से संसद सदस्य चुने गए।[3] यह भी देखें वाई एस राजशेखर रेड्डी वाई एस आर कांग्रेस पार्टी सन्दर्भ श्रेणी:१५वीं लोकसभा के सदस्य श्रेणी:1972 में जन्मे लोग
आन्ध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री वाईएस जगन मोहन रेड्डी किस राजनितिक दल से है?
वाई एस आर कांग्रेस पार्टी
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मुज़फ़्फ़रनगर भारत के राज्य उत्तर प्रदेश का एक शहर है। ये मुज़फ़्फ़रनगर जिले का मुख्यालय भी है। भूगोल यह समुद्र तल से 237-245 मीटर ऊपर, दिल्ली से लगभग 116 किमी दूर, उत्तर प्रदेश के उत्तर में उत्तरी अक्षांश 29º 11' 30" से 29º 45' 15" तक और पूर्वी रेखांश 77º 3' 45" से 78º 7' तक स्थित है। यह राष्ट्रीय राज मार्ग 58 पर सहारनपुर मण्डल के अंतर्गत गंगा और यमुना के दोआब में, दक्षिण में मेरठ और उत्तर में सहारनपुर जिलों के बीच स्थित है। पश्चिम में शामली मुज़फ़्फ़र नगर को हरियाणा के पानीपत और करनाल से और पूर्व में गंगा नदी उत्तर प्रदेश के बिजनोर जिले से अलग करती है। मुज़फ़्फ़र नगर का क्षेत्रफल 4008 वर्ग किलोमीटर (19,63,662 एकड़) है। मुजफ़्फ़र नगर में पहली जनसंख्या 1847 में हुई और तब मुजफ़्फ़र नगर की जनसंख्या 537,594 थी। 2001 की जनसंख्या के अनुसार मुज़फ़्फ़र नगर जिले की आबादी 35,43,360 (18,93,830 पुरूष और 16,49,530 महिला, 26,39,480 ग्रामीण और 9,03,880 शहरी, 17,80,380 साक्षर, 4,78,320 अनुसूचित जाति और लगभग 90 अनुसूचित जनजाति) है और औसत 31,600 व्यक्ति प्रतिवर्ग किलोमीटर में रहते हैं। मुज़फ़्फ़र नगर जिले में 1 लोक सभा, 6 विधान सभा, 5 तहसिल, 14 खण्ड (ब्लोक), 5 नगर पालिकाएं, 20 टाऊन एरिया, 1027 गांव (2003-04 में केवल 886 गाँवों में बिजली थी), 28 पुलिस स्टेशन, 15 रेलवे स्टेशन (उत्तरी रेलवे, 1869 में रेलमार्ग आरम्भ हुआ) हैं। 2001 में 557 औघोगिक कम्पनियाँ और 30,792 स्माल स्केल कम्पनियाँ थी। मुजफ्फरनगर से प्रकाशित दैनिक अमरीश समाचार बुलेटिन सांध्यकालीन समय का लोकप्रिय समाचार पत्र है। इतिहास इतिहास और राजस्व प्रमाणों के अनुसार दिल्ली के बादशाह, शाहजहाँ, ने सरवट (SARVAT) नाम के परगना को अपने एक सरदार सैयद मुजफ़्फ़र खान को जागीर में दिया था जहाँ पर 1633 में उसने और उसके बाद उसके बेटे मुनव्वर लश्कर खान ने मुजफ़्फ़र नगर नाम का यह शहर बसाया। परन्तु इस स्थान का इतिहास बहुत पुराना है। काली नदी के किनारे सदर तहसिल के मंडी नाम के गाँव में हड़प्पा कालीन सभ्यता के पुख्ता अवशेष मिले हैं। अधिक जानकारी के लिये भारतीय सर्वेक्षण विभाग वहां पर खुदाई कार्य करवा रहा है। सोने की अंगूठी जैसे आभूषण और बहुमूल्य रत्नों का मिलना यह दर्शाता है कि यह स्थान प्राचीन समय में व्यापार का केन्द्र था। तैमूर आक्रमण के समय के फारसी इतिहास में भी इस स्थान का वर्णन मिलता है। शहर से छह किलोमीटर दूर सहारनपुर रोड़ पर काली नदी के ऊपर बना बावन दरा पुल, करीब 1512 ईस्वी में शेरशह सूरी ने बनवाया था। शेरशाह सूरी उस समय मुगल सम्राट हुमायूं को पराजित कर दिल्ली की गद्दी पर बैठा था। उसने सेना के लश्कर के आने जाने के लिये सड़क का निर्माण कराया था जो बाद में ग्रांट ट्रंक रोड़ के नाम विख्यात हुई। इसी मार्ग पर बावन दर्रा पुल है। माना जाता है कि इसे इसे उस समय इस प्रकार डिजाईन किया गया था कि यदि काली नदी में भीषण बाढ़ आ जाये तो भी पानी पुल के किनारे पार न कर सके। पुल में कुल मिला कर 52 दर्रे बनाये गये हैं। जर्जर हो जाने के कारण अब इसका प्रयोग नहीं किया जा रहा है। वहलना गांव में शेरशाह सूरी की सेना के पड़ाव के लिये गढ़ी बनायी गई थी। इस गढ़ी का लखौरी ईटों का बना गेट अभी भी मौजूद है। ग्राम गढ़ी मुझेड़ा में स्थित सैयद महमूद अली खां की मजार मुगलकाल की कारीगरी की मिसाल है। 400 साल पुरानी मजार और गांव स्थित बाय के कुआं की देखरेख पुरातत्व विभाग करता है। मुगल समा्रट औरगजेब की मौत के बाद दिल्ली की गद्दी पर जब मुगल साम्राज्य की देखरेख करने वाला कोई शासक नहंी बचा तो जानसठ के सैयद बन्धु उस समय नामचीन हस्ती माने जाते थे। उनकी मर्जी के बिना दिल्ली की गद्दी पर कोई शासक नहंी बैठ सकता था। जहांदार शाह तथा मौहम्मद शाह रंगीला को सैयद बंधुओं ने ही दिल्ली का शासक बनाया था। इन्ही सैयद बंधुओं में से एक का नाम सैयद महमूद खां था। उन्हीं की मजार गा्रम गढ़ीमुझेड़ासादात में स्थित हैं। जिसमें मुगल करीगरी की दिखाई पड़ती है। 400 साल पुरानी उक्त सैयद महमूद अली खां की मजार तथा प्राचीन बाय के कुयेंं के सम्बन्ध में किदवदन्ती है कि दोनो का निर्माण कारीगरों द्वारा एक ही रात में किया गया था। लम्बे समय तक मुगल आधिपत्य में रहने के बाद ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने 1826 में मुज़फ़्फ़र नगर को जिला बना दिया। 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में शामली के मोहर सिंह और थानाभवन के सैयद-पठानों ने अंगेजों को हरा कर शामली तहसिल पर कब्जा कर लिया था परन्तु अंग्रेजों ने क्रूरता से विद्रोह का दमन कर शामली को वापिस हासिल कर लिया। 6 अप्रैल 1919 को डॉ॰ बाबू राम गर्ग, उगर सेन, केशव गुप्त आदि के नेतृत्व में इण्डियन नेशनल कांगेस का कार्यालय खोला गया और पण्डित मदन मोहन मालवीय, महात्मा गांधी, मोती लाल नेहरू, जवाहर लाल नेहरू, सरोजनी नायडू, सुभाष चन्द्र बोस आदि नेताओं ने समय-समय पर मुज़फ़्फ़र नगर का भ्रमण किया। खतौली के पण्डित सुन्दर लाल, लाला हरदयाल, शान्ति नारायण आदि बुद्धिजीवियों ने स्वतंत्रता आन्दोलन में बढ़-चढ़ कर भाग लिया। 15 अगस्त 1947 को आजादी मिलने पर केशव गुप्त के निवास पर तिरंगा फ़हराने का कार्यक्रम रखा गया।मुजफ्फरनगर से दो किमोमीटर दूर एक गाँव हैं मुस्तफाबाद और इसके साथ लगा गाँव हैं पचेंडा , कहते हैं यह पचेंडा गाव महाभारत काल में कौरव पांडव की सेना का पड़ाव स्थल था , मुस्तफाबाद के पश्चिम में पंडावली नामक टीला हैं जहां पांडव की सेना पडी हुई थी तथा पूर्व में कुरावली हैं जहां कौरव की सेना डेरा डाले पडी थी , पचेंडा में एक महाभारतकालीन भेरो का मंदिर और देवी का स्थल भी हैं जनसंख्या और कारोबार मुज़फ़्फ़र नगर का क्षेत्रफल 4049 वर्ग किलोमीटर (19,63,662 एकड़) है। मुजफ़्फ़र नगर में पहली जनगणना 1847 में हुई और तब मुजफ़्फ़र नगर की जनसंख्या 537,594 थी। 2001 की जनगणना के अनुसार मुज़फ़्फ़र नगर जिले की आबादी 35,43,360 (18,93,830 पुरूष और 16,49,530 महिला, 26,39,480 ग्रामीण और 9,03,880 शहरी, 17,80,380 साक्षर, 4,78,320 अनुसूचित जाति और लगभग 90 अनुसूचित जनजाति) है और औसत 31,600 व्यक्ति प्रतिवर्ग किलोमीटर में रहते हैं। 2011 की जनगणना के अनुसार मुजफ्फरनगर की कुल जनसंख्या 4138605 (पुरूष 2194540, महिला 1944065), लिंग अनुपात 886 तथा साक्षरता दर 70.11 (पुरूष 79.11, महिला 60.00) है मुजफ्फरनगर एक महत्वपूर्ण औद्योगिक शहर है, चीनी, इस्पात और कागज के साथ अनाज यहाँ के प्रमुख उत्पाद है। यहाँ की ज़्यादातर आबादी कृषि में लगी हुई है जो कि इस क्षेत्र की आबादी का 70% से अधिक है। मुजफ्फरनगर का गुड़ बाजार एशिया में सबसे बड़ा गुड़ का बाजार है। मुजफ्फर नगर में खतौली की पुली सम्पूर्ण भारत में महत्वपूर्ण है सबसे ज्यादा पृशिद है गन्ना भारत में सबसे अधिक पैदा होता है गन्ने के मिल भी सबसे ज्यादा संख्या में है प्रमुख स्थल पुरकाज़ी यह एक उत्तराखंड बॉर्डर पर स्थित हे। यह स्थान सड़क जाम ओर चाट के लिए परसिद्ध हे। पुरकाज़ी को एनएच-58 दो भागों में बाँटता हे। पुरकाज़ी में उत्तर प्रदेश परिवहन का मेन अड्डा हे। इस के पास से गंगा नदी भी बहती हे। शुक्रताल यह स्थान हिन्दुओं का प्रसिद्ध धार्मिक स्थल माना जाता है। गंगा नदी के तट पर स्थित शुक्रतल जिला मुख्यालय से 30 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। कहा जाता है कि इस जगह पर अभिमन्यु के पुत्र और अर्जुन के पौत्र राजा परीक्षित के पश्चात् केवल महर्षि सुखदेव जी ने भागवत गीता का वर्णन किया था। इसके समीप स्थित वट वृक्ष के नीचे एक मंदिर का निर्माण किया गया था। इस वृक्ष के नीचे बैठकर ही सुखदेव जी भागवत गीता के बारे में बताया करते थे। सुखदेव मंदिर के भीतर एक यज्ञशाला भी है। राजा परीक्षि‍त महाराजा सुखदेव जी से भागवत गीता सुना करते थे। इसके अतिरिक्त यहां पर पर भगवान गणेश की 35 फीट ऊंची प्रतिमा भी स्‍थापित है। इसके साथ ही इस जगह पर अक्षय वट और भगवान हनुमान जी की 72 फीट ऊंची प्रतिमा बनी हुई है। यह गंगा के किनारे बसा है। जहाँ देश विदेश से कई लाख प्र्य्ट्क आते है। मुजफ्फरनगर काली नदी के तट पर स्थित मुजफ्फरनगर शहर नई दिल्ली के उत्तर-पूर्व से 120 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। इस शहर की स्थापना खान-ए-जहां ने 1633 ई. में की थी। उनके पिता मुजफ्फरखान के नाम पर इस जगह का नाम रखा गया है। खतौली मुजफ्फरनगर स्थित खतौली एक शहर है। यह जगह मुजफ्फरनगर से 21 किलोमीटर की दूरी पर और राष्ट्रीय राजमार्ग 58 द्वारा यहां पहुंचा जा सकता है। यहां स्थित जैन मंदिर काफी खूबसूरत है। इसके अतिरिक्त एक विशाल सराय भी है। इनका निर्माण शाहजहां द्वारा करवाया गया था। खतौली का नाम पहले ख़ित्ता वली था जो बाद में खतौली हो गया यहाँ त्रिवेणी शुगर मिल एशिया का सबसे बड़ा मिल है खतौली तहसील का सबसे मुख्य विलेज खेड़ी कुरेश है इस गांव में अनुसूचित जाति की संख्या का बाहुल क्षेत्र है अनुसूचित जातियो में चेतना पैदा करने में अग्रणी है प्रमुख व्यक्तित्व नवाजुद्दीन सिद्दीकी आवागमन वायु मार्ग यहां का सबसे निकटतम हवाई अड्डा दिल्‍ली स्थित इंदिरा गांधी अंर्तराष्ट्रीय हवाई अड्डा है। दिल्ली से मुजफ्फनगर 116 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। रेल मार्ग मुजफ्फरनगर रेलमार्ग द्वारा भारत के प्रमुख शहरों से पहुंचा जा सकता है। सड़क मार्ग राष्ट्रीय राजमार्ग 58 द्वारा मुजफ्फनगर पहुंचा जा सकता है। भारत के कई प्रमुख शहरों जैसे नई दिल्ली, देहरादून, सहारनपुर और मसूरी आदि से यहां पहुंच सकते हैं। शिक्षा-स्कूल-कॉलेज यहॉ इस शहर में बहुत से प्रतिष्ठत स्कूल व कालेज हैं। शहर में एक निजी वित्त पोषित इंजीनियरिंग कॉलेज और एक मेडिकल कॉलेज है। इन में शामिल हैं: गांधी पालीटेक्निक, आयुर्वेद मेडिकल कॉलेज, आयुर्वेद अनुसंधान केन्द्र, कृषि कॉलेज, कृषि विज्ञान केन्द्र, अस्पतालों, नेत्र अस्पताल, डिग्री कालेजों, इंटर कालेज, वरिष्ठ माध्यमिक स्कूलों, नवोदय स्कूल, केन्द्रीय विधालय,, जूनियर हाई स्कूल, प्राथमिक स्कूलों, संस्कृत पाठशाला नयी राहे स्पेशल स्कूल(संचालित)भारतीय बाल एंव मानव कल्याण परिषद दिल्ली, ब्लाइंड स्कूल, योग प्रशिक्षण केन्द्र, अम्बेडकर छात्रावास, धर्मशाला, अनाथालय, वृद्वाआश्रम, बूढ़ी गाय के संरक्षण केन्द्र और कई अन्य आध्यात्मिक और धार्मिक केंद्र। मुज़फ़्फ़र नगर से जुड़ी कुछ खास बातें - पश्चिमी उत्तर प्रदेश का पहला फोटो स्टूडियो स्वर्गीय मोहम्मद गुफरान द्वारा वर्ष 1935 में मुज़फ्फरनगर में ही शुरू किया गया था जिसे अब उनके पुत्र गुलरेज़ गुफरान द्वारा चलाया जा रहा है। पाकिस्तान के प्रथम प्रधानमंत्री लियाकत अली ख़ान मुज़फ़्फ़र नगर के निवासी थे। मुजफ़्फ़र नगर जिले के भोपा के पास यूसूफ़पुर गांव के रमेश चन्द धीमान ने 3.12 मिली मीटर की कैंची और 4.50 मिली मीटर का रेजर बना कर गिनीज बुक और लिमका बुक में अपना नाम लिखा मुजफ़्फ़र नगर या। मुगलकालीन किंग "मेकर" सैयद बन्धु जानसठ इलाके से ताल्लुक रखते थे। 1952 में मुजफ़्फ़र नगर में पहली बार स्वतंत्र गणतंत्र के चुनाव हुए और उत्तरी मुजफ़्फ़र नगर से कांग्रेस के अजीत प्रसाद जैन और दक्षिणी मुजफ़्फ़र नगर से कांग्रेस के हीरा बल्लभ त्रीपाठी चुने गये। स्व0 मुनव्वर हसन - संसद सदस्य कैराना (जन्म तिथि - 15 मई 1964) अपने 14 वर्ष के राजनितिक कार्यकाल में (1991-2005) 6 बार भारत के 4 सदनों विधानसभा, विधान परिषद, लोकसभा तथा राज्यसभा के सदस्य रहे। गाँव खेडी कुरैश के दलित व किसान नेता रमेश चन्द ने समाजिक चेताना में अहम भूमिका निभायी किसान नेता उघम सिहँ तिसंग बावना मंच ने किसानो में चेतना पैदा करने में अहम भूमिका रही ! मुजफ्फर नगरके निवासी मुरली सिंह (स्पीच थैरेपिसट) ने मूक-बधिर की शिक्षा में महत्वपूर्ण योग्यता हासिल की और जनपद के सैकड़ों युवा को जागरूक किया आज मुजफ्फर नगर के सैकड़ों युवा मूक बधिर की शिक्षा में प्रशिक्षण लेकर देश के सरमस्त राज्यों में कार्यरत है Dance,acting,modeling,Stone art painting Art &amp; craft studio (Dancesthaan)_dancesthaan ek studio hai jiska naam uske leader smak sumit malviya ne rakha tha,Dancesthaan dance studio 16 july 2013 m ek choti si class ke roop m open kiya , dheere dheere culture activtes grow ki or ek dream banaya mumbai na jaa kr muzaffarnagar m hi ek dance school banane ka ,jisme amazing activtes or mind grow activtes start ki jaye jiske liye dancesthaan aaj bhi work kr rhi hi or logo se #smak ki hobies bna rhe hai,stone painting,art &amp; crafts,no diet plan wheight loss zumba ,aerobics classes,Dance choreography,hiphop,classical,bollywood,lyrical,folks,&amp;dance ko learn krte or jeene ki kosis krte hai,wedding,school,camp,workshops,t.v reality shows,acting,comedy,rapping,modeling,e.t.c learn ,how to choreography krate hai. इन्हें भी देखें 2013 मुज़फ़्फ़र नगर दंगे सन्दर्भ बाहरी कड़ियां श्रेणी:उत्तर प्रदेश के नगर
मुज़फ़्फ़रनगर जिला किसके नाम पर रखा गया है?
सरदार सैयद मुजफ़्फ़र खान
1,500
hindi
79e72a7e9
विनायक दामोदर सावरकर (pronunciation) (जन्म: २८ मई १८८३ - मृत्यु: २६ फ़रवरी १९६६)[1] भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन के अग्रिम पंक्ति के सेनानी और प्रखर राष्ट्रवादी नेता थे। उन्हें प्रायः स्वातंत्र्यवीर , वीर सावरकर के नाम से सम्बोधित किया जाता है[2]। हिन्दू राष्ट्र की राजनीतिक विचारधारा (हिन्दुत्व) को विकसित करने का बहुत बडा श्रेय सावरकर को जाता है। वे न केवल स्वाधीनता-संग्राम के एक तेजस्वी सेनानी थे अपितु महान क्रान्तिकारी, चिन्तक, सिद्धहस्त लेखक, कवि, ओजस्वी वक्ता तथा दूरदर्शी राजनेता भी थे। वे एक ऐसे इतिहासकार भी हैं जिन्होंने हिन्दू राष्ट्र की विजय के इतिहास को प्रामाणिक ढँग से लिपिबद्ध किया है। उन्होंने १८५७ के प्रथम स्वातंत्र्य समर का सनसनीखेज व खोजपूर्ण इतिहास लिखकर ब्रिटिश शासन को हिला कर रख दिया था[3]।वे एक वकील, राजनीतिज्ञ, कवि, लेखक और नाटककार थे। उन्होंने परिवर्तित हिंदुओं के हिंदू धर्म को वापस लौटाने हेतु सतत प्रयास किये एवं आंदोलन चलाये। सावरकर ने भारत के एक सार के रूप में एक सामूहिक "हिंदू" पहचान बनाने के लिए हिंदुत्व का शब्द गढ़ा [4][5]। उनके राजनीतिक दर्शन में उपयोगितावाद, तर्कवाद और सकारात्मकवाद, मानवतावाद और सार्वभौमिकता, व्यावहारिकता और यथार्थवाद के तत्व थे। सावरकर एक नास्तिक और एक कट्टर तर्कसंगत व्यक्ति थे जो सभी धर्मों में रूढ़िवादी विश्वासों का विरोध करते थे [6][7][8]। जीवन वृत्त प्रारंभिक जीवन विनायक सावरकर का जन्म महाराष्ट्र (तत्कालीन नाम बम्बई) प्रान्त में नासिक के निकट भागुर गाँव में हुआ था। उनकी माता जी का नाम राधाबाई तथा पिता जी का नाम दामोदर पन्त सावरकर था। इनके दो भाई गणेश (बाबाराव) व नारायण दामोदर सावरकर तथा एक बहन नैनाबाई थीं। जब वे केवल नौ वर्ष के थे तभी हैजे की महामारी में उनकी माता जी का देहान्त हो गया। इसके सात वर्ष बाद सन् १८९९ में प्लेग की महामारी में उनके पिता जी भी स्वर्ग सिधारे। इसके बाद विनायक के बड़े भाई गणेश ने परिवार के पालन-पोषण का कार्य सँभाला। दुःख और कठिनाई की इस घड़ी में गणेश के व्यक्तित्व का विनायक पर गहरा प्रभाव पड़ा। विनायक ने शिवाजी हाईस्कूल नासिक से १९०१ में मैट्रिक की परीक्षा पास की। बचपन से ही वे पढ़ाकू तो थे ही अपितु उन दिनों उन्होंने कुछ कविताएँ भी लिखी थीं। आर्थिक संकट के बावजूद बाबाराव ने विनायक की उच्च शिक्षा की इच्छा का समर्थन किया। इस अवधि में विनायक ने स्थानीय नवयुवकों को संगठित करके मित्र मेलों का आयोजन किया। शीघ्र ही इन नवयुवकों में राष्ट्रीयता की भावना के साथ क्रान्ति की ज्वाला जाग उठी।[3] सन् १९०१ में रामचन्द्र त्रयम्बक चिपलूणकर की पुत्री यमुनाबाई के साथ उनका विवाह हुआ। उनके ससुर जी ने उनकी विश्वविद्यालय की शिक्षा का भार उठाया। १९०२ में मैट्रिक की पढाई पूरी करके उन्होने पुणे के फर्ग्युसन कालेज से बी०ए० किया। लन्दन प्रवास १९०४ में उन्हॊंने अभिनव भारत नामक एक क्रान्तिकारी संगठन की स्थापना की। १९०५ में बंगाल के विभाजन के बाद उन्होने पुणे में विदेशी वस्त्रों की होली जलाई। फर्ग्युसन कॉलेज, पुणे में भी वे राष्ट्रभक्ति से ओत-प्रोत ओजस्वी भाषण देते थे। बाल गंगाधर तिलक के अनुमोदन पर १९०६ में उन्हें श्यामजी कृष्ण वर्मा छात्रवृत्ति मिली। इंडियन सोशियोलाजिस्ट और तलवार नामक पत्रिकाओं में उनके अनेक लेख प्रकाशित हुये, जो बाद में कलकत्ता के युगान्तर पत्र में भी छपे। सावरकर रूसी क्रान्तिकारियों से ज्यादा प्रभावित थे।[3]१० मई, १९०७ को इन्होंने इंडिया हाउस, लन्दन में प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की स्वर्ण जयन्ती मनाई। इस अवसर पर विनायक सावरकर ने अपने ओजस्वी भाषण में प्रमाणों सहित १८५७ के संग्राम को गदर नहीं, अपितु भारत के स्वातन्त्र्य का प्रथम संग्राम सिद्ध किया।[9] जून, १९०८ में इनकी पुस्तक द इण्डियन वार ऑफ इण्डिपेण्डेंस: १८५७ तैयार हो गयी परन्त्तु इसके मुद्रण की समस्या आयी। इसके लिये लन्दन से लेकर पेरिस और जर्मनी तक प्रयास किये गये किन्तु वे सभी प्रयास असफल रहे। बाद में यह पुस्तक किसी प्रकार गुप्त रूप से हॉलैंड से प्रकाशित हुई और इसकी प्रतियाँ फ्रांस पहुँचायी गयीं[9]। इस पुस्तक में सावरकर ने १८५७ के सिपाही विद्रोह को ब्रिटिश सरकार के खिलाफ स्वतन्त्रता की पहली लड़ाई बताया। मई १९०९ में इन्होंने लन्दन से बार एट ला (वकालत) की परीक्षा उत्तीर्ण की, परन्तु उन्हें वहाँ वकालत करने की अनुमति नहीं मिली। इण्डिया हाउस की गतिविधियां वीर सावरकर ने लंदन के Gray’s Inn law college में दाखिला लेने के बाद India House में रहना शुरू कर दिया था। इंडिया हाउस उस समय राजनितिक गतिविधियों का केंद्र था जिसे पंडित श्याम प्रसाद मुखर्जी चला रहे थे। सावरकर ने Free India Society का निर्माण किया जिससे वो अपने साथी भारतीय छात्रों को स्वतंत्रता के लिए लड़ने को प्रेरित करते थे। सावरकर ने 1857 की क्रांति पर आधारित किताबे पढी और “The History of the War of Indian Independence” नामक किताब लिखी। उन्होंने 1857 की क्रांति के बारे में गहन अध्ययन किया कि किस तरह अंग्रेजो को जड़ से उखाड़ा जा सकता है। लंदन और मार्सिले में गिरफ्तारी लन्दन में रहते हुये उनकी मुलाकात लाला हरदयाल से हुई जो उन दिनों इण्डिया हाउस की देखरेख करते थे। १ जुलाई १९०९ को मदनलाल ढींगरा द्वारा विलियम हट कर्जन वायली को गोली मार दिये जाने के बाद उन्होंने लन्दन टाइम्स में एक लेख भी लिखा था। १३ मई १९१० को पैरिस से लन्दन पहुँचने पर उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया परन्तु ८ जुलाई १९१० को एस०एस० मोरिया नामक जहाज से भारत ले जाते हुए सीवर होल के रास्ते ये भाग निकले।[10] २४ दिसम्बर १९१० को उन्हें आजीवन कारावास की सजा दी गयी। इसके बाद ३१ जनवरी १९११ को इन्हें दोबारा आजीवन कारावास दिया गया[10]। इस प्रकार सावरकर को ब्रिटिश सरकार ने क्रान्ति कार्यों के लिए दो-दो आजन्म कारावास की सजा दी, जो विश्व के इतिहास की पहली एवं अनोखी सजा थी। सावरकर के अनुसार - "मातृभूमि! तेरे चरणों में पहले ही मैं अपना मन अर्पित कर चुका हूँ। देश-सेवा ही ईश्वर-सेवा है, यह मानकर मैंने तेरी सेवा के माध्यम से भगवान की सेवा की।"[9] आर्बिट्रेशन कोर्ट केस परीक्षण और सज़ा सावरकर ने अपने मित्रो को बम बनाना और गुरिल्ला पद्धति से युद्ध करने की कला सिखाई। 1909 में सावरकर के मित्र और अनुयायी मदन लाल धिंगरा ने एक सार्वजनिक बैठक में अंग्रेज अफसर कर्जन की हत्या कर दी। धींगरा के इस काम से भारत और ब्रिटेन में क्रांतिकारी गतिविधिया बढ़ गयी। सावरकर ने धींगरा को राजनीतिक और कानूनी सहयोग दिया, लेकिन बाद में अंग्रेज सरकार ने एक गुप्त और प्रतिबंधित परीक्षण कर धींगरा को मौत की सजा सुना दी, जिससे लन्दन में रहने वाले भारतीय छात्र भडक गये। सावरकर ने धींगरा को एक देशभक्त बताकर क्रांतिकारी विद्रोह को ओर उग्र कर दिया था। सावरकर की गतिविधियों को देखते हुए अंग्रेज सरकार ने हत्या की योजना में शामिल होने और पिस्तौले भारत भेजने के जुर्म में फंसा दिया, जिसके बाद सावरकर को गिरफ्तार कर लिया गया। अब सावरकर को आगे के अभियोग के लिए भारत ले जाने का विचार किया गया। जब सावरकर को भारत जाने की खबर पता चली तो सावरकर ने अपने मित्र को जहाज से फ्रांस के रुकते वक्त भाग जाने की योजना पत्र में लिखी। जहाज रुका और सावरकर खिड़की से निकलकर समुद्र के पानी में तैरते हुए भाग गए, लेकिन मित्र को आने में देर होने की वजह से उन्हें फिर से गिरफ्तार कर लिया गया। सावरकर की गिरफ्तारी से फ्रेंच सरकार ने ब्रिटिश सरकार का विरोध किया। सेलुलर जेल में नासिक जिले के कलेक्टर जैकसन की हत्या के लिए नासिक षडयंत्र काण्ड के अंतर्गत इन्हें ७ अप्रैल, १९११ को काला पानी की सजा पर सेलुलर जेल भेजा गया। उनके अनुसार यहां स्वतंत्रता सेनानियों को कड़ा परिश्रम करना पड़ता था। कैदियों को यहां नारियल छीलकर उसमें से तेल निकालना पड़ता था। साथ ही इन्हें यहां कोल्हू में बैल की तरह जुत कर सरसों व नारियल आदि का तेल निकालना होता था। इसके अलावा उन्हें जेल के साथ लगे व बाहर के जंगलों को साफ कर दलदली भूमी व पहाड़ी क्षेत्र को समतल भी करना होता था। रुकने पर उनको कड़ी सजा व बेंत व कोड़ों से पिटाई भी की जाती थीं। इतने पर भी उन्हें भरपेट खाना भी नहीं दिया जाता था।।[10] सावरकर ४ जुलाई, १९११ से २१ मई, १९२१ तक पोर्ट ब्लेयर की जेल में रहे। दया याचिका 1920 में वल्लभ भाई पटेल और बाल गंगाधर तिलक के कहने पर ब्रिटिश कानून ना तोड़ने और विद्रोह ना करने की शर्त पर उनकी रिहाई हो गई। स्वतन्त्रता संग्राम रत्नागिरी में प्रतिबंधित स्वतंत्रता १९२१ में मुक्त होने पर वे स्वदेश लौटे और फिर ३ साल जेल भोगी। जेल में उन्होंने हिंदुत्व पर शोध ग्रन्थ लिखा। इस बीच ७ जनवरी १९२५ को इनकी पुत्री, प्रभात का जन्म हुआ। मार्च, १९२५ में उनकी भॆंट राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक, डॉ॰ हेडगेवार से हुई। १७ मार्च १९२८ को इनके बेटे विश्वास का जन्म हुआ। फरवरी, १९३१ में इनके प्रयासों से बम्बई में पतित पावन मन्दिर की स्थापना हुई, जो सभी हिन्दुओं के लिए समान रूप से खुला था। २५ फ़रवरी १९३१ को सावरकर ने बम्बई प्रेसीडेंसी में हुए अस्पृश्यता उन्मूलन सम्मेलन की अध्यक्षता की[10]। १९३७ में वे अखिल भारतीय हिन्दू महासभा के कर्णावती (अहमदाबाद) में हुए १९वें सत्र के अध्यक्ष चुने गये, जिसके बाद वे पुनः सात वर्षों के लिये अध्यक्ष चुने गये। १५ अप्रैल १९३८ को उन्हें मराठी साहित्य सम्मेलन का अध्यक्ष चुना गया। १३ दिसम्बर १९३७ को नागपुर की एक जन-सभा में उन्होंने अलग पाकिस्तान के लिये चल रहे प्रयासों को असफल करने की प्रेरणा दी थी[9]। २२ जून १९४१ को उनकी भेंट नेताजी सुभाष चंद्र बोस से हुई। ९ अक्टूबर १९४२ को भारत की स्वतन्त्रता के निवेदन सहित उन्होंने चर्चिल को तार भेज कर सूचित किया। सावरकर जीवन भर अखण्ड भारत के पक्ष में रहे। स्वतन्त्रता प्राप्ति के माध्यमों के बारे में गान्धी और सावरकर का एकदम अलग दृष्टिकोण था। १९४३ के बाद दादर, बम्बई में रहे। १६ मार्च १९४५ को इनके भ्राता बाबूराव का देहान्त हुआ। १९ अप्रैल १९४५ को उन्होंने अखिल भारतीय रजवाड़ा हिन्दू सभा सम्मेलन की अध्यक्षता की। इसी वर्ष ८ मई को उनकी पुत्री प्रभात का विवाह सम्पन्न हुआ। अप्रैल १९४६ में बम्बई सरकार ने सावरकर के लिखे साहित्य पर से प्रतिबन्ध हटा लिया। १९४७ में इन्होने भारत विभाजन का विरोध किया। महात्मा रामचन्द्र वीर नामक (हिन्दू महासभा के नेता एवं सन्त) ने उनका समर्थन किया। विचार हिंदू राष्ट्रवाद वीर सावरकर 20वीं शताब्दी के सबसे बड़े हिन्दूवादी रहे। विनायक दामोदर सावरकर को बचपन से ही हिंदू शब्द से बेहद लगाव था। वीर सावरकर ने जीवन भर हिंदू हिन्दी और हिंदुस्तान के लिए ही काम किया। वीर सावरकर को 6 बार अखिल भारत हिंदू महासभा का राष्ट्रीय अध्यक्ष चुना गया। 1937 में उन्हें हिंदू महासभा का अध्यक्ष चुना गया, जिसके बाद 1938 में हिंदू महासभा को राजनीतिक दल घोषित कर दिया गया। हिन्दू राष्ट्र की राजनीतिक विचारधारा को विकसित करने का बहुत बड़ा श्रेय सावरकर को जाता है। उनकी इस विचारधारा के कारण आजादी के बाद की सरकारों ने उन्हें वह महत्त्व नहीं दिया जिसके वे वास्तविक हकदार थे। द्वितीय विश्व युद्ध एवं फासीवाद यहूदियों के प्रति मुसलमानों के प्रति हिंदू महासभा की गतिविधियाँ भारत छोड़ो आंदोलन में भूमिका नागरिक प्रतिरोध आंदोलन महात्मा गांधी पर विचार भारत के विभाजन का विरोध फिलिस्तीन में यहूदी राज्य के लिए समर्थन स्वातन्त्र्योत्तर जीवन १५ अगस्त १९४७ को उन्होंने सावरकर सदान्तो में भारतीय तिरंगा एवं भगवा, दो-दो ध्वजारोहण किये। इस अवसर पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए उन्होंने पत्रकारों से कहा कि मुझे स्वराज्य प्राप्ति की खुशी है, परन्तु वह खण्डित है, इसका दु:ख है। उन्होंने यह भी कहा कि राज्य की सीमायें नदी तथा पहाड़ों या सन्धि-पत्रों से निर्धारित नहीं होतीं, वे देश के नवयुवकों के शौर्य, धैर्य, त्याग एवं पराक्रम से निर्धारित होती हैं[9]। ५ फ़रवरी १९४८ को महात्मा गांधी की हत्या के उपरान्त उन्हें प्रिवेन्टिव डिटेन्शन एक्ट धारा के अन्तर्गत गिरफ्तार कर लिया गया। १९ अक्टूबर १९४९ को इनके अनुज नारायणराव का देहान्त हो गया। ४ अप्रैल १९५० को पाकिस्तानी प्रधान मंत्री लियाक़त अली ख़ान के दिल्ली आगमन की पूर्व संध्या पर उन्हें सावधानीवश बेलगाम जेल में रोक कर रखा गया। मई, १९५२ में पुणे की एक विशाल सभा में अभिनव भारत संगठन को उसके उद्देश्य (भारतीय स्वतन्त्रता प्राप्ति) पूर्ण होने पर भंग किया गया। १० नवम्बर १९५७ को नई दिल्ली में आयोजित हुए, १८५७ के प्रथम भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के शाताब्दी समारोह में वे मुख्य वक्ता रहे। ८ अक्टूबर १९५९ को उन्हें पुणे विश्वविद्यालय ने डी०.लिट० की मानद उपाधि से अलंकृत किया। ८ नवम्बर १९६३ को इनकी पत्नी यमुनाबाई चल बसीं। सितम्बर, १९६५ से उन्हें तेज ज्वर ने आ घेरा, जिसके बाद इनका स्वास्थ्य गिरने लगा। १ फ़रवरी १९६६ को उन्होंने मृत्युपर्यन्त उपवास करने का निर्णय लिया। २६ फ़रवरी १९६६ को बम्बई में भारतीय समयानुसार प्रातः १० बजे उन्होंने पार्थिव शरीर छोड़कर परमधाम को प्रस्थान किया[10]। महात्मा गाँधी की हत्या में गिरफ्तार और निर्दोष सिद्ध गोडसे की गवाही कपूर आयोग मृत्यु धार्मिक विचार विरासत सावरकर साहित्य वीर सावरकर ने १०,००० से अधिक पन्ने मराठी भाषा में तथा १५०० से अधिक पन्ने अंग्रेजी में लिखा है। 'द इंडियन वॉर ऑफ इंडिपेंडेंस - १८५७' सावरकर द्वारा लिखित पुस्तक है, जिसमें उन्होंने सनसनीखेज व खोजपूर्ण इतिहास लिख कर ब्रिटिश शासन को हिला डाला था। अधिकांश इतिहासकारों ने १८५७ के प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को एक सिपाही विद्रोह या अधिकतम भारतीय विद्रोह कहा था। दूसरी ओर भारतीय विश्लेषकों ने भी इसे तब तक एक योजनाबद्ध राजनीतिक एवं सैन्य आक्रमण कहा था, जो भारत में ब्रिटिश साम्राज्य के ऊपर किया गया था। पुस्तक एवं फिल्म जालस्थल इनके जन्म की १२५वीं वर्षगांठ पर इनके ऊपर एक अलाभ जालस्थल आरंभ किया गया है। इसका संपर्क अधोलिखित काड़ियों मॆं दिया गया है।[1] इसमें इनके जीवन के बारे में विस्तृत ब्यौरा, डाउनलोड हेतु ऑडियो व वीडियो उपलब्ध हैं। यहां उनके द्वारा रचित १९२४ का दुर्लभ पाठ्य भी उपलब्ध है। यह जालस्थल २८ मई, २००७ को आरंभ हुआ था। चलचित्र १९५८ में एक हिन्दी फिल्म काला पानी (1958 फ़िल्म) बनी थी। जिसमें मुख्य भूमिकाएं देव आनन्द और मधुबाला ने की थीं। इसका निर्देशन राज खोसला ने किया था। इस फिल्म को १९५९ में दोफ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार भी मिले थे। काला पानी १९९६ में मलयालम में प्रसिद्ध मलयाली फिल्म-निर्माता प्रियदर्शन द्वारा निर्देशित फिल्म काला पानी बनी थी। इस फिल्म में हिन्दी फिल्म अभिनेता अन्नू कपूर ने सावरकर का अभिनय किया था। सज़ा-ए-काला पानी २००१ में वेद राही और सुधीर फड़के ने एक बायोपिक चलचित्र बनाया- वीर सावरकर। यह निर्माण के कई वर्षों के बाद रिलीज़ हुई। सावरकर का चरित्र इसमें शैलेन्द्र गौड़ ने किया है। , इनके नाम पर ही पोर्ट ब्लेयर के विमानक्षेत्र का नाम वीर सावरकर अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा रखा गया है। सामाजिक उत्थान सावरकर एक प्रख्यात समाज सुधारक थे। उनका दृढ़ विश्वास था, कि सामाजिक एवं सार्वजनिक सुधार बराबरी का महत्त्व रखते हैं व एक दूसरे के पूरक हैं। उनके समय में समाज बहुत सी कुरीतियों और बेड़ियों के बंधनों में जकड़ा हुआ था। इस कारण हिन्दू समाज बहुत ही दुर्बल हो गया था। अपने भाषणों, लेखों व कृत्यों से इन्होंने समाज सुधार के निरंतर प्रयास किए। हालांकि यह भी सत्य है, कि सावरकर ने सामाजिक कार्यों में तब ध्यान लगाया, जब उन्हें राजनीतिक कलापों से निषेध कर दिया गया था। किंतु उनका समाज सुधार जीवन पर्यन्त चला। उनके सामाजिक उत्थान कार्यक्रम ना केवल हिन्दुओं के लिए बल्कि राष्ट्र को समर्पित होते थे। १९२४ से १९३७ का समय इनके जीवन का समाज सुधार को समर्पित काल रहा। सावरकर के अनुसार हिन्दू समाज सात बेड़ियों में जकड़ा हुआ था।।[10] स्पर्शबंदी: निम्न जातियों का स्पर्श तक निषेध, अस्पृश्यता[11] रोटीबंदी: निम्न जातियों के साथ खानपान निषेध[12][13] बेटीबंदी: खास जातियों के संग विवाह संबंध निषेध[14] व्यवसायबंदी: कुछ निश्चित व्यवसाय निषेध सिंधुबंदी: सागरपार यात्रा, व्यवसाय निषेध वेदोक्तबंदी: वेद के कर्मकाण्डों का एक वर्ग को निषेध शुद्धिबंदी: किसी को वापस हिन्दूकरण पर निषेध अंडमान की सेल्यूलर जेल में रहते हुए उन्होंने बंदियों को शिक्षित करने का काम तो किया ही, साथ ही साथ वहां हिंदी के प्रचार-प्रसार हेतु काफी प्रयास किया। सावरकरजी हिंदू समाज में प्रचलित जाति-भेद एवं छुआछूत के घोर विरोधी थे। बंबई का पतितपावन मंदिर इसका जीवंत उदाहरण है, जो हिन्दू धर्म की प्रत्येक जाति के लोगों के लिए समान रूप से खुला है।।[9] पिछले सौ वर्षों में इन बंधनों से किसी हद तक मुक्ति सावरकर के ही अथक प्रयासों का परिणाम है। मराठी पारिभाषिक शब्दावली में योगदान भाषाशुद्धि का आग्रह धरकर सावरकर ने मराठी भाषा को अनेकों पारिभाषिक शब्द दिये, उनके कुछ उदाहरण निम्नलिखित हैं - [15] इन्हें भी देखें अखिल भारतीय हिन्दू महासभा द इंडियन वॉर ऑफ इंडिपेंडेंस - १८५७ यमुनाबाई सावरकर नारायण दामोदर सावरकर ‎ सेल्युलर जेल अभिनव भारत मामाराव दांते महामहोपाध्याय सिद्धेश्वर शास्त्री चित्तराव गजानन विष्णु दामले वासुदेव बलवंत गोगटे गजानन विश्वनाथ केटकर अप्पा कसार नरसिंहन चिंतामन सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ (दृष्टिकोण पर) (सांध्य-ज्योति दर्पण) (दैनिक भास्कर) (वेब दुनिया) (गूगल पुस्तक ; लेखक - विनायक दामोदरसावरकर) (पैट्रिऑट्स फोरम) (पाञ्चजन्य) पुस्तकें एवं विडियो (गूगल पुस्तक ; लेखक डॉ भवान सिंह राणा) (गूगल पुस्तक ; लेखक - भालचन्द्र दत्तात्रय खेर, शैलजा राजे) - वीर सावरकर के जीवनचरित पर आधारित मराठी उपन्यास का हिन्दी रूपान्तर श्रेणी:महात्मा गांधी की हत्या श्रेणी:व्यक्तिगत जीवन श्रेणी:भारतीय स्वतंत्रता सेनानी श्रेणी:हिन्दू धर्म श्रेणी:महाराष्ट्र के लोग श्रेणी:भारत का इतिहास श्रेणी:हिन्दी विकि डीवीडी परियोजना श्रेणी:नास्तिक श्रेणी:मृत लोग
विनायक सावरकर की मृत्यु कब हुई?
२६ फ़रवरी १९६६
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स्टैचू ऑफ लिबर्टी न्यूयॉर्क हार्बर में स्थित एक विशाल मूर्ति है। तांबे की यह मूर्ति 151 फुट लंबी है, लेकिन चौकी और आधारशिला मिला कर यह 305 फुट ऊंची है। 22 मंज़िला इस मूर्ति के ताज तक पहुंचने के लिये 354 घुमावदार सीढ़ियां चढ़नी पड़ती हैं। अमेरिकन क्रांति के दौरान फ्रान्स और अमेरिका की दोस्ती के प्रतीक के तौर पर तांबे की बनी ये मूर्ति फ्रान्स ने 1886 में अमेरिका को दी थी। 2010 का अनुमान है कि इस मूर्ति को देखने रोज़ाना 12 से 14 हज़ार लोग आते हैं। श्रेणी:शिल्प श्रेणी:संयुक्त राज्य अमेरिका
स्टैचू ऑफ लिबर्टी, संयुक्त राज्य अमेरिका के किस राज्य में स्थित है?
न्यूयॉर्क
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फ़्रीड्रिक विलियम अगस्त फ्रोबेल (Friedrich Wilhelm August Fröbel ; जर्मन उच्चारण: [ˈfʁiːdʁɪç ˈvɪlhɛlm ˈaʊɡʊst ˈfʁøːbəl] ; 21 अप्रैल, 1782 – 21 जून, 1852) जर्मनी के प्रसिद्ध शिक्षाशास्त्री थे। वे पेस्तालोजी के शिष्य थे। उन्होने किंडरगार्टन (बालवाड़ी) की संकल्पना दी। उन्होने शैक्षणिक खिलौनों का विकास किया जिन्हें 'फ्रोबेल उपहार' के नाम से जाना जाता है। शिक्षा जगत में फ्रोबेल का महत्वपूर्ण स्थान है। बालक को पौधे से तुलना करके, फ्रोबेल ने बालक के स्वविकास की बात कही वह पहला व्यक्ति था, जिसने प्राथमिक स्कूलों के अमानवीय व्यवहार के विरूद्ध आवाज उठाई और एक नई शिक्षण विधि का प्रतिपादन किया। उसने आत्मक्रिया स्वतन्त्रता, सामाजिकता तथा खेल के माध्यम से स्कूलों की नीरसता को समाप्त किया। संसार में फ्रोबेल ही पहला व्यक्ति था जिसने अल्पायु बालकों की शिक्षा के लिए एक व्यवहारिक योजना प्रस्तुत किया। उसने शिक्षकों के लिए कहा कि वे बालक की आन्तरिक शक्तियों के विकास में किसी प्रकार का हस्तक्षेप न करें, बल्कि प्रेम एवं सहानुभूति पूर्वक व्यवहार करते हुए बालकों को पूरी स्वतन्त्रता दें। शिक्षा के क्षेत्र में इस प्रकार का परिवर्तन लाने के लिए फ्रोबेल को हमेशा याद किया जायेगा। जीवन परिचय फ्रोबेल का जन्म जर्मनी के ओबेरवेस बाक नामक एक छोटे से गाँव में हुआ था। बचपन में ही उसकी माँ का देहान्त हो गया तथा उसके पिता ने दूसरी शादी कर ली और फ्रोबेल के पालन-पोषण में कोई रूचि नहीं ली। जब फ्रोबेल को अपने पिता तथा विमाता से कोई प्यार न मिला तो वह दुखी होकर जंगलों में घूमने लगा। इससे उसके हृदय में प्रकृति के प्रति अनुराग उत्पन्न हो गया। जब फ्रोबेल १० वर्ष का हुआ तो उसके मामा ने उसकी दयनीय स्थिति देखकर उसे विद्यालय में भेजा, परन्तु उसका पढ़ाई में मन नहीं लगा। १५ वर्ष की आयु में उसके मामा ने उसे जीविकोपार्जन हेतु एक बन रक्षक के यहाँ भेज दिया, वहाँ भी उसका मन नहीं लगा। लेकिन यहाँ पर फ्रोबेल ने प्रकृति का अच्छा अध्ययन किया और इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि प्रकृति के नियमों में एकता है। १८ वर्ष की आयु में फ्रोबेल को जैना विश्वविद्यालय भेजा गया, किन्तु धनाभाव के कारण उसे वह विश्वविद्यालय भी छोड़ना पड़ा। इसके बाद उसने फ्रैंकफोर्ट में ग्रूनर द्वारा संचालित एक स्कूल में शिक्षण कार्य किया। अपने अनुभवों से फ्रोबेल इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि बालकों को रचनात्मक एवं कियात्मक अभिव्यक्ति का अवसर दिया जाना चाहिए। सन् १८०८ में वह पेस्टालाजी द्वारा स्थापित स्कूल ‘वरडन’ गया, जहाँ उसने अध्ययन-अध्यापन का कार्य किया। सन् १८१६ में फ्रोबेल ने कीलहाउ में एक स्कूल खोला, लेकिन आर्थिक कठिनाइयों केकारण उसे बन्द कर देना पड़ा। सन् १८२६ में फ्रोबेल ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘मनुष्य की शिक्षा’ (Die Menschenerziehung) प्रकाशित की, तथा अपने विचारों को क्रियान्वित करने के लिए ‘किण्डर गार्टन’ नाम से ब्लैकेन वर्ग में एक स्कूल खोला जिसको उसने बालक उद्यान बनाया और खिलौनों उपकरणों आदि के द्वारा बालकों को शिक्षा प्रदान करना आरम्भ किया। इस स्कूल को आश्चर्य जनक सफलता मिली, फलस्वरूप विभिन्न स्थानों पर किण्डर गार्टन स्कूल खुल गये। सन् १८५१ में सरकार ने फ्रोबेल को क्रान्तिकारी मानकर सभी किण्डर गार्टन स्कूलों को बन्द कर दिया। इससे फ्रोबेल को इतना कष्ट हुआ कि सन् १८५३ में उसका स्वर्गवास हो गया। फ्रोबेल के शैक्षिक विचार छोटे बालकों को शिक्षा देने के लिए नई शिक्षण विधि का प्रतिपादन सर्वप्रथम फ्रोबेल ने किया। फ्रोबेल का मानना था कि बालकों के अन्दर विभिन्न सदगुण होते हैं। हमें उन सद्गुणों का विकास करना चाहिए ताकि वह चरित्रवान बनकर राष्ट्र के कार्यों में सफलतापूर्वक भाग ले सके। फ्रोबेल का विश्वास था कि जैसे एक बीज में सम्पूर्ण वृक्ष छिपा रहता है, उसी प्रकार प्रत्येक बालक में एक पूर्ण व्यक्ति छिपा रहता है अर्थात बालक में अपने पूर्व विकास की सम्भावनायें निहित होती हैं। इसलिए शिक्षा का यह दायित्व है कि बालक को ऐसा स्वाभाविक वातावरण प्रदान करे, जिससे बालक अपनी आन्तरिक शक्तियों का पूर्ण विकास स्वयं कर सके। फ्रोबेल का कहना है कि जिस प्रकार उपयुक्त वातावरण मिलने पर एक बीज बढ़कर पेड़ बन जाता है, उसी प्रकार उपयुक्त वातावरण मिलने पर बालक भी पूर्ण व्यक्ति बन जाता है। फ्रोबेल ने बालक को पौधा, स्कूल को बाग तथा शिक्षक को माली की संज्ञा देते हुए कहा है कि विद्यालय एक बाग है, जिसमें बालक रूपी पौधा शिक्षक ह्वपी माली की देखरेख में अपने आन्तरिक नियमों के अनुसार स्वाभाविक रूप से विकसित होता रहता है। माली की भााँति शिक्षक का कार्य अनुकूल वातावरण प्रस्तुत करना है, जिससे बालक का स्वाभाविक विकास हो सके। शिक्षा का उद्देश्य फ्रोबेल का विचार है कि संसार की समस्त वस्तुओं में विभिन्नता होते हुए भी एकता निहित है। ये सभी वस्तुएं अपने आन्तरिक नियमों के अनुसार विकसित होती हुई उस एकता (ईश्वर) की ओर जा रही है। अत: शिक्षा द्वारा व्यक्ति को इस योग्य बनाया जाय कि वह इस विभिन्नता में एकता का दर्शन कर सके। फ्रोबेल का यह भी विचार है कि बालक की शिक्षा में किसी प्रकार का हस्तक्षेप न करके उसके स्वाभाविक विकास हेतु पूर्ण अवसर देना चाहिए, ताकि अपने आपको, प्रकृति को तथा ईश्वरीय शक्ति को पहचान सके। संक्षेप में फ्रोबेल के अनुसार शिक्षा के निम्नलिखित उद्देश्य होने चाहिये- १- बालक के व्यक्तित्व का पूर्ण विकास करना। २- बालक का वातावरण एवं प्रकृति से एकीकरण स्थापित करना। ३- बालक के उत्तम चरित्र का निर्माण करना। ४- बालक का आध्यात्मिक विकास करना। ५- बालकों को उनमें निहित दैवीय शक्ति का आभास कराना। पाठ्यक्रम फ्रोबेल ने पाठ्यक्रम निर्माण के कुछ सिद्धान्त बताये हैं, जैसे- १- पाठ्यक्रम बालक की आवश्यकताओं के अनुसार होनी चाहिए, २- पाठ्यक्रम के विषयों में परस्पर एकता स्थापित होनी चाहिए, ३- पाठ्यक्रम क्रिया पर आधारित होनी चाहिए, ४- पाठ्यक्रम में प्रकृति को महत्वपूर्ण स्थान मिलना चाहिए, ५- पाठ्यक्रम में धार्मिक विचारों को भी स्थान मिलना चाहिए। उपयुर्युक्त सिद्धान्तों को ध्यान में रखकर फ्रोबेल ने पाठ्यक्रम में प्रकृति अध्ययन, धार्मिक निर्देशन, हस्त व्यवसाय, गणित, भाषा, एवं कला आदि विषयों को प्रमुख रूप से रखा। उसने इस बात पर बल दिया कि पाठ्यक्रम के सभी विषयों में एकता का सम्बन्ध अवश्य होना चाहिए। क्योंकि यदि पाठ्यक्रम के विषयों में एकता का सम्बन्ध नहीं होगा, तो शिक्षा के उद्देश्य को प्राप्त नहीं किया जा सकता। शिक्षण विधि फ्रोबेल ने अपनी शिक्षण-विधि को निम्नलिखित सिद्धान्तों पर आधारित किया है- आत्मक्रिया का सिद्धान्त फ्रोबेल बालक को व्यक्तित्व का विकास करना चाहते थे, इसलिए उन्होंने आत्म क्रिया के सिद्धान्त पर बल दिया। आत्म क्रिया से फ्रोबेल का तात्पर्य उस क्रिया से था, जिसे बालक अपने आप तथा अपनी ह्वचि के अनकूल स्वतन्त्र वातावरण में करके सीखता है। फ्रोबेल ने बताया कि आत्मक्रिया द्वारा बालक परिस्थितियों पर विजय प्राप्त करता है और वातावरण को अपने अनुकूल बनाता है। इसलिए बालक की शिक्षा आत्म क्रिया द्वारा अर्थात् उसको करके सीखने देना चाहिए। खेल द्वारा शिक्षा का सिद्धान्त फ्रोबेल पहला शिक्षाशास्त्री था, जिसने खेल द्वारा शिक्षा देने की बात कही। इसका कारण उसने यह बताया कि बालक खेल में अधिक रूचि लेता है। फ्रोबेल के अनुसार बालक की आत्म क्रिया खेल द्वारा विकसित होती है। इसलिए बालक को खेल द्वारा सिखाया जाना चाहिए, ताकि बालक के व्यक्तित्व का विकास स्वाभाविक रूप से हो सके। स्वतन्त्रता का सिद्धान्त फ्रोबेल के अनुसार स्वतन्त्र रूप से कार्य करने से बालक का विकास होता है और हस्तक्षेप करने या बाधा डालने से उसका विकास अवरूद्ध हो जाता है। इसलिए उसने इस बात पर बल दिया कि शिक्षक को बालक के सीखने में किसी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए, बल्कि वह केवल एक सक्रिय निरीक्षक के रूप में कार्य करे। सामाजिकता का सिद्धान्त व्यक्ति एक सामाजिक प्राणी है। समाज से अलग व्यक्ति का कोई अस्तित्व नहीं है। इसलिए उसे इसलिए फ्रोबेल ने सामूहिक खेलों एवं सामूहिक कार्यों पर बल दिया, जिससे बालकों में खेलते–खेलते परस्पर प्रेम, सहानुभूति, सामूहिक सहयोग आदि सामाजिक गुणों का किास सरलता पूर्वक हो सके। अनुशासन फ्रोबेल ने दमनात्मक अनुशासन का विरोध किया और कहा कि आत्मानुशासन या स्वानुशासन ही सबसे अच्छा अनुशासन होता है। इसलिए बालकों को आत्म क्रिया करने की पूर्ण स्वतन्त्रता मिलनी चाहिए, जिससे बालक में स्वयं ही अनुशासन में रहने की आदत पड़ जाय। फ्रोबेल के अनुसार बालक के साथ प्रेम एवं सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार करना चाहिए तथा उसे आत्मक्रिया करने का पूर्ण अवसर प्रदान करना चाहिए। शिक्षक फ्रोबेल के अनुसार शिक्षक को एक निर्देशक, मित्र एवं पथ प्रदर्शक होना चाहिए। उसने शिक्षक की तुलना उस माली से की है, जो उद्यान के पौधों के विकास में मदद करता है। जिस तरह शिक्षक के निर्देशन में बालक का विकास होता है। फ्रोबेल का विचार है कि शिक्षक को बालक के कार्यों में किसी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए, बल्कि उसका कार्य सिर्फ बालक के कार्यों का निरीक्षण करना है और उसके विकास हेतु उपयुक्त वातावरण प्रदान करना है। इन्हें भी देखें शिक्षाशास्त्री श्रेणी:शिक्षाशास्त्री श्रेणी:1782 में जन्मे लोग श्रेणी:१८५२ में निधन
फ़्रीड्रिक फ्रोबेल का जन्म कहाँ हुआ था?
जर्मनी के ओबेरवेस बाक
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बोलती कठपुतली कला एक मंच-कला है जिसमें एक व्यक्ति (एक बोलती कठपुतली कलाकार )उसकी आवाज में इस तरह परिवर्तन करता है जिससे ऐसा लगता है कि आवाज कहीं और से, आमतौर पर एक कठपुतली प्रतिकृति से ,आ रहा है। इतिहास एवं उत्पत्ति मूल रूप से,बोलती कठपुतली कला ,'ventriloquism' एक धार्मिक प्रथा थी। [1] इसका नाम लैटिन से आता है, अर्थात venter (पेट) और loqui (बोलना)।[2] बोलती कठपुतली कलाकार इस कला की व्याख्या मृतको से बात करने के लिए , साथ ही भविष्यवाणी करने में सक्षम होने के लिए करते थे। इस तकनीक का सबसे पुराना उपयोग पाइथिया के पुजारियों द्वारा , डेल्फी में अपोलो के मंदिर में, किया गया था वे इस कला से डेल्फी के सर्वज्ञ होने का दावा करते थे । सबसे सफल प्रारंभिक बोलती कठपुतली कलाकार में से एक "युर्कलेस" [3], एथेंस में एक पुजारी था; उनके सम्मान में बोलती कठपुतली कलाकार को युक्लीडस के नाम से जाना जाने लगा। मध्य युग में, यह जादू टोना करने के लिए प्रयुक्त होने लगा था। अध्यात्मवाद ने बाद में जादू और एस्केपॉलोजी का रूप लके लिया था , इसलिए बोलती कठपुतली कला ,19 वीं सदी के आसपास एक प्रदर्शन कला के रूप में प्रसिद्ध हुई ,तथा इसका रहस्यमय अवतार समाप्त हुआ। दुनिया के अन्य भागों में भी अनुष्ठान या धार्मिक उद्देश्यों के लिए बोलती कठपुतली कला की एक परंपरा है; ऐतिहासिक दृष्टि से वहां ज़ुलु, इनुइट, और माओरी [3] लोगों के बीच इस कला को अपनाया गया है। मनोरंजन के रूप में उद्भव बोलती कठपुतली कला का आध्यात्मिक शक्तियों की अभिव्यक्ति के रूप से ,मेलों और बाजार ,कस्बों में मनोरंजन के रूप में परिवर्तन ,अठारहवीं सदी में हुआ। बोलती कठपुतली कला का सबसे पुराना उदाहरण इंग्लैंड में 1753 में मिलता है , जहां ऐसा प्रतीत होता है की सर जॉन पार्नेल अपने हाथ के माध्यम से,विलियम होगार्थ [4] के रूप में बोल रहे है। 1757 में ऑस्ट्रिया के बैरन डी मेंगें [5] ने अपने प्रदर्शन में एक छोटी सी गुड़िया को प्रयुक्त किया था। 18 वीं शताब्दी के अंत तक, ventriloquist प्रदर्शन, इंग्लैंड में मनोरंजन का माध्यम थे, हालांकि ज्यादातर कलाकारों के कार्यक्रमो में ऐसा लगता था की आवाज़ दूर से आ रही है, एक कठपुतली का उपयोग करने की आधुनिक विधि काफी बाद में आयी। 1790 की अवधि में एक प्रसिद्ध बोलती कठपुतली कलाकार, यूसुफ अस्किन्स [6], ने में लंदन में "सैडलर वेल्स" रंगमंच पर अभिनय प्रदर्शन किया था जिसमे वे अपने और अपने अदृश्य परिचित,लिटिल टॉमी, के बीच संवाद स्थापित करते प्रतीत होते थे .हालांकि अन्य कलाकारों ,विशेष रूप से आयलैंडवासी जेम्स बरने ने कठपुतली का उपयोग शुरू किया। 'बोलती' कठपुतली की कला को उत्तर भारत में यशवंत केशव पाध्ये और दक्षिण भारत में एम एम रॉय द्वारा लोकप्रिय किया गया , जिन्हें भारत में इस क्षेत्र की अग्रणी माना जाता है। यशवंत केशव पाध्ये के बेटे रामदास पाध्ये उनसे इस कला को सीखा और टेलीविजन पर अपने प्रदर्शन के माध्यम से इस कला को जनता के बीच लोकप्रिय बना दिया। रामदास पाध्ये के बेटे सत्यजीत पाध्ये भी एक 'बोलती कठपुतली कलाकार' है। इसी तरह, बैंगलोर से "इंदुश्री " नमक एक महिला 'बोलती कठपुतली कलाकार' ने इस कला के लिए बहुत योगदान दिया है। वह 3 कठपुलियो से एक साथ काम करती है। वेंकी बंदर और नकलची श्रीनिवास, एम एम रॉय के विद्यार्थी है जिन्होंने भारत और विदेशों में शो देकर इस कला को लोकप्रिय बनाया। नकलची श्रीनिवास ने , विशेष रूप से, बोलती कठपुतली कला में कई प्रयोग किये थे। उन्होंने इस कला को "ध्वनि भ्रम" के नाम से लोकप्रिय बनाया गया है. सही आवाज़ निकालने की कला एक कठिनाई जो सभी 'बोलती कठपुतली कलाकार' महसूस करते है कि प्रदर्शन के समय उन्हें होंठो थोड़ा अलग करना पड़ता है।होठों के प्रयोग से निकलनेवाले शब्द जैसे एफ, वी ए, बी, पी, और एम् के लिए उन्हें दुसरे शब्दो का चुनाव करना पड़ता है । ध्वनियों के रूपांतरों वे , थ , डी, टी, और एन जल्दी बोल जाते है , यह अंतर श्रोताओं के लिए भांपना मुश्किल होता है।[7] बोलती कठपुतली की डमी आधुनिक ventriloquists की प्रस्तुतियों में कठपुतलियों के बनाने के लिए विभिन्न प्रकार की सामग्री का उपयोग किया जाता है[8] जैसे मुलायम कपड़े या फोम कठपुतलियों (जिसमे वेरना फिन्ली का काम उल्लेखनीय है), लचीला लेटेक्स से बनी कठपुतलियों (जैसे स्टीव एक्सटेल की कृतियों के रूप में) और पारंपरिक और जाने पहचाने लकड़ी की कठपुतलिया (टिम सेल्बेर्ग के यंत्रीकृत नक्काशियों युक्त पुतली )। परंपरागत ventriloquists द्वारा इस्तेमाल किये गए डमी की ऊंचाई आमतौर पर चौंतीस और बयालीस इंच के बीच होती है ,कई बार बारह इंच से लेकर मानव आकार तक लंबे और बड़े डमी का उपयोग भी होता है। परंपरागत रूप से, कठपुतली को कागज की लुगदी या लकड़ी से बनाया जाता है। आधुनिक समय में अन्य सामग्री जैसे फाइबरग्लास, प्रबलित रेजिन, यूरेथेन्स , हार्ड लेटेक्स और नेओप्रीन आदि से बनाया जाता हैं। बोलती कठपुतली और डरावनी फिल्मे फिल्में और कार्यक्रम जिनमे जीवित भयावह और खूनी खिलौने शामिल हैं उनमे 1978 की फिल्म 'मैजिक', फिल्म डेड ऑफ़ नाईट , ट्वाईलाईट जोन [9] , पोल्टरजीस्ट , डेविल डॉल [10], डेड साइलेंस , 1988 की फिल्म चाइल्ड्स प्ले , टीवी सीरियल 'बफी द वैम्पायर स्लेयर , गूज़बम्पस , सेइन्फ्लेड  श्रृंखला कड़ी "द चिकेन रोस्टर ", अल्फ  आई एम् योर पपेट , और  डॉक्टर हू  प्रमुख है। भयावह बोलती कठपुतली डमी के उदाहरणों में गेराल्ड क्रश की हॉरिबल डमी और जॉन केयर क्रॉस द्वारा "द ग्लास आई "कहानी प्रमुख है। नोट सन्दर्भ Vox,Valentine I Can See Your Lips Moving, the history and art of ventriloquism (1993) 224 pages. (3000 year history of the practice. Plato Publishing/Empire publications ISBN 0-88734-622-7 Leigh Eric Schmidt (1998) "". Church History. 67 (2). 274-304. by Angela Mabe बाहरी कड़ियाँ श्रेणी:कला व्यवसाय श्रेणी:कठपुतली
बोलती कठपुतली कला' को अंग्रेज़ी भाषा में किस नाम से जाना जाता है?
ventriloquism'
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जल पानी सभी जीवों के लिए एक महत्वपूर्ण विलायक है और पृथ्वी की सतह पर बहुतायत में मिलने वाला यौगिक है। सूचना एंव गुण साधारण नाम जल, पानी नीर IUPAC नाम वैकल्पिक नाम एक्वा, डाईहाइड्रोजन मोनो ऑक्साइड, हाइड्रोजन हाइड्रॉक्साइड, (और) अणु सूत्र H2O CAS संख्या 7732-18-5 InChI InChI=1/H2O/h1H2 मोलर द्रव्यमान 18.0153 g/mol घनत्व और रूप 0.998 g/cm³ (द्रव 20°C पर, 1 atm) 0.917 g/cm³ (ठोस 0°C पर, 1 atm) गलनांक 0 °C (273.15 K) (32 °F) क्वथनांक 99.974°C (373.124 K) (211.95°F) विशिष्ठ उष्मा क्षमता 4.184 J/(g·K) (द्रव 20°C पर) 74.539 J/ (mol·K) (द्रव 25°C पर) Supplementary data pageDisclaimer and references जल या पानी एक आम रासायनिक पदार्थ है जिसका अणु दो हाइड्रोजन परमाणु और एक ऑक्सीजन परमाणु से बना है - H2O। यह सारे प्राणियों के जीवन का आधार है। आमतौर पर जल शब्द का प्प्रयोग द्रव अवस्था के लिए उपयोग में लाया जाता है पर यह ठोस अवस्था (बर्फ) और गैसीय अवस्था (भाप या जल वाष्प) में भी पाया जाता है। पानी जल-आत्मीय सतहों पर तरल-क्रिस्टल के रूप में भी पाया जाता है।[1][2] पृथ्वी का लगभग 71% सतह को 1.460 पीटा टन (पीटी) (1021 किलोग्राम) जल से आच्छदित है जो अधिकतर महासागरों और अन्य बड़े जल निकायों का हिस्सा होता है इसके अतिरिक्त, 1.6% भूमिगत जल एक्वीफर और 0.001% जल वाष्प और बादल (इनका गठन हवा में जल के निलंबित ठोस और द्रव कणों से होता है) के रूप में पाया जाता है।[3] खारे जल के महासागरों में पृथ्वी का कुल 97%, हिमनदों और ध्रुवीय बर्फ चोटिओं में 2.4% और अन्य स्रोतों जैसे नदियों, झीलों और तालाबों में 0.6% जल पाया जाता है। पृथ्वी पर जल की एक बहुत छोटी मात्रा, पानी की टंकिओं, जैविक निकायों, विनिर्मित उत्पादों के भीतर और खाद्य भंडार में निहित है। बर्फीली चोटिओं, हिमनद, एक्वीफर या झीलों का जल कई बार धरती पर जीवन के लिए साफ जल उपलब्ध कराता है। जल लगातार एक चक्र में घूमता रहता है जिसे जलचक्र कहते है, इसमे वाष्पीकरण या ट्रांस्पिरेशन, वर्षा और बह कर सागर में पहुॅचना शामिल है। हवा जल वाष्प को स्थल के ऊपर उसी दर से उड़ा ले जाती है जिस गति से यह बहकर सागर में पहँचता है लगभग 36 Tt (1012किलोग्राम) प्रति वर्ष। भूमि पर 107 Tt वर्षा के अलावा, वाष्पीकरण 71 Tt प्रति वर्ष का अतिरिक्त योगदान देता है। साफ और ताजा पेयजल मानवीय और अन्य जीवन के लिए आवश्यक है, लेकिन दुनिया के कई भागों में खासकर विकासशील देशों में भयंकर जलसंकट है और अनुमान है कि 2025 तक विश्व की आधी जनसंख्या इस जलसंकट से दो-चार होगी।.[4] जल विश्व अर्थव्यवस्था में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, क्योंकि यह रासायनिक पदार्थों की एक विस्तृत श्रृंखला के लिए विलायक के रूप में कार्य करता है और औद्योगिक प्रशीतन और परिवहन को सुगम बनाता है। मीठे जल की लगभग 70% मात्रा की खपत कृषि में होती है।[5] पदार्थों में से है जो पृथ्वी पर प्राकृतिक रूप से सभी तीन अवस्थाओं में मिलते हैं। जल पृथ्वी पर कई अलग अलग रूपों में मिलता है: आसमान में जल वाष्प और बादल; समुद्र में समुद्री जल और कभी कभी हिमशैल; पहाड़ों में हिमनद और नदियां ; और तरल रूप में भूमि पर एक्वीफर के रूप में। जल में कई पदार्थों को घोला जा सकता है जो इसे एक अलग स्वाद और गंध प्रदान करते है। वास्तव में, मानव और अन्य जानवरों समय के साथ एक दृष्टि विकसित हो गयी है जिसके माध्यम से वो जल के पीने को योग्यता का मूल्यांकन करने में सक्षम होते हैं और वह बहुत नमकीन या सड़ा हुआ जल नहीं पीते हैं। मनुष्य ठंडे से गुनगुना जल पीना पसंद करते हैं; ठंडे जल में रोगाणुओं की संख्या काफी कम होने की संभावना होती है। शुद्ध पानी H2O स्वाद में फीका होता है जबकि सोते (झरने) के पानी या लवणित जल (मिनरल वाटर) का स्वाद इनमे मिले खनिज लवणों के कारण होता है। सोते (झरने) के पानी या लवणित जल की गुणवत्ता से अभिप्राय इनमे विषैले तत्वों, प्रदूषकों और रोगाणुओं की अनुपस्थिति से होता है। रसायनिक और भौतिक गुण जल एक रसायनिक पदार्थ है जिसका रसायनिक सूत्र H2O है: जल के एक अणु में दो हाइड्रोजन के परमाणु सहसंयोजक बंध के द्वारा एक ऑक्सीजन के परमाणु से जुडे़ रहते हैं। जल के प्रमुख रसायनिक और भौतिक गुण हैं: जल सामान्य तापमान और दबाव में एक फीका, बिना गंध वाला तरल है। जल और बर्फ़ का रंग बहुत ही हल्के नीला होता है, हालांकि जल कम मात्रा में रंगहीन लगता है। बर्फ भी रंगहीन लगती है और जल वाष्प मूलतः एक गैस के रूप में अदृश्य होता है।[6] जल पारदर्शी होता है, इसलिए जलीय पौधे इसमे जीवित रह सकते हैं क्योंकि उन्हे सूर्य की रोशनी मिलती रहती है। केवल शक्तिशाली पराबैंगनी किरणों का ही कुछ हद तक यह अवशोषण कर पाता है। ऑक्सीजन की वैद्युतऋणात्मकता हाइड्रोजन की तुलना में उच्च होती है जो जल को एक ध्रुवीय अणु बनाती है। ऑक्सीजन कुछ ऋणावेशित होती है, जबकि हाइड्रोजन कुछ धनावेशित होती है जो अणु को द्विध्रुवीय बनाती है। प्रत्येक अणु के विभिन्न द्विध्रुवों के बीच पारस्परिक संपर्क एक शुद्ध आकर्षण बल को जन्म देता है जो जल को उच्च पृष्ट तनाव प्रदान करता है। एक अन्य महत्वपूर्ण बल जिसके कारण जल अणु एक दूसरे से चिपक जाते हैं, हाइड्रोजन बंध है।[7] जल का क्वथनांक (और अन्य सभी तरल पदार्थ का भी) सीधे बैरोमीटर का दबाव से संबंधित होता है। उदाहरण के लिए, एवरेस्ट पर्वत के शीर्ष पर, जल 68°C पर उबल जाता है जबकि समुद्रतल पर यह 100°C होता है। इसके विपरीत गहरे समुद्र में भू-उष्मीय छिद्रों के निकट जल का तापमान सैकड़ों डिग्री तक पहुँच सकता है और इसके बावजूद यह द्रवावस्था में रहता है। जल का उच्च पृष्ठ तनाव, जल के अणुओं के बीच कमजोर अंतःक्रियाओं के कारण होता है (वान डर वाल्स बल) क्योंकि यह एक ध्रुवीय अणु है। पृष्ठ तनाव द्वारा उत्पन्न यह आभासी प्रत्यास्था (लोच), केशिका तरंगों को चलाती है। अपनी ध्रुवीय प्रकृति के कारण जल में उच्च आसंजक गुण भी होते है। केशिका क्रिया, जल को गुरुत्वाकर्षण से विपरीत दिशा में एक संकीर्ण नली में चढ़ने को कहते हैं। जल के इस गुण का प्रयोग सभी संवहनी पौधों द्वारा किया जाता है। जल एक बहुत प्रबल विलायक है, जिसे सर्व-विलायक भी कहा जाता है। वो पदार्थ जो जल में भलि भाँति घुल जाते है जैसे लवण, शर्करा, अम्ल, क्षार और कुछ गैसें विशेष रूप से ऑक्सीजन, कार्बन डाइऑक्साइड उन्हे हाइड्रोफिलिक (जल को प्यार करने वाले) कहा जाता है, जबकि दूसरी ओर जो पदार्थ अच्छी तरह से जल के साथ मिश्रण नहीं बना पाते है जैसे वसा और तेल, हाइड्रोफोबिक (जल से डरने वाले) कहलाते हैं। कोशिका के सभी प्रमुख घटक (प्रोटीन, डीएनए और बहुशर्कराइड) भी जल में घुल जाते हैं। शुद्ध जल की विद्युत चालकता कम होती है, लेकिन जब इसमे आयनिक पदार्थ सोडियम क्लोराइड मिला देते है तब यह आश्चर्यजनक रूप से बढ़ जाती है। अमोनिया के अलावा, जल की विशिष्ट उष्मा क्षमता किसी भी अन्य ज्ञात रसायन से अधिक होती है, साथ ही उच्च वाष्पीकरण ऊष्मा (40.65 kJ mol−1) भी होती है, यह दोनों इसके अणुओं के बीच व्यापक हाइड्रोजन बंधों का परिणाम है। जल के यह दो असामान्य गुण इसे तापमान में हुये उतार-चढ़ाव का बफ़रण कर पृथ्वी की जलवायु को नियमित करने पात्रता प्रदान करते हैं। जल का घनत्व अधिकतम 3.98°C पर होता है।[8] जमने पर जल का घनत्व कम हो जाता है और यह इसका आयतन 9% बढ़ जाता है। यह गुण एक असामान्य घटना को जन्म देता जिसके कारण: बर्फ जल के ऊपर तैरती है और जल में रहने वाले जीव आंशिक रूप से जमे हुए एक तालाब के अंदर रह सकते हैं क्योंकि तालाब के तल पर जल का तापमान 4°C के आसपास होता है। जल कई तरल पदार्थ के साथ मिश्रय होता है, जैसे इथेनॉल, सभी अनुपातों में यह एक एकल समरूप तरल बनाता है। दूसरी ओर, जल और तेल अमिश्रय होते हैं और मिलाने परत बनाते है और इन परतों में सबसे ऊपर वाली परत का घनत्व सबसे कम होता है। गैस के रूप में, जल वाष्प पूरी तरह हवा के साथ मिश्रय है। जल अन्य कई विलायकों के साथ एक एज़िओट्रोप बनाता है। जल को हाइड्रोजन और आक्सीजन में विद्युतपघटन द्वारा विभाजित किया जा सकता है। हाइड्रोजन की एक ऑक्साइड के रूप में, जब हाइड्रोजन या हाइड्रोजन-यौगिकों जलते हैं या ऑक्सीजन या ऑक्सीजन-यौगिकों के साथ प्रतिक्रिया करते हैं तब जल का सृजन होता है। जल एक ईंधन नहीं है। यह हाइड्रोजन के दहन का अंतिम उत्पाद है। जल को विद्युतपघटन द्वारा वापस हाइड्रोजन और आक्सीजन में विभाजन करने के लिए आवश्यक ऊर्जा, हाइड्रोजन और ऑक्सीजन को पुनर्संयोजन से उत्सर्जित ऊर्जा से अधिक होती है। वह तत्व जो हाइड्रोजन से अधिक वैद्युतधनात्मक (electropositive) होते हैं जैसे लिथियम, सोडियम, कैल्शियम, पोटेशियम और सीजयम, वो जल से हाइड्रोजन को विस्थापित कर हाइड्रोक्साइड (जलीयऑक्साइड) बनाते हैं। एक ज्वलनशील गैस होने के नाते, हाइड्रोजन का उत्सर्जन खतरनाक होता है और जल की इन वैद्युतधनात्मक तत्वों के साथ प्रतिक्रिया बहुत विस्फोटक होती है। जल संसाधन और इसे भी देखें भारत के जल संसाधन जल का उपयोग जब मानव करता है तो यह उसके लिये संसाधन हो जाता है। दैनिक कार्यों से लेकर कृषि में और विविध उद्द्योगों में जल का उपयोग होता है। जल मानव जीवन के लिये इतना महत्वपूर्ण संसाधन है कि यह मुहावरा ही प्रचलित है कि जल ही जीवन है। जीवन पर प्रभाव जैविक दृष्टिकोण से, पानी में कई विशिष्ट गुण हैं जो जीवन के प्रसार के लिए महत्वपूर्ण हैं। यह कार्बनिक यौगिकों को उन तरीकों पर प्रतिक्रिया देने की अनुमति देता है जो अंततः प्रतिकृति की अनुमति देती है। जीवन के सभी ज्ञात रूप पानी पर निर्भर करते हैं। जल एक विलायक के रूप में दोनों महत्वपूर्ण है जिसमें शरीर के कई विलायकों को भंग किया जाता है और शरीर के भीतर कई चयापचय प्रक्रियाओं का एक अनिवार्य हिस्सा होता है। पानी प्रकाश संश्लेषण और श्वसन के लिए मौलिक है। ऑक्सीजन से पानी के हाइड्रोजन को अलग करने के लिए प्रकाश संश्लेषक कोशिका सूर्य की ऊर्जा का उपयोग करते हैं। हाइड्रोजन CO2 (हवा या पानी से अवशोषित) के साथ मिलाकर ग्लूकोज और ऑक्सीजन को रिलीज करने के लिए जोड़ा जाता है। सभी जीवित कोशिकाओं ने इस तरह के ईंधन का उपयोग किया और सूर्य की ऊर्जा को प्राप्त करने के लिए हाइड्रोजन और कार्बन को ऑक्सीकरण, प्रक्रिया में पानी और CO2 (सेलुलर श्वसन) का उपयोग किया। कृषि पानी का सबसे महत्वपूर्ण उपयोग कृषि में है, जो खाने के उत्पाद में महत्वपूर्ण है| कुछ विकासशील देशों ९०% पानी का उपयोग सिंचाई में होता है [9] और अधिक आर्थिक रूप से विकसित देशों में भी बहुत सारा उत्पाद होता है (जैसे अमरीका में, 30% ताजे मिठे जल का उपयोग सिंचाई के लिए होता है)।[10] पचास साल पहले, आम धारणा यह थी कि पानी एक अनंत संसाधन था। उस समय, धरती पर इंसानों की संख्या आज के संख्या के आधे से भी काम था। लोग भी आज जितने आमिर नहीं थे और खाना, खास तौर पर, मांस कम खाते थे, इसलिए उनके भोजन का उत्पादन करने के लिए कम पानी की जरूरत थी उन्हें पानी की एक तिहाई आवश्यकता हथी जो हम वर्तमान में नदियों से लेते हैं। आज, जल संसाधनों के लिए प्रतिस्पर्धा तीव्र है, जो "पीक पानी" की अवधारणा को जन्म देती है।[11]  इसका कारण यह है कि अब इस ग्रह पर सात अरब लोग हैं, जल-प्यास मांस और सब्जियों की खपत बढ़ रही है, और उद्योग, शहरीकरण और जैव-ईंधन फसलों से पानी की बढ़ती प्रतिस्पर्धा है। भविष्य में, भोजन का उत्पादन करने के लिए और भी ज्यादा पानी की आवश्यकता होगी क्योंकि पृथ्वी की आबादी 2050 तक 9 अरब तक पहुंचने का अनुमान है। [12] कृषि में जल प्रबंधन का मूल्यांकन 2007 में श्रीलंका में अंतर्राष्ट्रीय जल प्रबंधन संस्थान द्वारा किया गया था यह देखने के लिए कि दुनिया के बढ़ती आबादी के लिए भोजन उपलब्ध कराने के लिए पर्याप्त पानी है या नहीं। [13] इसने वैश्विक स्तर पर कृषि के लिए पानी की मौजूदा उपलब्धता का मूल्यांकन किया और पानी की कमी से पीड़ित स्थानों का नक्शा बनाया। यह पाया गया कि दुनिया में 1.2 अरब (बिलियन) से अधिक (कुल जान-संख्या का पांचवां हिस्सा) भौतिक पानी की कमी के क्षेत्र में रहता है , जहां सभी मांगों को पूरा करने के लिए पर्याप्त पानी नहीं है। एक और 1.6 अरब (बिलियन) लोग आर्थिक जल की कमी का सामना कर रहे इलाकों में रहते हैं, जहां पानी में निवेश की कमी या अपर्याप्त मानव क्षमता से अधिकारियों को पानी की मांग को पूरा करना असंभव बना देता है। रिपोर्ट में पाया गया कि भविष्य में आवश्यक भोजन का उत्पादन करना संभव होगा, लेकिन आज के खाद्य उत्पादन और पर्यावरण के रुझान को जारी रखने से दुनिया के कई हिस्सों में संकट पैदा हो जाएगा। वैश्विक जल संकट से बचने के लिए, किसानों को भोजन की बढ़ती मांगों को पूरा करने के लिए उत्पादकता बढ़ाने का प्रयास करना होगा, और उद्योगों और शहरों को पानी अधिक कुशलता से उपयोग करने के तरीकों खोजने होंगे|[14] कपास के उत्पादन के कारण भी पानी की कमी हुई है: १ किलोग्राम कपास - एक जींस पतलून के बराबर - उत्पाद करने के लिए 10.9 मीटर 3 पानी का उपयोग किया जाता है। जबकि कपास का उत्पादन दुनिया क 2.4% पानी ही उपयोग करता है,यह उपयोग उन क्षेत्रों में किया जाता है जो पहले से ही पानी की कमी के जोखिम में हैं। महत्वपूर्ण पर्यावरणीय नुकसान हुआ है, जैसे कि अराल सागर के लापता होना। [15] जल चक्र (वैज्ञानिक रूप से जल विज्ञान चक्र के रूप में जाना जाता है) जल, वायुमंडल, मिट्टी के पानी, सतह के पानी, भूजल और पौधों के बीच जल के निरंतर आदान-प्रदान को दर्शाता है। पानी इन चक्रों में से प्रत्येक के माध्यम से सख्ती से जल चक्र में निम्नलिखित स्थानांतरण प्रक्रियाओं को शामिल करता है: महासागरों और अन्य जल निकायों से हवा में वाष्पीकरण और भूमि के पौधों और जानवरों से हवा में प्रत्यारोपण। वर्षा से, हवा से घनीभूत वायु वाष्प से और पृथ्वी या सागर तक गिरने से। आम तौर पर समुद्र तक पहुंचने वाले देश से बहने वाला पानी महासागरों पर अधिकांश जल वाष्प महासागरों में लौटता है, लेकिन हवाएं समुद्र में जल प्रवाह के रूप में उसी दर पर पानी की वाष्प लेती हैं, प्रति वर्ष लगभग 47 टीटी। भूमि के ऊपर, बाष्पीकरण और संवहन प्रति वर्ष एक और 72 टीटी का योगदान करते हैं। जमीन पर प्रति वर्ष 119 टन प्रति वर्ष की दर से वर्षा होती है, इसमें कई रूप होते हैं: सबसे अधिक बारिश, बर्फ, और ओलों, कोहरे और ओस  से कुछ योगदान के साथ।ओस पानी की छोटी बूंद है जो पानी के वाष्प की एक उच्च घनत्व एक शांत सतह से मिलता है जब गाढ़ा रहे हैं ओस आम तौर पर सुबह में बना रहता है जब तापमान सबसे कम होता है, सूर्योदय से पहले और जब पृथ्वी की सतह का तापमान बढ़ना शुरू हो जाता है। सन्दर्भ इन्हें भी देखें भारी जल कठोर जल आसुत जल शोधित जल (purified water) खनिजरहित जल (demineralised water) खनिज जल (mineral water) पेय जल लवणीय जल (या, खारा जल) बाहरी कड़ियाँ (बच्चों का कोना; केन्द्रीय जल आयोग) श्रेणी:द्रव श्रेणी:अकार्बनिक यौगिक
रासायनिक यौगिक पानी का क्वथनांक कितना होता है?
99.974°C
437
hindi
7f5ed4f73
ईरान की इस्लामिक क्रांति (फ़ारसी: इन्क़लाब-ए-इस्लामी) सन् 1979 में हुई थी जिसके फलस्वरूप ईरान को एक इस्लामिक गणराज्य घोषित कर दिया गया था। इस क्रांति को फ्रांस की राज्यक्रांति और बोल्शेविक क्रांति के बाद विश्व की सबसे महान क्रांति कहा जाता है। इसके कारण पहलवी वंश का अंत हो गया था और अयातोल्लाह ख़ोमैनी ईरान के प्रमुख बने थे।। ईरान का नया शासन एक धर्मतन्त्र है जहाँ सर्वोच्च नेता धार्मिक इमाम (अयातोल्लाह) होता है पर शासन एक निव्राचित राष्ट्रपति चलाता है। ग़ौरतलब है कि ईरान एक शिया बहुल देश है। इस क्रांति के प्रमुख कारणों में ईरान के पहलवी शासकों का पश्चिमी देशों के अनुकरण तथा अनुगमन करने की नीति तथा सरकार के असफल आर्थिक प्रबंध थे। इसके तुरत बाद इराक़ के नए शासक सद्दाम हुसैन ने अपने देश में ईरान समर्थित शिया आन्दोलन भड़कने के डर से ईरान पर आक्रमण कर दिया था जो 8 साल तक चला और अनिर्णीत समाप्त हुआ। पृष्ठभूमि ऐसा कहा जाता है कि सन् 1941 में अंग्रेज़ों तथा रूसियों ने ईरान पर अधिकार कर लिया था - यद्यपि सैनिक तथा लिखित रूप से ऐसा कुछ नहीं हुआ था। रज़ा शाह खुद जर्मन नाज़ियों को समर्थन करने लगा था। मित्र राष्ट्रों को डर था कि यदि वे आगे न आए तो ईरान जर्मनी के साथ चला जाएगा। सैनिक रूप से ईरान बहुत महत्वपूर्ण था क्योंकि यहाँ न सिर्फ़ तेल का भण्डार था बल्कि यह भौगोलिक रूप से एशियाई सोवियत रूस और ब्रिटिश भारत के बीच पड़ता था। आंल - सोवियत खलल के पहले ईरान में किसी भी जर्मन ने सैनिक आतंक नहीं फैलाया था। कॉकेशस (आज का अज़रबैजान, जॉर्जिया और आसपास के क्षेत्र, फ़ारसी में कूह-ए-क़ाफ़) के तेल-क्षेत्रों पर जर्मनी ने 1942 में ही दबाब बनाना आरंभ किया था। हँलांकि रज़ा शाह ने शुरु (1930 के दशक में) में जर्मनों का समर्थन किया था पर बाद में वो जर्मन अधिपत्य की भावी संभावना को देखकर उनके ख़िलाफ़ हो गया था। इधर हिटलर द्वारा रूस पर आक्रमण (जून 1941) कर देने से रूस तथा ब्रिटेन मित्र हो गए थे अतः दोनों ने मिलकर ईरान की सत्ता पर अगस्त 1941 तक अधिपत्य कायम कर लिया। शाह ने एक तरह से यह सब होने दे दिया। लगभग इसी समय इराक़ में ब्रिटिश-विरोधी आन्दोलन हुए। जर्मन सेना उत्तरी अफ्रीका में भी आ गई थी। यूरोप में जर्मनी के कब्जे वाली ज़मीन से रूस-ब्रिटेन का सहयोग होना बन्द हो गया तो उन्हें ईरान एक नए रास्ते के रूप में दिखने लगा और उन्होंने ईरान पर अगस्त 1941 तक अधिकार कर लिया। ईरान के शाह ने पहले तो नाज़ियों के आर्यीकरण पर सहयोगी की भूमिका बताई थी पर बाद में वे नाज़ियों या साम्यवादियों (रूस) के शासन के खिलाफ़ हो गया था अतः उन्होंने ब्रिटेन को सहायक जैसा एक विकल्प चुना। शाह ने अपने पुत्र मोहम्मद रज़ा (फ़ारसी में रीज़ा) को वारिस बनाकर गद्दी छोड़ दी और मित्र राष्ट्र युद्ध के खत्म होने तक ईरान में बने रहे। ईरान में अंग्रेज़ों की उपस्थिति से सम्पूर्ण राष्ट्र अपने को लज्जास्पद दृष्टि से देख रहा था। शर्मावनत राष्ट्र के गुस्से पर था - नए शाह रज़ा का शासन। 1949 में शाह के हत्या की साजिश की गई जो विफल रही। प्रधानमंत्री मोसद्दिक़ को 60 के दशक में सत्तापलट के ज़ुर्म में नज़रकैद की सज़ा सुनाई गई और 1967 में उसकी मृत्यु हो गई। वो एक योग्य व्यक्ति था और उसके इस हश्र के बाद भी लोगों का गुस्सा शाह के खिलाफ़ भड़का। सोवियतों के खिलाफ ईरान में अमेरिकी उपस्थिति 1968 से बढ़ती गई। रुहोल्ला ख़ुमैनी ख़ोमैनी का जन्म सन् 1902 में ख़ुमैन (इस्फ़हान और तेहरान के बीच एक छोटा शहर) में हुआ था। वो सैय्यदों के परिवार से थे जो पैग़म्बर के वंशज माने जाते हैं। उनके बाल्यकाल में ही माता-पिता का वियोग हो गया था और उनकी शिक्षा क़ोम में हुई थी। इसके फ़लस्वरूप उनके मन में उलेमा के प्रति आदर-भाव था जो कि शाह के शासनकाल में कम होता जा रहा था। सन् 1963-64 में वे मोसद्दिक़ के साथ शाह की मुख़ालिफ़त (विरोध) करने वाले प्रमुख नेताओं में से एक हो गए। वर्ग-अन्तर तेल के कारण शहरों (ख़ासकर तेहरान) में जनजीवन विलासिता पूर्ण होता गया और गाँव में ग़रीबी बढ़ती गई। लोगों के शासन से क्षुब्ध होने का यह भी एक कारण था। सन् 1971 में तख्त-ए-जमशैद (पर्सेपोलिस) में प्राचीन ईरान के हख़ामनी शासकों द्वारा स्थापित विश्व के उस समय के सबसे शक्तिशाली साम्राज्य की स्थापना के 2500 वर्ष पूरे होने के उपलक्ष्य में शाह ने एक बड़े सम्मेलन का आयोजन किया ता। इसमें सभी बड़े राष्ट्राध्यक्षों तथा उनके प्रतिनिधियों को निमंत्रित किया गया था और इसमें अपार धनव्यय हुआ था। पर गांवों में फैली गरीबी ने शाह के इस खर्च को दिखावे की हद के रूप में देखा। जनता का रोष बढ़ता चला गया। तेहरान जैसे शहरों में अमेरिकी तथा पश्चिमी पहनावे तथा रिहायश बढ़ गई थी। लोग पश्चिमी वस्त्रों में पेप्सी-कोला पीते हुए दिते थे। दरअसल वहाँ विलासिता इतनी बढ़ गई थी कि उनका रहन-सहन यूरोप के लोगों से कहीं बेहतर हो गया था। सरकार द्वारा निर्वासन मिलने के बाद खुमैनी ने विदेशों से ईरानी जनता को शाह के खिलाफ भड़काना आरंभ किया। क्रांति क्रांति की शुरुआत से पहले ईरान पर शाह रज़ा पहलवी की हुकूमत थी। सत्ता उनके क़रीबी रिश्तेदारों और दोस्तों तक ही सीमित थी। सत्तर के दशक में ईरान में अमीरी और ग़रीबी के बीच की खाई अपनी चरमसीमा पर पहुँच गई। शाह की आर्थिक नीतियों से लोगों का अविश्वास बढ़ने लगा और शाही तौर-तरीक़ों से लोगों की नाराज़गी ने आग में घी का काम किया। विरोध करने वाले दल पैरिस में निर्वासन का जीवन बिता रहे शिया धार्मिक नेता आयतुल्लाह ख़ुमैनी के इर्द-गिर्द जमा होने लगे. सामाजिक और आर्थिक सुधारों का वायदा करते हुए आयतुल्लाह ने पारंपरिक इस्लामी मूल्यों को भी अपनाए जाने की बात कही जो आम ईरानी के दिल की ही आवाज़ थी। सत्तर के दशक के अंत तक पूरे ईरान में बड़े पैमाने पर हिंसा से भरपूर शाह-विरोधी प्रदर्शनों की शुरुआत हो गई। आम हड़तालों का ऐसा सिलसिला शुरू हुआ कि देश भर में अस्थिरता की स्थिति पैदा हो गई और ईरान की अर्थव्यवस्था एक तरह से ठप हो गई। जनवरी 1979 में शाह एक 'लंबी छुट्टी' पर ईरान से बाहर चले गए। ईरान से पलायन से तुरंत पहले शाह ने एक काम यह किया कि प्रधानमंत्री शाहपुर बख़्तियार को अपनी ग़ैरमौजूदगी में देश का संचालन करने के लिए रीजेंसी काउंसिल का अध्यक्ष बना दिया. बख़्तियार ने लगातार बढ़ रहे विरोध का मुक़ाबला करने की ठानी। उन्होंने आयतुल्लाह ख़ुमैनी के एक नई सरकार का गठन करने के इरादे पर रोक लगा दी, वह फिर नहीं लौटे। ईरान भर में ख़ुमैनी के समर्थकों ने शाह की प्रतिमाओं को नेस्तनाबूद कर दिया। पहली फ़रवरी, 1979 को आयतुल्लाह ख़ुमैनी नाटकीय रूप से निर्वासन से वापस लौट आए। तब तक राजनीतिक और सामाजिक अस्थिरता बढ़ चुकी थी। ख़ुमैनी-समर्थक प्रदर्शनकारियों, साम्राज्यवाद के हिमायतियों और पुलिस के बीच गलियों और सड़कों पर मुठभेड़ें एक आम बात हो गई। ग्यारह फ़रवरी को तेहरान की सड़कों पर टैंक नज़र आने लगे और सैन्य तख़्ता पलट की अफ़वाहें तेज़ हो गईं। लेकिन जैसे-जैसे दिन आगे बढ़ा यह साफ़ हो गया कि सेना का सत्ता पर क़ब्ज़ा करने का कोई इरादा नहीं है। क्रांतिकारियों ने तेहरान के मुख्य रेडियो स्टेशन पर धावा बोल दिया और ऐलान किया, "यह ईरानी जनता की क्रांति की आवाज़ है". प्रधानमंत्री बख़्तियार ने इस्तीफ़ा दिया। दो महीने के बाद आयतुल्लाह ख़ुमैनी ने राष्ट्रीय रायशुमारी में भारी कामयाबी हासिल की. उन्होंने एक इस्लामी गणतंत्र का ऐलान कर दिया और उन्हें ज़िंदगी भर के लिए ईरान का राजनीतिक और धार्मिक नेता नियुक्त कर दिया गया। परिणाम 1 फ़रवरी 1979 को खुमैनी एयर फ्रांस के यात्री विमान से तेहरान पहुँचे जहाँ उनका ज़ोरदार स्वागत किया गया। सन्दर्भ श्रेणी:ईरान का इतिहास
ईरानी क्रांति किस वर्ष में शुरू हुई थी?
1979
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अजातशत्रु (लगभग 493 ई. पू.[1]) मगध का एक प्रतापी सम्राट और बिंबिसार का पुत्र जिसने पिता को मारकर राज्य प्राप्त किया। उसने अंग, लिच्छवि, वज्जी, कोसल तथा काशी जनपदों को अपने राज्य में मिलाकर एक विस्तृत साम्राज्य की स्थापना की। अजातशत्रु के समय की सबसे महान घटना बुद्ध का महापरिनिर्वाण थी (483 ई. पू.)। उस घटना के अवसर पर बुद्ध की अस्थि प्राप्त करने के लिए अजात शत्रु ने भी प्रयत्न किया था और अपना अंश प्राप्त कर उसने राजगृह की पहाड़ी पर स्तूप बनवाया। आगे चलकर राजगृह में ही वैभार पर्वत की सप्तपर्णी गुहा से बौद्ध संघ की प्रथम संगीति हुई जिसमें सुत्तपिटक और विनयपिटक का संपादन हुआ। यह कार्य भी इसी नरेश के समय में संपादित हुआ। विस्तार नीति बिंबिसार ने मगध का विस्तार पूर्वी राज्यों में किया था, इसलिए अजातशत्रु ने अपना ध्यान उत्तर और पश्चिम पर केंद्रित किया। उसने कोसल एवं पश्चिम में काशी को अपने राज्य में मिला लिया। वृजी संघ के साथ युद्ध के वर्णन में 'महाशिला कंटक' नाम के हथियार का वर्णन मिलता है जो एक बड़े आकर का यन्त्र था, इसमें बड़े बड़े पत्थरों को उछलकर मार जाता था। इसके अलावा 'रथ मुशल' का भी उपयोग किया गया। 'रथ मुशल' में चाकू और पैने किनारे लगे रहते थे, सारथी के लिए सुरक्षित स्थान होता था, जहाँ बैठकर वह रथ को हांककर शत्रुओं पर हमला करता था।[1] पालि ग्रंथों में अजातशत्रु का नाम अनेक स्थानों पर आया है; क्योंकि वह बुद्ध का समकालीन था और तत्कालीन राजनीति में उसका बड़ा हाथ था।[2] उसका मंत्री वस्सकार कुशल राजनीतिज्ञ था जिसने लिच्छवियों में फूट डालकर साम्राज्य का विस्तार किया था। कोसल के राजा प्रसेनजित को हराकर अजातशत्रु ने राजकुमारी वजिरा से विवाह किया था जिससे काशी जनपद स्वतः यौतुक रूप में उसे प्राप्त हो गया था। इस प्रकार उसकी इस विजिगीषु नीति से मगध शक्तिशाली राष्ट्र बन गया। परंतु पिता की हत्या करने के कारण इतिहास में वह सदा अभिशप्त रहा। प्रसेनजित का राज्य कोसल के राजकुमार विडूडभ ने छीन लिया था। उसके राजत्वकाल में ही विडूडभ ने शाक्य प्रजातंत्र का ध्वंस किया था। मृत्यु 461 ई. पू. में अजातशत्रु की मृत्यु हो गयी, इसके पश्चात अजातशत्रु के वंश के पांच राजाओं ने मगध पर शासन किया। ऐसा विवरण मिलता है के लगभग सभी ने अपने अपने पिता की हत्या की थी। इसिलए इतिहास में इन्हें पितृहन्ता वंश के नाम से भी जाना जाता है। [1] सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ श्रेणी:मगधवंश के राजा श्रेणी:भारत का इतिहास श्रेणी:भारतीय बौद्ध श्रेणी:भारत के शासक श्रेणी:हर्यक राजवंश
सम्राट अजातशत्रु के पिता का क्या नाम था?
बिंबिसार
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Main Page हम साथ साथ हैं 1999 की सूरज बड़जात्या द्वारा निर्देशित और लिखित हिन्दी भाषा की फिल्म है। राजश्री प्रोडक्शन्स द्वारा इसे निर्मित किया गया है। फिल्म में सलमान खान, सैफ अली खान, मोहनीश बहल, तबु, सोनाली बेंद्रे और करिश्मा कपूर मुख्य भूमिकाओं में हैं। जबकि आलोक नाथ, रीमा लागू, नीलम कोठारी और महेश ठाकुर सहायक भूमिका में हैं। यह साल 1999 की सबसे ज्यादा कमाई करने वाली फिल्म बनी।[1] संक्षेप रामकिशन (आलोक नाथ) एक सम्मानित और धनी उद्योगपति हैं। उनका परिवार आधुनिक होते हुए भी परम्परागत एकता तथा परस्पर प्रेम का अनूठा उदाहरण है। उनके तीन बेटे-- विवेक (मोहनीश बहल), प्रेम (सलमान खान), विनोद (सैफ अली खान)-- और एक बेटी-- संगीता (नीलम)-- है। रामकिशन तीनों बेटों और पत्नी ममता (रीमा लागू) के साथ एक भव्य निवास में रहते हैं। विवेक उनकी दिवंगत पहली पत्नी का पुत्र है। उसे उसकी सौतेली माता ममता (रामकिशन की दूसरी पत्नी) ने पाला है। ममता प्रेम, संगीता और विनोद की सगी माता है किन्तु वह विवेक को भी उतना ही प्यार देती है जितना अपनी सन्तानों को। विवेक रामकिशन का व्यापार चलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। बचपन की एक दुर्घटना में वह अपने भाइयों को बचाते हुए एक हाथ से विकलांग हो गया था। इस कारण उसके लिये योग्य वधू मिलने में कठिनाई होती है। संगीता विवाहिता है और ससुराल में रहती है। उसके पति का नाम आनन्द (महेश ठाकुर) और नन्हीं बेटी का नाम राधिका (ज़ोया अफ़रोज़) है। संगीता के ससुराल में आनन्द के ज्येष्ठ भ्राता अनुराग, भाभी ज्योति और दो भतीजे राजू-बबलू भी हैं। रामकिशन और ममता के विवाह की रजत जयन्ती पर एक भव्य समारोह का आयोजन होता है जिसमें परिवार के सभी सदस्य, बन्धु-बान्धव और परिचित लोग सम्मिलित होते हैं। इसमें आदर्श बाबू (राजीव वर्मा) नाम के एक उद्योगपति अपनी इकलौती बेटी साधना (तबु) के साथ आते हैं। विदेश में पली हुई मातृहीना साधना रामकिशन के संयुक्त परिवार की एकता और संस्कारयुक्त जीवन शैली से प्रभावित हो जाती है। अगले ही दिन आदर्श बाबू रामकिशन और ममता के आगे साधना और विवेक के परस्पर विवाह का प्रस्ताव रखते हैं जिसे सहर्ष स्वीकार कर लिया जाता है। विवेक को चिन्ता होती है कि साधना उसकी विकलांगता के साथ पूरा जीवन समझौता नहीं कर पायेगी। किन्तु साधना का अडिग निश्चय विवेक का संशय मिटा देता है। धूमधाम से दोनों का विवाह सम्पन्न हो जाता है। नववधू के स्वागत में एक मनोरंजक कार्यक्रम का आयोजन होता है। इसमें चुलबुला विनोद और पारिवारिक मित्र धर्मराज (सदाशिव अमरापुरकर) की बेटी सपना (करिश्मा कपूर) मिलकर घर के सभी सदस्यों की नकल उतारते हैं। हास-परिहास में विनोद और सपना इस बात का इशारा करते हैं कि शर्मीला प्रेम और पारिवारिक मित्र प्रीतम (सतीश शाह) की बेटी डॉक्टर प्रीति (सोनाली बेंद्रे) मन ही मन एक दूसरे को चाहते हैं। अगले दिन गुरुजनों की सहमति से प्रेम और प्रीति की सगाई हो जाती है। इसके कुछ दिनों बाद विवेक, साधना, प्रेम, प्रीति, संगीता, आनन्द, विनोद, राजू, बबलू और राधिका रामकिशन के पैतृक गांव रामपुर में छुट्टी मनाने जाते हैं। सपना, जो अपने पिता और दादी (शम्मी) के साथ वहीं रहती है, उन सब का स्वागत-सत्कार करती है। हंसी ठिठोली और मौज मस्ती के बीच विनोद और सपना का परस्पर आकर्षण सबके सामने आ जाता है। बहुत उल्लास के साथ उन दोनों की सगाई भी कर दी जाती है। अब रामकिशन यह निर्णय करते हैं कि व्यापार की बागडोर बेटों को सौंप कर वह काम से अवकाश ग्रहण कर लेंगे। वह ज्येष्ठ पुत्र विवेक को 'प्रबंध निदेशक' (मैनेजिंग डायरेक्टर) बनाने की अनौपचारिक घोषणा कर देते हैं। इस बात से सभी खुश होते हैं पर सपना के पिता धर्मराज को यह अच्छा नहीं लगता। वह नहीं चाहते कि उनका भावी दामाद विनोद अपने ज्येष्ठ भ्राता विवेक के आधीन रहे। वह ममता को अपने पक्ष में करने के उद्देश्य से रामकिशन के शहरी निवास पहुंच जाते हैं। तभी एक अप्रत्याशित घटना से सब हतप्रभ रह जाते हैं। आनन्द के ज्येष्ठ भ्राता अनुराग उसे अपने व्यापार और घर से बेदखल कर देते हैं। संगीता, आनन्द और राधिका रामकिशन के घर आ जाते हैं। विवेक उन्हें पुनर्स्थापित करने के लिये बैंगलोर ले जाता है। इसी बीच धर्मराज को ममता से अपनी बात कहने का अवसर मिल जाता है। इसमें ममता की तीन सहेलियां उनका साथ देती हैं। वे सब मिलकर ममता को समझाते हैं कि उसे ऱामकिशन से कहकर घर और व्यापार का तीनों बेटों में बराबर बंटवारा करवा देना चाहिये। यदि ऐसा न हुआ तो बाद में बेटों और बहुओं में तनाव और मतभेद पनपने लगेंगे। वे ममता से यह भी कहते हैं कि सौतेला होने के नाते विवेक अपने छोटे भाइयों के साथ अन्याय करेगा। बेटी-दामाद की विपदा से दुखी ममता अपनी सहेलियों और धर्मदास की बातों में आ जाती है। वह रामकिशन से मांग करती है कि विवेक को सर्वोच्च पद न देकर वह जायदाद का तीनों बेटों में बराबर बंटवारा कर दें। रामकिशन बंटवारे की मांग को ठुकरा देते हैं और अपनी पत्नी को समझाने का प्रयास करते हैं। किन्तु साधना ये बातें सुन लेती है और बैंगलोर से लौटने पर विवेक को सब बता देती है। विवेक तत्काल निर्णय करता है कि वह 'प्रबंध निदेशक' का पद प्रेम को दिलवा देगा और स्वयं साधना के साथ रामपुर में रहेगा, जिससे ममता की आशंका निर्मूल हो जाये। यह सुनकर विनोद भी विवेक और साधना के साथ जाने का निश्चय कर लेता है। तीनों घर से रवाना हो जाते हैं। प्रेम उस समय विदेश में होने के कारण इन बातों से अनभि़ज्ञ रहता है। रामपुर पहुंचने के कुछ समय बाद ही यह ज्ञात होता है कि साधना गर्भवती है। इस बीच प्रेम विदेश से लौट आता है और विवेक को वापस ले जाने का प्रयास करता है। विवेक के मना कर देने पर प्रेम अनिच्छा से 'प्रबंध निदेशक' बन जाता है। परन्तु वह उस पद को ज्येष्ठ भ्राता विवेक की धरोहर और अपने को उनका प्रतिनिधि मान कर चलता है। वह ममता के आगे संकल्प लेता है कि विवेक और साधना का महत्व यथास्थान बना रहेगा और उनके घर लौटने तक वह विवाह भी नहीं करेगा। वह कहता है कि सौतेलापन विवेक के मन में न हो कर स्वयं ममता के मन में है। ममता यह सब सुन कर अवाक् रह जाती है। समय बीतता जाता है। सपना और प्रीति साधना की गर्भावस्था में उसका ध्यान रखती हैं। इस बीच अनुराग को व्यापार में हानि होने लगती है। कारण पूछने पर उसके कर्मचारी बताते हैं कि आनन्द की अनुपस्थिति से ऐसा हो रहा है। घर में संगीता और राधिका के न होने से ज्योति, राजू और बबलू उदास रहते हैं। इसी कारण से राजू और बबलू बीमार हो जाते हैं। तब अनुराग को अपनी भूल का पछतावा होने लगता है। संगीता और आनन्द राधिका को लेकर लौट आते हैं। अनुराग उनसे क्षमा मांगता है और उनका बिखरा परिवार फिर से एक हो जाता है। यह जानकर ममता को भी अपनी गलती पर बहुत पछतावा होता है। वह अपने पति से क्षमाप्रार्थना करती है और विवेक-साधना को घर लाने के लिये रामपुर चल देती है। रामपुर में साधना को एक पुत्र रत्न की प्राप्ति होती है। रामकिशन का परिवार फिर से साथ-साथ आ जाता है। इसके बाद प्रेम-प्रीति और विनोद-सपना विवाह बंधन में बंध जाते हैं। धर्मराज अपनी भूल स्वीकार करते हैं। सबकी शुभकामनाओं के साथ विवेक 'प्रबंध निदेशक' का पद ग्रहण करता है। अंत में यह संकेत मिलता है कि विवेक का विकलांगता-ग्रस्त हाथ भी ठीक होने लगा है। मुख्य कलाकार सलमान ख़ान - प्रेम करिश्मा कपूर - सपना सैफ़ अली ख़ान - विनोद तबु - साधना सोनाली बेंद्रे - डॉक्टर प्रीति मोहनीश बहल - विवेक महेश ठाकुर - आनन्द नीलम - संगीता आलोक नाथ - रामकिशन रीमा लागू - ममता सतीश शाह - प्रीतम सदाशिव अमरापुरकर - धर्मराज शम्मी - दुर्गा मौसी राजीव वर्मा - आदर्श बाबू शक्ति कपूर - अनवर अजीत वाच्छानी - मामा (वकील) हिमानी शिवपुरी - मामी जय श्री टी - ममता की सहेली कुनिका - ममता की सहेली दिलीप धवन - अनुराग शीला शर्मा - ज्योति जतिन कनकिया - डॉक्टर सेन अच्युत पोद्दार - खान साहिब हुमा खान - रेहाना जाकी मुकद्दम - राजू संगीत संगीत रामलक्ष्मण द्वारा दिया गया था, जिन्होंने तीसरी बार सूरज बड़जात्या के साथ मिलकर काम किया था। साउंडट्रैक में सात गाने हैं। इसमें पार्श्ववगायक कुमार सानु (प्रेम के रूप में), कविता कृष्णमूर्ति (प्रीती के रूप में), अलका याज्ञिक (सपना के रूप में), उदित नारायण (विनोद के रूप में), अनुराधा पौडवाल (साधना के रूप में), हरिहरन (विवेक के रूप में) और सोनू निगम (अनवर के रूप में) हैं। हम साथ साथ हैं गीत सूचीNo.TitleगायकLength1."हम साथ साथ हैं"कविता कृष्णमूर्ति, कुमार सानु, अलका याज्ञिक, हरिहरन, अनुराधा पौडवाल, उदित नारायण3:572."ये तो सच है के भगवान है"हरिहरन, प्रतिमा राव, घनश्याम वासवानी, संतोष तिवारी, रविंदर रावल6:333."छोट छोट भाईओं के"कविता कृष्णमूर्ति, उदित नारायण, कुमार सानु4:154."सुनोजी दुल्हन"कविता कृष्णमूर्ति, उदित नारायण, सोनू निगम, रूप कुमार राठोड़, प्रतिमा राव12:115."ए बी सी डी"उदित नारायण, हरिहरन, हेमा सरदेसाई, शंकर महादेवन4:326."म्हारे हिवड़ा"कविता कृष्णमूर्ति, हरिहरन, कुमार सानु, अलका याज्ञिक, उदित नारायण, अनुराधा पौडवाल6:227."मैया यशोदा"कविता कृष्णमूर्ति, अलका याज्ञिक, अनुराधा पौडवाल6:19Total length:42:48 नामांकन और पुरस्कार नामित फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेता पुरस्कार - मोहनीश बहल ज़ी सिने सर्वश्रेष्ठ अभिनेता - सलमान खान सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ at IMDb श्रेणी:1999 में बनी हिन्दी फ़िल्म श्रेणी:राजश्री प्रोडक्शन्स श्रेणी:रामलक्ष्मण द्वारा संगीतबद्ध फिल्में
हम साथ साथ हैं 1999 की फील में सलमान खान के किरदार का नाम क्या था?
प्रेम
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कोशिका संवर्धन एक ऐसी जटिल प्रक्रिया है जिसके द्वारा कोशिकाओं को नियंत्रित परिस्थितियों के तहत विकसित किया जाता है। अभ्यास में, "कोशिका संवर्धन" शब्द का अर्थ उन कोशिका की जुताई से है जिन्हें बहु-कोशिकीय युकैरिओट से उत्पन्न किया गया है, विशेष रूप से पशुओं की कोशिकाओं से. हालांकि, पौधों, कवक और रोगाणु का भी संवर्धन होता है जिसमें शामिल हैं वायरस बैक्टीरिया और प्रोटिस्ट. कोशिका संवर्धन का ऐतिहासिक विकास और विधियां नजदीकी रूप से ऊतक संवर्धन और अंग संवर्धन से अंतर्संबंधित है। पशु कोशिका संवर्धन, मध्य 1900 में एक आम प्रयोगशाला तकनीक बन गई,[1] लेकिन मूल ऊतक स्रोत से अलग की गई सजीव कोशिका पंक्ति को बनाए रखने की अवधारणा का आविष्कार 19वीं सदी में हुआ।[2] इतिहास 19वीं शताब्दी में ब्रिटिश शरीर-क्रिया विज्ञानी सिडनी रिंगर ने सोडियम, पोटेशियम, मैग्नीशियम और कैल्शियम के क्लोराइड युक्त नमक का घोल विकसित किया जो किसी पशु के अलग किये गए ह्रदय की धड़कन को बनाए रखने के लिए उपयुक्त था। 1885 में विल्हेम रॉक्स ने भ्रूण चिकन के एक अंतस्था प्लेट के एक हिस्से को अलग किया और उसे कई दिनों तक गर्म खारे घोल में बनाए रखा और ऊतक संवर्धन के सिद्धांत की स्थापना की। [3] जॉन्स हॉपकिन्स मेडिकल स्कूल और फिर येल विश्वविद्यालय में कार्यरत रॉस ग्रेनविले हैरिसन ने 1907-1910 में किये गए अपने प्रयोगों के परिणाम प्रकाशित किये और ऊतक संवर्धन की पद्धति की स्थापना की। [4] कोशिका संवर्धन तकनीक ने 1940 और 1950 के दशक में काफी प्रगति की और विषाणु विज्ञान के क्षेत्र में अनुसंधान को बढ़ाया. कोशिका संवर्धन में वायरस के विकास ने टीका निर्माण के लिए शुद्ध वायरस को बनाने की अनुमति दी। जोनास सॉल्क द्वारा विकसित पोलियो टीका ऐसा पहला उत्पाद था जिसे कोशिका संवर्धन तकनीकों का उपयोग करते हुए प्रचुर मात्रा में उत्पादित किया गया था। यह टीका जॉन फ्रेंकलिन एंडर्स, थॉमस हकल वेलर और फ्रेडरिक चैपमैन रोबिन्स के कोशिका संवर्धन अनुसंधान से संभव हो पाया, जिन्हें बन्दर के गुर्दे के कोशिका संवर्धन में उस वाइरस को उत्पन्न करने की विधि खोजने के लिए नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया। स्तनधारी कोशिका संवर्धन में अवधारणाएं कोशिकाओं का अलगाव एक्स विवो संवर्धन के लिए कोशिकाओं को ऊतकों से विभिन्न तरीकों से अलग किया जा सकता है। कोशिकाओं को रक्त से आसानी से शुद्ध किया जा सकता है, हालांकि संवर्धन में केवल श्वेत कोशिका विकास करने में सक्षम है। एकल-केन्द्रक कोशिकाओं को कोलैजिनेज़, ट्रिप्सिन, या प्रोनेज़ जैसे एंजाइम के साथ एंजाइमकृत पाचन द्वारा मुलायम ऊतकों से जारी किया जा सकता है, जो बाह्यकोशिका मैट्रिक्स को तोड़ता है। वैकल्पिक रूप से, ऊतक के टुकड़े को विकास माध्यम में रखा जा सकता है और जो कोशिकाएं बढ़ती हैं वे संवर्धन के लिए उपलब्ध होती हैं। इस पद्धति को एक्सप्लांट संवर्धन के रूप में जाना जाता है। जिन कोशिकाओं को एक शरीर से सीधे संवर्धित किया जाता है उसे प्राथमिक कोशिका के रूप में जाना जाता है। ट्यूमर से प्राप्त कुछ अपवाद को छोड़कर, अधिकांश प्राथमिक कोशिका संवर्धन का सीमित जीवन होता है। एक निश्चित संख्या के जनसंख्या दोहरीकरण के बाद (जिसे हेफ्लिक सीमा कहते हैं) कोशिकाएं सेनेसेन्स प्रक्रिया से गुज़रती हैं और उनका विभाजन बंद हो जाता है, जबकि आम तौर पर वे व्यवहार्यता बनाए रखती हैं। एक स्थापित या अमर कोशिका पंक्ति ने असीम रूप से बढ़ने की क्षमता हासिल कर ली है, या तो यादृच्छिक उत्परिवर्तन के माध्यम से या सुविचारित संशोधन से, जैसे कि टेलोमरेज़ जीन की कृत्रिम अभिव्यक्ति. अच्छी तरह से स्थापित ऐसी कई कोशिका पंक्तियां हैं जो विशेष कोशिका प्रकार को दर्शाती हैं। संवर्धन में कोशिकाओं को बनाए रखना कोशिकाओं को सेल इन्क्युबेटर में एक उपयुक्त तापमान और गैस मिश्रण में विकसित और बनाए रखा जाता है (स्तनधारी कोशिकाओं के लिए आमतौर पर, 37°C, 5% CO2). कोशिका संवर्धन की स्थितियां प्रत्येक कोशिका प्रकार के अनुसार व्यापक रूप से भिन्न होती हैं और विशेष प्रकार की कोशिका के लिए भिन्न स्थितियां अभिव्यक्त होने वाले भिन्न फेनोटाइप में फलित हो सकती है। तापमान और गैस मिश्रण के अलावा, संवर्धन प्रणालियों में सबसे अधिक विभिन्न कारक हे विकास का माध्यम. विकास माध्यम के लिए विधि pH, ग्लूकोज संकेन्द्रण, विकास कारकों और अन्य पोषक तत्वों की उपस्थिति में भिन्न हो सकती है। माध्यम के पूरक के लिए प्रयुक्त विकास कारकों को अक्सर पशुओं के रक्त से लिया जाता है जैसे बछड़े के सीरम से. रक्त-व्युत्पन्न इन सामग्रियों की एक जटिलता है वायरस या प्रायन के साथ संवर्धन के संदूषण की क्षमता, विशेष रूप से जैव प्रौद्योगिकी के चिकित्सा अनुप्रयोगों में. वर्तमान अभ्यास के तहत जहां कहीं भी संभव हो इन सामग्रियों के उपयोग को न्यूनतम या समाप्त करना है, लेकिन यह हमेशा पूरा नहीं किया जा सकता है। वैकल्पिक रणनीति में शामिल है ऐसे देशों से रक्त का आयात करना जहां BSE/TSE का न्यूनतम खतरा है, जैसे ऑस्ट्रेलिया और न्यूज़ीलैंड और कोशिका संवर्धन के लिए पूर्ण पशु सीरम की जगह सीरम से निकाले गए शुद्ध पोषक सार का उपयोग.[5] प्लेटिंग घनत्व (संवर्धन माध्यम के प्रति आयतन में सेलों की संख्या) कुछ प्रकार के कोशिका के लिए एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। उदाहरण के लिए, एक कम घनत्व प्लेटिंग ग्रानुलोसा सेल को एस्ट्रोजन उत्पादन के लिए प्रेरित करता है, जबकि एक उच्च प्लेटिंग घनत्व उन्हें थेका लुटिन सेल उत्पन्न करने वाले प्रोजेस्ट्रोन के रूप में प्रदर्शित करता है।[6] कोशिका को निलंबन या अनुबद्ध संवर्धनों में विकसित किया जा सकता है। कुछ कोशिकाएं सतह के साथ बिना संलग्न हुए स्वाभाविक रूप से निलंबन में रहती हैं, जैसे वे कोशिकाएं जो रक्तधारा में मौजूद हैं। कुछ ऐसी कोशिका पंक्ति भी हैं जिन्हें निलंबन संवर्धनों में जीवित रखने के योग्य बनाने के लिए संशोधित किया गया है ताकि उन्हें एक उच्च घनत्व में विकसित किया जा सके जो अनुबद्ध स्थितियों द्वारा अनुमत से अधिक हो। अनुबद्ध कोशिकाओं को एक सतह की आवश्यकता होती है, जैसे ऊतक संवर्धन प्लास्टिक या माइक्रोकैरिअर की, जो आसंजन गुणों को बढ़ाने के लिए बाह्य मैट्रिक्स घटकों से लेपित हो सकती है और विकास और विभेदीकरण के लिए आवश्यक अन्य संकेतों को प्रदान कर सकती है। ठोस ऊतकों से उत्पन्न अधिकांश कोशिकाएं अनुबद्ध हैं। एक अन्य प्रकार का अनुबद्ध संवर्धन है ओर्गेनोटिपिक संवर्धन जिसके तहत कोशिकाओं को द्वि-आयामी संवर्धन डिश के विपरीत एक त्रि-आयामी पर्यावरण में विकसित किया जाता है। यह 3डी संवर्धन प्रणाली जैव-रसायन और शरीर-क्रिया के आधार पर इन विवो ऊतक के अधिक समान हैं, लेकिन कई अन्य कारकों के कारण तकनीकी रूप से इन्हें बनाए रखना चुनौतीपूर्ण है (जैसे विसरण). कोशिका पंक्ति पार-संदूषण कोशिका पंक्ति पार-संदूषण उन वैज्ञानिकों के लिए एक समस्या हो सकते जो संवर्धित कोशिकाओं के साथ काम करते हैं। अध्ययन बताते हैं कि समय की 15-20% के समय में, प्रयोगों में इस्तेमाल कोशिकाओं को गलत पहचाना गया या अन्य कोशिका पंक्ति के साथ दूषित पाया गया।[7][8][9] कोशिका पंक्ति पार-संदूषण के साथ समस्याओं को NCI-60 पैनल वाली पंक्ति से खोजा गया है, जिन्हें ड्रग-स्क्रीनिंग अध्ययन के लिए नियमित रूप से प्रयोग किया जाता हैं।[10][11] प्रमुख कोशिका पंक्ति संग्रह जिसमें शामिल है अमेरिकन टाइप कल्चर कलेक्शन (ATCC) और जर्मन कलेक्शन ऑफ़ माइक्रोऔर्गेनिज़म (DSMZ) को उन शोधकर्ताओं से कोशिका पंक्ति प्रस्तुतियां प्राप्त हुई जिन्हें शोधकर्ताओं द्वारा गलत पहचाना गया।[10][12] ऐसे संदूषण, कोशिका संवर्धन पंक्ति का प्रयोग करने वाले अनुसंधान की गुणवत्ता के लिए एक समस्या पैदा करते हैं और प्रमुख स्रोत अब सभी कोशिका प्रस्तुतियों को सत्यापित कर रहे हैं।[13] ATCC, अपनी कोशिका पंक्ति को प्रमाणित करने के लिए शॉर्ट टेंडम रिपीट (STR) डीएनए फिंगरप्रिंटिंग का उपयोग करता है।[14] कोशिका पंक्ति पार-संदूषण की इस समस्या को ठीक करने के लिए, शोधकर्ताओं को कोशिका पंक्ति की पहचान स्थापित करने के लिए एक प्रारंभिक यात्रा में अपने कोशिका पंक्ति को प्रमाणित करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। प्रमाणीकरण को कोशिका पंक्ति स्टॉक को रोकने से पहले दोहराया जाना चाहिए, हर दो महीने में सक्रिय संवर्धन के दौरान और कोशिका पंक्ति का उपयोग करते हुए उत्पन्न अनुसंधान डेटा के किसी भी प्रकाशन से पहले. कोशिका पंक्ति की पहचान करने के लिए कई विधियां हैं जिसमें शामिल है आइसोइन्जाइम विश्लेषण, मानव लसीकाकोशिका प्रतिजन (HLA) टाइपिंग और STR विश्लेषण.[14] एक महत्वपूर्ण कोशिका पंक्ति पार-संदूषक है अमर हेला (HeLa) सेल लाइन. संवर्धित कोशिकाओं का हेरफेर आम तौर पर कोशिकाएं संवर्धन में विभाजित होना जारी रखती हैं, वे आम तौर पर उपलब्ध क्षेत्र या मात्रा को भरने करने के लिए बढ़ती हैं। यह कई मुद्दों को उत्पन्न कर सकता है: विकास माध्यम में पोषक तत्व रिक्तीकरण एपोप्टोटिक/नेक्रोटिक (मृत) कोशिकाओं का संचय. कोशिका-से-कोशिका का संपर्क, सेल साइकिल अरेस्ट को प्रेरित कर सकता है, जो कोशिका को विभाजित होने से रोकता है जिसे संपर्क निषेध या सेनेसेंस के रूप में जाना जाता है। कोशिका-से-कोशिका का संपर्क, कोशिकीय भिन्नता को प्रोत्साहित करता है। संवर्धन कोशिकाओं पर किये जाने वाले आम जोड़तोड़ में है माध्यम परिवर्तन, पैसेजिंग कोशिका और ट्रांसफेक्टिंग कोशिकाएं. इन्हें आमतौर पर ऊतक संवर्धन तरीकों का उपयोग करते हुए प्रदर्शित किया जाता है जो बांझ तकनीक पर निर्भर होता है। बांझ तकनीक, बैक्टीरिया, खमीर, या अन्य कोशिका पंक्ति के साथ संदूषण से बचने का लक्ष्य रखती है। हेर-फेर को आम तौर पर बायोसेफ्टी हुड या लैमिनर फ्लो कैबिनेट में संपादित किया जाता है ताकि सूक्ष्म-जीवों को बाहर रखा जा सके। एंटीबायोटिक (जैसे पेनिसिलिन और स्ट्रेप्टोमाइसिन) और एंटीफंगल (जैसे एम्फोटेरिसिन B) को भी विकास माध्यम में जोड़ा जा सकता है। जब कोशिका चयापचय प्रक्रियाओं से गुजरती है, एसिड का उत्पादन होता है और pH घट जाता है। अक्सर, एक pH सूचक को माध्यम से जोड़ा जाता है ताकि पोषक तत्व रिक्तीकरण को नापा जा सके। माध्यम बदलाव अनुबद्ध संवर्धनों के मामले में, माध्यम को आकांक्षा द्वारा सीधे हटाया जा सकता है और बदला जा सकता है। पैसेजिंग कोशिकाएं पैसेजिंग (जिसे सबकल्चर या विभाजित कोशिका भी कहा जाता है) में एक नए बर्तन में कोशिकाओं की एक छोटी मात्रा का अंतरण शामिल होता है। कोशिकाओं का, अगर उन्हें नियमित रूप से विभाजित किया जाए तो अधिक लंबे समय के लिए संवर्धन हो सकता है, क्योंकि यह लंबे समय तक कोशिका के उच्च घनत्व से जुड़े सेनेसेंस को दरकिनार करता है। निलंबन संवर्धन को ताज़े माध्यम की एक बड़ी मात्रा में तनुकृत चंद कोशिकाओं वाले संवर्धन की एक छोटी राशि के साथ आसानी से पारण किया जाता है। अनुबद्ध संवर्धन के लिए, कोशिकाओं को पहले अलग करने की जरूरत होती है, इसे आम रूप से ट्रिप्सिन-EDTA के एक मिश्रण के साथ किया जाता है, बहरहाल इस उद्देश्य के लिए अन्य एंजाइम घोल उपलब्ध हैं। पृथक की गई कोशिकाओं की एक छोटी संख्या को फिर एक नए संवर्धन के बीज के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है। ट्रांसफेक्शन और ट्रांसडक्शन कोशिकाओं के जोड़ तोड़ के लिए एक अन्य आम तरीका है अभिकर्मक द्वारा विदेशी डीएनए का परिचय. ऐसा करने के द्वारा अक्सर कोशिका को रूचि के प्रोटीन को व्यक्त करने के लिए प्रेरित किया जाता है। अभी हाल में, आरएनएआई (RNAi) अभिकर्मक को विशेष प्रोटीन/जीन की अभिव्यक्ति को दबाने के लिए एक सुविधाजनक तंत्र के रूप में हासिल किया गया है। डीएनए को वायरस का उपयोग करने वाली कोशिकाओं में सम्मिलित भी किया जा सकता है, ऐसी विधियों में जिसे ट्रांसडक्शन, संक्रमण या ट्रांन्स्फोर्मेशन के रूप में जाना जाता है। कोशिकाओं में डीएनए को डालने के लिए परजीवी एजेंट के रूप में, वायरस अच्छी तरह से अनुकूल होते हैं, क्योंकि यह उनके प्रजनन का सामान्य तरीका है। स्थापित मानव कोशिका पंक्ति कोशिका पंक्ति जो मानव में पैदा होती है, वह जैवनीतिशास्त्र में कुछ विवादास्पद है, क्योंकि वे अपने जनक जीव से अधिक जीवित रह सकते हैं और बाद में उनका इस्तेमाल लाभप्रद चिकित्सा उपचार की खोज में हो सकता है। इस क्षेत्र में अग्रणी फैसले में, कैलिफोर्निया सुप्रीम कोर्ट ने मूर बनाम रीजेन्ट्स ऑफ़ द यूनिवर्सिटी ऑफ़ कैलिफोर्निया यह माना कि मानव रोगियों का उन कोशिका पंक्ति पर कोई संपत्ति अधिकार नहीं है जिसे उनकी सहमति से निकाले गए अंग से लिया गया हो। [15] हाईब्रीडोमाज़ का जनन सामान्य कोशिकाओं को एक अमर कोशिका पंक्ति के साथ मिश्रित करना संभव है। इस विधि का प्रयोग मोनोक्लोनल एंटीबॉडी के उत्पादन के लिए किया जाता है। संक्षेप में, प्रतिरक्षित पशु की एक प्लीहा (या संभवतः रक्त) से अलग किये गए लिम्फोसाईट को अमर माइलोमा कोशिका पंक्ति (बी सेल वंश) के साथ संयुक्त किया जाता है ताकि ऐसा एक हाइब्रिडोमा उत्पन्न हो जिसमें प्राथमिक लिम्फोसाईट की एंटीबॉडी विशिष्टता और माइलोमा की अमरता मौजूद हो। चयनात्मक विकास माध्यम (HA या HAT) को असंयुक्त कोशिकाओं के खिलाफ इस्तेमाल किया जाता है; प्राथमिक लिम्फोसाईट संवर्धन में जल्दी मर जाते हैं और केवल संयुक्त कोशिकाएं जीवित रहती हैं। इन्हें आवश्यक एंटीबॉडी के उत्पादन के लिए जांचा जाता है, आमतौर पर शुरूआत में एक साथ और फिर उसके बाद एकल क्लोनिंग के बाद. ==Applications of cell culture== Mass culture of animal cell lines is fundamental to the manufacture of viral vaccines and other products of biotechnology[16] , such as adjuvants[17] गैर-स्तनपाई कोशिकाओं का संवर्धन पौध कोशिका संवर्धन का तरीका पौधों के कोशिका संवर्धन को आम तौर पर तरल माध्यम में कोशिका निलंबन संवर्धन के रूप में विकसित किया जाता है या ठोस माध्यम में कैलस संवर्धन के रूप में. पौधे की अलग ना की हुई कोशिकाओं और कल्ली के लिए पौध विकास हार्मोन औक्सिन और साइटोकिनिन के लिए उचित संतुलन की आवश्यकता है। बैक्टीरिया और किण्व संवर्धन तरीके बैक्टीरिया और किण्व के लिए, कोशिका की छोटी मात्रा को आमतौर पर एक ठोस समर्थन पर विकसित किया जाता है जिसमें पोषक तत्व निहित होता है, आमतौर पर एक जेल जैसे अगर, जबकि बड़े पैमाने के संवर्धन को एक पोषक तत्व शोरबा में निलंबित कोशिकाओं के साथ उपजाया जाता है। वायरल संवर्धन तरीके वायरस संवर्धन के लिए स्तनधारी, पौधे, कवक या बैक्टीरिया के कोशिका संवर्धन की आवश्यकता होती है जो वाइरस के विकास और बढ़ोतरी के लिए मेजबान के रूप में काम करता है। सम्पूर्ण जंगली प्रकार के वायरस, पुनः संयोजक वायरस या वायरल उत्पादों को ऐसे कोशिका प्रकार में उत्पन्न किया जा सकता है जो सही स्थितियों में उनके प्राकृतिक मेजबान से इतर हों. वायरस की प्रजातियों पर निर्भर करते हुए संक्रमण और वाइरल वर्धन, मेजबान सेल और वाइरल प्लेक के गठन में फलित हो सकता है। आम कोशिका पंक्ति मानव कोशिका पंक्ति राष्ट्रीय कैंसर संस्थान की 60 कैंसर कोशिका पंक्ति ESTDAB डेटाबेस DU145 (प्रोस्टेट कैंसर) Lncap (प्रोस्टेट कैंसर) MCF-7 (स्तन कैंसर) MDA-MB-438 (स्तन कैंसर) PC3 (प्रोस्टेट कैंसर) T47D (स्तन कैंसर) THP-1 (तीव्र मिलोइड रक्ताल्पता) U87 (ग्लियोब्लास्टोमा) SHSY5Y मानव न्यूरोब्लास्टोमा कोशिका, माइलोमा से क्लोन निर्मित Saos-2 कोशिका (हड्डी का कैंसर) प्राइमेट कोशिका पंक्ति वेरो (अफ्रीकी हरा बंदर क्लोरोसेबस गुर्दे की उपकला कोशिका पंक्ति शुरू 1962) चूहा ट्यूमर कोशिका पंक्ति GH3 (पीयूषिका ट्यूमर) PC12 (फिओक्रोमोसाइटोमा) मूषक कोशिका पंक्ति MC3T3 (भ्रूण काल्वेरिअल) पौध कोशिका पंक्ति तम्बाकू BY-2 कोशिका (कोशिका निलंबन संवर्धन के रूप में रखी, वे पौधे के कोशिका के मॉडल प्रणाली हैं) अन्य प्रजातियों की कोशिका पंक्ति जेब्राफिश ZF4 और AB9 कोशिका. मदीन-डर्बी कैनाइन किडनी (MDCK) उपकला कोशिका पंक्ति जेनोपस A6 गुर्दे की उपकला कोशिका. कोशिका पंक्तियों की सूची नोट: यह सूची उपलब्ध कोशिका पंक्ति का एक नमूना है और व्यापक नहीं है यह भी देंखे जैविक अमरता कोशिका संवर्धन ऐसे इलेक्ट्रिक सेल सब्सट्रेट संवेदन प्रतिबाधा दूषित कोशिका पंक्ति की सूची अंग संवर्धन प्लांट टिशू संवर्धन उत्तक संवर्धन सन्दर्भ और नोट , स्वास्थ्य संरक्षण एजेंसी संवर्धन संग्रह (ECACC) मेक्लोइड, आरएएफ एट अल. (1999): व्यापक अंतरप्रजाति मानव ट्यूमर कोशिका पंक्ति का पार संदूषण. इंटरनेशनल जर्नल ऑफ कैंसर 83:555-563. मास्टर, जॉन आर (2002): हेला कोशिका 50 वर्ष: द गुड, द बेड एंड द अग्ली. नेचर रिव्यू कैंसर 2:315-319. बाहरी कड़ियाँ मेड इतिहास. जुलाई 1983, 27 (3): 269-288. (एनसीसीएस), पुणे, भारत; सेल लाइन/हाइब्रिडोमास के लिए राष्ट्रीय रिपोजिटरी - कोशिका संवर्धन परिचय, जिसके विषय हैं प्रयोगशाला स्थापन, मूल कोशिका संवर्धन प्रोटोकॉल और वीडियो प्रशिक्षण सहित सुरक्षा और सड़न रोकनेवाली तकनीक श्रेणी:जैव प्रौद्योगिकी श्रेणी:कोशिका जीवविज्ञान श्रेणी:कोशिका संवर्धन श्रेणी:आण्विक जीव विज्ञान तकनीक श्रेणी:कोशिका पंक्ति श्रेणी:श्रेष्ठ लेख योग्य लेख श्रेणी:गूगल परियोजना
कोशिका संवर्धन का आविष्कार किसने किया?
रॉस ग्रेनविले हैरिसन
1,120
hindi
7dd0e9a02
गुप्त राजवंश या गुप्त वंश प्राचीन भारत के प्रमुख राजवंशों में से एक था। मौर्य वंश के पतन के बाद दीर्घकाल हर्ष तक भारत में राजनीतिक एकता स्थापित नहीं रही। कुषाण एवं सातवाहनों ने राजनीतिक एकता लाने का प्रयास किया। मौर्योत्तर काल के उपरान्त तीसरी शताब्दी इ. में तीन राजवंशो का उदय हुआ जिसमें मध्य भारत में नाग शक्‍ति, दक्षिण में बाकाटक तथा पूर्वी में गुप्त वंश प्रमुख हैं। मौर्य वंश के पतन के पश्चात नष्ट हुई राजनीतिक एकता को पुनस्थापित करने का श्रेय गुप्त वंश को है। गुप्त साम्राज्य की नींव तीसरी शताब्दी के चौथे दशक में तथा उत्थान चौथी शताब्दी की शुरुआत में हुआ। गुप्त वंश का प्रारम्भिक राज्य आधुनिक उत्तर प्रदेश और बिहार में था। साम्राज्य की स्थापना: श्रीगुप्त गुप्‍त सामाज्‍य का उदय तीसरी शताब्‍दी के अन्‍त में प्रयाग के निकट [[[कौशाम्‍बी]] में हुआ था। जिस प्राचीनतम गुप्त राजा के बारे में पता चला है वो है श्रीगुप्त। हालांकि प्रभावती गुप्त के पूना ताम्रपत्र अभिलेख में इसे 'आदिराज' कहकर सम्बोधित किया गया है। श्रीगुप्त ने गया में चीनी यात्रियों के लिए एक मंदिर बनवाया था जिसका उल्लेख चीनी यात्री इत्सिंग ने ५०० वर्षों बाद सन् ६७१ से सन् ६९५ के बीच में किया। पुराणों में ये कहा गया है कि आरंभिक गुप्त राजाओं का साम्राज्य गंगा द्रोणी, प्रयाग, साकेत (अयोध्या) तथा मगध में फैला था। श्रीगुप्त के समय में महाराजा की उपाधि सामन्तों को प्रदान की जाती थी, अतः श्रीगुप्त किसी के अधीन शासक था। प्रसिद्ध इतिहासकार के. पी. जायसवाल के अनुसार श्रीगुप्त भारशिवों के अधीन छोटे से राज्य प्रयाग का शासक था। चीनी यात्री इत्सिंग के अनुसार मगध के मृग शिखावन में एक मन्दिर का निर्माण करवाया था। तथा मन्दिर के व्यय में २४ गाँव को दान दिये थे। घटोत्कच श्रीगुप्त के बाद उसका पुत्र घटोत्कच गद्दी पर बैठा। २८० ई. से 320 ई. तक गुप्त साम्राज्य का शासक बना रहा। इसने भी महाराजा की उपाधि धारण की थी। कही कही इसे पहला गुप्त शासक कहा गया है। चंद्रगुप्त प्रथम सन् ३२० में चन्द्रगुप्त प्रथम अपने पिता घटोत्कच के बाद राजा बना। गुप्त साम्राज्य की समृद्धि का युग यहीं से आरंभ होता है। चन्द्र्गुप्त के सिंहासनारोहण के अवसर पर (319-20 ई.) इसने नवीन सम्वत (गुप्त सम्वत) की स्थापना की। चन्द्रगुप्त गुप्त वंशावली में पहला स्वतन्त्र शासक था। इसने महाराजाधिराज की उपाधि धारण की थी। बाद में लिच्छवि को अपने साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया। इसका शासन काल (३२० ई. से 335 ई. तक) था। पुराणों तथा प्रयाग प्रशस्ति से चन्द्रगुप्त प्रथम के राज्य के विस्तार के विषय में जानकारी मिलती है। चन्द्रगुप्त ने लिच्छवि के सहयोग और समर्थन पाने के लिए उनकी राजकुमारी कुमार देवी के साथ विवाह किया। स्मिथ के अनुसार इस वैवाहिक सम्बन्ध के परिणामस्वरूप चन्द्रगुप्त ने लिच्छवियों का राज्य प्राप्त कर लिया तथा मगध उसके सीमावर्ती क्षेत्र में आ गया। कुमार देवी के साथ विवाह-सम्बन्ध करके चन्द्रगुप्त प्रथम ने वैशाली राज्य प्राप्त किया। चन्द्रगुप्त ने जो सिक्के चलाए उसमें चन्द्रगुप्त और कुमारदेवी के चित्र अंकित होते थे। लिच्छवियों के दूसरे राज्य नेपाल के राज्य को उसके पुत्र समुद्रगुप्त ने मिलाया। हेमचन्द्र राय चौधरी के अनुसार अपने महान पूर्ववर्ती शासक बिम्बिसार की भाँति चन्द्रगुप्त प्रथम ने लिच्छवि राजकुमारी कुमार देवी के साथ विवाह कर द्वितीय मगध साम्राज्य की स्थापना की। उसने विवाह की स्मृति में राजा-रानी प्रकार के सिक्‍कों का चलन करवाया। इस प्रकार स्पष्ट है कि लिच्छवियों के साथ सम्बन्ध स्थापित कर चन्द्रगुप्त प्रथम ने अपने राज्य को राजनैतिक दृष्टि से सुदृढ़ तथा आर्थिक दृष्टि से समृद्ध बना दिया। राय चौधरी के अनुसार चन्द्रगुप्त प्रथम ने कौशाम्बी तथा कौशल के महाराजाओं को जीतकर अपने राज्य में मिलाया तथा साम्राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र में स्थापित की। चन्द्रगुप्त ने महाराजाधिराज की उपाधी प्राप्त की थी। समुद्रगुप्त चन्द्रगुप्त प्रथम के बाद 335 ई. में उसका तथा कुमारदेवी का पुत्र समुद्रगुप्त राजसिंहासन पर बैठा। समुद्रगुप्त का जन्म लिच्छवि राजकुमारी कुमार देवी के गर्भ से हुआ था। सम्पूर्ण प्राचीन भारतीय इतिहास में महानतम शासकों के रूप में वह नामित किया जाता है। इन्हें परक्रमांक कहा गया है। समुद्रगुप्त का शासनकाल राजनैतिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से गुप्त साम्राज्य के उत्कर्ष का काल माना जाता है। इस साम्राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र थी। समुद्रगुप्त ने महाराजाधिराज की उपाधि धारण की। समुद्रगुप्त एक असाधारण सैनिक योग्यता वाला महान विजित सम्राट था। विन्सेट स्मिथ ने इन्हें नेपोलियन की उपाधी दी। उसका सबसे महत्वपूर्ण अभियान दक्षिण की तरफ़ (दक्षिणापथ) था। इसमें उसके बारह विजयों का उल्लेख मिलता है। समुद्रगुप्त एक अच्छा राजा होने के अतिरिक्त एक अच्छा कवि तथा संगीतज्ञ भी था। उसका देहांत 380 ई. में हुआ जिसके बाद उसका पुत्र चन्द्गुप्त द्वितीय जिसे विक्रमादित्य के नाम से भी जाना जात है राजा बना। यह उच्चकोटि का विद्वान तथा विद्या का उदार संरक्षक था। उसे कविराज भी कहा गया है। वह महान संगीतज्ञ था जिसे वीणा वादन का शौक था। इसने प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान वसुबन्धु को अपना मन्त्री नियुक्‍त किया था। हरिषेण समुद्रगुप्त का मन्त्री एवं दरबारी कवि था। हरिषेण द्वारा रचित प्रयाग प्रशस्ति से समुद्रगुप्त के राज्यारोहण, विजय, साम्राज्य विस्तार के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त होती है। काव्यालंकार सूत्र में समुद्रगुप्त का नाम चन्द्रप्रकाश मिलता है। उसने उदार, दानशील, असहायी तथा अनाथों को अपना आश्रय दिया। समुद्रगुप्त एक धर्मनिष्ठ भी था लेकिन वह हिन्दू धर्म मत का पालन करता था। वैदिक धर्म के अनुसार इन्हें धर्म व प्राचीर बन्ध यानी धर्म की प्राचीर कहा गया है। समुद्रगुप्त का साम्राज्य- समुद्रगुप्त ने एक विशाल साम्राज्य का निर्माण किया जो उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में विन्ध्य पर्वत तक तथा पूर्व में बंगाल की खाड़ी से पश्‍चिम में पूर्वी मालवा तक विस्तृत था। कश्मीर, पश्‍चिमी पंजाब, पश्‍चिमी राजपूताना, सिन्ध तथा गुजरात को छोड़कर समस्त उत्तर भारत इसमें सम्मिलित थे। दक्षिणापथ के शासक तथा पश्‍चिमोत्तर भारत की विदेशी शक्‍तियाँ उसकी अधीनता स्वीकार करती थीं। समुद्रगुप्त के काल में सदियों के राजनीतिक विकेन्द्रीकरण तथा विदेशी शक्‍तियों के आधिपत्य के बाद आर्यावर्त पुनः नैतिक, बौद्धिक तथा भौतिक उन्‍नति की चोटी पर जा पहुँचा था। रामगुप्त समुद्रगुप्त के बाद रामगुप्त सम्राट बना, लेकिन इसके राजा बनने में विभिन्‍न विद्वानों में मतभेद है। विभिन्‍न साक्ष्यों के आधार पर पता चलता है कि समुद्रगुप्त के दो पुत्र थे- रामगुप्त तथा चन्द्रगुप्त। रामगुप्त बड़ा होने के कारण पिता की मृत्यु के बाद गद्दी पर बैठा, लेकिन वह निर्बल एवं कायर था। वह शकों द्वारा पराजित हुआ और अत्यन्त अपमानजनक सन्धि कर अपनी पत्‍नी ध्रुवस्वामिनी को शकराज को भेंट में दे दिया था, लेकिन उसका छोटा भाई चन्द्रगुप्त द्वितीय बड़ा ही वीर एवं स्वाभिमानी व्यक्‍ति था। वह छद्‍म भेष में ध्रुवस्वामिनी के वेश में शकराज के पास गया। फलतः रामगुप्त निन्दनीय होता गया। तत्पश्‍चात् ‌चन्द्रगुप्त द्वितीय ने अपने बड़े भाई रामगुप्त की हत्या कर दी। उसकी पत्‍नी से विवाह कर लिया और गुप्त वंश का शासक बन बैठा। चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य चन्द्रगुप्त द्वितीय ३७५ ई. में सिंहासन पर आसीन हुआ। वह समुद्रगुप्त की प्रधान महिषी दत्तदेवी से हुआ था। वह विक्रमादित्य के नाम से इतिहास में प्रसिद्ध हुआ। उसने ३७५ से ४१५ ई. तक (४० वर्ष) शासन किया। चन्द्रगुप्त द्वितीय ने शकों पर अपनी विजय हासिल की जिसके बाद गुप्त साम्राज्य एक शक्तिशाली राज्य बन गया। चन्द्रगुप्त द्वितीय के समय में क्षेत्रीय तथा सांस्कृतिक विस्तार हुआ। हालांकि चन्द्रगुप्त द्वितीय का अन्य नाम देव, देवगुप्त, देवराज, देवश्री आदि हैं। उसने विक्रयांक, विक्रमादित्य, परम भागवत आदि उपाधियाँ धारण की। उसने नागवंश, वाकाटक और कदम्ब राजवंश के साथ वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किये। चन्द्रगुप्त द्वितीय ने नाग राजकुमारी कुबेर नागा के साथ विवाह किया जिससे एक कन्या प्रभावती गुप्त पैदा हुई। वाकाटकों का सहयोग पाने के लिए चन्द्रगुप्त ने अपनी पुत्री प्रभावती गुप्त का विवाह वाकाटक नरेश रूद्रसेन द्वितीय के साथ कर दिया। उसने एसा संभवतः इसलिए किया कि शकों पर आक्रमण करने से पहले दक्कन में उसको समर्थन हासिल हो जाए। उसने प्रभावती गुप्त के सहयोग से गुजरात और काठियावाड़ की विजय प्राप्त की। वाकाटकों और गुप्तों की सम्मिलित शक्‍ति से शकों का उन्मूलन किया। कदम्ब राजवंश का शासन कुंतल (कर्नाटक) में था। चन्द्रगुप्त के पुत्र कुमारगुप्त प्रथम का विवाह कदम्ब वंश में हुआ। शक उस समय गुजरात तथा मालवा के प्रदेशों पर राज कर रहे थे। शकों पर विजय के बाद उसका साम्राज्य न केवल मजबूत बना बल्कि उसका पश्चिमी समुद्र पत्तनों पर अधिपत्य भी स्थापित हुआ। इस विजय के पश्चात उज्जैन गुप्त साम्राज्य की राजधानी बना। विद्वानों को इसमें संदेह है कि चन्द्रगुप्त द्वितीय तथा विक्रमादित्य एक ही व्यक्ति थे। उसके शासनकाल में चीनी बौद्ध यात्री फाहियान ने 399 ईस्वी से 414 ईस्वी तक भारत की यात्रा की। उसने भारत का वर्णन एक सुखी और समृद्ध देश के रूप में किया। चन्द्रगुप्त द्वितीय के शासनकाल को स्वर्ण युग भी कहा गया है। चन्द्रगुप्त एक महान प्रतापी सम्राट था। उसने अपने साम्राज्य का और विस्तार किया। शक विजय- पश्‍चिम में शक क्षत्रप शक्‍तिशाली साम्राज्य था। ये गुप्त राजाओं को हमेशा परेशान करते थे। शक गुजरात के काठियावाड़ तथा पश्‍चिमी मालवा पर राज्य करते थे। ३८९ ई. ४१२ ई. के मध्य चन्द्रगुप्त द्वितीय द्वारा शकों पर आक्रमण कर विजित किया। वाहीक विजय- महाशैली स्तम्भ लेख के अनुसार चन्द्र गुप्त द्वितीय ने सिन्धु के पाँच मुखों को पार कर वाहिकों पर विजय प्राप्त की थी। वाहिकों का समीकरण कुषाणों से किया गया है, पंजाब का वह भाग जो व्यास का निकटवर्ती भाग है। बंगाल विजय- महाशैली स्तम्भ लेख के अनुसार यह ज्ञात होता है कि चन्द्र गुप्त द्वितीय ने बंगाल के शासकों के संघ को परास्त किया था। गणराज्यों पर विजय- पश्‍चिमोत्तर भारत के अनेक गणराज्यों द्वारा समुद्रगुप्त की मृत्यु के पश्‍चात्‌अपनी स्वतन्त्रता घोषित कर दी गई थी। परिणामतः चन्द्रगुप्त द्वितीय द्वारा इन गणरज्यों को पुनः विजित कर गुप्त साम्राज्य में विलीन किया गया। अपनी विजयों के परिणामस्वरूप चन्द्रगुप्त द्वितीय ने एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की। उसका साम्राज्य पश्‍चिम में गुजरात से लेकर पूर्व में बंगाल तक तथा उत्तर में हिमालय की तापघटी से दक्षिण में नर्मदा नदी तक विस्तृत था। चन्द्रगुप्त द्वितीय के शासन काल में उसकी प्रथम राजधानी पाटलिपुत्र और द्वितीय राजधानी उज्जयिनी थी। चन्द्रगुप्त द्वितीय का काल कला-साहित्य का स्वर्ण युग कहा जाता है। उसके दरबार में विद्वानों एवं कलाकारों को आश्रय प्राप्त था। उसके दरबार में नौ रत्‍न थे- कालिदास, धन्वन्तरि, क्षपणक, अमरसिंह, शंकु, बेताल भट्ट, घटकर्पर, वाराहमिहिर, वररुचि, आर्यभट्ट, विशाखदत्त, शूद्रक, ब्रम्हगुप्त, विष्णुशर्मा और भास्कराचार्य उल्लेखनीय थे। ब्रह्मगुप्त ने ब्रह्मसिद्धांत प्रतिपादित किया जिसे बाद में न्यूटन ने गुरुत्वाकर्षण के नाम से प्रतिपादित किया। कुमारगुप्त प्रथम कुमारगुप्त प्रथम, चन्द्रगुप्त द्वितीय की मृत्यु के बाद सन् 412 में सत्तारूढ़ हुआ। अपने दादा समुद्रगुप्त की तरह उसने भी अश्वमेघ यज्ञ के सिक्के जारी किये। कुमारगुप्त ने चालीस वर्षों तक शासन किया। कुमारगुप्त प्रथम (४१२ ई. से ४५५ ई.)- चन्द्रगुप्त द्वितीय के पश्‍चात्‌४१२ ई. में उसका पुत्र कुमारगुप्त प्रथम सिंहासन पर बैठा। वह चन्द्रगुप्त द्वितीय की पत्‍नी ध्रुवदेवी से उत्पन्‍न सबसे बड़ा पुत्र था, जबकि गोविन्दगुप्त उसका छोटा भाई था। यह कुमारगुप्त के बसाठ (वैशाली) का राज्यपाल था। कुमारगुप्त प्रथम का शासन शान्ति और सुव्यवस्था का काल था। साम्राज्य की उन्‍नति के पराकाष्ठा पर था। इसने अपने साम्राज्य का अधिक संगठित और सुशोभित बनाये रखा। गुप्त सेना ने पुष्यमित्रों को बुरी तरह परास्त किया था। कुमारगुप्त ने अपने विशाल साम्राज्य की पूरी तरह रक्षा की जो उत्तर में हिमालय से दक्षिण में नर्मदा तक तथा पूर्व में बंगाल की खाड़ी से लेकर पश्‍चिम में अरब सागर तक विस्तृत था। कुमारगुप्त प्रथम के अभिलेखों या मुद्राओं से ज्ञात होता है कि उसने अनेक उपाधियाँ धारण कीं। उसने महेन्द्र कुमार, श्री महेन्द्र, श्री महेन्द्र सिंह, महेन्द्रा दिव्य आदि उपाधि धारण की थी। मिलरक्द अभिलेख से ज्ञात होता है कि कुमारगुप्त के साम्राज्य में चतुर्दिक सुख एवं शान्ति का वातावरण विद्यमान था। कुमारगुप्त प्रथम स्वयं वैष्णव धर्मानुयायी था, किन्तु उसने धर्म सहिष्णुता की नीति का पालन किया। गुप्त शासकों में सर्वाधिक अभिलेख कुमारगुप्त के ही प्राप्त हुए हैं। उसने अधिकाधिक संक्या में मयूर आकृति की रजत मुद्राएं प्रचलित की थीं। उसी के शासनकाल में नालन्दा विश्‍वविद्यालय की स्थापना की गई थी। कुमारगुप्त प्रथम के शासनकाल की प्रमुख घटनओं का निम्न विवरण है- पुष्यमित्र से युद्ध- भीतरी अभिलेख से ज्ञात होता है कि कुमारगुप्त के शासनकाल के अन्तिम क्षण में शान्ति नहीं थी। इस काल में पुष्यमित्र ने गुप्त साम्राज्य पर आक्रमण किया। इस युद्ध का संचालन कुमारगुप्त के पुत्र स्कन्दगुप्त ने किया था। उसने पुष्यमित्र को युद्ध में परास्त किया। दक्षिणी विजय अभियान- कुछ इतिहास के विद्वानों के मतानुसार कुमारगुप्त ने भी समुद्रगुप्त के समान दक्षिण भारत का विजय अभियान चलाया था, लेकिन सतारा जिले से प्राप्त अभिलेखों से यह स्पष्ट नहीं हो पाता है। अश्‍वमेध यज्ञ- सतारा जिले से प्राप्त १,३९५ मुद्राओं व लेकर पुर से १३ मुद्राओं के सहारे से अश्‍वमेध यज्ञ करने की पुष्टि होती है। स्कन्दगुप्त पुष्यमित्र के आक्रमण के समय ही गुप्त शासक कुमारगुप्त प्रथम की ४५५ ई. में मृत्यु हो गयी थी। उसकी मृत्यु के बाद उसका पुत्र स्कन्दगुप्त सिंहासन पर बैठा। उसने सर्वप्रथम पुष्यमित्र को पराजित किया और उस पर विजय प्राप्त की। हालाँकि सैन्य अभियानों में वो पहले से ही शामिल रहता था। मन्दसौर शिलालेख से ज्ञात होता है कि स्कन्दगुप्त की प्रारम्भिक कठिनाइयों का फायदा उठाते हुए वाकाटक शासक नरेन्द्र सेन ने मालवा पर अधिकार कर लिया परन्तु स्कन्दगुप्त ने वाकाटक शासक नरेन्द्र सेन को पराजित कर दिया। स्कंदगुप्त ने 12 वर्ष तक शासन किया। स्कन्दगुप्त ने विक्रमादित्य, क्रमादित्य आदि उपाधियाँ धारण कीं। कहीय अभिलेख में स्कन्दगुप्त को शक्रोपन कहा गया है। स्कन्दगुप्त का शासन बड़ा उदार था जिसमें प्रजा पूर्णरूपेण सुखी और समृद्ध थी। स्कन्दगुप्त एक अत्यन्त लोकोपकारी शासक था जिसे अपनी प्रजा के सुख-दुःख की निरन्तर चिन्ता बनी रहती थी। जूनागढ़ अभिलेख से पता चलता है कि स्कन्दगुप्त के शासन काल में भारी वर्षा के कारण सुदर्शन झील का बाँध टूट गया था उसने दो माह के भीतर अतुल धन का व्यय करके पत्थरों की जड़ाई द्वारा उस झील के बाँध का पुनर्निर्माण करवा दिया। उसके शासनकाल में संघर्षों की भरमार लगी रही। उसको सबसे अधिक परेशान मध्य एशियाई हूण लोगो ने किया। हूण एक बहुत ही दुर्दांत कबीले थे तथा उनके साम्राज्य से पश्चिम में रोमन साम्राज्य को भी खतरा बना हुआ था। श्वेत हूणों के नाम से पुकारे जाने वाली उनकी एक शाखा ने हिंदुकुश पर्वत को पार करके फ़ारस तथा भारत की ओर रुख किया। उन्होंने पहले गांधार पर कब्जा कर लिया और फिर गुप्त साम्राज्य को चुनौती दी। पर स्कंदगुप्त ने उन्हे करारी शिकस्त दी और हूणों ने अगले 50 वर्षों तक अपने को भारत से दूर रखा। स्कंदगुप्त ने मौर्यकाल में बनी सुदर्शन झील का जीर्णोद्धार भी करवाया। गोविन्दगुप्त स्कन्दगुप्त का छोटा चाचा था, जो मालवा के गवर्नर पद पर नियुक्‍त था। इसने स्कन्दगुप्त के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। स्कन्दगुप्त ने इस विद्रोह का दमन किया। स्कन्दगुप्त राजवंश का आखिरी शक्‍तिशाली सम्राट था। ४६७ ई. उसका निधन हो गया। पतन स्कंदगुप्त की मृत्य सन् 467 में हुई। हंलांकि गुप्त वंश का अस्तित्व इसके 100 वर्षों बाद तक बना रहा पर यह धीरे धीरे कमजोर होता चला गया। स्कन्दगुप्त के बाद इस साम्राज्य में निम्नलिखित प्रमुख राजा हुए: पुरुगुप्त यह कुमारगुप्त का पुत्र था और स्कन्दगुप्त का सौतेला भाई था। स्कन्दगुप्त का कोई अपना पुत्र नहीं था। पुरुगुप्त बुढ़ापा अवस्था में राजसिंहासन पर बैठा था फलतः वह सुचारु रूप से शासन को नहीं चला पाया और साम्राज्य का पतन प्रारम्भ हो गया। कुमारगुप्त द्वितीय पुरुगुप्त का उत्तराधिकारी कुमारगुप्त द्वितीय हुआ। सारनाथ लेख में इसका समय ४४५ ई. अंकित है। बुधगुप्त कुमारगुप्त द्वितीय के बाद बुधगुप्त शासक बना जो नालन्दा से प्राप्त मुहर के अनुसार पुरुगुप्त का पुत्र था। उसकी माँ चन्द्रदेवी था। उसने ४७५ ई. से ४९५ ई. तक शासन किया। ह्वेनसांग के अनुसार वह बौद्ध मत अनुयायी था। उसने नालन्दा बौद्ध महाविहार को काफी धन दिया था। नरसिंहगुप्त बालादित्य बुधगुप्त की मृत्यु के बाद उसका छोटा भाई नरसिंहगुप्त शासक बना। इस समय गुप्त साम्राज्य तीन भागों क्रमशः मगध, मालवा तथा बंगाल में बँट गया। मगध में नरसिंहगुप्त, मालवा में भानुगुप्त, बिहार में तथा बंगाल क्षेत्र में वैन्यगुप्त ने अपना स्वतन्त्र शसन स्थापित किया। नरसिंहगुप्त तीनों में सबसे अधिक शक्‍तिशाली राजा था। हूणों का कुरु एवं अत्याचारी आक्रमण मिहिरकुल को पराजित कर दिया था। नालन्दा मुद्रा लेख में नरसिंहगुप्त को परम भागवत कहा गया है। कुमारगुप्त तृतीय नरसिंहगुप्त के बाद उसका पुत्र कुमारगुप्त तृतीय मगध के सिंहासन पर बैठा। वह २४ वाँ शासक बना। कुमारगुप्त तृतीय गुप्त वंश का अन्तिम शासक था। दामोदरगुप्त कुमरगुप्त के निधन के बाद उसका पुत्र दामोदरगुप्त राजा बना। ईशान वर्मा का पुत्र सर्ववर्मा उसका प्रमुख प्रतिद्वन्दी मौखरि शासक था। सर्ववर्मा ने अपने पिता की पराजय का बदला लेने हेतु युद्ध किया। इस युद्ध में दामोदरगुप्त की हार हुई। यह युद्ध ५८२ ई. के आस-पस हुआ था। महासेनगुप्त दामोदरगुप्त के बाद उसका पुत्र महासेनगुप्त शासक बना था। उसने मौखरि नरेश अवन्ति वर्मा की अधीनता स्वीकार कर ली। महासेनगुप्त ने असम नरेश सुस्थित वर्मन को ब्राह्मण नदी के तट पर पराजित किया। अफसढ़ लेख के अनुसार महासेनगुप्त बहुत पराक्रमी था। देवगुप्त महासेनगुप्त के बाद उसका पुत्र देवगुप्त मलवा का शासक बना। उसके दो सौतेले भाई कुमारगुप्त और माधवगुप्त थे। देवगुप्त ने गौड़ शासक शशांक के सहयोग से कन्‍नौज के मौखरि राज्य पर आक्रमण किया और गृह वर्मा की हत्या कर दी। प्रभाकर वर्धन के बड़े पुत्र राज्यवर्धन ने शीघ्र ही देवगुप्त पर आक्रमण करके उसे मार डाल्श। माधवगुप्त हर्षवर्धन के समय में माधवगुप्त मगध के सामन्त के रूप में शासन करता था। वह हर्ष का घनिष्ठ मित्र और विश्‍वासपात्र था। हर्ष जब शशांक को दण्डित करने हेतु गया तो माधवगुप्त साथ गया था। उसने ६५० ई. तक शासन किया। हर्ष की मृत्यु के उपरान्त उत्तर भारत में अराजकता फैली तो माधवगुप्त ने भी अपने को स्वतन्त्र शासक घोषित किया। गुप्त साम्राज्य का ५५० ई. में पतन हो गया। बुद्धगुप्त के उत्तराधिकारी अयोग्य निकले और हूणों के आक्रमण का सामना नहीं कर सके। हूणों ने सन् 512 में तोरमाण के नेतृत्व में फिर हमला किया और ग्वालियर तथा मालवा तक के एक बड़े क्षेत्र पर अधिपत्य कायम कर लिया। इसके बाद सन् 606 में हर्ष का शासन आने के पहले तक आराजकता छाई रही। हूण ज्यादा समय तक शासन न कर सके। उत्तर गुप्त राजवंश उत्तर गुप्त राजवंश भी देखें गुप्त वंश के पतन के बाद भारतीय राजनीति में विकेन्द्रीकरण एवं अनिश्‍चितता का माहौल उत्पन्‍न हो गया। अनेक स्थानीय सामन्तों एवं शासकों ने साम्राज्य के विस्तृत क्षेत्रों में अलग-अलग छोटे-छोटे राजवंशों की स्थापना कर ली। इसमें एक था- उत्तर गुप्त राजवंश। इस राजवंश ने करीब दो शताब्दियों तक शासन किया। इस वंश के लेखों में चक्रवर्ती गुप्त राजाओं का उल्लेख नहीं है। परवर्ती गुप्त वंश के संस्थापक कृष्णगुप्त ने (५१० ई. ५२१ ई.) स्थापना की। अफसढ़ लेख के अनुसार मगध उसका मूल स्थान था, जबकि विद्वानों ने उनका मूल स्थान मालवा कहा गया है। उसका उत्तराधिकारी हर्षगुप्त हुआ है। उत्तर गुप्त वंश के तीन शासकों ने शासन किया। तीनों शासकों ने मौखरि वंश से मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध कायम रहा। कुमारगुप्त उत्तर गुप्त वंश का चौथा राजा था जो जीवित गुप्त का पुत्र था। यह शासक अत्यन्त शक्‍तिशाली एवं महत्वाकांक्षी था। इसने महाराजाधिराज की उपाधि धारण की। उसका प्रतिद्वन्दी मौखरि नरेश ईशान वर्मा समान रूप से महत्वाकांक्षी शासक था। इस समय प्रयाग में पुण्यार्जन हेतु प्राणान्त करने की प्रथा प्रचलित थी। हांग गांगेय देव जैसे शसकों का अनुसरण करते हुए कुमार गुप्त ने प्रयाग जाकर स्वर्ग प्राप्ति की लालसा से अपने जीवन का त्याग किया। गुप्तकालीन स्थापत्य गुप्त काल में कला, विज्ञान और साहित्य ने अत्यधिक समृद्धि प्राप्त की। इस काल के साथ ही भारत ने मंदिर वास्तुकला एवं मूर्तिकला के उत्कृष्ट काल में प्रवेश किया। शताब्दियों के प्रयास से कला की तकनीकों को संपूर्णता मिली। गुप्त काल के पूर्व मन्दिर स्थायी सामग्रियों से नहीं बनते थे। ईंट एवं पत्थर जैसी स्थायी सामग्रियों पर मंदिरों का निर्माण इसी काल की घटना है। इस काल के प्रमुख मंदिर हैं- तिगवा का विष्णु मंदिर (जबलपुर, मध्य प्रदेश), भूमरा का शिव मंदिर (नागोद, मध्य प्रदेश), नचना कुठार का पार्वती मंदिर (मध्य प्रदेश), देवगढ़ का दशवतार मंदिर (झाँसी, उत्तर प्रदेश) तथा ईंटों से निर्मित भीतरगाँव का लक्ष्मण मंदिर (कानपुर, उत्तर प्रदेश) आदि। गुप्तकालीन मंदिरों की विशेषताएँ गुप्तकालीन मंदिरों को ऊँचे चबूतरों पर बनाया जाता था जिनमें ईंट तथा पत्थर जैसी स्थायी सामग्रियों का प्रयोग किया जाता था। आरंभिक गुप्तकालीन मंदिरों में शिखर नहीं मिलते हैं। इस काल में मदिरों का निर्माण ऊँचे चबूतरे पर किया जाता था जिस पर चढ़ने के लिये चारों ओर से सीढि़याँ बनीं होती थी तथा मन्दिरों की छत सपाट होती थी। मन्दिरों का गर्भगृह बहुत साधारण होता था। गर्भगृह में देवताओं को स्थापित किया जाता था। प्रारंभिक गुप्त मंदिरों में अलंकरण नहीं मिलता है, लेकिन बाद में स्तम्भों, मन्दिर के दीवार के बाहरी भागों, चौखट आदि पर मूर्तियों द्वारा अलंकरण किया गया है। भीतरगाँव (कानपुर) स्थित विष्णु मंदिर नक्काशीदार है। गुप्तकालीन मन्दिरों के प्रवेशद्वार पर मकरवाहिनी गंगा, यमुना, शंख व पद्म की आकृतियाँ बनी हैं। गुप्तकालीन मंदिरकला का सर्वोत्तम उदाहरण देवगढ़ का दशावतार मंदिर है जिसमें गुप्त स्थापत्य कला अपनी परिपक्व अवस्था में है। यह मंदिर सुंदर मूर्तियों, उड़ते हुए पक्षियों, पवित्र वृक्ष, स्वास्तिक एवं फूल-पत्तियों द्वारा अलंकृत है। गुप्तकालीन मंदिरों की विषय-वस्तु रामायण, महाभारत और पुराणों से ली गई है। मुख्य शासक श्रीगुप्त 240-280 घटोट्कच गुप्त 280-319 चन्द्रगुप्त प्रथम 319-350 समुद्रगुप्त 350-375 रामगुप्त 375 चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य 375-415 कुमारगु्प्त १ 415-455 स्कन्दगुप्त 455-467 नरसिंहगुप्त बालादित्य 467-473 कुमारगुप्त २ 473-477 बुद्धगुप्त 477-495 नरसिंहगुप्त 'बालादित्य' 495-530 सन्दर्भ श्रेणी:राजवंश श्रेणी:बिहार का इतिहास श्रेणी:बिहार के राजवंश श्रेणी:भारत के राजवंश
गुप्त वंश के आखरी राजा कौन थे?
कुमारगुप्त तृतीय
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